PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
शक्ति से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
शक्ति समूह या व्यक्तियों का वह सामर्थ्य है जिससे वह उस समय अपनी बात मनवाते हैं जब उनका विरोध हो रहा होता है।

प्रश्न 2.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता के तीन प्रकार बताइये।
उत्तर-
परंपरागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मायी सत्ता।

प्रश्न 3.
अर्थव्यवस्था से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समाजशास्त्रियों के अनुसार मानवीय क्रियाएं जो भोजन अथवा सम्पत्ति से संबंधित होती हैं, अर्थ व्यवस्था को बनाती हैं।

प्रश्न 4.
राज्य के कोई दो तत्व बताइये।
उत्तर-
जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, प्रभुसत्ता तथा सरकार राज्य के प्रमुख तत्त्व हैं।

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प्रश्न 5.
जीववाद का सिद्धांत किसने प्रस्तुत किया ?
उत्तर-
ई० बी० टाईलर (E.B. Tylor) ने जीववाद का सिद्धांत दिया था।

प्रश्न 6.
किसने पवित्र तथा सामान्य वस्तुओं में अंतर किया ?
उत्तर-
दुर्थीम (Durkheim) ने पवित्र तथा अपवित्र वस्तुओं में अंतर दिया था।

प्रश्न 7.
प्रकृतिवाद के विचार की चर्चा किसने की ?
उत्तर-
प्रकृतिवाद का सिद्धांत मैक्स मूलर (Max Muller) ने दिया था।

प्रश्न 8.
किसने धर्म को ‘आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास’ माना है ?
उत्तर-
ई० बी० टाईलर ने धर्म को परा प्राकृतिक शक्ति में विश्वास कहा था।

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प्रश्न 9.
दो ऐसे धर्मों के नाम बताइये जो भारत में बाहर से आये हैं।
उत्तर-
ईसाई और इस्लाम दो धर्म हैं जो भारत में बाहर से आए हैं।

प्रश्न 10.
सम्प्रदाय से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
सम्प्रदाय एक धार्मिक विचार व्यवस्था का एक उपसमूह है तथा साधारणतया यह बड़े धार्मिक समूह से निकला एक हिस्सा होता है।

प्रश्न 11.
पंथ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पंथ एक धार्मिक संगठन है जो किसी एक व्यक्तिगत नेता के विचारों तथा विचारधारा में से निकला है।

प्रश्न 12.
कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत पूंजीवादी समाज में दो प्रमुख वर्गों के नाम बताइये।
उत्तर-
पूंजीवादी वर्ग तथा मज़दूर वर्ग।

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प्रश्न 13.
औपचारिक शिक्षा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वह शिक्षा जो हम स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय इत्यादि में लेते हैं, वह औपचारिक शिक्षा होती है।

प्रश्न 14.
अनौपचारिक शिक्षा को परिभाषित दीजिए।
उत्तर-
वह शिक्षा जो हम अपने परिवार से, रोज़ाना के अनुभवों से प्राप्त करते हैं, अनौपचारिक शिक्षा होती है।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
राज्यहीन समाज किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जिन समाजों में राज्य नामक संस्था नहीं होती वह राज्य रहित समाज होते हैं। वे सादा या प्राचीन समाज होते हैं। यहां कम जनसंख्या होती है जिस कारण लोगों के बीच आमने-सामने के रिश्ते होते हैं तथा सामाजिक नियंत्रण के लिए समाज या सरकार जैसे किसी औपचारिक साधन की आवश्यकता नहीं होती। यहां बुजुर्गों की सभा से नियंत्रण किया जाता है।

प्रश्न 2.
करिश्मई सत्ता पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर-
जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से इतना प्रभावित होता है कि उसके कहने के अनुसार वह कुछ भी कर जाता है तो इस प्रकार की सत्ता करिश्मई सत्ता होती है। किसी व्यक्ति का करिश्मई व्यक्तित्व होता है तथा लोग उससे प्रभावित हो जाते हैं। धार्मिक नेता, राजनीतिक नेता इस प्रकार की सत्ता का प्रयोग करते हैं।

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प्रश्न 3.
वैधानिक-तार्किक सत्ता किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जो सत्ता कुछ नियमों-कानूनों के अनुसार प्राप्त होती है उसे वैधानिक सत्ता का नाम दिया जाता है। सरकार के पास वैधानिक सत्ता होती है तथा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मंत्री, अधिकारी इस प्रकार की सत्ता का प्रयोग करते हैं जो संविधान की सहायता से प्राप्त की जाती है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज प्रणाली के दो गुण लिखिए।
उत्तर-

  1. पंचायती राज व्यवस्था को स्थानीय स्तर पर लागू किया जाता है तथा साधारण जनता को भी सत्ता में भागीदारी करने का मौका प्राप्त होता है।
  2. इस व्यवस्था में स्थानीय स्तर की समस्याओं का स्थानीय स्तर पर ही समाधान कर लिया जाता है तथा कार्य भी जल्दी हो जाता है।

प्रश्न 5.
जीववाद (Animism) और प्रकृतिवाद (Naturism) से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-

  1. जीववाद-यह सिद्धान्त Tylor ने दिया था तथा इसके अनुसार धर्म का उद्भव आत्मा के विचार से सामने आया अर्थात् लोग आत्माओं में विश्वास रखते हैं तथा इससे ही धर्म का जन्म हुआ।
  2. प्रकृतिवाद-इसके अनुसार प्राचीन समय में मनुष्य प्राकृतिक घटनाओं जैसे कि वर्षा, बर्फानी तूफान, आग इत्यादि से डरता था। इसलिए उसने प्रकृति की पूजा करनी शुरू की तथा धर्म सामने आया।

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प्रश्न 6.
हित समूह किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हित समूह एक विशेष समूह के लोगों की तरफ से बनाए गए समूह हैं जो केवल अपने सदस्यों के हितों के लिए कार्य करते हैं। उन हितों की प्राप्ति के लिए वह अन्य समूहों के हितों की भी परवाह नहीं करते। उदाहरण के लिए मज़दूर संघ, ट्रेड यूनियन, फिक्की (FICCI) इत्यादि।

प्रश्न 7.
पवित्र एवं सामान्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
दुर्थीम ने धर्म से संबंधित पवित्र तथा साधारण वस्तुओं के बारे में बताया था। उनके अनुसार पवित्र वस्तुएं वे हैं जिन्हें हमसे ऊंचा तथा सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ये असाधारण होती हैं तथा रोज़ाना के कार्यों से दूर होती हैं परन्तु बहुत-सी वस्तुएं ऐसी होती हैं जो रोज़ाना हमारे सामने आती हैं तथा प्रयोग की जाती हैं। इन्हें साधारण वस्तुएं कहा जाता है।

प्रश्न 8.
टोटमवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
टोटमवाद में कोई जनजाति स्वयं को किसी वस्तु, मुख्य रूप से कोई जानवर, पेड़, पौधा, पत्थर या किसी अन्य वस्तु से संबंधित मान लेती है। जिस वस्तु के प्रति उसका श्रद्धा भाव होता है वह जनजाति उस वस्तु के नाम को अपना लेती है तथा उसकी पूजा करती है। वह स्वयं को उस टोटम से पैदा हुई मान लेती है।

प्रश्न 9.
पशुपालक अर्थव्यवस्था (Pastoral Economy) किसे कहते हैं ?
उत्तर-
इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में समाज अपनी जीविका कमाने के लिए घरेलू जानवरों पर निर्भर करते हैं। इन्हें चरवाहे कहा जाता है। वह भेड़ों-बकरियों, गाय, ऊंट, घोड़े इत्यादि रखते हैं। इस प्रकार के समाज घास वाले हरे-भरे मैदानों या पहाड़ों में मिलते हैं। मौसम बदलने से यह लोग स्थान भी बदल लेते हैं।

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प्रश्न 10.
कृषि अर्थव्यवस्था किस प्रकार औद्योगिक अर्थव्यवस्था से भिन्न है ?
उत्तर-
कृषि अर्थव्यवस्था में लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है तथा वे कृषि करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वहां कम जनसंख्या तथा अनौपचारिक संबंध होते हैं। परन्तु औद्योगिक अर्थव्यवस्था में लोग उद्योगों में कार्य करके पैसे कमाते हैं। वहां अधिकतर जनसंख्या तथा लोगों के बीच औपचारिक संबंध होते हैं।

प्रश्न 11.
जजमानी प्रणाली किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह व्यवस्था सेवा लेने तथा देने की व्यवस्था है जिसमें निम्न जातियां उच्च जातियों को अपनी सेवाएं देती हैं तथा सेवा देने वाली जाति को अपनी सेवाओं का मेहनताना मिल जाता है। सेवा लेने वाले को जजमान कहा जाता है तथा सेवा देने वाले को कमीन कहा जाता है।

प्रश्न 12.
पूंजीवादी समाज पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर-
पश्चिमी समाजों को पूंजीवादी समाज कहा जाता है जहां उद्योगों में पूंजी लगाकर पैसा कमाया जाता है। उद्योगों के मालिकों के हाथों में उत्पादन के साधन होते हैं तथा वे मजदूरों को काम पर रख कर वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। पूंजीवाद का मुख्य तत्त्व है मज़दूरों, उत्पादन के साधनों, उद्योगों, मशीनों तथा मालिकों के बीच संबंध। .

प्रश्न 13.
समाजवादी समाज किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह संकल्प 19वीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने दिया था, जिसके अनुसार सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था मज़दूरों के हाथों में होती है। मजदूर उद्योगपतियों के विरुद्ध क्रांति करके उनकी सत्ता खत्म कर देंगे तथा वर्ग रहित समाज की स्थापना करेंगे। सभी लोग कानून के सामने समान होंगे तथा उन्हें उनकी आवश्यकता के अनुसार सरकार की तरफ से मिल जाएगा।

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प्रश्न 14.
शिक्षा के निजीकरण का उदाहरण दीजिए।
उत्तर-
आजकल प्रत्येक गांव, कस्बे तथा नगर में निजी स्कूल आरंभ हो गए हैं। नगरों में निजी कॉलेज खल गए हैं तथा देश के कई भागों में निजी विश्वविद्यालय खुल गए हैं। यह शिक्षा के निजीकरण के उदाहरण हैं।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
धर्म पर एमिल दुर्खाइम के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
दुर्थीम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की ठोस व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को नैतिक रूप प्रदान करती है। दुर्शीम ने सभी धार्मिक विश्वासों तथा आदर्शात्मक वस्तुओं को ‘पवित्र’ तथा ‘साधारण’ दो वर्गों में विभाजित किया है। पवित्र वस्तुओं में देवताओं तथा आध्यात्मिक शक्तियों या आत्माओं के अतिरिक्त गुफाएं, पेड़, पत्थर, नदी इत्यादि शामिल हो सकते हैं। साधारण वस्तुओं की तुलना में पवित्र वस्तुएं अधिक शक्ति तथा शान रखती हैं। दुर्थीम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं अर्थात् अलग व प्रतिबन्धित वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।” .

प्रश्न 2.
धर्म किस प्रकार समाज में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ?
उत्तर-
सामाजिक संगठन को बनाए रखने के लिए धर्म महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। एक धर्म में लाखों लोग होते हैं जिनके एक समान विश्वास होते हैं। यह विश्वास, प्रतिमान, व्यवहार के तरीके एक धार्मिक समूह को मिला देते हैं जिससे समूह में एकता बनी रहती है। इस प्रकार ही अलग-अलग समूहों में एकता के साथ सामाजिक संगठन बना रहता है। प्रत्येक धर्म अपने लोगों को दान देने व सहयोग करने के लिए कहता है जिससे समाज में मज़बूती तथा स्थिरता बनी रहती है। इस प्रकार धर्म का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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प्रश्न 3.
शिक्षा संस्था से क्या अभिप्राय है ? सरकार द्वारा अपनायी गयी शिक्षा नीतियों के विषय में लिखिए।
उत्तर-
शैक्षिक संस्था वह होती है जो व्यक्ति को शिक्षा देकर उसे आवश्यक ज्ञान देती है तथा उसे उत्तरदायी नागरिक बनाती है। सरकार की तरफ से लागू की गई शैक्षिक नीतियों का वर्णन इस प्रकार है

  • हमारे संविधान के अनुच्छेद 45 के अनुसार 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त तथा आवश्यक शिक्षा प्रदान की जाएगी।
  • 1960 के कोठारी कमीशन ने सभी बच्चों के स्कूल आने तथा उन्हें लगाकर पढ़ाने पर बल दिया था।
  • 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अपनाया गया था जिसमें वोकेशनल ट्रेनिंग तथा पिछड़े समूहों के लिए शैक्षिक सुविधाओं पर बल दिया।
  • सर्व शिक्षा अभियान 1986 तथा 1992 ने इस बात पर बल दिया कि 6-14 वर्ष के सभी बच्चों को आवश्यक शिक्षा प्रदान की जाए।
  • 2010 में शिक्षा का अधिकार (Right to Education) लागू किया गया जिसके अनुसार 6-14 वर्ष के बच्चों को क्लासों में 8 वर्ष की प्राथमिक शिक्षा दी जाएगी।

प्रश्न 4.
शिक्षा के प्रकार्यों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-

  • शिक्षा व्यक्ति के बौद्धिक विकास में सहायता करती है।
  • शिक्षा व्यक्तियों को समाज से जोड़ती है।
  • यह समाज में तालमेल बिठाने में सहायता करती है।
  • यह व्यक्ति की योग्यता बढ़ाने में सहायता करती है।
  • शिक्षा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने में सहायता करती है।
  • शिक्षा से बच्चों में नैतिक गुणों का विकास होता है।
  • शिक्षा व्यक्ति के समाजीकरण में सहायक होती है।

प्रश्न 5.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता के प्रकारों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने सत्ता के तीन प्रकारों का वर्णन किया है-परंपरागत, वैधानिक तथा करिश्मई सत्ता। परंपरागत सत्ता वह होती है जो परंपरागत रूप से प्राचीन समय ही चलती आ रही है तथा जिसके विरुद्ध कोई किन्तु परन्तु नहीं होता। पिता के घर में इस प्रकार की सत्ता होती है। वैधानिक सत्ता वह होती है जो कुछ नियमों, कानूनों के अनुसार प्राप्त की जाती है। सरकार को प्राप्त सत्ता इस प्रकार की सत्ता है। करिश्मई सत्ता वह होती है जो किसी के करिश्मई व्यक्तित्व के कारण उसे प्राप्त हो जाती है तथा उसके चेले उसकी सत्ता बिना किसी प्रश्न के मानते हैं। धार्मिक नेता, राजनीतिक नेता इस प्रकार की सत्ता भोगते हैं।

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प्रश्न 6.
राज्य समाज एवं राज्यहीन समाज में अंतर कीजिए।
उत्तर-
1. राज्य समाज (State Less Society)-आधुनिक समाजों को राज्य वाले समाज कहा जाता है जहां सत्ता राज्य नामक संस्था के हाथों में केन्द्रित होती है परन्तु इसे जनता से प्राप्त किया जाता है। मैक्स वैबर के अनुसार राज्य वह मानवीय समुदाय है जो एक निश्चित क्षेत्र में शारीरिक बल के साथ सत्ता का उपभोग करता

2. राज्य हीन समाज (State Less Society)-जिन समाजों में राज्य नामक संस्था नहीं होती वह राज्य हीन समाज होते हैं। ये सादा या प्राचीन समाज होते हैं। यहां कम जनसंख्या होती है जिस कारण लोगों के बीच आमनेसामने के रिश्ते होते हैं तथा सामाजिक नियंत्रण के लिए राज्य या सरकार जैसे किसी औपचारिक साधन की कोई आवश्यकता नहीं होती। यहां बुजुर्गों की सभा से नियंत्रण रखा जाता है।

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें:

प्रश्न 1.
राजनीतिक संस्थाओं से आप क्या समझते हैं, विस्तार से चर्चा कीजिए ।
उत्तर-
हमारा समाज काफ़ी बड़ा है तथा राजनीतिक व्यवस्था इसका एक भाग है। राजनीतिक व्यवस्था मनुष्यों की भूमिकाओं को परिभाषित करती है। राजनीति तथा समाज में काफ़ी गहरा संबंध है। सामाजिक मनुष्यों को नियंत्रण में करने के लिए राजनीतिक संस्थाओं की आवश्यकता होती है तथा वह राजनीतिक संस्थाएं हैं शक्ति, सत्ता, राज्य, सरकार, विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका इत्यादि। ये राजनीतिक संस्थाएं हमारे समाज के ऊपर औपचारिक नियंत्रण रखती हैं तथा यह नियंत्रण रखने के उनके अपने साधन होते हैं जैसे कि सरकार, पुलिस, सेना, न्यायालय इत्यादि। इस प्रकार राजनीतिक संस्थाएं वह साधन हैं जिनकी सहायता से समाज में शांति तथा व्यवस्था बना कर रखी जाती है। राजनीतिक संस्थाएं मुख्य रूप से समाज में शक्ति के वितरण से संबंध रखती हैं। राजनीतिक संस्थाओं में शक्ति तथा सत्ता को समझना आवश्यक है।

(i) शक्ति (Power)-शक्ति किसी व्यक्ति या समूह का सामर्थ्य होता है जिसके द्वारा वह अन्य लोगों पर अपनी इच्छा थोपता है चाहे उसका विरोध ही क्यों न हो रहा हो। इसका अर्थ है कि जिनके पास शक्ति होती है वह अन्य लोगों की कीमत पर शक्ति का भोग कर रहे होते हैं। समाज में शक्ति सीमित मात्रा में होती है। जिन लोगों या समूहों के पास अधिक शक्ति होती है वह कम शक्ति वाले समूहों या व्यक्तियों के ऊपर शक्ति का प्रयोग करते हैं तथा उन्हें प्रभावित करते हैं। इस प्रकार शक्ति अपने तथा अन्य लोगों के निर्णय लेने की वह सामर्थ्य है जिसमें वे देखा जाता है कि जिनके लिए निर्णय लिया गया है क्या वह उस निर्णय की पालना कर रहे हैं या नहीं। परिवार के बड़े बुजुर्ग, किसी कंपनी का जनरल मैनेजर, सरकार, मंत्री इत्यादि ऐसी शक्ति का प्रयोग करते हैं।

(ii) सत्ता (Authority)–शक्ति का सत्ता के द्वारा उपभोग किया जाता है। सत्ता शक्ति का ही एक रूप है जो वैधानिक तथा सही है। यह संस्थात्मक है तथा वैधता पर आधारित होती है जिनके पास सत्ता होती है। उनकी बात सभी को माननी पड़ती है तथा इसे वैध भी माना जाता है। सत्ता न केवल व्यक्तियों के ऊपर बल्कि समूहों तथा संस्थाओं पर भी लागू होती है। उदाहरण के लिए तानाशाही में सत्ता एक व्यक्ति, समूह या दल के हाथों में होती है जबकि लोकतंत्र में यह सत्ता जनता या उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में होती है।

मैक्स वैबर ने तीन प्रकार की सत्ता का जिक्र किया है तथा वह हैं परंपरागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मयी सत्ता। पिता की घर में सत्ता परंपरागत सत्ता होती है, प्रधानमंत्री की सत्ता वैधानिक तथा किसी धार्मिक नेता की अपने चेलों पर स्थापित सत्ता करिश्मयी सत्ता होती है।

(iii) राज्य (State)—राज्य सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्था है। राज्य एक ऐसा लोगों का समूह है जो एक निश्चित भू-भाग में होता है, जिसकी जनसंख्या होती है, जिसकी अपनी एक सरकार होती है तथा अपनी प्रभुसत्ता होती है। राज्य एक सम्पूर्ण समाज का हिस्सा है। बेशक यह सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है परन्तु फिर भी यह समाज का स्थान कोई नहीं ले सकता। राज्य एक ऐसा साधन है जो सामाजिक समितियों को नियंत्रण में रखता है। राज्य समाज के सभी पक्षों को प्रभावित करता है तथा उनमें तालमेल बिठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

(iv) सरकार (Government)-सरकार एक ऐसा संगठन होता है जिसके पास आदेशात्मक कन्ट्रोल होता है जो वे राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने में सहायता करता है। सरकार को वैधता भी प्राप्त होती है क्योंकि सरकार किसी न किसी नियम के अन्तर्गत चुनी जाती है। इसे बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है। सरकार राज्य के उद्देश्यों को पूर्ण करने का एक साधन है। यह राज्य का यन्त्र तथा उसका प्रतीक है। सरकार के तीन अंग होते हैंविधानपालिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका।

  • विधानपालिका (Legislature)-यह सरकार का वह अंग है जिसका कार्य देश के लिए कानून बनाना है। देश की संसद् विधानपालिका का कार्य करती है।
  • कार्यपालिका (Executive) यह सरकार का वह अंग है जो विधानपालिका द्वारा बनाए गए कानूनों को देश में लागू करती है। राष्ट्रीय, प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल इसका हिस्सा होते हैं।
  • न्यायपालिका (Judiciary)-सरकार का वह अंग है जो विधानपालिका द्वारा बनाए तथा कार्यपालिका द्वारा लागू किए कानूनों का प्रयोग करता है। हमारे न्यायालय, जज़ इत्यादि इसका हिस्सा होते हैं।

इस प्रकार अलग-अलग राजनीतिक संस्थाएं भी देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए अपना योगदान देती हैं। यह संस्थाएं बिना एक-दूसरे के क्षेत्र में आए अपना कार्य ठीक ढंग से करती रहती हैं।

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प्रश्न 2.
पंचायती राज्य पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
हमारे देश में स्थानीय क्षेत्रों के विकास के लिए दो प्रकार की पद्धतियां हैं। शहरी क्षेत्रों का विकास करने के लिए स्थानीय सरकारें होती हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए पंचायती राज्य की संस्थाएं होती हैं। स्थानीय सरकार की संस्थाएं श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित होती हैं क्योंकि इनमें सरकार तथा स्थानीय समूहों में कार्यों को बांटा जाता है। हमारे देश की 70% जनता ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों को जिस स्थानीय सरकार की संस्था द्वारा शासित किया जाता है उसे पंचायत कहते हैं। पंचायती राज्य सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों के संस्थागत ढांचे को ही दर्शाता है।

जब भारत में अंग्रेजी राज्य स्थापित हुआ था तो सारे देश में सामन्तशाही का बोलबाला था। 1935 में भारत सरकार ने एक कानून पास किया जिसने प्रान्तों को पूर्ण स्वायत्तता दी तथा पंचायती कानूनों को एक नया रूप दिया गया। पंजाब में 1939 में पंचायती एक्ट पास हुआ जिसका उद्देश्य पंचायतों को लोकतान्त्रिक आधार पर चुनी हुई संस्थाएं बना कर ऐसी शक्तियां प्रदान करना था जो उनके स्वैशासन की इकाई के रूप में निभायी जाने वाली भूमिका के लिए ज़रूरी थीं। 2 अक्तूबर, 1961 ई० को पंचायती राज्य का तीन स्तरीय ढांचा औपचारिक रूप से लागू किया गया। 1992 में 73वां संवैधानिक संशोधन हुआ जिनमें शक्तियों का स्थानीय स्तर तक विकेन्द्रीकरण कर दिया गया। इससे पंचायती राज्य को बहुत-सी वित्तीय तथा अन्य शक्तियां दी गईं।

भारत के ग्रामीण समुदाय में पिछले 50 सालों में बहुत-से परिवर्तन आए हैं। अंग्रेज़ों ने भारतीय पंचायतों से सभी प्रकार के अधिकार छीन लिए थे। वह अपनी मर्जी के अनुसार गांवों को चलाना चाहते थे जिस कारण उन्होंने गांवों में एक नई तथा समान कानून व्यवस्था लागू की। आजकल की पंचायतें तो आज़ादी के बाद ही कानून के तहत सामने आयी हैं।
ए० एस० अलटेकर (A.S. Altekar) के अनुसार, “प्राचीन भारत में सुरक्षा, लगान इकट्ठा करना, कर लगाने तथा लोक कल्याण के कार्यक्रमों को लागू करना इत्यादि जैसे अलग-अलग कार्यों की जिम्मेदारी गांव की पंचायत की होती थी। इसलिए ग्रामीण पंचायतें विकेन्द्रीकरण, प्रशासन तथा शक्ति की बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्थाएं हैं।”

के० एम० पानीकर (K.M. Pannikar) के अनुसार, “यह पंचायतें प्राचीन भारत के इतिहास का पक्का आधार हैं। इन संस्थाओं ने देश की खुशहाली को मज़बूत आधार प्रदान किया है।”

संविधान के Article 30 के चौथे हिस्से में कहा गया है कि, “गांव की पंचायतों का संगठन-राज्य को गांव की पंचायतों के संगठन को सत्ता तथा शक्ति प्रदान की जानी चाहिए ताकि यह स्वैः सरकार की इकाई के रूप में कार्य कर सकें।”

गांवों की पंचायतें गांव के विकास के लिए बहुत-से कार्य करती हैं जिस लिए पंचायतों के कुछ मुख्य उद्देश्य रखे गए हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है।

पंचायतों के उद्देश्य (Aims of Panchayats) –

  1. पंचायतों को स्थापित करने का सबसे पहला उद्देश्य है लोगों की समस्याओं को स्थानीय स्तर पर ही हल करना। ये पंचायतें लोगों के बीच के झगड़ों तथा समस्याओं को हल करती हैं।
  2. गांव की पंचायतें लोगों के बीच सहयोग, हमदर्दी, प्यार की भावनाएं पैदा करती हैं ताकि सभी लोग गांव की प्रगति में योगदान दे सकें।
  3. पंचायतों को गठित करने का एक और उद्देश्य है लोगों को तथा पंचायत के सदस्यों को पंचायत का प्रशासन ठीक प्रकार से चलाने के लिए शिक्षित करना ताकि सभी लोग मिल कर गांव की समस्याओं के हल निकाल सकें। इस तरह लोक कल्याण का कार्य भी पूर्ण हो जाता है।

गांवों की पंचायतों का संगठन (Organisation of Village Panchayats)-गांवों में दो प्रकार की पंचायतें होती हैं। पहली प्रकार की पंचायतें वे होती हैं जो सरकार द्वारा बनाए कानूनों अनुसार चुनी जाती हैं तथा ये औपचारिक होती हैं। दूसरी पंचायतें वे होती हैं जो अनौपचारिक होती हैं तथा इन्हें जाति पंचायतें भी कहा जाता है। इनकी कोई कानूनी स्थिति नहीं होती है परन्तु यह सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

पंचायतों में तीन तरह का संगठन पाया जाता है-

  1. ग्राम सभा (Gram Sabha)
  2. ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)
  3. न्याय पंचायत (Nyaya Panchayat)

ग्राम सभा (Gram Sabha) गांव की सम्पूर्ण जनसंख्या में से बालिग व्यक्ति इस ग्राम सभा का सदस्य होता है तथा यह गांव की सम्पूर्ण जनसंख्या की एक सम्पूर्ण इकाई है। यह वह मूल इकाई है जिसके ऊपर हमारे लोकतन्त्र का ढांचा टिका हुआ है। जिस ग्राम की जनसंख्या 250 से अधिक होती है वहां ग्राम सभा बन सकती है। अगर एक गांव की जनसंख्या कम है तो दो गांव मिलकर ग्राम सभा का निर्माण करते हैं। ग्राम सभा में गांव का प्रत्येक वह बालिग सदस्य होता है जिस को वोट देने का अधिकार होता है। प्रत्येक ग्राम सभा का एक प्रधान तथा कुछ सदस्य होते हैं। यह पांच सालों के लिए चुने जाते हैं।

ग्राम सभा के कार्य (Functions of Gram Sabha)-पंचायत के सालाना बजट तथा विकास के लिए किए जाने वाले कार्यक्षेत्रों को ग्राम सभा पेश करती है तथा उन्हें लागू करने में मदद करती है। यह समाज कल्याण के कार्य, प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम तथा परिवार कल्याण के कार्यों को करने में मदद करती है। यह गांवों में एकता रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)-हर एक ग्राम सभा अपने क्षेत्र में से एक ग्राम पंचायत को चुनती है। इस तरह ग्राम सभा एक कार्यकारिणी संस्था है जो ग्राम पंचायत के लिए सदस्य चुनती है। इनमें 1 सरपंच तथा 5 से लेकर 13 पंच होते हैं। पंचों की संख्या गांव की जनसंख्या के ऊपर निर्भर करती है। पंचायत में पिछडी श्रेणियों तथा औरतों के लिए स्थान आरक्षित होते हैं। यह 5 वर्ष के लिए चुनी जाती है। परन्तु अगर पंचायत अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करे तो राज्य सरकार उसे 5 साल से पहले भी भंग कर सकती है। अगर किसी ग्राम पंचायत को भंग कर दिया जाता है तो उसके सभी पद भी अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। ग्राम पंचायत के चुनाव तथा पंचों को चुनने के लिए गांव को अलग-अलग हिस्सों में बांट लिया जाता है। फिर ग्राम सभा के सदस्य पंचों तथा सरपंच का चुनाव करते हैं। ग्राम पंचायत में स्त्रियों के लिए आरक्षित सीटें कुल सीटों का एक तिहायी (1/3) होती हैं तथा पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित सीटें गांव या उस क्षेत्र में उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार होती हैं। ग्राम पंचायत में सरकारी नौकर तथा मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते। ग्राम पंचायतें गांव में सफ़ाई, मनोरंजन, उद्योग, संचार तथा यातायात के साधनों का विकास करती हैं तथा गांव की समस्याओं का समाधान करती पंचायतों के कार्य (Functions of Panchayat) ग्राम पंचायत गांव के लिए बहुत-से कार्य करती है जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. ग्राम पंचायत का सबसे पहला कार्य गांव के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाना होता है। गांव में बहुत-सी सामाजिक बुराइयां भी पायी जाती हैं। पंचायत लोगों को इन बुराइयों को दूर करने के लिए प्रेरित करती है तथा उनके परम्परागत दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास करती है।

2. किसी भी क्षेत्र के सर्वपक्षीय विकास के लिए यह ज़रूरी है कि उस क्षेत्र से अनपढ़ता ख़त्म हो जाए तथा भारतीय समाज के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण भी यही है। भारतीय गांव भी इसी कारण पिछड़े हुए हैं। गांव की पंचायत गांव में स्कूल खुलवाने तथा लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करती है। बालिगों को पढ़ाने के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खुलवाने का भी प्रबन्ध करती है।

3. गांव की पंचायत गांव की स्त्रियों तथा बच्चों की भलाई के लिए भी कार्य करती है। वह औरतों को शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध करती है। बच्चों को अच्छी खुराक तथा उनके मनोरंजन के कार्य का प्रबन्ध भी पंचायत ही करती है।

4. ग्रामीण क्षेत्रों में मनोरंजन के साधन नहीं होते हैं। इसलिए पंचायतें ग्रामीण समाजों में मनोरंजन के साधन उपलब्ध करवाने का प्रबन्ध भी करती है। पंचायतें गांव में फिल्मों का प्रबन्ध, मेले लगवाने तथा लाइब्रेरी इत्यादि खुलवाने का प्रबन्ध करती है।

5. कृषि प्रधान देश में उन्नति के लिए कृषि के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होनी ज़रूरी होती है। पंचायतें लोगों को नई तकनीकों के बारे में बताती है, उनके लिए नए बीजों, उन्नत उर्वरकों का भी प्रबन्ध करती है ताकि उनके कृषि उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी हो सके।

6. गांवों के सर्वपक्षीय विकास के लिए गांवों में छोटे-छोटे उद्योग लगवाना भी जरूरी होता है। इसलिए पंचायतें गांव में सरकारी मदद से छोटे-छोटे उद्योग लगवाने का प्रबन्ध करती हैं। इससे गांव की आर्थिक उन्नति भी होती है तथा लोगों को रोजगार भी प्राप्त होता है।

7. कृषि के अच्छे उत्पादन में सिंचाई के साधनों का अहम रोल होता है। ग्राम पंचायत गांव में कुएँ, ट्यूबवैल इत्यादि लगवाने का प्रबन्ध करती है तथा नहरों के पानी की भी व्यवस्था करती है ताकि लोग आसानी से अपने खेतों की सिंचाई कर सकें।

8. गांव में लोगों में आमतौर पर झगड़े होते रहते हैं। पंचायतें उन झगड़ों को ख़त्म करके उनकी समस्याओं को हल करने का प्रयास करती हैं।

न्याय पंचायत (Nayaya Panchayat)-गांव के लोगों में झगड़े होते रहते हैं। न्याय पंचायत लोगों के बीच होने वाले झगड़ों का निपटारा करती है। 5-10 ग्राम-सभाओं के लिए एक न्याय पंचायत बनायी जाती है। इसके सदस्य चुने जाते हैं तथा सरपंच 5 सदस्यों की एक कमेटी बनाता है। इन को पंचायतों से प्रश्न पूछने का भी अधिकार होता है।.

पंचायत समिति (Panchayat Samiti)-एक ब्लॉक में आने वाली पंचायतें पंचायत समिति की सदस्य होती हैं तथा इन पंचायतों के सरपंच इसके सदस्य होते हैं। पंचायत समिति के सदस्यों का सीधा-चुनाव होता है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है, गांवों के विकास कार्यों को चैक करती है तथा पंचायतों को गांव के कल्याण के लिए निर्देश भी देती है। यह पंचायती राज्य के दूसरे स्तर पर है।

जिला परिषद् (Zila Parishad)—पंचायती राज्य का सबसे ऊँचा स्तर हैं ज़िला परिषद् जोकि जिले में आने वाले पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह भी एक कार्यकारी संस्था होती है। पंचायत समितियों के चेयरमैन, चुने हुए सदस्य, लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा के सदस्य सभी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। यह सभी जिले में पड़ते गांवों के विकास कार्यों का ध्यान रखते हैं। जिला परिषद् कृषि में सुधार, ग्रामीण बिजलीकरण, भूमि सुधार, सिंचाई बीजों तथा उर्वरकों को उपलब्ध करवाना, शिक्षा, उद्योग लगवाने इत्यादि जैसे कार्य करती है।

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प्रश्न 3.
हित समूह किस प्रकार दबाव समूहों के रूप में काम करते हैं ?
उत्तर-
पिछले कुछ समय के दौरान समाज में श्रम विभाजन नाम का संकल्प सामने आया है। श्रम विभाजन में अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग कार्य करते हैं जिस कारण बहुत से पेशेवर समूह सामने आए हैं। इन सभी पेशेवर समूहों के अपने-अपने हित होते हैं जिनकी प्राप्ति के लिए वे लगातार कार्य करते रहते हैं। इस प्रकार जो समूह किसी विशेष समूह के हितों का ध्यान रखते हैं तथा उन्हें प्राप्त करने के प्रयास करते हैं उन्हें हित समूह कहा जाता है। आजकल के लोकतांत्रिक समाजों में यह राजनीतिक निर्णय तथा अन्य प्रक्रियाओं को अपने हितों के अनुसार बदलने के प्रयास करते रहते हैं। यह समूह आवश्यकता पड़ने पर राजनीतिक दलों की भी सहायता करते हैं तथा उनके द्वारा सरकारी फैसलों को प्रभावित करने के प्रयास करते हैं। लगभग सभी हित समूहों का एक ही उद्देश्य होता है कि उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान हासिल हो। इसलिए वे सरकार पर उनके लिए नीतियां बनाने का दबाव डालते हैं। जब यह दबाव डालना शुरू कर देते हैं तो इन्हें दबाव समूह भी कहा जाता है

दबाव समूह संगठित या असंगठित होते हैं जो सरकारी नीतियों को प्रभावित करते हैं तथा अपने हितों को आगे बढ़ाते हैं। यह राजनीति को जिस ढंग से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं उसका वर्णन इस प्रकार है-

  • यह दबाव समूह किसी विशेष मुद्दे पर आंदोलन चलाते हैं ताकि जनता का समर्थन हासिल किया जा सके। यह संचार साधनों की सहायता लेते हैं ताकि जनता का अधिक-से-अधिक ध्यान खींचा जा सके।
  • यह साधारणतया हड़तालें करवाते हैं, रोष मार्च निकालते हैं तथा सरकारी कार्यों को रोकने का प्रयास करते हैं। यह हड़ताल की घोषणा करते हैं तथा धरने पर बैठते हैं ताकि अपनी आवाज़ उठा सकें। अधिकतर मजदूर संगठन इस प्रकार से अपनी बातें मनवाते हैं।
  • साधारणतया व्यापारी समूह लॉबी का निर्माण करते हैं जिसके कुछ समान हित होते हैं ताकि सरकार पर उसकी नीतियां बदलने के लिए दबा बनाया जा सके।
  • प्रत्येक दबाव समूह या हित समूह किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़ा होता है। यह समूह चुनाव के समय अपने-अपने राजनीतिक दल का तन-मन-धन से समर्थन करते हैं ताकि वह चुनाव जीत कर उनकी मांगें पूर्ण करें।

प्रश्न 4.
धर्म को परिभाषित कीजिए। इसकी विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
सामाजिक शास्त्रियों के लिए सब से मुश्किल काम धर्म की परिभाषा देना है व ऐसी परिभाषा देना जिस पर सभी एक मत हों। इसका कारण है कि धर्म की प्रकृति काफ़ी जटिल है तथा इसके बारे में समाजशास्त्री अलगअलग विचार रखते हैं। यह इस कारण है कि अलग-अलग समाजशास्त्री अलग-अलग देशों व भिन्न-भिन्न संस्कृतियों से सम्बन्ध रखते हैं और इस कारण उनकी धर्म के बारे में व्याख्या भिन्न-भिन्न होती है। दुनिया में बहुत सारे धर्म हैं तथा इसी विविधता के कारण वह सभी धर्म की एक परिभाषा पर सहमत नहीं हैं। परन्तु फिर भी अलगअलग समाजशास्त्रियों ने धर्म की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  • दुर्जीम (Durkheim) के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों व आचरणों की एक ठोस व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संगठित करती है।”
  • फ्रेज़र (Frazer) के अनुसार, “धर्म मानव रूप अपने से श्रेष्ठ शक्तियों में विश्वास है। जिस सम्बन्ध में यह विश्वास किया जाता है वह प्रकृति व मानवीय जीवन का मार्ग दर्शन हैं व इसको नियन्त्रण करती है।”
  • मैकाइवर (MacIver) के अनुसार, “धर्म के साथ जैसे कि हम समझते हैं कि केवल मनुष्यों के बीच का सम्बन्ध ही नहीं है बल्कि एक सर्वोच्च शक्ति के प्रति मनुष्य का सम्बन्ध भी सूचित होता है।”
  • मैलिनोवस्की (Malinowski) के अनुसार, “धर्म क्रिया का एक ढंग है व साथ ही विश्वास की एक व्यवस्था है। धर्म एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि धर्म का आधार आलौकिक शक्ति पर विश्वास है और पद शक्ति मानवीय शक्ति से श्रेष्ठ व शक्तिशाली समझी जाती है। यह जीवन के सभी तत्त्वों यह नियन्त्रण रखती है जिनको आदमी अधिक महत्त्वपूर्ण समझता है। इसका एक आधार भावनात्मक होता है। इस शक्ति को खुश रखने के लिए कई विधियां या संस्कार होते हैं। स्पष्ट है कि धर्म की स्वीकृति परा-सामाजिक है क्योंकि धर्म की पुष्टि परा सामाजिक शक्तियों द्वारा होती है। समाज में धर्म का प्रयोग काफ़ी व्यापक रूप में किया जाता है समाजशास्त्रियों अनुसार धर्म मानव की आदतों व भावनात्मक अनुभूतियों की प्रतिनिधिता करता है। डर की भावनाओं के कारण व कई वस्तुओं प्रति मानव की श्रद्धा के कारण धर्म का विकास हुआ है।

धर्म के तत्त्व या विशेषताएं (Elements or Characteristics of Religion). –

1. आलौकिक शक्ति में विश्वास (Belief in Super natural Power)-धर्म विचारों, भावनाओं व विधियों की जटिलता है जो आलौकिक शक्तियों में विश्वास प्रकट करती है यानि यह शक्ति सर्वव्यापक व सर्व शक्तिमान है। यह विश्वास किया जाता है कि प्रत्येक मानवीय क्रिया का संचालन इसी शक्ति द्वारा होता है। इस प्रकार धर्म की सब से पहली विशेषता आलौकिक शक्ति पर विश्वास है। इस आलौकिक शक्ति के आधार तो भिन्न-भिन्न होते हैं पर यह शक्ति सारे धर्मों में आवश्यक तौर पर पाई जाती है।

2. संस्कार (Rituals)-धार्मिक रीतियां धर्म द्वारा निर्धारित क्रियाएं हैं। यह अपने आप में पवित्र हैं व पवित्रता की प्रतीक भी हैं। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म के अनुसार कई तरह के व्रत व तीर्थ यात्रा धार्मिक संस्कार है। एक धर्म के पैरोकारों को धार्मिक संस्कार एक सूत्र में बांधते हैं जबकि दूसरे धर्म के पैरोकारों को वह खुद से भिन्न समझते हैं।

3. धार्मिक कार्य विधियां (Religion Acts)—प्रत्येक धर्म की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी विभिन्न धार्मिक गतिविधियां हैं। इन कार्य विधियों द्वारा मानव विशेष आलौकिक शक्तियों को खुश करने की कोशिश करता है और इन्हें सिर चढ़ा कर इन शक्तियों में अपना विश्वास प्रकट करता है। यह कार्य विधियां दो प्रकार की हैं। पहली वह क्रियाएं जिसको पूरा करने के लिए विशेष धार्मिक ज्ञान की आवश्यकता है। आम आदमी यह काम नहीं कर सकता। इनको प्रत्येक धर्म में धार्मिक पण्डितों द्वारा पूरा कराया जाता है। दूसरा साधारण धार्मिक क्रियाएं हैं जैसे प्रार्थना करना, तीर्थ यात्रा आदि जिसके साधारण व्यक्ति आसान तरीके से पूरी कर लेता है। पर प्रत्येक धर्म में यह विश्वास प्रचलित है कि धार्मिक कार्यों को पूरा करके ही व्यक्ति दैवीय शक्तियों को खुश रख सकता है।

4. धार्मिक प्रतीक व चिह्न (Religious Symbols)—प्रत्येक धर्म में आलौकिक शक्ति के दर्शनों के लिए कुछ चिह्नों व प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। जैसे हिन्दू धर्म में मूर्ति को दिव्य शक्ति के रूप में पूजा जाता है। प्रत्येक धर्म के साथ आलौकिक शक्तियों सम्बन्धी कई तरह की कहानियां जुड़ी होती हैं। लोगों को यह विश्वास होता है कि वह इन आलौकिक कथाओं में विश्वास करके भगवान् को खुश कर सकते हैं।

5. धार्मिक प्रस्थिति (Religious Hierarchy)-किसी भी धर्म के सभी पैरोकारों की धार्मिक समूह में प्रस्थिति समान नहीं होती। प्रत्येक धर्म में प्रस्थितियों की व्यवस्था मिलती है। उच्च पदति पर वह लोग होते हैं जो कि धार्मिक क्रियाओं को पूरा करने में माहिर होते हैं इन्हें दूसरे व्यक्तियों की तुलना में पवित्र समझा जाता है जैसे कि पुरोहित या पण्डित। दूसरी जगह वह लोग आते हैं जिन्हें अपने धार्मिक प्रतिनिधियों व सिद्धान्तों में पूरा विश्वास होता है। सबसे नीचे वह व्यक्ति आते हैं जिन्हें पवित्र नहीं माना जाता और वह धर्म द्वारा अपवित्र करार दिए काम करते हैं। अनेकों धर्मों में इस श्रेणी पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिए जाते हैं।

6. धार्मिक ग्रन्थ (Religious Books)—प्रत्येक धर्म का एक प्रमुख लक्षण रहा है, उससे सम्बन्धित ग्रन्थ या पुस्तकें। हर एक धर्म से सम्बन्धित कुछ धार्मिक लोग धार्मिक ग्रन्थ लिखते हैं तथा प्रत्येक धर्म की कुछ कथाएं, कहानियां होती हैं जिनका वर्णन इन ग्रन्थों में होता है; जैसे हिन्दू धर्म में रामायण, महाभारत, गीता, चार वेद, मनुस्मृति उपनिषद आदि होते हैं। इस प्रकार मुसलमानों में कुरान, सिक्खों में गुरु ग्रन्थ साहिब व ईसाइयों में बाईबल होते हैं।

7. पवित्रता की धारणा (Concept of Sacredness)-धर्म से सम्बन्धित सभी चीज़ों को पवित्र समझा जाता है। व्यक्ति जिस धर्म से सम्बन्धित होता है, उस धर्म की प्रत्येक वस्तु उसके लिए पवित्र होती है। हम कह सकते हैं कि धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित ऐसी व्यवस्था है जो नैतिक तौर पर समुदाय को इकट्ठा करती है।

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प्रश्न 5.
धर्म किस प्रकार समाज के लिए उपयोगी व हानिकारक है ?
उत्तर-
धर्म के निम्नलिखित लाभ हैं :
1. सामाजिक संगठन को स्थिरता प्रदान करना (To give stability to social organization)समाज को स्थिरता प्रदान करने में और सामाजिक संगठन को बनाए रखने में धर्म का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। एक धर्म में लाखों व्यक्ति होते हैं, जिनके विचार व विश्वास साझे होते हैं। साझे विश्वास, प्रतिमान, व्यवहार के तरीके कम-से-कम उस धार्मिक समूह को एक कर देते हैं व उस समूह में एकता बन जाती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न समूहों में एकता से सामाजिक संगठन दृढ़ व मज़बूत हो जाता है। प्रत्येक धर्म अपने धर्म के लोगों को दान देने, दया करने, सहयोग देने के लिए कहते हैं जिस कारण समाज में मज़बूती व स्थिरता बनी रहती है। इस तरह धर्म लोगों को अस्थिरता से बचाता है व समाज को स्थिरता प्रदान करता है।

2. सामाजिक जीवन को निश्चित रूप देना (To give definite form to social life) कोई भी धर्म रीति-रिवाज़ों रूढ़ियों का समूह होता है यह रीति-रिवाज व रूढ़ियां संस्कृति का ही भाग होते हैं। इस तरह धर्म के कारण सामाजिक वातावरण व संस्कृति में सन्तुलित बन जाता है। इस सन्तुलन के कारण सामाजिक जीवन को निश्चित रूप मिल जाता है। धर्म करण लोग रीति-रिवाजों तथा रूढ़ियों का आदर करते हैं और अन्य लोगों से सन्तुलन बना कर चलते हैं। इस तरह के सन्तुलन से ही सामाजिक जीवन सही ढंग से चलता रहता है व यह सब धर्म के कारण ही होता है।

3. पारिवारिक जीवन को संगठित करना (To organise family life)-भिन्न-भिन्न धर्मों में विवाह धार्मिक परम्पराओं के अनुसार होता है। धार्मिक परम्पराओं द्वारा परिवार स्थायी बन जाता है व उसका संगठन, जीवन आदि मज़बूत होता है। प्रत्येक धर्म परिवार के भिन्न-भिन्न सदस्यों के कर्त्तव्य व अधिकारों को निश्चित करता है। यह पिता, माता, बच्चों को बताता है कि उनके एक-दूसरे के प्रति क्या कर्त्तव्य हैं ? सारे परिवार में रहते हुए एकदूसरे के प्रति अपने कर्त्तव्यों की पालना करते हैं तथा एक-दूसरे के परिवार चलाने के लिए सहयोग करते हैं। इस तरह परिवार के सभी सदस्यों में सन्तुलन बना रहता है। परिवार में किए जाने वाले आमतौर पर सभी काम धर्म द्वारा निश्चित किए जाते हैं।

4. भेद-भाव दूर करना (To remove mutual differences)-दुनिया में बहुत सारे धर्म हैं व सभी धर्म ही एक-दूसरे के साथ लड़ने का नहीं बल्कि एक-दूसरे से प्यार से रहने का उपदेश देते हैं तथा यह भी कहते हैं कि वह आपसी भेद-भाव दूर करें। आपसी भेद-भाव को दूर करने से समाज में एकता बढ़ती है। इन धर्मों ने व उन्हें चलाने वालों ने समाज की नई जातियों के लोगों को आगे बढ़ाया।

5. सामाजिक नियन्त्रण रखना (To keep social control)-धर्म सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख साधनों में एक है। धर्म के पीछे सभी समुदाय की अनुमति होती है। व्यक्ति पर न चाहते हुए भी धर्म ज़बरदस्ती प्रभाव डालता है तथा वह इसका प्रभाव भी महसूस करता है कि धर्म का उनके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव होता है। धर्म अपने सदस्यों के जीवन को इस तरह नियन्त्रित और निर्देशित करता है कि व्यक्ति को धर्म के आगे झुकना व उसका कहना मानना ही पड़ता है। धर्म आलौकिक शक्ति पर विश्वास है और लोग उस आलौकिक शक्ति के क्रोध से बचने के लिए कोई ऐसा काम नहीं करते जो कि उसकी इच्छाओं के विरुद्ध हो। इस प्रकार लोगों के व्यवहार व क्रिया करने के तरीके धर्म द्वारा नियन्त्रित होते हैं।।

6. समाज कल्याण (Social Welfare)—प्रत्येक धर्म अपने सदस्यों को समाज कल्याण के काम करने के लिए उत्साहित करता है दुनिया के सभी धर्मों में दान देना पवित्र माना जाता है। लोग धर्मशालाएं, अनाथालय, अस्पताल, आश्रम व स्कूलों को खुलवा कर वहां दान देकर उनकी मदद करते हैं।

7. व्यक्ति का विकास (Development of Man)-धर्म समाज का विकास करता है उसकी एकता, व सामाजिक संगठन का भी विकास करता है बल्कि वह व्यक्ति का विकास भी करता है। धर्म व्यक्ति का समाजीकरण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म उसको समाज में व्यवहार करने के तरीके बताता है, समाज के प्रतिमानों के बारे में बताता है। धर्म व्यक्तियों में भाई-चारे व एकता का निर्माण करता है। धर्म व्यक्ति में आध्यात्मिकता का विकास करता है धर्म से व्यक्तियों का आत्मबल बना रहता है। धर्म मानव को बड़ी-बड़ी मुश्किलों में स्थिर रहने की प्रेरणा देता है। धर्म लोगों को दान देना, सहयोग करना, सहनशीलता रखने की प्रेरणा देता है ताकि समाज के बेसहारा लोगों को सहारा मिल सके, क्योंकि इन बेसहारा लोगों का धर्म के सिवा और कोई नहीं होता।

धर्म के दोष अथवा अकार्य (Demerits or Dysfunctions of Religion) –

1. धर्म सामाजिक उन्नति के रास्ते में रुकावट बनता है (Religion is an obstacle)-धर्म प्रकृति से ही रूढ़िवादी होता है व परिवर्तन प्रकृति का ही नियम है। समाज में परिवर्तन आते रहते हैं जिनके कारण मौलिक तौर पर समाज की प्रगति तो हो जाती है पर आध्यात्मिक तौर पर नहीं होती। धर्म आमतौर पर परिवर्तन का विरोधी होता है। धर्म स्थिति को बदलने के पक्ष में नहीं बल्कि जैसे का तैसा बन कर रखने के पक्ष में होता है। बदले हुए हालात धर्म के अनुसार नहीं होते जिस कारण धर्म परिवर्तन का विरोध करता है। परिवर्तन का विरोध करके यह सामाजिक उन्नति के रास्ते में रुकावट बनता है।

2. व्यक्ति किस्मत के सहारे रह जाता है (Man become fatalist)-धर्म यह कहता है कि जो कुछ व्यक्ति की किस्मत में लिखा है वह उसको प्राप्त होगा। उसको न तो उससे अधिक और न ही उससे कम प्राप्त होगा। ऐसा सोचकर कुछ व्यक्ति अपना कर्म करना बन्द कर देते हैं कि यदि मिलना ही किस्मत के अनुसार है तो काम करने का क्या लाभ है? जो कुछ भी किस्मत में लिखा है वह तो मिल ही जाएगा। इसी तरह व्यक्ति किस्मत के सहारे रह जाता है।

3. राष्ट्रीय एकता का विरोधी (Opposite to National Unity) धर्म को हम राष्ट्रीय एकता का विरोधी ही कह सकते हैं। आमतौर पर प्रत्येक धर्म अपने-अपने सदस्य को अपने धर्म के नियमों पर चलने की शिक्षा देते हैं व यह नियम आमतौर पर दूसरे धर्म के विरोधी होते हैं। अपने धर्म को प्यार करते-करते कई बार लोग दूसरे धर्मों का विरोध करने लग जाते हैं। इस विरोध के कारण धार्मिक संकीर्णता व असहनशीलता पैदा होती है।

4. धर्म सामाजिक समस्याएं बढ़ाता है (Religion increases the Social Problems)—प्रत्येक धर्म में बहुत सारे कर्मकाण्ड, रीतियां आदि होते हैं। धर्म के ठेकेदार, पुजारी, महन्त इत्यादि इन कर्मकाण्डों को ज़रूरी समझते हैं। इन कर्मकाण्डों के कारण व्यक्ति अन्धविश्वासों में फँस जाता है। धर्म के ठेकेदार लोगों को दूसरे धर्मों के विरुद्ध भड़काते हैं। धर्म के कारण ही हमारे देश में कई समस्याएं हैं जैसे बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, विधवा विवाह न होना, अस्पृश्यता, गरीबी आदि।

5. धर्म परिवर्तन के रास्ते में रुकावट है (Religion is an obstacle in the way of change)-धर्म हमेशा परिवर्तन के रास्ते में रुकावट बनता है। दुनिया में भिन्न-भिन्न प्रकार की नई खोजें होती रहती हैं। धर्म क्योंकि रूढ़िवादी होता है इस कारण वह परिवर्तन का हमेशा विरोधी होता है। समाज में होने वाले किसी भी परिवर्तन का विरोध धर्म सब से पहले करता है।

6. धर्म समाज को बांटता है (Religion divides, society)-धर्म समाज को बांट देता है। एक ओर तो वह लोग होते हैं जो अनपढ़ होते हैं व धर्म द्वारा फैलाए अन्ध-विश्वासों, कुरीतियों में फंसे होते हैं व दूसरी ओर वह पढ़े-लिखे होते हैं जो इन धर्म के अन्ध-विश्वासों व कुरीतियों से दूर होते हैं। अनपढ़ अन्ध-विश्वासों को मानते हैं व पढ़े-लिखे इन अन्ध-विश्वासों का विरोध करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि दोनों धर्म एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं व उनमें अनुकूलन मुश्किल हो जाता है।

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प्रश्न 6.
आदिम, पशुपालक, कृषि तथा औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं की विशेषताओं की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
(i) आदिम अर्थव्यवस्था (Primitive Economy) बहुत-से कबीले दूर-दूर के जंगलों तथा पहाड़ों पर रहते हैं। चाहे यातायात के साधनों के कारण बहुत-से कबीले मुख्य धारा में आकर मिल गए हैं तथा उन्होंने कृषि के कार्य को अपना लिया है परन्तु फिर भी कुछ कबीले ऐसे हैं जो अभी भी भोजन इकट्ठा करके तथा शिकार करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वे जड़ें, फल, शहद इत्यादि इकट्ठा करते हैं तथा छोटे-छोटे जानवरों का शिकार भी करते हैं। कुछ कबीले कई चीज़ों का लेन-देन भी करते हैं। इस तरह कृषि के न होने की सूरत में वे अपनी आवश्यकताएं पूर्ण कर लेते हैं।

जो कबीले इस प्रकार से अपनी ज़रूरतें पूर्ण करते हैं उनको प्राचीन कबीले कहा जाता है। यह लोग शिकार करने के साथ-साथ जंगलों से फल, शहद, जड़ें इत्यादि भी इकट्ठा करते हैं। इस तरह वे कृषि के बिना भी अपनी आवश्यकताएं पूर्ण कर लेते हैं। जिस प्रकार से वे जानवरों का शिकार करते हैं उससे उनकी संस्कृति के बारे में भी पता चल जाता है। उनके समाजों में औज़ारों तथा साधनों की कमी होती है जिस कारण ही वे प्राचीन कबीलों के प्रतिरूप होते हैं। उनके समाजों में अतिरिक्त उत्पादन की धारणा नहीं होती है। इसका कारण यह है कि वे न तो अतिरिक्त उत्पादन को सम्भाल सकते हैं तथा न ही अतिरिक्त चीजें पैदा कर सकते हैं। वह तो टपरीवास अथवा घुमन्तु जीवन व्यतीत करते हैं।

(ii) पशुपालक आर्थिकता (Pastoral Economy)-पशुपालक अर्थव्यवस्था जनजातीय अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। लोग अलग-अलग उद्देश्यों के लिए पशुओं को पालते हैं जैसे कि दूध लेने के लिए, मीट के लिए, ऊन के लिए, भार ढोने के लिए इत्यादि। भारत में रहने वाले चरवाहे कबीले स्थायी जीवन व्यतीत करते हैं तथा मौसम के अनुसार ही चलते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले कबीले अधिक सर्दी के समय मैदानी क्षेत्रों में अपने पशुओं के साथ चले जाते हैं तथा गर्मियों में वापस अपने क्षेत्रों में चले आते हैं। भारतीय कबीलों में प्रमुख चरवाहा कबीला हिमाचल प्रदेश में रहने वाला गुज्जर कबीला है जो व्यापार के उद्देश्य से गाय तथा भेड़ों को पालता है। इसके साथ-साथ तमिलनाडु के टोडस कबीले में भी यह प्रथा प्रचलित है। यह कबीला जानवरों को पालता है तथा उनसे दूध प्राप्त करता है। दूध कों या तो विनिमय के लिए प्रयोग किया जाता है या फिर अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए प्रयोग किया जाता है। भारतीय कबीलों में चरवाहे साधारणतया स्थापित जीवन व्यतीत करते हैं तथा उनसे कई प्रकार की चीजें जैसे कि दूध, ऊन, मांस इत्यादि प्राप्त करते हैं। वे पशुओं जैसे कि भेड़ों, बकरियों इत्यादि का व्यापार भी करते हैं।

(iii) कृषि अर्थव्यवस्था (Agrarian Economy)-ग्रामीण समाज का मुख्य व्यवसाय कृषि पेशा या उस पर आधारित कार्य होते हैं क्योंकि ग्रामीण समाज प्रकृति के बहुत ही नज़दीक होता है। क्योंकि इनमें प्रकृति के साथ बहुत ही नज़दीकी के सम्बन्ध होते हैं इस कारण यह जीवन को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखते हैं। चाहे गांवों में और पेशों को अपनाने वाले लोग भी होते हैं जैसे कि बढ़ई, लोहार इत्यादि परन्तु यह बहुत कम संख्या में होते हैं तथा यह भी कृषि से सम्बन्धित चीजें ही बनाते हैं। ग्रामीण समाज में भूमि को बहुत ही महत्त्वपूर्ण समझा जाता है तथा लोग यहीं पर रहना पसन्द करते हैं क्योंकि उनका जीवन भूमि पर ही निर्भर होता है। यहां तक कि लोगों तथा गांव की आर्थिक व्यवस्था तथा विकास कृषि पर निर्भर करता है।

(iv) औद्योगिक अर्थव्यवस्था (Industrial Economy)-शहरी अर्थव्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था का नाम भी दिया जा सकता है क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था उद्योगों पर ही आधारित होती है। शहरों में बड़े-बड़े उद्योग लगे होते हैं जिन में हज़ारों लोग कार्य करते हैं। बड़े उद्योग होने के कारण उत्पादन भी बड़े पैमाने पर होता है। इन बड़े उद्योगों के मालिक निजी व्यक्ति होते हैं। उत्पादन मण्डियों के लिए होता है। ये मण्डियां न केवल देसी बल्कि विदेशी भी होती हैं। कई बार तो उत्पादन केवल विदेशी मण्डियों को ध्यान में रख कर किया जाता है। बड़ेबड़े उद्योगों के मालिक अपने लाभ के लिए ही उत्पादन करते हैं तथा मजदूरों का शोषण भी करते हैं।

शहरी समाजों में पेशों की भरमार तथा विभिन्नता पायी जाती है। प्राचीन समय में तो परिवार ही उत्पादन की इकाई होता था। सारे कार्य परिवार में ही हुआ करते थे परन्तु शहरों के बढ़ने के कारण हज़ारों प्रकार के पेशे तथा उद्योग विकसित हो गए हैं। उदाहरण के लिए एक बड़ी फैक्टरी में सैंकड़ों प्रकार के कार्य होते हैं तथा प्रत्येक कार्य को करने के लिए एक विशेषज्ञ की ज़रूरत होती है। उस कार्य को केवल वह व्यक्ति ही कर सकता है जिस को उस कार्य में महारथ हासिल हो। इस प्रकार शहरों में कार्य अलग-अलग लोगों के पास बंटे हुए होते हैं जिस कारण श्रम विभाजन बहुत अधिक प्रचलित है। लोग अपने-अपने कार्य में माहिर होते हैं जिस कारण विशेषीकरण का बहुत महत्त्व होता है। इस प्रकार शहरी अर्थव्यवस्था के दो महत्त्वपूर्ण अंग श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण हैं।

प्रश्न 7.
श्रम विभाजन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
दुर्शीम ने 1893 में फ्रेन्च भाषा में अपनी प्रथम पुस्तक (De La Division Trovail Social) नाम से प्रकाशित की चाहे यह उसका पहला ग्रन्थ था पर यह उसकी प्रसिद्धि की आधारशिला थी। इसी पर उसको 1893 में डॉक्टरेट भी मिली थी दीम ने उसको तीन भागों में बांटा वह तीन भाग हैं

1. श्रम विभाजन के कार्य (Functions of Division of Labour)-दुर्थीम हर सामाजिक तथ्य को एक नैतिक तथ्य के रूप में स्वीकार करता है। कोई भी सामाजिक प्रतिमान नैतिक आधार पर ही जीवित सुरक्षित रह सकता है। एक कार्यवादी के रूप में दुर्थीम ने सब से पहले श्रम विभाजन के कार्यों की खोज की। दुर्थीम ने सब से पहले काम शब्द के बारे में बताया कि यह क्या होता है।

  1. कार्य से अर्थ गति व्यवस्था अर्थात् क्रिया से है।
  2. कार्य का अर्थ इस क्रिया या गति व उसके अनुरूप ज़रूरत के आपसी सम्बन्ध से है अर्थात् क्रिया से पूरी होने वाली ज़रूरत से है।

दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन के कार्य से उनका अर्थ यह है कि श्रम विभाजन की प्रक्रिया समाज की पहचान के लिए किन मौलिक ज़रूरतों को पूरा करती है। काम तो वह काम है जिसके न होने पर उसके तत्त्वों की मौलिक जरूरतों की पूर्ति नहीं हो सकती।

आम तौर पर यह कहा जाता है कि श्रम विभाजन का कार्य सभ्यता का विकास करना है क्योंकि श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ विशेषीकरण के फलस्वरूप समाज की सभ्यता बढ़ती है। दुर्थीम ने इसका विरोध किया है उन्होंने सभ्यता के विकास को श्रम विभाजन का काम नहीं माना। उनका मतलब स्रोत का मतलब काम नहीं है। सुखों के बढ़ने या बौधिक या भौतिक विकास श्रम विभाजन के फलस्वरूप पैदा होते हैं इसलिए यह उनके परिणाम हैं काम नहीं। काम का मतलब परिणाम नहीं होता।

इस प्रकार सभ्यता का विकास श्रम विभाजन का काम नहीं है। दुर्थीम के अनुसार नए समूहों का निर्माण व उनकी एकता ही श्रम विभाजन के काम है। दुर्थीम ने समाज की पहचान से सम्बन्धित किसी नैतिक ज़रूरत को ही श्रम विभाजन के काम के रूप में ढूंढ़ने की कोशिश की है। उनके अनुसार समाज के सदस्यों की संख्या व उनके आपसी सर्पकों के बढ़ने से ही धीरे-धीरे श्रम विभाजन की प्रक्रिया का विकास हुआ है। इस प्रक्रिया से अनेक नएनए व्यापारिक व सामाजिक समूहों का निर्माण हुआ। इन भिन्न-भिन्न समूहों में एकता ही समाज की पहचान के लिए ज़रूरी है। दुर्थीम के अनुसार समाज की इसी ज़रूरत को श्रम विभाजन द्वारा पूरा किया जाता है। जहां एक और श्रम विभाजन से सामाजिक समूहों का निर्माण होता है वहां दूसरी ओर इन्हीं समूहों की आपसी एकता व उनकी सामूहिकता बनी रहती है।

इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का कार्य समाज में, एकता स्थापित करना है। श्रम विभाजन मनुष्यों की क्रियाओं की भिन्नता से सम्बन्धित है यह भिन्नता ही समाज की एकता का आधार है। यह भिन्नता दो व्यक्तियों को करीब लाती है जिससे मित्रता के सम्बन्ध निर्धारित होते हैं। यह दो व्यक्तियों के मन में आपसी एकता का भाव पैदा करता है। – इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन समूहों का निर्माण करता है व उनमें एकता पैदा करता है। इस एकता को बनाए रखने के लिए कानूनों का निर्माण किया जाता है। यह कानून दमनकारी भी होते हैं व प्रतिकारी भी। इन कानूनों के आधार पर ही दो भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक एकताओं का निर्माण होता है। यह दो प्रकार समाज की भिन्न-भिन्न जीवन शैलियों के परिणाम हैं। दमनकारी कानून का सम्बन्ध आदमी की आम प्रवृति से है, समानताओं से है जब कि प्रतिकारी कानून का सम्बन्ध विभिन्नताओं से या श्रम विभाजन से है। दमनकारी कानून से जिस प्रकार की एकता मिलती है, उसके दुर्थीम ने यान्त्रिक एकता का नाम दिया है व प्रतिकारी कानून से आंगिक एकता पैदा होती है।

इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार समाज में दो प्रकार की सामाजिक एकताएं पाई जाती हैं-

1. यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-दुर्थीम के अनुसार यान्त्रिक एकता को हम समाज की दण्ड संहिता में अर्थात् दमनकारी कानूनों में देख सकते हैं। समाज के सदस्यों में मिलने वाली समानताएं इस एकता का आधार है। जिस समाज के सदस्यों में समानताओं से भरपूर जीवन होता है, जहां विचारों, विश्वासों, कार्यों व जीवन शैली के आम प्रतिमान व आदर्श प्रचलित होते हैं व जो समाज इन समानताओं के परिणामस्वरूप एक सामूहिक इकाई के रूप में सोचता है क्रिया करता है। वह यान्त्रिक एकता का प्रदर्शन करता है अर्थात् उसके सदस्य एक यन्त्र या मशीन की भान्ति आपस में संगठित रहते हैं। इस एकता में दुर्थीम ने अपराध, दण्ड व सामूहिक चेतना को भी लिया है, दुर्थीम के अनुसार यह एक ऐसी सामाजिक एकता है जो चेतना की उन निश्चित अवस्थाओं में से पैदा होती है जोकि किसी समाज के सदस्यों के लिए आम है। इस को असल में दमनकारी कानून पेश करता है।

2. आंगिक एकता (Organic Solidarity)-दुर्थीम के अनुसार दूसरी एकता आंगिक एकता है। दमनकारी कानून की शक्ति सामूहिक चेतना में होती है। सामूहिक चेतना समानताओं से शक्ति प्राप्त करती है। आदिम समाज में दमनकारी कानून की प्रधानता होती थी क्योंकि उनमें समानताएं सामाजिक जीवन का आधार है। दुर्थीम के अनुसार आधुनिक समाज श्रम विभाजन व विशेषीकरण से प्रभावित है, जिसमें समानताओं की जगह पर विभिन्नताएं प्रमुख हैं। सामूहिक जीवन की यह विभिन्नता व्यक्तिगत चेतना को प्रमुखता देती है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप में समूह के साथ बंधा नहीं रहता। इस समाज में मनुष्यों के आपसी सम्बन्धों का महत्त्व काफ़ी अधिक होता है। यही कारण है कि दुर्थीम ने आधुनिक समाज में दमनकारी कानून की जगह प्रतिकारी कानूनों की प्रधानता बताई है। विभिन्नता पूर्ण जीवन में मनुष्यों को एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल एक काम पर योग्यता प्राप्त कर सकता है और सभी कार्यों के लिए उसको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। समूह के सदस्यों की यह आपसी निर्भरता, उनकी व्यक्तिगत असमानता उन्हें करीब आने के लिए मजबूर करती है जिसके आधार पर समाज मे एकता की स्थापना होती है। इस एकता के दुर्थीम ने आंगिक एकता कहा है। यह प्रतिकारी कानून के कारण होती है।

दुर्थीम के कारण यह एकता शारीरिक एकता के समान है हाथ, पांव, नाक, कान, आंखें इत्यादि अपने भिन्नभिन्न कार्यों के कारण स्वतन्त्र अंगों के रूप में काम करते हैं पर काम तो ही सम्भव है जब तक कि वह एकदूसरे से मिले हुए हों इस प्रकार शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों की एकता आपसी निर्भरता पर टिकी हुई है। दुर्थीम के अनुसार जनसंख्या बढ़ने के साथ ज़रूरतें भी बढ़ती है। इन्हें पूरा करने के लिए श्रम विभाजन व विशेषीकरण हो जाता है जिस कारण समाज में आंगिक एकता दिखाई देती है।

3. समझौते पर आधारित एकता (Contractual Solidarity)-आम एकता व आंगिक एकता का अध्ययन करने के पश्चात् दुर्थीम ने एक एकता बारे बताया है जिसको वह समझौते पर आधारित एकता कहता है। दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन की प्रक्रिया समझौते पर आधारित सम्बन्धों को जन्म देती है। समूह के लोग आपसी समझौते के आधार पर एक-दूसरे की सेवाओं को प्राप्त करते हैं व आपस में सहयोग करते हैं। यह सत्य है कि आधुनिक समाज में समझौतों के आधार पर लोगों में सहयोग व एकता स्थापित होती है। पर श्रम विभाजन का कार्य समझौतों पर आधारित एकता को उत्पन्न करना ही नहीं है। दुर्थीम के अनुसार यह एकता व्यक्तिगत तथ्य है चाहे यह समाज द्वारा ही संचालित होती है।

श्रम विभाजन के कारण (Causes of Division of Labour) – दुर्थीम ने श्रम विभाजन की व्याख्या समाजशास्त्रीय आधार पर की है। उसने श्रम विभाजन के कारणों की खोज सामाजिक जीवन की दिशाओं व उनसे सामाजिक ज़रूरतों से की है। इस प्रकार उसने श्रम विभाजन के कारणों को दो वर्गों में बांटा है

  1. प्राथमिक कारक
  2. द्वितीय कारक।

1. जनसंख्या व उसकी घनत्व का बढ़ना-दुर्थीम के अनुसार जनसंख्या के आकार पर घनत्ता का बढ़ना ही श्रम विभाजन का प्रमुख व प्राथमिक कारण है।
दुर्शीम ने लिखा है कि, “श्रम विभाजन समाज की जटिलता व घनता का सीधा अनुपात है तथा सामाजिक विकास के इस दौरान में लगातार बढ़ोत्तरी होती है अर्थात् इसका कारण यह है कि समाज नियमित रूप से ओर अधिक जटिल होते जा रहे हैं।” दुर्थीम के अनुसार जनसंख्या बढ़ने के दो पक्ष हैं। जनसंख्या के आकार में बढ़ोत्तरी व जनसंख्या की घनत्व में बढ़ोत्तरी। यह दोनों पक्ष श्रम विभाजन को जन्म देते हैं। जनसंख्या के बढ़ने से मिश्रित समाज का निर्माण होने लगता है व जनसंख्या विशेष स्थानों पर केन्द्रित होने लगती है जनसंख्या की घनत्व को दो भागों में बांट सकते हैं।
(a) भौतिक घनत्व-शारीरिक तौर पर लोगों का एक ही स्थान पर एकत्र होना भौतिक घनत्व है।
(b) नैतिक घनत्व-भौतिक घनत्व के कारण लोगों के आपसी सम्बन्ध, क्रिया, प्रतिक्रिया बढ़ती है जिससे जटिलता भी बढ़ती है जिसको नैतिक घनत्व कहते हैं।

2. आम या सामूहिक चेतना की बढ़ती अस्पष्टता-दुर्थीम ने द्वितीय कारकों में सामूहिक चेतना की बढ़ती अस्पष्टता को प्रथम स्थान दिया है। समानताओं के आधार वाले समाज में सामूहिक चेतना का बोलबाला होता है जिस कारण समूह के व्यक्तिगत विचार आगे नहीं आते। दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन व विशेषीकरण तो ही सम्भव है जब सामूहिक विचार की जगह पर व्यक्तिगत विचार का विकास हो जाए व व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना को दबा दे। इस प्रकार श्रम विभाजन भी बढ़ जाएगा।

3. पैतृकता व श्रम विभाजन-श्रम विभाजन के द्वितीय कारक को दूसरे प्रकार को दुीम ने पैतकता के घटते प्रभाव को माना है। उनके अनुसार जितना अधिक पैतृकता का प्रभाव होगा। परिवर्तन के मौके उतने ही कम होंगे। अन्य शब्दों में श्रम विभाजन के विकास लिए यह ज़रूरी है कि पैतृक गुणों को महत्त्व न दिया जाए। श्रम विभाजन की प्रगति तो ही सम्भव है जब लोगों की प्राकृति व स्वभाव में भिन्नता हो। पैतृकता से प्राप्त गुणों के आधार पर मनुष्यों को उनके पूर्वजों से बांधने का यह परिणाम होता है कि हम अपनी खास आदतों का विकास नहीं कर सकते अर्थात् परिवर्तन नहीं कर सकते। इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार पैतृकता श्रम विभाजन को रोकती है। समय के साथसाथ समाज का विकास होता है व पैतृकता का प्रभाव कम हो जाता है जिस कारण व्यक्तियों की विभिन्नताएं विकसित होती हैं श्रम विभाजन में बढ़ोत्तरी होती है।

श्रम विभाजन के परिणाम (Consequences of Division of Labour) –
श्रम विभाजन के प्राथिमक व द्वितीय कारकों के पश्चात् दीम इसके विकास के फलस्वरूप पैदा होने वाले परिणामों का जिक्र करता है। दुर्शीम ने श्रम विभाजन के बहुत सारे परिणामों का जिक्र किया है। जिनमें से कुछ प्रमुख हैं।

1. कार्यात्मक स्वतन्त्रता व विशेषीकरण-दुीम ने शारीरिक श्रम विभाजन व सामाजिक श्रम विभाजन में अन्तर किया है और सामाजिक श्रम विभाजन के परिणामों के बारे में बताया है। दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का एक परिणाम यह होता है कि जैसे ही काम अधिक बांटा जाता है। श्रम विभाजन के कारण मनुष्य अपने कुछ विशेष गुणों को विशेष कामों में लगा देता है। जिस कारण श्रम विभाजन के विकास का एक परिणाम यह भी होता है कि व्यक्तियों के काम उनके शारीरिक लक्षणों से स्वतन्त्र हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में संरचनात्मक विशेषताएं उनकी कार्यात्मक प्रवृत्तियों को अधिक प्रभावित नहीं करतीं।

2. सभ्यता का विकास-दुर्थीम ने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया था कि सभ्यता का विकास करना श्रम विभाजन का काम नहीं है क्योंकि श्रम विभाजन एक नैतिक तथ्य है तथा सभ्यता के तीनों अंगों औद्योगिक, कलात्मक व वैज्ञानिक विकास नैतिक विकास से सम्बन्ध नहीं रखते।
उनके अनुसार श्रम विभाजन के परिणाम स्वरूप सभ्यता का विकास होता है। जनसंख्या के आकार तथा घनत्ता में अधिक होना ही सभ्यता के विकास को ज़रूरी बना देता है। श्रम विभाजन व सभ्यता दोनों साथ-साथ प्रगति करते हैं पर श्रम विभाजन का विकास पहले होता है तथा उसके परिणामस्वरूप सभ्यता विकसित होती है। इसलिए दुर्थीम का मानना है कि सभ्यता का न तो श्रम विभाजन का उद्देश्य है और न ही काम बल्कि इसका परिणाम है।

3. सामाजिक प्रगति-प्रगति परिवर्तन का परिणाम है। श्रम विभाजन परिवर्तनों को भी जन्म देता है। परिवर्तन समाज में एक निरन्तर प्रक्रिया है इसलिए समाज में प्रगति भी निरन्तर होती रहती है। इस परिवर्तन का मुख्य कारण श्रम विभाजन है। श्रम विभाजन के कारण परिवर्तन होता है व परिवर्तन के कारण प्रगति होती है। इस प्रकार सामाजिक प्रगति श्रम विभाजन का एक परिणाम है।

दुर्थीम के विचार से प्रगति का प्रमुख कारक समाज है। हम इसके लिए बदल जाते हैं क्योंकि समाज बदल जाता है प्रगति तो ही कर सकती है जब समाज की गति रुक जाए पर ऐसा होना वैज्ञानिक रूप से सम्भव नहीं है। इसलिए दुर्थीम के विचार से प्रगति भी सामाजिक जीवन का परिणाम है।

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प्रश्न 8.
आर्थिक संस्था को परिभाषित कीजिए। अर्थप्रणाली में होने वाले परिवर्तनों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
हमारे समाज में बहुत से व्यक्ति रहते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति की कुछ मूल आवश्यकताएं होती हैं। यह मूल आवश्यकताएं हैं-रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सुविधाएं इत्यादि परन्तु इन सबकी पूर्ति के लिए व्यक्ति को पैसे की आवश्यकता पड़ती है। यह पैसा व्यक्ति को कार्य करके कमाना पड़ता है। पैसा कमाने के लिए व्यक्ति को समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ सहयोग करना पड़ता है तथा उन्हें उनके कार्यों में सहायता करनी पड़ती है ताकि वह भी पैसे कमा सकें।

आर्थिक संस्थाएं वह संस्थाएं हैं जो लोगों के लिए वस्तुओं के उत्पादन, विभाजन व उपभोग का प्रबन्ध करती हैं। समाज में आर्थिक संस्थाओं का बहुत महत्त्व होता है। इसी कारण ही समाज के विभिन्न स्वरूपों को आर्थिक संस्थाओं या अर्थव्यवस्था के आधार पर विभाजित किया गया है जैसे शिकारी, कृषि, औद्योगिक समाज आदि। इन आर्थिक संस्थाओं से ही समाज की अन्य संस्थाओं जैसे परिवार, धर्म आदि प्रभावित होते हैं।

प्रत्येक मानव की कुछ ज़रूरतें व कुछ इच्छाएं होती हैं। कुछ आवश्यकताएं तो जैविक कारणों से पैदा होती हैं। जैसे खाना, पीना, सोना आदि पर व्यक्ति की कुछ इच्छाएं सांसारिक वस्तुओं के कारण होती हैं। जैसे उच्च स्तर, अधिक पैसे होने, ऐशो आराम की सभी चीजें आदि। व्यक्ति अपनी इच्छाएं आप ही बनाता है व उनको पूरा करने की सामर्थ्य भी समाज में व्यवस्थित की गई है। व्यक्ति सभी वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है पर उसके पास इन चीजों की पूर्ति के लिए हमेशा से ही स्रोत की कमी रही है। इसलिए लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरे नित नए साधन ढूंढ़ते रहते हैं। इन साधनों के पता करने में उनसे उम्मीद की जाती है कि इन साधनों में तालमेल स्थापित किया जाए। इस तरह व्यक्ति अपनी ज़रूरतों व इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपने साधनों का उपयोग करता है व उन साधनों को व्यवस्थित करने के लिए जो मापदण्ड व सामाजिक संगठनों का उपयोग करता है उसको धर्म व्यवस्था या आर्थिक संस्थाओं का नाम दिया जाता है।

जॉनस (Jones) के अनुसार, “जीवन निर्वाह की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए वातावरण की उपयोग से सम्बन्धित तकनीकें, विचारों व प्रथाओं की जटिलता को आर्थिक संस्थाएं कहते हैं।”
प्रो० डेविस (Prof. Davis) के अनुसार, “किसी भी समाज में चाहे वह विकसित हो या आदिम, सीमित चीज़ों के विभाजन को निर्धारित करने वाले प्राथमिक विचारों, मानदण्डों व रूतबों को ही आर्थिक संस्था कहते हैं।”
ऑगबर्न व निमकौफ (Ogburn & Nimkoff) के अनुसार, “भोजन व सम्पत्ति के सम्बन्ध में मानव की क्रियाएं आर्थिक सम्पत्ति का निर्माण करती हैं।”

इस प्रकार इन परिभाषाओं को देख कर हम कह सकते हैं कि भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मानव द्वारा क्रियाओं के निश्चित व संगठित रूप को आर्थिक संस्था कहते हैं।

आर्थिक संस्थाओं में आ रहे परिवर्तन (Changes coming in the economic system)-20वीं शताब्दी के आरंभ से ही आर्थिक संस्थाओं में बहुत से परिवर्तन आने शुरू हो गए जिनका वर्णन इस प्रकार हैं-

  • अब उत्पादन बड़े स्तर पर होता है तथा उत्पादन के लिए Assembly Line नामक तकनीक सामने आ गई है जिसमें मनुष्य तथा मशीन दोनों इकट्ठा मिलकर नई वस्तु का उत्पादन करते हैं।
  • उत्पादन में बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रयोग किया जाता है ताकि बड़े स्तर पर उत्पादन किया जा सके।
  • विश्वव्यापीकरण की प्रक्रिया ने सभी देशों की आर्थिक सीमाओं को खोल दिया है। लगभग सभी देशों ने सीमा शुल्क (Custom duty) इतना कम कर दिया है कि सभी वस्तुएं हमारे देश में आसानी से तथा कम दाम पर उपलब्ध हैं।
  • उदारीकरण (Liberalisation) की प्रक्रिया ने भी आर्थिक संस्थाओं में परिवर्तन ला दिए हैं। भारत सरकार ने सन् 1991 के पश्चात् उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाया जिससे देश की आर्थिकता तेज़ी से बढी। देश में बडीबड़ी विदेशी कंपनियों ने अपने उद्योग लगाए जिससे लोगों को रोजगार मिला तथा बेरोज़गारी में भी कमी आई।
  • देश में कम्प्यूटर (Computer) से संबंधित बहुत से उद्योग शुरू हुए।

BPO (Business Process Outsourcing) उद्योग, काल सेंटर, सॉफ्टवेयर सेवाएं इत्यादि ने देश के लिए विदेशी मुद्रा कमाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशों की अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया। अब प्रत्येक प्रकार के उद्योगों में मशीनों का प्रयोग बढ़ गया है।

प्रश्न 9.
शिक्षा को परिभाषित कीजिए। औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा के मध्य उदाहरणों सहित अन्तर कीजिए।
उत्तर-
शिक्षा व्यक्ति के समाजीकरण का एक साधन है। यह सांस्कृतिक मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का सबसे अच्छा तरीका है। शिक्षा ने ही व्यक्ति का औद्योगीकरण, नगरीकरण इत्यादि के साथ सामंजस्य स्थापित करवाया है। शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं है। शिक्षा व्यक्ति को जीवन जीने का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करती है। शिक्षा समाज में प्रेम, मैत्री, सहानुभूति, आज्ञाकारिता, अनुशासन इत्यादि जैसे गुणों का विकास करती है।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)- शिक्षा को हम ज्ञान के संग्रह के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। निम्न परिभाषाओं से शिक्षा का अर्थ और भी स्पष्ट हो जाएगा।

  • फिलिप्स (Philips) के अनुसार, “शिक्षा वह संस्था है जिसका केंद्रीय तत्त्व ज्ञान का संग्रह है।”
  • महात्मा गाँधी (Mahatma Gandhi) के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बच्चे के शरीर, मन और आत्मा में विद्यमान सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास करना है।”
  • ब्राउन तथा रासेक (Brown and Rouck) के अनुसार, “शिक्षा अनुभव की वह संपूर्णता है जो किशोर और वयस्क दोनों की अभिवृत्तियों को प्रभावित करती है तथा उनके व्यवहारों का निर्धारण करती है।”

इन परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें तार्किक अनुभव सिद्ध, सैद्धांतिक और व्यावहारिक विचारों का समावेश होता है जिसका उद्देश्य व्यक्ति का सामाजिक व भौतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करना होता है। शिक्षा सामाजिक नियंत्रण में एक अहम भूमिका निभाती है।

मुख्य रूप से शैक्षिक व्यवस्था के दो प्रकार होते हैं-औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा।

1. औपचारिक शिक्षा (Formal Education)-औपचारिक शिक्षा वह शिक्षा होती है जो हम औपचारिक तौर पर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय इत्यादि में जाकर प्राप्त करते हैं। इस तरह की शिक्षा में स्पष्ट पाठ्यक्रम निश्चित किया जाता है तथा अध्यापकगण इस पाठ्यक्रम के अनुसार व्यक्ति को शिक्षा देते हैं। इस तरह की शिक्षा का एक स्पष्ट उद्देश्य होता है तथा वह उद्देश्य होता है व्यक्ति का सर्वपक्षीय विकास ताकि वह समाज का ज़िम्मेदार नागरिक बन सके।

2. अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education)-अनौपचारिक शिक्षा वह होती है जो व्यक्ति किसी स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में नहीं लेता है बल्कि वह यह शिक्षा तो रोज़मर्रा के अनुभवों और व्यक्तियों के विचारों, परिवार, पड़ोस, दोस्तों इत्यादि से लेता है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति अपने रोज़ाना जीवन से कुछ न कुछ सीखता रहता है। इस को ही अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। इसका कोई निश्चित समय नहीं होता, निश्चित पाठ्यक्रम नहीं होता, निश्चित स्थान नहीं होता। व्यक्ति इसको कहीं भी, किसी से भी तथा किसी भी समय प्राप्त कर सकता। इसके लिए कोई डिग्री नहीं मिलती बल्कि व्यक्ति इसको पाने से परिपक्व हो जाता है।

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प्रश्न 10.
समाज में शिक्षा की भूमिका पर प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों के विचारों को प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
अगर हम आधुनिक समाज की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि जितनी तेजी से समाज में परिवर्तन शिक्षा के साथ आए हैं, उतने परिवर्तन किसी अन्य कारण के साथ नहीं आए हैं। शिक्षा के बढ़ने से सबसे पहले यूरोपियन समाजों में परिवर्तन आए तथा उसके बाद 20वीं शताब्दी के दूसरे उत्तरार्द्ध में एशिया के देशों में परिवर्तन आया। इन परिवर्तनों ने समाज को पूर्णतया बदल कर रख दिया। भारतीय समाज में आधुनिक शिक्षा के कारण ही काफ़ी परिवर्तन आए। लोगों ने पढ़ना लिखना शुरू किया जिससे उनके जीवन का सर्वपक्षीय विकास हुआ। स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन, निम्न तथा पिछड़ी जातियों की स्थिति में परिवर्तन शिक्षा के कारण ही संभव हो सका है। इस कारण समाजशास्त्रियों के लिए भी शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है कि वह समाज पर शिक्षा के प्रभावों को ढूंढ सकें।

समाजशास्त्री सामाजिक परिवर्तन के कारण के रूप में शिक्षा का अध्ययन करने में अधिक रुचि दिखाते हैं। उनके अनुसार शिक्षा मनुष्य को एक जीव से सामाजिक तथा सभ्य जीव के रूप में परिवर्तित कर देता है। फ्रांस के प्रमुख समाजशास्त्री दुर्थीम के अनुसार, “शिक्षा एक वयस्क पीढ़ी की तरफ से अवयस्क पीढ़ी के ऊपर डाला गया प्रभाव है।”

इसका अर्थ है कि शिक्षा वह प्रभाव है जो जाने वाली पीढी आने वाली पीढ़ी पर डालती है ताकि उस पीढी को समाज में रहने के लिए तैयार किया जा सके। दुखीम के अनुसार समाज का अस्तित्व तब ही बना रह सकता है अगर समाज के सदस्यों में एकरूपता (Homogeneity) बनी रहे तथा यह एकरूपता शिक्षा के कारण ही आती है। शिक्षा से ही लोग एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहना सीखते हैं तथा उनमें एकरूपता आ जाती है। शिक्षा से ही एक बच्चा समाज में रहने के नियम, परिमाप, कीमतों इत्यादि को सीखता व ग्रहण करता है। किंगस्ले डेविस (Kingslay Davis) तथा विलबर्ट मूरे (Wilbert Moore) ने भी शिक्षा के कार्यात्मक पक्ष के बारे में बताया है। उनके अनुसार सामाजिक स्तरीकरण एक तरीका है जिससे समर्थ व्यक्तियों को उचित स्थितियां प्रदान की जाती हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति शिक्षा द्वारा होती है तथा यह इस बात को सुनिश्चित करती है कि सही व्यक्ति को, समाज को सही स्थान प्राप्त हो।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
राज्य की कितनी प्रमुख विशेषताएं हैं ?
(A) एक
(B) दो
(C) तीन
(D) चार।
उत्तर-
(D) चार।

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प्रश्न 2.
राज्य के उद्देश्यों को पूरा करने के साधन कौन-से हैं ?
(A) सरकार
(B) समाज
(C) लोग
(D) जाति।
उत्तर-
(A) सरकार।

प्रश्न 3.
सरकार को कौन चुनता है ?
(A) राज्य
(B) समाज
(C) लोग
(D) जाति।
उत्तर-
(C) लोग।

प्रश्न 4.
सरकार के कितने अंग होते हैं ?
(A) एक
(B) दो
(C) तीन
(D) चार।
उत्तर-
(C) तीन।

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प्रश्न 5.
देश की अर्थव्यवस्था को कौन मज़बूत करता है ?
(A) राज्य
(B) समाज
(C) जाति
(D) सरकार।
उत्तर-
(D) सरकार।

प्रश्न 6.
इनमें से कौन सी आर्थिक संस्था है ?
(A) निजी सम्पत्ति
(B) श्रम विभाजन
(C) विनिमय
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 7.
पूंजीवाद में मुख्य तौर पर कितने वर्ग होते हैं ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर-
(A) दो।

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प्रश्न 8.
उस वर्ग को क्या कहते हैं जिसके पास उत्पादन के सभी साधन होते हैं तथा जो श्रमिकों को कार्य देकर उनका शोषण करता है ?
(A) श्रमिक वर्ग
(B) पूंजीपति वर्ग
(C) मध्य वर्ग
(D) निम्न वर्ग।
उत्तर-
(B) पूंजीपति वर्ग।

प्रश्न 9.
धर्म की उत्पत्ति कहां से हुई ?
(A) मनुष्य के विश्वास से
(B) भगवान से
(C) आत्मा से
(D) दैवी शक्तियों से।
उत्तर-
(A) मनुष्य के विश्वास से।

प्रश्न 10.
यह शब्द किसने कहे “धर्म आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास है ?”
(A) टेलर
(B) दुर्थीम
(C) लॉस्की
(D) फ्रेजर।
उत्तर-
(A) टेलर।

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प्रश्न 11.
धर्म किसके साथ सम्बन्धित है ?
(A) मूर्ति पूजा के साथ
(B) अलौकिक शक्ति में विश्वास
(C) पुस्तकों के साथ .
(D) A+ B + C.
उत्तर-
(D) A + B + C.

प्रश्न 12.
Elementary Forms of Religious life पुस्तक किसने लिखी ?
(A) दुखीम
(B) टेलर।
(C) वैबर
(D) मैलिनावैसकी।
उत्तर-
(A) दुर्थीम।

प्रश्न 13.
धर्म का क्या कार्य है ?
(A) समाज को तोड़ना
(B) सामाजिक एकता बनाये रखना
(C) समाज को नियन्त्रण में रखना
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(B) सामाजिक एकता को बनाए रखना।

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प्रश्न 14.
जो धर्म में विश्वास रखता हो उसे क्या कहते हैं ?
(A) आस्तिक
(B) नास्तिक
(C) धार्मिक
(D) अधार्मिक।
उत्तर-
(A) आस्तिक।

प्रश्न 15.
जो धर्म में विश्वास नहीं रखता हो उसे ………… क्या कहते हैं।
(A) धार्मिक
(B) नास्तिक
(C) आस्तिक
(D) अधार्मिक।
उत्तर-
(B) नास्तिक।

प्रश्न 16.
भारत में शिक्षित व्यक्ति किसे कहते हैं ?
(A) जो किसी भी भारतीय भाषा में पढ़ लिख सकता हो
(B) जो आठवीं पास हो
(C) जो मैट्रिक पास हो
(D) जिसने बी० ए० पास की हो।
उत्तर-
(A) जो किसी भी भारतीय भाषा में पढ़ लिख सकता हो।

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प्रश्न 17.
भारत में स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम ………….. तैयार करता है।
(A) U.G.C.
(B) विश्वविद्यालय
(C) NCERT
(D) राज्य का शिक्षा बोर्ड।
उत्तर-
(C) NCERT.

प्रश्न 18.
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली किस चीज़ पर आधारित थी ?
(A) धर्म
(B) विज्ञान
(C) तर्क
(D) पश्चिमी शिक्षा।
उत्तर-
(A) धर्म।

प्रश्न 19.
भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली किस चीज़ पर आधारित है ?
(A) धर्म
(B) पश्चिमी शिक्षा
(C) संस्कृति
(D) सामाजिक शिक्षा।
उत्तर-
(B) पश्चिमी शिक्षा।

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प्रश्न 20.
भारत में 2011 में शिक्षा दर कितनी थी ?
(A) 52%
(B) 74%
(C) 74%
(D) 70%.
उत्तर-
(C) 74%.

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. ……………. के चार तत्त्व होते हैं।
2. वैबर ने ………… के तीन प्रकार बताए हैं।
3. ………. ने. जीववाद का सिद्धांत दिया था।
4. ………… ने पवित्र व साधारण वस्तुओं में अंतर दिया था।
5. प्रकृतिवाद का सिद्धांत ………….. ने दिया था।
6. मार्क्स ने दो वर्गों ……………. तथा ……………… के बारे में बताया था।
7. …………….. शिक्षा वह होती है जो हम स्कूल, कॉलेज में प्राप्त करते हैं।
उत्तर-

  1. राज्य,
  2. तीन,
  3. ई० बी० टाइलर,
  4. दुर्शीम,
  5. मैक्स मूलर,
  6. पूँजीपति, मज़दूर,
  7. औपचारिक।

III. सही/गलत (True/False) :

1. भारत की जनता को आठ मौलिक अधिकार दिए गए हैं।
2. पंचायतों की आधी सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं।
3. भारतीय संविधान 26 नवंबर, 1949 को लागू हुआ था।
4. भारत एक धार्मिक देश है।
5. जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, सरकार व प्रभुसत्ता राज्य के आवश्यक तत्व हैं।
6. साम्यवाद व समाजवाद के विचार दुर्शीम ने दिए थे।
7. 2011 में भारत की शिक्षा दर 74% थी।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. गलत,
  3. गलत,
  4. गलत,
  5. सही,
  6. गलत,
  7. सही।

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IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
भारत का संविधान कब पास हुआ था ?
उत्तर-
भारत का संविधान 26 नवंबर, 1949 को पास हुआ था परन्तु यह लागू 26 जनवरी, 1950 को हुआ था।

प्रश्न 2.
संविधान में कितने मौलिक अधिकारों का जिक्र है ?
उत्तर-
संविधान में छ: (6) मौलिक अधिकारों का जिक्र है।

प्रश्न 3.
पंचायती राज योजना कब पास हुई थी ?
उत्तर-
पंचायती राज योजना 1959 में पास हुई थी।

प्रश्न 4.
पंचायती राज में महिलाओं के लिए कितना आरक्षण है ?
उत्तर-
पंचायती राज में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण है।

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प्रश्न 5.
गांधी जी के अनुसार कौन-सा राज्य ठीक नहीं है ?
उत्तर-
गांधी जी के अनुसार जो राज्य शक्ति या बल का प्रयोग करे अथवा जो राज्य बल या शक्ति की मदद से बना हो वह राज्य ठीक नहीं है।

प्रश्न 6.
गांधी जी देश में किस प्रकार की व्यवस्था चाहते थे ?
उत्तर-
गांधी जी देश में पंचायती राज प्रणाली चाहते थे ताकि निचले स्तर तक शक्तियां बांट दी जाएं।

प्रश्न 7.
राज्य किस तरह बनता है ?
उत्तर-
राज्य सोच समझ कर चेतन कोशिशों से बनाया जाता है ताकि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इसका प्रयोग किया जा सके।

प्रश्न 8.
राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति कौन करता है ?
उत्तर-
राज्य बनाने के कुछ उद्देश्य होते हैं तथा इन उद्देश्यों की पूर्ति सरकार द्वारा होती है। इस तरह सरकार ही राज्य में उद्देश्यों की पूर्ति करती है।

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प्रश्न 9.
राज्य के आवश्यक कार्य कौन-से हैं ?
उत्तर-
देश की आंतरिक तथा बाहरी खतरों से सुरक्षा राज्य का सबसे आवश्यक कार्य है।

प्रश्न 10.
समाज के लिए न्याय की व्यवस्था कौन करता है ?
उत्तर-
समाज के लिए न्याय की व्यवस्था राज्य करता है। राज्य ही न्यायपालिका का निर्माण करता है।

प्रश्न 11.
राज्य किस प्रकार की व्यवस्था को उत्पन्न करता है?
उत्तर-
राज्य राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देता है।

प्रश्न 12.
राज्य के कौन-से ज़रूरी तत्त्व होते हैं?
उत्तर-
राज्य के चार ज़रूरी तत्त्व जनसंख्या, निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, सरकार तथा प्रभुसत्ता होनी चाहिए।

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प्रश्न 13.
आर्थिक संस्थाएं क्या होती हैं ?
उत्तर-
जो संस्थाएं आर्थिक क्रियाओं के उत्पादन, बांट, उपभोग इत्यादि का ध्यान रखती हों, वह आर्थिक संस्थाएं होती हैं।

प्रश्न 14.
आर्थिक व्यवस्थाओं की कोई उदाहरण दें।
उत्तर-
आर्थिक व्यवस्थाओं के उदाहरण हैं-पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद।

प्रश्न 15.
आर्थिक संस्थाओं के उदाहरण दें।
उत्तर-
निजी सम्पत्ति, श्रम विभाजन, विनिमय इत्यादि आर्थिक संस्थाओं के उदाहरण हैं।

प्रश्न 16.
पूंजीवाद में मुख्य तौर पर कितने वर्ग होते हैं ?
उत्तर-
पूंजीवाद में मुख्य तौर पर दो वर्ग-पूंजीपति वर्ग तथा मज़दूर वर्ग होते हैं।

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प्रश्न 17.
साम्यवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधन पर किसका अधिकार होता है ?
उत्तर–
साम्यवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर राज्य का या समाज का अधिकार होता है।

प्रश्न 18.
साम्यवादी व्यवस्था तथा समाजवादी व्यवस्था के विचार किसके थे?
उत्तर-
साम्यवादी व्यवस्था तथा समाजवादी व्यवस्था के विचार कार्ल मार्क्स के थे।

प्रश्न 19.
साम्यवादी किस चीज़ के खिलाफ होते हैं?
उत्तर–
साम्यवादी पैतृक सम्पत्ति तथा निजी सम्पत्ति के खिलाफ होते हैं।

प्रश्न 20.
क्या भारत एक धार्मिक देश है ?
उत्तर-
जी नहीं भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है जहां कई धर्मों के लोग मिलजुल कर एक साथ रहते हैं।

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प्रश्न 21.
धर्म क्या है?
उत्तर-
धर्म विश्वासों तथा संस्कारों का एक संगठन है जो सामाजिक जीवन को नियमित करके नियंत्रित करता है।

प्रश्न 22.
धर्म की उत्पत्ति किसने की?
उत्तर-
धर्म की उत्पत्ति मानव ने की।

प्रश्न 23.
किन समाजशास्त्रियों ने धर्म का अध्ययन किया है?
उत्तर-
दुर्शीम, वैबर, टेलर इत्यादि ने धर्म का अध्ययन किया है।

प्रश्न 24.
आस्तिक कौन होता है?
उत्तर-
जो व्यक्ति अलौकिक शक्ति, प्राचीन परंपराओं तथा धर्म में विश्वास रखता हो उसे आस्तिक कहते हैं।

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प्रश्न 25.
नास्तिक कौन होता है?
उत्तर-
जो व्यक्ति अलौकिक शक्ति तथा धर्म में विश्वास न करता हो उसे नास्तिक कहते हैं।

प्रश्न 26.
धर्म के समाज में चलते रहने का क्या कारण है?
उत्तर-
धर्म में जो भी गुण पाए जाते हैं उन्हीं की वजह से आज भी समाज में धर्म चल रहा है।

प्रश्न 27.
भारत में शिक्षित व्यक्ति का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
भारत में जो भी व्यक्ति किसी भी भाषा में पढ़ या लिख सकता है वह शिक्षित व्यक्ति है।

प्रश्न 28.
भारत में स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम कौन बनाता है ?
उत्तर-
भारत में स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम N.C.E.R.T. तैयार करता है।

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प्रश्न 29.
भारतीय आधुनिक शिक्षा प्रणाली किस पर आधारित है ?
उत्तर-
भारतीय आधुनिक शिक्षा प्रणाली पश्चिमी शिक्षा पर आधारित है।

प्रश्न 30.
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली किस पर आधारित थी ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली धर्म या धार्मिक ग्रन्थों पर आधारित थी।

प्रश्न 31.
सबसे पहले बच्चे को शिक्षा कहां प्राप्त होती है ?
उत्तर-
सबसे पहले बच्चे को शिक्षा परिवार में प्राप्त होती है क्योंकि परिवार में ही बच्चा सबसे पहले आंखें खोलता है।

प्रश्न 32.
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव किसने रखी थी ?
उत्तर-
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव अंग्रेज़ों ने रखी थी।

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प्रश्न 33.
2011 में भारत में साक्षरता दर कितनी थी ?
उत्तर-
2011 में भारत की साक्षरता दर 74% थी।

प्रश्न 34.
भारत में उच्च शिक्षा का ध्यान कौन रखता है ?
उत्तर-
भारत में उच्च शिक्षा का ध्यान U.G.C. रखती है।

प्रश्न 35.
औपचारिक शिक्षा क्या होती है ?
उत्तर-
जो शिक्षा व्यक्ति स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में प्राप्त करता है उसे औपचारिक शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 36.
अनौपचारिक शिक्षा क्या होती है ?
उत्तर-
जो शिक्षा व्यक्ति अपने रोज़ के कार्यों, अनुभवों, मेल-मिलाप, परिवार इत्यादि में लेता है वह अनौपचारिक शिक्षा होती है।

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प्रश्न 37.
प्राचीन समय में शिक्षा कौन देता था ?
उत्तर-
प्राचीन समय में शिक्षा ब्राह्मण देता था।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गांधी जी के राज्य की शक्तियों के बारे क्या विचार थे ?
उत्तर-
गांधी जी के अनुसार राज्य की शक्चियों का विकेंद्रीकरण अर्थात् शक्तियां विभाजित कर दी जाएं ताकि शक्तियां एक स्थान पर केंद्रित न हों तथा अगर इन्हें अलग-अलग स्तरों पर विभाजित कर दिया जाए तो ही शक्ति का ग़लत प्रयोग नहीं होगा।

प्रश्न 2.
राज्य की कोई दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  1. राज्य अपनी जनता के कल्याण के कार्य करता रहता है।
  2. अगर आवश्यकता हो तो राज्य शक्ति का प्रयोग भी करता है। (iii) राज्य का अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है, जनसंख्या तथा प्रभुत्त्व भी होता है।

प्रश्न 3.
रूसो तथा प्लैटो के अनुसार राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए ?
उत्तर-
बहुत से विद्वानों ने राज्य की जनसंख्या के बारे में अलग-अलग विचार दिए हैं। रूसो के अनुसार राज्य की जनसंख्या कम-से-कम 10,000 होनी चाहिए तथा इसी प्रकार प्लैटो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 होनी चाहिए।

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प्रश्न 4.
पूंजीपति वर्ग कौन-सा होता है ?
उत्तर-
पूंजीपति वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के सभी साधन तथा पैसा होता है तथा जो मज़दूरों को कार्य देकर उनका शोषण करता है। क्योंकि पूंजीपति वर्ग के पास काफ़ी अधिक पैसा होता है इसलिए वह अपने पैसे का निवेश करके काफ़ी मुनाफा कमाता है।

प्रश्न 5.
मज़दूर वर्ग कौन-सा होता है ?
उत्तर-
वह वर्ग जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते तथा पूंजीपति वर्ग जिसका हमेशा शोषण करता है तथा जो वर्ग केवल अपना श्रम बेचकर अपना पेट पालता है उसे मजदूर वर्ग कहते हैं। इस वर्ग के पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते तथा इसका सदियों से शोषण होता आया है।

प्रश्न 6.
साम्यवादी व्यवस्था क्या होती है ?
उत्तर-
जिस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य वर्ग रहित बनाना अर्थात् उस प्रकार के समाज का निर्माण करना है, जिसमें कोई वर्ग न हो, उसे साम्यवादी व्यवस्था का नाम दिया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था में उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का अधिकार होता है।

प्रश्न 7.
समाजवाद क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार जिस व्यवस्था में सभी को उनकी आवश्यकता के अनुसार तथा उसकी योग्यता के अनुसार मिलेगा, समाजवाद की व्यवस्था होगी। इस प्रकार की व्यवस्था में समानता व्याप्त हो जाएगी तथा सभी को समान रूप में राज्य की तरफ से मिलेगा।

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प्रश्न 8.
धर्म कैसे व्यक्ति को आलसी बना देता है ?
उत्तर-
धार्मिक व्यक्ति में किस्मत तथा कर्म की विचारधारा आ जाती है। इस कारण वह स्वयं कोई कार्य नहीं करता अपितु कार्य करना ही छोड़ देता है। वह सोचता है कि जो कुछ उसके भाग्य में होगा उसे मिल जाएगा। इस तरह वह आलसी बन जाता है तथा कार्य से दूर भागता है।

प्रश्न 9.
धर्म सामाजिक नियन्त्रण कैसे करता है ?
उत्तर-
धर्म किसी अलौकिक शक्ति के विश्वास पर आधारित है जिसे किसी ने देखा नहीं है। व्यक्ति इस शक्ति से डरता है तथा कोई कार्य नहीं करता जो इसकी इच्छा के विरुद्ध हो। इस प्रकार व्यक्ति स्वयं को नियंत्रित कर लेता है। इस प्रकार धर्म सामाजिक नियंत्रण करता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा क्या होती है ?
उत्तर-
शिक्षा व्यक्ति के अंदर समाज तथा स्थितियों के साथ तालमेल बिठाने का सामर्थ्य विकसित करके उसका समाजीकरण करती है। शिक्षा वह प्रभाव है जिसे जा रही पीढ़ी उनके ऊपर प्रयोग करती है जो अभी बालिग नहीं हैं।

प्रश्न 11.
शिक्षा बच्चों के विकास को कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
शिक्षा बच्चों के विकास को प्रभावित करती है क्योंकि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों का सर्वपक्षीय विकास करना है। शिक्षा प्राप्त करने के कारण ही बच्चे को अच्छा जीवन मिल जाता है तथा उसका भविष्य अच्छा बनाने में सहायता मिलती है।

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प्रश्न 12.
शिक्षा के कोई दो कार्य बताएं।
उत्तर-

  • शिक्षा हमारे जीवन को व्यवस्थित तथा नियंत्रित करती है।
  • शिक्षा हमें समाज के साथ अनुकूलन करना सिखाती है।
  • शिक्षा व्यक्ति के अंदर नैतिक गुणों का विकास करती है।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की चार विशेषताएं।
उत्तर-

  1. राज्य सार्वजनिक हितों की रक्षा करता है।
  2. राज्य अमूर्त होता है।
  3. राज्य के पास वास्तविक शक्तियां या सत्ता होती है।
  4. राज्य की एक सरकार होती है।

प्रश्न 2.
राज्य के कोई चार आवश्यक कार्य बताएं।
उत्तर-

  • राज्य अन्दरूनी शान्ति व सुरक्षा बनाये रखता है।
  • राज्य नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है।
  • राज्य न्याय प्रदान करता है।
  • राज्य परिवार के सम्बन्धों को स्थिर रखता है।
  • राज्य बाह्य हमले से रक्षा करता है।

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प्रश्न 3.
राज्य के कोई चार ऐच्छिक कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. राज्य यातायात व संचार के साधनों का विकास करता है।
  2. राज्य प्राकृतिक साधनों का उपयोग देश की भलाई के लिये करता है।
  3. राज्य शिक्षा देने का प्रबन्ध करता है।
  4. राज्य लोगों की सेहत का ध्यान रखता है।
  5. राज्य व्यापार एवं उद्योगों का संचालन करता है।

प्रश्न 4.
सरकार।
उत्तर-
सरकार एक ऐसा संगठन है, जिसके पास आदेशात्मक (Control) होता है। जोकि राज्य में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने में सहायता करता है। सरकार को मान्यता प्राप्त होती है क्योंकि सरकार के पास बहुमत का समर्थन होता है। सरकार तो राज्य के उद्देश्यों को पूरा करने का साधन है।

प्रश्न 5.
सरकार की कोई चार विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  1. सरकार लोगों के द्वारा चुनी जाती है।
  2. सरकार मूर्त होती है।
  3. सरकार कई अंगों से मिलकर बनती है।
  4. सरकार अस्थायी होती है।
  5. सरकार राज्य का साधन है।

प्रश्न 6.
सरकार के कितने अंग हैं ?
उत्तर-
सरकार के तीन अंग होते हैं। कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका। कार्यपालिका में सरकार के प्रधानमन्त्री एवं मन्त्री इत्यादि कार्य करते हैं। विधानपालिका का अर्थ संसद् या विधानसभा जोकि विंधान या कानून बनाती है और न्यायपालिका अर्थात् अदालतें, जज इत्यादि होते हैं जो कानूनों को लागू करते हैं।

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प्रश्न 7.
सरकार के कोई चार कार्य बताएं।
उत्तर-

  1. सरकार शिक्षा का प्रसार करती है।
  2. सरकार ग़रीबी दूर करने की कोशिश करती है।
  3. सरकार सार्वजनिक क्षेत्र का ध्यान रखती है।
  4. सरकार व्यापार एवं उद्योगों को उत्साहित करती है और उनके लिए नियम बनाती है।
  5. सरकार देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाती है।
  6. सरकार नियुक्तियां करती है।
  7. सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक दल क्या होता है ? ।
उत्तर-
राजनीतिक दल एक समूह होता है, जोकि कुछ नियमों के साथ बंधा हुआ होता है। यह एक लोगों की सभा है, जिसका एकमात्र महत्त्व राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना होता है जिसके लिए वह सभी मिलकर कोशिश और उपाय करते रहते हैं। इसके सदस्यों के विचार साझे होते हैं, क्योंकि वह सभी एक ही दल से सम्बन्ध रखते है।

प्रश्न 9.
राजनीतिक दल की कोई चार विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  1. प्रत्येक राजनीतिक दल की भिन्न-भिन्न नीतियां होती हैं।
  2. प्रत्येक दल के सदस्य अच्छी तरह संगठित होते हैं और वह दल भी अच्छी तरह से संगठित व सुदृढ़ होता है।
  3. इसके सभी सदस्य एक ही नीति पर विश्वास करते हैं।
  4. इनके सदस्यों का एक साझा कार्यक्रम होता है।
  5. प्रत्येक अच्छा राजनीतिक दल देश के हितों का ध्यान रखता है।

प्रश्न 10.
राजनीतिक दलों के कोई चार कार्य बताओ।
उत्तर-

  1. यह लोकमत बनाते हैं।
  2. यह राजनीतिक शिक्षा देते हैं।
  3. यह उम्मीदवार चुनने में सहायता करते हैं।
  4. यह लोगों की कठिनाइयों को सरकार तक पहुँचाते हैं।
  5. यह राष्ट्रीय हितों को महत्त्व देते हैं।

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प्रश्न 11.
प्रभुसत्ता (Soveriegnty) ।
उत्तर-
प्रभुसत्ता का अर्थ है राज्य के ऊपर किसी भी प्रकार का बाहरी या आन्तरिक दबाव न हो। वह अपने फैसले लेने के लिये पूर्णतः स्वतन्त्र हो। यह दो प्रकार की होती है। (1) आन्तरिक प्रभुसत्ता (2) बाहरी प्रभुसत्ता। आन्तरिक प्रभुसत्ता से भाव है कि राज अन्य सभी सत्ताओं से सर्वोच्च है। उसकी सीमा के अन्दर (भीतर) रहने वाली संस्थाओं के लिए उसके आदेश मानने आवश्यक होते हैं। अन्य संस्थाओं का अस्तित्व राज्य के ऊपर निर्भर करता है। बाहरीय प्रभुसत्ता से भाव है कि राज्य देश से बाहर की किसी भी शक्ति के अधीन नहीं है। वह अपनी विदेशी एवं घरेलू नोति को बनाने के लिए पूर्णतः स्वतन्त्र होता है।

प्रश्न 12.
राज्य के कार्यों के बढ़ने के कारण।
उत्तर-

  1. सामाजिक परिवर्तन तेजी से हो रहे हैं जिसके कारण राज्य के कार्य बढ़ रहे हैं।
  2. सामाजिक जटिलता के बढ़ने के कारण ही राज्य के कार्य बढ़ रहे हैं।
  3. देश की जनसंख्या के तीव्रता के साथ बढ़ने के कारण उनको सुविधाएं देने के कारण राज्य का कार्य बढ़ रहा है।
  4. कल्याणकारी राज्य की धारणाओं के कारण ही राज्य के कार्य बढ़ रहें है।

प्रश्न 13.
सरकार के तीन अंग।
उत्तर-

  1. विधानपालिका-यह सरकार का वैधानिक अंग है जिसका मुख्य कार्य कानून बनाना एवं कार्यपालिका के ऊपर नियंत्रण रखना है। यह संसद् है।
  2. कार्यपालिका-इसका मुख्य कार्य संसद् या विधानपालिका द्वारा बनाये गये कानूनों को लागू करना है और प्रशासन को चलाना है। यह सरकार है।
  3. न्यायपालिका- इसका मुख्य कार्य संसद् के द्वारा पास और सरकार द्वारा लागू किये गये कानूनों के अनुसार . न्याय करना है। ये अदालतें होती हैं।

प्रश्न 14.
लोकतन्त्र।
उत्तर-
लोकतन्त्र सरकार का ही एक प्रकार है जिसमें जनता का शासन चलता है। इसमें जनता के प्रतिनिधि साधारण जनता के बालिगों द्वारा वोट देने के अधिकार से चुने जाते हैं तथा यह प्रतिनिधि ही जनता का प्रतिनिधित्व करके उनकी तरफ से बोलते हैं। यह कई संकल्पों जैसे कि समानता, स्वतन्त्रता तथा भाईचारे में विश्वास रखता है तथा यह ही इसका कार्यवाहक आधार है। इसके पीछे मूल विचार यह है कि समाज में, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समानता होनी चाहिए। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के अनुसार बोलने तथा संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

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प्रश्न 15.
शक्ति।
उत्तर-
समाज साधारणतया वर्गों में विभाजित होता है तथा इन वर्गों के हिसाब से व्यक्ति को प्रस्थिति तथा भूमिका प्राप्त होती है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रस्थिति तथा भूमिका अलग-अलग होती है। समाज में अलग-अलग वर्गों में विभाजन को स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। जब व्यक्ति समाज में रहते हुए अपनी स्थिति तथा भूमिका को निभाते हुए किसी-न-किसी स्थिति को प्राप्त करता है तो यह कहा जा सकता है कि उसके शक्ति अथवा ताकत प्राप्त कर ली है। इस प्रकार शक्ति समझौते तथा सौदे करने की प्रक्रिया है जिसमें प्राथमिकता रख कर सम्बन्धों के लिए निर्णय लिए जाते हैं।

प्रश्न 16.
यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity) क्या होती है?
उत्तर-
दुर्थीम के अनुसार समाज में सदस्यों के बीच मिलने वाली समानताओं के कारण यान्त्रिक एकता होती · है। जिस समाज के सदस्यों का जीवन समानताओं से भरपूर होता है और विचारों, प्रतिमानों, आदर्शों के प्रतिमान प्रचलित होते हैं, वहां उन समानताओं के फलस्वरूप एकता हो जाती है, जिसको दुर्थीम ने यान्त्रिक एकता कहा है। यहां पर सदस्य एक मशीन या यंत्र की तरह कार्य करते हैं। इसको दमनकारी कानून व्यक्त करता है। यह आदिम समाजों में होती है।

प्रश्न 17.
आंगिक एकता (Organic Solidarity) क्या होती है ?
उत्तर-
आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप के साथ एक-दूसरे के बंधे नहीं होते है। व्यक्ति में श्रमविभाजन एवं विशेषीकरण के कारण काफ़ी विभिन्नताएं आ जाती हैं। जिस कारण व्यक्तियों को एक-दूसरे के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। व्यक्ति किसी विशेष कार्य में ही योग्यता प्राप्त कर सकता है और सभी इसी कारण एकदूसरे के ऊपर निर्भर करते हैं। सभी मजबूरी में एक दूसरे के पास आते हैं और एक एकता में बंधे रहते हैं। इसे दुर्शीम ने आंगिक एकता का नाम दिया है।

प्रश्न 18.
उत्पादन।
उत्तर-
उत्पादन का अर्थ ऐसी क्रिया से है, जो व्यक्ति की आवश्यकता को पूर्ण करते हेतु किसी वस्तु का निर्माण करती है। इसको किसी वस्तु को उपयोग करने हेतु भी परिभाषित कर सकते हैं। किसी भी वस्तु के निर्माण में बहुत सी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। जैसे-प्राकृतिक साधन, मानवीय शक्ति, मज़दूरी, तकनीक, श्रम इत्यादि। इस प्रकार उत्पादन ऐसी क्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये किसी भी वस्तु का निर्माण करता है और उसका उपयोग करता है।

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प्रश्न 19.
उपभोग।
उत्तर-
किसी भी वस्तु के उत्पादन के साथ-साथ उपभोग का होना भी अति आवश्यक होता है क्योंकि बिना उत्पादन के खपत नहीं हो सकती। उपभोग का अर्थ है किसी भी वस्तु का उपभोग करना एवं उपभोग का अर्थ है, वह गुण जो किसी वस्तु को मानव की आवश्यकता पूरा करने के योग्य बनाता है। यह प्रत्येक समाज का मुख्य कार्य होता है कि वह उपभोग को समाज के लिये नियमित व नियंत्रित करे।

प्रश्न 20.
विनिमय।
उत्तर-
किसी भी वस्तु के लेने-देने को वर्तमान में (Exchange) कहते हैं। इसका अर्थ है किसी वस्तु के स्थान पर किसी दूसरी वस्तु को लेना या देना। विनिमय वर्तमान में ही नहीं, बल्कि पुरातन समाज से ही चला आ रहा है। यह कई प्रकार का होता है, वस्तु के बदले वस्तु, सेवा के बदले सेवा, वस्तु के बदले धन, सेवा के बदले धन, यह दो प्रकार का होता है, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष, विनिमय सर्वप्रथम वस्तुओं का वस्तुओं के साथ, सेवा के बदले वस्तुओं के साथ और सेवा के बदले सेवा के लेने-देने के साथ होता है। अप्रत्यक्ष विनिमय में तोहफे का विनिमय सर्वोत्तम होता है।

प्रश्न 21.
विभाजन।
उत्तर-
आम व्यक्ति के लिये विभाजन का अर्थ वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान के ऊपर ले जाने से और बेचने से है। परन्तु अर्थशास्त्र में विभाजन वह प्रक्रिया है, जिसके साथ किसी आर्थिक वस्तु का कुल मूल्य उन व्यक्तियों में बांटा जाता है, जिन्होंने उस वस्तु के उत्पादन में भाग लिया। भिन्न-भिन्न लोगों एवं समूहों का विशेष योगदान होता है जिस कारण उन्हें मुआवजा मिलना चाहिये। इस तरह उन्हें दिया गया धन या पैसा मुआवजा विभाजन होता है। जैसे ज़मीन के मालिक को किराया, मजदूर को मजदूरी, पैसे लगाने वाले को ब्याज, सरकार को टैक्स आदि के रूप में इस विभाजन का हिस्सा प्राप्त होता है।

प्रश्न 22.
धर्म।
उत्तर-
धर्म मानवीय जीवन की सर्वशक्तिमान, परमात्मा के प्रति श्रद्धा का नाम है या धर्म का अर्थ है परमात्मा के होने का अनुभव। धर्म में व्यक्ति अपने आपको अलौकिक शाक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करना मानता है।

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प्रश्न 23.
धर्म की कोई चार विशेषताएं बताइये।
उत्तर-

  1. धर्म में अलौकिक शक्तियों में विश्वास होता है।
  2. धर्म में बहुत सारे संस्कार होते हैं।
  3. धर्म में धार्मिक कार्य-विधियां भी होती हैं।
  4. धर्म में धार्मिक प्रतीक एवं चिन्ह भी होते हैं।

प्रश्न 24.
धर्म के कार्य।
उत्तर-

  1. धर्म सामाजिक संगठन को स्थिरता प्रदान करता है।
  2. धर्म सामाजिक जीवन को एक निश्चित रूप प्रदान करता है।
  3. धर्म पारिवारिक जीवन को संगठित करता है।
  4. धर्म सामाजिक नियंत्रण रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
  5. धर्म भेद-भाव को दूर करता है।
  6. धर्म समाज कल्याण के कार्यों के लिये उत्साहित करता है।
  7. धर्म व्यक्ति के विकास करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  8. धर्म व्यक्ति के समाजीकरण करने में सहायता करता है।

प्रश्न 25.
धर्म के दोष।
उत्तर-

  • धर्म सामाजिक उन्नति के रास्ते में रुकावट बनता है।
  • धर्म के कारण व्यक्ति भाग्य के सहारे रह जाता है।
  • धर्म राष्ट्रीय एकता का विरोध करता है।
  • धर्म सामाजिक समस्याओं को बढ़ाता है।
  • धर्म परिवर्तन के रास्ते में रुकावट बनता है।
  • धर्म समाज को बांट देता है।

प्रश्न 26.
धर्म सामाजिक जीवन को निश्चित रूप देता है।
उत्तर-
कोई भी धर्म रीति-रिवाजों व रूढ़ियों का एकत्रित रूप होता है। यह रीति-रिवाज एवं रूढ़ियों संस्कृति का हिस्सा होती हैं। इसलिये धर्म के कारण सामाजिक वातावरण व संस्कृति में सन्तुलन बन जाता है। इसी सन्तुलन कारण जीवन को एक निश्चित रूप मिल जाता है। धर्म के कारण ही लोग रीति-रिवाज़ों, रूढ़ियों आदि पर विश्वास या सत्कार करते हैं और अन्य लोगों के साथ भी सन्तुलन बनाकर चलते हैं। इसी सन्तुलन के कारण ही सामाजिक जीवन सही तरीके के साथ चलता रहता है। यह सब धर्म के फलस्वरूप ही होता है।

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प्रश्न 27.
धर्म एवं सामाजिक नियंत्रण।
उत्तर-
धर्म नियंत्रण के प्रमुख साधनों में से एक है। धर्म के पीछे पूर्ण समुदाय की अनुमति होती है। व्यक्ति के ऊपर न चाहते हुए भी धर्म का जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। धर्म अपने सदस्यों को इस प्रकार नियंत्रित एवं निर्देशित करता है कि व्यक्ति को धर्म के आगे नतमस्तक एवं उसका कहना मानना ही पड़ता है। धर्म एक अलौकिक शक्ति एवं विश्वास है, इसलिये सभी लोग उस अलौकिक शक्ति के प्रकोप से बचना चाहते हैं और कोई भी कार्य ऐसा नहीं करते हैं जो धर्म के विरुद्ध हो। इस प्रकार लोगों के व्यवहार करने के तरीके धर्म के द्वारा ही नियंत्रित होते हैं। धर्म में ही पाप-पुण्य, पवित्र एवं अपवित्र की धारणा होती है। यह व्यक्ति को धर्म के विरुद्ध कार्य करने को रोकती है। यह मान्यता है कि धर्म के विरुद्ध कार्य करना पाप है। जो व्यक्ति को एक नरक में लेकर जाता है और धर्म के अनुसार कार्य करने वाले को स्वर्ग में जगह मिलती है। इसी प्रकार दान देना, सहयोग करना, सहनशीलता सिखाना भी धर्म से ही प्राप्त होते हैं। धर्म लोगों को बुरे कार्यों के विरुद्ध जाने को कहता है, इस प्रकार धर्म समाज के ऊपर एक नियंत्रण शक्ति का कार्य करता है।

प्रश्न 28.
पवित्र।
उत्तर-
दुर्थीम के अनुसार सभी धार्मिक विश्वास आदर्शात्मक वस्तु जगतं को पवित्र (Sacred) तथा साधारण (Profane) दो वर्गों में बाँटते हैं। पवित्र वस्तुओं में देवताओं तथा आध्यात्मिक शक्तियों या आत्माओं के अतिरिक्त गुफाओं, पेड़ों, पत्थर, नदी इत्यादि शामिल हो सकते हैं। साधारण वस्तुओं की तुलना में पवित्र वस्तुएं अधिक शक्ति तथा शान रखती हैं। दुर्थीम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं अर्थात् अलग तथा प्रतिबन्धित वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।”

प्रश्न 29.
पंचायती राज्य संस्थाएं।
उत्तर-
हमारे देश में स्थानीय क्षेत्रों का विकास करने के लिए दो प्रकार के ढंग हैं। शहरी क्षेत्रों का विकास करने के लिए स्थानीय सरकारें होती हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए पंचायती राज्य संस्थाएं होती हैं। हमारे देश की लगभग 68% जनता ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए जो संस्थाएं बनाई गई हैं उन्हें पंचायती राज्य संस्थाएं कहते हैं। इसमें तीन स्तर होते हैं। ग्राम स्तर पर विकास करने के लिए पंचायत होती है, ब्लॉक स्तर पर विकास करने के लिए ब्लॉक समिति होती है तथा जिला स्तर पर विकास करने के लिए जिला परिषद् होती है। इन सभी के सदस्य चुने भी जाते हैं तथा मनोनीत भी होते हैं।

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प्रश्न 30.
ग्राम सभा।
उत्तर-
गांव की पूरी जनसंख्या में से बालिग व्यक्ति जिस संस्था का निर्माण करते हैं उसे ग्राम सभा कहते हैं। गांव के सभी वयस्क व्यक्ति इसके सदस्य होते हैं तथा यह गांव की पूर्ण जनसंख्या की एक सम्पूर्ण इकाई है। यह वह मूल इकाई है जिस पर हमारे लोकतन्त्र का ढांचा टिका हुआ है। जिस गांव की जनसंख्या 250 से अधिक होती है वहां ग्राम सभा बन सकती है। यदि एक गांव की जनसंख्या कम है तो दो गांव मिलकर ग्राम सभा बनाते हैं। ग्राम सभा में गांव का प्रत्येक वह बालिग अथवा वयस्क व्यक्ति सदस्य होता है जिसे वोट देने का अधिकार प्राप्त होता है। प्रत्येक ग्राम सभा का एक प्रधान तथा कुछ सदस्य होते हैं जो 5 वर्ष के लिए चुने जाते हैं।

प्रश्न 31.
ग्राम पंचायत।
उत्तर-
प्रत्येक ग्राम सभा अपने क्षेत्र में से एक ग्राम पंचायत का चुनाव करती है। इस प्रकार ग्राम सभा एक कार्यकारी संस्था है जो ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करती है। इसमें एक सरपंच तथा 5 से 13 तक पंच होते हैं। यह 5 वर्ष के लिए चुनी जाती है परन्तु यदि यह अपने अधिकारों का गलत प्रयोग करे तो उसे 5 वर्ष से पहले भी भंग किया जा सकता है। पंचायत में पिछड़ी श्रेणियों तथा स्त्रियों के लिए स्थान आरक्षित हैं। ग्राम पंचायत में सरकारी कर्मचारी तथा मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते। ग्राम पंचायत गांव में सफाई, मनोरंजन, उद्योग तथा यातायात के साधनों का विकास करती है तथा गांव की समस्याएं दूर करती है।

प्रश्न 32.
ग्राम पंचायत के कार्य।
उत्तर-

  • ग्राम पंचायत का सबसे पहला कार्य गांव के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाना होता है।
  • गांव की पंचायत गांव में स्कूल खुलवाने तथा लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करती है।
  • ग्राम पंचायत ग्रामीण समाज में मनोरंजन के साधन जैसे कि फिल्में, मेले लगवाने तथा लाइब्रेरी खुलवाने का भी प्रबन्ध करती है। (iv) पंचायत लोगों को कृषि की नई तकनीकों के बारे में बताती है, नए बीजों, उन्नत उर्वरकों का भी प्रबन्ध करती है।
  • यह गांव में कुएं, ट्यूबवैल इत्यादि लगवाने का प्रबन्ध करती है तथा नदियों के पानी की भी व्यवस्था करती है।
  • यह गांवों का औद्योगिक विकास करने के लिए गांव में उद्योग लगवाने का भी प्रबन्ध करती है।

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प्रश्न 33.
न्याय पंचायत।
उत्तर-
गांवों के लोगों में झगड़े होते रहते हैं जिस कारण उनके झगड़ों का निपटारा करना आवश्यक होता है। इसलिए 5-10 ग्राम सभाओं के लिए एक न्याय पंचायत का निर्माण किया जाता है। न्याय पंचायत लोगों के बीच होने वाले झगड़ों को खत्म करने में सहायता करती है। इसके सदस्य चुने जाते हैं तथा सरपंच पांच सदस्यों की एक कमेटी बनाता है। इन सदस्यों को पंचायत से प्रश्न पूछने का भी अधिकार होता है।

प्रश्न 34.
पंचायत समिति अथवा ब्लॉक समिति।
उत्तर-
पंचायती राज्य संस्थाओं के तीन स्तर होते हैं। सबसे निचले गांव के स्तर पर पंचायत होती है। दूसरा स्तर ब्लॉक का होता है जहां पर ब्लॉक समिति अथवा पंचायत समिति का निर्माण किया जाता है। एक ब्लॉक में आने वाली पंचायतें, पंचायत समिति के सदस्य होते हैं तथा इन पंचायतों के प्रधान अथवा सरपंच इसके सदस्य होते हैं।

पंचायत समिति के इन सदस्यों के अतिरिक्त और सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष तौर पर किया जाता है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह गांवों के विकास के कार्यक्रमों को चैक करती है तथा पंचायतों को गांव के कल्याण करने के लिए निर्देश देती है। यह पंचायती राज्य के दूसरे स्तर पर है।

प्रश्न 35.
जिला परिषद्।
उत्तर-
पंचायती राज्य के सबसे ऊंचे स्तर पर है ज़िला परिषद् जो कि जिले के बीच आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह भी एक प्रकार की कार्यकारी संस्था होती है। पंचायत समितियों के चेयरमैन चुने हुए सदस्य, उस क्षेत्र के लोक सभा, राज्य सभा तथा विधान सभा के सदस्य सभी जिला परिषद के सदस्य होते हैं। यह सभी जिले में आने वाले गांवों के विकास का ध्यान रखते हैं। जिला परिषद् कृषि में सुधार, ग्रामीण बिजलीकरण, भूमि सुधार, सिंचाई, बीजों तथा उर्वरकों को उपलब्ध करवाना, शिक्षा, उद्योग लगवाने जैसे कार्य करती है।

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प्रश्न 36.
पंचायती राज्य की समस्याएं।
उत्तर-

  • लोगों के अनपढ़ तथा अन्धविश्वासों में फंसे हुए होने के कारण वह परिवर्तन को जल्दी स्वीकार नहीं करते जो कि पंचायती राज्य संस्थाओं के रास्ते में सबसे बड़ी समस्या है।
  • गांवों में अच्छे तथा ईमानदार नेताओं की कमी होती है तथा वह केवल अपने विकास पर ही ध्यान देते हैं गांवों के विकास पर नहीं।
  • अच्छे पढ़े-लिखे लोग धीरे-धीरे शहरों में बस रहे हैं जिससे गांव में पढ़े-लिखे नेताओं की कमी है।
  • सरकारी अफ़सर, पंचों तथा सरपंचों से मिलकर गांव को मिलने वाले ज़्यादातर पैसे को स्वयं ही खा जाते हैं तथा गांव का विकास रुक जाता है।

प्रश्न 37.
ग्राम पंचायत की आय के साधन।
उत्तर-

  • पंचायत को राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त टैक्स लगाने का अधिकार प्राप्त है जैसे कि सम्पत्ति कर, पशु कर, पेशा कर, मार्ग कर, चुंगी कर इत्यादि इनसे उसे आय होती है।
  • ग्राम पंचायत कई प्रकार के जुर्माने भी लगा सकती है तथा फीस भी इकट्ठी कर सकती है जिससे उसे आय प्राप्त होती है।
  • पंचायतों को प्रत्येक वर्ष सरकार से ग्रांटें प्राप्त होती हैं जिससे उसकी आय बढ़ती है।
  • पंचायत को कूड़ा-कर्कट, गोबर बेचने से आय, मेलों से आय, पंचायत की सम्पत्ति से भी आय प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 38.
पंचायत समिति का चेयरमैन।
उत्तर-
पंचायत समिति के चुने हुए सदस्य अपने में से एक चेयरमैन का चुनाव करते हैं जो कि डिप्टी कमिश्नर की निगरानी में चुना जाता है। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। इसे समिति के क्षेत्र तथा प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ती है। यह समिति की मीटिंग बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है। यह समिति के अधिकारियों की सहायता से समिति का बजट तैयार करके उन्हें पास करवाता है। यह पंचायत समिति के क्षेत्र में आने वाली सभी पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखता है तथा उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों का निरीक्षण भी करता है।

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बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आर्थिक संस्थाओं के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
आर्थिक संस्थाओं के मुख्य कार्यों का वर्णन इस प्रकार है-

1. उत्पादन (Production)-उत्पादन का अर्थ ऐसी क्रिया है जो व्यक्ति की ज़रूरत को पूरा करने के लिए किसी चीज़ की निर्माण करती है। इसको किसी चीज़ को उपयोग करने के रूप में भी परिभाषित कर सकती है। किसी वस्तु के निर्माण में बहुत सारी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है जिसका वर्णन नीचे दिया गया है

(1) सबसे पहले किसी वस्तु के उत्पादन के लिए प्राकृतिक साधनों की ज़रूरत पड़ती है जिससे वस्तु का निर्माण होता है। वे सभी वस्तुएं जो किसी भी चीज़ के निर्माण के लिए ज़रूरी होती हैं साधन कहलाती हैं। साधन में भौतिक वस्तुओं व उनके लिए प्रयोग होने वाली मानवीय ताकत भी शामिल है। भौतिक चीज़ों के उत्पादन के लिए बढ़िया भूमि व जलवायु की आवश्यकता होती है। इस्पात बनाने के लिए कच्चा लोहा व बिजली बनाने के लिए कोयले या पानी की आवश्यकता पड़ती है ताकि मशीनें चल सकें। इस प्रकार वस्तु के उत्पादन के लिए प्राकृतिक साधनों की ज़रूरत होती है। …

(2) प्राकृतिक साधनों के पश्चात् बारी आती है मानवीय शक्ति की। मनुष्य की मज़दूरी धन के उत्पादन के लिए प्रयोग की जाती है। व्यक्ति जब किसी भी चीज़ का निर्माण करता है तो वह अपना परिश्रम लगाता है और यही मेहनत किसी भी चीज़ की उपयोगिता बढ़ा देती है। मजदूर को उसकी मेहनत का किस तरह का फल मिले वह अर्थव्यवस्था पर निर्भर करता है। जैसे पुराने समय में गांवों में कार्य करवा कर उसको दाने, अनाज इत्यादि दिया जाता था पर आजकल उसको तनख्वाह पैसे के रूप में दी जाती है इस प्रकार मज़दूरी तथा मनुष्य की मेहनत का भी उत्पादन में बहुत बड़ा हाथ होता है।

(3) किसी भी चीज़ के उत्पादन के लिए साधनों व मजदूरी की ज़रूरत होती है। इनमें से किसी एक की गैर मौजूदगी से चीज़ नहीं बन सकती। इन दोनों की मदद से व मशीनों, उद्योग की अन्य वस्तुओं जिनकी मदद से चीजों का उत्पादन होता है को पूंजी कहा जाता है। इस प्रकार पूंजी वह चीज़ है जिस का निर्माण प्राकृतिक साधनों पर परिश्रम करके होता है अर्थात् जिसको आगे और पूंजी के उत्पादन में प्रयोग किया जा सकता है।

(4) प्राकृतिक साधनों, मज़दूरी व पूंजी के अतिरिक्त कई अन्य वस्तुएं हैं जो उत्पादन में मदद करती हैं। सबसे पहले टैक्नॉलाजी होती है। टैक्नॉलजी समाज की पूरी कला के ज्ञान का स्रोत है। जिस समाज का ज्ञान व कला जितनी बढ़िया होगा। वह समाज उतनी ही बढ़िया चीज़ का निर्माण करेगा। इसके समय साथ होता है जो किसी भी चीज़ के निर्माण में महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हमने किसी चीज़ का निर्माण करना है तो वह निश्चित समय के अन्दर होना ज़रूरी है नहीं तो उस वस्तु के निर्माण की खपत बढ़ जाएगी। फिर बारी आती है निर्माण करने के तरीके की क्योंकि कम समय में साधनों के द्वारा चीज़ों का अधिक-से-अधिक मात्रा में प्राप्त करने का तरीका है। निर्माण करने का तरीका वह है जिससे कम-से-कम समय में अधिक वस्तुएं बनाई जाएं।

(5) अन्त में जो वस्तु उत्पादन में ज़रूरी होती हैं वह है उद्यमी। प्रत्येक उत्पादन की प्रक्रिया में कोई दिशा व किसी न किसी योजना की ज़रूरत होती है। आजकल बड़े-बड़े उद्योगों व समूहों की देख-रेख कुछ विशेष व्यक्ति या मालिक करते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपना योगदान डालते हैं। कुछ लोगों के पास प्राकृतिक साधन होते हैं, किसी के पास मज़दूरी होती है व किसी के पास पैसा। उद्यमी व्यक्ति इन सब को इकट्ठा करके चीज़ों का उत्पादन करता है व अपना मुनाफा कमाता है इस उत्पादन की प्रक्रिया में फायदा सब में बांटा जाता है। उद्यमी के साथ-साथ सरकारी नीतियों कानून, मज़दूरों की तनख्वाह उनके झगड़ों का निपटारा, व्यापार, काम के साथ सम्बन्धित कानूनों का निर्माण आदि ही इसमें ज़रूरी है। इस प्रकार इन सभी कारणों के कारण उत्पादन होता है। इस प्रकार आर्थिक संस्थाओं का सब से पहला काम उत्पादन करना होता है।

2. उपभोग (Consumption)-उत्पादन के साथ-साथ उपभोग का होना भी बहुत ज़रूरी है क्योंकि बगैर उपभोग के उत्पादन नहीं हो सकता। इसका अर्थ होता है किसी चीज़ का उपयोग करना व उपयोग का अर्थ है, वह गुण जो किसी चीज़ को मनुष्य की ज़रूरत पूरा करने के योग्य बनाता है। साधारण समाजों में तो उपभोग की कोई मुश्किल नहीं होती क्योंकि जो भी चीज़ उत्पादित होती है, उसकी खपत आराम से हो जाती है जैसे आदिम समाज में होता था। व्यक्ति भोजन का उत्पादन करते थे व उसका उपभोग कर लेते थे। परन्तु मुश्किल तो जटिल समाज में होती है। जहां व्यक्ति अपनी प्राथिमक ज़रूरतों के अलावा और चीजें व जरूरतों को विकसित कर लेते हैं। जोकि जीवन जीने के लिए कोई खास ज़रूरी नहीं हैं जैसे टी० वी०, बढ़िया मकान, कारें, ऐशो-आराम के समान इत्यादि। जटिल समाज में इन चीजों की उपभोग बहुत अधिक होता है क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था बढ़ती है।

प्रत्येक समाज का मुख्य काम होता है कि वह उपभोग को समाज के लिए निर्धारित करे। उपभोग की नियमित कई तरीकों से हो सकती है। जैसे उत्पादन पर नियन्त्रण करके उत्पादन पर नियन्त्रण भी कई ढंगों से हो सकता है, जैसे प्राकृतिक साधनों के भण्डार को बचाकर रखना व ताज़ा उत्पादन में भी उनका कम प्रयोग करना।

इसी प्रकार (Export) या निर्यात भी इसका नियन्त्रण कर सकता है। उपभोग को हम प्रचार करके भी प्रभावित कर सकते हैं जैसे कि यदि किसी नई वस्तु का निर्माण हुआ है तो उसके बारे टी० वी० अखबार इत्यादि में प्रचार करके लोगों को उसके बारे में बता सकते हैं। इस प्रकार किसी वस्तु की खपत इस कारण कम या अधिक हो सकती है। इस के अतिरिक्त सरकार भी कानूनी पाबन्दी लगाकर खपत को प्रभावित कर सकती है। जैसे किसी वस्तु के खतरनाक परिणामों के कारण उस पर प्रतिबन्ध लगाना किसी चीज़ की रिआयत देना जिस कारण खपत कम बढ़ सकती है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यवस्था एक संस्थागत नियमों की प्रणाली में काम करती है। जैसे जायदाद की परिभाषा व अधिकारियों का विभाजन, श्रम विभाजन व्यवस्था, उत्पादन व उपभोग की व्यवस्थाओं पर नियन्त्रण। इस प्रकार खपत को नियमित करना आर्थिक संस्थाओं का प्रमुख काम है। ..

3. विनिमय (Exchange)-किसी चीज़ के लेन-देन को विनिमय कहते हैं। इसका अर्थ है किसी आर्थिक वस्तु की जगह दूसरी वस्तु को देना। विनिमय आजकल का नहीं बल्कि पुरातन समाज से ही चला आ रहा है। विनिमय कई प्रकार का होता है। जैसे चीज़ के बदले चीज़, सेवा के बदले चीज़, सेवा के बदले सेवा, चीज़ के बदले पैसा, सेवा के बदले पैसा, पैसे के बदले पैसा। विनिमय को जॉनसन दो श्रेणियों में रखते हैं। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।

प्रत्यक्ष विनिमय सबसे पहले वस्तुओं की वस्तुओं से सेवा बदले सेवा का लेन-देन होता है इसमें व्यवस्थित व्यापार भी होता है व उस समय होता है जब चीज़ों की कीमतों को राजनीतिक सत्ता द्वारा निश्चित किया जाता है। पर समय-समय पर बदल दिया जाता है। इसमें पैसे का विनिमय भी होता है या हम कह सकते हैं कि पैसे देकर चीज़ ली जा सकती है। इस विनिमय के कारण लोगों में बदलने की सुविधा पैदा होती है।

अप्रत्यक्ष विनिमय में तोहफे का बदलना सब से आम रूप है जिसमें एक पक्ष दूसरे पक्ष से किसी खास प्रकार का लाभ लेने के लिए समझौता करता है व बिना किसी चीज़ या सेवा के तोहफे (gift) का लेन-देन होता है इसके अलावा समूह द्वारा उत्पादित चीज़ों के एकत्र करके सदस्यों में दुबारा बांट दिया जाता है।

विनिमय के कारण उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है। जब लोगों को अन्य लोगों से किसी चीज़ को प्राप्त करने में कोई कठिनाई होती है तो वह उस चीज़ द्वारा आत्म निर्भर बनने के लिए भिन्न-भिन्न चीजों का निर्माण करते हैं। दूसरी ओर जब बदलाव बहुत अधिक विकसित हो जाता है व प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने स्रोत से अधिक चीजें लेनी आसान हों तो वह व्यक्ति उत्पादन में उस्ताद हो जाता है तथा अपनी फालतू चीज़ों का उन चीज़ों से बदलाव कर लेता है जिनका उत्पादन और लोग कर रहे होते हैं।

4. विभाजन (Distribution)—साधारण व्यक्ति के लिए विभाजन का मतलब चीजों के एक स्थान से दूसरी जगह ले कर जाना तथा उसके बेचने से है। उसके अनुसार हम चीज़ों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा कर बेच देते हैं पर अर्थशास्त्र में लाने व लेकर जाने के लिए इसको एक किस्म के उत्पादन के रूप में लिया जाता है क्योंकि यह वस्तुओं की सुविधा देता है क्योंकि इसमें वस्तुओं की मलकीयत है।

विभाजन वह प्रक्रिया है जिससे किसी आर्थिक वस्तु का कुल मूल्य उन व्यक्तियों में बांटा जाता है जिन्होंने उस चीज़ के उत्पादन में हिस्सा डाला होता है। भिन्न-भिन्न लोगों व समूहों का अपना विशेष योगदान होता है जिस कारण उन्हें इनाम या मुनाफा मिलना चाहिए। जिन लोगों के पास भूमि होती है उनको आर्थिक क्रिया प्राप्त होती है। मज़दूर को मज़दूरी या तनख्वाह प्राप्त होती है जो व्यक्ति कारखाने बनाता है, उसमें निवेश करने व उसको चलाने के लिए पैसा देता है उसको उद्यमी कहते हैं। उसको पैसा लगाने का मुआवज़ा ब्याज के रूप में प्राप्त होता है। सरकार का भी उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा होता है व वह अपना मुआवज़ा कर के रूप में लेती है। इतना ।

सब कुछ देने के बाद जो कुछ बचता है उसको उद्यमी या प्रबन्धक बोर्ड लाभ के रूप में रख लेता है।
छोटा व्यापार चलाना काफ़ी साधारण मामला है। यदि छोटा व्यापारी ही प्राकृतिक साधनों, पूंजी व मज़दूरी का, आय का प्रबन्ध करता है तो कर को छोड़ कर बाकी सारी आय उस की होती है। इस प्रकार के मामले में किराया, तनख्वाह, लाभ व ब्याज वही छोटा व्यापारी ही प्राप्त करता है। इस बात का यहां कोई भी महत्त्व नहीं होता कि वह व्यक्ति अपनी आमदन के किस भाग को लाभ, तनख्वाह या ब्याज के रूप में मानता है।

पर आजकल की आधुनिक जटिल अर्थव्यवस्था में बड़े व्यापारिक आकार में विभाजन बहुत बड़ी समस्या होती है। उत्पादन की प्रक्रिया में कई कारक होते हैं व प्रत्येक कारक के मालिक भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रत्येक मालिक अपने लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा प्राप्त करने की कोशिश करता है। मजदूर को अधिक तनख्वाह चाहिए होती है। पूंजीपति को अधिक ब्याज चाहिए होता है। उद्यमी उसको कम देना चाहता है क्योंकि इन्हें कम देने से उसका

लाभ बढ़ जाएगा। प्रबन्धकों से मजदूरों में संघर्ष भी लाभ का विभाजन कारण ही होता है। एक का लाभ दूसरे का नुकसान होता है। जब मज़दूरों, प्रबन्धकों व पूंजीपतियों में अधिक लाभ प्राप्त करने की होड़ लग जाती है तो लोग इनके बीच के झगड़े का उपाय ढूंढने में लग जाते हैं ताकि इनका समझौता हो जाए व समाज को अधिक उत्पादन प्राप्त होता रहे। इस प्रकार आर्थिक संस्थाओं के मुख्य कार्य चीज़ों का उत्पादन, उपभोग, विनिमय व विभाजन है।

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प्रश्न 2.
पूंजीवाद के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तार सहित लिखो।
उत्तर-
पूंजीवाद एक आर्थिक व्यवस्था है जिसमें निजी सम्पत्ति की बहुत महत्ता होती है। पूंजीवाद एक दम से ही किसी स्तर पर नहीं पहुंचा बल्कि उसका धीरे-धीरे विकास हुआ है। इसके विकास को देखने के लिए हमें इसका अध्ययन आदिम समाज में करना होगा।

आदिम समाज में वस्तुओं के लेन-देने की व्यवस्था आदान-प्रदान बदलने की व्यवस्था थी। उस समय लाभ (Profit) का विचार प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आया था। लोग चीज़ों के लाभ के लिए एकत्र नहीं करते थे बल्कि उन दिनों के लिए एकत्र करते थे जब चीज़ों की कमी होती थी या फिर सामाजिक प्रसिद्धि के लिए एकत्र करते थे। व्यापारिक व्यवस्था आमतौर पर सेवा व चीज़ों के देने पर निर्भर करती थी। आर्थिक कारक जैसे कि मजदूरी, निवेश, व्यापारिक लाभ के बारे में आदिम समाज को पता नहीं था।

मध्यमवर्गी समाज में व्यापार व वाणिज्य थोड़े से उन्नत हो गए। चाहे शुरू में व्यापार आदान-प्रदान की व्यवस्था पर आधारित था पर धीरे-धीरे पैसा व्यापार करने का एक माध्यम बन गया। इसी ने व्यापार व वाणिज्य को एक प्रकार का उत्साह दिया जिस कारण पैसे, सोना, चांदी व टैक्स की महत्ता बढ गई। पैसा चाहे सम्पत्ति नहीं था, पर यह सम्पत्ति का सूचक था। इसका उत्पादक शक्तियों के लक्षणों पर पूरा प्रभाव था। सिमल के अनुसार पैसे की ‘संस्था के आधुनिक पश्चिमी समाज में व्यवस्थित होने के कारण ज़िन्दगी के हर भाग पर बहुत गहरे प्रभाव पड़े। इसने मालिक व नौकर को आजादी दी वस्तुओं तथा सेवाओं के बेचने तथा खरीदने वाले पर भी असर पड़ा क्योंकि इससे व्यापार के दोनों ओर से रस्मी रिश्ते पैदा हो गए। सिमल के अनुसार पैसे ने हमारी ज़िन्दगी की फिलासफ़ी में बहुत परिवर्तन ला दिए। इसने हमें Practical बना दिया। क्योंकि अब हम प्रत्येक चीज़ को पैसे में तोलने लग पड़े। समाज सम्पर्क, सम्बन्ध औपचारिक तथा अव्यक्तक हो गए। मानवीय सम्बन्ध भी ठण्डे हो गए।

आधुनिक समय के आरम्भिक दौर में आर्थिक गतिविधियां आमतौर पर सरकारी ताकतों द्वारा संचालित होती थीं। इससे हमें यूरोपीय लोगों के राज्य की सरकार अधीन इकट्ठे होकर आगे बढ़ने का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। इस समय में आर्थिक गतिविधियां राजनैतिक सत्ता द्वारा संचालित हैं। ताकि राज्य का लाभ तथा खज़ाना बढ़ सके। देश व्यापारियों की देख-रेख में चलता था तथा व्यापारी एक आर्थिक संगठन की भान्ति लाभ कमाने में लगे हुए हैं। उत्पादक शक्तियां भी व्यापारिक कानून द्वारा संचालित होती हैं। – इसके पश्चात् औद्योगिक क्रान्ति आई जिसने उत्पादन के तरीकों को बदल दिया। व्यापारिक नीतियां लोगों का भला करने में असफल रहीं जिसका चीज़ों के उत्पादन करने के लिए (Laissez faire) की नीति अपनाई गई। इस नीति के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हित देख सकता था। उस पर कोई बन्धन नहीं था। राज्य ने आर्थिक कार्य में दखल देना बन्द कर दिया। समनर के अनुसार राज्य के व्यापार व वाणिज्य पर लगे सारे प्रतिबन्ध हटा लेने चाहिएं व उत्पादन, आदान-प्रदान व पैसे को इकट्ठा करने पर लगी सभी पाबन्दियां हटा लेनी चाहिएं। एडम स्मिथ ने इस समय चार सिद्धान्तों का वर्णन किया।

  1. व्यक्तिगत हित की नीति।
  2. दखल न देने की नीति।
  3. प्रतियोगिता का सिद्धान्त।
  4. लाभ को देखना।

इन सिद्धान्तों का उस समय पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। इन नियमों के प्रभाव अधीन व औद्योगिक क्रान्ति के कारण सम्पत्ति व उत्पादन की मलकीयत की नई व्यवस्था सामने आई जिसको पूंजीवाद का नाम दिया गया। औद्योगिक क्रान्ति के कारण घरेलू उत्पादन कारखानों के उत्पादन में बदल गया। कारखानों में काम छोटे-छोटे भागों में बंटा होता था तथा प्रत्येक मज़दूर थोड़ा या छोटा सा काम करता था। इससे उत्पादन बढ़ गया। समय के साथ-साथ बड़ेबड़े कारखाने लग गए। इन बड़े कारखानों के मालिक निगम वजूद में आ गए। पूंजीवाद के साथ-साथ श्रमविभाजन, विशेषीकरण व लेन-देन भी पहचान में आया। इस उत्पादन व लेन-देन की व्यवस्था में उत्पादन के साधन के मालिक व्यक्तिगत लोग थे और उन पर कोई सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं थी। सम्पत्ति बिल्कुल निजी थी तथा वह राज्य, धर्म, परिवार व अन्य संस्थाओं की पाबन्दियों से स्वतन्त्र थे। फैक्टरियों के मालिक कुछ भी करने को स्वतन्त्र थे। उनका उद्देश्य केवल लाभ था।

उन पर बिना लाभ की चीजों का उत्पादन करने का कोई बन्धन नहीं था। उत्पादन का तरीका लाभ वाला था और सरकार ने दखल न देने की नीति अपनाई तथा इस दिशा में मालिक का साथ दिया।

पूंजीवाद के लक्षण (Features of Capitalism) –

1. बड़े स्तर पर उत्पादन (Large Scale Production)-पूंजीवाद का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है उत्पादन का बढ़ना। उद्योगों के लगने से उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा। पूंजीवाद औद्योगिक क्रान्ति के कारण आया जिस कारण बड़े स्तर पर उत्पादन मुश्किल हुआ। बड़े-बड़े कारखानों व श्रम-विभाजन पर विशेषीकरण के बढ़ने से उत्पादन भी बढ़ गया। अधिक उत्पादन का अर्थ था पूंजी का बड़े स्तर पर उपयोग और बहुत अधिक फ़ायदा।

2. निजी सम्पत्ति (Private Property)—निजी सम्पत्ति आधुनिक समाज व आधुनिक आर्थिक जीवन का आधार है। यह पूंजीवाद का ही आधार है। पूंजीवाद में प्रत्येक व्यक्ति को कमाने का हक तथा सम्पत्ति को रखने का अधिकार है। सम्पत्ति रखने के हक को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में देखा जाता है। निजी सम्पत्ति के कारण ही बड़े-बड़े कारखाने, उद्योग, निगम कार्य प्रणाली में आए व पूंजीवाद बढ़ा।

3. प्रतियोगिता (Competition)-पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतियोगिता एक ज़रूरी तत्त्व के परिणाम है। पूंजीवाद में भिन्न-भिन्न पूंजीपतियों में बहुत अधिक मुकाबला देखने को मिलता है। मांग को नकली तौर पर बढ़ाकर व पूर्ति को घटा दिया जाता है व पूंजीवाद में कठिन मुकाबला होता है। इस मुकाबले में बड़े पूंजीपति जीत जाते हैं व छोटे पूंजीपति हार जाते हैं।

4. लाभ (Profit)-मार्क्स के अनुसार लाभ के बिना पूंजीवाद नहीं टिक सकता। पूंजीपति बड़े पैमाने पर पूंजी का निवेश करता है ताकि लाभ कमाया जा सके। पूंजीवाद में उत्पादन लाभ के लिए किया जाता है ना कि समाज कल्याण या समाज की ज़रूरतें पूरी करने के लिए।

5. कीमत प्रणाली (Price System)-पूंजीवाद में मुख्य उद्देश्य अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करना होता है। किसी चीज़ की कीमत उस पर लगी लागत के आधार पर नहीं बल्कि उस चीज़ की मांग के आधार पर निर्धारित होती है। इसी प्रकार मजदूरों की मज़दूरी भी उनकी मांग के अनुसार निश्चित होती है। उस काम की कीमत अधिक होती है जिसकी बाज़ार में मांग अधिक होती है। चीज़ की कीमत उसकी बाज़ार में मांग के आधार पर निर्धारित होती है। इसी प्रकार श्रम की कीमत भी उनकी मांग के अनुसार कारखाने में ही निर्धारित होती है।

6. मुद्रा और उधार (Money and Credit)-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पैसे व उधार की बहुत महत्ता होती है। पूंजीपति कर्जे लेते हैं व अपने उत्पादन व व्यापार को बढ़ाते हैं। यह उधार साहूकारों, बैंकों आदि से लिए जाते हैं। इस कर्जे से वह उत्पादन बढ़ाते हैं। इस कर्जे का उन्हें ब्याज़ भी देना पड़ता है।

7. मज़दूरी (Wages)-पूंजीवाद में मजदूर की दशा बहुत ही असुविधाजनक होती है। पूंजीपति का मज़दूरों के प्रति एक ही उद्देश्य होता है व वह है कम-से-कम पैसे देकर अधिक-से-अधिक काम लिया जा सके। मज़दूरों का पूंजीवाद में शोषण होता है।

प्रश्न 3.
राज्य का क्या अर्थ होता है ? इसके परिभाषाओं सहित वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय राज्य है पर राज्य का प्रयोग कई रूपों में किया जाता है जिसके कारण एक आम आदमी को राज्य के अर्थ का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। आमतौर पर राज्य, समाज, सरकार और राष्ट्र में अन्तर नहीं किया जाता और इन शब्दों का अर्थ एक ही लिया जाता है। आम नागरिक के लिए राज्य और सरकार में कोई अन्तर नहीं है। इसी तरह राज्य का प्रयोग राष्ट्र के स्थान पर किया जाता है पर राजनीति शास्त्र की दृष्टि से यह ग़लत है। इन शब्दों का अर्थ राजनीति शास्त्र में अलग-अलग है। कई बार एक संघ (Federation) और उसकी इकाइयों के लिए भी राज्य शब्द प्रयोग किया जाता है। जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका को भी राज्य कहा जाता है और उसकी इकाइयों के लिए भी राज्य शब्द प्रयोग किया जाता है। इसी तरह भारत को भी राज्य कहा जाता है और इसकी इकाइयां-पंजाब, बंगाल, तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश को भी राज्य ही कहा जाता है पर असलियत यह है कि संघ की इकाइयां राज्य नहीं हैं और उनके लिए राज्य शब्द प्रयोग करना ग़लत है। इसलिए राज्य शब्द का ठीक-ठाक अर्थ जानना ज़रूरी है।

राज्य शब्द की उत्पत्ति (Etymology of the world ‘state’) राज्य शब्द को अंग्रेजी में स्टेट (State) कहा जाता है। स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के स्टेटस (Status) शब्द से लिया गया है। स्टेटस (Status) शब्द का अर्थ है किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर। प्राचीन काल में राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था। इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक दर्जे को बताने के लिए किया जाता था पर धीरे-धीरे इसका अर्थ बदल गया। और इसका अर्थ सिस्रो (Cicero) के समय तक सारे समाज के दर्जे के साथ हो गया। आधुनिक अर्थ में इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले इटली के प्रसिद्ध राजनीतिक मैकाइवली (Machiaveli) ने किया। उसने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया। मैकाइवली (Machiaveli) ने अपनी पुस्तक ‘The Prince’ में लिखा है “वह सब शक्तियां’ जिन पर लोगों का अधिकार होता है राज्य (State) होते हैं और वह राज्यतन्त्री या गणतन्त्री होते हैं।” (“All the powers which have had and have authority over man are states (state) and are either monarchies or republic.”) प्रो० बार्कर (Barker) ने लिखा है, “राज्य शब्द जब 16वीं सदी में शुरू हुआ इटली से अपने साथ महान् राज्य या महानता का अर्थ भी लिखवाया जो किसी व्यक्ति या समुदाय में छुपा होता है।”

राज्य एक सम्पूर्ण समाज का हिस्सा है। यद्यपि यह सामाजिक जीवन के सारे पक्षों को प्रभावित करता है पर फिर भी यह समाज का स्थान नहीं ले सकता। राज्य एक ऐसी एजेंसी है जो समाजिक समितियों को नियन्त्रित करती है। राज्य समाज के सारे पक्षों को प्रभावित करता है और उनमें तालमेल बिठाकर रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

  • हॉलैंड (Holland) के अनुसार, “राज्य मनुष्यों के उस समूह को कहते हैं जो आमतौर पर किसी निश्चित प्रदेश पर बसा हो, जिसमें बहु-संख्यक दल या किसी निश्चित वर्ग का फैसला उस वर्ग या दल की शक्ति के द्वारा समूह के उन व्यक्तियों से ही स्वीकार करवाया जा सके जो इसका विरोध करते हैं।”
  • बोदिन (Bodin) के अनुसार, “राज्य सम्पत्ति सहित परिवारों का एक संघ है जो किसी उच्च शक्ति और नियमों द्वारा शासित हो।”
  • मैकाइवर (Maciver) के अनुसार, “राज्य एक ऐसी समिति है जो कानून द्वारा शासन व्यवस्था को चलाती है और जिसको एक निश्चित भू-भाग में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने का सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होता है।”
  • वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) के अनुसार, “लोगों के किसी भूमि भागों में कानून के लिए संगठित होने को ही राज्य कहा जाता है।”
  • ऐंडरसन और पार्कर (Anderson and Parkar) के अनुसार, “राज्य समाज में वह समिति है जो निश्चित भू-भाग में सत्ता का प्रयोग कर सकती है।”

इस तरह इन परिभाषाओं के अध्ययन से हम यह कह सकते हैं कि राज्य एक ऐसे लोगों का समूह है जो कि निश्चित भू-भाग में होता है, अर्थात् उसका अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है, जिसकी एक सरकार होती है, जिसकी मदद के साथ राज्य अपने काम करता है, अपने हुक्म मनवाता है और जनसंख्या पर नियन्त्रण रखता है और जिसकी अपनी प्रभुसत्ता होती है। प्रभुसत्ता से मतलब है कि वह किसी बाहरी दबाव से मुक्त होता है। उस पर किसी किस्म का दबाव नहीं होता। राज्य अपनी सीमाओं की बाहरी हमले से रक्षा करता है और यदि उसके अन्दर ही बगावत होती है तो वह उसको दबाने के लिए भौतिक शक्ति, जो उसके पास होती है सरकार तथा पुलिस के रूप में, का भी प्रयोग करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

प्रश्न 4.
राज्य के अलग-अलग तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-
डॉ० गार्नर के अनुसार राज्य के चार तत्त्व हैं-
(1) मनुष्यों का एक समुदाय।
(2) एक प्रदेश जिसमें वह स्थाई रूप से रहते हों।
(3) अन्दरुनी और बाहर की प्रभुसत्ता।
(4) राजनीतिक संगठन। गैटेल ने भी राज्य के चार तत्त्व बताएं हैं। वह चार तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. जनसंख्या (Population)
  2. निश्चित भूमि (Fixed territory)
  3. सरकार (Government)
  4. प्रभु-शक्ति (Sovereignty)

1. जनसंख्या (Population)-राज्य का मुख्य तत्त्व जनसंख्या है। राज्य पशु-पक्षियों का समूह नहीं है। वह मनुष्यों की एक राजनीतिक संस्था है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना की तो दूर की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस तरह बिना पति-पत्नी के परिवार, मिट्टी के बिना घड़ा और सूत के बिना कपड़ा नहीं बन सकता, उसी तरह बिना आदमियों के समूह के राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य में कितनी जनसंख्या होनी चाहिए, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है पर राज्य के लिए काफ़ी जनसंख्या होनी चाहिए। दस-बीस आदमी राज्य नहीं बना सकते। गार्नर (Garner) के शब्दों में, “राज्य की हस्ती के लिए जनता रूपी भौतिक तत्त्व की बहुत ज़रूरत है। जनता की कमी में राज्य की कल्पना सम्भव नहीं।”

वर्तमान राज्यों की जनसंख्या को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि राज्य की जनसंख्या निश्चित करनी मुश्किल नहीं बल्कि असम्भव भी है पर फिर भी हम अरस्तु (Aristotle) के इस विचार से सहमत हैं कि राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि राज्य आत्म-निर्भर हो सके और देश का शासन भी अच्छी तरह से चलाया जा सके। असल में राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि वहां की जनता सुखी और खुशहाल जीवन बिता सके। उस पर अच्छे ढंग के शासन की स्थापना की जा सके और इसमें एक स्थाई सरकार कायम हो सके।

2. निश्चित भूमि (Fixed territory)-जिस तरह राज्य के लिए जनसंख्या का होना ज़रूरी है उसी तरह निश्चित भूमि का होना भी ज़रूरी है पर कई प्रकार के लेखकों ने इसको राज्य का आवश्यक तत्त्व नहीं माना। जैलीनेक (Jellinek) ने लिखा है, “19वीं सदी से पहले किसी भी लेखक ने राज्य की परिभाषा में भूमि या प्रदेश का ज़िक्र नहीं किया है और क्लूबर पहला लेखक था जिसने 1817 में राज्य के लिए निश्चित भूमि का होना ज़रूरी माना।”

लेखकों के विचार के अनुसार निश्चित भूमि के बिना राज्य नहीं बन सकता। यदि जनता राज्य की आत्मा है तो भूमि उसका शरीर है।
आदमियों का समूह जब तक किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता उस वक्त तक राज्य की स्थापना नहीं हो सकती।

खाना-बदोश कबीले (Nomadic tribes), जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं, राज्य की स्थापना नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास निश्चित भू-भाग नहीं होता। सन् 1948 से पहले यहूदी सारे संसार में फैले होते हैं पर उनका अपना कोई राज्य नहीं था क्योंकि वह निश्चित भू-भाग पर नहीं रह रहे थे। जब उन्होंने इज़राइल के निश्चित भू-भाग पर रहना शुरू कर दिया तो इज़राइल राज्य बन गया। असल में राज्य का यह तत्त्व राज्य को दूसरे समुदायों से अलग करता है।

3. सरकार (Government)-जनसंख्या तथा भूमि के बाद राज्य की स्थापना के लिए सरकार की ज़रूरत होती है। किसी निश्चित इलाके पर बना आदमियों का समुदाय उस वक्त तक राज्य नहीं कहा जा सकता, जब तक वह राजसी दृष्टि से संगठित न हो। सरकार ही एक ऐसा संगठन है। संस्था (Agency) है जिसकी मदद से राज्य की इच्छा प्रकट होती है और अमल में लाई जाती है। सरकार के बिना जन-समूह संगठित नहीं हो सकता। सरकार द्वारा ही लोगों के आपसी सम्बन्धों को नियमित बनाया जाता है। शान्ति और व्यवस्था को लागू किया जाता है। और बाहर के हमलों से लोगों की रक्षा की जाती है और दूसरे देशों के साथ मित्रता पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करती है। सरकार के बिना जनता में आशान्ति रहेगी। इसलिए राज्य एक अमूर्त संस्था है और सरकार उस अमूर्त संस्था का मूर्त रूप सरकार के माध्यम से हम राज्य के साथ सम्बन्ध कायम कर सकते हैं या राज्य तक पहुँच सकते हैं।

राज्य में सरकार किसी भी किस्म की हो सकती है। भारत, इंग्लैण्ड, स्विट्ज़रलैंड, कैनेडा, फ्रांस, जर्मनी, न्यूजीलैंड आदि देशों में लोकराज्य (Democracy) है जबकि चीन, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, क्यूबा आदि देशों में कम्यूनिस्ट पार्टी की तानाशाही (Dictatorship) है। कुवैत, सऊदी अरब आदि में राज्य तन्त्र (Monarchy) है। कई देशों में संसदीय सरकार (Parliamentary Government) है और कई देशों में अध्यक्षात्मक सरकार (Presidential Government) है । जापान, इंग्लैण्ड, भारत आदि देशों में संसदीय सरकार है जबकि अमेरिका में अध्यात्मक सरकार हैं। कुछ देशों में संघात्मक सरकार है जबकि कुछ देशों में एकात्मक सरकार (Unitary Government) हैं। अमरीका, स्विट्ज़रलैण्ड और भारत में संघात्मक सरकार हैं जबकि जापान इंग्लैण्ड में सरकार एकात्मक है। किसी राज्य में किस किस्म की सरकार हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि सरकारें तो बदल सकती हैं और बदलती रहती हैं। जिस तरह भू-भाग और जनसंख्या के कम या ज्यादा होने के कारण राज्य पर अन्तर नहीं उसी तरह सरकार के स्वरूप में परिवर्तन आने के साथ ही राज्य के स्तर पर असर नहीं पड़ता क्योंकि सरकार का काम तो कानून बनाना, उनका पालन करवाने, लोगों की रखवाली का प्रबन्ध आदि करना है।

4. प्रभुसत्ता (Sovereignty)-प्रभुसत्ता राज्य के लिए चौथा ज़रूरी तत्त्व हैं। जनता के समूह के लिए एक निश्चित भू-भाग रहने और सरकार का होना ही राज्य के लिए जरूरी नहीं। प्रभुसत्ता के बिना राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। प्रभु शक्ति को अंगेज़ी में (Sovereignt) कहते हैं जो कि लातीनी भाषा के शब्द ‘सुपरेन्स’ (Superanus) से निकला है जिसका अर्थ है ‘सर्वोच्च’ Supreme । इस तरह प्रभुसत्ता (Sovereignt) का अर्थ हुआ राज्य की सर्वोच्च शक्ति राज्य के पास अधिकार होते हैं, कोई भी उसके विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकता। प्रभुसत्ता के कारण ही राज्य का अपने सारे नागरिकों और उनकी संस्थाओं पर उसका पूरा नियन्त्रण होता हैं और भू-भाग से बाहर की किसी भी शक्ति के अधीन नहीं रहता।

इस तरह राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्वों की जरूरत है और चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। इन चारों तत्त्वों के बिना प्रो० विलोबी (Willoughby) के अनुसार, “राज्य के लिए यह और ज़रूरी तत्त्व प्रजा द्वारा आज्ञा पालना की भावना है, पर हमारे विचार के अनुसार जब राज्य में चार तत्त्व हों तो प्रजा में आज्ञा पालन की भावना ज़रूर होती है और किसी राज्य के लोगों में आज्ञा पालन की भावना नहीं हैं तो वह राज्य जल्दी नष्ट हो जाता है।”

प्रश्न 5.
राज्य की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. स्थिरता (Permanence)—इसका अर्थ यह है कि राज्य एक स्थाई संगठन है। इसका अर्थ गार्नर (Garner) के शब्दों में यह है, “जो लोग एक बार राज्य के तौर पर संगठित हो जाते हैं, हमेशा किसी न किसी राज्य संगठित के अधीन होते हैं।” यदि किसी कारण एक राज्य में दूसरे राज्य का हिस्सा शामिल हो जाए तो या कट जाए तो इसके कारण राज्य की कानूनी हस्ती पर कोई असर नहीं पड़ता। युद्ध पर किसी सन्धि के कारण कई बार कई राज्य खत्म हो जाते हैं या किसी और राज्य में शामिल कर लिए जाते हैं पर ऐसा होने पर प्रभुसत्ता का परिवर्तन होता है अर्थात् प्रभुसत्ता एक राज्य से दूसरे राज्य के पास चली जाती है पर जनता राज्य में ही रहती है, चाहे वह दूसरा राज्य ही हो।

2. निरन्तरता (Continuity) राज्य का सिलसिला निरन्तर बना रहता है। राज्य की सरकार के रूप में परिवर्तन आने पर राज्य पर कोई असर नहीं पड़ता। एक राज्य की सरकार राजतन्त्र से बदलकर गणतंत्र बन जाए और निरंकुश शासन से लोक-राज्य बन जाए तो इन परिवर्तनों के कारण राज्य की एकरूपता या उसकी अन्तर्राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी पर कोई असर नहीं पड़ता। यह सिद्धान्त राज्य की निरंतरता का सिद्धान्त है और इसी सिद्धान्त के कारण राज्य की विरासत के सिद्धान्त का जन्म हुआ है।

3. सर्वव्यापकता (All Comprehensiveness)-सर्व-व्यापकता का अर्थ यह हैं कि राज्य की प्रभुसत्ता अपने भू-भाग पर रहने वाले व्यक्ति, संस्था और चीज़ पर लागू होती है। कोई भी व्यक्ति, समुदाय या संस्था राज्य के नियन्त्रण से नहीं बच सकती। यह बात अलग है कि अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टाचार के नाते या अन्तर्राष्ट्रीय कानून के सर्वमान्य सिद्धान्तों का आदर करते हुए राज्य अपने आदेशों को कुछ व्यक्तियों पर लागू न कर सके। यह लक्षण असल में अंदरूनी प्रभु-शक्ति में छुपा हुआ है।

4. राज्य समाज की सबसे शक्तिशाली संस्था है (It is an powerful institution of society)-राज्य समाज की सबसे शक्तिशाली संस्था है क्योंकि इसके पास अपनी आज्ञा मनवाने के साधन होते हैं चाहे यह साधन रस्मी होते हैं जैसे-पुलिस, कानून, सरकार आदि, पर इनकी मदद से राज्य समाज की सारी और संस्थाओं पर नियन्त्रण रखता है और सभी को आज्ञा देकर सूत्र में बांधकर रखता है।

5. राज्य के पास वास्तविक शक्तियां और प्रभुसत्ता (State has original powers and Sovereignty)यह राज्य ही है जिस के पास वास्तविक शक्तियां होती हैं चाहे यह शक्तियां आगे बंटी होती हैं, पर यह होती राज्य की हैं। असल में राज्य की सारी शक्तियां सरकार इस्तेमाल करती है पर करती राज्य के नाम पर है। सरकार ऐसा कुछ नहीं कर सकती जो राज्य के विरुद्ध जाए। राज्य के पास अपनी प्रभुसत्ता होती है। सरकार भी आज़ाद होती है पर असल में राज्य अपने आप में स्वतन्त्र होता है और यह किसी के अधीन रह कर काम नहीं करता।

6. राज्य सार्वजनिक हितों की रक्षा करता है (State takes care of Public Interest)-राज्य का एक प्रमुख लक्षण है उसकी जनसंख्या। यह राज्य के लिए ज़रूरी है कि उसकी जनसंख्या हो और वह जनसंख्या सुखी हो। यदि जनसंख्या सुखी नहीं है तो उस राज्य का होना न होना एक बराबर है इसके लिए यह ज़रूरी है कि राज्य लोगों के भले के लिए काम करे और राज्य करता भी है। राज्य किसी खास व्यक्ति या समूह के हितों की रक्षा भी करता है और उनका भला करने की कोशिश करता है ।

7. राज्य अपने आप में एक उद्देश्य है (State is an end itself)-राज्य अपने आप में एक उद्देश्य है और सरकार उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन है। राज्य की सत्ता और शक्ति सब से ऊंची है और कोई भी राज्य से ऊंचा नहीं है। सरकारें आती रहती हैं, और बदलती रहती हैं पर राज्य अपने स्थान पर खड़ा रहता है।

8. राज्य अमूर्त होता है (State is abstract)-राज्य एक अमूर्त शब्द है। हम राज्य को देख या स्पर्श नहीं सकते पर हम राज्य को और राज्य की शक्ति को महसूस कर सकते हैं। हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि यह किस तरह का होगा । उदाहरण के तौर पर भारत माता की हम कल्पना कर सकते हैं पर हमने इसको देखा. नहीं है। हम इसको स्पर्श नहीं सकते। इसी तरह ही राज्य भी अमूर्त होता है।

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प्रश्न 6.
राज्य के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
आधुनिक राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का कल्याण करना है। राज्य व्यक्ति के विकास के लिए काम करता है। प्रो० गैटेल और विलोबी ने राज्य के कार्यों को दो हिस्सों में बांटा है-आवश्यक कार्य और इच्छुक कार्य।

आवश्यक कार्य (Compulsory Functions)-

1. बाहरी हमलों से सुरक्षा (Protection from External Aggression)-राज्य अपने नागरिकों की बाहरी हमलों से रक्षा करता है, जो बाहरी हमलों से रक्षा नहीं कर सकता, वह राज्य खत्म हो जाता है। यदि नागरिकों का जीवन बाहरी हमलों से सुरक्षित नहीं है तो नागरिक अपने जीवन का विकास करने के लिए प्रयत्न नहीं करेंगे। राज्य अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सेना का प्रबन्ध करता है। अन्दरूनी शान्ति की स्थापना के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है।

2. कर लगाना (Taxation)-मुद्रा निश्चित करना, कर लगाना और इकट्ठा करना राज्य का ज़रूरी काम है। बिना कर लगाए राज्य का काम नहीं चल सकता। जिस राज्य की आमदन कम होगी वह नागरिकों की सहूलियत के लिए उतने ही कम काम करेगा। एक अच्छे राज्य की आय काफ़ी होनी चाहिए पर कर वही लगाने चाहिएं जो उचित हों।

3. जीवन एवं सम्पत्ति की रक्षा करना (Protection of Life and Property) लोगों के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करना राज्य का ज़रूरी काम है। राज्य को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिसके साथ किसी भी व्यक्ति को अपनी जान का ख़तरा न हो। राज्य को सम्पत्ति के बारे में भी निश्चित कानून बनाने चाहिए। जीवन और सम्पत्ति की रक्षा के लिए राज्य पुलिस का प्रबन्ध करता है जो चोरों, और अपराधियों से व्यक्तियों की रक्षा करती है।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा (Protection of Civil Rights – प्रत्येक राज्य के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार मिले होते हैं जैसे-जीने का अधिकार, रोटरी कमाने का अधिकार, सम्पत्ति रखने का अधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार । इस तरह के अधिकारों की वकालत ता कांयुक्त राष्ट्र (United Nation) भी करता है। यदि व्यक्ति के पास यह अधिकार न हों तो उसका जीवन नर्क बन जाए। इस तरह यह राज्य का कर्तव्य है कि वह नागरिकों के इन अधिकारों की रक्षा करे और इसके लिए उचित कानुन बनाए। जो इन अधिकारों को किसी से छीनने की कोशिश करे तो उसको सज़ा दिलवाना भी सरकार का ही काम होता है।

5. कानन और व्यवस्था की स्थापना करना (Maintenance of law and order)-देश में कानून और व्यवस्था की स्थापना करना राज्य का महत्त्वपूर्ण काम है। अपराधों को रोकना, अपराधियों को दण्ड देना, जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए राज्य कानूनों का निर्माण करता है और कानूनों को लागू करता है। पुलिस की व्यवस्था की जाती है ताकि काना तोड़ने वालों को पकड़ा जा सके और उनको सज़ा दी जा सके।

6. न्याय का प्रबन्ध (Administration Judiciary)-जिस राज्य में न्याय की व्यवस्था सर्वोत्तम होती है उसी राज्य को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उत्तम न्याय व्यवस्था का अर्थ है कि गरीब-अमीर, निर्बल-शक्तिशाली, अनपढ़ और पढ़े-लिखे में किसी तरह के अन्तर का होना अर्थात् कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होने चाहिएं। हर एक राज्य न्यायपालिका की स्थापना करता है। न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना अति ज़रूरी है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही निष्पक्ष फ़ैसला दे सकती है। इस स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना करना राज्य का आवश्यक तत्त्व है।

7. परिवारों के सम्बन्धों को स्थिर रखना (Maintenance of family relations)-परिवार पूरे समाज का केन्द्र बिन्दु है। इसके कारण यह सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। इसलिए राज्य का कर्तव्य है कि यह पिता और पुत्र, पति-पत्नि, भाई-बहन और बाकी परिवार के आपसी सम्बन्धों की और उनके पारिवारिक अधिकारों और कर्त्तव्यों की व्याख्या करके उनके सम्बन्ध में कानून बनाए।

ऐच्छिक कार्य (Optional Functions)-

1. कृषि की उन्नति (Development of Agriculture)—वर्तमान राज्य कृषि की उन्नति के लिए काम करता है। जिस देश में अन्न की समस्या रहती है उस राज्य को दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे कई बार उनको विदेशी राज्यों की अनुचित मांगों को भी मानना पड़ता है। सरकार किसानों को अच्छे बीज, ट्रैक्टर, खाद और कर्जा देने की सहूलियत प्रदान करती है। सिंचाई के साधनों का उचित प्रबन्ध करना राज्य का काम है।

2. मनोरंजन के साधनों का प्रबन्ध करना (To provide Recreational Facilities)-वर्तमान राज्य नागरिकों के मनोरंजन का प्रबन्ध करता है। इसके लिए राज्य सिनेमा, नाटक घरों, कला केन्द्रों, तालाबों, पार्कों, होटलों आदि की स्थापना करता है। राज्य अच्छे कलाकारों और साहित्यकारों को पुरस्कार भी देता है।

3. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)-वर्तमान राज्य का महत्त्वपूर्ण काम शिक्षा का प्रसार करना है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रसार धार्मिक संस्थाएं करती थीं। परन्तु कोई भी राज्य शिक्षा को धर्म प्रचारकों की इच्छा पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो सकता। शिक्षा से मनुष्य को अपने अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान होता है। शिक्षा के बिना नागरिक आदर्श नागरिक नहीं बना सकता और न ही अपनी शख्सीयत का विकास कर सकता है। लोकतान्त्रिक राज्यों में शिक्षा का महत्त्व और भी ज्यादा है क्योंकि प्रजातन्त्र सरकार की सफलता नागरिकों पर निर्भर करती है। हर एक राज्य शिक्षा के प्रसार के लिए स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की स्थापना करता है। ग़रीब विद्यार्थियों को वज़ीफे दिए जाते हैं और शिक्षा के लिए सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।

4. समाजिक और नैतिक सुधार (Social and Moral Reforms)-वर्तमान राज्य अपने नागरिकों के समाजिक और नैतिक स्तर को ऊँचा करने के लिए काम करता है। भारत में सती प्रथा, बाल-विवाह प्रथा, छुआछूत आदि अनेक बीमारियां थीं, जिनको कानूनों द्वारा स्थापित किया गया है। अफ़ीम खाना और शराब पीने को अच्छा नहीं समझा जाता था। क्योंकि इससे सेहत खराब हो जाती है। इसलिए कई राज्यों में शराब पीने और अफ़ीम खाने की मनाही है। परन्तु अब इसका प्रयोग कम हो गया है क्योंकि राज्य ने अनेक पाबन्दियां लगाई हैं।

5. संचार के साधनों की उन्नति (Development of the means of communication)–नागरिक खुद संचार साधनों का विकास नहीं कर सकता। संचार के साधनों का विकास राज्य द्वारा ही किया जाता है। राज्य रेलवे, सड़कों, तार-घर, डाक-घर रेडियो आदि की स्थापना करता है। __6. सार्वजनिक उपयोगी काम (Public Utility Works)-वर्तमान राज्य सार्वजनिक उपयोगी काम भी करता है। राज्य नई सड़कों का निर्माण करता है और पुरानी सड़कों की मुरम्मत करता है। बिजली का प्रबन्ध भी इसके द्वारा ही किया जाता है। हवाई जहाज़ और समुद्री जहाज़ का प्रबन्ध आमतौर पर राज्य ही किया करता है। टैलीफोन की व्यवस्था राज्य द्वारा ही की जाती है।

प्रश्न 7.
पंचायत के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
पंचायत भारत में स्थानीय स्वैःशासन की पुरातन संस्था है, जो देश में बहुत सारी सामाजिक और राजनीतिक क्रांतियों और परिवर्तनों के होते हुए भी स्थिर रही है। चालर्स मेटकॉफ (Charles Metcalf) के शब्दों में, ‘ग्रामीण भाईचारे छोटे गणतंत्र होते हैं जो अपनी सीमाओं में रहते हुए अपनी इच्छा के अनुसार जो चाहे कर सकते हैं बाह्य हस्तक्षेप से स्वतन्त्र होते हैं। वह निरन्तर स्थिर चलते आ रहे हैं। खानदान के बाद खानदान की समाप्ति हुई ; क्रान्तियों के बाद क्रान्तियां आईं, पर ग्रामीण समुदायों (Village Communities) ने अलग राज्य के रूप में देश की बहुत सहायता की है।”

पंचायत की रचना (Composition of Panchayat)- पंचायत के सदस्यों की संख्या और चुनाव (Number and Election of Members of Panchayat)—पंचायत के सदस्यों को पंच और इसके प्रधान को सरपंच कहा जाता है। प्रत्येक राज्य में पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के बालिग सदस्यों अर्थात् 18 साल के प्रत्येक पुरुष और स्त्री जिनका नाम राज्य विधान सभा के चुनाव के लिए बनाई गई वोटर सूची में दर्ज है, वह ग्राम पंचायत के सदस्यों के चुनाव के समय वोट देने के हकदार होते हैं। इस तरह पंचायत के सदस्यों का चुनाव सीधे तौर पर किया जाता है। पंचायत के सदस्यों की संख्या ग्राम सभा की आबादी पर निर्भर करती है। भिन्नभिन्न राज्यों में ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न है।

सीटों का आरक्षण (Reservation of Seats)-73वें संवैधानिक संशोधन कानून, 1992 के अन्तर्गत सभी राज्यों ने अपने राज्य एक्टों द्वारा, पंचायत राज्य की सभी संस्थाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित कबीलों, पिछड़ी श्रेणियों और स्त्रियों के लिए कुछ सीटें आरक्षित रखने के लिए व्यवस्था की है।

पंचायत के सदस्यों के लिए योग्यताएं (Qualifications for the members of a Panchayat)(1) वह भारत का नागरिक हो, उसको विधान सभा का सदस्य चुने जाने के लिए आवश्यक सभी योग्यताएं प्राप्त हों। (2) वह उस पंचायत क्षेत्र का प्रवासी हो। (3) उसकी आयु 25 साल से कम न हो। (4) वह स्थानिक सरकार या राज्य सरकार या केन्द्र सरकार का कर्मचारी न हो। (5) उसके दिवालिया होने का ऐलान किसी अदालत द्वारा न किया गया हो। (6) वह किसी अपराध में सज़ा न झेल चुका हो, या जिसकी सज़ा को खत्म हुए साल का समय बीत चुका हो।

सरपंच या चेयरपर्सन (Sarpanch or Chairperson)-ग्राम पंचायत के मुखी को सरपंच या चेयरपर्सन कहा जाता है। भिन्न-भिन्न राज्यों मे इसको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। सरपंच की चुनाव प्रणाली भी एक जैसी नहीं है। ज्यादातर राज्यों में इसका चुनाव सीधे तौर पर किया जाता है। अर्थात् ग्राम सभा के सदस्य जिनको वोट देने का अधिकार प्राप्त है और जो ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करते हैं, वह वोटर ही ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव भी करते हैं। यह प्रणाली बिहार, गुजरात, गोवा, मध्य प्रदेश, आसाम, मणिपुर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में प्रचलित है। कुछ राज्यों में सरपंच का चुनाव अप्रत्यक्ष तौर पर किया जाता है अर्थात् ग्राम पंचायत के सदस्य अपने में से ही एक व्यक्ति को सरपंच चुन लेते हैं। ऐसी प्रणाली कर्नाटक, केरल, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश में प्रचलित है। हर एक जिले की पंचायतों में सरपंचों के लिए कुछ सीटें अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित कबीलों के व्यक्तियों के लिए, जिले में इन जातियों तथा कबीलों की आबादी के अनुपात के अनुसार आरक्षित रखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त हर एक ज़िले की पंचायतों के सरपंचों की सीटों में से एक-तिहाई सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी जाती हैं। कुछ राज्यों में सरपंचों की कुछ सीटें पिछड़ी श्रेणियों के लिए भी आरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है।

ग्राम पंचायत के कार्य (Functions of Gram Panchayat) ग्राम पंचायत के कई कार्य होते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया है

(i) सार्वजनिक कार्य (Public Functions)—पंचायत के सार्वजनिक कार्य इस प्रकार हैं-

  • अपने क्षेत्र की सड़कों की देखभाल करना, उनकी मुरम्मत करना।
  • गांव की सफ़ाई करना।
  • कुएँ, नल, तालाबों आदि की व्यवस्था करना।
  • गलियों एवं बाजारों में रोशनी का प्रबन्ध करना।
  • शमशानों और कब्रिस्तानों की निगरानी करना।
  • जन्म और मृत्यु का हिसाब रखना।
  • प्राइमरी शिक्षा के लिए यत्न करना।
  • ग्राम सभा से सम्बन्धित किसी भी इमारत की सुरक्षा करना।
  • पशुओं की मण्डी लगवाना और पशुओं की नस्ल में सुधार करना।
  • मेले और त्यौहारों के अतिरिक्त सामाजिक त्यौहारों को मनाना।
  • नए मकान का निर्माण और बनी हुई इमारतों में परिवर्तन या विस्तार करने और कंट्रोल करना।
  • खेती, व्यापार और ग्राम उद्योग के विकास में सहायता देना।
  • सार्वजनिक इमारतों की स्थापना और उनकी देखभाल और मुरम्मत करवाना।
  • स्त्रियों और बच्चों के कल्याण केन्द्रों की स्थापना करना।
  • जानवरों के अस्पतालों की स्थापना करना।
  • खाद इकट्ठा करने के लिए स्थान निश्चित करना।
  • आग बुझाने में सहायता करना और आग लग जाने एवं जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करने का प्रयत्न करना।
  • लाइब्रेरियों, रीडिंग रूमों (Reading Rooms) और खेल के मैदानों की व्यवस्था करना।
  • सड़कों के किनारे वृक्ष लगवाना।
  • ज़रूरत के अनुसार पुल की स्थापना करना।
  • गरीबों को सहायता (Relief) देना।

(ii) प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)-प्रशासनिक क्षेत्र में ग्राम पंचायत का कर्तव्य है कि वह-

  • अपने क्षेत्र में अपराधों की रोकथाम और अपराधियों की खोज में पुलिस की सहायता करे।
  • यदि देहाती क्षेत्र में कार्य करने वाले किसी सरकारी कर्मचारी, सिपाही. पटवारी, वन-विभाग के व्यक्ति. चौकीदार, चपड़ासी इत्यादि के विरुद्ध कोई शिकायत हो तो डिप्टी कमिश्नर या किसी और अधिकारी को सूचित करें। पंचायत की रिपोर्ट के अनुसार डिप्टी कमिश्नर या किसी और अधिकारी द्वारा कार्यवाही की गई हो, उसकी सूचना लिखित रूप में ग्राम पंचायत को भेजे।
  • गांवों में शराब के ठेकों और शराब बेचने का विरोध करें।
  • असम, बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा में ग्राम पंचायतों को चौकीदारों (Watch and Wards) का प्रबन्ध करने की शक्ति भी प्रदान की गई है।

(iii) विकासवादी कार्य (Developmental Functions)-क्योंकि देहाती क्षेत्र के विकास की ज़िम्मेदारी पंचायतों पर है, इसलिए इसको कुछ विकासवादी कार्य भी दिए गए हैं। यह विकासवादी योजनाओं को लागू करती है और पंचवर्षीय योजनाओं को लागू करने में सहयोग देती है। यह खेतीबाड़ी और उद्योग के विकास के लिए यत्न करती है।

(iv) न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-पंचायतों को दीवानी और फ़ौजदारी मुकद्दमे सुनने का अधिकार दिया गया है। फ़ौजदारी मुकद्दमे में गाली-गलौच, 50 रुपये तक की चोरी, मार-पिटाई और स्त्री और सरकारी कर्मचारी का अपमान, पशुओं को बेरहमी के साथ पीटना, इमारतों, तालाबों और सड़कों को नुकसान पहुँचाना आदि शामिल है। इसके अलावा कुछ राज्यों में कुछ पंचायतों को विशेष अधिकार प्राप्त हैं। वह हमले, राज्य कर्मचारी का अपमान, दूसरों के माल पर कब्जा करने आदि के विषयों के सम्बन्ध में मुकद्दमा सुन सकती है। इन मुकदमों में साधारण अधिकारों वाली पंचायतों को 100 रुपये और विशेष अधिकारों वाली पंचायतों को 200 रुपये तक जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है। कुछ राज्यों में विशेष अधिकारों वाली पंचायतों को साधारण कैद की सज़ा देने की शक्ति भी प्रदान की गई है। पंचायतें किसी अपराधी को सज़ा भी दे सकती हैं और चेतावनी देकर ज़मानत लेकर छोड़ भी सकती है। दीवानी साधारण पंचायतें 200 रुपये की रकम तक और विशेष अधिकारों वाली पंचायतें 500 रुपये की रकम तक मुकद्दमा सुन सकती हैं, पर वह निम्नलिखित मुकद्दमें नहीं सुन सकती-

  1. साझेदारी के मुकद्दमे।
  2. वसीयत सम्बन्धी मुकद्दमे।
  3. नाबालिग और बालिग व्यक्ति के विरुद्ध मुकद्दमा।
  4. राज्य और केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों के विरुद्ध मुकद्दमा।
  5. दीवालिये के विरुद्ध मुकद्दमा।।
  6. अदालत के विचार अधीन मुकद्दमे इत्यादि।

आय के साधन (Sources of Income)—पंचायतों की आय के साधन निम्नलिखित हैं-
1. टैक्स-पंचायत की आय का पहला साधन टैक्स हैं। पंचायत राज्य सरकार द्वारा प्रदान किए गए टैक्स लगा सकती है, जैसे सम्पत्ति टैक्स, पशु टैक्स, कार्य टैक्स, टोकन टैक्स, मार्ग टैक्स, चुंगी टैक्स इत्यादि।

2. फीस और जुर्माना टैक्स-पंचायत की आय का दूसरा साधन इसके द्वारा किए गये जुर्माने और अन्य प्रकार की फीसें (Fees) हैं, जैसे पंचायत आराम गृह के प्रयोग के लिए फीस, गलियों और बाजारों में रोशनी करने का टैक्स, पानी टैक्स आदि। इनका प्रयोग सिर्फ उन पंचायतों द्वारा ही किया जाता है जो यह सुविधाएं प्रदान करती हैं।

3. सरकारी ग्रांट (Government Grants)—पंचायत की आय का मुख्य साधन सरकारी ग्रांटें (Grants) हैं। सरकार पंचायतों की विकास सम्बन्धी योजनाओं को लागू करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की ग्रांटें प्रदान करती है। आमतौर पर हर राज्य के क्षेत्र में इकट्ठा होने वाले ज़मीन के मालिए का कुछ भाग पंचायतों को दिया जाता है जैसे पंजाब में 15%, उत्तर प्रदेश में 1212% आदि। बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात में पंचायतें ही सरकार के आधार पर भूमि का टैक्स (Land Revenues) को इकट्ठा करती हैं।

4. मिले-जुले साधन-पंचायतों की आय के अन्य साधन हैं जैसे पंचायत की सीमा में कूड़ा-कर्कट, गोबर, गन्दगी आदि को बेचने से प्राप्त आमदनी, शामलाट से आमदनी, मेलों से आमदनी, पंचायत की सम्पत्ति से आमदनी आदि। आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा और पंजाब में पंचायत को मछली पालन एवं उनको बेचने से विशेष आमदनी होती है।

5. कर्जे (Borrowing)-उपरोक्त साधनों के अलावा राज्य सरकार की मंजूरी के साथ पंचायत कर्जे भी ले सकती है।

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प्रश्न 8.
पंचायत समिति के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
पंचायत समिति तीन-स्तरीय पंचायती राज की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। यह पंचायती राज तीन स्तरीय प्रणाली का मध्यस्तर (Intermediate tier) है। इसकी स्थापना ब्लॉक (Block) स्तर पर की गई है और यह पंचायत एवं जिला परिषद् मध्य की कड़ी के रूप में कार्य करती है। गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में इसकी व्यवस्था तालुक (Taluk) के स्तर पर की गई है। भिन्न-भिन्न राज्यों में इसको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में पंचायत समिति कहते हैं। असम में आंचलिक पंचायत (Anchalik Panchayat), तमिलनाडु में पंचायती संघ समिति (Panchayat Union Council), उत्तर प्रदेश में क्षेत्र समिति (Kshetra Samiti), गुजरात में तालुक पंचायत (Taluk Panchayat) और कर्नाटक में तालुक विकास बोर्ड (Taluk Development Board) कहते हैं।

इसी तरह पंचायत समिति के प्रधान को भी भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। आन्ध्र प्रदेश, असम, गुजरात, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में प्रेजीडेंट (President), महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उड़ीसा, हरियाणा और पंजाब में चेयरमैन (Chairman), राजस्थान में प्रधान (Pardhan) और उत्तर प्रदेश तथा बिहार में प्रमुख (Parmukha) कहते हैं।

पंचायत समिति की रचना (Composition of Panchayat Samiti)-चुने हुए सदस्य (Elected Members)-पंचायत समिति के सदस्य इसके क्षेत्र के वोटरों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने जाते हैं। पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती इसके क्षेत्र की आबादी पर निर्भर करती है और यह भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न होती है। कुछ राज्यों में इसके सदस्यों की गिनती निश्चित है और कुछ राज्यों में ऐसा नहीं है। कर्नाटक में प्रत्येक 10,000 की आबादी के पीछे एक सदस्य चुना जाता है। जबकि बिहार, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश में प्रत्येक 5000 की आबादी के पीछे सदस्य चुना जाता है। त्रिपुरा में एक सदस्य 8000 की आबादी के लिए, आन्ध्र प्रदेश में 3000 से 4000 तक की आबादी के लिए, हिमाचल प्रदेश में 3000 की आबादी के लिए, उत्तर प्रदेश में 2000 की आबादी के लिए और पंजाब में 15,000 की आबादी के लिए चुना जाता है। हरियाणा में यदि पंचायत समिति क्षेत्र की आबादी 40,000 हो तो प्रत्येक 4000 के पीछे एक सदस्य चुना जाता है। पर यदि आबादी 40,000 से ज्यादा हो तो प्रत्येक 5000 की आबादी के लिए एक सदस्य चुना जाता है।

गुजरात में पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती 15 निर्धारित की गई है। मध्य प्रदेश में 10 से 15 तक और केरल में 8 से 15 तक सदस्य एक पंचायत समिति में होते हैं। पंजाब में पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती 6 से 10 तक होती है। राजस्थान में एक लाख आबादी वाली पंचायत समिति को 15 चुनाव क्षेत्रों में बाँटा जाता है और यदि आबादी एक लाख से ज्यादा हो तो प्रत्येक ज्यादा 15000 की आबादी के पीछे 2 सदस्यों को चुना जाता है। असम में प्रत्येक ग्राम पंचायत में से एक सदस्य आंचलिक पंचायत के लिए चुना जाता है। उड़ीसा और महाराष्ट्र में पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती निश्चित नहीं है।

आरक्षित सीटें (Reserved Seats)—प्रत्येक राज्य में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित कबीलों तथा स्त्रियों के लिए पंचायत समिति में कुछ सीटें आरक्षित रखी जाती हैं। अनुसूचित जातियों तथा कबीलों के लिए आरक्षित सीटों की गिनती पंचायत समिति में सीटों की कुल गिनती के लगभग उसी अनुपात में होगी, जिस अनुपात में उस क्षेत्र में उनकी आबादी है। इनमें 1/3 सीटें औरतों के लिए आरक्षित रखी जाएंगी।

चेयरमैन (Chairman) पंचायत समिति के चुने हुए सदस्य अपने में से एक चेयरमैन और एक उप-चेयरमैन का चुनाव करते हैं। यह चुनाव जिले के डिप्टी कमिश्नर या उसके द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारी की निगरानी में होता है। क्योंकि पंचायत समिति का कार्यकाल पांच वर्ष है इसलिए इसके चेयरमैन और उप-चेयरमैन का कार्यकाल भी पांच वर्ष का होता है।

पंचायत समिति के चेयरमैनों में भी आबादी के आधार पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित कबीलों के लिए सीटें आरक्षित रखी जाती हैं और कुल सीटों में से एक-तिहाई सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी होती हैं।

पंचायत समिति के कार्य (Functions of Panchayat Samiti)-पंचायत समिति के कार्य बहुपक्षीय हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. सामूहिक विकास (Community Development)-सभी राज्यों में पंचायत समितियों को विकासवादी कार्यों की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। वह सामूहिक विकास योजना को लागू करती है। वह ब्लॉक स्तर की योजनाओं को तैयार करती है और उनको लाग भी करती हैं।

2. खेतीबाड़ी और सिंचाई सम्बन्धी कार्य (Functions Regarding Irrigation and Agriculture)आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थान आदि सभी राज्यों की खेतीबाड़ी के विकास के सम्बन्ध में पंचायत समिति को विशेष शक्ति दी गई है। वह अच्छे बीज और उर्वरक बांटती है। खेतीबाड़ी के वैज्ञानिक तरीकों को प्रचलित करने के लिए प्रयत्न करती है। भूमि बचाओ (Soil Conservation) भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए प्रबन्ध करती है। हरी खाद और खादों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का यत्न करती है।

सब्जियों और फलों को ज्यादा उगाने के लिए उत्साह देती है। सिंचाई के लिए कुओं, तालाबों और सिंचाई के और साधनों की व्यवस्था करती है।

3. पशु पालन और मछली पालन (Animal Husbandry and Fisheries) पंचायत समिति पशु पालन के अच्छे तरीकों का प्रचार और उनकी बीमारियों से रक्षा करने के लिए और उनके इलाज के लिए व्यवस्था करती है। पशुओं की नस्ल सुधारने का प्रयत्न करती है, ब्लॉक में मछली पालन का प्रसार करती है और मछली पालने के लिए स्थान निश्चित करती है।

4. प्राथमिक शिक्षा (Primary Education) आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में प्राथमिक शिक्षा की ज़िम्मेदारी पंचायत समिति को सौंपी गई है। इसके अतिरिक्त पंचायत समिति सूचना केन्द्र (Information Centre), मनोरंजन, युवक संगठन, स्त्री मंडल, किसान संघ, नुमायशें, मेले और औद्योगिक समारोहों इत्यादि का प्रबन्ध करती है।

5. Fartea Ta Hung Hopeit abref (Functions Regarding Health and Sanitation)—3714 pite पर सभी राज्यों में स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्य पंचायत समितियों को सौंपे गए हैं। यह छुआ-छूत की बीमारियों की रोकथाम के उपाय करती है। चेचक, हैज़ा, मलेरिया आदि के टीके लगाने का प्रबन्ध करती है। ब्लॉक में हस्पताल, स्त्रियों एवं बच्चों के कल्याण केन्द्रों की स्थापना की देखभाल करती है। पीने के लिए पानी, गंदे नाले और गलियों की सफ़ाई आदि का प्रबन्ध करती है। टिड्डियों, चूहों और अन्य कीड़ों आदि के खात्मे के लिए उपाय करती है।

6. स्थानीय कार्य (Municipal functions)-पंचायत समिति ब्लॉक पंचायती समिति ब्लॉक में सड़कों का निर्माण, मुरम्मत और देखभाल करती है। पीने के पानी, गन्दगी के निकास, सफ़ाई आदि का प्रबन्ध करती है।

7. सहकारिता (Co-operation)—पंचायत समिति औद्योगिक और खेती-बाड़ी में सहकारी समितियाँ (Cooperative societies) की स्थापना करने के लिए हौसला-अफजाई (प्रोत्साहन) और सहायता प्रदान करती है।

8. नियोजन तथा उद्योग (Planning and Industries)-कुछ राज्यों में पंचायत समिति को ब्लॉक स्तर पर नियोजन का अधिकार दिया गया है। वह छोटे पैमाने के तथा घरेलू उद्योगों की स्थापना में सहायता करती है।

पंचायत समिति की आय के स्रोत (Sources of Income of Panchayat Samiti) –

  1. पंचायत समिति द्वारा लगाए गए टैक्स-पंचायत समिति और जिला परिषद् एक्ट की धाराओं के अंतर्गत भिन्न-भिन्न प्रकार के टैक्स लगा सकती है। रोज़गार टैक्स, संपत्ति टैक्स, मार्ग टैक्स (Toll Tax), टोकन टैक्स आदि से होने वाली आय।
  2. संपत्ति से आय-पंचायत समिति के अधिकार में रखी गई संपत्ति से आय।
  3. फ़ीस (Fees)-पंचायत समिति द्वारा प्रदान की गई सेवाओं से आय। पंचायत समिति जिला परिषद् की स्वीकृति से कई प्रकार की फ़ीसें लगा सकती है जैसे मेलों, खेती-बाड़ी की नुमाएशों पर फ़ीस आदि।
  4. सरकारी कर (Government Grants)-राज्य सरकार पंचायत समिति को सामूहिक विकास योजना तथा अन्य कार्यों हेतु कई प्रकार की ग्रांटें देती है।
  5. भूमि कर (Land Revenue)-भूमि कर से आमदनी लगभग सभी राज्यों में ब्लॉक क्षेत्र से प्राप्त होने वाली भूमि मालिए (Land Revenue) का कुछ भाग पंचायत समिति को दिया जाता है, जैसे पंजाब में सरकार द्वारा भूमि कर का 10% भाग पंचायत समिति को दिया जाता है।
  6. कर्जे (Loans)—पंचायत समिति जिला परिषद् और सरकार की स्वीकृति के साथ सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं से कर्जे ले सकती है। गैर-सरकारी से 5 लाख रुपए से ज़्यादा कर्जा नहीं लिया जा सकता।

पंचायत समितियों को स्थानिक सत्ता कर्जा एक्ट, 1914 (Local Authorities Loans Act, 1914) और स्थानिक सत्ता कर्जा नियम, 1912 (Local Authorities Loans Rules, 1912) के अधीन सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं से अपने कार्यों को पूरा करने के लिए धन, कर्जे के रूप में प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

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प्रश्न 9.
जिला परिषद् के बारे में आप क्या समझते हैं ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
जिला परिषद् पंचायती राज्य की तीसरी तथा सबसे उच्च इकाई है। इसकी स्थापना सभी राज्यों में जिला स्तर पर की गई है। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब, सिक्किम, उड़ीसा, असम, राजस्थान, हरियाणा, मणिपुर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, पश्चिमी बंगाल, हिमाचल प्रदेश तथा अरुणाचल प्रदेश में इसको जिला परिषद् कहते हैं। कर्नाटक, गोआ तथा उत्तर प्रदेश में इसको जिला पंचायत जबकि गुजरात, तमिलनाडु तथा केरल में इसे डिस्ट्रिकट पंचायत कहते हैं।

रचना (Composition)-जिला परिषद् में चुने हुए तथा कुछ और सदस्य होते हैं। चुने हुए सदस्यों को जिले के मतदाताओं द्वारा चुनावी क्षेत्र बना कर चुना जाता है। परन्तु चुने हुए सदस्यों की संख्या अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। त्रिपुरा, सिक्किम, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा पश्चिमी बंगाल में पंचायती राज्य एक्ट में चुने हुए सदस्यों की संख्या निर्धारित नहीं की गई है। बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में 50,000 की जनसंख्या के लिए एक सदस्य चुना जाता है। आसाम, हरियाणा, कर्नाटक में 40,000 की जनसंख्या के लिए एक सदस्य चुना जाता है। हिमाचल प्रदेश में 20,000 तथा मणिपुर में 15,000 की जनसंख्या के लिए एक सदस्य चुना जाता है।

गुजरात में कम-से-कम 17 तथा गोआ में 20 सदस्य जिला परिषद के लिए चुने जाते हैं। जिला परिषद में चने हुए सदस्यों की संख्या मध्य प्रदेश में 10 से 35 तक, महाराष्ट्र में 40 से 60 तक, केरल में 10 से 20 तक निर्धारित की गई है। राजस्थान में अगर जिला परिषद् की जनसंख्या 4 लाख हो तो 17 सदस्य चुने जाते हैं। अगर आबादी 4 लाख से अधिक हो तो प्रत्येक अधिक एक लाख के लिए 2 सदस्य बढ़ जाते हैं।

महाराष्ट्र के अतिरिक्त ज़िले में चुने हुए संसद् सदस्य (M.P’s) राज्य विधान सभा के सदस्य (M.L.A’s) ज़िला परिषद के अपने पद के कारण सदस्य होते हैं। गुजरात में विधान सभा के सदस्य स्थायी तौर पर जिला परिषद् में बुलाए जाते हैं परन्तु उन्हें वोट देने के अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

आन्ध्र प्रदेश में मण्डल पंचायतों के प्रधान, विधान सभा तथा संसद् के सदस्यों के अतिरिक्त अल्पसंख्यकों के दो प्रतिनिधि नियुक्त किए जाते हैं। इनके अतिरिक्त (District Co-operative Marketing Society) का प्रधान, जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक का प्रधान, जिले का डिप्टी कमिश्नर तथा Zila Grandholaya संस्था का प्रधान अपने पद के कारण जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। इस तरह मध्य प्रदेश में संसद् तथा विधान सभा के सदस्यों को अतिरिक्त जिला सहकारी बैंक तथा जिला सहकारी और विकास बैंक के प्रधान भी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। यदि अनुसूचित जातियों तथा कबीलों का उपरोक्त में से कोई सदस्य न हो तो जिला परिषद् इन में से एक सदस्य नियुक्त कर सकती है।अनसचित जातियों, कबीलों तथा स्त्रियों के लिए आरक्षण (Reservation of seats for scheduled

castes, scheduled tribes and women)-जिला परिषद् के अनुसूचित जातियों, कबीलों तथा स्त्रियों के लिए सीटें सुरक्षित रखने के प्रावधान रखे गए हैं। अनुसूचित जातियों तथा कबीलों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात सीधे चुने गए सदस्यों के साथ वही होगा जो जिले में इन जातियों की संख्या का ज़िले की कुल जनसंख्या के साथ है।

प्रत्येक जिला परिषद् में 1/3 कुल स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं (S.C. & S.T. मिलाकर) इसमें अनुसूचित जातियों तथा कबीलों की स्त्रियों के स्थान (आरक्षित) भी शामिल हैं।

पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षण (Reservation for Backward Classes)-लगभग सभी राज्यों में पिछड़ी श्रेणियों के लोगों के लिए भी कुछ स्थान जिला परिषद् में आरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है परन्तु ऐसा करना सरकार की मर्जी पर निर्भर करता है। जैसे बहुत-से राज्यों में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए उनकी संख्या के अनुसार जिला परिषद् में सीटें आरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है।

कार्यकाल (Tenure)-ज़िला परिषद् का कार्यकाल 5 साल का होता है। अगर इससे पहले इसे भंग कर दिया जाता है तो 6 महीने के अंदर इसके सदस्यों का चुनाव करवाना जरूरी होता है।

चेयरमैन (Chairman)—प्रत्येक जिला परिषद् में एक चेयरमैन तथा एक वाइस चेयरमैन होता है। उनका चुनाव जिला परिषद् के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से अपने में से करते हैं। जिला परिषद् के चेयरमैन तथा वाइस चेयरमैन को भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है।

अनुसूचित जातियों, कबीलों तथा स्त्रियों के लिए जिला परिषद् के चेयरमैन के पद को आरक्षित रखने की व्यवस्था भी की गई है। सदस्यों को इस तरह इन की जनसंख्या के अनुपात में रखा गया है तथा राज्य की कुल सीटों में से 1/3 स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी गई है। चेयरमैन का कार्यकाल 5 साल का होता है।

जिला परिषद् के चेयरमैन तथा उप-चेयरमैन को अविश्वास प्रस्ताव पास करके उनके पद से हटाया जा सकता है। अविश्वास प्रस्ताव पास करने के लिए राज्यों में स्थिति भिन्न-भिन्न है।

कर्नाटक, बिहार, त्रिपुरा, सिक्किम, महाराष्ट्र, गोआ, मणिपुर, पश्चिमी बंगाल तथा हिमाचल प्रदेश में चुने हुए सदस्यों का बहुमत यदि अविश्वास प्रस्ताव को पास कर दे तो चेयरमैन को उसके पद से हटाया जा सकता है। इस तरह गुजरात, उड़ीसा, केरल, असम, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा अरुणाचल प्रदेश में अविश्वास प्रस्ताव पास करने के लिए चुने सदस्यों का 2/3 इसके पक्ष में होना ज़रूरी होता है। मध्य प्रदेश में 3/4 तथा उत्तर प्रदेश में यदि 50% सदस्यों द्वारा इसे पास कर दिया जाए तो चेयरमैन को उसके पद के हटाया जा सकता है।

जिला परिषद् के कार्य (Functions of Zila Parishad) –

चाहे जिला परिषद् में कार्यों में अलग-अलग राज्यों में भिन्नता मिलती है तो भी इसका मुख्य उद्देश्य पंचायत समितियों के कार्यों का सुमेल तथा निरीक्षण करना है। इस स्थिति में वह निम्नलिखित कार्य करती है-

  1. यह जिले की पंचायत समितियों के बजट को पास करती है।
  2. यह पंचायत समितियों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्य करने के लिए निर्देश जारी करती है।
  3. यह पंचायत समितियों को अपनी इच्छा या सरकार के आदेश के अनुसार या पंचायत समिति की विनती पर किसी विशेष विषय पर मशवरा भी दे सकती है।
  4. यह पंचायत समितियों द्वारा तैयार की गई विकास योजनाओं में तालमेल पैदा करती है।
  5. यह दो या दो से अधिक समितियों से सम्बन्धित योजनाओं को पूरा करती है।
  6. सरकार विशेष सूचना द्वारा किसी भी विकास योजना को पूरा करने का कार्य जिला परिषद् को सौंप सकती
  7. ज़िला परिषद् सरकार को जिले के स्तर पर या स्थानीय विकास के सभी कार्यों के सम्बन्ध में सलाह देती है।
  8. सरकार को पंचायत समितियों के कार्यों के विभाजन तथा तालमेल के सम्बन्ध में सलाह देती है।
  9. ज़िला परिषद् सरकार द्वारा दी गई शक्तियों को प्रयोग करने के सम्बन्ध में सरकार को सलाह देती है।
  10. वह सरकार से पूछकर पंचायत समितियों से कुछ धन भी वसूल कर सकती है।
  11. राज्य सरकार जिला परिषदों को पंचायतों का निरीक्षण तथा नियन्त्रण करने की शक्ति भी दे सकती है।

आय के साधन (Financial Resources)-जिला परिषद् की आय के साधन निम्नलिखित हैं-

  1. केन्द्रीय तथा राज्य सरकार द्वारा जिला परिषद् के लिए निश्चित किए गए फण्ड (Funds)।
  2. बड़े तथा छोटे उद्योगों की उन्नति के लिए सर्व भारतीय संस्थाओं द्वारा दी गयी ग्रांट (Grants) ।
  3. भूमि कर तथा दूसरे राज्य करों में से राज्य सरकार द्वारा दिया गया हिस्सा।
  4. जिला परिषद् की अपनी सम्पत्ति से आय।
  5. राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किए गए आय के दूसरे साधन ।
  6. जनता तथा पंचायत समितियों द्वारा दी गई ग्रांट ।
  7. पंचायत समितियों से राज्य सरकार की मंजूरी से जिला परिषद् द्वारा ली गई धनराशि।
  8. विकास योजनाओं के सम्बन्ध में राज्य सरकार द्वारा दी गई ग्रांट।
  9. कुछ राज्यों में जिला परिषद् को विशेष प्रकार के टैक्स लगाने तथा पंचायत समिति द्वारा लगाए गए टैक्सों में बढ़ोत्तरी करने की शक्ति दी गई है।
    उपरोक्त स्रोतों के अतिरिक्त जिला परिषद् सरकार तथा गैर-सरकारी संस्थाओं से कर्जे भी ले सकती है। परन्तु ऐसा करने से पहले उसे राज्य सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा PSEB 11th Class Sociology Notes

  • हमारे समाज में बहुत सी संस्थाएं होती हैं। सामाजिक संस्थाओं में हम विवाह, परिवार और नातेदारी को शामिल करते हैं।
  • राजनीतिक व्यवस्था समाज की ही एक उपव्यवस्था है। यह मनुष्यों की उन भूमिकाओं को निर्धारित करती है जो कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक होती है। राजनीति और समाज में काफ़ी गहरा रिश्ता है।
  • समाजशास्त्र में राजनीतिक संस्थाओं की सहायता ली जाती है तथा कई संकल्पों को समझा जाता है, जैसे कि शक्ति, नेतागिरी, सत्ता, वोट करने का व्यवहार इत्यादि। राजनीतिक संस्थाएं समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में सहायता करती हैं।
  • शक्ति समूह अथवा व्यक्तियों की वह समर्था होती है जिसके द्वारा वह उस समय अपनी बात मनवाते हैं जब उनका विरोध हो रहा होता है। समाज में शक्ति एक निश्चित मात्रा में मौजूद है। कुछ समूहों के पास अधिक शक्ति होती है तथा वे कम शक्ति वाले व्यक्तियों या समूहों पर अपनी बात थोपते हैं।
  • शक्ति को सत्ता की सहायता से लागू किया जाता है। सत्ता शक्ति का वह रूप है जिसे सही तथा वैध समझा जाता है जिनके पास सत्ता होती है वे शक्ति का प्रयोग करते हैं क्योंकि इसे न्यायकारी समझा जाता है।
  • मैक्स वैबर ने सत्ता के तीन प्रकार दिए हैं-परम्परागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मई सत्ता। पिता की सत्ता परंपरागत सत्ता होती है, सरकार की सत्ता वैधानिक सत्ता तथा किसी गुरु की बात मानना करिश्मई सत्ता होती है।
  • अलग-अलग प्रकार के समाजों में अलग-अलग राज्य होते हैं। कई समाजों में राज्य नाम का कोई संकल्प : नहीं होता जिस कारण इन्हें राज्य रहित समाज कहा जाता है तथा यह पुरातन समाजों में मिलते हैं। आधुनिक समाजों में सत्ता को राज्य नामक संस्था में शामिल किया है तथा यह सत्ता जनता से ही प्राप्त की जाती है।
  • राज्य राजनीतिक व्यवस्था की एक मूल संस्था है। इसके चार आवश्यक तत्त्व होते हैं तथा वह हैं जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, प्रभुसत्ता तथा सरकार।
  • सरकार के तीन अंग होते हैं तथा वह हैं-विधानपलिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका। राज्य तथा सरकार को बनाए रखने में इन तीनों के बीच तालमेल का होना आवश्यक है।
  • आजकल की राजनीतिक व्यवस्था लोकतन्त्र के साथ चलती है। लोकतन्त्र दो प्रकार का होता है। प्रत्यक्ष लोकतन्त्र में जनता अपने निर्णय स्वयं लेती है तथा अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि सभी निर्णय लेते हैं।
  • हमारे देश में सरकार ने विकेन्द्रीयकरण की व्यवस्था को अपनाया है तथा स्थानीय स्तर तक सरकार बनाई
    जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में गाँव के स्तर पर पंचायत ब्लॉक के स्तर पर ब्लॉक समिति तथा जिले के स्तर पर जिला परिषद् होते है जो अपने क्षेत्रों का विकास करते हैं।
  • लोकतन्त्र में राजनीतिक दल महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एक राजनीतिक दल उन लोगों का समूह होता है जिसका मुख्य उद्देश्य चुनाव लड़ कर सत्ता प्राप्त करना होता है। कुछ दल राष्ट्रीय दल होते हैं तथा कुछेक प्रादेशिक दल होते हैं।
  • लोकतन्त्र में हित समूहों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। ये हित समूह किसी विशेष समूह से जुड़े होते हैं तथा वे अपने समूह के हितों की प्राप्ति के लिए कार्य करते रहते हैं।
  • जब से मानवीय समाज शुरू हुए हैं धर्म उस समय से ही समाज में मौजूद है। धर्म और कुछ नहीं बल्कि अलौकिक शक्ति में विश्वास है जो हमारे अस्तित्व और पहुँच से बहुत दूर है।
  • हमारे देश भारत में बहुत से धर्म मौजूद हैं जैसे कि हिन्दू, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, पारसी धर्म इत्यादि। भारत एक बहु-धार्मिक देश है जहाँ बहुत से धर्मों के लोग इकट्ठे मिल कर रहते हैं।
  • प्रत्येक व्यक्ति को भोजन, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है तथा यह सब हमारी अर्थ व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। अर्थ व्यवस्था हमारे पैसे तथा खर्च का ध्यान रखती है।
  • अलग-अलग समाजों में अलग-अलग अर्थ व्यवस्था मौजूद होती है। कई समाज चीजें एकत्र करने वाले होते हैं, कई समाज चारगाह अर्थ व्यवस्था वाले होते हैं, कई समाज ग्रामीण अर्थ व्यवस्था वाले होते हैं, कई समाज औद्योगिक अर्थ व्यवस्था तथा कई समाज पूँजीवाद वाले भी होते हैं। कार्ल मार्क्स ने समाजवादी अर्थ व्यवस्था के बारे में बताया है।
  • श्रम विभाजन का संकल्प हमारे समाज के लिए नया नहीं है। जब लोग किसी विशेष कार्य को करने लग जाएं तथा वे सभी कार्यों को न कर सकें तो इसे विशेषीकरण तथा श्रम विभाजन का नाम दिया जाता है। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था तथा जजमानी व्यवस्था श्रम विभाजन का ही एक प्रकार है।
  • अगर हम अपने समाज की तरफ देखें तो हम कह सकते हैं कि शिक्षा के बिना समाज में कुछ नहीं होता। शिक्षा व्यक्ति को जानवर से सभ्य मनुष्य के रूप में परिवर्तित कर देती है।
  • शिक्षा दो प्रकार की होती है-औपचारिक तथा अनौपचारिक। औपचारिक शिक्षा वह होती है जो हम स्कूल, कॉलेज इत्यादि से प्राप्त करते हैं तथा अनौपचारिक शिक्षा वह होती है जो हम अपने रोजाना के अनुभवों, बुजुर्गों इत्यादि से प्राप्त करते हैं।
  • सत्ता (Authority)-राजनीतिक व्यवस्था द्वारा अपने भौगोलिक क्षेत्र में स्थापित की गई शक्ति।
  • श्रम विभाजन (Division of Labour)-वह व्यवस्था जिसमें कार्य को अलग-अलग भागों में विभाजित कर दिया जाता है तथा प्रत्येक कार्य किसी व्यक्ति या समूह द्वारा ही किया जाता है।
  • अर्थव्यवस्था (Economy)-उत्पादन, विभाजन तथा उपभोग की व्यवस्था को अर्थव्यवस्था कहते हैं।
  • विश्वव्यापीकरण (Globalisation)-सांसारिक इकट्ठा होने की व्यवस्था जो संस्कृति के अलग-अलग पक्षों, अन्तर्राष्ट्रीय विचारों, वस्तुओं इत्यादि के लेन-देन से सामने आती है।
  • टोटम (Totem)-किसी पेड़, पौधे, पत्थर या किसी अन्य वस्तु को पवित्र मानना।
  • राज्य वाले समाज (State Society)-वह समाज जिनमें सरकार का औपचारिक ढांचा मौजूद होता है।
  • राज्य रहित समाज (Stateless Society)-वह समाज जहां सरकार के औपचारिक संगठन नहीं होते।
  • हित समूह (Pressure Groups)—वह समूह जहां लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी विशेष समूह के हितों के लिए कार्य करते हैं।
  • राज्य (State)-राज्य वह समूह होता है जिसके चार प्रमुख तत्त्व हैं-जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, प्रभुसत्ता तथा सरकार।

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