PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 5 उदारवाद

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 5 उदारवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 5 उदारवाद

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
उदारवाद क्या है ? इसके मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। (What is Liberalism ? Discuss its main principles.)
अथवा
उदारवाद की परिभाषा दीजिए तथा इसके मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। (Define Liberalism and Explain its basic principles.)
अथवा
उदारवाद की परिभाषा बताइए और इसकी मुख्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिए। (Define Liberalism and discuss its main characteristics.)
उत्तर-
उदारवाद आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। यूरोपीय देशों पर इस विचारधारा का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। परन्तु उदारवाद की एक निश्चित परिभाषा देना अति कठिन कार्य है। इसका कारण यह है कि उदारवाद एक निश्चित और क्रमबद्ध विचारधारा नहीं है। उदारवाद किसी एक विचारक की देन नहीं है और न ही इसका किसी एक युग के साथ सम्बन्ध है। यह एक ऐसी व्यापक विचारधारा है जिसमें अनेक विद्वानों के विचार और आदर्श शामिल हैं और जो समय के साथ-साथ परिवर्तित होते रहे हैं। लॉक और लॉस्की तक और आगे भी इसका क्रम चलता जा रहा है तथा इसका कोई अन्त नहीं है। अत: उदारवाद को सीमाओं में बांधना एक कठिन कार्य है। लॉस्की (Laski) ने ठीक ही कहा है, “उदारवाद की व्याख्या करना या परिभाषा देना सरल कार्य नहीं है क्योंकि यह कुछ सिद्धान्तों का समूहमात्र ही नहीं है बल्कि मस्तिष्क में रहने वाला विचार भी है।”

उदारवाद से सम्बन्धित गलत धारणाएं-उदारवाद के अर्थ को समझने के लिए यह जानना अति आवश्यक है कि उदारवाद क्या नहीं है ?

1. उदारवाद अनुदारवाद का उल्टा नहीं है-कुछ लोग उदारवाद को अनुदारवाद (Conservatism) का उल्टा मानते हैं। अनुदारवाद परिवर्तनों और सुधार का विरोध करने वाली विचारधारा है। परन्तु उदारवाद ने 19वीं शताब्दी तक उन सभी संस्थाओं, कानूनों और प्रथाओं का विरोध किया जिनमें राजा, सामन्तों और वर्ग के विशेषाधिकारों की रक्षा होती थी। इस प्रकार उदारवादियों ने क्रान्तिकारी परिवर्तनों का जोरों से समर्थन किया। किन्तु आज जब साम्यवादी पूंजीवाद को समाप्त करने की बाद करते हैं तो उदारवादी उनका विरोध करते हैं। एल्बर्ट बिजबोर्ड (Albert Weisbord) ने ठीक ही कहा है, “विरोधात्मक रूप में पूरे इतिहास में उदारवादियों ने क्रान्ति को प्रारम्भ किया है और फिर इसके विरोध में संघर्ष किया है।”

2. उदारवाद व्यक्तिवाद नहीं है-कुछ व्यक्ति उदारवाद को व्यक्तिवाद का पर्यायवाची मानते हैं जोकि पूर्णतः सत्य नहीं है। निःसन्देह व्यक्तिवाद उदारवाद की आधारशिला है परन्तु दोनों एक ही चीज़ नहीं है। सेबाइन (Sabine) ने इन दोनों में भिन्नता को स्पष्ट करते हुए कहा है, “19वीं शताब्दी के तीसरे चरण के अन्त तक इन दोनों में कोई विशेष भेद नहीं था, क्योंकि उस समय तक ये दोनों विचारधाराएं व्यक्ति के जीवन में राज्य के हस्तक्षेप की विरोधी थीं, लेकिन बाद
में स्थिति बदल गई और उदारवाद में काफ़ी परिवर्तन आ गया। इसका रूप सकारात्मक हो गया है। उदारवाद व्यक्ति के स्थान पर सामाजिक हित को महत्त्व देने लगा है। यहां तक कि जन-कल्याण के लक्ष्य को पूरा करने के लिए व्यक्तियों के जीवन में हस्तक्षेप करना या उस पर नियन्त्रण करना राज्य का आवश्यक कार्य बन गया है।”

3. उदारवाद और लोकतन्त्र एक नहीं है-कुछ विद्वान् लोकतन्त्र को ही उदारवाद मानते हैं जो कि ठीक नहीं है। यद्यपि उदारवाद और लोकतन्त्र में गहरा सम्बन्ध है, परन्तु दोनों एक ही नहीं है। उदारवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जोर देता है जबकि लोकतन्त्र समानता को महत्त्व देता है। उदारवाद वास्तव में लोकतन्त्र से कुछ अधिक है।

उदारवाद का सही अर्थ-उदारवाद को अंग्रेजी में ‘लिबरलिज्म’ (Liberalism) कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबरलिस’ (Liberalis) से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है-स्वतन्त्र व्यक्ति (Free man) । इस सिद्धान्त का सार यही है कि व्यक्ति को स्वतन्त्रता मिले जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास तथा उसकी अभिव्यक्ति कर सके। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (Encyclopaedia Britainica) के अनुसार, “उदारवाद के सारे विचार का सार स्वतन्त्रता का सिद्धान्त है, इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता का विचार इसका समूल है।” मैकगवर्न (Macgovern) के शब्दों में, “एक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उदारवाद दो पृथक् तत्त्वों का मिश्रण है। इनमें से एक तत्त्व लोकतन्त्र है और दूसरा है व्यक्तिवाद।” (“Liberalism as a political creed is compound of two separate elements. One of these is democracy, the other is individualism.”) उदारवाद एक तरफ लोकतन्त्रीय व्यवस्था का समर्थन करता है और दूसरी ओर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण अवसर देना चाहता है। उदारवाद व्यक्ति को ही समस्त मानवीय व्यवस्था का केन्द्र मानता है। सारटोरी (Sartori) ने उदारवाद की सरल परिभाषा दी है। उसके शब्दों में, “साधारण शब्दों में उदारवाद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, न्यायिक सुरक्षा तथा संवैधानिक राज्य का सिद्धान्त व व्यवहार है।” (“In simple words liberalism is the theory. and practice of individual liberty, Judicial defence and constitutional state.”)

बट्रेण्ड रसल (Bertand Russel) के अनुसार, “उदारवादी विचारधारा व्यवहार में जियो और जीने दो, सहनशील तथा स्वतन्त्रता जिस सीमा तक सार्वजनिक व्यवस्था आज्ञा दे तथा राजनीतिक मामलों में कट्टरता का अभाव है।”
हैलोवेल (Hallowell) ने उदारवाद का अर्थ निम्नलिखित विश्वासों में अंकित किया है-

  • मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वोच्च मूल तथा सभी व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता।
  • व्यक्ति की इच्छा की स्वतन्त्रता।
  • व्यक्ति की भलाई व दृढ़ विवेकशीलता।
  • जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकारों का अस्तित्व।
  • व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों को सुरक्षित बनाए रखने के उद्देश्य से पारस्परिक सहमति द्वारा राज्य की रचना।
  • व्यक्ति तथा राज्य के बीच प्रसंविदापूर्ण सम्बन्ध ; आदि समझौते की शर्तों का उल्लंघन हो तो व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है।
  • सामाजिक नियन्त्रण के यन्त्र के रूप में कानून का प्रशासकीय आदेश से ऊपर होना।
  • व्यक्ति को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक और धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्रता है और उसे स्वतन्त्र होना चाहिए।
  • विवेक पर आश्रित एक सर्वोच्च यथार्थ का अस्तित्व जिसे व्यक्ति के अन्त:करण व चिन्तन द्वारा प्राप्त किया जा सके।
    उदारवाद के मुख्य सिद्धान्त या विशेषताएं-

यद्यपि उदारवाद अनेक विचारधाराओं का सम्मिश्रिण है, फिर भी इसके कुछ सर्वमान्य मौलिक सिद्धान्त हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

1. मानवीय विवेक में आस्था (Faith in Human Reason)-उदारवाद का मूल सिद्धान्त मानवीय बुद्धि और विवेक में आस्था है। मध्य युग में यूरोप के अनेक देशों में ईसाइयत ने मनुष्य की बुद्धि को कठोर बन्धनों में जकड़ रखा था और वह धर्म, ईश्वर तथा पोप को ही सब कुछ मानता था। परन्तु नवजागरण ने इन बन्धनों को तोड़ दिया और मनुष्य को विवेक द्वारा विश्व की संस्थाओं को समझने के लिए कहा। 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में जॉन लॉक और टॉमस पेन जैसे उदारवादियों ने इस बात पर बल दिया कि मनुष्य को किसी भी ऐसे सिद्धान्त, कानून या परम्परा को नहीं मानना चाहिए जिसकी उपयोगिता बुद्धि से सिद्ध न होती हो। टॉमस पेन ने रूढ़िवादी परम्पराओं को चुनौती देते हुए कहा है, “मेरा अपना मन ही मेरा चर्च है।” इस प्रकार उदारवाद भावना के स्थान पर विवेक को महत्त्व देता है।

2. इतिहास तथा परम्परा का विरोध (Opposition of History and Tradition)—मध्य युग में अन्धविश्वास और रूढ़िवादी परम्पराओं का बोलबाला था। उदारवाद अन्धविश्वासों और रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह था। उदारवादियों ने इस बात पर जोर दिया कि उन्हीं संस्थाओं, सिद्धान्तों तथा कानूनों इत्यादि को स्वीकार किया जाए तो विवेक के साथ संगत हों। इंग्लैण्ड के उपयोगितावादी उदारवादियों ने उँपयोगिता के आधार पर पहले से चली आ रही व्यवस्था और परम्पराओं का खण्डन किया। उदारवाद के प्रभाव के कारण ही इंग्लैण्ड, अमेरिका और फ्रांस में क्रान्तियां हुईं। परन्तु उदारवाद सदा ही विद्यमान व्यवस्था का विरोधी नहीं रहा है और आज तो वह व्यवस्था को समाप्त करने के बिल्कुल पक्ष में नहीं है।

3. मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक (Supporter of Human Freedom)-उदारवाद का मूल सिद्धान्त है कि मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है और स्वतन्त्रता उसका प्राकृतिक एवं जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जीवन पर किसी स्वेच्छाचारी सत्ता का नियन्त्रण न हो और उसे अपने विवेक के अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता हो। लॉस्की (Laski) के अनुसार, “उदारवाद का स्वतन्त्रता से सीधा सम्बन्ध है क्योंकि इसका जन्म समाज के किसी वर्ग के द्वारा जन्म अथवा धर्म पर आधारित विशेषाधिकारों का विरोध करने के लिए हुआ है।”

4. राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है (The purpose of the State is to develop the personality of the individual)-उदारवादियों के अनुसार, व्यक्ति के विकास में ही राज्य व समाज का विकास है और व्यक्ति की भलाई में राज्य की भलाई है। इसलिए राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है।

5. व्यक्ति साध्य तथा राज्य साधन (Man is the End, State is the Mean)-उदारवादी व्यक्ति को साध्य और राज्य को साधन मानते हैं। मानवीय संस्थाएं और समुदाय व्यक्ति के लिए बने हैं। इसलिए राज्य का कार्य व्यक्ति की सेवा करना है। वह सेवक है, स्वामी नहीं। व्यक्ति के उद्देश्य की पूर्ति करना ही राज्य का उद्देश्य है। उदारवादी आदर्शवादियों के इस कथन में विश्वास नहीं करते कि समाज व्यक्तियों की एक उच्च नैतिक संस्था है। आधुनिक उदारवादी व्यक्ति और समाज के हित में सामंजस्य स्थापित करते हैं और दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं न कि विरोधी।

6. राज्य कृत्रिम संस्था है (State is an Artificial institution)-उदारवादी राज्य को ईश्वरीय या प्राकृतिक संस्था नहीं मानते बल्कि वे राज्य को कृत्रिम संस्था मानते हैं। उनके मतानुसार राज्य का निर्माण व्यक्तियों ने अपने विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया है। यदि राज्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता तो व्यक्तियों को यह अधिकार प्राप्त है कि वह राज्य और समाज के संगठन में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर सके।

7. व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की धारणा में विश्वास (Belief in the concept of Natural Rights of Man)-उदारवाद व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों में विश्वास करता है। प्राकृतिक अधिकार वह अधिकार है जो व्यक्ति को जन्म से प्राप्त होते हैं। लॉक के अनुसार, जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार प्रमुख प्राकृतिक अधिकार हैं। राज्य एवं समाज प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकते। राज्य का परम कर्तव्य प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना है।

8. धर्म-निरपेक्षता में विश्वास (Faith in Secularism) मध्य युग में चर्च का व्यक्ति के जीवन पर पूरा नियन्त्रण था। उदारवादियों ने धर्म के विशेषाधिकारों का विरोध किया तथा व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता पर बल दिया। उदारवादियों ने धार्मिक संस्थाओं को राज्य से अलग रखने की बात कही और सभी व्यक्तियों को समान रूप से धर्म की स्वतन्त्रता देने पर बल दिया। उदारवाद के अनुसार, धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है और राज्य को व्यक्तिगत धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

9. लोकतन्त्र का समर्थन (Support of Democracy)-लोकतन्त्र उदारवाद का अभिन्न अंग है। उदारवाद का जन्म ही स्वेच्छाचारी शासन के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ और लोकतन्त्र उदारवाद का मूल तत्त्व है। उदारवाद लोक प्रभुसत्ता में विश्वास रखता है। उदारवाद के अनुसार मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है, इसलिए उस पर शासन उसकी सहमति से होना चाहिए। व्यक्ति को अधिकार तभी प्राप्त हो सकते हैं यदि ‘लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली हो और व्यक्ति को शासन के निर्माण में अधिकार प्राप्त हों। इसलिए उदारवाद का निर्वाचित संसद्, वयस्क मताधिकार, प्रेस की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्ष न्यायालय में पूर्ण विश्वास है।

10. संवैधानिक शासन (Constitutional Government)-उदारवाद का उदय निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इसलिए उदारवाद निरंकुश शासन का विरोधी है। उदारवाद सीमित सरकार अर्थात् सरकार की सीमित शक्तियों का समर्थन करता है। यदि शासक मनमानी करता है या अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करता है तो जनता को ऐसे शासक के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है। लॉक ने इंग्लैण्ड की 1688 की क्रान्ति का समर्थन किया।

11.बहसमुदाय समाज में विश्वास (Belief in Pluralistic Society)-उदारवादियों के अनुसार, मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक समुदायों की स्थापना करता है। समाज में अनेक समुदाय होते हैं और राज्य भी एक समुदाय है। राज्य विभिन्न समुदायों में सामंजस्य स्थापित करते है। व्यक्ति के जीवन के कई पहलू हैं जो राज्य के कार्य-क्षेत्र से बाहर हैं। कई समुदाय जैसे परिवार राज्य से अधिक प्राकृतिक और मौलिक है। लॉस्की और मैकाइवर ने बहु-समुदाय समाज की धारणा पर विशेष बल दिया।

12. अन्तर्राष्ट्रीय और विश्व-शान्ति में विश्वास (Faith in Internationalism and World Peace)उदारवाद ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर आधारित है। यह विश्व-शान्ति तथा विश्व-बन्धुत्व के आदर्श में विश्वास करता है। प्रत्येक राष्ट्र को धीरे-धीरे शान्तिपूर्वक प्रगति करनी चाहिए और उसे अन्य राष्ट्रों की प्रगति में सहायता करनी चाहिए। प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र की अखण्डता एवं सीमा का आदर करना चाहिए और किसी राष्ट्र को दूसरे के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का हल अन्तर्राष्ट्रीय कानून और शान्तिपूर्वक साधनों द्वारा होना चाहिए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 5 उदारवाद

प्रश्न 2.
उदारवाद के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Explain the main Principles of Liberalism.)
अथवा
उदारवाद के मूल सिद्धान्तों की विवेचना करो। (Discuss the Fundamental Principles of Liberalism.)
उत्तर-
यद्यपि उदारवाद अनेक विचारधाराओं का सम्मिश्रिण है, फिर भी इसके कुछ सर्वमान्य मौलिक सिद्धान्त हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

1. मानवीय विवेक में आस्था (Faith in Human Reason)-उदारवाद का मूल सिद्धान्त मानवीय बुद्धि और विवेक में आस्था है। मध्य युग में यूरोप के अनेक देशों में ईसाइयत ने मनुष्य की बुद्धि को कठोर बन्धनों में जकड़ रखा था और वह धर्म, ईश्वर तथा पोप को ही सब कुछ मानता था। परन्तु नवजागरण ने इन बन्धनों को तोड़ दिया और मनुष्य को विवेक द्वारा विश्व की संस्थाओं को समझने के लिए कहा। 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में जॉन लॉक और टॉमस पेन जैसे उदारवादियों ने इस बात पर बल दिया कि मनुष्य को किसी भी ऐसे सिद्धान्त, कानून या परम्परा को नहीं मानना चाहिए जिसकी उपयोगिता बुद्धि से सिद्ध न होती हो। टॉमस पेन ने रूढ़िवादी परम्पराओं को चुनौती देते हुए कहा है, “मेरा अपना मन ही मेरा चर्च है।” इस प्रकार उदारवाद भावना के स्थान पर विवेक को महत्त्व देता है।

2. इतिहास तथा परम्परा का विरोध (Opposition of History and Tradition)—मध्य युग में अन्धविश्वास और रूढ़िवादी परम्पराओं का बोलबाला था। उदारवाद अन्धविश्वासों और रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह था। उदारवादियों ने इस बात पर जोर दिया कि उन्हीं संस्थाओं, सिद्धान्तों तथा कानूनों इत्यादि को स्वीकार किया जाए तो विवेक के साथ संगत हों। इंग्लैण्ड के उपयोगितावादी उदारवादियों ने उँपयोगिता के आधार पर पहले से चली आ रही व्यवस्था और परम्पराओं का खण्डन किया। उदारवाद के प्रभाव के कारण ही इंग्लैण्ड, अमेरिका और फ्रांस में क्रान्तियां हुईं। परन्तु उदारवाद सदा ही विद्यमान व्यवस्था का विरोधी नहीं रहा है और आज तो वह व्यवस्था को समाप्त करने के बिल्कुल पक्ष में नहीं है।

3. मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक (Supporter of Human Freedom)-उदारवाद का मूल सिद्धान्त है कि मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है और स्वतन्त्रता उसका प्राकृतिक एवं जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जीवन पर किसी स्वेच्छाचारी सत्ता का नियन्त्रण न हो और उसे अपने विवेक के अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता हो। लॉस्की (Laski) के अनुसार, “उदारवाद का स्वतन्त्रता से सीधा सम्बन्ध है क्योंकि इसका जन्म समाज के किसी वर्ग के द्वारा जन्म अथवा धर्म पर आधारित विशेषाधिकारों का विरोध करने के लिए हुआ है।”

4. राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है (The purpose of the State is to develop the personality of the individual)-उदारवादियों के अनुसार, व्यक्ति के विकास में ही राज्य व समाज का विकास है और व्यक्ति की भलाई में राज्य की भलाई है। इसलिए राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है।

5. व्यक्ति साध्य तथा राज्य साधन (Man is the End, State is the Mean)-उदारवादी व्यक्ति को साध्य और राज्य को साधन मानते हैं। मानवीय संस्थाएं और समुदाय व्यक्ति के लिए बने हैं। इसलिए राज्य का कार्य व्यक्ति की सेवा करना है। वह सेवक है, स्वामी नहीं। व्यक्ति के उद्देश्य की पूर्ति करना ही राज्य का उद्देश्य है। उदारवादी आदर्शवादियों के इस कथन में विश्वास नहीं करते कि समाज व्यक्तियों की एक उच्च नैतिक संस्था है। आधुनिक उदारवादी व्यक्ति और समाज के हित में सामंजस्य स्थापित करते हैं और दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं न कि विरोधी।

6. राज्य कृत्रिम संस्था है (State is an Artificial institution)-उदारवादी राज्य को ईश्वरीय या प्राकृतिक संस्था नहीं मानते बल्कि वे राज्य को कृत्रिम संस्था मानते हैं। उनके मतानुसार राज्य का निर्माण व्यक्तियों ने अपने विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया है। यदि राज्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता तो व्यक्तियों को यह अधिकार प्राप्त है कि वह राज्य और समाज के संगठन में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर सके।

7. व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की धारणा में विश्वास (Belief in the concept of Natural Rights of Man)-उदारवाद व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों में विश्वास करता है। प्राकृतिक अधिकार वह अधिकार है जो व्यक्ति को जन्म से प्राप्त होते हैं। लॉक के अनुसार, जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार प्रमुख प्राकृतिक अधिकार हैं। राज्य एवं समाज प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकते। राज्य का परम कर्तव्य प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना है।

8. धर्म-निरपेक्षता में विश्वास (Faith in Secularism) मध्य युग में चर्च का व्यक्ति के जीवन पर पूरा नियन्त्रण था। उदारवादियों ने धर्म के विशेषाधिकारों का विरोध किया तथा व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता पर बल दिया। उदारवादियों ने धार्मिक संस्थाओं को राज्य से अलग रखने की बात कही और सभी व्यक्तियों को समान रूप से धर्म की स्वतन्त्रता देने पर बल दिया। उदारवाद के अनुसार, धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है और राज्य को व्यक्तिगत धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

9. लोकतन्त्र का समर्थन (Support of Democracy)-लोकतन्त्र उदारवाद का अभिन्न अंग है। उदारवाद का जन्म ही स्वेच्छाचारी शासन के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ और लोकतन्त्र उदारवाद का मूल तत्त्व है। उदारवाद लोक प्रभुसत्ता में विश्वास रखता है। उदारवाद के अनुसार मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है, इसलिए उस पर शासन उसकी सहमति से होना चाहिए। व्यक्ति को अधिकार तभी प्राप्त हो सकते हैं यदि ‘लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली हो और व्यक्ति को शासन के निर्माण में अधिकार प्राप्त हों। इसलिए उदारवाद का निर्वाचित संसद्, वयस्क मताधिकार, प्रेस की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्ष न्यायालय में पूर्ण विश्वास है।

10. संवैधानिक शासन (Constitutional Government)-उदारवाद का उदय निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इसलिए उदारवाद निरंकुश शासन का विरोधी है। उदारवाद सीमित सरकार अर्थात् सरकार की सीमित शक्तियों का समर्थन करता है। यदि शासक मनमानी करता है या अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करता है तो जनता को ऐसे शासक के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है। लॉक ने इंग्लैण्ड की 1688 की क्रान्ति का समर्थन किया।

11.बहसमुदाय समाज में विश्वास (Belief in Pluralistic Society)-उदारवादियों के अनुसार, मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक समुदायों की स्थापना करता है। समाज में अनेक समुदाय होते हैं और राज्य भी एक समुदाय है। राज्य विभिन्न समुदायों में सामंजस्य स्थापित करते है। व्यक्ति के जीवन के कई पहलू हैं जो राज्य के कार्य-क्षेत्र से बाहर हैं। कई समुदाय जैसे परिवार राज्य से अधिक प्राकृतिक और मौलिक है। लॉस्की और मैकाइवर ने बहु-समुदाय समाज की धारणा पर विशेष बल दिया।

12. अन्तर्राष्ट्रीय और विश्व-शान्ति में विश्वास (Faith in Internationalism and World Peace)उदारवाद ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर आधारित है। यह विश्व-शान्ति तथा विश्व-बन्धुत्व के आदर्श में विश्वास करता है। प्रत्येक राष्ट्र को धीरे-धीरे शान्तिपूर्वक प्रगति करनी चाहिए और उसे अन्य राष्ट्रों की प्रगति में सहायता करनी चाहिए। प्रत्येक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र की अखण्डता एवं सीमा का आदर करना चाहिए और किसी राष्ट्र को दूसरे के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का हल अन्तर्राष्ट्रीय कानून और शान्तिपूर्वक साधनों द्वारा होना चाहिए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 5 उदारवाद

प्रश्न 3.
पुरातन उदारवाद तथा समकालीन उदारवाद में मुख्य अन्तर बताइए।
(Distinguish between Classical Liberalism and Contemporary Liberalism)
अथवा
परम्परावादी उदारवाद तथा समकालीन उदारवाद में अन्तर की व्याख्या कीजिए।
(Explain differences between Classical Liberalism and Modern Liberalism.)
उत्तर-
शास्त्रीय उदारवाद तथा समकालीन उदारवाद में भेद का निम्नलिखित प्रकार से वर्णन किया जाता है-

1. व्यक्तिवाद के सम्बन्ध में अन्तर-शास्त्रीय उदारवाद व्यक्तिवाद का समर्थन करता है, और कई विद्वान् उदारवाद और व्यक्तिवाद को एक ही मानते हैं, परन्तु समकालीन उदारवाद व्यक्तिवाद का खण्डन करता है। शास्त्रीय उदारवाद का आरम्भ ‘व्यक्ति’ से होता है, परन्तु समकालीन उदारवाद का आरम्भ ‘समूह’ तथा ‘संस्था’ से होता है।

2. प्राकृतिक अधिकारों के सम्बन्ध में अन्तर–शास्त्रीय उदारवाद व्यक्ति को प्राप्त प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करता है। शास्त्रीय उदारवाद के अनुसार जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के आधार प्राकृतिक अधिकार हैं। समकालीन उदारवाद व्यक्ति के अधिकारों को समाज की देन मानते हैं तथा उसे वह अधिकार देने का समर्थन करता है जो व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित में है।

3. स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में अन्तर-शास्त्रीय उदारवाद स्वतन्त्रता के नकारात्मक रूप पर बल देता है जबकि समकालीन उदारवाद स्वतन्त्रता के सकारात्मक रूप पर बल देता है। अत: जहां शास्त्रीय उदारवाद स्वतन्त्रता और राज्य के कार्य करने की शक्ति को परस्पर विरोधी मानता है, वहीं समकालीन उदारवाद स्वतन्त्रता और राज्य के कार्य करने की शक्ति को परस्पर विरोधी न मानकर सहयोगी मानता है।

4. राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में अन्तर-शास्त्रीय उदारवाद इस बात पर बल देता है कि राज्य को कम-से-कम कार्य करने चाहिएं जबकि समकालीन उदारवाद इस बात पर बल देता है कि राज्य को सार्वजनिक कल्याण के लिए काम करने चाहिएं। शास्त्रीय उदारवाद राज्य को सीमित कार्य करने के लिए कहता है जबकि समकालीन उदारवाद राज्य को सभी तरह के कल्याणकारी कार्य करने के लिए कहता है। समकालीन उदारवाद व्यक्ति के विकास के लिए सभी तरह के कार्यों को करने के लिए राज्य को कहता है।

5. राज्य के सम्बन्ध में अन्तर-शास्त्रीय उदारवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता है। इसके अनुसार मनुष्य के सर्वांगीण विकास में मुख्य बाधा राज्य ही है, और राज्य के रहते व्यक्ति अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता। इसके विपरीत समकालीन उदारवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई न मानकर प्राकृतिक और नैतिक संस्था मानता है। समकालीन उदारवादियों के अळुसार राज्य समस्त वर्गों के हितों को ध्यान में रखकर ही कार्य करता है।

6. दृष्टिकोण के सम्बन्ध में अन्तर-शास्त्रीय उदारवाद अपने दृष्टिकोण में सुधारवादी है जबकि समकालीन उदारवादी यथास्थिति को बनाए रखने के समर्थक हैं।

7. स्वतन्त्र व्यापार एवं पूंजीवाद के सम्बन्ध में अन्तर-शास्त्रीय उदारवाद स्वतन्त्र व्यापार तथा पूंजीवाद का समर्थन करता है जबकि समकालीन उदारवाद पूंजीवाद पर अंकुश लगाए जाने का समर्थन करता है। शास्त्रीय उदारवाद, राज्य को अर्थ-व्यवस्था को नियमित करने की शक्ति देने के विरुद्ध है जबकि समकालीन उदारवाद राज्य की हस्तक्षेप की नीति का समर्थन करता है। समकालीन उदारवाद श्रमिकों के हितों के लिए और सामाजिक कल्याण के लिए व्यापार और उद्योगों को नियन्त्रित करने के पक्ष में है। इसके अनुसार स्वतन्त्र व्यापार एवं अनियन्त्रित प्रतियोगिता ग़रीब को और ग़रीब एवं अमीर को और अमीर बना देती है।

8. विचारधारा के आधार पर अन्तर–शास्त्रीय उदारवाद मध्य वर्ग की एक राजनीतिक विचारधारा है जबकि समकालीन उदारवाद शक्ति-सम्पन्न पूंजीवादी वर्ग की विचारधारा है।

9. राज्य के हस्तक्षेप की नीति के सम्बन्ध में अन्तर-शास्त्रीय उदारवाद आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप के विरुद्ध है। शास्त्रीय उदारवाद आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता देने के पक्ष में है, परन्तु समकालीन उदारवाद । आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन करता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 5 उदारवाद

प्रश्न 4.
उदारवाद का शाब्दिक अर्थ बताते हुए, समकालीन (आधुनिक) उदारवाद की चार विशेषताएं बताओ।
(Give the verbal meaning of the word Liberalism and explain four features of contemporary Liberalism.).
उत्तर-
उदारवाद का अर्थ-इसके लिए प्रश्न नं. 1 देखें।
समकालीन (आधुनिक) उदारवाद की विशेषताएं-जे० एस० मिल, ग्रीन, लॉस्की आदि विद्वान् समकालीन उदारवाद के मुख्य समर्थक माने जाते हैं। इसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन-समकालीन उदारवादियों ने प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन किया है और अधिकारों को समाज की देन माना है। समकालीन उदारवाद उन अधिकारों का समर्थन करता है जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक हित में हों।.

2. राज्य के कल्याणकारी कार्य-समकालीन उदारवाद राज्य के कार्यों को सीमित नहीं करता है। समकालीन उदारवाद के अनुसार राज्य को सार्वजनिक कल्याण के लिए सभी कार्य करने चाहिए। लॉस्की ने राज्य को अधिकतम भलाई करने वाली सामाजिक संस्था माना जाता है। जो राज्य जनता की भलाई का जितना अधिक कार्य करता है वह उतना ही अच्छा होता है।

3. स्वतन्त्रता के सकारात्मक रूप का समर्थन-समकालीन उदारवाद स्वतन्त्रता के सकारात्मक रूप पर बल देता है। स्वतन्त्रता का अर्थ है-बन्धनों का अभाव। राज्य लोगों के कल्याण के लिए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा सकता है। समकालीन उदारवाद के अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता है जो कार्य करने योग्य हैं।

4. मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक-उदारवाद का मूल सिद्धान्त है कि मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है और.स्वतन्त्रता उसका प्राकृतिक एवं जन्म सिद्ध अधिकार है। स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जीवन पर किसे स्वेच्छाचारी सत्ता का नियन्त्रण न हो और उसे अपने विवेक के अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता हो।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
उदारवाद के शाब्दिक अर्थों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
उदारवाद से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उदारवाद आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। उदारवाद को अंग्रेज़ी में लिबरलिज्म’ (Liberalism) कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबरलिस’ से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है-स्वतन्त्र व्यक्ति। इस सिद्धान्त का सार यही है कि व्यक्ति को स्वतन्त्रता मिले जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास तथा उसकी अभिव्यक्ति कर सके। उदारवाद एक ऐसी व्यापक विचारधारा है जिसमें अनेक विद्वानों के विचार और आदर्श शामिल हैं और जो समय के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं। उदारवाद एक तरफ लोकतान्त्रिक व्यवस्था का समर्थन करता है और दूसरी तरफ व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पूरे अवसर देना चाहता है। उदारवाद व्यक्ति को ही समस्त मानवीय व्यवस्था का केन्द्र मानता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 5 उदारवाद

प्रश्न 2.
उदारवाद की कोई चार परिभाषाएं दें।
अथवा उदारवाद की कोई भी दो परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-

  • इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार, “उदारवाद के सारे विचार का सार स्वतन्त्रता का सिद्धान्त है। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता का विचार इसका मूल है।”
  • मैकगर्वन के शब्दों में, “एक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उदारवाद दो पृथक् तत्त्वों का मिश्रण है। इनमें से एक तत्त्व लोकतन्त्र है और दूसरा व्यक्तिवाद है।”..
  • सारटोरी के अनुसार, “साधारण शब्दों में उदारवाद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, न्यायिक सुरक्षा तथा संवैधानिक राज्य का सिद्धान्त व व्यवहार है।”
  • बट्रेण्ड रसल के अनुसार, “उदारवादी विचारधारा व्यवहार में जियो और जीने दो, सहनशील तथा स्वतन्त्रता जिस सीमा तक सार्वजनिक व्यवस्था आज्ञा दे तथा राजनीतिक मामलों में कट्टरता का अभाव है।”

प्रश्न 3.
परम्परागत उदारवाद किसे कहते हैं ?
अथवा
परम्परावादी उदारवाद क्या है ?
उत्तर-
शास्त्रीय उदारवाद (परम्परावादी उदारवाद) अपने प्रारम्भिक रूप में व्यक्तिवाद के निकट रहा है। शास्त्रीय उदारवाद को व्यक्तिवाद का दूसरा नाम कहा जा सकता है। लॉक ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा सीमित राज्य के सिद्धान्त पर बल दिया है। लॉक द्वारा प्रस्तुत यह सिद्धान्त शास्त्रीय उदारवाद की आधारशिला माना जाता है। शास्त्रीय उदारवाद मानव व्यक्तित्व के असीम मूल्य तथा व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता में विश्वास रखता है। शास्त्रीय उदारवाद व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करता है। शास्त्रीय उदारवाद ने विशेषकर जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार पर बल दिया है। शास्त्रीय उदारवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता है। इसके अनुसार वह सरकार सबसे अच्छी है जो कम-से-कम शासन करे। शास्त्रीय उदारवाद राज्य के कार्यों को सीमित करने पर बल देता है। शास्त्रीय उदारवादियों के मतानुसार राज्य का अधिक हस्तक्षेप व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कम कर देता है। शास्त्रीय उदारवाद खुली प्रतियोगिता, स्वतन्त्र व्यापार तथा पूंजीवाद का समर्थन करता है।

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प्रश्न 4.
परम्परावादी उदारवाद की कोई चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
परम्परावादी उदारवाद की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • राज्य एक आवश्यक बुराई है-परम्परावादी उदारवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता है। इसके अनुसार वह सरकार सबसे अच्छी है जो कम-से-कम शासन करे।
  • राज्य के न्यूनतम कार्य-परम्परावादी उदारवाद राज्य को कम-से-कम कार्य देने के पक्ष में है। परम्परावादी उदारवादियों के मतानुसार राज्य का कार्य केवल जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा करना और अपराधियों को दण्ड देना ही है। राज्य की शिक्षा, कृषि, व्यापार इत्यादि कार्य नहीं करने चाहिए।
  • मानव की स्वतन्त्रता-परम्परावादी उदारवाद मानव की स्वतन्त्रता का महान् समर्थक है। इसके अनुसार व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र में स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। स्वतन्त्रता का अर्थ बन्धनों का अभाव माना गया है।
  • परम्परागत उदारवाद खुली प्रतियोगिता का समर्थन करता है।

प्रश्न 5.
समकालीन उदारवाद किसे कहते हैं ?
अथवा
समकालीन उदारवाद क्या है ?
उत्तर-
जे० एस० मिल, ग्रीन, लॉस्की आदि विद्वान् समकालीन उदारवाद के मुख्य समर्थक माने जाते हैं। समकालीन उदारवाद ने प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन किया और अधिकारों को समाज की देन माना है। समकालीन उदारवाद उन अधिकारों का समर्थन करता है जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक हित में हों। समकालीन उदारवाद ने खुली प्रतियोगिता का विरोध किया है। समकालीन उदारवाद राज्य को अधिक कार्य देने के पक्ष में है ताकि समस्त जनता का कल्याण हो सके। समकालीन उदारवाद स्वतन्त्रता और कानून में विरोध नहीं मानता बल्कि कानून को स्वतन्त्रता का संरक्षक मानता है। समकालीन उदारवाद ने सकारात्मक स्वतन्त्रता का समर्थन किया है।

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प्रश्न 6.
समकालीन उदारवाद की कोई चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
जे० एस० मिल, ग्रीन, लॉस्की आदि विद्वान् समकालीन उदारवाद के मुख्य समर्थक माने जाते हैं। इसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1. प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन-समकालीन उदारवादियों ने प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन किया है और अधिकारों को समाज की देन माना है। समकालीन उदारवाद उन अधिकारों का समर्थन करता है जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक हित में हों।

2. राज्य के कल्याणकारी कार्य-समकालीन उदारवाद राज्य के कार्यों को सीमित नहीं करता है। समकालीन उदारवाद के अनुसार राज्य को सार्वजनिक कल्याण के लिए सभी कार्य करने चाहिए। लॉस्की ने राज्य को अधिकतम भलाई करने वाली सामाजिक संस्था माना है। जो राज्य जनता की भलाई का जितना अधिक कार्य करता है वह उतना ही अच्छा होता है।

3. स्वतन्त्रता के सकारात्मक रूप का समर्थन–समकालीन उदारवाद स्वतन्त्रता के सकारात्मक रूप पर बल देता है। स्वतन्त्रता का अर्थ है-बन्धनों का अभाव। राज्य लोगों के कल्याण के लिए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा सकता है। समकालीन उदारवाद के अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता है जो कार्य करने योग्य है।

4. समकालीन उदारवाद आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन करता है।

प्रश्न 7.
पुरातन उदारवाद और समकालीन उदारवाद में चार अन्तर लिखो।
उत्तर-
शास्त्रीय उदारवाद तथा समकालीन उदारवाद में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • शास्त्रीय उदारवाद का आरम्भ ‘व्यक्ति’ से होता है, परन्तु समकालीन उदारवाद का आरम्भ ‘समूह’ तथा ‘संस्था’ से होता है।
  • शास्त्रीय उदारवाद व्यक्ति को प्राप्त प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करता है। समकालीन उदारवाद व्यक्ति के
    अधिकारों को समाज की देन मानता है तथा उसे वह अधिकार देने का समर्थन करता है है जो व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित में हैं।
  • शास्त्रीय उदारवाद स्वतन्त्रता के नकारात्मक रूप पर बल देता है जबकि समकालीन उदारवाद स्वतन्त्रता के सकारात्मक रूप पर बल देता है।
  • शास्त्रीय उदारवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता है जबकि समकालीन उदारवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई न मानकर प्राकृतिक और नैतिक संस्था मानता है।

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प्रश्न 8.
उदारवाद के चार सिद्धान्तों का वर्णन करो।
उत्तर-
उदारवाद आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। उदारवाद के मूल सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक-उदारवाद का मूल सिद्धान्त है कि मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है और स्वतन्त्रता उसका प्राकृतिक एवं जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जीवन पर किसी स्वेच्छाचारी सत्ता का नियन्त्रण न हो और उसे अपने विवेक के अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता हो।
  • राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है-उदारवादियों के अनुसार व्यक्ति के विकास में राज्य व समाज का विकास है और व्यक्ति की भलाई में राज्य की भलाई है। इसलिए राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है।
  • व्यक्ति साध्य तथा राज्य साधन-उदारवादी व्यक्ति को साध्य और राज्य को साधन मानते हैं। मानवीय संस्थाएं और समुदाय व्यक्ति के लिए बने हैं। इसलिए राज्य का कार्य व्यक्ति की सेवा करना है। वह सेवक है, स्वामी नहीं। व्यक्ति के उद्देश्य की पूर्ति करना ही राज्य का उद्देश्य है।
  • उदारवाद का निर्वाचित संसद, वयस्क मताधिकार, प्रैस की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्ष न्यायालय में पूर्ण विश्वास है।

प्रश्न 9.
उदारवाद के विरोध में चार तर्क लिखो।
उत्तर-

  • मनुष्य केवल स्वार्थी नहीं है- उदारवादी विशेषकर बैन्थम जैसे उदारवादियों ने मनुष्य को स्वार्थी माना है। परन्तु यह धारणा ग़लत है। कोई भी व्यक्ति पूरी तरह न तो स्वार्थी है और न ही परमार्थी।
  • राज्य एक आवश्यक बुराई नहीं है-अनेक उदारवादियों ने राज्य को एक आवश्यक बुराई माना है, जोकि ठीक नहीं है। राज्य बुराई नहीं है। यह मनुष्य की सामाजिक चेतना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।
  • अस्पष्ट धारणा-उदारवाद की विचारधारा स्पष्ट नहीं है। इसकी निश्चित परिभाषा नहीं की जा सकती और न ही इसके सिद्धान्तों पर सभी उदारवादी सहमत हैं।
  • राज्य की अयोग्यता का तर्क उचित नहीं है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
उदारवाद के शाब्दिक अर्थ का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
उदारवाद आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। उदारवाद को अंग्रेजी में ‘लिबरलिज्म’ (Liberalism) कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबरलिस’ से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है-स्वतन्त्र व्यक्ति। इस सिद्धान्त का सार यही है कि व्यक्ति को स्वतन्त्रता मिले जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास तथा उसकी अभिव्यक्ति कर सके।

प्रश्न 2.
उदारवाद की दो परिभाषाएं दें।
उत्तर-

  • इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार, उदारवाद के सारे विचार का सार स्वतन्त्रता का सिद्धान्त है। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता का विचार इसका मूल है।
  • मैकग्वन के शब्दों में, “एक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उदारवाद दो पृथक् तत्त्वों का मिश्रण है। इसमें से एक तत्त्व लोकतन्त्र है दूसरा व्यक्तिवाद है।”

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प्रश्न 3.
परम्परावादी उद्गारवाद क्या है ?
उत्तर-
परम्परागत (शास्त्रीय) उदारवाद मानव व्यक्तित्व के असीम मूल्य तथा व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता में विश्वास रखता है। शास्त्रीय उदारवाद व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करता है। शास्त्रीय उदारवाद ने विशेषकर जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार पर बल दिया है। शास्त्रीय उदारवाद राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता है।

प्रश्न 4.
समकालीन उदारवाद क्या है ?
उत्तर-
समकालीन उदारवाद उन अधिकारों का समर्थन करता है जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक हित में हों। समकालीन उदारवाद ने खुली प्रतियोगिता का विरोध किया है। समकालीन उदारवाद राज्य को अधिक कार्य देने के पक्ष में है ताकि समस्त जनता का कल्याण हो सके।

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प्रश्न 5.
शास्त्रीय उदारवाद तथा समकालीन उदारवाद में दो अन्तर करें।
उत्तर-

  • शास्त्रीय उदारवाद का आरम्भ ‘व्यक्ति’ से होता है, परन्तु समकालीन उदारवाद का आरम्भ ‘समूह’ तथा ‘संस्था’ से होता है।
  • शास्त्रीय उदारवाद व्यक्ति को प्राप्त प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करता है। समकालीन उदारवाद व्यक्ति के अधिकारों को समाज की देन मानता है तथा उसे वह अधिकार देने का समर्थन करता है जो व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित में हैं।

प्रश्न 6.
उदारवाद के कोई दो सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-

  • मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक-उदारवाद का मूल सिद्धान्त है कि मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है और स्वतन्त्रता उसका प्राकृतिक एवं जन्मसिद्ध अधिकार है।
  • राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है-उदारवादियों के अनुसार व्यक्ति के विकास में राज्य व समाज का विकास है और व्यक्ति की भलाई में राज्य की भलाई है। इसलिए राज्य का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1.
Liberalism शब्द की उत्पत्ति किस भाषा से हुई है ?
उत्तर-
Liberalism शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा से हुई है।

प्रश्न 2.
किस विद्वान ने ‘स्वतन्त्रता पर निबन्ध’ पस्तक लिखी ?
उत्तर-
‘स्वतन्त्रता पर निबन्ध’ पुस्तक जे० एस० मिल ने लिखी।

प्रश्न 3.
उदारवाद का अंग्रेज़ी रूप क्या है ?
उत्तर-
उदारवाद का अंग्रेज़ी रूप Liberalism है।

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प्रश्न 4.
Liberalism शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के किस शब्द से हुई है ?
उत्तर-
Liberalism शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के लिबरलिस शब्द से हुई है।

प्रश्न 5.
उदारवाद शब्द का मूल क्या है?
उत्तर-
उदारवाद शब्द का मूल स्वतन्त्र व्यक्ति है।

प्रश्न 6.
उदारवाद के कितने रूप हैं ?
उत्तर-
उदारवाद के दो रूप हैं।

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प्रश्न 7.
उदारवाद के कोई दो रूपों के नाम लिखें।
अथवा
उदारवाद के दो रूप लिखें।
उत्तर-
(1) शास्त्रीय उदारवाद
(2) समकालीन उदारवाद।

प्रश्न 8.
उदारवाद के कोई एक व्याख्याकार का नाम लिखो।
उत्तर-
लॉस्की।

प्रश्न 9.
उदारवाद की एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-
सारटोरी के अनुसार, “सामान्य शब्दों में उदारवाद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, न्यायिक सुरक्षा तथा संवैधानिक राज्य का सिद्धान्त तथा व्यवहार है।”

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प्रश्न 10.
उदारवाद के अर्थ लिखो।
उत्तर-
उदरवाद का अर्थ है, कि व्यक्ति को स्वतन्त्रता मिले, जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास तथा उसकी अभिव्यक्ति कर सके।

प्रश्न 11.
समकालीन या आधुनिक उदारवाद से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
समकालीन उदारवाद से क्या भाव है ?
उत्तर-
समकालीन उदारवाद उन अधिकारों का समर्थन करता है, जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक हित में हो, यह सकारात्मक स्वतन्त्रता का समर्थन करता है।

प्रश्न 12.
परम्परावादी उदारवाद से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
परम्परावादी उदारवाद मानव व्यक्तित्व के असीम मूल्यों तथा व्यक्तियों की आध्यात्मिक समानता में विश्वास रखता है, यह व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करता है।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. उदारवाद ………… का उल्टा नहीं है।
2. उदारवाद ………… नहीं है।
3. उदारवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जोर देता है, जबकि लोकतन्त्र ……….. को महत्त्व देता है।
4. उदारवाद को अंग्रेजी में ………… कहते हैं। ।
5. Liberalism शब्द की उत्पत्ति ………… भाषा के शब्द से हुई है।
उत्तर-

  1. अनुदारवाद
  2. व्यक्तिवाद
  3. समानता
  4. Liberalism
  5. लैटिन।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. शास्त्रीय उदारवाद व्यक्तिवाद का दूसरा नाम कहा जा सकता है।
2. जॉन लॉक एक प्रसिद्ध अमेरिकन राजनीतिक विद्वान् थे।
3. जॉन लॉक ने लेवियाथान नामक पुस्तक लिखी।
4. लॉक के अनुसार जीवन का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार एवं सम्पत्ति का अधिकार मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार हैं।
5. एडम स्मिथ ने आर्थिक आधार पर राज्य के कार्यों को सीमित किया और व्यक्ति के कार्यों में राज्य के हस्तक्षेप को अनुचित माना।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है कि, “उदारवाद की व्याख्या करना या परिभाषा देना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि यह कुछ सिद्धान्तों का समूह नहीं है, बल्कि मस्तिष्क में रहने वाला विचार है।”
(क) लॉस्की
(ख) विलोबी
(ग) टी० एच० ग्रीन
(घ) लासवैल।
उत्तर-
(क) लॉस्की

प्रश्न 2.
हेलोवेल ने उदारवाद का अर्थ किस प्रकार प्रकट किया है ?
(क) व्यक्ति की इच्छा की स्वतन्त्रता
(ख) व्यक्ति की भलाई एवं दृढ़ विवेकशीलता
(ग) जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकारों का अस्तित्व
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 3.
निम्न में से उदारवाद का सिद्धान्त है-
(क) मानवीय विवेक में आस्था
(ख) इतिहास एवं परम्परा का विरोध
(ग) मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4.
जॉन लॉक किस देश का राजनीतिक विद्वान् था ?
(क) भारत
(ख) अमेरिका
(ग) इंग्लैण्ड
(घ) जर्मनी।
उत्तर-
(ग) इंग्लैण्ड

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 5 उदारवाद

प्रश्न 5.
शास्त्रीय उदारवाद की विशेषता है-
(क) व्यक्ति की सर्वोच्च महानता
(ख) व्यक्ति साध्य और राज्य साधन
(ग) राज्य एक आवश्यक बुराई है
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 6 मार्क्सवाद

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 6 मार्क्सवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 6 मार्क्सवाद

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मार्क्स के समाजवाद के कोई छः सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। (Discuss any six Principles of Marxian Socialism.)
अथवा
मार्क्सवाद के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Discuss the main principles of Marxism.)
अथवा
मार्क्सवाद क्या है ? कार्ल मार्क्स के चार महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का वर्णन करें। (What is Marxism ? Discuss four important principles of Karl Marx.)
अथवा मार्क्सवाद के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।। (Explain the main principles of Marxism.)
उत्तर-
कार्ल मार्क्स को साम्यवाद का जन्मदाता माना जाता है। उसने ही समाजवाद को वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप देने का प्रथम प्रयत्न किया। मार्क्सवादी समाज को सर्वहारा समाजवींद (Proletarian Socialism) तथा वैज्ञानिक समाजवाद (Scientific Socialism) के नाम से पुकारा जाता है। मार्क्स इसलिए अपने समाजवाद को वैज्ञानिक कहता है, क्योंकि यह इतिहास के आधार पर आधारित है। मार्क्स से पहले साइमन, फोरियर तथा ओवन ने भी समाजवाद से सम्बन्धित विचार प्रस्तुत किए थे, परन्तु उनके समाजवाद को वैज्ञानिक इसलिए नहीं कहा जाता क्योंकि यह इतिहास पर आधारित न होकर केवल कल्पना पर आधारित था। वेपर (Wayper) के शब्दों में, “उन्होंने केवल सुन्दर गुलाब के नज़ारे लिए थे, गुलाब के वृक्षों के लिए जमीन तैयार नहीं की थी।” प्रो० जोड (Prof. Joad) ने लिखा है, “मार्क्स इसलिए पहला समाजवादी लेखक था जिसकी जातियों को हम वैज्ञानिक कह सकते हैं। क्योंकि उसने न केवल अपने उद्देश्यों के समाज की भूमिका तैयार की बल्कि उसने विस्तार में यह भी बताया है कि वह किन-किन स्थितियों में से होता हुआ स्थापित हो सकेगा।” ।

लुइस वाशरमैन (Washerman) ने मार्क्स के विषय में लिखा है, “उसने समाजवाद को एक षड्यन्त्र के रूप में पाया और उसे एक आन्दोलन के रूप में छोड़ा।” (“He found socialism a conspiracy and left it a movement.”) मार्क्स ने सामाजिक विकास का एक वैज्ञानिक तथा क्रमिक अध्ययन किया। मार्क्स की भौतिकवादी तथा आर्थिक व्याख्या ही मार्क्सवाद है।

मार्क्स ने न केवल अपने विचारों को क्रमबद्ध रूप में प्रतिपादित किया है बल्कि यह भी बताया है कि इनको किस प्रकार लागू किया जा सकता है। मार्क्सवादी विचारधारा एक अविभाज्य इकाई है जिसके चार आधार स्तम्भ हैं-

(1) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism)
(2) इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या (Materialistic Interpretation of History)
(3) वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त (Theory of Class-Struggle)
(4) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त (Theory of Surplus Value)।

1. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) मार्क्सवादी साम्यवाद का मूलाधार उनका द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) था। इस सिद्धान्त के द्वारा मार्क्स ने समाज के विकास के नियमों को खोजने का प्रयास किया। यह सिद्धान्त उसने अपने दार्शनिक गुरु हीगल से लिया जो कहता था, “संसार में समस्त विकास का कारण विरोधों का संघर्ष (Conflict of opposites) से होता है।” परन्तु मार्क्स ने हीगल के प्रथमवादी सिद्धान्त को भौतिकता के रंग में रंग दिया। इसलिए उसने कहा कि मानव समाज में प्रगति वर्गों में आर्थिक संघर्ष के कारण होती कार्ल मार्क्स के विचार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सारे दर्शन के आधार हैं। सभी नए विचार इसी आधार पर उत्पन्न होते हैं। मार्क्स जानता था कि समाज का विकास स्वाभाविक होता है। प्रकृति में चारों ओर संघर्ष चल रहा है जो अन्तर्विरोधी है। यह अन्तर्विरोध दो प्रकार का है अर्थात् एक वाद (Thesis) और दूसरा प्रतिवाद (Anti-thesis)। दोनों प्रकार के विरोधों में वाद तथा प्रतिवाद में संघर्ष निरन्तर चलता रहता है। जिस प्रकार वस्तुएं अपनी मूल प्रकृति में वाद तथा प्रतिवाद में एक-दूसरे की विरोधी होती हैं। जब ‘वाद’ का अपने ‘प्रतिवाद’ से टकराव होता है तो पारस्परिक प्रतिक्रियास्वरूप दोनों ही वस्तुओं के दिखलाई देने वाले स्वरूप का लोप हो जाता है तथा एक नवीन वस्तु का जन्म होता है। मार्क्स ने इसे ‘संवाद’ (Synthesis) का नाम दिया है। उसके अनुसार इस ‘संवाद’ का जन्म दोनों परस्पर विरोधी वस्तुओं के संयोग से हुआ है। अतः इनमें दोनों ही पूर्ववर्ती वस्तुओं के अंश विद्यमान रहते हैं। कालान्तर में यही ‘संवाद’ (Synthesis) ‘वाद’ (Thesis) का रूप धारण कर लेता है। विकास की यह प्रतिक्रिया अविरल रूप में चलती रहती है। ‘संवाद’ को मार्क्स ‘वाद’ एवं ‘प्रतिवाद’ का सुधरा हुआ रूप मानता है। इस प्रकार मार्क्स ने हीगल द्वारा प्रतिपादित द्वन्द्ववादी पद्धति को विचार जगत् में ला खड़ा किया। मार्क्स के शब्दों में, “हीगल का द्वन्द्ववाद सिर के बल खड़ा था मैंने उसे पैरों के बल पर खड़ा किया है।”

मार्क्स ने अपनी द्वन्द्ववादी पद्धति द्वारा समाज के विकास के इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया तथा कहा कि समाज में विभिन्न वर्ग होते हैं। इन वर्गों में परस्पर संघर्ष होता रहता है। यह संघर्ष इस समय तक चलता रहता है जब तक समाय में सभी वर्ग समाप्त नहीं हो जाते। धीरे-धीरे ये वर्ग मज़दूर में लुप्त हो जाते हैं। तथा ‘श्रमिक वर्ग की तानाशाही’ (Dictatorship of the Proletariat) स्थापित हो जाती है।

2. इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या (Materialistic Interpretation of History) कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक ढंग से ही इतिहास की भी व्याख्या की है। उसका कहना था कि समस्त ऐतिहासिक घटनाओं में आर्थिक घटनाओं का ही प्रभाव पड़ता है। समस्त सामाजिक ढांचा आर्थिक ढांचे के अनुसार ही बदलता रहता है। किसी भी युग का इतिहास ले लिया जाए। उस युग की सभ्यता केवल उस वर्ग का ही इतिहास दिखाई देगी जिसके पास आर्थिक शक्ति थी और उत्पादन के साधनों पर जिसका नियन्त्रण था। उत्पादन के साधन परिवर्तनशील हैं, परन्तु जिस वर्ग के पास उन साधनों का नियन्त्रण होता है, वे इस परिवर्तन में बाधा डालते हैं। इससे समाज मे दो परस्पर विरोधी गुट पैदा हो जाते हैं। और संघर्ष आरम्भ हो जाता है। एक गुट के पास आर्थिक शक्ति होती है तथा दूसरा गुट उसे प्राप्त करना चाहता है। समस्त ऐतिहासिक घटनाओं पर आर्थिक ढांचे का प्रभाव पड़ता है। यहां तक कि धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक विचार-धाराएं भी आर्थिक विचारधारा से प्रभावित होती हैं।

3. वर्ग-संघर्ष (Class-Struggle) मार्क्स का कहना था कि आज तक सारा संघर्ष एक वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आरम्भ में ही समाज दो विरोधी वर्गों में बंटा हुआ रहता है-पूंजीपति और मज़दूर, अमीर और ग़रीब, शोषक और शोषित अर्थात् एक वे जिनके पास आर्थिक व राजनीतिक शक्ति होती है और दूसरे वे जिनके पास कोई शक्ति नहीं होती (Haves and Have-note)। मालिक और नौकर तथा शासक और शासित के वर्ग परस्पर विरोधी ही हैं। आरम्भ से ही आर्थिक शक्ति के किसी-न-किसी एक वर्ग के पास रही है और राजनीतिक शक्ति भी आर्थिक शक्ति के साथ ही मिलती आई है। ऐसे वर्ग ने सदा दूसरे वर्ग पर अन्याय और अत्याचार किए और राज्य ने इसमें उसका साथ दिया। इन दोनों विरोधी वर्गों के हित कभी एक-दूसरे से मेल नहीं खा सकते। प्राचीनकाल में दास-प्रथा थी और दासों का शोषण होता था। राज्य की शक्ति का प्रयोग भी दासों के विरुद्ध होता आया है। सामन्त युग में आर्थिक शक्ति सामन्तों के पास थी जिससे किसानों का शोषण होता था। आधुनिक पूंजीवादी समाज में मजदूरों का शोषण होता है और इस कार्य में राज्य की शक्ति पूंजीवादियों का ही साथ देती है। शोषित वर्ग के पास अपनी दशा को सुधारने के लिए क्रान्ति के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं है। विभिन्न देशों में हुई क्रान्तियां इस बात का प्रमाण हैं। साम्यवादी घोषणा-पत्र (Communist Manifesto) में कहा गया था, “स्वामी और गुलाम, उच्च कुल तथा निम्न कुल, ज़मींदार तथा कृषक संघ में अधिकारी और मज़दूर अर्थात् शोषण करने वाले तथा शोषित वर्ग सदैव एक दूसरे के विरोधी रहे हैं।”

4. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त (Theory of Surplus Value)-अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त पर मार्क्स के विचार मुख्य रूप से आधारित हैं। उसका कहना था कि किसी वस्तु के उत्पादन में श्रम का ही मुख्य हाथ है। मजदूर ही कच्चे माल को पक्के माल में बदलता है। किसी भी वस्तु का मूल्य उस पर लगे श्रम और समय अनुसार ही निश्चित होता है। आधुनिक पूंजीवादी समाज में कच्चे माल अथवा पूंजी पर कुछ धनिकों का ही नियन्त्रण है और मज़दूर के पास अपना श्रम बेचने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं। पूंजीपति मज़दूर को उसकी पूरी मजदूरी नहीं देता। उसे केवल इतना वेतन दिया जाता है कि वह जीवित रह सके और पूंजीपतियों की सेवा करता रहे। मज़दूरी और वस्तु के मूल्य में जो अन्तर है, वह वास्तव में मज़दूर का भाग है, परन्तु पूंजीपति उसे लाभ कहकर अपने पास रख लेता है। यही अतिरिक्त मूल्य है जो मज़दूर को मिलना चाहिए, पूंजीपति का उस पर कोई अधिकार नहीं है। पूंजीपति का लाभ मजदूर की मज़दूरी में से छीने गए भाग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मजदूर की मजदूरी एक नाशवान् वस्तु है और वह अपनी उचित मज़दूरी के लिए अधिक दिन तक उसे नष्ट नहीं कर सकते। पूंजीपति मजदूरों की इस शोचनीय दशा का अनुचित लाभ उठाते हैं और उन्हें कम मज़दूरी पर काम करने को विवश करते हैं। पूंजीपति अधिक-से-अधिक लाभ उठा कर मज़दूरों को और भी ग़रीब बनाते हैं।

मार्क्स के अन्य महत्त्वपूर्ण विचार इस प्रकार हैं-

5. पूंजीवाद का आत्मनाश (Self-destruction of Capitalism)-कार्ल मार्क्स ने कहा है कि वर्तमान पूंजीवाद स्वयं ही नाश की ओर जा रहा है। निजी सम्पत्ति और खुली प्रतियोगिता के कारण अमीर अधिक अमीर और ग़रीब अधिक ग़रीब होते जा रहे हैं। छोटे-छोटे पूंजीपति बड़े-बड़े पूंजीपतियों का मुकाबला नहीं कर सकते। कुछ समय बाद उसकी थोड़ी-बहुत सम्पत्ति नष्ट हो जाती है और वे मज़दूर वर्ग में मिल जाते हैं। इस प्रकार पूंजीपतियों की संख्या घटती जा रही है और मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है। कुछ समय के बाद पूंजीपतियों की संख्या इतनी कम रह जाएगी कि मजदूरों के लिए उनके विरुद्ध क्रान्ति करना बड़ा ही सरल हो जाएगा। उद्योगों के एक ही स्थान पर केन्द्रीयकरण तथा मशीनों के अधिक-से-अधिक प्रयोग के कारण भी पूंजीवाद स्वयं नाश की ओर जा रहा है। एक ही स्थान पर अधिक उद्योग हो ने से मजदूरों की संख्या भी बढ़ती जाती है। वे एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं और उनमें एकता उत्पन्न होती है। मशीनों के कारण मज़दूरों में बेरोज़गारी बढ़ती है और वे पूंजीपतियों के विरोधी हो जाते हैं।

6. राज्य के लुप्त हो जाने में विश्वास (Faith in Withering away of the State)-मार्क्सवाद के अनुसार राज्य का प्रयोग शासक वर्ग श्रमिकों के शोषण के लिए करता है। इसलिए मार्क्सवादी राज्य को समाप्त कर देना चाहते हैं ताकि इसके द्वारा किसी का शोषण न हो सके। क्रान्ति के पश्चात् सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना हो जाएगी। सर्वहारा वर्ग धीरे-धीरे पूंजीवाद को समाप्त करके वर्ग-भेदों को समाप्त कर देगा। जब कोई वर्ग नहीं रहेगा तब राज्य की भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी और राज्य स्वयं लुप्त हो जाएगा।

7. क्रान्तिकारी साधनों में विश्वास (Faith in Revolutionary Methods)–मार्क्सवादी पूंजीवाद को समाप्त करने के लिए क्रान्ति में विश्वास रखता है। मार्क्स का विश्वास था कि शान्तिपूर्वक साधनों द्वारा पूंजीवाद को समाप्त करके साम्यवाद की स्थापना नहीं की जा सकती क्योंकि पूंजीवादी कभी सत्ता त्यागना नहीं चाहेंगे।

8. एक दल और दलीय अनुशासन में विश्वास (Faith in One Party and Party Discipline)मार्क्सवादी एक दल के शासन और दलीय अनुशासन में विश्वास रखते हैं। मार्क्सवाद के अनुसार शासन की बागडोर केवल साम्यवादी दल के हाथ में होनी चाहिए और किसी अन्य दल की स्थापना नहीं की जा सकती। मार्क्सवाद कठोर दलीय अनुशासन में विश्वास रखता है। कोई भी सदस्य पार्टी की नीतियों के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकता।

9. धर्म में कोई विश्वास नहीं (No Faith in Religion) मार्क्सवाद का धर्म में कोई विश्वास नहीं है। मार्क्स धर्म को लोगों के लिए अफीम मानता है। वह धर्म को पूंजीपतियों का समर्थक मानता है। पूंजीपतियों ने धर्म के नाम पर श्रमिकों और ग़रीबों को गुमराह किया है ताकि वे उनके विरुद्ध आवाज़ न उठाएं।

10. वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाजवादी समाज की स्थापना (Establishment of Classless and Stateless Socialist Society)-कार्ल मार्क्स का उद्देश्य अन्त में एक वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज की स्थापना करना है। एक ऐसा समाज जिसमें विरोधी न हों बल्कि सब के सब मज़दूर हों और कार्य करके अपना पेट पालते हों, जिसमें कोई राज्य न हो क्योंकि राज्य शक्ति पर खड़ा है और जिसके पास भी इसकी शक्ति जाएगी, वह उसका प्रयोग करके दूसरों पर अत्याचार और शोषण करेगा। राज्य के होते हुए समाज का दो विरोधी गुटों में बंटना स्वाभाविक है। वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाय की स्थापना के लिए कार्ल मार्क्स ने निम्नलिखित स्तरों का उल्लेख किया-

(क) सामाजिक क्रान्ति (Social Revolution)-कार्ल मार्क्स ने साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए प्रथम प्रयास सामाजिक क्रान्ति को बताया है। वैसे तो पूंजीवाद स्वयं ही नाश की ओर जा रहा है, परन्तु उसकी जड़ें काफ़ी गहरी हैं। मजदूरों को अपनी दशा सुधारने के लिए प्रयत्न अवश्य करने चाहिएं। मजदूरों को चाहिए कि वे अपने आपको संगठित करें और उनमें वर्ग जागृति (Class consciousness) लाने के प्रयत्न किए जाने चाहिएं। संगठित होकर अपनी शक्ति को बढ़ा कर उन्हें हिंसात्मक कार्यों का सहारा लेना चाहिए और हिंसा द्वारा इस वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करना चाहिए। शान्तिपूर्ण तरीकों से या हिंसा द्वारा जैसे भी हो मजदूरों को राज्यसत्ता अपने हाथ में लेनी चाहिए। कार्ल मार्क्स ने मज़दूरों द्वारा सत्ता की प्राप्ति के लिए सभी साधनों को उचित बताया।

(ख) सर्वहारा अर्थात् मज़दूर वर्ग की तानाशाही (Dictatorship of the Proletariat) क्रान्ति और वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज की स्थापना के बीच के समय को मार्क्स ने मजदूर वर्ग की तानाशाही के रूप में रखा है। केवल क्रान्ति करके ही मज़दूरों का उद्देश्य पूरा नहीं होता और पूंजीवाद एकदम ही नष्ट नहीं हो सकता। राज्यसत्ता पर अधिकार करके मजदूरों को चाहिए कि वे इस मशीनरी का प्रयोग पूंजीपतियों के विरुद्ध और पूंजीवाद को मूलतः नष्ट करने में करें। निजी सम्पत्ति की समाप्ति राष्ट्रीयकरण, व्यापार और व्यवसाय पर नियन्त्रण, भारी कर व्यवस्था (Heavy Taxation), विशेषाधिकारी की समाप्ति, सबके लिए समान कार्य आदि के कानून बनाकर और बल प्रयोग करके पूंजीवाद को नष्ट किया जा सकता है। . कार्ल मार्क्स तथा अन्य समाजवादी राज्य को अच्छी नहीं समझते और अन्त में उसे समाप्त करने के पक्ष में हैं, परन्तु इस अन्तरिम क्रान्तिकारी काल (Transitional Stage) में वे उसे रखने के पक्ष में हैं। जिस शक्ति से पहले पूंजीपति ग़रीबों और मजदूरों का शोषण करते थे, उसी से अब मज़दूर पूंजीपतियों को नष्ट करेंगे। पूंजीपति वर्ग के पूर्ण रूप से समाप्त होने पर जब समाज में परस्पर विरोधी वर्ग न होंगे और सब लोग श्रमिक ही होंगे तो उस समय राज्य को तोड़ दिया जाएगा।

(ग) वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाजवादी समाज (Classless and Stateless Socialist Society)जब पूंजीपतियों की समाप्ति हो जाएगी तो समाज में कोई वर्ग-संघर्ष नहीं होगा। सभी व्यक्ति श्रमिक वर्ग के होंगे इस प्रकार समाज वर्गविहीन हो जाएगा। समाज में आर्थिक समानता उत्पन्न हो जाएगी। ऐसी दशा में राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी और इसे समाप्त कर दिया जएगा। राज्य का स्थान ऐसे समुदाय ले लेंगे जो व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्र और स्वेच्छा से बनाए जाएंगे ऐसा समाज स्थापित करना साम्यवाद का अन्तिम उद्देश्य है। अधिकतर साम्यवादी परिवार धार्मिक संस्थाओं को उचित नहीं मानते और इस समाज में उनके लिए भी कोई स्थान नहीं देते।

11. उद्देश्य साधनों का औचित्य बताते हैं (Ends Justify The Means)-मार्क्सवाद के अनुसार उद्देश्य साधनों का औचित्य बताते हैं। अत: मार्क्सवादी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कोई भी साधन अपनाने के पक्ष में हैं।

12. निजी क्षेत्र का विरोध (Against Private Ownership)—मार्क्सवादी निजी क्षेत्र का विरोध करता है। मार्क्सवाद के अनुसार निजी क्षेत्र को समाप्त करके सामूहिक अधिकार क्षेत्र स्थापित करना चाहिए।

13. बेगानगी का सिद्धान्त (Theory of Alienation)-मार्क्सवाद के अनुसार मज़दूर मजदूरी करते-करते तथा पूंजीपति अधिक-से-अधिक लाभ कमाने की लालसा में अपने आस-पास के वातावरण से कट जाते हैं।

14. मार्क्सवाद को संसार में फैलना (Global Spread of Marxsim)-मार्क्सवादी मार्क्सवाद को एक आन्दोलन बनाकर पूरे विश्व में फैला देना चाहते हैं।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मार्क्सवाद क्या है?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स की रचनाओं में दिए गए विचारों को सामूहिक रूप में मार्क्सवाद का नाम दिया जाता है। मार्क्स को साम्यवाद का जन्मदाता माना जाता है जिसने समाजवाद को वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप देने का प्रथम प्रयत्न किया। मार्क्स इसलिए अपने समाजवाद को वैज्ञानिक कहता है, क्योंकि यह इतिहास पर आधारित है। मार्क्स ने सामाजिक विकास का वैज्ञानिक तथा क्रमिक अध्ययन किया। मार्क्स की भौतिकवादी और आर्थिक व्याख्या ही मार्क्सवाद है। मार्क्स ने न केवल अपने विचारों को क्रमबद्ध रूप में प्रतिपादित किया है बल्कि यह भी बताया है कि इनको किस प्रकार लागू किया जा सकता है। मार्क्सवादी विचारधारा एक अविभाज्य इकाई है जिसके चार आधार स्तम्भ हैं-(1) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, (2) इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या (3) वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त, (4) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त।

प्रश्न 2.
कार्ल मार्क्स की प्रमुख रचनाओं के नाम लिखें।
अथवा
कार्ल मार्क्स की तीन रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स जर्मनी का एक प्रसिद्ध विद्वान् था। मार्क्स ने अपने जीवन काल में अनेक ग्रन्थ व लेख लिखे उनमें से प्रमुख के नाम निम्नलिखित हैं

  • The Poverty of Philosophy 1874.
  • कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो 1848.
  • दास कैपीटल 1867.
  • Value, Price and Profit 1865.

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प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त लिखो।
अथवा
कार्ल मार्क्स का श्रेणी युद्ध का सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर-
वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त मार्क्स का एक प्रमुख सिद्धान्त है जो समाज में होने वाले परिवर्तनों को सूचित करता है। मार्क्स के अनुसार समाज में सदैव दो विरोधी वर्ग रहे हैं। एक वह वर्ग जिसके पास उत्पादन के साधनों का स्वामित्व है और दूसरा वह जो केवल शारीरिक श्रम करता है। अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए इन दोनों वर्गों के बीच सदैव संघर्ष होता रहता है। मार्क्स का कथन है कि आज तक का समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त को ऐतिहासिक आधार पर प्रमाणित किया है। आदिम युग में मनुष्य की आवश्यकताएं बहुत कम थीं। सम्पत्ति व्यक्तिगत न होकर सामूहिक थी। इसलिए कोई वर्ग नहीं था और न ही वर्ग संघर्ष था। परन्तु इसके पश्चात् उत्पादन के साधनों पर थोड़े-से व्यक्तियों ने स्वामित्व स्थापित कर लिया और शेष दास बन गए। इस प्रकार वर्गों की उत्पति हुई जिससे वर्ग संघर्ष उत्पन्न हो गया। कार्ल मार्क्स के अनुसार, यह संघर्ष तभी समाप्त होगा जब पूंजीवाद का नाश होगा और साम्यवाद की स्थापना होगी।

प्रश्न 4.
कार्ल मार्क्स का भौतिकवाद द्वन्द्ववाद का सिद्धान्त क्या है?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार प्रत्येक समाज में विरोधी शक्तियां होती हैं और इनके परस्पर विरोध से समाज का विकास होता है। मार्क्स के अनुसार, पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीवादी वर्ग तथा मजदूर वर्ग दो विरोधी शक्तियां पाई जाती हैं। दोनों के परस्पर संघर्ष से पूंजीवाद का नाश हो जायेगा तथा एक नया समाजवादी समाज अस्तित्व में आएगा। मार्क्स ने यह सिद्धान्त हीगल से ग्रहण किया है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में निम्नलिखित विशेषताएं होती हैं-

  • पदार्थ एक हकीकत है, जो सभी परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी है।
  • प्रत्येक वस्तु व स्थिति परिवर्तनशील है।
  • प्रत्येक तथ्य (Fact) में अन्तर्विरोध किया है।
  • स्थान और स्थितियां विकास को अवश्य प्रभावित करती हैं।

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प्रश्न 5.
मार्क्सवादी इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या की विवेचना कीजिए।
अथवा
कार्ल मार्क्स के इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-
इतिहास की द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद द्वारा व्याख्या को मार्क्स ने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का नाम दिया। मार्क्स ने इतिहास का विश्लेषण भौतिकवाद के माध्यम से किया। मार्क्स का कहना था कि समस्त ऐतिहासिक घटनाओं में आर्थिक घटनाओं का ही प्रभाव पड़ता है। समस्त सामाजिक ढांचा आर्थिक ढांचे के अनुसार ही बदलता रहता है। किसी भी युग का इतिहास ले लिया जाए, उस युग की सभ्यता केवल उस वर्ग के ही इतिहास में दिखाई देगी जिसके पास आर्थिक शक्ति थी और उत्पादन के साधनों पर जिसका नियन्त्रण था। उत्पादन के साधन परिवर्तनशील हैं, परन्तु जिस वर्ग के पास उन साधनों का नियन्त्रण होता है, वे इस परिवर्तन में बाधा डालते हैं। इससे समाज में दो परस्पर विरोधी गुट पैदा हो जाते हैं और संघर्ष आरम्भ हो जाता है। एक गुट के पास आर्थिक शक्ति होती है तथा दूसरा गुट उसे प्राप्त करना चाहता है। समस्त ऐतिहासिक घटनाओं पर आर्थिक ढांचे का प्रभाव पड़ता है। यहां तक कि धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारधाराएं भी आर्थिक विचारधारा से प्रभावित होती हैं।

प्रश्न 6.
कार्ल मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त क्या है ?
अथवा
मार्क्स का अधिक मूल्य का सिद्धान्त क्या है?
उत्तर-
अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त पर मार्क्स के विचार मुख्य रूप से आधारित हैं। उसका कहना था कि किसी वस्तु के उत्पादन में श्रम का ही मुख्य हाथ है। मज़दूर ही कच्चे माल को पक्के माल में बदलता है। किसी भी वस्तु का मूल्य उस पर लगे श्रम और समय अनुसार ही निश्चित होता है। आधुनिक पूंजीवादी समाज में कच्चे माल अथवा पूंजी पर कुछ धनिकों का ही नियन्त्रण है और मजदूर के पास अपना श्रम बेचने के अतिरिक्त और कोई स्रोत नहीं। पूंजीवादी मजदूर को उसकी पूरी मज़दूरी नहीं देता। उसे केवल इतनी मज़दूरी दी जाती है कि वह जीवित रह सके और पूंजीपतियों की सेवा करता रहे। मज़दूरी और वस्तु के मूल्य में जो अन्तर है, वह वास्तव में मज़दूर का भाग है, परन्तु पूंजीपति उसे लाभ कहकर अपने पास रख लेता है। यही अतिरिक्त मूल्य है जो मज़दूर को मिलना चाहिए, पूंजीपति का उस पर कोई अधिकार नहीं है।

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प्रश्न 7.
कार्ल मार्क्स के पूंजीवाद के आत्मनाश के सिद्धान्त के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने कहा कि वर्तमान पूंजीवाद स्वयं ही नाश की ओर जा रहा है। निजी सम्पत्ति और खुली प्रतियोगिता के कारण अमीर अधिक अमीर और ग़रीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं। छोटे-छोटे पूंजीपति बड़ेबड़े पूंजीपतियों का मुकाबला नहीं कर सकते। कुछ समय बाद उसकी थोड़ी-बहुत सम्पत्ति नष्ट हो जाती है और वे मज़दूर वर्ग में मिल जाते हैं। इस प्रकार पूंजीपतियों की संख्या घटती जा रही है और मज़दूरों की संख्या बढ़ती जा रही है। कुछ समय के बाद पूंजीपतियों की संख्या इतनी कम रह जाएगी कि मज़दूरों के लिए उनके विरुद्ध क्रान्ति करना बड़ा ही सरल हो जाएगा। उद्योगों के एक ही स्थान पर केन्द्रीयकरण तथा मशीनों के अधिक-से-अधिक प्रयोग के कारण भी पूंजीवाद स्वयं नाश की ओर जा रहा है। एक ही स्थान पर अधिक उद्योग होने से मजदूरों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। वे एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं जिससे उनमें एकता उत्पन्न होती है। मशीनों के कारण मजदूरों में बेरोजगारी बढ़ती जाती है जिससे वे पूंजीपतियों के विरोधी हो जाते हैं।

प्रश्न 8.
मार्क्सवाद के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त-मार्क्सवादी साम्यवाद का मूलाधार उनका भौतिक द्वन्द्वावाद था। इस सिद्धान्त के द्वारा मार्क्स ने समाज के विकास के नियमों को खोजने का प्रयास किया।
  • इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या-मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक ढंग से ही इतिहास की भी व्याख्या की है। उसका कहना था कि समस्त ऐतिहासिक घटनाओं में आर्थिक घटनाओं का ही प्रभाव पड़ता है। किसी भी युग का इतिहास ले लिया जाए तो उस युग की सभ्यता केवल उस वर्ग का ही इतिहास दिखाई देगी जिसके पास आर्थिक शक्ति थी और उत्पादन के साधनों पर जिसका नियन्त्रण होता था।
  • वर्ग संघर्ष-मार्क्स का कहना था कि समाज दो विरोधी वर्गों में बंटा हुआ होता है-पूंजीवादी और मज़दूर, शोषक और शोषित। इन दोनों विरोधी वर्गों के हित कभी एक-दूसरे से मेल नहीं खा सकते। शोषित वर्ग के पास अपनी दशा सुधारने के लिए क्रान्ति के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है। विभिन्न देशों में हुई क्रान्तियां इस बात का प्रमाण हैं।
  • मार्क्सवाद का एक अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त है।

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प्रश्न 9.
मार्क्स का मज़दूरों की तानाशाही का क्या अर्थ है ?
अथवा
मार्क्सवाद का ‘मज़दूरों की तानाशाही’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मार्क्स का यह विश्वास था कि जब श्रमिक संगठित हो जाएंगे और क्रान्ति का बीड़ा उठाएंगे तो पूंजीपति वर्ग अवश्य ही समाप्त हो जाएगा और सर्वहारा वर्ग अर्थात् श्रमिक वर्ग की तानाशाही स्थापित हो जाएगी। क्रान्ति और वर्ग विहीन समाज की स्थापना के बीच के समय को मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के रूप में माना है। सर्वहारा के अधिनायकतन्त्र के अन्तर्गत राज्य में वर्ग विरोध का अन्त हो जाएगा। सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतन्त्र के समय में राज्य एक वर्ग का न होकर सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधि बन जाता है। सर्वहारा वर्ग का अधिनायकतन्त्र एक प्रकार से श्रमिकों के प्रजातन्त्र का रूप धारण करता है। पूंजीपति वर्ग के पूर्ण रूप से समाप्त होने पर जब समाज में परस्पर विरोधी वर्ग नहीं होंगे और सब लोग श्रमिक ही होंगे तब राज्य अनावश्यक हो जाएगा और स्वयं ही समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 10.
मार्क्सवादियों के धर्म के सम्बन्ध में विचार लिखो।
अथवा
कार्ल मार्क्स का धर्म के सम्बन्ध में क्या विचार था ?
उत्तर-
मार्क्सवादियों का धर्म में कोई विश्वास नहीं था। वह धर्म को लोगों के लिए अफ़ीम समझते थे, क्योंकि जनता धर्म के चक्कर में पड़ कर अन्ध-विश्वासी, रूढ़िवादी, अप्रगतिशील और कायर बन जाती है। मार्क्सवादी धर्म को पूंजीपतियों की रक्षा का यन्त्र मानते हैं। उनका मत है कि पूंजीपति वर्ग धर्म की आड़ में ग़रीब या श्रमिक वर्ग का शोषण करते हैं। इसलिए मार्क्सवादियों ने धर्म को कोई महत्त्व नहीं दिया। साम्यवादी देशों में धर्म को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है।

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प्रश्न 11.
मार्क्सवादियों के राज्य के सम्बन्ध में विचार लिखिए।’
अथवा
मार्क्सवादियों के राज्य के बारे में विचार लिखो।
उत्तर-
मार्क्सवादी राज्य को न तो ईश्वरीय संस्था मानते हैं और न ही किसी समझौते का परिणाम। मार्क्सवादियों के विचारानुसार राज्य का उदय सामाजिक विकास के फलस्वरूप हुआ है। यह समाज के दो वर्गों के बीच संघर्ष का परिणाम है। मार्क्स के अनुसार राज्य कभी कल्याणकारी संस्था नहीं हो सकती क्योंकि राज्य की सत्ता का प्रयोग शोषक वर्ग अपने हितों के लिए करता है। राज्य का सही विकास पूंजीपति युग में हुआ जिसकी शुरुआत मध्य युग के बाद हुई। पंजीपति वर्ग ने श्रमिक वर्ग का शोषण करने के लिए राज्य रूपी यन्त्र का प्रयोग किया और राज्य को और शक्तिशाली बनाया। मार्क्स का विचार है कि वर्तमान बुर्जुआ राज्य को श्रमिक वर्ग क्रान्ति द्वारा समाप्त कर देगा और उसके स्थान पर मज़दूर राज्य (Proletarian State) की स्थापना होगी। मज़दूर राज्य में श्रमिक वर्ग अथवा सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना होगी। जब पूंजीवाद का पूर्ण विनाश हो जाएगा और राज्य समस्त समाज का वास्तविक प्रतिनिधि बन जाएगा तब राज्य अनावश्यक हो जाएगा। अन्त में राज्य अपने आप लोप हो जाएगा और वर्ग-विहीन तथा राज्य-विहीन समाज की स्थापना हो जाएगी।

प्रश्न 12.
कार्ल मार्क्स के वर्ग विहीन समाज से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मार्क्सवाद के अनुसार पूंजीवाद ही समाज में संघर्ष का प्रमुख कारण है। पूंजीपति अपने निहित स्वार्थों के लिए श्रमिकों का शोषण करते हैं। अतः जब तक पूंजीवाद का नाश नहीं होगा तब तक न तो समाज से संघर्ष की समाप्ति होगी और न ही वर्ग विहीन समाज का सपना साकार होगा। मार्क्सवाद के अनुसार जब पूंजीपतियों की समाप्ति हो जाएगी तो समाज में कोई वर्ग-संघर्ष नहीं होगा । सभी व्यक्ति श्रमिक वर्ग के होंगे। इस प्रकार समाज वर्ग विहीन हो जाएगा। समाज में आर्थिक समानता उत्पन्न हो जाएगी। ऐसी दशा में राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी और राज्य विलुप्त हो जाएगा। राज्य का स्थान ऐसे समुदाय ले लेंगे जो व्यक्ति द्वारा स्वतन्त्रता और स्वेच्छा से बनाए जाएंगे। ऐसा समाज स्थापित करना साम्यवाद का अन्तिम उद्देश्य है। अधिकतर साम्यवादी धार्मिक संस्थाओं को उचित नहीं मानते और इस समाज में इन्हें कोई स्थान नहीं देते।

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प्रश्न 13.
मार्क्सवाद की आलोचना के किन्हीं चार आधारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
मार्क्सवाद की आलोचना मुख्यत: निम्नलिखित आधारों पर की गई है
1. इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी मात्र नहीं है-कार्ल मार्क्स का यह कहना भी सर्वथा उचित नहीं है कि समस्त इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है। सभी देशों के इतिहास इस बात के साक्षी हैं कि यहां पर बहुत-से शासक ऐसे हुए जिन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करके शान्ति और व्यवस्था का साम्राज्य स्थापित किया और लोगों ने परस्पर विरोध की बजाय एकता के सूत्र में बंध कर राष्ट्र और समाज की उन्नति के कार्य किए। इतिहास को वर्ग संघर्ष की कहानी कहना इतिहास का गलत चित्रण करना है।

2. राज्य एक बुराई नहीं है-मार्क्सवाद राज्य को एक बुराई मानता है जो वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देती है और पूंजीवादियों को मज़दूरों के शोषण में सहायता देती है, परन्तु यह बात ग़लत है। राज्य एक बुराई नहीं बल्कि अच्छाई है। राज्य लोगों की इच्छा पर आधारित शक्ति पर नहीं।

3. धर्म पर आघात अन्यायपूर्ण-मार्क्सवाद ने धर्म को अफ़ीम कहा है, जो कि उचित नहीं है।
4. मार्क्स के अनुसार राज्य लुप्त हो जाएगा, परन्तु राज्य पहले से भी अधिक शक्तिशाली हुआ है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मार्क्सवाद क्या है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स की रचनाओं में दिए गए विचारों को सामूहिक रूप में मार्क्सवाद का नाम दिया जाता है। मार्क्स को साम्यवाद का जन्मदाता माना जाता है जिसने समाजवाद को वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप देने का प्रथम प्रयत्न किया। मार्क्स ने न केवल अपने विचारों को क्रमबद्ध रूप में प्रतिपादित किया है बल्कि यह भी बताया है कि इनको किस प्रकार लागू किया जा सकता है।

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प्रश्न 2.
आप कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के विषय में क्या जानते हैं ? .
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार समाज में सदैव दो विरोधी वर्ग रहे हैं। एक वह वर्ग जिसके पास उत्पादन के साधनों का स्वामित्व है और दूसरा वह जो केवल शारीरिक श्रम करता है। अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए इन दोनों वर्गों के बीच सदैव संघर्ष होता रहता है।

प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर-
अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त पर मार्क्स के विचार मुख्य रूप से आधारित हैं। उसका कहना था कि किसी वस्तु के उत्पादन में श्रम का ही मुख्य हाथ है। परन्तु पूंजीवादी मजदूर को उसकी पूरी मज़दूरी नहीं देता। उसे केवल इतनी मज़दूरी दी जाती है कि वह जीवित रह सके और पूंजीपतियों की सेवा करता रहे। मज़दूरी और वस्तु के मूल्य में जो अन्तर है, वह वास्तव में मज़दूर का भाग है, परन्तु पूंजीपति उसे लाभ कहकर अपने पास रख लेता है। यही अतिरिक्त मूल्य है जो मज़दूर को मिलना चाहिए।

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प्रश्न 4.
मार्क्सवाद के दो मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करें।
उत्तर-
1. द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त-मार्क्सवादी साम्यवाद का मूलाधार उनका भौतिक द्वन्द्ववाद था। इस सिद्धान्त के द्वारा मार्क्स ने समाज के विकास के नियमों को खोजने का प्रयास किया।

2. इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या-मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक ढंग से ही इतिहास की भी व्याख्या की है। उसका कहना था कि समस्त ऐतिहासिक घटनाओं में आर्थिक घटनाओं का ही प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 5.
कार्ल मार्क्स (मार्क्सवाद) राज्य के विरुद्ध क्यों है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स राज्य को शोषण का यन्त्र मानता है। यह समाज के दो वर्गों बीच संघर्ष का परिणाम है। मार्क्स के अनुसार राज्य कभी कल्याणकारी संस्था नहीं हो सकती क्योंकि राज्य की सत्ता का प्रयोग शोषक वर्ग अपने हितों के लिए करता है।

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प्रश्न 6.
मार्क्सवाद की वर्गहीन और राज्यहीन धारणा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
मार्क्सवाद के अनुसार जब पूंजीपतियों की समाप्ति हो जाएगी तो समाज में कोई वर्ग-संघर्ष नहीं होगा। सभी व्यक्ति श्रमिक वर्ग के होंगे। इस प्रकार समाज वर्ग विहीन हो जाएगा। समाज में आर्थिक समानता उत्पन्न हो जाएगी। ऐसी दशा में राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी और राज्य विलुप्त हो जाएगा।

प्रश्न 7.
मार्क्स का मज़दूरों की तानाशाही का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
मार्क्स का यह विश्वास था कि जब श्रमिक संगठित हो जाएंगे और क्रान्ति का बीड़ा उठाएंगे तो पूंजीपति वर्ग अवश्य ही समाप्त हो जाएगा और सर्वहारा वर्ग अर्थात् श्रमिक वर्ग की तानाशाही स्थापित हो जाएगी। क्रान्ति और वर्ग विहीन समाज की स्थापना के बीच के समय को मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के रूप में माना है। सर्वहारा के अधिनायकतन्त्र के अन्तर्गत राज्य में वर्ग विरोध का अन्त हो जाएगा।

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प्रश्न 8.
कार्ल मार्क्स के धर्म सम्बन्धी विचारों का वर्णन करें।
उत्तर-
मार्क्सवादियों का धर्म में कोई विश्वास नहीं था। वह धर्म को लोगों के लिए अफ़ीम समझते थे, क्योंकि जनता धर्म के चक्कर में पड़ कर अन्ध-विश्वासी, रूढ़िवादी, अप्रगतिशील और कायर बन जाती है। मार्क्सवादी धर्म को पूंजीपतियों की रक्षा का यन्त्र मानते हैं। उनका मत है कि पूंजीपति वर्ग धर्म की आड़ में ग़रीब या श्रमिक वर्ग का शोषण करते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
मार्क्सवाद का संस्थापक कौन है ?
उत्तर-
मार्क्सवाद का संस्थापक कार्ल मार्क्स है।

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प्रश्न 2.
कार्ल मार्क्स कौन था ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स साम्यवादी विचारक था जिसका जन्म जर्मनी में 5 मई, 1818 ई० को हुआ। कार्ल मार्क्स को वैज्ञानिक समाजवाद का जनक माना जाता है।

प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स की दो प्रसिद्ध रचनाओं के नाम लिखो।
अथवा
कार्ल-मार्क्स की एक प्रसिद्ध रचना का नाम लिखो।
उत्तर-

  1. दास कैपिटल
  2. कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो।

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प्रश्न 4.
मार्क्सवाद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स की रचनाओं में प्रकट किए गए विचारों के सामूहिक रूप को मार्क्सवाद कहा जाता है।

प्रश्न 5.
मार्क्सवाद का कोई एक आधारभूत सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-
वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त मार्क्सवाद का एक प्रमुख सिद्धान्त है। मार्क्स के अनुसार अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 6 मार्क्सवाद

प्रश्न 6.
द्वन्द्ववाद किस भाषा के किस शब्द से लिया गया है ?
उत्तर-
द्वन्द्ववाद (Dialictic) ग्रीक भाषा के शब्द डाइलगो (Dialogo) से लिया गया है, जिसका अर्थ है, वादविवाद करना।

प्रश्न 7.
मार्क्सवाद की एक आलोचना लिखो।
उत्तर-
मार्क्सवाद राज्य को समाप्त करने के पक्ष में है, परन्तु यह सम्भव नहीं है।

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प्रश्न 8.
मार्क्सवाद का अन्तिम उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-
मार्क्सवाद का अन्तिम उद्देश्य वर्ग-विहीन और राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की स्थापना करना है।

प्रश्न 9.
वर्ग-विहीन समाज का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार साम्यवादी क्रान्ति के बाद श्रमिक वर्ग का आधिपत्य स्थापित हो जाएगा और समाज में कोई वर्ग नहीं होगा। ऐसा समाज वर्ग-विहीन समाज कहलाएगा।

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प्रश्न 10.
द्वन्द्ववाद किस भाषा के किस शब्द से लिया गया है?
उत्तर-
द्वन्द्ववाद (Dialictic) ग्रीक भाषा के शब्द डाइलगो (Dialogo) से लिया गया है जिसका अर्थ है, वादविवाद करना।

प्रश्न 11.
कार्ल-मार्क्स के दो मुख्य सिद्धान्तों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद
  2. वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …………….. को साम्यवाद का जन्मदाता माना जाता है।
2. वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त ……………. ने दिया।
3. मार्क्स के अनुसार हीगल का द्वन्द्ववाद ……………. के बल खड़ा था मैंने उसे पैरों के बल पर खड़ा किया।
4. मार्क्सवाद के अनुसार ……………. समाप्त हो जायेगा।
5. ऐंजलस के अनुसार राज्य पूंजीपतियों की ……………. मात्र है।
उत्तर-

  1. कार्ल मार्क्स
  2. कार्ल मार्क्स
  3. सिर
  4. राज्य
  5. प्रबन्धक समिति।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. मार्क्सवाद का जन्मदाता लॉस्की है।
2. राज्य सम्बन्धी मार्क्स की भविष्यवाणी सही साबित नहीं हुई।
3. मार्क्स के अनुसार पूंजीपति का उद्देश्य सदैव अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने का होता है।
4. मार्क्स ने सर्वहारा के अधिनायक तन्त्र का समर्थन नहीं किया।
5. सोरल ने मार्क्सवादी वर्ग को एक अमूर्त कल्पना कहा है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय-

प्रश्न 1.
वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त किसने दिया है ?
(क) हॉब्स
(ख) लॉक
(ग) मार्क्स
(घ) रूसो।
उत्तर-
(ग) मार्क्स

प्रश्न 2.
“दास कैपिटल’ नामक पुस्तक किसने लिखी ?
(क) मार्क्स
(ख) लेनिन
(ग) माओ
(घ) लॉस्की।
उत्तर-
(क) मार्क्स

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प्रश्न 3.
यह कथन किसका है, “राज्य केवल एक ऐसा यन्त्र है जिसकी सहायता से एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण करता है।”
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) लेनिन
(ग) फ्रेडरिक एंजल्स
(घ) हीगल।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स

प्रश्न 4.
मार्क्सवाद के अनुसार राज्य के अस्तित्व से पूर्व आदिम समाज कैसा था ?
(क) वर्ग-विहीन समाज
(ख) दो वर्गों वाला समाज
(ग) वर्ग संघर्ष वाला समाज
(घ) अनेक वर्गों वाला समाज।
उत्तर-
(क) वर्ग-विहीन समाज

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प्रश्न 5.
मार्क्सवाद का सिद्धान्त किसने दिया था ?
(क) लेनिन
(ख) कार्ल मार्क्स
(ग) स्टालिन
(घ) माओ।
उत्तर-
(ख) कार्ल मार्क्स

प्रश्न 6.
यह कथन किसका है, “प्रत्येक समाज में दो वर्ग होते हैं।”
(क) आल्मण्ड पावेल
(ख) एस० एस० उलमार
(ग) रॉबर्ट डाहल
(घ) कार्ल मार्क्स।
उत्तर-
(घ) कार्ल मार्क्स।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 2 ग्रामीण समाज

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्रामीण समाज दो वर्गों में विभाजित है-
(क) स्वामी एवं दास
(ख) शोषक वर्ग तथा शोषित वर्ग
(ग) उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग
(घ) पूँजीपति तथा मज़दूर।
उत्तर-
(ख) शोषक वर्ग तथा शोषित वर्ग।

प्रश्न 2.
अधिक अनाज पैदावार हेतु नई तकनीकों के परिचय में सहायक है।
(क) श्वेत क्रान्ति
(ख) नीली क्रान्ति
(ग) पीत क्रान्ति
(घ) हरित क्रान्ति।
उत्तर-
(घ) हरित क्रान्ति।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

प्रश्न 3.
समूह में ही साथी का चुनाव कहलाता है
अथवा
समूह के अन्दर साथी के चुनाव को कहते हैं
(क) बहिर्विवाह
(ख) अन्तर्विवाह
(ग) समूह विवाह
(घ) एकल विवाह।
उत्तर-
(ख) अन्तर्विवाह।

प्रश्न 4.
जजमानी व्यवस्था किसके संबंध पर आधारित है ?
(क) जजमान
(ख) कामीन
(ग) जजमान तथा कामीन
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) जजमान तथा कामीन।

प्रश्न 5.
ग्रामीण समाज में ऋणग्रस्तता का कारण है
(क) विकास
(ख) गरीबी तथा घाटे वाली व्यवस्था
(ग) आत्मनिर्भरता
(घ) जीविका अर्थव्यवस्था।
उत्तर-
(ख) गरीबी तथा घाटे वाली व्यवस्था।

प्रश्न 6.
नवीन कृषि तकनीक ने किसानों को बना दिया है-
(क) बाज़ारोन्मुख
(ख) श्रमिक वर्ग
(ग) आत्मपर्याप्त
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) बाज़ारोन्मुख।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. ग्राम के मुखिया को …………… जाना जाता था।
2. ग्रामीण समाज आकार में …………. है।
3. …………. व्यवस्था कमीन के शोषण पर आधारित है।
4. ग्रामीण समाज में सामाजिक नियन्त्रण ………… प्रकृति में है।
5. ………. तथा ………… ग्रामीण समाज में सामाजिक अपेक्षा के उदाहरणों में प्रयोग किया जाता है।
उत्तर-

  1. ग्रामिणी
  2. छोटा
  3. जजमानी
  4. अनौपचारिक
  5. जाति पंचायत तथा ग्राम पंचायत।

C. सही/गलत पर निशान लगाएं-

1. ग्राम भारत की सामाजिक व राजनीतिक संगठन की इकाई है।
2. ग्रामीण ऋणग्रस्तता कमज़ोर वित्तीय ढाँचे की सूचक है।
3. कृषि में साधनों तथा खादों, कीटनाशकों, कृषि संयंत्रों इत्यादि का प्रयोग किया जाता है।
4. ग्रामों में पंचायतों की स्थापना से राजनीतिक जागृति में वृद्धि हुई है।
5. नई तकनीक अपनाने से कृषि रोज़गार के प्रोत्साहन को तीव्रता प्रदान की है।
उत्तर-

  • सही
  • सही
  • सही
  • सही
  • गलत।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
प्रत्यक्ष सम्बन्ध — ऋणग्रस्तता
परिवार का मुखिया — उच्च पैदावार विविधता बीज
समूह के अन्दर विवाह — प्रगाढ़ सम्बन्ध
मुकद्दमेबाज़ी — कर्ता
गेहूँ, चावल व अन्य फसलें — अन्तर्विवाह।
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
प्रत्यक्ष सम्बन्ध — प्रगाढ़ सम्बन्ध
परिवार का मुखिया — कर्ता
समूह के अन्दर विवाह — अन्तर्विवाह।
मुकद्दमेबाज़ी — ऋणग्रस्तता
गेहूँ, चावल व अन्य फसलें — उच्च पैदावार विविधता बीज

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

II अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. “वास्तविक भारत गाँवों में बसता है।” किसका कथन है ?
उत्तर-महात्मा गाँधी का।

प्रश्न 2. भारत में पूंजीवादी कृषि की वृद्धि में किस क्रान्ति ने सहायता प्रदान की?
उत्तर- हरित क्रान्ति ने।

प्रश्न 3. किस कमीशन ने ठीक कहा है कि, “भारतीय किसान ऋण में पैदा होता है, ऋण में रहता है तथा ऋण में मर जाता है।”
उत्तर-रॉयल कमीशन (Royal Commission) ने।

प्रश्न 4. उच्च पैदावार विविधता उत्पादों के कृषि उत्पादन में कौन-सी क्रान्ति पैदा की है?
उत्तर-हरित क्रान्ति।

प्रश्न 5. अपने समूह से बाहर विवाह क्या कहलाता है ?
उत्तर-बहिर्विवाह।

प्रश्न 6. प्राचीन समय के दौरान गाँव के मुखिया को कैसे जाना जाता था?
उत्तर-प्राचीन समय में गाँव के मुखिया को ग्रामीणी कहते थे।

प्रश्न 7. किसने कहा “वास्तविक भारत इसके गाँवों में बसता है।”
उत्तर-यह शब्द महात्मा गाँधी के थे।

प्रश्न 8. जजमानी व्यवस्था किसके मध्य संबंधों पर आधारित है ?
उत्तर-जजमानी व्यवस्था जजमानी तथा कमीन के बीच रिश्तों पर आधारित है।

प्रश्न 9. HYV’s का पूर्ण रूप क्या है ?
उत्तर-HYV’s का पूरा अर्थ है High Yielding Variety Seeds.

प्रश्न 10. क्या गरीबी ऋणग्रस्तता का मुख्य कारण है ?
उत्तर-जी हाँ, निर्धनता ऋणग्रस्तता के मुख्य कारणों में से एक है।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
संयुक्त परिवार क्या है ?
उत्तर-
संयुक्त परिवार, परिवार का वह प्रकार है जिसमें कम-से-कम तीन पीढ़ियों के लोग इकट्ठे मिल कर एक ही छत के नीचे रहते हैं। वह एक ही रसोई में बना खाना खाते हैं तथा एक ही कार्य-कृषि करते हैं। वह सभी साझी सम्पत्ति का प्रयोग करते हैं तथा घर के मुखिया का कहना मानते हैं।

प्रश्न 2.
ऋणग्रस्तता क्या है ?
उत्तर-
जब एक व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए दूसरे व्यक्ति से कुछ पैसे ब्याज पर उधार लेता है तो इसे ऋण कहते हैं। जब पहला व्यक्ति ऋण वापस नहीं कर पाता तथा ब्याज लग कर ऋण बढ़ता जाता है तो इसे ऋणग्रस्तता कहते हैं।

प्रश्न 3.
ग्रामीण ऋणग्रस्तता के दो कारण लिखिए।
उत्तर-

  • निर्धनता के कारण ऋण बढ़ता है। कम वर्षा के कारण या जब बारिश नहीं होती तो किसान को नई फसल तैयार करने के लिए ऋण लेना पड़ता है।
  • किसानों का अपने रिश्तेदारों के साथ भूमि के लिए मुकद्दमा चलता रहता है जिस कारण उन्हें साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है।

प्रश्न 4.
मुकद्दमेबाजी के बारे आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
गाँव के लोग साधारणतया किसी मुसीबत में फंसे रहते हैं जैसे कि पारिवारिक विवाद, फसल की चोरी, भूमि का विभाजन। इस कारण उन्हें अदालत में मुकद्दमे करने पड़ते हैं, इसे ही मुकद्दमेबाज़ी कहते हैं। इस कारण भी ऋणग्रस्तता की समस्या बढ़ती है।

प्रश्न 5.
हरित क्रान्ति क्या है ? ।
उत्तर-
1960 के दशक में कृषि का उत्पादन बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम चलाया गया जिसे हरित क्रान्ति कहते हैं। इसमें HYV बीजों का प्रयोग, कीटनाशकों तथा नए उर्वरकों का प्रयोग, आधुनिक मशीनों का प्रयोग तथा सिंचाई के आधुनिक साधनों का प्रयोग शामिल था।

प्रश्न 6.
ग्रामीण समाज में हुए दो परिवर्तनों के बारे लिखो।
उत्तर-

  1. अब ग्रामीण समाजों में संयुक्त परिवार खत्म हो रहे हैं तथा उनके स्थान पर केन्द्रीय परिवार सामने आ रहे हैं।
  2. अब ग्रामीण लोग अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं जिस कारण वे धीरे-धीरे नगरों की तरफ बढ़ रहे हैं।

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IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न –

प्रश्न 1.
ग्रामीण समाज।
उत्तर-
ग्रामीण समाज एक ऐसा क्षेत्र होता है जहाँ तकनीक का कम प्रयोग, प्राथमिक सम्बन्धों की प्रधानता, छोटा आकार होता है तथा जहाँ की अधिकतर जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। इस प्रकार ग्रामीण समुदाय वे समुदाय होते हैं जो एक निश्चित स्थान पर रहते हैं, आकार में बहुत छोटे होते हैं, जहाँ नज़दीक के तथा प्राथमिक सम्बन्ध पाए जाते हैं। लोग एक-दूसरे को नज़दीक से जानते हैं तथा लोगों का मुख्य पेशा कृषि या कृषि से सम्बन्धित होता है।

प्रश्न 2.
ग्रामीण समाज की तीन विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  • ग्रामीण समाज का मुख्य पेशा कृषि या उस पर आधारित कार्य होते हैं क्योंकि ग्रामीण समाज प्रकृति के काफ़ी नज़दीक होता है। लगभग सभी लोग ही कृषि या सम्बन्धित कार्यों में लगे होते हैं।
  • ग्रामीण लोगों का जीवन काफ़ी साधारण तथा सरल होता है क्योंकि उनका जीवन प्रकृति से गहरे रूप से जुड़ा होता है। __ (iii) गांवों की जनसंख्या नगरों की तुलना में काफ़ी कम होती है। लोग दूर-दूर तक छोटे-छोटे समूह बना कर बसे होते हैं तथा इन समूहों को ही गाँव का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 3.
ऋणग्रस्तता के लिए उत्तरदायी तीन कारण लिखिए।
उत्तर-

  1. निर्धनता-गाँव के लोग निर्धन होते हैं तथा उन्हें बीज, मशीनें, जानवर इत्यादि खरीदने के लिए ऋण लेना पड़ता है तथा वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं।
  2. बुजुर्गों का ऋण-कई लोगों को अपने पिता या दादा द्वारा लिया गया ऋण भी उतारना पड़ता है जिस कारण वे निर्धन ही रह जाते हैं।
  3. कृषि का पिछड़ापन-भारतीय कृषि मानसून पर आधारित है तथा अभी भी कृषि की पुरानी तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इस कारण कृषि का उत्पादन कम होता है तथा किसान अधिक पैसा नहीं कमा सकते।

प्रश्न 4.
पंजाब में हरित क्रान्ति पर लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
देश में कृषि के विकास के मामले में पंजाब ने असाधारण प्रगति की है। पंजाब की कृषि में विकास मुख्य रूप से हरित क्रान्ति से गहरे रूप से सम्बन्धित है। इसमें गेहूँ, चावल तथा अन्य फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक उत्पादन वाले बीजों (HYV Seeds) का उत्पादन तथा प्रयोग किया गया। इस कारण ही 1966 के बाद पंजाब में गेहूँ तथा चावल का उत्पादन काफ़ी अधिक बढ़ गया। पंजाब की आर्थिक प्रगति कई चीजों में प्रयोग, तकनीकी आविष्कारों के कारण हुई जिनमें अधिक उत्पादन वाले बीजों का प्रयोग, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, ट्यूबवैल, डीज़ल पम्प, ट्रैक्टर कंबाइन इत्यादि शामिल हैं।

प्रश्न 5.
हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक कारणों तथा व नकारात्मक कारणों के बारे में लिखिए।
अथवा
हरित क्रान्ति के कोई दो प्रभाव लिखो।
उत्तर-
सकारात्मक परिणाम-

  1. हरित क्रान्ति की प्रमुख सफलता यह थी कि इससे गेहूँ व चावल के उत्पादन में असाधारण बढ़ौतरी हुई।
  2. हरित क्रान्ति के कारण खेतों में मजदूरों की माँग काफ़ी बढ़ गई जिस कारण बहुत से लोगों को कृषि के क्षेत्र में रोजगार मिल गया।
    नकारात्मक परिणाम-(i) हरित क्रान्ति का लाभ केवल अमीर किसानों को हुआ जिन्होंने अपने पैसे के बल पर आधुनिक तकनीकों का प्रयोग किया। निर्धन किसानों को इसका काफ़ी कम लाभ हुआ।
  3. हरित क्रान्ति के कारण लोगों की आय में काफ़ी अन्तर बढ़ गया। अमीर अधिक अमीर हो गए तथा निर्धन और निर्धन हो गए।

अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्रामीण समाज से आपका क्या आशय है ? इसकी विशेषताओं का विस्तृत विवेचन करें।
अथवा
ग्रामीण समाज को परिभाषित कीजिए। ग्रामीण समाज की विशेषताओं की व्याख्या कीजिए।
अथवा
ग्रामीण समाज को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
भारत एक ग्रामीण देश है जहां की अधिकतर जनसंख्या गांवों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र होता है जहां तकनीक का कम प्रयोग, प्राथमिक सम्बन्धों की प्राथमिकता, आकार में छोटा होता है तथा जहां पर अधिकतर जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। ग्रामीण संस्कृति शहरी संस्कृति से बिल्कुल ही अलग होती है। चाहे ग्रामीण तथा शहरी संस्कृति एक सी नहीं होती परन्तु फिर भी इन में अन्तर्सम्बन्धता ज़रूर होती है। यह कई कारणों के कारण शहरी समाज से अलग होता है। चाहे यह सम्पूर्ण समाज का ही हिस्सा होता है। इसमें मिलने वाले कई प्रकार के कारक जैसे कि आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक इत्यादि इसे शहरी समाज से अलग करते हैं। कई विद्वानों ने ग्रामीण समाज को परिभाषित करने का प्रयास किया है जिनका वर्णन इस प्रकार है :

  • ए० आर० देसाई (A.R. Desai) के अनुसार, “ग्रामीण समाज गांव की एक इकाई होता है। यह एक थियेटर है, जिसमें ग्रामीण जीवन अधिक मात्रा में अपने आप को तथा कार्यों को प्रकट करता है।”
  • आर० एन० मुखर्जी (R.N. Mukherjee) के अनुसार, “गांव वह समुदाय है जिसके विशेष लक्षण सापेक्ष, एकरूपता, सादगी, प्राथमिक समूहों की प्रधानता, जनसंख्या की कम घनता तथा कृषि मुख्य पेशा होता है।”
  • पीक (Peake) के अनुसार, “ग्रामीण समुदाय सम्बन्धित तथा असम्बन्धित व्यक्तियों का समूह है जो एक परिवार से बड़ा विस्तृत एक बहुत बड़े घर में या परस्पर साथ-साथ स्थित घरों में या कभी अनियमित रूप से तथा कभी एक गली में रहता है, जो मूल रूप से कृषि योग्य भूमि पर साधारण तौर पर कृषि करता है। मैदानी भूमि को आपस में बांटता है तथा इर्द-गिर्द की बेकार भूमि पर पशु चरवाता है तथा जिसके ऊपर निकटवर्ती समुदायों की सीमाओं तक वह अपने अधिकार का दावा करता है।”

इस तरह इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि ग्रामीण समुदाय वह समुदाय होते हैं जो एक निश्चित स्थान पर रहते हैं, आकार में बहुत छोटे-छोटे होते हैं, निकट सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा प्राथमिक सम्बन्ध पाए जाते हैं। लोग एक-दूसरे को नज़दीक से जानते हैं तथा लोगों का मुख्य पेशा कृषि या कृषि से सम्बन्धित होता है।

ग्रामीण समाज की विशेषताएं (Characteristics of Rural Society)-

1. कृषि-मुख्य पेशा (Agriculture-Main Occupation)—ग्रामीण समाज का मुख्य व्यवसाय कृषि पेशा या उस पर आधारित कार्य होते हैं क्योंकि ग्रामीण समाज प्रकृति के बहुत ही नज़दीक होता है। क्योंकि इनमें प्रकृति के साथ बहुत ही नज़दीकी के सम्बन्ध होते हैं इस कारण यह जीवन को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखते हैं। चाहे गांवों में और पेशों को अपनाने वाले लोग भी होते हैं जैसे कि बढ़ई, लोहार इत्यादि परन्तु यह बहुत कम संख्या में होते हैं तथा यह भी कृषि से सम्बन्धित चीजें ही बनाते हैं। ग्रामीण समाज में भूमि को बहुत ही महत्त्वपूर्ण समझा जाता है तथा लोग यहीं पर रहना पसन्द करते हैं क्योंकि उनका जीवन भूमि पर ही निर्भर होता है। यहां तक कि लोगों तथा गांव की आर्थिक व्यवस्था तथा विकास कृषि पर निर्भर करता है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

2. साधारण जीवन (Simple Life)-गांव के लोगों का जीवन बहुत ही सादा तथा सरल होता है। प्राचीन ग्रामीण समाजों में लोग अपनी ज़रूरतें पूर्ण करने के लिए कड़ा परिश्रम करते थे तथा इस परिश्रम के कारण वह ऐशो-आराम से बहुत दूर थे। लोग अपने बच्चों को भी कृषि के कार्यों में ही लगा देते थे क्योंकि वह शिक्षा ग्रहण नहीं करते थे। उनमें मानसिक संघर्ष भी नहीं होता था। गांव के लोग आज भी एक-दूसरे से बहुत प्यार से रहते हैं। एक-दूसरे के सुख-दुःख में वह एक-दूसरे की पूरी मदद करते हैं। किसी की बहू-बेटी को गांव की बहू-बेटी माना जाता है। लोगों की ज़रूरतें भी सीमित होती हैं क्योंकि उनकी आय भी सीमित होती है। लोग साधारण तथा सादा जीवन जीते हैं।

3. कम जनसंख्या तथा एकरूपता (Scarcity of Population and Homogeneity)-गांव की जनसंख्या शहरों की तुलना में काफ़ी कम होती है। लोग दूर-दूर तक छोटे-छोटे समूह बनाकर बसे होते हैं तथा इन समूहों को ही गांव का नाम दे दिया जाता है। गांव में कृषि के अलावा और पेशे कम ही होते हैं जिस कारण लोग शहरों की तरफ भागते हैं तथा जनसंख्या भी कम ही होती है। लोगों के बीच नज़दीकी के सम्बन्ध होते हैं तथा समान पेशा, कृषि, होने के कारण उनके दृष्टिकोण भी एक जैसे ही होते हैं। गांव के लोगों की लोक रीतियां, रूढ़ियां, परम्पराएं इत्यादि एक जैसी ही होती हैं तथा उनके आर्थिक, नैतिक, धार्मिक जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं होता है। गांव में लोग किसी दूर के इलाके से रहने नहीं आते बल्कि यह तो गांव में रहने वाले मूल निवासी ही होते हैं या फिर नज़दीक रहने वाले लोग होते हैं। इस कारण लोगों में एकरूपता पायी जाती है।

पड़ोस का महत्त्व (Importance of Neighbourhood) ग्रामीण समाज में पड़ोस का बहुत महत्त्व होता है। लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है जिसमें काफ़ी समय खाली मिल जाता है। इस पेशे में ज्यादा समय नहीं लगता है। इस कारण लोग एक-दूसरे से मिलते रहते हैं, बातें करते रहते हैं, एक-दूसरे से सहयोग करते रहते हैं। लोगों के अपने पड़ोसियों से बहुत गहरे सम्बन्ध होते हैं। पड़ोस में जाति समानता होती है जिस कारण उनकी स्थिति बराबर होती है। लोग वैसे भी पड़ोसियों का सम्मान करना, उनको सम्मान देना अपना फर्ज समझते हैं। एक दूसरे के सुख-दुःख में पड़ोसी ही सबसे पहले आते हैं, रिश्तेदार तो बाद में आते हैं। इस कारण पड़ोस का बहुत महत्त्व होता है।

5. परिवार का नियन्त्रण (Control of Family)-ग्रामीण समाजों में परिवार का व्यक्ति पर पूरा नियन्त्रण होता है। गांवों में ज्यादातर पितृसत्तात्मक परिवार होते हैं तथा परिवार का प्रत्येक छोटा बड़ा निर्णय परिवार का मुखिया ही लेता है। गांवों में तथा परिवार में श्रम विभाजन लिंग के आधार पर होता है। आदमी कृषि करते हैं या फिर घर से बाहर जाकर पैसा कमाते हैं तथा औरतें घर में रहकर घर की देखभाल करती हैं। गांवों में संयुक्त परिवार प्रथा होती है तथा व्यक्ति परिवार के परम्परागत पेशे को अपनाता है। सभी व्यक्ति परिवार में मिल कर कार्य करते हैं जिस कारण उनमें सामुदायिक भावना भी होती है। परिवार को प्राथमिक समूह कहा जाता है। छोटे बड़ों का आदर करना अपना फर्ज समझते हैं। एक ही पेशा होने के कारण उनमें सहयोग भी काफी होता है। परिवार के सभी सदस्य त्योहारों, धार्मिक क्रियाओं इत्यादि में मिलकर भाग लेते हैं। व्यक्ति को कोई भी कार्य करने से पहले परिवार की सलाह लेनी पड़ती है। इस तरह उस पर परिवार का सम्पूर्ण नियन्त्रण होता है।

6. समान संस्कृति (Common Culture)-गांवों के लोग कहीं बाहर से रहने नहीं आते बल्कि गाँव के ही मूल निवासी होते हैं जिस कारण उनकी संस्कृति एक ही होती है। उनकी संस्कृति, रीति-रिवाज, परम्पराएं इत्यादि भी समान ही होती हैं।

7. सामुदायिक भावना (Community Feeling)-ग्रामीण समाज में लोगों के बीच आपसी सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होते हैं जिस कारण वहां पर सामुदायिक भावना पायी जाती है। गांव के सभी व्यक्ति ज़रूरत पड़ने पर एक-दूसरे की मदद करने को तैयार रहते हैं। यहां पर लोगों में एकता की भावना होती है क्योंकि लोगों के बीच सीधे तथा प्रत्यक्ष सम्बन्ध होते हैं। अगर गांव के ऊपर तथा गांव के किसी व्यक्ति पर कोई मुश्किल आती है तो सभी व्यक्ति उसका इकट्ठे होकर सामना करते हैं। सभी गांव के रीति-रिवाजों और परम्पराओं का सम्मान करते हैं तथा एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होते हैं।

8. स्थिरता (Stability) ग्रामीण समाज एक स्थिर समाज होता है क्योंकि यहां पर गतिशीलता बहुत ही कम होती है। ग्रामीण समाज के भौगोलिक अथवा बहुत-से ऐसे कारण हैं जिनके कारण यह और समाजों से बिल्कुल ही अलग होता है। यह स्थिर समाज होते हैं क्योंकि यह अपने आप में स्व: निर्भर होते हैं।

प्रश्न 2.
ऋणग्रस्तता क्या है ? ऋणग्रस्तता के लिए उत्तरदायी कारक कौन से हैं ?
अथवा
ग्रामीण ऋणग्रस्तता क्या है ? ग्रामीण ऋणग्रस्तता के लिए जिम्मेवार कारण लिखो।
उत्तर-
ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था में आढ़ती का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। अधिकतर क्षेत्रों में साहूकार शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है जो ब्याज पर पैसे अथवा ऋण देता है। अलग-अलग स्थानों पर इसे अलगअलग नामों से पुकारा जाता है। प्राचीन भारतीय समाज में ऋण लेने तथा देने की व्यवस्था कानूनों पर आधारित नहीं थी। इस प्रकार ऋण लेने वाले तथा देने वाले के बीच बहुत अच्छे आपसी रिश्ते होते थे। अंग्रेज़ों के आने के बाद जब समझौतों (agreements) के लिए नए कानून बनें तो ऋण देने वालों को जल्दी अमीर बनने का मौका प्राप्त हुआ। अब ऋण लेने तथा देने वाले के रिश्ते व्यक्तिगत न रहे। यह कानून तथा पैसे पर आधारित हो गए।

चाहे प्राचीन भारतीय समाज में किसानों की स्थिति बहुत अच्छी थी परन्तु अंग्रेज़ी राज्य के दौरान उनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर हो गई तथा आज भी हालात उसी प्रकार चल रहे हैं। साधारणतया भारत में किसान ग़रीब होते हैं। परन्तु इसके साथ ही वह समाज में अपनी स्थिति तथा इज्ज़त बना कर रखना चाहते हैं जिसके लिए वह कुछ मौकों पर, विशेषतया विवाहों पर, अपनी हैसियत से अधिक भी खर्च कर देते हैं। इस प्रकार ऋणग्रस्तता भारत में आवश्यक रूप में मौजूद है। भारत के लगभग सभी राज्यों में ऐसे किसान हैं जो सदियों से कर्जे के बोझ के नीचे दबे चले आ रहे हैं। इसके साथ ही खर्च भी बढ़ रहे हैं। जनसंख्या में हरेक बढ़ौतरी के साथ उसी अनुपात में भूमि पर भी बोझ बढ़ता है। आमतौर पर लोग अपनी लड़कियों के विवाह के लिए कर्जा लेते हैं तथा उनमें से अधिकतर वह कर्जा वापिस नहीं कर पाते हैं। भारत में कृषि वर्षा पर आधारित है तथा अगर वर्षा कम हो तो स्थिति और भी खराब हो जाती है। कम वर्षा के कारण उत्पादन कम होता है जिस कारण किसान को ऋण लेना पड़ता है तथा वह और कर्जे के नीचे दब जाता है।

ऋणग्रस्तता की समस्या (Problem of Indebtedness)-आमतौर पर ऋण व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर दिए जाते है। परन्तु अब ऋण किसान की भूमि पर दिया जाता है। Indian Agreement Act तथा Civil Procedure Code से ऋण देने वाले के हाथ मज़बूत हुए हैं। इससे साहूकार को न केवल उस किसान की भूमि पर कब्जा करने का अधिकार प्राप्त हुआ जोकि निश्चित समय में ऋण वापिस न कर सके तथा साथ ही साथ उसको किसान के घर की वस्तुओं पर भी कब्जा लेने का अधिकार प्राप्त हुआ। साहूकार उन पर केस चलवाकर जेल भी करवा सकता है। इस प्रकार The Registration of Document Act of 1864 तथा The Transfer of Property Act of 1882 ने साहूकारों की काफ़ी मदद की। इन कानूनों के पास होने के बाद साहूकार और अमीर होते गए तथा ऋणग्रस्तता की भूमि साहूकारों के हाथों में जाने लग गई। इसके साथ ही साहूकारों की संख्या तथा ऋण में भी बढ़ौतरी हो गई। 1911 में ग्रामीण ऋण लगभग 300 करोड़ रुपये था। सर एम० एल० डार्लिंग (Sir. M. L. Darling) के अनुसार 1924 में यह 600 करोड़ के लगभग था जो 1930 में 900 करोड़ रुपये में लगभग हो गया। डॉ० राधा कमल मुखर्जी के अनुसार 1955 में यह 1200 करोड़ रुपये था। उन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि अंग्रेज़ी राज्य के दौरान यह ऋण तेज़ी से बढ़ा है। उसके बाद तो इसमें तेजी से बढ़ौतरी हुई है।

ऋणग्रस्तता के कारण (Causes of Indebtedness):
ऋणग्रस्तता के बढ़ने के कई कारण हैं जिनका वर्णन इस प्रकार हैं

1. आवश्यक कानूनों की कमी (Absence of Necessary Laws)-ऋणग्रस्तता का सबसे बड़ा कारण है ऋण के बोझ के नीचे दबे व्यक्ति की सुरक्षा के लिए आवश्यक कानूनों की कमी। अपनी उच्च स्थिति के कारण साहूकार किसी भी ऋणग्रस्तता को अपने ऋण में से नहीं निकलने देते जिसने उन से ऋण लिया होता है। गांवों में अगर कोई व्यक्ति एक बार ऋण ले लेता है वह अपनी तमाम उम्र के दौरान ऋण के चक्र में से नहीं निकल सकता है।

2. सरकार द्वारा बेरुखी (Neglect by Government)-ब्रिटिश सरकार ने किसानों को साहूकारों के हाथों में से बचाने के लिए अधिक कोशिशें नहीं की, चाहे बहुत-से समाज सुधारकों ने सरकार को इसके बारे में कई बार चेताया। स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने कई कानून इस मामले में बनाए ताकि किसानों को साहूकारों के हाथों से बचाया जा सके। परन्तु इन कानूनों की कुछ कमियों के कारण तथा साहूकारों द्वारा अपने पैसे की मदद से इन कानूनों का ही शोषण होता रहा। किसान इस प्रकार साहूकारों में ऋण के नीचे दबे रहे।

3. आर्थिक अस्थिरता (Economic Disturbances)-1929 में आर्थिक अस्थिरता आई जिससे किसानों की स्थिति और खराब हो गई तथा वह ऋण के नीचे दबे रहे। इसके बाद वह कभी भी ऋण में से बाहर न निकल सके। स्वतन्त्रता के बाद कृषि की लागत बढ़ने के कारण, महंगाई के कारण, बिजली के न होने के कारण तथा डीज़ल पर निर्भर होने के कारण भी वह हमेशा ही साहूकारों में ऋण के नीचे ही दबे रहे।

4. आवश्यकता से अधिक खर्चे (More Expenditure)-चाहे बहुत-से किसान निर्धन होते हैं तथा ऐशो आराम की चीजें खरीदना उनकी हैसियत में नहीं होता है परन्तु फिर भी वह आराम की चीजें खरीदते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण समाजों में अपनी हैसियत से बढ़कर खर्च करने की आदत होती है। वह विवाहों विशेषतया लड़की के विवाह पर ज़रूरत से अधिक खर्च करते हैं तथा अपनी हैसियत से बढ़कर दहेज भी देते हैं। इसलिए उनको ऋण लेना पड़ता है। इस तरह इस कारण भी उन पर ऋण बढ़ता है।

5. ऋण लेने की सहूलियत (Facility in taking Loans)-जिस आसानी से गांव के लोगों को ऋण प्राप्त हो जाता है उससे भी किसान ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। अगर हम किसी बैंक के पास ऋण लेने चले जाएं तो हमें बैंक की बहुत-सी Formalities पूरी करनी पड़ती हैं। परन्तु साहूकारों से ऋण लेते समय ऐसी कोई समस्या नहीं आती है। वहां केवल व्यक्तिगत जान-पहचान तथा अंगूठा लगा देने से ही ऋण प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार ऋण मिलने में आने वाली आसानी भी ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित करती है।

6. साहूकारों की चालाकियां (Tricks of Money-lenders)-साहूकारों की चालाकियों ने भी ऋणग्रस्तता की प्रथा को हमारे देश में बढ़ाया है। आमतौर पर साहूकार ऋण पर बहुत अधिक ब्याज लेते हैं जिस कारण व्यक्ति उस को वापिस नहीं कर सकता है। कई बार तो ऋण देते समय साहूकार पहले ही मूल धन में से ब्याज काट लेते हैं जिस कारण किसान को बहुत ही कम पैसे प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कुछ ही समय में ऋण ब्याज से दोगुना अथवा तीन गुना हो जाता है जिस कारण किसानों के लिए ब्याज देना ही मुश्किल हो जाता है।

इसके साथ ही ग्रामीण लोगों में एक आदत होती है कि वह अपने बुजुर्गों द्वारा लिए ऋण को वापस करना अपना फर्ज़ समझते हैं। इस प्रकार ऋण पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। ग्रामीण लोगों की अनपढ़ता भी ऋणग्रस्तता का महत्त्वपूर्ण कारण है। साहूकार ऋण तो कम देते हैं तथा पैसे अधिक लिख लेते हैं तथा उसकी अनपढ़ता का लाभ उठाते हैं। वह किसान से एक कोरे कागज़ पर अंगूठा लगवा लेते हैं तथा इसकी मदद से कुछ समय बाद किसान का सारा कुछ अपने नाम कर लेते हैं। भारतीय गांवों में साहूकार आमतौर पर उच्च जातियों से सम्बन्धित होते हैं तथा अन्य जातियों के लोग में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह उच्च जाति के लोगों का विरोध कर सकें इस तरह इन कारणों के कारण भी ऋणग्रस्तता की समस्या बढ़ती है।

प्रश्न 3.
हरित क्रान्ति की परिभाषा दें। इसके घटकों का विस्तार से विवेचन करें।
उत्तर-
हरित क्रान्ति कृषि उत्पादन को बढ़ाने का एक नियोजित तथा वैज्ञानिक तरीका है। पंचवर्षीय योजनाओं का मूल्यांकन करने के पश्चात् यह साफ हो गया कि अगर हमें फसलों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करनी है तो उत्पादन सम्बन्धी नए तरीकों तथा तकनीकों का प्रयोग करना पड़ेगा। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारत में 1966-67 में कृषि में तकनीकी परिवर्तन शुरू हुए। इसमें अधिक उत्पादन वाले बीजों, सिंचाई के विकसित साधनों, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग किया जाने लगा। कृषि में विकसित साधनों के प्रयोग को ही हरित क्रान्ति का नाम दिया गया। यहां शब्द ‘हरित’ को ग्रामीण क्षेत्रों के हरे-भरे खेतों के लिए प्रयोग किया गया तथा ‘क्रान्ति’ शब्द बहुपक्षीय परिवर्तन को दर्शाता है। हरित क्रान्ति के प्रथम भाग में ‘गहन कृषि जिला कार्यक्रम’ शुरू किए गए जिसमें पहले तीन ज़िलों तथा बाद में 16 जिलों को शामिल किया गया। चुने हुए जिलों में कृषि की उन्नत विधियों, उर्वरक, बीजों, सिंचाई के साधनों का प्रयोग किया गया।

1967-68 में इस कार्यक्रम को देश के अन्य भागों में भी लागू कर दिया गया। इस कार्यक्रम में किसानों में कृषि सम्बन्धी नई तकनीक, ज्ञान व उत्पादन के नए साधन बांटे गए ताकि उत्पादन में बढ़ौतरी की जा सके। सरकार ने इस कार्यक्रम को पूर्णतया सहायता दी तथा यह कामयाब हो गया। देश गेहूँ तथा चावल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया।
हरित क्रान्ति के मुख्य तत्त्व (Major Elements of Green Revolution) हरित क्रान्ति के मुख्य तत्त्वों का वर्णन इस प्रकार है-

  • अधिक उत्पादन वाले बीजों के प्रयोग से फसलों का उत्पादन बढ़ गया।
  • रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग ने भी कृषि उत्पादन को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका अदा की।
  • आधुनिक कृषि की मशीनें जैसे कि ट्रैक्टर, थ्रेशर, कंबाइन, पंप सैट, स्परेयर (Eprayer) इत्यादि ने भी उत्पादन बढ़ाने में योगदान दिया।
  • कृषि के बढ़िया ढंगों विशेषतया जापानी ढंग के प्रयोग ने भी उत्पादन बढ़ाया।
  • किसानों को नई सिंचाई सुविधाओं के बारे में बताया गया जिससे कृषि उत्पादन बढ़ गया।
  • एक वर्ष में कई बार फसल बीजने तथा काटने की प्रक्रिया ने भी उत्पादन बढ़ाने में योगदान दिया।
  • किसानों को सस्ते ब्याज पर ऋण देने के लिए कई संस्थाओं की स्थापना की गई ; जैसे कि को-आप्रेटिव सोसायटी, ग्रामीण बैंक, इत्यादि। इनसे ऋण लेकर किसान कृषि उत्पादन बढ़ा सकते हैं।
  • सरकार द्वारा किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) देने का विश्वास दिलाया गया जिस कारण किसानों ने उत्पादन बढ़ाया।
  • Soil Conservation जैसे कार्यक्रमों ने भूमि की उत्पादन शक्ति को संभालने तथा बढ़ाने में सहायता की।
  • कृषि के सामान की बिक्री के लिए मार्किट कमेटियों, को-आप्रेटिव मार्केटिंग सोसायटियां बनाई गईं ताकि उत्पादन बढ़ाया जा सके।
  • सरकार ने भूमि सुधारों पर काम किया ताकि बिचौलियों का खात्मा, कार्य की सुरक्षा, किसानों को मालिकाना अधिकार, भूमि की चकबन्दी इत्यादि ने भी उत्पादन बढ़ाने में सहायता दी।
  • सरकार ने ग्रामीण समाज से सम्बन्धित कई प्रकार के कार्यक्रम चलाए ताकि उत्पादन बढ़ाया जा सके।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

प्रश्न 4.
हरित क्रान्ति क्या है ? इसके प्रभावों का विस्तार से विवेचन करें।
उत्तर-
हरित क्रान्ति कृषि उत्पादन को बढ़ाने का एक नियोजित तथा वैज्ञानिक तरीका है। पंचवर्षीय योजनाओं का मूल्यांकन करने के पश्चात् यह साफ हो गया कि अगर हमें फसलों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करनी है तो उत्पादन सम्बन्धी नए तरीकों तथा तकनीकों का प्रयोग करना पड़ेगा। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारत में 1966-67 में कृषि में तकनीकी परिवर्तन शुरू हुए। इसमें अधिक उत्पादन वाले बीजों, सिंचाई के विकसित साधनों, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग किया जाने लगा। कृषि में विकसित साधनों के प्रयोग को ही हरित क्रान्ति का नाम दिया गया। यहां शब्द ‘हरित’ को ग्रामीण क्षेत्रों के हरे-भरे खेतों के लिए प्रयोग किया गया तथा ‘क्रान्ति’ शब्द बहुपक्षीय परिवर्तन को दर्शाता है। हरित क्रान्ति के प्रथम भाग में ‘गहन कृषि जिला कार्यक्रम’ शुरू किए गए जिसमें पहले तीन ज़िलों तथा बाद में 16 जिलों को शामिल किया गया। चुने हुए जिलों में कृषि की उन्नत विधियों, उर्वरक, बीजों, सिंचाई के साधनों का प्रयोग किया गया।

1967-68 में इस कार्यक्रम को देश के अन्य भागों में भी लागू कर दिया गया। इस कार्यक्रम में किसानों में कृषि सम्बन्धी नई तकनीक, ज्ञान व उत्पादन के नए साधन बांटे गए ताकि उत्पादन में बढ़ौतरी की जा सके। सरकार ने इस कार्यक्रम को पूर्णतया सहायता दी तथा यह कामयाब हो गया। देश गेहूँ तथा चावल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया।
हरित क्रान्ति के मुख्य तत्त्व (Major Elements of Green Revolution) हरित क्रान्ति के मुख्य तत्त्वों का वर्णन इस प्रकार है-

  • अधिक उत्पादन वाले बीजों के प्रयोग से फसलों का उत्पादन बढ़ गया।
  • रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग ने भी कृषि उत्पादन को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका अदा की।
  • आधुनिक कृषि की मशीनें जैसे कि ट्रैक्टर, थ्रेशर, कंबाइन, पंप सैट, स्परेयर (Eprayer) इत्यादि ने भी उत्पादन बढ़ाने में योगदान दिया।
  • कृषि के बढ़िया ढंगों विशेषतया जापानी ढंग के प्रयोग ने भी उत्पादन बढ़ाया।
  • किसानों को नई सिंचाई सुविधाओं के बारे में बताया गया जिससे कृषि उत्पादन बढ़ गया।
  • एक वर्ष में कई बार फसल बीजने तथा काटने की प्रक्रिया ने भी उत्पादन बढ़ाने में योगदान दिया।
  • किसानों को सस्ते ब्याज पर ऋण देने के लिए कई संस्थाओं की स्थापना की गई ; जैसे कि को-आप्रेटिव सोसायटी, ग्रामीण बैंक, इत्यादि। इनसे ऋण लेकर किसान कृषि उत्पादन बढ़ा सकते हैं।
  • सरकार द्वारा किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) देने का विश्वास दिलाया गया जिस कारण किसानों ने उत्पादन बढ़ाया।
  • Soil Conservation जैसे कार्यक्रमों ने भूमि की उत्पादन शक्ति को संभालने तथा बढ़ाने में सहायता की।
  • कृषि के सामान की बिक्री के लिए मार्किट कमेटियों, को-आप्रेटिव मार्केटिंग सोसायटियां बनाई गईं ताकि उत्पादन बढ़ाया जा सके।
  • सरकार ने भूमि सुधारों पर काम किया ताकि बिचौलियों का खात्मा, कार्य की सुरक्षा, किसानों को मालिकाना अधिकार, भूमि की चकबन्दी इत्यादि ने भी उत्पादन बढ़ाने में सहायता दी।
  • सरकार ने ग्रामीण समाज से सम्बन्धित कई प्रकार के कार्यक्रम चलाए ताकि उत्पादन बढ़ाया जा सके।

हरित क्रान्ति के प्रभाव-हरित क्रान्ति के प्रभावों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं-सकारात्मक व नकारात्मक। इनका वर्णन इस प्रकार है-

1. सकारात्मक प्रभाव-

  • अनाज के उत्पादन में बढ़ौतरी-इस कार्यक्रम की सबसे प्रमुख सफलता यह थी कि इसने अनाज, विशेषतया चावल तथा गेहूँ के उत्पादन में काफ़ी अधिक बढ़ौतरी कर दी। चाहे चावल का उत्पादन पहले भी अच्छा हो रहा था परन्तु गेहूँ के उत्पादन में बेतहाशा वृद्धि हुई। हरित क्रान्ति में मक्की, ज्वार, बाजरा, रागी तथा अन्य फसलों को शामिल नहीं किया गया।
  • व्यापारिक फसलों में उत्पादन में बढ़ौतरी-हरित क्रान्ति को लाने का मुख्य उद्देश्य अनाज के उत्पादन में बढ़ौतरी करना था। शुरू में इस क्रान्ति से व्यापारिक फसलों के उत्पादन में कोई बढ़ौतरी नहीं हुई जैसे कि गन्ना, कपास, जूट, तेल के बीज, आलू इत्यादि। परन्तु 1973-74 के बाद गन्ने के उत्पादन में काफ़ी बढ़ौतरी हुई। इस तरह तेल के बीजों तथा आलू के उत्पादन में बाद में काफ़ी बढ़ौतरी हुई।
  • फसलों की संरचना में परिवर्तन-हरित क्रान्ति के कारण फसलें बीजने की संरचना में भी बहुत बड़ा परिवर्तन आया। सबसे पहले तो अनाज के उत्पादन में 3%-4% प्रतिवर्ष की दर से बढ़ौतरी होने लग गई परन्तु दाल का उत्पादन या तो वहीं रह गया या कम हो गया। दूसरा अनाज उत्पादन में चावल का हिस्सा कम हो गया तथा गेहूँ का हिस्सा काफ़ी बढ़ गया।
  • रोज़गार को बढ़ावा-नई तकनीक के प्रयोग के कारण कृषि से सम्बन्धित रोज़गार में भी काफ़ी बढ़ौतरी हो गई। इससे कई प्रकार की तथा प्रत्येक वर्ष में कई फसलें बीजने के कारण नई नौकरियां बढ़ गईं। साथ ही मशीनों के प्रयोग से कृषि से सम्बन्धित मजदूरों को भी काम से निकाल दिया गया।

2. नकारात्मक प्रभाव-

  • भारत में पूँजीपति कृषि की शुरुआत-नए कृषि के कार्यक्रम में काफ़ी अधिक पैसे में निवेश की आवश्यकता थी जैसे कि बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई के साधनों पर। यह निवेश छोटे तथा मध्यम किसान नहीं कर सकते थे। इस प्रकार इसने देश में पूँजीपति कृषि की शुरुआत की। निर्धन तथा छोटे किसानों को हरित क्रान्ति का कोई सीधा लाभ न हुआ।
  • भारतीय कृषि का संस्थागत सुधारों से दूर होना-नई कृषि के प्रोग्राम में कृषि के संस्थागत सुधारों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। बहुत बड़ी संख्या में किसानों के पास भूमि की मलकियत नहीं थी। बड़े स्तर पर भूमि को खाली करवाया गया। इस कारण किसानों को फसल को बाँटने की स्थिति माननी पड़ी।
  • आय में अन्तर का बढ़ना-कृषि में तकनीकी परिवर्तनों ने ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आय में अन्तर बढ़ा दिया। बड़े किसानों ने नई तकनीकों का प्रयोग करके अपनी आय कई गुणा बढ़ा ली परन्तु छोटे किसान ऐसा न कर सके। इस प्रकार मजदूरों की स्थिति और भी खराब हो गई।
  • श्रमिकों को उजाड़ने की समस्या-हरित क्रान्ति के साथ-साथ देश में उद्योग लगाने पर भी बल दिया गया। कृषि वाली भूमि पर उद्योग लगाए गए जिस कारण कृषि श्रमिक बेरोज़गार हो गए। इस बेरोज़गारी की समस्या ने आर्थिक व राजनीतिक मोर्चे पर कई प्रकार की नई समस्याएं उत्पन्न की। देश के कई भागों में चल रहा नक्सली आन्दोलन इसका ही परिणाम है।

प्रश्न 5.
ग्रामीण समाज की परिभाषा दें। ग्रामीण समाज में हो रहे विविध परिवर्तनों का विवेचन करें।
अथवा
ग्रामीण समाज में आ रहे परिवर्तनों को बताइए।
अथवा
ग्रामीण समाज में आ रहे परिवर्तनों को दर्शाइए।
उत्तर-
ग्रामीण समाज की परिभाषा-देखें प्रश्न 1-अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न।
परिवर्तन-परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसे कोई नहीं बदल सकता है। संसार की प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन आता है। इस प्रकार ही ग्रामीण समाज भी परिवर्तन की प्रक्रिया में से गुज़र रहा है। आधुनिक समाज तथा तकनीक ने ग्रामीण समाज के प्रत्येक पक्ष में परिवर्तन ला दिया है। इन परिवर्तनों का वर्णन इस प्रकार है-

1. कम होते ग्रामीण शहरी अन्तर (Decreasing Rural-Urban Differences)—पहले ग्रामीण समाज तथा शहरी समाज में बहुत अन्तर हुआ करते थे। परन्तु अब दोनों समाजों में धीरे-धीरे अन्तर कम हो रहे हैं। यह इस कारण नहीं है कि ग्रामीण लोग शहरी लोगों की नकल करते हैं बल्कि इस कारण है कि खुली मण्डी व्यवस्था के कारण ग्रामीण लोगों के शहरों के लोगों के साथ सम्बन्ध बढ़ रहे हैं। वह अपना उत्पादन शहर में जाकर बेचते हैं तथा वह नए पेशे अपना रहे हैं जिस कारण उनके बाहर के लोगों से सम्पर्क बढ़ रहे हैं। इस कारण ही ग्रामीण लोगों के रहने-सहने, खानेपीने, सोचने, जीवन जीने के ढंग शहरी लोगों की तरह बनते जा रहे हैं। यातायात तथा संचार के साधनों के कारण गांव शहरों में मिलने वाली हरेक सहूलियत को प्राप्त कर रहे हैं। पेशों की गतिशीलता के कारण शहरों जैसा वातावरण बढ़ रहा है तथा ग्रामीण शहरी अन्तर कम हो रहे हैं।

2. कम होता अन्तर (Decreasing difference of area)-ग्रामीण समाज में सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह आ रहा है कि गांवों तथा शहरों में अन्तर धीरे-धीरे कम हो रहे हैं। शहर धीरे-धीरे बढ़कर गांवों की तरफ जा रहे हैं तथा गांव शहरों के नज़दीक आ रहे हैं। यातायात के साधन, पक्की सड़कें, शिक्षा के प्रसार तथा संचार के साधनों ने गांव को शहरों के काफ़ी नज़दीक ला दिया है। अब ग्रामीण लोग भी शहरों की तरफ तेज़ी से बढ़ रहे हैं। वह शहरों में अपना कार्य करके एक ही दिन में गांव में वापस चले जाते हैं।

3. कृषि के ढांचे में परिवर्तन तथा कृषि का व्यापारीकरण (Change in the structure of agriculture and marketization of Agriculture)-अगर हम प्राचीन समय की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि हमारे देश में कृषि का उत्पादन केवल अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए होता था। उत्पादन के साधन बहुत ही साधारण तथा प्रकृति के नज़दीक थे। कृषि का कार्य हल तथा बैल की मदद से होता था। कृषि के सभी कार्य हाथों से ही होते थे। यहां तक कि नहरों का, कुओं आदि को खुदवाने का कार्य बेगार (forced labour) से ही पूर्ण होता था। लोग स्थानीय स्तर पर ही अपनी ज़रूरतें पूर्ण कर लेते हैं तथा चीज़ों और सेवाओं का लेन-देन ही होता था।

परन्तु तकनीक तथा विज्ञान के आने से तथा कृषि से सम्बन्धित संस्थाओं के शुरू होने से कृषि का ढांचा ही बदल गया है। नई मशीनों जैसे कि ट्रैक्टर, थ्रेशर इत्यादि के आने से सिंचाई की सहूलियतें बढ़ने से, नहरों तथा Drip irrigation के बढ़ने से नए बीजों तथा रासायनिक उर्वरकों के आने से तथा मण्डियों के बढ़ने से कृषि अब जीवन निर्वाह के स्तर से व्यापारिक स्तर अथवा मण्डी के स्तर पर पहुँच गई है। अब कृषि केवल आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए नहीं होती बल्कि लाभ कमाने के लिए होती है। अब चीज़ों के विनिमय की जगह पैसे की मदद से लेन-देन होने लग गया है। अब साल में लोग 4-4 फसलें पैदा कर लेते हैं। उत्पादन बहुत बढ़ गया है। पहले अनाज आयात होता था अब निर्यात होता है।

विज्ञान की मदद से कृषि का कार्य आसान हो गया है। अब कृषि का कार्य शारीरिक शक्ति से नहीं बल्कि मशीनों से होना शुरू हो गया है। कृषि के संस्थात्मक ढांचे जैसे कि ज़मींदारी, रैय्यतवाड़ी, महलवाड़ी इत्यादि खत्म हो गए हैं। कृषि से सम्बन्धित सहायक पेशे जैसे कि डेयरी, पिगरी, पोलट्री, मछली पालन इत्यादि खुल गए हैं।

4. धर्म का कम होता प्रभाव (Decreasing effect of Religion)-प्राचीन समय में ग्रामीण लोगों पर धर्म का बहुत प्रभाव होता था। कृषि की प्रत्येक गतिविधि के ऊपर धर्म का प्रभाव होता था जोकि अब खत्म हो चुका है। पहले कई पेड़ों, पक्षियों, जानवरों इत्यादि को पवित्र समझा जाता था परन्तु आजकल के समय में यह कम हो गया है। ग्रामीण लोगों के धार्मिक विश्वासों, रस्मों-रिवाजों में बहुत परिवर्तन आया है। आजकल के मशीनी युग में ग्रामीण समाज का रोज़ाना जीवन मन्दिरों, गुरुद्वारों इत्यादि के प्रभाव से दूर होता जा रहा है।

5. ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवर्तन (Change in Rural Social Structure)—मार्क्स का कहना था कि आर्थिक ढांचे में परिवर्तन से सामाजिक परिवर्तन होता है। यह बात आजकल ग्रामीण समाज में देखी जा सकती है। कृषि के व्यापारीकरण तथा मशीनीकरण से न केवल आर्थिक खुशहाली आई है बल्कि पुराने रिश्तों में भी परिवर्तन आ रहा है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। माता-पिता के अधिकार तथा सम्मान कम हो रहा है, तर्कशील सोच के कारण नयी तथा पुरानी पीढ़ी में टकराव बढ़ रहा है, कृषि के कार्यों के विभाजन में परिवर्तन आ रहा है, सामाजिक कद्रों-कीमतों में गिरावट आ रही है, मानसिक तनाव बढ़ रहा है, औरतों की स्थिति में परिवर्तन इत्यादि जैसे कई पक्ष हैं जिन में हम परिवर्तन देख रहे हैं।

जन्म, विवाह, मृत्यु से सम्बन्धित रस्मों का समय भी बहुत कम हो रहा है। जजमानी व्यवस्था खत्म हो रही है, सामाजिक नातेदारी का प्रभाव कम हो रहा है, प्राथमिक समूहों का महत्त्व भी कम हो रहा है। लोग रिश्तों की जगह पदार्थक खुशी की तरफ बढ़ रहे हैं। जातियों के सम्बन्धों में भी बहुत परिवर्तन आ गए हैं। ब्राह्मणों की सर्वोच्चता खत्म हो गई है। लोग परम्परागत पेशों को छोड़ कर और पेशों को अपना रहे हैं। अस्पृश्यता खत्म हो गई है। जाति व्यवस्था के खत्म होने के कारण पेशों की गतिशीलता भी बढ़ रही है। अब ग्रामीण लोग अपनी मर्जी से पेशा बदलते हैं।

6. विज्ञान का बढ़ता प्रभाव (Increasing effect of Science)-प्राचीन समय में ऋतुओं, वातावरण सम्बन्ध विश्वास प्रकृति पर निर्धारित होते थे तथा ग्रामीण जीवन का आधार होते थे। भूमि को पवित्र माना जाता था। फसल की बिजाई समय को सामने रख कर की जाती थी परन्तु आजकल प्राचीन लोक विश्वास खत्म हो रहे हैं। किसान चाहे वैज्ञानिक नहीं हैं परन्तु फिर भी वैज्ञानिक ढंगों के प्रयोग के कारण वह प्राचीन विश्वास भूलते जा रहे हैं। पहले लोग अपनी भूमि पर रासायनिक उर्वरक डालने से कतराते थे, अब वह अधिक-से-अधिक उर्वरकों तथा मशीनों का प्रयोग करते हैं ताकि उत्पादन को बढ़ाया जा सके।

7. प्रकृति पर कम होती निर्भरता (Decreasing dependency on Nature)—प्राचीन समय में किसान कृषि के उत्पादन के लिए केवल प्रकृति पर ही निर्भर रहता था। जैसे अगर किसी वर्ष बारिश नहीं पड़ती थी तो भूमि से उत्पादन लेना असम्भव होता था। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक शक्तियों से व्यक्ति संघर्ष नहीं कर सकता था परन्तु आजकल के समय में ऐसा नहीं है। आजकल लोग सिंचाई के लिए वर्षा की जगह नहरों, ट्यूबवैल इत्यादि का प्रयोग कर रहे हैं। फसलों से उत्पादन नए ढंगों से लिया जा रहा है। अब लोगों में गर्मी, सर्दी, बाढ़ इत्यादि से बचने का सामर्थ्य है। अब मौसम विभाग पहले ही बाढ़, सूखे, कम, अधिक वर्षा के बारे में पहले से ही सूचना दे देता है जिस कारण किसान उससे निपटने के लिए पहले ही तैयार हो जाता है। .

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

8. ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार (Change in the level of Rural Life)-ग्रामीण समाज में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखने में आया है तथा वह है ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार। आंकड़े बताते हैं कि कुछ वर्गों को छोड़कर सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन में सुधार आया है। शिक्षा के प्रसार से, विज्ञान के आने से तथा सरकारी और गैर-सरकारी कोशिशों से मनुष्य का जीवन लम्बा हो गया है तथा बहुत-सी बीमारियां तो खत्म हो गई हैं। रहने-सहने के स्थानों में भी सुधार हुआ है। पक्के मकान, पक्की नालियां, गलियां, सड़कें, स्ट्रीट लाइटें, स्कूल, डिस्पेंसरियां इत्यादि आम गांव में भी देखी जा सकती हैं। मनोरंजन के साधन बढ़ रहे हैं तथा खेलों की सहूलियतें बढ़ रही हैं। निरक्षरता कम हो रही है। इस तरह ग्रामीण जीवन में सकारात्मक परिवर्तन हुआ है।

9. खाने-पीने तथा पहरावे में परिवर्तन (Change in Feeding and Wearing)-प्राचीन समय में जाति व्यवस्था के प्रभाव के कारण कुछ जातियां कुछ विशेष वस्तुओं का सेवन नहीं करती थीं तथा पहरावा भी सादा तथा विशेष प्रकार का पहनते थे। आजकल के समय में जाति प्रथा के प्रभाव के घटने के कारण लोगों की खाने-पीने तथा पहनने की आदतों में परिवर्तन आ गया है। आजकल ब्राह्मण भी मीट अथवा शराब का प्रयोग करते हैं। लोग अब सादे खाने की जगह बनावटी खाना जैसे कि बर्गर, पिज़्ज़ा, हाट डॉग, नूडल्ज़ इत्यादि का प्रयोग कर रहे हैं। पहले लोग धोती तथा कुर्ते पहनते थे परन्तु अब पैंटें, जीन्स, कमीजें इत्यादि पहनते हैं। अब स्त्रियां आधुनिक गहने डालती हैं। पर्दे की प्रथा तो लगभग खत्म हो गयी है।

प्रश्न 6.
ग्रामीण समाज पर एक नोट लिखें।
उत्तर-
ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवार का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कृषि प्रधान समाजों में परिवार का बहुत महत्त्व होता है। वैसे तो गांवों में परिवार के कई स्वरूप देखने को मिलते हैं परन्तु संयुक्त परिवार ही ऐसा परिवार है जो सभी ग्रामीण समाजों में पाया जाता है। भारत के बहुत-से क्षेत्रों में पितृ प्रधान संयुक्त परिवार पाए जाते हैं। इसलिए हम ग्रामीण समाज में मिलने वाले संयुक्त परिवार का वर्णन करेंगे।
संयुक्त परिवार एक ऐसा समूह है जिसमें कई पुश्तों के सदस्य इकट्ठे रहते हैं। इसका अर्थ है कि दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, उनके बच्चे, लड़कों की पत्नियां तथा बिन ब्याहे बच्चे इत्यादि सभी एक ही निवास स्थान पर रहते हैं।

कार्वे (Karve) के अनुसार, “संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह होता है जिसमें साधारणतया सभी एक ही घर में रहते हैं, जोकि साझी रसोई में पका भोजन खाते हैं तथा साझी जायदाद के मालिक होते हैं तथा जो किसी न किसी प्रकार से दूसरे व्यक्ति के रक्त से सम्बन्धित होते हैं।”

आई०पी० देसाई (I.P. Desai) के अनुसार, “हम उस परिवार को संयुक्त परिवार कहते हैं जिसमें मूल परिवार से अधिक पीढ़ियों के सदस्य शामिल होते हैं तथा यह सदस्य आपकी जायदाद, आय तथा आपसी अधिकारों और फर्जी से सम्बन्धित हों।”

इस प्रकार इन परिभाषाओं को देखकर हम संयुक्त परिवार के निम्नलिखित लक्षणों के बारे में बता सकते हैं:

  1. इनका आकार बड़ा होता है।
  2. इस परिवार के सदस्यों में सहयोग की भावना होती है।
  3. परिवार में जायदाद पर सभी का समान अधिकार होता है।
  4. परिवार के सभी सदस्य एक ही निवास स्थान पर रहते हैं।
  5. परिवार के सभी सदस्यों की आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक गतिविधियां एक जैसी ही होती हैं।

देसाई का कहना है कि जिस किसी भी समाज में कृषि से सम्बन्धित पेशे बहुत अधिक होते हैं वहां पितृ प्रधान संयुक्त परिवार होते हैं। कृषि प्रधान समाजों में संयुक्त परिवार एक आर्थिक सम्पत्ति की तरह कार्य करता है। पितृ प्रधान ग्रामीण संयुक्त परिवार के बहुत-से ऐसे पहलू हैं, जैसे कि क्रियात्मक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि जो इसको शहरी परिवार व्यवस्था से अलग करते हैं।
इस तरह इस चर्चा से स्पष्ट है कि ग्रामीण समाजों में साधारणतया पितृ प्रधान संयुक्त परिवार ही पाए जाते हैं। इन परिवारों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं :

ग्रामीण परिवार की विशेषताएं (Characteristics of Rural Family)-

  1. बड़ा आकार।
  2. कृषि पर निर्भरता।
  3. अधिक सामूहिक भावना अथवा एकता।
  4. अधिक अन्तर्निर्भरता तथा अनुशासन।
  5. पारिवारिक अहं का अधिक होना।
  6. पिता का अधिक अधिकार।।
  7. पारिवारिक कार्यों में अधिक हिस्सेदारी। अब हम इनका वर्णन विस्तार से करेंगे।

1. बड़ा आकार (Large in Size) ग्रामीण परिवार की सबसे पहली विशेषता यह है कि यह आकार में काफ़ी बड़े होते हैं क्योंकि इसमें कई पीढ़ियों के सदस्य एक ही जगह पर इकट्ठे रहते हैं। हमारे देश की बढ़ती जनसंख्या भी इस बड़े आकार के लिए उत्तरदायी है। कई स्थानों पर तो कई परिवारों के सदस्यों की संख्या 60-70 तक भी पहुंच जाती है। परन्तु साधारणतया एक ग्रामीण परिवार में 6 से 15 तक सदस्य होते हैं जिस कारण यह आकार में बड़े होते हैं।

2. कृषि पर निर्भरता (Dependency upon Agriculture) ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है जिस कारण ग्रामीण परिवार के सभी सदस्य कृषि के कार्यों में लगे रहते हैं। उदाहरण के लिए खेत में हल चलाने का कार्य कोई और करता है तथा पशुओं का चारा काटने के लिए कोई और कार्य करता है। ग्रामीण परिवार में स्त्रियां खेतों में कार्य करती हैं जिस कारण ही ग्रामीण परिवार शहरी परिवार से अलग होता है। बहुत-सी स्त्रियां खेतों में अपने पतियों की मदद करने के लिए तथा मजदूरों की कमी को पूरा करने के लिए कार्य करती हैं। इसके साथ ही घर में रहने वाली स्त्रियां भी बिना किसी कार्य के नहीं बैठती हैं। वह पशुओं को चारा डालने तथा पानी पिलाने का कार्य करती रहती हैं। खेतों में इकट्ठे कार्य करने के कारण उनकी सोच तथा विचार एक जैसे ही हो जाते हैं।

3. अधिक एकता (Greater Unity)-ग्रामीण परिवार की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता इस में एकता का होना है। ग्रामीण परिवारों में शहरी परिवारों की तुलना में अधिक एकता होती है। जैसे पति-पत्नी, दादा-पोता, माता-पिता में अधिक भावनात्मक तथा गहरे रिश्ते पाए जाते हैं। अगर ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ ध्यान से देखें तो यह पता चलता है कि ग्रामीण लोग समहों में रहना अधिक पसन्द करते हैं तथा उनमें एकता किसी खुशी अथवा दु:ख के मौके पर देखी जा सकती है। ग्रामीण परिवार के सदस्यों की इच्छाएं, विचार, कार्य, गतिविधियां तथा भावनाएं एक जैसी ही होती हैं। वह लगभग एक जैसे कार्य करते हैं तथा एक जैसा ही सोचते हैं। सदस्य के निजी जीवन का महत्त्व परिवार से कम होता है। सभी सदस्य एक ही सूत्र में बन्धे होते हैं तथा परिवार के आदर्शों और परम्पराओं के अनुसार ही अपना जीवन जीते हैं।

4. अधिक अन्तर्निर्भरता तथा अनुशासन (More Inter-dependency and Discipline)-शहरी परिवारों के सदस्यों की तुलना में ग्रामीण परिवार के सदस्य एक-दूसरे पर अधिक निर्भर होते हैं। शहरों में मनुष्य की बहुत-सी आवश्यकताएं परिवार से बाहर ही पूर्ण हो जाती हैं। परन्तु ग्रामीण परिवार में मनुष्य की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि आवश्यकताएं परिवार में ही पूर्ण होती हैं। इसका कारण यह है कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति गांवों में परिवार के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं कर सकता है तथा व्यक्ति अकेले ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। जैसे गांव में कोई लड़का तथा लड़की अपने आप ही विवाह नहीं करवा सकते बल्कि उनके परिवार ही विवाह का प्रबन्ध करते हैं। अधिक अन्तर्निर्भरता के कारण परिवार के सदस्य अपने बड़ों के नियन्त्रण के अन्तर्गत तथा अनुशासन में रहते हैं। परिवार का छोटा सदस्य बड़े सदस्य की प्रत्येक बात मानता है चाहे बड़ा सदस्य गलत ही क्यों न हो।

5. पारिवारिक अहं का अधिक होना (More Pride of Family)-ग्रामीण परिवार का एक और महत्त्वपूर्ण लक्षण परिवार के अहं का अधिक होना है। परिवार के सदस्यों की अधिक अन्तर्निर्भता तथा एकता के कारण ग्रामीण परिवार एक ऐसी इकाई का रूप ले लेता है जिसमें एक सदस्य की जगह परिवार का अधिक महत्त्व होता है। साधारण शब्दों में ग्रामीण परिवार में परिवार का महत्त्व अधिक तथा एक सदस्य का महत्त्व कम होता है। परिवार के किसी भी सदस्य की तरफ से किया गया कोई भी अच्छा या गलत कार्य परिवार के सम्मान या कलंक का कारण बनता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य से यह आशा की जाती है कि वह परिवार के सम्मान को बरकरार रखे। पारिवारिक अहं की उदाहरण हम देख सकते हैं कि परिवार के सम्मान के लिए कई बार गांव के अलग-अलग परिवारों में झगड़े भी हो जाते हैं तथा कत्ल भी हो जाते हैं।

6. पिता के अधिक अधिकार (More Powers of Father)-ग्रामीण परिवारों में पिता के अधिकार अधिक होते हैं। पिता ही पूर्ण परिवार का कर्ता-धर्ता होता है। परिवार के सदस्यों को लिंग तथा उम्र के आधार पर कार्यों के विभाजन, बच्चों के विवाह करने, आय का ध्यान रखना, सम्पूर्ण घर को सही प्रकार से चलाना इत्यादि कई ऐसे कार्य हैं जो पिता अपने ढंग से करता है। पिता का ग्रामीण परिवार पर इतना अधिक प्रभाव होता है कि परिवार का कोई भी सदस्य उसके आगे बोल नहीं सकता है। ग्रामीण परिवार शहरी परिवारों के बिल्कुल ही विपरीत होते हैं जहां परिवार के प्रत्येक सदस्य का अपना ही महत्त्व होता है।

7. पारिवारिक कार्यों में अधिक भागीदारी (More participation in Household Affairs)-ग्रामीण परिवार की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि परिवार के सभी सदस्य परिवार के कार्यों में गहरे रूप से शामिल होते हैं। कृषि ढांचा होने के कारण परिवार के सभी सदस्य अपना अधिकतर समय एक-दूसरे के साथ व्यतीत करते हैं जिस कारण परिवार के सदस्य घर की प्रत्येक गतिविधि तथा कार्य में भाग लेते हैं। दिन के समय खेतों में इकट्ठे कार्य करने के कारण तथा रात के समय घर के कार्य इकट्ठे करने के कारण सभी सदस्य एक-दूसरे के बहुत ही नज़दीक होते हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

इन विशेषताओं के अतिरिक्त ग्रामीण परिवार की और भी विशेषताएं हो सकती हैं जैसे कि :

  1. धर्म का अधिक महत्त्व।
  2. स्त्रियों की निम्न स्थिति।
  3. पूर्वजों की पूजा।
  4. संयुक्त परिवारों का महत्त्व। इस प्रकार ऊपर ग्रामीण परिवार की विशेषताओं का वर्णन किया गया है।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

v. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्रामीण समाज का किससे सीधा सम्बन्ध होता है ?
(क) प्रकृति
(ख) पड़ोस
(ग) नगर
(घ) महानगर।
उत्तर-
(क) प्रकृति।

प्रश्न 2.
हमारे देश की कितनी जनसंख्या गाँवों तथा नगरों में रहती है ?
(क) 70% व 30%
(ख) 32% व 68%
(ग) 68% व 32%
(घ) 25% व 75%.
उत्तर-
(ग) 68% व 32%.

प्रश्न 3.
ग्रामीण समाज का मुख्य पेशा क्या होता है ?
(क) उद्योग
(ख) अलग-अलग पेशे
(ग) तकनीक
(घ) कृषि।
उत्तर-
(घ) कृषि।

प्रश्न 4.
जजमानी व्यवस्था में सेवा देने वाले को क्या कहते हैं ?
(क) जजमान
(ख) प्रजा
(ग) कमीन
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) कमीन।

प्रश्न 5.
जजमानी व्यवस्था में सेवा लेने वाले को क्या कहते हैं ?
(क) राजा
(ख) जजमान
(ग) प्रजा
(घ) कमीन।
उत्तर-
(ख) जजमान।

प्रश्न 6.
किसने कहा था कि, “वास्तविक भारत गाँव में बसता है।”
(क) महात्मा गाँधी
(ख) जवाहर लाल नेहरू
(ग) बी० आर० अम्बेदकर
(घ) सरदार पटेल।
उत्तर-
(क) महात्मा गाँधी।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. गाँव के मुखिया को …………. कहते थे।
2. 2011 में ………… करोड़ लोग गाँवों में रहते थे।
3. ……..ई० में ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रथम पुस्तक छपी थी।
4. ग्रामीण समाज के लोगों का मुख्य पेशा ……….. होता है।
5. ग्रामीण समाज में ………….. परिवार पाए जाते हैं।
उत्तर-

  1. ग्रामिणी
  2. 83.3
  3. 1916
  4. कृषि
  5. संयुक्त ।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. ग्रामीण लोग उद्योगों में अधिक कार्य करते हैं।
2. जजमान सेवा ग्रहण करता है।
3. हरित् क्रान्ति 1956 में शुरू हुई थी।
4. ऋणग्रस्तता के कारण बहुत से किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
5. ग्रामीण समाज में बहुत से परिवर्तन आ रहे हैं।
6. पंचायत गांव की सरकार का कार्य करती है।
उत्तर-

  1. ग़लत,
  2. सही,
  3. ग़लत,
  4. सही,
  5. सही,
  6. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर-

प्रश्न 1. भारत की कितने प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है ?
उत्तर-भारत की 68.84% जनसंख्या गांवों में रहती है।

प्रश्न 2. राबर्ट रैडफील्ड ने ग्रामीण समाज की कितनी विशेषताएं दी हैं ?
उत्तर-राबर्ट रैडफील्ड के अनुसार ग्रामीण समाज की मुख्य विशेषताएँ हैं-छोटा आकार, अलगपन, समानता व स्व: निर्भरता।

प्रश्न 3. गाँवों की कितने प्रतिशत जनसंख्या कृषि या सम्बन्धित कार्यों में लगी हुई है ?
उत्तर-गाँवों की कम-से-कम 75% जनसंख्या कृषि या सम्बन्धित कार्यों में लगी हुई है।

प्रश्न 4. 2011 में गाँवों में कितने लोग रहते थे ?
उत्तर-2011 में 83.3 करोड़ लोग गाँवों में रहते थे।

प्रश्न 5. ग्रामीण समाजशास्त्र के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना क्या थी ?
उत्तर-अमेरिका में Country Life कमीशन की स्थापना ग्रामीण समाजशास्त्र के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना थी।

प्रश्न 6. ग्रामीण समाजशास्त्र की सबसे प्रथम पुस्तक किसने तथा कब छापी थी ?
उत्तर-ग्रामीण समाजशास्त्र की सबसे प्रथम पुस्तक J.N.Gillettee ने 1916 में छापी थी।

प्रश्न 7. ग्रामीण समाजशास्त्र से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्रियों के नाम बताएं।
उत्तर-एस० सी० दूबे, ऑस्कर लेविस, एम० एन० श्रीनिवास, मैरीयट, बैली, गॅफ, के० एल० शर्मा, आन्द्रे बेते इत्यादि।

प्रश्न 8. ग्रामीण समाज की जनसंख्या कैसी होती है ?
उत्तर-ग्रामीण समाज की जनसंख्या नगरों की तुलना में काफ़ी कम होती है।

प्रश्न 9. ग्रामीण समाज के लोगों के बीच किस प्रकार के सम्बन्ध होते हैं ?
उत्तर–ग्रामीण समाज के लोगों में काफ़ी गहरे व आमने-सामने के सम्बन्ध पाए जाते हैं।

प्रश्न 10. ग्रामीण समाज में किस प्रकार के परिवार मिलते हैं ?
उत्तर-ग्रामीण समाज में संयुक्त परिवार मिलते हैं।

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प्रश्न 11. संयुक्त परिवार क्या है ?
उत्तर-वे परिवार जिसमें तीन या अधिक पीढ़ियों के लोग एक ही छत के नीचे रहते तथा एक ही रसोई में खाना खाते हैं।

प्रश्न 12. गांवों में कौन-सा विवाह सबसे अधिक मिलता है ?
उत्तर-गांवों में एक विवाह सबसे अधिक मिलता है।

प्रश्न 13. 73वां संवैधानिक संशोधन कब हआ था ?
उत्तर-73वां संवैधानिक संशोधन 1992 में हुआ था।

प्रश्न 14. ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे छोटी राजनीतिक इकाई कौन-सी है?
उत्तर-ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे छोटी राजनीतिक इकाई पंचायत है।

प्रश्न 15. पंचायती राज्य के तीन स्तरों के नाम बताएं।
उत्तर-पंचायत-ग्राम स्तर पर, ब्लॉक समिति-ब्लॉक स्तर पर तथा जिला परिषद्-जिला स्तर पर।

प्रश्न 16. ग्रामीण समाज में सामने आए दो मुख्य मुद्दे क्या हैं ?
उत्तर- गाँव में सामने आए दो मुख्य मुद्दे हैं-ऋणग्रस्तता की समस्या तथा हरित क्रान्ति के प्रभाव।

प्रश्न 17. ऋणग्रस्तता क्या है ?
उत्तर-जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से किसी कार्य के लिए पैसे लेता है तो इसे ऋणग्रस्तता कहते हैं।

प्रश्न 18. HYV बीज का क्या अर्थ है ?
उत्तर-अधिक उत्पादन देने वाले बीजों को HYV बीज कहते हैं।

प्रश्न 19. किसे भारत में हरित क्रान्ति का पिता कहा जाता है ?
उत्तर-प्रो० स्वामीनाथन को भारत में हरित क्रान्ति का पिता कहा जाता है।

प्रश्न 20. IADP का क्या अर्थ है ?
उत्तर-IADP का अर्थ है Intensive Agriculture District Programme.

प्रश्न 21. हरित क्रान्ति कब शुरू हुई थी ?
उत्तर-हरित क्रान्ति 1966 में शुरू हुई थी।

प्रश्न 22. हरित क्रान्ति के कुछ महत्त्वपूर्ण तत्त्व बताएं।
उत्तर-HYV बीज, उर्वरक, कीटनाशक, मशीनें, नए सिंचाई के साधनों का प्रयोग इत्यादि।

प्रश्न 23. ग्रामीण समाज की एक विशेषता बताएँ।
उत्तर-ग्रामीण समाज आकार में छोटे होते हैं तथा वहाँ पर सामाजिक एकरूपता होती है।

प्रश्न 24. पन्निकर ने किसे भारतीय सामाजिक व्यवस्था का सशक्त आधार माना है?
उत्तर-जाति व्यवस्था, ग्रामीण जीवन व्यवस्था व संयुक्त परिवार व्यवस्था को पन्निकर ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधार माना है।

प्रश्न 25. किसे ग्रामीण क्षेत्रों में अनाचार के लिए जाना जाता है?
उत्तर-साहूकारों को ग्रामीण क्षेत्रों में अनाचार के लिए जाना जाता है।

प्रश्न 26. ऋणग्रस्तता का एक परिणाम बताएँ।
उत्तर–किसान ऋण के जाल में फंस जाता है तथा अंत में उसकी जमीन साहूकार के कब्जे में चली जाती है।

प्रश्न 27. पंजाब में हरित क्रान्ति से किन फ़सलों का उत्पादन काफ़ी बढ़ गया?
उत्तर-पंजाब में हरित क्रान्ति के कारण गेहूँ तथा चावल का उत्पादन काफ़ी बढ़ गया।

III. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
ग्रामीण समाज।
उत्तर-
ग्रामीण समाज वह समाज होता है जो प्रकृति के काफ़ी नज़दीक होता है, जिसमें लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है, जहाँ के लोगों के बीच नज़दीक के सम्बन्ध तथा समानता होती है, जो एक विशेष क्षेत्र में रहते हैं तथा काफ़ी हद तक आत्मनिर्भर होते हैं।

प्रश्न 2.
ग्रामीण समाज की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  1. ग्रामीण समाज नगरीय समाज की तुलना में छोटे आकार के होते हैं तथा इनकी जनसंख्या भी कम होती है।
  2. यहाँ रहने वाले लोगों के बीच गहरे व सीधे सम्बन्ध होते हैं।

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प्रश्न 3.
जाति पंचायत।
उत्तर-
पुराने समय की जाति व्यवस्था में प्रत्येक जाति की एक पंचायत होती थी जो जाति के सदस्यों के बीच के मामले सुलझाती थी। इसके पास प्रत्येक प्रकार की न्याय करने की तथा जुर्माना लगाने की शक्ति होती थी।

प्रश्न 4.
संयुक्त परिवार।
उत्तर-
संयुक्त परिवार ऐसा परिवार होता है जिसमें तीन या अधिक पीढ़ियों के लोग इकट्ठे मिलकर एक ही छत के नीचे रहते हैं, एक ही साझी रसोई में खाना खाते हैं तथा परिवार की सम्पत्ति पर समान अधिकार होता है।

प्रश्न 5.
पंचायत।
उत्तर-
गाँव के स्तर पर जिस स्थानीय सरकार का गठन किया गया है, उसे पंचायत कहते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव गाँव की ग्राम सभा करती है तथा इसे निश्चित समय अर्थात् 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। यह गाँव का विकास करती है।

प्रश्न 6.
अन्तर्विवाह।
उत्तर-
जब व्यक्ति को एक विशेष समूह में ही विवाह करवाना पड़ता है तथा इस प्रकार के विवाह को अन्तर्विवाह कहते हैं। पुराने नियमों के अनुसार व्यक्ति को अपनी ही जाति या उपजाति में ही विवाह करवाना पड़ता था नहीं तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था।

प्रश्न 7.
बहिर्विवाह।
उत्तर-
जब व्यक्ति को एक विशेष समूह से बाहर विवाह करवाना पड़ता है तो इस प्रकार के व्यक्ति को बहिर्विवाह कहते हैं। इस नियम के अनुसार व्यक्ति को अपने परिवार, रिश्तेदारी, गोत्र इत्यादि से बाहर विवाह करवाना पड़ता है।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्रामीण समाज।
उत्तर-
ग्रामीण समाज एक ऐसा क्षेत्र होता है जहां तकनीक का कम प्रयोग, प्राथमिक सम्बन्धों की प्राथमिकता, छोटा आकार होता है तथा जहां अधिकतर जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। इस प्रकार ग्रामीण समुदाय वह समुदाय होते हैं जो एक निश्चित स्थान पर रहते हैं, आकार में बहुत छोटे होते हैं, नज़दीक के सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा प्राथमिक सम्बन्ध पाए जाते हैं। लोग एक-दूसरे को नज़दीक से जानते हैं तथा लोगों का मुख्य पेशा कृषि अथवा कृषि से सम्बन्धित होता है।

प्रश्न 2.
ग्रामीण समाज की दो परिभाषाएं।
उत्तर-
ए० आर० देसाई (A. R. Desai) के अनुसार, “ग्रामीण समाज गांव की एक इकाई है। यह एक थियेटर है जिसमें ग्रामीण जीवन अधिक मात्रा में अपने आपको तथा कार्यों को प्रकट करता है।”
आर० एन० मुखर्जी (R. N. Mukherjee) के अनुसार, “गांव वह समुदाय है जिसके विशेष लक्षण सापेक्ष एकरूपता, सादगी, प्राथमिक समूहों की प्रधानता, जनसंख्या का कम घनत्व तथा कृषि मुख्य पेशा होता है।”

प्रश्न 3.
ग्रामीण समुदाय-मुख्य पेशा कृषि।
उत्तर-
ग्रामीण समाज का मुख्य पेशा कृषि अथवा कृषि पर आधारित कार्य होते हैं क्योंकि ग्रामीण समाज प्रकृति के काफ़ी नज़दीक होते हैं। यह प्रकृति के काफ़ी नज़दीक होते हैं इसलिए यह जीवन को अलग ही दृष्टि से देखते हैं। चाहे गांवों में और भी पेशे होते हैं परन्तु वह काफ़ी कम संख्या में होते हैं तथा वह कृषि से सम्बन्धित चीजें भी बनाते हैं। ग्रामीण समाज में भूमि को बहुत ही महत्त्वपूर्ण वस्तु समझा जाता है तथा लोग यहां ही रहना पसन्द करते हैं क्योंकि उनका जीवन भूमि पर ही निर्भर होता है। यहां तक कि लोगों तथा गांवों की आर्थिक व्यवस्था तथा विकास भी कृषि पर ही निर्भर करता है।

प्रश्न 4.
ग्रामीण समुदाय-कम जनसंख्या तथा एकरूपता।
उत्तर-
गांवों की जनसंख्या शहरों की तुलना में बहुत कम होती है। लोग दूर-दूर तक छोटे-छोटे समूह बना कर बसे होते हैं तथा इन समूहों को गांव का नाम दिया जाता है। गांव में कृषि के अतिरिक्त और पेशे कम ही होते हैं जिस कारण लोग शहरों की तरफ भागते हैं तथा जनसंख्या भी कम ही होती है। लोगों के बीच नज़दीक के सम्बन्ध होते हैं तथा एक जैसा पेशा, कृषि होने के कारण उनके विचार भी एक जैसे ही होते हैं। गांव के लोगों की लोक-रीतियां, रूढ़ियां, परम्पराएं इत्यादि भी एक जैसे ही होते हैं तथा उनके आर्थिक, नैतिक, धार्मिक जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता है। गांव में लोग किसी दूर के क्षेत्र से रहने नहीं आते हैं, बल्कि यह तो गांव में रहने वाले मूल निवासी ही होते हैं अथवा नज़दीक रहने वाले लोग होते हैं। इस कारण लोगों में एकरूपता होती है।

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प्रश्न 5.
ग्रामीण समुदाय-पड़ोस का महत्त्व।
उत्तर-
ग्रामीण समाज में पड़ोस का बहुत महत्त्व होता है। लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है जिसमें उन्हें काफ़ी समय खाली मिल जाता है। कृषि के पेशे में अधिक समय नहीं लगता है। इस कारण लोग एक-दूसरे से मिलते रहते हैं, बातें करते हैं, एक-दूसरे से सहयोग करते रहते हैं। लोगों के अपने पड़ोसियों से बहुत गहरे सम्बन्ध होते हैं। पड़ोस में जातीय समानता होती है जिस कारण उनकी स्थिति भी समान होती है। लोग वैसे तो पड़ोसियों का सम्मान, उनका आदर करना अपना फर्ज़ समझते हैं परन्तु इसके साथ ही एक-दूसरे के सुख-दुःख में पड़ोसी ही सबसे पहले आते हैं, रिश्तेदार तो बाद में आते हैं। इस कारण पड़ोस का काफ़ी महत्त्व होता है।

प्रश्न 6.
ग्रामीण समाज में परिवार का नियन्त्रण।
उत्तर-
ग्रामीण समाजों में परिवार का व्यक्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। गांवों में अधिकतर पितृसत्तात्मक परिवार होते हैं तथा परिवार का प्रत्येक छोटा-बड़ा निर्णय परिवार का मुखिया ही लेता है। गांव में तथा परिवार में श्रम विभाजन लिंग के आधार पर होता है। मर्द कृषि करते हैं अथवा घर से बाहर जाकर पैसा कमाते हैं तथा स्त्रियां घर में रह कर घर की देखभाल करती हैं। गांवों में संयुक्त परिवार प्रथा होती है। सभी व्यक्ति परिवार में मिल कर कार्य करते हैं। परिवार के सभी सदस्य त्योहारों, धार्मिक क्रियाओं इत्यादि में मिलकर भाग लेते हैं। व्यक्ति को कोई भी कार्य करने से पहले परिवार की सलाह लेनी पड़ती है। इस प्रकार उसके ऊपर परिवार का पूर्ण नियन्त्रण होता है।

प्रश्न 7.
ग्रामीण समाज तथा प्रकृति से निकटता।
उत्तर-
गांवों में लोग कृत्रिम वातावरण से दूर रहते हैं इसलिए इनका प्रकृति से गहरा सम्बन्ध होता है। इनका मुख्य पेशा कृषि होता है इसलिए यह प्रकृति से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित होते हैं। इनका जीवन प्रकृति पर ही निर्भर करता है इसलिए यह सूर्य, वरुण, इन्द्र देवता इत्यादि की पूजा करते हैं। यह लोग प्राकृतिक शक्तियों जैसे कि वर्षा, बाढ़, सूखा इत्यादि से बहुत डरते हैं क्योंकि इन पर ही कृषि निर्भर करती है। यह प्राकृतिक शक्तियां इनके पूर्ण वर्ष के परिश्रम को तबाह कर सकती हैं। इस कारण ही यह लोग रूढ़िवादी होते हैं तथा इनका दृष्टिकोण भी सीमित होता है। इस तरह यह प्रकृति के निकट होते हैं। .

प्रश्न 8.
ग्रामीण समाज-स्त्रियों की निम्न स्थिति।
उत्तर-
गांवों में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न होती है क्योंकि स्त्रियां केवल घरेलू कार्य करने तक ही सीमित होती हैं। प्राचीन समय में तो गांवों में श्रम विभाजन लिंग के आधार पर ही होता था। स्त्रियां घर का कार्य करती थीं तथा मर्द घर से बाहर का कार्य करते थे। उनको घर से बाहर निकलने की आज्ञा नहीं थी। उसको कोई भी अधिकार नहीं थे। घर के निर्णय करते समय उनसे पूछा भी नहीं जाता था। उसको केवल पैर की जूती समझा जाता था। चाहे अब समय बदल रहा है तथा लोग अपनी लड़कियों को पढ़ा रहे हैं परन्तु स्त्रियों के प्रति उनका दृष्टिकोण अब भी वही है।

प्रश्न 9.
ग्रामीण समाज में आ रहे परिवर्तन।
उत्तर-

  • ग्रामीण समाज तथा शहरी समाजों में अन्तर कम हो रहे हैं।
  • कृषि के ढांचे में परिवर्तन तथा कृषि का व्यापारीकरण।
  • धर्म का कम होता प्रभाव।
  • विज्ञान का प्रभाव बढ़ रहा है।
  • प्रकृति पर किसानों की निर्भरता कम हो रही है।
  • शिक्षा का स्तर धीरे-धीरे बढ़ रहा है।

प्रश्न 10.
ग्रामीण समाज-धर्म का कम होता प्रभाव।
उत्तर-
प्राचीन समय में ग्रामीण लोगों पर धर्म का बहुत प्रभाव होता था। कृषि की प्रत्येक गतिविधि पर धर्म का प्रभाव होता था परन्तु अब यह खत्म हो चुका है। पहले कई पेड़ों, पक्षियों तथा जानवरों इत्यादि को पवित्र समझा जाता था परन्तु आजकल के समय में यह कम हो गया है। ग्रामीण लोगों के धार्मिक विश्वासों, रस्मों-रिवाजों में बहुत परिवर्तन आ गया है तथा नई पीढ़ी ने इन्हें मानना बन्द कर दिया है। आजकल के मशीनी युग में ग्रामीण समाज का रोज़ाना जीवन मन्दिरों, गुरद्वारों के प्रभाव से दूर होता जा रहा है।

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प्रश्न 11.
ग्रामीण परिवार।
अथवा
संयुक्त परिवार।
उत्तर-
ग्रामीण परिवार आमतौर पर पितृसत्तात्मक तथा संयुक्त परिवार होते हैं। ग्रामीण परिवारों में पिता की सत्ता चलती है तथा परिवार के सभी सदस्य एक ही घर में रहते हैं। एक ही घर में रहने के कारण एक ही चूल्हे में खाना बनता है तथा सामुदायिक भावना बहुत अधिक होती है। इस प्रकार ग्रामीण समाजों में संयुक्त परिवार पाए जाते हैं जिस में कई पीढ़ियों के सदस्य इकट्ठे रहते हैं। यह आकार में बड़े होते हैं तथा इनमें सम्पत्ति पर भी सभी का बराबर अधिकार होता है।

प्रश्न 12.
ग्रामीण परिवार-पितृसत्तात्मक परिवार।
अथवा ग्रामीण परिवारों में पिता का अधिक अधिकार।
उत्तर-
ग्रामीण परिवारों में पिता के अधिकार अधिक होते हैं। पिता ही पूर्ण परिवार का कर्ता-धर्ता होता है। परिवार के सदस्यों को लिंग तथा आयु के आधार पर कार्यों का विभाजन, बच्चों के विवाह करने, आय का ध्यान रखना, सारे घर को ठीक ढंग से चलाना इत्यादि जैसे कई कार्य हैं जो पिता अपने तरीके से करता है। पिता का ग्रामीण परिवार पर इतना अधिक प्रभाव होता है कि परिवार का कोई भी सदस्य उसके आगे बोल नहीं सकता है। ग्रामीण परिवार शहरी परिवारों के बिल्कुल विपरीत होते हैं। इनमें तो पिता की इच्छा का ही महत्त्व होता है।

प्रश्न 13.
ग्रामीण परिवार की विशेषताएं।
अथवा संयुक्त परिवार की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  1. ग्रामीण परिवार आकार में बड़े होते हैं।
  2. ग्रामीण परिवार कृषि पर निर्भर करते होते हैं।
  3. ग्रामीण परिवारों में अधिक सामूहिक भावना अथवा एकता होती है।
  4. ग्रामीण परिवारों में अधिक अन्तर्निर्भरता तथा अनुशासन होता है।
  5. पिता को अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं।
  6. पारिवारिक कार्यों में व्यक्ति की अधिक भागीदारी होती है।

प्रश्न 14.
ग्रामीण परिवारवाद।
उत्तर-
गांवों में मिलने वाली प्रत्येक प्रकार की संस्था के ऊपर ग्रामीण परिवार का काफ़ी प्रभाव होता है। इस कारण ही ग्रामीण समाज में परिवार को अधिक महत्त्व प्राप्त होता है तथा व्यक्ति को कम। इसको ही परिवारवाद कहते हैं। जब एक या दो व्यक्तियों की जगह पूरे परिवार को महत्त्व दिया जाए तो उसको परिवारवाद कहते हैं। पारिवारिक गुणों के सामाजिक, राजनीतिक संगठनों पर प्रभाव को भी परिवारवाद कहा जाता है।

प्रश्न 15.
ग्रामीण विवाह।
उत्तर-
कृषि प्रधान समाजों में विवाह को काफ़ी आवश्यक समझा जाता है क्योंकि इसे धार्मिक संस्कारों को पूरा करने तथा खानदान को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक समझा जाता है। इस प्रकार ग्रामीण विवाह आदमी तथा औरत के बीच बनाया गया रिश्ता है जिसका उद्देश्य परिवार बनाना, घर बसाना, बच्चे पैदा करना, समाज को आगे बढ़ाना तथा धार्मिक संस्कारों को पूर्ण करना है। ग्रामीण विवाह में दो परिवार इकट्ठे होते हैं तथा लड़का-लड़की की सहायता से एक-दूसरे से सम्बन्ध बनाते हैं। ग्रामीण समाज में गोत्र से बाहर तथा जाति के अन्दर विवाह करवाना आवश्यक समझा जाता है।

प्रश्न 16.
ग्रामीण विवाह एक धार्मिक संस्कार होता है।
उत्तर-
ग्रामीण समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है क्योंकि इसका उद्देश्य धार्मिक होता है। धार्मिक ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि व्यक्ति विवाह करके अपना घर बसाएगा, सन्तान पैदा करके समाज को आगे बढ़ाएगा तथा अपने ऋण उतारेगा। व्यक्ति अपने ऋण केवल विवाह करके तथा सन्तान पैदा करके ही उतार सकता है। ग्रामीण समाज में व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक कई संस्कारों में से निकलना पड़ता है। इस कारण ही इसे धार्मिक संस्कार माना गया है।

प्रश्न 17.
व्यवस्थित विवाह।
उत्तर-
ग्रामीण समाजों में विवाह को एक मर्द तथा स्त्री का मेल नहीं, बल्कि दो परिवारों, दो समूहों अथवा दो गांवों का मेल समझा जाता है। इस कारण माता-पिता अपने बच्चों का साथी ढूंढ़ने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार जो विवाह माता-पिता द्वारा निश्चित किया जाए उसे व्यवस्थित विवाह कहते हैं। विवाह निश्चित करने के लिए परिवार के आकार, स्थिति, नातेदारी तथा आर्थिक स्थिति को काफ़ी महत्त्व दिया जाता है। इसके साथ-साथ बच्चे के निजी गुणों को भी ध्यान में रखा जाता है। यदि बच्चे में कोई निजी कमी है तो उसका विवाह करने में काफ़ी समस्या आती है। माता-पिता ही बच्चों का विवाह करते हैं तथा धूमधाम से विवाह करने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 18.
ग्रामीण क्षेत्र में साथी के चुनाव की कसौटियां।
उत्तर-
ग्रामीण क्षेत्रों में साथी के चुनाव के लिए कपाड़िया ने तीन नियम दिए हैं तथा वे निम्नलिखित हैं(i) चुनाव का क्षेत्र (The field of selection) (ii) चुनाव करने के लिए विरोधी पार्टी (Parties for selection) (iii) चुनाव की कसौटियां (Criteria of selection)।

प्रश्न 19.
गांव बहिर्विवाह।
अथवा ग्रामीण विजातीय विवाह।
उत्तर-
गांव बहिर्विवाह के नियम के अनुसार एक गांव के व्यक्ति आपस में विवाह नहीं करवा सकते। व्यक्ति को अपने गांव से बाहर विवाह करवाना पड़ता है। यह समझा जाता है कि गांव में रहने वाले सभी व्यक्ति एक ही मातापिता की सन्तान हैं। एक गांव के व्यक्तियों को आपस में सगे-सम्बन्धी समझा जाता है। पंजाब के गांवों में यह शब्द आम सुने जा सकते हैं कि गांव की बेटी, बहन सब की साझी बेटी, बहन होती है। इसलिए व्यक्ति को अपने गांव से बाहर विवाह करना पड़ता है। इसे ही गांव बहिर्विवाह कहते हैं।

प्रश्न 20.
दहेज।
उत्तर-
परम्परागत भारतीय समाज में विवाह के समय लड़की को दहेज देने की प्रथा चली आ रही है। विवाह के समय माता-पिता लड़की को लड़के के घर भेजते समय लड़के तथा उसके माता-पिता को कुछ उपहार भी देते हैं। इन उपहारों को ही दहेज का नाम दिया जाता है। प्रत्येक परिवार अपनी आर्थिक स्थिति तथा लड़के वालों की सामाजिक स्थिति के अनुसार दहेज देता है। जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है वह अधिक दहेज देते हैं तथा जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर होती है वह कम दहेज देते हैं। आजकल के समय में यह प्रथा काफ़ी बढ़ गई है तथा सभी भारतीय समाजों में समान रूप से प्रचलित है।

प्रश्न 21.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था।
उत्तर-
ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित होती है तथा कृषि भूमि पर निर्भर होती है। इसलिए ग्रामीण समाज तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भूमि का सबसे अधिक महत्त्व होता है। हमारे देश की लगभग 70% जनसंख्या कृषि अथवा
कृषि से सम्बन्धित पेशों में लगी हुई है। चाहे और पेशे भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में होते हैं परन्तु कृषि का महत्त्व सबसे . अधिक होता है। लोग भूमि पर फसल उत्पन्न करके उत्पादन करते हैं। उत्पादन की विधि अभी भी प्राचीन है। चाहे देश
के कुछ भागों में मशीनों तथा आधुनिक तकनीक की सहायता से कृषि हो रही है परन्तु फिर भी देश के अधिकतर भागों में कृषि के लिए पुराने ढंगों का प्रयोग होता है।

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प्रश्न 22.
ऋणग्रस्तता।
उत्तर-
ग्रामीण अर्थव्यवस्था की एक मुख्य विशेषता किसानों का ऋणग्रस्त होना है। ग्रामीण परिवार आकार में बड़े होते हैं। उनकी आय चाहे कम होती है परन्तु बड़ा परिवार होने के कारण खर्चे बहुत अधिक होते हैं। खर्चे पूरे करने के लिए उन्हें ब्याज पर साहूकार से कर्जा लेना पड़ता है। इस तरह वह ऋणग्रस्त हो जाते हैं। वैसे भी आजकल कृषि पर खर्चा बहुत बढ़ गया है जैसे कि उर्वरकों तथा बीजों के बढ़े हुए दाम, डीज़ल का खर्चा, पानी के लिए पम्पों का प्रयोग, उत्पादन का कम मूल्य इत्यादि। इन सबके कारण उसके खर्चे पूर्ण नहीं हो पाते हैं तथा उन्हें बैंकों अथवा साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है।

प्रश्न 23.
जजमानी व्यवस्था।
उत्तर-
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जजमानी व्यवस्था का काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जजमान का अर्थ है सेवा करने वाला अथवा यज्ञ करने वाला। समय के साथ-साथ यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग किया जाने लगा जो दूसरे लोगों से सेवाएं ग्रहण करते हैं। इस सेवा को ग्रहण करने तथा सेवा करने के अलग-अलग जातियों के पुश्तैनी सम्बन्धों को ही जजमानी व्यवस्था कहते हैं। इस व्यवस्था के अनुसार पुजारी, दस्तकार तथा और निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों को अपनी सेवाएं देते थे। इनकी सेवाओं की एवज में उस घर अथवा किसान से उत्पादन में से हिस्सा ले लेते हैं। इस तरह मनुष्यों के जीवन की ज़रूरतें स्थानीय स्तर पर ही पूर्ण हो जाती हैं। इस तरह जजमानी व्यवस्था से ग्रामीण अर्थव्यवस्था सही ढंग से चलती रहती है।

प्रश्न 24.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था की विशेषताएं।
उत्तर-

  • ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है तथा लोगों का जीवन है इस पर ही आधारित होता है।
  • ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उत्पादन कृषि से होता है तथा उत्पादन के ढंग अभी प्राचीन ही हैं।
  • ग्रामीण समाज में भूमि ही सभी प्रकार के सम्बन्धों का आधार होती है तथा भूमि पर किसान का अधिकार होता है।
  • ग्रामीण जनसंख्या अधिक होती है जिस कारण भूमि पर अधिक उत्पादन करने के लिए दबाव बढ़ता है। (v) ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कर्जे की बहुत समस्या होती है तथा किसान हमेशा ही कर्जे में डूबे रहते हैं।

प्रश्न 25.
ग्रामीण समाज में ऋणग्रस्तता के कारण।
उत्तर-

  • किसानों की आय के साधन अस्थिर होते हैं जिस कारण उन्हें आवश्यकता पड़ने पर ऋण लेना पड़ता है।
  • किसानों के परिवारों की जनसंख्या अधिक परन्तु आय सीमित ही होती है जिस कारण उन्हें ऋण लेना पड़ता है।
  • किसानों को दिखावा करने की आदत होती है जिस कारण वह आवश्यकता से अधिक खर्च करते हैं। इसलिए उन्हें ऋण लेना पड़ता है।
  • किसानों को साहूकारों से आसानी से ऋण प्राप्त हो जाता है जिस कारण वह ऋण लेने के लिए उत्साहित होते हैं।
  • साहूकार भी ऋणग्रस्त किसान को आसानी से अपने चंगुल से निकलने नहीं देते। इस कारण भी किसान इस चक्र में फंसे रहते हैं।

प्रश्न 26.
ज़मींदारी प्रथा।
उत्तर-
भारत की स्वतन्त्रता से पहले हमारे देश के ग्रामीण समाज में ज़मींदारी प्रथा चल रही थी। इस प्रथा में भूमि के बहुत ही बड़े टुकड़े का स्वामी एक व्यक्ति अर्थात् ज़मींदार होता था। वह स्वयं तो ऐश करता था तथा स्वयं कोई भी कार्य नहीं करता था। परन्तु वह अपनी भूमि छोटे किसानों को काश्त करने के लिए दे देता था। उत्पादन का थोड़ा-सा हिस्सा वह उन छोटे किसानों को दे देता था। इस प्रकार बिना परिश्रम किए वह बहुत साधन प्राप्त कर लेता था तथा ऐश करता था। स्वतन्त्रता के बाद इस प्रथा को खत्म कर दिया गया था।

प्रश्न 27.
मज़दूरी से सम्बन्धित सुधार।
उत्तर-
पंचवर्षीय योजनाओं में मजदूरी से सम्बन्धित सुधारों के मुख्य उद्देश्य थे-(i) मज़दूरों की सुरक्षा। (ii) किराए को कम करना (iii) मज़दूर की मल्कीयत। ज़मींदारी प्रथा के खात्मे के बाद भी बहुत बड़े क्षेत्र पर मज़दूरी ही चलती रही। इसलिए कई राज्यों में इससे सम्बन्धित कदम उठाए गए जिन्हें Tenancy Reforms कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर मजदूरों की सुरक्षा तथा सही किराए को निश्चित करना जिस से मज़दूर प्रत्यक्ष रूप से राज्य के सम्पर्क में आ गए। इन सुधारों को नवम्बर, 1969 तथा सितम्बर, 1970 में हुई मुख्यमन्त्रियों की बैठकों में Revive किया गया तथा यह सिफ़ारिश की गई कि सरकारी प्रयास अधिक होने चाहिएं ताकि मजदूरों की स्थिति में सुधार हो सके।

प्रश्न 28.
पंचायती राज्य संस्थाएं।
उत्तर-
हमारे देश में स्थानीय क्षेत्रों का विकास करने के लिए दो प्रकार के ढंग हैं। शहरी क्षेत्रों का विकास करने के लिए स्थानीय सरकारें होती हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए पंचायती राज्य संस्थाएं होती हैं। हमारे देश की लगभग 70% जनता ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए जो संस्थाएं बनाई गई हैं उन्हें पंचायती राज्य संस्थाएं कहते हैं। इसमें तीन स्तर होते हैं। ग्राम स्तर पर विकास करने के लिए पंचायत होती है, ब्लॉक स्तर पर विकास करने के लिए ब्लॉक समिति होती है तथा जिला स्तर पर विकास करने के लिए जिला परिषद् होती है। इन सभी के सदस्य चुने भी जाते हैं तथा मनोनीत भी होते हैं।

प्रश्न 29.
ग्राम सभा।
उत्तर-
गांव की पूरी जनसंख्या में से बालिग व्यक्ति जिस संस्था का निर्माण करते हैं उसे ग्राम सभा कहते हैं। गांव के सभी वयस्क व्यक्ति इसके सदस्य होते हैं तथा यह गांव की पूर्ण जनसंख्या की एक सम्पूर्ण इकाई है। यह वह मूल इकाई है जिस पर हमारे लोकतन्त्र का ढांचा टिका हुआ है। जिस गांव की जनसंख्या 250 से अधिक होती है वहां ग्राम सभा बन सकती है। यदि एक गांव की जनसंख्या कम है तो दो गांव मिलकर ग्राम सभा बनाते हैं। ग्राम सभा में गांव का प्रत्येक वह बालिग अथवा वयस्क व्यक्ति सदस्य होता है जिसे वोट देने का अधिकार प्राप्त होता है। प्रत्येक ग्राम सभा का एक प्रधान तथा कुछ सदस्य होते हैं जो 5 वर्ष के लिए चुने जाते हैं।

प्रश्न 30.
ग्राम पंचायत।
उत्तर-
प्रत्येक ग्राम सभा अपने क्षेत्र में से एक ग्राम पंचायत का चुनाव करती है। इस प्रकार ग्राम सभा एक कार्यकारी संस्था है जो ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करती है। इस में एक सरपंच तथा 5 से 13 तक पंच होते हैं। यह 5 वर्ष के लिए चुनी जाती है परन्तु यदि यह अपने अधिकारों का गलत प्रयोग करे तो उसे 5 वर्ष से पहले भी भंग किया जा सकता है। पंचायत में पिछड़ी श्रेणियों तथा स्त्रियों के लिए स्थान आरक्षित हैं। ग्राम पंचायत में सरकारी कर्मचारी तथा मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते। ग्राम पंचायत गांव में सफाई, मनोरंजन, उद्योग तथा यातायात के साधनों का विकास करती है तथा गांव की समस्याएं दूर करती है।

प्रश्न 31.
ग्राम पंचायत के कार्य।
उत्तर-

  • ग्राम पंचायत का सबसे पहला कार्य गांव के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाना होता है।
  • गांव की पंचायत गांव में स्कूल खुलवाने तथा लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करती है।
  • ग्राम पंचायत ग्रामीण समाज में मनोरंजन के साधन जैसे कि फिल्में, मेले लगवाने तथा लाइब्रेरी खुलवाने का भी प्रबन्ध करती है।
  • पंचायत लोगों को कृषि की नई तकनीकों के बारे में बताती है, नए बीजों, उन्नत उर्वरकों का भी प्रबन्ध करती है।
  • यह गांव में कुएं, ट्यूबवैल इत्यादि लगवाने का प्रबन्ध करती है तथा नदियों के पानी की भी व्यवस्था करती है।
  • यह गांवों का औद्योगिक विकास करने के लिए गांव में उद्योग लगवाने का भी प्रबन्ध करती है।

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प्रश्न 32.
न्याय पंचायत।
उत्तर-
गांवों के लोगों में झगड़े होते रहते हैं जिस कारण उनके झगड़ों का निपटारा करना आवश्यक होता है। इसलिए 5-10 ग्राम सभाओं के लिए एक न्याय पंचायत का निर्माण किया जाता है। न्याय पंचायत लोगों के बीच होने वाले झगड़ों को खत्म करने में सहायता करती है। इसके सदस्य चुने जाते हैं तथा सरपंच पांच सदस्यों की एक कमेटी बनाता है। इन सदस्यों को पंचायत से प्रश्न पूछने का भी अधिकार होता है।

प्रश्न 33.
पंचायत समिति अथवा ब्लॉक समिति।
उत्तर-
पंचायती राज्य संस्थाओं के तीन स्तर होते हैं। सबसे निचले गांव के स्तर पर पंचायत होती है। दूसरा स्तर ब्लॉक का होता है जहां पर ब्लॉक समिति अथवा पंचायत समिति का निर्माण किया जाता है। एक ब्लॉक में आने वाली पंचायतें, पंचायत समिति के सदस्य होते हैं तथा इन पंचायतों के प्रधान अथवा सरपंच इसके सदस्य होते हैं।

पंचायत समिति के इन सदस्यों के अतिरिक्त और सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष तौर पर किया जाता है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह गांवों के विकास के कार्यक्रमों को चैक करती है तथा पंचायतों को गांव के कल्याण करने के लिए निर्देश देती है। यह पंचायती राज्य के दूसरे स्तर पर है।

प्रश्न 34.
जिला परिषद्।
उत्तर-
पंचायती राज्य के सबसे ऊंचे स्तर पर है ज़िला परिषद् जो कि जिले के बीच आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह भी एक प्रकार की कार्यकारी संस्था होती है। पंचायत समितियों के चेयरमैन चुने हुए सदस्य, उस क्षेत्र के लोक सभा, राज्य सभा तथा विधान सभा के सदस्य सभी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। यह सभी जिले में आने वाले गांवों के विकास का ध्यान रखते हैं। जिला परिषद् कृषि में सुधार, ग्रामीण बिजलीकरण, भूमि सुधार, सिंचाई, बीजों तथा उर्वरकों को उपलब्ध करवाना, शिक्षा, उद्योग लगवाने जैसे कार्य करती है।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्रामीण परिवार क्या होता है ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवार का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कृषि प्रधान समाजों में परिवार का बहुत महत्त्व होता है। वैसे तो गांवों में परिवार के कई स्वरूप देखने को मिलते हैं परन्तु संयुक्त परिवार ही ऐसा परिवार है जो सभी ग्रामीण समाजों में पाया जाता है। भारत के बहुत-से क्षेत्रों में पितृ प्रधान संयुक्त परिवार पाए जाते हैं। इसलिए हम ग्रामीण समाज में मिलने वाले संयुक्त परिवार का वर्णन करेंगे।
संयुक्त परिवार एक ऐसा समूह है जिसमें कई पुश्तों के सदस्य इकट्ठे रहते हैं। इसका अर्थ है कि दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, उनके बच्चे, लड़कों की पत्नियां तथा बिन ब्याहे बच्चे इत्यादि सभी एक ही निवास स्थान पर रहते हैं।

कार्वे (Karve) के अनुसार, “संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह होता है जिसमें साधारणतया सभी एक ही घर में रहते हैं, जोकि साझी रसोई में पका भोजन खाते हैं तथा साझी जायदाद के मालिक होते हैं तथा जो किसी न किसी प्रकार से दूसरे व्यक्ति के रक्त से सम्बन्धित होते हैं।”

आई०पी० देसाई (I.P. Desai) के अनुसार, “हम उस परिवार को संयुक्त परिवार कहते हैं जिसमें मूल परिवार से अधिक पीढ़ियों के सदस्य शामिल होते हैं तथा यह सदस्य आपकी जायदाद, आय तथा आपसी अधिकारों और फर्जी से सम्बन्धित हों।”

इस प्रकार इन परिभाषाओं को देखकर हम संयुक्त परिवार के निम्नलिखित लक्षणों के बारे में बता सकते हैं:

  1. इनका आकार बड़ा होता है।
  2. इस परिवार के सदस्यों में सहयोग की भावना होती है।
  3. परिवार में जायदाद पर सभी का समान अधिकार होता है।
  4. परिवार के सभी सदस्य एक ही निवास स्थान पर रहते हैं।
  5. परिवार के सभी सदस्यों की आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक गतिविधियां एक जैसी ही होती हैं।

देसाई का कहना है कि जिस किसी भी समाज में कृषि से सम्बन्धित पेशे बहुत अधिक होते हैं वहां पितृ प्रधान संयुक्त परिवार होते हैं। कृषि प्रधान समाजों में संयुक्त परिवार एक आर्थिक सम्पत्ति की तरह कार्य करता है। पितृ प्रधान ग्रामीण संयुक्त परिवार के बहुत-से ऐसे पहलू हैं, जैसे कि क्रियात्मक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि जो इसको शहरी परिवार व्यवस्था से अलग करते हैं।
इस तरह इस चर्चा से स्पष्ट है कि ग्रामीण समाजों में साधारणतया पितृ प्रधान संयुक्त परिवार ही पाए जाते हैं। इन परिवारों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं :

ग्रामीण परिवार की विशेषताएं (Characteristics of Rural Family)-

  1. बड़ा आकार।
  2. कृषि पर निर्भरता।
  3. अधिक सामूहिक भावना अथवा एकता।
  4. अधिक अन्तर्निर्भरता तथा अनुशासन।
  5. पारिवारिक अहं का अधिक होना।
  6. पिता का अधिक अधिकार।।
  7. पारिवारिक कार्यों में अधिक हिस्सेदारी। अब हम इनका वर्णन विस्तार से करेंगे।

1. बड़ा आकार (Large in Size) ग्रामीण परिवार की सबसे पहली विशेषता यह है कि यह आकार में काफ़ी बड़े होते हैं क्योंकि इसमें कई पीढ़ियों के सदस्य एक ही जगह पर इकट्ठे रहते हैं। हमारे देश की बढ़ती जनसंख्या भी इस बड़े आकार के लिए उत्तरदायी है। कई स्थानों पर तो कई परिवारों के सदस्यों की संख्या 60-70 तक भी पहुंच जाती है। परन्तु साधारणतया एक ग्रामीण परिवार में 6 से 15 तक सदस्य होते हैं जिस कारण यह आकार में बड़े होते हैं।

2. कृषि पर निर्भरता (Dependency upon Agriculture) ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है जिस कारण ग्रामीण परिवार के सभी सदस्य कृषि के कार्यों में लगे रहते हैं। उदाहरण के लिए खेत में हल चलाने का कार्य कोई और करता है तथा पशुओं का चारा काटने के लिए कोई और कार्य करता है। ग्रामीण परिवार में स्त्रियां खेतों में कार्य करती हैं जिस कारण ही ग्रामीण परिवार शहरी परिवार से अलग होता है। बहुत-सी स्त्रियां खेतों में अपने पतियों की मदद करने के लिए तथा मजदूरों की कमी को पूरा करने के लिए कार्य करती हैं। इसके साथ ही घर में रहने वाली स्त्रियां भी बिना किसी कार्य के नहीं बैठती हैं। वह पशुओं को चारा डालने तथा पानी पिलाने का कार्य करती रहती हैं। खेतों में इकट्ठे कार्य करने के कारण उनकी सोच तथा विचार एक जैसे ही हो जाते हैं।

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3. अधिक एकता (Greater Unity)-ग्रामीण परिवार की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता इस में एकता का होना है। ग्रामीण परिवारों में शहरी परिवारों की तुलना में अधिक एकता होती है। जैसे पति-पत्नी, दादा-पोता, माता-पिता में अधिक भावनात्मक तथा गहरे रिश्ते पाए जाते हैं। अगर ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ ध्यान से देखें तो यह पता चलता है कि ग्रामीण लोग समहों में रहना अधिक पसन्द करते हैं तथा उनमें एकता किसी खुशी अथवा दु:ख के मौके पर देखी जा सकती है। ग्रामीण परिवार के सदस्यों की इच्छाएं, विचार, कार्य, गतिविधियां तथा भावनाएं एक जैसी ही होती हैं। वह लगभग एक जैसे कार्य करते हैं तथा एक जैसा ही सोचते हैं। सदस्य के निजी जीवन का महत्त्व परिवार से कम होता है। सभी सदस्य एक ही सूत्र में बन्धे होते हैं तथा परिवार के आदर्शों और परम्पराओं के अनुसार ही अपना जीवन जीते हैं।

4. अधिक अन्तर्निर्भरता तथा अनुशासन (More Inter-dependency and Discipline)-शहरी परिवारों के सदस्यों की तुलना में ग्रामीण परिवार के सदस्य एक-दूसरे पर अधिक निर्भर होते हैं। शहरों में मनुष्य की बहुत-सी आवश्यकताएं परिवार से बाहर ही पूर्ण हो जाती हैं। परन्तु ग्रामीण परिवार में मनुष्य की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि आवश्यकताएं परिवार में ही पूर्ण होती हैं। इसका कारण यह है कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति गांवों में परिवार के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं कर सकता है तथा व्यक्ति अकेले ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। जैसे गांव में कोई लड़का तथा लड़की अपने आप ही विवाह नहीं करवा सकते बल्कि उनके परिवार ही विवाह का प्रबन्ध करते हैं। अधिक अन्तर्निर्भरता के कारण परिवार के सदस्य अपने बड़ों के नियन्त्रण के अन्तर्गत तथा अनुशासन में रहते हैं। परिवार का छोटा सदस्य बड़े सदस्य की प्रत्येक बात मानता है चाहे बड़ा सदस्य गलत ही क्यों न हो।

5. पारिवारिक अहं का अधिक होना (More Pride of Family)-ग्रामीण परिवार का एक और महत्त्वपूर्ण लक्षण परिवार के अहं का अधिक होना है। परिवार के सदस्यों की अधिक अन्तर्निर्भता तथा एकता के कारण ग्रामीण परिवार एक ऐसी इकाई का रूप ले लेता है जिसमें एक सदस्य की जगह परिवार का अधिक महत्त्व होता है। साधारण शब्दों में ग्रामीण परिवार में परिवार का महत्त्व अधिक तथा एक सदस्य का महत्त्व कम होता है। परिवार के किसी भी सदस्य की तरफ से किया गया कोई भी अच्छा या गलत कार्य परिवार के सम्मान या कलंक का कारण बनता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य से यह आशा की जाती है कि वह परिवार के सम्मान को बरकरार रखे। पारिवारिक अहं की उदाहरण हम देख सकते हैं कि परिवार के सम्मान के लिए कई बार गांव के अलग-अलग परिवारों में झगड़े भी हो जाते हैं तथा कत्ल भी हो जाते हैं।

6. पिता के अधिक अधिकार (More Powers of Father)-ग्रामीण परिवारों में पिता के अधिकार अधिक होते हैं। पिता ही पूर्ण परिवार का कर्ता-धर्ता होता है। परिवार के सदस्यों को लिंग तथा उम्र के आधार पर कार्यों के विभाजन, बच्चों के विवाह करने, आय का ध्यान रखना, सम्पूर्ण घर को सही प्रकार से चलाना इत्यादि कई ऐसे कार्य हैं जो पिता अपने ढंग से करता है। पिता का ग्रामीण परिवार पर इतना अधिक प्रभाव होता है कि परिवार का कोई भी सदस्य उसके आगे बोल नहीं सकता है। ग्रामीण परिवार शहरी परिवारों के बिल्कुल ही विपरीत होते हैं जहां परिवार के प्रत्येक सदस्य का अपना ही महत्त्व होता है।

7. पारिवारिक कार्यों में अधिक भागीदारी (More participation in Household Affairs)-ग्रामीण परिवार की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि परिवार के सभी सदस्य परिवार के कार्यों में गहरे रूप से शामिल होते हैं। कृषि ढांचा होने के कारण परिवार के सभी सदस्य अपना अधिकतर समय एक-दूसरे के साथ व्यतीत करते हैं जिस कारण परिवार के सदस्य घर की प्रत्येक गतिविधि तथा कार्य में भाग लेते हैं। दिन के समय खेतों में इकट्ठे कार्य करने के कारण तथा रात के समय घर के कार्य इकट्ठे करने के कारण सभी सदस्य एक-दूसरे के बहुत ही नज़दीक होते हैं।

इन विशेषताओं के अतिरिक्त ग्रामीण परिवार की और भी विशेषताएं हो सकती हैं जैसे कि :

  1. धर्म का अधिक महत्त्व।
  2. स्त्रियों की निम्न स्थिति।
  3. पूर्वजों की पूजा।
  4. संयुक्त परिवारों का महत्त्व। इस प्रकार ऊपर ग्रामीण परिवार की विशेषताओं का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
ग्रामीण परिवारवाद के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करो।
उत्तर-
ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवार एक महत्त्वपूर्ण इकाई होता है। गांवों में मिलने वाली प्रत्येक प्रकार की संस्था के ऊपर ग्रामीण परिवार का बहुत अधिक प्रभाव होता है। इस कारण ही ग्रामीण समाज में परिवार को अधिक महत्त्व प्राप्त होता है तथा व्यक्ति को कम महत्त्व प्राप्त होता है। इसको ही परिवारवाद कहते हैं। जब एक या दो व्यक्तियों की जगह पूर्ण परिवार को महत्त्व दिया जाए तो इसको परिवारवाद कहते हैं। ___ समाजशास्त्रियों का कहना है कि कृषि प्रधान समाजों में सामाजिक तथा राजनीतिक संगठनों में परिवार के गुण पाए जाते हैं जोकि ग्रामीण समाज की प्राथमिक तथा सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। पारिवारिक गुणों के सामाजिक, राजनीतिक संगठनों पर प्रभाव को ही परिवारवाद कहा जाता है।

सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार, “क्योंकि परिवार ग्रामीण समाज की प्राथमिक सामाजिक संस्था है, इसलिए स्वाभाविक ही यह आशा की जाती है कि कृषि समूहों के ऊपर सामाजिक संस्थाओं तथा ग्रामीण परिवारों की विशेषताओं की छाप हो। दूसरे शब्दों में ग्रामीण समाज के सभी सामाजिक संगठनों के प्राथमिक सामाजिक सम्बन्धों के नमूने, ग्रामीण पारिवारिक सम्बन्धों के अनुसार बने होते हैं। परिवारवाद शब्द ऐसे ही सामाजिक संगठनों के लिए प्रयोग किया गया है।”
इस प्रकार जब गांव की राजनीतिक तथा सामाजिक संस्थाओं के ऊपर परिवार का प्रभाव हो तो इसको परिवारवाद कहते हैं। परिवारवाद की विशेषताएं इस प्रकार हैं :

1. परिवार एक आदर्श के रूप में (Family in the form of an Ideal)-परिवार को समाज के एक आदर्श के रूप में देखा जाता है। परिवार में नैतिक माप दण्ड, धार्मिक विश्वास, सामाजिक धारणाएं होती हैं तथा अगर कोई इनको तोड़ने तथा परिवार की स्थिरता को कमजोर करने की कोशिश करता है तो उसकी निन्दा की जाती है।

2. परिवार सामाजिक उत्तरदायित्व की इकाई (Family a unit of Social Responsibility)-किसी भी ग्रामीण समाज की प्राथमिक इकाई परिवार होता है। इसकी सभी ज़िम्मेदारियां परिवार ही निभाता है तथा परिवार ही सामूहिक रूप से कर अदा करता है। गांव में किसी व्यक्ति की पहचान भी उसके परिवार से ही होती है। किसी भी व्यक्ति को निजी तौर पर पहचाना नहीं जाता है।

3. परिवार का राजनीतिक संस्थाओं पर प्रभाव (Effect of family on Political Institutions)-कृषि प्रधान समाजों में राजनीतिक संस्थाओं का रूप भी ग्रामीण परिवारों जैसा ही होता है। शासक तथा आम लोगों के बीच का रिश्ता परिवार के मुखिया तथा सदस्यों के बीच के रिश्ते जैसा होता है। राजा, शासक इत्यादि को पिता प्रधान परिवार के मुखिया के जैसा ही समझा जाता है। गांव की राजनीतिक गतिविधियों में परिवार का मुखिया ही परिवार का प्रतिनिधि होता है। परिवार जहां पर भी कह दे सदस्य वहीं पर ही वोट भी डालते हैं।

4. सहयोग से भरपूर रिश्ते (Relations full of Co-operation)-शहरी समाजों में रिश्ते सहयोग वाले नहीं बल्कि समझौते पर आधारित होते हैं। व्यक्ति कार्य खत्म होने के बाद रिश्ता भी खत्म कर देता है। परन्तु कृषि प्रधान तथा ग्रामीण समाजों में रिश्ते समझौते पर आधारित न होकर बल्कि सहयोग, हमदर्दी, प्यार तथा मेल मिलाप वाले होते हैं। इकट्ठे रहने, इकट्ठे कार्य करने, एक जैसे विचारों तथा विश्वासों को मानने तथा परिवार के प्रति निष्ठा और एकता के कारण सहयोग से भरपूर रिश्ते सामने आते हैं।

5. परिवार-उत्पादन, उपभोग तथा विभाजन की इकाई (Family a unit of Production, Consumption and Exchange) ग्रामीण समाज के आर्थिक ढांचे में भी ग्रामीण परिवार के गुण पाए जाते हैं। ग्रामीण परिवार में ही उत्पादन होता है तथा उपभोग भी। इसका अर्थ है कि परिवार की आवश्यकताओं के अनुसार ही उत्पादन किया जाता है तथा परिवार ही उस उत्पादन का उपभोग करता है। गांव में विभाजन बहुत ही साधारण तरीके से होता है। पैसे के लेन-देन की जगह चीज़ों का लेन-देन कर लिया जाता है। परिवार ही विनिमय का आधार होता है।

6. बहुत अधिक प्रथाएं (Many Customs)-कृषि प्रधान समाजों में सभी ही ग्रामीण जीवन की प्रक्रियाएं प्रथाओं के इर्द-गिर्द ही चलती हैं। जीवन के प्रत्येक पक्ष से सम्बन्धित प्रथाएं ग्रामीण समाज में मौजूद होती हैं तथा यह व्यक्ति के जीवन में हरेक पक्ष को प्रभावित करती रहती हैं।

7. पितृ पूजा की प्रमुखता (Dominance of Ancestoral Worship)-ग्रामीण समाज में धर्म का बहुत अधिक महत्त्व होता है। परिवार के सभी सदस्यों को परिवार की प्रथाओं, परम्पराओं इत्यादि को मानना ही पड़ता है। ग्रामीण परिवारों में पूजा बहुत होती है। बुजुर्गों की पूजा ग्रामीण समाज का महत्त्वपूर्ण अंग है। लोग देवी-देवताओं की पूजा के साथ-साथ पूर्वजों की पूजा भी कर लेते हैं।
इस प्रकार जिन समाजों में परिवारवाद की प्रधानता होती है वहां परिवार की अपनी ही कुछ विशेषताएं होती हैं।

प्रश्न 3.
ग्रामीण विवाह क्या होता है ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
साधारणतया किसी भी समाज में विवाह करवाना आवश्यक समझा जाता है क्योंकि समाज को आगे बढ़ाने के लिए विवाह करवाना आवश्यक है। विवाह के बिना पैदा हई सन्तान को समाज की तरफ से मान्यता प्राप्त नहीं होती है। कृषि प्रधान समाजों में तो इसको बहुत ही आवश्यक समझा जाता है। ग्रामीण समाजों में बच्चों का विवाह करना आवश्यक समझा जाता है। लड़की को तो एक बोझ ही समझा जाता है। इस कारण ही लड़की का विवाह जल्दी कर दिया जाता है। इस प्रकार विवाह पुरुष तथा स्त्री के बीच बनाया गया रिश्ता है जिसका उद्देश्य परिवार बनाना, घर बसाना, बच्चे पैदा करना तथा समाज को आगे बढ़ाना है।।

विवाह व्यक्ति के जीवन का बहुत महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। भारतीय समाज काफ़ी हद तक एक ग्रामीण समाज है जिस कारण ग्रामीण विवाह में विवाह को पारिवारिक मामला समझा जाता है। विवाह से दो परिवार इकट्ठे होते हैं तथा लड़का-लड़की एक दूसरे से सम्बन्ध बनाते हैं। ग्रामीण समाज में गोत्र से बाहर विवाह करवाना तथा जाति के अंदर विवाह करवाना आवश्यक समझा जाता है। विवाह से दो परिवारों की स्थिति का पता चलता है।
ग्रामीण समाजों में विवाह को एक समझौता नहीं बल्कि धार्मिक संस्कार समझा जाता है। गांवों में विवाह परम्परागत ढंग से तथा पूर्ण रीति-रिवाजों से किए जाते हैं। विवाह से पहले देवी-देवताओं की पूजा होती है। लड़की के घर बारात जाती है, विवाह से सम्बन्धित कई प्रकार की रस्में पूर्ण की जाती हैं तथा विवाह सम्पन्न होता है। चाहे शहरों में रस्में कम होती जा रही हैं परन्तु ग्रामीण समाजों में विवाह पूर्ण संस्कारों तथा रीति-रिवाजों के साथ होते हैं। ग्रामीण विवाह में शहरों जैसी तड़क-भड़क (Pomp and Show) तो नज़र नहीं आती परन्तु यह होता पूर्ण परम्परा से है।
इस प्रकार ग्रामीण समाजों में जो विवाह पूर्ण धार्मिक संस्कारों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं इत्यादि के साथ होता है उसको ग्रामीण विवाह का नाम दिया जाता है। इस विवाह से न केवल धर्म की पालना की जाती है बल्कि यौन सन्तुष्टि तथा सन्तान पैदा करना भी इसके उद्देश्य हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

ग्रामीण विवाह की विशेषताएँ (Characteristics of Rural Marriage)-

1. धार्मिक संस्कार (Religious Sacrament) ग्रामीण समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है क्योंकि इसका उद्देश्य धार्मिक होता है। धार्मिक ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि व्यक्ति विवाह करके अपनी गृहस्थी बसाएगा, सन्तान पैदा करके समाज को आगे बढ़ाएगा तथा अपने ऋण उतारेगा। व्यक्ति अपने ऋण केवल विवाह करके तथा सन्तान पैदा करके ही उतार सकता है। ग्रामीण समाज में व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक कई संस्कारों में से गुजरना पड़ता है। इस कारण ही इसे धार्मिक संस्कार माना जाता है।

2. धर्म से सम्बन्धित (Related with Religion)-ग्रामीण विवाह हमेशा धर्म से सम्बन्धित होता है क्योंकि ग्रामीण विवाह पूर्ण धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ पूर्ण किया जाता है। चाहे शहरों में धार्मिक रीति-रिवाज कम हो गए हैं परन्तु ग्रामीण समाजों में यह अभी भी चल रहे हैं। धार्मिक रीति-रिवाज पूर्ण करने के कारण व्यक्ति के बहुत-से कर्तव्य बन जाते हैं। उदाहरण के तौर पर व्यक्ति ने अपने जीवन में कई ऋण उतारने हैं तथा कई प्रकार के यज्ञ करने हैं। यज्ञ पूर्ण करने के लिए विवाह करना आवश्यक होता है क्योंकि विवाह के बिना व्यक्ति यज्ञ नहीं कर सकता है। इस प्रकार ग्रामीण विवाह धर्म से सम्बन्धित होता है।

3. परम्पराओं से विवाह करना (Marriage to be done with full Traditions)-ग्रामीण समाज में परम्परागत रूप से तथा पूर्ण परम्पराएं निभा कर विवाह किया जाता है। परम्पराएं जैसे कि लड़के का घोड़ी पर चढ़ कर बारात लेकर लड़की के घर जाना, बारातियों का नाचते हुए जाना, लड़की से फेरे लेने, लड़की का डोली में बैठकर लड़के के घर जाना, वहां कई प्रकार की रस्में पूर्ण करना इत्यादि हैं जिनसे कि ग्रामीण विवाह पूर्ण होता है। ये प्रथाएं तथा परम्पराएं न केवल ग्रामीण विवाह में बल्कि हिंदू विवाह में भी मौजूद होती हैं। इन परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों को पूर्ण किए बिना ग्रामीण समाजों में विवाह को पूर्ण नहीं समझा जाता है।

4. विवाह टूट नहीं सकता है (Marriage cannot be Broken)-ग्रामीण समाज में विवाह को समझौता नहीं बल्कि धार्मिक संस्कार समझा जाता है। अगर इसको समझौता समझा जाए तो इसको कभी भी तोड़ा जा सकता है जैसे कि शहरी समाजों में होता है। परन्तु ग्रामीण समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार समझा जाता है जिसको कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता। विवाह को तो सात जन्मों का बन्धन समझा जाता है जो कि कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता।

5. विवाह आवश्यक है (Marriage is Necessary) ग्रामीण समाजों में विवाह को बहुत ही आवश्यक समझा जाता है क्योंकि बिन ब्याहे बच्चों को माता-पिता पर बोझ समझा जाता है। विशेषतया लड़कियों के लिए तो विवाह बहुत ही आवश्यक है क्योंकि अगर लड़की का विवाह नहीं होता तो यह समझा जाता है कि माता-पिता अपना फर्ज़ पूर्ण नहीं कर रहे हैं। ग्रामीण समाजों में यह समझा जाता है कि स्त्रियों के लिए मां बनना बहुत ज़रूरी होता है क्योंकि इसके साथ ही समाज आगे चलता है। लड़के के विवाह से लड़की का विवाह आवश्यक समझा जाता है क्योंकि लड़के के चाल चलन के बारे में कोई डर नहीं होता परन्तु लड़की के बारे में यह डर होता है तथा लड़की के गलत चाल चलन से परिवार की स्थिति निम्न हो सकती है।

6. माता-पिता द्वारा व्यवस्थित विवाह (Arranged marriage by Parents)-ग्रामीण समाजों में विवाह को एक पुरुष तथा स्त्री का मेल नहीं बल्कि दो परिवारों, दो समूहों अथवा दो गांवों का मेल समझा जाता है। इस कारण माता-पिता अपने बच्चे का साथी ढूंढ़ने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विवाह निश्चित करने के लिए परिवार के आकार, परिवार की स्थिति, नातेदारी तथा परिवार की आर्थिक स्थिति को बहुत महत्त्व दिया जाता है। इसके साथसाथ बच्चे के निजी गुणों को भी ध्यान में रखा जाता है। अगर बच्चे में कोई व्यक्तिगत कमी है तो उसका विवाह करने में काफ़ी मुश्किल आती है। माता-पिता ही बच्चे का विवाह करते हैं तथा कोशिश यह ही होती है कि विवाह धूमधाम से किया जाए।

7. धार्मिक व्यक्ति की भूमिका (Role of Priest)—विवाह में पण्डित की बहुत बड़ी भूमिका होती है। लगभग सभी समाजों में ही विवाह को निश्चित करने से पहले लड़के तथा लड़की की जन्म पत्री पण्डित को दिखाई जाती है। अगर कुण्डली मिलती है तो विवाह पक्का कर दिया जाता है। परन्तु अगर कुण्डली नहीं मिलती है तो विवाह पक्का नहीं किया जाता है। विवाह पक्का करने के बाद शगुन लेने-देने, मंगनी के समय तथा विवाह करवाने में पण्डित की बहुत बड़ी भूमिका होती है क्योंकि पण्डित ने ही सभी धार्मिक क्रियाओं को पूर्ण करने के बाद ही विवाह करवाना है। पण्डित मन्त्र पढ़कर तथा पूर्ण विधि विधान से विवाह करवाता है। इस प्रकार ग्रामीण विवाह में पण्डित या धार्मिक व्यक्ति की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

इसके साथ ही एक महत्त्वपूर्ण चीज़ यह है कि गांव में मंगनी के बाद तथा विवाह से पहले लड़के लड़की को मिलने की इजाजत नहीं होती है। चाहे शहरों में यह बात आम हो गई है। इस समय को बहुत ही नाजुक समझा जाता है क्योंकि लड़का-लड़की में किसी बात पर तकरार होने पर रिश्ता टूट भी सकता है। इस तरह ग्रामीण समाज में विवाह से पहले लड़का तथा लड़की पर बहुत पाबन्दियां होती हैं।

प्रश्न 4.
ग्रामीण समाज में साथी के चुनाव के कौन-कौन से नियम हैं ? उनका वर्णन करो।
उत्तर-
किसी भी समाज में बुजुर्ग माता-पिता के सामने सबसे बड़ा प्रश्न अपने बच्चों के विवाह करने का होता है। विवाह के लिए साथी की आवश्यकता होती है तथा साथी का चुनाव ही सबसे बड़ी मुश्किल होती है। साथी चुनाव का अर्थ होने वाले जीवन-साथी के चुनाव से है। साथी के चुनाव के लिए यह आवश्यक है कि चुनाव के क्षेत्र का निर्धारण हो कि कहां पर विवाह करना है तथा कहां पर विवाह नहीं करना है। साथी के चुनाव के लिए हमारे समाजों में कुछ नियम बनाए गए हैं कि गोत्र, सपिण्ड इत्यादि में विवाह नहीं करना है परन्तु जाति अथवा उपजाति के अन्दर ही विवाह करना है। वैसे तो नियम प्रत्येक समाज के अलग-अलग होते हैं तथा यह समय तथा समाज के अनुसार बदलते रहते हैं। साथी का चुनाव व्यक्ति की इच्छा पर ही आधारित नहीं होता बल्कि समाज द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार . भी होता है। इसलिए कपाडिया (Kapadia) ने साथी के चुनाव को तीन भागों में बांटा है

  1. चुनाव का क्षेत्र (The field of Selection)
  2. चुनाव करने के लिए दूसरा पक्ष (Parties for Selection)
  3. चुनाव की कसौटियां (Criteria of Selection)! अब हम इसका वर्णन विस्तार से करेंगे

1. चुनाव का क्षेत्र (Field of Selection)-हिन्दू समाज में विवाह करने के लिए कुछ नियम बनाए गए हैं जैसे कि अन्तर्विवाह तथा बहिर्विवाह। इन नियमों को मानने के साथ विवाह का क्षेत्र सीमित हो जाता है। अन्तर्विवाह तथा बहिर्विवाह के नियम इस प्रकार हैं

(i) अन्तर्विवाह (Endogamy)-अन्तर्विवाह के नियम के द्वारा व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति आगे उपजातियों में (Sub-caste) बंटी हुई थी। व्यक्ति को उपजाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति प्रथा के समय अन्तर्विवाह के इस नियम को बहुत सख्ती से लागू किया गया था। यदि कोई व्यक्ति इस नियम की उल्लंघना करता था तो उसको जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था व उससे हर तरह के सम्बन्ध तोड़ लिए जाते थे। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार समाज को चार जातियों में बांटा हुआ था तथा ये जातियां आगे उप-जातियों में बंटी हुई थीं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी उप-जाति में ही विवाह करवाता था। होइबल (Hoebal) के अनुसार, “आन्तरिक विवाह एक सामाजिक नियम है जो यह मांग करता है कि व्यक्ति अपने सामाजिक समूह में जिसका वह सदस्य है विवाह करवाए।”

अन्तर्विवाह के भारत में पाए जाने वाले रूप(1) कबाइली अन्तर्विवाह। (2) जाति अन्तर्विवाह। (3) वर्ग-अन्तर्विवाह। (4) उप-जाति अन्तर्विवाह। (5) नस्ली अन्तर्विवाह।

(ii) बहिर्विवाह (Exogamy)-विवाह की संस्था एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। कोई भी समाज किसी जोड़े को बिना विवाह के पति-पत्नी के सम्बन्धों को स्थापित करने की स्वीकृति नहीं देता। इसी कारण प्रत्येक समाज विवाह स्थापित करने के लिए कुछ नियम बना लेता है। सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य साथी का चुनाव करना होता है। बहिर्विवाह में भी साथी के चुनाव करने का नियम होता है। कई समाजों में जिन व्यक्तियों में खून के सम्बन्ध होते हैं या अन्य किसी किस्म से वह एक-दूसरे से सम्बन्धित हों तो ऐसी अवस्था में उन्हें विवाह करने की स्वीकृति नहीं दी जाती। इस प्रकार बहिर्विवाह का अर्थ यह होता है कि व्यक्ति को अपने समूह में विवाह करवाने की मनाही होती है। एक ही माता-पिता के बच्चों को आपस में विवाह करने से रोका जाता है। मुसलमानों में माता-पिता के रिश्तेदारों में विवाह करने की इजाज़त दी जाती है। इंग्लैंड के रोमन कैथोलिक चर्च (Roman Catholic Church) में व्यक्ति को अपनी पत्नी की मौत के पश्चात् अपनी साली से विवाह करने की आज्ञा नहीं दी जाती। ऑस्ट्रेलिया में लड़का अपने पिता की पत्नी से विवाह कर सकता है यदि वह उसकी सगी मां नहीं है।

बहिर्विवाह के नियम अनुसार व्यक्ति को अपनी जाति, गोत्र, स्पर्वर, सपिण्ड आदि में विवाह करवाने की आज्ञा नहीं दी जाती। इसके कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं

  • गोत्र बहिर्विवाह।
  • स्पर्वर बहिर्विवाह।
  • सपिण्ड बहिर्विवाह।
  • गांव से बहिर्विवाह।
  • टोटम बहिर्विवाह।

2. चुनाव करने के लिए दूसरा पक्ष (Parties for Selection)–विवाह करने के लिए साथी के चुनाव के क्षेत्र के नियम तो समाज ने बना दिए हैं परन्तु विवाह करने के लिए दूसरे पक्ष का होना भी आवश्यक है। दूसरा पक्ष ढूंढ़ने के लिए कई प्रकार के ढंग प्रचलित हैं। सबसे पहला ढंग तो यह है कि विवाह के लिए साथी का चुनाव लड़के अथवा लड़की के रिश्तेदार करें। वह अपने लड़के या लड़की के लिए रिश्ते ढूंढें, घर-बार देखने के बाद ही रिश्ता पक्का करें। इस को व्यवस्थित विवाह (Arranged marriage) भी कहा जाता है। दूसरी प्रकार में विवाह के लिए साथी का चुनाव अपने मित्रों, रिश्तेदारों की सलाह से किया जाता है। भारतीय समाज की उच्च श्रेणी में इस प्रकार का विवाह प्रचलित है। तीसरी प्रकार में लड़का या लड़की अपनी पसन्द का साथी चुनते हैं तथा उससे विवाह करते हैं। इसको प्रेम विवाह (Love Marriage) भी कहा जाता है।

विवाह के साथी का चुनाव करने में रिश्तेदार तथा मित्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो विवाह के लिए माता-पिता किसी मध्यस्थ अथवा रिश्तेदार को भी कह देते हैं ताकि वह उनके बच्चों के लिए साथी चुन सके। नाई अथवा ब्राह्मण भी इस समय महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि वह अलग-अलग गांवों में जाते रहते हैं तथा उनको गांव के बिन ब्याहे लड़के तथा लड़कियों के बारे में पता होता है। घर के मर्दो का इस सम्बन्ध में निर्णय अन्तिम होता है। अगर कोई मध्यस्थ विवाह करवाने में सफल हो जाता है तो उसको दोनों परिवारों की तरफ से ईनाम दिया जाता है। क्योंकि ग्रामीण समाजों में गांव में विवाह करवाना मना होता है इसलिए वह गांव, गोत्र, स्पर्वर इत्यादि से बाहर ही रिश्ता ढूंढ़ते हैं। यह प्रक्रिया काफ़ी समय तक चलती रहती है। चाहे आजकल मध्यस्थों का महत्त्व कम हो गया है तथा यातायात और संचार के साधनों के बढ़ने के कारण माता-पिता अपने आप ही रिश्ता तथा उनके बारे में पूछताछ करने लग गए हैं। · वैसे तो आजकल के समय में माता-पिता बच्चे से पूछ कर उसकी पसन्द के अनुसार विवाह करवाना ही पसन्द करते हैं। आजकल लड़का तथा लड़की अपनी मर्जी से विवाह करवाना ही पसन्द करते हैं जिस कारण प्रेम विवाहों का चलन भी बढ़ रहा है। प्रेम विवाह के कारण अन्तर्जातीय विवाह आगे आ रहे हैं।

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3. चुनाव की कसौटियां (Criteria of Selection)-यह ठीक है कि विवाह के लिए साथी का चुनाव करने के नियम भी हैं तथा पक्ष भी हैं परन्तु इन पक्षों को निश्चित करने के लिए कुछ कसौटियां भी होती हैं। ये कसौटियां दूसरे पक्ष से सम्बन्धित होती हैं। जैसे कि दूसरे पक्ष का परिवार, व्यक्तिगत, गुण, दहेज इत्यादि। उनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) परिवार (Family)—प्राचीन समय में विवाह करने के लिए लड़का-लड़की को कम बल्कि परिवार को अधिक महत्त्व दिया जाता था। यह देखा जाता था कि परिवार अपने धार्मिक कर्तव्यों को पूर्ण कर रहा है अथवा नहीं। अगर परिवार अपने धार्मिक कर्त्तव्यों को पूर्ण कर रहा होता था तो उस परिवार को विवाह के लिए सही माना जाता था तथा विवाह हो जाता था नहीं तो उस परिवार को विवाह के लिए शुभ नहीं समझा जाता था। इसके साथ ही इस बात का ध्यान भी रखा जाता था कि परिवार की समाज में कोई स्थिति भी हो।

ग्रामीण समाजों में विवाह को केवल लड़के तथा लड़की के बीच ही रिश्ता नहीं समझा जाता बल्कि इसको दो परिवारों, दो समूहों तथा दो गांवों में रिश्ता समझा जाता है। परिवार के बड़े बुजुर्ग विवाह में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लड़के लड़की की अपनी पसन्द को बहुत ही कम महत्त्व दिया जाता है। विवाह केवल सामाजिक तथा धार्मिक कर्त्तव्य पूर्ण करने के लिए किए जाते हैं। इस कारण ही विवाह में व्यक्तिगत पसन्द का महत्त्व कम तथा बड़े बुजुर्गों की मर्जी अधिक होती है। विवाह के लिए साथी के चुनाव के समय दूसरे पक्ष के परिवार की सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, परिवार का आकार, परिवार की रिश्तेदारी इत्यादि को मुख्य रखा जाता है। इसके साथ ही यह भी देखा जाता है कि दूसरे पक्ष के पास कृषि योग्य कितनी भूमि है।

(ii) साथी के व्यक्तिगत गुण (Individual abilities of the Mate)-जीवन साथी के चुनाव के लिए परिवार देखने के साथ-साथ साथी के व्यक्तिगत गुणों को भी देखा जाता है। आजकल के समय में ग्रामीण समाजों में भी बच्चे पढ़-लिख रहे हैं जिस कारण वह होने वाले साथी के व्यक्तिगत गुणों को भी बहुत महत्त्व देते हैं। यह गुण हैं जैसे कि साथी का चरित्र, उसकी उम्र, शिक्षा का स्तर, आय, रंग, ऊंचाई, सुन्दरता, स्वभाव, घर के कार्य करने आना इत्यादि। अगर लड़का ढूंढ़ना होता है तो यह देखा जाता है कि वह कोई नशा तो नहीं करता है अथवा उसकी दोस्ती ठीक है अथवा नहीं। अगर लड़के अथवा लड़की की सुन्दरता कम है अथवा रंग काला है, अपाहिज है, बहुत गुस्सा आता है तो ऐसे हालातों में साथी ढूंढ़ने के मौके बहुत कम हो जाते हैं।

(iii) दहेज (Dowry)-परम्परागत भारतीय समाज में विवाह के समय लड़की को दहेज देने की प्रथा चली आ रही है। विवाह के समय माता-पिता लड़की को लड़के के घर भेजते समय लड़की, लड़के तथा लड़के के माता-पिता को कुछ उपहार भी देते हैं। इन उपहारों को ही दहेज का नाम दिया जाता है। हरेक परिवार अपनी आर्थिक स्थिति तथा लड़के वालों की सामाजिक स्थिति के अनुसार दहेज देता है। जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है वह अधिक दहेज देते हैं तथा जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर होती है वह कम दहेज देते हैं।

आजकल के समय में यह प्रथा काफ़ी बढ़ गई है तथा यह सम्पूर्ण भारतीय समाज में समान रूप से प्रचलित है। चाहे 1961 के Dowry Prohibition Act के अनुसार दहेज लेना तथा देना गैर-कानूनी है तथा दहेज लेने तथा देने वाले को सज़ा भी हो सकती है परन्तु यह प्रथा ज़ोर-शोर से चल रही है। इस प्रथा के कारण साथी के चुनाव का क्षेत्र काफ़ी सीमित हो गया है। इसका कारण यह है कि सभी लोग अधिक-से-अधिक दहेज प्राप्त करना चाहते हैं तथा सभी लोग अधिक दहेज दे नहीं सकते हैं। इस दहेज प्रथा के कारण सैकड़ों लड़कियां प्रत्येक वर्ष मर जाती हैं। ग्रामीण समाजों में दहेज लेने का चलन भी काफ़ी अधिक है। साथी का चुनाव करते समय यह देखा जाता है कि कौन-सा परिवार कितना दहेज दे सकता है। . इस प्रकार इन आधारों के आधार पर ग्रामीण समाजों में साथी का चुनाव किया जाता है। चाहे अब बढ़ती शिक्षा के कारण, कई प्रकार के कानूनों के कारण तथा पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण इन नियमों का महत्त्व कम हो रहा है तथा अन्तर्जातीय विवाह बढ़ रहे हैं परन्तु फिर भी यह नियम विवाह के समय बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

प्रश्न 5.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
अथवा ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं की विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
अगर हम ग्रामीण समाज का अध्ययन करना चाहते हैं तो हमें सबसे पहले ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बारे में समझना पड़ेगा क्योंकि ग्रामीण समाजों में सम्बन्धों के आर्थिक आधार का बहुत महत्त्व है। ग्रामीण समाज में भूमि को बहुत महत्त्व दिया जाता है क्योंकि ग्रामीण आर्थिकता का मुख्य आधार ही भूमि होती है। हमारे देश की लगभग 70% के करीब जनसंख्या कृषि अथवा कृषि से सम्बन्धित कार्यों में लगी हुई है तथा कृषि प्रत्यक्ष रूप से भूमि से सम्बन्धित कार्यों में लगी हुई है। भूमि का ग्रामीण समाज की आर्थिक तथा सामाजिक संरचना पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

देश की अधिकतर जनसंख्या के कृषि में लगे होने के कारण हमारे देश की आर्थिकता भी मुख्य रूप से कृषि पर ही निर्भर करती है। देश की लगभग आधी आय कृषि से सम्बन्धित कार्यों से ही आती है। चाहे गांवों में और बहुत-से पेशे होते हैं परन्तु वह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से सम्बन्धित होते हैं। गांव की कई जातियां कई और जातियों को अपनी सेवाएँ भी देती हैं तथा उसकी एवज़ में उन्हें पैसा अथवा उत्पादन में से हिस्सा मिलता है। गांवों में अगर शारीरिक तौर पर कार्य करते हैं तो वह भी कृषि से ही सम्बन्धित होते हैं जैसे कि कृषि क्षेत्र में कार्य करने वाले मजदूर। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि गांवों में लगभग सभी कार्य कृषि से सम्बन्धित होते हैं इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था की विशेषताएं भी कृषि अथवा भूमि से सम्बन्धित होती हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :

1. मुख्य पेशा-कृषि (Main occupation-Agriculture) हमारे देश में ग्रामीण लोगों का मुख्य पेशा कृषि है तथा कृषि ही शहरी तथा ग्रामीण समाजों की आर्थिकता का मुख्य अन्तर है। साधारण ग्रामीण लोगों के लिए जीने का ढंग भी कृषि है। ग्रामीण लोगों के रहने सहने, रोज़ाना के कार्य, विचार, आदतें, सोच इत्यादि सभी कुछ कृषि पर आधारित होते हैं। ग्रामीण समाज में उत्पादन का मुख्य साधन कृषि ही है तथा भूमि को सामाजिक स्थिति का निर्धारण समझा जाता है। भूमि के साथ-साथ पशुओं को भी सम्पत्ति के रूप में गिना जाता है। कई प्रकार के और पेशे जैसे कि बढ़ई, लोहार, दस्तकारी के कार्य इत्यादि भी ग्रामीण समाज की आर्थिकता का हिस्सा हैं।

2. उत्पादन तथा उत्पादन की विधि (Production and Method of Production)—चाहे प्राचीन समय में ग्रामीण समाजों में कृषि का कार्य हल तथा बैलों की मदद से होता था परन्तु आजकल कृषि का कार्य ट्रैक्टरों, थ्रेशरों, कम्बाइनों इत्यादि से होता है। किसान गेहूँ, ज्वार, मकई, चावल, कपास इत्यादि का उत्पादन करते हैं परन्तु अब किसान और कई प्रकार की फसलें उगाने लग गए हैं। इनके साथ ही वह कई प्रकार की सब्जियां तथा फल भी उत्पन्न करने लग गए हैं। लोग अब सहायक पेशे जैसे कि पिगरी, पोलट्री, डेयरी, मछली पालन इत्यादि जैसे कार्य कर रहे हैं। सिंचाई के लिए नहरों, ट्यूबवैल इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। वैसे तो बहुत-से किसान अपनी भूमि पर कृषि करते हैं परन्तु कई किसान अपनी भूमि को और किसानों को ठेके पर कृषि करने के लिए दे देते हैं। हरित क्रान्ति से पहले भूमि से उत्पादन काफ़ी कम था परन्तु हरित क्रान्ति के आने के बाद नए बीजों तथा उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादन काफ़ी बढ़ गया है। अब किसान रासायनिक उर्वरकों तथा नए बीजों का प्रयोग कर रहे हैं।

3. भूमि की मल्कियत (Ownership of Land)—प्राचीन समय में भारत में जमींदारी, रैय्यतवाड़ी तथा महलवाड़ी प्रथाएं प्रचलित थीं जिन के अनुसार किसान केवल भूमि पर कृषि करते थे। वह भूमि के मालिक नहीं थे। परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् इन प्रथाओं को खत्म कर दिया गया। अब किसान स्वयं ही मालिक तथा स्वयं ही काश्तकार हैं। बड़े किसान बहुत ही कम जनसंख्या में हैं जिनके पास बहुत अधिक भूमि है। सीमान्त अथवा छोटे किसानों की संख्या बहुत अधिक है जिनके पास भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े हैं। जनसंख्या के बढ़ने के कारण किसानों की भूमि उनके बच्चों में बँटती जा रही है। कई किसानों के पास तो इतनी कम भूमि रह गई है कि उनके लिए अपने जीवन का निर्वाह करना मुश्किल हो गया है। इनके लिए सरकार ने बहुत-से कार्यक्रम चलाए हैं ताकि उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारा जा सके।

4. अधिक जनसंख्या (More Population)-ग्रामीण समाजों में बहुत ही अधिक जनसंख्या होती है। हमारे देश की लगभग 2/3 जनसंख्या गांवों में रहती है। सम्पूर्ण संसार में जनसंख्या के हिसाब से हमारा देश चीन के बाद दूसरे स्थान पर आता है। क्योंकि बहुत-से लोग ग्रामीण समाजों में रहते हैं तथा कृषि पर निर्भर करते हैं इसलिए देश की आर्थिकता भी कृषि पर निर्भर करती है। हमारे देश की लगभग आधी आय कृषि अथवा उससे सम्बन्धित पेशों पर निर्भर करती है। जनसंख्या के अधिक होने के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में विकास हमें न के बराबर ही नज़र आता है।

5. ऋण (Indebtedness)-भारतीय ग्रामीण समाज की आर्थिकता की एक और मुख्य विशेषता किसानों के ऊपर ऋण का होना है। किसानों के ऊपर ऋण होने के बहुत-से कारण है। ग्रामीण परिवार आकार में बड़े होते हैं। उनकी आय तो चाहे कम होती है परन्तु बड़ा परिवार होने के कारण खर्चे बहुत ही अधिक होते हैं। खर्चे पूर्ण करने के लिए उनको साहूकारों से ब्याज पर पैसा लेना पड़ता है जिस कारण वह ऋणग्रस्त हो जाते हैं। आजकल कृषि करने में व्यय भी काफ़ी बढ़ गया है जैसे आधुनिक उर्वरकों तथा नए बीजों के मूल्य बढ़ गए हैं, बिजली के न होने के कारण उन्हें डीज़ल के पंपों से पानी का प्रबन्ध करना पड़ता है, वर्षा न होने के कारण कृषि का खर्चा बढ़ जाता है, फसल के अच्छे दामों पर न बिकने के कारण घाटा अथवा उत्पादन की गुणवत्ता अच्छी न होने के कारण कम मूल्य मिलना इत्यादि ऐसे कारण है जिन की वजह से किसान अपने खर्चे पूर्ण नहीं कर सकता है। इस कारण उनको बैंकों से अथवा साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है। वह ब्याज अधिक होने के कारण ऋण वापिस नहीं कर सकते तथा धीरे-धीरे ऋण में फँस जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा इत्यादि जैसे प्रदेशों में किसानों में ऋण के कारण आत्म हत्या करने की प्रवृत्ति तथा संख्या बढ़ रही है। इस प्रकार ग्रामीण आर्थिकता में ऋण एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

6. ग्रामीण उद्योग (Rural Industries)—ग्रामीण आर्थिकता का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है ग्रामीण उद्योगों का होना। यह ग्रामीण उद्योग छोटे-छोटे होते हैं। प्राचीन समय में छोटे उद्योग तो जाति पर आधारित होते थे परन्तु आजकल के ग्रामीण उद्योग विज्ञान पर आधारित होते हैं। जनसंख्या के बढ़ने के कारण तथा गरीबों की बढ़ रही जनसंख्या को देखते हुए सरकार भी ग्रामीण समाजों में लोगों को स्वैः रोज़गार देने के लिए छोटे तथा लघु उद्योगों को प्रोत्साहित कर रही है। दरियां, खेस तथा और कपड़ों की बुनाई, सिलाई, कढ़ाई तथा और कई प्रकार के उद्योग हैं जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन गए हैं।

7. उत्पादन सम्बन्ध (Production Relations)-कृषि उत्पादन में संस्थात्मक सम्बन्धों का विशेष स्थान है। अच्छे सम्बन्ध उत्पादन को बढ़ा सकते हैं तथा खराब सम्बन्ध उत्पादन को कम कर सकते हैं। चाहे आजकल के समय में कृषि के संस्थात्मक सम्बन्धों में बहुत परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी भारतीय ग्रामीण आर्थिकता में इन सम्बन्धों का बहुत महत्त्व है। इन सम्बन्धों में जजमानी व्यवस्था सबसे महत्त्वपूर्ण है।

जजमान का अर्थ है सेवा करने वाला अथवा यज्ञ करने वाला। समय के साथ-साथ यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग किया जाने लग गया जो दूसरे लोगों से सेवाएं ग्रहण करते थे। इस सेवा ग्रहण करने तथा सेवा करने के अलगअलग जातियों में पुश्तैनी सम्बन्धों को ही जजमानी व्यवस्था कहते हैं। इस व्यवस्था के अनुसार पुजारी, दस्तकार तथा और छोटी जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों को अपनी सेवाएं देते हैं। जैसे कोई पण्डित किसी विशेष जाति के लिए पुरोहित अथवा पुजारी का कार्य करता है, नाई उसकी दाढ़ी बनाता तथा बाल काटता है तथा धोबी उस जाति के कपड़े धोता है। इस तरह उस जाति के सभी सदस्य उस ब्राह्मण, धोबी तथा नाई के जजमान हैं।

जजमानी व्यवस्था में सम्पूर्ण ग्रामीण आर्थिकता कृषि तथा किसान के इर्द-गिर्द घूमती हैं। किसान का ग्रामीण आर्थिकता में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा और जातियों के सहायक पेशे किसानों के सहायक जैसे होते हैं। किसान तो भूमि को कृषि के योग्य बनाता है परन्तु दूसरी जातियां कृषि के कार्यों को पूर्ण करने के लिए अपनी सेवाएँ देती हैं। बदले में उन्हें किसान से उत्पादन में से हिस्सा मिलता है। लोहार कृषि से सम्बन्धित औजार बनाता है, चर्मकार जूते बनाता है इत्यादि। जजमानी व्यवस्था की मुख्य विशेषता यह है कि मनुष्य के जीवन की आवश्यकताएं स्थानीय स्तर पर ही पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रकार जजमानी व्यवस्था से ग्रामीण अर्थव्यवस्था ठीक प्रकार से चलती रहती है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में किसान-आढ़ती अथवा किसान-बनिए का सम्बन्ध भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इतिहास को देखने से हमें पता चलता है कि भारतीय किसान सदियों से आढ़तियों के कर्जे के नीचे दबा हुआ है। किसान को अलग-अलग कार्यों जैसे कि विवाह, मृत्यु इत्यादि के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है तथा उसकी यह आवश्यकता आढ़ती पूर्ण करता है। यह कहा जाता है कि किसान आढ़ती के कर्जे के नीचे पैदा होता है, पलता है, बड़ा होता है तथा मरता भी कर्जे के नीचे ही है। इस प्रकार ग्रामीण आर्थिकता में यह सम्बन्ध भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

इसके साथ-साथ किसान तथा मजदूर का सम्बन्ध भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। पहले मज़दूर जातियां जजमानी व्यवस्था के अनुसार अपने जजमानों के लिए मजदूरी करती थीं तथा किसान उनकी मज़दूरी के लिए उत्पादन में से कुछ हिस्सा उनको देते थे। परन्तु अब जजमानी व्यवस्था के कम होते प्रभाव तथा पैसे से सम्बन्धित आर्थिकता के बढ़ने के कारण इन सम्बन्धों में बहुत परिवर्तन आया है। आजकल मज़दूर किसान के पास कार्य करने के लिए नकद पैसे लेता है। अब जजमानी व्यवस्था की जगह समझौते की भावना वाले सम्बन्ध आगे आ चुके हैं।

ग्रामीण आर्थिकता का प्रकृति से भी बहुत गहरा सम्बन्ध है। उदाहरण के लिए अगर वर्षा अच्छी हो जाती है तो उत्पादन भी काफ़ी अच्छा हो जाता है। परन्तु अगर वर्षा कम होती है तो सूखे जैसी स्थिति पैदा हो जाती है और उत्पादन भी कम होता है। यहां तक कि विज्ञान भी किसान की प्रकृति के ऊपर निर्भरता कम नहीं कर सका है। इस प्रकार ग्रामीण आर्थिकता में इन सम्बन्धों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। – इस प्रकार इन विशेषताओं को देख कर हम कह सकते हैं कि ग्रामीण समाज की आर्थिकता मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर करती है। ग्रामीण समाज में मिलने वाले सभी प्रकार के सम्बन्ध कृषि से ही सम्बन्धित होते हैं।

प्रश्न 6.
ऋणग्रस्तता के परिणामों तथा इसे दूर करने के तरीके बताएं।
उत्तर-
ऋणग्रस्तता के परिणाम (Results of Indebtedness)-भारत के बहुत-से गांवों में हम बढ़ती ऋणग्रस्तता के परिणामों को देख सकते हैं। ऋणग्रस्तता के कुछ परिणामों का वर्णन इस प्रकार है-

1. गुलामी (Slavery)-ऋणग्रस्तता का सबसे बुरा परिणाम देखने को मिलता है भूमिहीन मज़दूरों की बढ़ती संख्या में। साहूकार अनपढ़ तथा लाचार किसानों की अज्ञानता का लाभ उठाते हैं तथा उनकी भूमि छीन लेते है। इस प्रकार एक किसान मज़दूर बन जाता हैं तथा अपनी ही भूमि दर साहूकार के पास अपना ऋण उतारने के लिए कार्य करना पड़ता हैं तथा यह स्थिति नौकर से ऊपर नहीं होती है। कई गांवों में तो यह प्रथा है कि माता-पिता साहूकारों से कर्जा लेते हैं तथा अपने बच्चे को कार्य करने के लिए साहूकारों के पास भेज देते हैं। इन बच्चों की स्थिति गुलामों के जैसे होती है। इस प्रकार इस ऋणग्रस्तता की समस्या ने हज़ारों किसानों को गुलामी का जीवन जीने के लिए मजबूर किया है।

2. निर्धनता का बढ़ना (Increase in Poverty)-ऋणग्रस्तता का सबसे बुरा परिणाम लोगों की निर्धनता के बढ़ने में देखने को मिलता है। अगर एक व्यक्ति एक बार ऋण के चक्र में फंस गया तो वह जितने मर्जी प्रयास कर ले, ऋण के चक्र में से निकल नहीं सकता तथा वह हमेशा निर्धन ही रहेगा। उसके लिए ऋण उतारना बहुत ही मुश्किल होता है। कई परिवारों में तो दादा का ऋण उसका पौत्र उतारता है।

3. कृषि का नुकसान (Deterioration of Agriculture)-ऋणग्रस्तता के परिणामस्वरूप कृषि की स्थिति भी दयनीय होती है क्योंकि किसान को साहूकार की भूमि पर नौकर बन कर कार्य करना पड़ता है। इस कारण किसान कृषि की तरफ अधिक ध्यान नहीं देते जोकि वह अपनी भूमि पर कार्य करते हुए देते हैं। इससे उत्पादन भी कम होता है तथा भूमि की उत्पादन शक्ति भी कम होती है।

4. आत्महत्याएं (Suicides) अगर एक किसान ऋण के नीचे आ जाता है तो वह दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होता जाता है क्योंकि उसे हमेशा ऋण वापिस करने की चिन्ता लगी रहती है। कई लोग तो ऋण उतारने के लिए ज़रूरत से अधिक परिश्रम करते हैं। परन्तु जब उन्हें मनचाहा परिणाम नहीं मिलता तो उनकी मानसिक स्थिति बिगड़ जाती है। इस प्रकार ऋणग्रस्तता से व्यक्ति आत्महत्या भी कर लेते हैं।

ऋणग्रस्तता दूर करने के उपाय (Ways to Remove Indebtedness)-

ऋणग्रस्तता की समस्या को दूर करने के लिए कई प्रकार के सुझाव आगे आए हैं जिन का वर्णन इस प्रकार है:

  • कम ब्याज पर सरकारी ऋण (Governmental loans at Low Interest)-सरकार को कम ब्याज पर सरकारी कर्जे उपलब्ध करवाने चाहिएं ताकि किसान ऊँचे ब्याज वाले साहूकारों के ऋण वापिस कर सकें। सरकारी ऋण को वापिस करने के लिए भी छोटी-छोटी किश्तें बाँध देनी चाहिए ताकि किसान आसानी से सरकारी ऋण उतार सकें।
  • सहकारी संस्थाएं तथा बैंक (Co-operative Societies and Banks)-गांव के स्तर पर ही सरकारी ऋण उपलब्ध करवाने के लिए गांव में ही सहकारी संस्थाएं तथा सहकारी बैंक खुलवाने चाहिएं। इससे किसानों को कम ब्याज पर आसानी से गांव में ही ऋण प्राप्त हो सकता है।
  • दिवालिया घोषित करने का प्रबन्ध (Arrangement for declaration of Bankruptcy)-कई बार किसानों पर ऋण, ऋण का ब्याज तथा ऋण पर ब्याज इतना अधिक हो जाता है कि उसके लिए अपना ऋण लगभग असम्भव हो जाता है। इसलिए उनको दिवालिया घोषित करने का भी प्रबन्ध किया जाना चाहिए ताकि किसान से उसकी भूमि न छीनी जा सके तथा वह कम-से-कम अपनी रोजी-रोटी कमा सके।
  • भूमि का कब्जा लेने से रोकने के लिए कानून (Law for preventing possession of Land)-सरकार को ऐसे कानून बनाने चाहिएं कि अगर कोई साहूकार किसी किसान की भूमि पर ऋण के कारण कब्जा करने की कोशिश करता है तो उसको कानून की मदद से रोका जा सके।
  • ब्याज की दर पर नियन्त्रण (Control over Rate of Interest) साहूकार किसानों से बहुत अधिक ब्याज लेते हैं। कई स्थितियों में तो यह 5-10% प्रति माह भी हो जाता है। सरकार को गांवों में अधिक-से-अधिक लेने वाली ब्याज दर को निश्चित करना चाहिए। जो साहूकार अधिक ब्याज लेते हैं उनसे सख्ती से पेश आना चाहिए।
  • साहकारों की किताबें चैक करना (Checking of accounts of the Money-lenders) सरकार को साहूकारों को अपने खाते तथा किताबें सही प्रकार से बना कर रखने के लिए कानून बनाने चाहिएं तथा समय-समय पर उनके खातों तथा किताबों को चैक करना चाहिए। अगर किसी भी साहूकार के खाते में हेर-फेर हो तो उसके विरुद्ध सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।
    इस प्रकार इन ढंगों की सहायता से वह काफ़ी हद तक ऋणग्रस्तता की समस्या को नियन्त्रण में रख सकते हैं।

प्रश्न 7.
पंचायती राज्य की धारणा के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
हमारे देश में स्थानीय क्षेत्रों के विकास के लिए दो प्रकार की पद्धतियां हैं। शहरी क्षेत्रों का विकास करने के लिए स्थानीय सरकारें होती हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए पंचायती राज्य की संस्थाएं होती हैं। स्थानीय सरकार की संस्थाएं श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित होती हैं क्योंकि इनमें सरकार तथा स्थानीय समूहों में कार्यों को बांटा जाता है। हमारे देश की 70% जनता ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों को जिस स्थानीय सरकार की संस्था द्वारा शासित किया जाता है उसे पंचायत कहते हैं। पंचायती राज्य सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों के संस्थागत ढांचे को ही दर्शाता है।

जब भारत में अंग्रेजी राज्य स्थापित हुआ था तो सारे देश में सामन्तशाही का बोलबाला था। 1935 में भारत सरकार ने एक कानून पास किया जिसने प्रान्तों को पूर्ण स्वायत्तता दी तथा पंचायती कानूनों को एक नया रूप दिया गया। पंजाब में 1939 में पंचायती एक्ट पास हुआ जिसका उद्देश्य पंचायतों को लोकतान्त्रिक आधार पर चुनी हुई संस्थाएं बना कर ऐसी शक्तियां प्रदान करना था जो उनके स्वः शासन की इकाई के रूप में निभायी जाने वाली भूमिका के लिए ज़रूरी थीं। 2 अक्तूबर, 1961 ई० को पंचायती राज्य का तीन स्तरीय ढांचा औपचारिक रूप से लागू किया गया। 1992 में 73वां संवैधानिक संशोधन हुआ जिनमें शक्तियों का स्थानीय स्तर तक विकेन्द्रीकरण कर दिया गया। इससे पंचायती राज्य को बहुत-सी वित्तीय तथा अन्य शक्तियां दी गईं।

भारत के ग्रामीण समुदाय में पिछले 50 सालों में बहुत-से परिवर्तन आए हैं। अंग्रेजों ने भारतीय पंचायतों से सभी प्रकार के अधिकार छीन लिए थे। वह अपनी मर्जी के अनुसार गांवों को चलाना चाहते थे जिस कारण उन्होंने गांवों में एक नई तथा समान कानून व्यवस्था लागू की। आजकल की पंचायतें तो आजादी के बाद ही कानून के तहत सामने आयी हैं।

ए० एस० अलटेकर (A.S. Altekar) के अनुसार, “प्राचीन भारत में सुरक्षा, लगान इकट्ठा करना, कर लगाने तथा लोक कल्याण के कार्यक्रमों को लागू करना इत्यादि जैसे अलग-अलग कार्यों की ज़िम्मेदारी गांव की पंचायत की होती थी। इसलिए ग्रामीण पंचायतें विकेन्द्रीकरण, प्रशासन तथा शक्ति की बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्थाएं हैं।”

के० एम० पानीकर (K.M. Pannikar) के अनुसार, “ये पंचायतें प्राचीन भारत के इतिहास का पक्का आधार हैं। इन संस्थाओं ने देश की खुशहाली को मज़बूत आधार प्रदान किया है।”

संविधान के Article 30 के चौथे हिस्से में कहा गया है कि, “गांव की पंचायतों का संगठन-राज्य को गांव की पंचायतों के संगठन को सत्ता तथा शक्ति प्रदान की जानी चाहिए ताकि ये स्वः सरकार की इकाई के रूप में कार्य कर सकें।”
गांवों की पंचायतें गांव के विकास के लिए बहुत-से कार्य करती हैं जिस लिए पंचायतों के कुछ मुख्य उद्देश्य रखे गए हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

पंचायतों के उद्देश्य (Aims of Panchayats) :

  • पंचायतों को स्थापित करने का सबसे पहला उद्देश्य है लोगों की समस्याओं को स्थानीय स्तर पर ही हल करना। ये पंचायतें लोगों के बीच के झगड़ों तथा समस्याओं को हल करती हैं।
  • गांव की पंचायतें लोगों के बीच सहयोग, हमदर्दी, प्यार की भावनाएं पैदा करती हैं ताकि सभी लोग गांव की प्रगति में योगदान दे सकें।
  • पंचायतों को गठित करने का एक और उद्देश्य है लोगों को तथा पंचायत के सदस्यों को पंचायत का प्रशासन ठीक प्रकार से चलाने के लिए शिक्षित करना ताकि सभी लोग मिल कर गांव की समस्याओं के हल निकाल सकें। इस तरह लोक कल्याण का कार्य भी पूर्ण हो जाता है।

गांवों की पंचायतों का संगठन (Organisation of Village Panchayats)-गांवों में दो प्रकार की पंचायतें होती हैं। पहली प्रकार की पंचायतें वे होती हैं जो सरकार द्वारा बनाए कानूनों अनुसार चुनी जाती हैं तथा ये औपचारिक होती हैं। दूसरी पंचायतें वे होती हैं जो अनौपचारिक होती हैं तथा इन्हें जाति पंचायतें भी कहा जाता है। इनकी कोई कानूनी स्थिति नहीं होती है परन्तु यह सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

पंचायतों में तीन तरह का संगठन पाया जाता है-

  1. ग्राम सभा (Gram Sabha)
  2. ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)
  3. न्याय पंचायत (Nyaya Panchayat)।

1. ग्राम सभा (Gram Sabha)–गांव की सम्पूर्ण जनसंख्या में से बालिग व्यक्ति इस ग्राम सभा का सदस्य होता है तथा यह गांव की सम्पूर्ण जनसंख्या की एक सम्पूर्ण इकाई है। यह वह मूल इकाई है जिसके ऊपर हमारे लोकतन्त्र का ढांचा टिका हुआ है। जिस ग्राम की जनसंख्या 250 से अधिक होती है वहां ग्राम सभा बन सकती है। अगर एक गांव की जनसंख्या कम है तो दो गांव मिलकर ग्राम सभा का निर्माण करते हैं। ग्राम सभा में गांव का प्रत्येक वह बालिग़ सदस्य होता है जिस को वोट देने का अधिकार होता है। प्रत्येक ग्राम सभा का एक प्रधान तथा कुछ सदस्य होते हैं। यह पांच वर्षों के लिए चुने जाते हैं।

ग्राम सभा के कार्य (Functions of Gram Sabha)—पंचायत के सालाना बजट तथा विकास के लिए किए जाने वाले कार्यक्षेत्रों को ग्राम सभा पेश करती है तथा उन्हें लागू करने में मदद करती है। यह समाज कल्याण के कार्य, प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम तथा परिवार कल्याण के कार्यों को करने में मदद करती है। यह गांवों में एकता रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

2. ग्राम पंचायत (Gram Panchayat) हर एक ग्राम सभा अपने क्षेत्र में से एक ग्राम पंचायत को चुनती है। इस तरह ग्राम सभा एक कार्यकारिणी संस्था है जो ग्राम पंचायत के लिए सदस्य चुनती है। इनमें 1 सरपंच तथा 5 से लेकर 13 पंच होते हैं। पंचों की संख्या गांव की जनसंख्या के ऊपर निर्भर करती है। पंचायत में पिछड़ी श्रेणियों तथा औरतों के लिए स्थान आरक्षित होते हैं। यह 5 वर्ष के लिए चुनी जाती है। परन्तु अगर पंचायत अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करे तो राज्य सरकार उसे 5 वर्ष से पहले भी भंग कर सकती है। अगर किसी ग्राम पंचायत को भंग कर दिया जाता है तो उसके सभी पद भी अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। ग्राम पंचायत के चुनाव तथा पंचों को चुनने के लिए गांव को अलग-अलग हिस्सों में बांट लिया जाता है। फिर ग्राम सभा के सदस्य पंचों तथा सरपंच का चुनाव करते हैं। ग्राम पंचायत में स्त्रियों के लिए आरक्षित सीटें कुल सीटों का एक तिहाई (1/3) होती हैं तथा पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित सीटें गांव या उस क्षेत्र में उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार होती हैं। ग्राम पंचायत में सरकारी नौकर तथा मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते । ग्राम पंचायतें गांव में सफ़ाई, मनोरंजन, उद्योग, संचार तथा यातायात के साधनों का विकास करती हैं तथा गांव की समस्याओं का समाधान करती हैं।

पंचायतों के कार्य (Functions of Panchayats)-ग्राम पंचायत गांव के लिए बहुत-से कार्य करती है जिनका वर्णन इस प्रकार है

  • ग्राम पंचायत का सबसे पहला कार्य गांव के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाना होता है। गांव में बहुत-सी सामाजिक बुराइयां भी पायी जाती हैं। पंचायत लोगों को इन बुराइयों को दूर करने के लिए प्रेरित करती है तथा उनके परम्परागत दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास करती हैं।
  • किसी भी क्षेत्र के सर्वपक्षीय विकास के लिए यह आवश्यक है कि उस क्षेत्र से अनपढ़ता ख़त्म हो जाए तथा भारतीय समाज के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण भी यही है। भारतीय गांव भी इसी कारण पिछड़े हुए हैं। गांव की पंचायत गांव में स्कूल खुलवाने तथा लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करती है। बालिगों को पढ़ाने के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खुलवाने का भी प्रबन्ध करती है।
  • गांव की पंचायत गांव की स्त्रियों तथा बच्चों की भलाई के लिए भी कार्य करती है। वह औरतों को शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध करती है। बच्चों को अच्छी खुराक तथा उनके मनोरंजन के कार्य का प्रबन्ध भी पंचायत ही करती है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में मनोरंजन के साधन नहीं होते हैं। इसलिए पंचायतें ग्रामीण समाजों में मनोरंजन के साधन उपलब्ध करवाने का प्रबन्ध भी करती है। पंचायतें गांव में फिल्मों का प्रबन्ध, मेले लगवाने तथा लाइब्रेरी इत्यादि खुलवाने का प्रबन्ध करती हैं।
  • कृषि प्रधान देश में उन्नति के लिए कृषि के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होनी ज़रूरी होती है। पंचायतें लोगों को नई तकनीकों के बारे में बताती है, उनके लिए नए बीजों, उन्नत उर्वरकों का भी प्रबन्ध करती है ताकि उनके कृषि उत्पादन में भी बढ़ौतरी हो सके।
  • गांवों के सर्वपक्षीय विकास के लिए गांवों में छोटे-छोटे उद्योग लगवाना भी जरूरी होता है। इसलिए पंचायतें गांव में सरकारी मदद से छोटे-छोटे उद्योग लगवाने का प्रबन्ध करती हैं। इससे गांव की आर्थिक उन्नति भी होती है तथा लोगों को रोज़गार भी प्राप्त होता है।
  • कृषि के अच्छे उत्पादन में सिंचाई के साधनों का अहम रोल होता है। ग्राम पंचायत गांव में कुएँ, ट्यूबवैल इत्यादि लगवाने का प्रबन्ध करती है तथा नहरों के पानी की भी व्यवस्था करती है ताकि लोग आसानी से अपने खेतों की सिंचाई कर सकें।
  • गांव में लोगों में आमतौर पर झगड़े होते रहते हैं। पंचायतें उन झगड़ों को ख़त्म करके उनकी समस्याओं को हल करने का प्रयास करती हैं।

इन कार्यों के अलावा पंचायत और बहुत-से कार्य करती है जैसे कि

  1. डेयरी, पशुपालन तथा मुर्गीखाने से सम्बन्धित कार्य।
  2. छोटे उद्योगों की स्थापना।
  3. घरेलू दस्तकारी।
  4. सड़कों तथा यातायात के साधनों का प्रबन्ध।
  5. अनौपचारिक तथा औपचारिक शिक्षा का प्रबन्ध ।
  6. सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रबन्ध इत्यादि।

भारत में 21 अप्रैल, 1994 को पंचायती राज्य अधिनियम लागू किया गया। इस एक्ट से तीन स्तरीय पंचायती राज्य लागू हुआ। इन से ग्रामीण समुदाय में बहुत-से परिवर्तन आए। पंचायती राज्य से गांवों की आर्थिकता का काफ़ी सुधार हुआ। पंचायतें गांव की भलाई के प्रत्येक प्रकार के कार्य करती हैं।

3. न्याय पंचायत (Nayaya Panchayat)-गांव के लोगों में झगड़े होते रहते हैं। न्याय पंचायत लोगों के बीच होने वाले झगड़ों का निपटारा करती है। 5-10 ग्राम सभाओं के लिए एक न्याय पंचायत बनायी जाती है। इसके सदस्य चुने जाते हैं तथा सरपंच 5 सदस्यों की एक कमेटी बनाता है। इन को पंचायतों से प्रश्न पूछने का भी अधिकार होता है।

पंचायत समिति (Panchayat Samiti)-एक ब्लॉक में आने वाली पंचायतें पंचायत समिति की सदस्य होती हैं तथा इन पंचायतों के सरपंच इसके सदस्य होते हैं। पंचायत समिति के सदस्यों का सीधा-चुनाव होता है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है, गांवों के विकास कार्यों को चैक करती है तथा पंचायतों को गांव के कल्याण के लिए निर्देश भी देती है। यह पंचायती राज्य के दूसरे स्तर पर है।

जिला परिषद् (Zila Parishad)—पंचायती राज्य का सबसे ऊँचा स्तर है जिला परिषद् जोकि जिले में आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह भी एक कार्यकारी संस्था होती है। पंचायत समितियों के चेयरमैन, चुने हुए सदस्य, लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा के सदस्य सभी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। यह सभी जिले में पड़ते गांवों के विकास कार्यों का ध्यान रखते हैं। जिला परिषद् कृषि में सुधार, ग्रामीण बिजलीकरण, भूमि सुधार, सिंचाई बीजों तथा उर्वरकों को उपलब्ध करवाना, शिक्षा, उद्योग लगवाने इत्यादि जैसे कार्य करती है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण समाज

प्रश्न 8.
73वें संवैधानिक संशोधन में पंचायती राज्य सम्बन्धी विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
दिसम्बर, 1992 में 73वां संवैधानिक संशोधन संसद् में पास हुआ तथा अप्रैल, 1993 में राष्ट्रपति ने इस संशोधन को मान्यता दे दी। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा जो पंचायती राज्य प्रणाली स्थापित की गयी, उसकी विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  • 73वीं संवैधानिक संशोधन से पहले स्थानीय स्तर पर स्वः-शासन के सम्बन्ध में संविधान में कोई व्यवस्था नहीं थी। इस संशोधन से संविधान में नयी अनुसूची तथा नया भाग जोड़ा गया। इस अनुसूची तथा भाग में सम्पूर्ण व्यवस्थाएं पंचायती राज्य प्रणाली से सम्बन्धित हैं कि नयी व्यवस्था में किस तरह की व्यवस्थाएं हैं।
  • इस संशोधन से संविधान में ग्राम सभा की परिभाषा दी गई है जिसके अनुसार पंचायत के क्षेत्र में आने वाले गांव या गांव के जिन लोगों का नाम वोटर सूची में दर्ज है, वह सभी लोग ग्राम सभा के सदस्य होंगे। राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा ग्राम सभा की व्यवस्था कर सकता है तथा उसको कुछ कार्य सौंप सकता है। इस तरह ग्राम सभा की स्थापना राज्य विधानमण्डल की तरफ से पास किए गए कानून के द्वारा होगी तथा वह ही उसके कार्य भी निश्चित करेगा।
  • ग्राम सभा की परिभाषा के साथ ही पंचायत की परिभाषा दी गयी है तथा कहा गया कि पंचायत स्व:-शासन पर आधारित ऐसी संस्था है जिस की स्थापना ग्रामीण क्षेत्र में राज्य सरकार द्वारा की जाती है।
  • इस संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि अब ग्रामीण क्षेत्र में स्व:-शासन की तीन स्तरीय पंचायती राज्य प्रणाली की स्थापना की जाएगी। सबसे निम्न स्तर गांव पर पंचायत, बीच के स्तर ब्लॉक पर ब्लॉक समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद् होगी परन्तु राज्य सरकार इन को कोई और नाम भी दे सकती है।
  • इस संवैधानिक संशोधन में यह कहा गया है कि नयी प्रणाली के अन्तर्गत सम्पूर्ण जिले को पंचायती स्तर पर चुनाव क्षेत्रों में बाँटा जाएगा तथा पंचायतों, ब्लॉक समिति तथा जिला परिषद् के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होगा अर्थात् वह प्रत्यक्षं तौर पर लोगों द्वारा बालिग वोट अधिकार के आधार पर चुने जाएंगे।
  • इस संशोधन के अनुसार पंचायत के अलग-अलग स्तरों पर चुनाव के लिए, वोटरों की संख्या तथा सूची तैयार करवाने की ज़िम्मेदारी राज्य चुनाव आयोग की होगी। इस आयोग में राज्य चुनाव कमिश्नर को राज्य का राज्यपाल नियुक्त करेगा। उसका कार्यकाल, सेवा की शर्ते इत्यादि भी राज्य विधान मण्डल की तरफ से बनाए गए नियमों के अनुसार निश्चित किए जाएंगे। राज्य चुनाव कमिश्नर को उस तरीके से हटाया जा सकता है जैसे उच्च न्यायालय के जज को हटाया जा सकता है।
  • गाँव की पंचायत के प्रधान के बारे में 73वीं शोध में यह व्यवस्था की गई है कि गाँव की पंचायत के प्रधान का चुनाव सीधे तौर पर लोगों द्वारा किया जाएगा।
  • गाँव की पंचायत के प्रधान का चुनाव करने के साथ-साथ यह भी व्यवस्था की गई है कि पंचायत के प्रधान को उसके कार्यकाल खत्म होने से पहले भी हटाया जा सकता है और उसको हटाने का अधिकार ग्राम सभा को दिया गया है।
  • ग्राम सभा सरपंच को तब ही उसके पद से हटा सकती है यदि उस क्षेत्र की पंचायत इस बात की सिफारिश करे। इस प्रकार की सिफ़ारिश के लिए यह ज़रूरी है कि उस सिफ़ारिश के पीछे पंचायत के सभी सदस्यों का बहुमत
    और मौजूदगी अनिवार्य है। इसके लिए एक विशेष बैठक बुलाई जाएगी और इस बैठक में ग्राम सभा के 50% सदस्य होने ज़रूरी हैं। यदि इस बैठक में ग्राम सभा उस सिफ़ारिश को मौजूद सदस्यों के बहुमत के साथ पास कर दे तो सरपंच या प्रधान को हटाया जा सकता है।
  • इसी तरह पंचायती समिति या ब्लॉक समिति और जिला परिषद् के सदस्य भी लोगों द्वारा चुने जाएंगे और इनके प्रधान इनके सदस्यों द्वारा और उनके बीच में से ही चुने जाएंगे। पंचायत की तरह इनके प्रधानों को भी हटाया जा सकता है। प्रधान को दो-तिहाई बहुमत से हटाया जा सकता है।

इन तीनों स्तरों पर स्थान भी आरक्षित रखे गए हैं।

  • निम्न जातियों एवं कबीलों में प्रत्येक पंचायत में स्थान आरक्षित रखे गए हैं। आरक्षित करने की गिनती उनके उस क्षेत्र की उपज के अनुपात में होगी।
  • इन आरक्षित स्थानों में एक-तिहाई सीटें औरतों के लिए आरक्षित रखी जाएंगी।
  • पंचायतों, ब्लॉक समितियों और जिला परिषदों में भी स्त्रियों के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित रखे जाएंगे। इसके साथ-साथ इन संस्थाओं के प्रधानों के लिए भी स्थान औरतों के लिए आरक्षित रखे जाएंगे।

(11) इस शोध के अनुसार इन सभी संस्थाओं का कार्यकाल 5 सालों के लिए निश्चित कर दिया गया। किसी भी संस्था का कार्यकाल 5 साल से ज्यादा नहीं हो सकता। यदि राज्य सरकार को किसी पंचायत के अव्यवस्थित प्रबंधन के बारे में पता चले तो वह उसको 5 साल से पहले ही भंग कर सकती है परन्तु 6 महीने के अंदर उसका दोबारा चुनाव किया जाना जरूरी है। यदि कोई पंचायत 5 साल से पहले भंग हो तो नई चुनी गई पंचायत बाकी रहता कार्यकाल पूरा
करेगी।

(12) यदि कोई व्यक्ति राज्य के कानून अधीन राज्य विधान सभा का चुनाव नहीं लड़ सकता तो वह पंचायत का चुनाव भी नहीं लड़ सकता परन्तु यहां उम्र में फ़र्क है। राज्य विधान सभा का चुनाव लड़ने हेतु 25 साल की उम्र होना आवश्यक है परन्तु पंचायत के चुनाव के लिए 21 वर्ष की आयु निश्चित की गई है।

(13) राज्य विधान मण्डल के कानून के अधीन पंचायत को कुछ अधिकार एवं ज़िम्मेदारियाँ दी जाएंगी। पंचायत को आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय हेतु योजनाएं तैयार करने और लागू करने के अधिकार दिए गए हैं।

(14) इसके साथ-साथ राज्य विधान मण्डल कानून पास करके पंचायत को कुछ छोटे-छोटे टैक्स लगाने की शक्ति भी दे सकता है ताकि वह अपनी आमदनी में भी वृद्धि कर सकें। इसके साथ राज्य सरकार अपने द्वारा लगाए टैक्सों अथवा शुल्कों में से कुछ हिस्सा पंचायतों को भी देगी और साथ ही उनको गांवों के विकास के लिए सहायता के रूप में ग्रांट देने की व्यवस्था भी करेगी। – इस प्रकार हम देख सकते हैं कि 73वीं संवैधानिक शोध द्वारा पंचायती राज के लिए कई महत्त्वपूर्ण व्यवस्थाएं की गई हैं जिसके साथ पंचायती राज्य की महत्ता काफ़ी बढ़ गई है। नई व्यवस्था को प्रभावशाली बनाने हेतु कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं और अब पंचायती राज्य प्रणाली काफ़ी प्रभावशाली बन गई है।

ग्रामीण समाज PSEB 12th Class Sociology Notes

  • भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी लगभग 70% (68.84%) जनसंख्या गाँवों में रहती है। गाँव में रहने वाले
    लोग साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, एक-दूसरे से काफ़ी कुछ साझा करते हैं तथा उनमें काफ़ी समानताएँ होती हैं। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि, “वास्तविक भारत तो गांवों में रहता है।”
  • ग्रामीण समाज की कई विशेषताएँ होती हैं, जैसे कि छोटा आकार, सामाजिक समानता, एक-दूसरे से नज़दीक
    के रिश्ते, संयुक्त परिवार प्रथा, कम सामाजिक गतिशीलता, कृषि मुख्य पेशा, धर्म का अधिक प्रभाव इत्यादि।
  • ग्रामीण समाजों में संयुक्त परिवार की प्रधानता होती है जिसमें कम-से-कम तीन पीढ़ियों के लोग इकट्ठे मिल कर रहते हैं। ये परिवार आकार में बड़े होते हैं तथा एक ही छत के नीचे रहते हैं।
  • 1992 में 73वां संवैधानिक संशोधन हुआ तथा देश में तीन स्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था लागू की गई। यह तीन स्तर हैं – गाँव के स्तर पर पंचायत, ब्लॉक के स्तर पर ब्लॉक समिति तथा जिले के स्तर पर जिला परिषद् । इनका प्रमुख कार्य ग्रामीण क्षेत्रों का बहुपक्षीय विकास करना है।
  • 1960 के दशक में देश में हरित क्रान्ति लाई गई ताकि किसानों को अपने खेतों से उत्पादन बढ़ाने में सहायता मिल सके। इस क्रान्ति में काफ़ी सकारात्मक परिणाम सामने आए जैसे कि इसका लाभ केवल अमीर किसानों को हुआ, अमीर तथा गरीब किसानों में अन्तर बढ़ गया इत्यादि।
  • गांवों के किसान आजकल एक बहुत ही गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं तथा वह है ऋणग्रस्तता की समस्या। बहुत से किसान ऋणग्रस्तता के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। ऋणग्रस्तता के कई कारण हैं, जैसे कि निर्धनता, पिता की ऋणग्रस्तता, मुकद्दमे, कृषि का पिछड़ापन, आवश्यकता से अधिक खर्चा, ऋण पर अधिक ब्याज इत्यादि।
  • आजकल ग्रामीण समाज परिवर्तन के दौर से निकल रहा है। अब पुराने रिश्ते-नाते खत्म हो रहे हैं, जाति पंचायतों
    का नियन्त्रण खत्म हो रहा है, अपराध बढ़ रहे हैं, जजमानी व्यवस्था तो खत्म ही हो गई है, शिक्षा बढ़ने के कारण लोग नगरों की तरफ बढ़ रहे हैं इत्यादि।
  • ग्रामीण समाज (Rural Society) वह समाज जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है तथा जिसकी कुछ विशेषताएं होती हैं जैसे कि छोटा आकार, जनसंख्या का कम घनत्व, कृषि-मुख्य पेशा, जनसंख्या में समानता, जाति आधारित स्तरीकरण, संयुक्त परिवार इत्यादि।
  • अन्तर्विवाह (Endogamy) विवाह का वह प्रकार जिसमें व्यक्ति को अपने समूह में ही विवाह करवाना पड़ता है जैसे कि जाति या उपजाति। समूह से बाहर विवाह करवाने की आज्ञा नहीं होती है।
  • बहिर्विवाह (Exogamy) विवाह का वह प्रकार जिसमें व्यक्ति को एक विशेष समूह से बाहर ही विवाह करवाना पड़ता है; जैसे कि परिवार, गोत्र, रिश्तेदारी इत्यादि। व्यक्ति अपने समूह में विवाह नहीं करवा सकता।
  • हरित क्रान्ति (Green Revolution)-अधिक उत्पादन वाले बीजों की सहायता से कृषि के उत्पादन में जो बढ़ौतरी हुई है उसे हरित् क्रान्ति कहते हैं।
  • ऋणग्रस्तता (Indebtedness) कृषि अथवा अन्य किसी कारण की वजह से किसी व्यक्ति से पैसे उधार लेने ‘ को ऋणग्रस्तता कहते हैं। किसान कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए भी ऋण लेते हैं, जैसे कि जन्म, विवाह तथा मृत्यु पर होने वाले खर्चे के कारण, मुकद्दमा लड़ने के लिए। इस ऋणों के कारण ही उत्पादन में बढ़ौतरी नहीं होती जिस कारण ग्रामीण लोग इस समस्या में फंस जाते हैं।
  • संयुक्त परिवार (Joint Family)—वह परिवार जिसमें कम-से-कम तीन पीढ़ियों के लोग रहते हैं, जैसे कि दादा-दादी, माता-पिता व उनके बच्चे। वह एक ही छत के नीचे रहते हैं, एक ही रसोई में खाना खाते हैं तथा एक ही प्रकार के आर्थिक कार्य करते हैं।
    पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 8 नौकरशाही

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 8 नौकरशाही Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 8 नौकरशाही

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
नौकरशाही की परिभाषा लिखो। इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(Define Bureaucracy.-Write main characteristics of Bureaucracy.)
अथवा
नौकरशाही की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (Explain the characteristics of Bureaucracy.)
उत्तर-
नौकरशाही अथवा ब्यूरोक्रेसी (Bureaucracy) फ्रांसीसी भाषा के शब्द ‘ब्यूरो’ (Bureau) से बना है जिसका अर्थ है डैस्क या लिखने की मेज़। अतः इस शब्द का अर्थ हुआ ‘डैस्क सरकार।’ इस प्रकार नौकरशाही (Bureaucracy) का अर्थ है-डैस्क पर बैठ कर काम करने वाले अधिकारियों के शासन से है। दूसरे शब्दों में, नौकरशाही का अर्थ है प्रशासनिक अधिकारियों का शासन। इस शब्द का अर्थ कालान्तर में बदलता रहता है। यह शब्द काफ़ी बदनाम हो गया है तथा इस शब्द का अर्थ स्वेच्छाचारिता (Arbitrariness), अपव्यय (Wastefulness), कार्यालय की कार्यवाही (Officiousness) तथा तानाशाही (Regimentation) आदि के रूप में किया जाता है।।

नौकरशाही की बदनामी के बावजूद प्रजातन्त्र तथा लोक हितकारी राज्य में इनका महत्त्व बहुत अधिक हो गया है। नौकरशाही शब्द का अधिकाधिक प्रयोग लोक सेवा के प्रभाव को जताने के लिए किया जाता है। प्रायः सभी आधुनिक राज्यों में सरकार का कार्य उन अधिकारियों द्वारा किया जाता है जिन्हें प्रशासनिक समस्याओं की पूरी जानकारी तथा क्षमता रहती है। अधिकारियों के ऐसे निकाय को नौकरशाही के रूप में जाना जाता है। नौकरशाही सरकारी गतिविधियों के समूह द्वारा उत्पन्न गतिविधि है। नौकरशाही की विभिन्न परिभाषाएं इस प्रकार हैं-

1. विलोबी (Willoughby) के अनुसार, “नौकरशाही के दो अर्थ हैं, विस्तृत अर्थों में यह एक सेवी वर्ग प्रणाली है जिसके द्वारा कर्मचारियों को विभिन्न वर्गीय पद सोपानों जैसे सैक्शन, डिवीजन, ब्यूरो तथा डिपार्टमैण्ट में बांटा जाता (“It is to describe any personnel system of administration composed of a hierarchy of sections, divisions, bureaus and departments.”)

संकुचित अर्थ में “यह सरकारी कर्मचारियों के संगठन की पद-सोपान प्रणाली है जिस पर बाहरी प्रभावी लोक नियन्त्रण सम्भव नहीं।”
(“A body of public servants organised in a hierarchical system which stands outside the sphere of effective public control.”)

2. मार्शल ई० डीमॉक (Marshall E. Dimock) के अनुसार, “नौकरशाही का अर्थ है विशेषीकृत पद सोपान एवं संचार की लम्बी रेखाएं।”
(“Bureaucracy means specialised hierarchies and long lines of communication.”)

3. फाइनर (Finer) के अनुसार, “नौकरशाही ऐसा शासन है जिसे मुख्यतः ऐसे कार्यालयों द्वारा चलाया जाता है जिसकी अध्यक्षता अधिकारियों के प्रशिक्षित वर्ग के पास होती है। ये अधिकारीगण स्थायी, वेतन-भोगी एवं कुशल होते हैं।

4. मैक्स वैबर (Max Weber) के अनुसार, “नौकरशाही प्रशासन की ऐसी व्यवस्था है, जिसकी विशेषताविशेषज्ञता, निष्पक्षता तथा मानवता का अभाव होता है।”
(“A System of administration characterized by expertness, impartiality and the absence of humanity.”)

5. ग्लैडन (Gladden) के अनुसार, “नौकरशाही का अर्थ अन्तर्सम्बन्धित कार्यालयों का नियमित प्रशासनिक व्यवस्था में संगठन है।”
(“The term Bureaucracy means of regulated administrative system organised as a series of inter-related offices.”)

6. पाल एप्लबी (Paul Appleby) के अनुसार, “यह तकनीकी दृष्टि से कुशल व्यक्तियों का एक व्यावसायिक वर्ग है जो क्रमबद्ध संगठित होते हैं और निष्पक्ष रूप से राज्य की सेवा करते हैं।”
(“It is a professional class of technically skilled persons who are organised in an hierarchical way and serve the state in and impartial manner.”).

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 8 नौकरशाही

प्रश्न 2.
आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य में नौकरशाही के महत्त्व का वर्णन करें। (Explain the importance of Bureaucracy in a Modern Democratic State.)
उत्तर-
आधुनिक लोकतन्त्रात्मक राज्य में नौकरशाही का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। आधुनिक राज्य में नौकरशाही का होना अनिवार्य है। प्रशासन की कार्यकुशलता और सफलता योग्य, निष्पक्ष और ईमानदारी नौकरशाही पर निर्भर करती है। किसी भी तरह की शासन प्रणाली क्यों न हो, नौकरशाही एक ऐसी धुरी है जिसके इर्द-गिर्द प्रशासन घूमता रहता है। वास्तव में शासन नौकरशाही द्वारा ही चलाया जाता है और इसीलिए कई बार कहा जाता है कि आजकल नौकरशाही की सरकार स्थापित हो चुकी है। नौकरशाही का महत्त्व अग्रलिखित है-

1. शासन व्यवस्था का आधार (Basis of Government)-आधुनिक युग में शासन के कार्य बहुत विस्तृत हो गए हैं। शासन के कार्य पहले की अपेक्षा अधिक जटिल हैं। शासन के जटिल कार्यों को राजनीतिक कार्यपालिका नहीं कर पाती क्योंकि मन्त्रियों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है। मन्त्री के लिए यह आवश्यक नहीं होता है कि व जिस विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है, उसके बारे में उसे पूरी जानकारी प्राप्त हो। परन्तु असैनिक अधिकारी योग्यता के आधार पर नियुक्त किए जाते हैं और उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जाता है। अत: शासन के जटिल कार्यों को योग्य कर्मचारी ही करते हैं। शासन की नीतियों को वास्तव में असैनिक अधिकारियों के द्वारा ही लागू किया जाता है। इसलिए नौकरशाही को शासन का आधार माना जाता है।

2. मन्त्री शासन चलाने के लिए नौकरशाही पर निर्भर करते हैं (Ministers depend upon bureaucracy for administration)—सभी लोकतन्त्रीय देशों में मन्त्री बनने के लिए कोई शैक्षिक योग्यताएं निश्चित नहीं की जातीं। मन्त्रियों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है। किसी भी व्यक्ति को मन्त्री बनाया जा सकता है, चाहे वह अनपढ़ क्यों न हो। अतः मन्त्री प्रशासन चलाने के लिए असैनिक अधिकारियों पर निर्भर करते हैं क्योंकि वे शासन में योग्य होते हैं।
असैनिक कर्मचारी विशेषज्ञ होते हैं जिसके कारण मन्त्री उन पर निर्भर रहते हैं और विभाग का प्रशासन लोक सेवकों द्वारा ही चलाया जाता है।

3. शासन प्रबन्ध में निरन्तरता प्रदान करते हैं (Provide Continuity of Administration)-सरकारों का निर्माण राजनीतिक आधार पर किया जाता है, जिस कारण सरकारों में परिवर्तन होते रहते हैं। सरकारें बनती और टूटती रहती हैं। कभी किसी दल की सरकार होती है, तो कभी किसी दल की। मन्त्री आते और जाते रहते हैं, परन्तु असैनिक अधिकारी अपने पदों पर बने रहते हैं और सरकार में परिवर्तन होने पर प्रशासकीय अधिकारी त्याग-पत्र नहीं देते। प्रशासकीय अधिकारी स्थायी होते हैं। कई बार सरकार बनाने में कुछ समय भी लग जाता है। इन सब परिस्थितियों में असैनिक अधिकारी प्रशासन चलाते रहते हैं और इस तरह वे शासन प्रबन्ध में निरन्तरता प्रदान करते हैं।

4. मन्त्रियों के पास समय का अभाव (Lack of time with Ministers)-मन्त्री केवल अपने विभाग का अध्यक्ष नहीं होता है, बल्कि वह संसद् का सदस्य तथा अपने दल का महत्त्वपूर्ण सदस्य होता है और वह अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है। अतः मन्त्री को अपने विभाग की देखभाल करने के साथ और भी बहुत से काम करने पड़ते हैं जैसे कि संसद् की बैठकों में भाग लेना, बिलों को पास करवाना, विरोधी दल की आलोचना का उत्तर देना तथा जनता के साथ सम्पर्क बनाए रखना। इसलिए किसी भी मन्त्री के पास इतना समय नहीं रहता कि वह अपने विभाग की पूरी जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करे और केवल स्थायी कर्मचारियों की सलाह पर निर्भर न रहकर अपनी इच्छानुसार स्थायी कर्मचारियों से काम ले सके। अतः असैनिक अधिकारियों की सहायता के बिना मन्त्री कार्यों को पूरा नहीं कर सकते।

5. शासन प्रबन्ध को गतिशीलता प्रदान करते हैं (Provide dynamism to administration) राजनीतिक कार्यपालिका जब शासन सम्बन्धी नीतियों का निर्माण करती है तो समस्त शासन की एक ही नीति बनाई जाती है। परन्तु कई बार शासन की नीतियां सभी स्थानों और सभी परिस्थितियों के लिए अनुकूल नहीं होती। असैनिक अधिकारी इन नीतियों को लागू करते समय परिस्थितियों के अनुसार इनमें थोड़ा-बहुत परिवर्तन कर लेते हैं और इस तरह शासन प्रबन्ध को गतिशीलता प्रदान करते हैं।

6. लोगों की शिकायतों को दूर करते हैं (Redress the grievances of the peoples)-लोगों की सरकार से अनेक प्रकार की शिकायतें होती हैं, परन्तु आम जनता के लिए मन्त्रियों से मिल पाना आसान नहीं होता है। अतः जनता अपनी शिकायतें लोक सेवकों तक पहुंचाती है और कई बार लोक सेवकों को जनता के रोष का भी सामना करना पड़ता है। असैनिक अधिकारी जनता की शिकायतों को सुनते हैं और उन्हें दूर करने का प्रयास करते हैं। जो शिकायतें उनके स्तर पर दूर नहीं हो सकतीं, उनको मन्त्रियों के पास भेजते हैं।

7. संसदीय शासन में महत्त्व (Importance in Parliamentary Govt.) संसदीय शासन प्रणाली में नौकरशाही का अत्यधिक महत्त्व है। संसदीय शासन प्रणाली में राजनीतिक कार्यपालिका तथा असैनिक अधिकारियों में बहुत समीप का सम्बन्ध पाया जाता है और असैनिक अधिकारी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। देश का समस्त शासन मन्त्रिमण्डल के द्वारा चलाया जाता है और प्रत्येक मन्त्री किसी-न-किसी विभाग का अध्यक्ष होता है। मन्त्रियों को अपने विभाग के बारे में बहुत कम ज्ञान होता है। कई बार मन्त्रियों को ऐसे विभाग भी मिल जाते हैं जिनके बारे में उन्हें बिल्कुल ज्ञान नहीं होता। अनुभवहीन होने के कारण मन्त्री नौकरशाही के सदस्यों पर निर्भर करते हैं और उनकी इच्छानुसार कार्य करते हैं।

संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रियों को अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् के प्रति उतरदायी रहना पड़ता है। संसद् के सदस्य मन्त्रियों से कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं। मन्त्रियों को इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए स्थायी कर्मचारियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वास्तविकता तो यह है कि मन्त्रियों के प्रश्न के उत्तर स्थायी कर्मचारियों द्वारा तैयार किए जाते हैं जिनको मन्त्री संसद् में पढ़ देते हैं।

संसदीय शासन प्रणाली में जैसे कि भारत में 90 प्रतिशत से अधिक बिल मन्त्रियों द्वारा संसद् में पेश किए जाते हैं परन्तु इन बिलों को स्थायी कर्मचारी ही तैयार करते हैं। वास्तव में मन्त्री नौकरशाही पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। हरबर्ट मौरिसन (Herbert Morrison) के शब्दों में, “नौकरशाही संसदीय लोकतन्त्र की कीमत है।” (Bureaucracy is the price of parliamentary democracy.”) लॉस्की (Laski) ने तो यहां तक कह दिया है, “संसद्, मन्त्रियों के हाथ में तथा मन्त्री नौकरशाही के हाथ में खिलौना होते हैं।”

8. कल्याणकारी राज्य में महत्त्व (Importance in a Welfare State)-आधुनिक राज्य कल्याणकारी राज्य है, जिस कारण राज्य के कार्यों में बहुत वृद्धि हो गई है। राज्य को लोगों के कल्याण के लिए सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक कार्य करने पड़ते हैं। कल्याणकारी राज्य में ऐसा कोई कार्य नहीं है जो राज्य द्वारा नहीं किया जाता और कल्याणकारी राज्य में सभी कार्यों को कुशलता और ईमानदारी से लागू करना नौकरशाही पर निर्भर करता है। अतः कल्याणकारी राज्य में नौकरशाही का महत्त्व बहुत अधिक हो गया है।

9. निष्पक्षता (Neutrality)-नौकरशाही का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि यह निष्पक्ष होकर कार्य करती है जबकि मन्त्री अपने दलों के प्रति वफ़दार होते हैं तथा उसी के हितों के लिए अधिकतर कार्य करते हैं। इसके लिए वे प्रशासनिक नियमों-विनियमों की भी परवाह न करते हुए उसमें हस्तक्षेप करते हैं। जबकि असैनिक अधिकारी किसी दल के प्रति वफादार न होकर निष्पक्ष रहते हैं तथा मन्त्रियों को कोई ऐसा कार्य नहीं करने देते जो राजनीति से प्रेरित हो। नौकरशाही में बिना भेदभाव तथा निष्पक्ष व्यवहार के कारण ही प्रशासन को कुशलता से चलाया जा सकता है। इसीलिए प्रशासन के संचालन में नौकरशाही अधिक महत्त्वपूर्ण है।

असैनिक कर्मचारियों के महत्त्व का वर्णन करते हुए जौसेफ चैम्बरलेन (Joseph Chamberlain) ने लिखा है, “मुझे सन्देह है कि आप लोग (Civil Servants) हम लोगों (Ministers) के बिना विभाग का प्रशासन कर सकते हैं। किन्तु मुझे इस बात का पूर्ण विश्वास है कि हम लोग आप लोगों के बिना विभाग का कार्य नहीं कर सकेंगे।” निःसन्देह असैनिक अधिकारियों का महत्त्व बहुत अधिक है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 8 नौकरशाही

प्रश्न 3.
लोक सेवाओं की भर्ती पर लेख लिखो। (Write an essay on the Recruitment of Civil Services.)
उत्तर-
प्रशासन की सफलता एवं कार्य-कुशलता लोक सेवाओं पर निर्भर करती है। कुशल तथा योग्य कर्मचारी के बिना अच्छे शासन की कल्पना नहीं की जा सकती। परन्तु ईमानदार, योग्य, परिश्रमी और कुशल कर्मचारी प्राप्त करना आसान नहीं है। इसीलिए प्रायः सभी देशों में उचित भर्ती एक समस्या बना चुकी है।

भर्ती का अर्थ- भर्ती का अर्थ केवल रिक्त स्थानों की पूर्ति करना नहीं है बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा योग्य व्यक्तियों को रिक्त स्थानों के लिए आकर्षित करना होता है। डॉ० एम० पी० शर्मा के अनुसार, “भर्ती शब्द का अर्थ किसी पद के लिए योग्य तथा उपयुक्त परिवार के उम्मीदवारों को रिक्त स्थानों के लिए आकर्षित करना है।”

किंग्सले (Kingsley) के अनुसार, “सार्वजनिक भर्ती की व्याख्या यह है कि यह वह परीक्षा है जिसके द्वारा लोक सेवाओं के लिए प्रार्थियों को प्रतियोगितात्मक रूप में आकर्षित किया जा सकता है। यह व्यापक प्रक्रिया का आन्तरिक भाग है। नियुक्ति में प्रक्रिया एवं प्रमाण सम्बन्धी प्रक्रियाएं भी सम्मिलित हैं।”

नकारात्मक तथा सकारात्मक भर्ती (Negative and Positive Recruitment)-लोक सेवाओं की भर्ती को मोटे रूप में दो भागों में बांट सकते हैं-नकारात्मक तथा सकारात्मक।

नकारात्मक भर्ती का उद्देश्य सरकारी पदों से अयोग्य एवं चालाक व्यक्तियों को दूर रखना होता है। इस प्रक्रिया में भर्तीकर्ता कुछ ऐसे नियम बना देता है जिनके आधार पर केवल योग्य व्यक्तियों को ही उम्मीदवार बनने का अवसर प्राप्त हो सके और चालाक तथा बेईमान व्यक्तियों को लोक सेवाओं से बाहर रखा जा सके।

सकारात्मक भर्ती का उद्देश्य विभिन्न सरकारी पदों के लिए उचित और योग्य व्यक्तियों को आकर्षित करना है।

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प्रश्न 4.
नौकरशाही के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या करते हुए लोकतंत्र में नौकरशाही की भूमिका/कार्यों का चार पक्षों में वर्णन करें।
(Explain the verbal meaning of word ‘Bureaucracy’ ? Explain its role/functions from four aspects in democracy.)
अथवा
नौकरशाही की परिभाषा दें, तथा इसकी भूमिका की चर्चा करें। (Define Bureaucracy and discuss its role.)
उत्तर-
नौकरशाही का अर्थ- इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखें।
नौकरशाही की भूमिका एवं कार्य-नौकरशाही का शासन पर बहुत प्रभाव बढ़ गया है। बिना नौकरशाही के शासन चलाना और देश का विकास करना अति कठिन कार्य है। नौकरशाही का महत्त्व इसलिए बढ़ गया है कि आधुनिक राज्य एक कल्याणकारी राज्य है। कल्याणकारी राज्य होने के कारण राज्य के कार्य इतने बढ़ गए हैं कि सब कार्य मन्त्री नहीं कर सकते। मन्त्रियों को कार्य चलाने के लिए स्थायी कर्मचारियों अर्थात् नौकरशाही की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त मन्त्रियों के पास वैसे भी समय कम होता है, जिसके कारण वे प्रत्येक सूचना स्वयं प्राप्त नहीं कर पाते। आधुनिक राज्य में नौकरशाही की भूमिका का वर्णन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं-

1. प्रशासकीय कार्य (Administrative Functions or Role)-प्रशासकीय कार्य नौकरशाही का महत्त्वपूर्ण कार्य है। मन्त्री का कार्य नीति बनाना है और नीति को लागू करने की जिम्मेदारी नौकरशाही की है। नौकरशाही के सदस्य चाहे किसी नीति से सहमत हो या न हों, उनका महत्त्वपूर्ण कार्य नीतियों को लागू करना है। पर एक अच्छी नीति भी बेकार साबित हो जाती है, यदि उसे प्रभावशाली ढंग से लागू न किया जाए और यह कार्य नौकरशाही का ही है।

2. नीति को प्रभावित करना (To Influence Policy)-नि:सन्देह नीति-निर्माण राजनीतिक कार्यपालिका का कार्य है। परन्तु प्रशासनिक योग्यता के कारण नीति-निर्माण में नौकरशाही का महत्त्वपूर्ण योगदान है। नीति-निर्माण के लिए मन्त्रियों को आंकड़ों की आवश्यकता होती है और ये आंकड़े स्थायी कर्मचारी मन्त्रियों को देते हैं। इसके अतिरिक्त नौकरशाही नीति को लागू करते समय नीति को एक नया मोड़ दे देती है।

3. सलाहकारी कार्य (Advisory Functions or Role)–नौकरशाही राजनीतिक कार्यपालिका को सलाह देने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मन्त्री नीतियों को निर्धारित करते समय काफ़ी हद तक असैनिक कर्मचारियों के परामर्श पर निर्भर करते हैं क्योंकि जनता के सम्बन्ध में कर्मचारियों को काफ़ी अनुभव होता है। मन्त्री योग्यता के आधार पर नियुक्त न होकर राजनीति के आधार पर नियुक्त किए जाते हैं। मन्त्रियों को प्रायः अपने विभाग की तकनीकी बारीकियों का कोई ज्ञान नहीं होता। अतः मन्त्रियों को विभाग का प्रशासन चलाने के लिए स्थायी कर्मचारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। सर जोसुआ स्टेम्प ने कहा, “मैं अपने मस्तिष्क में बिल्कुल स्पष्ट हूँ कि पदाधिकारी को नवीन समाज का मूल स्रोत होना चाहिए और उसे सोपान पर सलाह, उन्नति की बात कहनी चाहिए।”

4. वैधानिक कार्य (Legislative Functions or Role)-नौकरशाही कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। संसदीय शासन प्रणाली वाले देशों में जैसे कि भारत और इंग्लैण्ड में संसद् में अधिकांश बिल मन्त्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किए जाते हैं। मन्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले बिलों की रूप रेखा स्थायी कर्मचारियों द्वारा ही तैयार की जाती है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं का हल करने के लिए किस प्रकार के नए कानूनों की आवश्यकता है इसका सुझाव भी स्थायी कर्मचारियों द्वारा दिया जाता है। इसके अतिरिक्त संसद् कानून का ढांचा तैयार कर देती है और कानून का विस्तार करने के लिए नौकरशाही को नियम उप-नियम बनाने की शक्ति प्रदान कर देती है। नियम व उप-नियम बनाने को प्रदत्त व्यवस्थापन (Delegated Legislation) कहा जाता है।

मन्त्रियों को संसद् के सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना होता है, परन्तु इन प्रश्नों के उत्तर स्थायी कर्मचारियों द्वारा तैयार किए जाते हैं। स्थायी कर्मचारी संसद् में पूछे जा सकने वाले पूरक प्रश्नों (Supplementary Questions) का पूर्वानुमान करके उनके उत्तर भी तैयार करके मन्त्री को देते हैं।

5. नियोजन (Planning)-व्यापक रूप से नियोजन का कार्यक्रम तैयार करना राजनीतिक कार्यपालिका की जिम्मेवारी है, परन्तु नियोजन की सफलता काफ़ी हद तक लोक सेवकों पर निर्भर करती है। राजनीतिक कार्यपालिका को नियोजन बनाने के लिए तथ्यों एवं आंकड़ों की आवश्यकता होती है, जिनकी पूर्ति स्थायी कर्मचारियों द्वारा की जाती है। मन्त्रिमण्डल के विभिन्न लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए योजनाएं देने तथा कार्यक्रम और उचित साधनों की खोज करने की जिम्मेवारी कर्मचारियों की होती है। ए० डी० गोरवाला (A.D. Gorwala) के शब्दों में, “लोकतन्त्र में स्वच्छ, कुशल और निष्पक्ष प्रशासन के बिना कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती।”

6. वित्तीय कार्य (Financial Functions or Role) शासन के वित्तीय क्षेत्र में भी नौकरशाही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। संसद् प्रतिवर्ष बजट पास करती है और संसदीय शासन प्रणाली वाले देशों में बजट वित्तमन्त्री संसद् में पेश करता है। यद्यपि बजट तैयारी के सम्बन्ध में नीति मन्त्रिमण्डल द्वारा बनाई जाती है तथापि बजट की रूप-रेखा तैयार करना और सरकार की आर्थिक स्थिति का विवरण पेश करना नौकरशाही का कार्य है। करों को इकट्ठा करना, बजट के अनुसार खर्च करना, इन सबका लेखा-परीक्षण आदि करना स्थायी कर्मचारियों का कार्य है।

7. समन्वय करना (Co-ordination)-शासन की कुशलता विभिन्न विभागों के समन्वय पर निर्भर करती है। विभिन्न विभागों के बीच तथा सरकारी कर्मचारियों के बीच समन्वय स्थापित करना प्रशासनिक अधिकारियों का कार्य है।

8. न्यायिक कार्य (Judicial Functions or Role)-आधुनिक युग में न्याय सम्बन्धी कार्य न्यायपालिका के द्वारा ही नहीं किए जाते बल्कि कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य प्रशासकीय न्यायाधिकरणों (Administrative Tribunals) के द्वारा भी किए जाते हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान समय में प्रशासकीय कानून तथा प्रशासकीय अधिनिर्णय (Administrative Laws and Administrative Adjudication) की संख्या काफ़ी बढ़ गई है। अतः प्रशासक न केवल शासन करते हैं बल्कि न्याय भी करते हैं।

9. जन-सम्बन्धी कार्य (Public Relation Functions)-नौकरशाही अपनी नीतियों की सफलता के लिए जनता से सहयोग प्राप्त करने हेतु वर्तमान युग में कई तरीकों से लोक सम्बन्ध बनाए रखते हैं।

10. विदेशी सम्बन्धों में स्थायित्व (Stability in Foreign Relations) विदेशी सम्बन्धों में नौकरशाही की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। नौकरशाही के कारण विदेशी सम्बन्धों एवं नीतियों में स्थिरता आती है।

11. लोगों की शिकायतों को दूर करना (To redress the grievances of the people)-लोगों को प्रशासन से कई तरह की शिकायतें होती हैं। लोग अपनी शिकायतें असैनिक अधिकारियों के सामने प्रस्तुत करते हैं। असैनिक अधिकारी इन शिकायतों को दूर करने का प्रयास करते हैं। जनता अपनी शिकायतें मन्त्रियों को भी भेजती है और मन्त्री ऐसी शिकायतों को दूर करने के लिए असैनिक अधिकारियों को आदेश देते हैं।

12. उत्पादन सम्बन्धी कार्य (Productive Functions)-लोक सेवाओं का मुख्य कार्य सेवा करना है और उत्पादन उसी का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। सड़क-निर्माण, भवन-निर्माण तथा अन्य इस प्रकार के कार्य उत्पादन से सम्बन्धित हैं। उत्पादन की मात्रा से स्थायी कर्मचारियों की कार्य-कुशलता का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। उत्पादन के आधार पर ही उसे राजनीतिक कार्यपालिका तथा जनता दोनों से प्रशंसा या घृणा प्राप्त होती है। प्रत्येक कर्मचारी किसी-न-किसी बात अथवा वस्तु के उत्पादन के लिए उत्तरदायी होता है। यदि यातायात के साधनों से जनता की सुखसुविधाओं में वृद्धि होती है तो जनता स्थायी कर्मचारियों की प्रशंसा करती है। इसी प्रकार यदि शिक्षा का स्तर गिरता है तो उसके लिए भी शिक्षकों को उत्तरदायी ठहराया जाता है। यदि प्रशासन का स्तर गिरता है, तो उसके लिए असैनिक अधिकारियों को जिम्मेवार ठहराया जाता है।

13. नौकरशाही विवेकहीन प्रयोगों को प्रोत्साहित नहीं करती (Bureaucracy does not courage rash experiments)—नौकरशाही सरकारी सेवाओं में विवेकहीन कार्यों को प्रोत्साहित नहीं करती। मन्त्रियों द्वारा कई बार लोगों को प्रसन्न करने के लिए जल्दबाज़ी में विवेकहीन कार्य किये जाते हैं, परन्तु नौकरशाही इस प्रकार के कार्यों को प्रोत्साहित नहीं करती तथा देश हित को ध्यान में रख कर ही निर्णय लेती है। नौकरशाही अधिकांशतः गम्भीर एवं रूढ़िवादी होती है, तथा जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों को काफ़ी सोच-विचार कर ही लागू करती है।

संक्षेप में, आधुनिक कल्याणकारी राज्य में नौकरशाही का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। सभी क्षेत्रों में नौकरशाही का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। राज्य को लोक हित के अनेक कार्य करने पड़ते हैं और इन कार्यों का सफ़ल होना या न होना नौकरशाही की कुशलता पर निर्भर करता है।

नौकरशाही की भूमिका के सम्बन्ध में डॉ० जेनिंग्स (Dr. Jennings) ने ठीक ही लिखा है, “असैनिक कर्मचारियों का कार्य है कि सलाह दें, चेतावनी दें, स्मृति-पत्र लिखें तथा भाषण तैयार करें जिनमें सरकार की नीति निर्देशित हो फिर उस नीति के फलस्वरूप निर्णय करें। साथ ही उन कठिनाइयों की ओर ध्यान आकर्षित करें जो निर्धारित नीति पर चलने में आ सकती है। साधारणतया असैनिक कर्मचारियों का कर्त्तव्य हो जाता है कि वे शासन का कार्य उसी प्रकार चलाएं जिस प्रकार मन्त्री द्वारा नीति निर्धारित की गई है।”.

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 8 नौकरशाही

प्रश्न 5.
राजनीतिक कार्यपालिका और स्थायी कार्यपालिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए विस्तारपूर्वक दोनों में अन्तर बताएं।
(Write down the meaning of Political Executive and Permanent Executive and explain in detail the differences between the two.)
अथवा
राजनीतिक कार्यपालिका और स्थाई कार्यपालिका में मुख्य अन्तर लिखो।
(Describe main differences between Political Executive and Permanent Executive.)
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका का अर्थ (Meaning of Political Executive)-कार्यपालिका के अनेक रूपों में से एक को राजनीतिक कार्यपालिका कहा जाता है। कार्यपालिका के साथ राजनीतिक शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट है कि ऐसी कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है। राजनीतिक कार्यपालिका का गठन करने में राजनीतिक दलों की विशेष भूमिका होती है। राजनीतिक कार्यपालिका की एक अन्य विशेषता यह है कि कुछ वर्षों के लिए निश्चित कार्य काल से पूर्व भी इसको हटाने की व्यवस्था की जाती है। संसदीय प्रणाली में राजनीतिक कार्यपालिका को विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि राजनीतिक कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक आधारों पर कुछ वर्षों के निश्चित कार्य-काल के लिए की जाती है तथा ऐसी कार्यपालिका राजनीतिक स्वरूप की होती है तथा इसका गठन करने में राजनीतिक दलों की विशेष भूमिका होती है।

(Meaning of Permanent Executive or Administrator)-अधिकारी वर्ग अथवा नौकरशाही का दूसरा नाम स्थायी कार्यपालिका अथवा प्रशासक है। स्थायी कार्यपालिका में नौकरशाही अथवा असैनिक अधिकारी सम्मिलित हैं। स्थायी कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक अधिकारों से मुक्त अर्थात् स्वतन्त्र होती है। स्थायी कार्यपालिका का चुनाव अथवा नियुक्ति सम्बन्धी राजनीतिक दलों की कोई भूमिका नहीं होती। स्थायी कार्यपालिका के सदस्यों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाती है। इस कार्यपालिका को इस कारण स्थायी कहा जाता है, क्योंकि इसके सदस्यों का कार्य काल सेवा निवृत्त होने की निश्चित आयु तक स्थायी होता है। राजनीतिक कार्यपालिका में परिवर्तन आने के बावजूद भी स्थायी कार्यपालिका में कोई परिवर्तन नहीं आता। स्थायी कार्यपालिका का मुख्य कार्य राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्धारित की गई नीतियों के अनुसार निष्पक्ष रूप से प्रशासन का प्रबन्ध करना है।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
नौकरशाही का अर्थ लिखें।
अथवा
नौकरशाही’ शब्द के अर्थ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
नौकरशाही अथवा ब्यूरोक्रेसी फ्रांसीसी भाषा के शब्द ब्यूरो से बना है जिसका अर्थ है-डेस्क या लिखने की मेज़। अब इस शब्द का अर्थ हुआ डेस्क सरकार। इस प्रकार नौकरशाही का अर्थ डेस्क पर बैठकर काम करने वाले अधिकारियों के शासन से है। दूसरे शब्दों में, नौकरशाही का अर्थ है प्रशासनिक अधिकारियों का शासन । नौकरशाही शब्द का अधिकाधिक प्रयोग लोक सेवा के प्रभाव को जताने के लिए किया जाता है। प्रायः सभी आधुनिक राज्यों में सरकार का कार्य उन अधिकारियों द्वारा किया जाता है जिन्हें प्रशासनिक समस्याओं की पूरी जानकारी तथा क्षमता रहती है। अधिकारियों के ऐसे निकाय को नौकरशाही के रूप में जाना जाता है। नौकरशाही सरकारी गतिविधियों के समूह द्वारा सम्पन्न गतिविधि है। नौकरशाही की विभिन्न परिभाषाएं अग्रलिखित हैं

  • मार्शल ई० डीमॉक के अनुसार, “नौकरशाही का अर्थ है विशेषीकृत पद सोपान एवं संचार की लम्बी रेखाएं।”
  • फाइनर के अनुसार, “नौकरशाही ऐसा शासन है जिसे मुख्यतः ऐसे कार्यालयों द्वारा चलाया जाता है जिनकी अध्यक्षता अधिकारियों के प्रशिक्षित वर्ग के पास होती है। ये अधिकारीगण स्थायी, वेतन-भोगी एवं कुशल होते हैं।”
  • मैक्स वेबर के अनुसार, “नौकरशाही प्रशासन की ऐसी व्यवस्था है जिसकी विशेषता-विशेषज्ञ, निष्पक्षता तथा मानवता का अभाव होता है।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 8 नौकरशाही

प्रश्न 2.
नौकरशाही की चार मुख्य विशेषताओं को लिखें।
अथवा
नौकरशाही की मुख्य विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
नौकरशाही की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1. निश्चित अवधि-नौकरशाही का कार्यकाल निश्चित होता है। सरकार के बदलने पर नौकरशाही पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मन्त्री आते हैं और चले जाते हैं परन्तु नौकरशाही के सदस्य अपने पद पर बने रहते हैं। लोक सेवक निश्चित आयु तक पहुंचने पर ही रिटायर होते हैं। रिटायर होने की आयु से पूर्व भी लोक सेवकों को भ्रष्टाचार, अकुशलता आदि आरोपों के आधार पर निश्चित कानूनी विधि के अनुसार हटाया जा सकता है।

2. निर्धारित वेतन तथा भत्ते-नौकरशाही के सदस्यों को निर्धारित वेतन तथा भत्ते दिए जाते हैं। पदोन्नति के साथ उनके वेतन में भी वृद्धि होती रहती है। अवकाश की प्राप्ति के पश्चात् नौकरशाही के सदस्यों को पेंशन मिलती है।

3. राजनीतिक तटस्थता, नौकरशाही में कर्मचारी के व्यक्तिगत या राजनीतिक विचारों का कोई स्थान नहीं है। नौकरशाही को राजनीतिक दृष्टि से तटस्थ रहना पड़ता है। वे न तो किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं और न ही इनका राजनीतिक दलों से सम्बन्ध होता है। सरकार किसी भी दल की क्यों न बने, उनका कार्य अपनी योग्यतानुसार प्रशासन की सेवा करना है।

4. तकनीकी विशेषता-तकनीकी विशेषता नौकरशाही की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

प्रश्न 3.
अच्छी नौकरशाही के चार कार्य लिखो।
अथवा
नौकरशाही के किन्हीं चार कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
आधुनिक राज्य में नौकरशाही की भूमिका का वर्णन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं-
1. प्रशासकीय कार्य-प्रशासकीय कार्य नौकरशाही का महत्त्वपूर्ण कार्य है। मन्त्री का कार्य नीति बनाना है और नीति को लागू करने की ज़िम्मेदारी नौकरशाही की है। नौकरशाही के सदस्य चाहे किसी नीति से सहमत हों अथवा न हों, उनका महत्त्वपूर्ण कार्य नीतियों को लागू करना है। एक अच्छी नीति भी बेकार साबित हो जाती है यदि उसे प्रभावशाली ढंग से लागू न किया जाए।

2. नीति को प्रभावित करना-नि:सन्देह नीति निर्माण राजनीतिक कार्यपालिका का कार्य है। परन्तु प्रशासनिक योग्यता के कारण नीति निर्माण में नौकरशाही का महत्त्वपूर्ण योगदान है। नीति निर्माण के लिए मन्त्रियों को आंकड़ों की आवश्यकता होती है और ये आंकड़े स्थायी कर्मचारी मन्त्रियों को देते हैं। इसके अतिरिक्त नौकरशाही नीति को लागू करते समय नीति को एक नया मोड़ दे देते हैं।

3. सलाहकारी कार्य-नौकरशाही राजनीतिक कार्यपालिका को सलाह देने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मन्त्री नीतियों को निर्धारित करते समय काफ़ी हद तक असैनिक कर्मचारियों के परामर्श पर निर्भर करते हैं, क्योंकि जनता के सम्बन्ध में कर्मचारियों को काफ़ी अनुभव होता है।

4. वैधानिक कार्य-नौकरशाही कानून निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले बिलों की रूप रेखा नौकरशाही द्वारा ही तैयार की जाती है।

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प्रश्न 4.
राजनीतिक कार्यपालिका किसे कहते हैं ?
अथवा
राजनीतिक कार्यपालिका का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका में राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मन्त्री, उपमन्त्री, संसदीय सचिव आदि सम्मिलित होते हैं और ये एक निश्चित विधि द्वारा निश्चित अवधि के लिए चुने जाते हैं। राजनीतिक कार्यपालिका का चयन राजनीति के आधार पर किया जाता है। राजनीतिक कार्यपालिका असैनिक सेवाओं अथवा नौकरशाही की सहायता से कार्य करती है। इसका प्रमुख कार्य जनता की इच्छाओं के अनुरूप नीति निर्माण करना होता है। राजनीतिक कार्यपालिका अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् और जनता के प्रति उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 5.
स्थायी कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
असैनिक सेवाओं अथवा नौकरशाही को ही स्थायी कार्यपालिका कहा जाता है। इनकी नियुक्ति राजनीतिक कार्यपालिका की नियुक्ति की अपेक्षा योग्यताओं के आधार पर प्रतियोगी परीक्षाओं के आधार पर की जाती है। इनका वेतन, भत्ते तथा कार्यकाल निश्चित होता है। इनका मुख्य कार्य नीति-निर्माण में मदद तथा उसे लागू करना होता है। लोक सेवक राजनीति में भाग नहीं लेते। वे दलगत राजनीति से दूर रहते हैं। राजनीतिक परिवर्तन होने से स्थायी कार्यपालिका में परिवर्तन नहीं होता।

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प्रश्न 6.
राजनीतिक कार्यपालिका और स्थायी कार्यपालिका में चार अन्तर लिखो।
अथवा
राजनीतिक और स्थायी कार्यपालिका में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका तथा स्थायी कार्यपालिका में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं
1. दोनों की नियुक्ति में अन्तर-राजनीतिक कार्यपालिका की नियुक्ति का चयन जनता द्वारा होता है। स्थायी कार्यपालिका को प्रशासकीय सेवा या लोक सेवा भी कहा जाता है और इसका चयन योग्यता के आधार पर किया जाता है। योग्यता की जांच करने के लिए प्रतियोगिता परीक्षा ली जाती है।

2. राजनीति के आधार पर अन्तर-राजनीतिक कार्यपालिका का चयन ही राजनीति के आधार पर होता है। संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल बहुमत दल का होता है और मन्त्रिमण्डल में राजनीतिक एकरूपता पाई जाती है। राजनीतिक कार्यपालिका प्रायः सभी समस्याओं को राजनीतिक दृष्टि से देखती है। राजनीतिक कार्यपालिका के विपरीत लोक सेवक राजनीति में भाग नहीं लेते। वे दलगत राजनीति से दूर रहते हैं।

3. अवधि के आधार पर अन्तर-राजनीतिक कार्यपालिका में राजनीतिक परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तन होता रहता है। राजनीतिक कार्यपालिका के विपरीत लोक सेवक एक निश्चित आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं। राजनीतिक कार्यपालिका में परिवर्तन होने पर प्रशासकीय कर्मचारियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

4. आकार से सम्बन्धित अन्तर-राजनीतिक कार्यपालिका का आकार छोटा होता है, जबकि स्थायी कार्यपालिका का आकार बड़ा होता है।

प्रश्न 7.
अच्छी नौकरशाही के गुण लिखिए।
अथवा
अच्छी नौकरशाही के कोई चार गुण लिखें।
उत्तर-
अच्छी नौकरशाही के मुख्य गुण निम्नलिखित होते हैं-

  • नौकरशाही की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए। अतः अच्छी नौकरशाही योग्य तथा अनुभवी होनी चाहिए।
  • अच्छी नौकरशाही का एक महत्त्वपूर्ण गुण ईमानदारी है। अत: नौकरशाही ईमानदार होनी चाहिए।
  • नौकरशाही कुशल होनी चाहिए। लोक सेवक अपने कार्यों में कुशल होने चाहिए और उन्हें शासन चलाने की आधुनिक तकनीकों की जानकारी होनी चाहिए।
  • राजनीतिक निष्पक्षता अच्छी नौकरशाही का एक महत्त्वपूर्ण गुण है।

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प्रश्न 8.
राजनीतिक कार्यपालिका से आपका क्या तात्पर्य है ? इसके चार कार्यों का विवरण कीजिए।
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका का अर्थ- इसके लिए प्रश्न नं० 4 देखें।
राजनीतिक कार्यपालिका के कार्य-आधुनिक राज्य, पुलिस राज्य न होकर कल्याणकारी राज्य है। आधुनिक राज्य में राजनीतिक कार्यपालिका के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
1. कानून लागू करना और शान्ति व्यवस्था बनाए रखना-राजनीतिक कार्यपालिका का प्रथम कार्य विधानमण्डल के बनाए कानूनों को लागू करना तथा देश में शान्ति व्यवस्था को बनाए रखना होता है। पुलिस उन व्यक्तियों को, जो कानून तोड़ते हैं गिरफ्तार करती है और उन पर मुकद्दमा चलाती है।

2. नीति निर्धारण-राजनीतिक कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य नीति निर्धारण करना है। राजनीतिक कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक तथा विदेश नीति को निर्धारित करती है और उस नीति के आधार पर ही अपना शासन चलाती है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता है।

3. नियुक्ति करने और हटाने की शक्ति-राजनीतिक कार्यपालिका को देश का शासन चलाने के लिए अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। जो अधिकारी राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किए जाते हैं, उनको राजनीतिक कार्यपालिका हटा भी सकती है।

4. विदेश सम्बन्धी कार्य-देश की विदेश नीति को कार्यपालिका निश्चित करती है। दूसरे देशों से जैसे सम्बन्ध होंगे, यह राजनीतिक कार्यपालिका ही निश्चित करती है। राजनीतिक कार्यपालिका अपने देश के राजदूतों को दूसरे देश में भेजती है और दूसरे देश के राजदूतों को अपने देश में रहने की अनुमति देती है।

प्रश्न 9.
नौकरशाही के पदों के क्रम के संगठन का क्या अर्थ है ?
अथवा
नौकरशाही के तरतीबवार संगठन से क्या भाव है ?
उत्तर-
सम्पूर्ण नौकरशाही व्यवस्था पदसोपान (Hierarchy) के आधार पर निर्मित होती है। एम०पी० शर्मा के अनुसार, “पदसोपान का अभिप्राय एक ऐसे संगठन से होता है, जो पदों के लिए उत्तरोत्तर क्रम अनुसार अथवा सीढ़ी की भान्ति संगठित किया जाए। इस उत्तरोत्तर क्रम में प्रत्येक निचला पद अथवा स्तर ऊपर के पद के तथा उस पद के माध्यम से उससे ऊपर के तथा इसी प्रकार सबसे ऊपर के पद अथवा पदों के अधीन होता है।” इसमें नौकरशाही का आधार विस्तृत होता है और शीर्ष संकुचित होता है। विभिन्न स्तरों पर सदस्यों के बीच उच्च व अधीनस्थ (Senior and Subordinate) का सम्बन्ध होता है। आदेश के सूत्र ऊपर से नीचे और उत्तरदायित्व नीचे से ऊपर जाता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक कार्य उचित मार्ग द्वारा (Through Proper Channel) ही होता है। इस व्यवस्था में नौकरशाही के प्रत्येक स्तर पर नियुक्त सदस्य को अपने कार्यों व उत्तरदायित्व का स्पष्ट रूप से पता होता है। इस प्रकार यदि नौकरशाही व्यवस्था में श्रेणीवार या पदसोपान के सिद्धान्त को न अपनाया जाए तो संगठन बिखर जाता है।

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प्रश्न 10.
लोकतन्त्रीय राज्य में नौकरशाही की महत्ता बताइए।
अथवा
नौकरशाही को प्रशासन की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है ? क्यों ?
उत्तर-
प्रजातन्त्रीय राज्य में प्रशासन चलाने में नौकरशाही का विशेष महत्त्व है। इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि नौकरशाही के बिना राजनीतिज्ञ शासन का संचालन कर ही नहीं सकते। मन्त्रियों के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता निश्चित नहीं होती। उन्हें अपने विभाग की बारीकियों का कम ही ज्ञान होता है। मन्त्री राजनीतिज्ञ होते हैं और राजनीति का खेल उनका पर्याप्त समय ले लेता है। अतः मन्त्रियों के पास समय का अभाव भी रहता है। असैनिक अधिकारी राजनीतिक रूप में निष्पक्ष होते हैं । राजनीतिक दलों की सरकारें बदलती रहती हैं, परन्तु ये अधिकारी अपने पदों पर स्थिर रहते हैं। इस प्रकार असैनिक अधिकारी जहां प्रशासन को राजनीतिक प्रभावों से मुक्त रखने में सहायक सिद्ध होते हैं, वहां उनका स्थायी कार्यकाल प्रशासन को निरन्तरता प्रदान करने का कार्य भी करता है। प्रदत्त विधि विधान की प्रथा ने नौकरशाही के महत्त्व में और वृद्धि कर दी है, क्योंकि असैनिक अधिकारियों के बिना प्रदत्त विधि विधान का कार्य उचित रूप में पूर्ण नहीं हो सकता।
नौकरशाही के महत्त्व को देखते हुए यह उचित ही कहा गया है कि नौकरशाही प्रशासन की रीढ़ की हड्डी है।

प्रश्न 11.
नौकरशाही की निष्पक्षता से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
लोक सेवक का परम्परागत गुण तटस्थता रहा है। तटस्थता का अर्थ है लोक सेवकों को भी राजनीतिक गतिविधियों से दूर करना चाहिए और उन्हें निष्पक्षता से सरकार की नीतियों को लागू करना चाहिए। लोक सेवकों को सार्वजनिक हित को ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए। अमेरिका में संघीय कानून के अनुसार संघीय कर्मचारी राजनीतिक अभियानों में सक्रिय भाग नहीं ले सकते हैं। भारत में लोक सेवक के आचरण नियमों के अनुसार किसी भी सरकारी कर्मचारी को किसी भी राजनीतिक संगठन का सदस्य होने अथवा किसी भी राजनीतिक आन्दोलन या कार्य में भाग लेने या उसके लिए चन्दा देने या उसे किसी भी प्रकार की सहायता देने का अधिकार प्राप्त नहीं है। सरकारी कर्मचारी संसद् और विधान मण्डलों के चुनाव नहीं लड़ सकते। उन्हें केवल वोट देने का अधिकार प्राप्त है। इंग्लैण्ड में उच्च अधिकारियों को केवल वोट डालने तथा दल का सदस्य बनने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार नहीं।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
‘नौकरशाही, शब्द के अर्थ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
नौकरशाही अथवा ब्यूरोक्रेसी फ्रांसीसी भाषा के शब्द ब्यूरो से बना है जिसका अर्थ है-डेस्क या लिखने की मेज़। अतः इस शब्द का अर्थ हुआ डेस्क सरकार। इस प्रकार नौकरशाही का अर्थ डेस्क पर बैठकर काम करने वाले अधिकारियों के शासन से है। दूसरे शब्दों में, नौकरशाही का अर्थ है प्रशासनिक अधिकारियों का शासन। नौकरशाही शब्द का अधिकाधिक प्रयोग लोक सेवा के प्रभाव को जताने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 2.
नौकरशाही की दो परिभाषाएं दें।
उत्तर-

  1. मार्शल ई० डीमॉक (Marshall E. Dimock) के अनुसार, “नौकरशाही का अर्थ है विशेषीकृत पद सोपान एवं संचार की लम्बी रेखाएं।”
  2. मैक्स वेबर (Max Weber) के अनुसार, “नौकरशाही प्रशासन की ऐसी व्यवस्था है जिसकी विशेषताविशेषज्ञ, निष्पक्षता तथा मानवता का अभाव होता है।”

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प्रश्न 3.
नौकरशाही के कोई दो और नाम बताएं।
उत्तर-

  1. दफ्तरशाही
  2. अफसरशाही।

प्रश्न 4.
नौकरशाही की दो मुख्य विशेषताओं को लिखो।
उत्तर-

  1. निश्चित अवधि-नौकरशाही का कार्यकाल निश्चित होता है। सरकार के बदलने पर नौकरशाही पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मन्त्री आते हैं और चले जाते हैं, परन्तु नौकरशाही के सदस्य अपने पद पर बने रहते हैं। लोक सेवक निश्चित आयु पर पहुंचने पर ही रिटायर होते हैं।
  2. निर्धारित वेतन तथा भत्ते-नौकरशाही के सदस्यों को निर्धारित वेतन तथा भत्ते दिए जाते हैं। पदोन्नति के साथ उनके वेतन में भी वृद्धि होती रहती है। अवकाश की प्राप्ति के पश्चात् नौकरशाही के सदस्यों को पेन्शन मिलती है।

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प्रश्न 5.
नौकरशाही के किन्हीं दो कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. प्रशासकीय कार्य (Administrative Functions)—प्रशासकीय कार्य नौकरशाही का महत्त्वपूर्ण कार्य है। मन्त्री का कार्य नीति बनाना है और नीति को लागू करने की ज़िम्मेदारी नौकरशाही की है। .
  2. नीति को प्रभावित करना (To Influence the Policy)—प्रशासनिक योग्यता के कारण नीति निर्माण में नौकरशाही का महत्त्वपूर्ण योगदान है। .

प्रश्न 6.
राजनीतिक कार्यपालिका किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका में राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मन्त्री, उपमन्त्री, संसदीय सचिव आदि सम्मिलित होते हैं और ये एक निश्चित विधि द्वारा निश्चित अवधि के लिए चुने जाते हैं। राजनीतिक कार्यपालिका का चयन राजनीति के आधार पर किया जाता है। राजनीतिक कार्यपालिका अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् और जनता के प्रति उत्तरदायी होती है।

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प्रश्न 7.
स्थायी कार्यपालिका से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
असैनिक सेवाओं अथवा नौकरशाही को ही स्थायी कार्यपालिका कहा जाता है। इनकी नियुक्ति राजनीतिक कार्यपालिका की नियुक्ति की अपेक्षा योग्यताओं के आधार पर प्रतियोगी परीक्षाओं के आधार पर की जाती है। इनका वेतन, भत्ते तथा कार्यकाल निश्चित होता है। इनका मुख्य कार्य नीति-निर्माण में मदद तथा उसे लागू करना होता है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक कार्यपालिका और स्थाई कार्यपालिका में दो अन्तर लिखो।
उत्तर-

  1. दोनों की नियुक्ति में अन्तर-राजनीतिक कार्यपालिका की नियुक्ति या चयन जनता द्वारा होता है। स्थायी कार्यपालिका को प्रशासकीय सेवा या लोक सेवा भी कहा जाता है और इसका चयन योग्यता के आधार पर किया जाता है। योग्यता की जांच करने के लिए प्रतियोगिता परीक्षा ली जाती है।
  2. राजनीति के आधार पर अन्तर-राजनीतिक कार्यपालिका का चयन ही राजनीति के आधार पर होता है। राजनीतिक कार्यपालिका के विपरीत लोक सेवक राजनीति में भाग नहीं लेते। वे दलगत राजनीति से दूर रहते हैं।

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प्रश्न 9.
अच्छी व शिक्षित नौकरशाही की कोई दो विशेषताएं अथवा गुण लिखें।
उत्तर-

  1. अच्छी नौकरशाही का एक महत्त्वपूर्ण गुण ईमानदारी है। अत: नौकरशाही ईमानदार होनी चाहिए।
  2. राजनीतिक निष्पक्षता अच्छी नौकरशाही का एक महत्त्वपूर्ण गुण है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
नौकरशाही का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
नौकरशाही शासन के उस रूप को कहा जाता है, जिसमें प्रशासन के कार्य-कुर्सी मेज़ पर कार्य करने वाले असैनिक अथवा प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा किए जाते हैं।

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प्रश्न 2.
नौकरशाही की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-
ऐप्लबी के अनुसार, “नौकरशाही तकनीकी पक्ष से शिक्षित उन व्यक्तियों का पेशेवर वर्ग है, जो क्रमानुसार संगठित होते हैं और निष्पक्ष रूप में राज्य की सेवा करते हैं।”

प्रश्न 3.
नौकरशाही की एक विशेषता लिखें।
अथवा
नौकरशाही की कोई दो विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  1. नौकरशाही पदसोपान के आधार पर संगठित होती है।
  2. नौकरशाही में तकनीकी विशेषता पाई जाती है।

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प्रश्न 4.
नौकरशाही के कोई दो कार्य लिखिए।
अथवा
आदर्श नौकरशाही का एक मुख्य कार्य लिखें।
उत्तर-

  1. मन्त्रियों को सहयोग देना।
  2. नीतियों को लागू करना।

प्रश्न 5.
राजनीतिक कार्यपालिका के अर्थ लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका का चुनाव प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में लोगों द्वारा होता है।

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प्रश्न 6.
स्थायी कार्यपालिका के अर्थ लिखें।
उत्तर-
स्थायी कार्यपालिका को राजनीतिक आधार पर निर्वाचित नहीं किया जाता, बल्कि योग्यता के आधार पर नियुक्ति की जाती है।

प्रश्न 7.
राजनीतिक कार्यपालिका एवं स्थायी कार्यपालिका में कोई एक अन्तर बताएं।
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका का मूल आधार राजनीतिक होता है, जबकि राजनीतिक निरपेक्षता स्थायी कार्यपालिका की मुख्य विशेषता होती है।

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प्रश्न 8.
नौकरशाही के दो गुणों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. अच्छी नौकरशाही का प्रथम गुण यह है, कि उनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाती है।
  2. नौकरशाही प्रशासन में स्थिरता पैदा करती है।

प्रश्न 9.
वास्तविक कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है ? ।
उत्तर-
संविधान में दी गई शक्तियों का जो वास्तव में प्रयोग करता है, उसे वास्तविक कार्यपालिका कहते हैं। उदाहरण के लिए भारत में मंत्रिमण्डल (प्रधानमंत्री) एवं अमेरिका में राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका हैं।

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प्रश्न 10.
नौकरशाही की किस प्रकार की भर्ती को खराब ढांचा (Spoil System) कहा जाता है ?
उत्तर-
राजनीतिक आधार पर की जाने वाली भर्ती को खराब ढांचा कहा जाता है।

प्रश्न 11.
लोक सेवा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
लोक सेवा का अर्थ असैनिक सेवा है।

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प्रश्न 12.
प्रत्यक्ष भर्ती का एक गुण लिखो।
अथवा
नौकरशाही की सीधी भर्ती का कोई एक गुण बताएं।
उत्तर-
इस पद्धति से नवयुवकों को लोक सेवाओं में प्रवेश करने का अवसर मिलता है।

प्रश्न 13.
प्रत्यक्ष भर्ती का कोई एक अवगुण लिखें।
उत्तर-
प्रत्यक्ष भर्ती से प्रशासन में अनुभवहीन व्यक्ति आ जाते हैं।

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प्रश्न 14.
प्रत्यक्ष भर्ती से क्या अभिप्राय है ? ।
उत्तर-
प्रत्यक्ष भर्ती के अन्तर्गत उम्मीदवारों का चयन खुले तौर पर किया जाता है।

प्रश्न 15.
राजनीतिक कार्यपालिका की कोई एक विशेषता लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक कार्यपालिका की नियुक्ति निर्वाचन द्वारा होती है।

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प्रश्न 16.
भर्ती के अर्थ लिखो।
उत्तर-
भर्ती एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा योग्य व्यक्तियों को रिक्त स्थानों के लिए आकर्षित किया जाता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. नौकरशाही शब्द को अंग्रेज़ी में ……….. कहा जाता है।
2. Bureaucracy शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द ………… से बना है।
3. ब्यूरो का अर्थ है ………. या लिखने की मेज़।
4. मार्शल ई० डीमॉक के अनुसार नौकरशाही का अर्थ है विशेषीकृत ……….. एवं संचार की लम्बी रेखाएं।
5. नौकरशाही की मुख्य विशेषता कार्यों का तर्कपूर्ण . …….. है।
उत्तर-

  1. Bureaucracy
  2. ब्यूरो
  3. डेस्क
  4. पदसोपान
  5. विभाजन।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. लोक सेवाओं की भर्ती को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जाता है-नकारात्मक एवं सकारात्मक।
2. नकारात्मक भर्ती का उद्देश्य सरकारी पदों से योग्य व्यक्तियों को दूर रखना है।
3. लोक सेवा का परम्परागत गुण तटस्थता है।
4. तटस्थता का अर्थ है, कि लोक सेवाओं को राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना है।
5. नौकरशाही नीति-निर्माण का कार्य करती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. ग़लत।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नौकरशाही का दोष है-
(क) कागजों की हेरा-फेरी
(ख) लाल फीताशाही
(ग) जन साधारण की मांगों की उपेक्षा
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
लूट प्रणाली (Spoils System) पाई जाती थी-
(क) भारत में
(ख) इंग्लैण्ड में
(ग) अमेरिका में
(घ) जापान में।
उत्तर-
(ग) अमेरिका में

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प्रश्न 3.
राजनीतिक तथा स्थायी कार्यपालिका में क्या अन्तर पाया जाता है ?
(क) नियुक्ति के आधार पर अन्तर
(ख) योग्यता के आधार पर अन्तर
(ग) कार्यकाल के आधार पर अन्तर
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4.
“नौकरशाही” शब्द की उत्पत्ति निम्नलिखित में से किस वर्ष हुई ?
(क) 1888
(ख) 1940
(ग) 1745
(घ) 1668.
उत्तर-
(ग) 1745

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प्रश्न 5.
किस भाषा से ‘ब्यूरोक्रेसी’ शब्द लिया गया है ?
(क) ब्यूरो से
(ख) पोलिस से
(ग) स्टेटस से
(घ) सावरेनिटी से।
उत्तर-
(क) ब्यूरो से

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन

Punjab State Board PSEB 12th Class Geography Book Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Geography Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन

PSEB 12th Class Geography Guide मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन Textbook Questions and Answers

प्रश्न I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में दें :

प्रश्न 1.
पृथ्वी पर आर्थिक क्रियाओं का धुरा किसे कहा जा सकता है ?
उत्तर-
मानव को पृथ्वी पर आर्थिक क्रियाओं का धुरा कहा जाता है।

प्रश्न 2.
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या घनत्व का कितना है ?
उत्तर-
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।

प्रश्न 3.
अरुणाचल प्रदेश राज्य किस जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र में आता है ?
उत्तर-
अरुणाचल प्रदेश राज्य कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र में आता है।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन

प्रश्न 4.
विश्व जनसंख्या दिवस कब मनाया जाता है ?
उत्तर-
हर साल 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है।

प्रश्न 5.
भारत की ज्यादा जनसंख्या किस आयु समूह के साथ सम्बन्धित है ?
उत्तर-
भारत की ज्यादा जनसंख्या 0-14 साल और 60 साल के आयु समूह से सम्बन्धित है।

प्रश्न 6.
2011 की जनगणना के अनुसार पंजाब का लिंग अनुपात कितना है ?
उत्तर-
2011 की जनगणना के अनुसार पंजाब का लिंगानुपात सिर्फ 893 है।

प्रश्न 7.
भारत में पहले दर्जे के शहरों की कम से कम जनसंख्या कितनी है ?
उत्तर-
भारत में पहले दर्जे के शहरों में कम से कम जनसंख्या 1 लाख अथवा इससे अधिक वाले शहर आते हैं।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन

प्रश्न 8.
जनसंख्या की स्थान परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कोई दो कारक बताओ।
उत्तर-
जनसंख्या की स्थान परिवर्तन की प्रभावित करने वाले कारक हैं—

  1. आर्थिक कारक,
    • अच्छी कृषि योग्य भूमि का होना
    • रोजगार के अवसरों की उपलब्धता।
  2. सामाजिक कारक
    • धार्मिक स्वतन्त्रता
    • निजी स्वतन्त्रता।

प्रश्न 9.
सबसे अधिक भारतीय किन मध्य पूर्वी देशों में रहते हैं ?..
उत्तर-
सबसे अधिक भारतीय यू०एस०ए०, साऊदी अरब, इंग्लैंड, कैनेडा, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, यूरोप, न्यूजीलैंड इत्यादि देशों में रहते हैं।

प्रश्न 10.
2011 की जनगणना के अनुसार पुरुषों और औरतों की साक्षरता दर क्या है ?
उत्तर-
2011 की जनगणना के अनुसार पुरुषों की साक्षरता दर 80% और औरतों की साक्षरता दर 65.46% थी।

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प्रश्न 11.
नीचे दिए गए संसार के जनसंख्या के आंकड़ों को मिलाएँ—
1. पाकिस्तान — (क) 134.10 करोड़
2. बंगलादेश — (ख) 121.01 करोड़
3. चीन — (ग) 18.48 करोड़
4. भारत — (घ) 16.44 करोड़।
उत्तर-

  1. ग,
  2. घ,
  3. क,
  4. ख।

प्रश्न 12.
नीचे दिए गए किस राज्य की साक्षरता दर सबसे ज्यादा है ?
(i) मिजोरम,
(ii) मेघालय,
(iii) मणिपुर,
(iv) महाराष्ट्र।
उत्तर-
(iii) मणिपुर।

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प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चार पंक्तियों में दें :

प्रश्न 1.
अलग-अलग जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों के नाम बताओ।
उत्तर-
जनसंख्या घनत्व का विश्लेषण करने के लिए भारत को तीन श्रेणियों में बाँटा जाता है—

  1. अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र- इस श्रेणी में 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक जनसंख्या घनत्व वाले राज्य शामिल हैं जैसे बिहार, पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, पंजाब, झारखण्ड, दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़, पुडुचेरी, दमन, दीऊ और लक्षद्वीप इत्यादि केंद्र शासित प्रदेश इस वर्ग में शामिल
  2. साधारण घनत्व वाले प्रदेश-इस वर्ग में असम, गोआ, त्रिपुरा, कर्नाटक इत्यादि प्रमुख हैं। 3. कम घनत्व वाले प्रदेश-इस वर्ग में जम्मू कश्मीर, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश इत्यादि शामिल हैं।

प्रश्न 2.
जनसंख्या घनत्व को प्रभावित करने वाले चार कारक बताओ।
उत्तर-
जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले चार कारक हैं—

  1. धरातल-जिस जगह का धरातल समतल होता है वहाँ कृषि करनी आसान होती है। इसलिए लोग ऐसे स्थानों पर रहना अधिक पसंद करते हैं।
  2. खनिज पदार्थ और प्राकृतिक साधनों की उपलब्धि-जिस स्थान पर अच्छे खनिज पदार्थ और प्राकृतिक स्रोत मिलते हैं उन स्रोतों को प्राप्त करके मनुष्य अपनी आय बढ़ा सकते हैं। इसलिए ऐसे क्षेत्रों की जनसंख्या ज्यादा होगी।
  3. जलवायु-अधिक ठंडे या ज्यादा गर्म क्षेत्रों में लोग रहना पसंद नहीं करते। जहां पर जलवायु समान होती है इसलिए वहां जनसंख्या अधिक होगी।
  4. सामाजिक कारक-जहां लोग फिजूल के रीति रिवाजों को मानते हैं वहाँ पर लोग कम रहना पसंद करते हैं और जहां पर पढ़े-लिखे.और सकारात्मक सोच वाले लोग रहते हों वहाँ पर अधिक जनसंख्या होगी।

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प्रश्न 3.
दस साल में जनसंख्या वृद्धि निकालने का फार्मूला बताओ।
उत्तर-
भारत में हर दस सालों के बाद जनगणना होती है। दस सालों में कुल जनसंख्या में जो परिवर्तन होता है उसे जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं। इलाके में जनसंख्या वृद्धि निकालने का फार्मूला है—
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प्रश्न 4.
अधिक जनसंख्या से होने वाली कोई चार समस्याएँ बताओ।
उत्तर-
अधिक जनसंख्या से होने वाली समस्याएँ हैं—

  1. स्थान की समस्या और मकानों की कमी
  2. पीने वाले जल की कमी
  3. अपराधों की संख्या का बढ़ना
  4. प्रदूषण की समस्या।

प्रश्न 5.
जनसंख्या परिवर्तन के निर्णायक तत्व क्या हैं ?
उत्तर-
किसी देश की जनसंख्या समान नहीं होती। समय-समय पर उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन आते रहते हैं। जनसंख्या परिवर्तन के मुख्य निर्णायक तत्व नीचे लिखे अनुसार हैं—

  1. जन्म दर-जिस क्षेत्र और स्थान की जन्म दर अधिक होती है वहाँ जनसंख्या अधिक होगी। जहां जन्म दर कम होगी वहां जनसंख्या कम होगी।
  2. मृत्यु दर-मृत्यु दर में वृद्धि के साथ जनसंख्या में कमी हो जाती है और कमी के साथ जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है।
  3. प्रवास-स्थान बदली स्थाई और अस्थाई दो प्रकार की होती है। जब लोग शादी और किसी रोज़गार को ढूँढ़ने के लिए किसी अन्य जगह पर चले जाते हैं तब वहाँ पर जनसंख्या बढ़ जाती है स्थायी प्रवास कहते हैं परन्तु जब लोग अस्थाई रूप अर्थात् घूमने के लिए जाते हैं और वापिस अपने शहर लौट आते हैं उसे अस्थाई प्रवास कहते हैं।

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प्रश्न 6.
साक्षरता का अर्थ क्या है ?
उत्तर-
शब्दकोष अनुसार साक्षरता का अर्थ है-पढ़ने और लिखने की क्षमता। पर भारत की जनगणना की परिभाषा के अनुसार किसी भी भाषा में पढ़-लिख और समझ लेने की क्षमता को साक्षरता कहते हैं। इसलिए एक मनुष्य जो एक भाषा लिख और पढ़ सकता है और उसे समझ सकता है और उसकी आयु सात साल की है उसे शिक्षित कहते हैं। साक्षरता किसी देश के मानव विकास का एक प्रमाण चिन्ह होता है। साक्षरता किसी व्यक्ति के समझ के घेरे को और अधिक वृद्धि देती है। सारक्षता को किसी देश के आर्थिक और सामाजिक विकास का मुख्य बिंदु माना जाता है।

प्रश्न 7.
साक्षरता दर निकालने का फार्मूला क्या है?
उत्तर-
साक्षरता दर निकालने का फार्मूला है—
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प्रश्न III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 10-12 पंक्तियों में दें :

प्रश्न 1.
किसी क्षेत्र में जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले राजनीतिक कारक कौन से हैं ?
उत्तर-
किसी क्षेत्र में जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले राजनीतिक कारक हैं—

  1. अगर कोई सरकार लोगों की ज़रूरतों और उम्मीदों को पूरा करने योग्य होती है, वहाँ पर लोग रहना पसंद करते हैं पर जिस क्षेत्र की सरकार लोगों की उम्मीदों को पूरा नहीं कर सकती लोग वहाँ पर रहना पसंद नहीं करते जहां किसी विशेष धर्म की पक्षपूर्ति हो वहां लोग रहना कम पसंद करते हैं।
  2. जिस जगह पर पेंशन इत्यादि की और बालिगों के कई अच्छे कानून बनाये गए हों, वहाँ लोग रहना पसंद करते हैं।
  3. जिस स्थान पर लोगों के लिए बढ़िया रोज़गार के मौके सरकार की तरफ से दिए जाते हैं लोग वहाँ पर रहना ज्यादा पसंद करते हैं।
  4. जिस स्थान पर हर राष्ट्रीय मुद्दे को सरकारी स्तर पर सूझ-बूझ के साथ निपटाया जाता है और क्षेत्र में शांति स्थापित की जाती है, वहां पर लोग रहना अधिक पसंद करते हैं।

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प्रश्न 2.
क्या शहरी क्षेत्रों को जनसंख्या के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है, और कैसे ?
उत्तर-
शहरी क्षेत्रों को जनसंख्या के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के निर्देशों के अनुसार भारत के जनगणना विभाग ने शहरों को नीचे लिखी श्रेणियों में विभाजित किया है—

  1. प्रथम दर्जे के शहर-जिन शहरों में जनसंख्या 1 लाख और इससे अधिक होती हैं-वे प्रथम दर्जे के शहरों के अन्तर्गत आते हैं।
  2. द्वितीय दर्जे के शहर-जिन शहरों की जनसंख्या 50,000 से 99,999 तक होती है, उन्हें द्वितीय दर्जे के शहरों में आंका जाता है।
  3. तृतीय दर्जे के शहर-जिन शहरों की जनसंख्या 20,000 से 49,999 तक होती है, उन्हें तृतीय दर्जे के शहर कहते हैं।
  4. चतुर्थ दर्जे के शहर-जिन शहरों की जनसंख्या 10,000 से 19,999 तक होती है, उन्हें चतुर्थ दर्जे के शहर कहते हैं।
  5. पंचम दर्जे के शहर-जिन शहरों की जनसंख्या 5,000 से 9,999 तक होती है उन्हें पंचम दर्जे के शहरों में आंका जाता है।
  6. छठे दर्जे के शहर-जिन शहरों की जनंसख्या 5,000 से कम होती है उन्हें छठे दर्जे के शहर कहते हैं।

प्रश्न 3.
प्रवास (Migration) के पर्यावरणीय परिणाम कौन-से हैं ?
उत्तर-
प्रवास के पर्यावरणीय नतीजे नीचे लिखे अनुसार हैं—

  1. गाँवों के लोग बेहतर सुविधा के लिए शहरों की तरफ अधिक आकर्षित होते हैं जिसके कारण अधिक संख्या में गाँव के लोग शहरों की तरफ प्रवास कर रहे हैं। इस कारण शहर अधिक जनसंख्या वाले बनते जा रहे हैं।
  2. प्रवास के कारण अप्रवास (Immigration) वाले क्षेत्रों की मूल संरचना पर बहुत ज्यादा दबाव पड़ता है।
  3. शहरी क्षेत्रों में अधिक से अधिक प्रवास के कारण शहरों में गैर आयोजन और असंतुलित विकास के निष्कर्ष निकलते हैं।
  4. जब शहरी जनसंख्या बढ़ जाती है तब रहने के लिए जगह की कमी हो जाती है जिस कारण बस्तियां गंदी हो जाती हैं।
  5. शहरों में जनसंख्या के वृद्धि के कारण, क्योंकि मनुष्यों की जनसंख्या बढ़ जाती है कई तरह की समस्याएँ, जैसे कि सफाई की, जल की कमी इत्यादि आ जाती हैं।

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प्रश्न 4.
क्या साक्षरता मानवीय विकास सूचक का मापक है ?
उत्तर-
साक्षरता किसी देश के मानवीय विकास सूचक (HDI) का मापक है। साक्षरता के कारण व्यक्ति की सूझबूझ का घेरा बढ़ जाता है। अधिक साक्षरता किसी देश के सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक विकास में योगदान डालती है और स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं कि साक्षरता लोगों के विकास का आधार है। अनपढ़ और अशिक्षित लोग विकास का अनिवार्य स्तर हासिल नहीं कर पाते। साक्षरता के कारण लोगों के रहन-सहन और बोलचाल के ढंग में सुधार आता है। स्त्रियों की सामाजिक दशा में सुधार आता है। मनुष्य की रूढ़िवादी सोच बदल जाती है और स्त्रीपुरुष का भेद कम हो जाता है। यह देश के सामाजिक और आर्थिक विकास का कारण भी है अथवा नतीजा भी। जिन देशों की साक्षरता दर कम होती है उन देशों में अधिकतर पर आर्थिक और सामाजिक विकास की कमी भी देखने को मिलती है और जिस जगह की साक्षरता दर ज्यादा होती है उस देश का आर्थिक, सामाजिक विकास भी ज्यादा होता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि साक्षरता मानवीय विकास सूचक का मापक है।

प्रश्न 5.
जनसंख्या की प्रवास के प्रतिकर्ष और अपकर्ष करने वाले कारकों का वर्णन करो।
उत्तर-
जनसंख्या की प्रवास के प्रतिकर्ष और अपकर्ष करने वाले कारकों का वर्णन नीचे लिखे अनुसार है—

प्रतिकर्ष कारक  (Pull Factor) अपकर्ष कारक (Push Factors)
1. जिस स्थान पर लोगों के लिए कोई काम न हो, बेरोजगारी हो, वहाँ से लोग किसी और स्थान की तरफ जाना शुरू कर देते हैं। 1. जिस स्थान पर रोजगार के अच्छे मौके मिल रहेहों लोग उस तरफ को आकर्षित होते हैं।
2. बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण लोग अपना क्षेत्र छोड़कर चले जाते हैं। 2. जिस स्थान पर प्राकृतिक आपदाओं का संकट न हो, लोग वहाँ चले जाते हैं। ।
3. युद्ध और लड़ाई के डर के कारण लोग अपने स्थान को छोड़ देते हैं। 3. राजनीतिक और सामाजिक सुरक्षा क्षेत्र भी मनुष्य को आकर्षित करते हैं।
4. जिस स्थान की जमीन उपजाऊ नहीं होती, फ़सल करती है। 4. उपजाऊ भूमि वाली जगह भी लोगों को आकर्षित अच्छी नहीं होती, लोग उस जगह को छोड़ देते हैं।
5. किसी स्थान पर सेवा और सुविधाएँ कम होने के कारण लोग उस स्थान को छोड़ देते हैं। 5. किसी स्थान पर अच्छी सेवा और सुविधा के कारण लोग वहाँ पर चले जाते हैं।

 

प्रश्न 6.
भारतीयों के संसार में फैलाव पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारतीयों के संसार में फैलाव का इतिहास बहुत पुराना है। बस्तीवादी काल के दौरान गुलाम मजदूरों को अंग्रेजों ने काम करने के लिए एशिया के दूसरे देशों में भेजा। इन मजदूरों की अधिक संख्या पश्चिमी बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल तथा उड़ीसा इत्यादि से थी जिनको इग्लैंड की बस्तियों, अफ्रीका, दक्षिण पूर्वी एशिया जैसे देशों में काम के लिए भेजा गया। इन मजदूरों को अधिकतर पर जहाँ चीनी मिल, कपास की खेती, चाय के बाग और रेलमार्ग निर्माण इत्यादि के कामों के लिए भेजा जाता था। अधिकतर मध्यवर्ग के लोगों ने दूसरे देशों में प्रवास किया। इनमें साक्षर और निरक्षर दोनों तरह के मज़दूर मौजूद थे। पंजाब के दोआबा क्षेत्र के इलाकों में बहुत सारे लोगों ने इंग्लैंड, कनाडा, यू०एस०ए०, आस्ट्रेलिया इत्यादि देशों की तरफ प्रवास किया। आज के समय में लगभग हर देश में भारतीयों का फैलाव देखा जा सकता है। आजकल पढ़े-लिखे लोग भी बढ़िया नौकरी की तलाश में या फिर बेहतर साक्षरता के लिए दूसरे देशों की तरफ जा रहे हैं। भारतीयों ने विकसित देशों में अपना अहम स्थान बना रखा है।

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प्रश्न III. नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर 20 वाक्यों में दें—

प्रश्न 1.
जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक कौन से हैं ?
उत्तर-
जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक नीचे दिए अनुसार हैं—
1. जलवायु-जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों में जलवायु सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कारक है। जिस स्थान का जलवायु अधिक गर्म तथा अधिक ठंडा होता है लोग वहाँ पर रहना पसंद नहीं करते, पर जिस स्थान का जलवायु औसत दर्जे का होता है लोग वहाँ पर अधिक रहना पसंद करते हैं।

2. धरातल और मिट्टी की किस्म-क्योंकि कृषि मनुष्य की कमाई का मुख्य स्रोत है इसलिए जिस स्थान की मिट्टी ज्यादा उपजाऊ होती है तथा समतल होती है वह स्थान कृषि के लिए उत्तम होता है। लोग वहां पर रहना पसंद करते हैं। यही कारण है कि अधिक तेज ढलान वाले क्षेत्रों में लोग कम रहते हैं।

3. जल, खनिज पदार्थ तथा प्राकृतिक साधनों की उपलब्धि-जल मनुष्य की पहली जरूरत है। खारे तथा पीने योग्य पानी की कमी वाले क्षेत्रों में जनसंख्या की कमी होती है। खनिज पदार्थ और प्राकृतिक साधनों की उपलब्धि किसी देश के आर्थिक विकास की कुंजी है। मानव का विकास सीधे रूप में आर्थिक विकास के ऊपर निर्भर करता है।

4. यातायात और संचार के साधन-यातायात के विकास के साथ मनुष्य को यातायात के साधनों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना आसान होता है तथा संचार के साधनों के विकास के साथ देश का आर्थिक विकास होता है। इसलिए जिस स्थान पर यातायात और संचार के साधनों की उपलब्धि होती है लोग वहाँ पर रहना पसंद करते हैं।

5. ऊर्जा की उपलब्धि-मानवीय साधनों के विकास के लिए बिजली ऊर्जा शक्ति अति आवश्यक है। इसलिए जिस स्थान पर सस्ती ऊर्जा की उपलब्धि होती है वहाँ लोग अधिक रहना पसंद करते हैं।

6. राजनैतिक तथा सामाजिक सुरक्षा-जिस स्थान पर लड़ाई तथा युद्ध का डर होता है वहाँ लोग कम रहते हैं पर जिस देश की सरकार ने सामाजिक सुरक्षा का भरोसा दिलाया होता है उस स्थान की जनसंख्या अधिक होगी।

7. रोज़गार के अवसरों की उपलब्धि- इसके कारण ही बहुत सारे लोग गाँव को छोड़ कर शहरों की तरफ आकर्षित होते हैं।

प्रश्न 2.
वह कौन-सी समस्याएँ हैं जिनका सामना पहले दर्जे के शहरों के नागरिक, छठे दर्जे के शहरों के नागरिकों से भी अधिक करते हैं ?
उत्तर-
जिन स्थानों की जनसंख्या 1 लाख अथवा इससे अधिक होती है, वे पहले दर्जे के क्षेत्र हैं तथा जिनकी जनसंख्या 5000 से कम होती है, वे छठे दर्जे के क्षेत्रों में आते हैं। कुछ समस्याएँ जिनका सामना पहले दर्जे के शहरों के नागरिक छठे दर्जे के शहरों के नागरिकों से अधिक करते हैं, इस प्रकार हैं—

  1. जनसंख्या विस्फोट असहनीय-जब लोग बेहतरीन अवसरों की खोज में अपना शहर छोड़कर दूसरे शहर में जाकर निवास करते हैं तब उन शहरों की जनसंख्या बढ़ जाती है जिसके कारण रहने के स्थान की कमी हो जाती है, जो आजकल हमारे पहले दर्जे के शहर सहन कर रहे हैं। इसके कारण लोगों को गंदगी वाली हालात में मजबूरी के कारण रहना पड़ता है।
  2. गंदी बस्तियों का जन्म-पहले दर्जे के शहरों में जनसंख्या की वृद्धि के कारण बस्तियों का प्राकृतिक पर्यावरण बिगड़ने लगता है। अधिक भीड़ के कारण गंदगी फैलती है और बस्तियाँ गंदी होनी शुरू हो जाती हैं।
  3. पीने वाले पानी की समस्या-अधिक जनसंख्या के कारण पीने वाले पानी की समस्या बढ़ जाती है।
  4. प्रदूषण की समस्या-जनसंख्या के बढ़ाव के कारण अधिक-से-अधिक उद्योग विकसित होते हैं तथा अधिक-से-अधिक वाहन आने शुरू होते हैं। इसके कारण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न है।
  5. अपराधों की संख्या में बढ़ाव-जिन लोगों को काम के लिए अच्छे अवसर नहीं मिलते वे गलत रास्ते अपना लेते हैं जिसके कारण अपराधों की संख्या बढ़ जाती है।

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प्रश्न 3.
जनसंख्या प्रवास (Migration) के कारण कौन से हैं ?
उत्तर-
किसी क्षेत्र की जनसंख्या की तबदीली को जनसंख्या प्रवास बहुत प्रभावित करती है। प्रवास स्थाई या अस्थाई दो रूप में हो सकती है। जनसंख्या प्रवास के मुख्य कारण नीचे दिए अनुसार हैं—

  1. आर्थिक कारण-आर्थिक कारण स्थान बदली के लिए जिम्मेदार कारणों में सबसे अधिक प्रमुख हैं। जैसे कि—
    • क्षेत्र की आर्थिक दशा कैसी है और क्षेत्र के औद्योगिक विकास का परिदृश्य किस प्रकार का है।
    • क्षेत्र का धरातल तथा मिट्टी की किस्म खेती योग्य है या नहीं।
    • भूमि पर मानव के स्वामित्व का आकार।
    • रोज़गार के अवसर क्षेत्र में कैसे हैं।
    • क्षेत्र में यातायात तथा संचार के साधन किस प्रकार के हैं।
  2. सामाजिक कारण-सामाजिक कारण भी प्रवास में अहम भूमिका निभाते हैं जैसे कि
    • शादी के बाद औरतें अपने माता-पिता का घर छोड़कर पति के घर चली जाती हैं।
    • बढ़िया और उच्च शिक्षा के लिए बच्चे एक से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं।
    • जिस स्थान पर धार्मिक आजादी होती है, लोग वहाँ अधिक जाते हैं।
    • सरकारी नीति भी एक बड़ा सामाजिक कारण है।
  3. जनांकण कारण-जनांकण एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जैसे कि आयु कारक, स्थान बदली करने वाले लोगों की उम्र (आयु) कितनी है।
  4. राजनैतिक कारण-जिस क्षेत्र की सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरती है, उस स्थान पर लोग अधिक रहना पसंद करेंगे।
  5. ऐतिहासिक कारण-कई प्रकार के ऐतिहासिक कारक भी लोगों की प्रवास पर प्रभाव डालते हैं। लोग अपने धर्म के साथ सम्बन्धित स्थान अथवा ऐतिहासिक महत्त्व वाले स्थानों पर रहना पसंद करते हैं।

प्रश्न 4.
जनांकण परिवर्तन सिद्धान्त के अलग-अलग चरणों की चर्चा करो।
उत्तर-
जनांकण परिवर्तन सिद्धान्त डब्ल्यू० एस० थोपसन और फ्रैंक नोटसटीन द्वारा पेश किया गया। जनांकण परिवर्तन सिद्धान्त के अलग-अलग चरणों का वर्णन नीचे दिए अनुसार है—

1. पहला चरण-इस चरण में जनसंख्या कम होती है तथा आ तौर पर जनसंख्या स्थिर रहती है। दोनों ही जन्म दर तथा मृत्यु दर अधिक होती हैं, पर कई बार देश में खुशहाली के कारण मृत्यु दर कम हो जाती है। पर इसके विपरीत कई बार मृत्यु दर लगातार प्राकृतिक आपदाओं के कारण बढ़ जाती है। लोगों का मुख्य रोज़गार कृषि है। जनसंख्या की वृद्धि कम या नकारात्मक होती है। लोगों के पास तकनीकी ज्ञान की कमी होती है, अधिकतर लोग अशिक्षित होते हैं।

2. दूसरा चरण-उद्योगों के विकास के कारण लोगों का स्वास्थ्य और रहन-सहन अच्छा हो गया है। खास तौर पर जिन शहरों में सफाई और स्वास्थ्य के विकास के तरफ अधिक ध्यान दिया जाता है, वहाँ लोगों का रहनसहन ज्यादा सुधर गया है। इस धारणा का महत्त्व यह है कि उपर्युक्त सेवाएँ, भोजन सुविधा, सफाई प्रबंध इत्यादि के कारण मृत्यु दर में कमी आती है। इस तरह जन्म दर और मृत्यु दर के बीच फासला बढ़ने के कारण जनसंख्या में तेजी के साथ वृद्धि होती है।

3. तीसरा चरण-तीसरा और आखिरी चरण वह चरण है, जहाँ जन्म दर अथवा मृत्यु दर दोनों ही कम हो जाती हैं। जनसंख्या वृद्धि या तो स्थिर होती है या फिर बहुत ज्यादा कम हो जाती है। इस चरण में साक्षरता दर काफी ऊँची हो जाती है। औद्योगिक विकास के कारण शहरीकरण में वृद्धि होती है। यू० एस० ए०, कनाडा, यूरोप इत्यादि देश इस चरण पर हैं। पर भारत के लिए इस चरण को प्राप्त करना एक अन्तिम उद्देश्य है। इस चरण में क्योंकि लोग शिक्षित और सूझवान हैं, मृत्यु दर और जन्म दर दोनों ही कम होने के कारण जनसंख्या भी । कम होनी शुरू हो जाती है।

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प्रश्न 5.
साक्षरता दर क्या है ? इस पक्ष से हमारे राज्यों की स्थिति कितनी अच्छी है ?
उत्तर-
साक्षरता-एक व्यक्ति जो लिख और पढ़ सकता है और उसकी उम्र 7 साल है, उसे साक्षर माना जाता है। शब्दकोष के अनुसार, किसी भी भाषा में पढ़, लिख तथा समझ लेने की योग्यता को साक्षरता कहते हैं। किसी देश के मानव विकास का मापक साक्षरता है। साक्षरता के कारण ही मानव की सूझ-बूझ का विकास होता है।
साक्षरता के अनुसार दुनिया के पहले दस देश निम्नलिखित हैं—

देश साक्षरता दर (प्रतिशत) युवा साक्षरता दर (आयु 15-24)
चीन 94.4% 99.7%
श्री लंका 92.6% 98.8%
म्यांमार 93.1% 96.3%
भारत 74.04% 90.2%
नेपाल 64.7% 86.9%
पाकिस्तान 60.00% 74.8%
बंगला देश 61.5% 83.2%

भारत में सबसे अधिक साक्षरता दर केरल (94%) में है। इसके बाद क्रमवार मिजोरम (91.3%), गोआ (88.70%) आदि हैं और बिहार में (61.80%) सबसे कम साक्षरता दर है। पंजाब की साक्षरता दर 75.8% है।

Geography Guide for Class 12 PSEB मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन Important Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर (Objective Type Question Answers)

A. बहु-विकल्पी प्रश्न :

प्रश्न 1.
21वीं सदी की शुरुआत में संसार की जनसंख्या कितनी थी ?
(A) 4 बिलियन
(B) 6 बिलियन
(C) 8 बिलियन
(D) 10 बिलियन।
उत्तर-
(B)

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प्रश्न 2.
सन् 2011 के आंकड़ों के मुताबिक भारत का जनसंख्या घनत्व कितना है ?
(A) 77 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०
(B) 322 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०
(C) 382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०
(D) 383 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 3.
किस देश का जनसंख्या घनत्व सबसे अधिक हैं ?
(A) चीन
(B) भारत
(C) सिंगापुर
(D) इण्डोनेशिया।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 4.
हर साल देश की जनसंख्या में कितने लोग शामिल होते हैं ?
(A) 6 करोड़
(B) 7 करोड़
(C) 8 करोड़
(D) 10 करोड़।
उत्तर-
(C)

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प्रश्न 5.
विश्व जनसंख्या दिवस कब मनाया जाता है ?
(A)7 जुलाई
(B) 11 जुलाई ,
(C) 5 मई
(D) 10 फरवरी।
उत्तर-
(B)

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा जनसंख्या तबदीली निर्धारक नहीं है ?
(A) जन्म दर
(B) मृत्यु दर
(C) स्थान बदली
(D) मध्य काल।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 7.
निम्नलिखित महाद्वीपों में किस महाद्वीप में लिंगानुपात कम हैं ?
(A) यूरोप
(B) एशिया
(C) अमेरिका
(D) ऑस्ट्रेलिया।
उत्तर-
(C)

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प्रश्न 8.
संसार का औसत लिंगानुपात कितना है ?
(A) 970
(B) 980
(C) 990
(D) 910
उत्तर-
(B)

प्रश्न 9.
2011 की जनांकिकी के अनुसार भारत की कुल साक्षरता दर कितनी है ?
(A) 70%
(B) 73%
(C) 72%
(D) 71%
उत्तर-
(B)

प्रश्न 10.
पहले दर्जे के शहर कौन-से हैं ?
(A) जहां जनसंख्या 1 लाख से ज्यादा हो
(B) जहां जनसंख्या 50,000 तक हो
(C) जहां जनसंख्या 99,000 तक हो
(D) जहां जनसंख्या 5,000 है।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 11.
बुढ़ापा जनसंख्या की आयु किससे अधिक है ?
(A) 40 साल
(B) 50 साल
(C) 45 साल
(D) 60 साल।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 12.
भारत में काम किस आयु वर्ग के साथ सम्बन्धित है ?
(A) 17-20
(B) 0-15
(C) 0-14
(D) 15-59.
उत्तर-
(D)

B. खाली स्थान भरें :

  1. ………… पृथ्वी पर सभी आर्थिक क्रियाओं का धुरा माना जाता है।
  2. केवल उत्तर प्रदेश में भारत की ………. जनसंख्या निवास करती है।
  3. 1947 में ……….. के विभाजन के कारण जनसंख्या की वृद्धि कम हो गई।
  4. संसार की साक्षरता दर ……… है।
  5. ………….. से कम जनसंख्या वाले शहर छठे दर्जे के शहर हैं।

उत्तर-

  1. मानव,
  2. 16.4%,
  3. भारत और पाकिस्तान,
  4. 86.3%
  5. 5,000.

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C. निम्नलिखित कथन सही (✓) हैं या गलत (✗):

  1. अरुणाचल प्रदेश की जनसंख्या का घनत्व 110 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।
  2. मृत्यु दर में तबदीली किसी स्थान की जनसंख्या में तबदीली हो सकती है।
  3. ऊर्जा की उपलब्धि किसी स्थान की जनसंख्या को प्रभावित नहीं करती।
  4. शहरी क्षेत्रों में बड़े दर्जे पर स्थान बदली गैर योजनाबंदी तथा असंतुलित विकास का कारण बनती है।
  5. पंजाब का लिंग अनुपात 893 है।

उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. गलत,
  4. सही,
  5. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्नोत्तर (One Word/Line Question Answers) :

प्रश्न 1.
किस साधन को देश का कीमती स्त्रोत माना जाता है ?
उत्तर-
मनुष्य को।

प्रश्न 2.
2011 की जनांकिकी के अनुसार भारत की औसत जनसंख्या कितनी है ?
उत्तर-
121.02 करोड़।

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प्रश्न 3.
जनसंख्या और क्षेत्र के आधार पर भारत देश का कौन-सा स्थान है ?
उत्तर-
क्षेत्र के आधार पर सातवां और जनसंख्या के आधार पर दूसरा स्थान है।

प्रश्न 4.
सबसे पहली बार भारत में (जनगणना) जनांकिकी कब शुरू हुई ?
उत्तर-
1881 में।

प्रश्न 5.
भारत की जनसंख्या का घनत्व क्या है ?
उत्तर-
382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०

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प्रश्न 6.
भारत में गाँवों की संख्या कितनी है ?
उत्तर-
2011 की जनगणना के अनुसार 650,244 गाँव भारत में हैं।

प्रश्न 7.
भारत में किस राज्य की सबसे अधिक जनसंख्या तथा किस राज्य की जनसंख्या कम है ?
उत्तर-
उत्तर प्रदेश में अधिक तथा सिक्किम में कम जनसंख्या है।

प्रश्न 8.
जनसंख्या वृद्धि से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
कुछ कारणों के कारण जब किसी स्थान की जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है, उसे जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं।

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प्रश्न 9.
भारत में लिंग अनुपात का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
एक हजार पुरुषों के पीछे औरतों की संख्या को लिंग अनुपात कहा जाता है।

प्रश्न 10.
भारत के किस राज्य में अधिक तथा किस राज्य में कम लिंग अनुपात है ?
उत्तर-
अधिक केरल में और कम हरियाणा में।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
देश में जनसंख्या का विभाजन एक समान नहीं है, इस कथन की व्याख्या करो।
उत्तर-
प्राकृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक भेद के कारण देश की 90% जनसंख्या देश के सिर्फ 10% क्षेत्र में रहती हैं। देश की सबसे अधिक जनसंख्या वाले पहले 10 देशों में 60% तक की देश की जनसंख्या समाई हुई है। इसलिए हम कह सकते हैं कि देश की जनसंख्या का विभाजन एक समान नहीं है।

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प्रश्न 2.
जनसंख्या के घनत्व से क्या अभिप्राय है ? इसको किस तरह मापा जा सकता है ?
उत्तर-
जनसंख्या घनत्व-किसी प्रदेश की जनसंख्या और भूमि के क्षेत्रफल के अनुपात को जनसंख्या घनत्व कहते हैं। यह घनत्व प्रति वर्ग मील या प्रति वर्ग किलोमीटर द्वारा प्रकट किया जाता है।
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प्रश्न 3.
जनसंख्या घनत्व का विश्लेषण करने के लिए भारत को किन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
जनसंख्या घनत्व का विश्लेषण करने के लिए भारत को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है—

  1. अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र
  2. मध्यम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र
  3. कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र।

प्रश्न 4.
जनसंख्या वृद्धि से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जनसंख्या वृद्धि का अर्थ है किसी खास क्षेत्र में, किसी खास समय में जब जनसंख्या में वृद्धि होती है, उसे जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं।

प्रश्न 5.
कच्ची जन्म दर क्या है ?
उत्तर-
जब किसी स्थान की जन्म दर ऊंची होती है, तब जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है। इसे जन्म दर की कच्ची जन्म दर कहते हैं। इसको इस प्रकार मापा जाता है—
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प्रश्न 6.
कच्ची मृत्यु दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जब किसी स्थान की मृत्यु दर ऊँची हो जाती है, तब जनसंख्या में कमी हो जाती है। मृत्यु दर को कच्ची मृत्यु दर भी कहते हैं। इसे इस प्रकार मापा जाता है—
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प्रश्न 7.
लिंग अनुपात से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
भारत में लिंग अनुपात का अर्थ है कि 1000 मर्दो के पीछे कितनी औरतों की संख्या है। इसको नीचे दिए गए अनुसार निकाला जाता है।
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प्रश्न 8.
जनसंख्या की बनावट से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जनसंख्या की बनावट का अर्थ है जनांकन की संरचना। इसमें आयु, लिंग, साक्षरता, रोजगार, जीवनकाल इत्यादि शामिल हैं।

प्रश्न 9.
आयु संरचना का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
जनसंख्या में कौन-कौन से आयु वर्ग के लोग हैं, को आयु संरचना कहते हैं। यह जनसंख्या बनावट का बड़ा महत्त्वपूर्ण अंग है। इस प्रकार हम किसी स्थान में काम करने वाले लोगों की संख्या कितनी है, के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इस द्वारा हम भविष्य में होने वाली जनसंख्या का भी अंदाजा लगा सकते हैं।

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प्रश्न 10.
भारत में अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र कौन-से हैं ? अधिक जनसंख्या का कोई एक कारण बताओ।
उत्तर-
भारत में कुल 650,244 गाँव हैं। भारत में हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश में 80% ग्रामीण जनसंख्या रहती है। उस जनसंख्या का मुख्य कारण यह है कि इन लोगों का मुख्य रोज़गार कृषि है।

प्रश्न 11.
भारत की जनसंख्या में बहुत असमानता है ? उदाहरण देकर इस कथन को समझाओ।
उत्तर-
भारत की जनसंख्या में बहुत असमानता है, क्योंकि—

  1. भारत के लोग मुख्य रूप में कृषि पर आश्रित हैं इसलिए समतल क्षेत्रों में अधिक लोग रहते हैं। मरुस्थली तथा जंगली क्षेत्रों में जनसंख्या कम है।
  2. बड़े राज्यों में जनसंख्या अधिक है।
  3. नदियों के नज़दीक क्योंकि फसलों के लिए पानी आसानी के साथ मिल जाता है, लोग यहां पर अधिक रहते हैं।

प्रश्न 12.
भारत के उन क्षेत्रों के नाम बताओ जिनमें जनसंख्या कम है और इसके क्या कारण हैं ?
उत्तर-
जिस स्थान पर जनसंख्या घनत्व 200 व्यक्ति प्रति वर्ग कि० मी० है, वहां पर जनसंख्या कम होती है। ये स्थान हैं—

  1. राजस्थान
  2. मध्य प्रदेश
  3. आंध्र प्रदेश
  4. पूर्वी कर्नाटक
  5. पश्चिमी उड़ीसा
  6. छत्तीसगढ़।

कारण-कम जनसंख्या के कारण हैं—

  1. कम-उपजाऊ भूमि
  2. कम वर्षा वाले क्षेत्र
  3. मरुस्थली क्षेत्र
  4. पानी की कमी इत्यादि।

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प्रश्न 13.
पतिकर्ष कारक (Push Factors) कौन-से हैं ?
उत्तर-
जिन कारकों के कारण लोग अपने स्थानों को छोड़कर कहीं और चले जाते हैं उन्हें प्रतिकर्ष कारक कहते हैं। जैसे कि गरीबी, रोज़गार का न होना, जनसंख्या वृद्धि, आर्थिक संकट, शादी, सुरक्षित पर्यावरण, चिकित्सा सुविधा इत्यादि।

प्रश्न 14.
अपकर्ष कारक (Pull Factors) कौन से हैं ?
उत्तर-
जिन कारकों के कारण लोग किसी अच्छे रोज़गार की तलाश में, चिकित्सा सुविधा, उपजाऊ भूमि, सुरक्षित पर्यावरण इत्यादि से प्रभावित होकर चले जाएं, उन्हें अपकर्ष कारक कहते हैं।

प्रश्न 15.
लिंग अनुपात के कम होने के मुख्य कारण क्या हैं ?
उत्तर-
लिंग अनुपात के कम होने के मुख्य कारण नीचे दिए अनुसार हैं—

  1. लड़कियों के मुकाबले लड़कों की जन्म दर ज्यादा है।
  2. लड़कियों को पेट में ही खत्म करवा दिया जाता है।
  3. लड़के को प्राप्त करने की इच्छा।
  4. लिंग के बारे में पहले जांच करवाना।

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प्रश्न 16.
जनसंख्या की वृद्धि दर (Growth Rate) से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जनसंख्या की वृद्धि असल संख्या में या प्रतिशत में दिखाई जाती है तथा जब जनसंख्या की वृद्धि प्रतिशत में दिखाई जाती हो तब उसे जनसंख्या की वृद्धि दर (Growth Rate) कहते हैं।

प्रश्न 17.
भारत के मिलियन कस्बों (Million Towns) के नाम बताओ।
उत्तर-
कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, बंगलौर, अहमदाबाद, हैदराबाद, पूणे, कानपुर, नागपुर, लखनऊ।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अधिक जनसंख्या, कम जनसंख्या तथा साधारण जनसंख्या वाले क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व कितना मिलता है ? हर श्रेणी की एक-एक उदाहरण दो।
उत्तर-
हमारे संसार में जनसंख्या का वितरण समान नहीं है। कई क्षेत्र ऐसे हैं यहाँ जनसंख्या बहुत अधिक है तथा दूसरे तरफ कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ पर जनसंख्या साधारण है और कुछ ऐसे भी हैं जो क्षेत्र खाली हैं।

  1. अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र-इन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व 400 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० है। इन क्षेत्रों में बिहार, पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, झारखंड इत्यादि आ जाते हैं।
  2. साधारण जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र-इन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व 200 से 400 व्यक्ति प्रतिवर्ग कि०मी० है। जैसे कि असम, गोआ, त्रिपुरा, कर्नाटक इत्यादि।
  3. कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र-इन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व 200 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० है। जैसे ‘कि अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश इत्यादि।

प्रश्न 2.
जनसंख्या वृद्धि तथा जनसंख्या घनत्व में क्या फर्क है ?
उत्तर-
जनसंख्या वृद्धि-जनसंख्या वृद्धि का अर्थ है कि किसी खास समय में किसी क्षेत्र के लोगों की संख्या कितनी बढ़ गई है। यह किसी देश के विकास में योगदान डालती है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1,21,01,93,422 थी।
जनसंख्या घनत्व-यह प्रतिशत में पेश की जाती है। किसी क्षेत्र के एक वर्ग कि०मी० में कितने लोग मिलते हैं, उसको जनसंख्या घनत्व कहते हैं। 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत का जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० था। यह किसी क्षेत्र के जनांकन के गुणों को प्रभावित करता है।

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प्रश्न 3.
जनसंख्या की वृद्धि क्या है ? इसकी किस्में बताओ तथा इसको किस प्रकार संयोजित किया जा सकता है ?
उत्तर-
जनसंख्या की वृद्धि-किसी क्षेत्र में जनसंख्या की वृद्धि और जनसंख्या में हुई तबदीली को जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं। इसको संयोजित निम्नलिखितानुसार किया जाता है—
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जनसंख्या जनसंख्या की वृद्धि को तीन प्रकार विभाजित किया जा सकता है—

  1. प्राकृतिक जनसंख्या की वृद्धि-किसी क्षेत्र में किसी खास समय पर हुए जन्म तथा मृत्यु में आपसी असमानता को जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि कहते हैं।
  2. सकारात्मक जनसंख्या की वृद्धि-अगर किसी स्थान की जन्म दर उस स्थान की मृत्यु दर से अधिक है या कुछ लोग किसी और स्थान से आकर प्रवास करते हैं तो उसे सकारात्मक जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं।
  3. नकारात्मक जनसंख्या की वृद्धि-अगर किसी स्थान की मृत्यु दर उस स्थान की जन्म दर से अधिक हो जाए तथा वहाँ पर कुछ लोग प्रवास कर गए हों उसे नकारात्मक जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं।

प्रश्न 4.
किस प्रकार के स्थानों पर लिंग अनुपात नकारात्मक है। इसके कोई चार कारण बताओ।
उत्तर-
जिन क्षेत्रों में लिंग को लेकर भेदभाव व्यापक है, उन क्षेत्रों में लिंग अनुपात नकारात्मक है। इसके कारण निम्नलिखित अनुसार हैं—

  1. शिशु हत्या
  2. भ्रूण हत्या
  3. औरत के खिलाफ घरेलू हिंसा
  4. औरत का निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर।

प्रश्न 5.
संसार में भारत का जनसंख्या के आकार तथा घनत्व के तौर पर क्या स्थान है ?
उत्तर-
भारत संसार के अधिक जनसंख्या वाले देशों में एक है। इसकी जनसंख्या 175 प्रतिशत है तथा आकार के अनुसार भारत दुनिया का सातवां बड़ा देश है। यह संसार के कुल क्षेत्रफल का 2.4% हिस्सा है।
भारत की जनसंख्या उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या से दोगुणी है। इससे पता चलता है कि भारत की जनसंख्या बहुत अधिक है।

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प्रश्न 6.
साक्षरता दर क्या है ? देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में साक्षरता दरों में भिन्नता क्यों पाई जाती है ?
उत्तर-
साक्षरता दर-सात साल की आयु तक के निवासी जो लिख तथा पढ़ सकते हैं की संख्या या प्रतिशत जनसंख्या को साक्षरता दर कहते हैं। देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में साक्षरता दरों में भिन्नता आर्थिक विकास, शहरीकरण तथा लोगों के रहने के ढंग-तरीकों के कारण होती है। अशिक्षित तथा अनपढ़ लोगों से देश के विकास का आवश्यक स्तर प्राप्त नहीं हो सकता तथा उसे साक्षरता दर भी कम होती है।

प्रश्न 7.
संसार की जनसंख्या में रहने के स्थान के आधार पर दो हिस्सों में विभाजन करके बताओ कि दोनों हिस्सों का रहन-सहन एक-दूसरे से क्यों अलग है ?
उत्तर-
संसार की जनसंख्या को निवास के आधार पर दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. ग्रामीण जनसंख्या
  2. शहरी जनसंख्या

ग्रामीण अथवा शहरी जनसंख्या में भिन्नतायें—

  1. सामाजिक हालातों में रहन-सहन ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों का अलग होता है।
  2. ग्रामीण जनसंख्या की आरंभिक गतिविधियां जैसे कि कृषि इत्यादि में लगी होती हैं तथा शहरी जनसंख्या टरशरी गतिविधियों इत्यादि में लगी होती है।
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम होता है तथा शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है।

प्रश्न 8.
जनसंख्या अथवा विकास के आपसी संबंध को बयान करो।
उत्तर-
जनसंख्या अथवा विकास चिंतन बहुत आवश्यक है। जब किसी स्थान पर जनसंख्या की वृद्धि होती है तो उस स्थान की भूमि और खान-पान के पदार्थों पर दबाव अधिक बढ़ जाता है। जनसंख्या वृद्धि विकास के लिए एक नकारात्मक घटक है क्योंकि यह इसकी गुणवत्ता पर आधारित है। जनसंख्या की वृद्धि अन्य स्रोतों में एक असंतुलन बना देती है तथा साधन जैसे कि तकनीक, शिल्प विज्ञान इस संतुलन को प्रभावित करते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि विकास सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी तथा राजनीतिक कारकों पर निर्भर करता है। एक नया मापक मानव विकास सूचक (HDI) इसको मापने के लिए लाया गया है।

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प्रश्न 9.
उम्र संरचना क्या है ? इसका वितरण किस प्रकार किया जाता है ?
उत्तर-
किसी देश, शहर, इलाके, क्षेत्र में हर उम्र के लोग रहते हैं। कह सकते हैं कि 0 से 100 साल तक के लोग किसी देश में रहते हैं इसको खास वर्गों में विभाजित किया गया है जिसको आयु संरचना कहते हैं। यह वितरण निम्नलिखित अनुसार है—

  1. 0-14 साल-बच्चे जो स्कूल पढ़ते है और सम्पूर्ण रूप से अपने माता-पिता पर निर्भर करते हैं।
  2. 15-59 साल-जनसंख्या में वे लोग जो कोई-न-कोई काम करते हैं और यह संख्या मज़दूरों में आती है।
  3. 60 या 60 साल से ऊपर-इस जनसंख्या में बूढ़े लोग आते हैं जो अपने बच्चों पर निर्भर करते हैं।

प्रश्न 10.
शहरीकरण क्या है ? शहरीकरण द्वारा मुख्य समस्या कौन-सी सामने आ रही है ?
उत्तर-
गाँव के अधिकतर लोग रोज़गार के अवसरों की तलाश में या अच्छी सुविधाओं की तलाश में शहरों की तरफ आकर्षित होते हैं। स्पष्ट शब्दों में जब गाँव या छोटे कस्बों के लोग बेहतरीन अवसरों की तलाश में किसी जगह रहना शुरू करते हैं तथा धीरे-धीरे उस जगह पूरा विकास हो जाता है, उसे शहरीकरण कहते हैं। शहरीकरण के कारण लोगों को शहरों में नीचे लिखी समस्याओं का सामना करना पड़ता है :

  1. स्थान तथा मकानों की कमी की समस्या, जिस कारण गंदी बस्ती का जन्म होता है।
  2. प्रदूषण की समस्या आम बन जाती है।
  3. पीने के लिए शुद्ध पानी की कमी पड़ जाती है।
  4. यातायात की समस्या।

प्रश्न 11.
शहरी योजनाबंदी से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
शहरों में रोज़गार के बढ़िया मौके, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं तथा शिक्षा के साधनों के कारण गाँव तथा छोटे कस्बों के लोगों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है जिस कारण शहरों में समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस समस्या पर कंट्रोल करने के लिए सरकारी की तरफ से कुछ मुख्य योजनाओं की आवश्यकता है। इसलिए किसी नए तथा पुराने शहर के विकास के लिए शहरों को जो सुविधायें दी जा रही हैं वह शहर योजनाबंदी के लिए उठाया गया एक अच्छा कदम है। इस तरह से सही योजनाबंदी के कारण शहरों के लोगों के लिए ज़रूरी सुविधायें उपलब्ध करवाई जा सकती हैं।

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प्रश्न 12.
उन कारणों के बारे में बताओ जिनके कारण किसी इलाके का जनसंख्या घनत्व कम होता है।
या
किसी इलाके का जनसंख्या घनत्व कम होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
किसी इलाके की जनसंख्या घनत्व कम होने के निम्नलिखित कारण हैं—

  1. किसी जगह पर बहुत ठंडा या बहुत गर्म मौसम।
  2. ध्रुवीय क्षेत्रों में जमा हुआ कोहरा।
  3. खनिज पदार्थों तथा कारखानों की कमी।
  4. यातायात तथा संचार के साधनों की कमी।
  5. रेतली तथा पथरीली मिट्टी।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
जनसंख्या घनत्व का क्या अर्थ है ? जनसंख्या घनत्व कौन-कौन से तत्त्वों पर निर्भर करता है ? उदाहरण दो।
उत्तर-
जनसंख्या घनत्व (Density of Population)-किसी स्थान की जनसंख्या तथा भूमि के क्षेत्रफल के अनुपात को जनसंख्या का घनत्व कहते हैं। इससे पता चलता है कि किसी स्थान में लोगों की संख्या कितनी घनी है। इसको प्रति वर्ग कि०मी० द्वारा प्रकट किया जाता है। किसी स्थान में एक वर्ग कि०मी० के दायरे में कितने लोग रहते हैं इसे जनसंख्या का घनत्व कहते हैं। जब हमें किन्हीं दो देशों की जनसंख्या की तुलना करनी होती है तब वह जनसंख्या के घनत्व की सहायता से ही की जाती है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि कुछ क्षेत्रफल में पर्वतीय भाग, दलदल, जंगली प्रदेश और मरुस्थल भी शामिल कर लिए जाते हैं, चाहे इन प्रदेशों में मनुष्य निवास बिल्कुल संभव न हो।
जनसंख्या का घनत्व अक्सर बेहतर सेवाओं तथा सुविधाओं पर निर्भर है। प्रकृति की तरफ से प्राप्त सुविधा मुख्य स्थान रखती है पर इसके अतिरिक्त भौतिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा ऐतिहासिक कारण भी जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करते हैं।
(A) भौतिक कारक (Natural Factors)—

1. धरातल (Land)–धरातल जनसंख्या के घनत्व पर प्रभाव डालता है। धरातल को आगे मरुस्थल, पर्वत, मैदान, पठार, समतल इत्यादि भागों में विभाजित किया जाता है। पर्वतीय, मरुथलीय भागों में जलवायु सख्त, उपजाऊ धरती की कमी तथा यातायात के साधनों की कमी होती है जिस कारण वहां पर जनसंख्या का घनत्व कम होता है। मैदानी तथो समतल क्षेत्रों में कृषि, जल सिंचाई, यातायात इत्यादि सुविधा होने के कारण जनसंख्या बढ़ जाती है। हमारे देश की आबादी मुख्य रूप में कृषि पर निर्भर है। इसलिए 50% जनसंख्या संसार के मैदानी क्षेत्रों में रहती है। भारत के गंगा के मैदान, चीन के हवांग हो मैदान विश्व में घनी जनसंख्या के घनत्व वाले क्षेत्र हैं। पर अमेजन घाटी में दलदल भूमि के कारण कम जनसंख्या है।

2. जलवायु (Climate)-तापमान तथा वर्षा जनसंख्या के घनत्व पर स्पष्ट प्रभाव डालते हैं। अधिक ठण्डे या अधिक गर्म क्षेत्रों में कम जनसंख्या होती है। इसीलिए संसार के उष्ण तथा शीत मरुस्थल व ध्रुवीय प्रदेश लगभग खाली हैं। सहारा मरुस्थल, अंटार्कटिका महाद्वीप तथा टुण्ड्रा प्रदेश में कम जनसंख्या मिलती है। सम-शीतोष्ण तथा मानसूनी जलवायु के प्रदेशों में घनी जनसंख्या मिलती है। यहां पर्याप्त वर्षा फसलों के उपयुक्त होती है। पश्चिमी यूरोप तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया में उत्तम जलवायु के कारण जनसंख्या का भारी केन्द्रीयकरण हुआ है। मध्य अक्षांशों में शीत उष्ण जलवायु के कारण ही संसार की कुल जनसंख्या का 4/5 भाग निवास करता है।

3. मिट्टी (Soil)–भारत की आबादी कृषि पर अधिक आधारित है। कृषि के लिए उपजाऊ मिट्टी का होना अधिक ज़रूरी है। मानसूनी एशिया की नदी घाटियों की तटीय मिट्टी में चावल का अधिक उत्पादन होने के कारण अधिक जनसंख्या मिलती है।

4. खनिज पदार्थ (Minerals)—बहुत से उद्योगों को चलाने के लिए तथा उनके विकास के लिए खनिज पदार्थ को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसलिए जिस जगह पर कोयला, लोहा, तेल, सोना इत्यादि खनिज पदार्थ मिलते हैं वहाँ पर जनसंख्या का घनत्व अधिक होगा। भारत में दामोदर घाटी में खनिजों के विशाल भण्डार के कारण घनी जनसंख्या है।

5. शक्ति के साधन (Power Resources)-जिन क्षेत्रों में शक्ति से चलने वाले साधनों का विकास होता है उस स्थान पर घनत्व अधिक होता है।

6. नदियां अथवा जल प्राप्ति (Rivers and Water Supply)-प्राचीन काल से ही नदियों का जल सभ्यताओं के विकास की मुख्य कड़ी रहा है। इन्हें पीने का जल, सिंचाई के लिए, उद्योग आदि में प्रयोग में लाया जाता है। यही कारण है कि कोलकाता, दिल्ली, आगरा तथा इलाहाबाद नदियों के किनारे ही स्थित हैं।

7. ऐतिहासिक कारण (Historical Factors) कई बार ऐतिहासिक महत्त्व के स्थान जनसंख्या के केन्द्र बन जाते हैं। गंगा के मैदान में, सिन्धु के मैदान में तथा चीन में प्राचीन सभ्यता के कई केन्द्रों में जनसंख्या अधिक है। नील घाटी में जनसंख्या का अधिक घनत्व ऐतिहासिक कारणों से ही है।

8. राजनैतिक कारण (Political Factors)-सीमावर्ती प्रदेशों में तथा युद्ध क्षेत्रों के निकट सुरक्षा के अभाव के कारण कम जनसंख्या होती है। इसीलिए उत्तर-पूर्वी भारत, वियतमान तथा अरब देशों में जनसंख्या कम है। सरकारी नीतियां जिस क्षेत्र के लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरती हैं और लोगों के हित अनुसार होती हैं, वहां पर जनसंख्या घनत्व अधिक होता है।

9. धार्मिक तथा सामाजिक कारण (Religious and Social Factors)-सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक विश्वासों का जनसंख्या के वितरण पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। इस्लाम धर्म में चार विवाह की आज्ञा, चीन तथा भारत में बाल विवाह जनसंख्या की वृद्धि के कारण हैं। कई तीर्थ-स्थान अधिक जनसंख्या के केन्द्र बन जाते हैं। परिवार कल्याण अपनाने वाले देशों में जनसंख्या की वृद्धि दर कम होती है। यहूदी लोग भी आर्थिक अत्याचारों से तंग आकर इज़राइल देश में जा बसे हैं।

10. आर्थिक कारण (Economic Factors)—

i) कृषि (Agriculture)—क्योंकि देश में अधिक लोग कृषि पर निर्भर करते हैं, अधिक कृषि उत्पादन वाले क्षेत्रों में अधिक भोजन प्राप्ति के कारण घनी जनसंख्या होती है। चावल उत्पन्न करने वाले क्षेत्रों में साल में तीन-तीन फसलों के कारण अधिक लोगों का निर्वाह हो सकता है। इसीलिए मानसूनी एशिया में अधिक जनसंख्या है।

ii) उद्योग (Industries)—औद्योगिक विकास से अधिक लोगों को रोजगार मिलता है। औद्योगिक नगरों के निकट बहुत सी बस्तियां बस जाती हैं तथा जनसंख्या अधिक हो जाती है। यूरोप, जापान में औद्योगिक विकास के कारण ही अधिक जनसंख्या है। इन क्षेत्रों में अधिक व्यापार के कारण भी घनी जनसंख्या होती है।

iii) यातायात के साधनों की सुविधा (Easy Means of Transportation)—यातायात के साधनों की सुविधाओं के कारण उद्योगों, कृषि तथा व्यापार का विकास होता है। तटीय क्षेत्रों में जल-मार्ग की सुविधा के कारण संसार की अधिकतर जनसंख्या निवास करती है। पर्वतीय भागों तथा कई भीतरी प्रदेशों में यातायात के साधनों की कमी के कारण कम जनसंख्या होती है, जैसे–पश्चिमी चीन में।

iv) नगरीय विकास (Urban Development) किसी नगर के विकास के कारण उद्योग, व्यापार तथा परिवहन का विकास हो जाता है। शिक्षा, मनोरंजन इत्यादि सुविधाओं के कारण नगरों में तेजी से जनसंख्या बढ़ जाती है।

v) विदेशी आय का आकर्षण (Attraction of Foreign Money)-कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में कई विदेशी कम्पनियां अधिक वेतन देकर तकनीकी श्रमिकों को रोजगार प्रदान करती हैं। इसलिए भारत और पाकिस्तान इत्यादि कई एशियाई देशों से लोग यहां आकर बस गए हैं।

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प्रश्न 2.
प्रवास (Migration) से आपका क्या भाव है ? इसके क्या कारण हैं ? इसकी किस्में बताओ।
या
प्रवास का क्या अर्थ है ? इसकी किस्में और कारण बताओ।
उत्तर-
प्रवास (Migration)—जनसंख्या तबदीली के निर्णायक कारकों में यह तीसरा मुख्य कारण है। यह एक अच्छी कोशिश है जो लोगों द्वारा जनसंख्या तथा साधनों के बीच एक संतुलन बनाने के लिए की जाती है। यह स्थिर तथा अस्थिर दो प्रकार की होती है। अस्थाई रूप का अर्थ है अगर मौसम खराब होने के कारण, सालाना या कम समय के लिए कोई मनुष्य अपना स्थान छोड़ कर चला जाए पर अगर कोई मनुष्य शादी के बाद, रोज़गार के लिए पूरी तरह से किसी स्थान को छोड़ कर किसी और स्थान पर रहने के लिए चला जाए तो इसे स्थिर प्रवास कहते हैं।
प्रवास की किस्में-जनसंख्या की स्थानीय गति मुख्य रूप में गाँव से गाँव की तरफ, गाँव से शहरों की तरफ, शहर से शहर की तरफ, शहर से गाँव की तरफ प्रवास होती है। प्रवास की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं—

1. मौसमी प्रवास (Seasonal Migration)—प्रवास मुख्य रूप में स्थाई और अस्थाई होती है। अस्थाई स्थान बदली मौसमी स्थान बदली होती है। ये कृषि के लिए काम करने वाले श्रमिक होते हैं जो उन स्थानों पर आ जाते हैं जहाँ खेती की कटाई, बिनाई के लिए श्रमिकों की जरूरत होती है। ये श्रमिक एक खास समय के लिए आते हैं जैसे कि यू०पी० और बिहार से पंजाब में खरीफ़ और रबी की फसलों के समय आते हैं।

2. अंतर्राष्ट्रीय प्रवास (International Migration)-एक देश और महाद्वीप के बीच के प्रवास को अंतर्राष्ट्रीय प्रवास कहते हैं। कुछ समय के अंदर ही इस तरह की प्रवास के कारण महाद्वीपों के जनसंख्या घनत्व में फर्क आने लग जाता है। आज के दौर में अंतर्राष्ट्रीय प्रवास ने तेज गति हासिल की है, क्योंकि कुछ महाद्वीपों के बीच खास रोज़गार के मौके लोगों को आकर्षित करते हैं। 21वीं सदी की शुरूआत में यू० एन० के एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 120 मिलियन लोग पूरे देश के अंदर, नज़दीक के देशों में चले गए हैं।

3. अंतरमुखी प्रवास (Internal Migration)—यह जनांकन का एक बहुत ज़रूरी तत्त्व है। इससे लोग अपने क्षेत्र छोड़कर दूसरे क्षेत्र में चले जाते हैं और दूसरे क्षेत्र की जनसंख्या घनत्व बढ़ा देते हैं। जैसे कि विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए शहरों में चले जाते हैं। पंजाब में ही पटियाला शहर के व्यक्ति राजपुरा जा कर रहने लगे हैं। यह अंतरमुखी प्रवास है।

4. ग्रामीण प्रवास (Rural Migration)—जब बढ़िया और उपजाऊ भूमि के कारण गाँव के लोग उपजाऊ भूमि वाले क्षेत्र में चले जाते हैं, उसे ग्रामीण प्रवास कहते हैं।

प्रवास के कारण-प्रवास के कारणों में प्रतिकर्ष तथा अपकर्ष कारक खास स्थान रखते हैं। प्रवास के कारण निम्नलिखितानुसार हैं—
I. आर्थिक कारण (Economic Reasons) आर्थिक कारण प्रवास के कारणों में सबसे अधिक भूमिका निभाते हैं। कुछ आर्थिक कारण निम्नलिखित हैं—

  1. उपजाऊ जमीन जिस पर कृषि निर्भर करती है।
  2. खेती के लिए आदर्श हालात।
  3. उद्योगों की बहुतायत जो किसी स्थान के विकास की खास कड़ी है।
  4. रोजगार के अवसरों का होना जिसके साथ व्यक्ति का भविष्य जुड़ा है।
  5. यातायात और संचार के साधन इत्यादि।

II. सामाजिक कारण (Social Reasons) सामाजिक कारण भी स्थान बदली के लिए समान रूप में ज़रूरी हैं। जैसे कि शादी एक सामाजिक प्रथा है और शादी के बाद लड़कियों को पति के घर रहना पड़ता है। स्थान बदली के मुख्य सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं—

  1. लोगों की धार्मिक सोच और धार्मिक स्थानों पर रहने की लोगों की इच्छा।
  2. निजी और सार्वजनिक तत्त्व और सामाजिक उत्थान।
  3. बेहतरीन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बहुतायत।
  4. सरकार की जनता की भलाई के लिए बनाई नीतियां। ‘
  5. लोगों की निजी आज़ादी।

III. जनांकन कारण (Demographic Reasons)-कुछ जनांकन कारण नीचे लिखे अनुसार हैं—

  1. आयु सरंचना (Age Composition)-प्रवास में लोगों की आयु भी खास भूमिका निभाती है।
  2. क्षेत्रीय असमानता (Regional Difference)-जनसंख्या के घनत्व में क्षेत्रीय असमानता होती है। प्रवास कई क्षेत्रीय सीमाओं पर भी निर्भर करती है जैसे कि राज्य के अंदर का प्रवास।
  3. राज्य की अंदरूनी प्रवास (Interstate Migration)-जब प्रवास राज्य के अंदर-अंदर ही होता है उसे राज्य के अंदर प्रवास कहते हैं।
  4. अंतर राज्य प्रवास (Intra State Migration)-जब प्रवास एक राज्य से दूसरे राज्य में होती हैं उसे अंतर राज्य प्रवास कहते हैं।
  5. अंतर्राष्ट्रीय प्रवास (International Migration)-जब लोग एक देश को छोड़कर दूसरे देश में चले जाते हैं उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रवास कहते हैं।

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प्रश्न 3.
आज़ादी के बाद के संदर्भ की उदाहरण देकर भारत में शहरीकरण के दौर के बारे में चर्चा करो।
उत्तर-
भारत की बहुत जनसंख्या गाँवों में रहती है और उनका मुख्य काम कृषि है। पर कुछ लोग बेहतर सुविधा के कारण शहरों में रहना पसंद करते हैं। शहरों में स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा के बेहतरीन अवसर और रोजगार के अच्छे अवसर उपलब्ध होते हैं इसलिए गाँवों के लोग शहरों की तरफ आकर्षित होते जा रहे हैं। आज से लगभग 200 साल पहले संसार के सिर्फ 2.5% लोग ही थे जो शहरों में रहते थे पर आज के समय में 40% से अधिक लोग हैं जो शहरों में रहते हैं। 2011 की हुई जनगणना के अनुसार यह प्रतिशत 31.20% तक पहुँच चुका है। जनगणना के अनुसार जनसंख्या को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. शहरी जनसंख्या,
  2. ग्रामीण जनसंख्या।

जो लोग शहर में रहते हैं, वे शहरी जनसंख्या के अधीन आते हैं। स्थानीय स्तर पर गाँवों का प्रबंध पंचायत संभालती हैं और शहरों का प्रबंध नगर कौंसिल संभालती है। माना जाता है कि देश के अधिकतर लोग खेतीबाड़ी के कामों में लगे हुए हैं।
भारत एक कृषि उत्पादन वाला देश है। अधिकतर लोग गाँव में रहते हैं। भारत के सांस्कृतिक विकास की गाँव एक मुख्य इकाई है। भारत में शहरी जनसंख्या भी काफी है। 2011 की जनगणना के अनुसार 31.20% लोग शहरों में रहते हैं। भारत में देश के सारे शहरी क्षेत्रों से ज्यादा शहरीकरण है। पर भारत में शहरीकरण की मात्रा बाकी देशों से कम है।

देश शहरी जनसंख्या (%) प्रतिशत
यू० एस० ए० 70
ब्राजील 68
इजिप्ट 44
पाकिस्तान 29
भारत 27.8

शहरी जनसंख्या में वृद्धि-जनसंख्या के विस्फोट के कारण शहरी जनसंख्या की वृद्धि की गति में काफी तेजी आई है। पिछले 100 सालों में भारत की कुल जनसंख्या तीन गुणा से अधिक हो चुकी है। पर शहरी जनसंख्या ग्यारह गुणा बढ़ गई है।
ग्रामीण और शहरी जनसंख्या
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शहरी जनसंख्या की वृद्धि साल 1901-61 के बीच धीरे थी। पर 1961-81 के समय में जाकर यह वृद्धि बहुत तेज हो गई।
इस समय दौरान शहरी जनसंख्या 7.8 करोड़ से 15.6 करोड़ तक बढ़ गई। बड़े शहरों के कारण शहरीकरण की गति काफी तेज़ हो गई। बहुत सारे औद्योगिक कस्बों का बनना शुरू हो गया। भारतीय कस्बों को मुख्य रूप में नीचे लिखी 6 श्रेणियों में बाँटा जाता है—

  1. पहले दर्जे के शहर-1 लाख से अधिक जनसंख्या
  2. दूसरे दर्जे के शहर-50,000 से 99,999 तक जनसंख्या
  3. तीसरे दर्जे के शहर-20,000 से 49,999 तक जनसंख्या
  4. चौथे दर्जे से शहर-10,000 से 19,999 तक जनसंख्या
  5. पांचवें दर्जे के शहर-5,000 से 9,999 तक जनसंख्या
  6. छठे दर्जे के शहर-5000 से कम जनसंख्या।

आज़ादी के बाद बड़े शहरों की संख्या बढ़ गई जबकि छोटे शहरों की संख्या कम हो गई। शहरों के जीवन, सुविधा, ज़रूरतें तथा लाभ के कारण लोग शहरों की तरफ आकर्षित होने लगे जिस कारण शहरों की जनसंख्या में वृद्धि हो गई। शहरीकरण की सुविधाएं तथा आकर्षित करने वाले कारणों के सिवाय अब शहरों में शहरी लोगों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। जैसे कि—

  1. जनसंख्या की वृद्धि के कारण रहने के लिए स्थान तथा मकान दोनों की कमी पैदा हुई तथा मुंबई जैसे शहरों में चॉल (Chawl) इत्यादि में लोगों ने रहना शुरू कर दिया।
  2. इन स्थानों का पर्यावरण शुद्ध न होने के कारण गंदी बस्तियों का जन्म हुआ।
  3. साधनों की बहुलता के कारण प्रदूषण की समस्या आगे आई।
  4. शहरों में अपराधों की संख्या बढ़नी शुरू हो गई।
  5. यातायात और संचार के साधनों में कमी पड़ गई।
  6. पीने के लिए शुद्ध जल की कमी शहरों में आम देखने को मिलने लगी।

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प्रश्न 4.
भारत में जनसंख्या वितरण की विभिन्नता तथा इसके कारणों का वर्णन करो।
उत्तर-
जनसंख्या का वितरण (Distribution of Population)-भारत क्षेत्रफल के आधार पर संसार में सातवां बड़ा देश है परन्तु जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 121 करोड़ थी तथा जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० था। भारत में जनसंख्या का वितरण बहुत असमान है। देश में प्राकृतिक तथा आर्थिक दशाओं की विभिन्नता के कारण जनसंख्या के वितरण तथा घनत्व में बहुत विभिन्नता है। गंगा-सतलुज के उपजाऊ मैदान में देश के 23% क्षेत्र में 52% जनसंख्या का संकेन्द्रण है जबकि हिमालय के पर्वतीय भाग में 13% क्षेत्र में केवल 2% जनसंख्या निवास करती है। केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली में जनसंख्या का घनत्व 11297 है जबकि अरुणाचल प्रदेश में केवल 10 है। सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश है जहां 20 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं।

भारत में जनसंख्या घनत्व, धरातल, मिट्टी के उपजाऊपन, वर्षा की मात्रा तथा जल सिंचाई पर निर्भर करता है। भारत मूलतः कृषि प्रधान देश है। इसलिए अधिक घनत्व उन प्रदेशों में पाया जाता है जहां भूमि की कृषि उत्पादन क्षमता अधिक है। जनसंख्या का घनत्व वर्षा की मात्रा पर निर्भर करता है। पिछले कुछ वर्षों में औद्योगिक क्षेत्रों में भी जनसंख्या घनत्व बढ़ता जा रहा है।

जनसंख्या का घनत्व (Density of Population)—किसी प्रदेश की जनसंख्या तथा भूमि के क्षेत्रफल के अनुपात को जनसंख्या घनत्व कहते हैं। इसे निम्न प्रकार से प्रकट किया जाता है कि एक वर्ग कि०मी० में औसत रूप से कितने व्यक्ति रहते हैं।
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उदाहरण के लिए भारत का कुल क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग कि०मी० है तथा जनसंख्या 121 करोड़ है। इस प्रकार भारत की औसत जनसंख्या
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भारत को जनसंख्या के घनत्व के आधार पर क्रमशः तीन भागों में विभाजित किया जाता है।
1. अधिक घनत्व वाले भाग (Densely Populated Areas)-इस भाग में वे राज्य शामिल हैं जहां जनसंख्या घनत्व 500 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० से अधिक है। अधिक घनत्व वाले क्षेत्र प्रायद्वीपीय भारत के चारों ओर एक मेखला बनाते हैं। पंजाब से लेकर गंगा के डेल्टा तक जनसंख्या का घनत्व अधिक है। एक अनुमान हैं कि इस भाग के 17% क्षेत्रफल में 43% जनसंख्या निवास करती है।
जनसंख्या घनत्व-व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०

राज्य घनत्व राज्य घनत्व
पश्चिमी बंगाल 1029 उत्तर प्रदेश 828
केरल 859 तमिलनाडु 555
बिहार 1102 पंजाब 550

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(i) पश्चिमी तटीय मैदान-इस भाग में केरल प्रदेश में घनत्व 859 व्यक्ति प्रतिवर्ग कि०मी० है।
कारण—

  1. अधिक वर्षा
  2. मैदानी भाग तथा उपजाऊ मिट्टी
  3. चावल की अधिक उपज
  4. उद्योगों के लिए जल विद्युत्
  5. उत्तम बन्दरगाहों का होना
  6. जलवायु पर समुद्र का समकारी प्रभाव।

(ii) पश्चिमी बंगाल-इस भाग में घनत्व 1029 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० है।
कारण—

  1. गंगा नदी का उपजाऊ डेल्टा
  2. अधिक वर्षा
  3. चावल की वर्ष में तीन फसलें
  4. कोयले के भण्डार
  5. प्रमुख उद्योगों का स्थित होना।

(iii) उत्तरी मैदान-इस भाग में विभिन्न प्रदेशों के घनत्व-बिहार (1102), उत्तर प्रदेश (828), पंजाब (550),
व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०।
कारण—

  1. सतलुज, गंगा आदि नदियों के उपजाऊ मैदान
  2. पर्याप्त वर्षा तथा स्वास्थ्यप्रद जलवायु
  3. जल सिंचाई की सुविधाएं
  4. कृषि के लिए आदर्श दशाएं
  5. व्यापार, यातायात तथा उद्योगों का विकास
  6. नगरों का अधिक होना।

(iv) पूर्वी तट- इस भाग में तमिलनाडु प्रदेश में घनत्व 555 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० है।
कारण—

  1. नदियों के उपजाऊ डेल्टा
  2. उद्योगों की अधिकता
  3. गर्म आर्द्र जलवायु
  4. चावल का अधिक उत्पादन
  5. दोनों ऋतुओं में वर्षा
  6. जल सिंचाई की सुविधा।

2. साधारण घनत्व वाला भाग (Moderately Populated Area)—इस भाग में वे राज्य शामिल हैं जिनका घनत्व 200 से 500 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० है। मुख्य रूप से ये प्रदेश पूर्वी तथा पश्चिमी घाट, अरावली पर्वत तथा गंगा के मैदान की सीमाओं के अन्तर्गत स्थित हैं।
जनसंख्या घनत्व-व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०

राज्य घनत्व राज्य घनत्व
हरियाणा 573 आन्ध्र प्रदेश 308
गोआ 399 कर्नाटक 319
असम 397 गुजरात 308
महाराष्ट्र 365 उड़ीसा 269
त्रिपुरा 350

कारण—

  1. इन भागों में पथरीली या रेतीली धरातल होने के कारण कृषि उन्नत नहीं है।
  2. कृषि के लिए वर्षा पर्याप्त नहीं है।
  3. उद्योग उन्नत नहीं हैं।
  4. यातायात के साधन उन्नत नहीं हैं।
  5. परन्तु जल सिंचाई, लावा मिट्टी तथा खनिज पदार्थों के कारण साधारण जनसंख्या मिलती है।

3. कम घनत्व वाला भाग (Sparsely Populated Area)-इस भाग में वे प्रान्त शामिल हैं जिनका घनत्व 200 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० से कम है।
(i) उत्तर-पूर्वी भारत-इस भाग में मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश तथा मिज़ोरम शामिल हैं।
जनसंख्या घनत्व-व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी०

राज्य घनत्व राज्य घनत्व
मणिपुर 122 सिक्किम 86
मेघालय 132 मिजोरम 52
नागालैंड 119 अरुणाचल प्रदेश 17

कारण—

  1. असमतल तथा पर्वतीय धरातल
  2. वन प्रदेश की अधिकता
  3. मलेरिया का प्रकोप
  4. उद्योगों का पिछड़ापन
  5. यातायात के साधनों की कमी
  6. ब्रह्मपुत्र नदी की भयानक बाढ़ों से हानि।

(ii) कच्छ तथा राजस्थान प्रदेश-इस भाग में राजस्थान का थार का मरुस्थल तथा खाड़ी कच्छ के प्रदेश शामिल हैं।
कारण—

1. कम वर्षा
2. कठोर जलवायु
3. मरुस्थलीय भूमि के कारण कृषि का अभाव
4. खनिज तथा उद्योगों की कमी
5. जल सिंचाई के साधनों की कमी
6. गुजरात की खाड़ी तथा कच्छ क्षेत्र का दलदली होना।

(iii) जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश-हिमाचल पर्वत के पहाड़ी क्षेत्र में जनसंख्या बहुत कम है। हिमाचल प्रदेश में प्रति वर्ग कि० मी० 123 घनत्व है तथा जम्मू कश्मीर में प्रति वर्ग कि० मी० घनत्व 124 है।
कारण—

1. शीतकाल में अधिक सर्दी
2. बर्फ से ढके प्रदेश का होना
3. पथरीली धरातल के कारण कम कृषि क्षेत्र
4. यातायात के साधनों की कमी
5. वनों का अधिक विस्तार
6. सीमान्त प्रदेश का होना
7. उद्योगों की कमी।

(iv) मध्य प्रदेश- इस प्रान्त में कुछ भागों में बहुत कम जनसंख्या है। मध्य प्रदेश में जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग कि० मी० 196 है।

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प्रश्न 5.
लिंग अनुपात से आपका क्या अर्थ है ? जनसंख्या के अध्ययन में इसका क्या योगदान है ? भारत में लिंग अनुपात कम होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
लिंग अनुपात-लिंग अनुपात किसी समाज में औरतों की स्थिति का महत्त्वपूर्ण मापदंड है। भारत में लिंग अनुपात का अर्थ है कि 1000 पुरुषों पीछे स्त्रियों की संख्या कितनी है जैसे कि—
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इसमें अगर लिंग अनुपात 1000 हो तो इसका अर्थ है कि स्त्रियों और पुरुषों की जनसंख्या बराबर है अगर 1000 से ज्यादा हो तो स्त्रियों की संख्या ज्यादा होगी और 1000 से कम है तो स्त्रियों की संख्या कम होगी।

जनसंख्या के अध्ययन में लिंग अनुपात का योगदान-किसी देश की जनसंख्या के अध्ययन में लिंग अनुपात का असर सिर्फ जनांकन को भी प्रभावित नहीं करता बल्कि इसके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वरूप को भी प्रभावित करता है। यह जन्म दर और मृत्यु दर को भी प्रभावित करता है। अंतर्मुखी और बाहरमुखी स्थान बदली भी लिंग अनुपात द्वारा प्रभावित होती है। सामाजिक भलाई में, सामाजिक सेवाएं जैसे कि मां और बच्चे, बूढों के लिए यह सब कुछ लिंग अनुपात पर ही आधारित है। अगर किसी देश के विकास के बारे प्रोग्राम का स्वरूप तैयार करना होता है। उस समय उस के लिंग अनुपात के बारे में पता लगाना बहुत ज़रूरी है। जनसंख्या का रिकॉर्ड लिंग अनुपात और आयु संरचना के आधार पर बनाया जाता है।
Sex Ratio (Females per 1000 males) India 1901—2001

Year Sex Ratio Sex Ratio in Children (0-6 years)
1901 972
1911 964
1921 955
1931 950
1941 945
1951 946
1961 941 976
1971 930 964
1981 934 962
1991 929 945
2001 933 927

 

लिंग अनुपात बहुत महत्त्व रखता है क्योंकि यह सामाजिक विकास का स्पष्ट, निर्विवादी और सुविधाजनक सूचक है। हर व्यक्ति का समाज में अपना एक खास महत्त्व है। इस प्रकार परिवार और समाज में उसका स्थान लिंग अनुपात द्वारा दिखाया जा सकता है। जैसे कि हिन्दू परिवार में व्यक्तियों की संख्या स्त्रियों से अधिक होती है। पश्चिम की तरफ औद्योगिक विकास के कारण इन क्षेत्रों में स्त्रियों परिवार संभालने तथा पुरुष खेती इत्यादि का काम करते हैं। आज के समय में स्त्री पुरुष के बराबर घर के बाहर काम कर रही है पर पुरुष घर संभालने का काम आज भी बहुत कम कर रहे हैं।

सन् 1901 से लोकर 2011 तक भारत में लिंग अनुपात हमेशा कम रहा है। सन् 2011 की जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारत में पुरुषों और स्त्रियों की संख्या क्रमश: 62.37 करोड़ और 58.64 करोड़ थी जबकि भारत की कुल जनसंख्या 121.00 करोड़ थी।

केरल का लिंग अनुपात 1084 है जबकि पंजाब की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है यहां यह लिंग अनुपात सिर्फ 893 है। सन् 2001 का पंजाब का लिंग अनुपात 876 था और सन् 2011 में लिंग अनुपात (893) में कुछ सुधार आया है।

भारत में लिंग अनुपात कम होने के कारण-पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा गुजरात (800 लड़कियों के पीछे 1000 लड़के) इसके अतिरिक्त दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली, जो कि देश का एक खुशहाल कस्बा माना जाता है, लिंग अनुपात में समानता नहीं है।
भारत लिंग अनुपात की समस्या के साथ लड़ रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लिंग अनुपात 940 था। इसके लिए बहुत सारे कारक जिम्मेदार हैं जो इस प्रकार हैं—

1. सामाजिक कारक (Social Factors)–पुरुष प्रधान समाज में सब से अधिक महत्त्व पुरुष को दिया जाता है। पुराने विचारों के अनुसार अगर बच्चा लड़का होता हो तो इसके साथ परिवार का कुल आगे बढ़ता है।
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साक्षरता की कमी के कारण उनकी यह पुरानी सोच भी लिंग अनुपात के कम होने का कारण है। उनकी सोच है कि शादी के बाद लड़की अपना घर छोड़ कर ससुराल में चली जाती है जिसके कारण बुढ़ापे में माता-पिता का ख्याल नहीं रख सकती और उनका लड़का बुढ़ापे में लाठी के समान है।

2. तकनीकी कारण (Technological Factors) तकनीकी विकास के कारण अल्ट्रासोनीग्राफी द्वारा लिंग की जांच करवा ली जाती है जिस कारण लड़की पता लगने पर उसे पेट में ही कत्ल करवा दिया जाता है।

3. जागरुकता की कमी (Lack of Awareness) आर्थिक विकास में स्त्रियों का योगदान कम रहा है। इसके कारण स्त्रियों को पुरुष के बराबर महत्त्व समाज में नहीं दिया जाता। कुछ खास चीजें और जरूरतें भी स्त्रियों को प्रदान नहीं की जाती।

4. आर्थिक कारण (Economic Factors)-कई समाजिक बुराइयां जैसे कि दहेज जो समाज में लिंग अनुपात पर असर डालती है। दहेज माता-पिता के ऊपर फालतू बोझ होता है। इसलिए परिवार में एक लड़का चाहिए जो कि भविष्य में परिवार की आमदनी में योगदान डालता है यह माना जाता है।

5. सुरक्षा निर्गमन (Security Issues)—आजकल के समय में स्त्रियों के साथ बलात्कार जैसे संगीन अपराध काफी देखने में आ रहे हैं। इस कारण उन्हें ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा की ज़रूरत है।

प्रश्न 6.
संसार की जनसंख्या के मुख्य तत्त्वों का वर्णन करें। पृथ्वी पर जनसंख्या के वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
मानवीय भूगोल के अध्ययन में मनुष्य का केन्द्रीय स्थान है। मनुष्य अपने प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक वातावरण से प्रभावित होता है और उसमें परिवर्तन करता है। पृथ्वी पर जनसंख्या के वितरण में लगातार परिवर्तन होता । चला आया है। इस समय जनसंख्या के वितरण में बहुत असमानता है। इस असमानता के प्रमुख कारण विश्वव्यापी हैं।
मुख्य तत्त्व (Main Factors)—

  1. सन् 1650 से 2000 तक संसार की जनसंख्या 50 करोड़ से बढ़ कर 700 करोड़ तक हो गई। इस प्रकार यह आठ गुना हो गई।
  2. वर्तमान में बढ़ाव की दर के साथ यह जनसंख्या सन् 2100 तक दोगुनी हो जाने की उम्मीद है।
  3. धरती पर लगभग 14.5 करोड़ वर्ग कि०मी० थल भाग में 700 करोड़ की जनसंख्या रहती है।
  4. संसार में जनसंख्या का औसत घनत्व 41 व्यक्ति प्रतिवर्ग कि०मी० है।
  5. संसार में सबसे ज्यादा आबादी एशिया महाद्वीप में 430 करोड़ है।
  6. संसार में सबसे अधिक आबादी चीन में लगभग 127 करोड़ है।
  7. संसार में सबसे अधिक आबादी घनत्व बांग्लादेश में 805 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० है।
  8. संसार में 90% आबादी थल के 10% भाग में केन्द्रित है।
  9. संसार की कुल जनसंख्या का 2 भाग 20°N से 40°N अक्षांश के बीच केन्द्रित है। कुल जनसंख्या का 4/5 भाग 20° से 60°N अक्षांश में निवास करता है।

जनसंख्या का वितरण (Distribution of Population)-पृथ्वी पर जनसंख्या का वितरण बड़ा असमान है। पृथ्वी पर थोड़े से भाग घने बसे हुए हैं जबकि अधिक भाग खाली पड़े हैं। विश्व की 50% जनसंख्या केवल 5% स्थल भाग पर निवास करती है। जबकि 50% स्थल भाग पर केवल 5% लोग रहते हैं। जनसंख्या के घनत्व के आधार पर पृथ्वी को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है—
1. अधिक घनत्व वाले प्रदेश (Areas of High Density)-इन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व 200 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० से अधिक है। इस अधिक घनत्व के दो आधार हैं—
(i) कृषि प्रधान देश-पूर्वी एशिया तथा दक्षिणी एशिया में।
(ii) औद्योगिक प्रदेश-पश्चिमी यूरोप तथा उत्तर पूर्वी अमेरिका में।

  1. दक्षिणी तथा पूर्वी एशिया-पूर्वी एशिया में चीन, जापान, फिलीपाइन द्वीप तथा ताइवान में घनी . जनसंख्या मिलती है। दक्षिणी एशिया में भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में जनसंख्या का घनत्व अधिक है। इसके अतिरिक्त जाव द्वीप नील नदी घाटी में भी घनी जनसंख्या मिलती है। चीन में संसार की लगभग एक चौथाई जनसंख्या निवास करती है। ह्वांग हो, यंगसी तथा सिकियांग घाटी घनी जनसंख्या वाले क्षेत्र हैं। भारत में गंगा के मैदान तथा पूर्वी तटीय मैदान में जनसंख्या का अधिक महत्त्व है। जापान में क्वांटो मैदान (Kwanto Plain), बांग्लादेश में गंगा-ब्रह्मापुत्र डेल्टा, बर्मा में इरावदी डेल्टा, पाकिस्तान में सिन्धु घाटी अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र हैं। बांग्लादेश में संसार का सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व 16 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर में मिलते हैं।
  2. पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी-पूर्वी अमेरिका-पश्चिमी यूरोप में इंग्लिश चैनल से लेकर रूस से यूक्रेन क्षेत्र तक 50° उत्तरी अक्षांशों के साथ-साथ घनी जनसंख्या मिलती है। यूरोप में 50° अक्षांश को जनसंख्या की धुरी (Axis of Population) कहते हैं। इस क्षेत्र में इंग्लैंड, जर्मनी में रुहर घाटी, इटली में पो डेल्टा, फ्रांस में पेरिस बेसिन, रूस में मास्को-यूक्रेन क्षेत्र अधिक जनसंख्या वाले प्रदेश हैं। उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भाग में अटलांटिक तट, सैट लारेंस घाटी तथा महान् झीलों के क्षेत्र में अधिक
    जनसंख्या घनत्व है। इन सब प्रदेशों में जनसंख्या का आधार उद्योग है।

अधिक घनत्व के कारण—

  1. निर्माण उद्योगों का अधिक होना।
  2. सम शीतोष्ण जलवायु।।
  3. समुद्री मार्गी तथा व्यापार का अधिक उन्नत होना।
  4. मिश्रित कृषि के कारण अधिक उत्पादन।
  5. खनिज क्षेत्रों में विशाल भण्डार।
    PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन 14
  6. तटीय स्थिति।
  7. लोगों का उच्च जीवन स्तर।
  8. वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान में अधिक वृद्धि।
  9. नगरीकरण के कारण बड़े-बड़े नगरों का विकास।

2. मध्यम घनत्व वाले प्रदेश (Areas of Moderate Density)-इन प्रदेशों में 25 से 200 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर घनत्व मिलता है। इस भाग में निम्नलिखित प्रदेश शामिल हैं। उत्तरी अमेरिका में प्रेयरीज़ का मध्य मैदान, अफ्रीका का पश्चिमी भाग, यूरोप में पूर्वी यूरोप तथा पूर्वी रूस, दक्षिणी अमेरिका में उत्तर-पूर्वी ब्राज़ील, मध्य चिली, मैक्सिको का पठार, एशिया में भारत का दक्षिणी पठार, पश्चिमी चीन तथा हिन्द चीन, पूर्वी ऑस्ट्रेलिया।

3. कम घनत्व वाले प्रदेश (Areas of Low Density)—इन प्रदेशों में जनसंख्या घनत्व 25 व्यक्ति प्रति वर्ग
किलोमीटर से कम है। लगभग 5% क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व केवल 2 से 3 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। यह लगभग निर्जन प्रदेश है। इस भाग में ऊँचे पर्वतीय तथा पठारी प्रदेश, शुष्क मरुस्थल, उष्ण-आर्द्र घने वन तथा टुण्ड्रा जलवायु के ठण्डे प्रदेश शामिल हैं। जैसे उच्च पर्वतीय भाग, मरुस्थल घने वन, टुण्ड्रा प्रदेश इत्यादि।
कम घनत्व के कारण—इन प्रदेशों में मानवीय जीवन के लिए बहुत कम सुविधाएँ प्राप्त हैं तथा लोग कठिनाइयों भरा जीवन व्यतीत करते हैं। इन प्रदेशों को सतत् कठिनाइयों के प्रदेश भी कहा जाता है।

  1. पर्वतीय भागों में समतल भूमि की कमी।
  2. पथरीली तथा रेतीली मिट्टी।
  3. ठण्डे प्रदेशों में कठोर शीत जलवायु
  4. पानी की कमी तथा छोटे उपज काल के कारण कृषि का अभाव।
  5. टुण्ड्रा प्रदेशों में स्थायी बर्फ।
  6. परिवहन के साधनों की कमी।
  7. घातक कीड़ों तथा बीमारियों के कारण कम जनसंख्या।
  8. खनिज पदार्थों तथा उद्योगों का अभाव।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन

मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन PSEB 12th Class Geography Notes

  • पथ्वी पर बहत सारे प्राकृतिक स्रोत मिलते हैं। किसी देश के विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का होना अति । आवश्यक है। मनुष्य अपनी तकनीक अथवा हुनर का उपयोग करके प्राकृतिक स्रोतों का तेज गति के साथ उपयोग कर रहा है। इसलिए कह सकते हैं कि संसार का सबसे कीमती स्रोत मनुष्य है। किसी देश का मनुष्य उस देश । का भविष्य होता है। इसलिए जनसंख्या की वृद्धि दर, घनत्व इत्यादि के बारे में पढ़ना अति आवश्यक है।
  • जनसंख्या की दृष्टि से भारत दूसरा स्थान रखता है। साल 2011 के अंत तक संसार की जनसंख्या 700 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है। भारत दुनिया का सातवां बड़ा देश है और यह संसार के कुल क्षेत्र । का सिर्फ 2.4% भाग है। रूस, कैनेडा, यू०एस०ए०, ब्राज़ील और आस्ट्रेलिया जैसे देश हमारे देश से बहुत । बड़े देश हैं पर इनकी आबादी भारत के मुकाबले बहुत कम है।
  • जनसंख्या का घनत्व कई प्राकृतिक कारणों के कारण बढ़ता अथवा कम होता जाता है। जनसंख्या घनत्व किसी देश अथवा क्षेत्र की आबादी की औसत होती है। इसके घनत्व को जलवायु, यातायात अथवा संचार के स्रोत, धर्म, प्राकृतिक स्रोतों की बहुतायत इत्यादि कारक काफी हद तक प्रभावित करते हैं। जब आरम्भिक जनसंख्या की गिनती बढ़ती है तो उसको जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं। भारत में प्रत्येक 10 सालों के बाद जनगणना होती है और 10 सालों बाद जो परिवर्तन आबादी में आता है उसे जनसंख्या में वृद्धि कहते हैं। जनसंख्या के परिवर्तन को मुख्य रूप में जन्म दर, मृत्यु दर, स्थान परिवर्तन इत्यादि तत्व प्रभावित करते हैं। स्थान परिवर्तन हर जगह पर प्रभाव डालते हैं। जिस जगह को लोग छोड़ कर चले गये उस पर भी, जहाँ पर जाकर लोगों ने रहना शुरू किया वहाँ पर भी प्रभाव पड़ता है। स्थान बदली के कई तरह के कारक हैं। मुख्य रूप में इन्हें दो हिस्सों प्रतिकर्ष कारक और अपकर्ष कारक के रूप में बाँटा जाता है। किसी देश की जनसंख्या में अलग-अलग आयु वर्ग के लोग रहते हैं। आयु के अनुसार से इन्हें वर्गों , में बाँटा जाता है जैसे कि (0-14) साल जो अपने माता-पिता पर निर्भर करते हैं, (60 साल) जो अपने बच्चों पर निर्भर करते हैं और (15-59) जो कमाते हैं। इस आयु वर्ग के अनुसार ही देश में आर्थिक स्तर को निर्धारित किया जाता है। किसी देश की जनसंख्या के अध्ययन में लिंग अनुपात और साक्षरता का बहुत । महत्त्व होता है। इस द्वारा देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्वरूप का पता लगाया जा सकता है।
  • कुल जनसंख्या-सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ है, जो कि संसार की कुल जनसंख्या का 17.5% है।
  • चीन के बाद जनसंख्या के आधार पर भारत का दूसरा स्थान है।
  • जनसंख्या घनत्व-जनसंख्या घनत्व किसी देश की जनसंख्या और इलाके का अनुपात होता है। साधारणतया पर इसे व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के रूप में प्रदर्शित किया जाता है।
    PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन 15
  • भारत का जनसंख्या घनत्व-2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत का जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।
  • जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक-जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक जलवायु, मिट्टी की किस्म, धरातल, जल, खनिज पदार्थ और प्राकृतिक स्रोत इत्यादि की उपलब्धि। इसके अतिरिक्त कई सामाजिक कारक जैसे रीति-रिवाज, सोच इत्यादि अति आवश्यक कारक हैं।
  • हर साल 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है।
  • जनसंख्या परिवर्तन के निर्णायक तत्व-जनसंख्या तबदीली के मुख्य निर्णायक तत्व हैं-जन्म दर, मृत्यु दर और प्रवास।
  • जन्म दर-किसी एक साल के दौरान जीवित जन्म अथवा मध्य सालों की जनसंख्या के अनुपात को जन्म दर कहते हैं।
    PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 2 मानवीय संसाधन-जनसंख्या और इसमें परिवर्तन 16
  • लिंगानुपात-लिंगानुपात का अर्थ है एक हजार पुरुषों के पीछे औरतों की गिनती।
  • एशिया की जनसंख्या संसार की सबसे अधिक जनसंख्या है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 3 नगरीय समाज Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 3 नगरीय समाज

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नगरीय समाजों में आवास हीनता के कारण नहीं हैं-
(क) आवास की कमी
(ख) आवास का अधिकार मिलना
(ग) भूमि का अधिकार मिलना .
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में लोगों का स्थान परिवर्तन कहलाता है :
(क) नगरीय समाज
(ख) ग्रामीण समाज
(ग) नगरवाद
(घ) नगरीकरण।
उत्तर-
(घ) नगरीकरण।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

प्रश्न 3.
नगरीय समाज में झुग्गी-झोंपड़ी (स्लमज) की वृद्धि का कारण है :
(क) निर्धनता
(ख) बढ़ती जनसंख्या
(ग) (क) तथा (ख) दोनों
(घ) दोनों में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) (क) तथा (ख) दोनों।

प्रश्न 4.
कौन-सी सामाजिक समस्याएं नगरीय समाज में पाई जाती हैं?
(क) अपराध
(ख) नशीली दवाओं का सेवन
(ग) शराबखोरी
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 5.
नगरीय समाज में आवासहीनता का क्या कारण है ?
(क) आवास की कमी
(ख) स्वयं निर्भरता
(ग) विकास
(घ) मंडीकरण।
उत्तर-
(क) आवास की कमी।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. नगरीय समाज आकार में ……………. तथा स्वभाव में ………………. होता है।
2. नगरीय समाज अपने ………………. श्रम विभाजन के लिए जाना जाता है।
3. नगरीय समाज में सामाजिक नियन्त्रण के ………………. साधन पाए जाते हैं।
4. आवास समस्या ………………. के नाम से भी जानी जाती है।
5. ………………. नगरीय जीवन शैली का प्रतिनिधित्व करता है।
6. ………………. एवम ………………. नगरीय समाज की समस्याएं हैं।
उत्तर-

  1. बड़े, जटिल
  2. विशेषीकरण
  3. औपचारिक
  4. बेघर होना
  5. नगरवाद
  6. रहने की समस्या, झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं

1. नगरीय समाज आकार में छोटे होते हैं।
2. व्यापार, उद्योग व वाणिज्य नगरीय आर्थिकता के मुख्य स्तम्भ हैं।
3. नगरीय समाज में सामाजिक गतिशीलता के अवसर कम हैं।
4. महानगर आवास समस्या के शिकार हैं।
5. झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां ग्रामीण समाज का अंग होती हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. गलत
  4. सही
  5. गलत।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
आवास की कमी — मलिन बस्तियाँ
नगरीय जीवन की शैली — शहरी समाज
अस्तरीय आवास संरचना — विजायतीयता
विभिन्न पृष्ठभूमि वाले लोगों का अतः मिश्रण — नगरवाद
रस्मी संबंध — आवासहीनता
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
आवास की कमी — आवासहीनता
नगरीय जीवन की शैली — नगरवाद
अस्तरीय आवास संरचना — मलिन बस्तियाँ
विभिन्न पृष्ठभूमि वाले लोगों का अतः मिश्रण — विजायतीयता

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. नगर का वह भू-खण्ड जहां निर्धनता तथा निम्न स्तर की जीवन दशाएं हों उसे क्या कहते हैं ? ।
उत्तर-झुग्गी-झोंपड़ी या झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां।

प्रश्न 2. भीड़-भाड़, गलियों का दोषपूर्ण होना, समुचित प्रकाश व्यवस्था का न होना आदि किस प्रकार के समाज की विशेषताएं हैं ?
उत्तर-ये सभी नगरीय समाज के लक्षण हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

प्रश्न 3. बड़े स्तर पर श्रम का विभाजन एवं विशिष्टीकरण किस समाज में पाया जाता है ?
उत्तर-नगरीय समाज में।

प्रश्न 4. वह दृष्टिकोण जहाँ वैयक्तिक हित, सामूहिक हितों पर हावी हो जाते हैं क्या कहलाता है ?
उत्तर-व्यक्तिवादिता (Individualism).

प्रश्न 5. अधिक व्यक्तियों में रहकर भी सबसे अनजान रहना क्या कहलाता है ?
उत्तर-औपचारिकता।

प्रश्न 6. नगरीय समाज में कौन-से संबंध प्रभावी होते हैं ?
उत्तर-नगरीय समाज में औपचारिक संबंध पाए जाते हैं।

प्रश्न 7. जनजातीय समाज में किस प्रकार की आर्थिकता पाई जाती है ?
उत्तर-जनजातीय समाज में निर्वाह आर्थिकता देखने को मिलती है।

प्रश्न 8. नगरीय जनसंख्या का आकार क्या है ?
उत्तर-भारत में 37.7 करोड़ लोग या 32% जनसंख्या नगरों में रहती है।

प्रश्न 9. भारतीय जनगणना के अनुसार, नगरीय क्षेत्र क्या है ?
उत्तर- भारत की जनगणना के अनुसार वह क्षेत्र नगरीय समाज है जहां पर Municipality, कार्पोरेशन, कैन्ट क्षेत्र या Notified Town Area Committee है।

प्रश्न 10. नगरीय जनसंख्या का आकार क्या है ?
उत्तर-देखें प्रश्न 8.

प्रश्न 11. भारत में झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों (स्लमज़) के लिए प्रयोग किए जाने वाले भिन्न नाम लिखें।
उत्तर-झुग्गी-झोपड़ी या मलिन बस्तियां।

प्रश्न 12. स्लमज़ में दो प्रकार के आपराधिक व्यवहारों के नाम लिखें।
उत्तर-अपराध, बाल अपराध, वेश्यावृत्ति, नशाखोरी, मद्यपान इत्यादि।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
नगरीय समाज से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नगरीय समाज वह समाज होता है जिसमें लोगों के बीच औपचारिक संबंध होते हैं, जहां अलग-अलग धर्मों, संस्कृतियों के लोग इकट्ठे रहते हैं, जो आकार में बड़े होते हैं व जहां की 75% या अधिक जनसंख्या गैर कृषि कार्यों में लगी होती है।

प्रश्न 2.
गैर-कृषि व्यवसाय की चर्चा करें।
उत्तर-
वह पेशे जो कृषि से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित नहीं होते उन्हें गैर कृषि पेशे कहा जाता है। ऐसे पेशे नगरों में आम मिल जाते हैं जहां की 75% जनसंख्या ग़ैर-कृषि पेशे अपनाती है। उदाहरण के लिए नौकरी, उद्योग, व्यापार इत्यादि।

प्रश्न 3.
व्यक्तिवाद क्या है ?
अथवा
व्यक्तिवादिता
उत्तर-
जब व्यक्ति केवल अपने बारे, अपनी सुख-सुविधाओं इत्यादि के बारे में सोचता है तो इस प्रक्रिया को व्यक्तिवाद कहते हैं। इसमें व्यक्ति को समाज या किसी अन्य की परवाह नहीं होती। वह केवल अपने बारे ही सोचता है तथा केवल अपने लाभ के ही कार्य करता है।

प्रश्न 4.
आप आवास से क्या समझते हैं ?
उत्तर-
आवास का अर्थ उस इमारत से है जिसमें लोग रहते हैं। यह वह भौतिक संरचना है जो हमें आँधी, तूफान, बारिश से सुरक्षा प्रदान करती है। आवास का स्तर कई बातों पर निर्भर करता है जैसे कि परिवार का आकार, आय, जीवन जीने का स्तर इत्यादि।

प्रश्न 5.
भीड़-भाड़ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भीड़-भाड़ का अर्थ है काफ़ी अधिक लोगों का होना। ग्रामीण लोग नगरों की तरफ जाते हैं जिस कारण नगरों की जनसंख्या बढ़ जाती है व वहां रहने के स्थान की कमी हो जाती है। एक ही कमरे में बहुत-से लोगों को रहना पड़ता है। इसे ही भीड़-भाड़ कहा जाता है।

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प्रश्न 6.
स्लमज (झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां) क्या होती है ?
उत्तर-
स्लमज वे बस्तियां होती हैं जहाँ मज़दूर व निर्धन लोग गंदे हालातों में तथा बिना किसी सुविधाओं के रहते हैं। साधनों की कमी के कारण इन्हें गंदे हालातों व झुग्गी-झोंपड़ियों में रहना पड़ता है जिसका उनके स्वास्थ्य पर काफ़ी ग़लत प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 7.
आप नगरीकरण से क्या समझते हैं ?
उत्तर-
नगरीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें ग्रामीण लोग नगरों की तरफ जाते हैं, वहाँ बस जाते हैं तथा नगरों का विकास हो जाता है। इसमें लोग न केवल अपने गांव छोड़ देते हैं बल्कि अपने विचार, आदर्श, आदतें इत्यादि भी बदल देते हैं।

IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
नगरीय समाज की दो विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-

  • जनसंख्या का आकार-नगरीय समाज आकार में बड़े होते हैं क्योंकि यहां की जनसंख्या काफ़ी अधिक होती है। अधिक रोजगार की मौजूदगी, शिक्षा, स्वास्थ्य व मनोरंजन सुविधाओं की मौजूदगी ग्रामीण लोगों को नगरों की तरफ आकर्षित करती है।
  • गैर-कृषि पेशे-नगरीय समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहां की 75% या अधिक जनसंख्या गैर-कृषि पेशों में लगी होती है। यहां श्रम विभाजन व विशेषीकरण की प्रधानता होती है।

प्रश्न 2.
आवास की समस्या के तीन कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर-

  • घरों की कमी-नगरों में रहने वाले घरों की कमी होती है जिस कारण वहां घरों की समस्या बनी रहती है।
  • निर्धनता-नगरों की जनसंख्या काफ़ी अधिक होती है जिनमें बहुत से लोग निर्धन होते हैं जो घर नहीं खरीद सकते। इस कारण घरों की समस्या बनी रहती है।
  • अधिक जनसंख्या-जिस तेज़ी से नगरों की जनसंख्या बढ़ रही है उतनी तेज़ी से नए घर नहीं बढ़ रहे हैं। इस वजह से भी घरों की समस्या बनी रहती है।

प्रश्न 3.
नगरीय समाज में झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों (स्लमज) के लिए ज़िम्मेदार तीन कारणों का उल्लेख करें।
अथवा
झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां (स्लमज) नगरीय समाज की सामाजिक समस्या है। विवेचना कीजिए।
उत्तर-

  • ग्रामीण-नगरीय प्रवास-ग्रामीण लोग नगरों में काम की तलाश में प्रवास करते हैं परन्तु उनके पास नगरों में रहने का स्थान नहीं होता। इस कारण उन्हें मलिन बस्तियों में रहना पड़ता है।
  • नगरीकरण-नगरों में बहुत-सी सुविधाएं मिलती हैं जिस कारण ग्रामीण लोग इनकी तरफ आकर्षित होते हैं। इन लोगों को रहने का अन्य स्थान नहीं मिलता जिस कारण इन्हें झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में रहना पड़ता है।
  • निर्धनता-निर्धनता झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों को बढ़ाने में सहायता करती है। लोगों के पास अपना घर खरीदने के लिए पैसा नहीं होता जिस कारण वे मलिन बस्तियों में रहते हैं।

प्रश्न 4.
नगरीय समाज में दो मुख्य परिवर्तनों का उल्लेख करें।
उत्तर-

  • नगरीय समाज में धीरे-धीरे पेशे बढ़ रहे हैं। पहले कुछ ही पेशे मौजूद होते थे परन्तु औद्योगीकरण व पढ़ने-लिखने के कारण पेशे बढ़ रहे हैं। लोग उन्हें अपना रहे हैं तथा बेरोज़गारी को दूर कर रहे हैं।
  • नगरीय समाज में व्यक्तिवादिता बढ़ रही है। अब लोगों को यह भी नहीं पता होता कि उनके पड़ोस में कौन रह रहा है। उन्हें केवल अपने हितों के बारे में पता होता है जिस कारण वह कुछ भी करने को तैयार होते हैं।

प्रश्न 5.
नगरीय समाज पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर-
नगरीय समाज एक ऐसा समाज है जो एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में फैला होता है, जहाँ की जनसंख्या काफ़ी अधिक होती है, जहाँ बहुत-से पेशों की भरमार होती है; जहाँ लोगों में काफ़ी अधिक विविधता होती है, जहाँ व्यक्तिवादिता का बोलबाला होता है; जहाँ सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधन होते हैं तथा जहाँ पारिवारिक रिश्तों का काफी कम महत्त्व होता है। यहाँ पर केंद्रीय परिवार पाया जाता है जहाँ स्त्रियों को उच्च स्थिति प्राप्त होती है। इस समाज में व्यक्ति केवल स्वयं के लिए ही जीता है तथा व्यक्तिवादिता के साथ ही जीता है।

प्रश्न 6.
आप नगरीय समाज से क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताओं का विस्तारपूर्वक उल्लेख करें।
उत्तर-

  • जनसंख्या का आकार-नगरीय समाज आकार में बड़े होते हैं क्योंकि यहां की जनसंख्या काफ़ी अधिक होती है। अधिक रोजगार की मौजूदगी, शिक्षा, स्वास्थ्य व मनोरंजन सुविधाओं की मौजूदगी ग्रामीण लोगों को नगरों की तरफ आकर्षित करती है।
  • गैर-कृषि पेशे-नगरीय समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहां की 75% या अधिक जनसंख्या गैर-कृषि पेशों में लगी होती है। यहां श्रम विभाजन व विशेषीकरण की प्रधानता होती है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
नगरीय समाज पर विस्तारपूर्वक टिप्पणी लिखें।
अथवा
नगरीय समाज को परिभाषित कीजिए। नगरीय समाज की मुख्य विशेषताओं की विस्तृत रूप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
हमारे देश में शहर तथा शहरों में रहने वाले लोग तेजी से बढ़ रहे हैं। देश में आजकल के समय में 5000 से भी अधिक शहर तथा कस्बे हैं। शहरों में बढ़ रही जनसंख्या के कारण वहां के लोगों का जीवन काफ़ी प्रभावित हुआ है। मध्य तथा उच्च वर्ग के लोगों की आवश्यकताएं तो पूर्ण हो जाती हैं परन्तु निम्न वर्ग के लोगों के लिए अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करना काफ़ी मुश्किल हो जाता है।

साधारण शब्दों में शहर एक ऐसा औपचारिक तथा फैला हुआ समुदाय है जिसका निर्धारण एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर तथा शहरी विशेषताओं के आधार पर होता है। शब्द ‘शहर’ अंग्रेज़ी भाषा के शब्द CITY का हिंदी रूपांतरण है जिसका अर्थ है नागरिकता। इस प्रकार अंग्रेजी भाषा का शब्द URBAN लातिनी भाषा के शब्द URBANUS से निकला है जिसका अर्थ भी शहर ही है। शहर शब्द के अर्थ को अच्छी तरह समझने के लिए अलगअलग विद्वानों ने अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है :

जनसंख्या के आधार पर परिभाषा (Definition on the basis of Population)-अमेरिका के जनगणना ब्यूरो (Census Bureau of America) के अनुसार शहर ऐसे स्थान को कहते हैं जहां की जनसंख्या 25,000 अथवा इससे अधिक हो। इस प्रकार मित्र में 11,000 तथा फ्रांस में 2,000 से ऊपर जनसंख्या वाले स्थानों को शहर का नाम दिया जाता है। हमारे देश भारत में 5,000 से अधिक जनसंख्या वाले समुदाय को शहरी क्षेत्र कहा जाता है जहां की जनसंख्या का घनत्व 400 अथवा इससे अधिक हो तथा 75% या इससे अधिक लोग गैर कृषि के कार्यों में लगे हुए हों।

पेशे के आधार पर परिभाषाएं (Definitions on the basis of Occupation)-ऐसा क्षेत्र जहां लोगों का मुख्य पेशा कृषि नहीं बल्कि और कुछ होता है, उसको शहर माना जाता है।

  • विलकाक्स (Willcox) के अनुसार, “शहर का अर्थ उन सभी क्षेत्रों से है जहां प्रति वर्ग मील में जनसंख्या का घनत्व 1000 व्यक्तियों से अधिक हो तथा वहां व्यावहारिक रूप में कृषि न की जाती हो।”
  • बर्गल (Bergal) के अनुसार, “शहर एक ऐसी संस्था है जहां के अधिकतर निवासी कृषि के कार्यों के अतिरिक्त
    और उद्योगों में लगे हों।”
  • आनंद कुमार (Anand Kumar) के अनुसार, “शहरी समुदाय वह जटिल समुदाय है जहां अधिक जनसंख्या होती है, द्वितीय संबंध होते हैं जो कि साधारणतया पेशागत वातावरणिक अंतरों पर आधारित होते हैं।”
  • लइस ममफोर्ड (Lewis Mumford) के अनुसार, “शहर वह केन्द्र है जहां समुदाय की अधिक-से-अधिक शक्ति तथा संस्कृति का केन्द्रीकरण होता है।”
  • लुइसवर्थ (Louisworth) के अनुसार, “शहर में सामाजिक भिन्नता वाले लोग एक अधिक घनत्व वाले क्षेत्र में रहते हैं।”
  • थिऔडोरसन तथा थिऔडोरसन (Theodorson and Theodorson) के अनुसार, “शहर एक ऐसा समुदाय है जिसमें गैर कृषि पेशों की प्रमुखता, जटिल श्रम विभाजन से पैदा हुआ विशेषीकरण तथा स्थानीय सरकार की औपचारिक व्यवस्था मिलती है।”

इस प्रकार इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि शहरी समुदाय आकार में बड़े होते हैं, द्वितीय संबंधों की प्रधानता होती है, बहुत अधिक पेशे होते हैं, श्रम विभाजन, विशेषीकरण तथा सामाजिक गतिशीलता जैसे लक्षण पाए जाते हैं।

विशेषताएं (Characteristics) हमारे देश में जिस भी क्षेत्र की जनसंख्या 5000 से अधिक हो तथा 75% से अधिक जनसंख्या गैर कृषि के कार्यों में लगी हो, उसको नगर का नाम दिया जाता है। नगरीय समाज की कुछ विशेषताएं अथवा लक्षण होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. अधिक जनसंख्या (Large Population)-नगरीय समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता वहां जनसंख्या का अधिक होना है। जनसंख्या में घनत्व का अर्थ है कि प्रतिवर्ग कि०मी० में कितने लोग रहते हैं। दिल्ली में जनसंख्या का घनत्व 9200 लोगों के करीब है। कम या अधिक जनसंख्या के आधार पर नगरीय को अलग-अलग वर्गों जैसे कि छोटे नगर, मध्यम नगर अथवा महानगरों में बांटा जा सकता है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता इत्यादि जैसे महानगरों की जनसंख्या एक करोड़ से भी अधिक है जबकि भारत के कई राज्यों की जनसंख्या एक करोड़ से भी कम है। नगरों में औद्योगिक घरानों, शिक्षा संस्थाओं, व्यापारिक केन्द्रों तथा वाणिज्य केन्द्रों की भरभार होती है जिस कारण नगरों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। जनसंख्या के अधिक होने के कारण ही नगर में निर्धनता, बेरोज़गारी, अपराध, भुखमरी, झुग्गी झोपड़ी बस्तियों इत्यादि जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं।

2. रहने के स्थान की कमी (Less place of Living)–नगरों की एक और मुख्य विशेषता रहने के स्थानों की कमी होती है। यह इस कारण है कि नगरों की जनसंख्या बहुत अधिक होती है। बड़े-बड़े नगरों में तो यह बहुत ही गंभीर समस्या है। बहुत-से गरीब लोग सड़कों के किनारे, पेड़ों के नीचे या फिर मुर्गियों की झोंपड़ियों में अपनी रातें व्यतीत करते हैं। नगरों में रहते हुए मध्य वर्गीय परिवार एक छोटे से घर में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं जहां न तो बच्चों के लिए खेलने की जगह होती है तथा न ही बच्चों के सोने या पढ़ने के लिए अलग कमरा होता है। इस कारण ही कई बार बच्चे वह सब भी देख लेते हैं जोकि उन्हें नहीं देखना चाहिए। इस प्रकार नगरों में रहने के लिए स्थान बहुत ही कम होता है।

3. द्वितीय तथा औपचारिक संबंध (Secondary and Formal Relations)-नगरीय समाजों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता वहां जनसंख्या का अधिक होना है। जनसंख्या के अधिक होने के कारण सभी लोगों के आपस में प्राथमिक संबंध या आमने-सामने के संबंध नहीं होते हैं। नगरों में लोगों में अधिकतर औपचारिक संबंध विकसित होते हैं। यह संबंध अस्थायी होते हैं। व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर और व्यक्तियों से संबंध स्थापित कर लेते हैं तथा आवश्यकता पूर्ण होने के बाद इन संबंधों को खत्म कर लेते हैं। इस प्रकार द्वितीय तथा औपचारिक संबंध नगरीय समाज का आधार होते हैं।

4. अलग-अलग पेशे (Different Occupations) नगर अलग-अलग पेशों के आधार पर ही विकसित हैं। नगरों में बहुत-से उद्योग, पेशे तथा संस्थाएं पाई जाती है जिनमें बहुत-से व्यक्ति अलग-अलग प्रकार के कार्य करते हैं। डॉक्टर, मैनेजर, इंजीनियर विशेषज्ञ मज़दूर तथा परिश्रम करने वाले मजदूर इत्यादि ऐसे हज़ारों पेशे या कार्य शहरी समाजों में मौजूद होते हैं। इन अलग-अलग पेशों की पूर्ति के लिए अधिक जनसंख्या का होना बहुत आवश्यक है।

5. आर्थिक वर्ग विभाजन (Division in Economic Classes)–नगरीय समुदाय में व्यक्ति की जाति, धर्म अथवा रंग को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता परन्तु जनसंख्या को आर्थिक आधारों पर कई आर्थिक वर्गों में बांटा जाता है। शहरों में जनसंख्या को केवल पूँजीपति तथा मज़दूर दो वर्गों में ही नहीं बाँटा जाता बल्कि बहुत-से छोटे-छोटे वर्ग तथा उपवर्ग भी आर्थिक स्थिति के आधार पर पाए जाते हैं। वर्गीय आधार पर उच्च-निम्न का अंतर भी शहरों में पाया जाता है।

6. प्रतियोगिता (Competition)-नगरीय समुदाय में प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने के मौके प्राप्त होते हैं। नगरों में पढ़े-लिखे तथा योग्य व्यक्ति भी बहुसंख्या में मिल जाते हैं इस कारण ही शहरों की शैक्षिक संस्थाओं में दाखिला प्राप्त करने के लिए, नौकरी प्राप्त करने के लिए तथा नौकरी में उन्नति प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक प्रतियोगिता होती है। औद्योगिकीकरण के विकसित होने से तो नगरों में प्रतियोगिता और बढ़ गई है।

7. व्यक्तिवादिता (Individualism)-नगरीय समुदाय में रहने वाले लोगों में व्यक्तिवादिता का गुण भी देखने को मिलता है। नगरों में लोगों के बीच सामुदायिक भावना की जगह व्यक्तिवादिता की भावना देखने को मिल जाती है। नगरों में व्यक्ति केवल अपने तथा अपने हितों के बारे में सोचता है। व्यक्ति अपने जीवन का एक ही उद्देश्य मानता है तथा वह है अधिक-से-अधिक पैसे इकट्ठे करना तथा अधिक-से-अधिक सुख सुविधाओं के साधन प्राप्त करना। व्यक्ति में इस व्यक्तिवादिता का गुण केवल आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पारिवारिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में भी यह आ चुका है।

8. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility) ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में नगरों में अधिक सामाजिक गतिशीलता पाई जाती है। नगरों में लोग अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए या अच्छी नौकरी के लिए एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर जाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। लोगों में स्थानीय गतिशीलता के साथ-साथ सामाजिक गतिशीलता देखने को भी मिल जाती है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति की योग्यता के आधार पर उसके जीवन में कई बार समाज में उसकी स्थिति उच्च या निम्न होती रहती है।

9. स्त्रियों की उच्च स्थिति (Higher Status of Women) नगरीय समाजों में स्त्रियों की स्थिति ग्रामीण समाजों की तुलना में काफी उच्च होती है। नगरीय समाजों में हम स्त्रियों को बिना किसी प्रतिबंध के पुरुषों की तरह ही प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हुए देख सकते हैं। नगरों में पर्दा प्रथा, बाल विवाह, स्त्रियों को शिक्षा न देना, स्त्रियों पर कई प्रकार के प्रतिबंध इत्यादि बहुत ही कम या न के बराबर होते हैं। इस कारण ही नगरों में स्त्रियों को अपना व्यक्तित्व विकसित करने का मौका प्राप्त हो जाता है। नगरों में स्त्रियों को मर्दो के जैसे प्रत्येक क्षेत्र में मों जैसी भूमिकाएं निभाते हुए देखा जा सकता है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

10. कम पारिवारिक नियंत्रण (Less Family Control)-नगरीय समाजों के प्राथमिक संबंध कम होते हैं तथा सामुदायिक भावना की भी कमी होती है। नगरों में व्यक्ति को खाना बनाने, कपड़े धोने तथा बच्चों की देख-रेख के लिए क्रेचों इत्यादि की सुविधा प्राप्त हो जाती है। इसलिए व्यक्ति को अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए परिवार के और सदस्यों पर निर्भर नहीं होना पड़ता। इस कारण ही नगरों में स्त्रियां घर के कार्य छोड़ कर दफ्तरों में नौकरियां करती हैं। इस का कारण यह है कि स्त्रियों की बच्चों तथा परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियों को और संस्थाओं ने संभाल लिया है। इस प्रकार पारिवारिक संबंधों का स्थान पैसे ने ले लिया है। इस कारण ही परिवार की अपने सदस्यों पर नियंत्रण में कमी आयी है।

11. सामाजिक समस्याओं का केन्द्र (Centre of Social Problems)-नगरीय समाजों ने भी कई प्रकार की समस्याओं को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। आजकल के समाजों में जितनी भी समस्याएं हैं, उनमें से बहुत-सी समस्याएं नगरों के कारण ही हैं। अपराध, भ्रष्टाचार, शराबखोरी, निर्धनता, बेरोज़गारी, पारिवारिक विघटन, अलग-अलग वर्गों में संघर्ष नैतिक कीमतों में कमी इत्यादि जैसी बहुत-सी समस्याओं का केन्द्र नगर ही है। शहरों की जनसंख्या तथा शहरों का आकार दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है तथा इस कारण सभी समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं।

प्रश्न 2.
आवास से क्या अभिप्राय है ? आवास के उत्तरदायी विभिन्न कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर-
आवास का अर्थ है वह इमारत जिसमें लोग रहते हैं। इसका अर्थ है वह भौतिक संरचना जो लोगों को तूफान, अंधेरी, बारिश इत्यादि से सुरक्षा प्रदान करती है। अगर आवास न हो तो लोगों को खुले आसमान के नीचे रहना पड़ेगा तथा वह किसी भी प्रकार से अपनी सुरक्षा नहीं कर पाएंगे। किसी के भी आवास का स्तर कई कारणों पर निर्भर करता है जैसे कि परिवार की आय कम है या अधिक है, परिवार छोटे आकार का है या बड़े आकार का है, उनका जीवन जीने का तरीका क्या है तथा परिवार का शिक्षा स्तर कितना है।

हमारा देश भारत अभी भी लाखों लोगों की मूलभूत घर की आवश्यकता पूर्ण नहीं कर पा रहा है। रहने का स्थान व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता है। स्वतन्त्रता के 69 वर्ष बाद भी हमारा देश घरों की समस्या, विशेषतया निर्धन लोगों के लिए से जूझ रहा है। देश की बढ़ती नगरीय जनसंख्या ने इस समस्या को और बढ़ाया है। काम की तलाश में ग्रामीण जनता का नगरों की तरफ प्रवास भी नगरीय आवास तथा मूलभूत सुविधाओं पर काफ़ी अधिक प्रभाव डालता है। इस कारण नगरों में माँग तथा सप्लाई में अंतर बढ़ जाता है तथा आवास या घरों की कमी हो जाती है।

पिछले कुछ समय से नगरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है कि प्रत्येक व्यक्ति को घर प्रदान करना लगभग नामुमकिन हो गया है। इस कारण आवास की समस्या, जिसे आवासहीनता भी कहा जाता है, नगरों में काफ़ी बड़ी समस्या बनती जा रही है। नगरों में रहने वाले स्थानों पर इतना दबाव होता है कि बहुत-से लोग सड़कों, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन व झुग्गी झोंपड़ी बस्तियों में रहने को बाध्य होते हैं। यह कहा जाता है कि नगरों की आधी जनसंख्या या तो गंदे घरों में रहती है या उन्हें अपनी आय का लगभग 20% घर के किराएं के रूप में देना पड़ता है। बड़े नगर जैसे कि मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली व चेन्नई इस समस्या से गंभीर रूप से जूझ रहे हैं।

आवास की समस्या के कई कारण होते हैं, जैसे कि-

  • घरों की कमी।
  • भूमि की मलकीयत।
  • बेघर व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति।
  • घर की मलकीयत।

प्रश्न 3.
झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती क्या है ? विस्तारपूर्वक टिप्पणी करें।
उत्तर-
हमारे देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। इस जनसंख्या के बढ़ने से हमारे नगरों में बहुत-सी समस्याएं बढ़ रही हैं। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या जो कि हमें बहुत अधिक तंग कर रही है वह है शहरों में रहने की समस्या। शहरों में लोगों को रहने के लिए घर नहीं मिलते तथा अगर मिलते भी हैं तो वह भी बहुत महंगे रेटों पर मिलते हैं जोकि एक आदमी या ग़रीब व्यक्ति खरीद नहीं सकता है, परन्तु उनको अपने कार्य के लिए शहरों में रहना ही पड़ता है। इसलिए उन्हें झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में रहना पड़ता है। इस प्रकार झुग्गी-झोपड़ी बस्तियां नगरों में एक महत्त्वपूर्ण तथा गंभीर समस्या बनकर उभरी है। उनको झुग्गियां, चालें, झोंपड़पट्टी, बस्तियां इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है।

इस तरह हम झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि, “गंदे घरों या इमारतों का वह समूह जहां ज़रूरत से अधिक लोग जीवन न जीने के हालातों में रहते हैं, जहां निकासी का सही प्रबन्ध न होने के कारण या सुविधाओं के न होने के कारण लोगों को गंदे वातावरण में रहना पड़ता है तथा जिससे उन के स्वास्थ्य और समूह में रहने वाले लोगों की नैतिकता पर ग़लत असर पड़ता है।”

इस तरह से झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती नगर में एक ऐसा क्षेत्र होता है जहां रहने का स्थान बहुत ही घटिया होता है। झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों को हम एक सामाजिक तथ्य के रूप में भी देख सकते हैं। इस प्रकार झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में हम निम्नलिखित चीज़ों को आसानी से देख सकते हैं

  1. जनसंख्या का अधिक घनत्व (More density of population)
  2. लोगों की भीड़ (Crowd of people)
  3. गंदे पानी की निकासी न होना (No Sanitation)
  4. गंदे घर (Substandard Houses)
  5. अपराध (Crime)
  6. निर्धनता (Poverty)।

इस तरह से झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में बहुत-से लोग इकट्ठे मिल कर जीवन न जीने वाले वातावरण में रहते हैं, जहां बहुत अधिक निर्धनता, गंदे घर होते हैं, जहां गंदे पानी की निकासी नहीं होती है। यह ऐसे क्षेत्र होते हैं जहां कि व्यक्ति जीवन नहीं जी सकता तथा जहां का वातावरण इस लायक नहीं होता कि व्यक्ति अच्छी तरह जीवन जी सके।

2001 के Census के अनुसार झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती वह है-

  • जिसको कि राज्य सरकार, स्थानीय सरकार अथवा केन्द्रशासित प्रशासन द्वारा झुग्गी-झोंपड़ी बस्ती घोषित कर दिया गया है।
  • वह तंग क्षेत्र जहां कम-से-कम 300 लोग रहते हैं अथवा जहां 60-70 घर गंदे ढंग से बने हुए हैं, जहां का वातावरण स्वास्थ्यवर्धक नहीं होता है, जहां का Infrastructure बहुत घटिया होता है तथा जहां पीने के पानी और निकासी की समस्या होती है।

झुग्गी-झोंपड़ी की विशेषताएं (Characteristics of Slums)-

1. रहने के स्थान की समस्या (Problem of place of living)—झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों की सबसे पहली महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन में रहने के स्थान मिलने की समस्या होती है। लोग नगरों में कार्य की तलाश में अपने गांव के घर बार छोड़ कर आते हैं। उनको नगर में कार्य तो मिल जाता है परन्तु रहने का स्थान या घर नहीं मिलता है। इन बस्तियों में एक ही कमरे में 8-10 व्यक्ति बहुत ही बुरे हालातों में रहते हैं तथा खाना बनाते हैं। इस प्रकार से इन बस्तियों में रहने के स्थानों की समस्या होती है।

2. अपराधों से भरपूर (Full of Crimes)-झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां अपराधों से भरपूर होती हैं। यहां रहने वाले लोगों में से अधिकतर लोगों के व्यवहार विघटित होते हैं। विघटित व्यवहार में हम अपराध वेश्यावृत्ति, बाल अपराध, आत्म हत्या, पारिवारिक विघटन, शराबनोशी, नशे का प्रयोग इत्यादि ले सकते हैं । झुग्गी झोंपड़ी बस्तियों में नैतिकता नाम की कोई चीज़ नहीं होती है। वहां रहने वाले लोगों में अनपढ़ता अधिक होती है तथा गलत व्यवहार की तरफ खुलापन अधिक होता है। दूसरे शब्दों में, झुग्गी झोंपड़ी बस्तियों में आमतौर पर अपराध की तरफ जाने के मौके व्यक्ति के लिए अधिक होते हैं।

3. सुविधाओं की कमी (Lack of Facilities)–झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में सुविधाओं की कमी होती है। यह बस्तियां आमतौर पर गैर-कानूनी होती हैं तथा किसी ओर की भूमि पर कब्जा करके बनायी होती है। गैर-कानूनी होने के कारण यहां सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुविधाएं जैसे कि बिजली, पानी, नालियां, सड़कें, गंदे पानी की निकासी इत्यादि भी नहीं मिलती है। इन सुविधाओं के न मिलने के कारण यहां रहने वाले लोगों के पास सुविधाओं की कमी होती है जिस कारण उन्हें नर्क जैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता है। यहां का वातावरण रहने लायक नहीं होता है तथा गंदगी से भरपूर होता है। गंदा पानी तथा बिजली का न होना इन बस्तियों की प्रमुख विशेषता है। बच्चे कई बीमारियों के शिकार हो जाते हैं तथा कई बार मर भी जाते हैं। यहां पैदा होने वाले बच्चों को गम्भीर बीमारियां लगने के मौके काफ़ी अधिक होते हैं। गंदे पानी की निकासी नहीं होती तथा स्वास्थ्य सुविधाएं भी बहुत कम होती हैं।

4. बहुत अधिक जनसंख्या (Over Populated)-आमतौर पर झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां बड़े-बड़े नगरों जैसे कि दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता इत्यादि में मिलती हैं। लोग गाँवों में अपने घर बार छोड़कर या छोटे शहरों से अच्छे कार्य की तलाश में बड़े शहरों में जाते हैं। शहरों में कोई न कोई कार्य तो मिल जाता है परन्तु रहने की अच्छी जगह नहीं मिलती है। अच्छी जगह वाले फ्लैट या घर का किराया बहुत अधिक होता है तथा आम आदमी इतना अधिक किराया नहीं दे सकता है। इस कारण उसको रहने की सस्ती जगह ढूंढ़नी पड़ती है तथा सस्ती जगह तो बस्तियों में ही मिलती है लोग बहुत अधिक संख्या में यहां रहने के लिए आ जाते हैं तथा यहां की जनसंख्या बढ़ जाती है यहां तक कि एक ही कमरे में 8-10 लोग रहते भी हैं तथा खाना भी बनाते हैं।

5. सभ्य समाज से दूर (Away from Civilized Society)-झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में रहने वाले लोग सभ्य समाज से दूर गंदे वातावरण में रहते हैं। उन लोगों का सभ्य समाज से कोई सम्पर्क का साधन नहीं होता है। इन बस्तियों में रहने वाले लोगों को यह भी पता होता है कि यहां रहना उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है तथा यहां का वातावरण काफ़ी गंदा और दूषित है। परन्तु उन लोगों के पास वहां रहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता है। वह तमाम उम्र ही गरीबी, बेरोज़गारी, अपराधों से संघर्ष करते रहते हैं तथा अपने आपको बेसहारा महसूस करते हैं। अच्छी सुविधाएं तो उनसे बहुत ही दूर होती हैं।

6. समस्याओं की भरमार (Full of Problems)-झुग्गी झोंपड़ी बस्तियों में प्रत्येक प्रकार की सामाजिक समस्या मिल जाती है। गरीबी, बेरोज़गारी, वेश्यावृत्ति, अपराध, बाल अपराध, हिंसा, नशों का प्रयोग, झुग्गी-झोंपड़ी आदतें, विघटित व्यवहार इत्यादि ऐसी समस्याएं हैं जो यहां मिल जाती हैं। रोज़ पैसे कमाने वाले मज़दूर रेहड़ी खींचने वाले, छोटे-मोटे चोर अपराधी इत्यादि यहां पर रहते हैं। एक ही कमरे में माता-पिता, बच्चे इत्यादि रहते हैं। छोटी आयु में ही बच्चे वह सब कुछ देख लेते हैं जोकि उन्हें नहीं देखना चाहिए। फिर वह उन कार्यों में प्रति खींचे चले जाते हैं तथा छोटी उम्र में ही अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां बड़े शहरों में मिलने वाले वह स्थान हैं जहां हज़ारों लोग कम स्थान पर गंदे वातावरण में रहते हैं। इन बस्तियों में अपराधों तथा समस्याओं की भरमार होती है तथा यहां का वातावरण अच्छा जीवन जीने के लायक नहीं होता है।

प्रश्न 4.
नगरीय समाज में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों का विस्तारपूर्वक वर्णन करो।
उत्तर-
आधनिक समय में नगरों में प्रत्येक पक्ष में परिवर्तन आ रहे हैं क्योंकि जैसे-जैसे हमारे सामाजिक ढांचे में परिवर्तन आ रहे हैं, उसी तरह से नगरीय व्यवस्था भी बदल रही है। नगरीय परिवार तथा अन्य संस्थाओं की बनावट
और कामों पर नए हालातों का काफ़ी प्रभाव पड़ा है। अब हम देखेंगे कि नगरों के ढांचे और कामों में किस तरह के परिवर्तन आए हैं

1. पारिवारिक ढांचे में परिवर्तन (Change in Family Structure)—शुरू के समाजों में संयुक्त परिवार की ज्यादा महानता रही है। पुराने ज़माने में हर जगह पर संयुक्त परिवार पाए जाते थे। पर आधुनिक समय में परिवार के ढांचे में बहुत बड़ा परिवर्तन यह आया है कि अब संयुक्त परिवार काफ़ी हद तक खत्म हो रहे हैं और इनकी जगह केन्द्रीय परिवार आगे आ रहे हैं। केन्द्रीय परिवार के आने से समाज में भी कुछ परिवर्तन आए हैं।

2. परिवारों का टूटना (Breaking up of Families)-पुराने समय में लड़की के जन्म को श्राप माना जाता था। उसको शिक्षा भी नहीं दी जाती थी। धीरे-धीरे समाज में जैसे-जैसे परिवर्तन आए, औरत ने भी शिक्षा लेनी प्रारम्भ कर दी। पहले विवाह के बाद औरत सिर्फ़ पति पर ही निर्भर होती थी पर आजकल के समय में काफ़ी औरतें आर्थिक पक्ष से आजाद हैं और वह पति पर कम निर्भर हैं। कई स्थानों पर तो पत्नी की तनख्वाह पति से ज्यादा है। इन हालातों में पारिवारिक विघटन की स्थिति पैदा होने का खतरा हो जाता है। इसके अतिरिक्त पति-पत्नी की स्थिति आजकल बराबर होती है जिसके कारण दोनों का अहंकार एक-दूसरे से नीचा नहीं होता। इसके कारण दोनों में लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाता है और इससे बच्चे भी प्रभावित होते हैं। इस तरह ऐसे कई और कारण हैं जिनके कारण परिवार के टूटने के खतरे काफ़ी बढ़ जाते हैं और बच्चे तथा परिवार दोनों मुश्किल में आ जाते हैं।

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3. शैक्षिक कार्यों में परिवर्तन (Changes in Educational Functions) समाज में परिवर्तन आने के साथ इसकी सभी संस्थाओं में भी परिवर्तन आ रहे हैं। परिवार जो भी काम पहले अपने सदस्यों के लिए करता था उनमें भी बहुत परिवर्तन आया है। शुरू के प्राचीन समाजों में बच्चा शिक्षा परिवार में ही लेता था और शिक्षा भी परिवार के परम्परागत काम से सम्बन्धित होती थी। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि संयुक्त परिवार प्रणाली होती थी और जो काम पिता करता था वही काम पुत्र भी करता था और पिता के अधीन पुत्र भी उस काम में माहिर हो जाता था। धीरे-धीरे आधुनिकता के कारण बच्चा पढ़ाई करने के लिए शिक्षण संस्थाओं में जाने लग गया और इसके कारण वह अब परिवार के परम्परागत कामों से दूर होकर कोई अन्य कार्य अपनाने लग गया है। इस तरह परिवार का शिक्षा का परम्परागत काम उसे कट कर शिक्षण संस्थाओं के पास चला गया है।

4. आर्थिक कार्यों में परिवर्तन (Changes in Economic Functions)-पहले समय में परिवार आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र होता था। रोटी कमाने का सारा काम परिवार ही करता था ; जैसे-आटा पीसने का काम, कपड़ा बनाने का काम, आदि। इस तरह जीने के सारे साधन परिवार में ही उपलब्ध थे। पर जैसे-जैसे औद्योगीकरण शुरू हुआ और आगे बढ़ा, उसके साथ-साथ परिवार के यह सारे काम बड़े-बड़े उद्योगों ने ले लिए हैं, जैसे कपड़ा बनाने का काम कपड़े की मिलें कर रही हैं, आटा चक्की पर पीसा जाता है इत्यादि। इस तरह परिवार के आर्थिक काम कारखानों में चले गए हैं। इस तरह आर्थिक उत्पादन की ज़िम्मेदारी परिवार से दूसरी संस्थाओं ने ले ली है।

5. धार्मिक कार्यों में परिवर्तन (Changes in Religious Functions)-पुराने समय में परिवार का एक मुख्य काम परिवार के सदस्यों को धार्मिक शिक्षा देना होता है। परिवार में ही बच्चे को नैतिकता और धार्मिकता के पाठ पढ़ाए जाते हैं। पर जैसे-जैसे नई वैज्ञानिक खोजें और आविष्कार सामने आएं, वैसे-वैसे लोगों का दृष्टिकोण बदलकर धार्मिक से वैज्ञानिक हो गया। पहले ज़माने में धर्म की बहुत महत्ता थी, परन्तु विज्ञान ने धार्मिक क्रियाओं की महत्ता कम कर दी है। इस प्रकार परिवार के धार्मिक काम भी पहले से कम हो गए हैं।

6. सामाजिक कामों में परिवर्तन (Changes in Social Functions)-परिवार के सामाजिक कार्यों में भी काफ़ी परिवर्तन आया है। पुराने समय में पत्नी अपने पति को परमेश्वर समझती थी। पति का यह फर्ज़ होता था कि वह अपनी पत्नी को खुश रखे। इसके अलावा परिवार अपने सदस्यों पर सामाजिक नियन्त्रण रखने का भी काम करता था, पर अब सामाजिक नियन्त्रण का कार्य अन्य एजेंसियां, जैसे पुलिस, सेना, कचहरी आदि, के पास चला गया है। इसके अलावा बच्चों के पालन-पोषण का काम भी परिवार का होता था। बच्चा घर में ही पलता था और बड़ा हो जाता था और घर के सारे सदस्य उसको प्यार करते थे। पर धीरे-धीरे आधुनिकीकरण के कारण औरतों ने घर से निकलकर बाहर काम करना शुरू कर दिया और बच्चों की परवरिश के लिए क्रैच आदि खुल गए, जहां बच्चों को दूसरी औरतों द्वारा पाला जाने लग गया। इस तरह परिवार के इस काम में भी कमी आ गई है।
इसके अतिरिक्त पहले परिवार में बुजुर्गों की रक्षा होती थी, उनका पूरा सम्मान होता था पर आजकल पति-पत्नी दोनों काम करते हैं और उनकी व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि उनके पास बुजुर्गों का ध्यान रखने के लिए समय ही नहीं होता। आजकल तो बुजुर्गों के लिए भी Old Age Homes खुल गए हैं, जहां उनका ध्यान बढ़िया तरीके से रखा जाता है। यहां बुजुर्ग अन्य बुजुर्गों को मिलते हैं और अपना समय आराम से व्यतीत कर लेते हैं इस तरह परिवार के सामाजिक कामों में काफ़ी कमी आई है।

7. पारिवारिक एकता में कमी (Lack in Family Unity)—पुराने जमाने में विस्तृत परिवार हुआ करते थे, पर आजकल परिवारों में यह एकता और विस्तृत परिवार खत्म हो गए हैं। हर किसी के अपने-अपने आदर्श हैं। कोई एकदूसरे की दखल अन्दाजी पसन्द नहीं करता। इस तरह वह इकट्ठे रहते हैं, खाते-पीते हैं पर एक-दूसरे के साथ कोई वास्ता नहीं रखते उनमें एकता का अभाव होता है।

8. व्यक्तिवादी दृष्टिकोण (Individualistic Approach)-आजकल के समय में समाज के सभी सदस्यों में दृष्टिकोण व्यक्तिगत हो गए हैं। प्रत्येक सदस्य केवल अपने लाभ के बारे में ही सोचता है। प्राचीन समय में तो ग्रामीण समाजों में परिवार की इच्छा के आगे व्यक्ति अपनी इच्छा को दबा देता था। व्यक्तिवादिता पर सामूहिकता हावी थी। व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा की कोई कीमत नहीं होती थी। परन्तु आज कल के शहरी समाजों में ये चीजें बिलकुल ही बदल गई हैं। व्यक्ति अपनी इच्छा के आगे परिवार की इच्छा को दरकिनार कर देता है। उसके लिए समाज की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। उसके लिए केवल उसकी इच्छा का ही महत्त्व है। व्यक्ति का दृष्टिकोण अब व्यक्तिवादी हो गया है।

9. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन (Change in the status of Women) शहरी स्त्रियों की स्थिति में भी बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है। पहले ग्रामीण समाजों में स्त्रियों का जीवन नर्क से भी बदतर था। उसको सारा जीवन घर की चारदीवारी में ही रहना पड़ता था। सारा जीवन उसको परिवार तथा पति के अत्याचार सहन करने पड़ते थे। उसकी स्थिति नौकर या गुलाम जैसी थी परन्तु शहरी परिवारों की स्त्री पढ़ी-लिखी स्त्री है। पढ़ लिखकर वह दफ्तरों, फैक्टरियों, स्कूलों, कॉलेजों में नौकरी कर रही है तथा आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर है। वह परिवार पर बोझ नहीं है बल्कि परिवार को चलाने वाली सदस्य है। यदि पति को कुछ हो जाए तो वह ही परिवार का पेट पालती है। इस कारण उसकी स्थिति मर्द के समान हो गई है। अब वह पति तथा ससुराल वालों के जुल्म नहीं सहती है, बल्कि तलाक लेकर पति से अलग होना पसन्द करती है। वैसे तो सरकार ने स्त्रियों की स्थिति ऊँचा करने के लिए कई प्रकार के कानून बनाए हैं। यदि पति या उसके घर वाले स्त्री का शोषण करते हैं तो वह उनको जेल में कैद भी करवा सकती है। आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर तथा साक्षर स्त्री को अपने अधिकारों का पता चल गया है तथा वह अब अपने अधिकारों के लिए समाज से लड़ सकती है। इस प्रकार शहरी परिवार की स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आ गया है तथा इस कारण ही शहरी परिवारों में तलाकों की संख्या बढ़ रही है।

9. रहने-सहने का उच्च स्तर (Higher Standard of Living) शहरी परिवारों में रहने-सहने का स्तर भी काफ़ी ऊँचा हो गया है। शहरी परिवार आकार में छोटे होते हैं जिसमें पति-पत्नी तथा उनके बिन ब्याहे बच्चे रहते हैं। इस कारण ही इसको केन्द्रीय परिवार कहा जाता है। ग्रामीण समाजों में व्यक्ति की सारी आय परिवार के पालन-पोषण में ही खर्च हो जाती है। बेकार सदस्य भी घर में बैठकर खाते हैं जिस कारण परिवार के रहने-सहने का स्तर काफ़ी निम्न होता है परन्तु शहरी परिवार आकार में छोटे होते हैं जिस कारण व्यक्ति की सम्पूर्ण आय में से कुछ पैसा बच जाता है। इसके साथ ही उसकी पत्नी भी नौकरी करती है या फिर कोई कार्य करती है जिस कारण परिवार की आर्थिक स्थिति काफ़ी अच्छी हो जाती है। अच्छी आर्थिक स्थिति के कारण परिवार ऐशो आराम के सारे सामान खरीद लेते हैं जिस कारण परिवार के रहने-सहने का स्तर काफ़ी ऊँचा हो जाता है।

10. सम्पत्ति का बराबर विभाजन (Equal distribution of Property) संयुक्त परिवार के सदस्यों की संख्या काफ़ी अधिक होती है जिस कारण उनको परिवार की सम्पत्ति में से कुछ हिस्सा ही मिल पाता है। वह हमेशा ही ज्यादा हिस्से के लिए लड़ते रहते हैं परन्तु शहरी परिवारों से सदस्यों की संख्या कम होती है। घर में एक या दो बच्चे होते हैं। इस कारण ही परिवार में सम्पत्ति के विभाजन के समय कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं होता है। आराम से ही सम्पत्ति का बराबर विभाजन हो जाता है। सभी बच्चों को समान हिस्सा मिल जाता है।

प्रश्न 5.
जनजातीय, ग्रामीण व नगरीय समाज में अंतर को विस्तार सहित स्पष्ट करें।
उत्तर-
PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज 1

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS) –

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नगरों के लिए कौन-सा आधार सही है ?
(क) बड़ा आकार
(ख) अधिक जनसंख्या घनत्व
(ग) व्यक्तिवादिता
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
इनमें से कौन-सी विशेषता नगरीय समाज की नहीं है ?
(क) कम जनसंख्या घनत्व
(ख) खुला संगठन
(ग) जटिल जीवन
(घ) द्वितीय सामाजिक सम्बन्ध।
उत्तर-
(क) कम जनसंख्या घनत्व।

प्रश्न 3.
हमारे देश की कितनी जनसंख्या नगरों में रहती है ?
(क) 68%
(ख) 32%
(ग) 70%
(घ) 30%.
उत्तर-
(ख) 32%.

प्रश्न 4.
भारत की जनसंख्या कितनी है ?
(क) 102 करोड़
(ख) 112 करोड़
(ग) 121 करोड़
(घ) 131 करोड़।
उत्तर-
(ग) 121 करोड़।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

प्रश्न 5.
नगरों का जनसंख्या घनत्व कम-से-कम …………. व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर होना चाहिए।
(क) 200
(ख) 300
(ग) 100
(घ) 400.
उत्तर-
(क) 200.

प्रश्न 6.
………. नगरीय रहन-सहन का तरीका दर्शाता है।
(क) नगरवाद
(ख) नगरीकरण
(ग) संस्कृतिकरण
(घ) आधुनिकीकरण।
उत्तर-
(क) नगरवाद।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. 2011 में ……………. लोग नगरों में रहते थे।
2. …………….. समाज में आधुनिक सामाजिक जीवन की सभी सुविधाएं मौजूद होती हैं।
3. नगरीय समाजों में गतिशीलता ……………. होती है।
4. नगरीय समाजों में ……………… का महत्त्व होता है।
5. नगरों में सामाजिक नियन्त्रण के ……………… साधन मिलते हैं।
6. नगरों में ……………. परिवार मिलते हैं।
उत्तर-

  1. 37.7 करोड़
  2. नगरीय
  3. अधिक
  4. व्यक्तिवादिता
  5. औपचारिक
  6. केंद्रीय।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं

1. नगरों की 30% जनसंख्या गैर-कृषि कार्यों में लगी होती है।
2. नगरों में विशेषीकरण व श्रम विभाजन की कमी होती है।
3. नगरीय समाजों की जनसंख्या में विविधता पाई जाती है।
4. नगरीय समाज आकार में बड़े होते हैं।
5. नगरों में केंद्रीय परिवारों के स्थान पर संयुक्त परिवार सामने आ रहे हैं।
6. नगरों की प्रमुख समस्याएं झुग्गी झोंपड़ी बस्तियों का होना है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत
  6. सही।

II. एक शब्द/एक पक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. नगरीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-जब गांव के लोग नगरों में रहने के लिए चले जाएं तथा वहां के आदर्श, मूल्य, आदतें इत्यादि अपना लें तो इसे नगरीकरण कहते हैं।

प्रश्न 2. नगरवाद क्या है ?
उत्तर-नगरवाद नगरों में जीवन जीने का तरीका है जिसमें बाहर से आने वाले लोग उसे अपना लेते हैं।

प्रश्न 3. नगर क्या है ?
उत्तर-वह भौगोलिक क्षेत्र जहां 75% से अधिक जनसंख्या गैर-कृषि में लगी हो, उसे नगर कहते हैं।

प्रश्न 4. नगर की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-नगरों में श्रम विभाजन व विशेषीकरण पाया जाता है।

प्रश्न 5. कस्बा क्या होता है ?
उत्तर-जो क्षेत्र गाँव से बड़ा हो परन्तु नगर से छोटा हो उसे कस्बा कहते हैं।

प्रश्न 6. देश की कितनी जनसंख्या नगरों में रहती है ?
उत्तर-देश की लगभग 32% जनसंख्या या 37.7 करोड़ जनता नगरों में रहती है।

प्रश्न 7. नगर की जनसंख्या कम-से-कम कितनी होनी चाहिए?
उत्तर-नगर की जनसंख्या कम-से-कम 5000 होनी चाहिए।

प्रश्न 8. नगरों का जनसंख्या घनत्व कितना होना चाहिए ?
उत्तर-नगरों का जनसंख्या घनत्व 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर होना चाहिए।

प्रश्न 9. नगरीय समाजशास्त्र का पिता किसे माना जाता है ?
उत्तर-जार्ज सिम्मेल को नगरीय समाजशास्त्र का पिता माना जाता है।

प्रश्न 10. नगरीय समाज आकार में कैसे होते हैं ?
उत्तर-नगरीय समाज आकार में बड़े होते हैं क्योंकि वहां की जनसंख्या अधिक होती है।

प्रश्न 11. नगरों में सामाजिक नियन्त्रण के कौन-से साधन होते हैं ?
उत्तर-नगरों में सामाजिक नियन्त्रण के औपचारिक साधन होते हैं जैसे कि पुलिस, कानून, न्यायालय इत्यादि।

प्रश्न 12. नगरों में किस प्रकार के परिवार मिलते हैं ?
उत्तर-नगरों में केंद्रीय परिवार मिलते हैं जो आकार में छोटे होते हैं।

प्रश्न 13. नगरीय अर्थव्यवस्था किस पर आधारित होती है ?
उत्तर-नगरीय अर्थव्यवस्था गैर-कृषि पेशों पर आधारित होती है।

प्रश्न 14. नगरीय समाज में कौन-से मुख्य मुद्दे हैं ?
उत्तर-नगरीय समाज के दो मुख्य मुद्दे हैं-घरों की समस्या व झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां।

प्रश्न 15. आवास की समस्या का एक कारण लिखो।
उत्तर-काफ़ी अधिक जनसंख्या आवास की समस्या का प्रमुख कारण है।

प्रश्न 16. स्लमज के अलग-अलग नाम बताएं।
उत्तर-झुग्गी-झोंपड़ी, चाल, अहाता, झोपड़पट्टी इत्यादि।

प्रश्न 17. झुग्गी-झोंपड़ी की एक प्रमुख विशेषता बताएं।
उत्तर-काफी अधिक निर्धनता तथा बेरोज़गारी झुग्गी-झोंपड़ी की प्रमुख विशेषताएं हैं।

प्रश्न 18. 2011 की जनगणना के अनुसार अधिसूचित क्षेत्र क्या है?
उत्तर- सारे स्थान जैसे नगरपालिका, नगर निगम, सैनिक छावनी बोर्ड, कस्बा जिनमें कई विशेषताएं होती हैं, अधिसूचित क्षेत्र की परिधि में आते हैं।

प्रश्न 19. लूइसवर्थ ने नगरवाद की कौन-सी चार विशेषताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर-लूइसवर्थ के अनुसार अस्थायीपन, प्रदर्शन, गुमनामी व वैयक्तिकता नगरवाद की चार विशेषताएं हैं।

प्रश्न 20. नगरीय समाज की अर्थव्यवस्था किस पर आधारित होती है?
उत्तर-नगरीय समाज की अर्थव्यवस्था मुख्यत: गैर कृषि व्यवसायों पर आधारित होती है।

प्रश्न 21. 1991 में भारत के कितने लोग झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में रहते थे?
उत्तर-1991 में भारत के 46.78 मिलियन लोग झुग्गी-झोंपडी बस्तियों में रहते थे।

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III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
किस क्षेत्र को नगरीय क्षेत्र माना जाता है ?
उत्तर-
वह क्षेत्र जहां पर

  • कम-से-कम जनसंख्या 5000 हो।
  • 75% से अधिक जनसंख्या गैर-कृषि कार्यों में लगी हो।
  • जनसंख्या घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो।

प्रश्न 2.
किसे नगरीय समाजशास्त्र का जनक माना जाता है तथा क्यों ?
उत्तर-
जार्ज सिम्मेल को नगरीय समाजशास्त्र का जनक माना जाता है। ऐसा इस कारण है कि उन्होंने नगरीय समाजशास्त्र के क्षेत्र में काफी अधिक योगदान दिया विशेषतया उनकी 1903 में छपी पुस्तक ‘The Metropolis and Mental Life’ के कारण।

प्रश्न 3.
नगरीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब गांवों की जनसंख्या नगरों की तरफ जाना शुरू कर दे तो इसे नगरीकरण कहते हैं। यह द्वि-पक्षीय प्रक्रिया है। इसमें न केवल लोग गांवों से नगरों की तरफ प्रवास करते हैं बल्कि इससे उनके पेशे, आदतों, व्यवहार, मूल्यों इत्यादि में भी परिवर्तन आ जाता है।

प्रश्न 4.
नगरवाद का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
नगरवाद नगरीय समाज का एक महत्त्वपूर्ण तत्व है जो यहां के लोगों की पहचान तथा व्यक्तित्व को ग्रामीण व जनजातीय समाज से अलग करता है। यह जीवन जीने के ढंगों को दर्शाता है। यह नगरीय संस्कृति के प्रसार तथा नगरीय समाज के उद्विकास के बारे में बताता है।

प्रश्न 5.
नगरीय समाज की सामाजिक विविधता।
उत्तर-
नगरीय समाज में अलग-अलग धर्मों, जातियों, संस्कृतियों के लोग एक-दूसरे के साथ मिल कर रहते हैं। इनके बीच अन्तक्रियाओं के कारण नई संस्कृति का विकास होता है। यह लोग अलग-अलग स्थानों से आकर नगरों में रहते हैं तथा अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। इसे ही सामाजिक विविधता कहते हैं।

प्रश्न 6.
श्रम विभाजन।
उत्तर-
नगरीय समाज में काफ़ी अधिक श्रम विभाजन देखने को मिलता है। प्रत्येक व्यक्ति सभी कार्य नहीं कर सकता जिस कारण कार्य को विभाजित कर दिया जाता है। व्यक्ति जिस कार्य को सबसे बढ़िया ढंग से करता है उसे ही वह कार्य दिया जाता है। इसे ही श्रम विभाजन कहा जाता है।

प्रश्न 7.
नगरीय परिवार।
उत्तर-
नगरीय परिवार संयुक्त नहीं बल्कि केंद्रीय परिवार होते हैं जिसमें माता-पिता तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। इनमें कम सहयोग होता है तथा नियन्त्रण भी कम होता है। इन परिवारों में माता-पिता के पास अपने बच्चों के साथ व्यतीत करने के लिए काफी कम समय होता है।

प्रश्न 8.
झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां।
उत्तर-
झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां वह कालोनी होती है जिसे प्रवासी मज़दूरों ने बसाया होता है जो इतने निर्धन होते हैं कि वह अपना कार्य भी नहीं कर सकते। इन बस्तियों में रहने वाले लोग गंदे हालातों में रहते हैं क्योंकि उनके पास साधनों की कमी होती है। झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां नगरीय जीवन का एक महत्त्वपूर्ण भाग हैं।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न ।

प्रश्न 1.
शहर का शाब्दिक अर्थ।
उत्तर-
साधारण शब्दों में, शहर एक ऐसा रस्मी तथा फैला हुआ समुदाय है जिसका निर्धारण एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर तथा शहरी विशेषताओं के आधार पर होता है। शहर शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द CITY का हिन्दी रूपान्तर है। CITY शब्द लातीनी भाषा के शब्द CIVITAS से बना है जिसका अर्थ है नागरिकता। इस प्रकार शब्द URBAN भी लातीनी भाषा के शब्द URBANUS से निकला है जिसका अर्थ भी शहर ही है।

प्रश्न 2.
शहर की दो परिभाषाएं।
उत्तर-

  1. विलकाक्स (Willcox) के अनुसार, “शहर का अर्थ उन सभी क्षेत्रों से है जहां प्रति वर्ग मील में
  2. आनन्द कुमार (Anand Kumar) के अनुसार, “शहरी समुदाय वह जटिल समुदाय है जहां अधिक जनसंख्या होती है, द्वितीय सम्बन्ध होते हैं जोकि साधारणतया पेशागत वातावरणिक अन्तरों पर आधारित होते हैं।”

प्रश्न 3.
नगरीकरण।।
उत्तर-
नगरीकरण की प्रक्रिया से शहरों की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी होती है। शहर अचानक विकसित नहीं होते हैं, बल्कि ग्रामीण समुदाय धीरे-धीरे शहरों के रूप में विकसित हो जाते हैं। इस प्रकार जब ग्रामीण समुदायों में धीरे-धीरे परिवर्तनों के कारण जब शहरों की विशेषताओं का विकास हो जाता है तो इन परिवर्तनों को नगरीकरण कहते हैं।

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प्रश्न 4.
शहरी समाज-अधिक जनसंख्या।
उत्तर-
शहरी समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता वहां जनसंख्या का अधिक होना है। जनसंख्या के घनत्व का अर्थ है कि प्रति वर्ग किलोमीटर में कितने लोग रहते हैं। दिल्ली की जनसंख्या का घनत्व 9200 के करीब है। कम या अधिक जनसंख्या के आधार पर ही शहरों को अलग-अलग वर्गों जैसे कि छोटे शहर, मध्यम शहर अथवा महानगर में बांटा जा सकता है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता इत्यादि महानगरों की जनसंख्या 1 करोड़ से भी अधिक है जबकि भारत में 13 राज्यों की जनसंख्या 1 करोड़ से भी कम है। शहरों में उद्योगों, शैक्षिक संस्थाओं, व्यापारिक केन्द्रों तथा वाणिज्य केन्द्रों की भरमार होती है जिस कारण शहरों में जनसंख्या का घनत्व काफ़ी अधिक होता है।

प्रश्न 5.
शहरी समाज-द्वितीय तथा औपचारिक सम्बन्ध।
उत्तर-
शहरी समाजों में जनसंख्या काफ़ी अधिक होती है। जनसंख्या के अधिक होने के कारण सभी लोगों के आपसी सम्बन्ध प्राथमिक अथवा आमने-सामने में नहीं होते। शहरों में लोगों में अधिकतर औपचारिक सम्बन्ध विकसित होते हैं। यह सम्बन्ध अस्थायी होते हैं। व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर और व्यक्तियों से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है तथा आवश्यकता पूर्ण हो जाने के बाद इन सम्बन्धों को ख़त्म कर लेता है। इस प्रकार द्वितीय तथा औपचारिक सम्बन्ध शहरी समाज का आधार होते हैं।

प्रश्न 6.
शहरी समाज-पेशों की भरमार।
उत्तर-
शहर अलग-अलग पेशों के आधार पर ही विकसित हुए हैं। शहरों में बहुत-से उद्योग-धन्धे तथा संस्थाएं पाई जाती हैं जिनमें बहुत-से व्यक्ति अलग-अलग प्रकार के कार्य करते हैं। डॉक्टर, मैनेजर, इन्जीनियर, विशेषज्ञ मज़दूर, परिश्रम करने वाले मज़दूर, टीचर, प्रोफेसर, चपड़ासी व्यापारी इत्यादि जैसे अनगिनत कार्य अथवा पेशे शहरी समाजों में मौजूद होते हैं। इन अलग-अलग पेशों की पूर्ति के लिए अधिक जनसंख्या का होना भी बहुत ज़रूरी है।

प्रश्न 7.
शहरी समाज-वर्गों में विभाजन।
उत्तर-
शहरी समुदाय में व्यक्ति की जाति, धर्म अथवा पेशे को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता परन्तु जनसंख्या को आर्थिक आधारों पर कई आर्थिक वर्गों में बांटा जाता है। शहर में जनसंख्या को केवल पूंजीपति तथा मज़दूर दो वर्गों में ही नहीं बांटा जाता बल्कि बहुत-से छोटे-छोटे वर्ग तथा उपवर्ग भी आर्थिक स्थिति के अनुसार पाए जाते हैं। वर्गीय आधार पर उच्च तथा निम्न का अन्तर भी शहरों में पाया जाता है।

प्रश्न 8.
शहरी समाज-अधिक सामाजिक गतिशीलता।
उत्तर-
लाभ प्राप्त करने के लिए अथवा अच्छी नौकरी के लिए एक स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान पर जाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। लोगों में स्थानीय गतिशीलता के साथ-साथ सामाजिक गतिशीलता देखने को मिल जाती है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति की योग्यता के आधार पर उसके जीवन में कई बार समाज में उसकी स्थिति उच्च अथवा निम्न होती रहती है।

प्रश्न 9.
ग्रामीण तथा शहरी समाज में अन्तर।
उत्तर-

  • ग्रामीण समाजों में संयुक्त परिवार होते हैं जिसमें परिवार के सभी सदस्य मिल कर रहते हैं तथा शहरी समाज में केन्द्रीय परिवार पाए जाते हैं जिनमें पति-पत्नी तथा उनके बिन ब्याहे बच्चे रहते हैं।
  • शहरी समाजों में पड़ोस का काफ़ी कम महत्त्व होता है तथा लोग अपने पड़ोसियों को जानते तक नहीं होते हैं। परन्तु ग्रामीण समाजों में पड़ोस का बहुत महत्त्व होता है तथा बच्चे तो पलते भी वहीं हैं।
  • शहरी समाजों में विवाह को एक धार्मिक संस्कार न मानकर एक समझौता समझा जाता है जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है परन्तु ग्रामीण समाजों में विवाह को एक धार्मिक संस्कार समझा जाता है जिसे कभी नहीं तोड़ा जा सकता है।
  • शहरों में अधिक पेशे पाए जाते हैं परन्तु शहरों में कम पेशे पाए जाते हैं। (v) शहरों की जनसंख्या अधिक होती है परन्तु गांवों की जनसंख्या कम होती है।

प्रश्न 10.
नगरवाद।
उत्तर-
नगरवाद नगरीकरण का ही एक रूप है। नगरीकरण ऐसी प्रक्रिया है जो वास्तव में ग्रामीण अर्थव्यवस्था से शहरी अर्थ-व्यवस्था की तरफ परिवर्तन दिखाती है परन्तु नगरवाद की प्रक्रिया में लोगों की प्रवृत्ति ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ से हटकर नगरों की तरफ बढ़ जाती है। वह गांवों को छोड़ कर शहरों की तरफ जाना चाहते हैं तथा यह चाहत ही नगरवाद की प्रक्रिया को उत्साहित करती है।

प्रश्न 11.
शहरी परिवार।
उत्तर-
शहरी परिवार ग्रामीण परिवारों के विपरीत होते हैं। शहरी परिवार संयुक्त नहीं, बल्कि केन्द्रीय परिवार होते हैं जिसमें पति-पत्नी तथा उनके बिन ब्याहे बच्चे रहते हैं। शहरी परिवारों के सदस्यों के बीच के सम्बन्ध ग्रामीण परिवारों की तरह गर्मजोशी से भरपूर नहीं होते। शहरी परिवारों के बहुत-से कार्य और संस्थाओं के पास चले गए हैं। शहरी परिवार व्यक्ति की सभी ज़रूरतें पूर्ण नहीं करता है। शहरी परिवार को तलाक अथवा दूर जाने से किसी भी समय तोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 12.
शहरी परिवार-सीमित आकार।
उत्तर-
शहरी परिवार आकार में सीमित होते हैं क्योंकि यह केन्द्रीय परिवार होते हैं। केन्द्रीय परिवार में पति-पत्नी तथा उनके बिन ब्याहे बच्चे रहते हैं। बच्चे विवाह के बाद अपना अलग ही केन्द्रीय परिवार बसा लेते हैं। शहरों में हमें बड़े परिवार देखने को नहीं मिलते हैं। कोई विशेष परिवार ही संयुक्त परिवार होता है। इस प्रकार संयुक्त परिवार न होने के कारण तथा केन्द्रीय परिवार होने के कारण इनका आकार सीमित होता है।

प्रश्न 13.
शहरी परिवारों में आ रहे परिवर्तन।
उत्तर-

  1. शहरी परिवार संयुक्त परिवारों की जगह केन्द्रीय परिवारों में परिवर्तित हो रहे हैं।
  2. परिवार के शैक्षिक कार्य खत्म हो गए हैं तथा यह कार्य स्कूलों, कॉलेजों इत्यादि ने ले लिए हैं।
  3. परिवार के धार्मिक कार्यों का महत्त्व कम हो गया है तथा लोगों के पास धार्मिक कार्य करने के लिए समय नहीं है।
  4. शहरी परिवार के सदस्यों पर व्यक्तिवादिता हावी हो गई है। व्यक्ति परिवार के स्थान पर केवल अपने बारे ही सोचता है।
  5. शहरी परिवारों में स्त्रियों की स्थिति भी बदल गई है। पढ़ने-लिखने तथा नौकरी करने के कारण उसकी स्थिति ऊंची हो गई है।

प्रश्न 14.
शहरी परिवारों के टूटने के कारण।
उत्तर-

  • पैसे का महत्त्व बढ़ जाने से परिवार बिखरने शुरू हो गए हैं।
  • लोगों में पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से उनकी मानसिकता बदल रही है जिस कारण परिवार टूट रहे हैं।
  • स्वतन्त्रता तथा समानता के आदर्श आगे आ रहे हैं जिस कारण घरों में टकराव बढ़ रहे हैं तथा परिवार टूट रहे हैं।
  • शहरों में सामाजिक गतिशीलता बढ़ गई है। लोग कामकाज करने के लिए घरों को भी छोड़ देते हैं जिस कारण परिवार टूट जाते हैं।

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प्रश्न 15.
विवाह अब धार्मिक संस्कार नहीं है। कैसे ?
उत्तर-
प्राचीन समय में विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता था क्योंकि यह माना जाता था कि व्यक्ति धर्म की पूर्ति के लिए विवाह करवा रहा है। धर्म के अनुसार पुत्र-प्राप्ति, यज्ञ पूर्ण करने तथा ऋण उतारने व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं। इसलिए व्यक्ति इन सभी कार्यों के लिए विवाह करवाता था। जिस स्त्री के साथ वह धार्मिक रीतियों के अनुसार विवाह करवाता था उसको वह तमाम उम्र छोड़ नहीं सकता था। परन्तु आजकल के समय में प्रेम विवाह हो रहे हैं, कचहरी में विवाह हो रहे हैं। अब विवाह को धार्मिक संस्कार नहीं समझा जाता बल्कि समझौता समझा जाता है जिसे किसी भी समय तोड़ा जा सकता है। अब विवाह में धर्म तथा धार्मिक संस्कार वाला महत्त्व खत्म हो गया है। विवाह को अब अच्छा जीवन जीने का साधन समझा जाता है।

प्रश्न 16.
शहरी अर्थव्यवस्था।
अथवा
नगरीय समाज की आर्थिक व्यवस्था पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
औद्योगिक क्रान्ति ने सबसे पहले यूरोप पर प्रभाव डाला तथा फिर एशिया के देशों पर अपना प्रभाव डाला। इससे लोगों ने गांव छोड़कर शहरों में जाना शुरू कर दिया तथा लोगों के आपसी सम्बन्ध बिल्कुल ही बदल गए। समाज ने तेजी से विकास करना शुरू कर दिया। उद्योग तेज़ी से लगने लग गए। मण्डियों का तेजी से विकास शुरू हुआ। इस कारण ही शहरी अर्थव्यवस्था भी विकसित हुई। इस प्रकार शहरी अर्थव्यवस्था वह होती है जिसमें बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है, बड़े-बड़े उद्योग होते हैं, पैसे का बहुत अधिक महत्त्व होता है, श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण होता है, लोगों का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी होता है तथा पेशों की विभिन्नता होती है।

प्रश्न 17.
औद्योगिक अर्थव्यवस्था।
उत्तर-
शहरी अर्थव्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था का नाम भी दिया जा सकता है क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था उद्योगों पर ही आधारित होती है। शहरों में बड़े-बड़े उद्योग लगे हुए होते हैं जिनमें हजारों लोग कार्य करते हैं। बड़े उद्योग होने के कारण उत्पादन भी बड़े पैमाने पर होता है। इन बड़े उद्योगों के मालिक निजी व्यक्ति होते हैं। उत्पादन मण्डियों के लिए होता है। यह मण्डियां न केवल देसी बल्कि विदेशी भी होती हैं। कई बार तो उत्पादन केवल विदेशी मण्डियों को ही ध्यान में रखकर किया जाता है। बड़े-बड़े उद्योगों के मालिक अपने लाभ के लिए ही उत्पादन करते हैं तथा मजदूरों का शोषण भी करते हैं।

प्रश्न 18.
श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण।
उत्तर-
शहरी समाजों में पेशों की भरमार तथा विभिन्नता पाई जाती है। प्राचीन समय में परिवार ही उत्पादन की इकाई होता था। सभी कार्य परिवार में ही हो जाया करते थे। परन्तु शहरों के बढ़ने से हज़ारों प्रकार के उद्योग विकसित हो गए हैं। उदाहरण के तौर पर एक बड़ी फैक्टरी में हज़ारों प्रकार के कार्य होते हैं तथा प्रत्येक प्रकार का कार्य करने के लिए एक विशेषज्ञ की आवश्यकता पड़ती है। उस कार्य को केवल वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसे उस कार्य में महारत हासिल है। इस प्रकार शहरों में कार्य अलग-अलग लोगों के पास बंटे हुए होते हैं जिस कारण श्रम विभाजन बहुत अधिक प्रचलित है। लोग अपने-अपने कार्य में माहिर होते हैं तथा इस कारण ही विशेषीकरण का भी बहुत महत्त्व है। इस प्रकार शहरी अर्थव्यवस्था के दो महत्त्वपूर्ण अंग श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण हैं।

प्रश्न 19.
व्यावसायिक भिन्नता।
उत्तर-
प्राचीन समय में परिवार ही उत्पादन की इकाई होता था। उदाहरण के तौर पर गांव में परिवार ही कपास का उत्पादन करता था, कपास से धागा बनाता था तथा धागे को खड्डी पर चढ़ा कर कपड़ा बुनता था। इस ढंग से परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने कार्य में माहिर होता था। उनको कोई भी कार्य करने के लिए बाहर नहीं जाना पड़ता था। परन्तु आजकल के समय में, चाहे गांव हो या शहर, प्रत्येक व्यक्ति अपना अलग ही कार्य करता है तथा वह उस कार्य का माहिर होता है। इस प्रकार समाज में मिलने वाले अलग-अलग देशों को व्यक्तियों द्वारा अपनाए जाने को व्यावसायिक भिन्नता का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 20.
शहरी समाज में व्यावसायिक भिन्नता के आधार पर मिलने वाली श्रेणियां।
उत्तर-
व्यावसायिक भिन्नता के आधार पर शहरी समाज में तीन प्रकार की श्रेणियां पाई जाती हैं तथा वे हैं-

  1. निम्न श्रेणी (Lower Class)
  2. EZT Suit (Middle Class)
  3. उच्च श्रेणी (Higher Class)।

प्रश्न 21.
निम्न श्रेणी।
उत्तर-
औद्योगिक क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यक्ति, मजदूर, ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वाले मज़दूर, शहरों में रेहड़ी रिक्शा खींचने वाले लोग इत्यादि इस श्रेणी का हिस्सा होते हैं। उनका जीवन स्तर निम्न होता है क्योंकि वह अपने हाथों से कार्य करते हैं तथा उनके पास अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता है। उनकी आय भी निम्न होती है जिस कारण यह लोग अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकते तथा इनके बच्चे भी निर्धन ही रह जाते हैं। यह लोग अनपढ़ होते हैं तथा उनको कानूनी सुरक्षा का पता नहीं होता है। वह अलग-अलग जातियों, धर्मों, इत्यादि से सम्बन्ध रखते हैं तथा वह कार्य भी अलग-अलग ही करते हैं। यह लोग गन्दी बस्तियों में रहते हैं। इस वर्ग को असंगठित वर्ग भी कहते हैं।

प्रश्न 22.
मध्य वर्ग।
उत्तर-
अमीर व्यक्तियों तथा निर्धन व्यक्तियों के बीच एक और श्रेणी आती है जिसको मध्य श्रेणी का नाम दिया जाता है। इस श्रेणी में साधारणतया नौकरी पेशा श्रेणी अथवा छोटे दुकानदार तथा व्यापारी होते हैं। यह श्रेणी उच्च श्रेणीके लोगों के पास नौकरी करती है अथवा सरकारी नौकरी करती है। छोटे-बड़े व्यापारी, छोटे-बड़े दुकानदार, क्लर्क, चपड़ासी, छोटे बड़े अफ़सर, छोटे-बड़े किसान, ठेकेदार, ज़मीन-जायदाद का कार्य करने वाले लोग, कलाकार इत्यादि सभी इस श्रेणी में आते हैं। उच्च श्रेणी इस श्रेणी की सहायता से ही निम्न श्रेणी पर अपना प्रभुत्त्व कायम रखती है।

प्रश्न 23.
उच्च श्रेणी।
उत्तर-
उच्च श्रेणी में बहुत अमीर व्यक्ति आ जाते हैं। बड़े-बड़े उद्योगपति, बडे-बडे नेता इस श्रेणी में आ जाते हैं। उद्योगपतियों के पास पैसा होता है। वह अपने पैसे को निवेश करके बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करते हैं, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग के लोगों को वहां पर नौकरी देते हैं। उद्योगपति का पैसे निवेश करने का मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना होता है। बड़े-बड़े नेताओं के हाथ में देश की सत्ता होती है जिस कारण यह उच्च श्रेणी में होते हैं। इन सभी का जीवन स्तर ऊंचा होता है तथा रहने-सहने का स्तर भी काफ़ी ऊंचा होता है। अधिक पैसा तथा सत्ता हाथ में होने के कारण यह उच्च श्रेणी का हिस्सा होते हैं।

प्रश्न 24.
गन्दी बस्तियां।
उत्तर-
गन्दी बस्तियों को हम ढंग से परिभाषित कर सकते हैं कि गन्दी बस्तियां गन्दे घरों अथवा इमारतों का वह समूह होता है जहां आवश्यकता से अधिक लोग जीवन न जीने के हालातों में रहते हैं, जहां गन्दे पानी की निकासी का ठीक प्रबन्ध न होने के कारण अथवा सुविधाओं के न होने के कारण लोगों को गन्दे वातावरण में रहना पड़ता है तथा जिससे उनके स्वास्थ्य और समूह में रहने वाले लोगों की नैतिकता पर बुरा असर पड़ता है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

प्रश्न 25.
गन्दी बस्तियों की विशेषताएं।
उत्तर-

  • गन्दी बस्तियों में रहने के स्थान की समस्या होती है क्योंकि यहां पर काफ़ी अधिक जनसंख्या में लोग रहते हैं।
  • गन्दी बस्तियां अपराधों से भरपूर होती हैं क्योंकि यहां पर रहने वाले लोगों के व्यवहार बहुत विघटित होते हैं।
  • यहां पर रहने वाले लोगों के पास सुविधाओं की काफ़ी कमी होती है क्योंकि ये बस्तियां गैर-कानूनी ढंग से बनी होती हैं।
  • यहां की जनसंख्या काफी अधिक होती है क्योंकि निम्न श्रेणी के लोग शहर में कार्य करने आते हैं तथा पैसे न होने के कारण उन्हें यहीं पर रहना पड़ता है।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
नगरीकरण का क्या अर्थ है ? इसमें निर्धारित तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-
नगरीकरण (Urbanization)-नगरीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें लोग ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़कर शहरी क्षेत्रों की तरफ बढ़ते हैं। इस नगरीकरण की प्रक्रिया से शहरों की जनसंख्या बढ़ती है। शहर एक दम तथा एक तरफा ही विकसित नहीं होते हैं। बल्कि ग्रामीण समुदाय धीरे-धीरे शहरों के रूप में विकसित हो जाते हैं। इसलिए शहर की पहली अवस्था गांव ही है। इस प्रकार जब ग्रामीण समुदायों में धीरे-धीरे परिवर्तनों के कारण शहरों की विशेषताओं का विकास हो जाता है तो इन परिवर्तनों को ही नगरीकरण कहते हैं।
बर्गल (Bergal) के अनुसार, “हम ग्रामीण क्षेत्रों के शहरी क्षेत्रों में बदलने की प्रक्रिया को नगरीकरण कहते हैं।”
एंडरसन (Anderson) के अनुसार, “नगरीकरण एक तरफा प्रक्रिया नहीं बल्कि दो तरफा प्रक्रिया है। इसमें न केवल गांवों से शहरों की तरफ जाना तथा कृषि पेशों से कारोबार, व्यापार, सेवाओं तथा और पेशों की तरफ परिवर्तन ही शामिल हैं, बल्कि प्रवासियों की मनोवृत्तियां, विश्वासों, मूल्यों तथा व्यावहारिक प्रतिमानों में भी परिवर्तन शामिल होता है।”

साधारणतया नगरीकरण या शहरीकरण एक प्रक्रिया है जो असल में ग्रामीण अर्थव्यवस्था से शहरी अर्थव्यवस्था की तरफ परिवर्तन दिखाती है। जब ग्रामीण क्षेत्रों में धीरे-धीरे उद्योग, शैक्षिक संस्थाओं तथा व्यापारिक केन्द्रों इत्यादि का विकास हो जाता है तो अलग-अलग जातियों, वर्गों, धर्मों तथा सम्प्रदायों के लोग आकर बस जाते हैं जनसंख्या बढ़ जाती है तथा अलग-अलग रोज़गार के साधन विकसित हो जाते हैं। बड़े स्तर पर उत्पादन, यातायात तथा संचार के साधनों का विकास हो जाता है। इसके साथ ही संबंधों की संरचना भी बदल जाती है। द्वितीय संबंध विकसित हो जाते हैं। उस समय यह नगरीकरण की प्रक्रिया कहलानी शुरू हो जाती है। संसार के और देशों की तुलना में भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया अधिक विकसित नहीं हो सकी है क्योंकि यहां ग्रामीण समुदाय बहुत अधिक हैं तथा उनका मुख्य पेशा कृषि है।

नगरीकरण में निर्धारक तत्त्व (Determinants of Urbanization)-नगरीकरण को निर्धारित करने वाले तत्त्व अलग-अलग होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. अनुकूल भौगोलिक वातावरण (Favourable Geographical Environment) किसी भी शहर का विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि वहां का भौगोलिक वातावरण सही हो। जहां कहीं भी भौगोलिक वातावरण अच्छा होता है वहां शहर विकसित हो जाते हैं। अच्छा भौगोलिक वातावरण होने से व्यक्ति अपनी रोज़ाना की आवश्यकताओं को आसानी से पूर्ण कर लेते हैं। हमारे अपने देश भारत में बहुत-से प्राचीन शहर गंगा, यमुना, सिंध इत्यादि नदियों के किनारे विकसित हुए थे। गंगा नदी के किनारों पर तो 100 से अधिक शहरों तथा कस्बों का विकास हुआ है।।

2. यातायात के साधनों की खोज (Invention of the means of Transport) प्राचीन समय में गांवों से अतिरिक्त भोजन को शहरों तक पहुँचाने के लिए पहिए, नावों, पशुओं इत्यादि का प्रयोग किया जाता था। धीरे-धीरे समय के साथ-साथ यातायात के और साधन विकसित हो गए जिस कारण शहर विकसित होने शुरू हो गए। इस प्रकार यातायात के साधनों ने भी शहरों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

3. अधिक खाद्य सामग्री (Surplus Food Products)-गांव के लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है। जब गांवों में लोग अपनी आवश्यकताओं से अधिक है। जब गांवों में लोग अपनी आवश्यकताओं से अधिक खाद्य सामग्री पैदा करने लग गए तो वहां अधिक लोगों ने रहना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इन जगहों पर जनसंख्या के बढ़ने के साथ नए उद्योगों तथा मण्डियों का विकास होना शुरू हो गया। इस कारण गांव शहरों में बदलने लग गए।

4. शहरों का आकर्षण (Attraction of the Cities) अपने जीवन को अधिक-से-अधिक सुखी तथा खुशहाल बनाने के लिए, शिक्षा प्राप्त करने लिए तथा रोजगार प्राप्त करने के लिए लोग दूर-दूर के क्षेत्रों से शहरों की तरफ खिंचे चले आते हैं। इस कारण ही शहरों का अधिक विकास हुआ। भारत में पाटलीपुत्र शहर के रूप में नालंदा विश्वविद्यालय के कारण विकसित हुआ।

5. धार्मिक महत्त्व (Religious Importance)-भारत में कई स्थान ऐसे हैं जो धार्मिक दृष्टि से पवित्र माने जाते हैं। इन स्थानों की धार्मिक उपयोगिता के कारण ही कई शहर विकसित हो गए। हरिद्वार, मथुरा, काशी, प्रयाग, आनंदपुर साहिब इत्यादि ऐसे शहर हैं जो धार्मिक उपयोगिता के कारण भी विकसित हुए।

6. सांस्कृतिक तथा आर्थिक महत्त्व (Cultural and Economic Importance) किसी भी शहर के विकास में उस क्षेत्र की सांस्कृतिक तथा आर्थिक सुविधाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। हमारे देश में भी कई शहर इस सांस्कृतियों तथा आर्थिक महत्त्व के कारण ही विकसित हुए; जैसे पाटलिपुत्र या आजकल के पटना का विकास नालंदा विश्वविद्यालय के कारण हुआ तथा ढाका व्यापारिक कारणों के कारण विकसित हुआ। इस प्रकार मुरादाबाद, बरेली इत्यादि शहर भी इन कारणों के कारण ही विकसित हुए। प्राचीन भारत में कई शहर इस कारण ही प्रचलित हुए क्योंकि वहां विशेष प्रकार के औद्योगिक पेशे अथवा दस्तकारी के कार्य प्रचलित थे।

7. सैनिक छावनियों की स्थापना (Establishment of Army Camps)-प्राचीन समय में साधारणतया जीतने वाला राजा हारे हुए राजा पर नियंत्रण रखने के लिए गांवों के इर्द-गिर्द सैनिक छावनियां स्थापित कर लेते थे। धीरे-धीरे इन गांवों के इर्द-गिर्द सैनिक छावनियों ने शहरों का रूप धारण कर लिया। दिल्ली, कलकत्ता, आगरा इत्यादि जैसे शहर इस कारण ही विकसित हुए।
इस प्रकार इन तत्त्वों को देखकर हम कह सकते हैं कि यह तत्त्व शहरों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

प्रश्न 2.
नगरीय परिवार की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. केन्द्रीय परिवार (Nuclear Family) ग्रामीण समाजों में संयुक्त परिवार पाए जाते हैं जिसमें दादादादी, माता-पिता, विवाहित तथा बिन ब्याहे बच्चे, चाचा-चाची, ताया-तायी, उनके बच्चे रहते हैं। इस प्रकार के परिवार को विस्तृत परिवार भी कहा जा सकता है। परन्तु शहरी परिवार इतने बड़े नहीं होते। वह बहुत ही छोटे तथा केन्द्रीय परिवार होते हैं जिसमें पति-पत्नी तथा उनके बिन ब्याहे बच्चे रहते हैं। बच्चे विवाह के बाद अपना ही अलग घर बसा लेते हैं। इस तरह यह परिवार केन्द्रीय ही रहता है। बड़े-बड़े शहरों में इस प्रकार के परिवार साधारणतया ही देखने को मिल जाते हैं।

2. कम बच्चे (Less number of Children) शहरी परिवारों में बच्चों की संख्या कम होती है। शहरी मातापिता पढ़े-लिखे होते हैं तथा उनको अपनी जिम्मेदारियां, कर्तव्यों इत्यादि के बारे में पता होता है। शहरी परिवार अपने कार्यों के प्रति चेतन होते हैं। इसके साथ ही शहरों में खर्चे भी बहुत होते हैं तथा माता-पिता को पता होता है कि वह अधिक बच्चों को अच्छी परवरिश नहीं दे सकते। इसलिए वह कम बच्चे (एक या दो) ही रखते हैं ताकि उनको अच्छी परवरिश देकर अच्छा भविष्य दिया जा सके तथा देश का अच्छा नागरिक बनाया जा सके।

3. सीमित आकार (Limited Size)-शहरी परिवार आकार में सीमित होते हैं क्योंकि यह केन्द्रीय परिवार होते हैं। केन्द्रीय परिवार में पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। बच्चे विवाह के बाद अपना अलग ही केन्द्रीय परिवार बसा लेते हैं। शहरों में हमें बड़े परिवार देखने को नहीं मिलते हैं। कोई हज़ारों में एक परिवार ही संयुक्त परिवार होता है। इस प्रकार संयुक्त परिवार के न होने तथा केन्द्रीय परिवार के होने के कारण इनका आकार सीमित होता है।

4. व्यक्तिवादिता (Individualism) शहरी परिवार के सदस्यों का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी होता है। वह केवल अपने बारे में ही सोचते हैं। प्राचीन समय में परिवार का प्रत्येक सदस्य परिवार के भले के बारे में ही सोचता था। परिवार की इच्छा के आगे व्यक्ति अपनी इच्छा को दबा लेता था। दूसरे शब्दों में, व्यक्तिवादिता पर सामूहिकता भारी थी। परन्तु आजकल के शहरी परिवारों में परिवार की इच्छा के आगे व्यक्ति अपनी इच्छा को नहीं छोड़ता, बल्कि अपनी इच्छा पूर्ण कर लेता है। आजकल सामूहिकता पर व्यक्तिवादिता हावी है। कई बार तो व्यक्ति की इच्छा के आगे परिवार को ही झुकना ही पड़ता है। आजकल के Practical समाज में व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी है।

5. कम नियन्त्रण (Less Control)-शहरी परिवारों में परिवार का अपने सदस्यों पर कम नियन्त्रण होता है। ग्रामीण समाजों में तो व्यक्ति की इच्छा पर सामूहिकता हावी होती है। व्यक्ति पर परिवार का बहुत नियन्त्रण होता है तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य को परिवार के मुखिया का कहना मानना पड़ता है। परन्तु शहरी परिवार इसके बिल्कुल विपरीत हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी मर्जी का मालिक होता है। वह केवल परिवार के सदस्यों की सलाह लेता है परन्तु मर्जी वह अपनी ही चलाता है। कोई उस पर अपनी मर्जी नहीं थोपता है। इस प्रकार शहरी परिवारों में परिवार का अपने सदस्यों पर काफ़ी कम नियन्त्रण होता है।

6. स्त्रियों की समान स्थिति (Equal status of Women) शहरी समाजों में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान होती है जबकि ग्रामीण परिवारों में स्त्रियों की स्थिति निम्न होती है। शहरी स्त्री पढ़ी-लिखी होती है तथा उसको अपने अधिकारों के बारे में पता होता है। इसके साथ ही अधिकतर शहरी स्त्रियां बाहर कार्य करती हैं। वह दफ्तरों, फैक्टरियों, स्कूलों, कॉलेजों इत्यादि में कार्य करती हैं तथा पुरुषों के समान पैसे कमाती है। कई स्थितियों में तो स्त्री की आय पुरुष से भी अधिक होती है। घर की अर्थिक तौर पर सहायता करने के कारण वह यह चाहती है कि उसको भी पुरुषों के बराबर अधिकार मिलें। यदि पुरुष ऐसा नहीं करते तो वह तलाक लेकर अलग भी हो सकती है। इस प्रकार शहरी स्त्री को उसकी पढ़ाई-लिखाई तथा आर्थिक स्थिति के कारण मर्दो के समान स्थिति प्राप्त होती है।

7. औपचारिक सम्बन्ध (Formal Relations)-शहरी परिवारों में सदस्यों के बीच सम्बन्ध औपचारिक तथा अव्यक्तिगत होते हैं। परिवार के सदस्यों का एक-दूसरे पर इस कारण नियन्त्रण कम होता है क्योंकि उनके आपसी सम्बन्धों में गर्मजोशी नहीं होती है। लोगों का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी होता है इसलिए वह एक-दूसरे से केवल काम की बात करते हैं। यहां तक कि एक-दूसरे के सुख-दुःख में कम ही साथ देते हैं। केवल पति-पत्नी ही एक-दूसरे का साथ देते हैं। उनके आपसी सम्बन्ध औपचारिक होते हैं तथा केवल स्वार्थ भरे सम्बन्ध होते हैं।

8. धर्म का कम होता प्रभाव (Decreasing influence of Religion)-शहरी परिवारों में धर्म का महत्त्व काफ़ी कम हो गया है। ग्रामीण परिवारों में धर्म का बहुत महत्त्व होता है तथा उनकी प्रत्येक गतिविधि में धर्म का प्रभाव देखने को मिल जाता है। जन्म, विवाह, मृत्यु के समय तो धार्मिक संस्कार अच्छी तरह पूर्ण किए जाते हैं परन्तु शहरी परिवारों पर धर्म का प्रभाव काफ़ी कम हो गया है। शहरी लोग पढ़े-लिखे होते हैं तथा प्रत्येक कार्य को तर्क की कसौटी पर तोलते हैं। वह किसी भी कार्य को करने से पहले यह जानना चाहते हैं कि यह कार्य क्यों हो रहा है तथा धर्म इस बारे में सब कुछ नहीं बता सकता है। शहरों में धार्मिक गतिविधियां काफ़ी कम हो गई हैं। जन्म, विवाह, मृत्यु इत्यादि के समय बहुत ही कम धार्मिक संस्कार पूर्ण किए जाते हैं। पण्डित एक-डेढ़ घण्टे में ही विवाह करवा देता है या मृत्यु की रस्में भी बहुत ही जल्दी पूर्ण करवा देता है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

प्रश्न 3.
शहरी परिवारों के टूटने के क्या कारण हैं ? वर्णन करो।
उत्तर-
शहरी परिवार टूट रहे हैं। ये टूटने का जो सिलसिला है, एक-दो वर्षों में नहीं हुआ, बल्कि यह बदलाव कई वर्षों के परिवर्तन का नतीजा है। यह सभी परिवर्तन कई भिन्न-भिन्न कारणों से आए, जिसके परिणामस्वरूप परिवारों की बनावट और उसके रूप में अद्भुत बदलाव देखने को मिलते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं, जिनको हम विस्तारपूर्वक इस सन्दर्भ में देखेंगे

1. पैसों का महत्त्व (Importance of Money)-आधुनिक समाज में व्यक्ति ने पैसों को कमाकर अपनी जीवन शैली में कई तरह के परिवर्तन ला दिए हैं और इस शैली को कायम रखने के लिए उसे हमेशा ज्यादा से ज्यादा पैसों की ज़रूरत पड़ती है और इस प्रक्रिया में वह अपनी योग्यता के अनुसार अपनी कमाई में बढ़ौतरी करने की कोशिश में लगा रहता है। उसके रहने-सहने का तरीका बदलता जा रहा है और ऐश्वर्य की सभी वस्तुएं आज उसके जीवन के लिए सामान्य और आवश्यकता की वस्तुएं बनती जा रही हैं और इन सभी को पूरा करने के लिए पैसा अति आवश्यक है। इस तरह हम कह सकते हैं कि वह उन सीमित साधनों से ज्यादा सदस्यों की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकता। इस कारण शहरी परिवारों का महत्त्व कम हो रहा है और आदमी अपने परिवारों से अलग रहना पसन्द करता है। यह उसकी ज़रूरत भी है और मज़बूरी भी। इस कारण वह अपने परिवारों से अलग रहने लग पड़ा है।

2. पश्चिमी प्रभाव (Impact of Westernization)-भारत में अंग्रेजों के शासनकाल और उसके बाद भारतीय समाज में कई तरह से सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हुए, जिससे कि हमारी संस्कृति और व्यवहार इत्यादि में कई तरह परिवर्तन आए, जिनके कारण व्यक्तिवाद का जन्म होने लगा। आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने लोगों के जीवन को स्वतन्त्र तरीके से रहने के तरीके सिखाएं। इस तरह से भौतिकतावादी सोच के कारण, आधुनिकता की चकाचौंध से लोगों का गांवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हो गया और लोगों में संयुक्त परिवार से लगाव कम होना शुरू हो गया। इसका अंत में नतीजा यह निकला कि संयुक्त परिवार प्रणाली टूटने लगे और इकाई अथवा केन्द्रीय परिवार का उद्भव शुरू हो गया। लोगों को आधुनिक शिक्षा प्रणाली और स्त्रियों की स्वतन्त्रता के कारण, नौकरी करने वालों का शहरों में पलायन ने संयुक्त परिवारों का अस्तित्व समाप्त करना शुरू कर दिया और टूटना दिन-प्रतिदिन जारी हैं।

3. औद्योगिकीकरण (Industrialization)-आधुनिक समाज को आज औद्योगिक समाज की संज्ञा दी जाती है। जगह-जगह पर कारखानों और नए-नए तरीकों से समाज में परिवर्तन नज़र आते हैं। हर रोज़ नए-नए आविष्कारों के कारण समाज में कार्य करने के तरीकों एवं मशीनीकरण का चलन बढ़ता जा रहा है। घरों में कार्य करने वाले लोग अब कारखानों में काम करने लगे हैं। लोग अब अपने पैतृक कार्यों को छोड़कर उद्योगों में जा रहे हैं। लोगों ने महसूस करना शुरू कर दिया है कि इस दौड़ में अगर रहना है तो मशीनों का सहारा लेना ही पड़ेगा और इस बदलाव के कारण, शहरीकरण और भौगोलिक दृष्टि से कारखानों का बढ़ना इत्यादि लोगों को पलायन करवाता है। इस कारण लोगों ने संयुक्त परिवारों को छोड़कर, जहां पर उन्हें रोटी-रोज़ी मिली, वे उधर चल पड़े और यह सभी कुछ हुआ, उद्योगों के लगने की वजह से। इस तरह औद्योगीकरण के कारण संयुक्त परिवार प्रणाली में कई तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं, जिससे यह बात साफ हो जाती है कि इकाई परिवारों का चलन या अस्तित्व, उद्योगों की वजह से बढ़ रहा है। बच्चे नौकरियां करने के लिए शहर जाने लग गए तथा शहरी परिवार भी टूटने लग गए हैं।

4. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)-आधुनिक समाज में व्यक्ति की स्थिति, उसकी योग्यता के आधार पर आंकी जाती है। इसलिए उसे ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है और ज्यादा धन कमाना पड़ता है। हर व्यक्ति समाज में ऊपर उठना चाहता है। संयुक्त परिवार में व्यक्ति की स्थिति उसकी योग्यता के आधार पर न होकर अपने परिवार की हैसियत के अनुसार आंकी जाती है। इस प्रकार वह परिश्रम ही नहीं करता। औद्योगीकरण और शिक्षा के प्रसार ने व्यक्ति को गतिशील कर दिया है। यातायात के साधनों और संचार के माध्यम से आदमी के लिए दूरियां कम हो गई हैं। उसका सोचने का तरीका बदलता जा रहा है। इस नए समाज में उसके ज़िन्दगी के मूल्य भी बदल गए और वह भौतिकवाद की ओर अग्रसर है और उसी प्रक्रिया में उसमें भी तेजी आनी स्वाभाविक है और इस कारण वह संयुक्त परिवार के बन्धनों से मुक्त होना चाहता है। इसी कारण से भी शहरी परिवारों का टूटना निरन्तर जारी है।

5. यातायात के साधनों का विकास (Development of means of Transport)—यही पर बस नहीं आधुनिक यातायात के साधनों में आया बदलाव भी अपने आप में इस सोच का कारण बना है। व्यक्ति को इन्हीं सुविधाओं के कारण ही नई राहों पर चलना आसान हो गया है। हर क्षेत्र में काम करने की संभावनाओं को इन्हीं साधनों ने बढ़ा दिया है, आज कोई भी व्यक्ति पचास-सौ किलोमीटर को कुछ भी नहीं समझता। प्राचीन काल में ये सुविधाएं नहीं थीं या बहुत ही कम थीं, इस कारण से लोग एक ही जगह पर रहना पसन्द करते थे। आज के युग में इन साधनों ने व्यक्ति की दूरियों को कम कर दिया है। इनकी वजह से भी आदमी बाहर अपने काम-धन्धों को आसानी से कर पाता है और संयुक्त परिवार का मोह छोड़कर केन्द्रीय परिवार की सभ्यता को अपना रहा है।

6. जनसंख्या में बढ़ौतरी (Increase in Population)-भारत में जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। इससे कुछ ही समय में ही प्रत्येक परिवार में ऐसी स्थिति आ जाती है कि परिवार की भूमि या जायदाद सारे सदस्यों के पालनपोषण के लिए काफ़ी नहीं होती और नौकरी या व्यवसाय की खोज में सदस्यों को परिवार छोड़ना पड़ता है। इसलिए भी शहरी परिवारों में विघटन हो रहा है।’

7. शहरीकरण और आवास की समस्या (Problem of Urbanization and Housing) संयुक्त परिवारों के टूटने का एक और महत्त्वपूर्ण कारण देश का तेज़ी से बढ़ता शहरीकरण है, जिससे लोग गांव छोड़कर शहरों में आ रहे हैं। जबकि शहरों में मकानों की भारी कमी है। शहरों में मकान कम ही नहीं छोटे भी होते हैं। इसलिए मकानों की समस्या के कारण ही शहरों में परिवारों में विघटन हो रहा है।

8. स्वतन्त्रता और समानता के आदर्श (Ideals of Independence & Equality)—संयुक्त परिवार एक तरह से तानाशाही राजतन्त्र है जिसमें परिवार के मुखिया का निर्देश शामिल होता है। इसका कहना सबको मानना पड़ता है व कोई उसके विरुद्ध बोल नहीं सकता। इसलिए यह आधुनिक विचारधारा के विरुद्ध है। आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से नए नौजवान लड़के और लड़कियों में समानता और स्वतन्त्रता की भावना से शहरी परिवार टूट रहे हैं।

9. वैधानिक कारण (Legislative Reasons) ब्रिटिश शासन में अनेकों नए अधिनियमों से संयुक्त परिवारों में विघटन हुआ है। 1929 के हिन्दू उत्तराधिकार कानून (The Hindu Law of Inheritance Amendment Act 1929)
और 1937 के हिन्दू औरतों के सम्पत्ति पर अधिकार के कानून (Hindu Women’s Right of Property Act of 1937) से संयुक्त परिवार के विघटन को उत्साह मिला। चूंकि परिवार की सम्पत्ति का विभाजन होने लगा। कुछ कानूनों से परिवार के कार्यकर्ता को ज़मीन आदि बेचने या गिरवी रखने का अधिकार मिल गया। इस प्रकार शहरी परिवार की साझी सम्पत्ति बिखरने लगी और उसका विघटन होने लगा।

प्रश्न 4.
शहरी समाज की अर्थव्यवस्था की विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
यदि हम ग्रामीण समाज की अर्थव्यवस्था तथा शहरी समाज की अर्थव्यवस्था की तुलना करें तो हमें पता चलेगा कि शहरी समाज की अर्थव्यवस्था ग्रामीण अर्थव्यवस्था में से ही निकली है। शहर पहले गांव ही थे परन्तु समय के साथ-साथ गांवों की जनसंख्या बढ़ गई। जनसंख्या के बढ़ने से उनका आकार बड़ा होता गया। आकार बड़ा होने के साथ-साथ वहां अलग-अलग नए प्रकार के देशों का जन्म हुआ। पहले छोटे उद्योग स्थापित हुए तथा धीरे-धीरे बड़े उद्योग भी स्थापित हो गए। उत्पादन छोटे पैमाने से बड़े पैमाने पर होने लग गया। गांवों ने कस्बों का रूप ले लिया तथा धीरे-धीरे कस्बे शहर बन गए। बहुत अधिक जनसंख्या के बढ़ने के कारण शहरों ने महानगरों का रूप ले लिया। पहले लोग केवल अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए ही चीज़ों का उत्पादन किया करते थे। परन्तु जनसंख्या के बढ़ने के कारण लोगों ने बाजार के लिए उत्पादन करना शुरू कर दिया। शहरों ने बहुत बड़ी मण्डी का रूप ले लिया। आजकल के शहर इस प्रकार के ही है जहां पेशों की भरमार होती है। लोग उत्पादन अपने लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए करते हैं।

यदि शहरों में उत्पादन बड़े स्तर पर होने लग गया है तो इस के पीछे औद्योगिक क्रान्ति की सबसे बड़ी भूमिका है। औद्योगिक क्रान्ति यूरोप में 18वीं सदी के दूसरे भाग में शुरू हुई। सबसे पहले इसने यूरोप में अपना प्रभाव डाला तथा उपनिवेशवाद के कारण यह 19वीं शताब्दी में एशिया के देशों में भी आनी शुरू हो गई। औद्योगिक क्रान्ति के साथ लोगों के आपसी संबंध बिल्कुल ही बदल गए। समाज ने तेजी से विकास करना शुरू कर दिया। उद्योग तेजी से बढ़ने लग गए। मण्डियों का तेजी से विकास हुआ। इस कारण ही शहरी अर्थव्यवस्था भी विकसित हुई। इस प्रकार से 19वीं शताब्दी के बाद तो शहरी अर्थव्यवस्था में तेजी से परिवर्तन आए। आज की शहरी अर्थव्यवस्था इन सभी पर ही आधारित है। जहां बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है, बड़े-बड़े उद्योग होते हैं, पैसे का बहुत अधिक महत्त्व होता है, श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण होता है, लोगों का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी होता है, पेशों की विभिन्नता होती है। इन सब को देख कर हम शहरी समाज की कुछ विशेषताओं का जिक्र कर सकते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. औद्योगिक अर्थव्यवस्था (Industrial Economy)-शहरी अर्थव्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था का नाम भी दिया जा सकता है क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था उद्योगों पर ही आधारित होती है। शहरों में बड़े-बड़े उद्योग लगे होते हैं जिनमें हज़ारों लोग कार्य करते हैं। बड़े उद्योग होने के कारण उत्पादन भी बड़े पैमाने पर होता है। इन बड़े उद्योगों के मालिक निजी व्यक्ति होते हैं। उत्पादन मण्डियों के लिए होता है। यह मण्डियां न केवल देसी बल्कि विदेशी भी होती हैं। कई बार तो उत्पादन केवल विदेशी मण्डियों को ध्यान में रख कर किया जाता है। बड़े-बड़े उद्योगों के मालिक अपने लाभ के लिए ही उत्पादन करते हैं तथा मजदूरों का शोषण भी करते हैं।

2. श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण (Division of Labour and Specialization)-शहरी समाजों में पेशों की भरमार तथा विभिन्नता पाई जाती है। प्राचीन समय में तो परिवार ही उत्पादन की इकाई होता था। सारे कार्य परिवार में ही हुआ करते थे। परन्तु शहरों के बढ़ने के कारण हज़ारों प्रकार के पेशे तथा उद्योग विकसित हो गए हैं। उदाहरण के तौर पर एक बड़ी फैक्टरी में सैंकड़ों प्रकार के कार्य होते हैं तथा प्रत्येक कार्य को करने के लिए एक विशेषज्ञ की ज़रूरत होती है। उस कार्य को केवल वह व्यक्ति ही कर सकता है जिस को उस कार्य में महारत हासिल हो। इस प्रकार शहरों में कार्य अलग-अलग लोगों के पास बटे हुए होते हैं जिस कारण श्रम विभाजन बहुत अधिक प्रचलित है। लोग अपने-अपने कार्य में माहिर होते हैं जिस कारण विशेषीकरण का बहुत महत्त्व होता है। इस प्रकार शहरी अर्थव्यवस्था के दो महत्त्वपूर्ण अंग श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण हैं।

3. बड़े स्तर पर उत्पादन (Production on a Large Scale)-शहरी अर्थव्यवस्था में उत्पादन बड़े स्तर पर होता है। शहरों में बड़े-बड़े उद्योग लगे हुए होते हैं। जहां हज़ारों मज़दूर, क्लर्क, अफसर इत्यादि कार्य करते हैं। इन बड़े उद्योगों में पैसे भी बहुत लगे हुए होते हैं। मालिक तो ही लाभ कमा सकता है यदि उस उद्योग में उत्पादन बड़े स्तर पर किया जाए। यह उत्पादन न केवल देसी मार्किट बल्कि विदेशी मार्किट के लिए भी होता है। कई औद्योगिक इकाइयां तो उत्पादन केवल विदेशी मार्किट को मुख्य रख कर ही करती हैं। उत्पादन को पूर्ण लाभ के साथ विदेशी मार्किट में बेचा जाता है ताकि सभी को कुछ लाभ मिल सके। यह उद्योग बड़े स्तर पर उत्पादन करने के लिए दिनरात कार्य में लगे रहते हैं।

4. पेशों की विभिन्नता (Occupational Diversity) किसी भी शहरी समाज या औद्योगिक समाज की मुख्य विशेषता वहां पेशों की भरमार का होना है। शहरों में हजारों की संख्या में पेशे मिल जाते हैं। कोई अफसर है, कोई चपड़ासी, अध्यापक, बढ़ई, लोहार, मजदूर, रिक्शा खींचने वाले, रेहड़ी वाले, सब्जी तथा फलों की दुकान इत्यादि जैसे हज़ारों पेशे हैं जो कि शहरों में मिल जाते हैं। एक उद्योग में ही हमें सैंकड़ों प्रकार के कार्य मिल जाएंगे। इस प्रकार हम प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं कि शहरों में पेशे बहुसंख्या में होते हैं।

5. अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति (Nature of getting more Profit)-शहरी अर्थव्यवस्था का एक और महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि यहां लोगों में अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति होती है। उद्योगपति कमसे-कम पैसे लगाकर अपनी वस्तु को अधिक-से-अधिक लाभ से बेचना चाहता है। दुकानदार ग्राहक से अपनी चीज़ की अधिक-से-अधिक कीमत प्राप्त करना चाहता है। कई कार्यों में तो 100% या 200% तक भी लाभ हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है जिस कारण वह सही या गलत ढंग अपनाने के प्रयास भी करता है। मज़दूर अधिक-से-अधिक मज़दूरी प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को अमीर बनने की इच्छा होती है जिस कारण उन में अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति होती है।

6. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility) सामाजिक गतिशीलता का अर्थ होता है अपनी एक सामाजिक स्थिति को छोड़ कर दूसरी सामाजिक स्थिति की तरफ जाना। शहरों में सामाजिक गतिशीलता बहुत पाई जाती है। नगरों में बहुत-से व्यक्ति नौकरी करते हैं, यदि किसी व्यक्ति को किसी और नौकरी में अधिक वेतन तथा अच्छी स्थिति मिल जाती है तो वह पहली नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी की तरफ चला जाता है। छोटे दुकानदार उन्नति करके बड़ी दुकान बना लेते हैं। लोग एक घर को छोड़कर दूसरे घर में चले जाते हैं। यह गतिशीलता ही है। इस के साथ ही नगरों में श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण बहुत होता है। माहिर व्यक्तियों की बहुत मांग होती है। माहिर व्यक्ति तो साल बाद ही नौकरी बदल लेते हैं। इस कारण उनके मेल-जोल का सामाजिक दायरा भी बढ़ता है। इस कारण व्यक्ति अपने रहने-सहने का स्तर भी ऊंचा कर लेता है तथा यह भी गतिशीलता है। इस प्रकार नगरीय अर्थव्यवस्था में गतिशीलता बहुत अधिक होती है।

7. प्रतियोगिता (Competition)-नगरीय अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता बहुत अधिक देखने को मिलती है। शहरों में लोग पढ़-लिख रहे हैं तथा अलग-अलग प्रकार के कोर्स कर रहे हैं और ट्रेनिंग ले रहे हैं। एक नौकरी को प्राप्त करने के लिए 15-20 लोग खड़े होते हैं। इसके साथ-साथ बड़े-बड़े उद्योगों में अपना माल बेचने के लिए प्रतियोगिता होती है। वह मूल्य कम करके अपनी चीज़ बेचने की कोशिश करते हैं जिससे ग्राहक का लाभ होता है। इस प्रकार छोटे बड़े दुकानदार भी एक-दूसरे से प्रतियोगिता करते हैं ताकि उनका माल अधिक-से-अधिक बिक सके। इसलिए वह अपने माल पर सेल लगाने से भी पीछे नहीं हटते। कई दुकानदार तथा कंपनियां 50% तक की छूट तथा इससे ऊपर भी 60% या 70% तक की छूट भी दे देती है ताकि अधिक-से-अधिक माल बेचा जा सके। उनको देख कर और कंपनियों को भी अपना माल इतनी ही छूट से बेचना पड़ता है जिसका असली लाभ ग्राहक को होता है। इस प्रकार शहरी अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक प्रतियोगिता देखने को मिल जाती है।

8. अधिक जनसंख्या (More Population)-नगरीय अर्थव्यवस्था का एक और महत्त्वपूर्ण लक्षण अधिक जनसंख्या का होना है। जहां कहीं भी उद्योग विकसित हुए हैं वहां पर शहर बस गए हैं। लोग इन उद्योगों में कार्य करने के लिए अपना घर, गांव तक छोड़ कर नगर में आ जाते हैं। यदि उद्योगों में कार्य मिल जाए तो ठीक है नहीं तो वे कोई और कार्य करने लग जाते हैं। धीरे-धीरे शहर की जनसंख्या बढ़ जाती है। जनसंख्या के बढ़ने से उसकी आवश्यकताएं भी बढ़ जाती हैं जिनकी पूर्ति करना आवश्यक हो जाती है। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दुकानें तथा मण्डियां खुल जाती हैं, सरकारी तथा निजी दफ्तर खुल जाते हैं। बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल, कॉलेज खुल जाते हैं। जनसंख्या को नियन्त्रण में रखने के लिए पुलिस की स्थापना हो जाती है। इस प्रकार धीरे-धीरे नगर एक महानगर बन जाता है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता इत्यादि इसी प्रकार के महानगर हैं।

9. अपराध (Crimes)–यदि शहर बढ़ते हैं तो उनके साथ-साथ अपराध भी बढ़ जाते हैं। जनसंख्या में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जोकि परिश्रम से नहीं बल्कि छीन कर खाना पसन्द करते हैं। चोर, डकैत, ठग, लुटेरे इत्यादि इस श्रेणी में आते हैं। लोगों को रहने के लिए घर नहीं मिलते जिस कारण झुग्गी झोपड़ी बस्तियां स्थापित हो जाती हैं। इन बस्तियों में ही सबसे अधिक अपराध होते हैं। चोरी, कत्ल, डकैती, बलात्कार, वसूली, मार पिटाई इत्यादि सभी कुछ यहां आम होता है।

10. अधिक पूंजी निवेश (More Capital Investment)-शहरी आर्थिकता में अधिक पूंजी निवेश की बहुत आवश्यकता होती है। नगरों में बड़े-बड़े उद्योग स्थापित होते हैं जिनको स्थापित करने के लिए हज़ारों करोड़ों रुपयों की ज़रूरत होती है। जो व्यक्ति इन उद्योगों को चलाता है वह सारा पैसा निवेश करता है। कच्चा माल लाने के लिए, उत्पादन करने के लिए, उत्पादित माल बेचने के लिए, पैसे इकट्ठे करने के लिए बहुत बड़े नैटवर्क की ज़रूरत होती है। इस कारण पूंजी का अधिक निवेश होता है जो व्यक्ति इतना पैसा निवेश करता है वह उस से लाभ भी कमाता है। ___11. पैसे का महत्त्व (Importance of Money)–नगरीय अर्थव्यवस्था में पैसे का बहुत अधिक महत्त्व होता है क्योंकि आजकल तो प्रत्येक कार्य पैसे से ही होता है। यहां तक कि सामाजिक स्थिति भी पैसे से ही प्राप्त होती है। जिन लोगों के पास अधिक पैसा होता है उनकी सामाजिक स्थिति काफ़ी ऊंची होती है तथा जिन के पास पैसा नहीं होता उनकी सामाजिक स्थिति निम्न होती है। अमीर व्यक्तियों, नेताओं इत्यादि की स्थिति बहुत ऊंची होती है क्योंकि इनके पास पैसा होता है परन्तु निर्धन व्यक्ति को कोई पूछता भी नहीं है।

प्रश्न 5.
झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों के सामने आने के क्या कारण हैं ? इनमें सुधार कैसे किया जा सकता है ?
उत्तर-
यदि हम ध्यान से देखें तो हमें पता चलेगा कि झग्गी झोपडी बस्तियां आधुनिक समाजों के कारण ही सामने आई हैं। आधुनिक समाजों को बनाने के लिए आधुनिकीकरण, औद्योगिकीकरण, पश्चिमीकरण जैसी प्रक्रियाएं सामने आई। औद्योगिकीकरण के कारण बड़े-बड़े उद्योग बन गए तथा उद्योगों के इर्द-गिर्द बस्तियां तथा शहर बन गए। लोग बाहर के क्षेत्रों से उद्योगों में कार्य करने आए तथा शहरों में ही रहने लग गए। कम आय के कारण उनको बस्तियों में ही रहना पड़ा। बस्तियों में सुविधाओं के न होने के कारण वहां का वातावरण प्रदूषित होना शुरू हो गया तथा धीरे-धीरे इन बस्तियों ने झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों का रूप ले लिया। इस प्रकार झुग्गी झोंपड़ी बस्तियां सामने आ गईं। ये बस्तियां किसी एक या दो कारणों के कारण नहीं बल्कि कई कारणों के कारण सामने आई जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. आर्थिक कारण (Economic Reasons)-यदि हम ध्यान से देखें तो झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों के सामने आने का कारण ही आर्थिक है। लोग गरीबी के कारण अपने गांवों को छोड़कर पैसे कमाने नगरों में आते हैं तथा पैसे कमाने के लिए शहर में ही रह जाते हैं। अपने भोजन के साथ-साथ उनके लिए गांव में बैठे अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए पैसे बचाना ज़रूरी होता है। आय कम होती है परन्तु खर्चे अधिक होते हैं। इस कारण वह महंगे मकानों में रह नहीं सकते तथा उन्हें झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में रहना पड़ता है। उनको अपनी खराब स्थिति को मजबूरी में सहन करना पड़ता है। वह जहां रहते हैं वहां धीरे-धीरे गंदा वातावरण होना शुरू हो जाता है क्योंकि जनसंख्या बढ़ जाती है इस प्रकार से वह सभी ही कम पैसे खर्च करके इन बस्तियों में रहने को मजबूर होते हैं।

2. औद्योगिकीकरण (Industrialization)-झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों के बसने में सबसे बड़ा हाथ औद्योगिकीकरण का होता है। आमतौर पर यह देखा गया है कि जहां कहीं भी उद्योग बनने शुरू हुए थे उसके इर्द-गिर्द लोगों ने रहना शुरू कर दिया था। लोग गांवों में घर बार छोड़ कर शहरों में इन उद्योगों में कार्य की तलाश में आते हैं। उनको काम तो मिल जाता है परन्तु आय कम होती है जिस कारण वह महंगे घरों में नहीं रह सकते। इस कारण ही उनको झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में रहना पड़ता है जहां एक ही कमरे में 8-10 लोग रहते हैं। इन बस्तियों का वातावरण तथा रहने का स्थान काफ़ी दूषित होता है जिस कारण उन्हें कई समस्याओं तथा बीमारियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार से औद्योगिकीकरण के कारण झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां बस जाती हैं।

3. राजनीतिक कारण (Political Reasons)-हमारे देश में लोकतन्त्र है तथा हमारे देश में झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों के सामने आने का कारण राजनीतिक दल हैं। ये राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के लिए हमेशा लड़ते रहते हैं। गरीबों को ऊंचा उठाने के लिए उनके अपने कार्यक्रम तथा अपनी ही विचारधारा होती है। परन्तु उनके अपने जीवन में गरीबी की कोई जगह नहीं होती है तथा वह गरीबों की मुश्किलों से बहुत दूर होते हैं। चाहे यह दल गरीबों को ऊंचा उठाने के लिए कार्यक्रम बनाते रहते हैं परन्तु असल में कुछ करते नहीं हैं। ये कार्यक्रम केवल इन लोगों के वोट प्राप्त करने के लिए बनाए जाते हैं। इनके हालात सुधारने के लिए बहुत ही कम कोशिशें होती हैं। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को बचाने के लिए इनको उनकी जगह से छोड़ना नहीं चाहते हैं। इस तरह हमारी राजनीतिक व्यवस्था भी झुग्गीझोंपड़ी बस्तियों के लिए जिम्मेदार हैं।

4. सामाजिक व्यवस्था (Social System) हमारे समाज की मौजूदा सामाजिक व्यवस्था भी झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों के बनने के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में गरीबों तथा कमज़ोर लोगों की कोई जगह नहीं है। ग़रीब लोग शहरों में उन स्थानों पर रह रहे हैं जहां कि जानवर भी रहना पसन्द नहीं करते। उनको मजबूरी में उस अमानवीय वातावरण में रहना पड़ता है। उनको समाज, सरकार तथा उद्योगपतियों द्वारा ग़ैर-ज़रूरी समझा जाता है। सरकार तथा उद्योगपति तो अपने स्वार्थों के कारण इनसे काम लेते हैं तथा इनको ऊँचा उठने नहीं देते। यदि यह ऊंचा उठ गए तो यह उच्च वर्ग के लिए खतरा बन जाएंगे। इस प्रकार हमारी सामाजिक व्यवस्था भी इसके लिए दोषी है।

5. प्रशासकीय कारण (Administrative Causes) स्थानीय प्रशासन भी झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों के बनने के लिए ज़िम्मेदार है। स्थानीय प्रशासन को हमेशा ही भ्रष्ट तथा अयोग्य समझा जाता है क्योंकि यह लोगों के लिए आर्थिक प्रशासकीय तथा सामाजिक नीतियां सही प्रकार से नहीं बना सके। सम्पूर्ण शहर के विकास के लिए एक मास्टर प्लान बनाया जाता है परन्तु किसी कारणवश मास्टर प्लान में या तो झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता या फिर इनको जानबूझ कर छोड़ दिया जाता है। कम वित्तीय साधन भी इस प्लान के पूर्ण न होने के लिए उत्तरदायी हैं। यदि सीमित वित्तीय साधनों को भी सही ढंग से प्रयोग किया जाए तो झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों का सुधार हो सकता है। परन्तु इस तरह होता नहीं है तथा जिस कारण झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां बढ़ती जाती हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 3 नगरीय समाज

सुधार के तरीके (Ways of Improvement)– कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जोकि हल न हो सके। इस प्रकार अगर हमारी सरकार, नेता तथा अफ़सर सही प्रकार से कार्य करें तो यह झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों की समस्या भी हल हो सकती है। झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों में सुधार करने के कुछ तरीकों का वर्णन इस प्रकार हैं-

  • इन बस्तियों में सबसे बड़ी समस्या पीने के पानी की है लोगों को साफ़ पानी पीने के लिए नहीं मिलता है। जिस कारण उन्हें गंदे पानी पर ही गुज़ारा करना पड़ता है। सरकार को 24 घंटे के लिए इन बस्तियों में साफ़ पानी पहुंचाने की प्रबन्ध करना चाहिए।
  • इसी प्रकार से गंदे पानी की निकासी भी बहुत बड़ी समस्या है। यदि गंदे पानी की निकासी हो तो इन बस्तियों में से बीमारियों को दूर किया जा सकता है। सरकार को पक्की गलियों, सीवरेज़, पाखानों इत्यादि का प्रबन्ध करके बस्तियों को बीमारियों से दूर रखना चाहिए।
  • इन बस्तियों में बिजली न होना भी एक बहुत बड़ी समस्या है। इन इलाकों में बिजली की तारें डालकर बिजली देने का भी प्रबन्ध करना चाहिए।
  • उद्योगों को भी इन बस्तियों की स्थिति सुधारने के लिए आगे आना चाहिए जो भी मज़दूर उद्योगों में कार्य करते हैं उन्हें उद्योगों की तरफ से पक्के मकान रहने के लिए देने चाहिए ताकि बस्तियों की जनसंख्या न बढ़े।
  • हमारे नेताओं, अफसरों तथा सरकार को राजनीति के क्षेत्र से ऊंचा उठकर समाज की सेवा करने के लिए अपने स्वार्थों को छोड़ कर कार्य करना चाहिए। इनको ईमानदारी से इन बस्तियों के उत्थान के लिए कार्य करने चाहिए ताकि यह भी समाज में अच्छा जीवन जी सकें।
  • इनके क्षेत्रों में रहने के पक्के घरों का भी प्रबन्ध करना चाहिए ताकि लोग झुग्गियों-झोंपड़ियों से बाहर निकल कर अच्छा जीवन जी सकें। __इस प्रकार से अगर सरकार, नेता तथा अफसर सही ढंग से कार्य करें तो इन झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियों की बहुत-सी समस्याओं को दूर करके इनमें रहने वाले लोगों को अच्छा जीवन दिया जा सकता है।

नगरीय समाज PSEB 12th Class Sociology Notes

  • पिछले कुछ समय से देश की ग्रामीण जनसंख्या नगरों की तरफ बढ़ रही है जिस कारण नगरीय जनसंख्या में काफ़ी बढ़ौतरी हो रही है। नगरों में काफ़ी सुविधाएँ होती हैं जिस कारण लोग नगरों की तरफ आकर्षित हो जाते हैं।
  • 2011 के जनसंख्या सर्वेक्षण के अनुसार, “देश की 121 करोड़ जनसंख्या में 37.7 करोड़ लोग या 32% जनसंख्या नगरों में रहती थी। इस सर्वेक्षण के अनुसार वह सभी क्षेत्र जहां नगरपालिका, कारपोरेशन, कैंटोनमैंट बोर्ड या Notified Town Area Committee है, नगरीय क्षेत्र हैं।”
  • जब ग्रामीण लोग गाँवों को छोड़कर नगरों की तरफ बढ़ने लग जाएं तो इस प्रक्रिया को नगरीकरण अथवा शहरीकरण कहा जाता है। इस प्रक्रिया ने नगरीय समाजों की प्रगति में काफ़ी योगदान दिया है। यह एक द्विपक्षीय प्रक्रिया है जिसमें न केवल लोग नगरों की तरफ बढ़ते हैं तथा उनके पेशों में परिवर्तन आता है बल्कि उनके रहन-सहन आदतों, विचारों में भी परिवर्तन आ जाता है।
  • नगरवाद नगरीय समाज का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो नगरीय समाज के लोगों की पहचान तथा व्यक्तित्व को ग्रामीण समाज या जनजातीय समाज के लोगों से अलग करता है। यह जीवन जीने के ढंगों को दर्शाता है।
  • नगरीय समाज की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि अधिक जनसंख्या, असमानता, सामाजिक नियन्त्रण के द्वितीय साधन, सामाजिक गतिशीलता, लोगों का कृषि छोड़कर कोई अन्य कार्य करना, श्रम विभाजन, विशेषीकरण, व्यक्तिवाद इत्यादि।
  • ग्रामीण समाजों में संयुक्त परिवार मिलते हैं परन्तु नगरों में केंद्रीय परिवार मिलते हैं। व्यक्तिवादिता के कारण लोग केंद्रीय परिवारों को प्राथमिकता दे रहे हैं।
  • नगरीय अर्थव्यवस्था व्यावसायिक भिन्नता (Occuptional Diversity) तथा गतिशीलता पर निर्भर करती है। अलग-अलग कार्य एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं जिस कारण लोग एक-दूसरे पर अन्तर्निर्भर होते हैं।
  • वैसे तो नगरीय समाज में काफ़ी समस्याएं मिलती हैं परन्तु रहने की समस्या तथा झुग्गी झोपड़ियों या मलिनvबस्तियों की समस्या काफ़ी प्रमुख है। नगरीकरण के बढ़ने से भी यह समस्याएं काफ़ी बढ़ती जा रही है।
  • गाँव से लोग नगरों में रहने तथा कार्य की तलाश में जाते हैं। उन्हें वहां पर कार्य तो मिल जाता है परन्तु रहनेvका स्थान नहीं मिल पाता जिस कारण उन्हें मलिन झुग्गी झोपड़ी बस्तियों में रहना पड़ता है। इन बस्तियों के कारण ही नगरों में कई अन्य समस्याएं उत्पन्न हो जाती है।
  • नगरीय समाज (Urban Society)—वह समाज जहां असमानता द्वितीय संबंध, नकलीपन, गतिशीलता तथा गैर-कृषि पेशों की प्रधानता होती है। यह आकार में बड़े होते हैं तथा लोग प्रगतिशील होते हैं।
  • नगरीकरण (Urbanisation)-नगरीकरण ग्रामीण लोगों की नगरों की तरफ जाने की प्रक्रिया है जिससे नगरों का आकार बड़ा हो जाता है। यह वह प्रक्रिया भी है जिससे ग्रामीण क्षेत्र नगरीय क्षेत्रों में परिवर्तित हो जाते हैं।
  • नगरवाद (Urbanism)-नगरवाद जीवन जीने के ढंगों को दर्शाता है। यह नगरीय संस्कृति के फैलाव तथा नगरीय समाज के उद्विकास के बारे में भी बताता है।
  • निर्धनता (Poverty)—निर्धनता एक प्रकार की स्थिति है जिसमें लोग अपनी रोटी, कपड़ा व मकान की आवश्यकता भी पूर्ण नहीं कर सकते।
  • आवास (Housing)—किसी भी सभ्य समाज की प्रथम आवश्यकता घर की होती है क्योंकि यह व्यक्ति को रहने का स्थान देती है।
  • झुग्गी-झोंपड़ी बस्तियां (Slums)-झुग्गी-झोंपड़ी नगरों में रहने का वह स्थान है जहां लोग मलिन बस्तियों में झुग्गी-झोंपड़ी की स्थितियों में रहते हैं। प्रत्येक नगर में इन बस्तियों का आकार अलग-अलग होता है तथा इनमें साफ-सफाई, साफ पीने वाले पानी, बिजली इत्यादि की कमी होती है। इनमें साधारण मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिलती।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 9 प्रयोगात्मक/प्रयोग भूगोल

Punjab State Board PSEB 12th Class Geography Book Solutions Chapter 9 प्रयोगात्मक/प्रयोग भूगोल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Geography Chapter 9 प्रयोगात्मक/प्रयोग भूगोल

PSEB 12th Class Geography Guide प्रयोगात्मक/प्रयोग भूगोल Textbook Questions and Answers

प्रश्न I. निम्नलिखित में सही उत्तर चुनें-

(क) जनसंख्या विभाजन दिखाने के लिए कौन-सा नक्शा बनाया जाता है ?
(A) वर्णात्मक नक्शा
(B) सममूल्य नक्शा
(C) बिंदु नक्शा
(D) वर्गमूल्य नक्शा।
उत्तर-
(C) बिंदु नक्शा।

(ख) जनसंख्या की दशक वृद्धि को दिखाने के लिए कौन-सा तरीका उचित है ?
(A) पंक्ति ग्राफ
(B) बार चित्र
(C) लकीरी चित्र
(D) बहाव नक्शा ।
उत्तर-
(C) लकीरी ग्राफ।

(ग) बहु-ग्राफ प्रदर्शित करता है ?
(A) केवल एक परिवर्तनशील तत्व
(B) केवल दो परिवर्तनशील तत्व
(C) दो से अधिक परिवर्तनशील तत्व
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(C) दो से अधिक परिवर्तनशील तत्व।

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(घ) इनमें से किसके गत्यात्मक नक्शा कहा जाता है ?
(A) बिंदु नक्शा
(B) वर्णात्मक नक्शा
(C) सममूल्य नक्शा
(D) बहाऊ नक्शा ।
उत्तर-
(D) बहाऊ नक्शा।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चार पंक्तियों में दें:

(i) विषयगत नक्शा क्या होता है ?
उत्तर-
आंकड़ों की विशेषताएँ दर्शाने के लिए और तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए ग्राफ और चित्र एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं लेकिन क्षेत्रीय परिदृश्य को दिखाने के लिए चित्र और ग्राफ असफल रहते हैं। इसलिए स्थानीय भिन्नता को दिखाने के लिए और क्षेत्रीय विभाजन को अच्छी तरह समझने के लिए कई तरह के नक्शे बनाए जाते हैं। इनको विषयगत और वितरण नक्शे कहा जाता है।

(ii) बहु-बार ग्राफ और मिश्रित बार ग्राफ में क्या अंतर है ?
उत्तर-
बहु-बार ग्राफ और मिश्रित बार ग्राफ में अंतर निम्नलिखित हैं-
बहु-बार ग्राफ- इनको दो या दो से अधिक परिवर्तनशील तत्वों को दर्शाने और तुलना करने उद्देश्य से बनाया जाता है।
मिश्रित बार ग्राफ – मिश्रित बार ग्राफ अलग-अलग इलाकों में हिस्सेदारी/समानता दिखाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।

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(iii) बिंदु नक्शा बनाने के लिए क्या-क्या आवश्यक है ?
उत्तर-
बिंदु नक्शा बनाने के लिए आवश्यक बातें निम्नलिखित हैं-

  • संबंधित क्षेत्र का प्रबंधकीय सीमा के साथ नक्शे का खाका तैयार करना।
  • संबंधित क्षेत्र के विषय संबंधी आंकड़े एकत्रित करना।
  • बिंदु की कीमत के लिए नक्शों का चुनाव करना।
  • संबंधित क्षेत्र का प्राकृतिक नक्शा तैयार करना।

(iv) यातायात बहाव नक्शा बनाने का तरीका बताओ।
उत्तर-
यातायात बहाव नक्शे दो किस्म के आंकड़ों को पेश करने के लिए बनाए जाते हैं-
(i) गाड़ियों की उनके पहुंच के स्थान की तरफ संख्या
(ii) यात्रियों/परिवहन की जाने वाले वस्तुओं की संख्या।

इस प्रकार का नक्शा (मानचित्र) बनाने के लिए हमें वस्तुओं, सेवा गाड़ियों की संख्या इत्यादि के संबंधित आंकड़े, जिले में उनसे संबंधित वस्तुओं इत्यादि की उपज तथा स्थान बताया हो तथा आवश्यकता के पैमाने का चुनाव करके, जिस द्वारा आंकड़े बहाव नक्शे पर पेश किया जाना होता है, काफ़ी आवश्यक है तथा ज़रूरत अनुसार ट्रांसपोर्ट रूट का रूट नक्शा जिस पर स्टेशन दिखाये गए हों काफ़ी आवश्यक है।

नोट (Method)-कागज़ पर X बिंदु बना लो तथा सही पैमाने से सही दिशा की तरफ अ-ग-बिंदु लगा लो। मानो कि पैमाना है 1 cm : 10 km बिंदु x के उत्तर दिशा की तरफ 5.7 सैं०मी० लम्बी एक रेखा खींच लो। यह बिंदु अ की स्थिति दिखायेगी। इस प्रकार बिंदु ‘ग’ तक आवश्यकता अनुसार लंबाई की रेखाएं उनकी ही दिशा की तरफ लगा दो। बसों की संख्या का एक पैमाना बना लो तथा निर्धारित करो जोकि 6 से 10 की संख्या दिखा सके। इस पैमाने अनुसार मोटी तथा पट्टी संबंधित दिशाओं की तरफ को बना दो।

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(v) सममान नक्शा क्या है ? वृद्धि कैसे की जाती है ?
उत्तर-
Isopleth दो शब्दों के जोड़ से बना है (Iso + Plethron) Iso शब्द का अर्थ है समान तथा Plethron शब्द का अर्थ है। मूल्य इस प्रकार सममान रेखाएं वह रेखाएं हैं जिनका मूल्य तीव्रता तथा घनत्व समान हो। यह रेखा उन स्थानों को आपस में जोड़ती है जिनका मूल्य समान हो।

मिलावट/वृद्धि करने के तरीके- दो स्थानों के दर्ज मुख्य में बीच के मुख्य को पाने को मिलावट/वृद्धि कहते हैं। इसको पाने के लिए दो तरीके प्रयोग किये जाते हैं।

  1. दिए जाने वाले नक्शों का अधिक से अधिक तथा कम-से-कम मूल्य निर्धारित करके।
  2. दोनों मूल्यों का फैलाव ज्ञात करके।
  3. फैलाव के आधार पर अंतराल निर्धारित करके जैसे कि 5,10 या 15 इत्यादि।

(vi) वर्णात्मक नक्शा बनाने की विधि (ढंग) बताओ।
उत्तर-
वर्णात्मक नक्शे बनाने का ढंग इस प्रकार है-
1. किसी वस्तु के निश्चित आंकड़े इकट्ठे करो। आंकड़ों को बढ़ते घटते क्रम में करो। 2. यह आंकड़े औसत रूप में हो या प्रतिशत के रूप में हो। 3. आंकड़ों को समूहों, बहुत अधिक, मध्यम, कम तथा बहुत कम में विभाजित कर लो। 4. चुने गये समूहों को दर्शाने वाले रंग या गहराई बढ़ते या घटते क्रम में लिखो। 5. हर एक शासकीय इकाई में घनत्व के अनुसार से छायाकरण करके नक्शे तैयार किये जाते हैं।

(vii) पाई चार्ट के साथ आंकड़ा पेशकारी का ढंग बताओ।
उत्तर-
पाई चार्ट आंकड़ा पेशकारी की एक अच्छा ढंग है। यह दिये गये तत्व को सम्पूर्ण रूप में एक चक्र के द्वारा पेश करती है। आंकड़ों के उपभागों को दिखाने के लिए चक्र को बनते कोणों के अनुसार काटा तथा विभाजित किया जाता है।

  • आंकड़ों को घटते क्रम में लिखकर अलग-अलग भूमि उपयोगों का कोण पता किया जाता है।
  • चक्र बनाने के लिए जरूरत अनुसार चुनाव बहुत आवश्यक है। दिये आंकड़ों के लिए 3, 4 या 5 सैं०मी० का अर्धव्यास चुना जाना चाहिए।
  • एक लाइन केन्द्र से लेकर अर्धव्यास तक खींच लेनी चाहिए ताकि अर्ध-व्यास केंद्र को दिखाया जा सके।
  • चक्र की चाप से हर एक भूमि उपयोग श्रेणी के कोणों के अनुसार छोटे कोण से शुरू करके घड़ी की सुइयों की दिशा में कोण चिह्न लगाओ।
  • लकीरों को लगाकर चित्र पूरा कर दो।
  • फिर संकेत, शीर्षक, उपशीर्षक इत्यादि बना दो।

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प्रश्न III. दिए गए विकल्पों में सही विकल्प चुनो :

(i) निम्नलिखित आंकड़ों के लिए कौन-सा चित्र उचित रहेगा ? भारतीय राज्यों का कच्चा लोहा उत्पादन में प्रतिशत अनुपात :

मध्य प्रदेश 23.44
गोवा 21.82
कर्नाटक 20.95
बिहार 16.98
उड़ीसा 16.30
आन्ध्र प्रदेश 0.45
महाराष्ट्र 0.04

(i) लाइन ग्राफ
(ii) बहुविकल्पीय बार ग्राफ
(iii) पाई चार्ट
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(iii) पाई चार्ट।

(ii) किसी राज्य के अलग-अलग जिले स्थानीय आंकड़ों के तौर पर किस प्रकार दर्शाए जाएंगे ?
(i) बिंदुओं के साथ
(ii) लाइनों के साथ
(iii) बहुभुजों के साथ
(iv) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(iii) बहुभुजों के साथ।

(iii) निम्नलिखित में कौन-सा आपरेटर एक्शल फार्मूले में पहले हल होगा ?
(i) +
(ii) –
(iii) /
(iv) =
उत्तर-
(iv) =

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(iv) एक्शल में फंक्शन विजार्ड आपको किसके योग्य बनाती है ?
(i) रेखाचित्र बनाने के
(ii) गणितज्ञ या संख्यात्मक क्रिया के लिए
(iii) नक्शे बनाने के लिए
(iv) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ii) गणितज्ञ या संख्यात्मक क्रिया के लिए।

प्रश्न IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30 पंक्तियों में दो :

प्रश्न 1.
कंप्यूटर (संगणक) के अलग-अलग हिस्सों के क्या काम हैं ?
उत्तर-
संगणक (कम्यूटर) एक इलैक्ट्रॉनिक उपकरण है। आमतौर पर हम इस प्रणाली को दो हिस्सों में विभाजित करते हैं
I. यंत्र सामग्री (Hardware)-सारे कंप्यूटर के भाग जिनको हाथ से छुआ जा सके।
II. प्रक्रिया सामग्री (Software) कंप्यूटर के जिस हिस्से को हाथ से छुआ न जा सके।

I. यंत्र सामग्री (Hardware)-कंप्यूटर के भौतिक हिस्से जिनको हम देख या छू सकते हैं, वह हार्डवेयर कहलाते हैं। यह भाग मशीनी, इलैक्ट्रॉनिक या इलैक्ट्रीकल हो सकते हैं। यह संगणक के यंत्र सामग्री कहलाते हैं। हर संगणक की यंत्र सामग्री अलग-अलग हो सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि संगणक किस उद्देश्य के लिए प्रयोग में लाया जा सके तथा व्यक्ति की आवश्यकता क्या है। एक कंप्यूटर में विभिन्न तरह के हार्डवेयर होते हैं जैसे कि सी०पी०यू०, हार्ड डिस्क, रैम, प्रोसैसर, मोनीटर, मदर बोर्ड, फ्लापी ड्राइव इत्यादि।
संगणक के सिर्फ पावर सप्लाई यूनिट की बोर्ड, माऊस इत्यादि भी यंत्र सामग्री के अंतर्गत आते हैं।

II. प्रक्रिया सामग्री (Software)-संगणक हमारी तरह हिन्दी या अंग्रेजी भाषा नहीं समझता। हम संगणक को जो निर्देश देते हैं वह एक नियत भाषा होती है इसको मशीनी लैंग्वेज़ (भाषा) या मशीन की भाषा कहते हैं। संगणक सॉफ्टवेयर लिखित प्रोग्रामों का एक समूह है जो कि संगणक की भंडार शाखा में जमा हो जाता है। आजकल कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें संगणक का उपयोग नहीं होता। आज संगणक का प्रयोग हर कार्यालय में किया जाता है।

संगणक के भाग हैं-

1. निवेश एवं निर्गत उपकरण (Input Output Device)-इन उपकरणों का प्रयोग संगणक में निवेश करने के लिए तथा संगणक द्वारा निर्गत दिखाने के लिए किया जाता है। निवेश उपकरण जैसे की बोर्ड का प्रयोग, आंकड़ों तथा प्रोग्रामों को संगणक स्मृति में भरने के लिए किया जाता है। दूसरी प्रकार चूंकि एक कंप्यूटर के भीतर सभी आँकड़ों, कार्यक्रमों को कोड स्वरूप में वैद्युत् धारा में संचित किया जाता है, निर्गत उपकरणों जैसे प्रिंटर, प्लाटर, इत्यादि का प्रयोग इन आंकड़ों की सूचनाओं के रूप में बदलने के लिए किया जाता है जिनका मानव द्वारा उपयोग किया जा सके।

2. सिस्टम यूनिट (System Unit)–सिस्टम यूनिट को सिस्टम कैबिनेट भी कहा जाता है। कंप्यूटर के इस भाग के कई हिस्से हैं जैसे मदरबोर्ड, रैम तथा प्रोसैसर सिस्टम यूनिट के अंदर ही आते हैं।

3. मैमोरी (Memory) कंप्यूटर में मैमोरी का प्रयोग प्रोग्राम तथा डाटा को संग्रहित करने के लिए होता है, ताकि बाद में ज़रूरत के अनुसार उसका प्रयोग किया जा सके। मैमोरी किसी भी कंप्यूटर का एक काफी महत्त्वपूर्ण अंग होता है। मैमोरी का उपयोग परिणामों को संग्रहित करने के लिए भी किया जाता है। मैमोरी दो प्रकार की ‘होती है।

  • रोम (Rom)—इसको Read Only Memory कहते हैं। इसमें जो जानकारी होती है उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता बस सिर्फ उसे पढ़ा जा सकता है।
  • रैम (Ram)-Random Access Memory इसका प्रयोग तब होता है जब कंप्यूटर पर काम करते हैं । यह जानकारी सिर्फ तब तक रहती है जब तक आपका कंप्यूटर काम कर रहा होता है। कंप्यूटर को बंद करते ही रैम की जानकारी नष्ट हो जाती है।

4. संग्रहक उपकरण (Storage Unit)—एक कंप्यूटर में कई संग्राहक इकाइयाँ जैसे हार्ड डिस्क, फ्लापी, टेप, मैगनेट, आप्टिकल डिस्क, कांपेक्ट डिस्क (सीडी), कार्टिज इत्यादि लगे होते हैं जिनका प्रयोग आंकड़ों तथा कार्यक्रम-निर्देशों को संचित करने के लिए होता है। इन युक्तियों की आंकड़ा-संग्रहण करने की क्षमता मेगाबाइड (MB) से गीगावाइट (GB) तक होती है।

5. संचार (Communication) संचार के लिए काफी उपकरणों का उपयोग किया जाता है। इन यंत्रों का उपयोग एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर के साथ जोड़ने के लिए तथा इंटरनैट का प्रयोग करने के लिए किया जाता है। वाई फाई रिसीवर, मोडम इत्यादि इस वर्ग में शामिल हैं।

6. सॉफ्टवेयर का एक हिस्सा आँकड़ा प्रक्रिया की पेशकारी के लिए, प्रयोग के लिए तथा कंप्यूटर के माध्यम में तालमेल बिठाता है। तत्वों को क्रमवार करने के लिए, अशुद्धियों को हटाने के लिए, आंकड़ों के जोड़-तोड़ तथा संभाल इत्यादि काम सॉफ्टवेयर द्वारा किये जाते हैं। प्रमुख सॉफ्टवेयर हैं—MS-Excel, Spreadsheet, Lotus-1,2,3, तथा D-Base, Arc-view, Are GIS-Geomedia इत्यादि। इनके द्वारा सॉफ्टवेयर नक्शे बनाने के लिए अध्ययन किया जाता है।

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प्रश्न 2.
आंकड़ा प्रक्रिया तथा आंकड़ा पेशकारी के लिए लुभावने तरीके के मुकाबले संगणक प्रयोग करने के क्या फायदे हैं ?
उत्तर-
आंकड़ा प्रक्रिया के परिणाम हासिल करने के लिए संगणक प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है। संगणक तकनीक ने पिछले एक दशक से इतना विकास कर लिया है कि आंकड़ों को मनचाहे ढंग के साथ पेश किया जा सकता है। इसके द्वारा आंकड़ा प्रक्रिया तथा पेशकारी तथा संचालन का काम अच्छे ढंग के साथ किया जा सकता है। संगणक की सहायता के साथ आंकड़ा प्रक्रिया तथा आंकड़ा पेशकारी के साथ अधिक अच्छे ढंग से जोड़ घटाव से लेकर तर्क के साथ हल होने वाले साधारण तथा जटिल सवाल भी हल किये जा सकते हैं। संगणक की सहायता के साथ आंकड़ा प्रक्रिया तथा आंकड़ा पेशकारी के लिए हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर दोनों की ही आवश्यकता होती है। संगणक के सॉफ्टवेयर का एक हिस्सा आंकड़े प्रक्रिया तथा आंकड़ों की पेशकारी के लिए प्रयोग योग्य तथा कंप्यूटर के मध्य में तालमेल बिठाता है।

इसके द्वारा आसानी के साथ तत्वों को क्रमशः से करना, अशुद्धियों को हटाना, आंकड़ों के जोड़-तोड़ तथा संभाल इत्यादि का काम जल्दी हो जाता है। कंप्यूटर तकनीक के विकास के साथ आंकड़ों को मनचाहे ढंग के साथ पेश भी किया जा सकता है। इसके द्वारा स्क्रीन के हिस्से को बड़ा करके देखा जा सकता है, रंग तबदील किये जा सकते हैं, तीन-पसारी तथा परिपेक्ष्य प्रदर्शन किया जा सकता है। विविध विषयों का ऐच्छिक अध्ययन किया जा सकता है। बहुभुज शेडिंग, लाइन स्टाइलिंग तथा प्वाइंट मेकर प्रदर्शित किया जा सकता है। इसके बिना प्रिंटर प्लाटर, स्पीकर इत्यादि के साथ तालमेल बिठाने में कोई मुश्किल नहीं आती। इसलिए हम कह सकते हैं कि आंकड़ा प्रक्रिया तथा आंकड़ा पेशकारी के लिए लुभावने तरीके के मुकाबले कंप्यूटर प्रयोग करने के फ़ायदे अधिक हैं।

प्रश्न 3.
वर्कशीट (कार्यपत्रक) क्या है ?
उत्तर-
वर्कशीट (कार्यपत्रक) आमतौर पर एक कागज़ की शीट होती है जिस पर विद्यार्थियों के लिए कुछ प्रश्न लिखे होते हैं तथा उत्तर लिए जाते हैं। एक्सल वर्कशील एकहरी स्प्रेडशीट होती है जिसका प्रयोग आंकड़ा प्रक्रिया नक्शे तथा रेखाचित्र इत्यादि बनाने के लिए किया जाता है। वर्कशीट टर्म का प्रयोग एक स्प्रेडशीट सॉफ्टवेयर के तौर पर भी किया जाता है तथा एक एकांऊटैंट की तरफ से प्रयोग किए गये एक पेपर जिस पर कोई रिकार्ड लिखा हैं, को वर्कशीट का नाम दिया जाता है। वर्कशीट शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1900 में किया गया।

एक कक्षा के कमरे में वर्कशीट से भाव उन कागजों की शीटों से है, जिन पर प्रश्न तथा कुछ अभ्यास योग्य प्रश्न विद्यार्थी के लिए पूरा करने तथा जवाब रिकार्ड करने के लिए बनाई गई होती हैं। अकाऊंट में वर्कशीट का अर्थ है, एक खुले पन्ने होते हैं जिसमें वर्क शैड्यूल, काम का समय, खास हिदायतों इत्यादि का रिकार्ड रखा जाता है तथा कंप्यूटर में एक्सल वर्कशीट में आंकड़े बहुत ही सरल तरीके के साथ दाखिल तथा जमा किये जा सकते हैं। आंकड़ों की नकल की जा सकती है या एक सैल से दूसरे सैल में भेजे जाते हैं। इसके द्वारा आंकड़े मिटाये जा सकते हैं। इस वर्कशीट द्वारा काम के आंकड़े स्थाई तौर पर संभाले जा सकते हैं। इस तरह आंकड़े सरलता से दाखिल किये जाते हैं। कालम बनाकर आंकड़े दाखिल करने के समय नंबर-पैड के साथ ऐंटर की या डाऊन-चिह्नित का प्रयोग किया जाता है। स्तरों में आंकड़ों को दाखिल करते समय नंबर पैड के साथ राइट चिन्हित का भी प्रयोग किया जाता है।

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प्रश्न V. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 पंक्तियों में दो :

प्रश्न 1.
स्थानिक तथा गैर-स्थानिक आंकड़ों में क्या अन्तर है ? उदाहरणों सहित बताओ।
उत्तर-
स्थानिक तथा गैर-स्थानिक आंकड़ों में अंतर निम्नलिखित हैं –

स्थानिक आंकड़े-

  1. स्थानीय आंकड़े किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हैं। यह धरती पर किसी स्थान को दर्शाता है।
  2. स्थानीय आंकड़ों में किसी क्षेत्र जैसे अस्पताल, स्कूल इत्यादि क्षेत्रों की भौगोलिक विशेषताओं के बारे में दिखाया जाता है।
  3. इनको तैयार करना थोड़ा मुश्किल होता है।
  4. इसमें लकीरों की सहायता के साथ नदियों, रेलवे लाइन इत्यादि दिखाये जाते हैं।
  5. जब नक्शे के ऊपर केवल स्कूल को दिखाया जाता है उसको स्थानीय आँकड़े कहते हैं।
  6. Shx तथा Shq फाइलों में स्थानिक आंकड़े होते हैं।

गैर-स्थानिक आंकड़े-

  1. x`जब कोई डाटा/आंकड़ा हमें धरती की किसी जगह के बारे ज्ञान की करवाए वह गैर-स्थानीय आंकड़े कहलाते हैं।
  2. गैर-स्थानिक आंकड़ों में नंबर, अंक, व्यक्ति या श्रेणियों की संख्या इत्यादि को दिखाया जाता है।
  3. गैर-स्थानीय आंकड़े तैयार करने आसान होते हैं।
  4. गैर-स्थानीय आंकड़ों की सहायता के साथ आंकड़ों की विशेषता बारे दिखाया जाता है।
  5. अगर स्कूल का नाम, कक्षा, कक्षों तथा विद्यार्थियों की संख्या के बारे बताया जाए। तब वह गैर स्थानीय आंकड़े कहलाते हैं।
  6. dbf एक dbase फाइल होती है जो कि Shx तथा Shp फाइलों से जुड़े होते हैं।

उदाहरण-जब हम किसी स्कूल, कस्बे, गाँव, इत्यादि की भौगोलिक विशेषता को बिन्दुओं, बहुभुजों या लकीरों की सहायता से नक्शे पर दिखाते हैं, तो उसे स्थानीय आंकड़े कहते हैं तथा अगर हम स्कूल का नाम, कक्षा, बच्चों की संख्या, गांव/कस्बे में घर, घरों में व्यक्तियों की संख्या का अध्ययन करते हैं, तब वह गैर-स्थानीय आंकड़ों की उदाहरण मानी जाती है।

प्रश्न 2.
भौगोलिक आंकड़ों के तीन रूप कौन-से हैं ?
उत्तर-
भौगोलिक आंकड़े कई तरह की जानकारी का संग्रह होते हैं। यह हमें किसी दृढ़ विषय के विभाजन तथा घनत्व के बारे जानकारी देता है। भौगोलिक आंकड़े कई प्रकार के होते हैं। अब भूगोल प्राकृतिक तथा मानवीय दोनों ही पक्षों को हल करता है। भौगोलिक आंकड़ों में हम धरती पर चट्टानों, मौसम, फसलों, उद्योगों, जानवरों तथा मानवीय आंकड़ों तथा इनकी विशेषता के बारे ज्ञान हासिल करते हैं। भौगोलिक आंकड़े गुणवाचक तथा परिमाणवाचक दोनों रूपों में हमें मिलते हैं। भौगोलिक आंकड़े समधर्मी (Analogue) तथा डिजीटल रूप में मिलते हैं। नक्शे के लिए जब चित्र आसमान से लिए जाते हैं तो वे समधर्मी आंकड़ों की उदाहरणे हैं तथा जब स्कैन करके कंप्यूटर में डाला जाता चित्र होता तो वह डिजीटल आंकड़े की उदाहरण होती है। भौगोलिक डाटा के मुख्य रूप हैं-

1. भौगोलिक (स्थानीय ) वर्गीकरण-यह वर्गीकरण भौगोलिक आंकड़ों तथा स्थानों में अंतर पर निर्भर करता है। इसको स्पष्ट करने के लिए हमें आंकड़े इकट्ठे करने होते हैं जैसे कि कितनी फर्मे (Firms) भारत में साइकिल बना रही हैं।

Number of Firms Producing Bicycles in 2013 Across Different Locations.

Place Number of Firms
Punjab 20
Haryana U.P. 25

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 9 प्रयोगात्मकप्रयोग भूगोल 1

2. समयानुसार या ऐतिहासिक वर्गीकरण (Chronological Classification)-जब आंकड़ों का समय के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है उसे Chronological वर्गीकरण कहते हैं। इसको निम्नलिखितानुसार स्पष्ट कर सकते हैं-

Sales of a Firm (2011-2013)

Year Sales(Rs)
2011 80 Lakhs
2012 90 Lakhs
2013 95 Lakhs

3. गुणवाचक वर्गीकरण (Qualitative Classification)—यह वर्गीकरण गुण या विशेषता के आंकड़ों के अनुसार होता है, जैसे कि डाटा को जनसंख्या के पेशे, धर्म तथा योग्यता के स्तरों के अनुसार विभाजित किया जाता है। इससे दो तरीकों से विभाजित किया जा सकता है

1. Simple Classification
2. Manifold Classification.

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प्रश्न 3.
संगणक की सहायता से उपयुक्त तरीका प्रयोग करते हुए आंकड़ों की पेशकारी करो तथा ग्राफ का विश्लेषण करो।
उत्तर-
आंकड़ा प्रक्रिया तथा पेशकारी के लिए कई प्रकार के तरीके प्रयोग किये जाते हैं पर ये तरीके काफी समय लेने वाले तथा मुश्किल होते हैं। आधुनिक युग में कंप्यूटर की सहायता के साथ आकडों की पेशकारी की जा रही है तथा इसके साथ यह बोझिल तथा समय खराब करने वाले काम आप आसानी से कर सकते हैं। कंप्यूटर एक इलैक्ट्रॉनिक उपकरण है। इसमें हार्डवेयर तथा साफ्टवेयर दो हिस्से होते हैं तथा आंकड़ा प्रक्रिया तथा आंकड़ा पेशकारी के लिए हम इन दोनों हिस्सों का प्रयोग करते हैं। आंकड़ों की पेशकारी अलग-अलग तरीकों से की जाती है। जैसे कि बार ग्राफ, हिस्टोग्राफ, पाई-चार्ट इत्यादि। अब हम आंकड़ों की पेशकारी के लिए उपयुक्त ढंग का प्रयोग करेंगे। हम एक्सल में इनकी पेशकारी तथा ग्राफ बनाने का विश्लेषण करेंगे-

  1. हर एक चित्र को क्रमानुसार नंबर देना आवश्यक है।
  2. हर एक चित्र का एक उपयुक्त शीर्षक बनाना चाहिए तथा शीर्षक ऐसा होना चाहिए जिसमें आंकड़ों का समय तथा स्थान भी स्पष्ट हो जाए।
  3. शीर्षक तथा उपशीर्षक, इकाइयों के यूनिट भी लिखे जाने चाहिए।
  4. शीर्षक, उपशीर्षक, इकाइयां इत्यादि को दर्शाने के लिए फौंट का ख्याल रखना चाहिए। फौंट ऐसा होना चाहिए कि हर एक चीज उपयुक्त स्थान पर मिल जाए। कंप्यूटर में आंकड़ों की पेशकारी के लिए अलग-अलग तरीके जैसे कि बार ग्राफ, हिस्टोग्राफ, मिश्रित बार चित्र, पाई चार्ट इत्यादि बनाये जाते हैं तथा कंप्यूटर पर इनका प्रयोग करना काफ़ी आसान तथा स्पष्ट हो जाता है। हम कंप्यूटर की सहायता से मिश्रित बार ग्राफ का प्रयोग करके आंकड़ों की पेशकारी करेंगे तथा ग्राफ का विश्लेषण करेंगे। सबसे पहले आँकड़े इकट्ठे करके एक सारणी बनाई जाए तथा फिर Excel पर एक बार ग्राफ बनाया जाए।

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  1. इसके लिए सबसे पहले Excel Open करेंगे फिर Spreadsheet को खोलेंगे जिसमें चार्ट बनाया जाएगा।
  2. फिर पूरे आंकड़े (Data) जिसको चार्ट में शामिल करना है उसको Select करो। Column तथा Row बना लो। जैसे कि बार चार्ट में सारणी बनाया जाता है। इसके बाद Chart Wizard टूलबार बटन पर क्लिक करो तथा Insert मीनू में चार्ट की किस्म Select कर लो। इसके बाद एक बार ग्राफ की सबटाइप चुन लो तथा फिर Next पर क्लिक करो।
  3. यह देख लो कि Data जो लिया है वह ठीक हो तथा Data Range भी चुन लो फिर Next पर क्लिक करो।
  4. इसके बाद (Title) शीर्षक चार्ट के लिए प्रवेश करो जो xaxis या yaxis के लिए आपने देना है।
  5. इसके बाद Finish पर क्लिक करो। आपका बार ग्राफ बन जाएगा।
  6. आखिर पर कोई बदलाव करने के लिए आप Chart Toolbar का प्रयोग कर सकते हैं।

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Geography Guide for Class 12 PSEB प्रयोगात्मक/प्रयोग भूगोल Important Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर (Objective Type Question Answers)

A. बहु-विकल्पी प्रश्न :

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रारंभिक आंकड़ों का स्रोत नहीं है ?
(A) इंटरव्यू
(B) शैड्यूल
(C) निजी निरीक्षण
(D) अखबार।
उत्तर-
(D) अखबार।

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प्रश्न 2.
नक्शा कला के डिजाइन के नीचे लिखे महत्त्वपूर्ण भागों में से कौन-सा भाग शामिल नहीं किया जाता है ?
(A) संकेत
(B) सही पैमाने का चुनाव
(C) शीर्षक
(D) दिशा।
उत्तर-
(B) सही पैमाने का चुनाव

प्रश्न 3.
जनसंख्या में वृद्धि जन्म दर तथा मृत्यु दर दिखाने के लिए कौन-से ग्राफ बनाये जाते हैं ?
(A) लकीरी ग्राफ
(B) साधारण बार चित्र
(C) बहु-बार चित्र
(D) पाई चित्र।
उत्तर-
(A) लकीरी ग्राफ

प्रश्न 4.
बहाव चार्ट क्या है ?
(A) नक्शे तथा ग्राफ का सुमेल
(B) नक्शे तथा डाटा का सुमेल
(C) आंकड़ों का सुमेल
(D) नक्शों का सुमेल।
उत्तर-
(A) नक्शे तथा ग्राफ का सुमेल

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प्रश्न 5.
किस विधि से सड़कों, रेलमार्गों इत्यादि लम्बे तथा कम चौड़े क्षेत्र के नक्शे को बड़ा या छोटा किया जाता है ?
(A) बिन्दु विधि
(B) समरूप त्रिभुजाकार विधि
(C) पैटोग्राफ के साथ
(D) फोटोग्राफिक कैमरे के साथ।
उत्तर-
(B) समरूप त्रिभुजाकार विधि

प्रश्न 6.
किस विधि के द्वारा वस्तु के उत्पादन तथा वितरण के आंकड़ों को बिन्दुओं के रूप में दिखाया जाता है ?
(A) बिन्दु नक्शे
(B) वितरण नक्शे
(C) समरूपी नक्शे
(D) लकीरी ग्राफ।
उत्तर-
(A) बिन्दु नक्शे

प्रश्न 7.
किस पद्धति को Choropleth Method कहते हैं ?
(A) वितरण नक्शे
(B) वर्णमात्री नक्शे
(C) यांत्रिक पद्धति
(D) विशेषतः नक्शे।
उत्तर-
(B) वर्णमात्री नक्शे

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प्रश्न 8.
Isopleth कौन से शब्दों का मेल से बनता है?
(A) Iso +pleth
(B) Isoe + pletho
(C) Iso + plethron
(D) Iso + Plethron.
उत्तर-
(C) Iso + plethron

प्रश्न 9.
Ctrl + N दबाने के साथ क्या होता है ?
(A) नई एक्शल फाइल खुलती है।
(B) कंप्यूटर में मौजूद हर फाइल खुल जाती है।
(C) पेस्ट करने के लिए दबाया जाता है।
(D) फाइल को कंप्यूटर में संभाला जाता है।
उत्तर-
(A) नई एक्शल फाइल खुलती है।

प्रश्न 10.
बिन्दुओं की सहायता के साथ निम्नलिखित में से कौन-से स्थानीय आंकड़े दिखा सकते हैं ?
(A) ज़िले
(B) स्कूल
(C) रेलवे स्टेशन
(D) जंगल।
उत्तर-
(B) स्कूल

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B. खाली स्थान भरें :

1. जीओ-सिनक्रोसिन सैटेलाइट (GSLY) को ……….. द्वारा तैयार किया गया है।
2. इंडियन रीजनल नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम में ……….. उपग्रह हैं।
3. लांच व्हीकल दो तरह के होते हैं PSLV तथा ………….।
4. दो पसारी चित्रों में …………… तथा …………. शामिल होते हैं।
5. बहु बार चित्र ……….. या ……….. अधिक परिवर्तनशील तत्वों को दर्शाने के लिए बनाये जाते हैं।
उत्तर-

  1. इसरो
  2. सात
  3. GSLV
  4. पाई चित्र, आयताकार
  5. दो या दो से।

C. निम्नलिखित कथन सही (√) है या गलत (x) :

1. पुरुषों तथा औरतों की जनसंख्या कुल ग्रामीण तथा शहरी आबादी को दर्शाने के लिए बहु बार चित्र बनाये जा सकते हैं।
2. बहाव चार्ट नक्शे तथा ग्राफ का सुमेल होते हैं।
3. विशेषत नक्शे आमतौर पर मात्रात्मक तथा गैर मात्रात्मक किस्मों में विभाजित किए जाते हैं।
4. Ctrl + z दबाने के साथ चुने हुए सैल में आंकड़े मिट जाते हैं।
5. पुलाडी हिस्से में 27 उपग्रह होते हैं।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. सही
  4. ग़लत
  5. ग़लत।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले उत्तर (One Word/Line Question Answers) :

प्रश्न 1.
डाटा क्या है ?
उत्तर-
भिन्न प्रकार के आंकड़े जैसे कि वस्तु की मात्रा, गुण, गुणवत्ता, वितरण इत्यादि को स्पष्ट किया जाता है। संख्या पर आधारित जानकारी डाटा कहलाती है।

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प्रश्न 2.
आंकड़ा/डाटा कौन से स्रोतों से प्राप्त किया जाता है ?
उत्तर-
प्रारंभिक स्रोतों तथा गौण स्रोतों से डाटा प्राप्त किया जाता है।

प्रश्न 3.
दूसरे दर्जे के गौण आंकड़ों के स्त्रोतों में कौन-से स्रोत शामिल हैं ?
उत्तर-
इन स्रोतों में सरकारी प्रकाशनाएं, दस्तावेज, रिपोर्ट तथा प्रकाशित या अप्रकाशित स्रोत शामिल हैं।

प्रश्न 4.
रेखा ग्राफ किसको प्रदर्शित करने के लिए बनाये जाते हैं ?
उत्तर-
तापमान, वर्षा, जनसंख्या वृद्धि, जन्म दर तथा मृत्यु दर को।

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प्रश्न 5.
अलग-अलग परिवर्तनशील तत्वों को दिखाने के लिए कौन-से रैखिक नमूने प्रयोग किये जाते हैं ?
उत्तर-
सीधी रेखा (-), विभाजित रेखा (—), बिन्दु रेखा (….) या मिश्रित रेखा में विभाजित तथा बिन्दु रेखा।

प्रश्न 6.
दण्ड आरेख को और किस नाम से बुलाया जाता है ?
उत्तर-
कालमी चित्र।

प्रश्न 7.
तुरन्त तुलना के लिए कौन से चित्र बनाये जाते हैं ?
उत्तर-
साधारण दण्डचित्र।

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प्रश्न 8.
बहु-बार चित्र किस उद्देश्य के लिए बनाये जाते हैं ?
उत्तर-
दो या दो से अधिक परिवर्तनशील तत्वों को दर्शाने तथा तुलना करने के लिए।

प्रश्न 9.
भारत की 1951 की साक्षरता दर कितनी थी ?
उत्तर-
18.33 प्रतिशत।

प्रश्न 10.
अगर आंकड़ा प्रतिशत रूप में ही तब कोण प्राप्त करने के लिए कौन सा फार्मूला प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
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प्रश्न 11.
बहाव नक्शे किस किस्म के आंकड़े पेश करने के लिए बनाये जाते हैं ?
उत्तर-
गाड़ियों की उनके पहुंच स्थान की तरफ की संख्या तथा बारंबारता के लिए तथा मुसाफिरों तथा परिवहन की जाने वाली वस्तुओं की संख्या के लिए।

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प्रश्न 12.
बिन्दु नक्शे किसलिए बनाये जाते हैं ?
उत्तर-
यह नक्शे जनसंख्या, पशुओं की संख्या, फसलों की किस्मों इत्यादि के उपयोगों का विभाजन दिखाने के लिए बनाये जाते हैं।

प्रश्न 13.
बिन्दु नक्शे का कोई एक दोष बताओ।
उत्तर-
इनको बनाने में काफी समय लगता है तथा यह एक मुश्किल काम है।

प्रश्न 14.
सममान रेखाओं की किस्में बताओ।
उत्तर-
समदाब रेखाएं, समताप रेखाएं, समवर्षा रेखाएं, सम उच्च रेखाएं, सममेघ रेखाएं।

प्रश्न 15.
वर्णमात्री नक्शे किसे कहते हैं ?
उत्तर-
इस पद्धति में किसी एक वस्तु के वितरण को नक्शे के अलग-अलग शेडों या रंगों के द्वारा दर्शाया जाता है। किसी रंग की तुलना में Black and White Shading का प्रयोग करना अच्छा समझा जाता है।

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प्रश्न 16.
कंप्यूटर के हिस्सों को कौन से भागों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
साफ्टवेयर तथा हार्डवेयर।

प्रश्न 17.
जी०पी०एस० के तीन हिस्से कौन-से हैं ?
उत्तर-
पुलाड़ी हिस्सा, नियंत्रण हिस्सा, उपयोगी हिस्सा।

प्रश्न 18.
पुलाड़ी हिस्से में कितने उपग्रह हैं ?
उत्तर-
24 उपग्रह, 2016 में इनकी संख्या बढ़ाकर 32 कर दी गई है।

प्रश्न 19.
लांच व्हीकल की किस्में बताओ।
उत्तर-
पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल (PSLV) तथा जीओ सिनक्रोसन सैटेलाइट लांच व्हीकल (GSLV) ।

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प्रश्न 20.
भारतीय नेवीगेशन सिस्टम का नाम बताओ।
उत्तर-
इण्डियन रीजनल नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम।

प्रश्न 21.
PSLV को किस द्वारा तैयार किया गया है?
उत्तर-
ISRO द्वारा।

प्रश्न 22.
वितरण नक्शे से क्या अर्थ है ?
उत्तर-
यह वे नक्शे हैं जो धरती के किसी भाग पर किसी तत्व के वितरण के मूल्य को या घनत्व को प्रकट करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
डाटा की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-
किसी क्षेत्र के फसली पैटर्न के अध्ययन के लिए उस क्षेत्र के फसली क्षेत्र, उपज, उत्पादन का अध्ययन करने के लिए सिंचाई के अधीन क्षेत्र, वर्षा की मात्रा, खादें तथा कीटनाशक दवाइयां इत्यादि के प्रयोग संबंधी अंकात्मक/डाटा जानकारी की ज़रूरत होती है। इसके अलावा भौगोलिक विश्लेषण संबंधी डाटा की भी अहम् भूमिका होती है।

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प्रश्न 2.
ग्राफ, चित्र तथा नक्शे बनाने के लिए आम नियम कौन से हैं ?
उत्तर-
ग्राफ, चित्र तथा नक्शे बनाने के लिए आम नियम निम्नलिखित हैं-

  • सही तरीके का चुनाव
  • सही पैमाने का चुनाव
  • रूपरेखा तैयार करना इस शीर्षक, संकेत तथा दिशा शामिल है।

प्रश्न 3.
बार ग्राफ (दण्ड आरेख) की रचना के लिए कौन-से नियमों में ध्यान रखना आवश्यक है ?
उत्तर-
दण्ड आरेख को कालमी चित्र भी कहते हैं। इसके मुख्य नियम हैं-

  • सारे बार समान चौड़ाई के होने चाहिए।
  • सारे बार एक समान दूरी पर होने चाहिए।
  • सारे बार अलग-अलग रंगों द्वारा आकर्षित तथा एक-दूसरे से अलग दिखाये जाते हैं।

प्रश्न 4.
आंकड़ा चित्रों के लाभ बताओ।
उत्तर-
आंकड़ा चित्रों के लाभ इस प्रकार हैं-

  • आंकड़ों का सजीव रूप–प्रायः किसी विषय सम्बन्धी आंकड़े नीरस व प्रेरणा रहित होते हैं। रेखाचित्र इन विषयों को एक सजीव तथा रोचक रूप देते हैं। एक ही दृष्टि में रेखाचित्र तथ्यों का मुख्य उद्देश्य व्यक्त करने में सहायक होते हैं।
  • सरल रचना-रेखाचित्रों की रचना सरल होने के कारण अनेक विषयों में इनका प्रयोग किया जाता है।
  • तुलनात्मक अध्ययन-रेखाचित्रों द्वारा विभिन्न आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन सरल हो जाता है।
  • अधिक समय तक स्मरणीय-रेखाचित्रों का दर्शनीय रूप मस्तिष्क पर एक लम्बे समय के लिए गहरी छाप छोड़ जाता है। यह आरेख दृष्टिक सहायता का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।
  • विश्लेषण में उपयोगी-शोधकार्य में किसी तथ्य के विश्लेषण में रेखाचित्र सहायक होते हैं।
  • साधारण व्यक्ति के लिए उपयोगी-साधारण व्यक्ति आंकड़ों को चित्र द्वारा आसानी से समझ सकता है।

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प्रश्न 5.
चक्र चित्र (Pie Diagram) किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह वृत्त चित्र (Circular Diagram) का ही एक रूप है। इसमें विभिन्न राशियों को जोड़ कर एक वृत्त द्वारा दिखाया जाता है। फिर इस वृत्त को विभिन्न भागों में बांटकर विभिन्न राशियों का आनुपातिक प्रदर्शन अंशों में किया जाता है। इस चित्र को चक्र चित्र, पहिया चित्र या सिक्का चित्र भी कहते हैं।

प्रश्न 6.
वृत्त चक्र के गुण-दोष बताओ।
उत्तर-

  1. चक्र चित्र विभिन्न वस्तुओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए उपयोगी है।
  2. ये कम स्थान घेरते हैं। इन्हें वितरण मानचित्रों पर भी दिखाया जाता है।
  3. इसका चित्रीय प्रभाव भी अधिक है।
  4. इसमें पूरे आँकड़ों का ज्ञान नहीं होता तथा गणना करनी कठिन होती है।

प्रश्न 7.
बहाव नक्शों के लिए कौन-सी जरूरतमंद वस्तुएं आवश्यक चाहिए ?
उत्तर-
बहाव नक्शों के लिए-

  • जरूरतमंद ट्रांसपोर्ट रूट का नक्शा जिस पर स्टेशन दिखाया गया हो उसकी आवश्यकता होती है।
  • वस्तुओं, सेवाओं, गाड़ियों की संख्या इत्यादि सम्बन्धी डाटा, जिनमें उनके संबंधित वस्तुओं की उपज तथा पहुंच का स्थान बताना बहुत आवश्यक है।
  • ज़रूरत के पैमाने का चुनाव भी आवश्यक है।

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प्रश्न 8.
वर्णमात्री नक्शे बनाने के सिद्धान्त क्या हैं ?
उत्तर-
जैसे-जैसे किसी वस्तु में वितरण का घनत्व बढ़ता जाता है। उसी प्रकार आभा भी अधिक गहरी होती जाती हैं। आभा को अधिक सघन करने के कई तरीके हैं-

  • बिन्दुओं का आकार बड़ा करके।
  • रेखाओं को मोटा करके।
  • रेखाओं को निकट करके।
  • रेखा जाल बनाकर।
  • रंगों को गहरा करके।

प्रत्येक मानचित्र के नीचे Scheme of Shades का एक सूचक दिया जाता है।

प्रश्न 9.
विषयगत नक्शे कौन से हैं ?
उत्तर-
जिन नक्शों के द्वारा आँकड़ों की विशेषता दर्शाने के लिए तथा तुलना करने के लिए ग्राफ तथा चित्र एक अहम् भूमिका निभाते हैं, विषयगत नक्शे होते हैं पर इनमें क्षेत्रीय परिदृश्य दिखाने के लिए चित्र तथा ग्राफ असफल होते हैं। इसलिए स्थानिक भिन्नता को तथा क्षेत्रीय वितरण को समझने के लिए इस तरह के नक्शे बनाये जाते हैं।

प्रश्न 10.
कंप्यूटर क्या कर सकता है ?
उत्तर-
कंप्यूटर एक इलैक्ट्रॉनिक उपकरण है। इसके अपने कई हिस्से होते हैं जिनमें कुछ हैं, मैमोरी, माइक्रो प्रोसैसर, निवेश एवं निर्गत उपकरण। कंप्यूटर के यह सारे हिस्से मिलकर बहुत ही अधिक प्रभावशाली उपकरण मतलब कंप्यूटर का निर्माण करते हैं। इसके द्वारा आंकड़ा पेशकारी, प्रक्रिया तथा संचालन का काम अच्छे ढंग के साथ किया जा सकता है। कंप्यूटर की सहायता के साथ जोड़ तथा घटाव से लेकर तर्क से हल करने वाले सारे साधारण तथा जटिल प्रश्न हल किये जा सकते हैं।

प्रश्न 11.
MS-Excel या स्प्रेडशीट क्या है ?
उत्तर-
यह कुछ ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम हैं जिनकी हम आंकड़ा प्रक्रिया के लिए सबसे अधिक उपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त इसका प्रयोग नक्शे तथा रेखाचित्र बनाने में करते हैं। इसको रेखाचित्र या नक्शे बनाने वाले प्रोग्राम या स्प्रेडशीट के नाम से पहचाना जाता है।

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प्रश्न 12.
स्थानीय आंकड़े कौन से होते हैं ?
उत्तर-
जो आंकड़े किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति को दर्शाते उनको स्थानीय आंकड़े कहते हैं। इसे आमतौर पर बिन्दु रेखाओं तथा बहुर्भुज के रूप में मिलते हैं। इसमें ट्यूवबैल, कस्बे, गाँव, अस्पताल इत्यादि बिन्दुओं की सहायता के साथ, रेल की लाइनों, नदियों इत्यादि रेखाओं की सहायता के साथ तथा भूमि, तालाब, झीलों, जंगल, ज़िले इत्यादि बहुभुजों की सहायता से दिखाये जाते हैं।

प्रश्न 13.
Sun-Synchronerus Circular Orbit क्या है ?
उत्तर-
Sun-Synchronerus Circular Orbit होता है जब पृथ्वी के केन्द्रीय पार्ट को उपग्रह के साथ मिलाने वाली एक रेखा तथा पृथ्वी के केन्द्र को सूर्य के साथ मिलाने वाली रेखा के मध्य में बनने वाले कोण स्थाई हों।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बिन्दु नक्शे बनाने के लिए मुख्य आवश्यकताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
बिन्दु मानचित्र बनाने के लिए आवश्यकताएं-बिन्दु विधि द्वारा मानचित्र बनाने के लिए कुछ चीज़ों की आवश्यकता होती है-

  • निश्चित आंकड़े (Definite an Detailed Data)-जिस वस्तु का वितरण प्रकट करना हो उसके सही सही आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए। ये आंकड़े प्रशासकीय इकाइयों के आधार पर होने चाहिए जैसे जनसंख्या तहसील या जिले के अनुसार होनी चाहिए।
  • रूपरेखा मानचित्र (Outline Map) उस प्रदेश का एक सीमा चित्र हो जिसमें जिले या राज्य इत्यादि शासकीय भाग दिखाए हों। यह सीमा चित्र समक्षेत्र प्रक्षेप पर बना हो।
  • धरातलीय मानचित्र (Relief Map)-उस प्रदेश का धरातलीय मानचित्र हो जिसमें Contours, thills, marshes, इत्यादि धरातल की आकृतियां दिखाई गई हों।
  • जलवायु मानचित्र (Climatic Map)-उस प्रदेश का जलवायु मानचित्र हो जिसमें वर्षा तथा तापमान का ज्ञान हो सके।
  • मृदा मानचित्र (Soil Map)—विभिन्न कृषि पदार्थों की उपज वाले मानचित्रों में भूमि के मानचित्र आवश्यक हैं क्योंकि हर प्रकार की मिट्टी की उपजाऊपन विभिन्न होता है।

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प्रश्न 2.
विषयगत नक्शों का महत्त्व वर्णन करो।
उत्तर-
विषयगत नक्शों का महत्त्व निम्नलिखितानुसार है-

  • यह आर्थिक भूगोल के अध्ययन के लिए विशेष रूप में महत्त्व रखता है। पृथ्वी पर अलग-अलग साधन तथा मनुष्य के सम्बन्ध में इन शक्तियों द्वारा स्पष्ट रूप से दर्शाया जा सकता है।
  • आंकड़ों की लम्बी-लम्बी तालिकाओं को याद रखना मुश्किल हो जाता है पर वितरण नक्शे किसी तत्व की दिमाग पर स्थाई छाप छोड़ देते हैं।
  • इनका उपयोग शिक्षा संबंधी कामों के लिए किया जाता है।
  • इन नक्शों के द्वारा एक नज़र में ही किसी वस्तु के वितरण का तुलनात्मक अध्ययन हो जाता है। यह स्पष्ट हो जाता है कि कौन सी वस्तु कौन से क्षेत्र में अधिक तथा कौन से क्षेत्र में कम होती है।
  • इन नक्शों के द्वारा क्षेत्रफल तथा उत्पादन की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन हो जाता है।
  • वितरण नक्शे वास्तविक आंकड़ों के स्थान नहीं ले सकते। असल में नक्शों के द्वारा एक भूगोलकार सिर्फ तत्त्व ही दर्शा सकता है।

प्रश्न 3.
आंकड़ा डाटा के प्रारंभिक स्रोत कौन-से हैं ?
उत्तर-
आंकड़ा डाटा के प्रारंभिक स्रोत इस प्रकार हैं-

  • निजी निरीक्षण-यह निरीक्षण किसी समूह, संस्था, व्यक्ति या क्षेत्र से सीधे निरीक्षण द्वारा जानकारी इकट्ठी की जाती है। क्षेत्रीय कार्य के द्वारा स्थल रूपों, प्रवाह प्रणाली, मिट्टी की किस्में तथा वनस्पति, जनसंख्या संरचना इत्यादि की जानकारी इकट्ठी की जाती है।
  • साक्षात्कार-इस द्वारा खोज की जानकारी पर वार्तालाप किया जाता है तथा इस पर्यावरण द्वारा जानकारी इकट्ठी की जाती है।
  • स्टेडले-इसमें कुछ सवाल तथा उनके जवाब एक कागज़ पर लिखे जाते हैं तथा प्रश्नों के जवाब देने वाले को उनको अपने चुनाव के अनुसार चुनना होता है। जिस स्थान पर जवाब देने के दो विचारों का चुनाव होता हैं उस स्थान पर कागज़ पर आवश्यकता अनुसार जगह छोड़ी जाती होती है। इस तरीके से बड़े क्षेत्र की जानकारी इकट्ठी की जाती है। पर सिर्फ पढ़े-लिखे व्यक्ति से ही इस तरीके की जानकारी इकट्ठी की जाती है।
  • अन्य तरीके-मिट्टी किट तथा पानी गुणवत्ता किट से भी सीधे तौर पर जल तथा मिट्टी की गुणवत्ता संबंधी आँकड़े इकट्ठे किये जा सकते हैं।

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प्रश्न 4.
आंकड़े को प्रदर्शित करने की कौन-कौन सी विधियां हैं ?
उत्तर-
आंकड़े रेखाचित्रों तथा वितरण मानचित्रों द्वारा प्रकट किए जाते हैं। आँकड़ों के विस्तार तथा प्रकृति के अनुसार ये रेखाचित्र निम्न प्रकार के हैं-

  1. रेखा आरेख चित्र (Line Graph)
  2. दण्डारेख चित्र (Bargraph)
  3. चलाकृति चित्र (Wheel diagram)
  4. तारक चित्र (Star Diagram)
  5. क्लाइमोग्राफ (Climograph)
  6. हीथर ग्राफ (Hythergraph)
  7. चित्रीय आरेख (Pictorial diagram)
  8. आयत चित्र (Rectangular Diagram)
  9. मुद्रिक चित्र (Ring Diagram)
  10. मेखला चित्र (Circular Diagram)

प्रश्न 5.
रेखाग्राफ की रचना तथा महत्त्व का वर्णन करो।
उत्तर-
सांख्यिकी चित्रों में रेखाग्राफ का महत्त्व बहुत अधिक है। इसमें प्रत्येक वस्तु को दो निर्देशकों की सहायता से दिखाया जाता है। यह ग्राफ किसी निश्चित समय में किसी वस्तु के शून्य में परिवर्तन को प्रकट करता है। आधार रेखा पर समय को प्रदर्शित किया जाता है जिसे ‘X’ अक्ष कहते हैं। ‘Y’ अक्ष या खड़ी रेखा पर किसी वस्तु के मूल्य को प्रदर्शित किया जाता है। दोनों निर्देशकों के प्रतिच्छेदन के स्थान पर बिन्दु लगाया जाता है। इस प्रकार विभिन्न बिन्दुओं को मिलाने से एक वक्र रेखा प्राप्त होती है। ये रेखा ग्राफ दो प्रकार के होते हैं।

  1. जब किसी निरन्तर परिवर्तनशील वस्तु (तापमान, नमी, वायु, भार इत्यादि) को दिखाना हो तो उसे वक्र रेखा से दिखाया जाता है।
  2. जब किसी रुक रुक कर बदलने वाली वस्तु का प्रदर्शन करना हो तो विभिन्न बिन्दुओं को सरल रेखा द्वारा मिलाया जाता है। जैसे वर्षा, कृषि उत्पादन, जनसंख्या।

महत्त्व-रेखा ग्राफ से तापमान, जनसंख्या वृद्धि, जन्म दर, विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन दिखाया जाता है। यह आसानी से बनाए जा सकते हैं। रेखा ग्राफ समय तथा उत्पादन में एक स्पष्ट सम्बन्ध प्रदर्शित करते हैं।

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प्रश्न 6.
दण्ड आरेख (Bar Diagram) के गुण तथा दोष लिखो।
उत्तर-
गुण-दोष (Merits and Demerits)

  • यह आंकड़े दिखाने की सबसे सरल विधि है।
  • इसके द्वारा तुलना करना आसान है।
  • दण्ड चित्र बनाने कठिन हैं जब समय अवधि बहुत अधिक हो।
  • जब अधिकतम तथा न्यूनतम संख्या में बहुत अधिक अन्तर हो, तो दण्ड चित्र नहीं बनाए जा सकते हैं।

प्रश्न 7.
वृत्त चक्र (Pie Diagram) की रचना के बारे में बताओ।
उत्तर-
यह वृत्त चित्र का ही एक रूप है। इसमें विभिन्न राशियों के जोड़ को एक वृत्त द्वारा दिखाया जाता है। फिर इस वृत्त को विभिन्न भागों में बांटकर विभिन्न राशियों का आनुपातिक प्रदर्शन अंशों में किया जाता है। इस चित्र को चक्र चित्र, पहिया चित्र या सिक्का चित्र भी कहते हैं।
रचना-इस चित्र में वृत्त का अर्द्धव्यास मानचित्र के आकार के अनुसार अपनी मर्जी से लिया जाता है। इसका सिद्धांत यह है कि कुल राशि वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर होती है। एक वृत्त के केंद्र पर 360° का कोण बनता है। प्रत्येक राशि के लिए वृत्तांश ज्ञात किए जाते हैं। इसलिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
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कई बार वृत्त के विभिन्न भागों को प्रभावशाली रूप से दिखाने के लिए इनमें भिन्न-भिन्न शेड कर दिए जाते हैं।

प्रश्न 8.
विषयगत नक्शे बनाने के लिए जरूरतमंद वस्तुओं तथा आम नियमों के बारे में बताओ।
उत्तर-
आंकड़ों की तुलना करने तथा विशेषताएं दर्शाने के लिए बनाये ग्राफ तथा चित्र इसमें अहम् भूमिका निभाते हैं। विषय नक्शे बनाने के लिए आवश्यकता की वस्तुएं हैं-

  • चुने हुए विषय संबंधी जिले स्तर पर आंकड़े।
  • चुने हुए क्षेत्र का प्रबंधन सीमाओं सहित नक्शा।
  • संबंधित क्षेत्र का भौतिक नक्शा।

विषयगत नक्शे बनाने के लिए मुख्य नियम-

  • इन नक्शों को योजना बंदी तरीके के साथ तथा सावधानी के साथ तैयार किया जाना चाहिए। पूर्ण रूप में तैयार नक्शा निम्न जानकारी देता है, जैसे कि क्षेत्र का नाम, विषय का शीर्षक, आंकड़े का स्रोत तथा साल, चिन्हों, प्रतीकों, रंगों की गहराइयों इत्यादि की सूचना।
  • विषयगत: नक्शों के साथ सही तरीके का चुनाव होना बहुत आवश्यक है।

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प्रश्न 9.
वर्णमात्री नक्शे बनाने की विधि के बारे में बताओ।
उत्तर-
इस विधि को Choropleth Method भी कहते हैं। इस विधि में किसी एक वस्तु के वितरण को मानचित्र पर विभिन्न आभाओं या रंगों द्वारा प्रकट किया जाता है। किसी रंग की अपेक्षा Black and White shading को प्रयोग करना उचित समझा जाता है।

विधि (Procedure)

  • किसी वस्तु के निश्चित आंकड़े प्राप्त करो। ये आंकड़े प्रशासकीय इकाइयों के आधार पर हों।
  • ये आंकड़े औसत के रूप में हो या प्रतिशत या अनुपात के रूप में, जैसे जनसंख्या का घनत्व।
  • घनत्व को प्रकट करने के लिए उचित अन्तराल चुन लेना चाहिए।
  • अन्तराल के अनुसार Shading का सूचक मानचित्र के कोने में बनाना चाहिए।
  • यह आभा घनत्व के अनुसार गहरी होती चली जाए।
  • प्रत्येक प्रशासकीय इकाई में घनत्व के अनुसार शेडिंग करके मानचित्र तैयार किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
सममान नक्शे किसे कहते हैं ? इनके गुण बताओ।
उत्तर-
Isopleth शब्द दो शब्दों के जोड़ से बना है (Iso + Plethron) Iso का अर्थ है समान तथा plethron शब्द का अर्थ है मान रेखाएं अर्थात् वह रेखाएं हैं जिनका मूल्य तीव्रता तथा घनत्व समान हो। ये रेखाएं उन स्थानों को आपस में जोड़ती हैं जिनका मान समान हो।

गुण (Merits)

  • सममान रेखायें वर्षा, तापमान इत्यादि आंकड़ों के परिवर्तन को शुद्ध रूप से प्रदर्शित करती हैं।
  • ये रेखायें किसी स्थान पर उपस्थित मूल्य को प्रकट करती हैं।
  • अन्य विधियों की अपेक्षा यह एक अधिक वैज्ञानिक विधि है।
  • बिन्दु मानचित्र तथा वर्णमात्री को समान रेखा मानचित्र में बदला जा सकता है।
  • इन मानचित्रों का प्रशासकीय इकाइयों में कोई सम्बन्ध नहीं होता।

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प्रश्न 11.
संगणक सॉफ्टवेयर तथा हार्डवेयर बारे बताओ।
उत्तर-
संगणक के भौतिक हिस्से जिनको हम देख सकते हैं तथा छू सकते हैं वे हार्डवेयर कहलाते हैं। यह भाग मशीनी, इलैक्ट्रॉनिक या इलैक्ट्रीकल हो सकते हैं। ये कंप्यूटर के हार्डवेयर अलग-अलग हो सकते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता हैं कि कंप्यूटर किस उद्देश्य के लिए प्रयोग में लाया जा सके तथा व्यक्ति की आवश्यकता क्या है। एक कंप्यूटर में विभिन्न तरह के हार्डवेयर होते हैं जिसमें सी०पी०यू०, हार्ड डिस्क, रैम, प्रोसैसर, मॉनीटर, मदरबोर्ड, फ्लापी ड्राइव कंप्यूटर के सिर्फ पावर संचालित यूनिट की बोर्ड, माऊस इत्यादि भी हार्डवेयर के अंतर्गत आते हैं। कंप्यूटर हमारी तरह हिन्दी या अंग्रेजी भाषा नहीं समझता। हम कंप्यूटर को जो निर्देशन देते हैं उसकी एक नियत भाषा होती है इसको मशीन लैंगवेज़ या मशीन भाषा कहते हैं। कंप्यूटर साफ्टवेयर लिखित प्रोग्राम का एक समूह है जो कि कंप्यूटर की भंडार शाखा में जमा हो जाता है। इसमें MS-Excel, जी०पी०एस० इत्यादि शामिल हैं।

प्रश्न 12.
राकेट या लांच व्हीकल पर नोट लिखो।
उत्तर-
राकेट या लांच व्हीकल की सहायता से उपग्रह को अंतरिक्ष में दागा जा सकता है। कुछ दूरी पर पहुंच कर राकेट उपग्रह से अलग हो जाता है। उपग्रह अंतरिक्ष में पहुंच जाता है तथा राकेट समुद्र या बंजर धरती पर वापिस आ जाता है। राकेट या लांच व्हीकल दो किस्मों के होते हैं-

  • पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल (PSLV)—इस व्हीकल को ISRO की तरफ से तैयार किया गया है। इस व्हीकल की सहायता से 1750 कि०ग्रा० तक के भार के Earth Observation उपग्रहों को 600-900 कि०मी० ऊंचाई तक के Sun-Synchronous Circular Polar Orbit में डाला जाता है।
  • जीऊ सिनक्रोसन सैटेलाइट लांच व्हीकल (GSLV)-इस व्हीकल को ISRO ने तैयार किया है। इसके मुख्य तीन पड़ाव होते हैं। इसकी तीसरी पड़ाव में क्रायोजनिक इंजन होता है। इसकी सहायता के साथ 2500 कि०ग्रा० या इससे भी भारे उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे जा स ते हैं।

प्रश्न 13.
भौगोलिक जानकारी तंत्र क्या है ?
उत्तर-
विद्वानों ने भौगोलिक जानकारी तंत्र का अलग-अलग तरीकों से वर्णन किया है। यह एक ऐसा तंत्र है जिस द्वारा हमें GPS उपग्रहों के द्वारा भेजे गये आंकड़ों को जान सकते हैं क्योंकि यह आंकड़े अंतरिक्ष से होते हैं। इनको पूरी तरह से समझना मुश्किल होता है। इन निरोल आंकड़ों को एक खास सिस्टम में निकाल कर आम मनुष्य की समझ में लाया जा सकता है। जी०पी०एस० तथा मनुष्य में तालमेल बिठाने का काम भौगोलिक जानकारी तंत्र ही करता है। इसकी सहायता के साथ स्थानिक तथा गैर-स्थानिक दोनों ही आंकड़ों को इकट्ठा किया जा सकता है। यह तंत्र आंकड़ों को इकट्ठा करता है उनको संभालता है तथा एक प्रतिक्रिया में से निकाल कर उसको उपयोग योग्य बनाता है। भौगोलिक जानकारी तंत्र की सहायता से शहरों तथा क्षेत्रों का योजनाबद्ध निर्माण भी किया जाता है। यह नक्शे तथा रेखाचित्रों के आगे की चीज है। कंप्यूटर तथा सूचना तकनीक में हो चुके विकास कारण इस तंत्र के साथ मौजूदा प्रबंधन की समस्याओं का हल किया जा सकता है।

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प्रश्न 14.
ग्लोबल पोजीशनिंग योजना (GPS) पर नोट लिखो।
उत्तर-
भूमण्डलीय स्थितीय तंत्र (ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम )(GPS) संयुक्त राज्य सेना द्वारा विकसित भूमंडलीय स्थितीय तंत्र सर्व ऋतु-रेडियो नौकायन प्रणाली है, जिसमें उपग्रह से नीचे प्रक्षेपित आँकड़ों का व्यक्तिगत यंत्र (रिसीवर) द्वारा प्रक्रमण होता है। यह विश्व में प्रतिदिन चौबीसों घंटे तीन आयामी स्थिति बताता है। अंतरिक्षीय उपग्रह प्रणाली की वृत्तीय कक्षा के परिक्रम पथ में 24 उपग्रह सम्मिलित होते हैं, तथा इसकी कक्षा में परिक्रमा अवधि 12 घंटे की होती है। यह परिक्रमा पथ 55° के कोण पर झुका होता है। उपग्रहों पर एक आण्विक घड़ी लगी होती है, जो घूर्णन के साथ स्थायी रूप से संकेत पैदा करती रहती है। ये संकेत उपग्रह के समय तथा पंचांग (किसी निश्चित समय बिंदु पर उपग्रह की स्थिति) में सम्बन्धित सूचना का वहन करती है। इसमें अक्षांश, देशान्तर तथा किसी भी स्थानीय इकाई की ऊँचाई प्राप्त करते हैं। इस प्रकार, भूमंडलीय स्थितीय तंत्र का स्थानीय मानचित्रण के क्षेत्र में अत्यधिक योगदान है।

प्रश्न 15.
भूमि उपयोग निरीक्षण के उद्देश्य क्या हैं ?
उत्तर-
कृषि भारतीय लोगों का मुख्य पेशा है। इसलिए सही भूमि उपयोग को समझना बहुत आवश्यक है। इस भूमि उपयोग के द्वारा हम कुछ त्रुटियों के बारे में जान सकते हैं तथा इन खामियों को दूर करके स्थिति को सुधारने के लिए सुझाव पेश कर सकते हैं। भूमि उपयोग निरीक्षण का मुख्य उद्देश्य एक कृषि के क्षेत्र में सही भूमि के उपयोग के बारे में जानना बहुत आवश्यक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूरा गाँव या गाँव का एक हिस्सा उसके आकार के अनुसार लिया जा सकता है। हम अपने उद्देश्य की पूर्ति को नंबर अलाट करके उनमें बीजी गई फसलों को भर कर तथा सम्बन्धित क्षेत्र का भूमि-उपयोग नक्शा तैयार करके कर सकते हैं। इसके लिए हमें मिट्टी, पानी के निकास, सिंचाई की सुविधाओं, खादों के सही उपयोग के बारे सही तथा स्पष्ट जानकारी इकट्ठी करनी बहुत आवश्यक है। इसके लिए खेतों के नंबर तथा गाँव के पास सीमाबंदी के नक्शे मिल सकते हैं जिससे ज़रूरत अनुसार जानकारी इकट्ठी की जा सकती है।

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निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
आंकड़ा (डाटा) क्या है ? इसकी ज़रूरत क्यों होती है ? इसके मुख्य स्रोतों का वर्णन करो।
उत्तर-
डाटा-संख्या पर आधारित इकट्ठी की गई जानकारी डाटा कहलाती है। जैसे हम कई बार सुनते हैं कि लुधियाना में 60 सें०मी० तक लगातार वर्षा हुई तथा कर्नाटक में 24 घंटों में 40 सें०मी० वर्षा हुई इत्यादि। जब संख्या पर आधारित ऐसी जानकारी इकट्ठी की जाती है उसे डाटा कहते हैं।

डाटा की ज़रूरत-भूगोल के अध्ययन के लिए नक्शों की काफी आवश्यकता है।

  • किसी क्षेत्र के फ़सली पैटर्न का अध्ययन डाटा द्वारा करना आसान होता है। क्षेत्र के फ़सली पैटर्न का अध्ययन करने के लिए क्षेत्र का फसली क्षेत्र, फसल, उपज, उत्पादन, सिंचाई की सुविधा, वर्षा की मात्रा, खाद तथा कीटनाशक दवाइयों इत्यादि के प्रयोग सम्बन्धी आंकड़ात्मक जानकारी की आवश्यकता होती है।।
  • किसी शहर के विकास का अध्ययन करना शहर की आबादी, लोगों के पेशे, वेतन, उद्योगों, यातायात के साधनों इत्यादि सम्बन्धी आंकड़ों की आवश्यकता पड़ती है।
  • तथ्यों को जानने के लिए डाटा इकट्ठा करना बहुत आवश्यक है।

आँकड़ा/डाटा के स्रोत डाटा मुख्य रूप में निम्न दो स्रोतों से प्राप्त किया जाता है-

I. प्राथमिक स्रोत (Primary Source)—जो किसी व्यक्ति । संस्था द्वारा इकट्ठे किया जाए।
II. गौण स्त्रोत (Secondary Source)—किसी प्रकाशित या अप्रकाशित स्रोत से इकट्ठे किया जाए।

I. प्राथमिक स्त्रोत (Primary Sources)-

1. निजी प्रेक्षण (Personal Observation)–निजी प्रेक्षण किसी व्यक्ति या ग्रुप द्वारा सीधे प्रेक्षण द्वारा जानकारी इकट्ठा करने से सम्बन्धित है। क्षेत्री कार्यों के द्वारा स्थल रूपों, प्रवाह प्रणाली, मिट्टी की किस्मों, लिंग अनुपात, आयु संरचना, साक्षरता, यातायात के साधन, शहरी, ग्रामीण बस्तियाँ इत्यादि की जानकारी इकट्ठी की जाती है।
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2. इंटरव्यू (Interview)-इस तरीके से खोजकर्ता सीधी जानकारी जवाब देने वाले से बातचीत द्वारा इकट्ठा कर . सकता है। इस प्रकार इंटरव्यू लेने वाला निम्नलिखित सावधानियों को इंटरव्यू लेते समय ध्यान में रखे-

  • इंटरव्यू लेने वाले द्वारा प्रश्नों की एक लिस्ट बना लेनी चाहिए ताकि बातचीत द्वारा अच्छी जानकारी इकट्ठी की जा सके।
  • इंटरव्यू लेने वाला इंटरव्यू का संचालन करने के उद्देश्य से पूरी तरह परिचित होना चाहिए तथा उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए काम करता हो।
  • इंटरव्यू लेने वाले को जवाबदेह व्यक्ति को अपने विश्वास में लेना आवश्यक है।
  • प्रश्नों की भाषा स्पष्ट तथा सादी होनी चाहिए।
  • ऐसे प्रश्नों से परहेज करना चाहिए जो किसी जवाबदेह की भावनाओं को दुःख पहुंचाएं।

3. प्रश्नावली (Questionnaire) इस तरीके में सरल प्रश्न तथा उनके योग्य उत्तर एक साफ पेपर पर लिख लेने चाहिए तथा जवाबदेह को अपनी योग्यता तथा समझ के अनुसार उन उत्तरों का चुनाव करना चाहिए। जिस स्थान पर जवाब देने वाले के विचारों को जानने की आवश्यकता होती है वहां कागज़ पर ज़रूरत अनुसार जगह दी होती है। इस प्रकार के तरीके के साथ बड़े क्षेत्र की जानकारी हासिल करनी अधिक उपयुक्त है। इस तरीके की सीमा की कमी यह है कि सिर्फ पढ़े लिखे तथा शिक्षित व्यक्ति की ही जानकारी इस द्वारा इकट्ठी की जा सकती है। इसके अतिरिक्त मिट्टी तथा जल की गुणवत्ता के सम्बन्ध में आंकड़े सीधे तौर पर मिट्टी, धूल तथा जल गुणवत्ता जांच की सहायता से इकट्ठे किए जा सकते हैं।

II. दूसरे दों के स्त्रोत (Secondary Sources of Data)-दूसरे दों में प्रकाशित तथा अप्रकाशित रिकार्ड जो कि सरकारी प्रकाशनायों, दस्तावेजों तथा रिपोर्टों के रूप में होते हैं।

प्रकाशित स्त्रोत (Published Sources)

  • सरकारी प्रकाशन (Government Publications)—इनमें भारत सरकार तथा राज्य की सरकारों के अलग अलग मंत्रालयों तथा विभागों के प्रकाशन तथा जिला बुलेटिन सबसे अधिक अच्छे स्रोत हैं। इन स्रोतों में भारतीय जनगणना, राष्ट्रीय सैंपल सर्वे की रिपोर्ट, भारतीय मौसम विभाग की रिपोर्ट, राज्य सरकार के आंकड़ासार तथा अलग-अलग कमीशन की रिपोर्ट आती हैं।
  • अर्धसरकारी प्रकाशन (Quasi Government Publications)-इस श्रेणी में शहरी विकास अथारिटी, नगर निगमों तथा जिला परिषदों इत्यादि की रिपोर्टों को शामिल किया जाता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन (International Publications)—इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की अलग-अलग एजैंसियों जैसे कि यूनेस्को/संयुक्त राष्ट्र विकास प्रोग्राम, यू०एन०डी०पी०, विश्व स्वास्थ्य संगठन, खाद्य तथा कृषि संगठन इत्यादि की रिपोर्ट आती हैं।
  • निजी प्रकाशन (Private Publications)-इसमें अलग-अलग अखबारों, सर्वे, संस्थानों द्वारा प्रकाशित रिपोर्टो, मोनोग्राफ तथा वार्षिक बुक इत्याद शामिल हैं।
  • अखबार तथा पत्रिका (Newspaper and Magazines). दैनिक अखबार तथा साप्ताहिक तथा मासिक पत्रिका इत्यादि इस कैटेगरी में शामिल हैं।
  • इलैक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media)-आज के समय में इसका खासकर इंटरनैट के आंकड़ों का मुख्य स्रोत के तौर पर उभरा हुआ रूप है।

अप्रकाशित स्रोत (Unpublished Sources)-

  1. सरकारी दस्तावेज (Government Documents)-अप्रकाशित रिपोर्टों मोनोग्राफ, दस्तावेज गौण स्रोतों का एक रूप है। उदाहरण के तौर पर पटवारियों का रिकार्ड किसी गाँव की जानकारी के लिए एक बहुत अच्छा स्रोत है।
  2. अर्धसरकारी दस्तावेज (Quasi-government Records)-अलग-अलग नगर निगम की रिपोर्टों तथा विकास प्रोग्राम इत्यादि की रिपोर्ट इस भाग में आती है।
  3. निजी दस्तावेज़ (Private Documents)-इनमें ट्रेड कंपनियां, ट्रेड यूनियनें, राजनीतिक तथा गैर-राजनीतिक संस्थाएं इत्यादि की रिपोर्ट शामिल होती हैं।

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प्रश्न 2.
आंकड़ा चित्र से क्या अभिप्राय है ? इनके लाभ तथा सीमाओं का वर्णन करो।
उत्तर-
आंकड़ा चित्र (Stastical Diagram)-आर्थिक भूगोल के अध्ययन में आंकड़ों का विशेष महत्त्व है। विभिन्न प्रकार के आंकड़े किसी वस्तु की मात्रा, गुण, घनत्व, वितरण इत्यादि को स्पष्ट करते हैं। ये आंकड़े अनेक तथ्यों की पुष्टि करते हैं। किसी क्षेत्र की जलवायु के अध्ययन में तापमान, वर्षा इत्यादि के आंकड़ों का भी अध्ययन किया जाता हैं। इन आंकड़ों का विश्लेषण करके निष्कर्ष निकाले जाते हैं। परन्तु इस विश्लेषण के लिए अनुभव, समय तथा परिश्रम की आवश्यकता होती है। बड़ी-बड़ी तालिकाओं को याद करना बहुत कठिन तथा नीरस होता है। लम्बी-लम्बी सारणियां कई बार भ्रम उत्पन्न कर देती हैं। उन्हें सरल और स्पष्ट बनाने के लिए ये आंकड़े रेखाचित्रों द्वारा प्रकट किए जाते हैं। इन सांख्यिकीय आंकड़ों पर आधारित रेखाचित्रों तथा आलेखों को सांख्यिकीय आरेख कहा जाता है।

“सांख्यिकीय आंकड़ों को चित्रात्मक ढंग से प्रदर्शित करने वाले रेखाचित्रों को सांख्यिकीय आरेख कहते हैं।” इन विधियों में विभिन्न प्रकार की ज्यामितीय आकृतियां, रेखाएं, वक्र रेखाएं रचनात्मक ढंग से प्रयोग की जाती हैं। ये आंकड़ों को एक दर्शनीय रूप देकर मस्तिष्क पर गहरी छाप डालते हैं।

सांख्यिकीय आरेखों के लाभ (Advantages of Statistical Diagram)-

  • आंकड़ों का सजीव रूप-प्रायः किसी विषय सम्बन्धी आंकड़े नीरस व प्रेरणा रहित होते हैं। रेखाचित्र इन विषयों को एक सजीव तथा रोचक रूप देते हैं। एक ही दृष्टि में रेखाचित्र तथ्यों का मुख्य उद्देश्य व्यक्त करने में सहायक होते हैं।
  • सरल रचना-रेखाचित्रों की रचना सरल होने के कारण अनेक विषयों में इनका प्रयोग किया जाता है।
  • तुलनात्मक अध्ययन-रेखाचित्रों द्वारा विभिन्न आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन सरल हो जाता है।
  • अधिक समय तक स्मरणीय-रेखाचित्रों का दर्शनीय रूप मस्तिष्क पर एक लम्बे समय के लिए गहरी छाप छोड़ जाता है। यह आरेख दृष्टि की सहायता का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।
  • विश्लेषण में उपयोगी-शोध कार्य में किसी तथ्य के विश्लेषण में रेखाचित्र सहायक होते हैं।
  • साधारण व्यक्ति के लिए उपयोगी-साधारण व्यक्ति आंकड़ों को चित्र द्वारा आसानी से समझ सकता है।
  • समय की बचत-रेखाचित्रों द्वारा तथ्यों को शीघ्र ही समझा जा सकता है जिसमें समय की बचत होती है।

ग्राफ चित्र बनाने के लिए आम नियम-

1. सही तरीके का चुनाव-आंकड़े, अलग-अलग विषयों जैसे कि तापमान, जनसंख्या में वृद्धि तथा वितरण, उत्पादन अलग-अलग वस्तुओं का वितरण तथा व्यापार इत्यादि को पेश करते हैं। आंकड़ों की इन विशेषताओं को सही तरीके से चुनने के लिए सही चित्रात्मक तरीके की आवश्यकता होती है।
2. सही पैमाने का चुनाव-पैमाना किसी नक्शे या चित्र पर आंकड़े के प्रदर्शन के लिए मापक के तौर पर प्रयोग में आता है। इस प्रकार सही पैमाने का चुनाव भी काफ़ी आवश्यक है।
3. रूपरेखा/डिजाइन-यह नक्शे कला का महत्त्वपूर्ण गुण है। नक्शा कला के डिजाइन के कुछ भाग इस प्रकार हैं –

  • शीर्षक-नक्शे के शीर्षक क्षेत्र के नाम तथा प्रयोग किए आंकड़ों के सम्बन्ध को दर्शाते हैं। यह भाग अलग-अलग आकार तथा मोटाई के अक्षरों तथा नंबरों के रूप में दिखाये जाते हैं।
  • संकेत-संकेत चित्र का महत्त्वपूर्ण भाग हैं। यह नक्शों में प्रयोग किए गये रंग, रंग की गहराई, चिन्हों इत्यादि की व्याख्या करता है।
  • दिशा-क्योंकि नक्शे में धरती के किसी हिस्से को दिखाया जाता है इसलिए यह विषय केन्द्रित होना आवश्यक है। इसलिए दिशा चिन्ह आवश्यक है।

चित्रों की रचना-आँकड़े लम्बाई चौड़ाई मात्रा इत्यादि मापने योग्य तरीकों पर आधारित होते हैं। इसको मुख्य रूप में तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. एक पसारी जैसे कि लकीरी ग्राफ, बहुलकीरी ग्राफ, दण्ड आरेख, हिस्टोग्राफ इत्यादि।
  2. दो पसारी जैसे कि वृत्त-चक्र तथा आयताकार चित्र।
  3. तीन पसारी जैसे कि घन तथा गोला चित्र इत्यादि।

आकंड़ो चित्रों की सीमाऍ (Limitations of Statistical Diagrams)—

  • आंकड़ों का शुद्ध रूप से निरूपण का सम्भव न होना-रेखाचित्र आंकड़ों को कई बार शुद्ध रूप में प्रदर्शित नहीं करते। इनमें थोड़ा बहुत परिवर्तन किया जाता है।
  • आरेख आंकड़ों के प्रतिस्थापन नहीं हैं-मापक के अनुसार रेखाचित्रों का आकार बदल जाता है तथा कई भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं।
  • बहुमुखी आंकड़ों का निरूपण सम्भव नहीं है-एक ही रेखाचित्र पर एक से अधिक प्रकार के आंकड़े नहीं दिखाए जा सकते हैं। इसके द्वारा एक ही इकाई में मापे जाने वाले समान गुणों वाले आंकड़ों को ही दिखाया जा सकता है।
  • उच्चतम तथा न्यूनतम मूल्य में अधिक अन्तर-जब उच्चतम तथा न्यूनतम मूल्य में बहुत अधिक अन्तर हो तो रेखाचित्र नहीं बनाए जा सकते।
  • भ्रमात्मक परिणाम-उपयुक्त आरेख का प्रयोग न करने से गलत तथा भ्रमात्मक परिणाम निकलने की सम्भावना होती है।

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प्रश्न 3.
लकीरी ग्राफ (रेखाग्राफ) क्या है ? इसकी रचना तथा महत्त्व बताओ तथा निम्नलिखित आंकड़ों की सहायता से अमृतसर नगर के तापमान का लाइन ग्राफ बनाओ।
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उत्तर-
रेखा ग्राफ रेखा ग्राफ आमतौर पर समय श्रृंखला सम्बन्धित आंकड़े होते हैं जैसे की तापमान, वर्षा, जनसंख्या की वृद्धि, जन्म दर, मृत्यु दर, जंगलों अधीन क्षेत्र इत्यादि दिखाने के लिए बनाये जाते हैं।
अमृतसर नगर के तापमान का लाइन चित्र-ग्राफ पेपर पर आधार रेखा लगाओ। इस पर पांच-पांच लकीरों के अंतर के 12 महीने दिखाओ। इसको लेटवा पैमाना कहते हैं। लंबरेखा पर तापमान के लिए पैमाना बनाओ। हर एक वर्ग की दस रेखाओं 10° C तापमान प्रकट करती हैं। हर एक महीने के तापमान के लिए बिन्दु लगाओ। इन 12 बिन्दुओं को मिलाने के लिए एक वर्ग आकार का रेखाचित्र बनेगा।
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रेखा ग्राफ-सांख्यिकी चित्रों में रेखा ग्राफ का महत्त्व बहुत अधिक है। इसमें प्रत्येक वस्तु को दो निर्देशकों की सहायता से दिखाया जाता है। यह ग्राफ किसी निश्चित समय में किसी वस्तु के शून्य में परिवर्तन को प्रकट करता है। आधार रेखा पर समय को प्रदर्शित किया जाता है जिसे ‘X’ अक्ष कहते हैं। ‘Y’ अक्ष या खड़ी रेखा पर किसी वस्तु के मूल्य को प्रदर्शित किया जाता है। दोनों निर्देशकों के प्रतिच्छेदन के स्थान पर बिन्दु लगाया जाता है। इस प्रकार विभिन्न बिन्दुओं को मिलाने से एक वक्र रेखा प्राप्त होती है। ये रेखा ग्राफ दो प्रकार के होते हैं-

  • जब किसी निरन्तर परिवर्तनशील वस्तु (तापमान, नमी, वायु, भार इत्यादि) को दिखाना हो तो उसे वक्र रेखा से दिखाया जाता है।
  • जब किसी रुक-रुक कर बदलने वाली वस्तु का प्रदर्शन करना हो तो विभिन्न बिन्दुओं को सरल रेखा द्वारा मिलाया जाता है। जैसे वर्षा, कृषि उत्पादन, जनसंख्या।

महत्त्व (Importance)-रेखाग्राफ से तापमान, जनसंख्या, वृद्धि, जन्म दर, विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन दिखाया जाता है। यह आसानी से बनाए जा सकते हैं। रेखा ग्राफ समय तथा उत्पादन में एक स्पष्ट सम्बन्ध प्रदर्शित करते हैं।

प्रश्न 4.
बहुरेखा ग्राफ क्या होता है ? इसकी रचना तथा महत्त्व बताओ। निम्नलिखित 1980 से 2011 तक के आंकड़ों की सहायता से पंजाब अधीन अलग-अलग फसली रकबे (600 हैक्टेयर) का बहुरेखा ग्राफ बनाओ।
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उत्तर-
बहु-रेखाग्राफ भी रेखिक ग्राफ की तरह है जिसमें दो या फिर दो से अधिक परिवर्तनशील तत्व एक समान संख्या की लाइनों के द्वारा, तुरन्त तुलना करने के लिए दिखाये जाते हैं। इन बहु रैखिक ग्राफी के द्वारा अलग-अलग देशों/राज्यों में अलग-अलग फसलें जैसे कि चावल, गेहूं, दालों की उपजें, जन्म तथा मृत्यु दर, जीवन आस, लिंग अनुपात, लकीरों के द्वारा दिखाये जाते हैं। यह लकीरें कई तरह के होती हैं जैसे कि सीधी रेखा (-), विभाजित रेखा (—) तथा बिन्दु रेखा (….) इत्यादि या फिर अलग-अलग रंगों की रेखाएं इन तत्वों को दिखाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
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बहुरैखिक ग्राफ की रचना :

  • सबसे पहले X धुरा बनाओ तथा इससे 4 भागों में विभाजित कर लो (1980-81, 1990-91, 2000-2001, 2010-11) इत्यादि दोनों सिरों पर दो Y धुरे बनाओ।
  • इसके दाहिने तरफ Y धुरे पर सही पैमाना को निश्चित करके 5° या 10° के फर्क से फसली रकबे को दिखाओ।

महत्त्व-बहुरैखिक ग्राफ की सहायता से तापमान, जनसंख्या, वर्षा, फसलों का रकबा। जन्म दर, मृत्यु दर इत्यादि तत्व दिखाये जाते हैं। यह समय तथा उत्पादन में एक स्पष्ट सम्बन्ध प्रकट करते हैं।

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प्रश्न 5.
दण्ड आरेख (Bar Diagrams) क्या होते हैं ? इनके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
दण्ड आरेख (Bar Diagrams)-आंकड़े दिखाने की यह सबसे सरल विधि है। इसमें आंकड़ों को समान चौड़ाई वाले दण्डों या स्तम्भों (Columns) द्वारा दिखाया जाता है। इन दण्डों की लम्बाई वस्तुओं की मात्रा के अनुपात के अनुसार छोटी-बड़ी होती है। प्रत्येक दण्ड किसी एक वस्तु की कुल मांग को प्रदर्शित करता है। इन आरेखों के प्रयोग से संख्याओं का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है।

दण्ड आरेखों की रचना (Drawing of Bar Diagrams)—दण्ड चित्र बनाते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाता है-

1. मापक (Scale)-वस्तु की मात्रा के अनुसार मापक निश्चित करना चाहिए। मापक तीन बातों पर निर्भर करता
(क) कागज़ का विस्तार। (ख) अधिकतम संख्या। (ग) न्यूनतम संख्या।
मापक अधिक बड़ा या अधिक छोटा नहीं होना चाहिए।

2. दण्डों की लम्बाई (Length of Bars)—दण्डों की चौड़ाई समान रहती है, परन्तु लम्बाई मात्रा के अनुसार घटती-बढ़ती है।
3. शेड करना (Shading)–दण्ड रेखा खींचने के पश्चात् उसे काला कर दिया जाता है।
4. मध्यान्तर-दण्ड रेखाओं के मध्य अन्तर समान रखा जाता है।
5. आंकड़ों को निश्चित करना-सर्वप्रथम आंकड़ों को संख्या के अनुसार क्रमवार तथा पूर्णांक बना लेना चाहिए।

गुण-दोष (Merits and Demerits)-

  • यह आंकड़े दिखाने की सबसे सरल विधि है।
  • इनके द्वारा तुलना करना आसान है।
  • दण्ड चित्र बनाने कठिन हैं जब समय अवधि बहुत अधिक हो।
  • जब अधिकतम तथा न्यूनतम संख्या में बहुत अधिक अन्तर हो, तो दण्ड चित्र नहीं बनाए जा सकते हैं।

दण्ड आरेखों के प्रकार (Types of Bar Diagrams)–दण्ड आरेख मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

1. क्षैतिज दण्ड आरेख (Horizontal Bars)—ये सरल दण्ड आरेख हैं। इन दण्डों से किसी वस्तु का कुछ वर्षों का वार्षिक उत्पादन, जनसंख्या इत्यादि दिखाए जाते हैं। ये समान चौड़ाई के होते हैं। ये आसानी से पढ़े जा सकते हैं।

2. लम्बवत् दण्ड आरेख (Vertical Bars)—ये आरेख किसी आधार रेखा के ऊपर खड़े दण्डों के रूप में बनाए जाते हैं। आधार रेखा को शून्य माना जाता है, दण्डों की ऊंचाई पैमाने के अनुसार मापी जाती है। इन दण्डों से वर्षा का वितरण भी दिखाया जाता है। जब उच्चतम तथा न्यूनतम संख्याओं में अन्तर बहुत अधिक हो तो दण्ड आरेख प्रयोग नहीं किए जाते। दण्ड की लम्बाई कागज़ के विस्तार से अधिक नहीं होनी चाहिए। यदि दण्डों की संख्या अधिक हो तो भी ये आरेख प्रयोग नहीं किए जाते।

3. संश्लिष्ट दण्ड आरेख (Compound Bars)-यदि एक दण्ड को अनेक भागों में विभाजित कर उसके द्वारा कई वस्तुओं को एक साथ दिखाया जाए तो संश्लिष्ट दण्ड का निर्माण होता है। विभिन्न भागों में अलग-अलग Shade कर दिए जाते हैं ताकि विभिन्न वस्तुएं स्पष्टतया अलग दृष्टिगोचर हों। इस विधि से जल सिंचाई के विभिन्न साधन, शक्ति के विभिन्न साधन इत्यादि दिखाये जाते हैं।

4. प्रतिशत दण्ड आरेख (Percentage Bar)-किसी वस्तु के विभिन्न भागों को उस वस्तु के कुल मूल्य के प्रतिशत अंश के रूप में दिखाना हो तो प्रतिशत दण्ड बनाए जाते हैं। दण्ड की कुल लम्बाई 100% को प्रकट करती है।

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प्रश्न 6.
भारत में अनाज के कुल उत्पादन के आंकड़ों को दण्ड रेखाचित्र से प्रकट करो।

वर्ष उत्पादन (लाख मी० टन) ।
1982-83 1300
1983-84 1525
1984-85 1450
1985-86 1500
1986-87 1530

उत्तर-
रचना-

  • सबसे पहले एक आधार रेखा खींचो। इसके सिरों पर लम्ब रेखाएं खींचो।
  • बाईं ओर की लम्ब रेखा पर उत्पादन की मापनी निश्चित करो। जैसे 1″ = 500 लाख मी० टन।
  • आधार रेखा पर समय का पैमाना निश्चित करके विभिन्न वर्षों की स्थिति दिखाओ।
  • मापक के अनुसार प्रत्येक वर्ष के उत्पादन के लिए दण्ड रेखा की ऊंचाई ज्ञात करो।

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वर्ष उत्पादन दण्ड रेखा की लम्बाई
1982-83 1300 2.60″
1983-84 1525 3.05″
1984-85 1450 2.90″
1985-86 1500 3.00″
1986-87 1530 3.06″

आधार रेखा पर समान चौड़ाई वाले दण्ड खींचो तथा इन्हें काली छाया से सजाओ।

प्रश्न 7.
वृत्त चित्र किसे कहते हैं ? इनकी रचना तथा गुण-दोष बताओ।
उत्तर-
चक्र चित्र (Pie Diagram)-यह वृत्त चित्र (Circular Diagram) का ही एक रूप है। इसमें विभिन्न चित्र के जोड़ को एक वृत्त द्वारा दिखाया जाता है। फिर इस वृत्त को विभिन्न भागों (Sectors) में बांटकर विभिन्न राशियों का आनुपातिक प्रदर्शन अंशों में किया जाता है। इस चित्र को चक्र चित्र (Pie Diagram) पहिया चित्र (Wheel Diagram) या सिक्का चित्र (Coin Diagram) भी कहते हैं।

रचना-
इस चित्र में वृत्त का अर्धव्यास मानचित्र के आकार के अनुसार अपनी मर्जी से लिया जाता है। इसका सिद्धांत यह है कि कुल राशि वृत्त के क्षेत्रफल के बराबर होती है। एक वृत्त के केन्द्र पर 360° का कोण बनता है। प्रत्येक राशि के लिए वृत्तांश ज्ञात किए जाते हैं। इसलिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
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कई बार वृत्त के विभिन्न भागों को प्रभावशाली रूप से दिखाने के लिए इनमें भिन्न-भिन्न शेड (छायांकन) कर दिए जाते हैं।

गुण-दोष (Merits-Demerits)-

  • चक्र चित्र विभिन्न वस्तुओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए उपयोगी है।
  • ये कम स्थान घेरते हैं। इन्हें वितरण मानचित्रों पर भी दिखाया जाता है।
  • इसका चित्रीय प्रभाव (Pictorial Effect) भी अधिक है।
  • इसमें पूरे आंकड़ों का ज्ञान नहीं होता तथा गणना करना कठिन होता है।

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प्रश्न 8.
भारत में भूमि उपयोग के आंकड़ों को चलाकृति चित्र से दिखाओ।

उपयोग क्षेत्रफल (लाख हेक्टेयर में)
(i) वन 650
(ii) कृषि अयोग्य भूमि 470
(iii)जोतरहित भूमि 330
(iv) परती भूमि 220
(v) अप्राप्य भूमि 230
(vi) बोयी गयी भूमि योग 1400
योग 3300

 

रचना-प्रत्येक राशि के लिए वृत्तांश ज्ञात करो जब कि कुल योग के लिए कोण 360° है।
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एक वृत्त बनाकर प्रत्येक कोण काट कर उपविभाग करके, हर वृत्त खण्ड में छायांकन करके नाम लिखो।
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प्रश्न 9.
विषयक नक्शे (Thematic Maps) से क्या अभिप्राय है ? इनमें ज़रूरत की वस्तुएं बनाने के लिए तरीके, ज़रूरत तथा महत्ता का वर्णन करो।
उत्तर-
विषयक नक्शे-आंकड़ों की विशेषताएं दर्शाने के लिए तथा तुलना करने के लिए ग्राफ तथा चित्र एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा करते हैं। पर क्षेत्रीय परिदृश्य दिखाने के लिए चित्र तथा ग्राफ सफल नहीं रहते। इसलिए स्थानीय भिन्नता को दिखाने के लिए क्षेत्र विभाजन को समझने के लिए कई तरह के नक्शे बनाये जाते हैं। विषयक नक्शे वह नक्शे हैं जो धरती के किसी भाग के किसी तत्त्व के वितरण की मूल्य अथवा घनत्व को प्रकट करते हैं।

I. विषयक नक्शे बनाने के लिए ज़रूरत की वस्तुएँ (Requirement for Making Thematic Maps)

  1. चुने हुए क्षेत्र सम्बन्धी आंकड़े।
  2. ज़रूरत के क्षेत्र का प्रबंधन सीमाओं रहित नक्शा
  3. सम्बन्धित क्षेत्र का भौतिक नक्शा।

विषयक नक्शे बनाने के लिए आम नियम (Rules for Making Thematic Maps)-विषयक नक्शे सावधानी से योजना बना कर बनाये जाने आवश्यक हैं। पूर्ण तौर पर तैयार नक्शा निम्नलिखित जानकारी देता है-

  1. क्षेत्र का नाम पता चलता है।
  2. विषय का शीर्षक
  3. आंकड़ों के स्रोत तथा वर्ष
  4. चिह्न, प्रतीकों, रंगों की गहराइयां, इत्यादि की सूचना ।
  5. पैमाना

II. विषयक नक्शे के लिए योग्य तरीके का चुनाव (To choose Appropriate ways for Thematic Maps)-

विषयक नक्शे की ज़रूरत (Need for Thematic Maps)—शुरू में किसी वस्तु के वितरण को दर्शाने के लिए नाम लिखने की विधि का प्रयोग किया जाता है। इस क्षेत्र में जो चीज़ पैदा होती थी, वहाँ उस चीज़ का नाम लिख दिया जाता था। जिस प्रकार भारत में चावल का उत्पादन दिखाने के लिए गंगा के डेल्टा में Rice लिखा जाता है। पर इस विधि के द्वारा न तो चीज़ के कुल उत्पादन तथा न ही उत्पादन क्षेत्र का सही पता चलता था। इसलिए विषयक नक्शे बनाए गए जिनमें वैज्ञानिक शुद्धता हो। भूगोल में अलग-अलग तथ्यों की पुष्टि करने के लिए कई तरह के आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है। यह आंकड़े तालिकाओं के रूप में दिखाए जाते हैं। इन आंकड़ों का अध्ययन बड़ा नीरस तथा मुश्किल होता है तथा बहुत समय में ही नष्ट होता है। आंकड़ों को इकट्ठा देखकर किसी नतीजे पर पहुँचना मुश्किल होता है। इसलिए इन आंकड़ों को वितरण नक्शों के द्वारा
दर्शाकर दिमाग पर एक वास्तविक चित्र की छाप छोड़ी जाती है।

गुण (Advantages)-

  • यह आर्थिक भूगोल के अध्ययन के लिए विशेष रूप में महत्त्वपूर्ण है। धरती के अलगअलग साधन तथा मनुष्य का संबंध इन शक्तियों द्वारा स्पष्ट रूप में दर्शाया जा सकता है।
  • इन नक्शों द्वारा कारण तथा प्रभाव का नियम स्पष्ट हो जाता है। वस्तु विशेष के वितरण को प्रभावित करने वाले भौगोलिक तथ्य समझ में आ जाते हैं।
  • आंकड़ों की लम्बी-लम्बी तालिकाओं को याद रखना मुश्किल हो जाता है पर विषयक नक्शे किसी तथ्य की दिमाग पर स्थाई छाप छोड़ते हैं।
  • इनका उपयोग शिक्षा सम्बन्धी कामों के लिए किया जाता है।
  • इन नक्शों द्वारा एक नज़र में ही किसी वस्तु के वितरण का तुलनात्मक अध्ययन हो जाता है।
  • इन नक्शों द्वारा क्षेत्रफल तथा उत्पादन की मात्रा का तुलनात्मक अध्ययन हो जाता है।

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प्रश्न 10.
बिन्दु मानचित्र से क्या अभिप्राय है ? इसकी रचना के लिए क्या आवश्यकताएं हैं ? इसकी रचना सम्बन्धी समस्याओं का वर्णन करो तथा गुण दोष बताओ।
उत्तर-
बिन्दु मानचित्र (Dot Maps)-इस विधि के अन्तर्गत किसी वस्तु के उत्पादन तथा वितरण के आंकड़ों को बिन्दुओं द्वारा प्रकट किया जाता है। ये बिन्दु समान आकार के होते हैं। प्रत्येक बिन्दु द्वारा एक निश्चित संख्या (Specific Value) प्रकट की जाती है। जब किसी वस्तु की निश्चित संख्या तथा मात्रा (Absolute Figures) उपलब्ध हों। वितरण मानचित्र बनाने की यह सबसे अधिक प्रचलित सर्वोत्तम विधि है। (This is the most common method used for showing the distribution of population, livestock, crops, minerals etc.)

बिन्दु मानचित्र बनाने के लिए आवश्यकताएं (Requirements for drawing Dot Maps)-बिन्दु विधि द्वारा मानचित्र बनाने के लिए कुछ चीज़ों की आवश्यकता होती है।
1. निश्चित आंकड़े (Definite and Detailed Data)—जिस वस्तु का वितरण प्रकट करना हो उसके सही सही आंकड़े उपलब्ध होने चाहिएं। ये आंकड़े प्रशासकीय इकाइयों (Administrative Units) के आधार पर होने चाहिए। जैसे जनसंख्या, तहसील या जिले के अनुसार होनी चाहिए।

2. रूप रेखा मानचित्र (Outline Map)-उस प्रदेश का एक सीमा चित्र हो जिसमें ज़िले या राज्य इत्यादि शासकीय भाग दिखाए हों। यह सीमा चित्र समक्षेत्र प्रक्षेप (Equal Area Projection) पर बना हो।

3. धरातलीय मानचित्र (Relief Map)-उस प्रदेश का धरातलीय मानचित्र हो जिसमें Contours, Hills, Marshes इत्यादि धरातल की आकृतियां दिखाई गई हों।

4. जलवायु मानचित्र (Climatic Map)-उस प्रदेश का जलवायु मानचित्र हो जिसमें वर्षा तथा तापमान का ज्ञान हो सके।

5. मृदा मानचित्र (Soil Map)–विभिन्न कृषि पदार्थों की उपज वाले मानचित्रों में भूमि के मानचित्र आवश्यक हैं क्योंकि हर प्रकार की मिट्टी का उपजाऊपन विभिन्न होता है।

6. स्थलाकृतिक मानचित्र (Topographical Map)-जनसंख्या के वितरण के लिए भूपत्रक मानचित्रों की आवश्यकता होती है जिनमें शहरी (Urban) तथा ग्रामीण (Rural Settlements), नगर, आवागमन के साधन और नहरें इत्यादि प्रकट की होती हैं।

रचना विधि (Procedure)-

  • वितरण मानचित्र की सभी आवश्यक सामग्री को इकट्ठा कर लेना चाहिए।
  • मानचित्र पर प्रशासकीय इकाइयों (Administrative Units) को दिखाओ।
  • राजनीतिक या प्रशासनिक इकाइयों के विस्तार को देखकर तथा आंकड़ों के कम-से-कम और अधिक-से अधिक मूल्य को देखकर बिन्दु का मूल्य ज्ञात करो।
  • प्रत्येक इकाई के लिए बिन्दुओं की संख्या गिनकर पूर्ण अंक बनाओ।
  • प्रत्येक इकाई में बिन्दुओं की संख्या हल्के हाथ से पेंसिल से लिख दो।
  • धरातल, जलवायु और मिट्टी के मानचित्रों की सहायता से उस क्षेत्र में नकारात्मक प्रदेश (Negative Areas) को ज्ञात करो और मानचित्र में पेंसिल से अंकित करो ताकि इन स्थानों को रिक्त छोड़ा जा सके।
  • बिन्दुओं के आकार को समान कर लो।
  • घनत्व के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में बिन्दु प्रकट करके मानचित्र बनाओ।

बिन्दु मानचित्र की समस्याएं (Problems of Dot Map)

1. बिन्दुओं का मान (Value of Dot)—बिन्दुओं को अंकित करने से पहले एक बिन्दु का मूल्य निश्चित कर लेना चाहिए। (The success of the map depends upon the choice of the value of a dot.) मानचित्र को प्रभावशाली बनाने के लिए बिन्दु का मूल्य ध्यानपूर्वक निश्चित करना चाहिए। कई बार गलत मूल्य के कारण बिन्दुओं की संख्या बहुत अधिक हो जाती है या बहुत थोड़ी रह जाती है। मापक या मूल्य ऐसा निश्चित करना चाहिए जिसमें क्षेत्र में बिन्दुओं की संख्या इतनी अधिक न हो कि उन्हें गिनना कठिन हो जाए। बिन्दुओं की संख्या इतनी कम भी न हो कि कुछ प्रदेश खाली रह जायें। मूल्य का चुनाव निश्चित करना तीन बातों पर निर्भर करता है-

  1. मानचित्र का मापक (Scale of the Map)
  2. अधिकतम तथा न्यूनतम आंकड़े (Maximum of Minimum Figures)
  3. प्रदर्शित तत्त्व का प्रकार (Type of the Element)

1. मानचित्र का मापक (Scale of the Map)–यदि मानचित्र लघु मापक (Small Scale) पर बना हुआ है तो बिन्दुओं की संख्या बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए। एक बिन्दु का मूल्य अधिक होना चाहिए ताकि बिन्दुओं की संख्या इतनी हो जो उस छोटे मानचित्र में अंकित की जा सके नहीं तो अधिक बिन्दुओं के कारण मानचित्र
PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 9 प्रयोगात्मकप्रयोग भूगोल 15
का प्रभाव स्पष्ट नहीं होगा। (The areas having low density will also appear dark and give a misleading idea.) यदि मानचित्र दीर्घ मापक पर हो तो एक बिन्दु का मूल्य बहुत अधिक नहीं होना चाहिए। एक बिन्दु के अधिक मूल्य के कारण कई क्षेत्रों में बिन्दुओं की संख्या बहुत कम होगी। (With very few dots the map will look blank.)

2. बिन्दुओं को लगाना (Placing of Dots)-बिन्दु मानचित्र बनाते समय ऋणात्मक क्षेत्र (Negative Areas) में बिन्दु नहीं लगाने चाहिएं। ऐसे क्षेत्र प्रायः दलदली भागों में, मरुस्थलों में, पर्वतों पर या बंजर भूमि में मिलते हैं। ये क्षेत्र धरातलीय मानचित्र, मृदा मानचित्र तथा जलवायु मानचित्र की सहायता से मानचित्र पर लगाये जा सकते हैं। इन स्थानों को रिक्त छोड़ दिया जाता है क्योंकि यहां उत्पादन असम्भव होता है। दीर्घ मापक मानचित्र पर क्षेत्र आसानी से दिखाये जा सकते हैं परन्तु लघु मापक मानचित्रों पर इन्हें दिखाना बहुत कठिन होता है।

  • बिन्दुओं की अधिक संख्या के कारण बिन्दु एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं। (Dots should not merge together) इसमें मानचित्र पर संख्या गिनना असम्भव हो जाता है।
  • बिन्दु बिखरे हुए रूप में लगाना चाहिए अन्यथा नियमित बिन्दुओं के कारण समान वितरण दिखाई देगा (Straight rows of dots should be avoided.) जैसे कि शेडिंग मानचित्र (Shading Map) में दिखाई देता है। यह भौगोलिक नियम के विपरीत भी है। क्योंकि उत्पादन में विभिन्नता होती है।
  • गुरुत्वीय केन्द्र (Centre of Gravity)-बिन्दु अंकित करते समय प्रत्येक बिन्दु अपने चित्र के आकर्षण केन्द्र को प्रकट करे जैसे जनसंख्या मानचित्र में बिन्दुओं के केन्द्र नगरों के स्थान पर लगाने चाहिए।
  • अधिक उत्पादन के क्षेत्रों में इकट्ठे होने चाहिए।

3. बिंदुओं का आकार (Size of the Date)-बिन्दु मानचित्र की शुद्धता और सुन्दरता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रत्येक बिन्दु समान आकार का हो। इनका आकार दो बातों पर निर्भर करता है –

(a) मानचित्र मापक (Scale of the Map)
(b) बिन्दुओं की संख्या (Number of Dots)

यदि मानचित्र दीर्घ मापक पर बना हुआ है तो बिन्दु कुछ बड़े हो सकते हैं, परन्तु लघु मापक मानचित्रों पर बिन्दुओं का आकार अपेक्षाकृत छोटा होगा। इसी प्रकार यदि बिन्दुओं की संख्या अधिक है तो भी बिन्दु का आकार छोटा होगा। बिन्दुओं को समान आकार करने के लिए विशेष प्रकार की निब प्रयोग की जाती है जैसे

गुण (Merits)-

  • यह मानचित्र किसी वस्तु के क्षेत्रफल के साथ-साथ उसका मूल्य या मात्रा भी प्रकट करते (This method is both Quantitative and qualitative.)
  • मानचित्रों में नकारात्मक क्षेत्रों को खाली छोड़ा जा सकता है (Waste land can be avoided.)।
  • यह मानचित्र मस्तिष्क पर एक छाप छोड़ जाते हैं कि कहां उत्पादन अधिक है और कहां कम है। (It gives visual impression)।
  • इन मानचित्रों में रंग का गहरापन उत्पादन की मात्रा के अनुसार होता है। इसलिए ये मानचित्र वितरण के स्वरूप (Pattern of Distribution) को ठीक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। इस विधि द्वारा बिन्दुओं को सरलतापूर्वक गिना जा सकता है और बिन्दुओं को पुनः आंकड़ों में बदला जा सकता है। इस प्रकार किसी वस्तु की मात्रा का भी – सही ज्ञान हो जाता है।
  • इन मानचित्रों को शेडिंग मानचित्र (Shading Map) में बदला जा सकता है। अधिक बिन्दुओं वाले क्षेत्र को शेड (Shade) में पूरा दिखाया जा सकता है। एक ही मानचित्र कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है। जैसे Markets Fairs, Coal Fields, Villages इत्यादि दिखाने के लिए यह एक शुद्ध विधि है जिनमें वितरण तथा तीव्रता ठीक प्रकार से दिखाई जा सकती है।

दोष (Demerits)-

  • एक ही मानचित्र पर एक से अधिक वस्तुओं का वितरण नहीं दिखाया जा सकता।
  • इनके बनाने में काफ़ी समय लगता है और यह कठिन कार्य है।
  • इनका प्रयोग शिक्षा सम्बन्धी कार्यों में किया जाता है, परन्तु वैज्ञानिक कार्यों के लिए समान रेखा विधि (Isopleth) का प्रयोग किया जाता है।
  • यह मानचित्र अनुपातों, प्रतिशत तथा औसत आंकड़ों के लिए प्रयोग नहीं किए जा सकते। (This method cannot be used for ratios and percentages and average figures.)
  • बिन्दु अधिक स्थान घेरते हैं।

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वर्णमात्री मानचित्र (Shading Map)

प्रश्न 11.
वर्णमात्री मानचित्र किसे कहते हैं ? इसका सिद्धान्त क्या है ? इसकी रचना, विधि तथा गुण-दोष का वर्णन करो।
उत्तर-
वर्णमात्री मानचित्र (Shading Map)-इस विधि को Choropleth Method भी कहते हैं। इस विधि में किसी एक वस्तु के वितरण को मानचित्र पर विभिन्न आभाओं या रंगों द्वारा प्रकट किया जाता है। (In this method distribution of an element is shown by different shades.) forest 3412 Black and white shading को प्रयोग करना उचित समझा जाता है।

सिद्धान्त (Principle of Shading)-जैसे-जैसे किसी वस्तु में वितरण का घनत्व बढ़ता जाता है उसी प्रकार आभा (Shade) भी अधिक गहरी होती जाती है। (The lighter shades show lower densities and deeper shades show higher densities.) आभा को अधिक सघन करने के कई तरीके हैं-

  • बिन्दुओं का आकार बड़ा करके (Be enlarging the dots)
  • रेखाओं को मोटा करके (By thickening the lines)
  • रेखाओं को निकट करके (By bringing the lines closed together)
  • रेखा जाल बनाकर (By crossing the lines)।
  • रंगों को गहरा करके (By increasing the depth of the colour) प्रत्येक मानचित्र के नीचे Scheme of shades का एक सूचक (Index) दिया जाता है।

रचना विधि (Procedure)-

  • किसी वस्तु के निश्चित आंकड़े प्राप्त करो। ये आंकड़े प्रशासकीय इकाइयों के आधार पर हों।
  • ये आंकड़े औसत के रूप में हों या प्रतिशत या अनुपात के रूप में, जैसे जनसंख्या का घनत्व।
  • घनत्व को प्रकट करने के लिए उचित अन्तराल (Interval) चुन लेना चाहिए।
  • अन्तराल के अनुसार Shading का सूचक मानचित्र के कोने में बनाना चाहिए।
  • यह आभा घनत्व के अनुसार गहरी होती चली जाए।
  • प्रत्येक प्रशासकीय इकाई में घनत्व के अनुसार शेडिंग करके मानचित्र तैयार किया जा सकता है।

समस्याएं (Problems) –

1. प्रशासकीय इकाई का चुनाव (Choice of Administrative Unit)-प्रायः आंकड़े प्रशासकीय इकाइयों .. के आधार पर एकत्रित किए जाते हैं, जिसे ज़िले या तहसील के अनुसार मानचित्र बनाने के लिए सबसे पहले
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प्रशासकीय इकाई का चुनाव करना होता है। प्रशासकीय इकाई न बड़ी होनी चाहिए और न बहुत छोटी। यदि काफ़ी बड़ी इकाई को चुन लिया जाए तो मानचित्र से भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि इतने बड़े क्षेत्र में समान वितरण है। कई बार कई आंकड़े छोटी इकाइयों के आधार पर उपलब्ध नहीं होते इसलिए उस दशा में बड़ी
इकाइयां चुनी जाती हैं :

2. अन्तराल का चुनाव (Choice of Intervals)-घनता के अनुसार शेडिंग में अन्तर रखा जाता है। इसी अन्तर के अनुसार Scheme of Shading या Scale of Densities या सूचक बनाया जाता है। इस उद्देश्य के लिए सारे आंकड़ों को कुछ वर्गों में बांटा जाता है। यह वर्ग बनाते समय इन आंकड़ों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है।

  • अधिकतम संख्या (Maximum Figures)
  • निम्नतम संख्या (Minimum Figures)
  • मध्यम संख्या (Intermediate Figures)

श्रेणियों की संख्या काफ़ी होनी चाहिए ताकि प्रत्येक इकाई का सापेक्षित महत्त्व (Comparative importance) स्पष्ट रूप से दिखाई दे। बहुत अधिक श्रेणियां नक्शे पर गड़बड़ कर देती हैं और बहुत कम श्रेणियों के कारण वितरण की विभिन्नता प्रकट नहीं होती। (Too many categories can be confusing and too few categories can result in little differentiation.) प्रायः अंतराल नियमित (Regular) होता है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि हर श्रेणी में अन्तर समान हो।

गुण (Merits)-

  • इस विधि के द्वारा किसी वस्तु के क्षेत्रीय घनत्व (Areal Density) के औसत वितरण को प्रकट किया जा सकता है। (It is useful for showing average figures of percentage or ratios.)
  • यह विधि अधिकतर फसलें, पशु, भू-उपयोग और जनसंख्या घनत्व को प्रकट करने के लिए प्रयोग की जाती है। इसके लिए क्षेत्रफल की प्रत्येक इकाई (Per unit area) के औसत आंकड़े दिए जाते हैं जैसे Number of persons per sq. km. 41 Number or livestock per sq. km 4 Yield of a crop per hectare.
  • एक जैसे प्रभाव के कारण यह रंग विधि से मिलता-जुलता है। (This method is somewhat similar to colour method.)
  • विभिन्न रंग प्रयोग करने से ये मानचित्र मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं। (It gives visual impression to the Mind.)
  • यह मानचित्र गुणात्मक होते हैं जिनमें केवल क्षेत्रफल के साथ-साथ आंकड़ों का ज्ञान हो जाता है।
  • इस विधि से विभिन्न प्रकार के अन्य मानचित्र भी बनाए जा सकते हैं।
  • जनसंख्या के घनत्व को प्रकट करने के कारण इसे मानवीय भूगोल का मुख्य उपकरण कहा जाता है।
    (Choropleth map is the Chief tool of human Geography.)

दोष (Demerits)-

  • ऐसे मानचित्रों के लिए आंकड़े इकट्ठे करना कठिन होता है।
  • इन मानचित्रों से केवल औसत का ही पता चलता है तथा कुल उत्पादन का अनुमान लगाना कठिन है।
  • इस विधि द्वारा किसी क्षेत्र में समान वितरण (Uniform Distribution) प्रकट किया जाता है जोकि भौगोलिक नियम के अनुसार नहीं है। किसी क्षेत्र के विभिन्न भागों में उत्पादन विभिन्न होता है।
  • प्रायः अधिक घनत्व वाले छोटे क्षेत्र अधिक महत्त्वपूर्ण दिखाई देते हैं जबकि किसी बड़े क्षेत्र में बहुत अधिक उत्पादन है, परन्तु औसत घनत्व कम है। ऐसा क्षेत्र अधिक उत्पादन होते हुए भी कम महत्त्वपूर्ण दिखाई देगा।
  • इस विधि द्वारा ऋणात्मक प्रदेश में भी उत्पादन प्रकट किया जाता है। जैसे मरुस्थल, दलदल, झील इत्यादि ऐसे क्षेत्रों में कुछ भी उत्पन्न नहीं होता, परन्तु वहां उत्पादन अंकित होता है।

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प्रश्न 12.
सम मान रेखा मानचित्र किसे कहते हैं ? इसके विभिन्न प्रकार बताओ। इन मानचित्रों की रचना कैसे की जाती है ? इनके गुण तथा दोष बताओ।
उत्तर-
सम मान रेखाएं (Isopleths)-शब्द Isopleth दो शब्दों के जोड़ से बना है (Isos + plethron) | Isos शब्द का अर्थ है समान तथा Plethron शब्द का अर्थ है मान। इस प्रकार समान रेखाएं वे रेखाएं हैं जिनका मूल्य, तीव्रता तथा घनत्व समान हो। ये रेखाएं उन स्थानों को आपस में जोड़ती हैं । जनका मान (Value) समान हो। (Isopleths are lines of equal value in the form of quantity, intensity and density.)

ससमान रेखाओं के प्रकार (Types of Isopleths)-विभिन्न तत्त्वों को दिखाने वाली सम मान रेखाओं को निम्नलिखित नामों से पुकारा जाता है।

  • समदाब रेखाएं (Isobars)-समान वायु दाब वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को समदाब रेखा कहते हैं।
  • समताप रेखाएं (Isotherms)—समान तापमान वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को समताप रेखा कहते
  • समवृष्टि रेखा (Isohyetes)—समान वर्षा वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को समवृष्टि रेखा कहते हैं।
  • समोच्च रेखाएं (Contours) समान ऊंचाई वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को समोच्च रेखा कहते हैं।
  • सममेघ रेखा (Iso Neph) समान मेघावरण वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को सममेघ रेखा कहते हैं।
  • अन्य (Others)-जैसे समगम्भीरता रेखा (Isobath), समलवणता रेखा (Iso-Haline) समभूकम्प रेखा (Iso Seismal), समधूप रेखा (Isohets) अन्य उदाहरण हैं।

समान रेखाओं की रचना (Drawings of Isopleths)-

  • सम्बन्धित क्षेत्र का रूपरेखा मानचित्र (Outline Map) की आवश्यकता होती है। इस मानचित्र पर सभी स्थानों की स्थिति अंकित हो।
  • इस क्षेत्र के अधिक-से-अधिक स्थानों के आंकड़े प्राप्त होने चाहिएं।
  • अधिकतम तथा न्यूनतम आंकड़ों के अनुसार इन रेखाओं के मध्य अन्तराल (Interval) चुनना चाहिए। अन्तराल या समान रेखाओं की संख्या न तो कम हो और न ही अधिक हो।
  • अन्तराल का चुनाव किसी तत्त्व के परिवर्तन की दर पर निर्भर करता है। बड़े क्षेत्र पर दूर-दूर स्थित रेखाएं मन्द परिवर्तन प्रकट करती हैं। यदि परिवर्तन दर तीव्र हो तथा क्षेत्र कम हो तो ये रेखाएं उपयोगी सिद्ध नहीं होती।
  • समान मान वाले स्थानों को मिलाकर समान रेखाएं खींची जाती हैं। यदि समान मूल्य वाले स्थान प्राप्त न हों तो विभिन्न मूल्य वाले स्थानों के बीच समानुपात दूरी पर इन रेखाओं का अन्तर्वेशन किया जाता है।
  • कई बार विभिन्न मूल्य क्षेत्रों को अलग-अलग स्पष्ट करने के लिए इन आभाओं (Shades) या रंगों का प्रयोग भी किया जाता है।

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गुण (Merits)-

  • समान रेखाएं वर्षा, तापमान इत्यादि आंकड़ों के परिवर्तन को शुद्ध रूप से प्रदर्शित करती हैं।
  • ये रेखाएं किसी स्थान पर उपस्थित मूल्य को प्रकट करती हैं।
  • अन्य विधियों की अपेक्षा यह एक अधिक वैज्ञानिक विधि है।
  • बिन्दु मानचित्र तथा वर्णमात्री को समान रेखा मानचित्रों में बदला जा सकता है।
  • इन मानचित्रों का प्रशासकीय इकाइयों में कोई सम्बन्ध नहीं होता।

दोष (Demerits)-

  • सममान रेखाओं का अन्तर्वेशन एक कठिन कार्य है।
  • यदि आंकड़े अनेक स्थानों पर प्राप्त न हों तो ये मानचित्र नहीं बनाए जा सकते।
  • घनत्व में अधिक तथा तीव्र परिवर्तन हो, तो ये मानचित्र अर्थपूर्ण नहीं रहते।
  • सममान रेखा मानचित्रों पर ग्रामीण तथा शहरी जनसंख्या को एक साथ नहीं दिखाया जा सकता।

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उपयोग (Uses)-

  • इन मानचित्रों का उपयोग जलवायु सम्बन्धी आंकड़े दिखाने के लिए किया जाता है।
  • इन रेखाओं द्वारा प्रतिशत या अनुपात के आंकड़े भी दिखाए जाते हैं।
  • इन मानचित्रों पर जनसंख्या घनत्व प्रतिवर्ग किलोमीटर, पशु संख्या, प्रति संख्या, प्रति एकड़ उत्पादन इत्यादि आंकड़े भी दिखाए जाते हैं।

प्रश्न 13.
ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) पर नोट लिखो।
उत्तर-
ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम एक सैटेलाइट आधारित नेवीगेशन सिस्टम है। जो किसी स्थान तथा समय जैसी सूचना प्रदान करती हैं। यह सिस्टम यू० एस० ए० के एक डिपार्टमैंट ऑफ़ डीफैंस द्वारा बनाया गया था जो कि 24 से 32 मीडीयम अर्थ ओरबिट सैटेलाइट के Microweight को बिल्कुल सही जानकारी देने के काम आता है। GPS का सबसे पहले सिर्फ Miltary Applications के उपयोग के लिए बनाया गया था। परंतु 1983 में US सरकार ने सिस्टम को पब्लिक प्रयोग के लिए खोलने की घोषणा कर दी तथा 1994 में पब्लिक के लिए खोल दिया गया। GPS स्थान तथा समय के साथ ही किसी भी जगह का पूरे दिन का मौसम बताने के भी काम आता है।
आजकल हम टैक्नोलॉजी का उपयोग स्मार्टफोन के लिए भी कर रहे हैं। जिसके द्वारा हम अपनी Location पता कर सकते हैं। यह सिस्टम ऐयरक्राफ्ट, रेलों तथा बसों जैसे यातायात के साधनों के लिए काफ़ी उपयोगी सिद्ध हुआ है। अगर हम किसी अज्ञात नंबर के बारे में पूरी जानकारी चाहते हैं तो हमें GPS की सहायता के साथ नंबर ट्रेस कर सकते

GPS कैसे काम करता है ?
GPS रिसीवर के साथ काम करता है जो सैटेलाइट में मिले डाटा को गिनता है। इस काऊंट (Count) को Traingulation कहते हैं। यहाँ पोजीशन को कम-से-कम एक बार में तीन सैटेलाइट की सहायता से पता किया जाता है। Position Longitude तथा Latitude के साथ दिखाई जाती है। यह 10 से 100 मीटर की रेंज में सही होती है। इसको अलग ऐप्लीकेशन तथा सॉफ्टवेयर अपने हिसाब से काम में लेते हैं।

जी०पी०एस० के मुख्य रूप में तीन हिस्से होते हैं-

  • अंतरिक्ष हिस्सा (Space Segment)—इसमें 24 उपग्रह शामिल हैं जो कि लगातार धरती के आस-पास घूमते-फिरते हैं। फरवरी 2016 में उपग्रहों की संख्या बढ़ाकर 32 कर दी गई है। इनमें से 31 उपग्रह लगातार सिग्नल भेजते रहते हैं। समय तथा मौसम का इनके काम पर कोई असर नहीं होता। जी०आई०एस० को सब तरह की जानकारी की ज़रूरत अनुसार दर्शाया जाता है। इसकी सहायता से जनसंख्या, आमदन, शिक्षा इत्यादि सम्बन्धी आंकड़ों का अध्ययन किया जाता है।
  • कंट्रोल हिस्सा (Control Segment)-इस हिस्से की सहायता से सारा जी०पी० एस० सिस्टम कंट्रोल किया जाता है। यह कंट्रोल अमेरिका की सरकार के हाथ में है।
  • उपयोगी हिस्सा (User Segment)-इस हिस्से में वह सारे उपकरण आते हैं जिनके द्वारा जी०पी०एस० सिस्टम का प्रयोग किया जाता है। यह उपकरण कार, मोबाइल, घड़ी इत्यादि भी हो सकते हैं।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 9 प्रयोगात्मक/प्रयोग भूगोल

प्रश्न 14.
क्षेत्रीय प्रेक्षण से आपका क्या अभिप्राय है ? इसकी ज़रूरत तथा कार्य प्रणाली पर नोट लिखो।
उत्तर-
क्षेत्रीय प्रेक्षण-अन्य विज्ञानों की तरह भूगोल भी एक क्षेत्रीय विज्ञान भी है। इसलिए एक अच्छी तथा योजनाबद्ध क्षेत्रीय प्रेक्षण भौगोलिक जांच के पूरक होते हैं। इस प्रकार का प्रेक्षण स्थानिक वितरण तथा स्थानिक स्तर तथा उनके सम्बन्धों के प्रति हमारी समझ को बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय प्रेक्षण स्थानिक स्तर की जानकारी इकट्ठी करने में भी हमारी सहायता करता है जिसको दूसरे दर्जे के स्रोतों से हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए क्षेत्रीय प्रेक्षण ज़रूरत अनुसार जानकारी इकट्ठी करने के लिए किए जाते हैं।

भूगोल में क्षेत्रीय प्रेक्षण की ज़रूरत-भूगोल में क्षेत्रीय प्रेक्षण की काफ़ी महत्ता है।

  • इस प्रेक्षण के द्वारा स्थानिक वितरण तथा स्थानिक स्तर पर उनके सम्बन्ध प्रति हमारी समझ में वृद्धि होती है।
  • कई बार प्रकाशित आंकड़े भौगोलिक वैज्ञानिक के लिए पूरे नहीं होते इस समय सामाजिक-आर्थिक अलग अलग पक्षों का ज्ञान आवश्यक होता है. ऐसा ज्ञान हमें क्षेत्रीय प्रेक्षण द्वारा ही पता चलता है।
  • हम भौगोलिक प्रेक्षण द्वारा फस्टहैंड जानकारी एकत्र कर सकते हैं। इसलिए मनुष्य का पर्यावरण के साथ सम्बन्ध इत्यादि को समझने के लिए भूगोल में क्षेत्रीय प्रेक्षण की ज़रूरत है।

क्षेत्रीय प्रेक्षण की कार्य प्रणाली-इसकी कार्य प्रणाली को निम्नलिखित हिस्सों में विभाजित किया जाता है-

  • समस्या को परिभाषित करना (Defining the Problem)-सबसे पहले जिस समस्या का अध्ययन करना होता है उसको अच्छी तरह परिभाषित किया जाता है। समस्या स्वरूप को संक्षिप्त रूप से बताने वाले वाक्यों के साथ ऐसा किया जाता है। इसको प्रेक्षण के शीर्षक या उप शीर्षक से दर्शाया जाना चाहिए।
  • उद्देश्य (Objective)-उद्देश्यों को निर्धारित करना इस प्रेक्षण का दूसरा कार्य है। क्योंकि इस प्रेक्षण की रूप रेखा होते हैं तथा इनके द्वारा ही आंकड़े एकत्र करने के ढंग तथा विश्लेषण के तरीके का चुनाव होता है।
  • क्षेत्र (Scope)-अध्ययन किए जाने वाले भौगोलिक क्षेत्र जांच का समय तथा अगर आवश्यकता हो तो अध्ययनों का विषय निर्धारित करना भी किसी हद तक आवश्यक होता है। यह निर्धारण पहले निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति, नतीजों तथा उनके अमल के लिए भी उपयोगी है।

उपकरण तथा तकनीकें (Tools and Techniques of Information Collection)-असलियत में चुनी हुई समस्या की जानकारी एकत्र करने को क्षेत्रीय प्रेक्षण का नाम दिया जाता है। इसके लिए हमें कई उपकरणों की आवश्यकता होती है। इनमें नक्शे, आंकड़े, क्षेत्रीय निरीक्षण, सवाल, सारणी इत्यादि प्रारम्भिक तथा दूसरे दर्जे के स्रोतों को शामिल किया जाता है जैसे कि-

  • दर्ज तथा प्रकाशित आंकड़े (Recorded and Published Data)-इन आंकड़ों द्वारा हमें आंकड़ों के सम्बन्धी आधारभूत जानकारी प्राप्त होती है। यह आंकड़े हमें सरकारी संगठनों, एजेंसियों इत्यादि से मिलते हैं।
  • क्षेत्रीय सर्वेक्षण (Field Observations)-इस सर्वेक्षण का उत्तम होना खोजी निरीक्षण द्वारा जानकारी एकत्र करने की योग्यता पर आधारित है। क्षेत्रीय सर्वेक्षण का असल उद्देश्य भौगोलिक व्यवहारों के लक्षणों तथा संबंधों का निरीक्षण करना होता है। निरीक्षण के पूरक के तौर पर भी जानकारी एकत्र करने के लिए कुछ तकनीकों की जैसा कि स्कैच तथा फोटोग्राफी का प्रयोग किया जाता है।
  • माप-कुछ क्षेत्रीय सर्वेक्षण के लिए घटनाओं इत्यादि के लिए माप की आवश्यकता पड़ती है। इस द्वारा विस्तार के साथ विश्लेषण किया जा सकता है।

इंटरव्यू-जो सर्वेक्षण सामाजिक मुद्दों के साथ सम्बन्ध रखते हों की जानकारी निजी इंटरव्यू द्वारा एकत्र की जाती है। परंतु इस प्रकार जानकारी एकत्र करना, इंटरव्यू लेना, बल की क्षमता, समझ, व्यवहार तथा सम्बन्धों पर निर्भर करती है।

1. उपकरण (Tools) इंटरव्यू के लिए प्रश्न सारणियां तथा शैड्यूल बनाने चाहिए।

2. आधारभूत जानकारी-इंटरव्यू करते समय कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी जैसे कि स्थानों, इंटरव्यू देने वाले व्यक्ति का सामाजिक इतिहास इत्यादि नोट करना आधारभूत जानकारी है।

3. फैलाव (Coverage)-सर्वेक्षक को तय करना चाहिए कि सर्वेक्षण सारी जनसंख्या का होगा या नमूने पर आधारित होगा।

4. अध्ययन की इकाइयां-अध्ययन के तत्त्वों को विस्तार तथा स्पष्टता के साथ परिभाषित करना आवश्यक है इसके साथ ही अध्ययन के फैलाव का फैसला भी आवश्यक है।

5. नमूने का खाका (Sample of Design)-सैंपल सर्वेक्षण का खाका, सर्वेक्षण के उद्देश्य, जनसंख्या विभिन्नताओं, समय तथा खर्च का ध्यान रखना भी आवश्यक है।

6. सावधानियां-इंटरव्यू इत्यादि अधिक संवेदनशील क्रियाएं हैं। इसलिए इनको अधिक ध्यान तथा सावधानी के साथ करना चाहिए। क्योंकि इसमें मानवीय समूह शामिल होते हैं। सही जानकारी प्राप्त करने के लिए आपको जाहिर करना पड़ेगा कि आप उनमें ही हो। इंटरव्यू करते समय इस बात का ध्यान रखो कि कोई व्यक्ति अपनी मौजूदगी कारण कोई दखलअंदाजी न करे।

7. संकलन तथा लेखा (Compilation and Computation)-निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति तथा एकत्र की गई जानकारी को संगठित करना पड़ता है। अध्ययन के उपविषयों के अनुसार लिखित, स्कैच, फोटो अध्ययनों इत्यादि को संगठित किया जाता है तथा प्रश्न-सारणी तथा शैड्यू पर आधारित जानकारी को सारणीबद्ध भी किया जाता है।

8. मानचित्रकारी प्रसंगता (Cartographic Application) हम नक्शे, चित्र, ग्राफ बनाने तथा उन्हें सही तथा साफ बनाने के लिए कम्प्यूटर के प्रयोग के बारे में भी सीख चुके हैं। व्यवहारों में विभिन्नताओं का दिशा प्रभाव प्राप्त करने के लिए चित्र तथा ग्राफ बहुत फायदेमंद हैं।

9. पेशकारी-क्षेत्रीय अध्ययन की संपूर्ण तथा स्पष्ट रिपोर्ट में कार्यशैली, प्रयोग में लाये उपकरण तथा तकनीकों का विस्तार सहित वर्णन होना आवश्यक है। रिपोर्ट का बड़ा भाग एकत्र की गई जानकारी की सारणियों, चार्टी, नतीजों, नक्शों तथा संदेशों समेत विश्लेषण तथा व्याख्या से सम्बन्धित होना चाहिए। रिपोर्ट के अंत में अध्ययन का सार होना चाहिए।

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प्रश्न 15.
भूमि उपयोग सर्वेक्षण पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। किसी क्षेत्र में कृषि की विशेषताएं, प्रकार तथा भूमि उपयोग की जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी एक गांव को इकाई मानकर भूमि उपयोग सर्वेक्षण किया जाता है। इस सर्वेक्षण के द्वारा हम कुछ कमियों के बारे जान सकते हैं तथा फिर इन कमियों को जानकर इनको दूर करने के लिए सुझाव इत्यादि बता सकते हैं।

सर्वेक्षण के मुख्य उद्देश्य-इस सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य यही है कि भूमि उपयोग के बारे में जानना ताकि कृषि को प्रभावशाली बनाया जा सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूरा गाँव या इसका आधा हिस्सा, आकार के अनुसार सर्वेक्षण के लिए लिया जा सकता है। हम अपने उद्देश्य की पूर्ति खेतों को नंबर लगा करके तथा उनकी बोई गई फसलें

भरकर तथा सम्बन्धित क्षेत्र के भूमि उपयोग के नक्शे को तैयार कर सकते हैं। इसके लिए हमें मुख्य तौर पर मिट्टी, पानी के निकास, सिंचाई की सुविधाएं तथा खादों के प्रयोग की जानकारी इकट्ठी करनी आवश्यक है। गाँव के नक्शे की सहायता के साथ खेतों के नंबर तथा सीमाबंदी के बारे में पता लगाया जा सकता है।

विधि (Method)—सबसे पहले पटवारी से गांव का भू-कर मानचित्र प्राप्त किया जाता है जिस पर प्रत्येक खेत की सीमा तथा खसरा नंबर लिखा जाता है। इस मानचित्र की कई प्रतिलिपियाँ तैयार की जाती हैं। गांव की स्थिति निर्धारित की जाती है। इसके पश्चात् गांव के पटवारी के रिकॉर्ड से जानकारी प्राप्त की जाती है।

सर्वेक्षण की कार्य विधि-निर्धारित किए समय तथा तिथि को किसानों के साथ निजी पहचान कायम करो क्योंकि सर्वेक्षण के लिए यह बहुत आवश्यक है तथा फायदेमंद भी हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आप जब एक निश्चित बिन्दु से एक खेत से दूसरे खेत में जाते हो तो नक्शे पर भूमि-उपयोग की किस्मों को भी दर्शाते जाओ। यह दर्शाए निश्चित बिन्दु नक्शे पर सर्वेक्षण शुरू करने से पहले ही निर्धारित किए जाने चाहिए। खासकर कोड नंबर को विस्तार लिखित का प्रयोग भूमि उपभोग के लिए पड़ता है। जैसे कि गेहूँ के लिए, चावल के लिए, कपास के लिए इत्यादि।

इसके बाद एक अलग नक्शा ले लो तथा उस रंग तथा बनावट के अनुसार मिट्टी की किस्म लिखो तथा खेत की आम विशेषताओं जैसे कि ढलान तथा निकास, सिंचाई या सिंचाई के बिना वाली फसल इत्यादि के बारे नोटिस लगाओ। इसके बाद किसान को भूमि उपयोग सम्बन्धी पूछो। इसके लिए आपको एक शैड्यूल बनाने की ज़रूरत होगी। जिसमें आप यह जानकारी दर्ज करो।
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V. आंकड़ों की सारणी तथा प्रक्रिया-ऊपर दिए शैड्यूल को तैयार करने के पश्चात् आवश्यकता के अनुसार आंकड़ों की सारणी बनाओ। यह भूमि के प्रयोग तथा खेतों की संख्या के पक्ष से करना चाहिए।

VI. मानचित्र बनाना-अलग-अलग फसलों के लिए अलग-अलग रंग या शेड प्रयोग करके गांव की भूमि उपयोग का नक्शा तैयार करो। सिंचित तथा अनसिंचित फसलों को सही रंगों का प्रयोग करके दिखाओ। खेतों में रेत की किस्म, मात्रा तथा खाद के प्रयोग को दिखाता एक नक्शा भी तैयार करो।

VII. विश्लेषण-सारी इकट्ठी की जानकारी का विश्लेषण इस तरह करो-

  1. कृषि वाली भूमि का क्षेत्र/रकबा
  2. खेतों की कुल संख्या
  3. औसतन खेतों का रकबा
  4. मिट्टी की किस्में
  5. खरीफ की फसलों अधीन रकबा
  6. खरीफ की कुल फसलें
  7. रबी की फसलों के अधीन रकबा तथा कुल फसलें
  8. मध्य ऋतु की फसलें/रकबा
  9. सिंचित ऋतु की फसलें/रकबा
  10. रेत तथा खादों का प्रयोग।

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प्रयोगात्मक/प्रयोग भूगोल PSEB 12th Class Geography Notes

  • अंत में निष्कर्ष को पेश करो। इसमें भूमि का मूल्यांकन, दोष तथा सुधार करने के सुझाव भी बताओ।
  • आर्थिक भूगोल के अध्ययन में आंकड़ों का विशेष महत्त्व है। अलग प्रकार के आंकड़े किसी वस्तु की । मात्रा, गुण, घनत्व और वितरण इत्यादि को स्पष्ट करते हैं।
  • डाटा/आंकड़े की संख्या के आधार पर हम कह सकते हैं कि जो असली दुनिया के बीच/मध्य माप को परिभाषित करती है। डट्टम एक एकहरा (Single) माप है। जब हम लगातार हो रही वर्षा इत्यादि के । आधार पर संख्या और जानकारी एकत्र करते हैं वह आंकड़े/डाटा कहलाता है।
  • डाटा/आंकड़ा के स्रोत को मुख्य रूप में प्रारंभिक स्रोत (निजी सर्वेक्षण, साक्षात्कार, शैड्यूल इत्यादि) और गौण स्रोत (सरकारी प्रकाशन, निजी प्रकाशन, अखबार और पत्रिका इत्यादि) में विभाजित किया जाता है।
  • ग्राफ, चित्र और मानचित्र बनाने के लिए आम नियम जैसे कि सही तरीके का चुनाव करना, सही पैमाना और डिज़ाइन इत्यादि का चुनाव आवश्यक है।
  • आंकड़ों की रेखीय पेशकारी में पसारी चित्र, दो पसारी और तीन व पांच पसारी चित्रों में की जाती है। आमतौर पर बनाए जाने वाले इन मानचित्रों, चित्रों और उनकी रचना के तरीकों के आधार पर इनको लकीरी ग्राफ, बार ग्राफ, पाई चार्ट, तारा चित्र, बहाव चार्ट इत्यादि में विभाजित किया जाता है।
  • बहु लकीरी ग्राफ, लकीरी ग्राफ की ही एक किस्म है जिसमें दो या दो से अधिक परिवर्तनशील तत्व एक समान संख्या की लकीरों द्वारा, एकदम तुलना के लिए दिखाए जाते हैं।
  • विषय से संबंधित मानचित्रों की विशेषताएँ दर्शाने वाले और तुलना करने के लिए ग्राफ और चित्र एक अहम् भूमिका अदा करते हैं। स्थानीय अंतराल को दिखाने के लिए और श्रेणी विभाजन को अच्छी तरह समझने के लिए। कंप्यूटर एक बिजली यंत्र है। इसके अनेक भाग होते हैं। जैसे मैमोरी माइक्रो प्रोसेसर, इनपुट, आउटपुट सिस्टम इत्यादि।
  • कंप्यूटर की मदद से साधारण जोड़ घटाव से लेकर तर्क से हल होने वाले साधारण और जटिल प्रश्न भी हल किए जा सकते हैं। कंप्यूटर हार्डवेयर (यंत्र सामग्री) और सॉफ्टवेयर (प्रक्रिया सामग्री) की सहायता से नक्शे भी बनाए जा सकते हैं।
  • भौगोलिक सूचना तंत्र एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जिससे हम जी०पी०एस० उपग्रह के द्वारा भेजे गए आकड़ों और तथ्य को समझ सकते हैं।
  • ग्लोबल पोजिशनिंग योजना एक ऐसा नेवीगेशन सिस्टम है जो कि पूरे संसार के अलग-अलग कामों के विषय में जानकारी प्रदान करता है। जी०पी०एस० में 24 उपग्रह होते हैं। जी०पी० एस० के तीन भाग हैं-
    • अंतरिक्ष भाग
    • नियंत्रण भाग
    • प्रयोग योग्य भाग
  • आंकड़ा (Data)—अलग-अलग प्रकार के आंकड़े जैसे वस्तु की मात्रा, गुण, घनत्व और वितरण इत्यादि को , स्पष्ट करते हैं। किसी क्षेत्र की जलवायु के अध्ययन में तापमान, वर्षा इत्यादि के आंकड़ों का भी अध्ययन किया जाता है। संख्या के आधार पर यह जानकारी आंकड़ा अथवा डाटा कहलाती है।
  • लकीरी ग्राफ (Liner Graph)-जब समय से संबंधित सूचना जैसे कि तापमान, वर्षा, आबादी में वृद्धि,
    जन्म दर, मृत्यु दर इत्यादि को प्रदर्शित करने का ग्राफ बनाया जाता है उसे लकीरी ग्राफ कहा जाता है।
  • पाई चित्र (Pie Diagram)—यह आंकड़ों की ग्राफिक पेशकारी का ही एक तरीका है। यह तत्वों को एक चक्र द्वारा पेश करती है। आँकड़ों के उप-भाग को दिखलाने के लिए वक्र को बनते हुए कोणों के मुताबिक हिस्सों/भागों में विभाजित किया जाता है। इसलिए इसे चक्र चित्र भी कहा जाता है।
  • वर्णात्मक नक्शे (Choropleth Maps)-इस विधि में किसी एक वस्तु के वितरण को नक्शे पर अलग अलग रंगों द्वारा दर्शाया जाता है। किसी रंग की तुलना में Black and White Shading का प्रयोग करना अच्छा माना जाता है।
  • सममूल्य नक्शे (Isopleth Maps)-Isopleth शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। (Iso + Plethron) Iso
    शब्द का अर्थ समान है और Plethron शब्द का अर्थ है मूल्य। इस तरह सममूल्य रेखाएं वे रेखाएं हैं जिनका मूल्य, तीव्रता और घनत्व समान हो। यह रेखाएं उन स्थानों को आपस में मिलाती हैं जिनका मूल्य समान होता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 7 महात्मा गान्धी के राजनीतिक विचार

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 7 महात्मा गान्धी के राजनीतिक विचार Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 7 महात्मा गान्धी के राजनीतिक विचार

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
गान्धी जी के राजनीतिक विचारों की व्याख्या करो।
(Explain the Political ideas of Gandhi Ji.)
अथवा
महात्मा गान्धी जी के राजनीतिक विचारों का विस्तार सहित वर्णन करो।
(Describe Political ideas of Mahatama Gandhi Ji in detail.)
अथवा
महात्मा गान्धी के मुख्य राजनीतिक विचारों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। (Explain briefly the main Political Ideas of Mahatma Gandhi.)
उत्तर-
गान्धी जी वह महान् आत्मा थे जिन्होंने भारत की आत्मा को जगाया। उन्होंने अपने उच्च सिद्धान्तों, उद्देश्यों और आदर्श जीवन द्वारा राजनीतिक जीवन को नया मार्ग दिखाया। गान्धी जी के उन विचारों को, जोकि वे समय-समय पर राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे के बारे में प्रकट करते रहे, उनको इकट्ठा करके लोगों ने गान्धीवाद का नाम दिया। गान्धीवाद सिद्धान्तों, मतों, नियमों तथा आदर्शों का समूह नहीं, बल्कि यह एक जीवन युक्ति है। हम इसे एक जीवन मार्ग भी कह सकते हैं।
गान्धी जी के राजनीतिक विचार इस प्रकार हैं-

1. राजनीति का अध्यात्मीकरण (Spiritualisation of Politics)-गोपाल कृष्ण गोखले के समानं गान्धी जी राजनीति का अध्यात्मीकरण करना चाहते थे। उन्होंने राजनीति के प्रचलित मूल्यों को अस्वीकार किया और राजनीति में शुद्ध धार्मिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए पूरा प्रयास किया। गान्धी जी राजनीति को धर्म की आधारशिला पर खड़ा करना चाहते थे और उन्होंने घोषणा की कि धर्म के बिना राजनीति पाप है। गान्धी जी का कहना था कि धर्म राजनीति का अभिन्न अंग है और राजनीति को धर्म से पृथक् नहीं किया जा सकता। वे चाहते थे कि राजनीतिक अनैतिकता से दूर रहे। राजनीति उनकी दृष्टि में धर्म और नैतिकता की एक शाखा थी। धर्म से अलग होकर राजनीति एक मृत देह के समान है जिसको जला देना ही उचित है। गान्धी जी का कहना है, “बहुत-से धार्मिक व्यक्ति जिनसे मैं मिला हूँ, छुपे हुए राजनीतिज्ञ हैं परन्तु मैं तो राजनीतिज्ञ दिखाई देता हूँ, वास्त में धार्मिक हूँ।” गान्धी जी का राजनीति के अध्यात्मीकरण का केवल विचारही नहीं रहा बल्कि उन्होंने तो इसका अपने जीवनकाल में भी प्रयोग करके दिखाया।

2. अहिंसा सम्बन्धी विचार (Views about Non-Violence)-गान्धी जी अहिंसा के पुजारी थे और उन्होंने अहिंसा को अपने जीवन के कार्यक्रम का एक अंग बनाया हुआ था।
गान्धी जी ने अहिंसा को आत्मिक और ईश्वरीय शक्ति बताया है। अहिंसा का अर्थ कायरता या हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहना नहीं है। अत्याचार को चुपचाप सहन करना भी अहिंसा नहीं कहा जा सकता। अहिंसा आत्म-बलिदान करने, कठिनाइयां सहने और दुःख उठाने के बाद भी सत्य और न्याय पर डटे रहने को ही कहा जा सकता है। यह नकारात्मक शक्ति नहीं है। यह एक सकारात्मक शक्ति है जो बिजली से भी अधिक तेज़ और ईथर से भी अधिक शक्तिशाली है। बड़ी-से-बड़ी हिंसा का विरोध भी बड़ी-से-बड़ी अहिंसा से किया जा रहा है।’

3. साधनों की पवित्रता पर विश्वास (Faith in the Purity of Means)—व्यक्ति तथा समाज को सदाचार के सांचे में ढालने के लिए गान्धी जी ने मानवीय आचरण को ऊंचा उठाने के लिए सत्य, अहिंसा और साधनों की पवित्रता पर जोर दिया। यह सारे सिद्धान्त एक-दूसरे में शामिल हैं और एक-दूसरे के सहायक तथा पूरक हैं। समाज में परिवर्तन लाने के लिए उन्होंने साधन की पवित्रता पर जोर दिया। अच्छे नतीजों की प्राप्ति के लिए वह नैतिक साधनों का प्रचार करते रहे। उनका विश्वास था कि यदि कोई साधनों का ध्यान रखे तो उद्देश्य अपना ध्यान स्वयं रख लेगा।

4. सत्याग्रह (Satyagraha)-अहिंसा के साधनों के प्रयोग द्वारा सच्चे आदर्शों की प्राप्ति के प्रयासों को सत्याग्रह कहा जाता है या दूसरे शब्दों में सत्य और अहिंसा के संगठन द्वारा बुराई का विरोध करना तथा अन्याय को दूर करवाने का नाम सत्याग्रह है। सत्याग्रह का अर्थ है ‘सत्य के साथ चिपटे रहना’ अर्थात् ‘सत्य की शक्ति’ । गान्धी जी का विश्वास इस आत्मिक शक्ति की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है। सत्याग्रही मारने की अपेक्षा मरना अच्छा समझता है। उनका विश्वास था कि कायरता और अहिंसा इकट्ठे नहीं रह सकते। एक कायर खतरे से दूर दौड़ता है। गान्धी जी ने एक बार बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यदि उन्हें कायरता और अहिंसा में से चुनाव करना हो तो अवश्य ही अहिंसा को चुनेंगे। असहयोग, हड़ताल, धरना, भूख-हड़ताल या व्रत सत्याग्रह के विभिन्न रूप हैं।

5. राज्य सम्बन्धी विचार (Views about State)-गान्धी जी को प्रायः अराजकतावादी दार्शनिक कहा गया है। उनके विचार अनुसार जो आज्ञा देता है और जो कुछ आज्ञा के रूप में किया जाता है, उसकी कोई नैतिक कीमत नहीं हो सकती। केवल स्वतन्त्र इच्छा से किया गया काम ही नैतिक कहला सकता है। राज्य संगठित तथा एकत्रित हिंसा का प्रतिनिधि है। व्यक्ति तो आत्मा का स्वामी है, परन्तु राज्य एक आत्म-रहित मशीन है। हिंसा को राज्य से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि राज्य इसके बल पर ही कायम है। गान्धी जी का कहना था कि राज्य द्वारा पुलिस, न्यायालय और सैनिक शक्ति के माध्यम से व्यक्तियों पर अपनी इच्छा थोपी जाती है। गान्धी जी ने राज्य को अनावश्यक बुराई इसलिए भी बताया क्योंकि उनके विचारानुसार राज्य एक बाध्यकारी शक्ति है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास को कुण्ठित करती है।

6. गान्धी जी राज्य को साध्य न मान कर साधन मानते हैं (State is not end but a means)-आदर्शवादी राज्य को साध्य और व्यक्ति को साधन मानते हैं परन्तु गान्धीवाद राज्य को साधन और व्यक्ति को साध्य मानता है। राज्य की उत्पत्ति मनुष्य के लिए हुई है न कि मनुष्य की राज्य के लिए। गान्धीवादी दर्शन राज्य की उत्पत्ति तथा अस्तित्व में कोई रहस्यात्मक पवित्रता स्वतन्त्रता हीगल की भान्ति नहीं देखता। गान्धी जी राज्य को जन-कल्याण का एक साधन मानते थे। गान्धीवादी दर्शन राज्य का स्वतन्त्र तथा उच्च स्तर व्यक्तित्व स्वीकार नहीं करता। गान्धी जी ने राज्य को अनावश्यक बुराई कहा है।

7. राज्य का कार्यक्षेत्र (Sphere of State-Activity)-व्यक्तिवादियों की तरह गान्धीवादी भी राज्य को कमसे-कम कार्य सौंपना चाहते हैं । गान्धी जी के अनुसार राज्य को व्यक्ति के कामों में न्यूनतम हस्तक्षेप करने का अधिकार होना चाहिए। फ्रीमैन की भान्ति गान्धी जी का भी यह विचार था कि सर्वोत्तम सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है।

8. साध्य और साधन दोनों ही श्रेष्ठ होने चाहिएं (Both ends and means Should be good)-आदर्शवादी दर्शन साध्य को महत्त्व देता है और साधन ही नाम-मात्र भी चिन्ता नहीं करता। प्रायः सभी भौतिकवादी दर्शन साध्य पर ही जोर देते हैं; परन्तु गान्धी जी केवल साध्य की महानता से ही सन्तुष्ट नहीं थे। गान्धी जी ने साध्य और साधन दोनों के महत्त्व पर बल दिया है। उनके अनुसार, बुरे साधनों द्वारा अच्छे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। साधनों का पवित्र होना अति आवश्यक है।

9. व्यक्ति की नैतिक पवित्रता पर बल (Stress on the moral purity of the individual)-गान्धी जी के अनुसार मनुष्य की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समस्याएं मूल रूप में नैतिक समस्याएं ही हैं और इनका हल भी नैतिक साधनों द्वारा होना चाहिए। जब तक मनुष्य स्वार्थ भावना से ऊपर नहीं उठता तब तक उसका नैतिक विकास नहीं हो सकता। नैतिक विकास के लिए व्यक्ति का सच्चरित्र होना आवश्यक है। इसीलिए गान्धी जी कहा करते थे कि चरित्र की महानता बुद्धि की महानता से अधिक है।

10. स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार (Views about Freedom)—गान्धी जी के हृदय में नैतिक तथा आध्यात्मिक स्वतन्त्रताओं के प्रति अगाध श्रद्धा थी। वे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को राष्ट्रीय स्वतन्त्रता से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनके अनुसार जब तक कोई व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से स्वतन्त्र नहीं है तो उसके लिए राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का कोई लाभ नहीं है। गान्धी जी के अनुसार, “व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का बलिदान करके किसी समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता।” (“No Society can possibly be built on a denial of individual freedom.”) परन्तु वे राजनीतिक स्वतन्त्रता को भी आवश्यक मानते थे। गान्धी जी राज्य को सत्य, जिसको वह ईश्वर मानते थे, का ही अंश मानते थे। उनके विचारानुसार राजनीतिक स्वतन्त्रता कठिन परिश्रम करने तथा दुःख उठाने के पश्चात् ही प्राप्त हो सकती है।

11. स्वतन्त्रता का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है (Sole Object of liberty is all round development of the individual)-गान्धी जी के अनुसार स्वतन्त्रता का एकमात्र उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा नैतिक, चारों प्रकार की स्वतन्त्रताएं मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करती हैं। व्यक्तिवादियों की भान्ति गान्धी जी निर्बाध स्वतन्त्रता में विश्वास नहीं करते और न ही वे आदर्शवादियों की भान्ति व्यक्ति की सच्ची स्वतन्त्रता राजकीय आज्ञाओं का पालन करने में मानते हैं। गान्धीवादी दर्शन को स्वतन्त्रता व्यक्तिवाद और आदर्शवाद के बीच की वस्तु है।

12. राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता में कोई संघर्ष नहीं (No Clash between Nationalism and Internationalism)—आदर्शवादी, फासीवादी और नाजीवादी अन्तर्राष्ट्रीयता में विश्वास नहीं करते थे। वे राष्ट्र को अन्तिम लक्ष्य मानते हैं, परन्तु गान्धी जी अन्तर्राष्ट्रीयता के अन्य विचारकों के विचारों से भिन्न है। अन्य अन्तर्राष्ट्रीयवादी राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीयता में विरोध मानते हैं। उनके अनुसार अन्तर्राष्ट्रीयता के रास्ते में राष्ट्रीयता एक महान् बाधक है, परन्तु गान्धी जी राष्ट्रीयता को एक बाधा नहीं समझते। गान्धी जी के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीयता के लिए राष्ट्रीयता आधार अन्तर्राष्ट्रीयता का पहला कदम राष्ट्रीयता है। यदि इन दोनों में संघर्ष होता है तो इसका कारण यह है कि हम राष्ट्रीयता का अर्थ संकुचित रूप में लेते हैं। गान्धी जी देश भक्ति में विश्वास करते हैं, परन्तु वे अपने राष्ट्र के हित के लिए दूसरे राष्ट्र का अहित करने के पक्ष में नहीं हैं।

13. विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था (Decentralised Economy)-गान्धी जी के अनुसार पूंजीवाद के दोषों से बचने का सबसे अच्छा उपाय आर्थिक विकेन्द्रीकरण है। विकेन्द्रीकरण में गांवों की जनता को अधिक लाभ होगा। आर्थिक क्षेत्र में प्रत्येक गाँव एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करेगा। प्रत्येक इकाई अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुओं का उत्पादन कर सकेगी। इसीलिए गान्धीवाद कुटीर उद्योग के पक्ष में है। गान्धी जी स्वदेशी खद्दर के पक्ष में थे। खद्दर उद्योग के द्वारा ग़रीबों को काम मिलता है और पैसा भी विदेशों में नहीं जाता। इसलिए गान्धी जी ने स्वदेशी आन्दोलन चलाया।

14. साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध (Against the Policy of Imperialism-गान्धी जी साम्राज्यवाद के विरुद्ध थे। साम्राज्यवाद मानवता का विरोधी है। विश्व-युद्धों का एकमात्र कारण साम्राज्यवाद है। साम्राज्यवादी हिंसावादी हैं। गान्धी जी साम्राज्यवाद के समर्थकों को आर्थिक राक्षस मानते हैं। अतः गान्धी जी साम्राज्यवाद के विरुद्ध थे।

15. पूंजीवाद को पूर्ण रूप से नष्ट करने के पक्ष में नहीं (Not in favour of fully abolishing Capitalism)-गान्धीवाद पूंजीवादी को पूर्ण रूप से नष्ट करने के पक्ष में नहीं है। पूंजीवाद का स्वरूप समाप्त करने से उद्योग-धन्धे बन्द हो जाएंगे, एक क्रान्ति उत्पन्न हो जाएगी, अनावश्यक रक्त बहेगा। पूंजीपतियों को समाजोपयोगी बनाया जा सकता है। समाज के ट्रस्टी के रूप में वे कार्य कर सकते हैं। गान्धी जी के शब्दों में, “प्रत्येक पूंजी दोष नहीं है। पूंजी की किसी-न-किसी रूप में सदैव आवश्यकता रहेगी।”

16. अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक बल (More stress on duties than the Rights)-गान्धी जी अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक ज़ोर देते हैं। कर्त्तव्य पालन से अधिकारों की प्राप्ति होती है। गान्धी जी के शब्दों में, “जो कर्तव्यों का पालन करता है अधिकार उसे स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं। वास्तव में अपने कर्तव्यों का पालन करने का अधिकार ही केवल एक ऐसा अधिकार है जो मृत्यु और जीवित रहने के योग्य है।”

17. वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त में विश्वास नहीं (No faith in the theory of class struggle)-साम्यवादियों की तरह गान्धी जी वर्ग-संघर्ष में विश्वास नहीं करते। गान्धी जी के विचारानुसार, वर्ग-संघर्ष हिंसात्मक है। श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में हिस्सेदार बनना चाहिए। यदि व्यक्ति अमीरों के सम्पर्क में रहेगा तो उनकी बुद्धि का लाभ उठा सकेगा। गान्धी जी का विचार है कि श्रमिक वर्ग पूंजीपतियों से पृथक् रहने की अपेक्षा उनके साथ रहने से अधिक लाभ उठा सकता है।

18. बहुमत के सिद्धान्त का विरोध (Opposed to the principle of majority) गान्धी जी लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं, परन्तु वे लोकतन्त्र के बहुमत के सिद्धान्त को नहीं मानते। गान्धी जी के अनुसार बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के सहयोग से शासन चलाना चाहिए। बहुमत वर्ग को अन्य वर्गों के विचारों का सम्मान करना चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि बहुमत का निर्णय सदैव ठीक हो। लोकतन्त्र का अर्थ है, सबका हित न कि किसी विशेष वर्ग का हित।

19. प्रतिनिधि प्रणाली, संसदीय व्यवस्था आदि पर विचार (Viws about Representative System, Parliamentary System etc.)-गान्धी जी प्रतिनिधित्व लोकतन्त्रात्मक प्रणाली के पक्ष में है। गान्धी जी चुनावों के विरुद्ध नहीं थे। उनके अनुसार-जनता को उन्हीं उम्मीदवारों को चुनना चाहिए जो योग्य, अनुभवी, नि:स्वार्थी तथा ईमानदार हों। गान्धी जी वयस्क मताधिकार के समर्थक थे, परन्तु उनका कहना था कि उसी नागरिक को वोट का अधिकार होना चाहिए जो अपनी रोजी स्वयं कमाता हो। दूसरे शब्दों में गान्धी जी श्रमिक मताधिकार के पक्ष में थे।

20. पुलिस तथा फ़ौज (Police and Military)-गान्धी जी के आदर्श राज्य में पुलिस और फ़ौज का कोई स्थान नहीं है, परन्तु वर्तमान राज्य में गान्धीवादी पुलिस और फ़ौज की आवश्यकता महसूस करते हैं। गान्धीवादियों के अनुसार पुलिस और फ़ौज के कर्मचारी अहिंसावादी होंगे, उनके पास हथियार होंगे, पर उनका प्रयोग बहुत कम किया जाएगा। पुलिस और फ़ौज में बदले की भावना नहीं होगी और इसका मुख्य उद्देश्य जनता का कल्याण होगा।

21. न्याय और जेल (Justice and Jails)-गान्धी जी के अनुसार न्याय शीघ्र और सस्ता होना चाहिए। राजसत्ता की भान्ति न्याय का भी विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। पंचायत को न्याय करने का अधिकार होना चाहिए। गान्धी जी न्यायाधीश और वकीलों के तिरस्कार की दृष्टि से देखा करते थे। गान्धी जी दण्ड को एक आवश्यक बुराई मानते थे। उनके अनुसार दण्ड के दो उद्देश्य हैं-प्रथम यह कि दण्ड अपराधी को दोबारा अपराध करने से रोके और द्वितीय, भविष्य में उस प्रकार के अपराधों को रोकना है। गान्धी जी के अनुसार अपराधियों को घृणा की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि उनके प्रति सहानुभूति और प्रेम करना चाहिए। जेलों को अस्पताल और जेल के कर्मचारियों को अपराधियों से डॉक्टर तथा नौं जैसा बर्ताव करना चाहिए। अपराधियों को अच्छे जीवन की सुरक्षा देनी चाहिए, ताकि अपराधी सज़ा समाप्त होने के पश्चात् अच्छा नागरिक बन सके। गान्धी जी जेलों को सुधार घर बनाने के पक्ष में थे।

22. आदर्श समाज की कल्पना-गान्धी जी एक आदर्श समाज की स्थापना करने के पक्ष में हैं। गान्धी जी का आदर्श समाज राम राज्य था। उनकी कल्पना के समाज में सत्य का साम्राज्य होना चाहिए। जनता का जीवन नैतिक तथा आध्यात्मिक आधार पर होना चाहिए। उनके आदर्श समाज की नींव प्रेम, आपसी सहयोग, स्वेच्छा से काम और कर्त्तव्य का पालन था। ऐसे समाज में प्रत्येक व्यक्ति सत्याग्रही, सत्य का खोजी तथा अहिंसक होना चाहिए। इस तरह के समाज की कल्पना में कुछ मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(i) राज्य की कम-से-कम शक्ति-राज्य प्रकृति से ही अत्याचारी और निजी आज़ादी का नाशक है। गान्धी जी के आदर्श समाज में राज्य को न्यूनतम शक्तियां प्राप्त होनी चाहिएं। आदर्श समाज में सरकार ग्राम-पंचायतों को अधिक अधिकार देगी। पुलिस शक्ति होगी तो सही, परन्तु पुलिस के सिपाही जनता के सेवक होंगे, स्वामी नहीं, दण्ड-सुधारक होंगे। जेलों को सुधार-गृहों में बदल दिया जाएगा, जहां अपराधियों का सुधार चिकित्सा तथा शिक्षा होगी।।

(ii) न्यूनतम ज़रूरतमन्द वाला समाज-जहां तक हो सके मनुष्य को अपनी ज़रूरतों को कम करना चाहिए और सत्य के साक्षात्कार करने के सर्वोत्तम उद्देश्य को सामने रखकर न्यूनतम ज़रूरत से ही सन्तुष्ट रहना चाहिए। सभ्यता का वास्तविक अर्थ जरूरतों की वृद्धि, बल्कि उन्हें इच्छापूर्वक काम करना है।

(iii) समान अवसर-गान्धी जी प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति करने के समान अवसर देना चाहते थे। वे धन की असमान बांट को समाप्त करना ज़रूरी समझते थे। जरूरत से अधिक धन को समाज की अमानत समझा जाना चाहिए और उसे जनकल्याण के लिए प्रयोग में लाना चाहिए।

(iv) गान्धी जी प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक श्रम करने के लिए कहते थे और वे ग्रामीण आर्थिकता में विश्वास करते थे। उनकी नज़र में मशीन तथा ऊंचे स्तर का उत्पादन ही संसार में दुःख तथा शोषण के कारण हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 7 महात्मा गान्धी के राजनीतिक विचार

प्रश्न 2.
महात्मा गांधी जी की सत्याग्रह की विधियों का वर्णन करो।
(Describe methods of Satyagraha of Mahatama Gandhi Ji.)
अथवा
महात्मा गांधी जी के सत्याग्रह के विभिन्न ढंगों का वर्णन कीजिए। (Discuss Mahatma Gandhiji’s Various methods of Satyagraha.)
उत्तर-
आधुनिक भारत के सामाजिक तथा राजनीतिक चिन्तकों में गान्धी जी का स्थान बहुत ऊंचा है। उन्होंने समस्त विश्व के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ। यह उनका सत्याग्रह का सिद्धान्त था। इस सिद्धान्त का गांधी जी ने स्वयं स्वतन्त्रता आन्दोलन में प्रयोग किया। गांधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन का समस्त विश्व पर प्रभाव पड़ा और इसका प्रयोग अफ्रीका तथा अमेरिका में भी किया गया। आधुनिक युग वैज्ञानिक युग है। जहां एक ओर परमाणु बमों का आविष्कार किया गया है और वहां दूसरी ओर गान्धी जी ने लड़ने के लिए सत्याग्रह का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इसकी शक्ति भौतिक न होकर नैतिक है और गान्धी जी ने इसी शक्ति द्वारा भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति दिलाई। गान्धी जी का कहना था कि “सत्याग्रह मानव आत्म की शक्ति की राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभुत्व के विरुद्ध दृढ़ोक्ति है।”

सत्याग्रह के स्रोत (Sources of Satyagrah)—गान्धी जी का प्रारम्भ से ही झुकाव सत्य की खोज की तरफ था। उन्होंने सभी धर्मों पर गहरा अध्ययन किया और सत्याग्रह का सिद्धान्त निकाला। वे गीता और बाइबिल से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। उन्हें ईसा मसीह का यह उपदेश कि, “यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर चांटा मारे तो अपना बायां गाल भी उसके सामने कर दो”, अहिंसा का पवित्र मन्त्र प्रतीत हुआ था। गान्धी जी ने जे० जे० डोके (J. J. Doke) को बताया कि “न्यू टेस्टामैंट और विशेषकर सरमन ऑन दी माउण्ट (Sermon on the Mount) ने उन्हें सत्याग्रह की शुद्धता और उसके महत्त्व के प्रति जागृत किया।” गान्धी जी का कहना था कि ईसा मसीह सबसे उच्चकोटि के सत्याग्रही थे।

गान्धी जी ने अफ्रीका में जब अंग्रेजों के अत्याचार को भारतीय जनता के ऊपर होते देखा तो उनके मन में पहली बार सत्याग्रह का विचार आया। उन्होंने वहां की जनता को अहिंसात्मक ढंग से आन्दोलन करने के लिए तैयार किया। उन्हीं दिनों गान्धी जी ने एच० डी० थ्यूरी का ‘सविनय अवज्ञा’ (Civil Disobedience) का एक लेख पढ़ा और वह इस लेख से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने लिखा, “इस पुस्तक ने मेरी सत्याग्रह की धारणा को वैज्ञानिक विश्लेषण प्रदान किया है।”

सत्याग्रह का अर्थ (Meaning of Satyagrah)-सत्याग्रह का वास्तविक अर्थ अहिंसा में अटूट विश्वास रखने वाले मनुष्य का सत्य के प्रति आग्रह है। अहिंसा के साथ सत्य को मिला देने से एक नई स्थिति पैदा हो जाती है। सत्याग्रह में सब कुछ सत्य के लिए किया जाता है। दूसरों को तनिक भी कष्ट या पीड़ा पहुंचाना उसका उद्देश्य नहीं होता। लेकिन सत्याग्रह में बड़ी से बड़ी हिंसक शक्ति को झुकाने की सामर्थ्य होती है। सत्याग्रह स्वयं ही सहन करने की इच्छा का नाम है। इसलिए इसमें वैर-भावना नहीं होती। गान्धी जी के शब्दों में, “सत्याग्रह का अर्थ है विरोधी को पीड़ा देकर नहीं, बल्कि स्वयं तकलीफ उठाकर सत्य की रक्षा करना। (Satyagrah is the vindication of truth, not by the infliction of suffering on the opponent buton one’s own self.”) “यह सच्चाई के लिए तपस्या है।”

(“Satyagrah is nothing but Tapasya for truth.”) गान्धी जी कहते थे कि “मैंने इसे प्रेम शक्ति या आत्म शक्ति (Soul force) भी कहा है। सत्याग्रह प्रयोग की प्रारम्भिक अवस्थाओं में मैंने यह अनुभव किया कि सत्य मार्ग का अनुसरण विरोधी पर हिंसा-प्रयोग की स्वीकृति नहीं देता है। सत्याग्रह ही अपने विरोधी को कभी कष्ट नहीं पहुंचाता और हमेशा कोमल तर्क द्वारा या तो उसकी बुद्धि को प्रेरित करता है या आत्म-बलिदान द्वारा उनके हृदय को। सत्याग्रह दोहरा वरदान है, यह उसके लिए भी वरदान है जो इसका आचरण करता है और उसके लिए भी जिसके विरुद्ध इसका प्रयोग किया जाए। सत्याग्रही हारना तो जानता ही नहीं क्योंकि बिना थके-हारे सत्य के लिए लड़ता है। इस संग्राम में सत्य मोक्ष होता है और कारागृह स्वतन्त्रता का द्वार।” डॉ० पट्टाभि सीतारमैया ने सत्याग्रह की रचनात्मक भूमिका को स्पष्ट करते हुए कहा था, “सत्याग्रह एक विधेयात्मक एवं अप्रतिहत शक्ति के रूप में कार्य करता है। इसका प्रभाव अनुभव सिद्ध है।” संक्षेप में, सत्याग्रह सत्य व निरापद खोज है और गान्धी जी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को भी इस अस्त्र के द्वारा तय करना चाहते थे।

गान्धी जी का सत्याग्रह का शस्त्र कितना महान् था इसे समझने के लिए हमें सत्याग्रह का अर्थ बराबर ध्यान में रखना चाहिए। ‘सत्य’ का अर्थ सच्चाई और ‘आग्रह’ का अर्थ किसी वस्तु को मज़बूती से पकड़ लेने का है। अतः सत्याग्रह का अर्थ है सच्चाई पर अड़े रहना और उसे कभी न छोड़ना चाहे उसके लिए हमें कितनी भी तकलीफें या मुसीबतें क्यों न उठानी पड़ें।

सत्याग्रह निर्बलों का शस्त्र नहीं (Satyagrah not a weapon of the weak)—गान्धी जी के अनुसार, “सत्याग्रह कमज़ोरों का शस्त्र नहीं है।” सत्याग्रह के नाम पर अपनी कायरता छिपानी अनुचित है। सत्याग्रह एक शक्तिशाली के द्वारा किया जा सकता है और शक्ति निर्भीकता में निहित है न कि मनुष्य के मांस और पट्टों में। सत्याग्रह वीरों का शस्त्र है। महात्मा गांधी कहते थे कि “कायरता और अहिंसा इसी तरह इकट्ठी नहीं चल सकती जैसा कि पानी और आग।” (“Satyagrah, is a quality of the brave. Cowardice and Ahimsa do not go together any more than water and fire.”)

सत्याग्रही के लिए नियम (Rules for Satyagrahi)-सत्याग्रह के इस गांधीवादी दर्शन में किसी भी आन्दोलन के प्रतिफल उस आन्दोलन में ही छिपे रहते हैं। एक सच्चा सत्याग्रहीं समझौते के किसी भी अवसर को खोता नहीं है और वह सदा विनम्र बना रहता है। ऐसे सत्याग्रही को निराशा कभी नहीं मिलती और आखिर में वह सबल एवं शक्तिशाली बन जाता है। जिस तरह सूर्य का पूरी तरह वर्णन नहीं किया जा सकता वैसी ही स्थिति एक सच्चे सत्याग्रही की है। सत्याग्रह सत्य और प्रेम पर टिका हुआ है और दरअसल सत्याग्रह की सम्पूर्ण पद्धति पारिवारिक जीवन का राजनीतिक क्षेत्र में विस्तार कर देती है जिसमें प्रत्येक समस्या का हल आपसी सद्भाव द्वारा निकाला जाता है। यह पद्धति आत्म निर्भर होने के साथ-साथ मानव जाति के सन्तुलित विकास और सभ्यता की प्रगति के लिए बहुत ज़रूरी है। इसका प्रयोग कर पाना कुछ लोगों की बपौती नहीं है बल्कि सभी लोग सत्याग्रह के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं बशर्ते कि वे सत्य और अहिंसा की शक्ति में विश्वास करते हों। यह संघर्ष का ऐसा तरीका है जिसका प्रयोग अचानक नहीं किया जाता। जब अन्य सभी उपाय नाकामयाब हो जाते हैं तभी इसका सहारा समाज में सामूहिक हित के लिए लिया जाता है। व्यक्तिगत लाभ के लिए इसका प्रयोग नहीं किया जाता। ईश्वर के प्रति अटूट निष्ठा रखनी ज़रूरी है हालांकि संख्या बल का कोई विचार इसकी सफलता के लिए आवश्यक नहीं है। सत्याग्रह प्रयोग करने वाले और जिसके विरुद्ध इसका प्रयोग किया जा रहा हो दोनों का ही भला करता है।

सत्याग्रही में सत्याग्रह के सिद्धान्त का पालन करने के लिए कुछ विशेषताएं होनी चाहिएं। इन विशेषताओं के होने पर ही कोई व्यक्ति सच्चा सत्याग्रही बन सकता है। ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • सत्याग्रही को क्रोध नहीं करना चाहिए।
  • उसे अपने विरोधी के क्रोध को सहन करना चाहिए।
  • उसे दण्ड के भय से झुकना नहीं चाहिए। उसे निडर होना चाहिए।
  • यदि कोई सरकारी अधिकारी सत्याग्रही को गिरफ्तार करना चाहे तो सत्याग्रही स्वेच्छा से गिरफ्तार हो जाए।
  • यदि किसी सत्याग्रही के पास कोई ट्रस्ट की सम्पत्ति है तो उसके लिए बलिदान देने के लिए तैयार होना चाहिए।
  • सत्याग्रही न मारेगा, न कसम खाएगा और न गाली देगा।
  • सत्याग्रही अपने विरोधी का अपमान नहीं करेगा और न वह ऐसे नारे लगाएगा जिससे हिंसा की बू आती हो।

सत्याग्रहियों के लिए योग्यताएं (Qualifications for the Satyagrahis)-1930 में गांधी जी ने सत्याग्रही के लिए 9 नियम बताए थे जिनका पालन करना उसके लिए बहुत आवश्यक था-

  • सत्याग्रही को ईश्वर में अटल विश्वास होना चाहिए।
  • सत्याग्रही को सत्य तथा अहिंसा में पूर्ण विश्वास होना चाहिए।
  • वह शुद्ध जीवन बिताने वाला हो अर्थात् उसमें आन्तरिक शुद्धि हो तथा वह खुशी से अपनी सम्पत्ति तथा जीवन को उद्देश्य की प्राप्ति के लिए त्याग करने वाले होना चाहिए।
  • सत्याग्रही सद्भाव वाला तथा खद्दर पहनने वाले और सूत कातने वाला होना चाहिए।
  • वह नशीली वस्तुओं से दूर रहे जिनसे इसकी बुद्धि चंचल होती है।
  • अनुशासन के नियमों का पालन करना चाहिए।
  • उसे जेल के नियमों का भी तब तक पालन करना चाहिए जब तक वे उसके सम्मान को भंग न करें।
  • शत्रु के प्रति मन, वचन तथा कर्म से हिंसा का भाव नहीं होना चाहिए।
  • उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बलिदान देने वाला हो।

सत्याग्रह की विशेषताएं (Characteristics of Satyagraha)-गांधी जी के अनुसार सत्याग्रह की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  • सत्याग्रह व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है (Satyagraha is the birth right of Everyone)-गांधी जी के अनुसार भ्रष्टाचारी एवं असंवैधानिक सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह करना. प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है।
  • सत्याग्रह दूसरों को प्रार्थना द्वारा बदलने की विधि (Satyagraha is a method to change the opponent through an appear)-गान्धी जी के अनुसार सत्याग्रह, का उद्देश्य दूसरों को क्षति पहुंचाना नहीं होता, बल्कि प्रार्थना द्वारा उसको प्रभावित करना तथा सही रास्ते पर लाना है।
  • स्वयं कष्ट सहना (Self Suffering)-गान्धी जी के अनुसार स्वयं कष्ट सहना सत्याग्रह का एक महत्त्वपूर्ण भाग है इसके द्वारा दूसरों की आत्मा को सुधारा जा सकता है।
  • सत्याग्रह का आधार नैतिक शक्ति है (Moral Power is the basis of Satyagraha)—गान्धी जी के अनुसार सत्याग्रह का आधार नैतिक शक्ति है। एक सच्चा सत्याग्रही नैतिक शक्ति के आधार पर सभी बाधाओं को पार कर जाता है।
  • सामाजिक कल्याण (Social Welfare)गान्धी जी के अनुसार सत्याग्रह का उद्देश्य सामाजिक कल्याण होता है। गांधी जी का मानना है कि एक व्यक्ति का कल्याण निजी स्वार्थों से प्रेरित होता है, जबकि सामाजिक कल्याण सामूहिक कल्याण की भावना से प्रेरित होता है।
  • हिंसा का विरोध (Opoose to Violence)-गान्धी जी हिंसा का विरोध करते हैं। उनके अनुसार हिंसा तथा सत्याग्रह परस्पर विरोधी है। गान्धी जी के अनुसार हिंसा द्वारा किसी भी समस्या का हल नहीं निकल सकता।
  • सत्याग्रह का व्यापक प्रयोग (Wider use of Satyagraha)-गान्धी जी के अनुसार सत्याग्रह एक ऐसी आत्मशक्ति है, जिसका प्रयोग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किया जा सकता है।
  • पारदर्शिता (Transperacy)-गान्धी जी के अनुसार सत्याग्रह में पारदर्शिता पाई जाती है। गान्धी जी के अनुसार जो कार्य चोरी छिप किये जाते हैं वे कार्य प्रायः उचित नहीं होते। इसलिए गान्धी जी सत्याग्रह के माध्यम से प्रत्येक गतिविधि खुले रूप में करने का समर्थन करते हैं।

सत्याग्रह के स्वरूप (Forms of Satyagrah)-सत्याग्रह के विभिन्न स्वरूप निम्नलिखित हैं –

(1) बातचीत (Negotiations)
(2) आत्मपीड़न (Self-suffering)
(3) असहयोग (Non-co-operation)
(4) सविनय अवज्ञा (Civil Disobedience)
(5) हड़ताल (Strike)
(6) उपवास या व्रत (Fasting)
(7) धरना (Picketing)
(8) सामाजिक बहिष्कार (Social Boycott)
(9) स्वेच्छा से पलायन (Hijrat)

1. बातचीत का सिद्धान्त (Principle of Negotiation)-सत्याग्रही को किसी व्यक्ति का विरोध करने से पहले उसे यह अच्छी प्रकार समझा देना चाहिए कि वह गलती पर है। हो सकता है कि उस व्यक्ति ने वह गलती निजी स्वार्थ या अज्ञानता के कारण की हो। यदि विरोधी फिर भी न समझे तो किसी मध्यस्थ के द्वारा समझा-बुझा कर सही रास्ते पर लाना चाहिए। गान्धी जी कहते हैं “यदि समझाने बुझाने से वह न माने तो सत्याग्रही को कोई कठोर पग उठाना चाहिए।”

2. आत्म-पीड़न (Self-suffering)-महात्मा गांधी के अनुसार यदि विरोधी किसी मध्यस्थ द्वारा भी समझौते के लिए तैयार नहीं होता और अपना गलत रास्ता नहीं छोड़ता तो सत्याग्रही को उसके विरुद्ध कोई ठोस कदम उठाना चाहिए। ठोस कदम से गान्धी जी का अभिप्राय यह नहीं कि सत्याग्रही को अपने विरोधी के विरुद्ध हिंसा का प्रयोग करना चाहिए या उसे हानि पहुंचानी चाहिए बल्कि इसका अर्थ है स्वयं कष्ट सहना चाहिए। आत्म-पीड़न (अपने आपको कष्ट देने से है) विरोधी के हृदय में दया और सद्भावना जागृत करती है।

3. असहयोग Non-co-operation)-गान्धी जी के मतानुसार जो, लोग अन्याय करते हों या दूसरों को अनुचित तरीकों से दबाते हों, उनके साथ किसी भी तरह का सहयोग नहीं करना चाहिए और उन्हें यह अनुभव कराना चाहिए कि वे अकेले हैं। इस प्रकार के हालातों में ही अन्यायी और दमन करने वाला व्यक्ति आन्दोलनकारियों की उचित मांगों को सुनने के लिए तैयार होता है। लेकिन असहयोग का सहारा लेने के लिए, साहस और आत्म बलिदान की ज़रूरत होती है जिसके बिना असहयोगी अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता।

4. सविनय अवज्ञा (Civil Disobedience) शक्तिशाली शत्रु के खिलाफ़ लड़ने के लिए सविनय अवज्ञा भी गान्धी जी की दृष्टि में एक अनोखा तरीका था। वे सशस्त्र प्रतिरोध (Armed Resistance) के विरोधी थे पर उनका मत था कि मनुष्यों को सामूहिक सामाजिक कल्याण के विरुद्ध लागू होने वाले नियमों और अन्यायपूर्ण कानूनों को नहीं मानना चाहिए।

5. हड़ताल (Strike)-गांधी जी के अनुसार दमनकर्ता या अन्याय करने वाले के विरुद्ध लड़ने का एक तरीका हड़ताल भी है। प्रत्येक कारखाने में मजदूरों को उद्योगपतियों के विरुद्ध लड़ने के लिए संगठित होना ज़रूरी है। पर मजदूरों को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि ऐसे साधनों का उद्देश्य मज़दूरों के उचित अधिकारों को प्राप्त करना और श्रम की गरिमा स्थापित करना है। इसी तरह हड़तालें पूरी तरह अहिंसक होनी चाहिएं।

6. उपवास या व्रत (Fasting)-गांधी जी के जीवन में विशुद्ध सात्विकता का प्रवेश जिस रूप में हुआ है, उसे उपवास जैसे विलक्षण साधनों ने और भी अधिक शक्ति प्रदान की है। गांधी जी के अनुसार उपवास, सत्याग्रह का ही एक रूप है। उपवास आत्म-शुद्धि का एक साधन है। उनके मतानुसार जब उपवास सामूहिक मांगों को मनवाने के लिए किया जाए तो केवल उसी समय किया जाना चाहिए जब कि अन्य साधन समाप्त हो चुके हों।

7. सामाजिक बहिष्कार (Social Boycott)-सामाजिक बहिष्कार का प्रयोग अहिंसात्मक ढंग से होना चाहिए। इसका प्रयोग या तो उन लोगों के विरुद्ध होना चाहिए जो जनमत की अवहेलना करते हैं या फिर सरकार के पिहुओं के विरुद्ध।

8. धरना (Picketing)-धरना बहिष्कार का एक ढंग है। इसका प्रयोग अहिंसात्मक ढंग से होना चाहिए। जो लोग शराब, अफीम, अन्य नशीली वस्तुएं तथा विदेशी कपड़ा बेचते थे गांधी जी उनके विरुद्ध धरने की आज्ञा देते हैं।

9. हिज़रत (Hijrat)–गांधी जी के मतानुसार यदि मनुष्य अन्याय सहन नहीं कर पाता और वह भी जानता है कि वह एक अच्छा सत्याग्रही नहीं बन सकता तो उसके लिए अपने पूर्वजों के उस स्थान को छोड़ देना या हिज़रत कर जाना ही सबसे अच्छा तरीका है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 7 महात्मा गान्धी के राजनीतिक विचार

प्रश्न 3.
गान्धी जी के आदर्श राज्य की विशेषताएं लिखो। (Write down the characteristics of the ideal state of Gandhiji.)
अथवा
महात्मा गांधी जी के आदर्श राज्य की विशेषताओं का वर्णन करो। (Write down the feature of Mahatama Gandhiji’s Ideal State.)
अथवा
गांधी जी के आदर्श राज्य की मुख्य विशेषताएं लिखो। (Write down the feature of Gandhiji’s Ideal State.)
उत्तर-
जब हम गान्धी जी के धार्मिक और आध्यात्मिक विश्वासों के आधार पर नए समाज के विषय में विचार करने बैठते हैं तो एक अत्यन्त कठिन समस्या हमारे सामने उपस्थित होती है। इसका कारण यह है कि वे एक कर्मयोगी थे। अतः अपने आदर्श राज्य की स्थापना का विस्तार से वर्णन उन्होंने कभी नहीं किया। जब कभी कोई उनसे उनके नवीन समाज की बात करता तो वे चुप हो जाते थे। एक बार न्यूमैन से उन्होंने कहा था-“मैं दूरस्थ लक्ष्य देखने की कामना नहीं करता। मेरे लिए तो एक कदम काफ़ी है।” (“I do not ask to see the distant scence ; one step is enough for me.”) इस विषय में 11 फरवरी, 1933 के ‘हरिजन’ में उन्होंने लिखा था –

“अहिंसा पर टिके हुए समाज में राज्य और सरकार की रूप-रेखा क्या होगी ? उनकी चर्चा मैं जानबूझ कर नहीं करता रहा हूँ।……जब समाज का निर्माण अहिंसा के नियमों के अनुसार किया जाएगा तो उसका रूप आज के समाज के मूलरूप से भिन्न होगा। मैं पहले से ही यह नहीं कह सकता कि पूरी तरह से अहिंसा पर आधारित आदर्श राज्य या सरकार का स्वरूप क्या होगा।

इस प्रकार गांधी जी अपने नवीन समाज की कोई स्पष्ट रूप-रेखा प्रस्तुत न कर सके। यह काम उन्होंने जनता पर छोड़ दिया। स्वतन्त्रता के पश्चात् जिस संविधान सभा का निर्माण हुआ, उसमें गान्धी जी ने भाग नहीं लिया। यदि वे भाग ले भी लेते तो वे संविधान सभा द्वारा अहिंसात्मक सरकार की स्थापना करने में सफल न होते क्योंकि संविधान सभा के कई सदस्य अहिंसा में पूर्ण विश्वास नहीं रखते थे।

गान्धी जी के नवीन समाज की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. राज्य विहीन व्यवस्था-महात्मा गांधी हिंसा को जड़ से काट डालना चाहते थे। वह हिंसा को किसी क्षेत्र में भी पनपने देना नहीं चाहते थे। वे राज्य की सत्ता को हिंसा का प्रतीक समझते थे। गान्धी जी अहिंसा के पुजारी हैं, वे राज्य का विरोध इसलिए करते हैं कि यह हिंसा मूलक है। राज्य का विरोध करते हुए गान्धी जी कहते हैं-“मुझे जो बात ना पसन्द है, वह है बल के आधार पर बना हुआ संगठन, राज्य ऐसा ही संगठन है।” गान्धी जी की दृष्टि में राज्य हिंसा का प्रतीक होने के बावजूद व्यक्ति की अपूर्णता का द्योतक है। इसलिए वह ऐसी व्यवस्था की कल्पना करते हैं जब राज्य अपने आप समाप्त हो जाएगा।

2. आदर्श समाज या राज्यविहीन लोकतन्त्र स्वशासी तथा सत्याग्रही ग्रामों का संघ होगा (The ideal society or stateless democracy will be a federation of mover or les self-suffering and self-governing Satyagrahi Village Communities) गान्धी जी का राज्यविहीन समाज आपसी सहयोग पर आधारित गणराज्य होगा अथवा अनेकों पंचायतों का एक समूह या संघ होगा। ऐसे राज्य की अपनी कोई केन्द्रित शक्ति नहीं होगी, बल्कि उनकी शक्ति इन पंचायतों में बिखरी रहेगी। इस प्रकार का संघ लोगों की स्वतन्त्र इच्छा पर आधारित होगा।

3. व्यक्ति और समाज के आपसी सम्बन्ध (Relationship between the Individual and the State)गान्धीवादी व्यवस्था में व्यक्ति को साध्य माना गया है। समाज के सभी क्रिया-कलापों का केन्द्र व्यक्ति ही होगा। राज्य एक साधन माना गया है। राज्य व्यक्ति का सेवक होगा, स्वामी नहीं। पर समाज की प्रगति की ज़रूरतों के अनुसार मनुष्य को भी अपने आपको बनाना पड़ेगा। व्यक्ति को स्वतन्त्रता देने के बावजूद भी वह यह नहीं भूलते कि वह एक सामाजिक प्राणी है।

गान्धी जी के अनुसार व्यक्ति की आजादी और समाज के कर्तव्यों के बीच संघर्ष का असली कारण राज्य का अहिंसा पर आधारित स्वरूप है। उसमें लोगों का शोषण करने का अवसर कुछ व्यक्तियों को मिल जाता है। यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि जितना ही लोग अहिंसा, सत्य और प्रेम को हृदयंगम करेंगे और आपसी सेवा एवं सहयोग के लिए तत्पर रहेगे उतना ही ऐसे संघर्ष समाप्त हो जाएंगे।

4. विकेन्द्रीकरण (Decentralisation)-गान्धी जी का अहिंसात्मक राम राज्य राजनीतिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से विकेन्द्रित होगा। राज्य के केन्द्रीकृत होने से व्यक्ति की आज़ादी नहीं रह जाती और व्यक्ति की आज़ादी के बिना अहिंसा पंगु बन कर रह जाएगी।

आर्थिक विकेन्द्रीकरण के क्षेत्र में बड़े स्तर के उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाएगा। बल्कि कुटीर उद्योग घर-घर स्थापित किए जाएंगे। इससे सामाजिक और आर्थिक समता स्थापित करने में मदद मिलेगी। आधुनिक जगत् से जहां कहीं हिंसा की बातें दिखाई पड़ती हैं उनका मुख्य कारण राज्यों का बहुत अधिक केन्द्रीकृत और सशक्त होना है। आर्थिक विकेन्द्रीकरण से मज़दूरों का शोषण भी नहीं होगा क्योंकि उत्पादन के साधनों और उत्पादित धन के स्वामी वे स्वयं होंगे।

5. वर्ण-व्यवस्था-गान्धी जी के आदर्श राज्य में वर्ण-व्यवस्था के आधार पर काम किया जाएगा। प्रत्येक मनुष्य पुरखों से चला आ रहा काम करेगा जिससे इस व्यवस्था को कोई नुकसान न पहुंचे। इससे समाज के जीवन में होड़ की भावना नहीं उठेगी क्योंकि लोग अपना धन्धा कुछ मर्यादाओं के अन्दर रहकर करेंगे। गान्धी जी के अनुसार वर्ण के नियम ने विशेष प्रकार की योग्यता वाले मनुष्यों के लिए कार्य क्षेत्र स्थापित कर दिया। इससे अनुचित प्रतियोगिता (Unworthy Competition) दूर हो गई। वर्ण नियम ने मनुष्यों की मर्यादाओं को तो माना किन्तु ऊंच-नीच को स्थान न दिया।

गान्धी जी की वर्ण व्यवस्था में सभी उद्योगों को समानता दी जाएगी। ऊंच-नीच के भेदभाव नहीं होंगे1 दूसरी बात यह है कि पुरखों से चले आ रहे काम केवल जीविका चलाने और सामाजिक हित की भावना से ही किए जाएंगे। लाभ कमाना उनका लक्ष्य न होगा।

6. अपरिग्रह (Non-possession)-गान्धीवाद राज्य की एक अन्य विशेषता अस्तेय है। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति ज़रूरत से अधिक वस्तु अपने पास नहीं रखेगा। स्वयं गान्धी जी ने वस्तुएं कभी भी इकट्ठी नहीं की। उनका कहना था कि जो व्यक्ति भविष्य के लिए अपने पास चीजें इकट्ठी करता है उसे ईश्वर पर विश्वास नहीं है। अगर हमें ईश्वर पर भरोसा है तो वह हमारी सन्तुष्टि के लिए हमें वस्तुएं अवश्य देगा।

7. न्यासी (Trusteeship)-गान्धीवादी राज्य में जब लोग अपनी ज़रूरत से अधिक किसी वस्तु का संग्रह नहीं करेंगे तो सभी लोग सुख और शान्ति से रह सकेंगे। गान्धी जी का कहना था कि सम्पत्ति का उत्पादन किया जाए और उसके उत्पादन में काम करने वालों को समान हिस्सा मिले। किसी के पास कितनी भी सम्पत्ति क्यों न हो वह समाज की न्यास सम्पत्ति (Trust) समझी जाए। गान्धी जी का कहना था कि ट्रस्टीशिप सिद्धान्त में आपस के झगड़े समाप्त हो जाएंगे।

8. जीविका के लिए श्रम (Bread-labour)-गान्धी जी का विचार था कि प्रत्येक स्वस्थ मनुष्य को अपनी जीविका कमाने के लिए शारीरिक श्रम करना ज़रूरी है। वे तो कहा करते थे कि बौद्धिक काम करने वालों को भी शारीरिक श्रम अवश्य करना चाहिए। इससे श्रम को आदर मिलेगा और समाज में ऊंच-नीच की भावना का विकास नहीं होगा।

9. आदर्श समाज कृषि प्रधान होगा (Ideal Society will be predominantly agricultural)-गान्धी जी के अनुसार, “ जो समाज अपरिग्रह और शारीरिक श्रम के आदर्शों पर स्थापित किया जाएगा, वह कृषि प्रदान होगा और ग्रामीण सभ्यता को अपनाएगा। आर्थिक जीवन में पूंजीवादी व्यवस्था समाप्त हो जाएगी और मालिक नौकर के बनावटी सम्बन्धों का अन्त हो जाएगा। उत्पादन ग्रामीण उद्योग-धन्धों द्वारा होगा।” यद्यपि गान्धी जी सभी प्रकार की मशीनों के विरुद्ध नहीं थे परन्तु उनका विचार था मुनाफे के लिए लगाए जाने वाले बड़े-बड़े मिल-कारखानों के साथ-साथ सत्याग्रही सभ्यता का विकास असम्भव है।

10. आदर्श समाज में खेती सहकारी ढंग से होगी (Agriculture will be an Co-operative basis in an ideal Society)—गान्धी जी के अनुसार, “खेती स्वेच्छा पर आधारित पद्धति से होनी चाहिए। महात्मा गान्धी की सहकारिता की धारणा यह भी थी कि ज़मीन किसानों के सहकारी स्वामित्व में हो और जुताई तथा खेती सहकारी नीति से हो। इससे श्रम, पूंजी और औज़ारों आदि की बचत होगी। भूमि के स्वामी सहकारिता से कार्य करेंगे और पूंजी,
औज़ार, पशु, बीज इत्यादि के सहकारी स्वामी होंगे। उनकी धारणा थी कि सहकारी कृषि देश का रूप बदल देगी और किसानों के बीच से निर्धनता और आलस्य को दूर कर देगी।”

11. आदर्श समाज में यातायात के भारी साधन, बड़े नगर, वकील और अदालतें नहीं होंगी (No heavy transport, big cities, courts and lawyers in an Ideal society)— it oft otot farari e forti, “आदर्श समाज में न तो यातायात के भारी साधन होंगे, न वकील और कचहरियां होंगी, न आजकल डॉक्टर और दवाइयां होंगी और न बड़े नगर होंगे।”

12. आदर्श समाज में प्राकृतिक चिकित्सा पर बल दिया जाएगा (Emphasis on natural treatment will be put in ideal society)—गान्धी जी के आदर्श समाज में पेशेवर डॉक्टर नहीं होंगे और न ही दवाइयों का बड़ा उत्पादन होगा बल्कि प्राकृतिक चिकित्सा पर बल दिया जाएगा।

13. धर्म-निरपेक्षता (Secularism)-गान्धीवाद धर्म-निरपेक्षता में विश्वास करता है। गान्धी जी के अनुसार राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होना चाहिए। इसके साथ-साथ सभी नागरिकों को कोई भी धर्म अपनाने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

14. अपराध, सजा एवं न्याय (Crime, Punishment and Justice)-गान्धीवाद के अनुसार अपराध समाज में एक बीमारी के समान है और इस बीमारी से हमें छुटकारा तभी मिल सकता है, जब हम अपराधियों के प्रति घृणा एवं बदले की भावना न रखें तथा उन्हें सुधारने का प्रयास करें।

निष्कर्ष (Conclusion)-अब प्रश्न उठता है कि क्या गान्धीवादी राज्य की स्थापना कर पाना सम्भव है? इस बारे में बहुत-से आलोचकों का कहना यह है कि गान्धी जी के राज्य व्यवस्था के सम्बन्धी विचार प्लेटो के काल्पनिक विचारों की तरह ही हैं। उन्हें व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। वस्तुतः सच्चाई यह है कि लोग ऐसा कहते हैं वे मनुष्य को एक दैनिक प्राणी न मान कर एक बर्बर प्राणी ही समझते हैं जो जंगलीपन से ऊपर नहीं उठ सकता। इसके विपरीत गान्धी जी का दृष्टिकोण यह था कि मनुष्य में दैवी अंश मौजूद है। अतः उनका जीवन कानून, सत्य, प्रेम और अहिंसा के आधार पर चलना चाहिए किन्तु जिन लोगों का दृष्टिकोण भौतिक है और आत्मा एवं परमात्मा की सत्ता में जिन्हें विश्वास ही नहीं है उनको इन सिद्धान्तों के विषय में विश्वास दिला पाना बहुत अधिक कठिन है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 7 महात्मा गान्धी के राजनीतिक विचार

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
गांधी जी के धर्म और राजनीति के सम्बन्धों के बारे में मौलिक दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए।
अथवा
गांधी जी के अनुसार “धर्म तथा राजनीति का परस्पर सम्बन्ध है।” वर्णन कीजिए।
उत्तर-
गांधी जी राजनीति को धर्म की आधारशिला पर खड़ा करना चाहते थे। गांधी जी का विश्वास था कि धर्म राजनीति का अभिन्न अंग है और राजनीति को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता है। गांधी जी चाहते थे कि राजनीति अनैतिकता से दूर रहे। उनकी नज़र में राजनीति, धर्म और नैतिकता की शाखा थी। धर्म से अलग होने पर राजनीति एक शव की भान्ति है जिसको जला देना चाहिए। गांधी जी के शब्दों में, “बहुत सारे धार्मिक व्यक्ति जिनसे मैं मिलता हूँ वह छुपे हुए राजनीतिज्ञ होते हैं, परन्तु मैं जो एक राजनीतिज्ञ दिखाई देता हूँ वास्तव में धार्मिक हूँ।”

प्रश्न 2.
गांधी जी के अनुसार सत्याग्रह से क्या अभिप्राय है?
अथवा
सत्याग्रह से गांधी जी का क्या भाव है ? सत्याग्रह की विधियों का नाम बताएं।
उत्तर-
गांधी जी ने सार्वजनिक विरोध के लिए सत्याग्रह के सिद्धान्त का आविष्कार किया। सत्याग्रह का अर्थ है अहिंसा में अटूट विश्वास रखने वाले मनुष्य का सत्य के प्रति आग्रह । सत्याग्रह में सब कुछ सत्य के लिए किया जाता है, दूसरों को तनिक भी कष्ट या पीड़ा पहुंचाना उसका उद्देश्य नहीं होता। गांधी जी के शब्दों में, “सत्याग्रह का अर्थ है विरोधी को पीड़ा देकर नहीं, बल्कि स्वयं तकलीफ उठा कर सत्य की रक्षा करना।” यह सच्चाई के लिए तपस्या है। गांधी जी के अनुसार सत्याग्रह कमज़ोरों का शस्त्र नहीं है। सत्याग्रह वीरों का शस्त्र है। इस सिद्धान्त का गांधी जी ने स्वयं स्वतन्त्रता आन्दोलन में प्रयोग किया। एक सच्चा सत्याग्रही समझौते के किसी भी अवसर को खोता नहीं है और वह सदा विनम्र बना रहता है। व्यक्तिगत लाभ के लिए इसका प्रयोग नहीं किया जाता।

सत्याग्रह की विधियां-

  1. असहयोग (Non-Co-Operation)-गांधी जी के मतानुसार जो लोग अन्याय करते हों या दूसरों को अनुचित तरीकों से दबाते हों तो उनके साथ किसी भी तरह का सहयोग नहीं करना चाहिए।
  2. सविनय अवज्ञा (Civil Disobedience)-शक्तिशाली शत्रु के ख़िलाफ लड़ने के लिए गांधी जी ने सविनय अवज्ञा के तरीके पर जोर दिया है। गांधी जी सशस्त्र प्रतिरोध के विरोधी थे पर उनका मत था कि मनुष्यों को सामूहिक सामाजिक कल्याण के विरुद्ध लागू होने वाले नियमों और अन्यायपूर्ण कानूनों को नहीं मानना चाहिए।
  3. हड़ताल (Strike)-गांधी जी के अनुसार दमन कर्ता या अन्याय करने वाले के विरुद्ध लड़ने का एक तरीका हड़ताल है।
  4. उपवास या व्रत-गांधी जी के अनुसार सत्याग्रह का एक तरीका उपवास या व्रत रखना है। प

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प्रश्न 3.
सत्याग्रह की चार विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • असहयोग (Non-Co-Operation)-गांधी जी के मतानुसार जो लोग अन्याय करते हों या दूसरों को अनुचित तरीकों से दबाते हों तो उनके साथ किसी भी तरह का सहयोग नहीं करना चाहिए।
  • सविनय अवज्ञा (Civil Disobedience)-शक्तिशाली शत्रु के ख़िलाफ लड़ने के लिए गांधी जी ने सविनय अवज्ञा के तरीके पर जोर दिया है। गांधी जी सशस्त्र प्रतिरोध के विरोधी थे पर उनका मत था कि मनुष्यों को सामूहिक सामाजिक कल्याण के विरुद्ध लागू होने वाले नियमों और अन्यायपूर्ण कानूनों को नहीं मानना चाहिए।
  • हड़ताल (Strike)-गांधी जी के अनुसार दमन कर्ता या अन्याय करने वाले के विरुद्ध लड़ने का एक तरीका हड़ताल है।
  • उपवास या व्रत-गांधी जी के अनुसार सत्याग्रह का एक तरीका उपवास या व्रत रखना है।

प्रश्न 4.
गांधी जी के चार महत्त्वपूर्ण विचार लिखो।
उत्तर-

  • अहिंसा सम्बन्धी विचार-गांधी जी अहिंसा के पुजारी थे। गांधी जी ने अहिंसा को आत्मिक तथा ईश्वरीय शक्ति बताया है। अहिंसा, आत्म बलिदान करने, कठिनाइयां सहने और दुःख भोगने के बाद भी सत्य और न्याय पर डटे रहने को ही कहा जा सकता है। सत्य, प्रेम, निर्भीकता, व्रत, नि:स्वार्थ भावना, आन्तरिक पवित्रता आदि अहिंसा के आधार हैं।
  • साधनों की पवित्रता पर विश्वास-व्यक्ति तथा समाज को सदाचार के सांचे में ढालने के लिए गांधी जी ने मानवीय आचरण को ऊंचा उठाने के लिए सत्य, अहिंसा और साधनों की पवित्रता पर जोर दिया। समाज में परिवर्तन लाने के लिए उन्होंने साधन की पवित्रता पर जोर दिया। गांधी जी का विश्वास था कि यदि कोई साधन का ध्यान रखे तो उद्देश्य अपना ध्यान स्वयं रख लेगा।
  • राज्य का कार्य क्षेत्र-गांधी जी के अनुसार राज्य को व्यक्ति के कार्यों में न्यूनतम हस्तक्षेप करने का अधिकार होना चाहिए। सर्वोत्तम सरकार वह है जो सबसे कम शासन करे। गांधी जी राज्य को कम-से-कम कार्य सौंपना चाहते थे।
  • गांधी जी ने व्यक्ति की नैतिक पवित्रता पर बल दिया है।

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प्रश्न 5.
राज्य सम्बन्धी गांधी जी के विचार लिखिए।
उत्तर-
गांधी जी के अनुसार राज्य संगठित तथा एकत्रित हिंसा का प्रतिनिधि हैं। व्यक्ति तो आत्मा का स्वामी है, परन्तु राज्य एक आत्मा रहित मशीन है। हिंसा को राज्य से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि राज्य इसके बल पर ही कायम है। गांधी जी का कहना था कि राज्य द्वारा पुलिस, न्यायालय और सैनिक शक्ति के माध्यम से व्यक्तियों पर अपनी इच्छा थोपी जाती है। गांधी जी ने राज्य को अनावश्यक बुराई इसलिए भी बताया, क्योंकि उनके विचारानुसार राज्य एक बाध्यकारी शक्ति है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास को कुण्ठित करती है। राज्य के विरोध में गांधी जी का यह भी तर्क था कि अहिंसा पर आधारित किसी भी आदर्श समाज में राज्य अनावश्यक है। अतः गांधी जी राज्य की शक्ति का अन्त करना चाहते थे, परन्तु वह राज्य की व्यवस्था का तुरन्त अन्त करने के पक्ष में नहीं थे।

प्रश्न 6.
महात्मा गांधी जी के अहिंसा सम्बन्धी विचारों पर विस्तार से वर्णन करें। (P.B. 2017)
अथवा
गांधी जी के अनुसार अहिंसा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
गांधी जी पूरे संसार में अहिंसा के लिए प्रसिद्ध है। गांधी जी का अहिंसा से अभिप्राय है-“सृष्टि पर सब प्राणियों को मन, वाणी और कर्म से किसी प्रकार की कोई हानि न पहुंचाई जाए।” गांधी जी के अनुसार, अहिंसा का अर्थ है कि किसी को क्रोध में अथवा निजी स्वार्थ के लिए उसको चोट पहुंचाने के इरादे से दुःख न दिया जाए और न ही हत्या की जाए। अहिंसा से अभिप्राय सत्य के आग्रह से है। अहिंसा का अर्थ खतरे के समय कायरता दिखाना या हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहना नहीं है। गांधी जी के अनुसार अहिंसा ऐसी शक्ति है जो बिजली से भी अधिक तेज़ है और ईश्वर से भी अधिक शक्तिशाली है। भीषण से भीषण हिंसा का सामना ऊंची से ऊंची अहिंसा द्वारा किया जा सकता है। गांधी जी के अनुसार अहिंसा उन व्यक्तियों का शस्त्र है जो भौतिक रूप से कमज़ोर, परन्तु नैतिक रूप से बलवान् हैं। अहिंसा का मूल आधार सत्य है। प्रेम, आन्तरिक पवित्रता, व्रत, निर्भीकता, अपरिग्रह इत्यादि अहिंसा के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं।

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प्रश्न 7.
गांधी जी के आदर्श राज्य (राम राज्य) की चार विशेषताएं लिखिए।
अथवा
गाँधी जी के आदर्श राज्य की चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
महात्मा गांधी के आदर्श राज्य के सिद्धांत की व्याख्या करो।
उत्तर-
1. विकेन्द्रीकरण-गांधी जी का अहिंसात्मक राम राज्य राजनीतिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से विकेन्द्रित होगा। राज्य के केन्द्रीयकृत होने से व्यक्ति की आज़ादी नहीं रह जाती और व्यक्ति की आज़ादी के बिना अहिंसा पंगु बनकर रह जाएगी। गांधी जी आर्थिक व राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण के महान् समर्थक रहे हैं।

2. अपरिग्रह-गांधीवादी राज्य की एक अन्य विशेषता अस्तेय है। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति ज़रूरत से अधिक वस्तु अपने पास नहीं रखेगा। उनका कहना था कि जो व्यक्ति भविष्य के लिए अपने पास चीजें इकट्ठी करता है उसे ईश्वर पर विश्वास नहीं है।

3. आदर्श समाज कृषि प्रधान होगा-गांधी जी के अनुसार, “जो समाज अपरिग्रह और शारीरिक श्रम के आदर्शों पर स्थापित किया जाएगा, वह खेती प्रधान होगा और ग्रामीण सभ्यता को अपनाएगा।” किन्तु गांधी जी ऐसे सादे औज़ारों और मशीनों का स्वागत करते थे जो बिना बेकारी बढ़ाए लाखों ग्रामीणों के बोझ को हल्का करते हैं। 4. धर्म-निरपेक्षता-गांधी जी के अनुसार राज्य धर्म-निरपेक्ष होना चाहिए।

प्रश्न 8.
गांधी जी का अमानती सिद्धात क्या है ?
अथवा
अमानतदारी प्रणाली किसे कहते हैं ?
उत्तर-
गांधी जी ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त समाज की वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को समता व्यवस्था में बदलने का एक साधन है। यह पूंजीवाद को बढ़ावा नहीं देता तथा पूंजीपतियों को अपना सुधार करने का अवसर देता है। वह सम्पत्ति के व्यक्तिगत स्वामी बनने के सिद्धान्त को अस्वीकार करता है। उसके अनुसार देश की सारी भूमि, सम्पत्ति व उत्पादन के साधन सारे राष्ट्र अथवा समाज के हैं। यद्यपि उन पर बड़े-बड़े ज़मींदारों तथा पूंजीपतियों का नियन्त्रण है, परन्तु वे केवल उस सम्पत्ति के संरक्षक हैं। वे अपनी निजी साधारण आवश्यकता के अनुसार अपने लिए थोड़ी-सी सम्पत्ति का प्रयोग कर सकते हैं। इस प्रकार इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को समाज के हितों को ध्यान में रखे बिना अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करने में स्वतन्त्र नहीं होगा। जिस प्रकार लोगों के लिए न्यूनतम वेतन निश्चित करने का प्रस्ताव है उसी प्रकार लोगों की अधिकतम आय की सीमा भी निर्धारित करनी होगी। न्यूनतम और अधिकतम आय का भेद उचित न्याय पर आधारित होगा और समय-समय पर बदलता रहेगा।

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प्रश्न 9.
महात्मा गांधी कौन थे ?
उत्तर-
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी वास्तव में एक युग पुरुष थे। गांधी जी के नेतृत्व में भारत ने अपनी स्वतन्त्रता की लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ी तथा अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। महात्मा गांधी का असली नाम मोहनदास था। उनका जन्म 2 अक्तूबर, 1869 को आधुनिक गुजरात राज्य में स्थित पोरबन्दर नामक रियासत में हुआ। मोहनदास के पिता का नाम कर्मचन्द था तथा उनकी माता का नाम पुतली बाई था।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीयों ने असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन तथा भारत छोड़ो आन्दोलन चलाकर भारत को अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ाद कराया।

प्रश्न 10.
सविनय अवज्ञा आन्दोलन सम्बन्धी गांधी जी के विचारों का वर्णन कीजिए।
अथवा
गांधी जी के अनुसार सिविल अवज्ञा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
शक्तिशाली शत्रु के खिलाफ लड़ने के लिए सविनय अवज्ञा भी गांधी जी की दृष्टि में एक अनोखा तरीका था। वे सशस्त्र प्रतिरोध (Armed Resistance) के विरोधी थे पर उनका मत था कि मनुष्यों को सामूहिक सामाजिक कल्याण के विरुद्ध लागू होने वाले नियमों और अन्यायपूर्ण कानूनों को नहीं मानना चाहिए। लोगों में ऐसे बुरे और अन्यायी कानूनों को बुरा बताने का साहस होना ज़रूरी है। उन्हें ऐसे सभी कानूनों को अमान्य कर जो भी कष्ट या दण्ड उन्हें दिया जाए, उसे सहने के लिए उस समय तक तैयार रहना चाहिए, जब तक कि उन कानूनों को रद्द न कर दिया जाए। गांधी जी के शब्दों में, “मेरा यह निश्चित मत है कि हमारा पहला कर्त्तव्य यह है कि हम स्वेच्छा से कानूनों का पालन करें पर ऐसा करते समय मैं इस नतीजे पर भी पहुंचा हूं कि जो कानून असत्य और अन्याय को बढ़ावा देते हों उनको तोड़ना भी हमारा आवश्यक कर्त्तव्य है।”

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प्रश्न 11.
‘हिजरत’ से गांधी जी का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हिज़रत गांधी जी द्वारा प्रस्तुत सत्याग्रह के अनेक रूपों में से एक है। गांधी जी के मतानुसार यदि मनुष्य अन्याय सहन नहीं कर पाता और यह भी जानता है कि वह एक अच्छा सत्याग्रही नहीं बन सकता तो उसके लिए अपने पूर्वजों के उस स्थान को छोड़ देना या हिज़रत कर जाना ही सबसे अच्छा तरीका है। पर इसके इस्तेमाल करने वाले में भी बहुत साहस की ज़रूरत होती है। उसकी वजह यह है कि अपने पूर्वजों के स्थान पर जहां उसका जन्म हुआ, पल कर बड़ा हुआ, अपनी उस मातृभूमि के प्रति अत्यधिक लगाव की भावना उसमें पैदा हो जाती है। अतः अपने देश, रिश्तेदारों और दोस्तों आदि.से सम्बन्ध तोड़ कर दूर जाने का निश्चय करना अत्यन्त साहस की बात है। पर इसका सहारा भी बहुत सोच-समझ कर लेना चाहिए और जो ऐसा करें, उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
‘नौकरशाही, शब्द के अर्थ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
नौकरशाही अथवा ब्यूरोक्रेसी फ्रांसीसी भाषा के शब्द ब्यूरो से बना है जिसका अर्थ है-डेस्क या लिखने की मेज़। अतः इस शब्द का अर्थ हुआ डेस्क सरकार। इस प्रकार नौकरशाही का अर्थ डेस्क पर बैठकर काम करने वाले अधिकारियों के शासन से है।

दूसरे शब्दों में, नौकरशाही का अर्थ है प्रशासनिक अधिकारियों का शासन। नौकरशाही शब्द का अधिकाधिक प्रयोग लोक सेवा के प्रभाव को जताने के लिए किया जाता है।

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प्रश्न 2.
नौकरशाही की दो परिभाषाएं दें।
उत्तर-

  1. मार्शल ई० डीमॉक (Marshall E. Dimock) के अनुसार, “नौकरशाही का अर्थ है विशेषीकृत पद सोपान एवं संचार की लम्बी रेखाएं।”
  2. मैक्स वेबर (Max Weber) के अनुसार, “नौकरशाही प्रशासन की ऐसी व्यवस्था है जिसकी विशेषताविशेषज्ञ, निष्पक्षता तथा मानवता का अभाव होता है।”

प्रश्न 3.
नौकरशाही के कोई दो और नाम बताएं।
उत्तर-

  1. दफ्तरशाही
  2. अफसरशाही।

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प्रश्न 4.
नौकरशाही की दो मुख्य विशेषताओं को लिखो।
उत्तर-

  • निश्चित अवधि-नौकरशाही का कार्यकाल निश्चित होता है। सरकार के बदलने पर नौकरशाही पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। मन्त्री आते हैं और चले जाते हैं, परन्तु नौकरशाही के सदस्य अपने पद पर बने रहते हैं। लोक सेवक निश्चित आयु पर पहुंचने पर ही रिटायर होते हैं।
  • निर्धारित वेतन तथा भत्ते-नौकरशाही के सदस्यों को निर्धारित वेतन तथा भत्ते दिए जाते हैं। पदोन्नति के साथ उनके वेतन में भी वृद्धि होती रहती है। अवकाश की प्राप्ति के पश्चात् नौकरशाही के सदस्यों को पेन्शन मिलती है।

प्रश्न 5.
नौकरशाही के किन्हीं दो कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1. प्रशासकीय कार्य (Administrative Functions)—प्रशासकीय कार्य नौकरशाही का महत्त्वपूर्ण कार्य है। मन्त्री का कार्य नीति बनाना है और नीति को लागू करने की ज़िम्मेदारी नौकरशाही की है।

2. अपरिग्रह-गांधीवादी राज्य की एक अन्य विशेषता अस्तेय है। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति ज़रूरत से अधिक वस्तु अपने पास नहीं रखेगा। उनका कहना था कि जो व्यक्ति भविष्य के लिए अपने पास चीज़ इकट्ठी करता है उसे ईश्वर पर विश्वास नहीं है।

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प्रश्न 7.
अमानतदारी प्रणाली (न्यासिता सिद्धान्त) किसे कहते हैं ?
उत्तर-
गांधी जी ने आर्थिक विषमता को दूर करने और समाज में भाईचारे की भावना बनाए रखने के लिए ट्रस्टीशिप (अमानतदारी) का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उसके अनुसार उत्पादन एवं सम्पत्ति पर बड़े-बड़े ज़मींदारों तथा पूंजीपतियों का नियन्त्रण है, परन्तु वे केवल उस सम्पत्ति के संरक्षक हैं। वे अपनी निजी साधारण आवश्यकता के अनुसार अपने लिए थोड़ी-सी सम्पत्ति का प्रयोग कर सकते हैं। जिस प्रकार लोगों के लिए न्यूनतम वेतन निश्चित करने का प्रस्ताव है. उसी प्रकार लोगों की अधिकतम आय की सीमा भी निर्धारित करनी होगी। न्यूनतम और अधिकतम आय का भेद उचित न्याय पर आधारित होगा और समय-समय पर बदलता रहेगा।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1.
महात्मा गांधी का जन्म कहां हुआ था ?
उत्तर-
महात्मा गांधी का जन्म गुजरात में हुआ।

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प्रश्न 2.
महात्मा गांधी जी को महात्मा की उपाधि किसने दी ?
उत्तर-
महात्मा गांधी जी को महात्मा की उपाधि रविन्द्र नाथ टैगोर ने दी।

प्रश्न 3.
सत्याग्रह की कोई एक विधि लिखें।
उत्तर-
सत्याग्रह की एक विधि असहयोग है।

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प्रश्न 4.
महात्मा गांधी जी के जीवन पर प्रभाव डालने वाले दो धार्मिक ग्रन्थों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. गीता
  2. बाइबल।

प्रश्न 5.
महात्मा गांधी जी का आदर्श राज्य किस प्रकार का है ?
उत्तर-
महात्मा गांधी जी का आदर्श राज्य राम राज्य जैसा है।

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प्रश्न 6.
महात्मा गांधी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
महात्मा गांधी जी का जन्म 2 अक्तूबर, 1869 को हुआ।

प्रश्न 7.
गांधी जी के अहिंसा के बारे में विचार लिखो।
उत्तर-
गांधी जी के अनुसार अहिंसा सकारात्मक एवं गतिशील अवधारणा है, जोकि सभी प्राणियों के प्रति प्रेम, दया एवं सद्भावना की अभिव्यक्ति है।

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प्रश्न 8.
सिविल-ना-फरमानी से गांधी जी का क्या भाव था ?
उत्तर-
ब्रिटिश सरकार के गलत कानूनों को सामूहिक रूप से मानने से इन्कार करना।

प्रश्न 9.
हिज़रत से गांधी जी का क्या भाव है ?
उत्तर-
गांधी जी के अनुसार यदि मनुष्य अन्याय सहन नहीं कर पाता और वह भी जानता है कि वह एक अच्छा सत्याग्रही नहीं बन सकता तो उसके लिए अपने पूर्वजों के उस स्थान को छोड़ देना या हिज़रत कर जाना ही अच्छा है।

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प्रश्न 10.
गांधी जी किस विद्वान् को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे?
उत्तर-
महात्मा गांधी जी गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।

प्रश्न 11.
महात्मा गांधी जी की सत्याग्रह की दो विधियों के नाम लिखो।
अथवा
सत्याग्रह की कोई एक विधि लिखो।
उत्तर-

  1. असहयोग
  2. धरना देना।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 7 महात्मा गान्धी के राजनीतिक विचार

प्रश्न 12.
महात्मा गांधी जी को राष्ट्रपिता का खिताब किसने दिया था ?
उत्तर-
महात्मा गांधी जी को राष्ट्रपिता का खिताब नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने दिया था।

प्रश्न 13.
गांधी जी के आदर्श राज्य की एक विशेषता लिखो। .
उत्तर-
गांधी जी का आदर्श राज्य राजनीतिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से विकेन्द्रित होगा।

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प्रश्न 14.
गांधी जी किस व्यक्ति से प्रभावित थे ?
उत्तर-
गांधी जी रस्किन, टॉलस्टाय तथा थ्योरो से अत्यधिक प्रभावित थे।

प्रश्न 15.
गांधी जी किस विद्वान् को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे?
उत्तर-
गांधी जी गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. महात्मा गांधी को भारत का ……………….. कहा जाता है।
2. महात्मा गांधी का जन्म ……………….. 1869 को हुआ।
3. महात्मा गांधी की पत्नी का नाम ..
था। 4. महात्मा गांधी एक मुकद्दमे की पैरवी करने के लिए सन् 1893 में ………………. गए।
5. महात्मा गांधी सन् ……… में दक्षिण अफ्रीका से भारत वापिस आए।
उत्तर-

  1. राष्ट्रपिता
  2. 2 अक्तूबर
  3. कस्तूरबा गांधी
  4. दक्षिण अफ्रीका
  5. 1915

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें

1. गांधी जी साधनों की पवित्रता पर विश्वास करते थे।
2. गांधी जी राज्य को साधन न मानकर साध्य मानते थे।
3. गांधी जी व्यक्ति की नैतिक पवित्रता पर बल देते थे।
4. गांधी जी केन्द्रीयकृत अर्थव्यवस्था में विश्वास रखते थे।
5. गांधी जी साम्राज्यवाद के विरुद्ध थे।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गांधी जी के अनुसार सत्याग्रह के स्वरूप हैं
(क) बातचीत
(ख) आत्मपीड़न
(ग) असहयोग
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ)

प्रश्न 2.
गांधी जी का राजनीतिक गुरु कौन था ?
(क) फिरोज़ शाह मेहता
(ख) गोपाल कृष्ण गोखले
(ग) दादा भाई नौरोजी
(घ) मौलाना अबुल कलाम।
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 3.
चम्पारण सत्याग्रह कब शुरू हुआ ?
(क) 1916 में
(ख) 1917 में
(ग) 1919 में
(घ) 1914 में ।
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 4.
निर्धन ग्रामीणों के उत्थान के लिए गांधी जी ने कौन-सा विचार दिया था ?
(क) सर्वोदय
(ख) अन्त्योदय
(ग) निर्धनता उन्मूलन
(घ) इनमें से कोई भी नहीं।
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 5.
गांधी जी के अनुसार लोकतन्त्र की क्या विशेषता है ?
(क) विकेन्द्रित लोकतन्त्र
(ख) अहिंसावादी लोकतन्त्र
(ग) जनता वास्तविक सत्ता की स्वामी
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

गुरु तेग बहादुर जी का प्रारंभिक जीवन (Early Career of Guru Tegh Bahadur Ji)

प्रश्न 1.
गुरु तेग़ बहादुर जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief description of the early life of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नवम् गुरु थे। उनका गुरुकाल 1664 ई० से 1675 ई० तक रहा। गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए अनेक प्रदेशों की यात्राएँ कीं। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु जी के प्रारंभिक जीवन और यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ। आप गुरु हरगोबिंद जी के पाँचवें तथा सबसे छोटे पुत्र थे। आपके माता जी का नाम नानकी था। आपके पिता जी ने आपके जन्म पर भविष्यवाणी की कि यह बालक सत्य तथा धर्म के मार्ग पर चलेगा तथा अत्याचार का डट कर मुकाबला करेगा। गुरु जी का यह कथन सत्य सिद्ध हुआ।

2. बाल्यकाल तथा शिक्षा (Childhood and Education)-बचपन में आपका नाम त्यागमल था। जब आप पाँच वर्ष के हुए तो आपने बाबा बुड्डा जी तथा भाई गुरदास जी से शिक्षा प्राप्त करनी आरंभ की। आपने पंजाबी, ब्रज, संस्कृत, इतिहास, दर्शन, गणित, संगीत आदि की शिक्षा प्राप्त की। आपको घुड़सवारी तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा भी दी गई। करतारपुर की लड़ाई में आपकी वीरता देखकर आपके पिता गुरु हरगोबिंद जी ने आपका नाम त्यागमल से बदल कर तेग़ बहादुर रख दिया।

3. विवाह (Marriage)-तेग़ बहादुर जी का विवाह करतारपुर वासी लाल चंद जी की सुपुत्री गुजरी से हुआ। आपके घर 1666 ई० में एक पुत्र ने जन्म लिया। इस बालक का नाम गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास रखा गया।

4. बाबा बकाला में निवास (Settlement at Baba Bakala)—ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हरगोबिंद जी ने अपने पौत्र हर राय जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उन्होंने तेग़ बहादुर जी को अपनी पत्नी गुजरी तथा माता नानकी को लेकर बकाला चले जाने का आदेश दिया। यहाँ तेग़ बहादुर जी 20 वर्ष तक रहे।

5. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हर कृष्ण जी ने यह संकेत दिया था कि सिखों का अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बकाला पहुँचा तो 22 सोढियों ने अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूंढा। वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका समुद्री जहाज़ डूब रहा था तो उसने शुद्ध मन से गुरु साहिब के आगे अरदास की कि यदि उसका जहाज़ डूबने से बच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। उसका जहाज़ किनारे लग गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेंट करने के लिए बाबा बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देखकर चकित रह गया। वास्तविक गुरु को ढूंढने के लिए उसने बारी-बारी प्रत्येक गुरु को दो-दो मोहरें भेंट की। नकली गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में श्री तेग़ बहादुर जी को दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था,परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेंट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा, “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। गुरु तेग़ बहादुर जी 1664 ई० से 1675 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

6. धीरमल का विरोध (Opposition of Dhir Mal)-धीरमल गुरु हरराय जी का बड़ा भाई था। बकाला में स्थापित 22 मंजियों में से एक धीरमल की भी थी। जब धीरमल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसने कुछ गुंडों के साथ गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। इस घटना से सिख रोष से भर उठे। वे धीरमल को पकड़कर गुरु जी के पास लाए। धीरमल द्वारा क्षमा याचना करने पर गुरु साहिब ने उसे क्षमा कर दिया।

गुरु तेग बहादुर जी की यात्राएँ
(Travels of Guru Tegh Bahadur Ji)

प्रश्न 2.
गुरु तेग़ बहादुर जी की धर्म यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the religious tours of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की धार्मिक यात्राओं का संक्षेप वर्णन करें। (Narrate the travels undertaken by Guru Tegh Bahadur Ji for preaching Sikhism.)
उत्तर-
1664 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब तथा पंजाब से बाहर की यात्राएँ आरंभ कर दीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों को सत्य तथा प्रेम का संदेश देना था। गुरु साहिब की यात्राओं के उद्देश्य के संबंध में लिखते हुए विख्यात इतिहासकार एस० एस० जौहर का कहना है,
“गुरु तेग़ बहादुर ने लोगों को नया जीवन देने तथा उनके भीतर नई भावना उत्पन्न करना आवश्यक समझा।”1

1. “Guru Tegh Bahadur thought it necessary to infuse a new life and rekindle a new spirit among the people.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 104.

I. पंजाब की यात्राएँ (Travels of Punjab)
1. अमृतसर (Amritsar)—गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1664 ई० में अमृतसर से किया। उस समय हरिमंदिर साहिब में पृथी चंद का पौत्र हरजी मीणा कुछ भ्रष्टाचारी मसंदों के साथ मिलकर स्वयं गुरु बना बैठा था। गुरु साहिब के आने की सूचना मिलते ही उसने हरिमंदिर साहिब के सभी द्वार बंद करवा दिए। जब गुरु साहिब वहाँ पहुँचे तो द्वार बंद देखकर उन्हें दुःख हुआ। अतः वह अकाल तख्त के निकट एक वृक्ष के नीचे जा बैठे। यहाँ पर अब एक छोटा-सा गुरुद्वारा बना हुआ है जिसे ‘थम्म साहिब’ कहते हैं।

2. वल्ला तथा घुक्केवाली (Walla and Ghukewali)-अमृतसर से गुरु तेग बहादुर जी वल्ला नामक गाँव गए। यहाँ लंगर में महिलाओं की अथक सेवा से प्रसन्न होकर गुरु जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा कहा “माईयाँ रब्ब रजाईयाँ”। वल्ला के पश्चात् गुरु जी घुक्केवाली गाँव गए। इस गाँव में अनगिनत वृक्षों के कारण गुरु जी ने इसका नाम ‘गुरु का बाग’ रख दिया।

3. खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरन तारन तथा खेमकरन आदि (Khadur Sahib, Goindwal Sahib, Tarn Taran and Khemkaran etc.)-गुरु साहिब की यात्रा के अगले पड़ाव खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब तथा तरनतारन थे। यहाँ परं गुरु जी ने लोगों को प्रेम तथा भाईचारे का संदेश दिया। तत्पश्चात् गुरु साहिब खेमकरन गए। यहाँ के एक श्रद्धालु चौधरी रघुपति राय ने गुरु साहिब को एक घोड़ी भेंट की।

4. कीरतपुर साहिब और बिलासपुर (Kiratpur Sahib and Bilaspur)-माझा प्रदेश की यात्रा पूर्ण करने के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी कीरतपुर साहिब पहुँचे। वे रानी चंपा के निमंत्रण पर बिलासपुर पहुँचे। गुरु साहिब यहाँ तीन दिन ठहरे। गुरु साहिब ने रानी को 500 रुपए देकर माखोवाल में कुछ भूमि खरीदी तथा एक नए नगर की स्थापना की जिसका नाम उनकी माता जी के नाम पर “चक्क नानकी” रखा गया। बाद में यह स्थान गुरु गोबिंद सिंह जी के समय श्री आनंदपुर साहिब के नाम से विख्यात हुआ।

II. पूर्वी भारत की यात्राएँ । (Travels of Eastern India)
पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने पूर्वी भारत की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

5. सैफाबाद और धमधान (Saifabad and Dhamdhan)—अपनी पूर्वी भारत की यात्रा के दौरान सर्वप्रथम गुरु साहिब ने सैफाबाद तथा धमधान की यात्रा की। यहाँ गुरु साहिब के दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आए। सिख धर्म के इस बढ़ते हुए प्रचार को देखकर औरंगजेब ने गुरु साहिब को बंदी बना लिया।

6. मथुरा और वृंदावन (Mathura and Brindaban) अंबर के राजा राम सिंह के कहने पर औरंगजेब ने गुरु तेग़ बहादुर जी को छोड़ दिया। छूटने के बाद गुरु साहिब दिल्ली से मथुरा तथा वृंदावन पहुंचे। इन दोनों स्थानों पर गुरु साहिब ने धर्म प्रचार किया और संगतों को उपदेश दिए।

7. आगरा और प्रयाग (Agra and Paryag)—गुरु साहिब की यात्रा का अगला पड़ाव आगरा था। यहाँ पर वह एक बुजुर्ग श्रद्धालु माई जस्सी के घर ठहरे। तत्पश्चात् गुरु साहिब प्रयाग पहुँचे। यहाँ गुरु साहिब ने संन्यासियों, साधुओं और योगियों को उपदेश देते हुए फरमाया, “साधो मन का मान त्यागो।”

8. बनारस (Banaras)—प्रयाग की यात्रा के पश्चात् गुरु साहिब बनारस पहुँचे। यहाँ सिख संगतें प्रतिदिन बड़ी संख्या में गुरु साहिब के दर्शन और उनके उपदेश सुनने के लिए उपस्थित होतीं। यहाँ के लोगों का विश्वास था कि कर्मनाशा नदी में स्नान करने वाले व्यक्ति के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। गुरु साहिब ने स्वयं इस नदी में स्नान किया और कहा कि नदी में स्नान करने से कुछ नहीं होता मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है।

9. ससराम और गया (Sasram and Gaya)-बनारस के पश्चात् गुरु साहिब ससराम पहुँचे। यहाँ पर एक श्रद्धालु सिख ‘मसंद फग्गू शाह’ ने गुरु साहिब की बहुत सेवा की। तत्पश्चात् गुरु साहिब गया पहुंचे। यह बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। यहाँ गुरु साहिब ने लोगों को सत्य तथा परस्पर भ्रातृभाव का संदेश दिया।

10. पटना (Patna)गुरु साहिब 1666 ई० में पटना पहुँचे। यहाँ पर सिख संगतों (श्रद्धालुओं) ने गुरु साहिब का भव्य स्वागत किया। गुरु साहिब ने सिख सिद्धांतों पर प्रकाश डाला तथा पटना को ‘गुरु का घर’ कहकर सम्मानित किया। गुरु साहिब ने अपनी पत्नी और माता जी को यहाँ छोड़कर स्वयं मुंघेर के लिए प्रस्थान किया।

11. ढाका (Dhaka)-ढाका पूर्वी भारत में सिख धर्म का एक प्रमुख प्रचार केंद्र था। गुरु साहिब के आगमन के कारण बड़ी संख्या में लोग सिख-धर्म में शामिल हुए। गुरु साहिब ने यहाँ संगतों को जाति-पाति के बंधनों से ऊपर उठने और नाम स्मरण से जुड़ने का संदेश दिया।

12. असम (Assam)-ढाका की यात्रा के बाद गुरु साहिब अंबर के राजा राम सिंह के निवेदन पर असम गए। असमी लोग जादू-टोनों में बहुत कुशल थे। गुरु जी की उपस्थिति में जादू-टोने वाले प्रभावहीन होने लगे और उन्हें गुरु जी का लोहा मानना पड़ा। वे गुरु जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके दर्शनों के लिए आने लगे और उन्होंने अपनी भूल के लिए क्षमा याचना की। तत्पश्चात् गुरु साहिब अपने परिवार सहित पंजाब लौट आए और चक्क नानकी में रहने लगे।

III. मालवा और बांगर प्रदेश की यात्राएँ (Tours of Malwa and Bangar Region)
1673 ई० के मध्य में गुरु तेग़ बहादुर जी ने पंजाब के मालवा और बांगर प्रदेश की दूसरी बार यात्रा आरंभ की। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफ़ाबाद, मलोवाल, ढिल्लवां, भोपाली, खीवां, ख्यालां, तलवंडी, भठिंडा और धमधान आदि प्रदेशों में गए। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब ने स्थान-स्थान पर धर्म प्रचार के केंद्र खोले और गुरु नानक जी का संदेश घर-घर पहुँचाया। गुरु साहिब के सर्वपक्षीय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हज़ारों लोग गुरु साहिब के अनुयायी बन गए। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार हरबंस सिंह के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं ने देश में एक तूफान-सा ला दिया। यह न तो पहले जैसा देश रहा और न ही वे लोग। उनमें नई जागृति आ चुकी थी।”2

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 3.
गुरु तेग़ बहादुर जी के आरंभिक जीवन तथा यात्राओं का विवरण दें।
(Give an account of the early career and travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नवम् गुरु थे। उनका गुरुकाल 1664 ई० से 1675 ई० तक रहा। गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए अनेक प्रदेशों की यात्राएँ कीं। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु जी के प्रारंभिक जीवन और यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ। आप गुरु हरगोबिंद जी के पाँचवें तथा सबसे छोटे पुत्र थे। आपके माता जी का नाम नानकी था। आपके पिता जी ने आपके जन्म पर भविष्यवाणी की कि यह बालक सत्य तथा धर्म के मार्ग पर चलेगा तथा अत्याचार का डट कर मुकाबला करेगा। गुरु जी का यह कथन सत्य सिद्ध हुआ।

2. बाल्यकाल तथा शिक्षा (Childhood and Education)-बचपन में आपका नाम त्यागमल था। जब आप पाँच वर्ष के हुए तो आपने बाबा बुड्डा जी तथा भाई गुरदास जी से शिक्षा प्राप्त करनी आरंभ की। आपने पंजाबी, ब्रज, संस्कृत, इतिहास, दर्शन, गणित, संगीत आदि की शिक्षा प्राप्त की। आपको घुड़सवारी तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा भी दी गई। करतारपुर की लड़ाई में आपकी वीरता देखकर आपके पिता गुरु हरगोबिंद जी ने आपका नाम त्यागमल से बदल कर तेग़ बहादुर रख दिया।

3. विवाह (Marriage)-तेग़ बहादुर जी का विवाह करतारपुर वासी लाल चंद जी की सुपुत्री गुजरी से हुआ। आपके घर 1666 ई० में एक पुत्र ने जन्म लिया। इस बालक का नाम गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास रखा गया।

4. बाबा बकाला में निवास (Settlement at Baba Bakala)—ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हरगोबिंद जी ने अपने पौत्र हर राय जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उन्होंने तेग़ बहादुर जी को अपनी पत्नी गुजरी तथा माता नानकी को लेकर बकाला चले जाने का आदेश दिया। यहाँ तेग़ बहादुर जी 20 वर्ष तक रहे।

5. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हर कृष्ण जी ने यह संकेत दिया था कि सिखों का अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बकाला पहुँचा तो 22 सोढियों ने अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूंढा। वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका समुद्री जहाज़ डूब रहा था तो उसने शुद्ध मन से गुरु साहिब के आगे अरदास की कि यदि उसका जहाज़ डूबने से बच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। उसका जहाज़ किनारे लग गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेंट करने के लिए बाबा बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देखकर चकित रह गया। वास्तविक गुरु को ढूंढने के लिए उसने बारी-बारी प्रत्येक गुरु को दो-दो मोहरें भेंट की। नकली गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में श्री तेग़ बहादुर जी को दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था,परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेंट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा, “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। गुरु तेग़ बहादुर जी 1664 ई० से 1675 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

6. धीरमल का विरोध (Opposition of Dhir Mal)-धीरमल गुरु हरराय जी का बड़ा भाई था। बकाला में स्थापित 22 मंजियों में से एक धीरमल की भी थी। जब धीरमल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसने कुछ गुंडों के साथ गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। इस घटना से सिख रोष से भर उठे। वे धीरमल को पकड़कर गुरु जी के पास लाए। धीरमल द्वारा क्षमा याचना करने पर गुरु साहिब ने उसे क्षमा कर दिया।

2. “Guru Tegh Bahadur’s tours left the country in ferment. It was not the same country again, nor the same people. A new awakening had spread.” Harbans Singh, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1982) p. 92.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान 1
GURDWARA SIS GANJ : DELHI

गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान एवं महत्त्व (Martyrdom and Importance of Guru Tegh Bahadur Ji)

प्रश्न 4.
नौवें गुरु साहिब जी की शहीदी के कारणों का आलोचनात्मक अध्ययन करें। इसके परिणामों की भी चर्चा करें।
(Critically examine the circumstances leading to the martyrdom of 9th Guru. Also discuss its results.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों और परिणामों का वर्णन करें।
(Discuss the causes and results of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों तथा महत्त्व का वर्णन करें। (Describe the causes and significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के क्या कारण थे? इस शहीदी का क्या महत्त्व है?
(What were the main causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ? What is its importance ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए उत्तरदायी कारणों का संक्षिप्त विवरण दें। उनके बलिदान का देश एवं समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Give a brief account of the circumstances leading to the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji. Also explain the effects of his martyrdom on the country and the society.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी किन कारणों से हुई ? इन्हें कब, कहाँ और कैसे शहीद किया गया ?
(What were the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ? When, where and how was he executed ?)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के लिए जिम्मेवार हालात का वर्णन करें। (P.S.E.B. Sept. 2000) (Explain the circumstances which led to the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के क्या कारण थे ? उनके शहीदी का क्या प्रभाव पड़ा ?
(Describe the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji. What were the effects of his martyrdom ?)
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान इतिहास की एक अति महत्त्वपूर्ण घटना है। धर्म तथा मानवता के लिए अपना बलिदान देकर गुरु साहिब ने अपना नाम चिरकाल के लिए अमर कर लिया। गुरु जी के बलिदान से जुड़े तथ्यों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I. बलिदान के कारण (Causes of Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है—
1. मुग़लों और सिखों में शत्रुता (Enmity between the Mughals and the Sikhs)-1605 ई० तक सिखों और मुग़लों में मैत्रीपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, परंतु जब 1606 ई० में मुग़ल सम्राट् जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया तो ये संबंध शत्रुता में बदल गए। गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण उन्हें जहाँगीर द्वारा दो वर्ष के लिए ग्वालियर के दुर्ग में नज़रबंद कर दिया गया। शाहजहाँ के काल में गुरु हरगोबिंद साहिब को चार लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। औरंगजेब के शासनकाल में सिखों और मुग़लों के बीच शत्रुता में और वृद्धि हो गई। यही शत्रुता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी।

2. औरंगज़ेब की कट्टरता (Fanaticism of Aurangzeb)–औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता भी गुरु साहिब के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में चारों ओर इस्लाम धर्म का बोलबाला देखना चाहता था। इसलिए उसने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवा कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी थीं तथा उनके त्योहारों और रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिए। उसके शासनकाल में तलवार के बल पर गैर-मुसलमानों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाने लगा। औरंगज़ेब ने यह भी आदेश दिया कि सिखों के सभी गुरुद्वारों को गिरा दिया जाए। डॉक्टर आई० बी० बैनर्जी के अनुसार,
“निस्संदेह औरंगजेब के सिंहासन पर बैठने के साथ ही साम्राज्य की सारी नीति को उलट दिया गया और एक नए युग का सूत्रपात हुआ।”3

3. नक्शबंदियों का औरंगज़ेब पर प्रभाव (Impact of Naqshbandis on Aurangzeb)-कट्टर सुन्नी मुसलमानों के नक्शबंदी संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह खतरा हो गया कि कहीं सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती न बन जाए। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध औरंगज़ेब को भडकाना आरंभ कर दिया।

4. सिख धर्म का प्रचार (Spread of Sikhism)-गुरु तेग़ बहादुर जी की सिख धर्म के प्रचार के लिए की गई यात्राओं से प्रभावित होकर हज़ारों लोग सिख मत में सम्मिलित हो गए थे। गुरु साहिब जी ने सिख मत के प्रचार में तीव्रता और योग्यता लाने के लिए सिख प्रचारक नियुक्त किए तथा उन्हें संगठित किया। सिख धर्म का हो रहा विकास तथा उसका संगठन औरंगज़ेब की सहन शक्ति से बाहर था।

5. राम राय की शत्रुता (Enmity of Ram Rai)-राम राय गुरु हर कृष्ण जी का बड़ा भाई था। गुरु हर कृष्ण जी के पश्चात् जब गुरुगद्दी तेग़ बहादुर जी को मिल गई तो वह यह सहन न कर पाया। उसने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए कई हथकंडे अपनाने आरंभ किए। जब उसके सभी प्रयास असफल रहे तो उसने गुरु साहिब के विरुद्ध औरंगजेब के कान भरने आरंभ कर दिए।

6. कश्मीरी पंडितों की पुकार (Call of Kashmiri Pandits)-कश्मीरी ब्राह्मण अपने धर्म और प्राचीन संस्कृति के संबंधों में बहुत दृढ़ थे तथा समस्त भारत में उनका आदर होता था। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने इस्लाम धर्म कबूल करवाने के लिए ब्राह्मणों पर घोर अत्याचार किए। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल 25 मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी करुण याचना लेकर पहुँचा। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को यह बता दें कि यदि वे गुरु तेग़ बहादुर को मुसलमान बना लें तो वे बिना किसी विरोध के इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे।

3. “Necessarily, on the accession of Aurangzeb the entire policy of the Empire was reversed and a new era commenced.” Dr. I.B. Banerjee, Evolution of the Khalsa (Calcutta : 1972) Vol 2, p. 68.

II. बलिदान किस प्रकार हुआ ? (How was Guru Martyred ?)
औरंगज़ेब ने गुरु साहिब को दिल्ली बुलाने का निश्चय किया। गुरु तेग़ बहादुर जी अपने तीन साथियों-भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को लेकर 11 जुलाई, 1675 ई० को चक्क नानकी (श्री आनंदपुर साहिब) से दिल्ली के लिए रवाना हुए। मुग़ल अधिकारियों ने उन्हें रोपड़ के निकट गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 4 महीने तक सरहिंद के कारावास में रखा गया तथा औरंगजेब के आदेश पर 6 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली दरबार में पेश किया गया। औरंगज़ेब ने उन्हें इस्लाम धर्म अथवा मृत्यु में से एक स्वीकार करने को कहा। गुरु साहिब तथा उनके तीनों साथियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। मुग़लों ने गुरु जी को हतोत्साहित करने के लिए उनके तीनों साथियों भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को उनके सम्मुख शहीद कर दिया। इसके पश्चात् गुरु जी को कोई चमत्कार दिखाने के लिए कहा गया, परंतु गुरु साहिब ने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप 11 नवंबर,1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरु जी का शीश धड़ से अलग कर दिया गया। हरबंस सिंह तथा एल० एम० जोशी का यह कथन पूर्णत: ठीक है,
“यह भारतीय इतिहास की सर्वाधिक दिल दहला देने वाली एवं कंपाने वाली घटना थी।”4
जिस स्थान पर गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद किया गया उस स्थान पर गुरुद्वारा शीश गंज का निर्माण किया गया। भाई लक्खी शाह गुरु जी के धड़ को अपनी बैलगाड़ी में छुपा कर अपने घर ले आया। यहाँ उसने गुरु जी के धड़ का अंतिम संस्कार करने के लिए अपने घर को आग लगा दी। इस स्थान पर आजकल गुरुद्वारा रकाब गंज बना हुआ है।

III. बलिदान का महत्त्व (Significance of the Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान की घटना न केवल सिख इतिहास अपितु समूचे विश्व इतिहास की एक अतुलनीय घटना है। इस बलिदान से न केवल पंजाब, अपितु भारत के इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पड़े। गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के साथ ही महान् मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। डॉक्टर त्रिलोचन सिंह के शब्दों में,
“गुरु तेग़ बहादुर जी के महान् बलिदान के सिखों पर प्रभावशाली एवं दूरगामी प्रभाव पड़े।”5

4. “This was a most moving and earthshaking event in the history of India.” Harbans Singh and L.M. Joshi, An Introduction to Indian Religions (Patiala : 1973) p. 248.
5. “The impact of the great sacrifice of Guru Tegh Bahadur was extremely powerful and farreaching in its consequences on the Sikh people.” Dr. Trilochan Singh, Guru Tegh Bahadur : Prophet and Martyr (New Delhi : 1978) p. 179.

1. इतिहास की एक अद्वितीय घटना (A Unique Event of History)—संसार का इतिहास बलिदानों से भरा पड़ा है। ये बलिदान अधिकतर अपने धर्म की रक्षा अथवा देश के लिए दिए गए। परंतु गुरु तेग बहादुर जी ने मानवता तथा सत्य के लिए अपना शीश दिया। निस्संदेह संसार के इतिहास में यह एक अतुलनीय उदाहरण थी। इसी कारण गुरु तेग़ बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ कहा जाता है।

2 सिखों में प्रतिशोध की भावना (Feeling of revenge among the Sikhs)—गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के फलस्वरूप समूचे पंजाब में मुग़ल साम्राज्य के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। अतः सिखों ने मुग़लों के अत्याचारी शासन का अंत करने का निर्णय किया।

3. हिंदू धर्म की रक्षा (Protection of Hinduism)-औरंगजेब के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचारों से तंग आकर बहुत-से हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार करना आरंभ कर दिया था। हिंदू धर्म के अस्तित्व के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो चुका था। ऐसे समय में गुरु तेग बहादुर जी ने अपना बलिदान देकर हिंदू धर्म को लुप्त होने से बचा लिया। इस बलिदान ने हिंदू कौम में एक नई जागृति उत्पन्न की। अतः वे औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए तैयार हो गए।

4. खालसा का सृजन (Creation of the Khalsa)—गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब धर्म की रक्षा के लिए उनका संगठित होना अत्यावश्यक है। इस उद्देश्य से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में बैसाखी के दिन खालसा पंथ का सृजन किया। खालसा पंथ के सृजन ने ऐसी बहादुर जाति को जन्म दिया जिसने मुग़लों और अफ़गानों का पंजाब से नामो-निशान मिटा दिया।

5. बलिदानों की परंपरा का आरंभ होना (Beginning of the tradition of Sacrifice)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की, एक परंपरा आरंभ कर दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस मार्ग का अनुसरण करते हुए अनेक कष्ट सहन किए। आपके छोटे साहिबजादों को जीवित नींवों में चिनवा दिया गया। बड़े साहिबजादे युद्धों में शहीद हो गए। गुरु साहिब के पश्चात् बंदा सिंह बहादुर तथा उनके साथ सैंकड़ों सिखों ने बलिदान दिए। सिखों ने मुग़ल अत्याचारों के आगे हँस-हँस कर बलिदान दिए। इस प्रकार गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान आने वाली नस्लों के लिए एक प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ।

6. सिखों और मुग़लों में लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and the Mughals)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों एवं मुग़लों के बीच लड़ाइयों का एक लंबा दौर आरंभ हुआ। इन लड़ाइयों के दौरान सिख चट्टान की तरह अडिग रहे। अपने सीमित साधनों के बावजूद सिखों ने अपनी वीरता के कारण महान् मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के इन शब्दों से सहमत हैं,

“गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके बहुत गहरे परिणाम निकले। “6

6. “The Martyrdom of Guru Tegh Bahadur was an event of great significance in the history of India. It had far-reaching consequences.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 231.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 5.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के सिख इतिहास पर बड़े दूरगामी प्रभाव पड़े। वर्णन करें।
(The martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji had far-reaching consequences on Sikh History. Discuss.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान की घटना न केवल सिख इतिहास अपितु समूचे विश्व इतिहास की एक अतुलनीय घटना है। इस बलिदान से न केवल पंजाब, अपितु भारत के इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पड़े। गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के साथ ही महान् मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। डॉक्टर त्रिलोचन सिंह के शब्दों में,
“गुरु तेग़ बहादुर जी के महान् बलिदान के सिखों पर प्रभावशाली एवं दूरगामी प्रभाव पड़े।”5

5. “The impact of the great sacrifice of Guru Tegh Bahadur was extremely powerful and farreaching in its consequences on the Sikh people.” Dr. Trilochan Singh, Guru Tegh Bahadur : Prophet and Martyr (New Delhi : 1978) p. 179.

1. इतिहास की एक अद्वितीय घटना (A Unique Event of History)—संसार का इतिहास बलिदानों से भरा पड़ा है। ये बलिदान अधिकतर अपने धर्म की रक्षा अथवा देश के लिए दिए गए। परंतु गुरु तेग बहादुर जी ने मानवता तथा सत्य के लिए अपना शीश दिया। निस्संदेह संसार के इतिहास में यह एक अतुलनीय उदाहरण थी। इसी कारण गुरु तेग़ बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ कहा जाता है।

2. सिखों में प्रतिशोध की भावना (Feeling of revenge among the Sikhs)—गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के फलस्वरूप समूचे पंजाब में मुग़ल साम्राज्य के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। अतः सिखों ने मुग़लों के अत्याचारी शासन का अंत करने का निर्णय किया।

3. हिंदू धर्म की रक्षा (Protection of Hinduism)-औरंगजेब के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचारों से तंग आकर बहुत-से हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार करना आरंभ कर दिया था। हिंदू धर्म के अस्तित्व के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो चुका था। ऐसे समय में गुरु तेग बहादुर जी ने अपना बलिदान देकर हिंदू धर्म को लुप्त होने से बचा लिया। इस बलिदान ने हिंदू कौम में एक नई जागृति उत्पन्न की। अतः वे औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए तैयार हो गए।

4. खालसा का सृजन (Creation of the Khalsa)—गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब धर्म की रक्षा के लिए उनका संगठित होना अत्यावश्यक है। इस उद्देश्य से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में बैसाखी के दिन खालसा पंथ का सृजन किया। खालसा पंथ के सृजन ने ऐसी बहादुर जाति को जन्म दिया जिसने मुग़लों और अफ़गानों का पंजाब से नामो-निशान मिटा दिया।

5. बलिदानों की परंपरा का आरंभ होना (Beginning of the tradition of Sacrifice)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की, एक परंपरा आरंभ कर दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस मार्ग का अनुसरण करते हुए अनेक कष्ट सहन किए। आपके छोटे साहिबजादों को जीवित नींवों में चिनवा दिया गया। बड़े साहिबजादे युद्धों में शहीद हो गए। गुरु साहिब के पश्चात् बंदा सिंह बहादुर तथा उनके साथ सैंकड़ों सिखों ने बलिदान दिए। सिखों ने मुग़ल अत्याचारों के आगे हँस-हँस कर बलिदान दिए। इस प्रकार गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान आने वाली नस्लों के लिए एक प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ।

6. सिखों और मुग़लों में लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and the Mughals)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों एवं मुग़लों के बीच लड़ाइयों का एक लंबा दौर आरंभ हुआ। इन लड़ाइयों के दौरान सिख चट्टान की तरह अडिग रहे। अपने सीमित साधनों के बावजूद सिखों ने अपनी वीरता के कारण महान् मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के इन शब्दों से सहमत हैं,

“गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके बहुत गहरे परिणाम निकले। “6

6. “The Martyrdom of Guru Tegh Bahadur was an event of great significance in the history of India. It had far-reaching consequences.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 231.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ?  (Name the devotee Sikh who searched for the Ninth Guru and why ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की तलाश किसने की ओर क्यों ? (Who found Guru Tegh Bahadur Ji and why ?)
उत्तर-
गुरु हर कृष्ण जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। इसलिए 22 सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा ने इसका हल ढूँढ़ा। एक बार जब उसका जहाज़ समुद्री तूफान में डूबने लगा था तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। गुरु कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह बकाला पहुँचा। जब मक्खन शाह ने तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” अर्थात्- गुरु मिल गया है।

प्रश्न 2.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी गुरुगद्दी के दौरान (1664-75 ई०) पंजाब और बाहर के प्रदेशों की अनेकं यात्राएँ कीं। गुरु साहिब की यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख सिद्धांतों का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् । गुरु साहिब ने पंजाब तथा पंजाब के बाहर अनेक स्थानों की यात्राएं की। गुरु साहिब की इन यात्राओं ने सिख पंथ । के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इससे गुरु साहिब की ख्याति चारों ओर फैल गई।

प्रश्न 3.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के उत्तरदायी कारणों का वर्णन करें।
(Highlight the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें।
(Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कोई तीन कारण बताएँ। (List any three causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के क्या कारण थे? (What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में सबसे प्रमुख योगदान औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता का था।
  2. औरंगज़ेब सिख धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं थे।
  3. राम राय ने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए औरंगज़ेब को गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध भड़काया।
  4. कश्मीरी पंडितों की पुकार गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का तत्कालीन कारण बनी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 4.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Discuss the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र सरहिंद था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति और सिख मत का बढ़ रहा प्रचार असहनीय था। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाई करने के लिए औरंगज़ेब के कान भरने आरंभ कर दिए। उनकी कार्यवाई ने जलती पर तेल डालने का काम किया। अत: औरंगजेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया।

प्रश्न 5.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ?
(What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmans ?)
उत्तर-
औरंगज़ेब चाहता था कि कश्मीर के ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग़ बहादुर जी के पास पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया।

प्रश्न 6.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
(Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी की ऐतिहासिक महत्ता का वर्णन करो। (Explain the historical importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ?
(What is the significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी की महत्ता बताओ।
(Explain the importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी की इस शहीदी के कारण समूचा पंजाब क्रोध और रोष की भावना से भड़क उठा। गुरु साहिब ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारत में मुग़ल साम्राज्य रहेगा, तब तक अत्याचार भी बने रहेंगे। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की। तत्पश्चात् सिखों और मुग़लों के बीच एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। इस संघर्ष ने मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
सिखों के नौवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी।

प्रश्न 2.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म कहाँ हुआ ?
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 3.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1 अप्रैल, 1621 ई० ।

प्रश्न 4.
गुरु तेग़ बहादुर जी की माता जी का नाम बताएँ।
उत्तर-
नानकी।

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प्रश्न 5.
गुरु तेग बहादुर जी के पिता जी का नाम बताएँ।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी।

प्रश्न 6.
गुरु तेग़ बहादुर जी का बचपन का नाम बताएँ।
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी का पहला नाम क्या था?
उत्तर-
त्याग मल।

प्रश्न 7.
‘तेग़ बहादुर’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तलवार का धनी।

प्रश्न 8.
गुरु तेग़ बहादुर जी का विवाह किससे हुआ ?
उत्तर-
गुजरी जी।

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प्रश्न 9.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम क्या था ?
उत्तर-
गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास।

प्रश्न 10.
बाबा बकाला में सच्चे गुरु तेग़ बहादुर जी को किसने ढूँढा?
उत्तर-
मक्खन शाह लुबाणा।

प्रश्न 11.
“गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” नामक शब्द किसने कहे थे ?
उत्तर-
मक्खन शाह लुबाणा।

प्रश्न 12.
गुरु तेग़ बहादुर जी का गुरुगद्दी काल बताएँ।
उत्तर-
1664 ई० से 1675 ई०

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प्रश्न 13.
पंजाब से बाहर किसी एक स्थान का नाम बताएँ जहाँ गुरु तेग़ बहादुर जी ने यात्रा की ?
उत्तर-
दिल्ली।

प्रश्न 14.
पंजाब के किसी एक प्रसिद्ध स्थान का नाम बताएँ जिसकी यात्रा गुरु तेग बहादुर जी ने की थी ?
उत्तर-
अमृसतर।

प्रश्न 15.
श्री आनंदपुर साहिब का पहला (प्रारंभिक) नाम क्या था ?
उत्तर-
माखोवाल अथवा चक नानकी।

प्रश्न 16.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का एक मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर-
औरंगजेब सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।

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प्रश्न 17.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ?
उत्तर-
कश्मीरी पंडितों की पुकार।

प्रश्न 18.
उस मुग़ल सूबेदार का नाम बताएँ जिसने कश्मीर के पंडितों पर भारी अत्याचार किए थे।
उत्तर-
शेर अफ़गान।

प्रश्न 19.
किस के नेतृत्व में कश्मीरी पंडितों का एक दल गुरु तेग बहादुर जी को श्री आनंदपुर साहिब में 1675 ई० में मिला था ?
उत्तर-
पंडित कृपा राम।

प्रश्न 20.
किस गुरु साहिब ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दिया ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने।

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प्रश्न 21.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कहाँ शहीद किया गया था ?
उत्तर-
दिल्ली।

प्रश्न 22.
गुरु तेग बहादुर जी को कौन-से मग़ल बादशाह ने शहीद करवाया था ?
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी किस मुग़ल बादशाह के समय हुई ?
अथवा
नौवें गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के समय किस मुग़ल बादशाह का शासन था ?
उत्तर-
औरंगज़ेब।

प्रश्न 23.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कब शहीद किया गया था ?
उत्तर-
11 नवंबर, 1675 ई०

प्रश्न 24.
गुरु तेग़ बहादुर जी के साथ उनके किन तीन श्रद्धालु सिखों को शहीद किया गया?
उत्तर-
भाई मती दास जी, भाई सती दास जी और भाई दयाला जी।

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प्रश्न 25.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के स्थान पर किस गुरुद्वारे का निर्माण किया गया ?
उत्तर-
गुरुद्वारा शीश गंज।

प्रश्न 26.
गुरुद्वारा शीश गंज का निर्माण कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
दिल्ली।

प्रश्न 27.
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
सिखों और मुग़लों में संघर्ष का एक लंबा अध्याय आरंभ हुआ।

प्रश्न 28.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘रंगरेटे गुरु के बेटे’ शब्द किसके लिए प्रयोग किए थे ?
उत्तर-
भाई जैता जी।

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प्रश्न 29.
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द किस गुरु के लिए प्रयोग किए जाते हैं ?
अथवा
“हिंद की चादर’ किस गुरु साहिब को कहा जाता है ? .
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
……………….. सिखों के नवम् गुरु थे।
उत्तर-
(गुरु तेग बहादुर जी)

प्रश्न 2.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म ……………. में हुआ था।
उत्तर-
(अमृतसर)

प्रश्न 3.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम ……………. था। ”
उत्तर-
(गुरु हरगोबिंद जी)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 4.
गुरु तेग़ बहादुर जी की माता जी का नाम ……………..था।
उत्तर-
(नानकी)

प्रश्न 5.
गुरु तेग़ बहादुर जी का आरंभिक नाम ………… था।
उत्तर-
(त्याग मल)

प्रश्न 6.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम ………… था।
उत्तर-
(गोबिंद राय)

प्रश्न 7.
गुरु तेग़ बहादुर जी की खोज ………….. ने की थी।
उत्तर-
(मक्खन शाह लुबाणा)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 8.
गुरु तेग़ बहादुर जी …………… में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-
(1664 ई०)

प्रश्न 9.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ ……………… से किया।
उत्तर-
(अमृतसर)

प्रश्न 10.
चक्क नानकी नगर की स्थापना ……….. ने की थी।
उत्तर-
(गुरु तेग बहादुर जी)

प्रश्न 11.
औरंगजेब ने ………….में हिंदुओं पर पुनः जजिया कर लगाया।
उत्तर-
(1679 ई०)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 12.
राम राय गुरु हर राय जी का बड़ा ……..था।
उत्तर-
(पुत्र)

प्रश्न 13.
गुरु तेग़ बहादुर जी को…….. के आदेश पर शहीद किया गया था।
उत्तर-
(औरंगज़ेब)

प्रश्न 14.
गुरु तेग़ बहादुर जी को ……..में दिल्ली में शहीद किया गया।
उत्तर-
(11 नंवबर, 1675 ई०)

प्रश्न 15.
जिस स्थान पर गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद किया गया वहाँ…….. का निर्माण करवाया गया है।
उत्तर-
(गुरुद्वारा शीश गंज)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 16.
‘रंगरेटे गुरु के बेटे’ कह कर ………….. को गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने गले से लगाया।
उत्तर-
(भाई जैता जी)

प्रश्न 17.
गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद करने वाले जल्लाद का नाम …………. था।
उत्तर-
(जलालुद्दीन)

प्रश्न 18.
…….को ‘हिंद की चादर’ के नाम से जाना जाता है।
उत्तर-
(गुरु तेग़ बहादुर जी)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें

प्रश्न 1.
गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 2.
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म अमृतसर में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1621 ई० में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम हरकृष्ण था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 5.
गुरु तेग़ बहादुर जी की माता जी का नाम गुजरी था।
उत्तर-
गलत

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 6.
गुरु तेग़ बहादुर जी का आरंभिक नाम त्याग मल था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम गोबिंद राय था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
मक्खन शाह लुबाणा ने गुरु तेग़ बहादुर जी की खोज की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
गुरु तेग़ बहादुर जी 1664 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-
ठीक

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 10.
गुरु तेग़ बहादुर जी अपनी यात्राओं के दौरान सर्वप्रथम अमृतसरं पहुँचे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1666 ई० में किया था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 12.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने चक्क नानकी नगर की स्थापना की।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
औरंगजेब ने 1664 ई० में हिंदुओं पर पुनः जजिया कर लगाया।
उत्तर-
गलत

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 14.
गुरु तेग बहादुर जी के समय शेर अफ़गान कश्मीर का गवर्नर था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
औरंगजेब के आदेश पर गुरु तेग़ बहादुर जी को दिल्ली में शहीद किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
गुरु तेग़ बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० को शहीद किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
गुरु तेग़ बहादुर जी को जिस स्थान पर शहीद किया गया था उस स्थान पर गुरुद्वारा रकाब गंज का निर्माण करवाया गया है।
उत्तर-
गलत

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
सिखों के नवम् गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हर कृष्ण जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 2.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1601 ई० में
(ii) 1621 ई० में
(iii) 1631 ई० में
(iv) 1656 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
गुरु तेग़ बहादुर जी के बचपन का क्या नाम था ?
(i) हरी मल जी
(ii) त्याग मल जी
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई जेठा जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हर कृष्ण जी
(iv) बाबा गुरदित्ता जी।
उत्तर-
(i)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 5.
गुरु तेग़ बहादुर जी की माता जी का क्या नाम था ?
(i) गुजरी जी
(ii) सुलक्खनी जी
(iii) नानकी जी
(iv) गंगा देवी जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
गुरु तेग़ बहादुर जी का विवाह किसके साथ हुआ ?
(i) निहाल कौर के साथ
(ii) गुजरी के साथ
(iii) सुलक्खनी के साथ
(iv) सभराई देवी के साथ।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 7.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का क्या नाम था ?
(i) महादेव
(ii) अर्जन देव
(iii) राम राय
(iv) गोबिंद राय।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 8.
उस व्यक्ति का नाम बताएं जिसने यह प्रमाणित किया कि गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के वास्तविक गुरु हैं ?
(i) मक्खन शाह मसतूआना
(ii) मक्खन शाह लुबाणा
(iii) बाबा बुड्डा जी
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(i)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 9.
गुरु तेग़ बहादुर जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1666 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 10.
गुरु तेग बहादुर जी अपनी यात्रा के समय सबसे पहले कहाँ पहुँचे. ?
(i) गोइंदवाल साहिब
(ii) खडूर साहिब
(iii) अमृतसर
(iv) कीरतपुर साहिब।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
1665 ई० में गुरु तेग़ बहादुर जी ने किस नए नगर की स्थापना की थी ?
(i) चक्क नानकी
(ii) बिलासपुर
(iii) साहनेवाल
(iv) कीरतपुर साहिब।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
चक्क नानकी बाद में किस नाम के साथ प्रसिद्ध हुआ ?
(i) श्री आनंदपुर साहिब
(ii) कीरतपुर साहिब
(iii) चमकौर साहिब
(iv) गोइंदवाल साहिब।
उत्तर-
(i)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 13.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का मुख्य कारण क्या था ?
(i) औरंगजेब की कट्टरता
(ii) कश्मीरी पंडितों की पुकार
(iii) नक्शबंदियों का विरोध
(iv) राम राय की शत्रुता।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 14.
किस मुगल बादशाह के आदेशानुसार गुरु तेग बहादुर जी को शहीद किया गया ?
(i) जहाँगीर
(ii) शाहजहाँ
(iii) औरंगजेब
(iv) बहादुरशाह प्रथम।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 15.
गुरु तेग बहादुर जी को कहाँ शहीद किया गया ?
(i) लाहौर में
(ii) दिल्ली में
(iii) अमृतसर में
(iv) पटना में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 16.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कब शहीद किया गया ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 17.
गुरु तेग़ बहादुर जी को जिस स्थान पर शहीद किया गया वहाँ पर कौन-सा गुरुद्वारा स्थित है ? ”
(i) शीश गंज
(ii) रकाब गंज
(iii) बाला साहिब
(iv) दरबार साहिब।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द किस गुरु के लिए प्रयोग किए जाते हैं ?
(i) गुरु अर्जन देव जी
(ii) गुरु हरगोबिंद जी
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(iii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ? (Name the sincere Sikh, who searched for the Ninth Guru and why ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी को किसने ढूँढ़ा और क्यों ?
(Who found Guru Tegh Bahadur Ji and why ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की तलाश किसने और क्यों की ? (Who discovered the ninth Guru Tegh Bahadur Ji and how ?)
उत्तर-
1664 ई० में दिल्ली में ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हर कृष्ण जी ने सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बाबा बकाला पहुँचा कि गुरु साहिब आगामी गुरु का नाम बताए बिना ज्योति-जोत समा गए हैं तो 22. सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूंढा। वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका जहाज समुद्री तूफान में घिर कर डूबने लंगा तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेट करेगा। गुरु साहिब की कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेट करने के लिए सपरिवार बाबा बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देख कर चकित रह गया। उसने वास्तविक गुरु को ढूंढने की एक योजना बनाई। वह बारी-बारी प्रत्येक गुरु के पास गया तथा उन्हें दो-दो मोहरें भेट करता गया। झूठे गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेट करने का वचन दिया था, परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह बहुत प्रसन्न हुआ और वह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 2.
गुरु तेग बहादुर जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? ‘ (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने अपनी गुरुगद्दी के समय (1664-75 ई०) के दौरान पंजाब और पंजाब से बाहर के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख धर्म का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने वल्ला, घुक्केवाली, खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरनतारन, खेमकरन, कीरतपुर साहिब और बिलासपुर इत्यादि पंजाब के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब पूर्वी भारत की यात्राओं पर निकल पड़े। अपनी इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफाबाद, धमधान, दिल्ली, मथुरा, वृंदावन, आगरा, कानपुर, प्रयाग, बनारस, गया, पटना, ढाका और असम इत्यादि स्थानों पर गए। इन यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब अपने परिवार सहित पंजाब आ गए। यहाँ पर आकर गुरु साहिब ने एक बार फिर पंजाब के विख्यात स्थानों की यात्राएँ की। गुरु साहिब की ये यात्राएँ सिख-पंथ के विकास के लिए बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुईं। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग सिख मत में सम्मिलित हुए।

प्रश्न 3.
गुरु तेग़ बहादुर जी की किन्हीं छः यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of any six travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
1664 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब तथा पंजाब से बाहर की यात्राएँ आरंभ कर दीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों को सत्य तथा प्रेम का संदेश देना था।—
1. अमृतसर-गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1664 ई० में अमृतसर से किया। उस समय हरिमंदिर साहिब में पृथी चंद का पौत्र हरजी मीणा कुछ भ्रष्टाचारी मसंदों के साथ मिलकर स्वयं गुरु बना बैठा था। गुरु साहिब के आने की सूचना मिलते ही उसने हरिमंदिर साहिब के सभी द्वार बंद करवा दिए। जब गुरु साहिब वहाँ पहुँचे तो द्वार बंद देखकर उन्हें दुःख हुआ। अतः वह अकाल तख्त के निकट एक वृक्ष के नीचे जा बैठे। यहाँ पर अब एक छोटा-सा गुरुद्वारा बना हुआ है जिसे ‘थम्म साहिब’ कहते हैं।

2. वल्ला तथा घुक्केवाली-अमृतसर से गुरु तेग़ बहादुर जी वल्ला नामक गाँव गए। यहाँ लंगर में महिलाओं की अथक सेवा से प्रसन्न होकर गुरु जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा कहा “माईयाँ रब्ब रजाईयां”। वल्ला के पश्चात् गुरु जी घुक्केवाली गाँव गए। इस गाँव में अनगिनत वृक्षों के कारण गुरु जी ने इसका नाम ‘गुरु का बाग’ रख दिया।

3. बनारस-प्रयाग की यात्रा के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी बनारस पहुँचे यहाँ सिख संगतें प्रतिदिन बड़ी संख्या में गुरु साहिब के दर्शन और उनके उपदेश सुनने के लिए उपस्थित होतीं। यहाँ के लोगों का विश्वास था कि कर्मनाशा नदी में स्नान करने वाले व्यक्ति के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। गुरु साहिब ने स्वयं इस नदी में स्नान किया और कहा कि नदी में स्नान करने से कुछ नहीं होता मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है।

4. पटना-गुरु तेग़ बहादुर जी 1666 ई० में पटना पहुंचे। यहाँ पर सिख संगतों (श्रद्धालुओं) ने गुरु साहिब का भव्य स्वागत किया। गुरु साहिब ने सिख सिद्धांतों पर प्रकाश डाला तथा पटना को ‘गुरु का घर’ कहकर सम्मानित किया। गुरु साहिब ने अपनी पत्नी और माता जी को यहाँ छोड़कर स्वयं मुंघेर के लिए प्रस्थान किया।

5. मथुरा-गुरु तेग़ बहादुर जी दिल्ली के पश्चात् मथुरा पहुंचे। यहाँ गुरु जी ने धर्म प्रचार किया तथा संगतों को उपदेश दिए। गुरु जी के उपदेशों से प्रभावित होकर बहुत सारे लोग उनके श्रद्धालु बन गए।

6. ढाका-ढाका पूर्वी भारत में सिख धर्म का एक प्रमुख प्रचार केंद्र था। गुरु तेग़ बहादुर जी के आगमन के कारण बड़ी संख्या में लोग सिख-धर्म में शामिल हुए। गुरु साहिब ने यहाँ संगतों को जाति-पाति के बंधनों से ऊपर उठने और नाम सिमरिन से जुड़ने का संदेश दिया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 4.
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के कारणों के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित अनुसार है—
1. मुग़लों और सिखों में शत्रुता-1605 ई० तक सिखों और मुग़लों में मैत्रीपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, परंतु जब 1606 ई० में मुगल सम्राट् जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया तो ये संबंध शत्रुता में बदल गए। औरंगज़ेब के शासनकाल में सिखों और मुग़लों के बीच शत्रुता में और वृद्धि हो गई। यही शत्रुता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी।

2. औरंगजेब की कट्टरता-औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता भी गुरु साहिब के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में चारों ओर इस्लाम धर्म का बोलबाला देखना चाहता था। अतः तलवार के बल पर लोगों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाने लगा।

3. नक्शबंदियों का औरंगजेब पर प्रभाव-कट्टर सुन्नी मुसलमानों के नक्शबंदी संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह ख़तरा हो गया कि कहीं सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती न बन जाए। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ कर दिया।

4. सिख धर्म का प्रचार—गुरु तेग बहादुर साहिब की सिख धर्म के प्रचार के लिए की गई यात्राओं से प्रभावित होकर हज़ारों लोग सिख मत में सम्मिलित हो गए थे। गुरु साहिब जी ने सिख मत के प्रचार में तीव्रता और योग्यता लाने के लिए सिख प्रचारक नियुक्त किए तथा उन्हें संगठित किया। सिख धर्म का हो रहा विकास तथा उसका संगठन औरंगज़ेब की सहन शक्ति से बाहर था।

5. राम राय की शत्रुता-राम राय गुरु हर राय जी का बड़ा पुत्र था। वह स्वयं को गुरुगद्दी का अधिकारी समझता था। परंतु जब गुरुगद्दी पहले गुरु हरकृष्ण जी को तथा इसके पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी को मिली तो वह यह सहन न कर पाया। फलस्वरूप उसने औरंगजेब के गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध कान भरने आरंभ कर दिए।

6. कश्मीरी पंडितों की पुकार-कश्मीर के गवर्नर शेर अफ़गान ने इस्लाम धर्म कबूल करवाने के लिए ब्राह्मणों पर घोर अत्याचार किए। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी करुण याचना लेकर पहुँचा। उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को यह बता दें कि यदि वे गुरु तेग़ बहादुर को मुसलमान बना लें तो वे बिना किसी विरोध के इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे।

प्रश्न 5.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Discuss the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का औरंगजेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति, सिख मत का बढ़ रहा प्रचार और मुसलमानों की गुरु घर के प्रति बढ़ रही प्रवृत्ति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह ख़तरा हो गया कि कहीं लोगों में आ रही जागृति और सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती ही न बन जाए। ऐसा होने की दशा में भारत में मुस्लिम समाज की जड़ें हिल सकती थीं। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ किया। उनकी इस कार्यवाही ने जलती पर तेल डालने का कार्य किया। उस समय शेख़ मासूम नक्शबंदियों का नेता था। वह अपने पिता शेख़ अहमद सरहिंदी से भी अधिक कट्टर था। उसका विचार था कि यदि पंजाब में सिखों का शीघ्र दमन नहीं किया गया तो भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डगमगा सकती है। परिणामस्वरूप औरंगज़ेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया। निस्संदेह हम कह सकते हैं कि गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

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प्रश्न 6.
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmins ?)
उत्तर-
कश्मीर में रहने वाले ब्राह्मणों का सारे भारत के हिंदू बहुत आदर करते थे। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी करुण याचना लेकर पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो वह सोच में पड़ गए। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय जो उस समय 9 वर्ष के थे, ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुन कर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया। गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को बता दें कि यदि वे गुरु तेग़ बहादुर को मुसलमान बना लें तो वे इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे। जब औरंगज़ेब को इस बात का पता चला तो उसने गुरु जी को दिल्ली बुलाकर मुसलमान बनाने का निश्चय किया।

प्रश्न 7.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के छः महत्त्वपूर्ण नतीजों का वर्णन करो। (Explain six significant results of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के छः परिणाम बताएँ। (What were the six results of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur ?)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान की घटना न केवल सिख इतिहास अपितु समूचे विश्व इतिहास की एक अतुलनीय घटना है। इस बलिदान से न केवल पंजाब, अपितु भारत के इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पड़े। गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के साथ ही महान् मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया।—
1. इतिहास की एक अद्वितीय घटना–संसार का इतिहास बलिदानों से भरा पड़ा है। ये बलिदान अधिकतर अपने धर्म की रक्षा अथवा देश के लिए दिए गए। परंतु गुरु तेग बहादुर जी ने मानवता तथा सत्य के लिए अपना शीश दिया। निस्संदेह संसार के इतिहास में यह एक अतुलनीय उदाहरण थी। इसी कारण गुरु तेग़ बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ कहा जाता है।

2. सिखों में प्रतिशोध की भावना-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के फलस्वरूप समूचे पंजाब में मुग़ल साम्राज्य के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। अतः सिखों ने मुग़लों के अत्याचारी शासन का अंत करने का निर्णय किया।

3. हिंदू धर्म की रक्षा औरंगज़ेब के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचारों से तंग आकर बहत-से हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार करना आरंभ कर दिया था। हिंदू धर्म के अस्तित्व के लिए भारी ख़तरा उत्पन्न हो चुका था। ऐसे समय में गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देकर हिंदू धर्म को लुप्त होने से बचा लिया।

4. खालसा का सृजन-गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान ने सिखों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब धर्म की रक्षा के लिए उनका संगठित होना अत्यावश्यक है। इस उद्देश्य से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में बैसाखी के दिन खालसा पंथ का सृजन किया। खालसा पंथ के सृजन ने ऐसी बहादुर जाति को जन्म दिया जिसने मुग़लों और अफ़गानों का पंजाब से नामो-निशान मिटा दिया।

5. सिखों और मुग़लों में लड़ाइयाँ—गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों एवं मुग़लों के बीच लड़ाइयों का एक लंबा दौर आरंभ हुआ। इन लड़ाइयों के दौरान सिख चट्टान की तरह अडिग रहे। अपने सीमित साधनों के बावजूद सिखों ने अपनी वीरता के कारण महान् मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया।

6. बलिदानों की परंपरा का आरंभ होना-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की परंपरा आरंभ हुई। गुरु गोबिंद सिंह जी चार साहिबजादे, बंदा सिंह बहादुर तथा अनेक श्रद्धालु सिखों ने धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दिए। गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान आने वाली नस्लों के लिए अद्धितीय उदाहरण सिद्ध हुआ।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

प्रश्न 8.
भाई मती दास जी और भाई सती दास जी पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a comprehensive note on Bhai Mati Das Ji and Bhai Sati Das Ji.)
उत्तर-
सिख इतिहास शहीदियों से भरा पड़ा है। परंतु जो अद्वितीय शहीदी भाई मती दास जी तथा भाई सती दास जी ने दी उसकी कोई अन्य उदाहरण मिलना कठिन है। भाई मती दास जी तथा भाई सती दास जी दोनों भाई थे। भाई मती दास जी गुरु तेग बहादुर जी के दीवान थे जबकि भाई सती दास जी फ़ारसी के लेखक थे। जब गुरु तेग़ बहादुर जी ने धर्म की रक्षा के लिए अपनी कुर्बानी देने का निर्णय किया तो भाई मती दास जी और भाई सती दास जी भी उनके साथ हो लिए। जब शासकों ने दिल्ली में गुरु तेग़ बहादुर जी से अपमानजनक व्यवहार किया तो भाई मती दास जी इसे सहन न कर सके। उन्होंने गुरु जी से यह प्रार्थना की कि यदि वह आज्ञा दें तो मुग़ल शासन को तहस-नहस कर दिया जाए। गुरु जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उनका कथन था कि सब कुछ उस परमात्मा की आज्ञा के अनुसार हो रहा है। आप चिन्ता न करें परमात्मा उन्हें अवश्य मज़ा चखाएगा। अत्याचारी काज़ी ने भाई मती दास जी तथा भाई सती दास जी को इस्लाम कबूल करने के लिए बहुत-से प्रलोभन दिए परंतु वे अपने धर्म पर पक्के रहे। अंत में भाई मती दास जी को आरों के साथ, दो भाग कर दिया गया था तथा भाई सती दास जी को रूई में लिपटा कर आग लगा कर शहीद कर दिया गया। इनकी शहीदी ने सिख इतिहास में नए कार्तिमान स्थापित किए।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नवम् गुरु थे। वे 1664 ई० से लेकर 1675 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। सिख धर्म का प्रचार एवं लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूर करने के लिए गुरु साहिब ने पंजाब एवं पंजाब से बाहर अनेक स्थानों की यात्राएँ की। उस समय भारत में मुग़ल सम्राट् औरंगजेब का शासन था। वह बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने हिंदुओं को इस्लाम धर्म में सम्मिलित करने के उद्देश्य से समस्त भारत में आतंक फैला रखा था। कश्मीरी पंडित उसके अत्याचारों का सर्वाधिक शिकार हुए। गुरु तेग़ बहादुर जी ने हिंदुओं के धर्म की रक्षा के लिए 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली में अपना बलिदान दिया। गुरु साहिब के इस अद्वितीय बलिदान के बहुत दूरगामी परिणाम निकले। इसने न केवल पंजाब, बल्कि भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने पंजाब में एक ऐसी चिंगारी सुलगाई जिसने शीघ्र ही ज्वाला का रूप धारण कर लिया और जिसमें शक्तिशाली मुग़ल साम्राज्य जलकर भस्म हो गया। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए गुरु तेग बहादुर जी द्वारा अपना बलिदान देने के कारण उन्हें इतिहास में ‘हिंद की चादर’ के नाम से भी स्मरण किया जाता है।

  1. गुरु तेग़ बहादुर जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
  2. गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का उद्देश्य क्या था ?
  3. गुरु तेग बहादुर जी को किस मुगल बादशाह ने शहीद करने का आदेश दिया था ?
  4. गुरु तेग बहादुर जी को कहाँ शहीद किया गया था ?
    • लाहौर
    • दिल्ली
    • अमृतसर
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।
  5. गुरु तेग़ बहादुर जी को हिंद की चादर क्यों कहा जाता है ?

उत्तर-

  1. गुरु तेग़ बहादुर जी 1664 ई० में गुरुगद्दी पर बैठे।
  2. सिख धर्म का प्रचार करना।
  3. मुग़ल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद किया गया था।
  4. दिल्ली।
  5. गुरु तेग़ बहादुर जी को हिंद की चादर इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपनी शहादत दी थी।

2
कश्मीर में रहने वाले ब्राह्मण अपने धर्म और प्राचीन संस्कृति के संबंध में बहुत दृढ़ थे। सारे भारत के हिंदू उनका बहुत आदर करते थे। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने ब्राह्मणों को इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। इंकार करने वाले ब्राह्मणों पर घोर अत्याचार किए जाते और प्रतिदिन बड़ी संख्या में उनका वध किया जाने लगा। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका 16 सदस्यों का एक दल 25 मई, 1675 ई० में चक्क नानकी (श्री आनंदपुर साहिब) में गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी करुण याचना लेकर पहुंचा।

  1. शेर अफ़गान कौन था ?
  2. शेर अफ़गान क्यों बदनाम था ?
  3. किसके नेतृत्त्व अधीन कश्मीरी पंडितों का एक गुट गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी दुख भरी फरियाद लेकर पहुंचा था ?
  4. कश्मीर के ब्राह्मण गुरु तेग़ बहादुर जी को कहाँ मिले ?
    • लाहौर
    • अमृतसर
    • चक्क नानकी
    • जालंधर।
  5. चक्क नानकी का आधुनिक नाम क्या है ?

उत्तर-

  1. शेर अफ़गान कश्मीर का गवर्नर था।
  2. उसने कश्मीरी पंडितों पर भारी अत्याचार किए।
  3. पंडित कृपा राम के नेतृत्व के अधीन कश्मीरी पंडितों का एक गुट गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी दुख भरी फरियाद लेकर आया था।
  4. चक्क नानकी।
  5. चक्क नानकी का आधुनिक नाम श्री आनंदपुर साहिब है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 9 गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान

गुरु तेग़ बहादुर जी और उनका बलिदान PSEB 12th Class History Notes

  • प्रारंभिक जीवन (Early Career)—गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ–आपके पिता जी का नाम गुरु हरगोबिंद जी तथा माता जी का नाम नानकी थागुरु तेग़ बहादुर जी ने बाबा बुड्डा जी और भाई गुरदास जी से शिक्षा प्राप्त की-गुरु जी का विवाह करतारपुर. वासी लाल चंद की सुपुत्री गुजरी से हुआ-अपने पिता जी के आदेश पर गुरु जी 20 वर्ष तक बकाला में रहे-मक्खन शाह लुबाणा द्वारा उन्हें ढूंह निकालने पर सिखों ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया-वे 1664 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
  • गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राएँ (Travels of Guru Tegh Bahadur Ji)-गुरु पद संभालने के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने पंजाब तथा बाहर के प्रदेशों के अनेक स्थानों की यात्राएँ की-इन यात्राओं का उद्देश्य सिख धर्म का प्रचार करना तथा सत्य और प्रेम का संदेश देना था-गुरु जी ने सर्वप्रथम 1664 ई० में पंजाब के अमृतसर, वल्ला, घुक्केवाली, खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरनतारन, कीरतपुर साहिब और बिलासपुर आदि प्रदेशों की यात्रा की-इसके उपरांत गुरु जी पूर्वी भारत के सैफाबाद, धमधान, दिल्ली, मथुरा, वृंदावन, आगरा, कानपुर, बनारस, गया, पटना, ढाका तथा असम की यात्रा पर गए-1673 ई० में गुरु तेग़ बहादुर ने पंजाब के मालवा और बांगर प्रदेश की दूसरी बार यात्रा की-इन यात्राओं से गुरु साहिब तथा सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई।
  • गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान (Martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान से संबंधित मुख्य तथ्य इस प्रकार हैं—
    • कारण (Causes)-सिखों तथा मुग़लों में शत्रुता बढ़ती जा रही थी-औरंगज़ेब बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था-नक्शबंदियों ने सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगजेब को खूब भड़कायारामराय गुरुगद्दी की प्राप्ति के लिए कई हथकंडे अपना रहा था-कश्मीरी पंडितों ने गुरु साहिब से अपने धर्म की रक्षा के लिए सहायता माँगी।
    • बलिदान (Martyrdom)-गुरु तेग़ बहादुर जी को अपने तीन साथियों-भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी और भाई दयाला जी के साथ 6 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली दरबार में पेश किया गया-उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को कहा गया जिसका उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इंकार कर दियागुरु जी के तीनों साथियों को शहीद करने के बाद 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरु साहिब को शहीद कर दिया गया।
    • महत्त्व (Importance)—समूचे पंजाब में मुग़ल साम्राज्य के प्रति घृणा और प्रतिशोध की लहर दौड़ गई–हिंदू धर्म को लुप्त होने से बचा लिया गया-गुरु गोबिंद सिंह जी को खालसा पंथ की स्थापना की प्रेरणा मिली-सिखों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की एक परंपरा आरंभ हो गई-मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 9 निर्वाचक

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 9 निर्वाचक Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 9 निर्वाचक

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
स्त्री मताधिकार से क्या अभिप्राय है ? स्त्री मताधिकार के विपक्ष में अपने चार तर्क दें। (What is Woman suffrage ? Write four arguments against women suffrage.) (P.B. 2017)
अथवा
स्त्री मताधिकार के पक्ष और विपक्ष में तर्क दें। (Give arguments for and against the Women Franchise.)
अथवा
स्त्री मताधिकार के पक्ष में तर्क दीजिए। (Give arguments for Women Suffrage.)
अथवा
स्त्री मताधिकार के पक्ष व विपक्ष में तर्क दीजिए। (Make a case for and against Women Suffrage.)
उत्तर-
महिला मताधिकार का अर्थ महिलाओं को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार देना है। लोगों में इस बात पर काफ़ी मतभेद रहा है कि स्त्रियों को मत का अधिकार मिलना चाहिए या नहीं। आधुनिक युग में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो स्त्रियों को मताधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं। इंग्लैण्ड जैसे उदारवादी देश में भी स्त्रियों को समानता के आधार पर मताधिकार सन् 1928 में दिया गया था। अमेरिका में सन् 1920 में और फ्रांस में सन् 1946 में, स्विट्ज़रलैण्ड में जिसे प्रजातन्त्र का घर माना जाता है, स्त्रियों को मत डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार सन् 1971 तक प्राप्त नहीं था लेकिन भारतीय संविधान में 1950 से ही स्त्रियों को मताधिकार दिया गया है। स्त्री मताधिकार के पक्ष तथा विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं.

स्त्री मताधिकार के विपक्ष में तर्क (Arguments against Women Suffrage)-स्त्री मताधिकार के विरुद्ध निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं
1. स्त्री का कार्य क्षेत्र घर है-यदि स्त्री को मत देने का अधिकार दिया जाए तो वह घर की ओर ठीक से ध्यान न दे सकेगी। इससे पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा घर की शान्ति समाप्त हो जाएगी।

2. स्त्री का मत पुरुष के मत की पुनरावृत्ति-अधिकतर स्त्रियां, अपने पति, पिता या भाई अदि के कहने के अनुसार ही अपने मत का प्रयोग करती हैं। वे अपनी ओर से यह सोचने का प्रयत्न नहीं करतीं कि वोट किसे देना चाहिए।

3. घरेलू शान्ति के भंग होने का खतरा-यदि स्त्री मताधिकार लागू किया जाए तो इससे घरेलू शान्ति भंग होने का बहुत भय रहता है।

4. स्त्रियां शारीरिक तौर पर दुर्बल होती हैं-यह भी कहा जाता है कि स्त्रियां शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होती हैं और अधिक परिश्रम नहीं कर सकतीं। वे पुरुष के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर राजनीति में भाग नहीं ले सकतीं।

5. स्त्रियां राजनीति के प्रति उदासीन रहती हैं-यह देखा गया है कि प्रायः स्त्रियां राजनीति के प्रति उदासनी रहती हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें अपने घरेलू मामलों से ही अवकाश नहीं मिलता।

6. स्त्रियों में आत्म-विश्वास नहीं होता-स्त्रियों में आत्म-विश्वास और आत्म-निर्णय की भावना नहीं होती क्योंकि वे पुरुषों पर निर्भर रहती आई हैं। स्त्रियों के विचार भी रूढ़िवादी होते हैं और उन्हें राजनीतिक जीवन का अनुभव भी नहीं होता।

7. भ्रष्टाचार-राजनीति में कई प्रकार की चालबाजियां प्रयोग करके ही व्यक्ति सफल होते हैं। स्त्रियों के वे गुण जिनके कारण उनका आदर-मान है, समाज में समाप्त हो जाएगा।

8. स्त्रियां रूढ़िवादी होती हैं-इस प्रकार उनको मताधिकार देने का अर्थ है प्रगति के रास्ते में बाधाएं उत्पन्न करना।

9. स्त्रियां भावुक होती हैं-भावना में बहकर स्त्रियां मताधिकार का उचित प्रयोग नहीं कर सकतीं। राजनीति में भावनाओं का कोई स्थान नहीं है।

10. स्त्रियों के सम्मान में कमी-वर्तमान समय में राजनीति में गलत आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं, जिसके चलते स्त्रियां भी इस प्रकार की गंदी राजनीति से बच नहीं पायेंगी। इससे स्त्रियों के सम्मान में कमी आयेगी।

11. प्राकृतिक गुणों का नाश-स्त्रियों में दया, सहानुभूति, प्रेम, सहनशीलता तथा कोमलता जैसे प्राकृतिक गुण पाए जाते हैं, राजनीति में आने के कारण इन गुणों के समाप्त होने की सम्भावना बनी रहती है। – स्त्री मताधिकार के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of Woman Suffrage)-प्रायः सभी देशों में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं, मत डालने का भी और चुनाव लड़ने का भी।

स्त्री मताधिकार के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं-
1. लिंग के आधार पर मताधिकार से वंचित रखना उचित नहीं-मिल (Mill) का कहना है कि मत का अधिकार स्वाभाविक है, अतः स्त्री को केवल लिंग के आधार पर मताधिकार से वंचित रखना न्याय-संगत नहीं है।

2. यह लोकतन्त्रात्मक है-स्त्रियों को मत का अधिकार देना लोकतन्त्र के सिद्धान्त के अनुसार है। लोकतन्त्र में समस्त जनता को शासन में भाग लेने का अधिकार मिलता है और जनता में जितना भाग पुरुष का है उतना ही स्त्री का

3. स्त्रियों को मताधिकार की अधिक आवश्यकता-शारीरिक दृष्टि से निर्बल व्यक्ति को कानून की रक्षा की अधिक आवश्यकता होती है। जो सबल है वह तो कानून को भी अपने हाथ में ले सकता है।

4. स्त्रियां दूसरे सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं-इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रशासन के क्षेत्र में भी स्त्रियों ने बड़ा प्रशंसनीय कार्य किया है। आजकल पुलिस और सेना में भी स्त्रियां काम कर रही हैं, फिर राजनीति के क्षेत्र में वे कार्य क्यों नहीं कर सकेंगी।

5. कानून मानने वालों को ही कानून बनाने का अधिकार होना चाहिए-राज्य के कानून स्त्री-पुरुष दोनों पर ही समान रूप में लागू होते हैं, दोनों पर समान रूप से ही कर लगते हैं। फिर पुरुष को ही कानून बनाने का अधिकार क्यों ? यह अधिकार दोनों को समान रूप से मिलना चाहिए।

6. स्त्रियां शान्तिप्रिय होती हैं-स्त्रियां स्वभाव से ही शान्ति-प्रिय होती हैं और इससे राजनीति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

7. स्त्री का मत पुरुष के मत की पुनरावृत्ति नहीं होता-यदि स्त्री अपने पति के अनुसार ही अपना मत देती है तो उसमें हानि क्या है। स्त्री का राजनीतिक क्षेत्र में महत्त्व बना रहता है।

8. राजनीति शुद्ध होगी-स्त्रियां अपनी कोमलता, मृदु भाषण और सहानुभूति से राजनीतिक क्षेत्र में व्यस्त पुरुषों की कठोरता, निर्दयता, बेईमानी और चालबाज़ी को दूर कर देंगी।

9. मताधिकार स्त्री के प्राकृतिक कार्यों में कोई रुकावट नहीं-भारत, इंग्लैण्ड, रूस, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अनेक देशों में स्त्रियों को मताधिकार दिया गया है और इन देशों में स्त्रियां अपने प्राकृतिक कार्यों को बड़ी सफलता से पूरा कर रही हैं।

10. नागरिक अधिकार तथा राजनीतिक अधिकार साथ-साथ चलते हैं- यदि स्त्रियों को राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होंगे तो उनको नागरिक अधिकार देने का कोई महत्त्व नहीं रहेगा।

11. स्त्रियां पुरुषों से पीछे नहीं-अन्य क्षेत्रों की तरह राजनीति में भी स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा पीछे नहीं हैं। जिस प्रकार पुरुष जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है उसी तरह स्त्रियां भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं। भारत में स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गान्धी, इंग्लैण्ड में एलिज़ाबेथ द्वितीय एवं मारग्रेट थैचर, इज़रायल में स्वर्गीय प्रधानमन्त्री गोल्डा मायर और श्रीलंका की भूतपूर्व एवं स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती भण्डारनायके जैसी महिलाएं इस बात के स्पष्ट उदाहरण हैं।

12. मानसिक रूप से भी दृढ़-स्त्रियां मानसिक रूप से भी पुरुषों के समान ही दृढ़ हैं। जिस प्रकार की सुविधाएं पुरुषों को मिलती हैं, यदि वैसी ही सुविधाएं स्त्रियों को भी मिलें तो स्त्रियां बेशक पुरुषों से आगे भी जा सकती हैं। वर्तमान समय में बहुत-सी स्त्रियां अच्छी शिक्षा प्राप्त करके राजनीतिक एवं प्रशासनिक पदों पर विराजमान हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-स्त्री मताधिकार के विरोध में कई तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं, उनमें अधिक जान नहीं है। स्त्री मताधिकार के लाभ बहत होते हैं और प्रायः सभी लोकतन्त्रीय देशों में स्त्रियों को पुरुषों के साथ समान रूप से मत डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार दिया जाता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 9 निर्वाचक

प्रश्न 2.
व्यस्क मताधिकार से क्या अभिप्राय है ? वयस्क मताधिकार के पक्ष तथा विपक्ष में दो-दो तर्क दीजिए।
(What is meant by Adult Franchise ? Write two arguments in favour and two in against Adult Franchise.)
अथवा
वयस्क मताधिकार के पक्ष और विपक्ष में दलीलें दो। (Write arguments in favour of and against Adult Franchise.).
अथवा
वयस्क मताधिकार के पक्ष व विपक्ष में तर्क दो।। (Give arguments for and against Adult Franchise.)
उत्तर-
वयस्क मताधिकार किसे कहते हैं ? (What is Franchise or Adult Suffrage ?) आज प्रजातन्त्र का युग है और सभी नागरिकों को समान रूप से मत डालने तथा चुनाव लड़ने का अधिकार दिया गया है अर्थात् आज सभी लोकतन्त्रात्मक देशों में वयस्क मताधिकार (Adult Franchise) का सिद्धान्त अपनाया गया है।

जब देश के सभी वयस्कों (Adults) जाति, धर्म, रंग, वंश, धन, स्थान आदि के आधार पर उत्पन्न भेदभाव के बिना, समान रूप से मतदान का अधिकार दे दिया जाए तो उस व्यवस्था को वयस्क मताधिकार या सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के नाम से पुकारा जाता है। वयस्क होने की उम्र राज्य द्वारा निश्चित की जाती है। इंग्लैण्ड और रूस में यह आयु 18 वर्ष है जबकि स्विट्ज़रलैण्ड में यह आयु 20 वर्ष है। भारत में पहले यह आयु 21 वर्ष की थी परन्तु 61वें संशोधन द्वारा यह आयु 18 वर्ष कर दी गई है। निश्चित आयु होने के पश्चात् प्रत्येक नागरिक बिना किसी भेदभाव के मत डालने का अधिकार बन जाता है। हां, एक निश्चित समय तक निवास की शर्त भी रखी जाती है।।

वयस्क मताधिकार के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Adult Franchise)-आधुनिक युग में वयस्क मताधिकार को ही उचित तथा न्यायसंगत माना गया है। इसके पक्ष में अग्रलिखित तर्क दिए जाते हैं

1. प्रभुसत्ता जनता के पास है (Sovereignty is possessed by the People)-लोकतन्त्र में प्रभुसत्ता जनता के पास होती है और जनता की इच्छा तथा कल्याण के लिए शासन चलाया जाता है। जनता में अमीर-गरीब तथा अशिक्षित-शिक्षित सभी सम्मिलित हैं। इसलिए मत डालने का अधिकार सबको समानता के साथ मिलना चाहिए। यदि वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त लागू न किया जाए तो जनता की प्रभुसत्ता की बात सत्य सिद्ध नहीं होती।।

2. कानून का प्रभाव सब पर पड़ता है (Laws of State affects all the People)-राज्य में जो भी कानून बनते हैं उनका प्रभाव राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों पर पड़ता है। कानून की दृष्टि में सब नागरिक समान समझे जाते हैं और एक ही कानून सब लोगों पर समान रूप से लागू होते हैं। इसलिए उन कानूनों को बनाने का अधिकार भी सब को समान रूप से मिलना चाहिए। मिल (Mill) का कहना है कि, “लोकतन्त्र व्यक्ति की समानता का समर्थन करता है और राजनीतिक समानता उसी समय मिल सकती है जब सब नागरिकों को वोट का अधिकार दिया जाए। सरकार के कानूनों और नीतियों का सम्बन्ध सब लोगों के साथ है और जो सब पर प्रभाव डालता है। अतः इसका निर्णय सब के द्वारा होना चाहिए।”

3. समानता के सिद्धान्त पर आधारित (Based on the Principles of Equality)-संविधान नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान करता है और समानता का सिद्धान्त लोकतन्त्र का मूल सिद्धान्त है। वयस्क मताधिकार समानता के सिद्धान्त पर आधारित है क्योंकि सभी नागरिकों को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना मताधिकार दिया जाता है।

4. कानूनों का प्रभाव सब पर पड़ता है (Laws effect all the people)-राज्य में जो भी कानून बनते हैं उनका प्रभाव राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों पर पड़ता है। कानून की दृष्टि में सब नागरिक समान समझे जाते हैं और एक ही कानून सब लोगों पर समान रूप से लागू होते हैं इसलिए उन कानूनों को बनाने का अधिकार भी सबको समान रूप से मिलना चाहिए। मिल (Mill) का कहना है कि, “लोकतन्त्र व्यक्ति की समानता का समर्थन करता है और राजनीतिक समानता उसी समय मिल सकती है जब सब नागरिकों को वोट का अधिकार दिया जाए। सरकार के कानूनों और नीतियों का सम्बन्ध सब लोगों के साथ है और यह सब पर प्रभाव डालता है, अतः सबके द्वारा ही उसका निर्णय होना चाहिए।”

5. व्यक्ति के विकास के लिए मताधिकार आवश्यक (Right to vote is essential for the development of an individual)-लोकतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का विकास करने के लिए कई प्रकार के अधिकार मिलते हैं। उन अधिकारों में मताधिकार भी आवश्यक है और इनके बिना कोई भी व्यक्ति अपना विकास नहीं कर सकता। दूसरे अधिकारों की रक्षा के लिए मताधिकार आवश्यक है। जिन लोगों के पास राजनीतिक अधिकार नहीं होते, उनके नागरिक और आर्थिक अधिकार भी सुरक्षित नहीं रह सकते।

6. सरकार को अधिक बल मिलता है (Government becomes strong)-समस्त जनता अर्थात् वयस्क मताधिकार द्वारा चुनी गई सरकार अधिक शक्तिशाली रहती है। इसका कारण यह है कि ऐसी सरकारों को यह विश्वास रहता है कि उसके साथ समस्त जनता है और वह जो भी कार्य करेगी सभी नागरिक उसे मानेंगे। यदि कुछ नागरिकों को मत का अधिकार न होगा तो सरकार समस्त जनता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती और उसे भय रहेगा कि ऐसे नागरिक कहीं उसके विरुद्ध न हों।

7. लोगों में राजनीतिक जागृति (Political awakening among the people)-वयस्क मताधिकार से लोगों में राजनीतिक जागृति उत्पन्न होती है और उन्हें राजनीतिक शिक्षा भी मिलती है। जिस व्यक्ति को मत डालने का अधिकार नहीं मिलता, वह राजनीतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहता है परन्तु चुनाव के दिनों में राजनीतिक दल और उम्मीदवार मतदाताओं की राजनीतिक निद्रा को भंग करके उनमें सार्वजनिक कार्यों के प्रति रुचि उत्पन्न करते हैं।

8. लोगों में स्वाभिमान की जागृति (Self-respect among the people)-मताधिकार द्वारा लोगों में स्वाभिमान की भावना जागृत होती है। चुनावों के समय प्रत्येक उम्मीदवार को चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, धनी-निर्धनों सभी के पास जा कर वोट के लिए निवेदन करना पड़ता है। इससे लोग यह समझने लगते हैं उनका शासन में भाग है, सरकार को बनाने में उनका भी हाथ है। वे अपने को देश का महत्त्वपूर्ण अंग समझने लगते हैं। उनमें हीनता की भावना नहीं रहती।

9. राष्ट्रीय एकता (National Unity)-राष्ट्रीय एकता के लिए भी वयस्क मताधिकार का होना आवश्यक है। यदि कुछ व्यक्तियों को ही मताधिकार प्राप्त होगा तो समस्त जनता सरकार को अपना नहीं समझ सकती। जनता दो गुटों में बंट जाएगी और जिन लोगों को वोट का अधिकार न होगा, वे कभी भी सरकार का साथ देने से इन्कार कर सकते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता की प्राप्ति नहीं हो सकती, परन्तु वयस्क मताधिकार के कारण सभी नागरिक राज्य को अपना समझने लगेंगे। भारत में वयस्क मताधिकार ने राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन दिया है।

10. क्रान्ति का भय नहीं रहता (No danger of revolution)—वयस्क मताधिकार के अनुसार चुनी हुई सरकार समस्त जनता का प्रतिनिधित्व करती है और इस सरकार के द्वारा जनता के हितों का पूरा-पूरा आदर किया जाना स्वाभाविक ही है। दूसरे, यदि सरकार जनमत का उल्लंघन करे तो लोगों के पास साधन है जिसके द्वारा यह उसे अपदस्थ कर सकते हैं। इन कारणों के परिणामवस्वरूप देश में शान्ति और व्यवस्था बनी रहती है और क्रान्ति का भय नहीं रहता। भारत में वयस्क मताधिकार के कारण क्रान्ति नहीं हुई। मताधिकार द्वारा जनता जब चाहे सरकार बदल सकती है। 1977 में जनता ने कांग्रेस सरकार को हरा कर सत्ता जनता पार्टी को सौंप दी। इसी प्रकार अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन शान्तिपूर्ण ढंग से हुआ।

11. सभी लोग कर देते हैं (All people are tax payers)-सभी लोग कर देते हैं। आज कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कर न देता हो। बिक्री कर, उत्पादन शुल्क आदि सभी लोग देते हैं। इसलिए यह अधिकार सभी वयस्कों को मिलना चाहिए।

12. शान्ति और व्यवस्था स्थापित रहती है (Peace and order remain established)-वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त को लागू करने से देश में शान्ति और व्यवस्था स्थापित होती है। कानून जनता के प्रतिनिधियों द्वारा उनकी इच्छानुसार बनाए जाते हैं। इस कारण उसका पालन सहज भाव से ही होता है। जनता का सरकार के साथ पूर्ण सहयोग होता है और इन बातों के कारण कानूनों का उल्लंघन बहुत कम होता है और शान्ति व व्यवस्था बनी रहती है।

13. अल्पसंख्यक सन्तुष्ट (Minorities feel satisfied)—प्रत्येक देश में अल्पसंख्यक पाए जाते हैं और भारत में धार्मिक, भाषायी व सांस्कृतिक अल्पसंख्यक रहते हैं। वयस्क मताधिकार के कारण अल्पसंख्यकों को अपने हितों एवं अधिकारों की रक्षा का अवसर मिल जाता है। वयस्क मताधिकार से अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है। मताधिकार प्राप्त करके अल्पसंख्यक सन्तुष्ट रहते हैं और बहुसंख्यक भी उन पर किसी प्रकार की ज्यादती नहीं कर सकते हैं।

14. नागरिक-कल्याण के लिए सरकार की स्थापना (Establishment of a Government for the welfare of all) यदि मताधिकार कुछ व्यक्तियों को ही प्राप्त होगा तो सरकार केवल कुछ व्यक्तियों के कल्याण के लिए ही कानून बनाएगी परन्तु वयस्क मताधिकार के कारण सरकार सभी के कल्याण के लिए कार्य करेगी जोकि उचित भी है।

वयस्क मताधिकार के विपक्ष में तर्क (Arguments against Adult Franchise)-बहुत-से व्यक्ति ऐसे भी हैं जो वयस्क मताधिकार के विरुद्ध हैं और अपनी बात की पुष्टि के लिए बहुत-से-तर्क प्रस्तुत करते हैं-

1. शिक्षित व्यक्तियों को ही मताधिकार मिलना चाहिए (Right to Vote only to the Educated)-बहुतसे लोगों का कहना है कि शिक्षित व्यक्तियों को ही मताधिकार मिलना चाहिए। शिक्षित व्यक्ति अपने मत का ठीक प्रयोग कर सकता है। मिल का कहना है कि वयस्क मताधिकार से पहले शिक्षा को अनिवार्य बनाना आवश्यक है और जिसे लिखना-पढ़ना नहीं आता उसे वोट देने का अधिकार कभी नहीं मिलना चाहिए।

2. मूों का शासन (Government of the Fools)-वयस्क मताधिकार द्वारा मूल् का शासन स्थापित हो जाता है क्योंकि समाज में अनपढ़ और मूरों की संख्या अधिक होती है। सर जेम्स स्टीफेन (Sir James Stephen) का कहना है कि इससे जो वास्तविक तथा स्वाभाविक सम्बन्ध बुद्धि और मूर्खता में रहता है वह उल्ट जाएगा अर्थात् बुद्धिमानों को मूर्तों पर शासन करना चाहिए परन्तु इनसे मूर्ख बुद्धिमानों पर शासन करेंगे । (It inverts the time and national relation between wisdom and folly.) लेकी (Lecky) का भी यह मत है कि वयस्क मताधिकार द्वारा सत्ता उन व्यक्तियों के हाथों में चली जाएगी जो कंगाल, मूर्ख तथा निकम्मे हैं क्योंकि इनकी संख्या ही समाज में सबसे अधिक होती है।

3. मताधिकार सम्पत्ति के आधार पर मिलना चाहिए (Franchise should be Based on Property)कुछ लोगों का कहना है कि सम्पत्तिशाली व्यक्तियों को ही मताधिकार मिलना चाहिए नहीं तो दूसरे लोग राष्ट्र के धन का दुरुपयोग करेंगे। मैकाले (Macaulay) का मत है कि ऐसी अवस्था में भूखे नंगे लोग सारी सम्पत्ति और वैभव को नष्ट करके आपस में छीना झपटी करके खा जाएंगे।

4. सब नागरिक समान नहीं (AII Citizens are not Equal)-इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि सभी नागरिक समान नहीं होते। प्रकृति ने सब व्यक्तियों को समान उत्पन्न नहीं किया। कुछ जन्म से मोटे, कुछ पतले, कुछ बुद्धिमान्, कुछ चतुर और कुछ बुद्धिहीन होते हैं। इसलिए समानता के आधार पर सभी वयस्कों को मताधिकार देना उचित नहीं है।

5. मत का दुरुपयोग (Misuse of Votes)–यदि अशिक्षित और निर्धन व्यक्तियों को भी मताधिकार दे दिया जाए तो वे इसका ठीक प्रयोग नहीं करेंगे। अशिक्षित व्यक्ति बिना सोचे-समझे अपने मत का प्रयोग कर अयोग्य व्यक्तियों का शासन स्थापित करेंगे और निर्धन व्यक्ति कुछ पैसों के लालच में आकर अपना वोट बेचने को तैयार हो जाएंगे। जाति, धर्म, वंश आदि के आधार पर भी मत का प्रयोग होगा और योग्यता की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा।

6. स्त्रियों को मताधिकार नहीं मिलना चाहिए (No Right to Vote to Women)-कुछ लोगों का विचार है कि स्त्रियों को मत डालने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। इससे घरेलू शान्ति नष्ट होने का भय रहता है। वैसे भी स्त्रियां अपने मत का प्रयोग अपनी इच्छा से नहीं करतीं और न ही उनमें इतनी सूझ-बूझ होती है कि वे मत का उचित प्रयोग कर सकें।

7. शासन एक कला है (Governing is an Art) आज शासन.को एक कला माना जाता है जिसके सामने बहुत-सी जटिल समस्याएं होती हैं। इसलिए योग्य और अयोग्य का विचार किए बिना मताधिकार देना बुद्धिमत्ता नहीं कहा जा सकता। मत का अधिकार उसे ही दिया जाना चाहिए जो इसके योग्य हो।

8. मताधिकार एक पवित्र राष्ट्रीय कर्त्तव्य है (Franchise is a sacred National Duty) मताधिकार कोई खिलौना नहीं कि बच्चा उसके साथ जैसे चाहे खेलता रहे और जैसे चाहे उसका प्रयोग करे। मताधिकार एक राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसका प्रयोग बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि यह अधिकार सोचसमझ कर केवल योग्य नागरिकों को ही मिलना चाहिए।

9. वैज्ञानिक उन्नति के विरुद्ध (Against Scientific Progress)—सर हैनरी मेन का यह विश्वास है कि वयस्क मताधिकार वैज्ञानिक उन्नति के विरुद्ध कार्य करेगा। साधारण व्यक्तियों को गुमराह करके चालाक और रूढ़िवादी लोग सत्ता में आ जाते हैं जिनके अधीन वैज्ञानिक उन्नति नहीं हो पाती।

10. मताधिकार कोई जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं (Franchise is not a Birthright)-मिल तथा लेकी (Mill and Lecky) जैसे लेखकों का विचार था कि मतदान का अधिकार कोई जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं है। वह तो केवल उनको ही मिलना चाहिए जो इसके ठीक प्रयोग के लिए योग्यता रखते हैं।

11. केवल मताधिकार से अन्य अधिकार सुरक्षित नहीं हो जाते (Suffrage alone does not protect other rights)—यह विचार ठीक नहीं है कि मताधिकार नागरिक के अन्य अधिकारों की आधारशिला है। केवल नागरिक को मताधिकार दे देने से उसके सामाजिक तथा आर्थिक अधिकार सुरक्षित नहीं हो जाते। नागरिकों के सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए नागरिकों की सतत् जागरूकता, स्वतन्त्र न्यायपालिका, स्वतन्त्र प्रेस, स्वस्थ लोकमत, संगठित विरोधी दल आदि का होना अधिक आवश्यक है।

12. अधिक खर्चीला (More Expensive)—वयस्क मताधिकार से बहुत अधिक नागरिकों को मताधिकार प्राप्त हो जाता है। चुनाव के समय सरकार को बहुत अधिक व्यापक स्तर पर मतदान केन्द्रों की व्यवस्था करनी पड़ती है और उतने अधिक चुनाव अधिकारी नियुक्त करने पड़ते हैं। इससे बहुत अधिक खर्चा होता है और यह खर्चा अन्तिम रूप से गरीब जनता पर पड़ता है। उदाहरण के लिए 16वीं लोकसभा के चुनाव के समय भारत में मतदाताओं की संख्या 81 करोड़ से अधिक थी, जिस कारण चुनाव पर करोड़ों रुपए खर्च हुए।

जिन व्यक्तियों को मताधिकार नहीं मिलना चाहिए (Persons who should not be given the Right to Vote)-वयस्क मताधिकार लागू करने का यह अर्थ नहीं कि सभी वयस्क नागरिकों को पूर्ण रूप से मताधिकार दिया जाए। समाज में कुछ व्यक्ति या नागरिक ऐसे भी होते हैं जिन्हें मताधिकार नहीं दिया जा सकता-

  • नाबालिग (Minors). किसी भी राज्य में नाबालिग को मताधिकार नहीं दिया जा सकता।
  • पागल (Isane Persons)-ऐसे व्यक्तियों को भी जो पागल हों मताधिकार से वंचित रखा जाता है उन्हें मत प्रयोग के बारे में पता नहीं होता।
  • घोर अपराधी (Criminals)—घोर अपराधियों को भी मताधिकार से वंचित रखा जाता है ताकि उन्हें यह बात महसूस हो और भविष्य में अपराध न करें। अपने मत का दुरुपयोग करने वाले व्यक्तियों को भी इस अधिकार से वंचित रखा जाता है।
  • दिवालिए (Insolvent) दिवालिए को भी मतदान का अधिकार नहीं दिया जाता।
  • सरकारी कर्मचारी (Government Officials) कुछ विद्वानों का विचार है कि सरकारी कर्मचारी को भी मताधिकार नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि इससे वे राजनीति को भ्रष्ट करते हैं, परन्तु केवल कुछ ही देशों में सरकारी कर्मचारियों को मताधिकार से वंचित किया गया है।
  • धार्मिक नेता (Religious Leaders)-धार्मिक नेताओं को भी कई देशों में मताधिकार प्राप्त नहीं होता।
  • विदेशी (Aliens)-विदेशियों को भी मताधिकार प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वे अपने देश के प्रति वफादार होते है।

निष्कर्ष (Conclusion) वयस्क मताधिकार के बिना लोकतन्त्र न तो पूर्ण है और न ही सफल हो सकता है। लोकतन्त्र जनता का शासन होता है किसी वर्ग विशेष का नहीं, इसलिए आवश्यक है कि अपनी सरकार चुनने का अधिकार सब को एक समान होना चाहिए। वयस्क मताधिकार ही प्रजातन्त्र का प्रतीक और सूचक है। आज प्रायः सभी लोकतन्त्रीय राष्ट्रों में वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त अपनाया गया है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 9 निर्वाचक

प्रश्न 3.
अनुपातिक प्रतिनिधिता का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसके दो गुणों व दो दोषों का वर्णन करें।
(What do you understand by the term. ‘Proportional Representation ? Describe its two merits and two demerits.)
अथवा
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के गुण और दोषों का वर्णन कीजिए। (Write down the merits and demerits of proportional representational system.)
उत्तर-
प्रजातन्त्रात्मक शासन में चुनी गई विधानपालिका के लिए आवश्यक है कि इसमें जनता के हर वर्ग और दल को पूरा-पूरा प्रतिनिधित्व मिले। परन्तु चुनाव के लिए जो प्रणाली आमतौर पर अपनाई जाती है, वह इस उद्देश्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो सकती। यह प्रणाली है एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र और साधारण बहुमत की। इस प्रणाली के अनुसार एक निर्वाचन क्षेत्र में जितने भी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हों, उनमें से जिसको दूसरे से अधिक वोटें प्राप्त हों वह विजयी घोषित कर दिया जाता है। इस प्रणाली के कुछ गम्भीर दोष हैं जैसे कि-

(1) मान लो कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या एक हज़ार है और दो उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। मान लो चुनाव में एक उम्मीदवार को 501 वोटें मिली और दूसरे को 499। चूंकि पहले उम्मीदवार को दूसरे की अपेक्षा अधिक वोटें मिली हैं, वह निर्वाचित घोषित किया जाएगा। इसका दोष यह हुआ कि विधानमण्डल में 499 मतदाताओं को प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त हो सका।

(2) सन् 1971 के संसद् के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 43 प्रतिशत वोटें पड़ीं, परन्तु इसको संसद् में 68 प्रतिशत सीटें प्राप्त हुईं। इसी चुनाव में जनसंघ को 7 प्रतिशत वोटें पड़ी परन्तु संसद् में केवल चार प्रतिशत सीटें प्राप्त हुईं। इसी प्रकार कांग्रेस (संगठन) को 10 प्रतिशत से भी अधिक वोटें पड़ीं, परन्तु संसद् में इसे केवल 3 प्रतिशत सीटें प्राप्त हुईं। इसका दोष यह हुआ कि संसद् भारतीय जनता का ठीक अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं करती। इन दोषों को दूर करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का सुझाव दिया जाता है।

प्रश्न 4.
अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व से क्या भाव है ? अल्पसंख्यओं को प्रतिनिधित्व देने वाली किन्हीं चार विधियों का वर्णन करें।
(What is meant by Minority Representation ? Explain any four methods by which minority representation can be possible.)
उत्तर-
हर देश में लोग कई आधार पर बंटे होते हैं। कई समूहों या वर्गों के लोग संख्या में दूसरे वर्गों के लोगों से कम होते हैं। ऐसे लोगों को अल्पसंख्यक कहा जाता है जैसे कि भारत में ईसाई और पारसी लोग हैं।

लोकतन्त्र को वास्तविक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि देश के हर वर्ग व समूह को विधानमण्डल में उचित प्रतिनिधित्व मिले । उचित प्रतिनिधित्व का भाव यह है कि चुनाव प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि हर वर्ष में अपने प्रतिनिधि विधानपालिका में भिजवा सके ताकि हर वर्ग अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण को पेश कर सके। यदि ऐसा नहीं हो सकेगा तो विधानमण्डल में कुछ ही बहुसंख्यक दलों या वर्गों के प्रतिनिधि होंगे और विधानमण्डल जनमत का दर्पण (Mirror of the Public Opinion) नहीं कहला सकेगा। मिल (Mill) ने भी कहा है कि, “लोकतन्त्र के लिए यह आवश्यक है कि अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।”

आजकल प्रायः सभी देशों में एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र (Single member Constituency) है और चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होता है। उसका एक काफ़ी बड़ा दोष है कि इस प्रणाली में बहुमत वर्ग को ही सभी क्षेत्रों में प्रतिनिधि भेजने का अवसर मिलता है अर्थात् जिस वर्ग या राजनीतिक दल के मतदाताओं की संख्या बहुमत में हो उसका सभी क्षेत्रों में सफल होना स्वाभाविक है। इस तरह अल्पसंख्यक वर्ग या राजनीतिक दल के उम्मीदवार सभी क्षेत्रों में हार जाते हैं। कभी-कभी तो जहां कई राजनीतिक दल हों एक उम्मीदवार थोड़े से मत लेकर भी प्रतिनिधि चुना जाता है। मान लो एक दल को लगभग सभी क्षेत्रों में 60% मत प्राप्त होते हैं। इससे तो यह पता चलता है कि राज्य में केवल 60% मतदाताओं का ही वह दल प्रतिनिधित्व करता है और न्यायसंगत बात यह है कि संसद् में उस दल के कुल 60% सदस्य होने चाहिएं परन्तु वास्तव में उस दल को लगभग सभी स्थान प्राप्त हो जाते हैं। इसमें शेष 40 प्रतिशत लोगों को संसद् में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलता और उनके हितों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। इससे लोकतन्त्र वास्तविक नहीं बन सकता। प्रजातन्त्र को वास्तविक प्रजातन्त्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उन 40 प्रतिशत लोगों को भी सरकार में प्रतिनिधित्व दिया जाए। एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र प्रणाली में तो अल्पसंख्यकों को उनकी संख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व मिलना सम्भव नहीं और कई बार तो उन्हें प्रतिनिधित्व मिलता ही नहीं। इसलिए कुछ ऐसे तरीके निकाले गए हैं जिसके द्वारा अल्पसंख्यक, वर्गों को कुछ उनकी संख्या के अनुसार, व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके। इन तरीकों की विस्तारपूर्वक व्याख्या नीचे दी जा रही है-

1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation System)-आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा सभी वर्गों या राजनीतिक दलों को उनकी संख्या के अनुपात से व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व मिलने की काफ़ी सम्भावना रहती है। बहुत ही छोटे दल या महत्त्वहीन दल को बेशक प्रतिनिधित्व न मिले, परन्तु अल्पसंख्यक कहे जाने वाले वर्गों को अवश्य स्थान मिल जाता है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के भी दो तरीके हैं—’एकल संक्रमणीय मत प्रणाली या प्राथमिकता मत प्रणाली तथा सूची प्रणाली।’

2. सीमित मत प्रणाली (Limited Vote System)-सीमित मत प्रणाली भी अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने का तरीका है। इस प्रणाली में बहु-सदस्यीय चुनाव क्षेत्र होते हैं और कम-से-कम तीन सदस्य चुने जाते हैं। प्रत्येक मतदाता को एक से अधिक परन्तु स्थानों की संख्या से कम मत दिए जाते हैं। मान लो एक क्षेत्र में 5 सदस्य चुने जाते हैं तो एक मतदाता को तीन वोटे मिलेंगे और वह अपने तीन वोट एक ही उम्मीदवार को नहीं दे सकता। बल्कि तीन अलग-अलग उम्मीदवारों को ही दे सकता है। इससे बहुसंख्यक वर्ग पांच में से तीन स्थान तो प्राप्त कर लेगा परन्तु दो स्थान फिर भी अल्पसंख्यक वर्गों को प्राप्त हो जाते हैं।

इसके गुण (Its Merits)-इस प्रणाली में कई गुण पाए जाते हैं-

(1) इस प्रणाली द्वारा अल्पसंख्यकों को व्यवस्थापिका में कुछ स्थान प्राप्त हो जाते हैं।
(2) यह तरीका आसान भी है क्योंकि इसमें मतों के संक्रमण की आवश्यकता नहीं होती। इसके दोष (Its Demerits)-इस प्रणाली के कई दोष भी हैं-

  • इससे अल्पसंख्यक वर्ग को संसद् में एक-दो स्थान बेशक मिल जाएं परन्तु अपनी संख्या के अनुपात में स्थान नहीं मिल सकते।
  • जिस देश में कई अल्पसंख्यक वर्ग हों, वहां यह प्रणाली उचित रूप से कार्य नहीं कर पाती। थोड़ी-थोड़ी संख्या वाले वर्गों को कोई स्थान प्राप्त होने की कोई सम्भावना नहीं होती, क्योंकि उनकी वोटें बंट जाती हैं।
  • यह प्रणाली एक सदस्यीय क्षेत्र में लागू नहीं हो सकती।
  • इस प्रणाली के अन्दर उप-चुनाव की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। जापान और इटली में इस प्रणाली को कुछ समय बाद बंद कर दिया गया था।

3. संचित मत प्रणाली (Cumulative Vote System)—संचित मत प्रणाली में बहु सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र होते हैं। एक मतदाता को उतने ही मत मिलते हैं जितने कि सदस्य चुने जाने हों। मान लो उस क्षेत्र में 15 सदस्य चुने जाने हैं तो एक मतदाता को 15 वोट मिलते हैं। मतदाता को यह स्वतन्त्रता होती है कि वे अपने इन सभी वोटों का जैसे चाहे प्रयोग करे अर्थात् वह अपने सब वोट एक ही उम्मीदवार को दे सकता है और अलग-अलग उम्मीदवारों को भी।

इसके लाभ (Its Merits)-इस प्रणाली के कई गुण हैं। इस प्रणाली का यह लाभ है कि इसके द्वारा अल्पसंख्यक वर्गों को कुछ स्थान प्राप्त हो जाते हैं। अल्पसंख्यक मतदाता अपने सब मत एक ही उम्मीदवार को देंगे और इससे उसके पास काफ़ी मात्रा में वोट हो जाएंगे और उसके चुने जाने की सम्भावना हो जाएगी।

इसके दोष (Its Demerits)—इस प्रणाली में कई दोष पाए जाते हैं-

  • इस प्रणाली में भी अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी संख्या के अनुपात के अनुसार स्थान नहीं मिलते।
  • इस प्रणाली में बहुत-से मतों के व्यर्थ जाने की सम्भावना भी रहती है।
  • इस प्रणाली में राजनीतिक दलों का अच्छा संगठन होना चाहिए जिनके बिना अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिल सकता। इससे राजनीतिक दलों की बुराइयां भी बढ़ जाती हैं।

4. द्वितीय मतदान प्रणाली (Second Ballot System)–इस प्रणाली के लिए एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र होना चाहिए। उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए कुल डाले गए वोटों का पूर्ण बहुमत प्राप्त होना चाहिए। यदि चुनाव में किसी भी उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हो तो उस उम्मीदवार को जिसने चुनाव में सबसे कम मत प्राप्त किए हों चुनाव से निकाल दिया जाता है और दूसरी बार मतदान करवाया जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक किसी उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हो जाए।

5. पृथक् निर्वाचन प्रणाली (Separate Electorate System)-अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का एक और तरीका भारत में अंग्रेजों ने लागू किया था। इसे पृथक् निर्वाचन प्रणाली कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न धर्मों और जातियों के लिए उनकी संख्या के अनुसार व्यवस्थापिका में स्थान सुरक्षित (Reserve) किए जाते हैं और उन विभिन्न धर्मों और जातियों के मतदाता अपने-अपने प्रतिनिधि अलग-अलग चुनते हैं अर्थात् मुसलमान मतदाता मुसलमान उम्मीदवारों को वोट देते हैं और दूसरे धर्मों और जातियों के मतदाता अपने-अपने उम्मीदवारों को। 1909 के एक्ट के अनुसार भारत में मुसलमानों को अपने प्रतिनिधि अलग चुनने का अधिकार दिया गया था। 1919 के एक्ट द्वारा सिक्खों को भी अपने प्रतिनिधि अलग चुनने का अधिकार दिया गया था। 1935 के एक्ट द्वारा इसे और फैलाया गया। इस प्रणाली को साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व (Communal Representation) भी कहा जाता था।

इस प्रणाली के गुण व दोष (Its Merits and Demerits)-इस प्रणाली का गुण तो केवल यही है कि प्रत्येक जाति और धर्म को लोगों के उनकी संख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व मिल जाता है, परन्तु इस प्रणाली के दोष अधिक हैं। इससे लोगों में राष्ट्रीय एकता उत्पन्न नहीं होती बल्कि वे जाति और धर्म के नाम पर छोटे-छोटे गुटों में बंट जाते हैं। लोगों में आपसी झगड़े होते हैं जैसे कि भारत में हिन्दू और मुसलमानों में हुए और बाद में देश के दो टुकड़े हो गए।

6. सुरक्षित स्थान सहित संयुक्त निर्वाचन (Reservation of Seats with Joint Electorate)-भारत में संविधान द्वारा अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का एक और तरीका अपनाया गया है। यह तरीका पृथक् निर्वाचन प्रणाली से अच्छा माना जाता है। इस तरीके के अनुसार अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर कुछ स्थान सुरक्षित कर दिए जाते हैं। उन सुरक्षित स्थानों के लिए उम्मीदवार उसी जाति या वर्ग से खडे हो सकते हैं, परन्तु मतदाता सभी नागरिक होते हैं अर्थात् अल्पसंख्यक वर्ग के सदस्य समस्त मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं।

इसका लाभ यह है कि इससे अल्पसंख्यक वर्ग को प्रतिनिधित्व भी मिल जाता है और राष्ट्रीय एकता भी नष्ट नहीं होने पाती, परन्तु इसका दोष यह है कि इससे ऐसी जातियों और वर्गों में हीनता की भावना आ जाती है।

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प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली तथा अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के गुणों तथा अवगुणों की विस्तार सहित व्याख्या कीजिए।
(Discuss in details the Merits and Demerits of Direct Election System and indirect Election system.)
अथवा
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के गुणों तथा अवगुणों का वर्णन करो।
(Write merits and demerits of Direct Election System.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। प्रजातन्त्र जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा चलाया हुआ शासन होता है। प्रजातन्त्र के दो रूप होते हैं-एक प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र तथा दूसरा अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र। प्राचीन यूनान में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र प्रचलित था। आधुनिक युग में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र सम्भव नहीं है क्योंकि आधुनिक राज्यों की जनसंख्या इतनी अधिक है कि इसके लिए एक स्थान पर एकत्रित होकर कानून बनाना तथा नीति का निर्माण करना असम्भव है। इसलिए सरकार का काम लोगों के प्रतिनिधियों की ओर से चलाया जाता है। जनता द्वारा एक निश्चित समय के पश्चात् अपने प्रतिनिधियों को स्थानीय संस्थाओं के लिए तथा विधानसभाओं के लिए चुनकर भेजने के ढंग को चुनाव (Election) कहा जाता है। भारत में विधानसभाओं तथा संसद् के लोकसभा के सदस्य जनता द्वारा चुने जाते हैं। नगरपालिका, जिला परिषद् तथा पंचायतों के सदस्य भी चुने जाते हैं। बिना चुनावों के लोकतन्त्रीय शासन के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। आज प्रायः सभी देशों में वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त अपनाया गया है। प्रतिनिधियों को चुनने के दो तरीके हैं-प्रत्यक्ष चुनाव तथा अप्रत्यक्ष चुनाव। .

प्रत्यक्ष चुनाव (Direct Election)-प्रायः निचले अर्थात् लोकप्रिय सदनों (Popular House) का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होता है। मतदाताओं के मतों के आधार पर ही सदस्य चुने जाते हैं। जब मतदाता स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनें और वे प्रतिनिधि ही संसद् या व्यवस्थापिका में अपना पद ग्रहण करते हों तो उसे प्रत्यक्ष चुनाव कहा जाता है। भारत में पंचायतों, नगरपालिकाओं, विधानसभाओं तथा लोकसभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार से आपका क्या भाव है ? ।
उत्तर-
सार्वभौम वयस्क मताधिकार का अभिप्राय यह है कि एक निश्चित आयु के वयस्क नागरिकों को बिमा किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार देना है। वयस्क होने की आयु राज्य द्वारा निश्चित की जाती है। इंग्लैण्ड में पहले 21 वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त था, परन्तु अब यह 18 वर्ष है। रूस और अमेरिका में वयस्क मताधिकार की आयु 18 वर्ष है। भारत में मताधिकार की आयु पहले 21 वर्ष थी, परन्तु 61वें संशोधन एक्ट द्वारा यह आयु 18 वर्ष कर दी गई है। सार्वभौम मताधिकार में पागलों, दिवालियों, बच्चों, सज़ा प्राप्त व्यक्तियों इत्यादि को मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं होता। निश्चित आयु के होने के पश्चात् प्रत्येक नागरिक बिना किसी भेदभाव के मत डालने का अधिकारी बन जाता है, पर इसके साथ एक निश्चित समय तक निवास की शर्त भी रखी जाती है। आधुनिक युग में सार्वभौम वयस्क मताधिकार को ही उचित और न्यायसंगत माना गया है।

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प्रश्न 2.
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने से क्या अभिप्राय है ? अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने वाली दो विधियों के नाम लिखें।
अथवा
अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक देश में लोग कई आधारों पर बंटे होते हैं। कई समूहों या वर्गों के लोग किसी राज्य में दूसरे वर्गों के लोगों से कम होते हैं। ऐसे लोगों को अल्पसंख्यक कहा जाता है जैसे कि भारत में ईसाई, मुस्लिम और पारसी लोग। लोकतन्त्र को वास्तविक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि देश के हर वर्ग तथा समूह को विधानमण्डल में उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। अल्पसंख्यकों को अपनी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। एक सदस्यीय चुनाव प्रणाली के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। अतः अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देना आवश्यक है ताकि विधानमण्डल जनमत का दर्पण कहला सके।
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने वाली दो विधियां-इसके लिए प्रश्न नं. 19 देखें।

प्रश्न 3.
स्त्री मताधिकार के पक्ष में चार दलीलें लिखो।
उत्तर-
स्त्रियों को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए। स्त्री मताधिकार के पक्ष में मुख्यत: निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं

  • यह लोकतन्त्रात्मक है-स्त्रियों को मत का अधिकार देना लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार है। लोकतन्त्र में समस्त जनता को शासन में भाग लेने का अधिकार मिलता है और जनता में जितना भाग पुरुष का है, उतना ही स्त्री का है।
  • स्त्रियों को मताधिकार की अधिक आवश्यकता-शारीरिक दृष्टि से निर्बल व्यक्ति को कानून की रक्षा की अधिक आवश्यकता होती है। जो सबल है वह तो कानून को भी अपने हाथ में ले सकता है।
  • स्त्रियां दूसरे सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं-इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रशासन के क्षेत्र में स्त्रियों ने बड़ा प्रशंसनीय कार्य किया है। आजकल पुलिस और सेना में भी स्त्रियां कार्य कर रही हैं, फिर राजनीति के क्षेत्र में वे कार्य क्यों नहीं कर सकेंगी।
  • स्त्रियां शान्तिप्रिय होती हैं-स्त्रियां स्वभाव से ही शान्ति प्रिय होती हैं और इससे राजनीति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

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प्रश्न 4.
स्त्री मताधिकार के विपक्ष में चार तर्क दें।
अथवा
स्त्री मताधिकार के विरुद्ध चार तर्क दो।
उत्तर-
स्त्री मताधिकार के विरुद्ध मुख्य तर्क निम्नलिखित दिए जाते हैं

  • स्त्री का कार्य क्षेत्र घर है- यदि उसे मत देने का अधिकार दिया जाए तो वह घर की ओर ठीक ध्यान न दे सकेगी। इससे पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा घर की शान्ति समाप्त हो जाएगी।
  • स्त्री का मत पुरुष के मत की पुनरावृत्ति है-अधिकतर स्त्रियां अपने पति, पिता या भाई आदि के कहने के अनुसार ही अपने मत का प्रयोग करती हैं। वे अपनी ओर से यह सोचने का प्रयत्न नहीं करतीं कि वोट किसे देना चाहिए।
  • घरेलू शान्ति के भंग होने का खतरा–यदि स्त्री मताधिकार लागू किया जाए तो इससे घरेलू शान्ति के भंग होने का बहुत डर रहता है।
  • उदासीनता-स्त्रियां प्रायः राजनीति के प्रति उदासीन रहती हैं। इसलिए वे अपने वोट का उचित प्रयोग नहीं कर पातीं।

प्रश्न 5.
बालिग मताधिकार के पक्ष में चार तर्क दें।
अथवा
सार्वजनिक वयस्क (बालिग) मताधिकार के पक्ष में कोई चार तर्क दीजिए।
उत्तर-
वयस्क मताधिकार के पक्ष में मुख्य निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

  • प्रभुसत्ता जनता के पास है-लोकतन्त्र में प्रभुसत्ता जनता के पास होती है और जनता की इच्छा तथा कल्याण के लिए शासन चलाया जाता है। इसलिए मत डालने का अधिकार सबको समानता के साथ मिलना चाहिए। यदि वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त लागू न किया जाए तो जनता की प्रभुसत्ता की बात सत्य सिद्ध नहीं होती।
  • कानून का प्रभाव सब पर पड़ता है-राज्य में जो भी कानून बनते हैं उनका प्रभाव राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों पर पड़ता है। इसीलिए उन कानूनों को बनाने का अधिकार भी सबको समान रूप से मिलना चाहिए।
  • व्यक्ति के विकास के लिए मताधिकार आवश्यक-लोकतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का विकास करने के लिए कई प्रकार के अधिकार मिलते हैं। उन अधिकारों में मताधिकार भी आवश्यक है और इसके बिना कोई भी व्यक्ति अपना विकास नहीं कर सकता। दूसरे अधिकारों की रक्षा के लिए मताधिकार आवश्यक है।
  • रकार को अधिक बल मिलता है-वयस्क मताधिकार द्वारा चुनी गई सरकार अधिक शक्तिशाली होती है।

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प्रश्न 6.
सार्वभौम वयस्क मताधिकार के विरोध में चार तर्क लिखिए।
उत्तर-
वयस्क मताधिकार के विरुद्ध मुख्य तर्क निम्नलिखित दिए जाते हैं

  • शिक्षित व्यक्तियों को ही मताधिकार मिलना चाहिए-बहुत से लोगों का कहना है कि शिक्षित व्यक्तियों को ही मताधिकार मिलना चाहिए। शिक्षित व्यक्ति अपने मत का ठीक प्रयोग कर सकता है। मिल का कहना है कि वयस्क मताधिकार से पहले शिक्षा को अनिवार्य बनाना आवश्यक है। जिसे लिखना-पढ़ना नहीं आता उसे वोट देने का अधिकार कभी नहीं मिलना चाहिए।
  • मूों का शासन-वयस्क मताधिकार द्वारा मूों का शासन स्थापित हो जाता है, क्योंकि समाज में अनपढ़ और मूों की संख्या अधिक होती है।
  • मत का दुरुपयोग- यदि अशिक्षित और निर्धन व्यक्तियों को भी मताधिकार दे दिया जाए तो वे इसका ठीक प्रयोग नहीं करेंगे। अशिक्षित व्यक्ति बिना सोचे-समझे अपने मत का प्रयोग कर अयोग्य व्यक्तियों का शासन स्थापित करेंगे और निर्धन व्यक्ति कुछ पैसों के लालच में आकर अपना वोट बेचने को भी तैयार हो जाएंगे।
  • खर्चीली व्यवस्था-वयस्क मताधिकार से बहुत अधिक लोगों को मताधिकार प्राप्त हो जाता है, जिससे चुनाव प्रक्रिया बहुत खर्चीली हो जाती है।

प्रश्न 7.
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का क्या अर्थ है ?
अथवा
क्षेत्रीय प्रतिनिधत्व से क्या भाव है ? क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के कोई दो गुण बताएं।
उत्तर-
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त प्रायः सभी देशों में पाया जाता है। इसके अनुसार सारे देश के मतदाताओं को प्रादेशिक इकाइयों में विभाजित कर दिया जाता है जिन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र से एक या अधिक प्रतिनिधि चुने जाते हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र या प्रदेश में रहने वाले सभी मतदाता उस क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं और प्रतिनिधि उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रादेशिक प्रतिनिधित्व में प्रतिनिधि क्षेत्र के समस्त मतदाताओं की इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन प्रायः भौगोलिक आधार पर किया जाता है। इन निर्वाचन क्षेत्रों का निश्चित समय के पश्चात् बढ़ती हुई जनसंख्या के आधार पर परिसीमन किया जाता है। यह कार्य परिसीमन आयोग के द्वारा किया जाता . है। भारत में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों का चुनाव प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर होता है और प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है।

क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के निम्नलिखित दो गुण हैं –

  1. क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व से प्रादेशिक एकता को बढ़ावा मिलता है।
  2. क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व से अधिक विकास की सम्भावना बनी रहती है।

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प्रश्न 8.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से आपका क्या भाव है ?
अथवा
प्रत्यक्ष निर्वाचन विधि से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लोकतन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधि निर्वाचन द्वारा चुनती है। प्रतिनिधियों को चुनने के दो तरीके हैं-प्रत्यक्ष चुनाव तथा अप्रत्यक्ष चुनाव।
जब मतदाता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से या सीधे तौर पर अपने प्रतिनिधि चुने और वे प्रतिनिधि ही संसद् या व्यवस्थापिका में अपना पद ग्रहण करते हों तो उसे प्रत्यक्ष चुनाव कहा जाता है। उदाहरण के लिए भारत में पंचायतों, नगरपालिकाओं, विधानसभाओं तथा लोक सभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने जाते हैं। इंग्लैण्ड में कॉमन सदन (House of Common) तथा अमेरिका में प्रतिनिधि सदन (House of Representative) के सदस्य जनता द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं।

प्रश्न 9.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के कोई चार गुण लिखें।
उत्तर-
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • मतदाताओं और प्रतिनिधियों में सीधा सम्पर्क-प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि इसमें मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों के बीच सीधा सम्बन्ध रहता है, क्योंकि प्रतिनिधि मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं। प्रत्यक्ष सम्पर्क से प्रतिनिधि और मतदाता एक-दूसरे की भावनाओं और विचारों को समझते हैं।
  • यह प्रणाली अधिक लोकतन्त्रात्मक है-लोकतन्त्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है और समस्त शक्तियां अन्तिम रूप में जनता में निहित होती हैं। मतदाता प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। अतः प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का सिद्धान्त लोकतन्त्र के अनुकूल है।।
  • मतदाता की प्रतिष्ठा में वृद्धि-प्रत्यक्ष चुनाव में मतदाता प्रत्यक्ष तौर पर चुनाव में भाग लेते हैं। चुनाव के समय प्रत्येक उम्मीदवार को चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, धनी-निर्धन सभी के पास जाकर वोट के लिए निवेदन करना पड़ता है। इससे लोग यह समझने लगते हैं कि उनका शासन में भाग है, सरकार को बनाने में उनका भी हाथ है। इस तरह मतदाताओं की प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है।
  • समानता की भावना-प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप में मताधिकार प्रयोग करने का अवसर मिलता है।

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प्रश्न 10.
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली में अन्तर बताइए।
अथवा
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष चुनाव विधि में अन्तर लिखिए।
उत्तर-
जब मतदाता स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनें और वे प्रतिनिधि ही संसद् या व्यवस्थापिका में अपना पद ग्रहण करते हों तो उसे प्रत्यक्ष चुनाव कहा जाता है। परन्तु अप्रत्यक्ष चुनाव में जनता के चुने प्रतिनिधि संसद् या विधानसभा के सदस्यों का चुनाव करते हैं। संसद् के निम्न सदन का चुनाव आमतौर पर प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली द्वारा होता है जबकि ऊपरि सदन के सदस्य अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली द्वारा चुने जाते हैं। भारत में राज्यसभा के सदस्य इसी प्रकार से चुने जाते हैं, जबकि पंचायतों, नगरपालिकाओं, विधानसभाओं तथा लोकसभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने जाते हैं।

प्रश्न 11.
अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से क्या भाव है ?
उत्तर-
प्रजातन्त्र के लिए चुनाव का होना अनिवार्य है। जनता निश्चित अवधि के पश्चात् अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। प्रतिनिधियों को चुनने के दो तरीके हैं-प्रत्यक्ष चुनाव तथा अप्रत्यक्ष चुनाव। जब वे प्रतिनिधि जिनके हाथ में शासन सत्ता रहती हो, जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से न चुने जाकर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हों तो उस प्रणाली को अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली कहा जाता है। अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली में जनता निर्वाचक मण्डल के सदस्यों को चुन लेती है और वे सदस्य मुख्य प्रतिनिधियों को चुन लेते हैं। भारत में राज्य सभा के सदस्य अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली द्वारा चुने जाते हैं। राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति तथा राज्यों की विधान परिषदों के सदस्य भी अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली द्वारा चुने जाते हैं।

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प्रश्न 12.
चुनाव प्रणाली में अप्रत्यक्ष चुनाव के चार गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1. योग्य प्रतिनिधियों के चुनाव की अधिक सम्भावना – अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के अन्तर्गत मतदाताओं की संख्या पर्याप्त कम होती है। अल्प मतदाता उम्मीदवारों की योग्यताओं सम्बन्धी परस्पर विचार-विमर्श कर सकते हैं। प्रत्येक मतदाता का उम्मीदवार के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क भी सम्भव हो सकता है। इस प्रकार योग्य प्रतिनिधियों के चुनाव की अधिक सम्भावना हो सकती है।

2. राजनीतिक दलों के प्रभावों की कम सम्भावना-अप्रत्यक्ष चुनाव के अधीन राजनीतिक दलों के कुप्रभावों की सम्भावना पर्याप्त कम हो जाती है। मताधिकार अल्प-मात्र बुद्धिमान् व्यक्तियों तक ही सीमित होता है इसलिए राजनीतिक दलों को विशाल स्तर पर जलसे, जुलूस का प्रबन्ध अथवा प्रचार करने की आवश्यकता नहीं होती।

3. कम खर्चीली विधि-इस प्रणाली अधीन अत्यधिक धन व्यय नहीं किया जाता। अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली में मतदाताओं की संख्या कम तथा चुनाव क्षेत्र का आकार छोटा होने के कारण अत्यधिक धन व्यय करने की आवश्यकता नहीं होती।

4. सार्वजनिक उत्तेजना की कम सम्भावना-प्रत्यक्ष चुनाव प्राय: लोगों को उकसाते हैं। उनमें दल गुटबन्दी की भावना इतनी अधिक होती है कि छोटे-छोटे मामलों सम्बन्धी झगड़े करने के लिए तैयार रहते हैं। इसी कारण विभिन्न उम्मीदवारों के समर्थकों में दंगे-फसाद प्रायः होते रहते हैं परन्तु ऐसी स्थिति अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली में कम ही सम्भव हो सकती है।

प्रश्न 13.
अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के कोई चार दोष लिखें।
उत्तर-
अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के निम्नलिखित दोष हैं-

  • अलोकतन्त्रीय प्रणाली-अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अलोकतन्त्रीय है, क्योंकि इस प्रणाली के द्वारा जनता को अपनी इच्छा को प्रकट करने का अवसर नहीं मिलता। सरकार के निर्माण में मतदाताओं का सीधा हाथ नहीं होता।
  • लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती-अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के कारण लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती, क्योंकि प्रतिनिधियों का चुनाव जनता के हाथ में नहीं होता है। मतदाता अपने आपको शासन का अंग और भागीदार अनुभव नहीं करते और वे चुनाव के प्रति उदासीन ही रहते हैं।
  • कम खर्चीली नहीं-यह प्रणाली उतनी कम खर्चीली नहीं जितनी कि सोची जाती है। इसका कारण यह है कि पहले निर्वाचक मण्डल के सदस्यों का चुनाव किया जाता है और बाद में निर्वाचक मण्डल के सदस्य प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। इस प्रकार इस प्रणाली में काफ़ी खर्चा होता है, जिस तरह प्रत्यक्ष प्रणाली में होता है।
  • इस प्रणाली में मतदाताओं एवं प्रतिनिधियों के बीच सीधा सम्पर्क स्थापित नहीं हो पाता।

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प्रश्न 14.
पेशेवर प्रतिनिधित्व क्या है ? पेशेवर प्रतिनिधित्व के कोई दो गुण बताएं।
उत्तर-
व्यावसायिक प्रतिनिधित्व का अर्थ है कि एक क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिक एक प्रतिनिधि न चुनें बल्कि एक व्यवसाय से सम्बन्धित सारे नागरिक अपना प्रतिनिधि चुन कर भेजें और दूसरे व्यवसाय से सम्बन्धित नागरिक अपने प्रतिनिधि चुनें अर्थात् सभी व्यवसायों को विधानमण्डल में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो ताकि प्रत्येक व्यवसाय के लोगों के हितों की रक्षा की जा सके। इस प्रणाली के अन्तर्गत डॉक्टर, अध्यापक, वकील, मज़दूर, पूंजीपति और व्यापारी अपने-अपने अलग प्रतिनिधि चुनेंगे जो उन व्यवसायों से सम्बन्धित होंगे। अतः इस प्रणाली के अनुसार प्रत्येक व्यवसाय को विधानमण्डल में अपना प्रतिनिधि भेजने का अवसर मिल जाता है। इस प्रणाली का समर्थन सबसे पहले एक फ्रैंच लेखक ‘मिराबो’ ने किया था। फ्रांस की क्रान्ति के समय उसने यह घोषणा की थी कि विधानमण्डल को समाज के सब हितों का एक छोटा-सा दर्पण होना चाहिए। संसार के कई देशों में इस प्रणाली को लाग भी किया गया है। इस प्रणाली को पंजाब विश्वविद्यालय की सीनेट के चुनाव में भी अपनाया गया है।

पेशेवर प्रतिनिधित्व के दो गुण निम्नलिखित हैं-

  1. पेशेवर प्रतिनिधित्व में राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग को प्रतिनिधत्व मिलता है।
  2. पेशेवर प्रतिनिधित्व अधिक प्रजातांत्रिक है।

प्रश्न 15.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यह एक ऐसी चुनाव प्रणाली है जिसके अनुसार जनता के हर वर्ग या दल को विधानमण्डल में उतना ही प्रतिनिधित्व मिलता है जितना उनके समर्थकों का अनुपात होता है। एक वर्ग या दल के पीछे जितने प्रतिशत मतदाता होंगे उसे विधानमण्डल में उतने ही प्रतिशत सीटें प्राप्त होंगी। इस प्रणाली के तीन मुख्य लक्षण हैं-

  • बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र-निर्वाचन क्षेत्रों का बहु-सदस्यीय (Multi-member) होना आवश्यक है। आम मत यह है कि एक निर्वाचन क्षेत्र में तीन से लेकर पन्द्रह तक प्रतिनिधियों के चुने जाने की व्यवस्था है।
  • वोट की तरजीह-हर मतदाता के पास केवल एक ही वोट होती है, परन्तु पर्ची (Ballot-Paper) पर उस वोट के लिए भिन्न-भिन्न उम्मीदवारों के प्रति अपनी तरजीह या पसन्द (जैसे कि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि) को अंकित कर सकता है।
  • वोटों की निश्चित संख्या-चुनाव में विजयी होने के लिए उम्मीदवार को वोटों की एक निश्चित संख्या (Quota) प्राप्त करनी होती है। इस संख्या को निर्धारित करने के लिए कुछ भिन्न-भिन्न नियम प्रचलित हैं।

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प्रश्न 16.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के कोई चार गुण लिखो।
उत्तर-

  • प्रत्येक वर्ग या दल को उचित प्रतिनिधित्व-इस प्रणाली के अनुसार समाज का कोई वर्ग या देश का कोई भी दल प्रतिनिधित्व से वंचित नहीं रह जाता है। जिस वर्ग या दल के पीछे जितने मतदाता होते हैं उसको उसी अनुपात में विधानमण्डल में प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
  • अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा-आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है, जिससे उनके हितों की रक्षा होती है।
  • एक राजनीतिक दल की निरंकुशता स्थापित नहीं होती-इस प्रणाली के अधीन किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता। विधानमण्डल में लगभग सभी दलों को कुछ-न-कुछ सीटें प्राप्त होती हैं जिससे कोई एक दल अपनी निरंकुशता स्थापित नहीं कर पाता।
  • कोई भी वोट व्यर्थ नहीं जाती-इस प्रणाली के अधीन प्रत्येक वोट की गिनती की जाती है।

प्रश्न 17.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के कोई चार अवगुण लिखो।
उत्तर-

  • यह प्रणाली बहुत जटिल है-आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बहुत जटिल है। साधारण वोटर इसे समझ नहीं सकता। वोटों पर पसन्द अंकित करना, कोटा निश्चित करना, वोटों की गिनती करना और वोटों को पसन्द के अनुसार हस्तान्तरित करना आदि बातें एक साधारण पढ़े-लिखे व्यक्ति की समझ से बाहर हैं।
  • राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध-आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत छोटे-छोटे दलों को प्रोत्साहन मिलता है। अल्पसंख्यक जातियां भी अपनी भिन्नता बनाये रखती हैं और दूसरी जातियों के साथ अपने हितों को मिलाना नहीं चाहतीं। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र छोटे-छोटे वर्गों और गुटों में बंटकर रह जाता है और राष्ट्रीय एकता पनप नहीं पाती।
  • राजनीतिक दलों का अधिक महत्त्व-आनुपातिक प्रतिनिधित्व की सूची प्रणाली के अन्तर्गत राजनीतिक दलों का महत्त्व बहुत अधिक हो जाता है। मतदाता को किसी-न-किसी दल के पक्ष में वोट डालना होता है। निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ सकते।
  • उत्तरदायित्व का अभाव-इस प्रणाली के अधीन निर्वाचन क्षेत्र बहुसदस्यीय होते हैं और एक क्षेत्र में कई प्रतिनिधि होते हैं। चूंकि एक क्षेत्र का प्रतिनिधि निश्चित नहीं होता, इसलिए प्रतिनिधियों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा नहीं होती।

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प्रश्न 18.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के विरुद्ध चार तर्क दें।
उत्तर-

  • योग्य प्रतिनिधियों के निर्वाचन की कम सम्भावना-प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के अधीन साधारण मतादाताओं को ग़लत प्रचार के द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। परिणामस्वरूप प्रत्यक्ष चुनाव विधि के अधीन योग्य उम्मीदवारों के निर्वाचित होने की सम्भावना होती है।
  • गुणवान् व्यक्ति ऐसे चुनावों से भयभीत होते हैं-प्रत्यक्ष चुनाव विधि के अधीन राजनीतिक गतिविधियों का स्तर निम्न स्तर पर पहुंच जाता है। ऐसी विधि के अधीन हिंसक घटनाएं भी प्रायः होती हैं। इस प्रकार की अवस्थाओं में बुद्धिमान् तथा गुणवान् व्यक्ति चुनाव लड़ने से भयभीत होते हैं।
  • यह चुनाव विधि धनवानों के लिए-इस प्रकार की चुनाव प्रणाली में अत्यधिक धन व्यय किया जाता है। ऐसी प्रणाली में कोई निर्धन गुणवान् व्यक्ति चुनाव लड़ने की कल्पना भी नहीं करता।
  • खर्चीली विधि-यह प्रणाली बहुत अधिक खर्चीली है।

प्रश्न 19.
अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की चार विधियां लिखो।
अथवा
अल्प (कम) गिनती को प्रतिनिधित्व देने की किन्हीं तीन मुख्य विधियों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर-
अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने वाले विभिन्न तरीके निम्नलिखित हैं-
1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली-आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा सभी वर्गों या राजनीतिक दलों को उनकी संख्या के अनुपात से व्यवस्थापिका में प्रतिनिधित्व मिलने की काफ़ी सम्भावना रहती है।

2. सीमित मत प्रणाली-सीमित मत प्रणाली भी अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने का तरीका है। इस प्रणाली में बहु-सदस्यीय चुनाव क्षेत्र होते हैं और कम-से-कम तीन सदस्य चुने जाते हैं। प्रत्येक मतदाता को एक से अधिक परन्तु स्थानों की संख्या से कम मत दिए जाते हैं।

3. संचित मत प्रणाली-संचित मत प्रणाली में बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र होते हैं। एक मतदाता को उतने ही मत मिलते हैं जितने कि सदस्य चुने जाते हैं।

4. पृथक निर्वाचन प्रणाली-अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का एक और तरीका भारत में अंग्रेजों ने लाग किया था। इसे पृथक निर्वाचन प्रणाली कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न धर्मों और जातियों के लिए उनकी संख्या के अनुसार व्यवस्थापिका में स्थान आसुरक्षित (Reserve) किए जाते हैं और उन विभिन्न धर्मों और जातियों के मतदाता अपने-अपने प्रतिनिधि अलग-अलग चुनते हैं अर्थात् मुसलमान मतदाता मुसलमान उम्मीदवारों को वोट देते हैं और दूसरे धर्मों और जातियों के मतदाता अपने-अपने उम्मीदवारों को। 1909 के एक्ट के अनुसार भारत में मुसलमानों को अपने प्रतिनिधि अलग चुनने का अधिकार दिया गया था।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सार्वभौम वयस्क मताधिकार का अभिप्राय यह है कि एक निश्चित आयु के वयस्क नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार देना है। वयस्क होने की आयु राज्य द्वारा निश्चित की जाती है। भारत में मताधिकार की आयु पहले 21 वर्ष थी परन्तु 61वें संशोधन एक्ट द्वारा यह आयु 18 वर्ष कर दी गई है।

प्रश्न 2.
अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
प्रत्येक देश में लोग कई आधार पर बंटे होते हैं। कई समूह या वर्गों के लोग किसी संस्था में दूसरे वर्गों के लोगों से कम होते हैं। ऐसे लोगों को अल्पसंख्यक कहा जाता है जैसे कि भारत में ईसाई, मुस्लिम और पारसी लोग। लोकतन्त्र को वास्तविक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि देश के हर वर्ग तथा समूह को विधानमण्डल में उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। अल्पसंख्यकों को अपनी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।

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प्रश्न 3.
स्त्री मताधिकार के पक्ष में दो तर्क दें।
उत्तर-
स्त्री मताधिकार के पक्ष में मुख्यतः निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

  1. यह लोकतन्त्रात्मक है-स्त्रियों को मत का अधिकार देना लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार है।
  2. स्त्रियों को मताधिकार की अधिक आवश्यकता-शारीरिक दृष्टि से निर्बल व्यक्ति को कानून की रक्षा की अधिक आवश्यकता होती है। जो सबल है वह तो कानून को भी अपने हाथ में ले सकता है।

प्रश्न 4.
स्त्री मताधिकार के विरुद्ध दो तर्क दें।
उत्तर-

  1. स्त्री का कार्य क्षेत्र घर है-यदि उसे मत देने का अधिकार दिया जाए तो वह घर की ओर ठीक ध्यान न दे सकेगी। इससे पारिवारिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा घर की शान्ति समाप्त हो जाएगी।
  2. स्त्री का मत पुरुष के मत की पुनरावृत्ति है-अधिकतर स्त्रियां अपने पति, पिता या भाई आदि के कहने के अनुसार ही अपने मत का प्रयोग करती हैं। वे अपनी ओर से यह सोचने का प्रयत्न नहीं करतीं कि वोट किसे देना चाहिए।

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प्रश्न 5.
सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के पक्ष में दो तर्क दें।
उत्तर-

  1. प्रभुसत्ता जनता के पास है-लोकतन्त्र में प्रभुसत्ता जनता के पास होती है और जनता की इच्छा तथा कल्याण के लिए शासन चलाया जाता है। इसके मत डालने का अधिकार सबको समानता के साथ मिलना चाहिए। यदि वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त लागू न किया जाए तो जनता की प्रभुसत्ता की बात सत्य सिद्ध नहीं होती।
  2. कानून का प्रभाव सब पर पड़ता है-राज्य में जो भी कानून बनते हैं उनका प्रभाव राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों पर पड़ता है। इसीलिए उन कानूनों को बनाने का अधिकार भी सबको समान रूप से मिलना चाहिए।

प्रश्न 6.
सार्वभौम वयस्क मताधिकार के विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर-

  • शिक्षित व्यक्तियों को ही मताधिकार मिलना चाहिए-बहुत से लोगों का कहना है कि शिक्षित व्यक्तियों को ही मताधिकार मिलना चाहिए। शिक्षित व्यक्ति अपने मत का ठीक प्रयोग कर सकता है।
  • मूों का शासन-वयस्क मताधिकार द्वारा मूों का शासन स्थापित हो जाता है क्योंकि समाज में अनपढ़ और मूों की संख्या अधिक होती है।

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प्रश्न 7.
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के अनुसार सारे देश के मतदाताओं को प्रादेशिक इकाइयों में विभाजित कर दिया जाता है जिन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र से एक या अधिक प्रतिनिधि चुने जाते हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र या प्रदेश में रहने वाले सभी मतदाता उस क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं और प्रतिनिधि उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रादेशिक प्रतिनिधित्व में प्रतिनिधि क्षेत्र के समस्त मतदाताओं की इच्छा का प्रतिनिधित्व करते
हैं।

प्रश्न 8.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
जब मतदाता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से या सीधे तौर पर अपने प्रतिनिधि चुने और वे प्रतिनिधि ही संसद या व्यवस्थापिका में अपना पद ग्रहण करते हों तो उसे प्रत्यक्ष चुनाव कहा जाता है। उदाहरण के लिए भारत में पंचायतों, नगरपालिकाओं, विधानसभाओं तथा लोक सभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने जाते हैं।

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प्रश्न 9.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यह एक ऐसी चुनाव प्रणाली है जिसके अनुसार जनता के हर वर्ग या दल को विधानमण्डल में उतना ही प्रतिनिधित्व मिलता है जितना उनके समर्थकों का अनुपात होता है। एक वर्ग या दल के पीछे जितने प्रतिशत मतदाता होंगे उसे विधानमण्डल में उतने ही प्रतिशत सीटें प्राप्त होंगी।

प्रश्न 10.
प्रत्यक्ष चुनाव के कोई दो गुण लिखें।
उत्तर-

  1. प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली में मतदाताओं एवं प्रतिनिधियों के बीच सीधा सम्बन्ध रहता है।
  2. प्रतिनिधियों में अधिक उत्तरदायित्व की भावना पाई जाती है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
मताधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
वोट डालने के अधिकार को मताधिकार कहा जाता है।

प्रश्न 2.
वयस्क मताधिकार से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
वयस्क मताधिकार का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
वयस्क मताधिकार से भाव सभी बालिग व्यक्तियों को बिना किसी भेद-भाव के मताधिकार देना है।

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प्रश्न 3.
बालग मताधिकार के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
अथवा
वयस्क मताधिकार के पक्ष में कोई एक तर्क लिखिए।
उत्तर-

  1. प्रजातन्त्र में सभी व्यक्ति समान माने जाते हैं।
  2. बालग मताधिकार द्वारा चुनी गई सरकार अधिक शक्तिशाली होती है।

प्रश्न 4.
वयस्क मताधिकार के विरुद्ध एक दलील दीजिए।
उत्तर-
सभी व्यक्तियों को समान रूप से अधिकार देना तर्कहीन है।

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प्रश्न 5.
महिला मताधिकार का क्या भाव है ?
उत्तर-
महिला मताधिकार का अर्थ है बिना किसी भेदभाव के महिलाओं को मतदान का अधिकार देना।

प्रश्न 6.
जन-सहभागिता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जन-सहभागिता का अर्थ है, राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों द्वारा भाग लेना।

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प्रश्न 7.
स्त्री मताधिकार के विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर-
अधिकतर स्त्रियां अपने पति, पिता या भाई के कहने के अनुसार ही अपने मत का प्रयोग करती हैं. उनमें इतनी सोच-विचार करने की क्षमता नहीं होती कि वोट किसे दी जानी चाहिए।

प्रश्न 8.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का क्या अर्थ है ?
अथवा
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
जिस चुनाव प्रणाली में मतदाता स्वयं अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं उसे प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली कहते

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प्रश्न 9.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का कोई एक गुण लिखिए।
उत्तर-
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अधिक लोकतान्त्रिक है।

प्रश्न 10.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के दो दोष लिखें।
अथवा
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का एक दोष लिखिए।
उत्तर-

  1. आम नागरिक अपने प्रतिनिधियों का चुनाव नहीं कर सकता।
  2. प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अधिक खर्चीली है।

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प्रश्न 11.
अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का क्या अर्थ है ?
अथवा
अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
जब वे प्रतिनिधि जिनके हाथ में शासन सत्ता रहती है, जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से न चुने जा कर जनता के चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हों तो उस प्रणाली को अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली कहा जाता है।

प्रश्न 12.
स्त्री मताधिकार के पक्ष में कोई एक तर्क दें।
उत्तर-
स्त्री को केवल लिंग के आधार पर मताधिकार से वंचित रखना न्यायसंगत नहीं है।

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प्रश्न 13.
गुप्त मतदान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुप्त मतदान मत-पत्र द्वारा मतदान की वह पद्धति है जिसमें किसी को यह पता न चले कि मत किस पक्ष अथवा उम्मीदवार को दिया गया है।

प्रश्न 14.
किसी एक आधार पर निर्वाचक सहभागिता का महत्त्व लिखिए।
उत्तर-
निर्वाचक सहभागिता से लोगों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है।

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प्रश्न 15.
क्या स्त्री मताधिकार आवश्यक है ?
उत्तर-
हां, स्त्री मताधिकार आवश्यक है।

प्रश्न 16.
अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
अल्पसंख्यकों को उनकी संख्या के अनुपात में विधानमण्डल में प्रतिनिधित्व कहलाता है।

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प्रश्न 17.
जन-सहभागिता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जन-सहभागिता का अर्थ है, राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों द्वारा भाग लेना।

प्रश्न 18.
चुनाव मण्डल क्या होता है ?
उत्तर-
कुल जनसंख्या का वह भाग जो प्रतिनिधियों के चुनाव में भाग लेता है, सामूहिक रूप से निर्वाचक मण्डल कहलाता है।

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प्रश्न 19.
जन सहभागिता की क्या महत्ता है ?
उत्तर-
जन सहभागिता से लोकतन्त्र मज़बूत होता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली ……………. प्रणाली की एक विधि है।
2. ……….. को प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का घर कहा जाता है।
3. ………. विधानपालिका द्वारा बनाए गए कानूनों के विषय में लोगों की राय जानने का एक साधन होता है।
4. जब संसद् या विधानसभा का कोई स्थान किसी कारणवश खाली हो जाए तो उस स्थान की पूर्ति के लिए करवाया . गया चुनाव …………. कहलाता है।
5. चुनाव में सफल उम्मीदवार को …………………. कहा जाता है।
उत्तर-

  1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व
  2. स्विट्ज़रलैण्ड
  3. जनमत संग्रह
  4. उप-चुनाव
  5. प्रतिनिधि।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. इंग्लैण्ड में स्त्रियों को सन् 1928 में मताधिकार प्रदान किया गया।
2. अमेरिका में स्त्रियों को सन् 1950 में मताधिकार प्रदान किया गया।
3. भारतीय संविधान में सन् 1950 में ही स्त्रियों को मताधिकार दिया गया।
4. वयस्क मताधिकार से लोगों में राजनीतिक जागृति पैदा नहीं होती।
5. वयस्क मताधिकार द्वारा राष्ट्रीय एकता बनी रहती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
Franchise का अर्थ है
(क) चुनाव लड़ने का अधिकार
(ख) मतदान करने का अधिकार
(ग) सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार
(घ) समुदाय बनाने का अधिकार।
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 2.
चुनाव प्रक्रिया वह साधन है, जिसके द्वारा
(क) नौकरशाही नियुक्त की जाती है
(ख) न्यायाधीश नियुक्त किए जाते हैं
(ग) राजनीतिक दल कार्य करते हैं
(घ) चुनाव करवाए जाते हैं।
उत्तर-
(घ)

प्रश्न 3.
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का विरोध किसने किया?
(क) जे० एस० मिल
(ख) गार्नर (ग) लॉस्की
(घ) नेहरू।
उत्तर-
(क)

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प्रश्न 4.
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का अर्थ है कि
(क) संपूर्ण जनसंख्या को मतदान का अधिकार प्राप्त होता है
(ख) निश्चित आयु के वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार प्राप्त होता है।
(ग) केवल शिक्षित व्यक्तियों को मतदान का अधिकार प्राप्त होता है।
(घ) केवल अमीरों को मतदान का अधिकार प्राप्त होता है।
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा तर्क सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के विरुद्ध है-
(क) यह प्रजातन्त्रिक है
(ख) राजनीतिक समानता
(ग) राजनीतिक जागरूकता
(घ) राष्ट्र विरोधी।
उत्तर-
(घ)