PSEB 11th Class History Solutions उद्धरण संबंधी प्रश्न

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions उद्धरण संबंधी प्रश्न.

PSEB 11th Class History Solutions उद्धरण संबंधी प्रश्न

Unit 1

(1)

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए।
सिन्धु घाटी की सभ्यता से हमारा अभिप्राय उस प्राचीन सभ्यता से है जो सिन्धु नदी की घाटी में फली-फूली। इस सभ्यता के लोगों ने नगर योजना, तकनीकी विज्ञान, कृषि तथा व्यापार के क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिभा का परिचय दिया।
श्री के० एम० पानिक्कर के शब्दों में “सैंधव लोगों ने उच्चकोटि की सभ्यता का विकास कर लिया था।” (“A very high state of civilization had been reached by the people of the Indus.”)
यदि गहनता से सिन्धु घाटी की सभ्यता का अध्ययन किया जाए तो इतिहास की अनेक गुत्थियां सुलझाई जा सकती हैं। सिन्धु घाटी का धर्म आज के हिन्दू धर्म से मेल खाता है। उनकी कला-कृतियां उत्कृष्टता लिए हुए थीं। उनकी लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई। इसे पढ़े जाने पर सिन्धु घाटी का चित्र अधिक स्पष्ट हो जाएगा।

1. केवल मोहनजोदड़ो से प्राप्त मोहरों की संख्या बताएं। इन मोहरों का प्रयोग किस लिए किया जाता था ?
2. भारतीय सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति की क्या देन है ?
उत्तर-
1. मोहनजोदड़ो से 1200 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। इनका प्रयोग सामान के गट्ठरों या भरे बर्तनों की सुरक्षा अथवा उन पर ‘सील’ लगाने के लिए किया जाता था।
2. सिन्धु घाटी की सभ्यता के निम्नलिखित चार तत्त्व आज भी भारतीय जीवन में देखे जा सकते हैं :

  • नगर योजना-सिन्धु घाटी के नगर एक योजना के अनुसार बसाए गए थे। नगर में चौड़ी-चौड़ी सड़कें और गलियां थीं। यह विशेषता आज के नगरों में देखी जा सकती है।
  • निवास स्थान-सिन्धु घाटी के मकानों में आज की भान्ति खिड़कियां और दरवाज़े थे। हर घर में एक आंगन, स्नान गृह तथा छत पर जाने के लिए सीढ़ियां थीं।।
  • आभूषण एवं श्रृंगार-आज की स्त्रियों की भान्ति सिन्धु घाटी की स्त्रियां भी श्रृंगार का चाव रखती थीं। वे सुर्थी तथा पाऊडर का प्रयोग करती थीं और विभिन्न प्रकार के आभूषण पहनती थीं। उन्हें बालियां, कड़े तथा । गले का हार पहनने का बहुत शौक था।
  • धार्मिक समानता-सिन्धु घाटी के लोगों का धर्म आज के हिन्दू धर्म से बहुत हद तक मेल खाता है। वे शिव, मातृ देवी तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करते थे। आज भी हिन्दू लोगों में उनकी पूजा प्रचलित है।

(2)

मोहरें प्राचीन शिल्पकला को सिन्धु घाटी की विशिष्ट देन समझी जाती है। केवल मोहनजोदड़ो से ही 1200 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। ये कृतियां भले ही छोटी हैं फिर भी इन की कला इतनी श्रेष्ठ है कि इनके चित्रों में शक्ति और ओज झलकता है। इनका प्रयोग सामान के गट्ठरों या भरे बर्तनों की सुरक्षा के लिए किया जाता था। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि मोहरों का प्रयोग एक प्रकार का प्रतिरोधक (taboo) लगाने के लिए होता था। इन मोहरों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी के समाज में विभिन्न पदवियों और उपाधियों की व्यवस्था प्रचलित थी। इन मोहरों पर पशुओं तथा मनुष्यों की आकृतियां बनी हुई हैं। पशुओं से सम्बन्धित आकृतियां बड़ी कलात्मक हैं। परन्तु मोहरों पर बनी मानवीय आकृतियां उतनी कलात्मकता से नहीं बनी हुई हैं। मोहरों के अधिकांश नमूने उनकी किसी धार्मिक महत्ता के सूचक हैं। एक आकृति के दाईं तरफ हाथी और चीता हैं, बाईं ओर गैंडा और भैंसा हैं। उनके नीचे दो बारहसिंगे या बकरियां हैं। इन ‘पशुओं के स्वामी’ को शिव का पशुपति रूप समझा जाता है। मोहरों पर पीपल के वृक्ष के बहुत चित्र मिले हैं।

1. सिन्धु घाटी की सभ्यता के धर्म की विशेषताएं क्या थी ?
2. सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि के बारे में अब तक क्या पता चल सका है ?
उत्तर-1. खुदाई में एक मोहर मिली है जिस पर एक देवता की मूर्ति बनी हुई है। देवता के चारों ओर कुछ पशु दिखाए गए हैं। इनमें से एक बैल भी है। सर जॉन मार्शल का कहना है कि यह पशुपति महादेव की मूर्ति है और लोग इसकी पूजा करते थे। खुदाई में मिली एक अन्य मोहर पर एक नारी की मूर्ति बनी हुई है। इसने विशेष प्रकार के वस्त्र पहने हुए हैं। विद्वानों का मत है कि यह धरती माता (मातृ देवी) की मूर्ति है और हड़प्पा संस्कृति के लोगों में इसकी पूजा प्रचलित थी। लोग पशु-पक्षियों, वृक्षों तथा लिंग की पूजा में भी विश्वास रखते थे। वे जिन पशुओं की पूजा करते थे, उनमें से कूबड़ वाला बैल, सांप तथा बकरा प्रमुख थे। उनका मुख्य पूजनीय वृक्ष पीपल था। खुदाई में कुछ तावीज़ इस बात का प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के लोग अन्धविश्वासी थे और जादू-टोनों में विश्वास रखते थे।

2. सिन्धु घाटी के लोगों ने एक विशेष प्रकार की लिपि का आविष्कार किया जो चित्रमय थी। यह लिपि खुदाई में मिली मोहरों पर अंकित है। यह लिपि बर्तनों तथा दीवारों पर लिखी हुई भी पाई गई है। इनमें 270 के लगभग वर्ण हैं। इसे बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है। यह लिपि आजकल की तथा अन्य ज्ञात लिपियों से काफ़ी भिन्न है, इसलिए इसे पढ़ना बहुत ही कठिन है। भले ही विद्वानों ने इसे पढ़ने के लिए अथक प्रयत्न किए हैं तो भी वे अब तक इसे पूरी तरह पढ़ नहीं पाए हैं। आज भी इसे पढ़ने के प्रयत्न जारी हैं। अतः जैसे ही इस लिपि को पढ़ लिया जाएगा, सिन्धु घाटी की सभ्यता के अनेक नए तत्त्व प्रकाश में आएंगे।

(3)

भारतीय आर्य सम्भवतः मध्य एशिया से भारत में आये थे। आरम्भ में ये सप्त सिन्धु प्रदेश में आकर बसे और लगभग 500 वर्षों तक यहीं टिके रहे। ये मूलतः पशु-पालक थे और विशाल चरागाहों को अधिक महत्त्व देते थे। परन्तु धीरे-धीरे वे कृषि के महत्त्व को समझने लगे। अधिक कृषि उत्पादन की खपत के लिए नगरों का विकास भी होने लगा। फलस्वरूप आर्य लोग एक विशाल क्षेत्र में फैलते गए। इस प्रकार कृषि तथा नगरों के विकास ने आर्यों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ अन्य तत्त्वों ने भी उनके प्रसार में सहायता पहुंचाई।

1. भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में कौन-से क्षेत्र बताए जाते हैं ?
2. आर्य लोग यमुना नदी की पूर्वी दिशा में कब बढ़े ? उनके इस दिशा में विस्तार के क्या कारण थे ?
उत्तर-
1. भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में मुख्य रूप से मध्य एशिया अथवा सप्त सिन्धु प्रदेश, उत्तरी ध्रुव तथा मध्य एशिया के क्षेत्र बताए जाते हैं। मध्य प्रदेश तथा सप्त सिन्धु प्रदेश का सम्बन्ध प्राचीन भारत से है।
2. आर्य लोग लगभग 500 वर्ष तक सप्त सिन्धु प्रदेश में रहने के पश्चात् यमुना नदी के पूर्व की ओर बढ़े। इस दिशा में उनके विस्तार के मुख्य कारण ये थे। इस समय तक आर्यों ने सप्त सिन्धु के अनेक लोगों को दास बना रखा था। इन दासों से वे जंगलों को साफ करने के लिए भेजते थे। जहां कहीं जंगल साफ हो जाते वहां वे खेती करने लगते थे। उस समय आर्य लोहे के प्रयोग से भी परिचित हो गए। लोहे से बने औजार तांबे अथवा कांसे के औज़ारों की अपेक्षा अधिक मज़बूत और तेज थे। इन औज़ारों की सहायता से वनों को बड़ी संख्या में साफ किया जाता था। आर्यों के तीव्र विस्तार का एक अन्य कारण यह था कि सिन्धु घाटी का सभ्यता की सीमाओं के पार कोई शक्तिशाली राज्य अथवा कबीला नहीं था। परिणाम स्वरूप आर्यों को किसी विरोधी का सामना न करना पड़ा और वे बिना किसी बाधा विस्तार करते गए।

(4)

आर्यों के धर्म में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ भी होते थे जिनमें सारा गांव या कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों के रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे। इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि इन्द्र देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान तथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा हुई मानी गई थी।

1. राजसूय यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
2. आर्यों के मुख्य देवताओं के बारे में बताएं।
उत्तर-
1. राजसूय यज्ञ राज्य में दैवी शक्ति का संचार करने के लिए किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि राजपद को दैवी देन माना जाने लगा था।
2. ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी, तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य लोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है। आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की ही उपासना की जाती थी। इन्द्र के अतिरिक्त वे रुद्र, अग्नि, पृथ्वी, वायु, सोम आदि देवताओं की उपासना भी करते थे।

(5)

जैन धर्म और बौद्ध धर्म का उदय छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ। इस समय तक देश के राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में नए विचार उभर रहे थे। देश में कुछ बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो चुके थे। इनमें शासक नवीन विचारों के पनपने का कोई विरोध नहीं कर रहे थे। इसी प्रकार सामाजिक एवं धार्मिक वातावरण भी नवीन धार्मिक आन्दोलनों के उदय के अनुकूल था। वैदिक धर्म में अनेक कुरीतियां आ गई थीं। व्यर्थ के रीति-रिवाजों, महंगे यज्ञों और ब्राह्मणों के झूठे प्रचार के कारण यह धर्म अपनी लोकप्रियता खो चुका था। इन सब कुरीतियों का अन्त करने के लिए देश में लगभग 63 नये धार्मिक आन्दोलन चले जिनका नेतृत्व विद्वान् हिन्दू कर रहे थे। परन्तु ये सभी धर्म लोकप्रिय न हो सके। केवल दो धर्मों को छोड़कर शेष सभी समाप्त हो गये। ये दो धर्म थे-जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म।

1. महात्मा बुद्ध के जन्म और मृत्यु से सम्बन्धित स्थानों के नाम बताएं।
2. महात्मा बुद्ध अथवा बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1. महात्मा बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी वाटिका में हुआ। उनकी मृत्यु कुशीनगर के स्थान पर हुई।
2. महात्मा बुद्ध ने लोगों को जीवन का सरल मार्ग सिखाया। उन्होंने लोगों को बताया कि संसार दुःखों का घर है। दुःखों का कारण तृष्णा है। निर्वाण प्राप्त करके ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छूट सकता है। निर्वाण-प्राप्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों को अहिंसा, नेक काम तथा सदाचार पर चलने के लिए कहा। सच तो यह है कि बौद्ध धर्म ने व्यर्थ के रीति-रिवाजों यज्ञों तथा कर्मकाण्डों को त्यागने पर बल दिया।

(6)

जैनियों ने अपने तीर्थंकरों की याद में विशाल मंदिर तथा मठ बनवाए। ये मंदिर अपने प्रवेश द्वारों तथा सुन्दर मूर्तियों के कारण प्रसिद्ध थे। दिलवाड़ा का जैन मन्दिर ताजमहल को लजाता है। कहते हैं कि मैसूर में बनी जैन धर्म की सुन्दर मूर्तियां दर्शकों को आश्चर्य में डाल देती हैं। इसी प्रकार आबू पर्वत का जैन-मन्दिर, एलोरा की गुफाएं तथा खुजराहो के जैन मन्दिर कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। जैन धर्म में इस महान् योगदान की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जैन धर्म के अनुयायियों ने लोक भाषाओं का प्रचार किया। उनका अधिकांश साहित्य संस्कृत की बजाय स्थानीय भाषाओं में लिखा गया। यही कारण है कि कन्नड़ साहित्य आज भी अपने उत्कृष्ट साहित्य के लिए जैन धर्म का आभारी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के साहित्य में खूब योगदान दिया।

1. सबसे अधिक प्रभावशाली जैन मन्दिर कौन-से दो स्थानों पर हैं ?
2. महावीर की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन के लिए क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
1. सबसे अधिक प्रभावशाली जैन मन्दिर राजस्थान में आबू पर्वत पर तथा मैसूर में श्रावणवेलगोला में हैं।
2. महावीर की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन में बड़ा महत्त्व था। इसका वर्णन इस प्रकार है-

  • उन्होंने जाति-प्रथा का घोर विरोध किया। इससे भारतीय समाज में लोगों का आपसी मेल-जोल बढ़ने लगा। भेदभाव का स्थान सहकारिता ने ले लिया। ऊंच-नीच की भावना समाप्त होने लगी और समाज प्यार और भाईचारे की भावनाओं से ओत-प्रोत हो गया।
  • महावीर ने लोगों को समाज-सेवा का उपदेश दिया। अतः लोगों की भलाई के लिए जैनियों ने अनेक संस्थाएं स्थापित की। इससे न केवल जनता का ही भला हुआ बल्कि दूसरे धर्मों के अनुयायियों को भी समाज सेवा के कार्य करने का प्रोत्साहन मिला।
  • जैन धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर ब्राह्मणों ने भी पशु-बलि, कर्म-काण्ड तथा अन्य कुरीतियों का त्याग करना शुरू कर दिया। इस प्रकार वैदिक धर्म भी काफ़ी सरल बन गया।
  • इसके अतिरिक्त महावीर ने अहिंसा पर बल दिया। अहिंसा के सिद्धान्त को अपना कर लोग मांसाहारी से शाकाहारी बन गए। उनका जीवन सरल तथा संयमी बना।

(7)

जय देवानांपिय पिपदरसी ने अपने शासन के आठ वर्ष पूरे किए तो उन्होंने कलिंग (आधुनिक तटवर्ती ओडिशा) पर विजय प्राप्त की। डेढ़ लाख पुरुषों को निष्काषित किया गया। एक लाख मारे गए और इससे भी ज्यादा की मृत्यु हुई। कलिंग पर शासन स्थापित करने के बाद देवानांपिय धम्म के गहन अध्ययन, धम्म के स्नेह और धम्म के उपदेश में डूब गए हैं। यही देवानांपिय के लिए कलिंग की विजय का पश्चात्ताप है। देवानांपिय के लिए यह बहुत वेदनादायी और निदनीय है कि जब कोई किसी राज्य पर विजय प्राप्त करता है तो पराजित राज्य का हनन होता है, वहां लोग मारे जाते हैं, निष्कासित किए जाते हैं।

1. ‘देवानांपिप पियदरसी’ किसे पुकारते थे ? उनका संक्षेप में वर्णन कीजिए।
2. अशोक पर कलिंग युद्ध के पड़े प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
1. ‘देवानांपिय पियदरसी’ सम्राट असोक (अशोक) को पुकारते हैं। उन्होनें कलिंग (आधुनिक तटवर्ती ओडिशा) पर विजय प्राप्त की थी।
2. कलिंग युद्ध के अशोक पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े

  • उन्होंने युद्धों का सदा के लिए त्याग कर दिया।
  • वह धम्म के अध्ययन, धम्म के स्नेह तथा धम्म के उपदेश में डूब गए।
  • वह प्रजा-हितकारी शासक बन गए।

(8)

यह प्रयाग प्रशस्ति का एक अंश है :
धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों और शुभकार्यों में संपन्न उन्होनें पैर के तलबे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया है। वे परमात्मा पुरुष हैं, साधु (भले) की समृद्धि और असाधु (बुरे) के विनाश के कारण हैं। वे अज्ञेय हैं। उनके कोमल हृदय को भक्ति और विनय से ही वश में किया जा सकता है। वे करुणा से भरे हुए हैं। वे अनेक सहस्त्र गांवों के दाता है। उनके मस्तिष्क की दीक्षा दीन-दुखियों, विरहणियों और पीड़ितों के उद्धार के लिए की गई है। वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति है। वे देवताओं के कुबेर (धन-देव), वरुण (समुद्र-देव), इंद्र (वर्षा के देवता) और यम (मृत्यु-देव) के तुल्य हैं।

1. समुद्रगुप्त कौन था ? उनकी तुलना किन देवताओं से की गई है ?
2. लेखक ने समुद्रगुप्त के किन गुणों अथवा सफलताओं का उल्लेख किया है ? कोई चार बताइए।
उत्तर-
1. समुद्र गुप्त संभवतः सबसे शक्तिशाली गुप्त सम्राट था। उसकी तुलना धन-देव कुबेर, समुद्र-देव वरुण, वर्षा के देवता
इंद्र तथा मृत्यु-देव यम से की गई है।
2. हरिषेण के अनुसार-

  • धरती पर समुद्रगुप्त का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। उन्होंने अपने पैर के तलबे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया था।
  • वह परमात्मा पुरुष थे-साधु (भले) की समृद्धि तथा असाधु (बुरे) के विनाश कारण।
  • वह अजेय थे।
  • उनके कोमल मन को भक्ति और विनय से ही वश में किया जा सकता था।

(9)

गुप्त काल में गणित, ज्योतिष तथा चिकित्सा विज्ञान में काफ़ी प्रगति हुई-
आर्यभट्ट गुप्त युग का महान् गणितज्ञ तथा ज्योतिषी था। उसने ‘आर्यभट्टीय’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यह अंकगणित, रेखागणित तथा बीजगणित के विषयों पर प्रकाश डालता है। उसने गणित को स्वतन्त्र विषय के रूप में स्वीकार करवाया। संसार को ‘बिन्दु’ का सिद्धान्त भी उसी ने दिया। आर्यभट्ट पहला व्यक्ति था जिसने यह घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उसने सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के वास्तविक कारणों पर भी प्रकाश डाला।

गुप्त युग का दूसरा महान् ज्योतिषी अथवा नक्षत्र-वैज्ञानिक वराहमिहिर था। उसने ‘पंच सिद्धान्तिका’, ‘बृहत् संहिता’ तथा ‘योग-यात्रा’ आदि ग्रन्थों की रचना की। ब्रह्मगुप्त एक महान् ज्योतिषी तथा गणितज्ञ था। उसने न्यूटन से भी बहुत पहले गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को स्पष्ट किया। वाग्यभट्ट इस युग का महान् चिकित्सक था। उसका ‘अष्टांग संग्रह’ नामक ग्रन्थ चिकित्सा जगत् के लिए अमूल्य निधि है। इसमें चरक तथा सुश्रुत नामक महान् चिकित्सकों की संहिताओं का सार दिया गया है। इस काल में पाल-काव्य ने ‘हस्त्यायुर्वेद’ की रचना की। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध पशु चिकित्सा से है। लोगों को उस समय रसायनशास्त्र तथा धातु विज्ञान का भी ज्ञान था।

1. चिकित्सा के क्षेत्र में दो प्रसिद्ध गुप्तकालीन विद्वानों के नाम बताओ।
2. आर्यभट्ट का खगोल विज्ञान में क्या योगदान था ?
उत्तर-
1. चिकित्सा के क्षेत्र में दो प्रसिद्ध गुप्तकालीन विद्वान् थे-चरक और सुश्रुत।
2. आर्यभट्ट गुप्त काल का एक महान् वैज्ञानिक एवं खगोलशास्त्री था। उसने अपनी नवीन खोजों द्वारा खगोलशास्त्र को काफ़ी समृद्ध बनाया। ‘आर्य भट्टीय’ उसका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उसने यह सिद्ध किया कि सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण, राहू और केतू नामक राक्षसों के कारण नहीं लगते बल्कि जब चन्द्रमा कार्य और पृथ्वी के बीच में आ जाता है तो चन्द्रग्रहण होता है। आर्यभट्ट ने स्पष्ट रूप में यह लिख दिया था कि सूर्य नहीं घूमता बल्कि पृथ्वी ही अपनी धुरी के चारों ओर घूमती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि खगोल विज्ञान में आर्यभट्ट ने महान् योगदान दिया।

(10)

गप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। देश में अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य उभर आये थे। इनमें से एक थानेश्वर का वर्धन राज्य भी था। प्रभाकर वर्धन के समय में यह काफ़ी शक्तिशाली था। उसकी मृत्यु के बाद 606 ई० में हर्षवर्धन राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। वैसे भी हर्ष अपने राज्य की सीमाओं में वृद्धि करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अनेक सैनिक अभियान किए। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार उसने देश में राजनीतिक एकता की स्थापना की और देश को अच्छा शासन प्रदान किया।

1. हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाले चीनी यात्री का नाम बताओ और यह कब से कब तक भारत में रहा ?
2. हर्षवर्धन के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
1. हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाला चीनी यात्री ह्यनसांग था। वह 629 से 645 ई० तक भारत में रहा।
2. हर्षवर्धन एक महान् चरित्र का स्वामी था। उसे अपने परिवार से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को मुक्त करवाने और उसे ढूंढने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिरा। वह एक सफल विजेता तथा कुशल प्रशासक था। उसने थानेश्वर के छोटे से राज्य को उत्तरी भारत के विशाल राज्य का रूप दिया। वह प्रजाहितैषी और कर्तव्यपरायण शासक था। यूनसांग ने उसके शासन प्रबन्ध की बड़ी प्रशंसा की है। उसके अधीन प्रजा सुखी और समृद्ध थी। हर्ष धर्मपरायण और सहनशील भी था। उसने बौद्ध धर्म को अपनाया और सच्चे मन से इसकी सेवा की। उसने अन्य धर्मों का समान आदर किया। दानशीलता उसका एक अन्य बड़ा गुण था। वह इतना दानी था कि प्रयाग की एक सभा में उसने अपने वस्त्र भी दान में दे दिए थे और अपना तन ढांपने के लिए अपनी बहन से एक वस्त्र लिया था। हर्ष स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था और उसने कला और विद्या को संरक्षण प्रदान किया।

Unit 2

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए

(1)

आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। यह नगर हर्षवर्धन की राजधानी था। उत्तरी भारत में इस नगर की स्थिति बहुत अच्छी थी। क्योंकि इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा के मैदान पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे। इन राजवंशों ने बारी-बारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैन्य शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर तीनों राज्यों का पतन हो गया। राष्ट्रकूटों पर उत्तरकालीन चालुक्यों ने अधिकार कर लिया। प्रतिहार राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया और पाल वंश की शक्ति को चोलों ने समाप्त कर दिया।

1. कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम बताएं।
2. राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में क्या कमियां थीं ?
उत्तर-
1. कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम थे-पालवंश, प्रतिहार वंश तथा राष्ट्रकूट वंश।
2. राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में ये कमियां थी-

  • राजपूतों में आपसी ईष्या और द्वेष बहुत अधिक था। इसी कारण वे सदा आपस में लड़ते रहे। विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करते हुए उन्होंने कभी एकता का प्रदर्शन नहीं किया।
  • राजपूतों को सुरा, सुन्दरी तथा संगीत का बड़ा चाव था। किसी भी युद्ध के पश्चात् राजपूत रास-रंग में डूब जाते थे।
  • राजपूत समय में संकीर्णता का बोल-बाला था। उनमें सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा प्रचलित थी। वे तन्त्रवाद में विश्वास रखते थे जिनके कारण वे अन्ध-विश्वासी हो गये थे।
  • राजपूत समाज एक सामन्ती समाज था। सामन्त लोग अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। अत: लोग अपने सामन्त या सरदार के लिए लड़ते थे; देश के लिए नहीं।

(2)

नैतिक दृष्टिकोण से समस्त मुस्लिम जगत का धार्मिक नेता खलीफा माना जाता था। वह बगदाद में निवास करता था। परन्तु सुल्तान खलीफा का नाममात्र का प्रभुत्व स्वीकार करते थे। यद्यपि कुछ सुल्तान खलीफा के नाम से खुतबा पढ़वाते थे और सिक्कों पर भी उसका नाम अंकित करवाते थे, परन्तु यह प्रभुत्व केवल दिखावा मात्र था। वास्तविक सत्ता सुल्तान के हाथ में ही थी। वह केवल अपने पद को सुदृढ़ बनाने के लिए खलीफा से स्वीकृति प्राप्त कर लेते थे। सुल्तान की शक्तियां असीम थीं। उसकी इच्छा ही कानून थी। वह सेना का प्रधान और न्याय का मुखिया होता था। वास्तव में वह पृथ्वी पर भगवान् का प्रतिनिधि समझा जाता था।

1. दिल्ली सल्तनत की जानकारी के लिए स्रोतों के चार प्रमुख प्रकार बताएं।
2. क्या दिल्ली सल्तनत को एक धर्म-तन्त्र कहना उपयुक्त होगा ?
उत्तर-
1. दिल्ली सल्तनत की जानकारी के लिए स्रोतों के चार प्रमुख प्रकार हैं-समकालीन दरबारी इतिहासकारों के वृत्तान्त, कवियों की रचनाएं, विदेशी यात्रियों के वृत्तान्त तथा सिक्के।
2. धर्म-तन्त्र से हमारा अभिप्राय पूर्ण रूप से धर्म द्वारा संचालित राज्य से है। दिल्ली सल्तनत के कई सुल्तान खलीफा के नाम पर राज्य करते थे और कुछ ने तो अपने समय के खलीफा से मान्यता-पत्र भी लिया था। परन्तु वास्तव में खलीफा की मान्यता का सुल्तान की शक्ति का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। सुल्तान से शरीअत (इस्लामी कानून) के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा की जाती थी। परन्तु उसकी नीति एवं कार्य प्रायः उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करते थे। कभी-कभी शरीअत के कारण कुछ जटिल समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती थीं। ऐसे समय सुल्तान जानबूझ कर अनदेखी कर देते थे। वास्तव में जब कोई सुल्तान शरीअत की दुहाई देता था तो यह साधारणतः उसकी शासक के रूप में कमजोरी का चिन्ह माना जाता था। इसलिए दिल्ली सल्तनत को एक धर्म-तन्त्र समझना उचित नहीं होगा।

(3)

बलबन ने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक कार्य किए। सबसे पहले उसने ‘लौह और रक्त नीति’ द्वारा आन्तरिक विद्रोहों का दमन किया और राज्य में शान्ति स्थापित की। बलबन ने दोआब क्षेत्र के सभी लुटेरों और डाकुओं का वध करवा दिया। उसने मंगोलों से राज्य की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सैनिक सुधार किये। पुराने सिपाहियों के स्थान पर नये योग्य सिपाहियों को भर्ती किया गया। सीमावर्ती किलों को भी सुदृढ़ बनाया गया। उसने बंगाल के विद्रोही सरदार तुगरिल खां को भी बुरी तरह पराजित किया। बलबन ने राज दरबार में कड़ा अनुशासन स्थापित किया। उसने सभी शक्तिशाली सरदारों से शक्ति छीन ली ताकि वे कोई विद्रोह न कर सकें। उसने अपने राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछा दिया। इस प्रकार के कार्यों से उसने दिल्ली सल्तनत को आन्तरिक विद्रोहों और बाहरी आक्रमणों से पूरी तरह सुरक्षित बनाया। इसी कारण ही बलबन को दास वंश का महान् शासक कहा जाता है।

1. बलबन ने कौन-से चार प्रदेशों में विद्रोहों को दबाया ?
2. मंगोलों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए दिल्ली के सुल्तानों ने क्या पग उठाए ?
उत्तर-
1. बलबन ने बंगाल, दिल्ली, गंगा-यमुना दोआब, अवध एवं कोहर के प्रदेशों में विद्रोहों को दबाया।
2. मंगोलों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए दिल्ली के सुल्तानों ने अनेक पग उठाए। इस सम्बन्ध में बलबन तथा अलाऊद्दीन खिलजी की भूमिका विशेष महत्त्वपूर्ण रही जिसका वर्णन इस प्रकार है-

  • उन्होंने सीमावर्ती प्रदेशों में नए दुर्ग बनवाए और पुराने दुर्गों की मुरम्मत करवाई। इन सभी दुर्गों में योग्य सैनिक अधिकारी नियुक्त किए गए।
  • उन्होंने मंगोलों का सामना करने के लिए अपने सेना का पुनर्गठन किया। वृद्ध तथा अयोग्य सैनिकों के स्थान पर युवा सैनिकों की भर्ती की गई। सैनिकों की संख्या में भी वृद्धि की गई।
  • सुल्तानों ने द्वितीय रक्षा-पंक्ति की भी व्यवस्था की। इसके अनुसार मुल्तान, दीपालपुर आदि प्रान्तों में विशेष सैनिक टुकड़ियां रखी गईं और विश्वासपात्र अधिकारी नियुक्त किए। अत: यदि मंगोल सीमा से आगे बढ़ भी आते तो यहां उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ता।
  • सुल्तानों ने मंगोलों को पराजित करने के पश्चात् कड़े दण्ड दिए। इसका उद्देश्य उन्हें सुल्तान की शक्ति के आतंकित करके आगे बढ़ने से रोकना ही था।

(4)
विजयनगर के सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्णदेव राय (शासनकाल 1509-29) ने शासनकाल के विषय में अमुक्तमल्यद नामक तेलुगु भाषा में एक कृति लिखी। व्यापारियों के विषय में उसने लिखा :

एक राजा को अपने बंदरगाहों की सुधारना चाहिए और वाणिज्य को इस प्रकार प्रोत्साहित करना चाहिए कि घोड़ों, हाथियों, रत्नों, चंदन मोती तथा अन्य वस्तुओं का खुले तौर पर आयात किया जा सके……..उसे प्रबंध करना चाहिए कि उन विदेशी नाविकों जिन्हें तूफानों, बीमारी या थकान के कारण उनके देश में उतरना पड़ता है, की भली-भांति देखभाल की जा सके…..सुदूर देशों के व्यापारियों, जो हाथियों और अच्छे घोड़ों का आयात करते है, को रोज़ बैठक में बुलाकर, तोहफ़े देकर तथा उचित मुनाफे की स्वीकृति देकर अपने साथ संबद्ध करना चाहिए ऐसा करने पर ये वस्तुएं कभी भी तुम्हारे दुश्मनों तक नहीं पहुंचेगी।

1. विजयनगर का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था ? उसकी कृति का नाम तथा भाषा बताओ।
2. वह व्यापार एवं वाणिज्य की वृद्धि के लिए क्या-क्या पग उठाना चाहता था ? कोई तीन बिंदु लिखिए। इसका क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
1. विजयनगर का सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्णदेव राय था। उसकी कृति का नाम ‘अमुक्तमल्यद’ है जो तेलुगु भाषा में है।
2. व्यापार एवं वाणिज्य की वृद्धि के लिए वह

  • बंदरगाहों को सुधारना चाहता था।
  • घोड़ों, हाथियों, रत्नों, चंदन, मोती आदि वस्तुओं के आयात को प्रोत्साहन देना चाहता था।
  • राज्य में आने वाले विदेशी नाविकों की उचित देखभाल करना चाहता था। इन सबका उद्देश्य यह था कि वे वस्तुएं शत्रु के हाथ में पहुंच पाएं।

(5)
सन्त लहर के प्रचारक अवतारवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते थे। वे मूर्ति-पूजा के भी विरुद्ध थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है और वह मनुष्य के मन में निवास करता है। अतः परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराइयों में डूब जाना चाहिए। अन्तरात्मा से परमात्मा को खोज निकालने का नाम ही मुक्ति है। इस अनुभव से मनुष्य की आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन हो जाती है। सन्तों के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा तुल्य है। जिस किसी को भी सच्चा गुरु मिल जाता है, उसके लिए परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं है। संत जाति-प्रथा के भेदभाव के विरुद्ध थे। कुछ प्रमुख सन्तों के नाम इस प्रकार हैं-कबीर, नामदेव, सधना, रविदास, धन्ना तथा सैन जी। श्री गुरु नानक देव जी भी अपने समय के महान् सन्त हुए हैं।

1. गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से किन्हीं चार का नाम बताएं।
2. सन्त कौन थे ?
उत्तर-
1. गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से चार के नाम हैं-भक्त कबीर, नामदेव जी, रामानन्द जी तथा घनानन्द जी।
2. सन्त भक्ति-लहर के प्रचारक थे। उन्होंने 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के मध्य भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भक्ति लहर का प्रचार किया। लगभग सभी भक्ति प्रचारकों के सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक एक समान थे। परन्तु कुछ एक प्रचारकों ने विष्णु अथवा शिव के अवतारों की पूजा को स्वीकार न किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी खण्डन किया। उन्होंने वेद, कुरान, मुल्ला, पण्डित, तीर्थ स्थान आदि में से किसी को भी महत्त्व न दिया। वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि परमात्मा निराकार है। ऐसे सभी प्रचारकों को ही प्रायः सन्त कहा जाता है। वे प्रायः जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों का प्रचार करते थे।

(6)
यह रचना कबीर की मानी जाती है :
हे भाई यह बताओ, किस तरह हो सकता है
कि संसार में एक नहीं दो स्वामी हों ?
किसने तुम्हें भनित किया है ?
ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है : जैसे-अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि तथा हज़रत ।
विभिन्नताएं तो केवल शब्दों में हैं जिनका आविष्कार हम स्वयं करते हैं।
कबीर कहते हैं दोनों ही भुलावे में है।
इनमें से कोई एक नाम को प्राप्त नहीं कर सकता
एक बकरे को मारता है और दूसरा गाय को।
वे पूरा जीवन विवादों में ही गंवा देते हैं।

1. कबीर जी के अनुसार संसार में कितने स्वामी (ईश्वर) हैं ? लोग ईश्वर को कौन-कौन से नामों से पुकारते हैं ? ये नाम कहां से लिए गए ?
2. कबीर जी के अनुसार हिंदू तथा मूसलमान दोनों ही ईश्वर को नहीं पा सकते ? क्यों ?
उत्तर-
1. कबीर जी के अनुसार संसार का स्वामी एक ही है। लोग उसे अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि, हज़रत आदि नामों से पुकारते हैं। ये सभी नाम मनुष्य के अपने ही बनाए हुए हैं।
2. कबीर जी के अनुसार हिंदू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर को नहीं पा सकते क्योंकि वे विवादों में घिरे हुए है। दोनों ही पापी है। वे निर्दोष पशुओं का वध करते हैं।

(7)
श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के प्रवर्तक थे। इतिहास में उन्हें महान् स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपने जीवन में भटके लोगों को सत्य का मार्ग दिखाया और धर्मान्धता से पीड़ित समाज को राहत दिलाई। जिस समय श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ, उस समय पंजाब का सामाजिक तथा धार्मिक वातावरण अन्धकार में लिप्त था। लोग अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। हिन्दू और मुसलमानों में बड़ा भेदभाव था। श्री गुरु नानक देव जी ने इन सभी बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने ‘सत्यनाम’ का उपदेश दिया और लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया।

1. गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
2. गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ क्या थे ?
उत्तर-
1. गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवण्डी नामक स्थान पर हुआ।
2. गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ बड़े महत्त्वपूर्ण थे। उनका सन्देश सभी के लिए था। प्रत्येक स्त्री पुरुष उनके बताये मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उनके अनुयायियों में समानता के विचार को वास्तविक रूप संगत और लंगर की संस्थाओं में मिला। इसलिए यह समझना कठिन नहीं है कि गुरु नानक साहिब ने जात-पात पर आधारित भेदभावों का बड़े स्पष्ट शब्दों में खण्डन क्यों किया। उन्होंने अपने आपको जनसाधारण के साथ सम्बन्धित किया। इस स्थिति में उन्होंने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा ज़ोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

(8)
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई : (1) गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है, जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया। (2) गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को भड़का दिया और उनके मन में मुस्लिम राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। (3) इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

1. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन किन्होंने और कब सम्पूर्ण किया ?
2. गुरु अर्जन देव जी की शहीदी ने सिक्ख पंथ के इतिहास पर क्या प्रभाव डाला ?
उत्तर-
1. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में सम्पूर्ण किया।
2. गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख पंथ के इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

  • गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अत: मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी की शहीदी ने इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।
  • शहीदी ने सिक्खों के मन में मुग़ल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी।
  • इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए।

(9)
गुरु जी ने पांच प्यारों का चुनाव करने के पश्चात् पांच प्यारों को अमृतपान करवाया जिसे ‘खण्डे का पाहुल’ कहा जाता है। गुरु जी ने इन्हें आपस में मिलते समय ‘श्री वाहिगुरु जी का खालसा, श्री वाहिगुरु जी की फतेह’ कहने का आदेश दिया। इसी समय गुरु जी ने बारी-बारी पांचों प्यारों की आंखों तथा केशों पर अमृत के छींटे डाले और उन्हें (प्रत्येक प्यारे को) ‘खालसा’ का नाम दिया। सभी प्यारों के नाम के पीछे ‘सिंह’ शब्द जोड़ दिया गया। फिर गुरु जी ने पांच प्यारों के हाथ से स्वयं अमृत ग्रहण किया। इस प्रकार ‘खालसा’ का जन्म हुआ। गुरु जी का कथन था कि उन्होंने यह सब ईश्वर के आदेश से किया है। खालसा की स्थापना के अवसर पर गुरु जी ने ये शब्द कहे-“खालसा गुरु है और गुरु खालसा है। तुम्हारे और मेरे बीच अब कोई अन्तर नहीं है।”

1. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने कौन-से वर्ष, किस दिन और कहां पर खालसा की साजना की ?
2. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख पंथ में साम्प्रदायिक विभाजन तथा बाहरी खतरे की समस्या को कैसे हल किया ?
उत्तर-
1. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 ई० में वैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा की साजना की।
2. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख धर्म में विद्यमान् अनेक सम्प्रदायों की तथा बाहरी खतरों की समस्या को भी बड़ी
कुशलता से निपटाया। सर्वप्रथम गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं से अनेक युद्ध किए और उन्हें पराजित किया। उन्होंने अत्याचारी मुग़लों का भी सफल विरोध किया। 1699 ई० में गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा की स्थापना करके अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए एक और महत्त्वपूर्ण पग उठाया। खालसा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिक्खों ने शस्त्रधारी का रूप धारण कर लिया। खालसा की स्थापना से गुरु जी को सिक्ख धर्म में विद्यमान् विभिन्न सम्प्रदायों से निपटने का अवसर भी मिला। गुरु जी ने घोषणा की कि सभी सिक्ख ‘खालसा’ का रूप हैं और उनके साथ जुड़े हुए हैं। इस प्रकार मसन्दों का महत्त्व समाप्त हो गया और सिक्ख धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय खालसा में विलीन हो गए।

Unit 3

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए।

(1)
औरंगज़ेब एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट् था और वह सारे भारत पर मुग़ल पताका फहराना चाहता था। इसके अतिरिक्त उसे दक्षिण में शिया रियासतों का अस्तित्व भी पसन्द नहीं था। दक्षिण के मराठे भी काफ़ी शक्तिशाली होते जा रहे थे। वह उनकी शक्ति को कुचल देना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने दक्षिण को विजय करने का निश्चय किया। उसने बीजापुर राज्य पर कई आक्रमण किए। कुछ असफल अभियानों के बाद 1686 ई० में वह इस पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा। अगले ही वर्ष उसने रिश्वत और धोखेबाजी से बीजापुर राज्य को भी अपने अधीन कर लिया। परन्तु इन दो राज्यों की विजय उसकी निर्णायक सफलता नहीं थी बल्कि उसकी कठिनाइयों का आरम्भ थी। अब उसे शक्तिशाली मराठों से सीधी टक्कर लेनी पड़ी। इससे पूर्व उसने वीर मराठा सरदार शिवाजी को दबाने के अनेक प्रयत्न किए थे, परन्तु उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी। अब मराठों का नेतृत्व शिवाजी के पुत्र शंभू जी के हाथ में था। 1689 ई० में औरंगजेब ने उसे पकड़ लिया और उसका वध कर दिया। औरंगज़ेब की यह सफलता भी एक भ्रम मात्र थी। मराठे शीघ्र ही पुनः स्वतन्त्र हो गए। इसके विपरीत औरंगजेब का बहुत-सा धन और समय दक्षिण के अभियानों में व्यर्थ नष्ट हो गया। यहां तक कि 1707 ई० में दक्षिण में अहमदनगर के स्थान पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार ‘दक्षिण’ औरंगज़ेब और मुग़ल साम्राज्य दोनों के लिए कब्र सिद्ध हुआ।

1. औरंगजेब दक्कन में किस वर्ष से किस वर्ष तक रहा ?
2. औरंगजेब की दक्षिण नीति की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
1. औरंगज़ेब दक्कन में 1682 ई० से 1707 ई० तक रहा।
2. औरंगज़ेब को दक्षिण की शिया रिसायतों का अस्तित्व पसन्द नहीं था। वह मराठों की शक्ति को भी कुचल देना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने दक्षिण को विजय करने का निश्चय किया। उसने गोलकुण्डा राज्य पर कई आक्रमण किए। कुछ असफल अभियानों के बाद 1687 ई० में वह इस राज्य पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा। अगले ही वर्ष उसने रिश्वत और धोखेबाजी से बीजापुर राज्य को अपने अधीन कर लिया। दक्षिण में मराठों का नेतृत्व शिवाजी के पुत्र शम्भा जी के हाथ में था। 1689 ई० में औरंगजेब ने उसे पकड़ लिया और उसका वध कर दिया। औरंगजेब की यह सफलता एक भ्रम मात्र थी। मराठे शीघ्र ही पुनः स्वतन्त्र हो गए। 1707 ई० में दक्षिण में अहमदनगर के स्थान पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार ‘दक्षिण’ औरंगजेब और मुग़ल साम्राज्य दोनों के लिए कब्र सिद्ध हुआ।

(2)
आइने में वर्गीकरण मापदंड की निम्नलिखित सूची दी गई है :
अकबर बादशाह ने अपनी गहरी दूरदर्शिता के साथ ज़मीनों का वर्गीकरण किया और हरेक (वर्ग की ज़मीन) के लिए अलग-अलग राजस्व निर्धारित किया। पोलज़ वह जमीन है जिसमें एक के बाद एक हर फसल की सालाना खेती होती है और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता है। परोती वह ज़मीन है जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह अपनी खोई ताकत वापस पा सके। छछर वह ज़मीन है जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है। बंजर वह ज़मीन है जिस पर पांच या उससे ज्यादा वर्षों से खेती नहीं की गई है। पहले दो प्रकार की ज़मीन की तीन किस्में है। अच्छी मध्यम और खराब वे हर किस्म की ज़मीन के उत्पाद को जोड़ देते है और इसका तीसरा हिस्सा मध्यम उत्पाद माना जाता है। जिसका एक तिहाई हिस्साशाही शुल्क माना जाता है।

1. भूमि के वर्गीकरण की यह सूची किस ग्रंथ से ली गई है ? इसका लेखक कौन था ?
2. किन्हीं तीन प्रकार की ज़मीनों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए
उत्तर-
1. भूमि के वर्गीकरण की यह सूची आईन से ली गई है। इसका लेखक अबुल फजल था।
2. (i) पोलज़-यह वह जमीन थी जिसमें एक के बाद एक हर फसल की खेती होती थी। इसे खाली नहीं छोड़ा जाती था।
(ii) परोती-इस ज़मीन को कुछ समय के लिए खाली छोड़ दिया जाता था ताकि वह अपनी खोई हुई उपजाऊ शक्ति फिर से प्राप्त कर ले।
(iii) छछर-इस भूमि को तीन-चार वर्षों तक खाली रखा जाता था।

(3)
जोवान्नी कारेरी के लेख (वर्नियर के लेख पर आधारित) के निम्नलिखित अंश से हमें पता चलता है कि मुग़ल साम्राज्य में कितनी भारी मात्रा में बाहर से धन आ रहा था-
(मुग़ल) साम्राज्य की धन-संपत्ति का अंदाजा लगाने के लिए पाठक इस बात पर गौर करें कि दुनिया भर में विचरने वाला सारा सोना-चांदी आखिकार यहीं पहुंच जाता है। ये सब जानते हैं कि इसका बहुत बड़ा हिस्सा अमेरिका से आता है, और यूरोप में कई राज्यों से होते हुए (इसका) थोड़ा-सा हिस्सा कई तरह की वस्तुओं के लिए तुर्की में जाता है, और थोड़ा-सा हिस्सा रेशम के लिए स्मिरना होते हुए फारस पहुंचता है। अब चूंकि तुर्की लोग कॉफी से अलग नहीं रह सकते, जो कि ओमान और अरबिया से आती है…..(और) न ही फारस, अरबिया और तुर्की (के लोग) भारत की वस्तुओं के बिना रह सकते हैं। (वे) मुद्रा की विशाल मात्रा लाल सागर पर केवल महेल के पास स्थित मोचा भेजते हैं। (इसी तरह वे ये मुद्राएं) फारस की खाड़ी पर स्थित पराग भेजते हैं…..बाद में ये (सारी सपत्ति) जहाजों में इंदोस्तान (हिंदुस्तान) भेज दी जाती है। भारतीय जहाजों के अलावा जो डच, अंग्रेज़ी और पुर्तगाली जहाज़ पर साल इंदोस्तान की वस्तुएं लेकर पेंगू, तानस्सेरी (म्यांमार के हिस्से) स्याम (थाइलैंड), सीलोन (श्रीलंका)….मालद्वीप के टापू, मोज़बीक और अन्य जगहों पर ले जाते हैं। (इन्हीं जहाज़ों को) निश्चित तौर पर बहुत सारा सोना-चांदी इन देशों से लेकर वहां (हिंदूस्तान) पहुंचाना पड़ता है। वो सब कुछ तो डच लोग जापान की खानों से हासिल करते है, देर-सवेर इंदोस्तान (को) चला जाता है, और यहां से यूरोप को जाने वाली सारी वस्तुएं, चाहे वो फ्रांस जाएं या इंग्लैंड या पुर्तगाल, सभी नकद में खरीदी जाती हैं, जो (नकद) वहीं (हिंदुस्तान) रह जाता है।

1. वर्नियर कौन था ?
2. मुग़ल-काल में विश्व भर में विचरने वाला सारा सोना-चांदी अंततः कहां और कैसे पहुंचता था ?
उत्तर-
1. वर्नियर एक विदेशी यात्री था जो फ्रांस में आया था।
2. मुग़लकाल में विश्व भर में विचरने वाला सारा सोना-चांदी अंततः भारत में पहुंचता था। इसका एक बहुत बड़ा भाग अमेरिका में जाता था। इसका एक थोड़ा-सा हिस्सा यूरोप के राज्यों से होते हुए तुर्की तथा एक और हिस्सा स्मिरना के रास्ते फारस पहुंचता था। परंतु तुर्की तथा फारस भारत की वस्तुओं के बिना नहीं रह सकते थे। अतः वहां पहुंचने वाला सोना-चांदी भी इन वस्तुओं के बदले भारत आ जाता था।

(4)
शिवाजी ने उच्चकोटि के शासन-प्रबन्ध द्वारा भी मराठों को एकता के सूत्र में बांधा। केन्द्रीय शासन का मुखिया छत्रपति (शिवाजी) स्वयं था। राज्य की सभी शक्तियां उसके हाथ में थीं। छत्रपति को शासन कार्यों में सलाह देने के लिए आठ मन्त्रियों का एक मन्त्रिमण्डल था। इसे अष्ट-प्रधान कहते थे। प्रत्येक मन्त्री के पास एक अलग विभाग था। शिवाजी ने अपने राज्य को तीन प्रान्तों में बांटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त आगे चलकर परगनों अथवा तर्कों में बंटे हुए थे। शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी।

शिवाजी की न्याय-प्रणाली बड़ी साधारण थी। परन्तु यह लोगों की आवश्यकता के अनुरूप थी। मुकद्दमों का निर्णय प्रायः हिन्दू धर्म की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता था। राज्य की आय के मुख्य साधन भूमि-कर, चौथ तथा सरदेशमुखी थे। शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया। उनकी सेना में घुड़सवार तथा पैदल सैनिक शामिल थे। उनके पास एक शक्तिशाली समुद्री बेड़ा, हाथी तथा तोपें भी थीं। सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था। उनकी सेना की सबसे बड़ी विशेषता अनुशासन थी। शिवाजी एक उच्च चरित्र के स्वामी थे। वह एक आदर्श पुरुष, वीर योद्धा, सफल विजेता तथा उच्च कोटि के शासन प्रबन्धक थे। धार्मिक सहनशीलता तथा देश-प्रेम उनके चरित्र के विशेष गुण थे। देश-प्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने मराठा जाति को संगठित किया और एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना की।

1. चौथ तथा सरदेशमुखी लगान के कौन-से भाग थे ?
2. शिवाजी के राज्य प्रबन्ध की मुख्य विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
1. चौथ लगान का चौथा भाग तथा सरदेशमुखी लगान का दसवां भाग होता था।
2. शिवाजी का राज्य प्रबन्ध प्राचीन हिन्दू नियमों पर आधारित था। शासन के मुखिया वह स्वयं थे। उनकी सहायता तथा परामर्श के लिए 8 मन्त्रियों की राजसभा थी, जिसे अष्ट-प्रधान कहते थे। इसका मुखिया ‘पेशवा’ कहलाता था। प्रत्येक मन्त्री के अधीन अलग-अलग विभाग थे। प्रशासन की सुविधा के लिए राज्य को चार प्रान्तों में बांटा गया था। प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त परगनों में बंटे हुए थे। शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी। इसका प्रबन्ध ‘पाटिल’ करते थे। शिवाजी के राज्य की आय का सबसे बड़ा साधन भूमिकर था। भूमि-कर के अतिरिक्तः चौथ, सरदेशमुखी तथा कुछ अन्य कर भी राज्य की आय के मुख्य साधन थे। न्याय के लिए पंचायातों की व्यवस्था थी। शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन भी किया। उन्होंने घुड़सवार सेना भी तैयार की। घुड़सवार सिपाही पहाड़ी प्रदेशों में लड़ने में फुर्तीले होते थे। शिवाजी के पास एक समुद्री बेड़ा भी था।

(5)
1716 ई० में बन्दा बहादुर की शहीदी के पश्चात् सिक्खों के लिए अन्धकार युग आ गया। इस युग में मुग़लों ने सिक्खों का अस्तित्व मिटा देने का प्रयत्न किया। परन्तु सिक्ख अपनी वीरता और साहस के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहे। 1716 से 1752 तक लाहौर के पांच मुग़ल सूबेदारों ने सिक्खों को दबाने के प्रयत्न किए। इनमें से पहले गवर्नर । अब्दुल समद को लाहौर से मुल्तान भेज दिया गया और उसके पुत्र जकरिया खां को लाहौर का सूबेदार बनाया गया। उसे हर प्रकार से सिक्खों को दबाने के आदेश दिए गए। उसने कुछ वर्षों तक तो अपने सैनिक बल द्वारा सिक्खों को दबाने के प्रयत्न किए। परन्तु जब उसे भी कोई सफलता मिलती दिखाई न दी तो उसने अमृतसर के निकट सिक्खों को एक बहुत बड़ी जागीर देकर उन्हें शान्त करने का प्रयत्न किया। उसने मुग़ल सम्राट् से स्वीकृति भी ले ली थी कि सिक्ख नेता को नवाब की उपाधि दी जाए। यह उपाधि कपूर सिंह को मिली और वह नवाब कपूर सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। फलस्वरूप कुछ समय तक सिक्ख शान्त रहे और उन्होंने अपने-अपने जत्थों को शक्तिशाली बनाया। इसी बीच कुछ जत्थेदारों ने फिर से मुग़लों का विरोध करना और सरकारी खजानों को लूटना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे मुग़लों और सिक्खों में फिर जोरदार संघर्ष छिड़ गया।

1. 1716 से 1752 तक लाहौर के किन्हीं चार मुगल सूबेदारों के नाम बताएं।
2. सिक्खों की शक्ति को कुचलने में मीर मन्नू की असफलता के कोई चार कारण बताओ ।
उत्तर-
1. 1716 से 1752 तक लाहौर के चार सूबेदार थे-अब्दुल समद खां, जकरिया खां, याहिया खां तथा मीर मन्नू।
2. सिक्खों की शक्ति को कुचलने में मीर मन्नू की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

  • दल खालसा की स्थापना-मीर मन्नू के अत्याचारों के समय तक सिक्खों ने अपनी शक्ति को दल खालसा के रूप में संगठित कर लिया । इसके सदस्यों ने देश, जाति तथा पन्थ के हितों की रक्षा के लिए प्राणों तक की बलि देने का प्रण कर रखा था।
  • दीवान कौड़ामल की सिक्खों से सहानूभूति-मीर मन्नू के दीवान कौड़ामल को सिक्खों से विशेष सहानुभूति थी। अतः जब कभी भी मीर मन्नू सिक्खों के विरुद्ध कठोर कदम उठाता, कौड़ामल उसकी कठोरता को कम कर देता था।
  • अदीना बेग की दोहरी नीति-जालन्धर-दोआब के फ़ौजदार अदीना बेग ने दोहरी नीति अपनाई हुई थी।
    उसने सिक्खों से गुप्त सन्धि कर रखी थी तथा दिखावे के लिए एक-दो अभियानों के बाद वह ढीला पड़ जाता था।
  • सिक्खों की गुरिल्ला युद्ध नीति-सिक्खों ने अपने सीमित साधनों को दृष्टि में रखते हुए गुरिल्ला युद्ध की नीति को अपनाया। अवसर पाते ही वे शाही सेनाओं पर टूट पड़ते और लूट-मार करके फिर जंगलों की ओर भाग जाते।

(6)
महाराजा रणजीत सिंह को शक्तिशाली सेना के महत्त्व का पूरा ज्ञान था। वह जानता था कि सेना को शक्तिशाली बनाए बिना राज्य को सुदृढ़ बनाना असम्भव है। इसलिए महाराजा ने अपनी सेना की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने अंग्रेज़ कम्पनी से भागे हुए सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। सैनिकों को यूरोपियन ढंग से संगठित करने के लिए सेना में यूरोपीय अफसरों को भी नौकरी दी गई। उनकी सहायता से पैदल तथा घुड़सवार सेना और तोपखाने को मजबूत बनाया गया। पैदल सेना में बटालियन, घुड़सवारों में रेजीमैंट और तोपखाने में बैटरी नामक इकाइयां बनाईं गईं। इसके अतिक्ति महाराजा प्रतिदिन अपनी सेना का स्वयं निरीक्षण करता था। उसने सेना में हुलिया और दाग की प्रथा भी अपनाई ताकि सैनिक अधिकारियों तथा जागीरदारों के अधीन निश्चित संख्या में सैनिक तथा घोड़े प्रशिक्षण पाते रहें। सेना को अच्छे शस्त्र जुटाने के लिए कुछ कारखाने स्थापित किए गए जिनमें तोपें, बन्दूकें तथा अन्य हथियार बनाए जाते थे। महाराजा की इस सुदृढ़ सेना से साम्राज्य भी सुदृढ़ हुआ।

1. यूरोपीय अफसरों की सहायता से महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना के कौन-से तीन अंगों को सशक्त बनाया ?
2. महाराजा रणजीत सिंह को ‘शेरे पंजाब’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
1. उसने यूरोपीय अफसरों की सहायता से सेना के पैदल, घुड़सवार तथा तोपखाना नामक अंगों को सशक्त बनाया।
2. महाराजा रणजीत सिंह एक सफल विजेता व कुशल शासक था। उसने पंजाब को एक दृढ़ शासन प्रदान किया। उसने सिक्खों को एक सूत्र में पिरो दिया। उसके राज्य में प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी। महाराजा रणजीत सिंह कट्टर धर्मी नहीं था। उसके दरबार में सिक्ख, मुसलमान आदि सभी धर्मों के लोग थे। सरकारी नौकरियां योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। वह बड़ा दूरदर्शी था। उसने जीवन भर अंग्रेजों से मित्रता बनाए रखी। इस तरह उसने राज्य को शक्तिशाली अंग्रेजों से सुरक्षित रखा। इन्हीं गुणों के कारण महाराजा रणजीत सिंह की गणना इतिहास के महान् शासकों में की जाती है और उसे ‘शेरे पंजाब’ के नाम से याद किया जाता है।

(7)
पुर्तगालियों, डचों तथा अंग्रेजों को भारत के साथ व्यापार करता देखकर फ्रांसीसियों के मन में भी इस व्यापार से लाभ उठाने की लालसा जागी। अतः उन्होंने भी 1664 ई० में अपनी व्यापारिक कम्पनी स्थापित कर ली। इस कम्पनी ने सूरत और मसौलीपट्टम में अपनी व्यापारिक बस्तियां बसा लीं। उन्होंने भारत के पूर्वी तट पर पांडीचेरी नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बना लिया। उन्होंने बंगाल में चन्द्रनगर की नींव रखी। 1721 ई० में मारीशस तथा माही पर उनका अधिकार हो गया। इस प्रकार फ्रांसीसियों ने पश्चिमी तट, पूर्वी तट तथा बंगाल में अपने पांव अच्छी तरह जमा लिए और वे अंग्रेजों के प्रतिद्वन्द्वी बन गए।

1741 ई० में डुप्ले भारत में फ्रांसीसी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल बनकर आया। वह बड़ा कुशल व्यक्ति था और भारत में फ्रांसीसी राज्य स्थापित करना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष होना आवश्यक था। अत: 1744 ई० से 1764 ई० तक के बीस वर्षों में भारत में फ्रांसीसियों और अंग्रेज़ों के बीच युद्ध छिड़ गया। यह संघर्ष कर्नाटक के युद्धों के नाम से प्रसिद्ध है। इन युद्धों में अन्तिम विजय अंग्रेजों की हुई। फ्रांसीसियों के पास केवल पांच बस्तियां-पांडिचेरी, चन्द्रनगर, माही, थनाओ तथा मारीशस ही रह गईं। इन बस्तियों में वे अब केवल व्यापार ही कर सकते थे।

1. फ्रांसीसियों की मुख्य दो फैक्टरियां कौन-सी थीं तथा ये कब स्थापित की गईं ?
2. फ्रांसीसी कम्पनी के विरुद्ध अंग्रेजी कम्पनी की सफलता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
1. फ्रांसीसियों ने अपनी दो मुख्य फैक्टरियां 1674 में पांडिचेरी में तथा 1690 में चन्द्रनगर में स्थापित की।
2. फ्रांसीसी कम्पनी के विरूद्ध अंग्रेज़ी कम्पनी की सफलता के मुख्य कारण ये थे
(i) अंग्रेजों के पास फ्रांसीसियों से अधिक शक्तिशाली जहाज़ी बेड़ा था।
(ii) इंग्लैण्ड की सरकार अंग्रेजी कम्पनी की धन से सहायता करती थी। परन्तु फ्रांसीसी सरकार फ्रांसीसियों की सहायता नहीं करती थी।
(iii) अंग्रेजी कम्पनी की आर्थिक दशा फ्रांसीसी कम्पनी से काफ़ी अच्छी थी। अंग्रेज़ कर्मचारी बड़े मेहनती थे और
आपस में मिल-जुल कर काम करते थे। राजनीति में भाग लेते हुए भी अंग्रेजों ने व्यापार का पतन न होने दिया। इसके विपरीत फ्रांसीसी एक-दूसरे के साथ द्वेष रखते थे तथा राजनीति में ही अपना समय नष्ट कर देते थे।
(iv) प्लासी की लड़ाई (1756 ई०) के बाद बंगाल का धनी प्रदेश अंग्रेजों के प्रभाव में आ गया था। यहां के अपार धन से अंग्रेज़ अपनी सेना को खूब शक्तिशाली बना सकते थे।

UNIT-4

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए।

(1)
1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। इसके पश्चात् सिक्खों का नेतृत्व करने वाला कोई योग्य नेता न रहा। शासन की सारी शक्ति सेना के हाथ में आ गई। अंग्रेजों ने इस अवसर का लाभ उठाया और सिक्ख सेना के प्रमुख अधिकारियों को लालच देकर अपने साथ मिला लिया। इसके साथ-साथ उन्होंने पंजाब के आस-पास के इलाकों में अपनी सेनाओं की संख्या बढ़ानी आरम्भ कर दी और सिक्खों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने लगे। उन्होंने सिक्खों से युद्ध किये, दोनों युद्धों में सिक्ख सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। परन्तु अपने अधिकारियों की गद्दारी के कारण वे पराजित हुए। प्रथम युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने पंजाब का केवल कुछ भाग अंग्रेज़ी राज्य में मिलाया और वहाँ सिक्ख सेना के स्थान पर अंग्रेज सैनिक रख दिये गये। परन्तु 1849 ई० में दूसरे सिक्ख दूसरे युद्ध की समाप्ति पर लॉर्ड डल्हौजी ने पूरे पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

1. ‘लैप्स के सिद्धान्त’ से क्या अभिप्राय था ?
2. भारत में अंग्रेजी राज्य के विस्तार में सहायक सन्धि का क्या योगदान रहा ?
उत्तर-
1. लैप्स के सिद्धान्त से अभिप्राय डल्हौज़ी के उस सिद्धान्त से था जिस के अन्तर्गत सन्तानहीन शासकों के राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिए जाते थे। वे पुत्र गोद लेकर अंग्रेजों की अनुमति के बिना उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं कर सकते थे।
2. भारत में अंग्रेजी राज्य के विस्तार में सहायक सन्धि का बड़ा सक्रिय योगदान रहा। इस नीति का मुख्य आधार अंग्रेज़ी शक्ति के प्रभाव को भारतीय राज्यों में बढ़ावा देना था। सबल भारतीय शक्तियां निर्बल राज्यों को हड़पने में लगी हुई थीं। इन कमज़ोर राज्यों को संरक्षण की आवश्यकता थी। वे मिटने की बजाए अर्द्ध-स्वतन्त्रता स्वीकार करने के लिए तैयार थे। सहायक सन्धि उनके उद्देश्यों को पूरा कर सकती थी। उनकी बाहरी आक्रमण और भीतरी गड़बड़ से सुरक्षा के लिए अंग्रेजी सरकार वचनबद्ध होती थी। अत: इस नीति को अनेक भारतीय राजाओं ने स्वीकार कर लिया जिनमें हैदराबाद, अवध, मैसूर, अनेक राजपूत राजा तथा मराठा प्रमुख थे। परन्तु इसके अनुसार सन्धि स्वीकार करने वाले राजा को अपने व्यय पर एक अंग्रेजी सेना रखनी पड़ती थी। परिणामस्वरूप उनकी विदेश नीति अंग्रेजों के अधीन आ जाती थी। परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेजी राज्य का खूब विस्तार हुआ।

(2)
अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से पूर्व भारतीय सूती कपड़ा उद्योग उन्नति की चरम सीमा पर पंहुचा हुआ था। भारत में बने सूती कपड़े की इंग्लैंड में बड़ी मांग थी। इंग्लैंड की स्त्रियां भारत के बेल-बूटेदार वस्त्रों को बहुत पसन्द करती थीं। कम्पनी ने आरम्भिक अवस्था में कपड़े का निर्यात करके खूब पैसा कमाया। परन्तु 1760 तक इंग्लैंड ने ऐसे कानून पास कर दिए जिनके अनुसार रंगे कपड़े पहनने की मनाही कर दी गई। इंग्लैंड की एक महिला को केवल इसलिए 200 पौंड जुर्माना किया गया था क्योंकि उसके पास विदेशी रूमाल पाया गया था। इंग्लैंड का व्यापारी तथा औद्योगिक वर्ग कम्पनी की व्यापारिक नीति की निन्दा करने लगा। विवश होकर कम्पनी को वे विशेषज्ञ इंग्लैंड वापस भेजने पड़े जो भारतीय जुलाहों को अंग्रेजों की मांगों तथा रुचियों से परिचित करवाते थे। इंग्लैंड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर आयात कर बढ़ा दिया और कम्पनी की कपड़ा सम्बन्धी आयात नीति पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए। इन सब बातों के परिणामस्वरूप भारत के सूती वस्त्र उद्योग को भारी क्षति पहुंची।

1. भारत में पहली कपड़ा मिल कब, किसने और कहां लगवाई ?
2. भारत में धन की निकासी किन तरीकों से होती थी ?
उत्तर-
1. कपड़े की पहली मिल मुम्बई में कावासजी नानाबाई ने 1853 में स्थापित की।
2. अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारत को बहुत हानि हुई। देश का धन देश के काम आने के स्थान पर विदेशियों के काम आने लगा। 1757 के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा इसके कर्मचारियों ने भारत से प्राप्त धन को इंग्लैण्ड भेजना आरम्भ कर दिया। कहते हैं कि 1756 ई० से 1765 तक लगभग 60 लाख पौंड की राशि भारत से बाहर गई।
और तो और लगान आदि से प्राप्त राशि भी भारतीय माल खरीदने में व्यय की गई। अतिरिक्त सिविल सर्विस और सेना के उच्च अफसरों के वेतन का पैसा भी देश से बाहर जाता था। औद्योगिक विकास का भी अधिक लाभ विदेशियों को ही हुआ। विदेशी पूंजीपति इस देश पर धन लगाते थे और लाभ की रकम इंग्लैण्ड में ले जाते थे। इस तरह भारत का धन कई प्रकार से विदेशों में जाने लगा।

(3)
धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों ने मुख्य रूप से दो महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्याओं पर बल दिया : स्त्रियों की भलाई तथा जाति भेद को समाप्त करना। इन कार्यक्रमों का आधार मानवीय समानता की विचारधारा थी। परन्तु समानता की यह विचारधारा केवल धर्म के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी। इसका राजनीतिक महत्त्व भी था। अंग्रेजों के राज्य में कानूनी रूप से तो सभी भारतीय समान थे, परन्तु सामाजिक या राजनीतिक रूप से नहीं थे। . भारत में स्त्रियों की संख्या देश की जनसंख्या से लगभग आधी थी। विश्व के अन्य समाजों की भान्ति भारत में भी स्त्री पुरुष के अधीन थी। धर्म और कानून की व्यवस्था भी उसके पक्ष में नहीं थी। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि कुप्रथाएं इसी असमानता का परिणाम थीं। धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों ने स्त्रियों की भलाई पर बल दिया। उनके प्रयासों का परिणाम भी अच्छा निकला। धीरे-धीरे स्त्रियों ने राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों में स्वयं भाग लेना आरम्भ कर दिया। उन्होंने समानता की मांग की। देश के प्रमुख नेताओं ने इसका जोरदार समर्थन किया। परिणामस्वरूप स्त्रीपुरुष की समानता का आदर्श स्वीकार कर लिया गया।

1. ‘रिवाइवलिज़म’ से क्या अभिप्राय है ?
2. भारतीय नारी की दशा सुधारने के लिए आधुनिक सुधारकों द्वारा किए गए कोई चार कार्य लिखिए।
उत्तर-
1. धर्म के नाम पर तथा बीते समय का हवाला देते हुए लोगों में जागृति लाने के प्रयास को रिवाइवलिज़म का नाम दिया जाता है।
2. (i) सती-प्रथा के कारण स्त्री को अपने पति की मृत्यु पर उसके साथ जीवित ही चिता में जल जाना पड़ता था। आधुनिक समाज-सुधारकों के प्रयत्नों से इस अमानवीय प्रथा का अन्त हो गया।
(ii) विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। समाज-सुधारकों के प्रयत्नों से उन्हें दोबारा विवाह करने की आज्ञा मिल गई।
(iii) आधुनिक सुधारकों का विश्वास था कि पर्दे में बन्द रहकर नारी कभी उन्नति नहीं कर सकती, इसलिए उन्होंने स्त्रियों को पर्दा न करने के लिए प्रेरित किया।
(iv) स्त्रियों को ऊंचा उठाने के लिए समाज-सुधारकों ने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया।

(4)
प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर भारतीयों को प्रसन्न करने के लिए माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट प्रकाशित की गई। भारतीयों .. ने युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की थी। उन्हें विश्वास था कि युद्ध में विजयी होने के पश्चात् सरकार उन्हें पर्याप्त अधिकार देगी। परन्तु इस रिपोर्ट से भारतीय निराश हो गए। सरकार भी भयभीत हो गई कि अवश्य कोई नया आन्दोलन आरम्भ होने वाला है। अत: स्थिति पर नियन्त्रण पाने के लिए सरकार ने रौलेट एक्ट पास कर दिया। इस एक्ट के अनुसार वह किसी भी व्यक्ति को बिना वकील, बिना दलील, बिना अपील बन्दी बना सकती थी। इस काले कानून का विरोध करने के लिए महात्मा गांधी आगे बढ़े। उन्होंने जस्ता को शान्तिमय ढंग से इसका विरोध करने के लिए कहा। इस शान्तिमय विरोध को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया ! स्थान-स्थान पर सभाएं बुलाई गईं और जलूस निकाले गए। कांग्रेस का आन्दोलन जनता का आन्दोलन बन गया। पहली बार भारत की जनता ने संगठित होकर अंग्रेज़ों का विरोध किया। 6 अगस्त, 1919 ई० को सारे भारत में हड़ताल की गई। महात्मा गांधी ने लोगों को शान्तिमय विरोध करने के लिए कहा था। फिर भी कहीं-कहीं अप्रिय घटनाएं हुईं। 13 अप्रैल, 1919 ई० को जलियांवाला बाग की दुःखद घटना से भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। पंजाब के लोकप्रिय नेता डॉ० सत्यपाल तथा डॉ० किचलू को सरकार ने बन्दी बना लिया था। अमृतसर की जनता विरोध प्रकट करने के लिए बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में एकत्रित हुई। नगर में मार्शल-ला लगा हुआ था। जनरल डायर ने लोगों को चेतावनी दिए बिना ही एकत्रित लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया। हजारों निर्दोष स्त्री-पुरुष मारे गए। इससे सारे भारत में रोष की लहर दौड़ गई।

1. जलियांवाला बाग कांड कब और कहां हुआ तथा इसके लिए उत्तरदायी अंग्रेज़ अफसर का नाम बताएं।
2. स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में ‘रौलेट एक्ट’ तथा ‘जलियांवाला बाग’ का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
1. जलियांवाला बाग का कांड 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में हुआ। इसके लिए जनरल डायर उत्तरदायी था।
2. स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में रौलेट एक्ट तथा जलियांवाला बाग का विशेष महत्त्व है। रौलेट एक्ट के अनुसार किसी भी मुकद्दमे का फैसला बिना ‘ज्यूरी’ के किया जा सकता था तथा किसी भी व्यक्ति को मुकद्दमा चलाये बिना नज़रबन्द रखा जा सकता था। इस एक्ट के कारण भारतीय लोग भड़क उठे। उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। गांधी जी ने इस एक्ट के विरुद्ध अहिंसात्मक हड़ताल की घोषणा कर दी। स्थान-स्थान पर दंगे-फसाद हुए। जलियांवाला बाग में शहर के लोगों ने एक सभा का प्रबन्ध किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन को दबाने के लिए जनरल डायर ने सभा में एकत्रित लोगों पर गोली चला दी जिसके कारण बहुत-से लोग मारे गए अथवा घायल हो गए। इस घटना से भारत के लोग और भी अधिक भड़क उठे। उन्होंने अंग्रेज़ों से स्वतन्त्रता प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इस घटना से अंग्रेज़ शासकों तथा भारतीय नेताओं के बीच एक अमिट दरार पड़ गई।

(5)
साइमन कमीशन का प्रत्येक स्थान पर भारी विरोध किया गया था। परन्तु कमीशन ने विरोध के बावजूद अपनी रिपोर्ट प्रकाशित कर दी। साइमन कमीशन की रिपोर्ट को भारत के किसी भी राजनीतिक दल ने स्वीकार नहीं किया। अतः अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों को सर्वसम्मति से अपना संविधान तैयार करने की चुनौती दी। इस विषय में भारतीयों ने अगस्त, 1928 ई० में नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की, परन्तु अंग्रेज़ी सरकार ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप भारतीयों की निराशा और अधिक बढ़ गई।

1929 ई० में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ। यह अधिवेशन भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। गांधी जी ने ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पेश किया जो पास कर दिया गया। 31 दिसम्बर की आधी रात को नेहरू जी ने रावी नदी के किनारे स्वतन्त्रता का तिरंगा झण्डा फहराया। यह भी निश्चित हुआ कि हर वर्ष 26 जनवरी को स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाये। 26 जनवरी, 1930 को यह दिन’ सारे भारत में बड़े जोश के साथ मनाया गया और लोगों ने स्वतन्त्रता प्राप्त करने की प्रतिज्ञा की। अपने उद्देश्य की पर्ति के लिए उन्होंने सरकारी कानूनों तथा संस्थाओं का बहिष्कार करने की नीति अपनाई।

1. भारतीयों ने ‘साइमन कमीशन’ का विरोध क्यों किया तथा पंजाब के कौन-से नेता इस विरोध में घायल हुए तथा उनका देहान्त कब हुआ ?
2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन का वर्णन कीजिए। इसका हमारे स्वतन्त्रता संग्राम पर क्या प्रभाव पड़ा ।
उत्तर-
1. भारतीयों ने साइमन कमीशन का विरोध इसलिए किया क्योंकि कोई भी भारतीय इस कमीशन का सदस्य नहीं था।
लाला लाजपतराय इस विरोध में घायल हुए और 1928 में उनकी मृत्यु हो गई।
2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन 1930 ई० में चलाया गया। इस आन्दोलन का उद्देश्य सरकारी कानूनों को भंग करके सरकार के विरुद्ध रोष प्रकट करना था। आन्दोलन का आरम्भ गान्धी जी ने अपनी डांडी यात्रा से किया। 12 मार्च,1930 ई० को उन्होंने साबरमती आश्रम से अपनी यात्रा आरम्भ की। मार्ग में अनेक लोग उनके साथ मिल गये। 24 दिन की कठिन यात्रा के बाद वे समुद्र तट पर पहुंचे और उन्होंने समुद्र के पानी से नमक बनाकर नमक कानून भंग किया। इसके बाद देश में लोगों ने सरकारी कानून को भंग करना आरम्भ कर दिया। इस आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने बड़ी कठोरता से काम लिया। हज़ारों देशभक्तों को जेल में डाल दिया गया। गान्धी जी को भी बन्दी बना लिया गया। यह आन्दोलन फिर भी काफी समय तक चलता रहा। इस प्रकार इस आन्दोलन का हमारे स्वतन्त्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव पड़ा। अब देश की जनता इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगी।

(6)
विद्रोही सिपाहियों की एक अर्जी जो बच गई-
एक सदी पहले अंग्रेज़ हिंदुस्तान आए और धीरे-धीरे फ़ौजी टुकड़ियां बनाने लगे। इसके बाद वे हर राज्य के मालिक बन बैठे। हमारे पुरुखों ने सदा उनकी सेवा की है और हम भी उनकी नौकरी में आए। ईश्वर की कृपा से हमारी सहायता में अंग्रेजो ने जो चाहा वो इलाका जांच लिया। उनके लिए हमारे जैसे हजारों हिंदुस्तानी जवानों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी लेकिन न हमने कभी पैर खींचे और न कोई बहाना बनाया और न ही कभी बग़ावत के रास्ते पर चले।

लेकिन सन् 1857 में अग्रेजों ने ये हुक्म जारी कर दिया कि अब सिपाहियों को इंगलैंड से नए कारतूस और बंदूकें दी जाएंगी। इन कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है और गेहूं के आटे में हड्डियों का चूरा मिलाया जा रहा है। ये चीजें पैदल-सेना, घुड़सवारों और गोलअंदाज फ़ौज को हर रेजीमेंट में पहुंचा दी गई हैं।

उन्होंने ये कारतूस थर्ड लाइट केवेलरी के सवारों (घुड़सवार सैनिक) को दिए और उन्हें दांतों से खींचने के लिए कहा। सिपाहियों ने इस हुक्म का विरोध किया और कहा कि वे ऐसा कभी नहीं करेंगे क्योंकि अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। इस पर अंग्रेज़ अफ़सरों ने तीन रेजीमेंटों के जवानों को परेड करवा दी। 1400 अंग्रेज़ सिपाही, यूरोपीय सैनिकों की दूसरी बटालियनें और घुड़सवार गोलअंदाज फौज को तैयार कर भारतीय सैनिकों को घेर लिया गया। हर पैदल रैजीमेंट के सामने छरों से भरी छह-छह तोपें तैनात कर दी गईं और 84 नए सिपाहियों को गिरफ्तार करके, बेड़ियां डालकर, जेल में बंद कर दिया गया। छावनी के सवारों को इसलिए जेल में डाला गया ताकि हम डर कर नए कारतूसों को दांतों से खींचने लगें। इसी कारण हम और हमारे सारे सहोदर इकट्ठा होकर अपनी आस्था की रक्षा के लिए अंग्रेज़ों से लड़े…. । हमें दो साल तक युद्ध जारी रखने पर मजबूर किया गया। धर्म व आस्था के सवाल पर हमारे साथ खड़े राजा और मुखिया अभी भी हमारे साथ हैं और उन्होंने भी सारी मुसीबतें झेली हैं। हम दो साल तक इसलिए लड़े ताकि हमारा अकायद (आस्था) और मज़हब दूषित न हों। अगर एक हिंदू या मुसलमान का धर्म ही नष्ट हो गया तो दुनिया में बचेगा क्या ?

1. इन सिपाहियों का संबंध किस विद्रोह से है ?
2. भारतीय जवानों ने अंग्रेजों की सहायता किस प्रकार की ?
3. 1857 में भारतीय सैनिकों में अंग्रेजों के किस आदेश से रोष फैला ?
4. सिपाहियों द्वारा नए कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार करने पर उनके साथ कैसा व्यवहार किया गया ?
उत्तर-
1. इन सिपाहियों क संबंध 1857 के विद्रोह से है।
2. भारतीय जवानों ने अंग्रेजों के लिए अनेक प्रदेश जीते। इसके लिए अनेक कुर्बानियों देनी पड़ीं। परंतु वे कभी पीछे नहीं हटे।
3. 1857 में अंग्रेजों ने ये आदेश जारी किया कि अब सिपाहियों को इंग्लैंड से नए कारतूस और बंदूकें दी जाएंगी।
सिपाहियों का कहना था कि वे कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है और गेहूं के आटे में हड्डियों का चूरा मिलाकर खिलाया जा रहा है। ये चीजें पैदल-सेना, घुड़सवारों और गोलअंदाज फ़ौज की हर रेजीमेंट में पहुंचा दी गई हैं। इस बात से उनमें रोष फैला।
4. सिपाहियों द्वारा नए कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार करने पर उनके साथ कठोर व्यवहार किया गया। उन्हें ब्रिटिश जवानों द्वारा घेर लिया गया। प्रत्येक पैदल रेजीमेंट के सामने छरों से भरी छह-छह तोपें तैनात कर दी गईं। 84 नए सिपाहियों को गिरफ्तार करके, बेड़ियां डाल दी गईं और उन्हें जेल में बंद कर दिया गया।

(7)
5 अप्रैल, 1930 को महात्मा गांधी ने दांडी में कहा था-
जब मैं अपने साथियों के साथ दांडी के इस समुद्रतटीय टोले की तरफ चला था तो मुझे यकीन नहीं था कि हमें यहां तक आने दिया जाएगा। जब मैं साबरमती में था तब भी यह अफवाह थी कि मुझे गिरफ़तार किया जा सकता है। तब मैंने सोचा था कि सरकार मेरे साथियों को तो दांडी तक आने देगी लेकिन मुझे निश्चित ही यह छूट नहीं मिलेगी। यदि कोई यह कहता है कि इससे मेरे हृदय में अपूर्ण आस्था का संकेत मिलता है तो मैं इस आरोप को नकारने वाला नहीं हूं। मैं यहां तक पहुंचा हूं, इसमें शांति और अहिंसा का कम हाथ नहीं है। इस सत्ता को सब महसूस करते हैं। अगर सरकार चाहे तो वह अपने इस आचरण के लिए अपनी पीठ थपथपा सकती है क्योंकि सरकार चाहती वो हम में से प्रत्येक को गिरफ्तार कर सकती थी। जब सरकार यह कहती है कि उसके पास शांति की सेना को गिरफ्तार करने का साहस नहीं था तो हम उसकी प्रशंसा करते है। सरकार को ऐसी सेना की गिरफ्तारी में शर्म महसूस होती है। अगर कोई व्यक्ति ऐसा काम करने में शर्म महसूस करता है जो . उसके पड़ोसियों को भी रास नहीं आ सकता, तो वह एक शिष्ट-सभ्य व्यक्ति है। सरकार को हमें ऐसा करने के लिए बधाई दी जानी चाहिए भले ही उसने विश्व जनमत का ख्याल करके ही यह फैसला क्यों न लिया हो।
कल हम नमक-कर कानून तोडेंगे। सरकार उसको बर्दाश्त करती है कि नहीं यह सवाल अलग है। हो सकता है सरकार हमें ऐसा करने दे लेकिन उसने हमारे जत्थे के बारे मुख्य धैर्य और सहिष्णुता दिखायी है उसके लिए वह अभिनंदन की पात्र है …..।

यदि मुझे और गुजरात व देश भर के सारे मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता है तो क्या होगा ? यह आंदोलन इस विश्वास पर आधारित है कि जब एक पूरा राष्ट्र उठ खड़ा होता है और आगे बढ़ने लगता है तो उसे नेता की ज़रूरत नहीं रह जाती।

1. गांधीजी ने दांडी मार्च की शरूआत क्यों की ?
2. नमक यात्रा उल्लेखनीय क्यों थी ?
3. शांति और अहिंसा को सब महसूस करते हैं ? गांधी जी ने ऐसा क्यों कहा ?
उत्तर-
1. नमक कानून के अनुसार नमक के उत्पादन और विक्रय पर राज्य का एकाधिकार था। प्रत्येक भारतीय घर में नमक का प्रयोग होता था, परन्तु उन्हें घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने से रोका गया था। इस प्रकार उन्हें दुकानों से ऊंचे दाम पर नमक खरीदने के लिए बाध्य किया गया। अत: नमक कानून के विरुद्ध जनता में काफी असंतोष था। गांधी जी भी नमक कानून को सबसे घृणित कानून मानते थे। स्वतन्त्रता संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया। गांधी जी इस कानून को तोड़कर जनता में व्याप्त असंतोष को अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध एकजुट करना चाहते थे। इसी नमक कानून को तोड़ने के उद्देश्य से ही गांधी जी ने दांडी मार्च शुरू किया।

2. नमक यात्रा कम-से-कम निम्नलिखित तीन कारणों से उल्लेखनीय थी।-

  • इसके चलते महात्मा गांधी दुनिया की नज़र में आए। इस यात्रा को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक रूप से जाना।
  • यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। समाजवादी कार्यकारी
    कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने गांधी को समझाया था कि वे अपने आंदोलन को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी स्वयं उन असंख्य औरतों में से एक थी जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ्तारी दी थी।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अभास हुआ था कि अब उनका
    राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में भागीदार बनाना पड़ेगा।

3. गांधी जी शांति के पुजारी थे और सत्य एवं अहिंसा में बहुत अधिक विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि अहिंसा पर आधारित शांतिपूर्ण आंदोलन को बड़ी-से-बड़ी शक्ति भी नहीं दबा सकती। इसलिए उन्होंने यह कहा कि शांति और अहिंसा (की ताकत) को सभी महसूस करते है।

(8)
महात्मा गांधी जानते थे कि उनकी स्थिति “बीहड़ में एक आवाज़” जैसी है लेकिन फिर भी वे विभाजन की सोच का विरोध करते रहे-
किंतु आज हम कैसे दुखद परिवर्तन देख रहे हैं। मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूं जब हिंदू और मुसलमान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जला जा रहा हूं कि उस दिन को जल्दी-जल्दी साकार करने के लिए क्या करू। लोगों से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें….। हिंदू और मुसलमान दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं। उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं, और एक ही जबान बोलते हैं।
प्रार्थना सभा में भाषण, 7 सितंबर, 1946, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी, खंड 92, पृ० 139.

लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो मांग उठायी है वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है और मुझे इसको पापपूर्ण कृत्य करने से कोई संकोच नहीं है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का। जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बांट देना चाहते हैं वे भारत और इस्लाम, दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, परंतु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते जिसे मैं ग़लत मानता हूँ।

1. महात्मा गांधी पुनः क्या देखना चाहते थे ? व्याख्या कीजिए।
2. पाकिस्तान की मांग किस प्रकार गैर-इस्लामिक थी ? स्पष्ट कीजिए।
3. महात्मा गांधी ने ऐसा क्यों कहा कि उनकी आवाज़ बीहड़ में एक आवाज़ थी ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
1. महात्मा गांधी हिंदुओं तथा मुसलमानों को फिर से एक होता देखना चाहते थे। वे चाहते थे हिंदू तथा मुसलमान आपसी . सलाह के बिना कोई काम न करें। वास्तव में वह विभाजन की स्थिति को रोकना चाहते थे।
2. महात्मा गांधी का कहना था कि-

  • मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो मांग उठायी है वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार को तोड़ने का।
  • जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बांट देना चाहते हैं और वे भारत और इस्लाम दोनों का शत्रु हैं।

3. विभाजन की बढ़ती हुई सोच के कारण देश का वातावरण विषैला हो चुका था ऐसा लगता था पूरा देश दूर-दूर तक एक वीरान जंगल की तरह फैला है जिसमें किसी की आवाज़ सुनाई नहीं दे सकती। इसलिए वह यह महसूस कर रहे थे-उनकी आवाज़ बीहड़ में एक आवाज़ के समान है।

Leave a Comment