PSEB 8th Class Home Science Practical चपाती बनाना

Punjab State Board PSEB 8th Class Home Science Book Solutions Practical चपाती बनाना Notes.

PSEB 8th Class Home Science Practical चपाती बनाना

गेहूँ की रोटी

सामग्री—

  1. गेहूँ का आटा — 200 ग्राम
  2. पानी — आवश्यकतानुसार (आटा गूंथने के लिए)
  3. मक्खन या घी — थोड़ा-सा

विधि—आटे में पानी मिलाकर गूंथ ले। आधे घण्टे के लिए ढककर रख दें। अब इसकी छोटी-छोटी लोइयाँ बनाकर लगभग 5 व्यास की चपाती बेल लें। इन्हें गर्म तवे पर डाल दें
और उसको एक तरफ़ तब पलट दें जब उसका रंग बदलने लगे। अब दूसरी तरफ़ पकाएँ। जब भूरे रंग के निशान बनने लगें तो पहली तरफ़ को आग पर सेंकें। चपाती अच्छी प्रकार से फूलनी चाहिए। फिर घी लगाकर परोसें।

पराठा बनाना

सामग्री—

  1. आटा — 200 ग्राम
  2. पानी — आवश्यकतानुसार
  3. घी — तलने के लिए

विधि—चपाती की भाँति ही आटा गूंथ लें। आटे की लोई बनाकर उसे थोड़ा बेल लें। अब थोड़ा-सा घी लगाकर इसे मोड़ दें और दुबारा बेल लें। बेला हुआ पराँठा गर्म तवे पर डाल दें और थोड़ा सिकने पर उसे पलट दें। अब थोड़ा-थोड़ा घी लगाकर दोनों तरफ़ से तल लें। गरम-गरम पराँठे सब्जियों के साथ परोसें।

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मेथी का पराँठा

सामग्री—

  1. एक भाग मक्की का आटा — 100 ग्राम
  2. तीन भाग गेहूँ का आटा — 300 ग्राम
  3. हरी मेथी — 20 ग्राम (भूनी हुई)
  4. प्याज — 20 ग्राम
  5. नमक और मिर्च — स्वादानुसार

विधि—मेथी को धोकर बहुत बारीक काट लें। प्याज को छीलकर धोकर लम्बाई की तरफ़ पतला-पतला काटें। आटा गूंथने के समय आधे प्याज बीच में गूंथ लें। एक पैड़ की रोटी बनाएँ। घी लगाकर बीच में मेथी, प्याज, नमक और मिर्च मिला दें। पराँठे की तरह घी ऊपर ही लगाएँ। दही और मक्खन के साथ परोसें।

PSEB 7th Class Home Science Practical एल्यूमीनियम, स्टील, पीतल और शीशे की सफाई

Punjab State Board PSEB 7th Class Home Science Book Solutions Practical एल्यूमीनियम, स्टील, पीतल और शीशे की सफाई Notes.

PSEB 7th Class Home Science Practical एल्यूमीनियम, स्टील, पीतल और शीशे की सफाई

1. एल्यूमीनियम के बर्तनों की सफ़ाई

आवश्यक सामग्री-पानी, साबुन, नींबू का रस, सिरका, स्टील वूल।
सफ़ाई की विधियां-

  1. एल्यूमीनियम के बर्तन सस्ते होते हैं। इनकी सफ़ाई के लिए गर्म पानी व साबुन का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  2. बर्तन में यदि धब्बे हों तो धब्बों पर नींबू का रस लगाएँ और फिर साफ़ गर्म पानी से धोकर मुलायम कपड़े से पोंछ लें।
  3. यदि बर्तन का रंग खराब हो जाए तो उबलते पानी में सिरका डालकर उसमें बर्तन डाल दें। बर्तन चमक जायेंगे।
  4. इनमें चमक लाने के लिए स्टील वूल (steel wool) का प्रयोग भी कर सकते हैं।

नोट-

  1. एल्यूमीनियम के बर्तनों को साफ़ करने के लिए किसी भी अम्ल का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  2. इनके लिए सोडे का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे धातु काली पड़ जाती है।

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2. स्टेनलेस स्टील के बर्तनों की सफाई

आवश्यक सामग्री-पानी, साबुन, विम जैसा पाउडर, झाड़न सफ़ाई की विधियां-

  1. इन्हें पानी और साबुन के घोल से साफ़ किया जाता है।
  2. इनकी सफ़ाई के लिए बाज़ार में विम जैसे पाउडर उपलब्ध हैं। ये पाउडर इन बर्तनों की सफाई के लिए बहुत अच्छे रहते हैं।
  3. धोने के बाद इन्हें एक सूखे स्वच्छ कपड़े से पोंछकर ही रखना चाहिए।

नोट-

  1. स्टेनलेस स्टील के बर्तनों की सफ़ाई राख आदि से नहीं करनी चाहिए क्योंकि इनमें खरोंचें पड़ जाती हैं।
  2. स्टेनलेस स्टील के बर्तनों को स्वच्छ व मुलायम कपड़े से अच्छी प्रकार रगड़ने से उनमें चमक आ जाती है।

3. पीतल के बर्तनों की सफाई

आवश्यक सामग्री-राख, मिट्टी, इमली, नींबू या आम की खटाई, पानी, साबुन, सिरका, नमक, ब्रासो।
सफ़ाई की विधियां-

  1. घर के रोज उपयोग किए जाने वाले बर्तनों को राख व मिट्टी से माँज कर साफ़ किया जा सकता है।
  2. अधिक गन्दे बर्तनों की सफाई के लिए इमली, नींबू या आम की खटाई का प्रयोग करना उचित रहता है।
  3. पीतल की सजावटी वस्तुओं को साफ़ करने के लिए निम्न विधि अपनाते हैं,
    • वस्तु को गर्म साबुन के घोल में डालें।
    • छोटे ब्रुश या पुराने टूथ ब्रुश से अच्छी प्रकार साफ़ करें जिससे कोनों तथा डिज़ाइन आदि में घुसी गन्दगी भी साफ़ हो जाये।
    • इसे अब साफ़ पानी में धोएँ।
    • सूखे कपड़े से पोंछकर सुखाएँ।
    • बाज़ार मे उपलब्ध ब्रासो (Brasso) नामक पॉलिश लगाकर रगड़ें ताकि यह
      चमक जाये।
  4. पीतल की वस्तुओं पर यदि दाग-धब्बे लगे हों तो पॉलिश करने से पहले सिरका तथा नमक का प्रयोग करें।

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4. काँच, चीनी मिट्टी और शीशे की वस्तुओं की सफाई

आवश्यक सामग्री-साबुन का घोल, कपड़ा (मुलायम), नमक, सिरका, चाय की पत्ती, अख़बार, ब्रुश, स्प्रिट, चूने का पाउडर।
सफ़ाई की विधियां-

  1. साबुन का घोल लेकर कपड़े से काँच की वस्तु या बर्तन को धीरे-धीरे रगड़ें। ऐसा करने से गन्दगी छूट जायेगी। अब साफ़ गुनगुने पानी में से खंगालकर मुलायम कपड़े से पोंछने पर बर्तन चमक जाते हैं।
  2. यदि बर्तन अधिक चिकना है तो नमक, सिरका, चाय की पत्ती या अख़बार के टुकड़े या स्याही सोखता इनमें से कोई भी एक उस बर्तन में भरकर रगड़ें। ऐसा करने से बर्तन से गन्दगी छूट जायेगी। इसके बाद इस बर्तन को फिर साबुन के घोल या विम के घोल में साफ़ करें। अब इसे साफ़ गुनगुने पानी में खंगालें। इसके बाद साफ़ मुलायम कपड़े से पोंछे।
  3. डिज़ाइनर बर्तनों को साफ़ करने के लिए मुलायम ब्रुश का प्रयोग करें।
  4. खिड़कियों तथा दरवाजों के शीशों की सफ़ाई के लिए कपड़े में स्प्रिट लगाकर रगड़ें। इन्हें चूने का पाउडर तथा अमोनिया के गाढ़े घोल से रगड़कर भी साफ़ किया जा सकता है।

PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई

Punjab State Board PSEB 7th Class Home Science Book Solutions Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई Notes.

PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई

छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
नाइलॉन की साड़ी कैसे धोते हैं ?
उत्तर-
नाइलॉन की साड़ी को साबुन वाले गुनगुने पानी में हल्के दबाव से धोते हैं। फाल वाला हिस्सा ज़मीन के साथ लगा रहता है, इसलिए ज्यादा गन्दा हो जाता है, उसको साबुन की झाग लगाकर हाथों में रगड़कर साफ़ करते हैं।

प्रश्न 2.
नाइलॉन की साड़ी पर प्रैस कैसे करना चाहिए?
उत्तर-

  1. साड़ी को खोलकर उल्टी तरफ से फाल को हल्की गर्म प्रैस से प्रैस करना चाहिए।
  2. साड़ी के पहले लम्बाई की तरफ से दोहरी और फिर चार तह लगाकर प्रैस करना चाहिए।
  3. साड़ी को दो बार और तह लगाना चाहिए ताकि सोलह तह हो जाए। इसके बाद हैंगर में लटका देना चाहिए या चौड़ाई की तरफ से दोहरी करके रख देना चाहिए।

PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई

बड़े उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
रेयॉन (करेप) के ब्लाऊज़ किस प्रकार धोए जाते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखिए।
उत्तर-
धोने से पहले तैयारी-ब्लाऊज़ को खोलकर देखना चाहिए। अगर कहीं फटा हुआ हो तो मुरम्मत कर लेनी चाहिए। अगर कोई दाग लगा हो तो उसको साफ़ कर लेना चाहिए। अगर कोई बटन लगे हों तो धुलने पर खराब हो सकते हों तो उन्हें उतार लेना चाहिए।

धोने का तरीका–एक चिलमची में गुनगुना पानी डालकर साबुन का घोल तैयार करना चाहिए। उसमें ब्लाऊज़ को डाल देना चाहिए। गले पर अगर मैल लगा हो तो उस हिस्से को बाएं हाथ की हथेली पर रखकर दाएँ हाथ से थोड़ी झाग डालकर धीरे-धीरे मलना चाहिए। जब साफ़ हो जाए तो गुनगुने पानी में दो-तीन बार खंगालना चाहिए। इसमें न नील लगाने की ज़रूरत पड़ती है न माया लगाने की।

निचोड़ना-एक तौलिए में ब्लाऊज़ को रखकर लपेट लेना चाहिए और थोड़ा-सा हाथों से दबाना चाहिए। इस तरह तौलिया पानी सोख लेता है।
सुखाना-खाट पर तौलिया बिछाकर ब्लाऊज़ को हाथ से सीधा करके छाया में फैला देते हैं। 15 मिनट बाद उसका दूसरा हिस्सा सामने कर देते हैं ताकि दोनों तरफ से अच्छी तरह सूख जाए।
प्रैस करना-

  1. एक मेज़ पर कंबल या खेस की तह लगाकर बिछा देते हैं। उसके बाद उस पर एक सफ़ेद चादर भी बिछा देते हैं।
  2. प्रैस को हल्की गर्म करते हैं।
  3. ब्लाऊज़ को उल्टा करके सिलाई वाले हिस्से और दोहरे हिस्से पर प्रैस करते हैं। हुकों पर प्रैस नहीं करते हैं।
  4. बाजू को स्लीव बोर्ड में डालकर प्रैस करते हैं। अगर स्लीव बोर्ड न हो तो अख़बार या तौलिए को रोल करके बाजू में डालकर प्रैस करते हैं।
    PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई 1
    चित्र 2.1 ब्लाऊज़ प्रैस करना
  5. ब्लाऊज़ के बारीक हिस्से को सीधी तरफ से प्रैस करते हैं।
  6. बाजुओं को धीरे से अगली तरफ मोड़ देते हैं।
  7. ब्लाऊज़ को तह करने के बाद प्रैस नहीं करते हैं।

PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई

प्रश्न 2.
टेरीलीन की कमीज़ किस प्रकार धोई जाती है ? विस्तारपूर्वक लिखिए।
उत्तर-
धोने से पहले की तैयारी-कमीज़ों की जेबें अच्छी तरह देख लेनी चाहिएं। अगर कुछ पैसे, पेन या कागज़ हो तो निकाल लेना चाहिए। अगर कोई दाग लगा हो तो साफ़ कर लेना चाहिए। कहीं कमीज़ फटी हुई हो तो मुरम्मत कर लेनी चाहिए।

धोने का तरीका-साबुन वाले गुनगुने पानी में हाथों से मलकर धोना चाहिए। अगर कालर और कफ साफ़ न हो तो प्लास्टिक के ब्रुश से थोड़ा-सा रगड़ना चाहिए।

खंगालना-कमीज़ को गुनगुने पानी में दो-तीन बार खंगालना चाहिए। निचोड़ना और सुखाना-हाथों से थोड़ा-सा दबाकर पानी निचोड़ लेना चाहिए और हैंगर में लटकाकर तार पर टाँग देना चाहिए। हाथ से कालर और कफ ठीक कर लेना चाहिए।
PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई 2
चित्र 2.2 कमीज़ को निचोड़ना और सुखाना
प्रैस करना-

  1. सबसे पहले हल्की गर्म प्रैस से कालर और योक को प्रैस करनी चाहिए।
    PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई 3
    चित्र 2.3 कमीज़ पर प्रैस करना
  2. बाजुओं को प्रैस करना चाहिए।
  3. अगला और पिछला भाग प्रैस करके कमीज़ की तह लगा देना चाहिए।

PSEB 7th Class Home Science Practical कृत्रिम कपड़ों की धुलाई

कृत्रिम कपड़ों की धुलाई PSEB 7th Class Home Science Notes

  • सफ़ेद रेयॉन फटने तक सफ़ेद रहती है। इसलिए नील लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती और न ही इसको माया लगानी पड़ती है।
  • रेयॉन के ब्लाऊज़ को तह करने के बाद प्रैस नहीं करना चाहिए।
  • नाइलॉन, जारजट या वूली की साड़ी को साबुन वाले गुनगुने पानी में हल्के दबाव से धोना चाहिए।
  • नाइलॉन, जारजट या वूली की साड़ी को खोलकर उल्टी तरफ से फाल को हल्की प्रैस से प्रेस करना चाहिए।
  • नाइलॉन, जारजट या वूली की साड़ी को पहले लम्बाई की तरफ से दोहरी और फिर चार तह लगाकर प्रैस करना चाहिए।
  • टेरीलीन की कमीज़ को साबुन वाले गुनगुने पानी में हाथों से मलकर धोना चाहिए।

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

Punjab State Board PSEB 8th Class Home Science Book Solutions Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता Notes.

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

पनीर बनाना

सामग्री—

  1. दूध — 1 लीटर
  2. दही — 100 ग्राम
  3. नींबू का रस — 2 बड़े चम्मच

विधि—दूध को आग पर रखकर उबालें। जब दूध उबल जाए तो उसमें फेंटा हुआ दही या नींबू का रस थोड़ा-थोड़ा करके डालें। जब दूध और पानी अलग-अलग हो जाए तो पतीला आग से उतार लें। 10-15 मिनट के बाद इसको साफ़ मलमल के कपड़े में डालकर कुछ देर के लिए लटका दें। पानी को निकलने दें। अगर पनीर की टुकड़ियाँ काटनी हों तो पनीर वाले कपड़े को चकले पर रखकर ऊपर कोई भारी वस्तु रख दें ताकि पनीर का सारा पानी निकल जाए और दब जाएं। इसके बाद पनीर के टुकड़े कर लें।

शाकाहारी लोगों के भोजन में पानी की बहुत महत्ता है क्योंकि इसमें अच्छे किस्म का प्रोटीन और कैल्शियम काफ़ी मात्रा में होता है। पनीर को खाने के लिए तो इस्तेमाल किया ही जाता है, इसके अतिरिक्त भारतीय लोग पनीर से कई प्रकार की मिठाइयाँ बनाते हैं।

खट्टा-मीठा पनीर

सामग्री—

  1. पनीर — 200 ग्राम
  2. टमाटर — 400 ग्राम
  3. टमाटर की सॉस — \(\frac{1}{2}\) कप
  4. गाजर — 1
  5. शिमला मिर्च — 1
  6. फ्रॉसबीन — 50 ग्राम
  7. नमक और काली मिर्च — स्वादानुसार
  8. प्याज —1 चम्मच
  9. चीनी — 1 चम्मच
  10. घी — थोड़ा-सा

विधि—टमाटरों को धोकर बारीक काट लें और थोड़े-से पानी में अच्छी तरह पकाएँ। छाननी से छानें और फोक फेंक दें। गाजर, शिमला मिर्च, फ्रॉसबीन और प्याज को लम्बा और पतला काटें। घी में सब्जियों को थोड़ा तलकर टमाटरों का गूद्दा डालकर कुछ देर पकाएँ ताकि सब्जियाँ गल जाएँ। पनीर के टुकड़े डालें, नमक, मिर्च और चीनी डाल दें और उतारने से पहले टमाटरों की सॉस डाल दें।

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

पनीर के पकौड़े

सामग्री—

  1. पनीर — 100 ग्राम
  2. बेसन — 50 ग्राम
  3. सूखा धनिया — 1 चम्मच
  4. दही — 1
  5. नमक और लाल मिर्च — स्वादानुसार
  6. घी — तलने के लिए

विधि—पनीर के टुकड़े काट लें। बेसन में नमक, मिर्च, सूखा धनिया और दही मिलाकर पानी के साथ घोलें। कड़ाही में घी डालकर गर्म करने के लिए रखें। जब घी में से धुआँ निकलने लगे तो आँच थोड़ी हल्की करके, पनीर के टुकड़ों को बेसन लगाकर तलें। पकौडों को तलकर किसी साफ़ कागज़ पर रखें ताकि फालतू घी निकल जाए। टमाटरों की सॉस के साथ परोसें।

बेसन का पूड़ा

सामग्री—

  1. बेसन — 100 ग्राम
  2. प्याज — 2 छोटे
  3. हरी मिर्च — 1-2
  4. नमक, मिर्च — स्वाद के अनुसार
  5. घी — तलने के लिए

विधि—प्याज और हरी मिर्च को बारीक काट लें। बेसन में नमक, मिर्च और कटा हुआ प्याज आदि मिलाकर पानी से थोड़ा पतला घोल बना लें। तवा गर्म करके पहले थोड़ासा घी लगा लें। इस पर घोल को कड़छी से फैला लें। अब इसके चारों तरफ़ थोड़ा घी डाल लें। सिक जाने पर दूसरी तरफ़ पलट कर फिर घी डालकर सेंक लें।

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

पनीर वाले टोस्ट

सामग्री—

  1. डबलरोटी के टुकड़े — 4
  2. कद्दूकस किया पनीर — \(\frac{3}{4}\) प्याला
  3. दही — 1 चम्मच
  4. बेसन — 2 बड़े चम्मच
  5. पिसी हुई राई — \(\frac{1}{4}\) चम्मच

विधि—पनीर, राई, काली मिर्च, दही, मैदा, बेसन और नमक को मिला लें ताकि गाढ़ासा घोल बन जाए। अगर ज़रूरत हो तो थोड़ा-सा पानी या दूध डालें। अच्छी तरह फेंटे। डबल रोटी के टुकड़ों को इस घोल में दोनों तरफ इबो दें। फ्राइंग पैन में घी डालकर गर्म करें और टोस्ट को दोनों कैफ से तलकर परोसें।
नोट—जो लोग अण्डा खा हैं उनके लिए बेसन की जगह अण्डे का इस्तेमाल कर सकते हैं।

दही का जमाना

सामग्री—

  1. दूध — \(\frac{1}{2}\) लीटर
  2. दही — \(\frac{1}{2}\) से 1 चम्मच

विधि—दूध को उबालकर बैंडा करें। गर्मियों में दूध जमाने के समय बिल्कुल कोसा ही होना चाहिए। इसे मिट्टी या स्टील के बर्तन में डालकर \(\frac{1}{2}\) चम्मच दही मिलाकर ढक दें। 3-4 घण्टे बाद दही जम जाएगा।
सर्दियों में दूध थोड़ा तथा अधिक गर्म होना चाहिए। इसमें 1 चम्मच दही घोलकर बर्तन को ढककर रख दें। ज़्यादा सर्दी के मौसम में दही वाले बर्तन को गर्म जगह पर रखें या फिर इसको किसी कंबल या पुरानी शाल में लपेटकर रखें। इसको आटे वाले टीन में भी रखा जा सकता है। सर्दियों में दही जमने में 5-6 घण्टे लग जाते हैं।

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

आलू का रायता

सामग्री—

  1. आलू — 150 ग्राम
  2. नमक — इच्छानुसार
  3. जीरा (भुना हुआ) — \(1 \frac{1}{2}\) चम्मच
  4. दही — 750 ग्राम
  5. मिर्च — \(1 \frac{1}{2}\) चम्मच
  6. सुखाया हुआ पुदीना — 1- चम्मच

विधि—आलू उबालकर छील लें और बारीक काट लें। दही मथकर उसमें कटे हुए आलू डाल दें, ऊपर से सब मसाले डालकर मिला दें। फिर इसे ठण्डा करें। ठण्डा होने पर परोसें। कुल मात्रा—4 व्यक्तियों के लिए।

खीरे का रायता

साम्रगी—

  1. दही — 250 ग्राम
  2. नमक — इच्छानुसार
  3. जीरा — चम्मच
  4. खीरा — 150 ग्राम
  5. मिर्च — 1/2 चम्मच
  6. सुखाया हुआ पुदीना — 1/2 चम्मच

विधि—खीरे को छीलकर कद्कस कर लें। अब दही को मथ लें। इसमें मसाले डालकर मिलाएँ। इसमें कद्दूकस किया हुआ खीरा डालकर मिला लें। फ्रिज में रखकर ठण्डा करें। ठण्डा होने पर खाने के साथ परोसें।
कुल मात्रा—4 व्यक्तियों के लिए।

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

प्याज का रायता

सामग्री—

  1. प्याज — 250 ग्राम
  2. नमक — इच्छानुसार
  3. भुना हुआ जीरा — 1 चम्मच
  4. सुखाया हुआ पुदीना — 1 चम्मच
  5. दही — 500 ग्राम
  6. मिर्च — 1/2 चम्मच
  7. काली मिर्च — 1/2 चम्मच

विधि—प्याज को छीलकर कद्दूकस कर लें। दही को मथकर उसमें कद्दूकस की हुई प्याज डाल दें। अब इसमें नमक, मिर्च, जीरा, पुदीना और काली मिर्च डालकर मिला लें। ठण्डा करके खाने के साथ परोसें।
कुल मात्रा—4-5 व्यक्तियों के लिए।

पालक-गाजर का रायता

सामग्री—

  1. दही — 250 ग्राम
  2. गाजर — 50 ग्राम
  3. पालक — 100 ग्राम
  4. नमक, मिर्च — स्वाद के अनुसार

विधि—पालक को धोकर, बारीक काटकर, हल्की आँच पर पकाएँ ताकि यह गल जाए। गाजर को धोकर, छीलकर कद्दूकस कर लें। दही को भली प्रकार फेंटकर पालक तथा गाजर मिला दें। नमक तथा मिर्च डालकर परोसें।
कुल मात्रा—2-3 व्यक्तियों के लिए।

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

लौकी का रायता

सामग्री—

  1. दही — 250 ग्राम
  2. लौकी — 100 ग्राम
  3. पिसा हुआ जीरा — स्वाद के अनुसार
  4. नमक — स्वाद के अनुसार
  5. मिर्च — स्वाद के अनुसार

विधि—लौकी को धोकर छीलकर, कदूकस कर लें। अब इसे भाप में पका लें। दही को फेंटकर नमक मिला दें। लौकी का पानी निचोड़कर दही में मिला दें। ऊपर से लाल मिर्च और पिसा हुआ जीरा छिड़क दें।
कुल मात्रा—2-3 व्यक्तियों के लिए।

केले का रायता

सामग्री—

  1. दही — 500 ग्राम
  2. केले — 3
  3. चीनी — 2 बड़े चम्मच
  4. किशमिश — थोड़ी-सी

विधि—किशमिश को कोसे पानी से धोकर साफ़ कर लें। दही में चीनी मिलाकर मथानी से अच्छी तरह फेंटें ताकि चीनी अच्छी तरह घुल जाए। केले को छीलकर काट लें और केले और किशमिश को दही में मिला दें।

PSEB 8th Class Home Science Practical पनीर, कस्टर्ड, दही और रायता

कस्टर्ड

सामग्र—

  1. दूध — 500 ग्राम
  2. चीनी — \(1 \frac{1}{2}\) बड़ा चम्मच
  3. कस्टर्ड पाउडर — 2 चाय के चम्मच

विधि—आधा कप दूध बचाकर, बाकी के दूध को उबालने के लिए रखें। गर्म दूध में चीनी मिलाकर और कप वाले दूध में कस्टर्ड पाउडर डालकर अच्छी तरह घोलें। जब दूध उबलने लगे तो इसमें कस्टर्ड वाला दूध धीरे-धीरे करके डालें और हाथ से चम्मच के साथ दूध को अच्छी तरह हिलाएँ ताकि गिलटियाँ न बन जाएँ। उबाल आने पर उतार लें। इसको गर्म या ठंडा करके परोसें।
कस्टर्ड में ऋतु के अनुसार फल, जैसे-आम, केला, सेब, अँगूर आदि भी डालें। अगर फल डालने हों तो कस्टर्ड को पहले अच्छी तरह ठंडा कर लें। फ्रिज में या बर्फ में रखकर ठंडा करके परोसें। ठंडे कस्टर्ड को जैली के साथ परोसे।

बेक किया हुआ कस्टर्ड

सामग्री—

  1. अण्डा — 1 छोटा
  2. दूध — 1 कप
  3. चीनी — 2 छोटे चम्मच

विधि—अण्डा और चीनी अच्छी तरह फेंट लें। फिर इसको दूध में मिलाएँ। अब इस मिश्रण को हल्की आँच पर पकाएं ठंडी हो जाने पर परोसें।

PSEB 10th Class SST Solutions Economics Chapter 1 आधारभूत धारणाएं

Punjab State Board PSEB 10th Class Social Science Book Solutions Economics Chapter 1 आधारभूत धारणाएं Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 10 Social Science Economics Chapter 1 आधारभूत धारणाएं

SST Guide for Class 10 PSEB आधारभूत धारणाएं Textbook Questions and Answers

I. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

इन प्रश्नों के उत्तर एक शब्द या एक वाक्य में दो

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आय की परिभाषा दें।
उत्तर-
डर्नबर्ग के अनुसार, “राष्ट्रीय आय एक देश के सामान्य निवासियों की एक वर्ष में मजदूरी, ब्याज, लगान तथा लाभ के रूप में अर्जित साधन आय है। यह घरेलू साधन आय और विदेशों से अर्जित शुद्ध साधन आय का योग है।”

प्रश्न 2.
प्रति व्यक्ति आय की परिभाषा दें।
उत्तर-
प्रति व्यक्ति आय से अभिप्राय किसी देश के लोगों को एक निश्चित अवधि में प्राप्त होने वाली औसत आय से है।
PSEB 10th Class Economics Solutions Chapter 1 आधारभूत धारणाएं 1

प्रश्न 3.
उपभोग से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
उत्पादित की गई वस्तुओं और सेवाओं का प्रयोग करके मानवीय आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष रूप से सन्तुष्टि करने को उपभोग कहते हैं।

प्रश्न 4.
निवेश की परिभाषा दें।
उत्तर-
एक लेखा वर्ष में उत्पादन का उपभोग पर आधिक्य निवेश कहलाता है।

प्रश्न 5.
प्रेरित निवेश से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
वह निवेश जो आय तथा लाभ की मात्रा पर निर्भर करता है, प्रेरित निवेश कहलाता है।

प्रश्न 6.
स्वचालित निवेश की परिभाषा दें।
उत्तर-
वह निवेश जो आय, उत्पादन तथा लाभ में परिवर्तनों से स्वतन्त्र होता है, उसे स्वचालित निवेश कहा जाता है।

प्रश्न 7.
पूंजी निर्माण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
पूंजी में होने वाली वृद्धि को पूंजी निर्माण कहा जाता है।

प्रश्न 8.
छिपी बेरोजगारी से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
अदृश्य अथवा छिपी बेरोजगारी से अभिप्राय किसी विशेष आर्थिक क्रिया में उत्पादन के लिए आवश्यकता से अधिक मात्रा में श्रमिकों के लगे होने से है।

प्रश्न 9.
पूर्ण रोजगार की परिभाषा दें।
उत्तर-
पूर्ण रोज़गार वह अवस्था है जिसमें वे सारे व्यक्ति जो मज़दूरी की प्रचलित दर पर कार्य करने के इच्छुक हैं, कार्य प्राप्त कर लेते हैं।

प्रश्न 10.
मुद्रा-स्फीति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मुद्रा-स्फीति का अर्थ है-कीमतों में लगातार वृद्धि तथा मुद्रा के मूल्य में लगातार कमी।

प्रश्न 11.
मुद्रा की पूर्ति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
किसी निश्चित समय में मुद्रा की कुल जितनी मात्रा उपलब्ध होती है, उसे मुद्रा की पूर्ति कहा जाता है।

प्रश्न 12.
घाटे की वित्त-व्यवस्था से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
राजस्व से व्यय अधिक होने पर घाटे की पूर्ति के लिए नई मुद्रा का निर्गमन करना ही घाटे की वित्तव्यवस्था अथवा घाटा वित्तीयन कहलाता है।

प्रश्न 13.
भारत में निर्धनता रेखा से नीचे कौन-से लोगों को माना जाता है?
उत्तर-
योजना आयोग ने यह निर्धारित किया है कि जिन शहरी लोगों को प्रतिदिन 2100 कैलोरी वाला भोजन और जिन ग्रामीण लोगों को प्रतिदिन 2400 कैलोरी वाला भोजन प्राप्त नहीं होता, वे निर्धनता रेखा से नीचे हैं। इतनी कैलोरी का भोजन प्राप्त करने के लिए 2013-14 की कीमतों के आधार पर प्रति व्यक्ति मासिक आय गांव में ₹ 972 तथा शहर में ₹1407 होनी चाहिए।

प्रश्न 14.
विदेशी सहायता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
विदेशी सहायता से आशय किसी राष्ट्र की विदेशी सरकार, निजी व्यक्तियों, व्यावसायिक संगठनों, विदेशी बैंकों, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा पूंजी के निवेश, ऋणों तथा अनुदानों से है।

प्रश्न 15.
भुगतान सन्तुलन की परिभाषा दें।
उत्तर-
एक देश की संसार के अन्य देशों से एक वर्ष में जो लेनदारी होती है तथा जो देनदारी होती है-उसके लेखा को भुगतान सन्तुलन कहा जाता है।

प्रश्न 16.
राजकोषीय नीति से क्या अर्थ है?
उत्तर-
सरकार की आय-व्यय तथा ऋण सम्बन्धी नीति को राजकोषीय नीति कहा जाता है।

II. लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

इन प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दें

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आय की परिभाषा दें। राष्ट्रीय आय तथा घरेलू आय में क्या अन्तर है?
उत्तर-
राष्ट्रीय आय-राष्ट्रीय आय एक देश के सामान्य निवासियों की एक वर्ष में अर्जित साधन आय है।
घरेलू आय-राष्ट्रीय आय में से यदि विदेशों से शुद्ध साधन आय को घटा दिया जाए तो जो आय बचेगी, उसे घरेलू आय कहा जायेगा अर्थात् – घरेलू आय = राष्ट्रीय आय – विदेशों से शुद्ध साधन आय
विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय = देशवासियों द्वारा विदेशों से साधन सेवाओं के बदले प्राप्त साधन आय-गैरदेशवासियों को देश की घरेलू सीमा के अन्दर साधन सेवाएं प्रदान करने के बदले प्राप्त साधन आय।

प्रश्न 2.
प्रति व्यक्ति आय से क्या अभिप्राय है? प्रति व्यक्ति आय का अनुमान कैसे लगाया जाता है?
उत्तर–
प्रति व्यक्ति आय से अभिप्राय किसी देश के लोगों को एक निश्चित अवधि में प्राप्त होने वाली औसत आय से है। स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति आय एक औसत आय है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति की आय उसके बराबर हो। कुछ व्यक्तियों की आय उससे अधिक भी हो सकती है तथा कुछ की कम भी हो सकती है।
प्रति व्यक्ति आय का अनुमान-प्रति व्यक्ति आय का अनुमान राष्ट्रीय आय को जनसंख्या से भाग देकर लगाया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में,
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प्रश्न 3.
उपभोग के क्या अर्थ हैं? औसत उपभोग प्रवृत्ति तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति की परिभाषा दें।
उत्तर-
उपभोग वह प्रक्रिया है जिसमें किसी अर्थ-व्यवस्था में पैदा की गई वस्तुएं और सेवाएं मनुष्य की आवश्यकताओं को प्रत्यक्ष रूप से पूरा करने के लिए प्रयोग की जाती हैं।
औसत उपभोग प्रवृत्ति-किसी आय के स्तर पर कुल उपभोग व्यय और कुल आय के अनुपात को औसत उपभोग प्रवृत्ति कहते हैं।
प्रो० पीटर्सन के शब्दों में, “औसत उपभोग प्रवृत्ति आय का वह अनुपात है जो उपभोग पर व्यय किया जाता है”
अर्थात्
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सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति-उपभोग में परिवर्तन तथा आय में परिवर्तन के अनुपात को सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति कहते हैं।
प्रो० कुरीहारा के अनुसार, “सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति उपभोग में होने वाले परिवर्तन तथा आय में होने वाले परिवर्तन का अनुपात है” अर्थात्
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प्रश्न 4.
बचत से क्या अभिप्राय है? औसत बचत प्रवृत्ति तथा सीमान्त बचत प्रवृत्ति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
बचत आय और उपभोग का अन्तर होती है। केन्ज़ के अनुसार, “बचत आय की व्यय पर अधिकता है” अर्थात्
बचत = आय-उपभोग
औसत बचत प्रवृत्ति-एक विशेष आय स्तर पर बचत तथा आय का अनुपात औसत बचत प्रवृत्ति कहलाता है। दूसरे शब्दों में,
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सीमान्त बचत प्रवृत्ति-आय में होने वाले परिवर्तन के कारण बचत में होने वाले परिवर्तन के अनुपात को सीमान्त बचत प्रवृत्ति कहते हैं। दूसरे शब्दों में,
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प्रश्न 5.
निवेश की परिभाषा दें। निवेश के निर्धारक तत्त्व कौन से हैं?
उत्तर-
अर्थशास्त्र में पूंजी में की जाने वाली वृद्धि को निवेश कहा जाता है। एक वर्ष में आय का जो भाग उपभोग पर व्यय नहीं किया जाता बल्कि बचाकर पूंजी निर्माण के लिए प्रयोग किया जाता है, उसे निवेश कहा जाता है। निवेश के निर्धारक तत्त्व-निवेश मुख्य रूप से दो तत्त्वों पर निर्भर करता है

  1. लाभ की दर अथवा निवेश की सीमान्त कार्य कुशलता
  2. ब्याज की दर अथवा निवेश की लागत एक विवेकशील उद्यमी तभी निवेश करेगा यदि पूंजी की सीमान्त कार्य-कुशलता, ब्याज की दर से अधिक है। इसके विपरीत यदि ब्याज की दर पूंजी की सीमान्त कार्य कुशलता से अधिक प्रतीत होती है तो निवेश करने की प्रेरणा नहीं रहेगी।

प्रश्न 6.
पूंजी निर्माण से क्या अभिप्राय है? कुल पूंजी निर्माण तथा शुद्ध पूंजी निर्माण में क्या अन्तर है?
उत्तर-
जब वर्तमान आय का कुछ भाग बचाया जाता है और उसका भविष्य में आमदन और उत्पादन बढ़ाने के लिए निवेश किया जाता है तो यह पूंजी निर्माण कहलाता है।
कुल पूंजी निर्माण-कुल पूंजी निर्माण का अर्थ कुल निवेश से है जिसके अन्तर्गत घिसावट के लिए किया गया निवेश और शुद्ध निवेश दोनों सम्मिलित होते हैं।
शुद्ध पूंजी निर्माण-शुद्ध पूंजी निर्माण से अभिप्राय शुद्ध निवेश में की जाने वाली वृद्धि से है।
शुद्ध पूंजी निर्माण = कुल पूंजी निर्माण – घिसावट वास्तव में पूंजी निर्माण से अभिप्राय शुद्ध निवेश में वृद्धि से है।

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प्रश्न 7.
छुपी हुई बेरोज़गारी की परिभाषा दें। इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर-
छुपी बेरोज़गारी से अभिप्राय किसी विशेष आर्थिक क्रिया में उत्पादन के लिए आवश्यकता से अधिक मात्रा में श्रमिकों के लगे होने से है। दूसरे शब्दों में, यदि किसी क्षेत्र में काम में लगे श्रमिकों में से कुछ श्रमिकों को हटा कर किसी अन्य क्षेत्र में स्थानान्तरित कर दिया जाए और इस प्रकार किए गए परिवर्तन के फलस्वरूप, मूल क्षेत्र के उत्पादन में यदि कोई कमी नहीं होती तो यह स्थिति छुपी बेरोज़गारी की स्थिति मानी जाएगी।

छुपी बेरोज़गारी की स्थिति को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लो, एक परिवार के पास 8 एकड़ का खेत है। खेती करने के वर्तमान ढंग के अनुसार यदि 8 व्यक्ति ही उस खेत पर काम कर रहे हैं तो वह अच्छे ढंग से खेती कर सकेंगे। परन्तु परिवार के कुल 12 सदस्य कहीं और रोजगार न मिलने के कारण उसी खेत पर काम कर रहे हैं तो यह कहा जा सकता है कि उनमें से 4 व्यक्ति वास्तव में बेकार हैं। अतः हम कह सकते हैं कि ये 4 व्यक्ति छिपे बेरोज़गार हैं।

प्रश्न 8.
पूर्ण रोजगार से क्या अभिप्राय है ? संरचनात्मक बेरोजगारी तथा तकनीकी बेरोजगारी के क्या अर्थ हैं?
उत्तर-
पूर्ण रोजगार से अभिप्राय ऐसी अवस्था से है जिसमें वे सारे लोग जो मज़दूरी की प्रचलित दर पर काम करने के लिए तैयार हैं, बिना किसी कठिनाई के काम प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् अनैच्छिक बेरोजगारी का न पाया जाना पूर्ण रोज़गार की अवस्था का प्रतीक है।
संरचनात्मक बेरोज़गारी-अर्थ व्यवस्था में होने वाले संरचनात्मक निर्गलों के कारण उत्पन्न बेरोजगारी, संरचनात्मक बेरोज़गारी कहलाती है।
तकनीकी बेरोज़गारी – तकनीकी बेरोज़गारी से अभिप्राय उस बेरोज़गारी से है जो उत्पादन की तकनीकों में होने वाले परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होती है।

प्रश्न 9.
मुद्रा-स्फीति की धारणा की व्याख्या करें।
उत्तर-
मुद्रा-स्फीति आज के युग की सबसे गम्भीर समस्याओं में से एक है। विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश हो जो इससे प्रभावित न हुआ हो। वास्तव में, विश्व का प्रत्येक देश चाहे वह विकसित हो या अल्प-विकसित, पूंजीवादी हो या समाजवादी, इस समस्या का शिकार रहा है। अन्तर केवल यही रहा है कि कुछ देशों को इससे बहुत अधिक नुक्सान हुआ है जबकि अन्यों को अपेक्षाकृत कम।
आमतौर पर कीमत स्तर में होने वाली निरन्तर वृद्धि को मुद्रा-स्फीति कहा जाता है। प्रो० पीटर्सन के शब्दों में, “विस्तृत अर्थों में मुद्रा-स्फीति से अभिप्राय सामान्य कीमत स्तर में होने वाली स्थायी और निरन्तर वृद्धि से है।”
मुद्रा-स्फीति के कई कारण हो सकते हैं, परन्तु इसका मुख्य कारण मांग का पूर्ति से अधिक होना है। जब वस्तुओं की मांग उनकी पूर्ति से अधिक हो जाती है तो कीमतें बढ़ने लगती हैं तथा मुद्रा-स्फीति उत्पन्न हो जाती है।

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प्रश्न 10.
बजट से क्या अभिप्राय है? भारत सरकार के बजट की आय तथा व्यय की मुख्य मदें कौनसी हैं?
उत्तर-
बजट-बजट व्यय और वित्त प्रबन्ध सम्बन्धी सरकार की योजना का विवरण होता है। जब सरकार कर लगाती है और व्यय करती है तब वह ये कार्य बजट के ढांचे के अन्तर्गत ही करती है। इस प्रकार सरकारी बजट एक प्रकार की वित्तीय योजना होती है जिसके अन्तर्गत व्यय और आय दोनों ही आते हैं। परम्परागत रूप से सरकार साल में एक ही बार बजट पेश करती है। भारत सरकार सामान्यतया प्रति वर्ष 28 फरवरी को अपना बजट लोकसभा में प्रस्तुत करती है।
बजट की मुख्य मदें-भारत सरकार के बजट की प्रस्तावित मुख्य मदें निम्नलिखित हैं-

  1. आय की मदें-निगम कर, आय कर, आयात-निर्यात कर, उत्पादन कर, केन्द्रीय बिक्री कर, उपहार कर आदि आय की मुख्य मदें हैं।
  2. व्यय की मदें-सुरक्षा, पुलिस, प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण, उद्योग, कृषि, नियोजन, ग्रामीण विकास आदि व्यय की मुख्य मदें हैं।

प्रश्न 11.
घाटे की वित्त व्यवस्था की परिभाषा दें। इसके अन्तर्गत कौन से तरीकों को शामिल किया जाता है?
उत्तर-
डॉ० वी० के० आर० वी० राव के अनुसार, “जब सरकार जान-बूझकर सार्वजनिक आय तथा व्यय में अन्तर तथा बजट में घाटा उत्पन्न करे और घाटे की पूर्ति किसी ऐसी विधि से करे जिससे देश में मुद्रा की मात्रा बढ़े तो इसे घाटे की वित्त व्यवस्था कहते हैं।”
विधियां-सरकारी बजट के घाटे को पूरा करने के लिए जब निम्नलिखित तरीकों में से कोई भी तरीका अपनाया जाता है तो उसे घाटे की वित्त-व्यवस्था कहा जाता है

  1. सरकार द्वारा अपने घाटे को पूरा करने के लिए केन्द्रीय बैंक से कर्जा लेना। केन्द्रीय बैंक यह ऋण नए नोट छाप कर देता है।
  2. सरकारी खजाने में पड़ी हुई नकद जमा निकलवा कर घाटे को पूरा करना तथा
  3. सरकार द्वारा रिज़र्व बैंक द्वारा जारी की गई मुद्रा के अतिरिक्त नई मुद्रा जारी करना।
    इन तीनों विधियों से देश में मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है। इसके फलस्वरूप कीमतों के बढ़ने की प्रायः सम्भावना रहती है। भारत में घाटे की वित्त-व्यवस्था का अधिकतर भाग रिज़र्व बैंक से रुपया उधार लेकर पूरा किया जाता है।

प्रश्न 12.
सार्वजनिक वित्त से क्या अभिप्राय है? प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों की उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर-
सार्वजनिक वित्त से आशय किसी देश की सरकार के वित्तीय साधनों अर्थात् आय और व्यय से है। अर्थशास्त्र की वह शाखा जिसमें सरकार की आय तथा व्यय सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन किया जाता है, उसे सार्वजनिक वित्त कहा जाता है।
प्रत्यक्ष कर-प्रत्यक्ष कर वह कर होता है जो उसी व्यक्ति द्वारा पूर्ण रूप से दिया जाता है जिस पर कर लगाया जाता है। इस प्रकार के कर का भार किसी अन्य व्यक्ति पर डाला नहीं जा सकता। डाल्टन के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर वास्तव में उसी व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जिस पर यह वैधानिक रूप से लगाया जाता है।”

उदाहरण के लिए आयकर, उपहार कर, निगम कर, सम्पत्ति कर आदि प्रत्यक्ष कर हैं।
अप्रत्यक्ष कर-अप्रत्यक्ष कर वह कर है जिसे एक व्यक्ति पर लगाया जाता है, किन्तु आंशिक अथवा सम्पूर्ण रूप से दूसरे व्यक्ति के द्वारा सहन किया जाता है। डाल्टन के अनुसार, “अप्रत्यक्ष कर वे कर हैं जो लगाए तो किसी एक व्यक्ति पर जाते हैं, किन्तु इसका आंशिक या पूर्ण रूप से भुगतान किसी अन्य व्यक्ति को करना पड़ता है।”
अप्रत्यक्ष कर के उदाहरण हैं-बिक्री कर, उत्पादन कर, मनोरंजन कर, आयात-निर्यात कर आदि।

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प्रश्न 13.
सार्वजनिक व्यय से आप क्या समझते हैं? सार्वजनिक व्यय कितने प्रकार का हो सकता है?
उत्तर-
सार्वजनिक व्यय-सरकार द्वारा किए गए व्यय को सार्वजनिक व्यय कहा जाता है। ये चार प्रकार के हो सकते हैं।

  1. लोक निर्माण-सड़क, बांधों और पुलों आदि पर होने वाला व्यय।
  2. लोक कल्याण कार्य-शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि पर किया गया व्यय।
  3. देश की सुरक्षा और कानून व्यवस्था, जैसे पुलिस, जेल आदि पर व्यय।
  4. उत्पादकों को उत्पादन, निर्यात और हस्तांतरण भुगतान बढ़ाने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी पर व्यय। इस तरह सरकार सार्वजनिक राजस्व और व्यय में परिवर्तन करके अवसाद और मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकती है।

प्रश्न 14.
निर्धनता रेखा की धारणा की व्याख्या करें। भारत में निर्धनता रेखा की क्या सीमाएं हैं?
उत्तर-
निर्धनता रेखा की धारणा किसी देश में निर्धनता को मापने का एक उपाय है। निर्धमता रेखा से नीचे जितने व्यक्ति होते हैं, उन्हें निर्धन माना जाता है।
निर्धनता रेखा से आशय उस राशि से है जो एक व्यक्ति के लिए प्रति माह न्यूनतम उपभोग करने के लिए आवश्यक है। निर्धनता रेखा का स्तर उस रकम के बराबर माना जाता है जो एक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए प्रति माह अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं (भोजन, वस्त्र, मकान, शिक्षा तथा स्वास्थ्य आदि) को पूरा करने के लिए आवश्यक होता है।
भारत में निर्धनता रेखा की सीमाएं-अपनी किताब “Poverty in India” में V.M. Dandekar और Nilkanth Rath लिखते हैं कि जिन लोगों को प्रतिदिन 2250 कैलोरी का भोजन प्राप्त नहीं होता, वे निर्धनता रेखा से नीचे हैं अर्थात् निर्धन हैं। इतनी कैलोरी का भोजन प्राप्त करने के लिए 2013-14 की कीमतों के आधार पर प्रति व्यक्ति मासिक आय गांव में ₹. 972 तथा शहर में ₹ 1407 होनी चाहिए।

प्रश्न 15.
विकास दर की परिभाषा दें। इसकी गणना कैसे की जाती है?
उत्तर-
विकास दर वह प्रतिशत दर है जिससे यह पता चलता है कि एक वर्ष की तुलना में दूसरे वर्ष में राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय में कितने प्रतिशत परिवर्तन हुआ है। विकास दर की गणना-विकास दर की गणना निम्नलिखित सूत्र द्वारा की जा सकती है-
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प्रश्न 16.
विदेशी सहायता से क्या अभिप्राय है? इसके मुख्य प्रकार कौन-से हैं?
उत्तर-
विदेशी सहायता से अभिप्राय विदेशी पूंजी, विदेशी ऋण तथा विदेशी अनुदान से है। विदेशी सहायता के प्रकार-विदेशी सहायता के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं

  1. विदेशी पूंजी-विदेशी पूंजी से आशय विदेशियों द्वारा किसी देश की उत्पादक क्रियाओं में किए गए निवेश से है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विदेशी सहयोग विदेशी पूंजी के दो मुख्य रूप हैं।
  2. विदेशी ऋण-विदेशी ऋण मुख्य रूप से विदेशी सरकारों, व्यापारिक संस्थाओं व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं आदि से प्राप्त किये जाते हैं।
  3. विदेशी अनुदान-विदेशी सहायता का वह भाग जो विदेशी सरकारों तथा संस्थाओं से सहायता के रूप में प्राप्त होता है, विदेशी अनुदान कहलाता है। इसे वापिस नहीं करना पड़ता। इस पर कोई भी ब्याज नहीं देना पड़ता।

PSEB 10th Class Social Science Guide आधारभूत धारणाएं Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

I. उत्तर एक शब्द अथवा एक लाइन में

प्रश्न 1.
आधारभूत धारणाएं क्या हैं?
उत्तर-
वे शब्द जिनका अर्थशास्त्र में विशेष अर्थ होता है।

प्रश्न 2.
प्रति व्यक्ति आय कैसे मापी जाती है?
उत्तर-
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प्रश्न 3.
पूंजी निर्माण क्या है?
उत्तर-
आय का वह भाग जिससे अधिक उत्पादन सम्भव होता है।

प्रश्न 4.
मुद्रा स्फीति क्या है?
उत्तर-
सामान्य कीमत स्तर में अत्यधिक वृद्धि।

प्रश्न 5.
सार्वजनिक ऋण क्या है?
उत्तर-
सरकार द्वारा लिए गए सभी ऋण।

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प्रश्न 6.
निर्धनता रेखा क्या है?
उत्तर-
किसी देश की निर्धनता के स्तर को मापने की विधि।

प्रश्न 7.
कौन-सी नीति सरकार की आय व व्यय से सम्बन्धित है?
उत्तर-
राजकोषीय नीति।

प्रश्न 8.
सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति क्या है?
उत्तर-
आय में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप उपभोग में होने वाला परिवर्तन।

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प्रश्न 9.
औसत उपभोग प्रवृत्ति क्या है?
उत्तर-
कुल व्यय व कुल आय के अनुपात को कहते हैं।

प्रश्न 10.
सीमान्त बचत प्रवृत्ति क्या है?
उत्तर-
आय में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप बचत में होने वाला परिवर्तन।

प्रश्न 11.
निवेश क्या है?
उत्तर-
पूंजी भण्डार में वृद्धि।

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प्रश्न 12.
प्रेरित निवेश क्या होता है?
उत्तर-
जो आय व लाभ की मात्रा पर निर्भर करता है।

प्रश्न 13.
स्वचालित निवेश क्या होता है?
उत्तर-
जो आय व लाभ की मात्रा से स्वतन्त्र होता है।

प्रश्न 14.
मुद्रा पूर्ति का एक अवयव बताएं।
उत्तर-
बैंक जमा।

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प्रश्न 15.
विकास दर की गणना कैसे की जाती है?
उत्तर-
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प्रश्न 16.
निवेश का एक निर्धारक बताएं।
उत्तर-
ब्याज की दर।

प्रश्न 17.
मुद्रा-स्फीति का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर-
मांग का पूर्ति की तुलना में बढ़ना।

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प्रश्न 18.
सन्तलित बजट क्या है?
उत्तर-
जहां सरकार की आय = सरकार का व्यय।

प्रश्न 19.
घाटे का बजट क्या है?
उत्तर-
जब सरकार की आय < सरकार का व्यया

प्रश्न 20.
बेशी का बजट क्या है?
उत्तर-
जब सरकार की आय > सरकार का व्यय।

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प्रश्न 21.
प्रत्यक्ष कर का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
आय कर।

प्रश्न 22.
अप्रत्यक्ष कर का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
बिक्री कर।

प्रश्न 23.
विदेशी सदारता का उदाहरण हैं।
उत्तर-
विदेशी ऋण।

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प्रश्न 24.
उदार ऋण क्या है?
उत्तर-
जो ऋण लम्बी अवधि के लिए कम ब्याज दर पर लिए जाते हैं।

प्रश्न 25.
अनुदार ऋण क्या है?
उत्तर-
जो ऋण कम अवधि के लिए ऊंची ब्याज दर पर लिए जाते हैं।

प्रश्न 26.
मौद्रिक नीति का एक उद्देश्य बताएं।
उत्तर-
कीमत स्थिरता।

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प्रश्न 27.
राजकोषीय नीति का एक उद्देश्य बताएं।
उत्तर-
आर्थिक विकास।

प्रश्न 28.
राजकोषीय नीति का एक उपकरण बताएं।
उत्तर-
करारोपण।

प्रश्न 29.
घरेलू साधन आय से क्या आशय है?
उत्तर-
देश की घरेलू सीमा के अन्दर विभिन्न उत्पादन के साधनों को प्राप्त आय के जोड़ को घरेलू साधन आय कहते हैं।

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प्रश्न 30.
“देश के सामान्य निवासी” का अर्थ बताओ।
उत्तर-
देश के सामान्य निवासी का अर्थ है वह व्यक्ति या संस्था जो साधारणतः देश में रहती है और उसका लाभ या हानि उस देश के साथ ही है।

प्रश्न 31.
विदेशों से प्राप्त निवल साधन आय का क्या अर्थ है?
उत्तर-
देशवासियों को साधन सेवाओं के बदले विदेशों से प्राप्त साधन आय तथा गैर-देशवासियों को देश की घरेलू सीमा के अन्दर साधन सेवाएं प्रदान करने के बदले प्राप्त साधन आय के अन्तर को विदेशों से प्राप्त निवल साधन आय कहते हैं।

प्रश्न 32.
साधन आय से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
उत्पादन में सहायता के लिए, उत्पादन के विभिन्न साधनों के मालिकों को जो आय प्राप्त होती है, उसे साधन आय कहते हैं।

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प्रश्न 33.
चालू कीमतों पर राष्ट्रीय आय का अर्थ बताओ।
उत्तर-
यदि राष्ट्रीय आय का माप करने के लिए चालू वर्ष की कीमतों का प्रयोग किया जाए तो राष्ट्रीय आय को चालू कीमतों पर राष्ट्रीय आय कहते हैं।

प्रश्न 34.
स्थिर कीमतों पर राष्ट्रीय आय का अर्थ बताओ।
उत्तर-
यदि राष्ट्रीय आय का माप करने के लिए आधार वर्ष की कीमतों का प्रयोग किया जाए तो राष्ट्रीय आय को स्थिर कीमतों पर राष्ट्रीय आय कहते हैं।

प्रश्न 35.
स्थिर कीमतों पर राष्ट्रीय आय तथा चालू कीमतों पर राष्ट्रीय आय में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर-
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प्रश्न 36.
उपभोग फलन अथवा उपभोग प्रवृत्ति से क्या आशय है?
उत्तर-
उपभोग फलन, आय व उपभोग के क्रियात्मक सम्बन्ध को व्यक्त करता है अर्थात्
C = f (y)
C = उपभोग, Y = आय तथा f = फलन अर्थात् उपभोग व्यय आय का फलन है।

प्रश्न 37.
आय एवं उपभोग में कैसा सम्बन्ध पाया जाता है?
उत्तर-
आय एवं उपभोग में धनात्मक सम्बन्ध पाया जाता है।

प्रश्न 38.
सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति की सीमाएं बताइए।
उत्तर-
सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति शून्य से अधिक तथा एक से कम होती है अर्थात् आय के बढ़ने पर लोगों के व्यय में भी वृद्धि होती है, परन्तु उतनी वृद्धि नहीं होती जितनी आय में होती है।

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प्रश्न 39.
बचत की परिभाषा दें।
उत्तर-
केन्ज़ के अनुसार, “बचत आय की व्यय पर अधिकता है।” दूसरे शब्दों में, बचत = आय – उपभोग ।

प्रश्न 40.
औसत बचत प्रवृत्ति की परिभाषा दें।
उत्तर-
औसत बचत प्रवृत्ति एक विशेष आय स्तर पर बचत तथा आय का अनुपात है अर्थात्
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प्रश्न 41.
शुद्ध निवेश से क्या आशय है?
उत्तर-
यदि कुल निवेश में से घिसावट व्यय या प्रतिस्थापन निवेश को घटा दिया जाए तो बाकी को शुद्ध निवेश कहते हैं अर्थात् शुद्ध निवेश = कुल निवेश – घिसावट

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प्रश्न 42.
प्रतिस्थापन निवेश से क्या आशय है?
उत्तर-
प्रतिस्थापन निवेश वह निवेश है जो पूंजी की घिसावट के कारण नष्ट हो जाने के फलस्वरूप उनके नवीकरण या प्रतिस्थापन के लिए किया जाता है।

प्रश्न 43.
ऐच्छिक बेरोज़गारी का क्या अर्थ है?
उत्तर-
जब श्रमिक मज़दूरी की प्रचलित दर पर काम करने के लिए तैयार न हों अथवा काम होने पर भी अपनी इच्छा के अनुसार काम न करना चाहते हों तो ऐसी बेरोज़गारी, ऐच्छिक बेरोज़गारी कहलाती है।

प्रश्न 44.
संघर्षात्मक बेरोजगारी से क्या आशय है?
उत्तर-
यह बेरोज़गारी कच्चे माल की कमी, श्रमिकों की गतिहीनता, विशेष किस्म के रोज़गार सम्बन्धी अवसरों की कमी से, मशीनों की टूट-फूट के कारण पाई जाती है।

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प्रश्न 45.
मौसमी बेरोज़गारी से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
यह बेरोज़गारी मौसम, फैशन और रुचि सम्बन्धी परिवर्तन होने के कारण उत्पन्न होती है, जैसे-बर्फ के कारखाने सर्दियों के दिनों में बन्द रहते हैं।

प्रश्न 46.
कीमत सूचकांक से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
कीमत सूचकांक वह संख्या है जिससे यह ज्ञात होता है कि किसी एक निश्चित वर्ष जिसे आधार वर्ष कहते हैं, की तुलना में चालू वर्ष को औसत कीमतों में कितने प्रतिशत परिवर्तन हुआ है।

प्रश्न 47.
मुद्रा-स्फीति के लिए मुख्यतः कौन-सा कारण उत्तरदायी है?
उत्तर-
मुद्रा-स्फीति के कई कारण हो सकते हैं, परन्तु इसका मुख्य कारण वस्तुओं की मांग का उनकी पूर्ति से अधिक होना है। जब मांग पूर्ति से अधिक हो जाती है तो कीमतें बढ़ने लगती हैं तथा मुद्रा-स्फीति उत्पन्न हो जाती है।

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प्रश्न 48.
मुद्रा की पूर्ति के मुख्य घटक कौन-से हैं?
उत्तर-
मुद्रा की पूर्ति के मुख्य घटक निम्नलिखित हैं
(i) करन्सी जिसके अन्तर्गत नोट और सिक्के आते हैं, और
(ii) मांग जमा जिस पर चैक जारी किए जा सकते हैं।

प्रश्न 49.
सन्तुलित बजट का क्या अर्थ है?
उत्तर-
सन्तुलित बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय तथा व्यय दोनों बराबर होते हैं।

प्रश्न 50.
घाटे का बजट किसे कहा जाता है?
उत्तर-
घाटे का बजट वह बजट है जिसमें सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक होता है।

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प्रश्न 51.
बचत का बजट किसे कहा जाता है?
उत्तर-
बचत का बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय, उसके व्यय की तुलना में अधिक होती है।

प्रश्न 52.
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के दो-दो उदाहरण दें।
उत्तर-
प्रत्यक्ष कर-आय कर, उपहार कर। अप्रत्यक्ष कर-बिक्री कर, मनोरंजन कर।

प्रश्न 53.
विदेशी सहयोग से क्या आशय है?
उत्तर-
विदेशी सहयोग, विदेशी पूंजी का एक रूप है। इसके अन्तर्गत विदेशी तथा देशी उद्यमी संयुक्त रूप से उद्यम स्थापित करते हैं।

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प्रश्न 54.
पोर्टफोलियो निवेश किसे कहते हैं?
उत्तर-
पोर्टफोलियो निवेश विदेशी पूंजी का एक रूप है। यह निवेश विदेशी कम्पनियों द्वारा किसी देश की कम्पनियों के शेयर पूंजी या डिबेन्चर आदि में किया जाता है।

प्रश्न 55.
उदार और अनुदार ऋणों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
जो विदेशी ऋण लम्बी अवधि के लिए ब्याज की कम दर पर प्राप्त होते हैं, उन्हें उदार ऋण कहा जाता है। इसके विपरीत जो ऋण कम अवधि के लिए ब्याज की अधिक दर पर प्राप्त होते हैं, उन्हें अनुदार ऋण कहा जाता है।

प्रश्न 56.
व्यापार शेष से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
दृश्य वस्तुओं जैसे-उपज, मशीनें, चाय, तम्बाकू आदि के आयात-निर्यात का अन्तर व्यापार शेष कहलाता है।

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प्रश्न 57.
प्रतिकूल भुगतान शेष से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
यदि विदेशों को किए जाने वाले भुगतान देश को विदेशों से प्राप्त होने वाली आय से ज्यादा हों तो देश का भुगतान शेष प्रतिकूल कहलाता है।

प्रश्न 58.
मौद्रिक नीति के मुख्य उद्देश्य कौन-से हैं?
उत्तर-

  1. कीमत स्थिरता
  2. पूर्ण रोज़गार
  3. आर्थिक विकास
  4. विनिमय स्थिरता
  5. आर्थिक असमानता में कमी।

प्रश्न 59.
बैंक दर से क्या आशय है?
उत्तर-
बैंक दर ब्याज की वह न्यूनतम दर है जिस पर किसी देश का केन्द्रीय बैंक दूसरे बैंक को ऋण देने के लिए तैयार होता है।

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प्रश्न 60.
खुले बाजार की क्रियाओं से क्या आशय है?
उत्तर-
खुले बाज़ार की क्रियाओं से अभिप्राय है, केन्द्रीय बैंक द्वारा खुले बाज़ार में प्रतिभूतियों को खरीदना तथा बेचना।

प्रश्न 61.
तरलता अनुपात से क्या आशय है?
उत्तर-
प्रत्येक बैंक को अपनी जमा राशि का एक निश्चित अनुपात अपने पास ही नकद राशि के रूप में रखना पड़ता है, इसे तरलता अनुपात कहते हैं। बैंक इस राशि को उधार नहीं दे सकती।

प्रश्न 62.
राजकोषीय नीति के मुख्य उद्देश्य बताइए।
उत्तर-

  1. आर्थिक विकास
  2. कीमत स्थिरता
  3. विनिमय स्थिरता
  4. पूर्ण रोज़गार
  5. आर्थिक समानता।

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प्रश्न 63.
राजकोषीय नीति के मुख्य उपकरण कौन-से हैं?
उत्तर-

  1. कर
  2. सार्वजनिक ऋण
  3. घाटे की वित्त व्यवस्था
  4. सार्वजनिक व्यय।

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति

  1. ……….. आय एक वर्ष में एक देश के सामान्य निवासियों द्वारा अर्जित की गई साधन आय है। (राष्ट्रीय/प्रति व्यक्ति)
  2. मनुष्य की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए उत्पादित वस्तुओं व सेवाओं का प्रयोग ……….. है। (उपभोग/उत्पादन)
  3. ……….. में वृद्धि निवेश कहलाता है। (उपभोग/पूँजी)
  4. ……… = PSEB 10th Class Economics Solutions Chapter 1 आधारभूत धारणाएं 12 (MPC/APC)
  5. ……….. को बचत में परिवर्तन तथा आय में परिवर्तन के अनुपात के रूप में मापा जाता है। (MPC/MPS)
  6. सरकार की आय व्यय तथा ऋण सम्बन्धी नीति को ………… नीति कहा जाता है। (राजकोषीय/मौद्रिक)
  7. उपयोगिता का सृजन ………… है। (उपभोग/उत्पादन)
  8. भारत के केन्द्रीय बैंक की स्थापना …………… में हुई। (1935/1945)

उत्तर-

  1. राष्ट्रीय,
  2. उपभोग,
  3. पूँजी,
  4. APC,
  5. MPS,
  6. राजकोषीय,
  7. उत्पादन,
  8. 1935;

III. बहुविकल्पीय

प्रश्न 1.
उपयोगिता का भक्षण कहलाता है:
(A) उपभोग
(B) उत्पादन
(C) विनिमय
(D) वितरण।
उत्तर-
(A) उपभोग

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प्रश्न 2.
प्रति व्यक्ति आय की गणना का सूत्र लिखें :
(A) PSEB 10th Class Economics Solutions Chapter 1 आधारभूत धारणाएं 13
(B) PSEB 10th Class Economics Solutions Chapter 1 आधारभूत धारणाएं 14
(C) PSEB 10th Class Economics Solutions Chapter 1 आधारभूत धारणाएं 15
(D) इनमें कोई नहीं।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 3.
प्रति व्यक्ति आय का अन्य नाम क्या है?
(A) राष्ट्रीय आय
(B) निजी आय
(C) वैयक्तिक आय
(D) औसत आय।
उत्तर-
(D) औसत आय।

प्रश्न 4.
सरकार की आय व्यय तथा ऋण सम्बन्धी नीति कहलाती है
(A) मौद्रिक
(B) सरकारी
(C) योजना
(D) राजकोषीय।
उत्तर-
(D) राजकोषीय।

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प्रश्न 5.
सार्वजनिक आय के ……… मुख्य पक्ष हैं।
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर-
(B) तीन

प्रश्न 6.
………. उपभोग तथा आय का अनुपात है।
(A) APS
(B) APC
(C) MPS
(D) MPC
उत्तर-
(B) APC

IV. सही/गलत

  1. आय में से उपभोग को घटाने पर जो शेष बचता है वह उपभोग है।
  2. पूंजी स्टॉक में होने वाली वृद्धि बचत है।
  3. आय कर प्रत्यक्ष कर है।
  4. प्रति व्यक्ति आय को औसत आय भी कहते हैं।
  5. सरकार की आय व व्यय संबंधी नीति राजकोषीय नीति हैं।

उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. सही
  4. सही
  5. सही।

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छोटे उत्तर वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
देश की घरेलू सीमा की धारणा की व्याख्या करें।
उत्तर-
आम बोलचाल की भाषा में देश की घरेलू सीमा का अर्थ देश की राजनीतिक सीमा से लिया जाता है; परन्तु अर्थशास्त्र में देश की घरेलू सीमा का अर्थ केवल देश की राजनीतिक सीमा नहीं। इसमें नीचे लिखी मदें शामिल की जाती हैं

  1. राजनीतिक सीमा के अन्दर आने वाले क्षेत्र और पानी।
  2. दूसरे देश में काम कर रहे देश के दूतावास, फ़ौजी अड्डे, परामर्श दफ्तर आदि।
  3. अलग-अलग देशों में चल रहे देश के हवाई जहाज़ और समुद्री जहाज़।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय पानी में चल रहे या काम कर रहे मछेरे, गैस निकालने वाले यन्त्र या तैराक।

प्रश्न 2.
सकल राष्ट्रीय आय व शुद्ध राष्ट्रीय आय में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
राष्ट्रीय आय एक देश के सामान्य निवासियों की एक वर्ष से मज़दूरी, ब्याज, लगान तथा लाभ के रूप में साधन आय है। यह घरेलू साधन आय तथा विदेशों से प्राप्त निवल साधन आय का योग है।
एक देश की राष्ट्रीय आय में यदि घिसावट व्यय शामिल रहा है तो उसे सकल राष्ट्रीय आय कहा जाता है। इसके विपरीत यदि उसमें से घिसावट व्यय घटा दिया जाता है तो उसे शुद्ध राष्ट्रीय आय कहा जाता है। दूसरे शब्दों में,
शुद्ध राष्ट्रीय आय = कुल राष्ट्रीय आय – घिसावट व्यय।

प्रश्न 3.
औसत उपभोग प्रवृत्ति व सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति की धारणाओं को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
किसी आय के स्तर पर कुल उपभोग व्यय और कुल आय के अनुपात को औसत उपभोग प्रवृत्ति कहते हैं।
उदाहरण

आय उपभोग औसत उपभोग प्रवृत्ति ।
200 180 0.90
300 260 0.87

जब आय 200 रु० है तो उपभोग 180 रु० है। दूसरे शब्दों में, औसत उपभोग प्रवृत्ति = \(\frac{180}{200}\) = 0.90 है। जब आय बढ़कर 300 रु० हो जाती है तो उपभोग बढ़कर 260 रु० हो जाता है। दूसरे शब्दों में, औसत उपभोग प्रवृत्ति = \(\frac{260}{300}\) = 0.87
सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति-उपभोग में परिवर्तन तथा आय में परिवर्तन के अनुपात को सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति कहते हैं। अर्थात्
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उदाहरण
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ऊपर दी गई उदाहरण में जब आय 300 रु० से बढ़कर 400 रु० हो जाती है तो उपभोग 230 रु० से बढ़कर 280 रु० हो जाता है तो सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति \(\frac{50}{100}\) = 0.5, इसी प्रकार आय 400 से बढ़कर 500 हो जाती है और उपभोग 280 से बढ़कर 320 रु० हो जाता है। इसलिए सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति\(\frac{40}{100}\) = 0.4 है।

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प्रश्न 4.
कुल निवेश व शुद्ध निवेश में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
कुल निवेश = शुद्ध निवेश + प्रतिस्थापन निवेश।
प्रतिस्थापन निवेश वह निवेश है जो पूंजी की घिसावट के कारण नष्ट हो जाने के फलस्वरूप उनके नवीनीकरण या प्रतिस्थापन के लिए किया जाता है। यह निवेश पूंजी के वर्तमान स्तर को बनाए रखता है।
शुद्ध निवेश वह निवेश है जिसके कारण पूंजी के स्टॉक में वृद्धि होती है। कुल निवेश में से घिसावट व्यय या प्रतिस्थापन निवेश को घटा कर शुद्ध निवेश प्राप्त किया जा सकता है अर्थात्
शुद्ध निवेश = कुल निवेश – प्रतिस्थापन निवेश।

प्रश्न 5.
ऐच्छिक व अनैच्छिक बेरोज़गारी में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
जब श्रमिक मजदूरी की प्रचलित दर पर कार्य करने के लिए तैयार न हों अथवा कार्य होने पर भी अपनी इच्छा के अनुसार कार्य न करना चाहते हों तो ऐसी बेरोज़गारी ऐच्छिक बेरोज़गारी कहलाएगी। दूसरी ओर, अनैच्छिक बेरोज़गारी वह अवस्था है जिसमें श्रमिक मज़दूरी की वर्तमान दर पर कार्य करने के लिए तैयार हैं, पर उनको कार्य न मिले।

प्रश्न 6.
पूर्ण रोजगार की अवस्था में किन किस्मों की बेरोजगारियां पाई जा सकती हैं?
उत्तर-
परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार, किसी भी अर्थ-व्यवस्था में पूर्ण रोजगार की अवस्था में निम्नलिखित किस्मों की बेरोज़गारियां पाई जा सकती हैं

  1. ऐच्छिक बेरोजगारी
  2. संघर्षात्मक बेरोज़गारी
  3. मौसमी बेरोज़गारी
  4. संरचनात्मक बेरोज़गारी
  5. तकनीकी बेरोज़गारी ऐच्छिक बेरोजगारियों के होते हुए भी यदि अर्थ-व्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी नहीं है, तो इसको पूर्ण रोजगार की अवस्था कहा जाएगा।

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प्रश्न 7.
भारत में मुद्रा पूर्ति में कौन-कौन से तत्त्व शामिल किये जाते हैं?
उत्तर-
भारत में मुद्रा पूर्ति में निम्नलिखित तत्त्व शमिल किये जाते हैं

  1. जनता के पास करन्सी नोट एवं सिक्के राजकीय कोष में जमा राशि, बैंकों तथा राज्य सहकारी बैंकों की करन्सी को निकाल कर।
  2. बैंकों और राज्य सहकारी बैंकों की मांग जमा (अन्तर बैंक मांग जमा को निकाल कर)।
  3. रिज़र्व बैंक के अन्य जमा खातों की राशि (अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के खाते में जमा राशि को छोड़कर)।

प्रश्न 8.
सरकारी बजट से क्या आशय है? यह कितने प्रकार का हो सकता है?
उत्तर-
सरकारी बजट सरकार द्वारा प्रस्तावित वार्षिक आय तथा व्यय का ब्यौरा होता है। सरकार का बजट तीन प्रकार का हो सकता है

  1. घाटे का बजट-घाटे का बजट वह बजट है जिसमें सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक होता है। इस प्रकार का बजट अभावी मांग की स्थिति में उचित होता है।
  2. बचत का बजट-वह बजट, जिसमें सरकार की आव उसके व्यय की तुलना में अधिक होती है, बचत का बजट कहलाता है। इस प्रकार का बजट अत्यधिक मांग की स्थिति में उचित होता है।
  3. सन्तुलित बजट-वह बजट, जिसमें सरकार की आय उसके व्यय के बराबर होती है, सन्तुलित बजट कहलाता है।

प्रश्न 9.
प्रत्यक्ष करों के कोई दो लाभ बताइए।
उत्तर-

  1. न्यायपूर्ण-प्रत्यक्ष कर अधिक न्यायपूर्ण होते हैं। इस प्रकार के कर लोगों की कर दान क्षमता पर आधारित होते हैं।
  2. लोचशील-प्रत्यक्ष कर लोचशील होते हैं। अत: उनसे प्राप्त होने वाली आय को आवश्यकतानुसार घटायाबढ़ाया जा सकता है।

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प्रश्न 10.
अप्रत्यक्ष करों के कोई दो लाभ बताइए।
उत्तर-

  1. सुविधाजनक-अप्रत्यक्ष करों को इसलिए अधिक सुविधाजनक माना जाता है, क्योंकि वह उस समय लगाए जाते हैं जब उपभोक्ता वस्तुओं को खरीदता है अथवा सेवाओं का उपभोग करता है जिससे कि वे उनके बोझ को महसूस न करे।
  2. कर चोरी कठिन-इन करों से बचना बहुत कठिन होता है। ऐसे कर वस्तुओं को खरीदते समय लिए जाते हैं। इसलिए लोग इनसे आसानी से नहीं बच सकते। अप्रत्यक्ष कर प्रायः वस्तुओं के मूल्य से जुड़े रहते हैं। इसलिए उनसे बचने का परिणाम आवश्यकताओं की संतुष्टि से वंचित रहना होता है।

प्रश्न 11.
साख नियन्त्रण के उपायों के रूप में बैंक दर एवं खुले बाज़ार की क्रियाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
बैंक दर-बैंक दर ब्याज की वह न्यूनतम दर है जिस पर किसी देश का केन्द्रीय बैंक दूसरे बैंकों को ऋण देने के लिए तैयार होता है। बैंक दर के बढ़ने से ब्याज की दर बढ़ती है तथा ऋण महंगा होता है।
खुले बाजार की क्रियाएं-खुले बाजार की क्रियाओं से आशय केन्द्रीय बैंक द्वारा खुले बाज़ार में प्रतिभूतियों को खरीदने तथा बेचने से है। मन्दी की स्थिति में केन्द्रीय बैंक खुले बाज़ार से प्रतिभूतियों को खरीदता है। इसके फलस्वरूप साख का विस्तार होता है तथा मांग में वृद्धि होती है। दूसरी ओर तेजी की स्थिति में केन्द्रीय बैंक प्रतिभूतियों को बेचता है, जिसके फलस्वरूप साख का संकुचन होता है तथा मांग में कमी होती है।

प्रश्न 12.
साख नियन्त्रण के उपायों के रूप में न्यूनतम नकद निधि अनुपात व तरलता अनुपात की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
न्यूनतम नकद निधि-सभी बैंकों को अपनी जमा राशि का एक निश्चित प्रतिशत नकद निधि के रूप में केन्द्रीय बैंक के पास रखना पड़ता है। अतः मन्दी की स्थिति में न्यूनतम नकद निधि अनुपात को कम कर दिया जाता है व तेज़ी की अवस्था में इसे बढ़ा दिया जाता है।
तरलता अनुपात-प्रत्येक बैंक को अपनी जमा राशि का एक निश्चित अनुपात अपने पास ही नकद राशि के रूप में रखना पड़ता है। इसे तरलता अनुपात कहते हैं। बैंक इस राशि को उधार नहीं दे सकता। मन्दी की स्थिति में केन्द्रीय बैंक तरलता अनुपात को कम कर देता है तथा तेज़ी की स्थिति में तरलता अनुपात को बढ़ा दिया जाता है।

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प्रश्न 13.
संरचनात्मक बेरोज़गारी तथा तकनीकी बेरोज़गारी में क्या अन्तर हैं?
उत्तर-
संरचनात्मक बेरोज़गारी तथा तकनीकी बेरोज़गारी में अन्तर

संरचनात्मक बेरोजगारी तकनीकी बेरोज़गारी
(i) संरचनात्मक बेरोज़गारी से अभिप्राय उस अवस्था से है जिसमें अर्थव्यवस्था में होने वाले संरचनात्मक परिवर्तनों के कारण बेरोज़गारी होती (i) तकनीकी बेरोज़गारी से अभिप्राय उस बेरोजगारी से है जो उत्पादन की तकनीकों में होने वाले परिवर्तनों के कारण पैदा होती है।
(ii) इसके उत्पन्न होने का मुख्य कारण देश के निर्यात व्यापार में होने वाला परिवर्तन है। (ii) यह इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि श्रमिकों को नई तकनीकी का कम ज्ञान होता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बेरोजगार किसे कहते हैं? बेरोज़गारी के सामान्य प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
बेरोजगार उस व्यक्ति को कहा जाता है जो कि बाजार में प्रचलित मज़दूरी दर पर काम तो करना चाहता है लेकिन उसे काम नहीं मिल पा रहा है। बेरोज़गारी की परिभाषा हर देश में अलग-अलग होती है, जैसे-अमेरिका में यदि किसी व्यक्ति को उसकी क्वालिफिकेनश के हिसाब से नौकरी नहीं मिलती है तो उसे बेरोज़गार माना जाता है। विकासशील देशों में निम्न प्रकार की बेरोजगारी पाई जाती है।

  1. मौसमी बेरोज़गारी (Seasonal Unemployment)—इस प्रकार की बेरोज़गारी कृषि क्षेत्र में पाई जाती है। कृषि में लगे लोगों को कृषि की जुताई, बोवाई, कटाई आदि कार्यों के समय तो रोज़गार मिलता है लेकिन जैसे ही कृषि कार्य ख़त्म हो जाता है तो कृषि में लगे लोग बेरोज़गार हो जाते हैं।
  2. प्रच्छन्न बेरोज़गारी (Disguised Unemployment)-प्रच्छन्न बेरोज़गारी उस बेरोज़गारी को कहते हैं जिसमें कुछ लोगों की उत्पादकता शून्य होती है अर्थात् यदि इन लोगों को उस काम में से हटा भी लिया जाये तो भी उत्पादन में कोई अंतर नहीं आएगा। जैसे-यदि किसी फैक्ट्री में 100 जूतों का निर्माण 10 लोग कर रहे हैं और यदि इसमें से 3 लोग बाहर निकाल दिए जाएँ तो भी 100 जूतों का निर्माण हो जाये तो इन हटाये गए 3 लोगों को प्रच्छत्र रूप से बेरोज़गार कहा जायेगा। भारत की कृषि में इस प्रकार की बेरोज़गारी बहुत बड़ी समस्या है।
  3. संरचनात्मक बेरोज़गारी (Structural Unemployment)-संरचनात्मक बेरोज़गारी तब प्रकट होती है जब बाज़र में दीर्घकालिक स्थितियों में बदलाव आता है। उदाहरण के लिए भारत में स्कूटर का उत्पादन बंद हो गया है और कार का उत्पादन बढ़ रहा है। इस नए विकास के कारण स्कूटर के उत्पादन में लगे मिस्त्री बेरोज़गार हो गए और कार बनाने वालों की मांग बढ़ गयी है। इस प्रकार की बेरोज़गारी देश की आर्थिक संरचना में परिवर्तन के कारण पैदा होती है।
  4. चक्रीय बेरोज़गारी (Cyclical Unemployment)-इस प्रकार की बेरोज़गारी अर्थव्यवस्था में चक्रीय उतारचढ़ाव के कारण पैदा होती है। जब अर्थव्यवस्था में समृद्धि का दौर होता है तो उत्पादन बढ़ता है रोज़गार के नए अवसर पैदा होते हैं और जब अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर आता है तो उत्पादन कम होता है और कम लोगों की जरूरत होती है जिसके कारण बेरोज़गारी बढ़ती है।
  5. प्रतिरोधात्मक या घर्षण जनित बेरोज़गारी (Frictional Unemployment)—ऐसा व्यक्ति जो एक रोज़गार को छोड़कर किसी दूसरे रोज़गार में जाता है, तो दोनों रोज़गारों के बीच की अवधि में वह बेरोज़गार हो सकता है, या ऐसा हो सकता है कि नयी टेक्नोलॉजी के प्रयोग के कारण एक व्यक्ति एक रोजगार से निकलकर या निकाल दिए जाने के कारण रोज़गार की तलाश कर रहा हो, तो पुरानी नौकरी छोड़ने और नया रोज़गार पाने की अवधि की बेरोज़गारी को घर्षण जनित बेरोज़गारी कहते हैं।
  6. ऐच्छिक बेरोजगारी (Voluntary Unemployment)—ऐसा व्यक्ति जो बाज़ार में प्रचलित मज़दूरी दर पर काम करने को तैयार नहीं है अर्थात् वह ज्यादा मज़दूरी की मांग कर रहा है जो कि उसको मिल नहीं रही है इस कारण वह बेरोज़गार है।
  7. खुली या अनैच्छिक बेरोज़गारी (Open or Involuntary Unemployment)—ऐसा व्यक्ति जो बाजार में प्रचलित मज़दूरी दर पर काम करने को तैयार है लेकिन फिर भी उसे काम नहीं मिल रहा है तो उसे अनैच्छिक बेरोज़गार कहा जायेगा। तो इस प्रकार आपने पढ़ा कि बेरोज़गारी कितने प्रकार की होती है और भारत में किस प्रकार की बेरोज़गारी पाई जाती है। इसके अलावा कुछ ऐसे बेरोज़गार भी होते हैं जिनको मजदूरी भी ठीक मिल सकती है लेकिन फिर भी ये लोग काम नहीं करना चाहते हैं जैसे-भिखारी, साधू और अमीर बाप के बेटे इत्यादि।

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प्रश्न 2.
भारत सरकार द्वारा गरीबी उन्मूलन के लिए शुरू की गई योजनाओं का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत सरकार ने गरीबी उन्मूलन के लिए निम्नलिखित योजनाएं शुरू की हैं

  1. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा)-नरेगा विधेयक वर्ष 2005 में पारित हुआ था और यह वर्ष 2006 से प्रभावी हो गया था। यह वर्ष 2008 में नरेगा से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) बन गया। इस योजना के अन्तर्गत, पूरे देश के गाँव के लोगों के लिए 100 दिन के काम की गारंटी दी जाती है। यह एक सफल योजना रही है क्योंकि इसके कारण ग्रामीण इलाकों के गरीब लोगों के आय स्तर में वृद्धि हुई है। यह योजना लोगों की आवश्यकतानुसार उन्हें काम के अवसर प्रदान करती है। हालांकि इसमें ज्यादातर अकुशल शारीरिक श्रम शामिल है, लेकिन फिर भी यह आर्थिक रूप से गरीब लोगों के लिए कुछ सुरक्षा की सुविधाएं प्रदान करता है। इस योजना से मिलने वाली आय की मदद से गरीब लोगों को कुछ संपति बनाने में मदद मिलती है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार होता है। यह कार्यक्रम प्राथमिक रूप से ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया गया है।
  2. इंदिरा आवास योजना (आईएवाई)-इंदिरा आवास योजना ग्रामीणों को आवास प्रदान करती है। इस योजना का उद्देश्य पूरे देश के गरीब लोगों को 20 लाख आवास प्रदान करना है और जिनमें 65% लाभार्थी ग्रामीण इलाकों के हैं। यह योजना के अनुसार, जो लोग अपना घर बनवाने में सक्षम नहीं हैं, उन लोगों की सहायता करने के लिए सब्सिडी वाले ऋण प्रदान किए जाते हैं। इस योजना को मूल रूप से वर्ष 1985 में शुरू किया गया था और फिर वर्ष 1998 से वर्ष 1999 में इसका नवीनीकरण किया गया था।
  3. एकीकृत ग्रामीण विकास योजनाएं (आईआरडीपी)-एकीकृत ग्रामीण विकास योजना को दुनिया में अपनी तरह की सबसे महत्त्वाकांक्षी योजनाओं में से एक माना जाता है। यह योजना भारत में सबसे गरीब लोगों के लिए आय की कमी से उत्पन्न परेशानियों के निवारण के लिए और संपत्तियां प्रदान करने के लिए बनाई गई है। यह योजना चयनित स्थानों पर वर्ष 1978 से वर्ष 1979 में शुरू की गई थी। हालांकि, नवंबर 1980 तक पूरा देश इस योजना के दायरे में आ गया था। इस योजना का मुख्य उद्देश्य स्थाई संपत्ति बनाना और उन्हें लक्षित परिवारों को प्रदान करना है, ताकि उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर लाया जा सके। इस योजना के तहत प्रदान की जाने वाली स्व-रोजगार योजना इसका एक प्रमुख घटक है।

भारत में गरीबी उन्मूलन के लिए भारत सरकार द्वारा शुरू की गई कुछ अन्य योजनाएं निम्न हैं

  • अन्पूर्णा योजना
  • राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (एनआरईपी)
  • राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना (एनएमबीएस)
  • ग्रामीण श्रम रोज़गार गांरटी योजना (आरएलईजीपी)
  • राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना (एनएफबीएस)
  • टीआरवाईएसईएम योजना
  • राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना (एनओएपीएस)
  • जवाहर रोज़गार योजना (जेआरवाई)
  • बंधुआ मुक्ति मोर्चा
  • स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना
  • संपत्ति के केंद्रीकरण को रोकने के लिए कानून का संशोधन करना
  • राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना (एनएसपी)
  • अन्योदय योजना
  • ग्रामीण आवास योजना
  • लघु किसान विकास योजना (एसएफडीपी)
  • प्रधानमंत्री रोजगार योजना
  • सूखा क्षेत्र विकास योजना (डीएडीपी)
  • नेहरू रोजगार योजना (एनआरवाई)
  • बीस अंकीय योजना
  • शहरी गरीबों के लिए स्वयं रोजगार योजना (एसईपीयूपी)
  • कार्य योजना के लिए भोजन
  • प्रधानमंत्री की एकीकृत शहरी गरीबी उन्मूलन योजना (पीएमआईयूपीईपी)
  • न्यूनतम आवश्यकता योजना (एमएनपी)

PSEB 10th Class SST Solutions Economics Chapter 1 आधारभूत धारणाएं

आधारभूत धारणाएं PSEB 10th Class Economics Notes

  1. राष्ट्रीय आय-राष्ट्रीय आय एक देश के सामान्य निवासियों की एक वर्ष में उत्पादक सेवाओं के बदले अर्जित साधन आय है।
  2. प्रति व्यक्ति आय-प्रति व्यक्ति आय देश के लोगों द्वारा निश्चित समय में अर्जित औसत आय होती है।
  3. उपभोग-एक अर्थव्यवस्था में एक वर्ष में उपभोग पर किया गया व्यय उपभोग कहलाता है।
  4. बचत-आय में से उपभोग घटाने पर जो शेष रहता है उसे बचत कहते हैं।
  5. निवेश-पूंजी स्टॉक में वृद्धि ही निवेश कहलाता है।
  6. पूंजी निर्माण-आय का वह भाग जिससे अधिक उत्पादन सम्भव होता है पूंजी निर्माण कहलाता है।
  7. छुपी हुई बेरोज़गारी-आवश्यकता से अधिक श्रमिक जब किसी कार्य में लगे होते हैं तो इस आधिक्य को छुपी हुई बेरोज़गारी कहते हैं।
  8. पूर्ण रोज़गार–पूर्ण रोजगार से अभिप्राय ऐसी अवस्था से है जिसमें वे सारे लोग जो मज़दूरी की वर्तमान दर पर काम करने के लिए तैयार हैं, बिना किसी कठिनाई के काम प्राप्त कर लेते हैं।
  9. मुद्रा-स्फीति-सामान्य कीमत स्तर में लगातार तथा अत्यन्त वृद्धि को ही मुद्रा-स्फीति कहते हैं।
  10. मुद्रा पूर्ति-सामान्यतः देश के लोगों के पास नकदी व बैंक जमाओं को ही मुद्रा पूर्ति कहते हैं।
  11. सरकारी बजट-सरकार की अनुमानित आय और व्यय का वार्षिक विवरण ही सरकारी बजट होता है।
  12. घाटे की वित्त व्यवस्था-जब सरकार बजट में घाटा दर्शाने के लिए जानबूझ कर सार्वजनिक आय और व्यय में अंतर दर्शाती है और इस घाटे को उन विधियों द्वारा पूरी करती है जिससे मुद्रा पूर्ति में वृद्धि हो तो उसे घाटे की वित्त व्यवस्था कहते हैं।
  13. सार्वजनिक वित्त-सार्वजनिक वित्त से अभिप्राय सरकार के वित्तीय साधनों अर्थात् आय और व्यय से है।
  14. प्रत्यक्ष कर-प्रत्यक्ष कर वह होता है जिसका भुगतान उस व्यक्ति द्वारा किया जाता है जिस पर इसे लगाया जाता है। जैसे आय कर।
  15. अप्रत्यक्ष कर-अप्रत्यक्ष कर वह कर होता है जिसका भुगतान किसी और व्यक्ति द्वारा होता है तथा इसे लगाया किसी और व्यक्ति पर होता है। जैसे बिक्री कर।
  16. सार्वजनिक ऋण-सार्वजनिक ऋण सरकार द्वारा व्यापारिक बैंकों, व्यापारिक संस्थाओं तथा व्यक्तियों से लिया गया ऋण होता है।
  17. निर्धनता रेखा-निर्धनता रेखा से आशय उस राशि से है जो एक व्यक्ति के लिए प्रतिमाह न्यूनतम उपभोग करने के लिए आवश्यक है।
  18. वृद्धि दर-वृद्धि दर वह प्रतिशत दर है जिससे यह पता चलता है कि एक वर्ष की तुलना में दूसरे वर्ष में राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय में कितने प्रतिशत परिवर्तन हुआ है।
  19. विदेशी सहायता-विदेशी सहायता से अभिप्राय विदेशी पूंजी, विदेशी ऋण तथा विदेशी अनुदान से है।
  20. भुगतान संतुलन-भुगतान संतुलन किसी देश के दूसरे देशों के साथ एक निश्चित अवधि में किए जाने वाले सभी प्रकार के आर्थिक सौदों का व्यवस्थित लेखा होता है।
  21. मौद्रिक नीति-मौद्रिक नीति वह नीति होती है जिसके द्वारा किसी देश की सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मुद्रा पूर्ति, मुद्रा की लागत या ब्याज की दर तथा मुद्रा की उपलब्धता को नियन्त्रित करती है।
  22. राजकोषीय नीति-सरकार की आय और व्यय सम्बन्धी नीति को राजकोषीय नीति कहते हैं।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

पंजाब के इतिहास संबंधी समस्याएँ । (Difficulties Regarding the History of the Punjab)

प्रश्न 1.
पंजाब के इतिहास की रचना में इतिहासकारों को किन मुख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ? बताइए।
(What difficulties were faced by the historians while constructing the History of Punjab ? Explain.)
अथवा
पंजाब के इतिहास की रचना करते समय इतिहासकारों को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(Which difficulties are being faced by historians while composing the History of Punjab ?)
अथवा
पंजाब का इतिहास लिखते समय इतिहासकारों को कौन-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
(Explain the difficulties faced by the historians while writing the History of Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना करना इतिहासकारों के लिए सदैव एक गंभीर समस्या रही है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसकी रचना करते समय उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला (Sikhs did not find time to write their own History) औरंगजेब की मृत्यु के बाद पंजाब में एक ऐसा दौर आया जो पूरी तरह से अशाँति तथा अराजकता से भरा हुआ था। सिखों तथा मुग़लों के मध्य शत्रुता चरम सीमा पर थी। इस पर नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाब की दशा और खराब कर दी। अतः ऐसे वातावरण में इतिहास लेखन का कार्य कैसे संभव था। इस क्षेत्र में जो थोड़े बहुत प्रयास हुए भी चे आक्रमणकारियों की भेंट चढ़ गए। परिणामस्वरूप आज के इतिहासकार महत्त्वपूर्ण ग्रंथों से वंचित हो गए।

2. मुस्लिम इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण विचार (Biased Views of Muslim Historians)—पंजाब के इतिहास को लिखने में सबसे अधिक जिन स्रोतों की सहायता ली गई है वे हैं फ़ारसी में लिखे गए ग्रंथ। इन ग्रंथों को मुसलमान लेखकों ने लिखा है जो सिखों के कट्टर दुश्मन थे। इन ग्रंथों को बड़ी जाँच-पड़ताल से पढ़ना पड़ता है क्योंकि इन इतिहासकारों ने अधिकतर तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। अतः इन ग्रंथों को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त औरंगजेब ने सरकारी तौर पर किसी भी राजनीतिक घटना को लिखने की मनाही कर दी थी। परिणामस्वरूप उस काल की पंजाब से संबंधित महत्त्वपूर्ण घटनाओं का सही विवरण उपलब्ध नहीं है।

3. ऐतिहासिक स्रोतों का नष्ट होना (Destruction of Historical Sources)-18वीं शताब्दी के लगभग 7वें दशक तक पंजाब में अशांति एवं अराजकता का वातावरण रहा। पहले मुग़लों तथा बाद में अफ़गानों ने पंजाब में सिखों की शक्ति को कुचलने में कोई प्रयास शेष न छोड़ा। 1739 ई० में नादिर शाह तथा 1747 से 1767 ई० तक अहमद शाह अब्दाली के 8 आक्रमणों के कारण पंजाब की स्थिति अधिक शोचनीय हो गई थी। ऐसे समय जब सिखों को अपने बीवी-बच्चों की सुरक्षा करना कठिन था तो वे अपने धार्मिक ग्रंथों को किस प्रकार सुरक्षित रख पाते। परिणामस्वरूप उनके अनेक धार्मिक ग्रंथ नष्ट हो गए। इस कारण सिखों को अपने अनेक अमूल्य ग्रंथों से वंचित होना पड़ा।

4. पंजाब मुगल साम्राज्य का एक भाग (Punjaba part of Mughal Empire)-पंजाब 1752 ई० तक मुग़ल साम्राज्य का भाग रहा था। इस कारण इसका कोई अलग से इतिहास न लिखा गया। आधुनिक इतिहासकारों को मुग़ल काल में लिखे गए साहित्य से पंजाब की बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है। अत: पर्याप्त विवरण के अभाव में पंजाब के इतिहास की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं की जा सकती।

5. पंजाब का बँटवारा (Partition of Punjab)-1947 ई० में पंजाब की पड़ी बँटवारे की मार ने भी पंजाब के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों को नष्ट कर दिया। परिणामस्वरूप इतिहासकार पंजाब की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री से वंचित रह गए।

पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोत (Main Sources of the History of the Punjab)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 2.
पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe briefly the important sources of the History of the Punjab.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों का वर्णन करें।
(Discuss the main sources of the Punjab History.) .
अथवा
1469 ई० से 1849 ई० तक के पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों की चर्चा करें। (Examine the sources of History of the Punjab from 1469 to 1849 A.D.)
उत्तर-
पंजाब के 1469 ई० से 1849 ई० तक के इतिहास के लिए अनेक प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं। इन स्रोतों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है—
(क) साहित्यिक स्रोत (Literary sources)
(ख) पुरातात्विक स्रोत (Archaeological sources)।

  1. साहित्यिक स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं—
    • सिखों के धार्मिक साहित्य।
    • ऐतिहासिक और अर्द्ध ऐतिहासिक सिख साहित्य।
    • फ़ारसी की ऐतिहासिक पुस्तकें।
    • भट्ट वहियाँ।
    • खालसा दरबार रिकॉर्ड।
    • विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेज़ों की रचनाएँ।
  2. पुरातात्विक स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं—
    • भवन तथा स्मारक।
    • सिक्के तथा चित्र।

(क) साहित्यिक स्रोत
(Literary Sources)

सिखों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)-सिखों के धार्मिक साहित्य की पंजाब के इतिहास के निर्माण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इनमें सबसे प्रमुख स्थान आदि ग्रंथ साहिब जी का आता है। इसे आजकल गुरु ग्रंथ साहिब जी कहा जाता है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इससे हमें उस काल की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। इसके बाद भाई मनी सिंह जी द्वारा 1721 ई० में संकलित ‘दशम ग्रंथ साहिब’ का स्थान है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इसमें कुल 18 ग्रंथ हैं। इनमें ऐतिहासिक रूप से ‘बचित्तर नाटक’ तथा ‘ज़फ़रनामा’ का नाम प्रमुख है। इन ग्रंथों में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा मुग़लों तथा सिखों के संबंधों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इसके बाद भाई गुरदास जी द्वारा लिखी गई 39 वारों का स्थान आता है। इनमें सिख गुरुओं के जीवन का बहुमूल्य विवरण दिया गया है। इनके अतिरिक्त गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित ‘जन्म साखियाँ’ तथा सिख गुरुओं के हुक्मनामे भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

2. ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिख साहित्य (Historical and Semi-Historical Sikh Literature)-पंजाब के इतिहास के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है सेनापत द्वारा रचित गुरसोभा। इसमें 1699 ई० से 1708 ई० तक आँखों देखी घटनाओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त भाई मनी सिंह जी द्वारा रचित सिखाँ दी भगतमाला, केसर सिंह छिब्बड़ द्वारा रचित बंसावली नामा, बावा कृपाल सिंह द्वारा रचित महिमा प्रकाश वारतक तथा प्राचीन पंथ प्रकाश जिसके लेखक रतन सिंह भंगू हैं, भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3. फ़ारसी के ऐतिहासिक ग्रंथ (Historical works in Persian)—फ़ारसी की अधिकतर रचनाएँ मुसलमानों द्वारा रचित हैं। उनकी रचनाएँ पंजाब या सिखों के इतिहास का वर्णन तो नहीं है, परंतु फिर भी हमें इतिहास लिखने में इनसे पर्याप्त सहायता मिलती है। इनमें बाबर द्वारा रचित बाबरनामा, अबुल फ़ज़ल द्वारा रचित आइन-एअकबरी और अकबरनामा, जहाँगीर द्वारा लिखी गई तुजक-ए-जहाँगीरी, सोहन लाल सूरी की उमदत-उततवारीख, बूटे शाह की तवारीख-ए-पंजाब, दीवान अमरनाथ की ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह तथा अलाउद्दीन मुफ्ती की इबरतनामा प्रमुख हैं।

4. भट्ट वहियाँ (Bhat Vahis)-भट्ट लोग अपनी वहियों में महत्त्वपूर्ण घटनाओं को तिथियों सहित दर्ज कर लेते थे। पंजाब के इतिहास निर्माण में इन वहियों का विशेष स्थान है। इनमें गुरु हरिगोबिंद सिंह जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी के गुरु-काल की अनेकों महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विवरण दर्ज है।

5. खालसा दरबार रिकॉर्ड (Khalsa Durbar Records)-महाराजा रणजीत सिंह के काल के सरकारी रिकॉर्ड तत्कालीन पंजाब पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। ये फ़ारसी भाषा में हैं तथा इनकी संख्या 1 लाख से भी ऊपर है। इनकी सूची सीता राम कोहली ने तैयार की थी।

6. विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेजों की रचनाएँ (Writings of Foreign Travellers and the Europeans)-पंजाब आने वाले विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेज़ी लेखकों ने भी पंजाब के इतिहास पर अपनी रचनाओं में पर्याप्त प्रकाश डाला है। इनमें जॉर्ज फोरस्टर द्वारा रचित “ए जर्नी फ्राम बंगाल टू इंग्लैंड’, मैल्कोम द्वारा रचित ‘स्केच ऑफ द सिखस्’, एच० टी० प्रिंसेप द्वारा रचित ‘ओरिज़न ऑफ़ सिख पॉवर इन द पंजाब’, कैप्टन विलियम उसबोर्न द्वारा रचित ‘द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह’, मरे द्वारा रचित हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब शामिल हैं। जे० डी० कनिंघम द्वारा लिखित ‘हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्’ सबसे अधिक विश्वसनीय तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसमें 1699 ई० से लेकर 1846 ई० तक की घटनाओं का विवरण दर्ज है।

(ख) पुरातात्विक स्रोत
(Archaeological Sources)
पंजाब के ऐतिहासिक भवन, स्मारक, सिक्के तथा चित्र भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण सहयोग देते हैं। सिख गुरुओं द्वारा बसाए गए खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, अमृतसर, तरनतारन, करतारपुर, आनंदपुर साहिब आदि धार्मिक नगर पंजाब के इतिहास की मुँह बोलती तस्वीर हैं। इसके अतिरिक्त 18वीं शताब्दी के अनेक सिख सरदारों द्वारा बनाए गए महल तथा दुर्ग भी पंजाब के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। हमें सिख गुरुओं तथा उनके वंशजों से संबंधित अनेक चित्र भी प्राप्त हुए हैं। इन चित्रों के माध्यम से हमें उस काल में पंजाब की सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। पंजाब के विभिन्न मुग़ल शासकों, बंदा सिंह बहादुर, महाराजा रणजीत सिंह, मुग़ल तथा सिख सरदारों द्वारा जारी किए गए सिक्कों से हमें उस काल की ऐतिहासिक तिथियों, धार्मिक विश्वासों तथा आर्थिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार ये सिक्के इतिहास निर्माण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सिरवों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)

प्रश्न 3.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में सिख धार्मिक साहित्य का मूल्यांकन करें।
(Evaluate the Sikh religious literature as a source of the Punjab History.)
अथवा
पंजाब के इतिहास जानने में गुरुमुखी साहित्य का क्या योगदान है ? (What is the contribution of Sikh Gurmukhi Literature in the History of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में आदि ग्रंथ साहिब तथा जन्म साखियों का महत्त्व बताओ।
(Describe the significance of the Adi Granth Sahib and Janam Sakhis as source of the Punjab History.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। इसमें दी गई जानकारी उस काल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक गतिविधियों पर प्रकाश डालती है। सिखों के धार्मिक साहित्यों का क्रमानुसार वर्णन इस प्रकार है—
1. आदि ग्रंथ साहिब जी (The Adi Granth Sahib Ji)—आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब जी तथा हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी सम्मिलित है। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई थी तथा इसे गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। इस प्रकार गुरु ग्रंथ साहिब जी में अब 6-गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है। आदि ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। क्योंकि यह जानकारी बहुत ही प्रमाणित है, इसलिए आदि ग्रंथ साहिब जी पंजाब के इतिहास के लिए एक अमूल्य स्रोत माना जाता है। डॉक्टर इंदू भूषण बैनर्जी के शब्दों में,
“इसे (आदि ग्रंथ साहिब जी को) सिखों की बाइबल कहा जाना चाहिए। विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सिख धर्म पर यह सबसे विश्वसनीय स्रोत है।”1

2. दशम ग्रंथ साहिब जी (Dasam Granth Sahib Ji) दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है। यह गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान और गुरु गोबिंद सिंह जी की पहाड़ी राजाओं के साथ लड़ाइयों को जानने के संबंध में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। ‘ज़फ़रनामा’ एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में दीना काँगड़ से औरंगज़ेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सेनापतियों द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी के साथ धोखा करने का उल्लेख किया है। दशम ग्रंथ वास्तव में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन और कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत है।
1. “It may be called the Bible of Sikhism and is admitted to be the greatest authority on Sikhism.” Dr. Indu Bhushan Banerjee, Evolution of Khalsa (Calcutta : 1972) pp. 281-82.

3. भाई गुरदास जी की वारें (Vars of Bhai Gurdas Ji)—भाई गुरदास जी एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

4. जन्म पाखियाँ (Janam Sakhis)-गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को ‘जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की पंजाबी में रचना हुई। परंतु इन जन्म साखियों में अनेक दोष व्याप्त हैं। इनमें घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया है। इन जन्म साखियों में घटनाओं का विवरण तथा तिथि क्रम में विरोधाभास मिलता है। इन दोषों के बावजूद ये जन्म साखियाँ गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में पर्याप्त प्रकाश डालती हैं। इन जन्म साखियों में महत्त्वपूर्ण हैं—

i) पुरातन जन्म साखी (Puratan Janam Sakhi)—इस जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था। यह जन्म साखी सबसे प्राचीन है। इसे अन्य जन्म साखियों की तुलना में सर्वाधिक विश्वसनीय माना जाता है।

ii) मेहरबान वाली जन्म साखी (Janam Sakhi of Meharban)-मेहरबान गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथी चंद के पुत्र थे। वे बड़े विद्वान् थे। उन्होंने गुरु नानक साहिब की उदासियों और करतारपुर में गुरु जी के निवास के संबंध में बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया। यह जन्म साखी काफ़ी विश्वसनीय मानी जाती है।

iii) भाई बाला जी की जन्म साखी (Janam Sakhi of Bhai Bala Ji)-भाई बाला जी गुरु नानक देव जी का बचपन का साथी था। वह गुरु नानक देव जी की उदासियों के समय उनके साथ था। इस जन्म साखी को कब तथा किसने लिखा इस संबंधी इतिहासकारों में मतभेद हैं। इस जन्म साखी में बहुत-सी बातें मनघढ़त हैं। इसलिए इस जन्म साखी को सबसे कम विश्वसनीय माना जाता है।

iv) भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी (Janam Sakhi of Bhai Mani Singh Ji)-इस जन्म साखी को ‘ज्ञान रत्नावली’ भी कहा जाता है। यह जन्म साखी गुरु गोबिंद सिंह जी के एक श्रद्धालु भाई मनी सिंह जी ने लिखी थी। इसकी रचना 1675 ई० से 1708 ई० के बीच की गई थी। यह जन्म साखी बहुत विश्वसनीय है।

v) हुक्मनामे (Hukamnamas)-हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश के सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। पंजाब के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर गंडा सिंह ने अपने अथक परिश्रम से 89 हुक्मनामों का संकलन किया। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी के तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। इन हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान तथा समकालीन समाज से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिरव साहित्य (Historical and Semi-Historical Sikh Literature)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 4.
पंजाब के इतिहास के विषय में जानकारी देने वाला ऐतिहासिक और अर्द्ध ऐतिहासिक सिख साहित्य कहाँ तक सहायक है ? वर्णन करो।
(How far is Sikh Historical and Semi-Historical Literature helpful in giving information about Punjab History ?)
उत्तर-
18वीं और 19वीं शताब्दी में बहुत-से ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिख साहित्य की रचना की गई थी। यह साहित्य पंजाब के इतिहास पर बहुत महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। प्रमुख साहित्यिक ग्रंथों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

श्री गुरसोभा (Sri Gursobha)-श्री गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में 1699 ई० से लेकर 1708 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया गया है। वास्तव में यह गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा कार्यों को जानने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोतों में से एक है।

2. सिखों की भगतमाला (Sikhan Di Bhagatmala)-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रंथ को भगत रत्नावली भी कहा जाता है। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम तथा जातियों के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

3. बंसावलीनामा (Bansavalinama)—बंसावलीनामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बड़ ने की थी। इसमें गुरु साहिबान से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक का इतिहास वर्णित किया गया है। यह ग्रंथ गुरु काल के बाद के इतिहास के लिए अधिक विश्वसनीय है। इसमें बहुत-सी ऐसी घटनाओं का वर्णन है जोकि लेखक की आँखों-देखी हैं।

i) महिमा प्रकाश (Mehma Prakash)-महिमा प्रकाश की दो रचनाएँ हैं। प्रथम का नाम महिमा प्रकाश वारतक और द्वितीय का नाम महिमा प्रकाश कविता है।

  • महिमा प्रकाश वारतक-इस पुस्तक की रचना 1741 ई० में बावा कृपाल सिंह ने की थी। इसमें गुरु साहिबान के जीवन का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है।
  • महिमा प्रकाश कविता-इस पुस्तक की रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

ii) गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (Gurpartap Suraj Granth)-यह एक विशाल ग्रंथ है। इसकी रचना भाई संतोख सिंह ने की थी। इस ग्रंथ के दो भाग हैं- .

  • नानक प्रकाश (Nanak Prakash)-इसकी रचना 1823 ई० में की गई थी। इसमें केवल गुरु नानक साहिब के जीवन का वर्णन है।
  • सूरज प्रकाश (Suraj Prakash)-इसकी रचना 1843 ई० में हुई थी। इसमें गरु अंगद साहिब से लेकर बंदा सिंह बहादुर तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। यद्यपि इसमें अनेक दोष हैं किंतु इसे सिख गुरुओं के जीवन से संबंधित ज्ञान का प्रमुख स्रोत माना जाता है।

4. प्राचीन पंथ प्रकाश (Prachin Panth Prakash)-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रतन सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह पहली ऐतिहासिक पुस्तक थी जो किसी सिख ने लिखी थी। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कथन पूर्णत: ठीक है,
“यह कार्य किसी सिख द्वारा सिख इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है और यह बहुत महत्त्व रखता है।”2

5. पंथ प्रकाश तथा तवारीख गुरु खालसा (Panth Prakash and Tawarikh Guru Khalsa)ये दोनों रचनाएँ ज्ञानी ज्ञान सिंह जी द्वारा रचित हैं। पंथ प्रकाश कविता के रूप में लिखी गई है जबकि तवारीख गुरु खालसा वारतक रूप में है। इन दोनों ग्रंथों में 1469 ई० से लेकर 1849 ई० तक की घटनाओं का विवरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त इनमें उस समय के प्रसिद्ध संप्रदायों और गुरुद्वारों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से पंथ प्रकाश की तुलना में तवारीख गुरु खालसा अधिक लाभदायक है।

2. “This work is the first attempt made by a Sikh to compile a Sikh history and is of supreme importance.”. Dr. Hari Ram Gupta, History of the Sikhs (Delhi : 1987) Vol. 2, p. 371.

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
ऐतिहासिक स्रोत हमारे लिए क्यों आवश्यक हैं ? पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत के संबंध में हमें कौन-सी मुख्य कठिनाइयाँ पेश आती हैं ?
(Why are historical sources important for us ? What difficulties do we face regarding the sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास का संकलन करने के लिए विद्यार्थियों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What problems are faced by the students in composing the History of the Punjab ? )
अथवा
पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए विद्यार्थियों के सामने आने वाली किन्हीं तीन समस्याओं का वर्णन कीजिए।
(Describe any three important problems being faced by the students in composing the History of the Punjab.)
उत्तर-

  1. गुरु साहिबान के काल से संबंधित प्राप्त ऐतिहासिक स्रोत काफ़ी अधूरे हैं। परिणामस्वरूप सही ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त करना कठिन है।
  2. मुसलमान लेखकों ने जान-बूझ कर सिख इतिहास को उचित रूप में प्रस्तुत नहीं किया।
  3. उस समय पंजाब में युद्धों के कारण चारों ओर अराजकता फैली हुई थी। इस वातावरण में सिखों को अपना इतिहास लिखने का अवसर नहीं मिला।
  4. पंजाब के बहुत सारे स्रोत अखोजित रह गए।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 2.
हुक्मनामों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Hukamnamas.)
उत्तर-
सिख गुरुओं अथवा गुरु परिवारों की ओर से समय-समय पर जारी किए गए आदेशों को ‘हुक्मनामा’ कहा जाता था। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। अब तक प्राप्त हुए हुक्मनामों की संख्या 89 है। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। सिख इन हुक्मनामों को परमात्मा का आदेश समझ कर उनकी पालना करते थे।

प्रश्न 3.
सिखों के धार्मिक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों का वर्णन करें।
(Give a brief account of the important historical sources related to religious literature of the Sikhs.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के लिए धार्मिक साहित्य पर आधारित तीन महत्त्वपूर्ण स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of three important sources based on religious literature of the Punjab History.)
उत्तर-

  1. 1604 ई० आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने किया था। आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक दशा की भी जानकारी प्राप्त होती है।
  2. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। यह गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन को जानने के लिए एक अमूल्य स्रोत है।
  3. भाई मनी सिंह जी द्वारा लिखित ‘ज्ञान-रत्नावली’ जन्म साखी भी बहुत-ही विश्वसनीय है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों को क्रम में दिया गया है।
  4. भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की। इन वारों से पहले 6 गुरु साहिबानों से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  5. हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान और समकालीन समाज के इतिहास के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

प्रश्न 4.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है ? किन्हीं तीन जन्म साखियों का वर्णन करें।
(What is meant by Janam Sakhis ? Explain any three main Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियों के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में एक नोट लिखें। (Write a note on the historical importance of Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियाँ क्या हैं ? भिन्न-भिन्न जन्म साखियों का महत्त्व बताएँ।
(What do you understand by Janam Sakhis ? What is the importance of different Janam Sakhis ?)
अथवा
किन्हीं तीन जन्म साखियों के बारे में चर्चा करें।
(Throw light on any three Janam Sakhis.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म, साखियाँ कहा जाता है।

  1. पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था जो सबसे प्राचीन और विश्वसनीय है।
  2. मेहरबान वाली जन्म साखी की रचना पृथी चंद के सुपुत्र मेहरबान ने की थी। उसने गुरु नानक साहिब जी की उदासियों का विस्तृत वर्णन किया है।
  3. भाई बाला की जन्म साखी की रचना कब और किसने की, इस संबंधी इतिहासकारों में काफ़ी मतभेद है। इस जन्म साखी में बहुत-सी मनघढंत बातों को सम्मिलित किया गया है।
  4. भाई मनी सिंह जी की जन्मसाखी-इसे ज्ञान रतनावली भी कहा जाता है। इसे भाई मनी सिंह जी ने लिखा था। यह बहुत विश्वसनीय है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 5.
मेहरबान वाली जन्म साखी पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Janam Sakhi of Meharban.)
उत्तर-
मेहरबान गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथी चंद के पुत्र थे। वह बड़े विद्वान् थे। उन्होंने गुरु नानक देव जी की उदासियों और करतारपुर में गुरु जी के निवास के संबंध में बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यह जन्म साखी काफ़ी विश्वसनीय है। इसमें घटनाओं का वर्णन क्रमानुसार दिया गया है। इसमें दिए गए व्यक्तियों तथा स्थानों के नाम आमतौर पर विश्वसनीय हैं। इसमें मनघडंत कहानियों का बहुत कम वर्णन किया गया है।

प्रश्न 6.
भाई गुरदास जी की वारों के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Vars of Bhai Gurdas Ji ?)
अथवा
भाई गरदास जी भल्ला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Bhai Gurdas Ji Bhalla.)
उत्तर-भाई गुरदास जी भल्ला, गुरु अमर दास जी के भाई दातार चंद भल्ला जी के पुत्र थे। वह तीसरे, चौथे, पाँचवें तथा छठे गुरुओं के समकालीन थे। वह एक उच्चकोटि के कवि एवं लेखक थे। उन द्वारा रचित वारों की संख्या 39 है। ये वारें पंजाबी भाषा में लिखी गई हैं। गुरु ग्रंथ साहिब जी के शब्दों के भावों को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इन वारों का अध्ययन करना आवश्यक है। ऐतिहासिक पक्ष से 1 तथा 11वीं वार बहुत महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 7.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में ‘आदि ग्रंथ साहिब जी’ का क्या महत्त्व है ? (Describe the importance of Adi Granth Sahib Ji as a source of the History of Punjab.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की विशेषताओं पर एक नोट लिखें।
(Write a note on the special features of Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी और इसके ऐतिहासिक महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of Adi Granth Sahib Ji and its historical importance.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करों। (Briefly explain the significance of Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ का सम्मान प्राप्त है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब और नवम गुरु, गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी सम्मिलित है। इसमें भक्तों, मुस्लिम संतों, सूफी संतों और भटों इत्यादि की वाणी को भी सम्मिलित किया गया है। हमें आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से उस काल के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

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प्रश्न 8.
दशम ग्रंथ साहिब जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Dasam Granth Sahib Ji ?)
अथवा
दशम ग्रंथ साहिब जी पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Dasam Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
दशम ग्रंथ साहिब जी गुरु गोबिंद सिंह जी तथा उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी द्वारा किया गया था। इसका उद्देश्य मुख्य रूप से अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सिखों में जोश उत्पन्न करना था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें से ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तति’, ‘चंडी की वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शबद हज़ारे’, ‘शस्त्रनामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। बचित्तर नाटक और ज़फ़रनामा ऐतिहासिक पक्ष से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 9.
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन में ‘बचित्तर नाटक’ का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Bachittar Natak in the life of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
‘बचित्तर नाटक’ पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bachittar Natak.)
उत्तर-
बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की एक अद्वितीय रचना है। इसका संबंध गुरु गोबिंद सिंह के जीवन वृत्तांत के साथ है। इसमें परमात्मा की स्तुति की गई है। संसार की रचना कैसे हुई, बेदी वंश तथा सोढी वंश के बारे विस्तृत जानकारी दी गई है। इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के बारे में भी प्रकाश डाला गया है। इसमें गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन के उद्देश्य का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 10.
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण दें। (Give a brief account of historical sources written in 18th century in Punjabi.)
उत्तर-

  1. गुरसोभा-गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में उसने 1699 ई० से लेकर 1708 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया है।
  2. सिखाँ दी भगतमाला-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम, जातियों तथा उनके निवास स्थान के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है।
  3. प्राचीन पंथ प्रकाश-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रत्न सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक साहिब जी से लेकर 18वीं शताब्दी के इतिहास का वर्णन किया गया है।
  4. बंसावलीनामा-बंसावलीनामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बड़ ने की थी। उसमें 18वीं सदी के मध्य तक के इतिहास का वर्णन किया गया है।
  5. महिमा प्रकाश कविता-इसकी रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के इतिहास का वर्णन किया गया है।

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प्रश्न 11.
गुरसोभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Gursobha.)
उत्तर-
गुरसोभा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने 1741 ई० में की थी। इस ग्रंथ में लेखक ने 1699 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी, से लेकर 1708 ई० तक जब वह ज्योति-जोत समाए थे, की आँखों देखी घटनाओं का वर्णन किया था। इसकी गणना गुरु गोबिंद सिंह जी के महत्त्वपूर्ण स्रोतों में की जाती है।

प्रश्न 12.
सिखाँ दी भगतमाला के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Sikhan Di Bhagatmala ?)
उत्तर-
इस ग्रंथ की रचना 18वीं शताब्दी के एक महान् सिख भाई मनी सिंह जी ने की थी। इसमें प्रथम 6 सिख गुरुओं, उनके समय के प्रसिद्ध सिखों, उनकी. जातियों एवं निवास स्थानों के बारे में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त इसमें उस समय की सामाजिक दशा के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है।

प्रश्न 13.
बंसावलीनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Bansavalinama.)
उत्तर-
इस ग्रंथ की रचना केसर सिंह छिब्बड़ ने 1780 ई० में की थी। इसमें 14 अध्याय हैं। प्रथम 10 अध्याय 10 सिख गुरुओं से संबंधित हैं। शेष 4 अध्याय चार साहिबजादों की शहीदी, बंदा सिंह बहादुर, माता सुंदरी जी तथा खालसा पंथ से संबंधित हैं। लेखक गुरु गोबिंद सिंह जी का समकालीन था। इसलिए उसने अनेक आँखों देखी घटनाओं का वर्णन किया है। यह 18वीं शताब्दी के सिख इतिहास के लिए हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है।

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प्रश्न 14.
प्राचीन पंथ प्रकाश का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of Prachin Panth Prakash.) .
उत्तर-
प्राचीन पंथ प्रकाश एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक रचना है। इस ग्रंथ की रचना 1841 ई० में रत्न सिंह भंगू ने की थी। इसमें लेखक ने गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। इसमें मुग़ल-सिख संबंधों, मराठा-सिख संबंधों तथा अफ़गान-सिख संबंधों के बारे में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक जानकारी प्रदान की गई है। यह प्रथम ऐतिहासिक पुस्तक थी जिसको किसी सिख ने लिखा।

प्रश्न 15.
पंजाब के इतिहास से संबंधित फ़ारसी के स्रोतों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account important Persian sources of the History of Punjab.)
अथवा
फ़ारसी के तीन मुख्य ऐतिहासिक स्रोतों का संक्षेप में वर्णन करें जो कि पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
(Give a brief mention of three important Persian sources which are essential for composing the History of Punjab.).
अथवा
पंजाब के इतिहास के तीन प्रसिद्ध फ़ारसी के स्रोतों का विवरण दों। (Give an account of three important Persian sources of the History of Punjab.)
उत्तर-

  1. आइन-ए-अकबरी-अकबरी के सिख गुरुओं के साथ संबंधों की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारा मुख्य स्रोत है। इसकी रचना अबुल फजल ने की थी।
  2. जंगनामा की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी। इस पुस्तक में उसने अब्दाली के आक्रमण का आँखों देखा हाल और सिखों की युद्ध विधि और चरित्र के संबंध में वर्णन किया है।
  3. उमदत-उत-तवारीख का लेखक महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी सोहन लाल सूरी था। यह ग्रंथ महाराजा के काल की ऐतिहासिक जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  4. तवारीख-ए-सिखाँ का लेखक खुशवक्त राय था। यह गुरु नानक साहिबं से लेकर 1811 ई० तक के इतिहास को जानने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  5. चार बाग़-ए-पंजाब का लेखक गणेश दास वडेहरा था। यह महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल का एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 16.
चार बाग़-ए-पंजाब पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Char Bagh-i-Punjab. )
उत्तर-
इस पुस्तक की रचना 1855 ई० में गणेश दास वडेहरा ने की थी। वह महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत कानूनगो के पद पर कार्यरत था। इस पुस्तक में लेखक ने महाराजा रणजीत सिंह से लेकर 1849 ई० तक पंजाब की घटनाओं का वर्णन किया है। इस पुस्तक में लेखक ने महाराजा रणजीत सिंह के काल से संबंधित आँखो-देखी घटनाओं का क्रमानुसार वर्णन किया है। इसमें पंजाब की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक दशा पर भी प्रकाश डाला गया है।

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प्रश्न 17.
पंजाब के इतिहास की जानकारी देने वाले महत्त्वपूर्ण अंग्रेज़ी स्रोतों पर प्रकाश डालें। (Mention important English sources which throw light on the History of Punjab.)
अथवा
अंग्रेज़ी में लिखे पंजाब के इतिहास के बारे में जानकारी देने वाले तीन महत्त्वपूर्ण स्रोतों पर प्रकाश डालें।
(Throw light on three important sources of information on Punjab History written in English.)
उत्तर-

  1. द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह-इस पुस्तक में कैप्टन विलियम उसबोर्न ने महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की भव्यता के संबंध में तथा सेना के संबंध में बहुत अधिक प्रकाश डाला है।
  2. हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब-इस पुस्तक में डॉक्टर मरे ने महाराजा रणजीत सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों से संबंधित बहुमूल्य स्रोत है।
  3. हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्- इस पुस्तक में डॉक्टर मैकग्रेगर ने महाराजा रणजीत सिंह तथा सिखों की अंग्रेजों के साथ लड़ाइयों से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।
  4. स्कैच आफ़ द सिखस-इस पुस्तक में मैल्कोम ने सिख इतिहास की संक्षेप जानकारी दी है।
  5. द पंजाब-इस पुस्तक में स्टाइनबख ने महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है।

प्रश्न 18.
भारतीय अंग्रेज सरकार के रिकॉर्ड के ऐतिहासिक महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the historical importance of Records of British Indian Government.)
उत्तर-
भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के आरंभ से लेकर सिख राज्य के पतन तक (1799-1849 ई०) के इतिहास को जानने के लिए हमारा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसमें से अधिकतर रिकॉर्ड भारत के राष्ट्रीय पुरालेख विभाग, दिल्ली में पड़े हुए हैं। इन रिकॉर्डों से हमें अंग्रेज़-सिख संबंधों, रणजीत सिंह के राज्य के बारे, अंग्रेज़ों के सिंध तथा अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों के बारे में बहुत विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 19.
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों के महत्त्व की चर्चा करें। (Examine the importance of coins in the construction of the History of the Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों का विशेष महत्त्व है। पंजाब के हमें मुग़लों, बंदा सिंह बहादुर, जस्सा सिंह आहलूवालिया, अहमद शाह अब्दाली तथा महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के मिलते हैं। ये सिक्के विभिन्न धातुओं से बने हुए हैं। इनमें से अधिकाँश सिक्के लाहौर, पटियाला एवं चंडीगढ़ के अजायबघरों में पड़े हैं। ये सिक्के तिथियों तथा शासकों संबंधी विवरण पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। अतः ये सिक्के पंजाब के इतिहास की कई समस्याओं को सुलझाने में हमारी सहायता करते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
पंजाब का इतिहास लिखने के संबंध में इतिहासकारों के समक्ष आने वाली किसी एक कठिनाई का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पंजाबियों को इतिहास लिखने में रुचि नहीं थी।

प्रश्न 2.
पंजाब के इतिहास से संबंधित सिखों का कोई एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बताएँ।
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी की रचना कब की गई थी?
उत्तर-
1604 ई०।

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प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 5.
सिखों का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ कौन-सा है?
अथवा
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक (ग्रंथ साहिब) का नाम क्या है?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 6.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था?
उत्तर-
1721 ई० में।

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प्रश्न 7.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 8.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संबंध किस गुरु से है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी।

प्रश्न 9.
दशम ग्रंथ साहिब जी में शामिलं गुरु गोबिंद सिंह जी की किसी एक रचना का नाम बताएँ।
उत्तर-
बचित्तर नाटक।

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प्रश्न 10.
बचित्तर नाटक की रचना किसने की?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने।

प्रश्न 11.
बचित्तर नाटक क्या है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा।

प्रश्न 12.
जफ़रनामा क्या है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को फ़ारसी में लिखा गया एक पत्र।

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प्रश्न 13.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को ज़फ़रनामा किस स्थान से लिखा गया ?
उत्तर-
दीना काँगड़।

प्रश्न 14.
जफ़रनामा को किस भाषा में लिखा गया ?
उत्तर-
फ़ारसी में।

प्रश्न 15.
भाई गुरदास जी कौन थे ?
उत्तर-
दातार चंद भल्ला के पुत्र।

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प्रश्न 16.
भाई गुरदास जी ने कुल कितनी वारों की रचना की?
उत्तर-
39.

प्रश्न 17.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
ये वे कथाएँ हैं जो कि गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित हैं।

प्रश्न 18.
किसी एक जन्म साखी का नाम लिखें।
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी।

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प्रश्न 19.
सर्वाधिक विश्वसनीय जन्म साखी कौन-सी है?
उत्तर-
पुरातन जन्म साखी।

प्रश्न 20.
ज्ञान रत्नावली का श्यथिता कौन था?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 21.
भाई बाला जी कौन थे?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के बचपन के साथी।

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प्रश्न 22.
हुक्मनामे क्या हैं ?
उत्तर-
‘हुक्मनामे’ का अर्थ है-आज्ञा पत्र।

प्रश्न 23.
गुरु तेग़ बहादुर जी के कितने हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं ?
उत्तर-
23.

प्रश्न 24.
सर्वाधिक हुक्मनामे किस गुरु साहिबान के प्राप्त होते हैं?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी।

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प्रश्न 25.
गुरु गोबिंद सिंह जी के कितने हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं ?
उत्तर-
34.

प्रश्न 26.
अब तक प्राप्त हुक्मनामों की कुल संख्या बताएँ।
उत्तर-
89.

प्रश्न 27.
सेनापत कौन था ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबार का एक प्रसिद्ध कवि।

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प्रश्न 28.
सिखाँ दी भमतमाला पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी ।

प्रश्न 29.
रत्न सिंह भंगू ने प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना कब की थी ?
उत्तर-
1841 ई० ।

प्रश्न 30.
प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना किसने की ?
उत्तर-
रत्न सिंह भंगू।

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प्रश्न 31.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना किसने की ?
उत्तर-
भाई संतोख सिंह जी।

प्रश्न 32.
‘बंसावलीनामा’ की रचना किसने की थी ?
उत्तर-
केसर सिंह छिब्बड़।

प्रश्न 33.
तुजक-ए-बाबरी का लेखक कौन था ?
उत्तर-
बाबर।

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प्रश्न 34.
अकबर के दरबार का सबसे प्रसिद्ध विद्वान् कौन था ?
उत्तर-
अबुल फज़ल.

प्रश्न 35.
आइन-ए-अकबरी तथा अकबरनामा की रचना किसने की ?
उत्तर-
अबुल फज़ल।

प्रश्न 35.
जहाँगीर की आत्म-कथा का नाम लिखो
उत्तर-
तुज़क-ए-जहाँगीरी।

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प्रश्न 37.
श्री गुरुसोभा का लेखक कौन था ?
उत्तर-
सेनापत।

प्रश्न 38.
खाफ़ी खाँ द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
मुंतखिब-उल-लुबाब।

प्रश्न 39.
जंगनामा का लेखक कौन था?
अथवा
‘जंगनामा’ पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
काज़ी नूर मुहम्मद।

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प्रश्न 40.
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल से संबंधित जानकारी देने वाले फ़ारसी के किसी एक प्रसिद्ध स्रोत के नाम बताएँ ।
उत्तर-
उमदत-उत-तवारीख।

प्रश्न 41.
महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी इतिहासकार कौन था?
अथवा
उमदत-उत-तवारीख का लेखक कौन था ?
उत्तर-
सोहन लाल सूरी।

प्रश्न 42.
सोहन लाल सूरी द्वारा रचित प्रसिद्ध रचना का नाम लिखें।
उत्तर-
उमदत-उत तवारीख।

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प्रश्न 43.
जफ़रनामा-ए-रणजीत सिंह का लेखक कौन था ?
उत्तर-
दीवान अमरनाथ।

प्रश्न 44.
तवारीख-ए-सिखाँ की रचना किसने की ?
उत्तर-
खुशवक्त राय ने।

प्रश्न 45.
तवारीख-ए-पंजाब का लेखक कौन था ?
उत्तर-
बूटे शाह।

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प्रश्न 46.
चार-बाग़-ए-पंजाब पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
गणेश दास वडेहरा।

प्रश्न 47.
भट्ट वहियें क्या थी ?
उत्तर-
भट्टों द्वारा संकलित ब्यौरा।

प्रश्न 48.
भट्ट वहियों की खोज किसने की ?
उत्तर-
ज्ञानी गरजा सिंह ने।

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प्रश्न 49.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड का संकलन किसने किया था ?
उत्तर-
सीता राम कोहली।

प्रश्न 50.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड से हमें किस काल के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह।

प्रश्न 51.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड किस भाषा में हैं ?
उत्तर-
फ़ारसी।

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प्रश्न 52.
जे० डी० कनिंघम की प्रसिद्ध रचना का नाम बताएँ।
उत्तर-
हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्।

प्रश्न 53.
स्कैच ऑफ द सिखस् का लेखक कौन था ?
उत्तर-
मैल्कोम।

प्रश्न 54.
द कोर्ट ऑफ कैंप ऑफ रणजीत सिंह का लेखक कौन था ?
उत्तर-
विलियम उसबोर्न।

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प्रश्न 55.
डाक्टर मरे ने किस पुस्तक की रचना की ?
उत्तर-
हिस्ट्री ऑफ द पंजाब।

प्रश्न 56.
सिख गुरुओं द्वारा निर्मित किसी एक प्रसिद्ध नगर का नाम बताएँ।
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 57.
सिखों के सर्वप्रथम सिक्के किसने जारी किए थे ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर ने।

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प्रश्न 58.
बंदा सिंह बहादुर ने किन गुरुओं के नाम पर सिक्के चलाए ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिंद सिंह जी।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
सिख गुरु साहिबान के इतिहास से संबंधित हमारा मुख्य स्रोत…….है।
उत्तर-
(जन्म साखियाँ)

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन……..में हुआ।
उत्तर-
(1604 ई०)

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प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन……ने किया था।
उत्तर-
(गुरु अर्जन साहिब जी)

प्रश्न 4.
………ने दशम ग्रंथ साहिब का संकलन किया।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

प्रश्न 5.
दशम ग्रंथ का संबंध……..से है।
उत्तर-
(गुरु गोबिंद सिंह जी)

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प्रश्न 6.
गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा का नाम……है।
उत्तर-
(बचित्तर नाटक)

प्रश्न 7.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए पत्र का नाम……..है।
उत्तर-
(ज़फ़रनामा)

प्रश्न 8.
भाई गुरदास जी ने कुल…….वारों की रचना की।
उत्तर-
(39)

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प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को……कहा जाता है।
उत्तर-
(जन्म साखियाँ)

प्रश्न 10.
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी को………भी कहा जाता है।
उत्तर-
(ज्ञान रत्नावली)

प्रश्न 11.
हुक्मनामों से भाव………है।
उत्तर-
(आज्ञा-पत्र)

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प्रश्न 12.
……..ने श्री गुरसोभा की रचना की।
उत्तर-
(सेनापत)

प्रश्न 13.
भाई मनी सिंह जी ने……..की रचना की।
उत्तर-
(सिखाँ दी भगत माला)

प्रश्न 14.
प्राचीन पंथ प्रकाश का लेखक………था।
उत्तर-
(रतन सिंह भंगू)

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प्रश्न 15.
तवारीख गुरु खालसा का लेखक……….था।
उत्तर-
(ज्ञानी ज्ञान सिंह)

प्रश्न 16.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना……….ने की।
उत्तर-
(भाई संतोख सिंह)

प्रश्न 17.
ज्ञान रत्नावली का लेखक……….था।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

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प्रश्न 18.
बाबर की आत्मकथा को……..कहा जाता है।
उत्तर-
(तुज़क-ए-बाबरी)

प्रश्न 19.
……….ने आइन-ए-अकबरी और अकबर नामा की रचना की।
उत्तर-
(अबुल फज़ल)

प्रश्न 20.
तुज़क-ए-जहाँगीरी…….की आत्मकथा है।
उत्तर-
(जहाँगीर)

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प्रश्न 21.
……….ने मुतंखिब-उल-लुबाब की रचना की।
उत्तर-
(खाफी खाँ)

प्रश्न 22.
……की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी।
उत्तर-
(जंगनामा)

प्रश्न 23.
……..महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी इतिहासकार था।
उत्तर-
(सोहन लाल सूरी)

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प्रश्न 24.
सोहन लाल सूरी ने…….की रचना की।
उत्तर-
(उमदत-उत-तवारीख)

प्रश्न 25.
बूटे शाह ने…….की रचना की।
उत्तर-
(तवारीख-ए-पंजाब)

प्रश्न 26.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह की रचना…..ने की थी।
उत्तर-
(दीवान अमरनाथ)

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प्रश्न 27.
गणेश दास वडेहरा ने……..की रचना की।
उत्तर-
(चार बाग़-ए-पंजाब)

प्रश्न 28.
द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह का लेखक……..था।
उत्तर-
(विलियम उसबोर्न)

प्रश्न 29.
जे० डी० कनिंघम ने…….की रचना की।
उत्तर-
(हिस्ट्री ऑफ द सिखस्)

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प्रश्न 30.
…………ने सिख राज के प्रथम सिक्के जारी किए।
उत्तर-
(बंदा सिंह बहादुर)

(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी को सिखों का सर्वोच्च और पवित्र ग्रंथ माना जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 3.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
गुरु गोबिंद सिंह द्वारा लिखी गई आत्मकथा का नाम ज़फ़रनामा है।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 5.
भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन के साथ संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी को ज्ञान रत्नावली भी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 9.
हुक्मनामे वह आज्ञा पत्र थे जो सिख गुरुओं या गुरु घरानों के साथ संबंधित सदस्यों ने सिख संगतों के नाम पर जारी किए।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
श्री गुरसोभा की रचना सेनापत ने 1741 ई० में की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
सिखाँ दी भगतमाला की रचना भाई मनी सिंह ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 12.
गुरप्रताप सूरज ग्रंथ की रचना भाई संतोख सिंह ने की।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
प्राचीन पंथ प्रकाश का लेखक ज्ञानी ज्ञान सिंह था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
बाबर की आत्मकथा को तुज़क-ए-बाबरी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 15.
माइन-ए-अकबरी और अकबरनामा का लेखक अबुल फज़ल था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
तुज़क-ए-जहाँगीरी की रचना शाहजहाँ ने की थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 17.
खुलासत-उत-तवारीख की रचना सुजान राय भंडारी ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 18.
जंगनामा का लेखक काजी नूर मुहम्मद था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
उमदत-उत-तवारीख का लेखक सोहन लाल सूरी था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह की रचना दीवन अमरनाथ ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 21.
चार बाग-ए-पंजाब की रचना गणेश दास वडेहरा ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 22.
खालसा दरबार रिकॉर्ड गुरमुखी भाषा में लिखा गया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 23.
‘स्केच ऑफ द सिखस्’ की रचना मैल्कोम ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 24.
‘द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह’ की रचना विलियम उसबोर्न ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
‘हिस्ट्री ऑफ द सिखस्’ का लेखक जे० डी० कनिंघम था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब हुआ ?
(i) 1601 ई० में
(ii) 1602 ई० में
(iii) 1604 ई० में
(iv) 1605 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 3.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था ?
(i) गुरु गोबिंद सिंह जी ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा दीप सिंह जी ने
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 4.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संबंध किस गुरु के साथ है ?
(i) पहले गुरु के साथ
(ii) तीसरे गुरु के साथ
(iii) पाँचवें गुरु के साथ
(iv) दशम गुरु के साथ।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 5.
ज़फ़रनामा किस गुरु साहिब ने लिखा था ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने ।
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 6.
बचित्तर नाटक क्या है ?
(i) गुरु नानक देव जी की आत्म-कथा
(ii) गुरु हरगोबिंद जी की आत्म-कथा
(iii) गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्म-कथा
(iv) बंदा सिंह बहादर की आत्म-कथा।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 7.
भाई गुरदास जी ने कुल कितनी वारों की रचना की ?
(i) 15
(ii) 20
(iii) 29
(iv) 39
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 8.
पुरातन जन्म साखी का संपादन किसने किया ?
(i) भाई काहन सिंह नाभा ने
(ii) भाई वीर सिंह ने
(iii) भाई मनी सिंह जी ने
(iv) मेहरबान ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
ज्ञान रत्नावली का रचयिता कौन था ?
(i) केसर सिंह छिब्बर
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) भाई बाला जी
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
मेहरबान वाली जन्म साखी का लेखक कौन था ?
(i) मनोहर दास
(ii) अकिल दास
(iii) भाई बाला जी
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 11.
हुक्मनामे क्या हैं ?
(i) सिख गुरुओं के आज्ञा-पत्र
(ii) सबसे प्रसिद्ध जन्म साखी
(iii) मुग़ल बादशाहों के आदेश
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
श्री गुरसोभा का रचयिता कौन था ?
(i) भाई मनी सिंह जी
(ii) रत्न सिंह भंगू
(iii) सेनापत
(iv) ज्ञानी ज्ञान सिंह।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 13.
बंसावली नामा की रचना किसने की थी ?
(i) केसर सिंह छिब्बड़ ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) भाई गुरदास जी ने
(iv) रतन सिंह भंगू ने।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 14.
सिखाँ दी भगतमाला की रचना किसने की ?
(i) भाई मनी सिंह जी ने
(ii) भाई दया सिंह ने
(iii) भाई संतोख सिंह ने
(iv) रत्न सिंह भंगू ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना किसने की ?
(i) सरूप दास भल्ला
(ii) भाई संतोख सिंह
(iii) रत्न सिंह भंगू
(iv) ज्ञानी ज्ञान सिंह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 16.
रल सिंह भंगू ने प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना कब की थी ?
(i) 1641 ई० में
(ii) 1741 ई० में
(ii) 1841 ई० में ।
(iv) 1849 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 17.
तवारीख गुरु खालसा का लेखक कौन था ?
(i) ज्ञानी ज्ञान सिंह
(ii) भाई संतोख सिंह
(iii) रत्न सिंह भंगू
(iv) भाई मनी सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
तुजक-ए-बाबरी का संबंध किस बादशाह से है ?
(i) हुमायूँ से
(ii) बाबर से
(iii) जहाँगीर से
(iv) अकबर से।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 19.
बाबर ने तुजक-ए-बाबरी की रचना किस भाषा में की थी ?
(i) फ़ारसी भाषा
(ii) तुर्की भाषा
(ii) उर्दू भाषा
(iv) अरबी भाषा।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 20.
आइन-ए-अकबरी तथा अकबरनामा की रचना किसने की ?
(i) अबुल फज़ल
(ii) सुजान राय भंडारी
(iii) सोहन लाल सूरी
(iv) काजी नूर मुहम्मद।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 21.
तुज़क-ए-जहाँगीरी की रचना किसने की ?
(i) बाबर
(ii) जहाँगीर
(iii) शाहजहाँ
(iv) औरंगजेब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 22.
खुलासत-उत-तवारीख की रचना किसने की ?
(i) सुजान राय भंडारी
(ii) काजी नूर मुहम्मद
(iii) खाफ़ी खाँ
(iv) सोहन लाल सूरी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 23.
खाफी खाँ ने किस प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की थी ?
(i) दबिस्तान-ए-मज़ाहिब
(ii) जंगनामा
(iii) खुलासत-उत-तवारीख
(iv) मुंतखिब-उल-लुबाब।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 24.
जंगनामा की रचना किसने की ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) काजी नूर मुहम्मद
(iii) खाफ़ी खाँ
(iv) अबुल फज़ल।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 25.
महारा जा रणजीत सिंह के दरबारी इतिहासकार सोहन लाल सूरी ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
(i) उमदत-उत-तवारीख
(ii) तवारीख-ए-सिखाँ
(iii) तवारीख-ए-पंजाब
(iv) इबरतनामा।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 26.
खुशवक्त राय ने तवारीख-ए-सिखाँ की रचना कब की थी ?
(i) 1764 ई० में
(ii) 1784 ई० में
(iii) 1811 ई० में
(iv) 1821 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 27.
तवारीख-ए-सिखाँ की रचना किसने की ?
(i) दीवान अमरनाथ
(ii) खुशवक्त राय
(iii) सोहन लाल सूरी
(iv) बूटे शाह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 28.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह के रचयिता कौन थे ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) दीवान अमरनाथ
(iii) अलाउदीन मुफ़ती
(iv) काजी नूर मुहम्मद।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 29.
गणेश दास वडेहरा की प्रसिद्ध पुस्तक का क्या नाम था ?
(i) तवारीख-ए-पंजाब
(ii) तवारीख-ए-सिखाँ
(iii) चार बाग़-ए-पंजाब
(iv) इबरतनामा।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 30.
खालसा दरबार रिकॉर्ड किस भाषा में है ?
(i) अंग्रेज़ी
(ii) फ़ारसी
(iii) उर्दू
(iv) पंजाबी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 31.
मैल्कोम ने स्केच ऑफ द सिखस् की रचना कब की थी ?
(i) 1802 ई० में
(ii) 1812 ई० में
(iii) 1822 ई० में
(iv) 1832 ई० में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 32.
द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह नाम की प्रसिद्ध पुस्तक का लेखक कौन था ?
(i) एच० टी० प्रिंसेप
(ii) विलियम उसबोर्न
(iii) डॉक्टर मैकग्रेगर
(iv) जे० डी० कनिंघम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 33.
निम्नलिखित में से हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस् का लेखक कौन था ?
(i) जे० डी० कनिंघम
(ii) अलैग्जेंडर बर्नज
(iii) डॉक्टर मरे
(iv) मैलकोम।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 34.
सिखों के सर्वप्रथम सिक्के किसने जारी किए थे ?
(i) गुरु गोबिंद सिंह जी ने
(ii) बंदा सिंह बहादुर ने
(iii) जस्सा सिंह आहलूवालिया
(iv) महाराजा रणजीत सिंह ने।
उत्तर-
(ii)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों की रचना करते समय पेश आने वाली मुश्किलों के बारे में बताएं।
(Explain the problems being faced for constructing the history of Punjab.)
अथवा
पंजाब के इतिहास को समझने में इतिहासकारों को किन छः मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(Which six problems are faced by the historians in understanding the history of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें कौन-सी मुख्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What are the main problems regarding the historical sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें कौन-सी छः मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(What six difficulties do we face regarding the historical sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास का संकलन करने के लिए विद्यार्थियों को कौन-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What problems are faced by the students in composing the history of the Punjab ?)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना करने में इतिहासकारों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला-औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद पंजाब में एक ऐसा दौर आया जो पूरी तरह से अशाँति तथा अराजकता से भरा हुआ था। सिखों को अपनी रक्षा के लिए पहाड़ों एवं वनों में जाकर शरण लेनी पड़ती थी। अतः ऐसे वातावरण में इतिहास लेखन का कार्य कैसे संभव था।

2. मुस्लिम इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण विचार-पंजाब के इतिहास को लिखने में सबसे अधिक जिन स्रोतों की सहायता ली गई है वे हैं फ़ारसी में लिखे गए ग्रंथ। इन ग्रंथों को मुसलमान लेखकों ने लिखा है जो सिखों के कट्टर दुश्मन थे। इन ग्रंथों को बड़ी जाँच-पड़ताल से पढ़ना पड़ता है क्योंकि इन इतिहासकारों ने अधिकतर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। अतः इन ग्रंथों को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

3. ऐतिहासिक स्रोतों का नष्ट होना-18वीं शताब्दी के लगभग 7वें दशक तक पंजाब में अशांति एवं अराजकता का वातावरण रहा। 1739 ई० में नादिर शाह तथा 1747 से 1767 ई० तक अहमद शाह अब्दाली के 8 आक्रमणों के कारण पंजाब की स्थिति अधिक शोचनीय हो गई थी। ऐसे समय जब सिखों के अनेक धार्मिक ग्रंथ नष्ट हो गए। इस कारण सिखों को अपने अनेक अमूल्य ग्रंथों से वंचित होना पड़ा।

4. अखोजित ऐतिहासिक स्रोत–अनेक सिख परिवारों तथा जागीरदारों के पास सिख मिसलों तथा महाराजा रणजीत सिंह के समय के पट्टे, निजी चिट्टियाँ, भट्ट वहियाँ तथा शास्त्र इत्यादि संदूकों में बंद पड़े हैं। ये लोग इनकी ऐतिहासिक महत्ता से वाकिफ नहीं हैं। इस कारण ये स्रोत अभी तक बिना खोज के ही पड़े हैं।

5. पंजाब मुग़ल साम्राज्य का एक भाग-पंजाब 1752 ई० तक मुग़ल साम्राज्य का भाग रहा था। इस कारण इसका कोई अलग से इतिहास न लिखा गया। आधुनिक इतिहासकारों को मुग़ल काल में लिखे गए साहित्य से पंजाब की बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है। अतः पर्याप्त विवरण के अभाव में पंजाब के इतिहास की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं की जा सकती।

6. पंजाब का बँटवारा-1947 ई० में भारत के बँटवारे के साथ-साथ पंजाब को भी दो भागों में विभाजित किया गया। इस बँटवारे के कारण अनेक ऐतिहासिक भवन एवं बहुमूल्य ग्रंथ पाकिस्तान में ही रह गए। इन के अतिरिक्त विभाजन के समय हुई भयंकर लूटमार के कारण बहुत-से ऐतिहासिक स्रोत नष्ट हो गए।

प्रश्न 2.
हुक्मनामों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Hukamnamas.)
उत्तर-
हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। अब तक 89 हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। गुरु गोबिंद सिंह जी के हुक्मनामों में तिथियों का वर्णन किया गया है। ये तिथियाँ ऐतिहासिक पक्ष से महत्त्वपूर्ण हैं। एक हुक्मनामे में गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख संगतों को निर्देश दिया है कि वो गुरु घर को भेजी जाने वाली रसद अथवा धन को मसंदों द्वारा भेजने की अपेक्षा स्वयं आकर जमा करवाएँ। उन्होंने अपने अंतिम हुक्मनामे में पंजाब के सिखों को यह आदेश दिया था कि वह बंदा सिंह बहादुर को अपना सैनिक नेता स्वीकार करें तथा उसे यथा संभव सहयोग दें। इनके अतिरिक्त अन्य हुक्मनामे गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिंद जी, गुरु हर राय जी, गुरु हरकृष्ण जी, माता गुजरी जी, माता सुंदरी जी, माता साहिब देवां जी, बाबा गुरदित्ता जी तथा बंदा सिंह बहादुर से संबंधित थे। ये हुक्मनामे गुरु साहिबान के समय के राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक और आर्थिक दशा पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। सिख इन हुक्मनामों को परमात्मा का आदेश समझ कर उनकी पालना करते थे। इनकी पालना के लिए वे अपना जीवन कुर्बान करने में गर्व महसूस करते थे। इन हुक्मनामों को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर द्वारा छपवाया गया है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 3.
सिखों के धार्मिक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों का वर्णन करें। ‘
(Give a brief account of the important historical sources related to religious literature of the Sikhs.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के लिए धार्मिक साहित्य पर आधारित महत्त्वपूर्ण स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of important sources based on religious literature of Punjab History.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। इस का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. आदि ग्रंथ साहिब जी-आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिबान्, हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी सम्मिलित है। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित कर ली गई। आदि ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

2. दशम ग्रंथ साहिब जी दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है।

3. भाई गुरदास जी की वारें-भाई गुरदास जी एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

4. जन्म साखियाँ-गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में बहत-सी जन्म साखियों की पंजाबी में रचना हुई। इन जन्म साखियों में पुरातन जन्म साखी, भाई मेहरबान वाली जन्म साखी, भाई बाला जी की जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी महत्त्वपूर्ण

5. हुक्मनामे–हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश के सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की मांग की गई थी।

प्रश्न 4.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है ? चार मुख्य जन्म साखियों का वर्णन करें। (What is meant by Janam Sakhis ? Explain briefly the four Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियों के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे एक नोट लिखें। . (Write a note on the historical importance of Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियाँ क्या हैं ? भिन्न-भिन्न जन्म साखियों का महत्त्व बताएँ।
(What do you understand by Janam Sakhis ? What is the importance of different Janam Sakhis ?).
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ कहा जाता है।—

  1. पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था। यह जन्म साखी सबसे प्राचीन है और काफ़ी विश्वसनीय भी।
  2. मेहरबान वाली जन्म साखी की रचना पृथी चंद के सपत्र मेहरबान ने की थी। गुरु घर से संबंधित होने के कारण मेहरबान गुरु नानक देव जी के जीवन से भली-भाँति परिचित था। उसने गुरु नानक देव जी की उदासियों का विस्तृत वर्णन किया है। यह जन्म साखी भी काफ़ी विश्वसनीय मानी जाती है।
  3. भाई बाला की जन्म साखी की रचना गुरु नानक देव जी के साथी बाला जी ने की थी। इस जन्म साखी में बहुत-सी मनगढंत बातों को सम्मिलित किया गया है लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। इसलिए यह जन्म साखी अधिक लाभप्रद नहीं है।
  4. ज्ञान रत्नावली नामक जन्म साखी की रचना भाई मनी सिंह जी ने की थी। ऐतिहासिक पक्ष से यह साखी बहुत विश्वसनीय है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों को सही रूप में प्रस्तुत किया गया है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 5.
भाई गुरदास जी की वारों के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Vars of Bhai Gurdas Ji ?)
अथवा
भाई गुरदास जी भल्ला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Bhai Gurdas Ji Bhalla.)
उत्तर-
भाई गुरदास भल्ला (1581-1635 ई०) गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला जी के पुत्र थे। वह तीसरे, चौथे, पाँचवें तथा छठे गुरुओं के समकालीन थे। वह एक उच्चकोटि के कवि एवं लेखक थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। ये वारें पंजाबी भाषा में लिखी गई हैं। गुरु ग्रंथ साहिब के शब्दों के भावों को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इन वारों का अध्ययन करना आवश्यक है। इसी कारण इन वारों को ‘गुरु ग्रंथ साहिब की कुंजी’ कहा जाता है। इन वारों से हम सिखों के प्रथम 6 गुरुओं के जीवन, सिख धर्म की शिक्षाओं, महत्त्वपूर्ण सिखों तथा नगरों के नाम, भक्तों तथा संतों के जीवन से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त करते हैं । ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा ग्यारहवीं वार बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जन्म से पूर्व संसार की दशा का वर्णन करते हुए गुरु नानक देव जी के आगमन की आवश्यकता, उनके जीवन से संबंधित प्रमुख घटनाओं की विस्तृत जानकारी दी है। इसके पश्चात् गुरु अंगद देव जी से लेकर गुरु हरगोबिंद जी तक का संक्षिप्त वर्णन दिया गया है। ग्यारहवीं वार में गुरु साहिबान से संबंधित प्रमुख सिखों के बारे में, उनके नामों के बारे में, उनके व्यवसायों के बारे में, जातियों तथा स्थानों आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।

प्रश्न 6.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में ‘आदि ग्रंथ साहिब’ जी का क्या महत्त्व है ?
(Describe the importance of ‘Adi Granth Sahib Ji’ as a source of the History of Punjab.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के ऊपर नोट लिखें।
(Write a note on Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी और इसके ऐतिहासिक महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief description of Adi Granth Sahib Ji and its historical importance.)
उत्तर-
1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य था।

1. संकलन की आवश्यकता-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, सिखों के नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथिया ने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की बाणी कहकर प्रचलित करनी आरंभ कर दी थी। गुरु अर्जन देव जी गुरु साहिबान की बाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे। तीसरा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची बाणी पढ़ने के लिए कहा था।

2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य अमृतसर के रामसर नामक एक स्थान पर किया गया। गुरु अर्जन देव जी वाणी लिखवाते गए और भाई गुरदास जी इसे लिखते गए। यह महान् कार्य अगस्त, 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश हरिमंदिर साहिब जी में किया गया। बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।

3. आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वाले-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों का वर्णन निम्नलिखित है

i) सिख गुरु-आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शब्द अंकित हैं। बाद में गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शब्द एवं श्लोक सम्मिलित किए गए।

ii) भक्त एवं संत-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की बाणी अंकित की गई है। प्रमख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, भक्त फ़रीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानंद जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शब्द हैं।

iii) भट्ट-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भट्टों के 123 सवैये भी अंकित किए गए हैं। कुछ प्रमुख भट्टों के नाम ये हैं-कलसहार जी, नल जी, बल जी, भिखा जी और हरबंस जी।

4. आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए हैं। इसकी बाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातृत्व का संदेश देती है। आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें 16वीं एवं 17वीं शताब्दियों के पंजाब के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दशा की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

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प्रश्न 7.
दशम ग्रंथ साहिब जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Dasam Granth Sahib ?)
अथवा
दशम ग्रंथ साहिब पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Dasam Granth Sahib.)
उत्तर-
दशम ग्रंथ साहिब सिखों का एक अन्य पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी तथा उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। इसका उद्देश्य मुख्य रूप से राजनीतिक तथा धार्मिक अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सिखों में जोश उत्पन्न करना था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें से ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तत’, ‘चंडी दी वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शबद हज़ारे’, ‘शस्त्रनामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘जफ़रनामा’ इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक पक्ष से बचित्तर नाटक और ज़फ़रनामा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखित आत्मकथा है। यह बेदी और सोढी जातियों के प्राचीन इतिहास, गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान और गरु गोबिंद सिंह जी की पहाड़ी राजाओं के साथ लड़ाइयों को जानने के संबंध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जफ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना काँगड़ नामक स्थान पर की थी। यह एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में औरंगज़ेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सैनापतियों के द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी से धोखा करने का उल्लेख बहुत साहूस और निर्भीकता से किया है। दशम ग्रंथ साहिब वास्तव में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन एवं कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत

प्रश्न 8.
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई छः ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण दें। (Give a brief account of six historical sources written in 18th century in Punjabi.)
उत्तर-
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

श्री गुरसोभा-श्री गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में उसने 1699 ई० में, जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, से लेकर 1708 ई० तक जब गुरु गोबिंद सिंह जी ज्योति-जोत समाए थे, की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया

2. सिखाँ दी भगतमाला-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रंथ को भगत रत्नावली भी कहा जाता है। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम, जातियों तथा उनके निवास स्थान और उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

3. बंसावली नामा-बंसावली नामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बर ने की थी। इसमें गुरु साहिबान से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक का इतिहास वर्णित किया गया है। सिख गुरुओं की तुलना में यह ग्रंथ बाद के इतिहास के लिए अधिक विश्वसनीय है।

4. महिमा प्रकाश-महिमा प्रकाश की दो रचनाएँ हैं। प्रथम का नाम महिमा प्रकाश वारतक और द्वितीय का नाम महिमा प्रकाश कविता है।

  • महिमा प्रकाश वारतक-इस पुस्तक की रचना 1741 ई० में कृपाल चंद ने की थी। इसमें गुरु साहिबान के जीवन का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है।
  • महिमा प्रकाश कविता-इस पुस्तक की रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

5. प्राचीन ग्रंथ प्रकाश-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रतन सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इस पुस्तक में तथ्यों का वर्णन क्रमानुसार और प्रमाणिक किया गया है।

6. तवारीख गुरु खालसा-इस ग्रंथ की रचना ज्ञानी ज्ञान सिंह ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 1849 ई० तक सिख राज्य के अंत तक की घटनाओं का वृत्तांत दिया गया है।

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प्रश्न 9.
पंजाब के इतिहास से संबंधित फ़ारसी के किन्हीं छः स्रोतों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of six important Persian sources of the History of Punjab.)
अथवा
फ़ारसी के मुख्य ऐतिहासिक स्रोतों का संक्षेप में वर्णन करें जो कि पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
(Give a brief mention of the important Persian sources which are essential for composing the History of Punjab.)
उत्तर-
1. आइन-ए-अकबरी की रचना अकबर के विख्यात दरबारी इतिहासकार अबुल फज़ल ने की थी। यह अकबर के सिख गुरुओं के साथ संबंधों को जानने के लिए हमारा मुख्य स्रोत है। इसके अतिरिक्त इससे हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक दशा के संबंध में भी कुछ जानकारी प्राप्त होती है।

2. तुजक-ए-जहाँगीरी मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा लिखित आत्मकथा है। इससे हमें गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। इसे पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु अर्जन देव जी को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया था।

3. जंगनामा की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी। वह 1764 ई० में अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमण के समय उसके साथ आया था। इस पुस्तक में उसने अब्दाली के साथ आक्रमण का आँखों देखा हाल और सिखों की युद्ध करने की विधि और उनके चरित्र के संबंध में वर्णन किया है।

4. उमदत-उत-तवारीख का लेखक महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी सोहन लाल सूरी था। इस ग्रंथ में उसने 1469 ई० से लेकर 1849 ई० तक के पंजाब के इतिहास का वर्णन किया है। यह महाराजा रणजीत सिंह के काल के लिए हमारा एक बहुत ही विश्वसनीय स्रोत है।

5. ज़फरनामा-ए-रणजीत सिंह-यह महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल से संबंधित एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसकी रचना दीवान अमरनाथ ने की थी। इस पुस्तक में महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल की 1837 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया गया है। कई इतिहासकार इस पुस्तक को उमदतउत्त-तवारीख से भी अधिक विश्वसनीय मानते हैं।

6. चार बाग़-ए-पंजाब-इस पुस्तक की रचना 1855 ई० में गणेश दास वडेहरा ने की थी। इस पुस्तक में लेखक ने प्राचीन कालीन पंजाब से लेकर 1849 ई० तक पंजाब की घटनाओं का वर्णन किया है।

प्रश्न 10.
पंजाब के इतिहास की जानकारी देने वाले छः महत्त्वपूर्ण अंग्रेजी स्रोतों पर प्रकाश डालें। (Mention six important English sources which throw light on the History of Punjab.)
अथवा
अंग्रेज़ी में लिखे पंजाब के इतिहास के बारे में जानकारी देने वाले महत्त्वपूर्ण स्रोतों पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the important sources of information on Punjab History written in English.)
उत्तर-
1. द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह-इस पुस्तक की रचना 1840 ई० में कैप्टन विलियम उसबोर्न ने की थी। उसने अपनी पुस्तक में महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की भव्यता के संबंध में तथा सेना के संबंध में बहुत अधिक प्रकाश डाला है। ऐतिहासिक पक्ष से एक बहुत ही लाभप्रद स्रोत है।

2. हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब-इस पुस्तक की रचना 1842 ई० में मरे ने की थी। इसके दो भाग हैं। इनमें सिखों के इतिहास का बहुत विस्तृत रूप में वर्णन किया गया है। यह महाराजा रणजीत सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों से संबंधित बहुमूल्य स्रोत है।

3. हिस्ट्री ऑफ़ दि सिखस्-इसकी रचना डॉक्टर मैकग्रेगर ने की थी। यह 1846 ई० में लिखी गई थी तथा यह दो भागों में है। इसमें महाराजा रणजीत सिंह तथा सिखों की अंग्रेजों के साथ लड़ाइयों से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।

4. द पंजाब-इसकी रचना 1846 ई० में स्टाईनबख ने की थी। वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में उच्च पद पर नियुक्त था। इसलिए उसने अपनी रचना में महाराजा रणजीत सिंह की सेना से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण विवरण दिए हैं।

5. स्कैच ऑफ सिखस्- इसकी रचना 1812 ई० में मैल्कोम ने की थी। वह ब्रिटिश सेना में कर्नल था। वह 1805 ई० में होल्कर का पीछा करता हुआ पंजाब आया था। इसमें उसने सिखों का इतिहास से उनकी संस्थाओं से संबंधित जानकारी दी है।

6. हिस्ट्री ऑफ द सिखस्-इसकी रचना 1849 ई० में जे०डी० कनिंघम ने की थी। इसमें सिख इतिहास की बहुमूल्य जानकारी दी गई है।

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प्रश्न 11.
भारतीय अंग्रेज सरकार के रिकॉर्ड के ऐतिहासिक महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the historical importance of Records of British Indian Government.)
उत्तर-
भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के आरंभ से लेकर सिख राज्य के पतन तक (1799-1849 ई०) के इतिहास को जानने के लिए हमारा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लुधियाना एजेंसी तथा दिल्ली रेजीडेंसी के रिकॉर्ड पंजाब से संबंधित अमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। इनमें से अधिकतर रिकॉर्ड मर्रे, ऑकटरलोनी, रिचमोंड, मैकग्रेगर, निक्लसन, कनिंघम, प्रिंसेप तथा ब्रॉडफुट इत्यादि अंग्रेज़ अफसरों द्वारा लिखा गया है। इसमें से अधिकतर रिकॉर्ड भारत के राष्ट्रीय पुरालेख विभाग, दिल्ली में पड़ा हुआ है। इन रिकॉर्डों से हमें अंग्रेज़-सिख संबंधों, रणजीत सिंह के राज्य के बारे में, अंग्रेजों के सिंध तथा अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों के बारे में बहुत विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है। इनके अतिरिक्त भारत के अंग्रेज़ी गवर्नर-जनरलों की ओर से इंग्लैंड की सरकार, कंपनी के उच्च अधिकारियों तथा अपने मित्रों आदि को लिखे निजी पत्रों से भी पंजाब की घटनाओं के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड अंग्रेजों के पक्ष से लिखे गये थे, परंतु फिर भी ये हमारे लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

प्रश्न 12.
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों के महत्त्व की चर्चा करें। (Examine the importance of coins in the construction of the History of the Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों का विशेष महत्त्व है। पंजाब से हमें मुग़लों, बंदा सिंह बहादुर, जस्सा सिंह आहलूवालिया, अहमद शाह अब्दाली तथा महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के मिले हैं। ये सिक्के विभिन्न धातुओं से बने हुए हैं। इनमें से अधिकाँश सिक्के लाहौर, पटियाला एवं चंडीगढ़ के अजायबघरों में पड़े हैं। ये सिक्के तिथियों तथा शासकों संबंधी विवरण पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। बंदा सिंह बहादुर के सिक्के यह सिद्ध करते हैं कि वह गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिंद सिंह जी का बहुत आदर करता.था। जस्सा सिंह आहलूवालिया के सिक्के यह बताते हैं कि उसने अहमद शाह अब्दाली के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया था। महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि उसमें बहुत नम्रता थी तथा वह स्वयं को खालसा पंथ का सेवक मानता था। इन सिक्कों में दी गई जानकारी के आधार पर साहित्यिक स्रोतों में दी गई जानकारी की पुष्टि होती है। अतः ये सिक्के पंजाब के इतिहास की कई समस्याओं को सुलझाने में हमारी सहायता करते हैं।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
किसी भी देश के इतिहास को भली-भाँति समझने के लिए उसके ऐतिहासिक स्रोतों की जानकारी होना अत्यावश्यक है। स्रोत इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें बहुत-सी मुश्किलें पेश आती हैं। फलस्वरूप सही जानकारी प्राप्त करना बहुत कठिन है। 18वीं शताब्दी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा। अशांति और अराजकता के इस वातावरण में जब सिखों ने अपने अस्तित्व के लिए जीवन और मृत्यु का दाँव लगाया था अपना इतिहास लिखने का समय न निकाल पाए। पंजाब के अधिकतर स्रोत 19वीं शताब्दी से संबंधित हैं जब पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख राज्य की स्थापना की।

  1. इतिहास के विद्यार्थियों के लिए स्रोत आवश्यक क्यों हैं ?
  2. पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों संबंधी हमें कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
  3. कौन-सी सदी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा ?
  4. पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने कौन-सी सदी में स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की ?
  5. पंजाब के इतिहास के अधिकतर स्रोत ………. शताब्दी से संबंधित हैं।

उत्तर-

  1. किसी भी देश के इतिहास को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इतिहास के विद्यार्थियों के लिए स्रोत आवश्यक
  2. ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ मिथिहास की मिलावट की गई है।
  3. 18वीं सदी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा।
  4. पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने 19वीं सदी में स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की।
  5. 19वीं।

2
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब जी की वाणी सम्मिलित थी। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई तथा इसे गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। इसके अतिरिक्त इसमें बहुत-से हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी को भी सम्मिलित किया गया है। आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब को चाहे ऐतिहासिक उद्देश्य से नहीं लिखा गया था, परंतु इसके गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

  1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब तथा किसने किया ?
  2. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा किस गुरु साहिब ने दिया ?
  3. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है ?
  4. आदि ग्रंथ साहिब जी का कोई एक महत्त्व बताएँ।
  5. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. ने किया।

उत्तर-

  1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
  2. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा गुरु गोबिंद सिंह जी ने दिया था।
  3. गुरु ग्रंथ साहिब जी में 6 गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है।
  4. यह सर्व सांझीवाद का संदेश देता है।
  5. गुरु अर्जन देव जी।

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3
दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तति’, ‘चंडी दी वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शब्द हज़ारे’, ‘शस्त्र नामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ इत्यादि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ‘बचित्तर नाटक’ गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है। ज़फ़रनामा’ की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना नामक स्थान पर की थी। यह एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में औरंगजेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सेनापतियों द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी के साथ धोखा करने का उल्लेख बहुत साहस और निडरता से किया है। दशम ग्रंथ साहिब जी वास्तव में गुरु गोबिंद . सिंह जी के जीवन और कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत है।

  1. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था ?
  2. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था ?
    • 1604 ई०
    • 1701 ई०
    • 1711 ई०
    • 721 ई०।.
  3. बचित्तर नाटक क्या है ?
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए पत्र का नाम क्या है ?
  5. गुरु गोबिंद सिंह जी ने जफ़रनामा में क्या लिखा था ?

उत्तर-

  1. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन भाई मनी सिंह जी ने किया था।
  2. 1721 ई०।
  3. बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा का नाम है।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगज़ेब को लिखे गए पत्र का नाम जफ़रनामा है।
  5. इसमें औरंगजेब के अत्याचारों का वर्णन किया गया है।

4
भाई गुरदास जी गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला के पुत्र थे। वे गुरु अर्जन देव जी और गुरु हरगोबिंद जी के समकालीन थे। वह एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से 1 वार तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इस वार में गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी, गुरु अर्जन देव जी तथा गुरु हरगोबिंद जी के जीवन का ब्योरा दिया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

  1. भाई गुरदास जी कौन थे ?
  2. भाई गुरदास जी ने कितनी वारों की रचना की ?
  3. भाई गुरदास जी की ………. वार में गुरु नानक देव जी के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
  4. गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी किसे कहा जाता है ?
  5. भाई गुरदास जी की वारों का क्या महत्त्व है ?

उत्तर-

  1. भाई गुरदास जी गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला के पुत्र थे।
  2. भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की।
  3. प्रथम।
  4. भाई गुरदास जी की वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है।
  5. इनमें पहले 6 गुरु साहिबानों तथा उनसे संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों के नामों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

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गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को ‘जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं और 18वीं शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की रचना हुई। ये जन्म साखियाँ पंजाबी भाषा में लिखी गईं। ये जन्म साखियाँ इतिहास के विद्यार्थियों के लिए नहीं अपितु सिख धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए रचित की गईं। इन जन्म साखियों में अनेक दोष व्याप्त हैं। प्रथम, इनमें घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया। दूसरा, इन जन्म साखियों में घटनाओं के विवरण तथा तिथि क्रम में विरोधाभास मिलता है। तीसरा, ये जन्म साखियाँ गुरु नानक देव जी के ज्योतिजोत समाने के काफ़ी समय पश्चात् लिखी गईं। चौथा, इनमें तथ्यों एवं कल्पना का मिश्रण किया गया है। इन दोषों के बावजूद ये जन्म साखियाँ गुरु नानक देव जी के जीवन के संबंध में पर्याप्त.प्रकाश डालती हैं।

  1. जन्म साखियों से क्या भाव है ?
  2. जन्म साखियों की रचना किस भाषा में की गई है ?
  3. किन्हीं दो जन्म साखियों के नाम बताएँ।
  4. जन्म साखियों का कोई एक दोष लिखें।
  5. ………. और ……….. शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की रचना हुई।

उत्तर-

  1. जन्म साखियों से भाव है गुरु नानक देव जी के जन्म तथा जीवन से संबंधित कथाएँ।
  2. जन्म साखियों की रचना पंजाबी भाषा में की गई है।
  3. पुरातन जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी।
  4. इनमें घटनाओं का वर्णन क्रमानुसार नहीं किया गया है।
  5. 17वीं, 18वीं।

6
हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। 18वीं शताब्दी में पंजाब में व्याप्त अव्यवस्था के दौरान अनेक हुक्मनामे नष्ट हो गए। पंजाब के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर गंडा सिंह ने अपने अथक परिश्रम से 89 हुक्मनामों का संकलन किया। इनमें से 23 गुरु तेग बहादुर जी के तथा 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी के हैं। इनके अतिरिक्त, अन्य हुक्मनामे गुरु अर्जन साहिब, गुरु हरगोबिंद साहिब, गुरु हर राय जी, गुरु हरकृष्ण जी, माता गुजरी, माता सुंदरी, माता साहिब देवां, बाबा गुरदित्ता जी तथा बंदा सिंह बहादुर से संबंधित थे। इन हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान तथा समकालीन समाज से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

  1. हुक्मनामों से क्या भाव है ?
  2. हुक्मनामे क्यों जारी किए जाते हैं ?
  3. पंजाब के किस प्रसिद्ध इतिहासकार ने हुक्मनामों का संकलन किया ?
  4. हुक्मनामों का कोई एक महत्त्व बताएँ।
  5. अब तक कितने हुक्मनामे उपलब्ध हैं ?
    • 23
    • 24
    • 79
    • 89.

उत्तर-

  1. हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु घरानों से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों तथा व्यक्तियों के नाम पर जारी किए।
  2. हुक्मनामे गुरु घर के लंगर के लिए राशन, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए माया, लड़ाइयों के लिए घोड़े तथा शस्त्र आदि मंगवाने के लिए जारी किए जाते थे।
  3. गंडा सिंह ने।
  4. इनसे हमें गुरु साहिबानों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
  5. 89.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत PSEB 12th Class History Notes

  1. पंजाब के इतिहास संबंधी समस्याएँ (Difficulties Regarding the History of the Punjab)-मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखे गए फ़ारसी के स्रोतों में पक्षपातपूर्ण विचार प्रकट किए गए हैं—पंजाब में फैली अराजकता के कारण सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला— विदेशी आक्रमणों के कारण पंजाब के अमूल्य ऐतिहासिक स्रोत नष्ट हो गए-1947 ई० के पंजाब के बँटवारे कारण भी बहुत से ऐतिहासिक स्रोत नष्ट हो गए।
  2. स्त्रोतों के प्रकार (Kinds of Sources)-पंजाब के इतिहास से संबंधित स्रोतों के मुख्य तथ्य इस प्रकार हैं—
    • सिखों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस काल की सर्वाधिक प्रमाणित ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया-दशम ग्रंथ साहिब जी गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है—इसका संकलन भाई मनी सिंह जी ने 1721 ई० में किया-ऐतिहासिक पक्ष से इसमें ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं…भाई गुरदास जी द्वारा लिखी गई 39 वारों से हमें गुरु साहिबान के जीवन तथा प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों का पता चलता है—गुरु नानक देव जी के जीवन पर आधारित जन्म साखियों में पुरातन जन्म साखी, मेहरबान जन्म साखी, भाई बाला जी की जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी महत्त्वपूर्ण हैं—सिख गुरुओं से संबंधित हुक्मनामों से हमें समकालीन समाज की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है—गुरु गोबिंद सिंह जी के 34 हुक्मनामों तथा गुरु तेग़ बहादुर सिंह जी के 23 हुक्मनामों का संकलन किया जा चुका है।
    • पंजाबी और हिंदी में ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक रचनाएँ (Historical and SemiHistorical works in Punjabi and Hindi)—’गुरसोभा’ से हमें 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना से लेकर 1708 ई० तक की घटनाओं का आँखों देखा वर्णन मिलता है—गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबारी कवि सेनापत ने की थी—’सिखाँ दी भगतमाला’ से हमें सिख गुरुओं के काल की सामाजिक परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है—इसकी रचना भाई मनी सिंह जी ने की थी—केसर सिंह छिब्बड़ द्वारा रचित ‘बंसावली नामा’ सिख गुरुओं से लेकर 18वीं शताब्दी तक की घटनाओं का वर्णन है—भाई संतोख सिंह द्वारा लिखित ‘गुरप्रताप सूरज ग्रंथ’ तथा रत्न सिंह भंगू द्वारा लिखित ‘प्राचीन पंथ प्रकाश’ का भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में विशेष स्थान है।
    • फ़ारसी में ऐतिहासिक ग्रंथ (Historical Books in Persian)-मुग़ल बादशाह बाबर की रचना ‘बाबरनामा’ से हमें 16वीं शताब्दी के प्रारंभ के पंजाब की ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती हैअबुल फज़ल द्वारा रचित ‘आइन-ए-अकबरी’ और ‘अकबरनामा’ से हमें अकबर के सिख गुरुओं के साथ संबंधों का पता चलता है—मुबीद जुलफिकार अरदिस्तानी द्वारा लिखित ‘दबिस्तान-ए-मज़ाहिब’ में सिख गुरुओं से संबंधित बहुमूल्य ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है—सुजान राय भंडारी की ‘खुलासत-उत-तवारीख’, खाफी खाँ की ‘मुंतखिब-उल-लुबाब’ और काज़ी नूर मुहम्मद की ‘जंगनामा’ से हमें 18वीं शताब्दी के पंजाब की जानकारी प्राप्त होती है—सोहन लाल सूरी द्वारा रचित ‘उमदत-उततवारीख’ तथा गणेश दास वडेहरा द्वारा लिखित ‘चार बाग़-ए-पंजाब’ में महाराजा रणजीत सिंह के काल से संबंधित घटनाओं का विस्तृत विवरण है।
    • भट्ट वहियाँ (Bhat vahis)—भट्ट लोग महत्त्वपूर्ण घटनाओं को तिथियों सहित अपनी वहियों में दर्ज कर लेते थे—इनसे हमें सिख गुरुओं के जीवन, यात्राओं और युद्धों के संबंध में काफ़ी नवीन जानकारी प्राप्त होती है।
    • खालसा दरबार रिकॉर्ड (Khalsa Darbar Records)-ये महाराजा रणजीत सिंह के समय के सरकारी रिकॉर्ड हैं—ये फ़ारसी भाषा में हैं और इनकी संख्या 1 लाख से भी ऊपर है—ये महाराजा रणजीत सिंह के काल की घटनाओं पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
    • विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेजों की रचनाएँ (Writings of Foreign Travellers and Europeans) विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेजों की रचनाएँ भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं—इनमें जॉर्ज फोरस्टर की ‘ऐ जर्नी फ्राम बंगाल टू इंग्लैंड’, मैल्कोम की ‘स्केच ऑफ़ द सिखस्’, एच० टी० प्रिंसेप की ‘ओरिज़न ऑफ़ सिख पॉवर इन पंजाब’, कैप्टन विलियम उसबोर्न की ‘द कोर्ट एण्ड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह’, सटाईनबख की ‘द पंजाब’ और जे० डी० कनिंघम द्वारा रचित ‘हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्’ प्रमुख हैं।
    • ऐतिहासिक भवन, चित्र तथा सिक्के (Historical Buildings, Paintings and Coins)पंजाब के ऐतिहासिक भवन, चित्र तथा सिक्के पंजाब के इतिहास के लिए एक अमूल्य स्रोत हैं—खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, अमृतसर, तरनतारन, करतारपुर और पाऊँटा साहिब आदि नगरों, विभिन्न दुर्गों, गुरुद्वारों में बने चित्रों तथा सिख सरदारों के सिक्कों से तत्कालीन समाज पर विशेष प्रकाश पड़ता है।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

Punjab State Board PSEB 10th Class Social Science Book Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 10 Social Science Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

SST Guide for Class 10 PSEB भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं Textbook Questions and Answers

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक शब्द/एक पंक्ति (1-15 शब्दों) में दें

प्रश्न 1.
संविधान से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-
संविधान एक मौलिक कानूनी दस्तावेज़ या लेख होता है जिसके अनुसार देश की सरकार अपना कार्य करती है।

प्रश्न 2.
प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द क्या हैं?
उत्तर-
प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द हैं, “हम, भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष और लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित करते हैं।”

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान की एक मुख्य विशेषता बताएं।
उत्तर-
भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़े आकार वाला तथा विस्तृत संविधान है।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

प्रश्न 4.
संघात्मक संविधान की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-
संधात्मक संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
अथवा
संघात्मक संविधान देश में स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना करता है।

प्रश्न 5.
भारतीय नागरिकों के किसी एक अधिकार की सूची बनाएं।
उत्तर-
समानता का अधिकार अथवा स्वतन्त्रता का अधिकार अथवा धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न 6.
भारतीय नागरिकों का एक संवैधानिक कर्तव्य बताएं।
उत्तर-
संविधान तथा इसके आदर्शों का पालन करना और राष्ट्रीय ध्वज तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना।
अथवा
भारत की प्रभुसत्ता, एकता अथवा अखण्डता की रक्षा करना।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 50-60 शब्दों में दें

प्रश्न 1.
भारत एक धर्म-निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य है।
उत्तर-
संविधान द्वारा भारत में एक धर्म-निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य की स्थापना की गई है। धर्म-निरपेक्ष राज्य से अभिप्राय सभी धर्मों की समानता और स्वतन्त्रता से है। ऐसे राज्य में राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होता। धर्म के आधार पर नागरिकों से कोई भेदभाव नहीं किया जाता। सभी नागरिक स्वेच्छा से कोई धर्म अपनाने और उपासना करने में स्वतन्त्र होते हैं।

लोकतान्त्रिक राज्य से भाव है कि सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं और नागरिकों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि देश का शासन चलाते हैं।
गणराज्य से भाव है कि राज्य का अध्यक्ष कोई बादशाह नहीं होगा। वह चुनाव द्वारा निश्चित समय के लिए अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति होगा।

प्रश्न 2.
प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
संविधान की प्रस्तावना में भारतीय शासन प्रणाली के स्वरूप तथा इसके बुनियादी उद्देश्यों को निर्धारित किया गया है। ये उद्देश्य निम्नलिखित हैं

  1. भारत एक प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य होगा।
  2. सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिले।
  3. नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी।
  4. कानून के सामने सभी नागरिक समान समझे जाएंगे।
  5. लोगों में बन्धुत्व की भावना को बढ़ाया जाए ताकि व्यक्ति की गरिमा बढ़े और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता को बल मिले।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से किसी एक अधिकार की संक्षिप्त व्याख्या करें
(क) समानता का अधिकार
(ख) स्वतन्त्रता का अधिकार
(ग) शोषण के विरुद्ध अधिकार
(घ) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
उत्तर-
(क) समानता का अधिकार-भारतीय समाज शताब्दियों से विभिन्न असमानताओं से भरपूर रहा है। इसीलिए संविधान निर्माताओं ने समानता के अधिकार को प्राथमिकता दी है। भारतीय नागरिकों को इस अधिकार द्वारा निम्नलिखित बातों में समानता प्राप्त है —

  1. कानून के सामने समानता-कानून की दृष्टि से सभी नागरिक समान हैं। धर्म, नस्ल, जाति अथवा लिंग के आधार पर उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। रोज़गार या सरकारी पद देते समय सभी को समान अवसर दिये जाते हैं।
  2. भेदभाव पर रोक-सरकार जन्म स्थान, धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं करेगी। सरकारी सहायता से बनाए गए कुओं, तालाबों, स्नानघरों अथवा पर्यटन स्थलों पर बिना किसी भेदभाव के नागरिकों को आने-जाने की स्वतन्त्रता होगी।
  3. अवसर की समानता-राज्य के अधीन रोज़गार या पदों पर नियुक्ति के लिए सभी नागरिकों को समान अवसर दिए जाएंगे।
  4. छुआछूत पर रोक-सदियों से चली आ रही छुआछूत की कुप्रथा को समाप्त कर दिया गया है।
  5. उपाधियों तथा खिताबों की समाप्ति-सैनिक तथा शैक्षणिक उपाधियों के अतिरिक्त राज्य कोई अन्य उपाधि नहीं देगा।

(ख) स्वतन्त्रता का अधिकार-स्वतन्त्रता का अधिकार लोकतन्त्र का स्तम्भ है। संविधान में स्वतन्त्रता के अधिकार को दो भागों में बांटा गया है-साधारण और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता।
साधारण स्वतन्त्रता-इसके अनुसार भारतीय नागरिक को निम्नलिखित स्वतन्त्रताएं प्राप्त हैं —

  1. भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता।
  2. शान्तिपूर्वक एकत्र होने की स्वतन्त्रता।
  3. संघ स्थापित करने की स्वतन्त्रता।
  4. भारत के किसी भाग में आने-जाने की स्वतन्त्रता।
  5. भारत के किसी भी भाग में बस जाने की स्वतन्त्रता।
  6. कोई भी रोज़गार अपनाने अथवा व्यापार करने की स्वतन्त्रता।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता —

  1. व्यक्ति को ऐसे कानून की अवहेलना करने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता जो कानून अपराध करते समय लागू न था।
  2. किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दण्ड नहीं दिया जा सकता।
  3. किसी अपराधी को अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
  4. किसी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित विधि के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।

(ग) शोषण के विरुद्ध अधिकार —

  1. हमारे समाज में चिरकाल से निर्धन व्यक्तियों, स्त्रियों तथा बच्चों का शोषण होता चला आ रहा है। इसे समाप्त करने के लिए संविधान में शोषण के विरुद्ध अधिकार की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार
  2. मनुष्यों के व्यापार और बिना वेतन दिए ज़बरदस्ती श्रम करवाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। इसका उल्लंघन करने वाले को कानून के अनुसार दण्ड दिया जा सकता है, परन्तु सार्वजनिक सेवाओं के लिए राज्य अनिवार्य सेवा योजना लागू कर सकता है। यह सेवा अधिकार के विरुद्ध नहीं होगी।
  3. 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों, खानों या जोखिम भरी नौकरी पर नहीं लगाया जा सकता। वास्तव में उनसे कोई ऐसा कार्य नहीं लिया जा सकता जो उनके विकास में बाधा डाले।

(घ) संवैधानिक उपचारों का अधिकार-संविधान द्वारा नागरिकों को अधिकार प्रदान कर देना ही पर्याप्त नहीं है। इन अधिकारों का सम्मान करना तथा रक्षा करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसी उद्देश्य से भारतीय संविधान में – संवैधानिक उपचारों के अधिकार की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार यदि कोई राजकीय कार्य नागरिकों के अधिकारों के विरुद्ध हो तो नागरिक उसे अदालत में चुनौती दे सकते हैं। ऐसे कार्यों को न्यायालय असंवैधानिक या रद्द घोषित कर सकते हैं, परन्तु आपात्कालीन घोषणा के दौरान ही इस अधिकार को निलम्बित किया जा सकता है। संविधान का यह प्रावधान खतरनाक और अलोकतान्त्रिक है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में से किसी एक के चार सिद्धान्त लिखो
(क) समाजवादी
(ख) गांधीवादी
(ग) उदारवादी।
उत्तर-
(क) समाजवादी सिद्धान्त-

  1. राज्य से अपेक्षा की गई है कि वह ऐसे समाज की स्थापना करे जिसका उद्देश्य सार्वजनिक कल्याण हो।
  2. प्रत्येक नागरिक को आजीविका कमाने का अधिकार हो।
  3. देश के भौतिक साधनों की बांट इस प्रकार हो जिससे अधिक-से-अधिक जनहित हो।
  4. आर्थिक संगठन इस प्रकार हो कि धन और उत्पादन के साधन सीमित व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित न हों।

(ख) गांधीवादी सिद्धान्त-गांधी जी ने जिस नए समाज की स्थापना का स्वप्न देखा था, उसकी एक झलक हमें निम्नलिखित (गांधीवादी) सिद्धान्तों से मिलती है

  1. राज्य गांवों में ग्राम पंचायतों की स्थापना करे। वह उन्हें ऐसी शक्तियां प्रदान करे जिससे वे स्वराज्य की एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।
  2. राज्य गांवों में निजी और सहकारी कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करे।
  3. राज्य कमज़ोर वर्गों विशेषकर पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों, पिछड़ी श्रेणियों और कबीलों को शैक्षणिक सुविधाएं प्रदान करे।
  4. राज्य अनुसूचित जातियों, पिछड़ी श्रेणियों और कबीलों को हर प्रकार के शोषण से बचाए।

(ग) उदारवादी सिद्धान्त-साधारण या उदारवादी सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

  1. राज्य समूचे देश में समान कानून संहिता लागू करे।
  2. वह न्यायपालिका और कार्यपालिका को पृथक करने के लिए आवश्यक कार्यवाही करे।
  3. वह कृषि को आधुनिक वैज्ञानिक आधार पर गठित करे।
  4. वह पशुपालन में सुधार तथा पशुओं की नस्ल सुधारने का प्रयास करे।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

प्रश्न 5.
मौलिक अधिकारों और राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में मूल अन्तर बताएं।
उत्तर-
मौलिक अधिकारों तथा राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में निम्नलिखित मूल अन्तर हैं

मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। इससे भाव यह है कि यदि सरकार नागरिक के किसी मूल अधिकार का उल्लंघन करती है तो नागरिक न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त की उल्लंघना होने की स्थिति में सरकार पर दबाव नहीं डाला जा सकता।

  1. मौलिक अधिकार नकारात्मक हैं, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं। नकारात्मक से भाव राज्य की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाने से है।
  2. कुछ निर्देशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों से श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे व्यक्ति की अपेक्षा समूचे समाज के कल्याण के लिए हैं।
  3. मौलिक अधिकारों का उद्देश्य भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं। इस प्रकार वे सही अर्थों में लोकतन्त्र को लोकतन्त्र बनाते हैं।

प्रश्न 6.
भारतीय नागरिकों के कर्त्तव्य बतायें और इन्हें कब संविधान में सम्मिलित किया गया?
उत्तर-
भारतीय नागरिकों के कर्तव्य निम्नलिखित हैं

  1. संविधान का पालन करना तथा इसके आदर्शों, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना।
  2. भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्शों का सम्मान तथा पालन करना।
  3. भारत की प्रभुसत्ता, एकता एवं अखण्डता की रक्षा करना।
  4. भारत की रक्षा के आह्वान पर राष्ट्र की सेवा करना।
  5. धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय अथवा वर्गीय विभिन्नताओं से ऊपर उठ कर भारत के सभी लोगों में परस्पर मेलजोल और बन्धुत्व की भावना का विकास करना।
  6. सांस्कृतिक विरासत का सम्मान करना और इसे बनाए रखना।
  7. वनों, झीलों, नदियों, वन्य जीवन तथा प्राकृतिक वातावरण की रक्षा करना।
  8. वैज्ञानिक स्वभाव, मानवतावाद, अन्वेषण और सुधार की भावना का विकास करना।
  9. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना और हिंसा का मार्ग न अपनाना।
  10. राष्ट्र की प्रगति के लिए प्रत्येक क्षेत्र में उत्तमता प्राप्त करने का प्रयत्न करना।
    मूल संविधान में नागरिकों के कर्तव्यों की व्यवस्था नहीं की गई थी। इन्हें 1976 में (संविधान के 42वें संशोधन द्वारा) संविधान में सम्मिलित किया गया।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की विशालता के किन्हीं दो कारणों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़े आकार वाला तथा विस्तृत संविधान है। इसकी विशालता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  1. इस संविधान में 395 अनुच्छेद तथा 9 अनुसूचियां दी गई हैं।
  2. इसमें राज्य के स्वरूप, सरकार के अंगों के संगठन तथा उनके आपसी सम्बन्धों का विस्तृत वर्णन है। इसमें राज्य तथा नागरिक के सम्बन्धों को भी विस्तार से स्पष्ट किया गया है।
  3. इसमें नागरिकों के छः मूल अधिकारों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। संविधान के 42वें संशोधन के अनुसार इसमें नागरिकों के लिए 10 मूल कर्त्तव्यों का समावेश भी किया गया है।
  4. संघात्मक संविधान होने के कारण इसमें केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। शक्ति विभाजन सम्बन्धी सूचियों ने भी भारतीय संविधान को विशालता प्रदान की है। (कोई दो लिखें)

प्रश्न 8.
राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्तों का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
राज्य के निर्देशक सिद्धान्तों का बड़ा महत्त्व है-

  1. हमारे देश में स्त्रियों और पुरुषों को समान अधिकार दिए गए हैं। वेतन की दृष्टि से दोनों में भेदभाव समाप्त कर दिया गया है। समान पदों के लिए समान वेतन की व्यवस्था की गई है।
  2. पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों की व्यवस्था की गई है। उनके बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है। उनको विधानसभा तथा संसद् में विशेष रूप से प्रतिनिधित्व दिया जाता है।
  3. लगभग समस्त देश में प्रारम्भिक शिक्षा निःशुल्क कर दी गई है।
  4. देश में ऐसे कानून पास हो चुके हैं जिनके द्वारा श्रमिकों तथा छोटी आयु के बच्चों के हितों की रक्षा की गई है।
    ये सभी कार्य राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों की प्रेरणा से ही किए गए हैं।

प्रश्न 9.
शोषण के विरुद्ध अधिकार का वर्णन करें।
उत्तर-
उत्तर के लिए प्रश्न नं० 3 का (ग) भाग देखें।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

PSEB 10th Class Social Science Guide भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

I. उत्तर एक शब्द अथवा एक लाइन में

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को किस प्रकार रोकता है?
उत्तर-
भारतीय संविधान सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियों का स्पष्ट उल्लेख करके सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को रोकता है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान कब पारित हुआ?
उत्तर-
भारतीय संविधान 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान कब लागू हुआ?
उत्तर-
यह 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

प्रश्न 4.
एक तर्क देकर स्पष्ट कीजिए कि भारत एक लोकतंत्रात्मक राज्य है।
उत्तर-
देश का शासन लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि चलाते हैं।

प्रश्न 5.
भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य कैसे है? एक उदाहरण देकर सिद्ध कीजिए।
उत्तर-
भारत का कोई राज्य-धर्म नहीं है।

प्रश्न 6.
समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष तथा राष्ट्र की एकता शब्द संविधान के कौन-से संशोधन द्वारा जोड़े गए?
उत्तर-
ये शब्द 1976 में 42वें संशोधन द्वारा जोड़े गए।

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प्रश्न 7.
समाजवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
ऐसी व्यवस्था जिसमें अमीर-गरीब का भेदभाव न हो और साधनों पर पूरे समाज का अधिकार हो।

प्रश्न 8.
संविधान के अनुसार भारत को कैसा राज्य बनाने की संकल्पना की गई है?
उत्तर-
संविधान के अनुसार भारत को प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने की संकल्पना की गई है।

प्रश्न 9.
देश का वास्तविक प्रधान कौन होता है?
उत्तर-
प्रधानमन्त्री देश का वास्तविक प्रधान होता है।

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प्रश्न 10.
केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में से कौन अधिक शक्तिशाली है?
उत्तर-
केन्द्रीय सरकार।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की एक विशेषता बताओ।
उत्तर-
लिखित तथा विस्तृत ।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान ने नागरिकों को जो अधिकार दिए हैं, उन्हें कानूनी भाषा में क्या कहते हैं?
उत्तर-
कानूनी भाषा में नागरिकों के अधिकारों को मौलिक अधिकार कहते हैं।

PSEB 10th Class SST Solutions Civics Chapter 1 भारतीय संविधान की मूल विशेषताएं

प्रश्न 13.
संविधान में कितने प्रकार के मौलिक अधिकारों का प्रावधान है?
उत्तर-
संविधान में छः प्रकार के मौलिक अधिकारों का प्रावधान है।

प्रश्न 14.
समानता के अधिकार में निहित किसी एक बात का उल्लेख करो।
उत्तर-
जाति, लिंग, जन्म स्थान, वर्ग आदि के आधार पर राज्य नागरिकों में कोई भेदभाव नहीं करेगा।

प्रश्न 15.
राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
निर्देशक सिद्धान्तों से अभिप्राय सरकारों को मिले आदेश से है।

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प्रश्न 16.
संविधान में वर्णित बच्चों का शिक्षा संबंधी एक मौलिक अधिकार बताओ।
उत्तर-
14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था।

प्रश्न 17.
मौलिक अधिकारों और राज्य-नीति के निर्देशक तत्त्वों में मुख्य रूप से क्या अन्तर है?
उत्तर-
मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि नीति निर्देशक तत्त्व न्याय योग्य नहीं हैं।

प्रश्न 18.
भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर-
कर्त्तव्यों के बिना अधिकार अधूरे होते हैं।

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प्रश्न 19.
भारतीय संविधान में अंकित किसी एक मौलिक अधिकार (स्वतन्त्रता के अधिकार) का वर्णन करो।
उत्तर-
धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार के अनुसार भारत के नागरिक अपनी इच्छा से किसी भी धर्म को अपना सकते हैं।

प्रश्न 20.
विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत आकार वाला संविधान किस देश का है?
उत्तर-
भारत।

प्रश्न 21.
भारतीय संविधान में कितने अनुच्छेद हैं?
उत्तर-
395.

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प्रश्न 22.
भारतीय संविधान में कितनी अनुसूचियां हैं?
उत्तर-
9.

प्रश्न 23.
भारत ने किस प्रकार की नागरिकता को अपनाया है?
उत्तर-
भारत ने इकहरी नागरिकता को अपनाया है।

प्रश्न 24.
राज्यपालों की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर-
राष्ट्रपति।

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प्रश्न 25.
भारतीय नागरिकों के 10 मौलिक कर्त्तव्य भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में अंकित किए गए हैं?
उत्तर-
51 A.

प्रश्न 26.
भारत की शासन प्रणाली के बुनियादी उद्देश्यों को संविधान में कहां निर्धारित किया गया है?
उत्तर-
प्रस्तावना में।

प्रश्न 27.
संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार भारतीय नागरिकों को कई तरह की स्वतन्त्रताएं प्राप्त हैं?
उत्तर-
19वें।

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प्रश्न 28.
शोषण के विरुद्ध अधिकार किसकी रक्षा करता है?
उत्तर-
ग़रीब लोगों, स्त्रियों, बच्चों इत्यादि की।

प्रश्न 29.
1975 में राष्ट्रीय आपात्कालीन घोषणा के समय किस अधिकार को निलम्बित कर दिया गया था?
उत्तर-
संविधानिक उपचारों के अधिकार को।

प्रश्न 30.
राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्त किसकी स्थापना नहीं करते?
उत्तर-
राजनीतिक लोकतन्त्र की।

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प्रश्न 31.
संविधान में दिए गए कौन-से तत्त्व कल्याणकारी राज्य की स्थापना के प्रकाश बन सकते हैं?
उत्तर-
नीति निर्देशक सिद्धान्त।

प्रश्न 32.
नीति निर्देशक सिद्धांतों का मूल आधार क्या है?
उत्तर-
नैतिक शक्ति।

प्रश्न 33.
भारतीय संविधान में वर्णित राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्त किस देश के संविधान से प्रेरित हैं?
उत्तर-
आयरलैंड।

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II. रिक्त स्थानों की पूर्ति

  1. भारतीय संविधान …………… को लागू हुआ।
  2. भारत देश का वास्तविक प्रधान …………. होता है।
  3. भारतीय संविधान में …………… प्रकार के मौलिक अधिकारों का प्रावधान है।
  4. भारत में ………….. वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है।
  5. नीति निर्देशक तत्व (भारतीय संविधान) ………….. के संविधान से प्रेरित हैं।
  6. राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति …………… करता है।
  7. भारतीय संविधान में ……………. अनुसूचियां हैं।
  8. भारतीय संविधान में ………….. अनुच्छेद हैं।
  9. विश्व का सबसे बड़ा तथा विस्तृत संविधान ………….. देश का है।
  10. भारतीय संविधान के मूल (बुनियादी) उद्देश्यों को संविधान की ………. में निर्धारित किया गया है।

उत्तर-

  1. 26 जनवरी, 1950,
  2. प्रधानमंत्री,
  3. छ:,
  4. 14,
  5. आयरलैंड,
  6. राष्ट्रपति,
  7. नौ,
  8. 395,
  9. भारत,
  10. प्रस्तावना।

III. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार भारतीय नागरिकों को कई तरह की स्वतंत्रताएं प्राप्त हैं?
(A) 9वें
(B) 19वें
(C) 29वें
(D) 39वें।
उत्तर-
(B) 19वें

प्रश्न 2.
मौलिक अधिकारों के पीछे निम्न शक्ति काम करती है
(A) कानूनी
(B) नैतिक
(C) गैर-कानूनी
(D) सैनिक।
उत्तर-
(A) कानूनी

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प्रश्न 3.
नीति निर्देशक सिद्धांतों का मूल आधार क्या है?
(A) कानूनी शक्ति
(B) सीमित शक्ति
(C) नैतिक शक्ति
(D) दमनकारी शक्ति।
उत्तर-
(C) नैतिक शक्ति

प्रश्न 4.
भारतीय नागरिकों को कौन-सा मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है?
(A) स्वतंत्रता का अधिकार
(B) समानता का अधिकार
(C) संवैधानिक उपचारों का अधिकार
(D) सम्पत्ति का अधिकार।
उत्तर-
(D) सम्पत्ति का अधिकार।

प्रश्न 5.
निम्न में कौन-सा भारतीय नागरिकों का मौलिक (संवैधानिक) कर्तव्य है?
(A) संविधान का पालन करना
(B) राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना
(C) राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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IV. सत्य-असत्य कथन

प्रश्न-सत्य/सही कथनों पर (✓) तथा असत्य/ग़लत कथनों पर (✗) का निशान लगाएं

  1. भारतीय संविधान में 395 अनुच्छेद हैं।
  2. भारतीय संविधान 15 अगस्त, 1947 को लागू हुआ।
  3. गणतन्त्र अथवा गणराज्य में राज्य का अध्यक्ष निश्चित समय के लिए मनोनीत राष्ट्रपति होता है।
  4. भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़े आकार का तथा विस्तृत संविधान है।
  5. राज्यपालों की नियुक्ति प्रधानमंत्री द्वारा होती है।

उत्तर-

  1. (✓),
  2. (✗),
  3. (✗),
  4. (✓),
  5. (✗).

V. उचित मिलान

  1. राज्यपालों की नियुक्ति — राज्य का निर्वाचित अध्यक्ष ।
  2. देश का वास्तविक प्रधान — राष्ट्रपति
  3. समाजवादी राज्य — प्रधानमंत्री
  4. गणतंत्र — आर्थिक समानता।

उत्तर-

  1. राज्यपालों की नियुक्ति — राष्ट्रपति,
  2. देश का वास्तविक प्रधान — प्रधानमंत्री,
  3. समाजवादी राज्य — आर्थिक समानता,
  4. गणतंत्र — राज्य का निर्वाचित अध्यक्ष।

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छोटे उत्तर वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
संविधान क्या होता है? लोकतन्त्रात्मक सरकार में संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों होता है?
उत्तर-
अर्थ-संविधान वह मौलिक कानूनी दस्तावेज़ होता है जिसके अनुसार किसी देश की सरकार कार्य करती है। यह मौलिक कानून सरकार के मुख्य अंगों, उनके अधिकार क्षेत्रों तथा नागरिकों के मूल अधिकारों की व्याख्या करता है। इसे सरकार की शक्ति तथा सत्ता का स्रोत माना जाता है।
महत्त्व-संविधान के दो मुख्य उद्देश्य होते हैं —

  1. सरकार के विभिन्न अंगों के आपसी सम्बन्धों की व्याख्या करना तथा
  2. सरकार और नागरिकों के सम्बन्धों का वर्णन करना। इसका सबसे बड़ा उपयोग यह है कि यह सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को रोकता है। इसी कारण लोकतन्त्रात्मक सरकार में संविधान को सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है।

प्रश्न 2.
प्रस्तावना को कानूनी तौर पर संविधान का भाग नहीं माना जाता फिर भी यह महत्त्वपूर्ण है। कैसे?
उत्तर-
संविधान की भूमिका को संविधान की प्रस्तावना कहा जाता है। संविधान का आरम्भिक अंग होते हए भी कानूनी तौर पर इसे संविधान का भाग नहीं माना जाता। इसका कारण यह है कि इसके पीछे अदालती मान्यता नहीं होती है। यदि सरकार प्रस्तावना को लागू नहीं करती तो हम उसके विरुद्ध न्यायालय में नहीं जा सकते। फिर भी यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है।
प्रस्तावना का महत्त्व-भारत के संविधान में भी प्रस्तावना दी गई है। इसका महत्त्व निम्नलिखित बातों में निहित है —

  1. इससे हमें पता चलता है कि संविधान के उद्देश्य क्या हैं।
  2. इससे हमें पता चलता है कि संविधान निर्माताओं ने देश में एक आदर्श समाज की कल्पना की थी। यह समाज स्वतन्त्रता, समानता तथा समाजवाद पर आधारित होगा।
  3. प्रस्तावना से यह भी पता चलता है कि संविधान देश में किस प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित करना चाहता है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं क्या हैं?
उत्तर-
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  1. यह विस्तृत तथा लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा १ अनुसूचियां हैं।
  2. यह लचीला तथा कठोर संविधान है।
  3. संविधान भारत में सम्पूर्ण प्रभुसत्ता-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, जनतन्त्रीय गणतन्त्र की स्थापना करता है।
  4. यह भारत को एक ऐसा संघात्मक राज्य घोषित करता है जिसका आधार एकात्मक है।
  5. संविधान द्वारा भारत की संघीय संसद् के दो सदनों की व्यवस्था की गई है। ये सदन हैं-लोकसभा और राज्यसभा।
  6. संविधान द्वारा संसदीय कार्यपालिका की व्यवस्था की गई है। भारत का राष्ट्रपति इसका नाममात्र का राज्याध्यक्ष है।
  7. संविधान में जिस न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है वह स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष है।
  8. हमारे संविधान में 6 मौलिक अधिकारों तथा 10 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।
  9. संविधान के चौथे अध्याय में राज्य के राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्त दिए गए हैं।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियां लिखिए
(क) भारत की संसदीय सरकार
(ख) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार
(ग) स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष न्यायपालिका।
उत्तर-
(क) भारत की संसदीय सरकार-संविधान के अनुसार भारत में संसदीय प्रणाली की सरकार है। इसमें संसद् सर्वोच्च है और वह जनता का प्रतिनिधित्व करती है। सरकार यूं तो केन्द्र में राष्ट्रपति के नाम पर तथा राज्यों में राज्यपाल के नाम पर चलाई जाती है, परन्तु वास्तव में सरकार को मन्त्रिपरिषद् ही चलाती है। मन्त्रिपरिषद् अपनी नीतियों के लिए संसद् (केन्द्र में) के प्रति उत्तरदायी है। राज्यों में भी यह विधायिका (जनता की प्रतिनिधि सभा) के प्रति उत्तरदायी है।
(ख) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार-भारतीय संविधान में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार 18 वर्ष या इससे अधिक आयु के प्रत्येक भारतीय नागरिक को मत देने का अधिकार दिया गया है। इस प्रकार प्रत्येक नागरिक केन्द्र तथा राज्य सरकारों के निर्वाचन में भाग ले सकता है।
(ग) स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष न्यायपालिका-भारतीय संविधान के अनुसार देश में स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की गई है। इसका अर्थ यह है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त रखा गया है। इस प्रकार न्यायपालिका केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच उत्पन्न विवादों का निपटारा निष्पक्ष रूप से करती है। ऐसी व्यवस्था संघीय प्रणाली में बहुत अधिक महत्त्व रखती है। इसके अतिरिक्त न्यायपालिका नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी करती है।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों को सूचीबद्ध करो।
अथवा
भारतीय नागरिकों के कोई दो अधिकार बताओ।
उत्तर-
मौलिक अधिकारों की सूची इस प्रकार है —

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  5. संस्कृति तथा शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 6.
धार्मिक स्वतन्त्रता के कोई तीन अधिकार बताइए।
उत्तर-
धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार में निम्नलिखित बातें सम्मिलित हैं —

  1. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा से किसी भी धर्म को मानने, उस पर आचरण करने और उसका प्रचार करने का समान अधिकार है।
  2. लोग अपनी इच्छा से धार्मिक तथा परोपकारी संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं तथा उनका प्रबन्ध चला सकते हैं।
  3. किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जिनका प्रयोजन किसी धर्म विशेष का प्रचार करना है। इसके अतिरिक्त शिक्षा-संस्थाओं में किसी विद्यार्थी को कोई धर्म विशेष की शिक्षा प्राप्त करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

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प्रश्न 7.
संस्कृति और शिक्षा के अधिकार का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है। भाषा या नस्ल के आधार पर किसी भी नागरिक को ऐसी शिक्षा-संस्थाओं में प्रवेश पाने से नहीं रोका जाएगा जो सरकार अथवा सरकारी सहायता द्वारा चलाई जा रही हैं। प्रत्येक अल्पसंख्यक वर्ग को चाहे वह धर्म पर आधारित है चाहे भाषा पर, अपनी इच्छानुसार शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार है। आर्थिक सहायता देते समय राज्य इनके साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा।

प्रश्न 8.
भारतीय नागरिक को प्राप्त किन्हीं चार मौलिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. स्वतन्त्रता का अधिकार-भारतीय नागरिकों को भ्रमण करने, विचार प्रकट करने तथा व्यवसाय सम्बन्धी स्वतन्त्रता दी गई है।
  2. धार्मिक स्वतन्त्रता- भारत के लोगों को किसी भी धर्म को मानने अथवा छोड़ने की स्वतन्त्रता दी गई है। वे धार्मिक संस्थाओं का निर्माण कर सकते हैं या उन्हें चला सकते हैं।
  3. शिक्षा का अधिकार-भारतवासियों को किसी भी भाषा को पढ़ने तथा अपनी संस्कृति और लिपि की रक्षा का अधिकार भी प्रदान किया गया है।
  4. समता का अधिकार-प्रत्येक नागरिक को समता का अधिकार प्रदान किया गया है और हर प्रकार के भेदभाव को मिटा दिया गया है। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता के बल पर उच्च से उच्च पद प्राप्त कर सकता है।

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प्रश्न 9.
राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों से आप क्या समझते हैं? चार मुख्य नीति-निर्देशक सिद्धान्त बताओ।
उत्तर-
भारत के संविधान में नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। ये सिद्धान्त भारत सरकार के लिए उद्देश्यों के रूप में हैं। संघ तथा राज्य सरकारें नीति निर्माण करते समय इन तत्त्वों को ध्यान में रखती हैं।
मुख्य नीति-निर्देशक सिद्धान्त-मुख्य नीति-निर्देशक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं —

  1. जीवन के लिए उचित साधनों की प्राप्ति।
  2. बराबर काम के लिए बराबर वेतन।
  3. धन का बराबर वितरण।
  4. बेकारी, बुढ़ापा, अंगहीनता आदि की दशा में सहायता।

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Punjab State Board PSEB 10th Class Social Science Book Solutions Geography Chapter 7 जनसंख्या Exercise Questions and Answers.

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SST Guide for Class 10 PSEB जनसंख्या Textbook Questions and Answers

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक शब्द या एक वाक्य में लिखिए

प्रश्न 1.
किसी देश का सबसे बहुमूल्य संसाधन क्या होता है?
उत्तर-
बौद्धिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ नागरिक।

प्रश्न 2.
आजादी से पहले देश की जनसंख्या धीरे-धीरे बढ़ने के क्या कारण थे?
उत्तर-
महामारियों, लड़ाइयों तथा अकाल के कारण मृत्यु दर में वृद्धि।

प्रश्न 3.
वर्ष 1901 में भारत की जनसंख्या कितनी थी?
उत्तर-
वर्ष 1901 में भारत की जनसंख्या 23,83,96,327 (23.8 करोड़) थी।

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प्रश्न 4.
जनसंख्या वर्ष 1921 तथा 1951 को जनसांख्यिकी विभाजक वर्ष क्यों माना जाता है?
उत्तर-
1921 तथा 1951 के जनगणना वर्षों के पश्चात् जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई।

प्रश्न 5.
वर्ष 2011 में भारत की जनसंख्या कितनी थी?
उत्तर-
वर्ष 2011 में भारत की जनसंख्या 121 करोड़ थी।

प्रश्न 6.
भारत का जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में कौन-सा स्थान है?
उत्तर-
भारत का जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में (चीन के पश्चात्) दूसरा स्थान है।

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प्रश्न 7.
भारत के कितने राज्यों की जनसंख्या 5 करोड़ से अधिक है?
उत्तर-
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 10 राज्यों की जनसंख्या 5 करोड़ से अधिक है।

प्रश्न 8.
देश के सबसे अधिक और सबसे कम जनसंख्या वाले राज्यों के नाम बताइए।
उत्तर-
देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश और सबसे कम जनसंख्या वाला राज्य सिक्किम है।

प्रश्न 9.
पंजाब की जनसंख्या 2001 में कितनी थी और जनसंख्या की दृष्टि से पंजाब का राज्यों में कौनसा स्थान है?
उत्तर-

  1. वर्ष 2001 में पंजाब की जनसंख्या लगभग 2.4 करोड़ थी।
  2. जनसंख्या की दृष्टि से पंजाब का भारत के राज्यों में 15वां स्थान है।

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प्रश्न 10.
पंजाब में पूरे देश की कितने प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है?
उत्तर-
पंजाब में पूरे देश की लगभग 2.3 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है।

प्रश्न 11.
एक लाख की आबादी से अधिक के भारत में कितने शहर हैं?
उत्तर-
भारत में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 300 से अधिक है।

प्रश्न 12.
मैदानी भागों में देश का कितने प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है?
उत्तर-
मैदानी भागों में देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है।

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प्रश्न 13.
देश की कितने प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है?
उत्तर-
देश की लगभग 71% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है।

प्रश्न 14.
देश में जनसंख्या का औसत घनत्व कितना है?
उत्तर-
देश में जनसंख्या का औसत घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर (2011 में) है।

प्रश्न 15.
देश के सबसे अधिक व सबसे कम जनसंख्या घनत्व वाले राज्यों के नाम बताओ।
उत्तर-
2011 की जनगणना के अनुसार देश का सबसे अधिक घनत्व वाला राज्य बिहार तथा सबसे कम घनत्व वाला राज्य अरुणाचल प्रदेश है।

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प्रश्न 16.
पंजाब में जनसंख्या का घनत्व कितना है?
उत्तर-
पंजाब में जनसंख्या का घनत्व 550 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर (2011 में) है।

प्रश्न 17.
किस केन्द्र शासित प्रदेश का जनसंख्या घनत्व सबसे अधिक है?
उत्तर-
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का जनसंख्या घनत्व सबसे अधिक है।

प्रश्न 18.
आयु संरचना को निर्धारित करने वाले चरों के नाम बताइए।
उत्तर-

  1. जन्मता (fertility)
  2. मर्त्यता (mortality)
  3. प्रवास (migration)

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प्रश्न 19.
देश में 0-14 आयु वर्ग में कितने प्रतिशत जनसंख्या है?
उत्तर-
देश में 0-14 आयु वर्ग में 37.2 प्रतिशत जनसंख्या है।

प्रश्न 20.
देश में 15-65 आयु वर्ग में कितने प्रतिशत जनसंख्या है?
उत्तर-
देश में 15:65 आयु वर्ग में 58.4 प्रतिशत जनसंख्या है।

प्रश्न 21.
देश की जनसंख्या में मतदाताओं का कितना प्रतिशत है?
उत्तर-
देश की जनसंख्या में मतदाता 60 प्रतिशत हैं।

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प्रश्न 22.
लिंग-अनुपात से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
लिंग-अनुपात से अभिप्राय प्रति एक हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या से है।

प्रश्न 23.
देश के सिक्ख समुदाय में लिंग अनुपात कितना है?
उत्तर-
देश के सिक्ख समुदाय में लिंग अनुपात 1000 : 888 है।

प्रश्न 24.
देश के ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में लिंग अनुपात तेजी से क्यों घट रहा है?
उत्तर-
लिंग अनुपात के तेज़ी से घटने के कारण हैं —

  1. स्त्रियों का दर्जा निम्न होना।
  2. जनगणना के समय स्त्रियों की अपेक्षाकृत कम गणना करना या पुरुषों की गणना बढ़ाकर करना।
  3. लड़कियों की जन्म दर कम होना।
  4. स्त्री भ्रूण-हत्या (Female foeticide)

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प्रश्न 25.
आर्थिक आधार पर भारत की जनसंख्या को किन दो भागों में बांट सकते हैं?
उत्तर-
आर्थिक आधार पर जनसंख्या को दो भागों में बांट सकते हैं —

  1. श्रमिक जनसंख्या
  2. अश्रमिक जनसंख्या।

प्रश्न 26.
भारत में मुख्य श्रमिक किसे कहा जाता है?
उत्तर-
भारत में मुख्य श्रमिक वे श्रमिक हैं, जिन्होंने पिछले वर्ष 6 मास (या 183 दिन) से अधिक किसी आर्थिक क्रिया में काम किया है।

प्रश्न 27.
कार्य के आधार पर जनसंख्या का श्रमिकों एवं अश्रमिकों में बांटने का विचार भारतीय जनगणना में पहली बार किस वर्ष आया?
उत्तर-
कार्य के आधार पर जनसंख्या का श्रमिकों एवं अश्रमिकों में बांटने का विचार पहली बार 1961 की जनगणना के समय आया।

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प्रश्न 28.
भारतीय लोग गिनती में पहली बार कब आये।
उत्तर-
1901.

प्रश्न 29.
ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों का प्रतिशत कितना है?
उत्तर-
ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों का प्रतिशत 40.1 है।

II. निम्न प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर दीजिए

प्रश्न 1.
राज्यों के बीच अत्यधिक असमान जनसंख्या वितरण से देश में क्या-क्या समस्याएं पैदा हो रही हैं?
उत्तर-
भारत में 28 राज्य हैं। इन राज्यों के बीच अत्यधिक असमान जनसंख्या वितरण है। जनसंख्या के असमान वितरण के कारण अनेक समस्याएं पैदा हो गई हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है —

  1. दूर-दूर तक फैली ग्रामीण बस्तियों को आपस में सड़कों द्वारा तथा निकटवर्ती शहरों के साथ जोड़ने की भारी समस्या है।
  2. इन ग्रामीण. बस्तियों के निवासियों को आधारभूत सुविधाएं प्रदान करना बड़ा कठिन और महंगा कार्य है।
  3. बड़े-बड़े शहरों में प्रदूषण, यातायात, मकान का अभाव जैसी अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

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प्रश्न 2.
भारत में जनसंख्या वितरण पर किन-किन तत्त्वों का सबसे अधिक प्रभाव है?
उत्तर-
भारत में जनसंख्या का वितरण एक समान नहीं है। इसके लिए निम्नलिखित अनेक तत्त्व उत्तरदायी हैं —

  1. भूमि का उपजाऊपन-भारत के जिन राज्यों में उपजाऊ भूमि का अधिक विस्तार है, वहां जनसंख्या का घनत्व अधिक है।
    उत्तर प्रदेश तथा बिहार ऐसे ही राज्य हैं।
  2. वर्षा की मात्रा-अधिक वर्षा वाले भागों में प्रायः जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। उत्तरी भारत में पूर्व से पश्चिम को जाते हुए वर्षा की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए जनसंख्या का घनत्व भी घटता जाता है।
  3. जलवाय-जहां जलवायु स्वास्थ्य के लिए अनुकूल है, वहां भी जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। इसके विपरीत ऐसे प्रदेशों में जनसंख्या का घनत्व कम होता है जहां की जलवायु स्वास्थ्य के लिए अच्छी न हो। असम में वर्षा अधिक होते हुए भी जनसंख्या का घनत्व कम है क्योंकि यहां अधिक नमी के कारण मलेरिया का प्रकोप अधिक रहता है।
  4. परिवहन के उन्नत साधन-परिवहन के साधनों के अधिक विकास के कारण व्यापार की प्रगति तीव्र हो जाती है जिससे जनसंख्या का घनत्व भी अधिक हो जाता है। उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखंड इत्यादि राज्यों में अधिक जनसंख्या होने का एक कारण परिवहन के साधनों का विकास है।
  5. औद्योगिक विकास-जिन स्थानों पर उद्योग स्थापित हो जाते हैं, वहां जनसंख्या का घनत्व बढ़ जाता है। इसका कारण यह है कि औद्योगिक क्षेत्रों में आजीविका कमाना सरल होता है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता आदि नगरों में औद्योगिक विकास के कारण ही जनसंख्या अधिक है।

प्रश्न 3.
जनसंख्या की आर्थिक संरचना अध्ययन का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
जनसंख्या की आर्थिक संरचना का विशेष महत्त्व है

  1. इससे हमें पता चलता है कि देश की जनसंख्या का कितना भाग कार्यशील है और वह किस-किस व्यवसाय में जुटा हुआ है।
  2. यह संरचना किसी क्षेत्र की जनसांख्यिकीय तथा सांस्कृतिक लक्षणों को प्रकट करती है। इसी पर उस क्षेत्र के भविष्य का सामाजिक तथा आर्थिक विकास का प्रारूप आधारित होता है।
  3. आर्थिक संरचना से हमें पता चलता है कि देश किस आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। अतः हम उस क्षेत्र के विकास के लिए उचित योजना बना सकते हैं।

प्रश्न 4.
मुख्य श्रमिकों को कितनी औद्योगिक श्रेणियों में बांटा जाता है? उनके नाम बताइए।
उत्तर-
निम्नलिखित सारणी से मुख्य श्रमिक श्रेणियां स्पष्ट हो जाएंगी। (दो औद्योगिक श्रेणियां-मुख्य श्रमिक तथा गौण श्रमिक)
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प्रश्न 5.
भारत में स्त्री श्रमिकों का प्रतिशत पुरुषों की अपेक्षाकृत कम क्यों है?
उत्तर-
देश में मुख्य श्रमिकों का प्रतिशत (असम और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) 37.50 प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि देश की कुल जनसंख्या का लगभग एक तिहाई भाग ही आर्थिक रूप से कार्यशील है। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं.

  1. तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के कारण भारत में बच्चों (अश्रमिकों) का अनुपात अधिक बना रहता है। इससे श्रमिकों का प्रतिशत कम हो जाता है।
  2. हमारी सामाजिक मान्यताओं के कारण स्त्रियों को घर से बाहर काम नहीं करने दिया जाता।
  3. स्त्रियों में शिक्षा तथा जागरूकता का अभाव भी इसका कारण है।

प्रश्न 6.
भारत को गांवों का देश क्यों कहा जाता है?
उत्तर-
इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारत गांवों का देश है। निम्नलिखित तथ्यों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी —

  1. देश की अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में बसी है।
  2. देश की कुल जनसंख्या का लगभग 71% भाग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है।
  3. देश में 5 लाख 50 हजार से अधिक ग्रामीण अधिवासी (Rural Settlements) हैं जबकि कुल शहरी जनसंख्या का दो तिहाई भाग देश के बड़े नगरों में बसा हुआ है।
  4. देश में कुल मुख्य श्रमिकों का 40.1 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 30.2 प्रतिशत नगरों में निवास करता है।

प्रश्न 7.
देश में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
भारत में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुग, पंजाबी, बंगला, मराठी, मलयालम, संस्कृत, सिन्धी और हिन्दी भारत की प्रमुख भाषाएं हैं। इन सभी भाषाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया है। दक्षिण भारत की चार भाषाओं तमिल, तेलुगू, कन्नड़ तथा मलयालम की उत्पत्ति द्रविड़ से हुई है।
भारत में बहुत बड़ी संख्या में लोग हिन्दी बोलते हैं। साथ ही अनेक लोग इस भाषा को समझ लेते हैं, भले ही यह उनकी मातृभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा का स्थान मिला हुआ है।

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प्रश्न 8.
भारत में जनसंख्या वितरण की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर-
भारत में जनसंख्या के क्षेत्रीय वितरण की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित हैं —

  1. भारत में जनसंख्या का वितरण बहुत असमान है। नदियों की घाटियों और समुद्र तटीय मैदानों में जनसंख्या वितरण बहुत सघन है, परन्तु पर्वतीय, मरुस्थलीय एवं अभाव-ग्रस्त क्षेत्रों में जनसंख्या वितरण बहुत ही विरल है।
  2. देश की कुल जनसंख्या का लगभग 71% भाग ग्रामीण क्षेत्रों में और 29% भाग शहरों में निवास करता है। शहरी जनसंख्या का भारी जमाव बड़े शहरों में है। कुल शहरी जनसंख्या का दो-तिहाई भाग एक लाख या इससे अधिक आबादी वाले प्रथम श्रेणी के शहरों में रहता है।
  3. देश के अल्पसंख्यक समुदायों का अति संवेदनशील एवं महत्त्वपूर्ण बाह्य सीमा क्षेत्रों में जमाव है। उदाहरण के लिए उत्तर-पश्चिमी भारत में भारत-पाक सीमा के पास पंजाब में सिक्खों तथा जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों का बाहुल्य है।
  4. एक ओर तटीय मैदानों एवं नदियों की घाटियों में जनसंख्या का भारी जमाव है तो दूसरी ओर पहाड़ी, पठारी एवं रेगिस्तानी भागों में जनसंख्या विरल है। यह वितरण एक जनसांख्यिकी विभाजन (Demographic divide) जैसा लगता है।

प्रश्न 9.
देश के अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र कौन-से हैं?
उत्तर-
उत्तरी मैदान, पश्चिमी तटीय मैदान तथा पूर्वी तटीय मैदान के डेल्टाई क्षेत्रों में जनसंख्या घनी बसी हुई है। इन प्रदेशों की भूमि उपजाऊ है और कृषि सिंचाई की सुविधाएं पर्याप्त उपलब्ध हैं। इसलिए वहां की जनसंख्या सघन है। एक बात और, ज्यों-ज्यों हम पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ते जाते हैं, सूखापन बढ़ता जाता है और जन घनत्व घटता जाता है। यही कारण है कि पूर्व में स्थित पश्चिमी बंगाल का घनत्व पंजाब और हरियाणा के अपेक्षाकृत पश्चिम की स्थिति की तुलना में अधिक है। केरल में जन घनत्व सबसे अधिक है क्योंकि भारी वर्षा के कारण वहां वर्ष में दो या तीन फसलें पैदा की जाती हैं।

प्रश्न 10.
देश के मैदानी भागों में जनसंख्या घनत्व अधिक होने के क्या कारण हैं?
उत्तर-
देश के मैदानी भागों में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है। इसके मुख्य कारण अग्रलिखित हैं —

  1. भारत का उत्तरी मैदान विशाल और उपजाऊ है।
  2. यहां वर्षा भी पर्याप्त होती है। इसलिए कृषि के लिए उचित सुविधाएं उपलब्ध हैं।
  3. यहां उद्योग के भी बड़े-बड़े केन्द्र हैं।
  4. यहां यातायात के साधन उन्नत हैं।
  5. तटीय मैदानी प्रदेशों में मछली पकड़ने तथा विदेशी व्यापार की सुविधाएं हैं। परिणामस्वरूप लोगों के लिए रोज़ी कमाना सरल है।

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प्रश्न 11.
देश में कम जनसंख्या वाले क्षेत्र कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
भारत के थार मरुस्थल, पूर्वी हिमालय प्रदेश तथा छोटा नागपुर के पठार में जनसंख्या कम आबाद है।
कारण-

  1. इन प्रदेशों की शि उपजाऊ नहीं है। यह या तो रेतीली है या पथरीली।
  2. यहां यातायात के साधनों का विकास नहीं हो सका है।
  3. यहां की जलवायु स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। यह या तो अत्यधिक गर्म है या अत्यधिक ठण्डी। हिमालय क्षेत्र में आवश्यकता से अधिक वर्षा होती है।
  4. छोटा नागपुर क्षेत्र को छोड़कर अन्य भागों में निर्माण उद्योग विकसित नहीं है।

प्रश्न 12.
देश के चावल उत्पादक क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व अधिक क्यों है?
उत्तर-
देश के परम्परागत चावल उत्पादक क्षेत्र (तमिलनाडु, पश्चिमी बंगाल आदि) सबसे अधिक सघन जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र हैं।
इसका कारम यह है कि ये क्षेत्र बहुत उपजाऊ हैं तथा यहां पर्याप्त वर्षा होती है। दूसरे, चावल की खेती से सम्बन्धित अधिकतर कार्य हाथों से करने पड़ते हैं। इसलिए अधिक संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता अनुभव की जाती है जिससे लोगों के लिए आजीवकिा कमाने के अवसर बढ़ जाते हैं। तीसरे, चावल का उतपादन अधिक होने से लोगों को सस्ता भोजन उपलब्ध होता है। पास ही में मछली पकड़ने के क्षेत्र होने के कारण उन्हें प्रोटीनयुक्त भोजन भी मिल जाता है।

प्रश्न 13.
देश की जनसंख्या की संरचना का अध्ययन करना क्यों जरूरी है?
उत्तर-
किसी देश की जनसंख्या की संरचना को जानना क्यों आवश्यक है, इसके कई कारण हैं —

  1. सामाजिक एवं आर्थिक नियोजन के लिए किसी भी देश की जनसंख्या के विभिन्न लक्षणों जैसे जनसंख्या की आयु-संरचना, लिंगसंरचना, व्यवसाय संरचना आदि के आंकड़ों की जरूरत पड़ती है।
  2. जनसंख्या की संरचना के विभिन्न घटकों का देश के आर्थिक विकास से गहरा सम्बन्ध है। जहां एक ओर ये जनसंख्या संरचना घटक आर्थिक विकास से प्रभावित होते हैं, वहीं ये आर्थिक विकास की प्रगति एवं स्तर के प्रभाव से भी अछूते नहीं रह पाते। उदाहरण के लिए यदि किसी देश की जनसंख्या की आयु संरचना में बच्चों तथा बूढ़े लोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है तो देश को शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं पर अधिक-से-अधिक वित्तीय साधनों को खर्च करना पड़ेगा। दूसरी ओर, आयु संरचना में कामगार आयु-वर्गों (Working age-groups) का भाग अधिक होने से देश के आर्थिक विकास की दर तीव्र हो जाती है।

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प्रश्न 14.
आयु संरचना के अध्ययन के क्या लाभ हैं?
उत्तर-आयु संरचना के अध्ययन के अनेक लाभ हैं —

  1. बाल आयु वर्ग (0-14) की कुल जनसंख्या ज्ञात होने से सरकार को इन बातों का स्पष्ट पता लग सकता है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में कितनी सुविधाओं की आवश्यकता है। इसी के अनुसार नये स्कूलों, स्वास्थ्य केन्द्रों, सामुदायिक केन्द्रों आदि का निर्माण कराया जाता है।
  2. साथ ही देश में कितने लोग मताधिकार वर्ग में हैं, इस बात की जानकारी भी हो सकती है। मताधिकार वर्ग के लोगों की जानकारी होना प्रजातन्त्र में अत्यन्त आवश्यक है। आयु संरचना के आंकड़ों के हिसाब से लगभग 58 प्रतिशत मतदाता होने चाहिएं, परन्तु देश में 60 प्रतिशत मतदाता हैं।

प्रश्न 15.
भारत में लिंग अनुपात कम होने के क्या कारण हैं?
उत्तर-
भारत में लिंग-अनुपात कम होने के कारणों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। परन्तु भारतीय समाज में स्त्री का दर्जा निम्न होना इसका एक प्रमुख कारण माना जाता है। परिवार व्यवस्था में उसे निम्न दर्जा दिया गया है और पुरुष को ऊँचा। इसी कारण कम आयु में लड़कियों के स्वास्थ्य, खान-पान तथा देख-भाल की ओर कम ध्यान दिया जाता है। परिणामस्वरूप निम्न आयु वर्ग (0-6 वर्ष) में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की मृत्यु-दर अधिक है।
लिंग अनुपात कम होने के अन्य प्रमुख कारण हैं-जनगणना के समय स्त्रियों की अपेक्षाकृत कम गणना करना या पुरुषों की गणना बढ़ाकर करना, लड़कियों की जन्म दर कम होना तथा स्त्री भ्रूण-हत्या (Female Foeticide)।

प्रश्न 16.
भारत में शहरी आबादी के हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ने के क्या कारण हैं?
उत्तर-
उत्तर के लिए भाग III का प्रश्न नं० 4 पढ़ें।

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III. निम्नलिखित के विस्तृत उत्तर दीजिए

प्रश्न 1.
भारत में जनसंख्या घनत्व के प्रादेशिक प्रारूप का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि. मी. है। परन्तु प्रादेशिक स्तर पर जनसंख्या घनत्व में भारी अन्तर है। जनसंख्या घनत्व बिहार में सबसे अधिक है तो सबसे कम अरुणाचल प्रदेश में है। केन्द्र शासित प्रदेशों में यह अन्तर और भी अधिक है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जनसंख्या धनत्व सबसे अधिक (9340 व्यक्ति) है, जबकि अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में यह मात्र 46 व्यक्ति प्रति वर्ग कि० मी० है।

  1. अधिक जनसंख्या घनत्व-प्रादेशिक स्तर परं, अधिक जनसंख्या घनत्व (400 व्यक्ति प्रति वर्ग कि० मी० से अधिक) वाले क्षेत्र सतलुज, गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियों के डेल्टे हैं। यहां पर उपजाऊ मिट्टी तथा अच्छी वर्षा के कारण कृषि का विकास अच्छा है। इसके अतिरिक्त बड़े औद्योगिक एवं प्रशासनिक नगरों जैसे लुधियाना, गुड़गांव, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, कानपुर, पटना, कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, बंगलौर (बंगलुरू) एवं हैदराबाद के आसपास भी अधिक जनसंख्या घनत्व पाया जाता है।
  2. कम जनसंख्या घनत्व-कम जनसंख्या घनत्व (200 व्यक्ति प्रति वर्ग कि० मी० से कम) वाले क्षेत्र ऐसे हैं जो भौतिक विकलांगता से ग्रस्त (Physical handicapped) हैं। ऐसे क्षेत्र हैं
    1. उत्तर में हिमालय पर्वत श्रेणियों में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल के पहाड़ी भाग,
    2. पूर्व में अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय तथा त्रिपुरा राज्यों में,
    3. पश्चिमी राजस्थान के मरुस्थलीय भाग, गुजरात के दलदलीय क्षेत्रों तथा
    4. दक्षिण आन्तरिक प्रायद्वीपीय पठार में मध्य प्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र, पूर्वी कर्नाटक, तेलंगाना एवं तमिलनाडु का कुछ भाग शामिल है।
  3. औसत जनसंख्या घनत्व-अधिक जनसंख्या घनत्व के क्षेत्रों के बाह्य भाग औसत जनसंख्या घनत्व (200 से 300 व्यक्ति प्रति वर्ग कि० मी०) के क्षेत्र कहलाते हैं। सामान्यतः ये क्षेत्र कम और अधिक जनसंख्या घनत्व के क्षेत्रों के बीच पड़ते हैं। ऐसे क्षेत्र संख्या में कम ही हैं।
    इससे इस बात का आभास हो जाता है कि भारत में जनसंख्या वितरण एवं घनत्व में भारी प्रादेशिक असमानताएं हैं।

प्रश्न 2.
भारत में लिंग अनुपात के राज्य स्तरीय प्रारूप का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर-
लिंग अनुपात से अभिप्राय है-प्रति हजार पुरुषों पर स्त्रियों की औसत संख्या। लिंग अनुपात को आजकल समाज में स्त्री के सम्मान को आंकने का पैमाना भी माना जाता है। अधिकतर धनी देशों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों के बराबर है या उससे अधिक। विकसित देशों में 1050 स्त्रियां प्रति 1000 पुरुष हैं, जबकि विकासशील देशों में यह औसत 964 स्त्रियां प्रति 1000 पुरुष है। भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार लिंग अनुपात 944 स्त्रियां प्रति हज़ार पुरुष हैं। यह औसत विश्व की सबसे कम औसतों में से एक है।
राज्य स्तरीय प्रारूप-देश के सभी राज्यों में लिंग अनुपात एक समान नहीं है। भारत के केवल दो ही राज्य ऐसे हैं। जहां लिंग अनुपात स्त्रियों के पक्ष में है। ये राज्य है-केरल तथा तमिलनाडु। केरल में प्रति हज़ार पुरुषों पर 1099 स्त्रियां (2011 में) हैं। देश के अन्य राज्यों में अनुपात पुरुषों के पक्ष में है अर्थात् इन राज्यों में प्रति हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या कम है जो निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट है

  1. पंजाब 899
  2. हरियाणा 885
  3. राजस्थान 935
  4. बिहार 912
  5. उत्तर प्रदेश 910
  6. तमिलनाडु 1000

लिंग अनुपात से राज्य प्रारूप में से एक बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि देश के उत्तरी राज्यों में दक्षिणी राज्यों की तुलना में लिंग अनुपात कम है। यह बात समाज में स्त्री के निम्न स्थान को दर्शाती है। यह निःसन्देह एक चिन्ता का विषय है।

प्रश्न 3.
देश में जनसंख्या वितरण के प्रादेशिक प्रारूप की प्रमुख विशेषताओं को बताते हुए प्रारूप का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत में जनसंख्या वितरण का प्रादेशिक प्रारूप तथा उसकी महत्त्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित हैं —

  1. भारत में जनसंख्या का वितरण बहुत असमान है। नदियों की घाटियों और समुद्र तटीय मैदानों में जनसंख्या बहुत सघन है, परन्तु पर्वतीय, मरुस्थलीय एवं अभाव-ग्रस्त क्षेत्रों में जनसंख्या बहुत ही विरल है। उत्तर के पहाड़ी प्रदेशों में देश के 16 प्रतिशत भू-भाग पर मात्र 3 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, जबकि उत्तरी मैदानों में देश के 18 प्रतिशत भूमि पर 40 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। राजस्थान में देश के मात्र 6 प्रतिशत भू-भाग पर 6 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है।
  2. अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में बसी है। देश की कुल जनसंख्या का लगभग 71% भाग ग्रामीण क्षेत्रों में और लगभग 29% भाग शहरों में निवास करता है। शहरी जनसंख्या का भारी जमाव बड़े शहरों में है। कुल शहरी जनसंख्या का दो-तिहाई भाग एक लाख या इससे अधिक आबादी वाले प्रथम श्रेणी के शहरों में रहता है।
  3. देश के अल्पसंख्यक समुदायों का जमाव अति संवेदनशील एवं महत्त्वपूर्ण बाह्य सीमा क्षेत्रों में है। उदाहरण के लिए उत्तर-पश्चिमी भारत में भारत-पाक सीमा के पास पंजाब में सिक्खों तथा जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों का बाहुल्य है। इसी तरह उत्तर-पूर्व में चीन व बर्मा (म्यनमार) की सीमाओं के साथ ईसाई धर्म के लोगों का जमाव है। इस तरह के वितरण से अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कठिनाइयां सामने आती हैं।
  4. एक ओर तटीय मैदानों एवं नदियों की घाटियों में जनसंख्या घनी है तो दूसरी ओर पहाड़ी, पठारी एवं रेगिस्तानी भागों में जनसंख्या विरल है। यह वितरण एक जनसांख्यिकी विभाजन (Demographic divide) जैसा लगता है।

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प्रश्न 4.
बड़े शहरों में तेजी से आबादी बढ़ने के कारणों को समझाते हुए यह भी बताएं कि इससे कौन-सी समस्याएं बड़े-बड़े शहरों में उत्पन्न हो गयी हैं?
उत्तर-बड़े शहरों में आबादी बढ़ने का मुख्य कारण शहरी आकर्षण के अतिरिक्त निम्नलिखित तत्त्व हैं

  1. आधुनिक सुविधाएं-बड़े नगरों में अस्पताल, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, स्कूल तथा सिनेमाघर होते हैं। ये सब सुविधाएं गांवों में नहीं होतीं। अत: गांवों से बहुत सारे लोग शहरों में पलायन कर जाते हैं।
  2. ग्रामों में शिक्षा का प्रसार-गांवों का शिक्षित वर्ग गांवों में ही नौकरी नहीं करता। उसे नौकरी करने के लिए बहुत दूर नगरों में जाना पड़ता है।
  3. गांवों के भ्रमित नवयुवक-गांवों के कुछ शिक्षित लोग खेती करना पसन्द नहीं करते। वे वहां की संयुक्त परिवार प्रणाली से दुःखी होने के कारण भी नगरों की ओर पलायन करते हैं।
  4. नगरों में रोजगार के साधन-नगरों में कारखाने तथा व्यापार की अधिक सुविधाएं होने के कारण शीघ्र रोजगार मिल जाता है। अतः कई ग्रामीण बेरोज़गार होने के कारण शहरों में आकर बस जाते हैं।

प्रभाव (प्रमुख समस्याएं)-भारत गांवों का देश है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में 10 में से 9 व्यक्ति गांवों में रहते थे। परन्तु अब स्थिति बदल गई है। प्रत्येक वर्ष लाखों व्यक्ति गांवों को छोड़कर शहरों की तरफ बढ़ रहे हैं। इससे शहरी जनसंख्या में बड़ी तेज़ी से वृद्धि हुई है। अब हर 4 में से 1 व्यक्ति शहर में रहता है। इसके अतिरिक्त शहरी जनसंख्या का अधिकांश भाग महानगरों में केन्द्रित हो गया है। बड़े नगरों में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या आज चिन्ता का विषय बन गई है। इसके कई दुष्परिणाम सामने आए हैं जिन्होंने अनेक समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं:

  1. नगरों में वर्तमान साधनों तथा उपलब्ध जन-सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ गया है। लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराना कठिन होता जा रहा है।
  2. नगरों में सफाई आदि की समस्या निरन्तर बनी रहती है। इससे प्रदूषण फैलता है।
  3. शहरी जनसंख्या बढ़ने से रोज़गार के अवसर कम होते जा रहे हैं जिससे निर्धनता बढ़ रही है।
  4. शहरी जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ अपराधों में भी वृद्धि हो रही है।
  5. शिक्षा दिन-प्रतिदिन महंगी होती जा रही है।
  6. संयुक्त परिवार टूट गए हैं जिससे वृद्ध मां-बाप के लिए समस्याएं पैदा हो गई हैं।
  7. लोगों द्वारा गांवों को छोड़कर शहरों में जाने से कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

प्रश्न 5.
भारत की जनसंख्या की सांस्कृतिक संरचना पर एक लेख लिखिए।
उत्तर-

  1. अनेक प्रजातियां-भारत में अनेक प्रजातियों के लोग रहते हैं-द्राविड़, मंगोल, आर्य आदि। इनके अतिरिक्त कुछ काकेशियन भी हैं। समय के साथ-साथ ये प्रजातियाँ आपस में एक-दूसरे से इस प्रकार घुल-मिल गई हैं कि अब उनके मूल लक्षण लुप्त हो गए हैं। फिर भी भारत के लोगों में बड़ी विविधता दिखाई पड़ती है। वास्तव में, भारतीय संस्कृति की सम्पन्नता इसकी विविधता में ही निहित है। सहिष्णुता की भावना, आदान-प्रदान तथा सब को अपने में मिलाने की प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति के विशिष्ट गुण हैं।
  2. विभिन्न धर्म एवं भाषाएं-
    1. भारत के लोग भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं। वे धर्म, प्रदेश, राजनीति तथा भाषा के बन्धनों से मुक्त हैं। एक ही धर्म को मानने वाले लोग भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलते हैं। भाषाएं प्रजातियों, धर्मों, जातियों तथा प्रदेशों की सीमाओं में नहीं बंधी हैं। इन प्रजातीय, धार्मिक, भाषायी तथा प्रादेशिक विविधताओं के बावजूद हम सभी भारतीय हैं।
    2. भारत हिन्दू, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी तथा अन्य कई धर्मों को मानने वाले लोगों का घर है। यहां किसी भी व्यक्ति को धर्म के आधार पर कोई विशेष अधिकार नहीं मिले हैं और न ही उसे किसी विशेष धर्म के कारण आर्थिक, राजनीतिक या सामाजिक क्षेत्र में कोई हानि ही उठानी पड़ती है।
    3. भारत में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से कुछ का उद्गम संस्कृत से तथा कुछ का द्रविड़ से है। असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, बंगला, मराठी, मलयालम, संस्कृत, सिन्धी और हिन्दी भारत की प्रमुख भाषाएं हैं। इनमें से दक्षिण भारत की चार भाषाओं-तमिल, तेलुगू, कन्नड़ तथा मलयालम की उत्पत्ति द्रविड़ भाषा से हुई है।
  3. भाषायी तथा साहित्यिक समानता-भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि भारत की विभिन्न भाषाओं तथा उनके साहित्य में ऊपरी अन्तर के बावजूद, कई बातों में बहुत-सी समानताएं हैं। सभी भारतीय भाषाओं का सम्बन्ध ध्वनि से है। सभी की संरचना भी लगभग एक-सी है।

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प्रश्न 6.
भारत में जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर लेख लिखिए जिसमें समस्या के समाधान के उपायों को भी बताएँ।
उत्तर-जब किसी देश की जनसंख्या इसके प्राकृतिक साधनों की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ती है तो उसका देश के साधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत में प्रत्येक 10 वर्ष के बाद जनगणना होती है। सन् 1921 तक भारत की जनसंख्या कुछ घटती-बढ़ती रही अथवा स्थिर रही, परन्तु 1921 के पश्चात् जनसंख्या निरन्तर बढ़ रही है। जनसंख्या की इस वृद्धि के कारण कई समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है

  1. निम्न जीवन स्तर-अन्य देशों के जीवन स्तर के मुकाबले में भारतीय लोगों का जीवन स्तर बहुत निम्न है। यह समस्या वास्तव में जनसंख्या की वृद्धि के कारण ही उत्पन्न हुई है।
  2. वनों की कटाई-बढ़ती हुई जनसंख्या को आवास देने तथा भोजन जुटाने के लिए अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता पड़ती है, ताकि कृषि का विस्तार किया जा सके। यह भूमि वनों को काट कर प्राप्त की जाती है। इसके कारण वनों के कटाव से जुड़ी समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती हैं; जैसे- भूमि का कटाव, बाढ़ों का अधिक आना, पर्यावरण का प्रदूषित होना तथा वन्य सम्पदा की हानि।
  3. पशुओं के लिए चारे का अभाव-भारत में केवल चार प्रतिशत क्षेत्र पर चरागाहें हैं। जनसंख्या की समस्या के कारण यदि इन्हें भी कृषि अथवा आवासों के निर्माण के लिए प्रयोग किया गया तो पशुओं के लिए चारे की समस्याएं और भी जटिल हो जाएंगी।
  4. भूमि पर दबाव-जनसंख्या की वृद्धि का सीधा प्रभाव भूमि पर पड़ता है। भूमि एक ऐसा साधन है जिसे बढ़ाया नहीं जा सकता। यदि भारत की जनसंख्या इस प्रकार बढ़ती रही तो भूमि पर भी दबाव पड़ेगा। इसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादों का और भी अधिक अभाव हो जाएगा।
  5. खनिजों का अभाव-हम बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं को उद्योगों का विकास करके पूरा कर रहे हैं, परन्तु उद्योगों के विकास के लिए खनिजों की और भी अधिक आवश्यकता होगी। परिणामस्वरूप हमारे खनिजों के भण्डार शीघ्र समाप्त हो जाएंगे।
  6. पर्यावरण की समस्या-जनसंख्या में वृद्धि के कारण पर्यावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु की आपूर्ति एक समस्या बन गई है। वनस्पति की कमी के कारण ऑक्सीजन की भी कमी हो रही है।

समस्या का समाधान-जनसंख्या की वृद्धि की समस्या से निपटने के लिए निम्नलिखित उपाए किए जाने चाहिएं

  1. सीमित परिवार योजनाओं को अधिक महत्त्व देना चाहिए।
  2. लोगों को फिल्मों, नाटकों तथा अन्य साधनों द्वारा सीमित परिवार का महत्त्व समझाया जाए।
  3. देश में अनपढ़ता को दूर करने का प्रयास किया जाए ताकि लोग स्वयं भी बढ़ती हुई जनसंख्या की हानियों को समझ सकें। स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया जाए।
  4. विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि की जाए ताकि विवाह छोटी आयु में न हो सकें।

प्रश्न 7.
देश में शिक्षा के फैलाव के प्रयासों का आलोचनात्मक अध्ययन कीजिए।
उत्तर-
शिक्षा मानव के सम्पूर्ण विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। आजादी के समय देश में मात्र 14 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे। साक्षरता का अर्थ कम-से-कम नाम लिखने और पढ़ने तक ही सीमित है। वर्ष 2001 में हुई जनगणना के अनुसार साक्षरता दर 74.01 प्रतिशत थी। पहले हमारे देश में केवल 6 करोड़ व्यक्ति ही साक्षर थे परन्तु अब इनकी संख्या बढ़कर 70 करोड़ से भी अधिक हो गयी है। इस प्रकार साक्षरता में 11 गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई है। परन्तु इस बीच जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में निरक्षर लोगों की संख्या भी बढ़ गयी है। हमारे देश के संविधान के अनुसार चौदह वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है। परन्तु अभी भी इस लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा सका है। इसका कारण यह है कि देश के हर गांव में स्कूल खोलना तथा हर माँ-बाप को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मनाना एक बहुत ही कठिन कार्य है। पहले 15 प्राथमिक स्कूलों के पीछे एक मिडिल स्कूल था, अब चार के पीछे एक मिडिल स्कूल है। इसके अतिरिक्त कई राज्य सरकारों ने चलते-फिरते स्कूलों तथा रात्रि स्कूलों का भी प्रबन्ध किया है। लड़कियों की शिक्षा पर विशेष जोर देने हेतु लड़कियों के लिए छात्रवृत्तियों का आकर्षण दिया गया है। परन्तु कई राज्यों में बच्चों का बीच में ही स्कूल की शिक्षा छोड़ देना चिन्ता का विषय बना हुआ है। यह बात उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार या राजस्थान में आम है। इन चारों ही राज्यों में साक्षरता प्रतिशत देश के सभी राज्यों से कम है। इसके विपरीत केरल राज्य देश का एक ऐसा राज्य है जहां साक्षरता दर न केवल सबसे अधिक है बल्कि बहुत ऊंची है।
अभी भी देश में 100 बच्चों में से मात्र 25 बच्चे ही आठवीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं। इस प्रकार तीन चौथाई बच्चे शिक्षा के वास्तविक लाभ से वंचित हैं। देश में उच्च एवं औद्योगिक शिक्षा का भी भारी अभाव है।

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IV. निम्नलिखित को मानचित्र पर दिखायें:

  1. अधिक जनसंख्या वाले चार क्षेत्र।
  2. अधिक साक्षरता दर वाले दो राज्य।
  3. सबसे अधिक व सबसे कम जनसंख्या वाले दो राज्य।
  4. अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले चार क्षेत्र।

उत्तर-
विद्यार्थी अध्यापक की सहायता से स्वयं करें।

PSEB 10th Class Social Science Guide जनसंख्या Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

I. उत्तर एक शब्द अथवा एक लाइन में

प्रश्न 1.
जनसंख्या वितरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
जनसंख्या वितरण से तात्पर्य किसी क्षेत्र में जनसंख्या प्रारूप फैलाव लिए हुए है अथवा उसका एक ही जगह पर जमाव है।

प्रश्न 2.
जनसंख्या घनत्व का क्या अर्थ है?
उत्तर-
किसी क्षेत्र के एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रहने वाले लोगों की औसत संख्या को उस क्षेत्र का जनसंख्या घनत्व कहते हैं।

प्रश्न 3.
भारत के जनसंख्या वितरण को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक कौन-सा है और क्यों ?
उत्तर-
कृषि उत्पादकता।

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प्रश्न 4.
(i) भारत में किस धर्म के लोगों में लिंग अनुपात सबसे अधिक तथा
(ii) किस धर्म के लोगों में सबसे कम है?
उत्तर-
(i) भारत में ईसाई धर्म के लोगों में लिंग अनुपात सबसे अधिक तथा।
(ii) सिक्खों में सबसे कम है।

प्रश्न 5.
भारत के अति सघन आबाद दो भागों के नाम बताइए।
उत्तर-
भारत में ऊपरी गंगा घाटी तथा मालाबार में अति सघन जनसंख्या है।

प्रश्न 6.
भारत के किन प्रदेशों की जनसंख्या का घनत्व कम है?
उत्तर-
भारत के उत्तरी पर्वतीय प्रदेश, घने वर्षा वनों वाले उत्तर-पूर्वी प्रदेश, पश्चिमी राजस्थान के अत्यन्त शुष्क क्षेत्र और गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जन-घनत्व कम है।

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प्रश्न 7.
नगरों में जनसंख्या के बहुत तेजी से बढ़ने से क्या दुष्परिणाम हुए हैं?
उत्तर-
नगरों में जनसंख्या के बहुत तेजी से बढ़ने के कारण उपलब्ध संसाधनों और जन-सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ा है।

प्रश्न 8.
स्त्री-पुरुष अथवा लिंग अनुपात से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
प्रति हजार पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या को लिंग अनुपात कहते हैं।

प्रश्न 9.
अर्जक जनसंख्या से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
अर्जक जनसंख्या से अभिप्राय उन लोगों से है जो विभिन्न व्यवसायों में काम करके धन कमाते हैं।

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प्रश्न 10.
आश्रित जनसंख्या क्या होती है ?
उत्तर-
आश्रित जनसंख्या में वे बच्चे तथा बूढ़े आते हैं जो काम नहीं कर सकते अपितु अर्जक जनसंख्या पर आश्रित रहते हैं।

प्रश्न 11.
भारत में रहने वाली चार प्रजातियों के नाम बताएं।
उत्तर-
भारत में रहने वाली चार प्रजातियां हैं-द्रविड़, मंगोल, आर्य और काकेशियन।

प्रश्न 12.
वे कौन-सी चार भाषाएं हैं जिनकी उत्पत्ति द्रविड़ भाषा से हुई है?
उत्तर-
तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम की उत्पत्ति द्रविड़ भाषा से हुई है।

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प्रश्न 13.
मृत्यु-दर के तेज़ी से घटने का मुख्य कारण बताएं।
उत्तर-
मृत्यु-दर के तेज़ी से घटने का मुख्य कारण स्वास्थ्य सेवाओं का प्रसार है।

प्रश्न 14.
भारत में सबसे कम जनसंख्या वाला राज्य है?
उत्तर-
सिक्किम।

प्रश्न 15.
भारत में जनसंख्या घनत्व कितना है?
उत्तर-
382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि० मीटर।

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प्रश्न 16.
पश्चिमी बंगाल में जनसंख्या घनत्व कितना है?
उत्तर-
1082 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर।

प्रश्न.17.
भारत में सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाले राज्य का नाम बताइए।
उत्तर-
बिहार।

प्रश्न 18.
भारत में सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य कौन-सा है?
उत्तर-
उत्तर प्रदेश।

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प्रश्न 19.
भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार लिंग-अनुपात है?
उत्तर-
944 स्त्रियां प्रति एक हज़ार पुरुष।

प्रश्न 20.
भारत में सबसे अधिक साक्षरता दर वाला राज्य कौन-सा है?
उत्तर-
केरल।

प्रश्न 21.
भारत में सबसे कम जनसंख्या घनत्व वाला राज्य है?
उत्तर-
अरुणाचल प्रदेश।

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II. रिक्त स्थानों की पूर्ति

  1. 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल शहरी जनसंख्या लगभग ………. है।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों का प्रतिशत ………….. है।
  3. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जनसंख्या घनत्व ………… प्रति वर्ग किलोमीटर है।
  4. देश में मुख्य श्रमिकों का प्रतिशत ……………. है।
  5. देश में मुख्य श्रमिकों का सबसे अधिक प्रतिशत …………… में है।
  6. देश में 15-65 आयु वर्ग में ……………. प्रतिशत जनसंख्या है।

उत्तर-

  1. 1.35 करोड़,
  2. 40 %,
  3. 382,
  4. 37.50,
  5. आंध्रप्रदेश,
  6. 58.4।

III. बहुविकल्पीय

प्रश्न 1.
जनसंख्या की दृष्टि भारत का विश्व में स्थान है
(A) दूसरा
(B) चौथा
(C) पाँचवां
(D) नौवां।
उत्तर-
(A) दूसरा

प्रश्न 2.
पंजाब में पूरे देश की लगभग जनसंख्या निवास करती है
(A) 1.3%
(B) 2.3 %
(C) 3.2%
(D) 1.2%
उत्तर-
(B) 2.3 %

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प्रश्न 3.
देश की कितने प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है?
(A) 79%
(B) 75%
(C) 78%
(D) 71%
उत्तर-
(D) 71%

प्रश्न 4.
2011 की जनगणना के अनुसार पंजाब में जनसंख्या घनत्व है
(A) 888
(B) 944
(C) 550
(D) 933
उत्तर-
(C) 550

प्रश्न 5.
2011 की जनगणना के अनुसार देश में प्रति 1000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या थी —
(A) 944
(B) 933
(C) 939
(D) 894
उत्तर-
(A) 944

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IV. सत्य-असत्य कथन

प्रश्न-सत्य/सही कथनों पर (✓) तथा असत्य/ग़लत कथनों पर (✗) का निशान लगाएं

1. जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में भारत का पहला स्थान है।
2. देश के पर्वतीय तथा मरुस्थलीय क्षेत्रों में जनसंख्या बहुत सघन है।
3. निर्धन देशों में बाल्य आयु वर्ग (0-14 वर्ष) की जनसंख्या का प्रतिशत अधिक है।
4. भारत में लिंग-अनुपात कम अर्थात् प्रतिकूल है।
5. जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि दर जन्म-दर तथा मृत्यु दर के अन्तर पर निर्भर करती है।
उत्तर-
1. (✗),
2. (✗),
3. (✓),
4. (✓),
5. (✓).

V. उचित मिलान

  1. प्रति हजार पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या – आश्रित जनसंख्या
  2. बच्चे और बूढ़े – बिहार
  3. भारत का सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला राज्य – उत्तर प्रदेश
  4. भारत का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य – लिंग अनुपात

उत्तर-

  1. प्रति हज़ार पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या-लिंग अनुपात,
  2. बच्चे और बूढ़े-आश्रित जनसंख्या,
  3. भारत का सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला राज्य–बिहार,
  4. भारत का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्यउत्तर प्रदेश।

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छोटे उत्तर वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में असमान जनसंख्या वितरण के तीन कारण दीजिए।
उत्तर-
भारत में असमान जनसंख्या वितरण के तीन कारण निम्नलिखित हैं —

  1. भूमि का उपजाऊपन-भारत के जिन राज्यों में उपजाऊ भूमि का अधिक विस्तार है, वहां जनसंख्या का घनत्व अधिक है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार ऐसे ही राज्य हैं।
  2. वर्षा की मात्रा-अधिक वर्षा वाले भागों में प्रायः जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। उत्तरी भारत में पूर्व से पश्चिम को जाते हुए वर्षा की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए जनसंख्या का घनत्व भी घटता जाता है।
  3. जलवायु-जहां जलवायु स्वास्थ्य के लिए अनुकूल होती है, वहां भी जनसंख्या घनत्व अधिक होता है। असम में वर्षा अधिक होते हुए भी अधिक नमी के कारण मलेरिया का प्रकोप बना रहता है। यही कारण है कि वहां जनसंख्या का घनत्व कम है।

प्रश्न 2.
भारतीय जनसंख्या की वृद्धि भारत के लिए समस्या क्यों बनी हुई है?
उत्तर-
भारत का क्षेत्रफल तो उतना ही है, परन्तु स्वतन्त्रता के बाद देश की जनसंख्या लगभग तिगुनी हो गई है। आज यह 1.95 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। इतनी बड़ी जनसंख्या की मूल आवश्यकताएं पूरी करना बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है। देश के इन लोगों के लिए स्कूलों, अस्पतालों तथा अन्य सेवाओं की व्यवस्था करना आसान नहीं है। जनसंख्या की वृद्धि के साथ संचार तथा यातायात की सेवाओं में भी वृद्धि करनी होगी। सबसे बड़ी समस्या मानवीय संसाधनों में गुणवत्ता का समावेश करना है।

प्रश्न 3.
भारत में जनसंख्या वृद्धि के तीन बुरे प्रभाव बताइए।
उत्तर-
भारत में जनसंख्या वृद्धि के तीन बुरे प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. लोगों को जीवन की आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं तथा उनका जीवन स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है।
  2. भारत में बेरोज़गारी की समस्या गम्भीर रूप धारण करती जा रही है।
  3. जनसंख्या वृद्धि से कृषि पर दबाव बढ़ गया है। इसके परिणामस्वरूप लोग गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। इससे शहरों में प्रदूषण, बेरोजगारी तथा अपराध की दर में वृद्धि हुई है।

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प्रश्न 4.
भारत की जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना क्यों असन्तुलित है?
उत्तर-
भारत की जनसंख्या का दो-तिहाई भाग कृषि पर आश्रित है। भारत में कुल अर्जक जनसंख्या का केवल 10 प्रतिशत भाग ही उद्योगों में लगा हुआ है। जनसंख्या का शेष एक-चौथाई भाग तृतीयक व्यवसायों अर्थात् सेवाओं में लगा हुआ है। इस व्यावसायिक संरचना से एक बात स्पष्ट है कि हमारी जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग अर्थव्यवस्था के गौण क्षेत्र में काम करता है। गौण क्षेत्र में निर्माण उद्योग आते हैं, जिनके द्वारा हम कच्चे माल से उपयोगी वस्तुएं बनाकर राष्ट्रीय आय में वृद्धि करते हैं। अतः जिन क्षेत्रों में अधिक लोग लगे होने चाहिएं, वहां नहीं लगे हैं। इसलिए हमारी जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना असन्तुलित है।

प्रश्न 5.
उत्तरी भारत का मैदान अधिक घना आबाद क्यों है? दो कारण दीजिए।
उत्तर-
उत्तरी भारत के मैदान के घने आबाद होने के दो कारण निम्नलिखित हैं —

  1. इन प्रदेशों की जलवायु स्वास्थ्य के लिए अच्छी है तथा यहां की मिट्टी उपजाऊ है और कृषि व्यवसाय उन्नत है।
  2. यहां यातायात के साधन उन्नत हैं और ये प्रदेश औद्योगिक दृष्टि से काफ़ी विकसित हैं।

प्रश्न 6.
भारत के कौन-से तीन भाग विरल आबाद हैं ? इसके लिए उत्तरदायी तीन महत्वपूर्ण कारण भी बताइए।
उत्तर-
भारत के थार मरुस्थल, पश्चिमी हिमालय प्रदेश तथा छोटा नागपुर के पठार में जनसंख्या विरल आबाद है।
कारण —

  1. इन प्रदेशों की भूमि उपजाऊ नहीं है। यह या तो रेतीली है या पथरीली।
  2. यहां यातायात के साधनों का विकास नहीं हो सका है।
  3. यहां की जलवायु स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है।

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प्रश्न 7.
भारत को दृष्टि में रखते हुए निम्नलिखित की व्याख्या करो
1. जनगणना 2. जनसंख्या का औसत घनत्व 3. मृत्यु-दर।
उत्तर-

  1. जनगणना-सरकार प्रत्येक 10 वर्ष के बाद देश के सभी लोगों की गणना करवाती है। इस प्रक्रिया को जनगणना कहते हैं। इसमें कुछ सामाजिक तथा आर्थिक आंकड़े भी एकत्र किए जाते हैं। भारत में अन्तिम जनगणना 2011 ई० में हुई थी।
  2. जनसंख्या का औसत घनत्व-किसी प्रदेश के एक इकाई क्षेत्र में रहने वाले लोगों की औसत संख्या उस प्रदेश की जनसंख्या का औसत घनत्व कहलाती है। इसे प्राय: ‘व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर’ में व्यक्त किया जाता है। 2011 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में जनसंख्या का औसत घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।
  3. मृत्यु दर-इससे हमारा अभिप्राय मरने वालों की संख्या से है। जन्म-दर की भान्ति मरने वालों की संख्या को भी हम प्रति हज़ार में व्यक्त करते हैं। प्रति हज़ार व्यक्तियों के पीछे जितने व्यक्तियों की मृत्यु होती है, उसे मृत्यु-दर कहते हैं।

प्रश्न 8.
आश्रित अनुपात का क्या अर्थ है? भारत में आश्रित अनुपात अपेक्षाकृत ऊंचा क्यों है? दो कारण दीजिए।
उत्तर-
आश्रित अनुपात से अभिप्राय जनसंख्या का वह भाग है, जो स्वयं आय अर्जित नहीं करता। काम न करने वाले बूढ़े और बच्चे आश्रित जनसंख्या में गिने जाते हैं। कुल जनसंख्या का जितने प्रतिशत भाग आश्रित जनसंख्या होती है उसका अनुपात ही आश्रित अनुपात कहलाता है।
कारण —

  1. भारत में परम्परागत रूप से संयुक्त परिवार प्रणाली चली आ रही है। इसलिए वहां बूढ़ों और बच्चों को अन्य देशों की तुलना में रोजी रोटी की गारण्टी होती है।
  2. निरक्षरता तथा रूढ़िवादिता ने भी इस बात को बढ़ावा दिया है।

प्रश्न 9.
भारतीय नियोजन की सबसे बड़ी भूल क्या है? इसके क्या परिणाम निकले हैं?
उत्तर-
अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन के अनुसार मानव संसाधनों के विकास पर समुचित ध्यान न देना भारतीय नियोजन (Indian Planning) की बहुत बड़ी भूल है। यह हमारी आर्थिक विफलताओं का मूल कारण है। ऐसा माना जाता है कि सामाजिक न्याय के पहलुओं पर समुचित ध्यान न देने के कारण स्वतन्त्र भारत में हुए आर्थिक विकास का लाभ निर्धनों, महिलाओं तथा समाज के कमजोर एवं शोषित वर्गों तक नहीं पहुंच पाया। परिणामस्वरूप देश में आर्थिक विकास के साथ-साथ गहरी सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक व राजनीतिक विषमताएं पैदा हो गई हैं। आजकल हमें देश में जो जातीय, धार्मिक एवं क्षेत्रीय संघर्ष देखने को मिल रहे हैं, इनके मूल में मानव संसाधनों के विकास की अवहेलना है।

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प्रश्न 10.
जनसंख्या वितरण तथा जनसंख्या घनत्व में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
जनसंख्या वितरण का सम्बन्ध स्थान से तथा घनत्व का सम्बन्ध अनुपात से है। जनसंख्या वितरण का अर्थ यह है कि देश के किसी एक भाग में जनसंख्या का क्षेत्रीय प्रारूप (Pattern) कैसा है। हम यह भी कह सकते हैं कि जनसंख्या वितरण में इस बात की जानकारी प्राप्त की जाती है कि जनसंख्या प्रारूप फैलाव लिए है या इसका एक ही स्थान पर अधिक जमाव है। इसके विपरीत जनसंख्या घनत्व में, जिनका सम्बन्ध आकार एवं क्षेत्र से होता है, मनुष्य तथा क्षेत्र के अनुपात पर ध्यान दिया जाता है।

प्रश्न 11.
संसाधनों का संरक्षण क्यों आवश्यक है? दो कारण बताइए।
उत्तर-
जनसंख्या की वृद्धि और आर्थिक विकास के कारण साधनों का निरन्तर उपभोग हुआ है। यदि साधनों के उपभोग की यही गति रही तो एक दिन आर्थिक विकास रुक जाएगा और मानव सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अत: साधनों का संरक्षण अनिवार्य हो गया है। निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाएगा कि साधनों का संरक्षण क्यों आवश्यक है —

  1. आज मानव-आवास के कारण घने बसे देशों में भूमि दुर्लभ हो गई है। कृषि के लिए उपयोगी भूमि पर भी मकान बन रहे हैं। अतः यह आवश्यक हो गया है कि उपलब्ध भूमि का सर्वोत्तम उपयोग किया जाए।
  2. भूमिगत जल के निरन्तर उपयोग से जल-स्तर नीचा हो गया है, जिससे कृषि पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए भूमिगत जल का संरक्षण भी आवश्यक हो गया है।

प्रश्न 12.
राजस्थान तथा अरुणाचल प्रदेश में जनसंख्या कम क्यों है?
उत्तर-
भारत में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां जीवन की सुविधाएं काफ़ी कठिनता से प्राप्त होती हैं। इन क्षेत्रों में या तो जलवायु कठोर है अथवा भूमि उपजाऊ नहीं है या ये क्षेत्र पहाड़ी हैं। ऐसे क्षेत्रों में कृषि करना बड़ा कठिन कार्य है। इसके अतिरिक्त सिंचाई की सुविधाएँ भी कम हैं। इसके कारण उत्पादन भी कम होता है। ऐसे क्षेत्रों में उद्योग भी उन्नति नहीं कर सकते। राजस्थान तथा अरुणाचल प्रदेश में जनसंख्या कम होने के यही कारण हैं।

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छोटे उत्तर वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में जनसंख्या के असमान वितरण के लिए उत्तरदायी किन्हीं पाँच कारकों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
भारत में जनसंख्या का वितरण एक समान नहीं है। इसके लिए निम्नलिखित अनेक तत्त्व उत्तरदायी हैं —

  1. भूमि का उपजाऊपन-भारत के जिन राज्यों में उपजाऊ भूमि का अधिक विस्तार है, वहां जनसंख्या का घनत्व अधिक है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार ऐसे ही राज्य हैं।
  2. वर्षा की मात्रा-अधिक वर्षा वाले भागों में प्रायः जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। उत्तरी भारत में पूर्व से पश्चिम को जाते हुए वर्षा की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए जनसंख्या का घनत्व भी घटता जाता है।
  3. जलवायु-जहां जलवायु स्वास्थ्य के लिए अनुकूल है, वहां भी जनसंख्या घनत्व अधिक होता है, इसके विपरीत जिन प्रदेशों में जलवायु स्वास्थ्य के लिए अच्छी न हो, वहां जनसंख्या का घनत्व कम होता है। असम में वर्षा अधिक होते हुए भी जनसंख्या का घनत्व कम है, क्योंकि वहां अधिक नमी के कारण मलेरिया का प्रकोप अधिक रहता है।
  4. परिवहन के उन्नत साधन-परिवहन के साधनों के अधिक विकास के कारण व्यापार की प्रगति तीव्र हो जाती है जिससे जनसंख्या का घनत्व भी अधिक हो जाता है। उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार इत्यादि राज्यों में अधिक जनसंख्या होने का एक कारण परिवहन के साधनों का विकास है।
  5. औद्योगिक विकास-जिन स्थानों पर उद्योग स्थापित हो जाते हैं, वहां पर भी जनसंख्या का घनत्व बढ़ जाता है। इसका कारण यह है कि औद्योगिक क्षेत्रों में आजीविका कमाना सरल होता है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता आदि नगरों में औद्योगिक विकास के कारण ही जनसंख्या अधिक है। इसके अतिरिक्त ऐसे क्षेत्रों में जहां प्राकृतिक संसाधन अधिक होते हैं, वहां भी जनसंख्या अधिक होती है।

प्रश्न 2.
नीचे भारत की जनसंख्या से सम्बन्धित पाँच समस्याएं दी गई हैं। नीचे लिखी प्रत्येक समस्या से सम्बन्धित एक दुष्प्रभाव बताइए तथा प्रत्येक दुष्प्रभाव का एक व्यावहारिक समाधान सुझाइए।

  1. जनसंख्या का उच्च घनत्व
  2. असंतुलित स्त्री-पुरुष अनुपात
  3. सभी के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं
  4. पर्यावरण (बढ़ती हुई जनसंख्या के सन्दर्भ में)
  5. स्त्रियों की आर्थिक सहभागिता।

उत्तर-

  1. जनसंख्या का उच्च घनत्व-जनसंख्या के उच्च घनत्व से भोजन तथा आवास की समस्या पैदा होती है। इस समस्या के समाधान के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम को अधिक-से-अधिक लोकप्रिय बनाना चाहिए।
  2. असंतुलित स्त्री-पुरुष अनुपात-यह अनुपात पुरुषों के पक्ष में होने के कारण देश में आज भी स्त्रियों की स्थिति कमज़ोर बनी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए लोगों में इस बात की जागृति पैदा करना आवश्यक है कि वे कन्याजन्म को अशुभ न माने और उनके पालन-पोषण की ओर उचित ध्यान दें।
  3. सभी के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं-जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण देश में सभी के लिए उचित स्वास्थ्य सेवाएं जुटा पाना असंभव है। अत: देश में अनेक रोगग्रस्त लोग चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ देते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए हमें स्वास्थ्य सेवाओं का ‘सचल साधनों’ तथा अन्य तरीकों द्वारा विस्तार करना चाहिए।
  4. पर्यावरण की समस्या-बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है और पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। पर्यावरण के बचाव के लिये जनसंख्या की वृद्धि पर रोक लगानी चाहिए तथा वन क्षेत्रों का विस्तार करना चाहिए।
  5. स्त्रियों की आर्थिक सहभागिता- भारत में अधिकांश स्त्रियां अब भी घर के काम-काज तक सीमित हैं और उनकी आर्थिक सहभागिता नगण्य है। इसलिए अधिकांश परिवारों की वार्षिक आय सीमित है। अतः स्त्री-शिक्षा के विस्तार से स्त्रियों की आर्थिक सहभागिता को बढ़ाना चाहिए।

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जनसंख्या PSEB 10th Class Geography Notes

  • मानव संसाधन-मनुष्य अपने पारितन्त्र का मात्र एक अंग ही नहीं रह गया, अब वह अपने लाभ के लिए पर्यावरण में परिवर्तन भी कर सकता है। अब उसकी शक्ति उसकी गुणवत्ता में समझी जाती है। राष्ट्र को ऊंचा उठाने के लिए हमें अपने मानवीय संसाधनों को विकसित, शिक्षित एवं प्रशिक्षित करना अनिवार्य है। तभी प्राकृतिक संसाधनों का विकास सम्भव हो सकेगा।
  • 2011 की जनगणना-2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 121 करोड़ है। यह संसार की कुल जनसंख्या का 17.2% भाग है।
  • देश की अधिकतर जनसंख्या मैदानी भागों में निवास करती है। देश में जनसंख्या का घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।
  • ग्रामीण तथा शहरी विभाजन-2011 की जनगणना के अनुसार भारत में शहरी जनसंख्या 29 प्रतिशत है। शेष 71% लोग गांवों में रहते हैं।
  • व्यावसायिक संरचना-हमारी जनसंख्या का 2/3 भाग आज भी कृषि पर आश्रित है। भारत की अर्जक जनसंख्या का केवल 10% भाग ही उद्योगों में लगा हुआ है। शेष एक चौथाई भाग तृतीयक अर्थात् सेवाओं में लगा हुआ है।
  • स्त्री-पुरुष अनुपात-स्त्री-पुरुष के सांख्यिकी अनुपात को स्त्री-पुरुष अनुपात कहते हैं। इसे प्रति हज़ार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या के रूप में व्यक्त किया जाता है।
  • आयु संरचना-जनसंख्या को सामान्यतः तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-(1) 15 वर्ष से कम आयु-वर्ग (2) 15 से 65 वर्ष का आयु वर्ग तथा (3) 65 वर्ष से अधिक का आयु वर्ग। इस विभाजन को जनसंख्या का पिरामिड कहा जाता है।
  • अर्जक तथा आश्रित जनसंख्या-भारत में जनसंख्या का 41.6% भाग आश्रित है। शेष 58.4% अर्जक जनसंख्या को आश्रित जनसंख्या का निर्वाह करना पड़ता है।
  • बढ़ती जनसंख्या-जनसंख्या की वृद्धि दर जन्म-दर तथा मृत्यु-दर के अन्तर पर निर्भर करती है। भारत की मृत्यु दर तो काफ़ी नीचे आ गई है परन्तु जन्म-दर बहुत धीमे से घटी है। मृत्यु-दर के घटने का मुख्य कारण स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार रहा है।
  • साक्षरता-स्वतन्त्रता के समय हमारे देश में केवल 14% लोग ही साक्षर थे। 2011 में यह प्रतिशत बढ़कर 74.01% हो गया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक प्रशासन (Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के सिविल प्रबंध के बारे में विवरण दें।
(Give a brief account of the Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सिविल प्रबंध का वर्णन करें। (Describe the Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन प्रबंध का विस्तार सहित वर्णन करो।
(Explain in detail the Central and Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन का वर्णन कीजिए। (Describe the Central and Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय व स्थानीय शासन प्रबंध का विस्तृत ब्योरा दें।
(Give a detailed description of Maharaja Ranjit Singh’s Provincial and Local Administration.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय शासन का विस्तारपूर्वक वर्णन करो। (Describe in detail the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह न केवल एक महान् विजेता था अपितु एक उच्चकोटि का शासन प्रबंधक भी . था। उसके सिविल अथवा नागरिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
I. केंद्रीय शासन प्रबंध (Central Administration)
(क) महाराजा (The Maharaja)-महाराजा समूचे केंद्रीय प्रशासन का धुरा था। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा गैर-सैनिक अधिकारियों की नियुक्तियाँ करता था। वह अपनी इच्छानुसार किसी को भी उसके पद से अलग कर सकता था। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश था। उसके मुख से निकला हुआ हर शब्द प्रजा के लिये कानून बन जाता था। कोई भी व्यक्ति उसके आदेश का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। वह मुख्य सेनापति भी था तथा राज्य की सारी सेना उसके इशारे पर चलती थी। उसको युद्ध की घोषणा करने या संधि करने का अधिकार था। वह अपनी प्रजा पर नए कर लगा सकता था अथवा पुराने करों को कम या माफ कर सकता था। संक्षिप्त में महाराजा की शक्तियाँ किसी निरंकुश शासक से कम नहीं थीं परंतु महाराजा कभी भी इन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करता था।

(ख) मंत्री (Ministers)-प्रशासन प्रबंध की कुशलता के लिये महाराजा ने एक मंत्रिपरिषद् का गठन किया हुआ था। केवल योग्य एवं ईमानदार व्यक्तियों को ही मंत्री पद पर नियुक्त किया जाता था। इन मंत्रियों की नियुक्ति महाराजा स्वयं करता था। ये मंत्री अपने-अपने विभागों के संबंध में महाराजा को परामर्श देते थे। महाराजा के लिये उनके परामर्श को स्वीकार करना आवश्यक नहीं था। महाराजा के महत्त्वपूर्ण मंत्री निम्नलिखित थे
1. प्रधानमंत्री (Prime Minister) केंद्र में महाराजा के पश्चात् दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान प्रधानमंत्री का था। वह राज्य के सभी राजनीतिक मामलों में महाराजा को परामर्श देता था। वह राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण विभागों की देखभाल करता था। वह महाराजा की अनुपस्थिति में उसका प्रतिनिधित्व करता था। वह अपनी अदालत लगाकर मुकद्दमों का निर्णय भी करता था। हर प्रकार के प्रार्थना-पत्र उसके द्वारा ही महाराजा तक पहुँचाये जाते थे। वह महाराजा के सभी आदेशों को लागू करवाता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस पद पर अधिक देर तक राजा ध्यान सिंह रहा।

2. विदेश मंत्री (Foreign Minister)-महाराजा रणजीत सिंह के समय विदेश मंत्री का पद भी बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह विदेश नीति को तैयार करता था। वह महाराजा को दूसरी शक्तियों के साथ युद्ध एवं संधि के संबंध में परामर्श देता था। वह विदेशों से आने वाले पत्र महाराजा को पढ़कर सुनाता तथा महाराजा के आदेशानुसार उन पत्रों का जवाब भेजता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय विदेश मंत्री के पद पर फकीर अजीजउद्दीन लगा हुआ था।

3. वित्त मंत्री (Finance Minister)-वित्त मंत्री महाराजा के महत्त्वपूर्ण मंत्रियों में से एक था तथा उसको दीवान कहा जाता था। उसका मुख्य कार्य राज्य की आय तथा व्यय का ब्योरा रखना था। सभी विभागों के व्ययों आदि से संबंधित सभी कागज़ पहले दीवान के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध वित्त मंत्री दीवान भवानी दास, दीवान गंगा राम तथा दीवान दीनानाथ थे।

4. मुख्य सेनापति (Commander-in-Chief)-महाराजा रणजीत सिंह अपनी सेना का स्वयं ही मुख्य सेनापति था। विभिन्न अभियानों के समय महाराजा विभिन्न व्यक्तियों को सेनापति नियुक्त करता था। उनका मुख्य कार्य युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करना तथा उनमें अनुशासन रखना था। दीवान मोहकम चंद, मिसर दीवान चंद तथा सरदार हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के प्रख्यात सेनापति थे।

5. डियोढ़ीवाला (Deorhiwala)—डियोढ़ीवाला शाही राजवंश तथा राज दरबार की देखभाल करता था। उसकी अनुमति के बिना कोई व्यक्ति महलों के अंदर नहीं जा सकता था। इसके अतिरिक्त वह महाराजा के महलों के लिये पहरेदारों का भी प्रबंध करता था। इसके अतिरिक्त वह जासूसों का भी उचित प्रबंध करता था। महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध डियोढ़ीवाला जमादार खुशहाल सिंह था।

(ग) केंद्रीय विभाग या दफ्तर (Central Departments or Daftars)-महाराजा रणजीत सिंह ने प्रशासन की सुविधा के लिये केंद्रीय शासन प्रबंध को देखभाल के लिए विभिन्न विभागों या दफ्तरों में बाँटा हुआ था। इनकी संख्या के बारे में इतिहासकारों में विभिन्नता है। डॉ० जी० एल० चोपड़ा के अनुसार इनकी संख्या 15, डॉ० एन० के० सिन्हा के अनुसार 12 तथा डॉ० सीताराम कोहली के अनुसार 7 थी। इनमें से मुख्य दफ्तर निम्नलिखित थे—

  1. दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल (Daftar-i-Abwab-ul-Mal) यह दफ्तर राज्य के विभिन्न स्रोतों से होने वाली आय का ब्योरा रखता था।
  2. दफ्तर-ए-माल (Daftar-i-Mal)-यह दफ्तर विभिन्न परगनों से प्राप्त किये गये भूमि लगान का ब्योरा रखता था।
  3. दफ्तर-ए-वजुहात (Daftar-i-Wajuhat)-यह दफ्तर अदालतों के शुल्क, अफीम, भाँग तथा अन्य नशे वाली वस्तुओं पर लगे राजस्व से प्राप्त होने वाली आय का ब्योरा रखता था।,
  4. दफ्तर-ए-तोजिहात (Daftar-i-Taujihat)-यह दफ्तर शाही वंश की आय का ब्योरा रखता था।
  5. दफ्तर-ए-मवाजिब (Daftar-i-Mawajib) यह दफ्तर सैनिक तथा सिविल कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतनों का ब्योरा रखता था।
  6. दफ्तर-ए-रोजनामचा-इखराजात (Daftar-i-Roznamcha-i-Ikhrarat)—यह दफ्तर राज्य की दैनिक होने वाली आय का ब्योरा रखता था।

II. प्रांतीय प्रबंध (Provincial Administration)
महाराजा रणजीत सिंह ने शासन प्रबंध की कुशलता के लिए राज्य को चार बड़े सूबों में बाँटा हुआ था। इन सूबों के नाम ये थे—

  1. सूबा-ए-लाहौर,
  2. सूबा-ए-मुलतान,
  3. सूबा-ए-कश्मीर,
  4. सूबा-ए-पेशावर।

नाज़िम सूबे का मुख्य अधिकारी होता था। नाज़िम का मुख्य कार्य अपने अधीन प्रांत में शांति बनाये रखना था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों पर नज़र रखता था। वह भूमि का लगान एकत्र करने में कर्मचारियों की सहायता करता था। वह जिलों के कारदारों के कार्यों पर नज़र रखता था। इस तरह नाज़िम के पास असंख्य अधिकार थे, परंतु वह उनका दुरुपयोग नहीं कर सकता था। महाराजा अपनी इच्छानुसार नाज़िम को स्थानांतरित कर सकता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय–

  1. सरदार लहना सिंह मजीठिया,
  2. मिसर रूप लाल,
  3. दीवान सावन मल,
  4. करनैल मीहा सिंह,
  5. अवीताबिल नाज़िम थे।

III. स्थानीय प्रबंध (Local Administration)
1. परगनों का शासन प्रबंध (Administration of the Parganas)-प्रत्येक प्रांत को आगे कई परगनों में बाँटा गया था। परगने का मुख्य अधिकारी कारदार होता था। कारदार का लोगों के साथ प्रत्यक्ष संबंध था। उसकी स्थिति आजकल के डिप्टी कमिश्नर की तरह थी। उसको असंख्य कर्त्तव्य निभाने पड़ते थे। कारदार के मुख्य कार्य परगने में शाँति स्थापित करना, महाराजा के आदेशों की पालना करवाना, लगान एकत्र करना, लोगों के हितों का ध्यान रखना तथा दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनना था। कारदार की सहायता के लिए कानूनगो तथा मुकद्दम नामक कर्मचारी नियुक्त किए जाते थे।

2. गाँव का प्रबंध (Village Administration)-प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। इसे उस समय मौजा कहते थे। गाँवों का प्रबंध पंचायत चलाती थी। पंचायत ग्रामीणों की देखभाल करती थी तथा उनके झगड़ों का समाधान करती थी। लोग पंचायतों को भगवान् का रूप समझते थे तथा उनके निर्णयों को स्वीकार करते थे। पटवारी गाँव की भूमि का रिकॉर्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। मुकद्दम गाँव का मुखिया होता था। वह सरकार एवं लोगों के मध्य एक कड़ी का काम करता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

3. लाहौर शहर का प्रबंध (Administration of the City of Lahore)-महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रबंध अन्य शहरों से अलग ढंग से किया जाता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी ‘कोतवाल’ होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस पद पर इमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना, शहर में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देखभाल करना, व्यापार एवं उद्योग का ध्यान रखना, नाप-तोल की वस्तुओं पर नज़र रखना आदि थे। सारे शहर को मुहल्लों में बाँटा गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अधीन होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफ़ाई का प्रबंध करता था।

IV. लगान प्रबंध (Land Revenue Administration)
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने इस ओर अपना विशेष ध्यान दिया। लगान एकत्र करने की निम्नलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं—

  1. बटाई प्रणाली (Batai System)-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार फसल काटने के उपरांत अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।
  2. कनकूत प्रणाली (Kankut System)-1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को लागू किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फ़सल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।
  3. बोली देने की प्रणाली (Bidding System)—इस प्रणाली के अंतर्गत अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।
  4. बीघा प्रणाली (Bigha System)—इस प्रणाली के अंतर्गत एक बीघा की उपज के आधार पर लगान निश्चित किया जाता था।
  5. हल प्रणाली (Plough System)-इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।
  6. कुआँ प्रणाली (Well System)—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था।

भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फसलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं।

v. न्याय प्रबंध (Judicial Administration)
महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध बहुत साधारण था। कानून लिखित नहीं थे। न्याय उस समय की परंपराओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार किया जाता था। न्याय के संबंध में अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने राज्य भर में कई अदालतें स्थापित की थीं।

महाराजा के उपरांत राज्य की सर्वोच्च अदालत का नाम अदालते-आला था। यह नाज़िम तथा परगनों में कारदार की अदालतें दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनती थीं। न्याय के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने विशेष अधिकारी भी नियुक्त किए थे जिनको अदालती कहा जाता था। अधिकाँश शहरों तथा कस्बों में काज़ी की अदालत भी कायम थी। यहाँ न्याय के लिए मुसलमान तथा गैर-मुसलमान लोग जा सकते थे। गाँवों में पंचायतें झगड़ों का निर्णय स्थानीय परंपराओं के अनुसार करती थीं। महाराजा रणजीत सिंह के समय दंड कठोर नहीं थे। मृत्यु दंड किसी को भी नहीं दिया जाता था। अधिकतर अपराधियों से जुर्माना वसूल किया जाता था। परंतु बार-बार अपराध करने वालों के हाथ, पैर, नाक आदि काट दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध उस समय के अनुकूल था।

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महाराजा रणजीत सिंह की वित्तीय व्यवस्था (Financial Adminisration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के वित्तीय प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ बताएँ। (Discuss the salient features of Maharaja Ranjit Singh’s Financial Adminisration.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की आर्थिक व्यवस्था का विस्तार सहित वर्णन करें। (Describe the Financial System of Maharaja Ranjit Singh in detail.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की भू-राजस्व प्रणाली की चर्चा करें। (Discuss the Land Revenue System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर–
प्रत्येक राज्य को अपना शासन-प्रबंध चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। ऐसा धन एक योजनाबद्ध वित्तीय प्रणाली द्वारा एकत्रित किया जाता है। आरंभ में रणजीत सिंह ने खजाने की कोई नियमित व्यवस्था नहीं की हुई थी। 1808 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने वित्तीय संरचना में सुधार लाने के लिए दीवान भवानी दास को अपना वित्त मंत्री नियुक्त किया। महाराजा रणजीत सिंह के काल की वित्तीय व्यवस्था का वर्णन इस प्रकार है—

I. लगान प्रबंध (Land Revenue Administration)—महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। राज्य की कुल वार्षिक होने वाली तीन करोड़ रुपए की आय में से लगभग दो करोड़ रुपये भूमि लगान के होते थे। उस समय लगान एकत्र करने की निम्नलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं
1. बटाई प्रणाली (Batai System)—इस प्रणाली के अंतर्गत फसल काटने के उपरांत सरकार अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।

2. कनकूत प्रणाली (Kankut System)-1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को विकसित किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फसल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।

3. बोली देने की प्रणाली (Bidding System)-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार की ओर से अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।

4. हल प्रणाली (Plough System)—इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।

5. कुआँ प्रणाली (Well System)—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था। – भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फ़सलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं। हम डॉक्टर बी० जे० हसरत के विचार से सहमत हैं,

“रणजीत सिंह का लगान प्रबंध न तो अधिक दयापूर्ण था तथा न ही दयाहीन परंतु यह व्यावहारिक और उस समय के अनुकूल था।”1

1. “Neither unduly benevolent nor exceedingly oppressive, the land revenue system of Ranjit Singh was highly practical and suited to the requirements of the time.” Dr. B.J. Hasrat, Life and Times of Maharaja Ranjit Singh (Hoshiarpur : 1968). p.306.

2. सरकार की आय के अन्य साधन (Other Sources of Government Income)-महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि लगान के अतिरिक्त निम्नलिखित स्रोतों से भी आय होती थी—
1. चुंगी कर (Custom Duties)-राज्य की आय का दूसरा स्रोत चुंगी कर था। प्रत्येक वस्तु पर चुंगी लगाई जाती थी, जिससे 17 लाख रुपय वार्षिक आय होती थी।

2. नज़राना (Nazrana)-नज़राना भी राज्य की आय का मुख्य स्रोत था। यह राज्य के उच्चाधिकारी तथा अन्य लोग, महाराजा को विभिन्न अवसरों पर देते थे।

3. ज़ब्ती (Zabti)-ज़ब्ती से राज्य को काफ़ी आय प्राप्त होती थी। महाराजा रणजीत सिंह अपराधियों की संपत्ति जब्त कर लेता था। इसके अतिरिक्त जागीरदारों की मृत्यु के बाद उनकी जागीरें भी जब्त कर ली जाती थीं।

4. अदालतों से आय (Income from Judiciary)-अदालती आय भी राज्य की आय का एक अच्छा साधन था। दोषियों से सरकार जुर्माना लेती थी और निर्दोष प्रमाणित होने वाले व्यक्तियों से शुक्राना प्राप्त करती थी।

5. आबकारी (Excise)-आबकारी कर अफ़ीम, भाँग, शराब तथा अन्य मादक पदार्थों पर लगाया जाता था। (च) नमक से आय (Income from Salt)—केवल सरकार को खानों से नमक निकालने तथा बेचने का अधिकार था। इससे भी सरकार को कुछ आय होती थी।

6. अबवाब (Abwabs) अबवाब वे कर थे, जो भूमि लगान के साथ-साथ उगाहे जाते थे। ये प्रायः भूमि लगान का 5% से 15% भाग होते थे।

7. व्यवसाय कर (Professional Tax)-महाराजा रणजीत सिंह की सरकार ने विभिन्न व्यवसायों के लोगों पर व्यवसाय कर लगाया था। यह कर व्यापारियों पर एक रुपए से दो रुपए प्रति व्यापारी होता था।

व्यय (Expenditure)—महाराजा रणजीत सिंह के समय सरकार अपनी आय शासन संचालन, युद्ध-सामग्री तैयार करने, अधिकारियों को वेतन देने, कृषि को उन्नत करने, सरकारी योजनाओं, धर्मार्थ कार्यों तथा पुरस्कार आदि पर व्यय करती थी।

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महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा (Jagirdari System of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा पर चर्चा करें। (Discuss about the Jagirdari System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
जागीरदारी प्रथा महाराजा रणजीत सिंह से पहले भी सिख मिसलों में प्रचलित थी, परंतु महाराजा ने इस प्रथा को नया रूप दिया। महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

जागीरों की किस्में (Kinds of Jagirs)
महाराजा रणजीत सिंह के समय निम्नलिखित प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं—
1. सेवा जागीरें (Service Jagirs)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में सेवा जागीरें सब से महत्त्वपूर्ण थीं और इनकी संख्या भी सर्वाधिक थी। सभी सेवा जागीरें चाहे वह सैनिक हों अथवा असैनिक महाराजा की प्रसन्नता पर्यंत रहने तक रखी जा सकती थीं। इन जागीरों को घटाया अथवा बढ़ाया अथवा जब्त किया जा सकता था। सेवा जागीरें सैनिकों तथा असैनिक अधिकारियों को दी जाती थीं। इन जागीरों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

i) सैनिक जागीरें (Military Jagirs)—सैनिक जागीरें वे जागीरें थीं जिसमें जागीरदारों को राज्य की सेवा के लिए कुछ निश्चित घुड़सवार रखने पड़ते थे। इन जागीरदारों को अपनी निजी सेवाओं के बदले मिलने वाले वेतन तथा घुड़सवारों पर किए जाने वाले व्यय के बदले राज्य की ओर से जागीरें दी जाती थीं। महाराजा रणजीत सिंह इस बात का विशेष ध्यान रखता था कि प्रत्येक सैनिक जागीरदार अपने अधीन सरकार की ओर से निश्चित की गई संख्या में घुड़सवार अवश्य रखे। इसके लिए समय-समय पर जागीरदारों के घुड़सवारों का निरीक्षण किया जाता था। जिन जागीरदारों ने कम घुड़सवार रखे होते थे, उन्हें दंड दिया जाता था। 1830 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने घोड़ों को दागने का काम भी आरंभ कर दिया था।

ii) सिविल जागीरें (Civil Jagirs)–सिविल जागीरें राज्य के सिविल अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के स्थान पर दी जाती थीं। इन जागीरों से उन्हें लगान एकत्र करने का अधिकार प्राप्त था। सिविल जागीरदारों को अपने अधीन कोई निश्चित घुड़सवार नहीं रखने पड़ते थे। सिविल जागीरों की संख्या बहुत अधिक थी।

2. ईनाम जागीरें (Inam Jagirs)-ईनाम जागीरें वे जागीरें थीं, जोकि महाराजा रणजीत सिंह लोगों को उनकी विशेष सेवाओं के बदले अथवा विशेष कार्यों के बदले पुरस्कार के रूप में प्रदान करता था। ईनाम जागीरें । प्राय: स्थायी होती थीं।

3. गुजारा जागीरें (Subsistence Jagirs)—गुज़ारा जागीरें वे जागीरें थीं जो कि महाराजा लोगों को गुज़ारे अथवा आजीविका के लिए देता था। ऐसी जागीरों के लिए महाराजा किसी सेवा की आशा नहीं रखता था। ये जागीरें प्रायः महाराजा के संबंधियों, पराजित शासकों व उनके आश्रितों तथा जागीरदारों के आश्रितों को गुज़ारे के लिए दी जाती थीं। गुज़ारा जागीरें भी प्रायः ईनाम जागीरों की भाँति पैतृक अथवा स्थायी होती थीं।

4. वतन जागीरें (Watan Jagirs) वतन जागीरों को पट्टीदार जागीरें भी कहा जाता था। ये वे जागीरें होती थीं जो कि किसी जागीरदार को उसके अपने गाँव में दी जाती थीं। ये जागीरें सिख मिसलों के समय से चली आ रही थीं। ये जागीरें पैतृक (Hereditary) होती थीं। महाराजा रणजीत सिंह ने इन वतन जागीरों को जारी रखा. परंतु उसने कुछ वतन जागीरदारों को राज्य की सेवा के लिए कुछ घुड़सवार रखने का आदेश दिया था।

5. धर्मार्थ जागीरें (Dharmarth Jagirs) धर्मार्थ जागीरें वे जागीरें थीं जो धार्मिक संस्थाओं तथा गुरुद्वारों, मंदिरों और मस्जिदों अथवा धार्मिक व्यक्तियों को दी जाती थीं। धार्मिक संस्थाओं को दी गई धर्मार्थ जागीरों की आय यात्रियों के आवास, उनके लिए भोजन तथा पवित्र स्थानों के रख-रखाव पर व्यय की जाती थी। धर्मार्थ जागीरें स्थायी रूप से दी जाती थीं।

जागीरदारी प्रणाली की अन्य विशेषताएँ (Other Features of the Jagirdari System)
1. जागीरों का आकार (Size of the Jagirs) सभी जागीरों चाहे वे किसी भी वर्ग से संबंधित थीं, के आकार में बहुत अंतर था, परंतु यह अंतर सर्वाधिक सेवा जागीरों में था। सेवा जागीर एक गाँव के बराबर अथवा उसका कोई भाग या कुछ एकड़ से लेकर सारे जिले के समान बड़ी हो सकती थीं।

2. जागीरों का प्रबंध (Administration of the Jagirs)-जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से या तो जागीरदार स्वयं या अप्रत्यक्ष रूप से अपने एजेंटों के द्वारा करते थे। छोटी-छोटी जागीरों का प्रबंध तो जागीरदार स्वयं अथवा उनकी अनुपस्थिति में उनके परिवार के सदस्य करते थे, परंतु बहुत बड़ी जागीरें, जो कई क्षेत्रों में फैली होती थीं, उनका प्रबंध जागीरदार स्वयं अकेला नहीं कर सकता था, इसलिए जागीरों के प्रबंध की देख-रेख के लिए वह मुख्तारों की नियुक्ति करता था। जागीरदार अथवा उनके एजेंट सरकार द्वारा निश्चित किया गया लगान अपनी जागीरों . से एकत्र करते थे। जागीरदारों को इस बात का ध्यान रखना होता था कि उनके अधीन कार्यरत किसान अथवा श्रमिक उनसे रुष्ट न हों।

3. जागीरदारों के कर्त्तव्य (Duties of Jagirdars)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदार न केवल अपने अधीन जागीर में से लगान एकत्रित करने का कार्य करते थे, बल्कि उस जागीर में निवास करने वाले लोगों के न्याय संबंधी मामलों का निर्णय भी करते थे। कई बार महाराजा इन जागीरदारों में से वीर जागीरदारों को छोटेमोटे सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी सौंप देता था। कई बार महाराजा अपने अंतर्गत क्षेत्रों से शेष लगान एकत्रित करने की ज़िम्मेदारी जागीरदारों को सौंप देता था। कुछ जागीरदारों को कूटनीतिक मिशनों के लिए भेजा जाता था तथा कुछ अन्य को बाहर से आने वाले महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के स्वागत की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को बहुत-सी शक्तियाँ प्राप्त थीं।

जागीरदारी प्रणाली के गुण (Merits of the Jagirdari System)
1. लगान एकत्रित करने के झमेले से मुक्त (Free from the burden of Collecting Revenue)महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य के बहुत-से सिविल व सैनिक कर्मचारियों को जागीरें दी गई थीं। इन जागीरदारों को अपने अंतर्गत जागीर से भूमि का लगान एकत्रित करने का अधिकार दिया जाता था। इसलिए सरकार इन क्षेत्रों से लगान एकत्रित करने के झमेले से मुक्त हो जाती थी।

2. विशाल सेना का तैयार होना (A large force was prepared)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जिन जागीरदारों को सैनिक जागीरें दी गई थीं, उन्हें राज्य की सेवा के लिए सैनिक रखने पड़ते थे। महाराजा समय-समय पर इन सैनिकों का निरीक्षण भी करता था। जागीरदार आवश्यकता पड़ने पर अपने सैनिकों को महाराजा की सहायता के लिए भेजते थे। जागीरदारों के सैनिकों के कारण महाराजा रणजीत सिंह की एक विशाल सेना तैयार हो गई थी।

3. शासन व्यवस्था में सहायता (Help in the Administration)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदार न केवल लगान एकत्रित करने का ही कार्य करते थे, बल्कि अपने अधीन जागीर में वे सभी न्यायिक मामलों का भी निपटारा करते थे। इन जागीरदारों को नज़राना एकत्रित करने अथवा महाराजा के अधीन क्षेत्रों में शेष रहता लगान एकत्रित करने का अधिकार भी दिया जाता था। राज्य में शांति बनाए रखने के लिए वे छोटे-छोटे सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी करते थे। इस प्रकार ये जागीरदार महाराजा रणजीत सिंह की राज्य व्यवस्था चलाने में सहायक सिद्ध होते थे।

4. रणजीत सिंह की निरंकुशता पर अंकुश (Restriction on the despotism of Ranjit Singh)जागीरदारी प्रथा ने महाराजा रणजीत सिंह की असीमित शक्तियों पर अंकुश लगाने का भी कार्य किया था। क्योंकि महाराजा अपनी राज्य-व्यवस्था चलाने के लिये जागीरदारों की सहायता प्राप्त करता था, इसलिए वह स्वेच्छा से शासन नहीं कर सकता था। उसे जागीरदारों की प्रसन्नता का ध्यान रखना पड़ता था।

जागीरदारी प्रणाली के अवगुण (Demerits of the Jagirdari System)
1. सेना में एकता का अभाव (Lack of unity in the Army)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों के पास अपनी सेना होती थी। इस सेना में जागीरदार अपनी इच्छानुसार भर्ती करते थे। प्रत्येक जागीरदार के अंतर्गत इन सैनिकों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण एक जैसा नहीं होता था जिस कारण उनमें परस्पर तालमेल नहीं होता था। इसके अतिरिक्त ये सैनिक महाराजा की बजाए अपने जागीरदारों के प्रति अधिक वफ़ादार होते थे।

2. कृषकों का शोषण (Exploitation of Peasants)-जागीरदारों को अपने अधीन जागीर में से भूमि का लगान एकत्रित करने का अधिकार होता था। ये जागीरदार कृषकों से अधिक-से-अधिक लगान एकत्रित करने का प्रयास करते थे। बड़े जागीरदार प्रायः ठेकेदारों से निश्चित राशि लेकर उन्हें लगान एकत्रित करने की आज्ञा दे देते थे। ये ठेकेदार अधिक-से-अधिक लाभ कमाने के लिए कृषकों का बहुत शोषण करते थे।

3. जागीरदार ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे (Jagirdars used to lead a Luxurious Life) क्योंकि बड़े-बड़े जागीरदार बहुत धनवान् होते थे, इसलिए वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वे अपने महलों में रंगरलियाँ तथा जश्न मनाते रहते थे। इसका एक कारण यह भी था कि इन जागीरदारों को मालूम था कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी जागीर ज़ब्त की जा सकती थी। इस प्रकार राज्य के बहुमूल्य धन को व्यर्थ ही गँवा दिया जाता था।

4. जागीरदारी प्रथा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारियों के लिए हानिप्रद सिद्ध हुई (Jagirdari System proved harmful to the successors of Ranjit Singh)-महाराजा रणजीत सिंह ने जागीरदारों को बहुतसी शक्तियाँ सौंपी हुई थीं। अपने जीवित रहते हुए तो महाराजा ने उन्हें अपने नियंत्रण में रखा, किंतु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के अंतर्गत वे नियंत्रण में न रहे। उन्होंने राज्य के विरुद्ध षड्यंत्रों में भाग लेना आरंभ कर दिया। यह बात सिख साम्राज्य के लिए बहुत हानिप्रद सिद्ध हुई।

यद्यपि जागीरदारी प्रथा में कुछ दोष थे, तथापि यह महाराजा रणजीत सिंह के समय बहुत सफल रही।

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महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था (Judicial Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का मूल्यांकन करें। (Make an assessment of the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
(What do you know about the Judicial Administration of Ranjit Singh ? Explain in detail.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का वर्णन करो।”
(Explain the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली बहुत साधारण थी। उस समय कानून लिखित नहीं थे। निर्णय प्रचलित प्रथाओं व धार्मिक विश्वासों के आधार पर किए जाते थे। रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. न्यायालय (Courts)-महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी प्रजा को न्याय देने के लिए अपने साम्राज्य में निम्नलिखित न्यायालय स्थापित किए थे—
1. पंचायत (Panchayat)-महाराजा रणजीत सिंह के समय पंचायत सबसे लघु किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण न्यायालय थी। पंचायत में प्राय: पाँच सदस्य होते थे। गाँव के लगभग सभी दीवानी तथा फ़ौजदारी मामलों की सुनवाई पंचायत द्वारा की जाती थी। सरकार पंचायत के कार्यों में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी।

2. काज़ी का न्यायालय (Qazi’s Court) नगरों में काज़ी के न्यायालय स्थापित किए गए थे। रणजीत सिंह के समय सभी धर्मों के लोगों को इस पद पर नियुक्त किया जाता था। काज़ी के न्यायालय में पंचायतों के निर्णय के विरुद्ध अपीलें की जाती थीं।

3. जागीरदार का न्यायालय (Jagirdar’s Court) महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में जागीरों की व्यवस्था जागीरदारों के हाथ में होती थी। वे अपने न्यायालय लगाते थे, जिनमें अपनी जागीर से संबंधित दीवानी व फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय किए जाते थे।

4. कारदार का न्यायालय (Kardar’s Court) कारदार परगने का मुख्य अधिकारी होता था। उसके न्यायालय में परगने के सारे दीवानी तथा फ़ौजदारी मामलों की सुनवाई की जाती थी।

5. नाज़िम का न्यायालय (Nazim’s Court)—प्रत्येक प्रांत में न्याय का मुख्य अधिकारी नाज़िम होता था। वह प्रायः फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था।

6. अदालती का न्यायालय (Adalti’s Court)—महाराजा रणजीत सिंह के राज्य के सभी बड़े नगरों जैसे लाहौर, अमृतसर, पेशावर, मुलतान, जालंधर आदि में न्याय देने के लिए अदालती नियुक्त किए हुए थे। वे दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों की सुनवाई करते थे एवं अपना निर्णय देते थे।

7. अदालत-ए-आला (Adalat-i-Ala)-लाहौर में स्थापित अदालत-ए-आला महाराजा की अदालत के नीचे सबसे बड़ी अदालत थी। इस अदालत में कारदार और नाज़िम अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती थीं। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपील महाराजा की अदालत में की जा सकती थी।

8. महाराजा की अदालत (Maharaja’s Court)-महाराजा की अदालत सर्वोच्च अदालत थी। उसके निर्णय अंतिम होते थे। याचक न्याय लेने के लिए सीधे महाराजा के पास याचना कर सकता था। महाराजा कारदारों, नाज़िमों और अदालत-ए-आला के निर्णयों के विरुद्ध भी अपीलें सुनता था। केवल महाराजा को ही किसी भी अपराधी को मृत्यु दंड देने अथवा अपराधियों की सजा को कम अथवा माफ करने का अधिकार प्राप्त था।

2. अदालतों की कार्य प्रणाली (Working of the Courts)-महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालतों की कार्य प्रणाली साधारण एवं व्यावहारिक थी। न्याय प्राप्ति के लिए लोग राज्य में स्थापित किसी भी अदालत में जा सकते थे। कानून लिखित नहीं थे, इसलिए न्यायाधीश प्रचलित रीति-रिवाजों या धार्मिक परंपराओं के अनुसार अपने निर्णय देते थे। लोग इन अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध महाराजा के पास अपील कर सकते थे।
3. दंड (Punishments)-महाराजा रणजीत सिंह अपराधियों को सुधारना चाहता था। इसलिए वह अपराधियों को कड़े दंड देने के विरुद्ध था। मृत्यु दंड किसी भी अपराधी को नहीं दिया जाता था। बहुत-से अपराधों का दंड प्रायः जुर्माना ही होता था। अंग काटने का दंड केवल उन अपराधियों को दिया जाता था, जो बार-बार अपराध करते रहते थे।
4. महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का मूल्यांकन (Estimate of Maharaja Ranjit Singh’s Judicial System)
(क) दोष (Demerits)—

  1. न्याय को बेचा जाता था (Justice was Sold)-सरकार ने न्याय को अपनी आय का एक साधन बनाया हुआ था। सरकार को धन देकर दंड से बचा जा सकता था।
  2. न्यायालयों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे (Courts’ rights were not Clear)-महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालतों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे। इसलिए लोगों के साथ उचित न्याय नहीं किया जा सकता था।
  3. कोई लिखित कानून नहीं थे (No written Laws)-महाराजा रणजीत सिंह के समय कानून लिखित नहीं थे। इस प्रकार न्यायाधीश कई बार अपनी इच्छा का प्रयोग करते थे।

(ख) गुण (Merits)—

  1. न्याय को बेचा नहीं जाता था (Justice was not Sold)-अधिकाँश इतिहासकारों ने इस विचार का खंडन किया है कि महाराजा रणजीत सिंह के समय न्याय को बेचा जाता था।
  2. शीघ्र व सस्ता न्याय (Fast and Cheap Justice) महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का एक प्रमुख गुण यह था कि उस समय लोगों को शीघ्र व सस्ता न्याय मिलता था।
  3. कानून परंपराओं पर आधारित थे (Laws were based on Conventions) न्यायाधीश अपने निर्णय समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों और धार्मिक परंपराओं के आधार पर देते थे। लोग इन रीति-रिवाजों का बहुत सम्मान करते थे।
  4. न्यायाधीशों पर कड़ी निगरानी (Strict watch over Judges)—महाराजा रणजीत सिंह न्यायाधीशों । पर कड़ी निगरानी रखता था ताकि वे ठीक प्रकार से न्याय करें।

महाराजा रणजीत सिंह का सैनिक प्रबंध । (Military Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह की सेना का ब्योरा दीजिए। (Give an account of the military administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन का संक्षिप्त वर्णन करें। उसकी सेना को ‘शक्ति का इंजन’ क्यों कहा जाता है ?
(Write briefly the military organisation of Maharaja Ranjit Singh. Why was his army called the ‘Engine of Power’ ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध का वर्णन कीजिए।
(Describe the salient features of the Military Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध के गुण तथा अवगुण बताएँ।
(Describe the merits and demerits of the Military Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के पूर्व सिखों की सैनिक प्रणाली बहुत दोषपूर्ण थी। सैनिकों में अनुशासन का अभाव था। उनकी न तो कोई परेड होती थी तथा न ही किसी तरह का कोई प्रशिक्षण दिया जाता था। सैनिकों को नकद वेतन नहीं दिया जाता था। परिणामस्वरूप, सैनिक लूटमार की ओर अधिक ध्यान देते थे। महाराजा रणजीत सिंह पंजाब में एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना करने का स्वप्न देख रहा था। इस स्वप्न को पूरा करने के लिए, उसने एक शक्तिशाली तथा अनुशासित सेना की आवश्यकता अनुभव की। इस उद्देश्य से उसने अपनी सेना का आधुनिकीकरण करने का निश्चय किया। इस सेना में भारतीय तथा यूरोपियन दोनों प्रणालियों का अच्छे ढंग से सुमेल किया गया था। इस सेना का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

सेना का विभाजन (Division of Army)
महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना को दो भागों (i) फ़ौज-ए-आइन तथा (ii) फ़ौज़-ए-बेकवायद में बाँटा हुआ था। इन भागों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

फ़ौज-ए-आइन (Fauj-I-Ain)
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को फ़ौज-ए-आइन कहा जाता था। इसके तीन भाग थे—
(i) पैदल सेना
(ii) घुड़सवार सेना
(iii) तोपखाना।

i) पैदल सेना (Infantry)-महाराजा रणजीत सिंह पैदल सेना के महत्त्व को अच्छी प्रकार जानता था। अत: उसके शासनकाल में पैदल सेना की भर्ती जो 1805 ई० के पश्चात् शुरू हुई थी वह महाराजा के अंत तक जारी रही। आरंभ में इस सेना में सिखों की संख्या बहुत कम थी। इसका कारण यह था कि वे इस सेना को घृणा की दृष्टि से देखते थे। इसलिए आरंभ में महाराजा रणजीत सिंह ने पठानों एवं गोरखों को इस सेना में भर्ती किया। 1822 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने इस सेना को अच्छा प्रशिक्षण देने के लिए जनरल वेंतरा को नियुक्त किया। 1838-39 ई० में इस सेना की संख्या 26,617 हो गई थी।

ii) घुड़सवार (Cavalry)-अनुशासित सेना का भाग होने के कारण शुरू में सिख इस सेना में भी भर्ती न हुए। आरंभ में इस सेना में पठान, राजपूत तथा डोगरों आदि को भर्ती किया गया। परंतु बाद में कुछ सिख भी इसमें भर्ती हो गए। 1822 ई० में घुड़सवार सैनिकों को प्रशिक्षण देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने जनरल अलॉर्ड को नियुक्त किया। उसके योग्य नेतृत्व में शीघ्र ही घुड़सवार सेना बहुत शक्तिशाली बन गई। 1838-39 ई० में घुड़सवार सैनिकों की संख्या 4090 थी।

iii) तोपखाना (Artillery) तोपखाना महाराजा की सेना का विशेष अंग था। आरंभ में यह पैदल सेना का ही अंग था। 1810 ई० में तोपखाने का एक अलग विभाग खोला गया था। यूरोपीय ढंग का प्रशिक्षण देने के लिए जनरल कोर्ट एवं गार्डनर को इस विभाग में भर्ती किया गया। महाराजा रणजीत सिंह के समय में ही इस विभाग ने महत्त्वपूर्ण प्रगति कर ली थी। इस विभाग को चार भागों तोपखाना-ए-अस्पी, तोपखाना-ए-फीली, तोपखानाए-गावी तथा तोपखाना-ए-शुतरी में बाँटा गया था।

तोपखाना-ए-फीली में बहुत भारी तोपें थीं तथा इन्हें हाथियों से खींचा जाता था। तोपखाना-ए-शुतरी में वे तोपें थीं जिन्हें ऊँटों के द्वारा खींचा जाता था। तोपखाना-ए-अस्पी में वे तोपें थीं जिन्हें घोड़ों के द्वारा खींचा जाता था। तोपखाना-ए-गावी में वे तोपें थीं जिन्हें बैलों द्वारा खींचा जाता था।

फ़ौज-ए-खास
(Fauj-I-Khas)
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल वेंतूरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इस सेना में पैदल सेना की चार बटालियनें, घुड़सवार सेना की दो रेजिमैंटों तथा 24 तोपों का एक तोपखाना सम्मिलित था। इस सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षण देकर तैयार किया गया था। इस सेना में कुछ चुने हुए सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र तथा घोड़े भी अच्छी नस्ल के थे। इसलिए इस सेना को फ़ौज-ए-खास कहा जाता था। इस सेना का अपना अलग झण्डा तथा चिह्न थे।

फ़ौज-ए-बेकवायद (Fauj-i-Beqawaid)
फ़ौज-ए-बेकवायद वह सेना थी, जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी। इसके चार भाग थे
(i) घुड़चढ़े
(ii) फ़ौज-ए-किलाजात
(ii) अकाली
(iv) जागीरदार सेना।

i) घुड़चढ़े (Ghurcharas)-घुड़चढ़े बेकवायद सेना का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। ये दो भागों में बंटे हुए थे—

  • घुड़चढ़े खास-इसमें राजदरबारियों के संबंधी तथा उच्च वंश से संबंधित व्यक्ति सम्मिलित थे।
  • मिसलदार-इसमें वे सैनिक सम्मिलित थे, जो मिसलों के समय से सैनिक चले आ रहे थे। घुड़चढ़ों की तुलना में मिसलदारों का पद कम महत्त्वपूर्ण था। इनके युद्ध का ढंग भी पुराना था। 1838-39 ई० में घुड़चढ़ों की संख्या 10,795 थी।

ii) फ़ौज-ए-किलाजात (Fauj-i-Kilajat)-किलों की सुरक्षा के लिए महाराजा रणजीत सिंह के पास एक अलग सेना थी, जिसको फ़ौज-ए-किलाजात कहा जाता था। प्रत्येक किले में किलाजात सैनिकों की संख्या किले के महत्त्व के अनुसार अलग-अलग होती थी। किले के कमान अधिकारी को किलादार कहा जाता था।

iii) अकाली (Akalis) अकाली अपने आपको गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना समझते थे। इनको सदैव भयंकर अभियान में भेजा जाता था। वे सदैव हथियारबंद होकर घूमते रहते थे। वे किसी तरह के सैनिक प्रशिक्षण या परेड के विरुद्ध थे। वे धर्म के नाम पर लड़ते थे। उनकी संख्या 3,000 के लगभग थी। अकाली फूला सिंह एवं अकाली साधु सिंह उनके प्रसिद्ध नेता थे।

iv) जागीरदारी फ़ौज (Jagirdari Fauj)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों पर यह शर्त लगाई गई कि वे महाराजा को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता दें। इसलिए जागीरदार राज्य की सहायता के लिए पैदल तथा घुड़सवार सैनिक रखते थे।

अन्य विशेषताएँ (Other Features)
1. सेना की कुल संख्या (Total Strength of the Army)-अधिकतर इतिहासकारों का विचार है कि महाराजा रणजीत सिंह की सेना की कुल संख्या 75,000 से 1,00,000 के बीच थी।

2. रचना (Composition)-महाराजा रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न वर्गों से संबंधित लोग सम्मिलित थे। इनमें सिख, राजपूत, ब्राह्मण, क्षत्रिय मुसलमान, गोरखे, पूर्बिया हिंदुस्तानी सम्मिलित थे।

3. भर्ती (Recruitment)-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में भर्ती बिल्कल लोगों की इच्छा के अनुसार थी। केवल स्वस्थ व्यक्तियों को ही सेना में भर्ती किया जाता था। अफसरों की भर्ती का काम केवल महाराजा के हाथों में था।

4. वेतन (Pay)—पहले सैनिकों को या तो जागीरों के रूप में या ‘जिनस’ के रूप में वेतन दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिकों को नकद वेतन देने की परंपरा शुरू की। .

5. पदोन्नति (Promotions)-महाराजा रणजीत सिंह अपने सैनिकों की केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नति करता था। पदोन्नति देते समय महाराजा किसी सैनिक के धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था।

6. पुरस्कार तथा उपाधि (Rewards and Honours)-महाराजा रणजीत सिंह प्रत्येक वर्ष लाहौर दरबार । की शानदार सेवा करने वाले सैनिकों को तथा युद्ध के मैदान में वीरता दिखाने वाले सैनिकों को लाखों रुपये के पुरस्कार तथा ऊँची उपाधियाँ देता था।

7. अनुशासन (Discipline)-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में बहुत कड़ा अनुशासन स्थापित किया गया था। सैनिक नियमों का उल्लंघन करने वालों को कड़ा दंड दिया जाता था।

जनरल सर चार्ल्स गफ तथा आर्थर डी० इनस का विचार है,
“भारत में हमने जिन सेनाओं का मुकाबला किया उनमें से सिख सेना सबसे अधिक कुशल थी तथा जिसको पराजित करना सबसे अधिक कठिन था।”2

2.” “The Sikh army was the most efficient, the hardest to overcome, that we have ever faced in India.” Gen. Sir Charles Gough and Arthur D. Innes, The Sikhs and the Sikh Wars (Delhi : 1984) p. 33.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन प्रबंध की रूप-रेखा बताएँ।
(Give an outline of Central Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह राज्य का मुखिया था। उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। शासन प्रबंध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मंत्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढ़ीवाला प्रमुख थे। इन मंत्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए कुछ दफ्तरों की स्थापना भी की थी।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन में महाराजा की स्थिति कैसी थी? (What was the position of Maharaja in Central Administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का स्वरूप क्या था ? (Explain the nature of administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा राज्य का प्रमुख था। वह सभी शक्तियों का स्रोत था। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह मुख्य सेनापति था तथा राज्य की सारी सेना उसके संकेत पर चलती थी। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था और उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द लोगों के लिए कानून बन जाता था। महाराजा को किसी भी शासक के साथ युद्ध अथवा संधि करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय प्रबंध पर एक नोट लिखें। (Write a short note on the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह का प्रांतीय प्रबंध कैसा था ? (How was the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे में नाज़िम की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of Nazim in Province during the times of Maharaja Ranjit Singh?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य चार महत्त्वपूर्ण प्राँतों—

  1. सूबा-ए-लाहौर,
  2. सूबा-ए-मुलतान,
  3. सूबा-ए-कश्मीर,
  4. सूबा-ए-पेशावर में बँटा हुआ था।

प्रत्येक सूबा नाज़िम के अधीन होता था। उसका मुख्य कार्य अपने प्रांत में शांति बनाए रखना था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह भूमि का लगान एकत्रित करने में कर्मचारियों की सहायता करता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय प्रशासन का विश्लेषण करें। (Analyse the local administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
(What do you know about the local administration of Maharaja Ranjit Singh ? Explain.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रांतों को परगनों में विभाजित किया गया था। परगने का शासन प्रबंध कारदार के अधीन था। कारदार का मुख्य कार्य शाँति स्थापित रखना, महाराजा के आदेशों का पालन करवाना, लगान एकत्र करना तथा दीवानी और फ़ौजदारी मुकद्दमे सुनना था। कानूनगो तथा मुकद्दम, कारदार की सहायता करते थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव अथवा मौजा थी। गाँवों का प्रबंध पंचायतों के हाथ में होता था। पंचायत गाँवों के लोगों की देख-रेख करती थी।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कारदार की स्थिति क्या थी ? (What was the position of Kardar during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। वह परगने में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था। वह परगने से भूमि कर एकत्र करके केंद्रीय कोष में जमा करवाता था। वह परगना के आय-व्यय का पूरा विवरण रखता था। वह परगना के हर प्रकार के दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह परगना के लोगों के हितों का पूरा ध्यान रखता था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के मुख्य कार्य लिखो। (Write main functions of Kotwal during Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-

  1. महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना।
  2. नगर में शांति व व्यवस्था को कायम रखना।
  3. नगर में सफाई का प्रबंध करना।।
  4. नगर में आने वाले विदेशियों का ब्योरा रखना।
  5. नगर में उद्योग और व्यापार का निरीक्षण करना।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के प्रबंध बारे एक संक्षिप्त नोट लिखें। .
(Write a short note on the administration of city of Lahore during the times of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के लिए विशेष प्रबंध किया गया था। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर ईमाम बखश नियुक्त था।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह की लगान व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालें। (Write a note on the land revenue administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के आर्थिक प्रशासन पर नोट लिखें। (Write a note on the economic administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय में आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था। महाराजा रणजीत सिंह के समय में लगान एकत्र करने के लिए बटाई, कनकूत, बीघा, हल तथा कुआँ प्रणालियाँ प्रचलित थीं। लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान एकत्र करने वाले मुख्य अधिकारियों के नाम कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान नकद अथवा अन्न के रूप में दिया जा सकता था। लगान भूमि की उपजाऊ शक्ति के आधार पर लिया जाता था।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी व्यवस्था पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a brief note on Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं? (What were the chief features of Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय कई प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं। इन जागीरों में सेवा जागीरों को सबसे उत्तम समझा जाता था। ये जागीरें राज्य के उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के बदले में दी जाती थीं। इसके अतिरिक्त उस समय इनाम जागीरें, वतन जागीरें तथा धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं। धर्मार्थ जागीरें धार्मिक संस्थाओं अथवा व्यक्तियों को दी जाती थीं। जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से जागीरदार अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके एजेंट करते थे।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के न्याय प्रबंध पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What were the main features of the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। . (Write any five features of the Judicial system of Maharaja. Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के काल में न्याय व्यवस्था साधारण थी। न्याय उस समय प्रचलित रस्म-रिवाज़ों तथा धार्मिक ग्रंथों के आधार पर किया जाता था। अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए राज्य भर में कई न्यायालय स्थापित किए गए थे। गाँवों में झगड़ों का निपटारा पंचायतें करती थीं। शहरों तथा कस्बों में काज़ी का न्यायालय होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय में दंड बहुत कड़े नहीं थे।

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं?
(What were the main features of Maharaja Ranjit Singh’s military administration ?)
अथवा
रणजीत सिंह ने अपने सैनिक प्रबंध में क्या सुधार किए ?
(What reforms were introduced by Ranjit Singh to improve his military administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की सेना पर संक्षेप नोट लिखें।
(Write a short note on the military of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के फ़ौजी प्रबंध की कोई तीन विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(Describe any three Features of the military administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं? (What do you know about military administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था। उन्होंने सेना को प्रशिक्षण देने के लिए यूरोपीय अधिकारी भर्ती किए हुए थे। सैनिकों का ब्योरा रखने तथा घोड़ों को दागने की प्रथा भी आरंभ की गई। शस्त्रों के निर्माण के लिए राज्य में कारखाने स्थापित किए गए। महाराजा रणजीत सिंह व्यक्तिगत रूप से सेना का निरीक्षण करता था। युद्ध में वीरता प्रदर्शित करने वाले सैनिकों को विशेष पुरस्कार दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने जागीरदारी सेना को भी बनाए रखा।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन में फ़ौज-ए-खास के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Fauj-i-Khas of Maharaja Ranjit Singh’s army.)
उत्तर-
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल वेंतूरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इस सेना को यूरोपीय ढंग के कड़े प्रशिक्षण के अंतर्गत तैयार किया गया था। इस सेना में बहुत उत्तम सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र व घोड़े भी सबसे बढ़िया किस्म के थे। इस सेना का अपना अलग ध्वज चिह्न था। यह सेना बहुत अनुशासित थी।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार था ? (What was Maharaja Ranjit Singh’s attitude towards his subjects ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था। उसने सरकारी कर्मचारियों को यह आदेश दिया था कि वे प्रजा के कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की दशा जानने के लिए महाराजा भेष बदल कर प्रायः राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेश का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को कड़ा दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। महाराजा ने न केवल सिखों बल्कि हिंदुओं तथा मुसलमानों को भी संरक्षण दिया।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर पड़े प्रभावों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the effects of Ranjit Singh’s rule on the life of the people.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। उसने पंजाब में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। पंजाब के लोगों ने शताब्दियों के पश्चात् चैन की साँस ली। इससे पूर्व पंजाब के लोगों को एक लंबे समय तक मुग़ल तथा अफ़गान सूबेदारों के घोर अत्याचारों को सहन करना पड़ा था। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में एक उच्चकोटि के शासन प्रबंध की स्थापना की। उसके शासन का प्रमुख उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। उसने अपने राज्य में सभी अमानुषिक सज़ाएँ बंद कर दी थीं। मृत्यु की सज़ा किसी अपराधी को . भी नहीं दी जाती थी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की धुरी कौन था ?
उत्तर-
महाराजा।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का कोई एक उद्देश्य बताएँ।
उत्तर-
प्रजा का भलाई करना।

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह की कोई एक शक्ति बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह राज्य की भीतरी तथा विदेश नीति का निर्धारण करता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री कौन था ?
उत्तर-
राजा ध्यान सिंह।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का मुख्य काम क्या होता था ?
उत्तर-
उसका मुख्य काम राज्य के सभी राजनीतिक विषयों पर महाराजा को परामर्श देना था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का नाम बताएँ।
उत्तर-
फकीर अज़ीज़-उद्दीन।

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
महाराजा को युद्ध एवं संधि से संबंधित परामर्श देना।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री कौन था ?
उत्तर-
दीवान भवानी दास।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के किसी एक विख्यात सेनापति का नाम बताएँ।
उत्तर-
हरी सिंह नलवा।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योढ़ीवाला के पद पर कौन नियुक्त था ?
उत्तर-
जमादार खुशहाल सिंह।

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय के ड्योढ़ीवाला का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
राज्य परिवार की देख-रेख करना।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की देख-भाल के लिए गठित किए गए दफ्तरों में से किसी एक का नाम बताएँ।
उत्तर-
दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य कितने सूबों (प्रांतों) में बँटा हुआ था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के किसी एक प्रांत का नाम लिखो।
उत्तर-
सूबा-ए-लाहौर।

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबा के मुखिया को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नाज़िम।

प्रश्न 16.
मिसर रूप लाल कौन था ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रसिद्ध नाज़िम।

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प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम का कोई एक मुख्य कार्य बताएँ।
उत्तर-
प्रांत में शांति बनाए रखना।

प्रश्न 18.
परगना के सर्वोच्च अधिकारी को क्या कहते थे?
उत्तर-
कारदार।

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय मुकद्दम का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
मुकद्दम गाँव में लगान एकत्र करने में सहायता करते थे।

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर की देख-रेख कौन करता था ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का शासन प्रबंध किस अधिकारी के अधीन होता था ?
उत्तर-
कोतवाल।

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प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का कोतवाल कौन था ?
उत्तर-
इमाम बख्श।

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के मुख्य कार्य क्या थे ?
उत्तर-
शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना।

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई को क्या कहते थे ?
उत्तर-
मौज़ा।

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लगान एकत्र करने के लिए प्रचलित किसी एक प्रणाली के नाम लिखें।
उत्तर-
बटाई प्रणाली।

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प्रश्न 25.
बटाई प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बटाई प्रणाली के अनुसार लगान फ़सल काटने के पश्चात् निर्धारित किया जाता था।

प्रश्न 26.
कनकूत प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
कनकूत प्रणाली के अनुसार लगान खड़ी फ़सल को देखकर निर्धारित किया जाता था।

प्रश्न 27.
भूमि लगान के अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का अन्य एक मुख्य साधन बताएँ।
उत्तर-
चुंगी कर।

प्रश्न 28.
जागीरदारी प्रथा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राज्य के कर्मचारियों को नकद वेतन के स्थान पर जागीरें दी जाती थीं।

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प्रश्न 29.
वतन जागीरें क्या थी ?
उत्तर-
ये वे जागीरें थीं जो किसी जागीरदार को उसके अपने गाँव में दी जाती थीं।

प्रश्न 30.
धर्मार्थ जागीरों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
ये वे जागीरें थीं जो धार्मिक संस्थाओं और व्यक्तियों को दी जाती थीं।

प्रश्न 31.
ईनाम जागीरें किसे दी जाती थीं ?
उत्तर-
विशेष सेवाओं के बदले अथवा बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को।

प्रश्न 32.
महाराजा रणजीत सिंह को दिए जाने वाले उपहारों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नज़राना।

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प्रश्न 33.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रचलित किसी एक न्यायालय का नाम बताएँ।
उत्तर-
काज़ी की अदालत।

प्रश्न 34.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की सबसे बड़ी अदालत कौन-सी होती थी ?
उत्तर-
अदालत-ए-आला।

प्रश्न 35.
महाराजा रणजीत सिंह से पहले सिख सेना का कोई एक मुख्य दोष बताएँ।
उत्तर-
सिख सेना में अनुशासन की भारी कमी थी ।

प्रश्न 36.
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा सिख सेना में किए गए सुधारों में से कोई एक बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने सिख सेना को पश्चिमी ढंग का प्रशिक्षण दिया।

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प्रश्न 37.
महाराजा रणजीत सिंह की सेना कौन-से दो मुख्य भागों में बँटी हुई थी ?
उत्तर-
फ़ौज-ए-आईन तथा फ़ौज-ए-बेकवायद।

प्रश्न 38.
महाराजा रणजीत सिंह ने पैदल सेना का गठन कब आरंभ किया ?
उत्तर-
1805 ई०।

प्रश्न 39.
महाराजा रणजीत सिंह के समय तोपखाना को कितने भागों में बाँटा गया था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 40.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने के लिए किसे नियुक्त किया था ?
उत्तर-
जनरल वेंतूरा।

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प्रश्न 41.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-खास का तोपखाना किसके अधीन था ?
उत्तर-
जनरल इलाही बख्श।

प्रश्न 42.
महाराजा रणजीत सिंह के समय हाथियों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-फीली।

प्रश्न 43.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ऊँटों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-शुतरी।

प्रश्न 44.
महाराजा रणजीत सिंह के समय घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-अस्पी।

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प्रश्न 45.
फ़ौज-ए-बेकवायद से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यह वह सेना थी जो निश्चित नियमों का पालन नहीं करती थी।

प्रश्न 46.
रणजीत सिंह की सेना के दो प्रसिद्ध यूरोपियन अफसरों के नाम लिखिए।
अथवा
रणजीत सिंह के यूरोपियन सेनापतियों में से किन्हीं दो के नाम बताओ।
उत्तर-
जनरल वेंतूरा तथा जनरल कोर्ट।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय…..राज्य का मुखिया था।
उत्तर-
(महाराजा)

प्रश्न 2.
राजा ध्यान सिंह महाराजा रणजीत सिंह का………था।
उत्तर-
(प्रधानमंत्री)

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का नाम…….था।
उत्तर-
(फ़कीर अज़ीजुद्दीन)

प्रश्न 4.
………….और……..महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध वित्तमंत्री थे।
उत्तर-
(दीवान भवानी दास, दीवान गंगा राम)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह का सबसे प्रसिद्ध सेनापति……था।
उत्तर-
(हरी सिंह नलवा)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योड़ीवाला के पद पर…………….नियुक्त था।
उत्तर-
(जमादार खुशहाल सिंह)

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प्रश्न 7.
ड्योड़ीवाला……….की देख-रेख करता था।
उत्तर-
(शाही राजघराने)

प्रश्न 8.
……….द्वारा राज्य के प्रतिदिन होने वाले खर्च का ब्योरा रखा जाता था।
उत्तर-
(दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-इखराजात)

प्रश्न 9.
…………द्वारा राज्य की बहुमूल्य वस्तुओं की देखभाल की जाती थी।
उत्तर-
(दफ्तर-ए-तोशाखाना)

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य…………..सूबों में बँटा हुआ था।
उत्तर-
(चार)

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय……………सूबे का मुख्य अधिकारी होता था।
उत्तर-
(नाज़िम)

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह समय कारदार……………..का मुख्य अधिकारी होता था।
उत्तर-
(परगना)

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय……………गाँवों की भूमि का रिकॉर्ड रखता था।
उत्तर-
(पटवारी)

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का मुख्य अधिकारी………होता था।
उत्तर-
(कोतवाल)

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प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रसिद्ध कोतवाल……………..था।
उत्तर-
(इमाम बख्श)

प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आमदनी का मुख्य स्रोत…………था।
उत्तर-
(भूमि का लगान)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लगान की………….प्रणाली सबसे अधिक प्रचलित थी।
उत्तर-
(बटाई)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि का लगान वर्ष में ……………..बार एकत्रित किया जाता था।
उत्तर-
(दो)

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प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में से…..जागीरें सबसे महत्त्वपूर्ण
उत्तर-
(सेवा)

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक संस्थाओं को दी जाने वाली जागीरों को……..जागीरें कहा जाता
उत्तर-
(धर्मार्थ)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की सबसे बड़ी अदालत को………कहा जाता था।
उत्तर-
(अदालत-ए-आला)

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालत-ए-माला की स्थापना……..में की गई थी।
उत्तर-
(लाहौर)

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प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को प्रायः………….की सजा दी जाती थी।
उत्तर-
(जुर्माना)

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को……..कहा जाता था।
उत्तर-
(फ़ौज-ए-आईन)

प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने घुड़सवार सेना को प्रशिक्षण देने के लिए जनरल अलॉर्ड को………में नियुक्त किया।
उत्तर-
(1822 ई०)

प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह के समय हाथियों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को…….कहा जाता था।
उत्तर-
(तोपखाना-ए-फीली)

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प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने के लिए………….को नियुक्त किया था।
उत्तर-
(जनरल वेंतूरा)

प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह की फ़ौज-ए-खास का तोपखाना जनरल…………….के अधीन था।
उत्तर-
(इलाही बख्श)

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह की उस फ़ौज को जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी उसे………कहा जाता था।
उत्तर-
(फ़ौज-ए-बेकवायद)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह राज्य की सभी आंतरिक व बाहरी नीतियों को तैयार करता था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का नाम राजा ध्यान सिंह था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
दीवान दीना नाथ महाराजा रणजीत सिंह का विदेशी मंत्री था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के समय वित्त मंत्री को दीवान कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
दीवान भवानी दास महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध वित्त मंत्री था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 6.
दीवान मोहकम चंद और सरदार हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध सेनापति थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जमादार खुशहाल सिंह ड्योढ़ीवाला के पद पर नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल द्वारा राज्य की आमदन का ब्योरा रखा जाता
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए- इखराजात द्वारा राज्य के प्रतिदिन होने वाले खर्च का ब्योरा रखा जाता था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय साम्राज्य की बाँट चार सूबों में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर इमाम बख्श नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दीवान गंगा राम ने दफ्तरों की स्थापना की।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आमदन का मुख्य स्रोत भूमि कर था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय बटाई प्रणाली सब से अधिक प्रचलित थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि का लगान वर्ष में तीन बार एकत्रित किया जाता था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सेवा जागीरों की संख्या सबसे अधिक थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक स्थानों को दी जाने वाली जागीरों को धर्मार्थ जागीरें कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लोगों को विशेष सेवाओं के बदले गुज़ारा जागीरें दी जाती थीं।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय शहरों में काज़ी की अदालतें स्थापित थीं।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रत्येक परगने में नाज़िम की अदालतें होती थीं।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालत-ए-आला की स्थापना लाहौर में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को कंठोर दंड दिए जाते थे।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना में देशी व विदेशी प्रणालियों का सुमेल किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को फ़ौज-ए-आईन कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह ने फौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने को जनरल वेंतूरा को नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को तोपखाना की प्रशिक्षण देने के लिए जनरल इलाही बख्श को नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-बेकवायद वह फ़ौज थी जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी।
उत्तर-
ठीक

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की धुरी कौन थी ?
(i) महाराजा
(ii) विदेश मंत्री
(iii) वित्त मंत्री
(iv) प्रधानमंत्री।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का क्या नाम था ?
(i) दीवान मोहकम चंद
(ii) राजा ध्यान सिंह
(iii) दीवान गंगानाथ
(iv) फकीर अज़ीजउद्दीन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
(i) दीवान मोहकम चंद
(ii) राजा ध्यान सिंह
(iii) फ़कीर अज़ीजउद्दीन
(iv) खुशहाल सिंह।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री नहीं था ?
(i) दीवान भवानी दास
(ii) दीवान गंगा राम
(iii) दीवान दीनानाथ
(iv) दीवान मोहकम चंद।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध सेनापति था ?
(i) हरी सिंह नलवा
(ii) मिसर दीवान चंद
(iii) दीवान मोहकम चंद
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय शाही महल और राज दरबार की देख-रेख कौन करता था ?
(i) ड्योड़ीवाला
(ii) कारदार
(iii) सूबेदार
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योड़ीवाला के पद पर कौन नियुक्त था ?
(i) ज़मांदार खुशहाल सिंह
(ii) संगत सिंह
(iii) हरी सिंह नलवा
(iv) जस्सा सिंह रामगढ़िया।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य कितने सूबों में बँटा हुआ था ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे के मुखिया को क्या कहा जाता था ?
(i) सूबेदार
(ii) कारदार
(iii) नाज़िम
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने का मुख्य अधिकारी कौन था ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने के मुख्य अधिकारी को क्या कहते थे ?
(i) नाज़िम
(ii) सूबेदार
(iii) कारदार
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का मुखिया कौन होता था?
(i) सूबेदार
(ii) कारदार
(iii) कोतवाल
(iv) पटवारी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का कोतवाल कौन था ?
अथवा
लाहौर शहर के मुख्य अधिकारी (कोतवाल) का नाम क्या था ?
(i) ध्यान सिंह
(ii) खुशहाल सिंह
(iii) इमाम बख्श
(iv) इलाही बख्श।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को क्या कहा जाता था ?
(i) परगना
(ii) “मौज़ा
(iii) कारदार
(iv) नाज़िम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज की आमदन का मुख्य स्रोत कौन-सा था ?
(i) भूमि का लगान
(ii) चुंगी कर
(iii) नज़राना
(iv) ज़ब्ती ।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में कौन-सी जागीर को सबसे महत्त्वपूर्ण समझा जाता था?
(i) ईनाम जागीरें
(ii) वतन जागीरें
(iii) सेवा जागीरें
(iv) गुजारा जागीरें।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक संस्थाओं को दी जाने वाली जागीरों को क्या कहते थे ?
(i) वतन जागीरें
(ii) ईनाम जागीरें
(iii) धर्मार्थ जागीरें
(iv) गुजारा जागीरें।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सबसे छोटी अदालत कौन-सी थी ?
(i) पंचायत
(ii) काज़ी की अदालत
(iii) जागीरदार की अदालत
(iv) कारदार की अदालत।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय महाराजा की अदालत के नीचे सबसे बड़ी अदालत कौन-सी थी ?
(i) नाज़िम की अदालत
(ii) अदालत-ए-आला
(iii) अदालती की अदालत
(iv) कारदार की अदालत।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को सामान्यतः कौन-सी सज़ा दी जाती थी ?
(i) मृत्यु की
(ii) जुर्माने की
(iii) अंग काटने की
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह से पहले सिखों की सैनिक प्रणाली में क्या दोष थे ?
(i) सैनिकों में अनुशासन की बहुत कमी थी
(ii) पैदल सैनिकों को बहुत घटिया समझा जाता था
(iii) सैनिकों को नकद वेतन नहीं दिया जाता था
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को क्या कहा जाता था ?
(i) फ़ौज-ए-आईन
(ii) फ़ौज-ए-खास
(iii) फ़ौज-ए-बेकवायद
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को सिखलाई देने के लिए किसे नियुक्त किया था ?
(i) जनरल इलाही बख्श
(ii) जनरल अलार्ड
(iii) जनरल वेंतूरा
(iv) जनरल कार्ट।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-खास तोपखाना किसके अधीन था ?
(i) जनरल इलाही बख्श
(ii) जनरल कोर्ट
(iii) कर्नल गार्डनर
(iv) जनरल वेंतूरा।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय उस फ़ौज को क्या कहते थे जो निश्चित नियमों का पालन नहीं करती थी?
(i) फ़ौज-ए-खास
(ii) फ़ौज-ए-बेकवायद
(iii) फ़ौज-ए-आईन
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने घुड़सवार सैनिकों को सिखलाई देने के लिए किसको नियुक्त किया ?
(i) जनरल वेंतुरा
(ii) जनरल अलॉर्ड
(iii) जनरल कोर्ट
(iv) जनरल इलाही बखा।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन प्रबंध की रूप-रेखा बताएँ। (Give an outline of Central Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा केंद्रीय शासन की धुरी था। उसके मुख से निकलां प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। महाराजा रणजीत सिंह अपने अधिकारों का प्रयोग जन-कल्याण के लिए करता था। शासन प्रबंध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मंत्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढीवाला नाम के मंत्री प्रमुख थे। इन मंत्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। प्रशासन की कुशलता के लिए रणजीत सिंह प्रायः अपने मंत्रियों का परामर्श मान लेता था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए 12 दफ्तरों (विभागों) की स्थापना की थी। इनमें विशेषकर दफ्तर-एअबवाब-उल-माल, दफ्तर-ए-तोजीहात, दफ्तर-ए-मवाजिब तथा दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-अखराजात प्रमुख थे। निश्चय ही रणजीत सिंह का शासन प्रबंध बहुत अच्छा था।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन में महाराजा की स्थिति कैसी थी ? (What was the position of Maharaja in Central Administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का स्वरूप क्या था ? (Explain the nature of administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा राज्य का प्रमुख था। वह सभी शक्तियों का स्रोत था। राज्य की भीतरी तथा बाहरी नीतियाँ महाराजा द्वारा तैयार की जाती थीं। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह जब चाहे किसी को भी उसके पद से अलग कर सकता था। वह मुख्य सेनापति था तथा राज्य की सारी सेना उसके संकेत पर चलती थी। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था और उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द लोगों के लिए कानून बन जाता था। कोई भी व्यक्ति उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था। महाराजा को किसी भी शासक के साथ युद्ध अथवा संधि करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। उसे अपनी प्रजा पर कोई भी कर लगा सकने तथा उसे हटाने का अधिकार था। संक्षेप में, महाराजा की शक्तियाँ किसी तानाशाह से कम नहीं थीं। महाराजा कभी भी इन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करता था। वह प्रजा के कल्याण में ही अपना कल्याण समझता था। निस्संदेह ऐसे महान् शासकों की उदाहरणे इतिहास में बहुत कम मिलती हैं।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय प्रबंध पर एक नोट लिखें। (Write a short note on the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह का प्रांतीय प्रबंध कैसा था ?
(How was the provincial administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे में नाज़िम की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of Nazim in Province during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने शासन व्यवस्था को कुशल ढंग से चलाने के लिए अपने राज्य को चार प्रांतों अथवा सूबों में विभाजित किया था। इनके नाम थे-सूबा-ए-लाहौर, सूबा-ए-मुलतान, सूबा-ए-कश्मीर तथा सूबा-ए-पेशावर। सूबे अथवा प्राँत का मुखिया नाज़िम कहलाता था। उसकी नियुक्ति महाराजा द्वारा की जाती थी। क्योंकि यह पद बहुत महत्त्व का होता था इसलिए महाराजा इस पद पर बहुत ही विश्वसनीय, समझदार, ईमानदार तथा अनुभवी व्यक्ति को ही नियुक्त करता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम को अनेक शक्तियाँ प्राप्त थीं।

  1. उसका प्रमुख कार्य अपने अधीन प्रांत में शाँति तथा कानून व्यवस्था को बनाए रखना था।
  2. वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करता था।
  3. वह प्रांत में महाराजा रणजीत सिंह के आदेशों को लागू करवाता था।
  4. वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों का निर्णय करता था तथा कारदारों के निर्णयों के विरुद्ध याचिकाएँ सुनता था।
  5. वह भूमि लगान एकत्र करने में कर्मचारियों की सहायता करता था।
  6. उसके अधीन कुछ सेना भी होती थी तथा कई बार छोटे-मोटे अभियानों का नेतृत्व भी करता था।
  7. वह जिलों के कारदारों के कार्यों का निरीक्षण भी करता था।
  8. वह निश्चित लगान समय पर केंद्रीय खजाने में जमा करवाता था।
  9. वह आवश्यकता पड़ने पर केंद्र को सेना भी भेजता था।
  10. वह प्रायः अपने प्राँत का भ्रमण करके यह पता लगाता था कि प्रजा महाराजा रणजीत सिंह के शासन से सन्तुष्ट है अथवा नहीं।

इस प्रकार नाज़िम के पास असीम अधिकार थे परंतु उसे अपने प्रांत के संबंध में कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने से पूर्व महाराजा रणजीत सिंह की अनुमति लेनी होती थी। महाराजा रणजीत सिंह स्वयं अथवा केंद्रीय अधिकारियों द्वारा नाज़िम के कार्यों का निरीक्षण करता था। संतुष्ट न होने पर नाज़िम को बदल दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम को अच्छी तन्खाहें मिलती थीं तथा वह बहुत शानों-शौकत से बड़े महलों में रहते थे।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय प्रबंध पर नोट लिखो। (Write a note on the local administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
(What do you know about the local administration of Maharaja Ranjit Singh ? Explain.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. परगनों का शासन प्रबंध–प्रत्येक प्रांत को आगे कई परगनों में बाँटा गया था। परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। कारदार के मुख्य कार्य परगने में शांति स्थापित करना, महाराजा के आदेशों की पालना करवाना, लगान एकत्र करना, लोगों के हितों का ध्यान रखना तथा दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनना था। कानूनगो एवं मुकद्दम कारदार की सहायता करते थे।

2. गाँव का प्रबंध प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसको उस समय मौज़ा कहते थे। गाँवों का प्रबंध पंचायतों के हाथ में होता थी। पंचायत ग्रामीणों की देखभाल करती थी तथा उनके छोटे-छोटे झगड़ों का समाधान करती थी। लोग पंचायतों का बहुत सम्मान करते थे तथा उनके निर्णयों को अधिकाँश लोग स्वीकार करते थे। पटवारी गाँव की भूमि का रिकॉर्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

3. लाहौर शहर का प्रबंध-महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रबंध अन्य शहरों से अलग ढंग से किया जाता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना, शहर में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देखभाल करना, शहर में सफाई का प्रबंध करना, शहर में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार एवं उद्योग का ध्यान रखना, नाप-तोल की वस्तुओं पर नज़र रखना आदि थे।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कारदार की स्थिति क्या थी ? (What was the position of Kardar during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रत्येक सूबे अथवा प्राँत को आगे कई परगनों में बाँटा हुआ था। परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। उसे अनेक कर्त्तव्य निभाने होते थे। वह परगने में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था। वह परगने से भूमि कर एकत्र करके केंद्रीय कोष में जमा करवाता था। वह परगना के आय-व्यय का पूरा विवरण रखता था। वह परगना के हर प्रकार के दीवानी तथा फौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह दोषियों को दंड भी देता था। कारदार अपने क्षेत्र का आबकारी तथा सीमा कर अधिकारी भी होता था। इसलिए परगना से इन करों को एकत्र करना उसका कर्त्तव्य था। वह कर न देने वाले लोगों के विरुद्ध कार्यवाही भी करता था। वह जनकल्याण अधिकारी भी था, इसलिए वह परगना के लोगों के हितों का पूरा ध्यान रखता था। इस संबंध में वह परगना के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से संपर्क रखता था। वह परगनों में घटने वाली समस्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं की सूचना रखता था क्योंकि वह एक लेखाकार के रूप में भी कार्य करता था। वह परगना में निर्मित सरकारी अन्न भंडारों में अन्न जमा करवाता था। वह परगना में महाराजा के आदेशों का पालन भी करवाता था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के प्रबंध बारे एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the administration of city of Lahore during the times of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के लिए विशेष प्रबंध किया गया था। यह व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर ईमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को व्यावहारिक रूप देना, शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देख-रेख करना, शहर में सफाई की व्यवस्था करना, शहरों में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार व उद्योग का निरीक्षण, नाप-तोल की वस्तुओं की जाँच करनी इत्यादि थे। वह दोषी लोगों के विरुद्ध वांछित कार्यवाही करता था। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह का लाहौर शहर का प्रबंध बहुत बढ़िया था।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह की लगान व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालें। (Describe main features of Maharaja Ranjit Singh’s land revenue administration.)
अथवा महाराजा रणजीत सिंह के आर्थिक प्रशासन पर नोट लिखें। (Write a note on the economic administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने इस ओर अपना विशेष ध्यान दिया। लगान एकत्र करने की अग्रलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं—
1. बटाई प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकौर फसल काटने के उपराँत अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।

2. कनकूत प्रणाली–1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को लागू किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फसल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।

3. बोली देने की प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।

4. बीघा प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत एक बीघा की उपज के आधार पर लगान निश्चित किया जाता था।

5. हल प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।

6. कुआँ प्रणाली—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था।

भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फसलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के जागीरदारी प्रबंध पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
(Write a brief note on Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the chief features of Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय में कई प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं। इन जागीरों में सेवा जागीरों को सबसे उत्तम समझा जाता था। ये जागीरें राज्य के उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के बदले में दी जाती थीं। इसके अतिरिक्त उस समय इनाम जागीरें, वतन जागीरें तथा धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं। धर्मार्थ जागीरें धार्मिक संस्थाओं अथवा व्यक्तियों को दी जाती थीं। ये जागीरें स्थायी रूप से दी जाती थीं। जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से जागीरदार अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके ऐजेंट करते थे। जागीरदारों को न केवल अपनी जागीरों से लगान एकत्र करने का अधिकार था, अपितु वे न्याय संबंधी विषयों का निर्णय भी करते थे। कई बार उन्हें सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी सौंपा जाता था। सैनिक जागीरदारों को सैनिक भर्ती करने का भी अधिकार प्राप्त था। जागीरदारी व्यवस्था में यद्यपि कुछ दोष अवश्य थे, परंतु यह प्रबंध तत्कालीन समय के अनुकूल था।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली की मुख्य विशेषताओं की चर्चा करें।
(Discuss the main features of the Judicial System of Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ बताएँ।। (Discuss the main features of the Judicial System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध बहुलै साधारण था। कानून लिखित नहीं थे। न्याय उस समय की परंपराओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार किया जाता था। न्याय के संबंध में अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने राज्य भर में कई अदालतें स्थापित की थीं। __महाराजा के उपरांत राज्य की सर्वोच्च अदालत का नाम अदालते-आला था। यह नाज़िम तथा परगनों में कारदार की अदालतें दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनती थीं। न्याय के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने विशेष अधिकारी भी नियुक्त किए थे जिनको अदालती कहा जाता था। अधिकाँश शहरों तथा कस्बों में काज़ी की अदालत भी कायम थी। यहाँ न्याय के लिए मुसलमान तथा गैर-मुसलमान लोग जा सकते थे। गाँवों में पंचायतें झगड़ों का निर्णय स्थानीय परंपराओं के अनुसार करती थीं। महाराजा रणजीत सिंह के समय दंड कठोर नहीं थे। मृत्यु दंड किसी को भी नहीं दिया जाता था। अधिकतर अपराधियों से जुर्माना वसूल किया जाता था। परंतु बार-बार अपराध करने वालों के हाथ, पैर, नाक आदि काट दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध उस समय के अनुकूल था।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What were the main features of Maharaja Ranjit Singh’s military administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की सेना पर संक्षेप नोट लिखें। (Write a short note on the military of Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. रचना-महाराजा रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न वर्गों से संबंधित लोग सम्मिलित थे। इनमें सिख, राजपूत, ब्राह्मण, क्षत्रिय, गोरखे तथा पूर्बिया हिंदुस्तानी सम्मिलित थे।

2. भर्ती-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में भर्ती बिल्कुल लोगों की इच्छा के अनुसार होती थी। केवल स्वस्थ व्यक्तियों को ही सेना में भर्ती किया जाता था। अफसरों की भर्ती का काम केवल महाराजा के हाथों में था। प्रायः उच्च तथा विश्वसनीय अधिकारियों के पुत्रों को अधिकारी नियुक्त किया जाता था।

3. वेतन-महाराजा रणजीत सिंह से पूर्व सैनिकों को या तो जागीरों के रूप में या ‘जिनस’ के रूप में वेतन दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिकों को नकद वेतन देने की परंपरा शुरू की।

4. पदोन्नति-महाराजा रणजीत सिंह अपने सैनिकों की केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नति करता था। पदोन्नति देते समय महाराजा किसी सैनिक के धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था।

5. पुरस्कार और उपाधि-महाराजा रणजीत सिंह प्रत्येक वर्ष लाहौर दरबार की शानदार सेवा करने वाले सैनिकों को और लड़ाई के मैदान में बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को लाखों रुपयों के पुरस्कार तथा ऊँची उपाधियाँ देता था।

6. अनुशासन-महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना में बहुत कड़ा अनुशासन स्थापित किया हुआ था। सैनिक नियमों का उल्लंघन करने वाले सैनिकों को कड़ा दंड दिया जाता था।

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन में फ़ौज-ए-खास के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Fauj-i-Khas of Maharaja Ranjit Singh’s army.)
उत्तर-
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल बैंतरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इसे ‘मॉडल ब्रिगेड’ भी कहा जाता था। इस सेना में पैदल सेना की चार बटालियनें, घुड़सवार सेना की दो रेजीमैंटें तथा 24 तोपों का एक तोपखाना शामिल था। इस सेना को यूरोपीय ढंग के कड़े प्रशिक्षण के अंतर्गत तैयार किया गया था। इस सेना में बहुत उत्तम सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र व घोड़े भी सबसे बढ़िया किस्म के थे। इसीलिए इस सेना को फ़ौज-ए-खास कहा जाता था। इस सेना का अपना अलग ध्वज चिह्न था। यह सेना बहुत अनुशासित थी। इस सेना को कठिन अभियानों में भेजा जाता था। इस सेना ने महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की। इस सेना की कार्य-कुशलता को देखकर अनेक अंग्रेज़ अधिकारी चकित रह गए थे।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह की फ़ौज-ए-बेक्वायद से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Fauj-i-Baqawaid of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
फ़ौज-ए-बेकवायद वह सेना थी, जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी। इसके चार भाग थे—
(i) घुड़चढ़े
(ii) फ़ौज-ए-किलाजात
(iii) अकाली
(iv) जागीरदार सेना।

i) घुड़चढ़े-घुड़चढ़े बेकवायद सेना का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। ये दो भागों में बँटे हुए थे—

  • घुड़चढ़े खास-इसमें राजदरबारियों के संबंधी तथा उच्च वंश से संबंधित व्यक्ति सम्मिलित थे।
  • मिसलदार-इसमें वे सैनिक सम्मिलित थे, जो मिसलों के समय से सैनिक चले आ रहे थे। घुड़चढ़ों की तुलना में मिसलदारों का पद कम महत्त्वपूर्ण था। इनके युद्ध का ढंग भी पुराना था। 1838-39 ई० में घुड़चढ़ों की संख्या 10,795 थी।।

ii) फ़ौज-ए-किलाजात-किलों की सुरक्षा के लिए महाराजा रणजीत सिंह के पास एक अलग सेना थी, जिसको फ़ौज-ए-किलाजात कहा जाता था। प्रत्येक किले में किलाजात सैनिकों की संख्या किले के महत्त्व के अनुसार अलग-अलग होती थी। किले के कमान अधिकारी को किलादार कहा जाता था।

iii) अकाली-अकाली अपने आपको गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना समझते थे। इनको सदैव भयंकर अभियान में भेजा जाता था। वे सदैव हथियारबंद होकर घूमते रहते थे। वे किसी तरह के सैनिक प्रशिक्षण या परेड के विरुद्ध थे। वे धर्म के नाम पर लड़ते थे। उनकी संख्या 3,000 के लगभग थी। अकाली फूला सिंह एवं अकाली साधु सिंह उनके प्रसिद्ध नेता थे।

iv) जागीरदारी फ़ौज-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों पर यह शर्त लगाई गई कि वे महाराजा को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता दें। इसलिए जागीरदार राज्य की सहायता के लिए पैदल तथा घुड़सवार सैनिक रखते थे।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार था ? (What was Ranjit Singh’s attitude towards his subjects ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था। वह प्रजा के हितों की कभी उपेक्षा नहीं करता था। उसने सरकारी कर्मचारियों को यह आदेश दिया था कि वे प्रजा के कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की दशा जानने के लिए महारांजा भेष बदल कर प्रायः राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेश का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को कड़ा दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। कश्मीर में जब एक बार भारी अकाल पड़ा तो महाराजा ने हज़ारों खच्चरों पर अनाज लाद कर कश्मीर भेजा था। महाराजा ने न केवल सिखों बल्कि हिंदुओं तथा मुसलमानों को भी संरक्षण दिया। उन्हें भारी संख्या में लगान मुक्त भूमि दान में दी गई। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह के समय में प्रजा बहुत समृद्ध थी।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर पड़े प्रभावों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the effects of Ranjit Singh’s rule on the life of the people.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। उसने पंजाब में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। पंजाब के लोगों ने शताब्दियों के पश्चात् चैन की. साँस ली। इससे पूर्व पंजाब के लोगों को एक लंबे समय तक मुग़ल तथा अफ़गान सूबेदारों के घोर अत्याचारों को सहन करना पड़ा था। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में एक उच्चकोटि के शासन प्रबंध की स्थापना की। उसके शासन का प्रमुख उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। उसने अपने राज्य में सभी अमानुषिक सज़ाएँ बंद कर दी थीं। मृत्यु की सज़ा किसी अपराधी को भी नहीं दी जाती थी। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने नागरिक प्रबंध के साथ-साथ सैनिक प्रबंध की ओर भी विशेष ध्यान दिया। इस शक्तिशाली सेना के परिणामस्वरूप वह साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल हुआ। महाराजा ने कृषि, उद्योग तथा व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष उपाय किए। परिणामस्वरूप उसके शासन काल में प्रजा बहुत समृद्ध थी। महाराजा रणजीत सिंह यद्यपि सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था, किंतु उसने अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई। आज भी लोग महाराजा रणजीत सिंह के शासन के गौरव को स्मरण करते हैं।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अन्त में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
महाराजा केंद्रीय शासन की धुरी था। उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। महाराजा रणजीत सिंह अपने अधिकारों का प्रयोग जन-कल्याण के लिए करता था। शासन प्रबन्ध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मन्त्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढ़ीवाला हम के मन्त्री प्रमुख थे। इन मन्त्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। प्रशासन की कुशलता के लिए रणजीत सिंह प्रायः अपने मन्त्रियों का परामर्श मान लेता था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए 12 दफ्तरों (विभागों) की स्थापना की थी। इनमें विशेषकर दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल, दफ्तरए-तोजीहात, दफ्तर-ए-मवाजिब तथा दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-अखराजात प्रमुख थे। निश्चय ही रणजीत सिंह का शासन प्रबध बहुत अच्छा था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन का धुरा कौन होता था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री कौन था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
    • राजा ध्यान सिंह
    • हरी सिंह नलवा
    • फकीर अजीजुद्दीन
    • दीवान मोहकम चंद।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की अच्छी देखभाल के लिए कितने दफ्तरों की स्थापना की गई थी ?
  5. दफ्तर-ए-तोजीहात का क्या काम होता था ?

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन का धुरा महाराजा स्वयं होता था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री राजा ध्यान सिंह था।
  3. फकीर अजीजुद्दीन।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की अच्छी देखभाल के लिए 12 दफ्तरों की स्थापना की गई थी।
  5. दफ्तर-ए-तोज़ीहात शाही घराने का हिसाब रखता था।

2
शासन-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के उद्देश्य से महाराजा रणजीत सिंह ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभाजित किया हुआ था। इन प्रांतों अथवा सूबों के नाम ये थे–(i) सूबा-ए-लाहौर, (ii) सूबा-ए-मुलतान, (ii) सूबाए-कश्मीर, (iv) सूबा-ए-पेशावर। प्राँत का प्रशासन चलाने की ज़िम्मेदारी नाज़िम की होती थी। नाज़िम का मुख्य कार्य अपने प्रांत में शांति बनाए रखना था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह भूमि का लगान एकत्रित करने में कर्मचारियों की सहायता करता था। वह जिलों के कारदारों के कार्यों का भी निरीक्षण करता था। इस प्रकार नाज़िम के पास असीमित अधिकार थे, परंतु उसे अपने प्रांत के संबंध में कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय करने से पूर्व महाराजा की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। महाराजा जब चाहे नाज़िम को परिवर्तित कर सकता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य को कितने सूबों में बाँटा हुआ था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के किन्हीं दो सूबों के नाम लिखें।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे का मुखिया कौन होता था ?
  4. नाज़िम का कोई एक मुख्य कार्य लिखें।
  5. महाराजा जब चाहे नाज़िम को …………. कर सकता था।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य को चार सूबों में बांटा हुआ था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के दो सूबों के नाम सूबा-ए-लाहौर तथा सूबा-ए-कश्मीर थे।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे का मुखिया नाज़िम होता था।
  4. वह अपने अधीन प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था।
  5. परिवर्तित।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

3
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसे उस समय मौज़ा कहते थे। गाँवों की व्यवस्था पंचायतों के हाथ में होती थी। पंचायत ग्रामीण लोगों की देख-रेख करती थी तथा उनके छोटे-मोटे झगडों को निपटाती थी। लोग पंचायत का बहुत सम्मान करते थे तथा उसके निर्ण: को अधिकतर लोग स्वीकार करते थे। पटवारी गाँवों की भूमि का रिकार्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। मुकद्दम (नंबरदार) गाँव का मुखिया होता था। वह सरकार व लोगों में एक कड़ी का कार्य करता था। चौकीदार गाँव का पहरेदार होता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कौन-सी थी ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को क्या कहा जाता था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव का प्रबंध किसके हाथ में होता था ?
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुकद्दम कौन था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँवों की भूमि का रिकार्ड कौन रखता था ?
    • मुकद्दम
    • चौधरी
    • पटवारी
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को मौज़ा कहते थे।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव का प्रबंध पंचायत के हाथ में होता था।
  4. मुकद्दम गाँव का मुखिया होता था।
  5. पटवारी।

4
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था । मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफ़ाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर इमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को व्यावहारिक रूप देना, शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देख-रेख करना, शहर में सफाई की व्यवस्था करना, शहरों में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार व उद्योग का निरीक्षण, नाप-तोल की वस्तुओं की जाँच करना इत्यादि थे। वह दोषी लोगों के विरुद्ध वांछित कार्यवाई करता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह जी के समय लाहौर शहर का मुख्य अधिकारी कौन था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर कौन नियुक्त था ?
  3. कोतवाल का एक मुख्य कार्य बताएँ।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुहल्ले का मुखिया कौन होता था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के समय ………… शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का मुख्य अधिकारी कोतवाल होता था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर इमाम बख्श नियुक्त था।
  3. शहर में शांति बनाए रखना।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुहल्ले का मुखिया मुहल्लेदार होता था।
  5. लाहौर।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन PSEB 12th Class History Notes

  • महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक प्रबंध (Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh)-महाराजा रणजीत सिंह के नागरिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
    • केंद्रीय शासन प्रबंध (Central Administration)–महासजा राज्य का मुखिया था-राज्य की सभी आंतरिक तथा बाह्य नीतियाँ महाराजा द्वारा तैयार की जाती थीं-प्रशासन व्यवस्था की देख-रेख के लिए एक मंत्रिपरिषद् का गठन किया हुआ था-मंत्रियों की नियुक्ति महाराजा स्वयं करता था-केंद्र में महाराजा के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान प्रधानमंत्री का था-विदेश मंत्री, वित्त मंत्री, मुख्य सेनापति और ड्योढ़ीवाला मंत्रिपरिषद् के अन्य मुख्य मंत्री थे-प्रबंधकीय सुविधाओं के लिए केंद्रीय शासन-व्यवस्था को अनेक दफ्तरों में विभाजित किया गया था।
    • प्रांतीय प्रबंध (Provincial Administration)-महाराजा ने अपने राज्य को चार बड़े प्राँतों में विभाजित किया हुआ था-ये प्राँत थे-सूबा-ए-लाहौर, सूबा-ए-मुलतान, सूबा-ए-कश्मीर और सूबाए-पेशावर-प्राँत का प्रशासन नाज़िम के हाथ में होता था-नाज़िम कभी भी महाराजा द्वारा परिवर्तित किया जा सकता था।
    • स्थानीय व्यवस्था (Local Administration)—प्रत्येक प्राँत कई परगनों में विभाजित थापरगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहते थे-प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव अथवा मौजा थी-गाँव की व्यवस्था पंचायत के हाथ में होती थी-पटवारी, चौधरी, मुकद्दम और चौकीदार गाँव के प्रमुख अधिकारी होते थे-लाहौर शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग थी।
    • वित्तीय व्यवस्था (Financial Administration)-राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था-लगान एकत्रित करने के लिए बटाई प्रणाली सर्वाधिक प्रचलित थी-इसके अतिरिक्त कनकूत प्रणाली, ज़ब्ती प्रणाली, बीघा प्रणाली, हल प्रणाली और इज़ारादारी प्रणाली भी प्रचलित थी-लगान वर्ष में दो बार एकत्रित किया जाता था—यह भूमि की उपजाऊ शक्ति पर निर्भर करता था-चुंगी कर, नज़राना, ज़ब्ती और आबकारी आदि से भी सरकार को आय होती थी।
    • जागीरदारी प्रथा (Jagirdari System)-जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में सेवा जागीरें सबसे महत्त्वपूर्ण थीं-इन जागीरों को घटाया, बढ़ाया अथवा जब्त किया जा सकता था ये सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को दी जाती थीं-इसके अतिरिक्त ईनाम जागीरें, गुज़ारा जागीरें, वतन जागीरें और धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं।
    • न्याय व्यवस्था (Judicial System)-न्याय प्रणाली साधारण थी-कानून लिखित नहीं थेनिर्णय प्रचलित प्रथाओं व धार्मिक विश्वासों के आधार पर किए जाते थे-न्याय व्यवस्था में पंचायत सबसे लघु और महाराजा की अदालत सर्वोच्च अदालत थी-लोग किसी भी अदालत में जाकर मुकद्दमा प्रस्तुत कर सकते थे-अपराधों का दंड प्रायः जुर्माना ही होता था। मृत्यु दंड किसी भी अपराधी को नहीं दिया जाता था। ।
  • महाराजा रणजीत सिंह का सैनिक प्रबंध (Military Administration of Maharaja Ranjit Singh)-महाराजा रणजीत सिंह ने अपने सैनिक प्रबंध की ओर विशेष ध्यान दिया-उसकी सेना में देशी एवं विदेशी दोनों सैनिक प्रणालियों का समन्वय किया गया था-सेना ‘फ़ौज-ए-आईन’ और ‘फ़ौज-ए-बेकवायद’ नामक दो भागों में विभाजित थी-फ़ौज-ए-आईन को पैदल, घुड़सवार और तोपखाना में विभाजित किया गया था-फ़ौज-ए-खास महाराजा की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली अंग थी-इसे जनरल वेंतूरा ने तैयार किया था—फ़ौज-ए-बेकवायद को निश्चित नियमों का पालन नहीं करना पड़ता था-रणजीत सिंह की सेना में भिन्न-भिन्न वर्गों से संबंधित लोग शामिल थेअधिकाँश इतिहासकारें का मत है कि उनकी सेना की संख्या 75,000 से 1,00,000 के बीच थी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है ? संसदीय शासन प्रणाली की कोई चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(What is meant by Parliamentary System ? Explain any four features of a parliamentary system of Government.)
उत्तर-
कार्यपालिका और विधानपालिका के सम्बन्धों के आधार पर दो प्रकार के शासन होते हैं-संसदीय तथा अध्यक्षात्मक। यदि कार्यपालिका और विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध हों और दोनों एक-दूसरे का अटूट भाग हों तो संसदीय सरकार होती हैं और यदि कार्यपालिका तथा विधानपालिका एक-दूसरे से लगभग स्वतन्त्र हों तो अध्यक्षात्मक सरकार होती है।

संसदीय सरकार का अर्थ (Meaning of Parliamentary Government)-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् (विधानपालिका) के प्रति उत्तरदायी होती है और जब तक अपने मद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग पत्र देना पड़ता है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार (Responsible Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इस सरकार को कैबिनेट सरकार (Cabinet Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां कैबिनेट द्वारा प्रयोग की जाती हैं।

1. डॉ० गार्नर (Dr. Garmer) का मत है कि, “संसदीय सरकार वह प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका, मन्त्रिमण्डल या मन्त्रिपरिषद् अपनी राजनीतिक नीतियों और कार्यों के लिए प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से विधानमण्डल या उसके एक सदन (प्रायः लोकप्रिय सदन) के प्रति और राजनीतिक तौर पर मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी हो जबकि राज्य का अध्यक्ष संवैधानिक या नाममात्र कार्यपालिका हो और अनुत्तरदायी हो।”

2. गैटेल (Gettell) के अनुसार, “संसदीय शासन प्रणाली शासन के उस रूप को कहते हैं जिसमें प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् अर्थात् वास्तविक कार्यपालिका अपने कार्यों के लिए कानूनी दृष्टि से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। चूंकि विधानपालिका के दो सदन होते हैं अतः मन्त्रिमण्डल वास्तव में उस सदन के नियन्त्रण में होता है जिसे वित्तीय मामलों पर अधिक शक्ति प्राप्त होती है जो मतदाताओं का अधिक सीधे ढंग से प्रतिनिधित्व करता है।”
इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है और राज्य का नाममात्र का मुखिया किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।
संसदीय सरकार को सर्वप्रथम इंग्लैंड में अपनाया गया था। आजकल इंग्लैंड के अतिरिक्त जापान, कनाडा, नार्वे, स्वीडन, बंगला देश तथा भारत में भी संसदीय सरकारें पाई जाती हैं।

संसदीय सरकार के लक्षण (FEATURES OF PARLIAMENTARY GOVERNMENT)
संसदीय प्रणाली के निम्नलिखित लक्षण होते हैं-

1. राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी (Head of the State is Nominal Executive)-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी होता है। सैद्धान्तिक रूप में तो राज्य की सभी कार्यपालिका शक्तियां राज्य के अध्यक्ष के पास होती हैं और उनका प्रयोग भी उनके नाम पर होता है, परन्तु वह उनका प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता। उसकी सहायता के लिए एक मन्त्रिमण्डल होता है, जिसकी सलाह के अनुसार ही उसे अपनी शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है। अध्यक्ष का काम तो केवल हस्ताक्षर करना है।

2. मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है (Cabinet is the Real Executive) राज्य के अध्यक्ष के नाम में दी गई शक्तियों का वास्तविक प्रयोग मन्त्रिमण्डल करता है। अध्यक्ष के लिए मन्त्रिमण्डल से सलाह मांगना और मानना अनिवार्य है। मन्त्रिमण्डल ही अन्तिम फैसला करता है और वही देश का वास्तविक शासक है। शासन का प्रत्येक विभाग एक मन्त्री के अधीन होता है और सब कर्मचारी उसके अधीन काम करते हैं । हर मन्त्री अपने विभागों का काम मन्त्रिमण्डल की नीतियों के अनुसार चलाने के लिए उत्तरदायी होता है।

3. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध (Close Relation between Executive and Legislature) संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। इसके सदस्य अर्थात् मन्त्री संसद् में से ही लिए जाते हैं। ये मन्त्री संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, बिल पेश करते हैं, बिलों पर बोलते हैं और यदि सदन के सदस्य हों तो मतदान के समय मत का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार मन्त्री प्रशासक (Administrator) भी हैं, कानून-निर्माता (Legislator) भी।

4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Responsibilty of the Cabinet)-कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल अपने सब कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। संसद् सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना पड़ता है। मन्त्रिमण्डल अपनी नीति निश्चित करता है, उसे संसद के सामने रखता है तथा उसका समर्थन प्राप्त करता है। मन्त्रिमण्डल, अपना कार्य संसद् की इच्छानुसार ही करता है।

5. उत्तरदायित्व सामूहिक होता है (Collective Responsibility)-मन्त्रिमण्डल इकाई के रूप में कार्य करता है और मन्त्री सामूहिक रूप से संसद् के प्रति उत्तरदायी होते हैं। यदि संसद् एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो समस्त मन्त्रिमण्डल को अपना पद छोड़ना पड़ता है। किसी विशेष परिस्थिति में एक मन्त्री अकेला भी हटाया जा सकता है।

6. मन्त्रिमण्डल का अनिश्चित कार्यकाल (Tenure of the Cabinet is not Fixed)-मन्त्रिमण्डल की अवधि भी निश्चित नहीं होती। संसद् की इच्छानुसार ही वह अपने पद पर रहते हैं। संसद् जब चाहे मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ कर सकती है, अर्थात् यदि निम्न सदन के नेता को ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है और उसकी इच्छानुसार ही दूसरे मन्त्रियों की नियुक्ति होती है।

7. मन्त्रिमण्डल की राजनीतिक एकरूपता (Political Homogeneity of the Cabinet)-संसदीय सरकार की एक विशेषता यह भी है कि इसमें मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही राजनीतिक दल से सम्बन्धित होते हैं। यह आवश्यक भी है क्योंकि जब तक मन्त्री एक ही विचारधारा और नीतियों के समर्थक नहीं होंगे, मन्त्रिमण्डल में सामूहिक उत्तदायित्व विकसित नहीं हो सकेगा।

8. गोपनीयता (Secrecy)—संसदीय सरकार में पद सम्भालने से पूर्व मन्त्री संविधान के प्रति वफादार रहने तथा सरकार के रहस्यों को गुप्त रखने की शपथ लेते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 2.
संसदीय शासन प्रणाली क्या है ? भारतीय संसदीय प्रणाली की कोई चार विशेषताओं का विस्तार से वर्णन करें।
(What is Parliamentary form of Government ? Explain any four characteristics of Indian Parliamentary govt. in detail.)
अथवा
भारत में संसदीय शासन की सरकार की विशेषताओं का वर्णन करो। (Discuss the main features of Parliamentary Government in India.)
अथवा
भारत की संसदीय प्रणाली की विशेषताएं लिखिए। (Write about the features of Indian Parliamentary Government.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है। भारत में भी स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान के अन्तर्गत प्रजातन्त्र की स्थापना की गई है। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। 24 जनवरी, 1950 को संविधान की अन्तिम बैठक में भाषण देते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि, “हमने भारत के लिए लोकतान्त्रिक संविधान का निर्माण किया है।” भारतीय लोकतन्त्र में वे सभी बातें पाई जाती हैं जो एक लोकतान्त्रिक देश में होनी चाहिए। प्रस्तावना से स्पष्ट पता चलता है कि सत्ता का अन्तिम स्रोत जनता है और संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने ऊपर लागू करने वाले भारत के लोग हैं।

वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। 61वें संशोधन के द्वारा प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष या अधिक है, मताधिकार दिया गया है। जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई मतभेद नहीं किया गया है। सभी नागरिकों को समान रूप से मौलिक अधिकार दिए गए हैं। इन अधिकारों के द्वारा भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र को मजबूत बनाया गया है। संविधान के चौथे अध्याय में राजनीति के निर्देशक तत्त्वों की व्यवस्था की गई है ताकि आर्थिक लोकतन्त्र की व्यवस्था की जा सके। संविधान का निर्माण करते समय इस बात पर काफ़ी विवाद हुआ कि भारत में संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना की जाए या अध्यक्षात्मक लोकतन्त्र की। संविधान सभा में सैय्यद काज़ी तथा शिब्बन लाल सक्सेना ने अध्यक्षात्मक लोकतन्त्र की जोरदार वकालत की। के० एम० मुन्शी, अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर आदि ने संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन किया और काफ़ी वाद-विवाद के पश्चात् बहुमत के आधार पर संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना की।

संसदीय शासन प्रणाली का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Parliamentary Govt.)इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखें।

भारत में संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं (FEATURES OF PARLIAMENTARY GOVERNMENT IN INDIA)
भारतीय संसदीय प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद (Distinction between Nominal and Real Executive)-भारतीय संसदीय प्रणाली की प्रथम विशेषता यह है कि संविधान के अन्तर्गत नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद किया गया है। राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान के अन्दर कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।

2. कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध (Close Relation between the Executive and the Parliament) कार्यपालिका और संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्रिमण्डल में ले लिया जाता है जो संसद् का सदस्य नहीं है तो उसे 6 महीने के अन्दरअन्दर या तो संसद् का सदस्य बनना पड़ता है या फिर मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र देना पड़ता है। लोकसभा में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है राष्ट्रपति उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रिमण्डल शासन चलाने का कार्य ही नहीं करता बल्कि कानून निर्माण में भी भाग लेता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, अपने विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं।

3. राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग है (President remains outside the Cabinet)–संसदीय प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग रहता है। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता। मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के प्रत्येक निर्णय से राष्ट्रपति को सूचित कर दिया जाता है।

4. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व (Leadership of the Prime Minister)-मन्त्रिमण्डल अपना समस्त कार्य प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में करता है। राष्ट्रपति राज्य का अध्यक्ष है और प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष है। प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार ही राष्ट्रपति अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। मन्त्रियों में विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री के द्वारा ही किया जाता है और वह जब चाहे मन्त्रियों के विभागों को बदल सकता है। वह मन्त्रिमण्डल की अध्यक्षता करता है। यदि कोई मन्त्री प्रधानमन्त्री से सहमत नहीं होता तो वह त्याग-पत्र दे सकता है। प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर किसी भी मन्त्री को पद से हटा सकता है। मन्त्रिमण्डल का जीवन तथा मृत्यु प्रधानमन्त्री के हाथों में होती है। प्रधानमन्त्री का इतना महत्त्व है कि उसे सितारों में चमकता हुआ चाँद (Shinning moon among the stars) कहा जाता है।

5. राजनीतिक एकरूपता (Political Homogeneity)—संसदीय शासन प्रणाली की अन्य विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक एकरूपता होती है। लोकसभा में जिस दल का बहुमत होता है उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री बनाया जाता है और प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल का स्वयं निर्माण करता है। प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी के सदस्यों को ही मन्त्रिमण्डल में शामिल करता है। विरोधी दल के सदस्यों को मन्त्रिमण्डल में नियुक्त नहीं किया जाता।

6. एकता (Solidarity)—भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक और विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल एक इकाई के समान कार्य करता है। मन्त्री एक साथ बनते हैं और एक साथ ही अपने पद त्यागते हैं। जो निर्णय एक बार मन्त्रिमण्डल के द्वारा कर लिया जाता है, मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य उस निर्णय के अनुसार ही कार्य करते हैं और कोई भी मन्त्री उसका विरोध नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल में जब कभी भी किसी विषय पर विचार होता है, उस समय प्रत्येक सदस्य स्वतन्त्रता से अपने-अपने विचार दे सकता है, परन्तु जब एक बार निर्णय ले लिया जाता है, चाहे वह निर्णय बहुमत के द्वारा क्यों न लिया गया हो, वह निर्णय समस्त मन्त्रिमण्डल का निर्णय कहलाता है।

7. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Ministerial Responsibility)-भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल को अपनी आंतरिक तथा बाहरी नीति संसद के सामने रखनी पड़ती है और संसद् की स्वीकृति मिलने के बाद ही उसे लागू कर सकता है। संसद् के सदस्य मन्त्रियों से उनके विभागों से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकते हैं और मन्त्रियों को प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है। यदि उत्तर स्पष्ट न हो या प्रश्नों को टालने की कोशिश की जाए तो सदस्य अपने इस अधिकार की रक्षा के लिए सरकार से अपील कर सकते हैं। यदि लोकसभा मन्त्रिमण्डल के कार्यों से सन्तुष्ट न हो तो वह उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर सकते हैं।

8. गोपनीयता (Secrecy) भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक अन्य विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल की बैठकें प्राइवेट और गुप्त होती हैं। मन्त्रिमण्डल की कार्यवाही गुप्त रखी जाती है और मन्त्रिमण्डल की बैठकों में उसके सदस्यों के अतिरिक्त किसी अन्य को उसमें बैठने का अधिकार नहीं होता। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) के अनुसार मन्त्रियों को पद ग्रहण करते समय मन्त्रिमण्डल की कार्यवाहियों को गुप्त रखने की शपथ लेनी पड़ती है।

9. प्रधानमन्त्री लोकसभा को भंग करवा सकता है (Prime Minister Can get the Lok Sabha Dissolved) भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक विशेषता यह है कि प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर लोकसभा को भंग करवा सकता है। जनवरी, 1977 में राष्ट्रपति अहमद ने प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की सलाह पर लोकसभा को भंग कर किया। 22 अगस्त, 1979 को राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह की सलाह पर लोकसभा को भंग किया। 6 फरवरी, 2004 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने 13वीं लोकसभा भंग कर दी।

10. मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं है (The Tenure of the Cabinet is not Fixed)-मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त है। इस प्रकार मन्त्रिमण्डल की अवधि लोकसभा पर निर्भर करती है। अत: यदि मन्त्रिमण्डल को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त रहे तो वह 5 वर्ष तक रह सकता है। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को जब चाहे हटा सकती है।

11. लोकसभा की श्रेष्ठता (Superiority of the Lok Sabha)-संसदीय सरकार की एक विशेषता यह होती है कि संसद् का निम्न सदन ऊपरि सदन की अपेक्षा श्रेष्ठ और शक्तिशाली होता है। भारत में भी संसद् का निम्न सदन (लोकसभा) राज्यसभा से श्रेष्ठ और अधिक शक्तिशाली है। मन्त्रिमण्डल के सदस्यों की आलोचना और उनसे प्रश्न पूछने का अधिकार संसद् के दोनों सदनों के सदस्यों को है, परन्तु वास्तव में मन्त्रिमण्डल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। लोकसभा ही अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है, परन्तु ये अधिकार राज्यसभा के पास नहीं है। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि लोकसभा ने वाजपेयी के विश्वास प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

12. विरोधी दल के नेता को मान्यता (Recognition to the Leader of the Opposition Party)-मार्च, 1977 को लोकसभा के चुनाव के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता सरकार ने संसदीय शासन प्रणाली को दृढ़ बनाने के लिए विरोधी दल के नेता को कैबिनेट स्तर के मन्त्री की मान्यता दी। ब्रिटिश परम्परा का अनुसरण करते हुए भारत में भी अगस्त,1977 में भारतीय संसद् द्वारा पास किए गए कानून के अन्तर्गत संसद् के दोनों सदनों में विरोधी दल के नेताओं को वही वेतन तथा सुविधाएं दी जाती हैं जो कैबिनेट स्तर के मन्त्री को प्राप्त होती हैं। मासिक वेतन और निःशुल्क आवास एवं यात्रा भत्ते की व्यवस्था की गई है। अप्रैल-मई, 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी को विरोधी दल के नेता के रूप में मान्यता दी गई। दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 3.
भारतीय संसदीय लोकतंत्र के कोई 6 दोषों या कमियों का वर्णन करें। (Explian six weaknesses or defects of Parliamentary democracy in India.)
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली के अवगुणों का वर्णन कीजिए। (Discuss the demerits of Indian Parliamentary System.)
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली के दोषों का वर्णन कीजिए। (Explain the defects of Indian Parliamentary System.)
उत्तर-
भारत में केन्द्र और प्रांतों में संसदीय शासन प्रणाली को कार्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं। भारतीय संसदीय प्रणाली की कार्यविधि के आलोचनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संसदीय प्रजातन्त्रीय प्रणाली में बहुत-सी त्रुटियां हैं जिनके कारण कई बार यह कहा जाता है कि भारत में संसदीय प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि के अध्ययन के पश्चात् निम्नलिखित दोष नज़र आते हैं-

1. एक दल की प्रधानता (Dominance of One Party)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि यहां पर कांग्रेस दल का ही प्रभुत्व छाया रहा है। 1950 से लेकर मार्च, 1977 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही। राज्यों में भी 1967 तक इसी की प्रधानता रही।
जनवरी, 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस (इ) को भारी सफलता मिली। कांग्रेस (इ) को 351 सीटें मिलीं जबकि लोकदल को 41 और जनता पार्टी को केवल 31 स्थान मिले। हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में दल-बदल द्वारा कांग्रेस (इ) की सरकारें स्थापित की गईं। मई, 1980 में 9 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में तमिलनाडु को छोड़कर 8 अन्य राज्यों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली और कांग्रेस (इ) की सरकारें बनीं। दिसम्बर, 1984 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (इ) को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई। ऐसा लगता था कि कांग्रेस का एकाधिकार पुनः स्थापित हो जाएगा। परन्तु नवम्बर, 1989 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (इ) की पराजय हुई और राष्ट्रीय मोर्चा को विजय प्राप्त हुई। फरवरी, 1990 में 8 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में महाराष्ट्र और अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर अन्य राज्यों में गैर-कांग्रेसी दलों को भारी सफलता प्राप्त हुई।

मई, 1991 के लोकसभा के चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव से स्पष्ट हो गया है कि अब कांग्रेस (इ) की प्रधानता 1977 से पहले जैसी नहीं रही। मई, 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 140 सीटें प्राप्त हुईं। पश्चिमी बंगाल, केरल, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश व पंजाब इत्यादि राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। इसी प्रकार फरवरी-मार्च, 1998 एवं सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के चुनावों में भी कांग्रेस को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् यद्यपि कांग्रेस ने केन्द्र में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके लिए अन्य दलों का समर्थन भी लेना पड़ा। अप्रैल-मई 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भी गठबन्धन सरकार का ही निर्माण किया गया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा उसे केवल 44 सीटें ही मिल पाईं, जबकि भाजपा को पहली बार स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। अतः अब कांग्रेस की प्रधानता समाप्त हो गई है।

2. संगठित विरोधी दल का अभाव (Lack of Effective Opposition)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि सदैव संगठित विरोधी दल के अभाव को अनुभव करती रही है।
लम्बे समय तक संगठित विरोधी दल न होने के कारण कांग्रेस ने विरोधी दलों की बिल्कुल परवाह नहीं की। परन्तु जनता पार्टी की स्थापना के पश्चात् भारतीय राजनीति व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल बनी और कांग्रेस को विरोधी बैंचों पर बैठने का पहली बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार कांग्रेस की हार से संगठित विरोधी दल का उदय हुआ।

सितम्बर-अक्तूबर 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को विपक्षी दल के रूप में और इस दल की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी को विपक्षी दल के नेता के रूप.में मान्यता दी गई है। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी दल के रूप में तथा इस दल के नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को विपक्षी दल के नेता के रूप में मान्यता दी गई। दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ।

3. बहुदलीय प्रणाली (Multiple Party System)—संसदीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक और बाधा बहुदलीय प्रणाली का होना है। भारत में फ्रांस की तरह बहुत अधिक दल पाए जाते हैं। स्थायी शासन के लिये दो या तीन दल ही होने चाहिए। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती। 1967 के चुनाव के पश्चात, बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि प्रान्तों में सरकारों के गिरने और बनने का पता भी नहीं चलता था। अत: संसदीय प्रजातन्त्र की कामयाबी के लिए दलों की संख्या को कम करना अनिवार्य है। मई, 1991 के लोकसभा के चुनाव के अवसर पर चुनाव आयोग ने 9 राष्ट्रीय दलों को मान्यता दी परन्तु फरवरी, 1992 में चुनाव कमीशन ने 3 राष्ट्रीय दलों की मान्यता रद्द कर दी। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय तथा 58 दलों को राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

4. सामूहिक उत्तरदायित्व की कमी (Absence of Collective Responsibility)-संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसका अभिप्राय यह है कि एक मन्त्री के विरुद्ध भी निन्दा प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया जाए तो समस्त मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। यह एक संवैधानिक व्यवस्था है जबकि व्यवहार में ऐसा होना चाहिए, परन्तु भारत में ऐसी परम्परा की कमी है।

5. अच्छी परम्पराओं की कमी (Absence of Healthy Convention)-संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है। इंग्लैण्ड में संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं के कारण ही है, परन्तु भारत में कांग्रेस शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई। इसके लिए विरोधी दल भी ज़िम्मेदार है।

6. अध्यादेशों द्वारा प्रशासन (Administration by Ordinances)-संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई है। संविधान निर्माताओं का यह उद्देश्य था कि जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो या असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो उस समय राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करेगा। परन्तु विशेषकर पिछले 20 वर्षों में कई बार अध्यादेश उस समय जारी किए गए हैं, जब संसद् का अधिवेशन एकदो दिनों में होने वाला होता है। बहुत अधिक अध्यादेश का जारी करना मनोवैज्ञानिक पक्ष में भी बुरा प्रभाव डालता है। लोग अनुभव करने लग जाते हैं कि सरकार अध्यादेशों द्वारा चलाई जाती है। इसके अतिरिक्त बहुत अधिक अध्यादेश जारी करना मनोवैज्ञानिक रूप से बुरा प्रभाव डालता है।

7. जनता के साथ कम सम्पर्क (Less Contact With the Masses)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते हैं। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को अपने विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान नहीं होता। .

8. चरित्र का अभाव (Lack of Character)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए मतदाता, शासक तथा आदर्श नागरिकों का चरित्र ऊंचा होना अनिवार्य है। परन्तु हमारे विधायक तथा राजनीतिक दलों के चरित्र का वर्णन करते हुए भी शर्म आती है। विधायक मन्त्री पद के पीछे दौड़ रहे हैं। जनता तथा देश के हित में न सोच कर विधायक अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता के नियमों का दिन-दिहाड़े मज़ाक उड़ा रहे हैं। विधायक अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दल बदलने में बिल्कुल नहीं झिझकते। .

9. दल-बदल (Defection)—भारतीय संसदीय लोकतन्त्र की सफलता में एक महत्त्वपूर्ण बाधा दल-बदल है। चौथे आम चुनाव के पश्चात् दल-बदल चरम सीमा पर पहुंच गया। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4000 विधायकों में से 1400 विधायकों ने दल बदले। सबसे अधिक दल-बदल कांग्रेस में हुआ। 22 जनवरी, 1980 को हरियाणा के मुख्यमन्त्री चौधरी भजन लाल 37 सदस्यों के साथ जनता पार्टी को छोड़कर कांग्रेस (आई) में शामिल हो गए। मई, 1982 को हरियाणा में चौधरी भजन लाल ने दल-बदल के आधार पर मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया। अनेक विधायक लोकदल को छोड़ कर कांग्रेस (आई) में शामिल हुए। दल-बदल संसदीय प्रजातन्त्र के लिए बहुत हानिकारक है क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होती है। अनेक सरकारें दल-बदल के कारण ही गिरती हैं। 1979 में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई को और 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह को दल-बदल के कारण ही त्याग-पत्र देना पड़ा था। 30 दिसम्बर, 1993 को कांग्रेस (इ) को दल-बदल द्वारा ही लोकसभा में बहुमत प्राप्त हुआ। वर्तमान समय में भी दलबदल की समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।

10. अनुशासनहीनता (Indiscipline)-विधायकों में अनुशासनहीनता भी भारतीय राजनीति में एक नया तत्त्व है। यह भावना भी 1967 के चुनावों के बाद ही विशेष रूप से उत्पन्न हुई है। विरोधी दलों ने राज्यों में अपना मन्त्रिमण्डल बनाने का प्रयत्न किया और कांग्रेस ने इसके विपरीत कार्य किया। शक्ति की इस खींचातानी में दोनों ही दल मर्यादा, नैतिकता और औचित्य की सीमाओं को पार कर गए और विधानमण्डलों में ही शिष्टाचार को भुलाकर आपस में लड़नेझगड़ने तथा गाली-गलोच करने लगे। इस खींचातानी में दलों ने यह सोचना ही छोड़ दिया कि क्या ठीक है, क्या गलत है। एक-दूसरे पर जूते फेंकने की घटनाएं घटने लगीं।

11. लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता पर सन्देह (Doubts about the Neutrality of the Speaker)लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) संसदीय प्रणाली की सरकार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः अध्यक्ष का निष्पक्ष होना आवश्यक है परन्तु भारत में केन्द्र एवं राज्यों में स्पीकर की निष्पक्षता पर सन्देह व्यक्त किया जाता है।।

12. राजनीतिक अपराधीकरण (Criminalisation of Politics)-भारत में राजनीतिक अपराधीकरण की समस्या निरन्तर गम्भीर होती जा रही है जोकि संसदीय शासन प्रणाली के लिए गम्भीर खतरा है। संसद् तथा राज्य विधानमण्डल अपराधियों के लिए सुरक्षित स्थान एवं आश्रय स्थल बनते जा रहे हैं। चुनाव आयोग के अनुसार 11वीं लोकसभा में 40 एवं विभिन्न राज्यों के विधानमण्डलों में 700 से अधिक सदस्य थे, जिन्हें किसी न किसी अपराध के अंतर्गत सज़ा मिल चुकी थी। इस समस्या से पार पाने के लिए चुनाव आयोग ने 1997 में एक आदेश द्वारा अपराधियों को चुनाव लड़ने के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 2014 में निर्वाचित हुई 16वीं लोकसभा में भी अपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति सांसद चुने गए।

13. त्रिशंकु संसद् (Hung Parliament)-भारतीय संसदीय प्रणाली का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि भारत में पिछले कुछ आम चुनावों में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पा रहा है। इसीलिए गठबन्धन सरकारों का निर्माण हो रहा है। त्रिशंकु संसद् होने के कारण सरकारें स्थाई नहीं हो पाती तथा क्षेत्रीय दल इसका अनावश्यक लाभ उठाते हैं।

14. डॉ० गजेन्द्र गडकर (Dr. Gajendra Gadkar) ने संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना करते हुए अपने लेख ‘Danger to Parliamentary Government’ में लिखा है कि राजनीतिक दल यह भूल गए हैं कि राजनीतिक सत्ता ध्येय न होकर सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साधन है। राजनीतिक दल उन सभी साधनों का, जिससे चाहे राष्ट्र के हित को हानि पहुंचती हो, प्रयोग करते झिझकते नहीं है, जिनसे वे राजनीतिक सत्ता प्राप्त करते हों। चौथे आम चुनाव के पश्चात, राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ गई थी। हड़ताल, बन्द हिंसात्मक साधनों का प्रयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। साम्प्रदायिक दंगे-फसाद संसदीय प्रजातन्त्र के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं।

15. गाडगिल (Gadgil) ने वर्तमान संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना करते हुए लिखा है कि सभी निर्णय जो संसद् में बहुमत से लिए जाते हैं, वे वास्तव में बहुमत के निर्णय न होकर अल्पमत के निर्णय होते हैं। सत्तारूढ़ दल अपने समर्थकों के साथ पक्षपात करते हैं और प्रत्येक साधन से चाहे वे जनता के हित में न हों सस्ती लोकप्रियता (Cheap Popularity) प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं । गाडगिल ने यह भी कहा है कि संसदीय सरकार एकमात्र धोखा है क्योंकि वास्तव में निर्णय बहुमत के नेताओं द्वारा लिए जाते हैं जो सभी पर लागू होते हैं।

16. डॉ० जाकिर हुसैन (Dr. Zakir Hussain) के अनुसार, “संसदीय प्रजातन्त्र को सबसे मुख्य खतरा हिंसा के इस्तेमाल से है। भारत में कई राजनीतिक दल यह जानते हुए भी कि बन्द आदि से हिंसा उत्पन्न होती है, जनता को इनका प्रयोग करने के लिए उकसाते रहते हैं।”
निःसन्देह भारतीय संसदीय शासन प्रणाली में अनेक दोष पाए जाते हैं, परन्तु यह कहना ठीक नहीं है कि भारत में संसदीय लोकतन्त्र असफल रहा है। भारत में संसदीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए उचित वातावरण है और संसदीय लोकतन्त्र की जड़ें काफ़ी मज़बूत हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 4.
भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक-आर्थिक तत्त्वों का वर्णन करें।
(Explain the socio-economic factors that influence the Indian Democracy.)
अथवा
लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तथा आर्थिक तत्त्वों का वर्णन करें।
(Discuss the social and economic factors conditioning Democracy.)
उत्तर-
भारत में लोकतन्त्र को अपनाया गया है और संविधान में लोकतन्त्र को सुदृढ़ बनाने के लिए भरसक प्रयत्न किया गया है। संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ घोषित किया गया है। प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि संविधान के निर्माण का उद्देश्य भारत के नागरिकों को कई प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्रदान करना है और इनमें मुख्य स्वतन्त्रताओं का उल्लेख प्रस्तावना में किया गया है। जैसे-विचार रखने की स्वतन्त्रता, अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छा, बुद्धि के अनुसार किसी भी बात में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता तथा अपनी इच्छानुसार अपने इष्ट देव की उपासना करने की स्वतन्त्रता आदि प्राप्त है।

प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है और बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है। प्रस्तावना में व्यक्ति के गौरव को बनाए रखने की घोषणा की गई है। संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। इन अधिकारों का उद्देश्य भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है, जिनका उद्देश्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। संविधान में सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक नागरिकों को जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो वोट डालने का अधिकार है। अप्रैल-मई, 2014 में 16 वीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर मतदाताओं की संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी। संविधान में अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों और पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं। निःसन्देह सैद्धान्तिक रूप में प्रजातन्त्र की आदर्श व्यवस्था कायम करने के प्रयास किए गए हैं, परन्तु व्यवहार में भारत में लोकतन्त्रीय प्रणाली को उतनी अधिक सफलता नहीं मिली जितनी कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, स्विटज़रलैण्ड आदि देशों में मिली है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक देश की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं और इनका लोकतन्त्रीय प्रणाली पर भी प्रभाव पड़ता है। भारत की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों ने लोकतन्त्र को बहुत अधिक प्रभावित किया है।

भारतीय प्रजातन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तत्त्व (SOCIAL FACTORS CONDITIONING INDIAN DEMOCRACY)-

1. सामाजिक असमानता (Social Inequality)-लोकतन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक समानता का होना आवश्यक है। सामाजिक समानता का अर्थ यह है कि धर्म, जाति, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर नागरिकों में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना के इतने वर्षों बाद भी सामाजिक असमानता पाई जाती है। भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों व वर्गों के लोग रहते हैं। समाज के सभी नागरिकों को समान नहीं समझा जाता। जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग के आधार पर व्यवहार में आज भी भेदभाव किया जाता है। निम्न जातियों और हरिजनों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा एवं असंतोष को बढ़ावा दिया है।

2. निरक्षरता (Illiteracy)-20वीं शताब्दी के अन्त में जब विश्व में पर्याप्त वैज्ञानिक व औद्योगिक प्रगति हो चुकी है, भारत जैसे लोकतन्त्रीय देश में अभी भी काफ़ी निरक्षरता है। शिक्षा एक अच्छे जीवन का आधार है, शिक्षा के बिना व्यक्ति अन्धकार में रहता है। अनपढ़ व्यक्ति में आत्म-विश्वास की कमी होती है इसलिए उसमें देश की समस्याओं को समझने व हल करने की क्षमता नहीं होती। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही अपने कर्तव्यों का। वह अपने अधिकारों के अनुचित अतिक्रमण से रक्षा नहीं कर सकता और न ही वह अपने कर्त्तव्यों को ठीक तरह से निभा सकता है। इसके अतिरिक्त अशिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण संकुचित होता है। वह जातीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद आदि के चक्कर में पड़ा रहता है। ___

3. जातिवाद (Casteism)-भारतीय समाज में जातिवाद की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। आज भारत में तीन हज़ार से अधिक जातियां और उपजातियां हैं। जातिवाद का भारतीय राजनीति से गहरा सम्बन्ध है। भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी राजनीति में जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान था। स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा बढ़ा ही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक सिद्ध हुआ है।

4. अस्पृश्यता (Untouchability)-अस्पृश्यता ने भारतीय लोकतन्त्र को अत्यधिक प्रभावित किया है। अस्पृश्यता भारतीय समाज पर एक कलंक है। यह हिन्दू समाज की जाति-प्रथा का प्रत्यक्ष परिणाम है।

यद्यपि भारतीय संविधान के अन्तर्गत छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है तथा छुआछूत को मानने वाले को दण्ड दिया जाता है, फिर भी भारत के अनेक भागों में अस्पृश्यता प्रचलित है। अस्पृश्यता ने भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित किया है। अस्पृश्यता के कारण हरिजनों में हीनता की भावना बनी रहती है, जिस कारण वे भारत की राजनीति में सक्रिय भाग नहीं ले पाते। छुआछूत के कारण समाज में उच्च वर्गों और निम्न वर्गों में बन्धुत्व की भावना का विकास नहीं हो पा रहा है। हरिजनों और जन-जातियों का शोषण किया जा रहा है और उन पर उच्च वर्गों द्वारा अत्याचार किए जाते हैं। भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए छुआछूत को व्यवहार में समाप्त करना अति आवश्यक है।

5. साम्प्रदायिकता (Communalism)—साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एकदूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। धर्म का भारतीय राजनीति पर सदैव ही प्रभाव रहा है। धर्म की संकीर्ण भावनाओं ने स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय राजनीति को साम्प्रदायिक झगड़ों का अखाड़ा बना दिया। धर्म के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच झगड़े चलते रहते थे और अन्त में भारत का विभाजन भी हुआ। परन्तु भारत का विभाजन भी साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं कर सका और आज फिर साम्प्रदायिक तत्त्व अपना सिर उठा रहे हैं।

6. सामाजिक तनाव और हिंसा (Social Tension and Violence)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक सहयोग और शान्ति का होना आवश्यक है। परन्तु भारत के किसी-न-किसी भाग में सदैव सामाजिक तनाव बना रहता है और हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं। सामाजिक तनाव उत्पन्न होने के कई कारण हैं। सामाजिक तनाव का महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक तथा आर्थिक असमानता है। कई बार क्षेत्रीय भावनाएं सामाजिक तनाव उत्पन्न कर देती हैं। साम्प्रदायिकता सामाजिक तनाव पैदा करने का महत्त्वपूर्ण कारण है। सामाजिक तनावों से हिंसा उत्पन्न होती है। उदाहरणस्वरूप 1983 से 1990 के वर्षों में पंजाब में 1992, 1993 में अयोध्या मुद्दे के कारण उत्तर प्रदेश में तथा 2002 में गुजरात में गोधरा कांड के कारण सामाजिक तनाव और हिंसा की घटनाएं होती रही हैं।

7. भाषावाद (Linguism)-भारत में भिन्न-भिन्न भाषाओं के लोग रहते हैं। भारतीय संविधान में 22 भाषाओं का वर्णन किया गया है और इसमें हिन्दी भी शामिल है। हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखित संघ सरकार की सरकारी भाषा घोषित की गई है। भाषावाद ने भारतीय लोकतन्त्र एवं राजनीति को काफी प्रभावित किया है। भाषा के आधार पर लोगों में क्षेत्रीयवाद की भावना का विकास हुआ और सीमा विवाद उत्पन्न हुए हैं। भाषा के विवादों ने आन्दोलनों, हिंसा इत्यादि को जन्म दिया। भाषायी आन्दोलनों से सामाजिक तनाव की वृद्धि हुई है। चुनावों के समय राजनीतिक दल अपने हितों के लिए भाषायी भानवाओं को उकसाते हैं। मतदान के समय मतदाता भाषा से काफी प्रभावित होते हैं। तमिलनाडु के अन्दर डी० एम० के० तथा अन्ना डी० एम० के० ने कई बार हिन्दी विरोधी आन्दोलन चला कर मतदाताओं को प्रभावित किया।

भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले आर्थिक तत्त्व
(ECONOMIC FACTORS CONDITIONING INDIAN DEMOCRACY)-

1. आर्थिक असमानता (Economic Inequality) लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। आर्थिक समानता का अर्थ है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए। परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष के पश्चात् आर्थिक असमानता बहत अधिक पाई जाती है। भारत में एक तरफ करोड़पति पाए जाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय का भोजन भी नहीं मिलता। भारत में देश का धन थोड़े-से परिवारों के हाथों में ही केन्द्रित है। भारत में आर्थिक शक्ति का वितरण समान नहीं है। अमीर दिन-प्रतिदिन अधिक अमीर होते जाते हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब होते जाते हैं। आर्थिक असमानता ने लोकतन्त्र को काफी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं और प्रायः धनी व्यक्तियों को पार्टी का टिकट दिया जाता है। चुनावों में धन का अधिक महत्त्व है और धन के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथों में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।

2. ग़रीबी (Poverty)-भारतीय लोकतन्त्र को ग़रीबी ने बहुत प्रभावित किया है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनको न तो खाने के लिए भर पेट भोजन मिलता है, न पहनने को कपड़ा और न रहने के लिए मकान। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। ग़रीब नागरिक को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता। वह सदा अपना पेट भरने की चिन्ता में लगा रहेगा और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना तो दूर की बात रही, वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 5.
भारतीय लोकतन्त्र की मुख्य समस्याओं का वर्णन करें।
(Discuss the major problems of Indian Democracy.)
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं और चनौतियों के बारे में लिखिए।
(Write down about problems and challenges to Indian democracy.)
उत्तर-
निःसन्देह सैद्धान्तिक रूप में भारत में प्रजातन्त्र की आदर्श-व्यवस्था कायम करने के प्रयास किए गये हैं परन्तु व्यवहार में आज भी भारतीय प्रजातन्त्र अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक बुराइयों से जकड़ा हुआ है और ये बुराइयां भारतीय लोकतन्त्र के लिए अभिशाप बन चुकी हैं। ये बुराइयां निम्नलिखित हैं-

1. सामाजिक तथा आर्थिक असमानता (Social and Economic Inequality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक व आर्थिक समानता का होना बहुत आवश्यक हैं। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना हुए इतने वर्ष हो चुके हैं फिर भी यहां पर सामाजिक व आर्थिक असमानता पाई जाती है। समाज के सभी नागरिकों को समान नहीं समझा जाता। जाति, धर्म, वंश, लिंग के आधार पर व्यवहार में आज भी भेदभाव किया जाता है। स्त्रियों को पुरुषों के समान नहीं समझा जाता। निम्न जातियों और हरिजनों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा एवं असन्तोष को बढ़ावा दिया है। निम्न वर्ग के लोगों ने कई बार आन्दोलन किए हैं और संरक्षण की मांग की है। सामाजिक असमानता से लोगों का दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण हो जाता है। प्रत्येक वर्ग अपने हित की सोचता है, न कि समस्त समाज एवं राष्ट्र के हित में। राजनीतिक दल सामाजिक असमानता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं और सत्ता पर उच्च वर्ग को लोगों का ही नियन्त्रण रहता है। सामाजिक असमानता के कारण समाज का बहुत बड़ा भाग राजनीतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहता है।

2. ग़रीबी (Poverty)-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। गरीब नागरिक को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता। वह सदा अपने पेट भरने की चिन्ता में लगा रहेगा और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता। दीन-दुःखियों से चुनाव लड़ने की आशा करना मूर्खता है। ग़रीब नागरिक अपनी वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। अत: यदि हम भारतीय प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल देखना चाहते हैं तो जनता की आर्थिक दशा सुधारनी होगी।

3. अनपढ़ता (Illiteracy) शिक्षा एक अच्छे जीवन का आधार है, शिक्षा के बिना व्यक्ति अन्धकार में रहता है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी भारत की लगभग 24 प्रतिशत जनता अनपढ़ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 15 से 35 वर्ष की आयु के बीच लगभग 10 करोड़ व्यक्ति अनपढ़ है। अनपढ़ व्यक्ति में आत्म-विश्वास की कमी होती है और उसमें देश की समस्याओं को समझने तथा हल करने की क्षमता नहीं होती है। अशिक्षित व्यक्ति को न हो तो अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही अपने कर्तव्यों का। वह अपने अधिकारों की अनुचित अतिक्रमण से रक्षा नहीं कर सकता और न ही वह अपने कर्तव्यों को ठीक तरह से निभा सकता है। इसके अतिरिक्त अशिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण संकुचित होता है। वह जातीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद आदि के चक्कर में पड़ा रहता है।

4. बेकारी (Unemployment) बेकारी प्रजातन्त्र की सफलता में एक बहुत बड़ी बाधा है। बेकार व्यक्ति की बातें सोचता रहता है। वह देश तथा समाज के हित में सोच ही नहीं सकता।।
बेकार व्यक्ति में हीन भावना आ जाती है और वह अपने आपको समाज पर बोझ समझने लगता है। बेकार व्यक्ति अपनी समस्याओं में ही उलझा रहता है और उसे समाज एवं देश की समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता। बेरोज़गारी के कारण नागरिकों के चरित्र का पतन हुआ है। इससे बेइमानी, चोरी, ठगी, भ्रष्टाचार की बढ़ोत्तरी हुई है। प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए बेकारी को जल्दी-से-जल्दी समाप्त करना अति आवश्यक है।

5. एक दल की प्रधानता (Dominance of one Party)-प्रजातन्त्र का महत्त्वपूर्ण दोष यह रहा है कि यहां पर कांग्रेस दल का ही प्रभुत्व छाया रहा है। 1950 से लेकर मार्च, 1977 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही है। राज्यों में भी 1967 तक इसी की प्रधानता रही है और 1971 के मध्यावधि चुनाव के पश्चात् फिर उसी दल के एकाधिकार के कारण अन्य दल विकसित नहीं हो पाए।

6. संगठित विरोधी दल का अभाव (Lack of Organised Opposition)-भारतीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि सदैव संगठित विरोधी दल के अभाव को अनुभव करती रही है।

संगठित विरोधी दल न होने के कारण कांग्रेस ने विरोधी दलों की बिल्कुल परवाह नहीं की। विरोधी दलों के नेताओं ने संसद् में सरकार के विरुद्ध कई बार यह आरोप लगाया है कि उन्हें अपने विचार रखने का पूरा अवसर नहीं दिया जाता है। कई बार तो सरकार संसद् में दिए गए वायदों को भी भूल जाती है।

जनता पार्टी की स्थापना के पश्चात् भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी का सत्तारूढ़ दल बना और कांग्रेस को विरोधी बैंचों पर बैठने का पहली बार सौभाग्य प्राप्त हुआ।

अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं एवं अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में विरोधी दल की मान्यता प्रदान की गई। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ।

7. बहुदलीय प्रणाली (Multiple Party System)—प्रजातन्त्र की सफलता में एक और बाधा बहुदलीय प्रणाली का होना है। भारत में फ्रांस की तरह बहुत अधिक दल पाए जाते हैं। स्थायी शासन के लिए दो या तीन दल ही होने चाहिएं। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती है। 1967 के चुनाव के पश्चात् बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि प्रान्तों में सरकारों के गिरने और बनने का पता भी नहीं चलता था। अतः संसदीय प्रजातन्त्र की कामयाबी के लिए दलों की संख्या को कम करना अनिवार्य है। संसदीय प्रजातन्त्रीय की सफलता की लिए जनता पार्टी का निर्माण एक महत्त्वपूर्ण कदम था। परन्तु जनता पार्टी का विभाजन हो गया और चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी (स) की स्थापना हुई। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

8. प्रादेशिक दल (Regional Parties)—भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या प्रादेशिक दलों का होना है। चुनाव आयोग ने 58 क्षेत्रीय दलों को राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता दी हुई है। प्रादेशिक दलों का महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, जो प्रजातन्त्र की सफलता के लिए ठीक नहीं। प्रादेशिक दल देश के हित की न सोचकर क्षेत्रीय हितों की सोचते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को खतरा पैदा हो गया है।

9. सिद्धान्तहीन राजनीति (Non-Principled Politics)-भारत में प्रजातन्त्र की सफलता में एक अन्य बाधा सिद्धान्तहीन राजनीति है। प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने सिद्धान्तहीन राजनीति का अनुसरण किया है। 1967 के बाद उनके राज्यों में मिली-जुली सरकारें बनी। सत्ता के लालच में ऐसे दल मिल गए जो आदर्शों की दृष्टि से एक-दूसरे के विरोधी थे। विरोधी दलों का लक्ष्य केवल कांग्रेस को सत्ता से हटाना था। कांग्रेस ने भी प्रजातान्त्रिक परम्पराओं का उल्लंघन किया। गर्वनर के पद का दुरुपयोग किया गया। आपात्काल में तमिलनाडु की सरकार को स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने के बावजूद भी हटा दिया गया। श्रीमती गांधी के लिए सफलता प्राप्त करना ही सबसे बड़ा लक्ष्य था चाहे इसके लिए कैसे भी साधन अपनाए गए। लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों के अवसर पर लगभग सभी राजनीतिक दल सिद्धान्तहीन समझौते करते हैं।

10. निम्न स्तर की राजनीतिक सहभागिता (Low level of Political Participation)-लोकतन्त्र की सफलता के लिए लोगों का राजनीति में सक्रिय भाग लेना आवश्यक है, परन्तु भारत में लोगों की राजनीतिक सहभागिता बहुत निम्न स्तर की है। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में लगभग 66.38% मतदाताओं ने भाग लिया। अतः लोगों की राजनीतिक उदासीनता लोकतन्त्र की समस्या है।

11. अच्छी परम्पराओं की कमी (Absence of Healthy Conventions)—प्रजातन्त्र की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है। इंग्लैण्ड में संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं के कारण ही है, परन्तु भारत में कांग्रेस के शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई है। इसके लिए विरोधी दल भी जिम्मेवार हैं।

12. अध्यादेशों द्वारा शासन (Administration by Ordinance)-संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई है। संविधान निर्माताओं का यह उद्देश्य था कि जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो या असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई तो उस समय राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करेगा। विशेषकर पिछले 20 वर्षों में कई बार अध्यादेश उस समय जारी किए गए जब संसद् का अधिवेशन एक-दो दिन में होने वाला होता है। आन्तरिक आपात्काल की स्थिति में तो ऐसा लगता है जैसे भारत सरकार अध्यादेशों द्वारा ही शासन चला रही है। अधिक अध्यादेशों से संसद् की शक्ति का ह्रास होता है। इसीलिए 25 जनवरी, 2015 को राष्ट्र के नाम दिए, अपने सम्बोधन में राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेशों को लागू करने पर अपनी चिन्ता जताई।

13. जनता के साथ कम सम्पर्क (Less Contract with the Masses) भारतीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते हैं। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को अपने विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान ही नहीं होता।

14. दल बदल (Defection)-भारतीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक अन्य बाधा दल बदल की बुराई है। चौथे आम चुनाव के पश्चात् दल बदल चरम सीमा पर पहुंच गया। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4000 विधायकों में से 1400 विधायकों ने दल बदले। सबसे अधिक दल-बदल कांग्रेस में हुआ। दल-बदल प्रजातन्त्र के लिए बहुत हानिकारक है क्योंकि इसमें से राजनीतिक अस्थिरता आती है और छोटे-छोटे दलों की स्थापना होती है। इससे जनता का अपने प्रतिनिधियों और नेताओं से विश्वास उठने लगता है।

15. विधायकों का निम्न स्तर (Poor Quality of Legislators)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या विधायकों का निम्न स्तर है। भारत के अधिकांश मतदाता अशिक्षित और साधारण बुद्धि वाले हैं, जिस कारण वे निम्न स्तर के विधायकों को चुन लेते हैं। अधिकांश विधायक स्वार्थी, हठधर्मी, बेइमान और रूढ़िवादी होते हैं। इसलिए ऐसे विधायकों को अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्व का अहसास नहीं होता। विधानमण्डल में सदस्यों का गाली-गलौच करना, मार-पीट करना, धरना देना, अध्यक्ष का आदेश न मानना इत्यादि सब विधायकों के घटिया स्तर के कारण होता है।

16. विधायकों में अनुशासन की कमी (Lack of Discipline among the Legislators)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या विधायकों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता है। विधानसभाओं में और संसद् में हाथापाई तथा मारपीट भी बढ़ती जा रही है।

17. चरित्र का अभाव (Lack of Character)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए मतदाता, शासक तथा आदर्श नागरिकों का चरित्र ऊंचा होना अनिवार्य है। परन्तु भारतीय जनता का तो कहना ही क्या, हमारे विधायक तथा राजनीतिक दलों के चरित्र का वर्णन करते हुए भी शर्म आती है। विधायक मन्त्री पद के पीछे दौड़ रहे हैं। जनता तथा देश के हित में न सोच कर विधायक अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता के नियमों का दिन-दिहाड़े मज़ाक उड़ा रहे हैं।

18. दोषपूर्ण निर्वाचन प्रणाली (Defective Electoral System)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या चुनाव प्रणाली का दोषपूर्ण होना है। भारत में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व चुनाव प्रणाली को अपनाया गया है। लोकसभा राज्य विधानसभाओं के सदस्य एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र से चुने जाते हैं, जिसके अन्तर्गत एक चुनाव क्षेत्र में अधिकतम मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित किया जाता है। इस प्रणाली के अन्तर्गत कई बार चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार को हारने वाले उम्मीदवारों से कम मत प्राप्त होते हैं।

19. जातिवाद की राजनीति (Politics of Casteism) भारत में न केवल जातिवाद उस रूप में विद्यमान है जिसे सामान्यतः जातिवाद कहा जाता है बल्कि इस रूप में भी कि ऊंची जातियां अब भी यह मानती हैं कि देश का शासन केवल ब्राह्मणों के हाथ में ही रहना चाहिए।” यदि चौधरी चरण सिंह ने मध्य जातियों की जातीय भावना का इस्तेमाल किया और श्रीमती गांधी ने ब्राह्मणों के स्वार्थ और अल्पसंख्यकों के भय से लाभ उठाया, वहीं जनता पार्टी ने भी हरिजन और अन्य कई जातियों को धुरी बनाने के कोशिश की। न केवल पार्टियां उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर करती हैं बल्कि उम्मीदवारों से भी यह उम्मीद की जाती है कि चुने जाने के बाद अपनी जाति के लोगों के काम निकलवाएंगे। राजनीति ने मरती हुई जात-पात व्यवस्था में नई जान फूंकी है और समाज में जातिवाद का जहर घोला है। जातिवाद पर आधारित भारतीय राजनीति लोकतन्त्र के लिए खतरा है।

20. साम्प्रदायिक राजनीति (Communal Politics)-स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व प्रति वर्ष देश के किसी-न-किसी भाग में साम्प्रदायिक संघर्ष होते रहते थे। मुस्लिम लीग की मांग पर ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ था। आज़ादी के बाद विदेशी शासक तो चले गए परन्तु साम्प्रदायिकता की राजनीति आज भी समाप्त नहीं हुई है। वास्तव में लोकतन्त्रीय प्रणाली तथा वोटों को राजनीति ने साम्प्रदायिकता को एक नया रूप दिया है। भारतीय राजनीति में ऐसे तत्त्वों की कमी नहीं है जो साम्प्रदायिक भावनाएं उभार कर मत पेटी की लड़ाई जीतना चाहते हैं।

21. क्षेत्रीय असन्तुलन (Regional Imbalances)-भारत एक विशाल देश है। भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों व भाषाओं के लोग रहते हैं। देश के कई प्रदेश एवं क्षेत्र विकसित हैं जबकि कई क्षेत्र अविकसित हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों, बिहार, असम व नागालैण्ड की जनजातियों तथा आन्ध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रेदश और उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों का जीवन-स्तर बहुत नीचा है। क्षेत्रीय भावना और क्षेत्रीय असन्तुलन लोकतन्त्र के लिए बड़ा भारी खतरा है।
क्षेत्रीयवाद से प्रभावित होकर अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ है। मतदाता क्षेत्रीयवाद की भावना से प्रेरित होकर मतदान करते हैं और राष्ट्र हित की परवाह नहीं करते। क्षेत्रीयवाद ने पृथकतावाद को जन्म दिया है।

22. सामाजिक तनाव (Social Tension)-सामाजिक तनाव लोकतन्त्र की सफलता में बाधा है। सामाजिक तनाव का राजनीतिक दलों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। धर्म, प्रान्तीयता और भाषा के आधार पर काम करने वाले राजनीतिक दल केन्द्र में स्थायी सरकार बनाने में अड़चने पैदा करते हैं और राष्ट्रीय दलों से सौदेबाजी करते हैं। जातीय तनाव से ऊंच-नीच की भावना को प्रोत्साहन मिलता है। नवयुवकों में निराशा और असन्तोष बढ़ता जा रहा है जिससे उनका लोकतन्त्र में विश्वास समाप्त होता जा रहा है। आर्थिक हितों के टकराव से मिल मालिकों और मज़दूरों में तनाव बढ़ा है, जिससे उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ा है। अत: लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए सामाजिक तनाव को कम करना बहुत आवश्यक है।

23. चुनाव बहुत खर्चीले हैं (Elections are very Expensive)-भारत में चुनाव बहुत खर्चीले हैं। चुनाव लड़ने के लिए अपार धन की आवश्यकता होती है। केवल धनी व्यक्ति ही चुनाव लड़ सकते हैं। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की नहीं सोच सकता। चुनाव में खर्च निर्धारित सीमा से ही अधिक होता है। कानून के अनुसार लोकसभा के चुनाव के लिए अधिकतम खर्च सीमा 15 लाख रुपए है जबकि विधानसभा के लिए 6 लाख रुपए है, परन्तु वास्तव में लोकसभा के चुनाव के लिए कम से कम 50 लाख खर्च होता है और महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा वाली सीट पर एक करोड़ से अधिक खर्च होता है। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के लोकसभा के चुनाव पर लगभग 845 करोड़ रुपए खर्च हुए। अप्रैल-मई, 2004 के लोकसभा के चुनाव पर लगभग 5000 करोड़ रुपये खर्च हुए जबकि अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में लगभग 30000 करोड़ रु० खर्च हुए।

24. स्वतन्त्र और ईमानदार प्रेस की कमी (Lack of Free and Honest Press)-प्रजातन्त्र में प्रेस का बहुत ही महत्त्वपूर्ण रोल होता है और प्रेस को प्रजातन्त्र का पहरेदार कहा जाता है। प्रेस द्वारा ही जनता को सरकार की नीतियों और समस्याओं का पता चलता है। परन्तु प्रेस का स्वतन्त्र और ईमानदार होना आवश्यक है। भारत में प्रेस पूरी तरह स्वतन्त्र तथा ईमानदार नहीं है। अधिकांश प्रेसों पर पूंजीपतियों का नियन्त्रण है और महत्त्वपूर्ण दलों से सम्बन्धिते हैं। अतः प्रेस लोगों को देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति की सही सूचना नहीं देते, जिसके कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं होता।

25. हिंसा (Violence)-चुनावों में हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, जोकि प्रजातन्त्र की सफलता के मार्ग में एक खतरनाक बाधा भी साबित हो सकती है। दिसम्बर, 1989 में लोकसभा के चुनाव में 100 से अधिक व्यक्ति मारे गए। गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान एक मन्त्री पर छुरे से वार किया गया जिसकी बाद में मृत्यु हो गई। हरियाणा के भिवानी चुनाव क्षेत्र में कई कार्यकर्ता मारे गए। उत्तर प्रदेश में अमेठी विधानसभा क्षेत्र में जनता दल के उम्मीदवार डॉ० संजय सिंह को गोली मारी गई। फरवरी, 1990 में आठ राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव में हिंसा की कई घटनाएं हुईं। मार्च, 1990 में हरियाणा में महम उप-चुनाव में हिंसा की घटनाओं के कारण चुनाव को रद्द कर दिया। मई, 1991 को लोकसभा के चुनाव में कई स्थानों पर हिंसक घटनाएं हुईं। इन हिंसक घटनाओं में 100 से अधिक व्यक्ति मारे गए और कांग्रेस (इ) अध्यक्ष श्री राजीव गांधी भी 21 मई, 1991 को बम विस्फोट में मारे गए। 1996 के लोकसभा के चुनाव में अनेक स्थानों पर हिंसक घटनाएँ हुईं। फरवरी, 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव में कुछ राज्यों में हिंसा की अनेक घटनाएँ हुईं। हिंसा की सबसे अधिक घटनाएँ बिहार में हुईं जहाँ 23 व्यक्ति मारे गए। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में 13वीं लोक सभा के चुनाव में पंजाब, बिहार, जम्मू-कश्मीर, असम, तमिलनाडु एवं आन्ध्र प्रदेश में हिंसात्मक घटनाएँ हुईं, जिनमें लगभग 100 व्यक्ति मारे गए। अप्रैलमई, 2004, 2009 तथा 2014 में हुए 14वीं, 15वीं एवं 16वीं लोकसभा के चुनावों के दौरान भी हुई राजनीतिक हिंसा में सैंकड़ों लोग मारे गए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 6.
क्षेत्रवाद से क्या अभिप्राय है ? भारत में क्षेत्रवाद के क्या कारण हैं ? भारतीय लोकतन्त्र पर क्षेत्रवाद के प्रभाव की व्याख्या करो। क्षेत्रवाद की समस्या को हल करने के लिए सुझाव दें।
(What is meant by Regionalism ? What are the causes of Regionalism is India ? Discuss the impact of Regionalism on Indian Democracy. Give suggestions to solve the problem of regionalism.)
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीति में जो नये प्रश्न उभरे हैं, उनमें क्षेत्रवाद (Regionalism) का प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। क्षेत्रवाद से अभिप्राय एक देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागृत है। भारत की राजनीति को क्षेत्रवाद ने बहुत अधिक प्रभावित किया है और यह भारत के लिए एक जटिल समस्या बनी रही है और आज भी विद्यमान है। आज यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि वह कौन है तो वह भारतीय कहने के स्थान पर बंगाली, बिहारी, पंजाबी, हरियाणवी आदि कहना पसन्द करेगा। यद्यपि संविधान के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को भारत की ही नागरिकता दी गई है तथापि लोगों में क्षेत्रीयता व प्रान्तीयता की भावनाएं इतनी पाई जाती हैं कि वे अपने क्षेत्र के हित के लिए राष्ट्र हित को बलिदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। 1950 से लेकर आज तक क्षेत्रवाद की समस्या भारत सरकार को घेरे हुए है और विभिन्न क्षेत्रों में आन्दोलन चलते रहते हैं।

क्षेत्रवाद को जन्म देने वाले कारण (CAUSES OF THE ORIGIN OF REGIONALISM)
क्षेत्रवाद की भावना की उत्पत्ति एक कारण से न होकर अनेक कारणों से होती है, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

1. भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण (Geographical and Cultural Causes)—स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब राज्यों का पुनर्गठन किया गया तब राज्यों की पुरानी सीमाओं को भुलाकर नहीं किया गया बल्कि उनके पुनर्गठन का आधार बनाया गया। इसी कारण एक राज्य के रहने वाले लोगों में एकता की भावना नहीं आ पाई। प्राय: भाषा और संस्कृति क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुमत सहयोग देते हैं। तमिलनाडु के निवासी अपनी भाषा और संस्कृति को भारतीय संस्कृति से श्रेष्ठ मानते हैं। वे राम और रामायण की कड़ी आलोचना करते हैं। 1925 में उन्होंने तमिलनाडु में कई स्थानों पर राम-लक्ष्मण के पुतले जलाए। 1960 में इसी आधार पर उन्होंने भारत से अलग होने के लिए व्यापक आन्दोलन चलाया।

2. ऐतिहासिक कारण (Historical Causes)-क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में इतिहासकार का दोहरा सहयोग रहा हैसकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक योगदान के अन्तर्गत शिव सेना का उदाहरण दिया जा सकता है और नकारात्मक के अन्तर्गत द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का कहना है कि प्राचीनकाल से ही उत्तरी राज्य दक्षिण राज्यों पर शासन करते आए हैं।

3. भाषा (Languages)–नार्मर डी पामर का कहना है कि भारत की अधिकांश राजनीति क्षेत्रवाद और भाषा के बहुत से प्रश्नों के चारों ओर घूमती है। इनका विचार है कि क्षेत्रवाद की समस्याएं स्पष्ट रूप से भाषा से सम्बन्धित हैं। भारत में सदैव ही अनेक भाषाएं बोलने वालों ने कई बार राज्य के निर्माण के लिए व्यापक आन्दोलन किए हैं। भारत सरकार ने भाषा के आधार पर राज्यों का गठन करके ऐसी समस्या उत्पन्न कर दी है जिसका अन्तिम समाधान निकालना बड़ा कठिन है।

4. जाति (Caste)—जाति ने भी क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही, वहीं पर क्षेत्रवाद का उग्र रूप देखने को मिला। जहां किसी एक जाति की प्रधानता नहीं रही वहां पर एक जाति ने दूसरी जाति को रोके रखा है और क्षेत्रीयता की भावना इतनी नहीं उभरी। यही कारण है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में क्षेत्रवाद का उग्र स्वरूप देखने को मिलता है जबकि उत्तर प्रदेश में नहीं मिलता है।

5. धार्मिक कारण (Religious Causes)-धर्म भी कई बार क्षेत्रवाद की भावनाओं को बढ़ाने में सहायता करता है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबा की मांग कुछ हद तक धर्म के प्रभाव का परिणाम थी।

6. आर्थिक कारण (Economic Causes) क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में आर्थिक कारण महत्त्वपूर्ण रोल अदा करते हैं। भारत में जो थोड़ा बहुत आर्थिक विकास हुआ है उसमें बहुत असमानता रही है। कुछ प्रदेशों का आर्थिक विकास हुआ है और कुछ क्षेत्रों का विकास बहुत कम हुआ है। इसका कारण यह रहा है कि जिन व्यक्तियों के हाथों में सत्ता रही है उन्होंने अपने क्षेत्रों के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया। उदाहरणस्वरूप 1966 से पूर्व पंजाब में सत्ता पंजाबियों के हाथों में रही जिस कारण हिसार, गुड़गांव, महेन्द्रगढ़, जीन्द आदि क्षेत्रों का विकास न हो पाया। आन्ध्र प्रदेश में सत्ता मुख्य रूप से आन्ध्र के नेताओं के पास रही जिस कारण तेलंगाना पिछड़ा रह गया। उत्तर प्रदेश में पूर्वी उत्तर प्रदेश पिछड़ा रह गया। राजस्थान में पूर्वी राजस्थान अविकसित रहं गया और इसी प्रकार महाराष्ट्र में विदर्भ का विकास नहीं हो पाया। अतः पिछले क्षेत्रों में यह भावना उभरी कि यदि सत्ता उनके पास होती तो उनके क्षेत्र पिछड़े न रह जाते। इसलिए इन क्षेत्रों के लोगों में क्षेत्रवाद की भावना उभरी और उन्होंने अलग राज्यों की मांग की। इसीलिए आगे चलकर सन् 1966 में हरियाणा एवं 2014 में तेलंगाना नाम के दो अलग राज्य भी बन गए।

7. राजनीतिक कारण (Political Causes)-क्षेत्रवाद की भावनाओं को भड़काने में राजनीतिज्ञों का भी हाथ रहा है। कई राजनीतिक यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र को अलग राज्य बना दिया जाएगा तो उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो जाएगी अर्थात् उनके हाथ में सत्ता आ जाएगी।
रजनी कोठारी ने क्षेत्रवाद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है, “पृथक्कता की भावना उनमें अधिक शक्तिशाली और खतरनाक है, जहां ऐसी आर्येतर जातियां हैं जो भारतीय संस्कृति की धारा में पूर्ण रूप में मिल नहीं पाई हैं जैसे उत्तर-पूर्व की आदिम जातियों का क्षेत्र है। यहां भी भारतीय लोकतन्त्रीय व्यवस्था और सरकारी विकास कार्यक्रमों का प्रभाव पड़ा है और धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के लोग भी देश की राजनीति में भाग लेने लगे हैं। पर राजनीतिकरण की यह प्रवृत्ति अभी शुरू हुई है। दूसरी ओर आधुनिकता के प्रसार से अपने पृथक् अस्तित्व की भावना भी उभरती है। इसलिए इनको सम्भालने के लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है-राजनीतिक गतिविधि बढ़ने और शिक्षा तथा आर्थिक विकास के फलस्वरूप छोटे समूहों में अब तक दबे या पिछड़े हुए समूह थे, अधिकारी और स्वायत्तता की आकांक्षाओं का उठना स्वाभाविक है।”

क्षेत्रवाद का राजनीति में योगदान (ROLE OF REGIONALISM IN POLITICS)
राजनीति में क्षेत्रीयवाद के योगदान को इस प्रकार सिद्ध किया जा सकता है-

  • क्षेत्रवाद के आधार पर राज्य केन्द्रीय सरकार में सौदेबाज़ी करती है। यह सौदेबाजी न केवल आर्थिक विकास के लिए होती है बल्कि कई महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए भी होती है। इस प्रकार के दबावों से हरियाणा राज्य का निर्माण हुआ।
  • राजनीतिक दल अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए क्षेत्रवाद का सहारा लेता है। पंजाब में अकाली दल ने और तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम दल ने अपने आपको शक्तिशाली बनाने के लिए क्षेत्रवाद का सहारा लिया।
  • मन्त्रिपरिषद् के सदस्य अपने-अपने क्षेत्रों का अधिक विकास करते हैं ताकि अपनी सीट को पक्का किया जा सके। श्री बंसीलाल ने भिवानी के क्षेत्र को चमका दिया और श्री सुखाड़िया ने उदयपुर क्षेत्र का बहुत अधिक विकास किया।
  • चुनावों के समय भी क्षेत्रवाद का सहारा लिया जाता है। क्षेत्रीयता के आधार पर राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं और क्षेत्रीयता की भावनाओं को भड़कार कर वोट प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है।
  • क्षेत्रवाद ने कुछ हद तक भारतीय राजनीति में हिंसक गतिविधियों को उभारा है। कुछ राजनीतिक दल इसे अपनी लोकप्रियता का साधन बना लेते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है। मन्त्रिमण्डल में प्रायः सभी मुख्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को लिया जाता है। साधारणतया यह शिकायत की जाती थी कि अब तक कोई प्रधानमन्त्री दक्षिणी राज्यों से नहीं बना। प्रधानमन्त्री को अपने मन्त्रिमण्डल में प्रत्येक को उसके महत्त्व के आधार पर प्रतिनिधित्व देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री व्यक्ति चुनने में स्वतन्त्र है, परन्तु क्षेत्र चुनने में नहीं।

क्षेत्रवाद की समस्या का समाधान (SOLUTION OF THE PROBLEM OF REGIONALISM)-

क्षेत्रवाद राजनीति की आधुनिक शैली है। क्षेत्रवाद उस समय तक कोई जटिल समस्या उत्पन्न नहीं करता जब तक वह सीमा के अन्दर रहता है, परन्तु जब वह भावना उग्र रूप धारण कर लेती है तब राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाती है।

सेलिग एस० हेरीसन ने इस सम्बन्ध में कहा, “यदि क्षेत्रवाद की भावना या किसी विशेष क्षेत्र के लिए अधिकार या स्वायत्तता की मांग बढ़ती चली गई तो इससे या तो देश अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों में बंट जाएगा या तानाशाही कायम हो जाएगी।” अतः क्षेत्रवाद की समस्या को सुलझाना अति आवश्यक है। कुछ विद्वानों ने क्षेत्रवाद की समस्या को सुलझाने के लिए राज्यों के पुनर्गठन की बात कही है। रजनी कोठारी का कहना है कि राज्यों को पुनर्गठित करते समय भाषा को ही एकमात्र आधार न माना जाए। राज्य की रचना के लिए भाषा के अतिरिक्त और भी कई सिद्धान्त हैं जैसे कि आकार, विकास की स्थिति, शासन की सुविधाएं, सामाजिक एकता तथा राजनीतिक व्यावहारिकता। मुम्बई, कोलकाता जैसे महानगर क्षेत्रों में शासन और विकास की स्वायत्त संस्थाएं कायम करने और इनको राज्य के अंश से अलग साधन देने की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया है यद्यपि इन नगरों का साइज (आकार) और समस्याएं दिन प्रतिदिन विकट होती जा रही हैं । साधारणतया राज्यों के पुनर्गठन के समर्थक तीन तर्क देते हैं-

  • छोटे-छोटे राज्यों के निर्माण से अधिक उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी। प्रशासन और जनता में समीप का सम्पर्क स्थापित होगा और शासन में कार्यकुशलता आ जाएगी।
  • छोटे-छोटे राज्यों से उस क्षेत्र का आर्थिक विकास अधिक होगा। (3) यदि पहले ही राज्य पुनर्गठन आयोग की बातों को मान लिया जाता है तो अलग राज्यों की स्थापना के लिए जो आन्दोलन हुए हैं वे भी न होते।

इन तीनों तर्कों का आलोचनात्मक उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है-

(1) यह अनिवार्य नहीं है कि छोटे राज्यों में ही जनता और प्रशासन में समीप का सम्पर्क स्थापित हो। यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार इस ओर कितना ध्यान देती है। एक बड़े राज्य में यदि प्रशासक चाहें तो जनता से सम्पर्क बनाए रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक अच्छी सरकार के लिए केवल सम्पर्क स्थापित करना इतना ज़रूरी नहीं होता जितना कि भ्रष्टाचारी को खत्म करना और जनता की भलाई के लिए अधिक-से-अधिक कार्य करना। छोटे-छोटे राज्यों में नियुक्तियां सिफ़ारिशों पर की जाती हैं क्योंकि आम व्यक्ति भी आसानी के साथ रिश्तेदारी निकाल लेता है। इससे प्रशासन में कार्यकुशलता नहीं रहती।

(2) यह कहना कि छोटे राज्यों के कारण आर्थिक विकास अधिक होता है, ठीक प्रतीत नहीं होता है। सारे देश की प्रगति का सम्बन्ध सभी राज्यों की उन्नति से जुड़ा होता है। अतः समस्त देश की उन्नति द्वारा ही राज्यों की प्रगति की जा सकती है न कि राज्यों को टुकड़ों में बांटने से। पिछड़े प्रदेशों की उन्नति करना केन्द्रीय सरकार की जिम्मेवारी है।

(3) यह कहना कि यदि राज्य पुनर्गठन आयोग की सभी सिफ़ारिशों को मान लिया जाता है तो अनेक आन्दोलन न होते, सही प्रतीत नहीं होता है। यदि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुसार कुछ प्रदेशों को राज्य बना दिया जाता तो हो सकता था अन्य प्रदेश आन्दोलन कर देते।
संक्षेप में, क्षेत्रवाद की समस्या का हल छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना नहीं है बल्कि पिछड़े क्षेत्रों का आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार को समाप्त करना, जनता के कल्याण के लिए अधिक कार्य करना इत्यादि।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 7.
भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका का उल्लेख करो।
(Describe the role of Casteism in Indian Politics.)
अथवा
भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जातिवाद ने किस प्रकार प्रभावित किया है ?
(How has Casteism affected the Indian democratic system ?)
उत्तर-
भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी राजनीति में जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था। स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा बढ़ा ही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है। जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता के बीज तो ब्रिटिश शासन में साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की मांग को स्वीकार करके ही बो दिए थे। 1909 के एक्ट के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को अपने प्रतिनिधि अलग चुनने का अधिकार दिया और फिर भारत की बहुत-सी जातियों ने इसी प्रकार अलग प्रतिनिधित्व की मांग की। महात्मा गान्धी जब दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भाग ले रहे थे तो उन्होंने देखा कि भारत से आए विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि अपनी जातियों के लिए ही सुविधाएं मांग रहे थे और राष्ट्रीय हित की बात कोई नहीं कर रहा था। इसी निराशा में वे वापस लौट आये। अंग्रेज़ों ने जातिवाद को दिल खोल कर बढ़ावा दिया। स्वतन्त्रता के पश्चात् कांग्रेस सरकार ने ब्रिटिश नीति का अनुसरण करके जातिवाद की भावना को बढ़ावा दिया है।

पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएं देकर कांग्रेस सरकार ने उसका एक अलग वर्ग बना दिया है। राजनीति के क्षेत्र में नहीं बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक तथा अन्य क्षेत्रों में भी जातिवाद का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। प्रो० वी० के० एन० मेनन (V. K. N. Menon) का यह निष्कर्ष ठीक है कि स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले के अपेक्षा बढ़ा है। राजनीतिज्ञों, प्रशासनाधिकारियों तथा विद्वानों ने स्वीकार किया है कि जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रो० मोरिस जोन्स (Morris Jones) ने अपनी खोज के आधार पर कहा है कि “राजनीति जाति से अधिक महत्त्वपूर्ण है और जाति पहले से राजनीति से अधिक महत्त्वपूर्ण है। शीर्षस्थ नेता भले ही जाति-रहित समाज के उद्देश्य की पालना करें, परन्तु वह ग्रामीण जनता जिसे मताधिकार प्राप्त किए हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं, केवल परम्परागत राजनीति की ही भाषा को समझती है जो जाति के चारों ओर घूमती है और न जाति शहरी सीमाओं से परे हैं।” स्व० जय प्रकाश नारायण ने एक बार कहा था, “भारत में जाति सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल है। जगदीश चन्द्र जौहरी ने तो यहां तक कहा है कि, “यदि मनुष्य राजनीति के संसार में ऊपर चढ़ना चाहते हैं तो उन्हें अपने साथ अपनी जाति व धर्म को लेकर चलना चाहिए।”

भारतीय राजनीति अथवा लोकतन्त्र में जाति की भूमिका (ROLE OF CASTE IN INDIAN POLITICS OR DEMOCRACY)

स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कहीं अधिक बढ़ा है। आज भारत के प्राय: सभी राज्यों में जाति का राजनीति पर बहुत गहरा प्रभाव है। प्रो० मोरिस जोन्स ने ठीक ही लिखा है कि चाहे देश के बड़े-बड़े नेता जाति-रहित समाज का नारा बुलन्द करते रहे परन्तु ग्रामीण समाज के नए मतदाता केवल परम्परागत राजनीति की भाषा को ही जानते हैं। परम्परागत राजनीति की भाषा जाति के ही चारों तरफ चक्कर लगाती है। रजनी कोठारी ने भी ऐसा ही मत प्रकट करते हुए कहा है कि यदि जाति के प्रभाव को अस्वीकार किया जाता है और उसकी उपेक्षा की जाती तो राजनीतिक संगठन में बाधा पड़ती है।

1. जातिवाद के आधार पर उम्मीदवारों का चयन (Selection of Candidates on the basis of Caste)चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन (Selection) करते समय जातिवाद भी अन्य आधारों में से एक महत्त्वपूर्ण आधार होता है। (”Caste considerations are given great weight in the selection of candidates and in the appeals to voters during election campaigns.” — Palmar) पिछले 16 आम चुनावों में सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को प्रमुख बना दिया है। प्रायः जिस निर्वाचन क्षेत्र में जिस जाति के मतदाता अधिक होते हैं, उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा किया जाता है। क्योंकि भारतीय जनता का बड़ा भाग भी अनपढ़ है और पढ़े-लिखे लोगों का दृष्टिकोण भी इंतना व्यापक नहीं है कि जाति के दायरे को छोड़ कर देश के हित में सोच सकें।

2. राजनीतिक नेतृत्व (Political Leadership)-भारतीय राजनीति में जातिवाद ने राजनीतिक नेतृत्व को भी प्रभावित किया है। नेताओं का उत्थान तथा पतन जाति के कारण हुआ है। जाति के समर्थन पर अनेक नेता स्थायी तौर पर अपना महत्त्व बनाए हुए हैं। उदाहरण के लिए हरियाणा में राव वीरेन्द्र सिंह अहीर जाति के समर्थन के कारण बहुत समय से नेता चले आ रहे हैं।

3. राजनीतिक दल (Political Parties)-भारत में राष्ट्रीय दल चाहे प्रत्यक्ष तौर पर जाति का समर्थन न करते हों परन्तु क्षेत्रीय दल खुले तौर पर जाति का समर्थन करते हैं और कई क्षेत्रीय दल जाति पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में डी० एम० के० (D.M.K.) तथा अन्ना डी० एम० के० (A.D.M.K.) ब्राह्मण विरोधी या गैर-ब्राह्मणों के दल

4. चुनाव-प्रचार में जाति का.योगदान (Contribution of Caste in Election Propaganda)-कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव-प्रचार में जाति का महत्त्वपूर्ण हाथ है। उम्मीदवार का जीतना या हारना काफ़ी हद तक जाति पर आधारित प्रचार पर निर्भर करता है। जिस जाति का बहुमत उस चुनाव क्षेत्र में होता है प्रायः उसी जाति का उम्मीदवार चुनाव में जीत जाता है। अब तो मठों के स्वामी भी चुनाव में भाग लेने लगे हैं।

5. जाति एवं प्रशासन (Caste and Administration)—प्रशासन में भी जातीयता का समावेश हो गया है। संविधान में हरिजनों और पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए संसद् तथा राज्य विधानमण्डल में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। सरकारी नौकरियों में भी इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं। संविधान के इन अनुच्छेदों के कारण सब जातियों में इन जातियों के प्रति ईर्ष्या की भावना का पैदा होना स्वाभाविक है। कर्नाटक राज्य ने पहले सरकारी नौकरियों में जितने व्यक्ति लिए इनमें लगभग 80 प्रतिशत हरिजन थे जिस कारण जातीय भावना और दृढ़ हो गई। सन् 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने नौकरियों में इस प्रकार के जातीय पक्षपात की निन्दा की और इसे संविधान के साथ धोखा कहा।

6. सरकार निर्माण में जाति का प्रभाव (Influence of Caste at the time of Formation of Govt.)जाति की राजनीति चुनाव के साथ ही समाप्त नहीं हो जाती बल्कि सरकार निर्माण में भी बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा करती है। मन्त्रिमण्डल बनाते समय बहुमत दल में जाति-राजनीति अपना चक्कर चलाए बिना नहीं रहती। राज्य में जिस जाति का ज़ोर होता है उसी जाति का कोई नेता ही मुख्यमन्त्री के रूप में सफल हो सकता है। पंजाब में 2007 एवं 2012 में जब अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो सरदार प्रकाश सिंह बादल मुख्यमन्त्री बने।

7. जाति और मतदान व्यवहार (Caste and Voting Behaviour)-चुनाव के समय मतदाता प्रायः जाति के आधार पर मतदान करते हैं । वयस्क मताधिकार ने जातियों को चुनावों को प्रभावित करने के अधिक अवसर प्रदान किए हैं। प्रत्येक जाति अपनी संख्या के आधार पर अपना महत्त्व समझने लगी है। जिसके जितने अधिक मत होते हैं, उसका महत्त्व भी उतना अधिक होता है।

8. पंचायती राज तथा जातिवाद (Panchayati Raj and Casteism)-स्वतन्त्रता के पश्चात् गांवों में पंचायती राज की व्यवस्था की गई। पंचायती राज के तीन स्तरों-पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद् चुनाव में जाति का बहुत महत्त्व है। कई बार चुनाव में जातिवाद की भावना भयानक रूप धारण कर लेती है तथा दंगे-फसाद भी हो जाते हैं। पंचायती राज की असफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण जातिवाद ही है।

श्री हरिसन ने अपनी पुस्तक ‘India, The Most Dangerous Decades’ में भारत के आम चुनावों में जातीय व्यवहार के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है, “निरपवाद रूप में जब जातीय कारक किसी जातीय विधानसभायी क्षेत्र में प्रकाश में आते हैं जो जटिल से जटिल चुनाव के अप्रत्याशित परिणाम स्पष्ट हो जाते हैं।”

(“Invariably, the most perplexing of election results become crystal clear when the caste factors in the constituency come to light.”_Harrison) उसके विचारानुसार, “चुनावों में जातीय निष्ठा, दलीय भावनाओं तथा दल की विचारधारा से पहले है।”
राजनीति का जातीय भावना से इतना अधिक प्रभावित होना राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। भारत में लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए चुनावों में जातिवाद के आधार को समाप्त करना होगा। इस आधार को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय हैं-

  • जातियों के नाम से चल रही सभी शिक्षा-संस्थाओं से जातियों का नाम हटाया जाए तथा इन संस्थाओं के प्रबन्धक-मण्डलों में विशिष्ट जातियों के प्रतिनिधित्व को समाप्त किया जाए।
  • सभी लोकतान्त्रिक, जाति-निरपेक्ष और धर्म-निरपेक्ष राजनीतिक दलों को मिलकर यह निश्चय करना चाहिए कि वे जातिवाद को प्रोत्साहन नहीं देंगे।
  • जाति पर आधारित राजनीतिक दलों को समाप्त किया जाना चाहिए।
  • विभिन्न जातियों तथा वर्गों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं तथा उन के प्रकाशित होने वाले ऐसे समाचारों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए जो जातिवाद को बढ़ावा देते हैं।
  • जातीय अथवा वर्गीय आधार पर सरकार द्वारा दी जाने वाली सभी सुविधाएं तुरन्त समाप्त कर दी जानी चाहिए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 8.
भारत में बढ़ते हुए साम्प्रदायवाद के पीछे क्या कारण हैं ? इन पर कैसे काबू पाया जा सकता है ? (What are the causes of rising communalism in India ? How can we curb it.)
उत्तर-
विदेशी शासन ने साम्प्रदायिकता का जो ज़हर भारतीय जन-मानस में घोला वह आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी निकल नहीं पाया है। भारत में राजनीति को साम्प्रदायिक आधार देकर राष्ट्र में अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिशें की जा रही हैं। साम्प्रदायिकता के खूनी पंजे राष्ट्र को जकड़ते जा रहे हैं और हम सब तमाशबीन बने खड़े हुए हैं। लोकतन्त्र धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धान्तों को स्वीकार करने के बाद भी साम्प्रदायिकता की जड़ें मज़बूत होती जा रही हैं।

साम्प्रदायिकता का अर्थ (Meaning of Communalism)-साम्प्रदायिकता से अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एक -दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना, एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्र के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है।
ए० एच० मेरियम (A.H. Merriam) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफादारी की अभिवृत्ति की ओर संकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”
डॉ० ई० स्मिथ (Dr. E. Smith) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता को आमतौर पर किसी धार्मिक ग्रुप के तंग, स्वार्थी, विभाजकता और आक्रमणशील दृष्टिकोण से जोड़ा जाता है।”

भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के कारण (Causes of the growth of Communalism in India)भारत में बढ़ते हुए सम्प्रदायवाद के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. पाकिस्तान की भूमिका (Role of Pakistan)—भारत के दोनों तरफ पाकिस्तान का अस्तित्व भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो इस देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है। जब कभी भी कोई दंगा-फसाद हुआ है, पाकिस्तानी नेताओं ने, रेडियो और समाचार-पत्रों ने वास्तविकता जाने बिना ही हिन्दुओं की मुसलमानों पर अत्याचार की कहानियां बनाई हैं। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान उग्रवादियों को हथियारों तथा धन से सहायता दे रहा है ताकि भारत में साम्प्रदायिक दंगे करवाए जा सकें।

2. विभिन्न धर्मों के लोगों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास (Lack of faith among the People of different religions)-भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी इत्यादि अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। प्रत्येक धर्म में अनेक सम्प्रदाय पाए जाते हैं। एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों पर विश्वास नहीं है। अविश्वास की भावना साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है।

3. साम्प्रदायिक दल (Communal Parties)—साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने में साम्प्रदायिक दलों का महत्त्वपूर्ण हाथ है। भारत में अनेक साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं। इन दलों की राजनीति धर्म के इर्द-गिर्द ही घूमती है। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई का कहना है कि यह दुर्भाग्य की बात है कि चुनावी सफलता के लिए सभी पार्टियां साम्प्रदायिक दलों से सम्बन्ध बनाए हुए हैं।

4. राजनीति और धर्म (Politics and Religion)-साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि राजनीति में धर्म घुसा हुआ है। धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता है।

5. सरकार की उदासीनता (Government’s Apathy)—साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि संघीय और राज्यों की सरकारों ने दृढ़ता से इस समस्या को हल करने का प्रयास नहीं किया है। कभी भी इस समस्या की विवेचना गम्भीरता से नहीं की गई और जब भी दंगे-फसाद हुए हैं तभी कांग्रेस सरकार ने विरोधी दलों पर दंगेफसाद कराने का दोष लगाया है।

6. साम्प्रदायिक शिक्षा (Communal Education)-कई प्राइवेट स्कूल तथा कॉलेजों में धर्म-शिक्षा के नाम पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता है।

7. पारिवारिक वातावरण (Family Environment)-कई घरों में साम्प्रदायिकता की बातें होती रहती हैं जिनका बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और बड़े होकर वे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं।

साम्प्रदायिकता को कैसे समाप्त किया जा सकता है? (HOW COMMUNALISM CAN BE CURBED ?).

एकता और उन्नति के लिए साम्प्रदायिकता को समाप्त करना अति आवश्यक है। साम्प्रदायिकता एक ऐसी चुनौती है जिसका स्थायी हल आवश्यक है। साम्प्रदायिकता को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जाते हैं-

1. शिक्षा द्वारा (By Education)-साम्प्रदायिकता को दूर करने का सबसे अच्छा साधन शिक्षा का प्रसार है। जैसे-जैसे शिक्षित व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जाएगी, धर्म का प्रभाव भी कम हो जाएगा और साम्प्रदायिकता की बीमारी भी दूर हो जाएगी। शिक्षा में धर्म-निरपेक्ष तत्त्वों का समावेश करने तथा स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर रोक लगाने से साम्प्रदायिकता पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिल सकती है। सही शिक्षा से राष्ट्रीय भावना पैदा होती है।

2. साम्प्रदायिक दलों का अन्त करके (By abolishing Communal Parties) सरकार को ऐसे सभी दलों को समाप्त कर देना चाहिए जो साम्प्रदायिकता पर आधारित हों। चुनाव आयोग को साम्प्रदायिक पार्टियों को मान्यता नहीं देनी चाहिए।

3. धर्म और राजनीति को अलग करके-साम्प्रदायिकता को रोकने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय यह है कि राजनीति को धर्म से अलग रखा जाए। केन्द्र सरकार ने साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए धार्मिक स्थलों का राजनीतिक उपयोग कानूनी तौर से प्रतिबन्धित कर दिया है, परन्तु उसका कोई विशेष असर नहीं हुआ है।

4. सामाजिक और आर्थिक विकास-साम्प्रदायिक तत्त्व लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन का पूरा फायदा उठाते हैं। अतः ज़रूरत इस बात की है कि जहाँ-कहीं कट्टरपंथी ताकतों का बोलबाला है वहां की ग़रीब बस्तियों के निवासियों की आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के हल के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं।

5. सुरक्षा बलों में सभी धर्मों को प्रतिनिधित्व-साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में सुरक्षा बल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि सुरक्षा बलों (पुलिस, सी० आर० पी०) में सभी धर्मों व जातियों को, जहां तक हो सकें समान प्रतिनिधित्व देना चाहिए।

6. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा-सरकार को अल्प-संख्यकों के हितों की रक्षा के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए और उनमें सुरक्षा की भावना पैदा करनी चाहिए।

7. अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक मान्यता-अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए स्थायी तौर पर अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की जानी चाहिए। अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।

8. कड़ी सज़ा-साम्प्रदायिकता बढ़ाने वालों को कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए।

9. विशेष अदालतें-साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को कड़ी सज़ा देने के लिए विशेष अदालतों की स्थापना की जानी चाहिए। जनवरी, 1990 में सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों से सम्बन्धित मामले निपटाने के लिए दिल्ली, मेरठ और भागलपुर में विशेष अदालतें गठित करने का निर्णय किया।

प्रजातन्त्र पर साम्प्रदायिकता का प्रभाव
(IMPACT OF COMMUNALISM ON DEMOCRACY)-

धर्म का भारतीय राजनीति पर सदैव ही प्रभाव रहा है। धर्म की संकीर्ण भावनाओं ने स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय राजनीति को साम्प्रदायिक झगड़ों का अखाड़ा बना दिया है। धर्म के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों में झगड़े चलते थे और अन्त में भारत का विभाजन भी हुआ। परन्तु भारत का विभाजन भी साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं कर सका और आज फिर साम्प्रदायिक तत्त्व अपना सिर उठा रहे हैं। साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित ढंगों से प्रजातन्त्र को प्रभावित किया है-

  • भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  • चुनावों में साम्प्रदायिकता की भावना महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चुनाव करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं और जिस चुनाव क्षेत्र में जिस सम्प्रदाय के अधिक मतदाता होते हैं प्रायः उसी सम्प्रदाय का उम्मीदवार उस चुनाव क्षेत्र में खड़ा किया जाता है। प्राय: सभी राजनीतिक दल चुनावों में वोट पाने के लिए साम्प्रदायिक तत्त्वों के साथ समझौता करते हैं।
  • राजनीतिक दल ही नहीं मतदाता भी धर्म से प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते हैं।
  • धर्म के नाम पर राजनीतिक संघर्ष और साम्प्रदायिक झगड़े होते रहते हैं। 1979-80 में साम्प्रदायिक दंगों की संख्या 304 थी। 1990 तथा दिसम्बर, 1992 में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मामले पर अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे-फसाद हुए। मार्च, 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हुए।
  • राजनीति को साम्प्रदायिक आधार देकर राष्ट्र में अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिश की जा रही है। आज आवश्यकता इस बात की है जो ताकतें धर्म-निरपेक्षता को आघात पहुंचाती हैं और साम्प्रदायिक राजनीति चला रही हैं उनके खिलाफ सख्त कदम उठाये जायें। लोकतन्त्र की सफलता और राष्ट्र की एकता के लिए साम्प्रदायिकता के खूनी पंजे को काटना ही होगा।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 9.
भारत में लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों का वर्णन करो। (Discuss the essential conditions for the success of Democracy in India.)
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों की व्याख्या करें। (Discuss the conditions essential for the success of Indian democracy.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है। इस शासन व्यवस्था को सर्वोत्तम माना गया है। परन्तु प्रजातन्त्र को प्रत्येक देश में एक समान सफलता प्राप्त नहीं हुई। कुछ देशों में प्रजातन्त्र प्रणाली को बहुत सफलता प्राप्त हुई जबकि कई देशों में इसको सफलता प्राप्त नहीं हुई है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए कुछ विशेष वातावरण और मनुष्यों के आचरण में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता रहती है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, स्विट्ज़रलैंड आदि देशों में प्रजातन्त्र शासन प्रणाली को सफलता मिली है क्योंकि इन देशों में उचित वातावरण मौजूद है।
भारतीय प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित शर्तों का होना आवश्यक है-

1. सचेत नागरिक (Enlightened Citizens)—प्रजातन्त्र की सफलता की प्रथम शर्त सचेत नागरिकता है। नागरिक बुद्धिमान, शिक्षित तथा समझदार होने चाहिएं। नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के प्रति सचेत होना चाहिए। नागरिकों को देश की समस्याओं में रुचि लेनी चाहिए। एक लेखक का कहना है कि “लगातार सतर्कता ही स्वतन्त्रता का मूल्य है।” (Constant vigilance is the price of liberty.)

2. शिक्षित नागरिक (Educated Citizens)—प्रजातन्त्र जनता की सरकार है और इसका शासन जनता द्वारा ही चलाया जाता है। इसलिए प्रजातन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला है । शिक्षा के प्रसार से ही नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान होता है। शिक्षित नागरिक ही अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित में भेद कर सकते हैं। शिक्षा नागरिक को शासन में भाग लेने के योग्य बनाती है। देश की समस्याओं को समझने के लिए तथा उनको सुलझाने के लिए शिक्षित नागरिकों का होना आवश्यक है। अत: शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्त है।

3. उच्च नैतिक स्तर (High Moral Standard) ब्राइस के मतानुसार प्रजातन्त्र की सफलता नागरिकों के उच्च नैतिक स्तर पर निर्भर करती है । नागरिकों का ईमानदार, निष्पक्ष तथा स्वार्थरहित होना आवश्यक है। प्रजातन्त्र में जनता को बहुत से अधिकार प्राप्त होते हैं, जिनका ईमानदारी से उपयोग होना प्रजातन्त्र की सफलता के लिए जरूरी होता है। उदाहरण के लिए, प्रजातन्त्र में नागरिकों को वोट देने का अधिकार प्राप्त होता है परन्तु नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने इस अधिकार का प्रयोग बुद्धिमता से करें। यदि नागरिक बेइमान हों, जमाखोर हों, चोरबाजारी करते हों, मन्त्री अपने स्वार्थ-हितों की पूर्ति में लगे रहते हों तथा सरकारी कर्मचारी रिश्वतें लेते हों तो वहां प्रजातन्त्र की सफलता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। अतः प्रजातन्त्र की सफलता के लिए नागरिक का नैतिक स्तर ऊंचा होना अनिवार्य है।

4. प्रजातन्त्र से प्रेम (Love for Democracy)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों के दिलों में प्रजातन्त्र के लिए प्रेम होना चाहिए। प्रजातन्त्र से प्रेम के बिना प्रजातन्त्र कभी सफल नहीं हो सकता।

5. आर्थिक समानता (Economic Equality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। बिना आर्थिक समानता के राजनीतिक प्रजातन्त्र एक हास्य का विषय बन जाता है। कोल ने ठीक ही कहा है, “बिना आर्थिक स्वतन्त्रता के राजनीतिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।” (“Political democracy is meaningless without economic democracy.”) साम्यवाद के समर्थकों की इस बात में सच्चाई है कि एक भूखे-नंगे व्यक्ति के लिए वोट के अधिकार का कोई महत्त्व नहीं है। मनुष्य को रोटी पहले चाहिए और वोट बाद में है। अतः प्रत्येक मनुष्य की आय इतनी अवश्य होनी चाहिएं कि वह अपना और अपने परिवार का उचित पालन कर सके तथा अपने बच्चों को शिक्षा दे सकें। प्रजातन्त्र तभी सफल हो सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति को पेट भर रोटी मिले, कपड़ा मिले तथा रहने को मकान मिले और कार्य करने का अवसर प्राप्त हो।

6. सामाजिक समानता (Social Equality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता के साथ सामाजिक समानता का होना भी आवश्यक है। यदि समाज में सभी व्यक्तियों को समान नहीं माना जाता और उनमें जाति, धर्म, रंग, वंश, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है तो प्रजातन्त्र को सफलता नहीं मिल सकती। समाज में सभी नागरिकों को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं और किसी व्यक्ति को ऊंचा-नीचा नहीं समझना चाहिए। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि समाज का संगठन समानता तथा न्याय के नियमों पर आधारित हो।

7. स्वस्थ जनमत (Sound Public Opinion)-प्रजातन्त्रात्मक सरकार जनमत पर आधारित होती है, जिस कारण प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्वस्थ जनमत का होना अति आवश्यक है। डॉ० बनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के शब्दों में, “जनमत नागरिकों के समस्त समूह का मत है। जनता का मत बनने के लिए बहुसंख्या काफ़ी नहीं तथा सर्वसम्मति की आवश्यकता नहीं।”

8. स्वतन्त्र तथा ईमानदार प्रेस (Free and Honest Press)—प्रजातन्त्र का शासन जनमत पर आधारित होता है। इसलिए शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए स्वतन्त्र तथा ईमानदार प्रेस का होना बहुत ज़रूरी है। नागरिक को अपने विचार प्रकट करने की भी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। यदि प्रेस पर किसी वर्ग अथवा पार्टी का नियन्त्रण होगा तो वह निष्पक्ष नहीं रह सकता जिसके परिणामस्वरूप जनता को झूठी खबरें मिलेंगी और झूठी खबरों के आधार पर बना जनमत शुद्ध नहीं हो सकता। यदि प्रेस पर सरकार का नियन्त्रण होगा तो जनता को वास्तविकता का पता नहीं चलेगा और सरकार की आलोचना करना भी कठिन हो जाएगा।

9. शान्ति और सुरक्षा (Peace and Order)–प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि देश में शान्ति और सुरक्षा का वातावरण हो। प्रजातन्त्र शासन ऐसे देशों में अधिक समय तक नहीं रह सकता जहां सदा युद्ध का भय बना रहता है। जिस देश में अशान्ति की व्यवस्था रहती है, वहां पर नागरिक अपने व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयत्न नहीं करते। युद्ध काल में न तो चुनाव हो सकते हैं और न ही नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। अतः प्रजातन्त्र ‘ की सफलता के लिए शान्ति व्यवस्था का होना आवश्यक है।

10. स्वतन्त्र चुनाव (Free Election)—प्रजातन्त्र में निश्चित अवधि के पश्चात् चुनाव होते हैं। चुनाव व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि चुनाव स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष हों तथा सत्तारूढ़ दल को कोई ऐसी सुविधा प्राप्त नहीं होनी चाहिए जो विरोधी दल को प्राप्त नहीं है। मतदाताओं को अपने मत को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। मतदाताओं पर दबाव डालकर उन्हें किसी विशेष दल के पक्ष में वोट डालने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

11. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा (Protection of Fundamental Rights)—प्रजातन्त्र में लोगों को कई प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त होते हैं जिनके द्वारा वे राजनीतिक भागीदार बन पाते हैं और अपने जीवन का विकास कर पाते हैं। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इन अधिकारों की सुरक्षा संविधान द्वारा की जानी चाहिए ताकि कोई व्यक्ति या शासक उनको कम या समाप्त करके प्रजातन्त्र को हानि न पहुंचा सके।

12. स्थानीय स्वशासन (Local Self-government)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना आवश्यक है क्योंकि स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही नागरिकों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है। स्थानीय स्वशासन से नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है और वे वोट का उचित प्रयोग करना सीखते हैं। ब्राइस का कहना है कि स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के बिना लोगों में स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न नहीं की जा सकती है। स्थानीय शासन को प्रशासनिक शिक्षा की आरम्भिक पाठशाला कहा जाता है। डी० टाक्विल (De Tocqueville) ने स्थानीय संस्थाओं के महत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है, “एक राष्ट्र भले ही स्वतन्त्र सरकार की पद्धति को स्थापित कर ले, परन्तु स्थानीय संस्थाओं के बिना इसमें स्वतन्त्रता की भावना नहीं आ सकती।”

13. लिखित संविधान (Written Constitution)-कुछ विद्वानों के अनुसार प्रजातन्त्र की सफलता के लिए संविधान का लिखित होना आवश्यक है। जिन देशों का संविधान लिखित होता है वहां पर सरकार की शक्तियों को संविधान में लिखा होता है। जिससे सरकार मनमानी नहीं कर सकती। यदि संविधान लिखित न हो तो सरकार अपनी इच्छा से अपनी शक्तियों का विस्तार कर लेगी। हेनरी मेन का कहना है कि अच्छे संविधान के साथ लोकतन्त्र के वेग को रोका जा सकता है तथा उसको एक तालाब के पानी की तरह शान्त बनाया जा सकता है।

14. स्वतन्त्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)-प्रजातन्त्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा संविधान की सुरक्षा के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। देश की न्यायपालिका विधानपालिका तथा कार्यपालिका से स्वतन्त्र होनी चाहिए। यदि न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं होगी तो वह अपना कार्य निष्पक्षता से नहीं कर सकेगी। जिस देश की न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं वहां पर नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित नहीं रहते। अतः प्रजातन्त्र शासन की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना अनिवार्य है।

15. संगठित राजनीतिक दल (Well Organised Political Parties)-प्रजातन्त्र शासन प्रणाली के लिए राजनीतिक दल आवश्यक हैं।
प्रजातन्त्र की सफलता के लिए राजनीतिक दलों का उचित संगठन होना चाहिए। दलों का संगठन जाति, धर्म, प्रान्त आदि के आधार पर न होकर आर्थिक आधार पर होना चाहिए। जो दल आर्थिक सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं उनका उद्देश्य देश का हित होता है। यदि देश में संगठित दल हों तो बहुत अच्छा है।

16. नागरिकों में सहयोग, समझौते तथा सहनशीलता की भावना (Spirit of Co-operation, Compromise and Toleration among the Citizens)-प्रजातन्त्र जनता का शासन है तथा जनता के द्वारा ही चलाया जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि नागरिकों में सहयोग, सहनशीलता तथा समझौते की भावना हो। प्रजातन्त्र में एक व्यक्ति को विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होती है तथा वे सरकार की आलोचना भी कर सकते हैं। दूसरे नागरिकों में इतनी सहनशीलता होनी चाहिए कि वे विरोधी विचारों के नागरिकों के विचारों को ध्यान से सुनें। दूसरे नागरिकों के विचारों को सुनकर लोगों को लड़ना-झगड़ना शुरू नहीं कर देना चाहिए। प्रजातन्त्र में एक दल सरकार बनाता है तथा दूसरे विरोधी दल का कार्य करते हैं। शासन दल के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे विरोधी दल की आलोचना को हंसते हुए बरदाश्त करें तथा विरोधी दल को आलोचना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

17. सेना का अधीनस्थ स्तर (Subordinate status of Army) विश्व के सफल प्रजातन्त्र देशों के अनुभव के अनुसार देश की सेना सरकार के असैनिक अंग (Civil Organ) के अधीन होनी चाहिए। सेना सरकार के अधीनस्थ रहने से ही प्रजातन्त्र की सहायक हो सकती है। यदि ऐसा न हो तो सेना प्रजातन्त्र की सबसे बड़ी विरोधी सिद्ध होगी जैसा कि संसार के अधिनायकवादी देशों का अनुभव है।

18. परिपक्व नेतृत्व (Mature Leadership)-प्रजातन्त्र शासन में जनता का नेतृत्व करने के लिए बुद्धिमान् नेताओं की आवश्यकता होती है। प्रजातन्त्र को सफल बनाने तथा समाप्त करने वाले नेता लोग ही होते हैं। वाशिंगटन तथा लिंकन जैसे महान् नेताओं ने अमेरिका को एक शक्तिशाली राज्य बनाया। इन महान् नेताओं की वजह से ही अमेरिका शक्तिशाली राज्य के साथ-साथ अमीर देश भी है। चर्चिल के नेतृत्व में इंग्लैण्ड ने द्वितीय महायुद्ध में विजय प्राप्त की। जब पाकिस्तान ने भारत पर 1965 ई० में आक्रमण किया तो हमारे प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश का बहुत अच्छा नेतृत्व किया और पाकिस्तान के हमले का मुंह तोड़ जबाव दिया। अतः प्रजातन्त्र की सफलता के लिए बुद्धिमान तथा चरित्रवान् नेता होना आवश्यक है।

19. दल-बदल के विरुद्ध बनाए गए कानून को प्रभावी ढंग से लागू करना (Strict Compliance with the Anti Defection Law)-भारतीय लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि दल-बदल के विरुद्ध बनाए गए कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाए। 1985 में दल-बदल को रोकने के लिए एक कानून बनाया गया था, परन्तु उस कानून में एक कमी यह थी कि यदि किसी दल के 1/3 सदस्य अलग हो जाते हैं, तो उसे दलबदल नहीं माना जाएगा। अतः इस कानून के बावजूद भी दल-बदल पर कोई प्रभावशाली रोक न लग सकी। अतः दिसम्बर, 2003 में संसद् ने 91वां संवैधानिक संशोधन पास किया। इस संशोधन में यह व्यवस्था की गई कि यदि कोई भी विधायक या सांसद दल-बदल करता है तो उसकी सदन की सदस्यता तुरन्त प्रभाव से समाप्त हो जाएगी और वह सदस्य उस सदन के शेष कार्यकाल के दौरान किसी सरकारी लाभदायक पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा 1/3 सदस्यों द्वारा किए जाने वाले दल-बदल की व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया। 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा बनाये गए कानून के अनुसार अब किसी भी रूप में दल-बदल नहीं किया जा सकता। अतः यदि इस कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाए तो इससे भारतीय लोकतन्त्र को सफल बनाने में मदद मिलेगी।

यदि ऊपरलिखित शर्ते पूरी हो जाएं तो प्रजातन्त्र शासन को सफलता मिलनी स्वाभाविक है। यदि किसी देश में प्रजातन्त्र के अनुकूल वातावरण नहीं होता तो वहां पर प्रजातन्त्र का स्थान शीघ्र ही कोई दूसरी सरकार ले लेती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जिस देश में ये सभी बातें नहीं पाई जाती हैं वहां पर प्रजातन्त्र की स्थापना नहीं की जा सकती है। जे० एस० मिल ने इस बात पर जोर दिया है कि प्रजातन्त्र की सफलता के लिए वहां के लोगों में इस शासन को बनाए रखने की इच्छा होनी चाहिए। प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए जनता में इच्छा का होना आवश्यक है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
संसदीय सरकार से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग-पत्र देना पड़ता है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार भी कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इस सरकार को कैबिनेट सरकार भी कहा जाता है। क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां कैबिनेट द्वारा प्रयोग की जाती हैं।

प्रश्न 2.
संसदीय शासन प्रणाली की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-
संसदीय सरकार की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-संसदीय सरकार में कार्यपालिका का असली मुखिया प्रधानमन्त्री होता है। प्रधानमन्त्री निम्न सदन का नेता होता है जिस कारण वह सदन का भी नेता होता है। मन्त्रियों में विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है।
  • कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी-मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है। विधानपालिका जब चाहे मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उस मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है।
  • राजनीतिक एकता-संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल के साथ सम्बन्धित होते हैं। जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, उस दल का मन्त्रिमण्डल बनता है और वही दल सरकार बनाता है। अन्य दल विरोधी दल की भूमिका अदा करते हैं।
  • संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल की बैठकें गुप्त होती हैं।

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प्रश्न 3.
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारतीय संसदीय शासन-प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद-राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान में कार्यपालिका की समस्य शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध-मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद की बैठकों में भाग लेते हैं, विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं। मन्त्रिमण्डल की सहायता के बिना कोई बिल पास नहीं हो सकता।
  • राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग है-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल का सदस्य नहीं होता और मन्त्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता। मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के प्रत्येक निर्णय से राष्ट्रपति को सूचित कर दिया जाता है।
  • प्रधानमन्त्री लोकसभा को भंग करवा सकता है।

प्रश्न 4.
उत्तरदायी सरकार का क्या अर्थ होता है?
उत्तर-
उत्तरदायी सरकार को संसदीय सरकार भी कहा जाता है। उत्तरदायी सरकार में कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है। विधानपालिका के सदस्यों को कार्यपालिका की आलोचना करने तथा उनसे प्रश्न पूछने का अधिकार प्राप्त होता है। कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। संसद् अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है। चूंकि संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है इसलिए उसको उत्तरदायी सरकार कहते हैं।

प्रश्न 5.
लोकतन्त्र को कौन-से सामाजिक तत्त्व प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-

  • सामाजिक असमानता-सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है। सामाजिक असमानता के कारण समाज का बहुत बड़ा भाग राजनीतिक कार्य के प्रति उदासीन रहता है।
  • अनपढ़ता- भारत में आज भी करोड़ों व्यक्ति अनपढ़ हैं। अनपढ़ व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी होती है इसलिए उसमें देश की समस्याओं को समझने तथा हल करने की क्षमता नहीं होती है।
  • जातिवाद-भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। चुनाव में उम्मीदवारों का चयन प्रायः जाति के आधार पर किया जाता है और मतदाता प्राय: जाति के आधार पर मतदान करते हैं।
  • छूआछूत ने भारतीय लोकतन्त्र को बहुत प्रभावित किया है।

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प्रश्न 6.
भारतीय लोकतंत्र की चार समस्याओं का वर्णन करो।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं-

  • सामाजिक असमानता–भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामाजिक असमानता है। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है। राजनीतिक दल सामाजिक असमानता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं और सत्ता पर उच्च वर्ग के लोगों का ही नियन्त्रण रहता है।
  • ग़रीबी-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब व्यक्ति के पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो दूर, ऐसा सोच भी नहीं सकता।
  • अनपढ़ता-भारत की लगभग 24 प्रतिशत जनता अनपढ़ है। भारत में अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अधिकारों का ज्ञान होता है और न कर्तव्यों का। वह मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता। अनपढ़ व्यक्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के नारे, जातिवाद, धर्म आदि से प्रभावित होकर अपने वोट का प्रयोग कर बैठता है।
  • भारतीय लोकतन्त्र की एक मुख्य समस्या जातिवाद है।

प्रश्न 7.
अनपढ़ता ने भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
अथवा
निरक्षरता भारतीय लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करती है ?
उत्तर-
आज जातिवाद, भाषावाद और प्रान्तीयता आदि के देश में बोलबाला होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण भारतीयों का अशिक्षित होना है। प्रजातन्त्र में जनमत ही सरकार की निरंकुशता पर अंकुश लगाता है। जनमत के भय से सरकार जनता के हित में नीतियों का निर्माण करती है, परन्तु भारत में अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। इसलिए सत्तारूढ़ दल चुनाव में किए गए वायदों को लागू कराने की चेष्टा नहीं करता। अनपढ़ व्यक्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के नारों, जातिवाद, धर्म, भाषावाद आदि से प्रभावित होकर अपने वोट का प्रयोग कर बैठता है। अतः भारतीय प्रजातन्त्र के सफल होने के लिए अधिक-से-अधिक जनता का शिक्षित एवं सचेत होना अत्यावश्यक है।

प्रश्न 8.
भारत ने संसदीय प्रणाली को क्यों अपनाया ?
अथवा
भारत ने संसदीय प्रणाली को क्यों ग्रहण किया?
उत्तर-
संविधान सभा में इस बात पर काफ़ी वाद-विवाद हुआ कि भारत के लिए संसदीय अथवा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली उचित रहेगी, परन्तु अन्त में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना करने का निर्णय निम्नलिखित कारणों से लिया गया-

  • संसदीय परम्पराएं-भारत में संसदीय शासन प्रणाली पहले से प्रचलित थी। 1919 के एक्ट द्वारा प्रान्तों में दोहरी शासन प्रणाली द्वारा आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई और 1935 के एक्ट के अन्तर्गत प्रान्तों में प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थापना की गई। अत: भारतीयों के लिए संसदीय शासन प्रणाली नई नहीं थी। इसी कारण राजनीतिज्ञों ने इसका समर्थन किया।
  • शक्ति और लचीलापन-श्री० के० एम० मुन्शी का विचार था कि संसदीय शासन प्रणाली में शक्ति तथा लचीलेपन का सम्मिश्रण रहता है।
  • विधानमण्डल तथा कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध-संसदीय प्रणाली में विधानमण्डल और कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और दोनों में तालमेल बना रहता है।
  • संसदीय शासन प्रणाली अधिक उत्तरदायी है।

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प्रश्न 9.
सामूहिक उत्तरदायित्व से आपका क्या भाव है?
अथवा
संसदीय शासन प्रणाली के अधीन सामूहिक (सांझी) जिम्मेवारी से क्या भाव है ?
अथवा
संसदीय लोकतन्त्र में सामूहिक उत्तरदायित्व का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय सरकार की मुख्य विशेषता है। भारतीय संविधान की धारा 75 (3) में कहा गया है कि “मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है। जब मन्त्रिमण्डल किसी विषय पर कोई नीति निर्धारित करता है तो इस नीति के लिए सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ है कि यदि विधानपालिका में किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास हो जाए तो वह प्रस्ताव पूर्ण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वा प्रस्ताव माना जाएगा और सभी मन्त्री सामूहिक रूप से त्याग-पत्र देंगे। सामूहिक उत्तरदायित्व के अतिरिक्त मन्त्री अपने विभाग के लिए विधानपालिका के प्रति व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं। संक्षेप में मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी है और विधानपालिका जब भी चाहे मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसको त्याग-पत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है। इसीलिए कहा जाता है कि, “मन्त्री इकट्ठे तैरले और इकट्ठे डूबते हैं।”

प्रश्न 10.
भारतीय संसदीय प्रणाली के किन्हीं चार दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत में केन्द्र और प्रान्तों में संसदीय शासन प्रणाली को कार्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं। भारतीय संसदीय प्रणाली की कार्य विधि के आलोचनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संसदीय प्रणाली में बहुत-सी त्रुटियां हैं जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • बहु-दलीय प्रणाली-संसदीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक बाधा बहु-दलीय प्रणाली का होना है। स्थायी शासन के लिए दो या तीन दल ही होने चाहिएं। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती।
  • अच्छी परम्पराओं की कमी-संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है, परन्तु भारत में कांग्रेस शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई है। इसके लिए विरोधी दल भी ज़िम्मेदार हैं।
  • जनता के साथ कम सम्पर्क-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को उसके विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान ही नहीं होता।
  • राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए अनैतिक गठबन्धन करते हैं।

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प्रश्न 11.
भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले चार आर्थिक तत्त्व लिखो।
उत्तर-

  1. आर्थिक असमानता-लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है, परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी आर्थिक असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता रहता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथ में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।
  2. ग़रीबी- भारतीय लोकतन्त्र को ग़रीबी ने बहुत प्रभावित किया है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब नागरिक अपने वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल ग़रीबी को हटाने का वायदा करते हैं ताकि ग़रीबों की वोटें प्राप्त की जा सकें परन्तु बाद में सब भूल जाते हैं।
  3. बेरोज़गारी-बेरोज़गारी और ग़रीबी परस्पर सम्बन्धित हैं और बेरोज़गारी ही ग़रीबी का कारण है। भारत में बेरोज़गारी शिक्षित तथा अशिक्षित दोनों प्रकार के लोगों में पाई जाती है। लाखों शिक्षित बेकार फिर रहे हैं। बेकारी की समस्या ने लोकतन्त्र को बहुत प्रभावित किया है।
  4. भारतीय लोकतन्त्र को आर्थिक क्षेत्रीय असन्तुलन ने प्रभावित किया है।

प्रश्न 12.
भारतीय लोकतन्त्र पर साम्प्रदायिकता के प्रभाव को लिखिए।
उत्तर-
साम्प्रदायिकता भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक गम्भीर समस्या है। साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित ढंगों से भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित किया है-

  • भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  • चुनावों में प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं।
  • राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि मतदाता भी धर्म से प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते हैं। यह प्रायः देखा गया है कि मुस्लिम मतदाता और सिक्ख मतदाता अधिकतर अपने धर्म से सम्बन्धित उम्मीदवार को ही वोट डालते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल में भी धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

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प्रश्न 13.
भारतीय लोकतन्त्र पर जातिवाद का प्रभाव लिखिए।
अथवा
जातिवाद भारतीय लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर-
भारतीय समाज में जातिवाद की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। जातिवाद ने भारतीय लोकतन्त्र को निम्नलिखित ढंग से प्रभावित किया है-

  • चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
  • राजनीतिक दल विशेषकर क्षेत्रीय दल खुलेआम जाति का समर्थन करते हैं।
  • भारतीय राजनीति में जातिवाद ने राजनीतिक नेतृत्व को भी प्रभावित किया है।
  • मतदाता जातीय आधार पर मतदान करता है।

प्रश्न 14.
भारतीय लोकतन्त्र को आर्थिक असमानता किस प्रकार प्रभावित करती है?
अथवा
आर्थिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करती है ?
उत्तर-
लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी आर्थिक असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। भारत में एक तरफ करोड़पति पाए जाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय का भोजन भी नहीं मिलता। भारत में देश का धन थोड़े-से परिवारों के हाथों में ही केन्द्रित है। भारत में आर्थिक शक्ति का वितरण समान नहीं है। अमीर दिन-प्रतिदिन अधिक अमीर होते जातें हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब होते जाते हैं। आर्थिक असमानता ने लोकतन्त्र को भी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं। और प्रायः धनी व्यक्तियों को ही पार्टी का टिकट दिया जाता है। चुनावों में धन का बहुत अधिक महत्त्व है और धन के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता रहता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथों में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।

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प्रश्न 15.
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए चार ज़रूरी शर्तों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए निम्नलिखित तत्त्वों का होना आवश्यक है

  • जागरूक नागरिकता-जागरूक नागरिकता भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है। निरन्तर देखरेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है।
  • शिक्षित नागरिक-भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला हैं।
  • स्थानीय स्वशासन-भारतीय प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना अनिवार्य है। 4. नागरिकों के मन में प्रजातन्त्र के प्रति प्रेम होना चाहिए।

प्रश्न 16.
भारतीय लोकतन्त्र पर बेरोज़गारी के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र को बेरोज़गारी कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
बेरोज़गारी युवकों में क्रोध तथा निराशा को जन्म देती है। उनका यह क्रोध समाज विरुद्ध घृणा तथा हिंसा का रूप धारण करता है। भारत के कई भागों में फैली अशान्ति का मुख्य कारण युवकों की बेरोज़गारी है। स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षित व्यक्तियों की बेरोज़गारी में अधिक वृद्धि हुई है। यह बेरोज़गारी भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक गम्भीर चेतावनी है। जहां बेरोज़गारी के कारण लोगों की निर्धनता में वृद्धि हुई है, वहां युवकों का लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों अथवा लोकतन्त्रीय नैतिक मूल्यों से विश्वास समाप्त हो गया है। ऐसे अविश्वास के कारण ही भारतीय राजनीति में हिंसक साधनों का प्रयोग बढ़ रहा है। इस तरह बेरोज़गारी भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बनी हुई है।

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प्रश्न 17.
राजनीतिक एकरूपता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता राजनीतिक एकरूपता है। संसदीय सरकार में मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य प्रायः एक ही राजनीतिक दल से लिए जाते हैं। इसी कारण मन्त्रियों के विचारों में राजनीतिक एकरूपता पाई जाती है। मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं। यदि मन्त्रियों में किसी विषय पर विवाद भी हो जाता है तो उसे सार्वजनिक नहीं किया जाता अपितु मन्त्रिपरिषद् की बैठकों में सरलता से हल कर लिया जाता है। राजनीतिक एकरूपता के कारण शासन संचालन में आसानी रहती है। उल्लेखनीय है कि मिले-जुले मन्त्रिमण्डल में राजनीतिक एकरूपता की स्थापना करना कठिन होता है। परन्तु इस समस्या से निपटने के लिए विभिन्न दल एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम बना लेते हैं। इस कार्यक्रम के प्रति मन्त्रिपरिषद् के सदस्य एकरूप होते हैं।

प्रश्न 18.
राष्ट्रपति को नाममात्र का संवैधानिक प्रमुख (Constitutional Head) क्यों कहा जाता है?
अथवा भारत में नाममात्र कार्यपालिका के बारे में लिखो।
उत्तर-
भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संसदीय शासन प्रणाली में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का अध्यक्ष होता है, जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिपरिषद् होती है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को सौंपी गई हैं। लेकिन व्यावहारिक रूप से इन शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है। राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही इन शक्तियों का प्रयोग करता है। मन्त्रिपरिषद् की सलाह के बिना और सलाह के विरुद्ध वह किसी भी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता। संविधान के 42वें संशोधन द्वारा यह कहा गया है कि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य है। 44वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि मन्त्रिपरिषद् द्वारा जो सलाह दी जाएगी राष्ट्रपति उस सलाह को एक बार पुनर्विचार के लिए भेज सकता है। लेकिन यदि पुनर्विचार के बाद उसी सलाह को भेजा जाता है तो राष्ट्रपति उसे मानने के लिए बाध्य है। इस प्रकार राष्ट्रपति केवल एक संवैधानिक मुखिया है।

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प्रश्न 19.
भारत में वास्तविक कार्यपालिका के बारे में लिखिए।
अथवा
भारत में वास्तविक कार्यपालिका कौन है?
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार भारतीय संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति के पास हैं। परन्तु राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का मुखिया अथवा नाममात्र की कार्यपालिका है। जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिपरिषद् है। चाहे संवैधानिक रूप से समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को सौंप दी गई हैं परन्तु राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल की सलाह के बिना तथा सलाह के विरुद्ध राष्ट्रपति कोई कार्य नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने पर बाध्य है। व्यावहारिक रूप से मन्त्रिमण्डल ही सारे कार्य करता है। नीतियों के निर्माण से लेकर सामान्य प्रशासन तक का समस्त कार्य मन्त्रिमण्डल ही करता है। इसलिए मन्त्रिमण्डल ही वास्तविक कार्यपालिका है।

प्रश्न 20.
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए कोई चार सुझाव दीजिए।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के चार सुझाव निम्नलिखित हैं

  • शिक्षा का प्रसार-भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए शिक्षा का प्रसार करना अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति हिंसा के स्थान पर शान्तिपूर्ण और संवैधानिक साधनों को अपनाना अधिक पसन्द करता है।
  • आर्थिक समानता-भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए आर्थिक असमानता को दूर करके आर्थिक समानता स्थापित की जानी चाहिए। ग़रीबी को दूर करके हिंसा को कम किया जा सकता है।
  • धर्म-निरपेक्षता-साम्प्रदायिकता हिंसा को बढ़ावा देती है। अतः धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करके भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को कम किया जा सकता है। साम्प्रदायिक राजनीतिक संगठनों पर रोक लगा देनी चाहिए।
  • बेरोज़गारी को दूर करना आवश्यक है।

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प्रश्न 21.
भारत में संसदीय सरकार के लिए बहुदलीय प्रणाली किस प्रकार का खतरा है ?
उत्तर-
बहुदलीय प्रणाली निम्नलिखित प्रकार से भारत में संसदीय सरकार के लिए खतरा है-

  • बहुदलीय प्रणाली में बनी सरकार सदैव कमज़ोर रहती है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मज़बूत एवं सुदृढ़ विपक्षी दल का अभाव रहता है।
  • बहुदलीय प्रणाली में कई बार सरकार बनाने में कठिनाई पैदा हो जाती है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मज़बूत एवं सुदृढ़ विकल्प का सदैव अभाव रहता है।

प्रश्न 22.
साम्प्रदायिकता क्या है?
उत्तर-
साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म जाति के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्रों के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है।

ए० एच० मेरियम के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफ़ादारी की अभिवृति की ओर सकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”
के० पी० करुणाकरण के अनुसार, “भारत में साम्प्रदायिकता का अर्थ वह विचारधारा है जो किसी विशेष धार्मिक समुदाय या जाति के सदस्यों के हितों के विकास का समर्थन करती है।”

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प्रश्न 23.
राजनीतिक हिंसा लोकतन्त्र के लिए खतरा कैसे है?
अथवा
भारतीय लोकतंत्र पर राजनैतिक हिंसा के कोई चार प्रभाव लिखिए।
उत्तर-

  • लोकतन्त्रीय संस्थाएं हिंसा के भय के वातावरण में कार्य करती हैं। ऐसे वातावरण में चुनाव अवश्य होते हैं, परन्तु इसमें मतदाता अपनी इच्छानुसार मतदान नहीं करते हैं।
  • हिंसा को रोकने के लिए सरकार को पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों पर बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ता है। यह खर्च राष्ट्रीय कोष पर बोझ बनता है जिस कारण सरकार अपनी विकास नीतियों का कार्य पूरा नहीं कर पाती है।
  • हिंसा सत्य की आवाज़ का दुश्मन है। कई राजनीतिक नेता हिंसा के कारण अपनी इच्छा को लोगों के सामने प्रकट नहीं कर पाते हैं जिस कारण सरकार की गतिविधियों की जानकारी लोगों को स्पष्ट रूप से नहीं मिल पाती है।
  • राजनीतिक हिंसा के कारण लोग राजनीति से दूर रहते हैं।

प्रश्न 24.
राजनैतिक हिंसा बढ़ने के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर-
राजनीतिक हिंसा बढ़ती जा रही है। इसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं-

  1. चुनावों के समय की जाने वाली रैलियों, सभाओं आदि में राजनीतिक नेता एक-दूसरे पर गम्भीर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं जिससे हिंसा भड़कती है।
  2. चुनावों के दौरान अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उन्मादी नारेबाजी की जाती है जिससे हिंसक घटनाएं होती हैं।
  3. राजनीतिक नेताओं द्वारा चुनाव जीतने के लिए हथियारबंद लोगों और पेशेवर अपराधियों का प्रयोग किया जाता है। ये लोग हिंसा भड़काने का कार्य करते हैं। .
  4. क्षेत्रवादी प्रवृत्तियों के कारण भी राजनीतिक हिंसा बढ़ी है।

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प्रश्न 25.
जनजीवन में बढ़ रही हिंसा को कैसे रोका जा सकता है ?
अथवा
सार्वजनिक जीवन में बढ़ रही हिंसा को कैसे रोका जा सकता है?
उत्तर-
जनजीवन में बढ़ रही हिंसा को निम्नलिखित ढंग से रोका जा सकता है-

  • शिक्षा का प्रसार-हिंसा के न्यूनीकरण के लिए शिक्षा का प्रसार करना अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति हिंसा के स्थान पर शान्तिपूर्ण और संवैधानिक साधनों को अपनाना अधिक पसन्द करता है।
  • आर्थिक समानता-हिंसा के न्यूनीकरण के लिए आर्थिक असमानता को दूर करके आर्थिक समानता स्थापित की जानी चाहिए। ग़रीबी को दूर करके हिंसा को कम किया जाता है।
  • धर्म-निरपेक्षता-साम्प्रदायिकता हिंसा को बढ़ावा देती है। अतः धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करके राजनीति में हिंसा को कम किया जाता है।
  • क्षेत्रीय असन्तुलन को समाप्त किया जाना चाहिए।

प्रश्न 26.
राजनीतिक दल-बदली भारतीय संसदीय सरकार के लिए किस प्रकार से खतरा है ?
उत्तर-

  • राजनीतिक दल-बदली से राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है।
  • राजनीतिक दल-बदली अवसरवाद की राजनीति को बढ़ावा देती है।
  • राजनीतिक दल-बदली से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  • राजनीतिक दल-बदली से मतदाताओं का विश्वास संसदीय शासन प्रणाली में कम होता है।

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प्रश्न 27.
भाषावाद ने भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-

  • भाषावाद ने राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को नुकसान पहुंचाया है।
  • सन् 1956 में राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया गया था। ।
  • भाषा के आधार पर ही लोगों में क्षेत्रवाद की भावना का विकास हुआ है।
  • भाषायी आधार पर राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली का अर्थ लिखें।
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

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प्रश्न 2.
संसदीय सरकार की दो विशेषताएं बताइएं।
उत्तर-

  • प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-संसदीय सरकार में कार्यपालिका का असली मुखिया प्रधानमन्त्री होता है। राजा या राष्ट्रपति कार्यपालिका का नाम मात्र का मुखिया होता है। प्रशासन की वास्तविक शक्तियां प्रधानमन्त्री के पास होती हैं।
  • कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी-मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 3.
भारतीय संसदीय प्रणाली की दो मुख्य विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद-राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान में कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध-मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं।

प्रश्न 4.
भारतीय लोकतन्त्र की दो मुख्य समस्याएं लिखो।
उत्तर-

  1. सामाजिक असमानता- भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामाजिक असमानता है। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है।
  2. ग़रीबी-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब व्यक्ति के पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो दूर, ऐसा सोच भी नहीं सकता।

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प्रश्न 5.
ग़रीबी के भारतीय लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। ग़रीब व्यक्ति सदा अपना पेट भरने की चिन्ता में लगा रहता है और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा।
  2. ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात, वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता। ग़रीब नागरिक वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। वह अपने मालिकों के विरुद्ध मतदान नहीं कर सकता। ग़रीब व्यक्ति अपने वोट को बेच डालता है।

प्रश्न 6.
भ्रष्टाचार के लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के नैतिक चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।
  2. भ्रष्टाचार के कारण ईमानदार एवं गरीब व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाते।

प्रश्न 7.
आर्थिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
भारत में बहुत अधिक आर्थिक असमानता पायी जाती है। आर्थिक असमानता ने भारतीय लोकतन्त्र को काफ़ी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं और प्रायः धनी व्यक्तियों को ही चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के टिकट दिए जाते हैं। चुनावों में धन का बहुत महत्त्व है और धन-बल पर तो चुनाव भी जीते जाते हैं।

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प्रश्न 8.
जातिवाद लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करता है ?
उत्तर-

  • चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
  • राजनीतिक दल विशेषकर क्षेत्रीय दल खुलेआम जाति का समर्थन करते हैं।

प्रश्न 9.
भारत में लोकतन्त्र की सफलता के लिए किन्हीं दो ज़रूरी शर्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. जागरूक नागरिकता-जागरूक नागरिकता भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है। निरन्तर देख-रेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है।
  2. शिक्षित नागरिक-भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला हैं।

प्रश्न 10.
साम्प्रदायिकता के भारतीय लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  2. चुनावों में प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1.
भारत में संसदीय सरकार की कोई एक विशेषता लिखो।
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली की एक विशेषता लिखो।
उत्तर-
भारत में कार्यपालिका एवं विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।

प्रश्न 2.
भारत में नाममात्र कार्यपालिका का अध्यक्ष कौन है ?
उत्तर-
भारत में नाममात्र कार्यपालिका अध्यक्ष राष्ट्रपति है।

प्रश्न 3.
भारत द्वारा संसदीय प्रणाली के चुनाव करने का एक कारण लिखो।
उत्तर-
भारत में संसदीय प्रणाली पहले से ही प्रचलित थी। इसी कारण राजनीतिज्ञों ने इसका समर्थन किया।

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प्रश्न 4.
भारतीय संसदीय प्रणाली का एक दोष लिखो।
उत्तर-
भारत में अच्छी संसदीय परम्पराओं का अभाव है।

प्रश्न 5.
राजनीतिक एकरूपता से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राजनीतिक एकरूपता से अभिप्राय यह है कि मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य प्रायः एक ही राजनीतिक दल से लिये जाते हैं।

प्रश्न 6.
सामाजिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र के लिए किस प्रकार समस्या है?
उत्तर-
सामाजिक रूप से दबे लोग राजनीति में क्रियाशील भूमिका नहीं निभाते।

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प्रश्न 7.
सामूहिक उत्तरदायित्व से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। मन्त्रिपरिषद् एक इकाई की तरह काम करती है और यदि विधानपालिका किसी एक मन्त्रि के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो सब मन्त्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ता है।

प्रश्न 8.
भारतीय लोकतन्त्र को गरीबी कैसे प्रभावित करती है ?
अथवा
गरीबी का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
गरीब व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाते।

प्रश्न 9.
भारत में बेरोज़गारी ने लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-
बेरोज़गार व्यक्ति सफल मतदाता की भूमिका नहीं निभा सकता।

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प्रश्न 10.
संसदीय शासन प्रणाली में लोकसभा को कौन किसके कहने पर भंग कर सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति लोकसभा को प्रधानमन्त्री (मन्त्रिपरिषद्) के कहने पर भंग कर सकता है।

प्रश्न 11.
संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल को कौन भंग (स्थगित) कर सकता है ?
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल को प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति भंग कर सकता है।

प्रश्न 12.
कानून के शासन से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कानून के शासन का अर्थ है देश में कानून सर्वोच्च है और कानून से ऊपर कोई नहीं है।

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प्रश्न 13.
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व से अभिप्राय यह है, कि प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग का व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 14.
भारत में असली कार्यपालिका कौन है ?
उत्तर-
भारत में असली कार्यपालिका प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिमण्डल है।

प्रश्न 15.
भ्रष्टाचार का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
भ्रष्टाचार के कारण भारतीय लोकतन्त्र में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है।

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प्रश्न 16.
भारत में अब तक कितने लोक सभा चुनाव हो चुके हैं ?
उत्तर-
भारत में अब तक लोकसभा के 16 आम चुनाव हो चुके हैं।

प्रश्न 17.
आर्थिक असमानता का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
राजनीतिक शक्ति पूंजीपतियों के हाथों में केन्द्रित होकर रह गई है।

प्रश्न 18.
भारतीय लोकतन्त्र को जातिवाद कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर-
चुनावों में जाति के नाम पर लोगों से वोट मांगें जाते हैं।

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प्रश्न 19.
भारतीय लोकतन्त्र पर साम्प्रदायिकता का क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
भारत में साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं।

प्रश्न 20.
भारत में निरक्षरता का मुख्य कारण क्या है ?
उत्तर-
भारत में निरक्षरता का मुख्य कारण बढ़ती हुई जनसंख्या एवं निर्धनता है।

प्रश्न 21.
भारत में लोकतन्त्र का भविष्य क्या है ?
उत्तर-
भारत में लोकतन्त्र का भविष्य उज्ज्वल है।

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प्रश्न 22.
भारत में अनपढ़ता ने लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित किया है ?
अथवा
अनपढ़ता का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
अनपढ़ व्यक्ति अपने मत का उचित प्रयोग नहीं कर सकता। प्रश्न 23. भारत में सर्वोच्च शक्ति किसके पास है ? उत्तर-भारत में सर्वोच्च शक्ति जनता के पास है।

प्रश्न 24.
क्षेत्रवाद के कौन-से दो पहलू हैं ?
उत्तर-

  1. राजनीतिक पहलू
  2. आर्थिक पहलू।

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प्रश्न 25.
जाति हिंसा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
अन्तर्जातीय हिंसा को जाति हिंसा कहा जाता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् ……………. की स्थापना की गई।
2. भारत में …………… शासन प्रणाली पाई जाती है।
3. भारत में ………….. वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।
4. भारत में ………….. संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
5. सैय्यद काज़ी एवं शिब्बन लाल सक्सेना ने संविधान सभा में ……………लोकतंत्र की जोरदार वकालत की।
उत्तर-

  1. प्रजातन्त्र
  2. संसदीय
  3. 18
  4. 61वें
  5. अध्यक्षात्मक ।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें

1. संसदीय शासन प्रणाली में उत्तरदायित्व का अभाव पाया जाता है।
2. प्रधानमंत्री लोकसभा को भंग नहीं करवा सकता।
3. संविधान के 86वें संशोधन द्वारा, अनुच्छेद 21-A मुफ्त व ज़रूरी शिक्षा का प्रबन्ध करती है।
4. 2014 के लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी दल की मान्यता प्रदान की गई।
5. भारत में राजनीतिक अपराधीकरण बढ़ता ही जा रहा है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय लोकतंत्र के समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियां हैं ?
(क) ग़रीबी
(ख) अनपढ़ता
(ग) बेकारी
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
आर्थिक असमानता को कम करने के लिए क्या करना चाहिए ?
(क) पंचवर्षीय योजनाएं लागू की जानी चाहिएं
(ख) आर्थिक सुधार से संबंधित कार्यक्रम लागू किये जाने चाहिएं
(ग) सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किये जाने चाहिएं
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से एक भारत में ग़रीबी का कारण है-
(क) विशाल जनसंख्या
(ख) शिक्षा
(ग) विकास
(घ) जागरूकता।
उत्तर-
(क) विशाल जनसंख्या

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “स्वतंत्रता के पश्चात् राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले की अपेक्षा बढ़ा है
(क) मोरिस जोन्स
(ख) रजनी कोठारी
(ग) डॉ० बी० आर० अंबेडकर
(घ) वी० के० आर० मेनन।
उत्तर-
(घ) वी० के० आर० मेनन।