PSEB 11th Class History Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 2 भारतीय आर्य

अध्याय का विस्तृत अध्ययन ।

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
कृषि तथा नगरों के विकास के सन्दर्भ में भारत में आर्यों के प्रसार की चर्चा करें।
उत्तर-
भारतीय आर्य सम्भवतः मध्य एशिया से भारत में आये थे। आरम्भ में ये सप्त सिन्धु प्रदेश में आकर बसे और लगभग 500 वर्षों तक यहीं टिके रहे। ये मूलतः पशु-पालक थे और विशाल चरागाहों को अधिक महत्त्व देते थे। परन्तु धीरेधीरे वे कृषि के महत्त्व को समझने लगे। अधिक कृषि उत्पादन की खपत के लिए नगरों का विकास भी होने लगा। फलस्वरूप आर्य लोग एक विशाल क्षेत्र में फैलते गए। इस प्रकार कृषि तथा नगरों के विकास ने आर्यों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ अन्य तत्त्वों ने भी उनके प्रसार में सहायता पहुंचाई। इन सब बातों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है :-

आर्यों के प्रसार की तीव्र गति के कारण- भारत में आर्यों का अधिकतर विस्तार 9वीं सदी ई० पू० से हुआ। इसके कई कारण थे-

(1) अब तक सिन्धु घाटी के अनेक लोग दास बना लिए गए थे। इनसे कृषि के लिए जंगल साफ करने का काम लिया जा सकता था।

(2) आर्यों ने लोहे का प्रयोग भी सीख लिया। लोहे से बने औजार पत्थर, तांबे या कांसे की कुल्हाड़ी से कहीं अधिक बेहतर थे। लोहे के प्रयोग द्वारा ही आर्य गंगा के मैदान के घने जंगलों को काटने में सफल हुए।

(3) सिन्धु घाटी सभ्यता की सीमा से बाहर बड़े पैमाने पर कोई अन्य संगठित समाज नहीं था। इसीलिए आर्यों को किसी लम्बे या शक्तिशाली विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। 600 ई० पू० से पहले ही आधुनिक उत्तर प्रदेश का क्षेत्र आर्य सभ्यता का केन्द्र बन चुका था। बिहार और पश्चिम बंगाल में भी इन्होंने बस्तियां स्थापित कर ली थीं। ब्राहाण ग्रन्थों में दो समुद्रों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त विंध्य पर्वत तथा हिमालय का भी उल्लेख हुआ है। इससे स्पष्ट है कि आर्य लोग 600 ई० पू० तक सारे उत्तर भारत से परिचित हो गए थे। अतः यह कहा जा सकता है कि 900 ई० पू० से 600 ई० पू० तक की तीन सदियों में आर्य बस्तियों का विस्तार बड़े पैमाने पर हुआ।

कृषि का विकास तथा आर्यों का प्रसार-आर्यों का उत्तरी भारत में प्रसार वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसके । फलस्वरूप एक नई सभ्यता अस्तित्व में आई। आरम्भ में आर्यों ने अपने पशुओं के लिए खुले चरागाह पाने के लिए उन बांधों को नष्ट किया जो सिन्धु घाटी के लोगों ने बाढ़ द्वारा सिंचाई करने के उद्देश्य से बनाए थे। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति इसीलिए की गई है कि उसने उन नदियों को स्वतन्त्र किया जो ‘कृत्रिम’ रुकावटों द्वारा ‘स्थिर’ कर दी गई थीं। नदियों के स्वतन्त्र हो जाने पर पंजाब की धरती पर विशाल चरागाह बन गई जिसमें नगरों के स्थान पर गांव थे। परन्तु समय पाकर आर्य लोग कृषि के उपयोग तथा महत्त्व को समझने लगे। कृषि के विस्तार के लिए ऋग्वेद में एक प्रार्थना भी मिलती है। इसमें कहा गया है कि गेहूं, जौ, चावल, तिल, मोठ, मसूर, बाजरे आदि की फसलें बढ़ें और कृषि का विस्तार एवं विकास हो। गंगा के मैदान में वे शीघ्र ही लोहे का हल तथा सिंचाई और खाद के प्रयोग से परिचित हो गए। इसके फलस्वरूप पहले से कहीं अधिक विस्तृत प्रदेश कृषि के अधीन हो गया।

नगरों का विकास तथा आर्यों का प्रसार-कृषि से प्राप्त अधिक अन्न की खपत के लिए नगरों के विकास की सम्भावना उत्पन्न हुई। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के पतन के पश्चात् एक बार फिर भारत में हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, कौशाम्भी और काशी जैसे नगर अस्तित्व में आए। समय पाकर नगरों की संख्या बढ़ती गई। उनकी संख्या में वृद्धि के साथ-साथ व्यापार की सम्भावनाएं भी बढ़ीं। ऋग्वैदिक आर्यों के समाज में रथ बनाने वाले से लेकर साधारण बढ़ई तथा धातु और चमड़े के कारीगर भी थे। आरम्भ में वे जिन धातुओं का प्रयोग करते थे, उनमें सोना, तांबा और कांसा मुख्य थे। परन्तु ऋग्वेद के बाद के काल में रांगे (कली), सीसे और लोहे का प्रयोग भी किया जाने लगा।

ऋग्वेद के बाद की रचनाओं में व्यापार के साथ-साथ कहीं अधिक संख्या में दूसरे धन्धों का उल्लेख मिलता है, जैसेशिकारी, मछुआरे, पशु-सेवक, जेवर बनाने वाले, लोहा पिघलाने वाले, टोकरियां बुनने वाले, धोबी, रंगरेज़, रथ बनाने वाले, जुलाहे, कसाई, सुनार, रसोइये, कमान बनाने वाले, सूखी मछलियां बेचने वाले, लकड़ियां इकट्ठी करने वाले, द्वारपाल, प्यादे, सन्देशवाहक, मांस को काटने और मसालेदार भोजन बनाने वाले, कुम्हार, धातु का काम करने वाले, रस्से बनाने वाले, नाविक, बाजीगर, ढोल और बांसुरी वादक आदि। इनके अतिरिक्त व्यापारी तथा ब्याज लेने वाले साहूकार भी थे। नगरों के उदय तथा उद्योग-धन्धों में वृद्धि के कारण आर्यों के प्रसार की गति और भी तीव्र हो गई।

राज्यों (जनपद) की स्थापना-उत्तरी भारत में पूर्ण रूप से फैल जाने के पश्चात् आर्यों ने कुछ बड़े-बड़े राज्य स्थापित किए। लगभग 600 ई० पू० तक उत्तरी भारत में कई राज्य स्थापित हो चुके थे। इनकी संख्या सोलह बताई जाती है। कम्बोज और गान्धार राज्य उत्तर-पश्चिम में स्थित थे। सतलुज और यमुना के मध्य कुरू का राज्य विस्तृत था। यमुना और चम्बल के मध्य शूरसेन राज्य था। शूरसेन के नीचे मत्स्य और मध्य भारत में चेदि राज्य था। नर्मदा नदी के ऊपरी भाग में अवन्ति और महाराष्ट्र में गोदावरी के ऊपरी घेरे में अशमक था। इसी प्रकार गंगा में मैदान में भी कई राज्य थे जिनमें पांचाल, कोशल, मल्ल, वत्स, काशी, वज्जि, मगध और अंग का नाम लिया जा सकता है। इस प्रकार आधे से अधिक मुख्य राज्य गंगा के मैदान में ही स्थित थे। 800 ई० पू० के पश्चात् आर्यों के प्रभाव अधीन क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ। परन्तु पुराने प्रदेशों की तुलना में नए प्रदेशों में आर्यों की जनसंख्या बहुत कम थी।

ऊपर दिए गये विवरण से स्पष्ट है कि आर्यों ने कुछ ही समय में पूरे उत्तरी भारत में अपना विस्तार कर लिया। कृषि नगरों तथा विभिन्न उद्योग-धन्धों के विस्तार ने उनके प्रसार की गति को तीव्र किया और उनकी शक्ति में वृद्धि की। यह उनके प्रसार का ही परिणाम था कि वे भारत में 16 बड़े-बड़े राज्य (जनपद) स्थापित करने में सफल रहे। उनके द्वारा स्थापित यही जनपद आगे चल कर विशाल साम्राज्य की स्थापना का आधार बने।

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प्रश्न 2.
आर्यों की सामाजिक संस्थाओं तथा धर्म पर लेख लिखें।
उत्तर-
आर्यों ने भारतीय समाज एवं धर्म को नया रूप प्रदान किया। उन्होंने परिवार, जाति, वर्ण आदि सामाजिक संस्थाओं का गठन किया और उन्हें स्थायी रूप प्रदान किया। धर्म के क्षेत्र में भी वे अत्यन्त विकसित विचारधारा लिए हुए थे। प्राकृतिक शक्तियों की उपासना के साथ-साथ उन्होंने धर्म में आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त जैसे अत्यन्त गहन विचारों का समावेश किया। उनकी आदर्श सामाजिक संस्थाओं तथा धर्म के विभिन्न पक्षों का वर्णन इस प्रकार है :

I. सामाजिक संस्थाएं

1. वर्ण-व्यवस्था-वर्ण व्यवस्था आर्यों की महत्त्वपूर्ण संस्था थी। आर्यों का पूरा समाज इससे प्रभावित था। इस संस्था का विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ। आरम्भ में आर्यों का समाज तीन वर्गों में बंटा हुआ था। युद्ध लड़ने वाले योद्धा ‘क्षत्रिय’ कहलाते थे तथा कबीले के साधारण लोगों को ‘वैश्य’ कहा जाता था। उस समय पुरोहित भी थे, परन्तु अभी पुरोहित वर्ग अस्तित्व में नहीं आया था। आरम्भ में इस सामाजिक विभाजन का उद्देश्य केवल सामाजिक तथा आर्थिक संगठन को सुदृढ़ बनाना था। यहां एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि समाज के इन वर्गों को अभी तक कोई ठोस रूप नहीं दिया गया था।

समय बीतने पर आर्य लोगों ने कुछ दासों (युद्ध बन्दियों) को अपने अधीन कर लिया। फलस्वरूप उन्हें समाज में कोई स्थान देने की समस्या उत्पन्न हो गई। यह समस्या उन्हें समाज में सबसे निम्न स्थान देकर सुलझाई गई। इसके अतिरिक्त वैदिक संस्कारों का महत्त्व भी बढ़ने लगा। इन संस्कारों को सम्पन्न करने का कार्य पुरोहितों ने सम्भाल लिया। धीरे-धीरे उन्होंने एक पृथक् वर्ग का रूप धारण कर लिया। धीरे-धीरे आर्यों का समाज चार वर्गों में बंट गया। इन चार वर्गों में योद्धा वर्ग ‘क्षत्रिय’ तथा पुरोहित वर्ग ‘ब्राह्मण’ कहलाया। समृद्ध ज़मींदार तथा व्यापारी वैश्य तथा साधारण किसान ‘शूद्र’ कहलाने लगे। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था ने स्पष्ट रूप धारण कर लिया।

समय के साथ-साथ वर्ण-व्यवस्था जटिल होने लगी। यदि एक वर्ग के लोग अपना व्यवसाय बदल भी लेते थे, तो उन्हें नए वर्ग का अंग नहीं माना जाता था। दूसरे वर्ण-व्यवस्था में मुख्य रूप से आर्य लोग ही शामिल थे। शूद्रों को जोकि प्रायः आर्य नहीं थे, वैदिक संस्कार करने की आज्ञा नहीं थी। वे अपने ही देवी-देवताओं की पूजा करते थे और उनके धार्मिक संस्कार आर्यों से अलग थे। बाद में ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक ढांचे में ढाल दिया। वर्ण-व्यवस्था के इस नए संगठन में ब्राह्मणों को पहला, क्षत्रियों को दूसरा, वैश्यों को तीसरा और शूद्रों को चौथा स्थान प्राप्त था। यह बात ऋग्वेद के मन्त्र ‘पुरुष सूक्त’ से स्पष्ट हो जाती है। उसमें कहा गया है कि एक बलि-संस्कार में पुरुष के मुंह से ब्राह्मण, बाजुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शद्रों की उत्पत्ति हई थी। वर्ण-व्यवस्था काफ़ी समय तक अपने इस रूप में संगठित रही।

2. जाति-1000 ई० पू० के पश्चात् कस्बों तथा उद्योग-धन्धों की संख्या बढ़ जाने के कारण वर्ण-व्यवस्था में विविधता आने लगी और इसके स्थान पर ‘जाति’ व्यवस्था का महत्त्व बढ़ने लगा। ‘जाति’ एक ही व्यवसाय से सम्बन्धित लोगों के समूह को कहा जाता था। धीरे-धीरे चार वर्णों की तरह नवीन जातियों का स्थान भी समाज में निश्चित कर दिया गया। सभी जातियों के लोग अपना पैतृक व्यवसाय अपनाते थे। उनके विवाह-सम्बन्धी नियम भी बड़े जटिल थे। एक जाति के लोगों को दूसरी जाति के लोगों के साथ मिलकर खाने-पीने की मनाही थी। एक जाति के लोग अपना व्यवसाय बदल कर समाज में ऊंचा दर्जा प्राप्त कर सकते थे। परन्तु जब केवल एक ही व्यक्ति अपना व्यवसाय बदलता था, उसे समाज में तब तक ऊंचा स्थान नहीं मिलता था जब तक कि वह किसी ऐसे धार्मिक समूह का अंग न बन जाता जिसका वर्ण-व्यवस्था में कोई विश्वास न हो।

3. परिवार-परिवार भी आर्यों के सामाजिक जीवन की एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी। परिवार पितृ प्रधान होते थे। पिता अर्थात् परिवार में सबसे अधिक आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। पिता अपनी सन्तान से दया तथा प्रेम का व्यवहार करता था। पिता के अधिकार काफ़ी अधिक थे और वह परिवार में अनुशासन को बड़ा महत्त्व देता था। पुत्र तथा पुत्री के विवाह में पिता का पूरा हाथ होता था। पिता परिवार की सम्पत्ति का भी स्वामी होता था। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र उस सम्पत्ति का स्वामी होता था। उन दिनों पुत्र गोद लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। परिवार में स्त्री का सम्मान होता था। परन्तु सम्पत्ति में उसे हिस्सा नहीं दिया जाता था।

II. धर्म

ऋग्वैदिक आर्यों के देवी-देवता-ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। वे उन सभी प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करते थे जो उनके लिए वरदान अथवा अभिशाप थीं। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी और तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है।

आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। ऋग्वेद में इन्द्र का वर्णन यूं किया गया है-“हे पुरुषो ! इन्द्र वह है जिसको आकाश और पृथ्वी नमस्कार करते हैं, जिसकी श्वास से पर्वत भयभीत हो जाते हैं।” युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की उपासना की जाती थी। आर्यों का एक अन्य देवता रुद्र था। उसकी पूजा प्रायः विपत्तियों के निवारण के लिए की जाती थी। आर्यों में अग्नि देवता की भी पूजा प्रचलित थी। उसे मनुष्य तथा देवताओं के बीच दूत माना जाता था। इन देवताओं के साथ-साथ आर्य लोग पृथ्वी, वायु, सोम आदि अनेक देवी-देवताओं की उपासना भी करते थे।

यज्ञों का उद्देश्य और महत्त्व-आर्यों के धर्म में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ भी होते थे जिनमें सारा गांव या कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों के रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे। इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि इन्द्र देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान तथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा हुई मानी गई थी।

उत्तर वैदिक धर्म-ऋग्वेद के बाद भारतीय आर्यों (उत्तर वैदिक आर्यों) के धर्म का रूप निखरने लगा। अब रुद्र और विष्णु जैसे नए देवता आर्यों में अधिक प्रिय हो गए। ऋग्वैदिक काल में विष्णु को सूर्य का एक रूप समझा जाता था। परन्तु अब उसकी पूजा एक स्वतन्त्र देवता के रूप में की जाने लगी। अब अनेक प्रकार के यज्ञ होने लगे। सूत्र यज्ञ’ कई-कई वर्षों तक चलते रहते थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में पूरी शताब्दी तक चलने वाले यज्ञों का उल्लेख भी मिलता है। इन यज्ञों को लोग स्वयं नहीं कर सकते थे अपितु उन्हें ब्राह्मणों को बुलाना पड़ता था। फलस्वरूप ब्राह्मण वर्ग समाज पर पूरी तरह छा गया था। अब लोग कर्म सिद्धान्त में विश्वास रखने लगे थे। उनके अनुसार जो मनुष्य अपने जीवन काल में ईश्वर को प्राप्त कर लेता था वह मोक्ष प्राप्त करता था। मोक्ष से आत्मा मरती नहीं अपितु अमर हो जाती है। जो व्यक्ति नेक कार्य तो करता है, परन्तु ईश्वर को प्राप्त नहीं कर पाता, वह सीधा चन्द्र लोक में जाता है। कुछ समय पश्चात् वह मनुष्य के रूप में पुनः जन्म लेता है। प्रत्येक मनुष्य का भाग्य अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार निश्चित होता है।

सच तो यह है कि ऋग्वैदिक समाज बड़ा उच्च तथा सभ्य समाज था। सफल पारिवारिक जीवन, नारी का गौरवमय स्थान, अध्यात्मवाद का प्रचार आदि सभी बातें एक उन्नत समाज का संकेत देती हैं। हमें एक ऐसे विकसित समाज के दर्शन होते हैं जहां पाप-पुण्य में भेद समझा जाता था और जहां लोगों को बुरे-भले की पहचान थी।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
आर्यों का मुख्य व्यवसाय क्या था ?
उत्तर-
आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशु-पालन तथा कृषि करना था।

प्रश्न 2.
आर्य भारत में कब आकर बसे ?
उत्तर-
आर्य भारत में लगभग 1500 ई० पूर्व में आकर बसे।

प्रश्न 3.
भारतीय आर्यों ने किस प्रदेश को सबसे पहले अपना निवास-स्थान बनाया ?
उत्तर-
उत्तर-पश्चिमी प्रदेश सप्त सिन्धु को।

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प्रश्न 4.
आर्यों के किन्हीं चार देवी-देवताओं के नाम बताओ।
उत्तर-
सूर्य, इन्द्र, वायु और ऊषा आर्यों के मुख्य देवी-देवता थे।

प्रश्न 5.
सांख्य दर्शन की रचना किसने की थी ?
उत्तर-
सांख्य दर्शन की रचना कपिल ने की थी।

प्रश्न 6.
योग दर्शन का लेखक कौन था ?
उत्तर-
योग दर्शन का लेखक पातंजलि था।

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प्रश्न 7.
ऋग्वैदिक काल की दो विदुषियों के नाम बताओ।
उत्तर-
गार्गी और विश्वारा।

प्रश्न 8.
आर्य लोग किस पशु को पवित्र मानते थे ?
उत्तर-
आर्य लोग गाय को पवित्र मानते थे।

प्रश्न 9.
ऋग्वैदिक काल के राजा की शक्तियों पर रोक लगाने वाली दो संस्थाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
‘सभा और समिति’।

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प्रश्न 10.
श्रीकृष्ण ने किस स्थान पर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया ?
उत्तर-
श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।

प्रश्न 11.
“भगवद्गीता” का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर-
“भगवद्गीता” का शाब्दिक अर्थ भगवान का गीत है।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) वैदिक आर्यों की मूल भाषा ……… थी।
(ii) आर्यों के मूल स्थान के विषय में सर्वमान्य सिद्धान्त ……… का सिद्धान्त है।
(iii) आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रंथ ……… है।
(iv) ऋग्वैदिक काल में पंजाब को ………… प्रदेश कहा जाता था।
(v) वैदिक काल में ………… शासन प्रणाली थी। .
उत्तर-
(i) संस्कृत
(ii) मध्य एशिया
(iii) ऋग्वेद
(iv) सप्तसिंधु
(v) राजतंत्रीय।

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3. सही/ग़लत कथन-

(i) इन्द्र आर्यों का वर्षा का देवता था।– (√)
(ii) वैदिक समाज में स्त्री को निम्न स्थान प्राप्त था।– (×)
(iii) मुख्य वेद संख्या में 6 हैं।– (×)
(iv) वरुण आर्यों का एक देवता था।– (√)
(v) आयुर्वेद एक चिकित्सा शास्त्र है।– (√)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
वैदिक समाज कितने वर्षों में बंटा हुआ था ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) छः।
उत्तर-
(C) चार

प्रश्न (ii)
दस्यु कौन थे ?
(A) आर्यों से पहले समाज में रहने वाले लोग
(B) आर्यों को हराने वाले लोग।
(C) आर्यों के समाज में सबसे उच्च स्थान रखने वाले लोग
(D) व्यापारी तथा दस्तकार के रूप में काम करने वाले लोग।
उत्तर-
(A) आर्यों से पहले समाज में रहने वाले लोग

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प्रश्न (iii)
आर्यों के समाज में सर्वोच्च स्थान पर थे-
(A) क्षत्रिय
(B) ब्राह्मण
(C) वैश्य
(D) शूद्र।
उत्तर-
(D) उपनिषदों में।

प्रश्न (iv)
आर्य विचारकों के दार्शनिक विचार मिलते हैं-
(A) वेदांगों में
(B) उपवेदों में
(C) श्रुतियों में
(D) उपनिषदों में।
उत्तर-
(D) उपनिषदों में।

प्रश्न (v)
निम्न में से कौन-सा आर्यों का देवता नहीं था ?
(A) मातंग
(B) सूर्य.
(C) वायु
(D) वरूण।
उत्तर-
(A) मातंग

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में कौन-से क्षेत्र बताए जाते हैं ?
उत्तर-
भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में मुख्य रूप से मध्य एशिया अथवा सप्त सिन्धु प्रदेश, उत्तरी ध्रुव तथा मध्य एशिया के क्षेत्र बताए जाते हैं। मध्य प्रदेश तथा सप्त सिन्धु प्रदेश का सम्बन्ध प्राचीन भारत से है।

प्रश्न 2.
आर्यों की मूल भाषा में से कौन-सी दो यूरोपीय भाषायें निकली ?
उत्तर-
आर्यों की मूल भाषा में से निकलने वाली दो यूरोपीय भाषाएं थीं-यूनानी तथा लातीनी।

प्रश्न 3.
आरम्भ में आर्यों का मुख्य धन्धा तथा उनकी सम्पत्ति का माप क्या था ?
उत्तर-
आरम्भ में आर्यों का मुख्य धन्धा पशु चराना था। पशु ही उनकी सम्पत्ति का माप थे।

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प्रश्न 4.
आर्यों का मुख्य वाहन कौन-सा पशु था और यह किस प्रकार के रथों में जोता जाता था ?
उत्तर-
आर्यों का मुख्य वाहन पशु घोड़ा था। इसे हल्के रथों में जोता जाता था।

प्रश्न 5.
चार वेदों के क्या नाम हैं ?
उत्तर-
चार वेदों के नाम हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद।

प्रश्न 6.
600 ई० पू० के लगभग कौन-से दो धार्मिक ग्रन्थों की रचना हुई थी ?
उत्तर-
600 ई० पू० के लगभग ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों की रचना हुई।

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प्रश्न 7.
1000 से 700 ई० पू० की घटनाएं कौन-से दो महाकाव्यों में बताई गई हैं ?
उत्तर-
1000 से 700 ई० पू० तक की घटनाएं महाभारत तथा रामायण नामक दो महाकाव्यों में बताई गई हैं।

प्रश्न 8.
ऋग्वेद में दी गई किन्हीं चार नदियों के नाम बताओ।
उत्तर-
ऋग्वेद में दी गई चार नदियों के नाम हैं-काबुल, स्वात, कुर्रम और गोमल।

प्रश्न 9.
‘पणि’ शब्द से क्या भाव था ?
उत्तर-
‘पणि’ शब्द से भाव सम्भवतः सिन्धु घाटी के व्यापारी वर्ग से था। ऋग्वेद में इन लोगों को पशु चोर बताया गया है और आर्य लोग इन्हें अपना शत्रु समझते थे।

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प्रश्न 10.
ऋग्वेद में दिए गए दस राजाओं के युद्ध का सामाजिक महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
दस राजाओं का युद्ध इस बात का प्रतीक है कि ऋग्वैदिक काल में सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी।

प्रश्न 11.
राजा सुदास कौन-से कबीले से था और इसकी चर्चा किस सन्दर्भ में आती है ?
उत्तर-
राजा सुदास का सम्बन्ध ‘भरत’ कबीले से था। उसकी चर्चा दस राजाओं के संघ को हराने के सन्दर्भ में आती है।

प्रश्न 12.
राजसूय यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
राजसूय यज्ञ राज्य में दैवी शक्ति का संचार करने के लिए किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि राजपद को दैवी देन माना जाने लगा था।

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प्रश्न 13.
ब्राह्मण ग्रन्थों में किन दो पर्वतों का उल्लेख मिलता है ?
उत्तर-
ब्राह्मण ग्रन्थों में विन्ध्य पर्वत तथा हिमालय का उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 14.
सबसे अधिक गौरव का स्थान किस यज्ञ को प्राप्त था और इसमें किस पशु की बलि दी जाती थी ?
उत्तर-
सबसे अधिक गौरव अश्वमेध यज्ञ को प्राप्त था। इस यज्ञ में घोड़े (अश्व) की बलि दी जाती थी।

प्रश्न 15.
600 ई० पू० के लगभग उत्तर-पश्चिम में तथा सतलुज एवं यमुना नदियों के मध्य में कौन-से तीन राज्य थे ?
उत्तर-
इस काल में देश के उत्तर-पश्चिम में कम्बोज तथा गान्धार राज्य स्थित थे। सतलुज और यमुना नदियों के मध्य कुरू राज्य था।

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प्रश्न 16.
700 ई० पू० के लगभग कोई चार गणराज्यों के नाम बतायें।
उत्तर-
700 ई० पू० के लगभग चार गणराज्य थे-शाक्य, मल्ल, वज्जि तथा यादव।

प्रश्न 17.
भारत में विकसित होने वाले चार आरम्भिक नगरों के नाम बताएं।
उत्तर-
भारत में विकसित होने वाले चार आरम्भिक नगरों के नाम थे-हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, कौशाम्भी और काशी।

प्रश्न 18.
‘वर्ण’ का शाब्दिक अर्थ बताएं। इस शब्द का आरम्भ में व्यवहार किस परिस्थिति में हुआ ?
उत्तर-
वर्ण का शाब्दिक अर्थ है-रंग। आरम्भ में इस शब्द का व्यवहार उस समय हुआ जब आर्य स्वयं को पराजित दासों से भिन्न रखने के लिए रंग भेद को महत्त्व देने लगे थे।

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प्रश्न 19.
वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत चार वर्णों के नाम बताएं।
उत्तर-
वर्ण-व्यवस्था के अनुसार चार वर्णों के नाम थे-क्षत्रिय (योद्धा वर्ग), ब्राह्मण (पुरोहित लोग), वैश्य (धनी व्यापारी एवं ज़मींदार) और शूद्र (साधारण किसान आदि)।

प्रश्न 20.
आर्यों के समय परिवार का प्रधान कौन-सा सदस्य होता था ? तब सम्बन्धित परिवारों के समूह को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
परिवार का प्रधान परिवार में सबसे बड़ी आयु वाला सदस्य होता था। सम्बन्धित परिवारों के समूह को ‘ग्राम’ कहा जाता था।

प्रश्न 21.
ऋग्वेद में कौन-सी चार देवियों का उल्लेख आता है ? .
उत्तर-
ऋग्वेद में प्रात:काल की देवी उषा, रात की देवी रात्रि, वन की देवी अरण्यी तथा धरती की देवी पृथ्वी का उल्लेख आता है।

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प्रश्न 22.
आर्यों के समय किन दो संस्कारों में अग्नि देवता का सम्बन्ध था ?
उत्तर-
अग्नि देवता का सम्बन्ध मुख्यतः ‘विवाह संस्कार’ तथा ‘दाह संस्कार’ के साथ था।

प्रश्न 23.
आर्यों में इन्द्र किन चीज़ों का देवता होता था ?
उत्तर-
आर्यों में इन्द्र युद्ध तथा वर्षा का देवता होता था।

प्रश्न 24.
साधारण जीवन के चार आश्रम कौन-से थे ?
उत्तर-
साधारण जीवन के चार आश्रम थे-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास।

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प्रश्न 25.
‘द्विज’ से क्या भाव था और कौन-से तीन वर्गों को यह स्थान प्राप्त था ?
उत्तर-
‘द्विज’ से भाव था-‘दूसरा जन्म’। यह स्थान क्षत्रियों, ब्राह्मणों तथा वैश्यों को प्राप्त था।

II. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आर्य लोग भारत में कब और कैसे आये ?
उत्तर-
आर्यों का भारत-आगमन एक उलझा हुआ प्रश्न है। इस विषय में प्रत्येक विद्वान् अपना पृथक् दृष्टिकोण रखता है। तिलक और जैकोबी ने आर्यों के भारत में आने का समय 6000 ई० पू० से 4000 ई० पू० बताया है। प्रो० मैक्समूलर के विचार में आर्य लोगों ने 1200 से 1000 ई० पू० के मध्य में भारत में प्रवेश किया। डॉ० आर० के० मुखर्जी के अनुसार आर्य लोग सबसे पहले 2500 ई० पू० में भारत में आए तथा लगभग 1900 ई० पू० तक वे लगातार आते रहे। आज यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आर्य लोग भारत में एक साथ नहीं आए। वे धीरे-धीरे यहां आते रहे और बसते रहे। अतः डॉ० आर० के० मुखर्जी का मत अधिक मान्य जान पड़ता है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य

प्रश्न 2.
ऋग्वैदिक काल में आर्य लोगों की बस्तियां मुख्य रूप से कहां केन्द्रित थी ?
उत्तर-
ऋग्वैदिक काल से अभिप्राय उस काल से है जिस काल में आर्य लोगों ने ऋग्वेद की रचना की। ये लोग अफगानिस्तान के मार्ग से भारत आए थे और यहां आकर बस गए थे। आरम्भ में ये 500 वर्षों तक उसी क्षेत्र में बसे जिसमें सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग रहते थे। इस प्रदेश में मुख्यत: सिन्धु नदी तथा प्राचीन पंजाब की पांच नदियों (सिन्धु नदी की सहायक नदियों) का प्रदेश सम्मिलित था। बाद में वे पूर्व दिशा में आगे की ओर बढ़े। धीरे-धीरे उन्होंने सतलुज तथा यमुना नदियों के बीच के प्रदेश और दिल्ली के आस-पास के प्रदेशों में अपनी बस्तियां बसा लीं। आर्यों के ये सभी क्षेत्र सामूहिक रूप से सप्त सिन्धु प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध हैं। अतः हम यूं भी कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक काल में आर्यों की बस्तियां मुख्य रूप से सप्त सिन्धु प्रदेश में ही केन्द्रित थीं।

प्रश्न 3.
आर्य लोग यमुना नदी की पूर्वी दिशा में कब बढ़े ? उनके इस दिशा में विस्तार के क्या कारण थे ?
उत्तर-
आर्य लोग लगभग 500 वर्ष तक सप्त सिन्धु प्रदेश में रहने के पश्चात् यमुना नदी के पूर्व की ओर बढ़े। इस दिशा में उनके विस्तार के मुख्य कारण ये थे :-

1. इस समय तक आर्यों ने सप्त सिन्धु के अनेक लोगों को दास बना लिया था। इन दासों से वे जंगलों को साफ करने का काम लेते थे। जहां कहीं जंगल साफ हो जाते, वहां वे खेती करने लगते थे।

2. इसी समय आर्य लोहे के प्रयोग से भी परिचित हो गए। लोहे से बने औज़ार तांबे अथवा कांसे के औज़ारों की अपेक्षा अधिक मजबूत और तेज़ थे। इन औजारों की सहायता से वनों को बड़ी तेजी से साफ किया जाता था।

3. आर्यों के तीव्र विस्तार का एक अन्य कारण यह था कि सिन्धु घाटी की सभ्यता की सीमाओं के पार कोई शक्तिशाली संगठन अथवा कबीला नहीं था। परिणामस्वरूप आर्यों को किसी विरोधी का सामना न करना पड़ा और वे बिना किसी बाधा के आगे बढ़ते गए।

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प्रश्न 4.
जाति-प्रथा के क्या लाभ हुए ?
उत्तर-

  • जाति-प्रथा के कारण भारतीयों ने विदेशियों से अधिक मेल-जोल न बढ़ाया। परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति विदेशी प्रभाव से सुरक्षित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोग केवल अपनी ही जाति में विवाह करते थे। इस प्रकार रक्त की पवित्रता बनी रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोग बचपन से ही अपने पिता के व्यवसाय में जुट जाते थे। फलस्वरूप बड़े होकर वे निपुण कारीगर सिद्ध होते थे।
  • जाति-प्रथा के कारण प्रत्येक जाति के लोगों को अपनी जाति का व्यवसाय अपनाना पड़ता था। अतः लोगों को रोज़ी का कोई अन्य साधन ढूंढ़ने की चिन्ता नहीं रहती थी।
  • जाति-प्रथा के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा देना था। वे निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते थे।
  • शुद्धि द्वारा अन्य जातियों के लोग हिन्दू बन सकते थे। अतः शक, हूण, यूनानी आदि भारत पर आक्रमण करने वाली अनेक जातियां हिन्दू समाज का अंग बन गईं।

प्रश्न 5.
जाति-प्रथा से भारतीय समाज को क्या हानि पहुंची ?
उत्तर-

  • जाति-प्रथा के कारण राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात पहुंचा। लोग राष्ट्रीय हितों को भूलकर केवल अपनी जाति के बारे में सोचने लगे।
  • जाति-प्रथा के कारण केवल क्षत्रिय ही सैनिक शिक्षा प्राप्त करते थे। फलस्वरूप देश में सैनिक शिक्षा सीमित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोगों के लिए पैतृक धन्धा बदलना बड़ा कठिन होता था। फलस्वरूप लोगों का व्यक्तिगत विकास रुक गया।
  • ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जाति के लोग शूद्रों को अपने से नीचा समझते थे और उनसे घृणा करते थे। परिणामस्वरूप समाज में छुआछूत की भावना बढ़ी।
  • ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए अनेक प्रथाएं प्रचलित की जिनसे उन्हें अधिक-से-अधिक लाभ पहुंचे। इस प्रकार अनेक सामाजिक कुरीतियां प्रचलित हुईं।

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प्रश्न 6.
ऋग्वेद से दासों की स्थिति के बारे में क्या पता चलता है ?
उत्तर-
ऋग्वेद में ‘आर्यों के दासों’ के साथ हुए सशस्त्र संघर्षों का बार-बार उल्लेख मिलता है। दास काले वर्ण के, मोटे होठों एवं चपटी नाक वाले थे। वास्तव में यहां ‘दास’ से भाव सिन्धु घाटी के कृषक समाज से है। ये लोग भूमि पर अच्छी तरह बसे हुए थे जबकि आर्य लोग अभी भी अधिकांशत: पशु-पालन अवस्था में थे। अन्ततः आर्यों ने दासों को अपने अधीन कर लिया। इस तथ्य की जानकारी संस्कृत के ‘दास’ शब्द से होती है। यह शब्द जो अब अधीनस्थ अथवा ‘गुलाम’ का अर्थ देने लगा था। ‘गुलाम स्त्रियों’ के लिए संस्कृत शब्द ‘दासी’ प्रचलित हो गया। कुछ दासों की स्थिति बड़ी उन्नत थी। ऋग्वेद में एक दास मुखिया का उल्लेख मिलता है। सच तो यह है कि दास वर्ग धीरे-धीरे आर्यों के साथ मिलकर रहने लगा था।

प्रश्न 7.
आर्यों के समय में कृषि व्यवस्था की विशेषताएं क्या थी ?
उत्तर-
आर्य लोग मूल रूप से पशु-पालक थे। परन्तु समय पाकर वे कृषि के उपयोग तथा महत्त्व को समझने लगे। उन्होंने जंगलों को साफ किया और कृषि आरम्भ कर दी। लोहे के औज़ारों के कारण जहां उनके लिए जंगल साफ करने सरल हो गए थे, वहां कृषि की दशा भी उन्नत हो गई। लोहे के हल के अतिरिक्त उन्होंने सिंचाई व्यवस्था को भी उत्तम बनाया। वे खाद का प्रयोग भी करने लगे। वे मुख्य रूप से गेहूं, जौ, चावल, तिल, मोठ, मसूर, बाजरा आदि की कृषि करते थे।

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प्रश्न 8.
प्रमुख गणराज्य कौन-से थे तथा उनकी राज्य व्यवस्था किस प्रकार की थी ?
उत्तर-
आर्यों द्वारा स्थापित सभी जनपदों में राजतन्त्रीय प्रशासन नहीं था। इनमें से कुछ गणराज्य भी थे जो विशेषकर पंजाब में और गंगा नदी तथा हिमालय के बीच के क्षेत्र में विस्तृत थे। कुछ गणराज्य अकेले कबीलों ने स्थापित किए, जैसे-शाक्य, कौशल और मल्ल। अन्य गणराज्य एक से अधिक कबीलों के संघ थे। वज्जि और यादव इसी प्रकार के गणराज्य थे। इन गणराज्यों में कबीलों की परम्परा के कई अंशों के अनुसार शासन होता था। शासन का कार्यभार एक समिति के पास था। इस समिति की अध्यक्षता सरदारों में से एक प्रतिनिधि करता था। वह राजा कहलाता था। अतः स्पष्ट है कि राजा का पद निर्वाचित होता था। यह पद वंशागत नहीं था। समिति में राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण मामलों पर विचार-विमर्श होता था। सदस्यों को अपना मत देने का अधिकार था। प्रशासन में राजा की सहायता सेनानी और कोषाध्यक्ष करते थे।

प्रश्न 9.
आर्यों की परिवार की संस्था की विशेषताएं क्या थीं ?
उत्तर-
‘परिवार’ आर्यों की एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था थी। परिवार पितृ-प्रधान था अर्थात् परिवार का मुखिया पिता (या सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति) होता था। पिता की मृत्यु के पश्चात् परिवार का सबसे बड़ी आयु का पुरुष उसका स्थान लेता था। परिवार का गठन प्रायः तीन पीढ़ियों पर आधारित था। परिवार में सम्पत्ति के अधिकारी केवल पुरुष सदस्य ही होते थे। इसलिए पुत्र का पैदा होना शुभ माना जाता था। कई धार्मिक अनुष्ठान भी ऐसे थे जिन्हें पुत्र ही कर सकता था। कई रीतियों में भी उसकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी। भले ही आर्य बहु-विवाह की प्रथा से परिचति थे फिर भी मान्यता केवल एक विवाह पद्धति को ही प्राप्त थी। बाद की कुछ रचनाओं में बहुपति प्रथा का भी उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, महाभारत की द्रौपदी पांच पाण्डवों की पत्नी थी। विधवा स्त्री का विवाह प्रायः उसके मृत पति के भाई से कर दिया जाता था। सती-प्रथा प्रचलित नहीं थी। स्त्रियों के साथ प्रायः अच्छा व्यवहार होता था।

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प्रश्न 10.
आर्यों के मुख्य देवताओं के बारे में बताएं।
उत्तर-
ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी, तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य लोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है। आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की ही उपासना की जाती थी। इन्द्र के अतिरिक्त वे रुद्र, अग्नि, पृथ्वी, वायु, सोम आदि देवताओं की उपासना भी करते थे।

प्रश्न 11.
आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त से क्या भाव है ?
उत्तर-
आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं। आवागमन के अनुसार आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में निरन्तर चक्कर लगाती रहती है। यह चक्कर अनन्तकाल तक जारी रहता है और कभी समाप्त नहीं होता। कर्म-सिद्धान्त से भाव मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार उनके जन्म के निर्धारण से है। ऋग्वेद में कहा गया है कि मरने के पश्चात् मनुष्य का परलोक में स्थान निश्चित हो जाता है। बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को दण्ड के रूप में ‘मिट्टी के घर’ में रहना पड़ता है जबकि अच्छे कर्मों वाले मनुष्य को पुरस्कार के रूप में ‘पुरखों की दुनिया में स्थान दिया जाता है। परन्तु उपनिषदों में ऐसा कुछ नहीं कहा गया जिसका अर्थ यह है कि मानव आत्मायें अपने पूर्वजन्म के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुरूप सुख या दुःख भोगने के लिए पुनर्जन्म लेती हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म व कर्म-सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं।

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प्रश्न 12.
आर्यों की सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
आर्यों की सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ होते थे जिनमें सारा गांव या सारा कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों की रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे और इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान प्रथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा ही मानी गई थी।

प्रश्न 13.
आर्यों की भारतीय सभ्यता को क्या देन थी ?
उत्तर-
आर्यों ने भारतीय सभ्यता को काफ़ी समृद्ध बनाया। उन्होंने वैदिक साहित्य की रचना की और संस्कृत भाषा का प्रचलन किया। उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान सामाजिक संस्थाओं एवं धर्म के क्षेत्र में था। भारत में जाति भेद पर आधारित समाज की परम्परा दो हजार वर्षों से अधिक समय तक चलती रही है। आर्यों द्वारा रचित उपनिषदों का आध्यात्मिक चिन्तन बाद में कई दर्शनों का आधार बना। आर्य लोगों ने जंगलों को साफ करके देश के विशाल क्षेत्र को कृषि अधीन किया। यह भी कोई कम प्रभावशाली कार्य नहीं था। कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की प्रगति के कारण ही उत्तरी भारत में शक्तिशाली राज्य विकसित हुए जो कई शताब्दियों तक बने रहे। वर्ण-व्यवस्था एवं बलि संस्कारों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप जैन तथा बौद्ध धर्म सहित कुछ शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन उभरे। इन्हें भी भारतीय आर्यों की एक महत्त्वपूर्ण देन कहा जा सकता

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प्रश्न 14.
वैदिक तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता की चार असमानताएं बताओ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता-

  • यह सभ्यता आज से लगभग 5,000 वर्ष पुरानी है।
  • इस सभ्यता की जानकारी हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो|  आदि की खुदाई से मिली है।
  • यह एक नागरिक सभ्यता थी। यहां के अधिकतर निवासी नगरों में रहते थे।
  • सिन्धु घाटी के लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास रखते थे। वे लिंग, योनि तथा पीपल की पूजा करते थे।

वैदिक सभ्यता-

  • यह सभ्यता लगभग 3,000 वर्ष पुरानी है।
  • इस सभ्यता की जानकारी हमें वेदों से मिली है।
  • यह सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता थी। यहां के अधिकतर निवासी गाँवों में रहते थे।
  • आर्य लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। वे अपने देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करते थे।

प्रश्न 15.
वैदिक तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता की चार समानताएं बताओ।
उत्तर-
वैदिक तथा सिन्धु घाटी सभ्यता की चार मुख्य समानताओं का वर्णन इस प्रकार है :

  • भोजन में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों का भोजन पौष्टिक था। गेहूं, दूध, चावल, फल आदि उनके भोजन के मुख्य अंग थे।
  • व्यवसायों में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना था। वैदिक काल में तो स्वयं राजा लोग भी हल चलाया करते थे। इन दोनों सभ्यताओं के लोग पशुओं के महत्त्व को समझते थे। इसलिए वे पशु पालते थे। गाय, बैल, भेड़-बकरी आदि उनके मुख्य पालतू पशु थे।
  • मनोरंजन के साधनों में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों के मनोरंजन के कुछ साधन समान थे। वे प्रायः नाचगानों द्वारा तथा शिकार खेल कर अपना मन बहलाते थे।
  • धार्मिक समानता-दोनों सभ्यताओं के लोग धार्मिक प्रवृत्ति के थे। आर्यों का धर्म भले ही सिन्धु घाटी के लोगों के धर्म से अधिक विकसित था, तो भी अग्नि की पूजा दोनों ही सभ्यताओं में प्रचलित थी।

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प्रश्न 16.
उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धर्म का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक विचारों में काफ़ी परिवर्तन आया। ऋग्वैदिक काल के कई देवताओं की पूजा अब भी की जाती थी, परन्तु उनका महत्त्व पहले से काफ़ी कम हो गया। इस काल में इन्द्र, वरुण तथा सूर्य की बजाय शिव-विष्णु की पूजा पर अधिक बल दिया जाने लगा। आत्मा-परमात्मा तथा जन्म-मृत्यु के विषय में अनेक नए सिद्धान्त धर्म में शामिल हो गए। यज्ञ तो अब भी होते थे, परन्तु अब उनमें काफ़ी धन खर्च करना पड़ता था। यज्ञों के लिए ब्राह्मणों की आवश्यकता होती थी। कर्म, मोक्ष तथा माया सम्बन्धी सिद्धान्तों ने धर्म को और भी अधिक जटिल बना दिया। इस काल में लोग अनेक प्रकार के जादू-टोनों में भी विश्वास रखने लगे थे।

प्रश्न 17.
ऋग्वैदिक काल तधा उतर वैदिक काल में अन्तर स्पष्ट करने तथ्यों का वर्णन करो
उत्तर-

  • ऋग्वैदिक काल में राजा की शक्तियां सीमित थीं। उसे प्रचलित प्रथाओं के नियम के अनुसार शासन चलाना पड़ता था, परन्तु उत्तर वैदिक काल में राजा की शक्तियां बहुत बढ़ गईं।
  • ऋग्वैदिक काल में कबीले न तो अधिक विशाल थे और न ही अधिक शक्तिशाली, परन्तु उत्तर वैदिक काल में बड़े बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ।
  • ऋग्वैदिक काल में नारी का बड़ा आदर था। वह प्रत्येक धार्मिक कार्यों में भाग लेती थी। उसे शासन कार्यों में भी भाग लेने का अधिकार था। इसके विपरीत उत्तर वैदिक काल में नारी का सम्मान कम हो गया।
  • ऋग्वैदिक काल में धर्म बड़ा सरल था। यज्ञों पर अधिक व्यय नहीं होता था, परन्तु उत्तर वैदिक काल में धर्म जटिल हो गया। धर्म में अनेक व्यर्थ के कर्म-काण्ड शामिल हो गए। यज्ञ इतने महंगे हो गए कि साधारण लोगों के लिए यज्ञ करना असम्भव हो गया।

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प्रश्न 18.
सभा और समिति का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पूर्व वैदिक युग में सभा तथा समिति ने लोक संस्थाओं का रूप धारण कर लिया था। सभा का आकार समिति से छोटा होता था। यह केवल वृद्धों की संस्था थी। इसका मुख्य कार्य न्याय करना था। सभा और समिति शासन के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों पर अपने विचार प्रकट करती थी जिसे राजा को मानना पड़ता था। कुछ समय के पश्चात् सभा गुरु सभा में बदल गई तथा समिति ने राज्य की केन्द्रीय संस्था का रूप ले लिया जिसका अध्यक्ष राजा होता था। इसका कार्य क्षेत्र नीति का निर्णय तथा कानून का निर्माण करना था।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
ऋग्वैदिक काल के आर्यों की सभ्यता की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक तथा आर्थिक दशा की जानकारी दीजिए।
अथवा
ऋग्वेद में वर्णित आर्यों की सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
ऋग्वैदिक काल की सभ्यता के विषय में जानकारी का एकमात्र स्रोत ऋग्वेद है। यह आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। ऋग्वेद के अध्ययन से आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक दशा के बारे में हमें निम्नलिखित बातों का पता चलता है :

1. राजनीतिक अवस्था-आर्यों ने एक आदर्श शासन प्रणाली की नींव रखी। शासन की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। कुछ परिवारों के मेल से एक गांव बनता था। कुछ गाँवों के समूह को ‘विश’ कहते थे। विशों का समूह ‘जन’ कहलाता था। प्रत्येक ‘जन’ एक राजा के अधीन था। राजा का मुख्य कार्य जन के लोगों की भलाई करना तथा युद्ध के समय उनका नेतृत्व करना था। राजा की शक्तियों पर रोक लगाने के लिए सभा समिति नामक दो संस्थाएं थीं। राजा की सहायता के लिए पुरोहित, सेनानी, दूत आदि अनेक अधिकारी होते थे।

2. आर्थिक अवस्था अथवा भौतिक जीवन-ऋग्वैदिक काल में लोगों की आर्थिक दशा काफ़ी अच्छी थी। वे मुख्य रूप से पशु-पालक थे। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भेड़, बकरी आदि प्रमुख थे। वे लकड़ी के फालों के साथ खेती करते थे। उन्हें खेती सम्बन्धी कई बातों, जैसे-कटाई, बुआई आदि की काफ़ी जानकारी थी। कुछ अन्य लोग छोटे-छोटे उद्योगधन्धों में भी लगे हुए थे। इनमें से बढ़ई, कुम्हार, लुहार, बुनकर, चर्मकार आदि मुख्य थे।

3. सामाजिक अवस्था-ऋग्वैदिक काल के सामाजिक जीवन का आधार परिवार था जो पितृ-प्रधान था। परिवार में सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। अन्य सभी सदस्यों को उनकी आज्ञा का पालन करना पड़ता था। इस काल में समाज चार वर्गों-योद्धा, पुरोहित, जनसाधारण तथा शूद्रों में बंटा हुआ था। शूद्र वे लोग थे जिन्हें युद्ध में पराजित करके दास बनाया जाता था। काम के आधार पर भी समाज का बंटवारा शुरू हो गया था, परन्तु यह बंटवारा अभी पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं था। समाज में नारी का बड़ा आदर था। उसे पुरुष की अर्धांगिनी समझा जाता था। वह पुरुष के साथ यज्ञों में भाग लेती थी। उसे शासन कार्यों में भाग लेने का भी अधिकार था। लोगों का मुख्य गेहूं, जौ, घी और दूध था। विशेष अवसरों पर लोग सोमरस भी पीते थे। लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन रथ-दौड़, शिकार करना तथा जुआ खेलना थे।

4. धार्मिक अवस्था-ऋग्वैदिक आर्य सन्तान, पशु, अन्न, धन, स्वास्थ्य आदि की प्राप्ति के लिए अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। उनके देवताओं में सोम, अग्नि, वायु, इन्द्र, द्यौस, ऊषा, वरुण तथा सूर्य प्रमुख थे। इन्द्र उनका सबसे बड़ा देवता था। युद्ध से पहले विजय पाने के लिए प्रायः इन्द्र की पूजा की जाती थी। उनकी मुख्य देवी उषा थी। आर्य लोगों के धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते हुए भी एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते थे।

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प्रश्न 2.
उत्तर वैदिक कालीन आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक अवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
1000 ई० पू० में ऋग्वैदिक काल की समाप्ति हो गई। इस समय से लेकर लगभग 600 ई० पू० के काल को इतिहासकार उत्तर वैदिक काल का नाम देते हैं। इन दिनों आर्य लोग गंगा की घाटी में आ बसे थे। यहां उन्होंने सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की। इन्हीं ग्रन्थों के अध्ययन से ही हमें उत्तर वैदिक आर्यों की सभ्यता का पता चलता है। इस सभ्यता की मुख्य विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. राजनीतिक जीवन-उत्तर वैदिक काल में बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित हो गए। राजा की शक्तियां बढ़ गईं। शासन कार्यों में राजा की सहायता के लिए सेनानी, पुरोहित, संगृहित्री आदि अनेक अधिकारी थे। परन्तु राजा के लिए उनके निर्णय को मानना आवश्यक नहीं था शासन कार्यों के व्यय के लिए वह प्रजा से कर और दक्षिणा लेता था।

2. सामाजिक जीवन-उत्तर वैदिक काल में समाज चार जातियों में बंटा हुआ था। वे जातियां थीं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य .. तथा शूद्र। ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। इस काल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता आश्रम व्यवस्था थी। जीवन को 100 वर्ष मान कर इसे चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास में बांट दिया गया।

3. आर्थिक अथवा भौतिक जीवन-इस काल के आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना था, परन्तु अब वे लोग बड़ेबड़े हलों का प्रयोग करने लगे थे। राजा और राजकुमार स्वयं भी हल चलाते थे। इस काल में कौशाम्बी, विदेह, काशी आदि बड़े-बड़े नगरों का उदय हुआ। ये नगर व्यापार और उद्योग-धन्धों के प्रमुख केन्द्र बने। उस समय विदेशी व्यापार भी होता था।

4. धार्मिक अवस्था-उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाज तथा धार्मिक विचारों में काफ़ी परिवर्तन आया। इस काल में इन्द्र, वरुण तथा सूर्य की बजाय शिव-विष्णु की पूजा पर अधिक बल दिया जाने लगा। आत्मा, परमात्मा तथा जन्म-मृत्यु के विषय में अनेक नये सिद्धान्त धर्म में शामिल हो गए। कर्म, मोक्ष तथा माया सम्बन्धी सिद्धान्तों ने धर्म को और भी अधिक जटिल बना दिया। इस काल में लोग अनेक प्रकार के जादू-टोनों में भी विश्वास रखने लगे थे।
सच तो यह है कि उत्तर वैदिक काल में आर्यों के राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन में अनेक परिवर्तन आए।

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प्रश्न 3.
जाति-प्रथा के विषय में आप क्या जानते हैं ? इसके (क) लाभ तथा (ख) हानियों का वर्णन करो।
उत्तर-
जाति-प्रथा से अभिप्राय उन श्रेणियों से हैं जिनमें हमारा प्राचीन समाज बंटा हुआ था। हर जाति की अपनी अलग प्रथाएँ थीं। जाति के प्रत्येक सदस्य को उनका पालन करना पड़ता था। आरम्भ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक चार जातियां थीं, परन्तु धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। आजकल भारत में लगभग तीन हज़ार जातियां हैं।

(क) जाति-प्रथा के लाभ-

  • जाति-प्रथा के कारण भारतीय संस्कृति विदेशी प्रभाव से सुरक्षित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण रक्त की पवित्रता बनी रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोग बचपन से ही अपने पिता के व्यवसाय में जुट जाते थे। फलस्वरूप बड़े होकर वे निपुण कारीगर सिद्ध होते थे।
  • जाति-प्रथा के अनुसार बुरा काम करने वाले लोगों को जाति से निकाल दिया जाता था। इस भय से लोग कोई बुरा काम नहीं करते थे।
  • प्रत्येक जाति के लोग अपनी जाति के निर्धन तथा रोगी व्यक्तियों की सेवा तथा सहायता करते थे। इस प्रकार लोगों के मन में समाज-सेवा और त्याग की भावना बढी।
  • जाति-प्रथा के कारण प्रत्येक जाति के लोगों को अपनी जाति का व्यवसाय अपनाना पड़ता था। अतः लोगों को रोज़ी का कोई अन्य साधन ढूंढ़ने की चिन्ता नहीं रहती थी।
  • जाति-प्रथा के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा देना था। वह निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते थे।
  • शुद्धि तथा अन्य जातियों के लोग हिन्दू बन जाते थे। अतः शक, हूण, यूनानी आदि भारत पर आक्रमण करने वाली अनेक जातियां हिन्दू समाज का अंग बन गईं। .

(ख) जाति-प्रथा की हानियां –

  • जाति-प्रथा के कारण राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात पहुंचा।
  • जाति-प्रथा के कारण देश में सैनिक शिक्षा सीमित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोगों के लिए पैतृक धन्धा बदलना बड़ा कठिन होता था। फलस्वरूप लोगों का व्यक्तिगत विकास रुक गया।
  • इस प्रथा के कारण समाज में छुआछूत की भावना बढ़ी।
  • ब्राह्मण तथा क्षत्रिय स्वयं को सभी जातियों से श्रेष्ठ समझते थे। इस प्रकार जातियों में आपसी द्वेष उत्पन्न हो गया।
  • ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए अनेक ऐसी कुप्रथाएं चलाईं जिससे उन्हें अधिक से अधिक लाभ पहुंचे। इस प्रकार अनेक सामाजिक कुरीतियां प्रचलित हुईं। सच तो यह है कि जाति-प्रथा से भारत को आरम्भ में अवश्य कुछ लाभ पहुंचे, परन्तु धीरे-धीरे यह प्रथा भारत के लिए अभिशाप बन गई। वास्तव में यह एक कुप्रथा है जो हिन्दू समाज को अन्दर से खोखला करती रही है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

PSEB 11th Class Agriculture Guide कृषि उत्पादों का मंडीकरण Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
उपयुक्त मंडीकरण फसल की कटाई से पूर्व आरम्भ होता है या बाद में ?
उत्तर-
पहले।

प्रश्न 2.
यदि किसान महसूस करें कि उन्हें मंडी में उत्पाद का उचित मूल्य नहीं दिया जा रहा, तो उन्हें किसके साथ सम्पर्क करना चहिए?
उत्तर-
मार्केटिंग इंस्पैक्टर तथा मार्केटिंग कमेटी वालों से।.

प्रश्न 3.
यदि बोरी के वजन से अधिक उत्पाद तोला गया हो तो इसकी शिकायत किस को करनी चाहिए?
उत्तर-
मंडीकरण के उच्च अधिकारी से।

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प्रश्न 4.
उत्पाद को मंडी में ले जाने से पूर्व कौन सी दो बातों की ओर ध्यान देना जरूरी है?
उत्तर-

  1. दानों में नमी की मात्रा निर्धारित माप दण्ड के अनुसार ठीक होनी चाहिए।
  2. उत्पाद की सफाई।

प्रश्न 5.
मंडी गोबिंदगढ़, मोगा और जगराओं में गेहूं संभालने के लिए ब्लॉक हैंडलिंग इकाइयां किसने स्थापित की हैं ?
उत्तर-
भारतीय खाद्य निगम।

प्रश्न 6.
किसानों को फसल की तोलाई के बाद आढ़ती से कौन सा फार्म लेना जरूरी है?
उत्तर-
जे (J) फार्म।

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प्रश्न 7.
अलग-अलग मंडियों में उत्पादों के मूल्यों (कीमतों) की जानकारी किन साधनों द्वारा प्राप्त की जा सकती है?
उत्तर-
टी०वी०, रेडियो, समाचार-पत्र आदि द्वारा।

प्रश्न 8.
सरकारी खरीद एजेंसियां उत्पाद का मूल्य किस आधार पर लगाती हैं ?
उत्तर-
नमी की मात्रा देख कर।

प्रश्न 9.
संदेह के आधार पर मंडीकरण एक्ट के अनुसार कितने प्रतिशत तक उत्पाद की तोलाई बिना पैसे दिए करवाई जा सकती है?
उत्तर-
10% उत्पाद की।

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प्रश्न 10.
कौन सा एक्ट किसानों को तुलाई पड़ताल का अधिकार देता है?
उत्तर-
मंडीकरण एक्ट 1961।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
कृषि सम्बन्धी कौन-कौन से काम करते समय विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए?
उत्तर-
गुडाई, दवाइयों का प्रयोग, पानी, खाद, कटाई, गहाई इत्यादि कार्य करते समय विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए।

प्रश्न 2.
खेती के लिए फसलों का चुनाव करते समय किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-
कृषि के लिए उस फसल का चुनाव करें जिससे अधिक लाभ मिल सकता है और इस फसल की बढ़िया किस्म की ही बुआई करें।

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प्रश्न 3.
उत्पाद बिक्री के लिए मंडी में ले जाने से पूर्व किस बात की पड़ताल कर लेनी चाहिए?
उत्तर-
मंडी ले जाने से पहले दानों के बीच नमी की मात्रा निर्धारित मापदण्डों के अनुसार है या नहीं इसकी जांच कर लेनी चाहिए और फसल को तोल कर और वर्गीकरण करके मण्डी में ले जाने पर अधिक लाभ मिलता है।

प्रश्न 4.
मंडी में उत्पाद की बिक्री के समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-
सफ़ाई, तोल और बोली के समय किसान अपनी ढेरों के पास ही खड़ा रहे और देखे कि उसके उत्पाद का मूल्य ठीक लग रहा है या नहीं। यदि मूल्य ठीक न लगे तो मार्केटिंग इन्स्पैक्टर की सहायता ली जा सकती है। तोलाई वाले बाटों पर सरकारी मोहर लगी होनी चाहिए।

प्रश्न 5.
ब्लॉक हैंडलिंग इकाइयों में सीधे उत्पाद बिक्री से क्या लाभ होते हैं ?
उत्तर-
बल्क हैंडलिंग इकाइयों में सीधा उत्पाद बिक्री से कई लाभ होते हैं, जैसे-पैसे का भुगतान उसी दिन हो जाता है, मंडी का खर्चा नहीं देना पड़ता, मज़दूरों का खर्चा बचता है, प्राकृतिक आपदाओं, जैसे-वर्षा, आंधी आदि के कारण उत्पाद नुकसान से बच जाता है।

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प्रश्न 6.
मंडी में उत्पाद की निगरानी क्यों जरूरी है?
उत्तर-
कई बार मंडी में मज़दूर जानबूझ कर उत्पाद को किसी अन्य ढेरी में मिला देते हैं या कई बार उत्पाद को बचे हुए ‘छान’ में मिला देते हैं जिससे किसान को बहुत नुकसान हो जाता है। इसलिए उत्पाद का ध्यान रखना ज़रूरी है।

प्रश्न 7.
अलग-अलग मंडियों में उत्पादों के मूल्यों की जानकारी के क्या लाभ हैं?
उत्तर-
फसल की मंडी में आमद अधिक हो जाने या कम हो जाने पर कीमतें घटती तथा बढ़ती रहती हैं। इसलिए मंडियों के मूल्यों की लगातार जानकारी लेते रहना चाहिए ताकि अधिक मूल्य पर उत्पाद बेचा जा सके।

प्रश्न 8.
मार्किट कमेटी के दो मुख्य काम क्या हैं ?
उत्तर-
मार्किट कमेटी का मुख्य काम मण्डी में किसानों के अधिकारों की रक्षा करना है। यह उत्पाद की बोली करवाने में पूरा-पूरा तालमेल बना कर रखती है। इसके अलावा उत्पाद की तुलाई भी ठीक ढंग से होती है यह भी ध्यान रखती है।

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प्रश्न 9.
श्रेणीबद्ध से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
फसल को उसकी गुणवत्ता के अनुसार भिन्न-भिन्न भागों में बांटने को वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) करना कहा जाता है।

प्रश्न 10.
जे (J) फार्म लेने के क्या-क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
जे (J) फार्म में बिक चुके उत्पाद के बारे में सारी जानकारी होती है, जैसेउत्पाद की मात्रा, बिक्री कीमत तथा प्राप्त किए खर्चे । यह फार्म लेने के अन्य लाभ हैं कि बाद में यदि कोई बोनस मिलता है तो वह भी प्राप्त किया जा सकता है तथा मण्डी फीस की चोरी को भी रोका जा सकता है।

(ग) पांच-छ: वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
मंडीकरण में सरकारी दखल पर नोट लिखो।
उत्तर-
एक समय था जब कृषक अपनी उपज के लिए व्यापारियों पर निर्भर था। व्यापारी अकसर कृषक को अधिक उत्पाद लेकर कम दाम ही देते थे। अब सरकार द्वारा कई नियम कानून बना दिए गए हैं तथा मार्किट कमेटियां, सहकारी संस्थाएं आदि बन गई हैं। नियमों कानूनों के अनुसार किसान को उचित दाम तो मिलता ही है क्योंकि सरकार द्वारा कमसे-कम निर्धारित मूल्य तय कर दिया जाता है। किसान को यदि किसी तरह का शक हो तो वह अपने उत्पाद की तुलाई करवा सकता है तथा पैसे नहीं लगते। सरकार द्वारा मैकेनिकल हैंडलिंग इकाइयां भी स्थापित की गई हैं। किसान अपने उत्पाद को बेच कर आढ़ती से फार्म-J ले सकता है जिसके बाद में बोनस मिलने पर किसान को सुविधा रहती है। इस प्रकार सरकार के दखल से किसान के अधिकार अधिक सुरक्षित हो गए हैं।

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प्रश्न 2.
सहकारी मंडीकरण का संक्षेप में विवरण दो।
उत्तर-
सहकारी मंडीकरण द्वारा किसानों को अपनी उपज बेच कर अच्छा दाम मिल जाता है। ये सभाएं आम करके कमीशन ऐजंसियों का काम करती हैं। ये सभाएं किसानों द्वारा ही बनाई जाती हैं। इसलिए यह किसानों को अधिक दाम प्राप्त करवाने के लिए सहायक होती हैं। इनके द्वारा किसानों को आढ़ती से जल्दी भुगतान हो जाता है। इन सभाओं द्वारा किसानों को अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं; जैसे-फसलों के लिए ऋण तथा सस्ते दाम पर खादें, कीटनाशक दवाइयां मिलना आदि।

प्रश्न 3.
कृषि उत्पादों को श्रेणीबद्ध करने के क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) की हुई फसल का मूल्य अच्छा मिलता है। अच्छी उपज एक ओर करके अलग दों में मंडी में लेकर जाओ। घटिया उपज को दूसरे दर्जे में रखो। इस प्रकार अधिक लाभ कमाया जा सकता है। यदि वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) किए बिना घटिया वस्तु नीचे और ऊपर अच्छी वस्तु रख कर बेची जाएगी तो कुछ दिन तो अच्छे पैसे कमा लोगे परन्तु जल्दी ही लोगों को इस बात का पता चल जाएगा और किसान ग्राहकों में अपना विश्वास खो बैठेगा और दोबारा लोग ऐसे किसानों से चीज़ खरीदने में परहेज करेंगे। परन्तु यदि किसान मंडी में ईमानदारी के साथ अपना माल बेचेगा तो लोग भी उसका माल खरीदने के लिए उत्सुक होंगे और किसान अब लम्बे समय तक लाभ कमाता रहेगा। ऐसा तब ही हो सकता है जब कृषक अपनी उपज की दर्जाबन्दी करें।

प्रश्न 4.
मकैनिकल हैंडलिंग इकाइयों पर संक्षेप में नोट लिखो।
उत्तर-
पंजाब राज्य मंडी बोर्ड द्वारा पंजाब में कुछ मंडियों में मकैनिकल हैंडलिंग इकाइयां स्थापित की गई हैं। इन इकाइयों की सहायता से किसान के उत्पाद की सफाई, भराई तथा तुलाई मशीनों द्वारा मिनटों में हो जाती है। यदि इसी कार्य को मजदूरों ने करना हो तो कई घण्टे लग जाएंगे। इन इकाइयों का प्रयोग किया जाए तो किसानों को कम खर्चा करना पड़ता है तथा उत्पाद की कीमत भी अधिक मिल जाती है। रकम का भुगतान भी उसी समय हो जाता है। भारतीय खाद्य निगम द्वारा मोगा, मंडी गोबिंदगढ़ तथा जगराओं में गेहूँ को संभालने के लिए इसी तरह की बड़े स्तर पर इकाइयों की स्थापना की गई हैं । यहां किसान सीधा गेहूँ बेच सकता है। उसको उसी दिन भुगतान हो जाता है। मंडी का खर्चा नहीं पड़ता, प्राकृतिक आपदाओं से भी उत्पाद का बचाव हो जाता है। किसान को इन इकाइयों का पूरा लाभ लेना चाहिए।

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प्रश्न 5.
कृषि उत्पादों के उपयुक्त मंडीकरण के क्या लाभ हैं?
उत्तर-
फसल उगाने के लिए बड़ी मेहनत लगती है और इसका उचित मूल्य भी मिलना चाहिए। इसके लिए मंडीकरण का काफ़ी महत्त्व हो जाता है। मण्डीकरण की तरफ बुवाई के समय से ही ध्यान देना चाहिए। ऐसी फसल की कृषि करें जिससे अधिक लाभ मिल सके। अधिक फसल की उन्नत किस्म की बुवाई करें। फसल की सम्भाल ठीक ढंग से करें। खादें, कृषि जहर, निराई, सिंचाई आदि के लिए कृषि विशेषज्ञों की राय लें। फसल को धूल मिट्टी से बचाएं। इसे नाप तोल कर और इसका वर्गीकरण करके ही मण्डी में लेकर जाएं। मण्डी में जल्दी पहुंचे और कोशिश करें कि उसी दिन फसल बिक जाए।

Agriculture Guide for Class 11 PSEB कृषि उत्पादों का मंडीकरण Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हम अपनी उपज का उपयुक्त मूल्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर-
उपज के मण्डीकरण की ओर विशेष ध्यान देकर।

प्रश्न 2.
उपयुक्त मण्डीकरण कब आरम्भ होता है?
उत्तर-
बुवाई के समय से ही।

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प्रश्न 3.
उपज का पूर्ण मूल्य लेने के लिए उसमें कितनी नमी होनी चाहिए?
उत्तर-
नमी की मात्रा निर्धारित मापदंडों के अनुसार होनी चाहिए।

प्रश्न 4.
सफाई, तोलाई और बोली के समय किसान को कहां होना चाहिए?
उत्तर-
अपने उत्पाद के समीप।

प्रश्न 5.
किस प्रकार की फसल की कृषि के बारे में किसान को सोचना चाहिए?
उत्तर-
जिससे अधिक मुनाफा कमाया जा सके।

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प्रश्न 6.
आकार के अनुसार सब्जियों और फलों के वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध करने) को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
वर्गीकरण या श्रेणीबद्ध या दर्जाबंदी।

प्रश्न 7.
क्या अपने उत्पाद को बिक्री के लिए मण्डी ले जाने से पहले मण्डी की परिस्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए अथवा नहीं ?
उत्तर-
मण्डी की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

प्रश्न 8.
उपयुक्त मण्डीकरण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है या नहीं ?
उत्तर-
अच्छे मण्डीकरण की ओर ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है।

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प्रश्न 9.
फसल निकालने के बाद इसे तोलना क्यों चाहिए?
उत्तर-
ऐसा करने से मण्डी में बेची जाने वाली फसल का अन्दाज़ा रहता है।

प्रश्न 10.
आढ़ती से फार्म पर रसीद लेने का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
इस तरह क्या कमाया, कितना खर्च किया इसकी पड़ताल की जा सकती है।

प्रश्न 11.
यदि किसान को उसके उत्पाद का उचित मूल्य न मिल रहा हो तो उसे क्या करना चाहिए?
उत्तर-
यदि उत्पाद का उचित मूल्य न मिले तो मार्केटिंग इन्सपैक्टर की सहायता लेनी चाहिए।

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प्रश्न 12.
सब्जियों और फलों का वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) करने से क्या लाभ होता है ?
उत्तर-
वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) किए हुए फलों और सब्जियों को बेचने पर अधिक मूल्य प्राप्त होता है।

प्रश्न 13.
लोगों का विश्वास जीतने के लिए किसान को क्या करना चाहिए?
उत्तर-
किसान को वर्गीकरण करके अपनी फसल ईमानदारी से बेचनी चाहिए ताकि ग्राहकों का विश्वास बनाया जा सके।

प्रश्न 14.
खेती उत्पादों के मण्डीकरण से क्या भाव है?
उत्तर-
फसलों की मण्डी में अच्छी बिक्री।

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प्रश्न 15.
उत्तम क्वालटी के उत्पाद तैयार करने के लिए किसानों को किसकी आवश्यकता है?
उत्तर-
शोधित प्रमाणित बीज तथा अच्छी योजनाबंदी।

प्रश्न 16.
वर्गीकरण ( श्रेणीबद्ध) करके उत्पाद भेजने से कितनी अधिक कीमत मिल जाती है?
उत्तर-
10 से 20%

प्रश्न 17.
मण्डी में उत्पाद कब लेकर जाना चाहिए?
उत्तर-
सुबह ही।

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प्रश्न 18.
फसल की कटाई पूरी तरह पकने से पहले करने से क्या होता है?
उत्तर-
दाने सिकुड़ जाते हैं।

प्रश्न 19.
देर से कटाई करने की क्या हानि है?
उत्तर-
दाने झड़ने का डर रहता है।

प्रश्न 20.
दर्जाबंदी सहायक कहां होता है ?
उत्तर-
दाना मण्डी में नियुक्त होता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फसल की संभाल उपयुक्त विधि से करने का क्या भाव है?
उत्तर-
फसल की संभाल उपयुक्त विधि से करने का भाव है कि गुड़ाई, दवाइयों का प्रयोग, खाद, पानी, कटाई तथा गहाई के काम विशेषज्ञों के मतानुसार करना चाहिए।

प्रश्न 2.
किसान को फसल का अच्छा मूल्य लेने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर-

  1. किसान को अपनी फसल तोल, माप कर मण्डी में ले जानी चाहिए।
  2. किसान को उत्पाद की दर्जाबंदी (श्रेणीबद्ध) करके मण्डी में लेकर जाना चाहिए।
  3. उत्पाद में नमी की मात्रा निर्धारित माप-दंडों के अनुसार होनी चाहिए।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कृषि उत्पादों की बिक्री के लिए किसान को किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर-

  1. सफाई, तोलाई तथा बोली के समय किसान को अपने उत्पाद के समीप रहना चाहिए।
  2. यदि उत्पाद की कम कीमत मिले तो किसान को मार्केटिंग इंस्पैक्टर तथा मार्कीट कमेटी के अमले की सहायता लेनी चाहिए।
  3. तोलाई के समय तुला तथा वाटों के ऊपर सरकारी मोहर देख लेनी चाहिए।
  4. उत्पाद बेचने की आढ़ती से फार्म पर रसीद लेनी चाहिए।

प्रश्न 2.
कृषि उत्पादों की बिक्री के समय कौन-सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-

  1. सफ़ाई, तोलाई और बोली के समय किसान अपनी ढेरी के पास ही खड़ा हो।
  2. तोलाई के समय तराजू और बाटों की जांच करो। बांटों पर सरकारी मोहर लगी होनी चाहिए।
  3. यदि लगे कि फसल का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है तो मार्केटिंग इन्स्पैक्टर और मार्केटिंग स्टाफ की सहायता लो।
  4. फसल बेचकर आढ़ती से फार्म के ऊपर रसीद ले लो। इस तरह लाभ और खर्चों की जांच की जा सकती है।

प्रश्न 3.
अधिक लाभ कमाने के लिए किसान को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-

  1. ऐसी फसल बोएं जिससे अच्छी आमदन हो जाए।
  2. अच्छी किस्म का पता करने के बाद बोना चाहिए।
  3. फसल की संभाल अच्छी प्रकार करनी चाहिए।
  4. गुड़ाई, दवाइयों का प्रयोग, खाद, सिंचाई, कटाई, गहाई विशेषज्ञों की राय के अनुसार करें।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

कृषि उत्पादों का मंडीकरण PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • कृषि उपज का मंडीकरण बढ़िया ढंग से किया जाए तो अधिक मुनाफ़ा कमाया जा सकता है।
  • अच्छे मंडीकरण के लिए बुवाई के समय से ही ध्यान रखना पड़ता है।
  • अधिक पैसा दिलाने वाली फसल की उत्तम किस्म की बुवाई करें।
  • निराई, दवाइयों का प्रयोग, पानी, खाद, कटाई आदि विशेषज्ञों की सलाह से करें।
  • उत्पाद निकालने के बाद इसे तोल लेना चाहिए। यह बेहद जरूरी है।
  • उत्पादों का वर्गीकरण करके उसे मंडी में ले जाएं।
  • उत्पाद बेचने के दौरान आढ़ती से फार्म व रसीद ले लें ताकि मुनाफे और खर्चे की पड़ताल की जा सके।
  • किसानों को अपनी उपज का मंडीकरण सांझी तथा सहकारी संस्थाओं द्वारा करना चाहिए।
  • पंजाब राज्य मण्डी बोर्ड द्वारा कुछ मंडियों में मकैनिकल हैंडलिंग इकाइयाँ स्थापित की गई हैं।
  • भारतीय खाद्य निगम द्वारा मंडी गोबिन्दगढ़, मोगा तथा जगराओं में गेहँ को संभालने के लिए बड़े स्तर पर प्रबंध इकाइयों की स्थापना की गई है।
  • कृषकों को अपने आस-पास की मंडियों के भाव की जानकारी लेते रहना चाहिए।
  • भिन्न-भिन्न मंडियों के मूल्य रेडियो, टी०वी० तथा समाचार-पत्रों आदि से भी पता लगते रहते हैं।
  • कृषक को उत्पाद बेचने के लिए कोई समस्या आए तो वह मार्किट कमेटी के उच्च अधिकारियों से सम्पर्क कर सकता है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
शिवाजी के उत्थान व शासन-प्रबन्ध के सन्दर्भ में 1713 ई० तक के मराठों के इतिहास की प्रमुख राजनीतिक घटनाओं की चर्चा करें ।
उत्तर-
मराठे दक्षिण में महाराष्ट्र के रहने वाले थे । वे सर्वप्रथम शिवाजी के अधीन एक शक्ति के रूप में उभरे । शिवाजी को शक्तिशाली बनाने में अनेक बातों ने योगदान दिया । सर्वप्रथम इस दिशा में उनकी मां ने भूमिका निभाई । उन्होंने शिवाजी को महापुरुषों की कहानियां सुना-सुना कर उनमें देशभक्ति की भावना भरी । समरथ गुरु रामदास ने उनका चरित्र-निर्माण किया । दादा कोण्ड देव ने उन्हें तीर, तलवार तथा घुड़सवारी की शिक्षा दी । महाराष्ट्र की पहाड़ियों ने उन्हें परिश्रमी तथा वीर बनाया । दक्षिण की मुस्लिम रियासतों ने मराठों को सैनिक शिक्षा दी और ये प्रशिक्षित सैनिक शिवाजी की शक्ति का आधार बने । वैसे भी सन्त एकनाथ तथा तुकाराम के उपदेशों ने महाराष्ट्र में एकता का संचार किया और इस एकता ने शिवाजी को बल प्रदान किया । परिस्थितियों ने तो शिवाजी को शक्ति प्रदान की ही थी, साथ ही उनके अपने कार्यों ने भी उन्हें शक्तिशाली बनाया । उन्होंने मुट्ठी भर सैनिक लेकर 19 वर्ष की आयु में तोरण का किला जीता । इसके बाद उन्होंने सिंहगढ़, पुरन्धर तथा अन्य दुर्गों पर विजय पाई । इन विजयों से उन्हें धन भी प्राप्त हुआ और यश भी । धन का प्रयोग उन्होंने अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए किया । संक्षेप में, शिवाजी के उत्थान, शासन-प्रबन्ध तथा 1713 ई० तक मराठा इतिहास की प्रमुख घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है :-

शिवाजी का उत्थान (विजयें)-

शिवाजी एक महान् मराठा सरदार थे । सबसे पहले उन्होंने बिखरी हुई मराठा शक्ति को संगठित करके एक विशाल सेना तैयार की। उन्होंने 1646 ई० में अपना विजय अभियान आरम्भ कर दिया । शिवाजी की पहली विजय तोरण दुर्ग पर थी । इसके बाद उन्होंने चाकन, सिंहगढ़, पुरन्धर तथा कोन्द्रन के दुर्गों पर अपना अधिकार जमा लिया । उन्होंने जावली के सरदार चन्द्र राव को मरवा कर जावली को भी अपने अधिकार में ले लिया । शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर बीजापुर का सुल्तान चिन्ता में पड़ गया । उसने शिवाजी के विरुद्ध अपने सेनापति अफ़जल खां को भेजा । अफ़जल खां ने धोखे से शिवाजी को मारने का प्रयत्न किया परन्तु इस प्रयास में वह स्वयं मारा गया । अब शिवाजी ने मुग़ल प्रदेशों में लूटमार आरम्भ कर दी जिससे मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को चिन्ता हुई । अतः 1660 ई० में उसने दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । वह बढ़ता हुआ पूना तक जा पहुंचा, परन्तु शिवाजी ने उसे यहां से भागने पर विवश कर दिया ।

अब शिवाजी ने सूरत के समृद्ध नगर पर आक्रमण कर दिया और वहां खूब लूटमार की । इससे औरंगज़ेब की चिन्ता और भी बढ़ गई । उसने राजा जयसिंह तथा दिलेर खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । उनके नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने मराठों के अनेक किले जीत लिए । विवश होकर शिवाजी ने मुग़लों के साथ सन्धि कर ली । सन्धि के बाद शिवाजी आगरा में मुग़ल दरबार में पहुंचे । वहां उन्हें बन्दी बना लिया गया । परन्तु शिवाजी बड़ी चालाकी से मुग़लों की कैद से भाग निकले । 1676 ई० में उन्होंने रायगढ़ में अपना राज्याभिषेक किया । इस अवसर पर उन्होंने छत्रपति की उपाधि धारण की । राज्याभिषेक के पश्चात् उन्होंने कर्नाटक के समृद्ध प्रदेशों जिंजी और वैलोर पर भी अपना अधिकार कर लिया । इस तरह वह दक्षिण भारत में एक स्वतन्त्र मराठा राज्य स्थापित करने में सफल हुए ।

शासन प्रबन्ध-

शिवाजी ने उच्चकोटि के शासन-प्रबन्ध द्वारा भी मराठों को एकता के सूत्र में बांधा । केन्द्रीय शासन का मुखिया छत्रपति (शिवाजी) स्वयं था । राज्य की सभी शक्तियां उसके हाथ में थीं । छत्रपति को शासन कार्यों में सलाह देने के लिए आठ मन्त्रियों का एक मन्त्रिमण्डल था । इसे अष्ट-प्रधान कहते थे । प्रत्येक मन्त्री के पास एक अलग विभाग था । शिवाजी ने अपने राज्य को तीन प्रान्तों में बांटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था । प्रान्त आगे चलकर परगनों अथवा तर्कों में बंटे हुए थे । शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी।

शिवाजी की न्याय-प्रणाली बड़ी साधारण थी । परन्तु यह लोगों की आवश्यकता के अनुरूप थी । मुकद्दमों का निर्णय प्रायः हिन्दू धर्म की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता था । राज्य की आय के मुख्य साधन भूमि-कर, चौथ तथा सरदेशमुखी थे । शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया । उनकी सेना में घुड़सवार तथा पैदल सैनिक शामिल थे । उनके पास एक शक्तिशाली समुद्री बेड़ा, हाथी तथा तोपें भी थीं । सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था । उनकी सेना की सबसे बड़ी विशेषता अनुशासन थी । शिवाजी एक उच्च चरित्र के स्वामी थे । वह एक आदर्श पुरुष, वीर योद्धा, सफल विजेता तथा उच्च कोटि के शासन प्रबन्धक थे । धार्मिक सहनशीलता तथा देश-प्रेम उनके चरित्र के विशेष गुण थे । देशप्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने मराठा जाति को संगठित किया और एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना की ।

शिवाजी के पश्चात् 1713 ई० तक मराठा-इतिहास –

शिवाजी के जीवन काल में औरंगजेब ने यह प्रयत्न किया था कि शिवाजी या तो मुग़ल साम्राज्य के मनसबदार बन जाएं या सामन्त । परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल न हो सका । 1680 ई० के पश्चात् तो स्थिति और भी बदल गई । औरंगजेब के पुत्र शहज़ादा अकबर ने बादशाह होने की घोषणा कर दी और वह शिवाजी के उत्तराधिकारी शम्भाजी की शरण में चला गया । औरंगजेब ने शम्भा जी के विरुद्ध अभियान भेजे किन्तु वह सफल न हुआ । बीजापुर तथा गोलकुण्डा के सुल्तान मराठों की सहायता करते रहे. । औरंगज़ेब ने बीजापुर और गोलकुण्डा दोनों को जीत लिया । इस प्रकार 1686-87 ई० तक दक्कन में केवल मराठे ही ऐसे लोग रह गए जो अभी तक स्वतन्त्र थे । औरंगज़ेब ने उन्हें अपने अधीन करने का निर्णय किया । उसने 1689 ई० में शम्भा जी को गिरफ्तार कर लिया तथा उनके पुत्र शाहू को भी पकड़ लिया गया । परन्तु शिवाजी का दूसरा पुत्र राजा राम मुग़लों के विरुद्ध जिंजी के किले से युद्ध करता रहा । 1700 ई० में राजाराम की भी मृत्यु हो गई । परन्तु अब उसकी पत्नी ताराबाई ने कोल्हापुर से संघर्ष जारी रखा । इस समय तक स्वराज्यी एवं मुगलई का अन्तर मिट गया था । मराठों के पास राज्य नहीं रहा था किन्तु बहुत से किले और छोटे-छोटे इलाके अब भी उनके अधिकार में आते रहे । इस प्रकार मराठे 1713 ई० तक मुग़लों से अपने प्रदेश वापस छीनने के लिए प्रयत्नशील रहे ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

प्रश्न 2.
18वीं सदी में पेशवाओं तथा मराठा सरदारों के अधीन मराठा शक्ति के उत्थान की रूप-रेखा बताएं।
उत्तर-
शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र शम्भाजी का वध कर दिया गया और उनके पौत्र शाहूजी को दिल्ली में बन्दी बना लिया गया । उसकी अनुपस्थिति में राजाराम की विधवा ताराबाई अपने पुत्र की संरक्षिका बन कर शासन करने लगी। मुग़लों ने मराठों को आपस में लड़ाने के लिए शाहूजी को बन्दीगृह से मुक्त कर दिया । शाहूजी के महाराष्ट्र पहुंचते ही बालाजी विश्वनाथ नामक ब्राह्मण ने उसकी सहायता की । उसने अन्य मराठा सरदारों को भी शाहूजी के साथ मिला दिया । प्रसन्न होकर शाहजी ने उसे अपना पेशवा नियुक्त कर लिया । बालाजी विश्वनाथ ने 1719 ई० में मुग़ल बादशाह से एक सन्धि की जिसके कारण शाहूजी को मुग़लों से वे सभी प्रदेश वापस मिल गए जो शिवाजी के अधीन स्वराज्य प्रदेश कहलाते थे । इसके अतिरिक्त मराठों को वे प्रदेश भी मिल गए जो कभी उन्होंने खानदेश, बरार, गोंडवाना, गोलकुण्डा तथा कर्नाटक में विजय किए थे।

1719 ई० में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा बनाया गया । 1740 ई० में उसकी भी मृत्यु हो गई और बालाजी बाजीराव पेशवा बना । वह 1761 ई० तक पेश्वा के पद पर आसीन रहा । इन दो पेशवाओं के अधीन मराठों ने लगभग समस्त भारत पर अपना अधिकार कर लिया और मराठा झण्डा अटक की दीवारों तक फहराने लगा । 1757 ई० तक वे मुग़ल बादशाह के भी संरक्षक बन गए । इसी कारण जब 1757 ई० में अहमदशाह ने लाहौर तथा सरहिन्द के प्रान्त पर आक्रमण किया, तो मराठों ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया और अहमदशाह अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह को पंजाब से मार भगाया । इसी बीच कई अन्य मराठा सरदारों ने कई प्रदेश जीते और मराठा राज्य की शक्ति में वृद्धि की । – पेशवाओं के पराक्रम से शाहूजी बड़े प्रसन्न थे । उन्होंने राज्यकर्म का सारा भार उन्हीं पर छोड़ दिया । धीरे-धीरे पेशवा ही राज्य के शासक बन गए । 1751 ई० में शाहूजी की मृत्यु के पश्चात् छत्रपति की शक्ति नाममात्र रह गई और पेशवा ही वास्तविक शासक बन गए । 1772 ई० के पश्चात् मराठा राजनीति का केन्द्र बिन्दु ‘पेशवा’ बन गया और स्वयं अंग्रेज़ भी उन्हीं से सन्धियां करने लगे । इस प्रकार मुख्यमन्त्री के रूप में कार्य करने वाला ‘पेशवा’ समय की गति के साथ-साथ राज्य की वास्तविक शक्ति बन गया ।

पेशवाओं तथा मराठा सरदारों के कार्य-पेशवाओं तथा मराठा सरदारों द्वारा शक्ति के विकास के लिए किए गए कार्यों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-

बालाजी विश्वनाथ पेशवा वंश का संस्थापक था । शाहूजी ने उसे 1713 ई० में पेशवा नियुक्त किया । बालाजी विश्वनाथ ने मुग़ल राज परिवार के आपसी झगड़ों का लाभ उठाया । उसने 1719 ई० में मुग़लों से एक सन्धि की, जिसकी शर्ते ये थीं : (क) शाहूजी को ‘स्वराज्य प्रदेशों’ का शासक स्वीकार कर लिया । (ख) शाहूजी दक्षिण के 6 मुग़ल प्रदेशों से ‘चौथ’ तथा ‘सरदेशमुखी’ एकत्र कर सकेंगे । ये सूबे थे-खानदेश, बीदर, बरार, बीजापुर, गोलकुण्डा तथा औरंगाबाद । (ग) शाहूजी मुग़लों की सहायता के लिए एक सेना तैयार रखेंगे जिसमें 15 हज़ार सैनिक होंगे । इस सन्धि द्वारा वास्तव में शाहू जी को मराठों का राजा मान लिया गया । अतः मराठा सरदारों की शक्ति अब शाहू के विरुद्ध लड़ने की बजाय दूर स्थित प्रदेशों को । जीतने में लग गई । धीरे-धीरे पेशवा की शक्ति इतनी बढ़ गई कि वह शासन का सर्वेसर्वा हो गया ।

बाजीराव प्रथम-बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा बना । उसने निज़ाम हैदराबाद को 1728 ई० में ‘मालखेद’ के स्थान पर पराजित किया और उसके साथ मुजीशिव गांव की सन्धि की । उसने 1738 ई० में एक बार फिर निज़ाम को भोपाल के समीप पराजित किया । निजाम तथा मुग़लों ने नर्मदा और चम्बल के बीच का प्रदेश मराठों को दे दिया । बाजीराव प्रथम ने बुन्देल सरदार छत्रसाल की सहायता करके बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया । उसने दिल्ली के समीप मुग़ल सेना को पराजित किया । उसने अपने भाई ‘चिमनाजी आपे’ की सहायता से पुर्तगालियों को पराजित करके थाना, सालसट तथा बसीन के प्रदेश जीत लिए । इस प्रकार बाजीराव प्रथम ने एक के बाद दूसरा प्रर्देश जीता और चारों दिशाओं में मराठा शक्ति का विकास किया। निःसन्देह वह एक महान् सेनानायक था ।

बालाजी बाजीराव तथा मराठा सरदार-बालाजी बाजीराव अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् पेशवा नियुक्त हुआ । उस समय उसकी आयु 18 वर्ष की थी । उसके काल में जहां मराठा शक्ति का उत्थान हुआ, वहां मराठा सरदारों की स्वतन्त्र सत्ता का भी विकास हुआ । उसके काल की मुख्य घटनाएं थीं :

(i) मराठा सरदार सिंधिया तथा होल्कर ने जयपुर के शासक ईश्वर सिंह से ‘चौथ’ मांगा । ईश्वर सिंह कर देने में असमर्थ था इसलिए तंग आकर उसने विष खा कर आत्म-हत्या कर ली । यह मराठों की एक बहुत बड़ी भूल थी जिसके परिणामस्वरूप मराठों को राजपूतों की सहानुभूति से वंचित होना पड़ा ।

(ii) 1758 ई० में सदाशिव राव ने 40 हज़ार सैनिकों की सहायता से निज़ाम पर आक्रमण किया । उदयगीर में निज़ाम पराजित हुआ । सन्धि के अनुसार निज़ाम को बीजापुर, औरंगाबाद, बीदर तथा दौलताबाद से हाथ धोना पड़ा ।

(iii) मराठों ने उत्तर में भी अपने राज्य का विस्तार आरम्भ कर दिया । सितम्बर, 1751 ई० में मलहार राव होल्कर तथा रघुनाथ राव दिल्ली की ओर बढ़े । उन्होंने अब्दाली के प्रतिनिधि को गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली का प्रबन्ध वज़ीर इमान को सौंप दिया । तत्पश्चात् वे पंजाब की ओर बढ़े । मार्च, 1758 ई० में इन्होंने सरहिन्द पर अधिकार कर लिया और अप्रैल में लाहौर पर । उन्होंने अब्दाली के पुत्र तैमूर शाह तथा उसके जरनैल जमाल खां को मार भगाया ।

(iv) शाहूजी भौंसले ने कटक पर अधिकार कर लिया और अलीवरदी खां से 20 लाख रुपया प्राप्त किया
(v) सदाशिव राव ने कर्नाटक पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार हम देखते हैं कि बालाजी बाजीराव के अधीन मराठा शक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई । मराठा पताका अटक तक फहराने लगी।

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प्रश्न 3.
18वीं सदी में हैदराबाद एवं मैसूर के नए-नए राज्यों के उत्थान और मराठों के साथ उनके सम्बन्धों के बारे में बताएं।
उत्तर-
18वीं शताब्दी में उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में अनेक नई शक्तियों का उदय हुआ । इनमें से हैदराबाद तथा मैसूर की रियासतें काफ़ी महत्त्वपूर्ण थीं । इन रियासतों के उत्थान तथा मराठों के साथ उनके सम्बन्धों का वर्णन इस प्रकार है :-

1. हैदराबाद-

हैदराबाद 18वीं शताब्दी में दक्षिण भारत की एक बहुत ही शक्तिशाली रियासत थी । इसकी स्थापना किलिच खां ने की। वह 1713 ई० में दक्षिण का मुग़ल सूबेदार बना और सम्राट ने उसे निजाम-उल-मुल्क की उपाधि प्रदान की । वह बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी था। वह दक्षिण भारत का स्वतन्त्र शासक बनना चाहता था । इसलिए 1724 ई० में उसने मुग़ल सम्राट के मुख्य वज़ीर से लड़ाई की और उसे हरा कर दक्षिण पर अपना अधिकार जमा लिया । अत: मुग़ल सम्राट् मुहम्मद शाह ने उसे दक्षिण का सूबेदार मान लिया और 1725 ई० में उसे आसफजाह की उपाधि से सुशोभित किया । परन्तु सम्राट का यह काम दिखावा मात्र था । आसफजाह अब तक दक्षिण का शासक बन चुका था । वह और उसके उत्तराधिकारी हैदराबाद के निज़ाम के नाम से प्रसिद्ध हुए ।

निजाम-उल-मुल्क आसफजाह दक्षिण के सारे मुग़ल प्रदेशों में अपनी शक्ति स्थापित न कर सका । मरने से पहले उसके पास केवल वही राज्य रह गया था जो सबसे पहले मुग़ल साम्राज्य का गोलकुण्डा प्रान्त था । उसकी राजधानी भी गोलकुण्डा की पुरानी राजधानी हैदराबाद ही थी । 1719 में बाला जी विश्वनाथ ने बादशाह के साथ राजा शाहू के नाम से एक सन्धि करके दक्षिण के मुग़ल सूबे से चौथ तथा सरदेशमुखी एकत्रित करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था । परन्तु अब निजाम-उलमुल्क आसफजाह मराठों के इस अधिकार को स्वीकार नहीं कर सकता था । इसलिए मराठों से उसकी लड़ाई होनी आवश्यक हो गई थी । उसने राजा शाहू के विरुद्ध उसके कोल्हापुर वाले सम्बन्धियों को भड़काना आरम्भ कर दिया । उसने कुछ मराठा सरदारों को भी पेशवा के विरुद्ध उत्तेजित किया । स्वयं 1728 ई० में निज़ाम-उल-मुल्क ने पेशवा के साथ लड़ाई की जो मालखेद में हुई। परन्तु इस लड़ाई में निजाम-उल-मुल्क पराजित हुआ और उसने शाहू को छत्रपति मान लिया । उसने छत्रपति को चौथ और सरदेशमुखी देना भी स्वीकार कर लिया ।

निजाम-उल-मुल्क अब भी यह नहीं चाहता था कि मराठों की शक्ति का अधिक विस्तार हो । उसको यह भय था कि मराठे उत्तरी भारत में अपनी शक्ति बढ़ा कर और मुग़ल सम्राट् से अधिकार प्राप्त करके हैदरबाद की रियासत को समाप्त करने का प्रयत्न करेंगे । इसलिए यह आवश्यक था कि वह मालवा पर अपना अधिकार स्थापित करते । परन्तु 1738 ई० में वह भोपाल के निकट मराठों से एक बार फिर हार गया । अब वह इस योग्य न रहा कि मराठों को उत्तरी-भारत में शक्ति बढ़ाने से रोक सके । मुग़ल सम्राट की दृष्टि में भी उसकी शक्ति स्पष्ट रूप से मराठों से क्षीण हो गई थी । उसकी 1748 ई० में मृत्यु हो गई । इस समय तक वह हैदराबाद का एक स्वतन्त्र शासक बन चुका था ।

निज़ाम-उल-मुल्क की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों तथा निकट सम्बन्धियों के बीच हैदराबाद की राजगद्दी के लिए आपसी संघर्ष छिड़ गया । फलस्वरूप लगभग दस-बारह वर्षों तक हैदराबाद की राजनीतिक दशा बड़ी शोचनीय रही । परन्तु 1761 ई० में उसके पुत्र निज़ाम अली ने अपनी शक्ति बढ़ा ली और मुग़ल सम्राट् से हैदराबाद पर अपने अधिकार का अनुमति पत्र प्राप्त कर लिया । सम्राट ने उसे भी निज़ाम-उल-मुल्क तथा आसफजाह की उपाधि प्रदान की । इतना होने पर भी निज़ाम अली हैदराबाद की शक्ति को और अधिक न बढ़ा सका । कई वर्षों तक उसे मैसूर के शासक हैदर अली की ओर से खतरा बना रहा । समय-समय पर हैदरअली के साथ उसकी लड़ाई भी हुई परन्तु किसी को भी निर्णायक विजय प्राप्त न हो सकी। कुछ अन्य पड़ोसी शक्तियों से भी उसका संघर्ष चलता रहा। इन परिस्थितियों में उसने 1798 ई० में अंग्रेजों के साथ एक सन्धि की और उनकी अधीनता स्वीकार कर ली । इस प्रकार हैदराबाद की रियासत अंग्रेजों की अधीनता में आ गई।

2. मैसूर-

मैसूर रियासत का उदय विजयनगर राज्य के पतन के बाद हुआ । 1600 ई० के लगभग उदियार नामक एक व्यक्ति ने विजयनगर के सामन्त के रूप में मैसूर में अपना राज्य स्थापित कर लिया था । लगभग 1700 ई० में उदियार का एक अधिकारी मैसूर का स्वतन्त्र शासक बन गया । उसका नाम देव राय था । लगभग आधी शताब्दी तक उसके उत्तराधिकारियों ने इस रियासत को स्थाई रखा । परन्तु वे धीरे-धीरे निर्बल होते गए और उनके मन्त्री शक्तिशाली हो गए । 1750 ई० से कुछ समय पश्चात् मैसूर के एक मन्त्री नन्दराज के संरक्षण में हैदरअली नामक एक सेनानायक मैसूर का मुख्य सेनापति बन गया । वह 1761 ई० नन्दराज से भी अधिक शक्तिशाली हो गया । इसके दो वर्ष बाद उसने मराठों के कुछ राज्यों को अपने अधीन करना आरम्भ कर दिया । इसीलिए मराठों से उसकी टक्कर होनी आवश्यक हो गई ।

1764 से 1770 के बीच मराठों ने कई बार मैसूर पर आक्रमण किया और हैदरअली को पराजित किया । परन्तु मराठा सरदार आपसी झगड़ों के कारण मैसूर का अन्त न कर सके । 1770 ई० में उन्होंने हैदरअली से सन्धि कर ली । इस सन्धि से भी हैदरअली की कठिनाइयों का अन्त न हुआ । उसे मराठों के अतिरिक्त हैदराबाद, कर्नाटक तथा अंग्रेजों से भी निपटना पड़ा । इस प्रकार अपनी मृत्यु तक वह किसी-न-किसी लड़ाई में ही उलझा रहा । उसके बाद उसके पुत्र टीपू ने एक स्वतन्त्र शासक के रूप में मैसूर की राजगद्दी सम्भाली । उसे भी अंग्रेजों से टक्कर लेनी पड़ी । 1799 ई० में वह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया । अंग्रेजों ने मैसूर के बहुत से प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया और शेष राज्य उदियार वंश के एक राजकुमार को दे दिया । हैदराबाद की भान्ति मैसूर की रियासत भी अंग्रेजों के अधीन 1947 ई० तक स्थापित रही ।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
शिवाजी का जन्म कब तथा कहां हुआ ?
उत्तर-
शिवाजी का जन्म 1627 ई० में पूना के निकट शिवनेरी के दुर्ग में हुआ।

प्रश्न 2.
शिवाजी के माता-पिता का क्या नाम था ?
उत्तर-
शिवाजी की माता का नाम जीजाबाई तथा पिता का नाम शाह जी भौंसले था ।

प्रश्न 3.
शाइस्ता खां कौन था ?
उत्तर-
शाइस्ता खां औरंगजेब का मामा था जो एक योग्य सेनानायक था।

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प्रश्न 4.
पुरन्धर की सन्धि किस-किस के बीच हुई ?
उत्तर-
पुरन्धर की सन्धि मुग़ल सेनानायक मिर्जा राजा जयसिंह तथा शिवाजी के बीच में हुई।

प्रश्न 5.
ताराबाई कौन थी ?
उत्तर-
ताराबाई छत्रपति शिवाजी के पुत्र की पत्नी अर्थात् शिवाजी की पुत्रवधू थी। वह अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका थी।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) शाहू ………. का पुत्र था ।
(ii) पानीपत का तीसरा युद्ध ……… ई० में हुआ था।
(iii) टीपू सुल्तान ………… का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था।
(iv) हैदराबाद रियासत का संस्थापक ………… था।
(v) अंग्रेजों ने दिल्ली पर ………. ई० में अधिकार किया।
उत्तर-
(i) शम्भा जी
(ii) 1761
(iii) हैदरअली
(iv) चिन किलिच खान
(v) 1803 ।

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3. सही/ग़लत कथन

(i) पानीपत का तीसरा युद्ध अहमदशाह अब्दाली तथा शिवाजी के बीच हुआ। — (✗)
(ii) होल्कर सरदारों की राजधानी इंदौर थी। — (✓)
(iii) हैदरअली मैसूर का मुख्य सेनापति था। — (✓)
(iv) शिण्डे सरदार मालवा पर शासन करते थे। — (✗)
(v) शिण्डे सरदारों की राजधानी ग्वालियर थी। — (✓)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
मिर्जा राजा जयसिंह किसका सेनापति था?
(A) अकबर
(B) औरंगजेब
(C) शिवाजी
(D) हैदरअली ।
उत्तर-
(B) औरंगजेब

प्रश्न (ii)
निम्न में से कौन सा अंग शिवाजी की सेना का नहीं था?
(A) पैदल सैनिक
(B) तोपखाना
(C) घुड़सवार
(D) अश्व सेना ।
उत्तर-
(D) अश्व सेना ।

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प्रश्न (iii)
निम्न लड़ाई मराठों के लिए बहुत घातक सिद्ध हुई-
(A) पानीपत की पहली लड़ाई
(B) पानीपत की दूसरी लड़ाई
(C) पानीपत की तीसरी लड़ाई
(D) उपरोक्त सभी ।
उत्तर-
(C) पानीपत की तीसरी लड़ाई

प्रश्न (iv)
शिवाजी के ‘अष्ट प्रधान’ का मुखिया कहलाता था-
(A) पेशवा
(B) पण्डित राव
(C) पाटिल
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर-
(A) पेशवा

प्रश्न (v)
हैदरअली की मृत्यु हुई-
(A) 1702
(B) 1707
(C) 1761
(D) 1782.
उत्तर-
(D) 1782.

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
मराठों के इतिहास की जानकारी के स्रोतों के चार मुख्य प्रकारों के नाम बताओ ।
उत्तर-
मराठों के इतिहास की जानकारी के चार प्रकार के स्रोत हैं-मराठी में लिखे गए वृत्तान्त, मराठा सरकार के रिकार्ड, फ़ारसी एवं राजस्थानी में भेजे गए पत्र और तत्कालीन अखबार ।

प्रश्न 2.
इतिहासकार कौन-सी सदी को ‘मराठों का युग’ कहते हैं और क्यों ?
उत्तर-
इतिहासकार 18वीं सदी को मराठों का युग कहते हैं क्योंकि इस सदी में मराठे सबसे अधिक शक्तिशाली थे ।

प्रश्न 3.
शिवाजी का जन्म कब हुआ और उन्होंने राज्य स्थापना का प्रयत्न कब आरम्भ किया ?
उत्तर-
शिवाजी का जन्म 1627 ई० में हुआ । उन्होंने राज्य स्थापना का प्रयत्न 1646 ई० में आरम्भ किया ।

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प्रश्न 4.
शिवाजी के पिता का क्या नाम था और उन्होंने दक्कन के किन सुल्तानों से जागीरें प्राप्त की थी ?
उत्तर-
शिवाजी के पिता का नाम शाहजी था । उन्होंने अहमदनगर तथा बीजापुर के सुल्तानों से जागीरें प्राप्त की ।

प्रश्न 5.
शिवाजी ने अपनी विजय किस प्रदेश से आरम्भ की तथा 1646 ई० में किस किले पर अधिकार किया ?
उत्तर-
शिवाजी ने अपनी विजय पश्चिमी घाट के कोंकण प्रदेश से आरम्भ की । उन्होंने 1646 ई० में तोरण के किले पर अधिकार किया ।

प्रश्न 6.
शिवाजी ने दक्षिण के कौन-से चार राज्यों के क्षेत्रों में विजय प्राप्त की ?
उत्तर-
शिवाजी ने दक्षिण के अहमदनगर, बीजापुर, मैसूर तथा कर्नाटक राज्यों के क्षेत्रों में विजय प्राप्त की ।

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प्रश्न 7.
शिवाजी ने कौन-सी प्रसिद्ध मुगल बन्दरगाह को लूटा तथा किस मुगल सेनापति को हराया ?
उत्तर-
शिवाजी ने मुग़लों की प्रसिद्ध बन्दरगाह सूरत को लूटा । उन्होंने मुग़ल सेनापति शाइस्ता खाँ को हराया ।

प्रश्न 8.
शिवाजी ने मुग़लों के साथ कौन-सी सन्धि की तथा यह किसके प्रयासों से हुई ?
उत्तर-
शिवाजी ने मुग़लों से पुरन्धर की सन्धि की । यह सन्धि मुग़ल सेनापति जयसिंह के प्रयासों से हुई ।

प्रश्न 9.
शिवाजी औरंगजेब को कहां और कौन-से वर्ष में मिले थे ?
उत्तर-
शिवाजी औरंगजेब को 1666 ई० में आगरा में मिले थे ।

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प्रश्न 10.
शिवाजी का राज्याभिषेक कब और कहां हुआ तथा उन्होंने कौन-सी उपाधि धारण की ?
उत्तर-
शिवाजी का राज्याभिषेक 16 जून, 1676 को रायगढ़ में हुआ । उन्होंने ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की ।

प्रश्न 11.
शिवाजी की मृत्यु कब हुई तथा उनका उत्तराधिकारी कौन था ?
उत्तर-
शिवाजी की मृत्यु 1680 ई० में हुई । उनका उत्तराधिकारी शम्भाजी था ।

प्रश्न 12.
शिवाजी का राज्य कितने प्रशासनिक भागों में बंटा हुआ था ?
उत्तर-
शिवाजी का राज्य ‘प्रान्तों’, ‘परगनों’, ‘तरफों’ तथा गांवों में बंटा हुआ था । इस प्रकार उनका राज्य चार प्रशासनिक भागों में विभाजित था ।

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प्रश्न 13.
शिवाजी के मन्त्रिमण्डल को क्या कहा जाता था तथा उनका प्रधान कौन था ?
उत्तर-
शिवाजी के मन्त्रिमण्डल को ‘अष्ट प्रधान’ कहा जाता था । ‘अष्ट प्रधान’ का मुखिया (प्रधान) पेशवा होता था ।

प्रश्न 14.
शिवाजी की सेना में कौन-से चार अंग थे ?
उत्तर-
शिवाजी की सेना के चार अंग थे-‘घुड़सवार’, ‘पैदल सैनिक’, ‘तोपखाना’ तथा ‘समुद्री बेड़ा’।

प्रश्न 15.
स्वराजीय तथा मुगलई से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
स्वराजीय वे प्रदेश थे जो सीधे तौर पर शिवाजी के अधीन थे । मुग़लई वे प्रदेश थे जहां से शिवाजी चौथ तथा सरदेशमुखी नामक कर वसूल करते थे ।

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प्रश्न 16.
चौथ तथा सरदेशमुखी लगान के कौन-से भाग थे ?
उत्तर-
चौथ लगान का चौथा भाग तथा सरदेशमुखी लगान का दसवां भाग होता था ।

प्रश्न 17.
शिवाजी के दो पुत्रों के नाम बताएं और ताराबाई किसकी पत्नी थी और वह कहां से राज्य करती थी ?
उत्तर-
शिवाजी के दो पुत्रों के नाम थे-शम्भाजी तथा राजाराम । ताराबाई राजाराम की पत्नी थी जो कोल्हापुर से राज्य करती थी।

प्रश्न 18.
शाहू किसका पुत्र था तथा उसने अपनी राजधानी कौन-सी बनाई ?
उत्तर-
शाहू शम्भाजी का पुत्र था । उसने सतारा को अपनी राजधानी बनाया ।

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प्रश्न 19.
शाहू ने अपना पेशवा कब और किसको बनाया ?
उत्तर-
शाहू ने 1713 ई० में बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा बनाया ।

प्रश्न 20.
शाहू तथा मुगल बादशाह में सन्धि कब हुई तथा इसमें शाहू का प्रतिनिधित्व किसने किया ?
उत्तर-
शाहू तथा मुग़ल बादशाह में 1719 ई० में सन्धि हुई । इसमें शाहू का प्रतिनिधित्व बालाजी विश्वनाथ ने किया ।

प्रश्न 21.
मुगल बादशाह के साथ सन्धि के द्वारा शाहू ने कितने घुड़सवार रखना और कितना खिराज देना स्वीकार किया ?
उत्तर-
इस सन्धि द्वारा शाहू ने 15,000 घुड़सवार रखना तथा दस लाख रुपया वार्षिक खिराज देना स्वीकार किया ।

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प्रश्न 22.
18वीं सदी के चार महत्त्वपूर्ण पेशवाओं के नाम बताएं । .
उत्तर-
18वीं सदी के चार महत्त्वपूर्ण पेशवा थे-बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव, बालाजी बाजीराव और माधोराव ।

प्रश्न 23.
किन दो पेशवाओं के समय में मराठों की शक्ति अपने शिखर पर पहुंची तथा उनका कार्यकाल क्या था ?
उत्तर-
बालाजी विश्वनाथ तथा बाजीराव के समय में मराठों की शक्ति अपने शिखर पर पहुंची । बालाजी विश्वनाथ का कार्यकाल 1713 ई० से 1719 ई० तथा बाजीराव का कार्यकाल 1719 ई० से 1740 ई० तक था ।

प्रश्न 24.
मराठों ने दक्षिण के किन दो शासकों से खिराज वसूल किया ?
उत्तर-
मराठों ने दक्षिण में हैदराबाद तथा कर्नाटक के शासकों से खिराज वसूल किया ।

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प्रश्न 25.
मराठों ने पुर्तगालियों से कौन-से दो स्थान जीते ?
उत्तर-
मराठों ने पुर्तगालियों से सालसैट और बसीन के प्रदेश जीते ।

प्रश्न 26.
1740 ई० से पूर्व मराठों ने उत्तरी भारत के कौन-कौन से दो प्रदेशों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली ?
उत्तर-
1740 ई० से पूर्व मराठों ने उत्तरी भारत के मालवा और बुन्देलखण्ड प्रदेशों में अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की ।

प्रश्न 27.
1740 ई० से पूर्व मराठों ने कौन-से चार प्रदेशों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल किया ?
उत्तर-
1740 ई० से पूर्व मराठों ने हैदराबाद, कर्नाटक, मालवा और बुन्देलखण्ड के प्रदेशों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल किया ।

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प्रश्न 28.
कौन-से वर्ष में मराठे मुग़ल बादशाह के रक्षक बन गए तथा उन्होंने अहमदशाह अब्दाली के पुत्र को पंजाब से कब खदेड़ा ?
उत्तर-
मराठे 1757 ई० में मुग़ल बादशाह के रक्षक बन गए । उन्होंने अहमदशाह अब्दाली के पुत्र को 1758 ई० में पंजाब से खदेड़ा।

प्रश्न 29.
पानीपत का तीसरा युद्ध कब और किनके बीच हुआ?
उत्तर-
पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई० में हुआ । यह युद्ध अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के बीच हुआ ।

प्रश्न 30.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद किन पांच इलाकों में मराठों की सत्ता समाप्त हो गई ?
उत्तर-
पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद मराठा सत्ता बंगाल, बिहार, अवध, पंजाब और मैसूर में समाप्त हो गई ।

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प्रश्न 31.
गुजरात पर कौन-से मराठा सरदारों का अधिकार था और उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
गुजरात पर गायकवाड़ सरदारों का अधिकार था । उनकी राजधानी बड़ौदा थी ।

प्रश्न 32.
उड़ीसा तथा मध्य भारत पर कौन-से मराठा सरदारों का अधिकार था तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी?
उत्तर-
उड़ीसा तथा मध्य भारत पर भौंसला सरदारों का शासन था । उनकी राजधानी नागपुर थी ।

प्रश्न 33.
होल्कर सरदार किस प्रदेश पर शासन करते थे तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
होल्कर सरदार मालवा में शासन करते थे । उनकी राजधानी इन्दौर थी ।

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प्रश्न 34.
शिण्डे सरदार किस प्रदेश पर शासन करते थे तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
शिण्डे सरदार बुन्देलखण्ड पर शासन करते थे । उनकी राजधानी ग्वालियर थी ।

प्रश्न 35.
पानीपत के युद्ध के बाद नए पेशवा का क्या नाम था तथा उसकी राजधानी कहां थी ?
उत्तर-
पानीपत के युद्ध के बाद नए पेशवा का नाम माधोराव था । उसकी राजधानी पूना थी ।

प्रश्न 36.
मराठे कौन-से मुगल बादशाह को और कब दिल्ली में लाए ?
उत्तर-
मराठे मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय को 1772 ई० में दिल्ली लाए ।

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प्रश्न 37.
उत्तर भारत में सबसे शक्तिशाली मराठा सरदार कौन था तथा उसे मुग़ल बादशाह से कौन-सी पदवियां मिलीं ?
उत्तर-
उत्तर भारत में सबसे शक्तिशाली मराठा सरदार महादजी शिण्डे था । उसे मुग़ल बादशाह से ‘वकील-ए-मुतलक’ तथा ‘मीर बख्शी’ की पदवियां मिलीं ।

प्रश्न 38.
अंग्रेजों ने 1802-03 ई० में कौन-से चार मराठा सरदारों के साथ सन्धियां की ?
उत्तर-
अंग्रेजों ने 1802-03 ई० में जिन चार मराठा सरदारों से सन्धियां कीं, वे थे-गायकवाड़, भौंसले, शिण्डे तथा स्वयं पेशवा ।

प्रश्न 39.
अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब अधिकार किया और किस मुग़ल बादशाह को अपने प्रभाव अधीन लिया ?
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर 1803 ई० में अधिकार किया । इस प्रकार उन्होंने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को अपने प्रभाव अधीन कर लिया ।

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प्रश्न 40.
18वीं सदी में मराठों के बाद दक्षिण की सबसे शक्तिशाली रियासत कौन-सी थी तथा इसके आरम्भिक संस्थापक का नाम क्या था ?
उत्तर-
18वीं सदी में मराठों के बाद दक्षिण की सबसे शक्तिशाली रियासत हैदराबाद थी । इसके आरम्भिक संस्थापक का नाम चिन किलिच खान था ।

प्रश्न 41.
हैदराबाद के शासक को मुगल बादशाह की ओर से कौन-सी दो उपाधियां और कब दी गईं ?
उत्तर-
हैदराबाद के शासक को मुग़ल बादशाह की ओर से ‘निजामुलमुल्क’ तथा ‘आसफ़जाह’ की उपाधियां दी गईं। उसे पहली उपाधि 1713 ई० में और दूसरी उपाधि 1725 ई० में दी गई ।

प्रश्न 42.
निजामुलमुल्क मराठों से किन दो लड़ाइयों में तथा कब पराजित हुआ ?
उत्तर-
निज़ामुलमुल्क मराठों से मालखेद तथा भोपाल के निकट लड़ी गई लड़ाइयों में क्रमश: 1728 ई० तथा 1738 ई० में पराजित हुआ ।

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प्रश्न 43.
निज़ामअली किसका पुत्र था तथा उसने कब सत्ता प्राप्त की ?
उत्तर-
निज़ामअली आसफजाह (निजामुलमुल्क) का पुत्र था । उसने 1761 ई० में सत्ता प्राप्त की ।

प्रश्न 44.
हैदरअली कब और किस राज्य का मुख्य सेनापति बना ?
उत्तर-
हैदरअली 1750 ई० से कुछ समय पश्चात् मैसूर राज्य का मुख्य सेनापति बना ।

प्रश्न 45.
हैदरअली की दक्षिण की कौन-सी चार शक्तियों के साथ लड़ाई रही ?
उत्तर-
हैदरअली की दक्षिण की जिन शक्तियों के साथ लड़ाई रही, वे थीं-मराठे, हैदराबाद का शासक, कर्नाटक का नवाब और अंग्रेज़ ।

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प्रश्न 46.
हैदरअली ने मराठों के साथ समझौता कब किया और कितना रुपया देना स्वीकार किया ?
उत्तर-
हैदरअली ने 1770 ई० में मराठों के साथ समझौता किया और उन्हें 31 लाख रुपया देना स्वीकार किया ।

प्रश्न 47.
हैदरअली की मृत्यु कब हुई तथा उसके उत्तराधिकारी का नाम क्या था ?
उत्तर-
हैदरअली की मृत्यु 1782 ई० में हुई । उसके उत्तराधिकारी का नाम टीपू सुल्तान था ।

प्रश्न 48.
टीपू सुल्तान ने अपने आपको एक स्वतन्त्र शासक कब घोषित किया तथा उसकी मृत्यु कब और किससे लड़ते समय हुई ?
उत्तर-
टीपू सुल्तान ने 1786 ई० में अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित किया । उसकी मृत्यु 1799 ई० में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते समय हुई ।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
18वीं शताब्दी में दक्षिणी भारत की नई रियासतें कौन-सी थीं ?
उत्तर-
18वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण में अनेक नई रियासतों का उदय हुआ । इनमें से मराठा राज्य, हैदराबाद और मैसूर प्रमुख थीं । मराठा राज्य यूं तो 17वीं शताब्दी में ही शिवाजी के अधीन शक्तिशाली हो गया था परन्तु इसके उत्तराधिकारियों के समय तथा पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद इस राज्य की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई । हैदराबाद राज्य की स्थापना चिन-किलिच खान ने की थी । सम्राट् मुहम्मद शाह ने 1725 ई० में इसे आसफजाह की उपाधि दी जो कि एक दिखावा मात्र थी । वास्तव में आसफजाह निज़ाम के नाम से प्रसिद्ध हुए । 1798 ई० में हैदराबाद के शासक ने अंग्रेजों के साथ सन्धि कर ली और उनकी शरण ले ली । इसके बाद भारत के स्वतन्त्र होने तक यह रियासत अंग्रेजों की अधीनता में ही स्थापित रही ।

मैसूर रियासत का उदय विजयनगर राज्य के पतन के बाद हुआ । इस राज्य के प्रसिद्ध शासक थे-हैदरअली और टीपू सुल्तान । अंग्रेजों ने 1799 ई० में टीपू सुल्तान को हराकर मैसूर के बहुत-से प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया और शेष राज्य उदियार वंश के एक राजकुमार को दे दिया । हैदराबाद की भान्ति मैसूर की रिसायत भी अंग्रेजों के अधीन 1947 ई० तक स्थापित रही।

प्रश्न 2.
दक्षिण में मराठा शक्ति के उदय के कारण लिखो ।
उत्तर-
मराठे महाराष्ट्र के रहने वाले थे । इस प्रदेश में पश्चिमी घाट की पहाड़ियां स्थित हैं । अतः मराठों को आजीविका कमाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता था । परिश्रम के जीवन ने उन्हें वीर तथा साहसी बनाया । दक्षिण के मुसलमान राज्यों में रह कर उनके सैनिक गुणों का विकास हुआ । यहां के मुसलमान शासकों ने उन्हें सेना में भर्ती किया और उनकी सहायता से अनेक युद्ध जीते । इस प्रकार मराठों को अपनी सैनिक शक्ति का पूर्णतया आभास हो गया । 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में मराठा प्रदेश में धार्मिक पुनर्जागरण हुआ । तुकाराम, एकनाथ, रामदास तथा वामन पण्डित आदि सन्तों ने मराठों में एकता और समानता की भावना का प्रचार किया । परिणामस्वरूप मराठे जाति-पाति के भेदभाव भूल कर एक हो गए । मराठा शक्ति के उत्थान में सबसे अधिक योगदान शिवाजी का था। उन्होंने अपनी योग्यता और वीरता से बिखरी हुई मराठा शक्ति को एक लड़ी में पिरोया । अन्त में शिवाजी के नेतृत्व में मराठे दक्षिण भारत में सबसे अधिक शक्तिशाली हो गए ।

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प्रश्न 3.
बाजीराव के नेतृत्व में मराठा शक्ति के उत्तरी भारत में विस्तार का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
बाजीराव 1719 ई० में पेशवा बना । मराठा इतिहास में उसे सबसे महान् पेशवा कहा जाता है । वह मराठा राज्य का विस्तार सारे भारत में करना चाहता था । उसने निज़ाम हैदराबाद को 1728 ई० में पराजित किया और उसके साथ एक सन्धि की । सन्धि के अनुसार निज़ाम ने शाहू जी को एकमात्र मराठा राजा स्वीकार किया और वचन दिया कि वह शम्भूजी का पक्ष नहीं लेगा । 1738 ई० में भोपाल के समीप बाजीराव ने पुनः निज़ाम को पराजित किया । निज़ाम तथा मुगलों ने नर्मदा और चम्बल के बीच का प्रदेश मराठों को दे दिया । इसके अतिरिक्त पेशवा के भाई चिमना जी आपे ने मालवा के गवर्नर गिरधर बहादुर को पराजित किया । पेशवा ने बुन्देल सरदार छत्रसाल की सहायता करके बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर भी अधिकार कर लिया । उसने दिल्ली के समीप मुग़ल सेना को हराया। तत्पश्चात् उसने अपने भाई चिमना जी आपे की सहायता से पुर्तगालियों को पराजित करके थाना, सालसेट तथा बसीन के प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की । इस प्रकार बाजीराव प्रथम ने अनेक प्रदेश विजित किए और मराठा राज्य का विस्तार किया ।

प्रश्न 4.
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की पराजय के कारणों की समीक्षा कीजिए ।
उत्तर-
पानीपत की तीसरी लड़ाई में अनेक कारणों से मराठों की पराजय हुई । प्रथम, मराठा सरदार सदाशिव राव बड़ा ही हठी स्वभाव का व्यक्ति था। अपने हठी स्वभाव के कारण ही उसने राजपूतों को अपना शत्रु बना लिया था। परिणामस्वरूप पानीपत के युद्ध में मराठों को राजपूतों की सहायता न मिल सकी। दूसरे, युद्ध में मराठा सरदार विश्वास राव की मृत्यु के कारण सदाशिव राव चुपचाप हाथी से नीचे उतर आया। उसके सैनिकों ने जब उसे हाथी पर न देखा तो उनका धैर्य टूट गया। तीसरे, मराठा सरदारों में आपसी एकता नहीं थी। एकता के अभाव में उन्हें पराजित होना पड़ा । चौथे, मराठा सैनिक छापामार युद्ध करने में अधिक कुशल थे। वे इस आमने-सामने के युद्ध में शत्रु सेना का पूरी तरह सामना न कर सके । पांचवें, इस युद्ध में अब्दाली को अवध के नवाब तथा रुहेला सरदारों ने भी सहायता दी, जिससे उसकी शक्ति बढ़ गई । छठे, युद्ध में मराठा सेना की रसद का प्रबन्ध ठीक न होने के कारण उन्हें कई बार भूखा रहना पड़ा । यह बात भी उनकी पराजय का कारण बनी।

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प्रश्न 5.
मराठे एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने में क्यों असफल रहे ?
उत्तर-
मराठे कई कारणों से भारत में शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने में असफल रहे । प्रथम, शिवाजी अपने सैनिकों को नकद वेतन देते थे । परन्तु पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने जागीर प्रथा आरम्भ कर दी । परिणाम यह हुआ कि मराठा सरदार शक्तिशाली हो गए और केन्द्रीय सत्ता निर्बल हो गई । दूसरे, पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों के लगभग 70 हज़ार सैनिक मारे गये। इस प्रकार उनकी सैनिक शक्ति लगभग नष्ट हो गई । तीसरे, मराठों के पास अंग्रेज़ों की तरह अच्छे शस्त्र नहीं थे। उनकी सेना भी अंग्रेज़ों जैसी संगठित नहीं थी। इस कारण वे अंग्रेजों के विरुद्ध पराजित हुए । चौथे, मराठे गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में कुशल थे। परन्तु उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध मैदानी युद्ध करने पड़े । पांचवें, मराठा सरदारों में एकता का अभाव था। इस स्थिति में शक्तिशाली राज्य स्थापित करना असम्भव था । छठे, मराठों ने शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की ओर विशेष ध्यान न दिया। वे अधिकतर लूटमार में ही अपना समय बिताते थे । इस कारण उनकी प्रजा उनसे नाराज़ हो गई और मराठा राज्य का पतन हो गया ।

प्रश्न 6.
मैसूर में हैदरअली और टीपू सुल्तान की सफलताओं का वर्णन करो ।
उत्तर-
हैदरअली मैसूर का शासक था । उसने यहां का शासन 1761 ई० में मैसूर के एक हिन्दू राजा से प्राप्त किया था। वह एक वीर तथा साहसी व्यक्ति था । वह पक्का देशभक्त था । वह अंग्रेज़ों का घोर शत्रु था और उनकी कूटनीति को खूब समझता था । इसलिए वह इन्हें भारत से बाहर निकालना चाहता था । इस उद्देश्य से उसने अंग्रेजों के साथ दो युद्ध किए । प्रथम युद्ध में तो उसे कुछ सफलता मिली परन्तु दूसरे युद्ध के दौरान उसकी मृत्यु हो गई । परिणामस्वरूप वह अपना उद्देश्य पूरा न कर सका ।

टीपू सुल्तान एक योग्य शासक, कुशल सेनापति और महान् प्रशासक था । टीपू सुल्तान ने एक नवीन कैलेंडर लागू किया और सिक्के ढालने की एक नई प्रणाली आरम्भ की । उसने मापतोल के नये पैमाने भी अपनाए । उसने अपने पुस्तकालय में धर्म, इतिहास, सैन्य विज्ञान, औषधि विज्ञान और गणित आदि विषयों की पुस्तकों का समावेश किया । उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से संगठित किया। उसने व्यापार तथा औद्योगिक विकास की ओर पूरा ध्यान दिया । संक्षेप में, उसकी उपलब्धियां अपने युग के अन्य शासकों की तुलना में महान् थीं। .

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प्रश्न 7.
शिवाजी के राज्य प्रबन्ध की मुख्य विशेषताएं बताएं ।
उत्तर-
शिवाजी का राज्य प्रबन्ध प्राचीन हिन्दू नियमों पर आधारित था । शासन के मुखिया वह स्वयं थे । उनकी सहायता तथा परामर्श के लिए 8 मन्त्रियों की राजसभा थी, जिसे अष्ट-प्रधान कहते थे । इसका मुखिया ‘पेशवा’ कहलाता था । प्रत्येक मन्त्री के अधीन अलग-अलग विभाग थे । प्रशासन की सुविधा के लिए राज्य को चार प्रान्तों में बांटा गया था । प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त परगनों में बंटे हुए थे । शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी । इसका प्रबन्ध ‘पाटिल’ करते थे । शिवाजी के राज्य की आय का सबसे बड़ा साधन भूमिकर था । भूमि-कर के अतिरिक्त चौथ, सरदेशमुखी तथा कुछ अन्य कर भी राज्य की आय के मुख्य साधन थे । न्याय के लिए पंचायतों की व्यवस्था थी। शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन भी किया । उन्होंने घुड़सवार सेना भी तैयार की। घुड़सवार सिपाही पहाड़ी प्रदेशों में लड़ने में फुर्तीले होते थे । शिवाजी के पास एक समुद्री बेड़ा भी था ।

प्रश्न 8.
चौथ तथा सरदेशमुखी से क्या अभिप्राय था तथा इसका क्या महत्त्व था ?
उत्तर–
चौथ तथा सरदेशमुखी दो प्रकार के कर थे । शिवाजी कर निश्चित इलाकों से प्राप्त किया करते थे । उनके प्रभावाधीन दो तरह के क्षेत्र थे-एक वे प्रदेश जो सीधे तौर पर शिवाजी के राज्य में शामिल थे । इन प्रदेशों को स्वराज्यी कहा जाता था । दूसरे प्रकार के प्रदेश इसके चारों ओर के इलाके में फैला था । इसे मुग़लई कहते थे । मुगलई इलाकों से चौथ अथवा लगान का एक चौथाई भाग और सरदेशमुखी अथवा लगान का दसवां भाग तलवार के ज़ोर से वसूल किया जाता था । शिवाजी छत्रपति होने के अतिरिक्त स्वयं को महाराष्ट्र का सरदेशमुख (सबसे बड़ा देशमुख) भी कहलाते थे । अतः लगान का दसवां हिस्सा लेना वे अपना अधिकार समझते थे । चौथ और सरदेशमुखी मराठा शक्ति के चिन्ह भाग बन गए । इनके कारण मराठा शक्ति का क्षेत्र अधिक विस्तृत दिखाई देता था ।

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प्रश्न 9.
बालाजी विश्वनाथ ने राजा शाहू की स्थिति को सुदृढ़ करने में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
बालाजी ने शाहू जी के लिए अनेक कार्य किए । उसने ताराबाई तथा अन्य सरदारों को पराजित करके शाहूजी की स्थिति सुदृढ़ की । अत: शाहूजी ने उसे 1713 ई० में पेशवा नियुक्त किया । पेशवा के रूप में बालाजी ने न केवल मराठा सत्ता को सुदृढ़ किया बल्कि अपने परिवार के लिए पेशवा की गद्दी सदा के लिए सुरक्षित कर ली । बाला जी विश्वनाथ ने मुग़ल राज परिवार के आपसी झगड़ों का लाभ उठाया । उसने 1719 में मुग़लों से एक सन्धि की । इस सन्धि के अनुसार शाहूजी को ‘स्वराज प्रदेशों’ का शासक स्वीकार कर लिया गया और उसे दक्षिण के मुग़ल प्रदेशों से ‘चौथ’ तथा ‘सरदेशमुखी’ वसूल करने का अधिकार भी मिल गया । यह निर्णय भी किया गया कि शाहूजी मुग़लों की सहायता के लिए सेना तैयार रखेंगे जिसमें 15 हज़ार सैनिक होंगे । बालाजी ने शाहूजी की माता तथा मराठा राज-परिवार के अन्य सदस्यों को मुग़ल कैद से छुड़ाने में भी सफलता प्राप्त की । उसने शाहूजी को दक्षिण में मुग़ल शासन का प्रतिनिधि बनवा दिया और ताराबाई की सत्ता का अन्त कर दिया ।

प्रश्न 10.
इतिहास में पानीपत के तीसरे युद्ध का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई० में अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के बीच हुआ । अहमदशाह को तो इस युद्ध से कोई विशेष लाभ न हुआ, परन्तु मराठा शक्ति पर इस युद्ध का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा । युद्ध में लगभग दो लाख मराठा सैनिक तथा अन्य लोग मारे गए । पेशवा बालाजी बाजीराव इस पराजय के शोक से मर गए । फलस्वरूप भारत में मराठों का अदबा लगभग समाप्त हो गया। बंगाल, बिहार, अवध, पंजाब और मैसूर में उनकी सत्ता समाप्त हो गई । पेशवा पद का महत्त्व इतना कम हो गया कि मराठा सरदार अपनी मनमानी करने लगे । मराठों की इस कमज़ोरी का लाभ अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी सत्ता को पहुँचा ।

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प्रश्न 11.
प्रमुख मराठा सरदार तथा उनके राज्य क्षेत्र कौन-से थे ?
उत्तर-
मराठा राज्य में बड़े-बड़े मराठा सरदारों ने अपने राज्य क्षेत्र अलग-अलग स्थापित किए हुए थे । ज्यों-ज्यों पेशवा की शक्ति बढ़ी त्यों-त्यों मराठा सरदारों का अधिकार क्षेत्र भी बढ़ा । पानीपत के युद्ध से पूर्व ही पांच अलग-अलग मराठा राज्य क्षेत्र अस्तित्व में आ चुके थे । पूना से पेशवा स्वयं महाराष्ट्र पर शासन करता था । गुजरात में गायकवाड़ सरदार प्रधान थे। उनकी राजधानी बड़ौदा थी। उड़ीसा को मिलाकर मध्य भारत पर भौंसला सरदारों का शासन था । उनकी राजधानी नागपुर थी। मालवा में होल्कर सरदार इन्दौर से शासन करते थे। इसी तरह बुन्देलखण्ड में ग्वालियर से शिंडे सरदार राज्य करते थे। पानीपत के युद्ध के पश्चात् कुछ सरदारों ने नए पेशवा माधोराव का विरोध करना आरम्भ कर दिया । परन्तु महादजी शिंडे की सहायता से उसकी स्थिति बनी रही। 1772 में माधोराव की मृत्यु के पश्चात् पेशवा की ओर से नाना फड़नवीस ने 1800 तक मराठा सरदारों को एक सूत्र में बांधे रखा। बाद में मराठा सरदारों की नई पीढ़ियां लगभग स्वतन्त्र हो गईं ।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
(क) शिवाजी के नेतृत्व में मराठों के उत्थान का वर्णन कीजिए ।
(ख) मराठों की शक्ति को रोकने के लिए औरंगजेब को किस सीमा तक सफलता मिली ? .
अथवा
शिवाजी की विजयों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
(क) शिवाजी के नेतृत्व में मराठों का उत्थान-शिवाजी एक महान् मराठा सरदार थे । उन्होंने मराठों को एक सूत्र में बांधने के अनेक प्रयत्न किए । सबसे पहले उन्होंने बिखरी हुई मराठा शक्ति को संगठित करके एक विशाल सेना तैयार की । 1646 ई० में उन्होंने अपना विजय-अभियान आरम्भ किया ।

विजयें-शिवाजी की पहली विजय तोरण दुर्ग पर थी । इसके बाद उन्होंने चाकन, सिंहगढ़, पुरन्धर तथा कोंकण के दुर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया । उन्होंने जावली के सरदार चन्दराव को मरवा कर जावली को भी अपने अधिकार में ले लिया । शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर बीजापुर का सुल्तान चिन्ता में पड़ गया । उसने शिवाजी के विरुद्ध अपने सेनापति अफज़ल खां को भेजा। अफज़ल खां ने धोखे से शिवाजी को मारने का प्रयत्न किया । परन्तु इस प्रयास में वह स्वयं मारा गया । अब शिवाजी ने मुग़ल प्रदेशों में लूट-मार आरम्भ कर दी जिससे मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को चिन्ता हुई । अतः 1660 ई० में उसने दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । वह बढ़ता हुआ पूना तक जा पहुंचा । परन्तु शिवाजी ने उसे वहां से भागने पर विवश कर दिया ।

अब शिवाजी ने सूरत के समृद्ध नगर पर आक्रमण कर दिया और वहां खूब लूट-मार की । इससे औरंगजेब की चिन्ता और बढ़ गई। उसने राजा जयसिंह तथा दिलेर खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । उनके नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने मराठों के अनेक किले जीत लिए । विवश होकर शिवाजी ने मुगलों के साथ सन्धि कर ली । सन्धि के बाद शिवाजी आगरा में मुग़लदरबार में पहुंचे । वहां उन्हें बन्दी बना लिया गया । परन्तु शिवाजी बड़ी चालाकी से मुग़लों की कैद से बच निकले । 1674 ई० में उन्होंने रायगढ़ में अपना राज्याभिषेक किया। इस अवसर पर उन्होंने छत्रपति की उपाधि भी धारण की । राज्याभिषेक के पश्चात् उन्होंने कर्नाटक के समृद्ध प्रदेशों जिंजी और वैलोर पर भी अपना अधिकार कर लिया । इस तरह वह दक्षिणी भारत में एक स्वतन्त्र मराठा राज्य स्थापित करने में सफल हुए।

(ख) औरंगज़ेब द्वारा मराठा शक्ति को रोकने के उपाय-औरंगज़ेब ने मराठा शक्ति को दबाने के अनेक कार्य किए–

  • सबसे पहले उसने 1660 ई० में दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। वह बढ़ता हुआ पूना जा पहुंचा। परन्तु उसे वहां से भागने पर विवश कर दिया।
  • शाइस्ता खां की पराजय के पश्चात् औरंगज़ेब ने राजा जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । उसने मराठों के अनेक किले जीत लिए । विवश हो कर शिवाजी ने मुग़लों के साथ सन्धि कर ली । सन्धि के बाद वह आगरा में मुग़ल दरबार में पहुंचे जहां उन्हें बन्दी बना लिया गया परन्तु शिवाजी बड़ी चालाकी से मुग़लों की कैद से भाग गए।
  • 1689 ई० में औरंगज़ेब नए मराठा शासक शम्भाजी को बन्दी बनाने में सफल हो गया और उसका वध कर दिया।
  • शम्भा जी के वध के पश्चात् औरंगज़ेब ने उसके पुत्र शाहूजी को भी कैद कर लिया। उसे पूरी तरह विलासी बना दिया गया ताकि वह शासन करने के योग्य न रहे।
  • शाहूजी के पश्चात् शिवाजी के दूसरे पुत्र राजा राम ने मुग़लों से संघर्ष किया । उसने मुग़लों के अनेक दुर्ग जीत लिए । उसकी विजयों को देखते हुए औरंगजेब ने मराठों के साथ सन्धि कर ली।
  • राजाराम की 1707 ई० में मृत्यु हो गई और उसकी विधवा ताराबाई ने बड़ी कुशलता से मराठों का नेतृत्व किया। औरंगजेब ने उसकी शक्ति को कुचलने का काफ़ी प्रयास किया, परन्तु असफल रहा । 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु हो गई।

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प्रश्न 2.
शिवाजी की शासन व्यवस्था का वर्णन कीजिए ।
अथवा
शिवाजी के असैनिक तथा सैनिक शासन प्रबंध की अलग-अलग चर्चा कीजिए।
उत्तर-
शिवाजी ने एक उच्च कोटि के शासन प्रबन्ध की व्यवस्था की। उनके शासन-प्रबन्ध की रूप-रेखा इस प्रकार थी –

असैनिक प्रबन्ध-
1. केन्द्रीय शासन–केन्द्रीय शासन का मुखिया छत्रपति (शिवाजी) था । राज्य की सभी शक्तियां उसके हाथ में थीं । छत्रपति को शासन-कार्यों में सलाह देने के लिए आठ मन्त्रियों का एक मन्त्रिमण्डल था । इसे अष्ट-प्रधान कहते थे । प्रत्येक मन्त्री के अधीन एक विभाग होता था ।।

2. प्रान्तीय शासन-शिवाजी ने अपने राज्य को तीन प्रान्तों में बांटा हुआ था । प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त आगे चलकर परगनों तथा तर्कों में बंटे हुए थे । शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी ।

3. न्याय-प्रणाली-शिवाजी की न्याय-प्रणाली बड़ी साधारण थी, परन्तु यह लोगों की आवश्यकता के अनुरूप थी । मुकद्दमों का निर्णय प्रायः हिन्दू धर्म की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता था ।

4. कर प्रणाली-शिवाजी ने राज्य की आय को बढ़ाने के लिए कृषि को विशेष प्रोत्साहन दिया । सारी भूमि की पैमाइश करवाई गई और उपज का 2/5 भाग ‘भूमि-कर’ निश्चित किया गया । यह कर नकद अथवा उपज दोनों रूप में दिया जा सकता था। भूमि-कर के अतिरिक्त चौथ तथा सरदेशमुखी नामक कर भी राज्य की आय के महत्त्वपूर्ण स्रोत थे ।

सैनिक प्रबन्ध-

शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया । इसके प्रमुख अंगों तथा विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है

  • घुड़सवार सेना-घुड़सवार सैनिक शिवाजी की सेना का महत्त्वपूर्ण अंग थे । उनकी सेना में घुड़सवारों की संख्या लगभग 45,000 थी । इस सेना को ‘पागा’ कहा जाता था । पागा कई टुकड़ियों में बंटी हुई थी । सबसे छोटी टुकड़ी 25 सैनिकों की होती थी, जिसके मुखिया को ‘हवलदार’ कहा जाता था । घुड़सवार सेना का सबसे बड़ा अधिकारी ‘पांच हज़ारी’ कहलाता था ।
  • पैदल सेना-शिवाजी की पैदल सेना में लगभग 10,000 सैनिक थे । यह भी कई टुकड़ियों में विभक्त थे । सबसे छोटी टुकड़ी 9 सैनिकों की होती थी । इसके मुखिया को ‘नायक’ कहते थे । पैदल सेना का सबसे बड़ा अधिकारी ‘सरए-नौबत’ कहलाता था ।
  • हाथी सेना-शिवाजी की सेना में हाथी भी सम्मिलित थे । हाथियों की संख्या लगभग 1,260 थी ।
  • जल सेना-शिवाजी ने जल सेना की व्यवस्था भी की हुई थी । इस सेना में कुल 200 जल सैनिक थे । उसके पास एक जहाज़ी बेड़ा भी था ।।
  • तोपखाना-तोपखाना शिवाजी की सेना का विशेष अंग था ।
  • दुर्ग अथवा किले-शिवाजी के राज्य में किलों की संख्या 280 थी । संकट के समय मराठा सैनिक इन्हीं किलों में रहते थे । शिवाजी ने इन किलों का प्रबन्ध भी बड़े अच्छे ढंग से किया हुआ था ।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions Chapter 4 योग Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Physical Education Chapter 4 योग

PSEB 11th Class Physical Education Guide योग Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आसन कितने प्रकार के होते हैं ?
(How many types of Asanas are there ?)
उत्तर-
आसन तीन प्रकार के होते हैं—

  1. ध्यानात्मक आसन (Meditative Asanas)पद्मासन, सिद्ध आसन, सुख आसन, वज्र आसन।
  2. आरामदायक आसन (Relaxative Asanas)-. शवासन और मक्रासन।
  3. कल्चरल आसन (Cultural Asanas)पवनमुक्तासन, कटिंचचक्रासन, पर्वतासन, चक्रासन, शलभासन, वृक्षासन, उष्ट्रासन, गोमुखासन आदि।

प्रश्न 2.
योग की परिभाषा, अर्थ तथा महत्त्व के बारे में लिखें।
(Write the definition, meaning and importance of Yoga.)
उत्तर-
योग का अर्थ (Meaning of Yoga)-भारतीय विद्वानों ने आत्मबल, द्वारा “योग विज्ञान” के सम्बन्ध में जानकारी दी है तथा इसमें बताया है कि मनुष्य का शरीर तथा मन अलग-अलग हैं। ये दोनों ही मनुष्य को अलग.. अलग दिशाओं में आकर्षित करते हैं जिसके कारण मनुष्य को शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का विकास रुक जाता है। शरीर तथा मन को एकाग्र करके परमात्मा से मिलने का मार्ग बताया गया है जिसे योग की सहायता से जाना जा सकता है।

‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘युज’ से हुई है, जिसका अभिप्राय है जोड़’ अथवा ‘मेल’। इस प्रकार शरीर तथा मन के सुमेल को योग कहते है। योग वह क्रिया अथवा साधन है जिससे आत्मा का मिलाप परमात्मा से होता है।

इतिहास (History)-‘योग’ शब्द काफी समय से प्रचलित है। गीता में भी योग के बारे में लिखा हुआ मिलता है। रामायण तथा महाभारत युग में भी इस शब्द का काफी प्रयोग हुआ है। इन पवित्र ग्रन्थों में योग द्वारा मोक्ष (Moksha) की प्राप्ति करने के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखा हुआ मिलता है। इन विद्वानों में से प्रसिद्ध विद्वान् पतंजलि का नाम प्रमुख है। उसने योग के सम्बन्ध में काफी विस्तार में लिखा परन्तु योग के सम्बन्ध में सभी विद्वानों का एक मत नहीं है। पतंजलि ऋषि के अनुसार, “मनोवृत्ति के विरोध का नाम ही योग है।”
गीता में भगवान् कृष्ण जी लिखते हैं, कि सही ढंग से काम करने का नाम ही योग है।

डॉक्टर सम्पूर्णानन्द (Dr. Sampurnanand) के अनुसार, “योग आध्यात्मिक कामधेनु है जिससे जो मांगो, वही मिलता है।”
श्री व्यास जी (Sh. Vyas Ji) ने लिखा है कि “योग का अर्थ समाधि है।”
ऊपर दी गई विचारधाराओं से पता चला है कि “योग का शाब्दिक अर्थ जोड़ना है।” मानवीय शरीर स्वस्थ तथा मन शुद्ध होने से उसका परमात्मा से मेल हो जाता है। योग द्वारा शरीर स्वस्थ रहता है तथा मन की एकाग्रता में वृद्धि होती है। इससे परमात्मा से मिलाप आसान हो जाता है।

“योग विज्ञान मनुष्य का मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक रूप से सम्पूर्ण विकास होता है।”
इस प्रकार आत्मा का परमात्मा से मेल ही योग है। इस मधुर मिलन का माध्यम शरीर है। स्वस्थ तथा शक्तिशाली शरीर के बल पर ही आत्मा पर परमात्मा से मिलन हो सकता है तथा उस सर्वशक्तिमान प्रभु के दर्शन हो सकते हैं। योग शरीर को स्वस्थ एवं शक्तिशाली बनाता है। इसलिए ही आत्मा का परमात्मा में विलीन होने का यह एकमात्र साधन है। परमात्मा अलौकिक, गुण, कर्म एवं विद्या युक्त है। वह आकाश के समान व्यापक है। प्राणी तथा परमात्मा का आपस में सम्बन्ध होना अति आवश्यक है। योग इन सम्बन्धों को मजबूत बनाने में सहायक होता है।

मनुष्य का उद्देश्य-संसार के सभी सुखों को प्राप्त करते हुए अन्त में जीवात्मा को परमात्मा में विलीन होना है ताकि आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त की जा सकें।
योग का मुख्य लक्ष्य शरीर को स्वस्थ, लचकदार, जोशीला एवं चुस्त रखना तथा महान् शक्तियों (Great Powers) का विकास करके मन पर विजय प्राप्त करना है जिससे आत्मा का परमात्मा से मिलन हो सके। आत्मा को परमात्मा में विलीन करके आवागमन अर्थत् जन्म और मृत्यु के चक्र से छुटकारा प्राप्त करना ही वास्तव में मोक्ष (Moksha) अथवा मुक्ति है। शारीरिक शिक्षा से योग के केवल दो साधन-आसन (Asanas) और प्राणायाम (Pranayama) सम्बन्ध रखते हैं। योग विज्ञान द्वारा मनुष्य शारीरिक रूप में स्वस्थ, मानसिक रूप में दृढ़ चेतना तथा व्यवहार मे अनुशासनबद्ध रहता हुआ मन पर विजय प्राप्त करके परमात्मा में लीन हो जाता है।

योग का महत्त्व
(Importance of Yoga)
योग विज्ञान का मनुष्य के जीवन के लिए बहुत महत्त्व है। योग केवल भारत का ही नहीं बल्कि संसार का प्राचीन ज्ञान है। देश-विदेशों के डॉक्टरों तथा शारीरिक शिक्षा के शिक्षकों ने इसके महत्त्व को स्वीकार किया है। योग से शरीर तथा मन स्वस्थ रहता है तथा इसके साथ-साथ शरीर की नाड़ियां लचकदार एवं मज़बूत रहती हैं। योग शरीर को रोगों से दूर रखता है और यदि कोई बीमारी लग भी जाए तो आसन अथवा किसी अन्य योग क्रिया द्वारा इसे दूर किया जा सकता है। योग जहां शरीर को स्वस्थ, सुन्दर एवं शक्तिशाली बनाता है, वहां यह प्रतिभा को चार चांद लगा देता है। योग हमें उस दुनिया में ले जाता है जहां जीवन है, स्वास्थ है, परम सुख है, मन की शान्ति है। योग ज्ञान की ऐसी गंगा है जिसकी एक-एक बूंद में अनेक रोगों को समाप्त करने की क्षमता है। योग परमात्मा से मिलने का सर्वोत्तम साधन है। शरीर आत्मा और परमात्मा के मिलन का माध्यम है। स्वस्थ शरीर के द्वारा ही परमात्मा के दर्शन किये जा सकते हैं। योग मनुष्य को स्वस्थ एवं शक्तिशाली बनाने के साथ-साथ सुयोग्य एवं गुणवान् भी बनाता है। यह हमारे शरीर में शक्ति पैदा करता है। योग केवल रोगी व्यक्ति के लिए ही लाभदायक नहीं बल्कि स्वस्थ मनुष्य भी इसके अभ्यास से लाभ उठा सकते हैं। योग प्रत्येक आयु के व्यक्तियों के लिए लाभदायक है।
1. “Yoga can be defined as Science of healthy and better living physically, mentally, intellectually and spiritually.”

योग का अभ्यास करने से शरीर के सभी अंग ठीक प्रकार से कार्य करने लगते हैं। योग अभ्यास द्वारा मांसपेशियां मज़बूत होती हैं तथा मानसिक संतुलन में वृद्धि होती है। योग की आवश्यकता आधुनिक युग में भी उतनी ही है जितनी प्राचीन युग में थी। हमारे देश से कहीं अधिक विदेशों ने इस क्षेत्र में प्रगति की है। उन देशों में मानसिक शान्ति के लिए इसका अत्यधिक प्रचार होता है। साथ ही उन देशों में योग के क्षेत्र में बहुत विद्वान् हैं । यह विचारधारा भी गलत है कि आजकल के लोग योग करने के योग्य नहीं रहे। आज के युग में भी मनुष्य योग से पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकता है। योग-विज्ञान व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास में इस प्रकार योगदान देता है—

1. मनुष्य की शारीरिक और मानसिक आधारभूत शक्तियों का विकास (Development of Physical, Mental and Latent Powers of Man)-योग-ज्ञान मनुष्य निरोग रहकर दीर्घ-आयु का आनन्द प्राप्त करता है। योग नियम और आसन व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक विकास में सहायक होते हैं । विभिन्न आसनों का अभ्यास करने से शरीर के विभिन्न अंग क्रियाशील होते हैं। इनसे उनका विकास होता है। इसके अतिरिक्त यह शरीर की विभिन्न प्रणालियों जैसे-पाचन प्रणाली, श्वास प्रणाली और मांसपेशी प्रणाली के ऊपर भी अच्छा प्रभाव डालता है और व्यक्ति की कार्य क्षमता में वृद्धि होती है। शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम और अष्टांग योग द्वारा मनुष्य की गुप्त शक्तियों (Latent Powers) का विकास होता है।

2. शरीर की आन्तरिक शुद्धता (Cleanliness of Body)—योग की छः अवस्थाओं द्वारा शरीर का सम्पूर्ण विकास (All Round Development) होता है। आसनों से जहां शरीर स्वस्थ होता है वहां योगाभ्यास द्वारा मन नियन्त्रण तथा नाड़ी संस्थान और मांसपेशी संस्थान को आपसी तालमेल भी बना रहता है। प्राणायाम द्वारा शरीर चुस्त तथा स्वस्थ रहता है। प्रत्याहार द्वारा दृढ़ता में वृद्धि होती है। ध्यान और समाधि से सांसारिक चिन्ताओं से मुक्ति प्राप्त होती है। इससे आत्मा-परमात्मा में विलीन हो जाती है। इसी तरह ध्यान, समाधि, यम और नियमों की भान्ति षटकर्म भी आन्तरिक सफाई में सहायक होते हैं। षट कर्मों में धोती, नेती, बस्ती, त्राटक, नौली से कपाल, छाती, जिगर और आंतों की सफाई होती है।
आत्मा का परमात्मा से मेल कराने में शरीर माध्यम है और षट कर्मों, आसनों तथा प्राणायाम इत्यादि क्रियाओं से शरीर की आन्तरिक सफाई के लिए योग सहायता करता है।

3. शारीरिक अंगों में शक्ति एवं लचक का विकास करना (Development of Strength and Elasticity)-प्रायः देखने में आता है कि यौगिक क्रियाओं में भाग लेने वाले व्यक्ति की सेहत उन व्यक्तियों के बेहतर होती है जो योग क्रियाओं में रुचि नहीं रखते। योग द्वारा मनुष्य का केवल शारीरिक विकास ही नहीं होता बल्कि आसनों द्वारा जोड़ों और हड्डियों का विकास भी होता है। खून का प्रवाह तेज हो जाता है। धनुष आसन तथा हलआसन रीढ़ की हड्डी में लचक पैदा करते हैं जिससे मनुष्य शीघ्र बूढ़ा नहीं होता। इस प्रकार योग क्रियाओं द्वारा शरीर में शक्ति तथा लचक पैदा होती है।

4. भावात्मक विकास (Emotional Development) आधुनिक मानव मानसिक और आत्मिक शान्ति की इच्छा करता है। प्रायः देखने में आता है कि हम अपनी भावनाओं के प्रवाह में बहकर कभी तो उदासी की गहरी खाई में डूब जाते हैं और कभी खुशी के मारे पागलों जैसे हो जाते हैं। एक साधारण-सी असफलता अथवा दुःखदाई घटना हमें इतना दुःखी कर देती है कि संसार की कोई भी वस्तु हमें अच्छी नहीं लगती। हमें जीवन नीरस तथा बोझिल दिखाई देता है। इसके विपरीत कई बार साधारण-सी सफलता अथवा प्रसन्नता की बात हमें इतना खुश कर देती है कि हमारे पांव ज़मीन पर नहीं लगते। हम अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं। इन बातों में हमारी भावात्मक अपरिपक्वता (Emotional Immaturity) की झलक होती है।

योग हमें अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रखना एवं सन्तुलन में रहना सिखाता है। यह हमें सिखाता है कि असफलता अथवा सफलता, प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता एक ही सिक्के के दो पहलू (Two sides of the same coin) हैं। यह जीवन दुःखों तथा सुखों का अद्भुत संगम है। दुःखों और खुशियों से समझौता करना ही सुखी जीवन का भेद है। हमें अपने जीवन में विजय और पराजय को, शोक और प्रसन्नता को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। यदि भाग्य में सफलता हमारे पांव चूमती है तो हमें खुशी के मारे स्वयं के नियन्त्रण से बाहर नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत यदि हमे असफलता का मुंह देखना पड़ता है। तो हमें मुंह लटकाना नहीं चाहिए। इसलिए योग क्रियाएं भावात्मक विकास में विशेष महत्त्व रखती है।

5. रोगों की रोकथाम और रोगों से प्राकृतिक बचाव (Prevention of Diseases and Immunization) योग क्रियाओं से रोगों से बचाव होता है। यदि किसी कारण वश-बीमारियां लग जाएं तो उनसे छुटकारा पाने की विधियों और रोगों से प्राकृतिक बचाव शामिल हैं। रोगों के कीटाणु (Germs And Bacteria) एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के शरीर पर आक्रमण करके रोग फैलाते हैं। इन रोगों से बचाव करने के ढंग अर्थात् रोगों का मुकाबला किस प्रकार किया जाए। रोगों से छुटकारा किस प्रकार पाया जाए और मनुष्य को निरोग किस प्रकार रखा जाए। यह आसन, धोती, नौली इत्यादि जिनसे आन्तरिक अंग शुद्ध होते हैं, योग ज्ञान ही बताता है।

6. त्याग एवं अनुशासन की भावना (Spirit of Sacrifice and Discipline) योग ज्ञान द्वारा व्यक्ति में त्याग एवं अनुशासन की भावना का संचार होता है। त्यागी तथा अनुशासन में रहने वाले नागरिक ही वास्तव में आदर्श नागरिक कहलाने के अधिकारी होते हैं। इन गुणों से भरपूर व्यक्ति ही कठिन कार्य आसानी से कर सकते हैं। अष्टांग योग में अनुशासन को मुख्य स्थान दिया जाता है। अनुशासन के सांचे में ढलकर नागरिक अपने देश को महान् बना सकते हैं। योग के नियमों की पालना करने वाला व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं, अनुशासित इच्छाओं, मानवीय भावनाओं, संवेग, विचार इत्यादि पर नियन्त्रण रखता है।

7. सुधारात्मक महत्त्व और शिथिलता (Corrective value and Relexation) आसनों से योग का सुधारात्मक महत्त्व भी बहुत अधिक है। यह हमें उचित आसन (Correct positive) बनावट रखने में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। योग क्रियाओं और आसनों द्वारा ठीक ढंग से बैठने, ठीक ढंग से खड़े होने तथा ठीक ढंग से चलने आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 3.
योग करने से पूर्व किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
(What precautions are needed to taken before performing Yoga ?).
उत्तर-

  1. योग आसन करते समय सबसे पहले सूर्य नमस्कार करना चाहिए।
  2. यौगिक व्यायाम करने का स्थान समतल होना चाहिए। जमीन पर दरी या कम्बल डाल कर यौगिक व्यायाम करने चाहिएं।
  3. यौगिक व्यायाम करने का स्थान एकान्त, हवादार और सफाई वाला होना चाहिए।
  4. यौगिक व्यायाम करते हुए श्वास और मन को शान्त रखना चाहिए।
  5. भोजन करने के बाद कम से कम चार घण्टे के पश्चात् यौगिक आसन करने चाहिएं।
  6. सबसे पहले आरामदायक तथा फिर कल्चरल आसन करने चाहिए।
  7. यौगिक आसन धीरे-धीरे करने चाहिएं और अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।
  8. अभ्यास प्रतिदिन किसी योग्य प्रशिक्षक की देख-रेख में करना चाहिए।
  9. दो आसनों के मध्य में थोड़ा विश्राम शव आसन द्वारा कर लेना चाहिए।
  10. शरीर पर कम-से-कम कपड़े पहनने चाहिएं, लंगोट, निक्कर, बनियान आदि और सन्तुलित भोजन करना चाहिए।
  11. योग आसन के समय श्वास अन्दर तथा बाहर निकालने की क्रिया की तरतीब ठीक होनी चाहिए।
  12. योग करने से पहले मौसम के अनुसार गरम या ठंडे पानी से स्नान कर लेना चाहिए या फिर बाद में कमसे-कम आधे घंटे का अन्तराल होना चाहिए।

प्रश्न 4.
सूर्य नमस्कार से क्या अभिप्राय है ? इसके कुल कितने अंग है ?
(What is meant by Surya Namaskara ? How may parts does it have in total ?)
उत्तर-
‘सूर्य’ से अभिप्राय ‘सूरज’ और ‘नमस्कार’ से अभिप्राय है-प्रणाम करना। क्रिया करते हुए सूर्य को प्रणाम करना, सूर्य नमस्कार कहलाता है। सूर्य नमस्कार में कुल 12 क्रियाएं होती हैं जो कि व्यायाम करते हुए पूरे शरीर की लचक बढ़ाने में मदद करती हैं। प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करने से व्यक्ति में बल और बुद्धि का विकास होता है। इसके साथ व्यक्ति की उम्र भी बढ़ती है। सूर्य नमस्कार के साथ हमारा सारा शरीर चुस्त हो जाता है। शरीर, साँस और मन एकसार हो जाते हैं। अग्रअंकित चित्र को देखकर इसकी एक से बारह तक की क्रियाएं स्पष्ट होती हैं। सूर्य नमस्कार की विधि इस प्रकार है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 1
सूर्य नमस्कार विधि
ढंग—
स्थिति 1. प्रणामासन

  1. यदि सम्भव हो तो सूर्य की तरफ मुंह करके खड़े हो जाएं।
  2. पाँव सीधे तथा हाथों को छाती के केन्द्र में आराम की स्थिति में रखें।
  3. चेतना में धीरे-धीरे साँस लेते रहें।
  4. शरीर को बिल्कुल ढीला तथा पीठ सीधी रखें।

लाभ-इस स्थिति में ध्यान और शांति को बनाने में मदद मिलती है।
स्थिति 2. हस्त उत्थानासन

  1. धीरे-धीरे सांस लेते हुए बाजू को ऊपर की तरफ लेकर जाएं। बाजुओं को कंधों की चौड़ाई अनुसार खोल कर रखें।
  2. पीठ को धीरे-धीरे पीछे की तरफ खींचो तथा धीरे-धीरे बाजुओं को पीछे की तरफ ले जाओ।
  3. धीरे-धीरे अभ्यास से कमर में लचकता आ जाएगी।

लाभ-इस आसान से पेट की मांसपेशियां अच्छी तरह खुल कर फैल जाती हैं। बाजू, कंधे तथा रीढ़ की हड्डी टोन हो जाती है। इसके अभ्यास के साथ फेफड़े भी खुल जाते हैं।

स्थिति 3. पद-हस्तासन

  1. साँस बाहर छोड़ते हुए आगे की तरफ को झुको, टांगे सीधी रखो तथा अपने हाथों की ऊंगलियों के साथ फर्श को छूने की कोशिश करो।
  2. रीढ़ की हड्डी को कमर के जोड़ को उतना ही झुकाओ जितना की दर्द महसूस ना हो या फिर जितना झुका जा सके।

लाभ-इस आसन से पेट की कई बिमारियों से मुक्ति मिलती है तथा आराम पहुंचता है। ये पेट की फालतू चर्बी को घटाता है।
स्थिति 4. अश्व संचालनासन

  1. हाथों की ऊंगलियों को फर्श के साथ छूते हुए बाईं टांग मोड़ते हुए दाईं टांग को पीछे की तरफ सीधा कर के ले जाओ।
  2. सिर और गर्दन को आगे की ओर रीढ़ की हड्डी की सीध में रखें। छाती को आगे की ओर झुकाकर न रखें।

लाभ-ये आसन पेट की मांसपेशियों को टोन करता है तथा टांगों और पैरों की मांसपेशियों को मजबूत करता है।
स्थिति 5. पर्वतासन

  1. साँस बाहर छोड़ते हुए, बाईं टांग को पीछे की तरफ दाईं टाँग की तरफ सीधा रखो।
  2. सिर को दोनों बाजुओं के बीच रखते हुए शरीर के सारे भार को बाजुओं तथा पैरों पर डालो और यही स्थिति बनाकर रखो।

लाभ-ये आसन कन्धों तथा गर्दन की मांसपेशियों को टोन करता है। टांगों तथा बाजुओं की मांसपेशियों को भी मज़बूत करता है।
स्थिति 6. अष्टांग आसन

  1. पिछले आसन से धीरे-धीरे घुटनों को ज़मीन की तरफ ले जाओ।
  2. छाती और ठोड़ी को ज़मीन से छुआओ।
  3. दोनों बाजुओं को छाती के बराबर मोड़ कर रखो तथा चूल्हों को जमीन से ऊपर की तरफ खींच कर रखो।

लाभ-ये आसन कन्धों तथा गर्दन की मांसपेशियों को टोन करता है। टांग तथा हाथ की मांसपेशियों को मज़बूत बनाता है तथा छाती को विकसित करता है।
स्थिति 7. भुजंगासन

  1. धीरे-धीरे साँस अन्दर लेते हुए टांगें तथा कमर को ज़मीन पर रखो।
  2. बाजुओं को खींचते हुए छाती वाले भाग को पीछे की तरफ खींचों।
  3. सिर को धीरे-धीरे पीछे की तरफ ले जाओ।

लाभ-ये आसन पेट की तरफ खून के दौरे को तेज़ करता है तथा कई पेट की बिमारियों से छुटकारा दिलवाता है; जैसे कि बदहज़मी कब्ज आदि। रीढ़ की हड्डी को मज़बूती मिलती है तथा खून संचार में सुधार होता है।
स्थिति 8. पर्वतासन

  1. धीरे-धीरे दोनों पैरों पर वापिस जा के सीधे खड़े हो जाओ।
  2. छाती वाले भागों को पेट की तरफ लेकर जाओ तथा दोनों हाथों से जमीन को छू लो। ये बिल्कुल 5वीं स्थिति जैसा हो सकता है।

स्थिति 9. अश्व संचालनासन

  1. धीरे-धीरे सांस अन्दर खींचते हुए दाएं पैर को दोनों हाथों के बीच ले जाओ तथा बाईं टांग को पीछे की तरफ सीधा रखो। इसके साथ ही कन्धों को पीछे की तरफ सीधे खींचों तथा छाती वाले भाग को पीछे की तरफ ले जाओ तथा पीठ का आर्क बनाओ।

स्थिति 10. पद-हस्तासन

  1. धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए टांगें सीधी रखो तथा हाथों के साथ फर्श से छूने की कोशिश करो। ऐसे करते समय घुटने सीधे हों।

स्थिति 11. हस्त-उत्थानासन

  1. धीरे-धीरे सांस लेते समय बाजुओं को ऊपर की तरफ ले जाओ। बाजुओं को कन्धों की चौड़ाई अनुसार खोल . के रखो।
  2. पीठ को धीरे-धीरे पीछे की तरफ खींचों तथा धीरे-धीरे बाजू पीछे की तरफ ले जाओ।
  3. अभ्यास से कमर में लचकता आ जाएगी।

स्थिति 12. प्रणामासन

  1. पैर सीधे तथा हथेली को छाती के केन्द्र में आराम की स्थिति में रखो।
  2. चेतना में धीरे-धीरे सांस लेते रहो।
  3. शरीर बिल्कुल ढीला तथा पीठ सीधी रखो।

लाभ—

  1. सूर्य नमस्कार शरीर की अतिरिक्त चर्बी को भी घटा देता है।
  2. सूर्य नमस्कार शरीर के बल, शक्ति और लचक में विस्तार करता है।
  3. यह एकाग्रता बढ़ाने में सहायता करता है।
  4. यह शरीर को गर्म करता है।
  5. यह शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है।
  6. यह आसन बच्चों का कद बढ़ाने में भी मदद करता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 5.
किसी एक आरामदायक तथा कल्चरल आसन की विधि तथा लाभ के बारे में विस्तारपूर्वक लिखें।
(Write in detail the method and benefits of any one of Relaxative and Cultural asana.)
उत्तर-
सभ्याचारक आसन (मुद्रा)
(Cultural Asanas)
शवासन की विधि (Technique of Shavasana)-शवासन में पीठ के बल सीधा लेटकर शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ा जाता है। शवासन करने के लिए जमीन पर पीठ के बल लेट जाओ और शरीर के अंगों को ढीला छोड़ दें। धीरेधीरे लम्बे सांस लो। बिल्कुल चित्त लेटकर सारे शरीर के अंगों को ढीला छोड़ दो। दोनों पांवों के बीच में एक डेढ फुट की दूरी होनी चाहिए। हाथों की हथेलियों की आकाश की ओर करके शरीर से दूर रखो। आंखें बन्द कर अन्तर्ध्यान होकर सोचो कि शरीर ढीला हो रहा है। अनुभव करो कि शरीर विश्राम की स्थिति में है। यह आसन 3 से 5 मिनट तक करना चाहिए। इस आसन का अभ्यास प्रत्येक आसन के शुरू तथा अन्त में करना जरूरी है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 2
शवासन
महत्त्व (Importance)—

  1. शवासन से उच्च रक्त चाप और मानसिक तनाव से छुटकारा मिलता है।
  2. दिल और दिमाग को ताजा करता है।
  3. इस आसन द्वारा शरीर की थकावट दूर होती है।

हलासन (Halasana) -इस आसन के पूर्ण रूप में आने पर मनुष्य की आकृति बिल्कुल हल जैसी हो जाती है।
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हलासन
विधि (Procedure)- भूमि पर कम्बल बिछा कर पीठ के बल लेट जाइए। हाथों को दोनों ओर भूमि पर रखिये। हथेलियां ज़मीन की ओर हों। दोनों पांवों को मिला कर धीरे-धीरे सांस भीतर की ओर कीजिए और बहुत धीरे-धीरे अपनी टांगों को ऊपर उठाते हुए पीछे सिर की ओर ले जाइए। टांगों के साथ-साथ शरीर को भी पीछे की ओर मोड़ते जाएं जब तक की पंजे ज़मीन को न छू लें। घुटनों को मिला कर टांगें बिल्कुल सीधी रखें। ठोड़ी को सीने ऊपर दबा दें और फिर नासिका द्वारा सांस लें और छोड़ें। जब तक सम्भव हो बिना कष्ट के इस आसन में रहें अन्यथा इसी प्रकार बिना किसी झटके के वापस पहली वाली मुद्रा में लौट आइए।

इस आसन में हाथों से पांवों की उंगलियों को छुआ भी जा सकता है या सिर के पीछे हाथों से एक दूसरी कोहनी को भी पकड़ा जा सकता है। किसी प्रकार का कोई झटका नहीं लगना चाहिए। आसन समाप्त कर धीरे-धीरे उसी प्रकार अपनी मूल स्थिति में आ जाएं।

लाभ (Advantages)- इस आसन से रीढ़ की नसें, कमर की मांसपेशियां, रीढ़ की हड्डी एवं नाड़ी प्रणाली (Nervous System) स्वस्थ रहता है। इससे नाड़ियों में रीढ़ रज्जू (Spins Cord) संवेदनशील ग्रन्थियों में पर्याप्त भागों में रक्त इकट्ठा होता है। इसलिए इनका पोषण अच्छी तरह होता है। इस आसन से मेरुदंड (Spinal Cord) अधिक लचकीला एवं मुलायम होता है। यह आसन मेरु (Spine) सम्बन्धी हड्डियों के शीघ्र विकास (Enlargement) को रोकता है। अस्थियों के विकास (Enlargement) से हड्डियों में जल्दी विकार पैदा होता है। इससे बुढ़ापा जल्दी आता है। हलासन करने वाला व्यक्ति अधिक फुर्तीला एवं बलवान् होता है। पीठ की मांसपेशियों को अधिक मात्रा में रक्त प्राप्त होता है तथा वे अच्छी तरह से पोषित होती हैं। आलस दूर होता है। इस आसन से मोटापा दूर होता है, चर्बी कम होती है। कब्ज दूर होती है। रक्त संचार तेज़ होता है।

ध्यानशील आसन मुद्रा
(Meditative Poses)
पद्मासन (Padamasana)-इसमें टांगों की चौकड़ी लगाकर बैठा जाता है।
पद्मासन की विधि (Technique of Padamasana)-चौकड़ी मारकर बैठने के बाद दायां पांव बायीं जांघ पर इस तरह रखो कि दायें पांव की एड़ी बाईं जांघ पर पेडू हड्डी को छुए। इसके पश्चात् बायें पांव को उठाकर उसी प्रकार दायें पांव की जाँघ पर रख लें। रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए। बाजुओं को तानकर हाथों को घुटनों पर रखो। कुछ दिनों के अभ्यास द्वारा आसन को बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 4
सुखासन
लाभ (Advantages)—

  1. इस आसन से पाचन शक्ति बढ़ती है।
  2. यह आसन मन की एकाग्रता के लिए सर्वोत्तम है।
  3. कमर दर्द दूर होता है।
  4. दिल तथा पेट के रोग नहीं लगते।
  5. मूत्र के रोगों को दूर करता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 6.
अष्टांग योग के अंगों के बारे में विस्तारपूर्वक लिखें। (Write in detail about the parts of Astanga Yoga.)
उत्तर-
अष्टांग योग
(Ashtang Yoga)
अष्टांग योग के आठ अंग हैं, इसलिए इसका नाम अष्टांग योग है।
योगाभ्यास की पतजंलि ऋषि द्वारा आठ अवस्थाएं मानी गई हैं। इन्हें पतजंलि ऋषि का अष्टांग योग भी कहते हैं—

  1. यम (Yama, Forbearmace)
  2. नियम (Niyama, Observance)
  3. आसान (Asana, Posture)
  4. प्राणायाम (Pranayama, Regulation of Breathing)
  5. प्रत्याहार (Pratyahara, Abstracition)
  6. धारणा (Dharma, Concentration)
  7. ध्यान (Dhyana, Meditation)
  8. समाधि (Samadhi, Trance)।

योग की ऊपरी बताई गई आठ अवस्थाओं में से पहली पांच अवस्थाओं का सम्बन्ध आन्तरिक यौगिक क्रियाओं से है। इन सभी अवस्थाओं को आगे फिर इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है—

  1. यम (Yama, Forbearance)-यम के निम्नलिखित पांच अंग हैं—
    • अहिंसा (Ahimsa, Non-violence)
    • सत्य (Satya, Truth)
    • अस्तेय (Astey, Conquest of the sense of mind)
    • अपरिग्रह (Aprigraha, Non-receiving)
    • ब्रह्मचर्य (Brahmacharya, Celibacy)
  2. नियम (Niyama, Observance)-नियम के निम्नलिखित पांच अंग हैं :
    • शौच (Shauch, Obeying the call of nature)
    • सन्तोष (Santosh, Contentment)
    • तप (Tapas, Penance)
    • स्वाध्याय (Savadhyay, Self-study)
    • ईश्वर परिधान (Ishwar Pridhan, God Consciousness)।
  3. आसन (Asana or Posture) आसनों की संख्या उतनी है जितनी कि इस संसार में पशु-पक्षियों की। आसन-शारीरिक क्षमता, शक्ति के अनुसार, प्रतिदिन सांस द्वारा हवा को बाहर निकलने, सांस रोकने और फिर सांस लेने से करने चाहिएं।।
    4. प्राणायाम (Pranayma, Regulation of Breathing) प्राणायाम उपासना की मांग है। इसको तीन भागों में बांटा जा सकता है—

    • पूरक (Purak, Inhalation)
    • रेचक (Rechak, Exhalation) और
    • कुम्भक (Kumbhak, Holding of Breath)
      कई प्रकार से सांस लेने तथा इसे रोककर बाहर निकालने को प्राणायाम कहते हैं।
  4. प्रत्याहर (Pratyahara)-प्रत्याहार से अभिप्रायः है वापिस लाना तथा सांसारिक प्रसन्नताओं से मन को मोड़ना।
  5. धारणा (Dharna)-अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने को धारणा कहते हैं जो बहुत कठिन है।
  6. ध्यान (Dhyana)-जब मन पर नियन्त्रण हो जाता है तो ध्यान लगना आरम्भ हो जाता है। इस अवस्था में मन और शरीर नदी के प्रवाह की भान्ति हो जाते हैं जिसमें पानी की धाराओं का कोई प्रभाव नहीं होता।
  7. समाधि (Samadhi)-मन की वह अवस्था जो धारणा से आरम्भ होती है, समाधि में समाप्त हो जाती है। इन सभी अवस्थाओं का आपस में गहरा सम्बन्ध है।

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Physical Education Guide for Class 11 PSEB योग Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
“ठीक ढंग से कार्य करना ही योग है।” किसका कथन है ?
उत्तर-
भगवान् श्री कृष्ण जी का।

प्रश्न 2.
अष्टांग योग के अंग हैं—
(a) 6
(b) 8
(c) 10
(d) 12.
उत्तर-
(d) 12.

प्रश्न 3.
आसनों की किस्में हैं—
(a) 2
(b) 4
(c) 6
(d) 8.
उत्तर-
(a) 2.

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प्रश्न 4.
सूर्य-भेदी प्राणायाम, उजयी प्राणायाम किसके भेद हैं ?
उत्तर-
यह प्राणायाम के भेद हैं।

प्रश्न 5.
श्वास बाहर निकालने की क्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
श्वास बाहर निकालने की क्रिया को रेचक कहते हैं।।

प्रश्न 6.
जब श्वास अंदर खींचते हैं तो उस क्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
जब श्वास अन्दर खींचते हैं तो उस क्रिया को पूरक कहते हैं।

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प्रश्न 7.
श्वास अंदर खींचने के पश्चात् उस क्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
श्वास अंदर खींचने के पश्चात् वहां ही रोकने की क्रिया को कुंबक कहते हैं।

प्रश्न 8.
प्राणायाम के भेद हैं—
(a) 8
(b) 6
(c) 4
(d) 2.
उत्तर-
(a) 8.

प्रश्न 9.
सूर्य नमस्कार की कितनी अवस्थाएँ हैं ?
(a) 12
(b) 8
(c) 6
(d) 4.
उत्तर-
(a) 12.

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प्रश्न 10.
अष्टांग योग के अंग हैं ?
(a) यम
(b) आसन
(c) नियम
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 11.
योग शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
योग का अर्थ जुड़ना या मिलना है।

प्रश्न 12.
आसन कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
आसन दो तरह के होते हैं।

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प्रश्न 13.
सूर्य नमस्कार में कितनी अवस्थाएं हैं ?
उत्तर-
12.

प्रश्न 14.
सूर्य नमस्कार कब करना चाहिए?
उत्तर-
सूर्य नमस्कार आसन करने से पहले करना चाहिए।

प्रश्न 15.
योग क्या है ?
उत्तर-
आत्मा को परमात्मा से मिलाने को योग कहते हैं।

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प्रश्न 16.
आत्मा और परमात्मा के मिलने को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
योग।

प्रश्न 17.
योग संस्कृति के किस शब्द से बना है ?
उत्तर-
यूज से बना है, जिसका अर्थ है मेल।

प्रश्न 18.
सूर्य नमस्कार कब करना चाहिए ?
उत्तर-
सूर्य नमस्कार आसन करने से पहले करना चाहिए।

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अति छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
योग का कोई एक महत्त्व लिखो।
उत्तर-

  1. मनुष्य की शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास करना।
  2. बिमारियों का रोकथाम और लोगों को बचाओ।

प्रश्न 2.
सूर्य नमस्कार करने के दो लाभ लिखो।
उत्तर-

  1. सूर्य नमस्कार ताकत, शक्ति और लचक में वृद्धि करता है।
  2. इससे एकाग्रता बढ़ती है।

प्रश्न 3.
आसन कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
आसन दो प्रकार के होते हैं।

  1. सभ्याचारक आसन
  2. आरामदायक आसन।

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प्रश्न 4.
शव आसन के लाभ लिखो।
उत्तर-
इस आसन को करने से शरीर ताज़ा हो जाता है। शव आसन करने से माँसपेशियां और नाड़ियां आराम की हालत में आ जाती हैं।

प्रश्न 5.
पवनमुक्तासन या पर्वत आसन के लाभ लिखें।
उत्तर-

  1. पाचन प्रणाली को मज़बूत करता है।
  2. गैस की बीमारी ठीक होती है।
  3. पेट के आस-पास भाग में बनी चर्बी कम हो जाती है।

प्रश्न 6.
प्राणायाम के कोई चार भेद लिखो।
उत्तर-

  1. सूर्यभेदी प्राणायाम
  2. शीतली प्राणायाम
  3. शीतकारी प्राणायाम
  4. उजयी प्राणायाम।

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छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
योग का अर्थ अपने शब्दों में लिखो। (Write the meaning of yoga in your own words.):
उत्तर-
‘योग’ शब्द संस्कृत की ‘युज्’ धातु से लिया गया है। इसका अर्थ है : जोड़ना या बाँधना। जोड़ने या बाँधने से अभिप्रायः है कि शरीर, दिमाग और आत्मा को एकसार करना। नीरोग शरीर में ही नीरोग मन का निवास होता है। योग के द्वारा हम मन और शरीर दोनों को चिंता और रोगों से मुक्त करके स्वस्थ शरीर प्राप्त कर लेते हैं।”

प्रश्न 2.
योग आसन करते समय कोई चार दिशा निर्देश लिखो।
उत्तर-

  1. यौगिक व्यायाम करने स्थान समतल होना चाहिए। ज़मीन पर दरी या कम्बल डाल कर यौगिक व्यायाम करने चाहिए।
  2. यौगिक व्यायाम करने वाला स्थान एकान्त, हवादार और सफाई वाला होना चाहिए।
  3. यौगिक व्यायाम करते हुए श्वास और मन को शान्त रखना चाहिए।
  4. भोजन करने के बाद कम से कम चार घण्टे के पश्चात् यौगिक आसन करने चाहिएं।

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प्रश्न 3.
सूर्य नमस्कार में पहली चार मुद्रा के बारे में लिखो।
उत्तर-

  1. दोनों हाथ और पैर जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में सीधे खड़े हो जाओ।
  2. साँस अंदर खींचते हुए दोनों बाजुओं को सिर के ऊपर ले जाओ और कमर को मोड़ते हुए थोड़ा पीछे को झुक जाओ।
  3. साँस को बाहर छोड़ते हुए दोनों हाथों के साथ ज़मीन को छूना है और माथा घुटनों को लगाना है। इस स्थिति में घुटने सीधे होने चाहिए।
  4. दाहिनी टांग पीछे को सीधी कर दो। बायाँ पैर दोनों हथेलियों में रहेगा। इस स्थिति में कुछ सेकिंड के लिए रुको।

प्रश्न 4.
योग करने के कोई दो महत्त्व लिखो।
उत्तर-

  1. योग करने से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
  2. योग से शरीर पूर्ण रूप से स्वस्थ रहता है। इससे शरीर के सभी अन्दरूंनी अंगों में ताकत मिलती है।

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प्रश्न 5.
अष्टांग योग के अंगों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. यम
  2. नियम
  3. आसन
  4. प्राणायाम
  5. प्रत्याहार
  6. धारणा
  7. ध्यान
  8. समाधि।

प्रश्न 6.
पद्मासन की विधि लिखें।
उत्तर-
चौकड़ी मारकर बैठने के बाद दायां पांव बायीं जांघ पर इस तरह रखो कि दायें पांव की एड़ी बाईं जांघ पर पेडू हड्डी को छुए। इसके पश्चात् बायें पांव को उठाकर उसी प्रकार दायें पांव की जाँघ पर रख लें। रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए। बाजुओं को तानकर हाथों को घुटनों पर रखो। कुछ दिनों के अभ्यास द्वारा आसन को बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।

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प्रश्न 7.
शवासन के लाभ लिखें।
उत्तर-
शवासन के लाभ-

  1. शवासन से उच्च रक्त चाप और मानसिक तनाव से छुटकारा मिलता है।
  2. दिल और दिमाग को मजा करता है।
  3. इस आसन द्वारा शरीर की थकावट दूर होती है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न (Long Answer Type Questions)

‘प्रश्न 1.
योग का अर्थ तथा मानव जीवन में इसके महत्त्व के बारे में जानकारी दें।
उत्तर-
योग का अर्थ-‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘युज’ से हुई है, जिसका अभिप्राय है ‘जोड़ . अथवा ‘मेल’। शरीर, दिमाग तथा मन का सुमेल योग कहलाता है। योग वह साधन है जिससे आत्मा का मिलाप परमात्मा से होता है।

मानव जीवन में इसका महत्त्व-योग विज्ञान का मनुष्य के जीवन के लिए बहुत महत्त्व है। योग केवल भारत का ही नहीं बल्कि संसार का प्राचीन ज्ञान है। देश-विदेशों के डॉक्टरों तथा शारीरिक शिक्षा के शिक्षकों ने इसके महत्त्व को स्वीकार किया है। योग से शरीर तथा मन स्वस्थ रहता है तथा इसके साथ-साथ शरीर की नाड़ियां लचकदार एवं मज़बूत रहती हैं ! योग शरीर को रोगों से दूर रखता है और यदि कोई बीमारी लग भी जाए तो आसन अथवा किसी अन्य योग क्रिया द्वारा इसे दूर किया जा सकता है। योग जहां शरीर को स्वस्थ, सुन्दर एवं शक्तिशाली बनाता है, वहां यह प्रतिभा को चार चांद लगा देता है। योग हमें उस दुनिया में ले जाता है जहां जीवन है, स्वास्थ है, परम सुख है, मन की शान्ति है। योग ज्ञान की ऐसी… गंगा है जिसकी एक-एक बूंद में अनेक रोगों को समाप्त करने की क्षमता है। योग परमात्मा से मिलने का सर्वोत्तम साधन है। शरीर आत्मा और परमात्मा के मिलन का माध्यम है। स्वस्थ शरीर के द्वारा ही परमात्मा के दर्शन किये जा सकते हैं। योग मनुष्य को स्वस्थ एवं शक्तिशाली बनाने के साथ-साथ सुयोग्य एवं गुणवान् भी बनाता है। यह हमारे शरीर में शक्ति पैदा करता है। योग केवल रोगी व्यक्ति के लिए ही लाभदायक नहीं बल्कि स्वस्थ मनुष्य भी इसके अभ्यास से लाभ उठा सकते हैं। योग प्रत्येक आयु के व्यक्तियों के लिए लाभदायक है। इसका अभ्यास करने से शरीर के सभी अंग ठीक प्रकार से कार्य करने लगते हैं। योग अभ्यास द्वारा मांसपेशियां मज़बूत होती हैं तथा मानसिक संतुलन में वृद्धि होती है। योग की आवश्यकता आधुनिक युग में भी उतनी ही है जितनी प्राचीन युग में थी। हमारे देश से कहीं अधिक विदेशों ने इस क्षेत्र में प्रगति की है। उन देशों में मानसिक शान्ति के लिए इसका अत्यधिक प्रचार होता है। साथ ही उन देशों में योग के क्षेत्र में बहुत विद्वान् हैं। यह विचारधारा भी गलत है कि आजकल के लोग योग करने के योग्य नहीं रहे। आज के युग में भी मनुष्य योग से पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकता है।

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प्रश्न 2.
प्राणायाम क्या है ? इसकी विधि और महत्त्व लिखें।
उत्तर-
प्राणायाम दो शब्दों के मेल से बना है “प्राण” का अर्थ है ‘जीवन’ और ‘याम’ का अर्थ है ‘नियन्त्रण’ जिससे अभिप्राय है जीवन पर नियन्त्रण अथवा सांस पर नियन्त्रण।
प्राणायाम यह क्रिया है जिससे जीवन की शक्ति को बढ़ाया जा सकता है और इस पर नियन्त्रण किया जा सकता है। मनु-महाराज ने कहा है, “प्राणायाम से मनुष्य के सभी दोष समाप्त हो जाते हैं और कमियां पूरी हो जाती है।”

प्राणायाम के आधार
(Basis of Pranayam)
सांस को बाहर की ओर निकालना तथा फिर अन्दर की ओर करना और अन्दर ही कुछ समय रोक कर फिर कुछ समय के बाद बाहर निकालने की तीनों क्रियाएं ही प्राणायाम का आधार है।
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प्राणायाम
रेचक-सांस बाहर की ओर छोड़ने की क्रिया को ‘रेचक’ कहते हैं।
पूरक-जब सांस अन्दर को खींचते हैं तो इसे ‘पूरक’ कहते हैं।
कुम्भक-सांस को अन्दर खींचने के बाद उसे वहां ही रोकने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं।

प्राण के नाम
(Name of Prana)
व्यक्ति के सारे शरीर में प्राण समाया हुआ है। इसके पांच नाम हैं—

  1. प्राण-यह गले से दिल तक है। इसी प्राण की शक्ति से सांस शरीर में नीचे जाता है।
  2. अप्राण-नाभिका से निचले भाग में प्राण को अप्राण कहते हैं। छोटी और बड़ी आंतों में यही प्राण होता है। यह शौच, पेशाब और हवा को शरीर में से बाहर निकालने के लिए सहायता करता है।
  3. समान-दिल और नाभिका तक रहने वाली प्राण क्रिया को समान कहते हैं। यह प्राण पाचन क्रिया और ऐडरीनल ग्रन्थि की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है।
  4. उदाण-गले से सिर तक रहने वाले प्राण को उदाण कहते हैं। आंखों, कानों, नाक, मस्तिष्क इत्यादि अंगों का काम इसी प्राण के कारण होता है।
  5. ध्यान- यह प्राण शरीर के सभी भागों में रहता है और शरीर का अन्य प्राणों से मेल-जोल रखता है। शरीर के हिलने-जुलने पर इसका नियन्त्रण होता है।

प्राणायाम करने की विधि
(Technique of doing Pranayama)
प्राणायाम श्वासों पर नियन्त्रण करने के लिए किया जाता है। इस क्रिया से श्वास अन्दर की ओर खींच कर रोक लिया जाता है और कुछ समय रोकने के बाद फिर बाहर छोड़ा जाता है। इस प्रकार सांस पर धीरे-धीरे नियन्त्रण करने के समय को बढ़ाया जा सकता है। अपनी दाईं नासिका को बन्द करके, बाईं से आठ गिनते समय तक सांस खींचो। फिर नौ और दस गिनते हुए सांस रोको। इससे पूरा सांस बाहर निकल जाएगा। फिर दाईं नासिका से गिनते हुए सांस खींचो। नौ-दस तक रोको। फिर दाईं नासिका बन्द करके बाईं से आठ कर गिनते हुए सांस बाहर निकालो तथा नौ-दस तक रोको।

प्राणायाम के भेद
(Kinds of Pranayama). शास्त्रों में प्राणायाम कई प्रकार के दिये गये हैं परन्तु प्राय: यह आठ होते हैं—

  1. सूर्य–भेदी प्राणायाम
  2. उजयी प्राणायाम
  3. शीतकारी प्राणायाम
  4. शीतली प्राणायाम
  5. भस्त्रिका प्राणायाम
  6. भरभरी प्राणायाम
  7. मूछ प्राणायाम
  8. कपालभाती प्राणायाम।

इन आठों का संक्षेप वर्णन इस प्रकार है—
1. सूर्यभेदी प्राणायाम-यह प्राणायाम शरीर में गर्मी पैदा करता है। इससे इच्छा शक्ति में वृद्धि होती है। इसे पदम आसन लगा कर करना चाहिए। पीठ, गर्दन, छाती और रीढ़ की हडी सीधी रखनी चाहिए। बायें हाथ की अंगुली के साथ नाक का बायां छेद बन्द कर लिया जाता है। दायें छेद से सांस लिया जाता है। सांस अन्दर खींच कर कुम्भक की जाती है। जब तक सांस रोका जा सके, रोकना चाहिए। इसके बाद दायें होती है, दिमाग के रोग दूर होते हैं और नाड़ियों की सफाई होती है।

अंगूठे से दायें छेद को दबा कर बायें छेद से आवाज़ करते हुए सांस को बाहर निकाला जाना चाहिए। पहले तीन बार अभ्यास होने से पन्द्रह बार किया जा सकता है।
इसमें सांस धीरे-धीरे लेना चाहिए। कुम्भक सांस रोकने का समय बढ़ाना चाहिए।

2. उज्जयी प्राणायाम (मानस श्वास)-उज्जयी प्राणायाम उचित श्वसन की नींव है, क्योंकि यह अभ्यास किया जाने वाला आम व्यायाम है। योग में ऐसा विश्वास किया जाता है कि जीवन का आंकलन साँसों की संख्या से किया जाता है। इसलिए श्वास के प्रवाह को निर्बाध बनाने के लिए तथा जीवन-काल में वृद्धि के लिए उज्जयी प्राणायाम की सलाह दी जाती है।
बैठने की मुद्रा-पैरों को क्रॉस करके आराम की मुद्रा में बैठे। धीरे-धीरे अपनी आँखों को बंद करें। अपने शरीर तथा मस्तिष्क को विश्रामावस्था में लाएँ।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 6
उज्जयी प्राणायाम
तकनीक-गहराई से भीतर की ओर श्वास लें तथा धीरे से श्वास बाहर निकालें। अपनी गर्दन की मांसपेशियों को मजबूत करें तथा श्वास लेते वक्त अपने बंद मुँह से आवाज़ निकालें। जब फेफड़े हवा से भर जाएँ, तब जितना देरं तक संभव हो सके, साँसों को रोककर रखें। दाई नाक को बंद करें। धीरे-धीरे बाई नाक से श्वास बाहर निकालें। यह उज्जयी प्राणायाम का प्रथम चक्र है। इस प्राणायाम को 10 से 15 बार दोहराएँ।
सावधानियाँ—

  1. प्रारंभिक अवस्था में इस व्यायाम को बिना साँस रोके करना चाहिए।
  2. इस व्यायाम को हमेशा एक योगा शिक्षक के निरीक्षण में किया जाना चाहिए।
  3. जो लोग उच्च रक्तचाप तथा दिल की बीमारी से ग्रसित हैं, उन्हें ऐसा व्यायाम नहीं करना चाहिए।

लाभ—

  1. खरटि की तकलीफ को ठीक करता है।
  2. जुकाम को ठीक करता है तथा गला साफ़ करता है।
  3. हृदय की मांसपेशियों को ठीक करता है।
  4. थायरॉइड के रोगियों के लिए यह व्यायाम लाभदायक है।
  5. श्वसन प्रणाली में सामंजस्य स्थापित करता है।
  6. शरीर के निचले भाग के लिए उपयोगी है तथा कमर के चारों ओर के मांस को कम करता है।

3. शीतकारी प्राणायाम (सिसकारीयुक्त श्वसन)-यह शीतली प्राणायाम का ही एक भिन्न रूप है। ‘शी’ का तात्पर्य वैसी आवाज़ से है, जो श्वास लेने के दौरान उत्पन्न की जाती है तथा ‘कारी’ का अर्थ है जो उत्पन्न किया जाता है। इस प्रकार शीतकारी प्राणायाम को वैसी श्वसन क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें ‘शी’ की आवाज़ उत्पन्न होती है। बैठने की मद्रा-किसी भी आसन में आराम से बैठिए। धीरेधीरे अपनी आँखों को बंद कीजिए तथा अपने शरीर तथा मस्तिष्क को विश्राम दीजिए।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 7
शीतकारी
तकनीक-अपने ऊपरी तथा निचले दाँतों को मिलाइए। अपने होंठ को जितना संभव हो सके, उतन, फैलाइए। अपनी जीभ को इस प्रकार मोडिए कि इसके सिरे मुँह के ऊपरी भाग को स्पर्श करें। ‘शी’ की आवाज़ के साथ धीरे-धीरे किंतु गहरी साँस लें। श्वास लेने के पश्चात् अपने होठों को बंद रखें तथा जीभ को आराम दें। अपने श्वास को जितना हो सके, रोकें। धीरे-धीरे नासिका की सहायता से श्वास को बाहर निकालें, लेकिन अपना मुंह न खोलें। यह ‘शीतकारी-प्राणायाम’ का प्रथम चरण है। इसे 10 से 15 बार नियमित दोहराएँ।
सावधानियाँ—

  1. जो व्यक्ति सर्दी, जुकाम या अस्थमा से पीड़ित हों, उन्हें शीतकारी प्राणायाम नहीं करना चाहिए।
  2. जो व्यक्ति उच्च रक्तचाप से पीड़ित होते हैं, उन्हें इस अभ्यास से बचना चाहिए।
  3. इसका अभ्यास ठंडे मौसम में नहीं करना चाहिए।

लाभ—

  1. शरीर तथा मस्तिष्क को ठंडा रखता है।
  2. यह आसन पायरिया को ठीक करता है तथा मुँह को साफ़ करता है, जो दाँत तथा मसूड़ों के लिए उचित है।
  3. शरीर से अतिरिक्त ऊष्मा को हटाता है।
  4. तनाव प्रबंधन में बहुत ही प्रभावकारी है।

4. शीतली प्राणायाम श्वास को शीतल करना-यह ‘हठ योग’ का एक भाग है। शीतल का अर्थ है-शांत। यह एक श्वसन व्यायाम है, जो आंतरिक ऊष्मा को कम करता है तथा मानसिक, शारीरिक तथा भावात्मक संतुलन को कायम रखता है।

बैठने की मुद्रा-पैरों को क्रॉस की तरह मोड़कर आराम से ज़मीन पर इस प्रकार बैठें, जिससे कि पैर जाँघों के ऊपर रहें तथा पैरों का तलवा ऊपर की ओर हो। अपने पैरों तथा मेरुदंड को सीधा रखें। तर्जनी अंगुली के सिरों को अँगूठों के सिरों से मिलाएँ। अपनी बाकी अंगुलियों को या तो फैलाएँ या ढीला छोडें। धीरे-धीरे अपनी आँखों को बंद करें तथा अपने मस्तिष्क
शीतली तथा शरीर को विश्राम दें।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 8
शीतलता
तकनीक-अपना मुँह खोलें तथा धीरे-धीरे जीभ को बाहर की ओर निकालते हुए मोड़ने की कोशिश करें। शांति से भीतर की ओर फुफकार की आवाज़ के साथ साँस लें तथा श्वास लेने की शीतलता को महसूस करें। अब अपनी जीभ को भीतर की ओर ले जाएँ तथा अपनी आँखों को बंद रखते हुए जब तक संभव हो, साँसों को रोककर रखें। अब इस बात का अहसास करें कि साँसें आपके मस्तिष्क को अनुप्राणित कर रही हैं तथा धीरे-धीरे समस्त तंत्रिका तंत्र में फैल रही हैं। धीरे-धीरे नासिका से श्वास छोड़ते हुए शीतलता का अनुभव करें। यह ‘शीतली प्राणायाम’ का प्रथम चरण है। इसे 10 से 15 बार नियमित दोहराएँ।
सावधानियाँ—

  1. इसका अभ्यास ठंडे मौसम में नहीं करना चाहिए।
  2. ऐसे लोग जिन्हें ठंड, जुकाम, अस्थमा, आर्थराइटिस, ब्रानकाइटिस तथा दिल की बीमारी है, उन्हें प्राणायाम से बचना चाहिए।

लाभ—

  1. यह क्रोध, चिंता तथा तनाव को कम करता है।
  2. यह रक्त को शुद्ध रखता है तथा शरीर और मस्तिष्क को तरोताज़ा रखता है।
  3. यह आसन उन लोगों के लिए लाभदायक है, जो सुबह उठते वक्त अथवा पूरे दिन थकावट, सुस्ती तथा आलस्य का अनुभव करते हैं।
  4. यह शरीर तथा मस्तिष्क को शांत रखता है।
  5. यह न केवल पाचन-क्रिया को सुधारता है, बल्कि उच्च रक्तचाप तथा अम्लता के लिए भी लाभकारी

5. भस्त्रिका प्राणायाम-इस प्राणायाम में लोहार की धौंकनी की तरह सांस अन्दर और बाहर लिया और निकाला जाता है। पहले नाक के एक छेद से सांस लेकर दूसरे से बाहर की ओर छोड़ा जाता है। इसके बाद दोनों छेदों द्वारा सांस बाहर तथा अन्दर किया जाता है। भस्त्रिका प्राणायाम आरम्भ में धीरे-धीरे करना चाहिए तथा बाद में इसकी गति को बढ़ाया जा सकता है। इस प्राणायाम के करने से मोटापा दूर होता है। मन की इच्छा बलवान् होती है। विचार ठीक रहते हैं।

6. भ्रमरी प्राणायाम-किसी आसन में बैठ कर कुहनियों को कन्धों के बराबर करके सांस लिया जाता है। थोडी देरं सांस रोकने के बाद निकालते समय भँवरे की आवाज़ के समान गले में से आवाज़ निकाली जाती है। इस प्रकार आवाज़ करते हुए सांस अन्दर खींचा जाता है। इस प्राणायाम का अभ्यास सात से दस बार किया जा सकता है। रेचक जहां तक हो सके, लम्बा किया जाना चाहिए। आवाज़ तथा रेचक करते हुए मुँह बन्द रखना चाहिए।
लाभ (Advantages)—इसका अभ्यास करने से आवाज़ साफ तथा मधुर होती है। गले के रोग दूर होते हैं।

7. मूर्छा प्राणायाम-इस प्राणायाम से नाड़ियों की सफाई होती है। सिद्ध आसन में बैठ कर नाक की बाईं नासिका से सांस लेना चाहिए। सांस लेकर कुम्भक किया जाए। इसके बाद दूसरी नासिका द्वारा सांस धीरे-धीरे बाहर छोड़ा जाता है। कुछ समय के लिए आन्तरिक कुम्भक किया जाता है और साथ बाईं नासिका द्वारा सांस बाहर छोड़ा जाता है। इसमें 1: 2: 2 का अनुपात होना चाहिए जैसे सांस लेने में पांच सैकिंड, सांस छोड़ने में दस सैकिंड इस तरह धीरे-धीरे कुम्भक का समय बढ़ाया जा सकता है। कुम्भक द्वारा ऑक्सीजन फेफड़ों के सभी छेदों में पहुँच जाती है। रेचक से फेफड़े सिकुड़ जाते हैं तथा हवा बाहर निकल जाती है।
लाभ (Advantages)—इस प्राणायाम से फेफड़ों के रोग दूर होते हैं और दिल की कमज़ोरी दूर होती है।

8. कपालभाति प्राणायाम (अग्रमस्तिष्क का धौंकना)कपालभाति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है। कपाल का अर्थ है-‘ललाट’ तथा भाति का अर्थ है-‘चमकना’। इस प्रकार कपालभाति का तात्पर्य है-आंतरिक कांति के साथ चेहरे का चमकना। यह एक अत्यधिक ऊर्जा देने वाला उदर का व्यायाम है। इस तरह के प्राणायाम में तेज़ी से श्वास छोड़ा जाता है तथा सामान्य तरीके से श्वास लिया जाता है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 9
कपालभाति प्राणायाम
बैठने की मुद्रा-पीठ को सीधा रखते हुए पैरों को क्रॉस करते हुए बैठें। अपने हाथों को घुटनों पर आरामदायक अवस्था में रखें। अपने शरीर तथा मन को सहज रखें।
तकनीक-उदर को फैलाते हुए धीरे-धीरे गहराई से दोनों नाक की सहायता से श्वास भीतर लाएँ। अब उदर को अंदर खींचते हुए श्वास को बाहर निकालें। अब सहज हो जाएँ। फेफड़े स्वतः ही वायु से भर जाएँगे। 10 से 15 बार तेजी से श्वास लें तथा छोड़ें। तत्पश्चात् गहराई से श्वास लें तथा छोड़ें।
सावधानियां—

  1. दिल के रोगियों, उच्च रक्तचाप, हर्निया तथा अस्थमा के रोगियों को इस व्यायाम से बचना चाहिए।
  2. अगर दर्द या चक्कर का अनुभव होता है, तो इसे रोक देना चाहिए।
  3. इसका अभ्यास खाली पेट ही करना चाहिए।

लाभ—

  1. शरीर को अतिरिक्त ऑक्सीजन की प्राप्ति होती है।
  2. रक्त को शुद्ध करता है।
  3. चिंतन-मनन के लिए मस्तिष्क को तैयार करता है।
  4. पाचन तंत्र को सुधारता है।
  5. यह फेफड़ों तथा समस्त श्वसन प्रणाली के लिए उपयुक्त है।

प्राणायाम का महत्त्व
(Importance of Pranayama)
जिस प्रकार शरीर की सफाई के लिए स्नान करना आवश्यक है, उसी प्रकार मन की सफाई के लिए प्राणायाम ज़रूरी है। प्राणायाम से स्मरण शक्ति में वृद्धि, नाड़ी संस्थान (Nervous System) शक्तिशाली होता है और मन की चंचलता दूर होती है।

जिस प्रकार आग में सोना अथवा चांदी डालने से इनकी मैल समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार प्राणायाम से मन और बुद्धि की मैल धुल जाती है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
प्राणायाम करने से मनुष्य की आत्मा शक्तिशाली बनती है। आत्मा के बुरे संस्कार समाप्त होते हैं और अच्छे संस्कार बनते हैं।

प्राणायाम करने से पेट, छाती की मांसपेशियां मज़बूत बनती हैं और पेट के काफ़ी अंगों पर मालिश हो जाती है। अंगों के स्वस्थ और शक्तिशाली रहने से भोजन के पचने में बहुत लाभ होता है।

सांस भली प्रकार आने से शरीर में ऑक्सीजन अधिक मात्रा में मिलने लगती है। दिल की कार्यक्षमता बढ़ती है और यह शक्तिशाली हो जाता है। इससे रक्त संचार ठीक तरह होता है। रक्त संचार के भली प्रकार कार्य करने से नाड़ीसंस्थान और ग्रन्थि संस्थान के स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। शरीर में इन दोनों संस्थानों के कारण शरीर के सभी अंग ठीक तरह से काम करने लगते हैं। यह दोनों ही स्वास्थ्य का आधार हैं।

प्राणायाम से थकावट दूर हो जाती है। अधिक ऑक्सीजन के कारण रक्त साफ होता है। एक प्रसिद्ध कहावत है”आधा सांस, आधा जीवन।” पूरा तथा संतुलित सांस लेने से आयु लम्बी होती है। सांस के रोगों, गले के रोगों, जैसे गले पड़ना (Tonsils) से छुटकारा मिलता है।

आवाज़ मधुर तथा स्पष्ट हो जाती है। इच्छा शक्ति (Will Power) में वृद्धि होती है। गले, नाक, कान आदि के रोगों से मुक्ति मिलती है। इसके अतिरिक्त चेहरा प्रभावशाली आंखें साफ हो जाती हैं। सुषुम्ना-नाड़ी के साफ हो जाने से भूख लगने लगती है। स्वास्थ्य में वृद्धि होती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 3.
भुजंगासन और सर्वांगासन की विधि और लाभ बताओ।
उत्तर-
भुजंगासन (Bhujangasana)—इसमें चित्त लेटकर धड़ को ढीला किया जाता है।
भुजंगासन की विधि (Technique of Bhujangasana)-इसे सर्पासन भी कहते हैं।
इसमें शरीर की स्थिति सर्प के आकार जैसी होती है। सर्पासन करने के लिए भूमि पर पेट के बल लेटें। दोनों हाथ कन्धों के बराबर रखो। धीरे-धीरे टांगों को अकड़ाते हुए हथेलियों के बल छाती को इतना ऊपर उठाएं कि भुजाएं बिल्कुल सीधी हो जाएं। पंजों को अन्दर की ओर करो और सिर को धीरे-धीरे पीछे की ओर लटकाएं। धीरे-धीरे पहली स्थिति में लौट आएं। इस आसन को तीन से पांच बार करें।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 10
भुजंगासन
लाभ (Advantages)—

  1. भुजंगासन से पाचन शक्ति मिलती है।
  2. जिगर और तिल्ली के रोगों से छुटकारा मिलता है।
  3. रीढ़ की हड्डी और मांसपेशियां मज़बूत बनती हैं।
  4. कब्ज़ दूर होती है।
  5. बढ़ा हुआ पेट अन्दर को धंसता है।
  6. फेफड़े शक्तिशाली होते हैं।

सर्वांगासन (Sarvangasana)—इसमें कन्धों पर खड़ा हुआ जाता है।
सर्वांगासन की विधि (Technique of Saravangasana)-सर्वांगासन में शरीर की स्थिति अर्द्ध हल आसन की भांति होती है। इस आसन के लिए शरीर को सीधा करके पीठ के बल जमीन पर लेट जाएं। हाथों को जंघाओं के बराबर रखें। दोनों पांवों को एक बार उठाकर हथेलियां द्वारा पीठ को सहारा देकर कुहनियों को ज़मीन पर टिकाएं। सारे शरीर को सीधा रखें। शरीर का भार कन्धों और गर्दन पर रहे। ठोडी कण्ठकूप से लगी रहे। कुछ समय इस स्थिति में रहने के पश्चात् धीरेधीरे पहली स्थिति में आएं। आरम्भ में आसन का समय बढ़ाकर 5 से 7 मिनट तक किया जा सकता है। जो व्यक्ति किसी कारण शीर्षासन नहीं कर सकते उन्हें सर्वांगासन करना चाहिए।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 11
सर्वांगासन
लाभ—

  1. इस आसन से कब्ज दूर होती है, भूख खूब लगती है।
  2. बाहर को बढ़ा हुआ पेट अन्दर की ओर धंसता है।
  3. शरीर के सभी अंगों में चुस्ती आती है।
  4. पेट की गैस नष्ट होती है।
  5. रक्त संचार तेज़ और शुद्ध होता है।
  6. बवासीर के रोग से छुटकारा मिलता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 3 फूलों की खेती Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 3 फूलों की खेती

PSEB 11th Class Agriculture Guide फूलों की खेती Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो –

प्रश्न 1.
डंडी वाले फूल के रूप में उगाई जाने वाली मुख्य फसल कौन सी है ?
उत्तर-
ग्लैडीऑल्स।

प्रश्न 2.
डंडी रहित फूल वाली मुख्य फसल का नाम लिखो।
उत्तर-
गेंदा।

प्रश्न 3.
पंजाब में कुल कितने क्षेत्रफल में फूलों की खेती की जा रही है ?
उत्तर-
2160 हैक्टेयर क्षेत्रफल के अधीन जिसमें 1300 हैक्टेयर क्षेत्रफल पर ताज़े तोड़ने वाले फूलों की कृषि होती है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती

प्रश्न 4.
पंजाब में उगाई जाने वाली फूलों की फसलों को कितने भागों में बांटा जा सकता है ?
उत्तर-
दो भागों में-
(i) डंडी रहित फूल।
(ii) डंडी वाले फूल।

प्रश्न 5.
ग्लैडीऑल्स की गांठों की बुआई कब की जाती है ?
उत्तर-
सितम्बर से मध्य नवम्बर।

प्रश्न 6.
गुलदाउदी की कलमें किस महीने में तैयार की जाती हैं ?
उत्तर-
जून के अन्त से मध्य जुलाई तक।

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प्रश्न 7.
जरबरा के पौधे कैसे तैयार किए जाते हैं ?
उत्तर-
टिशु कल्चर द्वारा।

प्रश्न 8.
पंजाब में डंडी रहित फूलों के लिए कौन से रंग का गुलाब लगाया जाता
उत्तर-
लाल गुलाब।

प्रश्न 9.
तेल निकालने के लिए कौन-कौन से फूल उपयोग में लाए जाते हैं ?
उत्तर-
रजनीगंधा, मोतिया के फूल।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती

प्रश्न 10.
सुरक्षित ढांचों में कौन-से फूलों की कृषि की जाती है ?
उत्तर-
जरबरा।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
डंडी वाले फूलों की परिभाषा दो और डंडी वाले मुख्य फूलों के नाम बताओ।
उत्तर-
डंडी वाले फूल वह होते हैं जिनको लम्बी डंडी के साथ तोड़ा जाता है। इसके मुख्य फूल हैं-ग्लैडीऑल्स, गुलदाउदी, जरबरा, गुलाब, लिली आदि।

प्रश्न 2.
ग्लैडीऑलस फूल की डंडियों की कटाई और स्टोर करने के बारे में जानकारी दें।
उत्तर-
कटाई उस समय की जाती है जब पहला फूल आधा या पूरा खुल जाए।
ग्लैडीऑल्स की फूल डंडियों को पानी में रख कर नौ दिनों के लिए कोल्ड स्टोर में इनका भंडारण किया जा सकता है।

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प्रश्न 3.
गुलाब के पौधे कैसे तैयार किए जाते हैं ?
उत्तर-
डंडी वाले फूलों की किस्मों को टी (T) -विधि द्वारा प्योंद करके तैयार किया जाता है। डंडी के बिना फूलों वाले लाल गुलाब को कलमों द्वारा तैयार किया जाता

प्रश्न 4.
गेंदे की नर्सरी किन महीनों में तैयार की जाती है ?
उत्तर-
गेंदे की पनीरी बरसात के लिए जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक सर्दियों के लिए मध्य सितम्बर तथा गर्मियों के लिए जनवरी के पहले सप्ताह में लगाई जाती है।

प्रश्न 5
मौसमी फूलों की बुआई का समय बताओ।
उत्तर-
मौसमी फूल एक वर्ष में या एक मौसम में अपना जीवन-चक्र पूर्ण कर लेते हैं। इनकी बुवाई का समय है –

1. गर्मी के फूल-पनीरी-फरवरी-मार्च में।
खेत में चार सप्ताह की पनीरी होने पर।
2. बरसात के फूल-पनीरी-जून का पहला सप्ताह।
खेत में-जुलाई के पहले सप्ताह।
3. सर्दी के फूल-पनीरी-सितम्बर के मध्य में।
खेत में-अक्तूबर के मध्य में।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित फूलों को कब तोड़ा जाता है ?
(क) ग्लैडीऑल्स
(ख) डंडी वाला गुलाब
(ग) मोतिया।
उत्तर-
ग्लैडीऑल्स-कटाई उस समय की जाती है जब पहला फूल आधा या पूरा खुल जाता है।
(ख) डंडी वाला गुलाब-डंडी वाले फूलों को बंद अवस्था में तोड़ा जाता है।
(ग) मोतिया-मोतिया के फूल को जब इसकी कलियां पूर्ण रूप से न खुली हों, तोड़कर बेचा जाता है।

प्रश्न 7.
अफ्रीकन और फ्रांसीसी गेंदे के पौधों में कितनी दूरी रखी जाती है ?
उत्तर-
अफ्रीकन किस्मों के लिए दूरी 40×30 सैं०मी० तथा फ्रांसीसी किस्मों के लिए 60×60 सैं०मी० रखी जाती है।

प्रश्न 8.
जरबरा के पौधे किस महीने में लगाए जाते हैं ? यह फसल कितने समय तक फूल देती है ?
उत्तर-
जरवरा के पौधे सितम्बर से अक्तूबर माह में लगाए जाते हैं। तीन साल तक यह फसल खेत में रहती है।
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PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती

प्रश्न 9.
डंडी रहित फूलों के नाम और उनके उपयोग के बारे में लिखो।
उत्तर-
डंडी के बिना फूल हैं-गेंदा, गुलाब, मोतिया, गुलदाऊदी आदि। इन सारे फूलों | को हार बनाने के लिए, पूजा के कार्यों या अन्य सजावटी कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता

प्रश्न 10.
मोतिया की फसल के लिए उपयुक्त ज़मीन कौन-सी है ?
उत्तर-
मोतिया की खेती के लिए मध्यम से भारी भूमियां, जिनमें पानी न ठहरता हो, अच्छी रहती है।

(ग) पांच-छ: वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
मनुष्य जीवन में फूलों के महत्त्व के बारे में विस्तार से बताओ।
उत्तर-
फूलों का मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। हमारे आस-पास की दुनिया । को रंगीन तथा सुंदरता प्रदान करने में इनका बहुत योगदान है। हमारे रीति-रिवाजों के साथ फूलों का गहरा संबंध है। शादी, जन्म दिवस आदि के अवसरों पर फूलों का बहुत प्रयोग होता है। धार्मिक स्थलों, मंदिरों आदि में फूलों के प्रयोग से भगवान् के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। अन्य समागमों में मुख्य मेहमान का स्वागत करने के लिए हम फूलों के गुलदस्ते तथा हार का प्रयोग करते हैं। फूलों को औरतों द्वारा अपने शृंगार के लिए भी प्रयोग किया जाता है। फूलों की कृषि आर्थिक पक्ष से भी एक लाभदायक धंधा बन गई है। इस प्रकार फूलों का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है।

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प्रश्न 2.
डंडी रहित और डंडी वाले फूलों में क्या अंतर है ? उदाहरण सहित बताओ।
उत्तर-
डंडी रहित फूल-यह ऐसे फूल होते हैं जिनको डंडी के बिना तोड़ा जाता है। यह फूल हैं-गेंदा, गुलाब, मोतिया, गुलदाउदी आदि। इनका प्रयोग हार बनाने के लिए, पूजा के लिए एवं अन्य सजावटी कार्यों के लिए किया जाता है।

डंडी वाले फूल-डंडी वाले फूल वह होते हैं जिनको लम्बी डंडी के साथ तोड़ा जाता है। इनको डंडी के साथ ही बेचा जाता है। इन फूलों का प्रयोग साधारणतः गुलदस्ते बनाने के लिए होता है। इनको तोहफे के रूप में देने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। उदाहरण-ग्लैडीऑल्स, गुलदाउदी, जरबरा, गुलाब तथा लिली आदि।

प्रश्न 3.
मोतिया के फूल के महत्त्व के बारे में बताते हुए इसकी कृषि पर नोट लिखें।
उत्तर-
मोतिया सुगंध प्रदान करने वाले फूलों में से एक महत्त्वपूर्ण फूल है। इन फूलों में से सुगंधित तेल प्राप्त किया जाता है तथा इनका पूजा पाठ के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
जलवायु-अधिक तापमान तथा शुष्क मौसम मोतिया की पैदावार के लिए उचित है।
भूमि-मोतिया की भूमि के लिए मध्यम से भारी भूमियां, जिनमें पानी न ठहरता हो, अच्छी रहती है।
कटाई-पौधों को दूसरे वर्ष के बाद कटाई करके 45 से 60 सैं०मी० की ऊंचाई पर ही रखना चाहिए।।
फूलों का समय-फूल अप्रैल से जुलाई-अगस्त माह तक मिलते हैं।
तुड़ाई-मोतिया के फूल की जब कलियाँ अभी पूरी खुली न हों, तोड़ कर बेचे जाते हैं।
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प्रश्न 4.
गेंदे की बुआई, तुड़ाई और पैदावार पर नोट लिखें।
उत्तर-
गेंदा एक डंडी के बिना तोड़े जाने वाला फूल है। पंजाब में इसकी कृषि सारा वर्ष होती है। गेंदे की फसल के लिए पंजाब की मिट्टी बहुत ही उचित है।
नर्सरी तैयार करना-गेंदे की नर्सरी बरसातों के लिए जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक, सर्दियों के लिए मध्य सितंबर तथा गर्मियों के लिए जनवरी के पहले सप्ताह में लगाई जाती है। यह पनीरी लगभग एक महीने में खेतों में लगाने के लिए तैयार हो जाती है।

किस्में-गेंदे की दो किस्में हैं-अफ्रीकन तथा फ्रांसीसी।
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फासला 40×30 सैं०मी० तथा फ्रांसीसी किस्म के लिए 60 x 60 सैं०मी०।
फूलों की प्राप्ति-50 से 60 दिनों के बाद फूलों की प्राप्ति होने लगती है। तुड़ाई का मण्डीकरण-फूल पूरे खुल जाने के बाद तोड़ कर मण्डीकरण किया जाता है।
पैदावार ( उत्पादन)-बरसात में औसत पैदावार 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तथा सर्दियों में 150 से 170 क्विंटल प्रति हैक्टेयर।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित फूलों की फसलों की पौध वृद्धि कैसे की जाती है ?
(क) ग्लैडीऑल्स
(ख) रजनीगंधा
(ग) गुलदाउदी
(घ) जरबरा।
उत्तर-
(क) ग्लैडीऑल्स-ग्लैडीऑल्स की बुआई बल्बों (गांठों) से की जाती है।
(ख) रजनीगंधा-रजनीगंधा के बल्ब (गांठे) लगाए जाते हैं।
(ग) गुलदाउदी-गुलदाउदी की कलमें पुराने पौधों के टूसों से तैयार की जाती है।
(घ) जरबरा-टिशु कल्चर द्वारा तैयार किए जाते हैं।

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Agriculture Guide for Class 11 PSEB फूलों की खेती Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पंजाब में ताजे तोड़ने वाले फूलों की कृषि के अधीन क्षेत्रफल लिखो।
उत्तर-
1300 हैक्टेयर।

प्रश्न 2.
ग्लैडीऑल्स, गुलदाउदी, जरबरा किस तरह के फूल हैं ?
उत्तर-
डंडी वाले।

प्रश्न 3.
गुलाब, मोतिया कैसे फूल हैं ?
उत्तर-
डंडी रहित।

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प्रश्न 4.
ग्लैडीऑल्स की कृषि किससे की जाती है ?
उत्तर-
बल्बों (गांठों) से।

प्रश्न 5.
ग्लैडीऑल्स के बल्ब कब बोए जाते हैं?
उत्तर-
सितंबर से आधे नवंबर तक।

प्रश्न 6.
पंजाब में गेंदे की कृषि कब की जा सकती है?
उत्तर-
पंजाब में गेंदे की कृषि सारा वर्ष की जा सकती है।

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प्रश्न 7.
गेंदे की फसल के लिए कौन-सी मिट्टी ठीक है?
उत्तर-
गेंदे की फसल के लिए पंजाब की सारी भूमियां ठीक हैं।

प्रश्न 8.
गेंदे की किस्में बताओ।
उत्तर-
अफ्रीकन तथा फ्रांसीसी।

प्रश्न 9.
एक एकड़ नर्सरी के लिए गेंदे के बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
600 ग्राम।

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प्रश्न 10.
बरसात के लिए गेंदे की पनीरी कब लगाई जाती है ?
उत्तर-
जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह।

प्रश्न 11.
गेंदे के फूल कितने दिनों बाद मिलने लगते हैं?
उत्तर-
50 से 60 दिनों बाद।

प्रश्न 12.
गेंदे की बरसातों के मौसम में उत्पादन बताओ।
उत्तर-
लगभग 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर।

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प्रश्न 13.
गेंदे के फूलों का सर्दियों में उत्पादन बताओ।
उत्तर-
150-170 क्विंटल प्रति हैक्टेयर।

प्रश्न 14.
गुलदाउदी की कलमें कहां से ली जाती हैं ?
उत्तर-
पुराने पौधों के टूसों से।

प्रश्न 15.
गुलदाउदी की कलमें कब तैयार की जाती हैं ?
उत्तर-
जून के अंत से मध्य जुलाई तक।

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प्रश्न 16.
गुलदाउदी की कलमें खेतों में कब लगाई जाती हैं?
उत्तर-
मध्य जुलाई से मध्य सितंबर तक।

प्रश्न 17.
गुलदाउदी के पौधों का फासला बताओ।
उत्तर-
30 x 30 सै०मी०।

प्रश्न 18.
गुलदाउदी के फूल कब आते हैं ?
उत्तर-
नवंबर-दिसंबर।

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प्रश्न 19.
गुलदाउदी के फूलों को भूमि से कितनी दूरी पर काटा जाता है ?
उत्तर-
भूमि से पांच सैं०मी० छोड़कर।
आ।

प्रश्न 20.
पंजाब में गुलाब के फूल कब प्राप्त होते हैं?
उत्तर-
नवंबर से फरवरी-मार्च तक।

प्रश्न 21.
जरबरे के फूलों का रंग बताओ।
उत्तर-
लाल, संतरी, सफेद, गुलाबी, पीले।

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प्रश्न 22.
जरबरा के पौधे कब लगाए जाते हैं?
उत्तर-
सितंबर-अक्तूबर।।

प्रश्न 23.
रजनीगंधा कितनी किस्मों में आते हैं ?
उत्तर-
सिंगल तथा डबल किस्म में।

प्रश्न 24.
रजनीगंधा की कौन-सी किस्म सुगंध वाली है?
उत्तर-
सिंगल किस्में।

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प्रश्न 25.
रजनीगंधा के बल्ब कब लगाए जाते हैं?
उत्तर-
फरवरी-मार्च।

प्रश्न 26.
रजनीगंधा के फूल कब लगते हैं ?
उत्तर-
जुलाई-अगस्त ।

प्रश्न 27.
रजनीगंधा की पैदावार बताओ।
उत्तर-
80000 फूल डंडियों वाले या 2 – 2.5 टन प्रति एकड़ डंडी के बिना फूलों का उत्पादन मिलता है।

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प्रश्न 28.
एक सुगंध वाले फूल का नाम बताओ।
उत्तर-
मोतिया।

प्रश्न 29.
मोतिया के फूलों का रंग बताओ।
उत्तर-
सफेद।

प्रश्न 30.
मोतिया के फल कब आते हैं?
उत्तर-
अप्रैल से जुलाई-अगस्त।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्लैडीऑल्स के बल्बों को अगले साल के लिए कैसे तैयार किया जाता है?
उत्तर-
फूल डंडियां काटने से 6-8 सप्ताह बाद भूमि में से बल्बों (गांठों) को निकाल कर छाया में सुखा कर अगले वर्ष की बुवाई के लिए कोल्ड स्टोर में रख लिया जाता है।

प्रश्न 2.
गेंदे की नर्सरी कब लगाई जाती है? .
उत्तर-
बरसातों के लिए जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक, सर्दियों के लिए मध्य सितंबर तथा गर्मियों के लिए जनवरी के पहले सप्ताह में लगाई जाती है।

प्रश्न 3.
गुलदाउदी की कलमों को कब तैयार किया जाता है ?
उत्तर-
कलमों को जून के अंत से मध्य जुलाई तक पुराने पौधे के टूसों से तैयार किया जाता है। मध्य जुलाई से मध्य सितंबर तक खेतों में लगाया जाता है।
PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती 4

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प्रश्न 4.
गुलदाउदी के फूल कब आते हैं तथा इनकी तुड़ाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
गुलदाउदी के फूल नवंबर-दिसंबर में लगते हैं तथा डंडी वाले फूलों को भूमि से पांच सैं०मी० छोड़कर काटा जाता है जबकि डंडी के बिना फूलों को पूरा खुलने पर तोड़ा जाता है।

प्रश्न 5.
गुलाब के फूल कब आते हैं तथा इनकी तुड़ाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
गुलाब के फूल पंजाब में नवंबर से फरवरी-मार्च तक आते हैं। गुलाब की डंडी वाले फलों को बंद अवस्था में तथा डंडी रहित फूलों को पूरे खुलने पर तोड़ा जाता है।
PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती 5

प्रश्न 6.
रजनीगंधा की किस्मों के बारे में बताओ।
उत्तर-
रजनीगंधा की दो किस्में हैं-सिंगल तथा डबल। सिंगल किस्में अधिक सुगंधित हैं तथा इनमें से तेल भी निकाला जाता है।
PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती 6

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती

प्रश्न 7.
रजनीगंधा के बल्ब कब लगाए जाते हैं तथा फूल कब आते हैं?
उत्तर-
बल्ब (गांठे) फरवरी-मार्च में लगाए जाते हैं तथा फूल जुलाई-अगस्त में आते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्लैडीऑल्स की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
ग्लैडीऑल्स पंजाब में डंडी वाले फूलों में से मुख्य फूल हैं।
बीज-ग्लैडीऑल्स की बुवाई के लिए बल्ब (गांठे) का प्रयोग किया जाता है।
PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती 7
बोवाई का समय-सितंबर से मध्य नवंबर।
फासला-30 x 20 सै०मी० ।
कटाई-डंडियों की कटाई उस समय की जाती है जब पहला फूल आधा या पूरा खुल जाए।
स्टोर करना-फूल डंडियों को पानी में रख कर नौ दिनों के लिए कोल्ड स्टोर में स्टोर किया जा सकता है।
अगले वर्ष का बीज-जब फूल डंडियां काट ली जाती हैं तो 6-8 सप्ताह बाद भूमि में से बल्ब (गांठे) निकाल कर छाया में सुखा लिए जाते हैं। इनको अगले वर्ष की बुवाई के लिए कोल्ड स्टोर में स्टोर किया जाता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 3 फूलों की खेती

प्रश्न 2.
गुलदाउदी की कृषि के बारे में बताओ।
उत्तर-
गुलदाउदी के फूल डंडी वाले तथा डंडी रहित भी हो सकते हैं । इनको गमलों में । लगाया जा सकता है।
कलमें तैयार करना-कलमों को जून के अंत से मध्य जुलाई तक पुराने पौधों के टूसियों से तैयार किया जाता है।
बुवाई का समय-कलमों को मध्य जुलाई से मध्य सितंबर तक खेतों में लगाया जाता है।
फासला-30 x 30 सैं० मी० फूल आने का समय-नवंबर-दिसंबर में।
कटाई-डंडी वाले फूलों को भूमि से पांच सैं०मी० छोड़कर काटा जाता है। परन्तु डंडी रहित फूलों को पूरा खुलने पर तोड़ा जाता है।

फूलों की खेती PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • भारतीय समाज में फूलों की महत्ता प्राचीन समय से ही बनी हुई है।
  • फूलों का प्रयोग पूजा के लिए, विवाह-शादियों के लिए तथा अन्य सामाजिक समारोहों के लिए बड़े स्तर पर किया जाता है।
  • पंजाब में 2160 हैक्टेयर क्षेत्रफल फूलों की कृषि के अधीन है।
  • पंजाब में 1300 हैक्टेयर क्षेत्रफल पर ताज़े तोड़ने वाले फूलों की कृषि होती है।
  • पंजाब में मुख्य फूलों वाली फसलों को दो भागों में बांटा जाता है-डंडी रहित फूल (Loose flower), डंडी वाले फूल (Cut flower)।।
  • डंडी रहित फूलों को लम्बी डंडी के बिना तोड़ा जाता है। उदाहरण-गेंदा, गुलाब, मोतिया आदि।
  • डंडी वाले फूलों को लम्बी डंडी के साथ तोड़ा जाता है; जैसे-ग्लैडीऑल्स जरबरा, लिली आदि।
  • ग्लैडीऑल्स, पंजाब में डंडी वाले फूलों की कृषि वाली मुख्य फसल है।
  • ग्लैडीऑल्स की कृषि बल्बों से की जाती है।
  • गेंदा पंजाब का डंडी रहित फूलों वाला मुख्य फूल है।
  • गेंदा दो प्रकार का है-अफ्रीकन, फ्रांसीसी।
  • गेंदे की कृषि के लिए एक एकड़ की नर्सरी के लिए 600 ग्राम बीज की आवश्यकता है।
  • गुलदाउदी डंडी वाला तथा डंडी रहित फूल दोनों तरह प्रयोग होते हैं।
  • गुलदाउदी की कलमें जून के अन्त से मध्य जुलाई तक पुराने पौधों के टूसों से तैयार की जाती हैं।
  • गुलाब की कृषि भी डंडी वाले तथा डंडी रहित फूलों के लिए की जाती है।
  • गुलाब की डंडी वाले फूलों को बंद अवस्था में तथा डंडी के बिना फूलों को पूरी तरह खुलने पर तोड़ा जाता है।
  • जरबरा के लाल, संतरी, सफेद, गुलाब तथा पीले रंग के फूलों की अधिक मांग है।
  • रजनीगंधा के फूल बिना डंडी के, डंडी के साथ तथा तेल निकालने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।
  • रजनीगंधा के बल्ब गांठे फरवरी-मार्च में लगाए जाते हैं।
  • रजनीगंधा से 80,000 फूल डंडियों वाले या 2-2.5 टन प्रति एकड़ डंडी रहित फूलों की पैदावार मिल जाती है।
  • मोतिया के फूल सफेद रंग के तथा खुश्बूदार होते हैं।
  • मोतिया की कृषि के लिए मध्यम से भारी भूमि, जिनमें पानी न ठहरता हो अच्छी रहती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 1 पृथ्वी

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 1 पृथ्वी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 1 पृथ्वी

PSEB 11th Class Geography Guide पृथ्वी Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दो-चार शब्दों में लिखो

प्रश्न (क)
नैबुयला का सिद्धान्त सर्वप्रथम किस विचारवान ने पेश किया ?
उत्तर-
फ्रांसीसी गणित शास्त्री लैपलेस (Laplace) ने।

प्रश्न (ख)
पृथ्वी के भूमध्य रेखीय और ध्रुवीय व्यासों में कितना अंतर है ?
उत्तर-
42 किलोमीटर।

प्रश्न (ग)
प्राचीन खगोल विद्या के अनुसार युद्ध, प्रेम और स्वर्ग के देवता कौन-से ग्रह हैं ?
उत्तर-

  1. युद्ध का देवता – मंगल (Mars)
  2. प्रेम का देवता – शुक्र (Venus)
  3. स्वर्ग का देवता – अरुण (Uranus)

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प्रश्न (घ)
सूर्य मंडल के कौन-से ग्रह ‘गैस जॉयंट्स’ (Gas-Giants) माने जाते हैं ?
उत्तर-
गैसों से बने ग्रहों को ‘गैस जॉयंट्स’ कहते हैं। जैसे-बृहस्पति, शनि, अरुण तथा वरुण।

प्रश्न (ङ)
ISRO का पूरा नाम क्या है ?
उत्तर-
ISRO = Indian Space Research Organisation.

प्रश्न (च)
पृथ्वी का सबसे ऊँचा व सबसे गहरा स्थान कौन-सा है ?
उत्तर-

  • सबसे ऊँचा स्थान : हिमालय पर्वत और माउंट एवरेस्ट (8848 मीटर)
  • सबसे गहरा स्थान : प्रशांत महासागर में मैरीन ट्रैच (11033 मीटर)

प्रश्न (छ)
अक्षांशों और देशांतरों की आरंभिक रेखाओं के नाम बताएं।
उत्तर-
अक्षांशों की आरंभिक रेखा : भूमध्य रेखा।
देशांतरों की आरंभिक रेखा : मुख्य मध्यमान रेखा।

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प्रश्न (ज)
मुख्य मध्यमान रेखा पृथ्वी को किन दो गोलार्डों में बाँटती है ?
उत्तर-
पूर्वी गोलार्द्ध और पश्चिमी गोलार्द्ध।

प्रश्न (झ)
IST और GMT का पूरा नाम बताएं।
उत्तर-
IST : Indian Standard Time.
GMT : Greenwich Mean Time.

प्रश्न (ञ)
समोया और फिज़ी के समय का आपसी अंतर कितना है ?
उत्तर-
एक दिन।

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2. प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न (क)
सूर्य मंडल के ग्रहों के कितने-कितने उपग्रह हैं ?
उत्तर-

  1. बुध – कोई नहीं
  2. शुक्र – कोई नहीं
  3. पृथ्वी – 1
  4. मंगल – 2
  5. बृहस्पति – 63
  6. शनि – 47
  7. यूरेनस – 27
  8. नेपच्यून – 13.

प्रश्न (ख)
पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में सिद्धांत किन विचारवानों ने दिए ? लिखें।
उत्तर-
गणित शास्त्री लैपलेस, एमनुअल कांट, चैमबरलेन व मोल्टन, जेमस जीनज़, हैराल्ड जैफरी, आटोस्मिथ तथा ऐडविन हबल।

प्रश्न (ग)
पृथ्वी अपनी गतियों को कितने-कितने समय में पूर्ण करती है ?
उत्तर-

  • दैनिक गति – 23 घंटे, 56 मिनट 4 सैकिंड।
  • वार्षिक गति — 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट 46 सैकिंड।

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प्रश्न (घ)
सूर्योदय के समय में भिन्नता किस प्रकार सिद्ध करती है कि पृथ्वी गोल है ?
उत्तर-
पृथ्वी के गोल होने के कारण सभी स्थानों पर सूर्य निकलने का समय भिन्न होता है। यदि पृथ्वी चपटी होती तो सभी स्थानों पर सूर्य एक ही समय पर नज़र आता ।

प्रश्न (ङ)
अक्षांश और देशांतर निश्चित करने में कौन-से वैज्ञानिक शामिल थे ?
उत्तर-
जॉन हैरीसन, एमेरिगो वैसमकी, हिमोरकस, इरेटोस्थनीज़।

प्रश्न (च)
‘जीनिथ’ अथवा ‘शिखर बिंदु’ क्या होता है ?
उत्तर-
किसी स्थान का उच्च सीमा शिखर बिंदु आकाश में काल्पनिक बिंदु है, जो देखने वाले के सिर के ठीक ऊपर हो।

प्रश्न (छ)
दुमेल (क्षितिज) क्या होता है ?
उत्तर-
जहाँ धरती और आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं, उसे दुमेल (क्षितिज) (Horizon) कहते हैं।

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प्रश्न (ज)
देशान्तर (लंबकार) वास्तव में पूर्ण चक्कर होते हैं, कैसे ?
उत्तर-
देशान्तर रेखाओं की आकृति अर्ध-गोला चाप होती है। दो देशान्तर रेखाएँ मिलकर पूर्ण चक्कर बनाती हैं।

3. प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न (क)
‘पृथ्वी चपटी नहीं बल्कि गोलाकार है’, इस स्थिति से पड़ते तीन प्रभाव लिखें।
उत्तर-
(क) समुद्र तल पर दूर से आ रहा समुद्री जहाज़ एक ही समय पूरा दिखाई नहीं देता।
(ख) सूर्य निकलने का समय अलग-अलग स्थानों पर भिन्न होता है।
(ग) जब क्षितिज को अलग-अलग ऊँचाइयों से देखें तो क्षितिज की चौड़ाई भिन्न होती है।

प्रश्न (ख)
दिन व रात के समय नक्षत्रों से दिशाओं का ज्ञान कैसे होता है ?
उत्तर-
पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है, इसलिए यदि हम सूर्य की ओर मुँह करके खड़े हों तो हमारे सामने पूर्व दिशा और पीछे पश्चिम दिशा होगी।

प्रश्न (ग)
पृथ्वी के काल्पनिक अक्षांशों सहित ताप खंडों में विभाजन करें।
उत्तर-
अक्षांश रेखाएँ भूमध्य रेखा के समानांतर होती हैं। सूर्य की किरणें 21 जून और 22 दिसम्बर को क्रमवार कर्क रेखा और मकर रेखा के ऊपर बिल्कुल सीधी पड़ती हैं। इसकी सहायता से पृथ्वी को तापखंडों में बाँटा जाता है। कर्क रेखा और मकर रेखा के मध्यांतर क्षेत्र को उष्ण कटिबंध, ध्रुव चक्र तक के क्षेत्र को शीतोष्ण कटिबंध और ध्रुवों तक के क्षेत्र को शीत कटिबंध कहा जाता है।
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प्रश्न (घ)
पुच्छल तारों (Commets) पर एक संक्षेप नोट लिखें।
उत्तर-
लम्बी पूंछ वाले गैसीय आकाशीय पिंडों को धूमकेतु अथवा पुच्छल तारे कहा जाता है। हैली धूमकेतु को सबसे पहले एडमंड हैली ने 1682 ई० में देखा था। यह पूंछ वाला तारा 76 सालों के समय के बाद दिखाई देता है। यह तारा सूर्य के आस-पास 76 वर्षों में 5.3 अरब किलोमीटर लम्बे ग्रह-पथ पर एक चक्कर पूरा करता है। इसकी लम्बाई 3.2 किलोमीटर होती है। यह धूमकेतु 1986 में फिर दिखाई दिया था। यह अन्य ग्रहों के समान सूर्य की परिक्रमा करता है। प्राचीन काल में इसको देखना अपशकुन माना जाता था। अब यह तारा सन् 2062 में फिर नज़र आएगा।

प्रश्न (ङ)
प्रकाश वर्ष क्या होता है ? यह क्या नापने की इकाई है ?
उत्तर-
आकाश में तारों की दूरी नापने के लिए प्रकाश वर्ष (Light year) का प्रयोग किया जाता है। प्रकाश वर्ष वह दूरी है, जो रोशनी की किरणें एक साल में तय करती हैं। प्रकाश की किरणों की गति 3 लाख कि० मी० प्रति सैकिंड है। इस प्रकार प्रकाश वर्ष की दूरी 95 खरब कि० मी० है।
Light year = 3,00,000 x 365 days x 24 hours x 60 minutes x 60 Seconds = 94,60,80,00,000 कि० मी०।

प्रश्न (च)
पृथ्वी से संबंधित आँकड़ों में से कोई तीन तथ्य लिखें।
उत्तर-
पृथ्वी संबंधित आँकड़े (Statistical data of the Earth)-सौर मण्डल में पृथ्वी पाँचवाँ सबसे बड़ा ग्रह है।

व्यास (Diameter)-
भूमध्य रेखीय व्यास (Equatorial Diameter) = 12,756 कि०मी०
ध्रुवीय व्यास (Polar Diameter) = 12,714 कि०मी०

घेरा (Circumference)-
भूमध्य रेखीय घेरा (Equatorial Circumference) = 40,077 कि० मी०
ध्रुवीय घेरा (Polar Circumference) = 40,009 कि० मी०
कुल धरातलीय क्षेत्रफल (Total Surface Area) = 51 करोड़ वर्ग कि०मी०
= (510 million Sq. km.)
= 29% covered by continents
= 71% covered by oceans
= 1,000,000 million Cu. km.

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प्रश्न (छ)
पृथ्वी की वार्षिक गति दर्शाता हुआ चार अवस्थाओं वाला चित्र बनाएँ।
उत्तर-
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प्रश्न (ज)
‘Blue Planet’, ‘Red Planet’ और ‘Veiled Planet’ कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-

  • पृथ्वी को ‘Blue Planet’ कहते हैं क्योंकि इसकी सतह पर 71% पानी है।
  • मंगल ग्रह को Red Planet कहते हैं क्योंकि इसकी मिट्टी में लोहे के कण अधिक होते हैं।
  • शुक्र ग्रह को Veiled Planet कहते हैं क्योंकि इसमें कार्बन-डाइऑक्साइड बहुत अधिक होती है।

4. प्रश्नों के उत्तर 150 से 250 शब्दों में दें-

प्रश्न (क)
पृथ्वी की दो गतियों पर सचित्र नोट लिखें।
उत्तर-
पृथ्वी स्थिर नहीं है, बल्कि पृथ्वी की दो गतियाँ हैं-
(i) दैनिक गति (ii) वार्षिक गति।

I. दैनिक गति (Rotation)-जब पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती हुई लगभग 24 ___घंटों में एक चक्कर लगाती है, तो इसको दैनिक गति कहते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर 23 घंटे 56 मिनट 4 सैकिंड में एक चक्कर पूरा करती है। (The spinning of the earth on its polar axis is called rotation), इस समय को एक दिन कहा जाता है। पृथ्वी की धुरी एक कल्पित रेखा है, जो लम्ब रूप में नहीं है, परन्तु लम्ब दिशा पर 23/2° झुकी हुई है। पृथ्वी की धुरी ग्रह-पथ रेखा पर 66%2° का कोण बनाती है, पृथ्वी की दैनिक गति 29 किलोमीटर प्रति मिनट है और भूमध्य रेखा पर सबसे अधिक है।
प्रभाव-पृथ्वी की दैनिक गति के प्रभाव नीचे लिखे हैं-

1. दिन-रात का बनना- गोलाकार पृथ्वी का केवल आधा भाग ही एक समय पर प्रकाश में होता है, बाकी आधा भाग अंधकार में होता है। प्रत्येक भाग क्रम से सूर्य के सामने आता है और वहाँ दिन होता है। जो भाग अंधकार में होता है, वहाँ रात होती है।
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2. समय के माप का होना-दैनिक गति के एक चक्कर की 24 घंटे की लम्बाई होने के कारण एक दिन 24 घंटे के बराबर माना गया है।

3. नक्षत्र, ग्रहों आदि का पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर चलते हुए प्रतीत होना-पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है परन्तु बाकी ग्रह इसकी विपरीत दिशा में पूर्व से पश्चिम की ओर जाते हुए प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए रेलगाड़ी में बैठे यात्री को बाहर की वस्तुएँ उल्टी दिशा में चलती हुई दिखाई देती हैं।

4. पवनों तथा धाराओं की दिशा में परिवर्तन-दैनिक गति पर फैरल का सिद्धान्त (Ferral’s Law) आारित है। पृथ्वी के घूमने के कारण पवनें तथा धाराएँ उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दाएँ ओर मुड जाती हैं। इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्द्ध में पवनें तथा धाराएँ अपने बाएँ ओर मुड़ जाती हैं।

5. देशांतर रेखाओं का निर्माण-दैनिक गति के आधार पर गोलाकार पृथ्वी को 360 देशांतर रेखाओं में बाँटा गया है। इस प्रकार घूमने के फलस्वरूप पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण आदि चार प्रमुख दिशाओं का निर्माण होता है।

6. ध्रुवों का पिचका होना-दैनिक गति के कारण केंद्रमुखी शक्ति के प्रभाव से ध्रुव केंद्र की ओर पिचक या धंस गए हैं।

7. सुबह, दोपहर और शाम का होना-घूमने के कारण जो भाग सूर्य के सामने सबसे पहले आता है, वहाँ सूर्योदय (Sunrise) होता है। सूर्य के ठीक सामने वाले भाग में दोपहर (Noon) होती है। पृथ्वी का वह भाग, जो सूर्य से दूर होने लगता है, वहाँ शाम (Evening) होती है।

8. ज्वारभाटे का आना-चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण दिन में दो बार समुद्र के जल में ज्वारभाटा आता है।

II. वार्षिक गति-जब पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ एक अंडाकार पथ पर 365-1/4दिनों में एक चक्कर पूरा करती है, तो इसे वार्षिक गति कहते हैं। पृथ्वी अपने ग्रह-पथ पर 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट 46 सैकिंड में एक चक्कर पूरा करती है। इस ग्रहपथ (Orbit) की लम्बाई लगभग 95 करोड़ किलोमीटर है। पृथ्वी की गति 30 किलोमीटर प्रति सैकिंड है। पृथ्वी का यह पथ गोलाकार नहीं है, बल्कि अंडाकार है। इसलिए जब पृथ्वी सूर्य के निकटतम होती है, तो इस स्थिति को पेरीहीलियन (Perihelian) कहा जाता है। इस स्थिति में पृथ्वी और सूर्य के बीच 14 करोड़ 73 लाख किलोमीटर की दूरी होती है। जब पृथ्वी सूर्य से बहुत अधिक दूर होती है, तो इस स्थिति को ऐपहीलियन (Aphelian) कहा जाता है। इस स्थिति में सूर्य और पृथ्वी के बीच 15 करोड़ 21 लाख किलोमीटर की दूरी होती है।
प्रभाव-पृथ्वी की वार्षिक गति के प्रभाव नीचे लिखे हैं-

1. समय का पैमाना-पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा 365-1/4 दिनों में पूरा करती है, इसीलिए एक वर्ष में 365 दिन गिने जाते हैं। हर चौथा वर्ष 366 दिनों का होता है, जिसको लीप का साल कहते हैं।

2. दिन-रात की लम्बाई में समानता नहीं-परिक्रमा के समय पृथ्वी अपनी स्थिति बदलती रहती है। पृथ्वी के झकाव के कारण कभी उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका होता है और कभी दक्षिणी गोलार्द्ध। इस झुकाव के कारण, एक स्थान पर दिन-रात छोटे होते रहते हैं।

3. ध्रुवों पर छह-छह महीने का दिन और रात का होना-धुरी के झुकाव के कारण उत्तरी ध्रुव 6 महीने सूर्य की ओर झुका रहता है और प्रकाश में रहता है। इसी प्रकार उत्तरी ध्रुव 6 महीने अंधकार में ही रहता है। परिक्रमा के कारण ही उत्तरी गोलार्द्ध और दक्षिणी गोलार्द्ध में एक-दूसरे के विपरीत ऋतुएँ होती हैं।

4. ऋतु परिवर्तन-परिक्रमण और दूरी के झुकाव के कारण दिन-रात की लम्बाई में अंतर होता रहता है। कभी सूर्य की किरणें लम्ब रूप में और कभी ‘तिरछी पड़ती है, जिस के कारण सूर्य के ताप की मात्रा बदलती रहती है। फलस्वरूप, एक वर्ष में चार स्पष्ट ऋतुओं का निर्माण होता है, जिन्हें गर्मी, पतझड़, सर्दी और वसन्त ऋत कहते हैं।

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5. ताप कटिबंधों की रचना-परिक्रमा के कारण और सूर्य की किरणों के अनुसार अलग-अलग ताप कटिबंधों का विस्तार पता लगता है। कर्क रेखा और मकर रेखा के बीच सूर्य की किरणें लगभग लम्ब रूप में पड़ती हैं और इसे ऊष्णकटीय बन्ध कहा जाता है। ध्रुवों तथा ध्रुवीय चक्रों के बीच के भाग को शीतकटीय बन्ध कहते हैं। यहां 24 घंटे से अधिक लम्बे दिन और रातें होती हैं और सूर्य की किरणें बहुत ही तिरछी पड़ती हैं। ऊष्णकटीय बन्ध और शीतकटीय बन्ध के बीच वाले भाग को शीत-ऊष्ण कटीय बन्ध (शीतोष्ण-कटीयबंध) कहते हैं।

6. आधी रात का सूर्य-21 मार्च से 23 सितम्बर तक 6 महीने के समय में आर्कटिक चक्र से उत्तर के भाग सूर्य की ओर झुके रहते हैं। इसलिए यहाँ दिन की लम्बाईं 24 घंटे से भी अधिक होती है। यहाँ आधी रात को भी सूर्य चमकता है, इसलिए नॉर्वे को ‘आधी रात के सूर्य का देश’ (Land of Midnight Sun) भी कहा जाता है।

7. भूमध्य रेखा, मकर रेखा और कर्क रेखा को निश्चित करना- जब 21 मार्च और 23 सितम्बर को सूर्य की किरणें पृथ्वी के मध्यवर्ती भाग पर लम्ब रूप में पड़ती हैं, तो इसे भूमध्य रेखा कहते हैं। 21 – जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर और 22 दिसम्बर को मकर रेखा पर लम्ब रूप में पड़ती हैं।

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प्रश्न (ख)
सूर्य मंडल (Solar System) के ग्रहों पर संक्षेप नोट लिखें।
उत्तर-
सूर्य, ग्रह, उपग्रह और अनगिनत खगोलीय पिंड मिलकर सूर्य मंडल की रचना करते हैं। इसे सूर्य परिवार भी कहते हैं। सूर्य, सूर्य मंडल का केन्द्र और संचालक भी है। सूर्य मंडल में 8 ग्रह, 60 उपग्रह, अनगिनत उल्का, तारे और अनेक पुच्छल तारे शामिल हैं। ये सभी खगोलीय पिंड अपने-अपने ग्रह-पथ पर सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य मंडल के अलग-अलग सदस्यों का वर्णन इस प्रकार है-

1. सूर्य (Sun)-सूर्य, सूर्य मंडल का सबसे बड़ा सदस्य है। सूर्य जलती हुई गैसों का एक विशाल तारा है। सूर्य के केंद्र का तापमान लगभग दो करोड़ सैंटीग्रेड है। इसका व्यास 14 लाख 94 हज़ार कि०मी० है। सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण सभी ग्रह इसके चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। सूर्य हमारी धरती से लगभग 15 करोड़ कि० मी० दूर है। इसका प्रकाश धरती पर 812 मिनट में पहुँचता है। इसके ताप तथा प्रकाश के कारण ही पृथ्वी पर जीवन मिलता है।

2. ग्रह (Planets)—सूर्य मंडल के 8 ग्रह हैं, जो सूर्य के इर्द-गिर्द अंडाकार पथ पर परिक्रमा करते हैं।
सूर्य की दूरी के अनुसार इनके नाम हैं-बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, वृहस्पति, शनि, अरुण, वरुण। बुध सूर्य के सबसे निकट और वरुण सबसे दूर स्थित है। वृहस्पति सबसे बड़ा और बुध सबसे छोटा है। यदि इन आठ ग्रहों को एक पंक्ति में रखा जाए, तो यह एक सिगार की शक्ल की रचना करते हैं।

i) बुध (Mercury)—यह सूर्य के सबसे निकट और सबसे छोटा ग्रह है। यह 88 दिनों में सूर्य की परिक्रमा करता है। वायु-मंडल रहित ग्रह होने तथा अधिक तापमान के कारण यहाँ जीवन संभव नहीं है। यह सूर्य के उदय होने से दो घंटे पहले दिखाई देता है। इसे पूर्वी आकाश में ‘सुबह का तारा’ (Morning Star) कहा जाता है।

ii) शुक्र (Venus)-यह सूर्य मंडल का सबसे अधिक चमकीला ग्रह है। इसका आकार, व्यास और घनत्व पृथ्वी के समान है। यह आम तौर पर सूर्य अस्त होने के बाद पश्चिमी आकाश में दिखाई देता है। इसे ‘संध्या का तारा’ (Evening Star) कहते हैं। इसे Veiled Planet भी कहा जाता है।

iii) पृथ्वी (Earth)—पृथ्वी एक भाग्यशाली ग्रह है, क्योंकि यहाँ मनुष्य-जीवन संभव है। यह सूर्य से लगभग 15 करोड़ कि० मी० दूर है। इसका एक उपग्रह है, जिसे चन्द्रमा कहते हैं। यह अंडाकार पथ से 36574 दिनों में सूर्य की परिक्रमा करती है। इसे Blue Planet भी कहा जाता है।

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iv) मंगल (Mars)–यह पृथ्वी का पड़ोसी ग्रह है। अंतरिक्ष उपग्रह Viking द्वारा लिए गए इसके चित्रों से अनुमान लगाया गया है कि यहाँ वायुमंडल के कारण जीवन संभव है। मंगल ग्रह पर पहले ही प्रयास में पहुँचने वाला देश भारत है। 24 सितम्बर, 2014 को ISRO के Mars Orbit Mission के अधीन अन्तरिक्ष जहाज़ मंगल यान ने मंगल के Orbit में प्रवेश किया।

v) वृहस्पति (Jupiter)…यह सूर्य मंडल का सबसे बड़ा ग्रह है। इस ग्रह के बहुत कम है और यहाँ हज़ारों किलोमीटर मोटी बर्फ जमी हुई है। मंगल और वृहस्पति ग्रहों के बीच
खाली स्थान पर छोटे-छोटे अवांतर ग्रह (Asteroids) फैले हुए हैं।

vi) शनि (Saturn)—यह सूर्य मंडल का दूसरा सबसे बड़ा ग्रह है। यह एक सुन्दर परन्तु क्रूर ग्रह माना जाता है। इसके चारों तरफ तीन छल्ले चक्कर लगाते हैं। इसके 62 उपग्रह हैं। इसका सबसे बड़ा उपग्रह टाईटन (Titan) है।

vii) अरुण (Uranus)—इसकी खोज विलियम हरशौल ने 1781 में की थी। यहाँ तापमान कम होने के कारण जीवन की संभावना नहीं है।

viii) वरुण (Neptune)—यह ग्रह सूर्य से 450 करोड़ कि० मी० दूर है। यह सूर्य की परिक्रमा 165 वर्षों में करता है। इसका रंग हरा दिखाई देता है।

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3. उपग्रह (Satellites)-उपग्रह अपने-अपने ग्रहों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने वाले खगोलीय पिंड होते हैं। इनकी कुल संख्या 153 है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि सभी ग्रहों के उपग्रह नहीं हैं। केवल पृथ्वी, मंगल, वृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण के ही उपग्रह हैं। बुध, शुक्र और कुबेर का कोई उपग्रह नहीं है। ग्रहों के समान उपग्रहों का भी न अपना तापमान होता है और न ही अपना प्रकाश होता है। ये अपना ताप और प्रकाश सूर्य से प्राप्त करते हैं।

4. अवांतर ग्रह (Asteroids)—मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच लगभग 1500 छोटे-छोटे ग्रह हैं। ग्रहों के समान ये भी सूर्य से प्रकाश प्राप्त करते हैं और अपने-अपने अंडाकार पथों पर सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं।

5. धूमकेतू अथवा पुच्छल तारे (Comets)-ये लम्बी पूंछ वाले पिन्ड हैं, जो गैसीय पदार्थों से बने होते हैं। ये कभी-कभी ही दिखाई देते हैं। पुच्छल तारे का नाम उस वैज्ञानिक के नाम पर रखा जाता है, जो उसका पता लगाता है। हैली (Halley) पुच्छल तारा 76 वर्षों बाद दिखाई देता है।

6. उल्का पिंड (Meteors)-रात के समय चलते हुए पदार्थ आकाश से धरती की ओर आते हुए नज़र आते हैं और पलभर में आलोप भी हो जाते हैं। इन टूटते हुए तारों को उल्का तारे कहते हैं। आमतौर पर ये मार्ग में ही जलकर राख हो जाते हैं और कुछ धरती पर भी गिरते हैं। रूस और अमेरिका की तरफ से छोड़े गए छोटे खगोलीय पिंड (स्पूतनिक) आदि भी पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं।

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प्रश्न (ग)
प्रमाणों का ज़िक्र करते हुए सिद्ध करें कि पृथ्वी गोल है।
उत्तर-
पृथ्वी का रूप (Shape of the Earth)-
प्राचीन विचार-प्राचीन काल में पृथ्वी के रूप के सम्बन्ध में कुछ अजीब विचार थे, परन्तु हज़ारों वर्षों के ज्ञान और अलग-अलग प्रयोगों ने इन्हें ग़लत सिद्ध कर दिया है।
पृथ्वी का चपटा रूप-देखने में पृथ्वी चपटी नज़र आती है, इसलिए बहुत-से विद्वानों ने इसे चपटी (Flat Disc) माना।

यूनान (Greek) के विद्वान् थेलज़ (Thales) के अनुसार ‘पृथ्वी गोल मेज़ की भाँति चपटी और गोल चक्कर (Disc shaped) के समान है।’ अनैक्सीमेंडर के अनुसार, “पृथ्वी बेलनाकार है।”

गोलनुमा पृथ्वी-प्राचीन समय में ही अरस्तु (Aristotle), टॉलमी (Ptolemy), आर्यभट्ट, भास्कर, आचार्य, फिलोलस (Philolaus), पाईथागोरस (Phythagorus) आदि विद्वानों ने प्रमाण प्रस्तुत किए हैं कि पृथ्वी गोलाकार है।

आधुनिक विचार-16वीं सदी में कॉपरनिकस (Copernicous) ने पृथ्वी की परिक्रमा (Revolution) के प्रमाणों से सिद्ध किया है कि पृथ्वी गोल है। परन्तु वास्तव में न्यूटन (Newton) ने 17वीं सदी में वैज्ञानिक प्रमाण पेश किया कि पृथ्वी पूरी तरह एक गोले के समान गोल नहीं है, बल्कि गोल वस्तु का बिगड़ा हुआ रूप है और गोलनुमा (Spheroid) है। 1903 ई० में सर जेमस जीनज़ (Sir James Jeans) ने बताया कि पृथ्वी नाशपाती के आकार (Pear Shaped) की है। पृथ्वी का अपना अलग आकार है। इसे नारंगी (Orange) अथवा नाशपाती आदि में से किसी के बिल्कुल अनुरूप नहीं कहा जा सकता। वास्तव में पृथ्वी का अपना अलग ही आकार है, जिसकी उपमा किसी अन्य वस्तु के साथ नहीं की जा सकती। यह विशेष आकार केवल पृथ्वी का ही है, इसलिए इस आकार को Geoid कहा गया है।
(Geo + Oid) (भू + आकार)

पृथ्वी ध्रुवों पर पिचकी या सी हुई (Flattered) है, पर भूमध्य रेखा पर बाहर की ओर उभरी हुई (Bulging) है। यही कारण है कि पृथ्वी के दोनों व्यास बराबर नहीं हैं जबकि एक गोले (Sphere) के सभी व्यास समान होते हैं।
पृथ्वी के विशेष आकार का कारण-पृथ्वी का विशेष आकार पृथ्वी की रोज़ाना गति (Rotation) के कारण है। पृथ्वी अपनी धुरी (Axis) के इर्द-गिर्द घूमती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 1 पृथ्वी 7

विकेंद्रित शक्ति (Centrifugal force) के कारण प्रत्येक घूमती हुई गोल वस्तु का रूप बिगड़ जाता है, इसीलिए पृथ्वी को भी a sphere of Rotation कहा गया है।
पृथ्वी एक गोलाकार पिंड का बिगड़ा हुआ रूप है। नीचे लिखे प्रमाण इस तथ्य की पुष्टि करते हैं-

1. दूर से आ रहे समुद्री जहाज़ की स्थिति-यदि समुद्र तट से दूर से आते हुए जहाज़ को देखें , तो सबसे पहले हमें उसका ऊपरी भाग भाव चिमनी दिखाई देती है। निकट आने पर धीरे-धीरे समुद्री जहाज़ पूरा दिखाई देने लगता है। यह गोलाकार पृथ्वी के कारण ही है। यदि पृथ्वी चपटी होती तो शुरू से ही समुद्री जहाज़ पूरे का पूरा एक साथ ही नज़र आ जाता।

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2. दूसरे ग्रहों का गोल होना-सूर्य मंडल के दूसरे ग्रह और सूर्य गोलाकार पिंड हैं। पृथ्वी भी सूर्यमंडल का एक सदस्य है। इन्हीं के समान पृथ्वी भी अवश्य गोलाकार ही होगी।
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3. क्षितिज का गोल होना-क्षितिज (जहाँ धरती और आकाश मिलते हुए प्रतीत होते हैं) सभी दिशाओं में गोल प्रतीत होता है। अधिक ऊँचाई पर क्षितिज का आकार बढ़ता जाता है। यदि पृथ्वी चपटी होती, तो क्षितिज का विस्तार हर एक ऊँचाई पर एक समान होता।
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4. सूर्य का उदय और अस्त होना-गोलाकार पृथ्वी के कारण अलग-अलग प्रदेशों में सूर्य के उदय और अस्त होने का समय भिन्न होता है। यदि पृथ्वी चपटी होती है तो पूरे संसार में सूर्योदय और सूर्यास्त का एक ही समय होता और समूचे तल पर एक ही समय में प्रकाश पहुँचता।

5. पृथ्वी की परिक्रमा-मैगेलन (Magallan) और फ्रांसिस ड्रेक नाविकों ने समुद्री जहाज़ से पृथ्वी की __ परिक्रमा करके यह सिद्ध किया कि पृथ्वी गोलाकार है। वे बिना मुड़े उसी स्थान पर पहुँच गए, जहाँ से उन्होंने यात्रा शुरू की थी।
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6. बेडफोर्ड लेवल नहर का प्रयोग-सन् 1870 ई० में इंग्लैण्ड की बेडफोर्ड लेवल नाम की एक नहर में ए० आर० वैलेस (A.R.Wallace) ने एक प्रयोग से सिद्ध किया कि पृथ्वी गोलाकार है। उसने नहर में एक-एक मील की दूरी पर बराबर ऊँचाई के तीन खम्भे इस तरह गाड़े कि वे जल-सतह से 14 फुट ऊँचे थे। सीधा देखने पर बीच वाला खम्भा आठ इंच ऊँचा दिखाई दिया। यह पृथ्वी की गोलाई के कारण है।
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7. अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा प्रमाण-अंतरिक्ष यात्रियों ने अंतरिक्ष और चंद्रमा से धरती के जो चित्र लिए हैं, उनसे सिद्ध होता है कि पृथ्वी गोलाकार है। ऐसे ही चित्र यूरी गार्गिन, नील आर्मस्ट्रांग और राकेश शर्मा ने अन्तरिक्ष में लिए थे।

प्रश्न (घ)
पृथ्वी पर मौसमों का बदलाव कैसे और क्यों होता है ? लिखें।
उत्तर-
ऋतु परिवर्तन-वर्ष भर में एक जैसा मौसम नहीं रहता। परिक्रमण तथा धुरी के झुकाव के कारण पृथ्वी की स्थिति सूर्य के सामने बदलती रहती है। फलस्वरूप दिन-रात की लम्बाई, सूर्य के ताप की मात्रा अलग-अलग होती है। इसी प्रकार परिक्रमा के दौरान पृथ्वी की अलग-अलग अवस्थाओं के अनुसार चार मुख्य ऋतुओं का निर्माण होता है-गर्मी की ऋतु, पतझड़ की ऋतु, सर्दी की ऋतु और वसंत की ऋतु। यह अवस्थाएँ क्रमानुसार 21 जून, 23 सिम्तबर, 21 मार्च और 22 दिसंबर को होती हैं।

ऋतु परिवर्तन के कारण-

  • पृथ्वी की धुरी का अपने ग्रह-पथ तल पर 66%2° के कोण पर झुका हुआ होना।
  • पृथ्वी की धुरी का सदा एक ही दिशा में झुका होना।
  • पृथ्वी की परिक्रमण गति।
  • दिन रात का छोटे और बड़े होना।

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1. 21 जून की अवस्था-

  • इस अवस्था में सूर्य कर्क रेखा पर लम्ब रूप में चमकता है।
  • उत्तरी ध्रुव सूर्य की ओर झुका होता है और दक्षिणी ध्रुव सूर्य से दूर होता है।
  • उत्तरी गोलार्द्ध का अधिक भाग सूर्य की रोशनी में रहता है। उत्तरी गोलार्द्ध में दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं। 21 जून उत्तरी गोलार्द्ध में सबसे बड़ा दिन होता है।
  • दक्षिणी गोलार्द्ध का अधिक भाग अंधकार में रहता है। यहाँ दिन छोटे और रातें बड़ी होती हैं। 21 जून दक्षिणी गोलार्द्ध में सबसे छोटा दिन होता है।
  • इस प्रकार लम्ब रूप किरणों तथा दिन बड़े होने के कारण, उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य के ताप की मात्रा अधिक होती है और गर्मी की ऋतु होती है। इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्द्ध में तिरछी किरणों और छोटे दिनों के कारण सर्दी की ऋतु होती है।
  • इस अवस्था को कर्क संक्रांति अथवा कर्क समपात (Summer Solstice) कहते हैं।

2. 22 दिसम्बर की अवस्था-

  • इस अवस्था में सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लम्ब रूप में पड़ती हैं।
  • दक्षिणी ध्रुव सूर्य के सामने और उत्तरी ध्रुव सूर्य से परे होता है।
  • दक्षिणी गोलार्द्ध का अधिक भाग सूर्य की रोशनी में रहता है। फलस्वरूप दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं। 22 दिसम्बर दक्षिणी गोलार्द्ध में सबसे बड़ा दिन होता है।
  • उत्तरी गोलार्द्ध में अधिक भाग अंधकार में रहता है। यहाँ दिन छोटे और रातें बड़ी होती हैं। 22 दिसम्बर उत्तरी गोलार्द्ध में सबसे छोटा दिन होता है।
  • इस प्रकार लम्ब रूप में किरणों, बड़े दिनों और अधिक सूर्य के ताप की मात्रा के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध में गर्मी की ऋतु होती है। इसके विपरीत उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दी की ऋतु होती है।
  • इस अवस्था को मकर संक्रांति अथवा मकर समपात (Winter Solstice) भी कहते हैं।

3. 21 मार्च और 23 सितम्बर की अवस्थाएँ-

  • इन अवस्थाओं में दोनों ध्रुव सूर्य की ओर समान रूप से झुके होते हैं।
  • सूर्य की किरणें भूमध्य रेखा पर लम्ब रूप में चमकती हैं।
  • रोशनी चक्र बिल्कुल ध्रुवों के बीच से निकलता है और दोनों ध्रुवों पर समान रूप से रोशनी पहुँचती है।
  • प्रत्येक अक्षांश का आधा भाग अन्धकार में तथा आधा भाग प्रकाश में रहता है, इसीलिए पृथ्वी पर दिन रात. बराबर होते हैं।
  • दोनों गोलार्डों में सूर्य का ताप और दिन-रात बराबर होने के कारण एक समान ऋतुएँ होती हैं।
  • 21 मार्च को उत्तरी गोलार्द्ध में वसन्त ऋतु और दक्षिणी गोलार्द्ध में सर्दी की ऋतु होती है। इस स्थिति को वसन्त समरात्रि (Spring equinox) भी कहते हैं।
  • 23 सितम्बर को उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दी की ऋतु और दक्षिणी गोलार्द्ध में वसन्त ऋतु होती है। इस अवस्था को पतझड़ समरात्रि (Autumn equinox) कहते हैं।

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प्रश्न (ङ)
उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी गोलार्डों पर नोट लिखें।
उत्तर-
अक्षांश रेखाएँ किसी स्थान की स्थिति के बारे में जानकारी देती हैं। पृथ्वी के मध्य में जो काल्पनिक रेखा खींची गई है, उसे भूमध्य रेखा कहते हैं। पृथ्वी गोल है और इसका नाप 360° है। भूमध्य रेखा और पृथ्वी की धुरी (90° N से 90° S 32) मिलकर पृथ्वी को चार भागों में बाँटते हैं। भूमध्य रेखा को 0° अक्षांश माना जाता है।

इस प्रकार पृथ्वी के चार भाग नीचे लिखे हैं-

  1. उत्तरी गोलार्द्ध – . 0° to 90° N
  2. दक्षिणी गोलार्द्ध – 0° to 90° S
  3. पूर्वी गोलार्द्ध – 0° to 180° E
  4. पश्चिमी गोलार्द्ध – 0° to 180° W.

मुख्य मध्याह्न (Prime Meridian)—यह पृथ्वी को दो भागों में बाँटती है-पूर्वी गोलार्द्ध और पश्चिमी गोलार्द्ध। मुख्य मध्याह्न रेखा के पूर्वी भाग को पूर्वी गोलार्द्ध कहते हैं, जबकि पश्चिमी भाग को पश्चिमी गोलार्द्ध कहते हैं। पूर्वी गोलार्द्ध में समय आगे होता है और पश्चिमी गोलार्द्ध में समय पीछे होता है। 180° देशांतर पर पूर्वी और पश्चिमी देशांतर रेखाएँ मिल जाती हैं।

प्रश्न (च)
पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में कथा का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न सिद्धान्त-

  • पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लैपलेस के अतिरिक्त ऐमनुअल कांट (Cant), चैम्बरलेन और मोल्टन ने भी अपने सिद्धान्त दिए।
  • जेम्स जीनज़ और हैरोल्ड जैफरी ने चैम्बरलेन के मत का समर्थन किया।
  • सन् 1950 में रूस के ऑटोस्मिथ और जर्मनी के कार्ल वाईजास्कर ने निहारिका परिकल्पना में कुछ सुधार किया। इनके मतानुसार सूर्य एक ओर से निहारिका से घिरा हुआ है, जो मुख्य रूप से हाइड्रोजन, हीलियम और धूल-कणों से बना हुआ है। इन कणों की रगड़ से एक चपटी तश्तरी की आकृति के बादल का निर्माण हुआ।

आधुनिक सिद्धान्त-आधुनिक युग का सबसे अधिक माना जाने वाला सिद्धान्त बिग बैंग सिद्धान्त (Big Bang Theory) है। सन् 1920 में एडेविन हबल ने यह प्रमाण दिए कि ब्रह्मांड फैल रहा है। 1950 और 1960 में इस सिद्धान्त को निश्चित समझ लिया गया।

  • 1972 में यह सही मान लिया गया कि कॉस्मिक बैकग्राउंड एक्सप्लोरर (Cosmic Background Explorer) के प्रमाण के कारण, इस सिद्धान्त के अनुसार वे सभी पदार्थ, जिनसे ब्रह्मांड बना है, अत्यधिक छोटे बिंदुओं के रूप में एक ही स्थान पर स्थित थे।
  • इनमें एक भयानक विस्फोट हुआ। बिग बैंग के पहले तीन मिनट के भीतर ही पहले अण का निर्माण हुआ।
  • यह घटना 15 अरब (Billion) वर्ष पहले घटी थी।
  • इस विस्फोट के फलस्वरूप बाद में आकाश गंगा, तारों और ग्रहों का जन्म हुआ। इस प्रकार जैसे-जैसे ब्रह्मांड फैलता गया, आकाश गंगा (Galaxies) एक-दूसरे से दूर होती गईं। यह माना जाता है कि एक आग के गोले (Single fireball) के धमाके से कई टुकड़े अलग होने की घटना 15 अरब साल (Billion) पहले घटी थी।
    चित्र-बिग बैंग प्रक्रिया का काल्पनिक ग्राफिक थी।

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Geography Guide for Class 11 PSEB पृथ्वी Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
सूर्य मण्डल के सबसे बड़े ग्रह का नाम बताएँ।
उत्तर-
वृहस्पति।

प्रश्न 2.
सूर्य और पृथ्वी के बीच कितनी दूरी है ?
उत्तर-
15 करोड़ किलोमीटर।

प्रश्न 3.
सूर्य से धरती पर प्रकाश की किरणें कितनी देर में पहुँचती हैं ?
उत्तर-
8 मिनट 22 सैकिंड।

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प्रश्न 4.
पृथ्वी का ध्रुवीय व्यास बताएँ।
उत्तर-
12714 किलोमीटर।

प्रश्न 5.
बेडफोर्ड लेवल नहर का प्रयोग किसने किया था ?
उत्तर-
ए० आर० वैलेस ने।

प्रश्न 6.
सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्ब रूप में कब पड़ती हैं ?
उत्तर-
21 जून।

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प्रश्न 7.
भारत का प्रामाणिक समय किस देशांतर से लिया जाता है ?
उत्तर-
82/2° पूर्व।

प्रश्न 8.
कर्क रेखा का अक्षांश बताएँ।
उत्तर-
23172° N.

प्रश्न 9.
पृथ्वी अपनी धुरी पर एक चक्कर कितने समय में लगाती है ?
उत्तर-
23 घंटे 56 मिनट 4 सैकिंड।

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प्रश्न 10.
उत्तरी गोलार्द्ध में सबसे लंबा दिन बताएँ।
उत्तर-
21 जून।

बहुविकल्पी प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
सूर्य के सबसे निकट के ग्रह का नाम बताएँ-
(क) पृथ्वी
(ख) शुक्र
(ग) बुध
(घ) शनि।
उत्तर-
बुध।

प्रश्न 2.
पृथ्वी का ध्रुवीय व्यास बताएँ-
(क) 12000 कि०मी०
(ख) 12500 कि०मी०
(ग) 12710 कि०मी०
(घ) 12714 कि०मी० ।
उत्तर-
12714 कि०मी०।

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प्रश्न 3.
बैडफोर्ड लेवल नहर कहाँ है ?
(क) इंग्लैंड
(ख) जर्मनी
(ग) फ्रांस
(घ) हॉलैंड।
उत्तर-
इंग्लैंड।

प्रश्न 4.
1° देशांतर के लिए समय में अंतर बताएं-
(क) 2 मिनट
(ख) 3 मिनट
(ग) 4 मिनट
(घ) 5 मिनट।
उत्तर-
4 मिनट।

प्रश्न 5.
‘आधी रात का सूर्य’ किस देश को कहते हैं ?
(क) नॉर्वे
(ख) स्वीडन
(ग) फिनलैंड
(घ) आईसलैंड।
उत्तर –
नॉर्वे!

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अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
पृथ्वी की आयु का वर्णन करें।
उत्तर-
पृथ्वी की आयु ब्रह्मांड से लगभग एक-तिहाई है। पृथ्वी का गठन 4.54 अरब वर्ष पहले हुआ। इसकी सतह पर जीवन का विकास लगभग 1 अरब वर्ष पूर्व हुआ।

प्रश्न 2.
बिग बैंग से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
बिग बैंग (Big Bang) एक बहुत बड़े विस्फोट को कहा जाता है, जिसके कारण पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न 3.
नेबुयला सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर-
नेबुयला बहुत ठंडा, गैसों और धूल का बादल था, जिसके सिकुड़ने के कारण पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। विकिरण के कारण नेबुयला में से कई छल्ले बाहर की ओर फेंके गए, जो ठंडे होकर ग्रह बन गए। यह सिद्धान्त कांट और लैपलेस ने प्रस्तुत किया।

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प्रश्न 4.
आकाश-गंगा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
रात को तारों की एक चौड़ी और लम्बी चमकदार सड़क दिखाई देती है। इस चमकदार मेहराब (Arch) को आकाश–गंगा कहते हैं।

प्रश्न 5.
सूर्य मंडल के कुल मादे के अलग-अलग पदार्थ बताएँ।
उत्तर-
सूर्य – 99.85%
ग्रह – 0.135%
पूँछ वाले तारे – 0.01%
उपग्रह – 0.00005%
उल्का . – 0.0000001%

प्रश्न 6.
सूर्य के अलग-अलग भाग बताएँ और उनका तापमान बताएँ।
उत्तर-
सूर्य का जो भाग हमें दिखाई देता है, उसे प्रकाश-मण्डल (Photosphere) कहते हैं, जिसका तापमान 6000° kelvin है। मध्यभाग को क्रोमोस्फीयर (Chromosphere) कहते हैं, जिसका तापमान 10,000 Kelvin है। मध्यवर्ती केंद्रीय भाग को कोरोना (Corona) कहते हैं, जिसका तापमान 10 लाख दर्जे Kelvin है।

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प्रश्न 7.
सूर्य कलंक तथा चुंबकीय क्षेत्र क्या हैं ?
उत्तर-
सूर्य पर बने काले धब्बों को सूर्य कलंक कहते हैं। जब इन धब्बों की गिनती बहुत बढ़ जाती है तो धरती पर चुम्बकीय हवाएं चलती हैं। इससे जहाज़ों की दिशा में भूल हो जाती है।

प्रश्न 8.
सूर्य मण्डल के अन्दरूनी और बाहरी ग्रह कौन-से हैं ?
उत्तर-
सूर्य के निकट घूमने वाले ग्रहों को अदंरूनी ग्रह (Inner Planets) अथवा Terrestial Planets कहते हैं। ये चार ग्रह हैं-बुध, शुक्र, पृथ्वी और मंगल।
सूर्य से दूर घूमने वाले ग्रहों को बाहरी ग्रह (Outer Planets) अथवा Jovian Planets कहते हैं। ये चार ग्रह हैं-बृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण।

प्रश्न 9.
शनि ग्रह की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-

  • यह सूर्य मण्डल का दूसरा बड़ा ग्रह है।
  • इसके इर्द-गिर्द तीन छल्ले (Rings) चक्कर लगाते हैं।
  • कम तापमान (-150°C) के कारण यहाँ जीवन संभव नहीं है।

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प्रश्न 10.
सुबह का तारा और शाम का तारा किस ग्रह को कहते हैं ?
उत्तर-
बुध ग्रह को सुबह का तारा और शुक्र ग्रह को शाम का तारा कहते हैं।

प्रश्न 11.
बौने ग्रह (Dwarf Planets) कौन-से हैं ?
उत्तर-
छोटे आकार के बौने ग्रह नीचे लिखे हैं.-

  • सीरस
  • एरीज़
  • मेक मेक
  • हयुमीया।

प्रश्न 12.
उल्का से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-
रात को कभी-कभी आसमान में टूटते हुए तारे दिखाई देते हैं। इन्हें उल्का अथवा Shooting Stars कहते हैं। इनके छोटे टुकड़े धरती पर भी गिरते हैं, जिन्हें Meteroits कहते हैं। अमेरिका के ऐरीजोना के मरुस्थल में एक उल्का के गिरने से एक बड़ा क्रेटर बन गया था।

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प्रश्न 13.
पृथ्वी के आकार का नाप करने वाले वैज्ञानिकों के नाम बताएँ।
उत्तर-
सबसे पहले हेवरीज नामक विद्वान् ने धरती की आकृति अर्द्ध-चक्र जैसी बताई। इसके बाद थेलज़ ने पृथ्वी को गोल मेज़ की तरह बताया। ऐंगज़ीलैंडर ने पृथ्वी को बेलनाकार बताया। इसके बाद ईरेटोस्थनीज़ ने पृथ्वी को गोल बताया।

प्रश्न 14.
पृथ्वी की प्रमुख अक्षांश रेखाएँ बताएँ।
उत्तर-

  • भूमध्य रेखा – 0°
  • कर्क रेखा – 23.5° N
  • मकर रेखा – 23.5° S
  • 3706f2afi alghi – 66\(\frac{1}{2}\)° N
  • अंटार्कटिक चक्र – 66\(\frac{1}{2}\) S
  • उतरी धुव – 90° N
  • दक्षिणी – 90°S

प्रश्न 15.
भारत के मानक समय पर एक नोट लिखें ।
उत्तर-
भारत में 82\(\frac{1}{2}\)° पूर्व देशांतर के स्थानीय समय को पूरे भारत में मानक समय माना जाता है। \(\frac{1}{2}\)° देशांतर इलाहाबाद और मिर्जापुर के मध्य से निकलती है।

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लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
सूर्य मण्डल के नौ ग्रहों की सूर्य से दूरी के क्रम और आकार के अनुसार नाम बताएँ।
उत्तर-
सूर्य और नौ ग्रह मिलकर सूर्य मण्डल अथवा सूर्य-परिवार की रचना करते हैं। सूर्य से दूरी के अनुसार ग्रहों के नाम इस प्रकार हैं(i) बुध (ii) शुक्र (iii) पृथ्वी (iv) मंगल (v) बृहस्पति (vi) शनि (vii) अरुण (viii) वरुण। इस प्रकार बुध ग्रह सूर्य से सबसे निकट है और वरुण ग्रह सूर्य से सबसे दूर है।

सूर्य मण्डल के ग्रहों का आकार एक समान नहीं है। सूर्य मण्डल में बृहस्पति सबसे बड़ा ग्रह है और बुध सबसे छोटा ग्रह है। बृहस्पति, शनि, अरुण बड़े ग्रह हैं और बुध, वरुण, मंगल, शुक्र और पृथ्वी छोटे ग्रह हैं। आकार के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है(i) बृहस्पति (i) शनि (iii) अरुण (iv) वरुण (v) पृथ्वी (vi) शुक्र (vii) मंगल (viii) बुध ।

प्रश्न 2.
सूर्य के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
सूर्य, सूर्य मण्डल का सबसे बड़ा सदस्य है। सूर्य एक विशाल जलता हुआ खगोलीय पिंड हैं। इस गर्म पिंड की सतह पर तापमान लगभग 6000°C है। इसका व्यास 14 लाख 93 हज़ार किलोमीटर है। आयतन के अनुसार सूर्य धरती से 13 लाख गुणा बड़ा है। आकार की दृष्टि से सूर्य धरती से 3 लाख 30 हज़ार गुणा बड़ा है। सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण सभी ग्रह इसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं। सूर्य चारों तरफ से गैसों के गोलों से घिरा हुआ है। यह सूर्य मंडल को प्रकाश और गर्मी प्रदान करता है।

प्रश्न 3.
चन्द्रमा (Moon) पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर–
चन्द्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह है। यह पृथ्वी से लगभग 3 लाख 52 हज़ार किलोमीटर दूर है। पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक चक्कर लगाने में इसे 29/2 दिन लगते हैं। इसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की शक्ति का 1/5 भाग है। चन्द्रमा हवा और पानी से रहित उपग्रह है। यहाँ कम तापमान होने के कारण जीवन संभव नहीं है। चन्द्रमा सूर्य से ताप और प्रकाश ग्रहण करता है। सबसे पहले नील आर्मस्ट्रांग (Neil Armstrong) नाम का अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री 28 जुलाई, 1969 को चन्द्रमा पर उतरा था।

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प्रश्न 4.
पुच्छल तारे और उल्का तारे में अंतर बताएँ।
उत्तर-
पुच्छल तारे और उल्का तारे में अंतर-

पुच्छल तारे (Comets)- उल्का तारे (Meteors)-
1. ये गैसों से बने लम्बी पूंछ वाले तारे होते हैं। 1. ये ठोस खगोलीय पिंड होते हैं, जो पृथ्वी की ओर चलते हुए प्रतीत होते हैं।
2. इन्हें धूमकेतू (Comets) भी कहा जाता है। 2. इन्हें टूटते हुए तारे (shooting stars) भी कहा जाता है।
3. ये सूर्य की आकर्षण शक्ति के साथ पृथ्वी के निकट आते हैं। 3. ये पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण वायुमंडल में प्रवेश करते हैं।
4. इनकी अपनी रोशनी नहीं होती। ये अंडाकार रूप में सूर्य की परिक्रमा करते हैं। 4. ये वायुमंडल की रगड़ से जलने लगते हैं और पृथ्वी पर गिरकर धंस जाते हैं।

 

प्रश्न 5.
पृथ्वी और मंगल ग्रह की तुलना करें।
उत्तर-
पृथ्वी और मंगल ग्रह की तुलना-

पृथ्वी (Earth) – मंगल ग्रह
1. पृथ्वी का व्यास 12736 किलोमीटर है। 1. मंगल ग्रह का व्यास 6,752 किलोमीटर है।
2. पृथ्वी सूर्य से 14 करोड़ 90 लाख किलोमीटर दूर है। 2. मंगल ग्रह सूर्य से 22 करोड़ 27 लाख किलोमीटर दूर है।
3. पृथ्वी अपने ग्रह-पथ पर 23 घंटे 56 मिनटों में एक चक्कर पूरा करती है। 3. मंगल ग्रह अपने ग्रह-पथ पर 24 घंटे 37 . मिनटों में एक चक्कर पूरा करता है।
4. पृथ्वी 365-1/4 दिनों में सूर्य के इर्द-गिर्द एक चक्कर पूरा करती है। 4. मंगल ग्रह सूर्य के इर्द-गिर्द 687 दिनों में एक चक्कर पूरा करता है।
5. पृथ्वी का एक उपग्रह है। 5. मंगल ग्रह के दो उपग्रह हैं।

 

प्रश्न 6.
पृथ्वी को एक भाग्यशाली ग्रह क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है, जिस पर जीवन संभव है। ऑक्सीजन और नाइट्रोजन गैसों के कारण यहाँ मनुष्य और वनस्पति जीवित हैं। पृथ्वी पर सूर्य की रोशनी केवल 81 मिनटों में पहुंच जाती है। पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण मौसम बनते हैं। सूर्य ताप, पवनों और वर्षा को जन्म देता है। चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है, जो पृथ्वी पर ज्वारभाटा पैदा करता है। यही कारण हैं कि इसे भाग्यशाली ग्रह कहते हैं।

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प्रश्न 7.
“पृथ्वी गोलनुमा होते हुए भी चपटी नज़र आती है।” कारण बताएँ।।
उत्तर-
आमतौर पर पृथ्वी गोलाकार है। यह एक विशाल गोलनुमा पिंड है। इसका घेरा 40,000 किलोमीटर है। इतने बड़े घेरे वाले गोले में साधारण उभार नज़र नहीं आता है। यह गोलाई छोटे-से क्षेत्र में नाम मात्र ही होती है। इस प्रकार प्रत्येक भाग में पृथ्वी चपटी और सपाट ही प्रतीत होती है। अन्तरिक्ष से ही धरती के रूप का अनुभव होता है।

प्रश्न 8.
अन्तरिक्ष यात्री और महासागरों की परिक्रमा करने वाले यात्रियों के नाम बताएँ और प्रमाण सहित बताएँ कि पृथ्वी गोल है।
उत्तर-
अन्तरिक्ष यात्रियों द्वारा प्रमाण–अन्तरिक्ष यात्रियों ने अन्तरिक्ष और चन्द्रमा से धरती के जो चित्र लिए हैं, उनसे सिद्ध होता है कि पृथ्वी गोलाकार है। ऐसे चित्र यूरी गार्गिन, नील आर्मस्ट्रांग, राकेश शर्मा और कल्पना चावला ने अन्तरिक्ष में लिए थे।

पृथ्वी की परिक्रमा–मैगेलिन (Megallan) और फ्रांसिस ड्रेक नाविकों ने समुद्री जहाज़ के द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा करके यह सिद्ध किया कि पृथ्वी गोलाकार है। वे बिना मुड़े उसी स्थान पर पहुँच गए, जहाँ से उन्होंने यात्रा शुरू की थी।

प्रश्न 9.
भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर देशान्तर की लम्बाई कम क्यों होती जाती है ?
उत्तर-
पृथ्वी गोलाकार पिन्ड है। भूमध्य रेखा धरती पर सबसे बड़ा अक्षांश चक्र है। ध्रुवों की ओर जाने पर अक्षांश चक्र छोटे होते जाते हैं। ऐसा धरती के गोलाकार होने के कारण है। इनके फलस्वरूप प्रत्येक अक्षांश पर 10 देशान्तर की लम्बाई भी कम होती जाती है। ध्रुवों के निकट देशान्तर के लिए स्थान कम हो जाता है, जिस प्रकार-

  • भूमध्य रेखा पर देशान्तर की लम्बाई = 111 km
  • 45° अक्षांश पर देशान्तर को लम्बाई – 79 km
  • 60° अक्षांश पर देशान्तर की लम्बाई = 55 km
  • 90° अक्षांश पर देशान्तर की लम्बाई = Zero

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प्रश्न 10.
प्रत्येक देशान्तर पर समय का चार मिनट का अन्तर क्यों होता है ?
अथवा
देशांतर और समय में क्या संबंध है ?
उत्तर-
देशान्तर और समय का निकट का सम्बन्ध है। पृथ्वी 24 घण्टों में अपने ध्रुवों के इर्द-गिर्द एक चक्कर पूरा करती है भाव पृथ्वी 360° घूम जाती है। इसलिए 1° देशान्तर घूमने के लिए समय = \(\frac{24 \times 60}{360}\) मिनट = 4 मिनट होता है। यदि दो स्थानों में 1° देशान्तर का अन्तर है, तो उनके स्थानीय समय में 4 मिनट का अन्तर होगा। यदि यह अन्तर 15° हो, तो समय में अन्तर 15 x 4 = 60 मिनट अथवा एक घण्टा होगा।

पृथ्वी के पश्चिम से पूर्व की ओर घूमने की गति के कारण पूर्व की ओर जाने पर समय बढ़ जाता है, परन्तु पश्चिम की ओर जाने से समय कम हो जाता है। इस सम्बन्ध में नीचे लिखे नियमों का प्रयोग किया जाता है
(East-Gain–Add)
(West–Lose—Subtract)

प्रश्न 11.
मानक समय की क्या ज़रूरत है ?
उत्तर-
1. ज़रूरत (Necessity)-

  • अलग-अलग स्थानों पर अलग समय होने के कारण स्थानीय समय का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इससे रोज़ाना के जीवन में अनेक कठिनाइयाँ पैदा हो जाती हैं। प्रत्येक देशान्तर पर हमें घड़ी चार मिनट आगे या पीछे करनी पड़ेगी।
  • प्रत्येक स्थान पर स्थानीय समय के प्रयोग से डाक, तार, रेल आदि विभागों के काम में विघ्न पड़ जाता है।
  • प्रत्येक देश में समय की एकरूपता (Uniformity of Time) कायम करने के लिए मानक समय का होना ज़रूरी है।
  • अलग-अलग देशों के समय के साथ सम्बन्ध रखने के लिए मानक समय का होना जरूरी है।
  • हवाई जहाजों, समुद्री जहाजों पर लम्बी यात्रा और संचार साधनों के लिए प्रामाणिक समय का ज्ञान ज़रूरी है।

2. अक्षांश रेखाओं से किसी स्थान की भूमध्य रेखा से दूरी पता की जा सकती है। 1° देशान्तर में लगभग 111 किलोमीटर की दूरी होती है।
3. अक्षांश रेखाओं की मदद से किसी स्थान के तापमान का अनुमान लगाया जा सकता है।
4. ये रेखाएँ मानचित्र बनाने में भी सहायक होती हैं।

प्रश्न 12.
जब साइबेरिया (रूस) में पहली जनवरी की तिथि होती है, तब अलास्का (संयुक्त राज्य) में 31 दिसम्बर की तिथि होगी। क्यों ?
उत्तर-
अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा 180° देशान्तर रेखा के साथ-साथ निश्चित की गई एक रेखा है। इस तिथि रेखा को पार करने पर समुद्री जहाज़ समय में एक दिन को कम कर लेते हैं या बढ़ा लेते हैं, ताकि अलगअलग देशों का प्रामाणिक समय अलग-अलग होने के कारण समय में विघ्न न पड़े। साइबेरिया पूर्व में स्थित है और अलास्का पश्चिम में। पूर्व से पश्चिम की ओर जाते हुए यात्री अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा पार करने के बाद एक दिन का अंतर करके अगले दिन को भी वही दिन समझ लेते हैं। इस प्रकार अलास्का में पहली जनवरी के स्थान पर 31 दिसम्बर की तिथि होती है।

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प्रश्न 13.
समय-कटिबंध पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर-
कई बड़े देशों का पूर्व-पश्चिम में देशान्तरीय विस्तार अधिक है, जिस प्रकार सोवियत रूस का विस्तार 165° देशान्तर है। इन देशों में कई मानक समयों का प्रयोग किया जाता है। देश के अलग-अलग मानक समयों वाले भागों को समय-कटिबंध (Time Zone) कहते हैं। किसी देश को अलग-अलग क्षेत्रों में बांटा जाता है। प्रत्येक क्षेत्र का अपना मानक समय होता है। एक समय-कटिबंध से दूसरे समय-कटिबंध में प्रवेश करने पर घड़ि दूसरे कटिबंध के समय के अनुसार ठीक करनी पड़ती हैं। प्रत्येक समय-कटिबंध का विस्तार 15° देशान्तर होता है और समय में एक घण्टे का अन्तर होता है। संयुक्त राज्य में 4 समय-कटिबंध, कनाडा में 6 समय-कटिबंध और रूस में 11 समय-कटिबंध हैं। ट्रांस-साईबेरियन रेल मार्ग के यात्रियों को अन्तिम स्टेशन तक पहुँचते-पहुँचते कई बार अपनी घड़ियाँ ठीक करनी पड़ती हैं।

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प्रश्न 14.
देशान्तर और देशान्तर रेखाओं में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-
देशान्तर और देशान्तर रेखाओं में अन्तर-

देशान्तर (Longitude)- देशान्तर रेखा (Line of Longitude)-
1. पश्चिम की ओर कोणात्मक दूरी को देशान्तर कहते हैं। 1. देशान्तर रेखाएँ उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों को मिलाती हैं और भूमध्य रेखा को लम्ब रूप में काटती हैं।
2. देशान्तर किसी स्थान की दूरी को प्रकट करता है। 2. देशान्तर रेखाएँ किसी स्थान का देशान्तर प्रकट करती हैं।
3. देशान्तर को रेखांश (Parallels) भी कहा जाता है। 3. इन्हें मध्याह्न रेखाएँ (Meridians) भी कहा जाता है।
4. देशान्तर 180° पूर्व और 180° पश्चिम तक होता है। 4. देशान्तर रेखाएँ उत्तर-दक्षिण दिशा में खींची जाती हैं।
5. ग्रीनविच का देशान्तर शून्य माना गया है। 5. देशान्तर रेखाएँ समान लम्बाई वाली होती हैं।

प्रश्न 15.
स्थानीय समय और प्रामाणिक समय में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-
स्थानीय समय और प्रामाणिक समय में अन्तर-

मानक समय (Standard Time) स्थानीय समय (Local time)
1. स्थानीय समय प्रत्येक स्थान के देशान्तर के अनुसार होता है। 1. मानक समय किसी देश के केंद्रीय देशान्तर के अनुसार होता है।
2. प्रत्येक स्थान पर स्थानीय समय अलग-अलग होता है। 2. सभी स्थानों पर मानक समय एक समान होता है।
3. जब किसी देशान्तर पर दोपहर को सूर्य लम्ब रूप में हो, तब 12 बजे का समय होता है। 3. मानक समय का दोपहर के समय सूर्य की स्थिति से कोई सम्बन्ध नहीं होता।
4. एक देशान्तर पर सभी स्थानों का समय एक होता है। 4. किसी देश के सभी स्थानों पर मानक समय एक होता है।
5. 1° देशान्तर पर समय में चार मिनट का अन्तर होता है। 5. मानक समय में कोई परिवर्तन नहीं होता।

 

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प्रश्न 16.
दिन-रात किस प्रकार बनते हैं ? चित्र द्वारा समझाएँ।
उत्तर-
धरती की दैनिक गति के कारण दिन और रात बनते हैं। धरती अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। गोलाकार होने के कारण धरती का आधा भाग सूर्य के सामने प्रकाश में रहता है और वहाँ दिन
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होता है। बाकी आधा भाग सूर्य से परे अन्धकार में रहता है और वहाँ रात होती है। प्रत्येक भाग क्रम से सूर्य के सामने आता है और दूसरा अन्धकार में चला जाता है। इस प्रकार दिन और रात बनते हैं।

प्रश्न 17.
दिन और रात छोटे-बड़े होने का क्या कारण है ?
उत्तर-
गरमी के मौसम में दिन बड़े होते हैं और रातें छोटी होती हैं, जबकि सर्दी के मौसम में दिन छोटे और रातें बड़ी होती हैं। इसके नीचे लिखे कारण हैं-

  • पृथ्वी की वार्षिक गति-परिक्रमा के कारण छह महीने के लिए उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका होता है और वहाँ दिन बड़े होते हैं और रातें छोटी होती हैं, परंतु दूसरे छह महीने दक्षिणी ध्रुव सूर्य की ओर झुका होता है। इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध में रातें छोटी और दिन बड़े होते हैं।
  • धुरी का झुका होना-पृथ्वी की धुरी ग्रह-पथ पर 66/2° के कोण पर झुकी हुई है, इसलिए प्रत्येक अक्षांश पर दिन-रात समान नहीं होते।

प्रश्न 18.
नॉर्वे को ‘आधी रात के सूर्य का देश’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
नॉर्वे उत्तरी ध्रुवीय चक्र (66/2° अक्षांश) के उत्तर में स्थित है। गर्मी की ऋतु में उत्तरी ध्रुवीय चक्र से उत्तर के प्रदेशों में दिन की लम्बाई 24 घण्टे से अधिक होती है। यह प्रदेश सूर्य की ओर झुके होने के कारण छह महीनों तक लगातार प्रकाश में होता है। यहाँ सूर्य लगातार क्षितिज के ऊपर ही रहता है और उस समय भी दिखाई देता है, जब बाकी के भागों में घड़ी के अनुसार आधी रात का समय होता है। इसीलिए नॉर्वे को आधी रात के सूर्य का देश (Land of midnight sun) भी कहा जाता है।

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प्रश्न 19.
दैनिक गति और वार्षिक गति में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-
दैनिक गति और वार्षिक गति में अन्तर-

दैनिक गति (Rotation) – दैनिक गति (Rotation) –
1. जब पृथ्वी अपनी धुरी पर लटू के समान घूमती है, तो इसे दैनिक गति कहते हैं। 1. जब पृथ्वी अपनी धुरी पर लटू के समान घूमती है, तो इसे दैनिक गति कहते हैं।
2. दैनिक गति में एक चक्कर पूरा करने में 23 घण्टे 56 मिनट 4 सैकिंड का समय लगता है। 2. दैनिक गति में एक चक्कर पूरा करने में 23 घण्टे 56 मिनट 4 सैकिंड का समय लगता है।
3. पृथ्वी धुरी पर पश्चिम से पूर्व दिशा में घूमती है। 3. पृथ्वी धुरी पर पश्चिम से पूर्व दिशा में घूमती है।

 

प्रश्न 20.
कर्क संक्रांति और मकर संक्रांति में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-
कर्क संक्रांति और मकर संक्रांति में अन्तर-

कर्क संक्रांति (Summer Solstice) मकर संक्रांति (Winter Solstice)
1. परिक्रमा के समय 21 जून को पृथ्वी की अवस्था को मकर संक्रांति कहते हैं। 1. परिक्रमा के समय 22 दिसम्बर को पृथ्वी की अवस्था को कर्क संक्रांति कहते हैं।
2. इस अवस्था में उत्तरी ध्रुव सूर्य की ओर झुका होता है और सूर्य मकर रेखा पर लम्ब रूप में चमकता है। 2. इस अवस्था में दक्षिणी ध्रुव सूर्य की ओर झुका होता है और सूर्य कर्क रेखा पर लम्ब रूप में चमकता है।
3. उत्तरी गोलार्द्ध में दिन बड़े होते हैं और गर्मी की ऋतु होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन छोटे हैं और सर्दी की ऋतु होती है। 3. उत्तरी गोलार्द्ध में दिन छोटे होते हैं और सर्दी की ऋतु होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े और गर्मी की ऋतु होती है।
4. यह अवस्था 22 दिसम्बर की अवस्था के विपरीत होती है। 4. यह अवस्था 21 जून की अवस्था के विपरीत होती है।

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निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पृथ्वी के विस्तार का नाप किस प्रकार किया गया है ?
उत्तर-
पृथ्वी का विस्तार (Size of the Earth)—पृथ्वी का आकार गोलनुमा (Spheroid) है। प्राचीन काल में पृथ्वी को चपटा माना जाता था। जब प्राचीन नक्षत्र वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के गोलाकार होने के प्रमाण दिए, तब पृथ्वी के विस्तार की जानकारी प्राप्त करने के प्रयत्न किए गए।

सबसे पहले सन् 200B.C. में एक यूनानी नक्षत्र वैज्ञानिक ईरेटोस्थनीज़ (Eratosthenes) ने पृथ्वी के विस्तार को मापने का प्रयत्न किया। उसने 21 जून के दिन नील नदी पर स्थित साइन (Syene) शहर (इस समय आसवान शहर) में दोपहर के समय सूर्य की किरणें एक कुएं के पानी पर लम्ब रूप में पड़ती हुई देखीं। उसने अनुमान लगाया कि वहां सूर्य की ऊँचाई 90° है।

अगले वर्ष 21 जून को अल्गज़ानद्रिया शहर में सूर्य की किरणों की ऊँचाई देखी। यह ऊँचाई लम्ब रूप में नहीं थी। यह ऊँचाई साइन शहर में मापी गई ऊँचाई से 7.2° कम थी। साइन शहर और अल्गजानद्रिया शहर के बीच की दूरी 5000 स्टेडिया थी, जो कि 925 किलोमीटर के बराबर है। इस प्रकार पृथ्वी को गोलाकार और इसके केंद्र में चक्र के समान 360° के कोण को मान कर पृथ्वी का घेरा निकालने का प्रयत्न किया गया।
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इस तरह वर्तमान काल में पृथ्वी का मापा गया घेरा, व्यास आदि और ईरेटोस्थनीज़ द्वारा किए गए माप में बहुत अन्तर नहीं है।

प्रश्न 2.
अक्षांश और देशान्तर रेखाओं से क्या तात्पर्य है ? उनकी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
अक्षांश रेखाएँ (Lines of Latitude)-अक्षांश रेखाएँ वे कल्पित रेखाएँ हैं, जो बराबर अक्षांश वाले स्थानों को मिलाती हैं। ये रेखाएँ भूमध्य रेखा के समानांतर होती हैं और गोल-चक्र होती हैं। ये रेखाएँ पूर्वपश्चिमी दिशा में खींची जाती हैं। भूमध्य रेखा पृथ्वी को दो बराबर भागों में बाँटती हैं। भूमध्य रेखा सबसे बड़ा अक्षांश चक्र है। पृथ्वी की गोलाई के कारण अक्षांश रेखाओं की लम्बाई ध्रुवों की ओर लगातार कम होती जाती है। ध्रुव केवल बिन्दु मात्र ही रह जाते हैं। अक्षांश रेखाओं की कुल गिनती 180 होती है- 90° उत्तर और 90° दक्षिण प्रमुख अक्षांश रेखाएँ नीचे लिखी हैं-

(i) भूमध्य रेखा–0° अक्षांश
(ii) कर्क रेखा-237° उत्तर
(iii) मकर रेखा-23/2° दक्षिण
(iv) उत्तरी ध्रुव चक्र-66/2° उत्तर
(v) दक्षिणी ध्रुव चक्र-66/2° दक्षिण
(vi) उत्तरी ध्रुव-90° उत्तर
(vii) दक्षिणी ध्रुव-90° दक्षिण।

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देशान्तर रेखाएँ (Lines of Longitude)—देशान्तर रेखाएँ वे कल्पित रेखाएँ हैं, जो समान देशान्तर वाले स्थानों को मिलाती हैं। ये रेखाएँ उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव को मिलाती हुई भूमध्य रेखा को समकोण पर काटती हैं। ये अर्धचक्र के समान होती हैं। ये रेखाएँ उत्तर-दक्षिण दिशा में खींची जाती हैं। इनकी कुल संख्या 360 होती है–180° पूर्व और 180° पश्चिम। सभी देशान्तर रेखाओं की लंबाई समान होती है। इन रेखाओं को मध्याह्न रेखाएँ (Meridian) भी कहा जाता है। लंदन के निकट ग्रीनविच में से निकलने वाली देशांतर रेखा को प्रधान मध्याह्न रेखा (Prime Meridian) कहते हैं। इसे शून्य (0°) देशान्तर कहते हैं। यह रेखा धरती को दो बराबर भागों में पूर्वी गोलार्द्ध और पश्चिमी गोलार्द्ध में बाँटती है। सभी देशान्तर रेखाएँ ध्रुवों पर मिलती हैं। 180° पूर्व और 180° पश्चिम देशान्तर एक ही रेखा है, जिसे अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा भी कहते हैं।

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प्रश्न 3.
अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा की स्थिति और महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा (International Date Line)-180° देशान्तर रेखा के साथ-साथ खींची गई रेखा को अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा कहते हैं, जिसको पार करने पर तिथि में एक दिन का अंतर कर दिया जाता है।

ज़रूरत (Necessity)—पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए 180° देशान्तर रेखा तक पहुँचने के समय में एक दिन का अन्तर आ जाता है। समुद्री यात्रा करते हुए नाविकों को आम तौर पर एक दिन की भूल हो जाती थी। इस भूल को दूर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय तिथि रेखा निश्चित की गई।

प्रत्येक देशान्तर के समय में 4 मिनट का अन्तर आ जाता है। यदि किसी दिन ग्रीनविच (0° देशांतर रेखा) पर रात के 12 बजे हों और हम पूर्व की ओर से 180° देशांतर रेखा पर पहुँचें, तो वहाँ अगले दिन के दोपहर के 12 बजे का समय होगा। यदि ग्रीनविच से पश्चिम की ओर चलते हुए 180° पश्चिम देशान्तर रेखा पर पहुँचें तो वहाँ उसी दिन दोपहर के 12 बजे होंगे। इस प्रकार 180° देशान्तर रेखा पर दो तिथियाँ आ जाती हैं। यदि इसके पूर्व में पहली जनवरी है तो पश्चिम में 31 दिसंबर होगी। .

उदाहरण-जब सन् 1522 में मैगेलन (Magellan) समुद्रीमार्ग से पूरे विश्व का चक्कर लगाकर स्पेन वापस पहुँचा, तो उसने उस दिन को 5 सितम्बर समझ लिया, जबकि वास्तव में उस दिन 6 सितंबर तिथि थी। पश्चिम की ओर से यात्रा करने के कारण उसने 1 दिन का समय गँवा दिया और यह भूल हुई थी।

तिथि परिवर्तन का नियम-

1. पूर्व (जापान) से पश्चिम (संयुक्त राज्य अमेरिका) जाते हुए यात्री इस रेखा को पार करते समय अपनी तिथि से एक दिन कम कर देता है। वह अगले दिन को भी वही दिन समझेगा, जिस दिन वह तिथि- रेखा को पार करता है। इस प्रकार उसका सप्ताह 8 दिन का हो जाता है।

2. पश्चिम (संयुक्त राज्य अमेरिका) से पूर्व (जापान) जाते हुए यात्री अपनी तिथि में एक दिन जोड़ लेता है। उसके लिए अगला दिन एक दिन छोड़ के होगा। इस प्रकार उसका सप्ताह 6 दिन का ४६ हो जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 1 पृथ्वी 20
अन्तर्राष्ट्रीय तिथि-रेखा की स्थिति-यह रेखा लगभग 180° देशांतर रेखा के साथ-साथ स्थित है। प्रशान्त महासागर में अनेक द्वीप (Island) हैं, जिनके मध्य से 180° देशांतर रेखा निकलती है। कुछ मुश्किलों से बचने के लिए इसे टेढ़ी माना गया है। इस रेखा को सीधी न रख कर कहीं-कहीं टेढ़ा किया गया है, ताकि एक ही टापू के मध्य से न निकले। इस प्रकार एक ही द्वीप के दो भागों में दो अलग-अलग तिथियाँ न हो जाएँ। उत्तरी भाग में यह अल्यूशियन द्वीप के पश्चिम में मुड़ जाती है, जबकि दक्षिणी भाग में यह रेखा फ़िज़ी द्वीप (Fiji Island) के पूर्व की ओर मुड़ जाती है।

प्रश्न 4.
स्थानीय समय और मानक समय किसे कहते हैं ? मानक समय की ज़रूरत का वर्णन करें।
उत्तर-
स्थानीय समय (Local Time) किसी स्थान पर या देशान्तर पर दोपहर के समय सूर्य की स्थिति के अनुसार निश्चित समय को स्थानीय समय कहा जाता है। (Local time of a place is the time of its own Meridian) जब सूर्य लम्ब रूप में हो अथवा उसकी ऊँचाई अधिक-से-अधिक हो, तो वहाँ दोपहर के 12 बजे का समय होता है। उस स्थान की घड़ियाँ उस समय के अनुसार चलाई जाती हैं। इस प्रकार स्थानीय समय दोपहर के सूर्य की ऊँचाई की सहायता से निश्चित किया गया किसी देशान्तर विशेष का समय होता है।

विशेषताएँ (Characteristics)-

  1. पृथ्वी के घूमने के कारण प्रत्येक देशान्तर क्रम से सूर्य के सामने आता है। इसीलिए प्रत्येक देशांतर के दोपहर का समय अथवा स्थानीय समय अलग-अलग होता है।
  2. एक ही देशान्तर पर स्थित सभी स्थानों का स्थानीय समय एक होता है, क्योंकि ये सभी स्थान एक साथ सूर्य के सामने आते हैं।
  3. स्थानीय समय सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है।
  4. यह समय मापने का एक प्राचीन ढंग है, जब दिन के समय धूप-घड़ी (Sun dial) की सहायता से समय को मापा जाता था।
  5. एक ही देश में अलग-अलग शहरों में अलग-अलग स्थानीय समय मिलता है, जैसे बंबई (मुंबई), कोलकाता और दिल्ली अलग-अलग देशान्तरों में स्थित हैं और उनका स्थानीय समय भी अलग-अलग है।
  6. प्रधान मध्याह्न रेखा से पूर्व की ओर जाने पर समय बढ़ता है और पश्चिम की ओर जाने पर समय कम होता है। समय का अंतर 4 मिनट प्रति देशान्तर होता है।

मानक समय (Standard Time)–जब किसी देश के मध्यवर्ती स्थान अथवा केन्द्रीय देशांतर के स्थानीय समय को समूचे देश में लागू कर दिया जाता है, तब उसे प्रामाणिक समय कहा जाता है। यह समय किसी देश के सभी स्थानों पर एक ही होता है।

उदाहरण-भारत में 8272% पूर्व देशांतर केन्द्रीय और मानक देशान्तर रेखा है, इसलिए 8212 पूर्व देशान्तः रेखा का स्थानीय समय भारतीय मानक समय (Indian Standard Time) माना जाता है। यह देशांतर रेखा इलाहाबाः शहर के निकट से निकलती है। इंग्लैण्ड में ग्रीनविच शहर के स्थानीय समय को सारे देश का मानक समय मा जाता है और इसे G.M.T. कहा जाता है। भारतीय मानक समय I.S.T. ग्रीनविच के समय से 5\(\frac{1}{2}\) घं आगे है।

ज़रूरत (Necessity)

  • अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग समय होने के कारण स्थानीय समय का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसमें रोज़ाना के जीवन में कई मुश्किलें पैदा हो जाती हैं। प्रत्येक देशान्तर पर हमें घड़ी चार मिनट आगे या पीछे करनी पड़ेगी।
  • प्रत्येक स्थान के स्थानीय समय के प्रयोग से डाक, तार, रेल आदि विभागों के काम में विघ्न पैदा हो जाता है।
  • प्रत्येक देश में समय की एकरूपता (Uniformity of Time) कायम करने के लिए मानक समय जरूर होता है।
  • अलग-अलग देशों के समय के साथ सम्बन्ध रखने के लिए मानक समय ज़रूरी है।
  • हवाई जहाजों, समुद्री जहाज़ों के लंबे सफर और संचार साधनों के लिए मानक समय का ज्ञान ज़रूरी है।

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स्थानीय समय जानना (To find out the Local Time)

प्रश्न 1.
इलाहाबाद (82\(\frac{1}{2}\) °E) में स्थानीय समय क्या होगा, जबकि ग्रीनविच में शाम के चार बजे हों ?
उत्तर-
PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 1 पृथ्वी 21
1. देशान्तर में अन्तर (Difference in Longititude)
82″E इलाहाबाद का देशांतर = 82 \(\frac{1}{2}\) E
ग्रीनविच का देशांतर = 0°
अन्तर = 82\(\frac{1}{2}\)°
= \(\frac{165°}{2}\)
(East-Gain-Add)

2. समय में अन्तर (Difference in Time)
यदि देशान्तर में अंतर 1° है तो समय में अन्तर = 4 मिनट
यदि देशान्तर में अंतर \(\frac{165°}{2}\) है तो समय में अन्तर = \(\frac{165 \times 4}{2}\) = 30 मिनट।
= 5 घंटे 30 मिनट।

3. इलाहाबाद का समय निकालना
ग्रीनविच का समय = 4.00 P.M. घंटे मिनट
= 4.00 + 12.00 = 16.00
समय में अन्तर = Add + 5.30
21.30 भाव शाम के 9.30 बजे।

कारण-क्योंकि इलाहाबाद ग्रीनविच के पूर्व में स्थित है, इसलिए वहाँ स्थानीय समय अधिक होगा। इसलिए नियम अनुसार जोड़ करना पड़ेगा।

(Rule-East-sgain-Add)

प्रश्न 2.
न्यूयॉर्क (75°W) में स्थानीय समय क्या होगा जबकि काहिरा (30°E) में दोपहर के 12 बजे हों ?
उत्तर-
न्यूयॉर्क का देशान्तर = 75°W
काहिरा का देशान्तर = 30°E
देशांतर में अन्तर = 75° + 30° = 105°
PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 1 पृथ्वी 22
समय में अन्तर 105 x 4 = 420 मिनट
= 7 घंटे।
(क्योंकि न्यूयॉर्क ग्रीनविच के पश्चिम में स्थित है, इसलिए समय में अन्तर को कम करेगा।)
(Ruie = West – Loss – Subtract)
घंटे मिनट
काहिरा का समय = 12.00
समय में अन्तर = – 7.00
न्यूयॉर्क में स्थानीय समय = 5.00 A.M.

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र का दूसरे सामाजिक विज्ञानों, इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र के साथ सम्बन्ध बताएं। (Textual Question)
(Explain the relationship of Political Science with other Social Sciences i.e. History, Economics, Sociology and Ethics.)
उत्तर-
राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय राज्य तथा राज्य के अन्दर रहने वाले नागरिक हैं। मनुष्य के जीवन के अनेक पहलू हैं-राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक इत्यादि। इन सब पहलुओं का अध्ययन अनेक शास्त्र करते हैं। जैसे-राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि। परन्तु मनुष्य की आर्थिक अवस्था का उसकी राजनीतिक अवस्था पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार धर्म का राजनीति पर प्रभाव पड़ता है अर्थात् व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाओं का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः राजनीतिशास्त्र का, जो मानव जीवन से सम्बन्धित है तथा समाजशास्त्र है, अन्य समाजशास्त्रों से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। डॉ० गार्नर के अनुसार, “सम्बन्धित विज्ञानों के बिना राजनीतिशास्त्र को समझना उतना ही कठिन है, जितना रसायन विज्ञान (Chemistry) के बिना जीव विज्ञान (Biology) को समझना या गणित (Mathematics) के बगैर यन्त्र विज्ञान (Mechanics) को।” राजनीति शास्त्र का समाज शास्त्र, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि शास्त्रों से गहरा सम्बन्ध है। एक लेखक के शब्दों में-“ये सब शास्त्र एक फूल की पंखुड़ियों (Petals of flower) के समान हैं।”

राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। सीले (Seeley) ने इन दोनों में सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “बिना राजनीति विज्ञान के इतिहास का कोई फल नहीं। बिना इतिहास के राजनीति विज्ञान की कोई जड़ नहीं।”

बर्गेस (Burgess) ने दोनों के सम्बन्ध के बारे में लिखा है, “इन दोनों को अलग कर दो उनमें से एक यदि मृत नहीं तो पंगु अवश्य हो जाएगा और दूसरा केवल आकाश-पुष्प बनकर रह जाएगा।” (“Separate them and the one becomes a cripple, if not a corpse, the other a will of the wisp.”) फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, “इतिहास भूतकालीन राजनीति है और राजनीति वर्तमान इतिहास है।” (“History is nothing but past politics and politics is nothing but present History.”) इन विद्वानों के कथन से राजनीति तथा इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध का पता लगता है।

इतिहास की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of History to Political Science)—इतिहास से हमें बीती हुई घटनाओं का ज्ञान होता है। राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं। राजनीति विज्ञान में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए हमें इतिहास पर निर्भर करना पड़ता है। राजनीतिक संस्थाओं को समझने के लिए, उनके अतीत को जानना आवश्यक होता है और इतिहास से ही उनके अतीत को जाना जा सकता है। यदि हम इंग्लैंड की संसद् तथा राजतन्त्र का वर्तमान स्वरूप जानना चाहते हैं तो हमें वहां के इतिहास का गहरा अध्ययन करना पड़ेगा। राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। मानवीय इतिहास के विभिन्न समयों पर राजनीति क्षेत्र में अनेक कार्य किए गए, जिनके परिणाम और सफलता-असफलता का वर्णन इतिहास से प्राप्त होता है। राजनीति क्षेत्र के ये भूतकालीन कार्य एक प्रयोग के समान ही होते हैं और ये भूतकालीन प्रयोग भविष्य के लिए मार्ग बतलाने का कार्य करते हैं। भारत के इतिहास से पता चलता है कि वही शासक सफल रहेगा जो धर्म-निरपेक्ष हो। धार्मिक सहिष्णुता की नीति के आधार पर अकबर ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की जबकि औरंगज़ेब की धर्मान्ध नीति के कारण मुग़ल साम्राज्य का पतन हो गया। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया। भारत आजकल धर्म-निरपेक्ष नीति को अपनाए हुए है। अतः राजनीति विज्ञान के अध्ययन का आधार इतिहास है।

इतिहास राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास मनुष्य की सफलताओं एवं विफलताओं का संग्रह है। अतीत में मानव ने क्या-क्या भूलें कीं, किस नीति को अपनाने से अच्छा और बुरा परिणाम निकला आदि बातों का ज्ञानदाता इतिहास ही है। भारतीय इतिहास में अकबर की सफलता और औरंगज़ेब की विफलता हमें राजनीतिक शिक्षा देती है। इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय और फ्रांस के लुई चौदहवें के निरंकुश राजतन्त्र हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि निरंकुश राज्य अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। इतिहास द्वारा बतलाई गई भूलों के आधार पर ही राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन लाते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

कोई भी राजनीतिक संस्था अकस्मात् पैदा नहीं होती। उसका वर्तमान रूप शनैः-शनैः होने वाले क्रमिक विकास का फल है। किसी समय किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संस्था का जन्म होता है और समयानुसार उसमें परिवर्तन भी आते रहते हैं और कई बार यह संस्था नया रूप भी धारण कर लेती है। इस पृष्ठभूमि में यह आवश्यक है कि राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन पर्यवेक्षण (Observation) विधि के द्वारा किया जाए जिसके लिए इतिहास का सहारा लेना अनिवार्य है। यह कहना उचित ही है कि इतिहास की उपेक्षा करने से राजनीति शास्त्र का अध्ययन केवल काल्पनिक और सैद्धान्तिक ही होगा। ऐसे अध्ययन का दोष बताते हुए लॉस्की (Laski) कहता है, “हर प्रकार के काल्पनिक राजनीति शास्त्र का परास्त होना अनिवार्य ही है क्योंकि मनुष्य कभी भी ऐतिहासिक प्रभावों से उन्मुक्त नहीं हो सकते।” विलोबी (Willoughby) के शब्दों में “इतिहास राजनीति शास्त्र को तीसरी दिशा प्रदान करता है।” (“History gives the third dimension to Political Science …………”)

इतिहास को राजनीति शास्त्र की देन (Contribution of Political Science to History)—परन्तु इतिहास का ही राजनीति शास्त्र पर प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि इतिहास भी राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ हासिल करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। इतिहास में केवल युद्ध, विजयों तथा अन्य घटनाओं का ही वर्णन नहीं आता बल्कि इसमें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक घटनाओं का भी वर्णन आता है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाता है। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, व्यक्तिवाद आदि धाराओं की चर्चा के बिना 17वीं शताब्दी का इतिहास अपूर्ण है। भारत के 20वीं शताब्दी के इतिहास से यदि कांग्रेस पार्टी का महत्त्व, असहयोग आन्दोलन, स्वराज्य पार्टी, भारत छोड़ो आन्दोलन, क्रिप्स योजना, केबिनेट मिशन योजना, भारत का विभाजन, चीन का भारत पर आक्रमण तथा पाकिस्तान के आक्रमण आदि राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो भारत का इतिहास महत्त्वहीन रह जाएगा। लॉर्ड एक्टन ने राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “राजनीति इतिहास की धारा में उसी प्रकार इकट्ठी हो जाती है जैसे नदी की रेत में सोने के कण।”

राजनीति की इतिहास को एक महत्त्वपूर्ण देन यह है कि राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं। रूसो और मॉण्टेस्क्यू के विचारों का फ्रांस की राज्यक्रान्ति पर, कार्ल मार्क्स के विचारों का सोवियत रूस की राज्यक्रान्ति पर तथा महात्मा गांधी के विचारों का भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा।

दोनों में अन्तर (Differences between the two)-राजनीतिक विकास तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है।

1. इतिहास का क्षेत्र राजनीतिक विज्ञान से व्यापक है (Scope of History is wider than the scope of Political Science)-फ्रीमैन के कथन से समहत होना कठिन है क्योंकि पूर्ण भूतकालीन इतिहास राजनीति नहीं है और वर्तमान राजनीति कल का इतिहास नहीं है। इतिहास में प्रत्येक घटना का वर्णन किया जाता है। इसका क्षेत्र व्यापक है। जब हम 19वीं शताब्दी का इतिहास पढ़ते हैं तो इसमें उस समय की सभी घटनाओं, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक का वर्णन आ जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र का सम्बन्ध केवल राजनीतिक घटनाओं से होता है।

2. राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है, जबकि इतिहास केवल भूतकाल से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राजनीतिक संस्थाओं के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन किया जाता है। राज्य कैसा था, कैसा है और कैसा होना चाहिए, इन तीनों का उत्तर राजनीति शास्त्र से मिलता है, परन्तु इतिहास में केवल बीती घटनाओं का ही वर्णन आता है।

3. इतिहास वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान विचारशील है- इतिहास में केवल घटनाओं का वर्णन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में इन घटनाओं का मूल्यांकन भी किया जाता है और इस मूल्यांकन के आधार पर निश्चित परिणाम निकाले जाते हैं। इस प्रकार इतिहास वर्णनात्मक है परन्तु राजनीति शास्त्र विचारात्मक भी है।

4. इतिहासकार नैतिक निर्णय नहीं देता, परन्तु राजनीति विज्ञान के विद्वानों के लिए नैतिक निर्णय देना आवश्यक है-इतिहासकार केवल बीती हुई घटनाओं का वर्णन करता है। वह घटनाओं की नैतिकता के आधार पर परख करके कोई निर्णय नहीं देता है। उदाहरण के लिए, दिसम्बर 1971 में भारत का पाकिस्तान से युद्ध हुआ। इतिहासकार का कार्य केवल युद्ध की घटनाओं का वर्णन करना है। इतिहासकार का इस बात के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है कि युद्धबन्दियों के साथ कैसा व्यवहार किया गया, असैनिक आबादी पर बम बरसाए गए तो कोई अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं। परन्तु राजनीति विज्ञान का विद्वान् युद्ध के नैतिक पहलू पर अपना निर्णय अवश्य देगा।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में अन्तर होते हुए भी घनिष्ठ सम्बन्ध है और इस विचार को सब विद्वान् मान्यता प्रदान करते हैं। गार्नर (Garmer) के शब्दों में, ‘अध्ययन विषय के तौर पर यह एक-दूसरे के सहायक व पूरक हैं।’

सीले (Seeley) ने इन दोनों को पूरक सिद्ध करने के लिए कहा है, “इतिहास के उदार प्रभाव के बिना राजनीति अशिष्ट है और राजनीति से अपने सम्बन्ध को भुला देने से इतिहास साहित्य मात्र रह जाता है।”

राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। प्राचीन काल में अर्थशास्त्र ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ (Political Economy) के नाम से प्रसिद्ध था। विद्वानों ने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ की परिभाषा इस प्रकार की है-“यह राज्य के लिए राजस्व (Revenue) जुटाने की एक कला है।” भारतीय विद्वान् चाणक्य ने अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में राजनीतिक समस्याओं का वर्णन किया । इसी प्रकार राजनीति विज्ञान के कई मान्य ग्रन्थों जैसे अरस्तु की ‘Politics’ तथा लॉक की ‘नागरिक प्रशासन पर दो लेख’ (Two Treatises on Civil Government) में उन विषयों का विवेचन मिलता है, जिन्हें आजकल अर्थशास्त्र में शामिल किया जाता है। इस प्रकार प्राचीन काल में दो शास्त्रों को एक माना जाता था, परन्तु 19वीं शताब्दी में एडम स्मिथ ने आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप को अनुचित बताया। एडम स्मिथ पहला विद्वान् था जिसने अर्थशास्त्र को राजनीति शास्त्र से अलग किया। 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विषय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। अर्थशास्त्र का सम्बन्ध सम्पत्ति के उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा विनिमय सम्बन्धी मनुष्य की गतिविधियों से है।

यह ठीक है कि 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र विज्ञान माना गया है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में कोई सम्बन्ध नहीं। अब भी दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है और आपस में आदानप्रदान करते हैं।

अर्थशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Economics to Political Science)-वर्तमान युग में मनुष्य तथा राज्य की मुख्य समस्याएं आर्थिक हैं। इतिहास से पता चलता है कि आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। जब मनुष्य आखेट अवस्था में से गुज़र रहा था अर्थात् जब मनुष्य का पेशा शिकार करना था तब राज्य के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं होता था क्योंकि उस समय मनुष्य एक स्थान पर नहीं रहता था। जब मनुष्य ने कृषि करना आरम्भ किया, इसके साथ ही मनुष्य को एक निश्चित स्थान पर रहना पड़ा, जिससे राज्य की उत्पत्ति हुई। पहले सरकार पर बड़ेबड़े ज़मींदारों का प्रभाव होता था, परन्तु यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् सरकार पर उद्योगपतियों का प्रभाव हो गया है। आजकल हमारे देश में भी उद्योगपतियों का ही अधिक प्रभाव है।

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व्यक्तिवाद, समाजवाद तथा साम्यवाद मुख्यतः आर्थिक सिद्धान्त हैं परन्तु इनका अध्ययन राजनीतिशास्त्र में भी किया जाता है क्योंकि इन आर्थिक सिद्धान्तों ने राज्य के ढांचे को ही बदल दिया है। चीन में साम्यवाद है। उत्पादन के साधनों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण है। सरकार की समस्त शक्तियां कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) के हाथ में ही हैं। अमेरिका में पूंजीवाद है, जिसके कारण वहां की सरकार संगठन तथा सरकार के उद्देश्य चीन की सरकार से भिन्न हैं। अतः आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के अनुसार, उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होने पर राजनीतिक परिवर्तन होना अनिवार्य है। कार्ल मार्क्स का यह कथन सर्वथा सत्य तो नहीं है परन्तु इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्थिक परिवर्तन ही राजनीतिक परिवर्तन का मुख्य कारण भी होता है।

राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं। 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में जो औद्योगिक क्रान्तियां हुई हैं उनके परिणामस्वरूप ही यूरोप के इन देशों में उपनिवेशवाद और समाजवाद की नीति अपनाई। इस सम्बन्ध में बिस्मार्क और जोज़फ चैम्बरलेन के कथन महत्त्वपूर्ण हैं। बिस्मार्क का कथन था, “मुझे यूरोप के बाहर नए राज्यों की नहीं, बल्कि व्यापारिक केन्द्रों की आवश्यकता है।” (“I want outside Europe…not provinces but commerical enterprises.”)

राजनीतिक क्षेत्र की अनेक मत्त्वपूर्ण घटनाएं आर्थिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप ही घटित हुई हैं। भारत में आज लोकतन्त्र को इतनी सफलता नहीं मिली जितनी कि अमेरिका तथा इंग्लैंड में प्राप्त हुई है। भारत में सफलता न मिलने का मुख्य कारण लोगों की आर्थिक दशा है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है, अधिकारों तथा कर्तव्यों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर पाती। लोगों के वोट खरीद लिए जाते हैं। दूसरे विश्व-युद्ध के पश्चात् बहुत से देशों को अमेरिका से आर्थिक सहायता लेनी पड़ी जिसका परिणाम यह हुआ कि उन देशों की नीतियों पर भी अमेरिका का प्रभाव पड़ा।

अर्थशास्त्र को राजनीति विज्ञान की देन (Contribution of Political Science to Economics)-अर्थशास्त्र के अध्ययन में राजनीति विज्ञान से भी बहुत सहायता मिलती है। राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। शासन-व्यवस्था यदि दृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। आर्थिक दशाओं का ही नहीं सरकार की नीतियों का भी आर्थिक व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। सरकार की कर नीति, आयात-निर्यात नीति, विनिमय की दर, बैंक नीति, व्यापार तथा उद्योग सम्बन्धी कानून, सीमा शुल्क नीति आदि का राज्य की अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव पड़ता है। सरकार पूंजीवाद तथा साम्यवाद को अपना कर देश की आर्थिक व्यवस्था को बदल सकती है। भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं हैं ताकि लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा किया जा सके। सरकार बड़े-बड़े उद्योगों को अपने हाथों में ले रही है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा।

युद्ध एक सैनिक और राजनीतिक क्रिया है परन्तु इसका देश की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ता है। अमेरिका की आर्थिक स्थिति में गिरावट होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण वियतनाम युद्ध रहा है। इसी प्रकार 1962 में चीन के साथ युद्ध और 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों ने भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत प्रभावित किया है।

अतः इस विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर करता है।

अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में समानताएं (Points of Similarity between Economics and Political Science) अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में निम्नलिखित समानताएं पाई जाती हैं-

दोनों का विषय समाज में रह रहा मनुष्य है-समाज में रह रहा मनुष्य दोनों शास्त्रों का विषय है। दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण है और उसी के लिए दोनों कार्य करते हैं।

दोनों ही आदर्शात्मक सामाजिक विज्ञान हैं-दोनों ही भूतकाल के आधार पर वर्तमान का विश्लेषण करके भविष्य के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में मानव जीवन के लिए ऐसे आदर्श स्थापित करते हैं जिनके द्वारा अधिक-से-अधिक मानव हित हो।

दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं- राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं।

दोनों में अन्तर (Difference between the two) राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार है

1. विभिन्न विषय-क्षेत्र (Different Subject Matter) राजनीति विज्ञान मनुष्य की राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन करता है और इस विज्ञान का मुख्य विषय राज्य तथा सरकार है। परन्तु अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करता है। मनुष्य धन कैसे कमाता है, कैसे उसका उपयोग करता है इत्यादि प्रश्नों का उत्तर अर्थशास्त्र देता है। इस प्रकार दोनों का विषय-क्षेत्र अलग-अलग है।

2. दृष्टिकोण (Approach)—मिस्टर ब्राऊन (Mr. Brown) ने राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में भेद करते हुए लिखा है, “अर्थशास्त्र का सम्बन्ध वस्तुओं से है जबकि राजनीति विज्ञान का मनुष्यों से। अर्थशास्त्र वस्तुओं की कीमतों का अध्ययन करता है और राजनीति विज्ञान सदाचार सम्बन्धी मूल्यों का।” इस प्रकार अर्थशास्त्र व्याख्यात्मक विज्ञान है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक विज्ञान है।

3. अध्ययन पद्धति (Method of Study)—दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि दोनों तथा अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति विज्ञान के अध्ययन के अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है और इसके निष्कर्ष और सिद्धान्त अधिक सही होते हैं। इसका कारण यह है कि अर्थशास्त्र का सम्बन्ध मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं से है और इन आवश्यकताओं तथा इनकी पूर्ति का उल्लेख अंकों द्वारा दर्शाया जा सकता है। अर्थशास्त्र में मात्रात्मक आंकड़ों का संग्रह राजनीति विज्ञान की अपेक्षा अधिक सम्भव है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में भिन्नता होने के बावजूद भी यह कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में दोनों ही अपने उद्देश्यों की प्राप्ति एक-दूसरे के सहयोग और सहायता के बिना नहीं कर सकते। डॉ० गार्नर (Dr. Garner) ने ठीक ही कहा है, “बहुत-सी आर्थिक समस्याओं का हल राजनीतिक आर्थिक हालतों से आरम्भ होता है।” विलियम एसलिंगर (William Esslinger) के विचारानुसार, “अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र की एकता का पाठ्यक्रम उपकक्षा में पढ़ाया जाना चाहिए।”

राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र मनुष्य के सामाजिक जीवन का शास्त्र है। समाज- शास्त्र समाज की उत्पत्ति, विकास, उद्देश्य तथा संगठन का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र में मानव जीवन के सभी पहलुओं राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक इत्यादि का अध्ययन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में मानव जीवन के राजनीतिक पहलू का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र की एक शाखा है। प्रसिद्ध विद्वान् रेटजनहाफर ने ठीक ही कहा है, “राज्य अपने विकास के प्रारम्भिक चरणों में एक सामाजिक संस्था ही थी।” हम आगस्ट काम्टे (August Comte) के इस कथन से सहमत हैं, “समाजशास्त्र सभी समाजशास्त्रों की जननी है।” राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान करते हैं। प्रो० कैटलिन (Catline) ने तो यहां तक कहा है, “राजनीति और समाजशास्त्र अखण्ड हैं और वास्तव में एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं।”

राजनीति विज्ञान को समाजशास्त्र की देन (Contribution of Sociology to Political Science) समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। बिना समाजशास्त्र के अध्ययन के राजनीति शास्त्र के सिद्धान्तों को समझना कठिन है। प्रो० गिडिंग्स (Prof. Giddings) ने ठीक ही कहा है, “समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनभिज्ञ लोगों को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना उसी प्रकार है जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति को खगोल विज्ञान अथवा ऊष्मा गति की शिक्षा देना।” (“To teach the theory of the state to men who have not learned the first principles of sciology is like teaching Astronomy or Thermodynamics to men who have not learned Newton’s Laws of Motion.”) दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों को न जानने वाले व्यक्ति को खगोल विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है उसी प्रकार बिना समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनजान व्यक्ति को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना व्यर्थ है। समाजशास्त्रों में समाज के रीति-रिवाजों का अध्ययन किया जाता है। हम जानते हैं कि राज्य के कानून का पालन तभी किया जाता है यदि वह समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार हो।

राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाज शास्त्र की बहुत देन है। समाजशास्त्र से पता चलता है कि राज्य मानव की सामाजिक भावना का परिणाम है। समाज के विकास के स्तर के साथसाथ राज्य का विकास हुआ है। राजनीतिक समाजशास्त्र (Political Sociology) राजनीति विज्ञान की एक शाखा पनप रही है, जो इस बात की स्पष्ट सूचक है कि राजनीतिक तथ्यों के विधिवत अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेना आवश्यक है। इस प्रकार समाज शास्त्र का राजनीति शास्त्र पर बहुत प्रभाव पड़ा है।

राजनीति विज्ञान की समाजशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Sociology)-परन्तु दूसरी ओर राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। राजनीति विज्ञान का मुख्य विषय राज्य हैराज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, राज्य क्या है, राज्य का विकास कैसे हुआ, राज्य का उद्देश्य क्या है इन सब प्रश्नों का उत्तर राजनीति विज्ञान में मिलता है। समाजशास्त्र को राज्य से सम्बन्धित प्रत्येक जानकारी राजनीति शास्त्र से मिलती है। राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र का एक अंग है जिसके बिना समाजशास्त्र की विषय सामग्री पूर्ण नहीं हो सकती।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के आपसी सम्बन्ध का एक प्रणाम यह है कि मॉरिस, गिन्सबर्ग, आगस्त काम्टे, लेस्टर वार्ड, समवर आदि समाजशास्त्रियों ने राज्य की प्रकृति और उद्देश्यों में इतनी रुचि दिखाई है, मानो वे समाजशास्त्र की मुख्य समस्याएं हों। इसी प्रकार डेविड ईस्टन, हैरल्ड लासवैल, ग्रेवीज ए० ऑल्मण्ड, पावेल, कोलमेन, मेक्स वेबर और राजनीति शास्त्र के अन्य आधुनिक विद्वानों द्वारा समाज शास्त्र से अधिक-से-अधिक मात्रा में अध्ययन सामग्री और अध्ययन पद्धतियां प्राप्त की गई हैं।

दोनों में अन्तर (Differences between the two) राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है-

दोनों के क्षेत्र अलग हैं-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र के क्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् हैं। राजनीतिक शास्त्र का मुख्य विषय-क्षेत्र राज्य है जबकि समाजशास्त्र का मुख्य क्षेत्र समाज है।

राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र से संकुचित है-राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र के क्षेत्र से संकुचित है। राजनीति शास्त्र मनुष्य के राजनीतिक पहलू का ही अध्ययन कराता है जबकि समाजशास्त्र मनुष्य के सभी पहलुओं का अध्ययन कराता है।

राजनीति विज्ञान यह मानकर चलता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसमें हम यह अध्ययन नहीं करते कि मनुष्य सामाजिक प्राणी क्यों है। परन्तु समाजशास्त्र में इस प्रश्न का भी अध्ययन किया जाता है।

समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान से पहले बना–राजनीति शास्त्र में समाज बनने से पूर्व के मानव का अध्ययन नहीं किया जाता जबकि समाजशास्त्र के विषय का अध्ययन वहीं से शुरू होता है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत मानव जाति के दोनों युगों-संगठित तथा असंगठित-का अध्ययन किया जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र केवल संगठित युग का अध्ययन करता है।

समाजशास्त्र केवल भूत और वर्तमान से सम्बन्धित है परन्तु राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का भी अध्ययन किया जाता है जबकि समाज शास्त्र में समाज के अतीत तथा वर्तमान का ही अध्ययन किया जाता है।

समाजशास्त्र वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक है-समाजशास्त्र समाज की उत्पत्ति तथा विकास का विस्तृत रूप से अध्ययन करता है, परन्तु इस अध्ययन के पश्चात् कोई परिणाम नहीं निकलता। यह केवल सामाजिक घटनाओं का वर्णन करता है। उन घटनाओं में अच्छी तथा बुरी घटनाओं की पहचान नहीं कराता। राजनति शास्त्र केवल घटनाओं का वर्णन ही नहीं करता बल्कि परिणाम भी निकालता है, क्योंकि राजनीति विज्ञान का उद्देश्य एक आदर्श राज्य की स्थापना करना तथा आदर्श नागरिक पैदा करना है।

समाजशास्त्र में मनुष्य के चेतन (conscious) और अचेतन (unconscious) दोनों प्रकार के कार्यों का अध्ययन किया जाता है परन्तु राजनीति विज्ञान में केवल चेतन प्रकार के कार्यों का ही अध्ययन किया जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में अन्तर होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध न होकर पूरक हैं। राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं।

राजनीति विज्ञान तथा नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। नीतिशास्त्र साधारण मनुष्य की भाषा में वह शास्त्र है, जो अच्छे-बुरे में अन्तर स्पष्ट करता है। नीतिशास्त्र वह शास्त्र है जिसके द्वारा धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, अहिंसा-हिंसा, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य तथा शुभ-अशुभ में अन्तर का पता चलता है। डीवी (Deewey) के अनुसार, “नीतिशास्त्र आचरण का वह विज्ञान है जिसमें मानवीय आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य तथा अच्छाई तथा बुराई पर विचार किया जाता है।” नीतिशास्त्र के द्वारा हम निश्चित करते हैं कि मनुष्य का कौन-सा कार्य अच्छा है और कौनसा कार्य बुरा । यह शास्त्र नागरिकको आदर्श नागरिक बनाने में सहायक है। दूसरी ओर राज्य का मुख्य उद्देश्य भी आदर्श नागरिक बनाना है। इस प्रकार दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राचीन यूनानी लेखकों प्लेटो तथा अरस्तु ने राजनीति शास्त्र को नीतिशास्त्र का ही एक अंग माना है। प्लेटो तथा अरस्तु के अनुसार, “राज्य एक सर्वोच्च नैतिक संस्था है। इसका उद्देश्य नागरिकों के नैतिक स्तर को ऊंचा करना है।” प्लेटो की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिपब्लिक’ (Republic) में राजनीति ही नहीं बल्कि नैतिक दर्शन भी भरा हुआ है। अरस्तु ने कहा था “राज्य जीवन को सम्भव बनाने के लिए उत्पन्न हुआ, परन्तु अब वह जीवन को अच्छा बनाने के लिए विद्यमान है।”

इटली के विद्वान् मैक्यावली ने सर्वप्रथम राजनीति तथा नीतिशास्त्र में भेद किया। इसके अनुसार राजा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह नैतिकता के नियमों के अनुसार शासन चलाए। आवश्यकता पड़ने पर अनैतिकता का रास्ता भी अपनाया जा सकता है। मैक्यावली के अनुसार-राजा के सामने सबसे बड़ा उद्देश्य राज्य की सुरक्षा है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य की परवाह नहीं करनी चाहिए। हाब्स (Hobbes) ने भी मैक्यावली के विचारों का समर्थन किया। बोदीन (Bodin), ग्रोशियस (Grotius) तथा लॉक (Locke) ने भी इन दोनों शास्त्रों को अलग किया, परन्तु रूसो (Rouseau) ने फिर इन दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया। कांट (Kant), ग्रीन (Green) ने भी रूसो के मत का समर्थन किया।

नीतिशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Ethics to Political Science)-वर्तमान समय में इन दोनों शास्त्रों में गहरा सम्बन्धा समझा जाता है। महात्मा गांधी ने दोनों शास्त्रों को अभिन्न माना है। उनके अनुसारसरकार को अपनी नीति नैतिकता के सिद्धान्तों पर बनानी चाहिए। सरकार की नीतियों में असत्य, अधर्म, कपट तथा पाप इत्यादि की मिलावट नहीं होनी चाहिए। कॉक्स के मतानुसार, “जो बात नैतिक दृष्टि से गलत है, वह राजनीतिक दृष्टि से सही नहीं हो सकती।” कोई भी सरकार ऐसे कानून पास नहीं कर सकती जो नैतिकता के विरुद्ध हों। यदि पास किए जाएंगे तो उनका विरोध होगा। इसके अतिरिक्त नैतिक नियम जो स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं, कानून का रूप धारण कर लेते हैं। गैटेल (Gettell) ने लिखा है, “जब नैतिक विचार स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं तो वे कानून का रूप ले लेते हैं।” लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने ठीक ही कहा है, “समस्या यह नहीं है कि सरकार क्या करती है बल्कि यह है कि उन्हें क्या करना चाहिए।” यदि राजनीति विज्ञान को नीतिशास्त्र से पृथक् कर दें तो यह निस्सार और निरर्थक हो जाएगी। उसमें प्रगतिशीलता और आदर्शता नहीं रह पाएगी। इसलिए लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने भी कहा है, “नीतिशास्त्र के अध्ययन के बिना राजनीति शास्त्र का अध्ययन विफल है।” इसके अतिरिक्त राजनीति विज्ञान की अनेक शाखाएं आचार शास्त्र की नींव पर खड़ी हैं, जैसे अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्पूर्ण शास्त्र अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता पर आधारित है। आचार शास्त्र से संविधान भी प्रभावित होता है क्योंकि अनेक प्रकार के आदर्शों को संविधान में उचित स्थान देना अनिवार्य है। भारत और आयरलैंड के संविधान में हमें दिए गए राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व’ ही स्पष्ट उदाहरण है।

राजनीति विज्ञान की नीतिशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Ethics)—वर्तमान राज्य कल्याणकारी राज्य है। सरकार लोगों के नैतिक स्तर को ऊंचा करने के लिए कई प्रकार के कानून बनाती है। इसके साथ ही सरकार सामाजिक बुराइयों को दूर करती है। भारत सरकार ने सती-प्रथा, दहेज-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयों को कानून के द्वारा रोकने का प्रयत्न किया है और काफ़ी सफलता भी मिली है। भारत सरकार अहिंसा के सिद्धान्तों पर चल रही है और इन्हीं सिद्धान्तों का प्रचार कर रही है। भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू ने पंचशील की स्थापना की थी ताकि संसार के दूसरे देशों में भी अहिंसा का प्रचार किया जा सके। सरकार राज्य में शान्ति की स्थापना करती है और नैतिकता शान्ति के वातावरण में ही विकसित हो सकती है। यदि राज्य शान्ति का वातावरण उत्पन्न न करे, तो नैतिक जीवन बिताना असम्भव हो जाएगा। इस प्रकार सरकार कानून द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें नैतिकता विकसित हो सके। क्रोशे के मतानुसार, “नैतिकता अपनी पूर्णता और उच्चतम स्पष्टता राजनीति में ही पाती है।”

दोनों में अन्तर (Difference between the two)-राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी उन दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार हैं-

नीतिशास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित रहता है जब कि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से सम्बन्ध रखता है। नीतिशास्त्र मनुष्य के आन्तरिक तथा बाहरी दोनों कार्यों से सम्बन्धित है, परन्तु राजनीति विज्ञान मनुष्य के केवल बाहरी कार्यों से सम्बन्धित है।

राज्य के नियमों का पालन करवाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है। यदि सरकार के किसी कानून का उल्लंघन कोई मनुष्य करता है तो उसे न्यायालय द्वारा दण्ड दिया जाता है, परन्तु नीतिशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने पर कोई दण्ड नहीं दिया जाता क्योंकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना अपराध नहीं केवल पाप है।

राजनीति विज्ञान मुख्यतः वर्णनात्मक है क्योंकि इसमें राज्य, सरकार की शक्तियां, संविधान इत्यादि का वर्णन करता है जबकि नीतिशास्त्र मुख्यतः आदर्शात्मक है और यह विषय जनता के सामने कुछ आदर्श रखे हुए हैं।

राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक सिद्धान्तों से है जबकि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध केवल सिद्धान्तों से है। नीतिशास्त्र वास्तविकता से बहुत दूर है। यह केवल काल्पनिक है।

राज्य के नियमों तथा नैतिकता के नियमों में सदैव एकरूपता नहीं होती। सड़क के दाईं ओर चलना राज्य के नियम के विरुद्ध है, परन्तु नैतिकता के विरुद्ध नहीं।

राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं, परन्तु इस शास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इस बात से है कि वे क्या हैं परन्तु नीतिशास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इससे है कि वे क्या होने चाहिएं।
राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र के सम्बन्ध और अन्तर दोनों को स्पष्ट करते हुए कैटलिन ने कहा, “नीतिशास्त्र से एक राजनीतिज्ञ यह सीखता है कि अनेक मार्गों में से कौन-सा मार्ग सही है और राजनीति विज्ञान बतलाता है कि व्यावहारिक दृष्टि से कौन-सा मार्ग अपनाना सम्भव होगा।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

निष्कर्ष (Conclusion)-नीतिशास्त्र और राजनीति विज्ञान में भले ही कई भिन्नताएं हैं, फिर भी इनकी समीपता से इन्कार नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र राजनीति विज्ञान के अध्ययन को समृद्ध बनाता है और व्यावहारिक राजनीति को उदात्त बनाने (To ennoble) के लिए प्रेरित करता है। आजकल की व्यावहारिक राजनीति में भ्रष्टाचार के उदाहरण सर्वप्रसिद्ध हैं और इन भ्रष्टाचारी तरीकों ने समाज के हर पक्ष को दूषित कर दिया है। इस भ्रष्टाचार से बचने के साधन नीतिशास्त्र ही सुझा सकता है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान एवं इतिहास में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relation between Political Science and History.)
उत्तर-
राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। सीले (Seeley) ने इन दोनों में सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “बिना राजनीति विज्ञान के इतिहास का कोई फल नहीं। बिना इतिहास के राजनीति विज्ञान की कोई जड़ नहीं।”

बर्गेस (Burgess) ने दोनों के सम्बन्ध के बारे में लिखा है, “इन दोनों को अलग कर दो उनमें से एक यदि मृत नहीं तो पंगु अवश्य हो जाएगा और दूसरा केवल आकाश-पुष्प बनकर रह जाएगा।” (“Separate them and the one becomes a cripple, if not a corpse, the other a will of the wisp.”) फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, “इतिहास भूतकालीन राजनीति है और राजनीति वर्तमान इतिहास है।” (“History is nothing but past politics and politics is nothing but present History.”) इन विद्वानों के कथन से राजनीति तथा इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध का पता लगता है।

इतिहास की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of History to Political Science)—इतिहास से हमें बीती हुई घटनाओं का ज्ञान होता है। राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं। राजनीति विज्ञान में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए हमें इतिहास पर निर्भर करना पड़ता है। राजनीतिक संस्थाओं को समझने के लिए, उनके अतीत को जानना आवश्यक होता है और इतिहास से ही उनके अतीत को जाना जा सकता है। यदि हम इंग्लैंड की संसद् तथा राजतन्त्र का वर्तमान स्वरूप जानना चाहते हैं तो हमें वहां के इतिहास का गहरा अध्ययन करना पड़ेगा। राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। मानवीय इतिहास के विभिन्न समयों पर राजनीति क्षेत्र में अनेक कार्य किए गए, जिनके परिणाम और सफलता-असफलता का वर्णन इतिहास से प्राप्त होता है। राजनीति क्षेत्र के ये भूतकालीन कार्य एक प्रयोग के समान ही होते हैं और ये भूतकालीन प्रयोग भविष्य के लिए मार्ग बतलाने का कार्य करते हैं। भारत के इतिहास से पता चलता है कि वही शासक सफल रहेगा जो धर्म-निरपेक्ष हो। धार्मिक सहिष्णुता की नीति के आधार पर अकबर ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की जबकि औरंगज़ेब की धर्मान्ध नीति के कारण मुग़ल साम्राज्य का पतन हो गया। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया। भारत आजकल धर्म-निरपेक्ष नीति को अपनाए हुए है। अतः राजनीति विज्ञान के अध्ययन का आधार इतिहास है।

इतिहास राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास मनुष्य की सफलताओं एवं विफलताओं का संग्रह है। अतीत में मानव ने क्या-क्या भूलें कीं, किस नीति को अपनाने से अच्छा और बुरा परिणाम निकला आदि बातों का ज्ञानदाता इतिहास ही है। भारतीय इतिहास में अकबर की सफलता और औरंगज़ेब की विफलता हमें राजनीतिक शिक्षा देती है। इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय और फ्रांस के लुई चौदहवें के निरंकुश राजतन्त्र हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि निरंकुश राज्य अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। इतिहास द्वारा बतलाई गई भूलों के आधार पर ही राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन लाते हैं।

कोई भी राजनीतिक संस्था अकस्मात् पैदा नहीं होती। उसका वर्तमान रूप शनैः-शनैः होने वाले क्रमिक विकास का फल है। किसी समय किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संस्था का जन्म होता है और समयानुसार उसमें परिवर्तन भी आते रहते हैं और कई बार यह संस्था नया रूप भी धारण कर लेती है। इस पृष्ठभूमि में यह आवश्यक है कि राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन पर्यवेक्षण (Observation) विधि के द्वारा किया जाए जिसके लिए इतिहास का सहारा लेना अनिवार्य है। यह कहना उचित ही है कि इतिहास की उपेक्षा करने से राजनीति शास्त्र का अध्ययन केवल काल्पनिक और सैद्धान्तिक ही होगा। ऐसे अध्ययन का दोष बताते हुए लॉस्की (Laski) कहता है, “हर प्रकार के काल्पनिक राजनीति शास्त्र का परास्त होना अनिवार्य ही है क्योंकि मनुष्य कभी भी ऐतिहासिक प्रभावों से उन्मुक्त नहीं हो सकते।” विलोबी (Willoughby) के शब्दों में “इतिहास राजनीति शास्त्र को तीसरी दिशा प्रदान करता है।” (“History gives the third dimension to Political Science …………”)

इतिहास को राजनीति शास्त्र की देन (Contribution of Political Science to History)—परन्तु इतिहास का ही राजनीति शास्त्र पर प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि इतिहास भी राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ हासिल करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। इतिहास में केवल युद्ध, विजयों तथा अन्य घटनाओं का ही वर्णन नहीं आता बल्कि इसमें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक घटनाओं का भी वर्णन आता है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाता है। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, व्यक्तिवाद आदि धाराओं की चर्चा के बिना 17वीं शताब्दी का इतिहास अपूर्ण है। भारत के 20वीं शताब्दी के इतिहास से यदि कांग्रेस पार्टी का महत्त्व, असहयोग आन्दोलन, स्वराज्य पार्टी, भारत छोड़ो आन्दोलन, क्रिप्स योजना, केबिनेट मिशन योजना, भारत का विभाजन, चीन का भारत पर आक्रमण तथा पाकिस्तान के आक्रमण आदि राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो भारत का इतिहास महत्त्वहीन रह जाएगा। लॉर्ड एक्टन ने राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “राजनीति इतिहास की धारा में उसी प्रकार इकट्ठी हो जाती है जैसे नदी की रेत में सोने के कण।”

राजनीति की इतिहास को एक महत्त्वपूर्ण देन यह है कि राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं। रूसो और मॉण्टेस्क्यू के विचारों का फ्रांस की राज्यक्रान्ति पर, कार्ल मार्क्स के विचारों का सोवियत रूस की राज्यक्रान्ति पर तथा महात्मा गांधी के विचारों का भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा।

दोनों में अन्तर (Differences between the two)-राजनीतिक विकास तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है।
1. इतिहास का क्षेत्र राजनीतिक विज्ञान से व्यापक है (Scope of History is wider than the scope of Political Science)-फ्रीमैन के कथन से समहत होना कठिन है क्योंकि पूर्ण भूतकालीन इतिहास राजनीति नहीं है और वर्तमान राजनीति कल का इतिहास नहीं है। इतिहास में प्रत्येक घटना का वर्णन किया जाता है। इसका क्षेत्र व्यापक है। जब हम 19वीं शताब्दी का इतिहास पढ़ते हैं तो इसमें उस समय की सभी घटनाओं, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक का वर्णन आ जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र का सम्बन्ध केवल राजनीतिक घटनाओं से होता है।

2. राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है, जबकि इतिहास केवल भूतकाल से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राजनीतिक संस्थाओं के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन किया जाता है। राज्य कैसा था, कैसा है और कैसा होना चाहिए, इन तीनों का उत्तर राजनीति शास्त्र से मिलता है, परन्तु इतिहास में केवल बीती घटनाओं का ही वर्णन आता है।

3. इतिहास वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान विचारशील है- इतिहास में केवल घटनाओं का वर्णन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में इन घटनाओं का मूल्यांकन भी किया जाता है और इस मूल्यांकन के आधार पर निश्चित परिणाम निकाले जाते हैं। इस प्रकार इतिहास वर्णनात्मक है परन्तु राजनीति शास्त्र विचारात्मक भी है।

4. इतिहासकार नैतिक निर्णय नहीं देता, परन्तु राजनीति विज्ञान के विद्वानों के लिए नैतिक निर्णय देना आवश्यक है-इतिहासकार केवल बीती हुई घटनाओं का वर्णन करता है। वह घटनाओं की नैतिकता के आधार पर परख करके कोई निर्णय नहीं देता है। उदाहरण के लिए, दिसम्बर 1971 में भारत का पाकिस्तान से युद्ध हुआ। इतिहासकार का कार्य केवल युद्ध की घटनाओं का वर्णन करना है। इतिहासकार का इस बात के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है कि युद्धबन्दियों के साथ कैसा व्यवहार किया गया, असैनिक आबादी पर बम बरसाए गए तो कोई अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं। परन्तु राजनीति विज्ञान का विद्वान् युद्ध के नैतिक पहलू पर अपना निर्णय अवश्य देगा।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में अन्तर होते हुए भी घनिष्ठ सम्बन्ध है और इस विचार को सब विद्वान् मान्यता प्रदान करते हैं। गार्नर (Garmer) के शब्दों में, ‘अध्ययन विषय के तौर पर यह एक-दूसरे के सहायक व पूरक हैं।’

सीले (Seeley) ने इन दोनों को पूरक सिद्ध करने के लिए कहा है, “इतिहास के उदार प्रभाव के बिना राजनीति अशिष्ट है और राजनीति से अपने सम्बन्ध को भुला देने से इतिहास साहित्य मात्र रह जाता है।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

प्रश्न 3.
राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relation between Political Science and Economics.)
उत्तर-
राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। प्राचीन काल में अर्थशास्त्र ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ (Political Economy) के नाम से प्रसिद्ध था। विद्वानों ने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ की परिभाषा इस प्रकार की है-“यह राज्य के लिए राजस्व (Revenue) जुटाने की एक कला है।” भारतीय विद्वान् चाणक्य ने अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में राजनीतिक समस्याओं का वर्णन किया । इसी प्रकार राजनीति विज्ञान के कई मान्य ग्रन्थों जैसे अरस्तु की ‘Politics’ तथा लॉक की ‘नागरिक प्रशासन पर दो लेख’ (Two Treatises on Civil Government) में उन विषयों का विवेचन मिलता है, जिन्हें आजकल अर्थशास्त्र में शामिल किया जाता है। इस प्रकार प्राचीन काल में दो शास्त्रों को एक माना जाता था, परन्तु 19वीं शताब्दी में एडम स्मिथ ने आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप को अनुचित बताया। एडम स्मिथ पहला विद्वान् था जिसने अर्थशास्त्र को राजनीति शास्त्र से अलग किया। 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विषय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। अर्थशास्त्र का सम्बन्ध सम्पत्ति के उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा विनिमय सम्बन्धी मनुष्य की गतिविधियों से है।

यह ठीक है कि 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र विज्ञान माना गया है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में कोई सम्बन्ध नहीं। अब भी दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है और आपस में आदानप्रदान करते हैं।

अर्थशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Economics to Political Science)-वर्तमान युग में मनुष्य तथा राज्य की मुख्य समस्याएं आर्थिक हैं। इतिहास से पता चलता है कि आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। जब मनुष्य आखेट अवस्था में से गुज़र रहा था अर्थात् जब मनुष्य का पेशा शिकार करना था तब राज्य के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं होता था क्योंकि उस समय मनुष्य एक स्थान पर नहीं रहता था। जब मनुष्य ने कृषि करना आरम्भ किया, इसके साथ ही मनुष्य को एक निश्चित स्थान पर रहना पड़ा, जिससे राज्य की उत्पत्ति हुई। पहले सरकार पर बड़ेबड़े ज़मींदारों का प्रभाव होता था, परन्तु यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् सरकार पर उद्योगपतियों का प्रभाव हो गया है। आजकल हमारे देश में भी उद्योगपतियों का ही अधिक प्रभाव है।

व्यक्तिवाद, समाजवाद तथा साम्यवाद मुख्यतः आर्थिक सिद्धान्त हैं परन्तु इनका अध्ययन राजनीतिशास्त्र में भी किया जाता है क्योंकि इन आर्थिक सिद्धान्तों ने राज्य के ढांचे को ही बदल दिया है। चीन में साम्यवाद है। उत्पादन के साधनों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण है। सरकार की समस्त शक्तियां कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) के हाथ में ही हैं। अमेरिका में पूंजीवाद है, जिसके कारण वहां की सरकार संगठन तथा सरकार के उद्देश्य चीन की सरकार से भिन्न हैं। अतः आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के अनुसार, उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होने पर राजनीतिक परिवर्तन होना अनिवार्य है। कार्ल मार्क्स का यह कथन सर्वथा सत्य तो नहीं है परन्तु इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्थिक परिवर्तन ही राजनीतिक परिवर्तन का मुख्य कारण भी होता है।

राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं। 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में जो औद्योगिक क्रान्तियां हुई हैं उनके परिणामस्वरूप ही यूरोप के इन देशों में उपनिवेशवाद और समाजवाद की नीति अपनाई। इस सम्बन्ध में बिस्मार्क और जोज़फ चैम्बरलेन के कथन महत्त्वपूर्ण हैं। बिस्मार्क का कथन था, “मुझे यूरोप के बाहर नए राज्यों की नहीं, बल्कि व्यापारिक केन्द्रों की आवश्यकता है।” (“I want outside Europe…not provinces but commerical enterprises.”)

राजनीतिक क्षेत्र की अनेक मत्त्वपूर्ण घटनाएं आर्थिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप ही घटित हुई हैं। भारत में आज लोकतन्त्र को इतनी सफलता नहीं मिली जितनी कि अमेरिका तथा इंग्लैंड में प्राप्त हुई है। भारत में सफलता न मिलने का मुख्य कारण लोगों की आर्थिक दशा है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है, अधिकारों तथा कर्तव्यों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर पाती। लोगों के वोट खरीद लिए जाते हैं। दूसरे विश्व-युद्ध के पश्चात् बहुत से देशों को अमेरिका से आर्थिक सहायता लेनी पड़ी जिसका परिणाम यह हुआ कि उन देशों की नीतियों पर भी अमेरिका का प्रभाव पड़ा।

अर्थशास्त्र को राजनीति विज्ञान की देन (Contribution of Political Science to Economics)-अर्थशास्त्र के अध्ययन में राजनीति विज्ञान से भी बहुत सहायता मिलती है। राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। शासन-व्यवस्था यदि दृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। आर्थिक दशाओं का ही नहीं सरकार की नीतियों का भी आर्थिक व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। सरकार की कर नीति, आयात-निर्यात नीति, विनिमय की दर, बैंक नीति, व्यापार तथा उद्योग सम्बन्धी कानून, सीमा शुल्क नीति आदि का राज्य की अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव पड़ता है। सरकार पूंजीवाद तथा साम्यवाद को अपना कर देश की आर्थिक व्यवस्था को बदल सकती है। भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं हैं ताकि लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा किया जा सके। सरकार बड़े-बड़े उद्योगों को अपने हाथों में ले रही है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा।

युद्ध एक सैनिक और राजनीतिक क्रिया है परन्तु इसका देश की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ता है। अमेरिका की आर्थिक स्थिति में गिरावट होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण वियतनाम युद्ध रहा है। इसी प्रकार 1962 में चीन के साथ युद्ध और 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों ने भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत प्रभावित किया है।

अतः इस विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर करता है।

अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में समानताएं (Points of Similarity between Economics and Political Science) अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में निम्नलिखित समानताएं पाई जाती हैं-

  • दोनों का विषय समाज में रह रहा मनुष्य है-समाज में रह रहा मनुष्य दोनों शास्त्रों का विषय है। दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण है और उसी के लिए दोनों कार्य करते हैं।
  • दोनों ही आदर्शात्मक सामाजिक विज्ञान हैं-दोनों ही भूतकाल के आधार पर वर्तमान का विश्लेषण करके भविष्य के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में मानव जीवन के लिए ऐसे आदर्श स्थापित करते हैं जिनके द्वारा अधिक-से-अधिक मानव हित हो।
  • दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं- राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं।

दोनों में अन्तर (Difference between the two) राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार है

1. विभिन्न विषय-क्षेत्र (Different Subject Matter) राजनीति विज्ञान मनुष्य की राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन करता है और इस विज्ञान का मुख्य विषय राज्य तथा सरकार है। परन्तु अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करता है। मनुष्य धन कैसे कमाता है, कैसे उसका उपयोग करता है इत्यादि प्रश्नों का उत्तर अर्थशास्त्र देता है। इस प्रकार दोनों का विषय-क्षेत्र अलग-अलग है।

2. दृष्टिकोण (Approach)—मिस्टर ब्राऊन (Mr. Brown) ने राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में भेद करते हुए लिखा है, “अर्थशास्त्र का सम्बन्ध वस्तुओं से है जबकि राजनीति विज्ञान का मनुष्यों से। अर्थशास्त्र वस्तुओं की कीमतों का अध्ययन करता है और राजनीति विज्ञान सदाचार सम्बन्धी मूल्यों का।” इस प्रकार अर्थशास्त्र व्याख्यात्मक विज्ञान है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक विज्ञान है।

3. अध्ययन पद्धति (Method of Study)—दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि दोनों तथा अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति विज्ञान के अध्ययन के अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है और इसके निष्कर्ष और सिद्धान्त अधिक सही होते हैं। इसका कारण यह है कि अर्थशास्त्र का सम्बन्ध मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं से है और इन आवश्यकताओं तथा इनकी पूर्ति का उल्लेख अंकों द्वारा दर्शाया जा सकता है। अर्थशास्त्र में मात्रात्मक आंकड़ों का संग्रह राजनीति विज्ञान की अपेक्षा अधिक सम्भव है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में भिन्नता होने के बावजूद भी यह कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में दोनों ही अपने उद्देश्यों की प्राप्ति एक-दूसरे के सहयोग और सहायता के बिना नहीं कर सकते। डॉ० गार्नर (Dr. Garner) ने ठीक ही कहा है, “बहुत-सी आर्थिक समस्याओं का हल राजनीतिक आर्थिक हालतों से आरम्भ होता है।” विलियम एसलिंगर (William Esslinger) के विचारानुसार, “अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र की एकता का पाठ्यक्रम उपकक्षा में पढ़ाया जाना चाहिए।”

प्रश्न 4.
राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relations between Political Science and Sociology.)
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र मनुष्य के सामाजिक जीवन का शास्त्र है। समाज- शास्त्र समाज की उत्पत्ति, विकास, उद्देश्य तथा संगठन का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र में मानव जीवन के सभी पहलुओं राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक इत्यादि का अध्ययन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में मानव जीवन के राजनीतिक पहलू का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र की एक शाखा है। प्रसिद्ध विद्वान् रेटजनहाफर ने ठीक ही कहा है, “राज्य अपने विकास के प्रारम्भिक चरणों में एक सामाजिक संस्था ही थी।” हम आगस्ट काम्टे (August Comte) के इस कथन से सहमत हैं, “समाजशास्त्र सभी समाजशास्त्रों की जननी है।” राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान करते हैं। प्रो० कैटलिन (Catline) ने तो यहां तक कहा है, “राजनीति और समाजशास्त्र अखण्ड हैं और वास्तव में एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

राजनीति विज्ञान को समाजशास्त्र की देन (Contribution of Sociology to Political Science) समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। बिना समाजशास्त्र के अध्ययन के राजनीति शास्त्र के सिद्धान्तों को समझना कठिन है। प्रो० गिडिंग्स (Prof. Giddings) ने ठीक ही कहा है, “समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनभिज्ञ लोगों को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना उसी प्रकार है जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति को खगोल विज्ञान अथवा ऊष्मा गति की शिक्षा देना।” (“To teach the theory of the state to men who have not learned the first principles of sciology is like teaching Astronomy or Thermodynamics to men who have not learned Newton’s Laws of Motion.”) दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों को न जानने वाले व्यक्ति को खगोल विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है उसी प्रकार बिना समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनजान व्यक्ति को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना व्यर्थ है। समाजशास्त्रों में समाज के रीति-रिवाजों का अध्ययन किया जाता है। हम जानते हैं कि राज्य के कानून का पालन तभी किया जाता है यदि वह समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार हो।

राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाज शास्त्र की बहुत देन है। समाजशास्त्र से पता चलता है कि राज्य मानव की सामाजिक भावना का परिणाम है। समाज के विकास के स्तर के साथसाथ राज्य का विकास हुआ है। राजनीतिक समाजशास्त्र (Political Sociology) राजनीति विज्ञान की एक शाखा पनप रही है, जो इस बात की स्पष्ट सूचक है कि राजनीतिक तथ्यों के विधिवत अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेना आवश्यक है। इस प्रकार समाज शास्त्र का राजनीति शास्त्र पर बहुत प्रभाव पड़ा है।

राजनीति विज्ञान की समाजशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Sociology)-परन्तु दूसरी ओर राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। राजनीति विज्ञान का मुख्य विषय राज्य हैराज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, राज्य क्या है, राज्य का विकास कैसे हुआ, राज्य का उद्देश्य क्या है इन सब प्रश्नों का उत्तर राजनीति विज्ञान में मिलता है। समाजशास्त्र को राज्य से सम्बन्धित प्रत्येक जानकारी राजनीति शास्त्र से मिलती है। राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र का एक अंग है जिसके बिना समाजशास्त्र की विषय सामग्री पूर्ण नहीं हो सकती।

राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के आपसी सम्बन्ध का एक प्रणाम यह है कि मॉरिस, गिन्सबर्ग, आगस्त काम्टे, लेस्टर वार्ड, समवर आदि समाजशास्त्रियों ने राज्य की प्रकृति और उद्देश्यों में इतनी रुचि दिखाई है, मानो वे समाजशास्त्र की मुख्य समस्याएं हों। इसी प्रकार डेविड ईस्टन, हैरल्ड लासवैल, ग्रेवीज ए० ऑल्मण्ड, पावेल, कोलमेन, मेक्स वेबर और राजनीति शास्त्र के अन्य आधुनिक विद्वानों द्वारा समाज शास्त्र से अधिक-से-अधिक मात्रा में अध्ययन सामग्री और अध्ययन पद्धतियां प्राप्त की गई हैं।

दोनों में अन्तर (Differences between the two) राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है-

  • दोनों के क्षेत्र अलग हैं-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र के क्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् हैं। राजनीतिक शास्त्र का मुख्य विषय-क्षेत्र राज्य है जबकि समाजशास्त्र का मुख्य क्षेत्र समाज है।
  • राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र से संकुचित है-राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र के क्षेत्र से संकुचित है। राजनीति शास्त्र मनुष्य के राजनीतिक पहलू का ही अध्ययन कराता है जबकि समाजशास्त्र मनुष्य के सभी पहलुओं का अध्ययन कराता है।
  • राजनीति विज्ञान यह मानकर चलता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसमें हम यह अध्ययन नहीं करते कि मनुष्य सामाजिक प्राणी क्यों है। परन्तु समाजशास्त्र में इस प्रश्न का भी अध्ययन किया जाता है।
  • समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान से पहले बना–राजनीति शास्त्र में समाज बनने से पूर्व के मानव का अध्ययन नहीं किया जाता जबकि समाजशास्त्र के विषय का अध्ययन वहीं से शुरू होता है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत मानव जाति के दोनों युगों-संगठित तथा असंगठित-का अध्ययन किया जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र केवल संगठित युग का अध्ययन करता है।
  • समाजशास्त्र केवल भूत और वर्तमान से सम्बन्धित है परन्तु राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का भी अध्ययन किया जाता है जबकि समाज शास्त्र में समाज के अतीत तथा वर्तमान का ही अध्ययन किया जाता है।
  • समाजशास्त्र वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक है-समाजशास्त्र समाज की उत्पत्ति तथा विकास का विस्तृत रूप से अध्ययन करता है, परन्तु इस अध्ययन के पश्चात् कोई परिणाम नहीं निकलता। यह केवल सामाजिक घटनाओं का वर्णन करता है। उन घटनाओं में अच्छी तथा बुरी घटनाओं की पहचान नहीं कराता। राजनति शास्त्र केवल घटनाओं का वर्णन ही नहीं करता बल्कि परिणाम भी निकालता है, क्योंकि राजनीति विज्ञान का उद्देश्य एक आदर्श राज्य की स्थापना करना तथा आदर्श नागरिक पैदा करना है।
  • समाजशास्त्र में मनुष्य के चेतन (conscious) और अचेतन (unconscious) दोनों प्रकार के कार्यों का अध्ययन किया जाता है परन्तु राजनीति विज्ञान में केवल चेतन प्रकार के कार्यों का ही अध्ययन किया जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में अन्तर होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध न होकर पूरक हैं। राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं।

प्रश्न 5.
राजनीति विज्ञान तथा नीतिशास्त्र में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relations between Political Science and Ethics.)
उत्तर-
राजनीति विज्ञान तथा नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। नीतिशास्त्र साधारण मनुष्य की भाषा में वह शास्त्र है, जो अच्छे-बुरे में अन्तर स्पष्ट करता है। नीतिशास्त्र वह शास्त्र है जिसके द्वारा धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, अहिंसा-हिंसा, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य तथा शुभ-अशुभ में अन्तर का पता चलता है। डीवी (Deewey) के अनुसार, “नीतिशास्त्र आचरण का वह विज्ञान है जिसमें मानवीय आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य तथा अच्छाई तथा बुराई पर विचार किया जाता है।” नीतिशास्त्र के द्वारा हम निश्चित करते हैं कि मनुष्य का कौन-सा कार्य अच्छा है और कौनसा कार्य बुरा । यह शास्त्र नागरिकको आदर्श नागरिक बनाने में सहायक है। दूसरी ओर राज्य का मुख्य उद्देश्य भी आदर्श नागरिक बनाना है। इस प्रकार दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राचीन यूनानी लेखकों प्लेटो तथा अरस्तु ने राजनीति शास्त्र को नीतिशास्त्र का ही एक अंग माना है। प्लेटो तथा अरस्तु के अनुसार, “राज्य एक सर्वोच्च नैतिक संस्था है। इसका उद्देश्य नागरिकों के नैतिक स्तर को ऊंचा करना है।” प्लेटो की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिपब्लिक’ (Republic) में राजनीति ही नहीं बल्कि नैतिक दर्शन भी भरा हुआ है। अरस्तु ने कहा था “राज्य जीवन को सम्भव बनाने के लिए उत्पन्न हुआ, परन्तु अब वह जीवन को अच्छा बनाने के लिए विद्यमान है।”

इटली के विद्वान् मैक्यावली ने सर्वप्रथम राजनीति तथा नीतिशास्त्र में भेद किया। इसके अनुसार राजा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह नैतिकता के नियमों के अनुसार शासन चलाए। आवश्यकता पड़ने पर अनैतिकता का रास्ता भी अपनाया जा सकता है। मैक्यावली के अनुसार-राजा के सामने सबसे बड़ा उद्देश्य राज्य की सुरक्षा है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य की परवाह नहीं करनी चाहिए। हाब्स (Hobbes) ने भी मैक्यावली के विचारों का समर्थन किया। बोदीन (Bodin), ग्रोशियस (Grotius) तथा लॉक (Locke) ने भी इन दोनों शास्त्रों को अलग किया, परन्तु रूसो (Rouseau) ने फिर इन दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया। कांट (Kant), ग्रीन (Green) ने भी रूसो के मत का समर्थन किया।

नीतिशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Ethics to Political Science)-वर्तमान समय में इन दोनों शास्त्रों में गहरा सम्बन्धा समझा जाता है। महात्मा गांधी ने दोनों शास्त्रों को अभिन्न माना है। उनके अनुसारसरकार को अपनी नीति नैतिकता के सिद्धान्तों पर बनानी चाहिए। सरकार की नीतियों में असत्य, अधर्म, कपट तथा पाप इत्यादि की मिलावट नहीं होनी चाहिए। कॉक्स के मतानुसार, “जो बात नैतिक दृष्टि से गलत है, वह राजनीतिक दृष्टि से सही नहीं हो सकती।” कोई भी सरकार ऐसे कानून पास नहीं कर सकती जो नैतिकता के विरुद्ध हों। यदि पास किए जाएंगे तो उनका विरोध होगा। इसके अतिरिक्त नैतिक नियम जो स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं, कानून का रूप धारण कर लेते हैं। गैटेल (Gettell) ने लिखा है, “जब नैतिक विचार स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं तो वे कानून का रूप ले लेते हैं।” लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने ठीक ही कहा है, “समस्या यह नहीं है कि सरकार क्या करती है बल्कि यह है कि उन्हें क्या करना चाहिए।” यदि राजनीति विज्ञान को नीतिशास्त्र से पृथक् कर दें तो यह निस्सार और निरर्थक हो जाएगी। उसमें प्रगतिशीलता और आदर्शता नहीं रह पाएगी। इसलिए लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने भी कहा है, “नीतिशास्त्र के अध्ययन के बिना राजनीति शास्त्र का अध्ययन विफल है।” इसके अतिरिक्त राजनीति विज्ञान की अनेक शाखाएं आचार शास्त्र की नींव पर खड़ी हैं, जैसे अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्पूर्ण शास्त्र अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता पर आधारित है। आचार शास्त्र से संविधान भी प्रभावित होता है क्योंकि अनेक प्रकार के आदर्शों को संविधान में उचित स्थान देना अनिवार्य है। भारत और आयरलैंड के संविधान में हमें दिए गए राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व’ ही स्पष्ट उदाहरण है।

राजनीति विज्ञान की नीतिशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Ethics)—वर्तमान राज्य कल्याणकारी राज्य है। सरकार लोगों के नैतिक स्तर को ऊंचा करने के लिए कई प्रकार के कानून बनाती है। इसके साथ ही सरकार सामाजिक बुराइयों को दूर करती है। भारत सरकार ने सती-प्रथा, दहेज-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयों को कानून के द्वारा रोकने का प्रयत्न किया है और काफ़ी सफलता भी मिली है। भारत सरकार अहिंसा के सिद्धान्तों पर चल रही है और इन्हीं सिद्धान्तों का प्रचार कर रही है। भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू ने पंचशील की स्थापना की थी ताकि संसार के दूसरे देशों में भी अहिंसा का प्रचार किया जा सके। सरकार राज्य में शान्ति की स्थापना करती है और नैतिकता शान्ति के वातावरण में ही विकसित हो सकती है। यदि राज्य शान्ति का वातावरण उत्पन्न न करे, तो नैतिक जीवन बिताना असम्भव हो जाएगा। इस प्रकार सरकार कानून द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें नैतिकता विकसित हो सके। क्रोशे के मतानुसार, “नैतिकता अपनी पूर्णता और उच्चतम स्पष्टता राजनीति में ही पाती है।”

दोनों में अन्तर (Difference between the two)-राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी उन दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार हैं-

  • नीतिशास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित रहता है जब कि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से सम्बन्ध रखता है। नीतिशास्त्र मनुष्य के आन्तरिक तथा बाहरी दोनों कार्यों से सम्बन्धित है, परन्तु राजनीति विज्ञान मनुष्य के केवल बाहरी कार्यों से सम्बन्धित है।
  • राज्य के नियमों का पालन करवाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है। यदि सरकार के किसी कानून का उल्लंघन कोई मनुष्य करता है तो उसे न्यायालय द्वारा दण्ड दिया जाता है, परन्तु नीतिशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने पर कोई दण्ड नहीं दिया जाता क्योंकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना अपराध नहीं केवल पाप है।
  • राजनीति विज्ञान मुख्यतः वर्णनात्मक है क्योंकि इसमें राज्य, सरकार की शक्तियां, संविधान इत्यादि का वर्णन करता है जबकि नीतिशास्त्र मुख्यतः आदर्शात्मक है और यह विषय जनता के सामने कुछ आदर्श रखे हुए हैं।
  • राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक सिद्धान्तों से है जबकि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध केवल सिद्धान्तों से है। नीतिशास्त्र वास्तविकता से बहुत दूर है। यह केवल काल्पनिक है।
  • राज्य के नियमों तथा नैतिकता के नियमों में सदैव एकरूपता नहीं होती। सड़क के दाईं ओर चलना राज्य के नियम के विरुद्ध है, परन्तु नैतिकता के विरुद्ध नहीं।
  • राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं, परन्तु इस शास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इस बात से है कि वे क्या हैं परन्तु नीतिशास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इससे है कि वे क्या होने चाहिएं।
    राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र के सम्बन्ध और अन्तर दोनों को स्पष्ट करते हुए कैटलिन ने कहा, “नीतिशास्त्र से एक राजनीतिज्ञ यह सीखता है कि अनेक मार्गों में से कौन-सा मार्ग सही है और राजनीति विज्ञान बतलाता है कि व्यावहारिक दृष्टि से कौन-सा मार्ग अपनाना सम्भव होगा।”

निष्कर्ष (Conclusion)-नीतिशास्त्र और राजनीति विज्ञान में भले ही कई भिन्नताएं हैं, फिर भी इनकी समीपता से इन्कार नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र राजनीति विज्ञान के अध्ययन को समृद्ध बनाता है और व्यावहारिक राजनीति को उदात्त बनाने (To ennoble) के लिए प्रेरित करता है। आजकल की व्यावहारिक राजनीति में भ्रष्टाचार के उदाहरण सर्वप्रसिद्ध हैं और इन भ्रष्टाचारी तरीकों ने समाज के हर पक्ष को दूषित कर दिया है। इस भ्रष्टाचार से बचने के साधन नीतिशास्त्र ही सुझा सकता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र, इतिहास के ऊपर निर्भर है ? वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र और इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध है। राजनीति शास्त्र में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए राजनीति शास्त्र को इतिहास पर निर्भर करना पड़ता है। निःसन्देह राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। भारत के इतिहास से हमें पता चलता है कि वही शासक सफल रहेगा जो धर्म-निरपेक्ष हो। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया। इतिहास राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास की उपेक्षा करने से राजनीति शास्त्र का अध्ययन केवल काल्पनिक और सैद्धान्तिक ही होगा।

प्रश्न 2.
राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाजशास्त्र की बहुत बड़ी देन है।
राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। समाजशास्त्र को राज्य से सम्बन्धित प्रत्येक जानकारी राजनीति शास्त्र से मिलती है। राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र का एक अंग है जिसके बिना समाजशास्त्र की विषय सामग्री पूर्ण नहीं हो सकती।

प्रश्न 3.
राजनीति शास्त्र का अर्थशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
प्राचीनकाल में अर्थशास्त्र ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ के नाम से प्रसिद्ध था। 20वीं शताब्दी में अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विषय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। इतिहास से पता चलता है कि आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना अनिवार्य है। राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं।

राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। शासन व्यवस्था यदि सुदृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। सरकार पूंजीवाद तथा साम्यवाद को अपनाकर देश की आर्थिक व्यवस्था को बदल सकती है। निःसन्देह राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 4.
इतिहास, राजनीति शास्त्र के ऊपर कैसे निर्भर है ?
उत्तर-
इतिहास, राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ प्राप्त करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाएगा। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, व्यक्तिवाद जैसी धाराओं की चर्चा के बिना 17वीं शताब्दी का इतिहास अधूरा है। भारत के 20वीं शताब्दी के इतिहास से यदि कांग्रेस पार्टी का महत्त्व, असहयोग आन्दोलन, स्वराज्य दल, भारत छोड़ो आन्दोलन, क्रिप्स योजना, कैबिनेट मिशन योजना, भारत का विभाजन, चीन तथा पाकिस्तान द्वारा आक्रमण आदि राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो भारत का इतिहास महत्त्वहीन रह जाएगा। राजनीति की इतिहास को महत्त्वपूर्ण देन यह है कि राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं। रूसो और माण्टेस्क्यू के विचारों का फ्रांस की राज्य क्रान्ति पर, कार्ल मार्क्स के विचारों का रूस की राज्य क्रान्ति पर तथा महात्मा गांधी के विचारों का भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 5.
राजनीति शास्त्र को इतिहास की देन का वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति विज्ञान में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए हमें इतिहास पर निर्भर रहना पड़ता है। राजनीतिक संस्थाओं को समझने के लिए उनके अतीत को जानना आवश्यक होता है और इतिहास से ही उनके अतीत को जाना जा सकता है। राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। मानवीय इतिहास के विभिन्न समयों पर राजनीतिक क्षेत्र में अनेक कार्य किए गए, जिनके परिणाम और सफलता-असफलता का पता इतिहास से ही लगता है। राजनीतिक क्षेत्र के ये प्रयोग एक भूतकालीन प्रयोग के समान ही होते हैं और ये भूतकालीन प्रयोग भविष्य के लिए मार्ग बताने का कार्य करते हैं। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए ही संविधान निर्माताओं ने भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया है। इतिहास, राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास मनुष्य की सफलताओं एवं विफलताओं का संग्रह है। अतीत में मानव ने क्या-क्या भूलें कीं, किस नीति को अपनाने से अच्छा व बुरा परिणाम निकला आदि बातों का ज्ञानदाता इतिहास ही है। इतिहास द्वारा बताई गई भूलों के आधार पर राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन करते हैं।

प्रश्न 6.
राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में कोई चार अन्तर बताएं।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में घनिष्ठता होते हुए भी निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • इतिहास का क्षेत्र राजनीति विज्ञान से अधिक व्यापक है-इतिहास की विषय-वस्तु का क्षेत्र राजनीति शास्त्र की अपेक्षा अधिक व्यापक है। जब हम 19वीं शताब्दी का इतिहास पढ़ते हैं तो इसमें उस समय की सभी धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं का वर्णन होता है, परन्तु राजनीति शास्त्र केवल राजनीति घटनाओं से सम्बन्धित है।
  • राजनीति शास्त्र भूत, वर्तमान तथा भविष्य से सम्बन्धित है जबकि इतिहास केवल भूतकाल से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राज्य के भूतकाल के अलावा उसके वर्तमान तथा भविष्य का भी अध्ययन किया जाता है जबकि इतिहास में केवल बीती घटनाओं का वर्णन होता है।
  • इतिहास वर्णनात्मक है, जबकि राजनीति शास्त्र विचारशील है-इतिहास में केवल घटनाओं का वर्णन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में घटनाओं के वर्णन के साथ-साथ उनका मूल्यांकन करके निश्चित परिणाम निकाले जाते हैं।
  • इतिहास नैतिक निर्णय नहीं देता, परन्तु राजनीति विज्ञान में विद्वानों के लिए नौतिक निर्णय देना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
अथशास्त्र की राजनीति शास्त्र को देन बताइए।
उत्तर-
आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक समस्याओं का ही परिणाम है। व्यक्तिवाद, समाजवाद, पूंजीवाद तथा साम्यवाद मुख्यतः आर्थिक सिद्धान्त है परन्तु इनका अध्ययन राजनीति शास्त्र में किया जाता है क्योंकि इन सिद्धान्तों ने राज्य के ढांचे को ही बदल दिया है। आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है। राजनीतिक परिवर्तनों का मुख्य कारण आर्थिक परिवर्तन होते हैं। राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं। 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में जो औद्योगिक क्रान्तियां हुईं, उनके परिणामस्वरूप ही उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की नीतियां अपनाई गईं। राजनीतिक क्षेत्र की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएं, आर्थिक गतिविधियों के फलस्वरूप ही घटित हुई हैं। भारत में लोकतन्त्र को अमेरिका और इंग्लैंड के समान सफलता न मिलने का मुख्य कारण इसकी आर्थिक दशा है।

प्रश्न 8.
राजनीति शास्त्र की अर्थशास्त्र को देन का वर्णन करें।
उत्तर-
अर्थशास्त्र के अध्ययन में राजनीति शास्त्र से भी बहुत सहायक मिलती है। राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ता है। शासन व्यवस्था यदि दृढ़ व शक्तिशाली है तो देश की आर्थिक दशा अच्छी होगी। आर्थिक दशाओं का ही नहीं सरकार की नीतियों का भी देश की अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सरकार पूंजीवाद और साम्यवाद जैसी नीतियों को अपनाकर देश की अर्थव्यवस्था को बदल सकती है। सरकार द्वारा बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किए जाने से देश की अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव पड़ता है। युद्ध बेशक एक सैनिक और राजनीतिक प्रक्रिया है परन्तु इसका देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 9.
राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र में अन्तर बताएं।
उत्तर-
अर्थशास्त्र तथा राजनीति शास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी निम्नलिखित अन्तर हैं

  • विभिन्न विषय क्षेत्र-राजनीति विज्ञान मनुष्य की राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन करता है और इसका मुख्य विषय राज्य तथा सरकार हैं परन्तु अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करता है। इस प्रकार दोनों का विषय क्षेत्र अलग-अलग है।
  • दृष्टिकोण-राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण में भी अन्तर पाया जाता है। अर्थशास्त्र व्याख्यात्मक विज्ञान है जबकि राजनीति शास्त्र मुख्यतः आदर्शात्मक विज्ञान है।
  • अध्ययन पद्धति में अन्तर-दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि दोनों की अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति शास्त्र की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
समाजशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन का वर्णन करें।
उत्तर-
समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का कार्य करता है। बिना समाजशास्त्र के सिद्धान्तों को समझे राजनीति शास्त्र के नियमों को समझना अति कठिन है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति को खगोल विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है उसी प्रकार समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनभिज्ञ व्यक्ति को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना व्यर्थ है। राज्य के अधिकतर कानून समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत प्रणाली आदि समझने में समाजशास्त्र की बहुत देन है। समाजशास्त्र से पता चलता है कि राज्य मनुष्य की सामाजिक भावना का परिणाम है। समाज के विकास के स्तर के साथ-साथ राज्य का विकास हुआ है। राजनीतिक समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान की एक शाखा है, जो इस बात की स्पष्ट सूचक है कि राजनीतिक तथ्यों के विधिवत् एवं पूर्ण अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेना बहुत आवश्यक है। इस प्रकार समाजशास्त्र राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन में सहायता प्रदान करता है।

प्रश्न 11.
राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में किन्हीं चार अन्तरों का वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में निम्नलिखित मुख्य अन्तर पाए जाते हैं-

  1. दोनों के विषय क्षेत्र अलग-अलग हैं-राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र दोनों के विषय क्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् हैं। राजनीति विज्ञान का मुख्य विषय क्षेत्र राज्य है जबकि समाजशास्त्र समाज से सम्बन्धित है।
  2. समाजशास्त्र का क्षेत्र राजनीति शास्त्र की अपेक्षा व्यापक है-समाजशास्त्र का क्षेत्र राजनीति शास्त्र की अपेक्षा अधिक व्यापक है। राजनीति शास्त्र मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू का ही अध्ययन करता है परन्तु समाजशास्त्र में मानव जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।
  3. समाजशास्त्र की उत्पत्ति राजनीति शास्त्र से पहले हुई-राजनीति शास्त्र में राज्य बनने से पूर्व के मानव का अध्ययन नहीं किया जाता परन्तु समाजशास्त्र के विषय का अध्ययन मानव की उत्पत्ति से शुरू होता है।
  4. समाजशास्त्र वर्णनात्मक है, जबकि राजनीति शास्त्र आदर्शात्मक है।

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प्रश्न 12.
नीतिशास्त्र की राजनीति शास्त्र को चार देनों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. सरकार नैतिकता के सिद्धान्तों के अनुसार कानून बनाती है। कोई भी सरकार नैतिकता के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।
  2. जब राजनीति शास्त्र में हम यह निर्णय करते हैं कि राज्य कैसा होना चाहिए तब नीति शास्त्र हमारी बहुत सहायता करता है।
  3. नैतिक नियम जो स्थायी और लोकप्रिय हो जाते हैं, कुछ समय कानून का रूप धारण कर लेते हैं।
  4. नीति शास्त्र राजनीति शास्त्र को प्रगतिशीलता और आदर्शता प्रदान करती है।

प्रश्न 13.
नीतिशास्त्र किस प्रकार राजनीति शास्त्र से भिन्न है ? चार अन्तर बताइये।
उत्तर-
नीतिशास्त्र अग्रलिखित प्रकार से राजनीति शास्त्र से भिन्न है-

  • नीतिशास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित है जबकि राजनीति शास्त्र मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से सम्बन्धित है। नीति मनुष्य के आन्तरिक तथा बाहरी दोनों कार्यों से सम्बन्धित है परन्तु राजनीति विज्ञान केवल मनुष्य के बाहरी कार्यों से सम्बन्धित है।
  • राज्य के नियमों का पालन करवाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है। यदि कोई मनुष्य सरकार के किसी कानून का उल्लंघन करता है तो उसे न्यायालय द्वारा दण्ड दिया जाता है, परन्तु नीतिशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने पर कोई दण्ड नहीं दिया जाता क्योंकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना अपराध नहीं केवल पाप है।
  • राजनीति शास्त्र मुख्यतः वर्णनात्मक है क्योंकि इसमें राज्य, सरकार की शक्तियां, संविधान आदि का वर्णन रहता है, जबकि नीतिशास्त्र मुख्यत: आदर्शात्मक है और यह विषय जनता के सामने कुछ आदर्श रखे हुए हैं।
  • राजनीति शास्त्र का सम्बन्ध सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक सिद्धान्तों से है, जबकि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध केवल सिद्धान्तों से है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाजशास्त्र की बहुत बड़ी देन है।

प्रश्न 2.
राजनीति शास्त्र का अर्थशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना अनिवार्य है। राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं।
शासन व्यवस्था यदि सुदृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। निःसन्देह राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 3.
इतिहास, राजनीति शास्त्र के ऊपर कैसे निर्भर है ?
उत्तर-
इतिहास, राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ प्राप्त करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाएगा।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राजनीति शास्त्र को इतिहास की किसी एक देन का वर्णन करें।
उत्तर- इतिहास द्वारा बतलाई गई भूलों के आधार पर ही राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन लाते हैं।

प्रश्न 2. इतिहास को राजनीति शास्त्र की किसी एक देन का वर्णन करें।
उत्तर-राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं।

प्रश्न 3. राजनीति विज्ञान एवं इतिहास में कोई एक अन्तर बताएं।
उत्तर-इतिहास का क्षेत्र राजनीतिक विज्ञान से व्यापक है।

प्रश्न 4. किस विद्वान् ने सर्वप्रथम अर्थशास्त्र को राजनीति शास्त्र से अलग किया ?
उत्तर-एडम स्मिथ ने।

प्रश्न 5. अर्थशास्त्र की राजनीति विज्ञान को किसी एक देन का वर्णन करें।
उत्तर-राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं।

प्रश्न 6. अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में एक समानता बताएं।
उत्तर-अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान दोनों का ही विषय समाज में रह रहा मनुष्य है।

प्रश्न 7. अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान की अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं।

प्रश्न 8. राजनीति विज्ञान एवं समाज शास्त्र में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र से संकुचित है।

प्रश्न 9. राजनीति विज्ञान एवं नीति शास्त्र में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-नीति शास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित है, जबकि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से संबंध रखता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. शासन व्यवस्था यदि शक्तिशाली है, तो वहां की जनता की आर्थिक दशा ………. होगी।
2. अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान, दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और …………… से सम्बन्धित हैं।
3. ………… का सम्बन्ध वस्तुओं से है, जबकि राजनीति विज्ञान का मनुष्यों से।
4. ………… के अनुसार बहुत-सी आर्थिक सम्स्याओं का हल राजनीतिक आर्थिक हालतों से आरम्भ होता है।
5. राजनीति शास्त्र समाज शास्त्र की एक ……….. है।
उत्तर-

  1. अच्छी
  2. भविष्य
  3. अर्थशास्त्र
  4. डॉ० गार्नर
  5. शाखा।

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प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. समाज शास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है।
2. राजनीति शास्त्र एवं समाज शास्त्र का मुख्य विषय राज्य है।
3. समाज शास्त्र राजनीति विज्ञान से पहले बना।
4. राजनीति शास्त्र का विषय क्षेत्र समाज शास्त्र से व्यापक है।
5. समाज शास्त्र वर्णनात्मक है, जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है कि, “राज्य जीवन को सम्भव बनाने के लिए उत्पन्न हुआ, परन्तु अब वह जीवन को अच्छा बनाने के लिए विद्यमान है।”
(क) प्लेटो
(ख) अरस्तु
(ग) हॉब्स
(घ) लॉक।
उत्तर-
(ख) अरस्तु

प्रश्न 2.
नीतिशास्त्र की राजनीति विज्ञान को क्या देन है ?
(क) जो नैतिक नियम स्थायी एवं प्रचलित होते हैं, वे कानून का रूप धारण कर लेते हैं।
(ख) नैतिकता के कारण राजनीति विज्ञान में प्रगतिशीलता एवं आदर्शता बनी रहती है।
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्पूर्ण शास्त्र अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता पर आधारित है।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी

प्रश्न 3.
राजनीति विज्ञान की नैतिक शास्त्र को क्या देन है ?
(क) सरकार लोगों के नैतिक स्तर को ऊंचा करने के लिए कानून बनाती है।
(ख) सरकार सामाजिक बुराइयों को दूर करती है।
(ग) सरकार राज्य में शान्ति की स्थापना करती है और नैतिकता शान्ति के वातावरण में ही विकसित होती है।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 4.
राजनीति शास्त्र एवं नीति शास्त्र में क्या अन्तर पाया जाता है ?
(क) नीति शास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित रहता है, जबकि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पक्ष से सम्बन्धित रहता है।
(ख) राज्य के कानूनों का पालन न करने वाले को दण्ड दिया जाता है, जबकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना केवल पाप माना जाता है।
(ग) राजनीति विज्ञान मुख्यतः वर्णात्मक है, जबकि नीति शास्त्र आदर्शात्मक है।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीति विज्ञान का अर्थ, क्षेत्र तथा महत्व

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 1 राजनीति विज्ञान का अर्थ, क्षेत्र तथा महत्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 1 राजनीति विज्ञान का अर्थ, क्षेत्र तथा महत्व

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र के अर्थ और क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
(Discuss the definition and scope of political science.)
अथवा
राजनीति शास्त्र की परिभाषा दें तथा इसके क्षेत्र का वर्णन करें।
(Define political science and describe its scope.)
उत्तर-
राजनीति शास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जन्म लेता है और समाज में ही रह कर अपने जीवन का पूर्ण विकास करता है। समाज के बिना वह रह नहीं सकता। संगठित समाज में जब एक ऐसी संस्था की स्थापना हो जाए जिसके द्वारा उस समाज का शासन चलाया जा सके तथा वह समाज सत्ता सम्पन्न हो और एक निश्चित भाग पर निवास करता हो तो वह राज्य बन जाता है।

राज्य के अन्दर रहकर ही मनुष्य अपना विकास कर सकता है। राज्य की एजेंसी सरकार द्वारा राज्य की इच्छा को व्यक्त किया जाता है और वही इस इच्छा को लागू करती है। वह शास्त्र जो राज्य और सरकार की जानकारी देता है, उसे हम राजनीति शास्त्र कहते हैं।

राजनीति शास्त्र को अंग्रेज़ी में पोलिटिकल साइंस (Political Science) कहते हैं । यह शब्द पोलिटिक्स (Politics) से निकला है। इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द पोलिस (Polis) से हुई है जिसका अर्थ है नगर-राज्य। ग्रीक लोग नगर-राज्यों में रहते थे, इसलिए उस समय पोलिटिक्स का अर्थ नगर-राज्य के अध्ययन से होता था परन्तु आज बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना हो गई है, इसलिए अब हम इसका अर्थ राज्य के अध्ययन से लेते हैं। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में राजनीति शास्त्र वह विषय है जो राज्य का अध्ययन करता है। राजनीति विज्ञान के अर्थ को समझने के लिए विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं का अध्ययन करना अति आवश्यक है।

राजनीति विज्ञान की परम्परागत परिभाषाएं (Traditional definitions of Political Science)-राजनीति विज्ञान की परम्परागत परिभाषाओं को हम तीन भागों में बांट सकते हैं :-

(क) उन विद्वानों की परिभाषाएं जो राजनीति शास्त्र को केवल राज्य का अध्ययन करने वाला विषय मानते हैं।
(ख) उन विद्वानों की परिभाषाएं जो राजनीति शास्त्र को केवल सरकार से सम्बन्धित विषय मानते हैं।
(ग) उन विद्वानों की परिभाषाएं जो राजनीति शास्त्र को राज्य तथा सरकार दोनों से सम्बन्धित मानते हैं।

(क) राजनीति विज्ञान राज्य से सम्बन्धित है (Political Science is concerned with the state only)कुछ विद्वानों के मतानुसार, राजनीति शास्त्र का सम्बन्ध केवल राज्य से है। ब्लंटशली (Bluntschli), प्रो० गार्नर (Prof. Garner), गैटेल (Gettell), गैरीज़ (Garies) आदि इस विचार के मुख्य समर्थक हैं :-

  • ब्लंटशली (Bluntschli) के मतानुसार, “राजनीति शास्त्र उस विज्ञान को कहा जाता है जिसका सम्बन्ध राज्य से है और जिसमें राज्य की मूल प्रकृति, उसके रूपों, विकास तथा उसकी आधारभूत स्थितियों को समझने और जानने का प्रयत्न किया जाता है।”
  • प्रो० गार्नर (Prof. Garner) के मतानुसार, “राजनीति शास्त्र का आरम्भ तथा अन्त राज्य के साथ होता है।” (“Political Science begins and ends with the State.”)
  • लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) के शब्दों में, “राजनीति शास्त्र और राज्य उसके विकास की आवश्यक अवस्थाओं के साथ सम्बन्धित है।” (Political Science is concerned with the State and with the conditions essential for its development.)

(ख) राजनीति विज्ञान सरकार के साथ सम्बन्धित है (Political Science is concerned with the Government)-कुछ विद्वान् राजनीति विज्ञान को सरकार के अध्ययन तक सीमित मानते हैं। सीले, लीकॉक आदि विद्वान् इसी विचार के समर्थक हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीति विज्ञान का अर्थ, क्षेत्र तथा महत्व

1. सीले (Seeley) का कहना है कि “जिस प्रकार राजनीतिक अर्थव्यवस्था सम्पत्ति का, प्राणिशास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का और रेखागणित स्थान और इकाई का अध्ययन करता है उसी प्रकार राजनीति शास्त्र शासन-प्रणाली का अध्ययन करता है।” (“Political Science investigates the phenomena of government, or Political Economy deals with wealth, Biology with life, Algebra with number and Geometry with space and magnitude.”)
2. डॉ० लीकॉक (Dr. Leacock) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र केवल सरकार से सम्बन्धित है।” (“Political Science deals with Government only.)”.

(ग) राजनीति विज्ञान राज्य तथा सरकार से सम्बन्धित (Political Science is concerned with State and Government)-कुछ विद्वानों के विचारानुसार राजनीति विज्ञान में राज्य और सरकार दोनों का अध्ययन किया जाता है। गैटेल, गिलक्राइस्ट, पाल जैनेट तथा लॉस्की ने इसी विचार का समर्थन किया है।

  • फ्रांसीसी लेखक पाल जैनेट (Paul Janet) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र समाज शास्त्र का वह भाग है जो राज्य के आधारों तथा सरकार के सिद्धान्तों का अध्ययन करता है।” (“Political Science is that part of Social Science which treats the foundations of the State and principles of government.”)
  • गैटेल (Gettell) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र को राज्य का विज्ञान कहा जा सकता है। इसका सम्बन्ध उन व्यक्तियों के समुदायों से है जो राजनीतिक संगठन का निर्माण करते हैं, उनकी सरकारों के संगठन से है और सरकारों के कानून बनाने तथा लागू करने और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों वाली गतिविधियों से है। इसके मुख्य विषय राज्य सरकार तथा कानून हैं।”
  • गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार की सामान्य समस्याओं का विवेचन करता है।” (“Political Science deals with the general problems of the State and Government.”)

राजनीति विज्ञान की आधुनिक परिभाषाएं (Modern Definitions of Political Science)-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राजनीति शास्त्र की परिभाषा के सम्बन्ध में एक नवीन दृष्टिकोण का उदय हुआ है, जो निश्चित रूप से अधिक व्यापक और अधिक यथार्थवादी है। व्यवहारवादी क्रान्ति ने राजनीति शास्त्र की परिभाषाओं को नया रूप दिया है। कैटलिन, लासवैस, मेरियम, राबर्ट डाहल, डेविड ईस्टन, आल्मण्ड तथा पॉवेल, मैक्स वेबर आदि राजनीति शास्त्र के आधुनिक दृष्टिकोण के प्रतिनिधि विद्वान् हैं।

  • बैन्टले (Bentley) का कहना है कि राजनीति में महत्त्वपूर्ण ‘शासन’ और उसकी संस्थाएं नहीं हैं, बल्कि शासन के कार्य की प्रक्रिया है और उस पर प्रभाव डालने वाले ‘दबाव समूह’ हैं। अतः राजनीति विज्ञान शासन की प्रक्रिया और दबाव समूहों के अध्ययन का शास्त्र है।
  • लासवैल और कैपलॉन (Lasswell and Kaplan) के अनुसार, “एक आनुभाविक खोज के रूप में राजनीति विज्ञान शक्ति के निर्धारण और सहभागिता का अध्ययन है।” (“Political Science as an empirical inquiry is the study of the shaping and sharing of power.”)
  • डेविड ईस्टन (David Easton) के अनुसार, “राजनीति मूल्यों का सत्तात्मक निर्धारण है जैसा कि यह शक्ति के वितरण और प्रयोग से प्रभावित होता है।” (“Politics is the study of authoritative allocation of values, as it is influenced by the distribution and use of power.”) ईस्टन ने राजनीति शास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र में तीन बातों-नीति, सत्ता और समाज (Policy, Authority and Society) को प्रमुख माना है।
  • आलमण्ड और पॉवेल (Almond and Powell) ने कहा है कि आधुनिक राजनीति विज्ञान में हम ‘राजनीतिक व्यवस्था’ का अध्ययन और विश्लेषण करते हैं।
    स्पष्ट है कि आधुनिक विद्वान् राजनीति शास्त्र की परिभाषा पर एक मत नहीं हैं। कोई उसे मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन का शास्त्र मानता है, कोई उसे शक्ति के अध्ययन का और कोई सत्ता के अध्ययन का। इन समस्त आधुनिक दृष्टिकोणों का समन्वय करते हुए राबर्ट डाहल (Robert Dahl) ने कहा है कि “राजनीतिक विश्लेषण का शक्ति , शासन अथवा सत्ता के सम्बन्ध है।” (“Political analysis deals with power, rule or authority.”)

आधुनिक राजनीतिक विद्वानों में कई मतभेदों के बावजूद भी इस सम्बन्ध में विचार साम्य है कि वे राजनीति शास्त्र को अब राज्य या सरकार का विज्ञान नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि राजनीति विज्ञान मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का, शक्ति का, सत्ता का तथा मानव समूह की अन्तः क्रियाओं का विज्ञान है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति शास्त्र की परिभाषा के सम्बन्ध में अपनाया गया यह आधुनिक दृष्टिकोण भी एकांगी ही है। शक्ति राजनीति शास्त्र के विभिन्न अध्ययन विषयों में से केवल एक है, एकमात्र नहीं। अतः राजनीति शास्त्र के कुछ विद्वानों विशेषतया वी० ओ० के (V.0. Key), जे० रोलैण्ड, पिनॉक और डेविड जी० स्मिथ आदि के द्वारा इस विषय की परिभाषा के सम्बन्ध में परम्परागत और आधुनिक दृष्टिकोण में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया गया है।

पिनॉक और स्मिथ (Penock and Smith) ने पूर्णतया सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए लिखा है कि, “इस प्रकार राजनीति विज्ञान किसी भी समाज में उन सभी शक्तियों, संस्थाओं तथा संगठनात्मक ढांचों से सम्बन्धित होता है जिन्हें उस समाज में सुव्यवस्था की स्थापना और उसको बनाए रखने, अपने सदस्यों के अन्य सामूहिक कार्यों के उत्पादन तथा उनके मतभेदों का समाधान करने के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और अन्तिम सत्ता माना जाता है।”

राजनीति शास्त्र का विषय क्षेत्र (Scope of Political Science)-

राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में तीन विचारधाराएं प्रचलित हैं :

  • पहली विचारधारा के अनुसार, राजनीति शास्त्र का विषय राज्य है।
  • दूसरी विचारधारा के अनुसार, राजनीति शास्त्र का विषय-क्षेत्र सरकार के अध्ययन तक ही सीमित है।
  • तीसरी विचारधारा के अनुसार, राजनीति शास्त्र राज्य तथा सरकार का अध्ययन करता है।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजनीति शास्त्र राज्य तथा सरकार का ही अध्ययन नहीं, बल्कि मनुष्य का भी अध्ययन करता है। प्रो० लॉस्की ने ऐसा ही मत प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है कि “राजनीति शास्त्र के अध्ययन का सम्बन्ध संगठित राज्यों से सम्बन्धित मनुष्यों के जीवन से है।”
संयुक्त राष्ट्र शौक्षणिक, वैज्ञानिक-सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) के नेतृत्व में सितम्बर, 1948 में राजनीतिक वैज्ञानिकों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें उन्होंने राजनीति शास्त्र के क्षेत्र को निम्नलिखित शीर्षकों के अधीन निश्चित किया :

  • राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory)—इसमें राजनीतिक सिद्धान्त और राजनीतिक विचारों के इतिहास का अध्ययन शामिल है।
  • राजनीतिक संस्थाएं (Political Institutions)—इसमें संविधान, प्रान्तीय और स्थानीय सरकार के प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक कार्यों का अध्ययन शामिल है।
  • राजनीतिक दल (Political Parties)—इसमें राजनीतिक दलों, समूहों, जनमत इत्यादि का अध्ययन शामिल है।
  • अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध (International Relation)—इसमें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय कानून इत्यादि शामिल हैं।

इस विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजनीति शास्त्र निम्नलिखित विषयों का अध्ययन करता है :

1. राज्य का अध्ययन (Study of State)-राजनीति शास्त्र राज्य का विज्ञान है और इसमें मुख्यतः राज्य का अध्ययन किया जाता है। गैटल के मतानुसार राजनीति शास्त्र राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करता है।

(क) राज्य के अतीत का अध्ययन (The State as it had been)-राज्य वह धुरी है जिसके इर्द-गिर्द राजनीति शास्त्र घूमता है। परन्तु राज्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए इसमें राज्य की उत्पत्ति, उसके विस्तार, राजनीतिक संस्थाओं, विचारधाराओं के बदलते हुए स्वरूप का अध्ययन किया जाता है।

(ख) राज्य के वर्तमान का अध्ययन (The State as it is)-राजनीति शास्त्र राज्य के वर्तमान स्वरूप का अध्ययन भी करता है। इसमें राज्य क्या है, राज्य के तत्त्व कौन-से हैं, राज्य की प्रकृति, राज्य के उद्देश्य, राज्य के अपने नागरिकों के साथ सम्बन्ध तथा राज्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या-क्या साधन प्रयोग करता है आदि का अध्ययन किया जाता है। इसके अध्ययन का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत है।

(ग) राज्य के भविष्य का अध्ययन (The State as it ought to be)-राज्य का अध्ययन इसके वर्तमान रूप के अध्ययन के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इसलिए राज्य प्रगतिशील है। राज्य का लगातार विकास हो रहा है। राज्य जन-कल्याण के लिए है, इसलिए भविष्य में भी राज्य का ढांचा इस प्रकार का होना चाहिए कि जनता को अधिक-से-अधिक लाभ मिले। राज्य-शास्त्री का यह कर्त्तव्य है कि वह राज्य के अतीत तथा वर्तमान का पूर्ण ज्ञान लेकर भविष्य के लिए सुझाव दे ताकि राज्य की मशीनरी इस ढंग की हो कि जनता का अधिकसे-अधिक कल्याण हो सके। इसमें हम यह देखते हैं कि भविष्य में राज्य कैसा होना चाहिए तथा क्या एक अन्तर्राष्ट्रीय राज्य की स्थापना हो सकेगी कि नहीं।

2. सरकार का अध्ययन (Study of Government)-सरकार राज्य का अभिन्न भाग है। सरकार के बिना राज्य की स्थापना नहीं की जा सकती। सरकार राज्य की ऐसी एजेंसी है जिसके द्वारा राज्य की इच्छा को प्रकट तथा कार्यान्वित किया जाता है। राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति सरकार द्वारा ही की जाती है। राजनीति शास्त्र में हम अध्ययन करते हैं किसरकार क्या है, इसके अंग कौन-से हैं, इसके कार्य क्या हैं तथा इसके विभिन्न रूप कौन-से हैं।

3. शासन प्रबन्ध का अध्ययन (Study of Administration)-राजनीति शास्त्र लोक प्रशासन से सम्बन्धित है। शासन प्रबन्ध एक जटिल क्रिया है। राज्य प्रबन्ध में सरकारी कर्मचारी योगदान देते हैं और इन्हीं सरकारी कर्मचारियों से सम्बन्धित शास्त्र को लोक प्रशासन कहा जाता है। कर्मचारियों की नियुक्ति, स्थानान्तरण, अवकाश आदि सभी बातें जोकि लोक प्रशासन में आती हैं, राजनीति शास्त्र से सम्बन्धित होती हैं, अतः उन सबके लिए राजनीति शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है।

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4. मनुष्य का अध्ययन (Study of Man)-मनुष्यों को मिलाकर राज्य बनता है। राजनीति शास्त्र, जिसमें मुख्यतः राज्य का अध्ययन किया जाता है, मनुष्य का अध्ययन भी करता है। इसमें मनुष्यों का राज्य के साथ क्या सम्बन्ध है, उनके अधिकार और कर्त्तव्य तथा नागरिकता की प्राप्ति तथा लोप इत्यादि बातों का अध्ययन किया जाता है।

5. समुदायों और संस्थाओं का अध्ययन (Study of Associations and Institutions)-राज्य के अन्दर कई प्रकार के समुदाय और संस्थाएं होती हैं जिनके द्वारा मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है। राजनीति शास्त्र इन विभिन्न समुदायों और संस्थाओं का अध्ययन भी करता है। इसके अतिरिक्त चुनाव प्रणाली, जनमत का संगठन, दबाव गुट, लोक-सम्पर्क की व्यवस्था, प्रसारण के साधन आदि के बारे में भी राजनीति शास्त्र में अध्ययन किया जाता है।

6. राजनीतिक विचारधारा का अध्ययन (Study of Political Thought)-राज्य क्या है, राज्य के पास कौनकौन से अधिकार और शक्तियां हैं और उनकी क्या सीमाएं हो सकती हैं ? राज्य की आज्ञाओं को लोग क्यों माने, किन-किन व्यवस्थाओं में लोगों को राज्य की आज्ञाओं की अवहेलना करने का अधिकार होना चाहिए, राज्य की शक्ति व लोगों के अधिकारों के मध्य कहां लकीर खींची जाए जैसे बहुत-से महत्त्वपूर्ण और मौलिक प्रश्नों के उत्तर समयसमय पर विभिन्न राजनीतिक विद्वान् विचारकों ने दिए हैं। अतः इन सब बातों का अध्ययन हम राजनीति शास्त्र में करते हैं। आदर्शवाद, व्यक्तिवाद, उपयोगितावाद, फासिज्म, गांधीवाद आदि का अध्ययन राजनीति शास्त्र में किया जाता है।

7. राजनीतिक संस्कृति का अध्ययन (Study of Political Culture)-राजनीति शास्त्र में राज्य और सरकार का ही नहीं बल्कि राजनीतिक संस्कृति के अध्ययन पर भी विशेष बल दिया जाता है। राजनीति के विद्वान् इन बातों का विश्लेषण करते हैं कि भौगोलिक परिस्थितियों, जातीय और भाषायी विभिन्नताओं, परम्पराओं और जनता के विश्वासों का राजनीतिक प्रक्रिया पर क्या प्रभाव पड़ता है।

8. नेतृत्व का अध्ययन (Study of Leadership)-राजनीति शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय नेतृत्व है। जब लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति और हितों की रक्षा के लिए संगठित होते हैं तब उन्हें नेतृत्व की आवश्यकता अनुभव होती है। कोई भी संगठन अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाता जब तक उस संगठन का अच्छा नेतृत्व नहीं किया जाता। नेतृत्व के बिना कोई संगठन सफल नहीं हो सकता। समाज में सदा कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक योग्यता रखते हैं और दूसरे व्यक्तियों को शीघ्र प्रभावित कर लेते हैं। ऐसे लोगों को नेतागण कहा जाता है। राजनीति शास्त्र में नेतृत्व और अच्छे नेता के गुणों का अध्ययन किया जाता है।

9. राजनीतिक दलों का अध्ययन (Study of Political Parties)-लोकतन्त्रीय प्रणाली बिना राजनीतिक दलों के नहीं चल सकती। राजनीतिक दल क्या हैं, राजनीतिक दलों के प्रकार, राजनीतिक दलों की भूमिका इत्यादि का राजनीति शास्त्र में अध्ययन किया जाता है।

10. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का अध्ययन (Study of International Politics and Organisation) वर्तमान समय में कोई भी राज्य आत्मनिर्भर नहीं है। प्रत्येक राज्य को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए एक राज्य दूसरे राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करता है, जिससे कई समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। राजनीति शास्त्र अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का भी अध्ययन करता है। राजनीति शास्त्र में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का भी अध्ययन किया जाता है। राजनीति शास्त्र में युद्ध, शान्ति तथा शक्ति-सन्तुलन की समस्याओं पर विचार किया जाता है। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् राष्ट्र संघ और द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई थी। राजनीति शास्त्र में राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन, कार्यों, सफलताओं एवं असफलताओं आदि का अध्ययन किया जाता है।

11. शक्ति तथा सत्ता का अध्ययन (Study of Power and Authority)-मैक्स वैबर, मैरियम, लासवैल, राबर्ट डाहल, डेविड ईस्टन आदि विद्वानों के मतानुसार राजनीति शास्त्र में सभी प्रकार की शक्ति तथा सत्ता का भी अध्ययन किया जाता है। शक्ति तथा सत्ता के क्या अर्थ हैं ? शक्ति तथा सत्ता किस प्रकार प्राप्त होती है, व्यक्ति और व्यक्ति समूह किस प्रकार से शासन संचालन और सार्वजनिक नीतियों के निर्माण को अपनी शक्ति तथा सत्ता से प्रभावित करते हैं इत्यादि ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर राजनीति शास्त्र से ही प्राप्त किया जा सकता है।

12. राजनीति शास्त्र के क्षेत्र के सम्बन्ध में आधुनिक दृष्टिकोण (Scope of Political Science-Most Modern Point of View)-आधुनिक दृष्टिकोण का राजनीतिक क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है। आधुनिक विद्वानों ने राजनीति शास्त्र की नई दिशाएं निर्धारित की हैं। डॉ० वीरकेश्वर प्रसाद सिंह के शब्दों में, “इसे वैज्ञानिकता प्रदान करने के दृष्टिकोण से रूढ़िवादी विषयों, जैसे-राज्य के लक्ष्य, सर्वश्रेष्ठ सरकार, औपचारिक संस्थाओं का अध्ययन, ऐतिहासिक पद्धति आदि को इससे अलग कर दिया गया है। मूल्यों, राज्यों एवं उसकी संस्थाओं के बदले मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार तथा राजनीतिक गतिविधियों का अध्ययन राजनीति शास्त्र के अन्तर्गत किया जाने लगा है।” 1967 में अमेरिकन पोलिटिकल साइंस एसोसिएशन ने राजनीति शास्त्र के विषय क्षेत्र का निर्धारण करते समय इसके 27 उपक्षेत्रों की चर्चा की। जिनमें मुख्य हैं-मनुष्य और उसका राजनीतिक व्यवहार, समूह, संस्थाएं, प्रशासन, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, सिद्धान्त, विचारवाद, मूल्य, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सांख्यिकीय सर्वेक्षण, शोध पद्धतियां आदि।

आर्नल्ड ब्रेश्ट (Arnold Brecht) ने ‘International Encyclopaedia of Social Sciences’ 1968 में राजनीतिक सिद्धान्त के अन्तर्गत अग्र अध्ययन इकाइयां बताई हैं :

(1) समूह (Group), (2) सन्तुलन (Equilibrium), (3) शक्ति, नियन्त्रण एवं प्रभाव (Power, Control and Influence), (4) क्रिया (Action), (5) विशिष्ट वर्ग (Elite), (6) निर्णय (Decision) तथा विनिश्चय-प्रक्रिया, (7) पूर्वाभासित प्रतिक्रिया (Anticipated Action) तथा (8) कार्य (Function)।

13. नई धारणाओं का अध्ययन (Study of New Concepts)-राजनीति शास्त्र में कुछ नई धारणाओं ने जन्म लिया है। इसमें राजनीतिक प्रणाली (Political System), शक्ति की धारणा (Concept of Power), राजनीतिक समाजीकरण (Political Socialization), राजनीतिक सत्ता की धारणा (Concept of Political Authority), उचितता की धारणा (Concept of Legitimacy), प्रभाव की धारणा (Concept of Influence) आदि कुछ नई धारणाएं हैं। इन धारणाओं का अध्ययन राजनीति शास्त्र के अध्ययन क्षेत्र में शामिल है।

इसके अतिरिक्त कुछ समाज-शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाली अवधारणाओं का अध्ययन भी इसके अन्तर्गत करते हैं। जैसे-राजनीति, संस्थाएं, सरकार, न्याय, स्वतन्त्रता, समानता आदि। कुछ नवीन अवधारणाएं-समाजीकरण, राजनीतिक विकास, राजनीतिक संचार आदि हैं। अब अत्यधिक वैज्ञानिकता पर बल दिया जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति शास्त्र के विषय क्षेत्र के अध्ययन से पता चलता है कि इसका क्षेत्र बहुत विशाल है। इसमें राज्य, सरकार, मनुष्य, समुदाय तथा संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है। इसमें कानून तथा विश्व समस्याओं का भी अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2.
राजनीति शास्त्र पढ़ने से क्या लाभ हैं?
(What are the advantages of studying Political Science ?)
अथवा
राजनीति विज्ञान के अध्ययन के महत्त्व की व्याख्या करें। (Discuss the significance of the study of Political Science.)
उत्तर-
कुछ विद्वान् आज के वैज्ञानिक युग में राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों के अध्ययन का कोई मूल्य नहीं समझते, परन्तु उनकी यह धारणा ठीक नहीं है। आइवर ब्राउन (Ivor Brown) ने ठीक ही कहा है कि, “यदि इसे सामाजिक जीवन के यथार्थ मूल्यों के प्रति सहज बुद्धि के दृष्टिकोण से तथा उचित रीति से अध्ययन किया जाए तो राजनीतिक सिद्धान्त ठोस भी हैं और लाभप्रद भी।” प्रत्येक व्यक्ति, व्यक्ति होने के साथ-साथ राज्य का नागरिक भी है। उसका राज्य के साथ अटूट सम्बन्ध है। अतः प्रत्येक के लिए राजनीति शास्त्र का अध्ययन करना अनिवार्य है। इसके अध्ययन के अनेक लाभ हैं जिनमें से मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं

1. राजनीतिक शब्दावली का ठीक ज्ञान प्राप्त होता है (The Knowledge of the Political Terminology)राजनीति शास्र के अध्ययन का पहला लाभ यह है कि इससे राजनीतिक शब्दावली का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अध्ययन के बिना राज्य, सरकार, समाज, राष्ट्र, राष्ट्रीयता इत्यादि शब्दों के अर्थों का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त नहीं होता। साधारण मनुष्य राज्य तथा राष्ट्र, राज्य तथा सरकार में कोई अन्तर नहीं करता। राजनीति शास्त्र के अध्ययन से पता चलता है कि इन सब शब्दों में अन्तर है और एक शब्द को दूसरे शब्द के स्थान पर प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसके अध्ययन से नागरिकों को स्वतन्त्रता तथा समानता के अर्थों का ठीक-ठीक पता चलता है।

2. राज्य तथा सरकार का ज्ञान (Knowledge of State and Government)-राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय राज्य तथा सरकार है। राजनीति शास्त्र के अध्ययन से यह पता चलता है कि राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, राज्य क्या है, राज्य के उद्देश्य क्या हैं, इन उद्देश्यों की पूर्ति किस तरह की जा सकती है, सरकार क्या है, सरकार के कौनसे अंग हैं और इन अंगों का आपस में क्या सम्बन्ध है।

3. राज्य का व्यक्ति से सम्बन्ध दर्शाता है (It shows relationship between the State and Man)राजनीति शास्त्र के अध्ययन से राज्य तथा व्यक्ति के सम्बन्ध का ज्ञान होता है। प्राचीन काल से यह प्रश्न चला आ रहा है कि राज्य तथा व्यक्ति में क्या सम्बन्ध है ? राज्य व्यक्ति के लिए या व्यक्ति राज्य के लिए है? पहले यह समझा जाता था कि राज्य ही सब कुछ है। राज्य व्यक्ति पर मनमाने अत्याचार कर सकता है, इसलिए व्यक्ति पर बहुत अत्याचार किए गए। परन्तु आज हमें राजनीति शास्त्र के अध्ययन से राज्य तथा व्यक्ति के ठीक सम्बन्ध का ज्ञान होता है।

4. अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान (Knowledge of Rights and Duties)-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य को अपना विकास करने में सहायता देने के लिए राज्य की तरफ से अधिकार दिए तथा उसके कर्त्तव्य निश्चित किए जाते हैं। मनुष्य तभी अपना विकास कर सकता है जब उसे अधिकारों तथा कर्तव्यों का पूरा ज्ञान प्राप्त हो। यह ज्ञान राजनीति शास्त्र से प्राप्त होता है।

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5. सहनशीलता (Toleration)-आज के युग में नागरिकों के अन्दर सहनशीलता की भावना का होना बहुत आवश्यक है। राजनीति शास्त्र लोगों को सहनशीलता का पाठ सिखाता है। राजनीति शास्त्र यह शिक्षा देता है कि प्रत्येक राज्य एक दूसरे की अखण्डता, प्रभुसत्ता का आदर करे। लोकतन्त्र में तो सहनशीलता की भावना का होना विशेष रूप में अनिवार्य है, क्योंकि लोकतन्त्र में यदि एक व्यक्ति को अपने विचार प्रकट करने व भाषण देने की स्वतन्त्रता है तो उसका कर्त्तव्य भी है कि दूसरे के अच्छे न लगने वाले विचारों को भी सहनशीलता से सुने और समझे। अत: यह भावना राजनीति शास्त्र के अध्ययन से उत्पन्न होती है।

6. विभिन्न देशों की शासन-प्रणालियों का ज्ञान (Knowledge of the Governmental Systems of Various countries) राजनीति शास्त्र के अध्ययन से विभिन्न देशों की शासन प्रणालियों का ज्ञान होता है। इसमें विश्व के संविधानों का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार हमें इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका, स्विट्ज़लैण्ड, जर्मनी, जापान, पाकिस्तान इत्यादि देशों के संविधानों का ज्ञान मिलता है। दूसरे देशों के शासन सम्बन्धी ज्ञान से हम अपने देश के शासन में सुधार कर सकते हैं।

7. लोगों में जागरूकता उत्पन्न करता है (Promotes Vigilance among the People)-राजनीति शास्त्र के अध्ययन से नागरिकों के अधिकारों तथा कर्त्तव्य के ज्ञान, विश्व के दूसरे देशों की शासन प्रणाली के ज्ञान, राज्य तथा सरकार के ज्ञान से नागरिकों में जागरूकता उत्पन्न होती है जिससे वे देश के शासन को कार्य कुशल बनाने का प्रयत्न करते हैं। वे शासन कार्यों में दिल से भाग लेते हैं, सरकार की नीतियों की आलोचना करते तथा अपने सुझाव देते हैं। प्रजातन्त्र शासन प्रणाली की सफलता के लिए नागरिकों में जागरूकता होनी अति आवश्यक है। यह सत्य है कि सतत् चौकसी स्वतन्त्रता का मूल्य है (Enternal vigilance is the price of liberty)। यदि नागरिक अपनी स्वतन्त्रता को कायम रखना चाहते हैं तो उन्हें हमेशा ही जागरूक रहना होगा और जागरूकता राजनीति शास्त्र के अध्ययन से आती है।

8. स्वस्थ राजनीतिक दलों की उत्पत्ति (Growth of Healthy Political Parties)–लोकतन्त्र शासन के लिए स्वस्थ राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य है। अच्छे व स्वस्थ राजनीतिक दल किसे कहा जा सकता है, इसका पता राजनीति शास्त्र से चल सकता है। हमें राजनीति शास्त्र से ही पता चलता है कि देश के अन्दर स्वार्थ सिद्धि के लिए उत्पन्न हुए छोटे-छोटे गुट व राजनीतिक दल नहीं अपितु इनका ढांचा तो राजनीतिक तथा आर्थिक आधार पर खड़ा होना चाहिए। राजनीति शास्र का ज्ञान रखने वाले नागरिक ही स्वस्थ दलों का निर्माण कर पायेंगे और ऐसे दल सदैव राष्ट्र हित के लिए कार्य करेंगे।

9. राजनीतिज्ञों तथा शासकों के लिए विशेष उपयोगिता (Special advantages to Politicians and Administrators)-राजनीति शास्त्र के अध्ययन से राजनीतिज्ञों तथा शासकों को विशेष लाभ है। देश के शासन को किस प्रकार चलाया जाए, किस प्रकार के कानून बनाए जाएं कि जनता के लिए अधिक लाभदायक हों? दूसरे देशों के साथ किस प्रकार की नीति को अपनाया जाए? नागरिकों को कौन-से अधिकार दिए जाएं? सरकार के कार्यों में किस प्रकार कुशलता लाई जाए? सार्वजनिक वित्त (Public Finance) के क्या सिद्धान्त हैं ? जनता पर किस प्रकार के टैक्स लगाने चाहिएं? वे कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका सामना प्रत्येक राजनीतिज्ञ तथा शासक को करना पड़ता है और इन प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर राजनीति शास्र देता है।

10. वर्तमान समस्याओं का हल (Solution of Current Problems)-राजनीति शास्त्र ठोस सिद्धान्तों पर आधारित है और उन सिद्धान्तों को वर्तमान समस्याओं पर लागू करके समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। यदि नागरिकों और शासकों को यह पता है कि अमुक दशा में कौन-से कानून लागू करने चाहिएं तो देश में राजनीतिक प्रगति बड़ी सन्तोषप्रद होगी। यदि शासक अच्छी प्रकार सोच-विचार कर कदम उठाएं तो कोई कारण नहीं कि देश-विदेश की वर्तमान समस्याएं हल न हों।

11. प्रजातन्त्र की सफलता (Success of Democracy)-लोकतन्त्र की सफलता बहुत हद तक राजनीति शास्त्र के अध्ययन पर निर्भर है। लोकतन्त्र जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन होता है। प्रतिनिधियों का सुयोग्य होना अथवा न होना जनता पर निर्भर करता है। जनता को अच्छी सरकार प्राप्त करने के लिए अच्छे प्रतिनिधि चुनने होंगे और यह तभी हो सकता है जब जनता को राजनीतिक शिक्षा मिली हो।

लोकतन्त्र की सफलता में राजनीति शास्त्र का अध्ययन काफ़ी सहयोग देता है, क्योंकि इससे नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का, सरकार के संगठन कार्यों तथा सरकार के उद्देश्यों का, शासन की विभिन्न समस्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

12. विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का ज्ञान (Knowledge of Various Political Ideology)राजनीति शास्त्र के अन्तर्गत विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं आदर्शवाद (Idealism), व्यक्तिवाद (Individualism), गांधीवाद (Gandhism), समाजवाद (Socialism), अराजकतावाद (Anarchism), साम्यवाद (Communism) आदि का अध्ययन होता है। इन विचारधाराओं के भिन्न-भिन्न उद्देश्य होते हैं।

13. विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की जानकारी (Knowledge of Various International Organisations)-राजनीति शास्त्र के अन्तर्गत विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का भी अध्ययन किया जाता है। इन संस्थाओं में संयुक्त राष्ट्र (United Nations), संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (United Nations Educational, Scientific and Cultural Organisation), विश्व स्वास्थ्य संघ (World Health Organisation), अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ (I.L.O.) आदि महत्त्वपूर्ण संगठन हैं।

14. छात्र वर्ग के लिए उपयोगी (Useful for Student-Class)-राजनीति शास्त्र विद्यार्थियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी तथा अनिवार्य है। आज का छात्र भविष्य का नागरिक व शासक है। अतः छात्र वर्ग को राजनीतिक विचारधाराओं, राजनीतिक प्रणालियों, अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान होना अनिवार्य है।

निष्कर्ष (Conclusion)-अन्त में, हम यह कह सकते हैं कि राजनीति शास्त्र के अध्ययन के अनेक लाभ हैं। भारत में लोकतन्त्र की सफलता तभी हो सकती है जब जनता को शासन के बारे में ज्ञान प्राप्त हो और वे अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का उचित प्रयोग करें। इसके लिए राजनीति शास्त्र का अध्ययन अति आवश्यक है। भारत में राजनीति शास्त्र के विद्यार्थियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। सरकार भी विद्यार्थियों में राजनीतिक शिक्षा का प्रचार करने के लिए प्रयत्नशील है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र का शाब्दिक अर्थ बताओ।
अथवा
राजनीति (Politics) शब्द की उत्पत्ति तथा इसका अर्थ बताओ।
उत्तर-राजनीति शास्त्र को अंग्रेज़ी में पोलिटिकल साईंस (Political Science) कहते हैं। यह शब्द पोलिटिक्स (Politics) से निकला है। इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द पोलिस (Polis) से हुई है जिसका अर्थ है नगरराज्य। ग्रीक लोग नगर-राज्यों में रहते थे, इसलिए उस समय पोलिटिक्स का अर्थ नगर-राज्य के अध्ययन से होता था परन्तु आज बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना हो गई है। इसलिए अब हम इसका अर्थ राज्य के अध्ययन से लेते हैं। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में राजनीति शास्त्र वह विषय है जो राज्य का अध्ययन करता है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान की चार परम्परागत परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र की महत्त्वपूर्ण परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • प्रो० गार्नर के मतानुसार, “राजनीति शास्त्र का आरम्भ तथा अन्त राज्य के साथ होता है।”
  • लीकॉक के अनुसार, “राजनीति शास्त्र केवल सरकार से सम्बन्धित है।”
  • गैटेल के अनुसार, “राजनीति शास्त्र को राज्य का विज्ञान कहा जा सकता है। इसका सम्बन्ध व्यक्तियों के उन समुदायों से है जो राजनीतिक संगठन का निर्माण करते हैं, उनकी सरकारों के संगठन से है और सरकारों के कानून बनाने तथा लागू करने और अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों वाली गतिविधियों से है। इसके मुख्य विषय राज्य, सरकार तथा कानून हैं।”
  • गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार की सामान्य समस्याओं का विवेचन करता है।”

प्रश्न 3.
राजनीति विज्ञान की चार आधुनिक परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-

  • बैन्टले का कहना है कि राजनीति में महत्त्वपूर्ण ‘शासन’ और उसकी संस्थाएं नहीं हैं बल्कि शासन के कार्य की प्रक्रिया है और उस पर प्रभाव डालने वाले दबाव समूह हैं। अत: राजनीति विज्ञान शासन प्रक्रिया और दबाव समूहों के अध्ययन का शास्त्र है।
  • लासवैल और कैपलॉन के अनुसार, “एक आनुभाविक खोज के रूप में राजनीति विज्ञान शक्ति के निर्धारण और सहभागिता का अध्ययन है।”
  • डेविड ईस्टन के अनुसार, “राजनीति मूल्यों का सत्तात्मक निर्धारण है जैसे कि यह शक्ति के वितरण और प्रयोग से प्रभावित होता है।”
  • आलमण्ड और पॉवेल के अनुसार, “आधुनिक राजनीति विज्ञान में हम राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन और विश्लेषण करते हैं।”

प्रश्न 4.
राजनीति शास्त्र के किन्हीं चार क्षेत्रों का वर्णन करो।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र निम्नलिखित विषयों का अध्ययन करता है

  • राज्य का अध्ययन-राजनीति शास्त्र में राज्य की उत्पत्ति, उसके विस्तार, राज्य का है, राज्य के तत्त्व, राज्य की प्रकृति और राज्य के भविष्य आदि का अध्ययन किया जाता है।
  • सरकार का अध्ययन–राजनीति शास्त्र में हम अध्ययन करते हैं कि सरकार क्या है ? इसके कौन-कौन से अंग हैं ? इसके कार्य क्या-क्या हैं तथा इसके विभिन्न रूप कौन-से हैं ?
  • शासन प्रबन्ध का अध्ययन-कर्मचारियों की नियुक्ति, स्थानान्तरण, अवकाश सभी बातें जोकि लोक प्रशासन में आती हैं, राजनीति शास्त्र से सम्बन्धित होती हैं।
  • समुदायों और संस्थाओं का अध्ययन-राजनीति शास्त्र में चुनाव प्रणाली, राजनीतिक दल, दबाव समूह, लोक सम्पर्क की व्यवस्था तथा अन्य समुदायों का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 5.
राजनीति विज्ञान के अध्ययन के चार लाभ बताइये।
उत्तर-
राजनीति विज्ञान के अध्ययन से अनेक लाभ हैं जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • राजनीतिक शब्दावली का ठीक ज्ञान प्राप्त होता है-राजनीति शास्त्र के अध्ययन का पहला लाभ यह है कि इससे राजनीतिक शब्दावली का ठीक-ठाक ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अध्ययन के बिना राज्य, सरकार, राष्ट्र, राष्ट्रीयता आदि शब्दों के अर्थों का सही ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
  • राज्य तथा सरकार का ज्ञान-राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय राज्य तथा सरकार है। राजनीति शास्त्र के अध्ययन से यह पता चलता है कि राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई ? राज्य क्या है ? राज्य के उद्देश्य क्या हैं ? इन उद्देश्यों की पूर्ति किस प्रकार की जा सकती है ? सरकार क्या है ? सरकार के कौन-से अंग हैं और उनका आपस में क्या सम्बन्ध है ?
  • अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य को अपना विकास करने में सहायता देने के लिए उसे राज्य की तरफ से अधिकार व कर्त्तव्य दिए गए हैं। मनुष्य तभी अपना पूर्ण विकास कर सकता है जब उसे अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों का ज्ञान हो। यह ज्ञान उसे राजनीति शास्त्र से प्राप्त होता है।
  • राजनीति विज्ञान लोगों को सहनशीलता का पाठ सिखाता है।

प्रश्न 6.
राजनीति शास्त्र एक विज्ञान है। इसके पक्ष में चार तर्क दीजिए।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र के विज्ञान होने के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं.-

  • राजनीति शास्त्र में प्रयोग सम्भव है-राजनीति शास्त्र में प्राकृतिक विज्ञानों की तरह प्रयोग, प्रयोगशाला में नहीं होते बल्कि इतिहास राजनीति शास्त्र के लिए एक प्रयोगशाला है। ऐतिहासिक घटनाएं एक प्रयोग हैं जिनसे राज्यशास्त्री अपने परिणाम निकालते हैं।
  • राजनीति शास्त्र में कार्य-कारण का सिद्धान्त-यह ठीक है कि प्राकृतिक विज्ञानों की तरह राजनीति शास्त्र में कार्य-कारण में सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता, परन्तु फिर भी यदि घटनाओं का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से किया जाए तो घटनाओं के ऐसे कारण ढूंढ निकाले जा सकते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि समान कारणों का काफ़ी सीमा तक समान प्रभाव होता है। विद्वानों ने यह परिणाम निकाला है कि यदि किसी देश की जनता अधिक ग़रीब होती जाएगी तो इसका परिणाम उस देश में क्रान्ति है।
  • तुलनात्मक तथा निरीक्षण पद्धति सम्भव-राजनीति शास्त्र विज्ञान है क्योंकि इसमें भौतिक विज्ञानों की तरह तुलनात्मक प्रणाली का प्रयोग किया जा सकता है। अरस्तु ने 158 संविधानों का अध्ययन करके अपने जो सिद्धान्त प्रस्तुत किए उनमें आज बहत हद तक सच्चाई है।
  • राजनीति विज्ञान में भी भविष्यवाणी की जा सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीति विज्ञान का अर्थ, क्षेत्र तथा महत्व

प्रश्न 7.
राजनीति शास्त्र एक विज्ञान नहीं है। इस कथन के पक्ष में चार तर्क दीजिए।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र एक विज्ञान नहीं है। इस विषय में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

  • राजनीति शास्त्र के सिद्धान्तों में एकता नहीं है-रसायन शास्त्र तथा भौतिक शास्त्र के सिद्धान्तों पर वैज्ञानिकों के एक ही विचार होते हैं अर्थात् इनके सिद्धान्तों में एकता पाई जाती है। परन्तु राजनीति शास्त्र में ऐसे सिद्धान्तों की कमी है जिनके विषय में विद्वानों के समान विचार हों।
  • राजनीति शास्त्र में कार्य-कारण सिद्धान्त का न लागू होना-राजनीति शास्त्र को इस आधार पर भी विज्ञान नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान या अन्य किसी विज्ञान की तरह कार्य-कारण का सिद्धान्त पूर्ण रूप से लागू नहीं होता।
  • राजनीति शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रयोग असम्भव है-राजनीति शास्त्र विज्ञान नहीं है क्योंकि इसमें उस ढंग से प्रयोग नहीं किए जा सकते जिस ढंग से प्राकृतिक विज्ञानों में किए जाते हैं। राजनीति शास्त्र में रसायन विज्ञान की तरह ऐसे प्रयोग सम्भव नहीं हैं जिनका परिणाम सब समयों पर एक जैसा हो।
  • राजनीति विज्ञान में भविष्यवाणी करने में कठिनाई आती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
राजनीति शास्त्र को अंग्रेज़ी में पोलिटीकल साईंस (Political Science) कहते हैं। यह शब्द पोलिटिक्स (Politics) से निकला है। इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द पोलिस (Polis) से हुई है जिसका अर्थ है नगरराज्य। ग्रीक लोग नगर-राज्यों में रहते थे, इसलिए उस समय पोलिटिक्स का अर्थ नगर-राज्य के अध्ययन से होता था। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में राजनीति शास्त्र वह विषय है जो राज्य का अध्ययन करता है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान की दो परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-

  1. प्रो० गार्नर के मतानुसार, “राजनीति शास्त्र का आरम्भ तथा अन्त राज्य के साथ होता है।”
  2. गैटेल के अनुसार, “राजनीति शास्त्र को राज्य का विज्ञान कहा जा सकता है। इसका सम्बन्ध व्यक्तियों के उन समुदायों से है जो राजनीतिक संगठन का निर्माण करते हैं, उनकी सरकारों के संगठन से है और सरकारों के कानून बनाने तथा लागू करने और अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों वाली गतिविधियों से है। इसके मुख्य विषय राज्य, सरकार तथा कानून हैं।”

प्रश्न 3.
राजनीति शास्त्र के क्षेत्र की व्याख्या करो।
उत्तर-

  1. राज्य का अध्ययन-राजनीति शास्त्र में राज्य की उत्पत्ति, उसके विस्तार, राज्य का है, राज्य के तत्त्व, राज्य की प्रकृति और राज्य के भविष्य आदि का अध्ययन किया जाता है।
  2. सरकार का अध्ययन-राजनीति शास्त्र में हम अध्ययन करते हैं कि सरकार क्या है ? इसके कौन-कौन से अंग हैं ? इसके कार्य क्या-क्या हैं तथा इसके विभिन्न रूप कौन-से हैं ?

प्रश्न 4.
विद्यार्थियों के लिए राजनीति शास्त्र का अध्ययन किस प्रकार महत्त्व रखता है ?
उत्तर-
विद्यार्थियों को राजनीतिक विचारधाराओं, राजनीतिक प्रणालियों और अपने अधिकारों, कर्तव्यों व सरकार की समस्याओं की जानकारी प्राप्त होना आवश्यक है। राजनीति शास्त्र के अध्ययन के द्वारा विद्यार्थियों को इन सभी विषयों की जानकारी प्राप्त होती है। राजनीति शास्त्र विद्यार्थियों को सूझवान व सचेत नागरिक बनने में मदद करता है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राजनीति शास्त्र का पिता किसे माना जाता है ?
उत्तर-अरस्तु को।

प्रश्न 2. ‘Polis’ किस भाषा का शब्द है ?
उत्तर-ग्रीक भाषा का।

प्रश्न 3. ‘Polis’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर-‘Polis’ का अर्थ है-नगर राज्य (City State)।

प्रश्न 4. ग्रीक लोग कहाँ रहते थे ?
उत्तर-ग्रीक लोग नगर राज्यों में रहते थे।

प्रश्न 5. ‘Political Science’ शब्द किस शब्द से निकला है ?
उत्तर-Politics से ।।

प्रश्न 6. ‘Politics’ शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है?
उत्तर-Politics शब्द की उत्पत्ति ‘Polis’ से हुई है।

प्रश्न 7. अरस्तु ने कितने संविधानों का अध्ययन किया?
उत्तर-158 संविधानों का।

प्रश्न 8. किसी एक विद्वान् का नाम लिखें, जो राजनीति शास्त्र को विज्ञान मानता है?
उत्तर-अरस्तु।

प्रश्न 9. किसी एक विद्वान् का नाम बताएं, जो राजनीति शास्त्र को विज्ञान नहीं मानता है ?
उत्तर-मैटलैंड।

प्रश्न 10. “जब मैं ऐसे परीक्षा प्रश्नों के समूह को देखता हूँ, जिनका शीर्षक राजनीतिक विज्ञान होता है, तो मुझे प्रश्नों पर नहीं, बल्कि शीर्षक पर खेद होता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर-मैटलैंड।

प्रश्न 11. राजनीति शास्त्र की कोई एक उपयोगिता लिखें।
उत्तर-राजनीति शास्त्र के अध्ययन से राज्य तथा सरकार का ज्ञान मिलता है।

प्रश्न 12. नगर राज्यों का अध्ययन करने वाले विषय को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-राजनीति शास्त्र।।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. रिपब्लिक पुस्तक के लेखक ………… हैं
2. मैटलैंड राजनीति विज्ञान को विज्ञान ………….. मानता है।
3. राजनीति शास्त्र में राज्य और …………का अध्ययन किया जाता है।
4. अरस्तु ने …………. संविधानों का अध्ययन किया।
उत्तर-

  1. प्लेटो
  2. नहीं
  3. सरकार
  4. 158.

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प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राजनीति शास्त्र के अध्ययन का मुख्य विषय मशीन को ही समझा जाना चाहिए क्योंकि राजनीति शास्त्र की समस्त मशीनरी मशीन के इर्द-गिर्द ही घूमती है।
2. राजनीति शास्त्र को अंग्रेज़ी में अर्थशास्त्र (Economics) कहते हैं। यह शब्द पोलिटिक्स से निकला है।
3. पोलिस (Polis) का अर्थ है-नगर-राज्य।
4. गार्नर के अनुसार, “राजनीति शास्त्र केवल सरकार से संबंधित है।”
5. राजनीति शास्त्र के क्षेत्र के संबंध में तीन विचारधाराएं प्रचलित हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
Political Science शब्द किस शब्द से निकला है ?
(क) State से
(ख) Right से
(ग) Politics से
(घ) Freedom से।
उत्तर-
(ग) Politics से।

प्रश्न 2.
यह कथन किसका है, “राजनीति शास्त्र का आरम्भ तथा अंत राज्य के साथ होता है।”
(क) लॉस्की
(ख) गार्नर
(ग) विलोबी
(घ) गैरीज।
उत्तर-
(ख) गार्नर ।

प्रश्न 3.
राजनीति शास्त्र तथा राजनीति विज्ञान में क्या अंतर पाया जाता है ?
(क) राजनीति शास्त्र का जन्म राजनीति से पहले हुआ।
(ख) राजनीति विज्ञान नैतिकता पर आधारित है, जबकि राजनीति सुविधा पर।
(ग) दोनों के लक्ष्य अलग-अलग हैं।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 4.
राजनीति शास्त्र के विषय-क्षेत्र में शामिल हैं-
(क) राज्य का अध्ययन
(ख) सरकार का अध्ययन
(ग) राजनीतिक विचारधारा का अध्ययन
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
किस विचारक ने समाजशास्त्र तथा मानवविज्ञान को जुड़वा बहनें माना है ?
उत्तर-
एल० क्रोबर (L. Kroeber) ने समाजशास्त्र तथा मानवविज्ञान को जुड़वा बहनें माना है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्रियों तथा अर्थशास्त्रियों द्वारा अध्ययन किये जाने वाले कुछ विषयों के नाम बताइये।
उत्तर-
पूँजीवाद, औद्योगिक क्रान्ति, मज़दूरी के संबंध, विश्वव्यापीकरण इत्यादि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनका दोनों समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र अध्ययन करते हैं।

प्रश्न 3.
मानवविज्ञान के अध्ययन के कोई दो क्षेत्र बताइये।
उत्तर-
भौतिक मानव विज्ञान तथा सांस्कृतिक मानव विज्ञान।

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II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र किसे कहते हैं ?
उत्तर-
समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र कहा जाता है। समाजशास्त्र में समूहों, संस्थाओं, संगठन तथा समाज के सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तथा यह अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से होता है। साधारण शब्दों में समाजशास्त्र समाज का अध्ययन है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राजनीति विज्ञान राज्य तथा सरकार का विज्ञान है। यह मुख्य रूप से उन सामाजिक समूहों का अध्ययन करता है जो राज्य की स्वयं की सत्ता में आते हैं। इसके अध्ययन का मुद्दा शक्ति, राजनीतिक व्यवस्थाएं, राजनीतिक प्रक्रियाएं, सरकार के प्रकार तथा कार्य, अन्तर्राष्ट्रीय संबंध, संविधान इत्यादि होते हैं।

प्रश्न 3.
शारीरिक मानवविज्ञान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भौतिक मानवविज्ञान, मानवविज्ञान की ही एक शाखा है जो मुख्य रूप से मनुष्य के उद्भव तथा उद्विकास, उनके वितरण तथा उनके प्रजातीय लक्षणों में आए परिवर्तनों का अध्ययन करती है। यह आदि मानव के शारीरिक लक्षणों का अध्ययन करके प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृतियों को समझने का प्रयास करती है।

प्रश्न 4.
सांस्कृतिक मानवविज्ञान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सांस्कृतिक मानव विज्ञान, मानव विज्ञान की वह शाखा है जो संस्कृति के उद्भव, विकास तथा समय के साथ-साथ उसमें आए परिवर्तनों का अध्ययन करती है। मानवीय समाज की अलग-अलग संस्थाएं किस प्रकार सामने आईं, उनका अध्ययन भी मानव विज्ञान की यह शाखा करती है।

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प्रश्न 5.
अर्थशास्त्र किसे कहते हैं ?
उत्तर-
अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों से संबंधित है। यह हमारे पास मौजूद संसाधनों तथा कम हो रहे संसाधनों को संभाल कर रखने के ढंगों के बारे में बताता है। यह कई क्रियाओं जैसे कि उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा लेन-देन से भी संबंधित है।

प्रश्न 6.
इतिहास किसे कहते हैं ?
उत्तर-
इतिहास बीत गई घटनाओं का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। यह तारीखों, स्थानों, घटनाओं तथा संघर्ष का अध्ययन है। यह मुख्य रूप से पिछली घटनाओं तथा समाज पर उन घटनाओं के पड़े प्रभावों से संबंधित है। इतिहास को पिछले समय का माइक्रोस्कोप, वर्तमान का राशिफल तथा भविष्य का टैलीस्कोप भी कहते हैं।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र तथा राजनीति विज्ञान के मध्य कोई दो अन्तर बताइये।
उत्तर-

  • समाजशास्त्र समाज तथा सामाजिक संबंधों का विज्ञान है जबकि राजनीति विज्ञान राज्य तथा सरकार का विज्ञान है।
  • समाजशास्त्र संगठित, असंगठित तथा अव्यवस्थित समाजों का अध्ययन करता है जबकि राजनीति विज्ञान केवल राजनीतिक तौर पर संगठित समाजों का अध्ययन करता है।
  • समाजशास्त्र का विषयक्षेत्र बहुत बड़ा अर्थात् असीमित है जबकि राजनीति विज्ञान का विषय क्षेत्र बहुत ही सीमित है।
  • समाजशास्त्र एक साधारण विज्ञान है जबकि राजनीति विज्ञान एक विशेष विज्ञान है।
  • समाजशास्त्र मनुष्य का सामाजिक मनुष्यों के तौर पर अध्ययन करता है जबकि राजनीति विज्ञान मनुष्यों का राजनीतिक मनुष्यों के तौर पर अध्ययन करता है।

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प्रश्न 2.
समाजशास्त्र तथा इतिहास के बीच क्या संबंध है ? दो बिन्द बताइये।
उत्तर-
इतिहास मानवीय समाज के बीत चुके समय का अध्ययन करता है। यह आरंभ से लेकर अब तक मानवीय समाज का क्रमवार वर्णन करता है। केवल इतिहास पढ़कर ही पता चलता है कि समज, इसकी संस्थाएं, संबंध, रीति रिवाज इत्यादि कैसे उत्पन्न हुए। इसमें विपरीत समाजशास्त्र वर्तमान का अध्ययन करता है। इसमें सामाजिक संबंधों, परंपराओं, संस्थाओं, रीति रिवाजों, संस्कृति इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार समाजशास्त्र वर्तमान समाज की संस्थाओं, अलग-अलग संबंधों इत्यादि का अध्ययन करता है। अगर हम दोनों विज्ञानों का संबंध देखें तो इतिहास प्राचीन समाज के प्रत्येक पक्ष अध्ययन करता है तथा समाजशास्त्र उस समाज के वर्तमान पक्ष का अध्ययन करता है। दोनों विज्ञानों को अपना अध्ययन करने के लिए एक दूसरे की सहायता लेनी पड़ती है क्योंकि एक-दूसरे की सहायता किए बिना यह अपना कार्य नहीं कर सकते।

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र तथा मानव विज्ञान के मध्य संबंधों की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
मानव विज्ञान को अपनी संस्कृति व सामाजिक क्रियाओं को समझने के लिए समाजशास्त्र की मदद लेनी पड़ती है, मानव वैज्ञानिकों ने आधुनिक समाज के ज्ञान के आधार पर कई परिकल्पनाओं का निर्माण किया है। इसके आधार पर प्राचीन समाज का अध्ययन अधिक सुचारु रूप से किया जाता है। संस्कृति प्रत्येक समाज का एक हिस्सा होती है। बिना संस्कृति के हम किसी समाज बारे सोच भी नहीं सकते। यह सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए मानव विज्ञान को सामूहिक स्थिरता को पैदा करने वाले सांस्कृतिक व सामाजिक तत्त्वों के साथ-साथ उन तत्त्वों का अध्ययन भी करता है जो समाज में संघर्ष व विभाजन पैदा करते हैं।

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र किस प्रकार अर्थशास्त्र से संबंधित है ? संक्षेप में बताइये।
उत्तर-
किसी भी आर्थिक समस्या का हल करने के लिए हमें सामाजिक तथ्य का भी सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए बेकारी की समस्या के हल के लिए अर्थशास्त्र केवल आर्थिक कारणों का पता लगा सकता है परन्तु सामाजिक पक्ष इसको सुलझाने के बारे में विचार देता है कि बेकारी की समस्या का मुख्य कारण सामाजिक कीमतों की गिरावट है। इस कारण आर्थिक क्रियाएं सामाजिक अन्तक्रियाओं का ही परिणाम होती हैं इनको समझने के लिए अर्थशास्त्र को समाजशास्त्र का सहारा लेना पड़ता है।

कई प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक क्षेत्र के अध्ययन के पश्चात् सामाजिक क्षेत्र का अध्ययन किया। समाजशास्त्र ने जब सामाजिक सम्बन्धों के टूटने या समाज की व्यक्तिवादी दृष्टि क्यों है का अध्ययन करना होता है तो उसे अर्थशास्त्र की सहायता लेनी पड़ती है। जैसे अर्थशास्त्र समाज में पैसे की बढ़ती आवश्यकता इत्यादि जैसे कारणों को बताता है। इसके अतिरिक्त कई सामाजिक बुराइयां जैसे नशा करना भी मुख्य कारण से आर्थिक क्षेत्र से ही जुड़ा हुआ है। इन समस्याओं को समाप्त करने के लिए समाजशास्त्र को अर्थशास्त्र का सहारा लेना पड़ता है।

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प्रश्न 5.
समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान के मध्य सम्बन्ध की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
मनोविज्ञान, समाजशास्त्रियों को आधुनिक उलझे समाज की समस्याओं को सुलझाने में मदद देता है। मनोविज्ञान प्राचीन व्यक्तियों का अध्ययन करके समाजशास्त्री को आधुनिक समाज को समझने में मदद करता है। इस प्रकार समाजशास्त्री को मनो वैज्ञानिक द्वारा एकत्रित की सामग्री पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इस तरह मनोविज्ञान का समाजशास्त्र को काफी योगदान है।

मनोविज्ञान को व्यक्तिगत व्यवहार के अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्र की विषय-वस्तु की ज़रूरत पड़ती है। कोई भी व्यक्ति समाज से बाहर नहीं रह सकता इसी कारण अरस्तु ने भी मनुष्य को एक सामाजिक पशु कहा है। मनोवैज्ञानिक को मानसिक क्रियाओं को समझने के लिए उसकी सामाजिक स्थितियों का ज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी हो जाता है। इस प्रकार व्यक्तिगत व्यवहार को जानने के लिए समाजशास्त्र की आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र तथा राजनीति विज्ञान किस प्रकार अन्तर्सम्बन्धित हैं ? संक्षेप में समझाइये।
उत्तर-
राजनीति विज्ञान में जब भी कानून बनाते हैं तो सामाजिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना पड़ता है, क्योंकि यदि सरकार कोई भी कानून बिना सामाजिक स्वीकृति के बना देती है तो लोग आन्दोलन की राह पकड़ लेते हैं। ऐसे में समाज के विकास में रुकावट पैदा हो जाती है। इस कारण राजनीतिक विज्ञान को समाजशास्त्र पर निर्भर रहना पड़ता है।

किसी भी समाज में बिना नियन्त्रण के विकास नहीं होता। राजनीति विज्ञान द्वारा समाज पर नियन्त्रण बना रहता है। बहु विवाह की प्रथा, सती प्रथा, विधवा विवाह इत्यादि जैसी सामाजिक बुराइयां जो समाज की प्रगति के लिए रुकावट बन गई हैं, को समाप्त करने के लिए राजनीति विज्ञान का सहारा लेना पड़ा है। इस प्रकार समाज में परिवर्तन लाने के लिए हमें राजनीति विज्ञान से मदद लेनी पड़ती है।

प्रश्न 7.
समाजशास्त्र तथा मानव विज्ञान के मध्य अन्तरों की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
1. समाजशास्त्र आधुनिक समाज की आर्थिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, कला आदि का अध्ययन अपने ही ढंग से करता है अर्थात् यह केवल सामाजिक आकार, सामाजिक संगठन व विघटन का अध्ययन करता है। परन्तु सामाजिक मानव-विज्ञान की विषय-वस्तु किसी एक समाज की राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक संगठन, धर्म, कला आदि प्रत्येक वस्तु का अध्ययन करता है व यह सम्पूर्ण समाज की पूर्णता का अध्ययन करता है।

2. मानव विज्ञान अपने आप को समस्याओं के अध्ययन तक सीमित रखता है। परन्तु समाजशास्त्र भविष्य तक भी पहुंचता है।

3. समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों से सम्बन्धित है व मानव विज्ञान समाज की सम्पूर्णता से सम्बन्धित होता है। इस प्रकार दोनों समाज शास्त्र के अध्ययन क्षेत्र में ही आते हैं।

4. समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र काफ़ी विशाल है जबकि मानव विज्ञान का विषय क्षेत्र काफ़ी सीमित है क्योंकि यह समाजशास्त्र का ही एक हिस्सा है।

5. समाजशास्त्र आधुनिक, सभ्य तथा जटिल समाजों का अध्ययन करता है जबकि मानव विज्ञान प्राचीन तथा अनपढ़ समाजों का अध्ययन करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

प्रश्न 8.
समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के मध्य अन्तरों की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-

  • समाजशास्त्र समाज के अलग-अलग हिस्सों का वर्णन करता है व अर्थशास्त्र समाज के केवल आर्थिक हिस्से का अध्ययन करता है।
  • समाजशास्त्र की इकाई दो या दो से अधिक व्यक्ति होते हैं परन्तु अर्थशास्त्र की इकाई मनुष्य व उसके आर्थिक हिस्से के अध्ययन से है। .
  • समाजशास्त्र में ऐतिहासिक, तुलनात्मक विधियों का प्रयोग होता है जबकि अर्थशास्त्र में निगमन व आगमन विधि का प्रयोग किया जाता है।
  • समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र के विषय क्षेत्र में भी अन्तर होता है। समाजशास्त्र समाज के अलग-अलग हिस्सों का चित्र पेश करता है। इस कारण इसका क्षेत्र विशाल होता है परन्तु अर्थशास्त्र केवल समाज के आर्थिक हिस्से का अध्ययन करने तक सीमित होता है। इस कारण इसका विषय क्षेत्र सीमित होता है।

प्रश्न 9.
समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान के मध्य अंतर कीजिए।
उत्तर-

  • मनोविज्ञान मनुष्य के मन का अध्ययन करता है तथा समाजशास्त्र समूह से संबंधित है।
  • मनोविज्ञान का दृष्टिकोण व्यक्तिगत है जबकि समाजशास्त्र का दृष्टिकोण सामाजिक है।
  • मनोविज्ञान में प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग होता है जबकि समाजशास्त्र में तुलनात्मक विधि का प्रयोग होता है।
  • समाजशास्त्र मानवीय व्यवहार के सामाजिक पक्ष का अध्ययन करता है जबकि मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार के मनोवैज्ञानिक पक्ष का अध्ययन करता है।
  • समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र काफ़ी विशाल है जबकि मनोविज्ञान का विषय क्षेत्र काफ़ी सीमित है।

प्रश्न 10.
समाजशास्त्र तथा इतिहास के मध्य अन्तरों की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
1. इतिहास में सामाजिक इतिहास की नई शाखा का विकास, समाजशास्त्र के कई संकल्पों, विचारों व विधियों आदि को अपने अध्ययन क्षेत्र में शामिल कर लिया है। इस प्रकार इतिहासकार को कई तरह की समस्याओं को सुलझाने में समाजशास्त्र से मदद मिलती है।

2. समाजशास्त्र व इतिहास में अलग-अलग विधियों को इस्तेमाल किया जाता है। समाजशास्त्र में तुलनात्मक विधि का प्रयोग किया जाता है तो वहां इतिहास में वर्णनात्मक विधि का।

3. दोनों विज्ञान की विश्लेषण की इकाइयों में भिन्नता है। समाजशास्त्र की विश्लेषण की इकाई मानवीय समूह है परन्तु इतिहास मानव के कारनामों के अध्ययन पर बल देता है।

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IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र कैसे अन्य सामाजिक विज्ञानों से भिन्न है ? किसी दो पर विस्तार से चर्चा कीजिए।
उत्तर-
व्यक्ति का जीवन कई दिशाओं से सम्बन्धित है। जब समाजशास्त्र को किसी भी समाज का अध्ययन करना हो तो उसको अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान इत्यादि से भी सहायता लेनी पड़ती है। जैसे अर्थ वैज्ञानिक उत्पादन, वितरण, उपभोग इत्यादि सम्बन्धी बताता है, इतिहास हमें प्राचीन घटनाओं का ज्ञान देता है, इत्यादि। समाजशास्त्र इनकी सहायता से विस्तारपूर्वक अध्ययन योग्य हो जाती है। इसलिए इसे सभी सामाजिक विज्ञानों की मां भी कहते इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र के विषय प्रति अलग-अलग समाजशास्त्रियों की अलग-अलग धारणाएं हैं, जैसे कुछ समाजशास्त्रियों के अनुसार यह एक स्वतन्त्र विज्ञान है और दूसरे विद्वानों के अनुसार यह शेष सामाजिक विज्ञानों का मिश्रण है। हरबर्ट स्पैंसर जैसे समाजशास्त्रियों ने यह बताया है कि समाजशास्त्र संपूर्ण तौर पर बाकी सामाजिक विज्ञानों से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें सभी सामाजिक विज्ञानों के विषय वस्तु को अध्ययन हेतु प्रयोग किया जाता है। मैकाइवर ने अपनी पुस्तक ‘समाज’ में इस बात का जिक्र किया है कि हम इन सभी सामाजिक विज्ञानों को बिल्कुल एक-दूसरे से अलग करके अध्ययन नहीं कर सकते। इन विद्वानों के अनुसार, समाजशास्त्र की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं अपितु यह शेष विज्ञानों का मिश्रण है।

कई समाजशास्त्री इसको एक स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में स्वीकार करते हैं। जैसे गिडिंग्स, वार्ड कहते हैं कि समाज शास्त्र को अपने विषय क्षेत्र को समझने हेतु समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों पर आधारित होना पड़ता है परन्तु जब यह सम्पूर्ण समाज का अध्ययन करता है तो इसे बाकी सामाजिक विज्ञानों के विषय-क्षेत्र का अध्ययन करने की आवश्यकता पड़ती है।

बार्स (Barmes) के अनुसार, “समाजशास्त्र न तो दूसरे सामाजिक विज्ञानों की रखैल है और न ही दासी अपितु उनकी बहन है।”

इस तरह हम देखते हैं कि दूसरा कोई भी सामाजिक विज्ञान सामाजिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं, सम्बन्धों इत्यादि का अध्ययन नहीं करता केवल समाजशास्त्र इनका अध्ययन करता है। इस प्रकार समाजशास्त्र सामाजिक जीवन का सम्पूर्ण अध्ययन करता है। इसकी अपनी विषय-वस्तु है। समाज के जिन भागों का अध्ययन समाज-विज्ञान करता है उनका अध्ययन दूसरे सामाजिक विज्ञान नहीं करते।

उपरोक्त वर्णन से हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि यदि समाजशास्त्र समाज के अध्ययन के लिए दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता लेता है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह सहायता लेनी ही जानता है पर देनी नहीं। दे तो वो सकता है यदि हम इस बात को स्वीकार लें कि इसकी अपनी विषय-वस्तु भी है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि किसी भी सामाजिक समस्या का हल ढूंढ़ना हो तो अकेले किसी भी सामाजिक विज्ञान के लिए सम्भव नहीं कि वह ढूंढ़ सके। यदि समस्या आर्थिक क्षेत्र से सम्बन्धित है तो केवल अर्थशास्त्री ही नहीं उस समस्या का हल ढूंढ़ सकते, अपितु दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता भी हमें लेनी पड़ती है। इसीलिए यह सभी सामाजिक विज्ञान (Social Sciences) एक-दूसरे से सम्बन्धित भी हैं परन्तु इनकी विषय-वस्तु अलग भी है।

(i) समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में अंतर (Difference between Sociology Economics)-

समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित भी हैं और अलग भी। इसलिए दोनों के सम्बन्धों और अन्तरों को जानने से पूर्व हमारे लिए यह आवश्यक है कि पहले हम यह जान लें कि समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र के क्या अर्थ हैं।

साधारण शब्दों में, मनुष्य जो भी आर्थिक क्रियाएं करता है, अर्थशास्त्र उनका अध्ययन करता है। अर्थशास्त्र यह बताता है कि मनुष्य अपनी न खत्म होने वाली इच्छाओं की पूर्ति अपने सीमित स्रोतों के साथ कैसे करता है। मनुष्य अपनी आर्थिक इच्छाओं की पूर्ति पैसा करता है। इसीलिए पैसों के उत्पादन, वितरण और उपभोग से सम्बन्धित मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन भी अर्थ की विज्ञान करता है। इस प्रकार इस व्याख्या में पैसे को अधिक महत्त्व दिया गया है पर आधुनिक अर्थशास्त्री पैसे की जगह पर मनुष्य को अधिक महत्त्व देते हैं।

समाजशास्त्र मानव संस्थाओं, सम्बन्धों, समूहों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, कीमतों, आपसी सम्बन्धों, सम्बन्धों की व्यवस्था, विचारधारा और उनमें होने वाले परिवर्तनों और परिणामों का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र समाज का अध्ययन करता है जो कि सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। – मनुष्य की प्रत्येक आर्थिक क्रिया व्यक्तियों की अन्तक्रियाओं का परिणाम होती है। इसके साथ-साथ आर्थिक क्रियाएं, सामाजिक क्रियाओं और सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रभाव डालती हैं। इसलिए सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी जानने हेतु आर्थिक संस्थाओं के बारे में पता होना आवश्यक है और आर्थिक क्रियाओं सम्बन्धी पता करने के लिए सामाजिक अन्तक्रियाओं का पता होना आवश्यक है।

समाजशास्त्र का अर्थशास्त्र को योगदान (Contribution of Sociology to Economics)-अर्थशास्त्र व्यक्ति को यह बताता है कि कम साधन होने के साथ वह किस प्रकार अपनी अनगिनत इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है। अर्थशास्त्री व्यक्ति का कल्याण तभी कर सकता है यदि उसे सामाजिक परिस्थितियों का पूरा ज्ञान हो परन्तु इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए वह समाजशास्त्र से सहायता लेता है।

अतः ऊपर दी गई चर्चा से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि अर्थशास्त्री समाजशास्त्रियों की सहायता के बिना कुछ भी नहीं कर सकते। कुछ भी नहीं से अर्थ है समाज में न तो प्रगति ला सकते हैं और न ही अपनी समस्याओं का हल ढूंढ़ सकते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि अर्थशास्त्री अपने क्षेत्र के अध्ययन के लिए समाज शास्त्रियों पर निर्भर हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनुष्य की प्रत्येक आर्थिक क्रिया, सामाजिक अन्तक्रिया का परिणाम होती है। इसीलिए मनुष्य की प्रत्येक आर्थिक क्रिया को उसके सामाजिक सन्दर्भ में रखकर ही समझा जा सकता है। इसीलिए समाज के आर्थिक विकास के लिए या समाज के लिए कोई आर्थिक योजना बनाने के लिए, उस समाज के सामाजिक पक्ष के पता होने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार अर्थशास्त्र समाजशास्त्र पर निर्भर करता है।

अर्थशास्त्र का समाजशास्त्र को योगदान (Contribution of Economics to Sociology)-समाज शास्त्र भी अर्थशास्त्र से बहुत सारी सहायता लेता है। आधुनिक समाज में आर्थिक क्रियाओं ने समाज के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है। कई प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों मैक्स वैबर, कार्ल मार्क्स, दुर्थीम और सोरोकिन इत्यादि ने आर्थिक क्षेत्र के अध्ययन के बाद सामाजिक क्षेत्र का अध्ययन किया। जब भी समाज में समय-समय पर आर्थिक कारणों में परिवर्तन आया तो उनका प्रभाव हमारे समाज पर ही हुआ। समाजशास्त्री ने जब यह अध्ययन करना होता है कि हमारे समाज में सामाजिक सम्बन्ध क्यों टूट रहे हैं या समाज में व्यक्ति का व्यक्तिवादी दृष्टिकोण क्यों हो रहा है तो इसका अध्ययन करने के लिए वह समाज की आर्थिक क्रियाओं पर नज़र डालता है तो यह महसूस करता है कि जैसे-जैसे समाज में पैसे की आवश्यकता बढ़ती जा रही है लोग अधिकाधिक सुविधाओं वाली चीजें प्राप्त करने के पीछे लग जाते हैं।

उसके साथ समाज का दृष्टिकोण भी पूंजीपति हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति को समाज में जीने के लिए खुद मेहनत करनी पड़ रही है। इसी कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और व्यक्तियों की दृष्टि भी व्यक्तिवादी हो जाती है। इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार की सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करने के लिए उसको अर्थशास्त्र की सहायता लेनी पड़ती है। उदाहरण के लिए नशा करने जैसी सामाजिक समस्या ही ले लो। इस समस्या ने जवान पीढ़ी को काफ़ी कमज़ोर बना दिया है। इस समस्या का मुख्य कारण आर्थिक है क्योंकि जैसे-जैसे लोग गलत तरीकों का इस्तेमाल करके (स्मगलिंग इत्यादि) आवश्यकता से अधिक पैसा कमा लेते हैं तब वह पैसों का दुरुपयोग करने लग जाते हैं। अत: यह नशे के दुरुपयोग जैसी बुरी सामाजिक समस्या, जोकि समाज को खोखला कर रही है, से बचने के लिए हमें ग़लत साधनों से पैसे कमाने पर निगरानी रखनी चाहिए जिससे कि दहेज प्रथा, नशे का प्रयोग, जुआ खेलना आदि बुरी सामाजिक समस्याओं का अन्त किया जा सके। इन समस्याओं को खत्म करने के लिए समाजशास्त्र अर्थशास्त्र पर निर्भर रहता है।

आजकल के समय में बहुत सारे आर्थिक वर्ग, जैसे मज़दूर वर्ग, पूंजीपति वर्ग, उपभोक्ता और उत्पादक वर्ग सामने आए हैं। इसलिए इन वर्गों और उनके सम्बन्धों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि समाजशास्त्र इन वर्गों के सामाजिक सम्बन्धों को समझे। इन आर्थिक सम्बन्धों को समझने के लिए उसे अर्थ विज्ञान की सहायता लेनी ही पड़ती है।

समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में अंतर (Difference between Sociology & Economics)-समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में जहां इतना गहरा सम्बन्ध पाया जाता है और यह भी पता चलता है कि कैसे यह दोनों विज्ञान एक-दूसरे के नियमों व परिणामों का खुलकर प्रयोग करते हैं। इन दोनों विज्ञानों में भिन्नता भी पाई जाती है, जो निम्नलिखित अनुसार है-

1. विषय क्षेत्र (Scope)-समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के विषय-क्षेत्र में भी अन्तर है। समाजशास्त्र समाज के अलग-अलग भागों का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। इसलिए समाजशास्त्र का क्षेत्र विशाल है, परन्तु अर्थशास्त्र केवल समाज के आर्थिक हिस्से के अध्ययन तक ही सीमित है, इसीलिए इसका विषय क्षेत्र सीमित है।

2. सामान्य और विशेष (General & Specific) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है क्योंकि यह उन सब प्रकार के सामाजिक प्रकटनों का अध्ययन करता है जो हरेक समाज के हरेक भाग से सम्बन्धित नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज से सम्बन्धित हैं। परन्तु अर्थशास्त्र एक विशेष विज्ञान है, क्योंकि इसका सम्बन्ध आर्थिक क्रियाओं तक सीमित है।

3. दृष्टिकोण में अन्तर (Different Points of View)-समाजशास्त्र का कार्य समाज में पाई गई सामाजिक क्रियाओं को समझना है, सामाजिक समस्याओं आदि का अध्ययन करना है। इसलिए इसका दृष्टिकोण सामाजिक है। दूसरी ओर अर्थशास्त्री का सम्बन्ध व्यक्ति की पदार्थ खुशी से है जैसे अधिकाधिक पैसा कैसे कमाना है, उसका विभाजन कैसे करना है और उसका प्रयोग कैसे करना है आदि। इसीलिए इसका दृष्टिकोण आर्थिक है।

4. इकाई के अध्ययन में अन्तर (Difference in Study of Unit)-समाजशास्त्र की इकाई समूह है। वह समूह में रह रहे व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है। परन्तु दूसरी ओर अर्थशास्त्री व्यक्ति के आर्थिक पक्ष के अध्ययन से सम्बन्धित होता है। इसीलिए इसकी इकाई व्यक्ति है।

(ii) समाजशास्त्र तथा राजनीतिक विज्ञान में अंतर (Difference between Sociology and Political Science)-

राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र का आपस में बहत गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे से अन्तरसम्बन्धित हैं। प्लैटो और अरस्तु के अनुसार, राज्य और समाज के अर्थ एक ही हैं। बाद में इनके अर्थ अलग कर दिए गए और राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध केवल राज्य के कार्यों से सम्बन्धित कर दिया गया। इसी समय 1850 ई० के बाद समाज शास्त्र ने भी अपने विषय-क्षेत्र को कांट-छांट करके अपना अलग विषय-क्षेत्र बना लिया और अपने आपको राज्य से अलग कर लिया।

इस विज्ञान में राज्य की उत्पत्ति, विकास, राज्य का संगठन, सरकार के शासनिक प्रबन्ध की व्यवस्था और इसके साथ सम्बन्धित संस्थाओं और उनके कार्यों का अध्ययन किया जाता है। यह व्यक्ति के राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित समूह और संस्थाओं का अध्ययन करता है। संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि राजनीति विज्ञान में केवल संगठित सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।

राजनीति विज्ञान मनुष्य के राजनीतिक जीवन और उससे सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। यह राज्य की उत्पत्ति, विकास, विशेषताओं, राज्य के संगठन, सरकार, उसकी शासन प्रणाली, राज्य से सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। इस प्रकार राजनीति विज्ञान केवल राजनीतिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है। दूसरी ओर समाजशास्त्र समाज सम्बन्धों, सम्बन्धों के अलग-अलग स्वरूपों, समूहों, प्रथाओं, प्रतिमानों, संरचनाओं, संस्थाओं, इनके अन्तर्सम्बन्धों, रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, परम्पराओं का अध्ययन करता है।

जहां राजनीति विज्ञान, राजनीति अर्थात् राज्य और सरकार का अध्ययन करता है, दूसरी ओर, समाजशास्त्र सामाजिक निरीक्षण की प्रमुख एजेंसियों में राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करता है। ये दोनों विज्ञान समूचे समाज का अध्ययन करते हैं। समाजशास्त्र ‘राज्य’ को एक राजनीतिक संस्था के रूप में देखता है और राजनीति विज्ञान उस राज्य को संगठन और कानून के रूप में देखता है। मैकाइवर और पेज के अनुसार ‘समाज’ और ‘राज्य’ का दायरा एक नहीं और न ही दोनों का विस्तार साथ-साथ हुआ है। अपितु राज्य की स्थापना समाज में कुछ विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति करने के लिए हुई है। . रॉस (Ross) के अनुसार, “राज्य अपनी पुरानी अवस्था में राजनीतिक अवस्था से अधिक सामाजिक संस्था थी। यह सत्य है कि राजनीतिक तथ्यों का ज्ञान सामाजिक तथ्यों में ही है। इन दोनों विज्ञानों में अन्तर केवल इसीलिए है कि इन दोनों विज्ञानों के क्षेत्र की विशालता अध्ययन के लिए विशेष होती है, बल्कि इसीलिए नहीं है कि इनमें कोई स्पष्ट विभाजन रेखा है।” __ऊपर दी गई परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि राजनीतिक विज्ञान का सम्बन्ध समाज में पाई जाने वाली संस्थाओं, सरकार और संगठनों का अध्ययन करने से है जबकि समाजशास्त्र का सम्बन्ध समाज का अध्ययन करने से है परन्तु राजनीतिक विज्ञान का क्षेत्र समूचे समाज का ही हिस्सा है जिसका समाजशास्त्र अध्ययन करता है। इस प्रकार इन दोनों विज्ञानों में अन्तर-निर्भरता भी पाई जाती है।

समाजशास्त्र का राजनीति विज्ञान को योगदान (Contribution of Sociology to Political Science)राजनीति विज्ञान में मानव को राजनीतिक प्राणी माना जाता है पर यह नहीं बताया जाता कि वह राजनीतिक कैसे और कब बना। यह सब पता करने के लिए राजनीति विज्ञान समाज शास्त्र की सहायता लेता है। यदि राजनीतिक विज्ञान समाजशास्त्र के सिद्धान्तों की सहायता ले तो मनुष्य से सम्बन्धित उसके अध्ययनों को बहुत सरल और सही बनाया जा सकता है। राजनीति विज्ञान जब अपनी नीतियां बनाता है तो उसको सामाजिक कीमतों और आदर्शों को मुख्य रखना पड़ता है।

राजनीति विज्ञान को सामाजिक परिस्थितियों का ध्यान रखकर ही कानून बनाना पड़ता है। हमारी सामाजिक परम्पराएं, संस्कृति, प्रथाएं समाज के सदस्यों पर नियन्त्रण रखने हेतु और समाज को संगठित तरीके से चलाने के लिए बनाई जाती हैं परन्तु जब इनको सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो यह कानून बन जाती हैं।

जब सरकार समाज की बनाई हुई उन प्रथाओं को, जो समूह द्वारा भी प्रमाणित होती हैं, को नज़र-अंदाज कर देती है तो ऐसी स्थिति में समाज विघटन के पथ पर चला जाता है। इससे समाज के विकास में भी रुकावट आ जाती है। राजनीति विज्ञान को सामाजिक परिस्थितियों की या प्रथाओं इत्यादि की जानकारी प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्र पर निर्भर रहना पड़ता है। समाज में हम कानून का सहारा लेकर समस्याओं का हल ढूंढ सकते हैं। अतः, उपरोक्त विवरण से यह काफ़ी हद तक स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक विज्ञान को अपने क्षेत्र में अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्र की बहुत आवश्यकता पड़ती है। इसी के साथ समाज की तरक्की, विकास और संगठन आदि भी बना रहता है। इस उपरोक्त विवरण का अर्थ यह नहीं कि समाजशास्त्र ही राजनीति विज्ञान की सहायता करता है अपितु राजनीति विज्ञान की भी समाजशास्त्र में बहुत ज़रूरत रहती है।

राजनीति विज्ञान का समाजशास्त्र को योगदान (Contribution of Political Science to Sociology)यदि समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान को कुछ देता है तो उससे बहुत कुछ लेता भी है। समाजशास्त्र भी राजनीति विज्ञान पर निर्भर करता है और उससे मदद लेता है।

किसी भी समाज की बिना नियन्त्रण के कल्पना ही नहीं की जा सकती। समाजशास्त्र की इस शाखा को राजनीति समाजशास्त्र भी कहते हैं। यदि देखा जाए तो समाज या सामाजिक जीवन को असली जीवन ही राजनीति विज्ञान से प्राप्त हुआ है। समाज की प्रगति, संगठन, संस्थाओं, प्रक्रियाओं, परम्पराओं, संस्कृति तथा सामाजिक सम्बन्धों आदि पर आधारित है। यदि हम प्राचीन समाज का ज़िक्र करें, जब राजनीतिक विज्ञान की पूर्णतया शुरुआत नहीं हुई थी, तब व्यक्ति. की ज़िन्दगी काफ़ी सरल थी परन्तु फिर भी उस सरल जीवन पर अनौपचारिक नियन्त्रण था। धीरे-धीरे समाज जैसे-जैसे विकसित होता गया, वैसे-वैसे हमें कानून की आवश्यकता महसूस होने लगी। उदाहरण के लिए, जब भारत में जाति प्रथा विकसित थी, तब कुछ जातियों के लोगों की स्थिति समाज में अच्छी थी, वह समाज को अपने ही ढंग से चलाते थे। दूसरी ओर जिन व्यक्तियों की स्थिति जाति प्रथा में निम्न थी वे जाति के बनाए हुए नियमों से बहुत तंग थे। जाति प्रथा के बनाए जाने का मुख्य कारण समाज में सन्तुलन कायम करना था। जब राजनीति विज्ञान ने अपनी जड़ें मज़बूत कर ली तो उसने लोगों पर कानून द्वारा नियन्त्रण करना शुरू कर दिया। जो प्रथाएं समाज के लिए एक बुराई बन गई थीं और लोग भी उनको समाप्त करना चाहते थे तो कानून ने वहां अपने प्रभाव से लोगों को मुक्त करवाया क्योंकि इस कानून ने सभी लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार करना ठीक समझा और लोगों ने भी इसका सम्मान किया। इसके अतिरिक्त समय-समय पर समाज में वहमों-भ्रमों के आधार पर कई ऐसी प्रथाएं लोगों द्वारा कायम हुई थीं जिन्होंने समाज को अन्दर ही अन्दर से खोखला कर दिया था। इन प्रथाओं को समाप्त करना समाजशास्त्र के वश का काम नहीं था। इसीलिए उसने राजनीति विज्ञान का सहारा लिया।

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि चाहे समस्या राजनीतिक हो या सामाजिक, हमें दोनों की इकट्ठे सहायता की आवश्यकता पड़ती है। समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान दोनों ही समाज के अध्ययन से यद्यपि अलग-अलग दृष्टिकोण से जुड़े हुए हैं, परन्तु फिर भी इनकी समस्याएं समाज से सम्बन्धित हैं। इसीलिए इनमें काफ़ी अन्तर-निर्भरता होती है।

समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान में अन्तर (Difference between Sociology & Political Science)—यदि समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान एक-दूसरे पर निर्भर हैं तो उनमें कुछ अन्तर भी हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

(1) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है और राजनीति विज्ञान एक विशेष विज्ञान है। समाज शास्त्र समाज में पाए जाने वाले व्यक्ति के हर पक्ष के अध्ययन से सम्बधित होता है। इसमें सामाजिक प्रक्रियाओं, परम्पराओं, सामाजिक नियन्त्रण आदि सब आ जाते हैं अर्थात् .समाजशास्त्र, उन सब प्रकार के प्रपंचों का अध्ययन करता है, जोकि हर प्रकार की मानवीय क्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं। यह सम्पूर्ण समाज का अध्ययन करता है। इसीलिए सामान्य विज्ञान है परन्तु दूसरी ओर राजनीति विज्ञान व्यक्ति के जीवन के राजनीतिक हिस्से का अध्ययन करता है, अर्थात् उन क्रियाओं का अध्ययन करता है, जहां मनुष्य, सरकार या राज्य द्वारा दी गई रक्षा और अधिनिम प्राप्त करता है। इसीलिए यह विशेष विज्ञान है।

(2) समाजशास्त्र एक सकारात्मक विज्ञान है और राजनीति विज्ञान एक आदर्शवादी विज्ञान है, क्योंकि राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध राज के स्वरूप से भी होता है। इसमें समाज द्वारा प्रमाणित नियमों को भी स्वीकारा जाता है। परन्तु समाजशास्त्र काफ़ी स्वतन्त्र रूप में अध्ययन करता है, अर्थात् इसकी दृष्टि निष्पक्षता वाली होती है।

(3) राजनीति विज्ञान व्यक्ति को एक राजनीतिक प्राणी मानकर ही अध्ययन करता है परन्तु समाजशास्त्र इससे भी सम्बन्धित होता है कि व्यक्ति किस तरह और क्यों राजनीतिक प्राणी बना ?

(4) समाजशास्त्र असंगठित और संगठित सम्बन्धों समुदायों आदि का अध्ययन करता है क्योंकि इसमें चेतन और अचेतन प्रक्रियाओं दोनों का अध्ययन किया जाता है। परन्तु राजनीति विज्ञान में केवल संगठित सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है और इसमें चेतन प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। राज्य के चार तत्त्व जनसंख्या, निश्चित स्थान, सरकार, प्रभुत्व इसमें आ जाते हैं। यह चारों तत्त्व चेतन प्रक्रियाओं से सम्बन्धित हैं। समाजशास्त्र क्यों और कैसे राजनीतिक विषय बना।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र और इतिहास में संबंधों पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
इतिहास और समाजशास्त्र दोनों मानव समाज का अध्ययन करते हैं। इतिहास आदिकाल से लेकर अब तक मानवीय समाज की प्रमुख घटनाओं की सूची तैयार करता है और उन्हें कालक्रम के आधार पर संशोधित करके मानवीय जीवन की एक कहानी प्रस्तुत करता है। समाजशास्त्र और इतिहास दोनों मानवीय समाज का अध्ययन करते हैं। वास्तविकता में समाज शास्त्र की उत्पत्ति इतिहास से हुई है। समाजशास्त्र में ऐतिहासिक विधियों का प्रयोग किया जाता है जो इतिहास से ली गई हैं।

इतिहास मानव समाज के बीते हुए समय का अध्ययन करता है। यह आदिकाल से लेकर अब तक के मानवीय समाज का कालबद्ध वर्णन तैयार करता है। इतिहास केवल ‘क्या था’ का ही वर्णन नहीं करता अपितु ‘कैसे हुआ’ का भी विश्लेषण करता है। इसलिए इतिहास पढ़ने से हमें पता चलता है कि समाज किस तरह पैदा हुआ, इसमें सम्बन्ध, संस्थाएं, रीति-रिवाज कैसे आए। इस प्रकार इतिहास हमारे भूतकाल से सम्बन्धित है कि भूतकाल में क्याक्या हुआ, क्यों और कैसे हुआ।

इसके विपरीत समाजशास्त्र वर्तमान के मानवीय समाज का अध्ययन करता है। इसमें सामाजिक सम्बन्धों, उनके स्वरूपों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, संस्थाओं आदि का अध्ययन होता है। इसके साथ-साथ समाजशास्त्र में मानवीय संस्कृति, संस्कृति के अलग-अलग स्वरूपों का भी अध्ययन किया जाता है। इस तरह समाजशास्त्र वर्तमान समाज के अलग-अलग सम्बन्धों, संस्थाओं इत्यादि का अध्ययन करता है।

दोनों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इतिहास बीते हुए समाज के प्रत्येक पहलू का अध्ययन करता है और समाजशास्त्र उसी कार्य को वर्तमान में आगे बढ़ाते हैं।

इतिहास का समाजशास्त्र को योगदान (Contribution of History to Sociology)- समाजशास्त्र इतिहास द्वारा दी गई सामग्री का प्रयोग करता है। मानवीय समाज पुराने समय से चले आ रहे सामाजिक सम्बन्धों का जाल है जिसे समझने के लिए किसी-न-किसी समय पूर्व-काल में जाना पड़ता है। जीवन की उत्पत्ति, ढंग, सारा कुछ अतीत का भाग है। इनका अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्री को इतिहास की सहायता लेनी ही पड़ती है क्योंकि इतिहास से ही सामाजिक तथ्यों का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए वर्तमान को समझने के लिए इतिहास की आवश्यकता पड़ती है।

समाज शास्त्र में तुलनात्मक विधि का प्रयोग अलग-अलग संस्थाओं की तुलना करने के लिए किया जाता है। इस तरह करने के लिए ऐतिहासिक सामग्री की आवश्यकता पड़ती है। दुर्थीम द्वारा किए गए ‘सामाजिक तथ्य’ में भी इतिहास द्वारा दी गई सूचनाओं का प्रयोग किया गया है। वास्तविकता में तुलनात्मक विधि का प्रयोग करने वाले समाजशास्त्रियों को इतिहास की सहायता लेनी ही पड़ती है।

अलग-अलग सामाजिक संस्थाएं एक दूसरे को प्रभावित करती रहती हैं। इन प्रभावों के कारण ही इनमें परिवर्तन आते रहते हैं। इन परिवर्तनों को देखने के लिए दूसरी संस्थाओं के प्रभाव को देखना आवश्यक हो जाता है। ऐतिहासिक सामग्री इन सबको समझने में सहायता करती है।

समाजशास्त्र का इतिहास को योगदान (Contribution of Sociology to History)- इतिहास भी समाजशास्त्र की सामग्री का प्रयोग करता है। आधुनिक इतिहास ने समाजशास्त्र के कई संकल्पों को अपने अध्ययन क्षेत्र में शामिल किया है। इसलिए सामाजिक इतिहास नाम की नयी शाखा का निर्माण हुआ है। सामाजिक इतिहास किसी राजा का नहीं, अपितु किसी संस्था के क्रमिक विकास अथवा किसी कारण से हुए परिवर्तनों का अध्ययन करता है। इस प्रकार इतिहास जो चीज़ पहले फिलॉसफी से उधार लेता था, अब वह समाजशास्त्र से उधार लेता

अन्तर (Differences) –
1. दृष्टिकोण में अन्तर (Difference of point of view)-दोनों एक ही विषय सामग्री का अलग-अलग दृष्टिकोणों से अध्ययन करते हैं। इतिहास युद्ध का वर्णन करता है लेकिन समाजशास्त्र उन घटनाओं का अध्ययन करता है जो युद्ध का कारण बनीं। समाजशास्त्री उन घटनाओं का सामाजिक ढंग के साथ अध्ययन करता है। इस तरह इतिहास पुराने ज़माने पर बल देता है और समाजशास्त्र वर्तमान के ऊपर बल देता है।

2. विषय क्षेत्र में अन्तर (Difference of subject matter)-समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र इतिहास के विषय क्षेत्र से ज्यादा व्यापक है क्योंकि इतिहास कुछ विशेष घटनाओं का या नियमों का अध्ययन करता है जबकि समाजशास्त्र साधारण घटनाओं का या नियमों से अध्ययन करता है। इतिहास सिर्फ यह बताता है कि कोई घटना क्यों हुई, पर समाजशास्त्र अलग-अलग घटनाओं के अन्तर्सम्बन्धों के बीच रुचि रखता है और फिर घटनाओं के कारण बताने की कोशिश करता है।

3. विधियों में अन्तर (Difference of methods) समाजशास्त्र में तुलनात्मक विधि का प्रयोग होता है जबकि इतिहास में विवरणात्मक विधि का प्रयोग होता है। इतिहास किसी घटना का वर्णन करता है और उसके विकास के अलग-अलग पड़ावों (stages) का अध्ययन करता है, जिसके लिए वर्णन विधि ही उचित है। इसके विपरीत समाजशास्त्र किसी घटना के अलग-अलग देशों और अलग-अलग समय में मिलने वाले स्वरूपों का अध्ययन करके उस घटना में होने वाले परिवर्तनों के नियमों को स्थापित करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इतिहास और समाजशास्त्र की विधियों में भी काफ़ी अन्तर पाया जाता है।

4. इकाई में अन्तर (Difference in Unit)-समाजशास्त्र के विश्लेषण की इकाई मानवीय समाज और समूह है जबकि इतिहास मानव के कारनामों या कार्यों के अध्ययन पर बल देता है।

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प्रश्न 3.
राजनीतिक वैज्ञानिकों के लिए समाजशास्त्रीय समझ क्यों आवश्यक है ?
उत्तर-
राजनीतिक विज्ञान और समाजशास्त्र का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे से अन्तरसम्बन्धित हैं। प्लैटो और अरस्तु के अनुसार, राज्य और समाज के अर्थ एक ही हैं। बाद में इनके अर्थ अलग कर दिए गए और राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध केवल राज्य के कार्यों से सम्बन्धित कर दिया गया। इसी समय 1850 ई० के बाद समाजशास्त्र ने भी अपने विषय-क्षेत्र को कांट-छांट करके अपना अलग विषय-क्षेत्र बना लिया और अपने आपको राज्य से अलग कर दिया।

इस विज्ञान में राज्य की उत्पत्ति, विकास, राज्य का संगठन, सरकार के शासनिक प्रबन्ध की प्रणाली और इसके साथ सम्बन्धित संस्थाओं और उनके कार्यों का अध्ययन किया जाता है। यह व्यक्ति के राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित समूह और संस्थाओं का अध्ययन करता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि राजनीति विज्ञान में केवल संगठित सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।

राजनीति विज्ञान मानव के राजनीतिक जीवन और उससे सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। यह राज्य की उत्पत्ति, विकास, विशेषताओं, राज्य के संगठन, सरकार, उसकी शासन प्रणाली, राज्य से सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। इस प्रकार राजनीति विज्ञान केवल राजनीतिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है।

दूसरी ओर, समाजशास्त्र समाज सम्बन्धों, सम्बन्धों के अगल-अलग स्वरूपों, समूहों, प्रथाओं, प्रतिमानों, संरचनाओं, संस्थाओं, इनके अन्तर्सम्बन्धों, रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, परम्पराओं का अध्ययन करता है।

जहां राजनीति विज्ञान राजनीति अर्थात् राज्य और सरकार का अध्ययन करता है, दूसरी ओर समाजशास्त्र सामाजिक निरीक्षण की प्रमुख एजेंसियों में राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करता है। यह दोनों विज्ञान समूचे समाज का अध्ययन करते हैं। समाजशास्त्र ‘राज्य’ को एक राजनीतिक संस्था के रूप में देखता है और राजनीतिक विज्ञान उसी राज्य को संगठन और कानून के रूप में देखता है।

समाजशास्त्र का राजनीति विज्ञान को योगदान (Contribution of Sociology to Political Science)राजनीति विज्ञान में मानव को राजनीतिक प्राणी माना जाता है पर यह नहीं बताया जाता कि वह राजनीतिज्ञ कैसे कब बना। यह सब पता करने के लिए राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र की सहायता लेता है। यदि राजनीतिक विज्ञान समाजशास्त्र के सिद्धान्तों की सहायता ले तो मनुष्य से सम्बन्धित उसके अध्ययनों को बहुत सरल और सही बनाया जा सकता है। यदि राजनीति विज्ञान जब अपनी नीतियां बनाता है तो उसको सामाजिक कीमतों और आदर्शों को मुख्य रखना पड़ता है।

राजनीति विज्ञान को सामाजिक परिस्थितियों का ध्यान रखकर ही कानून बनाना पड़ता है। हमारी सामाजिक परम्पराएं, संस्कृति, प्रथाएं समाज के सदस्यों पर नियन्त्रण रखने के हेतु और समाज को संगठित तरीके से चलाने के लिए बनाई जाती हैं परन्तु जब इनको सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो यह कानून बन जाती हैं।

जब सरकार समाज की बनाई हुई उन प्रथाओं को, जो समूह द्वारा भी प्रमाणित होती हैं, को नज़र-अंदाज कर देती है तो ऐसी स्थिति में समाज विघटन के पथ पर चला जाता है। इससे समाज के विकास में भी रुकावट आ जाती है। राजनीति विज्ञान को सामाजिक परिस्थितियों की या प्रथाओं इत्यादि की जानकारी प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्र पर निर्भर रहना पड़ता है। समाज में हम कानून का सहारा लेकर समस्याओं का हल ढूंढ सकते हैं। अतः उपरोक्त विवरण से यह काफ़ी हद तक स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक विज्ञान को अपने क्षेत्र में अध्ययन ‘ करने के लिए समाज शास्त्र की बहुत आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 4.
मनोविज्ञान समाजशास्त्र को कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र और मनोविज्ञान, दोनों का आपस में गहरा सम्बन्ध होता है। यह दोनों ही विज्ञान मानव के व्यवहार का अध्ययन करते हैं। क्रैच एंड क्रैचफील्ड ने अपनी पुस्तक ‘सोशल साईकोलोजी’ में बताया “सामाजिक मनोविज्ञान समाज में व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है।
संक्षेप में हम देखते हैं कि समाजशास्त्र का अर्थ सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करना है और मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के मानसिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है। अब हम सामाजिक मनोविज्ञान का शाब्दिक अर्थ देखेंगे।

सामाजिक मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of Social Psychology)-सबसे पहली बात तो इस सम्बन्ध में यह कही जाती है कि यह व्यक्तिगत व्यवहार का अध्ययन करता है अर्थात् समाज का जो प्रभाव उसके मानसिक भाग पर पड़ता है, उसका अध्ययन किया जाता है। व्यक्तिगत व्यवहार के अध्ययन को समझने के लिए, वह उसकी सामाजिक परिस्थितियों को नहीं देखता अपितु तन्तु ग्रन्थी प्रणाली के आधार पर करता है।

मानसिक प्रक्रियाओं जिनका अध्ययन सामाजिक मनोविज्ञान करता है; यह है मन, प्रतिक्रिया, शिक्षा, प्यार, नफरत, भावनाएं इत्यादि। मनोविज्ञान इन सामाजिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करता है।

हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक प्रकटन के वैज्ञानिक अध्ययन का आधार मनोवैज्ञानिक है और इनका हम सीधे तौर पर ही निरीक्षण कर सकते हैं। अतः इस तरह हम यह विश्लेषण करते हैं कि ये दोनों विज्ञान एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। अब हम इस सम्बन्धी चर्चा करेंगे कि इन दोनों विज्ञानों की आपस में एक-दूसरे को देन है और इन दोनों में पाए गए नज़दीकी सम्बन्धों के आधार पर मनोविज्ञान की नई शाखा का जन्म हुआ, जो है सामाजिक मनोविज्ञान।

मनोविज्ञान का समाजशास्त्र को योगदान (Contribution of Psychology to Sociology) समाज शास्त्र में हम सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं। सामाजिक सम्बन्धों को समझने हेतु व्यक्ति के व्यवहार को समझना आवश्यक है क्योंकि मानव की मानसिक और शारीरिक आवश्यकताएं दूसरे व्यक्ति के साथ सम्बन्धों को प्रभावित करती हैं।

मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति मानव की इन मानसिक प्रक्रियाओं, विचारों, मनोभावों इत्यादि का सूक्ष्म अध्ययन करती है। समाजशास्त्र की व्यक्ति को या समाज के व्यवहारों को समझने हेतु मनोविज्ञान की आवश्यकता ज़रूर पड़ती है। ऐसा करने के लिए मनोविज्ञान की शाखा सामाजिक मनोविज्ञान सहायक होती है जो मनुष्य को सामाजिक स्थितियों में रखकर उनके अनुभवों, व्यवहारों और उनके व्यक्तित्व का अध्ययन करती है।

समाजशास्त्री यह भी कहते हैं कि समाज में होने वाले परिवर्तनों को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक आधार बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समाज को समझने के लिए व्यक्ति के व्यवहार को समझना आवश्यक है और यह काम मनोविज्ञान का है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) :

प्रश्न 1.
पुस्तक Das Capital के लेखक कौन हैं ?
(A) वैबर
(B) दुर्थीम
(C) मार्क्स
(D) स्पैंसर।
उत्तर-
(C) मार्क्स।

प्रश्न 2.
इनमें से किसके साथ अर्थशास्त्र का सीधा सम्बन्ध नहीं है ?
(A) उपभोग
(B) धार्मिक क्रियाएं
(C) उत्पादन
(D) वितरण।
उत्तर-
(B) धार्मिक क्रियाएं।

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र का इतिहास को क्या योगदान है ?
(A) इतिहास समाजशास्त्र की सामग्री का प्रयोग करता है
(B) इतिहास ने समाजशास्त्र के कई संकल्पों को अपने क्षेत्र में शामिल किया है
(C) सामाजिक इतिहास किसी संस्था के क्रमिक विकास तथा परिवर्तनों का अध्ययन करता है
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 4.
यह शब्द किसके हैं ? “समाज व्यक्ति का विस्तृत रूप है।” .
(A) मैकाइवर
(B) अरस्तु
(C) वैबर
(D) दुर्थीम।
उत्तर-
(B) अरस्तु।

III. सही/गलत (True/False) :

1. तारा विज्ञान प्राकृतिक विज्ञान है।
2. अर्थशास्त्र सामाजिक समस्याओं को समझाने में समाजशास्त्र की सहायता लेता है।
3. अरस्तु को राजनीति विज्ञान का जन्मदाता माना जाता है।
4. विज्ञान को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है।
5. राजनीति विज्ञान का दृष्टिकोण सामाजिक होता है।
6. अर्थशास्त्र में आगमन व निगमन विधियों का प्रयोग होता है।
7. अर्थशास्त्र उत्पादन, उपभोग तथा विभाजन से संबंधित होता है।
उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. सही,
  4. गलत,
  5. गलत,
  6. सही,
  7. सही।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Word/line Question Answers) :

प्रश्न 1.
यदि समाजशास्त्र वर्तमान की तरफ देखता है तो इतिहास…………..की तरफ देखता है।
उत्तर-
यदि समाजशास्त्र वर्तमान की तरफ देखता है तो इतिहास भूत की तरफ देखता है।

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प्रश्न 2.
मानवशास्त्र …………से सम्बन्ध रखता है।
उत्तर-
मानवशास्त्र मानव के विकास एवं वृद्धि से सम्बन्ध रखता है।

प्रश्न 3.
मानवशास्त्र का कौन-सा हिस्सा समाजशास्त्र से सम्बन्धित है ?
उत्तर-
मानवशास्त्र का हिस्सा, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानव विज्ञान समाजशास्त्र से सम्बन्धित है।

प्रश्न 4.
समाज किसके साथ बनता है ?
उत्तर-
समाज व्यक्तियों के साथ बनता है।

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प्रश्न 5.
इतिहास किसके अध्ययन पर बल देता है ?
उत्तर-
इतिहास मनुष्य के कारनामों के अध्ययन पर बल देता है।

प्रश्न 6.
प्राकृतिक विज्ञान की कोई उदाहरण दें।
उत्तर-
रसायन विज्ञान, पौधा विज्ञान, भौतिक विज्ञान इत्यादि सभी प्राकृतिक विज्ञान हैं।

प्रश्न 7.
समाजशास्त्र को क्या समझने के लिए इतिहास पर निर्भर रहना पड़ता है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र को आधुनिक समाज को समझने के लिए इतिहास पर निर्भर रहना पड़ता है।

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प्रश्न 8.
इतिहास किस प्रकार का विज्ञान है ?
उत्तर-
इतिहास मूर्त विज्ञान है।

प्रश्न 9.
अर्थशास्त्र किस चीज़ को समझने के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेता है ?
उत्तर-
अर्थशास्त्र सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेता है।

प्रश्न 10.
इतिहास में कौन-सी विधि का प्रयोग होता है ?
उत्तर-
इतिहास में विवरणात्मक विधि का प्रयोग होता है।

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प्रश्न 11.
अर्थशास्त्र किससे सम्बन्धित है ?
उत्तर-
अर्थशास्त्र, उत्पादन, उपभोग तथा विभाजन से सम्बन्धित है।

प्रश्न 12.
सभी सामाजिक विज्ञान एक-दूसरे के क्या होते हैं ?
उत्तर-
सभी सामाजिक विज्ञान एक-दूसरे के अनुपूरक तथा प्रतिपूरक होते हैं।

प्रश्न 13.
राजनीति शास्त्र का जन्मदाता………….को माना जाता है।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र का जन्मदाता अरस्तु को माना जाता है।

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प्रश्न 14.
किताब ‘अर्थशास्त्र’ का लेखक………था।
उत्तर-
किताब अर्थशास्त्र का लेखक कौटिल्य था।

प्रश्न 15.
राजनीति शास्त्र किस प्रकार की घटनाओं का अध्ययन करता है ?
उत्तर-
राजनीति शास्त्र केवल राजनीतिक घटनाओं का अध्ययन करता है।

प्रश्न 16.
शास्त्र को हम कितने भागों में बांट सकते हैं?
उत्तर-
शास्त्र को हम दो भागों में बांट सकते हैं-प्राकृतिक शास्त्र तथा सामाजिक शास्त्र।

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प्रश्न 17.
प्राकृतिक शास्त्र क्या होते हैं ?
उत्तर-
प्राकृतिक शास्त्र वे शास्त्र होते हैं, जो जीव वैज्ञानिक घटनाओं से तथा प्राकृतिक घटनाओं से सम्बन्धित होते हैं जैसे रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, वनस्पति शास्त्र इत्यादि।

प्रश्न 18.
सामाजिक शास्त्र क्या होते हैं ?
उत्तर-
सामाजिक शास्त्र में वे शास्त्र शामिल किए जाते हैं जो मानवीय समाज से सम्बन्धित घटनाओं, प्रक्रियाओं, विधियों इत्यादि से सम्बन्धित हों जैसे अर्थशास्त्र, मनोशास्त्र, मानवशास्त्र।

प्रश्न 19.
समाजशास्त्र में इतिहास से सम्बन्धित किस नई शाखा का विकास हुआ है?
उत्तर-
समाज शास्त्र में इतिहास से सम्बन्धित नई शाखा ऐतिहासिक समाजशास्त्र का निर्माण हुआ है।

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प्रश्न 20.
इतिहास क्या होता है?
उत्तर-
इतिहास आदि काल से लेकर आज तक मानवीय समाज की प्रमुख घटनाओं की सूची तैयार करता है तथा उन्हें कालक्रम के आधार पर संशोधित करके मानवीय जीवन की एक कहानी प्रस्तुत करता है।

प्रश्न 21.
बार्स ने समाजशास्त्र और सामाजिक शास्त्रों के सन्दर्भ में क्या शब्द कहे थे?
उत्तर-
बार्स ने कहा था कि, “समाजशास्त्र न तो दूसरे सामाजिक शास्त्रों की रखैल है तथा न ही दासी बल्कि उनकी बहन है।”

अति लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विज्ञानों का विभाजन।
उत्तर-
विज्ञान में हम सिद्धांतों तथा विधियों को ढूंढ़ते हैं। इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है तथा वह हैं:(i) प्राकृतिक विज्ञान (ii) सामाजिक विज्ञान।

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प्रश्न 2.
प्राकृतिक विज्ञान।
उत्तर-
प्राकृतिक विज्ञान वह विज्ञान होता है जिसका संबंध प्रकृति तथा जैविक घटना से होता है, जिनका संबंध, तथ्यों, सिद्धांतों इत्यादि को ढूंढ़ने का प्रयास करता है। जैसे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान।

प्रश्न 3.
सामाजिक विज्ञान।
उत्तर-
यह विज्ञान होते हैं जो मानवीय समाज से संबंधित तथ्यों, सिद्धांतों इत्यादि की खोज करते हैं। इसमें सामाजिक जीवन का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है जैसे अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, मानव विज्ञान इत्यादि।

प्रश्न 4.
इतिहास।
उत्तर-
इतिहास मानवीय समाज के बीते हुए समय का अध्ययन करता है। यह बीते हुए समय की घटनाओं तथा इनके आधार पर ही सामाजिक जीवन की विचारधारा को समझने तथा उसे समझाने का प्रयास करता है।

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प्रश्न 5.
आर्थिक संस्थाएं।
उत्तर-
आर्थिक संस्थाएं मनुष्य के आर्थिक क्षेत्र का अध्ययन करती हैं। इसमें धन का उत्पादन, वितरण तथा उपभोग किस ढंग से किया जाना चाहिए, इन सबका अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ।
उत्तर-
शब्द समाज शास्त्र अंग्रेजी भाषा के शब्द Sociology का हिन्दी रूपांतर है। Socio का अर्थ है समाज तथा Logos का अर्थ है विज्ञान। इस प्रकार समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 7.
राजनीति विज्ञान।
उत्तर-
राजनीति विज्ञान राज्य की उत्पत्ति, विकास, विशेषताओं इत्यादि से लेकर राज्य के संगठन, सरकार की शासन व्यवस्था इत्यादि से संबंधित सभाओं, संस्थाओं तथा उनके कार्यों का अध्ययन करता है।

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प्रश्न 8.
समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में प्रयोग होने वाली विधियाँ।
उत्तर-
समाजशास्त्र में ऐतिहासिक विधि (Historical Method), तुलनात्मक विधि (Comparative method) का प्रयोग किया जाता है। अर्थशास्त्र में आगमन विधि तथा निगमन विधि का प्रयोग किया जाता है।

लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राकृतिक विज्ञान।
उत्तर-
प्राकृतिक विज्ञान वह होता है जिसका सम्बन्ध प्राकृतिक व जैविक घटनाओं से होता है जिनसे यह सम्बन्धित तथ्यों, सिद्धान्तों, इत्यादि को ढूंढने का यत्न करते हैं जैसे भौतिक विज्ञान, राजनीतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, तारा विज्ञान, जीव विज्ञान इत्यादि।

प्रश्न 2.
सामाजिक विज्ञान।
उत्तर-
यह विज्ञान वह विज्ञान होते हैं जो मानवीय समाज का सम्बन्धित तथ्यों, सिद्धान्तों आदि की खोज करते हैं। इसमें सामाजिक जीवन की वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। जैसे अर्थ विज्ञान, राजनीतिक विज्ञान, मानव विज्ञान, समाजशास्त्र इत्यादि।

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प्रश्न 3.
समाजशास्त्र बाकी सामाजिक विज्ञान से कैसे सम्बन्धित है ?
उत्तर-
सभी सामाजिक विज्ञान में विषय क्षेत्र का अंतर नहीं बल्कि दृष्टिकोण में ही केवल अंतर होता है परन्तु सभी सामाजिक विज्ञान केवल मानवीय समाज का ही अध्ययन करते हैं जिस कारण हम समाजशास्त्र को इन बाकी सामाजिक विज्ञानों से अलग नहीं कर सकते। जैसे अर्थशास्त्र, आर्थिक समस्याओं से चाहे सम्बन्धित है परन्तु ये समस्याएं समाज का ही एक हिस्सा है। किसी भी समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए बाकी विज्ञानों का भी सहारा लेना पड़ता है।

प्रश्न 4.
इतिहास।
उत्तर-
इतिहास मानवीय समाज के भूतकाल का अध्ययन करता है। यह बीते हुए समय की घटनाओं तथा इनके आधार पर ही सामाजिक ज़िन्दगी की विचारधारा को समझने का यत्न करता है। इस प्रकार यह “क्या था” व “किस से हुआ” दोनों अवस्थाओं का विश्लेषण करता है। इस प्रकार इतिहास के द्वारा हमें मानवीय इतिहास के सामाजिक संगठन, रीति-रिवाजों, परम्पराओं इत्यादि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र व इतिहास कैसे एक-दूसरे से अलग होते हैं ?
उत्तर-
ये दोनों सामाजिक विज्ञान एक ही विषय सामग्री का अलग-अलग दृष्टिकोण से अध्ययन करते हैं। इतिहास कुछ विशेष घटनाओं का अध्ययन करता है जबकि समाजशास्त्र साधारण घटनाओं में नियमों की खोज करता है व इनके अन्तर्सम्बन्धों का वर्णन करता है। समाजशास्त्र में तुलनात्मक विधि व इतिहास में विवरणात्मक विधि का प्रयोग किया जाता है। समाजशास्त्र मानवीय समूह का विश्लेषण करता है परन्तु इतिहास मानव के कारनामों के अध्ययन पर जोर देता है। इतिहास का सम्बन्ध भूतकाल की घटनाओं से है जबकि समाजशास्त्र समाज से ही अपना सम्बन्ध रखता है।

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प्रश्न 6.
समाजशास्त्र इतिहास पर आधारित।
उत्तर-
समाजशास्त्र को आधुनिक समाज को समझने के लिए प्राचीन समाज का सहारा लेना पड़ता है। इतिहास से ही इसके प्राचीन समाज के सामाजिक तत्त्व प्राप्त होते हैं। तुलनात्मक विधि का प्रयोग करने के लिए भी इतिहास से प्राप्त सामग्री की आवश्यकता पड़ती है जिस कारण समाजशास्त्र को इस पर आधारित होना पड़ता है। अलगअलग सामाजिक संस्थाएं जिनमें एक-दूसरे के प्रभाव के कारण परिवर्तन होता है तो इस परिवर्तन को समझने के लिए ऐतिहासिक सामग्री ही हमारी मदद करती है। ऐतिहासिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की एक ऐसी शाखा है जिसके द्वारा सामाजिक परिस्थितियों को समझा जा सकता है।

प्रश्न 7.
मानव विज्ञान।
उत्तर-
मानव विज्ञान का अंग्रेजी रूपान्तर दो यूनानी शब्दों (Two Greeks Words) से मिलकर बना है Anthropo का अर्थ है मनुष्य व logy का अर्थ है विज्ञान अर्थात् मनुष्य का विज्ञान। इस विज्ञान का विषय बहुत विशाल है जिस कारण हम इसे तीन भागों में बांटते हैं

  • शारीरिक मानव विज्ञान (Physical Anthropology)-इसमें मानव के शारीरिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है, जिसमें मनुष्य की उत्पत्ति, विकास व नस्लों का ज्ञान प्राप्त होता है।
  • पूर्व ऐतिहासिक पुरासरी विज्ञान (Pre-historic Archedogy)-इस शाखा में मनुष्य के प्राथमिक इतिहास की खोज की जाती है जिस के लिए हमें कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता जैसे खण्डहरों की खुदाई आदि करके।
  • सामाजिक व सांस्कृतिक मानव विज्ञान (Social And Cultural Anthropology)-इसमें सम्पूर्ण मानवीय समाज का पूरा अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मानव विज्ञान में आदिम (Primitive) समाज का अध्ययन किया जाता है अर्थात् गांव, कबीले, इत्यादि।

प्रश्न 8.
आर्थिक संस्थाएं।
उत्तर-
आर्थिक संस्थाओं को सामाजिक संस्थाओं से अलग नहीं किया जा सकता। आर्थिक संस्थाएं मनुष्य के आर्थिक क्षेत्र का अध्ययन करती हैं। इसमें धन का उत्पादन, वितरण व उपभोग किस ढंग से किया जाना चाहिए इसका वर्णन किया जाता है। अर्थ विज्ञान, आर्थिक सम्बन्धों व उनसे पैदा होने वाले संगठनों, संस्थाओं व समूहों का अध्ययन करता है। आर्थिक घटनाएं सामाजिक ज़रूरतों द्वारा ही निर्धारित होती हैं।

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प्रश्न 9.
मनोविज्ञान।
उत्तर-
मनोविज्ञान व्यक्तिगत का अध्ययन करता है व यह व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं व व्यवहार को समझने के लिए तन्तु ग्रन्थी प्रणाली द्वारा ही करता है। इसमें यादादश्त बुद्धि, योग्यताएं, हमदर्दी इत्यादि आती है। इसमे मानव से सम्बन्धित तत्त्वों का अध्ययन किया जाता है। इसके अध्ययन का केन्द्र बिन्दु व्यक्ति होता है। इसी कारण यह व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है।

प्रश्न 10.
राजनीति विज्ञान।
उत्तर-
राजनीति विज्ञान राज्य की उत्पत्ति, विकास, विशेषताओं इत्यादि से लेकर राज्य के संगठन, सरकार की शासन प्रणाली आदि से सम्बन्धित सभाओं, संस्थाओं तथा उनके देश का अध्ययन करता है। इसके द्वारा राजनीतिक शक्ति व सत्ता को व्यक्त किया जाता है।

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V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में सम्बन्ध स्थापित करें।
उत्तर-
समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित भी हैं और अलग भी। इसलिए दोनों के सम्बन्धों और अन्तरों को जानने से पूर्व हमारे लिए यह आवश्यक है कि पहले हम यह जान लें कि समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र के क्या अर्थ हैं।

साधारण शब्दों में, मनुष्य जो भी आर्थिक क्रियाएं करता है, अर्थशास्त्र उनका अध्ययन करता है। अर्थशास्त्र यह बताता है कि मनुष्य अपनी न खत्म होने वाली इच्छाओं की पूर्ति अपने सीमित स्रोतों के साथ कैसे करता है। मनुष्य अपनी आर्थिक इच्छाओं की पूर्ति पैसा करता है। इसीलिए पैसों के उत्पादन, वितरण और उपभोग से सम्बन्धित मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन भी अर्थ की विज्ञान करता है। इस प्रकार इस व्याख्या में पैसे को अधिक महत्त्व दिया गया है पर आधुनिक अर्थशास्त्री पैसे की जगह पर मनुष्य को अधिक महत्त्व देते हैं।

समाजशास्त्र मानव संस्थाओं, सम्बन्धों, समूहों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, कीमतों, आपसी सम्बन्धों, सम्बन्धों की व्यवस्था, विचारधारा और उनमें होने वाले परिवर्तनों और परिणामों का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र समाज का अध्ययन करता है जो कि सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। – मनुष्य की प्रत्येक आर्थिक क्रिया व्यक्तियों की अन्तक्रियाओं का परिणाम होती है। इसके साथ-साथ आर्थिक क्रियाएं, सामाजिक क्रियाओं और सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रभाव डालती हैं। इसलिए सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी जानने हेतु आर्थिक संस्थाओं के बारे में पता होना आवश्यक है और आर्थिक क्रियाओं सम्बन्धी पता करने के लिए सामाजिक अन्तक्रियाओं का पता होना आवश्यक है।

समाजशास्त्र का अर्थशास्त्र को योगदान (Contribution of Sociology to Economics)-अर्थशास्त्र व्यक्ति को यह बताता है कि कम साधन होने के साथ वह किस प्रकार अपनी अनगिनत इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है। अर्थशास्त्री व्यक्ति का कल्याण तभी कर सकता है यदि उसे सामाजिक परिस्थितियों का पूरा ज्ञान हो परन्तु इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए वह समाजशास्त्र से सहायता लेता है।

अतः ऊपर दी गई चर्चा से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि अर्थशास्त्री समाजशास्त्रियों की सहायता के बिना कुछ भी नहीं कर सकते। कुछ भी नहीं से अर्थ है समाज में न तो प्रगति ला सकते हैं और न ही अपनी समस्याओं का हल ढूंढ़ सकते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि अर्थशास्त्री अपने क्षेत्र के अध्ययन के लिए समाज शास्त्रियों पर निर्भर हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनुष्य की प्रत्येक आर्थिक क्रिया, सामाजिक अन्तक्रिया का परिणाम होती है। इसीलिए मनुष्य की प्रत्येक आर्थिक क्रिया को उसके सामाजिक सन्दर्भ में रखकर ही समझा जा सकता है। इसीलिए समाज के आर्थिक विकास के लिए या समाज के लिए कोई आर्थिक योजना बनाने के लिए, उस समाज के सामाजिक पक्ष के पता होने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार अर्थशास्त्र समाजशास्त्र पर निर्भर करता है।

अर्थशास्त्र का समाजशास्त्र को योगदान (Contribution of Economics to Sociology)-समाज शास्त्र भी अर्थशास्त्र से बहुत सारी सहायता लेता है। आधुनिक समाज में आर्थिक क्रियाओं ने समाज के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है। कई प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों मैक्स वैबर, कार्ल मार्क्स, दुर्थीम और सोरोकिन इत्यादि ने आर्थिक क्षेत्र के अध्ययन के बाद सामाजिक क्षेत्र का अध्ययन किया। जब भी समाज में समय-समय पर आर्थिक कारणों में परिवर्तन आया तो उनका प्रभाव हमारे समाज पर ही हुआ। समाजशास्त्री ने जब यह अध्ययन करना होता है कि हमारे समाज में सामाजिक सम्बन्ध क्यों टूट रहे हैं या समाज में व्यक्ति का व्यक्तिवादी दृष्टिकोण क्यों हो रहा है तो इसका अध्ययन करने के लिए वह समाज की आर्थिक क्रियाओं पर नज़र डालता है तो यह महसूस करता है कि जैसे-जैसे समाज में पैसे की आवश्यकता बढ़ती जा रही है लोग अधिकाधिक सुविधाओं वाली चीजें प्राप्त करने के पीछे लग जाते हैं।

उसके साथ समाज का दृष्टिकोण भी पूंजीपति हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति को समाज में जीने के लिए खुद मेहनत करनी पड़ रही है। इसी कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और व्यक्तियों की दृष्टि भी व्यक्तिवादी हो जाती है। इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार की सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करने के लिए उसको अर्थशास्त्र की सहायता लेनी पड़ती है। उदाहरण के लिए नशा करने जैसी सामाजिक समस्या ही ले लो। इस समस्या ने जवान पीढ़ी को काफ़ी कमज़ोर बना दिया है। इस समस्या का मुख्य कारण आर्थिक है क्योंकि जैसे-जैसे लोग गलत तरीकों का इस्तेमाल करके (स्मगलिंग इत्यादि) आवश्यकता से अधिक पैसा कमा लेते हैं तब वह पैसों का दुरुपयोग करने लग जाते हैं। अत: यह नशे के दुरुपयोग जैसी बुरी सामाजिक समस्या, जोकि समाज को खोखला कर रही है, से बचने के लिए हमें ग़लत साधनों से पैसे कमाने पर निगरानी रखनी चाहिए जिससे कि दहेज प्रथा, नशे का प्रयोग, जुआ खेलना आदि बुरी सामाजिक समस्याओं का अन्त किया जा सके। इन समस्याओं को खत्म करने के लिए समाजशास्त्र अर्थशास्त्र पर निर्भर रहता है।

आजकल के समय में बहुत सारे आर्थिक वर्ग, जैसे मज़दूर वर्ग, पूंजीपति वर्ग, उपभोक्ता और उत्पादक वर्ग सामने आए हैं। इसलिए इन वर्गों और उनके सम्बन्धों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि समाजशास्त्र इन वर्गों के सामाजिक सम्बन्धों को समझे। इन आर्थिक सम्बन्धों को समझने के लिए उसे अर्थ विज्ञान की सहायता लेनी ही पड़ती है।

समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में अंतर (Difference between Sociology & Economics)-समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में जहां इतना गहरा सम्बन्ध पाया जाता है और यह भी पता चलता है कि कैसे यह दोनों विज्ञान एक-दूसरे के नियमों व परिणामों का खुलकर प्रयोग करते हैं। इन दोनों विज्ञानों में भिन्नता भी पाई जाती है, जो निम्नलिखित अनुसार है-

1. विषय क्षेत्र (Scope)-समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के विषय-क्षेत्र में भी अन्तर है। समाजशास्त्र समाज के अलग-अलग भागों का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। इसलिए समाजशास्त्र का क्षेत्र विशाल है, परन्तु अर्थशास्त्र केवल समाज के आर्थिक हिस्से के अध्ययन तक ही सीमित है, इसीलिए इसका विषय क्षेत्र सीमित है।

2. सामान्य और विशेष (General & Specific) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है क्योंकि यह उन सब प्रकार के सामाजिक प्रकटनों का अध्ययन करता है जो हरेक समाज के हरेक भाग से सम्बन्धित नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज से सम्बन्धित हैं। परन्तु अर्थशास्त्र एक विशेष विज्ञान है, क्योंकि इसका सम्बन्ध आर्थिक क्रियाओं तक सीमित है।

3. दृष्टिकोण में अन्तर (Different Points of View)-समाजशास्त्र का कार्य समाज में पाई गई सामाजिक क्रियाओं को समझना है, सामाजिक समस्याओं आदि का अध्ययन करना है। इसलिए इसका दृष्टिकोण सामाजिक है। दूसरी ओर अर्थशास्त्री का सम्बन्ध व्यक्ति की पदार्थ खुशी से है जैसे अधिकाधिक पैसा कैसे कमाना है, उसका विभाजन कैसे करना है और उसका प्रयोग कैसे करना है आदि। इसीलिए इसका दृष्टिकोण आर्थिक है।

4. इकाई के अध्ययन में अन्तर (Difference in Study of Unit)-समाजशास्त्र की इकाई समूह है। वह समूह में रह रहे व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है। परन्तु दूसरी ओर अर्थशास्त्री व्यक्ति के आर्थिक पक्ष के अध्ययन से सम्बन्धित होता है। इसीलिए इसकी इकाई व्यक्ति है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान के सम्बन्धों की चर्चा करो।
अथवा
समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान में क्या सम्बन्ध है ? अन्तरों सहित स्पष्ट करो।
उत्तर-
राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र का आपस में बहत गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे से अन्तरसम्बन्धित हैं। प्लैटो और अरस्तु के अनुसार, राज्य और समाज के अर्थ एक ही हैं। बाद में इनके अर्थ अलग कर दिए गए और राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध केवल राज्य के कार्यों से सम्बन्धित कर दिया गया। इसी समय 1850 ई० के बाद समाज शास्त्र ने भी अपने विषय-क्षेत्र को कांट-छांट करके अपना अलग विषय-क्षेत्र बना लिया और अपने आपको राज्य से अलग कर लिया।

इस विज्ञान में राज्य की उत्पत्ति, विकास, राज्य का संगठन, सरकार के शासनिक प्रबन्ध की व्यवस्था और इसके साथ सम्बन्धित संस्थाओं और उनके कार्यों का अध्ययन किया जाता है। यह व्यक्ति के राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित समूह और संस्थाओं का अध्ययन करता है। संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि राजनीति विज्ञान में केवल संगठित सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।

राजनीति विज्ञान मनुष्य के राजनीतिक जीवन और उससे सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। यह राज्य की उत्पत्ति, विकास, विशेषताओं, राज्य के संगठन, सरकार, उसकी शासन प्रणाली, राज्य से सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। इस प्रकार राजनीति विज्ञान केवल राजनीतिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है। . दूसरी ओर समाजशास्त्र समाज सम्बन्धों, सम्बन्धों के अलग-अलग स्वरूपों, समूहों, प्रथाओं, प्रतिमानों, संरचनाओं, संस्थाओं, इनके अन्तर्सम्बन्धों, रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, परम्पराओं का अध्ययन करता है।

जहां राजनीति विज्ञान, राजनीति अर्थात् राज्य और सरकार का अध्ययन करता है, दूसरी ओर, समाजशास्त्र सामाजिक निरीक्षण की प्रमुख एजेंसियों में राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करता है। ये दोनों विज्ञान समूचे समाज का अध्ययन करते हैं। समाजशास्त्र ‘राज्य’ को एक राजनीतिक संस्था के रूप में देखता है और राजनीति विज्ञान उस राज्य को संगठन और कानून के रूप में देखता है। मैकाइवर और पेज के अनुसार ‘समाज’ और ‘राज्य’ का दायरा एक नहीं और न ही दोनों का विस्तार साथ-साथ हुआ है। अपितु राज्य की स्थापना समाज में कुछ विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति करने के लिए हुई है। . रॉस (Ross) के अनुसार, “राज्य अपनी पुरानी अवस्था में राजनीतिक अवस्था से अधिक सामाजिक संस्था थी। यह सत्य है कि राजनीतिक तथ्यों का ज्ञान सामाजिक तथ्यों में ही है। इन दोनों विज्ञानों में अन्तर केवल इसीलिए है कि इन दोनों विज्ञानों के क्षेत्र की विशालता अध्ययन के लिए विशेष होती है, बल्कि इसीलिए नहीं है कि इनमें कोई स्पष्ट विभाजन रेखा है।”

ऊपर दी गई परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि राजनीतिक विज्ञान का सम्बन्ध समाज में पाई जाने वाली संस्थाओं, सरकार और संगठनों का अध्ययन करने से है जबकि समाजशास्त्र का सम्बन्ध समाज का अध्ययन करने से है परन्तु राजनीतिक विज्ञान का क्षेत्र समूचे समाज का ही हिस्सा है जिसका समाजशास्त्र अध्ययन करता है। इस प्रकार इन दोनों विज्ञानों में अन्तर-निर्भरता भी पाई जाती है।

समाजशास्त्र का राजनीति विज्ञान को योगदान (Contribution of Sociology to Political Science)राजनीति विज्ञान में मानव को राजनीतिक प्राणी माना जाता है पर यह नहीं बताया जाता कि वह राजनीतिक कैसे और कब बना। यह सब पता करने के लिए राजनीति विज्ञान समाज शास्त्र की सहायता लेता है। यदि राजनीतिक विज्ञान समाजशास्त्र के सिद्धान्तों की सहायता ले तो मनुष्य से सम्बन्धित उसके अध्ययनों को बहुत सरल और सही बनाया जा सकता है। राजनीति विज्ञान जब अपनी नीतियां बनाता है तो उसको सामाजिक कीमतों और आदर्शों को मुख्य रखना पड़ता है।

राजनीति विज्ञान को सामाजिक परिस्थितियों का ध्यान रखकर ही कानून बनाना पड़ता है। हमारी सामाजिक परम्पराएं, संस्कृति, प्रथाएं समाज के सदस्यों पर नियन्त्रण रखने हेतु और समाज को संगठित तरीके से चलाने के लिए बनाई जाती हैं परन्तु जब इनको सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो यह कानून बन जाती हैं।

जब सरकार समाज की बनाई हुई उन प्रथाओं को, जो समूह द्वारा भी प्रमाणित होती हैं, को नज़र-अंदाज कर देती है तो ऐसी स्थिति में समाज विघटन के पथ पर चला जाता है। इससे समाज के विकास में भी रुकावट आ जाती है। राजनीति विज्ञान को सामाजिक परिस्थितियों की या प्रथाओं इत्यादि की जानकारी प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्र पर निर्भर रहना पड़ता है। समाज में हम कानून का सहारा लेकर समस्याओं का हल ढूंढ सकते हैं। अतः, उपरोक्त विवरण से यह काफ़ी हद तक स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक विज्ञान को अपने क्षेत्र में अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्र की बहुत आवश्यकता पड़ती है। इसी के साथ समाज की तरक्की, विकास और संगठन आदि भी बना रहता है। इस उपरोक्त विवरण का अर्थ यह नहीं कि समाजशास्त्र ही राजनीति विज्ञान की सहायता करता है अपितु राजनीति विज्ञान की भी समाजशास्त्र में बहुत ज़रूरत रहती है।

राजनीति विज्ञान का समाजशास्त्र को योगदान (Contribution of Political Science to Sociology)यदि समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान को कुछ देता है तो उससे बहुत कुछ लेता भी है। समाजशास्त्र भी राजनीति विज्ञान पर निर्भर करता है और उससे मदद लेता है।

किसी भी समाज की बिना नियन्त्रण के कल्पना ही नहीं की जा सकती। समाजशास्त्र की इस शाखा को राजनीति समाजशास्त्र भी कहते हैं। यदि देखा जाए तो समाज या सामाजिक जीवन को असली जीवन ही राजनीति विज्ञान से प्राप्त हुआ है। समाज की प्रगति, संगठन, संस्थाओं, प्रक्रियाओं, परम्पराओं, संस्कृति तथा सामाजिक सम्बन्धों आदि पर आधारित है। यदि हम प्राचीन समाज का ज़िक्र करें, जब राजनीतिक विज्ञान की पूर्णतया शुरुआत नहीं हुई थी, तब व्यक्ति. की ज़िन्दगी काफ़ी सरल थी परन्तु फिर भी उस सरल जीवन पर अनौपचारिक नियन्त्रण था। धीरे-धीरे समाज जैसे-जैसे विकसित होता गया, वैसे-वैसे हमें कानून की आवश्यकता महसूस होने लगी। उदाहरण के लिए, जब भारत में जाति प्रथा विकसित थी, तब कुछ जातियों के लोगों की स्थिति समाज में अच्छी थी, वह समाज को अपने ही ढंग से चलाते थे। दूसरी ओर जिन व्यक्तियों की स्थिति जाति प्रथा में निम्न थी वे जाति के बनाए हुए नियमों से बहुत तंग थे। जाति प्रथा के बनाए जाने का मुख्य कारण समाज में सन्तुलन कायम करना था।

जब राजनीति विज्ञान ने अपनी जड़ें मज़बूत कर ली तो उसने लोगों पर कानून द्वारा नियन्त्रण करना शुरू कर दिया। जो प्रथाएं समाज के लिए एक बुराई बन गई थीं और लोग भी उनको समाप्त करना चाहते थे तो कानून ने वहां अपने प्रभाव से लोगों को मुक्त करवाया क्योंकि इस कानून ने सभी लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार करना ठीक समझा और लोगों ने भी इसका सम्मान किया। इसके अतिरिक्त समय-समय पर समाज में वहमों-भ्रमों के आधार पर कई ऐसी प्रथाएं लोगों द्वारा कायम हुई थीं जिन्होंने समाज को अन्दर ही अन्दर से खोखला कर दिया था। इन प्रथाओं को समाप्त करना समाजशास्त्र के वश का काम नहीं था। इसीलिए उसने राजनीति विज्ञान का सहारा लिया।

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि चाहे समस्या राजनीतिक हो या सामाजिक, हमें दोनों की इकट्ठे सहायता की आवश्यकता पड़ती है। समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान दोनों ही समाज के अध्ययन से यद्यपि अलग-अलग दृष्टिकोण से जुड़े हुए हैं, परन्तु फिर भी इनकी समस्याएं समाज से सम्बन्धित हैं। इसीलिए इनमें काफ़ी अन्तर-निर्भरता होती है।

समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान में अन्तर (Difference between Sociology & Political Science)—यदि समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान एक-दूसरे पर निर्भर हैं तो उनमें कुछ अन्तर भी हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

(1) समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है और राजनीति विज्ञान एक विशेष विज्ञान है। समाज शास्त्र समाज में पाए जाने वाले व्यक्ति के हर पक्ष के अध्ययन से सम्बधित होता है। इसमें सामाजिक प्रक्रियाओं, परम्पराओं, सामाजिक नियन्त्रण आदि सब आ जाते हैं अर्थात् .समाजशास्त्र, उन सब प्रकार के प्रपंचों का अध्ययन करता है, जोकि हर प्रकार की मानवीय क्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं। यह सम्पूर्ण समाज का अध्ययन करता है। इसीलिए सामान्य विज्ञान है परन्तु दूसरी ओर राजनीति विज्ञान व्यक्ति के जीवन के राजनीतिक हिस्से का अध्ययन करता है, अर्थात् उन क्रियाओं का अध्ययन करता है, जहां मनुष्य, सरकार या राज्य द्वारा दी गई रक्षा और अधिनिम प्राप्त करता है। इसीलिए यह विशेष विज्ञान है।

(2) समाजशास्त्र एक सकारात्मक विज्ञान है और राजनीति विज्ञान एक आदर्शवादी विज्ञान है, क्योंकि राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध राज के स्वरूप से भी होता है। इसमें समाज द्वारा प्रमाणित नियमों को भी स्वीकारा जाता है। परन्तु समाजशास्त्र काफ़ी स्वतन्त्र रूप में अध्ययन करता है, अर्थात् इसकी दृष्टि निष्पक्षता वाली होती है।

(3) राजनीति विज्ञान व्यक्ति को एक राजनीतिक प्राणी मानकर ही अध्ययन करता है परन्तु समाजशास्त्र इससे भी सम्बन्धित होता है कि व्यक्ति किस तरह और क्यों राजनीतिक प्राणी बना ?

(4) समाजशास्त्र असंगठित और संगठित सम्बन्धों समुदायों आदि का अध्ययन करता है क्योंकि इसमें चेतन और अचेतन प्रक्रियाओं दोनों का अध्ययन किया जाता है। परन्तु राजनीति विज्ञान में केवल संगठित सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है और इसमें चेतन प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। राज्य के चार तत्त्व जनसंख्या, निश्चित स्थान, सरकार, प्रभुत्व इसमें आ जाते हैं। यह चारों तत्त्व चेतन प्रक्रियाओं से सम्बन्धित हैं। समाजशास्त्र क्यों और कैसे राजनीतिक विषय बना।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र और मानव विज्ञान के सम्बन्धों की चर्चा करो।
अथवा
समाजशास्त्र और मानव विज्ञान अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं। स्पष्ट करो।
उत्तर-
समाजशास्त्र की उत्पत्ति का स्रोत इतिहास है जबकि मानव विज्ञान की उत्पत्ति का स्रोत जीव-विज्ञान है। यदि इन दोनों की विधियों, विषय-क्षेत्र को देखें तो यह अलग-अलग हैं, पर इन दोनों का सम्बन्ध बहुत गहरा है। इन दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। यह अपनी पहचान बनाए रखने के लिए एक-दूसरे से सहायता लेते रहते हैं। इन दोनों को समझने हेतु इन दोनों की विषय-सामग्री की ओर देखें तो इन दोनों के रिश्तों को समझने में आसानी होगी।

समाजशास्त्र आधुनिक समाज का अध्ययन है। समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक समूहों और उनके अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। इसके साथ-साथ समाजशास्त्र में संस्कृति के अलग-अलग भागों, समाज में मिलने वाली कई प्रकार की संस्थाओं का भी अध्ययन किया जाता है।

मानव विज्ञान (Anthropology) दो यूनानी शब्दों को मिलाकर बना है। Anthropos, जिसका अर्थ है ‘मनुष्य’ और ‘Logies’ जिसका अर्थ है ‘विज्ञान’। इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ है ‘मानव विज्ञान’। मानव विज्ञान मनुष्य का विज्ञान है। मानव विज्ञान मनुष्य विज्ञान, मनुष्य की उत्पत्ति और विकास के भौतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक . . दृष्टिकोण का अध्ययन है।।

मानव विज्ञान का विषय और क्षेत्र काफ़ी विशाल है। इसलिए इसे तीन भागों में बांटा गया है।
1. भौतिक मानव विज्ञान (Physical Anthropology)- मानव विज्ञान की यह शाखा मानव के शारीरिक लक्षणों का अध्ययन करती है जिनसे मनुष्य की उत्पत्ति और विकास हुआ।

2. पूर्व-ऐतिहासिक पुरासरी विज्ञान (Pre-Historical Archeology)-इसमें मनुष्य के इतिहास की खोज करना है जिनके बारे में कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता है। पुराने खण्डहरों की खुदाई करके, हड्डियों, पुरानी वस्तुओं से उस समय के बारे में पता लगाया जाता है। इन भौतिक सबूतों के आधार पर मनुष्य की उत्पत्ति, उसके विकास, संस्कृति इत्यादि के ऊपर रोशनी डाली जाती है। इस प्रकार यह पुराने समय के मनुष्य की संस्कृति को ढूंढ़ता

3. सामाजिक और सांस्कृतिक मानव विज्ञान (Social and Cultural Anthropology)- यह मानवीय समाज का पूर्णतया से अध्ययन करता है। यह एक समाज की आर्थिक, राजनीतिक, पारिवारिक व्याख्या, धर्म, कला, विश्वासों इत्यादि प्रत्येक चीज़ का अध्ययन करता है। इसमें प्राचीन और आधुनिक समाज में उनके समकालीन ढांचों, संस्थाओं और व्यवहारों का विश्लेषणात्मक और तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।

सामाजिक मानव विज्ञान वाली मानव विज्ञान की शाखा समाजशास्त्र से काफ़ी सम्बन्धित है जबकि समाज शास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों, उनके स्वरूपों, संस्थाओं, समूहों और प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इन दोनों विज्ञानों के उद्देश्य एक-दूसरे से काफ़ी मिलते-जुलते हैं। इसीलिए यह दोनों विज्ञान एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।

उपरोक्त लिखे विवरण से स्पष्ट है कि मानव विज्ञान में आदिम समाज का अध्ययन किया जाता है। आदिम समाज का अर्थ उन समूहों से है जो छोटे-से भौगोलिक क्षेत्र में, कम संख्या में रहते थे और जिनका बाह्य दुनिया से कम सम्बन्ध था और जो साधारण तकनीक का प्रयोग करते हैं। संक्षेप में, सामाजिक मानव विज्ञान सम्पूर्ण समाज का पूर्णता से अध्ययन करता है।

मानव विज्ञान की समाज शास्त्र को देन (Contribution of Anthropology to Sociology)- समाज शास्त्र मानव विज्ञान के अध्ययन का काफ़ी लाभ उठाता है। भौतिक मानव विज्ञान जो समूहों और नस्लों का ज्ञान उपलब्ध करवाता है, उसे समाजशास्त्री अलग-अलग संस्थाओं और व्यवस्थाओं को समझने के लिए प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्रियों ने सामाजिक स्तरीकरण को प्रजातीय आधार पर समझने की कोशिश की है। इसके अतिरिक्त मानव विज्ञान यह भी बताता है कि आदिम समाज की संस्थाएं, व्यवस्था और संगठन बहुत सरल थे जिसकी सहायता से समाजशास्त्र आज के समाज को समझ सका है। मानव विज्ञान ने धर्म की उत्पत्ति की सामग्री समाजशास्त्र को दी है। इस प्रकार आदिम समाज का अध्ययन जो कि मानव विज्ञान का विषय वस्तु है। उसमें समाज शास्त्र की दिलचस्पी काफ़ी बढ़ गई है। वास्तविकता में समाजशास्त्र की प्रमुख शाखा सामाजिक उत्पत्ति और कुछ नहीं, अपितु सामाजिक मानव विज्ञान है। समाजशास्त्र ने तो कुछ संकल्प, जैसे-सांस्कृतिक क्षेत्र, सांस्कृतिक गुण, सांस्कृतिक जटिलता, सांस्कृतिक पीड़ा इत्यादि मानव विज्ञान से उधार लिये हैं और इनका प्रयोग समाजशास्त्रियों के लिए काफ़ी लाभदायक सिद्ध हुआ है। तभी तो समाजशास्त्र में एक नयी शाखा सांस्कृतिक समाजशास्त्र का विकास हुआ है।

समाजशास्त्र का मानव विज्ञान को योगदान (Contribution of Sociology to Anthropology)केवल समाजशास्त्र ही नहीं, अपितु मानव विज्ञान भी समाजशास्त्र की सहायता लेता है। मानव विज्ञान को संस्कृति की उत्पत्ति और विकास के लिए सामाजिक अन्तक्रियाओं और सम्बन्धों को समझना पड़ता है जो समाजशास्त्र के क्षेत्र में आते हैं। संस्कृति के बिना कोई समाज नहीं हो सकता और इसकी उत्पत्ति अन्तक्रियाओं और सम्बन्धों पर निर्भर करती है।

समाजशास्त्र का एक दूसरा योगदान मानव विज्ञान को यह है कि मानव विज्ञान ने आधुनिक समाज के ज्ञान के आधार पर कई परिकल्पनाओं का निर्माण करके आदिम समाज का अध्ययन किया है, जिनसे मानव विज्ञान को अपनी विषय सामग्री समझने में काफ़ी सहायता मिली है।

मानव विज्ञान ने समाजशास्त्र के कुछ विषयों, संकल्पों और विधियों को अपने क्षेत्र में शामिल करके अपनी विषय सामग्री को सम्बोधित किया है। मानव विज्ञान ने सामूहिक एकता को उत्पन्न करने वाले सांस्कृतिक और सामाजिक तथ्यों के साथ-साथ और तथ्यों का भी अध्ययन किया है जिनके कारण संघर्ष की आदत मानव में आई।

समाजशास्त्र और मानव विज्ञान में अन्तर (Difference between Sociology & Anthropology)-
1. समाजशास्त्र और मानव विज्ञान की विषय-वस्तु में भी अन्तर डाला गया है। समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों, संगठन, संरचना, सामाजिक व्यवस्था इत्यादि का अध्ययन करता है और मानव विज्ञान सम्पूर्ण समाज के अध्ययन से अपने आपको सम्बन्धित रखता है अर्थात् कि इसमें समाज की धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि भाव के हर पक्ष का अध्ययन करता है। इसीलिए इसे सामाजिक विरासत का विज्ञान भी कहा जाता है क्योंकि इसके द्वारा ही संस्कृति संभाल कर रखी जाती है।

2. मानव विज्ञान उन संस्कृतियों का अध्ययन करता है, जो छोटी और स्थिर होती हैं। परन्तु समाजशास्त्र उन संस्कृतियों का अध्ययन करता है जो विशाल और परिवर्तनशील होती हैं। इस आधार पर हम देखते हैं कि मानव विज्ञान तेजी से विकसित होता है और समाजशास्त्र से बढ़िया समझा जाता है।

3. मानव विज्ञान और समाजशास्त्र दोनों अलग-अलग विज्ञान हैं। मानव विज्ञान प्राचीन समय में पाए गए मानव और उसकी संस्कृति का अध्ययन करता है परन्तु समाजशास्त्र इसी विषय वस्तु को आधुनिक व्यवस्था से सम्बन्धित रखकर अध्ययन करता है।
इस प्रकार समाजशास्त्र भविष्य तक भी ले जाता है परन्तु दूसरी ओर मानव विज्ञान समस्याओं के अध्ययन तक अपने आपको सीमित रखता है।

4. समाजशास्त्र और मानव विज्ञान दोनों में अध्ययन की अलग-अलग विधियां प्रयोग की जाती हैं। मानव विज्ञान में अवलोकन, आगमन आदि विधियों का प्रयोग किया जाता है। समाजशास्त्र सर्वेक्षण, प्रश्नावली, अनुसूची, आंकड़ों आदि पर आधारित है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र का मनोविज्ञान को क्या योगदान है ? दोनों विज्ञानों के बीच अंतरों का भी वर्णन करें।
उत्तर-
समाजशास्त्र का मनोविज्ञान को योगदान (Contribution of Sociology to Psychology)मनोविज्ञान को मानव के व्यवहार को समझने हेतु समाजशास्त्र पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि मनुष्य के व्यवहार को समाज की संस्कृति प्रभावित करती है और संस्कृति सम्बन्धी आवश्यक जानकारी समाजशास्त्र देता है।

मानव एक सामाजिक प्राणी है। पशुओं के स्थान पर मानव अपने मां-बाप और समाज पर अधिक निर्भर करता है। समाज में रहते हुए उसमें समाजीकरण की प्रक्रिया के कारण कई गुणों का विकास होता है। प्रत्येक समाज में रहने के कुछ नियम होते हैं। यह नियम व्यक्ति समाज में रहकर सीख सकता है और इन नियमों का पीढी दर पीढी विकास होता है और परिवर्तन भी होता रहता है। प्रत्येक संस्कृति एक व्यक्तित्व बनाती है और यह व्यक्तित्व बचपन के सांस्कृतिक अनुभवों का परिणाम होता है। मनोविज्ञान के लिए मानव के व्यवहार और मानसिक क्रियाओं को समझने के लिए आवश्यक है कि वह उनका सामाजिक वातावरण में ज्ञान प्राप्त करे जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है। यह सब विषय समाजशास्त्र के क्षेत्र में आते हैं। इसीलिए इस प्रकार के ज्ञान के लिए मनोविज्ञान को समाजशास्त्र पर निर्भर रहना पड़ता है।

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि दोनों विज्ञान एक-दूसरे पर अन्तर्निर्भर ही नहीं, अपितु एक-दूसरे के पूरक भी हैं। दोनों में से कोई भी एक विज्ञान दूसरे के क्षेत्र में जाए बिना अपने विशेष विषय का पूर्ण तौर पर अध्ययन नहीं कर सकता। जिस प्रकार मनोविज्ञान को मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं की वास्तविकता को समझने के लिए समाजशास्त्रीय ज्ञान पर निर्भर रहना पड़ता है, उसी प्रकार सामाजिक व्यवहारों, सम्बन्धों और अन्तक्रियाओं सम्बन्धी सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्री को मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों पर निर्भर होना पड़ता है।

समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में अन्तर (Difference between Sociology & Psychology) –
1. दृष्टिकोण में अन्तर (Difference in Outlook)-मनोविज्ञान के अनुसार मानव के व्यवहार का आधार । मन और चेतना है जबकि समाजशास्त्र के अनुसार सामाजिक आधार मानव का समूह में रहने का स्वभाव है। इस प्रकार मनोविज्ञान का दृष्टिकोण व्यक्तिगत और समाजशास्त्र का दृष्टिकोण सामाजिक है।

2. अध्ययन विधियों में अन्तर (Difference in Methods)—मनोविज्ञान में अधिकतर प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग किया जाता है, जिसका कि समाजशास्त्र में काफ़ी कम प्रयोग होता है। समाजशास्त्र में ऐतिहासिक विधि, तुलनात्मक विधि, संगठनात्मक कार्यात्मक विधि इत्यादि का अधिकतर प्रयोग होता है।

3. विषय-सामग्री में अन्तर (Difference in subject matter)-मनोविज्ञान एक ही व्यक्ति की अलगअलग क्रियाओं के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करता है जबकि समाजशास्त्र अनेकों व्यक्तियों में होने वाले सम्बन्धों का अध्ययन करता है।

4. इकाई में अन्तर (Difference in Unit)-मनोविज्ञान में हमेशा एक व्यक्ति का अध्ययन किया जाता है जबकि समाजशास्त्र में कम-से-कम दो व्यक्तियों का अध्ययन किया जाता है।

इस प्रकार उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि दोनों विज्ञानों में कोई भी पूर्ण रूप से स्वतन्त्र नहीं है। दोनों एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं। एक-दूसरे के बिना यह नहीं रह सकते। अपनी पहचान बनाए रखने के लिए इनको एकदूसरे की सहायता करनी और लेनी ही पड़ती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 2 समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध

समाजशास्त्र का अन्य समाज विज्ञानों से संबंध PSEB 11th Class Sociology Notes

  • प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कई पक्ष होते हैं जैसे कि आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक इत्यादि। इस प्रकार समाजशास्त्र को समाज के अलग-अलग पक्षों का अध्ययन करने के लिए अलग-अलग सामाजिक विज्ञानों की सहायता लेनी पड़ती है।
  • समाजशास्त्र चाहे अलग-अलग सामाजिक विज्ञानों से कुछ सामग्री उधार लेता है परन्तु वह उन्हें भी अपनी सामग्री प्रयोग करने के लिए देता है। इस प्रकार अन्य सामाजिक विज्ञान अपने अध्ययन के लिए समाजशास्त्र पर निर्भर होते हैं।
  • समाजशास्त्र तथा राजनीति विज्ञान गहरे रूप से अन्तर्सम्बन्धित हैं। समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है तथाराजनीति विज्ञान समाज के एक पक्ष का विज्ञान है जिसमें राज्य तथा सरकार प्रमुख हैं। दोनों विज्ञान एक दूसरे पर निर्भर करते हैं जिस कारण इनमें बहुत ही गहरा रिश्ता है। परन्तु इनमें बहुत से अंतर भी पाए जाते हैं।
  • इतिहास अतीत की घटनाओं का अध्ययन करता है जबकि समाजशास्त्र वर्तमान घटनाओं का अध्ययन करता है। दोनों विज्ञान मानवीय समाज का अध्ययन अलग-अलग पक्ष से करते हैं। इतिहास की जानकारी समाजशास्त्र प्रयोग करता है तथा समाजशास्त्र की सामग्री इतिहासकार प्रयोग करते हैं। इस कारण यह एक दूसरे पर निर्भर करते हैं परन्तु इनमें काफी अंतर भी होते हैं।
  • समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में भी काफ़ी गहरा रिश्ता है क्योंकि आर्थिक संबंध सामाजिक संबंधों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। हमारे सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों से निश्चित रूप से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार यह अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। दोनों विज्ञान एक-दूसरे से सहायता लेते तथा देते भी हैं।
  • समाजशास्त्र का मनोविज्ञान से भी काफी गहरा रिश्ता है। मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता है तथा मनुष्य का अध्ययन आवश्यक है। इस प्रकार दोनों विज्ञान अपने अध्ययनों में एक दूसरे की सहायता लेते हैं तथा एक दूसरे पर निर्भर करते हैं।
  • मानव विज्ञान से भी समाजशास्त्र का गहरा रिश्ता है। मानव विज्ञान पुरातन समाज का अध्ययन करता है तथा समाजशास्त्र वर्तमान समाज का। दोनों विज्ञानों को एल० क्रोबर (Kroeber) ने जुड़वा बहनों (Twin Sisters) का नाम दिया है। मानव वैज्ञानिक अध्ययनों से समाजशास्त्री काफी सामग्री उधार लेते हैं। इस प्रकार मानव विज्ञान भी समाजशास्त्र की सहायता पुरातन मानवीय समाज को समझने के लिए करता है।
  • सांस्कृतिक मानव विज्ञान (Cultural Anthropology)—मानव विज्ञान की वह शाखा जो मनुष्यों के बीच सांस्कृतिक अंतरों का अध्ययन करती हैं।
  • पुरातत्त्व (Archaeology)—यह पुरातन समय की मानवीय क्रियाओं का ज़मीन के अंदर से मिली वस्तुओं की सहायता से अध्ययन करती है। .
  • राजनीतिक समाजशास्त्र (Political Sociology)-समाजशास्त्र की वह शाखा जो यह अध्ययन करती है कि किस प्रकार बहुत-सी सामाजिक शक्तियां इकट्ठे होकर राजनीतिक नीतियों को प्रभावित करती हैं।
  • भौतिक मानव विज्ञान (Physical Anthropology)-मानव विज्ञान की वह शाखा जो मनुष्यों के उद्भव, उनमें आए परिवर्तनों तथा वातावरण से अनुकूलता करने के उसके तरीकों के बारे में बताती है।
  • सामाजिक मनोविज्ञान (Social Psychology)-वह वैज्ञानिक अध्ययन जिसमें इस बात का अध्ययन किया जाता है कि किस प्रकार लोगों के विचार तथा व्यवहार अन्य लोगों की मौजूदगी से प्रभावित होते हैं।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
नगर योजना, तकनीकी विज्ञान, कृषि तथा व्यापार के बारे में प्राप्त जानकारी के आधार पर सिन्धु घाटी के लोगों के जीवन के बारे में बताएं।
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता से हमारा अभिप्राय उस प्राचीन सभ्यता से है जो सिन्धु नदी की घाटी में फली-फूली। इस सभ्यता के लोगों ने नगर योजना, तकनीकी विज्ञान, कृषि तथा व्यापार के क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिभा का परिचय दिया।

श्री के० एम० पानिक्कर के शब्दों में-“सैंधव लोगों ने उच्चकोटि की सभ्यता का विकास कर लिया था।” (“A very high state of civilization had been reached by the people of the Indus.”’) इस सभ्यता के विभिन्न पहलुओं का वर्णन इस प्रकार है :-

I. नगर योजना

1. नगर के दो भाग-मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का घेरा चार-पांच किलोमीटर था। ये नगर मुख्यत: दो भागों में बंटे हुए थे-गढ़ी और नगर।

(क) गढ़ी-हड़प्पा की गढ़ी का आकार समानान्तर चतुर्भुज जैसा था। इसकी लम्बाई 410 मीटर और चौड़ाई 195 मीटर थी। इस सभ्यता की अन्य गढ़ियों की तरह इसकी लम्बाई उत्तर से दक्षिण की ओर थी और चौड़ाई पूरब से पश्चिम की ओर। गढ़ी का निर्माण मुख्य रूप से प्रशासकीय एवं धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता था। आवश्यकता पड़ने पर इसे सुरक्षा के लिए भी प्रयोग किया जाता था।

(ख) नगर या कस्बा-गढ़ी के नीचे कस्बे की भी चारदीवारी होती थी। कस्बे की योजना भी उत्तम थी। उसकी मुख्य सड़कें काफ़ी चौड़ी थीं। सड़कों की दिशा उत्तर से दक्षिण एवं पूरब से पश्चिम की ओर थी और यह नगर को आयताकार टुकड़ों में बांटती थीं।

2. विशाल भवन-मोहनजोदड़ो की गढ़ी में विशाल अन्न भण्डार था। हड़प्पा में यह भण्डार गढ़ी से बाहर था। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो की गढ़ी में एक सरोवर भी मिला है जो 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा और 8 फुट गहरा था। यह उस समय का विशाल स्नानकुंड (Great Bath) था। विशाल स्नानकुंड में पानी निकट स्थित कुएं में से डाला जाता था। स्नानकुंड का फर्श पक्की ईंटों का बना हुआ था। इसमें जाने के लिए ईंटों की सीढ़ियां थीं। ऐसा अनुमान है कि इसका प्रयोग किसी महत्त्वपूर्ण धार्मिक रीति के लिए होता था।

3. निवास स्थान-मकानों के लिए पक्की ईंटों का उपयोग होता था। बड़े मकानों में रसोई, शौचघर एवं कुएं के अतिरिक्त बीस-बीस कमरे थे। परन्तु साधारण मकानों में लगभग आधा दर्जन कमरे थे। कुछ मकानों में केवल एक या दो कमरे भी थे। प्रत्येक मकान में वायु और प्रकाश के लिए दरवाजे और खिड़कियां थीं। स्नान एवं शौचालय के पानी के निकास के लिए ढकी हुई नालियों की उत्तम व्यवस्था थी।

II. तकनीकी विज्ञान

हडप्पा संस्कृति के लोगों के तकनीकी विज्ञान में काफ़ी सीमा तक एकरूपता पाई जाती है। सभी नगरों में लगभग एकसी बनावट के तांबे और कांसे के औज़ार प्रयोग में लाए जाते थे। ये औज़ार नमूने एवं बनावट में सादे थे। नगरों में कुशल शिल्पी तांबे और कांसे के कटोरे, प्याले, थालियां, मनुष्य एवं पशुओं की मूर्तियां और छोटी खिलौना बैल-गाड़ियां बनाते थे। मोहरें बनाने की कला भी अत्यन्त विकसित थी। मनके बनाने का काम भी कम उत्कृष्ट न था, विशेषकर लम्बे इन्द्रगोप (cornelian) के मनके। सिन्धु घाटी के लोगों की बढ़इगिरी में प्रवीणता की जानकारी उनके द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली आरी से मिलती है। इस आरी के दांते ऊंचे-नीचे हैं ताकि लकड़ी का बुरादा आसानी से निकल सके। सच तो यह है कि तकनीकी विज्ञान में हड़प्पा के लोग मिस्र और बेबीलोन वालों से कहीं आगे थे। इतने बड़े इलाके में फैली हुई तकनीकी समरूपता के कारण यह सभ्यता प्राचीन काल में संसार भर में अद्वितीय थी।।

सिन्धु घाटी के लोग शस्त्र निर्माण में भी निपुण थे। उनके मुख्य शस्त्र छोटी तलवार, भाला, तीर का सिरा, कुल्हाड़ी और चाकू थे। ये अधिकतर तांबे और कांसे के बने हुए थे। धातु के हथियारों के अतिरिक्त शत्रु पर वार करने के लिए पत्थर के गदा और आग में पकाई गई गोलियों का प्रयोग किया जाता था। दूर से वार करने के लिए गुलेल प्रयोग में लाई जाती थी।

III. कृषि तथा व्यापार

1. कृषि-सिन्धु नदी का क्षेत्र उपजाऊ था। अत: यहां के लोगों ने कृषि की ओर विशेष ध्यान दिया। वे मुख्यतः गेहूँ और जौ की कृषि करते थे जो उनके मुख्य खाद्यान्न थे। खाने वाली अन्य वस्तुएं दाल और खजूर थीं। तिल और सरसों का तेल भी प्रयोग में आता था। भेड़, बकरियां और मवेशी प्रमुख पालतू पशु थे। इस सभ्यता के लोगों की अति महत्त्वपूर्ण उपज कपास थी जिससे कपड़ा बनाया जाता था। इस समय दुनिया के और किसी भाग में न तो कपास का उत्पादन होता था और न ही कपड़ा बनता था। सिन्धु घाटी की सभ्यता में नहरों द्वारा सिंचाई नहीं होती थी। गहरी खुदाई करने वाले हल से वे अपरिचित थे। बाढ़ के जल से सिंचाई के लिए बांध बनाए जाते थे। हैरो जैसे यन्त्र का प्रयोग फसल बोने के लिए होता था।

2. व्यापार-सिन्धु घाटी के लोग अनेक वस्तुओं का व्यापार करते थे। व्यापार में कच्चा माल भी शामिल था और तैयार माल भी। व्यापार के लिए भार-वाहक जानवरों, पशु-गाड़ियों तथा छोटी-छोटी नौकाओं का प्रयोग किया जाता था। सिन्धु घाटी से निर्यात होने वाली वस्तुओं में सूती कपड़ा, मोती, हाथी दांत तथा हाथी दांत से बनी वस्तुओं प्रमुख थीं। लंगूर, बन्दर, मोर आदि जीव-जन्तु भी बाहर भेजे जाते थे। लोथल कस्बे से जोकि एक प्रमुख बन्दरगाह थी, मोतियों का निर्यात होता था। सिन्धु घाटी के लोगों के आयात में अनेक बहुमूल्य पदार्थ शामिल थे। वे राजस्थान, मैसूर तथा दक्षिणी भारत से सोना, चाँदी और संगमरमर मंगवाते थे। सोना तथा चाँदी अफ़गानिस्तान से भी मंगवाया जाता था। यहां से तांबा भी आता था। मध्य एशिया से हीरे, फिरोज़े आदि का आयात किया जाता था।

उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि सिन्धु घाटी की नगर योजना सिन्धु घाटी के लोगों के उच्च जीवन-स्तर की प्रतीक है। उसका तकनीकी ज्ञान मैसोपोटामिया तथा अन्य समकालीन सभ्यताओं से किसी प्रकार कम नहीं था। निःसन्देह सिन्धु घाटी के लोगों ने कृषि तथा व्यापार में भी पर्याप्त उन्नति की थी। संक्षेप में, हम जॉन मार्शल के इन शब्दों से सहमत हैं, “लोग सैधव (अच्छे बने) नगरों में निवास करते थे। उनकी संस्कृति परिपक्व थी जिसमें कला तथा कारीगरी अपने उत्कर्ष पर थी।” (“People lived in well-built cities and had a mature culture with a high standard of art and craftsmanship.”)

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता

प्रश्न 2.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के धर्म, कला, मुहरों तथा लिपि की विशेषताओं पर लेख लिखें।
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता प्राचीन काल में सिन्धु नदी की घाटी में फली-फूली। इस सभ्यता के लोगों ने जीवन के अन्य क्षेत्रों में विकास के साथ-साथ धर्म, कला, मुहरों तथा लिपि से सम्बद्ध नवीनता का परिचय दिया। इन नवीन तथ्यों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है

I. धर्म

सिन्धु घाटी की सभ्यता के धर्म की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
1. प्रमुख देवता-सिन्धु घाटी के देवी-देवताओं का पता हमें उनकी मुहरों से लगता है। खुदाई से मिली कुछ मुहरों पर एक देवता की मूर्ति बनी हुई है जिसके तीन मुख हैं। यह चित्र चार पशुओं के साथ योग मुद्रा में दिखाया गया है। इन पशुओं में एक बैल भी है। प्रायः बैल के साथ शिवजी महाराज का नाम जुड़ा हुआ है। इसलिए सर जॉन मार्शल (Sir John Marshall) का अनुमान है कि यह शिवजी की मूर्ति है और सिन्धु घाटी के लोग शिव पूजा में विश्वास रखते थे। खुदाई में मिली मुहरों पर एक अर्द्ध-नग्न नारी भी अंकित है। उसकी कमर पर भाला और शरीर पर विशेष प्रकार का वस्त्र है। सर जॉन मार्शल ने इसे मातृ देवी कहा है। उनका विचार है कि सिन्धु घाटी के लोग मातृ देवी की पूजा किया करते थे।

2. अन्य धार्मिक विश्वास-खुदाई में लिंग तथा योनि की मूर्तियां भी मिली हैं। सिन्धु घाटी के लोग जनन शक्ति के रूप में इन मूर्तियों की पूजा करते थे। इससे यह भी स्पष्ट है कि उनका मूर्ति पूजा में विश्वास था। खुदाई से मिली कुछ मुहरों पर हाथी, बैल, बाघ आदि के चित्र मिले हैं। इस बात से यह संकेत मिलता है कि उनमें पशु-पक्षियों की पूजा प्रचलित थी। पशुओं के अतिरिक्त सिन्धु घाटी के लोग पीपल आदि वृक्षों तथा अग्नि की पूजा करते थे। उनमें सम्भवतः सांपों तथा नदियों की पूजा भी प्रचलित थी। सिन्धु घाटी के लोग अपने मृतकों का संस्कार तीन प्रकार से करते थे। कुछ लोग मुर्दो को धरती में दबा देते थे, परन्तु कुछ उन्हें जला देते थे। कई लोग मुर्दे को जला कर उनकी राख तथा अस्थियों को किसी पात्र में रखकर उसे धरती में दबा देते थे। पात्र के साथ मृतक व्यक्ति की मन पसन्द वस्तुएं भी रख दी जाती थीं।

II. कला

सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोगों द्वारा निर्मित कलाकृतियां काफ़ी उच्च स्तर की थीं। नाचती हुई मुद्रा में खड़ी लड़की की लघु कांस्य प्रतिमा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है।

वहां की मूर्तिकला के अनेक नमूने उपलब्ध हुए हैं। इनमें मानव एवं पशु दोनों की आकृतियां मिलती हैं। सिर और कंधों की टूटी हुई दाढ़ी वाले व्यक्ति की एक मूर्ति सिन्धु घाटी की कला का प्रभावशाली नमूना है।

सिन्धु घाटी की कुछ मूर्तियां पालथी मारकर बैठी हुई आकृति की हैं। इसे देव प्रतिमा समझा जाता है। वहां से कुछ पशुओं की मूर्तियां भी मिली हैं। उनमें शक्ति और वीरता झलकती है। खुदाई में एक संयुक्त पशु-मूर्ति भी मिली है जो किसी प्रकार की दैवी प्रतिमा प्रतीत होती है। एक अन्य प्रतिमा शिव के नटाज रूप का आदि स्वरूप प्रतीत होती है।
PSEB 11th Class History Solutions Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता 1

पकी मिट्टी की लघु प्रतिमाएं काफ़ी संख्या में मिली हैं। इनमें पशु और मानवीय प्रतिमाएं दोनों शामिल हैं। बहुत-सी लघु प्रतिमाएं स्त्रियों की हैं। इनमें से कुछ बिस्तर नृत्य मुद्रा में खड़ी लड़की पर बच्चों के साथ या अकेली लेटी हुई दिखाई गई हैं। पशुओं की प्रतिमाओं में काफ़ी सारे पशु हैं। इनमें कूबड़ बैल, भैंसा, कुत्ता, भेड़, गैंडा, बन्दर, समुद्री कछुआ और कुछ मानवीय सिरों वाले पशु शामिल हैं। यहां गाय की कोई प्रतिमा नहीं मिली है। ठोस पहियों वाली पकी मिट्टी की बैलगाड़ियां भी मिली हैं। हड़प्पा से तांबे से बनी एक इक्कानुमा गाड़ी मिली है। मिट्टी के बर्तन प्रायः कुम्हार के चाक पर बनाए हुए हैं। उनके हाथ से बने बर्तन भी मिले हैं। सिन्धु घाटी के मिट्टी के बर्तनों में अधिकतर पर फूल, पत्ती, पक्षी और पशुओं के चित्र बने हुए हैं। अंगूठियों और चूड़ियों के अतिरिक्त वहां सोने, चांदी, तांबे, फेस, चाक पत्थर, कीमती पत्थर और शंख के बने अनेक सुन्दर मनके मिले हैं। इन मनकों को पिरो कर माला बनाई जाती थी।
दाढ़ी वाला आदमी (मोहनजोदड़ो)
PSEB 11th Class History Solutions Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता 2

III. मोहरें

मोहरें प्राचीन शिल्पकला को सिन्धु घाटी की विशिष्ट देन समझी जाती हैं। केवल मोहनजोदड़ो से ही 1200 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। ये कृतियां भले ही छोटी हैं फिर भी इन की कला इतनी श्रेष्ठ है कि इनके चित्रों में शक्ति और ओज झलकता है। इनका प्रयोग सामान के गट्ठरों या भरे बर्तनों की सुरक्षा के लिए किया जाता था। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि मोहरों का प्रयोग एक प्रकार का प्रतिरोधक (taboo) लगाने के लिए होता था। इन मोहरों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी के समाज में विभिन्न पदवियों और उपाधियों की व्यवस्था प्रचलित थी। इन मोहरों पर पशुओं तथा मनुष्यों की आकृतियां बनी हुई हैं। पशुओं से सम्बन्धित आकृतियां बड़ी कलात्मक हैं। परन्तु मोहरों पर बनी मानवीय आकृतियां उतनी कलात्मकता से नहीं बनी हुई हैं। मोहरों के अधिकांश नमूने उनकी किसी धार्मिक महत्ता के सूचक हैं। एक आकृति के दाईं तरफ हाथी और चीता हैं, बाईं ओर गैंडा और भैंसा हैं। उनके नीचे दो बारहसिंगे या बकरियां हैं। इन ‘पशुओं के स्वामी’ को शिव का पशुपति रूप समझा जाता है। मोहरों पर पीपल के वृक्ष के बहुत चित्र मिले हैं।

IV. लिपि

सिन्धु घाटी के लोगों ने एक विशेष प्रकार की लिपि का आविष्कार किया जो चित्रमय थी। उनकी यह लिपि खुदाई में मिली मोहरों पर अंकित है। यह लिपि बर्तनों तथा दीवारों पर लिखी हुई पाई गई है। इसमें कुल 270 के लगभग वर्ण हैं। इसे बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है। यह लिपि आजकल की तथा अन्य ज्ञात लिपियों से काफ़ी भिन्न है। इसलिए इसे पढ़ना बहुत ही कठिन है। भले ही विद्वानों ने इसे पढ़ने के लिए अथक प्रयत्न किए हैं, तो भी वे अब तक इसे पूरी तरह पढ़ नहीं पाए हैं। आज भी इसे पढ़ने के प्रयत्न जारी हैं। अतः जैसे ही इस लिपि को पढ़ लिया जाएगा, सिन्धु घाटी की सभ्यता के अनेक नए तथ्य प्रकाश में आ जाएंगे।

यदि गहनता से सिन्धु घाटी की सभ्यता का अध्ययन किया जाए तो इतिहास की अनेक गुत्थियां सुलझाई जा सकती हैं। सिन्धु घाटी का धर्म आज के हिन्दू धर्म से मेल खाता है। उनकी कला-कृतियां उत्कृष्टता लिए हुए थीं। उनकी लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई। इसे पढ़े जाने पर सिन्धु घाटी का चित्र अधिक स्पष्ट हो जाएगा।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
सिन्धु घाटी की सभ्यता की खोज कब हुई ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता की खोज 1922 ई० में हुई।

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प्रश्न 2.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्रों के नाम बताओ।
उत्तर-
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सिन्धु घाटी की सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्र थे।

प्रश्न 3.
सिन्धु घाटी के लोगों के दो देवी-देवताओं के नाम लिखो।
उत्तर-
पशुपति शिव तथा मातृदेवी।

प्रश्न 4.
मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा आजकल किस देश में हैं ?
उत्तर-
मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा आजकल पाकिस्तान में हैं।

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प्रश्न 5.
मोहनजोदड़ो की खोज किसने की थी ?
उत्तर-
आर० डी० बैनर्जी ने।

प्रश्न 6.
हड़प्पा की खोज करने वाले व्यक्ति का नाम बताओ।
उत्तर-
दयाराम साहनी।

प्रश्न 7.
मृतकों का टीला किस स्थान के लिए प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
मोहनजोदड़ो के लिए।

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प्रश्न 8.
सिन्धु घाटी का पूजनीय पशु कौन-सा था ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी का पूजनीय पशु कुबड़ा बैल था।

प्रश्न 9.
सिन्धु घाटी के नगर मुख्य रूप से कौन-कौन से दो भागों में बंटे हुए थे ?
उत्तर-
दुर्ग और सामान्य नगर।

प्रश्न 10.
सिन्धु घाटी के धर्म की वे दो विशेषताएं बताओ जो आज भी हिन्दू धर्म का अंग हैं ।
उत्तर-
शिव-पूजा तथा पीपल-पूजा।

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2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) ………. भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है।
(ii) सिन्धु घाटी की सभ्यता लगभग …….. वर्ष पुरानी है।
(iii) ……… की सभ्यता सिंधु घाटी की समकालीन सभ्यता थी।
(iv) सिन्धु घाटी के मकान ……… ईंटों के बने हुए थे।
(v) सिन्धु सभ्यता के स्थलों की खुदाई करने वाले पुरातत्ववेत्ता सर ……….. थे।
उत्तर-
(i) सिन्धु घाटी की सभ्यता
(ii) 5,000
(iii) मैसोपोटामिया
(iv) पकी
(v) जॉन मार्शल।

3. सही/ग़लत कथन सही कथनों के लिए (√) तथा ग़लत कथनों के लिए (×) का निशान लगाएं।

(i) सिन्धु घाटी के लोग लिंग और योनि की मूर्तियों की पूजा करते थे। — (√)
(ii) सिन्धु घाटी के लोग शिलाजीत का प्रयोग मसाले के रूप में करते थे।– (×)
(iii) सिन्धु घाटी का विशाल स्नानागार हड़प्पा में मिला है। — (×)
(iv) सिन्धु घाटी के लोगों की लिपि चित्रमय थी। — (√)
(v) पंजाब में संघोल (‘लुधियाना जिले’) में सिंधु सभ्यता के अवशेष मिले हैं। — (√)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
सिन्धु सभ्यता में लोथल क्या था ?
(A) एक देवता
(B) एक बन्दरगाह
(C) एक स्नानागार
(D) लेखन कला केंद्र।
उत्तर-
(C) एक स्नानागार

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प्रश्न (ii)
सिन्धु सभ्यता का कौन-सा केन्द्र आज पंजाब में स्थित है ?
(A) मोहनजोदड़ो
(B) धौलावीरा
(C) रोपड़
(D) अमरी।
उत्तर-
(C) रोपड़

प्रश्न (iii)
हरियाणा में स्थित सिन्धु सभ्यता का स्थल है ?
(A) बनावली
(B) मिताथल
(C) राखीगढ़ी
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न (iv)
सिन्धु घाटी की खुदाई में मिली नर्तकी की मूर्ति बनी हुई है ?
(A) कांसे की
(B) पीतल की
(C) सोने की
(D) तांबे की।
उत्तर-
(A) कांसे की

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प्रश्न (v)
सिन्धु घाटी की सभ्यता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है-
(A) ऊंचे भवन
(B) सुनियोजित जल-निकासी व्यवस्था
(C) पॉलिशदार मकान
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(B) सुनियोजित जल-निकासी व्यवस्था

॥. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

विशेष नोट-विद्यार्थी प्रत्येक अध्याय में इन प्रश्नों का अध्ययन अवश्य करें। ये प्रश्न उन्हें विषय-वस्तु को बारीकी से समझने में सहायता करेंगे। साथ ही, ये वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को हल करने में उपयोगी सिद्ध होंगे।

प्रश्न 1.
सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई करवाने वाले चार व्यक्तियों के नाम बताओ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई करवाने वाले चार व्यक्तियों के नाम थे : आर० डी० बनर्जी, एम० एस० वत्स, दया राम साहनी तथा सर जान मार्शल।

प्रश्न 2.
वर्तमान भारत के कौन-से चार राज्य हैं, जिनमें सिन्धु घाटी की सभ्यता के केन्द्र मिले हैं ? (Sure)
उत्तर-
वर्तमान भारत के चार राज्य पंजाब (रोपड़). राजस्थान (कालीबंगन), उत्तर प्रदेश (आलमगीरपुर) तथा गुजरात में सिन्धु घाटी सभ्यता के केन्द्र मिले हैं।

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प्रश्न 3.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के कोई चार केन्द्रों के नाम बताओ जो अब पाकिस्तान में हैं।
उत्तर-
पाकिस्तान में सिन्धु घाटी सभ्यता के चार केन्द्र चन्हुदड़ो, कोटडीजी, मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा हैं।

प्रश्न 4.
हडप्पा संस्कृति का काल बताओ।
उत्तर-
हड़प्पा संस्कृति का आरम्भ 2300 ई० पू० से भी पहले हुआ और इस संस्कृति का विकास 1900 ई० पू० तक जारी रहा।

प्रश्न 5.
सिन्धु घाटी सभ्यता में किन तीन दों या आकारों की बस्तियां मिली हैं और इनमें से सबसे बड़े केन्द्र कौनसे हैं ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता गांव, कस्बे तथा शहर-इन तीन दर्जी अथवा आकारों की बस्तियों में विकसित थी। इनमें सबसे बड़े केन्द्र मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा थे।

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प्रश्न 6.
हड़प्पा की गढ़ी की लम्बाई तथा चौड़ाई बताओ।
उत्तर-
हड़प्पा की गढ़ी की लम्बाई 410 मीटर चौड़ाई 195 मीटर थी।

प्रश्न 7.
विशाल स्नान-कुण्ड कहां मिला है तथा इसकी लम्बाई, चौड़ाई व गहराई क्या है ?
उत्तर-
विशाल स्नान-कुण्ड मोहनजोदड़ो की गढ़ी में मिला है। यह 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा और 8 फुट गहरा है।

प्रश्न 8.
मकानों के भीतरी भाग की कोई चार विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी के मकान हवादार तथा पकी ईंटों से बने थे। मकानों में रसोई घर, स्नानागार तथा नालियां भी थीं।

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प्रश्न 9.
सिन्धु सभ्यता के लोगों के प्रयोग में आने वाले किन्हीं चार हथियारों के नाम लिखो।
उत्तर-
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों के प्रयोग में आने वाले हथियारों में छोटी तलवार, भाला, तीर और चाकू थे।

प्रश्न 10.
मोहनजोदड़ो की मुख्य सड़कों की दिशा क्या थी ?
उत्तर-
मोहनजोदड़ो की सड़कों की दिशा उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम की ओर थी।

प्रश्न 11.
सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली धातु के आधार पर सिन्धु सभ्यता को क्या नाम दिया गया है ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी में सबसे अधिक कांसे का प्रयोग होता था। इसीलिए इस सभ्यता को कांस्य युग की सभ्यता भी कहा गया है।

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प्रश्न 12.
किन्हीं चार धातुओं के नाम बताओ जिनसे सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग परिचित थे।
उत्तर-
सिन्धु घाटी के लोग सोना, चांदी, तांबा तथा कांसे की धातुओं से परिचित थे।

प्रश्न 13.
सिन्धु घाटी की दो मुख्य फसलों तथा खाद्य पदार्थों के नाम लिखो।
उत्तर-
सिन्धु घाटी की दो मुख्य फसलें गेहूँ और जौ थीं। वहां के दो खाद्य पदार्थ भी गेहूँ और जौ ही थे।

प्रश्न 14.
खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त सिन्धु घाटी की सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण उपज क्या थी और इसका क्या प्रयोग किया जाता था ?
उत्तर-
खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त सिन्धु घाटी की सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण उपज कपास थी। इससे कपड़ा बनाया जाता था।

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प्रश्न 15.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोगों द्वारा मिट्टी के बर्तन बनाने की दो विधियां लिखो।
उत्तर-
मिट्टी के बर्तन आमतौर पर कुम्हार के चाक पर बनाए जाते थे। वे हाथ से भी बर्तन बनाते थे।

प्रश्न 16.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के मिट्टी के बर्तनों पर बने चार प्रकार के नमूनों के नाम लिखो।
उत्तर-
इन चार प्रकार के नमूनों में फूल, पत्ती, पक्षी और पशुओं के चित्र सम्मिलित हैं।

प्रश्न 17.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग माला में कौन-कौन से चार प्रकार के मनके पिरोते थे ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी के लोग सोने, चांदी, तांबे तथा कांसे के मनकों को माला में पिरोते थे।

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प्रश्न 18.
सिन्धु घाटी में लोथल कस्बा कौन-से दो काम देता था ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी में लोथल कस्बा बन्दरगाह और गोदाम का काम देता था।

प्रश्न 19.
केवल मोहनजोदड़ो से प्राप्त मोहरों की संख्या बताएं। इन मोहरों का प्रयोग किस लिए किया जाता था ?
उत्तर-
मोहनजोदड़ो से 1200 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। इनका प्रयोग सामान के गट्ठरों या भरे बर्तनों की सुरक्षा अथवा उन पर ‘सील’ लगाने के लिए किया जाता था।

प्रश्न 20.
सिन्धु घाटी से प्राप्त मोहरों पर कौन-कौन से पशुओं के चित्र अंकित हैं ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी की मोहरों पर सांड, शेर, हाथी तथा बारहसिंगा के चित्र अंकित हैं।

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प्रश्न 21.
सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि के प्राप्त वर्णों की संख्या तथा यह किन चार चीजों पर मिलती है ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि के अब तक 270 वर्ण प्राप्त हो चुके हैं। यह लिपि फलकों, मिट्टी के बर्तनों, आलेखों और मोहरों पर लिखी है।

प्रश्न 22.
भारत तथा एशिया के चार क्षेत्र बताओ जिनके साथ इस सभ्यता के लोगों के व्यापारिक सम्बन्ध थे।
उत्तर-
भारत के दो क्षेत्र थे राजस्थान तथा मैसूर। एशिया के दो क्षेत्रों में अफगानिस्तान तथा मैसोपोटामिया के नाम लिए जा सकते हैं।

प्रश्न 23.
सिन्धु घाटी में नर्तकी की धातु की मूर्ति कहां से मिली है ? यह किस धातु की बनी है ?
उत्तर-
नर्तकी की धातु की मूर्ति मोहनजोदड़ो से मिली है। यह कांसे की बनी है।

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प्रश्न 24.
सिन्धु घाटी से निर्यात की जाने वाली चार वस्तुओं के नाम बताओ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी से मुख्य रूप से सूती कपड़ा, मोती, हाथी दांत और इससे बनी वस्तुएं निर्यात की जाती थीं।

प्रश्न 25.
सिन्धु घाटी के लोगों के धर्म की चार विशेषताएं बताओ जो बाद के समय में भी कायम रहीं।
उत्तर-
सिन्धु घाटी के धर्म की स्थायी विशेषताओं में पशुपति शिव तथा मातृदेवी की पूजा सम्मिलित थी। वे लोग वृक्षों तथा पशुओं की भी पूजा करते थे।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
हड़प्पा संस्कृति की खोज कब हुई ? इसके विस्तार का वर्णन करते हुए बताओ कि इसे हड़प्पा संस्कृति क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
हड़प्पा संस्कृति की खोज 1921 ई० में हुई। इस संस्कृति का विस्तार बहुत अधिक था। इसमें पंजाब, सिन्ध, राजस्थान, गुजरात तथा बिलोचिस्तान के कुछ भाग और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती भाग सम्मिलित थे। इस प्रकार इसका विस्तार उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में बिलोचिस्तान के मकरान समुद्र तट से लेकर उत्तर-पूर्व में मेरठ तक था। उस समय कोई अन्य संस्कृति इतने बड़े क्षेत्र में विकसित नहीं थी। इस संस्कृति को हड़प्पा संस्कृति का नाम इसलिए दिया जाता है, क्योंकि सर्वप्रथम इस सभ्यता से सम्बन्धित जिस स्थान की खोज हुई, वह हड़प्पा था। यह स्थान अब पाकिस्तान में स्थित है।

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प्रश्न 2.
हड़प्पा संस्कृति के मुख्य केन्द्रों का वर्णन करो।
उत्तर-
हड़प्पा संस्कृति का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत था। अब तक इस संस्कृति से सम्बन्धित 1000 से भी अधिक केन्द्रों की खोज हो चुकी है। इनमें से 6 केन्द्र विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं। ये हैं-हडप्पा, मोहनजोदडो, चन्दडो, लोथल, कालीबंगां और बनावली। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो पाकिस्तान में स्थित हैं और इनमें 483 किलोमीटर की दूरी है। हड़प्पा संस्कृति के कुछ अन्य केन्द्र सुतकांगेडोर और सुरकोतड़ा हैं। ये दोनों ही समुद्रतटीय नगर हैं। गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी में हड़प्पा संस्कृति की उत्तर अवस्था के चिन्ह मिलते हैं।

प्रश्न 3.
हड़प्पा संस्कृति के लोगों के सामाजिक जीवन की प्रमुख विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-
हड़प्पा संस्कृति के लोगों के सामाजिक जीवन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :

  • भोजन-ये लोग गेहूँ, चावल, सब्जियां तथा दूध का प्रयोग करते थे। मांस-मछली तथा अण्डे भी भोजन के अंग थे।
  • वेश-भूषा-हड़प्पा संस्कृति के लोग सूती और ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्र पहनते थे। पुरुष प्रायः धोती और शाल धारण करते थे। स्त्रियां प्राय: रंगदार और बेल-बूटों वाले वस्त्र पहनती थीं। स्त्रियां और पुरुष दोनों ही आभूषण पहनने के शौकीन थे।
  • मनोरंजन के साधन-लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन घरेलू खेल थे। वे प्रायः नृत्य, संगीत और चौपड़ आदि खेल कर अपना मन बहलाया करते थे। बच्चों के खेलने के लिए विभिन्न प्रकार के खिलौने थे।

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प्रश्न 4.
हडप्पा संस्कृति के लोगों के जीवन-यापन के स्त्रोतों का वर्णन करो।
अथवा
सिन्धु घाटी के लोगों के आर्थिक जीवन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
सिन्धु घाटी के लोगों का आर्थिक जीवन अनेक व्यवसायों पर आधारित था। इन्हीं व्यवसायों द्वारा उनका जीवनयापन होता था। इन व्यवसायों का वर्णन इस प्रकार है-

  • कृषि-सिन्धु घाटी के लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। वे लोग मुख्य रूप से गेहूँ, जौ, चावल और कपास की खेती करते थे। खेती के लिए वे लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। उन्होंने सिंचाई की बड़ी अच्छी व्यवस्था की हुई थी।
  • पशु पालन-सिन्धु घाटी के लोगों का दूसरा मुख्य व्यवसाय पशु पालन था। वे मुख्य रूप से गाय, बैल, हाथी, बकरियां, भेड़, कुत्ते आदि पशु पालते थे।
  • व्यापार-व्यापार सिन्धु घाटी के लोगों का मुख्य व्यवसाय था। नगरों में आपसी व्यापार होता था। अफ़गानिस्तान तथा ईराक के साथ भी उनकी व्यापार चलता था।
  • उद्योग-यहां के कुछ लोग छोटे-छोटे उद्योग-धन्धों में भी लगे हुए थे। मिट्टी, तांबा तथा पीतल के बर्तन बनाने में वहां के कारीगर बड़े कुशल थे। वे सोने-चांदी के सुन्दर आभूषण भी बनाते थे। ..

प्रश्न 5.
सिन्धु घाटी की सभ्यता अथवा हड़प्पा संस्कृति के कोई ऐसे तत्त्व बताओ जो आज भी भारतीय जीवन में दिखाई देते हैं।
अथवा
भारतीय सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति की क्या देन है ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता के निम्नलिखित चार तत्त्व आज भी भारतीय जीवन में देखे जा सकते हैं :

  • नगर योजना-सिन्धु घाटी के नगर एक योजना के अनुसार बसाए गए थे। नगर में चौड़ी-चौड़ी सड़कें और गलियां थीं। यह विशेषता आज के नगरों में देखी जा सकती है।
  • निवास स्थान-सिन्धु घाटी के मकानों में आज की भान्ति खिड़कियां और दरवाज़े थे। हर घर में एक आंगन, स्नान गृह तथा छत पर जाने के लिए सीढ़ियां थीं।
  • आभूषण एवं श्रृंगार-आज की स्त्रियों की भान्ति सिन्धु घाटी की स्त्रियां भी श्रृंगार का चाव रखती थीं। वे सुर्जी तथा पाऊडर का प्रयोग करती थीं और विभिन्न प्रकार के आभूषण पहनती थीं। उन्हें बालियां, कड़े तथा गले का हार पहनने का बहुत शौक था।
  • धार्मिक समानता-सिन्धु घाटी के लोगों का धर्म आज के हिन्दू धर्म से बहुत हद तक मेल खाता है। वे शिव, मात देवी तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करते थे। आज भी हिन्दू लोगों में उनकी पूजा प्रचलित है।

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प्रश्न 6.
सिन्धु घाटी की सभ्यता की नगर योजना की विशेषताएं क्या थीं ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी की नगर योजना उच्च कोटि की थी। इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार से है :-
1. नगर के दो भाग-मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का घेरा चार-पांच किलोमीटर था। ये नगर मुख्यतः दो भागों में बंटे हुए थे-गढ़ी और नगर।

(क) गढ़ी- हड़प्पा की गढ़ी का आकार समानान्तर चतुर्भुज जैसा था। इसकी लम्बाई 410 मीटर और चौडाई 195 मीटर थी। गढ़ी का निर्माण मुख्य रूप से प्रशासकीय एवं धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता था। आवश्यकता पड़ने पर इसे सुरक्षा के लिए भी प्रयोग किया जा सकता था।

(ख) नगर या कस्बा-गढ़ी के नीचे कस्बे की चारदीवारी होती थी । कस्बे की योजना भी उत्तम थी। उसकी मुख्य सड़कें चौड़ी थीं। सड़कों की दिशा उत्तर से दक्षिण एवं पूरब से पश्चिम की ओर थी और नगर को आयताकार टुकड़ों में बांटती थीं।

2. विशाल भवन-मोहनजोदड़ो की गढ़ी में विशाल अन्न भण्डार था। हड़प्पा में यह भण्डार गढ़ी से बाहर था। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो की गढ़ी में एक सरोवर भी मिला है जो 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा और 8 फुट गहरा था। यह उस समय का विशाल स्नानकुंड (Great Bath) था। इसका प्रयोग संभवतः किसी महत्त्वपूर्ण धार्मिक रीति के लिए होता था।

3. निवास स्थान-मकानों के लिए पकी ईंटों का उपयोग होता था। बड़े मकानों में रसोई, शौचघर एवं कुएं के अतिरिक्त बीस-बीस कमरे थे। परन्तु कुछ मकानों में केवल एक या दो कमरे भी थे। प्रत्येक में वायु और प्रकाश के लिए दरवाज़े और खिड़कियां थीं। गंदे पानी के निकास के लिए ढकी हुई नालियों की व्यवस्था थी।।

प्रश्न 7.
सिन्धु घाटी की सभ्यता का तकनीकी विज्ञान किस प्रकार का था ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी के लोगों के तकनीकी विज्ञान (तकनॉलोजी) में काफ़ी समरूपता थी। सभी नगरों में तांबे और कांसे के लगभग एक-जैसी बनावट वाले औजार प्रयोग में लाए जाते थे। औज़ार देखने में सादे और काम करने में अच्छे थे। नगरों में कुशल शिल्पी तांबे और कांसे के कटोरे, प्याले, थालियां, मनुष्य एवं पशुओं की मूर्तियों और छोटी खिलौना बैलगाड़ियां बनाते थे। बर्तन बनाने के लिए कुम्हार के चाक का प्रयोग किया जाता था। मुहरें बनाना अत्यन्त विकसित कला थी। मनके बनाने का काम भी कम उत्कृष्ट न था। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों की बढ़इगिरी में प्रवीणता का पता उनके द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली आरी से चलता है। इस आरी के दांते ऊंचे-नीचे हैं ताकि लकड़ी का बुरादा आसानी से निकल सके। हड़प्पा संस्कृति के लोग नावें तथा अस्त्र-शस्त्र बनाना भी जानते थे। सच तो यह है कि सिन्धु घाटी के निवासी तकनीकी विज्ञान में मिस्र और बेबीलोन वालों से भी आगे थे।

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प्रश्न 8.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के धर्म की विशेषताएं क्या थीं ?
उत्तर-
खुदाई में एक मोहर मिली है जिस पर एक देवता की मूर्ति बनी हुई है। देवता के चारों ओर कुछ पशु दिखाए गए हैं। इनमें से एक बैल भी है। सर जॉन मार्शल का कहना है कि यह पशुपति महादेव की मूर्ति है और लोग इसकी पूजा करते थे। खुदाई में मिली एक अन्य मोहर पर एक नारी की मूर्ति बनी हुई है। इसने विशेष प्रकार के वस्त्र पहने हुए हैं। विद्वानों का मत है कि यह धरती माता (मातृ देवी) की मूर्ति है और हड़प्पा संस्कृति के लोगों में इसकी पूजा प्रचलित थी। लोग पशुपक्षियों, वृक्षों तथा लिंग की पूजा में भी विश्वास रखते थे। वे जिन पशुओं की पूजा करते थे, उनमें से कूबड़ वाला बैल, सांप तथा बकरा प्रमुख थे। उनका मुख्य पूजनीय वृक्ष पीपल था। खुदाई में कुछ तावीज़ इस बात का प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के लोग अन्धविश्वासी थे और जादू-टोनों में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 9.
सिन्धु घाटी की सभ्यता की कला की क्या विशेषताएँ थीं ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों द्वारा बनी कलाकृतियां उच्चकोटि की थीं। खुदाई में एक लघु कांस्य प्रतिमा मिली है जो नृत्य की मुद्रा में है। इस मूर्ति से उन लोगों की मूर्तिकला में निपुणता का पता चलता है। यहां मूर्तियों के कई नमूने उपलब्ध हुए हैं। इनमें मानव एवं पशु दोनों की आकृतियां मिलती हैं। सिर और कंधों की टूटी हुई दाढ़ी वाले व्यक्ति की एक मूर्ति सिन्धु घाटी की कला का प्रभावशाली नमूना है। यहां की कुछ मूर्तियां पालथी मारकर बैठी हुई आकृति की हैं, जिसको कोई देव प्रतिमा समझा जाता है। यहां से प्राप्त पकी मिट्टी की लघु प्रतिमाओं की संख्या बहुत अधिक है। पशुओं की प्रतिमाओं में कूबड़ वाला बैल, भैंसा, कुत्ता, भेड़, हाथी, गैंडा, बन्दर, समुद्री कछुआ और कुछ मानवीय सिरों वाले-पशु देखे जा सकते हैं। मिट्टी के बर्तन आमतौर पर कुम्हार के चाक पर बनाए हुए हैं। हाथ से बने बर्तन भी मिले हैं। इन बर्तनों में अधिकांश पर फूलपत्ती, पक्षी और पशुओं के चित्र बने हुए हैं। अंगूठियों और चूड़ियों के अतिरिक्त यहां सोने, चांदी, तांबे, फैंस, चाक पत्थर, कीमती पत्थर और शंख बने अनेक सुन्दर मनके हैं। इन मनकों को पिरो कर माला बनाई जाती थी।

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प्रश्न 10.
सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि के बारे में अब तक क्या पता चल सका है ? ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी के लोगों ने एक विशेष प्रकार की लिपि का आविष्कार किया जो चित्रमय थी। यह लिपि खुदाई में मिली मोहरों पर अंकित है। यह लिपि बर्तनों तथा दीवारों पर लिखी हुई भी पाई गई है। इनमें 270 के लगभग वर्ण हैं। इसे बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है। यह लिपि आजकल की तथा अन्य ज्ञात लिपियों से काफ़ी भिन्न है, इसलिए इसे पढ़ना बहुत ही कठिन है। भले ही विद्वानों ने इसे पढ़ने के लिए अथक प्रयत्न किए हैं तो भी वे अब तक इसे पूरी तरह पढ़ नहीं पाए हैं। आज भी इसे पढ़ने के प्रयत्न जारी हैं। अत: जैसे ही इस लिपि को पढ़ लिया जाएगा, सिन्धु घाटी की सभ्यता के अनेक नए तत्त्व प्रकाश में आएंगे।

प्रश्न 11.
मोहनजोदड़ो से किस प्रकार की मोहरें मिली हैं ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी से मिली मोहरें उनकी उन्नत शिल्पकला की परिचायक हैं। केवल मोहनजोदड़ो से ही 1200 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। इनकी निर्माण कला इतनी श्रेष्ठ है कि छोटा आकार होते हुए भी इनके चित्रों में से शक्ति और ओज झलकता है। इन मोहरों का प्रयोग सामान के गट्ठरों या भरे बर्तनों की सुरक्षा अथवा उन पर ‘सील’ लगाने के लिए किया जाता है। इन पर कई प्रकार से पशु तथा मानवीय एवं अर्द्ध-मानवीय आकृतियां बनी हुई हैं। पशु आकृतियों में छोटे सींगों वाला सांड, शेर, हाथी, बारहसिंगा, खरगोश, गरुड़ आदि प्रमुख हैं। मोहरों के अधिकांश नमूने लोगों की धार्मिक महत्ता के सूचक हैं। एक आकृति के दाईं तरफ हाथी और चीता है, बाईं ओर गैंडा और भैंसा है। उनके नीचे दो बारहसिंगा या बकरियां हैं। इस पशु स्वामी को शिव का पशुपति रूप माना जाता है।

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प्रश्न 12.
इस (सिन्धु घाटी की) सभ्यता के पतन के कारण बताओ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता के पतन के अनेक कारण बताए जाते हैं :-

  • बाढ़-कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि यह सभ्यता सिन्धु नदी में बाढ़ें आने के कारण लुप्त हुई।
  • बाहरी आक्रमण-कुछ विद्वानों के अनुसार आर्यों तथा अन्य विदेशी जातियों ने यहां के लोगों पर अनेक आक्रमण किए। इन युद्धों में यहां के निवासी हार गए. और इस सभ्यता का अन्त हो गया।
  • वर्षा की कमी-कुछ विद्वानों का कहना है कि इस सभ्यता का अन्त वर्षा की कमी के कारण हुआ। उनका अनुमान है कि इस प्रदेश में काफ़ी लम्बे समय तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा और इस सभ्यता का अन्त हो गया।
  • भूकम्प-कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह सभ्यता भूकम्प आने के कारण नष्ट हुई।
  • अन्य कारण-(i) कुछ विद्वानों के विचार में इस प्रदेश में भयानक महामारियां फैली होंगी। इससे अनेक लोग मारे गए और जो लोग बचे होंगे, वे मृत्यु के भय से यह प्रदेश छोड़ गए होंगे। (ii) एक अन्य मत के अनुसार शायद सिन्धु नदी ने अपना रास्ता बदल लिया होगा जिससे इस प्रदेश की भूमि बंजर हो गई होगी। लोग इस बंजर भूमि को छोड़ कर कहीं और चले गए होंगे।

इन सब कारणों को दृष्टि में रखते हुए बी० जी० गोखले (B.G. Gokhale) ने ठीक कहा है- “मानव और प्रकृति ने सामूहिक रूप से इस सभ्यता का पूर्ण विनाश किया होगा।” (Nature and man must have combined to cause its complete annihilation.)

प्रश्न 13.
सिन्धु घाटी के लोगों के किन-से सीधे या अन्य माध्यम द्वारा सम्पर्क थे ?
उत्तर–
सिन्धु घाटी के लोगों का विश्व तथा देश के अन्य भागों के निवासियों के साथ सीधा या अन्य माध्यम से सम्पर्क था। राजस्थान, मैसूर तथा दक्षिणी भारत के लोगों के साथ उनका सीधा सम्बन्ध था। देश के इन भागों से वे संगमरमर, चांदी तथा सोना मंगवाते थे। बाहरी देशों जैसे अफ़गानिस्तान, मध्य एशिया तथा सुमेर के लोगों के साथ उनके गहरे सम्बन्ध थे। अफ़गानिस्तान से वे लोग सोना, चांदी और तांबा मंगवाते थे। मध्य एशिया से वे हरे रंग के हीरे, फिरोज़े आदि मंगवाते थे। उनके मैसोपोटामिया के लोगों के साथ भी अप्रत्यक्ष सम्बन्ध थे।

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प्रश्न 14.
सिन्धु घाटी के लोगों की व्यापारिक वस्तुओं के विषय में तुम क्या जानते हो ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी के लोग अनेक वस्तुओं का व्यापार करते थे। सिन्धु घाटी से निर्यात होने वाली वस्तुओं में सूती कपड़ा, मोती, हाथी दांत तथा हाथी दांत से बनी वस्तुएं प्रमुख थीं। लंगूर, बन्दर, मोर आदि जीव-जन्तु बाहर भी भेजे जाते थे। लोथल कस्बे से जोकि एक प्रमुख बन्दरगाह थी, मोतियों का निर्यात होता था। सिन्धु घाटी के लोगों के आयात में अनेक बहुमूल्य पदार्थ शामिल थे। वे राजस्थान, मैसूर तथा दक्षिणी भारत से सोना, चांदी और संगमरमर मंगवाते थे। सोना, चांदी तथा तांबा अफ़गानिस्तान से भी मंगवाया जाता था। मध्य एशिया से हीरे, फिरोज़े आदि का आयात किया जाता था।

प्रश्न 15.
सिन्धु घाटी के लोग किन हथियारों का प्रयोग करते थे ?
उत्तर-
सिन्धु घाटी के लोग तांबे तथा कांसे से बने अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करते थे। बढ़ई का मुख्य हथियार आरी था जिसके दाँत ऊंचे-नीचे होते थे। खेती में मुख्यत: हैरो जैसे यन्त्र का प्रयोग किया जाता था। सिन्धु घाटी के लोग युद्ध-प्रिय न होने के कारण युद्ध-शस्त्रों को अधिक महत्त्व नहीं देते थे। फिर भी वे कुछ युद्ध-शस्त्र अवश्य बनाते थे। इन शस्त्रों में तांबे तथा कांसे की बनी तलवारें, बर्छियां, तीर, कुल्हाड़ियां, गुलेल और चाकू मुख्य थे। इन शस्त्रों के अतिरिक्त शत्रु पर फेंकने के लिए पत्थर के बने भालों का भी प्रयोग किया जाता था।

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प्रश्न 16.
सिन्धु घाटी की सभ्यता कब फली-फूली ? इसके निर्माता कौन थे ? इस काल में लोगों के सामाजिक जीवन का वर्णन करो।
उत्तर–
सिन्धु घाटी की सभ्यता कब पनपी, इस विषय में सभी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता की उत्पत्ति तथा विकास 2500 ई० पू० से 1500 ई० पू० के बीच हुआ। इसके विपरीत सर जॉन मार्शल इस सभ्यता का जन्म आज से लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व बताते हैं। प्रायः इसी मत को ठीक माना जाता है। सिन्धु घाटी के लोगों के विषय में भी इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ विद्वान् उन्हें आर्य जाति का मानते हैं और कुछ उन्हें सुमेरियन जाति का बताते हैं। इस विषय में सबसे अधिक मान्य मत यह है कि सिन्धु घाटी में अनेक जातियों के लोग रहते थे।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
सिंधु घाटी के लोगों के सामाजिक जीवन की मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
सिंधु घाटी के लोगों के सामाजिक जीवन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं-
1. भोजन तथा वस्त्र-सिन्धु घाटी के लोग गेहूँ, चावल, दूध, खजूर तथा सब्जियों का प्रयोग करते थे। वे मांस, मछली और अण्डे भी खाते थे। कुछ घरों में सिल-बट्टे भी मिले हैं। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि वे लोग चटनी जैसी कोई चीज़ भी खाते थे। सिन्धु घाटी के लोग सूती तथा ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्र पहनते थे। वे कुर्ता, धोती और कन्धों पर शाल या दुपट्टे आदि का प्रयोग करते थे। कढ़ाई किए हुए शाल ओढ़ने का भी रिवाज था।

2. आभूषण-सिन्धु घाटी के पुरुष और स्त्रियां दोनों ही आभूषण पहनने के शौकीन थे। उस समय हार, बालियां, अंगूठी, कंगन, चूड़ियां और पांवों में कड़े पहनने का रिवाज़ था। धनी लोग सोने, चांदी तथा हाथी दांत के आभूषण पहनते थे। गरीब लोग केवल तांबे आदि के आभूषण ही प्रयोग में लाते थे। आभूषण बनाने वाले कारीगर बड़े निपुण थे। सर जॉन मार्शल लिखते हैं कि सोने-चांदी के इन आभूषणों को देखकर ऐसा लगता है जैसे “ये आज से पांच हजार साल पहले बने हए नहीं सिन्धु घाटी के आभूषण बल्कि अभी लन्दन के जौहरी बाज़ार से खरीदे गए हैं।

3. श्रृंगार-स्त्रियां काजल, सुर्जी, सुगन्धित तेल तथा दर्पण का प्रयोग करती थीं। दर्पण कांसी के बने हए होते थे। वे कई तरीकों से अपने बाल गूंथती थीं। पुरुष दाढ़ी मुंडवाते थे और कई तरह के बाल बनवाते थे। वे बालों को संवारने के लिए कंघी का प्रयोग करते थे।

4. मनोरंजन-सिन्धु घाटी के लोग नाच और गाने से अपना दिल बहलाया करते थे। उन्हें घरों में खेले जाने वाले खेल अधिक पसन्द थे। खुदाई से प्राप्त कुछ मोहरों से पता चलता है कि लोग जुआ भी खेलते थे। उनका एक खेल आधुनिक शतरंज जैसा था। बच्चों के लिए प्रत्येक घर में खिलौने हुआ करते थे। खुदाई में हिरणों तथा बारहसिंगा के सींग भी मिले हैं। इनसे यह अनुमान लगाया गया है कि सिन्धु घाटी के लोगों को शिकार खेलने का भी चाव था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता 3

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 1 सिन्धु घाटी की सभ्यता

प्रश्न 2.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के आर्थिक तथा धार्मिक जीवन का वर्णन करो।
उत्तर-
आर्थिक जीवन-सिन्धु घाटी के लोगों के आर्थिक जीवन का वर्णन इस प्रकार है :

  • कृषि–सिन्धु घाटी के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। वे गेहूँ, जौ, कपास, फल, सब्जियों आदि की खेती करते थे।
  • पशु पालन-सिन्धु घाटी के लोगों का दूसरा बड़ा व्यवसाय पशु पालना था। ये लोग गाय, बैल, भेड़, बकरियां, कुत्ते, सूअर आदि पालते थे।
  • व्यापार—यहां के लोगों का व्यापार काफ़ी उन्नत था। वे विदेशों के साथ भी व्यापार करते थे। प्रोफैसर चाइड लिखते हैं कि सिन्धु घाटी के लोगों द्वारा बनी वस्तुएं दजला और फरात की घाटी के बाजारों में बिका करती थीं। वस्तुओं को तोलने के लिए बाट थे।
  • कुटीर उद्योग-सिन्धु घाटी के कांसी तथा पीतल के बहुत सुन्दर बर्तन बनाते थे। उनके बनाए हुए खिलौने बड़े ही सुन्दर होते थे। सूत कातना, कपड़ा बुनना, आभूषण बनाना, पकी ईंटें बनाना आदि भी उनके प्रमुख उद्योग-धन्धे थे।

धार्मिक जीवन-सिन्धु घाटी के लोगों के धार्मिक जीवन का वर्णन इस प्रकार है :-

  • शिव उपासना-खुदाई में एक ऐसी मूर्ति मिली है जिसकी तीन आँखें और तीन मुँह हैं। इस मूर्ति में एक बैल का चित्र भी है। प्रायः बैल के साथ शिवजी महाराज का नाम जुड़ा हुआ है। इसलिए सर जॉन मार्शल का अनुमान है कि यह शिवजी की मूर्ति है और सिन्धु घाटी के लोग इसकी पूजा किया करते थे।
  • मातृदेवी की पूजा-खुदाई में मिली मोहरों पर एक अर्धनग्न नारी का चित्र बना हुआ है। विद्वानों का विचार है कि यह मातृदेवी की मूर्ति है और सिन्धु घाटी के लोग इसकी पूजा करते थे।
  • मूर्ति पूजा–खुदाई में शिवलिंग तथा कई मूर्तियां मिली हैं। अनुमान है कि सिन्धु घाटी के लोग इन मूर्तियों की पूजा करते थे।
  • पशु पूजा-खुदाई से मिली कुछ मोहरों पर हाथी, बैल, बाघ आदि के चित्र मिले हैं। सिन्धु घाटी के लोग इन पशुओं की भी पूजा किया करते थे।
  • जादू-टोनों में विश्वास-खुदाई में कुछ तावीज़ भी मिले हैं। इनसे यह अनुमान लगाया गया है कि सिन्धु घाटी के लोग जादू-टोनों में भी विश्वास रखते थे।
  • मृतक संस्कार-सिन्धु घाटी के लोग अपने मृतकों का संस्कार तीन प्रकार से किया करते थे। कुछ लोग मुर्दो को धरती में दबा देते थे और कुछ उन्हें जला देते थे। कई लोग मुर्दो को जलाकर उनकी राख तथा अस्थियों को किसी पात्र में रखकर उसे धरती में गाढ़ देते थे।

प्रश्न 3.
सिन्धु घाटी की सभ्यता के लुप्त होने के क्या कारण (पतन के कारण) बताए जाते हैं ?
उत्तर-

  • बाढ़ें–कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि सिन्धु नदी की घाटी में आने वाली बाढ़ों ने इस सभ्यता को नष्टभ्रष्ट कर दिया।
  • बाहरी आक्रमण-कुछ विद्वानों के अनुसार आर्यों तथा अन्य विदेशी जातियों ने यहां के लोगों पर अनेक आक्रमण किए। इन युद्धों में यहां के निवासी हार गए इस सभ्यता का अन्त हो गया।
  • वर्षा की कमी-कुछ विद्वानों का कहना है कि इस सभ्यता का अन्त वर्षा की कमी के कारण हुआ। इनका अनुमान है कि इस प्रदेश में काफी लम्बे समय तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा और इस सभ्यता का अन्त हो गया।
  • भूकम्प-कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह सभ्यता भूकम्प आने के कारण नष्ट हुई।
  • अन्य कारण-
    • कुछ विद्वानों के विचार में इस प्रदेश में भयानक महामारियां फैली होंगी। इससे अनेक लोग मारे गए और जो लोग बचे होंगे, वे मृत्यु के भय से यह प्रदेश छोड़ गए होंगे।
    • एक अन्य मत के अनुसार शायद सिन्धु नदी ने अपना रास्ता बदल लिया होगा जिससे इस प्रदेश की भूमि बंजर हो गई होगी। लोग बंजर भूमि को छोड़ कर कहीं और चले गए होंगे।