लान टेनिस (Lawn Tennis) Game Rules – PSEB 10th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 10th Class Physical Education Book Solutions लान टेनिस (Lawn Tennis) Game Rules.

लान टेनिस (Lawn Tennis) Game Rules – PSEB 10th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें

  1. टैनिस कोर्ट की लम्बाई = 78 फुट या (23.77 मी०)
  2. कोर्ट की चौड़ाई = 27 फुट या (8.23 मी०)
  3. जाल की ऊँचाई = 3 फुट या ( 0.91 मी०)
  4. जाल में तार का व्यास = 3′ (0.8 सैं०मी०)
  5. स्तम्भों की ऊंचाई = 3′ 6″ (1.07 मी०)
  6. स्तम्भों का व्यास = 6″ (15 सैं०मी०)
  7. स्तम्भों की केन्द्र से दूरी = 3 फुट (0.91 मी०)
  8. सर्विस रेखाओं की दूरी = 21 फुट (6.4 सैं०मी०)
  9. रेखाओं की चौड़ाई। = 2 फुट 5 सैं०मी०
  10. गेंद का व्यास = \(2 \frac{1}{2}\)” (6.35-6.67 सैं०मी०)
  11. गेंद का भार = 2 से \(2 \frac{1}{2}\) औंस
  12. पुरुषों के सैटों की गिनती = 5
  13. स्त्रियों के सैटों की गिनती = 3
  14. गेंद का रंग = सफेद
  15. डबल्ज़ खेल में कोर्ट की चौड़ाई = 36 फुट (10.97 मी०)

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प्रश्न
लॉन टेनिस का इतिहास और नियम लिखें।
उत्तर-
लॉन टेनिस का इतिहास
(History of Lawn Tennis)
लॉन-टैनिस संसार का एक प्रसिद्ध खेल बन चुका है। इसका टूर्नामैंट करवाने के लिए बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है। लॉन-टैनिस की उत्पत्ति के बारे में यह कहा जा सकता है कि लॉन-टैनिस 12वीं शताब्दी में फ्रांस में पहली बार घास के मैदान में खेला गया। पहले पहल खिलाड़ी हाथ द्वारा यह खेल खेला करते थे। शुरू में यह खेल कुछ साधनों द्वारा खेला जाता था पर बाद में यह खेल हाई जैनटरी की पसंद बन गया। उसके बाद लॉन-टैनिस मध्यम वर्ग के लोगों की पसंद बन गया। असल में इस खेल के विकास का श्रेय मेजर डब्लयू सी० विंगलीफड को जाता है। उसने 19वीं शताब्दी में इस खेल को इंग्लैंड में शुरू किया और स्पेन के लिमिंगटन में 1872 में पहले लॉन-टैनिस कलब बनाया गया। पहले विबलडन चैम्पियनशिप 1877 में पुरुषों के लिए करवाया गया। 1884 में विबलडन चैम्पियनशिप महिलाओं के लिए करवाया गया। ओलिम्पिक खेलों में लॉन टेनिस 1924 तक ओलिम्पिक का भाग बना रहा और दोबारा 1988 सियोल ओलिम्पिक में शामिल किया गया। अब यह खेल भारत के साथ-साथ बहुत देशों में खेला जाता है।

लॉन टेनिस के नये नियम
(New Rules of Lawn Tennis)

  1. टैनिस कोर्ट की लम्बाई 78 फुट, 23.77 मीटर चौड़ाई 27 फुट, 8.23 मीटर होती है।
  2. जाल की ऊंचाई 3 फुट 0.91 मीटर और उसमें धागे या धातु की तार का अधिक-सेअधिक व्यास 1/3 इंच या 0.8 सैं० मी० चाहिए।
  3. स्तम्भों का व्यास 6 इंच या 15 सैं० मी० ओर प्रत्येक ओर कोर्ट के बाहर खम्भे से केन्द्र की दूरी 3 फुट या 0.91 मीटर होती है।
  4. टैनिस गेंद का व्यास 2 – इंच या 6.34 सैं० मी० और इसका भार 2 औंस या 56.7 ग्राम, जब गेंद को 100 इंच या 20.54 मीटर की ऊंचाई से फेंका जाए तो उसका उछाल 53 इंच या 1.35 मीटर होगा।
  5. टेनिस खेल में अधिक-से-अधिक सैटों की संख्या पुरुषों के लिए 5 और स्त्रियों के लिए 3 होती है।

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प्रश्न
लान टेनिस कोर्ट के बारे संक्षिप्त हाल लिखें।
उत्तर-
लॉन टेनिस का कोर्ट
(Court of Lawn Tennis)
कोर्ट आयताकार होगा। यह 78 फुट (23.77 मी०) लम्बा तथा 27 फुट (8.23 मी०) चौड़ा होना चाहिए। ये मध्य में रस्सी या धातु की तार के साथ लटके जाल द्वारा बंटा होना चाहिए। इस रस्सी या तार का व्यास 1/3 इंच (0.8 सैंटीमीटर) होना चाहिए जिसके दो बराबर रंगे हुए खम्भों के ऊपरी सिरों से गुज़रने चाहिएं। ये खम्भे 3 फुट 6 इंच (1.07 मी०) ऊंचे होने चाहिएं तथा 6 इंच (15 सैं०मी०) के चौरस या 6 इंच (15 सैं० मी०) व्यास के होने चाहिएं। इनका मध्य कोर्ट के दोनों ओर 3 फुट (0.914 मी०) बाहर की ओर होना चाहिए। जाल पूरी तरह तना होना चाहिए ताकि यह दोनों खम्भों के मध्यवर्ती स्थान को ढक ले तथा इसके छिद्र इतने बारीक होने चाहिएं कि उनमें से गेंद न निकल सके। जाल की ऊंचाई मध्य में 3 फुट (0.914 मी०) होगी तथा यह एक स्ट्रैप से नीचे कस कर बंधा होगा जो सफ़ेद रंग का तथा 2 इंच (5 सैंटीमीटर) से अधिक चौड़ा नहीं होगा। धातु की तार तथा जाल के ऊपरी सिरे को एक बैंड ढक कर रखेगा जोकि प्रत्येक ओर 2 इंच (5 सेंटीमीटर) से कम तथा \(2 \frac{1}{2}\) इंच (6.34 सैंटीमीटर) से अधिक
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गहरा नहीं होगा। यह सफ़ेद रंग का होना चाहिए। जाल, स्ट्रैप, बैंड या सिंगल्ज़ स्ट्रिक्स पर कोई विज्ञापन नहीं होना चाहिए। कोर्ट के लिए तथा साइडों को घेरने वाली रेखाएं बेस लाइनें तथा साइड लाइनें कहलाती हैं। जाल की प्रत्येक ओर 0.21 फुट (6.00 सैं० मी०) की दूरी पर तथा इसके समानान्तर सर्विस लाइनें खींची जाएंगी। जाल की प्रत्येक ओर सर्विस लाइन तथा साइड लाइन मध्यवर्ती स्थान को दो भागों में बांटेगी जिसे सर्विस कोर्ट कहते हैं। यह लाइन 2 इंच (5 सैं० मी०) चौड़ी होगी तथा साइड लाइन के मध्य में तथा उसके समानान्तर होगी।

प्रत्येक बेस लाइन सर्विस लाइन द्वारा काटी जाएगी जो 4 इंच (10 सैं० मी०) लम्बी और 2 इंच (5 सैं० मी०) चौड़ी होगी, इसको सैंटर मार्क कहा जाता है। यह मार्क कोर्ट के बीच बेस लाइनों के समकरण तथा इसके साथ लगा होता है। अन्य सभी लाइनों बेस लाइनों को छोड़ कर 1 इंच (2.5 सैं०मी०) से कम तथा 2 इंच (4 सैं० मी०) से अधिक चौड़ी नहीं होनी चाहिएं। बेस लाइन 4 इंच (10 सैं० मी०)चौड़ी हो सकती है तथा सभी पैमाइशें लाइनों के बाहर से की जानी चाहिएं।
कोर्ट की स्थायी चीज़ों में न केवल जाल, खम्भे, सिंगल स्ट्रिक्स, धागा या धातु की तार, स्ट्रैप तथा बैंड सम्मिलित होंगे, अपितु बैंड तथा साइड स्ट्रैप, स्थायी तथा हिला सकने वाली सीटें, इर्द-गिर्द की कुर्सियां भी सम्मिलित होंगी। अन्य सभी कोर्ट, अम्पायर, इसकी जजों, लाइनमैनों तथा बाल ब्वाइज़ के गिर्द लगी चीजें अपनी ठीक सतह पर होंगी।

प्रश्न
लान टेनिस गेंद के बारे में लिखें।
उत्तर-
लान टेनिस का गेंद (The Lawn Tennis Ball)-गेंद की बाहरी सतह समतल होनी चाहिए तथा या सफ़ेद या पीले रंग का होगा। यदि कोई सीनें हो तो टांके के बिना होनी चाहिएं। गेंद का व्यास 2/2 इंच (5.35 सैं० मी०) से अधिक तथा 25/8 इंच (6.67 सैंटीमीटर) से कम नहीं होना चाहिए। इसका भार 2 औंस (56.7 ग्राम) से अधिक तथा 21/2 औंस (500 ग्राम) से कम होना चाहिए। जब गेंद को एक कंकरीट बेस पर 100 इंच
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(254 सैं० मी०) ऊंचे से फेंका जाए तो उसकी उछाल 53 इंच (175 सैं मी०) से अधिक तथा 58 इंच (147 सैं० मी०) से कम होनी चाहिए। गेंद का 18 पौंड भार से आगे की विकार 220 इंच (.55 सैं०मी०) से अधिक तथा 290 इंच (.75 सैं०मी०) से कम होना चाहिए तथा वापसी विकार के अंग गेंद के लिए तीन अक्षों के तीन निजी पाठनों की औसत होगी तथा कोई भी दो निजी पाठनों में 0.30 इंच (0.80 सैंमी०) से अधिक अन्तर नहीं होगा।

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प्रश्न
लान टैनिस कैसे शुरू होती है ?
उत्तर-
खिलाड़ी (Player)-खिलाड़ी जाल की विरोधी साइडों पर खड़ें होंगे। वह खिलाड़ी जो पहले गेंद देता है और सर्वर (Server) कहा जाएगा तथा दूसरे को रिसीवर (Receiver) । साइडों का चुनाव तथा सर्वर या रिसीवर बनने के चुनाव का फैसला टॉस (Toss) से किया जाता है। टॉस जीतने वाला खिलाड़ी साइड का चुनाव करता है या अपने विरोधी को ऐसा करने के लिए कह सकता है। यदि एक खिलाड़ी साइड चुनता है तो दूसरा खिलाड़ी सर्वर या रिसीवर बनने का अधिकार चुनता है।

सर्विस (Service)-सर्विस निम्नलिखित ढंग से की जाएगी। सर्विस आरम्भ करने से पहले सर्वर दोनों पांव पीछे की ओर टिका कर खड़ा होगा, (बेस लाइन से जाल से दूर)। यह स्थान सैंटर मार्क तथा सैंटर लाइन की कल्पित सीध में होगा। फिर सर्वर हाथ से गेंद को वायु में किसी भी दिशा में उछालेगा। इसके ज़मीन पर गिरने से पहले रैकेट से मारेगा तथा गेंद या रैकेट से डिलीवरी पूरी मानी जाएगी। खिलाड़ी अपने एक बाजू से रैकेट को बचाव के लिए प्रयोग कर सकते हैं।
सर्वर सर्विस होने, डिलीवरी होने तक—

  1. चल कर या दौड़ कर अपनी पोजीशन नहीं बदलेगा।
  2. अपने पांव से कोई क्षेत्र नहीं स्पर्श करेगा सिवाए उस क्षेत्र के जो बेस लाइन के पीछे सैंटर मार्क तथा साइड लाइन की कल्पित वृद्धि की सीध में हो।
  3. सर्विस देने के बाद सर्वर बारी-बारी दायें तथा बायें कीर्डों में खड़ा होगा तथा शुरू वह दाईं ओर से करेगा। यदि कोर्ट के गलत अर्द्ध में से सर्विस होती है तथा इसका पता नहीं चलता तो इस गलत सर्विस या सर्विस से हुई कमी के कारण खेल कायम रहेगी परन्तु पता चलने पर स्थिति की गलती को ठीक करना होगा।
  4. सर्विस किया गया गेंद जाल को पार करके सर्विस कोर्ट में रिसीवर के रिटर्न करने से पहले भूमि के साथ टकराना चाहिए जोकि नगनल रूप में सामने होता है या कोर्ट की किसी अन्य लाइन के साथ टकराये।

प्रश्न
लान टेनिस के कोई पांच नियम लिखें।
उत्तर-
साधारण नियम
(General Rules)

  1. सर्वर तब तक सर्विस नहीं करेगा जब तक कि रिसीवर तैयार न हो। यदि रिसीवर सर्विस रिटर्न करने की कोशिश करता है तो तैयार समझा जाएगा।
  2. सर्विस लेट होती है—
    • यदि सर्विस किया गया गेंद, जाल, स्ट्रैप या बैंड को स्पर्श करता है तथा उस प्रकार ही ठीक या जाल, स्ट्रैप या बैंड को स्पर्श करके रिसीवर को या जो वस्तु उसने पहनी या उठाई हुई है स्पर्श करता है।
    • यदि एक सर्विस या फाल्ट डिलीवर हो जबकि रिसीवर तैयार न हो।
  3. पहली गेम के बाद रिसीवर सर्वर तथा सर्वर रिसीवर बनेगा। मैच की बाकी गेमों से इस प्रकार बदल-बदल कर होगा।
  4. सर्वर प्वाइंट जीत लेता है-यदि सर्विस क्रिया गेम नियम 2 के अनुसार लेट नहीं तथा यह ज़मीन को लगने से पहले रिसीवर को या उस द्वारा पहनी या उठाई हुई किसी चीज़ को स्पर्श कर ले।
  5. यदि खिलाड़ी जान-बूझकर या अनिच्छापूर्वक कोई ऐसा काम करता है जो अम्पायर की नज़र में उसके विरोधी खिलाड़ी को शॉट लगाने में रुकावट पहुंचाता है तो अम्पायर पहली दशा में विरोधी खिलाड़ी को एक प्वाइंट दे देगा तथा इसकी दशा में उस प्वाइंट को पुनः खेलने के लिए कहेगा।
  6. यदि खेल में गेंद किसी स्थायी कोर्ट फिटिंग (जाल, खम्भे, सिगनल्ज़, धागे या धातु की तार, स्ट्रैप या बैंड) को छोड़ कर ज़मीन से स्पर्श करती है तथा खिलाड़ी जिसने प्रहार किया होता है, प्वाइंट जीत लेता है। यदि यह पहले ज़मीन को स्पर्श करती है तो विरोधी प्वाइंट जीत लेता है।
  7. यदि एक खिलाड़ी अपना पहला प्वाइंट जीत लेता है तो उस खिलाड़ी के दूसरे प्वाइंट जीतने पर स्कोर 15 होगा तीसरा प्वाइंट जीतने पर स्कोर 30 होगा तथा चौथा प्वाइंट जीतने पर उसका स्कोर 40 होगा। चौथा प्वाइंट प्राप्त करने पर गेम स्कोर हो जाती है।।
    • यदि दोनों खिलाड़ी अगला प्वाइंट जीत लें तो स्कोर ड्यूस (Deuce) कहलाता है तथा अगला प्वाइंट खिलाड़ी द्वारा स्कोर करने से उस खिलाड़ी के लिए लाभ स्कोर कहलाता है।
    • यदि वह खिलाड़ी अगला प्वाइंट जीत ले तो गेम जीत लेता है। यदि अगला प्वाइंट विरोधी जीते तो स्कोर फिर ड्यूस कहलाता है तथा आगे इस तरह जब तक खिलाड़ी ड्यूस स्कोर होने के बाद दो प्वाइंट नहीं जीत लेता।
  8. प्रत्येक खिलाड़ी जो पहली छः गेम जीत लेता है वह ठीक सैट जीत लेता है, सिवाए इसके कि वह अपने विरोधी से दो गेमें अधिक जीता है। जब तक यह सीमा प्राप्त नहीं होती, सैट की अवधि बढ़ा दी जाएगी।
  9. खिलाड़ी प्रत्येक सैट की बदलती गेम तथा पहली और तीसरी गेमों के बाद सिरे बदल लेंगे। वे प्रत्येक सैट के अन्त में भी सिरे बदलेंगे। बशर्ते सैट में गेमों की संख्या सम नहीं होती। उस दशा में अगले सैट की पहली गेम के अन्तर में फिर सिरे बदले जाएंगे।
  10. एक मैच में सैटों की अधिक-से-अधिक संख्या पुरुषों के 5 तथा स्त्रियों के लिए 3 होती है।
  11. यदि खेल स्थगित कर दी जाए तथा दूसरे किसी दिन शुरू न होनी हो तो तीसरे सैट के पश्चात् (जब स्त्रियां भाग लेती हों तो दूसरे सैट के बाद) विश्राम किया जा सकता है। यदि खेल किसी अन्य दिन के लिए स्थगित कर दी गई हो तो अधूरा सैट पूरा करना एक सैट गिना जाएगा। इन व्यवस्थाओं की पूरी व्याख्या की जानी चाहिए तथा खेल को कभी भी स्थगित, लेट या रुकावट युक्त नहीं होने देना चाहिए जिससे एक खिलाड़ी को अपनी शक्ति पूरा करने का अवसर मिले।
  12. अम्पायर ऐसे स्थगनों या अन्य विघ्नों का एकमात्र जज होगा तथा दोषी को चेतावनी देकर उसे अयोग्य घोषित कर सकता है।
  13. सिरे बदलने के लिए पहली गेम समाप्त होने के पश्चात् उस समय तक अधिकसे-अधिक 1 मिनट का समय लगना चाहिए जबकि खिलाड़ी अगली गेम खेलने के लिए तैयार हो जाएं।

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प्रश्न
लान टेनिस के कौशल लिखें।
उत्तर-
लान टेनिस के मुख्य कौशल
(Basic Fundamentals of Lawn Tennis)

  1. रैकट को पकड़ना (Grip of the Racket)
  2. स्टांस (Stance)
  3. फुट वर्क (Foot work)
  4. फुट वर्क ऑन गार्ड स्टांस (Foot work on guard stance)
  5. पिवट (Pivot)
  6. फोरहँड रिटर्न तथा फुट वर्क (Work for Forehead Return)
  7. बैक कोर्ट रिटर्न तथा फुटवर्क (Foot work for a Back court Returm)
  8. सर्विस (Service)
  9. स्ट्रोक (Stroke)
    • फोरहैड स्ट्रोक (Forehead Strokes),
    • बैक हैड स्ट्रोक (Back Head Strokes),
    • ओवर हैड स्ट्रोक (Overhead Stroke),
    • नैट स्ट्रोक (Net Stroke)।

स्कोर (Scoring) – यदि एक खिलाड़ी प्वाइंट ले लेता है तो उसका स्कोर 15 हो जाता है। दूसरा प्वाइंट जीतने से 30 और तीसरा जीतने से 40 हो जाता है इस प्रकार जिस खिलाड़ी ने 40 स्कोर कर लिया हो वह अपने सैट की गेम जीत लेता है।

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प्रश्न
लान टेनिस में डबल गेम में कोर्ट का साइज लिखें।
उत्तर-
डबल्ज़ खेल
(Doubles Game)
कोर्ट (The Court)-डबल्ज़ गेम के लिए कोर्ट 36 फुट (10.97 मी०) चौड़ा होना चाहिए अर्थात् सिंगल्ज़ गेम से हर ओर \(4 \frac{1}{2}\) फुट (1.49 मी०) अधिक चौड़ा होना चाहिए। जो भाग सिंगल्ज़ लाइनों तथा दो सर्विस लाइनों के मध्य में होते हैं उन्हें साइड लाइन कहते हैं। दूसरी बातों में यह कोर्ट सिंगल्ज गेम के कोर्ट के साथ मिलता है। परन्तु यदि चाहो तथा सिंगल्ज़ साइड लाइनों के बेस तथा सर्विस लाइनों के भागों को छोड़ा जा सकता है।
साधारण नियम
(General Rules)

  1. प्रत्येक सैट के शुरू होने पर सर्विस के क्रम का फैसला निम्नलिखित अनुसार किया जाता है
    • जिस जोड़े ने पहले सैट में सर्विस करनी होती है वह फैसला करता है कि कौन-सा पार्टनर सर्विस करेगा तथा दूसरे सैट में विरोधी जोड़ा इस बात के लिए फैसला करेगा।
    • उस खिलाड़ी का पार्टनर जिसने दूसरे गेम में सर्विस की है वह तीसरी गेम में सर्विस करेगा। खिलाड़ी का पार्टनर जिसने दूसरी गेम में सर्विस की है वह चौथी गेम में सर्विस करेगा तथा इस प्रकार सैट के शेष अंकों में होगा।
  2. रिटर्न सर्विस प्राप्त करने का क्रम प्रत्येक सैट के शुरू में निम्नलिखित के अनुसार निश्चित होगा
    • जिस जोड़े ने पहले गेम में सर्विस प्राप्त करनी होती है वह इस बात का निश्चय करेगा कि कौन-सा पार्टनर सर्विस प्राप्त करे तथा वह पार्टनर सारे सैट में प्रत्येक विषय गेम में सर्विस प्रगत करेगा।
    • इसी प्रकार विरोधी जोड़ा यह निश्चय करेगा कि दूसरी गेम में कौन-सा पार्टनर सर्विस प्राप्त करेगा तथा वह पार्टनर उस सैट की प्रत्येक सम गेम में सर्विस प्राप्त करेगा। पार्टनर बारी-बारी हर गेम में सर्विस प्राप्त करेगा।
  3. यदि कोई पार्टनर अपनी बारी के बिना सर्विस वह पार्टनर जिसे सर्विस करनी चाहिए थी स्वयं सर्विस करेगा जबकि गलती का पता लग जाए। परन्तु इसका पता लगाने से पहले स्कोर किए गए सारे प्वाइंट तथा शेष गिने जाएंगे। यदि ऐसा पता लगने से पहले गेम समाप्त हो जाए तो सर्विस का क्रम बदलता रहता है।
  4. यदि गेम के दौरान सर्विस करने का क्रम रिसीवर द्वारा बदला जाता है, यह उस गेम की समाप्ति तक ऐसा रहता है जिस में इसका पता चलता है परन्तु पार्टनर सैट की अगली गेम में अपने वास्तविक क्रम को दोबारा शुरू करेंगे जिससे वह सर्विस के रिसीवर है।
  5. गेंद बारी-बारी विरोधी जोड़े के एक या दूसरे खिलाड़ी द्वारा खेला जाना चाहिए। यदि खिलाड़ी खेल में गेंद को अपने रैकट के साथ ऊपर दिए गए नियम के विरुद्ध स्पर्श करता है तो उसका विरोधी प्वाईंट जीत लेता है।

लान टैनिस खेल के अर्जुन अवार्ड विजेता
(Arjuna Awardee)

  1. आनन्द अमृतराज,
  2. विजय अमृतराज,
  3. राम नाथन कृष्णन,
  4. रमेश कृष्णन,
  5. लैंडर पेस,
  6. जैदीप,
  7. नरेश कुमार,
  8. महेश भूपति।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में बांटे जाने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के चार रूप हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी व दासता।

प्रश्न 3.
सामाजिक स्तरीकरण के तत्त्वों के नाम लिखो।
उत्तर-
यह सर्वव्यापक है, यह सामाजिक है, इसमें असमानता होती है तथा प्रत्येक समाज में इसका अलग आधार होता है।

प्रश्न 4.
जागीर व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
मध्यकालीन यूरोप की वह व्यवस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीरदार बनाकर उसे लगान एकत्र करने की आज्ञा दी जाती थी।

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प्रश्न 5.
शब्द ‘जाति’ कहां से लिया गया है ?
उत्तर-
शब्द जाति (Caste) स्पैनिश तथा पुर्तगाली शब्द Caste से निकला है जिसका अर्थ है प्रजाति या वंश।

प्रश्न 6.
वर्ण व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज की वह व्यवस्था जिसमें समाज को पेशे के आधार पर चार भागों में विभाजित कर दिया जाता था।

प्रश्न 7.
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्धता स्थितियों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्राचीन समय के हिन्दू समाज के चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र।

प्रश्न 8.
छुआ-छूत से तुम क्या समझते हो ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था के समय अलग-अलग जातियों को एक-दूसरे को स्पर्श करने की मनाही थी जिसे अस्पृश्यता कहते थे।

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प्रश्न 9.
कुछ सुधारकों के नाम लिखो जिन्होंने छुआ छूत के खिलाफ विरोध प्रकट किया ।
उत्तर-
राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फूले, महात्मा गांधी, डॉ० बी० आर० अंबेदकर इत्यादि।

प्रश्न 10.
वर्ग क्या है ?
उत्तर-
वर्ग लोगों का वह समूह है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है जैसे कि पैसा, पेशा, सम्पत्ति इत्यादि।

प्रश्न 11.
वर्ग व्यवस्था के किस्सों के नाम लिखो।
उत्तर-
मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग पाए जाते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग।

प्रश्न 12.
मार्क्स ने कौन-से वर्गों का वर्णन किया है ?
उत्तर-
पूंजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग।

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II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक असमानता क्या है ?
उत्तर-
जब समाज के सभी व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के मौके प्राप्त न हों, उनमें जाति, जन्म, प्रजाति, रंग, पैसा, पेशे के आधार पर अंतर हो तथा अलग-अलग समूहों में अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता हो तो इसे असमानता का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. जाति-जाति स्तरीकरण का एक रूप है जिसमें अलग-अलग जातियों के बीच स्तरीकरण पाया जाता है।
  2. वर्ग-समाज में बहुत से वर्ग पाए जाते हैं तथा उनमें अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा व्यक्ति योग्यता होते हुए भी इसे बदल नहीं सकता है।
  2. जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था तथा अलग-अलग जातियों के बीच विवाह करवाने की पांबदी थी।

प्रश्न 4.
अन्तर्विवाह क्या है ?
उत्तर-
अन्तर्विवाह विवाह करवाने का ही एक प्रकार है जिसके अनुसार व्यक्ति को अपने समूह अर्थात् जाति या उपजाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस कारण सभी अपने समूह में ही विवाह करवाते थे।

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प्रश्न 5.
प्रदूषण तथा शुद्धता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का क्रम पवित्रता तथा अपवित्रता के संकल्प के साथ जुड़ा हुआ था। इसका अर्थ है कि कुछ जातियों को परंपरागत रूप से शुद्ध समझा जाता था तथा उन्हें समाज में उच्च स्थिति प्राप्त थी। कुछ जातियों को प्रदूषित समझा जाता था तथा उन्हें सामाजिक व्यवस्था में उन्हें निम्न स्थान प्राप्त था।

प्रश्न 6.
औद्योगीकरण तथा नगरीकरण पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
औद्योगीकरण का अर्थ है देश में बड़े-बड़े उद्योगों का बढ़ाना। जब गांवों के लोग नगरों की तरफ जाएं तथा वहां रहने लग जाए तो इस प्रक्रिया को नगरीकरण कहा जाता है। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रक्रिया ने जाति व्यवस्था को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

प्रश्न 7.
वर्ग व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतना होती है कि उसका पद अथवा सम्मान दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है।
  2. इसमे लोग अपनी ही श्रेणी के सदस्यों के साथ गहरे संबंध रखते हैं तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उनके संबंध सीमित होते हैं।

प्रश्न 8.
नई मध्यम वर्ग पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
पिछले कुछ समय से समाज में एक नया मध्य वर्ग सामने आया है। इस वर्ग में डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर, अध्यापक, छोटे-मोटे व्यापारी, नौकरी पेशा लोग होते हैं। उच्च वर्ग इस मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।

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III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  1. स्तरीकरण एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है। कोई भी मानवीय समाज ऐसा नहीं जहां स्तरीकरण की प्रक्रिया न पाई जाती हो।
  2. स्तरीकरण में समाज के प्रत्येक सदस्य की स्थिति समान नहीं होती। किसी की स्थिति उच्च तथा किसी
    की निम्न होती है।
  3. स्तरीकरण में समाज का विभाजन विभिन्न स्तरों में होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती है। वर्गों में उच्चता निम्नता के संबंध होते हैं।
  4. चाहे इसमें अलग-अलग स्तरें होती हैं परन्तु उन स्तरों में आपसी निर्भरता भी पाई जाती है।

प्रश्न 2.
किस प्रकार वर्ग सामाजिक स्तरीकरण से संबंधित है ?
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण से वर्ग हमेशा ही संबंधित रहा है। अलग-अलग समाजों में अलग-अलग वर्ग पाए जाते हैं। चाहे प्राचीन समाज हों या आधुनिक समाज, इनमें अलग-अलग आधारों पर वर्ग पाए जाते हैं। यह आधार पेशा, पैसा, जाति, धर्म, प्रजाति, भूमि इत्यादि होते हैं। इन आधारों पर कई प्रकार के वर्ग मिलते हैं।

प्रश्न 3.
जाति तथा वर्ग व्यवस्था में अंतर बताइए।
उत्तर-

वर्ग- जाति-
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी।
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी।
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं।
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी।
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है।

प्रश्न 4.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के चार कारक लिखो।
उत्तर-

  1. भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
  2. भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
  3. देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
  4. नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 5.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख रूपों के रूप में जाति तथा वर्ग के बीच अंतर बताइए।
उत्तर-

वर्ग- जाति-
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी।
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी।
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं।
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी।
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है।

 

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
स्तरीकरण को परिभाषित करो। सामाजिक स्तरीकरण की क्या विशेषताएं हैं ?
उत्तर-
जिस प्रक्रिया के द्वारा हम व्यक्तियों तथा समूहों को स्थिति पदक्रम के अनुसार स्तरीकृत करते हैं उसको स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। शब्द स्तरीकरण अंग्रेजी भाषा के शब्द Stratification का हिन्दी रूपान्तर है जिसमें strata का अर्थ है स्तरें (Layers) । इस शब्द की उत्पत्ति लातीनी भाषा के शब्द Stratum से हुई है। इस व्यवस्था के द्वारा सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए अलग-अलग स्तरों में बांटा हुआ है। कोई भी दो व्यक्ति, स्वभाव या किसी और पक्ष से, एक समान नहीं होते हैं। इस असमानता की वजह से उनमें कार्य करने की योग्यता का गुण भी अलग होता है। इस वजह से असमान गुणों वाले व्यक्तियों को अलग-अलग वर्गों में बांटने से हमारा समाज व्यवस्थित रूप से कार्य करने लग जाता है। व्यक्ति को विभिन्न स्तरों में बांट कर उनके बीच उच्च या निम्न सम्बन्धों का वर्णन किया जाता है। चाहे उनकी स्थिति के आधार पर सम्बन्ध उच्च या निम्न होते हैं परन्तु फिर भी वह एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इस उच्चता तथा निम्नता की अलग-अलग वर्गों में विभाजन को स्तरीकरण कहा जाता है।

अलग-अलग समाजों में स्तरीकरण भी अलग-अलग पाया जाता है। ज्यादातर व्यक्तियों को पैसे, शक्ति, सत्ता के आधार पर अलग किया जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ अलग-अलग सामाजिक समूहों को अलग-अलग भागों में बांटने से होता है। सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने दी है जिसका वर्णन इस प्रकार है-

1. किंगस्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “सामाजिक असमानता अचेतन रूप से अपनाया गया एक ऐसा तरीका है जिसके द्वारा विभिन्न समाज यह विश्वास दिलाते हैं कि सबसे ज्यादा पदों को चेतन रूप से सबसे ज्यादा योग्य व्यक्तियों को रखा गया है। इसलिए प्रत्येक समाज में आवश्यक रूप से असमानता तथा सामाजिक स्तरीकरण रहना चाहिए।”

2. सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज की जनसंख्या का उच्च तथा निम्न पदक्रमात्मक तौर पर ऊपर आरोपित वर्गों में विभेदीकरण से है। इसको उच्चतम तथा निम्नतम सामाजिक स्तरों के विद्यमान होने के माध्यम से प्रकट किया जाता है। इस सामाजिक स्तरीकरण का सार तथा आधार समाज विशेष के सदस्यों में अधिकार तथा सुविधाएं, कर्तव्यों तथा ज़िम्मेदारियों, सामाजिक कीमतों तथा अभावों, सामाजिक शक्तियों तथा प्रभावों के असमान वितरण से होता है।”

3. पी० गिज़बर्ट (P.Gisbert) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसे स्थायी समूहों या वर्गों में बाँटने की व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सभी समूह उच्चता तथा अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च तथा निम्न अलग-अलग समूहों तथा व्यक्तियों की भूमिकाओं तथा पदों को निर्धारित करता है। इसमें जन्म, जाति, पैसा, लिंग, शक्ति इत्यादि के आधार पर तथा व्यक्तियों में पाए जाने वाले पदक्रम को दर्शाया जाता है। विभिन्न समूहों में उच्चता तथा निम्नता के सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा व्यक्ति की स्थिति का समाज में निश्चित स्थान होता है। इसी के आधार पर व्यक्ति को समाज में सम्मान प्राप्त होता है।

स्तरीकरण की विशेषताएं या लक्षण (Features or Characteristics of Stratification)-

1. स्तरीकरण सामाजिक होता है (Stratification is Social) विभिन्न समाजों में स्तरीकरण के आधार अलग-अलग होते हैं। जब भी हम समाज में पाई जाने वाली चीज़ को दूसरी चीज़ से अलग करते हैं तो जब तक उस अलगपन को समाज के बाकी सदस्य स्वीकार नहीं कर लेते उस समय तक उस विभिन्नता को स्तरीकरण का आधार नहीं माना जाता। कहने का अर्थ है कि जब तक समूह के व्यक्ति स्तरीकरण को निर्धारित न करें उस समय तक स्तरीकरण नहीं पाया जा सकता। हम स्तरीकरण को उस समय मानते हैं जब समाज के सभी सदस्य असमानताओं को मान लेते हैं। इस तरह सभी के मानने के कारण हम कह सकते हैं कि स्तरीकरण सामाजिक होता

2. स्तरीकरण सर्वव्यापक प्रक्रिया है (Stratification is a Universal Process)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया हरेक समाज में पाई जाती है। यदि हम प्राचीन भारतीय कबाइली या किसी और समाज की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि कुछ न कुछ भिन्नता तो उस समय भी पाई जाती थी। लिंग की भिन्नता तो प्राकृतिक है जिसके आधार पर व्यक्तियों को बाँटा जा सकता है। आधुनिक तथा जटिल समाज में तो स्तरीकरण के कई आधार हैं। कहने का अर्थ यह है कि स्तरीकरण के आधार चाहे अलग-अलग समाजों में अलग-अलग रहे हैं, परन्तु स्तरीकरण प्रत्येक समाज में सर्वव्यापक रहा है। .

3. अलग-अलग वर्गों की असमान स्थिति (Inequality of status of different classes)-सामाजिक स्तरीकरण में व्यक्तियों की स्थिति या भूमिका समान नहीं होती है। किसी की सब से उच्च, किसी की उससे कम तथा किसी की बहुत निम्न होती है। व्यक्ति की स्थिति सदैव एक समान नहीं रहती। उसमें परिवर्तन आते रहते हैं। कभी वह उच्च स्थिति पर पहुंच जाता है तथा कभी निम्न स्थिति पर। कहने का अर्थ है कि व्यक्ति की स्थिति में असमानता पाई जाती है। यदि किसी की स्थिति पैसे के आधार पर उच्च है तो किसी की इस आधार पर निम्न होती है।

4. उच्चता तथा निम्नता का सम्बन्ध (Relation of Upper and Lower Class)-स्तरीकरण में समाज को विभिन्न स्तरों में बांटा होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती हैं। मुख्य रूप से समाज को दो भागों में बांटा होता है-उच्चतम तथा निम्नतम । समाज में एक तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति उच्च होती है तथा दूसरी तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति निम्न होती है। इनके बीच भी कई वर्ग स्थापित हो जाते हैं जैसे कि मध्यम उच्च वर्ग, मध्यम निम्न वर्ग। परन्तु इनमें उच्च तथा निम्न का सम्बन्ध ज़रूर होता है।

5. स्तरीकरण अन्तक्रियाओं को सीमित करती है (Stratification restricts interaction)-स्तरीकरण की प्रक्रिया में अन्तक्रियाएं विशेष स्तर तक ही सीमित होती हैं। साधारणतः हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही सम्बन्ध स्थापित करता है। इस वजह से वह अपने दिल की बात उनसे share करता है। व्यक्ति की मित्रता भी उसके अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही होती है। इस प्रकार व्यक्ति की अन्तक्रिया और स्तरों के सदस्यों के साथ नहीं बल्कि अपनी ही स्तर के सदस्यों के होती है। कई बार व्यक्ति दूसरी स्तर के सदस्यों से सम्पर्क रख कर अपने आप को adjust नहीं कर सकता।

6. स्तरीकरण प्रतियोगिता की भावना को विकसित करती है (It develops the feeling of competition)-स्तरीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति में परिश्रम तथा लगन की भावना पैदा करती है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में चेतन होता है। वह हमेशा आगे बढ़ने की कोशिश करनी शुरू कर देता है क्योंकि उसको अपने से उच्च स्थिति वाले व्यक्ति नज़र आते हैं। व्यक्ति अपनी योग्यता का प्रयोग करके प्रतियोगिता में आगे बढ़ना चाहता है। इस प्रकार व्यक्ति की उच्च स्तर के लिए पाई गई चेतनता व्यक्ति में प्रतियोगिता की भावना पैदा करती है। प्रत्येक व्यक्ति में अपने आप को समाज में ऊँचा उठाने की इच्छा होती है तथा वह अपने परिश्रम के साथ अपनी इच्छा पूर्ण कर सकता है। वह परिश्रम करता है तथा और वर्गों के व्यक्तियों के साथ प्रतियोगिता करता है। इस तरह वह अपने आप को ऊँचा उठा सकता है।

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प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के बारे में विस्तृत रूप में विचार विमर्श करो।
उत्तर-
1. वर्ण स्तरीकरण (Varna Stratification)-वर्ण स्तरीकरण में जातीय भिन्नता तथा व्यक्ति की योग्यता तथा स्वभाव काफ़ी महत्त्वपूर्ण आधार है। शुरू में भारत में आर्य लोगों के आने के बाद भारतीय समाज दो भागों आर्यों तथा दस्यु या original inhabitants में बंट गया था। बाद में आर्य लोग, जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, अपने गुणों तथा स्वभाव के आधार पर चार वर्णों में विभाजित हो गए। इस तरह समाज चार वर्णों या चार हिस्सों में बंट गया था तथा स्तरीकरण का यह स्वरूप हमारे सामने आया। इस पदक्रम में ब्राह्मण की स्थिति सबसे उच्च होती थी। इस व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण का कार्य निश्चित तथा एक-दूसरे से भिन्न थे। वर्ण व्यवस्था का आरम्भिक रूप जन्म पर आधारित नहीं था बल्कि व्यक्ति के गुणों पर आधारित था जिसमें व्यक्ति अपने गुणों तथा आदतों को बदल कर अपना वर्ण परिवर्तित कर सकता था। परन्तु वर्ण बदलना एक कठिन कार्य था जिसे आसानी से नहीं बदला जा सकता था।

2. दासता या गुलामी का स्तरीकरण (Slavery Stratification)-दास एक मनुष्य होता है जो किसी और मनुष्य के पूरी तरह नियन्त्रण में होता है। वह अपने मालिक की दया पर जीता है जिसे कोई अधिकार भी नहीं होता. है। मालिक कुछ एक मामलों में उसकी सुरक्षा करता है जैसे कि उसे किसी और का दास बनने से रोकना। परन्तु वह अधिकारविहीन व्यक्ति होता है जिसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है। वह पूरी तरह अपने मालिक की सम्पत्ति माना जाता है। इस तरह दास प्रथा वाले समाजों में बहुत ज्यादा असमानता पाई जाती है। अमेरिका, अफ्रीका इत्यादि महाद्वीपों में यह प्रथा 19वीं शताब्दी में पाई जाती थी। इसमें दास अपने मालिक के अधीन होता था तथा मालिक उसे किसी और के हाथों बेच भी सकता था। दास एक तरह से मालिक की सम्पत्ति था। दास की इस निम्न स्थिति की वजह से उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे जिस वजह से उसे समाज में कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। क्योंकि वह मालिक के अधीन होता था जिस वजह से मालिक उससे कठोर परिश्रम करवाता था तथा वह करने को मजबूर था। दासों को खरीदा तथा बेचा भी जाता था।

आधुनिक समय आते-आते दास प्रथा का विरोध होने लग गया जिस वजह से यह प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो गई तथा दासों ने किसानों का रूप ले लिया परन्तु इन समाजों में दास तथा मालिक के रूप में स्तरीकरण पाया जाता था।

3. सामन्तवाद (Feudalism)—दास प्रथा के साथ-साथ सामन्तवाद भी सामने आया। सामन्त लोग बहुत सारी ज़मीन के टुकड़े के मालिक होते थे तथा वह अपनी ज़मीन खेती करने के लिए और लोगों को या तो किराए पर दिया करते थे या पैदावार का बंटवारा करते थे। मध्य काल में तो सामन्त प्रथा को यूरोप में कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त थी। प्रत्येक सामन्त की एक विशेष स्थिति, विशेषाधिकार तथा कर्त्तव्य हुआ करते थे। उस समय में ज़मीन पर कृषि करने वाले लोगों के अधिकार काफ़ी कम हुआ करते थे। वह न्याय प्राप्त नहीं कर सकते थे तथा सामन्तों के रहमोकरम पर निर्भर होते थे। इस समय में श्रम विभाजन भी होता था। सामन्त प्रथा में सरदारों तथा पुजारियों के हाथ में सत्ता होती थी। भारत में ज़मींदार तो थे, परन्तु सामन्त प्रथा के लक्षण जाति प्रथा की वजह से नहीं थे। भारत में पाए जाने वाले ज़मींदार यूरोप में पाए जाने वाले सामन्तों से भिन्न थे। भारत के ज़मींदार प्रजा से राजा के लिए कर उगाहने का कार्य करते थे तथा ज़रूरत पड़ने पर राजा को अपनी सेना भी देते थे। जब राजा कमज़ोर हो गए तो बहुत सारे ज़मींदारों तथा सामन्तों ने अपने अलग-अलग राज्य स्थापित कर लिए। इस तरह ज़मींदारी प्रथा या सामन्तवाद के समय भी सामाजिक स्तरीकरण समाज में पाया जाता था।

4. नस्ली स्तरीकरण अथवा प्रजातीय स्तरीकरण (Racial Stratification)-अलग-अलग समाजों में नस्ल के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में बांटा हुआ होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-काकेशियन (सफेद), मंगोलाइड (पीले) तथा नीग्रोआइड (काले) लोग। इन उपरोक्त नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने भेजते हैं। यहां तक कि आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में चाहे इस प्रकार के स्वरूप में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी यह स्तरीकरण का एक स्वरूप है। गोरे काले व्यक्तियों को अपने से निम्न समझते हैं जिस वजह से वह उनसे काफ़ी भेदभाव करते हैं। नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेषाधिकारों में फर्क पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस प्रकार का फर्क देख सकते हैं। पश्चिमी समाजों में इस प्रकार का स्तरीकरण देखने को मिलता है।

5. जातिगत स्तरीकरण (Caste Stratification)-जो स्तरीकरण जन्म के आधार पर होता है उसे जातिगत स्तरीकरण का नाम दिया जाता है क्योंकि बच्चे की जाति जन्म के साथ ही निश्चित हो जाती है। प्राचीन तथा परम्परागत भारतीय समाज में हम जातिगत स्तरीकरण के स्वरूप की उदाहरण देख सकते हैं। इसका भारतीय समाज में ज्यादा प्रभाव था कि भारत में विदेशों से आकर रहने लगे लोगों में भी जातिगत स्तरीकरण शुरू हो गया था। उदाहरणतः मुसलमानों में भी कई प्रकार की जातियां या समूह पाए जाते हैं। समय के साथ-साथ इन जातियों में हज़ारों उप-जातियां पैदा हो गईं तथा इन उप-जातियों में भी स्तरीकरण पाया जाता है। यह स्तरीकरण जन्म पर आधारित होता है इसलिए इसे बन्द स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। स्तरीकरण का यह स्वरूप और स्वरूपों की तुलना में काफ़ी स्थिर तथा निश्चित था क्योंकि व्यक्ति ने जिस जाति में जन्म लिया होता है वह तमाम उम्र अपनी उस जाति को बदल नहीं सकता था। इस प्रकार के स्तरीकरण में अपनी जाति या समूह बदलना मुमकिन नहीं होता। इस तरह जातिगत आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।

6. वर्ग स्तरीकरण (Class Stratification)-इसको सर्वव्यापक स्तरीकरण भी कहते हैं क्योंकि इस प्रकार के स्तरीकरण का स्वरूप प्रत्येक समाज में मिल जाता है। इसको खुला स्तरीकरण भी कहते हैं। वर्ग स्तरीकरण चाहे आधुनिक समाजों में देखने को मिलता है परन्तु प्राचीन समाजों में भी स्तरीकरण का यह स्वरूप मिल जाता था। इस प्रकार का स्तरीकरण जीव वैज्ञानिक आधारों को छोड़कर सामाजिक सांस्कृतिक आधारों जैसे आय, पेशा, सम्पत्ति, सत्ता, धर्म, शिक्षा, कार्य-कुशलता इत्यादि के आधार पर देखने को मिलता है। इसमें व्यक्ति को एक निश्चित स्थान प्राप्त हो जाता है तथा समान स्थिति वाले व्यक्ति इकट्ठे होकर समाज में एक वर्ग या स्तर का निर्माण करते हैं। इस तरह समाज में अलग-अलग प्रकार के वर्ग या स्तर बन जाते हैं तथा उनमें उच्च निम्न के सम्बन्ध सामाजिक स्थिति निश्चित तथा स्पष्ट नहीं होती क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्थिति कभी भी बदल सकती है। व्यक्ति परिश्रम करके पैसा कमा कर उच्च वर्ग में भी जा सकता है तथा पैसा खत्म होने की सूरत में निम्न वर्ग में भी आ सकता है। इस समाज में व्यक्ति के पद की महत्ता होती है। किसी समाज में कोई पद महत्त्वपूर्ण है तो किसी समाज में कोई पद। यह अन्तर प्रत्येक समाज की अलग-अलग संस्कृति, परम्पराओं, मूल्यों इत्यादि की वजह से होता है क्योंकि यह प्रत्येक समाज में अलग-अलग होते हैं। इस वजह से प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के आधार भी अलगअलग होते हैं। इस तरह हमारे समाजों में वर्ग स्तरीकरण पाया जाता है।

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के कौन से कारक हैं ?
उत्तर-
1. सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन (Socio-religious reform movements)-भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के स्थापित होने से पहले भी कुछ धार्मिक लहरों ने जाति प्रथा की आलोचना की थी। बुद्ध धर्म तथा जैन धर्म से लेकर इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने भी जाति प्रथा का खण्डन किया। इनके साथ-साथ इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने तो जाति प्रथा की जम कर आलोचना की। 19वीं शताब्दी में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरों ने भी जाति प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। राजा राम मोहन राय की तरफ से चलाया गया ब्रह्मो समाज, दयानंद सरस्वती की तरफ से चलाया गया आर्य समाज, राम कृष्ण मिशन इत्यादि इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरें थीं। इनके अतिरिक्त ज्योति राव फूले ने 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य समाज में सभी को समानता का दर्जा दिलाना था। जाति प्रथा की विरोधता तो महात्मा गांधी तथा डॉ० बी० आर० अंबेडकर ने भी की थी। महात्मा गांधी ने शोषित जातियों को हरिजन का नाम दिया तथा उन्हें अन्य जातियों की तरह समान अधिकार दिलाने के प्रयास किए। आर्य समाज ने मनुष्य के जन्म के स्थान पर उसके गुणों को अधिक महत्त्व दिया। इन सभी लोगों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो गया कि मनुष्य की पहचान उसके गुणों से होनी चाहिए न कि उसके जन्म से।

2. भारत सरकार के प्रयास (Efforts of Indian Government)-अंग्रेजी राज्य के समय तथा भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् कई महत्त्वपूर्ण कानून पास किए गए जिन्होंने जाति प्रथा को कमज़ोर करने में गहरा प्रभाव डाला। अंग्रेज़ी राज्य से पहले जाति तथा ग्रामीण पंचायतें काफ़ी शक्तिशाली थीं। यह पंचायतें तो अपराधियों को सज़ा तक दे सकती थीं तथा जुर्माने तक लगा सकती थी। अंग्रेजी शासन के दौरान जातीय असमर्थाएं दर करने का कानून (Caste Disabilities Removal Act, 1850) पास किया गया जिसने जाति पंचायतों को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। इस प्रकार विशेष विवाह कानून (Special Marriage Act, 1872) ने अलग-अलग जातियों के बीच विवाह को मान्यता दी जिसने परम्परागत जाति प्रथा को गहरे रूप से प्रभावित किया। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् Untouchability Offence Act, 1955 7811 Hindu Marriage Act, 1955 À 47 Gila gent at TET 3779116 लगाया। Hindu Marriage Validation Act पास हुआ जिससे अलग-अलग धर्मों, जातियों, उपजातियों इत्यादि के व्यक्तियों के बीच होने वाले विवाह को कानूनी घोषित किया गया।

3. अंग्रेज़ों का योगदान (Contribution of Britishers)-जाति प्रथा के विरुद्ध एक खुला संघर्ष ब्रिटिश काल में शुरू हुआ। अंग्रेजों ने भारत में कानून के आगे सभी की समानता का सिद्धान्त लागू किया। जाति पर आधारित पंचायतों से उनके न्याय करने के अधिकार वापिस ले लिए गए। सरकारी नौकरियां प्रत्येक जाति के लिए खोल दी गईं। अंग्रेजों की शिक्षा व्यवस्था धर्म निष्पक्ष थी। अग्रेजों ने भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना करके तथा रेलगाड़ियों, बसों इत्यादि की शुरुआत करके जाति प्रथा को करारा झटका दिया। उद्योगों में सभी मिल कर कार्य करते थे तथा रेलगाड़ियों, बसों के सफर ने अलग-अलग जातियों के बीच सम्पर्क स्थापित किया। अंग्रेज़ों की तरफ से भूमि की खुली खरीद-फरोख्त के अधिकार ने गाँवों में जातीय सन्तुलन को काफ़ी मुश्किल कर दिया।

4. औद्योगीकरण (Industrialization)-औद्योगीकरण ने ऐसी स्थितियां पैदा की जो जाति व्यवस्था के विरुद्ध थी। इस कारण उद्योगों में कई ऐसे नए कार्य उत्पन्न हो गए जो तकनीकी थे। इन्हें करने के लिए विशेष योग्यता तथा ट्रेनिंग की आवश्यकता थी। ऐसे कार्य योग्यता के आधार पर मिलते थे। इसके साथ सामाजिक संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों को ऊपर उठने का मौका प्राप्त हुआ। औद्योगीकरण ने भौतिकता में बढ़ोत्तरी करके पैसे के महत्त्व को बढ़ा दिया। पैसे के आधार पर तीन वर्ग-धनी वर्ग, मध्य वर्ग तथा निर्धन वर्ग पैदा हो गए। प्रत्येक वर्ग में अलग-अलग जातियों के लोग पाए जाते थे। औद्योगीकरण से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे उद्योगों में कार्य करने लग गए, इकट्ठे सफर करने लगे तथा इकट्ठे ही खाना खाने लगे जिससे अस्पृश्यता की भावना खत्म होनी शुरू हो गई। यातायात के साधनों के विकास के कारण अलग-अलग धर्मों तथा जातियों के बीच उदार दृष्टिकोण का विकास हुआ जोकि जाति व्यवस्था के लिए खतरनाक था। औद्योगीकरण ने द्वितीय सम्बन्धों को बढ़ाया तथा व्यक्तिवादिता को जन्म दिया जिससे सामुदायिक नियमों का प्रभाव बिल्कुल ही खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सम्बन्ध कानून के अनुसार खत्म होने लग गए। अब सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के आधार पर होते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को काफ़ी गहरा आघात लगाया।

5. नगरीकरण (Urbanization)–नगरीकरण के कारण ही जाति प्रथा में काफ़ी परिवर्तन आए। अधिक जनसंख्या, व्यक्तिगत भावना, सामाजिक गतिशीलता तथा अधिक पेशों जैसी शहरी विशेषताओं ने जाति प्रथा को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। बड़े-बड़े शहरों में लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर रहना पड़ता है। वह यह नहीं देखते कि उनका पडोसी किस जाति का है। इससे उच्चता निम्नता की भावना खत्म हो गई। नगरीकरण के कारण जब लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आए तो अन्तर्जातीय विवाह होने लग गए। इस प्रकार नगरीकरण ने अस्पृश्यता के अन्तरों को काफ़ी हद तक दूर कर दिया।

6. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)-अंग्रेजों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को लागू किया जिसमें विज्ञान तथा तकनीक पर अधिक बल दिया जाता है। शिक्षा के प्रसार से लोगों में जागति आई तथा इसके साथ परम्परागत कद्रों-कीमतों में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए। जन्म पर आधारित दर्जे के स्थान पर प्रतियोगिता में प्राप्त दर्जे का महत्त्व बढ़ गया। स्कूल, कॉलेज इत्यादि पश्चिमी तरीके से खुल गए जहां सभी जातियों के बच्चे इकट्ठे मिलकर शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसने भी जाति प्रथा को गहरा आघात दिया।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 4.
वर्ग व्यवस्था को परिभाषित कीजिए। इनकी विशेषताओं को लिखो।
उत्तर–
प्रत्येक समाज कई वर्गों में विभाजित होता है व प्रत्येक वर्ग की समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इस स्थिति के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। वर्ग की मुख्य विशेषता वर्ग चेतनता होती है। इस प्रकार समाज में जब विभिन्न व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसको वर्ग व्यवस्था कहते हैं। प्रत्येक वर्ग आर्थिक पक्ष से एक-दूसरे से अलग होता है।

1. मैकाइवर (MacIver) ने वर्ग को सामाजिक आधार पर बताया है। उस के अनुसार, “सामाजिक वर्ग एकत्रता वह हिस्सा होता है जिसको सामाजिक स्थिति के आधार पर बचे हुए हिस्से से अलग कर दिया जाता है।”

2. मोरिस जिन्सबर्ग (Morris Ginsberg) के अनुसार, “वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सांझे वंशक्रम, व्यापार सम्पत्ति के द्वारा एक सा जीवन ढंग, एक से विचारों का स्टाफ, भावनाएं, व्यवहार के रूप में रखते हों व जो इनमें से कुछ या सारे आधार पर एक-दूसरे से समान रूप में अलग-अलग मात्रा में पाई जाती हो।”

3. गिलबर्ट (Gilbert) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग व्यक्तियों की एकत्र विशेष श्रेणी है जिस की समाज में एक विशेष स्थिति होती है, यह विशेष स्थिति ही दूसरे समूहों से उनके सम्बन्ध निर्धारित करती है।”

4. कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के विचार अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी परिभाषित किया जा सकता है।”

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि सामाजिक वर्ग कई व्यक्तियों का वर्ग होता है, जिसको समय विशेष में एक विशेष स्थिति प्राप्त होती है। इसी कारण उनको कुछ विशेष शक्ति, अधिकार व उत्तरदायित्व भी मिलते हैं। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता महत्त्वपूर्ण होती है। इसी कारण हर व्यक्ति परिश्रम करके सामाजिक वर्ग में अपनी स्थिति को ऊँची करना चाहता है। प्रत्येक समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति निश्चित नहीं होती। उसकी स्थिति में गतिशीलता पाई जाती है। इस कारण यह खुला स्तरीकरण भी कहलाया जाता है। व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति को आप निर्धारित करता है। यह जन्म पर आधारित नहीं होता।

वर्ग की विशेषताएं (Characteristics of Class)-

1. श्रेष्ठता व हीनता की भावना (Feeling of superiority and inferiority)—वर्ग व्यवस्था में भी ऊँच व नीच के सम्बन्ध पाए जाते हैं। उदाहरणतः उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से अपने आप को अलग व ऊँचा महसूस करते हैं। ऊँचे वर्ग में अमीर लोग आ जाते हैं व निम्न वर्ग में ग़रीब लोग। अमीर लोगों की समाज में उच्च स्थिति होती है व ग़रीब लोग भिन्न-भिन्न निवास स्थान पर रहते हैं। उन निवास स्थानों को देखकर ही पता लग जाता है कि वह अमीर वर्ग से सम्बन्धित हैं या ग़रीब वर्ग से।

2. सामाजिक गतिशीलता (Social mobility)-वर्ग व्यवस्था किसी भी व्यक्ति के लिए निश्चित नहीं होती। वह बदलती रहती है। व्यक्ति अपनी मेहनत से निम्न से उच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है व अपने गलत कार्यों के परिणामस्वरूप ऊंची से निम्न स्थिति पर भी पहुंच जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी आधार पर समाज में अपनी इज्जत बढ़ाना चाहता है। इसी कारण वर्ग व्यवस्था व्यक्ति को क्रियाशील भी रखती है।

3. खुलापन (Openness)-वर्ग व्यवस्था में खुलापन पाया जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति को पूरी आजादी होती है कि वह कुछ भी कर सके। वह अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी व्यापार को अपना सकता है। किसी भी जाति का व्यक्ति किसी भी वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता के आधार पर बन सकता है। निम्न वर्ग के लोग मेहनत करके उच्च वर्ग में आ सकते हैं। इसमें व्यक्ति के जन्म की कोई महत्ता नहीं होती। व्यक्ति की स्थिति उसकी योग्यता पर निर्भर करती है।

4. सीमित सामाजिक सम्बन्ध (Limited social relations)-वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध सीमित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोग अपने बराबर के वर्ग के लोगों से सम्बन्ध रखना अधिक ठीक समझते हैं। प्रत्येक वर्ग अपने ही लोगों से नज़दीकी रखना चाहते हैं। वह दूसरे वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।

5. उपवर्गों का विकास (Development of Sub-Classes)-आर्थिक दृष्टिकोण से हम वर्ग व्यवस्था को तीन भागों में बाँटते हैं उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। परन्तु आगे हर वर्ग कई और उपवर्गों में बाँटा होता है, जैसे एक अमीर वर्ग में भी भिन्नता नज़र आती है। कुछ लोग बहुत अमीर हैं, कुछ उससे कम व कुछ सबसे है। इस प्रकार वर्ग, उप वर्गों से मिल कर बनता है।

6. विभिन्न आधार (Different basis)-वर्ग के भिन्न-भिन्न आधार हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार को वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है। उसके अनुसार समाज में केवल दो वर्ग पाए गए हैं। एक तो पूंजीपति वर्ग, दूसरा श्रमिक वर्ग। हर्टन व हंट के अनुसार हमें याद रखना चाहिए कि वर्ग मूल में, विशेष जीवन ढंग है। ऑगबर्न व निमकौफ़, मैकाइवर गिलबर्ट ने वर्ग के लिए सामाजिक आधार को मुख्य माना है। जिन्ज़बर्ग, लेपियर जैसे वैज्ञानिकों ने सांस्कृतिक आधार को ही वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है।

7. वर्ग पहचान (Identification of class)—वर्ग व्यवस्था में बाहरी दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण होता है। कई बार हम देख कर यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति उच्च वर्ग का है या निम्न का। हमारे आधुनिक समाज में कोठी, कार, स्कूटर, टी० वी०, वी० सी० आर, फ्रिज आदि व्यक्ति के स्थिति चिन्ह को निर्धारित करते हैं। इस प्रकार बाहरी संकेतों से हमें वर्ग भिन्नता का पता चल जाता है।

8. वर्ग चेतनता (Class Consciousness)—प्रत्येक सदस्य अपनी वर्ग स्थिति के प्रति पूरी तरह चेतन होता है। इसी कारण वर्ग चेतना, वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषता है। वर्ग चेतना व्यक्ति को आगे बढ़ने के मौके प्रदान करती है क्योंकि चेतना के आधार पर ही हम एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार भी इसके द्वारा ही निश्चित होता है।

प्रश्न 5.
भारत में कौन-से नए वर्गों का उद्भव हुआ है ?
उत्तर-
पिछले कुछ समय से देश में जाति व्यवस्था के स्थान पर वर्ग व्यवस्था सामने आ रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास हुए, लोगों ने पढ़ना शुरू किया जिस कारण जाति व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो रही है तथा वर्ग व्यवस्था का दायरा बढ़ रहा है। अब वर्ग व्यवस्था कोई साधारण संकल्प नहीं रहा। आधुनिक समय में अलग-अलग आधारों पर बहुत से वर्ग सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से भूमि सुधार किए गए जिस कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए। हरित क्रान्ति ने इस प्रक्रिया में और योगदान दिया। पुराने किसान, जिनके पास काफ़ी भूमि थी, के साथ एक नया कृषक वर्ग सामने आया जिसके पास कृषि करने की तकनीकों की कला तथा तजुर्बा है। यह वह लोग हैं जो सेना या अन्य प्रशासनिक सेवाओं से सेवानिवृत्त होकर अपना पैसा कृषि के कार्यों में लगा रहे हैं तथा काफ़ी पैसा कमा रहे हैं। यह परंपरागत किसानों का उच्च वर्ग नहीं है, परन्तु इन्हें सैंटलमैन किसान (Gentlemen Farmers) कहा जाता है।

इसके साथ-साथ एक अन्य कृषक वर्ग सामने आ रहा है जिसे ‘पूंजीपति किसान’ कहा जाता है। यह वह किसान हैं जिन्होंने नई तकनीकों, अधिक फसल देने वाले बीजों, नई कृषि की तकनीकों, अच्छी सिंचाई सुविधाओं. बैंकों से उधार लेकर तथा यातायात व संचार के साधनों का लाभ उठाकर अच्छा पैसा कमाया है। परन्तु छोटे किसान इन सबका फायदा नहीं उठा सके हैं तथा निर्धन ही रहे हैं। इस प्रकार भूमि सुधारों तथा नई तकनीकों का लाभ सभी किसान समान रूप से नहीं उठा सके हैं। यह तो मध्यवर्गीय किसान हैं जिन्होंने सरकार की तरफ से उत्साहित करने वाली सुविधाओं का लाभ उठाया है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जातियों के किसानों ने कृषि की आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाया है। – इसके बाद मध्य वर्ग भी सामने आया जिसे उपभोक्तावाद की संस्कृति ने जन्म दिया है। इस मध्य वर्ग को संभावित मार्किट के रूप में देखा गया जिस कारण बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्ग की तरफ आकर्षित हुई। अलग-अलग कंपनियों के विज्ञापनों में उच्च मध्य वर्ग को एक महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है। आजकल यह ऐसा मध्य वर्ग सामने आ रहा है जो अपने स्वाद तथा उपभोग को सबसे अधिक महत्त्व देता है तथा एक सांस्कृतिक आदर्श बन रहा है। इस प्रकार नए मध्य वर्ग के उभार ने देश में आर्थिक उदारवाद के संकल्प को सामने लाया है।

आधुनिक भारत में मौजूद वर्ग व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सभी वर्गों ने एक देश के बीच एक राष्ट्रीय आर्थिकता बनाने में सहायता की है। अब मध्य वर्ग में गांवों के लोग भी शामिल हो रहे हैं। अब गांव में रहने वाले अलग-अलग कार्य करने वाले लोग अलग-अलग नहीं रह गए हैं। अब जाति आधारित प्रतिबंधों का खात्मा हो गया है तथा वर्ग आधारित चेतना सामने आ रही है।

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प्रश्न 6.
भारत में वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
  2. भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
  3. देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
  4. नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।

प्रश्न 7.
मार्क्सवादी तथा वेबर का वर्ग परिप्रेक्षय क्या है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण का संघर्षवाद का सिद्धान्त दिया है और यह सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों के कारण ही आगे आया है। मार्क्स ने केवल सामाजिक कारकों को ही सामाजिक स्तरीकरण एवं भिन्न-भिन्न वर्गों में संघर्ष का सिद्धान्त माना है।

मार्क्स ने यह सिद्धान्त श्रम विभाजन के आधार पर दिया। उसके अनुसार श्रम दो प्रकार का होता है-शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम और यही अन्तर ही सामाजिक वर्गों में संघर्ष का कारण बना।

मार्क्स का कहना है कि समाज में साधारणत: दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता है। इस मलकीयत के आधार पर ही पहला वर्ग उच्च स्थिति में एवं दूसरा वर्ग निम्न स्थिति में होता है। मार्क्स पहले (मालिक) वर्ग को पूंजीपति वर्ग और दूसरे (गैर-मालिक) वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग, मज़दूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है और मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यही स्तरीकरण का परिणाम है।

मार्क्स का कहना है कि स्तरीकरण के आने का कारण ही सम्पत्ति का असमान विभाजन है। स्तरीकरण की प्रकृति उस समाज के वर्गों पर निर्भर करती है और वर्गों की प्रकृति उत्पादन के तरीकों पर उत्पादन का तरीका , तकनीक पर निर्भर करता है। वर्ग एक समूह होता है जिसके सदस्यों के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों के समान होते हैं, इस तरह वह सभी व्यक्ति जो उत्पादन की शक्तियों पर नियन्त्रण रखते हैं। वह पहला वर्ग यानि कि पूंजीपति वर्ग होता है जो उत्पादन की शक्तियों का मालिक होता है। दूसरा वर्ग वह है तो उत्पादन की शक्तियों का मालिक नहीं है बल्कि वह मजदूरी या मेहनत करके अपना समय व्यतीत करता है यानि कि यह मजदूर वर्ग कहलाता है। भिन्न-भिन्न समाजों में इनके भिन्न-भिन्न नाम हैं जिनमें ज़मींदारी समाज में ज़मींदार और खेतीहर मज़दूर और पूंजीपति समाज में पूंजीपति एवं मज़दूर । पूंजीपति वर्ग के पास उत्पादन की शक्ति होती है और मज़दूर वर्ग के पास केवल मजदूरी होती है जिसकी सहायता के साथ वह अपना गुजारा करता है। इस प्रकार उत्पादन के तरीकों एवं सम्पत्ति के समान विभाजन के आधार पर बने वर्गों को मार्क्स ने सामाजिक वर्ग का नाम दिया है।

मार्क्स के अनुसार “आज का समाज चार युगों में से गुजर कर हमारे सामने आया है।”

(a) प्राचीन समाजवादी युग (Primitive Ancient Society or Communism)
(b) प्राचीन समाज (Ancient Society)
(c) सामन्तवादी युग (Feudal Society)
(d) पूंजीवाद युग (Capitalist Society)

मार्क्स के अनुसार पहले प्रकार के समाज में वर्ग अस्तित्व में नहीं आये थे। परन्तु उसके पश्चात् के समाजों में दो प्रमुख वर्ग हमारे सामने आये। प्राचीन समाज में मालिक एवं दास। सामन्तवादी में सामन्त एवं खेतीहारी मजदूर वर्ग। पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी एवं मजदूर वर्ग। प्रायः समाज में मजदूरी का कार्य दूसरे वर्ग के द्वारा ही किया गया। मजदूर वर्ग बहुसंख्यक होता है और पूंजीवादी वर्ग कम संख्या वाला।

मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो प्रकार के वर्गों का अनुभव किया है। परन्तु मार्क्स के फिर भी इस मामले में विचार एक समान नहीं है। मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी समाज में तीन वर्ग होते हैं। मज़दूर, सामन्त एवं ज़मीन के मालिक (land owners) मार्क्स ने इन तीनों में से अन्तर आय के साधनों लाभ एवं जमीन के किराये के आधार पर किया है। परन्तु मार्क्स की तीन पक्षीय व्यवस्था इंग्लैण्ड में सामने कभी नहीं आई।

मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ तीन वर्गीय व्यवस्था दो वर्गीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी एवं मध्यम वर्ग समाप्त हो जायेगा। इस बारे में उसने कम्युनिष्ट घोषणा पत्र में कहा है। मार्क्स ने विशेष समाज के अन्य वर्गों का उल्लेख भी किया है। जैसे बुर्जुआ या पूंजीपति वर्ग को उसने दो उपवर्ग जैसे प्रभावी बुर्जुआ और छोटे बुर्जुआ वर्गों में बांटा है। प्रभावी बुर्जुआ वह होते हैं जो बड़े-बड़े पूंजीपति व उद्योगपति होते हैं और जो हज़ारों की संख्या में मजदूरों को कार्य करने को देते हैं। छोटे बुर्जुआ वह छोटे उद्योगपति या दुकानदार होते हैं जिनके व्यापार छोटे स्तर पर होते हैं और वह बहुत अधिक मज़दूरों को कार्य नहीं दे सकते। वह काफ़ी सीमा तक स्वयं ही कार्य करते हैं। मार्क्स यहां पर फिर कहता है कि पूंजीवाद के विकसित होने के साथ-साथ मध्यम वर्ग व छोटीछोटी बुर्जुआ उप जातियां समाप्त हो जाएंगी या फिर मज़दूर वर्ग में मिल जाएंगे। इस तरह समाज में पूंजीपति व मज़दूर वर्ग रह जाएगा।

वर्गों के बीच सम्बन्ध (Relationship between Classes)—मार्क्स के अनुसार “पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का आर्थिक शोषण करता रहता है और मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करता रहता है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच के सम्बन्ध विरोध वाले होते हैं। यद्यपि कुछ समय के लिये दोनों वर्गों के बीच का विरोध शान्त हो जाता है परन्तु वह विरोध चलता रहता है। वह आवश्यक नहीं कि यह विरोध ऊपरी तौर पर ही दिखाई दे। परन्तु उनको इस विरोध का अहसास तो होता ही रहता है।”

मार्क्स के अनुसार वर्गों के बीच आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता एवं संघर्ष पर आधारित होते हैं। हम उदाहरण ले सकते हैं पूंजीवादी समाज के दो वर्गों का। एक वर्ग पूंजीपति का होता है दूसरा वर्ग मज़दूर का होता है। यह दोनों वर्ग अपने अस्तित्व के लिये एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन की शक्तियां एक मलकीयत नहीं होती हैं। उसके पास रोटी कमाने हेतु अपनी मेहनत के अतिरिक्त और कछ नहीं होता। वह रोटी कमाने के लिये पूंजीपति वर्ग के पास अपनी मेहनत बेचते हैं और उन पर ही निर्भर करते हैं। वह अपनी मज़दूरी पूंजीपतियों के पास बेचते हैं जिसके बदले पूंजीपति उनको मेहनत का किराया देता है। इसी किराये के साथ मज़दूर अपना पेट पालता है। पूंजीपति भी मज़दूरों की मेहनत पर ही निर्भर करता है। क्योंकि मजदूरों के बिना कार्य किये न तो उसका उत्पादन हो सकता है और न ही उसके पास पूंजी एकत्रित हो सकती है।

इस प्रकार दोनों वर्ग एक-दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। परन्तु इस निर्भरता का अर्थ यह नहीं है कि उनमें सम्बन्ध एक समान होते हैं। पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का शोषण करता है। वह कम धन खर्च करके अधिक उत्पादन करना चाहता है ताकि उसका स्वयं का लाभ बढ़ सके। मज़दूर अधिक मज़दूरी मांगता है ताकि वह अपना व परिवार का पेट पाल सके। उधर पूंजीपति मज़दूरों को कम मज़दूरी देकर वस्तुओं को ऊँची कीमत पर बेचने की कोशिश करता है ताकि उसका लाभ बढ़ सके। इस प्रकार दोनों वर्गों के भीतर अपने-अपने हितों के लिये संघर्ष (Conflict of Interest) चलता रहता है। यह संघर्ष अन्ततः समतावादी व्यवस्था (Communism) को जन्म देगा जिसमें न तो विरोध होगा न ही किसी का शोषण होगा, न ही किसी के ऊपर अत्याचार होगा न ही हितों का संघर्ष होगा और यह समाज वर्ग रहित समाज होगा।

मनुष्यों का इतिहास-वर्ग संघर्ष का इतिहास (Human history-History of Class struggle)—मार्क्स का कहना है कि मनुष्यों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। हम किसी भी समाज की उदाहरण ले सकते हैं। प्रत्येक समाज में अलग-अलग वर्गों में किसी-न-किसी रूप में संघर्ष तो चलता ही रहा है।

इस तरह मार्क्स का कहना था कि सभी समाजों में साधारणतः पर दो वर्ग रहे हैं-मजदूर तथा पूंजीपति वर्ग। दोनों में वर्ग संघर्ष चलता ही रहता है। इन में वर्ष संघर्ष के कई कारण होते हैं जैसे कि दोनों वर्गों में बहुत ज्यादा आर्थिक अन्तर होता है जिस कारण वह एक-दूसरे का विरोध करते हैं। पूंजीपति वर्ग बिना परिश्रम किए ही अमीर होता चला जाता है तथा मज़दूर वर्ग सारा दिन परिश्रम करने के बाद भी ग़रीब ही बना रहता है। समय के साथसाथ मज़दूर वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना लेता है तथा यह संगठन पूंजीपतियों से अपने अधिकार लेने के लिए संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष का परिणाम यह होता है कि समय आने पर मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध क्रान्ति कर देता है तथा क्रान्ति के बाद पूंजीपतियों का खात्मा करके अपनी सत्ता स्थापित कर लेते हैं। पूंजीपति अपने पैसे की मदद से प्रति क्रान्ति की कोशिश करेंगे परन्तु उनकी प्रति क्रान्ति को दबा दिया जाएगा तथा मजदूरों की सत्ता स्थापित हो जाएगी। पहले साम्यवाद तथा फिर समाजवाद की स्थिति आएगी जिसमें हरेक को उसकी ज़रूरत तथा योग्यता के अनुसार मिलेगा। समाज में कोई वर्ग नहीं होगा तथा यह वर्गहीन समाज होगा जिसमें सभी को बराबर का हिस्सा मिलेगा। कोई भी उच्च या निम्न नहीं होगा तथा मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित रहेगी। मार्क्स का कहना था कि चाहे यह स्थिति अभी नहीं आयी है परन्तु जल्द ही यह स्थिति आ जाएगी तथा समाज में से स्तरीकरण खत्म हो जाएगा।

मैक्स वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त-वर्ग, स्थिति समूह तथा दल (Max Weber’s Theory of Stratification-Class, Status, grouped and Party) मैक्स वैबर ने स्तरीकरण का सिद्धान्त दिया था जिसमें उसने वर्ग, स्थिति समूह तथा दल की अलग-अलग व्याख्या की थी। वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त तर्कसंगत तथा व्यावहारिक माना जाता है। यही कारण है कि अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त को काफ़ी महत्त्व प्रदान किया है। वैबर ने स्तरीकरण को तीन पक्षों से समझाया है तथा वह है वर्ग, स्थिति तथा दल। इन तीनों ही समूहों को एक प्रकार से हित समूह कहा जा सकता है जो न केवल अपने अंदर लड़ सकते हैं बल्कि यह एक दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं बल्कि यह एक-दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं। यह एक विशेष सत्ता के बारे में बताते हैं तथा आपस में एक-दूसरे से संबंधित भी होते हैं। अब हम इन तीनों का अलग-अलग विस्तार से वर्णन करेंगे।

वर्ग (Class)—मार्ल मार्क्स ने वर्ग की परिभाषा आर्थिक आधार पर दी थी तथा उसी प्रकार वैबर ने भी वर्ग की धारणा आर्थिक आधार पर दी है। वैबर के अनुसार, “वर्ग ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी समाज के आर्थिक मौकों की संरचना में समान स्थिति में होता है तथा जो समान स्थिति में रहते हैं। “यह स्थितियां उनकी आर्थिक शक्ति के रूप तथा मात्रा पर निर्भर करती है।” इस प्रकार वैबर ऐसे वर्ग की बात करता है जिस में लोगों की एक विशेष संख्या के लिए जीवन के मौके एक समान होते हैं। चाहे वैबर की यह धारणा मार्क्स की वर्ग की धारणा से अलग नहीं है परन्तु वैबर ने वर्ग की कल्पना समान आर्थिक स्थितियों में रहने वाले लोगों के रूप में की है आत्म चेतनता समूह के रूप में नहीं। वैबर ने वर्ग के तीन प्रकार बताए हैं जोकि निम्नलिखित हैं :-

  1. सम्पत्ति वर्ग (A property Class)
  2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)
  3. सामाजिक वर्ग (A Social class)

1. सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)-सम्पत्ति वर्ग वह वर्ग होता है जिस की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितनी सम्पत्ति अथवा जायदाद है। यह वर्ग नीचे दो भागों में बांटा गया है-

i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Positively Privileged Property Class)-इस वर्ग के पास काफ़ी सम्पत्ति तथा जायदाद होती है तथा यह इस जायदाद से हुई आय पर अपना गुजारा करता है। यह वर्ग उपभोग करने वाली वस्तुओं के खरीदने या बेचने, जायदाद इकट्ठी करके अथवा शिक्षा लेने के ऊपर अपना एकाधिकार कर सकता है।

ii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Negatively Privileged Property Class)-इस वर्ग के मुख्य सदस्य अनपढ़, निर्धन, सम्पत्तिहीन तथा कर्जे के बोझ नीचे दबे हुए लोग होते हैं। इन दोनों समूहों के साथ एक विशेष अधिकार प्राप्त मध्य वर्ग भी होता है जिसमें ऊपर वाले दोनों वर्गों के लोग शामिल होते हैं। वैबर के अनुसार पूंजीपति अपनी विशेष स्थिति होने के कारण तथा मजदूर अपनी नकारात्मक रूप से विशेष स्थिति होने के कारण इस समूह में शामिल होता है।

2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)—यह उस प्रकार का समूह होता है जिस की स्थिति बाज़ार में मौजूदा सेवाओं का लाभ उठाने के मौकों के साथ निर्धारित होती है। यह समूह आगे तीन प्रकार का होता है-

i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Positively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग का उत्पादक फैक्टरी वालों के प्रबंध पर एकाधिकार होता है। यह फैक्ट्रियों वाले बैंकर, उद्योगपति, फाईनैंसर इत्यादि होते हैं। यह लोग प्रबंधकीय व्यवस्था को नियन्त्रण में रखने के साथ-साथ सरकारी आर्थिक नीतियों पर भीषण प्रभाव डालते हैं।

ii) विशेषाधिकार प्राप्त मध्य अधिग्रहण वर्ग (The Middle Privileged Acquisition Class)—यह वर्ग मध्य वर्ग के लोगों का वर्ग होता है जिसमें छोटे पेशेवर लोग, कारीगर, स्वतन्त्र किसान इत्यादि शामिल होते हैं।

iii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Negatively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग में छोटे वर्गों के लोग विशेषतया कुशल, अर्द्ध कुशल तथा अकुशल मजदूर शामिल होते हैं।

3. सामाजिक वर्ग (Social Class)—इस वर्ग की संख्या काफी अधिक होती है। इसमें अलग-अलग पीढ़ियों की तरक्की के कारण निश्चित रूप से परिवर्तन दिखाई देता है। परन्तु वैबर सामाजिक वर्ग की व्याख्या विशेष अधिकारों के अनुसार नहीं करता। उसके अनुसार मज़दूर वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, सम्पत्ति वाले लोग इत्यादि इसमें शामिल होते हैं।

वैबर के अनुसार किन्हीं विशेष स्थितियों में वर्ग के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं तथा इस कार्य करने की प्रक्रिया को वैबर ने वर्ग क्रिया का नाम दिया है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर ने इस बात पर विश्वास नहीं किया कि वर्ग क्रिया जैसी बात अक्सर हो सकती है। वैबर का कहना था कि वर्ग में वर्ग चेतनता नहीं होती बल्कि उनकी प्रकृति पूर्णतया आर्थिक होती है। उनमें इस बात की भी संभावना नहीं होती कि वह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए इकट्ठे होकर संघर्ष करेंगे। एक वर्ग लोगों का केवल एक समूह होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बाज़ार में एक जैसी होती है। वह उन चीज़ों को इकट्ठे करने में जीवन के ऐसे परिवर्तनों को महसूस करते हैं, जिनकी समाज में कोई इज्जत होती है तथा उनमें किसी विशेष स्थिति में वर्ग चेतना विकसित होने की तथा इकट्ठे होकर क्रिया करने की संभावना होती है। वैबर का कहना था कि अगर ऐसा होता है तो वर्ग एक समुदाय का रूप ले लेता है।

स्थिति समूह (Status Group)-स्थिति समूह को साधारणतया आर्थिक वर्ग स्तरीकरण के विपरीत समझा जाता है। वर्ग केवल आर्थिक मान्यताओं पर आधारित होता है जोकि समान बाज़ारी स्थितियों के कारण समान हितों वाला समूह है। परन्तु दूसरी तरफ स्थिति समूह सांस्कृतिक क्षेत्र में पाया जाता है यह केवल संख्यक श्रेणियों के नहीं होते बल्कि यह असल में वह समूह होते हैं जिनकी समान जीवन शैली होती है, संसार के प्रति समान दृष्टिकोण होता है तथा यह लोग आपस में एकता भी रखते हैं।

वैबर के अनुसार वर्ग तथा स्थिति समूह में अंतर होता है। हरेक का अपना ढंग होता है तथा इनमें लोग असमान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्कूल का अध्यापक। चाहे उसकी आय 8-10 हजार रुपये प्रति माह होगी जोकि आज के समय में कम है परन्तु उसकी स्थिति ऊंची है। परन्तु एक स्मगलर या वेश्या चाहे माह में लाखों कमा रहे हों परन्तु उनका स्थिति समूह निम्न ही रहेगी क्योंकि उनके पेशे को समाज मान्यता नहीं देता। इस प्रकार दोनों के समूहों में अंतर होता है। किसी पेशे समूह को भी स्थिति समूह का नाम दिया जाता है क्योंकि हरेक प्रकार के पेशे में उस पेशे से संबंधित लोगों के लिए पैसा कमाने के समान मौके होते हैं। यही समूह उनकी जीवन शैली को समान भी बनाते हैं। एक पेशा समूह के सदस्य एक-दूसरे के नज़दीक रहते हैं, एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं तथा उनके मूल्य भी एक जैसे ही होते हैं। यही कारण है कि इसके सदस्यों का दायरा विशाल हो जाता है।

दल (Party)-वैबर के अनसार दल वर्ग स्थिति के साथ निर्धारित हितों का प्रतिनिधित्व करता है। यह दल किसी न किसी स्थिति में उन सदस्यों की भर्ती करता है जिनकी विचारधारा दल की विचारधारा से मिलती हो। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए दल स्थिति दल ही बने । वैबर का कहना है कि दल हमेशा इस ताक में रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ में आए अर्थात् राज्य या सरकार की शक्ति उनके हाथों में हो। वैबर का कहना है कि चाहे दल राजनीतिक सत्ता का एक हिस्सा होते हैं परन्तु फिर भी सत्ता कई प्रकार से प्राप्त की जा सकती है जैसे कि पैसा, अधिकार, प्रभाव, दबाव इत्यादि। दल राज्य की सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा राज्य एक संगठन होता है। दल की हरेक प्रकार की क्रिया इस बात की तरफ ध्यान देती है कि सत्ता किस प्रकार प्राप्त की जाए। वैबर ने राज्य का विश्लेषण किया तथा इससे ही उसने नौकरशाही का सिद्धान्त पेश किया। वैबर के अनुसार दल दो प्रकार के होते हैं।

पहला है सरप्रस्ती का दल (Patronage Party) जिनके लिए कोई स्पष्ट नियम, संकल्प इत्यादि नहीं होते। यह किसी विशेष मौके के लिए बनाए जाते हैं तथा हितों की पूर्ति के बाद इन्हें छोड़ दिया जाता है। दूसरी प्रकार का दल है सिद्धान्तों का दल (Party of Pricniples) जिसमें स्पष्ट या मज़बूत नियम या सिद्धान्त होते हैं। यह दल किसी विशेष अवसर के लिए नहीं बनाए जाते। वैबर के अनुसार चाहे इन तीनों वर्ग, स्थिति समूह तथा दल में काफी अन्तर होता है परन्तु फिर भी इनमें आपसी संबंध भी मौजूद होता है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
यह शब्द किसके हैं ? “एक सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग होता है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर दूसरों से भिन्न किया जा सकता है।”
(A) मार्क्स
(B) मैकाइवर
(C) वैबर
(D) आगबर्न।
उत्तर-
(B) मैकाइवर।

प्रश्न 2.
वर्ग व्यवस्था का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ?
(A) जाति प्रथा कमजोर हो रही है
(B) निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुंच रहे हैं।
(C) व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
इनमें से कौन-सी वर्ग की विशेषता नहीं है ?
(A) पूर्णतया अर्जित
(B) खुलापन
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता
(D) समूहों की स्थिति में उतार-चढ़ाव।
उत्तर-
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता।

प्रश्न 4.
वर्ग तथा जाति में क्या अन्तर है ?
(A) जाति जन्म पर तथा वर्ग योग्यता पर आधारित होता है
(B) व्यक्ति वर्ग को बदल सकता है पर जाति को नहीं
(C) जाति में कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं पर वर्ग में नहीं
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 5.
वर्ग की विशेषता क्या है ?
(A) उच्च निम्न की भावना
(B) सामाजिक गतिशीलता
(C) उपवर्गों का विकास
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।।

प्रश्न 6.
उस व्यवस्था को क्या कहते हैं जिसमें समाज में व्यक्तियों को अलग-अलग आधारों पर विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है ?
(A) जाति व्यवस्था
(B) वर्ग व्यवस्था
(C) सामुदायिक व्यवस्था
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) वर्ग व्यवस्था।

प्रश्न 7.
जातियों के स्तरीकरण से क्या अर्थ है ?
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(B) समाज को इकट्ठा करना
(C) समाज को अलग करना
(D) समाज को कभी अलग कभी इकट्ठा करना।
उत्तर-
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन।

प्रश्न 8.
जाति प्रथा से हमारे समाज को क्या हानि हुई है ?
(A) समाज को बांट दिया गया
(B) समाज के विकास में रुकावट
(C) समाज सुधार में बाधक
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 9.
इनमें से जाति व्यवस्था क्या है ?
(A) राज्य
(B) सामाजिक संस्था
(C) सम्पत्ति
(D) सरकार।
उत्तर-
(B) सामाजिक संस्था।

प्रश्न 10.
पुरातन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
(A) चार
(B) पांच
(C) छः
(D) सात।
उत्तर-
(A) चार।

प्रश्न 11.
जाति प्रथा का क्या कार्य है ?
(A) व्यवहार पर नियन्त्रण
(B) कार्य प्रदान करना
(C) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 12.
भारतीय समाज में श्रम विभाजन किस पर आधारित था ?
(A) श्रम
(B) जाति व्यवस्था
(C) व्यक्तिगत योग्यता
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) जाति व्यवस्था।

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II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. समाज को अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया को ………….
2. जाति एक …………… वैवाहिक समूह है।
3. घूर्ये ने जाति के ……….. लक्षण दिए हैं।
4. वर्ण व्यवस्था …………. पर आधारित होती थी।
5. जाति व्यवस्था ………………… पर आधारित होती है।
6. ………….. ने पूँजीपति तथा मज़दूर वर्ग के बारे में बताया था।
7. जाति प्रथा में …………… प्रमुख जातियां होती थीं।
उत्तर-

  1. सामाजिक स्तरीकरण,
  2. अंतः,
  3. छ:,
  4. पेशे,
  5. जन्म,
  6. कार्ल मार्क्स,
  7. चार ।

III. सही/गलत (True/False) :

1. जाति बहिर्वैवाहिक समूह है।।
2. घूर्ये ने जाति की छः विशेषताएं दी थीं।
3. जाति व्यवस्था के कारण अस्पृश्यता की धारणा सामने आई।
4. ज्योतिबा फूले ने जाति व्यवस्था में सुधार लाने का कार्य किया।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. सही।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
……………. व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 2.
शब्द Caste किस भाषा के शब्द से निकला है ?
उत्तर-
शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द से निकला है।

प्रश्न 3.
जाति किस प्रकार का वर्ग है ?
उत्तर-
बन्द वर्ग।

प्रश्न 4.
जाति प्रथा में किसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी ?
उत्तर-
जाति प्रथा में प्रथम वर्ण को अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी।

प्रश्न 5.
जाति प्रथा में किस जाति का शोषण होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में निम्न जातियों का शोषण होता था।

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प्रश्न 6.
अन्तर्विवाह का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता है तो उसे अन्तर्विवाह कहते हैं।

प्रश्न 7.
जाति में व्यक्ति का पेशा किस प्रकार का होता है ?
उत्तर-
जाति में व्यक्ति का पेशा जन्म पर आधारित होता है अर्थात् व्यक्ति को अपने परिवार का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता है।

प्रश्न 8.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 9.
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1976 में पास हुआ था।

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प्रश्न 10.
हिन्दू विवाह अधिनियम ……………… में पास हुआ था।
उत्तर-
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 11.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में किस बात पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था ?
उत्तर-
इस अधिनियम में किसी भी व्यक्ति को अस्पृश्य कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। यह 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 12.
सामाजिक स्तरीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित करने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं।

प्रश्न 13.
जाति किस प्रकार के विवाह को मान्यता देती है ?
उत्तर-
जाति अन्तर्विवाह को मान्यता देती है।

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प्रश्न 14.
प्राचीन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज चार भागों में विभाजित था।

प्रश्न 15.
जाति व्यवस्था का क्या लाभ था ?
उत्तर-
इसने हिन्दू समाज का बचाव किया, समाज को स्थिरता प्रदान की तथा लोगों को एक निश्चित व्यवसाय प्रदान किया था।

प्रश्न 16.
जाति प्रथा में किस प्रकार का परिवर्तन आ रहा है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा खत्म हो रही है, अस्पृश्यता खत्म हो रही है तथा परम्परागत पेशे खत्म हो रहे हैं।

प्रश्न 17.
जाति की मुख्य विशेषता क्या है ?
उत्तर-
जाति को जन्मजात सदस्यता होती है, समाज का खण्डात्मक विभाजन होता है तथा व्यक्ति को परम्परागत पेशा प्राप्त होता है।

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प्रश्न 18.
जाति प्रथा से क्या हानि होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा से निम्न जातियों का शोषण होता है, अस्पृश्यता बढ़ती है तथा व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।

प्रश्न 19.
जाति की सदस्यता का आधार क्या है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता का आधार जन्म है।

प्रश्न 20.
स्तरीकरण का स्थायी रूप क्या है ?
उत्तर-
स्तरीकरण का स्थायी रूप जाति है।

प्रश्न 21.
किस संस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है।

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प्रश्न 22.
जाति शब्द किस भाषा से उत्पन्न हुआ है ?
उत्तर-
जाति शब्द अंग्रेजी भाषा के Caste शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जो कि पुर्तगाली शब्द Casta से बना

प्रश्न 23.
जाति के कौन-से मुख्य आधार हैं ?
उत्तर-
जाति एक बड़ा समूह होता है जिसका आधार जातीय भिन्नता तथा जन्मजात भिन्नता होता है।

प्रश्न 24.
जाति में आपसी सम्बन्ध किस पर आधारित होते हैं ?
उत्तर-
जाति में आपसी सम्बन्ध उच्चता और निम्नता पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 25.
जाति में किसकी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा सबसे ज़्यादा थी तथा ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा था।

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प्रश्न 26.
जाति प्रथा में प्रतिबन्ध क्यों लगाए जाते थे ?
उत्तर-

  1. इसलिए ताकि विभिन्न जातियां एक-दूसरे के सम्पर्क में न आएं।
  2.  इसलिए ताकि जाति श्रेष्ठता तथा निम्नता बनाई रखी जा सके।

प्रश्न 27.
जाति प्रथा में व्यवसाय कैसे निश्चित होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में व्यवसाय परम्परागत होता था अर्थात् परिवार का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था।

प्रश्न 28.
अन्तर्विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
इस नियम के अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था अर्थात् वह . अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं करवा सकता।

प्रश्न 29.
औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को किस प्रकार प्रभावित किया है ?
उत्तर-
उद्योगों में अलग-अलग जातियों के लोग मिलकर कार्य करने लग गए जिससे उच्चता निम्नता के सम्बन्ध खत्म होने शुरू हो गए।

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प्रश्न 30.
क्या वर्ग अन्तर्वैवाहिक है?
उत्तर-
जी हां, वर्ग अन्तर्वैवाहिक भी होता है तथा बर्हिविवाही भी।

प्रश्न 31.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
जाति प्रथा में चार मुख्य जातियां होती थी तथा वह थी-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जाति। यह ही जाति का पदक्रम होता था।

प्रश्न 32.
वर्ग का आधार क्या है?
उत्तर-
वर्ग का आधार पैसा, प्रतिष्ठा, शिक्षा, पेशा इत्यादि होते हैं।

प्रश्न 33.
जाति व्यवस्था का मुख्य आधार क्या है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का मूल आधार कुछ जातियों की उच्चता तथा कुछ जातियों की निम्नता थी।

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प्रश्न 34.
जाति में खाने-पीने तथा सामाजिक संबंधों पर प्रतिबन्ध।
उत्तर-
जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों में खाने-पीने तथा उनमें सामाजिक संबंध रखने की भी मनाही होती

प्रश्न 35.
वर्ग का आधार क्या है ?
उत्तर-
आजकल वर्ग का आधार पैसा, व्यापार, पेशा इत्यादि है।

प्रश्न 36.
अब तक कौन-से वर्ग अस्तित्व में आए हैं ?
उत्तर-
अब तक अलग-अलग आधारों पर हजारों वर्ग अस्तित्व में आए हैं।

प्रश्न 37.
वर्ग की सदस्यता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।

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प्रश्न 38.
आजकल वर्ग अंतर का निर्धारण किस आधार पर होता है ?
उत्तर-
शिक्षा, पैसा, पेशा, रिश्तेदारी इत्यादि के आधार पर।

प्रश्न 39.
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने किया था ?
उत्तर-
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत कार्ल मार्क्स ने दिया था।

प्रश्न 40.
पैसे के आधार पर हम लोगों को कितने वर्गों में विभाजित कर सकते हैं ?
उत्तर-
पैसे के आधार पर हम लोगों को उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग में विभाजित कर सकते हैं।

प्रश्न 41.
वर्ग में किस प्रकार के संबंध पाए जाते हैं ?
उत्तर-
वर्ग में औपचारिक तथा अस्थाई संबंध पाए जाते हैं।

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प्रश्न 42.
स्तरीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 43.
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार आर्थिक अर्थात् पैसा होता है।

प्रश्न 44.
क्या जाति बदल रही है ?
उत्तर-
जी हां, जाति वर्ग में बदल रही है।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
समाज अलग-अलग जातियों में विभाजित हुआ था तथा समाज में इस कारण उच्च-निम्न की एक निश्चित व्यवस्था तथा भावना होती थी। इस निश्चित व्यवस्था को ही जाति में पदक्रम कहते हैं।

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प्रश्न 2.
व्यक्ति की सामाजिक स्थिति कैसे निर्धारित होती है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी जाति पर निर्भर करती है जबकि वर्ग व्यवस्था में उसकी सामाजिक स्थिति उसकी व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर निर्भर करती है।

प्रश्न 3.
जाति सहयोग की भावना विकसित करती है।
उत्तर-
यह सच है कि जाति सहयोग की भावना विकसित करती है। एक ही जाति के सदस्यों का एक ही पेशा होने के कारण वह आपस में मिल-जुल कर कार्य करते हैं तथा सहयोग करते हैं।

प्रश्न 4.
कच्चा भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में पानी का प्रयोग हो उसे कच्चा भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में कई जातियों से कच्चा भोजन कर लिया जाता था तथा कई जातियों से पक्का भोजन।

प्रश्न 5.
पक्का भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में घी अथवा तेल का प्रयोग किया जाता है इसे पक्का भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में किसी विशेष जाति से ही पक्का भोजन ग्रहण किया जाता है।

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प्रश्न 6.
आधुनिक शिक्षा तथा जाति।
उत्तर-
लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं जिस कारण धीरे-धीरे उन्हें जाति व्यवस्था के अवगुणों का पता चल रहा है। इस कारण अब उन्होंने जाति की पाबन्दियों को मानना बंद कर दिया है।

प्रश्न 7.
जाति में सामाजिक सुरक्षा।
उत्तर-
अगर किसी व्यक्ति के सामने कोई समस्या आती है तो जाति के सभी सदस्य इकट्ठे होकर उस समस्या को हल करते हैं। इस प्रकार जाति में व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।

प्रश्न 8.
जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित।
उत्तर-
यह सच है कि व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है क्योंकि व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है। वह योग्यता होने पर भी उसकी सदस्यता को छोड़ नहीं सकता है।

प्रश्न 9.
रक्त की शुद्धता बनाए रखना।
उत्तर-
जब व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करवाता है तो इससे जाति की रक्त की शुद्धता बनी रहती है तथा अन्य जाति में विवाह न करवाने से उनका रक्त अपनी जाति में शामिल नहीं होता।

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प्रश्न 10.
जाति की एक परिभाषा दें।
उत्तर-
राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstd) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक तथा एक से अधिक विषयों के ऊपर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”

प्रश्न 11.
निम्न जाति का शोषण।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का काफ़ी शोषण किया जाता था। उनके साथ काफ़ी बुरा व्यवहार किया जाता था तथा उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं दिए जाते थे।

प्रश्न 12.
जाति व्यवस्था में दो परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. अलग-अलग कानूनों के पास होने से जाति प्रथा में अस्पृश्यता के भेदभाव का खात्मा हो रहा है।
  2. अलग-अलग पेशों के आगे आने के कारण अलग-अलग जातियों के पदक्रम तथा उनकी उच्चता में परिवर्तन आ रहा है।

प्रश्न 13.
जातीय समाज का खण्डात्मक विभाजन।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में समाज चार भागों में विभाजित होता था पहले भाग में ब्राह्मण आते थे, दूसरे भाग में क्षत्रिय, तीसरे भाग में वैश्य तथा चतुर्थ भाग में निम्न जातियों के व्यक्ति आते थे।

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प्रश्न 14.
विवाह संबंधी जाति में परिवर्तन।
उत्तर-
अब लोग इकट्ठे कार्य करते हैं तथा नज़दीक आते हैं। इससे अन्तर्जातीय विवाह बढ़ रहे हैं। लोग अपनी इच्छा से विवाह करवाने लग गए हैं। बाल विवाह खत्म हो रहे हैं, विधवा विवाह बढ़ रहे हैं तथा विवाह संबंधी प्रतिबन्ध खत्म हो गए हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को कितने भागों में बाँटा है ?
उत्तर-
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को चार भागों में बाँटा है-

  1. प्राचीन साम्यवादी युग
  2. प्राचीन समाज
  3. सामन्तवादी समाज
  4. पूंजीवादी समाज।

प्रश्न 2.
मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण का परिणाम क्या है ?
उत्तर-
मार्क्स का कहना है कि समाज में दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता। इस मलकीयत के आधार पर ही मालिक वर्ग की स्थिति उच्च तथा गैर-मालिक वर्ग की स्थिति निम्न होती है। मालिक वर्ग को मार्क्स पूंजीपति वर्ग तथा गैर-मालिक वर्ग को मजदूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है तथा मजदूर वर्ग अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यह ही स्तरीकरण का परिणाम है।

प्रश्न 3.
वर्गों में आपसी सम्बन्ध किस तरह के होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्गों में आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता तथा संघर्ष वाले होते हैं। पूंजीपति तथा मज़दूर दोनों अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। मजदूर वर्ग को रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचना पड़ता है। वह पूंजीपति को अपना परिश्रम बेचते हैं तथा रोटी कमाने के लिए उस पर निर्भर करते हैं। उसकी मज़दूरी के एवज में पूंजीपति उनको मजदूरी का किराया देते हैं। पूंजीपति भी मज़दूरों पर निर्भर करता है, क्योंकि मजदूर के कार्य किए बिना उसका न तो उत्पादन हो सकता है तथा न ही उसके पास पूंजी इकट्ठी हो सकती है। परन्तु निर्भरता के साथ संघर्ष भी चलता रहता है क्योंकि मज़दूर अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उससे संघर्ष करता रहता है।

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प्रश्न 4.
मार्क्स के स्तरीकरण के सिद्धान्त में कौन-सी बातें मख्य हैं ?
उत्तर-

  1. सबसे पहले प्रत्येक प्रकार के समाज में मुख्य तौर पर दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा दूसरे के पास नहीं होते हैं।
  2. मार्क्स के अनुसार समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति उच्च होती है तथा जिस के पास साधन नहीं होते उसकी स्थिति निम्न होती है।
  3. सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप उत्पादन की व्यवस्था पर निर्भर करता है।
  4. मार्क्स के अनुसार मनुष्यों के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। वर्ग संघर्ष किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में मौजूद रहा है।

प्रश्न 5.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार, प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्ग-एक शोषण करने वाला तथा दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं। इनमें संघर्ष होता है जिसे मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है। शोषण करने वाला पूंजीपति वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा वह इन उत्पादन के साधनों के साथ अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग मजदूर वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते हैं। इसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। यह वर्ग पहले वर्ग से हमेशा शोषित होता है जिस कारण दोनों वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष को ही मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।

प्रश्न 6.
जाति का अर्थ।
अथवा
जाति।
उत्तर-
हिन्दू सामाजिक प्रणाली में एक उलझी हुई एवं दिलचस्प संस्था है जिसका नाम ‘जाति प्रणाली’ है। यह शब्द पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘जन्म’। इस प्रकार यह एक अन्तर-वैवाहिक समूह होता है, जिसकी सदस्यता जन्म के ऊपर आधारित है, इसमें कार्य (धन्धा) पैतृक एवं परम्परागत होता है। रहना-सहना, खाना-पीना, सम्बन्धों पर कई प्रकार के नियम (बन्धन) होते हैं। इसमें कई प्रकार की पाबन्दियां भी होती हैं, जिनका पालन उन सदस्यों को करना ज़रूरी होता है।

प्रश्न 7.
जाति व्यवस्था की कोई चार विशेषताएं बतायें।
उत्तर-

  1. जाति की सदस्यता जन्म के आधार द्वारा होती है।
  2. जाति में सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध होते हैं।
  3. जाति में खाने-पीने के बारे में प्रतिबन्ध होते हैं।
  4. जाति में अपना कार्य पैतृक आधार पर मिलता है।
  5. जाति एक अन्तर-वैवाहिक समूह है, विवाह सम्बन्धी बन्दिशें हैं।
  6. जाति में समाज अलग-अलग हिस्सों में विभाजित होता है।
  7. जाति प्रणाली एक निश्चित पदक्रम है।

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प्रश्न 8.
पदक्रम क्या होता है ?
उत्तर-
जाति प्रणाली में एक निश्चित पदक्रम होता था, अभी भी भारत वर्ष में ज्यादातर भागों में ब्राह्मण वर्ण की जातियों को समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था। इसी प्रकार दूसरे क्रम में क्षत्रिय आते थे। वर्ण व्यवस्था के अनुसार तीसरा स्थान ‘वैश्यों’ का था, उसी प्रकार ही समाज में वैसा ही आज माना जाता था। इसी क्रम के अनुसार सबसे बाद वाले क्रम में चौथा स्थान निम्न जातियों का था। समाज में किसी भी व्यक्ति की स्थिति आज भी भारत के ज्यादा भागों में उसी प्रकार से ही निश्चित की जाती थी।

प्रश्न 9.
सदस्यता जन्म पर आधारित।
अथवा
जाति की सदस्यता कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता जन्म के आधार पर मानी जाती थी। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का फैसला अथवा निर्धारण स्वयं नहीं कर सकता। जिस जाति में वह जन्म लेता है उसका सामाजिक दर्जा भी उसी के आधार पर ही निश्चित होता है। इस व्यवस्था में व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, वह अपनी जाति को अपनी मर्जी से बदल नहीं सकता था। जाति की सदस्यता यदि जन्म के आधार पर मानी जाती थी तो उसकी सामाजिक स्थिति उसके जन्म के आधार पर होती थी न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर।

प्रश्न 10.
जाति में खाने-पीने सम्बन्धी किस तरह के प्रतिबन्ध हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में कुछ इस तरह के नियम बताये गये हैं जिनमें यह स्पष्ट होता है कि कौन-कौन सी जातियों अथवा वर्गों में कौन-कौन से खाने-पीने के बारे में बताया गया था। इस तरह खाने-पीने की वस्तुओं को दो भागों में बांटा गया था। सारे भोजन को तो एक कच्चा भोजन माना जाता था और दूसरा पक्का भोजन। इसमें कच्चे भोजन को पानी द्वारा तैयार किया जाता था और पक्के भोजन को घी (Ghee) द्वारा तैयार किया जाता था। आम नियम यह था कि कच्चा भोजन कोई भी व्यक्ति तब तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसी जाति के ही व्यक्ति द्वारा तैयार न किया जाये। परन्तु दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में यदि क्षत्रिय एवं वैश्य भी तैयार करते थे, तो ब्राह्मण उसको ग्रहण कर लेते थे।

प्रश्न 11.
जाति से सम्बन्धित व्यवसाय।
उत्तर-
जाति व्यवस्था के नियमों के आधार पर व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित किया जाता था। उसमें उसे परम्परा के अनुसार अपने पैतृक धन्धे को ही अपनाना पड़ता था। जैसे ब्राह्मणों का काम समाज को शिक्षित करना था और क्षत्रियों के ऊपर सुरक्षा का दायित्व था और कृषि के कार्य वैश्यों में विभाजित थे। इसी प्रकार निम्न जातियों का कार्य बाकी तीनों समुदायों की सेवा करने का कार्य था। इसी प्रकार जिस बच्चे का जन्म जिस जाति विशेष में होता था उसे व्यवसाय के रूप में भी वही काम करना होता था। इस प्रणाली में व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार कोई व्यवसाय नहीं कर सकता था। इस जाति प्रकारों में सभी चारों वर्ग अपने कार्य को अपना धर्म समझ कर करते थे।

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प्रश्न 12.
जाति के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की प्रथा में जाति भिन्न तरह से अपने सदस्यों की सहायता करती है, उसमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. जाति व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण करती है।
  2. व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  3. हर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  4. व्यक्ति एवं जाति के रक्त की शुद्धता बरकरार रखती है।
  5. जाति राजनीतिक स्थिरता प्रदान करती है।
  6. जाति अपने तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखती है!
  7. जाति शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निर्धारण करती है।
  8. जाति विशेष व्यक्ति के कर्त्तव्यों एवं अधिकारों का ध्यान करवाती है।

प्रश्न 13.
जाति एक बन्द समूह है।
उत्तर-
जाति एक बन्द समूह है, जब हम इस बात का अच्छी तरह से विश्लेषण करेंगे तो जवाब ‘हां’ में ही आयेगा। इससे यही अर्थ है कि बन्द समूह की जिस जाति में व्यक्ति का जन्म होता था, उसी के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति तय होती थी। व्यक्ति अपनी जाति को छोड़कर, दूसरी जाति में भी नहीं जा सकता। न ही वह अपनी जाति को बदल सकता है। इस तरह इस व्यवस्था में हम देखते हैं कि चाहे व्यक्ति में अपनी कितनी भी योग्यता हो, वह उसे प्रदर्शित नहीं कर पाता था क्यों जो उसे अपनी जाति समूह के नियमों के अनुसार कार्य करना होता था क्योंकि इसका निर्धारण ही व्यक्ति के जन्म के आधार पर था न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर। इस प्रकार जाति एक बन्द समूह ही था जिससे व्यक्ति अपनी इच्छा के आधार पर बाहर नहीं निकल सकता।

प्रश्न 14.
जाति के गुण बतायें।
उत्तर-

  1. जाति व्यवसाय का विभाजन करती है।
  2. जाति सामाजिक एकता को बनाये रखती है।
  3. जाति रक्त शुद्धता को बनाये रखती है।
  4. जाति शिक्षा के नियमों को बनाती है।
  5. जाति समाज में सहयोग से रहना सिखाती है।
  6. मानसिक एवं सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

प्रश्न 15.
जाति चेतनता।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की यह सबसे बड़ी त्रुटि थी कि उसमें कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के प्रति ज़्यादा सचेत नहीं होता था और यह कमी हर व्यवस्था में भी पाई जाती थी। क्योंकि इस व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति के आधार पर निश्चित होती थी, इसलिए व्यक्तिगत रूप से उतना जागरूक ही नहीं होता था। जब कि उसकी स्थिति एवं पहचान उनके जन्म के अनुसार ही होनी थी, तो उसे पता होता था कि उसे कौन-कौन से कार्य और कैसे करने हैं। यदि कोई व्यक्ति उच्च जाति में जन्म ले लेता था तो उसे पता होता था कि उसके क्या कर्त्तव्य हैं, यदि उसका जन्म निम्न जाति में हो जाता था, तो उसे पता ही होता था कि उसे सारे समाज की सेवा करनी है और इस स्वाभाविक प्रक्रिया में दखल अन्दाजी नहीं करता था और उसी को दैवी कारण मानकर अपना जीवन-यापन करता जाता था।

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प्रश्न 16.
जाति में बदलाव के कारणों के बारे में लिखें।
उत्तर-
19वीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों एवं धार्मिक विद्वानों की कोशिशों ने समाज में काफ़ी बदलाव की कोशिशें की और कई सामाजिक कुरीतियों का जमकर खण्डन किया। इन्हीं कारणों को हम संक्षेप में इस तरह बता सकते हैं-

  1. समाज सुधार आंदोलनों के कारण।
  2. भारत सरकार की कोशिशें एवं कानूनों का बनना।
  3. अंग्रेज़ी साम्राज्य का इसमें योगदान।
  4. औद्योगीकरण के कारणों से आई तबदीली।
  5. शिक्षा के प्रसार के कारण।
  6. यातायात एवं संचार व्यवस्था के कारण।
  7. आपसी मेल-जोल की वजह से।

प्रश्न 17.
जाति के अवगुण।
उत्तर-
स्त्रियों की दशा खराब होती है।

  1. यह प्रथा अस्पृश्यता को बढ़ावा देती है।
  2. यह जातिवाद को बढ़ाती है।
  3. इससे सांस्कृतिक संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
  4. सामाजिक एकता एवं गतिशीलता को रोकती है।
  5. सामाजिक संतुलन को भी खराब करती है।
  6. व्यक्तियों की कार्य-कुशलता में भी कमी आती है।
  7. सामाजिक शोषण के कारण गिरावट आती है।

प्रश्न 18.
जाति एवं वर्ग में क्या अन्तर हैं ?
उत्तर-
जाति धर्म पर आधारित है परन्तु वर्ग पैसे के ऊपर आधारित है।

  1. जाति समुदाय का हित है, वर्ग में व्यक्तिगत हितों की बात है।
  2. जाति को बदला नहीं जा सकता, वर्ग को बदला जा सकता है।
  3. जाति बन्द व्यवस्था है परन्तु वर्ग खुली व्यवस्था का हिस्सा है।
  4. जाति लोकतन्त्र के विरुद्ध है पर वर्ग लोकतान्त्रिक क्रिया है।
  5. जाति में कई तरह के प्रतिबन्ध हैं, वर्ग में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं।
  6. जाति में चेतना की कमी होती है परन्तु वर्ग में व्यक्ति चेतन होता है।

प्रश्न 19.
श्रेणी व्यवस्था या वर्ग व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार श्रेणी के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष कर्त्तव्य, अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। श्रेणी चेतनता ही श्रेणी की मुख्य ज़रूरत होती है। श्रेणी के बीच व्यक्ति अपने आप को कुछ सदस्यों से उच्च तथा कुछ से निम्न समझता है।

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प्रश्न 20.
वर्ग की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  1. वर्ग चेतनता–प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतनता होती है कि उसका पद या आदर दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है। अर्थात् व्यक्ति को उच्च, निम्न या समानता के बारे में पूरी चेतनता होती है।
  2. सीमित सामाजिक सम्बन्ध-वर्ग व्यवस्था में लोग अपने ही वर्ग के सदस्यों से गहरे सम्बन्ध रखता है तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उसके सम्बन्ध सीमित होते हैं।

प्रश्न 21.
धन तथा आय-वर्ग व्यवस्था के निर्धारक।
उत्तर-
समाज के बीच उच्च श्रेणी की स्थिति का सदस्य बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है। परन्तु पैसे के साथ व्यक्ति आप ही उच्च स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता परन्तु उसकी अगली पीढ़ी के लिए उच्च स्थिति निश्चित हो जाती है। आय के साथ भी व्यक्ति को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है क्योंकि ज्यादा आमदनी से ज्यादा पैसा आता है। परन्तु इसके लिए यह देखना ज़रूरी है कि व्यक्ति की आमदनी ईमानदारी की है या काले धन्धे द्वारा प्राप्त है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के अलग-अलग लक्षण होते हैं क्योंकि यह सामाजिक कीमतों तथा प्रमुख विचारधाराओं पर आधारित होती हैं, इसलिए स्तरीकरण के आधार भी अलग-अलग होते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का स्वरूप अलग-अलग समाजों में अलग-अलग पाया जाता है। यह प्रत्येक समाज में पाई जाने वाली सामाजिक कीमतों से सम्बन्धित होता है। इसलिए सामाजिक स्तरीकरण के आधार भी कई होते हैं। परन्तु सभी आधारों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं-

  1. जैविक अथवा प्राणी शास्त्रीय आधार (Biological Basis)
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-Cultural Basis) अब हम स्तरीकरण के इन दोनों प्रमुख आधारों का विस्तार से वर्णन करेंगे।

1. जैविक आधार (Biological Basis)—जैविक आधार पर समाज में व्यक्तियों को उनके जन्म के आधार पर उच्च तथा निम्न स्थान दिए जाते हैं। उनकी व्यक्तिगत योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता है। आम शब्दों में, समाज के अलग-अलग व्यक्तियों तथा समूहों में मिलने वाले उच्च निम्न के सम्बन्ध जैविक आधारों पर निर्धारित हो सकते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण के जैविक आधारों का सम्बन्ध व्यक्ति के जन्म से होता है। व्यक्ति को समाज में कई बार उच्च तथा निम्न स्थिति जन्म के आधार पर प्राप्त होती है। निम्नलिखित कुछ जैविक आधारों का वर्णन इस प्रकार है।

(i) जन्म (Birth)-समाज में व्यक्ति के जन्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। यदि हम प्राचीन भारतीय हिन्दू समाज की सामाजिक व्यवस्था को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि जन्म के आधार पर ही समाज में व्यक्ति को उच्च या निम्न स्थिति प्राप्त होती थी।

जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको उसी जाति से जोड़ दिया जाता था तथा इस जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को स्थिति प्राप्त होती थी। व्यक्ति अपनी योग्यता तथा परिश्रम से भी अपनी जाति बदल नहीं सकता था। इस प्रकार जाति प्रथा में एक पदक्रम बना रहता था। इस विवरण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि व्यक्ति को समाज में स्थिति उसकी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार नहीं प्राप्त होती थी। जाति प्रथा में सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था का मुख्य आधार जन्म होता था। जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को समाज में उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता था।

इसमें व्यक्ति की निजी योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता था। निजी योग्यता न तो जाति बदलने में मददगार थी तथा न ही अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए मददगार थी। ज्यादा से ज्यादा निजी योग्यता व्यक्ति को अपनी ही जाति में ऊँचा कर सकती थी। अपनी जाति में ऊँचा होने के बावजूद भी वह अपने से उच्च जाति से निम्न ही रहेगा। जातीय स्तरीकरण में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी योग्यता के ऊपर निर्धारित नहीं होती थी बल्कि व्यक्ति के जन्म के आधार पर निर्धारित होती थी।

(ii) आयु (Age)-जन्म के बाद आयु के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। कई अन्य समाजशास्त्रियों ने भी आयु के आधार पर व्यक्ति की अलग-अलग अवस्थाएं बताई हैं। किसी भी समाज में छोटे बच्चे की स्थिति उच्च नहीं होती क्योंकि उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ होता। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है उस तरह उसकी बुद्धि का विकास होता है। बुद्धि के विकास के साथ वह परिपक्व हो जाता है। इसलिए उसको प्राथमिकता दी जाती है। भारत सरकार में भी ज्यादा संख्या बड़ी आयु के लोगों की है। राष्ट्रपति बनने के लिए भी सरकार ने आयु निश्चित की होती है। भारत में यह उम्र 35 साल की है। यदि हम प्राचीन भारतीय समाज की पारिवारिक प्रणाली को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि बड़ी आयु के व्यक्तियों का ही परिवार पर नियन्त्रण होता था। भारत में वोट डालने का अधिकार 18 साल के व्यक्ति को ही प्राप्त है।

राजनीति को चलाने के लिए बुजुर्ग व्यक्ति एक स्तम्भ का कार्य करते हैं। यह ही जवान पीढ़ी को तैयार करते हैं। इस प्रकार सरकार ने विवाह की संस्था में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति की आयु निश्चित कर दी है ताकि बाल विवाह की प्रथा को रोका जा सके। संसार के सभी समाजों में बड़ी आयु के लोगों की इज्जत होती है। कई कबीलों में तो बडी आयु के लोगों की कौंसिल बनाई जाती है जिसके द्वारा समाज में महत्त्वपूर्ण फैसले लिए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के कबीलों के बीच प्रशासकीय अधिकार बड़ी आयु के व्यक्तियों को ही स्वीकार किया जाता है।

(iii) लिंग (Sex)-लिंग भी स्तरीकरण का आधार होता है। लिंग के आधार पर भेद आदमी तथा औरत का ही होता है। यदि हम प्राचीन समाजों पर नजर डालें तो उन समाजों में लिंग के आधार पर ही विभाजित होती थी। औरतें घर का कार्य करती थीं तथा आदमी घर से बाहर जा कर खाने-पीने की चीजें इकट्ठी करते थे।

सत्ता के आधार पर परिवार को दो हिस्सों में विभाजित किया गया है –

  1. पितृ सत्तात्मक परिवार (Patriarchal Family)
  2. मातृ सत्तात्मक परिवार (Matriarchal Family)

इन दोनों तरह के परिवारों के प्रकार लिंग के आधार पर पाए जाते हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की सत्ता महत्त्वपूर्ण थी तथा परिवार पिता की सत्ता में रहता था। परन्तु मातृसत्तात्मक परिवार में परिवार के ऊपर नियन्त्रण माता का ही होता था। यदि हम प्राचीन हिन्दू समाज को देखें तो लिंग के आधार पर आदमी की स्थिति समाज में उच्च थी। लिंग के आधार पर आदमी तथा औरतों के कार्यों में भिन्नता पायी जाती थी। लिंग के आधार पर पाई जाने वाली भिन्नता अभी भी आधुनिक समाजों में कुछ हद तक विकसित है। चाहे सरकार ने प्रयत्न करके औरतों को आगे बढ़ाने की कोशिशें भी की हैं। शिक्षा के क्षेत्र में औरतों को कुछ राज्यों में मुफ्त शिक्षा प्राप्त हो रही है। परन्तु आज भी कुछ फ़र्क नज़र आता है। पश्चिमी देशों में चाहे औरत तथा आदमी को प्रत्येक क्षेत्र में बराबर समझा जाता रहा है परन्तु अमेरिका में राष्ट्रपति का पद औरत नहीं सम्भाल सकती। आदमी तथा औरत की कुछ भूमिकाएं तो प्राकृतिक रूप से ही अलग होती हैं जैसे बच्चे को जन्म देने का कार्य औरत का ही होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लिंग भी स्तरीकरण का बहुत ही पुराना आधार रहा है जिसके द्वारा समाज में आदमी तथा औरत की स्थिति को निश्चित किया जाता है।

(iv) नस्ल (Race)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का आधार नस्ल भी रही है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-

(a) काकेशियन (Caucasion)
(b) मंगोलाइड (Mangoloid)
(c) नीग्रोआइड (Negroid)

इन तीनों नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में सबसे उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। यहां तक कि यह आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में विभिन्न नस्लों में पाई जाने वाली भिन्नता में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी नस्ल सामाजिक स्तरीकरण का एक आधार बनी हुई है। नस्ल श्रेष्ठता के आधार पर गोरे कालों से विवाह नहीं करवाते। काले व्यक्तियों के साथ गोरे बहुत भेदभाव करते हैं। कोई काला व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं बन सकता है। इस तरह स्पष्ट है कि नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेष अधिकारों में भेद पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस आधार पर भेद देख सकते हैं। गोरे लोग एशिया के लोगों के साथ इस आधार पर भेद रखते हैं क्योंकि वह अपने आपको पीले तथा काले लोगों से उच्च समझते

2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-cultural basis) केवल जैविक आधार पर ही नहीं बल्कि सामाजिक आधारों पर भी समाज में स्तरीकरण पाया जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक आधार कई तरह के होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) पेशे के आधार पर (Occupational basis)-पेशे के आधार पर समाज को विभिन्न भागों में बाँटा जाता है। कुछ पेशे समाज में ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं तथा कुछ कम। वर्ण व्यवस्था में समाज में स्तरीकरण पेशे के आधार पर ही होता था। व्यक्ति जिस पेशे को अपनाता था उसको उसी पेशे के अनुसार समाज में स्थिति प्राप्त हो जाती थी। जैसे जो व्यक्ति वेदों इत्यादि की शिक्षा प्राप्त करके लोगों को शिक्षित करने का पेशा अपना लेता था तो उसको ब्राह्मण वर्ण में शामिल कर लिया जाता था। पेशा अपनाने की इच्छा व्यक्ति की अपनी होती थी। डेविस के अनुसार विशेष पेशे के लिए योग्य व्यक्तियों की प्राप्ति उस पेशे की स्थिति को प्रभावित करती है। कई समाज वैज्ञानिकों ने पेशे को सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार माना है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति जिस प्रकार की योग्यता रखता है वह उसी तरह का पेशा अपना लेता है। उदाहरण के तौर पर आधुनिक भारतीय समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर इत्यादि के पेशे को क्लर्क, चपड़ासी इत्यादि के पेशे से ज्यादा उत्तम स्थान प्राप्त होता है। जो पेशे समाज के लिए नियन्त्रण रखने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, उन पेशों को भी समाज में उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार विभिन्न पेशों, गुणों, अवगुणों इत्यादि को परख कर समाज में उनको स्थिति प्राप्त होती है।

चाहे पुराने समाजों में पेशे भी जाति पर आधारित होते थे तथा व्यक्ति की स्थिति जाति के अनुसार निर्धारित होती थी परन्तु आधुनिक समाजों में जाति की जगह व्यवसाय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। एक I.A.S. अफसर की स्थिति एक चपड़ासी से निश्चित रूप से उच्च होती है। उसी तरह अफसरों, जजों इत्यादि का पेशा तथा नाम एक होने के बावजूद उनका स्तर समान नहीं है। संक्षेप में अलग-अलग कार्यों तथा पेशों के आधार पर समाज में स्तरीकरण होता है। उदाहरणतः चाहे कोई वेश्या जितना मर्जी चाहे पैसा कमा ले परन्तु उसके कार्य के आधार पर समाज में उसका स्थान हमेशा निम्न ही रहता है।

(ii) राजनीतिक आधार (Political base)-राजनीतिक आधार पर तो प्रत्येक समाज में अलग-अलग स्तरीकरण पाया जाता है। भारतीय समाज में भी राजनीतिक स्तरीकरण का आधार पाया जाता है। भारत में वंश के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था महत्त्वपूर्ण रही है। भारत एक लोकतान्त्रिक समाज है। इसमें राजनीति की मुख्य शक्ति राष्ट्रपति के पास होती है। उपराष्ट्रपति की स्थिति उससे निम्न होती है। प्रत्येक समाज में दो वर्ग पाए जाते हैं तथा वह है शासक वर्ग व शासित वर्ग शासक वर्ग की स्थिति शासित वर्ग से उच्च होती है। प्रशासनिक व्यवस्था में विभिन्न अफसरों को उनकी नौकरी के स्वरूप के अनुसार ही स्थिति प्राप्त होती है। सोरोकिन के अनुसार, “यदि राजनीतिक संगठन में विस्तार होता है तो राजनीतिक स्तरीकरण बढ़ जाता है।”

राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक स्तरीकरण में भी complexity बढ़ती जाती है। यदि किसी क्रान्ति के कारण राजनीतिक व्यवस्था में एक दम परिवर्तन आ जाता है तो राजनीतिक स्तरीकरण भी बदल जाता है। भारत में वैसे तो कई राजनीतिक पार्टियां पाई जाती हैं परन्तु जिस पार्टी की स्थिति उच्च होती है वह ही देश पर राज करती है। प्राचीन कबाइली समाज में प्रत्येक कबीले का एक मुखिया होता था जो अपने कबीले की समस्याएं दूर करता था तथा अपने कबीले के प्रति वफ़ादार होता था। राजाओं महाराजाओं के समय राजा के हाथ में शासन होता था, वह जिस तरह चाहता था उस तरह ही अपने राज्य को चलाता था।

परिवार में राजनीति होती है। पिता की स्थिति सब से उच्च होती है। देश के प्रशासन में सब से उच्च स्थिति राष्ट्रपति की होती है। फिर उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री, उप-मन्त्री इत्यादि की बारी आती है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में कुछ नेता ऊँचे कद के होते हैं तथा कुछ निम्न कद के। कुछ नेता राष्ट्रीय स्तर के होते हैं तथा कुछ प्रादेशिक स्तर के होते हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां भी राष्ट्रीय स्तर की तथा कुछ प्रादेशिक स्तर की होती हैं। उस पार्टी की स्थिति उच्च होगी जिसके हाथ में राजनीतिक सत्ता होती है तथा उस पार्टी की स्थिति निम्न रहेगी जिसके पास सत्ता नहीं होती। उदाहरणतः आज बी० जे० पी० की केन्द्र सरकार होने के कारण उसकी स्थिति उच्च है तथा कांग्रेस की स्थिति निम्न है।

(iii) आर्थिक आधार (Economic basis)-कार्ल मार्क्स के अनुसार आर्थिक आधार ही सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार है। उनके अनुसार समाज में हमेशा दो ही वर्ग पाए जाते हैं
(a) उत्पादन के साधनों के मालिक (Owners of means of production)
(b) उत्पादन के साधनों से दूर (Those who don’t have means of production)

जो व्यक्ति उत्पादन के साधनों के मालिक होते हैं, उनकी स्थिति समाज में उच्च होती है। इनको कार्ल मार्क्स ने पूंजीपति का नाम दिया है। दूसरी तरफ मजदूर वर्ग होता है जो पूंजीपति लोगों के अधीन कार्य करता है। पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग का पूर्ण शोषण करता है। समाज में पैसे के आधार पर समाज को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जाता है-

  1. उच्च वर्ग (Higher Class)
  2. मध्यम वर्ग (Middlwe Class)
  3. निम्न वर्ग (Lower Class)

इस प्रकार इन वर्गों में श्रेष्ठता तथा हीनता वाले सम्बन्ध पाए जाते हैं। सोरोकिन के अनुसार, स्तरीकरण के आधार के रूप में आर्थिक तत्त्वों में उतार-चढ़ाव आता रहता है। मुख्य उतार-चढ़ाव दो तरह का होता है-आर्थिक क्षेत्र में किसी भी समूह की उन्नति तथा गिरावट तथा स्तरीकरण की प्रक्रिया में आर्थिक तत्त्वों की महता का कम या ज्यादा होना। इसके परिणामस्वरूप आर्थिक पिरामिड की ऊँचाई की तरफ बढ़ना तथा एक स्तर पर पहुँच कर चौड़ाई में बढ़ना तथा ऊँचाई की तरफ बढ़ने से रुकना।

संक्षेप में हम आधुनिक समाज को औद्योगिक समाज का नाम देते हैं। इस समाज में व्यक्ति का सम्पत्ति पर अधिकार होना या न होना स्तरीकरण का आधार होता है। इस प्रकार आर्थिक आधार भी स्तरीकरण के आधारों में से मुख्य माना गया है।

(iv) शिक्षा के आधार पर (On the basis of education) शिक्षा के आधार पर भी हम समाज को स्तरीकृत कर सकते हैं। शिक्षा के आधार पर समाज को दो भागों में स्तरीकृत किया जाता है-एक तो है पढ़ा-लिखा वर्ग तथा दूसरा है अनपढ़ वर्ग। इस प्रकार पढ़े-लिखे वर्ग की स्थिति अनपढ़ वर्ग से उच्च होती है। जो व्यक्ति परिश्रम करके उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं तो समाज में उनको ज्यादा इज्जत प्राप्त हो जाती है। आधुनिक समाज में स्तरीकरण का यह आधार भी महत्त्वपूर्ण होता है। समाज में पढ़े-लिखे व्यक्ति की इज्जत अनपढ़ से ज्यादा होती है। अब एक प्रोफैसर की स्थिति, जिसने पी० एच० डी० की है, निश्चित रूप से मौट्रिक पास व्यक्ति से उच्च होगी। एक इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक की स्थिति चपड़ासी से उच्च होगी क्योंकि उन्होंने चपड़ासी से ज्यादा शिक्षा प्राप्त की है। इस तरह शिक्षा के आधार पर भी समाजों में स्तरीकरण होता है।

(v) धार्मिक आधार (Religious basis)-धार्मिक आधार पर भी समाज को स्तरीकृत किया जाता है। प्राचीन हिन्दू भारतीय समाज में धार्मिक व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती थी क्योंकि वह धार्मिक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते थे तथा उस ज्ञान को आगे पहुंचाते थे। भारतीय समाज में कई प्रकार के धर्म पाए जाते हैं। प्रत्येक धर्म को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको दूसरे धार्मिक समूहों से ऊंचा समझने लग जाता है। इस प्रकार धर्म के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। भारत में बहुत सारे धर्म हैं जो अपने आपको और धर्मों से श्रेष्ठ समझते हैं। प्रत्येक धर्म के व्यक्ति यह कहते हैं कि उनका धर्म और धर्मों से अच्छा है। एक धर्म, जिसके सदस्यों की संख्या ज्यादा है, निश्चित रूप से दूसरे धर्मों से उच्च कहलवाया जाएगा। हम भारत में हिन्दू तथा इसाई धर्म की उदाहरण ले सकते हैं। इस तरह धर्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।

(vi) रक्त सम्बन्धी आधार (On the basis of blood relations) व्यक्ति जिस वंश में जन्म लेता है, उसके आधार पर भी समाज में उसको उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता है। जैसे राजा का पुत्र बड़ा होकर राजा के पद पर विराजमान हो जाता था। इस प्रकार व्यक्ति को समाज में कई बार सामाजिक स्थिति परिवार के आधार पर भी प्राप्त होती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण के अलग-अलग महत्त्वपूर्ण आधार हैं। इसके बहुत सारे भेद होते हैं जिनके आधार पर समाज में असमानताएं पाई जाती हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था क्या होती है ? घूर्ये द्वारा दी गई विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
शब्द जाति अंग्रेजी भाषा के शब्द Caste का हिन्दी रूपांतर है। शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द Casta में से निकला है जिसका अर्थ नस्ल अथवा प्रजाति है। शब्द Caste लातिनी भाषा के शब्द Castus से भी सम्बन्धित है जिसका अर्थ शुद्ध नस्ल है। प्राचीन समय में चली आ रही जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित होती थी तथा व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता था वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्राचीन समय में तो व्यक्ति के जन्म से ही उसका कार्य, उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाते थे क्योंकि उसे अपनी जाति का परंपरागत पेशा अपनाना पड़ता था तथा उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार ही उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाती थी। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों के जीवन पर बहुत सी पाबन्दियां लगाती थीं तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन पाबन्दियों को मानना आवश्यक होता था।

इस प्रकार जाति व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति के ऊपर जाति के नियमों के अनुसार कई पाबंदियां थीं। जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है जो अपने सदस्यों के जीवन सम्बन्धों, पेशे इत्यादि के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबंध रखता है। यह व्यवस्था भारतीय समाज के महत्त्वपूर्ण आधारों में से एक थी तथा यह इतनी शक्तिशाली थी कि कोई भी व्यक्ति इसके विरुद्ध कार्य करने का साहस नहीं करता था।

परिभाषाएं (Definitions)-जाति व्यवस्था की कुछ परिभाषाएं प्रमुख समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों द्वारा दी गई हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstdt) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक अथवा अधिक विषयों पर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”

2. रिज़ले (Rislay) के अनुसार, “जाति परिवारों अथवा परिवारों के समूह का संकलन है जिसका एक समान नाम होता है तथा जो काल्पनिक पूर्वज-मनुष्य अथवा दैवीय के वंशज होने का दावा करते हैं, जो समान पैतृक कार्य अपनाते हैं तथा वह विचारक जो इस विषय पर राय देने योग्य हैं, इसे समजातीय समूह मानते हैं।”

3. ब्लंट (Blunt) के अनुसार, “जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह अथवा अन्तर्वैवाहिक समूहों का एकत्र है जिसका एक नाम है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत है, जो अपने सदस्यों पर सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध लगाती है, एक आम परम्परागत पेशे को अपनाती है अथवा एक आम उत्पत्ति की दावा करती है तथा साधारण एक समरूप समुदाय को बनाने वाली समझी जाती है।”

4. मार्टिनडेल तथा मोना चेसी (Martindale and Mona Chesi) के अनुसार, “जाति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसमें किसी व्यक्ति के कर्त्तव्य तथा विशेषाधिकार जन्म से ही निश्चित होते हैं, जिसे संस्कारों तथा धर्म की तरफ से मान्यता तथा स्वीकृति प्राप्त होती है।”

जाति व्यवस्था के कुछ लक्षण जी० एस० घर्ये ने दिए हैं:-

(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(ii) अलग-अलग हिस्सों में पदक्रम
(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां
(iv) भिन्न-भिन्न जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार
(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी
(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दी।

अब हम घूर्ये द्वारा दी विशेषताओं का वर्णन विस्तार से करेंगे-

(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society) जाति व्यवस्था हिन्दू समाज को कई भागों में बांट देती है जिसमें प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर देती है। इस वजह से सदस्यों के बीच किसी विशेष समूह का हिस्सा होने के कारण चेतना होती है तथा इसी वजह से ही वह अपने आप को उस समूह का अटूट अंग समझने लग जाता है। समाज की इस तरह हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों के अन्तर्कार्यों का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता है। यह भी देखने में आया है कि अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के तरीके तथा रस्मों-रिवाज अलग-अलग होते हैं। एक जाति के लोग अधिकतर अपनी जाति के सदस्यों के साथ ही अन्तक्रिया करते हैं। इस प्रकार घूर्ये के अनुसार प्रत्येक जाति अपने आप में पूर्ण सामाजिक जीवन बिताने वाली सामाजिक इकाई होती है।

(ii) पदक्रम (Hierarchy) भारत के अधिकतर भागों में ब्राह्मण वर्ण को सबसे उच्च दर्जा दिया गया था। जाति व्यवस्था में एक निश्चित पदक्रम देखने को मिलता है। इस व्यवस्था में उच्च तथा निम्न जातियों का दर्जा तो लगभग निश्चित ही होता है परन्तु बीच वाली जातियों में कुछ अस्पष्टता है। परन्तु फिर भी दूसरे स्थान पर क्षत्रिय तथा तीसरे स्थान पर वैश्य आते थे।

(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on feeding and social intercourse)-जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट तथा विस्तृत नियम मिलते हैं जो यह बताते हैं कि कोई व्यक्ति किस जाति से सामाजिक मेल-जोल रख सकता है तथा कौन-सी जातियों से खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। सम्पूर्ण भोजन को कच्चे तथा पक्के भोजन की श्रेणी में रखा जाता है। कच्चे भोजन को पकाने के लिए पानी का प्रयोग तथा पक्के भोजन को पकाने के लिए घी का प्रयोग होता है। जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध में प्रतिबन्ध लगे होते हैं।

(iv) अलग-अलग जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार (Civil and religious disabilities and priviledges of various castes)—अलग-अलग जातियों के विशेष नागरिक तथा धार्मिक अधिकार तथा निर्योग्यताएं होती थीं। कुछ जातियों के साथ किसी भी प्रकार के मेल-जोल पर पाबन्दी थी। वह मंदिरों में भी नहीं जा सकते थे तथा कुँओं से पानी भी नहीं भर सकते थे। उन्हें धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। उनके बच्चों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था। परन्तु कुछ जातियां ऐसी भी थीं जिन्हें अन्य जातियों पर कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे।

(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी (Lack of unrestricted choice of occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार कुछ जातियों के विशेष, परम्परागत तथा पैतृक पेशे होते थे। जाति के सदस्यों को परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था चाहे अन्य पेशे कितने भी लाभदायक क्यों न हों। परन्तु कुछ पेशे ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी कर सकता था। इसके साथ बहुत-सी जातियों के पेशे निश्चित होते थे।

(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on Marriage)-भारत के बहुत से हिस्सों में जातियों तथा उपजातियों में विभाजन मिलता है। यह उपजाति समूह अपने सदस्यों को बाहर वाले व्यक्तियों के साथ विवाह करने से रोकते थे। जाति व्यवस्था की विशेषता उसका अन्तर्वैवाहिक होना है। व्यक्ति को अपनी उपजाति से बाहर ही विवाह करवाना पड़ता था। विवाह सम्बन्धी नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को उसकी जाति से बाहर निकाल दिया जाता था।

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प्रश्न 4.
जाति प्रथा की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी (Membership was based on birth)-जाति व्यवस्था की सबसे पहली विशेषता यह थी कि इसकी सदस्यता व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर नहीं बल्कि उसके जन्म पर आधारित होती थी। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का निर्धारण नहीं कर सकता। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसकी स्थिति उसी के अनुसार निश्चित हो जाती थी। व्यक्ति में जितनी चाहे मर्जी योग्यता क्यों न हो वह अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था।

2. सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबंध (Restrictions on Social relations)-प्राचीन समय में समाज को अलग-अलग वर्गों के बीच विभाजित किया गया था तथा धीरे-धीरे इन वर्गों ने जातियों का रूप ले लिया। सामाजिक संस्तरण में किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से अच्छी थी तथा किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से निम्न थी। इस प्रकार सामाजिक संस्तरण के अनुसार उनके बीच सामाजिक सम्बन्ध भी निश्चित हो गए। यही कारण है कि अलग-अलग वर्गों में उच्च निम्न की भावना पाई जाती थी। इन अलग-अलग जातियों के ऊपर एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध रखने के ऊपर प्रतिबन्ध थे तथा वह एक-दूसरे से दूरी बना कर रखते थे। कुछ जातियों को तो पढ़ने-लिखने कुँओं से पानी भरने तथा मन्दिरों में जाने की भी आज्ञा नहीं थी। प्राचीन समय में ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के लिए उपनयान संस्कार पूर्ण करना पड़ता था। कुछेक वर्गों के लिए तो इस संस्कार को पूर्ण करने के लिए आयु निश्चित की गई थी, परन्तु कुछ को तो वह संस्कार पूर्ण करने की आज्ञा ही नहीं थी। इस प्रकार अलग-अलग जातियों के बीच सामाजिक सम्बन्धों को रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।

3. खाने-पीने पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Eatables) जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट नियम मिलते थे जो यह बताते थे कि किस व्यक्ति ने किसके साथ सम्बन्ध रखने थे अथवा नहीं तथा वह किन जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे। सम्पूर्ण भोजन को दो भागों में विभाजित किया गया था तथा वह थे कच्चा भोजन तथा पक्का भोजन। कच्चा भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए पानी का प्रयोग होता था तथा पक्का भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए घी का प्रयोग होता था। साधारण नियम यह था कि कोई व्यक्ति कच्चा भोजन उस समय तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसकी अपनी ही जाति के व्यक्ति की तरफ से तैयार न किया गया हो। इसलिए बहत-सी जातियां ब्राह्मण द्वारा कच्चा भोजन स्वीकार कर लेती थी परन्तु इसके विपरीत ब्राह्मण किसी अन्य जाति के व्यक्ति से कच्चा भोजन स्वीकार नहीं करते थे। पक्के भोजन को भी किसी विशेष जाति के व्यक्ति की तरफ से ही स्वीकार किया जाता था। इस प्रकार जाति व्यवस्था ने अलग-अलग जातियों के बीच खाने-पीने के सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगाए हुए थे तथा सभी के लिए इनकी पालना करनी ज़रूरी थी।

4. मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबंदी (Restriction on Occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार प्रत्येक जाति का कोई न कोई पैतृक तथा परंपरागत पेशा होता था तथा व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसे उसी जाति का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था। व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता था। उसे बचपन से ही अपने परम्परागत पेशे की शिक्षा मिलनी शुरू हो जाती थी तथा जवान होते-होते वह उस कार्य में निपुण हो जाता है। चाहे कुछ कार्य ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी व्यक्ति कर सकता था जैसे कि व्यापार, कृषि, मज़दूरी, सेना में नौकरी इत्यादि। परन्तु फिर भी अधिकतर लोग अपनी ही जाति का पेशा अपनाते. थे। इस समय चार मुख्य वर्ण होते थे। पहले वर्ण का कार्य पढ़ना, पढ़ाना तथा धार्मिक कार्यों को पूर्ण करवाना था। दूसरे वर्ण का कार्य देश की रक्षा करना तथा राज्य चलाना था। तीसरे वर्ण का कार्य व्यापार करना, कृषि करना इत्यादि था। चौथे तथा अन्तिम वर्ण का कार्य ऊपर वाले तीनों वर्गों की सेवा करना था तथा इन्हें अपने परम्परागत कार्य ही करने पड़ते थे।

5. जाति अन्तर्वैवाहिक होती है (Caste is endogamous)-जाति व्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था। जाति व्यवस्था बहुत-सी जातियों तथा उपजातियों में विभाजित होती थी। यह उपजातियां अपने सदस्यों को अपने समूह से बाहर विवाह करने की आज्ञा नहीं देती। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति अथवा उपजाति से बाहर निकाल दिया जाता था। परन्तु अन्तर्विवाह के नियम में कुछ छूट भी मौजूद थी। किसी विशेष स्थिति में अपनी जाति से बाहर विवाह करवाने की आज्ञा थी। परन्तु साधारण नियम यह था कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। इस प्रकार सभी जातियों के लोग अपने समूहों में ही विवाह करवाते थे।

6. समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society)-जाति व्यवस्था द्वारा हिन्दू समाज को कई भागों में विभाजित कर दिया गया था तथा प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर दिये गए थे। इस कारण ही सदस्यों में अपने समूह का एक हिस्सा होने की चेतना उत्पन्न होती थी अर्थात् वह अपने आप को उस समूह का अभिन्न अंग समझने लग जाते थे। समाज के इस प्रकार अलग-अलग हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों की सामाजिक अन्तक्रिया का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता था। जाति के नियमों को न मानने वालों को जाति पंचायत की तरफ से दण्ड दिया जाता था। अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के ढंग तथा रस्मों-रिवाज भी अलग-अलग ही होते थे। प्रत्येक जाति अपने आप में एक सम्पूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत करने वाली सामाजिक इकाई होती थी।

7. पदक्रम (Hierarchy)–जाति व्यवस्था में अलग-अलग जातियों के बीच एक निश्चित पदक्रम मिलता था जिसके अनुसार यह पता चलता था कि किस जाति की सामाजिक स्थिति किस प्रकार की थी तथा उनमें किस प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते थे। चारों जातियों की इस व्यवस्था में एक निश्चित स्थिति होती थी तथा उनके कार्य भी उस संस्तरण तथा स्थिति के अनुसार निश्चित होते थे। कोई भी इस व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह नहीं खड़ा कर सकता था क्योंकि यह व्यवस्था तो सदियों से चली आ रही थी।

प्रश्न 5.
जाति प्रथा के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
अलग-अलग समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों ने भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन किया तथा अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की है। उन्होंने जाति प्रथा के अलग-अलग कार्यों का भी वर्णन किया है। उन सभी के जाति प्रथा के दिए कार्यों के अनुसार जाति प्रथा के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों का वर्णन इस प्रकार हैं-

1. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation) जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पैतृक गुणों वाली निपुणता स्वयं ही उत्पन्न हो जाती थी क्योंकि जिस परिवार में वह पैदा होता है उससे पेशे सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार बिना कोई औपचारिक शिक्षा लिए उसका विशेषीकरण हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह प्रथा समाज में होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती है तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है इस प्रकार जाति प्रथा व्यक्ति के कार्य का निर्धारण करती है।

2. सामाजिक सुरक्षा (Social Security)-जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के अन्य सदस्यों की सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उसे इस बात का पता होता है कि अगर उसके ऊपर किसी प्रकार का आर्थिक या किसी अन्य प्रकार का संकट आएगा तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा दो प्रकार से सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। पहली तो यह सदस्यों की सामाजिक स्थिति को निश्चित करती है तथा दूसरी यह उनकी प्रत्येक प्रकार के संकट से रक्षा करती है। इस प्रकार जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

3. मानसिक सुरक्षा (Mental Security)-जाति व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति तथा भूमिका निर्धारित होती है। उसने कौन-सा पेशा अपनाना है, कैसी शिक्षा लेनी है, कहां पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने हैं तथा किस जाति से किस प्रकार का व्यवहार करना है। यह सब कुछ जाति के नियमों द्वारा ही निश्चित किया जाता है। इससे व्यक्ति को किसी प्रकार की अनिश्चिता का सामना नहीं करना पड़ता। उसके अधिकार तथा कर्त्तव्य अच्छी तरह स्पष्ट होते हैं। जाति ही सभी नियमों का निश्चय करती है। इस प्रकार व्यक्ति के जीवन की जो समस्याएं अथवा मुश्किलें होती हैं उन्हें जाति बहुत ही आसानी से सुलझा लेती है। इससे व्यक्ति को दिमागी तथा मानसिक सुरक्षा प्राप्त हो जाती है।

4. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)-चाहे वैज्ञानिक आधार पर यह मानना मुश्किल है, परन्तु यह कहा जाता है कि जाति रक्त की शुद्धता बना कर रखती है क्योंकि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है। अन्तर्वैवाहिक होने के कारण एक जाति के सदस्य किसी अन्य जाति के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करते तथा उनका रक्त उन्हीं में शुद्ध रह जाता है। अन्य समाजों में भी रक्त की शुद्धता बनाकर रखने के प्रयास किए गए हैं, परन्तु इससे कई प्रकार की मुश्किलें तथा संघर्ष उत्पन्न हो गए हैं। फिर भी भारत में यह नियम पूर्ण सफलता के साथ चला था। जाति में विवाह सम्बन्धी कठोर पाबन्दियां थीं। कोई भी अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं करवा सकता था। यही कारण है कि जाति के विवाह जाति में ही होते थे। इस नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। इससे रक्त की शुद्धता बनी रहती थी।

5. राजनीतिक स्थायित्व (Political Stability)-जाति व्यवस्था हिन्दू राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य आधार थी। राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार तथा कर्त्तव्य उसकी जाति निर्धारित करती थी क्योंकि लोगों का जाति के नियमों पर विश्वास दैवीय शक्तियों से भी अधिक होता था। इस कारण जाति के नियमों को मानना प्रत्येक व्यक्ति का मुख्य कर्त्तव्य था। आजकल तो अलग-अलग जातियों ने अपने-अपने राजनीतिक संगठन बना लिए हैं जो चुनावों के बाद अपने सदस्यों की सहायता करते हैं तथा जीतने के बाद अपनी जाति के लोगों का विशेष ध्यान रखते हैं। इस प्रकार जाति के सदस्यों को लाभ होता है। इस प्रकार यह जाति का राजनीतिक कार्य होता है।

6. शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निश्चय (Fixing rules of education)-जाति व्यवस्था अलग-अलग जातियों के लिए विशेष प्रकार की शिक्षा का निर्धारण करती थी। इस प्रकार की शिक्षा का आधार धर्म था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को पेशे सम्बन्धी जानकारी भी देती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य सम्बन्धी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती है। इस प्रकार जाति व्यवस्था व्यक्ति को सैद्धान्तिक तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती थी। जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा लेने के नियम बनाती थी। जाति ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति का व्यक्ति कितने समय के लिए शिक्षा प्राप्त करेगा तथा कौन-कौन से नियमों की पालना करेगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों के लिए उस जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।

7. तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखना (To preserve technical secrets)-प्रत्येक जाति के कुछ परम्परागत कार्य होते थे। उस परम्परागत कार्य के कुछ तकनीकी रहस्य भी होते थे जो केवल उसे करने वालों को ही पता होते हैं। इस प्रकार जब यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते थे तो यह तकनीकी रहस्य भी अगली पीढ़ी के पास चले जाते थे। क्योंकि यह कार्य केवल उस जाति ने करने होते थे इसलिए यह भेद भी जाति तक ही रहते थे। इनका रहस्य भी नहीं खुलता था। इस प्रकार जाति तकनीकी भेदों को गुप्त रखने का भी कार्य करती थी।

8. सामाजिक एकता (Social Unity) हिन्दू समाज को एकता में बाँधकर रखने में जाति व्यवस्था ने काफ़ी महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में बाँट दिया था तथा प्रत्येक भाग के कार्य भी अलग-अलग ही थे। जैसे श्रम विभाजन में कार्य अलग-अलग होते हैं वैसे ही जाति व्यवस्था ने भी सभी को अलग-अलग कार्य दिए थे। इस प्रकार सभी भाग अलग-अलग कार्य करते हुए एक-दूसरे की सहायता करते तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस कारण ही अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।

9. व्यवहार पर नियन्त्रण (Control on behaviour)-जाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति तथा उसके सदस्यों के लिए नियम बनाए हुए थे कि किस व्यक्ति ने किस प्रकार का व्यवहार करना है। जाति प्रथा के नियमों के कारण ही व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को नियन्त्रण में रखता था तथा उन नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करता था। शिक्षा, विवाह, खाने-पीने, सामाजिक सम्बन्धों इत्यादि जैसे पक्षों के लिए जाति प्रथा के नियम होते थे जिस कारण व्यक्तिगत व्यवहार नियन्त्रण में रहते थे।

10. विवाह सम्बन्धी कार्य (Function of Marriage)-प्रत्येक जाति अन्तर्वैवाहिक होती थी अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति तथा उपजाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति प्रथा का यह सबसे महत्त्वपूर्ण नियम था कि व्यक्ति अपने वंश अथवा परिवार से बाहर विवाह करवाएगा परन्तु वह अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाएगा। यदि कोई अपनी जाति अथवा उपजाति से बाहर विवाह करवाता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस प्रकार जाति विवाह सम्बन्धी कार्य भी पूर्ण करती थी।

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प्रश्न 6.
जाति प्रथा के गुणों तथा अवगुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति अपने आप में एक ऐसा समूह है जिसने हिन्दू समाज तथा भारत में बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। जितना कार्य अकेला जाति व्यवस्था ने किया है उतने कार्य अन्य संस्थाओं ने मिल कर भी नहीं किए होंगे। इससे हम देखते हैं कि जाति व्यवस्था के बहुत से गुण हैं। परन्तु इन गुणों के साथ-साथ कुछ अवगुण भी हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

जाति व्यवस्था के गुण अथवा लाभ (Merits or Advantages of Caste System)-

1. सामाजिक सुरक्षा देना (To give social security)—जाति प्रथा का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के सदस्यों की सहायता करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उन्हें इस बात का पता होता है कि अगर उन्हें किसी प्रकार की समस्या आएगी तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा सदस्यों की सामाजिक स्थिति भी निश्चित करती थी तथा प्रतियोगिता की सम्भावना को भी कम करती थी।

2. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह है कि यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष पेशे अथवा कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पारिवारिक कार्य के प्रति गुण स्वयं ही पैदा हो जाते थे। जिस परिवार में बच्चा पैदा होता था उससे कार्य सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार बिना किसी औपचारिक शिक्षा के विशेषीकरण हो जाता था। इसके साथ ही जाति व्यवस्था समाज में पेशे के लिए होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती थी तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती थी। इस प्रकार जाति व्यवस्था का यह गुण काफ़ी महत्त्वपूर्ण था।

3. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)—जाति प्रथा एक अन्तर्वैवाहिक समूह है। अन्तर्वैवाहिक का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था तथा अगर कोई इस नियम को नहीं मानता था तो उसे जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। ऐसा करने का यह लाभ होता था कि बाहर वाली किसी जाति के साथ रक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं होते थे तथा अपनी जाति के रक्त की शुद्धता बनी रहती थी। इस प्रकार जाति का एक गुण यह भी था कि यह रक्त की शुद्धता बनाए रखने में सहायता करती थी।

4. श्रम विभाजन (Division of Labour)-जाति व्यवस्था का एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण यह था कि यह सभी व्यक्तियों में अपने कर्त्तव्य के प्रति प्रेम तथा निष्ठा की भावना उत्पन्न करती थी। निम्न प्रकार के कार्य भी व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझ कर अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों में यह भावना भर देती थी कि प्रत्येक सदस्य को उसके पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में पेशा मिला है। उसे यह भी विश्वास दिलाया जाता था कि वर्तमान कर्त्तव्यों को पूर्ण करने से ही अगले जन्म में उच्च स्थिति प्राप्त होगी। इसका लाभ यह था कि निराशा खत्म हो गई तथा सभी अपना कार्य अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया हुआ था तथा इन चारों भागों को अपने कार्यों का अच्छी तरह से पता था। यह सभी अपना कार्य अच्छे ढंग से करते थे तथा समय के साथ-साथ अपने पेशे के रहस्य अपनी अगली पीढ़ी को सौंप देते थे। इस प्रकार समाज में पेशे के प्रति स्थिरता बनी रही थी तथा श्रम विभाजन के साथ विशेषीकरण भी हो जाता था।

5. शिक्षा के नियम बनाना (To make rules of education)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने शिक्षा लेने के सम्बन्ध में निश्चित नियम बनाए हुए थे तथा धर्म को शिक्षा का आधार बनाया हुआ था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण, पेशे सम्बन्धी जानकारी तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य संबंधी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी जानकारी भी देती है। जाति व्यवस्था ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति के व्यक्ति ने कितनी शिक्षा लेनी है तथा कौन-से नियमों का पालन करना है। इस प्रकार जाति व्यवस्था ही प्रत्येक सदस्य के लिए उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।

6. सामाजिक एकता को बना कर रखना (To maintain social unity)—जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने हिन्दू समाज को एकता में बाँध कर रखा। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया था तथा प्रत्येक भाग को अलग-अलग कार्य भी दिए थे। जिस प्रकार श्रम विभाजन में प्रत्येक का कार्य अलगअलग होता है उसी प्रकार जाति व्यवस्था ने भी समाज में श्रम विभाजन को पैदा किया था। यह सभी भाग अलगअलग कार्य करते थे तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस प्रकार अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।

जाति व्यवस्था के अवगुण (Demerits of Caste System)-चाहे जाति व्यवस्था के बहुत से गुण थे तथा इसने सामाजिक एकता रखने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, परन्तु फिर भी इस व्यवस्था के कारण समाज में कई बुराइयां भी पैदा हो गई थीं। जाति व्यवस्था के अवगुण निम्नलिखित हैं-

1. स्त्रियों की निम्न स्थिति (Lower Status of Women) जाति व्यवस्था के कारण स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न हो गई थी। जाति व्यवस्था के नियन्त्रणों के कारण हिन्दू स्त्रियों की स्थिति परिवार में नौकरानी से अधिक नहीं थी। जाति अन्तर्वैवाहिक समूह था जिस कारण लोगों ने अपनी जाति में वर ढूंढ़ने के लिए बाल विवाह का समर्थन किया। इससे बहुविवाह तथा बेमेल विवाह को समर्थन मिला। कुलीन विवाह की प्रथा ने भी बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह तथा दहेज प्रथा जैसी समस्याओं को जन्म दिया। स्त्रियां केवल घर पर ही कार्य करती रहती थीं। उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं थे। इस प्रकार स्त्रियों से सम्बन्धित सभी समस्याओं की जड़ ही जाति व्यवस्था थी। जाति व्यवस्था ने ही स्त्रियों की प्रगति पर पाबंदी लगा दी तथा बाल विवाह पर बल दिया। विधवा विवाह को मान्यता न दी। स्त्रियां केवल परिवार की सेवा करने के लिए ही रह गई थीं।

2. अस्पृश्यता (Untouchability)-अस्पृश्यता जैसी समस्या का जन्म भी जाति प्रथा की विभाजन की नीति के कारण ही हुआ था। कुल जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग को अपवित्र मान कर इसलिए अपमानित किया जाता था क्योंकि वह जो कार्य करते थे उसे अपवित्र माना जाता था। उनकी काफ़ी दुर्दशा होती थी तथा उनके ऊपर बहुत से प्रतिबंध लगे हुए थे। वह आर्थिक क्षेत्र में भाग नहीं ले सकते थे। इस प्रकार जाति व्यवस्था के कारण जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग समाज के ऊपर बोझ बन कर रह गया था। इस कारण समाज में निर्धनता आ गई। अलगअलग जातियों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत उत्पन्न हो गई तथा जातिवाद जैसी समस्या हमारे सामने आई।

3. जातिवाद (Casteism)—जाति व्यवस्था के कारण ही लोगों की मनोवृत्ति भी सिकुड़ती चली गई। लोग विवाह सम्बन्धों तथा अन्य प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों के लिए जाति के नियमों पर निर्भर थे जिस कारण जातिवाद की भावना बढ़ गई। उच्च तथा निम्न स्थिति के कारण लोगों में गर्व तथा हीनता की भावना उत्पन्न हो गई। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा ने उनके बीच दूरियां पैदा कर दी। इस कारण देश में जातिवाद की समस्या सामने आई। जातिवाद के कारण लोग अपने देश के बारे में नहीं सोचते तथा इस समस्या को बढ़ाते हैं।

4. सांस्कृतिक संघर्ष (Cultural Conflict)-जाति एक बंद समूह है तथा अलग-अलग जातियों में एकदूसरे के साथ सम्बन्ध रखने पर प्रतिबंध होते थे। इन सभी जातियों के रहने-सहने के ढंग अलग-अलग थे। इस सामाजिक पृथक्ता ने सांस्कृतिक संघर्ष की समस्या को जन्म दिया। अलग-अलग जातियां अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों में विभाजित हो गईं। इन समूहों में कई प्रकार के संघर्ष देखने को मिलते थे। कुछ जातियां अपनी संस्कृति को उच्च मानती थीं जिस कारण वह अन्य समूहों से दूरी बना कर रखती थी। इस कारण उनमें संघर्ष के मौके पैदा होते रहते थे।

5. सामाजिक गतिशीलता को रोकना (To stop social mobility)-जाति व्यवस्था में स्थिति का विभाजन जन्म के आधार पर होता था। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्रत्येक सदस्य को अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में पता होता था कि यह परिवर्तित नहीं हो सकती, इसी तरह ही रहेगी। इस भावना ने आलस्य को बढ़ाया। इस व्यवस्था में वह प्रेरणा नहीं होती, जिसमें व्यक्ति अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित होते थे क्योंकि वह परिश्रम करके भी अपनी सामाजिक स्थिति परिवर्तित नहीं कर सकते थे। यह बात आर्थिक प्रगति में भी रुकावट बनती थी। योग्यता होने के बावजूद भी लोग नया आविष्कार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्हें अपना पैतृक कार्य अपनाना पड़ता था। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा के कारण भारत में कई प्रकार के उद्योग पिछड़े हुए थे क्योंकि जाति व्यवस्था उन्हें ऐसा करने से रोकती थी।

6. कार्य कुशलता में रुकावट (Obstacle in efficiency)—प्राचीन समय में व्यक्तियों में कार्य-कुशलता में कमी होने का प्रमुख कारण जाति व्यवस्था तथा जाति का नियन्त्रण था। सभी जातियों के सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य नहीं करते थे बल्कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे। इसके साथ ही जातियां धार्मिक संस्कारों पर इतना बल देती थी कि लोगों का अधिकतर समय तो इन संस्कारों को पूर्ण करने में ही निकल जाता था। जातियों में पेशा वंश के अनुसार होता था तथा लोगों को अपना परम्परागत पेशा ही अपनाना पड़ता था चाहे उनमें उस कार्य के प्रति योग्यता होती थी अथवा नहीं। इस कारण उनमें कार्य के प्रति उदासीनता आ जाती थी।

7. जाति व्यवस्था तथा प्रजातन्त्र (Caste System and Democracy) —जाति व्यवस्था आधुनिक प्रजातन्त्रीय शासन के विरुद्ध है। समानता, स्वतन्त्रता तथा सामाजिक चेतना प्रजातन्त्र के तीन आधार हैं, परन्तु जाति व्यवस्था इन सिद्धान्तों के विरुद्ध जाकर भाग्य के सहारे रहने वाले समाज का निर्माण करती थी। यह व्यवस्था असमानता पर आधारित थी। जाति व्यक्ति को अपने नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने की आज्ञा देती थी जोकि प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध है। कुछ जातियों पर बहुत से प्रतिबंध लगा दिए गए थे जिस कारण योग्यता होते हुए भी वह समाज में ऊपर उठ नहीं सकते थे। इन लोगों की स्थिति नौकरों जैसी होती थी जोकि प्रजातन्त्र के समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

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प्रश्न 7.
वर्ग के विभाजन के अलग-अलग आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
वर्ग की व्याख्या व विशेषताओं के आधार पर हम वर्ग के विभाजन के कुछ आधारों का जिक्र कर सकते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया गया है
(1) परिवार व रिश्तेदार (2) सम्पत्ति व आय, पैसा (3) व्यापार (4) रहने के स्थान की दिशा (5) शिक्षा (6) शक्ति (7) धर्म (8) नस्ल (9) जाति (10) स्थिति चिन्ह।

1. परिवार व रिश्तेदारी (Family and Kinship)—परिवार व रिश्तेदारी भी वर्ग की स्थिति निर्धारित करने के लिए जिम्मेवार होता है। बीयरस्टेड के अनुसार, “सामाजिक वर्ग की कसौटी के रूप में परिवार व रिश्तेदारी का महत्त्व सारे समाज में बराबर नहीं होता, बल्कि यह तो अनेक आधारों में एक विशेष आधार है जिसका उपयोग सम्पूर्ण व्यवस्था में एक अंग के रूप में किया जा सकता है। परिवार के द्वारा प्राप्त स्थिति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। जैसे टाटा बिरला आदि के परिवार में पैदा हुई सन्तान पूंजीपति ही रहती है क्योंकि उनके बुजुर्गों ने इतना पैसा कमाया होता है कि कई पीढ़ियां यदि न भी मेहनत करें तो भी खा सकती हैं। इस प्रकार अमीर परिवार में पैदा हुए व्यक्ति को भी वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार परिवार व रिश्तेदारी की स्थिति के आधार पर भी व्यक्ति को वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।

2. सम्पत्ति, आय व पैसा (Property, Income and Money) वर्ग के आधार पर सम्पत्ति, पैसे व आय को प्रत्येक समाज में महत्त्वपूर्ण जगह प्राप्त होती है। आधुनिक समाज को इसी कारण पूंजीवादी समाज कहा गया है। पैसा एक ऐसा स्रोत है जो व्यक्ति को समाज में बहुत तेजी से उच्च सामाजिक स्थिति की ओर ले जाता है। मार्टिनडेल व मोनाचेसी (Martindal and Monachesi) के अनुसार, “उत्पादन के साधनों व उत्पादित पदार्थों पर व्यक्ति का काबू जितना अधिक होगा उसको उतनी ही उच्च वर्ग वाली स्थिति प्राप्त होती है।” प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने पैसे को ही वर्ग निर्धारण के लिए मुख्य माना। अधिक पैसा होने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अमीर है। उनकी आय भी अधिक होती है। इस प्रकार धन, सम्पत्ति व आय के आधार पर भी वर्ग निर्धारित होता है।”

3. पेशा (Occupation)-सामाजिक वर्ग का निर्धारक पेशा भी माना जाता है। व्यक्ति समाज में किस तरह का पेशा कर रहा है, यह भी वर्ग व्यवस्था से सम्बन्धित है। क्योंकि हमारी वर्ग व्यवस्था के बीच कुछ पेशा बहुत ही महत्त्वपूर्ण पाए गए हैं व कुछ पेशे कम महत्त्वपूर्ण । इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर आदि की पारिवारिक स्थिति चाहे जैसी भी हो परन्तु पेशे के आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति उच्च ही रहती है। लोग उनका आदर-सम्मान भी पूरा करते हैं। इस प्रकार कम पढ़े-लिखे व्यक्ति का पेशा समाज में निम्न रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पेशा भी वर्ग व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण निर्धारक होता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने के लिए कोई-न-कोई काम करना पड़ता है। इस प्रकार यह काम व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार करता है। वह जिस तरह का पेशा करता है समाज में उसे उसी तरह की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति गलत पेशे को अपनाकर पैसा इकट्ठा कर भी लेता है तो उसकी समाज में कोई इज्जत नहीं होती। आधुनिक समाज में शिक्षा से सम्बन्धित पेशे की अधिक महत्ता पाई जाती है।

4. रहने के स्थान की दिशा (Location of residence)—व्यक्ति किस जगह पर रहता है, यह भी उसकी वर्ग स्थिति को निर्धारित करता है। शहरों में हम आम देखते हैं कि लोग अपनी वर्ग स्थिति को देखते हुए, रहने के स्थान का चुनाव करते हैं। जैसे हम समाज में कुछ स्थानों के लिए (Posh areas) शब्द भी प्रयोग करते हैं। वार्नर के अनुसार जो परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी शहर के काल में पुश्तैनी घर में रहते हैं उनकी स्थिति भी उच्च होती है। कहने से भाव यह है कि कुछ लोग पुराने समय से अपने बड़े-बड़े पुश्तैनी घरों में ही रह जाते हैं। इस कारण भी वर्ग व्यवस्था में उनकी स्थिति उच्च ही बनी रहती है। बड़े-बड़े शहरों में व्यक्तियों के निवास स्थान के लिए भिन्न-भिन्न कालोनियां बनी रहती हैं। मज़दूर वर्ग के लोगों के रहने के स्थान अलग होते हैं। वहां अधिक गन्दगी भी पाई जाती है। अमीर लोग बड़े घरों में व साफ़-सुथरी जगह पर रहते हैं जबकि ग़रीब लोग झोंपड़ियों या गन्दी बस्तियों में रहते हैं।

5. शिक्षा (Education)-आधुनिक समाज शिक्षा के आधार पर दो वर्गों में बँटा हुआ होता है-

  1. शिक्षित वर्ग (Literate Class)
  2. अनपढ़ वर्ग (Illiterate Class)

शिक्षा की महत्ता प्रत्येक वर्ग में पाई जाती है। साधारणतः पर हम देखते हैं कि पढ़े-लिखे व्यक्ति को समाज में इज्जत की नज़र से देखा जाता है। चाहे उनके पास पैसा भी न हो। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान सामाजिक स्थिति अनुसार शिक्षा की प्राप्ति को ज़रूरी समझने लगा है। शिक्षा की प्रकृति भी व्यक्ति की वर्ग स्थिति के निर्धारण के लिए जिम्मेवार होती है। औद्योगीकृत समाज में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति काफ़ी ऊँची होती है।

6. शक्ति (Power)-आजकल औद्योगीकरण के विकास के कारण व लोकतन्त्र के आने से शक्ति भी वर्ग संरचना का आधार बन गई है। अधिक शक्ति का होना या न होना व्यक्ति के वर्ग का निर्धारण करती है। शक्ति से व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति का भी निर्धारण होता है। शक्ति कुछ श्रेष्ठ लोगों के हाथ में होती है व वह श्रेष्ठ लोग नेता, अधिकारी, सैनिक अधिकारी, अमीर लोग होते हैं। हमने उदाहरण ली है आज की भारत सरकार की। नरेंद्र मोदी की स्थिति निश्चय ही सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह से ऊँची होगी क्योंकि उनके पास शक्ति है, सत्ता उनके हाथ में है, परन्तु मनमोहन सिंह के पास नहीं है। इस प्रकार आज भाजपा की स्थिति कांग्रेस से उच्च है क्योंकि केन्द्र में भाजपा पार्टी की सरकार है।

7. धर्म (Religion)-राबर्ट बियरस्टड ने धर्म को भी सामाजिक स्थिति का महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। कई समाज ऐसे हैं जहां परम्परावादी रूढ़िवादी विचारों का अधिक प्रभाव पाया जाता है। उच्च धर्म के आधार पर स्थिति निर्धारित होती है। आधुनिक समय में समाज उन्नति के रास्ते पर चल रहा है जिस कारण धर्म की महत्ता उतनी नहीं जितनी पहले होती थी। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च होती थी परन्तु आजकल नहीं। पाकिस्तान में मुसलमानों की स्थिति निश्चित रूप से व हिन्दुओं व ईसाइयों से बढ़िया है क्योंकि वहां राज्य का धर्म ही इस्लाम है। इस प्रकार कई बार धर्म भी वर्ग स्थिति निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

8. नस्ल (Race)-दुनिया से कई समाज में नस्ल भी वर्ग निर्माण या वर्ग की स्थिति बताने में सहायक होती है। गोरे लोगों को उच्च वर्ग का व काले लोगों को निम्न वर्ग का समझा जाता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में एशिया के देशों के लोगों को बुरी निगाह से देखा जाता है। इन देशों में नस्ली हिंसा आम देखने को मिलती है। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीति काफ़ी चली है।

9. जाति (Caste)—भारत जैसे देश में जहां जाति प्रथा सदियों से भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जाति वर्ग निर्धारण का बहुत महत्त्वपूर्ण आधार थी। जाति जन्म पर आधारित होती है। जिस जाति में व्यक्ति ने जन्म लिया है वह अपनी योग्यता से भी उसको बदल नहीं सकता।

10. स्थिति चिन्ह (Status symbol) स्थिति चिन्ह लगभग हर एक समाज में व्यक्ति की वर्ग व्यवस्था को निर्धारित करता है। आजकल के समय, कोठी, कार, टी० वी०, टैलीफोन, फ्रिज आदि का होना व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति के पास अच्छा जीवन व्यतीत करने वाली कितनी सुविधाएं हैं। यह सब स्थिति चिन्हों में शामिल होती हैं, जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करते हैं।

इस विवरण के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति के वर्ग के निर्धारण में केवल एक कारक ही उत्तरदायी नहीं होता, बल्कि कई कारक उत्तरदायी होते हैं।

प्रश्न 8.
जाति व वर्ग में अन्तर बताओ।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के दो मुख्य आधार जाति व वर्ग हैं। जाति को एक बन्द व्यवस्था व वर्ग को एक खुली व्यवस्था कहा जाता है। पर वर्ग अधिक खुली अवस्था नहीं है क्योंकि किसी भी वर्ग को अन्दर जाने के लिए सख्त मेहनत करनी पड़ती है व उस वर्ग के सदस्य रास्ते में काफ़ी रोड़े अटकाते हैं। कई विद्वान् यह कहते हैं कि जाति व वर्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं है परन्तु दोनों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह पता चलेगा कि दोनों में काफ़ी अन्तर है। इनका वर्णन नीचे लिखा है-

1. जाति जन्म पर आधारित होती है पर वर्ग का आधार कर्म होता है (Caste is based on birth but class is based on action)—जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, वह तमाम आयु उसी से जुड़ा होता है।

वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता शिक्षा, आय, व्यापार योग्यता पर आधारित होती है। व्यक्ति जब चाहे अपनी सदस्यता बदल सकता है। एक ग़रीब वर्ग से सम्बन्धित व्यक्ति मेहनत करके अपनी सदस्यता अमीर वर्ग से ही जोड़ सकता है। वर्ग की सदस्यता योग्यता पर आधारित होती है। यदि व्यक्ति में योग्यता नहीं है व वह कर्म नहीं करता है तो वह उच्च स्थिति से निम्न स्थिति में भी जा सकता है। यदि वह कर्म करता है तो वह निम्न स्थिति से उच्च स्थिति में भी जा सकता है। जिस प्रकार जाति धर्म पर आधारित है पर वर्ग कर्म पर आधारित होता है।

2. जाति का पेशा निश्चित होता है पर वर्ग का नहीं (Occupation of caste is determined but not of Class)-जाति प्रथा में पेशे की व्यवस्था भी व्यक्ति के जन्म पर ही आधारित होती थी अर्थात् विभिन्न जातियों से सम्बन्धित पेशे होते थे। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना होता था। वह सारी उम्र उस पेशे को बदल कर कोई दूसरा कार्य भी नहीं अपना सकता था। इस प्रकार न चाहते हुए भी उसको अपनी जाति के पेशे को ही अपनाना पड़ता था।

वर्ग व्यवस्था में पेशे के चुनाव का क्षेत्र बहुत विशाल है। व्यक्ति की अपनी इच्छा होती है कि वह किसी भी पेशे को अपना ले। विशेष रूप से व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता था कि वह किसी भी पेशे को अपना लेता है। विशेष रूप से पर व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता है वह उसी पेशे को अपनाता है क्योंकि उसका विशेष उद्देश्य लाभ प्राप्ति की ओर होता था व कई बार यदि वह एक पेशे को करते हुए तंग आ जाता है तो वह दूसरे किसी और पेशे को भी अपना सकता है। इस प्रकार पेशे को अपनाना व्यक्ति की योग्यता पर आधारित होता है।

3. जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है पर वर्ग की सदस्यता अर्जित होती है (Membership of Caste is ascribed but membership of class is achieved)-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति से सम्बन्धित होती थी अर्थात् स्थिति वह स्वयं प्राप्त नहीं करता था बल्कि जन्म से ही सम्बन्धित होती थी। इसी कारण व्यक्ति की स्थिति के लिए ‘प्रदत्त’ (ascribed) शब्द का उपयोग किया जाता था। इसी कारण जाति व्यवस्था में स्थिरता बनी रहती थी। व्यक्ति का पद वह ही होता था जो उसके परिवार का हो। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति ‘अर्जित’ (achieved) होती है भाव कि उसको समाज में अपनी स्थिति प्राप्त करनी पड़ती है। इसी कारण व्यक्ति शुरू से ही मेहनत करनी शुरू कर देता है। व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न स्थिति से उच्च स्थिति भी प्राप्त कर लेता है। इसमें व्यक्ति के जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता। व्यक्ति की मेहनत व योग्यता उसके वर्ग व स्थिति के बदलने में महत्त्वपूर्ण होती है।

4. जाति बन्द व्यवस्था है व वर्ग खुली व्यवस्था है (Caste is a closed system but class is an open system)-जाति प्रथा स्तरीकरण का बन्द समूह होता है क्योंकि व्यक्ति को सारी उम्र सीमाओं में बन्ध कर रहना पड़ता है। न तो वह जाति बदल सकता है न ही पेशा। श्रेणी व्यवस्था स्तरीकरण का खुला समूह होता है। इस प्रकार व्यक्ति को हर किस्म की आज़ादी होती है। वह किसी भी क्षेत्र में मेहनत करके आगे बढ़ सकता है। उसको समाज में अपनी निम्न स्थिति से ऊपर की स्थिति की ओर बढ़ने के पूरे मौके भी प्राप्त होते हैं। वर्ग का दरवाज़ा प्रत्येक के लिए खुला होता है। व्यक्ति अपनी योग्यता, सम्पत्ति, मेहनत के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है व वह अपनी सारी उम्र में कई वर्गों का सदस्य बनता है।

5. जाति व्यवस्था में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में कोई नहीं होती (There are many restrictions in caste system but not in any class)-जाति प्रथा द्वारा अपने सदस्यों पर कई पाबन्दियां लगाई जाती थीं।

खान-पान सम्बन्धी, विवाह, सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि सम्बन्धी बहत पाबन्दियां थीं। व्यक्ति की ज़िन्दगी पर जाति का पूरा नियन्त्रण होता था। वह उन पाबिन्दयों को तोड़ भी नहीं सकता था। __ वर्ग व्यवस्था में व्यक्तिगत आज़ादी होती थी। भोजन, विवाह आदि सम्बन्धी किसी किस्म का कोई नियन्त्रण नहीं होता था। किसी भी वर्ग का व्यक्ति दूसरे वर्ग के व्यक्ति से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता था।

6. जाति में चेतनता नहीं होती पर वर्ग में चेतनता होती है (There is no caste consciousness but there is class consciousness)-जाति व्यवस्था में जाति चेतनता नहीं पाई जाती थी। इसका एक कारण तो था कि चाहे निम्न जाति के व्यक्ति को पता था कि उच्च जातियों की स्थिति उच्च है, परन्तु फिर भी वह इस सम्बन्धी कुछ नहीं कर सकता था। इसी कारण वह परिश्रम करना भी बन्द कर देता था। उसको अपनी योग्यता अनुसार समाज में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था।

वर्ग के सदस्यों में वर्ग चेतनता पाई जाती थी। इसी चेतनता के आधार पर तो वर्ग का निर्माण होता था। व्यक्ति इस सम्बन्धी पूरा चेतन होता था कि वह कितना परिश्रम करे ताकि उच्च वर्ग स्थिति को प्राप्त कर सके। इसी प्रकार वह हमेशा अपनी योग्यता को बढ़ाने की ओर ही लगा रहता था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

सामाजिक स्तरीकरण PSEB 11th Class Sociology Notes

  • हमारे समाज में चारों तरफ असमानता व्याप्त है। कोई काला है, कोई गोरा है, कोई अमीर है, कोई निर्धन है, कोई पतला है कोई मोटा है, कोई कम साक्षर है तथा कोई अधिक। ऐसे कितने ही आधार हैं जिनके कारण समाज में प्राचीन समय से ही असमानता चली आ रही है तथा चलती रहेगी।
  • समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है। ऐसा कोई भी समाज नहीं है जहां स्तरीकरण मौजूद न हो। चाहे प्राचीन समाजों जैसे सरल एवं सादे समाज हों या आधुनिक समाजों जैसे जटिल समाज, स्तरीकरण प्रत्येक समाज में मौजूद होता है।
  • स्तरीकरण की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह सर्वव्यापक प्रक्रिया है, इसकी प्रकृति सामाजिक होती है, प्रत्येक समाज में इसी प्रकार अलग होती है, इसमें उच्चता-निम्नता के संबंध होते हैं।
  • सभी समाजों में मुख्य रूप से चार प्रकार के स्तरीकरण के रूप पाए जाते हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी तथा गुलामी। भारतीय समाज को जितना जाति व्यवस्था ने प्रभावित किया है शायद किसी अन्य सामाजिक संस्था ने नहीं किया है।
  • जाति एक अन्तर्वेवाहिक समूह है जिसमें व्यक्तियों के ऊपर अन्य जातियों के साथ मेल-जोल के कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं तथा व्यक्ति के जन्म के अनुसार उसकी जाति तथा स्थिति निश्चित होती है।
  • आधुनिक समाजों में स्तरीकरण का एक नया रूप सामने आया है तथा वह है वर्ग व्यवस्था। वर्ग लोगों का एक समूह होता है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है। उदाहरण के लिए उच्च वर्ग, मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, श्रमिक वर्ग, उद्योगपति वर्ग, डॉक्टर वर्ग इत्यादि।
  • जागीरदारी व्यवस्था मध्यकालीन यूरोप का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रही है। एक व्यक्ति को राजा की तरफ से काफ़ी भूमि दी जाती थी तथा वह व्यक्ति काफ़ी अमीर हो जाता था। उसके बच्चों के पास यह भूमि पैतृक रूप से चली जाती थी।
  • गुलामी भी 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में संसार के अलग-अलग देशों में मौजूद रही है जिसमें गुलाम को उसका मालिक खरीद लेता था तथा उसके ऊपर सम्पूर्ण अधिकार रखता था।
  • जी० एस० घुर्ये एक भारतीय समाजशास्त्री था जिसने जाति व्यवस्था के ऊपर अपने विचार दिए। उनके अनुसार जाति व्यवस्था इतनी जटिल है कि इसकी परिभाषा देना मुमकिन नहीं है। इसलिए उन्होंने जाति व्यवस्था के छ: लक्षण दिए हैं।
  • भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् जाति व्यवस्था में बहुत से कारणों की वजह से बहुत से परिवर्तन आए हैं तथा आ भी रहे हैं। अब धीरे-धीरे जाति व्यवस्था खत्म हो रही है। अब जाति पर आधारित प्रतिबन्ध खत्म हो रहे हैं, जाति के विशेषाधिकार खत्म हो गए हैं, संवैधानिक प्रावधानों ने सभी को समानता प्रदान की है
    तथा जाति प्रथा को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • सभी समाजों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग मिलते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। इन वर्गों में मुख्य रूप से पैसे के आधार पर अंतर पाया जाता है।
  • जाति एक प्रकार का बन्द वर्ग है जिसे परिवर्तित करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है। परन्तु वर्ग एक ऐसा खुला वर्ग है जिसे व्यक्ति अपने परिश्रम तथा योग्यता से किसी भी समय बदल सकता है।
  • कार्ल मार्क्स के अनुसार समाज में अलग-अलग समय में दो प्रकार के वर्ग रहे हैं। पहला है पूंजीपति वर्ग · तथा द्वितीय है श्रमिक वर्ग। दोनों के बीच अधिक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए हमेशा से ही संघर्ष चला आ रहा है तथा दोनों के बीच होने वाले संघर्ष को वर्ग संघर्ष कहा जाता है।
  • वर्ग व्यवस्था में नए रूझान आ रहे हैं। पिछले काफी समय से एक नया वर्ग उभर कर सामने आया है जिसे हम मध्य वर्ग का नाम देते हैं। उच्च वर्ग, मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।
  • वर्ण (Varna)-प्राचीन समय में समाज को पेशे के आधार पर कई भागों में विभाजित किया गया था तथा प्रत्येक भाग को वर्ण कहते थे। चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जातियां।
  • जाति (Caste)—वह अन्तर्वैवाहिक समूह जिसमें अन्य जातियों के साथ संबंध रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।
  • वर्ग (Class)—वह आर्थिक समूह जिसे किसी न किसी आधार पर दूसरे आर्थिक समूह से अलग किया जा सकता है।
  • जागीरदारी व्यवस्था (Feudalism)—मध्यकाल से यूरोपियन समाज में महत्त्वपूर्ण संस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीदार बना दिया जाता था तथा वह भूमि से लगान एकत्र करता था।
  • स्तरीकरण (Stratification)-समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया।

PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन

Punjab State Board PSEB 6th Class Home Science Book Solutions Practical पट्टी बन्द करने के साधन Notes.

PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन

अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
टिच बटन कहाँ लगाया जाता है ?
उत्तर-
यह बटन हमेशा वहाँ लगाना चाहिए जहाँ पट्टियाँ ऊपर नीचे बनी हों।

प्रश्न 2.
हुक और आई कहाँ मिलते हैं ?
उत्तर-
हुक और आई बाज़ार में मिलते हैं।

प्रश्न 3.
कोट बटन कहाँ लगाया जाता है ?
उत्तर-
यह बटन कोट और पैंटों पर लगाया जाता है।

PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन

छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
हुक लगाने की विधि लिखो।
उत्तर-

  1. ऊपर वाली पट्टी के अन्दर वाले हिस्से पर हुक रखकर दोहरे धागे के साथ हुक के नीचे बने गोल कुंडों को बारी-बारी से नत्थी करते हैं।
  2. प्रत्येक टाँका भरने के समय कपड़े के दो-तीन धागे लेते हैं।
  3. सूई को कपड़े से कुंडे के पास निकालकर उसके ऊपर कपड़ों के साथ सूई-धागे की सहायता से नत्थी करते हैं।

प्रश्न 2.
आई बनाने की विधि लिखो।
उत्तर-
सूई में दोहरा धागा डालते हैं। इसके बाद सूई को निचली पट्टी के नीचे से ऊपर निकालते हैं। अब दो सेंटीमीटर जगह छोड़कर सूई को कपड़े के नीचे से निकालकर धागे के पास निकालते हैं। इस तरह दो-तीन बार निकालते हैं। टाँका एक धागे के अन्तर से ही समानान्तर निकलना चाहिए। इसके बाद धागा आगे करना चाहिए। सूई को एक तरफ से इन धागों के नीचे से कपड़े के बीच से निकालकर दूसरी तरफ निकालते हैं। धागा आगे रहना चाहिए और सूई उसके बीच से निकालना चाहिए। इस प्रकार एक या दो सेंटीमीटर के धागे को दाएँ से बाएँ नत्थी करना चाहिए। जब पूरा हो जाए तो हुक की आई तैयार हो जाती है।

PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन

प्रश्न 3.
कोट बटन के बारे में तुम क्या जानते हो, लिखो।
उत्तर-
इस बटन को कोट और पैंटों पर लगाया जाता है। इसको बड़ी मज़बूती से लगाना चाहिए। यह बटन दूसरे बटन की अपेक्षा महँगा भी होता है और रोज़-रोज़ लाया भी नहीं जा सकता। इसलिए काम पक्का और साफ़ होना चाहिए।
PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन 1
चित्र 5.2.1. कोट बटन

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखो
(क) टिच बटन
(ख) हुक ‘आई।
उत्तर-
(क) टिच बटन-यह बटन हमेशा वहाँ लगाया जाना चाहिए जहाँ पट्टियाँ ऊपर नीचे बनी हों। यह कमीज़, फ्रॉक, झबले आदि पर लगाए जाते हैं। कई व्यक्ति बच्चों के पट्टी वाले स्वैटर बनाकर वहाँ भी लगा देते हैं। जब छोटी मोहरी की सलवारों का प्रचलन था तो कहाँ भी टिच बटन या हुक लगाए जाते थे।
PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन 2
चित्र 5.2.2. टिच बटन

(ख) हुक ‘आई’-हुक और इसकी ‘आई’ बाज़ार में आसानी से मिल जाते हैं। यह भी टिच बटनों की तरह कमीज़ की बगल (साइड) और सलवार की तंग मोहरी और फ्रॉक आदि पर लगाए जाते हैं। इसको लगाने के लिए भी दोहरा धागा इस्तेमाल किया जाता है।
PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन 3
चित्र 5.2.3. हुक ‘आई

PSEB 6th Class Home Science Practical पट्टी बन्द करने के साधन

पट्टी बन्द करने के साधन PSEB 6th Class Home Science Notes

  • टिच बटन हमेशा वहाँ लगाना चाहिए जहाँ पट्टियाँ ऊपर नीचे बनी हों।
  • सूई में कपड़े के रंग का दोहरा धागा डालना चाहिए।
  • बटन को कोट और पैंटों पर लगाना चाहिए।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

Punjab State Board PSEB 10th Class Agriculture Book Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 10 Agriculture Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

PSEB 10th Class Agriculture Guide आषाढ़ी की फ़सलें Textbook Questions and Answers

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के एक – दो शब्दों में उत्तर दीजिए –

प्रश्न 1.
आषाढ़ी की तेल बीज फसलों के नाम लिखिए।
उत्तर-
राईया, अलसी।

प्रश्न 2.
गेहूँ की दो उन्नत किस्मों के नाम लिखिए।
उत्तर-
एच०डी०-2967, डी०बी०डब्ल्यू०-17.

प्रश्न 3.
राईया की एक एकड़ फसल के लिए कितना बीज चाहिए?
उत्तर-
1.5 कि०ग्रा० बीज़ प्रति एकड़।

प्रश्न 4.
चनों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों के नाम लिखिए।
उत्तर-
दीमक, चने की संडी।

प्रश्न 5.
गेहूँ की दो बीमारियों के नाम लिखिए।
उत्तर-
करनाल बंट, कांगियारी।

प्रश्न 6.
गेहूँ के दो खरपतवारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
गुल्ली-डण्डा, सेंजी, मैना, मैनी।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 7.
किस फसल को चारों का बादशाह कहा जाता है ?
उत्तर-
बरसीम को।

प्रश्न 8.
मसूर की बुआई का समय लिखें।
उत्तर-
अक्तूबर का दूसरा पखवाड़ा।

प्रश्न 9.
जौं की दो उन्नत किस्मों के नाम लिखिए।
उत्तर-
पी० एल-807, पी० एल०-426.

प्रश्न 10.
सूर्यमुखी के बीजों में कितना (प्रतिशत) तेल होता है ?
उत्तर-
40-43%.

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के एक – दो वाक्यों में उत्तर दीजिए –

प्रश्न 1.
गेहूँ को प्रति एकड़ मुख्य खाद्य तत्व की कितनी आवश्यकता है ?
उत्तर-
50 कि०ग्रा० नाइट्रोजन, 25 कि०ग्रा० फॉस्फोरस तथा 12 कि०ग्रा० पोटाश की प्रति एकड़ आवश्यकता होती है।

प्रश्न 2.
गेहूँ पर आधारित दो फसली चक्रों के नाम लिखिए।
उत्तर-
चावल-गेहूँ, कपास-गेहूँ।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 3.
टोटल खरपतवार नाशक किस फसल के कौन-से खरपतवार की रोकथाम के लिए प्रयुक्त होती है ?
उत्तर-
टोटल खरपतवार नाशक का प्रयोग गेहूँ की फसल में गुल्ली-डण्डा की रोकथाम के लिए प्रयोग होता है।

प्रश्न 4.
जवी के चारे के लिए कटाई कब करनी चाहिए ?
उत्तर-
फसल गोभ में बल्ली बनने से लेकर दूध वाले दानों की हालत में कटाई की जाती है।

प्रश्न 5.
बरसीम में इटसिट की रोकथाम बताएँ।
उत्तर-
जिन खेतों में इटसिट की समस्या है उन खेतों में बरसीम में राईया मिलाकर बोना चाहिए तथा इटसिट वाले खेतों में बोबाई अक्तूबर के दूसरे सप्ताह तक पछेती करनी चाहिए।

प्रश्न 6.
सूर्यमुखी की कटाई कब करनी चाहिए ?
उत्तर-
जब शीर्ष का रंग निचली तरफ से पीला-भूरा हो जाए तथा डिस्क सूखने लग जाए तो फसलों की कटाई करें।

प्रश्न 7.
कनौला सरसों किसे कहते हैं ?
उत्तर-
गोभी सरसों की एक श्रेणी कनौला सरसों है।

प्रश्न 8.
जौं की बुआई का समय तथा विधि लिखिए।
उत्तर-
जौं की बुआई का समय 15 अक्तूबर से 15 नवम्बर है। समय पर बुआई के लिए 22.5 सैं०मी० तथा बरानी तथा पिछेती बुआई के लिए 18 से 20 सैं०मी० की दूरी पर सियाड़ (खाल) होने चाहिए। उसको गेहूँ की तरह बिना जोते ही बोया जा सकता है।

प्रश्न 9.
देसी चनों की बुआई का समय तथा प्रति एकड़ बीज की मात्रा लिखिए।
उत्तर-
देसी चनों की बुआई का समय बरानी बुआई के लिए 10 से 25 अक्तूबर है तथा सिंचाई योग्य अवस्था में 25 अक्तूबर से 10 नवम्बर है।
बीज की मात्रा 15-18 कि०ग्रा० प्रति एकड़ है।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 10.
मसूर की खेती कौन-सी ज़मीनों में नहीं करनी चाहिए ?
उत्तर-
मसूर की खेती क्षारीय, कलराठी तथा सेम वाली भूमि पर नहीं करनी चाहिए।

(ग) निम्नलिखित प्रश्नों के पांच – छः वाक्यों में उत्तर दीजिए –

प्रश्न 1.
गेहूँ की बुआई का समय तथा विधि लिखिए।
उत्तर-
गेहूँ की बुआई के लिए उचित समय अक्तूबर से चौथे सप्ताह से लेकर नवम्बर से चौथे सप्ताह तक का है। गेहूँ की बुआई समय पर न की जाए तो बुआई में प्रत्येक सप्ताह की पछेत के कारण 150 कि०ग्रा० प्रति एकड़ प्रति सप्ताह पैदावार कम हो जाती है।
गेहूँ की बुआई बीज-खाद ड्रिल से की जाती है। बुआई के लिए फासला 20 से 22 सै०मी० होना चाहिए तथा बोबाई 4-6 सैं०मी० गहराई पर करनी चाहिए । गेहूँ की दोहरी बुआई करनी चाहिए। इसका भाव है कि आधी खाद तथा बीज एक तरफ तथा बाकी आधी दूसरी तरफ। इस प्रकार करने से प्रति एकड़, दो क्विंटल पैदावार बढ़ जाती है। गेहूँ की बुआई चौड़ी मेढ़ों पर बैड प्लांटर द्वारा की जा सकती है। इस विधि द्वारा 30 कि०ग्रा० प्रति एकड़ बीज की आवश्यकता पड़ती है तथा पानी की बचत भी होती है।

प्रश्न 2.
बरसीम की बुआई की विधि लिखिए।
उत्तर-
बरसीम की बुआई के लिए उचित समय सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्तूबर का पहला सप्ताह है।
बरसीम की बुआई खड़े पानी में छीटा विधि द्वारा की जाती है। यदि हवा चल रही हो तो सूखे खेत में बीज का छीटा दें तथा बाद में छापा फिरा कर पानी लगा देना चाहिए।

प्रश्न 3.
सूर्यमुखी की सिंचाई करने के बारे में जानकारी दीजिए।
उत्तर-
सूर्यमुखी की फसल को पहली सिंचाई बुआई से एक माह बाद करनी चाहिए। इसके बाद अगली सिंचाइयां 2 से 3 सप्ताह के अन्तर पर करनी चाहिए। फसल को फूल लगने तथा दाने बनने के समय सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। कुल 6-9 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 4.
तेल बीज फसलों के लिए सल्फर (गंधक) तत्त्व का महत्त्व लिखिए।
उत्तर-
साधारणतया गंधक की आवश्यकता पौधों को कम मात्रा में होती है। परन्तु तेल बीज वाली फसलों को गंधक तत्त्व की अधिक आवश्यकता होती है। गंधक (सल्फर) की कमी होने से तेल बीज फसलों की पैदावार कम हो जाती है। गंधक का प्रयोग नाइट्रोजन के प्रयोग के लिए भी आवश्यक है। एनजाइमों की गतिविधियों तथा तेल के संश्लेषण के लिए भी सल्फर बहुत आवश्यक है। इसीलिए तेल बीज फसलों में फॉस्फोरस तत्त्व के लिए सुपर फास्फेट खाद को प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि इसमें सल्फर (गंधक) तत्त्व भी होता है। यदि यह खाद न मिले तो 50 कि०ग्रा० जिप्सम प्रति एकड़ का प्रयोग करना चाहिए।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 5.
राइया की किस्में तथा खाद्य तत्त्वों के बारे में लिखिए।
उत्तर-
राइया की किस्में-आर० एल० सी०-1, पी० बी० आर० -201, पी० बी० आर०-91.

राडया के लिए उर्वरक, पौष्टिक तत्त्व-राईया के लिए 40 कि०ग्रा० नाइट्रोजन तथा 12 कि०ग्रा० फॉस्फोरस प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। पोटाश तत्त्व का प्रयोग भूमि की जांच करके ही करना चाहिए। यह तेल बीज फसल है तथा इसको सल्फर तत्त्व की आवश्यकता भी है। इस लिए फॉस्फोरस तत्त्व के लिए सुपर फास्फेट खाद का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि इसमें सल्फर तत्त्व भी होता है। यदि यह खाद न मिले तो 50 कि०ग्रा० जिप्सम प्रति एकड़ का प्रयोग करना चाहिए।

Agriculture Guide for Class 10 PSEB आषाढ़ी की फ़सलें Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहु-विकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
आषाढ़ी की फसलें हैं –
(क) अनाज
(ख) दालें
(ग) तेल बीज और चारा
(घ) सभी।
उत्तर-
(घ) सभी।

प्रश्न 2.
गेहूँ की विकसित किस्में हैं
(क) एच० डी० 2976
(ख) पी० बी० डब्ल्यू० 343
(ग) बडानक
(घ) सभी।
उत्तर-
(घ) सभी।

प्रश्न 3.
गेहूँ के रोग हैं –
(क) पीली कुंगी
(ख) कांगियारी
(ग) मम्णी तथा टुंडू
(घ) सभी।
उत्तर-
(घ) सभी।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 4.
जौं की बिजाई का समय
(क) 15 अक्तूबर से 15 नबम्बर
(ख) जुलाई
(ग) 15 जनवरी से 15 फरवरी
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) 15 अक्तूबर से 15 नबम्बर

प्रश्न 5.
काबली चने की किस्म है
(क) पी० बी० जी० 1
(ख) एल० 552
(ग) जी० पी० एफ० 2
(घ) पी० डी० जी० 4.
उत्तर-
(ख) एल० 552

प्रश्न 6.
सूरजमुखी के लिए …… बीज प्रति एकड़ का प्रयोग करें।
(क) 5 किलो
(ख) 10 किलो
(ग) 2 किलो
(घ) 25 किलो।
उत्तर-
(ग) 2 किलो

प्रश्न 7.
कौन-सी फसल को चारों का बादशाह कहा जाता है-
(क) मक्की
(ख) बरसीम
(ग) जबी
(घ) लूसर्न।
उत्तर-
(ख) बरसीम

॥. ठीक/गलत बताएँ-

1. गेहूँ की पैदावार में चीन विश्व में अग्रणी देश है।
2. गेहूँ की बुआई के लिए ठण्डा मौसम ठीक रहता है।
3. गुल्ली डंडा की रोकथाम के लिए स्टोप का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
4. जौं का औसत उत्पादन 15-16 क्विंटल प्रति एकड़ है।
5. शफतल आषाढ़ी की चारे वाली फसल है।
उत्तर-

  1. ठीक
  2. ठीक
  3. गलत
  4. ठीक
  5. ठीक।

III. रिक्त स्थान भरें-

1. गेहूँ के लिए बीज की मात्रा ………….. किलो बीज प्रति एकड़ है।
2. ……….. की कमी दूर करने के लिए जिंक सल्फेट का प्रयोग किया जाता
3. जौ की पैदावार में ………. सब से आगे हैं।
4. बाथू ……………… पत्ते वाला खरपतवार है।
5. ओ०एल-9 …………… की किस्म है।
उत्तर-

  1. 40
  2. जिंक
  3. रूस फैडरेशन
  4. चौड़े
  5. जीव।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आषाढ़ी की फसलों को कितनी श्रेणियों में बांटा जाता है ?
उत्तर-
तीन श्रेणियों में-अनाज, दालें तथा तेल बीज, चारे की फसलें।

प्रश्न 2.
गेहूँ की पैदावार सबसे अधिक किस देश में है ?
उत्तर-
चीन में।

प्रश्न 3.
भारत में गेहूँ की पैदावार में अग्रणी राज्य कौन-सा है ?
अथवा
भारत का कौन-सा राज्य गेहूँ की सबसे अधिक पैदावार करता है ?
उत्तर-
उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 4.
पंजाब में गेहूँ की कृषि के लिए कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
35 लाख हेक्टेयर।

प्रश्न 5.
पंजाब में गेहूँ की पैदावार कितनी है ?
उत्तर-
10-20 क्विंटल प्रति एकड़ औसत पैदावार।

प्रश्न 6.
गेहूँ वाला फसली चक्र बताएं।
उत्तर-
मक्की-गेहूँ, मांह-गेहूं, मूंगफली-गेहूं।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 7.
पासता बनाने के लिए गेहूँ की कौन-सी किस्म का प्रयोग होता है ?
उत्तर-
वडानक गेहूँ।

प्रश्न 8.
गेहूँ की बुआई के लिए खरपतवारों की समस्या हो तो जुताई किए बिना कौन-सा खरपतवार नाशक प्रयोग होता है ?
उत्तर-
बुआई से पहले ग्रामैकसोन।

प्रश्न 9.
कटाई किए चावल के खेत में कौन-सी मशीन दवारा गेहूँ की सीधी बुआई की जाती है ?
उत्तर-
हैपी सीडर द्वारा।

प्रश्न 10.
गेहूँ के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
40 किलो ग्राम बीज प्रति एकड़।

प्रश्न 11.
यदि फलीदार फ़सल के बाद गेहूँ की बोवाई की जाए तो कितनी नाइट्रोजन कम डाली जाती है ?
उत्तर-
25% नाइट्रोजन कम डाली जाती है।

प्रश्न 12.
यदि गेहूँ की बुआई एक सप्ताह देर से की जाए तो कितनी पैदावार कम हो जाती है ?
उत्तर-
150 कि० ग्रा० प्रति एकड़ प्रति सप्ताह ।

प्रश्न 13.
गेहूँ की दोहरी बुआई से प्रति एकड़ कितने क्विंटल पैदावार बढ़ जाती है ?
उत्तर-
दो क्विंटल।

प्रश्न 14.
गेहूँ की बुआई चौड़ी मेढ़ों पर किससे की जाती है ?
उत्तर-
बैड प्लांटर से।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 15.
गेहूँ में गुल्ली डण्डा की रोकथाम के लिए कोई दो नदीननाश्क (खरपतवार नाशक) बताएं।
उत्तर-
टोपिक, लीडर, टरैफलान।

प्रश्न 16.
चौड़े पत्ते वाले नदीनों के नाम लिखो।
उत्तर-
बाथु, कंडियाली पालक, मैना, मैनी।

प्रश्न 17.
जिंक की कमी कौन-सी भूमि में आती है ?
उत्तर-
हल्की भूमि में।

प्रश्न 18.
जिंक की कमी को दूर करने के लिए कौन-सी खाद का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
जिंक सल्फेट।

प्रश्न 19.
मैंगनीज़ की कमी दूर करने के लिए कौन-सी खाद का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
मैंगनीज़ सल्फेट।

प्रश्न 20.
गेहूँ को कितनी सिंचाइयों की आवश्यकता है ?
उत्तर-
4-5 सिंचाइयों की।

प्रश्न 21.
जौं की पैदावार में कौन सबसे आगे है ?
उत्तर-
रूस फैडरेशन।

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प्रश्न 22.
भारत में जौं की पैदावार सबसे अधिक कहाँ होती है ?
उत्तर-
राजस्थान में।

प्रश्न 23.
पंजाब में जौं की कृषि कितने क्षेत्रफल में होती है ?
उत्तर-
12 हज़ार हेक्टेयर।

प्रश्न 24.
जौं की औसत पैदावार बताओ।
उत्तर-
15-16 क्विंटल प्रति एकड़।

प्रश्न 25.
जौं वाला फसल चक्र बताओ।
उत्तर-
चावल-जौं, कपास-जौं, बाजरा-जौं।

प्रश्न 26.
जौं की उन्नत किस्म बताओ।
उत्तर-
पी० एल० 807, वी० जे० एम० 201, पी० एल० 426

प्रश्न 27.
सेंजु बोबाई के लिए जौं के बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
35 कि० ग्राम।

प्रश्न 28.
जोंधर की रोकथाम के लिए कौन-सी दवाई का प्रयोग करना चाहिए ?
उत्तर-
आईसोप्रोटयुरान या एबाडैक्स बी० डब्ल्यू० ।

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प्रश्न 29.
जौं को कितनी सिंचाई की आवश्यकता है ?
उत्तर-
1-2 सिंचाई की।

प्रश्न 30.
आषाढ़ी की दाल वाली दो फसलों के नाम बताएं।
उत्तर-
चने तथा मसूर।

प्रश्न 31.
आषाढ़ी (रबी) की तेल बीज वाली चार फसलों के नाम लिखो ।
उत्तर-
गोभी सरसों, तोरिया, तारामीरा, अलसी तथा सूर्यमुखी।

प्रश्न 32.
दालों की पैदावार कौन-से देश में सबसे अधिक है ?
उत्तर-
भारत में।

प्रश्न 33.
भारत में सबसे अधिक दालें कहाँ पैदा होती हैं ?
अथवा
भारत का कौन-सा राज्य दालों की सबसे अधिक पैदावार करता है ?
उत्तर-
राजस्थान में।

प्रश्न 34.
पंजाब में चने की कृषि के नीचे कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
दो हज़ार हेक्टेयर।

प्रश्न 35.
पंजाब में चने की औसत पैदावार बताओ।
उत्तर-
पांच क्विंटल प्रति एकड़।

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प्रश्न 36.
चना आधारित फसल चक्रों के नाम लिखें।
उत्तर-
बाजरा-चने, चावल-मक्की -चने।

प्रश्न 37.
सेंजू या सिंचाई योग्य चने की किस्म बताओ।
उत्तर-
जी० पी० एफ-2, पी० बी० जी०-1.

प्रश्न 38.
बरानी देसी चने की किस्म बताओ।
उत्तर-
पी० डी० जी०-4 तथा पी० डी० जी०-3.

प्रश्न 39.
काबली चने की किस्म बताओ।
उत्तर-
एल-552, बी० जी० 1053.

प्रश्न 40.
देसी चने के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
15-18 कि० ग्राम प्रति एकड़।

प्रश्न 41.
काबली चने के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
37 कि० ग्रा० प्रति एकड़।

प्रश्न 42.
देसी चने के लिए बरानी बुआई का उचित समय बताओ।
उत्तर-
10 से 25 अक्तूबर।

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प्रश्न 43.
काबली चने के लिए बुआई का उचित समय बताओ।
उत्तर-
25 अक्तूबर से 10 नवम्बर।

प्रश्न 44.
चने के लिए सिंचाई से सियाड़ का फासला (अंतर) बताओ।
उत्तर-
30 सैं० मी०।

प्रश्न 45.
चने को कितनी सिंचाइयों की आवश्यकता है ?
उत्तर-
एक पानी की।

प्रश्न 46.
मसूर की कृषि के नीचे कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
1100 हेक्टेयर।

प्रश्न 47.
मसूर की औसत पैदावार बताओ।
उत्तर-
2-3 क्विंटल प्रति एकड़।

प्रश्न 48.
मसूर वाला फसल चक्र बताओ।
उत्तर-
चावल-मसर, कपास-मसर, मूंगफली-मसर।

प्रश्न 49.
मसूर के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
12-15 कि० ग्रा० प्रति एकड़।

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प्रश्न 50.
मसूर के लिए सियाड़ों में फासला (अंतर) बताएं।
उत्तर-
22.5 सैं० मी०।

प्रश्न 51.
मसूर को कितने पानी की आवश्यकता है ?
उत्तर-
1-2 सिंचाइयों की।

प्रश्न 52.
मसूर को कौन-सा कीड़ा लगता है ?
उत्तर-
छेद करने वाली सुंडी।

प्रश्न 53.
राईया को व्यापारिक आधार पर कौन-सी श्रेणी में रखा जाता है ?
उत्तर-
मस्टर्ड श्रेणी में।

प्रश्न 54.
राईया वाला फसल चक्र बताओ।
उत्तर-
मक्की-बाजरा-राईया-गर्म ऋतु की मूंगी, कपास-राईया।

प्रश्न 55.
राईया की उन्नत किस्में बताओ।
उत्तर-
आर० एल० सी०-1, पी० बी० आर०-210, पी० बी० आर०-91.

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प्रश्न 56.
राईया के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
1.5 कि० ग्रा० बीज प्रति एकड़।

प्रश्न 57.
राईया की बुआई के लिए पंक्तियों (लाइनों) में दूरी बताओ।
उत्तर-
30 सैं० मी०।

प्रश्न 58.
यदि सुपरफास्फेट उपलब्ध न हो तो राईया में कौन-सी खाद डालनी चाहिए ?
उत्तर-
जिप्सम।

प्रश्न 59.
गोभी सरसों को व्यापारिक स्तर पर कौन-सी श्रेणी में गिना जाता है ?
उत्तर-
रेप सीड श्रेणी में।

प्रश्न 60.
गोभी सरसों वाले फसल चक्र बताओ।
उत्तर-
चावल-गोभी सरसों-गर्म मौसम की मुंगी, कपास-गोभी सरसों, मक्की-गोभी सरसों-गर्म ऋतु की मूंग।

प्रश्न 61.
गोभी सरसों की किस्मों के बारे में बताएं।
उत्तर-
पी० जी० एस० एच०-51, जी०एस०एल०-2.

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प्रश्न 62.
कनौला की किस्में बताओ।
उत्तर-
जी० एस० सी०-6, जी० एस० सी०-5.

प्रश्न 63.
गोभी सरसों के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
1.5 किलो बीज प्रति एकड़।

प्रश्न 64.
गोभी सरसों के लिए बुआई के समय पंक्तियों में दूरी बताओ।
उत्तर-
45 सैं० मी०।

प्रश्न 65.
दुनिया में सूर्यमुखी की पैदावार सबसे अधिक कहां होती है ?
उत्तर-
यूक्रेन में।

प्रश्न 66.
पंजाब में सूर्यमुखी की कृषि के नीचे कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
20-21 हजार हेक्टेयर।

प्रश्न 67.
सूर्यमुखी की औसत पैदावार बताओ।
उत्तर-
6.5 क्विंटल प्रति एकड़।

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प्रश्न 68.
कौन-सी भूमि सूर्यमुखी के लिए ठीक नहीं है ?
उत्तर-
कलराठी भूमि।

प्रश्न 69.
सूर्यमुखी आधारित फसल चक्करों के नाम लिखें।
उत्तर-
चावल मक्की-आलू-सूर्यमुखी, चावल-तोरिया-सूर्यमुखी, नरमा-सूर्यमुखी, बासमती-सूरजमुखी।

प्रश्न 70.
सूर्यमुखी की उन्नत किस्में बताओ।
उत्तर-
पी० एस० एच०-996, पी० एस० एच०-569, ज्वालामुखी।

प्रश्न 71.
सूर्यमुखी के लिए पंक्तियों में फासला बताएं।
उत्तर-
60 सैं० मी०।

प्रश्न 72.
सूर्यमुखी को मेड़ के शीर्ष पर कितना नीचे बोना चाहिए ?
उत्तर-
6-8 सैं० मी०।

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प्रश्न 73.
सूर्यमुखी के लिए खरपतवारों की रोकथाम के लिए क्या प्रयोग होता है ?
उत्तर-
सटोंप।

प्रश्न 74.
सूर्यमुखी को कितनी सिंचाई की आवश्यकता है ?
उत्तर-
6-9 सिंचाइयों की।

प्रश्न 75.
एक बड़े पशु को लगभग कितना चारा चाहिए ?
उत्तर-
40 किलोग्राम प्रतिदिन।

प्रश्न 76.
आषाढ़ी (रबी) की दो चारे वाली चार फसलों के नाम लिखो ।
उत्तर-
बरसीम, शफतल, लूसन, जवी, राई घास, सेंजी।

प्रश्न 77.
बरसीम की दो उन्नत किस्मों के नाम लिखें।
उत्तर-
बी एल 42, वी एल-10.

प्रश्न 78.
बरसीम के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
8-10 कि० ग्रा० प्रति एकड़।

प्रश्न 79.
बरसीम की बुआई के लिए उचित समय बताओ।
उत्तर-
सितम्बर का अंतिम सप्ताह से अक्तूबर का पहला सप्ताह।

प्रश्न 80.
बरसीम में बुईं खरपतवार की रोकथाम के लिए क्या प्रयोग करना चाहिए ?
उत्तर-
वासालीन।

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प्रश्न 81.
बरसीम के लिए इटसीट की समस्या हो तो क्या मिला कर बोना चाहिए ?
उत्तर-
राईया।

प्रश्न 82.
बरसीम का पहली कटाई कितने दिनों में तैयार हो जाती है ?
उत्तर-
बोबाई से लगभग 50 दिन बाद।

प्रश्न 83.
जवी की किस्में बताओ।
उत्तर-
ओ० एल०-9, कैंट।

प्रश्न 84.
जवी के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
25 किलो प्रति एकड़।

प्रश्न 85.
जवी के लिए बुआई का समय बताओ।
उत्तर-
अक्तूबर के दूसरे सप्ताह से अक्तूबर के अंत तक।

प्रश्न 86.
जवी के लिए सिंचाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
रौणी सहित 3-4 (सिंचाइयों की आवश्यकता है।)

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गेहूँ की बुआई के समय ठंड की आवश्यकता क्यों होती है ?
उत्तर-
अधिक गर्मी होने से इस फसल के पौधों की वृद्धि कम होती है तथा रोग भी अधिक लग जाते हैं।

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प्रश्न 2.
गेहूँ के लिए कैसी भूमि ठीक रहती है ?
उत्तर-
गेहूँ के लिए कल्लर तथा सेम वाली भूमियों के अलावा सभी प्रकार की भूमि ठीक है। मध्यम मैरा भूमि, जिसमें पानी न रुकता हो, सबसे अच्छी है। गेहूँ की वडानक किस्मों के लिए मध्यम से भारी भूमि अच्छी रहती है।

प्रश्न 3.
गेहूँ के खेत में गुल्ली डण्डा की समस्या कैसे कम की जा सकती है ?
उत्तर-
जिन खेतों में गुल्ली डण्डा की समस्या हो वहां गेहूँ वाले खेत में बरसीम, आलू, राईया आदि को बदल-बदल कर बोने से गुल्ली डण्डा की समस्या कम की जा सकती है।

प्रश्न 4.
गेहूँ में जिंक की कमी हो जाए तो क्या चिन्ह दिखाई देते हैं ?
उत्तर-
जिंक की कमी साधारणतया हल्की भूमि में होती है। जिंक की कमी से पौधों की बढ़ोत्तरी रुक जाती है। पौधे झाड़ी जैसे हो जाते हैं। पत्ते मध्य से पीले पड़ जाते हैं तथा लटक जाते हैं।

प्रश्न 5.
गेहूँ में मैंगनीज़ की कमी के चिन्ह बताओ।
उत्तर-
मैंगनीज़ की कमी हल्की भूमि में होती है। इसकी कमी से पौधों के बीच वाले पत्तों, नीचे वाले भाग तथा नाड़ी के बीच धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद मे धारियां बन जाते हैं। परन्तु पत्ते की नाड़ियां हरी ही रहती हैं।

प्रश्न 6.
जौं के लिए भूमि की किस्म के बारे में लिखो।
उत्तर-
जौं की फसल रेतली तथा कल्लर वाली भूमि में अच्छी हो सकती है। कलराठी भूमि में सुधार के आरंभिक समय में इन भूमियों में जौं की बोबाई की जा सकती है।

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प्रश्न 7.
फलीदार फ़सलों के बाद गेहूँ को नाइट्रोजन कम क्यों डाली जाती है ?
उत्तर-
फलीदार फ़सलें हवा में से नाइट्रोजन को भूमि में जमा करती हैं इसलिए 25% नाइट्रोजन कम डाली जाती है।

प्रश्न 8.
जौं के लिए बीज की मात्रा तथा शोध के बारे में बताओ।
उत्तर-
सेंजु तथा समय पर बुआई के लिए 35 कि० ग्रा० बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। बरानी तथा पिछेती बुआई के लिए 45 कि० ग्रा० बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता है। बीज की सुधाई के लिए फफूंदीनाशक दवाई का प्रयोग कर लेना चाहिए।

प्रश्न 9.
जौं की फसल के लिए खादों के बारे में बताओ।
उत्तर-
जौं के लिए 25 कि० ग्रा० नाइट्रोजन, 12 कि० ग्रा० फास्फोरस तथा 6 कि० ग्रा० पोटाश प्रति एकड़ के अनुसार आवश्यकता होती है। पोटाश का प्रयोग मिट्टी की जांच के बाद ही करना चाहिए। सभी खादों को बुआई के समय ही ड्रिल कर देना चाहिए।

प्रश्न 10.
जौं में खरपतवार की रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
चौड़े पत्ते वाले खरपतवार जैसे बाथू की रोकथाम के लिए 2, 4 डी या एलग्रिप, जोंधर (जंगली जवी) के लिए आइसोप्रोटयुरान या एवाडैक्स बी० डब्ल्यू० तथा गुल्ली डण्डे के लिए पिऊमा पावर या टौपिक दवाई का प्रयोग करने की सिफारिश की जाती है।

प्रश्न 11.
जौं में कीट तथा रोगों के बारे में बताओ।
उत्तर-
जौं के मुख्य कीट हैं-चेपा। जौं के रोग हैं-धारियों का रोग, कांगियारी तथा पीली कुंगी।

प्रश्न 12.
दालों का आयात क्यों करना पड़ता है ?
उत्तर-
भारत दालों की पैदावार में अग्रणी देश है परन्तु हमारे देश में दालों का प्रयोग भी बहुत अधिक होता है। इसलिए हमें दालों का आयात करना पड़ता है।

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प्रश्न 13.
चने के लिए जलवायु के बारे में बताएं।
उत्तर-
चने के लिए अधिक ठंड तथा कोरा हानिकारक हैं परन्तु अगेती गर्मी से भी फसल जल्दी पक जाती है तथा पैदावार कम हो जाती है। यह फसल कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए अधिक अच्छी है।

प्रश्न 14.
चने के लिए कैसी भूमि ठीक रहती है ?
उत्तर-
चने की फसल के लिए अच्छे जल निकास वाली रेतली या हल्की भल्ल वाली भूमि बहुत अच्छी रहती है। यह फसल हल्की भूमि, जहां अन्य फसल नहीं होती, में भी होती है। इस फसल के लिए क्षारीय, कलराठी तथा सेम वाली भूमियां बिल्कुल ठीक नहीं रहतीं।

प्रश्न 15.
चने के लिए भूमि की तैयारी के बारे में क्या जानते हो ?
उत्तर-
चने की फसल की बुआई के लिए खेत को बहुत तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु यदि गहरी जुताई की जाए तो चने को उखेड़ा रोग कम लगता है तथा फसल की पैदावार भी बढ़ जाती है।

प्रश्न 16.
चने के लिए सिंचाई के बारे में क्या जानते हो ?
उत्तर-
चने की फसल को साधारणतया एक बार पानी देने की आवश्यकता होती है। पर पानी दिसम्बर के मध्य से जनवरी के अंतिम समय तक देना चाहिए। परन्तु बुआई से पहले पानी कभी नहीं देना चाहिए।

प्रश्न 17.
चने की कटाई के बारे में क्या जानते हो ?
उत्तर-
जब ढोढ (कली) पक जाएं तथा पौधा सूख जाए तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए।

प्रश्न 18.
मसूर के लिए कैसी जलवायु तथा भूमि ठीक रहती है ?
उत्तर-
मसूर की फसल के लिए ठंड का मौसम बहुत अच्छा रहता है। यह कोहरा तथा बहुत ही ठंड को भी सहन कर लेती है।

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प्रश्न 19.
मसूर के लिए भूमि की तैयारी कैसे की जाती है ?
उत्तर-
मसूर की फसल के लिए भूमि को दो-तीन बार जोत कर तथा जोतने के बाद सुहागा फेरना चाहिए। ऐसे भूमि की तैयारी हो जाती है।

प्रश्न 20.
मसूर के लिए खादों का विवरण दें।
उत्तर-
मसूर को 5 कि० ग्रा० नाइट्रोजन प्रति एकड़ की आवश्यकता है। यदि बीज को जीवाणु का टीका लगाकर सोधा गया हो तो 8 कि० ग्रा० फास्फोरस तथा टीका न लगा हो तो 16 कि ग्रा० फास्फोरस की आवश्यकता होती है। उन दोनों खादों को बुआई के समय ही डाल देना चाहिए।

प्रश्न 21.
मसूर के लिए सिंचाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
मसूर की फसल को सिंचाई के लिए 1-2 बार पानी देने की आवश्यकता पड़ती है। यदि एक पानी देना हो तो बुआई के छः सप्ताह बाद पानी देना चाहिए। परन्तु जब दो पानी देने हों तो पहला पानी 4 सप्ताह के बाद तथा दूसरा फूल लगने के समय या फलियों के लगने समयं देना चाहिए।

प्रश्न 22.
मसूर की फसल की कटाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
जब पत्ते सूख जाएं तथा फलियां पक जाएं तो फसल काट लेनी चाहिए।

प्रश्न 23.
राईया के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
राईया की फसल मध्यम से भारी वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उचित है। इसकी बुआई ऐसे ही कर सकते हैं।

प्रश्न 24.
राईया के लिए बुआई का ढंग बताओ।
उत्तर-
राईया की बुआई 30 सैं० मी० के अन्तर वाली लाइनों में करनी चाहिए तथा बुआई से तीन सप्ताह बाद फसल को 10-15 सैं० मी० का अन्तर रखकर खुला करना चाहिए।

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प्रश्न 25.
राईया के लिए खेत की तैयारी पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
राईया के लिए खेत की तैयारी के लिए भूमि को 2 से 4 बार जोतना चाहिए तथा प्रत्येक बार जोतने के बाद सुहागा फेरना चाहिए। राईया को जीरो टिल ड्रिल द्वारा बिना जुताई के बोया जा सकता है।

प्रश्न 26.
राईया के लिए कटाई तथा गहाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
जब फली पीली पड़ जाती है तो फसल काटने के लिए तैयार हो जाती है। इस की कटाई के सप्ताह बाद गहाई कर लेनी चाहिए।

प्रश्न 27.
गोभी सरसों के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
गोभी सरसों की फसल मध्यम से भारी वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उचित है। इसके लिए हर तरह की भूमि ठीक रहती है।

प्रश्न 28.
गोभी सरसों के लिए बीज की मात्रा तथा खेत की तैयारी के बारे लिखो।
उत्तर-
गोभी सरसों के लिए 1.5 कि० ग्रा० बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता होती

प्रश्न 29.
सूर्यमुखी से प्राप्त तेल के बारे में जानकारी दी।
उत्तर-
सर्यमुखी के तेल में कोलेस्ट्रोल की मात्रा कम होती है। इसलिए इस से खाने के लिए शुद्ध किया हुआ तेल बनाया जाता है। इसका तेल साबुन आदि बनाने के लिए भी प्रयोग होता है।

प्रश्न 30.
सूर्यमुखी के लिए कैसी भूमि ठीक है ?
उत्तर-
सूर्यमुखी के लिए अच्छे जल निकास वाली मध्यम भूमि सबसे अच्छी रहती है। इसकी कृषि के लिए कलराठी भूमि ठीक नहीं रहती है।

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प्रश्न 31.
सूर्यमुखी के लिए भूमि की तैयारी तथा बीज की मात्रा तथा सोध के बारे में बताओ।
उत्तर-
सूर्यमुखी के लिए फफूंदीनाशक दवाई से सोधा हुआ 2 कि० ग्रा० बीज प्रति एकड़ ठीक रहता है। भूमि की तैयारी के लिए खेत को 2-3 बार जोत कर तथा हर बार जुताई के बाद सुहागा फेरा जाता है।

प्रश्न 32.
सूर्यमुखी में गुडाई तथा नदीन की रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
सूर्यमुखी में पहली गुडाई नदीन उगने के 2-3 सप्ताह बाद तथा उसके बाद 3 सप्ताह बाद करें। नदीन की रोकथाम के लिए स्टोंप का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 33.
सूर्यमुखी की कटाई तथा गहाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
जब किनारों का रंग नीचे से पीला भूरा हो जाए तथा डिस्क सूखनी शुरू हो जाए तो फसल काटने के लिए तैयार होती है। कटाई किए किनारों की उसी समय थरैशर से गहाई कर लेनी चाहिए।

प्रश्न 34.
बरसीम से कितनी कटाइयां ली जा सकती हैं ?
उत्तर-
बरसीम के चारे की नवम्बर से जून के मध्य तक बहुत ही पौष्टिक तथा सुस्वादी कई बार कटाई की जा सकती है।

प्रश्न 35.
बरसीम के बीज को काशनी के बीज से कैसे अलग किया जाता है ?
उत्तर-
बरसीम के बीज को पानी में डुबो कर रखा जाता है तथा काशनी का बीज तैरने लगता है तथा ऊपर आ जाता है। इसको छलनी से अलग कर लिया जाता है।

प्रश्न 36.
बरसीम के लिए खादों का विवरण दें।
उत्तर-
बरसीम के लिए बुआई के समय 6 टन गले सड़े गोबर की खाद तथा 20 किलो फॉस्फोरस प्रति एकड़ की आवश्यकता है। यदि गले सड़े गोबर (रुड़ी खाद) उपलब्ध न हो सके तो 10 कि० ग्रा० नाइट्रोजन तथा 30 कि० ग्रा० फॉस्फोरस प्रति एकड़ का प्रयोग करना चाहिए।

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प्रश्न 37.
बरसीम के लिए सिंचाई के बारे में क्या जानते हो ?
उत्तर-
बरसीम के लिए पहली सिंचाई 6-8 दिनों बाद करनी आवश्यक है। इसके बाद गर्मियों में 8-10 दिनों के बाद तथा सर्दियों में 10-15 दिनों बाद पानी देते रहना चाहिए।

प्रश्न 38.
बरसीम की कटाई पर प्रकाश डालो।
उत्तर-
बुआई के लगभग 50 दिनों के बाद पहली कटाई तैयार हो जाती है। इसके बाद 40 दिनों बाद सर्दी में तथा फिर 30 दिन बाद कटाई की जा सकती हैं।

प्रश्न 39.
जवी के लिए कैसी भूमि की आवश्यकता है ?
उत्तर-
जवी को सेम तथा कल्लर वाली भूमि के अलावा हर तरह की भूमि में उगाया जा सकता है।

प्रश्न 40.
जवी की बुआई का समय तथा ढंग बताओ।
उत्तर-
जवी की बुआई का समय अक्तूबर के दूसरे सप्ताह से अक्तूबर के अंत तक है।
इसकी बुआई 20 सें. मी. दूरी के खालियों में की जाती है। बिना जोते जीरो टिल ड्रिल से भी बुआई की जा सकती है।

प्रश्न 41.
जवी के लिए गुडई तथा सिंचाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
साधारणतया इसको गुडाई की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु खरपतवार होने पर गुडाई कर देनी चाहिए। रौणी सहित तीन-चार सिंचाइयां काफ़ी हैं।

प्रश्न 42.
जवी के लिए खादों का विवरण दें।
उत्तर-
8 कि० ग्रा० फॉस्फोरस, 18 कि० ग्रा० नाइट्रोजन प्रति एकड़ बुआई के समय डालें, बुआई से 30-40 दिनों बाद 15 कि० ग्रा० नाइट्रोजन प्रति एकड़ की अतिरिक्त आवश्यकता होती है।

दीर्य उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
गेहूँ की कृषि का विवरण निम्नलिखित अनुसार दें –
(i) उन्नत किस्में (ii) चावल के बाद खेत की तैयारी (iii) सिंचाई (iv) कीड़े तथा रोग।
उत्तर-
(i) उन्नत किस्में-पी० बी० डब्ल्यू०-621, डी० बी० डब्ल्यू०-17, पी० बी० डब्ल्यू०-343, पी० डी० डब्ल्यू०-291 आदि।
(ii) चावल की कटाई के बाद खेत की तैयारी-चावल के बाद गेहूँ की बुआई करनी हो तो खेत में पहले ही काफ़ी नमी होती है यदि न हो तो रौणी कर लेनी चाहिए। भूमि को उचित नमी युक्त (वत्तर) स्थिति में तवियों से जोत दें तथा कंबाइन से कटे चावल की पुआल को भूमि में ही जोतना हो तो तवियों से कम-से-कम दो बार जोतना चाहिए तथा बाद में सुहागा चला देना चाहिए। इसके बाद कल्टीबेटर से एक बार तथा भूमि भारी हो तो दो बार जुताई के बाद सुहागा चलाना चाहिए। कंबाइन से कटाई किए चावल के खेत में हैपी सीडर मशीन से सीधी बुआई की जा सकती है।
(iii) सिंचाई-यदि गेहूँ की बोबाई अक्तूबर में की हो तो पहला पानी बुआई के तीन सप्ताह बाद तथा बाद में बोई गई गेहूँ की फसल को चार सप्ताह के बाद पानी देना चाहिए। इस समय गेहूँ में विशेष प्रकार की जड़ें, जिन्हें क्राऊन जड़ें कहते हैं बनती हैं। गेहूँ को 4-5 पानी देने की आवश्यकता है।
(iv) कीड़े तथा रोग-सैनिक सूंडी, चेपा, दीमक तथा अमरीकन सूंडी गेहूँ को लगने वाले कीड़े हैं। गेहूँ को पीली कुंगी, भूरी कुंगी, कांगियारी, ममनी तथा टुंडु तथा करनाल बंट रोग लगते हैं।

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प्रश्न 2.
जौं की कृषि का विवरण निम्न लिखे अनुसार दें
(i) उन्नत किस्म (ii) जलवायु (i) बुआई का समय (iv) खालियों का अन्तर (v) सिंचाई।
उत्तर-
(i) उन्नत किस्म-वी०जी०एम०-201, पी०एल०-426, पी०एल०-807।
(ii) जलवायु-जौं के लिए आरम्भ में ठण्ड तथा पकने के समय गर्म तथा शुष्क मौसम की आवश्यकता है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में यह अच्छी हो सकती है।
(iii) बुआई का समय-15 अक्तूबर से 15 नवम्बर तक।
(iv) खालियों का अन्तर-समय पर बुआई की हो तो 22.5 सैं०मी० तथा पिछेती बुआई के लिए 18 से 29 सैं०मी० ।
(v) सिंचाई-1-2 सिंचाइयों की आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित अनुसार चने की कृषि का विवरण दें
(i) जलवायु (ii) भूमि (iii) फसल चक्र (iv) उन्नत किस्म (v) बीज की मात्रा (vi) खरपतवारों की रोकथाम (vii) कटाई (vii) कीड़े तथा रोग।
उत्तर-
देखो उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 3.
मसर की कृषि का विवरण दें(i) जलवायु तथा भूमि (ii) उन्नत किस्में (ii) फसल चक्र (iv) बीज की मात्रा तथा सुधाई (v) बुआई का समय तथा ढंग (vi) खादें (vii) सिंचाई (vii) कटाई।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।।

प्रश्न 4.
राईया की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 5.
गेहूँ, जौ, चने तथा मसूर के लिए खाद का विवरण दें।
उत्तर-
प्रति एकड़ के अनुसार खाद का विवरण इस प्रकार है-
PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें 3

प्रश्न 6.
गेहूँ की बीजाई करने के लिए खेत की तैयारी करने सम्बन्धी जानकारी दो।
उत्तर-स्वयं करें।

PSEB 10th Class Agriculture Solutions Chapter 3 आषाढ़ी की फ़सलें

प्रश्न 7.
सूरजमुखी की बुआई का समय और विधि के बारे में जानकारी दें।
उत्तर-स्वयं करें।

प्रश्न 8.
काबुली चने की खेती का विवरण निम्नलिखित अनुसार दीजिए :
(क) ज़मीन (ख) दो उन्नत किस्में (ग) बीज की मात्रा प्रति एकड़ (घ) बुआई का समय (ङ) सिंचाई (च) कटाई।
उत्तर-
(क) ज़मीन-चने की फसल के लिए अच्छे जल निकास वाली रेतली या हल्की भल्ल वाली ज़मीन बहुत अच्छी रहती है। यह फसल हल्की ज़मीन, जहां अन्य फसल नहीं होती, में भी होती है। इस फसल के लिए क्षारीय, कलराठी तथा सेम वाली ज़मीन बिल्कुल ठीक नहीं रहती।
(ख) दो उन्नत किस्में-एल-552, बी० जी० 1053 ।
(ग) बीज की मात्रा-37 कि०ग्रा० प्रति एकड़
(घ) बुआई का समय-25 अक्तूबर से 10 नवम्बर।
(ङ) सिंचाई-एक सिंचाई की आवश्यकता है।
(च) कटाई-जब ढोढ (कली) पक जाएं तथा पौधा सूख जाए तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए।

आषाढ़ी की फ़सलें PSEB 10th Class Agriculture Notes

  • अक्तूबर-नवम्बर में बोई जाने वाली फसलों को आषाढ़ की फसलें कहते हैं।
  • आषाढ़ी की फसलों को मार्च-अप्रैल में काटा जाता है।
  • आषाढ़ी की फसलों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है-अनाज, दालें तथा तेल बीज, चारे वाली फसलें।
  • अनाज वाली फसलों में गेहूँ तथा जौं मुख्य हैं।
  • गेहूँ की पैदावार में चीन दुनिया का अग्रणी देश है।
  • भारत में उत्तर प्रदेश गेहूँ की पैदावार में अग्रणी राज्य है।
  • पंजाब में गेहूँ लगभग 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बोई जाने वाली फसल है।
  • गेहूँ की औसत पैदावार 18-20 क्विंटल प्रति एकड़ है।
  • गेहूँ की बुआई के लिए ठंडा मौसम ठीक रहता है।
  • गेहूँ के लिए मैरा मध्यम भूमि जिसमें पानी न रुकता होता हो सबसे बढ़िया है।
  • गेहूँ की उन्नत किस्में हैं -एच०डी०-2967, पी०बी०डब्ल्यू०-343, डी० बी० डब्ल्यू ०-17, वडानक गेहूँ आदि।
  • पासता बनाने के लिए वडानक गेहूँ का आटा प्रयोग किया जाता है।
  • खेत में गेहूँ की बुआई से पहले यदि खरपतवारों की समस्या हो तो बिना तैयारी के खेत में ग्रामैक्सोन का स्प्रे करें।
  • गेहूँ के लिए बीज की मात्रा 40 कि०ग्रा० प्रति हेक्टेयर है।
  • गेहूँ की बिजाई अक्तूबर के अंतिम या नवम्बर के पहले सप्ताह की जाए तो खरपतवार कम हो जाते हैं।
  • चौड़े पत्तों वाले नदीन जैसे-मैना, मैनी, बाथ, कंडियाली पालक, सेंजी आदि की रोकथाम के लिए एलग्रिप या ऐम का प्रयोग किया जाता है।
  • गुल्ली डंडे की रोकथाम के लिए टापिक, लीडर, स्टोंप आदि में से किसी एक । खरपतवार नाशक का प्रयोग किया जाता है
  • गेहूँ को 50 किलो नाइट्रोजन, 25 किलो फॉस्फोरस तथा 12 किलो पोटाश की । प्रति एकड़ के लिए आवश्यकता है।
  • जिंक तथा मैंगनीज़ की कमी अक्सर हल्की भूमियों में आती है।
  • दीमक, चेपा, सैनिक सूंडी तथा अमरीकन सूंडी गेहूँ के मुख्य कीट हैं।
  • गेहूँ के रोग हैं-पीली कुंगी, भूरी कुंगी, कांगियारी, मम्णी तथा टुंड्र आदि।
  • भारत में जौं की पैदावार सबसे अधिक राजस्थान में होती है।
  • पंजाब में जौं की कृषि 12 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है।
  • जौं की औसत पैदावार 15-16 क्विंटल प्रति एकड़ है।
  • जौं की फसल रेतली तथा कॅलर वाली भूमि में भी अच्छी हो जाती है।
  • जौं की किस्में हैं-पी०एल० 807, वी०जी०एम० 201, पी०एल० 426।
  • जौं के बीज की मात्रा है 35 कि०ग्रा० प्रति एकड़ सिंचाई योग्य (सेंजू या सिंचित) तथा समय पर बीजाई के लिए परन्तु बरानी (असिंचित) तथा पिछेती फसल की बुआई के लिए 45 कि०ग्रा० बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है।
  • जौं की बुआई 15 अक्तूबर से 15 नवम्बर तक करनी चाहिए।
  • जौं में भिन्न-भिन्न प्रकार के खरपतवार नाशकों के प्रयोग की सिफारिश की जाती है; जैसे-बाथू के लिए 2,4-डी, जौंधर के लिए एवाडैक्स बी०डब्ल्यू० तथा गुल्ली डंडे के लिए पिऊमा पावर आदि।
  • जौं के लिए 25 कि०ग्रा० नाइट्रोजन, 12 कि०ग्रा० फॉस्फोरस तथा 6 कि०ग्रा० पोटाश प्रति एकड़ के लिए आवश्यकता है।
  • जौं का कीड़ा है चेपा तथा रोग हैं-धारियों का रोग, कांगियारी तथा पीली कुंगी।
  • पंजाब में आषाढ़ी के दौरान मसर, चने तथा मटरों की कृषि कम क्षेत्रफल में की जाती है।
  • पंजाब में चने की बुआई दो हज़ार हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है तथा औसत पैदावार पांच क्विंटल प्रति एकड़ है।
  • चने की फसल कम वर्षा वाले इलाकों के लिए ठीक रहती है।
  • चने के लिए अच्छे जल निकास वाली रेतली या हल्की भल्ल वाली भूमि अच्छी । रहती है।
  • चने की उन्नत किस्में हैं-जी०पी०एफ०-2 तथा पी०बी०जी०-1 सिंचाई योग्य (सेंजू) देसी चने की, पी०डी०जी०-4 तथा पी०डी०जी०-3 बरानी देसी चने की किस्में हैं।
  • काबली चने की किस्में हैं-एल०-552 तथा बी०जी०-1053।
  • देसी चने के लिए बीज की मात्रा 15-18 कि०ग्रा० प्रति एकड़ तथा काबली चने के लिए 37 कि०ग्रा० प्रति एकड़ है।
  • देसी चने की बरानी बुआई का उचित समय 10 से 30 अक्तूबर है।
  • चने में खरपतवार की रोकथाम के लिए टरैफलान अथवा सटोंप का प्रयोग किया जा सकता है।
  • देसी तथा काबली चने को 6 कि०ग्रा० नाइट्रोजन प्रति एकड़, देसी चने को 8 कि०ग्रा० फॉस्फोरस तथा काबली चने के लिए 16 कि०ग्रा० प्रति एकड़ की
    आवश्यकता होती है।
  • चने को दीमक तथा चने की सूंडी लग जाती है।
  • चने को झुलस रोग, उखेड़ा तथा तने का गलना रोग हो जाते हैं।
  • मसूर की कृषि 1100 हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है।
  • मसूर की औसत पैदावार 2-3 क्विंटल प्रति एकड़ के लगभग है।
  • मसूर की फसल क्षारीय, कलराठी तथा सेम वाली भूमि को छोड़कर प्रत्येक तरह की भूमि में हो जाती है।
  • मसूर की उन्नत किस्में हैं-एल०एल०-931 तथा एल०एल०-699।
  • मसूर के लिए 12-15 कि०ग्रा० बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • मसूर की बोबाई अक्तूबर के दूसरे पखवाड़े में होती है।
  • मसूर के लिए 5 कि०ग्रा० नाइट्रोजन प्रति एकड़, यदि बीज को जीवाणु टीका लगा हो तो 8 कि०ग्रा० फॉस्फोरस तथा यदि टीका न लगा हो तो 16 कि०ग्रा० फॉस्फोरस प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • मसर में छेद करने वाली सुंडी इसका मुख्य कीट है तथा झुलस रोग तथा कुंगी इसके मुख्य रोग हैं।
  • विश्व में सबसे अधिक तेल बीज पैदा करने वाला देश संयुक्त राज्य अमेरिका है।
  • भारत में सबसे अधिक तेल बीज राजस्थान में पैदा किए जाते हैं।
  • आषाढ़ी में बोये जाने वाले तेल बीज हैं-राईया, गोभी सरसों, तोरिया, तारामीरा, अलसी, कसुंभ, सूरजमुखी आदि।
  • राईया मध्यम से भारी वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उचित है।
  • राईया को हर प्रकार की भूमि में बोया जा सकता है।
  • राईया की उन्नत किस्में हैं -आर०एल०सी०-1, पी०बी०आर०-201, पी०बी०आर०-91 ।
  • राईया के लिए बीज की मात्रा है 1.5 कि०ग्रा० प्रति एकड़।
  • राईया के लिए बोबाई का समय मध्य अक्तूबर से मध्य नवम्बर है।
  • राईया के लिए 40 कि० ग्रा० नाइट्रोजन, 12 कि०ग्रा० फॉस्फोरस प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • राईया के कीट हैं-चितकबरी सूंडी, चेपा, सलेटी सूंडी, पत्ते का सुरंगी कीट।
  • राईया के रोग हैं-झुलस रोग, सफेद कुंगी, हरे पत्ते का रोग, पीले धब्बे का रोग।
  • गोभी सरसों की एक श्रेणी कनौला सरसों की है। इस तेल में इरुसिक अमल तथा खल में गलुको-सिनोलेटस कम होते हैं।
  • गोभी सरसों की किस्में हैं-पी०जी०एस०एच०-51, जी०एस०एल०-2, जी०एस०एल०-1
  • कनौला किस्में हैं-जी०एस०सी०-6, जी०एस०सी-5।
  • गोभी सरसों के लिए 1.5 कि०ग्रा० प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • गोभी सरसों के लिए 1.5 कि०ग्रा० बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • गोभी सरसों के नदीनों की रोकथाम के लिए वासालीन, बुआई से पहले तथा आईसोप्रोटयुरान का बुआई के बाद प्रयोग कर सकते हैं।
  • सूर्यमुखी के बीजों में 40-43% तेल होता है जिसमें कोलेस्ट्रोल कम होता है।
  • दुनिया में सबसे अधिक सूर्यमुखी यूक्रेन में पैदा होता है।
  • पंजाब में सूर्यमुखी की कृषि 20-21 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है। इसकी औसत पैदावार 6.5 क्विंटल प्रति एकड़ है।
  • अच्छे जल निकास वाली मध्यम भूमि सूर्यमुखी के लिए ठीक है।
  • सूर्यमुखी की उन्नत किस्में हैं-पी० एच० एस०-996, पी०एस०एच०-569, ज्वालामुखी।
  • सूर्यमुखी के लिए 2 कि०ग्रा० बीज प्रति एकड़ का प्रयोग किया जाता है।
  • सूर्यमुखी की बोबाई जनवरी माह के अन्त तक कर लेनी चाहिए।
  • एक बड़े पशु के लिए 40 कि०ग्रा० हरा चारा प्रतिदिन चाहिए होता है।
  • आषाढ़ी में चारे वाली फसलें हैं-बरसीम, शफ्तल, लूसण, जवी, राई घास तथा सेंजी।
  • बरसीम को चारों का बादशाह कहा जाता है।
  • बरसीम की किस्में हैं-बी०एल०-42, बी०एल०-10।
  • बरसीम के बीज की 8 से 10 किलो प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • बरसीम के बीज में से काशनी खरपतवार के बीजों को अलग कर लेना चाहिए।
  • सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से अक्तूबर के पहले सप्ताह बरसीम की बुआई करनी | चाहिए।
  • बरसीम में बुई खरपतवार की रोकथाम के लिए वासालीन का प्रयोग करें।
  • जवी पौष्टिकता के आधार पर बरसीम के बाद दूसरे नंबर की चारे वाली फसल है।
  • जवी की किस्में हैं-ओ०एल०-9, कैंट।
  • जवी के बीज की 25 कि०ग्रा० प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • जवी की बुआई अक्तूबर के दूसरे सप्ताह से अक्तूबर के अंत तक करें।
  • जवी में गुडाई करके खरपतवारों पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
  • जवी को 15 कि०ग्रा० नाइट्रोजन तथा 8 कि०ग्रा० फॉस्फोरस की प्रति एकड़ के हिसाब से बोबाई के समय आवश्यकता है।
  • जवी को रौणी सहित तीन से चार सिंचाइयों की आवश्यकता है।

PSEB 6th Class Social Science Solutions Chapter 16 हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.)

Punjab State Board PSEB 6th Class Social Science Book Solutions History Chapter 16 हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.) Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 6 Social Science History Chapter 16 हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.)

SST Guide for Class 6 PSEB हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.) Textbook Questions and Answers

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखें

प्रश्न 1.
बाणभट्ट तथा ह्यनसांग के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-
1. बाणभट्ट-बाणभट्ट हर्षवर्धन का राजकवि था। उसने अपनी पुस्तक ‘हर्षचरित’ में हर्षवर्धन के जीवन तथा कार्यों का वर्णन किया है।

2. ह्यूनसांग-ह्यूनसांग एक प्रसिद्ध चीनी यात्री था। वह हर्षवर्धन के शासनकाल में बौद्ध धर्म के ग्रन्थों का अध्ययन तथा तीर्थ यात्राएं करने के लिए भारत आया था। वह हर्षवर्धन के दरबार में शाही मेहमान बन कर रहा था। उसने अपनी पुस्तक ‘सी-यू-की’ में हर्षकाल के भारत का वर्णन किया है।

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन पर एक नोट लिखें।
उत्तर-
हर्षवर्धन पुष्यभूति वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था। उसके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन तथा बड़े भाई का नाम राज्यवर्धन था। पिता की मृत्यु के पश्चात् राज्यवर्धन पुष्यभूति वंश का शासक बना, लेकिन बंगाल के राजा शशांक ने उसको धोखे से मार दिया। इसलिए हर्षवर्धन अपने बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात् 606 ई० में राजगद्दी पर बैठा। उसने अपनी राजधानी स्थाणेश्वर से बदल कर कन्नौज बना ली। फिर वह अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कार्य में लग गया। उसने उत्तरी भारत के पंजाब, पूर्वी राजस्थान, असम तथा गंगा घाटी के प्रदेशों को जीता तथा बंगाल के राजा शशांक को मारकर अपने भाई की मृत्यु का बदला लिया। उसने दक्षिणी भारत के चालुक्य वंश के राजा पुलकेशिन द्वितीय पर भी आक्रमण किया, परन्तु उसे पराजित न कर सका।

हर्षवर्धन एक विजेता होने के साथ-साथ एक अच्छा लेखक तथा विद्वान् भी था। कहा जाता है कि प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानन्द जैसे संस्कृत नाटक हर्षवर्धन ने लिखे थे। हर्षवर्धन शैव धर्म का अनुयायी था लेकिन वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। वह बौद्ध धर्म में विशेष श्रद्धा रखता था। लगभग 647 ई० में हर्षवर्धन की मृत्यु हो गई तथा उसकी मृत्यु के साथ ही पुष्यभूति वंश के राज्य का भी अन्त हो गया।

PSEB 6th Class Social Science Solutions Chapter 16 हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.)

प्रश्न 3.
इस काल (हर्षकाल) के समाज के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-
हर्षकाल में लोग शांतिमय तथा सादा जीवन व्यतीत करते थे। वे मुख्य रूप से शाकाहारी थे तथा दूध, घी, चावल, फलों तथा सब्जियों का प्रयोग करते थे। अमीरों के मकान सुन्दर बने होते थे जबकि ग़रीबों के मकान साधारण तथा कच्चे फर्श के होते थे। समाज में जाति प्रथा कठोर थी। आमतौर पर लोगों का जीवन सुखी तथा समृद्ध था। सभी धर्मों के लोग परस्पर मिलजुल कर प्रेम से रहते थे तथा एक-दूसरे का सम्मान करते थे। नालंदा उस समय का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था और ज्ञान प्राप्ति का एक महान् केंद्र था।

प्रश्न 4.
हर्षवर्धन के राज्य प्रबन्ध के बारे में लिखें।
उत्तर-
हर्षवर्धन का राज्य प्रबन्ध मज़बूत तथा उदार था। उसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं –

  1. राजा-राजा को राज्य प्रबन्ध में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था।
  2. मन्त्री तथा अन्य अधिकारी-राज्य प्रबन्ध में राजा की सहायता के लिए मन्त्री तथा अन्य कई अधिकारी होते थे।
  3. प्रान्त-शासन की सुविधा के लिए साम्राज्य को प्रान्तों में बांटा हुआ था। प्रान्तों को भुक्ति कहते थे। प्रान्त के शासक को उपारिक (महाराजा) कहा जाता था।
  4. जिले-प्रान्तों को जिलों में बांटा गया था। ज़िलों को ‘विषय’ कहा जाता था, जो ‘विषयपति’ के अधीन होता था।
  5. तालुक तथा गांव-प्रत्येक प्रान्त को तहसीलों (तालुक) तथा तहसीलों को गांवों में बांटा गया था। गांव राज्य प्रबन्ध की सबसे छोटी इकाई थी तथा इसके मुखिया को ग्रामिक कहते थे।
  6. न्याय तथा सेना-न्याय तथा सेना का प्रबन्ध राजा के हाथ में था। सभी लोगों को याय मिलता था।
  7. आय के साधन-कर बहुत कम लगाए जाते थे। राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था, जो उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। व्यापार से भी आय होती थी।

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II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करो

  1. हर्षवर्धन ने …………….. को अपनी राजधानी बनाया।
  2. प्रसिद्ध चीनी यात्री ……………. हर्षवर्धन के समय भारत में आया।
  3. हर्षवर्धन की सफलताओं का वर्णन उसके दरबारी कवि ………. ने नामक पुस्तक में किया है।
  4. हर्षवर्धन …………. धर्म का अनुयायी था।
  5. हर्षवर्धन ने लगभग ……. गांवों की आय नालंदा विश्वविद्यालय को दान की थी।
  6. पल्लव राजा मुख्यतः ………… तथा …….. धर्म के अनुयायी थे।

उत्तर-

  1. कन्नौज
  2. ह्यनसांग
  3. बाणभट्ट, हर्षचरित
  4. शैव धर्म
  5. 200
  6. जैन धर्म, शैव धर्म।

III. सही जोड़े बनायें

  1. पुष्यभूति – लेखक
  2. ह्यूनसांग – कुरुक्षेत्र
  3. बाणभट्ट – चीनी यात्री
  4. दूतक – सन्देश वाहक

उत्तर-
सही जोड़े

  1. पुष्यभूति – कुरुक्षेत्र
  2. ह्यूनसांग – चीनी यात्री
  3. बाणभट्ट – लेखक
  4. दूतक – सन्देश वाहक

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IV. सही (✓) अथवा ग़लत (✗) बताएं

  1. हर्षवर्धन 606 ई० में सिंहासन पर बैठा।
  2. पुलकेशिन द्वितीय बिहार का राजा था।
  3. लोग (प्रजा) राजा को कोई कर नहीं देते थे।
  4. अधिकतर लोग शाकाहारी थे।
  5. राज्यवर्धन हर्षवर्धन का पिता था।

उत्तर-

  1. (✓)
  2. (✗)
  3. (✗)
  4. (✓)
  5. (✗)

PSEB 6th Class Social Science Guide हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.) Important Questions and Answers

कम से कम शब्दों में उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
पुण्यभूमि वंश के शासकों की राजधानी वर्तमान हरियाणा में थी। इसका क्या नाम था?
उत्तर-
स्थाणेश्वर (वर्तमान थानेसर)

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प्रश्न 2.
हर्षवर्धन के बारे में जानकारी के लिए एक प्रसिद्ध स्रोत का नाम बताइए।
उत्तर-
बाणभट्ट का हर्षचरित।

प्रश्न 3.
हर्ष ने कन्नौज में एक बौद्ध सभा बुलाई थी जिसकी अध्यक्षता एक चीनी यात्री ने की थी। उसका क्या नाम था?
उत्तर-
ह्यूनसांग।

बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हर्ष एक महान् लेखक था। उसने तीन ग्रंथ लिखे थे। निम्न में से कौन-सा उसने ग्रंथ नहीं लिखा था?
(क) हर्षचरित्
(ख) नागानंद
(ग) रत्नावली।
उत्तर-
(क) हर्षचरित्

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प्रश्न 2.
हर्षवर्धन को निम्न में से किस चालक्य शासक ने हराया था?
(क) पुलकेशिन प्रथम
(ख) पुलकेशिन द्वितीय
(ग) पुलकेशिन तृतीय
उत्तर-
(ख) पुलकेशिन द्वितीय

प्रश्न 3.
भारत में ह्यूनसांग ने निम्न में से किस विश्वविद्यालय में कुछ समय तक अध्ययन किया था?
(क) नालंदा
(ख) विश्ववारा
(ग) कन्नौज।
उत्तर-
(क) नालंदा

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थाणेश्वर राज्य की स्थापना किसने की?
उत्तर-
स्थाणेश्वर राज्य की स्थापना पुष्यभूति ने की।

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प्रश्न 2.
प्रभाकरवर्धन कौन था?
उत्तर-
प्रभाकरवर्धन स्थाणेश्वर का एक योग्य शासक था। उसने अपने राज्यं को आक्रमणों से सुरक्षित रखा।

प्रश्न 3.
प्रभाकरवर्धन के बच्चों के नाम लिखिए।
उत्तर-
प्रभाकरवर्धन के बच्चों के नाम थे –

  1. राज्यवर्धन,
  2. राजश्री,
  3. हर्षवर्धन।

प्रश्न 4.
हर्षवर्धन सिंहासन पर कब बैठा?
उत्तर-
हर्षवर्धन 606 ई० में सिंहासन पर बैठा।

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प्रश्न 5.
असम का पुराना नाम क्या था?
उत्तर-
असम का पुराना नाम कामरूप था।

प्रश्न 6.
हर्षवर्धन की जानकारी देने वाले चार स्रोतों के नाम लिखें।
उत्तर-
हर्षवर्धन की जानकारी देने वाले चार स्रोत हैं –

  1. बाणभट्ट के हर्षचरित तथा कादम्बरी,
  2. हर्षवर्धन के नाटक रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका,
  3. यूनसांग का वृत्तांत,
  4. ताम्रलेख।

प्रश्न 7.
हर्षवर्धन ने कौन-कौन से नाटक लिखे?
उत्तर-
हर्षवर्धन ने रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका नामक नाटक लिखे।

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प्रश्न 8.
हर्षवर्धन की बहन का नाम लिखें। उसके पति को किस राजा ने मारा?
उत्तर-
हर्षवर्धन की बहन का नाम राजश्री था। उसके पति की हत्या बंगाल के राजा शशांक ने मालवा के राजा देवगुप्त के साथ मिलकर की थी।

प्रश्न 9.
हर्षवर्धन ने कौन-से चालुक्य राजा के साथ युद्ध किया?
उत्तर-
हर्षवर्धन ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध किया।

प्रश्न 10.
नालन्दा विश्वविद्यालय के मुखिया का नाम बताएं।
उत्तर-
नालन्दा विश्वविद्यालय के मुखिया का नाम शीलभद्र था।

प्रश्न 11.
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम लिखें।
उत्तर-
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम बाणभट्ट था।

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प्रश्न 12.
ह्यूनसांग कौन था? वह भारत किस राजा के समय आया?
उत्तर-
ह्यूनसांग एक चीनी यात्री था। वह हर्षवर्धन के राज्यकाल में भारत आया।

प्रश्न 13.
बाणभट्ट कौन था?
उत्तर-
हर्षवर्धन का राजकवि।

प्रश्न 14.
बाणभट्ट ने हर्षवर्धन के जीवन तथा कार्यों के बारे में कौन-सी पुस्तक लिखी?
उत्तर-
हर्षचरित।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हर्षवर्धन की कन्नौज विजय के बारे में लिखें।
उत्तर-
मालवा अथवा कन्नौज के राजा देवगुप्त ने हर्ष की बहन राजश्री को कैद कर लिया था। वह उसकी कैद से भागकर जंगलों में चली गई थी। उसको ढूंढ़ने के पश्चात् हर्ष ने मालवा पर आक्रमण कर दिया। देवगुप्त हार गया तथा हर्ष ने कन्नौज को अपने राज्य में मिला लिया। उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन सिंहासन पर किस प्रकार बैठा?
उत्तर-
हर्षवर्धन से पहले उसका बड़ा भाई राज्यवर्धन स्थाणेश्वर का शासक था। लेकिन बंगाल के शासक शशांक ने राज्यवर्धन को धोखे से मार दिया। राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात् 606 ई० में हर्षवर्धन स्थाणेश्वर के सिंहासन पर बैठा। उस समय उसकी आयु 16 वर्ष की थी।

प्रश्न 3.
हर्षवर्धन के स्थानीय प्रबन्ध के बारे में लिखें।
उत्तर-
हर्षवर्धन ने अपने राज्य को प्रान्तों में बांटा हुआ था। प्रान्तों को भुक्ति कहते थे। प्रान्त का मुखिया उपारिक होता था। वह अपने प्रान्त में शान्ति-व्यवस्था बनाए रखता था तथा कानूनों को लागू करता था।

प्रान्त विषयों में बंटे हुए थे। विषयपति अपने विषय में शान्ति स्थापित करता था तथा सुरक्षा की व्यवस्था करता था। गांव शासन की सबसे छोटी इकाई थी। गांव का प्रबन्ध पंचायत करती थी।

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निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
हर्षवर्धन की विजयों का वर्णन करें।
उत्तर-
हर्षवर्धन की विजयों का वर्णन इस प्रकार है –
1. बंगाल की विजय-सबसे पहले हर्ष ने बंगाल पर आक्रमण किया। उसने अपने भाई के हत्यारे को बुरी तरह हराया। हर्षवर्धन तथा उसके मित्र कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मन ने बंगाल के राज्य को आपस में बांट लिया।

2. मालवा की विजय-हर्षवर्धन ने मालवा के राजा देवगुप्त को हराया तथा उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया।

3. वल्लभी की विजय-हर्षवर्धन ने वल्लभी के राजा ध्रुवसेन पर हमला किया तथा उसके राज्य पर अधिकार लिया। लेकिन बाद में उसकी ध्रुवसेन से सन्धि हो गई।

4. सिन्ध तथा नेपाल–हर्षवर्धन ने सिन्ध के राजा को भी हराया तथा नेपाल से कर प्राप्त किया।

5. गंजम की विजय-गंजम की विजय हर्ष की अन्तिम विजय थी। उसने गंजम पर कई हमले किए। आरम्भ में तो वह असफल रहा, लेकिन 643 ई० में उसने इस प्रदेश पर भी पूरी तरह से अधिकार कर लिया।

6. पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध-हर्षवर्धन ने दक्षिण में भी अपने राज्य का विस्तार करना चाहा, लेकिन दक्षिण के चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने उसको हरा दिया।

राज्य-विस्तार–हर्षवर्धन के राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में कामरूप (असम) से लेकर उत्तर-पश्चिम में पंजाब तक फैली हुई थीं। पश्चिम में अरब सागर तक का प्रदेश उसके अधीन था।

प्रश्न 2.
नालन्दा विश्वविद्यालय के बारे में लिखें।
उत्तर-
हर्षवर्धन के समय नालन्दा सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था। यह विश्वविद्यालय वर्तमान पटना के समीप स्थित था। इसमें 10,000 विद्यार्थी पढ़ते थे तथा 1510 अध्यापक थे। इस शिक्षा केन्द्र में दर्शन, ज्योतिष, चिकित्सा, विज्ञान, धर्म, गणित आदि की शिक्षा दी जाती थी। हर्षवर्धन ने इस विश्वविद्यालय की आर्थिक सहायता के लिए 100 गांवों का भूमि-कर निश्चित किया हुआ था। चीनी यात्री ह्यूनसांग ने भी संस्कृत भाषा का ज्ञान नालन्दा विश्वविद्यालय से ही प्राप्त किया।

PSEB 6th Class Social Science Solutions Chapter 16 हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.)

प्रश्न 3.
एनसांग ने हर्षवर्धन के बारे में क्या लिखा है?
उत्तर-
चीनी यात्री ह्यूनसांग ने अपनी पुस्तक ‘सी० यू० की०’ में हर्षवर्धन के जीवन तथा राज्य-प्रबन्ध का वर्णन किया है। वह लिखता है कि हर्ष एक कर्त्तव्य पालन करने वाला राजा था। उसका राज्य-प्रबन्ध उच्चकोटि का था। हर्ष ने अनेक मठ तथा स्तूप बनवाए तथा प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किए। हर्षवर्धन के पास एक विशाल सेना थी। उपज का 1/6 भाग भूमिकर के रूप में वसूल किया जाता था। सज़ाएं बहुत सख्त थीं, फिर भी सड़कें सुरक्षित नहीं थीं। ह्यूनसांग को रास्ते में दो बार लूट लिया गया था।

प्रश्न 4.
हर्षवर्धन की धार्मिक सभाओं के बारे में जानकारी दीजिए।
उत्तर-
हर्षवर्धन ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए बौद्ध सभाओं का आयोजन किया। इन सभाओं का वर्णन इस प्रकार है –

1. कन्नौज की धर्मसभा-643 ई० में हर्षवर्धन ने कन्नौज में बौद्ध धर्म की सभा का आयोजन किया। ह्यूनसांग इस सभा का सभापति था। यह सभा 23 दिन तक चली। इसमें बहुत-से विद्वानों ने भाग लिया।

2. प्रयाग की सभा-643 ई० में ही हर्ष ने प्रयाग में भी सभा का आयोजन किया। यह सभा 75 दिनों तक चलती रही। इस सभा में भी ह्यूनसांग ने भाग लिया। बहुत-से अन्य विद्वान् भी सभा में उपस्थित थे। सभा में महात्मा बुद्ध, सूर्य तथा शिव की पूजा हुई। इस सभा में हर्षवर्धन ने दिल खोल कर दान दिया।

PSEB 6th Class Social Science Solutions Chapter 16 हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.)

हर्षवर्धन का काल (600-650 ई.) PSEB 6th Class Social Science Notes

  • पुष्यभूति वंश के राज्य की स्थिति – पुष्यभूति वंश का राज्य वर्तमान हरियाणा के कुरुक्षेत्र प्रदेश में स्थापित था।
  • पुष्यभूति राज्य की राजधानी – पुष्यभूति राज्य की राजधानी स्थाणेश्वर थी। इसको आजकल थानेसर कहते हैं।
  • पुष्यभूति वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा – पुष्यभूति वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा हर्षवर्धन था। वह 606 ई० में सिंहासन पर बैठा तथा कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।
  • बाणभट्ट – बाणभट्ट हर्षवर्धन का दरबारी कवि था। उसकी पुस्तक ‘हर्षचरित’ से हर्षकाल की जानकारी मिलती है।
  • ह्यूनसांग – ह्यूनसांग एक चीनी यात्री था जो हर्षवर्धन के समय में भारत आया था। उसके वृत्तांत से हर्षकाल के बारे में पता चलता है।
  • प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानन्द – ये तीन नाटक हैं जो हर्षवर्धन ने लिखे थे।
  • नालन्दा विश्वविद्यालय – नालन्दा विश्वविद्यालय बिहार में स्थित था तथा यह हर्षकाल का एक प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था। ह्यूनसांग ने इस विश्वविद्यालय में कुछ समय शिक्षा प्राप्त की थी।
  • हर्षवर्धन की मृत्यु – हर्षवर्धन की मृत्यु लगभग 647 ई० में हुई थी।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

Punjab State Board PSEB 10th Class Home Science Book Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 10 Home Science Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

PSEB 10th Class Home Science Guide घर की आन्तरिक सजावट Textbook Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
घर की आन्तरिक सजावट के लिए किन-किन मुख्य वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर-
घर को सजाने के लिए अनेकों वस्तुएं मिलती हैं और प्रयोग की जा सकती हैं। परन्तु मुख्य रूप में घर की सजावट के लिए निम्नलिखित वस्तुएं प्रयोग की जाती हैं

  1. फर्नीचर
  2. पर्दे
  3. कालीन/गलीचे
  4. गद्दियां/कुशन
  5. सजावट के लिए सहायक सामान।

प्रश्न 2.
फर्नीचर का चयन करते समय कौन-सी मुख्य दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर-
फर्नीचर खरीदते समय सबसे ज़रूरी बात बजट अर्थात् आप फर्नीचर पर कितना पैसा खर्च कर सकते हो। उस के अनुसार ही आपको उसकी मज़बूती और डिज़ाइन देखना पड़ेगा। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किस काम के लिए फर्नीचर खरीदना है उदाहरणतया यदि पढ़ने वाला मेज़ (Study Table) लेना है तो उसकी ऊंचाई, किताबें रखने के लिए जगह ध्यान देने वाली बातें हैं। इसी तरह कुर्सी की ऊंचाई, बाजुओं की ऊँचाई इतनी होनी चाहिए कि आदमी उसमें आराम से बैठ सके।

प्रश्न 3.
बैठक के लिए किस प्रकार के फर्नीचर की आवश्यकता होती है?
उत्तर-
बैठक परिवार के सभी सदस्यों और मेहमानों के बैठने के लिए प्रयोग की जाती है। खेलने, पढ़ने, लिखने, संगीत सुनने के काम यहां किए जाते हैं। इसलिए बैठक में सोफा, कुर्सियां और दीवान रखे जा सकते हैं। इनके बीच एक कॉफ़ी मेज़ रखना चाहिए। सोफे और कुर्सियों के आस-पास भी छोटे मेज़ (Peg table) चाय, पानी के गिलास, कप और एशट्रे (Ashtray) रखने चाहिएं।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

प्रश्न 4.
घर में फर्नीचर पॉलिश बनाने का एक ढंग बताएं।
अथवा
फर्नीचर की पॉलिश बनाने के दो ढंग बताएं।
उत्तर-
घर में लकड़ी के फर्नीचर की पॉलिश निम्नलिखित ढंग से बनाई जा सकती है(1) तारपीन का तेल
= 2 भाग मैथिलेटिड स्पिरिट = 1 भाग
अलसी का तेल (Linseed) = 2 भाग
सिरका = 1 भाग
ऊपरलिखित चार वस्तुओं को एक बोतल में डालकर हिलाओ। यह पॉलिश गहरे रंग की लकड़ी पर प्रयोग की जा सकती है। इसमें तारपीन के तेल और सिरका चिकनाहट के दागों को खत्म करता है। अलसी का तेल लकड़ी को ठीक स्थिति में रखता है जबकि मैथिलेटिड स्पिरिट सूखने में मदद करती है। (2) शहद की मक्खी का मोम = 15 ग्राम
तारपीन का तेल = 250 मि०ली० मोम को हल्के सेक से पिघला लें। आग से नीचे उतारकर उसमें तारपीन का तेल डालें। तब तक हिलाएं जब तक मोम तेल में अच्छी तरह घुल न जाए।

प्रश्न 5.
कपड़े से ढके हुए फर्नीचर की देखभाल कैसे करनी चाहिए?
उत्तर-
कपड़े से ढके हुए फर्नीचर को वैक्यूम कलीनर से साफ़ किया जा सकता है। इसके न होने से गर्म कपड़े झाड़ने वाले ब्रुश से भी इसको साफ़ किया जा सकता है। यदि कपड़ा फिट जाए या अधिक गन्दा हो जाए तो 2 गिलास पानी में एक बड़ा चम्मच सिरका मिलाकर इसमें साफ़ मुलायम कपड़ा भिगोकर अच्छी तरह निचोड़ कर फर्नीचर के कवर को साफ़ करो। इससे कपड़ा साफ़ हो जाता है और चमक भी आ जाती है। चिकनाहट के दागों को पेट्रोल या पानी में डिटर्जेंट घोलकर साफ़ कीजिए। बाद में साफ़ पानी में कपड़ा भिगोकर साफ़ कीजिए ताकि डिटर्जेंट निकल जाए।

प्रश्न 6.
आजकल प्लास्टिक का फर्नीचर क्यों प्रचलित हो रहा है?
उत्तर-
आजकल प्लास्टिक के प्रयोग के बढ़ने के कई कारण हैं

  1. यह जल्दी नहीं टूटता।
  2. इस पर खरोंच और निशान आदि नहीं पड़ते।
  3. यह पानी नहीं चूसता इसलिए इसको आसानी से धोकर साफ़ किया जा जाता है।
  4. इसको कोई कीड़ा या दीमक नहीं लगता।
  5. यह कई रंगों में मिल जाता है।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

प्रश्न 7.
घर में पर्दे क्यों लगाए जाते हैं?
उत्तर-
पर्दो के बिना घर अच्छा नहीं लगता इसलिए पर्दे घर की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए लगाए जाते हैं। परन्तु इसके साथ ही ये घर को तेज़ हवा और रोशनी, धूलमिट्टी से भी बचाते हैं। पर्दे लगाने से कमरों में एकांत की भावना पैदा होती है।

प्रश्न 8.
कालीन या पर्दे खरीदते समय रंग का क्या महत्त्व होता है?
उत्तर-
पर्दे या कालीन खरीदते समय इनके रंग का चुनाव घर की दीवारों और फर्नीचर के रंग और डिज़ाइन के अनुसार होना चाहिए। सर्दियों में गहरे और गर्मियों में हल्के रंगों के पर्दे अच्छे रहते हैं। यदि कालीन और सोफा डिजाइनदार हो तो पर्दे प्लेन एक रंग के होने चाहिएं, इसके अतिरिक्त छोटे कमरे में प्लेन या छोटे डिज़ाइन के पर्दे ही अच्छे रहते हैं। इस तरह कालीन का चुनाव करते समय भी सोफे और पर्दो को ध्यान में रखना आवश्यक है। यदि पर्दे प्लेन हैं तो कालीन डिज़ाइनदार अधिक रंगों वाला खरीदा जा सकता है। यदि कमरा बड़ा हो तो कालीन बड़े डिज़ाइन और गहरे रंग का होना चाहिए परन्तु यदि कमरा छोटा हो तो कालीन फीके प्लेन रंग का होना चाहिए।

प्रश्न 9.
पुष्प सज्जा के लिए फूलों का चयन कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
पुष्प सज्जा के लिए फूलों का चुनाव करते समय कमरे और कमरे की रंग योजना को ध्यान में रखना चाहिए। खाने वाले कमरे में सुगन्ध रहित फूलों का प्रयोग करना चाहिए जबकि अन्य कमरों में सुगन्धित। फूलों का रंग कमरे की योजना से मेल खाता होना चाहिए। फूलों का आकार फूलदान के आकार के अनुसार होना चाहिए।

प्रश्न 10.
स्टैम होल्डर किस काम आता है और ये किस आकार में मिलते हैं?
उत्तर-
स्टैम होल्डर फूलों को अपने स्थान पर टिकाने के काम आते हैं। ये भारी होने चाहिएं ताकि फूलों के वज़न से हिल कर न गिरें। यह कई आकार के मिलते हैं जैसे, वर्गाकार, आयताकार, त्रिकोणाकार, अर्द्ध-चन्द्रमा की शक्ल और टी (T) आकार में मिलते हैं।

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प्रश्न 11.
पुष्प सज्जा के मुख्य ढंग कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
पुष्प सज्जा के लिए मुख्य ढंग हैं

  1. जापानी
  2. अमरीकन।।

जापानी ढंग संकेतक है इसमें तीन फूलों का प्रयोग किया जाता है। जिसमें सबसे ऊँचा फूल परमात्मा, मध्य का मानव और सब से नीचे वाला धरती का प्रतीक होता है। इसमें एक ही रंग के एक ही किस्म के फूल होते हैं।
अमरीकन ढंग में कई रंगों के इकट्ठे फूल प्रयोग किए जाते हैं। इसलिए इसको समूह ढंग भी कहा जाता है।

छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 12.
फर्नीचर घर की आन्तरिक सजावट के लिए क्यों ज़रूरी है?
उत्तर–
प्रत्येक परिवार की खाने, आराम करने, लेटने और आराम करने की प्रारम्भिक आवश्यकताएं हैं। इनको पूरा करने के लिए फर्नीचर की आवश्यकता होती है। इसलिए इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ यदि घर की सुन्दरता में बढ़ोत्तरी कर सकें तो सोने पर सुहागे वाली बात है। घर की सजावट में बढ़ोत्तरी करने के लिए फर्नीचर का डिज़ाइन, ढांचा और आकार परिवार की आवश्यकताओं और कमरे के आकार के अनुसार होना चाहिए। छोटे घरों में पलंग और दीवानों में लकड़ी के खाली बक्से होने चाहिए ताकि उनमें परिवार के कपड़े और अन्य आवश्यक वस्तुएं रखी जा सकें।

प्रश्न 13.
फर्नीचर का चयन और खरीदते समय कौन-कौन सी बातों को ध्यान में रखना ज़रूरी है?
उत्तर-
आजकल बाजार में कई प्रकार का फर्नीचर उपलब्ध है इसलिए उसके चुनाव के लिए हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

  1. डिज़ाइन-फर्नीचर का आकार और डिज़ाइन कमरे के आकार और अन्य वस्तुओं के आकार अनुसार ही होना चाहिए। यदि कमरा छोटा है तो फीके और प्लेन रंग के कपड़े वाला या हल्के रंग की लकड़ी वाला फर्नीचर होना चाहिए।
  2. कीमत-फर्नीचर की कीमत परिवार के बजट के अनुसार होनी चाहिए।
  3. आकार- फर्नीचर का आकार कमरे और अन्य वस्तुओं के आकार से मेल खाता होना चाहिए।
  4. फर्नीचर के कार्य-जिस काम के लिए फर्नीचर खरीदा जाए वह पूरा होना चाहिए। जैसे कि यदि अलमारी खरीदनी है तो वह आपकी आवश्यकताएं पूर्ण करती हो।
    PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट 1
  5. लकड़ी की किस्म और अन्य सामग्री-लकड़ी की बढ़िया किस्म होनी चाहिए। यदि स्टील या एल्यूमीनियम का खरीदना है तो बढ़िया किस्म की स्टील चाहिए जिसमें जंग न लगे।
  6. मज़बूती-मज़बूती देखने के लिए उसको ज़ोर से हिलाकर या उठाकर देखो। ज़मीन पर पूरी तरह टिकने वाला हो।
  7. बनावट-फर्नीचर की बनावट के लिए उसके जोड़, पॉलिश और सफ़ाई देखनी आवश्यक है।
  8. मीनाकारी-अधिकतर मीनाकारी वाला फर्नीचर अच्छा नहीं रहता क्योंकि इसकी सफ़ाई अच्छी तरह से नहीं हो सकती।
  9. कपड़े से ढका हुआ फर्नीचर-कपड़े का रंग, डिज़ाइन और गुणवत्ता की जांच करनी चाहिए।

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प्रश्न 14.
कमरों में फर्नीचर की व्यवस्था करते समय कौन-कौन सी बातों को ध्यान में रखना ज़रूरी है?
उत्तर-
कमरों में फर्नीचर की व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है

  1. उपयोगिता या प्रयोग (Use)- फर्नीचर की व्यवस्था उसकी उपयोगिता या प्रयोग पर निर्भर करती है। बैठक में जहां बैठकर बातचीत करनी हो तो वहां सोफा या कुर्सियां आदि ही प्रयोग करनी चाहिएं। उनको इस ढंग से रखें कि एक इकाई नज़र आए। हमेशा ऐसे फर्नीचर को प्राथमिकता देनी चाहिए। जिसका दोहरा प्रयोग हो सके जैसे सोफा कम बैड या बॉक्स वाला दीवान आदि।
  2. आकार (Size)-फर्नीचर का आकार कमरे के अनुसार होना चाहिए। यदि कमरा बड़ा है तो कपड़े से ढका हुआ फर्नीचर प्रयोग किया जा सकता है। परन्तु छोटे कमरे में बैंत, लकड़ी या रॉट आयरन (Wrought iron) का फर्नीचर प्रयोग कीजिए।
  3. लय (Rythm)- फर्नीचर की व्यवस्था इस ढंग से करो कि विस्तार का प्रभाव पड़े। बड़ी वस्तुओं को पहले टिकाओ फिर छोटी और फिर आवश्यकता अनुसार अन्य वस्तुएं रखी जा सकती हैं।
  4. अनुरूपता (Harmony)- फर्नीचर की भिन्न-भिन्न वस्तुओं का आपस में और इन वस्तुओं का कमरे के आकार और रंग से ताल-मेल होना चाहिए।
  5. बल (Emphasis)-कमरे में किसी स्थान पर बल देने के लिए फर्नीचर का प्रयोग किया जा सकता है।
  6. आरामदायक (Comfort)- फर्नीचर की व्यवस्था इस ढंग से हो कि परिवार के सदस्यों को उससे आराम मिल सके। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं
    1. कमरे में आने-जाने के रास्ते का ध्यान रखना।
    2. कमरे में अधिक फर्नीचर न रखें।
    3. लकड़ी, बैंत या राट आयरन के फर्नीचर को गद्दियों से सजाओ।
    4. फर्नीचर दीवारों से जोड़कर रखें और न कमरे के बीच रखें।
    5. फर्नीचर की उपयोगिता को ध्यान में रखकर उनका समूहीकरण कीजिए।

प्रश्न 15.
बैठक में फर्नीचर की व्यवस्था कैसे करोगे?
उत्तर-
बैठक में फर्नीचर इस तरह रखना चाहिए कि उसमें करने वाले कार्य जैसे आराम, खेल या संगीत आदि अच्छी तरह किया जा सके। बैठक में एक ओर सोफा, उसके सामने दीवान और अन्य कुर्सियां रखी जा सकती हैं। यह सारा सामान आपस में मेल खाता होना चाहिए। बैठक में पढ़ने के लिए एक मेज़ कुर्सी भी रखी जा सकती है। जिस पर किताबें और ट्यूब लाइट (Tube Light) होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त टी० वी०, रेडियो और संगीत के लिए पियानो रखें। एक कोने में कैरम बोर्ड, चैस या ताश भी रखी जा सकती है। दीवारों पर कुछ सुन्दर तस्वीरें लगाई जा सकती हैं। हो सके तो फूलदान में कुछ फूल या फिर गमले भी कमरे में रखे जा सकते हैं।

प्रश्न 16.
सोने के कमरे और खाने के कमरे में फर्नीचर की व्यवस्था कैसे करोगे?
उत्तर-

1. सोने वाला कमरा-सोने वाले कमरे में सबसे महत्त्वपूर्ण फर्नीचर सोने के लिए चारपाई या बैड होते हैं। ये पूर्ण आरामदायक होने चाहिएं। इनके सिर वाला भाग दीवार से लगाकर रखें। पलंग के आस-पास इतना स्थान अवश्य हो कि पलंग को झाड़पोंछ कर पलंग पोश बिछाया जा सके। हो सके तो पलंग के दोनों ओर एक छोटा-सा मेज़ रखा जाए। आजकल बैड के साथ ही साइड टेबल मिलते हैं जो टेबल लैंप या प्रयोग में आने वाला सामान रखने के काम आते हैं। इसके अतिरिक्त कमरे में दो कुर्सियां या मूड़े, एक छोटा मेज़ भी रखना चाहिए। तैयार होने के लिए प्रयोग किया जाने वाला शीशा या ड्रेसिंग टेबल को ऐसे स्थान पर रखना चाहिए जहाँ काफ़ी रोशनी पहुंचती हो। सोने वाले कमरे में अल्मारी भी ज़रूरी है। कई बार यह दीवार में ही बनी होती हैं नहीं तो स्टील या लोहे की अल्मारी भी रखी जा सकती है जिसमें कपड़े और जूते रखने के लिए पूरा स्थान हो।

2. खाना खाने वाला कमरा-इस कमरे में सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु खाने वाला मेज़ और कुर्सियां होती हैं। इनका आकार और संख्या परिवार के सदस्यों और मेहमानों के अनुसार होनी चाहिए। खाने के मेज़ वाली कुर्सियों पर गद्दियां होनी चाहिएं जो बाजू के बिना और पीछे से सीधी हों। इस मेज़ को कमरे के बीच में रखना चाहिए। खाने के कमरे में एक अल्मारी (Cupboard) भी रखी जा सकती है जिसमें बर्तन, टेबल सैट, कटलरी और इस कमरे से सम्बन्धित सामान रखा जा सके।

प्रश्न 17.
लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल कैसे करोगे?
उत्तर-
लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल के लिए निम्नलिखित ढंग हैं —
लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल-लकड़ी के फर्नीचर को प्रतिदिन साफ़ कपड़े के साथ झाड़-पोंछ कर साफ़ करना चाहिए। लकड़ी को आमतौर पर सींक लग जाती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर दीमक लग जाए तो दीमक की दवाई का खराब हिस्से पर छिड़काव (स्प्रे) करो। साल में एक दो बार लकड़ी के फर्नीचर को धूप लगवा लेनी चाहिए। अगर धूप बहुत तेज़ हो तो कुछ समय के लिए ही लगाओ। पॉलिश किए मेज़ पर गर्म सब्जी के बर्तन या ठण्डे पानी के गिलास सीधे ही नहीं रखने चाहिए, नहीं तो मेज़ पर दाग पड़ जाते हैं। इनके नीचे प्लास्टिक, कारक या जूट आदि के मैट रखने चाहिए। फर्नीचर से दाग उतारने के लिए गुनगुने पानी में सिरका मिलाकर या हल्का डिटरजेंट मिला कर कपड़ा इस घोल में गीला करके साफ करो। परन्तु फर्नीचर को ज्यादा गीला नहीं करना चाहिए। गीला साफ़ करने के बाद फर्नीचर को सूखे कपड़े के साथ साफ़ करो और स्पिरिट में भीगी रूई आदि से फिर साफ़ करो। अगर लकड़ी ज्यादा खराब हो गई हो तो इसको रेगमार से रगड़ कर पॉलिश किया जा सकता है। यदि लकड़ी में छेद हो गए हों तो उसे मधुमक्खी के मोम से भर लो।

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प्रश्न 18.
भिन्न-भिन्न प्रकार के फर्नीचर की देखभाल भिन्न-भिन्न तरीके से क्यों की जाती है?
उत्तर-
भिन्न-भिन्न फर्नीचर भिन्न-भिन्न वस्तुएं जैसे-लकड़ी, कपड़ा, प्लास्टिक, बैंत और लोहे का बना होता है। प्रत्येक वस्तु की बनावट भिन्न होती है जैसे लकड़ी के फर्नीचर को दीमक और चूहे का डर होता है जबकि लोहे के फर्नीचर को इन दोनों वस्तुओं से कोई नुकसान नहीं होता, परन्तु इसको जंग लग जाता है। इस तरह कपड़ा भी दीमक, चूहे, सिल, मिट्टी, धूल से खराब हो जाता है, परन्तु प्लास्टिक और बैंत अलग किस्म के हैं। प्लास्टिक पर पानी या सिल का कोई प्रभाव नहीं होता। ये गर्म वस्तु और धूप से खराब होता है। इस तरह बैंत के फर्नीचर की सम्भाल अन्य फर्नीचर से भिन्न होती है। इसलिए फर्नीचर भिन्न-भिन्न तरह के पदार्थों से बने होने के कारण उनकी सम्भाल भी भिन्न-भिन्न है।

प्रश्न 19.
पर्दे लगाने के क्या लाभ हैं? पर्दो के लिए कपड़ा कैसा खरीदना चाहिए?
उत्तर-

  1. पर्दे लगाने से घर सुन्दर, आकर्षक और मेहमानों का सत्कार करने वाला लगता है।
  2. पर्दो से कमरे में एकान्त (Privacy) की भावना पैदा होती है।
  3. पर्दे लगाने से यदि खिड़कियां और दरवाज़े के फ्रेम अच्छे न हों तो उनको ढका जा सकता है।
  4. ये अधिक हवा और रोशनी को भीतर आने से रोकते हैं।

पर्दे हमेशा प्लेन, प्रिंटिड, सूती, रेशमी, टपेस्ट्री, केसमैंट, खद्दर, हाथ करघे का बना कपड़ा या सिल्क साटन के ही प्रयोग किए जा सकते हैं। पर्यों के लिए बुर वाला कपड़ा प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि अपने देश में मिट्टी आंधी काफ़ी है, जिससे मिट्टी को पर्दे पकड़ लेते हैं। सबसे बढ़िया सूती पर्दे ही रहते हैं क्योंकि इन द्वारा हवा आर-पार गुज़र सकती है और ये रोशनी भी रोक लेते हैं।

प्रश्न 20.
कालीन का चयन कैसे करना चाहिए?
उत्तर-
कालीन का चुनाव करते समय उसकी मज़बूती, रंग, रूप और आकार सम्बन्धी बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। बड़े कमरे में कालीन गहरे रंग का डिजाइनदार बिछाया जा सकता है। परन्तु यह कमरे की रंग योजना से मिलता-जुलता हो। परन्तु छोटे कमरे में प्लेन और फीके रंग का कालीन ही ठीक रहता है। प्लेन कालीन पर अन्य वस्तुएं अधिक उभरती हैं। कालीन की लम्बाई, चौड़ाई कमरे के अनुसार होनी चाहिए।

प्रश्न 21.
फर्श पर बिछाने के लिए कालीन को सबसे अच्छा क्यों समझा जाता है?
उत्तर-
कालीन बिछाने से कमरे की सुन्दरता बढ़ती है। इससे टूटा-फूटा फर्श भी ढका जाता है। कालीन फर्श से थोड़ा ऊपर उठा होने के कारण उस क्षेत्र को अन्य कमरे से अलग कर आकर्षित बनाता है। कालीन बिछाने से कमरे की अन्य वस्तुएं भी सुन्दर दिखाई देती हैं और सर्दियों में कमरा गर्म रहता है।

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प्रश्न 22.
फूलों को सजाते समय किन-किन बातों को ध्यान में रखोगे?
उत्तर-
फूलों को सजाने के समय फूलों में अनुरूपता, अनुपात, लय, सन्तुलन और बल का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

  1. अनुरूपता (Harmony)-भिन्न-भिन्न प्रकार के एक रंग के फूल सजाकर उनमें अनुरूपता लाई जा सकती है। जैसे केवल लाल रंग या केवल सफ़ेद रंग से ही। यदि भिन्न-भिन्न फूल हों तो भी उनको दोहराने से अनुरूपता पैदा की जा सकती है। फूल का तालमेल फूलदान और कमरे से भी होना चाहिए।
  2. अनुपात (Proportion)-फूलों के आकार के अनुसार ही फूलदान प्रयोग किया जाना चाहिए। ग्लैडियोलस के फूल एक शीशे के फूलदान में सुन्दर लगते हैं। साथ ही सबसे ऊँचे फूल की लम्बाई फूलदान से 1/2 गुना होनी चाहिए और एक चपटे (Flat) फूलदान में सबसे ऊँचे फूल की ऊँचाई फूलदान की लम्बाई और चौड़ाई जितनी होनी चाहिए।
  3. लय (Rhythm)-फूल व्यवस्था में लय का होना बहुत आवश्यक है। हमारी नज़र लय से ही घूमती है। फूल व्यवस्था में गोल या त्रिकोण व्यवस्था के कारण लय लाई जा सकती है। इस तरह एक रंग के भिन्न-भिन्न शेड वाले फूल प्रयोग करके भी लय पैदा की जा सकती है।
  4. बल (Emphasis)-फूल व्यवस्था में भी एक केन्द्र बिन्दु होना चाहिए और यह बिन्दु व्यवस्था के बीच होना चाहिए।
  5. सन्तुलन (Balance)-फूल व्यवस्था में सन्तुलन होना भी बहुत आवश्यक है। इसमें कई बार फूल एक ओर गिरते नज़र आते हैं जो सन्तुलन को खराब करते हैं। सन्तुलन बनाने के लिए सबसे बड़ा और गहरे रंग का फूल फूलदान के बीच लगाएं अन्य फूल पत्ते उसके आस-पास दोनों बराबरी पर रखें।

प्रश्न 23.
सजावट के लिए फूलों का चयन कैसे किया जाता है और कैसे इकट्ठा किया जाता है?
उत्तर-
फूलों का चुनाव-

  1. फूलों का चुनाव करते समय यह ध्यान रखो कि खाना-खाने वाले कमरे में सुगन्ध हीन फूल हों और अन्य कमरों में सुगन्धित।
  2. फूलों का रंग कमरे की रंग योजना से मिलता-जुलता हो।
  3. फूलों का आकार फूलदान के अनुसार होना चाहिए।

फूलों को इकट्ठा करना-फूल सब से कोमल होते हैं। इनको सुबह-शाम ही तोड़ें जब इन पर धूप न पड़ती हो। फूलों को काटने के लिए तेज़ छुरी का प्रयोग करो
और टहनी हमेशा तिरछी काटो ताकि डण्डी का अधिकतर भाग, पानी सोख सके। फूलों को काटने के पश्चात् आधे घण्टे के लिए पानी की बाल्टी में भिगो दीजिए और किसी ठण्डे और अन्धेरे वाले स्थान पर रखें। फूल तोड़ते समय ध्यान रखें कि फूल पूरा न खिला हो। फूलों को अधिक समय तक ठीक रखने के लिए पानी में नमक, लाल दवाई, फिटकरी और कोयले का चूरा प्रयोग किया जा सकता है।

प्रश्न 24.
फूलदान और स्टैम होल्डर कैसे हो सकते हैं?
उत्तर-
आजकल बाज़ार में कई रंगों और डिज़ाइनों के फूलदान मिलते हैं, परन्तु अधिक डिजाइन वाला फूलदान फूल व्यवस्था के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए। फूलदान का चुनाव फूलों के रंग, आकार और जिस स्थान पर करना हो, पर निर्भर करता है। यदि फूल व्यवस्था खाने वाले मेज़ या. बैंठक के कॉफी टेबल पर करनी हो तो फूलदान छोटा और कम गहरा होना चाहिए। इस फूलदान का आकार मेज़ के आकार के अनुसार होना चाहिए। बड़े, भारी फूलों के लिए कम खरवें फूलदान प्रयोग करने चाहिए। आजकल फूलदान चीनी मिट्टी, पीतल और तांबे आदि के मिलते हैं। नर्म फूलों के लिए कांच और चांदी के फूलदान ठीक लगते हैं।
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स्टैम होल्डर फूलों को सही स्थान पर टिकाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं और फिर कई आकारों में मिलते हैं। जैसे गोल, वर्गाकार, त्रिकोणीय, आयताकार और अर्द्ध चन्द्रमा आकार में। स्टैम होल्डर खरीदते समय यह देखना आवश्यक है कि यह भारी हो, इसकी कीलों या पिनों में बहुत अधिक दूरी न हो। स्टैम होल्डर का चुनाव फूल व्यवस्था के अनुसार ही किया जाता है।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 25.
घर की आन्तरिक सजावट से क्या अभिप्राय है और कैसे की जाती है?
उत्तर-
प्रत्येक औरत में सुन्दरता और सजावट वाली वस्तु को परखने के लिए प्राकृतिक योग्यता होती है। घर की सजावट गृहिणी की रचनात्मक योग्यता को प्रकट करती है। इसलिए इसको रचनात्मक कला कहा जाता है। इसलिए घर के प्रत्येक कमरे और समूचे घर की सजावट को ही घर के अन्दर की सजावट कहा जाता है। अभिप्राय यह कि घर का प्रत्येक कमरा कला और डिज़ाइन के मूल अंशों और सिद्धान्तों के अनुसार सजाना ही घर के अन्दर की सजावट है। घर की सजावट घर को आकर्षक और सुन्दर बनाने के लिए की जाती है। परन्तु यह ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि सजावट से परिवार के सदस्यों के आराम और काम करने में रुकावट न पड़े।

घर की सजावट के लिए फर्नीचर, पर्दे, कालीन, कुशन, पुष्प सज्जा और तस्वीरें आदि प्रयोग की जाती हैं । परन्तु इन सभी वस्तुओं का चुनाव एक-दूसरे पर निर्भर करता है ताकि प्रत्येक कमरा अपने आप में डिज़ाइन की एक पूरी इकाई लगे। फर्नीचर-यह घर की सजावट का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है। परन्तु इसका चुनाव परिवार के बजट, परिवार की आवश्यकताओं, कमरे के आकार और रंग के हिसाब से करना चाहिए। क्योंकि भिन्न-भिन्न कमरों में भिन्न-भिन्न तरह का फर्नीचर प्रयोग में आता है जैसे बैठक में सोफे, कुर्सियां और दीवान आदि, सोने वाले कमरे में बैड, अल्मारी, कुर्सियां, ड्रेसिंग टेबल आदि और खाना खाने वाले कमरे में मेज़, कुर्सियां और हो सके तो बर्तनों के लिए शीशे वाली अल्मारी। यह सारा फर्नीचर बना भी भिन्न-भिन्न किस्म का होता है। यह सामान लकड़ी, कपड़े, लोहे, स्टील, बैंत या प्लास्टिक का बना हो सकता है। यह भी चुनाव करते समय ध्यान देने की बात है कि यदि कमरा बड़ा है तो कपड़े से ढका हुआ फर्नीचर रखा जा सकता है। परन्तु यदि कमरा छोटा है तो सादे डिज़ाइन में लकड़ी, बैंत या लोहे का फर्नीचर अच्छा लगता है।

पर्दे-सजावट में पर्दो की भूमिका भी बड़ी महत्त्वपूर्ण है। पर्यों के बिना घर की सजावट अधूरी लगती है। यह घर को सुन्दर बनाने के साथ-साथ घर का तापमान और हवा पर नियन्त्रण रखते हैं। पर्दे हमेशा सूती ही प्रयोग करने चाहिए। वैसे तो बाज़ार में साटन, सिल्क, टपैस्ट्री, हथ करघे के बने कपड़े मिलते हैं। पर्यों का रंग और डिज़ाइन का भी कमरे के अन्य सामान के साथ तालमेल होना चाहिए। खुले और बड़े कमरे में गहरे और बड़े डिज़ाइन वाले पर्दे अच्छे लगते हैं क्योंकि इससे कमरा छोटा दिखाई देता है जबकि छोटे कमरे में हल्के रंगों के प्लेन पर्दे ही अच्छे लगते हैं। इससे कमरा खुलाखुला सा लगता है।

कालीन-कालीन भी कमरे की सजावट में बढ़ोत्तरी करता है। आजकल कई रंगों और डिज़ाइनों के कालीन बाज़ार में उपलब्ध हैं। परन्तु कालीन खरीदते समय इसकी मज़बूती, रंग और आकार कमरे के रंग व्यवस्था के अनुसार होना चाहिए। छोटे कमरों के लिए, हल्के रंगों के प्लेन कालीन ठीक रहते हैं। इन पर सामान अन्य अधिक सुन्दर लगता है जबकि बड़े कमरे के लिए गहरे रंग में डिज़ाइनदार कालीन बिछाया जाए तो सुन्दर लगता है।

पुष्प सज्जा-पुष्प सज्जा भी घर की सजावट का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। इसमें याद रखने योग्य बात यह है कि खाने के कमरे में सुगन्धहीन फूलों की व्यवस्था होनी चाहिए और अन्य कमरों में सुगन्धित फूलों की। फूल व्यवस्था यदि खाने वाले या कॉफी टेबल पर करनी हो तो उसकी ऊँचाई उससे 4 इंच होनी चाहिए। पर यदि किसी कोने या किसी विशेष काम करने के मेज़ आदि पर रखनी हो तो बड़े आकार में की जा सकती है। पुष्प सज्जा के लिए फूलदान का चुनाव में बहुत आवश्यक है। फूलदान फूलों के रंग से मिलता-जुलता होना चाहिए जो बहुत बढ़िया हरे और ग्रे रंग में फूलदान प्रयोग किए जा सकते हैं। कोमल फूलों के लिए शीशे और चांदी के फूलदान प्रयोग करने चाहिए। फूल व्यवस्था की ऊँचाई फूलदान से 12 गुणा होनी चाहिए तभी यह ठीक अनुपात में लगती है।

तस्वीरें-घर के अन्दर की सजावट के लिए कमरों की दीवारों पर कुछ तस्वीरें भी लगाई जा सकती हैं। बड़ी दीवार पर एक बड़ी तस्वीर लगानी चाहिए। यदि एक आकार की हल्की मेल खाती छोटी तस्वीरें हैं तो उनका समूह बनाकर लगाया जा सकता है। तस्वीरों को दीवार पर बहुत ऊँचा नहीं लगाना चाहिए। ये इतनी ऊंचाई पर हों कि खड़े होकर या बैठकर बिना गर्दन ऊपर किए आराम से देख सकें।

इसके अतिरिक्त घर की सजावट के लिए लकड़ी, पीतल, तांबे, कांच, क्रिस्टल आदि के शो-पीस भी प्रयोग किए जाते हैं। छोटे-छोटे अधिक टुकड़ों से एक बड़ी सजावट की वस्तु अधिक बढ़िया लगती है। यदि तस्वीर अधिक छोटी है तो उनको एक समूह में किसी टेबल या शैल्फ (Shelf) पर सजाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त टेबल लैंप और किताबें भी कमरे की सजावट का एक भाग हैं। किताबों से कमरे को चरित्र मिलता। है। बाहर से आने वाले को किताबें देखकर ही आपके चरित्र का ज्ञान हो जाता है।

ये ऊपरलिखित वस्तुएं घर की सजावट के लिए बहुत आवश्यक हैं, परन्तु उससे भी आवश्यक उनका चुनाव और व्यवस्था करने का ढंग है जो घर की सजावट को चार चाँद लगाता है।

प्रश्न 26.
पुष्प सज्जा किस सिद्धान्त पर और कैसे की जाती है?
उत्तर-
पुष्प सज्जा करने का सिद्धान्त-कोई भी डिज़ाइन बनाने के लिए डिज़ाइन के मूल अंश जैसे कि रंग, आकार, लाइनें और रचना और डिज़ाइन के मूल सिद्धान्तों की जानकारी होनी आवश्यक है। फूलों की व्यवस्था करते समय फूल, फूलदान और अन्य आवश्यक सामग्री को मिलाकर इस तरह का डिज़ाइन बनाना चाहिए जोकि सबको अपनी ओर आकर्षित करे। फूलों की व्यवस्था करते समय निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखना आवश्यक है

1. अनुरूपता (Harmony)-भिन्न-भिन्न तरह के एक रंग के फूल सजाकर उनमें अनुरूपता लायी जा सकती है जैसे कि सफ़ेद रंग के वरबीना, फ्लोक्स, स्वीट पीज़ और पिटूनिया को मिलाकर फूलों की व्यवस्था करना। एक ही तरह के फूलों के एक रंग के भिन्न-भिन्न शेड (Shade) के फूल प्रयोग करने से भी अनुरूपता लायी जा सकती है। यदि भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल लगाए जाएं तो भी उनको दोहराने से अनुरूपता का एहसास होता है। सभी को अलग-अलग किस्मों और रंगों के फूल प्रयोग करने से परेशानी पैदा होती है। फूलों का तालमेल फूलदान और फूल रखने के आस-पास भी होना आवश्यक है। एक छोटे कमरे में बहुत बड़ा फूलदान रखा हुआ अच्छा नहीं लगता।

2. अनुपात (Proportion)-फूलदान के अनुसार ही फूलों का आकार होना चाहिए। छोटे या हल्के कांच के फूलदान में भारी फूल अच्छे नहीं लगते। एक मध्यम या लम्बे फूलों के लिए सबसे ऊँचे फूल की ऊँचाई फूलदान से 172 गुना होनी चाहिए। चपटे (Flat) फूलदान में सबसे ऊँचे फूल की ऊँचाई फूलदान की लम्बाई और चौड़ाई जितनी होनी चाहिए।

3. सन्तुलन (Balance)- फूलों की व्यवस्था का सन्तुलन ठीक होना चाहिए ताकि फूल एक ओर गिरते दिखाई न दें। यदि फूल एक ओर छोटे और दूसरी ओर बड़े लगाए जाएं या एक ओर सभी हल्के रंग के और दूसरी ओर गहरे रंग के लगाए जाएं तो फूलों का एक ओर भार अधिक लगता है जोकि देखने को उचित नहीं लगता। सही सन्तुलन बनाने के लिए सबसे लम्बा, बड़ा या रंग में गहरा फूल फूलदान के बीच लगाना चाहिए। बाकी के फूल और पत्ते इस केन्द्र बिन्दु के आस-पास इस तरह लगाओ कि दोनों ओर बराबर दिखाई दें। आस-पास के फूल थोड़े छोटे या हल्के रंग के हों तो केन्द्र पर अधिक ध्यान जाता है और देखने वाले को अधिक अच्छा लगता है।

4. लय (Rhythm)-एक अच्छी फूल व्यवस्था में लय का होना भी बहुत आवश्यक है जब किसी वस्तु को देखने के लिए हमारी नज़र आसानी से घूमती है तो वह लय के कारण ही होता है। गोल या त्रिकोणीय फूल व्यवस्था करने से लय पैदा की जा सकती है। जब फूलों के पीछे पत्ते लगाकर S या C आकार की फूल व्यवस्था की जाए जिसका केन्द्र में अधिक बल हो तो भी लय ठीक रहती है। फूलों की व्यवस्था में एक अच्छी लय दर्शाने के लिए मध्य में एक सीधा लम्बा फूल लगाओ और इसकी एक ओर तिरछी टहनी वाले पहले फूल से छोटे एक या दो फूल लगाओ और दूसरी ओर छोटे ओर तिरछे फूल लगाओ। एक ही रंग के भिन्न-भिन्न शेड के फूल प्रयोग करके भी लय उत्पन्न की जा सकती है। नज़र गहरे रंग से फीके रंग की ओर जाएगी।

5. बल (Emphasis)-फूलों की व्यवस्था में एक केन्द्र बिन्दु होना चाहिए जो आपके ध्यान को अधिक आकर्षित करे। यह केन्द्र बिन्दु व्यवस्था के बीच नीचे को होना चाहिए, बड़े, गहरे या उत्तेजित रंग के फूल के साथ यह एहसास दिलाया जा सकता है। फूलदान सादा होना चाहिए ताकि बल फूल पर हो और आपका ध्यान फूल व्यवस्था की ओर हो जाए। आस-पास के फूल छोटे, कम उत्तेजित और विरले लगाने चाहिए इस तरह करने से भी केन्द्र बिन्दु पर अधिक ध्यान जाता है।
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पीछे दिए सिद्धान्तों को मन में रखते हुए यदि पुष्प सज्जा की जाए तो देखने को बहुत सुन्दर लगेगी और कमरा भी अधिक सजा हुआ दिखाई देगा।
फूलों को सजाने के लिए मुख्य दो ढंग हैं-
(i) जापानी
(ii) अमरीकन।
(i) जापानी-यह ढंग सांकेतिक होता है। इसमें तीन फूल प्रयोग किए जाते हैं, जिनमें सबसे बड़ा (ऊंचा) फूल परमात्मा, बीच का मानव और सबसे नीचे का धरती का प्रतीक होते हैं। इसमें फूल की किस्म और एक ही रंग के होते हैं।
(ii) अमरीकन-इस ढंग में कई किस्मों के और कई रंगों के फूल इकठे प्रयोग किए जाते हैं इसलिए इस को समूह ढंग भी कहा जाता है। एक प्रकार की फूल व्यवस्था में भिन्न-भिन्न किस्म और भिन्न-भिन्न रंगों के फूल प्रयोग किए जाते हैं। इस तरह की व्यवस्था बड़े कमरे में ही की जा सकती है या किसी विशेष अवसर पर भी की जा सकती है।
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इन ढंगों के अतिरिक्त और भी कई प्रकार के फूलों की व्यवस्था की जाती है जैसे कि ऊपरलिखित दोनों ढंगों को मिलाकर जिसमें दोनों ही ढंगों के अच्छे गुण लिए जाते हैं। छोटे फूलों से निचले बर्तन में भी फूलों की व्यवस्था की जाती है।

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प्रश्न 27.
कमरों की सजावट में कौन कौन-सी सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर-
कमरों की सजावट के लिए फर्नीचर, पर्दे और कालीन के अतिरिक्त तस्वीरें और अन्य सामान प्रयोग किया जा सकता है। इनमें तस्वीरें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

बैठक में साधारण शौक की तस्वीरें जैसे कि कोई दृश्य आदि की तस्वीर लगानी चाहिए। एक कमरे में एक ही प्रकार की तस्वीरें लगानी चाहिएं। यदि ये अधिक महंगी होने के कारण न खरीदी जा सकें तो इनकी प्रतिलिपियां भी लगाई जा सकती हैं। अधिक छोटी-छोटी तस्वीरें लगाने की अपेक्षा एक या दो बड़ी तस्वीरें लगानी अधिक अच्छी लगती हैं। एक कमरे की सभी तस्वीरों के फ्रेम एक से ही होने चाहिए। अधिक तस्वीरों से कमरा रंग-बिरंगा लगता है। यदि अधिक तस्वीरों लगानी भी हैं तो उनको इकट्ठा करके लगाएं। तस्वीरें अधिक ऊँची नहीं लगानी चाहिए ताकि उनके देखने के लिए आँखों और गर्दन पर कोई बोझ न पड़े।

तस्वीरों के अतिरिक्त घर को सजाने के लिए पीतल, तांबे, लकड़ी, दांत खण्ड, क्रिस्टल, शीशे और चीनी मिट्टी की कई वस्तुएं मिलती हैं। यह भी अधिक छोटी वस्तुएं खरीदने से कुछ बड़ी वस्तुएं खरीदना ही अच्छा रहता है। इनको ऐसे स्थान पर रखें जहाँ पड़ी सुन्दर लगें। साधारण घरों में दीवार में छोटे झरोखे रखे जाते हैं। इन वस्तुओं को वहां रखा जा सकता है या फिर किसी मेज़ आदि पर रखी जा सकती हैं। इनकी रोज़ाना झाड़-पोंछ करनी चाहिए और जब आवश्यकता हो इनको पॉलिश करना चाहिए।
किताबों से कमरे को चरित्र मिलता है। कमरे में बाहर से आने वाले को आपके मिलने से पहले ही आपके चरित्र का पता चल जाता है। किताबों का अस्तित्व बातचीत का भी एक साधन बन जाता है। इसके अतिरिक्त किताबें सजावट में भी योगदान देती हैं।

पुस्तकों के अतिरिक्त टेबल लैंप भिन्न-भिन्न बनावट, किस्म और रंगों के मिलते हैं। इस तरह अनेकों किस्मों की घड़ियां भी बाज़ार में उपलब्ध हैं। यदि ठीक तरह इनका चुनाव किए जाए तो यह घर की शान को दुगुना कर देते हैं।

प्रश्न 28.
घर की सजावट में फर्नीचर सबसे महत्त्वपूर्ण कैसे है?
उत्तर-
फर्नीचर घर की सजावट का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है क्योंकि यह महंगा होने से जल्दी बदला नहीं जा सकता। घर में भिन्न-भिन्न कमरे और भाग होते हैं और प्रत्येक कमरे में उसके प्रयोग के अनुसार ही फर्नीचर रखा जाता है और देखभाल भी भिन्न-भिन्न होती है।

बैठक-बैठक में फर्नीचर को इस तरह रखना चाहिए कि उसमें करने वाले कार्य जैसे कि आराम, खेल या संगीत आदि को अच्छी तरह किया जा सके। एक ओर सोफा, दीवान और कुर्सियां आदि रखें ताकि और मेहमानों को बैठाया जा सके। इसके बीच या एक ओर कॉफी की मेज़ रखो। कॉफी की मेज़ का आकार 45 सें० मी० x 90 सें० मी० होना चाहिए। सोफे और कुर्सियों के आस-पास छोटे मेज़ भी रखे जा सकते हैं जिन पर सिग्रेट ऐशट्रे या चाय, कॉफी के प्याले या शर्बत के गिलास रखे जाते हैं। एक ओर संगीत का सामान जैसे कि पियानो या स्टीरियो सैट या टेप रिकार्ड आदि रखे जा सकते हैं और एक कोने में कैरम, चैस या ताश मेज़ पर रखी जा सकती है। यदि पढ़ने का कमरा अलग न हो तो बैठक में ही एक ओर किताबों की अल्मारी या शैल्फ रखें और एक मेज़ और कुर्सी लिखने-पढ़ने के लिए रखे जा सकते हैं। पढ़ने वाली मेज़ पर टेबल लैंप रखा जा सकता है या इसको रोशनी के निकट होना चाहिए। आजकल कई घरों में बैठक में टी० वी० भी रखा जाता है।

दीवारों पर साधारण शौक की कुछ तस्वीरें लगाई जा सकती हैं। कमरे में एक या दो गमले या फूलों के फूलदान रखे जा सकते हैं। पीतल या लकड़ी की सजावट के सामान से भी कमरे को सजाया जा सकता है। सामान को इस ढंग से रखें कि कमरा खुलासा लगे।

सोने के कमरे-सोने के कमरे के फर्नीचर में पलंग ही प्रमुख होते हैं। पलंगों के सिर वाली साइड दीवार के साथ होनी चाहिए। पलंगों के आस-पास इतना स्थान होना चाहिए कि उनके गिर्द जाकर बिस्तर झाड कर और पलंग पोश बिछाया जा सके। पलंगों को ऐसे स्थान पर रखना चाहिए कि दरवाज़ा या खिड़की खुली होने पर भी बाहर से पलंग नज़र न आएं। आजकल डॉक्टर सख्त पलंग पर सोने की राय देते हैं। भारत में अधिक लोग सन, मुंजी, रस्सी या निवार के बनी चारपाई पर सोते हैं। यह चारपाई हल्की होती है और गर्मियों में इनको कमरे से बाहर भी निकाला जा सकता है। पलंगों के अतिरिक्त सोने वाले कमरे में दो-तीन कुर्सियां या दीवान या 2-3 मूढे और एक मेज़ भी रखे जा सकते हैं।

कई बार सोने वाले कमरे का एक भाग तैयार होने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। कमरे के एक ओर शीशे और दराजों वाली मेज़ रखें और इसके सामने एक सैटी या ‘स्टूल रखें। कमरा बड़ा होने की स्थिति में इस भाग को पर्दा लगाकर भिन्न भी किया जा

सकता है। दीवार पर शीशा टांग कर उसके नीचे एक शैल्फ बनाकर श्रृंगार मेज़ का काम । लिया जा सकता है। इसके निकट ही दीवार में एक अल्मारी बनी होनी चाहिए जिसमें कपड़े रखे जा सकें। यदि दीवार में अल्मारी न हो तो स्टील या लकड़ी की अल्मारी का प्रयोग किया जा सकता है।

खाना खाने का कमरा-खाना खाने के कमरे में खाने की मेज़ और कुर्सियां मुख्य फर्नीचर होती हैं। मेज़ 4, 6 या 8 आदमियों के लिए या इससे भी बड़ा हो सकता है। घर में खाना खाने वाले व्यक्तियों की संख्या और बाहर से आने वाले मेहमानों की संख्या अनुसार ही मेज़ का आकार होना चाहिए। खाना खाने वाली कुर्सियां छोटी, बिना बाजू की और सीधी पीठ वाली होती हैं। प्रायः कमरे के बीच मेज़ रखी जाती है और इसके आसपास कुर्सियां रखी जाती हैं। इस कमरे में चीनी के बर्तन और गिलास, छुरियां, चम्मच आदि रखने के लिए एक अल्मारी भी रखी जाती है। यह अल्मारी दीवार के बीच भी बनाई जा सकती है, कई घरों में बैठक और खाना खाने का कमरा इकट्ठा ही बनाया जाता है। इस तरह के कमरे में जो भाग बाहर की ओर लगता है वह बैठक और अन्दर रसोई के साथ लगता भाग खाना खाने के लिए प्रयोग किया जाता है।

पढ़ने-लिखने का कमरा-इसमें किताबों की अल्मारी या शैल्फ होने चाहिएं। कमरे के बीच या एक दीवार के साथ वाली मेज़ और उसके सामने एक कुर्सी रखी जाती है। इसके अतिरिक्त दो तीन आराम कुर्सियां भी रखी जा सकती हैं।

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प्रश्न 29.
फर्नीचर की देखभाल कैसे करोगे?
उत्तर-
अलग-अलग तरह के फर्नीचर की देखभाल के लिए निम्नलिखित ढंग हैं —

1. लकड़ी के फर्नीचर की देखभाल -लकड़ी के फर्नीचर को हर रोज़ साफ कपड़े के साथ झाड़-पोंछ कर साफ करना चाहिए। लकड़ी को आमतौर पर सींक लग जाती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर सींक लग जाए तो सींक की दवाई का खराब हिस्से पर छिड़काव (स्प्रे) करो। साल में एक दो बार लकड़ी के फर्नीचर को धूप लगवा लेनी चाहिए। अगर धूप बहुत तेज़ हो तो कुछ समय के लिए ही लगाओ। पालिश किए मेड़ पर गर्म सब्जी के बर्तन या ठण्डे पानी के गिलास सीधे ही नहीं रखने चाहिए, नहीं तो मेज़ पर दाग पड़ जाते हैं। इनके नीचे प्लास्टिक, कारक या जूट आदि के मैट रखने चाहिए। फर्नीचर से दाग उतारने के लिए गुनगुने पानी में सिरका मिलाकर या हल्का डिटरजेंट मिला कर, कपड़ा इस घोल में गीला करके साफ करो। परन्तु फर्नीचर को ज्यादा गीला नहीं करना चाहिए ! गीला साफ़ करने के बाद फर्नीचर को सूखे कपड़े के साथ साफ करो और स्पिरट में भीगी रूई आदि से फिर साफ करो। अगर लकड़ी ज्यादा खराब हो गई हो तो इसको रेगमार से रगड़ कर पॉलिश किया जा सकता है।
यदि लकड़ी में छेद हो गए हों तो उसे मधुमक्खी के मोम से भर- लो।

2. पेंट (रंग रोगन) किए हुए फर्नीचर की देखभाल — ऐसे फर्नीचर को धोया जा सकता है। ज्यादा गन्दा होने की स्थिति में गुनगुने पानी में डिटरजेंट मिला कर साफ करो। किसी खुरदरी वस्तु से फर्नीचर को नहीं रगड़ना चाहिए नहीं तो खरोंचें पड़ जाएंगी और कोई जगहों से पेंट उतर भी सकता है। दोबारा पेंट करना हो तों पहले पेंट को अच्छी तरह उतार लेना चाहिए।

3. बैंत के फर्नीचर की देखभाल — ऐसे फर्नीचर का प्रयोग आमतौर पर बैठक या (बग़ीचे) में किया जाता है। केन के बने डाइनिंग मेज़, कुर्सियां और सोफे भी मिल जाते हैं। नाइलोन वाली केन को ज्यादा धूप में नहीं रखना चाहिए क्योंकि धूप में यह खराब हो जाती है। इसको सूखे या गीले कपड़े से साफ़ किया जा सकता है। ज्यादा गन्दा हो तो नमक या डिटरजैंट वाले पानी से इसे धो लो और साफ कपड़े से सुखा लो। मोम वाले केन को रोज़ साफ सूखे कपड़े से पोंछ लेना चाहिए। ज्यादा खराब होने से रेती कागज़ से सभी तरफ से रगड़ कर दोबारा वैक्स पॉलिश कर लो। पेंट किए केन को लगभग दो सालों बाद दोबारा साफ़ करवा लेना चाहिए।

4. कपड़े से कवर किये (ढके) फर्नीचर की देखभाल — ऐसे फर्नीचर को बिजली के झाड़ (वैकऊम कलीनर) से या गर्म कपड़े से साफ करने वाले बुर्श से साफ करना चाहिए। कपड़े का रंग फीका पड़ गया हो तो दो गिलास पानी में एक बड़ा चम्मच सिरका मिला कर नर्म कपड़ा इसमें भिगो लो और अच्छी तरह निचोड़ कर कवर साफ करने से कपड़े में चमक आ जाती हैं और साफ भी हो जाता
है। चिकनाई के दाग़ पेट्रोल या पानी में डिटरजैंट मिला कर उसकी झाग से साफ़ किये जाते हैं। झाग से साफ करने के बाद गीले कपड़े से साफ़ करो।

5. प्लास्टिक के फर्नीचर की देखभाल — प्लास्टिक का फर्नीचर रासायनिक पदार्थों से बनता हैं। प्लास्टिक को पिघला कर अलग-अलग आकारों और डिज़ाइनों का फर्नीचर बनाया जाता है। प्लास्टिक के फर्नीचर को पानी से धोया जा सकता है। बुर्श या स्पंज आदि को साबुन वाले पानी से भिगो कर प्लास्टिक के फर्नीचर को साफ़ करके धो के सुखा लो।

6. रैक्सीन या चमड़े के फर्नीचर की देखभाल — नकली चमड़े (रैक्सीन) का फर्नीचर बहुत महंगा नहीं होता और इसे साफ़ करना भी आसान है। इसका प्रयोग आमतौर पर बैंकों, दफ्तरों, गाड़ियों आदि में किया जाता है। यह सर्दियों को ठण्डा और गर्मियों को गर्म हो जाता है इसलिये घरों में इसका प्रयोग कम ही होता है। इसको गीले कपड़े से साफ़ किया जा सकता है और आवश्यकता पड़ने पर धोया भी जा सकता है। चमड़े का फर्नीचर बहुत महंगा होता है इसलिये इसका प्रयोग कम ही किया जाता है। इसकी हर रोज़ झाड़-पोंछ करनी चाहिए और बरसात में यह अच्छी तरह सूखा होना चाहिए ताकि इसको फंगस न लगे। चमड़े के फर्नीचर को साल में दो बार दो हिस्से अलसी का तेल और एक-एक हिस्सा सिरका मिला कर बने घोल से पालिश करना चाहिए।

Home Science Guide for Class 10 PSEB घर की आन्तरिक सजावट Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
घर की आन्तरिक सजावट के लिए क्या कुछ प्रयोग होता है?
उत्तर-
पर्दे, ग़लीचे, फूल, फर्नीचर आदि।

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प्रश्न 2.
प्लास्टिक के फर्नीचर का लाभ बताओ।
उत्तर-
इसे दीमक नहीं लगती।

प्रश्न 3.
पर्दे तथा ग़लीचे कैसे होने चाहिए?
उत्तर-
दीवारों तथा फर्नीचर के रंगों के अनुसार।

प्रश्न 4.
फूलों को सजाने के लिए ढंग बताओ।
उत्तर-
जापानी तथा अमरीकन।

प्रश्न 5.
बैठक में कैसा काम किया जाता है?
उत्तर-
खेलने, लिखने, पढ़ने, मनोरंजन आदि का।

प्रश्न 6.
घर की सुन्दरता बढ़ाने के अलावा पर्दो के लाभ बताओ।
उत्तर-
तेज़ हवा, प्रकाश तथा मिट्टी धूल आदि से बचाते हैं।

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प्रश्न 7.
पर्दे लगाने से कमरों में कैसी भावना पैदा होती है?
उत्तर-
एकांत की भावना।

प्रश्न 8.
सर्दियों में (ठंडे देशों) किस रंग के पर्दे लगाए जाते हैं?
उत्तर-
गहरे रंग के।

प्रश्न 9.
छोटे कमरे में कैसे पर्दे ठीक रहते हैं?
उत्तर-
प्लेन तथा छोटे डिज़ाइन वाले।

प्रश्न 10.
खाने वाले कमरे में कैसे फूल प्रयोग करने चाहिए?
उत्तर-
सुगंध रहित।

प्रश्न 11.
जापानी ढंग में बड़ा (ऊँचा) फूल किसका प्रतीक होता है?
उत्तर-
परमात्मा का।

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प्रश्न 12.
जापानी ढंग में छोटा फल किस का प्रतीक होता है?
उत्तर-
धरती का।

प्रश्न 13.
फूल कब तोड़ने चाहिए?
उत्तर-
सुबह या शाम जब धूप कम हो।

प्रश्न 14.
फूलदान किस पदार्थ के बने होते हैं?
उत्तर-
चीनी मिट्टी, पीतल, तांबे आदि के।

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प्रश्न 15.
प्लास्टिक के फर्नीचर को किस से बचा कर रखना चाहिए?
उत्तर-
धूप तथा सर्दी से।

प्रश्न 16.
जापानी ढंग में कौन-सा फूल धरती की तरफ संकेत करता है?
उत्तर-
छोटा फूल।

प्रश्न 17.
फूलों को ठीक स्थान पर टिकाने के लिए किस वस्तु का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर-
स्टैम होल्डर।

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प्रश्न 18.
जापानी ढंग में सबसे नीचे वाला फूल किस तरफ संकेत करता है?
उत्तर-
धरती की तरफ।

प्रश्न 19.
किस किस्म की फूल व्यवस्था में कई किस्म तथा कई रंगों के फूलों का प्रयोग होता है?
उत्तर-
अमरीकन ढंग में।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गद्दियाँ/कुशन कमरे की सुन्दरता किस प्रकार बढ़ाते हैं?
उत्तर-
गद्दियाँ या कुशन कमरे की सुन्दरता बढ़ाते हैं। गद्दियाँ भिन्न-भिन्न आकार तथा _रंगों में मिल जाती हैं। इनका चुनाव फर्नीचर पर निर्भर करता है। प्लेन सोफे पर डिज़ाइन वाले कुशन, फीके रंग पर गहरे रंग के कुशन रखने से कमरे की सुन्दरता बढ़ जाती है।

प्रश्न 2.
फूलों को सजाने के ढंग बताएं।
उत्तर-
स्या उत्तर दें।

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प्रश्न 3.
बैठक तथा खाना खाने वाले कमरे का आयोजन किस प्रकार करना चाहिए?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 4.
फूलों की व्यवस्था करने समय फूलों को कैसे इकट्ठा किया जाता है तथा फूलदान का चयन कैसे किया जाता है?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 5.
फर्नीचर की देखभाल के बारे विस्तार में बताएं।
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

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प्रश्न 6.
फर्नीचर ख़रीदते समय उसके डिजाइन का ध्यान किस प्रकार रखना चाहिए?
उत्तर-
फर्नीचर ख़रीदते समय धान रखना चाहिए कि इस का डिज़ाइन कमरे में रखी ।। अन्य वस्तुओं के आकार अनुसार हो तथा कमरे के आकार के अनुसार भी हो। बड़े प्रिंट वाले कपड़े वाला फर्नीचर प्रयोग किया जाए तो कई बार कमरे का आकार छोटा लगने लगता है। फर्नीचर का रंग तथा बनावट कमरे की वस्तुओं से मिलता-जुलता भी होना चाहिए।

प्रश्न 7.
फर्नीचर का चुनाव किस प्रकार करना चाहिए ? विस्तार से बताएं।
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 8.
फर्नीचर का चुनाव करते समय उसके डिज़ाइन और आकार के बारे में क्या ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

प्रश्न 9.
फूल व्यवस्था करते समय फूलदान का चुनाव किस प्रकार करना चाहिए?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 10.
घर की आन्तरिक सजावट से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
घर के प्रत्येक कमरे तथा समूचे घर की सजावट को घर की आन्तरिक सजावट कहा जाता है। घर के प्रत्येक कमरे को डिज़ाइन के मूल अंशों तथा सिद्धान्तों के अनुसार सजाना ही घर की आन्तरिक सजावट है। घर की सजावट घर को सुन्दर तथा आकर्षक बनाने के लिये की जाती है तथा घर की सजावट के लिये फर्नीचर; पर्दे, कालीन फूल व्यवस्था तथा तस्वीरों का प्रयोग किया जाता है। घर को सजाते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि परिवार के सदस्यों के आराम में बाधा न पड़े।

प्रश्न 11.
फूलों को सजाने का जापानी ढंग क्या है?
उत्तर-
फूलों को सजाने का जापानी ढंग संकेतक होता है। इसमें तीन फूल प्रयोग किया जाते हैं जिनमें सबसे बड़ा (ऊँचा) फूल परमात्मा, मध्य का मानव तथा सबसे निचला (छोटा) धरती का प्रतीक होते हैं। इसमें फूल एक ही किस्म पर एक जैसे रंग के होते हैं।

प्रश्न 12.
बैठक तथा सोने वाले कमरे में फर्नीचर की व्यवस्था किस प्रकार करोगे?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

प्रश्न 13.
पुष्प सज्जा के जापानी और अमरीकन ढंगों के बारे में लिखो।
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 14.
कालीन के चुनाव के लिए रंग तथा आकार का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 15.
आन्तरिक सजावट के लिए पर्यों का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 16.
सोने वाले कमरे तथा रसोई का आयोजन किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

प्रश्न 17.
पढ़ने वाले कमरे तथा स्टोर का आयोजन किस प्रकार करना चाहिए?
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 18.
लकड़ी तथा कपड़े से ढके फर्नीचर की देखभाल के बारे में बताएँ।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 19.
फलों को सजाने के अमरीकन ढंग के बारे में लिखो।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्न।

प्रश्न 20.
मिट्टी वाले इलाके के लिए आप फर्नीचर का चयन किस आधार पर करेंगे?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

प्रश्न 21.
फूलों की व्यवस्था करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कोई चार प्रकार के फर्नीचर की देखभाल के बारे में बताओ।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 2.
फूलों की व्यवस्था पर नोट लिखो।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 3.
फर्नीचर खरीदते समय कौन-सी बातों को मन में रखना चाहिए?
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

PSEB 10th Class Home Science Solutions Chapter 5 घर की आन्तरिक सजावट

प्रश्न 4.
घर में भिन्न-भिन्न कमरों का आयोजन कैसे करना चाहिए?
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 5.
फर्नीचर का चयन कैसे किया जाता है? विस्तृत वर्णन करें।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 6.
फूलों की व्यवस्था के सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-
देखें उपरोक्त प्रश्नों में।

प्रश्न 7.
फूलों को सजाने के कौन-से मुख्य ढंग हैं?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. रिक्त स्थान भरें

  1. जापानी ढंग में सब से बड़ा (ऊँचा) फूल ……………….. का प्रतीक है।
  2. ……………. किस्म की फूल व्यवस्था में कई प्रकार तथा कई रंगों के फूल इक्ट्ठे प्रयोग किए जाते हैं।
  3. …………… फूलों को ठीक स्थान पर टिकाने के लिए प्रयोग होते हैं।
  4. जापानी ढंग में मध्यम फूल ………………. का प्रतीक है।

उत्तर-

  1. परमात्मा,
  2. अमरीकन,
  3. स्टैम होल्डर,
  4. मानव।

II. ठीक/ग़लत बताएं

  1. प्लास्टिक के फर्नीचर को दीमक लग जाती है।
  2. फूलों की सजावट के जापानी ढंग में दस फूलों का प्रयोग होता है।
  3. अमरीकन ढंग में कई रंगों के फूलों का प्रयोग होता है।
  4. पर्दे घर की आन्तरिक सजावट के लिए प्रयोग होते हैं।
  5. जापानी ढंग में बड़ा फूल ईश्वर का प्रतीक होता है।

उत्तर-

  1. ग़लत,
  2. ग़लत,
  3. ठीक,
  4. ठीक,
  5. ठीक।

III. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्न में ठीक है
(क) फूलों को सजाने का जापानी ढंग संकेतक है।
(ख) जापानी ढंग में नीचे वाला फूल धरती की तरफ संकेत करता है।
(ग) सर्दी में गहरे रंग के पर्दे लगाएं।
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(घ) सभी ठीक।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में ठीक है
(क) खाने वाले कमरे में सुगंधित फूल होने चाहिए।
(ख) फूल दोपहर को तोड़ें।
(ग) फूलों का आकार फूलदान के अनुसार हो।
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(ग) फूलों का आकार फूलदान के अनुसार हो।

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घर की आन्तरिक सजावट PSEB 10th Class Home Science Notes

  • घर के अन्दर की सजावट के लिए फर्नीचर, पर्दे, गलीचे, कुशन, फूल, गुलदस्ते आदि वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है।
  • फर्नीचर का चुनाव करते समय अपने बजट और आवश्यकता का ध्यान रखना चाहिए।
  • प्लास्टिक के फर्नीचर का प्रयोग आजकल इसलिए बढ़ गया है क्योंकि यह सस्ता होता है। जल्दी खराब नहीं होता और इसको दीमक नहीं लगता।
  • पर्दे और गलीचे घर की दीवारों और फर्नीचर के रंग के अनुसार ही खरीदने चाहिएं।
  • घर में फूलों को सजाने के लिए जापानी और अमेरिकन ढंगों का प्रयोग किया जा सकता है।
  • फूल व्यवस्था के लिए फूलों का चुनाव करते समय कमरे की रंग योजना को ध्यान में रखना चाहिए।
  • सोने वाले कमरे का फर्नीचर आरामदायक और आकर्षित होना चाहिए।
  • हर प्रकार के फर्नीचर को सम्भालने की जानकारी गृहिणी के पास होनी चाहिए।
  • फूलों को सजाने के लिए सुमलता, अनुपात, संतुलन, लय, बल आदि सिद्धान्तों को ध्यान में रखना आवश्यक है।

घर को यदि अन्दर से सजाया जाए तो वह देखने में सुन्दर लगता है। प्रत्येक औरत में सुन्दरता और घर को सजाने वाली वस्तु को परखने की कुदरती योग्यता होती है। घर के अन्दर की सजावट, जगह, सजावट के सामान को परिवार के सदस्यों की प्रारम्भिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। घर को सजाने के लिए अलग तरह का सामान और अच्छे ढंग-तरीके प्रयोग किए जाते हैं। घर की सजावट में औरत की रचनात्मक और कलात्मक योग्यता महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

PSEB 6th Class Physical Education Solutions Chapter 6 राष्ट्रीय ध्वज

Punjab State Board PSEB 6th Class Physical Education Book Solutions Chapter 6 राष्ट्रीय ध्वज Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 6 Physical Education Chapter 6 राष्ट्रीय ध्वज

PSEB 6th Class Physical Education Guide राष्ट्रीय ध्वज Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय झण्डे में कौन-कौन से तीन रंग हैं ? इन तीनों रंगों के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
राष्ट्रीय झण्डे के रंग-हमारे राष्ट्रीय झण्डे के तीन रंग हैं-

  1. केसरिया
  2. सफ़ेद और
  3. हरा। सब से ऊपर केसरिया रंग होता है, मध्य में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा रंग होता है।

तीनों रंगों का महत्त्व-
1. केसरिया रंग-केसरिया रंग आग से लिया गया है जीवन देना और नाश करना आग के गुण होते हैं। इसलिए केसरिया रंग वीरता और उत्साह का प्रतीक है। हमें यह दुःखियों, कमज़ोरों और ज़रूरतमन्दों की सहायता वीरता और उत्साह से करने की प्रेरणा देता है।

2. सफ़ेद रंग-सफ़ेद रंग अच्छाई, सच्चाई और शान्ति का चिह्न है। सारे राष्ट्र में ये गुण पर्याप्त मात्रा में होना चाहिएं। इस रंग पर अशोक चक्र अंकित होता है।

3. हरा रंग-हरा रंग हमारे देश की उपजाऊ भूमि और लहलहाते खेतों का प्रतीक है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है। उन्नत खेती के कारण हमारा देश अमीर और खुशहाल है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय झण्डे के आकार के बारे में नोट लिखिए।
उत्तर-
राष्ट्रीय झण्डे की लम्बाई और चौड़ाई का आपसी अनुपात 3 : 2 होता है। यह नीचे लिखे पांच आकारों का होता है।

  • 6.40 मीटर x 4.27 (21 फुट x 14 फुट)
  • 3.66 मीटर x 2.44 (12 फुट x 8 फुट)
  • 1.83 मीटर x 1.22 (6 फुट x 4 फुट)
  • 90 सेंटीमीटर x 60 सेंटीमीटर (3 फुट x 22 फुट)
  • 23 सैंटीमीटर x 15 सैंटीमीटर (9″ x 6″)।

PSEB 6th Class Physical Education Solutions Chapter 6 राष्ट्रीय ध्वज

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय झण्डा किस समय लहराया जा सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय झण्डा लहराने के अवसर-राष्ट्रीय झण्डा निम्नलिखित अवसरों पर लहराया जाता है
1. गणतन्त्र दिवस (26 जनवरी)-प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन भारत के राष्ट्रपति दिल्ली में राष्ट्रीय झण्डा लहराते हैं। देश के अन्य शहरों में भी इस दिन राष्ट्रीय झण्डा लहराया जाता है।

2. राष्ट्रीय सप्ताह (6 अप्रैल से 13 अप्रैल)-राष्ट्रीय सप्ताह जलियांवाला बाग के शहीदों की याद में मनाया जाता है। इस सप्ताह में भी राष्ट्रीय झण्डा लहराया जाता है।

3. स्वतन्त्रता दिवस (15 अगस्त)-15 अगस्त, 1947 को भारत शताब्दियों की गुलामी के बाद स्वतन्त्र हुआ। इसलिए प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त का दिन बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन भारत के प्रधानमन्त्री दिल्ली में लाल किले पर राष्ट्रीय झण्डा लहराते हैं। देश के अन्य भागों में भी राष्ट्रीय झण्डा लहराया जाता है।

4. गांधी जयन्ती-महात्मा गांधी के जन्म दिन 2 अक्तूबर को भी राष्ट्रीय झण्डा लहराया जाता है।

5. राष्ट्रीय अधिवेशन-राष्ट्रीय अधिवेशन के समय भी राष्ट्रीय झण्डा लहराया जाता है।

6. अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं-अन्तर्राष्ट्रीय खेल मुकाबलों के समय भी अन्य देशों के झण्डों के साथ हमारा राष्ट्रीय ध्वज भी लहराया जाता है।।

7. प्रान्तीय दिवस-यदि कोई प्रान्त अपना दिवस मनाये तो उस दिन भी राष्ट्रीय झण्डा लहराया जाता है।

8. लोक सभा, राज्य सभा, सुप्रीम कोर्ट, उप-राष्ट्रपति, गवर्नरों और लेफ्टिनेंट गवर्नरों के सरकारी निवास स्थानों पर राष्ट्रीय झण्डा प्रतिदिन लहराया जाता है।

प्रश्न 4.
राष्ट्रीय ध्वज कैसे लहराया जाता है ?
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय ध्वज लहराते समय केसरिया रंग सबसे ऊपर होना चाहिए।
  2. सभाओं में राष्ट्रीय ध्वज वक्ता के सिर से काफ़ी ऊंचा होना चाहिए।
  3. राष्ट्रीय ध्वज शेष सभी सजावटों में ऊंचा होना चाहिए।
  4. जुलूस में राष्ट्रीय ध्वज उठाने वाले के दाएं कन्धे पर होना चाहिए। यह बिल्कुल सीधा होना चाहिए।

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प्रश्न 5.
राष्ट्रीय झण्डा लहराते समय कौन-कौन सी सावधानियों का ध्यान रखना चाहिए ?
उत्तर-
राष्ट्रीय झण्डा लहराते समय निम्नलिखित सावधानियों का ध्यान रखना चाहिए –

  • केसरिया रंग सबसे ऊपर होना चाहिए।
  • सभाओं में राष्ट्रीय झण्डा वक्ता के पीछे उसके सिर और बाकी सजावटों आदि से ऊपर होना चाहिए।
  • जुलूस में झण्डा दायें कन्धे पर होना चाहिए।
  • जुलूस और उत्सवों के समय झण्डा स्टेज के आगे दाईं ओर लहराना चाहिए।
  • झण्डे को तेजी से चढ़ाना और धीरे-धीरे उतारना चाहिए।
  • झण्डा सूर्य निकलने से पहले चढ़ाना और सूर्य अस्त होने पर उतारना चाहिए।
  • राष्ट्रीय झण्डे से ऊपर यू० एन० ओ० का झण्डा ही लहराया जा सकता है।
  • किसी को सलामी (सेल्यूट) देते समय राष्ट्रीय झण्डा नीचे नहीं झुकाया जा सकता है।
  • एक पोल पर केवल एक ही झण्डा लहराया जा सकता है।
  • झण्डे को न ही पानी में गिरने देना चाहिए और न ही जमीन के साथ छूने देना चाहिए।
  • किसी चादर, थैले, रूमाल आदि पर राष्ट्रीय झण्डे की कढ़ाई नहीं करनी चाहिए।
  • विज्ञापन आदि में केवल सरकार ही राष्ट्रीय झण्डा दे सकती है।
  • फीके रंग वाले या फटे हुए झण्डे को नहीं लहराना चाहिए।
  • किसी बड़े व्यक्ति की मृत्यु पर राष्ट्रीय झण्डा आधी ऊंचाई तक लहराया जाता है।

प्रश्न 6.
नीचे लिखे शब्दों में से उपयुक्त शब्द चुनकर रिक्त स्थान भरेंराष्ट्रपति, गवर्नर, लैफ्टिनेंट गवर्नर, प्रधानमन्त्री।
(क) 15 अगस्त को लाल किले पर ………. झण्डा लहराते हैं।
(ख) 26 जनवरी को राजपथ पर ………. झण्डा लहराते हैं।
उत्तर-
(क) प्रधानमन्त्री
(ख) राष्ट्रपति।

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Physical Education Guide for Class 6 PSEB राष्ट्रीय ध्वज Important Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
किसी भी देश का राष्ट्रीय झण्डा किन बातों का सूचक है ?
उत्तर-
सभ्याचार तथा सभ्यता।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय झण्डे के प्रति ज्ञान देने के बारे में सरकार ने कहां प्रबन्ध किया है ? …
उत्तर-
स्कूलों और कॉलेजों में।

प्रश्न 3.
हमारे राष्ट्रीय ध्वज में कौन-कौन से तीन रंग हैं?
उत्तर-
केसरी, सफ़ेद और हरा।

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प्रश्न 4.
हमारे संविधान द्वारा तरंगे ध्वज को कब मान्यता प्राप्त हुई ?
उत्तर-
15 अगस्त, 1947 की रात को।

प्रश्न 5.
हमारे राष्ट्रीय ध्वज का केसरी रंग किस बात का सूचक है ?
उत्तर-
वीरता और जोश को।।

प्रश्न 6.
राष्ट्रीय ध्वज में चक्र का निशान कहां से लिया गया ?
उत्तर-
अशोक के सारनाथ स्तम्भ से।

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प्रश्न 7.
राष्ट्रीय ध्वज कैसे कपड़े पर बनाया जाता है ?
उत्तर-
खद्दर के कपड़े का।

प्रश्न 8.
सब से छोटा ध्वज कहां लगाया जाता है ?
उत्तर-
कार पर।

प्रश्न 9.
भारत के प्रधानमन्त्री प्रतिवर्ष लाल किले पर किस दिन राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं ?
उत्तर-
15 अगस्त को।

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प्रश्न 10.
जुलूस में राष्ट्रीय ध्वज किस कन्धे पर होना चाहिए ?
उत्तर-
दाएं कन्धे पर।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आप अपने राष्ट्रीय झण्डे के इतिहास के विषय में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
1947 में हमारा देश शताब्दियों की पराधीनता के बाद आजाद हुआ। देश की आज़ादी के साथ इसके लिए एक नया झण्डा भी तैयार किया गया। 22 जुलाई, 1947 को हमारे तिरंगे झण्डे को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त हुई, 14-15 अगस्त की रात को इसे लाल किले पर फहराया गया।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय झण्डे की बनावट के बारे में तीन-चार पंक्तियां लिखें।
उत्तर-
हमारा राष्ट्रीय झण्डा आयताकार है। इसमें तीन पृथक्-पृथक् रंग की बराबर पट्टियां होती हैं। इसलिए इसे तिरंगा झण्डा कहा जाता है। मध्य की पट्टी में गोल चक्कर का निशान होता है। राष्ट्रीय झण्डे में तीन रंग होते हैं-केसरी, सफ़ेद और हरा।

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प्रश्न 3.
राष्ट्रीय ध्वज से हमें क्या प्रेरणा मिलती है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय झण्डे से हमें निम्नलिखित प्रेरणा मिलती है –

  • वीर बहादुर बनना ।
  • तप तथा त्याग करना, सच्चाई तथा शान्ति स्थापित करना
  • प्रायः परिश्रम करते रहना
  • देश को उपजाऊ और समृद्ध बनाना।

प्रश्न 4.
हमारे राष्ट्रीय ध्वज के तीनों रंगों के महत्त्व लिखो।
उत्तर-
केसरी रंग त्याग और वीरता का प्रतीक है। सफ़ेद रंग अच्छाई, सच्चाई और शान्ति का प्रतीक है। हरा रंग हमारे देश की उपजाऊ भूमि और लहलहाते खेतों का प्रतीक है।

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रिक्त स्थानों की पूर्ति

प्रश्न-
निम्नलिखित रिक्त स्थानों को कोष्ठकों में दिए गए शब्दों में से उचित शब्द चुन कर भरो –

  1. राष्ट्रीय झण्डे को हमारे संविधान द्वारा ……….. को मान्यता प्राप्त हुई। (22 जुलाई, 1947, 15 अगस्त, 1947)
  2. राष्ट्रीय झण्डा सबसे पहले ………. की आधी रात को लहराया गया। (22 जुलाई, 1947, 14-15 अगस्त, 1947)
  3. 26 जनवरी को भारत के ……… राष्ट्रीय झण्डा लहराते हैं। (प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति)
  4. 15 अगस्त को भारत के प्रधानमन्त्री ……… पर राष्ट्रीय झण्डा लहराते हैं। (दिल्ली गेट, लाल किला)
  5. हमारे राष्ट्रीय झण्डे में सबसे ऊपर ……… रंग होता है। (हरा, केसरिया)
  6. हमारे राष्ट्रीय झण्डे के मध्य में ………. रंग होता है। (हरा, सफ़ेद)
  7. जुलूस में राष्ट्रीय झण्डा ………. कन्धे पर होना चाहिए। (बाएं, दाएं)
  8. विज्ञापन में राष्ट्रीय ध्वज ……… ही दे सकती है। (सुप्रीम कोर्ट, सरकार)
  9. किसी महान् व्यक्ति की मृत्यु पर राष्ट्रीय झण्डा ………. पर लहराया जाता है। (आधी ऊंचाई, पूरी ऊंचाई)
  10. राष्ट्रीय झण्डा तेजी से चढ़ाना और ………. उतारना चाहिए। (तेज़ी से, धीरे-धीरे)

उत्तर-

  1. 22 जुलाई, 1947
  2. 14-15 अगस्त, 1947
  3. राष्ट्रपति
  4. लाल किले
  5. केसरिया
  6. सफ़ेद
  7. दायें
  8. सरकार
  9. आधी ऊँचाई
  10. धीरेधीरे।

PSEB 7th Class Agriculture Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

Punjab State Board PSEB 7th Class Agriculture Book Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 7 Agriculture Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

PSEB 7th Class Agriculture Guide प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो :

प्रश्न 1.
अपने आस-पास मिलने वाले कोई दो नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों के नाम लिखो।
उत्तर-
पन ऊर्जा, सौर ऊर्जा।

प्रश्न 2.
अलग-अलग स्रोतों से हवा में फैल रही कोई दो जहरीली गैसों को नाम लिखो।
उत्तर-
कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर-डाइऑक्साइड।

प्रश्न 3.
फसलों को ज़रूरत के अनुसार कम-से-कम पानी लगाने के लिए विकसित की गई नवीनतम सिंचाई विधियों के नाम लिखो।
उत्तर-
फव्वारा तथा ड्रिप सिंचाई प्रणाली।

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प्रश्न 4.
रेतीली जमीनों में प्रति एकड़ कितनी.क्यारियां बनानी चाहिए ?
उत्तर-
रेतीली ज़मीनों में 16 क्यारे प्रति एकड़ बनाएं।

प्रश्न 5.
भूमि की सेहत के लिए फसली चक्र में कौन-सी फसलें आवश्यक हैं ?
उत्तर-
फसली चक्रों में फलीदार फसलें होनी चाहिएं।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दें:

प्रश्न 1.
फलीदार फसलें क्यों उगानी चाहिए ?
उत्तर-
फलीदार फसलें हवा में से नाइट्रोजन लेकर भूमि में इकट्ठा करती हैं।

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प्रश्न 2.
नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों के नाम लिखो।
उत्तर-
नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन हैं-जीव-जन्तु, हवा से ऊर्जा, अवशेष से ऊर्जा, समुद्री लहरों से ऊर्जा, पन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, जंगलात आदि।

प्रश्न 3.
फसलों और घरेलू अवशेष से किस प्रकार की खाद तैयार की जा सकती है ?
उत्तर-
फसलों के अवशेष से बनी कम्पोस्ट खाद, हरी खाद आदि तैयार की जा सकती है।

प्रश्न 4.
घरेलू स्तर पर पानी की बचत के लिए किए जा सकने वाले कोई पाँच उपाय बताएं।
उत्तर-
फर्श को धोने के स्थान पर पोंचे से साफ करना, फलों, सब्जियों को बर्तन में पानी डाल कर धोना, घर की खराब टूटियों को जल्दी-जल्दी मुरम्मत करवाना, कार को पाइप से नहीं धोना चाहिए। घरों में छोटे मुँह वाली टुटियां लगानी चाहिए। रसोई का पानी घर के बगीचे में, लॉन या गमलों को देना चाहिए।

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प्रश्न 5.
प्राकृतिक संसाधन कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
प्राकृतिक संसाधन दो प्रकार के होते हैं-

  1. नवीकरणीय
  2. अनवीकरणीय।

नवीकरणीय स्त्रोत हैं-पन बिजली, हवा से ऊर्जा, सौर ऊर्जा आदि।
अनवीकरणीय स्रोत हैं-कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ आदि।

(ग) पाँच-छ: वाक्यों में उत्तर दें:

प्रश्न 1.
प्राकृतिक संसाधनों के अधिक प्रयोग के कारण किस प्रकार की समस्याएं पैदा हो रही हैं ?
उत्तर-
प्राकृतिक संसाधनों का अधिक प्रयोग करने से अग्रलिखित समस्याएं पैदा हो रही हैं@

  1. पानी के अधिक प्रयोग से भूमिगत पानी का स्तर और नीचे जा रहा है।
  2. खेतों में अनावश्यक खादों तथा रसायनों का प्रयोग करने से मिट्टी, पानी तथा वातावरण प्रदूषित हो रहा है।
  3. शहरीकरण तथा. औद्योगीकरण के कारण जंगल काटे जा रहे हैं तथा खेती योग्य भूमि कम हो रही है। .
  4. अधिक प्रयोग के कारण अनवीकरणीय स्रोत जल्दी समाप्त हो जाएंगे।

PSEB 7th Class Agriculture Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

प्रश्न 2.
वायु प्रदूषण को कम करने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं ?
उत्तर-
वायु प्रदूषण को कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं@

  1. अधिक वृक्ष लगाने चाहिए जिससे कार्बन डाइऑक्साइड कम होती है तथा ऑक्सीजन बढ़ती है।
  2. सल्फर तथा सीसा रहित पेट्रोल का प्रयोग करना चाहिए।
  3. ज़हरीली गैसों वाले धुएं को पानी के स्प्रे में से गुज़ार कर साफ करना चाहिए।
  4. ईंधन वाले कोयले के स्थान पर सौर ऊर्जा, बायोगैस, गैस तथा बिजली का प्रयोग करना चाहिए।
  5. कारखानों में धुएं को साफ करने के लिए उपकरण लगाएं तथा चिमनियां ऊंची होनी चाहिए।
  6. हवा साफ करने के लिए फिल्टर प्लांट लगाने चाहिए।

प्रश्न 3.
खेती में पानी का उचित प्रयोग कैसे किया जा सकता है ?
उत्तर–
पानी एक प्राकृतिक स्रोत है जिसे बचाने की बहुत आवश्यकता है। खेतों में भी पानी का उचित प्रयोग बहुत ज़रूरी है। इसलिए निम्नलिखित अनुसार करना चाहिए-

  1. सिंचाई करने के लिए फव्वारा तथा ड्रिप सिंचाई प्रणाली का प्रयोग करना चाहिए।
  2. खेतों को लेज़र कराहे से समतल करने से भी पानी की बचत होती है।
  3. ऐसी फसलों की बोआई करनी चाहिए जिनको विकसित होने के लिए कम पानी की आवश्यकता हो।
  4. धान में पहले 15 दिन के बाद पानी लगातार खड़ा नहीं रखना चाहिए। धान में पानी की बचत के लिए टैंशियोमीटर का प्रयोग करना चाहिए।
  5. फसल की बोआई मेड़ों पर करनी चाहिए इससे पानी की बचत की जा सकती है।
  6. खेतों में पराली या पॉलीथीन बिछा कर मल्चिंग करने से पानी की बचत होती है।

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प्रश्न 4.
भूमि की सम्भाल के बारे में अपने विचार दें।
उत्तर-
भूमि सम्भाल के लिए निम्नलिखित अनुसार करना चाहिए@

  1. पहाड़ियों पर ढलान की उल्ट दिशा में कतारों में फसलें बोने से भूमि क्षरण कम होता है।
  2. ढलान वाले स्थानों पर सीढ़ीदार खेती करनी चाहिए।
  3. रसायनों तथा खादों का अनावश्यक प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  4. वायु द्वारा भूमि क्षरण को रोकने के लिए वायु रोधी बाड़ तथा वृक्षों की कतारें लगानी चाहिए।
  5. जैविक खेती को बढ़ावा देना चाहिए।
  6. फसलों के अवशेष से बनी कम्पोस्ट खाद, रूड़ी खाद, हरी खाद आदि का प्रयोग करना चाहिए।
  7. फसली चक्रों में फलीदार फसलें ज़रूर लगानी चाहिएं जो हवा में से नाइट्रोजन को ज़मीन में जमा करती हैं।

प्रश्न 5.
प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग एवं प्रदूषण पर एक नोट लिखो।
उत्तर-

  1. अधिक विकसित देशों ने तकनीकी तरक्की करके प्राकृतिक स्रोतों का बहुत नुकसान (दोहन) किया है तथा अधिक जनसंख्या वाले देशों; जैसे चीन तथा भारत में प्राकृतिक स्रोतों की कमी हो गई है।
  2. जगलों की अधाधुन्ध कटाई से वातावरण में मौसमी बदलाव आ रहे हैं तथा हानिकारक गैसों की वृद्धि हवा में हो रही है।
  3. पानी के अधिक प्रयोग के कारण भूमिगत जल का स्तर और नीचे जा रहा है।
  4. खेतों में अनावश्यक खादों तथा रसायनों के प्रयोग के कारण मिट्टी, पानी तथा वातावरण प्रदूषित हो रहा है।
  5. शहरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण जंगल काटे जा रहे हैं तथा खेती योग्य भूमि कम हो रही है।
  6. अधिक प्रयोग के कारण अनवीकरणीय स्रोत जल्दी समाप्त हो जाएंगे।

PSEB 7th Class Agriculture Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

Agriculture Guide for Class 7 PSEB प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण Important Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
मुख्य प्राकृतिक स्रोत कौन-से हैं ?
उत्तर-
हवा, पानी, भूमि।

प्रश्न 2.
तापमान में वृद्धि क्यों हो रही है ?
उत्तर-
जंगलों के कटने के कारण।

प्रश्न 3.
पानी के प्रदूषण के कारण क्या फैल रहा है ?
उत्तर-
रोग।

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प्रश्न 4.
ओजोन परत नष्ट होने के कारण कौन-सी किरणें धरती पर पहुंच रही हैं ?
उत्तर-
पराबैंगनी किरणें।

प्रश्न 5.
पराबैंगनी किरणों से कौन-सी बीमारी का खतरा बढ़ता है ?
उत्तर-
कैंसर का।

प्रश्न 6.
वृक्ष लगाने से कौन-सी गैस वातावरण में कम होती है ?
उत्तर-
कार्बन-डाइऑक्साइड।

PSEB 7th Class Agriculture Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

प्रश्न 7.
धरती के कुल पानी में से कितना पानी खारा है ?
उत्तर-
97%.

प्रश्न 8.
धरती पर कितना पानी बर्फ है ?
उत्तर-
2%.

प्रश्न 9.
प्रयोग होने वाले पानी में से कितना पानी कृषि में प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
90%.

PSEB 7th Class Agriculture Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

प्रश्न 10.
उद्योग तथा घरेलू प्रयोग में कितना पानी प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
उद्योग में 7% तथा घर में 3%.

प्रश्न 11.
फर्श को धोने के स्थान पर क्या करना चाहिए?
उत्तर-
पोंचे से साफ करना।

प्रश्न 12.
कार साफ करने के लिए कितना पानी चाहिए ?
उत्तर-
3 से 4 लीटर।

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प्रश्न 13.
धान में पानी की बचत के लिए क्या प्रयोग करना चाहिए ?
उत्तर-
टैंशियोमीटर।

प्रश्न 14.
भारी भूमियों में कितने क्यारे बनाने चाहिए ?
उत्तर-
8 क्यारे प्रति एकड़।

प्रश्न 15.
वन्य कृषि कैसे लाभदायक है ?
उत्तर-
भूमि क्षरण को रोकती है।

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छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
ट्यबवैल के अधिक प्रयोग से क्या हुआ है ?
उत्तर-
इससे धरती के नीचे वाले पानी का स्तर और नीचे चला गया है तथा इस तरह होता रहा तो यह पानी बहुत नीचे चला जाएगा।

प्रश्न 2.
प्राकृतिक स्रोतों से क्या भाव है ?
उत्तर-
प्रकृति से मिलने वाली प्राकृतिक वस्तुएं-जैसे-हवा, पानी, सूरज ऊर्जा, पशु, सूक्ष्मजीव, पौधे, वृक्ष, मिट्टी, खनिज आदि प्राकृतिक स्रोत हैं।

प्रश्न 3.
पहाड़ों से जंगल काटने से क्या वृद्धि हुई है ?
उत्तर-
डैमों में मल्ल जमना, भू-क्षरण, बाढ़ तथा भू-स्खलन में वृद्धि हुई है।

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प्रश्न 4.
नवीकरणीय स्रोत क्या होते हैं ?
उत्तर-
ऐंसे स्रोत जो प्रयोग के साथ-साथ नए-नए बनते रहते हैं, को नवीकरणीय स्रोत कहते हैं। उदाहरण–पन ऊर्जा, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा।

प्रश्न 5.
ईंधन में कोयले के स्थान पर क्या प्रयोग करना चाहिए ?
उत्तर-
कोयले के स्थान पर बायोगैस, सौर ऊर्जा, गैस तथा बिजली का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 6.
वस्त्र धोने के लिए पानी की सम्भाल के बारे में लिखें। …
उत्तर-
कपड़े धोने से पहले आधा घण्टा तक भिगो कर रखने से पानी बचता है तथा कपड़े धोकर बचे पानी से फर्श तथा पशुओं की शैड धो सकते हैं।

PSEB 7th Class Agriculture Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

प्रश्न 7.
फव्वारा प्रणाली का प्रयोग कौन-सी ज़मीन पर करना चाहिए ?
उत्तर-
फव्वारा प्रणाली का प्रयोग रेतीली तथा टिबों वाली ज़मीन पर किया जाता है। यहां ज़मीन समतल करने पर अधिक खर्चा आता है।

प्रश्न 8.
धान को 15 जून के बाद क्यों बोना चाहिए ?
उत्तर-
मई और जून में बहुत गर्मी होती है। यह महीने गर्म तथा शुष्क होते हैं तथा फसल को अधिक पानी देने की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए धान को 15 जून के बाद बोना चाहिए।

बड़े उत्तर वाला प्रश्न

प्रश्न-
पानी की घरेलू स्तर पर सम्भाल के बारे में बताओ।
उत्तर-

  1. फलों, सब्जियों को बहते पानी के नीचे न धोकर बर्तन में धोना चाहिए।
  2. बर्तन धोने के लिए बड़े टब में पानी भर कर धोना चाहिए। खुले पानी में नहीं।
  3. यदि बहते पानी में बर्तन धुलने हों तो टूटी को धीमा चलाएं।
  4. फर्श धोने के स्थान पर पोचा लगाएं।
  5. कपड़े धोने से पहले आधे घण्टे के लिए भिगो कर रखने चाहिएं।
  6. कपड़े धोकर बचे पानी से फर्श साफ की जा सकती है।
  7. घर में फल्श की टंकी छोटी तथा वाल्व वाली होनी चाहिए।
  8. कार को धोने के लिए 3-4 लीटर पानी की आवश्यकता है जबकि पाइप लगाकर धोने से अधिक पानी खर्च होता है।
  9. खराब टूटियों, टंकियों को तुरंत ठीक करवाएं।
  10. छतों पर वर्षा के पानी को ज़मीन में डालने के लिए बोर करने चाहिए या टैंक में स्टोर करके प्रयोग करना चाहिए।
  11. कार को लॉन में धोने से लॉन को भी पानी दिया जाता है।
  12. दांत साफ करते, शेव करते, हाथों पर साबुन मलते समय टूटी बंद रखनी चाहिए।
  13. रसोई के पानी को बगीचे, गमलों आदि में देना चाहिए।
  14. घरों में छोटे मुंह वाली टूटियां लगानी चाहिएं।

PSEB 7th Class Agriculture Solutions Chapter 10 प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण

प्राकृतिक संसाधनों का अनुरक्षण PSEB 7th Class Agriculture Notes

  • हवा, पानी, मिट्टी, सूर्य ऊर्जा, पौधे, पेड़, खनिज, पशु तथा सूक्ष्मजीव आदि – प्राकृतिक साधन व संसाधन हैं।
  • ट्यूबवैल के अधिक प्रयोग से धरती के नीचे भूमिगत जल का स्तर नीचे जा रहा है।
  • प्राकृतिक साधनों की मनुष्य द्वारा किए कार्यों के कारण हानि हो रही है; जैसे_कृषि में उर्वरकों का अनावश्यक उपयोग, औद्योगीकरण, जंगलों की कटाई आदि।
  • पानी के प्रदूषण के कारण बहुत-सी बीमारियां फैल रही हैं।
  • कुछ प्राकृतिक स्रोत नवीकरणीय होते हैं; जैसे-हवा से ऊर्जा, अवशेष से उत्पन्न ऊर्जा, पनबिजली, सौर ऊर्जा, समुद्री लहरों से ऊर्जा आदि। यह स्रोत प्रयोग के साथ नए बनते रहते हैं।
  • कुछ प्राकृतिक स्रोत प्रयोग के बाद नए नहीं बनते या सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं; जैसे-कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ, खनिज आदि।
  • हवा के प्रदूषण के कारण ओजोन परत नष्ट होती जा रही है तथा सूर्य की परा बैंगनी किरणें धरती पर पहुंच रही हैं जिससे कैंसर जैसे रोग होने का खतरा बढ़ता जा रहा है।
  • धरती पर 70% पानी है तथा कुल पानी में से 97% समुद्री खारा पानी है।
  • धरती पर कुल पानी में से 3% साफ पानी है जिसमें से 2% पानी बर्फ के रूप में है।
  • धरती पर उपलब्ध कुल पानी का सिर्फ 1% पानी ही प्रयोग लायक है।
  • पानी को खेतों में, घरों में तथा उद्योगों में संभाल कर प्रयोग करना चाहिए।
  • भूमि भी एक प्राकृतिक स्रोत है इसकी भी सम्भाल करनी आवश्यक है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
सामाजिक प्रबन्ध में परिवर्तन के सन्दर्भ में उलेमा लोगों तथा सूफियों के धार्मिक विश्वासों और व्यवहारों की चर्चा करो।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत भारत के लिए एक नवीन अनुभव था। इस्लाम धर्म के आगमन से इस देश के पूरे समाज तथा सामाजिक परम्पराओं में परिवर्तन आ गया। शासक वर्ग में भी नवीन श्रेणियां देखने को मिलीं। इन सबका वर्णन इस प्रकार है

I. सामाजिक प्रबन्ध में परिवर्तन –

मुस्लिम समाज-सल्तनत काल में सामाजिक प्रबन्ध में शासक वर्ग का विशेष महत्त्व था। इस वर्ग में बड़ी संख्या में तुर्क और पठान या अफ़गान थे। उनके अतिरिक्त कई अरब और ईरानी लोग भी उत्तरी भारत में आकर बस गए। इन आवासियों का शासक वर्ग के साथ निकट सम्बन्ध था, परन्तु ये सभी सैनिक या प्रशासक नहीं थे। इनमें व्यापारी, लेखक, मुल्ला तथा सूफ़ी भी सम्मिलित थे। इन विदेशियों में से कइयों ने इस देश की स्त्रियों से विवाह कर लिया। दूसरे, नगरों में शिल्पकारों और गांवों में किसानों के कई समूहों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उत्तरी भारत में इस्लाम धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक हो गई।

गैर-मुस्लिम समाज-इन परिवर्तनों का प्रभाव समाज के देशी तत्त्वों पर भी पड़ा। विजयनगर साम्राज्य और राजस्थान के बाहर अब कहीं-कहीं, छोटे-छोटे इलाकों पर, पुराने शासकों के उत्तराधिकारियों का अधिकार रह गया था। इनमें कुछ शासक स्वतन्त्र थे। अधिकांश शासक सुल्तानों के सामन्त मात्र थे। सल्तनतों के सीधे प्रशासन क्षेत्र में भी देशी लोगों का काफ़ी प्रभाव था। वे प्रायः प्रशासन के निचले स्तरों पर छाए हुए थे। लगान प्रबन्ध का अधिकांश कार्य उनके हाथों में था। फिर भी उनका स्तर गौण था।

ब्राह्मण अब अपना पहले वाला गौरव खो बैठे थे। उनमें से कुछ अब भी स्वतन्त्र शासकों अथवा सामन्तों के पास राजज्योतिषी के रूप में या प्रशासन में विभिन्न पदों पर थे। परन्तु अधिकांश को नये संरक्षण और नये व्यवसायों की खोज करनी पड़ी। फिर भी समाज के धार्मिक कार्यों के कारण उनका महत्त्व बना रहा। ऐसा लगता था कि इस काल में व्यापारिक उन्नति के कारण व्यापारिक जातियां पहले से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली हो गई थीं। वे कस्बों और शहरों के आर्थिक जीवन की रीढ़ की हड्डी बन गईं। अतः इस युग में वैश्य जाति का महत्त्व खूब बढ़ा।

II. उलेमा-

उलेमा अथवा मुल्ला लोग सुन्नी मर्यादा के संरक्षक माने जाते थे। वे कुरान तथा हदीस पर आधारित शतकियों से प्रचलित विश्वासों और रस्मों के बाहरी पालन पर बल देते थे। उनका मूल विश्वास था कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई भगवान् नहीं तथा मुहम्मद उसके पैगम्बर हैं। मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा और नेक जीवन व्यतीत करने के लिए चार स्तम्भ थे। इनमें से एक था-रोज़ नमाज अदा करना। दूसरा रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा अथवा प्रवास का नाम जकात था। इसके अनुसार प्रत्येक मुसलमान के लिए अपनी वार्षिक आय का एक निश्चित भाग गरीब मुसलमानों के कल्याण के लिए देना आवश्यक था। चौथा हज अर्थात् मक्का की यात्रा करना था। इन सभी रस्मों में धार्मिक भावना की अपेक्षा मर्यादा के बाह्य पालन पर अधिक बल दिया गया था।

III. सूफी-

धार्मिक नेताओं की एक और श्रेणी थी। इन्हें सूफी कहा जाता था। सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना के महत्त्व पर बल देते थे। वे शेख पीर के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर और मनुष्य के बीच बुनियादी नाता प्रेम का है। उनका यह भी विश्वास था कि पीर के नेतृत्व में एक विशेष प्रकार का जीवन व्यतीत करके ही ईश्वर में लीन होना सम्भव है। ईश्वर की प्राप्ति की आध्यात्मिक यात्रा के कई पड़ाव थे जिनमें एक ओर भावपूर्ण प्रचण्ड भक्ति थी और दूसरी ओर घोर त्याग तथा ‘कठिन संयम की आवश्यकता थी। मुल्ला लोग सूफियों को पसन्द नहीं करते थे।

सच तो यह है कि मुल्ला लोगों के विरोध के बावजूद, समाज में सूफी लोकप्रिय होते गए। उनका प्रभाव भी बढ़ता गया। उत्तरी भारत में सूफियों की कई परिपाटियां थीं। इनमें दो सबसे महत्त्वपर्ण भी-चिश्ती और सुहरानदी। उन्होंने इस्लाम को शान्तिपूर्ण ढंग से फैलाया। उनका उद्देश्य इस्लाम धर्म फैलाना नहीं था। परन्तु उनके व्यवहार से प्रभावित होकर कई लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। मुसलमान लोगों में भी उनका बड़ा प्रभाव था। स्वयं सुल्तान उन्हें लगान मुक्त भूमि दिया करते थे।
वास्तविकता तो यह है कि इस्लाम के आगमन से पूरे भारतीय समाज का रूप ही बदल गया।

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प्रश्न 2.
सन्त कबीर के विशेष सन्दर्भ में सन्तों तथा वैष्णव भक्तों के विश्वासों एवं व्यवहारों की चर्चा करें।
उत्तर-
मध्यकाल में भारत में एक महान् समाज एवं धर्म सुधार आन्दोलन चला जो भक्ति लहर के नाम से विख्यात है। सन्त लहर तथा वैष्णव भक्ति इसी आन्दोलन की दो शाखाएं थीं। भले ही इन दोनों शाखाओं के प्रचारकों के अनेक सिद्धान्त मेल खाते थे तो भी इनके विश्वासों एवं व्यवहारों में कुछ मूल अन्तर भी थे। इस दृष्टि से सन्तों की विचारधारा वैष्णव भक्ति की अपेक्षा अधिक विकसित थी। सन्त लहर को सबल बनाने वाले मुख्य सन्त कबीर जी थे। उनके सन्दर्भ में सन्तों एवं वैष्णव भक्तों के विश्वासों तथा व्यवहारों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है

I. सन्त कबीर-

जीवन-कबीर जी उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। कहते हैं कि उनका जन्म बनारस में 1398 ई० में हुआ था। उनको नीरू नामक मुसलमान जुलाहे ने पाल-पोस कर बड़ा किया था। कबीर जी भी कपड़ा बुन कर बाज़ार में बेचते थे और अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। अपने समय के कई सन्तों के साथ उनका सम्पर्क था। सन्त कबीर ने हिन्दी में रामायणी, साखी तथा शब्द छन्दों में बहुत सुन्दर भक्ति साहित्य की रचना की। इनकी रचनाओं के एक संकलन को बीजक कहा जाता है। इनके शब्द गुरु ग्रन्थ साहिब में भी सम्मिलित हैं। सन्त कबीर की मृत्यु 1518 ई० में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के मघर नामक स्थान पर हुई। उनके अनुयायी कबीर पन्थी कहलाए। परन्तु सन्त कबीर ने अपने जीवन काल में किसी संगठित पंथ की नींव नहीं रखी थी। इसलिए इनकी मृत्यु के पश्चात् कबीर पंथ कई हिस्सों में बंट गया।

विचारधारा-सन्त कबीर ने उस समय में प्रचलित विश्वासों तथा रीति-रिवाजों की कड़े शब्दों में निन्दा की। उन्होंने मूर्ति पूजा, शुद्धि स्नान, व्रत तथा तीर्थ यात्राएं आदि परम्पराओं का घोर खण्डन किया। उनके विचारानुसार, मुल्ला तथा पण्डित दोनों ही सच्ची धार्मिक जिज्ञासा से भटक चुके थे। उन्होंने वेदों और कुरान दोनों को ही कोई महत्त्व नहीं दिया।

कबीर के अनुसार परमात्मा मनुष्य के मन में बसता है। वह एक ही है; चाहे उसे अल्लाह कहा जाए या हरि। अत: मानव को अपनी अन्तरात्मा की गहराई में झांकना चाहिए। परमात्मा को अपने भीतर ढूंढ़ना ही मुक्ति है। इसी अनुभव के द्वारा ही मानव आत्मा परमात्मा के साथ चिर मिलन प्राप्त करती है। परन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति सरल नहीं है। इसके लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम-भक्ति और समर्पण की आवश्यकता है। इसमें परमात्मा से विरह की पीड़ा भी है और मुक्ति के लिए निरन्तर यत्न की आवश्यकता भी। वास्तव में इसकी प्राप्ति परमात्मा की कृपा पर निर्भर है। कहने का अभिप्राय यह है कि सच्चा गुरु स्वयं परमात्मा है। वह विश्व के बाहर भी है और भीतर भी है। इसलिए वह मानव में भी विद्यमान है। सन्त कबीर के अनुसार मुक्ति का मार्ग सबके लिए खुला है। यद्यपि उस तक कोई विरला ही पहुंचता है। इस प्रकार कबीर भक्ति के विचार सूफियों और जोगियों के विचारों के साथ मिलकर एक मौलिक विचारधारा को जन्म देते हैं।

II. सन्तों के विश्वास एवं व्यवहार सन्त लहर के प्रचारक अवतारवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते थे। वे मूर्ति-पूजा के भी विरुद्ध थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है और वह मनुष्य के मन में निवास करता है। अतः परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराइयों में डूब जाना चाहिए। अन्तरात्मा से परमात्मा को खोज निकालने का नाम ही मुक्ति है। इस अनुभव से मनुष्य की आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन हो जाती है। सन्तों के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा तुल्य है। जिस किसी को भी सच्चा गुरु मिल जाता है, उसके लिए परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं है। संत जाति-प्रथा के भेदभाव के विरुद्ध थे। कुछ प्रमुख सन्तों के नाम इस प्रकार हैं-कबीर, नामदेव, सधना, रविदास, धन्ना तथा सैन जी। श्री गुरु नानक देव जी भी अपने समय के महान् सन्त हुए हैं।

III. वैष्णव भक्तों के विश्वास एवं व्यवहार वैष्णव भक्ति शाखा के प्रचारक सीता-राम तथा राधा-कृष्ण को परमात्मा (विष्णु) का रूप मानते थे और उनकी पूजा पर बल देते थे। इस लहर के प्रचारक विष्णु को नारायण, हरि, गोबिन्द आदि के रूप में भी पूजते थे। इस लहर के प्रमुख प्रचारक रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, रामानन्द और चैतन्य महाप्रभु थे। रामानुज ने भक्ति मार्ग की महानता पर बल दिया। उन्होंने विष्णु को ईश्वर का रूप कहा। निम्बार्क ने कृष्ण तथा राधा की भक्ति का प्रचार किया। वल्लभ ने भी कृष्ण और राधा की भक्ति पर बल दिया। उनके शिष्य कृष्ण की पूजा भिन्न-भिन्न ढंगों से करते थे। रामानन्द 14वीं शताब्दी के महान् प्रचारक थे। भक्ति-मार्ग के लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर भ्रमण किया। उन्होंने अपना प्रचार आम बोल-चाल की भाषा में किया। वह जातिपाति में विश्वास नहीं रखते थे। उनके शिष्यों में अनेक जातियों के लोग शामिल थे। रामानन्द ने राम और सीता की भक्ति पर अधिक बल दिया। चैतन्य महाप्रभु बंगाल के वैष्णव प्रचारक थे। वह काफ़ी समय तक बंगाल तथा उड़ीसा में भक्ति मार्ग का प्रचार करते रहे। उन्होंने कृष्ण तथा राधा का कीर्तन करने और उनकी स्तुति में गीत गाने पर विशेष बल दिया।

सच तो यह है कि सन्त लहर तथा वैष्णव भक्ति ‘भक्ति लहर’ का अंग होते हुए भी दो पृथक् विचारधाराएं हैं। इन दोनों विचारधाराओं में कई मूल अन्तर थे। वैष्णव भक्ति के प्रचारक राम अथवा कृष्ण को विष्णु का अवतार मान कर उनकी पूजा करते थे। परन्तु सन्तों ने वैष्णव भक्ति को स्वीकार न किया। इसके अतिरिक्त वैष्णव भक्ति के कुछ प्रचारक मूर्ति-पूजा में भी विश्वास रखते थे जबकि सन्त इसके घोर विरोधी थे। वास्तव में सन्त लहर की विचारधारा वैष्णव भक्ति की अपेक्षा सूफ़ियों की विचारधारा से अधिक मेल खाती है।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य में

प्रश्न 1.
बनारस से सम्बन्धित दो संतों के नाम बताइए।
उत्तर-
भक्त कबीर तथा संत रविदास।

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प्रश्न 2.
सूफी संत किन दो नामों से प्रसिद्ध थे?
उत्तर-
शेख और पीर।

प्रश्न 3.
चिश्ती सिलसिले की नींव किसने रखी?
उत्तर-
खवाजा मुइनुद्दीन चिश्ती।

प्रश्न 4.
अलवार कौन थे?
उत्तर-
दक्षिण के वैष्णव संत।

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प्रश्न 5.
नयनार कौन थे?
उत्तर-
दक्षिण के शैव संत।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) रामानंद ने अपने प्रचार के लिए………….भाषा का प्रयोग किया।
(ii) कीर्तन की प्रथा…………ने आरम्भ की।
(iii) संत…………..परमात्मा में विश्वास रखते थे।
(iv) निम्बार्क तथा माधव………..भक्ति के प्रतिपादक थे।
(v) रामानंद ने…………..भक्ति का प्रचार किया।
उत्तर-
(i) हिंदी
(ii) चैतन्य
(iii) निर्गुण
(iv) कृष्ण
(v) राम।

3. सही / ग़लत कथन

(i) मुलतान तथा लाहौर सुहरावर्दी (सूफी मत) सिलसिले के केंद्र थे। — (✓)
(ii) गुरु ग्रंथ साहिब में संत कबीर की वाणी शामिल नहीं है। — (✗)
(iii) गीतगोबिन्द की रचना जयदेव ने की थी। — (✓)
(iv) गोरखनाथियों का मूल उद्देश्य शिवास्था को प्राप्त करना था। — (✓)
(v) शेख फ़रीद एक वैष्णव संत थे। — (✗)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध था
(A) शैव भक्ति
(B) वैष्णव भक्ति
(C) सूफी संत
(D) नाथ पंथ।
उत्तर-
(B) वैष्णव भक्ति

प्रश्न (ii)
‘पद्मावत’ का रचयिता था
(A) मलिक मुहम्मद जायसी
(B) जयदेव
(C) कल्हण
(D) सूरदास।
उत्तर-
(A) मलिक मुहम्मद जायसी

प्रश्न (iii)
‘राजतरंगिणी’ का लेखक था
(A) चन्द्रबरदाई
(B) जयदेव
(C) कलहण
(D) रामानुज।
उत्तर-
(C) कलहण

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प्रश्न (iv)
‘उर्दू भाषा का जन्म किन दो भाषाओं के मेल से हुआ?
(A) हिन्दी तथा फ़ारसी
(B) अरबी तथा फ़ारसी
(C) तुर्की तथा फ़ारसी
(D) हिन्दी तथा अरबी।
उत्तर-
(A) हिन्दी तथा फ़ारसी

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में आवासी मुसलमान किन चार श्रेणियों से थे ?
उत्तर-
भारत में आवासी मुसलमान तुर्क, पठान, अरब और ईरानी श्रेणियों से थे।

प्रश्न 2.
नगरों तथा गांवों में इस्लाम स्वीकार करने वाले दो वर्गों के नाम बताएं।
उत्तर-
नगरों में शिल्पकारों और गांवों में किसानों ने इस्लाम स्वीकार किया।

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प्रश्न 3.
सल्तनत के प्रशासन में देशी लोग अधिकतर किस स्तर पर तथा शासन प्रबन्ध के किस क्षेत्र में कार्य करते थे ?
उत्तर-
सल्तनत के प्रशासन में देशी लोग अधिकतर निचले स्तर पर कार्य करते थे। वे लगान प्रबन्ध के क्षेत्र में कार्य करते थे।

प्रश्न 4.
सल्तनत काल में व्यापारिक जातियां कहां के आर्थिक जीवन का स्तम्भ थीं ?
उत्तर-
व्यापारिक जातियां कस्बों और शहरों के आर्थिक जीवन का स्तम्भ थीं।

प्रश्न 5.
भारत में इस्लाम धर्म के तीन सम्प्रदायों के नाम बताएं तथा इनमें से सबसे अधिक संख्या किस सम्प्रदाय की थी ?
उत्तर-
भारत में इस्लाम के मुख्य तीन सम्प्रदाय ‘सुन्नी’, ‘शिया’ तथा ‘इस्माइली’ थे। इनमें से सबसे अधिक संख्या “सुन्नी’ सम्प्रदाय की थी।

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प्रश्न 6.
उलेमा लोग किन दो विषयों के विद्वान् थे ?
उत्तर-
उलेमा लोग इस्लाम के धार्मिक सिद्धान्तों तथा कानून के विद्वान थे।

प्रश्न 7.
उलेमा लोगों के विश्वास किन दो स्रोतों पर आधारित थे ?
उत्तर-
उलेमा लोगों के विश्वास कुरान तथा हदीस पर आधारित थे।

प्रश्न 8.
मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा के चार स्तम्भों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा के चार स्तम्भ हैं-

  • रोज़ नमाज़ अदा करना
  • रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा रखना
  • जकात, जिसके अनुसार प्रत्येक मुसलमान के लिए अपनी वार्षिक आय का निश्चित भाग ग़रीबों को देना आवश्यक है।
  • हज, अर्थात् मक्का की यात्रा करना।

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प्रश्न 9.
सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर किसे अधिक महत्त्व देते थे ?
उत्तर-
सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना को अधिक महत्त्व देते थे।

प्रश्न 10.
सूफी लोग किन दो नामों से प्रसिद्ध थे तथा इनकी विचारधारा के लिए किस शब्द का प्रयोग किया जाता
उत्तर-
सूफी लोग शेख और पीर के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। इनकी विचारधारा के लिए तसव्वुफ़ शब्द का प्रयोग किया जाता था।

प्रश्न 11.
सूफियों में सिलसिले अथवा परिपाटी से क्या भाव था ?
उत्तर-
सिलसिले से तात्पर्य एक सूफी शेख के मुरीदों अथवा उत्तराधिकारियों की परिपाटी से था।

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प्रश्न 12.
दिल्ली सल्तनत के समय में सूफियों की दो सबसे महत्त्वपूर्ण परिपाटियों अथवा सिलसिलों के नाम बताएं।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के समय में सूफियों की दो सबसे महत्त्वपूर्ण परिपाटियां ‘चिश्ती’ तथा ‘सुहरावर्दी’ थीं।

प्रश्न 13.
चिश्ती सिलसिले की नींव किस सूफी शेख ने रखी और वे कहां बस गए ?
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले की नींव अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने रखी थी और वे अजमेर में ही बस गए।

प्रश्न 14.
चिश्ती सिलसिले से सम्बन्धित चार प्रमुख सूफी शेखों के नाम बताएं।
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले से सम्बन्धित सूफी शेखों के नाम हैं-

  • शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी
  • फरीद शकर गंज
  • निज़ामुद्दीन औलिया तथा
  • शेख नसीरूद्दीन।

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प्रश्न 15.
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव किसने तथा कहां रखी ?
उत्तर-
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव मखदूम बहाऊद्दीन जकरिया ने मुल्तान में रखी।

प्रश्न 16.
15वीं सदी में भारत में आरम्भ होने वाली दो सूफी परिपाटियों तथा उनके संस्थापकों के नाम बताएं।
उत्तर-
15वीं सदी में भारत में आरम्भ होने वाली दो सूफी परिपाटियां शत्तारी तथा कादरी थीं। इनके संस्थापक क्रमशः शाह अब्दुल्ला शत्तारी तथा सैय्यद गौस थे।

प्रश्न 17.
चिश्ती सिलसिले के चार केन्द्रों के नाम बताएं।
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले के चार केन्द्र अजमेर, अजौधन, नारनौल तथा नागौर थे।

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प्रश्न 18.
सुहरावर्दी सिलसिले के दो केन्द्र कहां थे ?
उत्तर-
सुहरावर्दी सिलसिले के दो केन्द्र मुल्तान तथा लाहौर थे।

प्रश्न 19.
भारत के किन दो प्रदेशों में सूफियों का सबसे अधिक प्रभाव था ? किस सुल्तान के राज्यकाल में सूफी प्रभाव दक्षिण में भी पहुंचा ?
उत्तर-
भारत में पंजाब और सिन्ध में सूफियों का प्रभाव सबसे अधिक था। मुहम्मद-बिन-तुग़लक के राज्यकाल में यह प्रभाव दक्षिण में भी पहुंचा।

प्रश्न 20.
सूफियों द्वारा शातिपूर्वक ढंग से इस्लाम को फैलाने में कौन-सी दो बातें सहायक सिद्ध हुईं ?
उत्तर-
सूफियों को इन दो बातों ने सहायता पहुंचाई-

  1. उनके द्वारा आम लोगों की बोली बोलना तथा
  2. खानकाह के द्वारा साधारण लोगों के साथ उनका सम्पर्क।

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प्रश्न 21.
जोगियों का आन्दोलन मुख्यतः किन दो बातों के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी ? ।
उत्तर-
जोगियों का आन्दोलन मुख्यतः ब्राह्मणीय संस्कार विधियों तथा जाति-पाति के भेदों के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी।

प्रश्न 22.
जोगियों के दो मुख्य पंथ कौन-कौन से थे और इनमें से उत्तर भारत में कौन-सा पंथ अधिक लोकप्रिय था ?
उत्तर-
जोगियों के दो मुख्य पंथ अधोपंथी और नाथपंथी थे। इनमें से नाथपंथी पंथ उत्तर भारत में अधिक लोकप्रिय था।

प्रश्न 23.
‘कनफटे’ जोगी से क्या प्रभाव था ?
उत्तर-
कनफटा जोगी उस संन्यासी को कहते थे, जिसके कान की पट्टियों में चाकू से सुराख कर दिया जाता था ताकि वह बड़े-बड़े कुण्डल पहन सके। कनफटे जोगियों का स्थान औघड़’ योगियों से ऊंचा समझा जाता था।

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प्रश्न 24.
पंजाब में गोरखनाथियों के कितने मठ थे तथा ये किसके निरीक्षण में संगठित थे ?
उत्तर-
पंजाब में गोरखनाथियों के लगभग 12 मठ थे। ये सभी मठ ज़िला जेहलम में स्थित टिल्ल गोरखनाथ के मठाधीश अथवा ‘नाथ’ के निरीक्षण में संगठित थे।

प्रश्न 25.
मध्यकाल में विष्णु के कौन-से दो अवतारों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ ?
उत्तर-
मध्यकाल में विष्णु के ‘कृष्ण तथा राम अवतारों’ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 26.
कृष्ण भक्ति के दो प्रति-पादकों के नाम बताएं और ये दक्षिण के किन प्रदेशों से थे ?
उत्तर-
कृष्ण भक्ति के दो प्रतिपादक निम्बार्क और माधव थे। निम्बार्क का सम्बन्ध तमिलनाडु से तथा माधव का सम्बन्ध मैसूर प्रदेश से था।

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प्रश्न 27.
राधा-कृष्ण की पूजा विधि किसने तथा कहां प्रचलित की ?
उत्तर-
राधा-कृष्ण की पूजा विधि वल्लभाचार्य ने मथुरा के निकट गोवर्धन में प्रचलित की।

प्रश्न 28.
चैतन्य पर कौन-से दो भक्ति रस के कवियों का प्रभाव था ?
उत्तर-
चैतन्य पर जयदेव तथा चण्डीदास का प्रभाव था।

प्रश्न 29.
कीर्तन की प्रथा किसने आरम्भ की और यह किस प्रकार किया जाता था ?
उत्तर-
कीर्तन की प्रथा चैतन्य ने आरम्भ की। इसमें वाद्य-संगीत और नृत्य के साथ भजनों का गायन किया जाता था।

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प्रश्न 30.
चैतन्य के अनुसार मुक्ति का प्रयोजन क्या था ?
उत्तर-
चैतन्य के अनुसार मुक्ति का प्रयोजन मृत्यु के पश्चात् ‘गोलोक’ में जाना था ताकि वहां राधा और कृष्ण की अनन्तकाल तक सेवा की जा सके।

प्रश्न 31.
चैतन्य की मृत्यु कब हुई और उन्होंने कौन-से मन्दिर में अपने जीवन के अन्तिम वर्ष व्यतीत किए ?
उत्तर-
चैतन्य की मृत्यु 1534 ई० में हुई। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी के प्रसिद्ध मन्दिर में व्यतीत किए।

प्रश्न 32.
राम भक्ति का प्रचार करने वाले कौन-से भक्त थे और ये किस नगर के रहने वाले थे ?
उत्तर-
राम भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त रामानन्द जी थे। वे प्रयाग नगर के रहने वाले थे।

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प्रश् 33.
रामानन्द जी ने कौन-सी भाषा का प्रयोग किया तथा उनके मठों के साथ कौन-सी दो संस्थाएं सम्बन्धित थीं ?
उत्तर-
रामानन्द जी ने हिन्दी भाषा का प्रयोग किया। उनके मठों के साथ सम्बन्धित दो संस्थाएं थीं-पाठशालाएं तथा गौशालाएं।

प्रश्न 34.
गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से किन्हीं चार का नाम बताएं।
उत्तर-
गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से चार के नाम हैं-भक्त कबीर, नामदेव जी, रामानन्द जी तथा धनानन्द जी।

प्रश्न 35.
बनारस से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं।
उत्तर-
बनारस से सम्बन्धित दो सन्त थे-संत कबीर और संत रविदास।

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प्रश्न 36.
भक्तों तथा सन्तों के बीच दो मुख्य अन्तर कौन-से हैं ?
उत्तर-

  1. भक्त अवतारवाद तथा मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे, परन्तु सन्त निर्गुण परमात्मा को मानते थे।
  2. भक्त गुरु को अधिक महत्त्व नहीं देते थे परन्तु सन्तों के अनुसार गुरु को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था।

प्रश्न 37.
महाराष्ट्र से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं।
उत्तर-
नामदेव जी तथा त्रिलोचन जी महाराष्ट्र से सम्बन्धित दो प्रमुख सन्त थे। प्रश्न 38. राजस्थान से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं। उत्तर-राजस्थान से सम्बन्धित दो सन्त थे-धन्ना जी तथा पीपा जी।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
उलेमा लोगों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
उलेमा अथवा मुल्ला लोग सुन्नी मर्यादा के संरक्षक स्वीकार किए जाते थे। वे कुरान तथा हदीस पर आधारित सदियों से प्रचलित विश्वासों और रस्मों के बाहरी पालन पर बल देते थे। उनका मूल विश्वास था कि ‘अल्ला’ के अतिरिक्त कोई भगवान् नहीं और मुहम्मद उसके पैगम्बर हैं। वे ईश्वर की एकता पर बल देते थे। वे इस बात पर भी बल देते थे कि हज़रत मुहम्मद उनके अन्तिम पैगम्बर हैं। मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा और नेक जीवन के चार स्तम्भ थे। प्रतिदिन नमाज़ अदा करना, रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा अथवा उपवास रखना, अपनी वार्षिक आय का एक निश्चित भाग ग़रीब मुसलमानों की भलाई के लिए दान में देना तथा मक्का की यात्रा करना। उलेमा लोग रस्मों के पालन पर बल देते थे।

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प्रश्न 2.
सूफियों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
धार्मिक नेताओं की एक श्रेणी, जिन्हें सूफी कहा जाता था, बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना के महत्त्व पर बल देती थी। वे शेख और पीर के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर और मनुष्य के मध्य बुनियादी रिश्ता प्रेम का है। इसके अतिरिक्त उनका विश्वास था कि पीर की अगुवाई में एक विशेष प्रकार के जीवन को व्यतीत करने से ईश्वर में लीन होना सम्भव था। ईश्वर की प्राप्ति की आध्यात्मिक यात्रा के कई पड़ाव थे, जिसमें एक ओर भावावेग से परिपूर्ण प्रचण्ड भक्ति और दूसरी ओर घोर त्याग, संयम की आवश्यकता थी। मुल्ला लोग सूफियों को पसन्द नहीं करते थे। उनके सोचने के ढंग में आधारभूत अन्तर था।

प्रश्न 3.
व्यावहारिक स्तर पर चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिलों में कौन-से अन्तर थे ?
उत्तर-
उत्तरी भारत में सूफियों के दो सबसे महत्त्वपूर्ण सिलसिले थे-चिश्ती और सुहरावर्दी। चिश्ती परिपाटी की स्थापना अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन ने की थी। पाकपटन (पश्चिमी पाकिस्तान) के शेख फरीद शकरगंज और दिल्ली के शेख निज़ामुद्दीन औलिया का सम्बन्ध भी इसी से था। भारत में सुहरावर्दी परिपाटी की स्थापना मुल्तान के मखदूम बहाऊद्दीन जकरिया ने की। यह दोनों परिपाटियां इस काल में बराबर विकसित होती रहीं। चिश्ती और सुहरावर्दी शेखों ने देश के कई भागों में खानकाहों (सूफ़ी शेखों के इकट्ठे मिलकर रहने के स्थान) की स्थापना की।

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प्रश्न 4.
गोरखनाथी जोगियों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
गोरखनाथियों का मूल उद्देश्य शिवावस्था को प्राप्त करना था। वे इसे ‘सहज’ अथवा ‘चिर आनन्द’ की अवस्था का नाम देते थे। इस अवस्था की प्राप्ति को जोगी जीवन मुक्ति कहते थे। जोगी नौ नाथों और चौरासी सिद्धों पर विश्वास रखते थे। उनका यह भी विश्वास था कि पर्वतों पर रहने वाली तथा हिमालय की चोटी की रक्षक देवात्माएं सिद्ध ही थे।

प्रश्न 5.
गोरखनाथी जोगियों की प्रथाओं और व्यवहारों के बारे में बताएं।
उत्तर-
गोरखनाथियों के मठ में दीक्षा गुरु द्वारा दी जाती थी। दीक्षा के अन्त में जोगी की कर्णपलियों में भैरवी चाकू से सुराख किया जाता था। उसके बाद वह बड़े-बड़े कुण्डल पहन लेता था। इस रस्म के पश्चात् जोगी ‘कनफटा’ कहलाता था। केवल कनफटे जोगी को ही अपने नाम के साथ ‘नाथ’ पद के प्रयोग की आज्ञा थी। जोगी अपने पास ‘सिंगी’ भी रखते थे जिसको वे फूंक कर बजाया करते थे। गोरखनाथियों के मठों में निरन्तर धूनी सुलगती रहती थी। अकेला जोगी भजन के लिए द्वार-द्वार पर जाकर भिक्षा मांग सकता था। किन्तु जो जोगी मठ में रहते थे। वे सांझे भण्डारे में भोजन करते थे।

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प्रश्न 6.
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित वैष्णव भक्ति की पूजा विधि में नित्य नेम क्या था ?
उत्तर-
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित कृष्ण भक्ति की पद्धति का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग राधा-कृष्ण की पूजा की विधि था। पूजा के नित्य कर्म का आरम्भ मन्दिर में प्रभात के समय में घंटियां और शंख बजाकर किया जाता था। इसके बाद इष्ट देव को निद्रा से जगाते थे और उन्हें प्रसाद भेंट करते थे। इसके बाद वे थाल में दीये जलाकर उनकी आरती करते थे। आरती के पश्चात् वे भगवान् को स्नान करवाते थे तथा उन्हें नए वस्त्र पहना कर भोजन अर्पित करते थे। तत्पश्चात् गायों को चराने के लिए बाहर ले जाने की रस्म की जाती थी। इसके बाद भगवान् को दोपहर का भोजन करवा कर आरती की जाती थी। आरती के बाद पर्दा तान दिया जाता था ताकि भगवान् निर्विघ्न आराम कर सकें। भगवान् के रात के विश्राम से पूर्व भी भोजन कराने की रस्म की जाती थी।

प्रश्न 7.
रामानन्दी बैरागियों के विश्वासों तथा व्यवहारों के बारे में बताएं।
उत्तर-
रामानन्दी बैरागी जाति प्रथा में विश्वास नहीं रखते थे। उनके विचार उदार थे। वे एक साथ भोजन करते थे। उन्हें अपने मठों में नित्य कठोर नियम का पालन करना पड़ता था। वे बहुत सवेरे उठते थे और स्नान कर के पूजा-पाठ करते थे। तत्पश्चात् वे धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन एवं मनन करते थे और मठ से सम्बन्धित कार्य करते थे। उनमें से अधिकांश दिन में केवल एक बार दोपहर के समय भोजन करते थे। उनमें से कुछ बैरागी स्थान-स्थान पर घूमते थे। वे विशेष प्रकार की पोशाक पहनते थे और माथे पर विलक्षण प्रकार के तिलक लगाते थे।।

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प्रश्न 8.
सन्त कबीर का बुनियादी धार्मिक दृष्टिकोण तथा बुनियादी विश्वास क्या थे ? (M. Imp.)
उत्तर-
सन्त कबीर के बुनियादी दृष्टिकोण के अनुसार परमात्मा मानव के हृदय में बसता है। उसी को हम अल्लाह या हरि कहते हैं। अतः मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराई में झांकना चाहिए। परमात्मा को अपने भीतर ढूंढ़ना ही मुक्ति है। इस अनुभव के द्वारा मनुष्य की आत्मा परमात्मा के साथ चिर मिलन प्राप्त करती है। किन्तु यह कार्य सरल नहीं है। इसके लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण स्नेह और समर्पण की आवश्यकता है। इसमें परमात्मा से विरह की पीड़ा भी है और मुक्ति के लिए निरन्तर प्रयास की आवश्यकता भी है। वास्तव में इसकी प्राप्ति परमात्मा की कृपा पर निर्भर है। सन्त कबीर के अनुसार मुक्ति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है। फिर भी उस तक कोई विरला ही पहुंचता है।

प्रश्न 9.
सन्त कौन थे ?
उत्तर-
सन्त भक्ति-लहर के प्रचारक थे। उन्होंने 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के मध्य भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भक्ति लहर का प्रचार किया। लगभग सभी भक्ति प्रचारकों के सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक एक समान थे। परन्तु कुछ एक प्रचारकों ने विष्णु अथवा शिव के अवतारों की पूजा को स्वीकार न किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी खण्डन किया। उन्होंने वेद, कुरान, मुल्ला, पण्डित, तीर्थ स्थान आदि में से किसी को भी महत्त्व न दिया। वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि परमात्मा निराकार है। ऐसे सभी प्रचारकों को ही प्रायः सन्त कहा जाता है। वे प्रायः जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों का प्रचार करते थे।

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प्रश्न 10.
क्या सन्त लहर को वैष्णव भक्ति के साथ जोड़ा जा सकता है ?
उत्तर-
सन्त लहर को वैष्णव भक्ति के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। इन दोनों विचारधाराओं में कई मूल अन्तर थे। वैष्णव भक्ति के प्रचारक राम अथवा कृष्ण को विष्णु का अवतार मानकर उसकी पूजा करते थे। परन्तु सन्तों ने वैष्णव भक्ति को स्वीकार न किया। इसके अतिरिक्त वैष्णव भक्ति के कुछ प्रचारक मूर्ति-पूजा में भी विश्वास रखते थे, जबकि सन्त इसके घोर विरोधी थे। वास्तव में सन्त लहर की विचारधारा वैष्णव भक्ति से दूर सूफियों की विचारधारा से अधिक मेल खाती

प्रश्न 11.
भारत में इस्लाम धर्म के कौन-कौन से सम्प्रदाय थे ?
उत्तर-
भारत में इस्लाम धर्म के अनेक सम्प्रदाय थे। इनमें से सुन्नी, शिया, इस्मायली आदि सम्प्रदाय प्रमुख थे। देश के अधिकतर सुल्तान सुन्नी सम्प्रदाय को मानते थे। अतः देश की अधिकतर मुस्लिम जनता का सम्बन्ध भी इसी सम्प्रदाय से था। परन्तु शिया तथा इस्मायली मुसलमानों की संख्या भी कम नहीं थी। इन सम्प्रदायों में आपसी तनाव भी रहता था। इसका कारण यह था कि सुन्नी अपने आपको परम्परागत इस्लाम के वास्तविक प्रतिनिधि समझते थे और अन्य सम्प्रदायों के मुसलमानों को घृणा तथा शत्रुता की दृष्टि से देखते थे। मुस्लिम सम्प्रदायों का यह आपसी तनाव कभी-कभी बहुत गम्भीर रूप धारण कर लेता था, जिसका सामाजिक जीवन तथा राजनीति पर बुरा प्रभाव पड़ता था।

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प्रश्न 12.
आप भारत में सूफ़ी शेखों के बारे में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
मध्य काल में इस्लाम धर्म में एक नई सहनशील धार्मिक श्रेणी का उदय हुआ, जो सूफ़ी के नाम से लोकप्रिय है। इस धर्म श्रेणी के नेता शेख कहलाये। इस श्रेणी का उदय मुल्लाओं द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों के पालन के बाहरी दिखावे के विरुद्ध हुआ था। अतः सूफ़ी शेख बाहरी दिखावे के स्थान पर सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने और मन को शुद्ध करने पर बल देते थे। उनके अनुसार ‘प्रेम’ बहुत बड़ी शक्ति है। यह अल्लाह और मनुष्यों के आपसी सम्बन्ध को दृढ़ करता है। उनका विश्वास था कि किसी धार्मिक नेता के अधीन रहकर एक विशेष प्रकार का धार्मिक जीवन व्यतीत करने से परमात्मा को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। यह केवल प्रेम, त्याग, संयम तथा सच्ची भक्ति द्वारा ही सम्भव है।

प्रश्न 13.
बाबा फ़रीद के जीवन के विषय में बताओ। उन्होंने पंजाब में सूफी मत के लिए क्या कुछ किया ?
उत्तर-
शेख फ़रीद का जन्म ज़िला मुल्तान के एक गांव खोतवाल में हुआ था। वे बचपन से ही पक्के नमाज़ी थे। उनके मन में धार्मिक भावना उत्पन्न करने में उनकी माता जी का बहुत बड़ा हाथ था। वह दिल्ली के ख्वाजा बख्तियार काकी के शिष्य थे। वह हांसी, सिरसा तथा अजमेर में भी रहे। इनके नाम पर ही मोकल नगर का नाम फ़रीदकोट पड़ा। बख्तियार काकी की मृत्यु के पश्चात् वह चिश्ती गद्दी के स्वामी बने। उन्होंने अपनी आयु के अन्तिम दिन अयोधन में व्यतीत किए। दूर-दूर से लोग इनके दर्शनों के लिए यहां आते थे। फ़रीद के प्रयत्नों से चिश्ती सम्प्रदाय ने बड़ी उन्नति की। दिल्ली के चिश्ती गद्दी के सूफ़ी सन्त समय-समय पर पंजाब में भी आते रहे। बाबा फ़रीद ने पंजाब में सूफी मत का दूर-दूर तक प्रचार किया। उन्होंने अनेक श्लोकों की रचना की। उनके कुछ श्लोक गुरु ग्रन्थ साहिब में भी अंकित हैं।

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प्रश्न 14.
वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष को किसने विकसित किया ? इस परिपाटी की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथा कया थी ?
उत्तर-
वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष का सबसे अधिक विकास बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने किया। इस भावपूर्ण परम्परा . का आरम्भ 13वीं शताब्दी में जयदेव की रचना ‘गीत-गोबिन्द’ से हुआ था। चैतन्य ने कविता के इसी संग्रह को अपना आधार बना कर राधा-कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। उसने चण्डीदास के भजनों से भी प्रेरणा ली। चैतन्य जी कृष्ण भक्ति में कभीकभी इतना लीन हो जाते थे कि उन्हें यह भी पता नहीं चलता था कि उनके आस-पास क्या हो रहा है। वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथा कीर्तन थी। इसमें भजनों को बड़ी लय के साथ गाया जाता था और साथ में कुछ वाद्य-यन्त्र भी बजाए जाते थे। कभी-कभी लोग मग्न होकर नृत्य भी करने लगते थे। इस प्रकार भक्तजन भक्ति के प्रति और भी अधिक भावुक हो उठते थे। इस भक्ति का सबसे बड़ा आदर्श मुक्ति प्राप्त करके राधा और कृष्ण के पास पहुंचना था ताकि उनकी सच्ची सेवा की जा सके।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भक्ति आन्दोलन से क्या अभिप्राय है ? इसके उदय के कारणों तथा मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
अथवा
भक्ति आन्दोलन के भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-
12वीं शताब्दी में भारत में मुसलमानों का राज्य स्थापित हो चुका था। मुस्लिम शासक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए उन पर बहुत अत्याचार करते थे। इससे हिन्दुओं और मुसलमानों में द्वेष बढ़ गया था। समाज में अनेक कुरीतियों ने भी घर कर लिया था। ऐसे समय में आपसी द्वेषभाव और सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ धार्मिक सन्त आगे आये। उन्होंने जो प्रचार किया वह भक्ति आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। .
कारण-

1. हिन्दू धर्म में कई आडम्बरों का समावेश हो गया था। लोग अन्धविश्वासी हो चुके थे। वे जादू-टोनों में विश्वास करने लगे थे। इन सभी कुप्रथाओं का अन्त करने के लिए भक्ति-आन्दोलन का जन्म हुआ।

2. हिन्दू-धर्म में जातिपाति के बन्धन कड़े हो गये थे। निम्न जाति के लोगों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। अत: निम्न जातियों के हिन्दू मुसलमान बनने लगे, जिससे हिन्दू धर्म खतरे में पड़ गया। हिन्दू-धर्म को इस खतरे से बचाने के लिए किसी धार्मिक आन्दोलन की आवश्यकता थी।

3. मुसलमानों ने हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाना आरम्भ कर दिया था। अतः उनका आपसी द्वेष बढ़ गया। इस आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए भक्ति आन्दोलन का जन्म हुआ।

4. इसी समय सूफी-धर्म का प्रसार आरम्भ हो गया। इस धर्म ने ईश्वर-प्रेम पर बहुत बल दिया। बाबा फरीद और मुइनुद्दीन चिश्ती जैसे महान् सूफी-सन्तों के उपदेशों ने भक्ति आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएं –

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएं निम्नलिखित थीं-

1. ईश्वर की एकता-भक्ति-आन्दोलन के प्रचारकों ने ईश्वर की एकता का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को अनेक देवीदेवताओं के स्थान पर एक ही ईश्वर की उपासना करने का उपदेश दिया।

2. ईश्वर का महत्त्व-भक्त प्रचारकों के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापक है। वह कण-कण में विद्यमान्

3. जाति-प्रथा में विश्वास-भक्ति मार्ग के लगभग सभी प्रचारक जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर के लिए न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा।

4. गुरु की महिमा-सन्त प्रचारकों ने गुरु का स्थान सर्वोच्च बताया है। उनका कहना था कि सच्चे गुरु के बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

5. मूर्ति-पूजा का विरोध-भक्ति-मार्ग के प्रचारकों ने मूर्ति-पूजा का कड़ा विरोध किया। इस कार्य में कबीर और नामदेव आदि धार्मिक सन्तों ने बहुत योगदान दिया।

6. निरर्थक रीति-रिवाजों में अविश्वास-भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों ने समाज में झूठे रीति-रिवाजों का भी खण्डन किया। उनके अनुसार सच्ची ईश्वर भक्ति के लिए मन को निर्मल बनाना आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
भक्ति आन्दोलन के समाज पर क्या प्रभाव पड़े ? इस आन्दोलन के मुख्य नेताओं के नाम भी लिखो।
उत्तर-
भक्ति आन्दोलन ने मध्यकालीन भारतीय समाज के हर पहलू को प्रभावित किया। समाज का कोई भी क्षेत्र तथा वर्ग इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सका।

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव-
1. हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान-भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दू धर्म में सुधार हुआ। भक्ति-सुधारकों ने धर्म के व्यर्थ के रीति-रिवाजों तथा जाति-पाति का खण्डन किया। इससे हिन्दू धर्म की लोकप्रियता बढ़ गई।

2. इस्लाम के विकास में बाधा-इस्लाम धर्म भ्रातृभाव, समानता और एक ईश्वर के सिद्धान्त के कारण काफी लोकप्रिय हुआ था। कबीर, गुरु नानक देव जी आदि ने भी इन्हीं विचारों का प्रचार किया। इससे इस्लाम का आकर्षण समाप्त होने लगा।

3. बौद्ध धर्म का पतन-भक्ति आन्दोलन के प्रभाव में आकर अनेक बौद्धों ने हिन्दू धर्म को ग्रहण कर लिया। इससे बौद्ध धर्म का तेजी से पतन आरम्भ हो गया।

4. सिक्ख धर्म का जन्म-पंजाब में गुरु नानक देव जी तथा अन्य नौ गुरु साहिबानों के प्रचार ने सिक्ख धर्म का रूप ले लिया।

5. अन्धविश्वासों का अन्त-भक्त प्रचारकों ने झूठे रीति-रिवाजों तथा अन्धविश्वासों का ज़ोरदार खण्डन किया। फलतः अन्धविश्वासों का प्रचलन कम हो गया।

6. हिन्दू-मुस्लिम एकता-भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दुओं और मुसलमान दोनों को एक-दूसरे को समझने का अवसर मिला। फलस्वरूप देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई।

7. साहित्यिक उन्नति-भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप देश में साहित्यिक उन्नति हुई। भक्ति प्रचारकों ने हमें ‘सूरसागर’, ‘रामचरितमानस’ तथा ‘गीतगोविन्द’ जैसे उत्कृष्ट साहित्यिक ग्रन्थ दिए।

मुख्य नेता-भक्ति आन्दोलन के मुख्य नेता शंकराचार्य, रामानन्द, कबीर, गुरु नानक देव जी, चैतन्य महाप्रभु आदि थे।
सच तो यह है कि भक्त प्रचारकों ने भारतीय समाज की अनेक कुरीतियों को दूर करके इसका रूप निखारा। उन्होंने लोगों को सच्चे ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाया और हिन्दू धर्म को नष्ट होने से बचाया। संक्षेप में, “भक्ति आन्दोलन ने भारतीय जन-जीवन के प्रत्येक अंग को प्रभावित किया।”

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प्रश्न 3.
भारत में सूफी मत के प्रसार और मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
भारत में सूफ़ी मत का प्रसार कैसे हुआ ? सूफ़ी मत की किन्हीं पांच शिक्षाओं का वर्णन भी कीजिए।
उत्तर-
भारत में सूफी मत का प्रसार-सूफी मत का उदय सबसे पहले ईरान में हुआ था। भारत में इसका आरम्भ मुसलमानों के आगमन के साथ हुआ। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी के साथ कई एक सूफी सन्त भारत में आए और यहीं रहने लगे। इनमें से ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे 1197 ई० में मुहम्मद गौरी के साथ भारत आए और अजमेर में रहने लगे। उनके उच्च चरित्र तथा सरल उपदेशों के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनका बड़ा आदर करते थे। बाबा फरीद, कुतुबुद्दीन, निजामुद्दीन औलिया, सलीम चिश्ती, शेख नुरुद्दीन आदि सूफी मत के अन्य प्रसिद्ध प्रचारक थे। शिक्षाएं-सूफी मत की शिक्षाएं इस प्रकार थीं

1. ईश्वर की एकता-सूफी सन्तों ने लोगों को बताया कि ईश्वर एक है और आत्मा ईश्वर का ही रूप है। ईश्वर सर्वव्यापी है। वह मनुष्य के मन में भी निवास करता है।

2. ईश्वर भक्ति-उनका विश्वास था कि ईश्वर को सच्ची भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

3. ईश्वर की प्राप्ति-सूफी सन्तों का कहना है कि ईश्वर की प्राप्ति मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य है। उसे पाने के लिए मनुष्य का मन पवित्र होना चाहिए।

4. आत्मसंयम-ईश्वर को पाने के लिए मनुष्य को आत्मसंयम रखना चाहिए। उसका जीवन बहुत ही सादा होना चाहिए। उसे कम खाना चाहिए, कम बोलना चाहिए।

5. प्रेम-ईश्वर को पाने के लिए हमें एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए। प्रेम द्वारा ईश्वर को भी प्राप्त किया जा सकता है।

6. अहंकार का नाश-मनुष्य को चाहिए कि वह अहंकार को मिटा दे। जब तक मनुष्य अहंकार में रहता है, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। .

7. सहनशीलता-मनुष्य को सहनशील होना चाहिए और उसे सभी धर्मों का आदर करना चाहिए। कोई धर्म बुरा नहीं है, क्योंकि सभी का उद्देश्य ईश्वर को प्राप्त करना है।

8. गुरु में विश्वास-सूफी सन्तों का विश्वास था कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु का होना आवश्यक है।

9. जाति-पाति में अविश्वास-सूफी सन्तों ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि सभी मनुष्य समान हैं। कोई भी छोटा-बड़ा नहीं है।

10. हिन्दू-मुस्लिम एकता-सूफी सन्त हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बड़ा बल देते थे। अतः उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों को आपसी भेदभाव मिटाने का उपदेश दिया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 11 दल प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 11 दल प्रणाली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक दलों की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(Explain the main Characteristics of Political Parties.)
अथवा
राजनीतिक दलों की चार विशेषताएं बताते हुए लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका का वर्णन करें।
(Explain the characteristics of Political Parties and also write the importance of Political Parties in Democracy.)
अथवा
राजनीतिक दलों की परिभाषा दें और लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों के कोई चार कार्यों का वर्णन करें ।
(Define Political Parties. Describe any four functions of Political Parties in democracy.)
उत्तर-
आधुनिक प्रजातन्त्र राज्यों में राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य समझा जाता है। प्रजातन्त्र और राजनीतिक दलों का एक-दूसरे के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि प्रजातन्त्र के बिना राजनीतिक दलों की उन्नति नहीं हो सकती तथा बिना राजनीतिक दलों के प्रजातन्त्र शासन का चलाना सम्भव नहीं होता। वास्तव में आधुनिक युग राजनीतिक दलों का युग है। किसी भी देश में इसके बिना शासन चलाना सम्भव नहीं। चुनाव भी दलों के आधार पर होते हैं, विधानमण्डल का काम भी इनके द्वारा ही चलाया जाता है और शासन भी किसी-न-किसी राजनीतिक दल के कार्यक्रम के अनुसार ही चलाया जाता है।
राजनीतिक दल की परिभाषाएं (Definitions of Political Party)-राजनीतिक दल की परिभाषा विभिन्न लेखकों ने विभिन्न प्रकार से की है

परम्परागत परिभाषाएं (Traditional Definitions)-

1. बर्क (Burke) का कहना है कि, “राजनीतिक दल ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी ऐसे आधार पर, जिस पर वे सब एकमत हों, अपने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा जनता के हित में काम करने के लिए एकता में बंधे हों।”
(“A political party is a body of men united for promoting, by their joint endeavours, the national interest upon some particular principle on which they are all agreed.”)

2. डॉ० लीकॉक (Dr. Leacock) के मतानुसार, “राजनीतिक दल से हमारा अभिप्राय उन नागरिकों का थोड़ा या अधिक संगठित समूह है जो एक राजनीतिक इकाई के रूप में इकटे काम करते हैं। वे सार्वजनिक मामलों पर एक-सी राय रखते हैं और सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मतदान की शक्ति का प्रयोग करके सरकार पर अपना नियन्त्रण रखना चाहते हैं।”
(“By a political party we mean more or less organised group of citizens who act together as a political unit. They share or profess to share the same opinion on public questions and by exercising their voting power towards a common end, seek to obtain control of the government.”)

3. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के शब्दानुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है जिनके राजनीतिक विचार एक से हों और जो एक राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करते हों।”
(“A political party may be defined as an organised group of citizens who profess to share the same political view and who, by acting as a political unit, try to control the government.”)

4. मैकाइवर (Maclver) का कहना है, “राजनीतिक दल किसी सिद्धान्त या नीति के समर्थन के लिए संगठित वह समुदाय है जो संवैधानिक ढंग से उस सिद्धान्त या नीति को शासन का आधार बनाना चाहता है।” .
(“A political party is an association organised in support of some principle or policy which by constitutional means it endeavours to make the determinant of the government.”)

5. गैटल (Gettell) के अनुसार, “राजनीतिक दल उन नागरिकों का कम या अधिक संगठित समूह है जो एक राजनीतिक इकाई की तरह काम करते हैं और जो अपने मतों के द्वारा सरकार पर नियन्त्रण करने तथा अपने सिद्धान्त को लागू करना चाहते हों।”
इन सभी परिभाषाओं द्वारा हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का समूह है जो सार्वजनिक मामलों पर एक-से विचार रखते हों और संगठित होकर अपने मताधिकार द्वारा सरकार पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना चाहते हों ताकि अपने सिद्धान्तों को लागू कर सके।

आधुनिक परिभाषाएं-मोरिस दुवर्जर (Maurice Duverger), रॉय मैकरिडिस (Roy Macridis) तथा जे० ए० शूम्पीटर (J. A. Schumpeter) आदि आधुनिक विद्वानों का विचार है कि राजनीतिक दल केवल ‘सत्ता’ हथियाने के साधन बन गए हैं। जे० ए० शूम्पीटर (J. A. Schumpeter) के मतानुसार, “राजनीतिक दल एक ऐसा गुट या समूह है जिसके सदस्य सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष व होड़ में संलग्न हैं।” (“A party is a group whose members propose to act in concert in the competitive struggle for political power.”).

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 2.
आधुनिक लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों के कार्यों का वर्णन करें। (Discuss the functions of Political Parties in a Democratic Government.)
उत्तर-
लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों का विशेष महत्त्व है। इन्हें हम लोकतन्त्र की धुरी कह सकते हैं जिनके ऊपर सरकार की मशीन के पहियों का भार होता है। प्रो० मैकाइवर के शब्दों में, “बिना दलीय संगठन के किसी सिद्धान्त का पर्याप्त प्रकाशन नहीं हो सकता, किसी भी नीति का क्रमानुसार विकास नहीं हो सकता और न ही किसी प्रकार की स्वीकृत संस्थाएं हो सकती हैं जिनके द्वारा कोई दल शक्ति प्राप्त करना चाहता है या उसे स्थिर रखना चाहता हैं।”
राजनीतिक दल निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं-

1. लोकमत तैयार करना (To Mould Public Opinion)-लोकतन्त्रात्मक देश में राजनीतिक दल जनमत के निर्माण में बहुत सहायता करते हैं। साधारण जनता को देश की पूरी जानकारी नहीं होती जिसके कारण वे इन समस्याओं पर ठीक प्रकार से सोच नहीं सकते। राजनीतिक दल देश की समस्याओं को स्पष्ट करके जनता के सामने रखते हैं तथा उनको हल करने के सुझाव भी देते हैं जिससे जनमत के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। .

2. सार्वजनिक नीतियों का निर्माण (Formulation of Public Policies) राजनीतिक दल देश के सामने आने वाली समस्याओं पर विचार करते हैं तथा अपनी नीति निर्धारित करते हैं। राजनीतिक दल अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर भी सोच-विचार करते हैं और अपनी नीति बनाते हैं। प्रत्येक दल का समस्याओं को सुलझाने के लिए अपना दृष्टिकोण होता है।

3. राजनीतिक शिक्षा (Political Education)-राजनीतिक दल जनता को राजनीतिक शिक्षा देने का महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। राजनीतिक दल देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपनी नीति का निर्माण करते हैं और उन नीतियों का जनता में प्रचार करते हैं। इससे जनता को देश की समस्याओं की जानकारी होती है तथा विभिन्न दलों की नीतियों का पता चलता है। राजनीतिक दल सरकार की आलोचना करते हैं तथा जनता को सरकार की बुराइयों से अवगत करवाते हैं। विशेषकर चुनाव के दिनों में प्रत्येक राजनीतिक दल जनता को अपने पक्ष में करने के लिए अपनी नीतियों का जोरदार समर्थन करता है। राजनीतिक दलों के नेता नागरिकों के घरों में जाकर उन्हें अपने विचारों से अवगत करवाते हैं। चुनाव के दिनों में तो साधारण से साधारण व्यक्ति भी राजनीति में रुचि लेने लगता है।

4. चुनाव लड़ना (To Contest Election)-राजनीतिक दलों का मुख्य कार्य चुनाव लड़ना है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं और उनको चुनाव में विजयी कराने के लिए उनके पक्ष में प्रचार करते हैं। राजनीतिक दल चुनाव का घोषणा-पत्र (Election Manifesto) प्रकाशित करते हैं। स्वतन्त्र उम्मीदवार बहुत कम खड़े होते हैं और मतदाता भी स्वतन्त्र उम्मीदवारों को बहुत कम वोट डालते हैं। राजनीतिक दल मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए हर सम्भव यत्न करते हैं।

5. सरकार बनाना (To form the Government)-प्रत्येक राजनीतिक दल का मुख्य उद्देश्य सरकार पर नियन्त्रण करके अपनी नीतियों को लागू करना होता है। चुनाव में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है उसी दल की सरकार बनती है। सरकार की स्थापना करने के पश्चात् सत्तारूढ़ दल अपनी नीतियों तथा चुनाव में किए गए वायदों को व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न करता है। बहुमत दल शासन को अच्छी तरह चलाने का प्रयत्न करता है ताकि अगले चुनाव में भी बहुमत प्राप्त कर सके।

6. विरोधी दल बनाना (To form Opposition)-चुनाव में जिन दलों को बहुमत प्राप्त नहीं होता, वे विरोधी दल के रूप में कार्य करते हैं। विरोधी दल सरकार की आलोचना करके सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है और सरकार की बुराइयों को जनता के सामने रखता है। विरोधी दल केवल विरोध करने के लिए ही सरकार की आलोचना नहीं करता बल्कि रचनात्मक आलोचना करता है और संकटकाल में सरकार का पूर्ण सहयोग करता है। संसदीय सरकार में विरोधी दल सत्तारूढ़ दल को हटाकर स्वयं सरकार बनाने के लिए प्रयत्न करता रहता है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए एक संगठित तथा शक्तिशाली विरोधी दल का होना बहुत आवश्यक है।

7. अपने विधायकों पर नियन्त्रण करता है (Control over the Legislators)-राजनीतिक दल विधानमण्डल के सदस्यों पर नियन्त्रण रखता है तथा उन्हें संगठित करता है। एक दल के सदस्य विधानमण्डल में एक टोली के रूप में कार्य करते हैं और दल के आदेशों के अनुसार अपने मतों का प्रयोग करते हैं। संसदीय सरकार में बहुमत दल के सदस्य सरकार का सदा समर्थन करते हैं और विरोधी दल के सदस्य सरकार की नीतियों के विपक्ष में वोट डालते हैं।

8. आर्थिक तथा सामाजिक सुधार (Economic and Social Reforms)-राजनीतिक दल राजनीतिक कार्यों के साथ-साथ आर्थिक एवं सामाजिक सुधार के भी कार्य करते हैं। राजनीतिक दल सामाजिक कुरीतियों जैसे कि छुआछूत, दहेज प्रथा, नशीली वस्तुओं आदि के विरुद्ध प्रचार करते हैं तथा उन्हें समाप्त करने का प्रयास करते हैं। जब कभी लोगों पर किसी प्रकार का संकट आ जाए उस समय भी राजनीतिक दल ही जनता की सेवा करने के लिए मैदान में आते हैं और संगठित रूप में लोगों की सहायता करते हैं, प्राकृतिक आपत्तियों-बाढ़, अकाल, युद्ध आदि के कारण पीड़ित लोगों की भी राजनीतिक दल सहायता करते हैं।

9. कार्यपालिका और विधानपालिका में सहयोग उत्पन्न करना (To Create Harmony betweent the Executive and the Legislature)-अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में कोई कानूनी सम्बन्ध नहीं होता। सरकार के ये दोनों अंग एक-दूसरे से पृथक और स्वतन्त्र होते हैं। ऐसी दशा में इन अंगों में गतिरोध होने की सम्भावना रहती है। ऐसे अवसरों पर राजनीतिक दल बहुत लाभकारी सिद्ध होते हैं। चूंकि दोनों अंगों में राजनीतिक दलों के सम्बन्धित व्यक्ति होते हैं, ये आपस में सामंजस्य तथा सहयोग स्थापित कर सकते हैं। अपने राजनीतिक दल के उन सदस्यों के द्वारा जो विधानपालिका में होते हैं, अध्यक्ष अपने विचारों आदि को वहां तक पहुंचा सकता है। यह सदस्य अध्यक्ष और विधानपालिका के बीच एक कड़ी का काम करते हैं।

10. जनता और सरकार के बीच कड़ी का काम करना (To Serve as a Link between People and the Government)-राजनीतिक दल जनता और सरकार के बीच कड़ी का काम करता है। जिस दल की सरकार होती है वह जनता में सरकार के कार्यक्रमों का प्रचार करता है। राजनीतिक दल जनता की तकलीफों और उनकी शिकायतों को भी सरकार तक पहुंचाते हैं और उनको दूर करवाने का प्रयत्न करते रहते हैं।

11. केन्द्र तथा इकाइयों में ताल-मेल करना (To create Harmony between the Centre and the Units)—संघात्मक शासन में केन्द्र तथा इकाइयों में शक्तियों का विभाजन होता है जिसके कारण केन्द्र तथा इकाइयों में गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है। राजनीतिक दलों ने गतिरोध की सम्भावना को कम कर दिया है। जब केन्द्र तथा इकाइयों में एक ही दल की सरकार होती है तब मतभेद उत्पन्न होने की कोई सम्भावना नहीं रहती।

12. राष्ट्रीय एकता का साधन (Means of National Unity)-संघात्मक राज्यों में राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। संघात्मक शासन में शक्तियों के केन्द्र तथा इकाइयों में विभाजन के कारण दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होते हैं। कई बार केन्द्र तथा इकाइयों में झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल केन्द्र तथा इकाइयों में कड़ी होने के कारण राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में सहायता करते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-आज के युग में, राजनीतिक दलों का बड़ा महत्त्व है और प्रजातन्त्र की सफलता के लिए राजनीतिक दल अनिवार्य हैं। लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) का कहना है कि, “इनके बिना कोई देश कार्य नहीं कर सकता। कोई भी आज तक यह नहीं दिखा सका है कि लोकतन्त्र सरकारें इनके बिना कैसे कार्य कर सकती हैं।” जब अमेरिकन संविधान बना तो वहां कोई राजनीतिक दल नहीं था और न ही संविधान निर्माताओं को इसकी सम्भावना थी, परन्तु कुछ समय के बाद ही वहां दल प्रणाली ने अपना स्थान बना लिया। देश में क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए इसकी जानकारी जनता को देने का श्रेय राजनीतिक दलों को ही है। प्रो० ब्रोगन (Prof. Brogan) ने लिखा है कि, “बिना दलीय व्यवस्था के अमेरिका के राष्ट्रपति जैसे किसी राष्ट्रीय महत्त्व के अधिकारी का निर्वाचन शायद असम्भव हो जाता और यह भी निश्चित है कि अमेरिका के संवैधानिक इतिहास में सबसे बड़ा गतिरोध अथवा गृह-युद्ध केवल उसी समय हुआ जब वहां दल व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 3.
दल प्रणाली की किस्मों का वर्णन कीजिए। आपको कौन-सी दल प्रणाली पसन्द है व क्यों ? (Describe the types of Party System. Which party system do you like and why ?)
उत्तर-
आज लोकतन्त्र का युग है और लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली राजनीतिक दलों के बिना कार्य नहीं कर सकती है। दल प्रणाली कई प्रकार की होती है
(क) एक दलीय प्रणाली
(ख) दो दलीय प्रणाली
(ग) बहु-दलीय प्रणाली।
नोट-एक दलीय प्रणाली, दो दलीय प्रणाली तथा बहु-दलीय प्रणाली की व्याख्या-

यदि किसी राज्य में केवल एक ही राजनीतिक दल राजनीति में भाग ले रहा हो और अन्य राजनीतिक दलों को संगठित होने का कार्य करने की स्वतन्त्रता एवं अधिकार प्राप्त न हो तो ऐसी दल-प्रणाली को एक दलीय प्रणाली कहा जाता है। अधिनायकतन्त्र देशों में प्रायः एक दल प्रणाली प्रचलित होती है। 1917 की क्रान्ति के बाद रूस में एक दल प्रणाली स्थापित की गई। सोवियत संघ में साम्यवादी दल के अतिरिक्त और किसी दल की स्थापना नहीं की जा सकती थी। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् इटली और जर्मनी में एक-दलीय प्रणाली स्थापित की गई। इटली में फासिस्ट पार्टी के अतिरिक्त अन्य कोई पार्टी स्थापित नहीं की गई। जर्मनी में केवल नाज़ी पार्टी थी। 1991 में सोवियत संघ, रूमानिया, पोलैण्ड आदि देशों में एक दलीय शासन समाप्त हो गया। आजकल चीन, वियतनाम, क्यूबा, उत्तरी कोरिया आदि देशों में एक दलीय प्रणाली (साम्यवादी) पाई जाती है।

एक दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF ONE PARTY SYSTEM) –

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. राष्ट्रीय एकता-एक दलीय प्रणाली में राष्ट्रीय एकता बनी रहती है क्योंकि विभिन्न दलों में संघर्ष नहीं होता। सभी नागरिक एक ही विचारधारा में विश्वास रखते हैं और एक ही नेता के नेतृत्व में कार्य करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न होती है।
2. स्थायी सरकार-एक दलीय प्रणाली के कारण सरकार स्थायी होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल से होते हैं और विधानसभा के सभी सदस्य सरकार का समर्थन करते हैं।
3. दृढ़ शासन-एक दलीय प्रणाली में शासन दृढ़ होता है। किसी दूसरे दल के न होने के कारण सरकार की आलोचना नहीं होती। इस शासन से देश की उन्नति होती है।
4. दीर्घकालीन योजनाएं सम्भव-एक दलीय प्रणाली में सरकार स्थायी होने के कारण दीर्घकालीन योजनाएं बनानी सम्भव होती हैं जिससे देश की आर्थिक उन्नति बहुत होती है।
5. शासन में दक्षता-सरकार के सदस्यों में पारस्परिक विरोध न होने के कारण शासन प्रणाली के निर्णय शीघ्रता से लिए जाते हैं जिससे शासन में दक्षता आती है।
6. राष्ट्रीय उन्नति–राजनीतिक दलों के पारस्परिक झगड़े, आलोचना और सत्ता के लिए खींचातानी में समय नष्ट नहीं होता और जो भी योजना बन जाती है उसको ज़ोरों से लागू किया जाता है, जिससे देश की उन्नति तेज़ी से होती है।

एक दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF ONE PARTY SYSTEM)

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-
1. लोकतन्त्र के विरुद्ध-यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल नहीं है। इसमें नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता नहीं होती और न ही उन्हें संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होती है।
2. नाममात्र के चुनाव-एक दलीय प्रणाली में चुनाव केवल दिखावे के लिए होते हैं। नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती।
3. तानाशाही की स्थापना-एक दलीय प्रणाली में तानाशाही का बोलबाला रहता है। विरोधियों को सख्ती से दबाया जाता है अथवा उन्हें समाप्त कर दिया जाता है।
4. सरकार उत्तरदायी नहीं रहती-सरकार की आलोचना और विरोध करने वाला कोई और दल नहीं होता जिसके कारण सरकार उत्तरदायी नहीं रहती।
5. व्यक्तित्व का विकास नहीं होता-मनुष्यों को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती जिसके कारण वे अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते।
6. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-एक दलीय प्रणाली के कारण सभी वर्गों को मन्त्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। सभी नागरिकों के विचारों का सही प्रतिनिधित्व एक दलीय प्रणाली में नहीं हो सकता।
7. लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती-विरोधी दलों के अभाव के कारण चुनाव के दिनों में भी कोई विशेष हलचल नहीं होती। एक दल होने के कारण यह सदा सरकार की अच्छाइयों का प्रचार करता है। जनता को सरकार की बुराइयों का पता नहीं चलता।
8. विरोधी दल का अभाव-एक दलीय प्रणाली में विरोधी दल का अभाव रहता है। सरकार को निरंकुश बनाने से रोकने के लिए तथा सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करने के लिए विरोधी दल का होना अति आवश्यक है। बिना विरोधी दल के बिना लोकतन्त्र सम्भव नहीं है।
9. संवैधानिक साधनों से सरकार को बदलना कठिन कार्य है-एक दलीय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण दोष ये हैं कि इसमें सरकार को संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा बदला नहीं जा सकता। सरकार को केवल क्रान्तिकारी तरीकों से ही बदला जा सकता है।

द्वि-दलीय प्रणाली के अन्तर्गत केवल दो मुख्य महत्त्वपूर्ण दल होते हैं। दो मुख्य दलों के अतिरिक्त और भी दल होते हैं, परन्तु उनका कोई महत्त्व नहीं होता। सत्ता मुख्य रूप में दो दलों में बदलती रहती है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली प्रचलित है। इंग्लैण्ड के मुख्य दलों के नाम हैं-अनुदार दल तथा श्रमिक दल। अमेरिका में दो महत्त्वपूर्ण दल हैं-रिपब्लिकन पार्टी तथा डैमोक्रेटिक दल।

द्वि-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. सरकार आसानी से बनाई जा सकती है-द्वि-दलीय प्रणाली का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें सरकार आसानी से बनाई जा सकती है। दोनों दलों में एक दल का विधानमण्डल में बहुमत होता है। बहुमत दल अपना मन्त्रिमण्डल बनाता है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। जिस समय सत्तारूढ़ दल चुनाव में हार जाता है अथवा विधानमण्डल में बहुमत का विश्वास खो देता है तब विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर मिलता है।

2. स्थिर सरकार-बहुमत दल की सरकार बनती है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रहता है जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त रहता है। दल में कड़ा अनुशासन पाया जाता है जिसके कारण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटाया नहीं जा सकता। इस तरह सरकार अगले चुनाव तक अपने पद पर रहती है।

3. दृढ़ सरकार तथा नीति में निरन्तरता-सरकार स्थिर होने के कारण शासन में दृढ़ता आती है। सरकार अपनी नीतियों को दृढ़ता से लागू करती है। सरकार स्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं बनाई जा सकती हैं और इससे नीति में भी निरन्तरता बनी रहती है।

4. जनता स्वयं सरकार चुनती है-द्वि-दलीय प्रणाली में जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सरकार का चुनाव करती है। दोनों दलों के कार्यक्रम और दोनों दलों के नेताओं को जनता अच्छी तरह जानती है। अतः जनता जिस दल को शक्ति सौंपना चाहती है उस दल के पक्ष में निर्णय दे दिया जाता है। जनता दो दलों में से जिस दल को सत्तारूढ़ दल बनाना चाहे बना सकती है।

5. निश्चित उत्तरदायित्व-द्वि-दलीय प्रणाली में बहुमत दल की सरकार होती है जिससे सरकार की बुराइयों के लिए सत्तारूढ़ को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है। परन्तु जब मन्त्रिमण्डल में विभिन्न दलों के सदस्य होते हैं तब मन्त्रिमण्डल के बुरे प्रशासन के लिए किसी एक दल को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता।

6. प्रधानमन्त्री की शक्तिशाली स्थिति-प्रधानमन्त्री को संसद् में स्पष्ट बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, जिसके कारण वह दृढ़ता से शासन कर सकता है। इंग्लैण्ड में द्वि-दलीय प्रणाली के कारण ही प्रधानमन्त्री बहुत शक्तिशाली है।

7. संगठित विरोधी दल-द्वि-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल होता है जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करके सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है। सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल की आलोचना को ध्यान से सुनना पढ़ता है और कई बार सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल के सुझाव को मानना पड़ता है।

8. सरकार आसानी से बदली जा सकती है-सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटाया जा सकता है और विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सरकार बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती।

9. राजनीतिक एकरूपता-द्वि-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य एक ही दल से लिए जाते हैं जिस कारण मन्त्रियों के राजनीतिक विचारों में एकरूपता पाई जाती है।

10. संसदीय सरकार के लिए लाभदायक-द्वि-दलीय प्रणाली संसदीय सरकार को सफल बनाने में सहायक सिद्ध होती है क्योंकि संसदीय सरकार दलों पर आधारित होती है। जहां पर दो दल पाए जाते हैं वहां पर स्पष्ट होता है कि किस दल को संसद् में बहुमत प्राप्त है। अत: इस बात पर विवाद पैदा नहीं होता कि किस दल को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया जाए।

द्वि-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही-दलीय मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो जाती है। मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण मन्त्रिमण्डल जो चाहे कर सकता है। विरोधी दल की आलोचना का मन्त्रिमण्डल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। विरोधी दल सरकार की कितनी ही आलोचना क्यों न कर ले पर जब वोटें ली जाती हैं तब बहुमत सरकार के समर्थन में ही होता है। इंग्लैण्ड में आजकल मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो चुकी है।

2. विधानमण्डल के महत्त्व की कमी-मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होने के कारण कोई भी बिल पास करवाना कठिन नहीं होता। विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल की इच्छाओं को रजिस्टर करने वाली एक संस्था बन जाती है।

3. मतदाताओं की सीमित स्वतन्त्रता-द्वि-दलीय प्रणाली में मतदाताओं की इच्छा सीमित हो जाती है। मतदाताओं को दो दलों के कार्यक्रमों में से एक को पसन्द करना पड़ता है। परन्तु कई मतदाता दोनों में से किसी को भी पसन्द नहीं करते पर उनके सामने कोई और विकल्प (Alternative) नहीं होता।

4. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-समाज में विभिन्न वर्गों के लोग रहते हैं जिनके हित तथा विचार भी भिन्न-भिन्न हैं। द्वि-दलीय प्रणाली के कारण इन वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।

5. राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है-द्वि-दलीय प्रणाली से राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं। दोनों गुटों का एक नीति पर सहमत होना कठिन होता है जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हो जाता है।

6. कानून दलीय हितों को समक्ष रख कर बनाए जाते हैं-सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दलीय हितों को समक्ष रखते हुए नीति का निर्माण करता है और कानून बनाता है। इससे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-द्वि-दलीय प्रणाली के अनेक दोषों के बावजूद भी इसे अच्छा समझा जाता है। संसदीय सरकार की सफलता के लिए द्वि-दलीय प्रणाली का होना आवश्यक है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में प्रजातन्त्र की सफलता का कारण द्वि-दलीय प्रणाली ही है।

बहु-दलीय प्रणाली में दो से अधिक दलों का राजनीतिक क्षेत्र में भाग होता है। प्रायः इन दलों में से कोई दल इतना अधिक शक्तिशाली नहीं होता कि वह बिना किसी दल की सहायता के सरकार बनाने में समक्ष हो। भारत, फ्रांस, इटली, जापान, जर्मनी आदि देशों में बहु-दलीय प्रणाली प्रचलित है।

बहु-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली से सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली से सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
2. मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपनी वोट का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है। मतदाताओं के लिए अपने विचारों से मिलते-जुलते दल को वोट देना आसान हो जाता है।
3. राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता-बहु-दलीय प्रणाली का महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि इससे राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता। जहां बहु-दलीय प्रणाली होती है वहां अनेक प्रकार के विचार प्रचलित होते हैं और दलों में कठोर अनुशासन नहीं होता यदि कोई सदस्य अपने दल को छोड़ दे या उसे निकाल दिया जाए तो वह अपने विचारों से मिलता-जुलता दल ढूंढ़ लेता है।
4. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती-बहु-दलीय प्रणाली में अनेक दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जिस कारण मन्त्रिमण्डल तानाशाह नहीं बन सकता। मन्त्रिमण्डल में शामिल होने वाले दल एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके तथा समझौते की नीति अपना कर कार्य करते हैं।
5. सरकार बिना चुनाव के बदली जा सकती है-बहु-दलीय प्रणाली में चुनाव से पहले भी सरकार को बड़ी आसानी से बदला जा सकता है। यदि एक दल भी मन्त्रिमण्डल से बाहर आ जाए तो सरकार हट जाती है और नई सरकार का निर्माण करना पड़ता है।
6. विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल के हाथों में कठपुतली नहीं बनता-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल का निर्माण कई दल मिलकर करते हैं। जिस कारण मन्त्रिमण्डल को अपने अस्तित्व के लिए एक दल पर निर्भर न रहकर विधानमण्डल पर निर्भर रहना पड़ता है।

बहु-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिल कर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।

2. दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।

3. सरकार के बनाने में कठिनाई-बहु-दलीय प्रणाली में किसी दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण सरकार का बनाना कठिन हो जाता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने के लिए विभिन्न दलों में कई प्रकार की सौदेबाज़ी होती है। कई सदस्य मन्त्री बनने के लिए दल भी बदल जाते हैं, इसमें दल बदली को बढ़ावा मिलता है।

4. संगठित विरोधी दल का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल का अभाव होता है जिस कारण सरकार की नीतियों की प्रभावशाली आलोचना नहीं हो पाती। अत: सरकार के लिए मनमानी करना तथा विरोधी दल की अपेक्षा करना सम्भव हो जाता है।

5. प्रधानमन्त्री की कमज़ोर स्थिति-मिली-जुली सरकार में प्रधानमन्त्री की स्थिति कमज़ोर होती है। प्रधानमन्त्री को उन दलों को साथ लेकर चलना पड़ता है। जो मन्त्रिमण्डल में शामिल होते हैं। प्रधानमन्त्री के लिए सभी दलों को प्रसन्न करना कठिन होता है। इस प्रकार प्रधानमन्त्री विभिन्न दलों की दया पर निर्भर रहता है।

6. उत्तरदायित्व निश्चित नहीं-बहु-दलीय प्रणाली में मिली-जुली सरकार होने के कारण बुरे प्रशासन के लिए किसी दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

7. शासन में अदक्षता-मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में सहयोग न होने के कारण शासन दक्षतापूर्ण नहीं चलाया जा सकता। इसके अतिरिक्त सरकार अस्थायी होने के कारण कर्मचारी शासन को ठीक तरह से नहीं चलाते और न ही शासन में दिलचस्पी लेते हैं।

8. जनता प्रत्यक्ष रूप से सरकार नहीं चुनती-बहु-दलीय प्रणाली में सरकार के निर्माण में जनता का प्रत्यक्ष हाथ नहीं होता। मतदान के समय जनता को यह पता नहीं होता कि किस दल का मन्त्रिमण्डल बनेगा। मिश्रित मन्त्रिमण्डल में न जाने कौन-कौन से दलों का समझौता हो और किसकी सरकार बने ?

9. नौकरशाही के प्रभाव में वृद्धि-इस प्रणाली के अन्तर्गत सरकार की अस्थिरता तथा मन्त्रियों के नियन्त्रण बदलने के कारण शासन का संचालन वास्तविक रूप में सरकारी अधिकारियों के द्वारा किया जाता है। इससे नौकरशाही के प्रभाव मे वृद्धि होती है और मन्त्रियों का प्रभाव कम हो जाता है। शासन की बागडोर अधिकारी वर्ग के हाथ में होने के कारण शासन में नौकरशाही के सभी अवगुण उत्पन्न हो जाते हैं।

10. भ्रष्टाचार में वृद्धि-बहु-दलीय प्रणाली में कई प्रकार के भ्रष्टाचारों की वृद्धि होती है। बहु-दलीय प्रणाली में सरकार को बनाए रखने के लिए विधायकों को कई प्रकार के लालच देकर साथ रखने का प्रयास किया जाता है। विभिन्न दलों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सरकार उन्हें अनेक प्रकार का लालच देती है।

11. राजनीतिक एकरूपता का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल प्रायः विभिन्न दलों द्वारा मिलकर बनाया जाता है। इसलिए मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में राजनीतिक एकरूपता नहीं पाई जाती। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विभिन्न विचारधाराओं के होने के कारण कई बार एक दूसरे की भी आलोचना कर देते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 4.
एक पार्टी प्रणाली से क्या भाव है ? इसके गुणों और अवगुणों की चर्चा कीजिए। (What is meant by one Party System ? Discuss its merits and demerits.)
अथवा
एक दलीय प्रणाली के गुण और अवगुण की व्याख्या करो। (Explain the merits and demerits of Single Party System.)
उत्तर-
यदि किसी राज्य में केवल एक ही राजनीतिक दल राजनीति में भाग ले रहा हो और अन्य राजनीतिक दलों को संगठित होने का कार्य करने की स्वतन्त्रता एवं अधिकार प्राप्त न हो तो ऐसी दल-प्रणाली को एक दलीय प्रणाली कहा जाता है। अधिनायकतन्त्र देशों में प्रायः एक दल प्रणाली प्रचलित होती है। 1917 की क्रान्ति के बाद रूस में एक दल प्रणाली स्थापित की गई। सोवियत संघ में साम्यवादी दल के अतिरिक्त और किसी दल की स्थापना नहीं की जा सकती थी। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् इटली और जर्मनी में एक-दलीय प्रणाली स्थापित की गई। इटली में फासिस्ट पार्टी के अतिरिक्त अन्य कोई पार्टी स्थापित नहीं की गई। जर्मनी में केवल नाज़ी पार्टी थी। 1991 में सोवियत संघ, रूमानिया, पोलैण्ड आदि देशों में एक दलीय शासन समाप्त हो गया। आजकल चीन, वियतनाम, क्यूबा, उत्तरी कोरिया आदि देशों में एक दलीय प्रणाली (साम्यवादी) पाई जाती है।

एक दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF ONE PARTY SYSTEM) –

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. राष्ट्रीय एकता-एक दलीय प्रणाली में राष्ट्रीय एकता बनी रहती है क्योंकि विभिन्न दलों में संघर्ष नहीं होता। सभी नागरिक एक ही विचारधारा में विश्वास रखते हैं और एक ही नेता के नेतृत्व में कार्य करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न होती है।
2. स्थायी सरकार-एक दलीय प्रणाली के कारण सरकार स्थायी होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल से होते हैं और विधानसभा के सभी सदस्य सरकार का समर्थन करते हैं।
3. दृढ़ शासन-एक दलीय प्रणाली में शासन दृढ़ होता है। किसी दूसरे दल के न होने के कारण सरकार की आलोचना नहीं होती। इस शासन से देश की उन्नति होती है।
4. दीर्घकालीन योजनाएं सम्भव-एक दलीय प्रणाली में सरकार स्थायी होने के कारण दीर्घकालीन योजनाएं बनानी सम्भव होती हैं जिससे देश की आर्थिक उन्नति बहुत होती है।
5. शासन में दक्षता-सरकार के सदस्यों में पारस्परिक विरोध न होने के कारण शासन प्रणाली के निर्णय शीघ्रता से लिए जाते हैं जिससे शासन में दक्षता आती है।
6. राष्ट्रीय उन्नति–राजनीतिक दलों के पारस्परिक झगड़े, आलोचना और सत्ता के लिए खींचातानी में समय नष्ट नहीं होता और जो भी योजना बन जाती है उसको ज़ोरों से लागू किया जाता है, जिससे देश की उन्नति तेज़ी से होती है।

एक दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF ONE PARTY SYSTEM)

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. लोकतन्त्र के विरुद्ध-यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल नहीं है। इसमें नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता नहीं होती और न ही उन्हें संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होती है।
2. नाममात्र के चुनाव-एक दलीय प्रणाली में चुनाव केवल दिखावे के लिए होते हैं। नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती। ___3. तानाशाही की स्थापना-एक दलीय प्रणाली में तानाशाही का बोलबाला रहता है। विरोधियों को सख्ती से दबाया जाता है अथवा उन्हें समाप्त कर दिया जाता है।
4. सरकार उत्तरदायी नहीं रहती-सरकार की आलोचना और विरोध करने वाला कोई और दल नहीं होता जिसके कारण सरकार उत्तरदायी नहीं रहती।
5. व्यक्तित्व का विकास नहीं होता-मनुष्यों को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती जिसके कारण वे अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते।
6. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-एक दलीय प्रणाली के कारण सभी वर्गों को मन्त्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। सभी नागरिकों के विचारों का सही प्रतिनिधित्व एक दलीय प्रणाली में नहीं हो सकता।
7. लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती-विरोधी दलों के अभाव के कारण चुनाव के दिनों में भी कोई विशेष हलचल नहीं होती। एक दल होने के कारण यह सदा सरकार की अच्छाइयों का प्रचार करता है। जनता को सरकार की बुराइयों का पता नहीं चलता।
8. विरोधी दल का अभाव-एक दलीय प्रणाली में विरोधी दल का अभाव रहता है। सरकार को निरंकुश बनाने से रोकने के लिए तथा सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करने के लिए विरोधी दल का होना अति आवश्यक है। बिना विरोधी दल के बिना लोकतन्त्र सम्भव नहीं है।
9. संवैधानिक साधनों से सरकार को बदलना कठिन कार्य है-एक दलीय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण दोष ये हैं कि इसमें सरकार को संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा बदला नहीं जा सकता। सरकार को केवल क्रान्तिकारी तरीकों से ही बदला जा सकता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 5.
द्वि-दलीय प्रणाली किसे कहते हैं ? इसके गुणों और अवगुणों का वर्णन करें।
(What is Bi-Party System ? Discuss its merits and demerits.)
अथवा
द्वि-दलीय प्रणाली के गुण और अवगुण लिखो। (Write down the merits and demerits of Bi-party System.)
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली के अन्तर्गत केवल दो मुख्य महत्त्वपूर्ण दल होते हैं। दो मुख्य दलों के अतिरिक्त और भी दल होते हैं, परन्तु उनका कोई महत्त्व नहीं होता। सत्ता मुख्य रूप में दो दलों में बदलती रहती है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली प्रचलित है। इंग्लैण्ड के मुख्य दलों के नाम हैं-अनुदार दल तथा श्रमिक दल। अमेरिका में दो महत्त्वपूर्ण दल हैं-रिपब्लिकन पार्टी तथा डैमोक्रेटिक दल।

द्वि-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. सरकार आसानी से बनाई जा सकती है-द्वि-दलीय प्रणाली का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें सरकार आसानी से बनाई जा सकती है। दोनों दलों में एक दल का विधानमण्डल में बहुमत होता है। बहुमत दल अपना मन्त्रिमण्डल बनाता है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। जिस समय सत्तारूढ़ दल चुनाव में हार जाता है अथवा विधानमण्डल में बहुमत का विश्वास खो देता है तब विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर मिलता है।

2. स्थिर सरकार-बहुमत दल की सरकार बनती है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रहता है जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त रहता है। दल में कड़ा अनुशासन पाया जाता है जिसके कारण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटाया नहीं जा सकता। इस तरह सरकार अगले चुनाव तक अपने पद पर रहती है।

3. दृढ़ सरकार तथा नीति में निरन्तरता-सरकार स्थिर होने के कारण शासन में दृढ़ता आती है। सरकार अपनी नीतियों को दृढ़ता से लागू करती है। सरकार स्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं बनाई जा सकती हैं और इससे नीति में भी निरन्तरता बनी रहती है।

4. जनता स्वयं सरकार चुनती है-द्वि-दलीय प्रणाली में जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सरकार का चुनाव करती है। दोनों दलों के कार्यक्रम और दोनों दलों के नेताओं को जनता अच्छी तरह जानती है। अतः जनता जिस दल को शक्ति सौंपना चाहती है उस दल के पक्ष में निर्णय दे दिया जाता है। जनता दो दलों में से जिस दल को सत्तारूढ़ दल बनाना चाहे बना सकती है।

5. निश्चित उत्तरदायित्व-द्वि-दलीय प्रणाली में बहुमत दल की सरकार होती है जिससे सरकार की बुराइयों के लिए सत्तारूढ़ को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है। परन्तु जब मन्त्रिमण्डल में विभिन्न दलों के सदस्य होते हैं तब मन्त्रिमण्डल के बुरे प्रशासन के लिए किसी एक दल को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता।

6. प्रधानमन्त्री की शक्तिशाली स्थिति-प्रधानमन्त्री को संसद् में स्पष्ट बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, जिसके कारण वह दृढ़ता से शासन कर सकता है। इंग्लैण्ड में द्वि-दलीय प्रणाली के कारण ही प्रधानमन्त्री बहुत शक्तिशाली है।

7. संगठित विरोधी दल-द्वि-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल होता है जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करके सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है। सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल की आलोचना को ध्यान से सुनना पढ़ता है और कई बार सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल के सुझाव को मानना पड़ता है।

8. सरकार आसानी से बदली जा सकती है-सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटाया जा सकता है और विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सरकार बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती।

9. राजनीतिक एकरूपता-द्वि-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य एक ही दल से लिए जाते हैं जिस कारण मन्त्रियों के राजनीतिक विचारों में एकरूपता पाई जाती है।

10. संसदीय सरकार के लिए लाभदायक-द्वि-दलीय प्रणाली संसदीय सरकार को सफल बनाने में सहायक सिद्ध होती है क्योंकि संसदीय सरकार दलों पर आधारित होती है। जहां पर दो दल पाए जाते हैं वहां पर स्पष्ट होता है कि किस दल को संसद् में बहुमत प्राप्त है। अत: इस बात पर विवाद पैदा नहीं होता कि किस दल को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया जाए।

द्वि-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही-दलीय मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो जाती है। मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण मन्त्रिमण्डल जो चाहे कर सकता है। विरोधी दल की आलोचना का मन्त्रिमण्डल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। विरोधी दल सरकार की कितनी ही आलोचना क्यों न कर ले पर जब वोटें ली जाती हैं तब बहुमत सरकार के समर्थन में ही होता है। इंग्लैण्ड में आजकल मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो चुकी है।

2. विधानमण्डल के महत्त्व की कमी-मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होने के कारण कोई भी बिल पास करवाना कठिन नहीं होता। विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल की इच्छाओं को रजिस्टर करने वाली एक संस्था बन जाती है।

3. मतदाताओं की सीमित स्वतन्त्रता-द्वि-दलीय प्रणाली में मतदाताओं की इच्छा सीमित हो जाती है। मतदाताओं को दो दलों के कार्यक्रमों में से एक को पसन्द करना पड़ता है। परन्तु कई मतदाता दोनों में से किसी को भी पसन्द नहीं करते पर उनके सामने कोई और विकल्प (Alternative) नहीं होता।

4. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-समाज में विभिन्न वर्गों के लोग रहते हैं जिनके हित तथा विचार भी भिन्न-भिन्न हैं। द्वि-दलीय प्रणाली के कारण इन वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।

5. राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है-द्वि-दलीय प्रणाली से राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं। दोनों गुटों का एक नीति पर सहमत होना कठिन होता है जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हो जाता है।

6. कानून दलीय हितों को समक्ष रख कर बनाए जाते हैं-सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दलीय हितों को समक्ष रखते हुए नीति का निर्माण करता है और कानून बनाता है। इससे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-द्वि-दलीय प्रणाली के अनेक दोषों के बावजूद भी इसे अच्छा समझा जाता है। संसदीय सरकार की सफलता के लिए द्वि-दलीय प्रणाली का होना आवश्यक है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में प्रजातन्त्र की सफलता का कारण द्वि-दलीय प्रणाली ही है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 6.
बहु-दलीय प्रणाली के गुण और अवगुण का वर्णन करो। (Write down the merits and demerits of Multi-Party System.)
अथवा
बहु-दलीय प्रणाली के गुणों और दोषों की व्याख्या करें। (Discuss the merits and demerits of Multi-Party System.)
उत्तर-
बहु-दलीय प्रणाली में दो से अधिक दलों का राजनीतिक क्षेत्र में भाग होता है। प्रायः इन दलों में से कोई दल इतना अधिक शक्तिशाली नहीं होता कि वह बिना किसी दल की सहायता के सरकार बनाने में समक्ष हो। भारत, फ्रांस, इटली, जापान, जर्मनी आदि देशों में बहु-दलीय प्रणाली प्रचलित है।

बहु-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली से सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली से सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
  • मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपनी वोट का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है। मतदाताओं के लिए अपने विचारों से मिलते-जुलते दल को वोट देना आसान हो जाता है।
  • राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता-बहु-दलीय प्रणाली का महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि इससे राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता। जहां बहु-दलीय प्रणाली होती है वहां अनेक प्रकार के विचार प्रचलित होते हैं और दलों में कठोर अनुशासन नहीं होता यदि कोई सदस्य अपने दल को छोड़ दे या उसे निकाल दिया जाए तो वह अपने विचारों से मिलता-जुलता दल ढूंढ़ लेता है।
  • मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती-बहु-दलीय प्रणाली में अनेक दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जिस कारण मन्त्रिमण्डल तानाशाह नहीं बन सकता। मन्त्रिमण्डल में शामिल होने वाले दल एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके तथा समझौते की नीति अपना कर कार्य करते हैं।
  • सरकार बिना चुनाव के बदली जा सकती है-बहु-दलीय प्रणाली में चुनाव से पहले भी सरकार को बड़ी आसानी से बदला जा सकता है। यदि एक दल भी मन्त्रिमण्डल से बाहर आ जाए तो सरकार हट जाती है और नई सरकार का निर्माण करना पड़ता है।
  • विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल के हाथों में कठपुतली नहीं बनता-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल का निर्माण कई दल मिलकर करते हैं। जिस कारण मन्त्रिमण्डल को अपने अस्तित्व के लिए एक दल पर निर्भर न रहकर विधानमण्डल पर निर्भर रहना पड़ता है।

बहु-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिल कर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।

2. दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।

3. सरकार के बनाने में कठिनाई-बहु-दलीय प्रणाली में किसी दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण सरकार का बनाना कठिन हो जाता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने के लिए विभिन्न दलों में कई प्रकार की सौदेबाज़ी होती है। कई सदस्य मन्त्री बनने के लिए दल भी बदल जाते हैं, इसमें दल बदली को बढ़ावा मिलता है।

4. संगठित विरोधी दल का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल का अभाव होता है जिस कारण सरकार की नीतियों की प्रभावशाली आलोचना नहीं हो पाती। अत: सरकार के लिए मनमानी करना तथा विरोधी दल की अपेक्षा करना सम्भव हो जाता है।

5. प्रधानमन्त्री की कमज़ोर स्थिति-मिली-जुली सरकार में प्रधानमन्त्री की स्थिति कमज़ोर होती है। प्रधानमन्त्री को उन दलों को साथ लेकर चलना पड़ता है। जो मन्त्रिमण्डल में शामिल होते हैं। प्रधानमन्त्री के लिए सभी दलों को प्रसन्न करना कठिन होता है। इस प्रकार प्रधानमन्त्री विभिन्न दलों की दया पर निर्भर रहता है।

6. उत्तरदायित्व निश्चित नहीं-बहु-दलीय प्रणाली में मिली-जुली सरकार होने के कारण बुरे प्रशासन के लिए किसी दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

7. शासन में अदक्षता-मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में सहयोग न होने के कारण शासन दक्षतापूर्ण नहीं चलाया जा सकता। इसके अतिरिक्त सरकार अस्थायी होने के कारण कर्मचारी शासन को ठीक तरह से नहीं चलाते और न ही शासन में दिलचस्पी लेते हैं।

8. जनता प्रत्यक्ष रूप से सरकार नहीं चुनती-बहु-दलीय प्रणाली में सरकार के निर्माण में जनता का प्रत्यक्ष हाथ नहीं होता। मतदान के समय जनता को यह पता नहीं होता कि किस दल का मन्त्रिमण्डल बनेगा। मिश्रित मन्त्रिमण्डल में न जाने कौन-कौन से दलों का समझौता हो और किसकी सरकार बने ?

9. नौकरशाही के प्रभाव में वृद्धि-इस प्रणाली के अन्तर्गत सरकार की अस्थिरता तथा मन्त्रियों के नियन्त्रण बदलने के कारण शासन का संचालन वास्तविक रूप में सरकारी अधिकारियों के द्वारा किया जाता है। इससे नौकरशाही के प्रभाव मे वृद्धि होती है और मन्त्रियों का प्रभाव कम हो जाता है। शासन की बागडोर अधिकारी वर्ग के हाथ में होने के कारण शासन में नौकरशाही के सभी अवगुण उत्पन्न हो जाते हैं।

10. भ्रष्टाचार में वृद्धि-बहु-दलीय प्रणाली में कई प्रकार के भ्रष्टाचारों की वृद्धि होती है। बहु-दलीय प्रणाली में सरकार को बनाए रखने के लिए विधायकों को कई प्रकार के लालच देकर साथ रखने का प्रयास किया जाता है। विभिन्न दलों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सरकार उन्हें अनेक प्रकार का लालच देती है।

11. राजनीतिक एकरूपता का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल प्रायः विभिन्न दलों द्वारा मिलकर बनाया जाता है। इसलिए मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में राजनीतिक एकरूपता नहीं पाई जाती। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विभिन्न विचारधाराओं के होने के कारण कई बार एक दूसरे की भी आलोचना कर देते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 7.
लोकतंत्र में विरोधी दल की भूमिका लिखें।
(Write down the role of Opposition Party in Democracy.)
अथवा
प्रजातन्त्रीय ढांचे में विपक्षी दलों की भूमिका की व्याख्या करें।
(Discuss the role of opposition parties in a democratic set up.)
अथवा
लोकतन्त्र में विरोधी दलों की भूमिका लिखें। (Explain the role of opposition Parties in Democracy.)
उत्तर-
आज का युग दल प्रणाली का युग है। लोकतन्त्र के लिए राजनीतिक दल अनिवार्य है। शासन पर जिस दल का नियन्त्रण होता है उसे सत्तारूढ़ दल कहा जाता है और अन्य दलों को विरोधी दल कहा जाता है। इंगलैण्ड में दो मुख्य दल हैं-श्रमिक दल और अनुदार दल। आजकल इंग्लैण्ड में अनुदार दल की सरकार है और श्रमिक दल विरोधी दल है। अमेरिका में दो मुख्य दल हैं-रिपब्लिकन पार्टी तथा डेमोक्रेटिक पार्टी। चुनावों में सदा इन दोनों दलों का मुकाबला होता है। भारत में अनेक राष्ट्रीय स्तर के दल पाए जाते हैं। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और कांग्रेस को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त हुआ। 1980 के चुनाव में कांग्रेस (इ) सत्तारूढ़ हुई और अन्य दल विरोधी दल कहलाए। 1984 के चुनाव में कोई भी विरोधी दल मान्यता प्राप्त विरोधी दल नहीं था। 1989 के चुनाव में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी और कांग्रेस (इ) को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त हुआ।

जून, 2004 में भारतीय जनता पार्टी को 14वीं लोकसभा में प्रमुख विरोधी दल की मान्यता प्रदान की गई। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भी भारतीय जनता पार्टी को विरोधी दल के रूप में मान्यता प्रदान की गई। 2014 के 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया। लोकतन्त्र में विरोधी दल का बड़ा महत्त्व होता है। वास्तव में जिस प्रकार लोकतन्त्र के लिए दलों का होना आवश्यक है, उसी तरह विरोधी दल का अस्तित्व भी प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक समझा जाता है। इंग्लैण्ड में विरोधी दल का महत्त्व इतना अधिक है कि उसे रानी का विरोधी दल (Her Majestry’s Opposition) कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि इंग्लैण्ड में विरोधी दल को सरकार मान्यता प्राप्त है। लोकतन्त्र में विरोधी दल अनेक कार्य करता है और जिनमें महत्त्वपूर्ण निम्नलिखित हैं

1. आलोचना (Criticism)-विरोधी दल का मुख्य कार्य सरकार की नीतियों की आलोचना करना है। विरोधी दल यह आलोचना मन्त्रिमण्डल के सदस्यों से विभिन्न प्रश्न पूछ कर, वाद-विवाद तथा अविश्वास प्रस्ताव पेश करके करता है। जब सत्तारूढ़ दल संसद् में बजट पेश करता है, तब विरोधी दल की आलोचना अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाती है। विरोधी दल सरकार से प्रत्येक तरह की जानकारी प्राप्त कर सकता है। विरोधी दल सरकार की आलोचना करके उस समुदाय को जागरूक कर देता है जिस पर सरकार की नीतियों का प्रभाव पड़ना होता है। इसके अतिरिक्त मतदाताओं को सरकार की कार्यकुशलता और नीतियों के सम्बन्ध में अपनी राय बनाने में सुविधा हो जाती है।

2. उत्तरदायी आलोचना (Responsible Criticism)—विरोधी दल के सदस्य केवल आलोचना करने के लिए ही आलोचना नहीं करते बल्कि सत्तारूढ़ दल को शासन अच्छे ढंग से चलाने के लिए भी सुझाव देते हैं और कई बार उन के सुझाव मान भी लिए जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर विरोधी दल सरकार को पूर्ण सहयोग भी देते हैं । सत्तारूढ़ दल भी कई बार संसद् के कार्य और राष्ट्रीय समस्याओं के बारे में विरोधी दल से सलाह-मशवरा करता है। विशेष कर संकटकालीन समय में जब देश की रक्षा का प्रश्न होता है, विरोधी दल सरकार को सहयोग देता है और सरकार भी प्रत्येक कार्य विरोधी दल को विश्वास में लेकर करती है।

3. अस्थिर मतदाता को अपील करना (Appeal to Floating Voters)-विरोधी दल संसद् में अविश्वास प्रस्ताव पेश करता है ताकि सत्तारूढ़ दल को अपने पद से हटा कर स्वयं सरकार बना सके। परन्तु द्वि-दलीय प्रणाली वाले देशों में अविश्वास प्रस्ताव पास होना आसान नहीं है।
भारत में अविश्वास प्रस्ताव पास होना बहु कठिन है। इसलिए विरोधी दल आम चुनावों में सत्तारूढ़ दल को हराने का प्रयत्न करता है। विरोधी दल सत्तारूढ़ दल की आलोचना करके मतदाताओं के सामने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न करता है कि यदि उसे अवसर दिया जाए तो वह देश का शासन सत्तारूढ़ दल की अपेक्षा अच्छा चला सकता है। जैनिंग्स (Jennings) ने ठीक ही कहा है, “विरोधी दल अपने वोटों के आधार पर कभी यह आशा नहीं करता कि सत्तारूढ़ दल को अपने पद से हटा सकेगा। यह तो अस्थायी मतदाताओं (Floating Voters) को समझाने और प्रभावित करने का प्रयत्न करता है ताकि अगले आम चुनाव में उनकी सहायता से शासन पर अधिकार किया जा सके।”

4. शासन नीति को प्रभावित करना (To Influence the policy of the Administration)-विरोधी दल सरकार की नीतियों की आलोचना करके सरकार की नीतियों को प्रभावित करता है। सत्तारूढ़ दल बड़ा सोच-समझ करके अपनी नीतियों का संचालन करता है ताकि विरोधी दल को आलोचना का अवसर ही न मिले, परन्तु विरोधी दल इस ताक में रहता है कि किस तरह सरकार की आलोचना की जाए।

5. विरोधी दल सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है (Opposition checks the despotism of the Government) विरोधी दल सरकार को सत्ता का दुरुपयोग करने से रोकता है। विरोधी दल सरकार की विधानमण्डल में तथा उसके बाहर आलोचना करके उसे अनुचित कार्य करने से रोकता है। विरोधी दल सरकार की त्रुटियों को प्रकाशित करके नागरिकों को यह बताने की चेष्टा करता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को जो विश्वास सौंपा गया है उसका दुरुपयोग हो रहा है। विरोधी दल की उपस्थिति में सरकार मनमानी नहीं कर सकती।

6. जनता को राजनीतिक शिक्षा (Political Education to the People)-विरोधी दल जनता को राजनीतिक शिक्षा देता है। सरकार के सभी दोषों की जानकारी उसकी आलोचना द्वारा जनता तक पहुंचती है। जनता को सरकार के कार्यों पर सोचने और इसके बारे में कोई निर्णय करने का अवसर मिलता रहता है।

7. अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की रक्षा (Protection of Rights and Freedoms)-लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को कई प्रकार के अधिकार और स्वतन्त्रताएं प्राप्त होती हैं। विरोधी दल नागरिकों को उनके अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं का ज्ञान कराता है। यदि सरकार नागरिक के अधिकारों का उल्लंघन करती है तो विरोधी दल सरकार के विरुद्ध कदम आवाज़ उठाता है। विरोधी दल जनमत को जागृत एवं संगठित करके अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं की रक्षा करते हैं।

8. जनता की शिकायतों को प्रकट करना (Ventilation of the grievances of the People)-जनता को शासन से कई प्रकार की शिकायतें होती हैं। विरोधी दल जनता की शिकायतों को प्रकट करते हैं और सरकार तक पहुंचाते है। विरोधी दल जलसों द्वारा, समाचार-पत्रों द्वारा और विधानमण्डलों के अन्दर भाषण देकर जनता की शिकायतों को दूर करने के लिए दबाव डालते हैं।

9. विशेषज्ञों की समितियों की नियुक्ति (Appointment of Committees of Experts) कई बार देश के अन्दर कोई महत्त्वपूर्ण घटना घट जाती है या देश के सामने कोई महत्त्वपूर्ण समस्या खड़ी हो जाती है, उस समय विरोधी दल उस घटना या समस्या की जांच-पड़ताल के लिए विशेषज्ञों की समिति नियुक्त करता है। विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट के आधार पर विरोधी दल अपनी नीति तय करते हैं और कई बार श्वेत-पत्र (White-Paper) भी प्रकाशित करते हैं।

10. लोकतन्त्र की सुरक्षा (To Safeguard Democracy)-विरोधी दल अपने उपर्युक्त कार्यों से लोकतन्त्र की सुरक्षा के महान् कार्य को बहुत हद तक सम्पादित करता है। वह जनता के कष्टों का वर्णन करके सरकार का ध्यान उनकी तरफ करता है ताकि कष्टों को दूर किया जा सके। विरोधी दल सरकार को बाध्य करता है ताकि वह अपनी नीतियों को कल्याणकारक रूप प्रदान करे।

11. सरकार के साथ सहयोग करना (Co-operation with the Govt.)-यद्यपि विरोधी दल सरकार की आलोचना तथा विरोध करते हैं, परन्तु कई बार राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए सरकार को पूर्ण सहयोग व समर्थन देते हैं। राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सत्ताधारी दल भी विरोधी दलों से विचार-विमर्श करते रहते हैं और राष्ट्रीय समस्याओं पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का प्रयास करते हैं।

12. वैकल्पिक सरकार प्रदान करना (To provide Alternative Govt.)—प्रजातन्त्र में विरोधी दल सदैव वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए तैयार रहते हैं। विरोधी दल हमेशा इस ताक में रहते हैं, कि कब सत्ताधारी दल सत्ता छोड़े, तथा वे सत्ताहीन हों। सामान्यतः देखा गया है कि जब भी सत्तारूढ़ दल ने शासन छोड़ा है, तब विपक्षी दल को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह लोकतन्त्र में विरोधी दल का बहुत महत्त्व है। विरोधी दल सरकार की आलोचना करके सरकार को मनमानी करने से रोकता है और नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा करता है। हॉग क्विटन (Hogg Quintin) ने ठीक ही कहा, “संगठित विरोधी दल के अभाव और पूर्ण तानाशाही में कोई अधिक फासला नहीं है।” (It is not along step from the absence of an organised opposition to a complete dictatorship.”) भारत में अनेक विरोधी दल होने के बावजूद संगठित विरोधी दल का अभाव है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक पार्टी किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का समूह है जो सार्वजनिक मामलों पर एक-से विचार रखते हों और संगठित होकर अपने मताधिकार द्वारा सरकार पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना चाहते हों ताकि अपने सिद्धान्तों को लागू कर सकें।

  • गिलक्राइस्ट के शब्दानुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है जिनके राजनीतिक विचार एक से हों और एक राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करते हों।”
  • मैकाइवर का कहना है कि, “राजनीतिक दल किसी सिद्धान्त या नीति के समर्थन के लिए संगठित वह समुदाय है जो संवैधानिक ढंग से उस सिद्धान्त या नीति को शासन के आधार पर बनाना चाहता है।”
  • गैटेल के अनुसार, “राजनीति दल उन नागरिकों का कम या अधिक संगठित समूह है जो एक राजनीतिक इकाई की तरह काम करते हों और अपने मतों के द्वारा सरकार पर नियन्त्रण करना तथा अपने सिद्धान्तों को लागू करना चाहते हों।”
    भारतीय जनता पार्टी तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल हैं।

प्रश्न 2.
राजनीतिक दलों के कोई चार कार्यों का वर्णन करें।
अथवा
राजनीतिक दलों के कोई चार कार्य लिखो।
उत्तर-

  • सार्वजनिक नीतियों का निर्माण-राजनीतिक दल देश के सामने आने वाली समस्याओं पर विचार करते हैं तथा अपनी नीति निर्धारित करते हैं। राजनीतिक दल अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर भी सोच-विचार करते हैं और अपनी नीति बनाते हैं।
  • राजनीतिक शिक्षा-राजनीतिक दल देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपनी नीतियों का निर्माण करते हैं और उन नीतियों का जनता में प्रचार करते हैं । इससे जनता को देश की समस्याओं की जानकारी होती है तथा विभिन्न दलों की नीतियों का पता चलता है।
  • चुनाव लड़ना-राजनीतिक दलों का मुख्य कार्य चुनाव लड़ना है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं और उनको चुनाव में विजयी कराने के लिए उनके पक्ष में प्रचार करते हैं।
  • सरकार बनाना-चुनाव में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है उसी दल की सरकार बनती है। सरकार की स्थापना करने के पश्चात् सत्तारूढ़ दल अपनी नीतियों तथा चुनाव के लिए किए गए वायदों को व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न करता है।

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प्रश्न 3.
राजनीतिक दल की कोई चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • संगठन-राजनीतिक दल के निर्माण के लिए संगठन का होना आवश्यक है। जब तक एक से विचार रखने वाले सदस्य पूर्ण रूप से संगठित न हों तब तक राजनीतिक दल का निर्माण नहीं हो सकता।
  • मूल सिद्धान्तों पर सहमति-राजनीतिक दल के सदस्यों की मूल सिद्धान्तों पर सहमति होनी चाहिए। समान राजनीतिक विचार रखने वाले व्यक्ति ही राजनीतिक दल का निर्माण कर सकते हैं। सिद्धान्तों के विस्तार में थोड़ा-बहुत मतभेद हो सकता है परन्तु मूल सिद्धान्त पर कोई मतभेद नहीं होना चाहिए।
  • शासन पर नियन्त्रण की इच्छा-राजनीतिक दल का उद्देश्य शासन पर नियन्त्रण करना होता है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजनीतिक दल जनमत का समर्थन प्राप्त करने के प्रयास करते हैं।
  • प्रत्येक राजनीतिक दल का एक निश्चित कार्यक्रम होता है।

प्रश्न 4.
दल प्रणाली की भिन्न-भिन्न किस्में लिखिए।
उत्तर-
सभी लोकतान्त्रिक देशों में राजनीतिक दल पाए जाते हैं और अधिनायकतन्त्रीय राज्यों में भी राजनीतिक दल मिलते हैं। दल प्रणाली कई प्रकार की होती है-एक दलीय प्रणाली, द्वि-दलीय प्रणाली तथा बहु-दलीय प्रणाली।

  • एक-दलीय प्रणाली-यदि किसी राज्य में केवल एक ही राजनीतिक दल राजनीति में भाग ले रहा हो और अन्य दल संगठित करने का अधिकार न हो तो ऐसी दल प्रणाली को एक-दलीय प्रणाली तथा बहु-दलीय प्रणाली कहते हैं।
  • द्वि-दलीय प्रणाली-द्वि-दलीय प्रणाली के अन्तर्गत केवल दो महत्त्वपूर्ण दल होते हैं। अन्य दलों का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता। अमेरिका और इंग्लैण्ड में द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है।
  • बहु-दलीय प्रणाली-बहु-दलीय प्रणाली में दो से अधिक राजनीतिक दल पाए जाते हैं। भारत, फ्रांस, इटली, स्विट्ज़रलैण्ड में बहु-दलीय प्रणाली पाई जाती है।

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प्रश्न 5.
बहु-दलीय प्रणाली के कोई चार गुण लिखो।
उत्तर-
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली में सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली में सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
  • मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपने मत का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है। मतदाताओं के लिए अपने विचारों से मिलते-जुलते दल को वोट देना आसान हो जाता है।
  • राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता-बहु-दलीय प्रणाली का महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि इससे राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता। जहां बहु-दलीय प्रणाली होती है वहां अनेक प्रकार के विचार प्रचलित होते हैं लेकिन दलों में कठोर अनुशासन नहीं होता है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती है।

प्रश्न 6.
राजनीतिक दलों के कोई चार अवगुण लिखिए। .
उत्तर-
यद्यपि दल-प्रणाली के गुण अत्यन्त प्रभावशाली हैं, परन्तु दूसरी ओर इसके दोष भी कम भयानक नहीं हैं। राजनीतिक दलों का उचित संगठन न हो तो अनेक दोष भी निकल सकते हैं। इसके मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रीय एकता को खतरा-राजनीतिक दलों के कारण राष्ट्रीय एकता को सदैव खतरा बना रहता है। दलों के द्वारा देश में गुटबन्दी की भावना उत्पन्न होती है जिसके द्वारा सारा देश उतने विभागों में बंट जाता है जितने कि राजनीतिक दल होते हैं।
  • राजनीतिक दल भ्रष्टाचार फैलाते हैं-चुनाव के दिनों में दल चुनाव जीतने के लिए जनता को कई प्रकार का प्रलोभन देते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात् सत्तारूढ़ दल उन लोगों को अनुचित लाभ पहुंचाता है जिन्होंने चुनाव के समय उसकी पूरी मदद की होती है।
  • राजनीतिक दल नैतिक स्तर को गिराते हैं-राजनीतिक दल अपनी नीतियों का प्रसार करने के लिए तथा दूसरे दलों को नीचा दिखाने के लिए झूठा प्रचार करते हैं। विशेषकर चुनाव के दिनों में एक दल दूसरे दलों पर इतना कीचड़ उछालते हैं कि नैतिक स्तर बहुत गिर जाता है।
  • साम्प्रदायिक भावना को बढ़ाना-राजनीतिक दल अपने लाभ के लिए देश में साम्प्रदायिक भावना को बढ़ावा देते हैं।

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प्रश्न 7.
राजनीतिक दलों के कोई चार गुणं लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दलों में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • राजनीतिक दल मानवीय प्रकृति के अनुसार हैं-मनुष्य की प्रकृति में विभिन्नता दलों द्वारा प्रकट होना अनिवार्य है। कुछ लोग उदार विचारों के होते हैं और कुछ अनुदार विचारों के होते हैं।
  • राजनीतिक दल लोकतन्त्र के लिए आवश्यक हैं-राजनीतिक दलों के बिना लोकतन्त्र की सफलता सम्भव नहीं है।
  • दृढ़ सरकार की स्थापना में सहायक-जिस दल को भी चुनाव में बहुमत प्राप्त है, उस दल की सरकार बनती है ! ऐसे दल को यह विश्वास होता है कि जनता का बहुमत उसके साथ है और वे दल की नीतियों का समर्थन करते हैं।
  • राजनीतिक दल लोगों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करते हैं।

प्रश्न 8.
बहु-दलीय प्रणाली के कोई चार दोष लिखो।
अथवा
बहु-दलीय प्रणाली के कोई तीन दोष लिखो।
उत्तर-
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।
  • दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।
  • सरकार बनाने में कठिनाई-बहु-दलीय प्रणाली में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण सरकार का बनाना कठिन हो जाता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने के लिए विभिन्न दलों में कई प्रकार की सौदेबाज़ी होती है। कई सदस्य मन्त्री बनने के लिए दल भी बदल लेते हैं, जिससे दल बदली को बढ़ावा मिलता है।
  • बहुदलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल का अभाव होता है।

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प्रश्न 9.
एक-दलीय प्रणाली के चार गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
एक-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • राष्ट्रीय एकता-एक-दलीय प्रणाली में राष्ट्रीय एकता बनी रहती है क्योंकि विभिन्न दलों में संघर्ष नहीं होता। सभी नागरिक एक ही विचारधारा में विश्वास रखते हैं और एक ही नेता के नेतृत्व में कार्य करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न होती है। .
  • स्थायी सरकार-एक-दलीय प्रणाली के कारण सरकार स्थायी होती. है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल से होते हैं और विधानमण्डल में सभी सदस्य सरकार का समर्थन करते हैं।
  • दृढ़ शासन-एक-दलीय प्रणाली में शासन दृढ़ होता है। किसी दूसरे दल के न होने के कारण सरकार की आलोचना नहीं होती। इस शासन से देश की उन्नति होती है।
  • एक दलीय प्रणाली में सरकार स्थायी होने के कारण दीर्घकालीन योजनाएं बनानी सम्भव होती हैं।

प्रश्न 10.
एक दल प्रणाली के कोई चार दोष लिखो।
उत्तर-
एक-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • लोकतन्त्र के विरुद्ध-यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल नहीं है। इसमें नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता नहीं होती और न ही उन्हें संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होती है।
  • नाममात्र के चुनाव-एक-दलीय प्रणाली में चुनाव केवल दिखावे के लिए होते हैं। नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती।
  • तानाशाही की स्थापना-एक-दलीय प्रणाली में तानाशाही का बोलबाला रहता है। विरोधियों को सख्ती से दबाया जाता है अथवा उन्हें समाप्त कर दिया जाता है।
  • एक दलीय प्रणाली में सरकार उत्तरदायी नहीं होती।

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प्रश्न 11.
‘द्वि-दलीय’ (Two Party) प्रणाली का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली उसे कहते हैं जब किसी राज्य में केवल दो मुख्य तथा महत्त्वपूर्ण दल हों परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि द्वि-दलीय प्रणाली में तीसरा दल हो ही नही सकता। दो मुख्य दलों के अतिरिक्त और दल भी हो सकते हैं परन्तु उनका कोई महत्त्व नहीं होता। इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली को अपनाया गया है । इंग्लैण्ड में दो मुख्य दलों के नाम है-अनुदार दल तथा श्रमिक दल। इंग्लैण्ड में इन दलों के अतिरिक्त और दल भी हैं जैसे कि उदारवादी तथा साम्यवादी दल परन्तु इन दलों का राजनीति में कोई महत्त्व नहीं है। वास्तव में अनुदार दल तथा श्रमिक दल का ही राजनीति में महत्त्व है। अमेरिका में भी दो दल ही महत्त्वपूर्ण हैं। इनके नाम हैं-रिपब्लिकन दल तथा डैमोक्रेटिक दल।

प्रश्न 12.
द्वि-दलीय प्रणाली के कोई चार गुण लिखो।
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • सरकार आसानी से बनाई जा सकती है-द्वि-दलीय प्रणाली का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें सरकार आसानी से बनाई जा सकती है। दोनों दलों में से एक दल का विधानमण्डल में बहुमत होता है। बहुमत दल अपना मन्त्रिमण्डल बनाता है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है।
  • स्थिर सरकार-बहुमत दल की सरकार बनती है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रहता है और जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है। दल में कड़ा अनुशासन पाया जाता है जिसके कारण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव करके मन्त्रिमण्डल को हटाया नहीं जा सकता। इस तरह सरकार अगले चुनाव तक अपने पद पर रहती है।
  • दृढ़ सरकार तथा नीति में निरन्तरता-सरकार स्थिर होने के कारण शासन में दृढ़ता आती है। सरकार अपनी नीतियों को दृढ़ता से लागू करती है। सरकार स्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं बनाई जा सकती हैं और इससे नीति में भी निरन्तरता बनी रहती है।
  • द्वि-दलीय प्रणाली में प्रधानमन्त्री की स्थिति शक्तिशाली होती है।

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प्रश्न 13.
बाएं-पक्षीय राजनीतिक दल कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
बाएं-पक्षीय राजनीतिक दल साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित होते हैं । वामपंथी दल विचारधारा की दृष्टि से वे दल होते हैं जो क्रान्तिकारी सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों का समर्थन करते हैं और दूसरे वे जो समाजवाद का समर्थन करते हैं। भारत में भारतीय साम्यवादी दल मार्क्सवादी दल बाएं-पक्षीय राजनीतिक दल माने जाते हैं।

प्रश्न 14.
दाएं-पक्षीय राजनीतिक दल कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली में दाएं पक्षीय या दक्षिणपंथी राजनीतिक दल भी पाए जाते हैं। दक्षिणपंथी दल विचारधारा की दृष्टि से वे दल होते हैं जो यथास्थिति को बनाये रखने के लिए रूढ़िवादी स्थिति का समर्थन करते हैं।

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प्रश्न 15.
लोकतन्त्र में विपक्ष पार्टी की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर-

  • आलोचना-विरोधी दल का मुख्य कार्य सरकार की नीतियों की आलोचना करना है।
  • शासन नीति को प्रभावित करना-विरोधी दल सरकार की नीतियों की आलोचना करके सरकार की नीतियों को प्रभावित करता है।
  • विरोधी दल सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है-विरोधी दल सरकार को सत्ता का दुरुपयोग करने से रोकता है।
  • विरोधी दल नागरिकों के अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं की रक्षा करते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक दल किसको कहा जाता है?
उत्तर-
राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का समूह है जो सार्वजनिक मामलों पर एक-से विचार रखते हों और संगठित होकर अपने मताधिकार द्वारा सरकार पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना चाहते हों ताकि अपने सिद्धान्तों को लागू कर सकें।
(1) गिलक्राइस्ट के शब्दानुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है जिनके राजनीतिक विचार एक से हों और एक राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करते हों।”

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प्रश्न 2.
राजनीतिक दलों के कोई दो कार्य लिखो।
उत्तर-

  • लोकमत तैयार करना-लोकतन्त्रात्मक देश में राजनीतिक दल जनमत के निर्माण में बहुत सहायता करते हैं। .
  • सार्वजनिक नीतियों का निर्माण-राजनीतिक दल देश के समाने आने वाली समस्याओं पर विचार करते हैं तथा अपनी नीति निर्धारित करते हैं।

प्रश्न 3.
बहु-दलीय प्रणाली के कोई दो गुण लिखो।
उत्तर-

  • विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली में सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली में सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
  • मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपने मत का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक दलों के कोई से दो दोष बताएं।
उत्तर-

  • राष्ट्रीय एकता को खतरा-राजनीतिक दलों के कारण राष्ट्रीय एकता को सदा खतरा बना रहता है।
  • राजनीतिक दल भ्रष्टाचार फैलाते हैं-चुनाव के दिनों में दल चुनाव जीतने के लिए जनता को कई प्रकार का प्रलोभन देते हैं।

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प्रश्न 5.
दो दलीय प्रणाली के दो देशों के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. इंग्लैण्ड
  2. संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न 6.
एक दलीय प्रणाली के दो प्रमुख देशों के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. चीन
  2. क्यूबा ।

प्रश्न 7.
बहु-दलीय प्रणाली के किन्हीं दो दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।
  • दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
एक दलीय प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
जिस देश की राजनीतिक व्यवस्था पर केवल एक ही दल का नियन्त्रण हो तथा अन्य दलों के संगठित होने और कार्य करने पर प्रतिबन्ध हो तो उसे एक दलीय प्रणाली कहते हैं।

प्रश्न 2.
एक-दलीय प्रणाली वाले दो देशों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. चीन
  2. क्यूबा।

प्रश्न 3.
द्वि-दलीय प्रणाली वाले दो देशों के नाम लिखो।
अथवा
किसी एक देश का नाम लिखो जिसमें द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है?
उत्तर-
इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है।

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प्रश्न 4.
किसी एक देश का नाम लिखो, जिनमें बहु-दल प्रणाली पाई जाती है ?
उत्तर-
भारत।

प्रश्न 5.
बहु-दलीय प्रणाली का क्या अर्थ है?
अथवा
बहुदल प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
बहु-दलीय प्रणाली से क्या भाव है ?
उत्तर-
जहां तीन या तीन से अधिक राजनीतिक दलों का अस्तित्व हो उस प्रणाली को बहु-दलीय प्रणाली का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 6.
विरोधी दल का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
विधानपालिका में सत्ता पक्ष का विरोध करने वाले दलों को विरोधी दल कहा जाता है।

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प्रश्न 7.
सत्तारूढ़ दल किसको कहा जाता है?
उत्तर-
सत्तारूढ़ दल उसे कहा जाता है, जिसने चुनावों में जीतने के पश्चात् सरकार का निर्माण किया हो।

प्रश्न 8.
चीन में कौन-सी दल-प्रणाली पाई जाती है ?
उत्तर-
चीन में एक दलीय प्रणाली पाई जाती है।

प्रश्न 9.
द्वि-दलीय प्रणाली का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली से राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है, जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं।

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प्रश्न 10.
द्वि-दलीय प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
किसी देश में दो बड़े और महत्त्वपूर्ण दल हों और शेष महत्त्वहीन हों।

प्रश्न 11.
राजनीतिक दलों का एक गुण लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दल जनमत निर्माण में मदद करते हैं।

प्रश्न 12.
राजनीतिक दलों का एक अवगुण लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा दलीय हितों को बढ़ावा देते हैं।

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प्रश्न 13.
राजनीतिक दलों के गठन का एक आधार लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दलों के गठन का एक आधार राजनीतिक है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. आधुनिक प्रजातन्त्र राज्यों में ……….. का होना अनिवार्य समझा जाता है।
2. जे० ए० शूम्पीटर के अनुसार राजनीतिक दल एक ऐसा गुट या समूह है, जिसके सदस्य ……….. प्राप्ति के लिए संघर्ष व होड़ में संलग्न है।
3. राजनीतिक दल के सदस्यों में ………… पर सहमति होनी चाहिए।
4. प्रत्येक राजनीतिक दल का एक निश्चित ……….. होता है।
5. राजनीतिक दल का उद्देश्य ………… शक्ति प्राप्त करना होता है।
6. राजनीतिक दल .. ……………… की जान कहलाते हैं।
उत्तर-

  1. राजनीतिक दलों
  2. सत्ता
  3. मूल सिद्धान्त
  4. कार्यक्रम
  5. राजनीतिक
  6. लोकतन्त्र।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. संघात्मक राज्यों में राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता का एक महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं।
2. प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों का अधिक महत्त्व नहीं होता।
3. प्रत्येक राजनीतिक दल चुनाव के लिए अपने-अपने उम्मीदवार खड़े करता है।
4. जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, वह विपक्ष में बैठता है।
5. आधुनिक राज्य में राजनीतिक दल लोगों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करते हैं।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दलीय प्रणाली निम्नलिखित प्रकार की होती है-
(क) एक दलीय
(ख) द्वि-दलीय
(ग) बहु दलीय
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 2.
निम्नलिखित एक देश में एक दलीय प्रणाली पाई जाती है-
(क) भारत
(ख) इंग्लैण्ड
(ग) चीन
(घ) अमेरिका।
उत्तर-
(ग) चीन

प्रश्न 3.
निम्नलिखित एक देश में द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है-
(क) अमेरिका
(ख) भारत
(ग) चीन
(घ) जापान।
उत्तर-
(क) अमेरिका

प्रश्न 4.
निम्नलिखित एक देश में बहुदलीय प्रणाली पाई जाती है-
(क) इंग्लैण्ड
(ख) अमेरिका
(ग) भारत
(घ) चीन।
उत्तर-
(ग) भारत

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा राजनीतिक दल का कार्य नहीं है-
(क) जनमत तैयार करना
(ख) राजनीतिक शिक्षा देना
(ग) सड़कें एवं पुल बनवाना
(घ) चुनाव लड़ना।
उत्तर-
(ग) सड़कें एवं पुल बनवाना