PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अधिकारों के अर्थ की विवेचना कीजिए।
(Discuss the meaning of Rights.)
अथवा
अधिकारों की परिभाषा कीजिए। अधिकारों की विशेषताओं का वर्णन करो।
(Define Rights. Discuss the characteristics of Rights.)
उत्तर-
अधिकार सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं जिनके बिना न तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य कर सकता है। आधुनिक युग में अधिकारों का महत्त्व और अधिक हो गया है, क्योंकि आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। इसलिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को कुछ ऐसे अधिकार देता है जिनका दिया जाना उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करने के लिए आवश्यक होता है। लॉस्की (Laski) का कथन है कि “एक राज्य अपने नागरिकों को जिस प्रकार के अधिकार प्रदान करता है, उन्हीं के आधार पर राज्य को अच्छा या बुरा कहा जा सकता है।”

अधिकारों का अर्थ एवं परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Rights)—मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज से मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों, में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से होता है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं और उन्हें समाज में मान्यता दी जाती है। अन्य शब्दों में, अधिकार वे सुविधाएं हैं जिनके कारण हमें किसी कार्य को करने या न करने की शक्ति मिलती है।

विभिन्न लेखकों ने अधिकार की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। कुछ परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • वाइल्ड (Wild) के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वतन्त्रता की उचित मांग ही अधिकार है।” (“Right is a reasonable claim to freedom in the exercise of certain activities.”)
  • ग्रीन (Green) के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।” (“Rights are those powers which are necessary to the fulfilment of man’s vocation as moral being.”)
  • बोसांके (Bosanquet) के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।” (“A right is a claim recognised by society enforced by the State.”)
  • हालैंड (Holland) के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति की वह शक्ति है, जिससे वह दूसरे के कार्यों पर प्रभाव डाल सकता है और जो उसकी अपनी ताकत पर नहीं बल्कि समाज की राय या शक्ति पर निर्भर है।” (“Right is one man’s capacity of influencing the acts of another by means not of his strength but of the opinion or the force of society.”)
  • लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” (“Rights are those conditions of social life without which no
    man can seek, in general, to be himself at the best.”)
  • डॉ० बेनी प्रसाद (Dr, Beni Parsad) के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक अवस्थाएं हैं जो व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। अधिकार सामाजिक जीवन का आवश्यक पक्ष हैं।” (“Rights are those social conditions of life which are essential for the development of the individual. Rights are the essential aspects of social life.”’)

अधिकारों की विशेषताएं (Characteristics of Rights)-उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अधिकार एक वातावरण है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के विकास के लिए स्वतन्त्रतापूर्वक तथा बिना किसी बाधा के कोई कार्य कर सके। अधिकार के निम्नलिखित लक्षण हैं :-

  • अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं (Rights can be possible only in the Society)-अधिकार केवल समाज में ही मिलते हैं। समाज के बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  • अधिकार व्यक्ति का दावा है (Rights are claim of the Individual) अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने की स्वतन्त्रता का एक दावा है जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।
  • अधिकार समाज द्वारा मान्य होता है (Rights are recognised by the Society)-अधिकार व्यक्ति की मांग है जिसे समाज मान ले या स्वीकार कर ले। व्यक्ति की किसी सुविधा की मांग करने मात्र से वह मांग अधिकार नहीं बन जाती। व्यक्ति की मांग अधिकार का रूप उस समय धारण करती है जब समाज उसे मान्यता दे दे।
  • अधिकार तर्कसंगत तथा नैतिक होता है (Rights are Reasonable and Moral) समाज व्यक्ति की उसी मांग को स्वीकार करता है जो मांग तर्कसंगत, उचित तथा नैतिक हो। जो मांग अनुचित और समाज के लिए हानिकारक हो, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • अधिकार असीमित नहीं होते हैं (Rights are not Absolute)-अधिकार कभी असीमित नहीं होते बल्कि वे सीमित शक्तियां होती हैं जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इसलिए ग्रीन ने अधिकारों की परिभाषा देते हुए इन्हें सामान्य कल्याण में योगदान देने के लिए मान्य शक्ति कहा है।
  • अधिकार लोक हित में प्रयोग किया जा सकता है (Rights can be used for Social Good)-अधिकार का प्रयोग सामाजिक हित के लिए किया जा सकता है, समाज के अहित के लिए नहीं। अधिकार समाज में ही मिलते हैं और समाज द्वारा ही दिए जाते हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इनका प्रयोग समाज के कल्याण के लिए किया जाए।
  • अधिकार सर्वव्यापी होते हैं (Rights are Universal)-अधिकार समाज में सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं। अधिकार व्यक्ति का दावा है, परन्तु यह दावा किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं होता बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का होता है जिसके आधार पर वह बाकी सबके विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग करता है। इस प्रकार जो अधिकार एक व्यक्ति को प्राप्त है, वही अधिकार समाज के दूसरे सदस्यों को भी प्राप्त होता है।
  • अधिकार के साथ कर्त्तव्य होते हैं (Rights are always accompanied by Duties)-अधिकार की यह भी विशेषता है कि यह अकेला नहीं चलता। इसके साथ कर्त्तव्य भी रहते हैं। अधिकार और कर्त्तव्य हमेशा साथ-साथ चलते हैं। क्योंकि अधिकार सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं, इसलिए अधिकार की प्राप्ति के साथ व्यक्ति को यह कर्त्तव्य भी प्राप्त हो जाता है कि दूसरे के अधिकार में हस्तक्षेप न करे। कर्त्तव्य के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते।
  • अधिकार राज्य द्वारा लागू और सुरक्षित होता है (Right is enforced and protected by the State)अधिकार की यह भी एक विशेषता है कि राज्य ही अधिकार को लागू करता है और उसकी रक्षा करता है। राज्य कानून द्वारा अधिकारों को निश्चित करता है और उनके उल्लंघन के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है। यह आवश्यक नहीं कि अधिकार राज्य द्वारा बनाए भी जाएं। जिस सुविधा को समाज में आवश्यक समझा जाता है, राज्य उसको संरक्षण देकर उसको निश्चित और सुरक्षित बना देता है।
  • अधिकार स्थायी नहीं होते (Rights are not Static) अधिकार की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि अधिकार स्थायी नहीं होते बल्कि अधिकार सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 2.
आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य में नागरिक को कौन-से सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार मिलते
(What civil and political rights are enjoyed by the citizen of a modern state ?)
अथवा
एक लोकतन्त्रीय राज्य के नागरिक के मुख्य अधिकारों का वर्णन कीजिए। (Briefly discuss the important rights enjoyed by a democratic state.)
उत्तर-
मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास बिना अधिकारों के नहीं कर सकता। उसे अपने नैतिक, मानसिक तथा आर्थिक विकास के लिए अधिकारों की आवश्यकता होती हैं। प्रजातन्त्रीय देशों में अधिकारों का और भी महत्त्व है। भारत, अमेरिका, जापान, रूस, चीन, आदि देशों में नागरिकों के इन अधिकारों का वर्णन संविधान में किया गया है। उल्लेखनीय है कि भारत, अमेरिका, जापान आदि प्रजातन्त्रात्मक राज्यों में राजनीतिक अधिकारों पर जोर दिया जाता है। सभ्य राज्यों में प्राय: नागरिकों को तीन प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं-

(क) नागरिक या सामाजिक अधिकार
(ख) राजनीतिक अधिकार
(ग) आर्थिक अधिकार।
नोट-इन अधिकारों की व्याख्या अगले प्रश्नों में की गई।

प्रश्न 3.
नागरिक अधिकार क्या हैं ? वर्णन कीजिए । (What are Civil Rights ? Describe)
उत्तर-
नागरिक या सामाजिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य के जीवन को सभ्य बनाने के लिए आवश्यक हैं। इनके बिना मनुष्य अपने दायित्व का विकास तथा सामाजिक प्रगति नहीं कर सकता। ये अधिकार राज्य के सभी लोगों को समान रूप से प्राप्त होते हैं।
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य में नागरिकों को निम्नलिखित नागरिक अधिकार मिले होते हैं-

1. जीवन का अधिकार (Right to Life)-जीवन का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसके बिना अन्य अधिकार व्यर्थ हैं। जिस मनुष्य का जीवन सुरक्षित नहीं है, वह किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। अरस्तु ने ठीक ही कहा है कि राज्य जीवन की रक्षा के लिए बना और अच्छे जीवन के लिए चल रहा है। नागरिकों के जीवन की रक्षा करना राज्य का परम कर्तव्य है। अत: सभी राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रक्षा करने का अधिकार है।

2. शिक्षा का अधिकार (Right to Education)—शिक्षा के बिना मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। अनपढ़ व्यक्ति को गंवार तथा पशु समान माना जाता है। शिक्षा के बिना मनुष्य को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। आधुनिक राज्य व्यक्ति के इस अधिकार को मान्यता दे चुके हैं। भारत के नागरिकों को शिक्षा का अधिकार संविधान के द्वारा दिया गया है। किसी नागरिक को जाति-पाति, धर्म, सम्प्रदाय, ऊंच-नीच, रंग आदि के आधार पर स्कूल तथा कॉलेज में दाखिल होने से नहीं रोका जा सकता है। इंग्लैण्ड, सोवियत संघ, फ्रांस आदि देशों में भी नागरिकों को शिक्षा का अधिकार दिया गया है।

3. सम्पत्ति का अधिकार (Right to Propeterty)—सम्पत्ति का अधिकार मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है। इस अधिकार से अभिप्राय है कि मनुष्य सम्पत्ति खरीद सकता है, बेच सकता है और अपनी सम्पत्ति जिसे चाहे दे सकता है। उसे पैतृक सम्पत्ति रखने का भी अधिकार है। सम्पत्ति सभ्यता की निशानी है। सम्पत्ति का मनुष्य के जीवन से बहुत सम्बन्ध है, इसलिए आधुनिक राज्यों ने अपने नागरिकों को सम्पत्ति का अधिकार दे रखा है। भारत के नागरिकों को सम्पत्ति का अधिकार संविधान से प्राप्त था परन्तु अब यह कानूनी अधिकार है।

4. भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Speech and Expression)-मनुष्य विचारों को प्रकट करने का अधिकार रखता है। मनुष्य अपने विचारों को भाषण के द्वारा अथवा समाचार-पत्रों में लेख लिखकर प्रकट करता है। विचार व्यक्त करने का अधिकार महत्त्वपूर्ण अधिकार है। बिना अधिकार के मनुष्य अपना विकास नहीं कर पाता। जिस मनुष्य को विचार प्रकट करने का अधिकार नहीं होता है, वह सोचना बन्द कर देता है जिससे उसके मन का विकास रुक जाता है। हमें यह अधिकार संविधान से प्राप्त है।

5. शान्तिपूर्वक इकट्ठे होने तथा संस्थाएं बनाने का अधिकार (Right to Assemble Peacefully and to form Associations)-आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य में नागरिकों को शान्तिपूर्वक इकट्ठे होने तथा संस्थाएं बनाने का अधिकार होता है। मनुष्य भाषण देने के अधिकार का तभी प्रयोग कर सकते हैं जब उन्हें इकट्ठे होने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। परन्तु वे शान्तिपूर्वक ही इकट्ठे हो सकते हैं। हथियार लेकर इकट्ठे होने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। मनुष्य को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थाएं बनाने का भी अधिकार होता है, परन्तु चोरी तथा हत्या करने के लिए किसी संस्था का निर्माण नहीं किया जा सकता। यदि सरकार सोचे कि किसी संस्था से देश की शान्ति तथा सुरक्षा को खतरा है तो वह उस संस्था को समाप्त भी कर सकती है। भारत के नागरिकों को यह अधिकार संविधान से प्राप्त है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

6. परिवार का अधिकार (Right to Family)-मनुष्य को परिवार बनाने का अधिकार है। मनुष्य अपनी इच्छा से शादी कर सकता है और सन्तान उत्पन्न कर सकता है। परिवार का प्रबन्ध करने में मनुष्य को पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं है। राज्य परिवार से सम्बन्धित नियमों का निर्माण कर सकता है। भारत सरकार ने शादी करने की आयु निश्चित की है। कोर्ट में शादी करने के लिए पुरुष की आयु 21 वर्ष तथा स्त्री की आयु 18 वर्ष होनी चाहिए। इसी तरह कानून के अन्तर्गत पुरुष को दो पत्नियां रखने का अधिकार नहीं है। संसार के प्राय: सभी राज्यों में मनुष्य को परिवार बनाने का अधिकार प्राप्त है।

7. धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion)-धर्म का जीवन पर गहरा प्रभाव होता है अत: व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। धर्म की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक जिस धर्म में चाहे विश्वास रखे, जिस देवता की चाहे पूजा करे और जिस तरह चाहे पूजा करे। सरकार को नागरिकों के धर्म में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। भारत के नागरिकों को यह अधिकार संविधान से प्राप्त है। आज संसार के अधिकांश देशों में नागरिकों को धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है।

8. समानता का अधिकार (Right to Equality)—सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। धर्म, भाषा, जाति-पाति, सम्प्रदाय, रंग-भेद के आधार पर नागरिकों से मतभेद नहीं किया जाना चाहिए। भारत, इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए गए हैं। कानून के सामने सब बराबर हैं। अमीर-ग़रीब, शक्तिशाली तथा कमज़ोर सब कानून के सामने बराबर हैं। किसी को विशेष अधिकार नहीं दिए गए हैं। कानून तोड़ने वाले को कानून के अनुसार सजा दी जाती है। सभी को समान अवसर देना ही समानता का दूसरा नाम है।

9. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Personal Liberty)-नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का भी अधिकार दिया जाता है जो कि बड़ा आवश्यक है। आज व्यक्ति को पशुओं की तरह बेचा और खरीदा नहीं जा सकता। इस अधिकार के बिना मनुष्य का अपना शारीरिक तथा मानसिक विकास नहीं हो सकता। उसे बिना अपराध तथा न्यायालय की आज्ञा के बिना बन्दी नहीं बनाया जा सकता और न ही किसी प्रकार का दण्ड दिया जा सकता है।

10. देश के अन्दर घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Movement in the Country)-नागरिकों को देश के अन्दर घूमने-फिरने का अधिकार होता है। नागरिक देश के जिस हिस्से में चाहें बस सकते हैं। वह सैर करने के लिए भी जा सकते हैं। मनुष्य को घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता देना आवश्यक है, इसके बिना मनुष्य अपने आपको कैदी महसूस करता है। भारत का संविधान नागरिकों को घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। परन्तु कोई नागरिक इस अधिकार का गलत प्रयोग करता है तो सरकार उसकी स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।

11. समझौते का अधिकार ( Right to Contract)—प्रत्येक नागरिक को दूसरे मनुष्यों से तथा समुदायों से समझौता करने का अधिकार होता है परन्तु नागरिक को कानून की सीमा के अन्दर रह कर ही समझौते करने की स्वतन्त्रता होती है।

12. संस्कृति की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Culture)-नागरिकों को अपनी संस्कृति में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता होती है। नागरिक अपनी भाषा तथा रीति-रिवाजों के विकास के लिए कदम उठाने की स्वतन्त्रता रखते हैं। लोकतन्त्रीय राज्यों में अल्पसंख्यकों को भी संस्कृति का विकास करने का अधिकार होता है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में संस्कृति का अधिकार दिया गया है।

13. व्यापार तथा व्यवसाय की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Trade and Occupation)-प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा के अनुसार व्यापार तथा व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता होती है। अपनी आजीविका कमाने के लिए व्यक्ति कोई भी उचित काम कर सकता है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक अधिकार क्या हैं ? वर्णन कीजिए ।
(What are Political Rights ? Describe.)
उत्तर-
राजनीतिक अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार हैं क्योंकि इन्हीं अधिकारों के द्वारा नागरिक शासन में भाग ले सकता है। प्रजातन्त्रीय राज्यों में नागरिकों को निम्नलिखित राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

1. मत देने का अधिकार (Right to Vote)-प्रजातन्त्र में जनता का शासन होता है, परन्तु जनता स्वयं शासन नहीं चलाती, बल्कि जनता शासन चलाने के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। प्रतिनिधियों का चुनाव मतदाताओं के द्वारा किया जाता है। प्रतिनिधियों के चुनने के अधिकार को मत का अधिकार कहा जाता है। सभी नागरिकों को मत देने का अधिकार नहीं दिया जाता। मत देने के लिए नागरिकों की आयु निश्चित होती है। भारत, इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा रूस में मत देने की आयु 18 वर्ष है।

2. चुनाव लड़ने का अधिकार (Right to Contest Election)—प्रजातन्त्र में नागरिक को मत देने का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता, बल्कि चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त होता है। नागरिक नगरपालिका, विधानसभा, संसद् तथा दूसरी निर्वाचित संस्थाओं का चुनाव लड़ सकता है। चुनाव लड़ने के लिए आयु निश्चित होती है। भारतवर्ष में लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए 25 वर्ष तथा राज्यसभा के लिए 30 वर्ष आयु निश्चित है। एक नागरिक जिसकी आयु 25 वर्ष या अधिक है, किसी भी धर्म, जाति, वंश, लिंग से सम्बन्धित क्यों न हो लोक सभा का चुनाव लड़ सकता है। अमीर, ग़रीब, अनपढ़, पढ़े-लिखे, निर्बल तथा शक्तिशाली सभी को चुनाव लड़ने का समान अधिकार प्राप्त है।

3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार (Right to hold Public Office)-प्रजातन्त्र में नागरिकों को सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त होता है। साधारणत: सरकारी नौकरी नागरिकों को ही दी जाती है, परन्तु कई बार विशेष हालत में विदेशी को भी सरकारी नौकरी दी जाती है। नियुक्ति के समय धर्म, जाति-पाति, रंग, वंश, लिंग आदि को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। नियुक्ति योग्यता के आधार पर ही की जाती है। भारतवर्ष में कोई भी नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, ऊंची से ऊंची नौकरी प्राप्त करने का अधिकार रखता है। डॉ० जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद, डॉ० अबुल कलाम भारत के राष्ट्रपति रह चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश एम० हिदायतुल्लाह तथा ए० एम० अहमदी भी मुसलमान थे। परन्तु पाकिस्तान में गैर मुस्लिम प्रधान नहीं बन सकता ।

4. आवेदन-पत्र देने का अधिकार (Right to Petition)—प्रजातन्त्र में सरकार को जनता का सेवक माना जाता है। सरकार का कार्य जनता के दु:खों को दूर करना होता है। नागरिकों के अपने दुःखों को दूर करने के लिए सरकार को आवेदन-पत्र भेजने का अधिकार प्राप्त है। यदि कोई सरकारी अफसर जनता पर अत्याचार करता है तो वे मिल कर सरकार को प्रार्थना-पत्र दे सकते हैं।

5. सरकार की आलोचना करने का अधिकार (Right to Criticise Government)-प्रजातन्त्र में नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त होता है। नागरिक सरकार की नीतियों की आलोचना कर सकता है, परन्तु आलोचना रचनात्मक होनी चाहिए। नागरिकों को चाहिए कि वे अपने सुझाव सरकार को दें जिससे जनता का भला हो।

6. राजनीतिक दल बनाने का अधिकार (Right to form Political Parties)—प्रजातन्त्र में नागरिकों को राजनीतिक दल बनाने का अधिकार प्राप्त होता है। नागरिक राजनीतिक दल बना कर ही चुनाव लड़ सकते हैं। व्यक्तिगत तौर पर चुनाव लड़ना अति कठिन होता है। आज राजनीतिक दलों का इतना महत्त्व है कि प्रजातन्त्र को राजनीतिक दलो के बिना चलाया ही नहीं जा सकता। अत: नागरिकों को राजनीतिक दल बनाने का अधिकार होता है। परन्तु कई देशों में राजनीतिक दलों पर पाबन्दियां लगाई जाती हैं। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के अतिरिक्त किसी अन्य पार्टी की स्थापना नहीं की जा सकती।

7. विदेश में सुरक्षा का अधिकार (Rights to Protection in Foreign Land)-जब कोई नागरिक विदेश जाता है तो उसकी रक्षा का दायित्व राज्य का होता है और वह संकट के समय राज्य से सुरक्षा की मांग कर सकता है। इस कार्य के लिए राज्यों के परस्पर राजदूतीय सम्बन्ध बनाए जाते हैं।

प्रश्न 5.
आर्थिक अधिकार क्या हैं ? वर्णन कीजिए ।
(What are Economic Rights ? Describe.)
उत्तर-
प्रजातन्त्रीय राज्यों में नागरिकों को आर्थिक विकास के लिए आर्थिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं। समाजवादी देशों में आर्थिक अधिकारों पर विशेष बल दिया जाता है। नागरिकों को प्राय: निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होते हैं-

1. काम का अधिकार (Right to Work)-कई राज्यों में नागरिकों को काम करने का अधिकार प्राप्त होता है। इस अधिकार का अर्थ है कि नागरिक काम करने की मांग कर सकते हैं। राज्य का कर्तव्य है कि वह सभी नागरिकों को काम दे ताकि नागरिक अपनी आजीविका कमा सकें। यदि राज्य नागरिकों को काम नहीं दे सकता तो उन्हें मासिक निर्वाह भत्ता देता है ताकि नागरिक भूखा न मरे। चीन में नागरिकों को काम प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है। भारत के नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत सरकार नागरिकों को काम दिलवाने में सहायता करती है।

2. उचित मज़दूरी का अधिकार (Right to Adequate Wages)-किसी नागरिक को काम देना ही काफ़ी नहीं है। उसे अपने काम की उचित मज़दूरी भी मिलनी चाहिए। उचित मज़दूरी का अर्थ है कि मजदूरी उसके काम के अनुसार मिलनी चाहिए। चीन में उचित मज़दूरी का अधिकार संविधान में लिखा हुआ है। पूंजीवदी देशों में न्यूनतम वेतन कानून (Minimum Wages Act) बनाए गए हैं जिससे मजदूरों के कम-से-कम वेतन को निश्चित किया गया है। बिना मज़दूरी काम लेना कानून के विरुद्ध है।

3. अवकाश पाने का अधिकार (Right to Leisure)-मज़दूरों को काम करने के पश्चात् अवकाश भी मिलना चाहिए। अवकाश से मनुष्य को खोई हुई शक्ति वापस मिलती है। अवकाश में ही मनुष्य और समस्याओं की ओर ध्यान देता है। पर अवकाश बिना वेतन नहीं होना चाहिए। रूस में अवकाश पाने का अधिकार संविधान में लिखा गया है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

4. काम के निश्चित घण्टों का अधिकार (Right to fixed Working Hours) आधुनिक राज्यों में काम करने के घण्टे निश्चित कर दिए गए हैं ताकि मजदूरों का शोषण न किया जा सके। काम करने के घण्टे निश्चित करने से पूर्व अमीर व्यक्ति मज़दूरों से 14-14 या 16-16 घण्टे काम लिया करते थे। परन्तु अब काम करने के लिए निश्चित समय से अधिक समय काम लेने की दशा में अधिक मज़दूरी दी जाती है। प्राय: सभी देशों में 8 घण्टे प्रतिदिन काम करने का समय निश्चित है।

5. आर्थिक सुरक्षा का अधिकार (Right to Economic Security)-अनेक राज्यों में विशेषकर समाजवादी राज्यों में नागरिकों को आर्थिक सुरक्षा के अधिकार भी प्राप्त हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत यदि कोई व्यक्ति काम करते समय अंगहीन हो जाता है या किसी कारणवश काम करने के अयोग्य हो जाता है तो सरकार उसको आर्थिक सहायता देती है। पैंशन की व्यवस्था भी की जाती है। बीमारी की दशा में नि:शुल्क दवाई भी दी जाती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-हमने नागरिकों के महत्त्वपूर्ण अधिकारों का उल्लेख किया है, परन्तु ये सभी अधिकार प्रत्येक राज्य में नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं। विभिन्न राज्यों में नागरिकों को दिए गए अधिकारों की संख्या तथा प्रकृति भिन्न-भिन्न है। उदाहरणस्वरूप चीन में काम का अधिकार है और इंग्लैंड में बेकारी की दशा में निर्वाह-भत्ता मिलता है, परन्तु भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है। चीन में भी मतदान का अधिकार है, परन्तु शासन की आलोचना करने या राजनीतिक दल बनाने का अधिकार नहीं है। इतना होते हुए भी यह कहना ठीक ही होगा कि भले ही सब राज्य अपनीअपनी परिस्थितियों के कारण एक समान अधिकार नहीं दे सकते फिर भी एक अच्छे कल्याणकारी राज्य की कसौटी वहां के नागरिकों को प्राप्त अधिकार ही माना जा सकता है।

प्रश्न 6.
विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों की विवेचना कीजिए।
(Discuss the type of duties.)
अथवा
कर्तव्यों से आप क्या समझते हैं ? आधुनिक राज्य में नागरिक के विभिन्न कर्तव्यों की व्याख्या करें
(What do you understand by Duties ? Describe the various duties of Citizen in a Modern State.)
उत्तर-
सामाजिक जीवन कर्त्तव्य पालन के बिना ठीक नहीं चल सकता। समाज में रहते हुए मनुष्य अपने हित के लिए बहुत से कार्य करता है, परन्तु कुछ कार्य उसे दूसरों के हितों के लिए भी करने पड़ते हैं, चाहे उन्हें करने की इच्छा हो या न हो। जो कार्य व्यक्ति को आवश्यक रूप से करने पड़ते हैं, उनको कर्त्तव्य कहा जाता है। इस प्रकार कर्तव्य व्यक्ति द्वारा अपने या दूसरों के लिए किया गया वह कार्य है जो उसे अवश्य करना पड़ता है। अधिकार और कर्तव्य का अटूट सम्बन्ध है। कर्त्तव्यों के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते और कर्तव्यों का बहुत ही महत्त्व होता है। बहुत से संविधानों में तो अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। यदि नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत नहीं है तो लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता।

कर्तव्य का अर्थ (Meaning of Duty)-कर्त्तव्य’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैट (Debt) शब्द से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा । शाब्दिक अर्थ में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले चुकाना पड़ता है। समाज व्यक्ति को अनेक सुविधाएं प्रदान करता है, जिस कारण व्यक्ति समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए समाज के प्रति व्यक्ति के कुछ कर्त्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्त्तव्य हैं। स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में, “कर्त्तव्य आज्ञा का अन्धाधुन्ध पालन नहीं है बल्कि वह अपनी बन्दिशों और उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने की तीव्र इच्छा है।” (“Duty is not dumb obedience, it is an active desire to fulfil obligations and responsibilities.”)

कर्त्तव्य दो प्रकार के होते हैं-

  1. नैतिक (Moral)
  2. कानूनी (Lagal)।

1. नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties) नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए बच्चों का नैतिक कर्त्तव्य है कि अपने माता-पिता की सेवा करें। नैतिक कर्त्तव्य का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।

2. कानूनी कर्त्तव्य (Lagal Duties)-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्त्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। उदाहरण के लिए आयकर देना कानूनी कर्त्तव्य है। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता
है।

नागरिक के कर्तव्य (Duties of a Citizen) – व्यक्ति को जीवन में बहुत-से कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक लेखक का कहना है कि सच्ची नागरिकता अपने कर्तव्यों का उचित पालन करने में है। समाज में विभिन्न समुदायों तथा संस्थाओं के प्रति नागरिक के भिन्न-भिन्न कर्तव्य होते हैं। जैसे-कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति हैं, अपने पड़ोसियों के प्रति, अपने गांव या शहर के प्रति, अपने राज्य के प्रति, अपने देश के प्रति, मानव जाति के प्रति और यहां तक कि अपने प्रति भी हैं। नागरिकों के मुख्य कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

नागरिक के नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties of a Citizen) नागरिक के ऐसे अनेक कर्तव्य हैं जिनका पालन करना अथवा न करना नागरिक की इच्छा पर निर्भर करता है। इन कर्तव्यों का पालन न करने वाले को कानून दण्ड नहीं दे सकता, फिर भी इन कर्त्तव्यों का विशेष महत्त्व है। नागरिक के मुख्य नैतिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

1. नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Oneself)-नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • रोग से दूर रहना-प्रत्येक नागरिक को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए। अच्छा स्वास्थ्य व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पत्ति होती है।
  • शिक्षा प्राप्त करना- शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपने मन का विकास कर सकता है। अतः प्रत्येक नागरिक को दिल लगाकर शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
  • परिश्रम करना-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह कड़ा परिश्रम करे ताकि देश के उत्पादन में वृद्धि हो।
  • आर्थिक विकास-नागरिक को आर्थिक विकास करना चाहिए। जो व्यक्ति अपना आर्थिक विकास नहीं करता वह अपने साथ और अपने परिवार के साथ अन्याय करता है।
  • चरित्र- नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने चरित्र को ठीक रखे। नैतिक विकास के लिए नागरिकों को सदाचारी बनना चाहिए।
  • सत्य-नागरिक को सदैव सत्य बोलना चाहिए। (vii) ईमानदारी-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपना कार्य ईमानदारी से करे।
  • प्रगतिशील विचार-नागरिक को अपने विचार विशाल, विस्तृत तथा प्रगतिशील बनाने चाहिएं। उसे समय की आवश्यकतानुसार अपने विचार बदलने चाहिएं। संकुचित विचारों वाला नागरिक समाज का कोई कल्याण नहीं कर सकता।

2. सेवा (Service)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करे। दीन-दुःखियों, ग़रीबों, असहायों तथा अनाथों की सहायता तथा सेवा करना उसका कर्त्तव्य है।

3. दया-भाव (Kindness)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति दया की भावना रखे। दूसरों के दुःखों को देखकर व्यक्ति के दिल में दया उत्पन्न होनी चाहिए तथा उनकी सहायता करनी चाहिए।

4. अहिंसा (Non-Violence) नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति अहिंसा की भावना रखे। किसी की हत्या करना या मारना नैतिकता के विरुद्ध है।

5. आत्म-संयम (Self-Control)–नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह संयम से रहे। उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। गुरु गोबिन्द सिंह जी का आदेश उल्लेखनीय है कि ‘मन जीते जग जीत’।

6. प्रेम और सहानुभूति (Love and Sympathy)-दूसरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति की भावना रखना नागरिक का कर्तव्य है। दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए, मीठी बोली बोलना चाहिए तथा दूसरों के संकट में काम आना चाहिए।

7. आज्ञा पालन तथा अनुशासन (Obedience and Discipline)-राज्य के प्रति तो अपने कर्त्तव्यों का पालन प्रत्येक नागरिक को करना ही पड़ता है, परन्तु परिवार के बड़े सदस्यों और रिश्तेदारों, अध्यापकों तथा उच्च अधिकारियों की आज्ञाओं का पालन करना भी नागरिकों का कर्तव्य है। नागरिक जहां भी जाए उसे स्थान या संस्था में सम्बन्धित नियमों का पालन ईमानदारी से करना चाहिए।

8. निःस्वार्थ भावना (Selfless Spirit)-नागरिक को नि:स्वार्थ होना चाहिए। उसे प्रत्येक कार्य अपने लाभ के लिए ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसे दूसरों की भलाई के लिए भी काय करने चाहिएं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

9. धर्मानुसार आचरण (Religious Performance)-नागरिक का कर्तव्य है कि वह धर्मानुसार चले और कोई ऐसा काम न करे जो उसके धर्म के विरुद्ध हो। धर्म में अन्ध-विश्वास नहीं होना चाहिए।

10. परिवार के प्रति कर्त्तव्य (Duties Hards Family)-नागरिक के परिवार के प्रति निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं

  • आज्ञा पालन करना- प्रत्येक नागरिक को अपने माता-पिता तथा वटी की आज्ञा का पालन करना चाहिए। अन्य सदस्यों से भी आदरपूर्वक व्यवहार करना चाहिए तथा अनुशासन में रहना प्रत्येक नागरिक के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • आवश्यकताओं की पूर्ति करना-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपने परिवार के लिए अच्छे तथा साफ़सुथरे घर का निर्माण करे और परिवार के सदस्यों का पालन-पोषण करने के लिए धन कमाए।
  • परिवार के नाम को रोशन करना-प्रत्येक नागरिक को ऐसा काम करना चाहिए जिससे परिवार का नाम रोशन हो और कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे परिवार की बदनामी हो।

11. नागरिक के पड़ोसियों के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards one’s neighbours)-पड़ोसी ही व्यक्ति का सामाजिक समाज होता है। इसलिए नागरिक के अपने पड़ोपियों के प्रति निम्नलिखित कर्तव्य हैं

  • प्रेम तथा सहयोग की भावना-प्रत्येक नागरिक में अपने पड़ोसियों के प्रति प्रेम, सहयोग, सहानुभूति तथा मित्रता की भावना होनी चाहिए। किसी ने ठीक कहा है कि, “हम साया मां-बाप जाया!”
  • दुःख-सुख में शामिल होना-प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने पड़ोसियों के दुःख-सुख का साथी बने। अपने सुख की परवाह किए बिना अपने पड़ोसी की दुःख में सहायता करनी चाहिए।
  • झगड़ा न करना-यदि पड़ोसी अच्छा न हो तो भी उससे लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए। बच्चों की लड़ाई में बड़ों को सम्मिलित नहीं हो जाना चाहिए।
  • पड़ोस के वातावरण को साफ़ रखना-पड़ोस अथवा अपने आस-पास सफ़ाई रखना नागरिक का कर्तव्य

12. गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Village, City and Province) नागरिक के गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • साफ़-सुथरा और सुन्दर बनाना-प्रत्येक नागरिक को गांव अथवा शहर को साफ़-सुथरा रखने के लिए तथा सुन्दर बनाने के लिए सहयोग देना चाहिए।
  • सामाजिक बुराइयों को दूर करना-प्रत्येक नागरिक को सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और स्वयं भी इनका पालन करना चाहिए।
  • उन्नति करना-प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त की उन्नति के लिए कार्य करे।
  • सहयोग देना–प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त में शान्ति बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करे, सरकारी कर्मचारियों की सहायता करे तथा गांव, नगर और प्रान्त के नियमों का पालन करे।

13. राज्य के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards State)-नागरिक के राज्य के प्रति कुछ नैतिक कर्त्तव्य हैं। राज्य के अन्दर रह कर ही मनुष्य अपना विकास कर सकता है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह राज्य की उन्नति के लिए कार्य करे। नागरिक को अपने हित को राज्य के हित के सामने कोई महत्त्व नहीं देना चाहिए।

14. विश्व के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards World)-नागरिक का विश्व के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह समस्त मानव की भलाई तथा उन्नति के लिए कार्य करे। विश्व में शान्ति की स्थापना की बहुत आवश्यकता है। मनुष्य को विश्व में शान्ति बनाए रखने के लिए प्रयत्न करने चाहिएं।

कानूनी कर्तव्य (Legal Duties) –
नागरिक के नैतिक कर्तव्यों के अतिरिक्त कानूनी कर्त्तव्य भी हैं। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर दण्ड मिलता है। आधुनिक नागरिक के कानूनी कर्त्तव्य मुख्यतः निम्नलिखित हैं-

1. देशभक्ति (Patriotism)–नागरिक का प्रथम कानूनी कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी का है। जो नागरिक अपने देश से गद्दारी करते हैं उन्हें देश-द्रोही कहा जाता है और राज्य ऐसे नागरिकों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा देता है। चीन आदि साम्यवादी देशों में नागरिकों के इन कर्त्तव्यों को संविधान में लिखा गया है। नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह देश की सुरक्षा के लिए अपना बलिदान करे।

2. कानूनों का पालन (Obedience to Laws)-नागरिकों का कानूनी कर्त्तव्य है कि वे कानूनों का पालन करें। जो नागरिक कानूनों का पालन नहीं करता उसे दण्ड दिया जाता है। राज्य में शान्ति की स्थापना के लिए सरकार कई प्रकार के कानूनों का निर्माण करती है। यदि नागरिक इन कानूनों का पालन नहीं करते तो समाज में शान्ति की व्यवस्था बनी नहीं रहती। जिन देशों के संविधान लिखित हैं वहां पर संविधान को सर्वोच्च कानून माना जाता है और नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे संविधान के अनुसार कार्य करें।

3. करों को ईमानदारी से चुकाना (Payment of Taxes Honestly)-नागरिक का कर्तव्य है कि ईमानदारी से करों का भुगतान करे। यदि नागरिक करों को धोखे से बचा लेता है तो इससे सरकार के समक्ष अधिक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं जिससे सरकार जनता की भलाई के लिए आवश्यक कार्य नहीं कर पाती। भारत के नागरिक कर ईमानदारी से नहीं देते।

4. सरकार के साथ सहयोग (Co-operative with the Government)-नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार को शान्ति की स्थापना बनाए रखने के लिए सहयोग दें। सरकार चोरों तथा डाकुओं को पकड़ कर सज़ा देती है। पर नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे अपराधियों को कानून के हवाले करें। जो नागरिक अपराधियों को सहारा देता है, कानून की नज़र में वह भी अपराधी है और उसे भी दण्ड दिया जाता है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार से उन कर्मचारियों की शिकायत करें जो रिश्वत लेते हैं और अपने कार्य को ठीक ढंग से नहीं करते। जब बीमारी फैल जाए अथवा अकाल पड़ जाए तब नागरिकों को सरकार की सहायता करनी चाहिए।

5. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा (Protection of Public Property)-नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि वे सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें। जो नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करता है उसे कड़ी-से-कड़ी सज़ा दी जाती है। भारत के नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति की ठीक तरह से रक्षा नहीं करते।

6. मताधिकार का उचित प्रयोग (Right use of Vote)-प्रजातन्त्र में प्रत्येक नागरिक को मत देने का अधिकार होता है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अपने मत देने के अधिकार का उचित प्रयोग करे। उन्हें अपने वोट को बेचने का अधिकार नहीं है। यदि कोई नागरिक पैसे लेकर वोट का प्रयोग करता है और वह पकड़ा जाता है तो कानून उसे सज़ा देता है। नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपना वोट उसी उम्मीदवार को दे जो बहुत समझदार, निःस्वार्थ, ईमानदार तथा शासन चलाने के लिए कुशल हो।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 7.
अधिकार और कर्तव्य किस प्रकार सम्बन्धित हैं ? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
(How rights and duties are inter-related ? Explain fully.)
अथवा
अधिकारों और कर्तव्यों की परिभाषा दें। उनके परस्पर सम्बन्धों की व्याख्या करो।
(Define Rights and Duties. Discuss the relations between them.)
उत्तर-

अधिकार सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं जिनके बिना न तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य कर सकता है। आधुनिक युग में अधिकारों का महत्त्व और अधिक हो गया है, क्योंकि आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। इसलिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को कुछ ऐसे अधिकार देता है जिनका दिया जाना उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करने के लिए आवश्यक होता है। लॉस्की (Laski) का कथन है कि “एक राज्य अपने नागरिकों को जिस प्रकार के अधिकार प्रदान करता है, उन्हीं के आधार पर राज्य को अच्छा या बुरा कहा जा सकता है।”

अधिकारों का अर्थ एवं परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Rights)—मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज से मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों, में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से होता है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं और उन्हें समाज में मान्यता दी जाती है। अन्य शब्दों में, अधिकार वे सुविधाएं हैं जिनके कारण हमें किसी कार्य को करने या न करने की शक्ति मिलती है।

विभिन्न लेखकों ने अधिकार की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। कुछ परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • वाइल्ड (Wild) के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वतन्त्रता की उचित मांग ही अधिकार है।” (“Right is a reasonable claim to freedom in the exercise of certain activities.”)
  • ग्रीन (Green) के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।” (“Rights are those powers which are necessary to the fulfilment of man’s vocation as moral being.”)
  • बोसांके (Bosanquet) के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।” (“A right is a claim recognised by society enforced by the State.”)
  • हालैंड (Holland) के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति की वह शक्ति है, जिससे वह दूसरे के कार्यों पर प्रभाव डाल सकता है और जो उसकी अपनी ताकत पर नहीं बल्कि समाज की राय या शक्ति पर निर्भर है।” (“Right is one man’s capacity of influencing the acts of another by means not of his strength but of the opinion or the force of society.”)
  • लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” (“Rights are those conditions of social life without which no
    man can seek, in general, to be himself at the best.”)
  • डॉ० बेनी प्रसाद (Dr, Beni Parsad) के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक अवस्थाएं हैं जो व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। अधिकार सामाजिक जीवन का आवश्यक पक्ष हैं।” (“Rights are those social conditions of life which are essential for the development of the individual. Rights are the essential aspects of social life.”’)

अधिकारों की विशेषताएं (Characteristics of Rights)-उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अधिकार एक वातावरण है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के विकास के लिए स्वतन्त्रतापूर्वक तथा बिना किसी बाधा के कोई कार्य कर सके। अधिकार के निम्नलिखित लक्षण हैं :-

  • अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं (Rights can be possible only in the Society)-अधिकार केवल समाज में ही मिलते हैं। समाज के बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  • अधिकार व्यक्ति का दावा है (Rights are claim of the Individual) अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने की स्वतन्त्रता का एक दावा है जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।
  • अधिकार समाज द्वारा मान्य होता है (Rights are recognised by the Society)-अधिकार व्यक्ति की मांग है जिसे समाज मान ले या स्वीकार कर ले। व्यक्ति की किसी सुविधा की मांग करने मात्र से वह मांग अधिकार नहीं बन जाती। व्यक्ति की मांग अधिकार का रूप उस समय धारण करती है जब समाज उसे मान्यता दे दे।
  • अधिकार तर्कसंगत तथा नैतिक होता है (Rights are Reasonable and Moral) समाज व्यक्ति की उसी मांग को स्वीकार करता है जो मांग तर्कसंगत, उचित तथा नैतिक हो। जो मांग अनुचित और समाज के लिए हानिकारक हो, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • अधिकार असीमित नहीं होते हैं (Rights are not Absolute)-अधिकार कभी असीमित नहीं होते बल्कि वे सीमित शक्तियां होती हैं जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इसलिए ग्रीन ने अधिकारों की परिभाषा देते हुए इन्हें सामान्य कल्याण में योगदान देने के लिए मान्य शक्ति कहा है।
  • अधिकार लोक हित में प्रयोग किया जा सकता है (Rights can be used for Social Good)-अधिकार का प्रयोग सामाजिक हित के लिए किया जा सकता है, समाज के अहित के लिए नहीं। अधिकार समाज में ही मिलते हैं और समाज द्वारा ही दिए जाते हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इनका प्रयोग समाज के कल्याण के लिए किया जाए।
  • अधिकार सर्वव्यापी होते हैं (Rights are Universal)-अधिकार समाज में सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं। अधिकार व्यक्ति का दावा है, परन्तु यह दावा किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं होता बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का होता है जिसके आधार पर वह बाकी सबके विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग करता है। इस प्रकार जो अधिकार एक व्यक्ति को प्राप्त है, वही अधिकार समाज के दूसरे सदस्यों को भी प्राप्त होता है।
  • अधिकार के साथ कर्त्तव्य होते हैं (Rights are always accompanied by Duties)-अधिकार की यह भी विशेषता है कि यह अकेला नहीं चलता। इसके साथ कर्त्तव्य भी रहते हैं। अधिकार और कर्त्तव्य हमेशा साथ-साथ चलते हैं। क्योंकि अधिकार सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं, इसलिए अधिकार की प्राप्ति के साथ व्यक्ति को यह कर्त्तव्य भी प्राप्त हो जाता है कि दूसरे के अधिकार में हस्तक्षेप न करे। कर्त्तव्य के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते।
  • अधिकार राज्य द्वारा लागू और सुरक्षित होता है (Right is enforced and protected by the State)अधिकार की यह भी एक विशेषता है कि राज्य ही अधिकार को लागू करता है और उसकी रक्षा करता है। राज्य कानून द्वारा अधिकारों को निश्चित करता है और उनके उल्लंघन के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है। यह आवश्यक नहीं कि अधिकार राज्य द्वारा बनाए भी जाएं। जिस सुविधा को समाज में आवश्यक समझा जाता है, राज्य उसको संरक्षण देकर उसको निश्चित और सुरक्षित बना देता है।
  • अधिकार स्थायी नहीं होते (Rights are not Static) अधिकार की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि अधिकार स्थायी नहीं होते बल्कि अधिकार सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं।

 

सामाजिक जीवन कर्त्तव्य पालन के बिना ठीक नहीं चल सकता। समाज में रहते हुए मनुष्य अपने हित के लिए बहुत से कार्य करता है, परन्तु कुछ कार्य उसे दूसरों के हितों के लिए भी करने पड़ते हैं, चाहे उन्हें करने की इच्छा हो या न हो। जो कार्य व्यक्ति को आवश्यक रूप से करने पड़ते हैं, उनको कर्त्तव्य कहा जाता है। इस प्रकार कर्तव्य व्यक्ति द्वारा अपने या दूसरों के लिए किया गया वह कार्य है जो उसे अवश्य करना पड़ता है। अधिकार और कर्तव्य का अटूट सम्बन्ध है। कर्त्तव्यों के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते और कर्तव्यों का बहुत ही महत्त्व होता है। बहुत से संविधानों में तो अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। यदि नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत नहीं है तो लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता।

कर्तव्य का अर्थ (Meaning of Duty)-कर्त्तव्य’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैट (Debt) शब्द से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा । शाब्दिक अर्थ में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले चुकाना पड़ता है। समाज व्यक्ति को अनेक सुविधाएं प्रदान करता है, जिस कारण व्यक्ति समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए समाज के प्रति व्यक्ति के कुछ कर्त्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्त्तव्य हैं। स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में, “कर्त्तव्य आज्ञा का अन्धाधुन्ध पालन नहीं है बल्कि वह अपनी बन्दिशों और उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने की तीव्र इच्छा है।” (“Duty is not dumb obedience, it is an active desire to fulfil obligations and responsibilities.”)

कर्त्तव्य दो प्रकार के होते हैं-

  1. नैतिक (Moral)
  2. कानूनी (Lagal)।

1. नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties) नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए बच्चों का नैतिक कर्त्तव्य है कि अपने माता-पिता की सेवा करें। नैतिक कर्त्तव्य का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।

2. कानूनी कर्त्तव्य (Lagal Duties)-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्त्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। उदाहरण के लिए आयकर देना कानूनी कर्त्तव्य है। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता
है।

नागरिक के कर्तव्य (Duties of a Citizen) – व्यक्ति को जीवन में बहुत-से कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक लेखक का कहना है कि सच्ची नागरिकता अपने कर्तव्यों का उचित पालन करने में है। समाज में विभिन्न समुदायों तथा संस्थाओं के प्रति नागरिक के भिन्न-भिन्न कर्तव्य होते हैं। जैसे-कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति हैं, अपने पड़ोसियों के प्रति, अपने गांव या शहर के प्रति, अपने राज्य के प्रति, अपने देश के प्रति, मानव जाति के प्रति और यहां तक कि अपने प्रति भी हैं। नागरिकों के मुख्य कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

नागरिक के नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties of a Citizen) नागरिक के ऐसे अनेक कर्तव्य हैं जिनका पालन करना अथवा न करना नागरिक की इच्छा पर निर्भर करता है। इन कर्तव्यों का पालन न करने वाले को कानून दण्ड नहीं दे सकता, फिर भी इन कर्त्तव्यों का विशेष महत्त्व है। नागरिक के मुख्य नैतिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

1. नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Oneself)-नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • रोग से दूर रहना-प्रत्येक नागरिक को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए। अच्छा स्वास्थ्य व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पत्ति होती है।
  • शिक्षा प्राप्त करना- शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपने मन का विकास कर सकता है। अतः प्रत्येक नागरिक को दिल लगाकर शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
  • परिश्रम करना-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह कड़ा परिश्रम करे ताकि देश के उत्पादन में वृद्धि हो।
  • आर्थिक विकास-नागरिक को आर्थिक विकास करना चाहिए। जो व्यक्ति अपना आर्थिक विकास नहीं करता वह अपने साथ और अपने परिवार के साथ अन्याय करता है।
  • चरित्र- नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने चरित्र को ठीक रखे। नैतिक विकास के लिए नागरिकों को सदाचारी बनना चाहिए।
  • सत्य-नागरिक को सदैव सत्य बोलना चाहिए। (vii) ईमानदारी-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपना कार्य ईमानदारी से करे।
  • प्रगतिशील विचार-नागरिक को अपने विचार विशाल, विस्तृत तथा प्रगतिशील बनाने चाहिएं। उसे समय की आवश्यकतानुसार अपने विचार बदलने चाहिएं। संकुचित विचारों वाला नागरिक समाज का कोई कल्याण नहीं कर सकता।

2. सेवा (Service)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करे। दीन-दुःखियों, ग़रीबों, असहायों तथा अनाथों की सहायता तथा सेवा करना उसका कर्त्तव्य है।

3. दया-भाव (Kindness)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति दया की भावना रखे। दूसरों के दुःखों को देखकर व्यक्ति के दिल में दया उत्पन्न होनी चाहिए तथा उनकी सहायता करनी चाहिए।

4. अहिंसा (Non-Violence) नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति अहिंसा की भावना रखे। किसी की हत्या करना या मारना नैतिकता के विरुद्ध है।

5. आत्म-संयम (Self-Control)–नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह संयम से रहे। उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। गुरु गोबिन्द सिंह जी का आदेश उल्लेखनीय है कि ‘मन जीते जग जीत’।

6. प्रेम और सहानुभूति (Love and Sympathy)-दूसरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति की भावना रखना नागरिक का कर्तव्य है। दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए, मीठी बोली बोलना चाहिए तथा दूसरों के संकट में काम आना चाहिए।

7. आज्ञा पालन तथा अनुशासन (Obedience and Discipline)-राज्य के प्रति तो अपने कर्त्तव्यों का पालन प्रत्येक नागरिक को करना ही पड़ता है, परन्तु परिवार के बड़े सदस्यों और रिश्तेदारों, अध्यापकों तथा उच्च अधिकारियों की आज्ञाओं का पालन करना भी नागरिकों का कर्तव्य है। नागरिक जहां भी जाए उसे स्थान या संस्था में सम्बन्धित नियमों का पालन ईमानदारी से करना चाहिए।

8. निःस्वार्थ भावना (Selfless Spirit)-नागरिक को नि:स्वार्थ होना चाहिए। उसे प्रत्येक कार्य अपने लाभ के लिए ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसे दूसरों की भलाई के लिए भी काय करने चाहिएं।

9. धर्मानुसार आचरण (Religious Performance)-नागरिक का कर्तव्य है कि वह धर्मानुसार चले और कोई ऐसा काम न करे जो उसके धर्म के विरुद्ध हो। धर्म में अन्ध-विश्वास नहीं होना चाहिए।

10. परिवार के प्रति कर्त्तव्य (Duties Hards Family)-नागरिक के परिवार के प्रति निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं

  • आज्ञा पालन करना- प्रत्येक नागरिक को अपने माता-पिता तथा वटी की आज्ञा का पालन करना चाहिए। अन्य सदस्यों से भी आदरपूर्वक व्यवहार करना चाहिए तथा अनुशासन में रहना प्रत्येक नागरिक के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • आवश्यकताओं की पूर्ति करना-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपने परिवार के लिए अच्छे तथा साफ़सुथरे घर का निर्माण करे और परिवार के सदस्यों का पालन-पोषण करने के लिए धन कमाए।
  • परिवार के नाम को रोशन करना-प्रत्येक नागरिक को ऐसा काम करना चाहिए जिससे परिवार का नाम रोशन हो और कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे परिवार की बदनामी हो।

11. नागरिक के पड़ोसियों के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards one’s neighbours)-पड़ोसी ही व्यक्ति का सामाजिक समाज होता है। इसलिए नागरिक के अपने पड़ोपियों के प्रति निम्नलिखित कर्तव्य हैं

  • प्रेम तथा सहयोग की भावना-प्रत्येक नागरिक में अपने पड़ोसियों के प्रति प्रेम, सहयोग, सहानुभूति तथा मित्रता की भावना होनी चाहिए। किसी ने ठीक कहा है कि, “हम साया मां-बाप जाया!”
  • दुःख-सुख में शामिल होना-प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने पड़ोसियों के दुःख-सुख का साथी बने। अपने सुख की परवाह किए बिना अपने पड़ोसी की दुःख में सहायता करनी चाहिए।
  • झगड़ा न करना-यदि पड़ोसी अच्छा न हो तो भी उससे लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए। बच्चों की लड़ाई में बड़ों को सम्मिलित नहीं हो जाना चाहिए।
  • पड़ोस के वातावरण को साफ़ रखना-पड़ोस अथवा अपने आस-पास सफ़ाई रखना नागरिक का कर्तव्य

12. गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Village, City and Province) नागरिक के गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • साफ़-सुथरा और सुन्दर बनाना-प्रत्येक नागरिक को गांव अथवा शहर को साफ़-सुथरा रखने के लिए तथा सुन्दर बनाने के लिए सहयोग देना चाहिए।
  • सामाजिक बुराइयों को दूर करना-प्रत्येक नागरिक को सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और स्वयं भी इनका पालन करना चाहिए।
  • उन्नति करना-प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त की उन्नति के लिए कार्य करे।
  • सहयोग देना–प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त में शान्ति बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करे, सरकारी कर्मचारियों की सहायता करे तथा गांव, नगर और प्रान्त के नियमों का पालन करे।

13. राज्य के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards State)-नागरिक के राज्य के प्रति कुछ नैतिक कर्त्तव्य हैं। राज्य के अन्दर रह कर ही मनुष्य अपना विकास कर सकता है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह राज्य की उन्नति के लिए कार्य करे। नागरिक को अपने हित को राज्य के हित के सामने कोई महत्त्व नहीं देना चाहिए।

14. विश्व के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards World)-नागरिक का विश्व के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह समस्त मानव की भलाई तथा उन्नति के लिए कार्य करे। विश्व में शान्ति की स्थापना की बहुत आवश्यकता है। मनुष्य को विश्व में शान्ति बनाए रखने के लिए प्रयत्न करने चाहिएं।

कानूनी कर्तव्य (Legal Duties) –
नागरिक के नैतिक कर्तव्यों के अतिरिक्त कानूनी कर्त्तव्य भी हैं। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर दण्ड मिलता है। आधुनिक नागरिक के कानूनी कर्त्तव्य मुख्यतः निम्नलिखित हैं-

1. देशभक्ति (Patriotism)–नागरिक का प्रथम कानूनी कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी का है। जो नागरिक अपने देश से गद्दारी करते हैं उन्हें देश-द्रोही कहा जाता है और राज्य ऐसे नागरिकों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा देता है। चीन आदि साम्यवादी देशों में नागरिकों के इन कर्त्तव्यों को संविधान में लिखा गया है। नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह देश की सुरक्षा के लिए अपना बलिदान करे।

2. कानूनों का पालन (Obedience to Laws)-नागरिकों का कानूनी कर्त्तव्य है कि वे कानूनों का पालन करें। जो नागरिक कानूनों का पालन नहीं करता उसे दण्ड दिया जाता है। राज्य में शान्ति की स्थापना के लिए सरकार कई प्रकार के कानूनों का निर्माण करती है। यदि नागरिक इन कानूनों का पालन नहीं करते तो समाज में शान्ति की व्यवस्था बनी नहीं रहती। जिन देशों के संविधान लिखित हैं वहां पर संविधान को सर्वोच्च कानून माना जाता है और नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे संविधान के अनुसार कार्य करें।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

3. करों को ईमानदारी से चुकाना (Payment of Taxes Honestly)-नागरिक का कर्तव्य है कि ईमानदारी से करों का भुगतान करे। यदि नागरिक करों को धोखे से बचा लेता है तो इससे सरकार के समक्ष अधिक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं जिससे सरकार जनता की भलाई के लिए आवश्यक कार्य नहीं कर पाती। भारत के नागरिक कर ईमानदारी से नहीं देते।

4. सरकार के साथ सहयोग (Co-operative with the Government)-नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार को शान्ति की स्थापना बनाए रखने के लिए सहयोग दें। सरकार चोरों तथा डाकुओं को पकड़ कर सज़ा देती है। पर नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे अपराधियों को कानून के हवाले करें। जो नागरिक अपराधियों को सहारा देता है, कानून की नज़र में वह भी अपराधी है और उसे भी दण्ड दिया जाता है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार से उन कर्मचारियों की शिकायत करें जो रिश्वत लेते हैं और अपने कार्य को ठीक ढंग से नहीं करते। जब बीमारी फैल जाए अथवा अकाल पड़ जाए तब नागरिकों को सरकार की सहायता करनी चाहिए।

5. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा (Protection of Public Property)-नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि वे सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें। जो नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करता है उसे कड़ी-से-कड़ी सज़ा दी जाती है। भारत के नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति की ठीक तरह से रक्षा नहीं करते।

6. मताधिकार का उचित प्रयोग (Right use of Vote)-प्रजातन्त्र में प्रत्येक नागरिक को मत देने का अधिकार होता है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अपने मत देने के अधिकार का उचित प्रयोग करे। उन्हें अपने वोट को बेचने का अधिकार नहीं है। यदि कोई नागरिक पैसे लेकर वोट का प्रयोग करता है और वह पकड़ा जाता है तो कानून उसे सज़ा देता है। नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपना वोट उसी उम्मीदवार को दे जो बहुत समझदार, निःस्वार्थ, ईमानदार तथा शासन चलाने के लिए कुशल हो।

अधिकारों और कर्तव्यों में सम्बन्ध-
अधिकार और कर्तव्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह कहा जाता है कि अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो पहल हैं और इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। अधिकार में कर्त्तव्य निहित है अर्थात् अधिकार के साथ कर्त्तव्य स्वयंमेव मिल जाते हैं और इसीलिए कहा जाता है कि अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं। अधिकार अन्त में कर्तव्य बन जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अधिकार पाने वाले को यह नहीं समझना चाहिए कि उसे केवल अधिकार ही मिला है। अन्त में उसे पता चलता है कि अधिकार का प्रयोग करने में भी कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। इन सभी कथनों से सिद्ध होता है कि दोनों का एक-दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता। कर्त्तव्य के बिना अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्त्तव्य पालन से ही व्यक्ति अधिकारों का अधिकारी बनता है। वाइल्ड (Wilde) के शब्दों में, “केवल कर्त्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व होता है।” (“It is only in a world of duties that rights have significance.”) जिस प्रकार बीज डालने, पानी देने और देखभाल करने के पश्चात् ही फल की प्राप्ति होती है उसी प्रकार अधिकार फल के समान हैं और उनकी प्राप्ति कर्त्तव्य रूपी परिश्रम के पश्चात् ही हो सकती है। ___ अधिकारों और कर्तव्यों में निम्नलिखित सम्बन्ध पाए जाते हैं-

1. एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है (One’s right implies other’s duty) एक व्यक्ति का जो अधिकार है वही दूसरों का कर्तव्य बन जाता है कि वे उनके अधिकार को मानें तथा उसमें किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करें। इस प्रकार एक के अधिकार से दूसरों का कर्त्तव्य बंधा हुआ है। लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “मेरा अधिकार तुम्हारा कर्तव्य” (“My right implies your duty.”) उदाहरण के लिए एक व्यक्ति को घूमने-फिरने का अधिकार मिला हुआ है तो दूसरों का यह कर्त्तव्य है कि वे उसके घूमने-फिरने में बाधा उत्पन्न न करें। यदि दूसरे उनमें बाधा डालते हैं तो वह व्यक्ति अपने घूमने-फिरने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। एक व्यक्ति का जीवन और सम्पत्ति का अधिकार उसी समय तक चल सकता है जब तक कि दूसरे व्यक्ति उसके जीवन और सम्पत्ति में हस्तक्षेप न करें। जब एक व्यक्ति दूसरे को अधिकार प्रयोग करने नहीं देता तो दूसरा व्यक्ति भी उसको कोई अधिकार प्रयोग नहीं करने देगा। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के अधिकार में हस्तक्षेप करने लगेगा और समाज में एक प्रकार की अराजकता फैल जाएगी। बैनिटो जॉरेज़ (Banito Jaurez) का कहना है, कि “दूसरों के अधिकारों का आदर करने का ही नाम शान्ति है।”

2. एक का अधिकार उसका कर्त्तव्य भी है (One’s right implies one’s duty also)—एक व्यक्ति के अधिकार में उसका यह कर्त्तव्य निहित है कि वह दूसरों के उसी प्रकार के अधिकारों को मानते हुए उनमें बाधा न डाले। लॉस्की (Laski) के शब्दानुसार, “मेरे अधिकार में यह निहित है कि मैं तुम्हारे समान अधिकार को स्वीकार करूं।” (“My right implies my duty to admit a smiliar right of yours.”) समाज में सभी व्यक्ति समान होते हैं तथा सबको समान अधिकार मिलते हैं। अधिकार कुछ व्यक्तियों की सम्पत्ति नहीं होते। जो अधिकार मेरे पास हैं, वही अधिकार दूसरे के पास भी हैं। घूमने-फिरने का अधिकार मुझे मिला हुआ है, परन्तु यह अधिकार दूसरे सभी नागरिकों के पास भी है। मेरा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि मैं दूसरों का अपने अधिकारों का प्रयोग करने में पूरा सहयोग दूं। ऐसा करने से ही मैं अपने अधिकार का पूरा प्रयोग कर सकता हूं। एक व्यक्ति को यदि भाषण की स्वतन्त्रता का अधिकार है तो उसे दूसरों के भाषण में रुकावट डालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। यदि वह दूसरों के भाषण में बाधा डालेगा तो दूसरे व्यक्ति भी उसके भाषण में बाधा डालेंगे। दूसरे के कर्त्तव्य से व्यक्ति को अधिकार मिलते हैं और दूसरों के अधिकार व्यक्ति के कर्त्तव्य के समान हैं। इस प्रकार के अधिकार में उसका अपना कर्त्तव्य छिपा है।

3. अधिकारों का उचित प्रयोग (Proper use of Rights)-अधिकार का सदुपयोग करना भी व्यक्ति का कर्तव्य है। अधिकार के दुरुपयोग से दूसरों को हानि पहुंचती है और ऐसा करने की स्वीकृति समाज द्वारा नहीं दी जा सकती। एक व्यक्ति को यदि बोलने और भाषण देने की स्वतन्त्रता दी गई है तो वह इस अधिकार के द्वारा दूसरों का अपमान करने, दूसरों को गाली निकालने, अफवाह फैलाने तथा लोगों को भड़काने आदि में प्रयोग नहीं कर सकता। ऐसा करने पर उसका अधिकार छीन लिया जाएगा। उसका कर्त्तव्य है कि वह अधिकार का प्रयोग ठीक तरह से और अच्छे कार्यों में करे। प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अधिकार का प्रयोग रचनात्मक ढंग से करे, नष्ट-भ्रष्ट करने के ढंग से नहीं।

4. प्रत्येक अधिकार से उसी प्रकार का कर्तव्य जुड़ा होता है (Every right is connected with a similar type of Duty)-प्रायः सभी अधिकारों के साथ उसी प्रकार के कर्त्तव्य जुड़े होते हैं। मुझे शादी करने का अधिकार है पर इसके साथ ही मेरा कर्त्तव्य जुड़ा है। मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने बच्चों तथा पत्नी का पालन-पोषण करूं। मुझे संघ बनाने का अधिकार है, पर मेरा कर्त्तव्य है कि संघ का उद्देश्य देश के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। मुझे भाषण का अधिकार है पर मेरा कर्त्तव्य है कि मैं न्यायालय का अपमान न करूं। अतः प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा हुआ होता है।

5. सामाजिक कल्याण (Social Welfare)—व्यक्ति समाज का एक अंग है। वह अपनी आवश्यकताओं और विकास के लिए समाज पर आश्रित है। अधिकार व्यक्ति को समाज में ही मिल सकते हैं। समाज से बाहर अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए समाज के प्रति भी व्यक्ति के बहुत-से कर्त्तव्य हैं। समाज की उन्नति में सहोयग देना उसका कर्त्तव्य है। लॉस्की (Laski) के कथनानुसार, “मुझे अपने अधिकारों का प्रयोग सामाजिक हित को बढ़ोत्तरी देने के लिए करना चाहिए।” व्यक्ति के अधिकार में उसका यह कर्त्तव्य निहित है कि वह उस अधिकार को समाजकल्याण में प्रयोग करे। भाषण देने की स्वतन्त्रता व्यक्ति को मिली हुई है और उसके साथ ही कर्त्तव्य भी बंधा है कि इस अधिकार द्वारा समाज का भी कुछ कल्याण किया जाए।

6. अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक लक्ष्य (Same Object of Rights and Duties)-अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक लक्ष्य होता है-व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाना। समाज व्यक्ति को अधिकार इसलिए देता है ताकि वह उन्नति कर सके तथा अपने जीवन का विकास कर सके। कर्त्तव्य उसको लक्ष्य पर पहुंचने में सहायता करते हैं। कर्तव्यों के पालन से ही अधिकार सुरक्षित रह सकते हैं।

7. कर्तव्यों के बिना अधिकारों का अस्तित्व असम्भव (Without Duties No Rights)-कर्त्तव्यों के बिना अधिकारों की कल्पना नहीं की जा सकती। जहां मनुष्य को केवल अधिकार ही मिले हों, वहां वास्तव में अधिकार न होकर शक्तियां प्राप्त होती हैं। इसी तरह केवल कर्त्तव्यों के होने का अर्थ है-तानाशाही शासन।

8. राज्य के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards the State)—व्यक्ति के अधिकार से उसे राज्य के प्रति कई प्रकार के कर्त्तव्य मिल जाते हैं। राज्य द्वारा ही हमें अधिकार मिलते हैं और राज्य ही उन अधिकारों की रक्षा करता है। राज्य ही ऐसा वातावरण उत्पन्न करता है जिससे नागरिक अपने अधिकारों का लाभ उठा सके। राज्य के बिना अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं, इसलिए व्यक्ति का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह राज्य की आज्ञाओं का अर्थात् कानूनों का ठीक प्रकार से पालन करे, संकट में राज्य के लिए तन, मन, धन सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार रहे तथा ईमानदारी के साथ टैक्स दे। राज्य के प्रति व्यक्ति को वफ़ादार रहना चाहिए। राज्य व्यक्ति के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करता है और व्यक्ति का भी कर्त्तव्य है कि वह राज्य की रक्षा करे।

निष्कर्ष (Conclusion)-अन्त में, हम कह सकते हैं कि अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं और एक का दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। जहां अधिकारों का नाम आता हो वहां कर्त्तव्य अपने-आप चलते आते हैं। अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस सम्बन्ध में डॉ० बेनी प्रसाद ने लिखा है, “यदि प्रत्येक पुरुष अधिकारों का ही ध्यान रखे और दूसरों की ओर अपने कर्त्तव्य का पालन न करे तो शीघ्र ही किसी के लिए भी अधिकार नहीं रहेंगे।” लॉस्की (Laski) ने भी लिखा है “हमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए कुछ अधिकारों की आवश्यकता होती है। इसलिए अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो अंश हैं।” श्रीनिवास शास्त्री ने ठीक ही कहा है कि, “कर्त्तव्य और अधिकार दोनों एक ही वस्तु हैं अन्तर केवल उनको देखने में ही है। वह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्तव्यों के क्षेत्र में ही अधिकारों का सही महत्त्व सामने आता है।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अधिकार क्यों आवश्यक है ? कोई चार कारण बताएं।
उत्तर-
अधिकारों का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा समाज की प्रगति के लिए अधिकारों का होना अनिवार्य है। नागरिक जीवन में अधिकारों के महत्त्व निम्नलिखित हैं-

  • व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास-जिस प्रकार एक पौधे के विकास के लिए धूप, पानी, मिट्टी, हवा की ज़रूरत होती है, उसी तरह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों की अत्यधिक आवश्यकता है। अधिकार समाज के द्वारा दी गई वे सुविधाएं हैं जिनके आधार पर व्यक्ति अपना विकास कर सकता है। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में व्यक्ति अधिकारों की प्राप्ति से ही विकास कर सकता है।
  • अधिकार समाज के विकास के साधन-व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है। यदि अधिकारों की प्राप्ति से व्यक्तित्व का विकास हो सकता है तो सामाजिक विकास भी स्वयमेव हो जाता है। इस तरह अधिकार समाज के विकास के साधन हैं।
  • अधिकारों की व्यवस्था समाज की आधारशिला-अधिकारों की व्यवस्था के बिना समाज का जीवित रहना सम्भव नहीं है क्योंकि इसके बिना समाज में लड़ाई-झगड़े, अशान्ति और अव्यवस्था फैली रहेगी और मनुष्यों के आपसी व्यवहार की सीमाएं निश्चित नहीं हो सकती हैं। वस्तुतः अधिकार ही मनुष्य द्वारा परस्पर व्यवहार से सुव्यवस्थित समाज की आधारशिला का निर्माण करते हैं।
  • अधिकारों से व्यक्ति ज़िम्मेदार बनता है।

प्रश्न 2.
अधिकारों का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए।
उत्तर-
मनुष्यों को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज में मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं और उन्हें समाज में मान्यता प्राप्त है। अन्य शब्दों में, अधिकार वे सुविधाएं हैं जिनके कारण हमें किसी कार्य को करने या न करने की शक्ति मिलती है। विभिन्न लेखकों ने अधिकार की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  1. ग्रीन के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।”
  2. बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।”
  3. लॉस्की के शब्दों में, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का विकास नहीं कर सकता।”

प्रश्न 3.
अधिकार की चार मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
अधिकारों की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं-अधिकार केवल समाज में ही प्राप्त होते हैं। समाज से बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  2. अधिकार व्यक्ति का दावा है-अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने का दावा हा जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।
  3. अधिकार समाज द्वारा मान्य होते हैं-अधिकार व्यक्ति की मांग है जिसे समाज मान ले या स्वीकार कर ले। व्यक्ति द्वारा किसी सुविधा की मांग करने पर वह अधिकार नहीं बन जाती । व्यक्ति की मांग अधिकार का रूप उस समय धारण करती है जब समाज उसे मान्यता दे दे।
  4. अधिकार सीमित होते हैं।

प्रश्न 4.
नागरिक या सामाजिक अधिकार किसे कहते हैं ? किन्हीं चार नागरिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
नागरिक या सामाजिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य के जीवन को सभ्य बनाने के लिए आवश्यक हैं। इनके बिना मनुष्य अपने दायित्व का विकास तथा प्रगति नहीं कर सकता। ये अधिकार राज्य के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होते हैं। आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य में नागरिकों को निम्नलिखित नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

  1. जीवन का अधिकार-जीवन का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसके बिना अन्य अधिकार व्यर्थ हैं। जिस मनुष्य का जीवन सुरक्षित नहीं है, वह उन्नति नहीं कर सकता नागरिकों के जीवन की रक्षा करना राज्य का परम कर्त्तव्य है।
  2. शिक्षा का अधिकार-शिक्षा के बिना मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। अनपढ़ व्यक्ति को गंवार तथा पशु समान समझा जाता है। शिक्षा के बिना मनुष्य को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। आधुनिक राज्य में सभी नागरिकों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है।
  3. सम्पत्ति का अधिकार-सम्पत्ति का अधिकार मनुष्य के जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। सम्पत्ति सभ्यता की निशानी है। सम्पत्ति का मनुष्य के जीवन के साथ गहरा सम्बन्ध है अत: आधुनिक राज्यों में नागरिकों को सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त है।
  4. नागरिक को परिवार बनाने का अधिकार होता है।

प्रश्न 5.
किन्हीं चार राजनीतिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
राजनीतिक अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार हैं क्योंकि इन्हीं अधिकारों के द्वारा नागरिक शासन में भाग ले सकता है। आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को निम्नलिखित राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

  1. मत देने का अधिकार-लोकतन्त्र में जनता का शासन होता है, परन्तु शासन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है। प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार को मत का अधिकार कहा जाता है। मत देने के लिए आयु निश्चित होती है। भारत, इंग्लैंड, रूस तथा अमेरिका में मतदान की आयु 18 वर्ष है।
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार–लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त होता है। चुनाव लड़ने के लिए एक निश्चित आयु होती है। अमीर, ग़रीब, शिक्षित, अनपढ़, कमज़ोर, शक्तिशाली सभी को समान रूप से चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त है।
  3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार-लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को उच्च सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार है। उच्च सरकारी पदों पर नियुक्तियां योग्यता के आधार पर की जाती हैं। किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, वंश, लिंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
  4. व्यक्ति सरकार की आलोचना कर सकते हैं।

प्रश्न 6.
किन्हीं चार आर्थिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को आर्थिक विकास के लिए आर्थिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं। समाजवादी देशों में आर्थिक अधिकारों पर विशेष बल दिया जाता है। नागरिकों को निम्नलिखित मुख्य आर्थिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

  1. काम का अधिकार-कई राज्यों में नागरिकों को काम का अधिकार प्राप्त होता है। राज्य का कर्तव्य है कि वह नागरिकों को काम दे ताकि वे अपनी आजीविका कमा सकें। चीन में नागरिकों को काम का अधिकार प्राप्त है।
  2. उचित मजदूरी का अधिकार-किसी नागरिक को काम देना ही पर्याप्त नहीं है, उसे उसके काम की उचित मज़दूरी भी मिलनी चाहिए। उचित मज़दूरी का अर्थ है कि मज़दूरी उसके काम के अनुसार मिलनी चाहिए। बिना मज़दूरी काम लेना कानून के विरुद्ध है।
  3. अवकाश पाने का अधिकार- मज़दूरों को काम करने के पश्चात् अवकाश भी मिलना चाहिए। अवकाश से मनुष्य को खोई हुई शक्ति वापिस मिलती है। अवकाश में मनुष्य समस्याओं की ओर ध्यान देता है पर अवकाश वेतन सहित होना चाहिए।
  4. व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा का अधिकार मिलना चाहिए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 7.
किन्हीं दो परिस्थितियों का वर्णन करें जिनमें अधिकारों को सीमित किया जा सकता है।
उत्तर–
प्रायः सभी लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को अधिकार दिए जाते हैं, परन्तु कुछ परिस्थितियों में नागरिकों के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है और आवश्यकता पड़ने पर अधिकारों को स्थगित भी किया जा सकता है। निम्नलिखित परिस्थितियों में अधिकारों को सीमित या स्थगित किया जा सकता है-

  • नागरिकों के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है यदि जनसंख्या का एक भाग सरकार के विरुद्ध ग़लत प्रचार करता है और सरकार के काम में बाधा डालता है। सरकार किसी व्यक्ति को यह प्रचार करने नहीं दे सकती कि सेना को युद्ध के समय लड़ना नहीं चाहिए या सेना को सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर देना चाहिए।
  • यदि नागरिक देश की एकता और अखण्डता को हानि पहुंचाने का प्रयास करे तो सरकार उसके अधिकारों को सीमित कर सकती है। सरकार का परम कर्त्तव्य देश की एकता और अखण्डता को बनाए रखना है। इसके लिए सरकार कोई भी कदम उठा सकती है।

प्रश्न 8.
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए क्या प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं ?
उत्तर-
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं-

  • स्वतन्त्र न्यायपालिका-नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि राज्य में स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था की जानी चाहिए। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही अधिकारों की ठीक ढंग से रक्षा कर सकती है।
  • अधिकारों का संविधान में अंकित होना-अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि अधिकारों का वर्णन संविधान में किया जाए ताकि आने वाली सरकारें इनको ध्यान में रखें।
  • लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली-अधिकारों की सुरक्षा लोकतन्त्रीय प्रणाली में ही सम्भव है। लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में सरकार अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। इसीलिए कहा जाता है कि अधिकार लोकतन्त्रीय प्रबन्ध में ही सुरक्षित रह सकते हैं।
  • देश में प्रेस की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

प्रश्न 9.
अधिकार दावों से किस तरह भिन्न हैं ?
उत्तर-
प्रत्येक राज्य द्वारा अपने लोगों को कुछ अधिकार दिए जाते हैं। अधिकार ऐसी सामाजिक अवस्थाओं का नाम है जिन के बिना कोई व्यक्ति पूर्ण रूप में विकास नहीं कर सकता है। अधिकार वास्तव में व्यक्ति की मांगें होती हैं। जो मांगें नैतिक एवं सामाजिक पक्ष से उचित हों, जिनको समाज स्वीकार करता हो एवं जिनको राज्य द्वारा लागू किया जाता हो उन मांगों को अधिकारों का नाम दिया जाता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति की प्रत्येक मांग अधिकार नहीं हो सकती है। केवल उस मांग को ही अधिकार का दर्जा दिया जाता है जो मांग राज्य द्वारा स्वीकार एवं लागू की जाती है। अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित होते हैं। अधिकारों को लागू करने सम्बन्धी संविधान में आवश्यक व्यवस्थाएं की जाती हैं। साधारणतया संविधान में नागरिकों के अधिकार अंकित किए जाते हैं। संविधान में अंकित अधिकारों को राज्य की कानूनी मान्यता प्राप्त होती है। राज्य उन अधिकारों को लागू करता है एवं उन अधिकारों की अवहेलना करने वालों के विरुद्ध आवश्यक कानूनी कार्यवाही भी करता है। संक्षेप में, अधिकारों एवं मांगों में मुख्य अन्तर यह है कि अधिकार समाज एवं राज्य द्वारा प्रमाणित होते हैं एवं राज्य द्वारा उनको लागू किया जाता है, जबकि व्यक्तियों की मांगों को राज्य की कानूनी स्वीकृति प्राप्त नहीं होती है।

प्रश्न 10.
कर्त्तव्य का अर्थ लिखें और कर्तव्यों के प्रकार का वर्णन करें।
उत्तर-
कर्त्तव्य का अर्थ-कर्त्तव्य शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैब्ट (Debt) से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा । शाब्दिक अर्थ में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले में चुकाना पड़ता है। समाज व्यक्ति को अनेक सुविधाएं प्रदान करता है, जिस कारण व्यक्ति समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए व्यक्ति के समाज के प्रति कुछ कर्त्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्तव्य हैं। स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में, “कर्त्तव्य आज्ञा का अन्धाधुन्ध पालन नहीं है बल्कि वह अपनी बन्दिशों और कर्तव्यों को पूर्ण करने की तीव्र इच्छा है।” कर्त्तव्य दो प्रकार के होते हैं-

  • नैतिक कर्तव्य-नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। नैतिक कर्तव्यों का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।
  • कानूनी कर्तव्य-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्त्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता है।

प्रश्न 11.
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्तव्यों में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्त्तव्यों में मुख्य अन्तर यह है कि नैतिक कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति नहीं होती जबकि कानूनी कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति होती है। नैतिक कर्तव्यों का पालन करना या न करना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। नैतिक कर्त्तव्य का पालन न करने पर राज्य द्वारा दण्ड नहीं दिया जा सकता। कानूनी कर्तव्यों का पालन करना नागरिकों के लिए अनिवार्य है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जा सकता है।

प्रश्न 12.
मौलिक अधिकारों की व्याख्या कीजिए। भारतीय नागरिकों को कौन-कौन से मौलिक अधिकार प्राप्त हैं?
उत्तर-
जिन कानूनी अधिकारों का उल्लेख संविधान में होता है, उन्हें मौलिक अधिकारों का नाम दिया जाता है। ये वे अधिकार होते हैं जो व्यक्ति के विकास के लिए अनिवार्य समझे जाते हैं। भारत, अमेरिका, रूस तथा स्विट्ज़रलैंड आदि देशों में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

भारत के संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। 44वें संशोधन से पूर्व नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्राप्त थे, परन्तु अब 6 रह गए हैं। (1) समानता का अधिकार (2) स्वतन्त्रता का अधिकार (3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (4) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (5) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार तथा (6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 13.
एक नागरिक के अपने देश के प्रति चार कर्त्तव्य बताओ।
उत्तर-
नागरिक के अपने देश के प्रति कुछ कर्त्तव्य होते हैं-

  • नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी है।
  • नागरिक का दूसरा कर्तव्य कानूनों का पालन करना है।
  • नागरिक का कर्तव्य है कि वह ईमानदारी से करों का भुगतान करे।
  • नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करे।

प्रश्न 14.
अधिकारों और कर्तव्यों के परस्पर सम्बन्धों की संक्षिप्त व्याख्या करो। (P.B. Sept. 1989)
उत्तर-
अधिकार तथा कर्त्तव्य का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है तथा इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इन दोनों में उतना ही घनिष्ठ सम्बन्ध है जितना कि शरीर तथा आत्मा में। जहां अधिकार हैं वहां कर्तव्यों का होना आवश्यक है। दोनों का चोली-दामन का साथ है। मनुष्य अपने अधिकार का आनन्द तभी उठा सकता है जब दूसरे मनुष्य उसे अधिकार का प्रयोग करने दें, अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन करें। उदारण के लिए प्रत्येक मनुष्य को जीवन का अधिकार है, परन्तु मनुष्य इस अधिकार का मज़ा तभी उठा सकता है जब दूसरे मनुष्य उसके जीवन में हस्तक्षेप न करें। परन्तु दूसरे मनुष्यों को भी जीवन का अधिकार प्राप्त है, इसलिए उस मनुष्य का कर्तव्य भी है वह दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप न करे अर्थात्, “जियो और जीने दो” का सिद्धान्त अपनाया जाता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि ‘अधिकारों में कर्त्तव्य निहित हैं।’

प्रश्न 15.
नागरिक के किन्हीं चार नैतिक कर्तव्यों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य माता-पिता की आज्ञा का पालन करना है।
  2. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति दया व प्रेम की भावना रखे।
  3. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य शिक्षा प्राप्त करना है।
  4. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह अपना कार्य ईमानदारी से करे।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 16.
नागरिक के चार कानूनी कर्त्तव्य लिखें।
उत्तर-

  1. नागरिक का कानूनी कर्त्तव्य है कानूनों का पालन करना।
  2. नागरिक का कानूनी कर्तव्य है करों का भुगतान करना।
  3. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना नागरिक का कानूनी कर्तव्य है।
  4. नागरिक का कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी का है।

प्रश्न 17.
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए क्या प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं ?
उत्तर-
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं-

  1. स्वतन्त्र न्यायपालिका-नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि राज्य में स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था की जानी चाहिए। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही अधिकारों की ठीक ढंग से रक्षा कर सकती है।
  2. अधिकारों का संविधान में अंकित होना-अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि अधिकारों का वर्णन संविधान में किया जाए ताकि आने वाली सरकारें इनको ध्यान में रखें।
  3. लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली-अधिकारों की सुरक्षा लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में ही सम्भव है। लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में सरकार अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि अधिकार लोकतन्त्रीय प्रबन्ध में ही सुरक्षित रह सकते हैं।
  4. जागरूक नागरिक-सचेत या जागरूक नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहते हैं। इसलिए जागरूक नागरिकों को अधिकारों की सुरक्षा की महत्त्वपूर्ण शर्त माना गया है।।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अधिकारों का अर्थ दीजिए।
उत्तर-
मनुष्य को जो सुविधाएं समाज में मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं और उन्हें समाज में मान्यता प्राप्त है।

प्रश्न 2.
अधिकार की कोई दो परिभाषाएं दें।
उत्तर-

  1. ग्रीन के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।”
  2. बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लाग करता है।”

प्रश्न 3.
अधिकार की दो मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-

  1. अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं-अधिकार केवल समाज में ही प्राप्त होते हैं। समाज से बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  2. अधिकार व्यक्ति का दावा है-अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने का दावा है जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 4.
किन्हीं दो राजनीतिक अधिकारों की व्याख्या करो।
उत्तर-

  1. मत देने का अधिकार-प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार को मत का अधिकार कहा जाता है। मत देने के लिए आयु निश्चित होती है।
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार-लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त होता

प्रश्न 5.
कर्त्तव्य का अर्थ लिखें।
उत्तर-
कर्त्तव्य शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैब्ट (Debt) से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा। इस ऋण को चुकाने के लिए व्यक्ति के समाज के प्रति कुछ कर्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्त्तव्य हैं।

प्रश्न 6.
कर्त्तव्य की कोई दो प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. नैतिक कर्त्तव्य-नैतिक कर्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। नैतिक कर्तव्यों का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।
  2. कानूनी कर्त्तव्य-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. अधिकार किसे कहते हैं ? स्पष्ट करें।
उत्तर-मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं।

प्रश्न 2. अधिकार की एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।”

प्रश्न 3. अधिकार के कोई एक महत्त्वपूर्ण तथ्य का वर्णन करें।
उत्तर-अधिकार समाज द्वारा प्रदान और राज्य द्वारा लागू किया जाना ज़रूरी है।

प्रश्न 4. अधिकारों की एक विशेषता बताएं।
उत्तर- अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने की स्वतन्त्रता का दावा है जो वह समाज से प्राप्त करता है या सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं।

प्रश्न 5. कर्तव्य (Duty) शब्द की उत्पत्ति किस भाषा के शब्द से हुई है ?
उत्तर-कर्त्तव्य (Duty) शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के डैट (Debt) शब्द से हुई है।

प्रश्न 6. अधिकार कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-

  1. प्राकृतिक अधिकार,
  2. नैतिक अधिकार,
  3. कानूनी अधिकार ।

प्रश्न 7. किन्हीं दो मुख्य सामाजिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. जीवन का अधिकार
  2. परिवार का अधिकार।

प्रश्न 8. किन्हीं दो आर्थिक अधिकारों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. काम का अधिकार
  2. सम्पत्ति का अधिकार।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 9. नागरिक के दो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अधिकार लिखें।
अथवा
नागरिक का कोई एक ‘राजनीतिक अधिकार’ लिखिए।
उत्तर-

  1. मत देने का अधिकार
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार।

प्रश्न 10. मौलिक अधिकार का अर्थ बताओ।
उत्तर-जिन कानूनी अधिकारों का उल्लेख संविधान में होता है, उन्हें मौलिक अधिकारों का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 11. कर्त्तव्य का अर्थ लिखें।
अथवा कर्तव्य क्या होता है?
उत्तर-शाब्दिक अर्थों में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले चुकाना पड़ता है।

प्रश्न 12. कर्तव्यों को कितने भागों में बांटा जा सकता है?
उत्तर-दो भागों में-

  1. नैतिक कर्त्तव्य
  2. कानूनी कर्त्तव्य।

प्रश्न 13. नैतिक कर्तव्य का क्या अर्थ है ?
उत्तर-नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है।

प्रश्न 14. नागरिक के किन्हीं दो नैतिक कर्तव्यों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. माता-पिता की आज्ञा का पालन करना।
  2. अपने गांव, नगर और प्रांत के विकास में सहयोग देना।

प्रश्न 15. कानूनी कर्त्तव्य किसे कहते हैं?
उत्तर-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को देता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. वोट का अधिकार …………….. अधिकार है।
2. काम का अधिकार ……………. अधिकार है।
3. सरकार की आलोचना का अधिकार …………… अधिकार है।
4. जीवन का अधिकार …………… अधिकार है।
उत्तर-

  1. राजनीतिक
  2. आर्थिक
  3. राजनीतिक
  4. सामाजिक ।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अधिकार समाज में सम्भव नहीं होते।
2. कर्त्तव्य व्यक्ति का दावा है।
3. अधिकार सीमित होते हैं।
4. अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़े होते हैं।
5. कर्त्तव्य अर्थात् Duty अंग्रेजी भाषा के शब्द Right से बना है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
प्राकृतिक अधिकार से अभिप्राय है
(क) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति की नैतिक भावनाओं पर आधारित होते हैं।
(ख) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति को प्रकृति ने दिये हैं।
(ग) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक हैं।
(घ) उन अधिकारों से है जो राज्य की ओर से प्राप्त होते हैं।
उत्तर-
(ख) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति को प्रकृति ने दिये हैं।

प्रश्न 2.
प्राकृतिक अधिकार का समर्थन
(क) अरस्तु ने किया
(ख) कार्ल मार्क्स ने किया
(ग) लॉक ने किया
(घ) ग्रीन ने किया।
उत्तर-
(ग) लॉक ने किया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 3.
यह किसने कहा-“केवल कर्त्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व होता है”
(क) वाइल्ड
(ख) ग्रीन
(ग) बोसांके
(घ) गार्नर।
उत्तर-
(क) वाइल्ड।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य ग़लत सूचना देता है ?
(क) प्रत्येक अधिकार से उसी प्रकार का कर्तव्य जुड़ा होता है।
(ख) अधिकार असीमित होते हैं।
(ग) एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है।
(घ) देशभक्ति व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है।
उत्तर-
(ख) अधिकार असीमित होते हैं।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न-
हर्ष के उत्थान व साम्राज्य विस्तार के सन्दर्भ में उसकी राज्य-व्यवस्था व प्रशासन की चर्चा करें।
अथवा
एक विजेता और शासन प्रबन्ध के रूप में हर्ष की प्राप्तियों का उल्लेख करें।
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। देश में अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य उभर आये थे। इनमें से एक थानेश्वर का वर्धन राज्य भी था। प्रभाकर वर्धन के समय में यह काफ़ी शक्तिशाली था। उसकी मृत्यु के बाद 606 ई० में हर्षवर्धन राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। वैसे भी हर्ष अपने राज्य की सीमाओं में वृद्धि करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अनेक सैनिक अभियान किए। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार उसने देश में राजनीतिक एकता की स्थापना की और देश को अच्छा शासन प्रदान किया। संक्षेप में, उसके जीवन तथा सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है-

I. प्रारम्भिक जीवन-

हर्षवर्धन थानेश्वर के राजा प्रभाकर वर्धन का पत्र था। उसकी माता का नाम यशोमती था। हर्ष की जन्म तिथि के विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि उसका जन्म 589-90 ई० के लगभग हुआ था। बचपन में हर्ष को अच्छी शिक्षा दी गई। उसे घुड़सवारी करना, तीर कमान चलाना तथा तलवार चलाना भी सिखाया गया। कुछ ही वर्षों में वह युद्ध-कला में निपुण हो गया। जब वह केवल 14 वर्ष का था तो हूणों ने थानेश्वर राज्य पर आक्रमण किया। उनका सामना करने के लिए उसके बड़े भाई राज्यवर्धन को भेजा गया। परन्तु हर्ष ने भी युद्ध में उसका साथ दिया, भले ही पिता की बीमारी का समाचार मिलने के कारण उसे मार्ग से ही वापस लौटना पड़ा। उसके राजमहल पहुंचते ही उसका पिता चल बसा और उसकी माता सती हो गई। इसी बीच राज्यवर्धन भी हूणों को पराजित कर वापस अपनी राजधानी लौट आया। उसे अपने पिता की मृत्यु का इतना दुःख हुआ कि उसने राजगद्दी पर बैठने से इन्कार कर दिया और साधु बन जाने की इच्छा प्रकट की। परन्तु हर्ष के प्रयत्नों से उसे राजगद्दी स्वीकार करनी पड़ी।

सिंहासनारोहण तथा विपत्तियां-606 ई० में बंगाल के शासक शशांक ने धोखे से राज्यवर्धन को मरवा डाला। उसकी मृत्यु के पश्चात् हर्षवर्धन थानेश्वर की राजगद्दी पर बैठा। वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। इसलिए उसे अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उसकी सबसे बड़ी समस्या अपने भाई तथा बहनोई के वध का बदला लेना था। उसे अपनी बहन राज्यश्री को भी कारावास से मुक्त करवाना था जिसे मालवा के शासक ने बन्दी बना रखा था। उसने एक विशाल सेना संगठित की और मालवा के राजा के विरुद्ध प्रस्थान किया। परन्तु उसी समय हर्ष को यह समाचार मिला कि उसकी बहन कैद से मुक्त होकर विन्धयाचल के जंगलों में चली गई है। हर्ष ने उसकी खोज आरम्भ कर दी और आखिर जंगली सरदारों की सहायता से उसे खोज निकाला। उसने अपनी बहन को ठीक उस समय बचा लिया जब वह सती होने की तैयारी कर रही थी। तत्पश्चात् हर्ष ने कन्नौज और थानेश्वर के राज्यों को मिलाकर उत्तरी भारत में एक शक्तिशाली राज्य की नींव रखी।

II. विजयें तथा साम्राज्य विस्तार-

राज्य में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् हर्ष ने राज्य विस्तार की ओर ध्यान दिया। उसने अनेक विजयें प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार किया

1. बंगाल विजय-बंगाल का शासक शशांक था। उसने हर्षवर्धन के बड़े भाई को धोखे से मार दिया था। शशांक से बदला लेने के लिए हर्ष ने कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मन से मित्रता कर ली और उसकी सहायता से शशांक को पराजित कर दिया। लेकिन जब तक शशांक जीवित रहा, उसने हर्ष को बंगाल पर अधिकार न करने दिया।

2. पांच प्रदेशों की विजय-बंगाल विजय के पश्चात् हर्ष ने लगातार कई वर्षों तक युद्ध किए। 606 ई० से लेकर 612 ई० तक उसने उत्तरी भारत के पांच प्रदेशों को जीता। ये प्रदेश शायद पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा थे।

3. वल्लभी की विजय-हर्ष के समय वल्लभी (गुजरात) काफ़ी धनी प्रदेश था। हर्ष ने एक विशाल सेना के साथ वल्लभी पर आक्रमण किया और वहां के शासक ध्रुवसेन द्वितीय को हराया। कहते हैं कि बाद में वल्लभी नरेश ने हर्ष के साथ मित्रता कर ली। ध्रुवसेन द्वितीय के व्यवहार से प्रसन्न होकर हर्ष ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह भी किया।

4. पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-हर्ष ने उत्तरी भारत को विजय करने के बाद दक्षिणी भारत को जीतने का निश्चय किया। उस समय दक्षिणी भारत में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय सबसे अधिक शक्तिशाली शासक था। 633 ई० में नर्मदा नदी के किनारे दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्ष पहली बार पराजित हुआ और उसे वापस लौटना पड़ा।

5. सिन्ध विजय-बाण के अनुसार हर्ष ने सिन्ध पर भी आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु ह्यनसांग लिखता है कि उस समय सिन्ध एक स्वतन्त्र प्रदेश था। हर्ष ने इस प्रदेश को विजय नहीं किया था।

6. बफ़र्कीले प्रदेश पर विजय-बाण लिखता है कि हर्ष ने एक बर्फीले प्रदेश को जीता। यह बर्फीला प्रदेश शायद नेपाल था। कहते हैं कि हर्ष ने कश्मीर प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की थी।

7. गंजम की विजय-गंजम की विजय हर्ष की अन्तिम विजय थी। उसने गंजम पर कई आक्रमण किए। परन्तु शशांक के विरोध के कारण वह इस प्रदेश को न जीत सका। 620 ई० में शशांक की मृत्यु के बाद उसने गंजम पर एक बार फिर आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया।

राज्य-विस्तार-हर्ष लगभग सारे उत्तरी भारत का स्वामी था। उसके राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी को छती थीं। पूर्व में उसका राज्य कामरूप से लेकर उत्तर-पश्चिम में पूर्वी पंजाब तक विस्तृत था। पश्चिम में अरब सागर तक का प्रदेश उसके अधीन था। कन्नौज हर्ष के इस विशाल राज्य की राजधानी थी।

III. राज्य व्यवस्था एवं प्रशासन —

1. केन्द्रीय शासन-ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष एक परिश्रमी शासक था। यद्यपि वह अन्य राजाओं की तरह ठाठ-बाठ से रहता था, फिर भी वह अपने कर्तव्य को नहीं भूलता था। जनता की भलाई करने के लिए वह प्रायः खाना, पीना और सोना भी भूल जाता था। यूनसांग के अनुसार हर्ष एक दानी तथा उदार राजा था। वह भिक्षुओं, ब्राह्मणों तथा निर्धनों को खुले मन से दान देता था। कहते हैं कि प्रयाग की सभा में उसने अपना सारा कोष, वस्त्र तथा .. पण दान में दे दिए थे। ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष के शासन का उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। राजा प्रजा के हित को सदा ध्यान में रखता था। जनता के दुःखों की जानकारी प्राप्त करने के लिए वह समय-समय पर राज्य का भ्रमण भी किया करता था।

2. प्रान्तीय शासन-हर्ष ने अपने राज्य को भुक्ति, विषय, ग्राम आदि प्रशासनिक इकाइयों में बांटा हुआ था। भुक्ति के मुख्य अधिकारी को ‘उपारिक’, विषय के अधिकारी को ‘विषयपति’ तथा ग्राम के अधिकारी को ‘ग्रामक’ कहते थे। कहते हैं कि विषय और ग्राम के बीच भी एक प्रशासनिक इकाई थी जिसे ‘पथक’ कहा जाता था।

3. भूमि का विभाजन-ह्यूनसांग लिखता है कि सरकारी भूमि चार भागों में बंटी हुई थी। पहले भाग की आय राजकीय कार्यों पर व्यय की जाती थी। दूसरे भाग की आय से मन्त्रियों तथा अन्य कर्मचारियों को वेतन दिए जाते थे। तीसरे भाग की आय भिक्षुओं तथा ब्राह्मणों में दान के रूप में बांट दी जाती थी। चौथे भाग की आय से विद्वानों को पुरस्कार दिए जाते थे।

4. दण्ड विधान-ह्यूनसांग के अनुसार हर्ष का दण्ड विधान काफ़ी कठोर था। देश निकाला तथा मृत्यु दण्ड भी प्रचलित थे। सामाजिक सिद्धान्तों का उल्लंघन करने वाले अपराधी के नाक, कान आदि काट दिए जाते थे। परन्तु साधारण अपराधों पर केवल जुर्माना ही किया जाता था।

5. सेना-ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष ने एक विशाल सेना का संगठन किया हुआ था। उसकी सेना में 50,000 पैदल, 1 लाख घुड़सवार तथा 60,000 हाथी थे। इसके अतिरिक्त उसकी सेना में कुछ रथ भी सम्मिलित थे।

6. अभिलेख विभाग-ह्यूनसांग के अनुसार हर्ष ने एक अभिलेख विभाग की भी व्यवस्था की हुई थी। यह विभाग उसके शासनकाल की प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना का रिकार्ड रखता था।

7. आय के साधन-यूनसांग लिखता है कि सरकार की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/ 6 भाग लिया जाता था। प्रजा से अन्य भी कुछ कर वसूल किए जाते थे। । सच तो यह है कि हर्ष एक महान् विजेता था। उसने अपने विजित प्रदेशों को संगठित किया और लोगों को एक अच्छा शासन प्रदान किया। उसके विषय में डॉ० रे चौधरी ने ठीक ही कहा है, “वह प्राचीन भारत के महानतम् राजाओं में से एक था।” (“He was one of the greatest kings of ancient India.”)

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन के समय के सांस्कृतिक विकास की मुख्य विशेषताओं की चर्चा करें।
उत्तर-
हर्ष कालीन संस्कृति काफ़ी सीमा तक गुप्तकालीन संस्कृति का ही रूप थी। फिर भी इस युग में संस्कृति के विकास को नई दिशा मिली। मन्दिरों की संस्था का रूप निखरा। वैदिक परम्परा और शिव का रूप निखरा तथा भक्ति का आरम्भ हुआ। नालन्दा विश्वविद्यालय इस काल की शाखा है। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन आरम्भ हुआ। इस सांस्कृतिक विकास की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं

1. नालन्दा-

हर्ष स्वयं बौद्ध धर्म का संरक्षक था। उसने सैंकड़ों मठ और स्तूप बनवाये। परन्तु उसके समय में नालन्दा का मठ अपनी चरम सीमा पर था। ह्यनसांग ने भी अपने वृत्तान्त में इस बात की पुष्टि की है। वह लिखता है कि भारत में मठों की संख्या हज़ारों में थी। परन्तु किसी का भी ठाठ-बाठ और गौरव नालन्दा जैसा नहीं था। यहाँ जिज्ञासु और शिक्षकों सहित दस हज़ार भिक्षु रहते थे। वे महायान और हीनयान सम्प्रदायों के सिद्धान्त और शिक्षाओं का अध्ययन करते थे। इसके अतिरिक्त वेदों, ‘क्लासिकी’ रचनाओं, व्याकरण, चिकित्सा और गणित का अध्ययन किया जाता था।

ह्यनसांग के वृत्तान्त से स्पष्ट पता चलता है कि नालन्दा के भिक्षु ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। उनका जनसामान्य से सम्पर्क टूट चुका था। उनमें प्राचीन बौद्ध धर्म के आदर्शों का प्रचार करने का उत्साह नहीं रहा था। वैसे भी बौद्ध धर्म प्रचार के स्थान पर दर्शन की सूक्ष्मताओं में उलझ गया। जैन मत की स्थिति भी बौद्ध मत जैसी ही थी। इधर समाज में ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति में सुधार किया। उन्होंने साधारण गृहस्थी के साथ अटूट सम्पर्क बना लिया था। वे अब परिवार के जन्म, मृत्यु और विवाह जैसे सभी महत्त्वपूर्ण अवसरों से सम्बन्धित संस्कारों में अपनी सेवाएं अर्पित करते थे। ब्राह्मणों ने बौद्ध मत की तरह ही मन्दिर, मूर्ति पूजा और निजी चढ़ावे की प्रथा को भी अपना लिया था। उन्होंने भी अपने विद्यालय स्थापित कर लिए थे। ये मन्दिरों से सम्बन्धित होते थे। समय पाकर ये विद्यालय ब्राह्मणों की बपौती बन गए। उन दिनों का संस्कृत विद्यालय नालन्दा की भान्ति ही प्रसिद्ध था।

2. मन्दिर की संस्था –

इस काल में मन्दिरों का महत्त्व काफ़ी बढ़ गया था। वास्तुकला की दृष्टि से भी मन्दिर का स्वरूप पूर्णतः विकसित हो चुका था।
1. इस काल में चालुक्य, पल्लव और पाण्डेय राजाओं ने भव्य मन्दिर बनवाये।

2. मठ चट्टान को तराश कर भी बनाये जाते थे और स्वतन्त्र नींव पर भी। परन्तु अब स्वतन्त्र मठ भी बनाये गये। मन्दिर अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए। इस काल के कई प्रभावशाली मन्दिर आज भी मिलते हैं। ये मन्दिर बादामी, ऐहोल, काँची और महाबलीपुरम् में देखे जा सकते हैं। समुद्र तट पर निर्मित महाबलीपुरम् का मन्दिर इस काल की मन्दिर निर्माण कला का उत्कृष्ट नमूना है।

3. स्वतन्त्र नींव पर निर्मित ऐलोरा का प्रसिद्ध कैलाशनाथ मन्दिर अद्वितीय है। यह एक पहाड़ी को काट कर बनाया हुआ है। इसका निर्माण काल बादामी, ऐहोल, काँची और महाबलीपुरम् के स्वतन्त्र नींव पर बने हुए मन्दिरों से बाद का है।

4. यह मन्दिर आठवीं सदी में राष्ट्रकूट राजाओं के समय में बन कर तैयार हुआ था। यह मन्दिर पहाड़ी के किनारे को काट कर बनाया गया है, किन्तु यह आकाश और धरती के बीच इस प्रकार खड़ा है मानो धरती से ही उभरा हो। इसकी बनावट में स्वतन्त्र नींवों पर बने मन्दिरों के स्वरूप का विशेष ध्यान रखा गया है।

5. इसकी शैली भी दक्षिण के मन्दिरों से मिलती-जुलती है। अनुमान है कि इस मन्दिर निर्माण में काफ़ी संख्या में संगतराशों और मजदूरों ने काम किया होगा। इस पर धन भी काफ़ी खर्च हुआ होगा। हज़ार वर्ष बीतने के बाद भी आज मन्दिर उतना ही सुन्दर तथा शानदार है।

6. धनी सौदागर और राजा मन्दिरों को दान देते थे। कम सामर्थ्य वाले व्यक्ति भी अपनी श्रद्धा के अनुसार मूर्तियाँ, दीपक और तेल आदि वस्तुएँ चढ़ाते थे।

7. मन्दिरों में कई प्रकार के सेवक काम करते थे, परन्तु पूजा का काम केवल ब्राह्मणों के हाथों में था।

8. संगीत अर्थात् गाना-बजाना भी मन्दिर में होने वाले धार्मिक कृत्य का एक आवश्यक अंग था। समय पाकर नृत्य भी मन्दिर के धर्म कार्य से जुड़ गया और भरत-नाट्यम नृत्य एक अत्यन्त उच्चकोटि की कला बन गया। इस प्रकार मन्दिर धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र बन गए। एक बात बड़े खेद की है कि शूद्र और चाण्डालों को मन्दिर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।

वैदिक परम्परा और दर्शन का पुनर्जागरण-

(i) ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ने से वैदिक परम्परा का महत्त्व बढ़ा। ब्राह्मण वैदिक परम्परा के संरक्षक बन गए। वे समझते थे कि वैदिक परम्परा को तत्कालीन आक्रमणकारी अर्थात् शक, कुषाण और हूण भ्रष्ट कर रहे हैं। इसी कारण उन्होंने दक्षिण के दरबारों में शरण लेनी शुरू कर दी। दक्षिण भारत में राजाओं का संरक्षण प्राप्त करने के लिए वैदिक परम्परा के ज्ञान को उच्च योग्यता माना जाता है।

(ii) इस काल में वेदान्त-दर्शन का महत्त्व बढ़ गया। इस दर्शन का सबसे पहला बड़ा व्याख्याता केरल का ब्राह्मण शंकराचार्य था। उनके अनुसार वेद पावन-पुनीत हैं। उसका मत उपनिषदों पर आधारित था। वह अनावश्यक संस्कारों और संस्कार विधियों के विरुद्ध था। इसलिए उसने अपने मठों में सीधी-सादी पूजा की प्रथा आरम्भ की। शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों में चार बड़े मठों की स्थापना की। यह मठ थे-हिमालय में बद्रीनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरी, उड़ीसा में पुरी और सौराष्ट्र में द्वारका। उसने सारे देश की यात्रा की और सभी प्रकार के दार्शनिक और धार्मिक नेताओं से शास्त्रार्थ किया। उनके दर्शन का मूलभूत आधार एकेश्वरवादी अद्वैत अर्थात् केवल एक ही निर्विशेष सत्य का दर्शन है।

3. भक्ति का आरम्भ-

इस काल में कई शैव और वैष्णव तमिल धार्मिक नेताओं ने एक व्यक्तिगत इष्टदेव के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने सम्बन्धी प्रचार आरम्भ कर दिया था। इन शैव भक्तों को नायनार और वैष्णव भक्तों को आलवार कहा जाता था। सातवीं सदी तक शिव और विष्णु की महिमा में लिखे उनके भजन अत्यन्त लोकप्रिय हो चुके थे। उनके प्राप्त भजन संग्रह हैं : शैवों का तिरुमुराए और वैष्णवों का नलियार-प्रबन्धम्।

4. प्रादेशिक भाषाएं-

इस काल में संस्कृत भाषा ने गौरवमयी स्थान प्राप्त कर लिया था। साथ में प्रादेशिक बोलियों और साहित्य का भी खूब विकास हुआ। पल्लव राजाओं ने अपने शिलालेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग आरम्भ कर दिया था। उन्होंने संस्कृत और तमिल भाषा भी अपनाई। उनके शिलालेखों का व्यावहारिक दृष्टि से आवश्यक भाग तमिल में था। सातवीं सदी के एक चालुक्य शिलालेख में कन्नड़ का लोकभाषा के रूप में और संस्कृत का कुलीन वर्ग की भाषा के रूप में स्पष्ट उल्लेख है। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि पल्लव काल में साहित्य की भाषा तमिल थी। इस समय का बहुत सारा साहित्य आज भी उपलब्ध . है। निःसन्देह इस काल में तमिल साहित्य का खूब विकास हुआ। सच तो यह है कि इस काल में शिक्षा का स्तर उन्नत था। बौद्ध धर्म अवनति पर और हिन्दू वैदिक धर्म उत्कर्ष की ओर था। मन्दिर परम्परा के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ रहा था। भारतीय दर्शन का प्रचार हुआ और प्रादेशिक भाषाओं का प्रसार हुआ। यह युग वास्तव में संस्कृति का संक्राति-काल था।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
स्थानेश्वर (थानेसर) राज्य की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
पुष्यभूति ने।

प्रश्न 2.
प्रभाकरवर्धन कौन था ?
उत्तर-
प्रभाकरवर्धन स्थानेश्वर का एक योग्य शासक था।

प्रश्न 3.
हर्षवर्धन सिंहासन पर कब बैठा ?
उत्तर-
हर्षवर्धन 606 ई० में सिंहासन पर बैठा।

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प्रश्न 4.
असम का पुराना नाम क्या था ?
उत्तर-
असम का पुराना नाम कामरूप था।

प्रश्न 5.
हर्षवर्धन की जानकारी देने वाले चार स्रोतों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. बाणभट्ट के हर्षचरित तथा कादम्बरी
  2. हर्षवर्धन के नाटक रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका,
  3. ह्यनसांग का वृत्तांत,
  4. ताम्रलेख।

प्रश्न 6.
हर्षवर्धन ने कौन-कौन से नाटक लिखे ?
उत्तर-
रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका।

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प्रश्न 7.
हर्षवर्धन की बहन का नाम लिखें।
उत्तर-
राज्यश्री।

प्रश्न 8.
हर्षवर्धन ने कौन-से चालुक्य राजा के साथ युद्ध किया ?
उत्तर-
हर्षवर्धन ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध किया।

प्रश्न 9.
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम लिखें।
उत्तर-
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम बाणभट्ट था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

प्रश्न 10.
ह्यूनसांग कौन था ? वह भारत किस राजा के समय आया ?
उत्तर-
ह्यूनसांग एक चीनी यात्री था। जो हर्षवर्धन के राज्यकाल में भारत आया।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) हर्ष ने …………. को अपनी नई राजधानी बनाया।
(ii) हर्ष को चालुक्य नरेश …………….. ने हराया।
(iii) हर्ष का दरबारी कवि ……………: था।
(iv) ह्यूनसांग ने …………… एशिया होते हुए भारत की यात्रा की।
(v) हर्ष वर्धन …………….. धर्म का अनुयायी था।
उत्तर-
(i) कन्नौज
(ii) पुलकेशिन द्वितीय
(iii) बाणभट्ट
(iv) मध्य
(v) बौद्ध।

3. सही/ग़लत कथन-

(i) हर्ष के समय में बौद्ध धर्म सारे भारत में लोकप्रिय था।– (×)
(ii) हर्षवर्धन की पहली राजधानी पाटलिपुत्र थी।– (×)
(iii) ह्यूनसांग द्वारा लिखी पुस्तक का नाम ‘सी० यू० की०’ है।– (√)
(iv) 643 ई० में हर्ष ने कन्नौज में धर्म सभा का आयोजन किया।– (√)
(v) हर्ष एक सहनशील तथा दानी राजा था।– (√)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न (i)
हर्ष की जीवनी लिखी है-
(A) फाह्यान ने
(B) कालिदास ने
(C) बाणभट्ट ने
(D) युवान च्वांग ने।
उत्तर-
(C) बाणभट्ट ने

प्रश्न (ii)
महेन्द्र वर्मन नरेश था-
(A) चालुक्य वंश का
(B) शक वंश का
(C) राष्ट्रकूट वंश का
(D) पल्लव वंश का ।
उत्तर-
(D) पल्लव वंश का ।

प्रश्न (iii)
हर्ष के समय का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र था-
(A) नालंदा
(B) तक्षशिला
(C) प्रयाग
(D) कन्नौज।
उत्तर-
(A) नालंदा

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प्रश्न (iv)
पुष्यभूति वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था-
(A) राज्य वर्धन
(B) हर्षवर्धन
(C) प्रभाकर वर्धन
(D) स्वयं पुष्य भूति।
उत्तर-
(B) हर्षवर्धन

प्रश्न (v)
हर्ष ने निम्न स्थान पर हुई सभा में दिल खोल कर दान दिया था–
(A) कश्मीर
(B) कन्नौज
(C) प्रयाग
(D) तक्षशिला।
उत्तर-
(C) प्रयाग

III. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
किन्हीं दो हूण शासकों के नाम लिखें।
उत्तर-
तोरमाण तथा मिहिरकुल दो प्रसिद्ध हूण शासक थे।

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प्रश्न 2.
बाणभट्ट की दो रचनाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
बाणभट्ट की दो रचनाओं के नाम हैं-हर्षचरित तथा कादम्बरी।

प्रश्न 3.
हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाले चीनी यात्री का नाम बताओ और यह कब से कब तक भारत में रहा ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाला चीनी यात्री ह्यनसांग था। वह 629 से 645 ई० तक भारत में रहा।

प्रश्न 4.
चार वर्धन शासकों के नाम।
उत्तर-
चार वर्धन शासकों के नाम ये हैं-नरवर्धन, प्रभाकरवर्धन, राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन।

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प्रश्न 5.
हर्ष की बहन का नाम बताओ तथा वह किस राजवंश में ब्याही हुई थी ?
उत्तर-
हर्ष की बहन का नाम राज्यश्री था। वह मौखरी राजवंश में ब्याही हुई थी।

प्रश्न 6.
वर्धन शासकों की आरम्भिक तथा बाद की राजधानी का नाम क्या था ? ।
उत्तर-
वर्धन शासकों की आरम्भिक राजधानी थानेश्वर थी। बाद में उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बना लिया।

प्रश्न 7.
शशांक कहां का शासक था और उसने कौन-सा प्रसिद्ध वृक्ष कटवा दिया था ?
उत्तर-
शशांक बंगाल (गौड़) का शासक था। उसने गया का बोधि वृक्ष कटवा दिया था।

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प्रश्न 8.
हर्ष का पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध कौन-से वर्ष में हुआ और इसमें किसकी विजय हुई ?
उत्तर-
हर्ष का पुलकेशिन द्वितीय के साथ 633 ई० में युद्ध हुआ। इसमें पुलकेशिन द्वितीय की विजय हुई।

प्रश्न 9.
चालुक्य वंश के शासकों की तीन शाखाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
चालुक्य वंश के शासकों की तीन शाखाएं थीं-बैंगी के पूर्वी चालुक्य, बादामी के पश्चिमी चालुक्य और लाट चालुक्य।

प्रश्न 10.
दक्षिण के पल्लव शासकों की राजधानी का नाम तथा उनके शिलालेखों का व्यावहारिक भाग किस भाषा में है ?
उत्तर-
दक्षिण के पल्लव शासकों की राजधानी कांचीपुरम् थी। उनके शिलालेखों का व्यावहारिक भाग तमिल भाषा में है।

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प्रश्न 11.
हर्ष के समकालीन पल्लव शासक का नाम तथा राजकाल।
उत्तर-
हर्ष का समकालीन पल्लव शासक महेन्द्र वर्मन था। उसका राज्यकाल 600 ई० से 630 ई० तक था।

प्रश्न 12.
हर्ष के समय मदुराई में किस वंश का राज्य था और यह कितने वर्षों तक बना रहा ?
उत्तर-
हर्ष के समय मदुराई में पाण्डेय वंश का राज्य था। यह लगभग 200 वर्षों तक बना रहा।

प्रश्न 13.
किस शासक के समय किस विहार को दान में 200 गांवों की उपज अथवा लगान मिला हुआ था ?
उत्तर-
हर्ष के समय में नालन्दा विहार को 200 गांवों की उपज अथवा लगान मिला हुआ था।

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प्रश्न 14.
हर्ष के काल में नालन्दा में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या क्या थी तथा यहाँ कौन-से धार्मिक तथा सांसारिक विषय पढ़ाए जाते थे ?
उत्तर-
हर्ष के समय नालन्दा में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या 10 हज़ार थी। यहां महायान तथा हीनयान के सिद्धान्त, वेद, क्लासिकी रचनाएं, चिकित्सा, व्याकरण और गणित के विषय पढ़ाए जाते थे।

प्रश्न 15.
दक्षिण के किन चार स्थानों में प्रभावशाली मन्दिर मिले हैं ?
उत्तर-
दक्षिण के जिन चार स्थानों पर प्रभावशाली मन्दिर मिले हैं, वे हैं–बादामी, ऐहोल, कांची तथा महाबलिपुरम्।

प्रश्न 16.
पहाड़ी को काटकर बनाया गया कैलाशनाथ मन्दिर कहां है और यह किस वंश के राज्यकाल में पूरा हुआ था ?
उत्तर-
पहाड़ी को काटकर बनाया गया कैलाशनाथ मन्दिर ऐलोरा में है। यह राष्ट्रकूट वंश के राज्यकाल में पूरा हुआ था।

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प्रश्न 17.
दक्षिण में नायनार तथा आलवार भक्त कौन-से सम्प्रदायों के साथ सम्बन्धित थे ?
उत्तर-
नायनार भक्त शैव सम्प्रदाय से तथा आलवार भक्त वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे।

प्रश्न 18.
नायनार तथा आलवार भक्त कौन-सी भाषा में लिखते थे तथा उनके दो भजन संग्रहों के नाम बताएं।
उत्तर-
नायनार तथा आलवार भक्त तमिल भाषा में लिखते थे। उनके दो भजन संग्रहों के नाम हैं-तिरुमुराए तथा नलियार प्रबन्धम्।

प्रश्न 19.
शंकराचार्य कहां के रहने वाले थे और उन्होंने किन चार प्रमुख मठों की स्थापना कहां की ? .
उत्तर-
शंकराचार्य केरल के रहने वाले थे। उन्होंने हिमालय में केदारनाथ, दक्षिण में शृंगेरी, उड़ीसा में पुरी तथा सौराष्ट्र में द्वारिका में मठ बनवाये।

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प्रश्न 20.
उत्तरी भारत के कौन-से चार प्रदेश हर्ष के साम्राज्य से बाहर थे ? ।
उत्तर-
उत्तरी भारत के जो चार प्रदेश हर्ष के साम्राज्य से बाहर थे, वे थे-कश्मीर, नेपाल, कामरूप (असम) और सौराष्ट्र।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय की विजयों के बारे में बतायें।
उत्तर-
पुलकेशिन द्वितीय बादामी के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्यों में सबसे शक्तिशाली शासक था। वह एक महान् विजेता था। उसने 610 ई० से 642 ई० तक शासन किया। उसका राज्य दक्षिणी गुजरात से दक्षिणी मैसूर तक फैला हुआ था। उसने अनेक विजयें प्राप्त की-

  • उसने उत्तरी भारत के सबसे शक्तिशाली राजा हर्षवर्धन को पराजित किया। यह उसकी बहुत बड़ी विजय मानी जाती है।
  • उसने पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन प्रथम को पराजित किया और उसके राज्य के कई प्रदेश अपने अधिकार में ले लिए।
  • उसने राष्ट्रकूटों के आक्रमण का बड़ी वीरता से सामना किया। उसने कादम्बों की राजधानी बनवासी को भी लूटा था।

प्रश्न 2.
हर्ष के अधीन राजाओं के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध थे ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के साम्राज्य का एक बड़ा भाग अधीन राजाओं का था। उन्होंने हर्ष को अपना महाराजाधिराज स्वीकार कर लिया। वे हर्ष को नियमित रूप से नज़राना देते थे और युद्ध के समय सैनिक सहायता भी करते थे। हर्ष का अपने अधीन सभी शासकों पर नियन्त्रण एक-सा नहीं था। इनमें से कुछ ‘सामन्त’ तथा ‘महासामन्त’ कहलाते थे। कुछ शासकों को राजा की पदवी भी प्राप्त थी। उन्हें कई अवसरों पर सम्राट की वन्दना के लिए स्वयं उपस्थित होना पड़ता था। हर्ष को अपनी सेना सहित अनेक राज्यों में से गुजरने का पूरा अधिकार था। कुछ अधीन राजाओं को अपने पुत्र और निकट सम्बन्धियों को हर्ष के दरबार में रहने के लिए भेजना पड़ता था। जब सामन्त अपने प्रदेश में किसी को लगान-मुक्त भूमि देते तो उन्हें दान-पात्र पर हर्ष द्वारा चलाये गये सम्वत् का प्रयोग करना पड़ता था। कुछ राजाओं को तो लगान-मुक्त भूमि देने के लिए भी सम्राट की आज्ञा लेनी पड़ती थी।

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प्रश्न 3.
हर्ष के राज्य की प्रशासनिक इकाइयों तथा उनके कर्मचारियों के बारे में बताएं।
उत्तर-
हर्ष ने अपने साम्राज्य को भिन्न-भिन्न प्रशासनिक इकाइयों में बांटा हुआ था। बंस-खेड़ा के शिलालेख में उसके साम्राज्य के चार प्रादेशिक भागों का वर्णन है। ये थे-विषय, भुक्ति, पथक और ग्राम। परन्तु मधुबन के शिलालेख में इनमें से केवल पहले, दूसरे और चौथे भागों का उल्लेख है। साम्राज्य का आरम्भिक विभाजन भुक्ति था, जिन्हें प्रान्त समझा जा सकता था। भुक्ति में कई ‘विषय’ होते थे। प्रत्येक विषय में बहुत से ग्राम होते थे। कई प्रदेशों में विषय और ग्राम के बीच एक और प्रशासनिक इकाई होती थी जिसे ‘पथक’ कहते थे।

भुक्ति के अधिकारी को उपरिक कहा जाता था। विषय का सबसे बड़ा अधिकारी विषयपति कहलाता था! ग्राम के प्रमुख अधिकारी को ग्रामक कहते थे। वह अपना कार्य ग्राम के बड़े-बूढ़ों की सभा की सहायता द्वारा करता था।

प्रश्न 4.
हर्ष के अधीन लगान व्यवस्था तथा लगान-मुक्त भूमि के बारे में बताएं।
उत्तर-
हर्षवर्धन के अधीन राज्य की आय का मुख्य साधन लगान (भूमिकर) था। यूनसांग के अनुसार लगान को ‘भाग’, ‘कर’ या ‘उद्रंग’ कहा जाता था। किसानों को कई अन्य कर भी देने पड़ते थे। कहने को तो उन्हें सरकार को भूमि की उपज का छठा भाग ही देना पड़ता था, परन्तु वास्तव में यह दर अधिक थी। कभी-कभी सरकार उनसे छठे भाग से भी अधिक भूमि कर की मांग करती थी। हर्ष ने लगान-मुक्त भूमि के प्रबन्ध को भी विशेष महत्त्व दिया। इसके अनुसार प्रबन्धक कर्मचारियों को सरकार द्वारा वेतन के स्थान पर कुछ भूमि से कर वसूल करने का अधिकार दे दिया जाता था। लगान-मुक्त भूमि का पूरापूरा लिखित हिसाब-किताब रखा जाता था। इसके लिए एक पृथक् विभाग बना दिया गया था। प्रत्येक कर्मचारी को कर-मुक्त भूमि से सम्बन्धित एक ‘आदेश-पत्र’ दिया जाता था जो सामान्यतः ताम्रपत्र पर लिखा होता था।

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प्रश्न 5.
शंकराचार्य के दर्शन तथा कार्य के बारे में बतायें।
उत्तर-
शंकराचार्य 9वीं शताब्दी के महान् विद्वान् तथा दार्शनिक हुए हैं। उन्होंने सभी हिन्दू ग्रन्थों का अध्ययन किया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उनके गुरु ने उन्हें ‘धर्महंस’ की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने बौध धर्म के दार्शनिकों तथा प्रचारकों को चुनौती दी और उन्हें वाद-विवाद में अनेक बार पराजित किया। उन्होंने भारत की चारों दिशाओं में एक-एक मठ बनवाया। ये मठ थे-जोशी मठ, शृंगेरी मठ, पुरी मठ तथा द्वारिका मठ। यही मठ आगे चलकर हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध केन्द्र बने। उन्होंने साधु-संन्यासियों के कुछ संघ भी स्थापित किए। शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध-दर्शन की शिक्षा बन्द कर दी गई और उसका स्थान हिन्दू दर्शन ने ले लिया। शंकराचार्य ने लोगों में ‘अद्वैत दर्शन’ का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को बताया कि ब्रह्म और संसार में कोई अन्तर नहीं है। सभी जीवों की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और अन्त में वे ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।

प्रश्न 6.
वर्धन काल में दक्षिण में प्रादेशिक अभिव्यक्ति के बारे में बताओ।
उत्तर-
वर्धन काल में देश के दक्षिणी भाग में प्रादेशिक अभिव्यक्ति के प्रमाण मिलते हैं। इस समय तक संस्कृत भाषा का महत्त्व पुनः बढ़ गया था। दक्षिण में तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। यह वहां के सामाजिक तथा धार्मिक उच्च वर्ग की भाषा बन गई। ऐसा होने पर भी ‘प्राकृत’ भाषा के विकास में कोई अन्तर नहीं आया। इस दृष्टि से ‘तमिल’ भाषा ने भी विशेष उन्नति की। उदाहरणार्थ पल्लव शासकों ने अपने शिलालेखों में संस्कृत का प्रयोग किया। परन्तु उसके शिलालेखों का व्यावहारिक दृष्टि से आवश्यक भाग ‘तमिल’ में ही होता था। इसी प्रकार चालुक्यों के शिलालेखों में ‘कन्नड़’ भाषा तथा कन्नड़ साहित्य का वर्णन मिलता है। इससे भी बढ़ कर पल्लव शासकों का सारा साहित्य तमिल भाषा में ही मिलता है। तमिल देश में तमिल साहित्य का विकास स्पष्ट रूप से प्रादेशिक अभिव्यक्ति की ओर संकेत करता है।

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प्रश्न 7.
हर्ष के समय में नालन्दा के विहार की स्थिति क्या थी ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के समय में नालन्दा का मठ अपने चरम शिखर पर था। यूनसांग ने भी अपने विवरण में नालन्दा का बड़ा रोचक वर्णन किया है। यह वर्णन भी नालन्दा के तत्कालीन गौरव की पुष्टि करता है। यूनसांग लिखता है कि भारत में मठों की संख्या हजारों में थी। परन्तु किसी का भी ठाठबाठ और बड़प्पन नालन्दा जैसा नहीं था। नालन्दा के विहार में जिज्ञासु और शिक्षकों सहित दस हज़ार भिक्षु रहते थे। वे महायान और हीनयान सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और शिक्षाओं का अध्ययन करते थे। इसके अतिरिक्त यहां वेदों, ‘क्लासिकी रचनाओं, व्याकरण, चिकित्सा और गणित की पढ़ाई भी होती थी। नालन्दा के खण्डहर आज भी बड़े प्रभावशाली हैं।

प्रश्न 8.
वर्धन काल में मन्दिर की संस्था का सामाजिक महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
वर्धनकाल में मन्दिर की संस्था को बहुत अधिक सामाजिक महत्त्व दिया जाने लगा था। विद्यालय प्रायः महत्त्वपूर्ण मन्दिरों से ही सम्बन्धित होते थे। लोगों की मन्दिरों में बड़ी श्रद्धा थी। धनी तथा राजा लोग दिल खोल कर मन्दिरों को दान देते थे। साधारण लोग भी मन्दिरों में जाकर मूर्तियां, दीपक, तेल आदि चढ़ाते थे। मन्दिरों में संगीत और नृत्य भी होता था जिसे धर्म का अंग माना जाने लगा था। कई प्रकार के सेवक मन्दिरों में काम करते थे, पर मन्दिर के भीतर पूजा केवल ब्राह्मणों के हाथों में थी। भरत-नाट्यम नृत्यु एक अत्यन्त उच्च कोटि की कला बन गया। इस प्रकार मन्दिर धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र बन गये। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि शूद्रों और चाण्डालों को मन्दिर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।

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प्रश्न 9.
दक्षिण में नायनार तथा आलवार भक्तों के बारे में बतायें।
उत्तर-
वर्धन काल में कछ शैव और वैष्णव प्रचारकों ने मानवीय देवताओं के प्रति श्रद्धाभक्ति का प्रचार करना आरम्भ कर दिया था। इसका प्रचार करने वाले शैव नेता नायनार तथा वैष्णव नेता आलवार कहलाते थे। उन्होंने शिव तथा विष्णु की आराधना में अनेक भजनों की रचना की जो दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होने लगे। उनके भजनों के संग्रह आज भी उपलब्ध हैं। शैवों के भजन संग्रह ‘तिरुमुराए’ तथा वैष्णवों का भजन संग्रह ‘नलिआर प्रबन्धम्’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भक्त और भगवान् (विष्णु अथवा शिव) के आपसी सम्बन्धों को बहुत अधिक महत्त्व दिया। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि नायनारों तथा आलवारों का सम्बन्ध उच्च वर्गों से नहीं था। वे प्रायः कारीगरों तथा कृषक श्रेणियों से सम्बन्ध रखते थे। उनमें कुछ स्त्रियां भी सम्मिलित थीं। उन्होंने अपना प्रचार साधारण बोलचाल की (तमिल) भाषा में किया और इसी भाषा में अपने भजन लिखे।

प्रश्न 10.
भारत के इतिहास में हूणों ने क्या भूमिका निभाई ?
उत्तर-
हूण मध्य एशिया की एक जंगली तथा असभ्य जाति थी। इन लोगों ने छठी शताब्दी के आरम्भ तक उत्तर-पश्चिम भारत के एक बहुत बड़े भाग पर अपना अधिकार जमा लिया। भारत में हूणों के दो प्रसिद्ध शासक तोरमाण तथा मिहिरकुल हुए हैं। तोरमाण ने 500 ई० के लगभग मालवा पर अधिकार कर लिया था। उसने “महाराजाधिराज” की उपाधि भी धारण की। तोरमाण की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मिहिरकुल अथवा मिहिरगुल ने शाकल (Sakala) को अपनी राजधानी बनाया। उत्तरी भारत के राजाओं के साथ युद्ध में मिहिरकुल पकड़ा गया। बालादित्य उसका वध करना चाहता था, परन्तु उसने अपनी मां के कहने पर उसे छोड़ दिया। इसके पश्चात् उसने गान्धार को विजय किया। कहते हैं कि उसने लंका पर भी विजय प्राप्त कर ली। 542 ई० में मिहिरकुल की मृत्यु हो गई और भारत में हूणों का प्रभाव कम हो गया।

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प्रश्न 11.
मैत्रक कौन थे ? उनके सबसे महत्त्वपूर्ण शासकों का वर्णन करो।
उत्तर-
मैत्रक लोग वल्लभी के शासक थे। ये पहले गुप्त शासकों के अधीन थे। उनकी स्वतन्त्रता की क्रिया बुद्धगुप्त (477-500) के समय में आरम्भ हुई। उसके समय में भ्रात्रक नामक एक मैत्रक सौराष्ट्र के सीमावर्ती प्रान्त का गवर्नर था। भ्रात्रक के बाद उसके पुत्र द्रोण सिंह ने ‘महाराजा’ की उपाधि धारण की और एक प्रकार से अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की।

गुप्त सम्राट् नरसिंह ने भी उसकी इस स्थिति को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार स्वतन्त्र मैत्रक राज्य की स्थापना हुई। छठी शताब्दी तक उन्होंने अपनी शक्ति काफ़ी मज़बूत कर ली। यहां तक कि सम्राट हर्षवर्धन ने सातवीं शताब्दी में अपनी पुत्री का विवाह भी वल्लभी के प्रसिद्ध शासक ध्रुवसेन द्वितीय के साथ किया था। हर्ष की मृत्यु के पश्चात् एक मैत्रक शासक धारसेन चतुर्थ ने ‘महाराजाधिराज’ तथा ‘चक्रवर्ती’ की उपाधियां धारण की। 8वीं शताब्दी में वल्लभी राज्य पर अरबों का अधिकार हो गया।

प्रश्न 12.
आप मौखरियों के विषय में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
गुप्त वंश के पतन के पश्चात् कन्नौज (कान्यकुब्ज) में मौखरी वंश की नींव पड़ी। इस वंश का प्रथम शासक हरिवर्मन था। उसके उत्तरकालीन गुप्त सम्राटों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। मौखरी वंश का दूसरा प्रसिद्ध शासक ईशान वर्मन (Ishana Varman) था। उसने आन्ध्र एवं शूलिक राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसकी मृत्यु पर उसका पुत्र गृहवर्मन उसका उत्तराधिकारी बना। वह मौखरी वंश का अन्तिम सम्राट् था। उसका विवाह हर्ष की बहन राज्यश्री से हुआ था। मालवा के गुप्त सम्राट् देवगुप्त से उसकी शत्रुता थी। देवगुप्त ने गृहवर्मन को पराजित किया और उसे मार डाला। उसने उसकी पत्नी राज्यश्री को भी कारावास में डाल दिया। बाद में अपनी बहन को छुड़ाने के लिए हर्ष के बड़े भाई राज्यवर्धन ने देवगुप्त पर आक्रमण किया और उसका वध कर दिया। अन्त में कन्नौज हर्षवर्धन के साम्राज्य का अंग बन गया।

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प्रश्न 13.
मदुराई के पाण्डेय शासकों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर–
पाण्डेय वंश दक्षिणी भारत का एक प्रसिद्ध वंश था। इस वंश द्वारा स्थापित राज्य में मदुरा, तिन्नेवली और ट्रावनकोर के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे। मदुरा इस राज्य की राजधानी थी। पाण्डेय वंश का आरम्भिक इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है। सातवीं और आठवीं शताब्दी में पाण्डेय शक्ति में वृद्धि हुई, परन्तु दसवीं शताब्दी में वे चोल राजाओं से पराजित हुए। हारने के बाद वे 12वीं शताब्दी तक चोल नरेशों के अधीन सामन्तों के रूप में प्रशासन करते रहे। 13वीं शताब्दी में उन्होंने पाण्डेय राज्य की फिर से नींव रखी। 14वीं शताब्दी में वे गृह-युद्ध में उलझ गए। तब पाण्डेय वंश के दो भाइयों में सिंहासन प्राप्ति के लिए युद्ध छिड़ गया। इन परिस्थितियों में अलाउद्दीन खिलजी के प्रतिनिधि मलिक काफूर ने पाण्डेय राज्य पर आक्रमण कर दिया। उसने इस राज्य को खूब लूटा। अन्त में द्वारसमुद्र के होयसालों ने पाण्डेय राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

प्रश्न 14.
ह्यूनसांग के विवरण से भारतीय जीवन पर क्या प्रकाश पड़ता है ?
अथवा
‘सी-यू-की’ पुस्तक का लेखक कौन था ? इसका ऐतिहासिक महत्त्व संक्षेप में लिखो।
उत्तर-
यूनसांग एक चीनी यात्री था। वह बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करने तथा बौद्ध साहित्य का अध्ययन करने के लिए भारत आया था। वह 8 वर्ष तक हर्ष की राजधानी कन्नौज में रहा। उसने ‘सी-यू-की’ नामक पुस्तक में अपनी भारत यात्रा का वर्णन किया है। वह लिखता है कि हर्ष बड़ा परिश्रमी, कर्तव्यपरायण और प्रजाहितैषी शासक था। उस समय का समाज चार जातियों में बंटा हुआ था। शूद्रों से बहुतं घृणा की जाती थी। लोगों का नैतिक जीवन काफ़ी ऊंचा था। लोग चोरी करना, मांस खाना, नशीली वस्तुओं का सेवन करना बुरी बात समझते थे। लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। देश में ब्राह्मण धर्म उन्नति पर था, परन्तु बौद्ध धर्म भी कम लोकप्रिय नहीं था।

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प्रश्न 15.
हर्षवर्धन के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
हर्षवर्धन एक महान् चरित्र का स्वामी था। उसे अपने परिवार से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को मुक्त करवाने और उसे ढूंढने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिर । वह एक सफल विजेता तथा कुशल प्रशासक था। उसने थानेश्वर के छोटे से राज्य को उत्तरी भारत के विशाल राज्य का रूप दिया। वह प्रजाहितैषी और कर्तव्यपरायण शासक था।

यूनसांग ने उसके शासन प्रबन्ध की बड़ी प्रशंसा की है। उसके अधीन प्रजा सुखी और समृद्ध थी। हर्ष धर्म-परायण और सहनशील भी था। उसने बौद्ध धर्म को अपनाया और सच्चे मन से इसकी सेवा की। उसने अन्य धर्मों का समान आदर किया। दानशीलता उसका एक अन्य बड़ा गुण था। वह इतना दानी था कि प्रयाग की एक सभा में उसने अपने वस्त्र भी दान में दे दिए थे और अपना तन ढांपने के लिए अपनी बहन से एक वस्त्र लिया था। हर्ष स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था और उसने कला और विद्या को संरक्षण प्रदान किया।

प्रश्न 16.
हर्षकालीन भारत में शिक्षा-प्रणाली का वर्णन करो।
उत्तर-
हर्षवर्धन स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था। अतः उसके समय में शिक्षा का खूब प्रसार हुआ। आरम्भिक शिक्षा के केन्द्र ब्राह्मणों के घर अथवा छोटे-छोटे मन्दिर थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को मठों में जाना पड़ता था। उच्च शिक्षा के लिए देश में विश्वविद्यालय भी थे। तक्षशिला का विश्वविद्यालय चिकित्सा-विज्ञान तथा गया का विश्वविद्यालय धर्म शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। ह्यूनसांग ने नालन्दा विश्वविद्यालय को शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र बताया है। यह पटना से लगभग 65 किलोमीटर दूर नालन्दा नामक गांव में स्थित था। इसमें 8,500 विद्यार्थी तथा 1500 अध्यापक थे। नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना कोई सरल कार्य नहीं था। यहां गणित, ज्योतिषशास्त्र, व्याकरण तथा चिकित्सा-विज्ञान आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे।

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प्रश्न 17.
पल्लव राज्य की नींव किसने रखी ? इस वंश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक कौन था ?
उत्तर-
पल्लव राज्य दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली राज्य था। हर्षवर्धन के समय इस राज्य में मद्रास, त्रिचनापल्ली, तंजौर तथा अर्काट के प्रदेश शामिल थे। कांची उसकी राजधानी थी। इस राज्य की नींव 550 ई० में सिंह वर्मन ने रखी थी। उसके एक उत्तराधिकारी सिंह विष्णु ने 30 वर्ष तक शासन किया तथा पल्लव राज्य को सुदृढ़ किया। महेन्द्र वर्मन पल्लव वंश का सबसे महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने 600 ई० से 630 ई० तक शासन किया। वह हर्षवर्धन का समकालीन था तथा उसी की भान्ति एक उच्चकोटि का नाटककार तथा कवि था। ‘मत्तविलास प्रहसन’ (शराबियों की मौज) उसकी एक सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। महेन्द्र वर्मन पहले जैन मत में विश्वास रखता था। परन्तु बाद में वह शैवमत को मानने लगा। उसके समय में महाबलिपुरम में अनेक सुन्दर मन्दिर बने।

प्रश्न 18.
पल्लवों और चालुक्यों के शासनकाल की मन्दिर वास्तुकला का वर्णन करो।
उत्तर-
पल्लव और चालुक्य दोनों ही कला-प्रेमी थे। उन्होंने वैदिक देवी-देवताओं के अनेक मन्दिर बनवाए। ये मन्दिर पत्थरों को काटकर बनाये जाते थे। पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन द्वारा महाबलिपुरम में बनवाये गये सात रथ-मन्दिर सबसे प्रसिद्ध हैं। यह नगर अपने समुद्र तट मन्दिर के लिए भी प्रसिद्ध है। पल्लवों ने अपनी राजधानी कांची में अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया, जिनमें से कैलाश मन्दिर सबसे प्रसिद्ध है। कहते हैं कि ऐहोल में उनके द्वारा बनवाये गए 70 मन्दिर विद्यमान हैं। चालुक्य राजा भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं रहे। उन्होंने बादामी और पट्टकदल नगरों में मन्दिरों का निर्माण करवाया। पापनाथ मन्दिर तथा वीरुपाक्ष मन्दिर इनमें से काफ़ी प्रसिद्ध हैं। पापनाथ मन्दिर का बुर्ज उत्तर भारतीय शैली में और वीरुपाक्ष मन्दिर विशुद्ध दक्षिणी भारतीय शैली में बनवाया गया है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
यूनसांग कौन था ? उसने हर्षकालीन भारत की राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक अवस्था के बारे में क्या लिखा है ?
अथवा
यूनसांग हर्ष के शासन-प्रबन्ध के विषय में क्या बताता है ?
उत्तर-
यूनसांग एक प्रसिद्ध चीनी यात्री था। वह हर्ष के शासनकाल में भारत आया। उसे यात्रियों का ‘राजा’ भी कहा जाता है। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था और बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करना चाहता था। इसलिए 629 ई० में वह भारत की ओर चल पड़ा। वह चीन से 629 ई० में चला और ताशकन्द, समरकन्द और बलख से होता हुआ 630 ई० में गान्धार पहुंचा। गान्धार में कुछ समय ठहरने के बाद वह भारत में आ गया। उसने कई वर्षों तक बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा की। वह हर्ष की राजधानी कन्नौज में भी 8 वर्ष तक रहा। अन्त में 644 ई० में वह वापिस चीन लौटा। उसने अपनी भारत यात्रा का वर्णन ‘सीयू-की’ नामक पुस्तक में किया है। इस ग्रन्थ में उसने शासन प्रबन्ध तथा भारत के विषय में अनेक बातें लिखी हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है-

I. हर्ष और उसके शासन-प्रबन्ध के विषय में-यूनसांग ने लिखा है कि राजा हर्ष एक परिश्रमी तथा कर्तव्यपरायण शासक था। वह अपने कर्त्तव्य को कभी नहीं भूलता था। जनता की भलाई करने के लिए वह सदा तैयार रहता था। हर्ष एक बहुत बड़ा दानी भी था। प्रयाग की सभा में उसने अपना सारा धन और आभूषण दान में दे दिये थे। सरकारी भूमि चार भागों में बँटी हुई थी-पहले भाग की आय शासन-कार्यों में, दूसरे भाग की आय मन्त्रियों तथा अन्य कर्मचारियों को वेतन देने में, तीसरे भाग की आय दान में और चौथे भाग की आय विद्वानों आदि को इनाम देने में खर्च की जाती थी। हर्ष का दण्ड विधान काफ़ी कठोर था। कई अपराधों पर अपराधी के नाक-कान काट लिए जाते थे। हर्ष के पास एक शक्तिशाली सेना थी जिसमें पच्चीस हज़ार पैदल, एक लाख घुड़सवार तथा लगभग साठ हजार हाथी थे। सेना में रथ भी थे। सरकार की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। प्रजा से कुछ अन्य कर भी लिये जाते थे, परन्तु ये सभी कर हल्के थे। हर्ष ने एक अभिलेख विभाग की व्यवस्था की हुई थी। यह विभाग उसके शासन-काल की प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना का रिकार्ड रखता था।

II. सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के विषय में-ह्यूनसांग ने चार जातियों का वर्णन किया है। ये जातियाँ थींब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । उसके अनुसार शूद्रों से दासों जैसा व्यवहार किया जाता था। इस समय के लोग सादे वस्त्र पहनते थे। पुरुष अपनी कमर के चारों ओर कपड़ा लपेट लेते थे। स्त्रियाँ अपने शरीर को एक लम्बे वस्त्र से ढक लेती थीं। वे श्रृंगार भी करती थीं। लोग चोरी से डरते थे। वे किसी की वस्तु नहीं उठाते थे। माँस खाना और नशीली वस्तुओं का प्रयोग करना बुरी बात मानी जाती थी। देश की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। ग्रामों में खेती-बाड़ी मुख्य व्यवसाय था। नगरों में व्यापार उन्नति पर था। मकान ईंटों और लकड़ी के बनाये जाते थे।

III. धार्मिक जीवन के बारे में-हयूनसांग ने भारत को ‘ब्राह्मणों का देश’ कहा है। वह लिखता है कि देश में ब्राह्मणों का धर्म उन्नति पर था, परन्तु बौद्ध धर्म भी अभी तक काफी लोकप्रिय था। हर्ष प्रत्येक वर्ष प्रयाग में एक सभा बुलाता था। इस सभा में वह विद्वानों तथा ब्राह्मणों को दान दिया करता था।

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन की प्रमुख विजयों का वर्णन कीजिए।
अथवा
हर्षवर्धन की किन्हीं पांच सैनिक सफलताओं की व्याख्या कीजिए। विदेशों के साथ उसके कैसे संबंध थे ?
उत्तर-
हर्षवर्धन 606 ई० में राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। उसकी प्रमुख विजयों का वर्णन इस प्रकार है-

1. बंगाल विजय-बंगाल का शासक शशांक था। उसने हर्षवर्धन के बड़े भाई का धोखे से वध कर दिया था। उससे बदला लेने के लिए हर्ष ने कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मन से मित्रता की। दोनों की सम्मिलित सेनाओं ने शशांक को पराजित कर दिया। परन्तु शशांक जब तक जीवित रहा, उसने हर्ष को बंगाल पर अधिकार न करने दिया। उसकी मृत्यु के पश्चात् ही हर्ष बंगाल को अपने राज्य में मिला सका।

2. पांच प्रदेशों की विजय-बंगाल विजय के पश्चात् हर्ष ने निरन्तर कई वर्षों तक युद्ध किए। 606 ई० से लेकर 612 ई० तक उसने उत्तरी भारत के पांच प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। ये प्रदेश सम्भवतः पंजाब, कन्नौज़, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा थे।

3. वल्लभी की विजय-हर्ष के समय वल्लभी (गुजरात) काफ़ी धनी प्रदेश था। हर्ष ने एक विशाल सेना के साथ वल्लभी पर आक्रमण किया और वहां के शासक ध्रुवसेन को परास्त किया। कहते हैं कि वल्लभी नरेश ने बाद में हर्ष के साथ मित्रता कर ली। ध्रुवसेन के व्यवहार से प्रसन्न होकर हर्ष ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

4. पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-हर्ष ने उत्तरी भारत की विजय के पश्चात् दक्षिणी भारत को जीतने का निश्चय किया। उस समय दक्षिणी भारत में पुलकेशिन द्वितीय सबसे अधिक शक्तिशाली शासक था। 620 ई० के लगभग नर्मदा नदी के पास दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्ष को पहली बार पराजय का मुंह देखना पड़ा। अत: वह वापस लौट आया। इस प्रकार दक्षिण में नर्मदा नदी उसके राज्य की सीमा बन गई।

5. सिन्ध विजय-बाण के अनुसार हर्ष ने सिन्ध पर भी आक्रमण किया और वहां अपना अधिकार कर लिया। परन्तु यूनसांग लिखता है कि उस समय सिन्ध एक स्वतन्त्र प्रदेश था। हर्ष ने इस प्रदेश को विजित नहीं किया था।

6. बर्फीले प्रदेश पर विजय-बाण लिखता है कि हर्ष ने एक बर्फीले प्रदेश को विजय किया। यह बर्फीला प्रदेश सम्भवतः नेपाल था। कहते हैं कि हर्ष ने कश्मीर प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की थी।

7. गंजम की विजय-गंजम की विजय हर्ष की अन्तिम विजय थी। उसने गंजम पर कई आक्रमण किए, परन्तु शशांक के विरोध के कारण वह इस प्रदेश को विजित करने में सफल न हो सका। 643 ई० में शशांक की मृत्यु के पश्चात् उसने गंजम पर फिर एक बार आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। .

8. राज्य विस्तार-हर्ष लगभग सारे उत्तरी भारत का स्वामी था। उसके राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी को छूती थीं। पूर्व में उसका राज्य कामरूप से लेकर उत्तर-पश्चिम में पूर्वी पंजाब तक विस्तृत था। पश्चिम में अरब सागर तक का प्रदेश उसके अधीन था। हर्ष के इस विशाल राज्य की राजधानी कन्नौज़ थी।

9. विदेशों से सम्बन्ध-हर्ष ने चीन और फारस आदि कई देशों के साथ मित्रता स्थापित की। कहते हैं कि हर्ष तथा फारस का शासक समय-समय पर एक-दूसरे को उपहार भेजते रहते थे।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

प्रश्न 3.
(क) हर्ष के शासन प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएं बताओ। (ख) उसके चरित्र पर भी प्रकाश डालिए।
उत्तर-
(क) यूनसांग के लेखों से हमें हर्ष के राज्य प्रबन्ध के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। उसे हर्ष का शासन प्रबन्ध देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी। उसने हर्ष के शासन प्रबन्ध के बारे में निम्नलिखित बातें लिखी हैं-

राजा-हर्ष एक प्रजापालक शासक था। वह सदा प्रजा की भलाई में जुटा रहता था। यूनसांग लिखता है कि हर्ष प्रजाहितार्थ कार्य करते समय खाना-पीना और सोना भी भूल जाता था। समय-समय पर वह अपने राज्य में भ्रमण भी करता था। वह बुराई करने वालों को दण्ड देता था तथा नेक काम करने वालों को पुरस्कार देता था।

मन्त्री-राजा की सहायता के लिए मन्त्री होते थे। मन्त्रियों के अतिरिक्त अनेक कर्मचारी थे जो मन्त्रियों की सहायता करते थे।

प्रशासनिक विभाजन-प्रशासनिक कार्य को ठीक ढंग से चलाने के लिए उसने अपने सारे प्रदेश को प्रान्तों, जिलों और ग्रामों में बांटा हुआ था। प्रान्तों का प्रबन्ध ‘उपारिक’ नामक अधिकारी के अधीन होता था। जिले का प्रबन्ध ‘विषयपति’ तथा ग्रामों का प्रबन्ध पंचायतें करती थीं।

आय के साधन-यूनसांग लिखता है कि हर्ष की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त कई अन्य कर भी थे। कर इतने साधारण थे कि प्रजा उन्हें सरलतापूर्वक चुका सकती थी।

दण्ड विधान-दण्ड बड़े कठोर थे। अपराधी के नाक-कान आदि काट दिए जाते थे।
सेना-हर्ष के पास एक विशाल सेना थी। इस सेना में लगभग दो लाख सैनिक थे। सेना में घोड़े, हाथी तथा रथ का भी प्रयोग किया जाता था।
अभिलेख विभाग-सरकारी काम-काजों का लेखा-जोखा रखने के लिए एक अलग विभाग था।

(ख) हर्ष का चरित्र-हर्षवर्धन एक उच्च कोटि के चरित्र का स्वामी था। उसे अपने भाई-बहन से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढ़ने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिरा। अपने भाई राज्यवर्धन के वध का बदला लेने के लिए हर्ष ने उसके हत्यारे शशांक से टक्कर ली और उसे पराजित किया। इसी प्रकार अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् उसने तब तक राजगद्दी स्वीकार न की, जब तक उसका बड़ा भाई जीवित रहा।

हर्षवर्धन एक वीर योद्धा और सफल विजेता था। विजेता के रूप में उसकी तुलना महान् गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त से की जाती है। उसमें अशोक के गुण भी विद्यमान थे। अशोक की भान्ति वह भी शान्तिप्रिय और धर्म में आस्था रखने वाला व्यक्ति था। उसने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अनेक कार्य किए और अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई। हर्ष उदार और दानी भी था। उसकी गणना इतिहास में सबसे अधिक दानी राजाओं में की जाती है। कहते हैं कि वह प्रतिदिन 500 ब्राह्मणों और 100 बौद्ध भिक्षुओं को भोजन तथा वस्त्र देता था। प्रयाग की एक सभा में तो उसने अपना सब कुछ दान में दे दिया। यहां तक कि उसने अपने वस्त्र भी दान में दिये और स्वयं अपनी बहन राज्यश्री से एक चादर मांग कर शरीर पर धारण की।

हर्षवर्धन एक उच्चकोटि का विद्वान् था और विद्वानों का आदर करता था। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान् बाणभट्ट उसी के समय में हुआ था जिसने ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ जैसे महान् ग्रन्थों की रचना की। हर्ष ने स्वयं भी ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’ तथा ‘प्रिय-दर्शिका’ नामक तीन नाटक लिखे जिन्हें साहित्य के क्षेत्र में उच्च स्थान प्राप्त है। साहित्य में उसकी प्रशंसा करते हुए ई० वी० हवेल ने ठीक ही लिखा है, “हर्ष की कलम में भी वही तीव्रता थी जैसी उसकी तलवार में थी।”

हर्षवर्धन एक उच्च कोटि का शासन प्रबन्धक था। उसने ऐसे शासन प्रबन्ध की नींव रखी जिसका उद्देश्य जनता को सुखी और समृद्ध बनाना था। वह अपने राज्य की आय का पूरा हिसाब रखता था और इसका व्यय बड़ी सूझ-बूझ से करता था। उसका सैनिक संगठन भी काफ़ी दृढ़ था। यह सच है कि उसके समय में सड़कें सुरक्षित नहीं थीं, तो भी उसके कठोर दण्डविधान के कारण राज्य में शान्ति बनी रही। निःसन्देह हर्ष एक सफल शासक था। डॉ० वैजनाथ शर्मा के शब्दों में, “हर्ष एक आदर्श शासक था जिसमें दया, सहानुभूति, प्रेम, भाई-चारा आदि सभी गुण एक साथ विद्यमान थे।”

सच तो यह है कि हर्ष एक महान् विजेता था। उसने अपने विजित प्रदेशों को संगठित किया और लोगों को एक अच्छा शासन प्रदान किया। उसके विषय में डॉ० रे चौधरी ने ठीक कहा है, “वह प्राचीन भारत के महानतम राजाओं में से एक था।”

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 7 राजपूत और उनका काल

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
कन्नौज के लिए संघर्ष तथा दक्षिण में राजनीतिक परिवर्तनों से सम्बन्धित घटनाओं की रूपरेखा बताएं।
उत्तर-
आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। यह नगर हर्षवर्धन की राजधानी था। उत्तरी भारत में इस नगर की स्थिति बहुत अच्छी थी। क्योंकि इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा के मैदान पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे। इन राजवंशों ने बारी-बारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैन्य शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर तीनों राज्यों का पतन हो गया। राष्ट्रकूटों पर उत्तरकालीन चालुक्यों ने अधिकार कर लिया। प्रतिहार राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया और पाल वंश की शक्ति को चोलों ने समाप्त कर दिया।

दक्षिण में राजनीतिक परिवर्तन-

दक्षिण में 10वीं , 11वीं तथा 12वीं शताब्दी के दो महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तरकालीन चालुक्य तथा चोल थे। इन दोनों राजवंशों के आपसी सम्बन्ध बड़े ही संघर्षमय थे। इन राज्यों का अलग-अलग अध्ययन करने से इनके आपसी सम्बन्ध स्पष्ट हो जायेंगे। उत्तरकालीन चालुक्यों की दो शाखाएं थीं-कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य तथा मैगी के पूर्वी चालुक्य । कल्याणी के चालुक्य की शाखा की स्थापना तैलप द्वितीय ने की थी। उसने चोलों, गुर्जर, जाटों आदि के विरुद्ध अनेक विजयें प्राप्त की। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र सत्याश्रय ने उत्तरी कोंकण के राजा तथा गुर्जर को पराजित किया, परन्तु उस समय राजेन्द्र चोल ने चालुक्य शक्ति को काफी हानि पहंचाई। बैंगी के पूर्वी चालुक्यों की शाखा का संस्थापक पुलकेशिन द्वितीय का भाई विष्णुवर्धन द्वितीय था।

पुलकेशिन ने उसे 621 ई० में चालुक्य राज्य का गवर्नर नियुक्त किया था । परन्तु कुछ ही समय पश्चात् उसने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। उसके द्वारा स्थापित राजवंश ने लगभग 500 वर्ष तक राज्य किया। जयसिंह प्रथम, इन्द्रवर्मन और विष्णुवर्मन तृतीय, विजयादित्य प्रथम द्वितीय, भीम प्रथम, कुल्लोतुंग प्रथम विजयादित्य इस वंश के प्रतापी राजा थे। इन राजाओं ने पल्लवों तथा राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष किया। अन्त में कुल्लोतुंग प्रथम ने चोल तथा चालुक्य राज्यों को एक संगठित राज्य घोषित कर दिया। उसने अपने चाचा विजयादित्य सप्तम को बैंगी का गर्वनर नियुक्त किया।

चोल दक्षिण भारत की प्रसिद्ध जाति थी। प्राचीन काल में वे दक्षिण भारत की सभ्य जातियों में गिने जाते थे। अशोक के राज्यादेशों तथा मैगस्थनीज़ के लेखों में उनका उल्लेख आता है। चीनी लेखकों, अरब यात्रियों तथा मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उनका वर्णन किया है। काफी समय तक आन्ध्र और पल्लव जातियां उन पर शासन करती रहीं। परन्तु नौवीं शताब्दी में वे अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। इस वंश के शासकों ने लगभग चार शताब्दियों तक दक्षिणी भारत में राज्य किया। उनके राज्य में आधुनिक तमिलनाडु, आधुनिक कर्नाटक तथा कोरोमण्डल के प्रदेश सम्मिलित थे। चोल राज्य का संस्थापक कारीकल था। परन्तु इस वंश का पहला प्रसिद्ध राजा विजयालय था। उसने पल्लवों को पराजित किया था। इस वंश के अन्य प्रसिद्ध राजा आदित्य प्रथम प्रान्तक (907-957 ई०), राजराजा महान् (985-1014 ई०), राजेन्द्र चोल (10141044 ई०), कुल्लोतुंग इत्यादि थे। इनमें से राजराजा महान् तथा राजेन्द्र चोल ने शक्ति को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया। उन्होंने कला और साहित्य के विकास में भी योगदान दिया।

चोल वंश का पतन और दक्षिण में नई शक्तियों का उदय-राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों को बैंगी के चालक्यों तथा कल्याणी के विरुद्ध एक लम्बा संघर्ष करना पड़ा। चोल राजा कुल्लोतुंग के शासन काल (1070-1118 ई०) में वैंगी के चालुक्यों का राज्य चोलों के अधिकार में आ गया। परन्तु कल्याणी के चालुक्यों के साथ उनका संघर्ष कुछ धीमा हो गया। इसका कारण यह था कि कुल्लोतुंग की मां एक चालुक्य राजकुमारी थी। 12वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में चोल शक्ति का पतन होने लगा जो मुख्यतः उनके चालुक्यों के साथ संघर्ष का ही परिणाम था। इस संघर्ष के कारण चोल शक्ति काफी क्षीण हो गई और उनके सामन्त शक्तिशाली हो गए। अन्ततः उनके होयसाल सामन्तों ने उनकी सत्ता का अन्त कर दिया। इस प्रकार 13वीं शताब्दी के आरम्भ में दक्षिण में चालुक्य तथा चोल, राज्यों के स्थान पर कुछ नवीन शक्तियों का उदय हुआ। इन शक्तियों में देवगिरी के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसाल तथा मदुराई के पाण्डेय प्रमुख थे।

प्रश्न 2.
राजपूत काल में धर्म, कला तथा साहित्य के क्षेत्र में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की चर्चा करें।
उत्तर-
राजपूत काल 7वीं तथा 13वीं शताब्दी का मध्यकाल है। इस काल में धार्मिक परिवर्तन हुए तथा कला एवं साहित्य के क्षेत्र में बड़ा विकास हुआ। इन सबका वर्णन इस प्रकार है-

I. धर्म-

(1) 7वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक धर्म का आधार वही देवी-देवता व रीति-रिवाज ही रहे, जो काफी समय से चले आ रहे थे। परन्तु धार्मिक परम्पराओं को अब नया रूप दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन बहुत तेजी से होने लगा। जैन धर्म को कुछ राजपूत शासकों ने समर्थन अवश्य प्रदान किया परन्तु यह धर्म अधिक लोकप्रिय न हो सका। केवल हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म था जिसमें कुछ परिवर्तन आये। अब अवतारवाद को अधिक शक्ति मिली तथा विशेष रूप से कृष्णवासुदेव का अवतार रूप में पूजन होने लगा। देवी-माता की भी कात्यायनी, भवानी, चंडिका, अम्बिका आदि भिन्न-भिन्न रूपों में पूजा प्रचलित थी। इस काल के सभी मतों के अनुयायियों ने अपने-अपने इष्ट देव के लिए मन्दिर बनवाए जो इस काल के धर्मों की बहुत बड़ी विशेषता है।

(2) हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से दो विचारधाराएं ही अधिक प्रचलित हुईं-वैष्णव मत तथा शैवमत। शैवमत के कई रूप थे तथा यह दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था। कुछ शैव सम्प्रदाय सामाजिक दृष्टि से परस्पर विरोधी भी थे। जैसे कि कपालिक, कालमुख तथा पशुपति। लोगों का जादू-टोनों में विश्वास पहले से अधिक बढ़ने लगा। 12वीं शताब्दी में वासवराज ने शैवमत की एक नवीन लहर चलाई । इसके अनुयायी लिंगायत या वीर शैव कहलाए। वे लोग शिव की लिंग रूप में पूजा करते थे तथा पूर्ण विश्वास के साथ प्रभु-भक्ति में आस्था रखते थे। इन लोगों ने बाल-विवाह का विरोध करके और विधवाविवाह का सर्मथन करके बाह्मण रूढ़िवाद पर गम्भीर चोट की। दक्षिणी भारत में शिव की लिंग रूप के साथ-साथ नटराज के रूप में भी पूजा काफी प्रचलित थी। उन्होंने शिव के नटराज रूप को धातु की सुन्दर मूर्तियों के रूप में ढाला । इन मूर्तियों में चोल शासकों के काल में बनी कांसे की नटराज की मूर्ति प्रमुख है।

(3) राजपूत काल के धर्म की एक अन्य विशेषता वैष्णव मत में भक्ति तथा श्रद्धा का सम्मिश्रण था। इस विचारधारा के मुख्य प्रवर्तक रामानुज थे। उसका जन्म तिरुपति में हुआ था। 12वीं शताब्दी में उसने श्रीरंगम में कई वर्षों तक लोगों को धर्म की शिक्षा दी। उनके विचार प्रसिद्ध हिन्दू प्रचारक शंकराचार्य से बिल्कुल भिन्न थे। वह अद्धैतवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखता था। वह विष्णु को सर्वोच्च इष्ट मानता था। उसका कहना था कि विष्णु एक मानवीय देवता है। उसने मुक्ति के तीन मार्ग-ज्ञान, धर्म तथा भक्ति में से भक्ति पर अधिक बल दिया। इसी कारण उसे सामान्यतः भक्ति लहर का प्रवर्तक माना जाता है। परन्तु उसने भक्ति की प्रचलित लहर को वैष्णव धर्मशास्त्र के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया।

(4) राजपूतकालीन धर्म में लहर की स्थिति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी। रामानुज का भक्ति मार्ग जनता में काफी लोकप्रिय हुआ। शैव सम्प्रदाय में भी भक्ति को काफी महत्त्व दिया जाता था। लोगों में यह विश्वास बढ़ गया कि मुक्ति का एकमात्र मार्ग सच्चे मन से की गई प्रभु भक्ति ही है। वे अपना सब कुछ प्रभु के भरोसे छोड़कर उसकी भक्ति के पक्ष में थे।

II. कला-

राजपूत काल में भवन निर्माण का बड़ा विकास हुआ। उन्होंने भव्य महलों तथा दुर्गों का निर्माण किया। जयपुर तथा उदयपुर केराजमहल, चितौड़ तथा ग्वालियर के दुर्ग राजपूती भवन निर्माण कला के शानदार नमूने हैं। इसके अतिरिक्त पर्वत की चोटी पर बने जोधपुर के दुर्ग की अपनी ही सुन्दरता है। कहा जाता है कि उसकी सुन्दरता देखकर बाबर भी आश्चर्य में पड़ गया था।

राजपूत काल मन्दिरों के निर्माण का सर्वोत्कृष्ट समय था। इस वास्तुकला के प्रभावशाली नमूने आज भी देश के कई भागों में सुरक्षित हैं। मन्दिरों का निर्माण केवल शैवमत या वैष्णव मत तक ही सीमित नहीं था। माऊंट आबू में जैन मन्दिर भी मिलते हैं। ये मन्दिर सफेद संगमरमर तथा अन्य पत्थरों के बने हुए हैं। ये मन्दिर उत्कृष्ट मूर्तियों से सजे हुए हैं। अतः ये वास्तुकला और मूर्तिकला के मेल के बहुत सुन्दर नमूने हैं।

राजपूत काल में बने सूर्य मन्दिर बहुत प्रसिद्ध हैं। परन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध उड़ीसा में कोणार्क का सूर्य मन्दिर है। आधुनिक मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के इलाके में स्थित खजुराहो के अधिकतर मन्दिर शिव को समर्पित हैं।

इस समय शिव को समर्पित बड़े-बड़े शानदार मन्दिरों के अतिरिक्त शिव के नटराज रूप को भी धातु की अनेकों मूर्तियों में ढाला गया। इन मूर्तियों के कई छोटे और बड़े नमूने देखे जा सकते हैं। इनमें चोल शासकों के समय का बना सुप्रसिद्ध कांसे का नटराज एक महान् कला कृति है।

III. साहित्य तथा शिक्षा-

राजपूत काल में साहित्य का भी पर्याप्त विकास हुआ। पृथ्वीराज चौहान तथा राजा भोज स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् थे। राजपूत राजाओं ने अपने दरबार में साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया हुआ था। कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ नामक ग्रन्थ की रचना की। चन्दर बरदाई पृथ्वीराज का राजकवि था। उसने ‘पृथ्वी रासो’ नामक ग्रन्थ की रचना की। जयदेव बंगाल का राजकवि था। उसने ‘गीत गोबिन्द’ नामक ग्रन्थ की रचना की। राजशेखर भी इसी काल का एक माना हुआ विद्वान् था। राजपूतों ने शिक्षा के प्रसार को ओर काफी ध्यान दिया। आरम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध मन्दिरों तथा पाठशालाओं में किया जाता था। उच्च शिक्षा के लिए नालन्दा, काशी, तक्षशिला, उज्जैन, विक्रमशिला आदि अनेक विश्वविद्यालय थे।
सच तो यह है कि राजपूत काल में धर्म के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए और कला तथा साहित्य के क्षेत्र में बड़ा विकास हुआ। इस काल की कृतियों तथा साहित्यिक रचनाओं पर आज भी देश को गर्व है।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक-

प्रश्न 1.
कन्नौज की त्रिपक्षीय लड़ाई के समय बंगाल-बिहार का राजा कौन था ?
उत्तर-
धर्मपाल।

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन के बाद कन्नौज का राजा कौन बना ?
उत्तर-
यशोवर्मन।

प्रश्न 3.
पृथ्वीराज चौहान की जानकारी हमें किस स्त्रोत से मिलती है तथा
(ii) उसका लेखक कौन है ?
उत्तर-
(i) पृथ्वीराज रासो नामक ग्रन्थ से
(ii) चन्दरबरदाई।

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प्रश्न 4.
महमूद गज़नवी ने भारत पर कितनी बार आक्रमण किया?
उत्तर-
महमूद गज़नवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किये।

प्रश्न 5.
(i) महमूद गज़नवी के साथ कौन-सा इतिहासकार भारत आया तथा
(ii) उसने कौन-सी पुस्तक की रचना की ?
उत्तर-
(i) अल्बरूनी
(ii) ‘किताब-उल-हिन्द’।

प्रश्न 6.
(i) तन्जौर के शिव मन्दिर का निर्माण किसने करवाया तथा
(ii) इस मन्दिर का क्या नाम था ?
उत्तर-
(i) तन्जौर के शिव मन्दिर का निर्माण चोल शासक राजराजा प्रथम ने करवाया।
(ii) इस मन्दिर का नाम राजराजेश्वर मन्दिर था।

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प्रश्न 7.
चोल शासन प्रबन्ध में प्रांतों को किस नाम से पुकारा जाता था ?
उत्तर-
‘मंडलम’।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) राजपूतों का प्रमुख देवता ……………. था।
(ii) ………… पृथ्वीराज चौहान का दरबारी कवि था।
(iii) ‘कर्पूरमंजरी’ का लेखक ……………. था।
(iv) परमार वंश की राजधानी ……………… थी।
(v) चंदेल वंश का प्रथम प्रतापी राजा ………….. था।
उत्तर-
(i) शिव
(ii) चन्द्रबरदाई
(iii) राजशेखर
(iv) धारा नगरी
(v) यशोवर्मन।

3. सही/ग़लत कथन-

(i) अरबों ने 712 ई० में सिंध पर आक्रमण किया। — (√)
(ii) तराइन की पहली लड़ाई (1191) में मुहम्मद गौरी की विजय हुई। — (×)
(iii) तराइन की दूसरी लड़ाई महमूद ग़जनवी तथा मुहम्मद गौरी के बीच हुई। — (×)
(iv) परमार वंश का प्रथम महान् शासक मुंज था। — (√)
(v) जयचंद राठौर की राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान से शत्रुता थी। — (√)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
मुहम्मद गौरी ने किसे हरा कर दिल्ली पर अधिकार किया ?
(A) जयचंद राठौर
(B) पृथ्वीराज चौहान
(C) अनंगपाल
(D) जयपाल।
उत्तर-
(B) पृथ्वीराज चौहान

प्रश्न (ii)
राजपूत काल का सबसे सुंदर दुर्ग है-
(A) जयपुर का
(B) बीकानेर का
(C) जोधपुर का
(D) दिल्ली का।
उत्तर-
(C) जोधपुर का

प्रश्न (iii)
‘जौहर’ की प्रथा प्रचलित थी-
(A) राजपूतों में
(B) सिक्खों में
(C) मुसलमानों में
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(A) राजपूतों में

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प्रश्न (iv)
मुहम्मद गौरी ने अपने भारतीय प्रदेश का वायसराय किसे नियुक्त किया ?
(A) जलालुद्दीन खलजी
(B) महमूद ग़जनवी
(C) नासिरुद्दीन कुबाचा
(D) कुतुबुद्दीन ऐबक।
उत्तर-
(D) कुतुबुद्दीन ऐबक।

प्रश्न (v)
धारानगरी में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की ?
(A) धर्मपाल
(B) राजा भोज
(C) हर्षवर्धन
(D) गोपाल।
उत्तर-
(B) राजा भोज

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजपूत काल में पंजाब की पहाड़ियों में किन नये राज्यों का उदय हुआ ?
उत्तर-
राजपूत काल में पंजाब की पहाड़ियों में जम्मू, चम्बा, कुल्लू तथा कांगड़ा नामक राज्यों का उदय हुआ।

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प्रश्न 2.
राजपूत काल में कामरूप किन तीन देशों के बीच व्यापार की कड़ी था ?
उत्तर-
इस काल में कामरूप पूर्वी भारत, तिब्बत तथा चीन के मध्य व्यापार की कड़ी था।

प्रश्न 3.
सिन्ध पर अरबों के आक्रमण का तात्कालिक कारण क्या था ?
उत्तर-
सिन्ध पर अरबों के आक्रमण का तात्कालिक कारण सिन्ध में स्थित कराची के निकट देवल की बंदरगाह पर खलीफा के लिए उपहार ले जाते हुए जहाज़ का लूटा जाना था।

प्रश्न 4.
अरबों के आक्रमण के समय सिन्ध के शासक का नाम क्या था और यह आक्रमण कब हुआ ?
उत्तर-
अरबों ने सिन्ध पर 711 ई० में आक्रमण किया। उस समय सिन्ध में राजा दाहिर का राज्य था।

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प्रश्न 5.
अरबों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र कौन-से दो राज्यों में बंट गया ?
उत्तर-
अरबों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र मंसूरा तथा मुलतान नामक दो राज्यों में बंट गया।

प्रश्न 6.
हिन्दूशाही वंश के चार शासकों के नाम बताएं।
उत्तर-
हिन्दूशाही वंश के चार शासक थे-कल्लार, भीमदेव, जयपाल, आनन्दपाल ।

प्रश्न 7.
गज़नी के राज्य के तीन शासकों के नाम बतायें।
उत्तर-
गज़नी राज्य के तीन शासक थे- अल्पतगीन, सुबुक्तगीन तथा महमूद गज़नवी।

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प्रश्न 8.
गज़नी और हिन्दूशाही वंश के शासकों में संघर्ष का आरम्भ किस वर्ष में हुआ और यह कब तक चला ?
उत्तर-
गज़नी और हिन्दूशाही वंश के शासकों में आपसी संघर्ष 960 ई० से 1021 ई० तक चला।

प्रश्न 9.
1008-09 में महमूद गजनवी के विरुद्ध सैनिक गठजोड़ में भाग लेने वाले उत्तर भारत के किन्हीं चार राज्यों के नाम बताएं ।
उत्तर-
महमूद गज़नवी के विरुद्ध सैनिक गठजोड़ (1008-09) में उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर तथा कन्नौज राज्य शामिल थे।

प्रश्न 10.
शाही राजाओं के विरुद्ध गज़नी के शासकों की विजय का मुख्य कारण क्या था?
उत्तर-
शाही राजाओं के विरुद्ध गज़नी के शासकों की विजय का मुख्य कारण उनका विशिष्ट सेनापतित्व था।

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प्रश्न 11.
महमूद गजनवी ने धन प्राप्त करने के लिए उत्तर भारत के किन चार नगरों पर आक्रमण किये ?
उत्तर-
महमूद गजनवी ने धन प्राप्त करने के लिए उत्तरी भारत के नगरकोट, थानेश्वर, मथुरा तथा कन्नौज के नगरों पर आक्रमण किये।

प्रश्न 12.
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य अब क्या समझा जाता है?
उत्तर-
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य अब यह समझा जाता है कि उसे अपने मध्य एशिया साम्राज्य का विस्तार करना और इसके लिए धन प्राप्त करना था।

प्रश्न 13.
महमूद गजनवी के साथ भारत आये विद्वान् तथा उसकी पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
महमूद गज़नवी के साथ भारत में जो विद्वान् आया, उसका नाम अलबेरूनी था। उसके द्वारा लिखी पुस्तक का नाम ‘किताब-उल-हिन्द’ था ।

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प्रश्न 14.
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य परिणाम क्या हुआ?
उत्तर-
महमूद गजनवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य परिणाम यह हुआ कि पंजाब को गजनी साम्राज्य में मिला लिया।

प्रश्न 15.
कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम बताएं।
उत्तर-
कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम थे-पालवंश, प्रतिहार वंश तथा राष्ट्रकूट वंश।

प्रश्न 16.
प्रतिहार वंश के राजाओं को गुर्जर-प्रतिहार क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
प्रतिहार पश्चिमी राजस्थान के गुर्जरों में से थे। इसीलिए उन्हें गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है।

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प्रश्न 17.
प्रतिहार वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था तथा उसका राज्यकाल क्या था ?
उत्तर-
प्रतिहार वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक राजा भोज था। उसका राज्यकाल 836 ई० से 885 ई० तक था।

प्रश्न 18.
प्रतिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध चार शासक कौन थे ?
उत्तर-
नागभट्ट, वत्सराज, मिहिरभोज तथा महेन्द्रपाल प्रतिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध चार शासक थे।

प्रश्न 19.
राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक कौन था और राष्ट्रकूट राज्य का साम्राज्य में परिवर्तन किस शासक के समय में हुआ?
उत्तर-
राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक दन्तीदुर्ग था। राष्ट्रकूट राज्य का साम्राज्य में परिवर्तन ध्रुव के समय में हुआ।

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प्रश्न 20.
राष्ट्रकूट राज्य की राजधानी कौन-सी थी और इस वंश के दो सबसे शक्तिशाली शासक कौन थे ?
उत्तर-
राष्ट्रकूट राज्य की राजधानी मालखेद या मान्यखेत थी। इन्द्र तृतीय तथा कृष्णा तृतीय इस वंश के सबसे शक्तिशाली शासक थे।

प्रश्न 21.
पाल वंश का सबसे शक्तिशाली राजा कौन था और बंगाल में पाल राजाओं का स्थान किस वंश ने लिया ?
उत्तर-
धर्मपाल पाल वंश का सब से शक्तिशाली शासक था। बंगाल में पाल राजाओं का स्थान सेन वंश ने लिया।

प्रश्न 22.
अग्निकुल राजपूतों से क्या भाव है एवं इनके चार कुलों के नाम बताएं।
उत्तर-
अग्निकुल राजपूतों से भाव उन चार वंशों से है जिनकी उत्त्पति आबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से हुई । ये वंश थे-परिहार, परमार, चौहान तथा चालुक्य।

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प्रश्न 23.
राजपूत काल में गुजरात में कौन-से वंश का राज्य था तथा इनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
राजपूत काल में गुजरात में सोलंकी वंश का राज्य था। इनकी राजधानी अनहिलवाड़ा में थी ।

प्रश्न 24.
मालवा में किस वंश का राज्य था ?
उत्तर-
मालवा में परमार वंश का राज्य था।

प्रश्न 25.
परिहार राजा आरम्भ में किन के सामन्त थे तथा ये किस प्रदेश में शासन कर रहे थे ?
उत्तर-
परिहार राजा आरम्भ में प्रतिहारों के सामान्त थे। वे मालवा में शासन करते थे।

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प्रश्न 26.
अग्निकुल राजपूतों में सबसे प्रसिद्ध वंश कौन-सा था और इनका राज्य किन दो प्रदेशों पर था ?
उत्तर-
अग्निकुल राजपूतों में सब से प्रसिद्ध वंश चौहान वंश था। इनका राज्य गुजरात और राजस्थान में था ।

प्रश्न 27.
तराइन की लड़ाइयाँ कौन-से वर्षों में हुईं और इनमें लड़ने वाला राजपूत शासक कौन था ?
उत्तर-
तराइन की लड़ाइयाँ 1191 ई० तथा 1192 ई० में हुईं । इनमें लड़ने वाला राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान था।

प्रश्न 28.
कन्नौज में प्रतिहारों के बाद किस वंश का राज्य स्थापित हुआ तथा इसका अन्तिम शासक कौन था ?
उत्तर-
कन्नौज में प्रतिहारों के बाद राठौर वंश का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश का अन्तिम शासक जयचन्द था।

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प्रश्न 29.
दिल्ली का आरम्भिक नाम क्या था और इसकी नींव कब रखी गई ?
उत्तर-
दिल्ली का आरम्भिक नाम ढिल्लीका था। इसकी नींव 736 ई० में रखी गई थी ।

प्रश्न 30.
राजपूतों का सबसे पुराना कुल कौन-सा था तथा इसकी राजधानी कौन-सी थी?
उत्तर-
राजपूतों का सबसे पुराना कुल गुहिला था। इसकी राजधानी चित्तौड़ थी।

प्रश्न 31.
कछवाहा तथा कलचुरी राजवंशों की राजधानियों के नाम बताएं ।
उत्तर-
कछवाहा तथा कलचुरी राजवंशों की राजधानियों के नाम थे-गोपगिरी तथा त्रिपुरी।

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प्रश्न 32.
चंदेलों ने किस प्रदेश में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
चंदेलों ने जैजाक भुक्ति में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। खजुराहो उनकी राजधानी थी।

प्रश्न 33.
बंगाल में सेन वंश की स्थापना किसने की तथा इस वंश का अन्तिम राजा कौन था ?
उत्तर-
बंगाल में सेन वंश की स्थापना विद्यासेन ने की थी। इस वंश का अन्तिम राजा लक्ष्मण सेन था।

प्रश्न 34.
उड़ीसा में पूर्वी गंग राजवंश का सबसे महत्त्वपूर्ण राजा कौन था तथा इसने कौन-सा प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था?
उत्तर-
गंग राजवंश का सबसे महत्त्वपूर्ण राजा अनन्तवर्मन था। उसने जगन्नाथपुरी का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया था।

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प्रश्न 35.
दक्कन में परवर्ती चालुक्यों के राज्य का संस्थापक कौन था तथा इनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
दक्कन में परवर्ती चालुक्यों के राज्य का संस्थापक तैल था। इनकी राजधानी कल्याणी थी।

प्रश्न 36.
11वीं सदी में परवर्ती चालक्यों की किन चार पड़ोसी राज्यों के साथ लड़ाई रही ?
उत्तर-
11वीं सदी में परवर्ती चालुक्यों की सोलंकी, चोल, परमार, कलचुरी राज्यों के साथ लड़ाई रही।

प्रश्न 37.
परवर्ती चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कौन था ? उसके बारे में किस लेखक की कौन-सी रचना से पता चलता है।
उत्तर-
परवर्ती चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य छठा था। उसके बारे में हमें बिल्हण की रचना – ‘विक्रमंकदेवचरित्’, से पता चलता है ।

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प्रश्न 38.
परवर्ती चालुक्यों की सबसे भयंकर टक्कर किस राजवंश से हुई और इस झगड़े का कारण कौन- सा । प्रदेश था?
उत्तर-
परवर्ती चालुक्य की सब से भयंकर टक्कर चोल राजवंश से हुई। उनके झगड़े का कारण गी प्रदेश था ।

प्रश्न 39.
चोल वंश के सबसे प्रसिद्ध दो शासकों के नाम तथा उनका राज्यकाल बताएं ।
उत्तर-
चोलवंश के दो प्रसिद्ध शासक राजराजा और राजेन्द्र थे। राजराजा ने 985 ई० से 1014 ई० तक तथा राजेन्द्र ने 1014 ई० से 1044 ई० तक राज्य किया ।

प्रश्न 40.
किस चोल शासक का समय चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के साथ व्यापार की वृद्धि के लिए प्रसिद्ध है? उस शासक का राज्यकाल भी बताएं ।
उत्तर-
कुलोतुंग का राज्यकाल चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के साथ व्यापार की वृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। उसने 1070 ई० से 1118 ई० तक राज्य किया ।

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प्रश्न 41.
चोल राज्य के पतन के बाद दक्षिण में किन चार स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ ?
उत्तर-
चोल राज्य के पतन का पश्चात् दक्षिण में देवगिरी के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसाल और मुदराई के पाण्डेय नामक स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ ।

प्रश्न 42.
अधीन राजाओं के लिए सामन्त शब्द का प्रयोग किस काल में आरम्भ हुआ और किस काल में यह प्रवृत्ति अपने शिखर पर पहुँची?
उत्तर-
‘सामान्त’ शब्द का प्रयोग कनिष्क के काल में अधीन राजाओं के लिए किया जाता था। यह प्रवृत्ति राजपूतों के काल में अपनी चरम-सीमा पर पहुंची।

प्रश्न 43.
राजपूत काल में पारस्परिक झगड़े किस आदर्श से प्रेरित थे और यह कब से चला आ रहा था ?
उत्तर-
राजपूत काल में पारस्परिक झगड़े चक्रवर्तिन के आदर्श से प्रेरित थे। यह झगड़ा सातवीं शताब्दी के आरम्भ से चला आ रहा था।

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प्रश्न 44.
धार्मिक अनुदान लेने वालों को क्या अधिकार प्राप्त था ?
उत्तर-
धार्मिक अनुदान लेने वालों को केवल लगान इकट्ठा करने का ही नहीं बल्कि कई अन्य कर तथा जुर्माने वसूल करने का भी अधिकार प्राप्त था ।

प्रश्न 45.
राजपूत काल में गांव में बिरादरी का स्थान किस संस्था ने लिया तथा इसका क्या कार्य था ?
उत्तर-
राजपूत काल में गाँव में बिरादरी का स्थान गाँव के प्रतिनिधियों की एक छोटी संस्था ने ले लिया ।

प्रश्न 46.
प्रादेशिक अभिव्यक्ति के उदाहरण में दो ऐतिहासिक रचनाओं तथा उनके लेखकों के नाम बताएँ ।
उत्तर-
प्रादेशिक अभिव्यक्ति के उदाहरण में दो ऐतिहासिक रचनाओं तथा उनके लेखकों के नाम हैं-बिल्हण की रचना विक्रमंकदेवचरित् तथा चन्दरबरदाई की रचना पृथ्वीराजरासो ।

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प्रश्न 47.
राजपूत काल में उत्तर भारत में कौन से चार प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य रचना आरम्भ हो गई थी ?
उत्तर-
राजपूत काल में उत्तर भारत में गुजरात, बंगाल, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य रचना आरम्भ हो गई थी।

प्रश्न 48.
राजपूत काल में नई भाषाओं के लिए कौन-से शब्द का प्रयोग किया जाता था और इसका क्या अर्थ था ?
उत्तर-
राजपूत काल में नई भाषाओं के लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग किया जाता था । इस का अर्थ ‘भ्रष्ट होना’ हैं ।

प्रश्न 49.
राजस्थान में किन चार देवताओं के समर्पित मन्दिर मिलते हैं ?
उत्तर-
राजस्थान में ब्रह्मा, सूर्य, हरिहर और त्रिपुरुष देवताओं के समर्पित मन्दिर मिलते हैं।

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प्रश्न 50.
मातृदेवी की पूजा से सम्बन्धित चार देवियों के नाम बताएं ।
उत्तर-
भवानी, चण्डिका, अम्बिका और कौशिकी।

प्रश्न 51.
शैवमत से सम्बन्धित चार सम्प्रदायों के नाम बताएं ।
उत्तर-
कापालिका, कालमुख, पशुपति तथा लिंगायत नामक शैवमत से सम्बन्धित चार सम्प्रदाय थे।

प्रश्न 52.
रामानुज किस प्रदेश के रहने वाले थे और इनका जन्म किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
रामानुज तनिलनाडु के रहने वाले थे। इनका जन्म तिरुपति में हुआ था ।

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प्रश्न 53.
राजपूत काल में प्रचलित विश्वास के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के कौन-से तीन मुख्य साधन थे ?
उत्तर-
राजपूत काल में प्रचलित विश्वास के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के तीन साधन ज्ञान, कर्म और भक्ति थे।

प्रश्न 54.
शंकराचार्य के विपरीत रामानुज ने सबसे अधिक महत्त्व किसको दिया और इनका इष्ट कौन था ?
उत्तर-
शंकराचार्य के विपरीत रामानुज ने सब से अधिक महत्त्व भक्ति को दिया। उन का इष्ट विष्णु था ।

प्रश्न 55.
किन चार प्रकार के लोग तंजौर के मन्दिर से सम्बन्धित थे ?
उत्तर-
तंजौर के मन्दिर से ब्राह्मण पुजारी, देव दासियाँ, संगीतकार तथा सेवक सम्बन्धित थे।

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प्रश्न 56.
राजस्थान में सबसे सुन्दर जैन मन्दिर किस स्थान पर मिलते हैं तथा इनमें से किसी एक मन्दिर का नाम बताएँ।
उत्तर-
राजस्थान में सब से सुन्दर जैन मन्दिर माऊंट आबू में मिलते हैं । इन में से एक मन्दिर का नाम सूर्य मन्दिर है।

प्रश्न 57.
कोणार्क का मन्दिर वर्तमान भारत के किस राज्य में है तथा यह किस देवता को समर्पित है ?
उत्तर-
कोणार्क का मन्दिर उड़ीसा राज्य में है । यह सूर्य देवता को समर्पित है।

प्रश्न 58.
खजुराहो के अधिकांश मन्दिर किस देवता को समर्पित हैं तथा इनमें से प्रसिद्ध एक मन्दिर का नाम बताएं।
उत्तर-
खजुराहो के अधिकांश मन्दिर शिव को समर्पित हैं। इन में नटराज मन्दिर सब से प्रसिद्ध है।

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प्रश्न 59.
भुवनेश्वर वर्तमान भारत के किस राज्य में है तथा इसके सबसे प्रसिद्ध मन्दिर का नाम बताएं ।
उत्तर-
भुवनेश्वर वर्तमान भारत के उड़ीसा राज्य में है। इसका सबसे अधिक प्रसिद्ध मन्दिर नटराज मन्दिर है ।

प्रश्न 60.
शिव के नटराज रूप की मूर्तियां किस राजवंश के समय में बनाई जाती थीं और ये किस धातु में हैं ?
उत्तर-
शिव के नटराज रूप की मूर्तियां चोल राजवंश के समय में बनाई जाती थीं। ये कांसे से बनी हुई हैं।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सिन्ध और मुल्तान में अरब शासन के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
अरबों ने 711-12 ई० में सिन्ध पर आक्रमण किया। मुहमद-बिन-कासिम 712 ई० में देवल पहुँचा। सिन्ध के शासक दाहिर के भतीजे ने उसका सामना किया, परन्तु वह पराजित हुआ। इसके पश्चात् कासिम ने निसन और सहवान पर विजय प्राप्त की। अब वह सिन्ध के सबसे बड़े दुर्ग ब्रह्मणाबाद की विजय के लिए चल पड़ा। रावर के स्थान पर राजा दाहिर ने उससे ज़ोरदार टक्कर ली, परन्तु कासिम विजयी रहा। कुछ ही समय पश्चात् कासिम ब्रह्मणाबाद जा पहुंचा। यहां दाहिर के पुत्र जयसिंह ने उसका सामना किया। एक भयंकर युद्ध के पश्चात् कासिम को विजय प्राप्त हुई। उसने राजा दाहिर की दो सुन्दर कन्याओं को पकड़ लिया और उन्हें भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया। इस विजय के पश्चात् कासिम ने एलौर पर भी अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार 712 ई० तक लगभग सारा सिन्ध अरबों के अधिकार में आ गया।

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प्रश्न 2.
भारत के उत्तर-पश्चिमी में 8वीं से 12वीं शताब्दी तक कौन-कौन से महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए ?
उत्तर-
8वीं से 12वीं शताब्दी तक उत्तर-पश्चिमी भारत में हुए कुछ मुख्य परिवर्तन ये थे :
(1) उत्तर-पश्चिमी भारत में अनेक छोटे-बड़े राजपूत राज्य स्थापित हो गए। इनमें केन्द्रीय सत्ता का अभाव था।

(2) 8वीं शताब्दी के आरम्भ में ही अरबों ने सिन्ध और मुल्तान पर आक्रमण किया। उन्होंने वहां के राजा दाहिर को पराजित करके इन प्रदेशों में अरब शासन की स्थापना की।

(3) 9वीं शताब्दी के आरम्भ में कल्लार नामक एक ब्राह्मण ने गान्धार में साही वंश की नींव रखी। यह राज्य धीरे-धीरे पंजाब के बहुत बड़े भाग पर फैल गया। इस राज्य के अन्तिम शासकों को पहले सुबुक्तगीन और फिर महमूद गज़नवी के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। फलस्वरूप पंजाब गज़नी साम्राज्य का अंग बन गया।

(4) बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी ने राजपूतों को पराजित करके भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना की।

प्रश्न 3.
आठवीं और नौवीं शताब्दियों में उत्तरी भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने लिए जिन तीन राज्यों के बीच संघर्ष हुआ, उसका वर्णन कीजिए।
उत्तर-
आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे । इन राजवशों ने बारीबारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए इस संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफ़ी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैनिक शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर इन तीन राज्यों का पतन हो गया।

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प्रश्न 4.
राष्ट्रकूट शासकों की सफलताओं का संक्षेप में वर्णन करो।
उत्तर-
राष्ट्रकूट वंश की मुख्य शाखा को मानरवेट के नाम से जाना जाता है। इस शाखा का पहला शासक इन्द्र प्रथम था। उसने इस वंश की सत्ता को काफ़ी दृढ़ बनाया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र दंती दुर्ग सिंहासन पर बैठा। दंती दुर्ग की मृत्यु के पश्चात् उसका चाचा कृष्ण प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसने 758 ई० में कीर्तिवर्मन को परास्त करके चालुक्य राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। कृष्ण प्रथम बड़ा कला प्रेमी था। 773 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। कृष्ण प्रथम के पश्चात् क्रमशः गोविन्द द्वितीय और ध्रुव सिंहासन पर बैठे। ध्रुव ने गंगवती के शासक को परास्त करके गंगवती को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने उज्जैन पर भी आक्रमण किया। 793 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। ध्रुव के बाद गोविन्द तृतीय सिंहासन पर बैठा। उसने उत्तरी भारत में कई शासकों को अपने अधीन कर लिया। गोविन्द तृतीय के पश्चात् उसका पुत्र अमोघवर्ष गद्दी पर बैठा। 973 ई० में राष्ट्रकूट वंश का अन्त हो गया।

प्रश्न 5.
प्रतिहार शासकों की प्रमुख सफलताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रतिहार वंश की नींव नौवीं शताब्दी में नागभट्ट प्रथम ने रखी थी। इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक मिहिर भोज था। उसने 836 ई० से 885 ई० तक राज्य किया। उसने अनेक विजयें प्राप्त की। पंजाब, आगरा, ग्वालियर, अवध, अयोध्या, कन्नौज, मालवा तथा राजपूताना का अधिकांश भाग उसके राज्य में सम्मिलित था। मिहिर भोज के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रपाल राजगद्दी पर बैठा। उसने अपने पिता द्वारा स्थापित सदृढ़ साम्राज्य को स्थिर रखा। उसने लगभग 20 वर्षों तक राज्य किया। महेन्द्रपाल के पश्चात् इस वंश के कर्णधार महिपाल, देवपाल, विजयपाल तथा राज्यपाल बने। इन शासकों की अयोग्यता तथा दुर्बलता के कारण प्रतिहार वंश पतनोन्मुख हुआ। राज्यपाल ने महमूद गज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे क्रोधित होकर बाद में आस-पास के राजाओं ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला। इस तरह प्रतिहार वंश का अन्त हो गया।

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प्रश्न 6.
परमार शासकों की उपलब्धियों का विवेचन करो।
अथवा
परमार वंश के राजा भोज की प्रमुख उपलब्धियां बताइये।
उत्तर-
परमारों ने मालवा में 10वीं शताब्दी में अपनी सत्ता स्थापित की। इस वंश का संस्थापक कृष्णराज था। धारा नगरी इस राज्य की राजधानी थी। परमार वंश का प्रथम महान् शासक मुंज था। उसने 974 ई० से 995 ई० तक राज्य किया। वह वास्तुकला का बड़ा प्रेमी था। धनंजय तथा धनिक नामक दो विद्वान् उसके दरबार की महान् विभूतियां थीं। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज था। वह संस्कृत का महान पण्डित था। उसने धारा नगरी में एक संस्कृत विश्वविद्यालय की नींव रखी। उसके शासन काल में अनेक सुन्दर मन्दिरों का निर्माण हुआ। भोपाल के समीप भोजपुर’ नामक झील का निर्माण भी उसी ने करवाया था। उसने शिक्षा और साहित्य को भी संरक्षण प्रदान किया। 1018 ई० से 1060 ई० तक मालवा राज्य की बागडोर उसी के हाथ में रही। उसकी मृत्यु के पश्चात् कुछ ही वर्षों में परमार वंश का पतन हो गया।

प्रश्न 7.
राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में क्या कमियां थीं ?
उत्तर-
राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में ये कमियां थी-

  • राजपूतों में आपसी ईष्या और द्वेष बहुत अधिक था। इसी कारण वे सदा आपस में लड़ते रहे। विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करते हुए उन्होंने कभी एकता का प्रदर्शन नहीं किया।
  • राजपूतों को सुरा, सुन्दरी तथा संगीत का बड़ा चाव था। किसी भी युद्ध के पश्चात् राजपूत रास-रंग में डूब जाते थे।
  • राजपूत समय में संकीर्णता का बोल-बाला था। उनमें सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा प्रचलित थी। वे तन्त्रवाद में विश्वास रखते थे जिनके कारण वे अन्ध-विश्वासी हो गये थे।
  • राजपूत समाज एक सामन्ती समाज था। सामन्त लोग अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। अतः लोग अपने सामन्त या सरदार के लिए लड़ते थे; देश के लिए नहीं।

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प्रश्न 8.
चौहान वंश के उत्थान-पतन की कहानी का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
चौहान वंश की नींव गुवक्त ने रखी। 11वीं शताब्दी में इस वंश के शासक अजयदेव ने अजमेर और फिर 12वीं शताब्दी में बीसलदेव ने दिल्ली को जीत लिया। इस प्रकार दिल्ली तथा अजमेर चौहान वंश के अधीन हो गए। चौहान वंश का राजा बीसलदेव बड़ा ही साहित्य-प्रेमी था। परन्तु इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा पृथ्वीराज चौहान था। उसकी कन्नौज के राजा जयचन्द से भारी शत्रुता थी। इसका कारण यह था कि उसने बलपूर्वक जयचन्द की पुत्री संयोगिता से विवाह कर लिया था। पृथ्वीराज बड़ा ही वीर तथा पराक्रमी शासक था। 1191 ई० में उसने मुहम्मद गौरी को तराइन के प्रथम युद्ध में हराया। 1192 ई० में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज पर फिर आक्रमण किया। इस बार पृथ्वीराज पराजित हुआ। इस प्रकार चौहान राज्य का अन्त हो गया।

प्रश्न 9.
चन्देल शासकों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
चन्देलों ने 9वीं शताब्दी में गंगा तथा नर्मदा के बीच के प्रदेश पर अपना शासन स्थापित किया। इसका संस्थापक सम्भवत: नानक चन्देल था। इस वंश का प्रथम प्रतापी राजा यशोवर्मन था। उसने चेदियों को पराजित करके कालिंजर के किले पर विजय प्राप्त की। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उसने प्रतिहार वंश के शासक देवपाल को भी परास्त किया। यशोवर्मन के पश्चात् इस राज्य के कर्णदार धंग, गंड तथा कीर्तिवर्मन बने। धंग नामक शासक ने खजुराहो में एक मन्दिर बनवाया। गंड ने कन्नौज के शासक राज्यपाल का वध किया। उसने महमूद गज़नवी के साथ भी युद्ध किया। ‘कीरत सागर’ नामक तालाब बनवाने का श्रेय इसी वंश के राजा कीर्तिवर्मन को प्राप्त है। इस वंश का अन्तिम शासक परमाल था। उसे कुतुबद्दीन ऐबक से युद्ध करना पड़ा। युद्ध में परमाल पराजित हुआ। इस प्रकार बुन्देलखण्ड मुस्लिम साम्राज्य का अंग बन गया।

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प्रश्न 10.
सामन्तवाद के अधीन किस प्रकार की राज्य व्यवस्था थी ?
उत्तर-
सामन्तवादी व्यवस्था का प्रारम्भ राजपूत शासकों ने किया था। उन्होंने कुछ भूमि का प्रबन्ध सीधे, अपने हाथों में रख कर शेष भूमि सामन्तों में बांट दी। ये सामन्त शासकों को अपना स्वामी मानते थे तथा युद्ध के समय उन्हें सैनिक सहायता देते थे। सामन्त अपने-अपने प्रदेशों में लगभग राजाओं के समान ही रहते थे। कछ सामन्त अपने-आप को महासामन्त अथवा महाराजा भी कहते थे। वे अपने कर्मचारियों को सेवाओं के बदले उसी प्रकार कर-मुक्त भूमि देते थे जिस प्रकार शासक अपने सामन्तों को देते थे। नकद वेतन देने की व्यवस्था लगभग समाप्त हो गई थी। इसलिए शायद ही किसी राजपूत राजवंश ने सिक्के (मुद्रा) जारी किए हों। ये तथ्य सामन्तवाद की मुख्य विशेषताएं थीं।

प्रश्न 11.
महमूद गज़नवी के आक्रमणों के क्या कारण थे ?
उत्तर-
महमूद गज़नवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किया और बार-बार विजय प्राप्त की। उसके भारत पर आक्रमण के मुख्य कारण ये थे-

  • उन दिनों भारत एक धनी देश था। महमूद भारत का धन लूटना चाहता था।
  • कुछ विद्वानों के अनुसार महमूद भारत में इस्लाम धर्म फैलाना चाहता था।
  • कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि महमूद एक महान् योद्धा था और उसे युद्ध में वीरता दिखाने में आनन्द आता था। उसने अपनी युद्ध-पिपासा को बुझाने के लिए ही भारत पर आक्रमण किया। परन्तु यदि इन उद्देश्यों का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाए तो हमें पता चलेगा कि उसने केवल धन लूटने के उद्देश्य से ही भारत पर आक्रमण किये और अपने इस उद्देश्य में वह पूरी तरह सफल रहा।

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प्रश्न 12.
भारत पर महमूद गज़नवी के आक्रमणों के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर-
1. महमूद के आक्रमणों से संसार को पता चल गया कि भारतीय राजाओं में आपसी फूट है। अतः भारत को विजय करना कठिन नहीं है। इसी बात से प्रेरित होकर बाद में मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किए और यहां मुस्लिम राज्य की स्थापना की।

2. महमूद के आक्रमणों के कारण पंजाब गज़नी साम्राज्य का अंग बन गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों ने पंजाब को 150 वर्षों तक अपने अधीन रखा।

3. महमूद के आक्रमणों के कारण भारत को जनधन की भारी हानि उठानी पड़ी। वह भारत का काफ़ी सारा धन लूटकर गज़नी ले गया। इसके अतिरिक्त उसके आक्रमणों में अनेक लोगों की जानें गईं।

4. महमूद के आक्रमण के समय उसके साथ अनेक सूफी सन्त भारत आए। उनके उच्च चरित्र से अनेक भारतीय प्रभावित हुए। इससे इस्लाम के प्रसार को काफ़ी प्रोत्साहन मिला।

प्रश्न 13.
हिन्दूशाही शासकों के साथ महमूद गज़नवी के संघर्ष में उसकी विजय के क्या कारण थे ?
उत्तर-
हिन्दूशाही शासकों के विरुद्ध संघर्ष में महमूद गज़नवी की विजय के मुख्य कारण ये थे-

  • मुसलमान सैनिकों में धार्मिक जोश था। परन्तु राजपूतों में ऐसे उत्साह का अभाव था।
  • हिन्दूशाही शासकों को अकेले ही महमूद का सामना करना पड़ा। आपसी फूट के कारण अन्य राजपूत शासकों ने उनका साथ न दिया।
  • महमूद गज़नवी में हिन्दूशाही राजपूतों की अपेक्षा कहीं अधिक सैनिक गुण थे।
  • हिन्दूशाही शासक युद्ध में हाथियों पर अधिक निर्भर रहते थे। भयभीत हो जाने पर हाथी कभी-कभी अपने ही सैनिकों को कुचल डालते थे।
  • राजपूत बड़े आदर्शवादी थे। वे घायल अथवा पीछे मुड़ते हुए शत्रु पर वार नहीं करते थे। इसके विपरीत महमूद का उद्देश्य केवल विजय प्राप्त करना था, भले ही अनुचित ढंग से ही क्यों न हो।

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प्रश्न 14.
राजराजा की मुख्य उपलब्धियां क्या थी ?
उत्तर-
राजराजा ने 985 ई० से 1014 ई० तक शासन किया। अपने शासन काल में उसने अनेक सफलताएं प्राप्त की। उसने केरल नरेश तथा पाण्डेय नरेश को पराजित किया। उसने लंका के उत्तरी भाग पर विजय प्राप्त की और यह प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया। उसने लंका के प्रसिद्ध नगर अनुराधापुर को भी लूटा। उसने पश्चिमी चालुक्यों और गी के पूर्वी चालुक्यों का सफलतापूर्वक विरोध किया। राजराजा ने मालदीव पर भी विजय प्राप्त की। राजराजा एक कला प्रेमी सम्राट् था। उसे मन्दिर बनवाने का बड़ा चाव था। तंजौर का प्रसिद्ध राजेश्वर मन्दिर उसने ही बनवाया था। यह मन्दिर भवन-निर्माण कला का उत्तम नमूना है।

प्रश्न 15.
राजेन्द्र चोल की सफलताओं की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
राजेन्द्र चोल एक शक्तिशाली राजा था। उसने 1014 ई० से 1044 ई० तक राज्य किया। वह अपने पिता के साथ अनेक युद्धों में गया था, इसलिए वह युद्ध कला में विशेष रूप से निपुण था। वह भी एक साम्राज्यवादी शासक था। उसने मैसूर के गंग लोगों को और पाण्डयों को परास्त किया। उसने अपनी विजय पताका गोंडवाना राज्य की दीवारों पर फहरा दी! उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के शासकों के विरुद्ध भी संघर्ष किए और सफलता प्राप्त की। उसकी अति महत्त्वपूर्ण विजयें अण्डमान निकोबार तथा मलाया की विजयें थीं। महान् विजेता होने के साथ-साथ वह कुशल शासन प्रबन्धक भी था। उसने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। उसने गंगइकोंड चोलपुरम् में अपनी नई राजधानी की स्थापना की। इस नगर को उसने अनेक भवनों तथा मन्दिरों से सुसज्जित करवाया। शिक्षा के प्रचार के लिए उसने एक वैदिक कॉलेज की स्थापना की। उसकी इन महान् सफलताओं के कारण उसके शासन को चोल वंश का स्वर्ण युग माना जाता है।

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प्रश्न 16.
राजपूत काल में शैव मत किन रूपों में लोकप्रिय था ?
उत्तर-
राजपूत काल में हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से दो विचारधाराएं ही अधिक प्रचलित हुईं-वैष्णव मत तथा शैवमत। शैवमत के कई रूप थे तथा यह दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था। कुछ शैव सम्प्रदाय सामाजिक दृष्टि से परस्पर विरोधी भी थे, जैसे कि कपालिक, कालमुख तथा पशुपति। 12वीं शताब्दी में वासवराज ने शैवमत की एक नवीन लहर चलाई। इसके अनुयायी लिंगायत या वीर शैव कहलाए। ये लोग शिव की लिंग रूप में पूजा करते थे तथा पूर्ण विश्वास के साथ प्रभु-भक्ति में आस्था रखते थे। इन लोगों ने बाल-विवाह का विरोध करके और विधवा-विवाह का समर्थन करके ब्राह्मण रूढ़िवाद पर गम्भीर चोट की। दक्षिणी भारत में शिव के लिंग रूप के साथ-साथ नटराज के रूप में भी पूजा काफ़ी प्रचलित थी। वहां के लोगों ने शिव के नटराज रूप को धातु की सुन्दर मूर्तियों में ढाला।

प्रश्न 17.
राजपूत काल में मन्दिरों का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
राजपूत काल में मन्दिरों का महत्त्व बढ़ गया था। दक्षिणी भारत में इनका महत्त्व उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक था। वह उस समय के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के मुख्य केन्द्र थे। राजाओं से लेकर व्यापारियों तक सभी ने मन्दिरों के निर्माण में रुचि ली। राजाओं ने अनेक विशाल मन्दिर बनवाए। ऐसे मन्दिरों की देख-रेख का कार्य भी बड़े स्तर पर होता था। उदाहरणार्थ तंजौर के मन्दिर में 400 देवदासियां, 57 संगीतकार, 212 सेवादार तथा सैंकड़ों ब्राह्मण पुजारी थे। राजा तथा अधीनस्थ लोग मन्दिरों को दिल खोल कर दान देते थे, जिनकी समस्त आय मन्दिरों में जाती थी। इस प्रकार लगभग सभी मन्दिर बहुत धनी थे। तंजौर के मन्दिर में सैंकड़ों मन सोना, चांदी तथा बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए थे।

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प्रश्न 18.
क्या राजपूत काल को अन्धकाल कहना उचित होगा ?
उत्तर-
कुछ इतिहासकार राजपूत काल को ‘अन्धकाल’ कहते हैं। वास्तव में इस काल में कुछ ऐसे तथ्य विद्यमान थे जो ‘अन्धकाल’ के सूचक हैं। उदारहण के लिए यह राजनीतिक विघटन का युग था। देश में राजनीतिक एकता बिल्कुल समाप्त हो गई थी। देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हआ था। यहां के सरदार स्वतन्त्र शासक थे। इसके अतिरिक्त राजपूत काल में विज्ञान तथा व्यापार को भी क्षति पहुंची। इन सभी बातों के आधार पर ही इतिहासकार राजपूत काल को ‘अन्धकाल’ कहते हैं। परन्तु राजपूत काल की उपलब्धियों की अवहेलना भी नहीं की जा सकती। इस काल में देश में अनेक सुन्दर मन्दिर बने, जिन्हें आकर्षक मूर्तियों से सजाया गया। इसके अतिरिक्त देश के भिन्न-भिन्न राज्यों में भारतीय संस्कृति पुनः फैलने लगी। सबसे बड़ी बात यह थी कि राजपूत बड़े वीर तथा साहसी थे। इस प्रकार राजपूत युग की उपलब्धियां इस काल में कमजोर पक्ष से अधिक महान् थों। इसलिए इस युग को ‘अन्धकाल’ कहना उचित नहीं है।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजपूत कौन थे ? उनकी उत्पत्ति के विषय में अपने विचार लिखिए।
उत्तर-
राजपूत लोग कौन थे ? इस विषय में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। वे उनकी उत्पत्ति के बारे में कई सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। इनमें से कुछ मुख्य सिद्धान्त ये हैं-

1. विदेशियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त को कर्नल टॉड ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार राजपूत हूण, शक तथा कुषाण आदि विदेशी जातियों के वंशज हैं। इन विदेशी जातियों के लोगों ने भारतीयों के साथ विवाह-सम्बन्ध जोड़े और स्वयं भारत में बस गए। इन्हीं लोगों की सन्तान राजपूत कहलाई। कर्नल टॉड का कहना है कि प्राचीन इतिहास में ‘राजपूत’ नाम के शब्द का प्रयोग कही नहीं मिलता। अत: वे अवश्य ही विदेशियों के वंशज हैं।

2. क्षत्रियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-यह सिद्धान्त वेद व्यास ने प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि राजपूत क्षत्रियों के वंशज हैं और ‘राजपूत’ शब्द ‘राजपुत्र’ (क्षत्रिय) का बिगड़ा हुआ रूप है। इसके अतिरिक्त राजपूतों के रीति-रिवाज वैदिक क्षत्रियों से मेल खाते हैं।

3. मूल निवासियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-कुछ इतिहासकारों का मत है कि राजपूत विदेशी न होकर भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं। इस सिद्धान्त के पक्ष में कहा जाता है कि चन्देल राजपूतों का सम्बन्ध भारत की गौंड जाति से है। परन्तु अधिकतर इतिहासकार इस सिद्धान्त को सत्य नहीं मानते।

4. अग्निकुण्ड का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त का वर्णन चन्दबरदाई ने अपनी पुस्तक ‘पृथ्वी-राजरासो’ में किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार राजपूत यज्ञ की अग्नि से जन्मे थे। कहा जाता है कि परशुराम ने सभी क्षत्रियों का नाश कर दिया था जिसके कारण क्षत्रियों की रक्षा करने वाला कोई वीर धरती पर न रहा था। अत: उन्होंने मिल कर आबू पर्वत पर यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि से चार वीर पुरुष निकले, जिन्होंने चार महान् राजपूत वंशों-परिहार, परमार, चौहान तथा चालुक्य की नींव रखी। परन्तु अधिकतर इतिहासकार इस सिद्धान्त को कल्पना मात्र मानते हैं।

5. मिश्रित उत्पत्ति का सिद्धान्त-यह सिद्धान्त डॉ० वी० ए० स्मिथ (Dr. V.A. Smith) ने प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि राजपूत न तो पूर्णतया विदेशियों की सन्तान हैं और न ही भारतीयों की। राजपूत वास्तव में एक मिली-जुली जाति है। उनके अनुसार कुछ राजपूतों की उत्पत्ति शक, हूण, कुषाण आदि विदेशी जातियों से हुई थी और कुछ राजपूत भारत के मूल निवासियों तथा प्राचीन क्षत्रियों से उत्पन्न हुए थे।

6. उनका विचार है कि आबू पर्वत पर किया गया यज्ञ राजपूतों की शुद्धि के लिए किया गया था न कि वहां से राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी। इन सभी सिद्धान्तों में हमें डॉ० स्मिथ का ‘मिश्रित उत्पत्ति’ का सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक ठीक जान पड़ता है। उनके इस सिद्धान्त को अन्य अनेक विद्वानों ने भी स्वीकार कर लिया है।

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प्रश्न 2.
राजपूतों (उत्तर भारत) के सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन का विवरण दीजिए।
अथवा
राजपूतों के अधीन उत्तर भारत के राजनीतिक जीवन की मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
647 ई० से लेकर 1192 ई० तक उत्तरी भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे। इन राज्यों के शासक ‘राजपूत’ थे। इसलिए भारतीय इतिहास में यह युग ‘राजपूत काल’ के नाम से जाना जाता है। इस समय में उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन का वर्णन इस प्रकार है

1. राजनीतिक जीवन-राजपूतों में राजनीतिक एकता का अभाव था। सभी राजपूत राजा अलग-अलग राज्यों पर शासन करते थे। वे अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। उन्होंने किसी प्रकार की केन्द्रीय व्यवस्था नहीं की हुई थी। राजपूत राज्य का मुखिया राजा होता था। राज्य की सभी शक्तियाँ उसी के हाथ में थीं। वह मुख्य सेनापति था। न्याय का मुख्य स्रोत भी वह स्वयं था। कुछ राजपूत राज्यों में युवराज और पटरानियाँ भी शासन कार्यों में राजा की सहायता करती थीं। राजा की सहायता के लिए मन्त्री होते थे। इनकी नियुक्ति राजा द्वारा होती थी। इन मन्त्रियों का मुखिया महामन्त्री अथवा महामात्यं कहलाता था। सेनापति को दण्डनायक कहते थे। राजपूतों की राजनीतिक प्रणाली की आधारशिला सामन्त प्रथा थी। राजा बड़ी-बड़ी जागीरें सामन्तों में बाँट देता था। इसके बदले में सामन्त राजा को सैनिक सेवाएँ प्रदान करता था। राज्य की आय के मुख्य साधन भूमिकर, चुंगी-कर, युद्ध-कर, उपहार तथा जुर्माने आदि थे। राजा स्वयं न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। वह स्मृति के नियमों के अनुसार न्याय करता था। दण्ड कठोर थे। राजपूतों का सैनिक संगठन अच्छा था। उनकी सेना में पैदल, घुड़सवार तथा हाथी होते थे। युद्ध में भालों, तलवारों आदि का प्रयोग होता था। किलों की विशेष व्यवस्था की जाती थी।

2. सामाजिक जीवन-राजपूतों में जाति बन्धन बड़े कठोर थे। उनके यहाँ ऊंचे गोत्र वाले नीचे गोत्र में विवाह नहीं करते थे। राजपूत समाज में स्त्री का मान था। स्त्रियां युद्ध में भाग लेती थीं। उनमें पर्दे की प्रथा नहीं थी। वे शिक्षित थीं। उच्च कुल की कन्याएँ स्वयंवर द्वारा अपना वर चुनती थीं। राजपूत बड़े वीर तथा साहसी थे। वे कायरों से घृणा करते थे। परन्तु उनमें कुछ अवगुण थी थे। वे भाँग, शराब तथा अफीम का सेवन करते थे। वे नाच-गाने का भी बड़ा चाव रखते थे।

3. धार्मिक जीवन-राजपूत हिन्दू देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे। वे राम तथा कृष्ण को अवतार मानकर उनकी पूजा करते थे। उनमें शिव की पूजा सबसे अधिक प्रचलित थी। राजपूतों में मूर्ति पूजा भी प्रचलित थी। उन्होंने अपने देवताओं के मन्दिर बनवाए हुए थे। इनमें अनेक देवी-देवताओं की मूतियाँ स्थापित की जाती थीं। वेद, रामायण तथा महाभारत उनके प्रिय ग्रन्थ थे। वे प्रतिदिन इनका पाठ करते थे। राजपूत बड़े अन्धविश्वासी थे। वे जादू-टोनों में बड़ा विश्वास रखते थे।

4. सांस्कृतिक जीवन-राजपूतों ने विशाल दुर्ग तथा सुन्दर महल बनवाये। चित्तौड़ का किला राजपूत भवन-निर्माण कला का एक सुन्दर उदाहरण है। जयपुर और उदयपुर के राजमहल भी कला की दृष्टि से उत्तम माने जाते हैं। उनके द्वारा बनवाये गए भुवनेश्वर तथा खजुराहो के मन्दिर उनकी भवन-निर्माण कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।

राजपूत युग में साहित्य ने भी बड़ी उन्नति की। मुंज, भोज तथा पृथ्वीराज आदि राजपूत राजा बहुत विद्वान् थे। उन्होंने साहित्य के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ तथा जयदेव की ‘गीत गोविन्द’ इस काल की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक रचनाएँ हैं।

प्रश्न 3.
महमूद गज़नवी के प्रमुख आक्रमणों का वर्णन करो।
उत्तर-
महमूद गज़नवी गज़नी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। 997 ई० में उसके पिता की मृत्यु हो गई और वह गज़नी का शासक बना। वह एक वीर योद्धा तथा कुशल सेनानायक था। उसने 1000 ई० से लेकर 1027 ई० तक भारत पर 17 आक्रमण किए और प्रत्येक आक्रमण में विजय प्राप्त की।
महमूद गज़नवी के प्रमुख आक्रमण-महमूद गज़नवी के कुछ प्रमुख आक्रमणों का वर्णन इस प्रकार हैं-

1. जयपाल से युद्ध-महमूद गज़नवी ने 1001 ई० में पंजाब के शासक जयपाल से युद्ध किया। यह युद्ध पेशावर के निकट हुआ। इसमें जयपाल की हार हुई और और उसने महमूद को 25 हज़ार सोने की मोहरें देकर अपनी जान बचाई। परन्तु जयपाल की प्रजा ने इसे अपना अपमान समझा और उसे अपना राजा मानने से इन्कार कर दिया। अत: जयपाल जीवित जल मरा।।

2. आनन्दपाल से युद्ध-आनन्दपाल जयपाल का पुत्र था। महमूद गजनवी ने 1008 ई० में उसके साथ युद्ध किया। यह युद्ध भी पेशावर के निकट हुआ। इस युद्ध में अनेक राजपूतों ने आनन्दपाल की सहायता की। उसकी सेना ने बड़ी वीरता से महमूद का सामना किया। परन्तु अचानक बारूद फट जाने से आनन्दपाल का हाथी युद्ध क्षेत्र से भाग निकला और उसकी जीत हार में बदल गई। इस प्रकार पंजाब पर महमूद गज़नवी का अधिकार हो गया।

3. नगरकोट पर आक्रमण-1009 ई० में महमूद गजनवी ने नगरकोट (कांगड़ा) पर आक्रमण किया। यहां के विशाल मन्दिरों में अपार धन-सम्पदा थी। महमूद ने यहां के धन को खूब लूटा। फरिश्ता के अनुसार, यहां से 7 लाख स्वर्ण दीनार, 700 मन सोने-चांदी के बर्तन तथा 20 मन हीरे-जवाहरात महमूद के हाथ लगे। इसके कुछ समय पश्चात् महमूद ने थानेश्वर और मथुरा के मन्दिरों का भी बहुत सारा धन लूट लिया और मन्दिरों को तोड़फोड़ डाला।

4. कालिंजर के चन्देलों से युद्ध-राजपूत शासक राज्यपाल ने 1019 ई० में महमूद गज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली थी। यह बात अन्य राजपूत शासकों को अच्छी न लगी। अतः कालिंजर के चन्देल शासक ने राज्यपाल पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला। महमूद गज़नवी ने राज्यपाल की हार को अपनी हार समझा और इसका बदला लेने के लिए 1021 ई० में उसने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। चन्देल शासक डर के मारे भाग निकला। इस विजय से भी महमूद के हाथ काफी सारा धन लगा।

5. सोमनाथ पर आक्रमण-सोमनाथ का मन्दिर भारत का एक विशाल मन्दिर था। इस मन्दिर में अपार धन भरा पड़ा था। इस मन्दिर की छत जिन स्तम्भों के सहारे खड़ी थी, उनमें 56 रत्न जड़े हुए थे। इस मन्दिर की सबसे बड़ी विशेषता सोमनाथ की मूर्ति थी। यहाँ का धन लूटने के लिए महमूद गजनवी ने 1025 में सोमनाथ पर आक्रमण कर दिया। कुछ ही समय में वह इस मन्दिर की सारी सम्पत्ति लूट कर चलता बना।
सोमनाथ के आक्रमण के पांच वर्ष पश्चात् 1030 ई० में महमूद की मृत्यु हो गई।

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प्रश्न 4.
महमूद गज़नवी के आक्रमणों के उद्देश्यों और प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
महमूद गज़नवी एक महान् योद्धा था। उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया। उसने अनेक राज्यों में भयंकर लूटमार की। मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। संक्षेप में उसके आक्रमणों के उद्देश्यों और प्रभावों का वर्णन इस प्रकार है
उद्देश्य-

1. धन सम्पत्ति को लूटना-महमूद के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य भारत का धन लूटना था। भारत के मन्दिरों में अपार धन राशि थी। महमूद की आँखें इस धन पर लगी हुई थीं। यही कारण था कि उसने केवल उन्हीं स्थानों पर आक्रमण किया जहां से उसे अधिक-से-अधिक धन प्राप्त हो सकता था।

2. इस्लाम धर्म का प्रचार-कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महमूद भारत में इस्लाम धर्म का प्रसार करना चाहता था। भारत के हिन्दू मन्दिरों और उनकी मूर्तियों को तोड़ना महमूद की धार्मिक कट्टरता का प्रमाण है। उसने इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वाले अनेक लोगों की हत्या कर दी।

3. युद्ध लिप्सा-महमूद एक महान् सैनिक योद्धा था। उसे युद्ध करके अपना शौर्य दिखाने में आनन्द आता था। अतः कुछ विद्वानों का कहना है कि उसने अपनी युद्ध लिप्सा के कारण ही भारत पर आक्रमण किये।

प्रभाव-
1. भारत की राजनीतिक दुर्बलता का भेद खुलना-भारतीय राजाओं को महमूद ने बुरी तरह परास्त किया। इससे भारत की राजनीतिक दुर्बलता का पर्दा उठ गया। महमूद के बाद आक्रमणकारियों ने भारतीय राजाओं की फूट का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने भारत पर अनेक आक्रमण किए। उन्हें इन आक्रमणों में भारी सफलता मिली।

2. मुस्लिम राज्य की स्थापना में सुगमता-महमूद के आक्रमणों के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों का रास्ता साफ हो गया। उन्हें भारतीय राजाओं को हराकर भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित करने में किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ा।

3. जन-धन की अपार हानि-महमूद ने भारत में खूब रक्तपात किया। उसने मन्दिरों को लूटा और बहुत-सा सोना-चांदी तथा हीरे-जवाहरात ऊंटों पर लाद कर अपने साथ ले गया। इस तरह भारत को जन-धन की भारी हानि उठानी पड़ी।

4. इस्लाम धर्म का प्रसार-महमूद ने इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वालों की हत्या कर दी। इससे भयभीत होकर भारत के हज़ारों लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।

5. भारतीय संस्कृति को आघात-महमूद ने अनेक भारतीय मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस तरह भारतीय कला की अनेक सुन्दर इमारतें नष्ट हो गईं। परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति को काफी आघात पहुंचा।

6. पंजाब को गज़नवी साम्राज्य में मिलना-महमूद ने भारत पर कई आक्रमण किये परन्तु उसने केवल पंजाब को ही गज़नी राज्य में मिलाया। वह इसी प्रदेश को आधार बनाकर भारत में अन्य प्रदेशों पर आक्रमण करना चाहता था और वहां के धन को लूटना चाहता था। सच तो यह है कि महमूद के आक्रमणों के कारण इस देश में धन-जन की हानि हुई, इस्लाम धर्म फैला तथा हमारी संस्कृति को हानि पहुंची। किसी ने सच ही कहा है, “महमूद एक अमानवीय अत्याचारी था जिसने हमारे धार्मिक स्थानों को ध्वस्त किया।

प्रश्न 5.
राजूपतों की सामन्त व्यवस्था के मुख्य पहलुओं पर प्रकाश डालिए। विशेष रूप से इसके सामाजिक तथा आर्थिक परिणामों की चर्चा कीजिए।
अथवा
राजूपतों की सामंतवादी प्रथा का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
सामन्तवादी व्यवस्था वह व्यवस्था थी जिसका प्रारम्भ राजपूत शासकों ने किया था। उन्होंने कुछ भूमि का प्रबन्ध सीधे अपने हाथों में रख कर शेष भूमि सामन्तों में बांट दी। ये सामन्त शासकों को अपना स्वामी मानते थे तथा युद्ध के समय उसे सैनिक सहायता देते थे। सामन्त अपने-अपने प्रदेशों में लगभग राजाओं के समान ही रहते थे। कुछ सामन्त अपने-आप को महासामन्त अथवा महाराजा भी कहते थे। वे अपने कर्मचारियों को सेवाओं के बदले उसी प्रकार कर-मुक्त भूमि देते थे, जिस प्रकार शासक अपने सामन्तों को देते थे। नकद वेतन देने की व्यवस्था लगभग समाप्त हो गई थी। इसलिए शायद ही किसी राजपूत राजवंश ने सिक्के (मुद्रा) जारी किए हों।

सामाजिक तथा आर्थिक परिणाम-सामन्तवादी व्यवस्था के कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक परिणाम निकले-
1. राज्य का किसानों से कोई सीधा सम्पर्क नहीं था। उनके मध्य दावेदारों की संख्या काफ़ी बढ़ गई थी।

2. किसानों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई। उन्हें भूमि से किसी भी समय बेदखल किया जा सकता था। उनसे बेगार ली जाती थी।

3. इस व्यवस्था के कारण स्थानीय आत्म-निर्भरता पर आधारित अर्थव्यवस्था आरम्भ हुई। इसका अर्थ यह था कि प्रत्येक राज्य केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही वस्तुओं का उत्पादन करता था। परिणामस्वरूप व्यापार को बहुत चोट पहुंची।

4. इस व्यवस्था के कारण भूमि के निजी स्वामित्व की प्रथा आरम्भ हई। इससे सामन्तों तथा राजाओं को काफ़ी लाभ पहुंचा क्योंकि समस्त भूमि के मालिक वे स्वयं थे।

5. भूमि का स्वामित्व मिलने पर राजाओं ने सरकारी कर्मचारियों तथा पूरोहितों को बड़ी-बड़ी जागीरें दान में देनी शुरू कर दीं।

6. भूमि के विभाजन से राज्यों की शक्ति घटने लगी जब कि जागीरदार दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होते गए। ये बात राजा के हितों के विरुद्ध थी।

सामन्तवाद का महत्त्व-सामन्तवाद प्रथा का बड़ा महत्त्व है जिसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
1. भूमि के स्वामित्व से सामाजिक सद्भाव को ठेस पहुंची। इससे ग्राम सभा की स्थिति महत्त्वपूर्ण हो गई तथा उसका स्थान पंचायत ने ले लिया। इसमें सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति होते थे तथा वे गांव के विवादों में सरकारी कर्मचारियों की सहायता करते थे।

2. युद्ध को आवश्यक समझा जाने लगा। इसके फलस्वरूप लोगों में सैन्य गुणों का विकास हुआ और वीर सैनिकों का महत्त्व बढ़ने लगा। महिलाएं भी वीरांगनाओं के रूप में उभरने लगीं। जौहर की प्रथा उनकी वीरता का बहुत बड़ा प्रमाण है।

3. सामन्तवादी व्यवस्था के कारण कृषि का विकास हुआ। भूमि अनुदान देने वाले लोगों ने अपने अधीनस्थ किसानों की सहायता से बहुत-सी वीरान भूमि को कृषि योग्य बना लिया।

4. कई नए कबीलों को भी कृषि-कार्य सिखाया गया। इन नए किसानों ने धीरे-धीरे ब्राह्मण संस्कृति को अपना लिया प्रससे हिन्दुओं की संख्या में वृद्धि हुई।

5. सामन्तवादी व्यवस्था की एक अन्य उपलब्धि यह थी कि इससे लोगों में प्रादेशिक रुचि बढ़ी। फलस्वरूप प्रादेशिक
तथा प्रादेशिक भाषाओं का विकास हुआ। बिल्हण ने ‘विक्रमंकदेवचरित्’ की रचना की। इस पुस्तक में चालुक्य राजा “दत्य चतुर्थ का जीवन वृत्तान्त है। चन्दरबरदाई ने ‘पृथ्वीराजरासो’ में पृथ्वीराज चौहान की सफलताओं का वर्णन किया हण ने ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर का इतिहास लिखा।

6. इसी प्रकार कुछ नई भाषाओं का भी उदय हुआ। इन भाषाओं का विकास मुख्यत: गुजरात, बंगाल, महाराष्ट्र तथा संस्कृति में ” श में हुआ। कन्नड़ तथा तमिल भाषाओं का विकास पहले ही हो गया था। इन भाषाओं के आधार पर बाद में प्रादेशिक का विकास हुआ। जो यह है कि सामन्तवाद जहां राजाओं के हितों के विरुद्ध था, वहां समाज तथा संस्कृति के लिए एक अदृश्य वरदान सिद्ध हुआ |

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल

प्रश्न 6.
राजपूतों के विरुद्ध तुर्की सफलता के कारणों का विवेचन कीजिए। कोई पांच कारण लिखिए।
उत्तर-
राजपूतों की हार का कोई एक कारण नहीं था। उनकी असफलता का कारण उनके अपने अवगुण तथा मुसलमानों के गुण थे। तुर्क (मुस्लिम आक्रमणकारी) धार्मिक जोश से लड़े। उनमें धार्मिक एकता थी। राजपूतों में बहुत मतभेद थे। राजपूतों के लड़ने का ढंग मुसलमानों के मुकाबले में बहुत अच्छा नहीं था। इस तरह की अनेक बातों के कारण राजपूतों को असफलता का मुंह देखना पड़ा और मुस्लिम आक्रमणकारी सफल हुए। इन कारणों का वर्णन इस प्रकार है-

1. राजनीतिक एकता का अभाव-ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। इन राज्यों के शासक प्रायः आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। मुहम्मद गौरी ने जब पृथ्वीराज पर आक्रमण किया तो जयचन्द ने पृथ्वीराज की कोई सहायता नहीं की। यही दशा शेष राजाओं की थी। ऐसी स्थिति में राजपूतों का पराजित होना निश्चित ही था। सी० बी० वैद्य के शब्दों में, “चौहान, चन्देल, राठौर तथा चालुक्य वंश के राजा राजनीतिक एकता के आदर्श को भूल कर पृथक्-पृथक् लड़े और मुसलमानों के हाथों मार खा गए।”

2. राजपूत शासकों में दूरदर्शिता की कमी-राजपूत शासक वीर और साहसी तो थे, परन्तु उनमें दूरदर्शिता की कमी थी। उन्होंने भारतीय सीमाओं को सुदृढ़ करने का कभी प्रयास न किया और न ही शत्रु को सीमा पर रोकने के लिए कोई उचित पग उठाया। अतः राजपूतों में दूरदर्शिता की कमी उनकी पराजय का एक प्रमुख कारण बनी।

3. स्थायी सेना का अभाव-राजपूत शासकों के पास कोई स्थायी सेना नहीं थी। वे आक्रमण के समय अपने जागीरदारों (सामन्तों) से सैनिक सहायता लिया करते थे। इसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि भिन्न-भिन्न जागीरदारों द्वारा भेजे गए सैनिकों का लड़ने का ढंग भी भिन्न होता था। ऐसी दशा में सैनिकों में अनुशासन नहीं रह सकता था। अनुशासनहीन सेना की पराजय . निश्चित थी।

4. युद्ध-प्रणाली में अन्तर-राजपूतों की युद्ध-प्रणाली पुरानी तथा घटिया किस्म की थी। उन्हें अपने हाथियों पर बड़ा विश्वास था, परन्तु मुस्लिम घुड़सवारों के सामने उनके हाथी टिक न सके। घोड़े युद्ध में हाथियों की अपेक्षा काफ़ी तेज़ गति से दौड़ते थे।

5. मुसलमानों का कुशल सैनिक संगठन-राजपूत राजा युद्ध करते समय अपनी सेना को तीन भागों में बांटते थे जबकि मुसलमानों की सेना पांच भागों में बंटी होती थी। इनमें से ‘अंगरक्षक’ तथा ‘पृथक् रक्षित’ सैनिक बहुत महत्त्वपूर्ण थे। ये टुकड़ियां पहले तो युद्ध से अलग रहती थीं, परन्तु जब शत्रु सैनिक थक जाते थे तो ये अचानक ही उन पर टूट पड़ती थीं। इस प्रकार थकी हुई राजपूत सेना के लिए उनका सामना करना कठिन हो जाता था।

6. राजपूतों के घातक आदर्श-राजपूत युद्ध में निहत्थे शत्रु पर वार करना कायरता समझते थे। वे युद्ध में छल-कपट में विश्वास नहीं करते थे। उनके ये घातक आदर्श उनकी पराजय का कारण बने।

7. हिन्दुओं में जाति-पाति का भेदभाव-हिन्दू समाज अनेक जातियों में विभक्त था। सभी जातियों को अपना पैतृक धन्धा ही अपनाना पड़ता था। रक्षा का भार केवल क्षत्रियों के कन्धों पर था। अन्य जातियों के लोग विदेशी आक्रमणों के समय भी अपने-अपने कार्यों में लगे रहते थे। दूसरी ओर मुसलमानों की सेना में सभी जातियों के लोग शामिल होते थे। इन परिस्थितियों में राजपूतों का पराजित होना निश्चित था।

8. मुसलमानों में धार्मिक जोश-मुसलमान सैनिकों में धार्मिक जोश था। वे हिन्दुओं से लड़ना अपना परम कर्तव्य मानते थे। हिन्दुओं के विरुद्ध वे अपने युद्धों को धर्म-युद्ध अथवा ‘जिहाद’ का नाम देते थे। जीतना या मर मिटना उनका एकमात्र उद्देश्य था। ऐसी दशा में हिन्दुओं का पराजित होना निश्चित ही था। .. सच तो यह है कि मुसलमान अनेक बातों में राजपूतों से आगे थे। उनके कुशल सैनिक संगठन तथा उनकी ‘ भावनाओं का सामना करना राजपूतों के लिए बड़ा कठिन था। यहां तक कि राजपूतों को उनकी अपनी जनता का सहर न मिला। एक इतिहासकार के शब्दों में, “जनता ने अपने सरदारों तथा सैनिकों को सहयोग न दिया जिसके परिणाम राजपूत पराजित हुए।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions वालीबाल (Volleyball) Game Rules.

वालीबाल (Volleyball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. वालीबाल मैदान की लम्बाई चौड़ाई = 18 × 9 मीटर
  2. नैट के ऊपरली पट्टी की चौड़ाई = 7 सैं० मी०
  3. एनटीनों की संख्या = 2
  4. एनटीना की लम्बाई = 1.80 मीटर
  5. एनटीने का घेरा = 10 मि॰मी
  6. पोल की साइज रेखा से दूरी = 1 मीटर
  7. नैट की लम्बाई और चौड़ाई = 9.50 मीटर × 1 मीटर
  8. जाल के छेदों का आकार = 10 सैं० मी०
  9. पुरुषों के लिए नैट की ऊंचाई = 2.43 मीटर
  10. स्त्रियों के लिए नैट की ऊंचाई = 2.24 मीटर
  11. गेंद की परिधि = 65 से 67 सैं० मी०
  12. गेंद का रंग = कई रंगों वाला
  13. गेंद का भार = 260 ग्राम से 280 ग्राम
  14. टीम के खिलाड़ियों की गिनती = 12 (6 खेलने वाले, 6 बदलवें)
  15. मैच के अधिकारी = दो रैफरी, स्कोरर, लाइन मैन 2 अथवा 4
  16. पीठ पर लेग नम्बरों का आकार = लम्बाई = 15 सैं० मी०, चौड़ाई = 2 सैं० मी०, पीठ पर 20 सैं०मी०
  17. रेखाओं की चौड़ाई = 5 सैंमी
  18. मैदान को बाँटने वाली रेखा = केन्द्रीय रेखा
  19. सर्विस रेखा की लम्बाई = 9 मीटर

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

वालीबाल खेल की संक्षेप रूप-रेखा (Brief outline of the Volley Ball)

  1. वालीबाल की खेल में 12 खिलाड़ी भाग लेते हैं जिनमें से 6 खेलते हैं तथा 6 बदलवे (Substitutes) होते हैं।
  2. भाग लेने वाली दो टीमों में से, प्रत्येक टीम में छः खिलाड़ी होते हैं।
  3. ये खिलाडी अपने कोर्ट में खडे होकर बाल को नैट से पार करते हैं।
  4. जिस टीम के कोर्ट में गेंद गिर जाए उसके विरुद्ध प्वाइंट दे दिया जाता है। यह प्वाइंट टेबल टेनिस खेल की तरह होते हैं।
  5. वालीबाल के खेल में कोई समय नहीं होत बल्कि बैस्ट ऑफ़ थ्री या बैस्ट ऑफ़ फ़ाइव की गेम लगती है।
  6. नैट के नीचे अब रस्सी नहीं डाली जाती।
  7. जो टीम टॉस जीतती है वह सर्विस या साइड ले सकती है।
  8. वालीबाल के खेल में दो खिलाड़ी बदले जा सकते हैं।
  9. यदि सर्विस नैट से 5 से 6 इंच ऊंची आती है तो विरोधी टीम का खिलाड़ी बाल ब्लॉक कर सकता है।
  10. यदि कोई टीम समय पर नहीं आती तो 15 मिनट तक इन्तज़ार किया जा सकता है। बाद में टीम को स्करैच किया जा सकता है।
  11. एक गेम 25 प्डवाइंट की होती है।
  12. लिबरो खिलाड़ी कभी भी बदला जा सकता है परन्तु वह खेल में आक्रमण नहीं कर सकता।
  13. एनटीने की लम्बाई 1.80 मीटर होती है।
  14. खिलाड़ी बाल को किक लगा कर अथवा शरीर के किसी दूसरे भाग से हिट करके विरोधी पाले में भेज सकता
  15. यदि सर्विस करते समय बाल नैट को छू जाए और विरोधी पाले में चला जाए तो सर्विस ठीक मानी जाएगी।

PSEB 11th Class Physical Education Guide वालीबाल (Volleyball) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
वालीबाल के मैदान की लम्बाई तथा चौड़ाई लिखें।
उत्तर-
वालीबाल मैदान की लम्बाई व चौड़ाई = 18 × 9 मीटर।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
वालीबाल की बाल का भार कितना होता है ?
उत्तर-
260 ग्राम से 280 ग्राम।

प्रश्न 3.
वालीबाल के मैच में कुल कितने अधिकारी होते हैं ?
उत्तर-
रैफरी = 2, स्कोरर = 1, लाइनमैन = 2

प्रश्न 4.
वालीबाल खेल में कोई चार फाऊल लिखें।
उत्तर-

  1. जब गेम चल रही हो तो खिलाड़ी नैट को हाथ न लगायें। ऐसा करना फाऊल होता है।
  2. घुटनों के ऊपर एक टच वीक समझा जाता है।
  3. यदि बाल तीन बार से अधिक छू लिया जाए तो फ़ाऊल होता है।
  4. एक ही खिलाड़ी जब लगातार दो बार हाथ लगाता है तो फ़ाऊल होता है।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
वालीबाल खेल में कुल कितने खिलाड़ी होते हैं ?
उत्तर-
12 (6 खेलने वाले, 6 बदलवें)।

प्रश्न 6.
वालीबाल खेल में कितने खिलाड़ी बदले जा सकते हैं ?
उत्तर-
6 खिलाड़ी।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

Physical Education Guide for Class 11 PSEB वालीबाल (Volleyball) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
बालीबाल खेल का मैदान, जाल, गेंद, आक्रमण का क्षेत्र के विषय में लिखें।
उत्तर-
वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
खेल का मैदान

1. वालीबाल के खेल के मैदान की लम्बाई 18 मीटर तथा चौड़ाई 9 मीटर होगी। प्रांगण से कम-सेकम 7 मीटर ऊपर तक के स्थान पर किसी भी प्रकार कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। मैदान में 5 सैंटीमीटर चौड़ा रेखाओं द्वारा अंकित होगा। ये रेखाएं सभी बाधाओं से कम-से-कम दो मीटर दूर होंगी। जाल के नीचे की केन्द्रीय रेखा मैदान को दो बराबर भागों में बांटेगी।

2. आक्रमण क्षेत्र-मैदान के प्रत्येक अर्द्ध भाग में केन्द्रीय रेखा के समानान्तर 3 मीटर दूर 5 सैंटीमीटर की रेखा (आक्रमण क्षेत्र) खींची जाएगी। इसकी चौड़ाई तीन मीटर में शामिल होगी।

3. आकार व रचना-जाल 9.50 मीटर लम्बा और 3 मीटर चौड़ा होगा। इसके छिद्र 10 सेंटीमीटर चौकोर होने चाहिएं। इसके ऊपरी भाग में 5 सैंटीमीटर चौड़ा सफ़ेद कैनवस का फीता इस प्रकार खींचा जाना चाहिए कि इसके भीतर एक लचीला तार जा सके।

4. पुरुषों के लिए जाल की ऊंचाई केन्द्र में भूमि से 2 मीटर 43 सैंटीमीटर तथा स्त्रियों के लिए 2 मीटर 24 सैंटीमीटर होनी चाहिए।

पक्षों के चिन्ह-एक अस्थिर गतिशील 5 सैंटीमीटर चौड़ी सफ़ेद पट्टी जाल के अन्तिम सिरों पर लगाई जाती है। दोनों खम्भों के निशान कम-से-कम 50 सेंटीमीटर दूर होंगे।
गेंद
गेंद गोलाकार तथा नर्म चमड़े की बनी होनी चाहिए। इसके अन्दर रबड़ या किसी ऐसी ही वस्तु का बना हुआ ब्लैडर हो। इसकी परिधि 65 सैंटीमीटर से लेकर 67 सैंटीमीटर होनी चाहिए। इसका भार 260 ग्राम से लेकर 280 ग्राम तक होना चाहिए। गेंद में हवा का दबाव 0.48 और 0.52 कि० ग्राम cm2 के बीच होना चाहिए।

प्रश्न 2.
वालीबाल खेल में खिलाड़ियों और कोचों के आचरण के विषय में बताएं
उत्तर-
खिलाड़ियों तथा कोचों का आचरण

  1. प्रत्येक खिलाड़ी को खेल के नियमों की जानकारी होनी चाहिए तथा उसे दृढ़ता से इनका पालन करना चाहिए।
  2. खेल के दौरान कोई खिलाड़ी अपने कप्तान के माध्यम से ही रैफरी से बात कर सकता है। इस प्रकार कप्तान ही रैफरी से बात कर सकता है।
  3. निम्नलिखित सभी अपराधों के लिए दण्ड दिया जाएगा,
    • अधिकारियों से उनके निर्णयों के विषय में बार-बार प्रश्न पूछना।
    • अधिकारियों के लिए अपशब्द कहना।
    • अधिकारियों के निर्णयों को प्रभावित करने के उद्देश्य से अनुचित हरकतें करना।
    • विरोधी खिलाड़ी को अपशब्द कहना या उसके साथ अभद्र व्यवहार करना।
    • मैदान के बाहर से खिलाड़ियों को कोचिंग देना।
    • रैफरी की अनुमति के बिना मैदान को छोड़ कर जाना।
    • गेंद का स्पर्श होते ही, विशेष कर सर्विस प्राप्त करते समय खिलाड़ियों का ताली बजाना या चिल्लाना।

दण्ड-

  1. मामूली अपराध के लिए साधारण चेतावनी। अपराध के दोहराए जाने पर खिलाड़ी को व्यक्तिगत चेतावनी (लाल कार्ड) मिलेगी। इससे उसका दल सर्विस का अधिकार या एक अंक खोएगा।
  2. गम्भीर अपराध की दशा में स्कोर शीट पर चेतावनी दर्ज की जाती है। इससे एक अंक या सर्विस का अधिकार खोना पड़ता है। यदि अपराध फिर भी दोहराया जाता है तो रैफरी खिलाड़ी को एक सैट या पूरे खेल के लिए अयोग्य घोषित कर सकता है।

खिलाड़ी की पोशाक

  1. खिलाड़ी जर्सी, पैंट, हल्के जूते (रबड़ या चमड़े के) पहनेगा। वह सिर पर पगड़ी, टोपी, किसी प्रकार का आभूषण (रत्न, पिन, कंगन आदि) तथा कोई ऐसी वस्तु नहीं पहनेगा जिससे अन्य खिलाड़ियों को चोट लगने की सम्भावना हो।
  2. खिलाड़ी को अपनी जर्सी की छाती तथा पीठ पर 8 से 15 सैंटीमीटर ऊंचे नम्बर धारण करना होगा। संख्या सांकेतिक करने वाली पट्टी की चौड़ाई 2 सैंटीमीटर होगी।

खिलाड़ियों की संख्या तथा स्थानापन्न

  1. खिलाड़ियों की संख्या सभी परिस्थितियों में 6 होगी। स्थानापन्नों (Substitutes) सहित पूरी टीम में 12 से अधिक खिलाड़ी नहीं होंगे।।
  2. स्थानापन्न तथा प्रशिक्षक रैफरी के सामने मैदान में बैठेंगे।
  3. खिलाड़ी बदलने के लिए टीम का कप्तान या प्रशिक्षक रैफरी से प्रार्थना करेगा। एक खेल में अधिक-से-अधिक 6 खिलाड़ी बदलने की अनुमति होती है। खेल में प्रविष्ट होने से पहले स्थानापन्न खिलाड़ी स्कोरर के सामने उसी पोशाक में जाएगा और अनुमति मिलने के तुरन्त पश्चात् अपना स्थान ग्रहण करेगा।
  4. जब प्रत्येक खिलाड़ी प्रतिस्थापन्न के रूप में बदला जाता है तो वह फिर उसी सैट में प्रवेश कर सकता है। परन्तु ऐसा केवल एक बार ही किया जा सकता है। उसके पश्चात् केवल जो खिलाड़ी बाहर गया हो, वही प्रतिस्थापन्न के रूप में आ सकता है।

खिलाड़ियों की स्थिति
सर्विस होने के पश्चात् दोनों टीमों के खिलाड़ी अपने-अपने क्षेत्र में खड़े होते हैं । यह कोई आवश्यक नहीं कि लाइनें सीधी ही हों। खिलाड़ी जाल के समानान्तर दायें से बायें इस प्रकार स्थान ग्रहण करते हैं—
वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 2
सर्विस के पश्चात् खिलाड़ी अपने क्षेत्र के किसी भाग को रोक सकता है। स्कोर शीट में अंकित रोटेशन के अनुसार उसे सैट के अन्त तक प्रयोग में लाना होगा। रोटेशन में किसी त्रुटि के पता चलने पर खेल रोक दिया जाता है और त्रुटि को ठीक किया जाता है। त्रुटि करने वाली टीम द्वारा लिये गये प्वाईंट (त्रुटि के समय) रद्द कर दिए जाते हैं। विरोधी टीम द्वारा प्राप्त (प्वाइंट) स्थिर रहते हैं। यदि त्रुटि का ठीक पता न चले तो अपराधी दल उपयुक्त स्थान पर लौट आएगा और स्थिति के अनुसार सर्विस या एक अंक (प्वाइंट) खोएगा।
अधिकारी-खेल की व्यवस्था के लिए निम्नलिखित अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं—

  1. रैफरी (1)
  2. अम्पायर (1)
  3. स्कोरर (1)
  4. लाइनमैन (2 से 4)।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
वालीबाल खेल के नियमों के विषय में लिखें।
उत्तर-
खेल के नियम

  1. प्रत्येक टीम से खिलाड़ियों की संख्या 6 होती है।
  2. सभी अन्तर्राष्ट्रीय मैचों में पांच जीतने वाले सैट खेले जाते हैं।
  3. सर्विस या क्षेत्र के चुनाव के लिए दोनों टीमों के कप्तान टॉस करेंगे। सर्विस का निर्णय भी टॉस द्वारा किया जाएगा।
  4. प्रत्येक खेल के पश्चात् टीम अपना क्षेत्र बदलेगी। जब दो टीमों के अन्तिम सैट में प्वाइंट हों तो टीमें अवश्य दिशाएं बदलेंगी परन्तु सर्विस वही टीम करेगी जो दिशा परिवर्तन के समय कर रही थी।
  5. कोई टीम छ: खिलाड़ियों से कम खिलाड़ी होने से मैच खेल सकती।

टाइम आऊट—

  1. रैफरी या अम्पायर केवल गेंद मृत होने पर ही टाइम-आऊट देगा।
  2. टीम के कप्तान या कोच को विश्राम तथा प्रतिस्थापन्न के लिए टाइम-आऊट मांगने का अधिकार है।
  3. टाइम-आऊट के दौरान खिलाड़ी क्षेत्र छोड़ कर किसी से बात नहीं कर सकते। वे केवल अपने प्रशिक्षक से परामर्श ले सकते हैं।
  4. प्रत्येक टीम विश्राम के लिए दो टाइम-आऊट ले सकती है। विश्राम की यह अवधि 30 सैकिंड से अधिक नहीं होती। लगातार दो टाइम आऊट भी लिए जा सकते हैं।
  5. यदि दो टाइम-आऊट लेने के पश्चात् कोई टीम तीसरी बार विश्राम के लिए टाइम-आऊट का अनुरोध करती है तो रैफरी सम्बन्धित कप्तान या प्रशिक्षक को चेतावनी देगा। यदि इसके पश्चात् भी टाइम-आऊट का अनुरोध किया जाता है तो सम्बन्धित टीम को अंक (प्वाइंट) खोने या सर्विस खोने का दण्ड दिया जाएगा।
  6. खिलाड़ी के स्थानापन्न आते ही खेल शीघ्र आरम्भ किया जाएगा।
  7. किसी खिलाड़ी के घायल हो जाने की अवस्था में तीन मिनट का काल स्थगन किया जाएगा। यह तभी दिया जाएगा यदि घायल खिलाड़ी बदला न जा सकता हो।
  8. प्रत्येक सैट के बीच में अधिक-से-अधिक दो मिनट का अवकाश होगा परन्तु चौथे और पांचवें सैट के बीच में 5 मिनट का अवकाश होगा।

खेल में विन
यदि किसी कारणवश खेल में विघ्न पड़ जाए और मैच समाप्त न हो सके तो इस समस्या का हल इस प्रकार किया जाएगा—
(1) खेल उसी क्षेत्र में जारी किया जाएगा और खेल के रुकने के समय के परिणाम रखे जाएंगे।
(2) यदि खेल में बाधा 4 घण्टे से अधिक न हो तो मैच निश्चित स्थान पर पुनः खेला जाएगा।
(3) मैच के किसी अन्य क्षेत्र या स्टेडियम में आरम्भ किए जाने की दशा में रुके हुए खेल के सैट को रद्द समझा जाएगा, किन्तु खेले हुए सैट के परिणाम ज्यों-के-त्यों लागू होंगे।

(क) सर्विस-सर्विस से अभिप्राय है कि पीछे से दायें पक्ष के खिलाड़ी द्वारा गेंद खेल में डालने। वह अपनी खुली या बन्द मुट्ठी बांधे हुए हाथ से या भुजा के किसी भाग से गेंद को इस प्रकार मारता है कि वह जाल के ऊपर से होती हुई विपक्षी टीम के अर्द्धक में पहुंच जाए। सर्विस निर्धारित स्थान से ही की जाने पर मान्य समझी जाएगी। गेंद को हाथ से पकड़ कर मारना मना है। सर्विस करने के पश्चात् खिलाड़ी अपने अर्द्ध-क्षेत्र या इसकी सीमा रेखा पर भी रह सकता यदि हवा में उछाली हुई गेंद बिना किसी खिलाड़ी द्वारा छुए ज़मीन पर गिर जाए तो सर्विस दोबारा की जाएगी। यदि सर्विस की गेंद बिना जाल को छुए ऊपर क्षेत्र की चौड़ाई प्रकट करने वाले जाल पर दोनों सिरों के फीतों में से निकल जाती है तो सर्विस ठीक मानी जाती है। रैफरी के सीटी बजाते ही फौरन सर्विस कर देनी चाहिए। यदि सीटी बजने से पहले सर्विस की जाती है तो यह सर्विस पुनः की जाएगी।
खिलाड़ी तब तक सर्विस करता रहेगा जब तक उसकी टीम का कोई खिलाड़ी त्रुटि नहीं कर देता।

(ख) सर्विस की त्रुटियां-यदि निम्नलिखित में से कोई त्रुटि होती है तो रैफरी सर्विस बदलने के लिए सीटी बजाएगा

  1. जब गेंद जाल से छू जाए।
  2. जब गेंद जाल के नीचे से निकल जाए।
  3. जब गेंद फीतों का स्पर्श कर ले या पूरी तरह जाल को पार न कर सके।
  4. जब गेंद विपक्षी के क्षेत्र में पहुंचने से पहले किसी खिलाड़ी या वस्तु को छू ले।
  5. जब गेंद विपक्षी के अर्द्धक के बाहर जा गिरे।।

(ग) दूसरी तथा उत्तरवर्ती सर्विस-प्रत्येक नए सैट में वह टीम सर्विस करेगी जिसने इससे पहले सैट में सर्विस न की हो। अन्तिम निर्णायक सैट में सर्विस टॉस द्वारा निश्चित की जाएगी।

(घ) खेल में बाधा-यदि रैफरी के मतानुसार कोई खिलाड़ी जान-बूझ कर खेल में बाधा पहुंचाता है तो उसे दण्ड दिया जाता है।
सर्विस में परिवर्तन-जब सर्विस करने वाली टीम कोई त्रुटि करती है तो सर्विस में परिवर्तन होता है। जब गेंद साइड आऊट होती है तो सर्विस में परिवर्तन होता है।

  1. सर्विस परिवर्तन पर सर्विस करने वाली टीम के खिलाड़ी सर्विस से पहले घड़ी की सूईयों की दिशा में अपना स्थान बदलेंगे।
  2. नए सेट के आरम्भ में टीमें नए खिलाड़ी लाकर अपने पहले स्थानों में परिवर्तन कर सकती हैं, परन्तु खेल आरम्भ होने से पहले इस विषय में स्कोरर को अवश्य सूचित करना चाहिए।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 4.
बालीबाल गेंद को हिट मारना, ब्लॉकिंग, जाल पर खेल क्या है ?
उत्तर-
गेंद को हिट मारना

  1. प्रत्येक टीम विपक्षी टीम के अर्द्धक में गेंद पहुंचाने के लिए तीन सम्पर्क कर सकती है।
  2. गेंद पर कमर के ऊपर शरीर के किसी भाग से प्रहार किया जा सकता है।
  3. गेंद कमर के ऊपर के कई अंगों को छू कर आ सकती है, परन्तु छूने का काम एक ही समय हो और गेंद पकड़ी न जाए बल्कि ज़ोर से उछले।
  4. यदि गेंद खिलाड़ी की बाहों या हाथों में कुछ क्षण के लिए रुक जाती है तो उसे गेंद पकड़ना माना जाएगा। गेंद को लुढ़काना, ठेलना या घसीटना ‘पकड़’ माना जाएगा। गेंद को नीचे से दोनों हाथों से एक साथ स्पष्ट रूप से प्रहार करना नियमानुसार है।
  5. दोहरा प्रहार या स्पर्श-यदि कोई खिलाड़ी एक से अधिक बार अपने शरीर के किसी अंग द्वारा गेंद को छूता है जबकि किसी अन्य खिलाड़ी ने उसे स्पर्श नहीं किया तो वह दोहरा प्रहार या स्पर्श माना जाएगा।

ब्लॉकिंग
ब्लॉकिंग वह प्रक्रिया है जिससे गेंद के जाल पर गुज़रते ही पेट के ऊपर के शरीर के किसी भाग द्वारा तुरन्त विरोधी के आक्रमण को रोकने की कोशिश की जाती है।

ब्लॉकिंग केवल आगे वाली पंक्ति में खड़े खिलाड़ी ही करते हैं। पिछली पंक्ति में खड़े खिलाड़ियों को ब्लॉकिंग की आज्ञा नहीं होती।
ब्लॉकिंग के पश्चात् ब्लॉकिंग में भाग लेने वाला कोई भी खिलाड़ी गेंद प्राप्त कर सकता है, परन्तु ब्लॉक के बाद स्मैश या प्लेसिंग नहीं की जा सकती।
जाल का स्वरूप
(DESIGN OF THE NET)
वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 3

 

  1. जब खेल के दौरान गेंद (सर्विस के अतिरिक्त) जाल को छूती हुई जाती है तो ठीक मानी जाती है।
  2. बाहर के चिन्हों के बीच से जब गेंद को जाल पार करती है तो भी गेंद ठीक मानी जाती है।
  3. जाल में लगी गेंद खेली जा सकती है। यदि टीम द्वारा गेंद तीन बार खेली गई है और गेंद चौथी बार जाल को लगती है या भूमि पर गिरती है तो रैफरी नियम भंग के लिए सीटी बजाएगा।
    वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 4
    VOLLEY-BALL
  4. यदि गेंद जाल में इतनी ज़ोर से लगती है कि जाल किसी विरोधी खिलाड़ी को छू ले तो इस स्पर्श के लिए विरोधी खिलाड़ी दोषी नहीं माना जाएगा।
  5. यदि दो विरोधी खिलाड़ी एक साथ जाल को छूते हैं तो दोहरी त्रुटि माना जाएगा।

जाल के ऊपर से हाथ पार करना

  1. ब्लॉकिंग के दौरान जाल के ऊपर से हाथ पार करके विरोधी के क्षेत्र में गेंद का स्पर्श करना त्रुटि नहीं माना जाता किन्तु उस समय गेंद का स्पर्श स्मैश के बाद हुआ हो।
  2. आक्रमण के पश्चात् हाथ जाल पर से पार ले जाना त्रुटि नहीं।

केन्द्रीय रेखा पार करना

  1. यदि खेल के दौरान खिलाड़ी के शरीर का कोई भाग विरोधी क्षेत्र में चला जाता है तो वह त्रुटि होगी।
  2. जाल के नीचे से पार होना, विरोधी खिलाड़ी का ध्यान खींचने के लिए जाल के नीचे भूमि को शरीर के किसी भाग द्वारा पारित करना त्रुटि माना जाएगा।
  3. रैफरी की सीटी से पहले विरोधी क्षेत्र में घुसना त्रुटि मानी जाएगी।

खेल के बाहर गेंद

  1. यदि चिन्हों या फीतों के बाहर गेंद से स्पर्श करती है तो यह त्रुटि होगी।
  2. यदि गेंद भूमि की किसी वस्तु या मैदान की परिधि से बाहर ज़मीन छू लेती है तो आऊट माना जाएगा। रेखा स्पर्श करने वाली गेंद ठीक मानी जाएगी।
  3. रैफरी की सीटी के साथ खेल समाप्त हो जाएगी और गेंद मृत हो जाएगी।

स्कोर तथा खेल का परिणाम
अन्तर्राष्ट्रीय वालीबाल फैडरेशन (FIVB) के क्रीड़ा नियम आयोग (R.G.C.) ने 27 तथा 28 फरवरी, 1988 को बैहवैन में हुई सभा में वालीबाल की नवीन पद्धति को स्वीकृति दी। यह सियोल ओलम्पिक खेल 1988 के पश्चात् लागू हो गई।
नये नियमों के अनुसार, पहले चार सैटों में सर्व करने वाली टीम एक अंक प्राप्त करेगी। सैट की विजेता टीम वह होगी जो विरोधी टीम पर कम-से-कम दो अंकों का लाभ ले और सर्वप्रथम 25 अंक प्राप्त करे।

R.G.C. ने यह भी निर्णय किया कि सैटों के बीच अधिक-से-अधिक 3 मिनट की अवधि मिलेगी। इस समय सीमा में कोर्टों को बदलना और आरम्भिक Line ups का पंजीकरण स्कोर शीट पर किया जाएगा।
वालीबाल खेल में कार्य करने वाले कर्मचारी (Officials)—

  1. कोच तथा मैनेजर-कोच खिलाड़ियों को खेल सिखलाता है जबकि मैनेजर का कार्य खेल प्रबन्ध करना होता
  2. कप्तान–प्रत्येक टीम का कप्तान होता है जो अपनी टीम का नियन्त्रण करता है। वह खिलाड़ियों के खेलने का स्थान निश्चित करता है और टाइम आऊट लेता है।
  3. रैफरी-यह इस बात का ध्यान रखता है कि खिलाड़ी नियम के अन्तर्गत खेल रहा है या नहीं। यह खेल पर नियन्त्रण रखता है और उसका निर्णय अन्तिम होता है। यदि कोई नियमों का उल्लंघन करे तो उसको रोक देता है अथवा उचित दण्ड भी दे सकता है।
  4. अम्पायर-यह खिलाड़ियों को बदलता है। इसके अतिरिक्त रेखाएं पार करना, टाइम आऊट करना और रेखा को छू जाने पर सिगनल देना होता है। वह कप्तान के अनुरोध पर खिलाड़ी बदलने की अनुमति देता है। रैफरी की भी सहायता करता है तथा खिलाड़ियों को बारी-बारी स्थानों पर लगाता है।

पास (Passes)
1. अण्डर हैंड पास (Under Hand Pass)—यह तकनीक आजकल बहुत उपयोगी मानी गई है। इस प्रकार कठिन-से-कठिन सर्विस सुगमता से दी जाती है। इसमें बाएं हाथ की मुट्ठी बंद कर दी जाती है। दाएं हाथ की मुट्ठी पर बाल इस तरह रखा जाए कि अंगूठे समानान्तर हों। अण्डर हैंड बाल तब लिया जाता है जब बाल बहुत नीचा हो।

2. बैक पास (Back Pass)-जब किसी विरोधी खिलाड़ी को धोखा देना हो तो बैक पास प्रयोग में लाते हैं। पास बनाने वाला सिर की पिछली ओर बाल लेता है। वाली मारने वाला वाली मारता है।

3. बैक रोलिंग के साथ अण्डर हैंड पास (Under Hand Pass with Back Rolling)—जिस समय गेंद नैट के पास होता है तब अंगुलियां खोल कर और छलांग लगा कर गेंद को अंगुलियां सख्त करके चोट लगानी चाहिए।

4. साइड रोलिंग के साथ अण्डर हैंड पास (Under Hand Pass with Side Rolling)-जब गेंद खिलाड़ी के एक ओर होता है, जिस ओर गेंद होता है उस तरफ हाथ खोल लिया जाता है। साइड रोलिंग करके गेंद को लिया जाता है।

5. एक हाथ से अण्डर हैंड पास बनाना (Under Hand Pass with the Hand)—इस ढंग से गेंद को वापस मोड़ने के लिए तब करते हैं जब वह खिलाड़ी के एक ओर होता है, जिस तरफ गेंद लेना होता है। टांग को थोड़ा-सा झुका कर और बाजू खोल कर मुट्ठी बंद करके गेंद लिया जाता है।

6. नैट के साथ टकराया हुआ बाल देना (Taking the Ball Struck with the Net)—यह बाल प्रायः अण्डर हैंड से लेते हैं नहीं तो अपने साथियों की ओर निकलना चाहिए ताकि बहुत सावधानी से गेंद पार किया जा सके।

सर्विस (Service)-खेल का आरम्भ सर्विस से किया जाता है। कई अच्छी टीमें अनजान टीमों को अपनी अच्छी सर्विस से Upset कर देती हैं। सर्विस भी पांच प्रकार की होती है—

  1. अपर हैंड साइड सर्विस।
  2. टेनिस सर्विस।
  3. ग्राऊंड सर्विस।
  4. भोंदू सर्विस।
  5. हाई स्पिन सर्विस।

वाली मारना—

  1. प्लेसिंग स्मैश-खेल में Point लेने के लिए यह स्मैश प्रयोग में लाते हैं।
  2. ग्राऊंड आर्म स्मैश-जिस समय गेंद वाली से पीछे होता है। इसमें गेंद घुमा कर मारते हैं। यह भी बहुत बलशाली होता है।

1. ब्लॉक (Block) ब्लॉक वाली को रोकने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह बचाव का अच्छा ढंग है। यह तीन प्रकार का होता है, जो निम्नलिखित हैं—

  • इकहरा ब्लॉक (Single Block)-जब ब्लॉक करने का कार्य एक खिलाड़ी करे तो उसे इकहरा ब्लॉक कहते
  • दोहरा ब्लॉक (Double Block)-जब ब्लॉक रोकने का कार्य दो खिलाड़ी करें तो दोहरा ब्लॉक कहते हैं।
  • तेहरा ब्लॉक (Triple Block)-जब वाली मारने वाला बहुत शक्तिशाली होता हो तो तेहरे ब्लॉक की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य तीन खिलाड़ी मिल कर करते हैं। इस ढंग का प्रयोग प्रायः किया जाता है।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
बालीबाल खेल के फाऊल बताओ।
उत्तर-
वालीबाल के फ़ाऊल
(Fouls in Volleyball)
नीचे वालीबाल के फाऊल दिए जाते हैं—

  1. जब गेम चल रही हो तो खिलाड़ी नैट को हाथ न लगायें। ऐसा करना फाऊल होता है।
  2. केन्द्रीय रेखा को छूना फाऊल होता है।
  3. सर्विस करने से पूर्व रेखा काटना फ़ाऊल होता है।
  4. घुटनों के ऊपर एक टच वीक समझा जाता है।
  5. गेंद लेते समय आवाज़ उत्पन्न हो।
  6. होल्डिंग फ़ाऊल होता है।
  7. यदि बाल तीन बार से अधिक छू लिया जाए तो फ़ाऊल होता है।
  8. एक ही खिलाड़ी जब लगातार दो बार हाथ लगाता है तो फ़ाऊल होता है।
  9. सर्विस के समय यदि उस तरफ का पीछा ग़लत स्थिति में किया जाए।
  10. यदि रोटेशन ग़लत हो।
  11. यदि गेंद साइड पार कर दिया जाए।
  12. यदि बाल नैट के नीचे से होकर जाए।
  13. जब सर्विस एरिया से सर्विस न की जाए।
  14. यदि सर्विस ठीक न हो तो भी फ़ाऊल होता है।
  15. यदि सर्विस का बाल अपनी तरफ के खिलाड़ी ने पार कर लिया हो।
  16. सर्विस करते समय ग्रुप का बनाना फ़ाऊल होता है।
  17. विसल से पहले सर्विस करने से फ़ाऊल होता है।

यदि इन फाऊलों में से कोई भी फाऊल हो जाए तो रैफरी सर्विस बदल देता है। वह किसी भी खिलाड़ी को चेतावनी दे सकता है या उसको बाहर भी निकाल सकता है।
खेल के स्कोर (Score)—

1. जब कोई टीम दो सैटों से आगे होती है उसको विजेता घोषित किया जाता है। एक सैट 25 प्वाइंटों का होता है। यदि स्कोर 24-24 से बराबर हो जाए तो खेल 26-24, पर समाप्त होगा।

2. यदि रैफरी के कथन पर कोई टीम मैदान में नहीं आती तो वह खेल को गंवा देती है। 15 मिनट तक किसी टीम का इन्तज़ार किया जा सकता है। खेल में जख्मी हो जाने पर यह छूट दी जाती है। पांचवें सैट का स्कोर रैली के अन्त में गिना जाता है। प्रत्येक टीम जो ग़लती करती है उसके विरोधी को अंक मिल जाता है। Deciding Set में अंकों का अन्तर दो या तीन हो सकता है

3. यदि कोई टीम बाल को ठीक ढंग से विरोधी कोर्ट में नहीं पहुंचा सकती तो प्वाईंट विरोधी टीम को दे दिया जाता है।

निर्णय (Decision)—

  1. अधिकारियों के फैसले अन्तिम होते हैं।
  2. टीम का कप्तान केवल प्रौटैस्ट ही कर सकता है।
  3. यदि रैफरी का निर्णय उचित न हो तो खेल प्रोटैस्ट में खेली जाती है और प्रोटैस्ट अधिकारियों को भेज दिया जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 7 समानता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 7 समानता

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
समानता का क्या अर्थ है ? स्वतन्त्रता एवं समानता के बीच सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
(What is the meaning of equality ? Discuss the relationship between liberty and equality.)
उत्तर-
समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। समानता की प्राप्ति के लिए मनुष्य को बहुत संघर्ष करना पड़ा है। प्राचीन काल में दास-प्रथा प्रचलित थी जिसके कारण असमानता स्वाभाविक थी। ‘अमेरिका की स्वाधीनता घोषणा’ (American Declaration of Independence) में कहा गया, “सब मनुष्य स्वतन्त्र तथा समान बनाए गए हैं।” फ्रांस की क्रान्ति के पश्चात् ‘अधिकारों के घोषणा-पत्र’ में कहा गया “मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुए हैं और वे अपने अधिकारों के विषय में भी स्वतन्त्र और समान रहते हैं।” (“Men are born free and always continue free and equal in respect of their right.”) 19वीं शताब्दी के अन्त में तथा 20वीं शताब्दी के आरम्भ में प्रायः सभी राज्यों में समानता का अधिकार लिखा गया है।

समानता का अर्थ (Meaning of Equality)-
साधारण शब्दों में समानता का यह अर्थ लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए। इस मत के समर्थकों का कहना है कि प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है और यह प्रकृति की इच्छा है कि वे समान रहें। इस विचार का समर्थन अमेरिका की स्वतन्त्रता की घोषणा तथा फ्रांस के अधिकारों के घोषणा-पत्र में किया गया है। परन्तु यह विचार ठीक नहीं है। प्रकृति ने सब मनुष्यों को समान नहीं बनाया। कोई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली है तो कोई कमज़ोर, कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप, कोई बुद्धिमान् है तो कोई मूर्ख तथा सभी व्यक्तियों के समान विचार नहीं होते।

प्रकृति ने मनुष्य में असमनाताएं उत्पन्न की हैं, परन्तु सभी मनुष्यों में मौलिक समानताएं होती हैं। समानता का अर्थ है, मनुष्यों की मौलिक समानताएं समाज की असमानताओं से नष्ट होनी चाहिएं। समाज में पाई जाने वाली असमानताओं को दूर करके सभी को उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिएं। किसी भी मनुष्य के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेद नहीं होना चाहिए।

समाज के अन्दर सभी व्यक्तियों को उन्नति के लिए समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। प्रत्येक व्यक्ति को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं ताकि वह अपनी योग्यता के अनुसार अपना विकास कर सके। समानता का सही अर्थ यह है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर अपना विकास कर सके और इसके लिए विशेषाधिकार की समाप्ति होनी चाहिए अर्थात् सभी को उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिएं।

बार्कर (Barker) के अनुसार, “समानता के सिद्धान्त का यह अभिप्राय: है कि अधिकारों के रूप में जो सुविधाएं मुझे प्राप्त हैं, वे उसी रूप में अन्य व्यक्तियों को प्राप्त होंगी और जो अधिकार अन्य को प्रदान किए गए हैं वे मुझे भी दिए जाएंगे।”

प्रो० लॉस्की ने समानता की परिभाषा बिल्कुल ठीक की है। उन्होंने लिखा है, “समानता का यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक के साथ एक-जैसा व्यवहार किया जाए अथवा प्रत्येक व्यक्ति को समान वेतन दिया जाए। यदि एक ईंटें ढोने वाले का वेतन एक प्रसिद्ध गणितज्ञ अथवा वैज्ञानिक के समान कर दिया गया, तो इससे समाज में समानता का उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा, इसीलिए समानता का यह अर्थ है कि विशेषाधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान तथा उचित अवसर प्राप्त हों।” समानता की उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि समानता की अग्रलिखित विशेषताएं हैं-

  1. विशेष अधिकारों का अभाव-समानता की प्रथम विशेषता यह है कि समाज में किसी वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते।
  2. उन्नति के समान अधिकार-समानता की द्वितीय विशेषता यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर अपनी उन्नति कर सके। किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग तथा धन के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता।
  3. प्राकृतिक असमानताओं का नाश-समानता की तृतीय विशेषता यह है कि समाज में प्राकृतिक असमानताओं को नष्ट किया जाता है। यदि समाज में प्राकृतिक असमानताएं रहेंगी तो समानता के अधिकार का कोई लाभ नहीं है।
  4. सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति-समानता की यह भी विशेषता है कि समाज के सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए।
  5. कानून के समक्ष समानता–समानता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं और कोई व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है।

स्वतन्त्रता और समानता में सम्बन्ध (Relationship between Liberty and Equality)-

समानता और स्वतन्त्रता लोकतन्त्र के मूल तत्त्व हैं। व्यक्ति के विकास के लिए स्वतन्त्रता तथा समानता का विशेष महत्त्व है। बिना स्वतन्त्रता और समानता के मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता। परन्तु स्वतन्त्रता और समानता के सम्बन्धों पर विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ विचारकों का विचार है कि स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं जबकि कुछ विचारकों के अनुसार स्वतन्त्रता तथा समानता में गहरा सम्बन्ध है और स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बिना समानता स्थापित नहीं की जा सकती अर्थात् एक के बिना दूसरे का कोई महत्त्व नहीं है।

स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं (Liberty and Equality are opposed to each other)-

कुछ विचारकों के अनुसार, स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं और एक ही समय पर दोनों की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। टाक्विल तथा लॉर्ड एक्टन इस विचारधारा के मुख्य समर्थक हैं। इन विद्वानों के मतानुसार जहां स्वतन्त्रता है वहां समानता नहीं हो सकती और जहां समानता है वहां स्वतन्त्रता नहीं हो सकती। इन विचारकों ने निम्नलिखित आधारों पर स्वतन्त्रता तथा समानता को विरोधी माना है-

  • सभी मनुष्य समान नहीं हैं (All men are not Equal)-इन विचारकों के अनुसार असमानता प्रकृति की देन है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही शक्तिशाली होते हैं तथा कुछ कमज़ोर। कुछ व्यक्ति जन्म से ही बुद्धिमान् होते हैं तथा कुछ मूर्ख। अतः मनुष्य में असमानताएं प्रकृति की देन हैं और इन असमानताओं के होते हुए सभी व्यक्तियों को समान समझना अन्यायपूर्ण तथा अनैतिक है।
  • आर्थिक स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं (Economic Liberty and Equality are opposed to each other)-व्यक्तिवादी सिद्धान्त के आधार पर भी स्वतन्त्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी माना जाता है। व्यक्तिवादी सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए तथा आर्थिक क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतियोगिता होनी चाहिए। यदि स्वतन्त्र प्रतियोगिता को अपनाया जाए तो कुछ व्यक्ति अमीर हो जाएंगे, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ेगी और यदि आर्थिक समानता की स्थापना की जाए तो व्यक्ति का स्वतन्त्र व्यापार का अधिकार समाप्त हो जाता है। आर्थिक समानता तथा स्वतन्त्रता परस्पर विरोधी हैं और एक समय पर दोनों की स्थापना नहीं की जा सकती।
  • समान स्वतन्त्रता का सिद्धान्त अनैतिक है ( The theory of equal Liberty is immoral)-सभी व्यक्तियों की मूल योग्यताएं समान नहीं होती। इसलिए सबको समान अधिकार अथवा स्वतन्त्रता प्रदान करना अनैतिक अन्याय है।
  • प्रगति में बाधक (Checks the Progress)-यदि स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को समानता के आधार पर लागू किया जाए तो इससे व्यक्तित्व तथा समाज को समान रूप दे दिए जाते हैं जिससे योग्य तथा अयोग्य व्यक्ति में अन्तर करना कठिन हो जाता है। इससे योग्य व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का अवसर नहीं मिलता।

स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी नहीं हैं (Liberty and Equality are not opposed to each other)-

अधिकांश विचारकों के अनुसार स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी हैं। आजकल इस बात को मानने के लिए कोई तैयार नहीं होता कि स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं। वास्तव में ये दोनों एकदूसरे के पूरक हैं। समानता के अभाव में स्वतन्त्रता व्यर्थ है। आर० एच० टानी (R.H. Towny) का कथन है, “समानता स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।” जो विचारक स्वतन्त्रता तथा समानता को विरोधी मानते हैं, उन्होंने स्वतन्त्रता तथा समानता का गलत अर्थ लिया है। उन्होंने स्वतन्त्रता का अर्थ पूर्ण स्वतन्त्रता तथा प्रतिबन्धों का अभाव लिया है। परन्तु समाज में व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। सामाजिक हितों की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य की स्वतन्त्रता पर उचित तथा न्यायपूर्ण प्रतिबन्ध लगाए जाएं।

इसी प्रकार इन विचारकों ने समानता का अर्थ यह लिया है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए तथा सभी का सम्मान मिलना चाहिए। परन्तु समानता का यह अर्थ गलत है। समानता का अर्थ है-सभी व्यक्तियों को उन्नति के लिए समान अवसर तथा सुविधाएं प्रदान की जाएं। किसी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग तथा धन के आधार पर भेद नहीं किया जाना चाहिए। सभी व्यक्तियों को रोज़ी कमाने के समान अवसर मिलने चाहिएं।

  • दोनों का विकास एक साथ हुआ है (Both have grown simultaneously)-स्वतन्त्रता और समानता का सम्बन्ध जन्म से है। जब निरंकुशता और असमानता के विरुद्ध मानव ने आवाज़ उठाई और क्रान्तियां हुईं, तो स्वतन्त्रता और समानता के सिद्धान्तों का जन्म हुआ। इस प्रकार इन दोनों में रक्त सम्बन्ध है।
  • दोनों प्रजातन्त्र के आधारभूत सिद्धान्त हैं ( Both are Basic Principles of Democracy)-स्वतन्त्रता तथा समानता का विकास प्रजातन्त्र के साथ हुआ है। प्रजातन्त्र के दोनों मूल सिद्धान्त हैं। दोनों के बिना प्रजातन्त्र की स्थापना नहीं की जा सकती।
  • दोनों के रूप समान हैं (Both are having same form)-स्वतन्त्रता और समानता के प्रकार एक ही हैं और उनके अर्थों में भी कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्राकृतिक स्वतन्त्रता तथा प्राकृतिक समानता का अर्थ प्रकृति द्वारा प्रदान की गई स्वतन्त्रता अथवा समानता है। नागरिक स्वतन्त्रता का अर्थ समान नागरिक अधिकारों की प्राप्ति है। इसी प्रकार दोनों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि रूप हैं।
  • दोनों के उद्देश्य एक ही हैं (Aims are the same)-दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है-व्यक्ति के विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करना ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। एक के बिना दूसरे का उद्देश्य पूरा नहीं होता । आशीर्वादम (Ashirvatham) ने दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध बताया है। उन्होंने लिखा है, “फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने जब स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारे को अपने युद्ध का नारा बनाया तो वे न पागल थे और न ही मूर्ख।” इस प्रकार स्पष्ट है कि समानता तथा स्वतन्त्रता में गहरा सम्बन्ध है।
  • आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है (Political Liberty is meaningless in the absence of economic equality)-स्वतन्त्रता तथा समानता में गहरा सम्बन्ध ही नहीं है, बल्कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं है। राजनीतिक स्वतन्त्रता की स्थापना के लिए पहले आर्थिक समानता की स्थापना करना आवश्यक है। जिस समाज में आर्थिक असमानता है वहां ग़रीब व्यक्ति की राजनीतिक स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रह सकती।

जिस देश में नागरिकों को आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती वहां नागरिक अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। एक नागिरक जो अपने मालिक की दया पर हो, शीघ्र ही उसके दबाव में आकर अपने मत का अधिकार उसके कहने के अनुसार प्रयोग करेगा। यदि एक नागरिक को आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो अर्थात् उसे नौकरी की चिन्ता न हो और उसे यह पता हो कि यदि वह अपने वोट के अधिकार का प्रयोग अपनी इच्छा से करेगा तो उसे नौकरी से नहीं निकाला जाएगा तो वह अपने अधिकार का स्वतन्त्रता से प्रयोग कर पाएगा। एक मज़दूर, जो दैनिक मज़दूरी पर कार्य करता हो, वोट डालने नहीं जाएगा क्योंकि उसके लिए वोट के अधिकार से अधिक मजदूरी का महत्त्व है। ग़रीब व्यक्ति अपनी वोट बेच डालता है। ग़रीब व्यक्ति न ही चुनाव लड़ सकते हैं क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए योग्यता से अधिक धन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार ग़रीब व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है। हॉब्सन (Hobson) ने लिखा है कि, “एक भूख से मरते हुए व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता का क्या लाभ है। वह स्वतन्त्रता को न तो खा सकता है और न ही पी सकता है।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक समानता को होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

प्रश्न 2.
समानता कितने प्रकार की होती है ? (What are the kinds of equality ?)
उत्तर-
मनुष्य को अपने जीवन का विकास करने के लिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समानता की आवश्यकता होती है। समानता के विभिन्न रूप निम्नलिखित हैं

  1. प्राकृतिक समानता (Natural Equality)
  2. नागरिक समानता (Civil Equality)
  3. सामाजिक समानता (Social Equality)
  4. राजनीतिक समानता (Political Equality)
  5. आर्थिक समानता (Economic Equality)।

1. प्राकृतिक समानता (Natural Equality)-प्राकृतिक समानता का अर्थ है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है, इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। परन्तु यह विचार ठीक नहीं है। प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान नहीं बनाया है। व्यक्तियों में शक्ति, रंग, बुद्धि तथा स्वभाव में भिन्नता पाई जाती है। परन्तु आधुनिक लेखक प्राकृतिक समानता का यह अर्थ नहीं लेते। प्राकृतिक समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ मौलिक समानताएं हैं जिनके कारण सभी व्यक्तियों को समान माना जाना चाहिए। एक व्यक्ति के विकास के लिए दूसरे व्यक्ति को केवल साधन नहीं बनाया जा सकता। समाज में प्राकृतिक समानता तो होनी चाहिए पर अप्राकृतिक समानताएं जो मनुष्य ने बनाई हैं, वे समाप्त होनी चाहिएं।

2. नागरिक समानता (Civil Equality)-नागरिक समानता को कानूनी समानता का नाम भी दिया जाता है। नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात् कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं। धर्म, जाति, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कानून भेदभाव नहीं करता। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है। यदि किसी देश में कानून किसी एक वर्ग के लिए बनाए जाते हैं तो उस देश में नागरिक समानता नहीं रहती। इंग्लैण्ड, भारत तथा अमेरिका में कानून के सामने सभी व्यक्तियों को बराबर माना जाता है।

3. सामाजिक समानता (Social Equality)-सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का बराबर अंग है और सभी को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं। किसी व्यक्ति से धर्म, जाति, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव न हो। भारत में जाति-पाति के आधार पर भेद किया जाता था। अब भारत सरकार ने कानून द्वारा समानता स्थापित की जबकि दक्षिण अफ्रीका में काले तथा गोरे लोगों में सितम्बर 1992 तक भेदभाव किया जाता रहा है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि सितम्बर 1992 तक दक्षिणी अफ्रीका में नागरिकों को सामाजिक समानता प्राप्त नहीं थी। सामाजिक समानता की स्थापना केवल कानून द्वारा ही नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए लोगों के सामाजिक, धार्मिक तथा जाति के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन लाना आवश्यक है।

4. राजनीतिक समानता (Political Equality)-राजनीतिक समानता का अर्थ है कि नागरिकों को राजनीतिक अधिकार समान मिलने चाहिएं। वोट का अधिकार, चुने जाने का अधिकार, प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार तथा सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार, सभी नागरिकों को धर्म जाति, रंग, लिंग तथा धन के आधार पर भेद किए बिना समान रूप से प्राप्त होने चाहिएं। वोट के अधिकार तथा चुने जाने के लिए सरकार कुछ योग्यताएं निश्चित कर सकती है, पर ये योग्यताएं धर्म, जाति, रंग, लिंग पर आधारित नहीं होनी चाहिएं।

5. आर्थिक समानता (Economic Equality) आर्थिक समानता का यह अर्थ नहीं है कि सभी व्यक्तियों को समान वेतन दिया जाए तथा सभी के पास सम्पत्ति हो। आर्थिक समानता का सही अर्थ यह है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए अर्थात् व्यक्ति की रोटी, कपड़ा तथा मकान की आवश्यकताएं पूर्ण होनी चाहिएं। प्रत्येक राज्य का परम कर्त्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे। उनके जीवन स्तर को ऊंचा करने के अनेक कार्य करे। साम्यवादी देशों में नागरिकों की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए अनेक कार्य किए गए हैं और आर्थिक समानता की स्थापना के प्रयास किए जा रहे हैं। भारत में लाखों व्यक्ति बेरोज़गार हैं और कई लोगों को तो दो समय भोजन भी नहीं मिलता। भारत में आर्थिक समानता नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
साधारण शब्दों में समानता का अर्थ यह लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए। परन्तु समानता का यह अर्थ सही नहीं है। आज के युग में समानता का सही अर्थ यह है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं। सभी नागरिकों को उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं। किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए और समाज में उत्पन्न असमानताओं की समाप्ति हो। प्रो० लॉस्की ने समानता की परिभाषा बिल्कुल ठीक की है। उन्होंने लिखा है कि, “समानता का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए अथवा प्रत्येक व्यक्ति को समान वेतन दिया जाए। यदि एक ईंट ढोने वाले का वेतन प्रसिद्ध गणितज्ञ या वैज्ञानिक के समान कर दिया जाए, तो इससे समाज में समानता का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए समानता का अर्थ यह है कि विशेषाधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान तथा उचित अवसर प्राप्त हों।”

प्रश्न 2.
समानता की विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
समानता की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • विशेष अधिकारों का अभाव-समानता की प्रथम विशेषता यह है कि समाज में किसी वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होते।
  • उन्नति के समान अवसर-समानता की द्वितीय विशेषता यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य कर सके। किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
  • प्राकृतिक असमानताओं का नाश-समानता की तृतीय विशेषता यह है कि समाज में प्राकृतिक असमानताओं का नाश किया जाता है। यदि समाज में प्राकृतिक असमानताएं रहेंगी तो समानता के अधिकार का कोई लाभ नहीं है।
  • सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति-समानता की यह भी विशेषता है कि समाज के सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
समानता के नकारात्मक तथा सकारात्मक पक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर-
समानता के दो पक्ष हैं-

  • नकारात्मक पक्ष-समानता के इस पक्ष का अर्थ विशेष अधिकारों की अनुपस्थिति है। अन्य शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को किसी भी आधार पर कोई विशेष अधिकार उपलब्ध नहीं होना चाहिए। जन्म, जाति अथवा धर्म इत्यादि के आधार पर किसी वर्ग के लिए विशेष अधिकारों का न होना ही समानता के नकारात्मक तथ्य का सारांश है।
  • सकारात्मक पक्ष-सकारात्मक पक्ष से अभिप्राय यह है कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के अपने जीवन का विकास करने के लिए समान अवसर उपलब्ध होने चाहिएं। यह ठीक है कि सभी व्यक्तियों के लिए प्रत्येक प्रकार के समान अवसर प्रदान करना राज्य के लिए असम्भव है, परन्तु उचित तथा समानता के आधार पर ऐसे अवसर प्रदान करना राज्य के लिए कोई कठिन नहीं है तथा इस प्रकार के अवसर प्रदान करने को ही समानता का सकारात्मक पक्ष कहा जाता है।

प्रश्न 4.
समानता के विभिन्न रूपों का नाम लिखें तथा किन्हीं चार रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
समानता के विभिन्न रूप निम्नलिखित हैं-
(1) प्राकृतिक समानता (2) नागरिक समानता (3) सामाजिक समानता (4) राजनीतिक समानता (5) आर्थिक समानता।

  1. नागरिक समानता-नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हैं अर्थात् कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं। किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर कानून के समक्ष भेदभाव नहीं किया जाता। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है।
  2. सामाजिक समानता-सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का समान अंग है अतः सभी को बराबर सुविधाएं मिलनी चाहिएं। सामाजिक समानता की स्थापना केवल कानून द्वारा नहीं की जा सकती बल्कि इसके लिए लोगों के विचारों में परिवर्तन लाना भी आवश्यक है।
  3. राजनीतिक समानता-राजनीतिक समानता का अर्थ है कि नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार मिलने चाहिएं। वोट देने का अधिकार, चुने जाने का अधिकार, सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार इत्यादि राजनीतिक अधिकार सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मिलने चाहिएं।
  4. आर्थिक समानता–समाज में से आर्थिक असमानता समाप्त होनी चाहिए तथा सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए।

प्रश्न 5.
आर्थिक समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
आर्थिक समानता का यह अर्थ नहीं है कि सभी व्यक्तियों को समान वेतन दिया जाए तथा सभी के पास समान सम्पत्ति हो। आर्थिक समानता का सही अर्थ यह है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए अर्थात् व्यक्ति की रोटी, कपड़ा तथा मकान की आवश्यकताओं पूर्ण होनी चाहिए। प्रत्येक राज्य का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे। उनके जीवन-स्तर को ऊंचा करने के अनेक कार्य करे। साम्यवादी देशों में नागरिकों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए अनेक कार्य किए गए हैं और आर्थिक समानता की स्थापना के प्रयास किए जा रहे हैं। भारत में करोड़ों व्यक्ति बेरोज़गार हैं और कई व्यक्तियों को तो दो समय भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। भारत में आर्थिक समानता नहीं है।

प्रश्न 6.
आर्थिक असमानता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
आर्थिक असमानता उस अवस्था को कहा जाता है जब समाज का एक भाग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत ज़रूरतों से वंचित रहते हुए अत्यन्त निम्न परिस्थितियों में जीवनयापन करता है और दूसरा भाग समस्त सुखसुविधाओं से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। आर्थिक असमानता के अन्तर्गत निर्धन और धनी के बीच अंतर बढ़ जाता है। निर्धन व्यक्ति प्रत्येक दृष्टि से पिछड़ कर रह जाते हैं। भारत में व्यापक पैमाने पर आर्थिक असमानता पाई जाती है। आज भी कुल आबादी का एक तिहाई भाग ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। इनके लिए उच्च शिक्षा, राजनीतिक भागीदारी आदि एक स्वप्न की तरह है। निर्धन व्यक्तियों का जीवन स्तर अत्यन्त निम्न हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

प्रश्न 7.
भारत में आर्थिक असमानता के कोई चार कारण लिखें।
उत्तर-

  • ग़रीबी-भारत में आर्थिक असमानता का एक बड़ा कारण भारत में पाई जाने वाली ग़रीबी है। ग़रीब व्यक्ति को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास नहीं हो पाता।
  • अनपढ़ता-भारत में आर्थिक असमानता का एक और बड़ा कारण भारत में पाई जाने वाली अनपढ़ता है। अनपढ़ व्यक्ति को अच्छा रोज़गार नहीं मिल पाता, जिसके कारण वह न तो अपना पेट भर पाता है और न ही अपने परिवार का। इसी कारण समाज में उसकी स्थिति निम्न स्तर की बनी रहती है।
  • असन्तुलित विकास-भारत में होने वाला असन्तुलित विकास भी आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार है। जिन स्रोतों का अधिक विकास हुआ है, वहां के लोगों का आर्थिक स्तर अच्छा है, जबकि जहां विकास नहीं हुआ है, वहां के लोगों का सामाजिक तथा आर्थिक जीवन निम्न स्तर का है।
  • भारत में बेरोज़गारी पाई जाती है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक स्वतन्त्रता और आर्थिक समानता में सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
गरीब व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि जिन लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है वास्तव में उन्हीं को राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। आर्थिक समानता और राजनीतिक स्वतन्त्रता में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है जोकि निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है-

  • वोट के अधिकार का ग़रीब व्यक्ति के लिए कोई मूल्य नहीं-राजनीतिक अधिकारों में से वोट का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण है। परन्तु एक ग़रीब व्यक्ति के लिए जिसे दो वक्त खाने के लिए रोटी नहीं मिलती उसके लिए रोटी का मूल्य, वोट के अधिकार से अधिक है।
  • निर्धन व्यक्ति द्वारा मत के अधिकार का लालच में दुरुपयोग-ग़रीब व्यक्ति थोड़े से पैसों के लालच में आकर अपने मताधिकार को पूंजीपतियों के हाथों में बेच डालता है। कई बार व्यक्ति पैसे के अलावा शराब या किसी अन्य चीज़ के लालच में मताधिकार का दुरुपयोग कर बैठता है।
  • ग़रीब व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना असम्भव-आजकल चुनाव लड़ने के लिए हज़ारों तो क्या लाखों रुपयों की आवश्यकता होती है। ग़रीब व्यक्ति जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता, चुनाव लड़ना तो दूर की बात रही, चुनाव लड़ने की बात सोच भी नहीं सकता।
  • आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रह सकती। अतः आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक दिखावा मात्र है।

प्रश्न 9.
समानता के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। स्वतन्त्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। समानता तथा स्वतन्त्रता प्रजातन्त्र के दो महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। समानता का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि नागरिकों के बीच जाति, धर्म, भाषा, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। सामाजिक न्याय और सामाजिक स्वतन्त्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। वास्तव में समानता न्याय की पोषक है। कानून की दृष्टि में सभी को समान समझा जाता है। भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के अध्याय में समानता का अधिकार लिखा गया है।

प्रश्न 10.
‘स्वतन्त्रता व समानता एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, पूरक हैं।’ व्याख्या करो।
उत्तर-
स्वतन्त्रता तथा समानता में गहरा सम्बन्ध है। अधिकांश आधुनिक विचारकों के अनुसार स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी हैं। समानता के अभाव में स्वतन्त्रता व्यर्थ है। आर० एच० टाउनी (Towney) ने ठीक ही कहा है कि, “समानता स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।” आधुनिक लोकतन्त्रात्मक राज्य मनुष्य की स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक तथा सामाजिक समानता स्थापित करने के प्रयास करते हैं। आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है। जिस देश में नागरिकों को आर्थिक समानता प्राप्त नहीं होती वहां नागरिक अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। भारत में राजनीतिक स्वतन्त्रता तो है पर आर्थिक समानता नहीं है। ग़रीब, बेकार एवं भूखे व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है। एक ग़रीब व्यक्ति अपनी वोट बेच डालता है और वह चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। अतः स्वतन्त्रता के लिए समानता का होना अनिवार्य है।

प्रश्न 11.
नागरिक समानता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नागरिक समानता को कानूनी समानता का नाम भी दिया जाता है। नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं। धर्म, जाति, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कानून भेदभाव नहीं करता है। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है। यदि किसी देश में कानून किसी एक वर्ग विशेष के लिए बनाये जाते हैं तो उस देश में नागरिक समानता नहीं रहती है। सितम्बर 1992 से पहले दक्षिण अफ्रीका में नागरिक समानता नहीं थी। वहां कानून गोरे लोगों के हितों की रक्षा के लिए ही बनाए जाते थे, परन्तु सितम्बर 1992 से वहां नागरिक समानता से सम्बन्धित कानून पारित किया गया है। अब वहां पर नागरिक समानता स्थापित है। भारत, इंग्लैण्ड और अमेरिका में कानून के सामने सभी व्यक्ति एक समान हैं। इन देशों में कानून का शासन है और प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है। कानून का उल्लंघन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक समान सज़ा मिलती है।

प्रश्न 12.
राजनीतिक समानता को सुनिश्चित बनाने के लिए आवश्यक शर्ते लिखो।
उत्तर-

  • मत देने का अधिकार–राजनीतिक समानता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों को जाति, धर्म, रंग, वंश, लिंग, धन, स्थान आदि के आधार पर उत्पन्न भेदभाव के बिना समान रूप से मतदान का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
  • चुनाव लड़ने का अधिकार-राजनीतिक समानता के लिए यह आवश्यक है कि सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से चुनाव लड़ने और चुने जाने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
  • सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार-लोकतन्त्रीय राज्यों में राजनीतिक सत्ता में भागीदार बनाने के लिए नागरिकों को सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है। कोई भी सार्वजनिक पद किसी विशेष वर्ग के लोगों के लिए सुरक्षित नहीं होता। 4. लोगों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार होना चाहिए।

प्रश्न 13.
‘संरक्षात्मक विभेद’ से आपका क्या अभिप्राय है ? इससे सम्बन्धित कोई दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर–
प्रत्येक समाज में बहुत-से व्यक्ति ऐसे होते हैं जो सामाजिक आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं। इन वर्गों को कानून द्वारा विशेष रियायतें प्रदान की जाती हैं ताकि ये अन्य वर्गों के समान अपना विकास कर सकें। इस प्रकार पिछड़े वर्गों के लोगों के पक्ष में विशेष सुविधाओं और रियायतों की व्यवस्था को ‘सुरक्षित भेदभाव’ कहा जाता है क्योंकि ऐसा पक्षपात विशेष वर्गों के लोगों के हितों की सुरक्षा के लिए किया जाता है। चाहे विशेष रियायतें और सुविधाएं समानता के कानूनी अधिकार की धारणा अनुसार नहीं होतीं, परन्तु आधुनिक कल्याणकारी राज्य के लिये पिछड़े वर्गों के लोग न तो योग्य विकास कर सकते हैं और न ही उन्नत व के लोगों की सामाजिक समानता करने का साहस कर सकते हैं। पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था करना बहुत आवश्यक हो गया है।

प्रश्न 14.
समानता के कानूनी पक्ष (Legal Dimension) से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आधुनिक युग में समानता के कानूनी पक्ष पर बहुत बल दिया जाता है। समानता के कानूनी पक्ष का अर्थ यह है कि राज्य में रहने वाले सभी व्यक्ति कानून के सामने समान है और किसी व्यक्ति को कानून के उपबन्धों में छूट नहीं दी जा सकती है। समानता के कानूनी पक्ष में निम्नलिखित बातें शामिल हैं-

1. कानून के समक्ष समानता-कानून के समक्ष समानता का अर्थ है कि कानून की दृष्टि में सभी नागरिक समान हैं। कानून तथा न्यायालय किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
2. कानून के समान संरक्षण-कानून के समान संरक्षण का अभिप्राय यह है कि समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार किया जाएगा।
3. समान अधिकार और कर्त्तव्य-हॉबहाउस के अनुसार कानूनी समानता में यह भी शामिल है कि सभी व्यक्तियों को समान रूप से अधिकार और कर्त्तव्य प्राप्त होने चाहिएं।

प्रश्न 15.
राजनीतिक समानता और आर्थिक समानता में सम्बन्ध बताएं।
उत्तर-
राजनीतिक समानता को सही अर्थों में स्थापित करने के लिए आर्थिक समानता अनिवार्य है। उदारवादी राजनीतिक समानता पर अधिक बल देते हैं जबकि मार्क्सवादी आर्थिक समानता को अधिक महत्त्व देते हैं। परन्तु वास्तव में दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। राजनीतिक समानता की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि समाज में अमीरों और गरीबों में बहुत अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए और सभी व्यक्तियों की मौलिक आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। भूखे नंगे व्यक्ति के लिए राजनीतिक समानता का कोई अर्थ नहीं है। निर्धन व्यक्ति न तो मत का प्रयोग करने जाता है और न ही चुनाव लड़ने की सोच सकता है। ग़रीब व्यक्ति अपना मत बेच देता है और उच्च पदों से व्यवहारिक रूप से वंचित रहता है क्योंकि उसके पास शिक्षा करने के लिए धन नहीं होता। अतः आर्थिक समानता राजनीतिक समानता की स्थापना में सहायक होती है। राजनीतिक समानता भी आर्थिक समानता की स्थापना में सहायक होती है। इसलिए दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
साधारण शब्दों में समानता का अर्थ यह लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए। परन्तु समानता का यह अर्थ सही नहीं है। आज के युग में समानता का सही अर्थ यह है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं। सभी नागरिकों को उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं। किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए और समाज में उत्पन्न असमानताओं की समाप्ति हो।

प्रश्न 2.
समानता की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
1. विशेष अधिकारों का अभाव-समानता की प्रथम विशेषता यह है कि समाज में किसी वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होते।
2. उन्नति के समान अवसर-समानता की द्वितीय विशेषता यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य कर सके। किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।

प्रश्न 3.
समानता के दो रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
1. नागरिक समानता-नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हैं अर्थात् कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं।
2. सामाजिक समानता–सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का समान अंग है अतः सभी को बराबर सुविधाएं मिलनी चाहिएं।

प्रश्न 4.
आर्थिक समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
आर्थिक समानता का यह अर्थ नहीं है कि सभी व्यक्तियों को समान वेतन दिया जाए तथा सभी के पास समान सम्पत्ति हो। आर्थिक समानता का सही अर्थ यह है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए अर्थात् व्यक्ति की रोटी, कपड़ा तथा मकान की आवश्यकताओं पूर्ण होनी चाहिएं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तरप्रश्न 1. समानता का अर्थ क्या है ?
उत्तर-प्रत्येक व्यक्ति को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं ताकि वह अपनी योग्यता के अनुसार अपना विकास कर सके।

प्रश्न 2. समानता की परिभाषा लिखें।
उत्तर-लॉस्की के अनुसार, “समानता का अर्थ है विशेषाधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान तथा उचित अवसर प्राप्त हों।”

प्रश्न 3. समानता की एक विशेषता बताइए।
उत्तर-समानता की विशेषता यह है कि समानता में किसी वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते।

प्रश्न 4. समानता के विभिन्न रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. प्राकृतिक समानता
  2. नागरिक समानता
  3. सामाजिक समानता
  4. राजनीतिक समानता
  5. आर्थिक समानता।

प्रश्न 5. प्राकृतिक समानता का क्या अर्थ है ? ।
उत्तर-प्राकृतिक समानता का अर्थ है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है, इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।

प्रश्न 6. नागरिक समानता किसे कहते हैं ?
उत्तर-सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात् कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं।

प्रश्न 7. सामाजिक समानता से क्या तात्पर्य है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जाना व उससे किसी भी प्रकार का धार्मिक, जातिगत, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाना।

प्रश्न 8. राजनीतिक समानता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-राजनीतिक समानता से अभिप्राय है कि नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के मत देने, चुने जाने, प्रार्थनापत्र देने और सरकारी पद ग्रहण करने का अधिकार हो।

प्रश्न 9. आर्थिक समानता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए।

प्रश्न 10. स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं, वर्णन करें।
उत्तर-आर्थिक क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतियोगिता होने के कारण अमीर और अमीर हो जाएंगे, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ेगी।

प्रश्न 11. स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी नहीं, स्पष्ट करें।
उत्तर-दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है व्यक्ति के विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करना ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।

प्रश्न 12. समानता का क्या महत्त्व है?
उत्तर-समानता का महत्त्व इस बात में निहित है कि किसी भी मनुष्य के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 13. किन्हीं दो विद्वानों का नाम लिखें जो स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी मानते हैं।
उत्तर-लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) और डी० टॉकविल (De-Tocqueville) ।

प्रश्न 14. नागरिक समानता और राजनीतिक समानता में क्या अन्तर है?
उत्तर-नागरिक समानता से अभिप्राय है कि सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं जबकि राजनीतिक समानता का अर्थ है कि सभी नागरिकों को समान रूप से राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 15. समानता के दोनों रूपों का नाम लिखिए।
उत्तर-

  1. नकारात्मक समानता
  2. सकारात्मक समानता।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………… समानता का सही अर्थ यह है, कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए।
2. लॉस्की के अनुसार, आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक …….है।
3. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर …………. है।
4. वोट का अधिकार ………. समानता से सम्बन्धित है।
5. काम का अधिकार ……….. समानता से सम्बन्धित है।
उत्तर-

  1. आर्थिक
  2. धोखा मात्र
  3. सहयोगी
  4. राजनीतिक
  5. आर्थिक ।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. समानता का अर्थ है, समाज में प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति के असमान अवसर प्रदान किये जाएं। प्रत्येक व्यक्ति को असमान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए, ताकि प्रत्येक अपनी योग्यता के अनुसार अपना विकास कर सके।
2. समानता की एक विशेषता यह है, कि किसी वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त हो।
3. प्राकृतिक समानता का अर्थ है, कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है। इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।
4. नागरिक समानता को कानूनी समानता का नाम भी दिया जाता है।
5. समानता और स्वतन्त्रता लोकतन्त्र के मूल तत्त्व नहीं हैं। व्यक्ति के विकास के लिए स्वतन्त्रता तथा समानता का कोई महत्त्व नहीं है। बिना स्वतन्त्रता और समानता के मनुष्य अपना विकास कर सकता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
“समानता के नियम का यह अर्थ है कि जो सविधाएं मझे अधिकारों के रूप में प्राप्त हुई हैं, वही सुविधाएं उसी प्रकार से दूसरों को भी दी गई हों। जो अधिकार दूसरों को दिये गए हैं, वह मुझे भी मिलेंगे।” यह कथन किसका है ?
(क) लॉस्की
(ख) बार्कर
(ग) ग्रीन
(घ) बैंथम।
उत्तर-
(घ) लॉस्की ।

प्रश्न 2.
“राजनीति शास्त्र के सम्पूर्ण क्षेत्र में समानता की धारणा से कठिन कोई अन्य धारणा नहीं है।” यह कथन किसका है ?
(क) मिल
(ख) लासवैल
(ग) गार्नर
(घ) लॉस्की ।
उत्तर-
(घ) लॉस्की ।

प्रश्न 3.
यह किसने कहा- “समानता की पर्याप्त मात्रा स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर उसके लिए अनिवार्य
(क) रूसो
(ख) लॉस्की
(ग) ग्रीन
(घ) आर० एच० टोनी।
उत्तर-
(घ) आर० एच० टोनी।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

प्रश्न 4.
“आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता मिथ्या है।” यह कहा है-
(क) लॉस्की ने
(ख) ग्रीन ने
(ग) एक्टन ने
(घ) लिंकन ने।
उत्तर-
(ग) एक्टन ने

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 6 स्वतन्त्रता

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता क्या है ? स्वतन्त्रता के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं ? विवेचना कीजिए। (What is Liberty ? What are the different kinds of liberty ? Discuss.) (Textual Question)
अथवा
स्वतन्त्रता क्या होती है। इसके अलग-अलग प्रकारों का वर्णन करें। (What is Liberty ? Discuss its different kinds.)
उत्तर-
स्वतन्त्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। माण्टेस्क्यू (Montesquieu) के मतानुसार स्वतन्त्रता को छोड़कर किसी अन्य शब्द ने व्यक्ति के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव नहीं डाला है। प्रत्येक मनुष्य में स्वतन्त्रता प्राप्ति की इच्छा होती है। फ्रांसीसी क्रान्ति ने स्वतन्त्रता की भावना को बहुत बल दिया। भारत, दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रीका के कई देशों ने 20वीं शताब्दी में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जो बलिदान किए उससे स्पष्ट है कि पराधीन राष्ट्र का स्तर गुलामों जैसा होता है। प्रत्येक राष्ट्र स्वतन्त्रता की प्राप्ति उसी प्रकार चाहता है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रखना चाहता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ (Meaning of Liberty)-‘स्वतन्त्रता’ को अंग्रेज़ी भाषा में ‘लिबर्टी’ (Liberty) कहते हैं। लिबर्टी शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकलता है जिसका अर्थ यह है पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बन्धनों का न होना। इस प्रकार स्वन्त्रता का अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बन्धन अथवा प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं। परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ गलत है क्योंकि बिना बन्धनों के मनुष्य का जीवन आज के सभ्य संसार में सम्भव नहीं है। स्वतन्त्रता का अर्थ दो भिन्नभिन्न रूपों में लिया जाता है

  1. स्वतन्त्रता का नकारात्मक स्वरूप (Negative Aspect of Liberty)
  2. स्वतन्त्रता का सकारात्मक स्वरूप (Positive Aspect of Liberty)

1. स्वतन्त्रता का नकारात्मक स्वरूप (Negative Aspect of Liberty)-नकारात्मक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता हो अर्थात् व्यक्ति को अपनी मनमानी करने का अधिकार हो। उसे प्रत्येक कार्य करने की स्वतन्त्रता हो और उसके कार्यों पर कोई भी प्रतिबन्ध न हो। ‘सभी प्रतिबन्धों का अभाव’ (Absence of all Restraints) नकारात्मक स्वतन्त्रता का अर्थ है। जॉन स्टुअर्ट मिल (J.S. Mill) ने स्वतन्त्रता का अर्थ ‘सभी प्रतिबन्धों का अभाव’ लिया था। मिल के अनुसार, व्यक्ति के कार्यों पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं होना चाहिए चाहे वह बन्धन अच्छा क्यों न हो। उदाहरणस्वरूप मिल के अनुसार व्यक्ति को शराब पीने की स्वतन्त्रता है, यदि वह पब्लिक ड्यूटी पर नहीं। व्यक्ति को जुआ खेलने की स्वतन्त्रता है।

परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ गलत है। सभ्य समाज में मनुष्य को प्रत्येक कार्य करने की स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। बार्कर (Barker) ने ठीक ही कहा है कि, “जिस प्रकार बदसूरती का न होना खूबसूरती नहीं है, उसी प्रकार बन्धनों का न होना स्वतन्त्रता नहीं है।” यदि व्यक्ति को सभी प्रकार के कार्य करने की स्वतन्त्रता दे दी जाए तो समाज में अराजकता उत्पन्न हो जाएगी। पूर्ण स्वतन्त्रता देने का अर्थ है कि इस स्वतन्त्रता का प्रयोग केवल शक्तिशाली व्यक्ति ही कर सकेंगे। समाज में फिर एक ही कानून होगा ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जिससे निर्बल व्यक्तियों का जीवन भी सुरक्षित नहीं रहेगा। लॉस्की (Laski) ने कहा है, “समाज में रह कर व्यक्ति जो चाहे नहीं कर सकता। स्वतन्त्रता कभी लाइसैंस नहीं बन सकती। किसी को भी चोरी करने या मारने की छूट नहीं दी जा सकती।” अतः स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है।

2. स्वतन्त्रता का सकारात्मक स्वरूप (Positive aspect of Liberty)-सकारात्मक स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए कुछ अधिकार तथा अवसर प्राप्त हों। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ है कि, “प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार हो जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे।” लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “स्वतन्त्रता ने एक ऐसा वातावरण बनाए रखना है जिसमें व्यक्ति को विकास के सबसे अच्छे अवसर मिल सकें।” गांधी जी के अनुसार, “नागरिक स्वतन्त्रता नियन्त्रण का अभाव नहीं बल्कि आत्मविकास के लिए अवसर हैं।” सकारात्मक स्वतन्त्रता का यह भी अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु साथ में उसे उन अवसरों की भी याद होनी चाहिए जिससे उसे अपना विकास करने में सहायता मिलती हो। फ्रांसीसी क्रान्ति के नेताओं ने मानव अधिकारों की घोषणा में ठीक ही कहा था कि, “यह किसी भी कार्य को करने की शक्ति है। जिससे दूसरों को कोई हानि न पहुंचे।” (“It is the power to do anything that does not injure another.”)

स्वतन्त्रता की परिभाषाएं (Definitions of Liberty)-इस प्रकार स्वतन्त्रता का वास्तविक स्वरूप सकारात्मक है। निम्नलिखित परिभाषाएं स्वतन्त्रता के अर्थ को स्पष्ट कर देती हैं-

  • सीले (Seeley) के अनुसार, “स्वतन्त्रता अति-शासन का उलटा रूप है।” (“Liberty is the opposite of over-government.”) सीले की इस परिभाषा का अर्थ है कि स्वतन्त्रता की प्राप्ति तानाशाही राज्य में नहीं हो सकती।
  • गैटेल (Gettell) के अनुसार, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनन्द प्राप्त होता है जो कि करने योग्य हैं।” (“Liberty is the positive power of doing and enjoying those things which are worthy of enjoyment and work.”’)
  • जी० डी० एच० कोल (G.D.H. Cole) के अनुसार, “बिना किसी बाधा के व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व प्रकट करने का नाम स्वतन्त्रता है।”
  • हरबर्ट स्पैन्सर (Herbert Spencer) के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति वह कुछ करने को स्वतन्त्र है, जिसकी वह इच्छा करता है, परन्तु उससे किसी दूसरे व्यक्ति की वैसी ही स्वतन्त्रता नष्ट न होती हो।” (“Every man is free to do that which he wills, provided he infrings not the equal freedom of any other man.”)
  • टी० एच० ग्रीन (T.H. Green) के अनुसार, “स्वतन्त्रता करने योग्य कार्य को करने और उपयोग करने की साकारात्मक शक्ति है।”
  • प्रो० लॉस्की (Laski) ने स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हए लिखा है, “स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय वर्तमान सभ्यता में मनुष्य की प्रसन्नता की गारण्टी के लिए जिन सामाजिक परिस्थितियों की आवश्यकता है, उन पर पाबन्दियों का न होना है।” दूसरे स्थान पर लॉस्की ने स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हुए लिखा है, “स्वतन्त्रता का अर्थ उस वातावरण की उत्साहपूर्ण रक्षा करने से है जिससे मनुष्य को अपने श्रेष्ठतम रूप की प्राप्ति का अवसर प्राप्त हो।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

साधारण शब्दों में, स्वतन्त्रता का अर्थ नियन्त्रण का अभाव नहीं है बल्कि व्यक्तित्व के विकास की अवस्थाओं की प्राप्ति है। स्वतन्त्रता की विभिन्न परिभाषाओं का अभाव स्वतन्त्रता नहीं है :

  1. सभी तरह की पाबन्दियों का अभाव स्वतन्त्रता नहीं है।
  2. निरंकुश, अनैतिक, अन्यायपूर्ण पाबन्दियों का अभाव ही स्वतन्त्रता है।
  3. न्यायपूर्ण नैतिक तथा उच्च पाबन्दियों का होना स्वतन्त्रता है।
  4. स्वतन्त्रता व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक अवस्था है।
  5. स्वतन्त्रता सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होती है।
  6. व्यक्ति को वे सब कार्य करने की स्वतन्त्रता है जो करने योग्य हैं।
  7. व्यक्ति को वे कार्य करने का अधिकार है जिनसे दूसरों को हानि न पहुंचे।

स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप (Kinds of Liberty)-

राजनीति शास्त्र में स्वतन्त्रता का प्रयोग कई रूपों में किया गया है। स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप निम्नलिखित हैं :-

1. प्राकृतिक स्वतन्त्रता (Natural Liberty)—जिस प्रकार कई लेखकों के मतानुसार मनुष्य को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त हैं उसी प्रकार कई लेखकों ने प्राकृतिक स्वतन्त्रता का विचार प्रस्तुत किया है। प्राकृतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि मनुष्य को राज्य की उत्पत्ति से प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। सामाजिक समझौते के सिद्धान्त के लेखकों के अनुसार मनुष्य को प्रकृति ने स्वतन्त्र पैदा किया है। रूसो ने प्राकृतिक स्वतन्त्रता पर जोर दिया है। उसके अनुसार, “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है, परन्तु प्रत्येक स्थान पर वह बन्धनों (जंजीरों) में बन्धा हुआ है।”

परन्तु प्राकृतिक स्वतन्त्रता का विचार आज मान्य नहीं है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति समाज में ही हो सकती है, समाज के बाहर नहीं। जब उस समय कोई समाज नहीं था तो स्वतन्त्रता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता था। स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिबन्धों का अ नहीं है।

2. नागरिक त्रता (Civil Liberty).-नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो संगठित समाज का सदस्य होन के नाते प्राप्त होती है। प्रो० आशीर्वादम के अनुसार नागरिक स्वतन्त्रता को सीधे शब्दों में ‘समाज में प्राप्त स्वतन्त्रता’ कह सकते हैं। समाज अपने नागरिकों क विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करता है जिसके बिना नागरिक अपना विकास नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों तथा सुविधाओं को ही नागरिक स्वतन्त्रता कहा जाता है। नागरिक स्वतन्त्रता राज्य के अन्दर रहने वाले सभी व्यक्तियों को प्राप्त होती है। नागरिक स्वतन्त्रता में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता जीवन की स्वतन्त्रता, सम्पत्ति रखने की स्वतन्त्रता, भाषण देने की स्वतन्त्रता, घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता, इत्यादि सम्मिलित हैं।

प्रत्येक देश में नागरिक स्वतन्त्रता एक-जैसी नहीं होती। क्यूबा तथा चीन आदि साम्यवादी देशों में नागरिकों को ऐसी नागरिक स्वतन्त्रता प्राप्त है जो भारत, अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में नहीं है। तानाशाही देशों में लोकतन्त्रीय देशों के समान नागरिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती।

3. राजनीतिक स्वतन्त्रता (Political Liberty) राजनीतिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है। लॉस्की (Laski) के अनुसार, “राजनीतिक स्वतन्त्रता का अर्थ राज्यों के कार्यों में क्रियाशील होना है।” ( The power to be active in the affairs of the State.”) राजनीतिक स्वतन्त्रता निम्नलिखित अधिकारों से सम्बन्ध रखती है

  • नागरिकों को कानून बनाने वाली सभाओं के प्रतिनिधि चुनने का अधिकार प्राप्त होता है अर्थात् नागरिकों को वोट डालने का अधिकार दिया जाता है।
  • चुने जाने का अधिकार।
  • प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार।
  • सार्वजनिक पद प्राप्ति का अधिकार।
  • सरकार की नीतियों की आलोचना करने का अधिकार।
  • राजनीतिक दल बनाने का अधिकार। नागरिकों को उपर्युक्त राजनीतिक अधिकार लोकतन्त्रीय राज्यों में ही प्राप्त होते हैं।

4. आर्थिक स्वतन्त्रता (Economic Liberty)-नागरिक तथा राजनीतिक स्वतन्त्रता का लाभ नगरिक को तभी होता है, यदि उसे आर्थिक स्वतन्त्रता भी प्राप्त हो। आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ नहीं है। आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि नागरिक को बेरोज़गारी तथा भूख से मुक्ति प्राप्त हो। प्रत्येक नागरिक को काम करने के समान अवसर प्राप्त होने चाहिएं। आर्थिक स्वतन्त्रता में काम करने के निश्चित घण्टे, न्यूनतम वेतन, काम करने का अधिकार, बेकारी की दशा में निर्वाह भत्ते के अधिकार शामिल होते हैं। आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं होता। एक भूखे और बेकार व्यक्ति के लिए मतदान का अधिकार कोई महत्त्व नहीं रखता।

5. नैतिक स्वतन्त्रता (Moral Liberty)-नैतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को अपना नतिक विकास करने की सभी सुविधाएं प्राप्त हों। व्यक्ति को सत्य-असत्य, नैतिक-अनैतिक, धर्म-अपाय, उचित-अनाना में निर्णय करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। नैतिक स्वतन्त्रता से व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। ग्री:: कमांके आदि लेखकों ने व्यक्ति की नैतिक स्वतन्त्रता पर बहुत जोर दिया है। देश की उन्नति. विकास और मृद्धि :- नैतिक म्वतन्त्रताएं अति आवश्यक हैं।

6. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (Personal Liberty)-व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता हो जो उस तक ही सीमित हों तथा उसके कायों से किसी दुसरे व्यक्ति को हानि न पहुंचे। प्रो० लॉस्की ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को निजी स्वतन्त्रता का नाम दिया है। निजी स्वतन्त्रता का अथ है उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता जिनके परिणाम केवल उसी व्यक्ति को प्रभावित करें। मिल ने मनुष्य के कार्यों का दो भागों में बांटा थाव्यक्तिगत कार्य तथा दूसरे से सम्बन्धित। मिल के अनुसार, मनुष्य को व्यक्तिगत कार्यों में एक स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए-व्यक्तिगत कार्य वे कार्य हैं जिनका सम्बन्ध व्यक्ति तक ही सीमित रहता है !

7. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता (National Liberty)-जिस प्रकार नागरिकों के विकास के लिा. वतन्त्रता आवश्यक है उसी प्रकार राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रत का अह कि राज्य किसी देश के नियन्त्रण में न हो अर्थात् राज्य बाहरी रूप से स्वतन्त्र हा और प्रभुसत्ता राज्य के पास हो। गलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य का होना ही राष्ट्रीय स्वतन्त्रता र इसलिए मा स्वतन्त्रता तथा प्रभुसत्ता के एक ही अर्थ हैं।” राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए नागरिक प्रत्यक बलिदान करने के लिए तयार रहते हैं : भारत को 1947 ई० में अंग्रेजों से स्वतन्त्रता प्राप्त हुई।

प्रश्न 2. स्वतन्त्रता के रक्षा कवच बताएं। (Explain the safeguards of Liberty.)
उत्तर–स्वतन्त्रता का व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह अमीर हो, चाह नगंब ; कुछ कार्यों को करने के लिए स्वतन्त्रता चाहता है। स्वतन्त्रता व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक है। आधुनिक राज्यों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए विभिन्न उपाय किए जाते हैं। स्वतन्त्रता की सुरक्षा निम्नलिखित विभिन्न उपायों द्वारा की जा सकती है-

1. प्रजातन्त्र की स्थापना (Establishment of Democracy)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए प्रजातन्त्र की स्थापना आवश्यक है। स्वतन्त्रता और प्रजातन्त्र सहचारी हैं। प्रजातन्त्र में शक्ति का स्रोत जनता होती है और शासन का आधार जनमत होता है। जनता के हितों के विरुद्ध सरकार कानून पास करने की हिम्मत नहीं करती और न ही सरकार व्यक्तियों की स्वतन्त्रता को छीनने की कोशिश करती है। यदि सरकार स्वतन्त्रता को छीनने का प्रयत्न करती है तो चुनाव में ऐसी सरकार को हटा दिया जाता है।

2. मौलिक अधिकारों की घोषणा (Declaration of Fundamental Rights)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्तियों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रता की घोषणा संविधान के मौलिक अधिकारों में कर देनी चाहिए। यदि अधिकारों को संविधान में लिख दिया जाए तो सरकार इन अधिकारों का उल्लंघन आसानी से नहीं कर सकेगी और न ही इन अधिकारों को छीनने का प्रयत्न करेगी। यदि सरकार इन अधिकारों में हस्तक्षेप करती है तो नागरिक न्यायालय में जाकर इन अधिकारों की रक्षा की मांग कर सकते हैं। आज संसार के अधिकांश देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों का वर्णन मिलता

3. शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक है। शक्तियों के केन्द्रीयकरण से निरंकुशता को बढ़ावा मिलता है जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता है।

4. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता (Independence of Judiciary)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। न्यायपालिका ही निष्पक्ष तथा निडरता से न्याय कर सकती है। स्वतन्त्र न्यायपालिका आवश्यक है क्योंकि न्यायपालिका ही मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है। न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विधानपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए। न्यायाधीश का वेतन अच्छा होना चाहिए और योग्य व्यक्तियों को न्यायाधीश नियुक्त किया जाना चाहिए।

5. सरल व शीघ्र न्याय-व्यवस्था (Simple and Speedy Justice)-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के साथ ही न्याय का सरल व शीघ्र किया जाना स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है। न्याय-व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे न्याय शीघ्र मिल सके। न्याय की देरी का अर्थ है-अन्याय। गांधी जी के अनुसार अच्छी न्याय व्यवस्था की मूल विशेषता होती है कि न्याय सस्ता और शीघ्र होता है।

6. समान अधिकार (Equal Rights)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए यह भी आवश्यक है कि नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों। किसी एक वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिएं।

7. आर्थिक सुरक्षा (Economic Security)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए आर्थिक सुरक्षा होनी चाहिए। जिस देश में अमीर तथा ग़रीब में अधिक भेद होता है वहां ग़रीब व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। एक भूखे व्यक्ति के लिए वोट के अधिकार का कोई महत्त्व नहीं है, वह अपने वोट का अधिकार बेच देता है। व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा तभी कर सकता है जब उसे आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो।

8. कानून का शासन (Rule of Law)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए कानून का शासन आवश्यक है। ‘कानून के शासन’ का अर्थ है कि कानून के सामने सभी समान हैं । इंग्लैण्ड, भारत तथा अमेरिका में कानून का शासन है। इंग्लैण्ड में नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा कानून के शासन के द्वारा की गई है।

9. शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण (Decentralisation of Powers)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए सत्ता का विकेन्द्रीयकरण होना चाहिए न कि केन्द्रीयकरण। इसलिए सभी विद्वान, विचारक और राजनेता शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण पर बल देकर राजनीतिक सत्ता को राष्ट्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय इकाइयों में बांटने का समर्थन करते हैं। लॉस्की (Laski) ने ठीक ही कहा है कि, “राज्य में शक्तियों का जितना अधिक वितरण होगा, उसकी प्रकृति उतनी अधिक विकेन्द्रित होगी और व्यक्तियों में अपनी स्वतन्त्रता के लिए उतना ही अधिक उत्साह होगा।” ब्राइस (Bryce) का विचार है कि लोगों में स्वतन्त्रता की भावना पैदा करने के लिए राज्य में स्वशासन की संस्थाओं (Local Self-Government Institution) को स्थापित करना आवश्यक है।

10. स्वतन्त्र प्रैस (Free Press)-किसी भी राज्य में नागरिकों की स्वतन्त्रताएं केवल तभी सुरक्षित रह सकती हैं जब वहां प्रेस स्वतन्त्र हो और व्यक्ति अपने विचारों की स्वतन्त्रतापूर्वक अभिव्यक्ति कर सकता हो। विचारों की अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावशाली ढंग प्रकाशन है। अतः स्वतन्त्र और ईमानदार प्रैस का होना अति आवश्यक है। यदि प्रेस स्वतन्त्र नहीं होगा तो लोगों को सरकार की कार्यवाहियों का सही ज्ञान नहीं होगा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

11. संविधान (Constitution)-सरकार की शक्तियों को संविधान में लिख कर सरकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। इसलिए आधुनिक राज्यों के संविधान लिखित होते हैं ताकि सरकार की शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। सरकार को अपना कार्य संविधान के अनुसार करना चाहिए।

12. राजनीतिक शिक्षा (Political Education)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए जनता के पास राजनीतिक शिक्षा का होना आवश्यक है। राजनीतिक शिक्षा से ही मनुष्य को अपने अधिकारों तथा स्वतन्त्रता का ज्ञान होता है और इससे मनुष्य शासन में अधिक-से-अधिक रुचि लेता है। बिना राजनीतिक शिक्षा के स्वतन्त्रता की रक्षा करना असम्भव है।

13. पक्षपात रहित शासन (Impartial Administration)-स्वतन्त्रता की रक्षा तभी हो सकती है जब राज्य की नीति पक्षपातपूर्ण न हो। इसका अभिप्रायः यह है कि राज्य को कुछ लोगों की भलाई के लिए ही कार्य नहीं करना चाहिए और न ही भेदभाव की नीति का अनुसरण करना चाहिए।

14. सतत् जागरूकता (Eternal Vigilance)-प्रो० लॉस्की (Laski) ने ठीक ही कहा है, “सतत् जागरूकता स्वतन्त्रता का मूल है।” स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय जनता को स्वतन्त्रता के प्रति जागरूक रहना है। नागरिकों में सरकार के इन कार्यों के विरुद्ध आन्दोलन करने की हिम्मत तथा हौंसला होना चाहिए जो उनकी स्वतन्त्रता को नष्ट करते हों। सरकार को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि यदि उसने नागरिकों की स्वतन्त्रता को कुचला तो नागरिक उसके विरुद्ध पहाड़ की तरह खड़े हो जाएंगे। लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “नागरिकों की महान् भावना न कि कानूनी शब्दावली स्वतन्त्रता की वास्तविक संरक्षरक है।”

15. सुदृढ़ व संगठित दलीय प्रणाली Strong and well-knit Party System)-स्वतन्त्रता के संरक्षण के लिए सुदृढ़ व सुसंगठित राजनीतिक दलों की व्यवस्था का होना अनिवार्य है। क्योंकि यदि बहुमत प्राप्त सरकार नीति-निर्माण के कार्यों में लोगों के हितों व स्वतन्त्रताओं को मान्यता नहीं देती है, तो विपक्षी दल न केवल इनका विरोध करते हैं, बल्कि ऐसी सरकार को अपदस्थ या हटाने के लिए लोगों में जनमत (Public Opinion) भी तैयार करते हैं, ताकि चुनावों में ऐसे राजनीतिक दन को सत्ता से दूर रखा जा सके।

16. सहिता की भावना एवं सरकार व लोगों में सहयोग (Spirit of tolerance and Co-operation between the Govt. and People)–स्वतन्त्रता के संरण के लिए लोगों में सहनशीलता व सहिष्णुता की भावना का होना अति आवश्यक है। मा सरकार व लोगों में परस्पर सहयोग के द्वारा ही हो सकता है। लोकतन्त्रीय व्यवस्था में शासन बहुसंख्यकों के हाग चलाया जाता है और अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की भावना में विश्वास रखते हुए सरकार के साथ पूर्ण सहयोग करना चाहिए। परस्पर मझौते व सहयोगों के द्वारा परस्पर विवादों का निपटारा करना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता का अर्थ एवं परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता शब्द को अंग्रेजी भाषा में लिबर्टी (Liberty) कहते हैं। लिबर्टी शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकला है जिसका अर्थ है पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बन्धनों का न होना। इस प्रकार स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बन्धन नहीं होना चाहिए। परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ ग़लत है। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि व्यक्ति पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जो उसके विकास में सहायक हैं। स्वतन्त्रता की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं

  1. सीले के अनुसार, “स्वतन्त्रता अति शासन का उलटा रूप है।”
  2. गैटेल के अनुसार, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनन्द प्राप्त होता है जो करने योग्य हैं।”
  3. प्रो० लॉस्की ने स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हुए लिखा है, “स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्रायः वर्तमान सभ्यता में मनुष्य की प्रसन्नता की गारण्टी के लिए जिन सामाजिक परिस्थितियों की आवश्यकता है उन पर पाबन्दियों का न होना

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता के नकारात्मक तथा सकारात्मक रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता का अर्थ दो भिन्न-भिन्न रूपों में लिया जाता है। ये रूप निम्नलिखित हैं-

  • नकारात्मक स्वतन्त्रता-नकारात्मक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता हो अर्थात् व्यक्ति पर किसी प्रकार के प्रतिबन्ध न हों। उसे अपनी मनमानी करने का अधिकार प्राप्त हो और प्रत्येक कार्य को करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। ‘सभी प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव’ ही नकारात्मक स्वतन्त्रता है।
  • सकारात्मक स्वतन्त्रता-सकारात्मक स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए कुछ अधिकार तथा अवसर प्राप्त हों। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ है कि, “प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार हो जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे।” सकारात्मक स्वतन्त्रता का यह भी अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अनुचित तथा अन्यायपूर्ण प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु साथ में उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जो उसके विकास में सहायक हैं।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के चार रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के चार मुख्य रूप निम्नलिखित हैं-

  1. प्राकृतिक स्वतन्त्रता-प्राकृतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि मनुष्य को राज्य की उत्पत्ति से पूर्व प्राकृतिक अवस्था में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। ‘सामाजिक समझौते के सिद्धान्त’ के लेखकों के अनुसार भी प्रकृति ने मनुष्य को स्वतन्त्र पैदा किया है।
  2. नागरिक स्वतन्त्रता-नागरिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो व्यक्ति को संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है। समाज अपने सदस्यों के विकास के लिए वे आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करता है जिनके बिना व्यक्ति अपना विकास नहीं कर सकता, इन परिस्थितियों तथा सुविधाओं को ही नागरिक स्वतन्त्रता कहा जाता है।
  3. राजनीतिक स्वतन्त्रता-राजनीतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके अन्तर्गत नागरिक को देश के शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होता है। राजनीतिक स्वतन्त्रता में नागरिक को मतदान का, चुने जाने का, प्रार्थना-पत्र देने का, सरकारी पद प्राप्त करने का इत्यादि राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं।
  4. नैतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है, कि व्यक्ति को अपना नैतिक विकास करने की सभी सुविधाएं प्राप्त हों।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता की रक्षा के चार उपाय लिखें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता का व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्व है। आधुनिक राज्यों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं-

  • लोकतन्त्र की स्थापना-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए लोकतन्त्र की स्थापना आवश्यक है। स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र सहचारी हैं। लोकतन्त्र में शासन की शक्ति जनता के पास होती है। अत: यदि सरकार जनता की स्वतन्त्रता को ख़त्म करने या छीनने का प्रयत्न करती है तो जनता चुनाव द्वारा सरकार को हटा देती है।
  • मौलिक अधिकारों की घोषणा-स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा कर्तव्यों की घोषणा संविधान में कर दी जाए और संविधान लिखित तथा कठोर होना चाहिए जिससे इन्हें बदला न जा सके।
  • न्यायपालिका की स्वतन्त्रता-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही निडरता तथा निष्पक्षता से न्याय कर सकती है। न्यायपालिका ही मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।
  • शक्तियों का पृथक्करण होना चाहिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

प्रश्न 5.
“सतत् जागरूकता ही स्वतन्त्रता की कीमत है।” टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
प्रो० लॉस्की ने ठीक ही कहा है कि ‘सतत् जागरूकता ही स्वतन्त्रता की कीमत है।’ स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय स्वतन्त्रता के प्रति जागरूक रहना है। नागरिकों में सरकार के उन कार्यों के विरुद्ध आन्दोलन करने की हिम्मत व हौंसला होना चाहिए जो उनकी स्वतन्त्रता को नष्ट करते हैं। सरकार को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि यदि उसने नागरिकों की स्वतन्त्रता को कुचला तो नागरिक उसके विरुद्ध पहाड़ की तरह खड़े हो जाएंगे। लॉस्की के शब्दों में नागरिक की महान् भावना न कि कानूनी शब्दावली स्वतन्त्रता का वास्तविक संरक्षक है।

प्रश्न 6.
सकारात्मक स्वतन्त्रता की विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
सकारात्मक स्वतन्त्रता नकारात्मक स्वतन्त्रता से कहीं विस्तृत तथा व्यापक है। सकारात्मक स्वतन्त्रता की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  1. स्वतन्त्रता का अर्थ बन्धनों का न होना नहीं है-स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है। सकारात्मक स्वतन्त्रता के समर्थक उचित प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं परन्तु वे अनुचित प्रतिबन्धों के विरुद्ध हैं। सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं। अतः स्वतन्त्रता असीमित नहीं होती है।
  2. स्वतन्त्रता और कानून परस्पर विरोधी नहीं-स्वतन्त्रता और राज्य के कानून परस्पर विरोधी नहीं है। कानून स्वतन्त्रता को नष्ट नहीं करते बल्कि स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं।
  3. स्वतन्त्रता का अर्थ बाधाओं को दूर करना है-व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में जो बाधाएं आती हैं उनको दूर करना राज्य का कार्य है। स्वतन्त्रता का अर्थ उन सामाजिक परिस्थितियों का विद्यमान् होना है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों।
  4. स्वतन्त्रता अधिकारों के साथ जुड़ी हुई है।

प्रश्न 7.
राजनीतिक स्वतन्त्रता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक स्वतन्त्रता-राजनीतिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है। राजनीतिक स्वतन्त्रता निम्नलिखित अधिकारों से सम्बन्ध रखती है

  • नागरिकों को कानून बनाने वाली सभाओं के प्रतिनिधि चुनने का अधिकार प्राप्त होता है अर्थात् नागरिकों को वोट डालने का अधिकार दिया जाता है।
  • चुने जाने का अधिकार ।
  • प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार ।
  • सार्वजनिक पद प्राप्ति का अधिकार।
  • सरकार की नीतियों की आलोचना करने का अधिकार ।
  • राजनीतिक दल बनाने का अधिकार। नागरिकों को उपर्युक्त राजनीतिक अधिकार लोकतन्त्रीय राज्यों में प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 8.
आर्थिक स्वतन्त्रता से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति प्रत्येक प्रकार की आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त हो और वह आर्थिक दृष्टि से किसी के अधीन न हो। प्रो० लॉस्की के अनुसार, “आर्थिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय मनुष्य को अपनी जीविका कमाने के लिए उचित सुरक्षा और सुविधाओं का प्राप्त होना है।” इसका अभिप्राय यह है कि सरकार को ऐसा सम्पन्न वातावरण उत्पन्न करना चाहिए जिसमें व्यक्ति को अपनी जीविका कमाने और उचित ढंग से अपना जीवननिर्वाह करने के लिए प्रत्येक प्रकार की आर्थिक सुविधाएं प्राप्त हों। इस उद्देश्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेद-भाव के कार्य करने का अधिकार, उचित वेतन प्राप्त करने का अधिकार, विश्राम का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार और शोषण के विरुद्ध अधिकार इत्यादि प्राप्त होने चाहिएं।

प्रश्न 9.
आर्थिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता के परस्पर सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर-
राजनीतिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकते हैं। राजनीतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति से नागरिक शासन में भाग लेकर अपनी नागरिक स्वतन्त्रता की भी रक्षा करता है। परन्तु राजनीतिक स्वतन्त्रता का लाभ व्यक्ति को तभी प्राप्त होता है, यदि उसे आर्थिक स्वतन्त्रता भी प्राप्त हो। राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है, यदि वह आर्थिक स्वतन्त्रता के ढांचे पर आधारित न हो। आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि नागरिक को बेरोज़गारी तथा भूख से मुक्ति हो। जो व्यक्ति काम करना चाहता है, उसे काम मिलना चाहिए। लेनिन ने कहा था, “नागरिक स्वतन्त्रता आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना निरर्थक है।”

आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में नागरिक अपने मत के अधिकार का उचित प्रयोग नहीं करता। निर्धन व्यक्ति अपनी वोट को बेच डालता है जिससे शासन की बागडोर पूंजीपतियों के हाथों में चली जाती है। पूंजीपति शासन का प्रयोग मज़दूरों के शोषण के लिए किया जाता है। व्यक्ति को नौकरी ही प्राप्त नहीं होनी चाहिए, बल्कि नौकरी की सुरक्षा भी प्राप्त होनी चाहिए। जिस मज़दूर को नौकरी से निकाले जाने का भय बना रहे वह अपनी स्वतन्त्रता का आनन्द नहीं ले सकता और न ही स्वतन्त्रता से अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकता है। जिस समाज में अमीरों तथा ग़रीबों में भेद बहुत बड़ा होता है वहां स्वतन्त्रता का होना सम्भव नहीं है। अत: ठीक ही कहा जाता है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक स्वतन्त्रता का होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता का अर्थ लिखें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता शब्द को अंग्रेज़ी भाषा में लिबर्टी (Liberty) कहते हैं। लिबर्टी शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकला है जिसका अर्थ है पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बन्धनों का न होना। इस प्रकार स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बन्धन नहीं होना चाहिए। परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ ग़लत है। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि व्यक्ति पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जो उसके विकास में सहायक हैं।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता को परिभाषित करो।
उत्तर-

  • सीले के अनुसार, “स्वतन्त्रता अति शासन का उलटा रूप है।”
  • गैटेल के अनुसार, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनन्द प्राप्त होता है जो करने योग्य हैं।”

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के दो रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • नागरिक स्वतन्त्रता-नागरिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो व्यक्ति को संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है।।
  • राजनीतिक स्वतन्त्रता-राजनीतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके अन्तर्गत नागरिक को देश के शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होता है।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता की रक्षा के दो उपाय लिखें।
उत्तर-

  1. लोकतन्त्र की स्थापना-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए लोकतन्त्र की स्थापना आवश्यक है।
  2. मौलिक अधिकारों की घोषणा–स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा कर्त्तव्यों की घोषणा संविधान में कर दी जाए और संविधान लिखित तथा कठोर होना चाहिए जिससे इन्हें बदला न जा सके।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. स्वतन्त्रता (Liberty) शब्द की उत्पत्ति किस भाषा और शब्द से हुई है ?
उत्तर–स्वतन्त्रता (Liberty) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से हुई है।

प्रश्न 2. स्वतन्त्रता के नकारात्मक स्वरूप का क्या अर्थ है ?
उत्तर-पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बंधनों का न होना।

प्रश्न 3. स्वतन्त्रता के सकारात्मक स्वरूप का क्या अर्थ है ?
उत्तर-प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार है जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे।

प्रश्न 4. स्वतन्त्रता की एक परिभाषा लिखो।
उत्तर-बर्नस के शब्दों में, “स्वतन्त्रता का अर्थ अपने व्यक्तित्व तथा योग्यताओं का पूर्ण विकास करना है।”

प्रश्न 5. स्वतन्त्रता के नकारात्मक पहलू के समर्थकों के नाम लिखें।
उत्तर-लॉक, एडम स्मिथ, हरबर्ट स्पैंसर, जे० एस० मिल आदि।

प्रश्न 6. स्वतन्त्रता के सकारात्मक पहलू के समर्थकों के नाम लिखें।
उत्तर-कांट, फिक्टे, ग्रीन, लॉस्की आदि।

प्रश्न 7. स्वतन्त्रता कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर-(1) प्राकृतिक स्वतन्त्रता, (2) नागरिक स्वतन्त्रता, (3) राजनीतिक स्वतन्त्रता, (4) आर्थिक स्वतन्त्रता, (5) नैतिक स्वतन्त्रता, (6) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, (7) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता।

प्रश्न 8. प्राकृतिक स्वतन्त्रता किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्राकृतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो मनुष्य को राज्य की उत्पत्ति से पूर्व प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त थी।

प्रश्न 9. नागरिक स्वतन्त्रता किसे कहते हैं ?
उत्तर- नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है।

प्रश्न 10. राजनीतिक स्वतन्त्रता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-राजनीतिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है।

प्रश्न 11. आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ बताओ।
उत्तर-लोगों को अपनी जीविका कमाने की स्वतन्त्रता हो तथा इसके लिए उन्हें उचित साधन तथा सुविधाएं प्राप्त हों।

प्रश्न 12. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता किसे कहते हैं ?
उत्तर–जिसके द्वारा व्यक्ति को उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता हो जो उस तक ही सीमित हों तथा उसके कार्यों से किसी दूसरे व्यक्ति को हानि न पहँचे।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

प्रश्न 13. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-राज्य किसी देश के नियन्त्रण में न हो अर्थात् राज्य बाहरी रूप से स्वतन्त्र हो और प्रभुसत्ता उसके पास हो।

प्रश्न 14. स्वतन्त्रता की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-निरंकुश, अनैतिक, अन्यायपूर्ण प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतन्त्रता है।

प्रश्न 15. स्वतन्त्रता की रक्षा का एक उपाए बताएं।
उत्तर-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए प्रजातन्त्र की स्थापना आवश्यक है क्योंकि प्रजातन्त्र में शक्ति का स्रोत जनता होती है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………….. स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है, जो संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है।
2. …………… स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है, जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है।
3. स्वतन्त्रता और ………….. परस्पर विरोधी न होकर सहयोगी हैं।
4. …………….. के अनुसार, ‘सतत् जागरूकता ही स्वतन्त्रता का मूल्य है।’
5. ‘स्वतन्त्रता पर निबंध’ पुस्तक ………….. ने लिखी।
उत्तर-

  1. नागरिक
  2. राजनीतिक
  3. समानता
  4. लॉस्की
  5. जे० एस० मिल।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. टी० एच० ग्रीन के अनुसार, “स्वतन्त्रता अतिशासन का उल्टा रूप है।”
2. स्वतन्त्रता और राज्य के कानून परस्पर विरोधी नहीं हैं। कानून स्वतन्त्रता को नष्ट नहीं करते बल्कि स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं।
3. नैतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को देश के शासन में भाग लेने का अधिकार है।
4. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि राज्य किसी देश के नियंत्रण में न हो अर्थात् राज्य बाहरी रूप से स्वतन्त्र हो और प्रभुसत्ता राज्य के पास हो।
5. जहां कानून नहीं होता, वहां स्वतन्त्रता नहीं होती है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
नकारात्मक स्वतन्त्रता का अर्थ है
(क) पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा प्रतिबन्धों का अभाव होना।
(ख) सीमित स्वतन्त्रता।
(ग) स्वतन्त्रता प्रतिबन्धों के साथ।
(घ) स्वतन्त्रता पर थोड़े प्रतिबन्धों का होना।
उत्तर-
(क) पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा प्रतिबन्धों का अभाव होना।

प्रश्न 2.
यह किसने कहा, “स्वतन्त्रता का अर्थ उस वातावरण की उत्साहपूर्ण रक्षा करने से है जिससे मनुष्य कोअपने श्रेष्ठतम रूप की प्राप्ति का अवसर प्राप्त हो ?”
(क) लॉस्की
(ख) सीले
(ग) कोल
(घ) बर्नस।
उत्तर-
(क) लॉस्की

प्रश्न 3.
जो स्वतन्त्रता राज्य बनने से पहले विद्यमान थी, उसे-
(क) नागरिक स्वतन्त्रता कहते हैं
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता कहते हैं
(ग) आर्थिक स्वतन्त्रता कहते हैं
(घ) राजनीतिक स्वतन्त्रता कहते हैं।
उत्तर-
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता कहते हैं

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है, परन्तु प्रत्येक स्थान पर वह बन्धन में बंधा हुआ है” ?
(क) रूसो
(ख) सीले
(ग) ग्रीन
(घ) बर्गेस।
उत्तर-
(क) रूसो

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 5 कानून Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 5 कानून

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कानून क्या है ? आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे ?
(What is Law ? How would you define it ?)
उत्तर-
राज्य का मुख्य उद्देश्य शान्ति की स्थापना करना तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करना होता है। राज्य अपने इस उद्देश्य की पूर्ति कानून द्वारा करता है। राज्य की इच्छा कानून द्वारा प्रकट होती है तथा कानून द्वारा ही लागू की जाती है। कानून द्वारा ही व्यक्ति तथा राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध, व्यक्ति तथा अन्य समुदायों के सम्बन्ध तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित किए जाते हैं।

कानून की परिभाषा (Definition of Law)-कानून शब्द को अंग्रेज़ी में लॉ (Law) कहते हैं। लॉ (Law) शब्द टयूटॉनिक भाषा के शब्द लेग (Lag) से निकला है, जिसका अर्थ है-‘निश्चित’ या स्थिर। इस प्रकार कानून का अर्थ है-निश्चित नियम।

कानून शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूपों में किया जाता है। जो कानून समाज में रहते हुए व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करते हैं, उन्हें सामाजिक कानून अथवा मानवीय कानून कहा जाता है। मानवीय कानूनों में से कुछ कानून ऐसे होते हैं जो मनुष्य के आन्तरिक व्यवहार को नियन्त्रित करते हैं-ऐसे कानून नैतिकता पर आधारित होते हैं और इन कानूनों को नैतिक कानून कहा जाता है। नैतिक कानूनों का उल्लंघन करने पर सज़ा नहीं मिलती। दूसरे वे कानून हैं जो मनुष्य के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करते हैं और इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है और जो इन कानूनों का उल्लंघन करता है राज्य उसे दण्ड देता है। ऐसे कानूनों को राजनीतिक कानून कहा जाता है। राजनीति शास्त्र में हमारा सम्बन्ध केवल उन कानूनों से है जिन्हें राज्य बनाता है तथा राज्य ही लागू करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

विभिन्न लेखकों ने ‘कानून’ की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं जिनमें से मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • ऑस्टिन (Austin) के शब्दों में, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।” (“Law is a command of superior to an inferior.”) फिर ऑस्टिन ने आगे लिखा है, “कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है।” (“Law is a command of a sovereign.”’)
  • वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) के अनुसार, “कानून स्थापित विचारधारा तथा अभ्यास का वह भाग है जिन्हें सामान्य रूप के नियमों में स्वीकृति मिली होती है तथा जिन्हें सरकार की शक्ति का समर्थन प्राप्त होता है।”
  • विलोबी (Willoughby) के अनुसार, “कानून आचरण के वे नियम हैं जिनकी सहायता से न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार में कार्य करते हैं। वैसे तो समाज में आचरण के बहुत-से नियम होते हैं, परन्तु कानून में यह विशेषता होती है कि उसे राज्य की सम्पूर्ण शक्ति प्राप्त होती है।”
  • हालैंड (Holland) के शब्दों में, “कानून मनुष्य के बाहरी जीवन से सम्बन्धित सामान्य नियम हैं जो राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा लागू किए जाते हैं।”
  • पाउण्ड (Pound) के अनुसार, “न्याय-प्रशासन में सार्वजनिक और नियमित न्यायालयों द्वारा मान्यता प्राप्त और लागू किए गए सिद्धान्तों को कानून कहते हैं।”
  • टी० एच० ग्रीन (T.H. Green) के शब्दों में, “कानून अधिकारों और ज़िम्मेदारियों (कर्त्तव्यों) की वह व्यवस्था है जिसे राज्य लागू करता है।”

कानून की ऊपरलिखित परिभाषाओं से कानून के निम्नलिखित तत्त्वों का पता चलता है-

  1. कानून समाज में रहने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करता है।
  2. कानून व्यक्तियों के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करता है।
  3. कानून का निर्माण राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा किया जाता है और उसी द्वारा लागू किया जाता है।
  4. कानून निश्चित तथा सर्वव्यापक होता है। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होते हैं।
  5. कानून का उल्लंघन करने वाले को दण्ड दिया जाता है। कानून न्यायालयों द्वारा लागू किए जाते हैं।

प्रश्न 2.
कानून कितने प्रकार के होते हैं ?
(What are the different kinds of Law ?)
अथवा
कानून के विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए।
(Discuss the various kinds of Law.)
उत्तर-
राज्य की इच्छा कानून द्वारा प्रकट होती है और कानून द्वारा ही लागू की जाती है। कानून व्यक्ति तथा राज्य के आपसी सम्बन्ध, व्यक्ति तथा अन्य समुदायों के सम्बन्ध तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करता है। कानून राज्य में शान्ति की स्थापना करता है और कानून ही अपराधियों को दण्ड देता है। उन नियमों को कानून कहते हैं जो व्यक्ति के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करते हैं और जिन्हें राज्य की मान्यता प्राप्त होती है।

कानून के प्रकार (Different kinds of law)-कई विचारकों ने कानून का वर्गीकरण इस प्रकार किया है। प्रो० गैटेल (Gattell) के अनुसार, कानून तीन प्रकार का होता है-(1) व्यक्तिगत कानून (Private Law), (2) सार्वजनिक कानून (Public Law), (3) अन्तर्राष्ट्रीय कानून (International Law)।

प्रो० हालैंड के अनुसार, कानून दो प्रकार का होता है-व्यक्तिगत कानून (Private Law), (2) सार्वजनिक कानून (Public Law)।

सार्वजनिक कानून के हालैंड ने तीन उपभेद किए हैं-

  1. संवैधानिक कानून
  2. प्रशासकीय कानून
  3. दण्ड कानून । व्यक्तिगत कानून के हालैंड ने आगे उपभेद किए हैं-(1) सम्पत्ति तथा समझौता कानून (2) नियम कानून (3) व्यक्तिगत सम्बन्ध कानून (4) व्यावहारिक कानून।

प्रो० मैकाइवर (Maclver) का वर्गीकरण निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट हो जाता है-

Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 कानून 1

कुछ विचारक कानून के स्रोत के आधार पर भी कानून का वर्गीकरण करते हैं-वैधानिक कानून (Statutory Law), कॉमन लॉ (Common Law), न्यायाधीशों द्वारा निर्मित कानून (Judge-made Law) तथा अध्यादेश (Ordinance)।
ऊपरलिखित कानून के वर्गीकरण के आधार पर हम कानून के विभिन्न प्रकारों का संक्षेप में वर्णन करते हैं

  • अन्तर्राष्ट्रीय कानून (International Law)-अन्तर्राष्ट्रीय कानून वह नियम है जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है और उनके झगड़ों को निपटाता है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्बन्ध केवल राज्यों से होता है, व्यक्तियों से नहीं।
  • राष्ट्रीय कानून (National Law)-राष्ट्रीय कानून वह नियम है जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं। इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है और जो व्यक्ति अथवा समुदाय इन कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें दण्ड दिया जाता है। देश के न्यायालय इन्हीं कानूनों द्वारा न्याय करते हैं।

राष्ट्रीय कानून को दो भागों में बांटा जा सकता है-संवैधानिक कानून तथा साधारण कानून।

1. संवैधानिक कानून (Constitutional Law)-संवैधानिक कानून वह कानून है जो सरकार के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों को निश्चित करता है। यह देश का सर्वोच्च कानून होता है। संवैधानिक कानून लिखित तथा अलिखित दोनों प्रकार के होते हैं। भारत, अमेरिका, जापान तथा स्विट्जरलैंड के संवैधानिक कानून लिखित हैं, परन्तु इंग्लैण्ड का संवैधानिक कानून अलिखित है।

2. साधारण कानून (Ordinary Law)—साधारण कानून राष्ट्रीय कानून का वह भाग है जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को निश्चित करता है। साधारण कानून सरकार द्वारा बनाए जाते हैं और सरकार द्वारा ही लागू किए जाते हैं। साधारण कानूनों को दो भागों में बांटा जाता है(क) सार्वजनिक कानून तथा (ख) व्यक्तिगत कानून।

3. सार्वजनिक कानून (Public Law)—सार्वजनिक कानून राज्य तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करता है। सार्वजनिक कानून दो प्रकार का होता है-

(i) प्रशासकीय कानून तथा (ii) आम कानून।

(i) प्रशासकीय कानून (Administrative Law)—प्रशासकीय कानून सार्वजनिक कानून का वह भाग है जो राज्य तथा सरकारी कर्मचारियों के सम्बन्ध नियमित करता है। प्रशासकीय कानून सरकारी कर्मचारियों के कार्यों, शक्तियों तथा स्तर को निश्चित करता है। प्रशासकीय कानून सभी देशों में नहीं मिलते। प्रशासकीय कानून का सबसे अच्छा उदाहरण फ्रांस है। (ii) आम कानून (General Law)-आम कानून सार्वजनिक कानून का वह भाग है जो सभी व्यक्तियों पर बिना सरकारी तथा गैर-सरकारी का भेद किए लागू होता है, उनके व्यवहारों को नियमित करता है।

4. व्यक्तिगत कानून (Private Law)-व्यक्तिगत कानून साधारण कानून का वह भाग है जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है। व्यक्तिगत कानून में उत्तराधिकार, विवाह तथा सम्पत्ति के आदान-प्रदान के कानून शामिल है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

5. वैधानिक कानून (Statutory Law)-वैधानिक कानून वे कानून हैं जो राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए जाते हैं। प्रत्येक लोकतन्त्रीय राज्य में विधानमण्डल होता है। आजकल लोकतन्त्रीय राज्य में अधिकांश कानून विधानमण्डल द्वारा बनाए जाते हैं।

6. कॉमन लॉ (Common Law)-कॉमन लॉ का निर्माण विधानमण्डल द्वारा नहीं किया जाता। कॉमन लॉ देश में रीति-रिवाज़ों पर आधारित होते हैं जिन्हें न्यायालय मान्यता प्रदान कर चुके होते हैं। इंग्लैण्ड में कॉमन लॉ का बहुत बड़ा महत्त्व है।

7. न्यायाधीशों द्वारा निर्मित कानून (Judge-made Laws)-न्यायाधीश कानून की व्याख्या करते समय नए कानूनों को जन्म देते हैं। कई बार न्यायाधीश मुकद्दमों का निर्णय न्याय-भावना के आधार पर करते हैं। उनके निर्णय आने वाले वैसे मुकद्दमों के लिए कानून माने जाते हैं।

8. अध्यादेश (Ordinance)-अध्यादेश वे कानून हैं जो किसी विशेष परिस्थिति पर काबू पाने के लिए जारी किए जाते हैं। अध्यादेश कार्यपालिका द्वारा उस समय जारी किए जाते हैं जब विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं हो रहा होता। जब विधानमण्डल का अधिवेशन होता है तब इन अध्यादेशों को विधानमण्डल से स्वीकृति लेनी पड़ती है। जिन अध्यादेशों को विधानमण्डल की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है वे कानून बन जाते हैं और जिनको स्वीकृति प्राप्त नहीं होती वे रद्द हो जाते हैं। जब अध्यादेश जारी किया जाता है तब उसे साधारण कानून की तरह ही मान्यता प्राप्त होती है और जो व्यक्ति अध्यादेश का उल्लंघन करता है उसे दण्ड दिया जाता है।

9. दीवानी कानून (Civil Laws)-वैधानिक कानून (Statutory Law) दीवानी और फ़ौजदारी कानूनों में बंटे होते हैं। दीवानी कानून धन, सम्पत्ति और उत्तराधिकार आदि मामलों से सम्बन्धित होते हैं।

10. फ़ौजदारी कानून (Criminal Laws)—फ़ौजदारी कानून लड़ाई-झगड़े, हत्या, डकैती आदि मामलों से सम्बन्धित होते हैं।

प्रश्न 3.
कानून के स्रोतों की व्याख्या करें।
(Discuss the sources of Law.).
उत्तर-
ऑस्टिन के अनुसार, कानून का स्रोत प्रभुसत्ताधारी है क्योंकि कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है। पर प्रत्येक कानून प्रभु का आदेश नहीं होता। कई ऐसे कानून होते हैं जिनका निर्माण प्रभु न करके केवल लागू करता है। आजकल अधिकतर कानूनों का निर्माण विधानमण्डल के द्वारा किया जाता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि कानून के अनेक स्रोत हैं। कानून के निम्नलिखित स्रोत हैं

1. रीति-रिवाज (Customs)-रीति-रिवाज कानून का सबसे पुराना स्रोत है। प्राचीनकाल में रीति-रिवाज द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। रीति-रिवाजों को ही कबीले का कानून माना जाता था। जब राज्य की स्थापना हुई तो रीति-रिवाजों को ही कानून का रूप दे दिया गया। यह ठीक है कि रीति-रिवाज स्वयं कानून नहीं हैं पर राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं। कोई भी राज्य रीति-रिवाजों के विरुद्ध कानून बनाने का प्रयत्न नहीं करता और यदि कोई राज्य रीति-रिवाजों के विरुद्ध कानून बनाता है तो जनता उन कानूनों के विरुद्ध आन्दोलन करती है। महाराजा रणजीत सिंह जो निरंकुश राजा था, अपने कानूनों को रीति-रिवाजों के अनुसार ही बनाता था। भारत में हिन्दू लॉ (Hindu Law) तथा मुस्लिम लॉ (Muslim Law) जनता के रीति-रिवाजों पर आधारित हैं।

2. धर्म (Religion)-धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीनकाल में सामाजिक जीवन पर धर्म का बहुत प्रभाव होता था। रीति-रिवाज पर धर्म का बहुत प्रभाव होता था। जिन रीति-रिवाजों को धर्म की मान्यता प्राप्त होती थी उन रीति-रिवाजों का अधिक पालन होता था। राज्य में राजा द्वारा निर्मित कानून दैवी अधिकारों पर आधारित होते थे और उनका उल्लंघन करना पाप समझा जाता था। वास्तव में प्राचीन काल में रीति-रिवाजों तथा धार्मिक नियमों में भेद करना अति कठिन था। कई देशों में तो पुरोहित ही राजा (Priest King) होते थे। भारत में फिरोज़ तुग़लक ने वही टैक्स लगाए जिनकी कुरान में आज्ञा थी। औरंगजेब ने भी अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों के अनुसार बनाए। आजकल भी मुस्लिम देशों के अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों पर आधारित हैं। हिन्दुओं के विवाह तथा उत्तराधिकार से सम्बन्धित कानून उनकी धार्मिक पुस्तक ‘मनुस्मृति’ पर आधारित हैं। इस प्रकार धर्म भी कानून का एक महान् स्रोत है और आज भी इसका प्रभाव है।

3. न्यायालयों के निर्णय (Judicial Decisions) न्यायालयों के निर्णय कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। झगड़ों का निर्णय न्यायालयों द्वारा किया जाता है। न्यायालय निर्णय करते समय नए कानून को जन्म देते हैं। कई बार न्यायाधीश के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जिनके बारे में बनाए हुए कानून स्पष्ट नहीं होते। न्यायाधीश इस कानून की व्याख्या कर के निर्णय देते हैं। न्यायाधीशों के निर्णय आने वाले वैसे ही मुकद्दमों के लिए कानून का काम करते हैं। अतः न्यायाधीश अपने निर्णयों द्वारा नए कानूनों को जन्म देते हैं। कानून की व्याख्या करते समय भी न्यायाधीश कानूनों का निर्माण करते हैं।

4. न्यायाधीशों की न्याय भावना (Equity)-न्यायाधीशों की न्याय-भावना भी कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। कई बार न्यायाधीश के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जहां प्रचलित कानून या तो स्पष्ट नहीं होता या कानून बिल्कुल ही नहीं होता। ऐसी परिस्थितियों में न्यायाधीश का कर्त्तव्य होता है कि वह न्याय भावना, न्याय बुद्धि, सद्भावना तथा ईमानदारी से नए कानून बनाकर मुकद्दमे का निर्णय करे। इन निर्णयों द्वारा बने कानूनों को न्यायाधीशों द्वारा निर्मित कानून (Judgemade Laws) कहा जाता है। गिलक्राइस्ट (Gilchrist) का कहना है कि, “न्याय भावना नए कानून को बनाने या पुराने कानून को बदलने का अनौपचारिक तरीका है जो व्यवहार की शुद्ध निष्पक्षता या समानता पर निर्भर है।”

5. वैज्ञानिक टिप्पणियां (Scientific Commentaries)—वैज्ञानिक टिप्पणियां कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। कानून के प्रसिद्ध ज्ञाता कानून पर टिप्पणियां करके कानून के दोषों को स्पष्ट करते हैं और कानून में सुधार करने के लिए सुझाव भी देते हैं। न्यायाधीश झगड़ों का निर्णय करते समय कानून की व्याख्या के लिए प्रसिद्ध कानून-ज्ञाता की टिप्पणियों से सहायता लेते हैं और इन्हें मान्यता प्रदान करते हैं जिससे वे टिप्पणियां कानून बन जाती हैं। इंग्लैण्ड में डायसी, कोक तथा ब्लेकस्टोन प्रसिद्ध कानून-ज्ञाता हुए जिन्होंने ब्रिटिश कानून पर टिप्पणियां लिखी हैं जो बहुत लाभदायक सिद्ध हुई हैं। भारत में विज्ञानेश्वर, अपारर्क तथा मिताक्षर प्रसिद्ध कानून-ज्ञाता हुए हैं।

6. विधानमण्डल (Legislature) आधुनिक युग में विधानमण्डल कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीन काल में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता था जिसके कारण राजा ही कानूनों का निर्माण करता था। लोकतन्त्रात्मक राज्यों में कानूनों का निर्माण विधानमण्डल द्वारा किया जाता है। प्रत्येक लोकतन्त्रात्मक राज्य में विधानमण्डल होता है जिसके पास कानून–निर्माण की शक्ति होती है। विधानमण्डल के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते हैं। विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों द्वारा ही न्यायालय न्याय करते हैं तथा वकील इन्हीं कानूनों को मान्यता देते हैं। विधानमण्डल जनता की इच्छानुसार कानून का निर्माण करता है। कई देशों में जैसे कि स्विट्ज़रलैण्ड में जनता प्रत्यक्ष रूप से कानून निर्माण में भाग लेती है। परन्तु विधानमण्डल को हम प्रजातन्त्र राज्यों में ही देख सकते हैं। तानाशाही राज्यों तथा राजतन्त्र में कानूननिर्माण की शक्ति एक ही व्यक्ति के हाथ में होती है। आधुनिक युग में न्यायाधीशों के निर्णय, रीति-रिवाज, न्यायबुद्धि तथा वैज्ञानिक टिप्पणियों की महानता कानून के स्रोत के रूप में कम हो गई है। गैटेल (Getell) के शब्दों में, “वर्तमान राज्यों में व्यवस्थापन द्वारा घोषित राज्य की इच्छा कानून का प्रमुख स्रोत है और वह अन्य स्रोतों का भी स्थान लेता जा रहा है।”

7. कार्यपालिका (Executive)—आजकल कानून निर्माण का कार्य तो आमतौर पर विधानमण्डल करती है, परन्तु कई परिस्थितियों में ऐसा कार्य कार्यपालिका को भी करना पड़ता है। यदि विधानमण्डल स्थगित या भंग हुआ है तो भारतीय संविधान के अनुसार आवश्यकतानुसार राष्ट्रपति केन्द्रीय सरकार में और राज्यपाल अपनी राज्य सरकार में अध्यादेश जारी कर सकते हैं। ये अध्यादेश स्थायी तो नहीं होते परन्तु जब लागू रहते हैं तो उन्हें पूर्ण कानून की सत्ता प्राप्त होती है।

8. जनमत (Public Opinion)-कई विचारकों का मत है कि जनमत को भी कानून का स्रोत माना जाना चाहिए। आजकल के प्रजातन्त्रात्मक युग में लोगों की राय की कानून-निर्माण में प्रेरक के तौर पर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आधुनिक युग में लोग ही राज्य की प्रभुसत्ता के स्रोत माने जाते हैं और यह तो स्वतः सिद्ध है कि जो कानून जनमत के अनुकूल होंगे उनका पालन आसानी से करवाया जा सकता है। स्विट्ज़रलैंड जैसे देश में जहां प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र किसीन-किसी रूप में काम करता है यह स्रोत और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-इस प्रकार कानून का निर्माण किसी एक स्रोत द्वारा नहीं हुआ बल्कि कानून के अनेक स्रोत हैं। प्रत्येक स्रोत का किसी-न-किसी समय पर विशेष महत्त्व रहा है। प्राचीन काल में रीति-रिवाज तथा धर्म कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत थे। आज कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत विधानमण्डल है। पर विधानमण्डल अधिकतर कानून रीति-रिवाजों के अनुसार ही बनाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कानून का अर्थ एवं परिभाषा लिखें।
उत्तर-
कानून शब्द को अंग्रेज़ी में लॉ (Law) कहते हैं। लॉ (Law) शब्द ट्यूटानिक भाषा में शब्द लैग (Lag) से निकला है जिसका अर्थ है निश्चित। इस प्रकार कानून शब्द का अर्थ हुआ निश्चित नियम। कानून की कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-

  • ऑस्टिन के शब्दों में, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।” फिर ऑस्टिन ने आगे लिखा है “कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है।”
  • वुडरो विल्सन के अनुसार, “कानून स्थापित विचारधारा तथा अभ्यास का वह भाग है जिन्हें सामान्य रूप के नियमों में स्वीकृति मिली होती है तथा जिन्हें सरकार की शक्ति का समर्थन प्राप्त होता है।”
  • हालैंड के शब्दों में, “कानून मनुष्य के बाहरी जीवन से सम्बन्धित नियम हैं जो राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा लागू किए जाते हैं।”

प्रश्न 2.
कानून के किन्हीं चार स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर-
कानून के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं :-

  1. रीति-रिवाज-रीति-रिवाज कानून का सबसे पुराना स्रोत हैं। प्राचीनकाल में रीति-रिवाजों द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। जब राज्य की स्थापना हुई तो रीति-रिवाजों को ही कानून का रूप दे दिया गया। राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं।
  2. धर्म-धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जिन रीति-रिवाजों को धर्म की मान्यता प्राप्त होती है उनका पालन अधिक होता है। मुस्लिम देशों के अधिकतर कानून उनकी धार्मिक पुस्तक ‘कुरान’ पर आधारित हैं।
  3. न्यायालयों के निर्णय-कई बार न्यायाधीश के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जिनके विषय में स्पष्ट कानून नहीं होते। तब न्यायाधीश कानून की व्याख्या करके निर्णय देते हैं। न्यायाधीशों के निर्णय आने वाले वैसे ही मुकद्दमों के लिए कानून का काम करते हैं।
  4. वैज्ञानिक टिप्पणियां कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 3.
कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत क्या है ?
उत्तर-
आधुनिक युग में विधानमण्डल कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लोकतन्त्रात्मक राज्यों में कानून का निर्माण विधानमण्डल द्वारा किया जाता है। प्रत्येक लोकतन्त्रात्मक राज्य में विधानमण्डल होता है जिसके पास कानूननिर्माण की शक्ति होती है। विधानमण्डल के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते हैं। विधानमण्डल के बनाए कानूनों द्वारा अदालतें न्याय करती हैं तथा वकील इन्हीं कानूनों को मान्यता देते हैं। विधानमण्डल जनता की इच्छानुसार कानून का निर्माण करता है। कई देशों में जैसे कि स्विट्ज़रलैंड में जनता प्रत्यक्ष से कानून निर्माण में भाग लेती है।

प्रश्न 4.
जनमत किस तरह कानून का स्रोत है ?
उत्तर-
कई विचारकों का मत है कि जनमत को भी कानून का स्रोत माना जाना चाहिए। आजकल के प्रजातन्त्रात्मक युग में लोगों की राय की कानून-निर्माण में प्रेरक के तौर पर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आधुनिक युग में लोग ही राज्य की प्रभुसत्ता के स्रोत माने जाते हैं यह तो स्वतः सिद्ध है कि कानून जनमत के अनुकूल होंगे उनका पालन आसानी से करवाया जा सकता है। स्विट्ज़रलैंड जैसे देश में जहां प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र किसी-न-किसी रूप में काम करता है यह स्रोत और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

प्रश्न 5.
कानून के स्रोत के रूप में रीति-रिवाजों का वर्णन करें।
उत्तर-
रीति-रिवाज कानून का सबसे पुराना स्रोत है। प्राचीनकाल में रीति-रिवाजों द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। रीति-रिवाजों को ही कबीले का कानून माना जाता था। जब राज्य की स्थापना हुई तो रीतिरिवाजों को ही कानून का रूप दिया गया। यह ठीक है कि रीति-रिवाज स्वयं कानून नहीं हैं पर राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं। कोई भी राज्य नीति-रिवाजों के विरुद्ध कानून बनाता है तो जनता उन कानूनों के विरुद्ध आन्दोलन करती है। महाराजा रणजीत सिंह जो निरंकुश बादशाह था, अपने कानूनों को रीति-रिवाजों के अनुसार ही बनाता था। भारत में हिन्दू लॉ (Hindu Law) तथा मुस्लिम लॉ (Muslim Law) जनता के रीतिरिवाजों पर आधारित हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

प्रश्न 6.
धर्म किस प्रकार कानून के स्रोत के रूप में कार्य करता है ?
उत्तर-
धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। भारत में फिरोज तुग़लक ने वही टैक्स लगाए जिनकी कुरान में आज्ञा थी। औरंगज़ेब ने भी अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों के अनुसार बनाए। आज भी मुस्लिम देशों के अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों पर आधारित हैं। हिन्दुओं के विवाह तथा उत्तराधिकार से सम्बन्धित कानून उनकी धार्मिक पुस्तक ‘मनुस्मृति’ पर आधारित हैं। इस प्रकार धर्म भी कानून का एक महान् स्रोत है और आज भी इसका प्रभाव है।

प्रश्न 7.
कानून कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
मुख्य तौर पर कानून चार प्रकार के होते हैं-

(1) अन्तर्राष्ट्रीय कानून
(2) राष्ट्रीय कानून
(3) संवैधानिक कानून
(4) व्यक्तिगत कानून।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय कानून-अन्तर्राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करते हैं और उनके झगड़ों को निपटाते हैं।
  2. राष्ट्रीय कानून-राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं। इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है।
  3. संवैधानिक कानून-संवैधानिक कानून वे कानून हैं जो सरकार की शक्तियों, कार्यों तथा संगठन को निश्चत करता है।
  4. व्यक्तिगत कानून-व्यक्तिगत कानून साधारण कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है।

प्रश्न 8.
कानून के तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. कानून समाज में रहने वाले व्यक्तियों पर पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करता है।
  2. कानून व्यक्तियों के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करता है।
  3. कानून का निर्माण राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा किया जाता है और उसी द्वारा लागू किया जाता है।
  4. कानून निश्चित तथा सर्वव्यापक होता है।
  5. कानून का उल्लंघन करने वाले को दंड दिया जाता है।

प्रश्न 9.
कानून तथा स्वतन्त्रता में क्या सम्बन्ध है ?
अथवा ‘कानून स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं है।’ व्याख्या करो।
उत्तर-
व्यक्तिवादियों के मतानुसार राज्य जितने अधिक कानून बनाता है, व्यक्ति की स्वतन्त्रता उतनी कम होती है। अतः उनका कहना है, व्यक्ति की स्वतन्त्रता तभी सुरक्षित रह सकती है जब राज्य अपनी सत्ता का प्रयोग कमसे-कम करे।

परन्तु आधुनिक लेखकों के मतानुसार स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी न होकर परस्पर सहायक तथा सहयोगी हैं। राज्य ही ऐसी संस्था है जो कानूनों द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता का आनन्द उठा सकता है। राज्य कानून बना कर एक नागरिक को दूसरे नागरिक के कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोकता है। राज्य कानूनों द्वारा सभी व्यक्तियों को समान सुविधाएं प्रस्तुत करता है ताकि मनुष्य अपना विकास कर सके। स्वतन्त्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। लॉक ने ठीक ही कहा है कि “जहां कानून नहीं वहां पर स्वतन्त्रता भी नहीं।”

प्रश्न 10.
एक अच्छे कानून की चार विशेषताएं बताइए।
उत्तर-

  1. कानून की भाषा सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिए।
  2. कानून सार्वजनिक कल्याण के लिए होना चाहिए।
  3. कानून में स्थायीपन होना चाहिए।
  4. कानून देश तथा समाज की आवश्यकतानुसार होने चाहिएं।

प्रश्न 11.
कानून के प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर-
विभिन्न विद्वानों ने कानून के भिन्न-भिन्न उद्देश्य बताए हैं। ऑर० पाण्डेय ने कानून के चार मुख्य उद्देश्य बताएं हैं-

  1. राज्य में शान्ति स्थापित करना
  2. समानता स्थापित करना
  3. व्यक्तित्व की रक्षा तथा उसका विकास करना तथा
  4. मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करना।

प्रश्न 12.
कानून तथा नैतिकता में सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
कानून तथा नैतिकता में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। दोनों का उद्देश्य नैतिक जीवन के उच्चतम आदर्शों की स्थापना करना है। राज्य का उद्देश्य आदर्श नागरिक बनाना है और कोई भी आदर्श नागरिक बिना नैतिक आदर्शों के नहीं बन सकता। व्यक्ति यदि नैतिक है तो राज्य भी नैतिक होगा। राज्य के कानून प्रायः नैतिकता पर ही आधारित होते हैं और जो कानून नैतिकता के विरुद्ध होता है वह सफल नहीं होता और ऐसे कानून को लागू करना बड़ा कठिन होता है। राज्य के कानून नैतिकता को बढ़ावा देते हैं।

प्रश्न 13.
अध्यादेश (Ordinance) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अध्यादेश वह कानून हैं जो किसी विशेष परिस्थिति पर काबू पाने के लिए जारी किए जाते हैं। अध्यादेश कार्यपालिका द्वारा उस समय जारी किए जाते हैं जब विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं हो रहा होता। जब विधानमण्डल का अधिवेशन होता है तब इन अध्यादेशों के लिए विधानमण्डल से स्वीकृति लेनी पड़ती है। जिन अध्यादेशों को विधानमण्डल की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है वे कानून बन जाते हैं और जिनको स्वीकृति प्राप्त नहीं होती वे रद्द हो जाते हैं। जब अध्यादेश जारी किया जाता है तब उसे साधारण कानून की तरह ही मान्यता प्राप्त होती है और जो व्यक्ति अध्यादेश का उल्लंघन करता है उसे दण्ड दिया जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

प्रश्न 14.
हम कानून का पालन क्यों करते हैं ? अपने विचार दीजिए।
उत्तर-
कानून का पालन किसी भी सभ्य समाज के लिए अत्यावश्यक है। कानून के पालन के लिए निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

  • कानून से समाज में शान्ति व सुरक्षा बनाई रखी जा सकती है–प्रायः प्रत्येक समाज में समाज विरोधी तत्त्व पाए जाते हैं। ये समाज में शान्ति व व्यवस्था को भंग करके नागरिकों की सुरक्षा के लिए ख़तरा उत्पन्न करते हैं। अतः इन समाज विरोधी तत्त्वों से निपटने तथा समाज में शान्ति व व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून का पालन करना अनिवार्य है।
  • कानून जन-कल्याण को बढ़ावा देते हैं लोगों के लिए कानून का पालन करना तब तक सम्भव नहीं होता जब तक कि उनमें कानून के प्रति सम्मान की भावना न हो और ऐसा तभी हो सकता है जब लोगों का विश्वास हो कि कानून सद्जीवन तथा जन कल्याण के विकास में सहायक होगा। लोगों में यदि यह विश्वास हो कि कानून के पालन से न केवल उनका अपना व्यक्तिगत विकास होगा सारे समाज का भी कल्याण होगा, तो वे कानून का पालन करेंगे।
  • नियमों के अनुरूप चलने की आदत-प्रायः लोगों का यह विश्वास है कि सामाजिक जीवन का समुचित ढंग से निर्वहन तभी किया जा सकता है यदि कानूनों का पालन किया जाए। इसे नियमों के अनुरूप चलने की आदत कहा जाता है। इसी कारण लोग कानूनों का पालन करते हैं।
  • कानून समाज में अनुशासन एवं संयम पैदा करते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कानून का अर्थ लिखें।
उत्तर-
कानून शब्द को अंग्रेज़ी में लॉ (Law) कहते हैं। लॉ (Law) शब्द ट्यूटानिक भाषा में शब्द लैग (Lag) से निकला है जिसका अर्थ है निश्चित। इस प्रकार कानून शब्द का अर्थ हुआ निश्चित नियम।

प्रश्न 2.
कानून को परिभाषित करें।
उत्तर-

  • ऑस्टिन के शब्दों में, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।” फिर ऑस्टिन ने आगे लिखा है, “कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है।”
  • वुडरो विल्सन के अनुसार, “कानून स्थापित विचारधारा तथा अभ्यास का वह भाग है जिन्हें सामान्य रूप के नियमों में स्वीकृति मिली होती है तथा जिन्हें सरकार की शक्ति का समर्थन प्राप्त होता है।”

प्रश्न 3.
कानून के किन्हीं दो स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. रीति-रिवाज-रीति-रिवाज कानून के सबसे पुराना स्रोत हैं। प्राचीनकाल में रीति-रिवाजों द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं।
  2. धर्म-धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जिन रीति-रिवाजों को धर्म की मान्यता प्राप्त होती है उनका पालन अधिक होता है।

प्रश्न 4.
कानून के किन्हीं दो प्रकारों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय कानून- अन्तर्राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करते हैं और उनके झगड़ों को निपटाते हैं।
  2. राष्ट्रीय कानून-राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं। इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. कानून शब्द को अंग्रेजी में क्या कहते हैं ?
उत्तर-कानून शब्द को अंग्रेजी में लॉ (Law) कहते हैं।

प्रश्न 2. लॉ (Law) शब्द किस भाषा से निकला है ?
उत्तर-लॉ (Law) शब्द टयूटॉनिक भाषा के शब्द लेग (Lag) से निकला है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

प्रश्न 3. कानून की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-ऑस्टिन के अनुसार, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।”

प्रश्न 4. कानून के कोई दो प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय कानून
  2. अन्तर्राष्ट्रीय कानून।

प्रश्न 5. प्रशासकीय कानून किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रशासकीय कानून सार्वजनिक कानून का वह भाग है, जो राज्य तथा सरकारी कर्मचारियों के सम्बन्ध नियमित करता है।

प्रश्न 6. अन्तर्राष्ट्रीय कानून किसे कहते हैं?
उत्तर-अन्तर्राष्ट्रीय कानून वह नियम है, जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है, और उनके झगड़ों को निपटाता है।

प्रश्न 7. कानून के कोई दो स्रोत लिखें।
उत्तर-

  1. रीति-रिवाज
  2. धर्म।

प्रश्न 8. राष्ट्रीय कानून किसे कहते हैं ?
उत्तर-राष्ट्रीय कानून वह नियम है जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं।

प्रश्न 9. संवैधानिक कानून किसे कहते हैं?
उत्तर-संवैधानिक कानून वह कानून है जो सरकार के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों को निश्चित करता है।

प्रश्न 10. साधारण कानून किसे कहते हैं?
उत्तर-साधारण कानून राष्ट्रीय कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को निश्चित करता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …………… अधिकारों और कर्तव्यों की व्यवस्था है, जिसे राज्य लागू करता है।
2. कानून व्यक्ति के …………… कार्यों को नियन्त्रित करता है।
3. कानून …………. तथा सर्वव्यापक होता है।
4. कानून का उल्लंघन करने वाले को ……….. दी जाती है।
5. कानून ………… द्वारा लागू किये जाते हैं।
उत्तर-

  1. कानून
  2. बाहरी
  3. निश्चित
  4. सज़ा
  5. न्यायालयों ।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. प्रो० गैटल के अनुसार कानून पांच प्रकार के होते हैं।
2. प्रो० हालैण्ड के अनुसार कानून दो प्रकार के होते हैं।
3. साधारण कानून राष्ट्रीय कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को निश्चित करता है।
4. सार्वजनिक कानून राज्य तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित नहीं करता।
5. सामान्य कानून (General Law) सार्वजनिक कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. सही
  4. ग़लत
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
प्रो० मैकाइवर के अनुसार कानून का एक रूप/प्रकार है-
(क) सार्वजनिक कानून
(ख) राष्ट्रीय कानून
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय कानून
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
कानून का स्रोत है-
(क) रीति-रिवाज
(ख) धर्म
(ग) विधानमण्डल
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
कौन-सा कानून लड़ाई-झगड़े, हत्या तथा डकैती इत्यादि से सम्बन्धित होता है ?
(क) दीवानी कानून
(ख) फौजदारी कानून
(ग) व्यक्तिगत कानून
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ख) फौजदारी कानून।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

प्रश्न 4.
यह कथन किसका है कि “न्याय भावना नए कानून को बनाने या पुराने कानून को बदलने का औपचारिक तरीका है, जो व्यवहार की शुद्ध निष्पक्षता या समानता पर निर्भर है।”
(क) लॉस्की
(ख) विलोबी
(ग) गिलक्राइस्ट
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ग) गिलक्राइस्ट।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

PSEB 11th Class Geography Guide ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Questions and Answers

1. उत्तर एक-दो वाक्यों में दें-

प्रश्न (क)
भारत का सबसे बड़ा ग्लेशियर कौन-सा है ?
उत्तर-
भारत का सबसे बड़ा ग्लेशियर सियाचिन है।

प्रश्न (ख)
विश्व का सबसे बड़ा ग्लेशियर कौन-सा है ?
उत्तर-
विश्व का सबसे बड़ा ग्लेशियर हुब्बार्ड ग्लेशियर (अलास्का) है।

प्रश्न (ग)
हिमालय के कुल क्षेत्रफल में से कितना भाग बर्फ से ढका हुआ है ?
उत्तर-
हिमालय के कुल क्षेत्रफल में से 33000 वर्ग कि०मी० भाग बर्फ से ढका है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (घ)
इंदिरा कोल/पास कहाँ स्थित है ?
उत्तर-
इंदिरा कोल/पास उत्तर-पश्चिम हिमालय में स्थित है।

प्रश्न (ङ)
अंटार्कटिका का तापमान हर दस साल बाद कितना बढ़ता है ?
उत्तर-
अंटार्कटिका का तापमान हर दस साल बाद 0.12°C बढ़ता है।

2. निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करो-

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट कीजिए-
(क) बगली मोरेन-प्रतिसारी हिमोढ़/मोरेन
(ख) ड्रमलिन-ऐस्कर
(ग) सिरक-यू-आकार की घाटी।
उत्तर-
(क) बगली मोरेन (Lateral Moraine)-
पिघलती हुई हिमनदी अपने किनारों पर चट्टानों के ढेर बना कर सैंकड़ों फुट ऊँची दीवार बना देती है, इसे बगली मोरेन कहते हैं।

प्रतिसारी हिमोढ़/मोरेन (Recessional Moraine) –
जब हिमनदी पीछे हटती है और पिघलती है, तो उसके अंतिम सिरे पर एक गोल आकार की श्रेणी बन जाती है, जिसे प्रतिसारी मोरेन कहते हैं।

(ख) ड्रमलिन (Drumlin)-
आधे अंडे अथवा उलटी नाव के आकार जैसे टीलों को ड्रमलिन कहते हैं।

ऐस्कर (Eskar)-
हिमनदी के अगले भाग में हिम की एक गुफा बनती है, जिसमें हिमनदी का जल-प्रवाह होता है और एक टेढ़ीमेढ़ी श्रेणी बन जाती है।

(ग) सिरक अथवा बर्फ़ कुंड (Cirque)-
पर्वत की ढलान पर हिम से ढका एक कुंड बन जाता है जिसे सिरक कहते हैं। बर्फ के पिघलने से यहाँ एक झील बन जाती है।

यू-आकार की घाटी (U-Shaped Valley)-
जब यू-आकार की घाटी में हिम सरकती है, तो उसके दोनों सिरे तीखी ढलान वाले बन जाते हैं। यह घाटी अंग्रेजी भाषा के U-आकार जैसी बन जाती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

3. निम्नलिखित का उत्तर विस्तार सहित दो-

प्रश्न (क)
ग्लेशियर किसे कहते हैं ? इसको कितने भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर-
जब किसी हिम क्षेत्र में हिम बहुत अधिक बढ़ जाती है, तो यह नीचे की ओर खिसकती है। खिसकते हुए हिम पिंड को हिमनदी कहते है। (A Glacier is a large mass of moving ice.) कई विद्वानों ने हिम नदी को ‘बर्फ की नदी’ माना है। (Glacier are rivers of ice.)

हिम नदी के कारण-हिम नदी हिम क्षेत्रों से जन्म लेती है। लगातार हिमपात के कारण हिमखंडों का भार बढ़ जाता है। यह हिम समूह निचली ढलान की ओर एक जीभ (Tongue) के रूप में खिसकने लगता है। इसे हिम नदी कहते हैं।

हिम नदी के खिसकने के कई कारण हैं –

  1. हिम का अधिक भार (Pressure)
  2. ढलान (Slope)
  3. गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity)

सबसे तेज़ चलने वाली हिम नदियाँ ग्रीनलैंड में मिलती हैं, जो गर्मियों में 18 मीटर प्रतिदिन चलती हैं। हिम नदियाँ तेज़ ढलान पर और अधिक ताप वाले प्रदेशों में अधिक गति से चलती हैं, पर कम ढलान और ठंडे प्रदेशों में धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं। ये हिम नदियाँ हिम क्षेत्रों से सरक कर मैदानों में आकर पिघल जाती हैं और कई नदियों के पानी का स्रोत बनती हैं, जिस प्रकार भारत में गंगा नदी गंगोत्री हिम नदी से जन्म लेती है।

हिम नदी के प्रकार (Types of Glaciers)-स्थिति और आकार के आधार पर हिम नदियाँ तीन प्रकार की होती हैं-

1. घाटी ग्लेशियर (Valley Glaciers)—इसे पर्वतीय हिम नदी (Mountain Glaciers) भी कहते हैं। यह हिम नदी ऊंचे पहाड़ों की चोटियों से उतर कर घाटियों में बहती है। यह हिमनदी एक चौड़े और गहरे बेसिन (Basin) की रचना करती है। सबसे पहले अल्पस (Alps) पहाड़ में मिलने के कारण इसे अल्पाइन (Alpine) हिमनदी भी कहते हैं। हिमालय पर्वत पर इस प्रकार की कई हिम नदियाँ भी हैं, जिस प्रकार गंगोत्री हिम नदी जो कि 25 कि०मी० लंबी है। भारत में सबसे बड़ी हिम नदी काराकोरम पर्वत में सियाचिन (Siachin) है, जोकि 72 कि०मी० लंबी है। अलास्का में संसार की सबसे बड़ी हिम नदी हुब्बार्ड है, जोकि
128 कि०मी० लंबी है।

2. महाद्वीपीय ग्लेशियर (Continental Glaciers)-बड़े क्षेत्रों में फैली हुई हिम नदियों को महाद्वीपीय हिम नदी अथवा हिम चादर (Ice Sheets) कहते हैं। इस प्रकार की हिम चादरें ध्रुवीय क्षेत्रों (Polar Areas) में मिलती हैं। लगातार हिमपात, निम्न तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण हिम पिघलती नहीं है। संसार की सबसे बड़ी हिम चादर अंटार्कटिका (Antarctica) में 130 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 1500 मीटर मोटी है। ग्रीनलैंड (Greenland) में ऐसी ही एक हिम चादर का क्षेत्रफल 17 लाख वर्ग किलोमीटर है। आज से लगभग 25 हज़ार वर्ष पहले हिम युग (Ice Age) में धरती का 1/3 भाग हिम चादरों से ढका हुआ था।

3. पीडमांट ग्लेशियर (Piedmont Glaciers)—ये हिम नदियाँ पर्वतों के निचले भागों में होती हैं। वादी हिम नदियाँ जब पर्वतों के आगे कम ढलान वाली भूमि पर फैल जाती हैं और इनमें अनेक हिम नदियाँ आकर मिल जाती हैं, तो ये एक विशाल रूप बना लेती हैं। ऐसी हिमनदी को पर्वत-धारा हिमनदी या पीडमांट हिमनदी कहते हैं। ऐसी हिम नदियाँ अलास्का में बहुत मिल जाती हैं। यहां की मैलास्पीन (Melaspine) हिमनदी पीडमांट हिमनदी है। हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में मोम (Mom) हिमनदी इसका एक अन्य उदाहरण है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (ख)
ग्लेशियर अनावृत्तिकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, कैसे ?
उत्तर-
ग्लेशियरों द्वारा अनावृत्तिकरण-ग्लेशियर अनावृत्तिकरण का महत्त्वपूर्ण साधन है
प्राचीन समय से अनावृत्तिकरण-यदि पृथ्वी का इतिहास देखा जाए, तो कई हज़ार साल पहले बर्फ़ युग (Ice Age) में धरती का 20% हिस्सा ग्लेशियरों के अधीन था, परंतु आज यह भाग केवल 10% तक ही सीमित रह गया है। ऐसा वैश्विक जलवायु (Global Climate) में बदलाव आने से हुआ है।

ग्लेशियरों का विस्तार-अंटार्कटिक और ग्रीनलैंड में, विश्व के ग्लेशियरों का 96% भाग है। अंटार्कटिक में तो इस बर्फ की तह की मोटाई (Thickness) कई स्थानों पर 1500 मीटर और कई स्थानों पर 4000 मीटर तक भी है।

ग्लेशियर और तापमान-अमेरिकी अंतरिक्ष खोज एजेंसी (NASA) की एक खोज के अनुसार पिछले 50 वर्षों में अंटार्कटिक का तापमान 0.12° प्रति दशक (Per Decade) गर्म हो रहा है, जिसके फलस्वरूप बर्फ की परतों के तल (Ice Sheets) टूटते जा रहे हैं और समुद्र (Sea Level) 73 मीटर तक ऊँचा उठ गया है।

ग्लेशियर और हिमपात (Snowfall)—ग्लेशियर केवल पहाड़ों, उच्च अक्षांशों अथवा ध्रुवों के पास ही मिलते हैं क्योंकि इन स्थानों पर तापमान हिमांक से भी नीचे होता है। पृथ्वी के इन क्षेत्रों में बर्फ रूपी वर्षा होती है। बर्फ की वर्षा में बर्फ रुई के समान कोमल होती है। लगातार बर्फ की वर्षा होने से और तापमान बहुत ही कम होने के कारण बर्फ की निचली परतें जमती रहती हैं और बर्फ ठोस रूप धारण कर लेती है। इसे ग्लेशियर कहते हैं। बर्फ की वर्षा अधिकांश क्षेत्रों में सर्दी के मौसम में ही होती है, जबकि गर्मी बर्फ को पिघलाने का काम करती है।

ग्लेशियरों का सरकना-धरती की ढलान और गर्मी के कारण जिस समय बर्फ धीरे-धीरे खिसकना शुरू कर देती है, तो इसे ग्लेशियर का सरकना या खिसकना कहा जाता है। 1834 में Lious Agassiz ने सिद्ध किया था कि ग्लेशियर के चलने की दर मध्य में सबसे अधिक और किनारों की ओर कम होती जाती है।

मैदानों की रचना- ग्लेशियर रेत, बजरी आदि के निक्षेप से मैदानों की रचना करते हैं, जो उपजाऊ क्षेत्र होते हैं।
पानी के भंडार-ग्लेशियर पिघलने के बाद पूरा वर्ष पानी प्रदान करते हैं।
झरने-कई स्थानों पर झरने बनते हैं, जो बिजली पैदा करने में मदद करते हैं।
झीलें-ग्लेशियर कई झीलों का निर्माण करते हैं, जैसे-Great Lake.

प्रश्न (ग)
ग्लेशियर के जलोढ़ निक्षेप क्या है ? विस्तार सहित व्याख्या करो।
उत्तर-
ग्लेशियर का निक्षेपण कार्य (Depositional Work of Glacier)-
पर्वतों के निचले भाग में आकर जब हिमनदी पिघलना आरंभ कर देती है, तो इसके द्वारा प्रवाहित चट्टानें, पत्थर, कंकर आदि निक्षेप हो जाते हैं। हिम के पिघलने से बनी जल धाराओं द्वारा भी इन पदार्थों को ढोने में सहायता मिलती है। हिमनदी द्वारा किए गए निक्षेप नीचे लिखे दो प्रकार के होते हैं

  1. ड्रिफ्ट (Drift)
  2. टिल्ल (Till).

हिम नदी द्वारा बहाकर लाए गए पत्थर, चट्टानी टुकड़े, कंकर आदि को हिमनदी ढेर कहा जाता है। यह सामग्री अलग-अलग स्थितियों में कटकों (Ridges) के रूप में जमा हो जाती है। इन कटकों को मोरेन (Moraine) कहा जाता है। मोरेन के अलग-अलग रूप नीचे लिखे हैं –

1. बगली मोरेन (Lateral Moraine) पिघलती हई हिम नदी जो पदार्थ अपने किनारों पर जमा करती है, वे एक कटक के रूप में एकत्र हो जाते हैं। इन्हें बगली मोरेन कहा जाता है। ये लगभग 30 मीटर ऊँचे होते हैं।

2. मध्यवर्ती अथवा सांझे मोरेन (Medial Moraine)-जब दो हिम नदियाँ आपस में मिलती हैं और वे संयुक्त रूप में आगे बढ़ती हैं तो उनके संगम के भीतरी किनारों की तरफ आधे चाँद जैसे मोरेन भी मिलकर आगे बढ़ते हैं। इन्हें मध्यवर्ती या सांझे मोरेन कहते हैं।

3. तल के मोरेन (Ground Moraine)-हिम नदी के तल पर बड़े चट्टानी टुकड़े और भारी पत्थर होते हैं, जो साथ-साथ तल को घिसाते हुए आगे बढ़ते हैं। हिम नदी के पिघलने पर ये भारी चट्टानें तल पर एकत्र होकर कटक का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसे कटकों को तल के मोरेन कहते हैं। इस मोरेन में अधिकतर चट्टानी टुकड़े, पत्थर और चिकनी मिट्टी होती है। इसे बोल्डर क्ले या टिल्ल (Boulder Clay or Till) कहते हैं।

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4. अंतिम मोरेन (Terminal Moraine)-हिम नदी द्वारा कुछ पत्थर इसके अगले भाग में धकेल दिए जाते हैं। हिम नदी के पिघलने के बाद यह इसके अगले भाग में ही एकत्र होकर एक चट्टान का रूप धारण कर लेते हैं। इसे अंतिम मोरेन कहते हैं।

5. मोरेन झील (Moraine Lake)-हिम नदी के अगले भाग में कुछ बर्फ पिघल जाती है। यदि वहाँ अंतिम मोरेन हों तो इस जल का बहाव रुक जाता है और वहाँ एक झील बन जाती है, जिसे मोरेन झील कहते हैं।

6. केतलीनुमा सुराख (Kettle Holes)—जब ग्लेशियर चलता है, तो इसके ऊपर पत्थर या चट्टानों के टुकड़े गिर जाते हैं और कुछ समय बाद बर्फ पिघलती है, तो ग्लेशियर के अंदर छोटे-बड़े सुराख बन जाते हैं, जिन्हें केतलीनुमा सुराख कहते हैं। इसे नॉब और बेसिन भू-आकृति (Knob and Basin Topography) कहते हैं।

7. विस्थापित चट्टानी खंड (Erratic Blocks)-हिम नदी बड़े चट्टानी खंडों और भारी पत्थरों को प्रवाहित करके पर्वत के निचले भाग में ले जाती है और पिघलने पर उनका वहाँ निक्षेपण हो जाता है। ये चट्टानी खंड रचना में निकटवर्ती भूमि की चट्टानों के समान नहीं होते। इन्हें विस्थापित चट्टानी खंड कहते हैं।

8. हिमोढ़ी टीले (Drumlins)-हिम नदी तल पर हिमोढ़ को कई बार छोटे-छोटे गोल टीलों (Mounds) के रूप में इस तरह जमाकर देती है कि वे आधे अंडे अथवा उलटी नाव के समान दिखाई देते हैं। इन्हें हिमोढ़ी टीले (Drumlins) कहते हैं। दूर से देखने पर ये अंडे की टोकरी के समान प्रतीत होते हैं, इसलिए इस आकार वाली भूमि को अंडों की टोकरी वाली भू-आकृति (Basket of Eggs Topography) कहते हैं।

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प्रश्न (घ)
ग्लेशियर (हिम नदी) की अपघर्षण की क्रिया से कौन-कौन-सी रूप रेखाएँ बनती हैं, वर्णन करें।
उत्तर-
हिम नदी का अपरदन कार्य (Erosional Work of Glacier)-

पर्वतीय ढलानों से चट्टानी टुकड़े, पत्थर, कंकर आदि गुरुत्वाशक्ति के प्रभाव से घाटी हिम नदी के तल पर गिरते रहते हैं। कुछ समय बाद ये पत्थर आदि दिन के समय गर्म हो जाते हैं और बर्फ़ को पिघलाकर हिम नदी के तल (bed) पर पहुंच जाते हैं और हिम नदी के साथ-साथ चलते हैं। हिम नदी पर ये उपकरण बनकर अपरदन का काम करते हैं।

हिम नदी का अपघर्षण/अपरदन (Glacier Erosion)-

पानी के समान हिम नदी भी अपघर्षण/अपरदन, ढोने और जमा करने के तीन काम करती है। हिम नदी पहाड़ी प्रदेशों में अपघर्षण का काम, मैदानों में जमा करने और पठारों में रक्षात्मक काम करती है।

अपघर्षण (Erosion)-हिम नदी अनेक क्रियाओं द्वारा अपघर्षण का काम करती है-

  1. तोड़ने की क्रिया (Plucking or Quarrying)
  2. खड्डे बनाना (Grooving)
  3. अपघर्षण (Abrasion)
  4. पीसना (Grinding)
  5. चमकाना (Polishing)

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हिम नदी के कार्य हिम नदी अपने रास्ते के बड़े-बड़े पत्थरों को खोदकर खड्डे पैदा कर देती है। हिम-स्खलन (Avalanche) और भू-स्खलन (Land Slide) के कारण कई चट्टानी पत्थर हिम नदी के साथ मिल जाते हैं। ये पत्थर चट्टानों के साथ रगड़ते और घिसते हुए चलते हैं और हिम नदी के तल और किनारों को चिकना बनाते हैं। पहाड़ी प्रदेशों का रूप ही बदल जाता है। घाटी का तल चमकीला और चिकना हो जाता है। हिम नदी का अपघर्षण कई तत्त्वों पर निर्भर करता है

  1. हिम की मोटाई (Amount of Ice)-अधिक हिम के कारण कटाव भी अधिक होता है।
  2. चट्टानों की रचना (Nature of Rocks)-कठोर चट्टानों पर कम और नर्म चट्टानों पर अधिक कटाव होता है।
  3. हिम नदी की गति (Movement of Glaciers)-तेज़ गति वाली हिम नदियाँ शक्तिशाली होती हैं और अधिक कटाव करती हैं।
  4. भूमि की ढलान (Slope of Land)–धरातल की तेज़ ढलान अधिक अपरदन करने में सहायक होती है।

हिम नदी के अपघर्षण द्वारा बनी भू-आकृतियाँ (Land forms Produced by Glacier Erosion) –

हिम नदी के अपरदन क्रिया द्वारा पर्वतों में नीचे लिखी भू-आकृतियाँ बनती हैं-

1. बर्फ कुंड अथवा सिरक (Cirque or Corrie or CWM)-सूर्य-ताप के कारण दिन के समय कुछ मात्रा में हिम पिघल कर जल के रूप में दरारों में प्रवेश कर जाती है। रात के समय अधिक सर्दी होने के कारण यह जल फिर हिम में बदल जाता है और फैल जाता है फलस्वरूप यह चट्टानों पर दबाव डालकर उन्हें तोड़

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देता है। इस क्रिया में नियमित रूप में चलते रहने के फलस्वरूप पर्वत की ढलान पर खड्डा बन जाता है। सामान्य रूप से यह बर्फ से भरा रहता है और धीरे-धीरे तुषारचीरन (Frost Wedging) की क्रिया से एक विशाल कुंड का रूप धारण कर लेता है। इसे हिमगार भी कहा जाता है। इसे फ्रांस में सिरक (Cirque), स्कॉटलैंड में कोरी (Corrie), जर्मनी में कैरन (Karren) और इंग्लैंड में वेल्ज़ (Wales of England) के कूम (CWM) कहते हैं। हिमगार की बर्फ़ जब पिघल जाती है, तो इसमें पानी भरा रहता है, इसे गिरिताल (Tarn Lake) कहते हैं। इसी प्रकार पर्वतीय ढलानों पर अर्धगोले के आकार के खड्डों को हिम कुंड कहते हैं (Cirques are Semi-circular hollow on the side of a mountain)। इनका आकार आरामकुर्सी (Arm chair) अथवा कटोरे के समान होता है।

2. दर्रा अथवा कोल (Pass or Col) कई बार पर्वत की विपरीत ढलानों की एक समान ऊँचाई पर हिमगार कारण पर्वत का वह भाग बाकी भागों की अपेक्षा नीचा हो जाता है। पर्वत के इस निचले भाग को दर्रा (Saddle) कहते हैं। कनाडा का रेल मार्ग कोल क्षेत्रों में से निकलता है।

3. कंघीदार श्रृंखला (Comb Ridge)-कई बार पर्वत माला की एक श्रृंखला (Ridge) के विपरीत ढलानों पर कई हिमगार बन जाते हैं और श्रृंखला कई स्थानों से नीची हो जाती है, जिसके फलस्वरूप श्रृंखला कंघी के आकार की प्रतीत होती है और इसके चट्टानी खंभे (Rock-Pillars) दिखाई देते हैं। कुछ समय के बाद जब ये खंभे नष्ट हो जाते हैं तो श्रृंखला उस्तरे जैसी तीखी धार वाली (Rajor-edged) बन जाती है। तब इस श्रृंखला को एरैटी या तीखी श्रृंखला (Arete) कहते हैं।

4. पर्वत या गिरि श्रृंग (Horn)-कई बार किसी पर्वत के दो-तीन या चारों तरफ एक जैसी ऊँचाई पर हिमगारों का निर्माण हो जाता है। कुछ समय के बाद उनकी पिछली तरफ के शिखर के कटाव के कारण ये अंदर ही अंदर आपस में मिल जाते हैं, जिसके फलस्वरूप इनके मध्य में एक ठोस पिरामिड (Pyramid) आकार का शिखर बाकी रह जाता है।

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इस शिखर को पर्वत-श्रृंग कहते हैं। स्विट्ज़रलैंड (Switzerland) का मैटरहॉर्न (Matterhorn) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कश्मीर घाटी पहलगाम (Pahalgam) से 25 किलोमीटर ऊपर की ओर कोलहाई (Kholhai) हिम नदी के स्रोत पर ऐसा ही एक पर्वत श्रृंग है।

5. भेड़ पहाड़ या रोशे मुताने (Sheep Rocks or Roche Muttonne)-हिम नदी के मार्ग में अनेक छोटी छोटी रुकावटें आती हैं, जिन्हें वह अपने प्रवाह के दबाव के साथ उखाड़ देती है। परंतु कई बार बड़ी रुकावटों जैसे पर्वतीय टीलों आदि को उखाड़ने में वह असमर्थ रहती है। परिणामस्वरूप इसे उन रुकावटों के ऊपर से होकर निकलना पड़ता है। हिम नदी के सामने वाली ढलान हिमनदी संघर्षण क्रिया द्वारा घिसकर

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चिकनी और नर्म (Smooth) हो जाती है। हिमनदी जब टीले की दूसरी तरफ उतरती है, तो यह अपनी उखाड़ने की शक्ति (Plucking) द्वारा चट्टानों को उखाड़ देती है। इससे दूसरी तरफ की ढलान ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। ये टीले दूर से ऐसे लगते हैं, जैसे भेड़ की पीठ हो, इसलिए इसे भेड़-पीठ कहते हैं। ‘Roche Muttonne’ फ्रांसीसी (French) भाषा के दो शब्द हैं, जिनका अर्थ भेड़-दुम चट्टान होता है।

6. यू-आकार की घाटी (U-Shaped Valley)-हिमनदी सदा पहले से बनी घाटी में बहती है। जिस घाटी में हिम नदी चलती है, उसे अपनी घर्षण और उखाड़ने की क्रिया द्वारा नीचे से और दोनों तरफ से तीखी ढलान वाली बना देती है, जिसके कारण हिम नदी घाटी अंग्रेजी भाषा के अक्षर ‘U’ आकार की बन जाती है। नदी द्वारा बनी V- आकार की घाटियाँ हिम नदी की अपरदन क्रिया द्वारा U- आकार की हो जाती हैं। इसका तल समतल और चौकोर होता है। इसके किनारे खड़ी ढलान वाले होते हैं। समुद्र में डूबी हुई यू-आकार की घाटियों को फियॉर्ड (Fiord) कहते हैं। उदाहरण-उत्तरी अमेरिका में सेंट लारेंस घाटी।

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7. लटकती घाटी (Hanging Valley)–एक बड़ी हिमनदी में कई छोटी हिम नदियाँ आकर मिलती हैं। ये मुख्य हिम नदी की सहायक (Tributaries) कहलाती हैं। मुख्य हिम नदी सहायक हिम नदियों के मुकाबले में अधिक अपरदन करती है, जिसके कारण मुख्य हिम नदी घाटी का तल, सहायक हिम नदी के तल की तुलना में अधिक नीचा हो जाता है। कुछ समय के बाद, जब हिम नदियाँ पिघल जाती हैं, तो सहायक नदियों की घाटियाँ मुख्य नदी की घाटी पर लटकती हुई दिखाई देती हैं और वहाँ जल झरने बन जाते हैं। इस प्रकार यह लटकती घाटियाँ मुख्य हिम नदी और सहायक हिम नदी की घाटियों में अपरदन की भिन्नता के कारण बनती हैं।

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Geography Guide for Class 11 PSEB ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
भारत की किसी एक हिमनदी का नाम बताएँ।
उत्तर-
सियाचिन।

प्रश्न 2.
हिमनदी शृंग का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
मैटर हॉर्न।

प्रश्न 3.
विश्व के कितने क्षेत्र में ग्लेशियर हैं ?
उत्तर-
10 प्रतिशत।

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प्रश्न 4.
अंटार्कटिका में हिम की मोटाई बताएँ।
उत्तर-
4000 मीटर।

प्रश्न 5.
उस विद्वान का नाम बताएँ, जिसने पुष्टि की थी कि हिम नदी की गति होती है।
उत्तर-
लुईस अगासीज़।

प्रश्न 6.
हिमालय पर्वत की हिम रेखा की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
5000 मीटर।

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प्रश्न 7.
अलास्का के पीडमांट ग्लेशियर का नाम बताएँ।
उत्तर-
मैलास्पीना।

प्रश्न 8.
सिरक के अन्य नाम बताएँ।
उत्तर-
कोरी, कैरन।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
हिम क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हिम क्षेत्र (Snow field) हिम रेखा से ऊपर सदैव बर्फ से ढके प्रदेशों को हिम क्षेत्र कहते हैं।

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प्रश्न 2.
हिम रेखा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हिम रेखा (Snow line)—यह वह ऊँचाई है, जिसके ऊपर सारा साल हिम जमी रहती है।

प्रश्न 3.
घाटी हिम नदी क्या है ?
उत्तर-
घाटी हिम नदी (Valley Glacier)—पर्वतों से खिसककर घाटी में उतरने वाली हिम नदी को घाटी हिम नदी कहते हैं।

प्रश्न 4.
महाद्वीपीय हिम नदी क्या है ?
उत्तर-
महाद्वीपीय हिम नदी (Continental Glacier) ध्रुवीय क्षेत्रों के बड़े क्षेत्रों पर हिम चादर को महाद्वीपीय नदी कहते हैं।

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प्रश्न 5.
हिमकुंड की परिभाषा दें।
उत्तर-
हिमकुंड (Cirque)-पर्वतीय ढलानों पर अर्धगोले के आकार के गड्ढों को हिमकुंड कहते हैं।

प्रश्न 6.
हिम रेखा की ऊँचाई किन तत्वों पर निर्भर करती है ?
उत्तर-

  1. अक्षांश
  2. हिम की मात्रा
  3. पवनों
  4. ढलान।

प्रश्न 7.
हिमालय पर्वत पर हिमरेखा की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
5000 मीटर।

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प्रश्न 8.
ध्रुवों पर हिमरेखा की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
समुद्र तल।

प्रश्न 9.
हिम नदी किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हिम क्षेत्रों से नीचे की ओर खिसकते हुए हिमकुंड को हिम नदी कहते हैं।

प्रश्न 10.
भारत में सबसे बड़ी हिम नदी कौन-सी है ?
उत्तर-
सियाचिन।

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प्रश्न 11.
गंगा नदी किस हिमनदी से जन्म लेती है ?
उत्तर-
गंगोत्री।

प्रश्न 12.
हिम नदियों के तीन मुख्य प्रकार बताएँ।
उत्तर-
घाटी हिम नदी, पीडमांट हिम नदी, हिम चादर (महाद्वीपीय हिम नदी)

प्रश्न 13.
हिम-स्खलन (Avalanche) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नीचे की ओर खिसकती बर्फ पर्वतीय ढलानों से चट्टानी टुकड़े उखाड़ लेती है, इन्हें हिम-स्खलन (Avalanche) कहते हैं।

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प्रश्न 14.
महाद्वीपीय हिम नदी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जब कोई हिम नदी एक विशाल क्षेत्र को घेर लेती है, जैसे कि एक महाद्वीप, तब उसे हिम चादर या महाद्वीपीय हिम नदी कहते हैं।

प्रश्न 15.
हिम नदी के अपरदन के रूप बताएँ।
उत्तर-

  1. उखाड़ना (Plucking)
  2. खड्डे बनाना (Grooving),
  3. अपघर्षण (Abrasion),
  4. पीसना (Grinding)

प्रश्न 16.
सिरक (Cirque) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पर्वतीय ढलानों पर अर्धगोले के आकार के खड्डों को हिमकुंड या सिरक कहते हैं।

प्रश्न 17.
टार्न झील (गिरिताल) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी सिरक में बर्फ के पिघलने के बाद एक झील बन जाती है, जिसे टार्न झील या गिरिताल कहते हैं।

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प्रश्न 18.
पर्वतश्रृंग (Horn) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी पहाड़ी के पीछे के कटाव के कारण नुकीली चोटियाँ बनती हैं, जिन्हें Horn कहते हैं।

प्रश्न 19.
कोल या दर्रा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
किसी-पहाड़ी के दोनों तरफ के सिरक आपस में मिलने से एक दर्रा बनता है, जिसे कोल (Col) या दर्रा (Pass) कहते हैं।

प्रश्न 20.
फियॉर्ड से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तटों पर डूबी हुई यू-आकार की घाटियों को फियॉर्ड कहते हैं।

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प्रश्न 21.
हिमोढ़ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हिम नदी अपने भार को एक टीले के रूप में जमा करती है, जिसे हिमोढ़ कहते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिम रेखा किसे कहते हैं ? इसकी ऊँचाई किन तत्त्वों पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
हिम रेखा (Snow line) स्थायी हिम क्षेत्रों की निचली सीमा को हिम रेखा कहते हैं। इस स्थल पर सबसे कम ऊँचाई होती है, जहाँ सदा हिम जमी रहती है। यह वह ऊंचाई है, जिसके ऊपर हिम पिघल नहीं सकती और सारा साल हिम रहती है। धरती के अलग-अलग भागों में हिम रेखा की ऊँचाई अलग-अलग होती है, जैसे हिमालय पर 5000 मीटर, अल्पस पहाड़ पर 2000 मीटर है। हिमरेखा की ऊँचाई पर कई तत्त्वों का प्रभाव पड़ता है-

  1. अक्षांश (Latitude)—ऊँचे अक्षांशों पर कम तापमान होने के कारण, हिम रेखा की ऊँचाई कम होती है, परंतु निचले अक्षांशों में हिम रेखा की अधिक ऊँचाई मिलती है। ध्रुवों पर हिम रेखा समुद्री तल पर मिलती है। भूमध्य रेखा पर हिम क्षेत्र 5500 मीटर की ऊँचाई पर मिलते हैं।
  2. हिम की मात्रा (Amount of Snow)-अधिक हिम वाले क्षेत्रों में हिम रेखा नीचे होती है, परंतु कम हिम वाले क्षेत्रों में हिमरेखा ऊँची होती है।
  3. पवनें (Winds)—शुष्क हवा के कारण ऊँची और नम हवा के कारण निचली हिम रेखा मिलती है। 4. ढलान (Slope)-तीव्र ढलान पर ऊँची और मध्यम ढलान पर निचली हिम रेखा मिलती है।

प्रश्न 2.
घाटी हिम नदी पर एक नोट लिखें।
उत्तर-
घाटी हिम नदी (Valley Glaciers)—इन्हें पर्वतीय हिम नदी (Mountain Glaciers) भी कहते हैं। ये हिम नदी ऊँचे पहाड़ों की चोटियों से उतर कर घाटियों में बहती है। यह हिम नदी एक चौड़े और गहरे बेसिन (Basin) की रचना करती है। सबसे पहले अल्पस पहाड़ (Alps) में मिलने के कारण इन्हें एल्पाइन (Alpine) हिम नदी भी कहते हैं। हिमालय पहाड़ पर इस प्रकार की कई हिम नदियाँ भी हैं, जैसे गंगोत्री हिम नदी, जोकि 25 कि०मी० लंबी है। भारत में सबसे बड़ी हिमनदी काराकोरम पर्वत में सियाचिन (Siachin) है, जोकि 72 कि०मी० लंबी है। अलास्का में संसार की सबसे बड़ी हिमनदी हुब्बार्ड है, जोकि 128 कि०मी० लंबी है।

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प्रश्न 3.
महाद्वीपीय हिम नदियों का विस्तार बताएँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय हिम नदियाँ (Continental) Glaciers)-बड़े क्षेत्रों में फैली हुई हिम नदियों को महाद्वीपीय हिमनदी या हिम चादर (Ice Sheets) कहते हैं। इसी प्रकार की हिम चादरें ध्रुवीय क्षेत्रों (Polar Areas) में मिलती हैं। लगातार हिमपात, कम तापक्रम और कम वाष्पीकरण के कारण हिम पिघलती नहीं है। संसार की सबसे बड़ी हिम चादर अंटार्कटिका (Antarctica) में 130 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 1500 मीटर मोटी है। ग्रीनलैंड (Greenland) में ऐसी ही एक हिमचादर का क्षेत्रफल 17 लाख वर्ग कि०मी० है।

प्रश्न 4.
हिम नदी के अपरदन का कार्य किन कारकों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-

  1. हिम की मोटाई (Amount of Ice)-अधिक हिम के कारण अधिक कटाव होता है।
  2. चट्टानों की रचना (Nature of Rocks)-कठोर चट्टानों पर कम और नर्म चट्टानों पर अधिक कटाव होता
  3. हिमनदी की गति (Movement of Glaciers)—तेज़ गति वाली हिम नदियाँ शक्तिशाली होती हैं और अधिक कटाव करती हैं।
  4. भूमि की ढलान (Slope of Land)–धरातल की तेज़ ढलान अधिक अपरदन में सहायक होती है।

प्रश्न 5.
मोरेन (हिमोढ़) कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
निक्षेपण के स्थान के आधार पर मोरेन चार प्रकार के होते हैं-

  1. बगली मोरेन (Lateral Moraines) हिमनदी के किनारों के साथ-साथ बने लंबे और कम चौड़े मोरेन को बगली मोरेन कहते हैं। ये मोरेन एक लंबी श्रेणी (Ridge) के रूप में लगभग 30 मीटर ऊँचे होते हैं।
  2. मध्यवर्ती (सांझे) मोरेन (Medial Moraines)—दो हिम नदियों के संगम के कारण उनके भीतरी किनारे वाले अर्ध-चंद्र के आकार के टीले मिलकर एक हो जाते हैं। इसे मध्यवर्ती या सांझे मोरेन कहते हैं। ये मोरेन नदी के बीच दिखाई देते हैं।
  3. अंतिम मोरेन (Terminal Moraines) हिमनदी के पिघल जाने पर इसके अंतिम किनारे पर बने मोरेन को अंतिम मोरेन कहते हैं। ये मोरेन अर्ध चंद्रमा के आकार जैसे और ऊँचे-नीचे होते हैं।
  4. तल के मोरेन (Ground Moraines)-हिम नदी के तल या आधार पर जमे हुए पदार्थों के ढेर को तल के मोरेन कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न 6.
हिमपात या बर्फबारी से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
हिमपात या बर्फबारी (Snowfalls)-उच्च अक्षांशों के प्रदेशों और ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में बादलों से पानी के स्थान पर बर्फ (Snow) गिरती है। इसे हिमपात या बर्फबारी कहते हैं। इसका मूल कारण वहाँ की अति ठंडी जलवायु है। ये प्रदेश सदा बर्फ से ढके रहते हैं।

ध्रुवीय और ऊँचे पर्वत सदा बर्फ से ढके रहते हैं। इन प्रदेशों में सारा साल वर्षा, बर्फबारी (Snowfall) के रूप में होती है। लगातार बर्फ गिरने के कारण यह जमकर ठोस हो जाती है और हिम (Ice) बन जाती है। ऊंचे पहाड़ों पर गर्मी की ऋतु में ही हिमनदी पिघलती है। ऐसे हिम के साथ सदा ढके रहने वाले क्षेत्रों को हिमक्षेत्र (Snow fields) या नेवे (Neves) कहते हैं। संसार के सबसे ऊँचे क्षेत्रों पर हिम-क्षेत्र मिलते हैं। हिमक्षेत्र हिमरेखा से ऊँचे स्थित होते हैं। हिमक्षेत्र ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर सभी महाद्वीपों में मिलते हैं।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिम नदी किसे कहते हैं ? इसका जन्म कैसे होता है ? इसके प्रमुख प्रकार बताएँ।
उत्तर-
हिम नदी (Glacier) –

जब किसी हिमक्षेत्र में हिम बहुत अधिक बढ़ जाती है, तो यह नीचे को ओर खिसकती है। खिसकते हुए हिमपिंड को हिम नदी कहते हैं। (A Glacier is a large mass of moving ice.) कई विद्वानों ने हिम नदी को ‘बर्फ की नदी’ माना है। (Glaciers are rivers of ice)

हिमनदी के कारण-हिम नदी हिम क्षेत्रों से जन्म लेती है। लगातार हिमपात के कारण हिम खडों का भार बढ़ जाता है। ये हिम समूह निचली ढलान की ओर एक जीभ (Tongue) के रूप में खिसकने लगता है। इसे हिम नदी कहते हैं। हिम नदी के खिसकने के कई कारण हैं

  1. हिम का अधिक भार (Pressure)
  2. ढलान (Slope)
  3. गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity)

सबसे तेज़ चलने वाली हिम नदियाँ ग्रीनलैंड में मिलती हैं, जो गर्मियों में 18 मीटर प्रति दिन चलती हैं। हिम नदियाँ तेज़ ढलान पर और अधिक ताप वाले प्रदेशों में अधिक गति के साथ चलती हैं। परंतु कम ढलान और ठंडे प्रदेशों में धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं। ये हिमनदियाँ हिम-क्षेत्रों से सरककर मैदानों में आकर पिघल जाती हैं और कई नदियों के पानी का स्रोत बनती हैं, जैसे भारत में गंगा गंगोत्री हिमनदी से जन्म लेती है।

हिम नदी के प्रकार (Types of Glaciers)-स्थिति और आकार की दृष्टि से हिम नदियाँ दो प्रकार की होती हैं-

1. घाटी हिम नदी (Valley Glaciers)—इन्हें पर्वतीय हिमनदी (Mountain Glaciers) भी कहते हैं। यह हिमनदी ऊँचे पहाड़ों की चोटियों से उतर कर घाटियों में बहती है। यह हिम नदी एक चौड़े और गहरे बेसिन (Basin) की रचना करती है। सबसे पहले अल्पस (Alps) पर्वत में मिलने के कारण इन्हें एल्पाइन (Alpine) हिमनदी भी कहते हैं। हिमालय पर्वत पर इस प्रकार की कई हिम नदियाँ भी हैं, जैसे गंगोत्री हिमनदी, जो कि 25 कि०मी० लंबी है। भारत में सबसे बड़ी हिम नदी काराकोरम पर्वत में सियाचिन (Siachin) है, जोकि 72 कि०मी० लंबी है। अलास्का में संसार की सबसे बड़ी हिमनदी हुब्बार्ड है, जोकि 128 कि०मी० लंबी है।

2. महाद्वीपीय हिमनदी (Continental Glaciers)-बड़े क्षेत्रों में फैली हुई हिमनदियों को महाद्वीपीय हिमनदी या हिमचादर (Ice-Sheets) कहते हैं। इसी प्रकार की हिम-चादरें ध्रुवीय क्षेत्रों (Polar Areas) में मिलती है। लगातार हिमपात, निम्न तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण हिम पिघलती नहीं है। संसार की सबसे बड़ी हिम-चादर अंटार्कटिका (Antarctica) में 130 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 1500 मीटर मोटी है। ग्रीनलैंड (Greenland) में ऐसी ही एक हिम-चादर का क्षेत्रफल 17 लाख वर्ग कि०मी० है। आज से लगभग 25 हज़ार वर्ष पहले हिम युग (Ice age) में धरती का 1/3 भाग हिम-चादरों से ढका हुआ था।

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प्रश्न 2.
हिम नदी जल प्रवाह के निक्षेप से बनने वाले भू-आकारों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
हिम नदी जल-प्रवाह के निक्षेप से उत्पन्न भू-आकृतियाँ (Landforms Produced by Glacio-fluvial Deposites)-

जब हिम नदी पिघलती है, तो उसके अगले भाग से पानी की अनेक धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये धाराएँ अपने बारीक पदार्थों-रेत, मिट्टी आदि को बहाकर ले जाती हैं और कुछ दूर जाकर उन्हें एक स्थान पर ढेरी कर देती हैं।
जल प्रवाह का निक्षेप नदी के पिघल जाने के बाद होता है। उससे उत्पन्न भू-आकृतियाँ नीचे लिखी हैं- .

1. एस्कर या हिमोढ़ी टीला (Eskar)-Snout की बारीक सामग्री को जल धाराएँ बहाकर ले जाती हैं और भारी पत्थर, कंकर आदि का ढेर साँप के समान बल खाती एक लंबी श्रृंखला के समान बन जाता है। चिकने पत्थर, कंकर आदि की साँप के समान बल खाती श्रृंखला को हिमोढ़ी टीला या एस्कर कहते हैं। एस्कर आइरिश भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ

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2. कंकड़-पहाड़ या केम (Kame)-हिमनदी के अगले भाग से निकली कुछ धाराएँ रेत और छोटे पत्थर, कंकर आदि को टीलों के रूप में ढेरी कर देती हैं। इन्हें कंकड़-पहाड़ भी कहा जाता है।

3. ग्लेशियर नदी मैदान (Outward Plain or Outwash Plain)-हिम नदी द्वारा उत्पन्न जल धाराओं द्वारा निक्षेप की गई सामग्री से एक मैदान का निर्माण हो जाता है। इसे ग्लेशियर नदी मैदान कहते हैं।

4. घाटी मोरेन (Valley Moraines)-हिम नदी के पिघलने पर जल धाराएं अपने साथ तल के अंतिम मोरेन के नुकीले पदार्थो को निचले भागों में पंक्तियों में निक्षेप कर देती हैं। इन निक्षेपों को घाटी मोरेन कहते हैं।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
अंग्रेजी साम्राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक तथा लगान सम्बन्धी नीतियों का भारत की अर्थ-व्यवस्था तथा समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
भारत मे ब्रिटिश राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक तथा लगान सम्बन्धी नीतियों का भारत के सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र पर बहुत प्रभाव पड़ा। भारत जो कि कृषि प्रधान देश था, कई बार अकाल का शिकार हुआ। किसानों की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ने लगी। ब्रिटिश सरकार ने कृषक तथा कृषि की ओर कोई ध्यान न दिया। देश में जो थोड़े बहुत कुटीर-उद्योग थे, उन्हें भी इंग्लैंड की औद्योगिक उन्नति के लिए नष्ट कर दिया गया। ब्रिटिश राज्य में भारत आर्थिक रूप से ऐसा पिछड़ा कि आज तक भी नहीं सम्भल सका। भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर ब्रिटिश राज्य का प्रभाव निम्नलिखित बातों से जाना जा सकता है

I. कृषि पर प्रभाव –

1. भूमि का स्वामित्व-अंग्रेज़ों से पूर्व भारत में भूमि आजीविका कमाने का साधन था । इसे न तो खरीदा जा सकता था और न बेचा जा सकता था। भूमि पर कृषि करने वाले उपज का एक निश्चित भाग भूमि-कर के रूप में सरकार को दे दिया करते थे, परन्तु अंग्रेजों ने इस आदर्श प्रणाली को समाप्त कर दिया। लॉर्ड कार्नवालिस ने बंगाल में भूमि का स्थायी बन्दोबस्त किया। इसके अनुसार भूमि सदा के लिए ज़मींदारों को दे दी गई। उन्हें सरकारी खज़ानों में निश्चित कर जमा करना होता था। वे यह ज़मीन अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति को दे सकते थे। इस तरह भूमि पर कृषि करने वालों का दर्जा एक नौकर के समान हो गया। स्वामी सेवक बन गए और भूमि-कर उगाहने वाले सेवक स्वामी बन गए।

2. कृषकों का शोषण- अंग्रेजी शासन के अधीन भूमि की पट्टेदारी की तीन विधियां आरम्भ की गईं-स्थायी प्रबन्ध, रैय्यतवाड़ी प्रबन्ध तथा महलवाड़ी प्रबन्ध । इन तीनों विधियों के अन्तर्गत किसानों को ऐसे अनेक कष्ट सहने पड़े। भूमि का स्वामी किसानों को जब चाहे भूमि से बेदखल कर सकता था। इस नियम का सहारा लेकर वह किसानों से मनमानी रकम ऐंठने लगा। भूमि की सारी अतिरिक्त उपज वह स्वयं हड़प जाते थे। किसानों के पास इतना अनाज भी नहीं बचा था कि उन्हें पेट भर भोजन मिल सके। रैयतवाड़ी प्रथा के अनुसार तो किसानों को और भी अधिक कष्ट उठाने पड़े। किसान भूमि के स्वामी तो मान लिए गए, परन्तु कर की दर इतनी अधिक थी कि इनके लिए कर चुकाना भी कठिन था। कर चुकाने के लिए किसान साहूकारों से ऋण ले लिया करते थे और सदा के लिए साहूकार के चंगुल में फंस जाते थे। वास्तव में वह किसान जो भूस्वामी हुआ करता था, अंग्रेज़ी राज्य की छाया में मजदूर बन कर रह गया।

3. कृषि का पिछड़ापन- अंग्रेज़ी शासन के अधीन कृषक के साथ-साथ कृषि की दशा भी बिगड़ने लगी। कृषक पर भारी कर लगा दिए गए। ज़मींदार उससे बड़ी निर्दयता से रकम ऐंठता था। ज़मीदार स्वयं तो शहरों में रहते थे । उनके मध्यस्थ किसानों की उपज का अधिकतर भाग ले जाते थे। ज़मींदार की दिलचस्पी पैसा कमाने में थी। वह भूमि सुधारने में विश्वास नहीं रखता था। इधर किसान दिन-प्रतिदिन निर्धन तथा निर्बल होता जा रहा था। अत: वह भूमि में धन तथा श्रम दोनों ही नहीं लगा पा रहा था। उसे एक और भी हानि हुई। इंग्लैंड का मशीनी माल आ जाने से ग्रामीण उद्योग-धन्धे नष्ट हो गए। अतः खाली समय में वह इन उद्योगों द्वारा जो पैसे कमाया करता था, अब बन्द हो गया। अब मुकद्दमेबाज़ी उसके जीवन का अंग बन गई । इन मुकद्दमों पर उसका समय तथा धन दोनों ही नष्ट होने लगे और कृषि पिछड़ने लगी। संक्षेप में, अंग्रेज़ों की भूराजनीति ने कृषक के उत्साह को बड़ी ठेस पहुंचाई जो कृषि के लिए हानिकारक सिद्ध हुई।

II. उद्योगों पर प्रभाव-

1. भारतीय सूती कपड़े के उद्योग का विनाश- अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से पूर्व भारतीय सूती कपड़ा उद्योग उन्नति की चरम सीमा पर पंहुचा हुआ था। भारत में बने सूती कपड़े की इंग्लैंड में बड़ी मांग थी। इंग्लैंड की स्त्रियां भारत के बेलबूटेदार वस्त्रों को बहुत पसन्द करती थीं। कम्पनी ने आरम्भिक अवस्था में कपड़े का निर्यात करके खूब पैसा कमाया। परन्तु 1760 तक इंग्लैंड ने ऐसे कानून पास कर दिए जिनके अनुसार रंगे कपड़े पहनने की मनाही कर दी गई। इंग्लैंड की एक महिला को केवल इसलिए 200 पौंड जुर्माना किया गया था क्योंकि उसके पास विदेशी रूमाल पाया गया था। इंग्लैंड का व्यापारी तथा औद्योगिक वर्ग कम्पनी की व्यापारिक नीति की निन्दा करने लगा। विवश होकर कम्पनी को वे विशेषज्ञ इंग्लैंड वापस भेजने पड़े जो भारतीय जुलाहों को अंग्रेजों की मांगों तथा रुचियों से परिचित करवाते थे। इंग्लैंड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर आयात कर बढ़ा दिया और कम्पनी की कपड़ा सम्बन्धी आयात नीति पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए। इन सब बातों के परिणामस्वरूप भारत के सूती वस्त्र उद्योग को भारी क्षति पहुंची।

2. निर्धनता, बेकारी तथा अकाल- अंग्रेजी राज्य की स्थापना से भारत में निर्धनता का अध्याय आरम्भ हुआ। किसान भारी करों के बोझ तले दबने लगे। उनके गाढ़े पसीने की कमाई ज़मींदार, साहूकार तथा सरकार लूटने लगी। उन्हें पेट भर रोटी नसीब नहीं होती थी। इधर आर्थिक शोषण, करों की ऊंची दर तथा भारतीय धन की निकासी के कारण भी निर्धनता बढ़ने लगी। गरीबी की चरम सीमा उस समय देखने को मिली जब भारत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अकालों की लपेट में आ गया। उत्तर प्रदेश के अकाल (1860-61 ई०) में 2 लाख लोग मरे। पूर्वी प्रान्तों में फैले अकाल (1865-66 ई०) में 20 लाख लोगों की जानें गईं। दस लाख लोग केवल उड़ीसा राज्य में मरे। राजपूताना की रियासतों की जनसंख्या का तीसरा या चौथा भाग अकाल की भेंट चढ़ गया। 1876-78 ई० के अकाल ने तो त्राहि-त्राहि मचा दी। इस अकाल के कारण महाराष्ट्र के आठ लाख, मद्रास के तैंतीस लाख तथा मैसूर के लगभग 20 % लोग मृत्यु का ग्रास बने। ब्रिटिश राज्य में इन भयानक-दृश्यों के साथ-साथ बेकारी का दौर भी जारी रहा। अनेक कारीगर बेकार थे। व्यापारियों का व्यापार नष्ट हो चुका था। लाखों किसान अपनी ज़मीनें छोड़ कर भाग गए थे।

3. ग्रामीण उद्योगों का विनाश- अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से अंग्रेजी माल भारतीय गांवों में पहुंचने लगा। यह माल बढ़िया तथा सस्ता होता था। परिणामस्वरूप ग्रामीण उद्योगों को बड़ा धक्का लगा। ग्रामीण कारीगरों के हाथों से ग्राहक निकलने लगे और वे (कारीगर) अपना धंधा छोड़ काश्तकार के रूप में मजदूरी करने लगे। 19वीं शताब्दी के पहले 50 वर्षों में ऐसे दृश्य आम देखे जाते थे कि कैसे एक जुलाहा अपनी खड्डी छोड़कर हल धारण कर रहा है। यह परिवर्तन उन लोगों के लिए कितना दुःखदायी होगा जिनकी पीढ़ियां इन उद्योगों को अर्पित हो गई थीं। श्री ताराचन्द लिखते हैं, “उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यहां के गांवों के श्रमिक समाज में उजड़े हुए किसानों के बाद बुनकरों तथा गांव के अन्य कारीगरों का स्थान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था।” यह सब अंग्रेजी शासन का ही प्रभाव था।

III. व्यापार पर प्रभाव-

अंग्रेज़ी राज्य स्थापित होने से कृषि तथा उद्योगों के साथ-साथ भारतीय व्यापार को भी हानि पहुंची। कम्पनी ने भारतीय व्यापार पर पूरा नियन्त्रण कर लिया। भारतीय तथा विदेशी व्यापारियों को विधिवत् रूप से व्यापार करने से रोक दिया गया। सारा व्यापार कम्पनी के हाथ में आ गया। कम्पनी के बड़े-बड़े कर्मचारियों ने अपने अलग व्यापारिक संस्थान खोल लिए और उनका देश के उत्पादित माल पर पूर्ण अधिकार हो गया। इस व्यापार का सारा लाभ कम्पनी के कर्मचारियों की जेब में जाता था। कम्पनी के बड़े-बड़े कर्मचारी मालामाल हो गए थे। गवर्नर-जनरल तक भी खूब हाथ रंगते थे। इस व्यापारिक धांधली के कारण न केवल भारतीयों को आन्तरिक व्यापार से बाहर ही निकाल दिया गया,बल्कि उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों के साथ छल भी किया गया। उन्हें सस्ते दामों पर कच्चा माल बेच कर महंगे दामों पर तैयार माल खरीदने के लिए बाध्य किया । व्यापार के इसी एकाधिकारपूर्ण नियम के कारण बंगाल अकाल की लपेट में आ गया। भारतीय माल पर करों की दर बढ़ा दी गई ताकि कोई विदेशी या भारतीय व्यापारी भारतीय माल का व्यापार न कर सके। इस प्रकार अंग्रेज़ी शासन के अधीन भारतीय व्यापार बिल्कुल नष्ट हो गया।

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प्रश्न 2.
इंग्लैंड में नई विचारधारा के संदर्भ में भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन सामाजिक सुधार तथा शिक्षा के विकास की चर्चा करें।
उत्तर-
इंग्लैंड में नवीन विचारधारा के कारण यह विश्वास दृढ़ हो गया कि भारत के परम्परावादी सामाजिक ढांचे में परिवर्तन होना चाहिए। इस संदर्भ में भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन हुए और शिक्षा में पाश्चात्य विचारों का समावेश हुआ। इस तरह देश के सामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में नवीन परिवर्तन हुए जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. सती प्रथा का अन्त- सती-प्रथा हिन्दू समाज में प्रचलित एक बहुत बुरी प्रथा थी। हिन्दू स्त्रियां पति की मृत्यु पर उसके साथ ही जीवित जल जाया करती थीं। राजा राममोहन राय ने इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उनकी प्रार्थना पर विलियम बैंटिंक ने इस कुप्रथा का अन्त करने के लिए 1829 ई० में एक कानून बनाया। इस प्रकार सती-प्रथा को कानून के विरुद्ध घोषित कर दिया गया।

2. बाल हत्या पर रोक-कुछ हिन्दू जातियां अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने बच्चों को बलि चढ़ा दिया करती थीं। 1802 ई० में वैल्जेली ने इस प्रथा के विरुद्ध एक कानून पास किया। इसके अनुसार बाल-हत्या पर रोक लगा दी गई।

3. विधवा-विवाह- भारत में विधवाओं की दशा बड़ी खराब थी। उन्हें पुनः विवाह की आज्ञा नहीं थी। अतः अनेक युवा विधवाओं को दुःख और कठिनाई भरा जीवन व्यतीत करना पड़ता था । उनकी दुर्दशा को देखते हुए राजा राममोहन राय, महात्मा फूले, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा महर्षि कर्वे ने विधवा-विवाह के पक्ष में जोरदार आवाज़ उठाई। फलस्वरूप 1856 में विधवा-विवाह वैध घोषित कर दिया गया।

4. दास प्रथा का अन्त- भारत में ज़मींदारी प्रथा के कारण किसान बहुत ही निर्धन हो गए थे। इन किसानों को दास बना कर ब्रिटिश उपनिवेशों में भेजा जाने लगा। इसके अतिरिक्त कुछ अंग्रेज़ भी भारतीयों से दासों जैसा व्यवहार करते थे और उनसे बेगार लेते थे। 1843 ई० में कानून द्वारा इस प्रथा का अन्त कर दिया गया। .

5. स्त्री शिक्षा का विकास- स्त्री-शिक्षा के लिए भारतीय महापुरुषों ने विशेष प्रयत्न किए। उनके प्रयत्नों से स्त्रियां कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने लगीं। फलस्वरूप देश में शिक्षित स्त्रियों की संख्या बढ़ने लगी।

6. जाति बन्धन में ढील- अंग्रेजी शिक्षा तथा ईसाई पादरियों के प्रचार के कारण भारत में जाति बन्धन टूटने लगे। ईसाई पादरी ऊंच-नीच की परवाह नहीं करते थे। इससे प्रभावित होकर निम्न जातियों के लोग ईसाई धर्म स्वीकार करने लगे। यह बात हिन्दू समाज के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गई। अतः उस समय के समाज-सुधारकों ने जाति-प्रथा की निन्दा की। परिणामस्वरूप जाति बन्धन काफ़ी ढीले हो गए।

भारत में अंग्रेजी शिक्षा का विकास- भारत में अंग्रेजी शिक्षा के विस्तार की वास्तविक कहानी 1813 ई० से आरम्भ होती है। इससे पहले कम्पनी ने इस दिशा में कोई कार्य नहीं किया। यदि कुछ कार्य हुए भी तो वे ईसाई पादरियों की ओर से हुए, परन्तु 1813 ई० में शिक्षा का विकास विधिवत् रूप से होने लगा। 1813 ई० में चार्टर एक्ट पास हुआ। इसमें कहा गया कि भारतीयों की शिक्षा पर हर वर्ष एक लाख रुपया खर्च किया जाएगा। यह भी कहा गया कि 50 वर्ष के अन्दर -अन्दर पूरे भारत में शिक्षा के प्रसार का कार्य सुचारू रूप से होने लगेगा। देश में कुछ स्कूल तथा कॉलेज भी खोले गए। परन्तु शीघ्र ही यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि यह धन किस शिक्षा पर व्यय किया जाए-भारतीय भाषाओं की शिक्षा पर अथवा अंग्रेज़ी शिक्षा पर।

शिक्षा के माध्यम का विवाद धीरे-धीरे गम्भीर रूप धारण कर गया। कुछ लोग अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे जबकि दूसरे लोग देशी भाषाओं को ही माध्यम बनाने के पक्ष में थे। आखिर अंग्रेजी माध्यम का पक्ष भारी रहा और इसे ही स्वीकार कर लिया गया। 1854 ई० में चार्ल्स वुड समिति बनाई गई। इस समिति ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाने के लिए ये सुझाव दिए-

(i) भारत में लन्दन विश्वविद्यालय के ढंग पर विश्वविद्यालय खोले जाएं।
(ii) विश्वविद्यालय के अधीन कॉलेज खोले जाएं।

(iii) प्रत्येक प्रान्त में एक शिक्षा-विभाग खोला जाए। वुड समिति की इन सिफ़ारिशों के कारण शिक्षा प्रणाली में महत्त्वपूर्ण उन्नति हुई। 1882 ई० में हण्टर आयोग की नियुक्ति की गई। इस आयोग ने बड़े अच्छे सुझाव दिए। सरकार ने हण्टर आयोग की सभी सिफ़ारिशों को स्वीकार कर लिया। देश में नए-नए कॉलेज तथा स्कूल खुलने लगे। 1882 ई० में पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।

लॉर्ड कर्जन के शासनकाल में विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण बढ़ गया। विश्वविद्यालयों के क्षेत्र नियत कर दिए गए। अध्यापकों आदि की नियुक्ति का काम भी विश्वविद्यालयों को सौंप दिया गया। लॉर्ड कर्जन के इस एक्ट की भारतीयों ने बड़ी निन्दा की। 1917 ई० में भारत सरकार ने शिक्षा सुधार के लिए एक और आयोग नियुक्त किया जिसके अध्यक्ष मि० सैडलर थे। इस आयोग ने ये सिफ़ारिशें की-

(i) विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण कम कर दिया जाए।
(ii) माध्यमिक तथा इन्टरमीडियेट शिक्षा विद्यालय के नियन्त्रण में नहीं रहनी चाहिए।

(iii) कॉलेजों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होना चाहिए। इस प्रकार इस आयोग की सिफ़ारिशों के कारण देश में अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। मैसूर, उस्मानिया, अलीगढ़, दिल्ली, नागपुर आदि नगरों में विश्वविद्यालय खोले गए। इसके अतिरिक्त शिक्षा के प्रसार के लिए और कई पग उठाए गए। 1928 ई० में हरयेग कमेटी नियुक्त की गई। 1944 ई० में सार्जेन्ट योजना पर अमल किया गया। इस प्रकार भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार होने लगा।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
भारत में पहली तार लाइन कब स्थापित की गई?
उत्तर-
1833 ई० में।

प्रश्न 2.
जी० टी० रोड का आधुनिक नाम क्या है?
उत्तर-
शेरशाह सूरी मार्ग।

प्रश्न 3.
भारत में कॉफी के बाग़ कब लगाने शुरू हुए?
उत्तर-
1860 ई० के पश्चात्।

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प्रश्न 4.
कलकत्ता मदरसा किस अंग्रेज़ गवर्नर-जनरल ने स्थापित किया?
उत्तर-
लार्ड हेस्टिग्ज ने।

प्रश्न 5.
सती प्रथा को किसने अवैध घोषित किया?
उत्तर-
लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) लाहौर में गवर्नमेंट कॉलेज की स्थापना …………. ई० में हुई।
(ii) भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित स्कूलों में …………. ढंग की शिक्षा दी जाती थी।
(iii) बंगाल में स्थायी बंदोबस्त …………….. में लागू हुआ।
(iv) सती प्रथा के विरुद्ध कानून ………………. के प्रभाव अधीन बना।
(v) भारत में पहली आधुनिक जहाज़रानी कम्पनी ………….. ई० में खोली गई।
उत्तर-
(i) 1864
(ii) अंग्रेजी
(iii) 1793
(iv) ईसाई मिशनरियों
(v) 1919.

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3. सही/गलत कथन

(i) पंजाब यूनिवर्सिटी 1888 में बनी। — (√)
(ii) बंगाल में स्थायी बंदोबस्त लॉर्ड कार्नवालिस ने लागू किया। — (√)
(iii) भारत में पहली रेलवे लाइन की लंबाई 121 मील थी। — (×)
(iv) इंग्लैंड से बहुत-सा धन भारत लाया गया। — (×)
(v) भारत में सीमेंट तथा शीशा बनाने के उद्योग 1930 के बाद विकसित हुए। — (√)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
1791 में संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई
(A) कलकत्ता में
(B) बनारस में
(C) बम्बई में
(D) मद्रास में।
उत्तर-
(B) बनारस में

प्रश्न (ii)
1857 में किस नगर में विश्वविद्यालय स्थापित हुआ?
(A) मद्रास
(B) बंबई
(C) कलकत्ता
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न (iii)
निम्न स्थान भूमि के स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत नहीं आता था-
(A) मद्रास
(B) उड़ीसा
(C) उत्तरी सरकार
(D) बनारस।
उत्तर-
(A) मद्रास

प्रश्न (iv)
1857 ई० में इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया गया-
(A) रिवाड़ी में
(B) दिल्ली में
(C) रुड़की में
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(C) रुड़की में

प्रश्न (v)
अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया-
(A) 1935
(B) 1835
(C) 1857
(D) 1891.
उत्तर-
(B) 1835

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रान्ति किन दो वर्षों के मध्य प्रफुल्लित हुई ?
उत्तर-
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रान्ति सन् 1760 से 1830 के मध्य प्रफुल्लित हुई।

प्रश्न 2.
बर्तानिया के उद्योगपतियों को भारत में बिना कर व्यापार करने की छूट किस वर्ष में मिली तथा इस वर्ष कितने लाख-पौंड मूल्य का अंग्रेजी मशीनी कपड़ा भारत में आया ।
उत्तर-
बर्तानिया के उद्योगपतियों को भारत में बिना कर व्यापार करने की छूट 1813 में मिली। उस वर्ष 11 लाख पौंड का अंग्रेजी मशीनी कपडा भारत में आया।

प्रश्न 3.
1856 में बर्तानिया की मिलों में बना हुआ किस मूल्य का कपड़ा भारत में आया तथा किस मूल्य का कपड़ा भारत से बाहर भेजा गया ?
उत्तर-
1856 में साठ लाख पौंड का कपड़ा भारत आया और 8 लाख पौंड मूल्य का कपड़ा बाहर भेजा गया।

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प्रश्न 4.
1856 में कितने मूल्य की कपास तथा अनाज भारत से बाहर भेजे गए ?
उत्तर-
1856 में 43 लाख पौंड की कपास भारत से बाहर भेजी गई। 29 लाख पौंड का अनाज भी भारत से बाहर भेजा गया।

प्रश्न 5.
भारत में पहली कपड़ा मिल कब, किसने और कहां लगवाई? .
उत्तर-
कपड़े की पहली मिल मुम्बई में कावासजी नानाबाई ने 1853 में स्थापित की।

प्रश्न 6.
1880 तक भारत में कितनी कपड़ा मिलें थीं तथा उनमें कितने मजदूर काम करते थे ?
उत्तर-
1880 तक भारत में 56 कपड़ा मिलें थीं । इनमें 43 हजार मजदूर काम करते थे ।

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प्रश्न 7.
पटसन (जूट) के सबसे अधिक कारखाने भारत के किस प्रान्त में थे तथा बीसवीं सदी के शुरू में इनकी गिनती कितनी हो गई ?
उत्तर-
पटसन (जूट) के सब से अधिक कारखाने बंगाल प्रान्त में थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में इन की गिनती 36 हो गई।

प्रश्न 8.
बीसवीं सदी में कौन से चार प्रकार के उद्योग भारत में विकसित हुए ?
उत्तर-
बीसवीं सदी में भारत में ऊनी कपड़ा बनाने का उद्योग, कागज़ बनाने का उद्योग, चीनी बनाने का उद्योग तथा सूती धागा बनाने का उद्योग विकसित हुए।

प्रश्न 9.
1930 के बाद विकसित होने वाले दो उद्योगों के नाम बताएं।
उत्तर-
1930 के पश्चात् भारत में सीमेंट तथा शीशा बनाने के उद्योग विकसित हुए।

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प्रश्न 10.
भारत में नील की खेती कब शुरू हुई तथा यह किसके हाथों में थी ?
उत्तर-
भारत में नील की खेती 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आरम्भ हुई। यह विदेशियों के हाथों में थी।

प्रश्न 11.
1825 में भारत में नील की खेती के अधीन कुल क्षेत्र कितना था तथा 1915 में नील की खेती लगभग कितने क्षेत्र में सीमित रह गई थी एवं इसके कम होने का क्या कारण था ?
उत्तर-
1825 में 35 लाख बीघा भूमि नील उत्पादन के अन्तर्गत थी और 1915 में नील की खेती तीन चार लाख बीघे तक सीमित रह गई। इस का कारण भूमि की कमी थी।

प्रश्न 12.
अंग्रेज़ी कम्पनी का चीन की चाय का एकाधिकार कब समाप्त हुआ तथा ‘आसाम टी कम्पनी’ कब बनाई गई ?
उत्तर-
अंग्रेज़ी कम्पनी का चीन की चाय का एकाधिकार 1833 में समाप्त हो गया। 1839 में आसाम टी कम्पनी बनाई गई।

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प्रश्न 13.
1920 तक कितनी भूमि चाय की खेती के अधीन थी तथा कितने मूल्य की चाय भारत से बाहर भेजी जाती थी ?
उत्तर-
1920 तक 7 लाख एकड़ भूमि चाय की खेती के अधीन थी। उस समय तक 34 करोड़ पौंड मूल्य की चाय भारत से बाहर भेजी जाती थी ।

प्रश्न 14.
कॉफी के बाग कब लगने शुरू हुए तथा किस देश की कॉफी मण्डी में आने से भारत को नुकसान हुआ ?
उत्तर-
कॉफी के बाग 1860 के पश्चात् लगने आरम्भ हुए। ब्राजील की कॉफी मण्डी में आने से भारत को नुकसान पहुंचा।

प्रश्न 15.
भारत में पहली तार लाइन कब और किन दो नगरों के बीच स्थापित की गई ?
उत्तर-
पहली तार लाइन कलकत्ता (कोलकाता) से आगरा के बीच 1853 में स्थापित की गई ।

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प्रश्न 16.
किस गवर्नर जनरल ने एक ही मूल्य का डाक टिकट शुरू किया तथा इसका मूल्य क्या था ?
उत्तर-
लॉर्ड डल्हौजी ने एक ही मूल्य का डाक टिकट आरम्भ किया था। इस टिकट का मूल्य आधा आना था।

प्रश्न 17.
जी० टी० रोड किन दो शहरों को जोड़ती थी तथा इसका आधुनिक नाम क्या है ?
उत्तर-
जी० टी० रोड पेशावर (पाकिस्तान) तथा कलकत्ता (कोलकाता) को जोड़ती थी। इस का आधुनिक नाम शेरशाह सूरी मार्ग है ।

प्रश्न 18.
जी० टी० रोड किन वर्षों में पक्की की गई तथा 1947 में भारत में सड़कों की कुल लम्बाई कितनी थी ?
उत्तर-
जी० टी० रोड 1839 से लेकर 1864 तक के समय के बीच पक्की की गई। 1947 में भारत में सड़कों की कुल लम्बाई 2,96,000 मील थी ।

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प्रश्न 19.
भारत में पहली आधुनिक जहाजरानी कम्पनी कब खोली गई ?
उत्तर-
भारत में पहली आधुनिक जहाजरानी कम्पनी 1919 में खोली गई ।

प्रश्न 20.
भारत में हवाई यातायात की ओर कब ध्यान देना आरम्भ किया गया ? इससे पहले हवाई जहाजों का प्रयोग किस लिए किया जाता था ?
उत्तर-
भारत में हवाई यायायात की ओर 1930 के बाद ध्यान दिया गया । इससे पहले हवाई जहाज़ों का प्रयोग अधिकतर डाक तथा सामान ले जाने के लिए किया जाता था।

प्रश्न 21.
भारत में पहली रेलवे लाइन किन दो शहरों के बीच एवं कब बनी तथा इसकी लम्बाई कितनी थी ?
उत्तर-
भारत में पहली रेलवे लाइन 1853 में मुम्बई तथा थाना के बीच बनी इसकी लम्बाई 21 मील थी ।।

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प्रश्न 22.
1947 में भारत में रेलवे लाइन की कुल लम्बाई कितनी थी तथा रेलवे के कारण किन दो प्रकार के माल के निर्यात तथा आयात में तेजी से वृद्धि हुई ?
उत्तर-
1947 में भारत में रेलवे लाइन की कुल लम्बाई 40,000 मील थी। रेलों के कारण कच्चे माल के निर्यात तथा मशीनी चीजों के आयात में तेजी से वृद्धि हुई ।

प्रश्न 23.
किस वर्ष में भारत से धन की निकासी शुरू हुई तथा दादा भाई नौरोजी के अनुसार देश से हर वर्ष कितनी धन राशि इंग्लैंड भेजी जाती थी ?
उत्तर-
1757 से धन की निकासी आरम्भ हो गई। दादा भाई नौरोजी के अनुसार प्रति वर्ष 3-4 करोड़ पौंड की राशि भारत से इंग्लैंड भेजी जाती थी ।

प्रश्न 24.
स्थायी बन्दोबस्त किसने शुरू किया तथा यह कब और किस वर्ग के साथ किया गया ?
उत्तर-
स्थायी बन्दोबस्त लार्ड कार्नवालिस ने 1793 में शुरू किया। यह बन्दोबस्त मध्यवर्ती ज़मींदार वर्ग के साथ किया गया।

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प्रश्न 25.
स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत इलाकों के नाम बताएं।
उत्तर-
स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत उड़ीसा, उत्तरी सरकार तथा बनारस थे।

प्रश्न 26.
रैय्यतवाड़ी प्रबन्ध किन दो प्रान्तों में तथा किस वर्ग पर लागू किया गया तथा उससे सम्बन्धित अंग्रेज़ अफसर का नाम क्या था?
उत्तर-
रैय्यतवाड़ी प्रबन्ध मद्रास तथा महाराष्ट्र में किसानों पर लागू किया गया। इसे अंग्रेज अफसर मुनरो ने लागू किया था।

प्रश्न 27.
महलवाड़ी प्रबन्ध कौन से तीन क्षेत्रों में लागू किया गया तथा इसके अन्तर्गत लगान उगाहने की इकाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
महलवाड़ी प्रबन्ध वर्तमान उत्तर प्रदेश में लागू किया गया । इसमें लगान उगाहने की इकाई ‘महल’ थी।

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प्रश्न 28.
अंग्रेजों के अधीन लगान प्रबन्ध की सभी व्यवस्थाओं से भारत के किस वर्ग को विशेष लाभ हुआ ?
उत्तर-
अंग्रेजों के अधीन लगान प्रबन्ध की सभी व्यवस्थाओं से भारत के ज़मींदार वर्ग को विशेष लाभ हुआ ।

प्रश्न 29.
1905 तक सरकार ने रेलों तथा सिंचाई के विकास पर कितना धन खर्च किया था ?
उत्तर-
1905 तक सरकार ने रेलों तथा सिंचाई के विकास पर 360 करोड़ रुपये खर्च किये।

प्रश्न 30.
1951 तक भारत में किन दो प्रकार के हल प्रचलित थे तथा इनमें से किसका प्रयोग बहुत अधिक किया जाता था ?
उत्तर-
1951 तक भारत में लकड़ी तथा लोहे के फाले वाले हल प्रचलित थे। इन में से लोहे के फाले वाले हलों का प्रयोग बहुत अधिक किया जाता था ।

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प्रश्न 31.
1939 में भारत में कितने कृषि कॉलेज थे तथा उनमें विद्यार्थियों की कुल संख्या कितनी थी ?
उत्तर-
1939 में भारत में केवल छः कृषि कॉलेज थे। उनमें विद्यार्थियों की कुल संख्या 1300 के लगभग थी।

प्रश्न 32.
भारत में ईसाई मिशनरियों को अपने केन्द्र स्थापित करने की छूट कब मिली तथा इनके स्कूल-कॉलेज में किस ढंग की शिक्षा दी जाती थी ?
उत्तर-
1813 में ईसाई मिशनरियों को अपने केन्द्र स्थापित करने की छूट मिल गई। इनके स्कूल-कॉलेज में अंग्रेज़ी ढंग की शिक्षा दी जाती थी।

प्रश्न 33.
मिशनरियों के प्रभाव अधीन कौन-सा कानून बना ?
उत्तर-
मिशनरियों के प्रभाव अधीन सती प्रथा का अन्त करने का कानून बना ।।

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प्रश्न 34.
भारत में सती प्रथा को कब और किस गवर्नर-जनरल ने गैर कानूनी घोषित किया ?
उत्तर-
भारत में सती प्रथा को 1829 में गवर्नर-जनरल विलियम बैंटिंक ने गैर कानूनी घोषित किया।

प्रश्न 35.
सती प्रथा का प्रचलन कौन से वर्ग तथा जातियों में था ?
उत्तर-
सती प्रथा का प्रचलन राजघरानों, उच्च वर्गों अथवा ब्राह्मणों में था ।

प्रश्न 36.
“कलकत्ता (कोलकाता) मदरसा” कब और किसने स्थापित किया ?
उत्तर-
कलकत्ता (कोलकाता) मदरसा 1781 में गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्ज़ ने स्थापित किया ।

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प्रश्न 37.
संस्कृत कॉलेज की स्थापना कब और कहां की गई ?
उत्तर-
संस्कृत कॉलेज की स्थापना 1791 में बनारस में की गई ।

प्रश्न 38.
1835 में शिक्षा सम्बन्धी क्या फैसला किया गया तथा इससे सम्बन्धित अंग्रेज अधिकारी का नाम क्या था ?
उत्तर-
1835 में शिक्षा सम्बन्धी यह निर्णय किया गया कि सरकार विज्ञान तथा पश्चिमी ढंग की शिक्षा अंग्रेज़ी भाषा में देने के लिये धन खर्च करेगी। इससे सम्बन्धित अंग्रेज़ अधिकारी का नाम ‘मैकाले’ था ।

प्रश्न 39.
1857 में किन तीन नगरों में विश्वविद्यालय स्थापित हुए ?
उत्तर-
1857 में बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता) और मद्रास (चेन्नई) में विश्वविद्यालय स्थापित हुए ।

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प्रश्न 40.
1857 में मैडिकल कॉलेज कौन से तीन नगरों में थे तथा इंजीनियरिंग कॉलेज किस स्थान पर स्थापित किया गया ?
उत्तर-
1857 में मैडिकल कॉलेज बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता) तथा मद्रास, (चेन्नई) में थे। इंजीनियरिंग कॉलेज रुड़की में स्थापित किया गया।

प्रश्न 41.
लाहौर में गवर्नमैंट कॉलेज तथा पंजाब यूनिवर्सिटी किन वर्षों में बने ?
उत्तर-
लाहौर में गवर्नमेंट कॉलेज 1864 में तथा पंजाब यूनिवर्सिटी 1888 में बने।

प्रश्न 42.
अंग्रेजी साम्राज्य का सबसे अधिक लाभ किस नये वर्ग को हुआ तथा इस वर्ग से सम्बन्धित चार व्यवसायों के नाम बताएं।
उत्तर-
अंग्रेज़ी साम्राज्य का सबसे अधिक लाभ मध्य वर्ग को हुआ इस वर्ग से सम्बन्धित चार व्यवसायों के नाम थेसाहूकार, डॉक्टर, अध्यापक तथा वकील ।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
अंग्रेजी साम्राज्य ने भारत में विदेशी पूंजीपतियों की सहायता किस प्रकार की ?
उत्तर-
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य ने विदेशी पूंजीपतियों की बड़ी सहायता की। देशी उद्योगों को नष्ट किया गया। इनके स्थान पर विदेशी पूंजीपतियों को प्रोत्साहित किया गया । इंग्लैंड की औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् इंग्लैंड के पूंजीपतियों ने यहां कारखाने लगाए। उन्हें यहां सस्ते मज़दूर मिलते थे और सरकार से पूरा सहयोग मिलता था। विदेशी पूंजीपतियों ने यहां रेलवे लाइनों में भी खूब पूंजी लगाई। वैसे भी उद्योग स्थापित करने की सुविधाएं भी उन्हें ही दी जाती थीं। कर की व्यवस्था भी उन के पक्ष में थी। विदेशी माल पर कर नहीं लगता था जबकि भारतीय माल पर शुल्क की दर बढ़ा दी गई थी। रेलों की स्थापना भी विदेशी व्यापार को सुविधा पहुंचाने के लिए की गई थी । सच तो यह है कि अंग्रेजी साम्राज्य ने विदेशी पूंजीपतियों की खूब सहायता की ।

प्रश्न 2.
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन रेलों के विस्तार के कारण तथा उनका महत्त्व बताएं ।
उत्तर-
भारत में पहली रेलवे लाइन (1853) में डल्हौजी के समय में मुम्बई से थाना तक आरम्भ की गई । इसकी लम्बाई 21 मील थी। 1905 ई० तक लगभग 28,000 मील लम्बी रेलवे लाइन बनकर तैयार हो गई थी। रेलें यातायात का महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुईं । रेलों के कारण अन्तरिक सुरक्षा मजबूत हुई । सेना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में सुविधा हो गई। रेलों के कारण कच्चा माल बन्दरगाहों से कारखानों तक सफलतापूर्वक ले जाया जाने लगा और तैयार माल कारखानों से विभिन्न मण्डियों में भेजा जाने लगा। रेलों के कारण मशीनी चीजों के आयात में वृद्धि हुई । उदाहरण के लिए कपास का निर्यात पहले से तीन गुणा अधिक होने लगा और कपड़े का आयात पहले से दो गुणा ज्यादा हो गया । सच तो यह है कि रेलों के और पूंजीपतियों को हुआ।

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प्रश्न 3.
भारत में धन की निकासी किन तरीकों से होती थी ?
उत्तर-
अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारत को बहुत हानि हुई। देश का धन देश के काम आने के स्थान पर विदेशियों के काम आने लगा। 1757 के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा इसके कर्मचारियों ने भारत से प्राप्त धन को इंग्लैण्ड भेजना आरम्भ कर दिया। कहते हैं कि 1756 ई० से 1765 तक लगभग 60 लाख पौंड की राशि भारत से बाहर गई। और तो और लगान आदि से प्राप्त राशि भी भारतीय माल खरीदने में व्यय की गई। अतिरिक्त सिविल सर्विस और सेना के उच्च अफसरों के वेतन का पैसा भी देश से बाहर जाता था। औद्योगिक विकास का भी अधिक लाभ विदेशियों को ही हुआ। विदेशी पूंजीपति इस देश पर धन लगाते थे और लाभ की रकम इंग्लैण्ड में ले जाते थे। इस तरह भारत का धन कई प्रकार से विदेशों में जाने लगा।

प्रश्न 4.
स्थायी बन्दोबस्त क्या था तथा उसके क्या आर्थिक प्रभाव थे ?
उत्तर-
अंग्रेज़ शासक कृषि के क्षेत्र में भी भूमि से अधिक से अधिक आय प्राप्त करना चाहते थे। इसी उद्देश्य को सामने रख कर लगान व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया। कार्नवालिस ने 1793 में बंगाल और बिहार में ‘परमानेंट सेटलमैंट’ अथवा स्थायी व्यवस्था की। इसके अन्तर्गत लगान वसूल करने वाले ज़मींदार भूमि के स्वामी बना दिये गये। इस व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण आर्थिक प्रभाव पड़े। इस प्रकार सरकार की वार्षिक आय भी निश्चित हो गई जिस से बजट बनाना सरल हो गया। परन्तु किसानों की स्थिति केवल मुज़ारों की ही बन कर रह गई। ज़मींदार उन के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकता था। सभी ज़मींदारों के लिए निश्चित लगान देना इतना सुगम सिद्ध न हुआ। बहुत से ज़मींदारों को अपनी भूमि बेचनी पड़ी। ये भूमि व्यापारी वर्ग के धनी साहूकारों ने खरीद ली। ये नये ज़मींदार शहरों में रहते थे तथा इनके गुमाश्ते किसानों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। भूमि से उपज कम होने लगी। परिणामस्वरूप कृषि और कृषक की दशा खराब हो गई।

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प्रश्न 5.
कौन-से नए विचारों के प्रभावाधीन भारत में सामाजिक सुधार लाने के प्रयास किए गए ?
उत्तर-
आरम्भ में कम्पनी के शासकों ने भारतीय समाज के प्रति विशेष रुचि न दिखाई। उनमें से अधिकांश का विचार था कि एक पुरानी सभ्यता होने के कारण भारतीय सभ्यता में परिवर्तन नहीं होना चाहिये। परन्तु 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक नई विचारधारा बल पकड़ने लगी। विज्ञान और यान्त्रिकी की उन्नति के साथ लोगों के विचारों और सामाजिक मूल्यों पर भी प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप यह रुचि बढ़ने लगी कि समाज को बदला जाये। ऐसे कानून बनाये जायें जिनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति न्याय प्राप्त करने में बराबर का अधिकारी हो। ऐसी आर्थिक नीतियां अपनाई जाएं जिनसे आर्थिक प्रगति हो और जनसाधारण जीवन की आरम्भिक आवश्यकताओं का आनन्द भोग सकें। ऐसे रीति-रिवाजों का अन्त किया जाये जो अन्धविश्वासों पर आधारित थे। इसके साथ इंग्लैण्ड में ईसाई मत के प्रचार के समर्थक भी इस बात पर जोर देते थे कि भारतीय समाज को नवीन रंग में रंगा जाये।

प्रश्न 6.
भारत में अंग्रेजों ने शिक्षा सम्बन्धी क्या नीति अपनाई ?
उत्तर-
1813 में यह निर्णय किया गया कि भारतीयों को विज्ञान की शिक्षा भी दी जाये। बीस वर्ष तक यह विवाद चलता रहा कि अंग्रेजी साम्राज्य में शिक्षा भारतीय संस्कृति के अनुसार दी जाये अथवा पश्चिमी संस्कृति के आधार पर। 1835 में यह निर्णय हुआ कि पश्चिमी ढंग की शिक्षा अंग्रेजी भाषा के माध्यम द्वारा उच्च स्तर पर दी जाये। इसी नीति के आधार पर 1857 में बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता) और मद्रास (चेन्नई) में विश्वविद्यालय स्थापित किये गये। इसके बाद धीरे-धीरे अन्य शहरों में भी विश्वविद्यालय और कॉलेज स्थापित हुए। नवीन शिक्षा नीति अपनाये जाने के अनेक कारण थे –

  • अंग्रेज़ अफसरों की बहुसंख्या इस बात में विश्वास रखती थी कि आधुनिक यूरोपीय सभ्यता विश्व की अन्य सभ्यताओं की तुलना में उत्तम है।
  • सरकारी कार्यों के लिए शिक्षित भारतीयों की आवश्यकता थी।
  • ईसाई पादरियों का विचार था कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भारतीय जल्दी ही ईसाई बन जायेंगे।
  • कुछ का विश्वास था कि भारतीय अंग्रेज़ी रहन-सहन अपना लेंगे तो वे इंग्लैण्ड में बनी वस्तुओं का अधिक प्रयोग करेंगे और इस प्रकार अंग्रेजों के व्यापार में भी वृद्धि होगी।
  • बहुत-से भारतीय भी यह मांग करने लगे थे कि अंग्रेजी भाषा के द्वारा ही विज्ञान और साहित्य की शिक्षा दी जाये।

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प्रश्न 7.
अंग्रेजी साम्राज्य ने भारत में मध्य वर्ग के उत्थान में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य की समृद्धि के कारण भारत में मध्य वर्ग का जन्म हुआ। कम्पनी को अपने व्यापार की वृद्धि के लिये भारतीय व्यापारियों की सहायता की आवश्यकता थी। इसलिए जैसे-जैसे अंग्रेज़ी व्यापार का विकास हुआ, भारतीय व्यापारी भी धनी बने और उन का महत्त्व भी बढ़ा। इन्हीं व्यापरियों ने साहूकारी शुरू कर ऋण दिये। इन्होंने ही भूमि खरीदने की ओर ध्यान दिया। अधिक धनी साहूकारों ने निजी उद्योग स्थापित किये। इनमें से बहुत से लोग अंग्रेज़ी शिक्षा के पक्ष में थे। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद सरकारी नौकरियों में भी उनकी संख्या में वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी शिक्षा पाकर मध्य वर्गों के लोग डॉक्टर, अध्यापक और वकील बने। इस प्रकार मध्य वर्ग का प्रभाव बढ़ता गया।

प्रश्न 8.
अंग्रेजी साम्राज्य में सामाजिक सुधारों का वर्णन करो।
अथवा
अंग्रेजी साम्राज्य में भारत में किस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन हुए ?
उत्तर-
अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में समाज सुधार की ओर ध्यान दिया। उन्होंने 1829 ई० में सती-प्रथा पर रोक लगा दी। उस समय राजपूत लोग लड़कियों को पैदा होते ही मार देते थे। इसी तरह कुछ अन्य लोग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने बच्चों की बलि दे देते थे। अतः पहले लॉर्ड विलियम बैंटिंक और फिर लॉर्ड हार्डिंग ने बाल हत्या पर रोक लगी दी। उस समय विधवाओं को समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। अतः 1856 ई० में लॉर्ड डल्हौज़ी ने एक कानून द्वारा विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा दे दी। अंग्रेज़ों का विचार था कि भारतीय समाज की गिरी हुई दशा को केवल पश्चिमी शिक्षा के प्रसार से ही सुधारा जा सकता है। अतः भारत में अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बना दिया गया। अंग्रेजों के प्रयत्नों से भारत में स्त्री शिक्षा का प्रसार भी हुआ।

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प्रश्न 9.
रैय्यतवाड़ी लगान व्यवस्था की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
1820 ई० में थामस मुनरो मद्रास का गवर्नर नियुक्त हुआ। उसने भूमि का प्रबन्ध एक नए ढंग से किया जिसे रैय्यतवाड़ी प्रथा के नाम से पुकारा जाता है। यह प्रबन्ध पहले-पहल दक्षिण के प्रान्तों में लागू किया। सरकार ने भूमि-कर उन लोगों से लेने का निश्चय किया जो अपने हाथों से कृषि करते थे। अतः सरकार तथा कृषकों के बीच जितने भी मध्यस्थ थे उन्हें हटा दिया। यह प्रबन्ध स्थायी प्रबन्ध की अपेक्षा अधिक लाभदायक था क्योंकि इससे कृषकों के अधिकार बढ़ गए तथा सरकारी आय में वृद्धि हुई। इस प्रथा में कुछ दोष भी थे-जो भूमि कृषि के बिना रह जाती थी उसे सरकारी भूमि समझा जाता था। ऐसी भूमि में कृषि करने का अधिकार किसी भी किसान को न था। फलस्वरूप यह भूमि प्रायः खाली पड़ी रहती थी। इस प्रथा के कारण गांव का भाई-चारा समाप्त होने लगा। गांव की पंचायतों का महत्त्व भी कम हो गया। प्रत्येक किसान एक पृथक् व्यक्तित्व बन कर रह गया।

प्रश्न 10.
महलवाड़ी भूमि-प्रबन्ध की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
रैय्यतवाड़ी प्रथा के दोषों को दूर करने के लिए उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में एक और नया प्रयोग किया गया जिसे महलवाड़ी प्रबन्ध कहा जाता है। इस प्रबन्ध की विशेषता यह थी कि इसके द्वारा भूमि का सम्बन्ध न तो किसी बड़े ज़मींदार के साथ जोड़ा जाता था और न ही किसी कृषक के साथ। यह प्रबन्ध वास्तव में गांव के समूचे भाई-चारे के साथ होता था। यदि कोई किसान अपना भाग नहीं देता था तो उसकी वसूली गांव के भाई-चारे से की जाती थी। ऐसे प्रबन्ध के कारण सरकार को कभी हानि नहीं होती थी। प्रत्येक गांव में जो भूमि अविभाजित रह जाती थी, उसे भाई-चारे की संयुक्त सम्पत्ति माना जाता था। ऐसी भूमि को ‘शामलात भूमि’ कहते थे। इस प्रबन्ध को सबसे अच्छा प्रबन्ध माना जाता है क्योंकि इसमें पहले के दोनों प्रबन्धों के गुण विद्यमान थे। इस प्रबन्ध में केवल एक ही दोष था। वह यह था कि इसके अनुसार लोगों को बहुत अधिक भूमि-कर देना पड़ता था।

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प्रश्न 11.
ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय किसानों की निर्धनता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
ब्रिटिश शासनकाल में किसानों की दशा बड़ी ही शोचनीय थी। उनकी निर्धनता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। उनकी निर्धनता के कारणों का वर्णन इस प्रकार है-

  1. ब्रिटिश शासन काल में ज़मींदारी प्रथा प्रचलित थी। भूमि के स्वामी बड़े-बड़े ज़मींदार होते थे जो किसानों का बहुत शोषण करते थे। वे उनसे बेगार भी लेते थे।
  2. किसानों के खेती करने के ढंग बहुत पुराने थे। कृषि के लिए अच्छे बीज तथा खाद की कोई व्यवस्था नहीं थी। सिंचाई के उपयुक्त साधन उपलब्ध न होने के कारण किसानों को केवल वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता था।
  3. ब्रिटिश सरकार ने किसानों की दशा सुधारने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
  4. किसान प्रायः साहूकारों से ऋण लेता था जिस पर उसे भारी ब्याज देना पड़ता था। सरकार की ओर से उन्हें ऋण देने का कोई प्रबन्ध नहीं था।
  5. किसानों को बहुत अधिक भूमि-कर देना पड़ता था। यह भी उनकी निर्धनता का एक बहुत बड़ा कारण था।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अंग्रेजी कम्पनी की व्यापारिक नीति कैसी थी और भारत पर इसका क्या आर्थिक प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
अंग्रेजों की व्यापारिक नीति से अभिप्राय उस नीति से है जो उन्होंने भारत के देशी तथा विदेशी व्यापार के प्रति अपनाई। आरम्भ में अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का मुख्य ध्येय भारतीय कपड़े को सस्ते दामों पर खरीद कर विदेशी मण्डियों में महंगे दामों पर बेचना था। परन्तु जब कम्पनी की लाभ नीति इंग्लैण्ड के उद्योगों के लिए घातक सिद्ध हुई, तो कम्पनी को अपनी नीति में परिवर्तन लाना पड़ा। औद्योगिक क्रान्ति के कारण इंग्लैण्ड में मशीनों द्वारा अधिक से अधिक माल तैयार होने लगा। इस सारे माल की खपत के लिए इंग्लैण्ड के व्यापारियों को अधिक से अधिक मण्डियों की आवश्यकता थी। अतः वहां के व्यापारी वर्ग ने इंग्लैण्ड की सरकार पर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने के लिए दबाव डालना आरम्भ कर दिया। फलस्वरूप 1813 ई० में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार छीन लिए गए और भारत को एक स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्र घोषित कर दिया। भारत के द्वार विदेशी वस्तुओं के लिए खोल दिये गये। उधर ब्रिटेन ने भारत के बने माल पर प्रतिवर्ष कर बढ़ाने आरम्भ कर दिये। 1824 ई० में भारतीय कैलिको पर 65\(\frac{1}{2}\)% और भारतीय मलमल पर 37\(\frac{1}{2}\)% शुल्क देना पड़ता था। भारतीय चीनी पर उसकी लागत से तीन गुणा अधिक कर देना पड़ता था। ऐसी भी कुछ भारतीय वस्तुएं थीं जिन पर इंग्लैण्ड ने 400% शुल्क लगा दिया। स्पष्ट है कि स्वतन्त्र व्यापारिक नीति ने भारत के व्यापारिक हितों को बड़ी हानि पहुंचाई।

नीति का आर्थिक प्रभाव-अंग्रेजी कम्पनी की व्यापारिक नीति का भारत की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। भारत के देशी उद्योग नष्ट हो गये। भारतीय मजदूर तथा कारीगर बेकार हो गए और वे निर्धनता में अपना जीवन व्यतीत करने लगे। अधिक आयात के कारण भारत धन का भुगतान करने में असमर्थ हो गया। भारत के व्यापारिक असन्तुलन के कारण अनेक अंग्रेज़ उद्योगपतियों को अपनी पूंजी भारत में लगाने के लिए प्रेरित किया गया। परिणामस्वरूप देश में रेलों तथा सड़कों का जाल बिछ गया। परन्तु इससे भी अंग्रेजों को ही लाभ पहुंचा।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

प्रश्न 2.
अंग्रेजी साम्राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक और भूमि-कर सम्बन्धी नीतियों का भारत की अर्थ-व्यवस्था तथा समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक तथा भूमि-कर सम्बन्धी नीतियों का भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके अधीन भूमि का क्रय-विक्रय आरम्भ हो गया। अंग्रेजों ने भारत में भूमि की पट्टेदारी नए ढंग से आरम्भ की। बंगाल के स्थायी बन्दोबस्त द्वारा ज़मींदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार सरकार को लगान देने वाले ठेकेदार भूमि के स्वामी बन गए। पट्टेदारी की प्रचलित सभी विधियां किसानों के हितों के विरुद्ध थीं। जमींदार किसी भी समय कृषकों को बेदखल कर सकता था। इस नियम की आड़ में वे कृषकों से मनचाही रकम बटोरने लगे। रैय्यतवाड़ी प्रथा के अनुसार यद्यपि भूमि का स्वामी किसान को मान लिया गया तथापि कर की दर इतनी अधिक थी कि किसानों को साहूकारों से धन ब्याज पर लेना पड़ता था। अंग्रेज़ी शासन का भारत की कृषि पर भी बहुत प्रभाव पड़ा। ज़मींदार किसानों से पैसा तो खूब ऐंठते थे, परन्तु भूमि सुधार की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं देते थे। किसान के पास इतना भी धन नहीं रह पाता था कि वह स्वयं भूमि का सुधार कर सके। फलस्वरूप भारतीय कृषि पिछड़ने लगी।

अंग्रेजी शासन के अधीन भारतीय उद्योग-धन्धे भी नष्ट हो गए। भारत का सूती कपड़ा उद्योग बिल्कुल ठप्प हो गया। भारत में बने सूती कपड़े की इंग्लैण्ड में बड़ी मांग थी। परन्तु इंग्लैण्ड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर आयात कर बढ़ा दिया और कम्पनी की कपड़ा सम्बन्धी आयात नीति पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए। धीरे-धीरे इंग्लैण्ड की सरकार ने ऐसे नियम बना दिए कि भारत का माल इंग्लैंड में बिकने की बजाय इंग्लैंड का माल भारत में बिकने लगा। इंग्लैण्ड में औद्योगिक विकास के कारण इंग्लैंड की आयात-निर्यात की नीति में भारी परिवर्तन आया। भारत से कच्चा माल आयात करना तथा तैयार माल का निर्यात करना उनका उद्देश्य बन गया। अंग्रेजी शासन के कारण भारत का काफ़ी सारा धन प्रति-वर्ष इंग्लैण्ड जाने लगा। अंग्रेजी राज्य के अधीन भारत में बेकारी और निर्धनता का वातावरण पैदा हो गया। कृषकों पर अधिक करों तथा भारतीय उद्योग-धन्धों की समाप्ति के कारण अनेक लोग बेकार हो गए। अंग्रेज़ी शासन के कारण भारतीय व्यापार भी ठप्प हो गया। कम्पनी ने भारतीय व्यापार पर पूरी तरह अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।

प्रश्न 3.
ब्रिटिश काल में उद्योगों के विकास की कमजोरियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
अंग्रेज़ी शासन के अधीन औद्योगिक विकास के मार्ग की किन्हीं पांच बाधाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
ब्रिटिश शासन के आरम्भ के साथ उद्योगों में तीन बातें घटित हुईं। पहली यह कि उन्होंने भारतीय कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया। दूसरे, इस देश को इंग्लैण्ड के औद्योगिक माल की मण्डी बना दिया। तीसरे, इस देश में कुछ नए उद्योग आरम्भ किए गए। अब देखना यह है कि इस औद्योगिक विकास की कमजोरियां क्या थीं-

1. भारी उद्योगों का अभाव-अंग्रेजों ने भारत में मूल उद्योग आरम्भ न किए। यदि ऐसा होता तो भारत में औद्योगिक विकास की आधारशिला तैयार हो जाती। परन्तु अंग्रेज़ भारत को उन्नत औद्योगिक राष्ट्र के रूप में देखना ही नहीं चाहते थे।

2. कम्पनी की आवश्यकताओं को प्राथमिकता-अंग्रेजों ने भारत में केवल वही उद्योग स्थापित किए जिनके उत्पादों की उन्हें आवश्यकता थी।

3. उद्योगों का एकाधिकार-सभी बड़े-बड़े उद्योगों का स्वामित्व अंग्रेजों को दिया गया। बहुत कम भारतीयों को उद्योग स्थापित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

4 उद्योगों का असमान वितरण-अंग्रेज़ों ने भारत के कुछ ही भागों में उद्योग स्थापित किए। शेष भाग उद्योगों से वंचित रहे।

5. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन न देना-अंग्रेजों ने भारत में छोटे तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन न दिया। ऐसे उद्योगों द्वारा ही भारत की अधिकांश जनता को लाभ पहुँच सकता था।

6. कच्चे माल का निर्यात-अंग्रेज़ इंग्लैण्ड के हित में काम करते थे। वे इस देश से कच्चा माल इंग्लैण्ड को सस्ते दामों पर निर्यात करते थे और फिर तैयार माल लाकर भारत में महँगे दामों पर बेचते थे।

7. प्रशिक्षण का अभाव-अंग्रेजों ने न अधिक इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित किए और न ही श्रमिकों के प्रशिक्षण के लिए ही कोई प्रबन्ध किया। ऐसी अवस्था में उद्योगों का पूर्ण विकास नहीं हो सकता था।

8. दूषित कर-प्रणाली-अंग्रेजों ने कर प्रणाली भी इंग्लैण्ड के पक्ष में ही स्थापित की। उन्होंने इंग्लैण्ड से आने वाले माल पर कस्टम ड्यूटी माफ कर दी। इसके विपरीत भारतीय माल पर इंग्लैण्ड में भारी कर लगा दिए। परिणामस्वरूप पहले भारतीय उद्योगों का विनाश हुआ और बाद में भारत इंग्लैण्ड के तैयार माल की मण्डी बन गया।

सच तो यह है कि अंग्रेजों ने भारत में औद्योगिक विकास की दृष्टि से उद्योग स्थापित न किए थे। उनका मुख्य उद्देश्य इंग्लैण्ड को लाभ पहुँचाना था।

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प्रश्न 4.
18वीं तथा 19वीं शताब्दी में भारत के आर्थिक शोषण की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की आर्थिक नीति की विवेचना कीजिए जिसके फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था की बरबादी हुई।
उत्तर-
18वीं शताब्दी में भारत का शासन ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ में आ गया। कम्पनी सरकार ने अपने स्वार्थ तथा इंग्लैण्ड के हितों को बढ़ावा देने के लिए भारत तथा भारतीयों का खूब आर्थिक शोषण किया। इस उद्देश्य से अंग्रेज़ों ने निम्नलिखित कार्य किए-

1. ग्रामीण कपड़ा उद्योगों का विनाश-अंग्रेजी सरकार अपने गुमाश्तों द्वारा भारतीय जुलाहों से कपड़े का सस्ते दामों पर जबरदस्ती सौदा कर लेती थी। सौदा करने के लिए जुलाहों को पेशगी राशि दे दी जाती थी। यदि वे पेशगी लेने से इन्कार करते तो उन्हें पीटा जाता था और कोड़े लगाए जाते थे। इस प्रकार जुलाहे अपना माल कम्पनी को छोड़कर किसी के पास नहीं बेच सकते थे, भले ही उन्हें वहाँ से कितनी ही अधिक राशि क्यों न मिलती हो। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे भारतीय जुलाहों की कपड़ा उद्योग में रुचि समाप्त हो गई और भारतीय कपड़ा उद्योग समाप्त हो गया।

2. इंग्लैण्ड में भारतीय माल पर अधिक कर-इंग्लैण्ड में भारतीय कपड़े की बड़ी माँग थी। परन्तु इंग्लैण्ड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर भारी आयात कर लगा दिया। फलस्वरूप इंग्लैण्ड पहुँचते-पहुँचते भारतीय कपड़ा इतना महँगा हो जाता था कि वहां के लोग इसे खरीदने से भी डरने लगे। अतः इंग्लैण्ड में भारतीय कपड़े की माँग बिल्कुल समाप्त हो गई।

3. भारत का मण्डी के रूप में प्रयोग-इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति के बाद अनेक कारखाने खुल गए और भारी मात्रा में उत्पादन होने लगा। इन कारखानों को कच्चा माल जुटाने तथा वहाँ के तैयार माल को बेचने के लिए अंग्रेजों ने भारत को एक मण्डी बना दिया। वे यहाँ का सारा कच्चा माल सस्ते दामों पर खरीद कर इंग्लैण्ड भेजने लगे। इंग्लैण्ड का तैयार माल भारत में बिना रोक-टोक आने लगा और यहाँ उसे महँगे दामों पर बेचा जाने लगा। परिणामस्वरूप भारत का धन निरन्तर इंग्लैण्ड पहुँचने लगा।

4. व्यापार पर एकाधिकार-अंग्रेजी कम्पनी ने भारतीय व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया। एक ओर तो वे भारतीय जुलाहों से सस्ते दामों पर कपड़े का सौदा कर लेते थे, दूसरी ओर सारा कच्चा माल पहले से ही खरीदकर अपने गोदामों में भर लेते थे। विवश होकर भारतीय जुलाहों को किया गया सौदा पूरा करने के लिए महंगे दामों पर अंग्रेजों से कच्चा माल खरीदना पड़ता था। परिणामस्वरूप देखते ही देखते देश में निर्धनता और बेकारी फैल गई।

5. इंग्लैण्ड के हित में नए उद्योग-अंग्रेजों ने भारत में कुछ नए उद्योग भी लगाए। परन्तु इनका उद्देश्य भी भारत का आर्थिक शोषण करना ही था। उदाहरण के लिए, इंग्लैण्ड में चाय की माँग थी तो भारत में बड़े पैमाने पर चाय के बागान लगाए गए। इसी प्रकार कपास तथा पटसन आदि की खेती, नील उद्योग आदि सभी इंग्लैण्ड के हितों की ही पूर्ति करते थे। इन उद्योगों के आरम्भ से भारत आवश्यक उद्योगों में पिछड़ गया।
सच तो यह है कि अंग्रेज़ी सरकार ने अपनी प्रत्येक नीति भारत का धन हड़पने के लिए ही निर्धारित की।

प्रश्न 5.
अंग्रेजों के अधीन भारत के सामाजिक जीवन में क्या-क्या परिवर्तन हुए ? किन्हीं पांच परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
अंग्रेज़ इस देश में व्यापारी तथा शासक के रूप में लगभग 350 वर्ष तक रहे। उन्होंने लगभग 200 वर्ष तक यहां शासन भी किया। इस देश में उनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेज़ी सत्ता को दृढ़ करना था। इसलिए उन्होंने हमारे सामाजिक क्षेत्रों में काफी परिवर्तन किए। इन परिवर्तनों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

1. आधुनिक शिक्षा का आरम्भ-आधुनिक शिक्षा प्रणाली अंग्रेजों की देन है। 1835 ई० में यह निर्णय लिया गया कि भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होगा। 1854 ई० में वुड डिस्पैच तथा 1882 ई० में हण्टर आयोग के सुझावों को स्वीकार किया गया। इनके अनुसार देश में शिक्षा विभाग की स्थापना हुई, विश्वविद्यालय खोले गए तथा अनेक स्कूलों तथा कॉलेजों की व्यवस्था की गई। प्राइवेट स्कूलों को अनुदान देने की प्रणाली आरम्भ की गई। अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। इस प्रकार भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी उन्नति हुई।

2. जाति बन्धन में ढील तथा सती प्रथा का अन्त-अंग्रेजी शिक्षा तथा ईसाई पादरियों के प्रचार के कारण भारत में जाति बन्धन टूटने लगे। ईसाई पादरी ऊंच-नीच की परवाह नहीं करते थे। इससे प्रभावित होकर निम्न जातियों के लोग ईसाई धर्म स्वीकार करने लगे। यह बात हिन्दू समाज के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गई। इस खतरे को टालने के लिए उस समय के समाज-सुधारकों ने जाति-प्रथा की निन्दा की। परिणामस्वरूप जाति बन्धन काफ़ी ढीले हो गए। उस समय हिन्दू समाज में सती-प्रथा भी प्रचलित थी। इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने दिसम्बर, 1829 में एक कानून पास किया और सती-प्रथा को कानून के विरुद्ध घोषित कर दिया।

3. बाल-हत्या तथा नर-बलि पर रोक, विधवा विवाह की आज्ञा-मध्य भारत की कुछ जातियां दहेज आदि की कठिनाई से बचने के लिए कन्याओं को पैदा होते ही मार डालती थीं। इस पर रोक लगाने के लिए लॉर्ड वैल्ज़ली ने 1802 में एक कानून पास किया। इसके अनुसार बाल-हत्या पर रोक लगा दी गई। भारत के कुछ भागों में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नर-बलि दी जाती थी। यह प्रथा मद्रास में विशेष रूप से प्रचलित थी। विलियम बैंटिंक ने इस क्रूर प्रथा का भी अन्त कर दिया। विधवाओं की स्थिति सुधारने के लिए जुलाई, 1856 ई० में सरकार ने विधवा-विवाह को कानून द्वारा वैध घोषित कर दिया।

4. स्त्री शिक्षा का प्रसार-राजा राम मोहन राय, जगन्नाथ शंकर सेठ, रानाडे, महात्मा फूले तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयत्नों के फलस्वरूप स्त्रियों को ये सुविधाएं मिलीं-

  1. उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की आज्ञा दे दी गई,
  2. उनके लिए अलग कॉलेजों की व्यवस्था की गई,
  3. उन्हें विश्वविद्यालयों में भी प्रवेश पाने की आज्ञा दे दी गई।

5. साम्प्रदायिकता का आरम्भ-अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को दृढ़ बनाए रखने के लिए “फूट डालो और राज्य करो” की नीति अपनाई। इस नीति से देश में साम्प्रदायिकता का विष फैलने लगा।

6. भारतीय सभ्यता और संस्कृति का ह्रास-भारत में अंग्रेज़ी शासन स्थापित होने से भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को भारी धक्का लगा। अंग्रेजों ने इस बात का प्रचार किया कि भारतीय असभ्य हैं और अंग्रेज़ उन्हें सभ्यता का पाठ पढ़ाने आए हैं। अत: भारतीय उनकी सभ्यता को उच्च मानकर उसी के प्रभाव में बहने लगे। इस प्रकार एक लम्बे समय तक भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विकास रुका रहा।

7. भारतीय मध्यम वर्ग का उदय-अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना से भारत में मध्यम वर्ग का उदय हुआ। नवीन भूमि कानूनों के कारण ज़मींदार, महाजन तथा व्यापारी लोग अस्तित्व में आये। यही लोग बीसवीं शताब्दी में भारत की मध्यम श्रेणी के रूप में उभरे। पैसा अधिक होने के कारण इस श्रेणी के लोगों ने पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण की और राष्ट्रीय आन्दोलन में लोगों का नेतृत्व किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

प्रश्न 6.
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत की कृषि की क्या दशा थी ? अंग्रेज़ी राज्य में इसमें कौन-कौन से परिवर्तन आए ? कोई पांच परिवर्तन लिखिए।
उत्तर-
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व कृषि की दशा-अंग्रेजों के आगमन से पूर्व खेती-बाड़ी की दशा अधिक अच्छी नहीं थी। कृषि का उद्देश्य केवल किसानों की आवश्यकताओं को पूरा करना था। किसान को जिस चीज़ की जितनी मात्रा में आवश्यकता होती, वह केवल उतनी ही वस्तु का उत्पादन करता था। वह खाने के लिए अनाज, तेल के लिए सरसों, तोरिया, तिल, तारामीरा आदि तथा मीठे के लिए गन्ना उगा लेता था। वह वस्त्रों के लिए कपास और अपने पशुओं के लिए आवश्यक चारा भी उगा लेता था। अपनी आवश्यकता से अधिक वह किसी भी चीज़ का उत्पादन नहीं करता था।

उस समय की खेती में कुछ अन्य त्रुटियां भी थीं। खेती करने का ढंग पुराना था। सिंचाई के साधन भी अधिक विकसित नहीं थे। किसानों को सिंचाई के लिए अधिकतर वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता था। यदि वर्षा ठीक समय पर उचित मात्रा में हो जाती तो उपज अच्छी हो जाती थी। इसके विपरीत वर्षा कम होने पर सूखा पड़ जाता और अधिक होने पर बाढ़ आ जाती थी। परिणामस्वरूप फसलें नष्ट हो जाती थीं और लोगों को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ता था।

अंग्रेजी राज्य में कृषि में परिवर्तन-18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति आई और वहां अनेक कारखाने खुल गए। इन कारखानों को चलाने के लिए अंग्रेजों को कच्चे माल की आवश्यकता थी। यह कच्चा माल भारतीय कृषि से मिल सकता था। इसलिए उन्होंने भारत की कृषि को उन्नत करने में रुचि ली और इसमें निम्नलिखित परिवर्तन किए-

1. यातायात के साधनों का विकास-उन्होंने यातायात के साधनों का विकास किया। उन्होंने किसान को अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित किया ताकि वे अतिरिक्त उपज को बेच कर अधिक धन कमा सकें। कमाई के अच्छे अवसर देखकर किसान अपनी कृषि में सुधार लाने लगे।

2. आदर्श कृषि फार्म-देश में बड़े-बड़े फार्म खोले गए जिनमें नमूने की (आदर्श) खेती की जाती थी। इन्हें देखकर किसान भी अपनी खेती में सुधार लाने का प्रयत्न करने लगे।

3. सिंचाई के साधनों का विकास-सिंचाई के लिए देश के विभिन्न भागों में नहरें तथा कुएं खोदे गए। देश के दक्षिणी भागों में वर्षा का पानी इकट्ठा करके अथवा नदियों से पानी लेकर सिंचाई के लिए बड़े-बड़े तालाब बनाए गए।

4. नई फसलों का उत्पादन सरकार ने ऐसी फसलों के उत्पादन पर अधिक बल दिया जिनका प्रयोग कच्चे माल के रूप में हो सकता था। उन्होंने बाहर से भी कुछ नई फसलें लाकर भारत में बोई। इन फसलों में अमेरिकन कपास, आलू, सिनकोना आदि प्रमुख थीं।

5. नये कृषि यन्त्र-कृषि के औजारों में परिवर्तन किया गया। अब लकड़ी के पुराने हलों के स्थान पर लोहे के नये हल चलाए गए।

6. उत्तम प्रकार के बीज-उत्तम प्रकार के बीज पैदा करने के लिए पूना में एक अनुसंधान विभाग खोला गया।

7. ऋण संस्थाएं-किसानों की सहायता के लिए कुछ संस्थाएं खोली गईं ताकि किसान धनवान महाजनों के चंगुल से बचें।

प्रश्न 7.
व्याख्या सहित बताओ कि अंग्रेजी शासन ने ग्रामों की आर्थिकता में कौन-कौन से परिवर्तन किए ?
उत्तर-
अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के समय भारत की लगभग 95 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में ही रहती थी। उस समय प्रत्येक गांव अपने आप में एक इकाई था। ग्रामीण आर्थिकता का आधार आत्म-निर्भरता थी। गांव के किसान खेती करते थे और अन्य लोग उनकी खेती सम्बन्धी तथा अन्य आवश्यकताओं को पूरा करते थे। उदाहरण के लिए जुलाहे उनके लिए कपड़ा बुनते थे, कुम्हार उन्हें बर्तन आदि देते थे और बढ़ई तथा लुहार उनके लिए हल, पंजालियां आदि बनाते थे। इसके बदले में किसान केवल वही वस्तुएं उगाते थे जिनकी उन्हें या गांववासियों को आवश्यकता होती थी। आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का उत्पादन नहीं किया जाता था। देश में अंग्रेजी राज्य स्थापित होने के कारण ग्रामों की आर्थिकता में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. व्यापारिक उपजों पर बल-इंग्लैंड के कारखानों को चलाने के लिए अधिक मात्रा में कच्चे माल की आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त इंग्लैण्ड में अधिक अन्न भी चाहिए था। अंग्रेजों ने यह कच्चा माल और अनाज भारत से प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सबसे पहले सड़कों, रेलों तथा भाप से चलने वाले जहाजों में सुधार किया ताकि देश के भिन्न-भिन्न भागों से माल को इंग्लैंड तक आसानी से पहुंचाया जा सके। इसके साथ ही भारतीय किसानों को व्यापारिक फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया गया ताकि इंग्लैंड में उनकी मांग को पूरा किया जा सके। फलस्वरूप गांवों में व्यापारिक फसलों की खेती होने लगी।

2. सिक्के का प्रसार-व्यापार आरम्भ होने से सिक्के का प्रसार बढ़ गया। अब किसान अपनी उपज बेचकर धन कमाने लगे और गांव में कई सेवाओं के बदले वे अनाज के स्थान पर नकद पैसे देने लगे। गांवों से कई लोग अधिक धन कमाने की इच्छा से नगरों में आकर भी काम करने लगे।

3. नए भूमि-प्रबन्ध-ग्रामों की आर्थिकता में सबसे बड़ा परिवर्तन नए भूमि-प्रबन्ध आरम्भ होने से आया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा में भूमि का स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया। इसमें बड़े-बड़े ज़मींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया गया और सदियों से भूमि पर खेती करने वाले किसान भूमि-हीन हो गए। वे अपने ज़मींदारों की इच्छा के दास थे। फलस्वरूप उनके मन में खेती के प्रति उत्साह कम हो गया। नए भूमि-प्रबन्ध के कारण ग्रामों की आर्थिकता पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा।

4. नई न्याय प्रणाली-गांवों की आर्थिकता में पंचायतों का बड़ा महत्त्व था। प्रत्येक गांव में झगड़ों का निपटारा पंचायतें ही करती थीं और सभी को उसका निर्णय मानना पड़ता था। इसलिए झगड़ों के निपटारे पर अधिक धन और समय नष्ट नहीं होता था, परन्तु अंग्रेजों ने एक नई न्याय-प्रणाली आरम्भ की। इसके अनुसार अब गांव के झगड़ों का निपटारा पंचायतें नहीं कर सकती थीं। फलस्वरूप गांव के लोगों को भारी हानि उठानी पड़ी।

सच तो यह है कि अंग्रेजों के शासन काल में ग्रामीण आर्थिकता का रूप बिल्कुल बदल गया।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 9 महासागर Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 9 महासागर

PSEB 11th Class Geography Guide महासागर Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक शब्द में दीजिए-

प्रश्न (i)
जलमंडल धरती की सतह का कितने प्रतिशत भाग घेरता है ?
उत्तर-
71%.

प्रश्न (ii)
धरती को नीला ग्रह क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
धरती पर जल के अधिक होने के कारण।

प्रश्न (iii)
समुद्रों की गहराई को कैसे मापा जाता है ?
उत्तर-
सॉनिक डैप्थ रिकार्डर द्वारा।

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प्रश्न (iv)
प्लैक्टन किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जीव-जंतुओं के गले सड़े अंश।

प्रश्न (v)
हिंद महासागर की एक गहरी खाई (Trench) का नाम लिखें।
उत्तर-
सुंडा खाई। (Sunda Trench)।

प्रश्न (vi)
विश्व के सबसे बड़े महासागर का नाम क्या है ?
उत्तर-
प्रशांत महासागर।

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प्रश्न (vii)
ऐगुल्लास धारा (Agulhas Current) कौन-से महासागर की धारा है ?
(क) हिंद महासागर
(ख) अंध महासागर
(ग) आर्कटिक महासागर
(घ) शांत महासागर।
उत्तर-
(क) हिंद महासागर।

प्रश्न (vii)
प्रशांत महासागर की सबसे गहरी खाई (Deepest Trench) का नाम क्या है ?
उत्तर-
मेरिआना।

प्रश्न (ix)
हिंद महासागर की औसत गहराई कितनी है ?
उत्तर-
3960 मीटर।

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प्रश्न (x)
प्रशांत महासागर के किनारे किन पाँच महाद्वीपों को छूते हैं ?
उत्तर-

  1. उत्तरी अमेरिका
  2. दक्षिणी अमेरिका
  3. एशिया
  4. आस्ट्रेलिया
  5. अंटार्कटिका।

प्रश्न (xi)
सुनामी लहरें क्या होती हैं ?
उत्तर-
महासागर के धरातल पर भूकंप के कारण बहुत ऊंची लहरें उठती हैं, जिन्हें सुनामी. कहते हैं।

प्रश्न (xii)
तापमान अक्षांश और गहराई बढ़ने से कम होता है, क्यों ?
उत्तर-
भूमध्य रेखा पर पूरा वर्ष सूर्य की किरणें लंब रूप में पड़ती हैं और इसलिए वहाँ तापमान अधिक होता है, परंतु ध्रुवीय क्षेत्रों में तापमान कम होता है। गहराई के बढ़ने से तापमान कम हो जाता है। 200 मीटर की गहराई पर तापमान 15.9°C रहता है परंतु 1000 मीटर की गहराई पर केवल 5°C हो जाता है।

प्रश्न (xiii)
भूमध्य रेखा के नज़दीक गर्मी की ऋतु में खुले महासागर का औसत तापमान क्या होता है ?
उत्तर-
26° C.

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प्रश्न (xiv)
क्या गल्फ स्ट्रीम (Gulf Stream) गर्म जल की धारा है ?
उत्तर-
हाँ, यह गर्म जल की धारा है।

प्रश्न (xv)
अल्बेडो (Albedo) की परिभाषा दें।
उत्तर-
सूर्य की किरणों के परिवर्तन को अल्बेडो कहते हैं।

प्रश्न (xvi)
खारापन (लवणता) क्या होता है ?
उत्तर-
खारेपन से अभिप्राय समुद्री जल में घुले हुए नमक की मात्रा है।

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प्रश्न (xvii)
निम्नलिखित अक्षांशों में से सबसे अधिक खारापन कहाँ होगा ?
(क) 10°A – 15°N
(ख) 15°N – 40°N
(ग) 60°S – 70°S.
उत्तर-
(ख) 15°N – 40°N पर सबसे अधिक खारापन होगा।

प्रश्न (xviii)
महासागरों के जल का खारापन नापने की इकाई क्या है ?
(क) 10 ग्राम
(ख) 1000 ग्राम
(ग) 100 ग्राम।
उत्तर-
(ख) 1000 ग्राम।

प्रश्न (xix)
सागरीय लवणता को कौन-से तत्त्व प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-
(i) हिंद महासागर संसार का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है, जोकि तीन तरफ से स्थल भागों (अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया) से घिरा हुआ है। इसका विस्तार 20° पूर्व से लेकर 115° पूर्व तक है। इसकी औसत गहराई 4000 मीटर है। यह सागर उत्तर में बंद है और दक्षिण में अंध महासागर और प्रशांत महासागर से मिल जाता है।
(ii) समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—इस महासागर में कई पहाड़ियाँ मिलती हैं-

(क) मध्यवर्ती पहाड़ी (Mid Indian Ridge) कन्याकुमारी से लेकर अंटार्कटिका महाद्वीप तक 75° पूर्व देशांतर के साथ-साथ स्थित है। इसके समानांतर पूर्वी हिंद पहाड़ी और पश्चिमी हिंद पहाड़ियाँ स्थित हैं। दक्षिण में ऐमस्ट्रडम-सेंट पॉल पठार स्थित है।
(ख) अफ्रीका के पूर्वी सिरे पर स्कोटा छागोश पहाड़ी।
(ग) हिंद महासागर के पश्चिम में मैडगास्कर और प्रिंस ऐडवर्ड पहाड़ियाँ और कार्ल्सबर्ग पहाड़ियाँ स्थित हैं।

(ii) सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-कई पहाड़ियों (Ridges) के कारण हिंद महासागर कई छोटे-छोटे बेसिनों में बँट गया है, जैसे-खाड़ी बंगाल, अरब सागर, सोमाली बेसिन, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन और दक्षिणी हिंद बेसिन।

(iv) समुद्री निवाण (Ocean Deeps)—इस सागर में समुद्री निवाण बहुत कम हैं। सबसे अधिक गहरा स्थान सुंडा खाई (Sunda Trench) के निकट प्लैनट निवाण है, जोकि 4076 फैदम गहरा है।

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(v) सीमावर्ती सागर (Marginal Sea)-हिंद महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर उत्तर की ओर हैं, जो इस प्रकार हैं-

(क) लाल सागर (Red Sea)
(ख) खाड़ी सागर (Persian Gulf)
(ग) अरब सागर (Arabian Sea)
(घ) खाड़ी बंगाल (Bay of Bengal)
(ङ) मोज़म्बिक चैनल (Mozambique Strait)
(च) अंडमान सागर (Andaman Sea)।

(vi) द्वीप (Islands)

(क) श्रीलंका और मैलागासी जैसे बड़े द्वीप
(ख) अंडमान-निकोबार, जंजीबार, लक्षद्वीप और मालदीव,
(ग) मारीशस और रीयूनियन जैसे ज्वालामुखी द्वीप।

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प्रश्न (xx)
अंतर स्पष्ट करें-लवणता/तापमान।
उत्तर-
लवणता उस अनुपात को कहते हैं, जो घुले हुए पदार्थों के भार और समुद्री जल के भार में होती है। महासागरीय जल के तापमान पर महासागरों की गतियाँ निर्भर करती हैं। महासागरीय जल के तापमान का प्रमुख स्रोत सूर्य की गर्मी है।

2. निम्नलिखित को परिभाषित करें-

प्रश्न (i)
महाद्वीपीय ढलान।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ से आगे महासागर की ओर तीखी ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं।

प्रश्न (ii)
सपाट पर्वत (Guyots) और सागरीय पर्वत (Sea Mount)।
उत्तर-
सपाट शिखर वाली पहाड़ियों को. सपाट पर्वत कहते हैं। 1000 मीटर से अधिक ऊँची पहाड़ियों को समुद्री पर्वत कहते हैं।

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प्रश्न (iii)
जल चक्र।
उत्तर-
समुद्री जल के वाष्पीकरण द्वारा वायुमंडल और जल पर पानी के चक्र में घूमने को जल चक्र कहा जाता है।

प्रश्न (iv)
गहरे मैदान (Abyssal Plains) और महाद्वीपीय ढलान (Continental Slopes)।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ से आगे महासागर की ओर तीखी ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं। महाद्वीपीय ढलान से आगे समतल मैदान (3000 से 6000 मीटर तक) को गहरा सागरीय मैदान कहते हैं।

प्रश्न (v)
महासागरीय धाराएँ।
उत्तर-
महासागर के एक भाग से दूसरे भाग की ओर एक विशेष दिशा में लगातार प्रवाह को महासागरीय धाराएँ कहते हैं।

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प्रश्न (vi)
सागरीय धाराएँ क्यों पैदा होती हैं ? कोई चार कारण विस्तार से लिखें।
उत्तर-
समुद्र विज्ञान (Oceanography)—महासागरों का अध्ययन प्राचीन काल से ही होता चला आ रहा है। महासागरों की परिक्रमा, ज्वारभाटे की जानकारी आदि ईसा से कई वर्ष पूर्व ही प्राप्त थी। जलवायु, समुद्री मार्गों, जीवविज्ञान आदि पर प्रभाव के कारण समुद्री विज्ञान भौतिक भूगोल में एक विशेष स्थान रखता है।

समुद्र विज्ञान दो शब्दों Ocean + Graphy के मेल से बना है। इस प्रकार इस विज्ञान में महासागरों का वर्णन होता है। एम०ए०मोरमर (M.A. Mormer) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों की आकृति, स्वरूप, पानी और गतियों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of the Science of Oceans-its form, nature, waters and movements.)। मोंक हाऊस के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों के भौतिक और जैव गुणों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of a wide range of Physical and biological phenomena of oceans.)

I डब्ल्यू० फ्रीमैन (W. Freeman) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान भौतिक भूगोल का वह भाग है, जो पानी की गतियों
और मूल शक्तियों का अध्ययन करता है। इस अध्ययन में ज्वारभाटा, धाराओं, तट रेखाओं, समुद्री धरातल और जीवों का अध्ययन शामिल होता है।”

महासागर-विस्तार (Ocean-Extent)-पृथ्वी के तल पर जल में डूबे हुए भाग को जलमंडल (Hydrosphere) कहते हैं। जलमंडल में महासागर, सागर, खाड़ियाँ, झीलें आदि सभी जल-स्रोत आ जाते हैं। सौर-मंडल में पृथ्वी ही एक-मात्र ग्रह है, जिस पर जलमंडल मौजूद है। इसी कारण पृथ्वी पर मानव-जीवन संभव है।

पृथ्वी के लगभग 71% भाग पर जलमंडल का विस्तार है। इसलिए इसे जल-ग्रह (Watery Planet) कहते हैं। अंतरिक्ष से पृथ्वी का रंग नीला दिखाई देता है, इसलिए इसे नीला ग्रह (Blue Planet) भी कहते हैं।

धरातल पर जलमंडल लगभग 3,61,059,000 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं जोकि पृथ्वी के धरातल के कुल क्षेत्रफल का 71% भाग है।
उत्तरी गोलार्द्ध का 61% भाग और दक्षिणी गोलार्द्ध का 81% भाग महासागरों द्वारा घिरा हुआ है। उत्तरी गोलार्द्ध की तुलना में दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का विस्तार अधिक है, इसलिए इसे (Water Hemisphere) भी कहते हैं। जल और थल का विभाजन प्रति ध्रुवीय (Antipodal) है। उत्तरी ध्रुव की ओर चारों तरफ आर्कटिक महासागर स्थित है और दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिका महाद्वीप द्वारा घिरा हुआ है ।

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जलमंडल का क्षेत्रफल (Area of Hydrosphere) ब्रिटिश भूगोल वैज्ञानिक जॉन मरें (John Murray) ने जलमंडल का क्षेत्रफल 3626 लाख वर्ग किलोमीटर बताया है । महासागरों में प्रमुख प्रशांत महासागर, अंधमहासागर, हिंद महासागर और आर्कटिक महासागर हैं । प्रशांत महासागर सबसे बड़ा महासागर है, जो जलमंडल के 45.1% भाग पर फैला हुआ है ।

Areas of Different Oceans

Ocean — Area (Sq. K.m.)
प्रशांत महासागर — 16,53, 84,000
अंध महासागर — 8,22,17,000
हिंद महासागर — 7,34,81,000
आर्कटिक महासागर –1,40,56,000

महासागरों की औसत गहराई 3791 मीटर है। स्थल मंडल की अधिकतम ऊँचाई एवरेस्ट चोटी (Everest Peak) है, जोकि समुद्र तल से 8848 मीटर ऊँची है। जलमंडल की अधिकतम गहराई 11,033 मीटर, फिलीपीन देश के निकट प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में चैलंजर निवाण (Challeger Deep) में है। इस प्रकार यदि संसार के सबसे ऊँचे शिखर ऐवरेस्ट को प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में डुबो दिया जाए, तो उसके शिखर पर 2000 मीटर से अधिक पानी होगा।

प्रश्न (vii)
अंध महासागर की कोई दो गर्म पानी की धाराओं की व्याख्या करें।
उत्तर-

  • फ्लोरिडा गर्म पानी की धारा-यह धारा दक्षिणी-पूर्वी (यू०एस०ए०) तट से होते हुए चलती है, जोकि फ्लोरिडा की धारा के नाम से जानी जाती है। ..
  • नॉर्वे की गर्म पानी की धारा-अंध महासागर के पूर्वी हिस्से में पहुँचकर (North Atlantic Drift) उत्तरी अटलांटिक धारा दो हिस्सों में बाँटी जाती है, उत्तर की ओर मुड़ा हुआ हिस्सा नॉर्वे के तटों के साथ-साथ होता हुआ आर्कटिक (Arctic) सागर में जा मिलता है, जो नॉर्वे की गर्म पानी की धारा के नाम से जाना जाता है।

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प्रश्न (viii)
न्यूफाउंडलैंड में धुंध होने के कारण क्या हैं ? कारण बताएं।
उत्तर-
न्यूफाउंडलैंड के निकट खाड़ी की गर्म धारा और लैब्रेडोर की ठंडी धाराएँ आपस में मिलती हैं। इनके प्रभाव से धुंध पैदा हो जाती है और जहाज़ों के आने-जाने में रुकावट पैदा होती है।

प्रश्न (ix)
महासागरीय धाराओं और ज्वारभाटा में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर-
महासागरों में एक विशेष दिशा में लगातार प्रवाह को महासागरीय धाराएँ कहते हैं। जबकि सागरीय जल के समय के अनुसार उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं।

प्रश्न (x)
गहराई के साथ समुद्री तापमान में बदलाव क्यों आता है ? ताप-परतों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
गहराई के साथ-साथ समुद्री जल का तापमान कम होता जाता है। सूर्य की किरणें 100 फैदम तक ही पानी को गर्म करती हैं। पहली परत 500 मीटर तक होती है। दूसरी परत 500-1000 मीटर तक होती है, जिसे थर्मोक्लाईन कहते हैं। इससे अधिक गहराई पर तापमान कम होना शुरू होने लगता है।

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प्रश्न (xi)
सागरीय धाराओं का तापमान पर क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर-
धाराओं से ऊपर बहने वाली पवनें अपने साथ गर्मी या सर्दी ले जाती हैं। गर्म धाराओं के प्रभाव से निकट के क्षेत्र में तापमान ऊँचा हो जाता है और जलवायु सम हो जाती है। (Warm currents raises and cold currents lowers the temprature)। ठंडी धाराओं के कारण सर्दी की ऋतु आरंभ हो जाती है।

प्रश्न (xii)
महासागरीय जल के तापमान वितरण के ऊपर प्रभाव डालने वाले तत्त्वों के बारे में विस्तार से लिखें।
उत्तर-
1. विस्तार और आकार (Shape and Size)—यह त्रिभुज (A) आकार का महासागर पृथ्वी के 30% भाग पर फैला हुआ है। इसकी औसत गहराई 5000 मीटर है। उत्तर में यह बेरिंग समुद्र और आर्कटिक महासागर द्वारा बंद है। प्रशांत महासागर भूमध्य रेखा पर लगभग 16000 कि०मी० चौड़ा है।

2. समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—प्रशांत महासागर में पहाड़ियों (Ridges) की कमी है। इसके कुछ भागों में पठारों के रूप में उठे हुए चबूतरे पाए जाते हैं। प्रमुख उभार इस प्रकार हैं –

  • हवाई उभार, जोकि लगभग तीन हज़ार कि०मी० लंबा है।
  • अल्बेट्रोस पठार, जोकि लगभग 1500 कि०मी० लंबा है।
  • इस सागर में अनेक उभार (Swell), ज्वालामुखी पहाड़ियाँ और प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं।

3. सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-प्रशांत महासागर में कई प्रकार के बेसिन मिलते हैं, जो छोटी-छोटी पहाड़ियों (Ridges) द्वारा एक-दूसरे से अलग हैं। प्रमुख बेसिन इस प्रकार हैं –

  • ऐलुशीयन बेसिन
  • फिलिपीन बेसिन
  • फिज़ी बेसिन
  • पूर्वी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन
  • प्रशांत अंटार्कटिका बेसिन।

4. सागरीय निवाण (Ocean Deeps)—इस महासागर में लगभग 32 निवाण मिलते हैं, जिनमें से अधिक Trenches हैं। इस सागर के निवाण (Deeps) और खाइयाँ (Trenches) अधिकतर इसके पश्चिमी भाग में हैं। इस सागर में सबसे गहरा स्थान मैरियाना खाई (Mariana Trench) है, जिसकी गहराई 11022 मीटर है। इसके अलावा ऐलुशीयन खाई, क्यूराइल खाई, जापान खाई, फिलीपाइन खाई, बोनिन खाई, मिंडानो टोंगा खाई और एटाकामा खाई प्रसिद्ध सागरीय निवाण हैं, जिनकी गहराई 7000 मीटर से भी अधिक है।

5. सीमवर्ती सागर (Marginal Seas)—प्रशांत महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर पश्चिमी भागों में मिलते हैं। इसके पूर्वी भाग में कैलीफोर्निया की खाड़ी और अलास्का की खाड़ी है। शेष महत्त्वपूर्ण सागर पश्चिमी भाग में हैं(i) बेरिंग सागर (Bering Sea) (ii) पीला सागर (Yellow Sea) (iii) ओखोत्सक सागर (Okhotsk Sea) (iv) जापान सागर (Japan Sea) (v) चीन सागर (China Sea)।

6. द्वीप (Islands)—प्रशांत महासागर में लगभग 20 हज़ार द्वीप पाए जाते हैं। प्रमुख द्वीप ये हैं-

  • ऐलुशियन द्वीप और ब्रिटिश कोलंबिया द्वीप।
  • महाद्वीपीय द्वीप, जैसे-क्यूराईल द्वीप, जापान द्वीप समूह, फिलीपाइन द्वीप, इंडोनेशिया द्वीप और न्यूज़ीलैंड द्वीप।
  • ज्वालामुखी द्वीप जैसे-हवाई द्वीप।
  • प्रवाल द्वीप, जैसे-फिजी द्वीप।

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प्रश्न (xiii)
लहरें (तरंगें) क्या होती हैं ?
उत्तर-
पवनों के प्रभाव से महासागरीय तल का जल ऊँचा-नीचा होता है, जिन्हें लहरें कहते हैं।

प्रश्न (xiv)
सुनामी लरहें (तरंगें) क्या होती हैं और इनके कारण होने वाली तबाही के बारे में एक नोट लिखें।
उत्तर–
महासागर के धरातल पर भूकंप के कारण बहुत ऊँची लहरें उठती हैं, जिन्हें सुनामी कहते हैं। ये लहरें बहुत विनाशकारी होती हैं। इन सुनामी लहरों के कारण सन् 2004 में दक्षिणी भारत में जान और माल का बहुत नुकसान हुआ था।

प्रश्न (xv)
लहरों की लंबाई क्या होती है ? .
उत्तर-
महासागरों में लहरों के कारण जल ऊँचा-नीचा होता रहता है, जिन्हें तरंगें या लहरें कहते हैं। लहरों के ऊपरी भाग को शिखर (Crest) और निचले भाग को गर्त (Trough) कहते हैं। इस शिखर और गर्भ के बीच की लंबाई को लहर की लंबाई कहते हैं।

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प्रश्न (xvi)
लहर की ऊँचाई क्या होती है ?
उत्तर-
लहर के निचले हिस्से गर्त (Trough) से लेकर लहर के शिखर तक की ऊँचाई को लहर की ऊँचाई कहते हैं।

प्रश्न (xvi)
लहरों और पवनों का आपसी संबंध बताएँ। लहरों की गति देखने के लिए किस फॉर्मूले का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
महासागरों का जल हवा की दिशा के साथ लहरों के रूप में गतिशील होता है। जल के ऊपर उठने और नीचे आने की क्रिया को लहर कहते हैं। लहरों को मापने के लिए नीचे लिखे फार्मूले का प्रयोग किया जाता है।
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प्रश्न (xvii)
Surge की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
जब कोई लहर समुद्र-तट की ओर आती है, तो उसे Swash या Surge कहते हैं। यह लहर हानिकारक होती है।

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प्रश्न (xix)
ज्वारभाटा कब आता है ?
उत्तर-
समुद्र का जल नियमित रूप से दिन में दो बार (24 घंटे में) ऊपर उठता है और नीचे आता है। इसे ज्वारभाटा कहते हैं।

प्रश्न (xx)
ज्वार दिन में कितनी बार आता है और इनका आपसी अंतर (Magnitude) क्या होता है ?
उत्तर-
प्रत्येक स्थान पर ज्वार 12 घंटे 26 मिनट के बाद आता है। हर रोज़ ज्वार पिछले दिन की तुलना में देर से आता है।

प्रश्न (xxi)
एक औसतन ज्वार की ऊँचाई कितनी होती है ?
उत्तर-
0.55 मीटर।

प्रश्न (xxii)
अंतर स्पष्ट करेंऊँचा ज्वार (Spring Tide) और छोटा ज्वार (Neap Tide)
उत्तर-
ऊँचा ज्वार (Spring Tide)-सबसे ऊँचे ज्वार को ऊँचा ज्वार कहते हैं। यह हालत अमावस्या (New Moon) और पूर्णिमा (Full Moon) को होती है।
छोटा ज्वार (Neap Tide)-अमावस्या के सात दिन बाद या पूर्णिमा के सात दिन बाद ज्वार की ऊँचाई दूसरे दिनों की तुलना में नीची रह जाती है। इसे छोटा ज्वार कहते हैं। इस हालत को शुक्ल और कृष्ण पक्ष की अष्टमी कहते हैं, जब चाँद आधा (Half Moon) होता है।

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3. विस्तार से दें-

प्रश्न (i)
महासागरीय बेसिन (Ocean Basin) क्या होता है ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
महासागरीय बेसिन (Ocean Basin)-समुद्री धरातल के ऊँचे-नीचे भाग को महासागरीय बेसिन कहते हैं। इसके फर्श पर पठार, टीले, घाटियाँ और खाइयाँ मिलती हैं। महासागरीय बेसिन को नीचे लिखे प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है-

1. महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)-समुद्री किनारे के साथ समुद्री हिस्से को महाद्वीपीय शैल्फ कहा जाता है। महाद्वीपीय शैल्फ समुद्री किनारों से लेकर समुद्रों के नीचे उस सीमा तक फैले हुए होते हैं, जहाँ से समुद्र की गहराई शुरू होती है। महाद्वीपीय शैल्फ की औसत गहराई 100 फैदम (Fathom) तक मानी जाती है, परंतु कई बार यह अधिक भी हो सकती है। इसकी ढलान बहुत कम होने के कारण यह समतल ही नज़र आती है।

विस्तार-महासागरों के 7.5% भाग (260 लाख वर्ग किलोमीटर) पर महाद्वीपीय शैल्फों का विस्तार है। इसका सबसे अधिक विस्तार अंधमहासागर (13.3%) में है। इसकी औसत चौड़ाई 67 किलोमीटर और गहराई लगभग 72 फैदम होती है। आर्कटिक सागर के तट पर इसका विस्तार 1000 किलोमीटर से भी अधिक है।

उत्पत्ति-महाद्वीपीय शैल्फ की उत्पत्ति के बारे में विचारकों के नीचे लिखे विचार हैं-

  • कुछ विचारकों के अनुसार महाद्वीपीय शैल्फ वास्तव में स्थल का बढ़ा हुआ रूप होता है। समुद्र तल के ऊपर उठ जाने से या स्थल भाग के नीचे धंस जाने से महाद्वीपीय शैल्फ की रचना हुई।
  • यह भी माना जाता है कि सागरीय अपरदन से भी इनकी रचना हुई।
  • नदियों, लहरों, वायु आदि द्वारा तलछट के निक्षेप से भी इनका निर्माण हुआ।

महत्त्व-महाद्वीपीय शैल्फ मनुष्य के लिए काफी लाभदायक है। इन प्रदेशों में मछलियों के भंडार होते हैं। यहाँ तेल और गैस का उत्पादन होता है। यहाँ समुद्री जीवों और वनस्पति की अधिकता होती है।

2. महाद्वीपीय ढलान (Continental Slope) समुद्री फ़र्श का यह भाग महाद्वीपीय शैल्फ के समाप्त होने पर शुरू होता है और गहरे समुद्री मैदान तक जारी रहता है। दूसरे शब्दों में महाद्वीपीय ढलान महाद्वीपीय शैल्फ और गहरे समुद्री मैदान के बीच का भाग होता है। इस भाग की गहराई 100 फैदम से लेकर 2000 फैदम तक मानी जाती है। (भाव 200 मीटर से 4000 मीटर तक)। इसका कुल विस्तार 8.5% क्षेत्रफल पर है। इसका सबसे अधिक विस्तार अंध महासागर में है, जो कि 72.4% होता है। इस ढाल का औसत कोण 4° होता है, परंतु स्पेन के निकट यह कोण 36° होता है। इस ढाल की मुख्य रूप से पाँच किस्में हैं –

  • कैनियन द्वारा कटे हुए ढाल।
  • पहाड़ियों और बेसिन वाला मंद ढाल।
  • दरार के कारण टूटा हुआ ढाल।
  • सीढ़ीदार ढाल।
  • समुद्री टीलों वाला ढाल।

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3. गहरा समुद्री मैदान (Deep Sea Plain)-महाद्वीपीय ढलान से निचले चौड़े और समतल क्षेत्र को गहरे समुद्री मैदान कहा जाता है। इनकी औसत गहराई 3000 से लेकर 6000 मीटर तक होती है। कुल महासागर में इसका विस्तार 7.7% है। इसका सबसे अधिक विस्तार प्रशांत महासागर में है। इन मैदानों की ढाल 1/1000 से भी कम होती है। इन मैदानों के ऊपर कई भू-दृश्य पाए जाते हैं, जैसे—समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges), समुद्री टीले (Sea Mounts) आदि। इस भाग में अधिकतर मरे हुए जानवरों के अवशेष, हड्डियाँ, खोल और कीचड़ आदि पाए जाते हैं। समुद्री निवाण (Ocean Deeps)—समुद्री मैदानों में पाए जाने वाले सबसे गहरे हिस्सों को समुद्री निवाण कहा जाता है। इनका क्षेत्रफल बहुत कम और ढलान बहुत अधिक तीखी होती है।

4. समुद्री निवाण (Ocean Deeps) आमतौर पर द्वीप श्रृंखलाओं के निकट, ज्वालामुखी पर्वतों और भूकंप वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। कुल महासागरों के 7% भाग पर समुद्री निवाण पाए जाते हैं। विश्व के कुल सागरों में 57 खाइयाँ हैं, जिनमें से 32 प्रशांत महासागर में, 19 अंधमहासागर में और 6 हिंद महासागर में हैं। इन खाइयों की नीचे लिखी विशेषताएं है-

  • ये महासागरों के किनारे के साथ-साथ पाई जाती हैं।
  • ये अधिकतर ज्वालामुखी क्षेत्रों में होती हैं।
  • ये द्वीप श्रृंखलाओं की चाप के साथ-साथ मिलती हैं।

5. समुद्री कटक, घाटियाँ, पठार और ज्वालामुखी पहाड़ियाँ (Ocean Ridges, Valleys, Plateaus and Volcano Hills)-समुद्रों में कई स्थानों पर समुद्री कटक, घाटियाँ, पठार और ज्वालामुखी पहाड़ियाँ पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए अंध-महासागर में मध्यवर्ती कटक (Mid-Atlantic Ridge) ग्रीनलैंड से लेकर अंटार्कटिक तक फैली हुई है।

प्रश्न (ii)
पंजाब की जलगाहों के विषय में जानकारी दें और इनका प्रदूषण रोकने के लिए सुझाव दें।
उत्तर-
पंजाब के दो जलगाह नीचे लिखे हैं-
1. हरीके पत्तन जलगाह-यह जलगाह बहुत गहरी और बड़ी, जल की आर्द्रभूमि है, जो पंजाब के तरनतारन जिले में स्थित है। 1953 ई० में हरीके के स्थान पर सतलुज नदी के पानी को बांधकर इस जलगाह को बनाया गया था। यहाँ सतलुज और ब्यास नदियों का संगम होता है। यह जलगाह मनुष्य द्वारा बनाई गई है, जोकि 4100 हैक्टेयर के क्षेत्र में तीन जिलों तरनतारन, फिरोजपुर और कपूरथला में फैली हुई है।

2. कांजली जलगाह-पंजाब के कपूरथला जिले की यह जलगाह 1870 ई० में सिंचाई के उद्देश्य से बनाई गई थी। यह जलगाह काली बेंई जोकि ब्यास नदी में से निकलती है, के बहाव को बाँधकर बनाई गई थी। इस जलगाह को 2002 ई० में रामसर समझौते के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व वाली जलगाहों वाला दर्जा दिया गया था।

इनके प्रदूषण की रोकथाम के लिए जरूरी सुझाव-इन जलगाहों में फैंके गए कूड़ा-कर्कट के कारण प्रदूषण होता है। यह कूड़ा-कर्कट पानी के ऊपर तैरता रहता है इसलिए इन जलगाहों को प्रदूषण से बचाने के लिए इनमें कूड़ाकर्कट न फेंका जाए।

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प्रश्न (iii)
महासागरीय जल के तापमान वितरण पर प्रभाव डालने वाले तत्त्वों के बारे में विस्तार से लिखें।
उत्तर-
सागरों का जल, तापमान का एक उत्तम संचालक होता है, इसलिए थल की तुलना में जल देर से गर्म होता है और देर से ठंडा होता है। सागरीय जल का तापमान सभी स्थानों पर एक-समान नहीं होता। सागरीय जल का अलगअलग तापमान नीचे लिखी बातों पर निर्भर करता है-

1. भूमध्य रेखा से दूरी-भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें पूरा वर्ष सीधी पड़ती हैं, इसलिए भूमध्यवर्ती सागरों में तापमान अधिक होता है और पूरा वर्ष एक-समान रहता है। भूमध्य रेखा के ऊपर यह तापमान 26°C के लगभग होता है। 70° अक्षांश पर सागरीय जल का तापमान 5°C पाया जाता है। इसी प्रकार उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में तापमान कम हो जाता है।

2. प्रचलित पवनें-जब स्थायी पवनें चलती हैं, तो सागरों की सतह के जल को गतिशील बना देती हैं। एक स्थान से हिले हुए जल का स्थान लेने के लिए निचला जल ऊपर आ जाता है। इसे Upwelling of Water कहते हैं। इसके फलस्वरूप सागरों के तापमान पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

3. सागरीय धाराओं का प्रभाव-सागरीय धाराएँ जिस क्षेत्र से आती हैं, उसका जल अपने साथ ले आती हैं। यदि कोई सागरीय धारा भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर चल रही हो, तो स्वाभाविक तौर पर ध्रुवों का जल जब भूमध्यरेखीय धाराओं के संपर्क में आएगा, तो उसका तापमान भी बढ़ जाएगा। जो धारा ध्रुवों से भूमध्य रेखा की ओर चलती है, तो उसका तापमान कम हो जाएगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सागरीय धाराएँ सागरों के तापमान पर गहरा प्रभाव डालती हैं। खाड़ी की गर्म धारा पश्चिमी यूरोप के तापमान को 5°C तक बढ़ा देती है परन्तु लैबरेडोर की ठंडी धारा तापमान को 0°C तक कम कर देती है।

4. खारेपन की मात्रा-सागरों का खारापन भी सागरीय जल के तापमान को प्रभावित करता है। सागरों का जल जितना अधिक खारा होगा, उतना ही तापमान अधिक होगा। जितना खारापन कम होगा, उतना ही तापमान कम होगा।

5. थल-मंडलों का प्रभाव-उष्ण-कटिबंध में स्थल द्वारा घिरे हुए सागरों का तापमान अधिक होता है, परंतु शीत कटिबंध में कम होता है।

6. समुद्र की गहराई-समुद्र की गहराई बढ़ने से तापमान कम होता जाता है। ऊपरी सतह से लेकर 1800 मीटर की गहराई तक सागरीय जल का तापमान 15°C से कम होकर 20°C तक रह जाता है। 1800 से 4000 मीटर की गहराई तक यह तापमान 2°C से कम होकर 1.6°C रह जाता है।

प्रश्न (iv)
अलग-अलग सागरों में खारेपन की मात्रा को प्रभावित करने वाले तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्र का पानी हमेशा खारा होता है। सागरीय जल के 1000 ग्राम पानी में लगभग 35 ग्राम नमक घुला हुआ होता है। खारेपन की यह मात्रा भिन्न-भिन्न सागरों में भिन्न-भिन्न होती है। खारेपन की यह भिन्नता नीचे लिखे तत्त्वों पर निर्भर करती है-

1. ताजे जल की पूर्ति (Supply of Fresh Water) ताज़े पानी की अधिकता से सागरों में खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। साफ़ जल की पूर्ति कई साधनों द्वारा होती है। भूमध्यरेखीय खंड में अधिक वर्षा के कारण सागरीय जल में खारेपन की मात्रा कम होती है, इसलिए कर्क रेखा और मकर रेखा के आसपास खारेपन की मात्रा अधिक होती है। ध्रुवीय प्रदेशों में हिम (बर्फ) के पिघलने से साफ़ जल प्राप्त होता रहता है, जिससे खारापन कम हो जाता है। बड़ी नदियों के मुहानों पर खारापन कम होता है।

2. वाष्पीकरण (Evaporation)—जिन महासागरों में वाष्पीकरण अधिक होता है, उनका जल अधिक खारा होगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वाष्पीकरण की क्रिया द्वारा सागरीय-जल वाष्प बनकर ऊपर उठता है और बाकी बचे जल में खारेपन की मात्रा बढ़ जाती है। अधिक तापमान, वायु की तीव्रता और शुष्कता के कारण सागरों में खारापन अधिक होता है। कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट अधिक वाष्पीकरण के कारण खारापन अधिक होता है। कम तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण खारापन कम हो जाता है।

3. पवनों की दिशा (Wind Direction) यदि एक ही दिशा से तेज़ गति वाली पवनें दूसरी दिशा की ओर चल रही हों, तो वे सागरों की सतह का जल भी अपने साथ बहाकर ले जाती हैं, जिस कारण सागरों में खारेपन की मात्रा परिवर्तित होती रहती है। नीचे उतरती पवनों के कारण अधिक वाष्पीकरण और अधिक खारापन होता है।

4. सागरीय जल की गति (Movement of the Sea Water) सागरों के जल की गति द्वारा भी खारेपन पर प्रभाव पड़ता है। सागरों का जल गतिशील होने के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है और अपने मूल गुणों को भी बहाकर ले जाता है। यदि मूल जल में खारेपन की मात्रा अधिक होगी, तो नए स्थान का खारापन अधिक हो जाएगा। दूसरी तरफ अधिक ताज़ा जल नए स्थान का खारापन कम कर देता है।

5. समुद्री धाराएँ (Currents)-खुले सागरों में धाराएँ एक भाग से दूसरे भाग तक जल ले जाती हैं । गर्म धाराएँ खारेपन की मात्रा को बढ़ा देती हैं, जबकि ठंडी धाराओं के साथ खारेपन की मात्रा कम हो जाती है।

6. समुद्री जल की मिश्रण क्रिया (Mixing of Water)–ज्वारभाटा, लहरें और धाराएँ समुद्री जल को दूर दूर तक बहाकर ले जाती हैं। जल के इस मिश्रण से स्थानीय रूप में खारापन बढ़ जाता है या कम हो जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न (v)
समुद्री धाराएँ क्या होती हैं ? ये किस प्रकार पैदा होती हैं ? उदाहरण भी दें।
उत्तर-
समुद्री धाराएँ (Ocean Currents)-समुद्र के एक भाग से दूसरे भाग की ओर, एक विशेष दिशा में पानी के लगातार प्रवाह को समुद्री धाराएँ कहते हैं (Regular Movement of water from one part of the ocean to another is called an ocean current)। समुद्री धाराओं में पानी नदियों के समान आगे बढ़ता है। इनके किनारे स्थिर पानी वाले होते हैं। इन्हें समुद्री नदियाँ भी कहते हैं (An ocean current is like a river in the ocean)।

धाराओं के पैदा होने के कारण (Causes)—समुद्री धाराओं के पैदा होने के प्रमुख कारण नीचे लिखे हैं-

1. प्रचलित पवनें (Prevailing Winds)- हवा अपनी अपार शक्ति के कारण पानी को गति देती है। धरातल पर चलने वाली स्थायी पवनें (Planetary winds) लगातार एक ही दिशा में चलने के कारण धाराओं को जन्म देती हैं। संसार की प्रमुख धाराएँ स्थायी पवनों की दिशा के अनुसार चलती हैं (Ocean currents are wind determined)। मौसमी पवनें (Seasonal Winds) भी धाराओं की दिशा और उत्पत्ति में सहायक होती हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • व्यापारिक पवनें (Trade Winds)—इनके द्वारा उत्तरी और दक्षिणी भूमध्य रेखीय धाराएँ (Equatorial Currents) पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं।
  • पश्चिमी पवनें (Westerlies)-इनके प्रभाव से खाड़ी की धारा (Gulf Stream) और क्यूरोशियो (Kuroshio) धारा पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है।

2. तापमान की भिन्नता (Difference in Temperature)-गर्म पानी हल्का होकर फैलता है और उसकी ऊँचाई बढ़ जाती है। ठंडा पानी भारी होने के कारण नीचे बैठ जाता है। कम ताप के कारण ठंडा पानी सिकुड़कर भारी हो जाता है। इस प्रकार समुद्र के पानी की सतह बराबर नहीं रहती और धाराएँ चलती हैं।

3. खारेपन में भिन्नता (Difference in Salinity)–अधिक खारा पानी भारी होने के कारण तल के नीचे की ओर बहता है। कम खारा पानी हल्का होने के कारण तल पर ही बहता है।

उदाहरण (Examples)

(क) भूमध्य सागर के अधिक खारे पानी की धारा तल के नीचे अंध महासागर की ओर चलती है।
(ख) बाल्टिक सागर (Baltic Sea) से कम खारे पानी की धारा तल पर उत्तरी सागर (North sea) की ओर बहती है।

4. वाष्पीकरण और वर्षा की मात्रा (Evaporation and Rainfall)-अधिक वाष्पीकरण से पानी भारी और अधिक खारा हो जाता है और तल की ओर नीचा हो जाता है, परंतु वर्षा अधिक होने से पानी हल्का हो जाता है और उसका तल ऊँचा हो जाता है। इस प्रकार ऊँचे तल से निचले तल की ओर धाराएँ चलती हैं।

5. धरती की दैनिक गति (Rotation)-फैरल के सिद्धान्त (Ferral’s law) के अनुसार धाराएँ उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। धरती की गति के कारण धाराओं का प्रवाह गोल आकार का बन जाता है।
उदाहरण (Examples)–धाराओं का चक्र उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा के अनुकूल (Clockwise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत (Anti-Clockwise) चलता है।

6. तटों का आकार (Shape of Coasts)-तटों का आकार धाराओं के मार्ग में रोक पैदा कर देता है। समुद्री जल तटों से टकराकर धाराओं के रूप में बहने लगता है। धाराएँ तट के सहारे मुड़ जाती हैं। यदि थल प्रदेश न होते, तो धरती के आस-पास एक महान् भूमध्य रेखीय धारा (Great Equatorial Current) चलती।

उदाहरण (Examples)-

(क) ब्राज़ील के नुकीले तट पर सेन-रॉक अंतरीप (Cape san-Rocque) से टकराकर भूमध्य रेखीय धारा ब्राजील की धारा के रूप में बहती है।

(ख) महाद्वीपों की खाड़ियों वाले तटों पर पानी की अधिक मात्रा इकट्ठी हो जाती है। जिस प्रकार मैक्सिको की खाड़ी (Gulf of Maxico) से फ्लोरिडा (Florida) की धारा।

7. ऋतु परिवर्तन (Change of Season) मौसम के अनुसार पवनों की दिशा में परिवर्तन होने के कारण धाराओं की दिशा भी बदल जाती है।
उदाहरण (Examples)-हिंद महासागर में गर्मी की ऋतु में S.W. Monsoon Drift और सर्दी की ऋतु में N.E. Monsoon Drift बहती है।

प्रश्न (vi)
अंध महासागर की धाराओं का वर्णन करें और पड़ोसी देशों पर उनके प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
अंध महासागर की धाराएँ (Currents of the Atlantic Ocean)-अंध महासागर स्पष्ट रूप से उत्तरी और दक्षिणी अंध महासागर के दो भागों में बंटा हुआ है। दोनों भागों में धाराओं का प्रभाव-क्रम एक समान है। उत्तरी अंध महासागर में धाराएँ घड़ी की सुइयों की दिशा (Clockwise) में चक्र पूरा करती हैं, परंतु दक्षिणी अंध महासागर में घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा (Anti-clockwise) में चक्र पूरा करती हैं। अंध महासागर की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित हैं-

1. उत्तरी भूमध्य रेखीय धारा (North Equatorial Current)—यह गर्म जल की धारा है, जो भूमध्य रेखा के उत्तर में व्यापारिक पवनों के प्रभाव से पूर्व से पश्चिम दिशा में बहती है। इस धारा का जल मैक्सिको की खाड़ी (Gulf of Maxico) में इकट्ठा हो जाता है।

2. खाड़ी की धारा (Gulf Stream Current)-उत्पत्ति (Origin)—यह धारा मैक्सिको की खाड़ी में एकत्रित जल द्वारा पैदा होती है, इसीलिए इसे खाड़ी की धारा कहते हैं । यह धारा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के साथ-साथ उत्तर की ओर न्यूफाउंडलैंड (New Foundland) तक बहती है। यह गर्म जल की धारा है, जो एक नदी के समान तेज़ चाल से बहती है। इसका रंग नीला होता है। यह लगभग 1 कि०मी० गहरी, 50 कि०मी० चौड़ी है और इसकी गति 8 कि०मी० प्रति घंटा है।

शाखाएँ और क्षेत्र (Branches and Area)—यह धारा 40° उत्तरी अक्षांश के निकट पश्चिमी पवनों (Westerlies) के प्रभाव से पश्चिम से पूर्व दिशा में बहती है। इसकी मुख्य धारा यूरोप की ओर बहती है, जिसे उत्तरी अटलांटिक प्रवाह (North Atlantic Drift) कहते हैं। यह एक धीमी धारा है, जिसे पश्चिमी पवनों के कारण पश्चिमी पवन प्रवाह (West Wind Drift) भी कहते हैं । यूरोप के तट पर यह धारा कई शाखाओं में बँट जाती है। ब्रिटेन का चक्कर लगाती हुई एक शाखा नॉर्वे के तट को पार करके आर्कटिक सागर में स्पिट्ज़बर्जन (Spitsbergen) तक पहुँच जाती है, जहाँ इसे नार्वेजियन (Norwegian) धारा कहते हैं।

प्रभाव (Effects) –

  • यह एक गर्म जल धारा है, जो ठंडे अक्षांशों में गर्म जल पहुँचाती है।
  • यह धारा पश्चिमी यूरोप को गर्मी प्रदान करती है। यूरोप में सर्दी की ऋतु में साधारण से ऊँचा तापमान इसी धारा की देन है।
  • पश्चिमी यूरोप की सुहावनी जलवायु इस धारा की देन है, इसलिए इसे यूरोप की जीवन रेखा (Life line of Europe) भी कहते हैं।
  • पश्चिमी यूरोप की बंदरगाहें सर्दी की ऋतु में नहीं जमतीं और व्यापार के लिए खुली रहती हैं।
  • इस धारा के ऊपर से निकलने वाली पश्चिमी पवनें (westerlies) यूरोप में बहुत वर्षा करती हैं।

3. कनेरी की धारा (Canary Current)-यह ठंडे जल की धारा है, जो स्पेन, पुर्तगाल और अफ्रीका के उत्तर-पश्चिमी भागों पर कनेरी द्वीप के निकट से गुज़रती है। दैनिक गति के प्रभाव से उत्तरी अटलांटिक ड्रिफ्ट का कुछ जल दक्षिण की ओर मुड़कर भूमध्य रेखा की ओर निकलता है। इसके प्रभाव से सहारा (Sahara) मरुस्थल शुष्क रहता है।

4. लैबरेडोर की धारा (Labrador Current)—यह ठंडे पानी की धारा है, जो आर्कटिक सागर (Arctic Ocean) से उत्तरी अंध-महासागर की ओर बहती है। यह धारा बैफिन खाड़ी (Bafin Bay) से निकलकर कनाडा के तट के साथ बहती हुई न्यूफाउंडलैंड तक आ जाती है। यहाँ यह खाड़ी की धारा के साथ मिल जाती है, जिससे घना कोहरा पैदा होता है। इसकी एक शाखा सेंट लारेंस (St. Lawrence) घाटी में दाखिल होती है, जो कई महीने बर्फ से जमी रहती है।

प्रभाव (Effects)-

  • ये प्रदेश बर्फ से ढके रहने के कारण अनुपजाऊ हैं।
  • इस ठंडी धारा के कारण इस प्रदेश के तट की बंदरगाहें सर्दी की ऋतु में जम जाती हैं और व्यापार बंद हो जाता है।
  • ये धाराएँ अपने साथ आर्कटिक सागर पर बर्फ की बड़ी-बड़ी चट्टानें ले आती हैं। कोहरे के कारण जहाज़ इन हिमशैलों से टकराकर दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते हैं।

5. दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा (South Equatorial Current)—यह धारा भूमध्य रेखा के दक्षिण में भूमध्य रेखा के समानांतर बहती है। व्यापारिक पवनों के प्रभाव से यह पूर्व से पश्चिम की दिशा में बहती है। यह गर्म जल की धारा है, जो अफ्रीका की गिनी की खाड़ी (Gulf of Guinea) से आरम्भ होकर ब्राज़ील के (Brazil) तट तक बहती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 1

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न (vii)
किसी देश की जलवायु और व्यापार पर समुद्री धाराओं के प्रभाव का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्री धाराओं का प्रभाव (Effects of Ocean Currents) समुद्री धाराएँ निकट के क्षेत्रों के मानवीय जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं। धाराओं का यह प्रभाव कई प्रकार से होता है
1. जलवायु पर प्रभाव (Effects on Climate)-

  • जलवायु (Climate)-जिन तटों पर गर्म या ठंडी धाराएँ चलती हैं, वहाँ की जलवायु क्रमशः गर्म या ठंडी हो जाती है।
  • तापमान (Temperature)-धाराओं के ऊपर बहने वाली पवनें अपने साथ गर्मी या सर्दी ले जाती हैं। गर्म धाराओं के प्रभाव से तटीय प्रदेशों का तापमान अधिक हो जाता है और जलवायु सम हो जाती है (Warm currents raise and cold temperature lower the temperature of the neighbouring areas) I OST धारा के कारण सर्दी की ऋतु में तापमान बहुत कम हो जाता है और जलवायु विषम और कठोर हो जाती है।

उदाहरण (Examples)-

(i) लैबरेडोर (Labrador) की ठंडी धारा के प्रभाव से कनाडा का पूर्वी तट और क्यूराईल (Kurile) की ठंडी धारा के प्रभाव से साइबेरिया का पूर्वी तट सर्दी ऋतु में बर्फ से जमा रहता है।

(ii) खाड़ी की गर्म धारा के प्रभाव से ब्रिटिश द्वीप समूह और नॉर्वे के तट के भागों का तापमान उच्च रहता है और पानी सर्दी की ऋतु में भी नहीं जमता। जलवायु सुहावनी और सम रहती है।

(iii) वर्षा (Rainfall)-गर्म धाराओं के निकट के प्रदेशों में अधिक वर्षा होती है परंतु ठंडी धाराओं के निकट के प्रदेशों में कम वर्षा होती है। गर्म धाराओं के ऊपर बहने वाली पवनों में नमी धारण करने की शक्ति बढ़ जाती है, पर ठंडी धाराओं के संपर्क में आकर पवनें ठंडी हो जाती हैं और वे अधिक नमी धारण नहीं कर सकतीं।

उदाहरण (Examples)-

  • उत्तर-पश्चिमी यूरोप में खाड़ी की गर्म धारा के कारण और जापान के पूर्वी तट पर क्यूरोशियो की गर्म धारा के कारण अधिक वर्षा होती है।
  • संसार के प्रमुख मरुस्थलों के तटों के नज़दीक ठंडी धाराएँ बहती हैं, जैसे सहारा तट पर कनेरी धारा, कालाहारी तट पर बेंगुएला धारा, ऐटेकामा तट पर पेरू की धारा।

(iv) धुंध की उत्पत्ति (Fog)-गर्म और ठंडी धाराओं के मिलने से धुंध और कोहरा पैदा हो जाता है। गर्म धारा के ऊपर की हवा ठंडी हो जाती है। उसके जलकण सूर्य की किरणों का रास्ता रोककर कोहरा पैदा कर देते हैं।
उदाहरण (Examples)-खाड़ी की गर्म धारा और लैबरेडोर की गर्म धारा के ऊपर की हवा के मिलने से न्यूफाऊंडलैंड (New Foundland) के निकट धुंध पैदा हो जाती है।

(v) तूफ़ानी चक्रवात (Cyclones)-गर्म और ठंडी धाराओं के मिलने से गर्म हवा बड़े वेग से ऊपर उठती है और तेज़ तूफानी चक्रवातों को जन्म देती है।

2. व्यापार पर प्रभाव (Effects on Trade)-

(i) बंदरगाहों का खुला रहना (Open Sea-ports)-ठंडे प्रदेशों में गर्म धाराओं के प्रभाव से सर्दियों में बर्फ नहीं जमती और बंदरगाह व्यापार के लिए सारा साल खुले रहते हैं, परंतु ठंडी धाराओं के निकट का तट बर्फ से जमा रहता है। ठंडी धाराएँ व्यापार में रुकावट डालती हैं।

उदाहरण (Examples)–

  • खाड़ी की धारा के कारण नॉर्वे और ब्रिटिश द्वीप समूह की बंदरगाहें पूरा वर्ष खुली रहती हैं, परंतु हॉलैंड, फिनलैंड और स्वीडन की बंदरगाहें समुद्र का पानी जम जाने के कारण सर्दी की ऋतु में बंद हो जाती हैं।
  • लैबरेडोर की ठंडी धारा के कारण पूर्वी कनाडा और सेंट लॉरेंस घाटी (St. Lawrance Valley) की बंदरगाहें तथा क्यूराईल की ठंडी धारा के कारण व्लाडिवॉस्टक (Vladivostok) की बंदरगाहें सर्दी की ऋतु में जम जाती हैं।

(ii) समुद्री मार्ग (Ocean Routes)-धाराएँ जल-मार्ग को निर्धारित करती हैं। ठंडे सागरों से ठंडी धाराओं के साथ बहकर आने वाले हिम-शैल (Icebergs) जहाज़ों का बहुत नुकसान करते हैं। इनको ध्यान में रखकर समुद्री मार्ग निर्धारित किए जाते हैं।

(iii) जहाजों की गति पर प्रभाव (Effect on the velocity of the Ships)-प्राचीन काल में धाराओं का बादबानी जहाज़ों की गति पर प्रभाव पड़ता था। धाराओं के अनुकूल दिशा में चलने से उनकी गति बढ़ जाती थी, परंतु विपरीत दिशा में जाने से उनकी चाल कम हो जाती थी। आजकल भाप से चलने वाले जहाज़ों (Steam Ships) की गति पर धाराओं का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

(iv) समुद्र के जल की शुद्धि-धाराओं के कारण समुद्र का जल गतिशील, शुद्ध और साफ रहता है। धाराएँ तट पर जमा पदार्थ दूर बहाकर ले जाती हैं और समुद्र तट गंदे होने से बचे रहते हैं।

(v) दुर्घटनाएँ-कोहरे और धुंध के कारण दृश्यता (visibility) कम हो जाती है। आमतौर पर जहाज़ों के डूबने और टकराने की दुर्घटनाएं होती रहती हैं।

3. समुद्री जीवों पर प्रभाव (Effects on Marine life)-
समुद्री जीवों का भोजन (Plankton)-धाराएँ समुद्री जीवों की प्राण हैं। ये अपने साथ अनेकों गली-सड़ी वस्तुएँ (plankton) बहाकर ले आती हैं। ये पदार्थ मछलियों के भोजन का आधार हैं।

प्रश्न (viii)
महासागरीय धाराओं के प्रभाव लिखें।
उत्तर-
महासागरीय जल में खारापन (Salinity of Ocean Water)-
महासागरीय जल सदा खारा होता है, परंतु यह कहीं कम खारा और कहीं अधिक खारा होता है। सागर के इस खारेपन को ही महासागरीय खार या जल की लवणता कहा जाता है। यह खारापन महासागरीय जल में पाए जाने वाले नमक के कारण होता है। प्रसिद्ध सागर वैज्ञानिक मरे (Murray) के अनुसार प्रति घन किलोमीटर जल में 4/4 करोड़ टन नमक होता है। यदि महासागरीय जल के कुल नमक को बिछाया जाए, तो संपूर्ण पृथ्वी पर लगभग 150 मीटर मोटी परत बन जाएगी।

महासागरों का औसत खारापन (Average Salinity of Ocean)-
खुले महासागरों के जल में पाए जाने वाले लवणों के घोल को खारापन कहते हैं। (The total Salt Content of Oceans is Called Salinity.) । सागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम प्रति हजार अर्थात् 35% होता है। खुले महासागरों में 1000 ग्राम जल में लगभग 35 ग्राम नमक होता है। ऐसे जल के खारेपन को 35 ग्राम प्रति हज़ार (Thirty five per thousand) कहा जाता है क्योंकि खारेपन को प्रति हज़ार ग्राम में ही दर्शाया जाता है।

महासागरों में खारेपन के कारण (Origin of Salinity in the Ocean)-
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब महासागरों की रचना हुई तो उस समय पृथ्वी के अधिकतर नमक इस जल में घुल गए। इसके बाद स्थलों से आने वाली अनगिनत नदियाँ अपने साथ घोल के रूप में नमक महासागरों में निक्षेप कर रही हैं, जिससे महासागरों में खारेपन की वृद्धि होती रही है। वाष्पीकरण द्वारा महासागरों का ताज़ा जल वायुमंडल में मिलकर वर्षा का कारण बनता है। यह वर्षा नदियों के रूप में स्थल पर नमक प्रवाहित करके महासागरों में पहुँचाती है।

सागरीय जल के नमक (Salts of Ocean)-
सागरीय जल में पाए जाने वाले नमक इस प्रकार हैं–

(i) सोडियम क्लोराइड — 77.8 प्रतिशत
(ii) मैग्नीशियम क्लोराइड — 10.9 प्रतिशत
(iii) मैग्नीश्यिम सल्फेट — 4.7 प्रतिशत
(iv) कैल्शियम सल्फेट — 3.6 प्रतिशत
(v) पोटाशियम सल्फेट — 2.5 प्रतिशत
(vi) कैल्शियम कार्बोनेट — 0.3 प्रतिशत
(vii) मैग्नीशियम ब्रोमाइड — 0.2 प्रतिशत

खारेपन का महत्त्व (Importance of Salinity) –
समुद्री जल के खारेपन का महत्त्व नीचे लिखे अनुसार है-

  • समुद्र में खारेपन की भिन्नता के कारण धाराएँ उत्पन्न होती हैं; जो निकटवर्ती क्षेत्रों में जलवायु को प्रभावित करती हैं।
  • समुद्री जल में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट नमक समुद्री जीव-जंतुओं विशेषकर मूंगा (Coral) और पंक (Ooze) का ज़ोन है, जिससे इनकी हड्डियाँ और पिंजर बनते हैं।
  • खारेपन के कारण धरती पर वनस्पति उगती है।
  • लवण ठंडे महासागरों को जमने नहीं देते और जीव-जंतु विशेष रूप से बहुमूल्य मछलियाँ नहीं मरती और जल परिवहन चालू रहता है।
  • खारेपन के कारण जल का घनत्व बढ़ जाता है, इसीलिए जहाज़ तैरते हैं।

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प्रश्न (ix)
गर्म और ठंडी धाराओं का आस-पास के क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-
महासागरीय जल में तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-अर्ध-खुले सागरों और खुले सागरों के तापमान में भिन्नता होती है। इसका कारण यह है कि अर्ध खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव पड़ता है।

(क) महासागरों में जल पर तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-महासागरों में जल-तल (Water-surface) के तापमान का क्षैतिज विभाजन नीचे लिखे अनुसार है :

  • भूमध्य रेखीय भागों के जल का तापमान 26° सैल्सियस, ध्रुवीय क्षेत्रों में 0° सैल्सियस से -5° (minus five degree) सैल्सियस और 20°, 40° और 60° अक्षांशों के तापमान क्रमशः 23°, 14° और 1° सैल्सियस रहता है। इस प्रकार भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर महासागरीय जल का क्षैतिज तापमान कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें लंब और ध्रुवों की ओर तिरछी पड़ती हैं।
  • ऋतु परिवर्तन के साथ महासागरों के ऊपरी तल के तापमान में परिवर्तन आ जाता है। गर्मी की ऋतु में दिन लंबे होने के कारण तापमान ऊँचा और सर्दी की ऋतु में दिन छोटे होने के कारण तापमान कम रहता है।
  • स्थल की तुलना में जल देरी से गर्म और देरी से ही ठंडा होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में जल की तुलना में स्थल अधिक है और दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का क्षेत्र अधिक है। इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध में समुद्री जल का तापमान स्थलीय प्रभाव के कारण ऊँचा रहता है। इसकी तुलना में जल की अधिकता के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान कम रहता है।

3. अर्ध-खले सागरों में जल के तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Partially Enclosed Seas) अर्ध-खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती स्थलखंडों का प्रभाव अधिक पड़ता है।

(i) लाल सागर और फारस की खाड़ी (Red Sea and Persian Gulf)—ये दोनों अर्ध-खुले सागर हैं, जो संकरे जल संयोजकों (Straits) द्वारा हिंद महासागर से मिले हुए हैं। इन दोनों के चारों ओर मरुस्थल हैं, जिनके प्रभाव से तापमान उच्च, क्रमश: 32° से० और 34° से० रहता है। विश्व में सागरीय तल का अधिक-सेअधिक तापमान 34° से० है, जोकि फारस की खाड़ी में पाया जाता है।

कुछ सागरों के जल का तापमान-

सागर — तापमान
लाल सागर — 32°C.
खाड़ी फारस –34°C.
बाल्टिक सागर –10°C.
उत्तरी सागर –17°C.
प्रशांत महासागर –19.1°C.
हिंद महासागर –17.0°C.
अंध महासागर — 16.9°C.

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 6

(ii) बाल्टिक सागर (Baltic Sea)-इस सागर में तापमान कम रहता है और शीत ऋतु में यह बर्फ में बदल जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह शीत प्रदेशों से घिरा हुआ है, जोकि सर्दियों में बर्फ से ढके रहते हैं। इसकी तुलना में निकट का विस्तृत उत्तर सागर (North Sea) कभी भी नहीं जमता। इसका कारण यह है कि एक तो यह खुला सागर है और दूसरा अंध महासागर की तुलना में गर्म जलं इसमें बेरोक प्रवेश करता है।

(iii) भूमध्य सागर या रोम सागर (Mediterranean Sea)—यह भी एक अर्ध-खुला समुद्र है, जो जिब्राल्टर (Gibraltar) जल संयोजक द्वारा अंध महासागर से जुड़ा हुआ है। इसका तापमान उच्च रहता है क्योंकि इसके दक्षिण और पूर्व की ओर मरुस्थल हैं। दूसरा, इस जल संयोजक की ऊँची कटक महासागर के जल को इस सागर में बहने से रोकती है।

महासागरीय जल में ताप का लंबवर्ती विभाजन-(Vertical Distribution of Temperature of Ocean Water)-सूर्य का ताप सबसे पहले महासागरीय तल का जल प्राप्त करता है और सबसे ऊपरी परत गर्म होती है। सूर्य के ताप की किरणें ज्यों-ज्यों गहराई में जाती हैं, तो बिखराव (Scattering), परावर्तन (Reflection) और प्रसारण (Diffusion) के कारण उनकी ताप-शक्ति नष्ट हो जाती है। इस प्रकार तल के नीचे के पानी का तापमान गहराई के साथ कम होता जाता है।

महासागरीय जल का तापमान-
गहराई के अनुसार (According to Depth)-

गहराई (Depth) मीटर — तापमान (°C)
200 — 15.9°C
400 —  10.0°C
1000 — 4.5°C
2000 — 2.3°C
3000 — 1.8°C
4400 — 1.7°C

1. महासागरीय जल का तापमान गहराई बढ़ने के साथ-साथ कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि सूर्य की किरणें अपना प्रभाव महाद्वीपीय बढ़ौतरी की अधिकतम गहराई भाव 183 मीटर (100 फैदम) तक ही डाल सकती हैं।
2. महाद्वीपीय तट के नीचे महासागरों में तापमान अधिक कम होता है परंतु अर्ध-खुले सागरों में तापमान जल संयोजकों की कटक तक ही गिरता है और इससे आगे कम नहीं होता।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 7

हिंद महासागर के ऊपरी तल और लाल सागर के ऊपरी तल का तापमान लगभग समान (27°C) होता है। इन दोनों के बीच बाब-अल-मेंडर जल संयोजक की कटक है। उस गहराई तक दोनों में तापमान एक समान कम होता है क्योंकि इस गहराई तक हिंद महासागर का जल लाल सागर में प्रवेश करता रहता है। परंतु इससे अधिक गहराई पर लाल सागर का तापमान कम नहीं होता, जबकि हिंद महासागर में यह निरंतर कम होता रहता है।

3. गहराई के साथ तापमान कम होने की दर सभी गहराइयों में एक समान नहीं होती। लगभग 100 मीटर की गहराई तक जल का तापमान निकटवर्ती धरातलीय तापमान के लगभग बराबर होता है। धरातल से 1000 से 1800 मीटर की गहराई पर तापमान लगभग 15° से कम होकर लगभग 2°C रह जाता है। 4000 मीटर की गहराई पर तापमान कम होकर 1.6°C रह जाता है। महासागरों में किसी भी गहराई पर तापमान 1°C से कम नहीं होता। यद्यपि ध्रुवीय महासागरों की ऊपरी परत जम जाती है, पर निचला पानी कभी नहीं जमता। इसी कारण मछलियाँ और अन्य जीव-जन्तु निचले जल में मरते नहीं।

महासागरीय जल में खारापन (Salinity of Ocean Water)-
महासागरीय जल सदा खारा होता है, परंतु यह कहीं कम खारा और कहीं अधिक खारा होता है। सागर के इस खारेपन को ही महासागरीय खार या जल की लवणता कहा जाता है। यह खारापन महासागरीय जल में पाए जाने वाले नमक के कारण होता है। प्रसिद्ध सागर वैज्ञानिक मरे (Murray) के अनुसार प्रति घन किलोमीटर जल में 4/4 करोड़ टन नमक होता है। यदि महासागरीय जल के कुल नमक को बिछाया जाए, तो संपूर्ण पृथ्वी पर लगभग 150 मीटर मोटी परत बन जाएगी।

महासागरों का औसत खारापन (Average Salinity of Ocean)-
खुले महासागरों के जल में पाए जाने वाले लवणों के घोल को खारापन कहते हैं। (The total Salt Content of Oceans is Called Salinity.) । सागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम प्रति हजार अर्थात् 35% होता है। खुले महासागरों में 1000 ग्राम जल में लगभग 35 ग्राम नमक होता है। ऐसे जल के खारेपन को 35 ग्राम प्रति हज़ार (Thirty five per thousand) कहा जाता है क्योंकि खारेपन को प्रति हज़ार ग्राम में ही दर्शाया जाता है।

महासागरों में खारेपन के कारण (Origin of Salinity in the Ocean)-
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब महासागरों की रचना हुई तो उस समय पृथ्वी के अधिकतर नमक इस जल में घुल गए। इसके बाद स्थलों से आने वाली अनगिनत नदियाँ अपने साथ घोल के रूप में नमक महासागरों में निक्षेप कर रही हैं, जिससे महासागरों में खारेपन की वृद्धि होती रही है। वाष्पीकरण द्वारा महासागरों का ताज़ा जल वायुमंडल में मिलकर वर्षा का कारण बनता है। यह वर्षा नदियों के रूप में स्थल पर नमक प्रवाहित करके महासागरों में पहुँचाती है।

सागरीय जल के नमक (Salts of Ocean)-
सागरीय जल में पाए जाने वाले नमक इस प्रकार हैं–

(i) सोडियम क्लोराइड — 77.8 प्रतिशत
(ii) मैग्नीशियम क्लोराइड — 10.9 प्रतिशत
(iii) मैग्नीश्यिम सल्फेट — 4.7 प्रतिशत
(iv) कैल्शियम सल्फेट — 3.6 प्रतिशत
(v) पोटाशियम सल्फेट — 2.5 प्रतिशत
(vi) कैल्शियम कार्बोनेट — 0.3 प्रतिशत
(vii) मैग्नीशियम ब्रोमाइड — 0.2 प्रतिशत

खारेपन का महत्त्व (Importance of Salinity) –
समुद्री जल के खारेपन का महत्त्व नीचे लिखे अनुसार है-

  • समुद्र में खारेपन की भिन्नता के कारण धाराएँ उत्पन्न होती हैं; जो निकटवर्ती क्षेत्रों में जलवायु को प्रभावित करती हैं।
  • समुद्री जल में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट नमक समुद्री जीव-जंतुओं विशेषकर मूंगा (Coral) और पंक (Ooze) का ज़ोन है, जिससे इनकी हड्डियाँ और पिंजर बनते हैं।
  • खारेपन के कारण धरती पर वनस्पति उगती है।
  • लवण ठंडे महासागरों को जमने नहीं देते और जीव-जंतु विशेष रूप से बहुमूल्य मछलियाँ नहीं मरती और जल परिवहन चालू रहता है।
  • खारेपन के कारण जल का घनत्व बढ़ जाता है, इसीलिए जहाज़ तैरते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न (x)
हिंद महासागर की धाराओं का वर्णन करें। उत्तरी हिंद महासागर की धाराओं का मानसून पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-
हिंद महासागर की धाराएँ (Currents of Indian Ocean)-हिंद महासागर के माध्यम से धाराओं और पवनों के संबंध को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। यहाँ मानसून पवनों के कारण समुद्री धाराओं का क्रम भी मौसमी (Seasonal) होता है। उत्तरी हिंद महासागर में चलने वाली धाराएँ, मानसून पवनों के कारण प्रति छह महीने बाद अपनी दिशा बदल लेती हैं। परंतु दक्षिणी हिंद महासागर में धाराएँ पूरा वर्ष एक ही दिशा में चलने के कारण स्थायी होती हैं।

उत्तरी हिंद महासागर की परिवर्तनशील धाराएँ-मानसून के प्रभाव के कारण धाराएँ पूरा वर्ष अपनी दिशा बदलती रहती हैं। वास्तव में कोई भी निश्चित धारा नहीं मिलती। छह महीने के बाद इन धाराओं की दिशा और क्रम बदल जाता है।

  • दक्षिण-पश्चिमी मानसून प्रवाह (S.W. Monsoon Drift)–यह धारा गर्मी की ऋतु में दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनों के प्रभाव से चलती है। इस धारा का जल अफ्रीका के पूर्वी तट के साथ बहकर अरब सागर, श्रीलंका और बंगाल की खाड़ी का चक्कर लगाता है। यह धारा बर्मा के तट तक पहुँच जाती है।
  • उत्तर-पूर्वी मानसून प्रवाह (N.E. Monsoon Drift)-सर्दी की ऋतु में मानसून पवनों की दिशा उल्टी हो जाती है और धाराओं का क्रम भी उल्टा हो जाता है। यह धारा बर्मा के तट से शुरू होकर बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का चक्कर लगाकर अफ्रीका के पूर्वी तट तक बहती है।

दक्षिणी हिंद महासागर की स्थायी धाराएँ-ये धाराएँ पूरा वर्ष एक ही दिशा में चलती हैं, इसलिए इन्हें स्थायी धाराएँ कहते हैं। ये धाराएँ घड़ी की विपरीत दिशा में (Anti-clockwise) चक्कर काटती हैं।

1. दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा (South Equatorial Current)-यह एक गर्म धारा है जो भूमध्य रेखा के दक्षिण में व्यापारिक पवनों के प्रभाव से पूर्व से पश्चिम दिशा में बहती है। यह धारा इंडोनेशिया से निकलकर अफ्रीका के पूर्वी तट तक बहती है। मैडागास्कर द्वीप के निकट यह दक्षिण की ओर मुड़ जाती है।

2. भारतीय विपरीत धारा (Indian Counter Current)-भूमध्य रेखा के निकट पश्चिम से पूर्व दिशा में बहने वाली धारा को भारतीय विपरीत धारा कहते हैं।

3. मोज़म्बीक की धारा (Mozambique Current)—मैडागास्कर (मलागासी द्वीप) के कारण भूमध्य रेखीय – धारा कई शाखाओं में बँट जाती है-

  • मैडागास्कर धारा (Medagasker)-यह गर्म धारा मैडागास्कर के पूर्व में बहती है। इसमें दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा कई शाखाओं में बँट जाती है।
  • मोज़म्बीक धारा (Mozambique Current)-यह मैडागास्कर द्वीप के पश्चिम में एक तंग भाग Mozambique channel में बहती है। यह धारा भँवर के रूप में होती है। (iii) ऐगुलॉस धारा (Agulhas Current) ऊपर लिखित दोनों धाराएं मिलकर मैडागास्कर के दक्षिण में एक नई धारा को जन्म देती है, जिसे ऐगुलॉस धारा कहते हैं।

4. अंटार्कटिक धारा (Antarctic Current)-यह ठंडे जल की धारा है।।
5. पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की धारा (West Australian Current)—यह ठंडी धारा ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट पर बहती है।

6. विपरीत भूमध्य रेखीय धारा (Counter Equatorial Current)-पानी की अधिकता और धरती की दैनिक गति के कारण भूमध्य रेखा के साथ-साथ विपरीत भूमध्य रेखीय धारा बहती है। यह धारा पश्चिम से पूर्व में अफ्रीका के गिनी तट तक बहती है। इसे गिनी की धारा (Guinea stream) भी कहते हैं।

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PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 9

7. ब्राज़ील की धारा (Brazilian Current)—यह एक गर्म पानी की धारा है, जो ब्राज़ील तट के साथ दक्षिण की ओर बहती है। उत्तर की ओर ब्राज़ील की गर्म धारा के मिलने से कोहरा पैदा हो जाता है। इससे जहाज़ों का आना-जाना बंद हो जाता है।

8. फाकलैंड धारा (Falkland Current)-यह ठंडी धारा दक्षिणी अमेरिका के दक्षिणी सिरे (Cape Horn) और फाकलैंड के निकट बहती है। उत्तर की ओर ब्राज़ील की गर्म धारा के मिलने से कोहरा पैदा हो जाता है। इससे जहाजों का आना-जाना बंद हो जाता है।

9. अंटार्कटिक प्रवाह (Antarctic Drift)—यह बहुत ठंडे पानी की धारा है, जो अंटार्कटिक महाद्वीप के चारों तरफ पश्चिम से पूर्व दिशा में बहती है। यह अंध महासागर, शांत महासागर और हिंद महासागर की सांझी धारा है। थल की कमी के कारण यह पश्चिमी पवनों के प्रवाह से लगातार बहती है।

10. बैंगुऐला धारा (Benguela Current)—यह ठंडे पानी की धारा दक्षिणी अफ्रीका के पश्चिमी तट पर बहती है। व्यापारिक पवनों के कारण तल का गर्म जल दूर बह जाता है और नीचे का ठंडा पानी ऊपर आ जाता है, जिसे Upwelling of water कहते हैं। अफ्रीका में कालाहारी मरुस्थल इसी धारा के कारण है।

प्रश्न (xi)
ज्वारभाटा किसे कहते हैं ? ये कैसे पैदा (बनते) होते हैं और इनका क्या महत्त्व है ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
ज्वारभाटा समुद्र की एक गति है। समुद्र का जल नियमित रूप से प्रतिदिन दो बार ऊँचा उठता है और दो बार नीचे उतरता है। “समुद्री जल के इस नियमित उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं।” (“Regular rise and fall of sea water is called Tides.”)। पानी के ऊपर उठने की क्रिया को ज्वार (Flood or High Tide or Incoming Tide) कहते हैं। पानी के नीचे उतरने की क्रिया को भाटा (Ebb or low Tide or Out Going Tide) कहते हैं।

विशेषताएँ :

  1. प्रत्येक स्थान पर ज्वारभाटे की ऊँचाई अलग-अलग होती है।
  2. प्रत्येक स्थान पर ज्वार और भाटे का समय अलग-अलग होता है।
  3. समुद्र का पानी 6 घंटे 13 मिनट तक ऊपर चढ़ता है और इतनी ही देर में नीचे उतरता है।
  4. ज्वारभाटा एक स्थान पर नित्य ही एक समय पर नहीं आता।

उत्पत्ति के कारण (Causes of Origin)—पुरातन काल में यूनान और रोम के निवासियों को ज्वारभाटे की जानकारी थी। ज्वारभाटे की उत्पत्ति का मूल कारण चंद्रमा की आकर्षण शक्ति होती है। सबसे पहले न्यूटन ने यह बताया था कि सूर्य और चंद्रमा की गतियों (Movements) तथा ज्वारभाटा में आपस में कुछ संबंध होता है।

चाँद अपने आकर्षण बल (Gravitational Attraction) के कारण धरती के जल को अपनी ओर खींचता है। स्थल-भाग कठोर होता है, इस कारण खींचा नहीं जा सकता, परंतु जल-भाग तरल होने के कारण ऊपर उठ जाता है। यह पानी चाँद की ओर उठता है। वहाँ से निकट का पानी सिमटकर ऊपर उठता जाता है, जिसे ऊँचा ज्वार (High Tide) कहते हैं। जिस स्थान पर पानी की मात्रा कम रह जाती है, वहाँ पानी अपने तल से नीचे गिर जाता है, उसे नीचा ज्वार (Low Tide) कहते हैं। धरती की दैनिक गति के कारण प्रत्येक स्थान पर दिन-रात में दो बार ज्वार आता है। एक ही समय में धरती के तल पर दो बार ज्वार पैदा होते हैं-एक ठीक चाँद के सामने और दूसरा उसकी विपरीत दिशा में (Diametrically Opposite)। चाँद की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार उठता है, इसे सीधा ज्वार (Direct Tide) कहते हैं। विपरीत दिशा में अपकेंद्रीय बल (Centrifugal Force) के कारण पानी ऊपर उठता है और ऊँचा ज्वार पैदा होता है। इसे Indirect Tide कहते हैं। इस प्रकार धरती के एक तरफ ज्वार आकर्षण शक्ति की अधिकता के कारण और दूसरी तरफ अपकेंद्रीय शक्ति की अधिकता के कारण पैदा होते हैं।

सूर्य का प्रभाव (Effect of Sun)-सभी ग्रहों पर सूर्य का प्रभाव होता है। धरती पर सूर्य और चंद्रमा दोनों का आकर्षण होता है। समुद्र के जल पर भी दोनों का आकर्षण होता है। सूर्य चाँद की तुलना में बहुत दूर है, इसलिए सूर्य की आकर्षण शक्ति बहुत साधारण है और चाँद की तुलना में 5/11 भाग कम है।

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ऊँचा ज्वारभाटा (Spring Tide)—सबसे अधिक ऊँचे ज्वार को बड़ा ज्वार कहते हैं। यह महीने में दो बार पूर्णिमा (Full Moon) और अमावस्या (New Moon) को होता है।

कारण (Causes)-इस दशा में सूर्य, चंद्रमा और धरती एक सीधी रेखा में होते हैं। सूर्य और चाँद की सांझी आकर्षण शक्ति बढ़ जाने से ज्वार-शक्ति बढ़ जाती है। सूर्य और चाँद के कारण उत्पन्न ज्वार इकट्ठे हो जाते हैं (Spring tide is the sum of Solar and Lunar tides.)। इन दिनों में ज्वार अधिक ऊँचा और भाटा कम-से-कम नीचा होता है। ऊँचा ज्वार साधारण ज्वार से 20% अधिक ऊँचा होता है।

लघु ज्वार (Neap Tide)-अमावस्या के सात दिन बाद या पूर्णिमा के सात दिन बाद ज्वार की ऊँचाई दूसरे दिनों की तुलना में नीची रह जाती है। इसे लघु-ज्वार कहते हैं। इस हालत को शुक्ल और कृष्ण पक्ष की अष्टमी कहते हैं, जब आधा चाँद (Half Moon) होता है।

कारण (Causes)-इस हालत में सूर्य और चाँद, धरती के समकोण (At Right Angles) पर होते हैं। सूर्य और चांद की आकर्षण-शक्ति विपरीत दिशाओं में काम करती है। जहाँ सूर्य ज्वार पैदा करता है, चाँद वहाँ भाटा पैदा करता है। सूर्य और चाँद के ज्वार-भाटा एक-दूसरे को कम करते हैं (Neap tide is the difference of Solar and Lunar tides)। इन दिनों में ऊँचा ज्वार, कम ऊँचा और भाटा कम नीचा होता है। लघु ज्वार अक्सर साधारण ज्वार से 20% कम ऊँचा होता है।

ज्वारभाटे के लाभ (Advantages)-

  1. ज्वारभाटा समुद्र के तटों को साफ़ रखता है। यह उतार के समय कूड़ा-कर्कट, कीचड़ आदि को अपने साथ बहाकर ले जाता है।
  2. ज्वारभाटे की हलचल के कारण समुद्र का पानी जमता नहीं।
  3. ज्वार के समय नदियों के मुहानों पर पानी की गहराई बढ़ जाती हैं, जिससे बड़े-बड़े जहाज़ सेंट लारेंस, हुगली, हडसन नदी में प्रवेश कर सकते हैं। ज्वारभाटे के समय को बताने के लिए टाईम-टेबल बनाए जाते हैं।
  4. ज्वारभाटे के मुड़ते हुए पानी से पन-बिजली पैदा की जा सकती है। इस बिजली का प्रयोग करने के लिए फ्रांस और अमेरिका में कई प्रयत्न किए गए हैं।
  5. ज्वारभाटे के कारण बहुत सी सिप्पियां, कोड़ियाँ, अन्य वस्तुएँ आदि तट पर इकट्ठी हो जाती है। कई समुद्री जीव तटों पर पकड़े जाते हैं।
  6. ज्वारभाटा बंदरगाहों की अयोग्यता को दूर करते हैं और आदर्श बंदरगाहों को जन्म देते हैं। कम गहरी बंदरगाहों में बड़े-बड़े जहाज़ ज्वार के साथ दाखिल हो जाते हैं और भाटे के साथ वापस लौट आते हैं, जैसे-कोलकाता, कराची, लंदन आदि।
  7. ज्वारभाटा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को सरल, आसान और निरंतर रखता है।

हानियाँ (Disadvantages)-

  1. ज्वारभाटे से कभी-कभी जहाज़ों को नुकसान होता है। छोटे-छोटे जहाज़ और नाव डूब जाते हैं।
  2. इससे बंदरगाहों के निकट रेत जम जाने से जहाजों के आने-जाने में रुकावट आती है।
  3. ज्वारभाटे के कारण मिट्टी के बहाव के कारण डेल्टा नहीं बनते।
  4. मछली पकड़ने के काम में रुकावट होती है।
  5. ज्वार का पानी जमा होने से तट पर दलदल बन जाती है।

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Geography Guide for Class 11 PSEB महासागर Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न | (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पृथ्वी के कितने % भाग पर जल है ?
उत्तर-
71%।

प्रश्न 2.
महाद्वीपीय शैल्फ तट की औसत गहराई बताएँ।
उत्तर-
150 से 200 मीटर।

प्रश्न 3.
विश्व में सबसे अधिक गहरे स्थान के बारे में बताएँ।
उत्तर-
मेरियाना खाई – 11022 मीटर।

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प्रश्न 4.
किस महासागर के मध्य में ‘S’ आकार की पहाड़ी है ?
उत्तर-
अंध महासागर।।

प्रश्न 5.
किस महासागर में सबसे अधिक खाइयाँ हैं ?
उत्तर-
प्रशांत महासागर।

प्रश्न 6.
जल में डूबी पहाड़ियों की कुल लंबाई बताएँ।
उत्तर-
7500 कि० मी०।

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प्रश्न 7.
किसी एक प्रसिद्ध केनीयन का नाम बताएँ।
उत्तर-
ओशनो ग्राफर केनीयन।

प्रश्न 8.
महाद्वीपीय ढलान का कोण बताएँ।
उत्तर-
2°-5° तक।

प्रश्न 9.
संसार के प्रमुख महासागरों के नाम बताएँ।
उत्तर-
प्रशांत महासागर, अंध महासागर, हिंद महासागर, आर्कटिक महासागर।

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प्रश्न 10.
पृथ्वी को जलीय ग्रह क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
अधिक जल होने के कारण।

प्रश्न 11.
किस गोलार्द्ध को जलीय गोलार्द्ध कहते हैं ?
उत्तर-
दक्षिणी गोलार्द्ध।

प्रश्न 12.
किस यंत्र से समुद्र की गहराई मापी जाती है ?
उत्तर-
Sonic Depth Recorder.

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प्रश्न 13.
महासागरीय जल के गर्म होने की क्रियाएं बताएँ।
उत्तर-
विकिरण और संवहन।

प्रश्न 14.
महासागरों में नमक के स्रोत बताएँ।
उत्तर-
नदियाँ, लहरें और ज्वालामुखी।

प्रश्न 15.
महासागरीय जल के प्रमुख लवणों के नाम बताएँ।
उत्तर-
सोडियम क्लोराइड, मैग्नीशियम क्लोराइड, मैग्नीशियम सल्फेट, कैल्शियम सल्फेट, पोटाशियम सल्फेट।

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प्रश्न 16.
तरंग के दो भाग बताएँ।
उत्तर-
शिखर और गहराई।

प्रश्न 17.
भूमध्य रेखा पर सागरीय जल का ताप बताएँ।
उत्तर-
भूमध्य रेखा – 26°

प्रश्न 18.
पलावी हिम शैल के दो स्रोत बताएँ।
उत्तर-
अलास्का और ग्रीन लैंड।

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प्रश्न 19.
घिरे हुए एक सागर का नाम और उसका खारापन बताएँ।
उत्तर-
ग्रेट साल्ट झील – 220 ग्राम प्रति हज़ार।

प्रश्न 20.
भूमध्य रेखा के निकट खारापन कम क्यों है ?
उत्तर-
अधिक वर्षा के कारण।

प्रश्न 21.
काले सागर में खारापन कम क्यों है ?
उत्तर-
नदियों से ताज़ा पानी प्राप्त होने के कारण।

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प्रश्न 22.
लाल सागर में खारापन अधिक क्यों है ?
उत्तर-
नदियों की कमी और अधिक वाष्पीकरण के कारण।

प्रश्न 23.
महासागरों में औसत खारापन बताएँ।
उत्तर-
35 ग्राम प्रति हज़ार।

प्रश्न 24.
महासागरीय जल की तीन गतियाँ बताएँ।
उत्तर-

  1. तरंगें
  2. धाराएँ
  3. ज्वारभाटा।

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प्रश्न 25.
ज्वारभाटा कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर-
लघु ज्वारभाटा और ऊँचा ज्वारभाटा।

प्रश्न 26.
तरंगों के तीन प्रमुख प्रकार बताएँ।
उत्तर-
सरफ, स्वैश और अध-प्रवाह।

प्रश्न 27.
ऊँचा ज्वारभाटा कब उत्पन्न होता है ?
उत्तर-
अमावस्या और पूर्णिमा को।

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प्रश्न 28.
लघु ज्वारभाटा कब होता है ?
उत्तर-
कृष्ण और शुक्ल अष्टमी को।

प्रश्न 29.
अंध-महासागर में सबसे प्रसिद्ध गर्म धारा बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी की धारा।

प्रश्न 30.
ज्वारभाटा के उत्पन्न होने का प्रमुख कारण बताएँ।
उत्तर-
चंद्रमा की आकर्षण-शक्ति।

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प्रश्न 31.
सरफ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
तटीय क्षेत्रों की टूटती लहरों को।

प्रश्न 32.
ज्वार की सबसे अधिक ऊँचाई कहाँ होती है ?
उत्तर-
फंडे की खाड़ी में।

प्रश्न 33.
न्यूफाउंडलैंड के निकट कोहरा क्यों पैदा होता है ?
उत्तर-
लैबरेडोर की ठंडी और खाड़ी की धारा मिलने के कारण।

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प्रश्न 34.
प्रशांत महासागर की दो ठंडी धाराओं के नाम बताएँ।
उत्तर-
पेरु की धारा और कैलीफोर्निया की धारा।

प्रश्न 35.
कालाहारी मरुस्थल के तट पर कौन-सी धारा चलती है ?
उत्तर-
बैंगुएला की धारा।

प्रश्न 36.
दो ज्वारों के बीच समय का अंतर बताएँ।
उत्तर-
12 घंटे 26 मिनट।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
पृथ्वी का जल-मंडल कितने प्रतिशत है ?
(क) 51%
(ख) 61%
(ग) 71%
(घ) 81%.
उत्तर-
71%.

प्रश्न 2.
विश्व में सबसे गहरी खाई कौन-सी है ?
(क) पोरटोरिको
(ख) मेरियाना
(ग) सुंडा
(घ) एटाकामा।
उत्तर-
मेरियाना।

प्रश्न 3.
कौन-सा भाग महासागरीय तल का सबसे अधिक भाग घेरता है ?
(क) निमग्न तट
(ख) महाद्वीपीय फाल
(ग) महासागरीय मैदान
(घ) खाइयाँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय मैदान।

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प्रश्न 4.
महाद्वीपीय निमग्न तट की औसत गहराई है-
(क) 100 फैदम
(ख) 500 फुट
(ग) 300 मीटर
(घ) 400 मीटर।
उत्तर-
100 फैदम।

प्रश्न 5.
विश्व में सबसे छोटा महासागर कौन-सा है ?
(क) हिंद महासागर
(ख) अंध महासागर
(ग) आर्कटिक महासागर
(घ) प्रशांत महासागर।
उत्तर-
आर्कटिक महासागर ।

प्रश्न 6.
महासागरों में खारेपन को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण कारक है-
(क) धाराएँ
(ख) पवनें
(ग) वाष्पीकरण
(घ) जल-मिश्रण।
उत्तर-
वाष्पीकरण।

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प्रश्न 7.
विश्व में औसत खारापन है-
(क) 35 ग्राम प्रति हज़ार
(ख) 210 ग्राम प्रति हज़ार
(ग) 16 ग्राम प्रति हज़ार
(घ) 112 ग्राम प्रति हज़ार।
उत्तर-
35 ग्राम प्रति हज़ार।

प्रश्न 8.
किस सागर में सबसे अधिक खारापन है ?
(क) लाल सागर
(ख) बाल्टिक सागर
(ग) मृत सागर
(घ) भूमध्य सागर।
उत्तर-
मृत सागर।

प्रश्न 9.
काले सागर में औसत खारापन है-
(क) 170 ग्राम प्रति हज़ार
(ख) 18 ग्राम प्रति हज़ार
(ग) 40 ग्राम प्रति हज़ार
(घ) 330 ग्राम प्रति हजार।
उत्तर-
18 ग्राम प्रति हजार

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित में प्रशांत महासागर की धारा बताएँ।
(क) मैडगास्कर की धारा
(ख) खाड़ी की धारा
(ग) क्यूरोशियो की धारा
(घ) लैबरेडोर की धारा।
उत्तर-
क्यूरोशियो की धारा।

प्रश्न 11.
महासागरीय धाराओं का प्रमुख कारण है-
(क) पवनें
(ख) जल के घनत्व में अंतर
(ग) पृथ्वी की दैनिक गति
(घ) स्थल खंडों की रुकावट।
उत्तर-
पवनें।

प्रश्न 12.
लघु ज्वार कब होता है ?
(क) पूर्णिमा
(ख) अमावस्या
(ग) अष्टमी
(घ) पूर्ण चंद्रमा।
उत्तर-
अष्टमी।

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प्रश्न 13.
अंध महासागर की गर्म धारा है।
(क) खाड़ी की धारा
(ख) कनेरी की धारा
(ग) लैबरेडोर की धारा
(घ) अंटार्कटिका की धारा।
उत्तर-
खाड़ी की धारा।

प्रश्न 14.
कालाहारी मरुस्थल के तट पर बहने वाली धारा है-
(क) खाड़ी की धारा
(ख) बैंगुएला की धारा
(ग) मानसून की धारा ।
(घ) लैबरेडोर की धारा।
उत्तर-
बैंगुएला की धारा।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
जलमंडल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पृथ्वी के तल पर पानी के नीचे डूबे हुए भाग को जलमंडल (Hydrosphere) कहते हैं। जलमंडल के अधीन महासागर, सागर, खाड़ी, झील आदि सब आ जाते हैं।

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प्रश्न 2.
जलमंडल का विस्तार बताएँ।
उत्तर-
प्रसिद्ध भूगोल वैज्ञानिक क्रुम्मेल (Krummel) के अनुसार जलमंडल का विस्तार पृथ्वी के 71% भाग पर है। जलमंडल लगभग 3626 लाख वर्ग किलोमीटर पर फैला हुआ है।

प्रश्न 3.
जलीय गोलार्द्ध (Water Hemisphere) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उत्तरी गोलार्द्ध में 40% जल और 60% थल भाग हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में 81% जल और 19% थल भाग हैं।
दक्षिणी गोलार्द्ध में जल अधिक होने के कारण यह जलीय गोलार्द्ध कहलाता है। उत्तरी गोलार्द्ध को थल गोलार्द्ध (Land Hemisphere) कहा जाता है।

प्रश्न 4.
विश्व के प्रसिद्ध चार महासागरों के नाम और उनके क्षेत्रफल बताएँ।
उत्तर-

  1. प्रशांत महासागर – 1654 लाख वर्ग कि०मी०
  2. अंध महासागर – 822 लाख वर्ग कि०मी०
  3. हिंद महासागर – 735 लाख वर्ग कि०मी० .
  4. आर्कटिक महासागर – 141 लाख वर्ग कि०मी०

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प्रश्न 5.
महासागरीय फ़र्श को कितने मुख्य भागों में बाँटा जाता है ?
उत्तर-
महासागरीय फ़र्श को चार मुख्य भागों में बाँटा जाता है-

  1. महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)
  2. महाद्वीपीय missing (Continental Slope)
  3. महाद्वीपीय मैदान (Deep Sea Plain)
  4. समुद्री गहराई (Ocean Deeps)

प्रश्न 6.
महासागरीय फ़र्श पर सबसे अधिक मिलने वाली भू-आकृतियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  • समुद्री उभार (Ridges)
  • पहाड़ियाँ (Hills)
  • समुद्री टीले (Sea Mounts)
  • डूबे हुए द्वीप (Guyots)
  • खाइयाँ (Trenches)
  • कैनियान (Canyons)
  •  प्रवाह भित्तियाँ (Coral Reefs)।

प्रश्न 7.
पृथ्वी को जल ग्रह और नीला ग्रह क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
पृथ्वी के तल पर 71% भाग पर जलमंडल का विस्तार है, इसलिए इसे जल ग्रह (Watery Planet) कहते हैं। इस कारण अंतरिक्ष से पृथ्वी का रंग नीला दिखाई देता है और इसे नीला ग्रह (Blue Planet) कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न 8.
प्रति-ध्रुवीय स्थिति (Anti-Podal) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इसका अर्थ है कि पृथ्वी पर जल और स्थल एक-दूसरे के विपरीत स्थित हैं। यदि पृथ्वी के केंद्र से कोई व्यास खींचा जाए तो उसके एक सिरे पर जल और दूसरे सिरे पर स्थल होगा। यह स्थिति Diametrically Opposite होगी।

प्रश्न 9.
पृथ्वी पर सबसे बड़ा महासागर कौन-सा है और उसका क्षेत्रफल कितना है ?
उत्तर–
प्रशांत महासागर पृथ्वी का सबसे बड़ा महासागर है, जिसका क्षेत्रफल 1654 लाख वर्ग किलोमीटर है।

प्रश्न 10.
महासागरों की गहराई किस यंत्र से मापी जाती है ?
उत्तर-
महासागरों की गहराई Sound Waves का प्रयोग करके Sonic Depth Recorder नामक यंत्र के द्वारा मापी जाती है।

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प्रश्न 11.
पृथ्वी के सबसे ऊँचे भाग और महासागरों के सबसे गहरे भाग में कितना अंतर है ?
उत्तर-
पृथ्वी के सबसे ऊँचे भाग मांऊट एवरेस्ट की ऊँचाई 8848 मीटर है और सबसे गहरे भाग मेरियाना खाई की गहराई 11033 मीटर है और दोनों में अंतर 19881 मीटर है। यदि एवरेस्ट शिखर को मेरियाना खाई में डुबो दिया जाए, तो इसके शिखर पर 2185 मीटर गहरा पानी होगा।

प्रश्न 12.
महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf) किसे कहते हैं ?
उत्तर-
महाद्वीपों के चारों ओर के मंद ढलान वाले, समुद्री हिस्से को महाद्वीपीय शैल्फ कहा जाता है। यह क्षेत्र जल में डूबा रहता है।

प्रश्न 13.
महाद्वीपीय शैल्फ की औसत गहराई और विस्तार बताएँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ की औसत गहराई 100 फैदम (Fathom) या 183 मीटर मानी जाती है। महासागरों के 7.6% भाग (360 लाख वर्ग कि०मी०) पर इसका विस्तार है। सबसे अधिक विस्तार अंध महासागर में 13.3% क्षेत्र पर है।

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प्रश्न 14.
महाद्वीपीय ढलान (Continental Slope) की परिभाषा दें।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ से आगे गहरे समुद्री भाग तक तीखी ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं। इसकी औसत ढलान 2° से 5° तक होती है और इसकी गहराई 200 मीटर से 3660 मीटर तक होती है। इसका सबसे अधिक विस्तार अंध महासागर के 12.4% भाग पर है।

प्रश्न 15.
महाद्वीपीय शैल्फ की रचना की विधियाँ बताएँ।
उत्तर-

  • जल सतह के ऊपर उठने या थल सतह के धंसने से।
  • अपरदन से।
  • तटों पर निक्षेप से।

प्रश्न 16.
विश्व में सबसे गहरी खाई कौन-सी है ?
उत्तर-
अंधमहासागर में गुयाम द्वीप के निकट मेरियाना खाई (11033 मीटर गहरी) सबसे गहरी खाई है।

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प्रश्न 17.
समुद्री खाई और कैनियन में क्या अंतर है ?
उत्तर-
महासागरीय फ़र्श पर गहरे मैदान में बहुत गहरी, तंग, लंबी और तीखी ढलान वाली गहराई को खाई (Trench) कहते हैं। परंतु महाद्वीपीय शैल्फ और ढलान पर तीखी ढलान वाली गहरी घाटियों और खाइयों को समुद्री कैनियन (Canyons) कहते हैं।

प्रश्न 18.
प्रशांत महासागर की तीन खाइयों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  • चैलंजर खाई
  • होराइज़न खाई
  • ऐमडन खाई।

प्रश्न 19.
विश्व में कुल कितनी खाइयाँ हैं ? सबसे अधिक खाइयाँ किस महासागर में हैं ?
उत्तर-
विश्व में सभी महासागरों में 57 खाइयाँ हैं। सबसे अधिक खाइयाँ प्रशांत महासागर में हैं।

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प्रश्न 20.
प्रशांत महासागर की उत्पत्ति के बारे में बताएँ।
उत्तर-
एक विचार के अनुसार पृथ्वी से चंद्रमा के अलग होने के बाद बने गर्त से प्रशांत महासागर बना है। दूसरे विचार के अनुसार एक विशाल भू-खंड के धंस जाने से यह महासागर बना है।

प्रश्न 21.
मध्यवर्ती अंध महासागरीय कटक का वर्णन करें।
उत्तर-
यह ‘S’ आकार की कटक 14400 कि०मी० लंबी है और अंध-महासागर के मध्य में उत्तर में आइसलैंड से लेकर दक्षिण में बोविट टापू तक फैली हुई है और औसत रूप में 4000 मीटर गहरी है।

प्रश्न 22.
अंध महासागर की तीन प्रसिद्ध कटकोम के नाम बताएँ
उत्तर-

  1. डॉल्फिन कटक
  2. चैलंजर कटक
  3. वैलविस कटक
  4. रियो ग्रांड कटक
  5. विवल टामसन कटक।

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प्रश्न 23.
हिंद महासागर का क्षेत्रफल और आकार बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर का कुल क्षेत्रफल लगभग 735 लाख वर्ग किलोमीटर है, जोकि जल-मंडल का 20% भाग है। यह त्रिकोण आकार का महासागर उत्तर में बंद है और स्थल-खंड से घिरा हुआ है।

प्रश्न 24.
हिंद महासागर को आधा-महासागर (Half Ocean) क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
हिंद महासागर का विस्तार केवल कर्क रेखा तक है और उत्तर में यह स्थल-खंड से बंद है। यह केवल दक्षिणी गोलार्द्ध में ही पूरी तरह फैला हुआ है, इसलिए इसे आधा महासागर कहते हैं।

प्रश्न 25.
हिंद महासागर का सबसे गहरा स्थान बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर में सुंडा खाई (Sunda Trench) सबसे गहरा स्थान है, जो 7450 मीटर गहरा है और इंडोनेशिया के निकट स्थित है।

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प्रश्न 26.
महासागरों के तापमान के विभाजन पर कौन-से कारक प्रभाव डालते हैं ?
उत्तर-

  • भूमध्य रेखा से दूरी
  • प्रचलित पवनें और धाराएँ
  • थल खंडों का प्रभाव
  • हिम खंडों का बहाव।

प्रश्न 27.
उत्तरी सागर का तापमान ऊँचा क्यों रहता है ?
उत्तर-
खाड़ी की गर्म धारा के कारण।

प्रश्न 28.
लाल सागर और खाड़ी फारस के जल का तापमान बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी फारस के जल का तापमान 34°C और लाल सागर के जल का तापमान 32°C रहता है।

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प्रश्न 29.
1° अक्षांश पर महासागरों के जल के तापमान के कम होने की क्या दर है ?
उत्तर-
1° अक्षांश पर 0.3°C तापमान कम होता है।

प्रश्न 30.
महासागरों के तापमान का कटिबंधों के अनुसार विभाजन बताएँ।
उत्तर-

  • उष्ण कटिबंध में उच्च तापमान (27°C)
  • शीतोष्ण कटिबंध में मध्यम तापमान (15°C)
  • ध्रुवीय कटिबंध में निम्न तापमान (0°C)

प्रश्न 31.
महासागरों में सूर्य की किरणों का प्रभाव कितनी गहराई तक होता है ?
उत्तर-
लगभग 183 मीटर तक।

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प्रश्न 32.
तीन महासागरों की सतह के जल का तापमान बताएँ।
उत्तर-

  • प्रशांत महासागर – 19.1°C
  • हिंद महासागर – 17.03°C
  • अंध महासागर-16.9°C

प्रश्न 33.
4000 मीटर की गहराई पर महासागरों का तापमान कितना होता है ?
उत्तर-
1.7°C.

प्रश्न 34.
हिंद महासागर और लाल सागर की 2400 मीटर की गहराई पर पानी के तापमान में बहुत अंतर क्यों है ?
उत्तर-
इन दोनों सागरों में बॉब० एल० मंदेब (Bob-el Mandeb) नाम के कटक पानी के मिलने में रुकावट डालते हैं। हिंद महासागर की गहराई पर 15°C तापमान है जबकि लाल सागर में 21°C है।

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प्रश्न 35.
महासागरों के खारेपन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
महासागरीय जल का खारापन वह अनुपात है, जो घुले हुए नमक की मात्रा और सागरीय जल की मात्रा में होता है।

प्रश्न 36.
महासागरीय खारेपन के स्रोत बताएँ।
उत्तर-

  • नदियाँ
  • लहरें
  • ज्वालामुखी।

प्रश्न 37.
महासागरीय जल में से नमक हटा लेने से क्या प्रभाव होगा ?
उत्तर-

  • महासागरीय जल के नमक को यदि भू-तल पर बिछा दिया जाए, तो भू-तल पर 55 मीटर की परत बिछ जाएगी।
  • समुद्र तल लगभग 30 मीटर नीचा हो जाएगा।

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प्रश्न 38.
महासागरीय जल का औसत खारापन कितना है ?
उत्तर-
महासागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम नमक प्रति 1000 ग्राम जल है और इसे 35% के रूप में प्रकट किया जाता है।

प्रश्न 39.
महासागरीय जल के पाँच प्रसिद्ध लवण (नमक) और उनकी मात्रा बताएँ।
उत्तर-

  1. सोडियम क्लोराइड – 77.8%
  2. मैग्नीशियम क्लोराइड – 10.9%
  3. मैग्नीशियम सल्फेट – 4.7%
  4. कैल्शियम सल्फेट – 3.6%
  5. पोटाशियम सल्फेट – 2.5%

प्रश्न 40.
महासागरीय जल के खारेपन को नियंत्रित करने वाले तीन कारक बताएँ।
उत्तर-

  • तजें जल की प्रपत्ति वर्षा ओर नदियों से
  • वाष्पीकरण की तीव्रता और मात्रा।
  • पवनों और धाराओं द्वारा पानी की मिश्रण क्रिया।

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प्रश्न 41.
पानी के उत्थान (Upwelling of Water) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जिस प्रदेश से प्रचलित पवनें पानी बहाकर ले जाती हैं, उस स्थान पर नीचे से पानी की गहरी सतह ऊपर आ जाती है। इस क्रिया को पानी का उत्थान कहते हैं।

प्रश्न 42.
कर्क रेखा और मकर रेखा पर अधिक खारेपन के तीन कारण बताएँ।
उत्तर-

  • बादल रहित आकाश के कारण तीव्र वाष्पीकरण।
  • उच्च वायुदाब पेटियों के कारण वर्षा की कमी।
  • बड़ी नदियों का न होना।

प्रश्न 43.
भूमध्य रेखीय खंड में खारापन कम क्यों है ?
उत्तर-

  • हर रोज़ तेज़ वर्षा होने के कारण।
  • बड़ी-बड़ी नदियों (अमेज़न आदि) के कारण ताज़े जल की प्राप्ति।

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प्रश्न 44.
ध्रुवीय प्रदेशों में न्यूनतम खारेपन का कारण बताएँ।
उत्तर-

  • सूर्य का ताप कम है और वाष्पीकरण कम है।
  • हिम पिघलने से ताज़े जल की प्राप्ति।
  • विशाल नदियों से ताज़े जल की प्राप्ति।

प्रश्न 45.
भूमध्य सागर और लाल सागर में उच्च खारापन क्यों हैं ?
उत्तर-
भूमध्य सागर (39%) और लाल सागर (41%) में अधिक खारेपन का मुख्य कारण निकट के मरुस्थलों के कारण तीव्र वाष्पीकरण है। बड़ी नदियों की कमी के कारण ताज़े जल की प्राप्ति कम है।

प्रश्न 46.
काला सागर और बाल्टिक सागर में खारापन कम क्यों है ? .
उत्तर-
काला सागर (18%) और बाल्टिक सागर (8%) में कम खारेपन का मुख्य कारण इन शीत प्रदेशों में वाष्पीकरण की कमी है। अधिक वर्षा, हिम के पिघलने और बड़ी नदियों से ताज़े जल की पर्याप्त प्राप्ति है।

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प्रश्न 47.
मृत सागर कहाँ स्थित है और इसमें बहुत ऊँचा खारापन क्यों है ?
उत्तर-
मृत सागर पश्चिमी एशिया में इज़रायल और जॉर्डन देशों की सीमा पर स्थित है। इस पूर्ण बंद सागर में 237% खारापन है। आस-पास के शुष्क मरुस्थलों के कारण वाष्पीकरण तेज़ होता है, वर्षा नहीं होती, यह एक अंदरूनी प्रवाह वाला सागर है और कोई भी नदी इससे बाहर नहीं बहती।

प्रश्न 48.
किन्हीं तीन घिरे हुए बंद सागरों और झीलों के नाम और खारापन बताएँ।
उत्तर-

  • मृत सागर – 237.5%
  • ग्रेट साल्ट लेक – 220%
  • वान झील – 330%.

प्रश्न 49.
महासागर के जल की कौन-सी विभिन्न गतियाँ हैं ?
उत्तर-
महासागर के जल की तीन प्रकार की गतियाँ हैं-

  • लहरें
  • धाराएँ
  • ज्वारभाटा।

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प्रश्न 50.
समुद्री लहरें क्या होती हैं ?
उत्तर-
महासागरों में जल के ऊपर उठने और नीचे आने की गति (हलचल) को लहर कहा जाता है।

प्रश्न 51.
लहर के दो प्रमुख भाग बताएँ।
उत्तर-
लहर में जल के ऊपर उठे हुए भाग को शिखर (Crest) और निचले भाग को गर्त (Trough) कहते हैं।

प्रश्न 52.
लहर की लंबाई की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
लहर के एक शिखर से दूसरे शिखर तक की दूरी को लहर की लंबाई कहते हैं।

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प्रश्न 53.
लहर की गति का नियम क्या है ?
उत्तर-
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प्रश्न 54.
महासागरीय लहरों की प्रमुख किस्में बताएँ।
उत्तर-

  1. सी (sea)
  2. स्वैल (Swell)
  3. सर्फ (Surf)।

प्रश्न 55.
स्वॉश (Swash) और बैकवॉश (Backwash) में क्या अंतर है ?
उत्तर-
लहर का जल जब तट पर प्रवाह करता है, तो उसे स्वॉश कहते हैं। तट से लौटते हुए जल को उल्ट प्रवाह या बैकवॉश (Backwash) कहते हैं।

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प्रश्न 56.
सागरीय धारा की परिभाषा दें।
उत्तर-
समुद्र के एक भाग से दूसरे भाग की ओर, एक निश्चित दिशा में, विशाल जल-राशि के लगातार प्रवाह को सागरीय धारा कहते हैं।

प्रश्न 57.
ड्रिफ्ट और धारा में क्या अंतर है ?
उत्तर-
जब पवनों के वेग से, सागर तल पर जल धीमी गति से आगे बढ़ता है, तो उसे ड्रिफ्ट कहते हैं, जैसेमानसून ड्रिफ्ट। जब सागरीय जल तेज़ गति से आगे बढ़ता है तो उसे धारा कहते हैं।

प्रश्न 58.
धाराओं की उत्पत्ति के तीन प्रमुख कारण बताएँ।
उत्तर-

  • प्रचलित पवनें
  • तापमान और खारेपन में विभिन्नता
  • पृथ्वी की दैनिक गति।

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प्रश्न 59.
उत्तरी हिंद महासागर में धाराएँ सर्दी और गर्मी में अपनी दिशा क्यों बदल लेती हैं ?
उत्तर-
यहाँ गर्मियों में दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनें चलती हैं, परंतु सर्दियों में उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें चलती हैं। पवनों की दिशा बदलने से धाराएँ भी अपनी दिशा बदल लेती हैं।

प्रश्न 60.
धाराओं के संबंध में फैरल के सिद्धान्त का उल्लेख करें।
उत्तर-
फैरल के सिद्धान्त के अनुसार धाराएँ उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर और दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं।

प्रश्न 61.
महासागरों में भूमध्य रेखीय विपरीत धारा का क्या कारण है ?
उत्तर-
भूमध्य रेखा पर अपकेंद्रीय बल अधिक होने के कारण जल पृथ्वी की परिभ्रमण दिशा के साथ-साथ पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर बहता है।

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प्रश्न 62.
तीनों महासागरों की सांझी धारा कौन-सी है ?
उत्तर–
तीनों महासागरों में निर्विघ्न विस्तार के कारण जल की लगातार एक सांझी धारा बहती है, जिसे पश्चिमी पवन प्रवाह कहते हैं।

प्रश्न 63.
पश्चिमी यूरोप पर गल्फ स्ट्रीम के कोई दो प्रभाव बताएँ।
उत्तर-

  • पश्चिमी यूरोप में सर्दी की ऋतु में तापमान साधारण से 50°C ऊँचा रहता है।
  • पश्चिमी यूरोप की बंदरगाहें सारा साल व्यापार के लिए खुली रहती हैं।

प्रश्न 64.
नीचे लिखी धाराओं के कारण कौन-कौन से मरुस्थल बनते हैं
(i) कनेरी की धारा
(ii) पेरु की धारा
(iii) बैंगुएला की धारा।
उत्तर-
(i) कनेरी की धारा – सहारा मरुस्थल
(ii) पेरु की धारा – ऐटेकामा मरुस्थल
(iii) बैंगुएला की धारा – कालाहारी मरुस्थल।

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प्रश्न 65.
हिम शैलों (खंडों) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जल में तैरते हुए हिम खंडों के बड़े-बड़े टुकड़ों को हिम शैल कहते हैं। इनका 1/10 भाग ही जल की सतह के ऊपर रहता है।

प्रश्न 66.
हिम शैलों के किन्हीं दो प्रदेशों के नाम बताएँ।
उत्तर-
अलास्का और ग्रीनलैंड।

प्रश्न 67.
अंध महासागर की कौन-सी दो धाराएँ न्यूफाऊंडलैंड के निकट आपस में मिलती हैं ?
उत्तर-
लैबरेडोर की ठंडी धारा और खाड़ी की गर्म धारा।

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प्रश्न 68.
ज्वारभाटा की परिभाषा दें।
उत्तर-
सागरीय जल के नियमित उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं। पानी के ऊपर उठने को ज्वार और पानी के नीचे उतरने की क्रिया को भाटा कहते हैं।

प्रश्न 69.
विश्व में सबसे ऊँचा ज्वार कहाँ आता है ?
उत्तर-
दक्षिण-पूर्वी कनाडा की फंडे की खाड़ी (Bay of Funday) में 22 मीटर ऊँचा ज्वार आता है।

प्रश्न 70.
ज्वारभाटे की उत्पत्ति का प्रमुख कारण क्या है ?
उत्तर–
ज्वारभाटे की उत्पत्ति का प्रमुख कारण चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति है।

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प्रश्न 71.
ऊँचा ज्वार और लघु ज्वार में क्या अंतर है ?
उत्तर-
जब सूर्य, चाँद और धरती एक सीधी रेखा में होते हैं, तो सबसे अधिक ऊँचे ज्वार को ऊँचा ज्वार कहते हैं। जब सूर्य और चाँद धरती से समकोण की स्थिति में होते हैं, तो कम ऊँचे ज्वार को लघु ज्वार कहते हैं।

प्रश्न 72.
लघु ज्वार और ऊँचा ज्वार किन तिथियों को आते हैं ?
उत्तर-
ऊँचा ज्वार अमावस्या और पूर्णिमा को आते हैं, जबकि लघु ज्वार अष्टमी वाले दिनों में आते हैं।

प्रश्न 73.
दो बंदरगाहों के नाम बताएँ, जहाँ जहाज़ ज्वारभाटा की मदद से प्रवेश करते हैं ?
उत्तर-
कोलकाता और कराची।

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प्रश्न 74.
किसी स्थान पर ज्वार हर दिन 52 मिनट देरी से क्यों आता है ?
उत्तर-
चाँद पृथ्वी के सामने 24 घंटे बाद पहले स्थान पर नहीं आता, बल्कि 13° के कोण में आगे बढ़ जाता है। इसलिए किसी स्थान को चाँद के सामने आने के लिए 13° x 4 = 52 मिनट का अधिक समय लगता है।

प्रश्न 75.
ज्वार की दीवार से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जब ज्वार का जल नदी में प्रवेश कर जाता है, तो वह जल की विपरीत दिशा में बहता है। ज्वार की लहर की ऊँचाई बढ़ जाती है। इसे ज्वार की दीवार कहते हैं।

प्रश्न 76.
किन नदियों में ज्वार की दीवार बनती है ?
उत्तर-
हुगली नदी, अमेज़न नदी, हडसन नदी।

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लघु उत्तरात्मक प्रश्न । (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
मनुष्य के लिए महासागरों की महत्ता का वर्णन करें।
उत्तर-
महासागरों की महत्ता (Significance of Oceans)—महासागर अनेक प्रकार से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के लिए उपयोगी हैं-

  1. महासागर जलवायु पर व्यापक प्रभाव डालते हैं।
  2. महासागर मनुष्यों के लिए मछलियों और खाद्य-पदार्थों के विशाल भंडार हैं।
  3. समुद्री जंतुओं से तेल, चमड़ा आदि कई उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं।
  4. महासागरों के कम गहरे क्षेत्रों में तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार हैं और वहाँ कई खनिज भी मिलते हैं।
  5. महासागरों में ज्वारीय और भू-तापीय ऊर्जा पैदा की जा सकती है।
  6. महासागर आवाजाही के महत्त्वपूर्ण, सस्ते और प्राकृतिक स्रोत हैं।

प्रश्न 2.
“महासागर भविष्य के भंडार हैं।” कथन की व्याख्या करें।
उत्तर-
महासागर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से धरती पर नमी, वर्षा, तापमान आदि पर प्रभाव डालते हैं। महासागर बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्य-पदार्थों के विशाल स्रोत हैं। मछलियाँ मानवीय भोजन का 10% भाग प्रदान करती हैं। मनुष्य कई प्रकार के उपयोगी पदार्थों के लिए महासागरों पर निर्भर करता है। खनिज तेल के 20% भंडार महासागर में मौजूद हैं। कई देशों में ऊर्जा संकट पर नियंत्रण करने के लिए महासागर से ज्वारीय और भू-तापीय ऊर्जा प्राप्त की जाती है। इस प्रकार भविष्य में मनुष्य की बढ़ती हुई माँगों की पूर्ति महासागरों से ही की जा सकेगी, इसीलिए महासागरों को भविष्य के भंडार कहा जाता है।

प्रश्न 3.
महाद्वीपीय शैल्फ और महाद्वीपीय ढलान में अंतर बताएँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)-

  1. महाद्वीपों के चारों ओर पानी के नीचे डूबे चबूतरों को महाद्वीपीय शैल्फ कहते हैं।
  2. इसकी औसत गहराई 200 मीटर (100 फैदम) होती है।
  3. सभी महासागरों के 7.5% भाग पर इसका विस्तार है।
  4. इसकी औसत ढलान 1° से कम है।
  5. मछली क्षेत्रों और पैट्रोलियम के कारण इसकी आर्थिक महत्ता है।

महाद्वीपीय ढलान (Continental Slope)-

  1. महाद्वीपीय शैल्फ से महासागर के ओर की ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं।
  2. इसकी औसत गहराई 200 मीटर से 3000 मीटर तक होती है।
  3. सभी महासागरों के 8.5% भाग पर इसका विस्तार है।
  4. इसकी औसत ढलान 2° से 5° तक है।
  5. इस पर अनेक समुद्री कैनियन मिलती हैं।

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प्रश्न 4.
समुद्री पर्वत और डूबे हुए द्वीप में अंतर बताएँ।
उत्तर-
समुद्री पर्वत (Sea Mounts)-

  1. यह एक प्रकार की समुद्री पहाड़ी होती है।
  2. यह समुद्र तल से 1000 मीटर ऊँचे होते हैं।
  3. इनकी चोटियाँ नुकीली होती हैं।

डूबे हुए द्वीप (Guyots)-

  1. ये ज्वालामुखी चोटियों के बचे-खुचे भाग होते हैं।
  2. ये समुद्री द्वीप कम ऊँचे होते हैं।
  3. इनकी चोटियाँ कटाव के कारण चौकोर होती

प्रश्न 5.
समुद्री खाई और समुद्री कैनियन में अंतर बताएँ।
उत्तर –
समुद्री खाई (Sub-marine Trench)-

  1. ये समुद्र के गहरे भागों में मिलती हैं।
  2. ये लंबी, गहरी और तंग खाइयाँ होती हैं।
  3. ये मोड़दार पर्वतों के साथ पाई जाती हैं।
  4. मेरियाना खाई सबसे गहरी खाई है, जोकि 11 किलोमीटर गहरी है।

समुद्री कैनियन (Sub-marine Canyon)-

  1. ये महाद्वीपीय शैल्फ और ढलानों पर मिलती हैं।
  2. ये तंग और गहरी ‘V’ आकार की घाटियाँ होती हैं।
  3. ये समुद्री तटों और नदियों के मुहानों पर पाई जाती हैं।
  4. बैरिंग कैनियन विश्व में सबसे बड़ी कैनियन है, जोकि 400 किलोमीटर लंबी है।

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प्रश्न 6.
धरती पर महासागरों को जलवायु के महान् नियंत्रक क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
महासागर जलवायु पर व्यापक प्रभाव डालते हैं, इसलिए इन्हें जलवायु के प्रमुख नियंत्रक कहा जाता है।

  • महासागर धरती पर नमी, वर्षा और तापमान के विभाजन पर प्रभाव डालते हैं।
  • महासागर सूर्य की ऊर्जा के भंडार हैं।
  • महासागरों के कारण तटीय भागों में समकारी जलवायु पाई जाती है।
  • समुद्री धाराएँ अपने निकट के तटीय प्रदेशों के तापमान को समकारी बनाती हैं।

प्रश्न 7.
झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन के विभाजन के बारे में बताएँ।
उत्तर-
झीलों और आंतरिक सागरों में खारापन (Salinity in Lakes and Inland Seas)-झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन की मात्रा इनमें गिरने वाली नदियों, वाष्पीकरण की मात्रा और स्थिति के कारण भिन्न-भिन्न है। झीलों में नदियों के गिरने से ताज़ा जल अधिक हो जाता है और खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। अधिक तापमान से वाष्पीकरण अधिक होता है, जिससे खारापन बढ़ जाता है। कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग में खारापन 14 ग्राम प्रति हज़ार ग्राम जल है, परंतु दक्षिणी भाग में यह मात्रा 170 ग्राम प्रति हजार ग्राम जल है। संयुक्त राज्य अमेरिका की साल्ट झील में खारापन 220 ग्राम प्रति हज़ार है। जॉर्डन में मृत सागर (Dead Sea) में खारापन 238 ग्राम प्रति हज़ार है। तुर्की की वैन झील (Van Lake) में खारेपन की मात्रा 330 ग्राम प्रति हज़ार है। यहाँ अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण खारापन अधिक है।

प्रश्न 8.
सागरीय जल के खारेपन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
समुद्र के जल का स्वाद खारा होता है। यह खारापन कई स्थानों पर अधिक और कई स्थानों पर कम होता है। समुद्र के जल में खारापन पैदा करने में नदियों का योगदान होता है। नदियों के पानी में कई तरह के नमक घुले होते हैं, जिन्हें नदियाँ अपने साथ समुद्रों में ले जाती हैं। इन नमक युक्त पदार्थों को ही खारेपन का नाम दिया जाता है। अनुमान है कि विश्व की सभी नदियाँ हर वर्ष 5 अरब 40 करोड़ टन नमक समुद्रों में ले जाती हैं। समुद्रों का औसत खारापन 35% होता है, परंतु सभी समुद्रों में यह एक समान नहीं होता। कहीं बहुत अधिक और कहीं बहुत कम होता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न 9.
झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन का विभाजन बताएँ।
उत्तर-
झीलों और आंतरिक सागरों (Lakes and Inland Seas) में खारापन झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन की मात्रा इन में गिरने वाली नदियों, वाष्पीकरण की मात्रा और स्थिति के कारण भिन्न-भिन्न होती है। झीलों में नदियों के गिरने से ताज़ा जल अधिक हो जाता है और खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। अधिक तापमान के कारण वाष्पीकरण अधिक होता है, जिससे खारापन अधिक हो जाता है। कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग में खारापन 14 ग्राम प्रति हज़ार है, परंतु दक्षिणी भाग में यह मात्रा 170 ग्राम प्रति हज़ार है। संयुक्त राज्य अमेरिका की साल्ट झील में खारापन 220 प्रति हज़ार है। जार्डन में मृत सागर (Dead Sea) में खारापन 238 ग्राम प्रति हज़ार है। तुर्की की वैन झील (Van Lake) में खारेपन की मात्रा 330 ग्राम प्रति हज़ार है। यहाँ अधिक खारापन अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण होता है।

प्रश्न 10.
अलग-अलग सागरों के खारेपन की मात्रा पर वाष्पीकरण का क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
जिन महासागरों में वाष्पीकरण अधिक होगा, उनका जल अधिक खारा होगा। ऐसा इसलिए होता है कि वाष्पीकरण की क्रिया द्वारा सागरीय जल वाष्प बनकर उड़ जाता है और बाकी बचे जल में खारेपन की मात्रा अधिक हो जाती है। अधिक तापमान, वायु की तीव्रता और शुष्कता के कारण सागरों का खारापन बढ़ जाता है। कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट अधिक वाष्पीकरण के कारण खारापन अधिक होता है। कम तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण खारापन कम हो जाता है।

प्रश्न 11.
महासागरीय धाराओं की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-

  1. धाराएँ लगातार एक निश्चित दिशा में बहती हैं।
  2. गर्म धाराएँ निचले अक्षांशों से ऊँचे अक्षांशों की ओर बहती हैं।
  3. ठंडी धाराएँ ऊँचे अक्षांशों से निचले अक्षांशों की ओर बहती हैं।
  4. उत्तरी गोलार्द्ध में धाराएँ अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं।
  5. निचले अक्षांशों में पूर्वी तटों पर गर्म धाराएँ और पश्चिमी तटों पर ठंडी धाराएँ बहती हैं।
  6. उच्च अक्षांशों में पश्चिमी तटों पर गर्म धाराएँ और पूर्वी तटों पर ठंडी धाराएँ बहती हैं।

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प्रश्न 12.
हुगली नदी में जहाज़ चलाने के लिए ज्वारभाटे की महत्ता बताएँ।
उत्तर-
हुगली नदी में ज्वारभाटे की विशेष महत्ता है। कोलकाता बंदरगाह एक कम गहरी और कृत्रिम बंदरगाह है। जब ज्वार के समय पानी ऊपर होता है, तो कोलकाता की कम गहरी बंदरगाह में बड़े-बड़े जहाज़ दाखिल हो जाते हैं। इस प्रकार पानी के बड़े-बड़े जहाज़ समुद्र में कई मील अंदर तक प्रवेश कर जाते हैं। भाटे के समय जहाज़ वापस हो जाते हैं। कोलकाता हुगली नदी के किनारे समुद्र तट से 120 किलोमीटर दूर है। परंतु हुगली नदी में आने वाले ऊँचे ज्वारभाटे के कारण पानी के जहाज़ कोलकाता तक पहुँच जाते हैं। जब ज्वार नहीं होता, तो जहाज़ों को कोलकाता से 70 किलोमीटर दूर डायमंड हार्बर (Diamond Harbour) में रुके रहना पड़ता है।

प्रश्न 13.
ज्वार की दीवार पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।।
उत्तर-
ज्वार की दीवार (Tidal Wall)-नदियों के मुहाने में पानी की ऊँची दीवार को ज्वार की दीवार कहते हैं। जब ज्वार उठता है, तो पानी की एक धारा नदी घाटी में प्रवेश करती हैं। यह, लहर नदी के जल को विपरीत दिशा में बहाने का यत्न करती है, ज्वार की लहर की ऊँचाई बहुत बढ़ जाती है। नदियों में पानी का बहाव विपरीत हो जाता है। पानी समुद्र से अंदर की ओर बहने लगता है। पानी की इस ऊँची दीवार को ज्वार-दीवार कहते हैं। ज्वारदीवार विशेषकर उन नदियों में दिखाई देती है, जिनका खुला मुहाना कुप्पी जैसा होता है। तंग मुँह और तेज़ धारा के कारण ज्वार-लहर के आगे एक दीवार खड़ी हो जाती है। यह ज्वार-दीवार बहुत विनाशकारी होती है। इससे नावें उलट जाती हैं। जहाज़ों के रस्से टूट जाते हैं। जहाज़ नष्ट हो जाते हैं । हुगली नदी में इन दीवारों के कारण छोटी नावों को बहुत नुकसान होता है। यंग-सी घाटी (चीन) में 3-4 मीटर ऊँची ज्वार की दीवार पाई जाती है, जो 16 किलोमीटर प्रति घंटे की दर से नदी में अंदर बढ़ती जाती है।

प्रश्न 14.
“धाराएँ प्रचलित पवनों के द्वारा निर्धारित होती हैं।” व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रचलित पवनें (Prevailing Winds)-हवा अपनी अपार शक्ति के कारण पानी को गति देती है। धरातल पर चलने वाली स्थायी पवनें (Planetary Winds) लगातार एक ही दिशा में चलने के कारण धाराओं को जन्म देती हैं। विश्व की प्रमुख धाराएँ स्थायी पवनों की दिशा के अनुसार चलती हैं। (Ocean currents are wind determined) । मौसमी पवनें (Seasonal Winds) भी धाराओं की दिशा और उत्पत्ति में सहायक होती हैं।

उदाहरण (Examples)-

  1. व्यापारिक पवनें (Trade Winds)—इनके द्वारा उत्तरी और दक्षिणी भूमध्य रेखीय धाराएँ (Equational Currents) पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं।
  2. पश्चिमी पवनें (Westerlies)—इनके प्रभाव से खाड़ी की धारा (Gulf Stream) और क्यूरोशियो (Curoshio) धारा पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है।

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प्रश्न 15.
किसी क्षेत्र की वर्षा पर धाराओं के प्रभाव का उल्लेख करें।
उत्तर-
गर्म धाराओं के निकट के प्रदेशों में वर्षा अधिक होती है, परंतु ठंडी धाराओं के निकट के प्रदेशों में वर्षा कम होती है। गर्म धाराओं के ऊपर बहने वाली पवनों में नमी धारण करने की शक्ति बढ़ जाती है, परंतु ठंडी धाराओं के संपर्क में आकर पवनें ठंडी हो जाती हैं और अधिक नमी धारण नहीं कर सकतीं।

उदाहरण (Examples)–

  • उत्तर-पश्चिमी यूरोप में खाड़ी की गर्म धारा के कारण और जापान के पूर्वी तट पर क्यूरोशिओ की गर्म धारा के कारण अधिक वर्षा होती है।
  • विश्व के प्रमुख मरुस्थलों के तटों के निकट ठंडी धाराएँ बहती हैं, जैसे-सहारा तट पर कैनेरी धारा, कालाहारी तट पर बेंगुएला धारा, ऐटेकामा तट पर पेरू की धारा।

प्रश्न 16.
खाड़ी की धारा का वर्णन करते हुए इसके प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी की धारा (Gulf Stream Current)
उत्पत्ति (Origin)—यह धारा खाड़ी मैक्सिको में एकत्र पानी द्वारा पैदा होती है, इसीलिए इसे खाड़ी की धारा कहते हैं। यह धारा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के साथ-साथ उत्तर की ओर न्यूफाउंडलैंड (New Foundland) तक बहती है। यह गर्म पानी की धारा है, जो एक नदी के समान तेज़ चाल से चलती है। इसका रंग नीला होता है। यह लगभग 1 किलोमीटर गहरी और 50 किलोमीटर चौड़ी है और इसकी गति 8 किलोमीटर प्रति घंटा है।

शाखाओं के क्षेत्र (Areas)- 40° उत्तरी अक्षांशों के निकट यह धारा पश्चिमी पवनों (Westerlies) के प्रभाव से पश्चिम से पूर्व दिशा में बहती है। इसकी मुख्य धारा यूरोप की ओर बहती है, जिसे उत्तरी अटलांटिक प्रवाह (North Atlantic Drift) कहते हैं। यह एक धीमी धारा है, जिसे पश्चिमी पवनों के कारण पश्चिमी पवन प्रवाह (West Wind Drift) भी कहते हैं। यूरोप के तट पर यह धारा कई शाखाओं में बाँटी जाती है। ब्रिटेन का चक्कर लगाती हुई एक शाखा नॉर्वे के तट को पार करके आर्कटिक सागर में स्पिटसबर्जन (Spitsbergen) तक पहुँच जाती है, जहाँ इसे नॉर्वेजियन धारा (Norwegian Current) कहते हैं।

प्रभाव (Effects)-

  1. यह एक गर्म जलधारा है, जो ठंडे अक्षांशों में गर्म जल पहुँचाती है।
  2. यह धारा पश्चिमी यूरोप को गर्मी प्रदान करती है। यूरोप में सर्दी की ऋतु में साधारण तापमान इसी धारा की देन है।
  3. पश्चिमी यूरोप की सुहावनी जलवायु इसी धारा की देन है, इसलिए इसे यूरोप की जीवन-रेखा (Life Line of Europe) भी कहते हैं।
  4. पश्चिमी यूरोप के बंदरगाह सर्दी की ऋतु में नहीं जमते और व्यापार के लिए खुले रहते हैं।
  5. इस धारा के ऊपर से निकलने वाली पश्चिमी पवनें (Westerlies) यूरोप में बहुत वर्षा करती हैं।

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प्रश्न 17.
लैबरेडोर की धारा का वर्णन करें।
उत्तर-
लैबरेडोर की धारा (Labrador Current)—यह ठंडे पानी की धारा है, जो आर्कटिक सागर (Arctic Ocean) से उत्तरी अंध-महासागर की ओर बहती है। यह धारा बैफिन खाड़ी (Baffin Bay) से निकलकर कनाडा के तट के साथ बहती हुई न्यूफाउंडलैंड तक आ जाती है। यहाँ यह खाड़ी की धारा के साथ मिल जाती है, जिससे घना कोहरा पैदा होता है, इसकी एक शाखा सैंट लारेंस (St. Lawrance) घाटी में प्रवेश करती है, जो कई महीने बर्फ से जमी रहती है।

प्रभाव (Effects)-

  • ये प्रदेश बर्फ से ढके रहने के कारण अनुपजाऊ होते हैं।
  • ठंडी धारा के कारण इस प्रदेश के बंदरगाह सर्दी की ऋतु में जम जाते हैं और व्यापार बंद हो जाता है।
  • यह धारा अपने साथ आर्कटिक सागर से बर्फ के बड़े-बड़े खंड (Icebergs) ले आती है। कोहरे के कारण जहाज़ इन खंडों से टकराकर दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं।

प्रश्न 18.
उत्तरी हिंद महासागर की धाराओं पर मानसून पवनों के प्रभाव के बारे में बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर की धाराएं (Currents of Indian Ocean)-धाराओं और पवनों का संबंध हिंद महासागर में स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। यहाँ मानसून पवनों के कारण समुद्री धाराओं का क्रम भी मौसमी (Seasonal) होता है। यहाँ उत्तरी हिंद महासागर में चलने वाली धाराएँ, मानसून पवनों के कारण छह महीने के बाद अपनी दिशा बदल लेती हैं। परंतु दक्षिणी हिंद महासागर में धाराएँ पूरा वर्ष एक ही दिशा में चलने के कारण स्थायी होती हैं।

मानसून के प्रभाव के कारण धाराएँ सारा साल अपनी दिशा बदलती रहती हैं। वास्तव में कोई भी निश्चित धारा नहीं मिलती। छह महीने बाद इन धाराओं की दिशा और कर्म बदल जाते हैं।

प्रश्न 19.
ज्वारभाटा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
ज्वारभाटा समुद्र की एक गति है। समुद्र का जल नियमित रूप से प्रतिदिन दो बार ऊपर उठता है और दो बार नीचे उतरता है। “समुद्री जल के इस नियमित उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं।” (Regular rise and fall of sea water is called Tides) जल के ऊपर उठने की क्रिया को ज्वार (Flood or High Tides or Incoming Tide) कहते हैं। जल के नीचे उतरने की क्रिया को भाटा (Ebb or low Tide or Outgoing Tide) कहते हैं।

विशेषताएँ

  1. प्रत्येक स्थान पर ज्वारभाटे की ऊँचाई अलग-अलग होती है।
  2. प्रत्येक स्थान पर ज्वार और भाटे का समय अलग-अलग होता है।
  3. समुद्र का जल 6 घंटे 13 मिनट तक ऊपर चढ़ता है और इतनी ही देर में नीचे उतरता है।
  4. ज्वारभाटा एक स्थान पर नित्य ही एक समय नहीं आता।

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प्रश्न 20.
ज्वारभाटे की उत्पत्ति के कारण बताएँ।
उत्तर-
उत्पत्ति के कारण (Causes of Origin) चंद्रमा अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravitational Attraction) के कारण धरती के जल को अपनी ओर खींचता है। स्थल भाग कठोर होता है, इस कारण वह खींचा नहीं जा सकता, परंतु जल भाग तरल होने के कारण ऊपर उठता जाता है। यह जल चंद्रमा की ओर उठता है। वहाँ से निकट का जल सिमटकर ऊपर उठता जाता है, जिसे उच्च ज्वार (High Tide) कहते हैं। जिस स्थान पर जल की मात्रा कम रह जाती है, वहाँ जल अपने तल से नीचे गिर जाता है, उसे नीचा ज्वार (Low Tide) कहते हैं। धरती की दैनिक गति के कारण प्रत्येक स्थान पर दिन-रात में दो बार ज्वार आता है। एक ही समय में धरती के तल पर दो बार ज्वार पैदा होते हैंएक ठीक चाँद के सामने और दूसरा उसकी विपरीत दिशा में (Diametrical Opposite) चाँद की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार उठता है। इसे सीधा ज्वार (Direct Tide) कहते हैं। विपरीत दिशा में अपकेंद्रीय बल (Centrifugal Force) के कारण ज्वार उठता है और ऊँचा ज्वार पैदा होता है। इसे अप्रत्यक्ष ज्वार (Indirect Tide) कहते हैं। इस प्रकार धरती के एक तरफ ज्वार आकर्षण शक्ति की अधिकता के कारण और दूसरी तरफ अपकेंद्रीय शक्ति की अधिकता के कारण पैदा होते हैं।

प्रश्न 21.
लघु ज्वार और ऊँचे ज्वार में अंतर बताएँ।
उत्तर-
ऊँचा ज्वार (Spring Tide)-सबसे अधिक ऊँचे ज्वार को ऊँचा ज्वार कहते हैं। यह दशा अमावस्या (New moon) और पूर्णिमा (Full Moon) के दिन होती है।

कारण (Causes)-इस दशा में सूर्य, चाँद और धरती एक सीधी रेखा में होते हैं। सूर्य और चाँद की सांझी आकर्षण-शक्ति अधिक हो जाने से ज्वार-शक्ति बढ़ जाती है। सूर्य और चाँद के कारण उत्पन्न ज्वार इक्ट्ठे हो जाते हैं। (Spring tide is the sum of solar and luner tides.)। इन दिनों में ज्वार अधिक ऊँचा और भाटा बहुत कम नीचा होता है। ऊँचे ज्वार साधारण ज्वार से 20% अधिक ऊँचे होते हैं।

लघु ज्वार (Neap Tide)-अमावस्या के सात दिन बाद या पूर्णिमा के सात दिन बाद ज्वार की ऊँचाई दूसरे दिनों की तुलना में नीची रह जाती है। इसे लघु ज्वार कहते हैं। इस दशा को शुक्ल और कृष्ण पक्ष की अष्टमी कहते हैं, जब चाँद आधा (Half Moon) होता है।

कारण (Causes)—इस दशा में सूर्य और चाँद धरती की समकोण दशा (At Right Angles) पर होते हैं। सूर्य और चाँद की गुरुत्वाकर्षण शक्ति विपरीत दिशाओं में काम करती है। जहाँ सूर्य ज्वार पैदा करता है, वहाँ चाँद भाटा पैदा करता है। सूर्य और चाँद के ज्वारभाटा एक-दूसरे को कम करते हैं। (Neap tide is the difference of solar and luner tides) । इन दिनों में ऊँचा ज्वार कम ऊँचा और भाटा कम नीचा होता है। छोटा ज्वार प्रायः साधारण ज्वार से 20% कम ऊँचा होता है।

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प्रश्न 22.
दो ज्वारों के बीच कितने समय का अंतर होता है ?
उत्तर-
ज्वारभाटे का नियम (Law of Tides)—किसी स्थान पर ज्वारभाटा नित्य एक समय पर नहीं आता। धरती अपनी धुरी पर 24 घंटों में एक पूरा चक्कर लगाती है। इसलिए विचार किया जाता है कि ज्वार प्रत्येक स्थान पर 12 घंटे बाद आए, परंतु प्रत्येक स्थान पर ज्वार 12 घंटे 26 मिनट बाद आता है। हर रोज़ ज्वार पिछले दिन की तुलना में देर से आता है।

कारण (Causes)–चाँद धरती के चारों ओर 28 दिनों में पूरा चक्कर लगाता है। धरती के चक्कर का 28 वाँ भाग चाँद हर रोज़ आगे बढ़ जाता है। इसलिए किसी स्थान को चाँद के सामने दोबारा आने में 24 घंटे से कुछ अधिक समय ही लगता है। 24 घंटे 60 मिनट

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दूसरे शब्दों में, हर 24 घंटे के बाद चाँद अपनी पहले वाली स्थिति से लगभग 13° (360/28 = 13°) आगे निकल जाता है। इसलिए किसी स्थान को चाँद के ठीक सामने आने में 13 x 4 = 52 मिनट अधिक समय लग जाता है क्योंकि दिन में दो बार ज्वार आता है, इसलिए प्रतिदिन ज्वार 26 मिनट के अंतर से अनुभव किया जाता है। पूरे 12 घंटे बाद पानी का चढ़ाव देखने में नहीं आता, बल्कि ज्वार 12 घंटे 26 मिनट बाद आता है। 6 घंटे 13 मिनट तक जल ऊपर उठता और उसके बाद 6 घंटे 13 मिनट तक जल नीचे उतरता रहता है। ज्वार के उतार-चढ़ाव का यह क्रम चलता रहता है।

निबंधात्मक प्रश्न । (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
अंध महासागर की स्थल रूपरेखा के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर-
अंधमहासागर (Atlantic Ocean)-
1. विस्तार और आकार (Shape and Size) इस सागर का क्षेत्रफल 8 करोड़ 20 लाख किलोमीटर है जोकि कुल सागरीय क्षेत्रफल का 1/6 भाग है। इसका आकार अंग्रेज़ी के ‘S’ अक्षर जैसा है। यह सागर भूमध्य रेखा पर लगभग 2560 कि०मी० चौड़ा है, परंतु दक्षिण की ओर इसकी चौड़ाई 4800 कि० मी० है। यह सागर उत्तर की ओर से बंद है, जबकि दक्षिण की ओर से खुला होने के कारण यह हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के साथ मिल जाता है।

2. समुद्र तल (Ocean Floor)—इस सागर के तटों पर चौड़ा महाद्वीपीय शैल्फ पाया जाता है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका के तटों पर इसकी चौड़ाई 400 कि०मी० तक होती है। यहाँ प्रसिद्ध मछली क्षेत्र पाए जाते हैं।

3. समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—इस सागर में नीचे लिखी प्रमुख समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges) हैं

  • अंध महासागरीय मध्यवर्ती पहाड़ी (Central Ridge)
  • डॉल्फिन पहाड़ी (Dolphin Ridge)
  • दक्षिणी भाग में चैलंजर पहाड़ी (Challanger Ridge)
  • उत्तरी भाग में टैलीग्राफ पठार।

4. सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-अंध महासागर में कई छोटे-छोटे बेसिन पाए जाते हैं, जैसे

  • लैबरोडोर बेसिन
  • स्पेनिश बेसिन
  • उत्तरी अमेरिका बेसिन
  • केपवरडे बेसिन
  • गिनी का बेसिन
  • ब्राज़ील का बेसिन।

5. अंध-महासागर के निवाणं (Deeps of Atlantic Ocean)-इस सागर के तट के साथ-साथ मोड़दार पर्वत होने के कारण यहाँ निवाण (Deeps) कम ही मिलते हैं। Mr. Murry के अनुसार इस सागर में 10 निवाण हैं। प्रमुख इस प्रकार हैं-

(i) प्यूरटो रीको निवाण (Puerto Rico Deep) यह इस सागर का सबसे गहरा स्थान (4812 फैदम) है।
(ii) रोमांच निवाण (Romanche Deep)—यह 4030 फैदम गहरा है।

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(iii) दक्षिणी सैंडविच निवाण (South Sandwitch Deep)-यह फाकलैंड के निकट 4575 फैदम गहरा है।
(iv) सीमावर्ती सागर (Marginal Sea)-अंध-महासागर में सीमावर्ती समुद्र कम ही मिलते हैं। इसमें पाए जाने वाले सीमावर्ती सागर अधिकतर यूरोप की ओर हैं। प्रमुख सीमावर्ती सागर इस प्रकार हैं-

(क) बाल्टिक सागर (Baltic Sea)
(ख) उत्तरी सागर (North Sea)
(ग) रोम सागर (Mediterranean Sea)
(घ) काला सागर (Black Sea)
(ङ) कैरेबीयन सागर (Caribbean Sea)
(च) बेफिन की खाड़ी (Baffin Bay)
(छ) खाड़ी मैक्सिको (Mexica Bay)
(ज) हडसन की खाड़ी (Hudson Bay)।

(v) द्वीप (Islands)—इस सागर में ग्रेट ब्रिटेन और न्यूफाउंडलैंड महत्त्वपूर्ण द्वीप हैं, जोकि महाद्वीपीय शैल्फ के ऊँचे भाग हैं। वेस्ट इंडीज़ द्वीपों का समूह है, जोकि चाप के रूप में उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के बीच फैला हुआ है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये डूबे हुए पहाड़ों के ऊँचे उठे हुए भाग हैं। मध्यवर्ती उभार पर कई द्वीप मिलते हैं, जैसे-

(क) फैरोस द्वीप (Faroes Island)
(ख) अज़ोरस द्वीप (Azores Island)
(ग) फाकलैंड द्वीप (Falkland Island)
(घ) सेंट हैलेना द्वीप (St. Helena Island)
(ङ) बरमुदा द्वीप (Barmuda Island)।
(च) अफ्रीका तट पर ज्वालामुखी के केपवरडे द्वीप और कनेरी द्वीप आदि।

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प्रश्न 2.
प्रशांत महासागर की स्थल रुपरेखा के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर-
1. विस्तार और आकार (Shape and Size)—यह त्रिभुज (A) आकार का महासागर पृथ्वी के 30% भाग पर फैला हुआ है। इसकी औसत गहराई 5000 मीटर है। उत्तर में यह बेरिंग समुद्र और आर्कटिक महासागर द्वारा बंद है। प्रशांत महासागर भूमध्य रेखा पर लगभग 16000 कि०मी० चौड़ा है।

2. समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—प्रशांत महासागर में पहाड़ियों (Ridges) की कमी है। इसके कुछ भागों में पठारों के रूप में उठे हुए चबूतरे पाए जाते हैं। प्रमुख उभार इस प्रकार हैं –

  • हवाई उभार, जोकि लगभग तीन हज़ार कि०मी० लंबा है।
  • अल्बेट्रोस पठार, जोकि लगभग 1500 कि०मी० लंबा है।
  • इस सागर में अनेक उभार (Swell), ज्वालामुखी पहाड़ियाँ और प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं।

3. सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-प्रशांत महासागर में कई प्रकार के बेसिन मिलते हैं, जो छोटी-छोटी पहाड़ियों (Ridges) द्वारा एक-दूसरे से अलग हैं। प्रमुख बेसिन इस प्रकार हैं –

  • ऐलुशीयन बेसिन
  • फिलिपीन बेसिन
  • फिज़ी बेसिन
  • पूर्वी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन
  • प्रशांत अंटार्कटिका बेसिन।

4. सागरीय निवाण (Ocean Deeps)—इस महासागर में लगभग 32 निवाण मिलते हैं, जिनमें से अधिक Trenches हैं। इस सागर के निवाण (Deeps) और खाइयाँ (Trenches) अधिकतर इसके पश्चिमी भाग में हैं। इस सागर में सबसे गहरा स्थान मैरियाना खाई (Mariana Trench) है, जिसकी गहराई 11022 मीटर है। इसके अलावा ऐलुशीयन खाई, क्यूराइल खाई, जापान खाई, फिलीपाइन खाई, बोनिन खाई, मिंडानो टोंगा खाई और एटाकामा खाई प्रसिद्ध सागरीय निवाण हैं, जिनकी गहराई 7000 मीटर से भी अधिक है।

5. सीमवर्ती सागर (Marginal Seas)—प्रशांत महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर पश्चिमी भागों में मिलते हैं। इसके पूर्वी भाग में कैलीफोर्निया की खाड़ी और अलास्का की खाड़ी है। शेष महत्त्वपूर्ण सागर पश्चिमी भाग में हैं(i) बेरिंग सागर (Bering Sea) (ii) पीला सागर (Yellow Sea) (iii) ओखोत्सक सागर (Okhotsk Sea) (iv) जापान सागर (Japan Sea) (v) चीन सागर (China Sea)।

6. द्वीप (Islands)—प्रशांत महासागर में लगभग 20 हज़ार द्वीप पाए जाते हैं। प्रमुख द्वीप ये हैं-

  • ऐलुशियन द्वीप और ब्रिटिश कोलंबिया द्वीप।
  • महाद्वीपीय द्वीप, जैसे-क्यूराईल द्वीप, जापान द्वीप समूह, फिलीपाइन द्वीप, इंडोनेशिया द्वीप और न्यूज़ीलैंड द्वीप।
  • ज्वालामुखी द्वीप जैसे-हवाई द्वीप।
  • प्रवाल द्वीप, जैसे-फिजी द्वीप।

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प्रश्न 3.
हिंद महासागर के फर्श का वर्णन करें।
उत्तर-
(i) हिंद महासागर संसार का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है, जोकि तीन तरफ से स्थल भागों (अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया) से घिरा हुआ है। इसका विस्तार 20° पूर्व से लेकर 115° पूर्व तक है। इसकी औसत गहराई 4000 मीटर है। यह सागर उत्तर में बंद है और दक्षिण में अंध महासागर और प्रशांत महासागर से मिल जाता है।
(ii) समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—इस महासागर में कई पहाड़ियाँ मिलती हैं-

(क) मध्यवर्ती पहाड़ी (Mid Indian Ridge) कन्याकुमारी से लेकर अंटार्कटिका महाद्वीप तक 75° पूर्व देशांतर के साथ-साथ स्थित है। इसके समानांतर पूर्वी हिंद पहाड़ी और पश्चिमी हिंद पहाड़ियाँ स्थित हैं। दक्षिण में ऐमस्ट्रडम-सेंट पॉल पठार स्थित है।

(ख) अफ्रीका के पूर्वी सिरे पर स्कोटा छागोश पहाड़ी।
(ग) हिंद महासागर के पश्चिम में मैडगास्कर और प्रिंस ऐडवर्ड पहाड़ियाँ और कार्ल्सबर्ग पहाड़ियाँ स्थित हैं।

(ii) सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-कई पहाड़ियों (Ridges) के कारण हिंद महासागर कई छोटे-छोटे बेसिनों में बँट गया है, जैसे-खाड़ी बंगाल, अरब सागर, सोमाली बेसिन, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन और दक्षिणी हिंद बेसिन।

(iv) समुद्री निवाण (Ocean Deeps)—इस सागर में समुद्री निवाण बहुत कम हैं। सबसे अधिक गहरा स्थान सुंडा खाई (Sunda Trench) के निकट प्लैनट निवाण है, जोकि 4076 फैदम गहरा है।

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(v) सीमावर्ती सागर (Marginal Sea)-हिंद महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर उत्तर की ओर हैं, जो इस प्रकार हैं-

(क) लाल सागर (Red Sea)
(ख) खाड़ी सागर (Persian Gulf)
(ग) अरब सागर (Arabian Sea)
(घ) खाड़ी बंगाल (Bay of Bengal)
(ङ) मोज़म्बिक चैनल (Mozambique Strait)
(च) अंडमान सागर (Andaman Sea)।

(vi) द्वीप (Islands)

(क) श्रीलंका और मैलागासी जैसे बड़े द्वीप
(ख) अंडमान-निकोबार, जंजीबार, लक्षद्वीप और मालदीव,
(ग) मारीशस और रीयूनियन जैसे ज्वालामुखी द्वीप।

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प्रश्न 4.
महासागरों के विस्तार का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्र विज्ञान (Oceanography)—महासागरों का अध्ययन प्राचीन काल से ही होता चला आ रहा है। महासागरों की परिक्रमा, ज्वारभाटे की जानकारी आदि ईसा से कई वर्ष पूर्व ही प्राप्त थी। जलवायु, समुद्री मार्गों, जीवविज्ञान आदि पर प्रभाव के कारण समुद्री विज्ञान भौतिक भूगोल में एक विशेष स्थान रखता है।

समुद्र विज्ञान दो शब्दों Ocean + Graphy के मेल से बना है। इस प्रकार इस विज्ञान में महासागरों का वर्णन होता है। एम०ए०मोरमर (M.A. Mormer) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों की आकृति, स्वरूप, पानी और गतियों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of the Science of Oceans-its form, nature, waters and movements.)। मोंक हाऊस के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों के भौतिक और जैव गुणों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of a wide range of Physical and biological phenomena of oceans.) I ___डब्ल्यू० फ्रीमैन (W. Freeman) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान भौतिक भूगोल का वह भाग है, जो पानी की गतियों
और मूल शक्तियों का अध्ययन करता है। इस अध्ययन में ज्वारभाटा, धाराओं, तट रेखाओं, समुद्री धरातल और जीवों का अध्ययन शामिल होता है।”

महासागर-विस्तार (Ocean-Extent)-पृथ्वी के तल पर जल में डूबे हुए भाग को जलमंडल (Hydrosphere) कहते हैं। जलमंडल में महासागर, सागर, खाड़ियाँ, झीलें आदि सभी जल-स्रोत आ जाते हैं। सौर-मंडल में पृथ्वी ही एक-मात्र ग्रह है, जिस पर जलमंडल मौजूद है। इसी कारण पृथ्वी पर मानव-जीवन संभव है।

पृथ्वी के लगभग 71% भाग पर जलमंडल का विस्तार है। इसलिए इसे जल-ग्रह (Watery Planet) कहते हैं। अंतरिक्ष से पृथ्वी का रंग नीला दिखाई देता है, इसलिए इसे नीला ग्रह (Blue Planet) भी कहते हैं।

धरातल पर जलमंडल लगभग 3,61,059,000 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं जोकि पृथ्वी के धरातल के कुल क्षेत्रफल का 71% भाग है।
उत्तरी गोलार्द्ध का 61% भाग और दक्षिणी गोलार्द्ध का 81% भाग महासागरों द्वारा घिरा हुआ है। उत्तरी गोलार्द्ध की तुलना में दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का विस्तार अधिक है, इसलिए इसे (Water Hemisphere) भी कहते हैं। जल और थल का विभाजन प्रति ध्रुवीय (Antipodal) है। उत्तरी ध्रुव की ओर चारों तरफ आर्कटिक महासागर स्थित है और दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिका महाद्वीप द्वारा घिरा हुआ है ।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 2

जलमंडल का क्षेत्रफल (Area of Hydrosphere) ब्रिटिश भूगोल वैज्ञानिक जॉन मरें (John Murray) ने जलमंडल का क्षेत्रफल 3626 लाख वर्ग किलोमीटर बताया है । महासागरों में प्रमुख प्रशांत महासागर, अंधमहासागर, हिंद महासागर और आर्कटिक महासागर हैं । प्रशांत महासागर सबसे बड़ा महासागर है, जो जलमंडल के 45.1% भाग पर फैला हुआ है ।

Areas of Different Oceans

Ocean — Area (Sq. K.m.)
प्रशांत महासागर — 16,53, 84,000
अंध महासागर — 8,22,17,000
हिंद महासागर — 7,34,81,000
आर्कटिक महासागर –1,40,56,000

महासागरों की औसत गहराई 3791 मीटर है। स्थल मंडल की अधिकतम ऊँचाई एवरेस्ट चोटी (Everest Peak) है, जोकि समुद्र तल से 8848 मीटर ऊँची है। जलमंडल की अधिकतम गहराई 11,033 मीटर, फिलीपीन देश के निकट प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में चैलंजर निवाण (Challeger Deep) में है। इस प्रकार यदि संसार के सबसे ऊँचे शिखर ऐवरेस्ट को प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में डुबो दिया जाए, तो उसके शिखर पर 2000 मीटर से अधिक पानी होगा।

प्रश्न 5.
सागरीय जल के खारेपन से क्या अभिप्राय है ? विश्व के भिन्न-भिन्न सागरों में खारेपन के विभाजन का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्र के जल का स्वाद खारा होता है। खारापन कई स्थानों पर अधिक और कई स्थानों पर कम होता है। समुद्र के जल में खारापन पैदा करने में दरिया के पानी का हाथ होता है। दरिया के पानी में कई प्रकार के नमक घुले हुए होते हैं, जिन्हें दरिया अपने साथ समुद्र में ले जाते हैं। इन नमक पदार्थों को भी खारेपन का नाम दिया जाता है। अनुमान है कि विश्व के सभी दरिया हर वर्ष 5 अरब 40 करोड़ टन नमक समुद्र में ले जाते हैं। समुद्रों का औसत खारापन 35% होता है, परंतु यह सब समुद्रों में एक समान नहीं है। कहीं बहुत अधिक है और कहीं बहुत कम। विश्व के भिन्न-भिन्न सागरों में खारेपन का विभाजन इस प्रकार है-

खारेपन का विभाजन-कई भौगोलिक तत्त्वों के कारण भिन्न-भिन्न सागरों में खारेपन की मात्रा में भिन्नता पाई जाती है-

1. खुले महासागरों में खारापन (Salinity in Open Seas)-

(i) भूमध्य रेखा के आस-पास के क्षेत्र (Near the Equator)—इन सागरों में औसत खारापन कम है, जोकि प्रति हजार ग्राम पानी में लगभग 34 ग्राम है।
कारण (Causes)

  • अधिक वर्षा का होना।
  • अमेज़न और कांगो जैसी बड़ी-बड़ी नदियों से ताज़े जल की प्राप्ति।

(ii) कर्क और मकर रेखा के निकट (Near the Tropics)—यहाँ खारेपन की मात्रा सबसे अधिक है, जोकि 36% है।
कारण (Causes)-

  • अधिक वाष्पीकरण का होना।
  • वर्षा का कम होना।
  • बड़ी नदियों की कमी होना।

(iii) ध्रुवीय क्षेत्र (Polar Areas)-इन क्षेत्रों में खारेपन की मात्रा 20 से 30 ग्राम प्रति हज़ार होती है।
GARUT (Causes) –

  • कम तापमान के कारण कम वाष्पीकरण का होना।
  • पश्चिमी पवनों द्वारा अधिक वर्षा का होना।
  • बर्फ के पिघलने से ताज़े जल की प्राप्ति होना।

2. घिरे हुए समुद्रों में खारापन (Salinity in Enclosed Seas)-इन सागरों के खारेपन में काफी अंतर पाया जाता है। जैसे-

  • भूमध्य सागर में जिब्रालटर के निकट खारेपन की मात्रा 37 ग्राम प्रति हज़ार से 39 ग्राम प्रति हज़ार होती है। अधिक खारापन शुष्क गर्म ऋतु, अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण होता है।
  • लाल सागर में 39 ग्राम प्रति हज़ार, खाड़ी स्वेज़ 41 ग्राम प्रति हज़ार और खाड़ी फारस में 38 ग्राम प्रति हज़ार खारेपन की मात्रा पाई जाती है।
  • काला सागर में 17 ग्राम प्रति हजार और इज़ेव सागर में 18 ग्राम प्रति हज़ार खारेपन की मात्रा है। बाल्टिक सागर में यह केवल 8 ग्राम प्रति हज़ार है।

कारण (Causes)-

  • यहाँ वाष्पीकरण कम है।
  • बड़ी-बड़ी नदियों का पानी साफ है।
  • हिम के पिघलने से भी अधिक जल की प्राप्ति होती है।

3. झीलों और आंतरिक सागरों में (Lakes and Inland Seas)-झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन की मात्रा इनमें गिरने वाली नदियों, वाष्पीकरण की मात्रा और स्थिति के कारण भिन्न-भिन्न है। समुद्रों में नदियों के गिरने से ताज़ा जल अधिक हो जाता है और खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। अधिक तापमान के कारण वाष्पीकरण अधिक होता है, जिससे खारापन अधिक हो जाता है। कैस्पियन सागर के उतरी भाग में खारेपन की मात्रा 14 ग्राम प्रति हज़ार है, परंतु दक्षिणी भाग में यह मात्रा 170 ग्राम प्रति हज़ार है। संयुक्त राज्य अमेरिका की साल्ट झील में खारेपन की मात्रा 220 ग्राम प्रति हज़ार है। जॉर्डन में मृत सागर (Dead Sea) में खारेपन की मात्रा 238 ग्राम प्रति हज़ार है। तुर्की की वैन झील (Van Lake) में खारेपन की मात्रा 330 ग्राम प्रति हज़ार है। यहाँ अधिक खारापन अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण होता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न 6.
महासागरों में तापमान के क्षितिजीय विभाजन का वर्णन करें।
उत्तर-
महासागरीय जल में तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-अर्ध-खुले सागरों और खुले सागरों के तापमान में भिन्नता होती है। इसका कारण यह है कि अर्ध खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव पड़ता है।

(क) महासागरों में जल पर तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-महासागरों में जल-तल (Water-surface) के तापमान का क्षैतिज विभाजन नीचे लिखे अनुसार है :

  • भूमध्य रेखीय भागों के जल का तापमान 26° सैल्सियस, ध्रुवीय क्षेत्रों में 0° सैल्सियस से -5° (minus five degree) सैल्सियस और 20°, 40° और 60° अक्षांशों के तापमान क्रमशः 23°, 14° और 1° सैल्सियस रहता है। इस प्रकार भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर महासागरीय जल का क्षैतिज तापमान कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें लंब और ध्रुवों की ओर तिरछी पड़ती हैं।
  • ऋतु परिवर्तन के साथ महासागरों के ऊपरी तल के तापमान में परिवर्तन आ जाता है। गर्मी की ऋतु में दिन लंबे होने के कारण तापमान ऊँचा और सर्दी की ऋतु में दिन छोटे होने के कारण तापमान कम रहता है।
  • स्थल की तुलना में जल देरी से गर्म और देरी से ही ठंडा होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में जल की तुलना में स्थल अधिक है और दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का क्षेत्र अधिक है। इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध में समुद्री जल का तापमान स्थलीय प्रभाव के कारण ऊँचा रहता है। इसकी तुलना में जल की अधिकता के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान कम रहता है।

3. अर्ध-खले सागरों में जल के तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Partially Enclosed Seas) अर्ध-खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती स्थलखंडों का प्रभाव अधिक पड़ता है।

(i) लाल सागर और फारस की खाड़ी (Red Sea and Persian Gulf)—ये दोनों अर्ध-खुले सागर हैं, जो संकरे जल संयोजकों (Straits) द्वारा हिंद महासागर से मिले हुए हैं। इन दोनों के चारों ओर मरुस्थल हैं, जिनके प्रभाव से तापमान उच्च, क्रमश: 32° से० और 34° से० रहता है। विश्व में सागरीय तल का अधिक-सेअधिक तापमान 34° से० है, जोकि फारस की खाड़ी में पाया जाता है।

कुछ सागरों के जल का तापमान-

सागर — तापमान
लाल सागर — 32°C.
खाड़ी फारस –34°C.
बाल्टिक सागर –10°C.
उत्तरी सागर –17°C.
प्रशांत महासागर –19.1°C.
हिंद महासागर –17.0°C.
अंध महासागर — 16.9°C.

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 6

(ii) बाल्टिक सागर (Baltic Sea)-इस सागर में तापमान कम रहता है और शीत ऋतु में यह बर्फ में बदल जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह शीत प्रदेशों से घिरा हुआ है, जोकि सर्दियों में बर्फ से ढके रहते हैं। इसकी तुलना में निकट का विस्तृत उत्तर सागर (North Sea) कभी भी नहीं जमता। इसका कारण यह है कि एक तो यह खुला सागर है और दूसरा अंध महासागर की तुलना में गर्म जलं इसमें बेरोक प्रवेश करता है।

(iii) भूमध्य सागर या रोम सागर (Mediterranean Sea)—यह भी एक अर्ध-खुला समुद्र है, जो जिब्राल्टर (Gibraltar) जल संयोजक द्वारा अंध महासागर से जुड़ा हुआ है। इसका तापमान उच्च रहता है क्योंकि इसके दक्षिण और पूर्व की ओर मरुस्थल हैं। दूसरा, इस जल संयोजक की ऊँची कटक महासागर के जल को इस सागर में बहने से रोकती है।

महासागरीय जल में ताप का लंबवर्ती विभाजन-(Vertical Distribution of Temperature of Ocean Water)-सूर्य का ताप सबसे पहले महासागरीय तल का जल प्राप्त करता है और सबसे ऊपरी परत गर्म होती है। सूर्य के ताप की किरणें ज्यों-ज्यों गहराई में जाती हैं, तो बिखराव (Scattering), परावर्तन (Reflection) और प्रसारण (Diffusion) के कारण उनकी ताप-शक्ति नष्ट हो जाती है। इस प्रकार तल के नीचे के पानी का तापमान गहराई के साथ कम होता जाता है।

महासागरीय जल का तापमान-
गहराई के अनुसार (According to Depth)-

गहराई (Depth) मीटर — तापमान (°C)
200 — 15.9°C
400 —  10.0°C
1000 — 4.5°C
2000 — 2.3°C
3000 — 1.8°C
4400 — 1.7°C

1. महासागरीय जल का तापमान गहराई बढ़ने के साथ-साथ कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि सूर्य की किरणें अपना प्रभाव महाद्वीपीय बढ़ौतरी की अधिकतम गहराई भाव 183 मीटर (100 फैदम) तक ही डाल सकती हैं।

2. महाद्वीपीय तट के नीचे महासागरों में तापमान अधिक कम होता है परंतु अर्ध-खुले सागरों में तापमान जल संयोजकों की कटक तक ही गिरता है और इससे आगे कम नहीं होता।

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हिंद महासागर के ऊपरी तल और लाल सागर के ऊपरी तल का तापमान लगभग समान (27°C) होता है। इन दोनों के बीच बाब-अल-मेंडर जल संयोजक की कटक है। उस गहराई तक दोनों में तापमान एक समान कम होता है क्योंकि इस गहराई तक हिंद महासागर का जल लाल सागर में प्रवेश करता रहता है। परंतु इससे अधिक गहराई पर लाल सागर का तापमान कम नहीं होता, जबकि हिंद महासागर में यह निरंतर कम होता रहता है।

3. गहराई के साथ तापमान कम होने की दर सभी गहराइयों में एक समान नहीं होती। लगभग 100 मीटर की गहराई तक जल का तापमान निकटवर्ती धरातलीय तापमान के लगभग बराबर होता है। धरातल से 1000 से 1800 मीटर की गहराई पर तापमान लगभग 15° से कम होकर लगभग 2°C रह जाता है। 4000 मीटर की गहराई पर तापमान कम होकर 1.6°C रह जाता है। महासागरों में किसी भी गहराई पर तापमान 1°C से कम नहीं होता। यद्यपि ध्रुवीय महासागरों की ऊपरी परत जम जाती है, पर निचला पानी कभी नहीं जमता। इसी कारण मछलियाँ और अन्य जीव-जन्तु निचले जल में मरते नहीं।

प्रश्न 7.
महासागरीय जल में खारेपन के कारण और महत्ता बताएँ।
उत्तर-
महासागरीय जल में खारापन (Salinity of Ocean Water)-
महासागरीय जल सदा खारा होता है, परंतु यह कहीं कम खारा और कहीं अधिक खारा होता है। सागर के इस खारेपन को ही महासागरीय खार या जल की लवणता कहा जाता है। यह खारापन महासागरीय जल में पाए जाने वाले नमक के कारण होता है। प्रसिद्ध सागर वैज्ञानिक मरे (Murray) के अनुसार प्रति घन किलोमीटर जल में 4/4 करोड़ टन नमक होता है। यदि महासागरीय जल के कुल नमक को बिछाया जाए, तो संपूर्ण पृथ्वी पर लगभग 150 मीटर मोटी परत बन जाएगी।

महासागरों का औसत खारापन (Average Salinity of Ocean)-
खुले महासागरों के जल में पाए जाने वाले लवणों के घोल को खारापन कहते हैं। (The total Salt Content of Oceans is Called Salinity.) । सागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम प्रति हजार अर्थात् 35% होता है। खुले महासागरों में 1000 ग्राम जल में लगभग 35 ग्राम नमक होता है। ऐसे जल के खारेपन को 35 ग्राम प्रति हज़ार (Thirty five per thousand) कहा जाता है क्योंकि खारेपन को प्रति हज़ार ग्राम में ही दर्शाया जाता है।

महासागरों में खारेपन के कारण (Origin of Salinity in the Ocean)-
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब महासागरों की रचना हुई तो उस समय पृथ्वी के अधिकतर नमक इस जल में घुल गए। इसके बाद स्थलों से आने वाली अनगिनत नदियाँ अपने साथ घोल के रूप में नमक महासागरों में निक्षेप कर रही हैं, जिससे महासागरों में खारेपन की वृद्धि होती रही है। वाष्पीकरण द्वारा महासागरों का ताज़ा जल वायुमंडल में मिलकर वर्षा का कारण बनता है। यह वर्षा नदियों के रूप में स्थल पर नमक प्रवाहित करके महासागरों में पहुँचाती है।

सागरीय जल के नमक (Salts of Ocean)-
सागरीय जल में पाए जाने वाले नमक इस प्रकार हैं–

(i) सोडियम क्लोराइड — 77.8 प्रतिशत
(ii) मैग्नीशियम क्लोराइड — 10.9 प्रतिशत
(iii) मैग्नीश्यिम सल्फेट — 4.7 प्रतिशत
(iv) कैल्शियम सल्फेट — 3.6 प्रतिशत
(v) पोटाशियम सल्फेट — 2.5 प्रतिशत
(vi) कैल्शियम कार्बोनेट — 0.3 प्रतिशत
(vii) मैग्नीशियम ब्रोमाइड — 0.2 प्रतिशत

खारेपन का महत्त्व (Importance of Salinity) –
समुद्री जल के खारेपन का महत्त्व नीचे लिखे अनुसार है-

  • समुद्र में खारेपन की भिन्नता के कारण धाराएँ उत्पन्न होती हैं; जो निकटवर्ती क्षेत्रों में जलवायु को प्रभावित करती हैं।
  • समुद्री जल में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट नमक समुद्री जीव-जंतुओं विशेषकर मूंगा (Coral) और पंक (Ooze) का ज़ोन है, जिससे इनकी हड्डियाँ और पिंजर बनते हैं।
  • खारेपन के कारण धरती पर वनस्पति उगती है।
  • लवण ठंडे महासागरों को जमने नहीं देते और जीव-जंतु विशेष रूप से बहुमूल्य मछलियाँ नहीं मरती और जल परिवहन चालू रहता है।
  • खारेपन के कारण जल का घनत्व बढ़ जाता है, इसीलिए जहाज़ तैरते हैं।

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प्रश्न 8.
समुद्री तरंगों की रचना और किस्मों का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्री तरंगें या लहरें (Sea Waves)—पवनों के प्रभाव के कारण समुद्री तल के किसी भाग में जल ऊँचा और किसी भाग में नीचा होता है। इस क्रिया को लहर कहते हैं। लहरों के कारण जल आगे को नहीं बढ़ता, बल्कि अपने स्थान पर ही ऊँचा-नीचा और आगे-पीछे होता रहता है। लहर के ऊपर उठे भाग को तरंग शिखर (Crest) और निचले भाग को तरंग गर्त (Trough) कहते हैं। एक शिखर से दूसरे शिखर तक और एक गर्त से दूसरे गर्त तक की लंबाई को Wave Length कहा जाता है। गर्त और शिखर के बीच की दूरी को लहर की ऊँचाई (Amplitude of Wave) कहते हैं।

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लहर की किस्में (Types of Waves) –
पवनों द्वारा उत्पन्न महासागरीय जल की तरंगें तीन किस्म की होती हैं-

  1. सी
  2. स्वैल
  3. सरफ।

1. सी (Sea)—पवनों के घर्षण से कई बार एक ही समय में विभिन्न लंबाई (Wave Length) वाली और विभिन्न दिशाओं में बढ़ने वाली तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। इन्हें ‘सी’ (Sea) कहकर पुकारा जाता है।

2. महातरंग या स्वैल (Swell)-जब सी नामक अनियमित तरंगें महासागरीय जल-तल को उथल-पुथल करने वाली पवनों के प्रभाव से मुक्त होकर नियमित रूप में तरंग शिखर और तरंग गर्त की श्रृंखला में बढ़ती हैं, तो इन्हें महातरंग या स्वैल कहा जाता है।

3. सरफ (Surf)-जब महातरंग या स्वैल तट के निकट गहरे पानी (Deep Water) में पहुँचती है, तो इसके तरंग शिखर आपस में मिलकर ऊँचे हो जाते हैं, तरंग शिखर आगे की ओर झुक जाता है और टूट जाता है। तब इन्हें ब्रेकर या भंग-तरंग (Breaker) कहते हैं।