Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 11 सामाजिक परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.
PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 11 सामाजिक परिवर्तन
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
सामाजिक संबंधों में कई प्रकार के परिवर्तन आते रहते हैं तथा इसे ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन के मूल स्त्रोतों के नाम लिखिए।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन के तीन मूल स्रोत हैं-Innovation, Discovery and Diffusion.
प्रश्न 3.
सामाजिक परिवर्तन की दो विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
- सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापक प्रक्रिया है जो प्रत्येक समाज में आता है।
- सामाजिक परिवर्तन में तुलना आवश्यक है।
प्रश्न 4.
आन्तरिक परिवर्तन क्या है ?
उत्तर-
वह परिवर्तन जो समाज के अन्दर ही विकसित होते हैं, आन्तरिक परिवर्तन होते हैं।
प्रश्न 5.
सामाजिक परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कुछ कारकों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्राकृतिक कारक, विश्वास तथा मूल्य, समाज सुधारक, जनसंख्यात्मक कारक, तकनीकी कारक, शैक्षिक कारक इत्यादि।
प्रश्न 6.
प्रगति क्या है ?
उत्तर-
जब हम अपने किसी ऐच्छिक उद्देश्य की प्राप्ति के रास्ते की तरफ बढ़ते हैं तो इस परिवर्तन को प्रगति कहते हैं।
प्रश्न 7.
नियोजित परिवर्तन के उदाहरण लिखो।
उत्तर-
लोगों को पढ़ाना लिखाना, ट्रेनिंग देना नियोजित परिवर्तन की उदाहरण हैं।
प्रश्न 8.
अनियोजित परिवर्तन के दो उदाहरण लिखो।
उत्तर–
प्राकृतिक आपदा जैसे कि बाढ़, भूकम्प इत्यादि से समाज पूर्णतया बदल जाता है।
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ बताइए।
उत्तर-
जब समाज के अलग-अलग भागों में परिवर्तन आए तथा वह परिवर्तन अगर सभी नहीं तो समाज के अधिकतर लोगों के जीवन को प्रभावित करे तो उसे सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है। इसका अर्थ है कि समाज के लोगों के जीवन जीने के तरीकों में संरचनात्मक परिवर्तन आ जाता है।
प्रश्न 2.
प्रसार (Diffusion) क्या है ?
उत्तर-
प्रसार का अर्थ है किसी वस्तु को बहुत अधिक फैलाना। उदाहरण के लिए जब सांस्कृतिक विचार एक समूह से दूसरे समूह तक फैल जाते हैं तो इसे प्रसार कहा जाता है। सभी समाजों में सामाजिक परिवर्तन आमतौर पर प्रसार के कारण ही आता है।
प्रश्न 3.
उद्भव तथा क्रान्ति को संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
- उद्भव-जब परिवर्तन एक निश्चित दिशा में हो तथा तथ्य के गुणों तथा रचना में परिवर्तन हो तो उसे उद्भव कहते हैं।
- क्रान्ति-वह परिवर्तन जो अचनचेत तथा अचानक हो जाए, क्रान्ति होता है। इससे मौजूदा व्यवस्था खत्म हो जाती है तथा नई व्यवस्था कायम हो जाती है।
प्रश्न 4.
तीन मुख्य तरीकों की सूची बनाएं जिसमें सामाजिक परिवर्तन होता है।
उत्तर-
समाज में तीन मूल चीजों में परिवर्तन से परिवर्तन आता है-
- समूह का व्यवहार
- सामाजिक संरचना
- सांस्कृतिक गुण।
प्रश्न 5.
वह तीन स्त्रोत क्या हैं जिनसे परिवर्तन आता है ?
उत्तर-
- Innovation मौजूदा वस्तुओं की सहायता से कुछ नया तैयार करना Innovation होता है। इसमें मौजूदा तकनीकों का प्रयोग करके नई तकनीक का इजाद किया जाता है।
- Discovery-इसका अर्थ है कुछ नया पहली बार सामने आना या सीखना। इसका अर्थ है कुछ नया इजाद जिसके बारे में हमें कुछ पता नहीं है।
- Diffusion-इसका अर्थ है किसी वस्तु का फैलना। जैसे सांस्कृतिक विचारक समूह से दूसरे तक फैल जाना फैलाव होता है।
प्रश्न 6.
सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन के मध्य संक्षिप्त रूप में अन्तर कीजिए।
उत्तर-
- सामाजिक परिवर्तन चेतन या अचेतन रूप में आ सकता है परन्तु सांस्कृतिक परिवर्तन हमेशा चेतन रूप से आता है।
- सामाजिक परिवर्तन वह परिवर्तन है जो केवल सामाजिक संबंधों में आता है परन्तु सांस्कृतिक परिवर्तन वह परिवर्तन है जो धर्म, विचारों, मूल्यों, विज्ञान इत्यादि में आता है।
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन के मुख्य प्रकार क्या हैं ? संक्षिप्त रूप में इन पर विचार-विमर्श करें।
उत्तर-
उद्विकास, प्रगति, विकास तथा क्रान्ति सामाजिक परिवर्तन के मुख्य प्रकार हैं। जब परिवर्तन आन्तरिक तौर पर क्रमवार, धीरे-धीरे हों तथा सामाजिक संस्थाएं साधारण से जटिल हो जाएं तो वह उद्विकास होता है। जब किसी चीज़ में परिवर्तन आए तथा यह किसी ऐच्छिक दिशा में आए तो इसे विकास कहते हैं। जब लोग किसी निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के रास्ते की तरफ बढ़े तथा उद्देश्य को प्राप्त कर लें तो इसे प्रगति कहते हैं। जब परिवर्तन अचनचेत तथा अचानक आए व मौजूदा व्यवस्था बदल जाए तो इसे क्रान्ति कहते हैं।
प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक परिवर्तन का संक्षिप्त रूप वर्णन करो।
उत्तर-
जनसंख्यात्मक परिवर्तन का भी सामाजिक परिवर्तन पर प्रभाव पड़ता है। सामाजिक संगठन, परम्पराएं, संस्थाएं, प्रथाएं इत्यादि के ऊपर जनसंख्यात्मक कारकों का प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या का घटना-बढ़ना, स्त्री-पुरुष अनुपात में आए परिवर्तन का सामाजिक संबंधों पर प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या में आया परिवर्तन समाज की आर्थिक प्रगति में रुकावट का कारण भी बनता है तथा कई प्रकार की सामाजिक समस्याओं का कारण बनता है। बढ़ रही जनसंख्या, बेरोज़गारी, भुखमरी की स्थिति उत्पन्न करती है जिससे समाज में अशांति, भ्रष्टाचार इत्यादि बढ़ता है।
प्रश्न 3.
सामाजिक परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार चार कारकों को लिखो।
उत्तर-
- प्राकृतिक कारक-प्राकृतिक कारक जैसे कि बाढ़, भूकम्प इत्यादि के कारण समाज में परिवर्तन आ जाता है तथा इसका स्वरूप ही बदल जाता है।
- जनसंख्यात्मक कारक-जनसंख्या के घटने-बढ़ने से स्त्री और पुरुष के अनुपात के घटने-बढ़ने से भी सामाजिक परिवर्तन आ जाता है।
- तकनीकी कारक-समाज में अगर मौजूदा तकनीकों में अगर काफ़ी अधिक परिवर्तन आ जाए तो भी सामाजिक परिवर्तन आ जाता है।
- शिक्षात्मक कारक-जब समाज की अधिकतर जनसंख्या शिक्षा ग्रहण करने लग जाए तो भी सामाजिक परिवर्तन आना शुरू हो जाता है।
प्रश्न 4.
शैक्षिक कारक तथा तकनीकी कारक के मध्य कुछ अंतरों को दर्शाइए।
उत्तर-
- शैक्षिक कारक तकनीकी कारक का कारण बन सकते हैं परन्तु तकनीकी कारकों के कारण शैक्षिक कारक प्रभावित नहीं होता।
- शिक्षा के बढ़ने के साथ जनता का प्रत्येक सदस्य प्रभावित हो सकता है परन्तु तकनीकी कारकों का जनता पर प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता है। (iii) शिक्षा से नियोजित परिवर्तन लाया जा सकता है परन्तु तकनीकी कारकों की वजह से नियोजित तथा अनियोजित परिवर्तन दोनों आ सकते हैं।
IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन को परिभाषित कीजिए । इसकी विशेषताओं पर विस्तृत रूप से विचार विमर्श करें।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ (Meaning of Social Change)-परिवर्तन शब्द एक मूल्य रहित शब्द है। यह हमें अच्छे-बुरे या किसी नियम के बारे में नहीं बताता है। आम भाषा में परिवर्तन वह अन्तर होता है जो किसी वस्तु की वर्तमान स्थिति में व पिछली स्थिति में होता है। जैसे आज किसी के पास पैसा है कल नहीं था। पैसे से उसकी स्थिति में परिवर्तन आया है। परिवर्तन में तुलना अनिवार्य है क्योंकि यदि हमें किसी परिवर्तन को स्पष्ट करना है तो वह तुलना करके स्पष्ट किया जा सकता है। इस तरह सामाजिक परिवर्तन समाज से सम्बन्धित होता है। जब समाज या सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन आता है तो उसको सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।
मानवीय समाज में मिलने वाले प्रत्येक तरह के परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन नहीं होते। सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों में मिलने वाले परिवर्तनों से है। इन सामाजिक सम्बन्धों में हम समाज के भिन्न-भिन्न भागों में पाए गए सम्बन्ध व आपसी क्रियाओं को शामिल करते हैं। परिवर्तन के अर्थ असल में किसी भी चीज़ में उसके पिछले व वर्तमान आकार से तुलना करें तो हमें कुछ अन्तर नज़र आने लगता है। यह पाया गया अन्तर ही सामाजिक परिवर्तन होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन सामाजिक क्रियाओं, आकार, सम्बन्धों, संगठनों आदि में पाए जाने वाले अन्तर से सम्बन्धित होता है। मानव स्वभाव द्वारा ही परिवर्तनशील प्रकृति वाला होता है। इसी कारण कोई समाज स्थिर नहीं रह सकता।
परिभाषाएं (Definitions) –
1. गिलिन व गिलिन (Gillin & Gillin) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन जीवन के प्रचलित तरीकों में पाए गए अन्तर को कहते हैं, चाहे यह परिवर्तन भौगोलिक स्थिति के परिवर्तन से हों या सांस्कृतिक साधनों, जनसंख्या के आकार या विचारधाराओं के परिवर्तन से व चाहे प्रसार द्वारा सम्भव हो सकते हों या समूह में हुई नई खोजों के परिणामस्वरूप हों।”
2. किंगस्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन का अर्थ केवल उन परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन भाव सामाजिक संरचना व कार्यों में होते हैं।”
3. जोंस (Jones) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है जिस को हम सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक तरीकों, सामाजिक अन्तक्रियाओं या सामाजिक संगठन इत्यादि में पाए गए परिवर्तनों के वर्णन करने के लिए हैं।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि सभी समाजशास्त्रियों ने सामाजिक अन्तक्रियाओं, सामाजिक संगठन, सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक प्रक्रियाओं इत्यादि में किसी एक पक्ष में जब कोई भी भिन्नता या अन्तर पैदा होता है तो वह सामाजिक परिवर्तन कहलाता है। इस प्रकार हम यह भी कहते हैं कि प्रत्येक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन नहीं होता। सामाजिक परिवर्तन समाज के सामाजिक सम्बन्धों या संगठनों या क्रियाओं में पाया जाता है।
सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति या विशेषताएँ (Nature or Characteristics of Social Change) –
1. सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापक होता है (Social Change is Universal)—सामाजिक परिवर्तन ऐसा परिवर्तन है जो सभी समाज में पाया जाता है। कोई भी समाज पूरी तरह स्थिर नहीं होता क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम होता है। चाहे कोई समाज आदिम हो या चाहे आधुनिक, परिवर्तन प्रत्येक समाज से सम्बन्धित रहा है। समाज में जनसंख्यात्मक परिवर्तन, अनुसन्धान व खोजों के कारण परिवर्तन, आदर्शों व कद्रों-कीमतों में परिवर्तन हमेशा आते रहते हैं। यह ठीक है कि सामाजिक परिवर्तन की गति प्रत्येक समाज में अलग-अलग होती है परन्तु परिवर्तन हमेशा सर्वव्यापक ही होता है।
2. सामाजिक परिवर्तन में निश्चित भविष्यवाणी नहीं हो सकती (Definite prediction is not possible in Social Change) सामाजिक परिवर्तन में किसी प्रकार की भी निश्चित भविष्यवाणी करनी असम्भव होती है। इसका कारण यह है कि समाज में पाए गए सामाजिक सम्बन्धों में कोई भी निश्चितता नहीं होती। इनमें परिवर्तन होता रहता है। सामाजिक परिवर्तन समुदायक परिवर्तन होता है। इस का अर्थ यह नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन का कोई नियम नहीं होता या हम इसके बारे में कोई अनुमान नहीं लगा सकते। इस का अर्थ सिर्फ इतना है कि कई बार किसी कारण एकदम परिवर्तन हो जाता है जिनके बारे में हमने सोचा भी नहीं होता।
3. सामाजिक परिवर्तन की गति एक समान नहीं होती (Speed of Social Change is not uniform)सामाजिक परिवर्तन चाहे सर्वव्यापक होता है परन्तु उसकी गति भिन्न-भिन्न समाज में भिन्न-भिन्न होती है। किसी समाज में यह बहुत तेजी से पाई जाती है व किसी समाज में इसकी रफतार बहुत धीमी होती है। उदाहरणत: यदि हम प्राचीन समाज व आधुनिक समाज की तुलना करें तो हम क्या देखते हैं कि आधुनिक समाज में इसकी रफ्तार, प्राचीन समाज की तुलना बहुत ही तेज़ होती है।
4. सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक परिवर्तन होता है (Social Change is Community Change)जब भी समाज में हम परिवर्तन अकेले व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के जीवन में देखें तो इस प्रकार का परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन नहीं कहलाता क्योंकि सामाजिक परिवर्तन व्यक्तिगत नहीं होता। यह वह परिवर्तन होता है जो विशाल समुदाय में रहते हुए व्यक्तियों के जीवन जीने के तरीके (Life Patterns) में आता है। इस विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि समाज में जिस परिवर्तन के आने से एक व्यक्ति या कुछ लोग ही परिवर्तित हों तो वह व्यक्तिगत परिवर्तन कहलाता है तथा जिस परिवर्तन के आने से सम्पूर्ण समुदाय प्रभावित हो ऐसे परिवर्तन को ही हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। इसी कारण ही यह व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक होता है।
5. सामाजिक परिवर्तन कई कारणों की अन्तक्रिया के परिणामस्वरूप होता है (Social Change Results from Interactions of number of Factors) सामाजिक परिवर्तन में पाए जाने वाले कारकों में कोई भी एक कारक उत्तरदायी नहीं होता। हमारा समाज उलझी हुई प्रकृति का है। इसके प्रत्येक क्षेत्र में किसी-न-किसी कारण परिवर्तन होता रहता है। साधारणतः हम देखते हैं कि समाज में अधिक प्रगति, तकनीकी क्षेत्र में विकास, वातावरण में परिवर्तन या जनसंख्या इत्यादि में परिवर्तन होता ही रहता है। चाहे यह ठीक है कि एक विशेष कारक का प्रभाव भी परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होता है परन्तु उस अकेले कारक के ऊपर ही दूसरे कारकों का प्रभाव होता है या वह उससे जुड़े होते हैं। वास्तव में सामाजिक प्रकटन में आपसी निर्भरता पाई जाती है।
6. सामाजिक परिवर्तन प्रकृति का नियम होता है (Change is law of nature)-सामाजिक परिवर्तन का पाया जाना प्रकृति का नियम है। यदि हम न भी चाहें परिवर्तन तो भी समाज में होना ही होता है। प्राकृतिक शक्तियां जिन पर हम पूरी तरह नियन्त्रण नहीं रख सकते यह परिवर्तन अपने आप ही ले आती है। मानव स्वभाव द्वारा ही परिवर्तनशील होता है। समाज में परिवर्तन या तो प्राकृतिक शक्तियों से आता है या फिर व्यक्ति के योजनाबद्ध तरीकों के द्वारा। समाज में व्यक्तियों की आवश्यकताएं, इच्छाएँ इत्यादि परिवर्तित होती रहती हैं। हम हमेशा नई वस्तु की इच्छा करते रहते हैं व उसको प्राप्त करने के लिए यत्न करने शुरू कर देते हैं इसलिए व्यक्ति की परिवर्तनशील प्रकृति भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होती है। इस प्रकार जैसे-जैसे व्यक्ति को किसी चीज़ की ज़रूरत पैदा होती है उसी तरह परिवर्तन आना शुरू हो जाता है। इस तरह परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा भी होती है।
7. सामाजिक परिवर्तन की रफ़्तार में एकरूपता नहीं होती (Social Change is not Uniform)-चाहे हम देखते हैं परिवर्तन सब समाजों में पाया जाता है परन्तु इसकी रफ़्तार समाज में एक जैसी नहीं होती। कुछ समाजों में इसकी रफ़्तार बहुत तेज़ होती है व कुछ में बहुत ही धीमी। जो व्यक्ति जिस समाज में रह रहा होता है उसको उस समाज में हो रहे परिवर्तन की जानकारी होती है। पहले परिवर्तन कैसा था व अब इसकी गति किस प्रकार की है। यदि हम आधुनिक समय में नज़र डालें तो भी हम देखते हैं कि परिवर्तन की गति कुछ क्षेत्रों में बहुत तेज़ है व कुछ में बहुत धीमी। जैसे छोटे शहरों में बड़े शहरों की तुलना में परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी पाई गई है।
प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन के स्त्रोतों को विस्तृत रूप में दर्शाइए।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन के स्रोतों के बारे में डब्ल्यू० जी० आगबर्न (W.G. Ogburn) ने विस्तार सहित वर्णन किया है। आगबर्न के अनुसार सामाजिक परिवर्तन मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन स्रोतों में से एक अधिक स्रोतों के अनुसार आता है तथा वे तीन स्रोत हैं
(i) Innovation
(ii) Discovery
(iii) प्रसार Diffusion
(i) Innovation-Innovation का अर्थ है मौजूदा तत्त्वों का प्रयोग करके कुछ नया तैयार करना। उदाहरण के लिए पुरानी कार की तकनीक का प्रयोग करके कार की नई तकनीक तैयार करके उसके तेज़ भागने की तकनीक ढूंढ़ना तथा उसके ईंधन की खपत को कम करने के तरीके ढूंढ़ना। Innovation भौतिक (तकनीकी) भी हो सकती है तथा सामाजिक भी। यह रूप (Form) में कार्य (Function) में, अर्थ (Meaning) अथवा सिद्धान्त (Principle) में भी परिवर्तन हो सकता है। नए आविष्कारों के साथ सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आ जाते हैं जिस कारण सम्पूर्ण समाज ही बदल जाता है।
(ii) Discovery-जब किसी वस्तु को पहली बार ढूंढ़ा जाता है अथवा किसी वस्तु के बारे में पहली बार पता चलता है तो इसे Discovery कहा जाता है। उदाहरण के लिए पहली बार किसी ने कार बनाई होगी अथवा स्कूटर बनाया होगा अथवा किसी वैज्ञानिक ने कोई नया पौधा ढूंढ़ा होगा। इसे हम Discovery का नाम दे सकते हैं। इसका अर्थ है कि वस्तुएं तो संसार में पहले से ही मौजूद हैं परन्तु हमें उनके बारे में कुछ पता नहीं है। इससे संस्कृति में काफ़ी कुछ जुड़ जाता है। चाहे इसे बनाने वाली वस्तुएं पहले ही संसार में मौजूद थीं परन्तु इसके सामने आने के पश्चात् यह हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गईं। परन्तु यह सामाजिक परिवर्तन का कारक उस समय बनता है जब इसे प्रयोग में लाया जाता है न कि जब इसके बारे में पता चलता है। सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्थितियाँ Discovery के सामर्थ्य को बढ़ा या फिर घटा देते हैं।
(iii) प्रसार Diffusion-फैलाव का अर्थ है किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक फैलना। उदाहरण के लिए जब एक समूह के सांस्कृतिक विचार दूसरे समूह तक फैल जाते हैं तो इसे फैलाव कहा जाता है। लगभग सभी समाजों में सामाजिक परिवर्तन फैलाव के कारण आता है। यह समाज के बीच तथा समाजों के बीच कार्य करता है। जब समाजों के बीच संबंध बनते हैं तो फैलाव होता है। यह द्वि-पक्षीय प्रक्रिया है। फैलाव के कारण जब एक संस्कृति के तत्व दूसरे समाज में जाते हैं तो उसमें परिवर्तन आ जाते हैं तथा फिर दूसरी संस्कृति उन्हें अपना लेती है। उदाहरण के लिए इंग्लैंड की अंग्रेज़ी तथा भारतीयों की अंग्रेज़ी में काफी अंतर होता है। जब भारत पर अंग्रेजों का कब्जा था तो ब्रिटिश तत्व भारतीय संस्कृति में मिल गए परन्तु उनके सभी तत्वों को भारतीयों ने नहीं अपनाया था। इस प्रकार फैलाव होते समय तत्वों में परिवर्तन भी आ जाता है।
प्रश्न 3.
सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कारक लिखो।
उत्तर-
1. भौतिक वातावरण (Physical Environment)- भौतिक वातावरण में उन प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तन होते हैं जिन के ऊपर मनुष्यों का कोई नियन्त्रण नहीं होता। इन परिवर्तनों की वजह से मनुष्य के लिए नई दिशाएं पैदा होती हैं जो मनुष्यों की संस्कृति को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। भौगोलिक वातावरण में वह सभी निर्जीव घटनाएं आती हैं जो किसी-न-किसी तरीके से सामाजिक जीवन को प्रभावित करती हैं। मौसम में परिवर्तन जैसे वर्षा, गर्मी, सर्दी ऋतु का बदलना, भूचाल, बिजली का गिरना, टोपोग्राफी सम्बन्धी परिवर्तन जैसे मिट्टी में खनिज पदार्थों का होना, नहरों का होना, चट्टानों का होना इत्यादि गहरे रूप से सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं। भौतिक परिवर्तन व्यक्ति के शरीर की कार्य करने की योग्यता को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार गर्मी तथा सर्दी के दिनों में अलग-अलग होता है। मौसम के बदलने से शरीर के कार्य करने के तरीके में फर्क पड़ता है। सर्दी में लोग तेज़ी से कार्य करते हैं। गर्मी में लोगों को ज़्यादा गुस्सा आता है।
व्यक्ति उन भौगोलिक हालातों में रहना पसन्द करते हैं जहां जीवन आसानी से व्यतीत हो सके। व्यक्ति वहां रहना पसंद नहीं करता जहां प्राकृतिक आपदाएं जैसे कि बाढ़, भूकम्प इत्यादि हमेशा आते रहते हों। इसके विपरीत व्यक्ति वहां रहने लगते हैं जहां जीवन जीने की सभी सुविधाएं उपलब्ध हों। भौगोलिक वातावरण में परिवर्तनों के कारण जनसंख्या का सन्तुलन बिगड़ जाता है जिस कारण कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं। भौगोलिक वातावरण संस्कृति को भी प्रभावित करता है। जहां भूमि उपजाऊ होगी, वहां लोग ज्यादातर कृषि करेंगे तथा समुद्र के नजदीक रहने वाले लोग मछलियां पकड़ेंगे।
2. जैविक कारक (Biological Factor)-कई समाज शास्त्रियों के अनुसार जीव वैज्ञानिक कारक सामाजिक परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण कारक है। जीव वैज्ञानिक कारक सामाजिक परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण कारक है। जैविक कारक का अर्थ है जनसंख्या के वह गुणात्मक पक्ष जो वंश परम्परा (Heredity) के कारण पैदा होते हैं। जैसे मनुष्य का लिंग जन्म के समय ही निश्चित हो जाता है तथा इस आधार पर ही आदमी तथा औरतों के बीच अलग-अलग शारीरिक अन्तर मिलते हैं। इस अन्तर के कारण उनका सामाजिक व्यवहार भी अलग होता है। औरतें घर को संभालती हैं, बच्चे पालती हैं जबकि आदमी पैसे कमाने का कार्य करता है। यदि किसी समाज में आदमी तथा औरतों में समान अनुपात नहीं होता तो कई सामाजिक मुश्किलें पैदा हो जाती हैं।
शारीरिक लक्षण पैतृकता द्वारा निश्चित होते हैं तथा यह लक्षण समानता तथा अन्तरों को पैदा करते हैं जैसे कोई गोरा है या काला है। अमेरिका में यह गोरे-काले का अन्तर ईर्ष्या का कारण होता है। गोरी स्त्री को सुन्दर समझते हैं तथा काली स्त्री को वह सम्मान नहीं मिलता जो गोरी स्त्री को मिलता है। व्यक्ति का स्वभाव भी पैतृकता के लक्षणों से सम्बन्धित होता है। बच्चे का स्वभाव माता-पिता के स्वभाव के अनुसार होता है। व्यक्तियों में ज्यादा या कम गुस्सा होता है। ग्रन्थियों में दोष व्यक्तियों में सन्तुलन स्थापित करने नहीं देता। पैतृकता तथा बुद्धि का सम्बन्ध भी माना जाता है। मनुष्य का स्वभाव तथा दिमाग सामाजिक जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मनुष्य को विरासत में मिले गुण उसके व्यक्तिगत गुणों को निर्धारित करते हैं। यह गुण मनुष्य की अन्तक्रियाओं को प्रभावित करते हैं। अन्तक्रियाओं के कारण मानवीय सम्बन्ध पैदा होते हैं जिन के आधार पर सामाजिक व्यवस्था तथा संरचना निर्धारित होती है। यदि इनमें कोई परिवर्तन होता है तो वह सामाजिक परिवर्तन होता है।
3. जनसंख्यात्मक कारक (Demographic Factor)-जनसंख्या की बनावट आकार, वितरण इत्यादि भी सामाजिक संगठन पर प्रभाव डालते हैं। जिन देशों की जनसंख्या ज्यादा होती है वहां कई प्रकार की सामाजिक समस्याएं जैसे कि निर्धनता, अनपढ़ता, बेरोज़गारी, निम्न जीवन स्तर इत्यादि पैदा हो जाती हैं। जैसे भारत तथा चीन में ज़्यादा जनसंख्या के कारण कई प्रकार की समस्याएं तथा निम्न जीवन स्तर पाया जाता है। वह देश जहां जनसंख्या कम है-जैसे कि ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि में कम समस्याएं तथा उच्च जीवन स्तर है। जिन देशों की जनसंख्या ज़्यादा होती है वहां जन्म दर कम करने की कई प्रथाएं प्रचलित होती हैं। जैसे भारत में परिवार नियोजन का प्रचार किया जा रहा है। परिवार नियोजन के कारण छोटे परिवार सामने आते हैं तथा छोटे परिवारों के कारण सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन आ जाते हैं।
जिन देशों में जनसंख्या कम होती है वहां अलग प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते हैं। वहां औरतों की स्थिति उच्च होती है तथा परिवार नियोजन की कोई धारणा नहीं होती है। संक्षेप में, जनसंख्या के आकार के कारण लोगों के बीच की अन्तक्रिया के प्रतिमानों में निश्चित रूप से परिवर्तन आ जाता है।
इस तरह जनसंख्या की बनावट के कारण भी परिवर्तन आ जाते हैं। जनसंख्या की बनावट में आम उम्र विभाजन, जनसंख्या का क्षेत्रीय विभाजन, लिंग अनुपात, नस्ली बनावट, ग्रामीण शहरी अनुपात, तकनीकी स्तर पर जनसंख्या का अनुपात, आवास-प्रवास के कारण परिवर्तन पाया जाता है। जनसंख्या के यह गुण सामाजिक संरचना पर बहुत प्रभाव डालते हैं तथा इन तथ्यों को ध्यान में रखे बिना कोई समस्या हल नहीं हो सकती। जैसे बूढ़ों की अपेक्षा जवान परिवर्तन को जल्दी स्वीकार करते हैं तथा ज्यादा उत्साह दिखाते हैं।
4. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors) संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक हिस्से में परिवर्तन सामाजिक सम्बन्धों पर गहरा प्रभाव डालते हैं। परिवार नियोजन की धारणा ने पारिवारिक संस्था पर प्रभाव डाला है। कम बच्चों के कारण उनकी अच्छी देखभाल, उच्च शिक्षा तथा उच्च व्यक्तित्व का विकास होता है। सांस्कृतिक कारणों के कारण सामाजिक परिवर्तन की दिशा भी निश्चित हो जाती है। यह न सिर्फ सामाजिक परिवर्तन की दिशा निश्चित करती है बल्कि गति प्रदान करके उसकी सीमा भी निर्धारित करती है।
5. तकनीकी कारक (Technological Factor)–चाहे तकनीकी कारक संस्कृति के भौतिक हिस्से के अंग हैं परन्तु इसका अपना ही बहुत ज्यादा महत्त्व है। सामाजिक परिवर्तन में तकनीकी कारक बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। तकनीक हमारे समाज को परिवर्तित कर देती है। यह परिवर्तन चाहे भौतिक वातावरण में होता है परन्तु इससे समाज की प्रथाओं, परम्पराओं, संस्थाओं में परिवर्तन आ जाता है। बिजली से चलने वाले यन्त्रों, संचार के साधनों, रोज़ाना जीवन में प्रयोग होने वाली मशीनों ने हमारे जीवन तथा समाज को बदल कर रख दिया है। मशीनों के आविष्कार से उत्पादन बड़े पैमाने पर शुरू हुआ, श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण बढ़ गया। शहरों का तेजी से विकास हुआ, जीवन स्तर उच्च हुआ, उद्योग बढ़े परन्तु झगड़े, बीमारियां, दुर्घटनाएं बढ़ीं, गांव शहरों तथा कस्बों में बदलने लग गए, धर्म का प्रभाव कम हुआ, संघर्ष बढ़ गया। इस जैसे कुछ सामाजिक जीवन के पक्ष हैं जिन पर तकनीक का बहुत असर हुआ। आजकल के समय में तकनीकी कारक सामाजिक परिवर्तन का बहुत बड़ा कारक
6. विचारात्मक कारक (Ideological Factor)-इन कारकों के अतिरिक्त अलग-अलग विचारधाराओं का आगे आना भी परिवर्तन का कारण बनता है। उदाहरणत: परिवार की संस्था में परिवर्तन, दहेज प्रथा का आगे आना, औरतों की शिक्षा का बढ़ना, जाति प्रथा का प्रभाव कम होना, लैंगिक सम्बन्धों में परिवर्तन आने से सामाजिक परिवर्तन आए हैं। नई विचारधाराओं के कारण व्यक्तिगत सम्बन्धों तथा सामाजिक सम्बन्धों में बहुत परिवर्तन आए संक्षेप में, नए विचार तथा सिद्धान्त, आविष्कारों तथा आर्थिक दशाओं को प्रभावित करते हैं। वह सीधे रूप से प्राचीन परम्पराओं, विश्वासों, व्यवहारों, आदर्शों के विरुद्ध खड़े होते हैं। वास्तव में समाज में क्रान्ति ही नई विचारधारा लेकर आती है।
प्रश्न 4.
सामाजिक परिवर्तन से आपका क्या अर्थ है ? सामाजिक परिवर्तन का जनसंख्यात्मक कारक बताओ।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ-देखें पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न IV (1)
जनसंख्यात्मक कारक (Demographic Factor)-यदि हम समाज को ध्यान से देखें तो हम देखते हैं कि जनसंख्या हमारे समाज में सदैव कम या अधिक होती रहती है। समाज में बहुत-सी समस्याओं का सम्बन्ध जनसंख्या से ही सम्बन्धित होता है। यदि हम 19वीं शताब्दी की तरफ नजर डालें तो हम देखते हैं कि जनसंख्यात्मक कारक काफी सीमा तक सामाजिक परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं। जनसंख्यात्मक कारकों का प्रभाव केवल भारत देश के साथ ही सम्बन्धित नहीं रहा बल्कि इसका प्रभाव प्रत्येक देश में रहा है। यह ठीक है कि हमारे भारत देश में बढ़ती हुई जनसंख्या कई प्रकार की समस्याएं पैदा कर रही है जैसे आर्थिक दृष्टिकोण से देश को कमज़ोर करना। सामाजिक बुराइयां पैदा करना इत्यादि। परन्तु इसका प्रभाव भिन्न-भिन्न देशों में अलग-अलग रहा है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जनसंख्यात्मक कारक हमारे सामाजिक ढांचे, संगठनों, कार्यों, क्रियाओं, आदर्शों इत्यादि में काफ़ी परिवर्तन लाता है। सामाजिक परिवर्तन इसके साथ सम्बन्धित रहता है। जनसंख्यात्मक कारकों के बारे में विचार पेश करने से पहले हमारे लिए यह समझना आवश्यक हो जाता है कि जनसंख्यात्मक कारकों का क्या अर्थ है।
जनसंख्यात्मक कारकों का अर्थ (Meaning of Demographic Factors)-जनसंख्यात्मक कारकों का सम्बन्ध जनसंख्या के कम या अधिक होने से होता है अर्थात् इसमें हम जनसंख्या का आकार, घनत्व और विभाजन इत्यादि को शामिल करते हैं। जनसंख्यात्मक कारक सामाजिक परिवर्तन का एक ऐसा कारक है जो हमारे समाज के ऊपर सीधा प्रभाव डालता है। किसी भी समाज का अमीर या ग़रीब होना भी जनसंख्यात्मक कारकों के ऊपर निर्भर करता है अर्थात् जिन देशों की जनसंख्या अधिक होती है उन देशों के लोगों का जीवन स्तर निम्न होता है और जिन देशों की जनसंख्या कम होती है, उन समाजों या देशों में लोगों के रहने-सहने का स्तर काफ़ी ऊंचा होता है। उदाहरणत: हम देखते हैं कि भारत व चीन जैसे देशों की जनसंख्या अधिक होने के कारण दिन-प्रतिदिन समस्याएं बढ़ती रहती हैं। दूसरी तरफ़ ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका आदि देशों की जनसंख्या कम होने की वजह से वहां के लोगों का रहन-सहन व जीवन स्तर काफ़ी ऊंचा होता है। इस प्रकार उपरोक्त दोनों उदाहरणों से हम कह सकते हैं कि जनसंख्या का हमारे समाज में सामाजिक परिवर्तन के लिये बहुत बड़ा हाथ होता है।
जनसंख्यात्मक कारकों के बीच जन्म दर और मृत्यु दर बढ़ने एवं कम होने का प्रभाव भी हमारे समाज के ऊपर पड़ता है। उपरोक्त विवरण से हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि समाज में कई प्रकार के परिवर्तन केवल जनसंख्या के बढ़ने व कमी से ही सम्बन्धित होते हैं। किसी भी देश की बढ़ती जनसंख्या उसके लिये कई प्रकार की समस्याएं खड़ी कर देती है।
अब हम यह देखेंगे कि जनसंख्यात्मक कारक कैसे हमारे समाज के बीच सामाजिक परिवर्तन लाने के लिये ज़िम्मेदार होता है। सर्वप्रथम हम वह प्रभाव देखेंगे जो जनसंख्या की वृद्धि की वजह से पाये जाते हैं अर्थात् जन्म दर की वृद्धि के साथ पाये जाने वाले प्रभाव। इस प्रकार हम अब यह वर्णन करेंगे कि जनसंख्यात्मक कारण हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करते हैं ?
1.ग़रीबी (Poverty) तेजी के साथ बढ़ती हुई जनसंख्या लोगों को उनकी रोजाना की रोटी की आवश्यकताओं को पूरा करने से भी बाधित कर देती है। मालथस के सिद्धान्त के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि रेखा गणित के अनुसार होती है अर्थात् 6×6 = 36 परन्तु आर्थिक स्त्रोतों के उत्पादन में वृद्धि अंक गणित की तरह ही होती है अर्थात् 6 + 6 = 12 । कहने का अर्थ यह है कि यदि देश में 36 व्यक्ति अनाज खाने वाले होते हैं तो उत्पादन केवल 12 व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। इस कारण ही ग़रीबी या भूखमरी की समस्याओं में वृद्धि होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आर्थिक स्रोतों में विकास काफ़ी मन्द गति के साथ होता है और जब भी जन्म दर में वृद्धि होगी तो उसका सीधा प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर ही पड़ता है।
2. पैतृक व्यवसाय या कृषि (Hereditary occupation of Agriculture)-भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की अधिकतर जनसंख्या कृषि व्यवसाय से ही सम्बन्धित है अर्थात् कृषि व्यवसाय केवल एक व्यक्ति से सम्बन्धित न होकर बहुत सारे व्यक्तियों से मिल-जुल कर होने वाला व्यवसाय है। इस कारण बच्चों की अधिक संख्या भी आवश्यक हो जाती है क्योंकि यदि परिवार बड़ा होगा तो ही कृषि सम्भव है।
3. अनपढ़ता (Illiteracy)-भारतवर्ष में अनपढ़ता भी जनसंख्या वृद्धि का एक बड़ा कारण है। यहां की अधिकतर जनसंख्या अनपढ़ ही है। अनपढ़ लोग कुछ अंधविश्वासों में अधिक फंस जाते हैं जैसे पुत्र का होना आवश्यक समझना, बच्चे परमात्मा की देन इत्यादि या फिर उनमें छोटे परिवार प्रति चेतनता ही नहीं होती है। उनको छोटे परिवार के कोई लाभ भी नज़र नहीं आते हैं। इसी कारण ही उनका स्तर बिल्कुल निम्न हो जाता है। वह शिक्षा ग्रहण सम्बन्धी, अपना जीवन स्तर ऊपर करने सम्बन्धी, बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति चेतन नहीं होते हैं। यह सब अनपढ़ता के कारण ही होता है।
4. सांस्कृतिक पाबन्दियां (Cultural Restrictions) भारतीयों पर संस्कृति का इतना गहरा प्रभाव पड़ा होता है कि वह अपने आप को इन सांस्कृतिक पाबन्दियों से मुक्त नहीं कर पाते हैं। परन्तु यदि कोई व्यक्ति इन पाबन्दियों को तोड़ता है तो सभी व्यक्ति उसके साथ बातचीत तक करनी बन्द कर देते हैं। उदाहरण के लिये भारत में पिता की मृत्यु के पश्चात् मुक्ति तब प्राप्त होती है यदि उसका पुत्र उसको अग्नि देगा। इस कारण उसके लिये पुत्र प्राप्ति आवश्यक हो जाती है। यहां तक कि उसको समाज में भी पुत्र प्राप्ति पश्चात् ही सत्कार मिलता है। इस प्रकार उपरोक्त सांस्कृतिक पाबन्दियों के कारण वह प्रगति भी नहीं कर पाता।
5. सुरक्षा (Safety)-वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति यह सोचना आरम्भ कर देता है, कि वह जब बूढ़ा होगा और उसके बच्चे ही उसकी सुरक्षा करेंगे। बच्चों की अधिक संख्या ही उसे तसल्ली देती है कि उसके बुढ़ापे का सहारा रहेगा। .
6. बेरोज़गारी (Unemployment)-जैसे-जैसे समाज में औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण का विकास हुआ तो, उसके साथ बेरोज़गारी में भी वृद्धि हो गई। लोगों को रोजगार ढूंढ़ने के लिये अपने घरों से बाहर निकलना पड़ा। गांवों के लोग अधिकतर शहरों में जाकर रहने लग पड़े। इसी कारण शहरों में जनसंख्या की वृद्धि हो गई और जिस कारण रहने-सहने के लिये मकानों की कमी हो गई और महंगाई हो गई। घरेलू उत्पादन का कार्य कारखानों में चला गया। मशीनों के साथ कार्य पहले से बढ़िया एवं कम समय में होने लग गया। इस कारण जब मशीनों ने कई व्यक्तियों की जगह ले ली तो इस कारण बेरोज़गारी का होना स्वाभाविक सा हो गया।
7. रहने-सहने का निम्न स्तर (Low Standard of Living)-जनसंख्या के बढ़ने के साथ जब ग़रीबी एवं बेरोज़गारी भी उस रफ्तार से बढ़ने लगी, तो उसके साथ लोगों के रहने के स्तर में भी कमी आई। कमाने वाले सदस्यों की संख्या कम हो गई, खाने वाले सदस्यों की संख्या में वृद्धि हो गई। दिन-प्रतिदिन बढ़ती महंगाई की वजह से लोगों को अपने बच्चों को सुविधाएं प्रदान करना कठिन हो गया। रहने-सहने की कीमतों में वृद्धि होने से लोगों के रहने-सहने के स्तर में कमी आई।
जनसंख्या सम्बन्धी आई समस्याओं को देखते हुए भारतीय सरकार ने भी कई कदम उठाये। सर्वप्रथम ग़रीबी का कारण बढ़ती हुई जनसंख्या ही माना गया। इसके हल के लिये परिवार नियोजन से सम्बन्धित कार्यों को आरम्भ किया गया। इसके अन्तर्गत कॉपर-टी, गर्भ निरोधक गोलियों का प्रयोग एवं नसबन्दी आप्रेशन इत्यादि नये आधुनिक प्रयोग आरम्भ किये गये। इस के अतिरिक्त लोगों में लड़का पैदा होने सम्बन्धी दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिये, फिल्मों, टी० वी० इत्यादि की सहायता ली गई ताकि लोग लड़के एवं लड़की में अन्तर न समझें। इसके साथ ही बढ़ती जनसंख्या पर काबू पाया जायेगा। बड़े परिवारों के स्थान पर छोटे परिवारों को सरकार की तरफ़ से सहायता मिली।
8. आवास (Immigration)-जनसंख्या के ऊपर आवास एवं प्रवास का भी काफ़ी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं कि भारत में बाहर के देशों जैसे-बांग्लादेश, तिब्बत, नेपाल, श्रीलंका आदि के लोग काफ़ी संख्या में आकर रहने लग गये हैं। इनके आवास के कारण हमारी जनसंख्या में भी वृद्धि हो जाती है। ग़रीबी, भुखमरी, महंगाई और कई प्रकार की समस्याएं इसी परिणामस्वरूप पैदा होती हैं।
9. प्रवास (Emigration)-जैसे भारत में आवास पाया जाता है वैसे ही प्रवास पाया जाता है। प्रवास का अर्थ यह है कि भारत के लोग यहां से बाहर जाकर बसने लग गये हैं। बड़ी बात तो इस सम्बन्ध में यह है कि भारत में अच्छी शिक्षा प्राप्त करने वाले इन्जीनीयर, डॉक्टर इत्यादि बाहर जाकर बसने में दिलचस्पी दिखाते हैं। भारत देश उनकी शिक्षा प्राप्ति हेतु काफ़ी धन भी लगाता है परन्तु उनके द्वारा प्राप्त शिक्षा का लाभ दूसरे देश के लोग ही उठाते हैं। एक कारण यह भी है कि हमारा देश उनको उनकी योग्यतानुसार धन नहीं देता है। यहां तक कि कई बार उनको बेरोज़गारी का सामना भी करना पड़ता है क्योंकि पढ़े-लिखे लोग जो देश को सुधारने में सहायता कर सकते हैं वह अपनी योग्यता का प्रयोग दूसरे देशों में करते हैं। यहां तक कि उनके विदेश जाने से उनका अपना परिवार तक भी टूट जाता है। उनकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं होता। इसका प्रभाव हमारी सम्पूर्ण संरचना पर पड़ता है।
प्रश्न 5.
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में शैक्षिक कारक की भूमिका पर विचार-विमर्श करो।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तनों को लाने में शिक्षा भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है। वास्तव में शिक्षा प्रगति का मुख्य आधार है। इसको प्राप्त करके व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है। इस कारण इसको प्राप्त करके ही व्यक्ति मानवीय समाज में पाई जाने वाली समस्याओं का भी हल ढूंढ लेता है। जिन देशों में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या अधिक होती है वह देश दूसरे देशों के मुकाबले अधिक विकासशील एवं प्रगतिशील होते हैं। इसका कारण यह है कि पढ़ालिखा व्यक्ति समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में अपना पूर्ण सहयोग देता है। भारतीय समाज में अनपढ़ लोगों की प्रतिशतता अधिक पाई जाती है। इस कारण लोग अत्यधिक अन्ध विश्वासी, वहम से भरे एवं बुरी परम्पराओं में पूर्णत: जकड़े रहते हैं। इनसे व्यक्ति को बाहर निकालने के लिए यह आवश्यक होता है कि उसके मन को उचित रूप से शिक्षित किया जाये। शैक्षिक कारणों के सामाजिक प्रभावों को जानने से पूर्व इस शिक्षा के अर्थ के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।
शब्द ‘Education’ लातीनी भाषा के शब्द ‘Educere’ से निकला है जिसका अर्थ होता है “To bring up”। शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को केवल पुस्तकों का ज्ञान देना ही नहीं होता बल्कि व्यक्ति के बीच अच्छी आदतों का निर्माण करके उसको भविष्य के लिए तैयार करने से भी होता है। ऐण्डरसन (Anderson) के अनुसार, “शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति उन वस्तुओं की शिक्षा प्राप्त करता है, जो उसको समाज के बीच ज़िन्दगी व्यतीत करने के लिए तैयार करती हैं।”
इस प्रकार हम इस विवरण के आधार पर कह सकते हैं कि शिक्षा के द्वारा समाज की परम्पराएं, रीति-रिवाज, रूढ़ियां, आदि अगली पीढ़ी तक पहुंचाये जाते हैं। यह औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों तरीकों से प्रदान की जाती हैं। रस्मी शिक्षा प्रणाली, व्यक्ति शिक्षण संस्थाओं जैसे स्कूल, कॉलेज एवं यूनिवर्सिटी में से प्राप्त करता है।
शैक्षिक कारक एवं परिवार (Educational Factors and Social Changes)-
1. शैक्षिक कारक एवं परिवार (Educational Factor and Family) शैक्षिक कारकों का परिवार की संस्था के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा है। प्राचीन समाजों के बीच व्यक्ति केवल अपनी ज़िन्दगी व्यतीत करने के लिए ही रोजी-रोटी का प्रबन्ध करता था। परिवार के सभी सदस्य एक प्रकार के ही व्यवसाय में लगे रहते थे। रहनेसहने का स्तर काफ़ी नीचा था, क्योंकि लोगों में प्रगति करने की चेतनता ही नहीं होती थी। जैसे-जैसे शिक्षा सम्बन्धी चेतनता आई तो धीरे-धीरे नई परम्पराओं एवं कीमतों का विकास हुआ। लोगों के जीवन स्तर-शैली में भी परिवर्तन आया।
जैसे-जैसे पहले-पहले वह एक ही व्यवसाय में लगे रहते थे लेकिन धीरे-धीरे जागृति आयी और अपनी इच्छा व योग्यतानुसार वह अलग-अलग कार्य करने लग गए। इस प्रकार प्राचीन समाज से चली आ रही संयुक्त पारिवारिक प्रणाली की जगह केन्द्रीय परिवार ने ले ली। आधुनिक विचारों के बीच यदि व्यक्ति मेहनत करता है तो वह अपना गुजारा चला सकता है और अपने रहने-सहने के स्तर को भी उठा सकता है। अतः उसको अपनी स्थिति योग्यतानुसार मिलने लगी है न कि नैतिकता के अनुसार। इस प्रकार शैक्षिक कारकों के प्रभाव के साथ परिवारों की संरचना और कार्यों में भी परिवर्तन आया। ऐसे परिवार जिनमें पति-पत्नी दोनों कार्यों में व्यस्त हों तो बच्चों की पढ़ाई व देखभाल करैचों में होने लग पड़ी। इस कारण परिवार का अपने सदस्यों पर नियन्त्रण भी कम हो गया।
2. शैक्षिक कारकों का जाति प्रथा पर प्रभाव (Effect of educational factors on Caste System) भारतीय समाज में जाति प्रथा एक ऐसी सामाजिक बुराई है जिसने प्रगति के रास्ते में कई रुकावटें डाली हैं। जाति प्रथा में शिक्षा केवल उच्च जाति तक ही सीमित थी, और शिक्षा की प्रकार भी धार्मिक ही थी। अंग्रेज़ी सरकार के आने के पश्चात् ही जाति-प्रथा कमजोर होनी आरम्भ हुई क्योंकि उनके लिये सभी जातियों के लोग भारतीय थे। उन्होंने सभी जाति-धर्मों के व्यक्तियों से समान व्यवहार किया। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने पश्चिमी शिक्षा को महत्त्व दिया। इस कारण ही शिक्षा धर्म-निरपेक्ष हो गई। आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने समानता, स्वतन्त्रता एवं भाईचारे जैसे सिद्धान्तों पर जोर दिया। औपचारिक शिक्षा के लिये स्कूल एवं कॉलेज खोले गये। इनमें प्रत्येक जाति से सम्बन्धित व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने लग गये। सभी जातियों के लोग एक साथ पढ़ने से अस्पृश्यता की बुराई समाप्त हुई।
3. शैक्षिक कारकों का विवाह पर प्रभाव (Effect of Educational Factor on Marriage)-विवाह की संस्था में भी शिक्षा के कारण काफ़ी परिवर्तन आया। पढ़े-लिखे लोगों का विवाह सम्बन्धी नज़रिया ही बदल गया। आरम्भ में विवाह पारिवारिक सहमति के बिना सम्भव नहीं थे। परिवार के बुजुर्ग ही अपने लड़के या लड़की के विवाह को तय करते थे और वह समान परिवार में ही विवाह करने का विचार रखते थे। वह लड़की-लड़के के गुणों की बजाय खानदान की तरफ अधिक ध्यान देते थे परन्तु अब लड़के एवं लड़की के व्यक्तिगत गुणों की तरफ ध्यान दिया जाता है। अब विवाह को धार्मिक संस्कार न मानकर एक सामाजिक समझौता माना गया है जोकि कभी भी तोड़ा जा सकता है। आजकल प्रेम विवाह एवं अदालती (Court) विवाह भी प्रचलित हैं। प्राचीन काल में छोटी आयु में ही विवाह कर दिया जाता था जिसके काफ़ी नुकसान होते थे। अब कानून पास करके विवाह की एक आयु निश्चित कर दी गई है। अब एक निश्चित आयु के पश्चात् ही विवाह सम्भव हो सकता है।
4. शिक्षा का सामाजिक स्तरीकरण पर प्रभाव (Effect of Education on Social Stratification)शिक्षा सामाजिक स्तरीकरण के आधारों में एक प्रमुख आधार है। (1) पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ व्यक्ति को समाज में स्थिति शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त होती है। व्यक्ति समाज में ऊंचा पद प्राप्त करने हेतु ऊंची शिक्षा ग्रहण करता है। जिस प्रकार की शैक्षणिक योग्यता व्यक्ति के पास होती है उसी प्रकार का पद वह प्राप्त करने योग्य हो जाता है। इस प्रकार आधुनिक समाज की जनसंख्या का शिक्षा के आधार पर स्तरीकरण किया जाता है। पढ़े-लिखे व्यक्तियों को समाज में सम्मान की भी प्राप्ति होती है।
प्राचीन समाज में व्यक्ति की स्थिति प्रदत्त होती थी अर्थात् वह जिस परिवार में जन्म लेता था, उसको उसी प्रकार की स्थिति की प्राप्ति होती थी लेकिन शिक्षा को ग्रहण करने के पश्चात् व्यक्ति की स्थिति अर्जित पद की होती है। वर्तमान समाज में व्यक्ति को अपनी स्थिति योग्यतानुसार ही प्राप्त होती है। व्यक्ति अपनी इच्छानुसार, मेहनत के साथ, योग्यता के साथ ऊंचे से ऊंचा पद प्राप्त कर सकता है।
5. शैक्षिक कारकों के कुछ अन्य प्रभाव (Some other effects of Educational Factors) शैक्षिक कारकों के प्रभावों के साथ स्त्रियों की स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। आधुनिक समाज की शिक्षित स्त्री देश के प्रत्येक क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर भाग ले रही है। भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने काफ़ी लम्बा समय राजनीति में बिताया और देश के ऊपर राज किया। शिक्षा के प्रसार के साथ स्त्रियों की वैवाहिक आयु में भी वृद्धि हो गई। वह अपना जीवन साथी चुनने के लिये पूर्ण तौर पर स्वतन्त्र हो गई है। प्रेम विवाह को महत्त्व दिया गया है और तलाकों की संख्या में भी वृद्धि हो गई है। शिक्षा के प्रभाव से स्त्रियों की दशा में परिवर्तन आया है। वह अपना जीवन साथी चुनने के लिए पूर्णता स्वतन्त्र हो गई है। शिक्षा के प्रभाव के कारण ही परिवारों का आकार छोटा हो गया है। पढ़ी-लिखी औरतें अधिक सन्तान उत्पत्ति की नीति को अच्छा नहीं समझती हैं। बच्चों की परवरिश तो पहले से ही बाहर से ही होती है। दूसरा रहने-सहने के स्तर को ऊँचा उठाने की इच्छा ने आर्थिक दबाव भी डाल दिया। एक या दो बच्चों को पढ़ाना-लिखाना सम्भव है। भारतीय समाज में अब स्त्रियां, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक इत्यादि क्षेत्रों में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं। अब वह पुरुषों की गुलामी न करके, ज़िन्दगी व्यतीत करने में उसके मित्र स्वरूप खड़ी हो रही हैं।
6. सामाजिक कंद्रों एवं कीमतों पर प्रभाव (Effect on Social Values) शिक्षा न केवल व्यक्तिगत कद्रों-कीमतों को उत्पन्न करती है बल्कि सामाजिक कद्रों-कीमतों जैसे लोकतन्त्र, समानता इत्यादि को भी बढ़ाती है। यही शिक्षा के कारण ही कानून के आगे सभी व्यक्ति एक समान समझे जाते हैं। शिक्षा के प्रभाव के कारण ही कई सामाजिक कुरीतियों जैसे-जाति-प्रथा, सती प्रथा, बाल-विवाह, विधवा विवाह का न होना इत्यादि समाप्त हुए हैं। शिक्षा के कारण ही विधवा विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह इत्यादि आगे आये हैं। अब शिक्षा के प्रभाव में ही भेदभाव समाप्त हो गया है। स्त्रियों की दशा में काफ़ी सुधार हो गया है और हो रहा है। आधुनिक समाज एवं आधुनिक समाज की कद्रों-कीमतें शिक्षा की ही देन हैं।
7. शिक्षा का व्यवसायों पर प्रभाव (Effect of Education on Occupations)—प्राचीनकाल में व्यवसायों का आधार शिक्षा न होकर जाति व्यवस्था थी। व्यक्ति जिस किसी जाति विशेष में जन्म लेता था, उन्हीं से सम्बन्धित व्यवसायों को ही अपनाना पड़ता था। उस समय शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं था, परन्तु आधुनिक समय में शिक्षा को ही महत्त्व दिया जाता है जिस कारण जाति विशेष के स्थान पर व्यक्तिगत योग्यता को ही केवल महत्त्व दिया जाने लगा है। अब व्यक्ति का व्यवसाय इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वह किस जाति से सम्बन्धित है ? बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि वह क्या है ? उसकी शैक्षिक योग्यता क्या है ? आजकल यदि व्यक्ति को अपनी योग्यता में वृद्धि करनी है तो उसके लिए शिक्षा अनिवार्य है। यदि व्यक्ति ने उच्च पद प्राप्त करना है तो उसके लिए पढ़ना-लिखना आवश्यक है। पढ़ाई-लिखाई ने जाति की महत्त्वता को काफ़ी कम कर दिया है। अब कोई भी शिक्षा प्राप्त करके ऊंची पदवी प्राप्त कर सकता है।
प्रश्न 6.
सामाजिक परिवर्तन की प्रौद्योगिकी (तकनीकी) कारक को विस्तृत रूप में लिखो।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए तकनीकी कारक भी भारतीय समाज में काफ़ी प्रबल हैं। समाज में दिन-प्रतिदिन नये-नये आविष्कार एवं खोजें होती रहती हैं जिनका प्रभाव सम्पूर्ण समाज के ऊपर पड़ता है। आधुनिक समय में आविष्कारों में काफ़ी तेजी आई है जिस कारण आधुनिक शताब्दी को वैज्ञानिक युग कहा गया है। तकनीकी में लगातार विकास होता रहता है जिस कारण समाज का विकास होता रहता है और उसमें परिवर्तन आता रहता है। किसी भी समाज की प्रगति वहां की तकनीकी पर निर्भर करती है। आजकल यातायात के साधन, संचार के साधन, डाकतार विभाग इत्यादि में तकनीकी पक्ष से बहुत ही परिवर्तन और प्रगति हुई है।
ऐसा युग मशीनी युग कहा जाता है जिसमें समाज में प्रत्येक क्षेत्र में मशीनों का प्रभाव देखने को मिलता है। कई समाजशास्त्रियों ने तकनीकी कारणों को ही सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण बताया है।
वास्तव में तकनीकी कारणों में मशीनें, हथियार और उन सभी वस्तुओं को शामिल किया जाता है जिसमें मानवीय शक्ति का प्रयोग किया जाता है। ।
तकनीकी कारण एवं सामाजिक परिवर्तन (Technology & Social Change)-यहां पर हम विचार करेंगे कि कैसे तकनीकी कारणों ने समाज को परिवर्तित किया और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन लाने में योगदान दिया है।
1. उत्पादन के क्षेत्र में परिवर्तन (Change in area of production) तकनीक ने उत्पादन के क्षेत्र को तो अपने अधीन ही कर लिया है। कारखानों के खुलने के साथ घरेलू उत्पादन काफ़ी प्रभावित हुए। सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह आया है कि मशीनों के आने के कारण घरेलू या व्यक्तिगत उत्पादन कारखानों की तरफ चला गया। प्रत्येक क्षेत्र में नई-नई तकनीकों का विकास होने लगा। इसके साथ ही औद्योगीकरण का भी विकास हुआ। घरेलू उत्पादन के समाप्त होने के कारण स्त्रियां भी घर से बाहर निकल आईं। इस कारण स्त्रियों की सामाजिक ज़िन्दगी में काफ़ी परिवर्तन आया। आधुनिक तकनीक का ही बोलबाला होने लग गया। इससे उत्पादन पर खर्च भी कम होने लगा और कम-से-कम समय में अधिक और अच्छा उत्पादन होने लग गया। इन बड़े-बड़े कारखानों में स्त्रियां भी रोज़गार के क्षेत्र में आ गईं। प्राचीन काल में भारत में कपड़े का घरेलू उत्पादन होता था। इसके अतिरिक्त चीनी का निर्माण भी लोग घर में रह कर ही कर लेते थे। परन्तु कारखानों के खुलने के साथ यह उद्योग भी कारखानों में चला गया। आजकल भारतवर्ष में कपड़े एवं चीनी के कई कारखानों के निर्माण के कारण हज़ारों लोग कारखानों में कार्य करने लग गये हैं।
2. संचार के साधनों में विकास (Development in means of communication)-कारखानों में मशीनीकरण होने के साथ बड़े स्तर पर उत्पादन का विकास जिसके साथ संचार का विकास होना भी आवश्यक हो गया था। संचार के साधनों में हुए विकास के साथ, समय एवं स्थान में सम्बन्ध स्थापित हुआ। आधुनिक संचार की तकनीकों जैसे टेलीफोन, रेडियो, टेलीविज़न, पुस्तकें, प्रिंटिंग प्रेस की सहायता के साथ आपसी सम्बन्धों में निर्भरता पैदा हुई।
आरम्भिक काल में संचार केवल बोलचाल, संकेतों की सहायता के साथ पाया जाता था। परन्तु जब बोलचाल के स्थान पर लिखित प्रयोग किया जाने लगा तो उसके साथ व्यक्तियों में निजीपन पाया गया और भिन्न-भिन्न समूहों के लोग एक-दूसरे को समझने लग गये। इसके साथ हमारी ज़िन्दगी के दैनिक समय में बहुत तेजी आई। हम दूर बैठे विदेशों में भी व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सफल हुए। आजकल के समय में व्यक्ति अपने कार्य को योग्यता के अनुसार फैला रहा है जिससे उसकी प्रगति भी हई है, और रहन-सहन के स्तर में भी वृद्धि हई।
3. कृषि में नयी तकनीकें (New Techniques of Argiculture)-ऐसे युग में कृषि व्यवसाय के क्षेत्र में नयी तकनीकों का प्रयोग होने लग पड़ा। जैसे कृषि से सम्बन्धित औज़ार में, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, नयी मशीनें आदि के प्रयोग के साथ ग्रामीण क्षेत्रों के रहने वालों के स्तर में भी वृद्धि हुई। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के साथ कृषि के उत्पादन में भी वृद्धि हुई। नये प्रकार के बीजों का उत्पादन भी आरम्भ हो गया। प्राचीन काल में सम्पूर्ण परिवार ही कृषि के व्यवसाय में लगा रहता था। मशीनों के प्रयोग के साथ कम व्यक्ति भी अधिक कार्य करने लग पड़े। इस कारण सम्पूर्ण भारत की प्रगति हुई।
4. यातायात के साधनों का विकास (Development of means of transportation)-विकास के साथ-साथ यातायात के साधनों का भी विकास हआ। यह विकास व्यक्तियों के एक-दूसरे के सम्पर्क में आने की वजह से सम्भव हुआ। हवाई जहाज़, बसें, कारें, सड़कें, रेलगाड़ियां, समुद्री जहाज़ इत्यादि की खोज के साथ एक देश से दूसरे देश तक जाना आसान हो गया। व्यक्ति अपने घर से दूर जाकर भी कार्य करने के लिए जाने लग पड़ा क्योंकि एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए हर प्रकार की सुविधा प्राप्त है। इस कारण व्यक्ति की गतिशीलता में वृद्धि भी हुई।
भारत में पुरातन काल से चला आ रहा अस्पृश्यता का भेदभाव भी यातायात के साधनों के विकास के साथ कम हो गया। बस व रेलगाड़ियों में भिन्न-भिन्न जाति के लोग मिलकर सफर करने लग गये। इसके साथ विभिन्न जातियों के लोगों में भी समानता के सम्बन्ध पैदा हो गए।
यातायात के साधनों में वृद्धि से व्यापार के क्षेत्र में भी काफ़ी विकास हुआ। विभिन्न जातियों एवं विभिन्न देशों के लोगों में आपस में नफरत व ईर्ष्या, दुःख को छोड़कर, प्यार, हमदर्दी एवं सहयोग वाले सम्बन्ध स्थापित किये। व्यक्तियों को अपनी ज़िन्दगी बढ़िया ढंग से जीने का अवसर प्राप्त हुआ। यातायात के साधनों के विकास के कारण हज़ारों मील की यात्रा कुछ घण्टों में ही सम्भव हो गई।
5. तकनीकी कारणों का परिवार की संस्था पर पड़ा प्रभाव (Change in Family) सबसे पहले हम यह देखते हैं कि तकनीकी कारणों के प्रभाव के कारण परिवार की संस्था को बिल्कुल बदल दिया है।
आधुनिक परिवार का तो नक्शा ही बदल गया है। परिवार के सदस्यों को रोजी रोटी कमाने हेतु घर से बाहर जाना पड़ता है। इस कारण वह कार्य (पुराने समय में) जो परिवार के सदस्य स्वयं करते थे, वह दूसरी संस्थाओं के पास चला गया है। बच्चों की देख भाल घर से बाहर करैचों में चली गई है। स्वास्थ्य के कार्य अस्पतालों में चले गये हैं। व्यक्ति अपना मनोरंजन भी घर से बाहर या. देखने एवं सुनने वाले साधनों की सहायता के साथ करता है। उसका नज़रिया (दृष्टिकोण) भी व्यक्तिगत हो गया है। पारिवारिक संगठन का स्वरूप ही बदल गया है। बड़े परिवारों के स्थान पर छोटे एवं सीमित परिवार विकसित हो गये हैं। परिवार को प्राचीन समय में प्राइमरी समूह के फलस्वरूप जो मान्यता प्राप्त थी, वह अब नहीं रही है।
6. तकनीकी कारणों का विवाह की संस्था के ऊपर पड़ा प्रभाव (Effect on institution of marriage)प्राचीन समाज में विवाह को एक धार्मिक बन्धन का नाम दिया जाता था। व्यक्ति का विवाह उसके पूर्वजों की सहमति के साथ होता था। इस संस्था के बीच प्रवेश करके व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर जाता था, लेकिन तकनीकी कारणों के प्रभाव के साथ विवाह की संस्था के प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी बदल गया है।
सबसे पहली बात यह है कि आजकल के समय में विवाह की संस्था एक धार्मिक बन्धन न रह कर एक सामाजिक समझौता बनकर रह गई है। विवाह की नींव समझौते के ऊपर आधारित है और समझौता न होने की अवस्था में यह टूट भी जाती है।
विवाह की संस्था का नक्शा ही बदल गया है। विवाह के चुनाव का क्षेत्र बढ़ गया है। व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी भी जाति में विवाह करवा सकता है। यदि पति-पत्नी के विचार नहीं मिलते तो वह एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं। औरतों ने जब से उत्पादन के क्षेत्र में हिस्सा लेना शुरू किया है तब से ही वह अपने आपको आदमियों से कम नहीं समझती है। आर्थिक पक्ष से वह आदमी पर अब निर्भर नहीं है। इस कारण उसकी स्थिति आदमी के बराबर समझी जाने लग गई है।
7. सामाजिक जीवन पर प्रभाव (Impact on Social Life) आधुनिक संचार के साधनों, यातायात के साधनों, नये-नये उद्योगों, काम धन्धों के सामने आने से हमारे समाज के ऊपर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ा है। शहरों में बड़े-बड़े उद्योग स्थापित हो गये हैं, जिस कारण गांवों का कुटीर एवं लघु उद्योग लगभग समाप्त हो गया है। गांवों के लोग कार्यों को करने के लिए शहरों की तरफ जाने लग गए। इस कारण गांवों के संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और उनकी जगह केन्द्रीय परिवार ले रहे हैं। लोग गांवों से शहरों की तरफ बढ़ रहे हैं जिस कारण उनके रहनेसहने के स्तर, खाने-पीने, विचार, व्यवहार एवं तौर-तरीकों में काफ़ी परिवर्तन आ रहा है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):
प्रश्न 1.
शब्द Progress लातीनी भाषा के किस शब्द से लिया गया है ?
(A) Progressor
(B) Progred
(C) Progredior
(D) Pregrodoir.
उत्तर-
(C) Progredior.
प्रश्न 2.
क्रान्ति की कोई विशेषता बताएं।
(A) अप्रत्याशित परिणाम
(B) शक्ति का प्रतीक
(C) तेज़ परिवर्तन
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 3.
सांस्कृतिक विडम्बना का सिद्धान्त किसने दिया था ?
(A) मैकाइवर
(B) जिन्सबर्ग
(C) ऑगबन
(D) वैबर।
उत्तर-
(C) ऑगबर्न।
प्रश्न 4.
रेखीय परिवर्तन को रेखीय परिवर्तन क्यों कहते हैं ?
(A) क्योंकि यह परिवर्तन चक्र में होता है
(B) क्योंकि यह परिवर्तन घूम कर होता है
(C) क्योंकि यह एक रेखा की तरह सीधी रेखा में होता है
(D) क्योंकि यह कुछ समय के लिए चक्र की तरह घूमता है तथा कुछ समय रेखा की तरह चलता है।
उत्तर-
(C) क्योंकि यह एक रेखा की तरह सीधी रेखा में होता है।
प्रश्न 5.
जब परिवर्तन एक निश्चित दिशा में हो तथा तथ्य में गुणों तथा रचना में भी परिवर्तन हो तो उसे क्या कहते हैं ?
(A) उद्विकास
(B) क्रान्ति
(C) विकास
(D) प्रगति।
उत्तर-
(A) उद्विकास।
प्रश्न 6.
उस परिवर्तन को क्या कहते हैं जो हमारी इच्छाओं तथा लक्ष्यों के अनुरूप हो तथा हमेशा जो लाभदायक स्थिति उत्पन्न करे।
(A) उद्विकास
(B) प्रगति
(C) क्रान्ति
(D) विकास।
उत्तर-
(B) प्रगति।
प्रश्न 7.
उस परिवर्तन को क्या कहते हैं जो सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए एकदम तथा अचनचेत हो जाए।
(A) प्रगति
(B) विकास
(C) क्रान्ति
(D) उद्विकास।
उत्तर-
(C) क्रान्ति।
प्रश्न 8.
सोरोकिन के अनुसार किस चीज़ में होने वाला परिवर्तन सामाजिक होता है ?
(A) सांस्कृतिक विशेषताओं
(B) समाज
(C) समुदाय
(D) सामाजिक सम्बन्धों।
उत्तर-
(A) सांस्कृतिक विशेषताओं।
प्रश्न 9.
किसी समाज विशेष की संस्कृति में होने वाले परिवर्तन को क्या कहते हैं ?
(A) सामाजिक परिवर्तन
(B) सामूहिक परिवर्तन
(C) सांस्कृतिक परिवर्तन
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) सांस्कृतिक परिवर्तन।
प्रश्न 10.
सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति किस प्रकार की होती है ?
(A) व्यक्तिगत
(B) सामूहिक
(C) सामाजिक
(D) सांस्कृतिक।
उत्तर-
(C) सामाजिक।
II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :
1. …………. प्रकृति का नियम है।
2. ………….. का अर्थ है आंतरिक तौर पर क्रमवार परिवर्तन।
3. ………. से समाज में अचानक तथा तेज़ परिवर्तन आते हैं।
4. …………. , …………. तथा ………….. सामाजिक परिवर्तन के प्राथमिक स्रोत हैं।
5. ………… वह प्रक्रिया है जिससे सांस्कृतिक तत्त्व एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में फैल जाते हैं।
6. जब हम अपने ऐच्छिक उद्देश्य की प्राप्ति के रास्ते की तरफ बढ़ते हैं तो इसे ……….. कहते हैं।
उत्तर-
- परिवर्तन,
- उद्विकास,
- क्रान्ति,
- Innovation, discovery, diffusion,
- प्रसार,
- प्रगति।
III. सही/गलत (True/False) :
1. क्रान्ति तेज़ परिवर्तन लाती है।
2. प्रसार से सांस्कृतिक तत्त्व नहीं फैलते।
4. जनसंख्या के बढ़ने या कम होने से सामाजिक परिवर्तन आता है।
5. क्रान्ति सामाजिक परिवर्तन का प्रकार नहीं है।
6. क्रान्ति से संपूर्ण सामाजिक संरचना बदल जाती है।
उत्तर-
- सही,
- गलत,
- गलत,
- सही,
- गलत,
- सही।
IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन क्या होता है ?
उत्तर-
सामाजिक संबंधों में होने वाला परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन होता है।
प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन का कोई कारण बताएं।
उत्तर-
भौगोलिक कारक जैसे कि भूकम्प, बाढ़ इत्यादि से सामाजिक परिवर्तन हो जाता है।
प्रश्न 3.
क्या सामाजिक परिवर्तन के बारे में पहले बताया जा सकता है ?
उत्तर-
जी नहीं, समाजिक परिवर्तन के बारे में पहले नहीं बताया जा सकता।
प्रश्न 4.
सामाजिक परिवर्तन के कारकों को कितने भागों में बांटा जा सकता है ?
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन के कारकों को दो भागों-प्राकृतिक कारक तथा मानवीय कारक में बाँटा जा सकता
प्रश्न 5.
सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति किस प्रकार की होती है ?
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक होती है।
प्रश्न 6.
सांस्कृतिक परिवर्तन क्या होता है ?
उत्तर-
किसी विशेष समाज की संस्कृति में होने वाले परिवर्तन को सांस्कृतिक परिवर्तन कहते हैं।
प्रश्न 7.
उद्विकास किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब परिवर्तन एक निश्चित दिशा में हो तथा तथ्य के गुणों व रचना में भी परिवर्तन आए तो उसे उद्विकास कहते हैं।
प्रश्न 8.
प्रगति क्या है ?
उत्तर-
ऐसे परिवर्तन जो हमारी इच्छाओं तथा लक्षणों के अनुसार हों तथा हमेशा लाभदायक स्थिति उत्पन्न करें उसे प्रगति कहते हैं।
प्रश्न 9.
क्रान्ति क्या है ?
उत्तर-
जब सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए अचानक परिवर्तन हो जाए तो इसे क्रान्ति कहते हैं।
प्रश्न 10.
मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का क्या कारण है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का कारण आर्थिक होता है।
प्रश्न 11.
क्रान्ति की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-
क्रान्ति से तेज़ परिवर्तन आता है जिसके अचानक परिणाम निकलते हैं।
प्रश्न 12.
सामाजिक परिवर्तन के कौन-से कारक होते हैं ?
उत्तर-
भौगोलिक कारक, जनसंख्यात्मक कारक, जैविक कारक, तकनीकी कारक इत्यादि।
अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा दें।
उत्तर-
जोंस (Jones) के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है जिसे हम सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक ढंगों, सामाजिक अन्तक्रियाओं अथवा सामाजिक संगठन इत्यादि में पाए गए परिवर्तनों के वर्णन करने के लिए है।”
प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन की दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
- सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापक होता है क्योंकि कोई भी समाज पूर्णतया स्थिर नहीं होता तथा परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
- सामाजिक परिवर्तन में किसी प्रकार की निश्चित भविष्यवाणी नहीं हो सकती क्योंकि सामाजिक संबंधों में कोई भी निश्चितता नहीं होती।
प्रश्न 3.
सामाजिक परिवर्तन तुलनात्मक कैसे है ?
उत्तर-
जब हम किसी परिवर्तन की बात करते हैं तो हम वर्तमान स्थिति की तुलना प्राचीन स्थिति से करते हैं कि प्राचीन स्थिति व वर्तमान स्थिति में क्या अंतर है। यह अंतर केवल दो स्थितियों की तुलना करके ही पता किया जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन तुलनात्मक होता है।
प्रश्न 4.
उद्विकास को समझने का सूत्र बताएं।।
उत्तर-
उद्विकास को हम निम्नलिखित सूत्र की सहायता से समझ सकते हैंउविकास = गुणात्मक परिवर्तन + रचना में परिवर्तन + निरन्तरता + दिशा।
प्रश्न 5.
सामाजिक परिवर्तन के कौन-से कारक होते हैं ?
उत्तर-
- भौगोलिक कारकों के कारण सामाजिक परिवर्तन आता है।
- जैविक कारक भी सामाजिक परिवर्तन लाते हैं।
- जनसंख्यात्मक कारकों की वजह से भी सामाजिक परिवर्तन आता है।
- सांस्कृतिक तथा तकनीकी कारक भी सामाजिक परिवर्तन का कारण बनते हैं।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन।
उत्तर-
सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक संगठन, सामाजिक संरचना, सामाजिक अन्तक्रिया में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन का नाम दिया जाता है। समाज में होने वाला हरेक प्रकार का परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन नहीं होता। केवल सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक क्रियाओं इत्यादि में पाया जाना वाला परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन होता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि लोगों के जीवन जीने के ढंगों में पाया जाने वाला परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन होता है। यह हमेशा सामूहिक तथा सांस्कृतिक होता है। जब भी मनुष्यों के व्यवहार में परिवर्तन आता है तो हम कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन हो रहा है।
प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं।
उत्तर-
1. सामाजिक परिवर्तन एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है क्योंकि समाज के किसी न किसी हिस्से में परिवर्तन आता ही रहता है। कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसमें परिवर्तन न आया हो, क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
2. सामाजिक परिवर्तन के बारे में निश्चित तौर पर भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि यह कब तथा कैसे होगा क्योंकि व्यक्तियों के बीच मिलने वाले सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते तथा सम्बन्धों में हमेशा परिवर्तन आते रहते हैं।
3. सामाजिक परिवर्तन की गति असमान होती है क्योंकि यह किसी समाज में तो काफ़ी तेज़ी से आता है तथा किसी समाज में यह काफ़ी धीमी गति से आता है। परन्तु समाज में होता ज़रूर है।
4. सामाजिक परिवर्तन कई कारकों के आकर्षण का परिणाम होती है। इसके पीछे केवल एक ही कारक.नहीं होता क्योंकि हमारा समाज जटिल प्रवृत्ति का है।
प्रश्न 3.
सामाजिक परिवर्तन में भविष्यवाणी नहीं कर सकते।
उत्तर-
हम किसी भी प्रकार के सामाजिक परिवर्तन के बारे में निश्चित तौर पर भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि यह कब तथा कैसे होगा। क्योंकि व्यक्तियों के बीच मिलने वाले सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते। सम्बन्धों में हमेशा परिवर्तन आते रहते हैं जिस कारण हम इनके बारे में निश्चित रूप से कुछ कह नहीं सकते। हम किसी भी व्यक्ति के व्यवहार के बारे में निश्चित अनुमान नहीं लगा सकते कि यह किसी विशेष स्थिति में किस प्रकार का व्यवहार करेगा। इसलिए हम इसके बारे में निश्चित रूप से भविष्यवाणी नहीं कर सकते।
प्रश्न 4.
सामाजिक परिवर्तन के मुख्य कारक।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन के मुख्य कारक निम्नलिखित हैं-
- सांस्कृतिक कारक (Cultural factor)
- जनसंख्यात्मक कारक (Demographical factor)
- शैक्षिक कारक (Educational factor)
- आर्थिक कारक (Economic factor)
- तकनीकी कारक (Technological factor)
- जैविक कारक (Biological factor)
- मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological factor).
प्रश्न 5.
सामाजिक उदविकास।
उत्तर-
सामाजिक उदविकास सामाजिक परिवर्तन के प्रकारों में से एक है। शब्द उदविकास अंग्रेजी भाषा के शब्द Evolution से निकला है जोकि लातिनी भाषा के शब्द Evolvere से निकला है जिसका अर्थ है बाहर की तरफ फैलना। क्रम विकासीय परिवर्तन से न सिर्फ बढ़ौत्तरी होती है बल्कि उस परिवर्तन से संरचनात्मक बढौत्तरी का ज्ञान होता है। इस तरह क्रम विकासीय परिवर्तन ऐसा परिवर्तन होता है जिसमें निरन्तर क्रम परिवर्तन निश्चित दिशा की तरफ होता है। यह साधारण से जटिल की तरफ जाने की प्रक्रिया है।
प्रश्न 6.
उद्विकास की तीन विशेषताएं। (Three Characteristics of Evolution.)
उत्तर-
- सामाजिक उद्विकास निरन्तर पाया जाने वाला परिवर्तन होता है तथा यह परिवर्तन लगातार होता रहता है।
- निरन्तरता के साथ सामाजिक उद्विकासीय परिवर्तन में निश्चित दिशा भी पायी जाती है क्योंकि यह सिर्फ आकार में नहीं बल्कि संरचना में भी पायी जाती है।
- सामाजिक उद्विकास के ऊपर किसी प्रकार का कोई बाहरी दबाव नहीं होता बल्कि इसमें भीतरी गुण बाहर निकलते हैं।
- उद्विकासीय परिवर्तन हमेशा साधारण से जटिलता की तरफ पाया जाता है तथा निश्चित दिशा में पाया जाता है।
प्रश्न 7.
क्रान्ति।
उत्तर-
क्रान्ति भी सामाजिक परिवर्तन का एक प्रकार है। इसके द्वारा समाज में इस तरह का परिवर्तन होता है कि जिसका प्रभाव वर्तमान समय पर तो पड़ता ही है परन्तु भविष्य तक भी इसका असर रहता है। वास्तव में समाज में कई बार ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं जिसके द्वारा समाज विघटन के रास्ते पर चल पड़ता है। ऐसे हालातों को खत्म करने के लिए समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन पैदा हो जाते हैं। यह क्रान्तिक परिवर्तन एकदम तथा अचानक होता है। इस पर बाहरी शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है। क्रान्ति से एकदम परिवर्तन आता है जिससे समाज का ढांचा ही बदल जाता है।
प्रश्न 8.
क्रान्ति की तीन विशेषताएं।
उत्तर-
- क्रान्ति में सामाजिक व्यवस्था में एकदम परिवर्तन आ जाता है जिस कारण अचानक परिणाम निकलते हैं।
- क्रान्ति से संस्कृति के दोनों भाग, चाहे वह भौतिक हो या अभौतिक, में तेजी से परिवर्तन आता है जिससे समाज पूरी तरह बदल जाता है।
- क्रान्ति एक चेतन प्रक्रिया है अचेतन नहीं जिसमें चेतन रूप से काफ़ी समय से प्रयास चलते हैं तथा राज्य सत्ता को बदला जाता है।
- क्रान्ति में हिंसक तथा अहिंसक तरीके से पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाता है तथा नई व्यवस्था को कायम किया जाता है।
प्रश्न 9.
क्रान्ति शक्ति की प्रतीक कैसे होती है ?
उत्तर-
क्रान्ति में शक्ति का प्रयोग ज़रूरी होता है। राजनीतिक क्रान्ति तो खून-खराबे तथा कत्ले-आम पर आधारित होती है जैसे 1789 की फ्रांस की क्रान्ति तथा 1917 की रूसी क्रान्ति। राज्य की सत्ता को पलटने के लिए हिंसा को साधन बनाया जाता है जिस कारण लूट-मार, कत्ले-आम तो होता ही है। क्रान्ति के सफल या असफल होने में भी शक्ति का ही हाथ होता है। यदि क्रान्ति करने वालों की शक्ति अधिक है तो वह राज्य सत्ता को पलट देते हैं नहीं तो राज्य उनकी क्रान्ति को असफल कर देता है। इस तरह क्रान्ति शक्ति का प्रतीक है क्योंकि यह तो होती ही शक्ति से है।
प्रश्न 10.
क्रान्ति का सामाजिक कारण।
उत्तर-
बहुत-से सामाजिक कारण क्रान्ति के लिए जिम्मेदार होते हैं। समाजशास्त्रियों के अनुसार यदि समाज में प्रचलित रीति-रिवाज, परम्पराएं ठीक नहीं हैं तो वह क्रान्ति का कारण बन सकते हैं। प्रत्येक समाज में कुछ प्रथाएं, परम्पराएं होती हैं जो समाज की एकता तथा अखण्डता के विरुद्ध होती हैं। क्रान्ति कई बार इन परम्पराओं को खत्म करने के लिए भी की जाती है। कई बार इन परम्पराओं के कारण समाज में विघटन पैदा हो जाता है जिस कारण इस विघटन को खत्म करने के लिए क्रान्ति करनी पड़ती है। जैसे 20वीं सदी में भारत में कई बुराइयों के कारण सामाजिक विघटन पैदा होता था।
प्रश्न 11.
क्रान्ति का राजनीतिक कारण।
उत्तर-
यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें पता चलता है कि साधारणतः सभी ही क्रान्तियों के कारण राजनीतिक रहे हैं तथा यह कारण वर्तमान राज्य की सत्ता के विरुद्ध होते हैं। बहुत बार राज्य की सत्ता इतनी अधिक निरंकुश हो जाती है कि अपनी मनमर्जी करने लग जाती है। उसको लोगों की इच्छाओं का ध्यान भी नहीं रहता। आम जनता की इच्छाओं को दबा दिया जाता है। इच्छाओं के दबने के कारण जनता में असन्तोष फैल जाता है। धीरे-धीरे यह असन्तोष सम्पूर्ण समाज में फैल जाता है तथा यह असन्तोष समय आने पर क्रान्ति बन जाता है।
प्रश्न 12.
विकास।
उत्तर-
सामाजिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें कई चीजें अपने बड़े तथा विस्तृत आकार की तरफ बढ़ती हैं। इसका अर्थ है कि विकास ऐसा परिवर्तन है जिसमें विशेषीकरण तथा विभेदीकरण में बढ़ोत्तरी होती है तथा वह चीज़, जिसका हम मूल्यांकन कर रहे हैं, हमेशा उन्नति की तरफ बढ़ती है।
प्रश्न 13.
विकास की विशेषताएं।
उत्तर-
- विकास एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है।
- विकास में एक चीज़ एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिर्वतन हो जाती है।
- विकास सरलता से जटिलता की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया है।
- विकास जीवन के सभी पक्षों में होता है।
- विकास करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती हैं।
प्रश्न 14.
सामाजिक विकास के तीन मापदण्ड।
उत्तर-
- जब कानून की दृष्टि में समानता बढ़ जाती है तो यह विकास का प्रतीक होता है।
- जब देश के सभी बालिगों को वोट देने का अधिकार प्राप्त हो जाए तथा देश में लोकतन्त्र स्थापित हो जाए तो यह राजनीतिक विकास का सूचक है।
- जब स्त्रियों तथा सभी लोगों को समाज में समान अधिकार प्राप्त हो जाएं तो यह सामाजिक विकास का सूचक है।
- जब समाज में पैसे या पूँजी का समान विभाजन हो तो यह आर्थिक प्रगति का सूचक माना जाता है।
प्रश्न 15.
विकास की दो परिभाषाएं।
उत्तर-
हाबहाऊस (Hobhouse) के अनुसार, “समुदाय का विकास उस समय माना जाता है जब किसी वस्तु की मात्रा, कार्य सामर्थ्य तथा सेवा की नज़दीकी में बढ़ोत्तरी होती है।”
Oxford Dictionary के अनुसार, “आम प्रयोग में विकास का अर्थ है भूमिका प्रकटन, किसी वस्तु का अधिक-से-अधिक ज्ञान तथा जीवन का विकास।”
प्रश्न 16.
तकनीकी कारक की वजह से आए दो परिवर्तन।
उत्तर-
1. शहरीकरण-उद्योगों के विकास होने के साथ दूर-दूर स्थानों पर रहने वाले लोग रोज़गार को प्राप्त करने के लिए औद्योगिक स्थानों पर इकट्ठे होते हैं। बाद में वह वहीं जाकर रहना शुरू कर देते हैं। इस तरह शहरों का विकास होता जाता है।
2. कृषि के नए तरीकों का विकास-नए आविष्कारों की वजह से कृषि में नए तरीकों का निर्माण हुआ तथा इससे कृषि के उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी हुई। लोगों के जीवन में भी सुधार हुआ।
प्रश्न 17.
तकनीक तथा शहरीकरण।
उत्तर-
तकनीक की वजह से बड़े-बड़े उद्योग शुरू हो गए तथा देश का औद्योगीकरण हो गया है। औद्योगीकरण के कारण बड़े-बड़े शहर उन उद्योगों के आसपास बस गए। शुरू में गांवों से कारखानों में काम करने के लिए आने वाले मजदूरों के लिए उद्योगों के आसपास बस्तियां बस गईं। फिर उन बस्तियों में जीवन जीने के लिए चीजें देने के लिए दुकानें तथा बाज़ार खुल गए। फिर लोगों के लिए होटल, स्कूल, व्यापारिक कम्पनियां खुल गईं तथा दफ़्तर बन गए। इस तरह धीरे-धीरे इनकी वजह से शहरों का विकास हुआ तथा शहरीकरण बढ़ गया। इस तरह शहरीकरण को बढ़ाने में तकनीक का सबसे बड़ा हाथ है।
प्रश्न 18.
तकनीक का औरतों की दशा में परिवर्तन पर प्रभाव।
उत्तर-
तकनीक ने औरतों की दशा सुधारने में काफ़ी बड़ा योगदान डाला है। तकनीक के बढ़ने के कारण विद्या का प्रसार हुआ तथा औरतों ने शिक्षा लेनी शुरू कर दी। शिक्षा लेकर वह आर्थिक क्षेत्र में मर्दो से कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही है। वह दफ्तरों, फैक्टरियों में जाकर काम कर रही है तथा पैसे कमा रही है। मशीनों के बढ़ने की वजह से औरतों के ऊपर परिवार के कार्य करने का बोझ काफ़ी कम हो गया है। आजकल प्रत्येक कार्य के लिए मशीनों का प्रयोग हो रहा है जैसे कपड़े धोने, सफ़ाई करने, बर्तन धोने इत्यादि। इससे औरतों का कार्य काफ़ी कम हो गया है। यह सब तकनीक की वजह से मुमकिन हुआ है।
प्रश्न 19.
तकनीक का विवाह पर प्रभाव।
उत्तर-
पुराने समय में विवाह एक धार्मिक संस्कार होता था परन्तु तकनीक के बढ़ने की वजह से आधुनिक समाज आगे आए जहां विवाह एक धार्मिक संस्कार रहकर एक सामाजिक समझौता माना जाने लग गया। विवाह का आधार समझौता होता है तथा समझौता न होने की सूरत में विवाह टूट भी जाता है। अब विवाह के चुनाव का क्षेत्र काफ़ी बढ़ गया है। व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी भी जाति में विवाह करवा सकता है। यदि पति पत्नी के विचार नहीं मिलते तो वह अलग भी हो सकते हैं। औरतें आर्थिक क्षेत्र में भी आगे आ गई हैं तथा अपने आपको मर्दो से कम नहीं समझती हैं। वह अब मर्दो पर बिल्कुल भी निर्भर नहीं है तथा यह सब कुछ तकनीक की वजह से हुआ है।
प्रश्न 20.
जनसंख्यात्मक कारक के दो प्रभाव।
उत्तर-
(i) आर्थिक हालातों पर प्रभाव (Effect on EconomicLife)-जनसंख्यात्मक कारक का उत्पादन के तरीकों, जायदाद की मलकीयत, आर्थिक प्रगति के ऊपर भी प्रभाव पड़ता है। जैसे जनसंख्या के बढ़ने के कारण कृषि के उत्पादन को बढ़ाना ज़रूरी हो जाता है।
(ii) सामाजिक जीवन पर प्रभाव (Effect on Social Life)-बढ़ रही जनसंख्या, बेरोज़गारी, भूखमरी की स्थिति पैदा करती है जिससे समाज में अशान्ति, भ्रष्टाचार बढ़ता है।
प्रश्न 21.
शिक्षात्मक कारक।
उत्तर-शिक्षा के द्वारा व्यक्ति का समाजीकरण भी होता है तथा उसके विचारों, आदर्शों, कीमतों इत्यादि के ऊपर भी प्रभाव पड़ता है। मनुष्य की प्रगति भी शिक्षा के ऊपर ही आधारित होती है। यह व्यक्ति को वहमों, भ्रमों, अज्ञानता से छुटकारा दिलाता है। व्यक्ति के प्रत्येक पक्ष में परिवर्तन लाने में शिक्षात्मक कारक महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 22.
शिक्षात्मक कारक के दो प्रभाव।
उत्तर-
1. जाति प्रथा पर प्रभाव-अनपढ़ता व्यक्ति को गतिहीन बना देती है तथा व्यक्ति भ्रमों, परम्पराओं में फंसे रहते हैं। आधुनिक शिक्षा के द्वारा जाति प्रथा को काफ़ी कमजोर कर दिया गया है। यह शिक्षा धर्म निरपेक्ष होती है। इसके द्वारा आज़ादी, समानता, भाईचारा इत्यादि जैसी कीमतों पर जोर दिया जाता है।
2. औरतों की स्थिति पर प्रभाव-शिक्षात्मक कारकों के द्वारा औरतों की दशा में काफी सुधार हुआ है। वह घर की चार दीवारी से बाहर निकल कर अपने अधिकारों तथा फों के प्रति जागरूक हुई है। आर्थिक रूप से वह स्वैः निर्भर हो गई है।
प्रश्न 23.
शिक्षा का शाब्दिक अर्थ।
उत्तर-
शिक्षा अंग्रेज़ी के शब्द Education का हिन्दी रूपान्तर है। Education लातिनी भाषा के शब्द Educere से निकला है जिसका अर्थ होता है to bring up : शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को सिर्फ किताबी ज्ञान देने से ही सम्बन्धित नहीं बल्कि व्यक्ति में अच्छी आदतों का निर्माण करके उस को भविष्य के लिए तैयार करना भी होता है। ऐंडरसन के अनुसार, “शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जिस के द्वारा व्यक्ति उन चीज़ों की सिखलाई प्राप्त करता है जो उसको ज़िन्दगी जीने के लिए तैयार करती है।”
प्रश्न 24.
शिक्षा का परिवार पर प्रभाव।
उत्तर-
शैक्षिक कारक का परिवार पर गहरा प्रभाव पड़ा है। शिक्षा में प्रगति से लोगों में जागृति आयी है तथा उन्होंने नई कीमतों के अनुसार रहना शुरू कर दिया। अब वह अपनी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार अलग-अलग कार्य करने लग गए जिससे संयुक्त परिवारों की जगह केन्द्रीय परिवार अस्तित्व में आए। अब व्यक्ति गांवों से निकल कर शहरों में नौकरी करने के लिए जाने लग गए। लोग अब व्यक्तिवादी तथा पदार्थवादी हो गए हैं। बच्चों ने रस्मी शिक्षा लेनी शुरू कर दी जिस वजह से उन्होंने स्कूल, कॉलेज इत्यादि में जाना शुरू कर दिया। अब शिक्षा की वजह से ही छोटे परिवार को ठीक माना जाने लग गया है। अब बच्चे के समाजीकरण में शिक्षा का काफ़ी प्रभाव है क्योंकि बच्चा अपने जीवन का आरम्भिक समय शैक्षिक संस्थाओं में बिताता है। …
प्रश्न 25.
शैक्षिक कारकों का जाति प्रथा पर प्रभाव।
उत्तर-
पुराने समय में शिक्षा सिर्फ उच्च जाति के लोगों तक ही सीमित थी परन्तु अंग्रेज़ी शिक्षा के आने से अब प्रत्येक जाति का व्यक्ति शिक्षा ले सकता है। पश्चिमी शिक्षा को महत्त्व दिया गया है जिस वजह से शिक्षा धर्म निरपेक्ष हो गई है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने समानता, स्वतन्त्रता तथा भाईचारे वाली कीमतों पर जोर दिया है। शिक्षा की वजह से ही सभी व्यक्ति स्कूल में पढ़ने लग गए जिससे अस्पृश्यता का भेदभाव खत्म हो गया है। अब व्यक्ति अपनी शिक्षा तथा योग्यता के अनुसार कोई भी कार्य कर करता है। शिक्षा प्राप्त करके व्यक्ति अपने परिश्रम से समाज में कोई भी स्थिति प्राप्त कर सकता है। अन्तः जाति विवाह भी शिक्षा की वजह से बढ़ गए हैं। हमारे समाज में से जाति प्रथा को खत्म करने में शैक्षिक कार्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
प्रश्न 26.
शिक्षा का सामाजिक स्तरीकरण पर प्रभाव।
उत्तर-
शिक्षा सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार है। इसने समाज को दो भागों पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ में बांट देता है। व्यक्ति समाज में ऊंची स्थिति प्राप्त करने के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करता है। जिस तरह की शैक्षिक योग्यता व्यक्ति के पास होती है, वह उसी तरह की समाज में पदवी प्राप्त करता है। इस तरह समाज की जनसंख्या को शिक्षा के आधार पर स्तरीकृत किया जाता है। पढ़े-लिखे व्यक्ति को समाज में आदर प्राप्त होता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार अपनी मेहनत तथा योग्यता से ऊंचा पद प्राप्त कर सकता है।
बड़े उतारों वाले प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक उद्विकास के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
सामाजिक उद्विकास सामाजिक परिवर्तन के प्रकारों में से एक है। उदविकास अंग्रेजी भाषा में शब्द EVOLUTION का हिन्दी रूपांतर है जो कि लातिनी भाषा के शब्द Evolvere में से निकला है। उदविकासीय परिवर्तन में न सिर्फ बढ़ोत्तरी होती है बल्कि उस परिवर्तन से संरचनात्मक ज्ञान की भी बढ़ोत्तरी होती है। इस तरह उद्विकास एक ऐसा परिवर्तन होता है जिस में निरन्तर परिवर्तन निश्चित दिशा की तरह पाया जाता है। मैकाइवर तथा पेज (MacIver and Page) का कहना है कि “परिवर्तन में गतिशीलता नहीं होती बल्कि परिवर्तन की एक दिशा होती है तो ऐसे परिवर्तन को विकास में बढ़ोत्तरी कहते हैं।”
मैकाइवर (MacIver) ने एक और स्थान पर लिखा है कि, “जैसे-जैसे व्यक्ति की ज़रूरतें बढती हैं उसी तरह सामाजिक संरचना भी उस के अनुसार बदलती रहती है जिस से इन ज़रूरतों की पूर्ति होती है तथा यह ही उद्विकास का अर्थ होता है।”
हरबर्ट स्पैंसर (Herbert Spencer) के अनुसार, “विकास में बढ़ोत्तरी तत्त्वों का एकीकरण तथा उस से सम्बन्धित वह गति जिस के दौरान कोई तत्त्व एक अनिश्चित तथा असम्बन्धित समानता से निश्चित सम्बन्धित भिन्नता में बदल जाती है।”
इस तरह इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक उविकास बाहरी दबाव के कारण नहीं बल्कि आन्तरिक शक्तियों के कारण होने वाले परिवर्तन हैं। अगस्ते काम्ते के अनुसार प्रत्येक समाज उद्विकास के तीन स्तरों में से होकर गुजरता है तथा वह हैं-
- धार्मिक स्तर (Theological Stage)
- अर्द्धभौतिक स्तर (Metaphysical Stage)
- वैज्ञानिक स्तर (Scientific Stage)
मार्गन का कहना था कि, “सभ्यता तथा समाज का विकास एक क्रम में हुआ है। सामाजिक उद्विकास को समझने के लिए हमें सामाजिक संस्थाओं, संगठनों के विभिन्न विकास में बढ़ोत्तरी के स्तरों को जानना ज़रूरी होता
हरबर्ट स्पैंसर (Spencer) के अनुसार, “सामाजिक जनसमूह की आम बढ़ोत्तरी तथा उसको मिलाने तथा दोबारा मिलाने की मदद से एकीकरण को प्रदर्शित करता है। समाज जाति का गैर जातियों में परिवर्तन, आम जनजातियों से लेकर पढ़े-लिखे राष्ट्रों जिन में सभी अंगों में काफ़ी प्रक्रियात्मक विभिन्नता है, को कई उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है। जैसे-जैसे विभेदीकरण तथा एकीकरण बढ़ते जाते हैं उसी तरह सामाजिक इकट्ठ अस्पष्ट होता है। उद्विकास निश्चित व्यवस्था को जन्म देता है जो धीरे-धीरे स्पष्ट होता है। प्रथाओं की जगह कानून ले लेते हैं जो स्थिरता प्राप्ति के कार्यों तथा संस्थाओं में लागू किए जाने पर ज्यादा विशिष्ट हो जाते हैं। सामाजिक इकट्ठ धीरेधीरे अपने विभिन्न अंगों की संरचना को एक-दूसरे से ज्यादा स्पष्ट रूप में अलग कर लेते हैं। बड़ा विशाल आकार निश्चितता की तरफ तरक्की होती है।”
स्पैंसर ने उद्विकास के चार निम्नलिखित नियम बताए हैं-
- सामाजिक उद्विकास ब्रह्माण्ड (Universe) के विकास के नियम का एक सांस्कृतिक तथा मानवीय रूप होता है।
- सामाजिक उद्विकास उसी तरह ही घटित होता है जैसे संसार की ओर बढोत्तरियां। (3) सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया बहुत ही धीमी होती है। (4) सामाजिक उद्विकास उन्नति वाला होता है।
मैकाइवर का कहना है कि, “जहां कहीं भी समाज के इतिहास में समाज के अंगों में बढ़ते हुए विशेषीकरण को देखते हैं उसे हम सामाजिक उद्विकास कहते हैं।”
(“Where ever in the history of society, we can see increasing specialization in different parts of society, we call it social evolution.”) ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आन्तरिक छुपी हुई वस्तुओं के द्वारा पाया गया परिवर्तन उद्विकास होता है।
विशेषताएं (Characteristics) –
1. उद्विकास का सम्बन्ध जीवित वस्तु या मनुष्यों में होने वाले परिवर्तन से होता है। स्पैंसर ने इसे जैविक उद्विकास कहा है। यह विकास सभी समाजों में समान रूप से विकसित रहता है। उदाहरणतः अमीबा (Amoeba) एक जीव है जिस के शरीर के सभी कार्य केवल सैल (cell) द्वारा पूरे किए जाते हैं। मनुष्य का शरीर जीव का ज्यादा विकसित रूप होता है जिसके विभिन्न कार्य विभिन्न अंगों द्वारा पूर्ण किए जाते हैं। जैविक विकास में जैसे जैसे बढ़ोत्तरी होती है, उसी तरह उस की प्रकृति भी जटिल होती जाती है।
2. सामाजिक उद्विकास निरंतर पाया जाने वाला परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन लगातार चलता रहता है।
3. निरन्तरता के साथ सामाजिक उद्विकासीय परिवर्तन में निश्चित दिशा भी पायी जाती है क्योंकि यह केवल आकार में ही नहीं बल्कि संरचना में भी पाया जाता है। यह विकास निश्चित दिशा की तरफ इशारा करता है।
4. सामाजिक उद्विकास के ऊपर किसी प्रकार का बाहरी दबाव नहीं होता है बल्कि इस के अन्दरूनी गुण बाहर निकल आते हैं। परिवर्तन वस्तु में कई तत्त्व मौजूद होते हैं। इसलिए परिवर्तन इन के परिणामस्वरूप पाया जाता
5. अन्दर मौजूद तत्त्वों के द्वारा होने वाला परिवर्तन हमेशा बहुत ही धीमी गति से होता है। इस का कारण यह है कि अन्दर छूपे हुए तत्त्वों का हमें आसानी से पता नहीं लग सकता। प्रत्येक परिवर्तनशील वस्तु में आन्तरिक गुण मौजूद होते हैं।
6. उदविकासीय परिवर्तन साधारणत: से जटिलता की तरफ पाया जाता है। जैसे शुरू में मनुष्यों का समाज सरल था, धीरे-धीरे श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण विकसित हुआ जिस ने मनुष्यों के समाज को जटिल अवस्था की तरफ परिवर्तित कर दिया।
इस तरह हम कह सकते हैं कि सामाजिक उद्विकास अस्पष्टता से स्पष्टता की तरफ परिवर्तन होता है। जैसे मनुष्यों के अंगों में परिवर्तन कुछ समय बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देने लग जाता है। परिवर्तन की इस प्रकार की दिशा निश्चित होती है। यह वस्तु में पाए जाने वाले आन्तरिक तत्त्वों के कारण होती है।
प्रश्न 2.
क्रान्ति की परिभाषाएं दें। इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
क्रान्ति भी सामाजिक परिवर्तन की ही एक प्रकार है। इसके द्वारा समाज में इस तरह परिवर्तन होता है कि जिसका प्रभाव वर्तमान समय पर तो पड़ता है परन्तु भविष्य तक भी इसका प्रभाव रहता है। वास्तव में समाज में कई बार ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं जिसके द्वारा समाज विघटन के रास्ते पर चल पड़ता है। ऐसे हालातों को खत्म करने के लिए समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन पैदा हो जाते हैं। यह क्रान्तिकारी परिवर्तन अचानक तथा एकदम होता है। इसके ऊपर बाहरी शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है।
क्रान्ति के द्वारा अचानक ही परिवर्तन हो जाता है जिससे समाज की संरचना ही बदल जाती है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स के अनुसार समाज अलग-अलग अवस्थाओं में से क्रान्तिकारी परिवर्तन की प्रक्रिया के परिणामों में से होकर गुजरता है। इस कारण एक सामाजिक अवस्था की जगह दूसरी सामाजिक अवस्था पैदा हो जाती है।
परिभाषाएं (Definitions)-
- आगबर्न तथा निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार, “क्रान्ति संस्कृति में महत्त्वपूर्ण तथा तेज़ परिवर्तन को कहते हैं।”
- गाए रोशर (Guy Rochar) के अनुसार, “क्रान्ति एक खतरनाक तथा ज़बरदस्त लोगों की बगावत होती है जिसका उद्देश्य सत्ता या शासन को उखाड़ देना तथा स्थिति विशेष में परिवर्तन करना होता है।”
- किम्बल यंग (Kimball Young) के अनुसार, “राज्य शक्ति का राष्ट्रीय राज्य के अधीन नए ढंगों से सत्ता हथिया लेना ही क्रान्ति है।”
इस तरह इन परिभाषाओं को देखकर हम कह सकते हैं कि क्रान्ति सामाजिक संरचना में होने वाली अचनचेत प्रक्रिया तथा तेजी से होने वाला परिवर्तन है। इसमें वर्तमान सत्ता को उखाड़ कर फेंक दिया जाता है तथा नई सत्ता को बिठाया जाता है। क्रान्ति खून-खराबे वाली भी हो सकती है तथा इसमें हिंसा का प्रयोग ज़रूरी है। जो शक्ति हिंसा से प्राप्त की जाती है वह कई बार हिंसा से खत्म भी हो जाती है।
क्रान्ति की विशेषताएं (Characteristics of Revolution) –
1. अचानक परिणाम (Contingency Results)-क्रान्ति एक ऐसा साधन हैं जिसमें हिंसा का प्रयोग किया जाता है। यह किसी भी स्वरूप चाहे वह धार्मिक आर्थिक या राजनीतिक को धारण कर सकती है। इस क्रान्ति का परिणाम यह निकलता है कि सामाजिक व्यवस्था तथा संरचना में एकदम परिवर्तन आ जाता है। इस कारण सामाजिक क्रान्ति सामाजिक कद्रों-कीमतों में परिवर्तन करने का प्रमुख साधन है।
2. तेज़ परिवर्तन (Rapid Change)-क्रान्ति की एक विशेषता यह होती है कि इसके परिणामस्वरूप संस्कृति में दोनों हिस्सों, चाहे वह भौतिक हो या अभौतिक में परिवर्तन आ जाता है तथा क्रान्ति के कारण जो भी परिवर्तन होते हैं वह बहुत ही तेज़ गति से होते हैं। इस कारण समाज पूरी तरह बदल जाता है।
3. आविष्कार का साधन (Means of invention)-क्रान्ति एक ऐसा साधन है जिससे सामाजिक व्यवस्था को तोड़ दिया जाता है। इस सामाजिक व्यवस्था के टूटने के कारण बहुत-से नए वर्ग अस्तित्व में आ जाते हैं। इन नए वर्गों के अस्तित्व को कायम रखने के लिए बहुत-से नए नियम बनाए जाते हैं। इस तरह क्रान्ति के कारण बहुत-से नए वर्ग तथा नियम अस्तित्व में आ जाते हैं।
4. शक्ति का प्रतीक (Symbol of power)-क्रान्ति में शक्ति का प्रयोग ज़रूरी तौर पर होता है। राजनीतिक क्रान्ति तो खून-खराबे तथा कत्लेआम पर आधारित होती है जैसे कि 1789 की फ्रांस की क्रान्ति तथा 1917 की रूसी क्रान्ति। राज्य की सत्ता को पलटने के लिए हिंसा को साधन बनाया जाता है जिस कारण लूट-मार, कत्लेआम इत्यादि होते हैं। क्रान्ति के सफल या असफल होने में शक्ति का सबसे बड़ा हाथ होता है। यदि क्रान्ति करने वालों की शक्ति ज़्यादा होगी तो वह राज्य की सत्ता को पलट देंगे नहीं तो राज्य उनकी क्रान्ति को असफल कर देगा।
5. क्रान्ति एक चेतन प्रक्रिया है (Revolution is a conscious process)-क्रान्ति एक अचेतन नहीं बल्कि चेतन प्रक्रिया है। इसमें चेतन तौर पर प्रयास होते हैं तथा राज्य की सत्ता को पलटा जाता है। क्रान्ति के प्रयास काफ़ी समय से शुरू हो जाते हैं तथा वह पूरे वेग से क्रान्ति कर देते हैं। क्रान्तिकारियों को इस बात का पता होता है कि उनकी क्रान्ति के क्या परिणाम होंगे।
6. क्रान्ति सामाजिक असन्तोष के कारण होती है (Revolution is because of Social dissatisfaction)-क्रान्ति सामाजिक असन्तोष का परिणाम होती है। जब समाज में असन्तोष शुरू होता है तो शुरू में यह धीरे-धीरे उबलता है। समय के साथ-साथ यह तेज़ हो जाता है तथा जब यह असन्तोष बेकाबू हो जाता है तो यह क्रान्ति का रूप धारण कर लेता है। समाज का बड़ा हिस्सा वर्तमान सत्ता के विरुद्ध हो जाता है तथा यह असन्तोष क्रान्ति का रूप धारण करके सत्ता को उखाड़ देता है।
7. नई व्यवस्था की स्थापना (Establishment of new system) क्रान्ति में हिंसक या अहिंसक तरीके से पुरानी व्यवस्था को उखाड़ कर फेंक दिया जाता है तथा नई व्यवस्था को कायम किया जाता है। इसकी हम कई उदाहरणे देख सकते हैं जैसे कि 1799 की फ्रांस की क्रान्ति में लुई 16वें की सत्ता को उखाड़ कर नेशनल असैम्बली की सरकार बनाई गई थी तथा 1917 की रूसो क्रान्ति में ज़ार की सत्ता को उखाड़ कर बोल्शेविक पार्टी की सत्ता स्थापित की गई थी। इस तरह क्रान्ति से पुरानी व्यवस्था खत्म हो जाती है तथा नई व्यवस्था बन जाती है।
8. क्रान्ति की दिशा निश्चित नहीं होती (No definite direction of revolution) क्रान्ति की दिशा निश्चित नहीं होती। उदविकास में परिवर्तन की दिशा निश्चित होती है परन्तु क्रान्ति में परिवर्तन की दिशा निश्चित नहीं होती। यह परिवर्तन उन्नति की जगह पतन की तरफ भी जा सकता है तथा समाज की प्रगति उलट दिशा में भी जा सकती है।
प्रश्न 3.
क्रान्ति के कारणों का वर्णन करो।
अथवा
क्रान्ति कौन-से कारणों की वजह से आती है ? .
उत्तर-
1. सामाजिक कारण (Social Causes)-बहुत-से सामाजिक कारण क्रान्ति के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। समाजशास्त्रियों के अनुसार यदि समाज में प्रचलित रीति-रिवाज, परम्पराएं इत्यादि ठीक नहीं है तो वह क्रान्ति का कारण बन सकती है। प्रत्येक समाज में कुछ ऐसी प्रथाएं, परम्पराएं प्रचिलत होती हैं जो समाज की एकता तथा अखण्डता के विरुद्ध होती हैं जैसे भारत में 19वीं शताब्दी में सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह न होना तथा 20वीं शताब्दी में दहेज प्रथा इत्यादि। कई बार क्रान्ति का उद्देश्य ही समाज में से इन प्रथाओं को खत्म करना होता है। इस तरह समाज में फैली कुछ प्रथाएं विघटन को उत्पन्न करती हैं। वेश्यावृत्ति जुआ, शराब इत्यादि के कारण व्यक्ति की नैतिकता खत्म हो जाती है। उसको इनके बीच समाज की मान्यताओं, कद्रों-कीमतों, नैतिकता इत्यादि का ध्यान ही नहीं रहता। इस तरह इनसे धीरे-धीरे समाज में विघटन फैल जाता है। जब यह विघटन अपनी सीमाएं पार कर जाता है तो समाज में क्रान्ति आ जाती है। इस तरह बहुत-से सामाजिक कारण होते हैं जिनके कारण समाज में क्रान्ति आ जाती है।
2. मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological causes)-कई बार मनोवैज्ञानिक कारण भी क्रान्ति का मुख्य कारण बनते हैं। कई बार व्यक्ति या व्यक्तियों की मौलिक इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। वह इन इच्छाओं को अपने अन्दर ही खत्म कर लेते हैं परन्तु इच्छा की एक विशेषता होती है कि यह कभी भी ख़त्म नहीं होती। यह व्यक्ति के मन में सुलगती हुई चिंगारी के जैसी सुलगती रहती है। कुछ समय बाद किसी के इस चिंगारी को हवा देने से यह आग की तरह जल पड़ती है तथा आग का रूप धारण कर लेती है। इस तरह यह दबी हुई इच्छाएं क्रान्ति को उत्पन्न करती हैं। । कुछ समाजशास्त्रियों का कहना है कि व्यक्तियों में आवेग इकट्ठे होते रहे हैं अर्थात् व्यक्ति की सभी इच्छाएं कभी भी सम्पूर्ण नहीं होती हैं। वे व्यक्ति के मन में इकट्ठी होती रहती हैं। समय के साथ ये आवेग बन जाती हैं। अंत में ये आवेग इकट्ठे हो कर क्रान्ति का कारण बनते हैं।
इनके अतिरिक्त व्यक्तियों के अन्दर कुछ दोष, कुछ समस्याएं अचेतन रूप में पैदा हो जाती हैं तथा समय आने पर यह दोष अपना प्रभाव दिखाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में हिंसा की प्रवृत्ति होती है जो अचेतन रूप में ही व्यक्ति के मन के अन्दर पनपती रहती है। जब समय आता है तो यह हिंसा धमाके के साथ व्यक्ति में से निकलती है। जब क्रान्ति होती है तो लोग हिंसा पर उतर आते हैं। इस तरह व्यक्ति के अचेतन मन में भी क्रान्ति के कारण पैदा हो सकते हैं।
3. राजनीतिक कारण (Political Causes)-यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें पता चलेगा कि साधारणतः सभी ही क्रान्तियों के कारण राजनीतिक रहे हैं तथा विशेषकर यह कारण वर्तमान राज्य की सत्ता के विरुद्ध होते हैं। बहुत बार राज्य की सत्ता इतनी ज्यादा निरंकुश हो जाती है कि अपनी मनमर्जी करने लग जाती है। वह लोगों की इच्छाओं का ध्यान भी नहीं रखती। आम जनता की इच्छाओं को दबा दिया जाता है। इच्छाओं के दबने के कारण जनता में असन्तोष फैल जाता है। धीरे-धीरे यह असन्तोष सम्पूर्ण समाज में फैल जाता है तथा यही असन्तोष समय आने से क्रान्ति बन जाता है।
इस तरह बहुत बार ऐसा होता है कि सरकारी अधिकारियों में भ्रष्टाचार फैल जाता है। वह अपने पद का फायदा अपनी जेबों को भरने में लगाते हैं तथा आम जनता की तकलीफों की तरफ कोई ध्यान नहीं देते हैं। आम जनता में उन सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध असन्तोष फैल जाता है तथा वह इन अधिकारियों को उनके पदों से उतारने की कोशिश करते हैं तथा यह प्रयास क्रान्ति का रूप धारण कर लेते हैं।
कई देशों में सरकार किसी विशेष धर्म पर आधारित होती है तथा उस धर्म के लोगों को विशेषाधिकार देती है। कई बार इस कारण और धर्मों के लोगों में असन्तोष पैदा हो जाता है जिस कारण लोग ऐसी सरकार से मुक्ति प्राप्त करने के बारे में सोचने लग जाते हैं। उन का यह सोचना ही क्रान्ति का रूप धारण कर लेता है। इसके साथ ही यदि सरकार आम जनता के रीति-रिवाजों, परम्पराओं में दखल देने लग जाए तो लोग अपनी परम्पराओं को बचाने की खातिर सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर देते हैं। 1857 का विद्रोह इन्हीं कुछ कारणों पर आधारित था।
आजकल के समाज में लोकतन्त्र का युग है। लोकतन्त्र में एक दल सत्ता में होता है तथा दूसरा सत्ता से बाहर। जो दल सत्ता से बाहर होता है वह आम जनता को सत्ताधारी दल के विरुद्ध भड़काता है तथा कई बार यह भड़काना ही क्रान्ति का रूप धारण कर लेता है।
4. आर्थिक कारण (Economic Causes)-कई बार आर्थिक कारण भी क्रान्ति के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार मनुष्यों के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। मार्क्स के अनुसार हरेक समाज में दो वर्ग रहे हैं-पूँजीवादी वर्ग अर्थात् शोषक वर्ग तथा मजदूर वर्ग अर्थात् शोषित वर्ग। पूँजीपति वर्ग अपने पैसे तथा राजनीतिक सत्ता के बल पर हमेशा मजदूर वर्ग का शोषण करता आया है। इस शोषण के कारण मज़दूर वर्ग को दो समय का खाना भी मुश्किल से मिल पाता है। मज़दूरों तथा पूंजीपतियों में बहुत ज़्यादा आर्थिक अन्तर आ जाता है। शोषक अर्थात् पूँजीपति वर्ग ऐशो ईशरत का जीवन व्यतीत करता है तथा मजदूर वर्ग को मुश्किल से रोटी ही मिल पाती है। वह इस जीवन से छुटकारा पाना चाहता है। इस कारण धीरे-धीरे मज़दूर वर्ग में असन्तोष फैल जाता है जिस कारण वह क्रान्ति कर देते हैं तथा पूँजीपति वर्ग को उखाड़ देते हैं। इस तरह आर्थिक कारण भी लोगों को क्रान्ति के लिए मजबूर करते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि क्रान्ति एकदम होने वाली प्रक्रिया है जिससे समाज की संरचना तथा व्यवस्था एकदम ही बदल जाते हैं। क्रान्ति सिर्फ एक कारण के कारण नहीं होती बल्कि बहत-से कारणों की वजह से होती है। साधारणतः राजनीतिक कारण ही क्रान्ति के लिए ज़िम्मेदार होते हैं परन्तु और कारणों का भी इसमें महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है।
प्रश्न 4.
सामाजिक विकास क्या होता है ? विस्तार सहित लिखो।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन के अनेक रूप होते हैं। जैसे क्रम-विकास, प्रगति, क्रान्ति, विकास आदि। इस प्रकार विकास भी परिवर्तन के अनेकों रूपों में से एक है। ये सभी प्रक्रियाएं आपस में इतनी जुड़ी होती हैं कि इन्हें अलग करना बहुत कठिन है।
आजकल के समय में विकास शब्द को आर्थिक विकास के लिए उपयोग किया जाता है। व्यक्ति की आमदनी में बढ़ोत्तरी, पूंजी में बढ़ोत्तरी, प्राकृतिक साधनों का उपयोग, उत्पादन में बढ़ोत्तरी, उद्योग में बढ़ोत्तरी आदि कुछ ऐसे संकल्प हैं, जिनके बढ़ने को पूरे विकास के लिए उपयोग किया जाता है। परन्तु केवल इन संकल्पों में अधिकता को ही हम विकास नहीं कह सकते। समाज में परम्पराएं, संस्थाएं, धर्म, संस्कृति इत्यादि भी होते हैं। इनमें भी विकास होता है। यदि सामाजिक सम्बन्धों में विस्तार होता है पुरानी सामाजिक संरचना, आदतें, कद्रों-कीमतों विचारों में भी परिवर्तन आदि में भी विकास होता है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता, समूह की आमदनी, नैतिकता, सहयोग इत्यादि में भी अधिकता होती है। इस तरह आर्थिक विकास को ही सामाजिक विकास माना जाता है व इस आधार पर अलग-अलग आधारों को देखना आसान होता है।
बोटोमोर (Botomore) के अनुसार, “आधुनिक युग में विकास शब्द का उपयोग दो प्रकार के समाजों में अन्तर दर्शाने की नज़र से किया जाता है। एक ओर तो ऐसे औद्योगिक समाज हैं, व दूसरी ओर वह समाज हैं जो पूरी तरह ग्रामीण हैं व जिनकी आय काफ़ी कम है।”
हॉबहाऊस (Hobhouse) के अनुसार, “समुदाय का विकास उस समय माना जाता है, जब किसी वस्तु की । मात्रा, कार्य सामर्थ्य व सेवा की नज़दीकी में अधिकता होती है।”
चाहे इन परिभाषाओं में विकास शब्द के अस्पष्ट अर्थ दिए हैं, परन्तु समाज शास्त्र में विकास ऐसी स्थिति को दर्शाता है जिसमें मनुष्य अपने लगातार बढ़ते ज्ञान तथा तकनीकी कुशलता से प्राकृतिक वातावरण के ऊपर नियन्त्रण करता जाता है तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ता जाता है। विकास की
विशेषताएं (Characteristics of Development)-
1. विकास एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है, जो कि प्रत्येक समाज में व्याप्त है। विकास नाम की प्रक्रिया आधुनिक समाजों में भी चल रही है। आज का आधुनिक समाज, पुरातन काल में होने वाले विकास का ही परिणाम है। पुरातन समाज के विकास के परिणामस्वरूप ही आधुनिक समाज हमारे सामने है। ज़मींदारी समाज से औद्योगिक समाज में आना विकास के कारण ही सम्भव हुआ।
2. विकास में एक वस्तु एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिवर्तित हो जाती है। यह परिवर्तन सही या गलत भी हो सकता है। इसलिए कहते हैं कि मानवीय विकास का सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन परिवर्तन करने से एक स्थिति से दूसरी स्थिति की तरफ़ बढ़ना है।
3. विकास में केवल अच्छाई नहीं होती है बल्कि बुराई भी हो सकती है। इस तरह विकास में बुराई एवं अच्छाई दोनों का अस्तित्व होता है।
4. विकास सरलता से जटिलता की तरफ़ बढ़ने की प्रक्रिया है। यदि किसी भी वस्तु का विकास होगा तो वह सरलता से जटिलता की तरफ़ बढ़ेगी। इस प्रकार विकास एक जटिल प्रक्रिया है।
5. विकास में एक बदली हुई रूपरेखा को बनाना पड़ता है। इसमें उन सभी साधनों का ध्यान रखना पड़ता है, जो विकास की प्रक्रिया में सहायता करते हैं। इसलिए रूप-रेखा के निर्माण के लिए विकास के कार्यक्रम को निर्धारित करना पड़ता है। यदि हम कार्यक्रम को निर्धारित नहीं करेंगे तो विकास उल्टी दिशा की तरफ़ जा सकता है।
6. विकास केवल आर्थिक विकास ही नहीं होता, बल्कि वह प्रत्येक पक्ष चाहे वह सामाजिक, राजनैतिक, नैतिक पक्ष हो, सभी में होता है।
7. विकास की प्रक्रिया ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक एवं लैंगिक परिवर्तनों की पूरी जानकारी होना आवश्यक है।
8. विकास करने की कोशिशें हमेशा चलती रहती हैं। परन्तु कई बार ऐसा भी होता है, इस प्रक्रिया के कारण समाज के विकास के साथ-साथ व्यक्तियों का अपना विकास यानि आत्मविकास भी हो जाता है।
सामाजिक विकास के मापदण्ड (Measurement of Development) – कई समाज शास्त्रियों ने सामाजिक विकास के कई मापदण्ड दिये हैं, इनका मिला-जुला रूप इस प्रकार का होगा-
- जब कानून की नज़रों में लोगों की समानता या बराबरी हो तो यह विकास का प्रतीक होता है।
- जब लोगों को पढ़ाने-लिखाने या अनपढ़ता दूर करने के लिए कोई आन्दोलन चलाया जाये, तो यह सांस्कृतिक विकास का मापदण्ड है।
- जब देश के सभी बालिगों को वोट देने का अधिकार प्राप्त हो जाये और देश में लोकतन्त्र की स्थापना हो जाये तो यह विकास का सूचक है।
- यदि स्त्रियों को समान अधिकार दिये जाएं, और सभी लोगों को समान समझा जाये तो यह सामाजिक विकास का ही सूचक है।
- जब समाज में धन या पूंजी का समान बंटवारा हो, तो यह आर्थिक विकास का सूचक माना जाता है।
- जब समूह या समुदाय के प्रत्येक सदस्य को अपने विचार प्रकट करने, और कोई भी कार्य करने का अधिकार प्राप्त हो तो यह सामाजिक स्वतन्त्रता का सूचक है।
- जब लोगों में सेवा की भावना या सहयोग की भावना बढ़े, तो यह सामाजिक नैतिकता का सूचक है।
प्रश्न 5.
प्रगति के बारे में आप क्या जानते हैं ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रगति एक तरफ तो भौतिक विकास से सम्बन्धित है तथा दूसरी तरफ ज्ञान के नए विचारों से सम्बन्धित हैं। प्रगति अंग्रेजी भाषा के शब्द Progress का हिन्दी रूपान्तर है जोकि लातिनी भाषा के शब्द Progredior से लिया गया है। इस का अर्थ है आगे बढ़ना। प्रगति शब्द का अर्थ तुलनात्मक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। जब हम यह कहते हैं कि परिवार आगे बढ़ रहा है तो इस बात का अर्थ हमें उस समय पता चलेगा जब हमें यह पता चलेगा कि वह किस दिशा में आगे बढ़ रहा है। यदि वह गरीबी से अमीरी की तरफ बढ़ रहा है तो इस की दिशा से हमें पता चलेगा कि यह परिवार प्रगति कर रहा है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि यदि हम किसी कि गिरावट देखें तो यह प्रगति नहीं होगी। उदाहरणत: जब एक अमीर व्यक्ति व्यापार में हानि हो जाने से गरीब हो जाता है तो उसे हम प्रगति नहीं कहेंगे। इसका कारण यह है कि प्रगति हमेशा किसी उद्देश्य की प्राप्ति से सम्बन्धित होती है। जब हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं तो हम कहते हैं कि हमने प्रगति की है। इस प्रकार इच्छुक उद्देश्यों को ही प्राप्ति को प्रगति का नाम दिया जाता है जैसे शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति, आर्थिक क्षेत्र में प्रगति इत्यादि।
इस तरह हम कह सकते हैं कि प्रगति परिवर्तन तो ज़रूर होता है परन्तु यह किसी भी दिशा की तरफ नहीं हो सकता। इस का अर्थ यह है कि इसके द्वारा परिवर्तन सिर्फ इच्छुक दिशा की तरफ पाया जाता है। अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने प्रगति की परिभाषाएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-
(1) ग्रूवज़ तथा मूर (Groves and Moore) के अनुसार, “प्रगति स्वीकृत कीमतों के आधार पर इच्छुक दिशा की तरफ गतिशील होने को कहते हैं।”
(2) आगबर्न तथा निमकॉफ (Ogburm and Nimkoff) के अनुसार, “उन्नति का अर्थ भलाई के लिए होने वाला परिवर्तन है, जिसमें मूल निर्धारण का आवश्यक तत्त्व है।”
(3) पार्क तथा बर्जस (Park and Burges) के अनुसार, “वर्तमान वातावरण में कोई परिवर्तन या अनुकूलन जो किसी व्यक्ति, समूह, संस्था या जीवन के किसी और संगठित स्वरूप के लिए जीवित रहना ज्यादा आसान कर दे, प्रगति का प्रतिनिधित्व करता है।” ___ इस तरह इन विशेषताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रगति इच्छुक या स्वीकृत दिशा में पाया जाने वाला परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन के बारे में हम पहले से ही अनुमान लगा सकते हैं।
प्रगति की विशेषताएं (Characteristics of Progress) –
1. प्रगति ऐच्छिक परिवर्तन होता है (Progress is desired change)-प्रगति ऐच्छिक परिवर्तन होता है क्योंकि हम जब चाहते हैं तो ही परिवर्तन लाया जा सकता है। इस परिवर्तन से समाज की भी प्रगति होती है। प्रगति में हमारा ऐच्छिक उद्देश्य कुछ भी हो सकता है तथा प्रगति द्वारा पाया गया परिवर्तन हमेशा लाभदायक होता है। वास्तव में हम कभी भी अपनी हानि करना नहीं चाहेंगे। इसलिए यह परिवर्तन समाज कल्याण के लिए होता है।
2. प्रगति तुलनात्मक होती है (Progress is comparative)—प्रत्येक समाज में प्रगति का अर्थ विभिन्नता वाला होता है। यदि एक समाज में हुई प्रगति से समाज का लाभ होता है तो यह आवश्यक नहीं है कि किसी दूसरे समाज को भी उसी तरह का ही लाभ प्राप्त होगा। वास्तव में प्रत्येक समाज के ऐच्छिक उद्देश्य अलग-अलग होते हैं क्योंकि प्रत्येक समाज की आवश्यकताएं अलग-अलग होती हैं। पहाड़ी इलाके के लोगों की आवश्यकताएं मैदानी इलाके की ज़रूरतों से अलग होती हैं। इस कारण इन के उद्देश्यों में भी भिन्नता पाई जाती है। इस तरह प्रगति का अर्थ तुलनात्मक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। विभिन्न ऐतिहासिक कालों, स्थानों तथा इसको विभिन्न अर्थों में परिभाषित किया जाता है।
3. प्रगति परिवर्तनशील होती है (Progress is changeable)-प्रगति हमेशा अलग-अलग देशों तथा कालों से सम्बन्धित होती है परन्तु इस की धारणा हमेशा एक-सी ही नहीं रहती। इसका कारण यह है कि जिसको हम आजकल प्रगति का संकेत समझते हैं उसको दूसरे देशों में गिरावट का संकेत समझते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रगति हमेशा एक-सी ही नहीं रहती। यह समय, काल, देश, हालात इत्यादि के अनुसार बदलती रहती है। हो सकता है कि जो चीज़ पर प्राचीन समय में प्रगति का संकेत समझी जाती हो उसका आजकल कोई महत्त्व ही न हो। इस तरह प्रगति हमेशा परिवर्तनशील होती है तथा बदलती रहती है।
4. प्रगति सामूहिक होती है (Progress is concerned with group)-प्रगति कभी भी व्यक्तिगत नहीं होती। यदि समाज में कुछ व्यक्ति ऐच्छिक लक्ष्यों की प्राप्ति करते हैं तो ऐसी प्रक्रिया को प्रगति नहीं कहते। असल में प्रगति ऐसी धारणा है जिसमें बहुसंख्या में व्यक्ति के जीवन में पाया जाने वाला परिवर्तन प्रगति नहीं होता। इस तरह समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जब सम्पूर्ण समूह किसी भी ऐच्छिक दिशा की तरफ आगे बढ़ता है तो उसे प्रगति कहते हैं।
5. प्रगति में लाभ की प्राप्ति ज्यादा होती है (More advantages are there in progress)-प्रगति में चाहे हम फायदा या हानि दोनों को ही देख सकते हैं परन्तु इसमें ज्यादातर लाभ की प्राप्ति होती है। यदि नुकसान की मात्रा अधिक हो तो उस को हम प्रगति नहीं कहते। उदाहरणत: जब हम सती प्रथा की बुराई को समाज में से खत्म करना चाहते थे तो हमें नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि लोग इस प्रथा को खत्म नहीं करना चाहते थे। परन्तु सरकार ने ज़ोर लगाकर लोगों के आन्दोलन का मुकाबला करके इस बुराई को खत्म करने की पूरी कोशिश की। सरकार ने यह मुकाबला सामाजिक प्रगति को प्राप्त करने के लिए ही किया।
6. प्रगति में चेतन प्रयास होते हैं (Conscious efforts are there in progress)-प्रगति अपने आप नहीं पायी जाती बल्कि व्यक्ति प्रगति प्राप्त करने के लिए चेतन अवस्था में प्रयास करता है। इस कारण वह निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति कर लेता है। जैसे भारत में जनसंख्या की दर को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि देश प्रगति कर सके। यह सभी प्रयास चेतन अवस्था में ही किए जा रहे हैं। इनमें निर्धारित लक्ष्य होता है। उनको प्राप्त करने के लिए हम प्रत्येक तरह से प्रयास करते हैं। प्रगति की सफलता परिश्रम के ऊपर निर्भर करती है। इसमें कोई आन्तरिक गुण नहीं होते। जब हम परिश्रम करके सफलता प्राप्त कर लेते हैं तो हम कह सकते हैं कि प्रगति हुई है।
प्रगति में सहायक दशाएं (Conditions Conducive to Social Progress) –
बोगार्डस ने प्रगति के निम्नलिखित आधार बताए हैं-
- स्वस्थ वातावरण का बढ़ना।
- ज्यादा से ज्यादा लोगों का मानसिक तथा शारीरिक अरोग्य होना।
- सामूहिक कल्याण के लिए प्राकृतिक साधनों का ज्यादा प्रयोग।
- मनोरंजन तथा सेहत के साधनों में बढ़ोत्तरी।
- पारिवारिक इकट्ठ की मात्रा में बढ़ोत्तरी।
- रचनात्मक कार्यों में लगे व्यक्तियों को ज्यादा सुविधाएं।
- व्यापार तथा उद्योग में बढोत्तरी।
- सरकारी जीवन में बढ़ोत्तरी।
- ज्यादातर व्यक्तियों के जीवन स्तर में उन्नति।
- विभिन्न कलाओं का प्रसार।
- पेशेवर शिक्षा का प्रसार।
- जीवन के आध्यात्मिक पक्ष का विकास।
प्रत्येक परिवर्तन को हम प्रगति नहीं कह सकते। केवल विशेष दिशा में होने वाला परिवर्तन ही प्रगति होता है। वास्तव में प्रगति में सहायक दशाओं में भी परिवर्तन आते रहते हैं क्योंकि प्रत्येक समाज की समस्याएं समय के साथ-साथ बदलती रहती हैं। जैसे जब एक आदमी तथा औरत का विवाह होता है तो उनकी इच्छाएं सीमित होती हैं तथा वह उनको प्राप्त करने में व्यस्त हो जाते हैं। जब बच्चे पैदा हो जाते हैं तो वह नई समस्याओं का सामना करने को जुट जाते हैं। इस तरह प्रगति की सहायक दशाएं निश्चित नहीं होतीं। कुछ एक सहायक दशाओं का वर्णन निम्नलिखित है-
1. प्रगति के लिए समाज के सभी सदस्यों को समान मौके प्राप्त होने चाहिएं। यदि हम समाज के सदस्यों के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव करेंगे तो प्रगति की जगह समाज में संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है।
2. प्रगति के लिए जनसंख्या भी सीमित होनी चाहिए क्योंकि ज्यादा जनसंख्या के साथ जितनी मर्जी कोशिश की जाए तो भी हम उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफलता हासिल नहीं कर सकते।
3. सामाजिक प्रगति के लिए शिक्षा का प्रसार भी सहायक होता है क्योंकि यदि समाज में साक्षर लोगों की संख्या ज्यादा होगी तो वह प्रगति को जल्दी अपनाएंगे। इसलिए शिक्षा के प्रसार को बढ़ाना ज़रूरी होता है।
4. स्वस्थ व्यक्तियों का होना भी प्रगति के लिए सहायक होता है क्योंकि अगर व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक पक्ष से स्वस्थ होंगे तो चेतन प्रयत्नों के साथ वह समाज के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पूरा जोर लगाएंगे। स्वस्थ व्यक्तियों के लिए उनकी ज़रूरतों का पूरा होना भी ज़रूरी होता है क्योंकि गरीबी, बेरोज़गारी इत्यादि के समय प्रगति करना मुश्किल होता है।
समाज में यदि शान्तमयी वातावरण होगा तो समाज ज्यादा प्रगति करेगा क्योंकि प्रगति के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आएगी। तकनीकी तथा औद्योगिक उन्नति का होना भी प्रगति के लिए जरूरी होता है। व्यक्तियों में आत्म विश्वास भी प्रगति के लिए ज़रूरी होता है। हाबहाऊस ने जनसंख्या, कार्य कुशलता, स्वतन्त्रता तथा आपसी सेवा की भावना को सामाजिक प्रगति का आधार बताया है।
सामाजिक परिवर्तन PSEB 11th Class Sociology Notes
- परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इस संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जिसमें परिवर्तन न आया हो। प्रकृति भी स्वयं में समय-समय पर परिवर्तन लाती रहती है।
- जब समाज के अलग-अलग भागों में परिवर्तन आए तथा वह परिवर्तन अगर सभी नहीं तो समाज के अधिकतर लोगों के जीवन को प्रभावित करे तो उसे सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है। इसका अर्थ है कि समाज के लोगों के जीवन जीने के तरीकों में संरचनात्मक परिवर्तन आ जाता है।
- सामाजिक परिवर्तन की बहुत सी विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह सर्वव्यापक प्रक्रिया है, अलग-अलग समाजों में परिवर्तन की गति अलग होती है, यह समुदायक परिवर्तन है, इसके बारे में निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, यह बहुत सी अन्तक्रियाओं का परिणाम होता है, यह नियोजित भी हो सकता है तथा अनियोजित भी इत्यादि।
- सामाजिक परिवर्तन में बहुत से प्रकार होते हैं जैसे कि उद्विकास, विकास, प्रगति तथा क्रान्ति। बहुत बार इन शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयोग कर लिया जाता है परन्तु समाजशास्त्र में यह सभी एक-दूसरे के बहुत ही अलग होते हैं।
- उद्विकास का अर्थ है आन्तरिक तौर पर क्रमवार परिवर्तन। इस प्रकार का परिवर्तन काफ़ी धीरे-धीरे होता है जिससे सामाजिक संस्थाएं साधारण से जटिल हो जाती हैं।
- विकास भी सामाजिक परिवर्तन का ही एक पक्ष है। जब किसी वस्तु में परिवर्तन आए तथा वह परिवर्तन ऐच्छिक दिशा में हो तो इसे विकास कहते हैं। अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने विकास के अलग-अलग आधार दिए हैं।
- प्रगति सामाजिक परिवर्तन का एक अन्य प्रकार है। इसका अर्थ है अपने उद्देश्य की प्राप्ति की तरफ बढ़ना।
प्रगति अपने उद्देश्यों की प्राप्ति करने वाले यत्नों को कहते हैं। जो निश्चित है तथा जिसे सामाजिक कीमतों की तरफ से भी सहयोग मिलता है।
- क्रान्ति सामाजिक परिवर्तन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रकार है। क्रान्ति से समाज में अचानक तथा तेज़ गति से परिवर्तन आते हैं जिससे समाज की प्राचीन संरचना खत्म हो जाती है तथा नई संरचना सामने आती है। कई बार मौजूदा संरचना के विरुद्ध जनता में इतना असंतोष बढ़ जाता है कि वह व्यवस्था के विरुद्ध अचानक खड़े हो जाते हैं। इसे क्रान्ति कहते हैं। सन् 1789 में फ्रांस में ऐसा ही परिवर्तन आया था।
- सामाजिक परिवर्तन की दिशा तथा गति को बहुत से कारक प्रभावित करते हैं जैसे कि प्राकृतिक कारक, विश्वास तथा मूल्य, समाज सुधारक, जनसंख्यात्मक कारक, तकनीकी कारक, शैक्षिक कारक इत्यादि।
- प्रसार (Diffusion)-वह प्रक्रिया जिससे सांस्कृतिक तत्व एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति तक फैल जाते हैं।
- आविष्कार (Innovation)-नए विचारों, तकनीक का सामने आना तथा मौजूदा विचारों तथा तकनीकों का बेहतर इस्तेमाल।
- सामाजिक परिवर्तन (Social Change)—सामाजिक संरचना तथा सामाजिक व्यवस्था के कार्यों में आए परिवर्तन।
- प्रगति (Progress)—वह परिवर्तन जिससे हम अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ऐच्छिक दिशा की तरफ बढ़ते हैं।