PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 11 राज्य और समुदाय

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 11 राज्य और समुदाय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 11 राज्य और समुदाय

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
समुदाय के अर्थ की विवेचना कीजिए। (Discuss the meaning of association.)
उत्तर-
अरस्तु ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसका स्वभाव और आवश्यकता दोनों ही उसे समाज में रहने के लिए बाध्य करते हैं। आज मनुष्य की आवश्यकताएं इतनी जटिल और अधिक हो गई हैं कि समाज और राज्य उन सबको अच्छी प्रकार से पूरा नहीं कर सकता। राज्य अपने सदस्यों की छोटी-छोटी तथा विशेष आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं दे सकता। इसी कारण अपने विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यक्तियों ने विशेष समुदाय बनाए हैं। समुदाय को अंग्रेज़ी में ‘एसोसिएशन’ (Association) कहते हैं जिसका अर्थ है ‘मनुष्यों का एक संगठित निकाय अथवा संघ’ (An organised body of persons)। एक प्रकार के विशेष उद्देश्य रखने वाले व्यक्ति एक-दूसरे के समीप आते हैं और समूह बना कर अर्थात् संगठित होकर इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं। इसी को समुदाय कहते हैं। ‘समुदाय’ की विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • मैकाइवर और पेज (Maclver and Page) का कहना है कि “एक या कुछ सामान्य हितों के अनुसरण के लिए संगठित हुए व्यक्तियों के समूह को समुदाय कहा जाता है।” (Association is a group organised for the pursuit of interest of group or interests in common.”)
  • जिन्सबर्ग (Ginsberg) के मतानुसार, “समुदाय सामाजिक प्राणियों का एक समूह है जो किसी निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक सामान्य संगठन बना लेते हैं।”
  • बोगार्डस (Bogardus) के शब्दों में, “प्राय: किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिलकर कार्य करने को समुदाय कहते हैं।” (‘Association is usually a working together of people to achieve some purpose.”)
  • जी० डी० एच० कोल (G.D.H. Cole) के शब्दों में, “समुदाय से मेरा अभिप्राय लोगों के ऐसे समूह से है जो किसी साझे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सहयोगी रूप में काम करते हैं और इस उद्देश्य के लिए साझे प्रयत्नों के लिए कोई नियम चाहे प्रारम्भिक रूप से ही निश्चित करते हैं।”
    विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समुदाय व्यक्तियों का ऐसा समूह है कि जिसका एक विशेष उद्देश्य होता है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिलजुल कर अर्थात् संगठित होकर कार्य करते हैं।

समुदाय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व (Important Elements of Associations)-समुदाय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व इस प्रकार हैं-

  • व्यक्तियों का समूह-समुदाय व्यक्तियों का समूह होता है। बिना व्यक्ति के समूह के समुदाय की स्थापना नहीं हो सकती।
  • सामान्य या विशेष उद्देश्य-समुदाय का निर्माण व्यक्तियों द्वारा किसी सामान्य या विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है। समुदाय बनाने के लिए सामान्य हित या उद्देश्य का होना अनिवार्य है। विद्यार्थी संघ विद्यार्थी के हितों की रक्षा करता है।
  • संगठन-समुदाय के लिए संगठन का होना अनिवार्य है। संगठन का अर्थ है, कुछ नियमों के अनुसार कार्य करना और यदि कोई सदस्य समुदाय के नियमों के अनुसार नहीं चलता तो उसे समुदाय की सदस्यता से वंचित कर दिया जाता
  • सहयोग की भावना-समुदाय अपने उद्देश्य को तभी प्राप्त कर सकता है यदि समुदाय के सदस्य पारस्परिक सहयोग करें। सहयोग की भावना के बिना समुदाय को सफलता नहीं मिल सकती।
  • नियमों का पालन-समुदाय के प्रत्येक सदस्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने समुदाय के नियमों का पालन करे। यदि सदस्य समुदाय के नियमों का पालन नहीं करेंगे तो समुदाय का शीघ्र ही पतन हो जाएगा।
  • कुछ समुदाय अपने सदस्यों की अपेक्षा गैर-सदस्यों के हितों को बढ़ावा देते हैं- यद्यपि समुदाय प्रायः अपने सदस्यों के हितों को ही बढ़ावा देते हैं तथापि कई समुदाय गैर-सदस्यों के हितों को बढ़ावा देते हैं। अनेक समुदाय पशुओं के कल्याण और बच्चों के कल्याण के लिए बने हुए हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 11 राज्य और समुदाय

प्रश्न 2.
राज्य और समुदाय में अन्तर स्पष्ट करो।
(Discuss the distinction between State and Association.)
उत्तर-
मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति राज्य के द्वारा नहीं होती। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न समुदायों की स्थापना करता है। समुदाय मनुष्यों का समूह होता है जिसका निर्माण किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। राज्य भी एक समुदाय है क्योंकि राज्य व्यक्तियों का समूह है और राज्य का एक निश्चित उद्देश्य भी है, फिर भी राज्य और समुदाय में अन्तर है, जो इस प्रकार है

1. राज्य की सदस्यता अनिवार्य, समुदाय की ऐच्छिक-मनुष्य का जन्म जिस राज्य में होता है उसे उस राज्य की नागरिकता ग्रहण करनी पड़ती है। मनुष्य अपनी इच्छा से किसी राज्य की नागरिकता न तो छोड़ सकता है और न ही प्राप्त कर सकता है। परन्तु समुदाय की सदस्यता ऐच्छिक होती है। किसी समुदाय का सदस्य बनना अथवा न बनना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है और वह जिस समय चाहे समुदाय की सदस्यता छोड़ सकता है।

2. राज्य के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक है, समुदाय के लिए नहीं-राज्य के निर्माण के लिए निश्चित भूभाग आवश्यक है। राज्य की सीमाएं निश्चित होती हैं, राज्य इन सीमाओं के अन्तर्गत ही कार्य करता है। परन्तु समुदाय की स्थापना के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक नहीं है। समुदाय का क्षेत्र एक मुहल्ले तक भी सीमित हो सकता है और एक शहर तक भी। कई समुदायों का क्षेत्र समस्त संसार में भी फैला होता है, जैसे कि रैड-क्रास सोसाइटी (Red Cross Society)।

3. मनुष्य एक ही समय में एक ही राज्य का सदस्य बन सकता है, परन्तु कई समुदायों का सदस्य एक ही बार बन सकता है-मनुष्य एक समय में एक ही राज्य का सदस्य बन सकता है। यदि किसी मनुष्य को किसी तरह दो राज्यों की नागरिकता प्राप्त हो जाती है, तब उसे एक राज्य की नागरिकता छोड़नी पड़ती है। परन्तु वह एक समय में कई समुदायों का सदस्य बन सकता है।

4. राज्य का उद्देश्य व्यापक है, समुदाय का उद्देश्य सीमित है-राज्य का उद्देश्य समुदाय से व्यापक होता है। राज्य का उद्देश्य मनुष्य के राजनीतिक जीवन को ही उन्नत नहीं करना होता बल्कि राज्य मनुष्य के आर्थिक, सामाजिक आदि पहलुओं को भी उन्नत करने का प्रयत्न करता है ताकि मनुष्य का पूर्ण विकास हो सके। समुदाय का निर्माण किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है। उदाहरणस्वरूप मनोरंजन समिति का उद्देश्य सदस्यों के मनोरंजन तक ही सीमित है। इसके अतिरिक्त समुदाय केवल अपने सदस्यों के हित के लिए ही कार्य करता है।

5. राज्य के पास प्रभुसत्ता है, समुदाय के पास नहीं-राज्य के पास प्रभुसत्ता होती है। राज्य की शक्तियां असीमित होती हैं। राज्य के नियम तोड़ने वाले को सजा दी जाती है। राज्य किसी भी व्यक्ति को मृत्यु दण्ड भी दे सकता है। प्रभुसत्ता के बिना राज्य का निर्माण नहीं हो सकता। परन्तु समुदाय के पास प्रभुसत्ता नहीं होती।

6. अन्य समुदाय राज्य के अधीन होते हैं-राज्य अन्य समुदायों से श्रेष्ठ है। राज्य का अन्य समुदायों पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। अन्य समुदाय राज्य के अधीन कार्य करते हैं। परिवार तथा धार्मिक समुदायों को छोड़ कर बाकी सब समुदायों के निर्माण के लिए राज्य की आज्ञा की आवश्यकता होती है। राज्य समुदायों के कार्यों में हस्तक्षेप भी कर सकता है और आवश्यकता समझे तो समुदाय को समाप्त भी कर सकता है।

7. राज्य स्थायी, समुदाय अस्थायी-राज्य तब तक चलता है जब तक इसके पास प्रभुसत्ता रहती है। प्रभुसत्ता खो जाने से राज्य भी समाप्त हो जाता है। परन्तु ऐसा बहुत कम होता है। लेकिन समुदाय अस्थायी है। समुदाय किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाया जाता है और उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् समाप्त हो जाता है। कई समुदाय अपने उद्देश्य में सफल नहीं होते तब भी समुदाय को समाप्त करना पड़ता है। राज्य भी किसी समुदाय को समाप्त कर सकता है।

8. राज्य करों द्वारा अपना धन इकट्ठा करता है परन्तु समुदाय चन्दों द्वारा-अपने सदस्यों पर कर अथवा टैक्स लगा कर राज्य धन की आवश्यकताओं को पूरा करता है और टैक्स देना अनिवार्य होता है। जो व्यक्ति टैक्स नहीं देता उसको दण्ड दिया जाता है। समुदाय अपने सदस्यों से चन्दा लेकर अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है यदि कोई सदस्य चन्दा नहीं देता तो समुदाय उसे केवल समुदाय से निकाल सकता है।

9. राज्य सार्वजनिक हित का रक्षक है, समुदाय केवल अपने सदस्यों के हित का राज्य समाज के किसी विशेष हित स्थान पर सभी के हितों को देखता है। समुदाय केवल अपने सदस्यों के हितों को देखता है।

10. राज्य समुदाय को समाप्त कर सकता है-राज्य जब चाहे किसी भी समुदाय पर प्रतिबन्ध लगा सकता है और उसे समाप्त कर सकता है। कई समुदायों की स्थापना राज्य भी करता है। जैसे-विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल आदि। परन्तु समुदाय न तो राज्य को बना सकते हैं और न ही समाप्त कर सकते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-ऊपर की चर्चा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि राज्य स्वयं एक प्रकार का समुदाय होते हुए भी अन्य समुदायों से भिन्न और सर्वश्रेष्ठ है। राज्य ‘एक सर्वोच्च समुदाय’ (A Supreme Association) या ‘समुदायों का समुदाय’ (Association of Associations) कहलाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 11 राज्य और समुदाय

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समुदाय का अर्थ तथा परिभाषा लिखें।
उत्तर-
समुदाय को अंग्रेज़ी में ऐसोसिएशन’ (Association) कहते हैं जिसका अर्थ है ‘मनुष्यों का एक संगठित निकाय अथवा संघ’। एक प्रकार के विशेष उद्देश्य वाले व्यक्ति जब एक-दूसरे के समीप आते हैं और समूह बना कर अर्थात् संगठित होकर इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, इसी को समुदाय कहते हैं। समुदाय की विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न परिभाषाएं दी हैं, जिनमें मुख्य अग्रलिखित हैं-

  1. मैकाइवर और पेज का कहना है कि, “एक या कुछ सामान्य हितों के अनुसरण के लिए संगठित हुए व्यक्तियों के समूह को समुदाय कहते हैं।”
  2. जिन्सबर्ग के मतानुसार, “समुदाय सामाजिक प्राणियों का एक समूह है जो किसी निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक सामान्य संगठन बना लेते हैं।”
  3. बोगार्डस के शब्दों में, “प्रायः किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिलकर काम करने को समुदाय कहते हैं।”

प्रश्न 2.
समुदाय की चार उपयोगिताएं लिखें।
उत्तर-
समुदाय समाज में उतना ही स्वाभाविक है जितना स्वयं राज्य। मनुष्य जीवन में समुदायों की उपयोगिता निम्नलिखित बातों से स्पष्ट है-

  • विशेष उद्देश्यों की पूर्ति-समाज व्यक्ति के विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति करता है परन्तु व्यक्ति को अपने विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समुदायों पर निर्भर रहना पड़ता है। व्यक्ति का विशेष उद्देश्य चाहे जो भी हो, वह उससे सम्बन्धित समुदाय बनाकर उसकी पूर्ति कर सकता है और अपने जीवन का विकास कर सकता है।
  • मानव-स्वभाव की तृप्ति-समुदाय द्वारा मनुष्य के सामाजिक स्वभाव की तृप्ति होती है। प्रत्येक मनुष्य में दूसरों के साथ अपने सुख-दुःख को बांटने की इच्छा होती है। समुदाय के सदस्यों से मित्रता करके उसकी यह सामाजिक भावना अच्छी प्रकार से पूरी हो जाती है।
  • जीवन में अधिक सहायता, सहयोग व सफलता मिलती है-समुदाय संगठित होते हैं और उनके सदस्य संगठित होकर कार्य करते हैं। इससे उद्देश्य की पूर्ति में अधिक सहायता मिलती है और पूर्ति भी शीघ्र हो जाती है। इससे लोगों में पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ हो जाते हैं।
  • भाईचारा एवं सहयोग की भावना-समुदायों से समाज में भाईचारा एवं परस्पर सहयोग की भावना पैदा होती है।

प्रश्न 3.
राज्य व समुदाय में चार अन्तर बताओ।
उत्तर-
राज्य और समुदाय में पाए जाने वाले मुख्य अन्तर इस प्रकार हैं-

  • राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, समुदाय की सदस्यता ऐच्छिक-मनुष्य अपनी इच्छा से न तो किसी राज्य की नागरिकता छोड़ सकता है और न ही प्राप्त कर सकता है, परन्तु समुदाय का सदस्य बनना या न बनना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। समुदाय की सदस्यता ऐच्छिक होती है।
  • राज्य के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक, समुदाय के लिए नहीं-राज्य के निर्माण के लिए एक निश्चित भू-भाग का होना आवश्यक है। राज्य की सीमाएं निश्चित होती हैं। परन्तु समुदाय की स्थापना के लिए निश्चित भूभाग का होना आवश्यक नहीं है। समुदाय का कार्य एक मुहल्ले से लेकर सारे संसार तक में फैला हो सकता है।
  • मनुष्य एक समय में एक ही राज्य का सदस्य बन सकता है, परन्तु कई समुदायों का सदस्य एक ही समय में बन सकता है-मनुष्य एक समय में एक ही राज्य का सदस्य बन सकता है। यदि किसी मनुष्य को दो राज्यों की नागरिकता प्राप्त हो जाती है तो उसे एक राज्य की नागरिकता छोड़नी पड़ती है। परन्तु वह एक ही समय में एक साथ कई समुदायों का सदस्य बन सकता है।
  • राज्य का उद्देश्य व्यापक है, समुदाय का उद्देश्य सीमित होता है-राज्य का उद्देश्य समुदाय के उद्देश्य से अधिक व्यापक होता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समुदाय का अर्थ लिखें।
उत्तर-
समुदाय को अंग्रेज़ी में ‘एसोसिएशन’ (Association) कहते हैं जिसका अर्थ है ‘मनुष्यों का एक संगठित निकाय अथवा संघ’। एक प्रकार के विशेष उद्देश्य वाले व्यक्ति जब एक-दूसरे के समीप आते हैं और समूह बना कर अर्थात् संगठित होकर इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, इसी को समुदाय कहते हैं।

प्रश्न 2.
राज्य व समुदाय में दो अन्तर बताओ।
उत्तर-

  1. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, समुदाय की सदस्यता ऐच्छिक-मनुष्य अपनी इच्छा से न तो किसी राज्य की नागरिकता छोड़ सकता है और न ही प्राप्त कर सकता है, परन्तु समुदाय का सदस्य बनना या न बनना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। समुदाय की सदस्यता ऐच्छिक होती है।
  2. राज्य के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक, समुदाय के लिए नहीं राज्य के निर्माण के लिए एक निश्चित भू-भाग का होना आवश्यक है। राज्य की सीमाएं निश्चित होती हैं। परन्तु समुदाय की स्थापना के लिए निश्चित भूभाग का होना आवश्यक नहीं है। समुदाय का कार्य एक मुहल्ले से लेकर सारे संसार तक में फैला हो सकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. समुदाय का अर्थ लिखें।
उत्तर-समुदाय व्यक्तियों का ऐसा समूह है, जिसका एक विशेष उद्देश्य होता है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मिल-जुल कर अर्थात् संगठित होकर कार्य करते हैं।

प्रश्न 2. समुदाय की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-जिन्सबर्ग के अनुसार, “समुदाय सामाजिक प्राणियों का एक समूह है,जो किसी निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक सामान्य संगठन बना लेते हैं।”

प्रश्न 3. समुदाय का कोई एक तत्त्व लिखें।
उत्तर-समुदाय का निर्माण व्यक्तियों द्वारा किसी सामान्य या विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है।

प्रश्न 4. समुदाय के वर्गीकरण के कोई दो आधार बताएं।
उत्तर-

  1. सदस्यता के आधार पर
  2. अवधि के आधार पर।

प्रश्न 5. समुदाय का कोई एक महत्त्व लिखें।
उत्तर-समुदाय व्यक्ति के सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति करता है।

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प्रश्न 6. सदस्यता के आधार पर समुदाय कितने प्रकार के हो सकते हैं ?
उत्तर-सदस्यता के आधार पर समुदाय दो प्रकार का होता है।

प्रश्न 7. अवधि के आधार पर समुदाय कितने प्रकार के हो सकते हैं?
उत्तर-अवधि के आधार पर समुदाय दो प्रकार का होता है।

प्रश्न 8. प्रभुसत्ता के आधार पर समुदाय कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-प्रभुसत्ता के आधार पर समुदाय तीन प्रकार के होते हैं।

प्रश्न 9. पूर्ण सत्ताधारी समुदाय किसे कहते हैं ?
उत्तर-राज्य को पूर्ण सत्ताधारी समुदाय कहते हैं।

प्रश्न 10. ग्राम सभा, ग्राम पंचायत, जिला परिषद् तथा नगर-निगम किस प्रकार के समुदाय हैं ?
उत्तर-ये सभी अर्धसत्ता प्राप्त समुदाय कहलाते हैं।

प्रश्न 11. भू-क्षेत्र के आधार पर समुदाय कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-भू-क्षेत्र के आधार पर समुदाय चार प्रकार के होते हैं।

प्रश्न 12. नगर एवं गांव किस प्रकार के समुदाय हैं ?
उत्तर-नगर एवं गांव स्थानीय प्रकार के समुदाय हैं।

प्रश्न 13. शिरोमणि अकाली दल किस प्रकार का संघ है ?
उत्तर-शिरोमणि अकाली दल प्रादेशिक समुदाय है।

प्रश्न 14. कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी किस प्रकार के समुदाय हैं ?
उत्तर-कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय समुदाय हैं।

प्रश्न 15. संयुक्त राष्ट्र एवं यूनेस्को किस प्रकार के संघ हैं?
उत्तर-संयुक्त राष्ट्र एवं यूनेस्को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय हैं।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य की सदस्यता ………….. है, जबकि समुदाय की ऐच्छिक है।
2. …………. के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक है, समुदाय के लिए नहीं।
3. राज्य का उद्देश्य व्यापक होता है, जबकि ………….. का उद्देश्य सीमित होता है।
4. ………….. के पास प्रभुसत्ता है, समुदाय के पास नहीं है।
5. राज्य ……….. होता है, जबकि समुदाय अस्थायी होता है।
उत्तर-

  1. अनिवार्य
  2. राज्य
  3. समुदाय
  4. राज्य
  5. स्थायी ।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. फ्रांस का बादशाह लुई 14वां कहा करता था, कि “मैं ही राज्य हूँ”।
2. राज्य सरकार का अंग है।
3. राज्य व्यापक है, सरकार संकुचित है।
4. राज्य सरकार की एजेन्ट है।
5. राज्य अमूर्त है तथा सरकार मूर्त है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य और सरकार-
(क) दो अलग-अलग धारणाएं हैं
(ख) एक ही धारणा है
(ग) दोनों समान हैं
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(क)।

प्रश्न 2.
सरकार के कितने अंग होते हैं ?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार।
उत्तर-
(ग)।

प्रश्न 3.
एक राज्य के लिए आवश्यक है-
(क) संसदीय
(ख) राजतन्त्रीय
(ग) अध्यक्षात्मक
(घ) कोई भी सरकार।
उत्तर-
(घ)।

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प्रश्न 4.
भारत में कैसी सरकार है ?
(क) संसदीय
(ख) अध्यक्षात्मक
(ग) राजतन्त्रीय
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(क)।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में केन्द्र और राज्यों के बीच प्रशासकीय, वैधानिक और वित्तीय सम्बन्धों की विवचेना कीजिए।
(Discuss the administrative, legislative and financial relations between the union and the states.)
उत्तर-
केन्द्र राज्य सम्बन्धों का वर्णन हमें भारतीय संविधान के भाग XI की 19 धाराओं (Art 245-263) में मिलता है। इसके अतिरिक्त संविधान के अनेक अनुच्छेद इस प्रकार के हैं जोकि संघ राज्यों के सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं। उदाहरणस्वरूप, संकटकालीन व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेद, वे अनुच्छेद जो राज्यसभा की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, एकीकृत न्याय व्यवस्था, एक ही निर्वाचन आयोग की व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेद इत्यादि। अध्ययन की सुविधा के लिए केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-वैधानिक, प्रशासकीय तथा वित्तीय।
नोट-वैधानिक, प्रशासकीय और वित्तीय सम्बन्धों के लिए प्रश्न नं० 2, 4 और 5 देखें।

प्रश्न 2.
कानून निर्माण सम्बन्धी शक्तियों का केन्द्र तथा राज्य की सरकारों के बीच किस प्रकार बंटवारा किया गया है ?
(How have the legislative powers been distributed between the centre and the states.)
अथवा भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का वर्णन करो।
(Discuss the legislative relations between the centre and states in Indian Constitution.)
उत्तर-
संघ व राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है, जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची व समवर्ती सूची कहा जाता है।

1. संघ सूची (Union List)-संघ-सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल संसद् को है। इन विषयों में प्रतिरक्षा (Defence); विदेशी सम्बन्ध (Foreign Relations), युद्ध और शान्ति (War and Peace), यातायात तथा संचार, रेलवे, डाक व तार, नोट तथा मुद्रा, बीमा, बैंक, विदेशी व्यापार, जहाज़रानी, वायुसेना (Civil Aviation) आदि राष्ट्रीय महत्त्व के विषय जो सारे देश के नागरिकों से समान रूप में सम्बन्धित हैं। इन विषयों पर बने कानून सब राज्यों और सब नागरिकों पर बराबर रूप से लागू होते हैं।

2. राज्य सूची (State List)-राज्य-सूची में 66 विषय हैं और उन पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों को है । इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस व जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर कर आदि महत्त्वपूर्ण विषय आते हैं ।

3. समवर्ती सूची (Concurrent List)-इस सूची में 47 विषय हैं । इस सूची में विवाह, विवाह-विच्छेद, दण्ड विधि (Criminal Law), दीवानी कानून (Civil Procedure), न्याय (Trust) समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा छापाखानों, बिजली, मिलावट, आर्थिक तथा सामाजिक योजना, कारखाने आदि हैं । इस पर कानून बनाने का अधिकार संघ तथा राज्य दोनों को प्राप्त है । यदि एक ही विषय पर केन्द्र तथा राज्य द्वारा निर्मित कानून परस्पर विरोधी हो तो ऐसी स्थिति में संघीय कानून को प्राथमिकता मिलती है और राज्य सरकार का कानून उस सीमा तक रद्द हो जाता है जिस सीमा तक राज्य का कानून संघीय कानून का विरोध करता है ।।

संघ सरकार अधिक शक्तिशाली है (Union Govt. is more Powerful)-शक्तियों के विभाजन से स्पष्ट है कि संघ सरकार राज्य सरकारों से अधिक शक्तिशाली है जबकि राज्य सरकार संघ की शक्तियों को प्रयुक्त नहीं कर सकती।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

1. अवशिष्ट शक्तियां (Residuary Powers)-अनुच्छेद 248 के अनुसार उन सब विषयों को जिनका वर्णन समवर्ती सूची और राज्य सूची में नहीं आया उन्हें अवशिष्ट शक्तियां माना गया है । इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को है । संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्जरलैंड में अवशिष्ट शक्तियां राज्यों को दी गई हैं।
2. संघ सरकार को राज्य सूची पर अधिकार (Power of the Union on the State List)-निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् विधानमण्डलों के वैधानिक अधिकारों का अपहरण कर सकती है-

  • राज्यसभा के प्रस्ताव पर (At the resolution of Rajya Sabha)-अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा में उपस्थित तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्य दो-तिहाई बहुमत से किसी प्रस्ताव को पास कर दें या घोषित करें कि राज्यसूची में दिए गए किसी विषय पर संसद् द्वारा कानून बनाना राष्ट्रीय हित में होगा तो संसद् उस विषय पर सारे भारत या किसी विशेष राज्य के लिए कानून बना सकेगी ।
  • युद्ध, बाहरी आक्रमण व सशस्त्र विद्रोह के कारण उत्पन्न हुए संकट के समय-यदि युद्ध अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण आपातकाल की घोषणा की गई तो संसद् राज्य सूची के किसी भी विषय पर सारे देश या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है और कानून संकट की घोषणा समाप्त हो जाने के 6 महीने बाद तक लागू रह सकता
  • राज्यों में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने पर-संविधान की धारा 356 के अन्तर्गत जब किसी राज्य में संवैधानिक यन्त्र (Machinery) के फेल होने पर वहां का शासन राष्ट्रपति अपने हाथ मे ले ले, तो संसद् को यह अधिकार है कि वह राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाए । यह कानून केवल संकटकाल वाले राज्य में ही लागू होगा । संसद् की इच्छा हो तो वैधानिक शक्ति राष्ट्रपति को दे दे ।
  • दो या दो से अधिक राज्यों की प्रार्थना पर-अनुच्छेद 252 के अनुसार जब दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल संसद् से राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करे तो संसद् इस मामले पर कानून बना सकेगी । परन्तु ऐसा कानून प्रार्थना करने वाले राज्यों पर ही लागू होगा ।
  • अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों और सम्मेलनों के निर्णयों को लागू करने के लिए-यदि संघीय सरकार ने विदेशी सरकार से कोई सन्धि कर ली हो, तो संसद् उसको व्यावहारिक रूप देने के लिए किसी प्रकार का भी कानून बना सकती है, भले ही वह विषय राज्य सूची में ही क्यों न हो ।
  • कुछ विशेष प्रकार के बिलों के लिए राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक है-राज्यपाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखने की शक्ति रखता है । राष्ट्रपति ऐसे बिलों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है ।
  • बिल पेश करने से पूर्व स्वीकृति-राज्य विधानमण्डल में पेश करने से पहले कुछ बिलों के लिए पूर्व स्वीकृति की ज़रूरत होती है ।
  • राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने और नए राज्य स्थापित करने का अधिकार-किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना, पुराने राज्य को समाप्त करना, नए राज्यों की स्थापना करना तथा उसका नाम बदलना भी संसद् की शक्तियां हैं । संसद् यह सब कार्य साधारण बहुमत से करती है ।
  • राज्य में विधानपरिषद् स्थापित व समाप्त करने का अन्तिम अधिकार- यदि राज्य की विधानसभा अपने राज्य में विधानपरिषद् की स्थापना करने अथवा समाप्त करने के लिए प्रस्ताव पास करके उसे संसद् के पास भेजे तो संसद् कानून पास करके उस राज्य में विधानपरिषद् स्थापित या समाप्त कर सकती है ।
  • संघीय सूची में कुछ प्रकार के विषयों का वर्णन किया गया है जिनके द्वारा संघ सरकार राज्य सरकारों पर नियन्त्रण रख सकती है । इस सम्बन्ध में दो विषयों का उल्लेख किया जा सकता है-चुनाव तथा लेखों की जांच । राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी संसद् के नियन्त्रण में रखे गए हैं । इसके अतिरिक्त राज्य के लेखों की जांच भी केन्द्र का विषय है ।

वैधानिक सम्बन्धों की आलोचना (Criticism of Legislative Relations) संघ और राज्यों में वैधानिक सम्बन्धों की आलोचनात्मक समीक्षा से स्पष्ट पता चलता है कि केन्द्र अधिक शक्तिशाली है और वह अपनी विशिष्ट कानूनी सर्वोच्चता के माध्यम से राज्यों पर अपनी इच्छा थोप सकता है। संघीय सूची में सभी महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित किए गए हैं और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने के मामले मे केन्द्र को ही सर्वोच्चता दी गई है । राज्य विधानमण्डलों का अधिकार क्षेत्र बहुत ही सीमित है । के० वी० राव (K.V. Rao) ने ठीक ही कहा है कि राज्य सूची पर एक नज़र डालने से पता चल जाएगा कि ये विषय कितने महत्त्वहीन और कितने अस्पष्ट हैं।

राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किए गए कानूनों पर राष्ट्रपति के निषेधाधिकार (Veto Power) को आशंका की भावना से देखा जाता है । उदाहरण के लिए जिस प्रकार केन्द्र ने 1958 में केरल शिक्षा अधिनियम (Kerala Education Bill) के सम्बन्ध में कार्यवाही की, उससे स्पष्ट हो जाता है कि राज्य की वैधानिक शक्तियां केन्द्र की दया-दृष्टि पर निर्भर करती हैं । कई व्यावहारिक मामलों के आधार पर एस० एन० जैन (S. N. Jain) और एलिस जैकब (Alice Jacob) के अनुसार कहा जा सकता है कि “केन्द्र ने अपनी स्वीकृति देते हुए राज्यों पर नीतियों को थोपने की कोशिश की है। हालांकि वास्तव में बहुत ही कम स्थितियों में इस प्रकार की स्वीकृति दी गई है।”

प्रश्न 3.
संघ सरकार और राज्य सरकारों के बीच प्रशासनिक सम्बन्धों का वर्णन करें ।
(Describe the administrative relations between the union and the states.
उत्तर-
संघात्मक सरकार तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्ध बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। विभिन्न सरकारों के बीच सहयोग और समन्वय, इस सम्बन्ध का मूल सिद्धान्त है। डी० डी० बसु (D.D. Basu) के शब्दों में, “संघ सरकार की सफलता और दृढ़ता सरकार के बीच अधिकाधिक सहयोग तथा समन्वय पर निर्भर करती है ।” भारतीय संविधान निर्माता इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे। अत: उन्होंने इस सम्बन्ध में अनेक अनुच्छेदों की व्यवस्था की है।

संघीय सूची का प्रशासन संघ के अधीन जबकि राज्य सूची व समवर्ती सूची का प्रशासन राज्य सरकारों के अधीन-संघ का प्रशासन विषयक अधिकार उन सभी विषयों पर लागू होता है जो संघ सूची में दिए गए हैं। राज्यों के प्रशासनिक विषय के अधिकार क्षेत्र में न केवल वे ही विषय आते हैं जो राज्य सूची में दिए गए हैं बल्कि वे विषय भी आते हैं जो समवर्ती सूची में दिए गए हैं। संसद् समवर्ती सूची में दिए विषयों पर कानून तो बना सकती है, पर उन कानूनों को लागू करना राज्य का कार्य है।

संघीय सरकार अधिक शक्तिशाली-संघीय कार्यपालिका राज्य की कार्यपालिकाओं पर निम्नलिखित ढंग से प्रभाव डाल सकती है-

1. राज्यपाल की नियुक्ति-राज्य के मुखिया की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है । राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है । राष्ट्रपति ही राज्यपाल को पद से हटा सकता है। राज्य का संवैधानिक मुखिया होने के बावजूद भी राज्यपाल केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि है।
2. राज्यों को निर्देश देने का अधिकार-भारतीय संविधान की धारा 257 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी राज्य सरकार को आवश्यकतानुसार निर्देश दे सकता है। तीन उदाहरण निम्नलिखित दिए गए हैं-

(क) यह निश्चित करने के लिए कि कोई राज्य सरकार अपने प्रशासन विषयक अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार करेगी की उससे केन्द्रीय सरकार के प्रशासन विषयक अधिकारों के मार्ग में रुकावट न हो, राष्ट्रपति राज्य सरकार को आवश्यक निर्देश दे सकता है।
(ख) राष्ट्रपति राज्य सरकारों को ऐसे संवहन और संचार साधनों के निर्माण और उसकी देखभाल के निर्देश दे सकता है जिन्हें राष्ट्रीय अथवा सैनिक महत्त्व का घोषित कर दिया जाए।
(ग) राष्ट्रपति किसी भी राज्य को निर्देश दे सकता है कि अपने राज्य की सीमा के अन्दर रेलों और जलमार्गों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी कार्यवाही करे । ध्यान रहे,(ख) तथा (ग) में दिए निर्देशों का पालन करने में राज्यों को जो अतिरिक्त व्यय करना पड़े वह व्यय केन्द्रीय सरकार देगी।

3. केन्द्रीय सुरक्षा पुलिस-यदि केन्द्रीय सरकार किसी राज्य में शान्ति भंग होने का खतरा अनुभव करे तो वह उस राज्य में केन्द्रीय सम्पत्ति की रक्षा हेतु केन्द्रीय सुरक्षा पुलिस भेज सकती है। 4. संकटकालीन घोषणा-जब राष्ट्रपति बाहरी आक्रमण, युद्ध या सशस्त्र विद्रोह के कारण संकटकालीन अवस्था की घोषणा करे, तो वह राज्यों को अपनी कार्यपालिका शक्ति को विशेष ढंग से इस्तेमाल करने का आदेश दे सकता है।
5. राज्य में राष्ट्रपति का शासन-यदि केन्द्रीय सरकार द्वारा दिए गए आदेश का पालन कोई राज्य सरकार न करे या राज्य की सरकार संविधान की धाराओं के अनुसार न चले तो संविधान की धारा 356 के अनुसार राष्ट्रपति राज्य सरकार को विघटित करके राज्य के प्रशासन को अपने हाथ में ले सकता है।
6. राज्य के उच्च अधिकारी अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी-राज्य के उच्च पदों पर अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी, जिनको केन्द्रीय सरकार नियुक्त करती है, कार्य करते हैं।
7. चुनाव आयोग-राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त निर्वाचन आयोग, संघ तथा राज्यों के निर्वाचन पर नियन्त्रण रखता है।
8. महालेखा परीक्षक-केन्द्र तथा राज्य सरकारों के हिसाब-किताब के निरीक्षण तथा नियन्त्रण के लिए राष्ट्रपति नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General) को नियुक्त करता है।
9. अन्तर्राज्यीय नदियों के विवादों को हल करना-ऐसी नदियों के सम्बन्ध में जो एक से अधिक राज्यों में से होकर गुज़रती है, सभी झगड़ों को निपटने और उनके सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार संसद् को है। ऐसे किसी झगड़े में उसे अधिकार है कि वह कानून बनाकर मामले को न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र (सर्वोच्च न्यायालय) से बाहर घोषित कर दे।
10. राज्य की सरकारों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन-संघीय सरकार भारत के सारे राज्यों में शासन सम्बन्धी एकरूपता स्थापित करने के लिए राज्य की सरकारों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन बुला सकती है तथा उनको कुछ सिफ़ारिशें भी कर सकती है।
11. अन्तर्राज्यीय परिषद्-राज्यों के आपसी झगड़े निपटाने के लिए राष्ट्रपति अन्तर्राज्यीय परिषद् बना सकता है। अन्तर्राज्यीय परिषद् (Inter-State Council) के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • राज्यों में आपसी झगड़ों की छानबीन करके उसके सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार को रिपोर्ट देना।
  • संघ तथा राज्यों के सामूहिक हितों पर विचार करना।
  • संघीय सरकार द्वारा अन्तर्राज्य सम्बन्धी पूछे गये विषयों पर सलाह देना।

12. राष्ट्रपति अनुसूचित, आदिम जातियों तथा पिछड़ी जातियों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए राज्यों को आवश्यक आदेश भी दे सकता है।
13. राज्यपाल की प्रार्थना पर और राष्ट्रपति की स्वीकृति से संघीय लोक सेवा आयोग राज्य की किसी ज़रूरत के लिए कार्य कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)—वैधानिक क्षेत्र की तरह प्रशासनिक क्षेत्र में भी केन्द्रीय सरकार की स्थिति अत्यधिक प्रभावशाली है। राज्यपाल संवैधानिक मुखिया होने के बावजूद भी केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि होता है। केन्द्रीय सरकार अनुच्छेद 356 का प्रयोग करके विरोधी दलों की सरकारों को अपदस्थ करके राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 4.
संघ और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों की व्याख्या करें।
(Discuss the financial relations between the Union and States in India.)
उत्तर-
डी० डी० बसु का कहना है कि, “कोई भी संघ राज्य सफल नहीं हो सकता जब तक कि संविधान द्वारा प्रदत्त उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए संघ तथा राज्यों के पास पर्याप्त आर्थिक साधन न हों।” परन्तु वित्तीय स्वायत्तता के इस सिद्धान्त को भी पूर्णतः अपनाया नहीं गया है। कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया में इकाइयों की आय के साधन इतने अपर्याप्त हैं कि केन्द्रीय सहायता के बिना उनका काम नहीं चल सकता। दूसरी ओर स्विट्ज़रलैंड में संघ सरकार को आर्थिक सहायता के लिए राज्य सरकारों पर आश्रित रहना पड़ता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में संघ तथा राज्य सरकार को पूर्ण वित्तीय स्वायत्तता प्रदान करने की कोशिश की गई है। भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के आय के साधनों का विभाजन कानून बनाने की शक्तियों के साथ कर दिया गया है।

1. कर निर्धारण की शक्ति का वितरण और करों से प्राप्त आय का विभाजन-भारतीय संविधान में वित्तीय धाराओं की. दो विशेषतायें हैं- एक तो संघ व राज्यों के मध्य कर निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है और दूसरे करों से प्राप्त आय का विभाजन किया गया है
संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार केन्द्र तथा राज्यों में राजस्व का विभाजन निम्नलिखित ढंग से किया गया-
(क)संघीय सरकार की आय के साधन-संघीय सरकार को आय के अलग साधन प्राप्त हैं। इन साधनों में कृषि आय को छोड़ कर आय-कर, सीमा शुल्क, उत्पादन शुल्क, निगम कर, कृषि भूमि को छोड़ कर अन्य सम्पत्ति शुल्क, निर्यात शुल्क, व्यावसायिक उद्यमों पर कर आदि प्रमुख हैं।।
(ख) राज्यों की आय के साधन-राज्यों की आय के साधन अलग कर दिए गए हैं। उनमें भू-राजस्व, कृषि, आय-कर, कृषि भूमि कर, उत्तराधिकार शुल्क, सम्पत्ति शुल्क, उत्पादन कर, बिक्री-कर, यात्री-कर, मनोरंजन-कर, मुद्रांक शुल्क (Stamp duty), पशु कर, बिजली खपत आदि मुख्य हैं।

2. करों की वसूली व उनके बंटवारे की व्यवस्था-संघीय सूची में करों की आय को केन्द्र तथा राज्यों में विभाजित किया गया है। इनको चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है

  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए गए तथा इकट्ठे किए जाते हैं, परन्तु उनका विभाजन केन्द्र तथा राज्यों में किया जाता है, जैसे आय-कर (Income Tax) ।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं, केन्द्र द्वारा एकत्र किए जाते हैं और इनकी पूर्ण आय केन्द्र के पास रहती है। जैसा आयात-निर्यात कर (Custom Duty), आयकर तथा अन्य करों पर सरचार्ज।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं पर राज्यों द्वारा एकत्र और व्यय होते हैं जैसे स्टाम्प शुल्क (Stamp Duty), दवाइयों तथा मद्य-पदार्थों तथा श्रृंगार प्रसाधन वाली वस्तुओं पर उत्पादन शुल्क आदि।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए तथा इकट्ठे किए जाते हैं परन्तु राज्यों में बांट दिए जाते हैं। कृषि भूमि के अतिरिक्त सम्पत्ति उत्तराधिकार पर शुल्क, कृषि भूमि के अतिरिक्त सम्पत्ति पर भू-सम्पत्ति शुल्क, रेल, वायु तथा समुद्री जहाज़ द्वारा लाए गए यात्रियों तथा माल पर कर, रेल के किरायों तथा माल भाड़ों पर कर आदि।

3. अनुदान (Grants in aid)—संविधान द्वारा यह भी व्यवस्था है कि केन्द्रीय सरकार राज्यों को सहायक अनुदान दे। यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है जिसके द्वारा संघ राज्यों पर नियन्त्रण रख सकता है।
संघीय सरकार ही अनुदान की राशि और अनुदान की शर्तों को नियत करती है जिसके अनुसार राज्य सरकारें इन अनुदानों का प्रयोग कर सकती हैं।

4. ऋण (Borrowing)-संविधान में यह लिखा है कि राज्य सरकार अपने राज्य विधानमण्डलों द्वारा बनाए गए नियमों के अन्तर्गत अपनी संचित निधि की जमानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है। ध्यान रहे, राज्य किसी दूसरे देश से ऋण नहीं ले सकता। संघीय सरकार भी अपनी संचित निधि की जमानत पर संसद् की आज्ञानुसार ऋण ले सकती है।

5. वित्तीय आयोग (Finance Commission)-संविधान द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और उसमें चार अन्य सदस्य होंगे। हर पांच साल के बाद एक नया वित्त आयोग स्थापित किया जाएगा। संसद् इस आयोग के लिए योग्यताएं और उसकी नियुक्ति का तरीका निश्चित करेगी। वित्त आयोग का मुख्य कार्य केन्द्र और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों को सुधारने के लिए सलाह देना है।

6. करों की विमुक्ति (Exemption from Taxation) अनुच्छेद 285 के अनुसार जब तक संसद् विधि द्वारा कोई प्रतिबन्ध न लगा दे, राज्यों द्वारा संघ की सम्पत्ति पर कर नहीं लगाया जा सकता। भारत सरकार की रेलवे द्वारा प्रयोग में आने वाली बिजली पर संसद् की अनुमति के अभाव में राज्य किसी प्रकार का शुल्क नहीं लगा सकता। दूसरी ओर संघ सरकार राज्य की सम्पत्ति और आय पर कर लगा सकती है।

7. वित्तीय आपात्कालीन शक्तियां (Financial Emergency Powers)-अनुच्छेद 360 राष्ट्रपति को वित्तीय आपात्कालीन शक्तियां प्रदान करता है। वित्तीय आपात्काल की घोषणा होने पर राज्यों की आय सीमा उन्हीं करों तक सीमित रहती है जो राज्य सूची में उल्लिखित हैं। वित्तीय आपात्काल में राष्ट्रपति संविधान के किसी भी ऐसे अनुच्छेद को निलम्बित कर सकता है जिसका सम्बन्ध या तो अनुदानों से हो या संघ के करों की आय के भाग को बांटने से हो।

8. भारत के नियन्त्रण एवं महालेखा परीक्षक द्वारा नियन्त्रण-नियन्त्रण एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति मन्त्रिमण्डल के परामर्श से राष्ट्रपति करता है। यह संघीय सरकार तथा राज्य सरकारों के हिसाब का लेखा रखने के ढंग और उनकी निष्पक्ष रूप से जांच करता है। संसद् नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के द्वारा ही राज्यों की आय पर नियन्त्रण रखती है।
वित्तीय सम्बन्धों की आलोचना (Criticism of Financial Relations)-वित्तीय क्षेत्र में भी राज्यों की स्थिति काफ़ी शोचनीय है। राज्यों के आय के साधन इतने सीमित हैं कि राज्य अपनी विकासशील नीतियों को बिना केन्द्रीय सहायता के लागू नहीं कर पाते। अत: राज्यों को केन्द्र पर वित्तीय सहायता के लिए निर्भर रहना पड़ता है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission), केन्द्रीय कल्याण बोर्ड (Central Welfare Board) और योजना आयोग राज्यों को सशर्त अनुदान केन्द्र के अभाव में अधिक प्रभावशाली बनाते हैं। वित्त कमीशन की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्यों को इस सम्बन्ध में कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। राष्ट्रपति वित्तीय संकट को घोषित करके राज्यों के वित्तीय प्रबन्ध को अपने हाथ में ले सकता है। केन्द्र विरोधी दलों की सरकारों को अनुदान देने में मतभेद की नीति का अनुसरण करता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघ और राज्यों के बीच वैधानिक शक्तियों का विभाजन कितनी सूचियों में किया गया है ? वर्णन करें।
उत्तर-
संघ और राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची कहा जाता है।

(क) संघ सूची-संघ सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है। इन विषयों में युद्ध और शान्ति, डाक-तार, प्रतिरक्षा, नोट और मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित हैं।
(ख) राज्य सूची-राज्य सूची में 66 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों के पास है। इस सूची में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और जेल, स्थानीय सरकार, सड़कें, पुल इत्यादि विषय शामिल
(ग) समवर्ती सूची-इस सूची में 47 विषय हैं। इस सूची में न्याय, समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा छापाखाना, बिजली इत्यादि विषय सम्मिलित हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र तथा राज्यों को प्राप्त है।

प्रश्न 2.
राज्य सूची से आप क्या समझते हैं ? इस सूची के प्रमुख विषय कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-
वह सूची, जिसके विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों के पास है, राज्य सूची कहलाती है। राज्य सूची में कुल 66 विषय हैं। इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस तथा जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें, पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर टैक्स इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश है।

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प्रश्न 3.
केन्द्र, राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार करता है ?
उत्तर-
राज्य सरकारों के साधन इतने पर्याप्त नहीं हैं कि केन्द्रीय सरकार की सहायता के बिना उनका कार्य सुचारू रूप से चल सके। अतः राज्यों को अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए केन्द्रीय सरकार की आर्थिक सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। केन्द्रीय सरकार, राज्य की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति निम्न ढंग से करती है

  • करों की वसूली तथा उनके बंटवारे की व्यवस्था-संघीय सूची के विषयों पर लगाए गए करों की आय को केन्द्र तथा राज्यों में विभाजित किया गया है।
  • अनुदान राज्यों की आय के पर्याप्त साधन न होने के कारण उन्हें संघीय सरकार द्वारा दी गई आर्थिक सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। संघीय सरकार प्रत्येक वर्ष राज्यों को सहायक अनुदान देकर उनकी वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
  • ऋण-राज्य सरकार अपने राज्य विधानमण्डलों द्वारा बनाए गए नियमों के अन्तर्गत अपनी संचित निधि की ज़मानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची से आप क्या समझते हैं ? इस सूची में कौन-कौन से प्रमुख विषय आते हैं ?
उत्तर-
समवर्ती सूची में ऐसे विषय सम्मिलित किए गए हैं, जिन पर संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों ही कानून बना सकते हैं। यदि राज्य विधानमण्डल और संसद् द्वारा समवर्ती सूची पर बनाए गए कानून में मतभेद हो तो संसद् के कानून को प्राथमिकता दी जाती है और राज्य का कानून उस सीमा तक रद्द हो जाता है जिस सीमा तक राज्य का कानून संघीय कानून का विरोध करता है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। इसके अन्तर्गत विवाह, विवाह-विच्छेद, दण्ड विधि, दीवानी कानून, न्याय, समाचार-पत्र, पुस्तकें और छापाखाना, सामाजिक सुरक्षा आदि विषय आते हैं।

प्रश्न 5.
संसद् राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कब कानून बना सकती है ?
उत्तर-
निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कानून बना सकती है-

  • यदि राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित कर दे तो संसद् उस विषय पर कानून बना सकती है।
  • संकटकाल की घोषणा के दौरान संसद् राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बना सकती है।
  • दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डलों की प्रार्थना पर संसद् उन राज्यों के लिए कानून बना सकती है।
  • जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तब उस राज्य के लिए संसद् राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

प्रश्न 6.
वित्त आयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और इसमें चार अन्य सदस्य होंगे। हर पांच साल के बाद एक नया वित्त आयोग स्थापित किया जाएगा। संसद् इस आयोग के लिए योग्यताएं और उसकी नियुक्ति का तरीका निश्चित करेगी। 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वां वित्त आयोग नियुक्त किया गया।

वित्त आयोग निम्नलिखित बातों के बारे में सलाह देता है-

  • केन्द्र और राज्यों में राजस्व का विभाजन।
  • केन्द्र और राज्यों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर राज्य सरकारों को दिए जाने वाले अनुदान की मात्रा का सुझाव देता है।
  • यह केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों के बीच किए गए किसी समझौते को तथा उसमें परिवर्तन करने के लिए भी राष्ट्रपति को सिफ़ारिश कर सकता है।
  • अन्य जो भी मामले राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग को सौंपे जाएंगे उन सब की जांच-पड़ताल करना।

प्रश्न 7.
सरकारिया आयोग की मुख्य सिफ़ारिशें कौन-सी हैं ?
उत्तर-
केन्द्र व राज्यों के सम्बन्धों पर विचार करने के लिए 1983 में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने सरकारिया आयोग की स्थापना की। सरकारिया आयोग ने अक्तूबर, 1987 में अपनी रिपोर्ट पेश की और रिपोर्ट में अग्रलिखित सिफ़ारिशें की-

  • सरकारिया आयोग ने केन्द्र व राज्यों के विवादों को हल करने के लिए अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना स्थायी तौर से करने की सिफ़ारिश की।
  • राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व उस राज्य के मुख्यमन्त्री की सलाह लेनी चाहिए।
  • समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाने से पूर्व केन्द्र को राज्यों की सलाह लेनी चाहिए।
  • आयोग ने राज्यों की सरकारों के वित्तीय साधन में वृद्धि करने पर बल दिया।

प्रश्न 8.
अन्तर्राज्यीय परिषद् पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रपति को सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए एक अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना करने का अधिकार है। राष्ट्रपति इस परिषद् द्वारा किए जाने वाले कार्यों और संगठन की प्रक्रिया को निश्चित कर सकता है। इस परिषद् के कार्य इस प्रकार हैं-

  • राज्यों के मध्य पैदा होने वाले विवादों की जांच-पड़ताल करना और उन्हें हल करने के बारे में सलाह देना।
  • उन विषयों की जांच-पड़ताल करना जो कुछ या सभी राज्यों या संघ और एक या एक से अधिक राज्यों के सामूहिक हितों में हों।
  • सामूहिक हित के विषय के बारे में खासतौर पर उन विषयों के बारे में नीति और कार्यवाही के अच्छे तालमेल के लिए सिफ़ारिश करना।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघ और राज्यों के बीच वैधानिक शक्तियों का विभाजन कितनी सूचियों में किया गया है ? वर्णन करें।
उत्तर-
संघ और राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची कहा जाता है।

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प्रश्न 2.
संघ सूची पर नोट लिखें।
उत्तर-
संघ सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है। इन विषयों में युद्ध और शान्ति, डाक-तार, प्रतिरक्षा, नोट और मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित हैं।

प्रश्न 3.
राज्य सूची से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
वह सूची, जिसके विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों के पास है, राज्य सूची कहलाती है। राज्य सूची में कुल 66 विषय हैं। इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस तथा जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें, पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर टैक्स इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश है।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समवर्ती सूची में ऐसे विषय सम्मिलित किए गए हैं, जिन पर संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों ही कानून बना सकते हैं। यदि राज्य विधानमण्डल और संसद् द्वारा समवर्ती सूची पर बनाए गए कानून में मतभेद हो तो संसद् के कानून को प्राथमिकता दी जाती है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं।

प्रश्न 5.
वित्त आयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और इसमें चार अन्य सदस्य होंगे। 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वां वित्त आयोग नियुक्त किया गया।

प्रश्न 6.
सरकारिया आयोग की दो मुख्य सिफ़ारिशें कौन-सी हैं ?
उत्तर-

  • सरकारिया आयोग ने केन्द्र व राज्यों के विवादों को हल करने के लिए अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना स्थायी तौर से करने की सिफारिश की।
  • राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व उस राज्य के मुख्यमन्त्री की सलाह लेनी चाहिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. केन्द्र व राज्यों के बीच एक वैधानिक सम्बन्ध बताएं।
उत्तर- केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है।

प्रश्न 2. राज्य में राष्ट्रपति शासन किस अनुच्छेद के अन्तर्गत लगाया जाता है ?
उत्तर-अनुच्छेद 356 के अनुसार।

प्रश्न 3. संघीय सरकार की आय के कोई दो साधन बताएं।
उत्तर-

  1. सीमा शुल्क
  2. उत्पाद शुल्क।

प्रश्न 4. राज्यों की आय के कोई दो साधन बताएं।
उत्तर-

  1. भू-राजस्व
  2. उत्पादन कर।

प्रश्न 5. सरकारिया आयोग का सम्बन्ध किससे है ?
उत्तर-केन्द्र-राज्य सम्बन्ध।

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प्रश्न 6. किन्हीं दो देशों के नाम लिखो जहां पर अवशेष शक्तियां राज्यों के पास हैं?
उत्तर-

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका
  2. स्विट्जरलैंड।

प्रश्न 7. किसी एक परिस्थिति का वर्णन करें जब केन्द्र राज्य सूची पर भी कानून बना सकता है?
उत्तर-राज्य सभा दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करके राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके कानून बनाने की शक्ति संसद् को दे सकती है।

प्रश्न 8. 30 अप्रैल, 1977 को जनता सरकार ने जिन राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने का निर्णय किया उनमें से किन्हीं दो राज्यों का नाम लिखें।
उत्तर-

  1. पंजाब
  2. हरियाणा।

प्रश्न 9. केन्द्र और प्रान्तों के बीच एक वित्तीय सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-केन्द्र प्रान्तों को अनुदान देता है।

प्रश्न 10. संघ सूची में कितने विषय हैं ?
उत्तर-97 विषय।

प्रश्न 11. राज्य सूची में कितने विषय हैं ?
उत्तर-राज्य सूची में 66 विषय हैं।

प्रश्न 12. समवर्ती सूची के विषयों की संख्या बताओ।
उत्तर-समवर्ती सूची में 47 विषय हैं।

प्रश्न 13. संघ सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर-संघ सूची पर केन्द्र सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 14. राज्य सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर-राज्य सूची पर राज्य सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 15. संघ तथा राज्य सूची का एक-एक विषय लिखो।
उत्तर-मुद्रा व रेलवे संघ सूची के विषय हैं जबकि पुलिस व सड़क परिवहन राज्य सूची के विषय हैं।

प्रश्न 16. समवर्ती सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार किसके पास है?
उत्तर-संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों के पास है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित कुछ बिलों पर ………… की अनुमति आवश्यक है।
2. अनुच्छेद ……… के अनुसार राष्ट्रपति राज्य सरकार को आवश्यकतानुसार निर्देश दे सकता है।
3. संविधान के अनुच्छेद ………. के अनुसार राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है।
4. नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति ………… के परामर्श से राष्ट्रपति करता है।
5. राज्य सरकार अपने राज्य विधान मण्डल द्वारा दिये गए नियमों के अन्तर्गत अपनी ……….. की जमानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है।
उत्तर-

  1. राष्ट्रपति
  2. 257
  3. 280
  4. मन्त्रिमण्डल
  5. संचित निधि।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत में संघ एवं राज्यों में कोई सम्बन्ध नहीं पाया जाता।
2. केन्द्र एवं राज्यों के सम्बन्धों का वर्णन भारतीय संविधान के भाग XI की 19 धाराओं (अनुच्छेद 245-263) में मिलता है।
3. संघ सूची पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकार को ही है।
4. राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकार को ही है।
5. राज्यपाल की नियुक्ति मुख्यमंत्री करता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघीय सूची में कितने विषय हैं ?
(क) 66
(ख) 44
(ग) 97
(घ) 107
उत्तर-
(ग) 97

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से एक संघीय सूची का विषय है-
(क) सिंचाई
(ख) कानून-व्यवस्था
(ग) भू-राजस्व
(घ) प्रतिरक्षा।
उत्तर-
(घ) प्रतिरक्षा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 3.
यह किसने कहा था-“भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है पर भावना में एकात्मक है ?”
(क) डी० एन० बैनर्जी
(ख) दुर्गादास बसु
(ग) डॉ० अम्बेदकर
(घ) के० सी० व्हीयर।
उत्तर-
(क) डी० एन० बैनर्जी

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संघात्मक व्यवस्था की प्रकृति की व्याख्या करें। (Discuss the nature of Indian Federalism.)
अथवा
“भारतीय संविधान की प्रकृति संघीय है, परन्तु आत्मिक रूप से एकात्मक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
(“The Indian Constitution is federal in nature but unitary in spirit.” Examine the statement.)
उत्तर- भारतीय संविधान ने भारत में संघात्मक शासन-प्रणाली की व्यवस्था की है और भारतीय संघ को विश्व के संघात्मक संविधान में एक विशेष स्थान प्राप्त है। परन्तु भारतीय संविधान की किसी अन्य व्यवस्था की शायद ही इतनी आलोचना हुई हो जितनी कि संघीय व्यवस्था की हुई है। प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता है कि क्या भारत वास्तव में एक संघीय राज्य है ? क्योंकि भारत के संविधान में कई प्रकार के उपबन्ध तथा एकात्मक रुचियां देखकर यह सन्देह होने लगता है कि भारत एक संघीय राज्य नहीं है। भारतीय संविधान में संघात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। संविधान के अनुच्छेद एक में भारत को यूनियन ऑफ़ स्टेट्स (Union of States) कहा गया है।

प्रो० डी० एन० बैनर्जी ने इस विषय पर अपना विचार बताते हुए कहा कि “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है पर भावना में एकात्मक है।” (“It is federal in structure but unitary in spirit.”) श्री दुर्गादास बसु (D.D. Basu) का विचार है कि, “भारत का संविधान न तो पूर्ण रूप से एकात्मक है तथा न ही पूर्ण संघात्मक ; यह दोनों का मिश्रण है।”
स्पष्ट है कि विद्वानों ने भारतीय संघ के स्वरूप पर विभिन्न मत प्रकट किए हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि भारतीय संघ का स्वरूप संघात्मक है जिसमें सन्तुलन केन्द्र की ओर झुका हुआ है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की वे कौन-सी विशेषताएं हैं जिनके कारण यह एक संघात्मक संविधान बन गया है ?
(What are the major characteristics that make the Indian Constitution a Federal Constitution ?)
अथवा
भारत की संघात्मक प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
(Describe the major characteristics of Indian Federal System.)
अथवा
उन प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो जो भारतीय संविधान को संघात्मक स्वरूप प्रदान करती हैं।
(Describe the major characteristics that make the Indian Constitution federal.)
उत्तर-
यद्यपि भारत के संविधान में संघ (Federal) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, इसके बावजूद भी पो० एलेग्जेंडरा विक्स (Alexandra Wics) ने कहा है, “भारत निःसन्देह संघात्मक राज्य है जिसमें प्रभुसत्ता के तत्त्वों को केन्द्र और राज्यों में बांटा हुआ है।” पाल एपलबी (Paul Appleby) के मतानुसार, “भारत पूर्ण रूप में संघात्मक राज्य है।” (India is completely a federal state)। भारतीय संविधान में निम्नलिखित संघीय तत्त्व विद्यमान हैं-

1. शक्तियों का विभाजन (Division of Powers) हर संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची के 97 विषयों पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार है। राज्य सूची में मूल रूप से 66 विषय हैं। इन पर राज्यों को कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं । समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है।

अवशेष शक्तियां (Residuary Powers)-वे विषय जिनका वर्णन राज्य सूची और समवर्ती सूची में नहीं आया वे केन्द्रीय क्षेत्राधिकार में आ जाते हैं और इन विषयों पर केन्द्र कानून बना सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

2. लिखित संविधान (Written Constitution)—संघीय व्यवस्था का संविधान लिखित होता है ताकि केन्द्र और प्रान्तों की शक्तियों का वर्णन स्पष्ट रूप से किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं।

3. कठोर संविधान (Rigid Constitution)-संघीय व्यवस्था में संविधान का कठोर होना अति आवश्यक है। भारत का संविधान कठोर संविधान है चाहे यह इतना कठोर नहीं जितना कि अमेरिका का संविधान। संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संसद् दो तिहाई बहुमत से राज्यों के आधे विधानमण्डलों के समर्थन पर ही संशोधन कर सकती है।

4. संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution)-भारतीय संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता संविधान की सर्वोच्चता है। संविधान के अनुसार बनाए गए कानूनों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। कोई व्यक्ति, संस्था, सरकारी कर्मचारी या सरकार संविधान और संविधान के अन्तर्गत बनाए गए कानूनों के विरुद्ध नहीं चल सकता। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय किसी भी कानून को या कार्यपालिका के आदेश को अंसवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के विरुद्ध हों।

5. न्यायपालिका की सर्वोच्चता (Supremacy of the Judiciary)-भारतीय संघ की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता न्यायपालिका की सर्वोच्चता है। न्यायालय स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष है और इसे संघ व राज्यों के आपसी झगड़ों को निपटाने, संविधान की व्याख्या करने और संविधान की रक्षा हेतु कानूनों तथा आदेशों की संवैधानिकता परखने और उसके बारे में अपना निर्णय देने का अधिकार है। संघ और राज्यों का आपसी झगड़ा सीधा इसके पास आता है, किसी अन्य न्यायालय में नहीं ले जाया जा सकता। इसके द्वारा दी गई संविधान की व्याख्या सर्वोच्च तथा अन्तिम मानी जाती है।

6. द्विसदनीय व्यवस्थापिका (Bicameral Legislature)-संघात्मक शासन प्रणाली में विधानमण्डल का द्विसदनीय होना आवश्यक होता है। भारतीय संसद् के दो सदन हैं-लोकसभा और राज्यसभा। लोकसभा जनसंख्या के आधार पर समस्त देश का प्रतिनिधित्व करती है जबकि राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

7. दोहरी शासन प्रणाली (Dual Polity)-एक संघीय राज्य में दोहरी शासन प्रणाली होती है। संघ अनेक इकाइयों से निर्मित होता है। संघीय सरकार तथा राज्य सरकार दोनों संविधान की उपज हैं। जिस प्रकार केन्द्र में संसद्, राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व मन्त्रिमण्डल हैं, उसी प्रकार प्रत्येक राज्य में विधानमण्डल, गवर्नर, मुख्यमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल है। केन्द्र और राज्य सरकारों के वैधानिक, प्रशासनिक तथा वित्तीय सम्बन्ध संविधान द्वारा निर्धारित किए गए हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में वर्णित उन धाराओं का वर्णन करें जो केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के पक्ष में
(Describe the various provisions in the Indian Constitution which show a bias in favour of the centre.)
उत्तर-
इसमें शक नहीं है कि भारतीय संविधान में संघ के सभी लक्षण विद्यमान हैं, परन्तु जो लोग इसकी आलोचना करते हैं और कहते हैं कि इसका झुकाव एकात्मकता की ओर है, उनकी बातें भी तर्कहीन नहीं हैं। निम्नलिखित बातों के आधार पर भारतीय संविधान को एकात्मक बताया जाता है-

1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में (Division of powers in favour of Centre)-भारतीय संविधान में शक्तियों का जो विभाजन किया गया है, वह केन्द्र के पक्ष में है। संघीय सूची में बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इनकी संख्या भी राज्यसूची के विषयों के मुकाबले में बहुत अधिक है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जबकि राज्य-सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची के 47 विषयों पर भी वास्तविक अधिकार केन्द्र का है, राज्यों का नहीं। क्योंकि यदि राज्य सरकार केन्द्रीय कानून का विरोध करती है तो राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून उस सीमा तक रद्द कर दिया जाएगा। अवशेष शक्तियां भी केन्द्र के पास हैं राज्य के पास नहीं। अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड, रूस, ऑस्ट्रेलिया आदि के संविधानों में अवशेष शक्तियां राज्यों के पास हैं।

2. राज्य सूची पर केन्द्र का हस्तक्षेप (Encroachment over the State List by the Union Government)-राज्य सरकारों को राज्य-सूची पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं है। संघ सरकार निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है-

  • संसद् विदेशों से किए गए किसी समझौते या सन्धि को लागू करने और किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हुए निर्णय को लागू करने के लिए किसी भी विषय पर कानून बना सकती है, चाहे वह विषय राज्य-सूची में क्यों न हो।
  • राज्यसभा जो कि संसद् का एक अंग है, 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राज्य-सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर सकती है और संसद् को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  • जब किसी राज्य में संवैधानिक यन्त्र फेल होने पर वहां का शासन राष्ट्रपति अपने हाथों में ले ले, तो संसद् को यह अधिकार है कि वह राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाए। यह कानून केवल संकटकाल वाले राज्यों पर ही लागू होता है।
  • राज्य-सूची में कुछ विषय ऐसे हैं जिनके बारे में राज्य विधानमण्डल में कोई भी बिल राष्ट्रपति की पूर्व-स्वीकृति के बिना पेश नहीं किया जा सकता। कुछ विषय ऐसे भी हैं जिन पर राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए अवश्य रक्षित किए जाते हैं, राज्यपाल उन पर अपनी स्वीकृति नहीं दे सकता।
  • जब दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल संसद् से राज्यसूची के किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो संसद् उस मामले पर कानून बना सकेगी। यह कानून प्रार्थना करने वाले पर ही लागू होगा।

3. राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति (Appointment of the Governors by the President)-भारत में राज्यों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वे राष्ट्रपति की प्रसन्नता तक ही अपने पद पर रह सकते हैं अर्थात् राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को हटा सकता है। अमेरिका में राज्यों के राज्यपाल जनता द्वारा निश्चित अवधि के लिए चुने जाते हैं। भारत में राज्यपाल केन्द्र का प्रतिनिधि है तथा राज्यपालों द्वारा केन्द्र का राज्यों पर पूरा नियन्त्रण रहता है। शान्तिकाल में राज्यपाल नाममात्र का अध्यक्ष होता है परन्तु संकटकाल में राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में वास्तविक शासक बन जाता है।

4. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार नहीं है-संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में संघ की इकाइयों का अपना अलग संविधान है और वे अपने संविधान में स्वयं संशोधन कर सकते हैं। परन्तु भारत में जम्मू व कश्मीर राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों का अपना अलग कोई संविधान नहीं। उनकी शासन व्यवस्था का विवरण संघीय संविधान में ही किया गया है।

5. संसद् को राज्यों के क्षेत्र में परिवर्तन करने, नवीन राज्य उत्पन्न करने या पुराने राज्य समाप्त करने का अधिकार–संसद् राज्यों के क्षेत्रों को कम या बढ़ा सकती है। संसद् को यह अधिकार है कि वह दो या अधिक राज्यों को मिलाकर उनमें से कोई क्षेत्र निकाल कर नए राज्य बनाए। इस प्रकार संसद् किसी राज्य की सीमा बदल सकती है और उसका नाम भी बदल सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

6. संवैधानिक संशोधन में संघीय सरकार का महत्त्व (Importance of the Union Govt. in Constitutional Amendments)-कहने को तो भारतीय संविधान कठोर है परन्तु संविधान के संशोधन में राज्यों का भाग लेने का अधिकार महत्त्वपूर्ण नहीं है। संविधान का थोड़ा-सा भाग ही कठोर है जिसमें संशोधन के लिए आधे राज्यों का अनुमोदन आवश्यक है। संविधान के शेष भाग में संशोधन करते हुए राज्यों की स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं। इसके अतिरिक्त संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद् ही पेश कर सकती है, राज्य नहीं। अमेरिका तथा स्विट्ज़रलैण्ड दोनों देशों में इकाइयों को भी संशोधन का प्रस्ताव पेश करने का अधिकार है। ।

7. राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व-अमेरिका और स्विट्ज़रलैंड के उच्च सदनों में इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया है। परन्तु भारत में राज्यसभा के प्रतिनिधियों की संख्या राज्यों की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की गई है और वह समान नहीं है।

8. इकहरी नागरिकता (Single Citizenship)-संघात्मक देशों के नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है। वे अपने राज्यों के भी नागरिक कहलाते हैं और समस्त देश के भी। परन्तु भारत में लोगों को एक ही नागरिकता प्रदान की गई है। वे केवल भारत के ही नागरिक कहला सकते हैं, अलग-अलग राज्यों के नागरिक नहीं। यह बात भी संघीय सिद्धान्त के विरुद्ध है।

9. इकहरी न्याय व्यवस्था (Single Judicial System)—संघीय राज्य में प्रायः दोहरी न्याय व्यवस्था को अपनाया जाता है जैसे कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में है। परन्तु भारत में इकहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है। देश के सभी न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कार्य करते हैं और न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय सबसे ऊपर है।

10. अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (All India Administrative Services)-राज्यों में उच्च पदों पर कार्य करने वाले अधिकारी अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं जैसे I.A.S. I.P.S. इत्यादि के सदस्य होते हैं। इन अधिकारियों पर केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण होता है और राज्य सरकारें इन्हें हटा नहीं सकतीं।

11. संविधान में संघ शब्द का अभाव (Constitution does not mention the word Federation)भारतीय संविधान ‘संघ’ (Federation) शब्द का प्रयोग नहीं करता बल्कि इसने Federation के स्थान पर Union शब्द का प्रयोग किया है।

12. संकटकाल में एकात्मक शासन (Unitary Government in time of emergency)-संकटकाल में देश का संघात्मक ढांचा एकात्मक ढांचे में बदला जा सकता है और इसके लिए संविधान में किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं। संघ सरकार ही संकटकाल की घोषणा जारी कर सकती है। अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अनुसार राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकट के नाम पर देश के समस्त शासन को एकात्मक रूप दिया जा सकता है।

13. राज्य का वित्तीय मामलों में संघीय सरकार पर निर्भर होना (Financial Dependence of the State on Centre)-आलोचकों का यह भी कथन है कि हमारे संविधान में राज्यों की आर्थिक अवस्था इतनी कमज़ोर रखी गई है कि वे अपने छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी केन्द्र पर निर्भर रहते हैं। योजना आयोग तथा केन्द्रीय सरकार कुछ इस प्रकार की शर्ते लगा सकते हैं जिन्हें पूरा किए बिना राज्यों को अनुदान नहीं मिलेगा।

14. राष्ट्रीय विकास परिषद् (National Development Council)-ऐसी राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना से केन्द्रीय सरकार के आर्थिक क्षेत्र के नियन्त्रण में विशेष वृद्धि हुई है।

15. एक चुनाव आयोग (One Election Commission)-समस्त भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग है। यही संघ तथा इकाइयों के लिए चुनावों की व्यवस्था करता है।

16. एक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (One Comptroller and Auditor General)-एकात्मक शासन-प्रणाली वाले देशों की तरह सारे देश की वित्तीय शासन व्यवस्था को भारत में एक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के अधीन रखा गया है।

17. केन्द्रीय क्षेत्रों का शासन केन्द्रीय सरकार के अधीन-केन्द्रीय क्षेत्रों का प्रशासन सीधे केन्द्रीय सरकार करती है जो संघीय व्यवस्था के माने हुए सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

18. विधान परिषद् की समाप्ति-किसी प्रान्त की विधानसभा यदि मत देने वाले उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई तथा कुल सदस्यों के स्पष्ट बहुमत से विधानपरिषद् को समाप्त करने का प्रस्ताव पास कर दे तो संसद् उसे कानून बनाकर समाप्त भी कर सकती है। यदि विधानपरिषद् न हो और ऐसा ही एक प्रस्ताव विधानसभा पास कर दे तो संसद् विधानपरिषद् को बना भी सकती है।

19. वित्त आयोग की नियुक्ति (Appointment of Finance Commission)-वित्त आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। यह केन्द्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय सम्बन्धों के बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है। केन्द्रीय सरकार वित्तीय आयोग की सिफारिशों को मानने के लिए स्वतन्त्र है। राष्ट्रपति ने 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वें वित्त आयोग की नियुक्ति की।

क्या भारत को सच्चा संघ कहना उचित होगा ?
(Is India a True Federation ?)

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में संघात्मक शासन की विशेषताएं हैं और संविधान में ऐसे भी लक्षण हैं जिनसे भारतीय संविधान का एकात्मक शासन की ओर झुकाव दिखाई देता है। हमारे संविधान निर्माता संघात्मक शासन-प्रणाली के साथ-साथ केन्द्र को इतना शक्तिशाली बनाना चाहते थे ताकि किसी भी स्थिति का सामना किया जा सके। शक्तिशाली केन्द्र के कारण ही कई विद्वानों ने भारत को संघात्मक शासन मानने से इन्कार किया है और उन्होंने भारतीय संविधान को अर्द्ध-संघात्मक (Quasi-Federal) कहा है। संविधान सभा के कई सदस्यों ने ऐसा ही मत प्रकट किया था। उदाहरणस्वरूप, श्री पी० टी० चाको (P.T. Chacko) ने कहा है, “संविधान का बाहरी रूप संघात्मक होगा, परन्तु वास्तव में इसमें एकात्मक सरकार की स्थापना की गई है।” डॉ० के० सी० हवीयर ने इसे अर्द्ध-संघात्मक कहा है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

यद्यपि आलोचकों के मत में काफ़ी वजन है किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में संघात्मक व्यवस्था नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ केन्द्र को जान-बूझ कर शक्तिशाली बनाया था। __शान्ति के समय भारत में संघात्मक शासन प्रणाली है और प्रान्तों को अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। परन्तु असाधारण परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार को विशेष शक्तियां दी गई हैं ताकि देश की एकता तथा स्वतन्त्रता को बनाए रखा जा सके। संकटकाल की समाप्ति के साथ ही प्रान्तों को पुन: सभी शक्तियां सौंप दी जाती हैं। अतः भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की गई है ताकि असाधारण परिस्थितियों पर काबू पाया जा सके। बदलती हुई राजनीति परिस्थितियों में केन्द्र तथा राज्यों के बीच मुठभेड़ से राष्ट्रीय एकता कमज़ोर पड़ सकती है। इसलिए केन्द्र और राज्यों की सरकारों को एक-दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए ताकि राष्ट्र की समस्याओं को हल किया जा सके।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के चार संघात्मक लक्षण लिखें।
उत्तर-
भारतीय संविधान में अग्रलिखित संघीय तत्त्व विद्यमान हैं-

  1. शक्तियों का विभाजन-प्रत्येक संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची।
  2. लिखित संविधान-संघीय व्यवस्था में संविधान लिखित होता है ताकि केन्द्र और प्रान्तों की शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं।
  3. कठोर संविधान-संघीय व्यवस्था में संविधान का कठोर होना अति आवश्यक है। भारत का संविधान भी कठोर है। संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संसद् दो-तिहाई बहुमत तथा राज्यों के विधानमण्डलों के बहुमत से ही संशोधन कर सकती है।
  4. संविधान सर्वोच्चता-भारतीय संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता संविधान की सर्वोच्चता है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के चार एकात्मक लक्षण लिखें।
उत्तर-
निम्नलिखित बातों के आधार पर भारतीय संविधान को एकात्मक कहा जाता है-

  1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में भारतीय संविधान में शक्तियों का जो विभाजन किया गया है वह केन्द्र के पक्ष में है। संघीय सूची में बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इनकी संख्या भी राज्य सूची के विषयों की संख्या से अधिक है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जबकि राज्य सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर भी असल अधिकार केन्द्र का है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति-भारत में राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वे राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर्यन्त ही अपने पद पर रह सकते हैं अर्थात् राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को हटा सकता है।
  3. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार नहीं है—भारत में जम्मू-कश्मीर राज्यों को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य का अपना अलग कोई संविधान नहीं है। उनकी शासन व्यवस्था का विवरण संघीय संविधान में ही किया गया है।
  4. इकहरी नागरिकता-भारत में लोगों को इकहरी नागरिकता प्रदान की गई है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी भावना में एकात्मक है। व्याख्या करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान का ढांचा संघात्मक है परन्तु भावना में एकात्मक है। भारतीय संविधान में संघात्मक लक्षण पाए जाते हैं जैसे कि लिखित एवं कठोर संविधान, शक्तियों का विभाजन, संविधान की सर्वोच्चता, स्वतन्त्र न्यायपालिका इत्यादि। परन्तु भारतीय संविधान में एकात्मक तत्त्व भी मिलते हैं जिनके कारण यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान एकात्मक है। भारत में शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में है इसलिए केन्द्र सरकार बहुत ही शक्तिशाली है। केन्द्र सरकार अनेक परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है। सारे देश के लिए एक संविधान है और नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त है। राज्यों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। संकटकाल में देश का संघात्मक ढांचा एकात्मक ढांचा में बदला जा सकता है और इसके लिए संविधान में किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं है। भारत में इकहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है। सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग है।

प्रश्न 4.
अर्द्ध-संघात्मक शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
अर्द्ध-संघात्मक का अर्थ है कि संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा तो किया गया हो, परन्तु राज्य कम शक्तिशाली हो जबकि केन्द्र अधिक शक्तिशाली हो। भारत की संघीय व्यवस्था को अर्द्ध-संघात्मक का नाम दिया जाता है क्योंकि भारत में केन्द्र प्रान्तों की अपेक्षा बहुत शक्तिशाली है। प्रो० के० सी० बीयर के शब्दों में, “भारत का नया संविधान ऐसी शासन व्यवस्था को जन्म देता है जो अधिक-से-अधिक अर्द्ध-संघीय है। भारत एकात्मक लक्षणों वाला संघात्मक राज्य नहीं है, अपितु सहायक संघात्मक लक्षणों वाला एकात्मक राज्य है।”

प्रश्न 5.
राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ बताओ।
उत्तर-
संघीय शासन प्रणाली में संविधान के अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया जाता है। राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ है कि इकाइयों को अपने आन्तरिक क्षेत्र में अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। जो शक्तियां राज्यों को संविधान के द्वारा दी गई हैं, उनमें केन्द्र का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

प्रश्न 6.
भारत में शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता के चार कारण लिखें।
अथवा
भारत में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के कोई दो कारण लिखो।
उत्तर-

  • देश की विभिन्न समस्याओं का सामना करने के लिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई है।
  • देश के आर्थिक विकास के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता थी और इसीलिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई।
  • राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए तथा राष्ट्रवाद की भावना के विकास के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता थी।
  • बाहरी आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए तथा देश की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 7.
वित्त आयोग के प्रावधान व रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान की धारा 280 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि, “देश की आर्थिक एवं वित्तीय परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है।” अनुच्छेद 280 में यह प्रावधान है कि, “इस संविधान के प्रारम्भ अथवा लागू होने के दो वर्ष के भीतर और उसके बाद आने वाले पांच वर्षों के लिए उसकी अवधि समाप्त होने से पूर्व राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करेगा, जोकि राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक सभापति और 4 अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा। अशोक चन्दा के शब्दों में, “वित्त आयोग के प्रावधान का अभिप्राय राज्यों को आश्वस्त कराने के लिए किया गया था कि वितरण की योजना संघ द्वारा स्वेच्छा से नहीं बनाई जाएगी बल्कि एक स्वतन्त्र आयोग द्वारा बनाई जाएगी जो राज्यों की बदलती हुई आवश्यकताओं को आंकेगा। अब तक राष्ट्रपति द्वारा 15 वित्त आयोग नियुक्त किए जा चुके हैं।”

प्रश्न 8.
वित्त आयोग के चार मुख्य कार्य लिखें।
उत्तर-
वित्त आयोग के कार्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है-

  1. वित्त आयोग संघीय राज्यों के मध्य राजस्व के वितरण जैसे जटिल किन्तु महत्त्वपूर्ण प्रश्नों से सम्बन्धित है। वित्त आयोग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राज्यों के मध्य आपसी दूरी को व केन्द्र और राज्य के मध्य पैदा हुए विवादों के निपटारे के लिए एक निर्णायक की भूमिका अदा करेगा।
  2. आयोग का प्रमुख कार्य आयकर के प्रमुख साधनों को वितरित करने हेतु तथा राज्यों के मध्य अपना प्रतिवेदना या फैसला प्रस्तुत करना है।
  3. राष्ट्रपति वित्त आदि मामले के विषय में हस्तक्षेप कर सकता है किन्तु आयकर के सम्बन्ध में उसकी सिफ़ारिशों का अध्ययन करने के बाद राष्ट्रपति अपने आदेश द्वारा वितरण की प्रणाली एवं प्रतिशत भाग को निर्धारित करता है। इस कार्य में संसद् प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेती है।
  4. वित्त आयोग पर कर वितरण के सिद्धांत निश्चित करने के दायित्व हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था किस संशोधन द्वारा की गई?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में शामिल किन्हीं दो मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना- भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  2. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  1. मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  2. मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. भारतीय संविधान की कोई एक संघात्मक विशेषता बताइए।
उत्तर-केंद्र तथा प्रांतों में शक्तियों का विभाजन किया गया है।

प्रश्न 2. भारतीय संविधान का कोई एक एकात्मक लक्षण बताइए।
उत्तर-शक्तियों का विभाजन केंद्र के पक्ष में है।

प्रश्न 3. शक्तिशाली केंद्र बनाने का कोई एक कारण बताइए।
उत्तर-देश की विभिन्न समस्याओं का समाधान करने के लिए शक्तिशाली केंद्र की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 4. भारत में नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त है या इकहरी ?
उत्तर-भारत में नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त है।

प्रश्न 5. भारत में किस राज्य का अपना अलग संविधान है ?
उत्तर-जम्मू-कश्मीर।

प्रश्न 6. भारतीय संविधान का स्वरूप कैसा है?
उत्तर- संघात्मक ढांचा और एकात्मक आत्मा।

प्रश्न 7. यह कथन किसका है कि, “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है, पर भावना में एकात्मक है?”
उत्तर-यह कथन डी० एन० बैनर्जी का है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

प्रश्न 8. क्या संघीय सरकार में शक्तियों का बंटवारा होता है ?
उत्तर-हां, संघीय सरकार में शक्तियों का बंटवारा होता है।

प्रश्न 9. भारत किसका संघ है?
उत्तर–भारत राज्यों का संघ है।

प्रश्न 10. भारतीय संविधान में वर्तमान समय में कितने अनुच्छेद हैं ?
उत्तर- भारतीय संविधान में वर्तमान समय में 395 अनुच्छेद हैं।

प्रश्न 11. अवशेष शक्तियां किसके अधीन हैं?
उत्तर-अवशेष शक्तियां केन्द्र के अधीन हैं।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………. के अनुसार “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है, पर भावना में एकात्मक है।”
2. संघ सूची में ………….. विषय शामिल हैं।
3. राज्य सूची में ………….. विषय शामिल हैं।
4. समवर्ती सूची में …………. विषय शामिल हैं।
5. भारत में …………. विधानपालिका की व्यवस्था की गई है।
उत्तर-

  1. प्रो० डी० एन० बैनर्जी
  2. 97
  3. 66
  4. 47
  5. द्वि-सदनीय।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत में दोहरी नागरिकता पाई जाती है।
2. भारत में शक्तियों का विभाजन केंद्र के पक्ष में किया गया है।
3. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार है।
4. राज्य सभा में राज्यों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. गलत
  4. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संघात्मक सरकार के लिए कौन-सा तत्त्व आवश्यक है ?
(क) लिखित संविधान
(ख) संविधान की सर्वोच्चता
(ग) कठोर संविधान
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में कौन-से संघीय तत्त्व पाए जाते हैं ?
(क) शक्तियों का विभाजन
(ख) लिखित संविधान
(ग) संविधान की सर्वोच्चता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
राज्य सूची पर कौन कानून बना सकता है ?
(क) राज्य सरकार
(ख) केंद्र सरकार
(ग) स्थानीय सरकार
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) राज्य सरकार

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में कितने अनुच्छेद हैं ?
(क) 395
(ग) 365
(ख) 250
(घ) 340.
उत्तर-
(क) 395

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 24 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 24 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में सम्मिलित मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करो।
(Explain the fundamental duties enshrined in the Indian Constitution.) (Textual Question)
अथवा
संविधान में किस संवैधानिक संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया है ? किन्हीं पांच मौलिक कर्तव्यों की व्याख्या करें।
(Which of the Constitutional amdendment has incorporated fundamental duties in the Constitution ? Explain any five fundamental duties.)
उत्तर-
कोई भी देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागृत न हों और अपने कर्तव्यों का पालन न करें। जिन देशों ने महान् उन्नति की है उनकी उन्नति का रहस्य ही यही है कि उनके नागरिकों ने अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों को अधिक महत्त्व दिया। चीन, स्विट्ज़रलैंड आदि देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का वर्णन भी किया गया है।

भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन के द्वारा संविधान में एक नया भाग IVA ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया। इस नये भाग में 51-A नामक का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया जिसमें नागरिकों के दस कर्तव्यों का वर्णन किया गया। दिसम्बर 2002 में 86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्तव्य शामिल किया गया, इससे मौलिक कर्तव्यों की कुल संख्या 11 हो गई। ये 11 मौलिक कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

1. संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना-भारत का नया संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था। हमारा संविधान देश का सर्वोच्च कानून है जिसका पालन करना सरकार के तीनों अंगों का कर्तव्य ही नहीं है बल्कि नागरिकों का भी परम कर्तव्य है, इसलिए संविधान के 42वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 51-A के अधीन भारतीय नागरिकों के लिए यह मौलिक कर्त्तव्य अंकित किया गया है कि “वह संविधान का पालन करें और इसके आदर्शों, इसकी संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का सम्मान करें।” ।

2. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-राष्ट्रीय आन्दोलन कुछ आदर्शों पर आधारित था जैसे कि अहिंसा में विश्वास, संवैधानिक साधनों में विश्वास, धर्म-निरपेक्षता, सामान्य भ्रातृत्व, राष्ट्रीय एकता इत्यादि। स्वतन्त्र भारत इन आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है और इन आदर्शों को आधार मान कर ही भारतीय राष्ट्र का पुनः निर्माण किया जा रहा है। अतः आवश्यक है कि भारतीय इन आदर्शों का पालन करें और इसलिए 42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है, “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह परम कर्तव्य है कि स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को उत्साहित करने वाले आदर्शों का सम्मान और पालन करे।”

3. भारतीय प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन और रक्षा करना-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को प्रभुसत्ता-सम्पन्न समाजवादी धर्म-निरपेक्ष प्रजातन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन और उसकी रक्षा करे।

4. देश की रक्षा करना तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग लेना-उत्तरी कोरिया, चीन और यहां तक कि अमेरिका में भी प्रत्येक शारीरिक रूप से योग्य नागरिक के लिए कुछ समय तक सैनिक सेवा करना आवश्यक है, परन्तु भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिए 42वें संशोधन के अन्तर्गत संविधान में अंकित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह देश की रक्षा तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग ले।

5. भारत में सब नागरिकों में भ्रातृत्व की भावना विकसित करना-राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए यह लिखा गया है कि “प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह धार्मिक, भाषायी तथा क्षेत्रीय या वर्गीय भिन्नताओं से ऊपर उठकर भारत के सब लोगों में समानता तथा भ्रातृत्व की भावना विकसित करे।”
नारियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह उन प्रथाओं का त्याग करे जिससे नारियों का अनादर होता है।

6. लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलाना-आधुनिक युग विज्ञान का युग है, परन्तु भारत की अधिकांश जनता आज भी अन्ध-विश्वासों के चक्कर में फंसी हुई है। उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी है जिस कारण वे अपने व्यक्तित्व तथा अपने जीवन का ठीक प्रकार से विकास नहीं कर पाते। इसलिए अब व्यवस्था की गई है कि “प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह वैज्ञानिक स्वभाव, मानववाद तथा जांच करने और सुधार करने की भावना विकसित करे।”

7. प्राचीन संस्कृति की देनों को सुरक्षित रखना-आज आवश्यकता इस बात की है कि युवकों को भारतीय संस्कति की महानता के बारे में बताया जाए ताकि युवक अपनी संस्कृति में गर्व अनुभव कर सकें, इसलिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण संयुक्त संस्कृति तथा शानदार विरासत का सम्मान करे तथा इसको स्थिर रखे।” । .

8. वनों, झीलों, नदियों तथा जंगली जानवरों की रक्षा करना तथा उनकी उन्नति के लिए यत्न करना-प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह वनों, झीलों, नदियों तथा वन्य-जीवन सहित प्राकृतिक वातावरण की रक्षा और सुधार करे तथा जीव-जन्तुओं के प्रति दया की भावना रखे।

9. हिंसा को रोकना तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति की रक्षा करना-प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करे तथा हिंसा का त्याग करे।

10. व्यक्तिगत तथा सामूहिक यत्नों के द्वारा उच्च राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए यत्न करना-कोई भी समाज तथा देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिकों में प्रत्येक कार्य करने की लिए लगन तथा श्रेष्ठता प्राप्त करने की इच्छा न हो। अतः प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह व्यक्तिगत तथा सामूहिक गतिविधियों के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठता प्राप्त करने का यत्न करे ताकि राष्ट्र यत्न तथा प्रार्थियों के उच्च-स्तरों के प्रति निरन्तर आगे बढ़ता रहे।

11. छ: साल से 14 साल तक की आयु के बच्चों के माता-पिता या अभिभावकों अथवा संरक्षकों द्वारा अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराने का प्रावधान करना।

प्रश्न 2.
मौलिक कर्तव्यों की महत्ता संक्षेप में बताएं। (Explain briefly the importance of fundamental duties.)
उत्तर-
संविधान में मौलिक कर्तव्यों का अंकित किया जाना एक प्रगतिशील कदम है। मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व निम्नलिखित आधारों पर वर्णन किया जा सकता है
1. मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में शामिल करके एक शून्य स्थान की पूर्ति की गई है। मूल रूप से भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को तो शामिल किया गया था परन्तु मौलिक कर्तव्यों को संविधान में शामिल नहीं किया गया था। इसके परिणामस्वरूप भारतीय नागरिक अपने अधिकारों के प्रति तो सचेत रहे परन्तु वे अपने कर्तव्यों को भूल चुके थे। 42वें संशोधन द्वारा इन कर्त्तव्यों को संविधान में अंकित कर संविधान में रह गई कमी को दूर कर दिया है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

2. मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक धारणा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं। कर्त्तव्यों के बिना अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व है। महात्मा गांधी का कहना था कि अधिकार कर्तव्यों का पालन करने से प्राप्त होते हैं। रूस, चीन, स्विट्जरलैंड आदि देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का भी वर्णन किया गया है।

3. मौलिक कर्त्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं- भारतीय संविधान में अंकित किये गये मौलिक कर्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं। इनके बारे में राजनीतिक विद्वानों के पृथक्-पृथक् अथवा विरोधी विचार नहीं हैं। ये कर्त्तव्य भारतीय संस्कृति के अनुकूल हैं। इनमें से अधिकतर कर्त्तव्यों का वर्णन हमारे धर्मशास्त्रों में मिलता है। सभी विद्वान् इस बात पर सहमत हैं कि इन कर्तव्यों का पालन भारत में सर्वप्रिय विकास के लिए अवश्य ही सहायक सिद्ध होगा।

4. मौलिक कर्तव्यों का नैतिक महत्त्व है-मौलिक कर्तव्यों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं, परन्तु इनका स्वरूप नैतिक माना जाता है और उनका नैतिक स्वरूप अपना विशेष महत्त्व रखता है।

5. मौलिक कर्त्तव्य संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक-संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब भारत के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।

15 सितम्बर, 1976 को नई दिल्ली में अध्यापकों को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था कि “भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को सम्मिलित करने से भारतीयों के दृष्टिकोण में अवश्य ही परिवर्तन आयेगा। ये कर्त्तव्य लोगों की मनोवृत्तियों और चिन्तन शक्ति को बदलने में सहायक होंगे और यदि नागरिक इन्हें अपने मन में समायें तो हम शान्तिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण क्रान्ति ला सकते हैं।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना का वर्णन करें।
(Discuss the Criticism of Fundamental Duties.)
उत्तर-
मौलिक कर्तव्यों की निम्नांकित आधारों पर आलोचना की गई है-

1. कुछेक मौलिक कर्त्तव्य व्यावहारिक नहीं हैं-साम्यवादी दल के नेता भूपेश गुप्ता (Bhupesh Gupta) ने मौलिक कर्तव्यों की आलोचना करते हुए कहा कि स्वर्ण सिंह समिति ने आलोचनात्मक विवेचन नहीं किया कि जो कर्तव्य संविधान तथा कानून से उत्पन्न होते हैं उनका सही तौर पर पालन क्यों नहीं किया जाता रहा। उदाहरण के लिए एकाधिकारी (Monopolists) क्यों अपने इस कर्त्तव्य का पालन नहीं करते जो संविधान के अनुच्छेद 39C से उत्पन्न होता है। बड़े-बड़े एकाधिकारी अपने लाभ के लिए उन तरीकों को अपनाते हैं जिनसे उनके पास धन केन्द्रित होता जाता है, जबकि संविधान में लिखा गया है कि उत्पादन के साधनों तथा देश के धन पर थोड़े-से व्यक्तियों का नियन्त्रण नहीं होगा। इसी प्रकार धर्म-निरपेक्षता के पक्ष में और साम्प्रदायिकतावाद के विरुद्ध अनेक कानून होते हुए भी क्यों साम्प्रदायिक शक्तियां बढ़ती जा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि संविधान में केवल मौलिक कर्त्तव्यों को लिख देने से कुछ फर्क नहीं पड़ता जब तक उनका पालन न किया जाए।

2. मौलिक कर्त्तव्य केवल पवित्र इच्छाएं हैं-आलोचकों ने मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की है कि इन्हें लागू करने के लिए लोगों को इनके प्रति सचेत करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। इस प्रकार मौलिक कर्त्तव्य केवल पवित्र इच्छाएं (Pious Wishes) हैं।

3. कुछ मौलिक कर्तव्यों की अनुपस्थिति-संसद् के कुछ सदस्यों ने मौलिक कर्तव्यों में मन्त्रियों, विधायकों और सार्वजनिक कर्मचारियों के कर्त्तव्यों को शामिल करने पर जोर दिया था। कुछ सदस्यों ने ये प्रस्ताव पेश किए थे कि सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य मतदान, करों का ईमानदारी से भुगतान, अनिवार्य सैनिक प्रशिक्षण, परिवार नियोजन आदि कर्तव्यों में शामिल किया जाएं।

4. कुछ मौलिक कर्त्तव्य स्पष्ट नहीं हैं-मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की गई है कि कुछ कर्तव्यों की भाषा इस प्रकार की है कि आम व्यक्ति उसे समझ नहीं सकते। उदाहरण के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्श, संयुक्त संस्कृति की सम्पन्न सम्पदा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास इत्यादि कुछ ऐसे कर्त्तव्य हैं जिनको समझना साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है।

5. कुछेक मौलिक कर्त्तव्य दोहराए गए हैं-कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि कई ऐसे कर्त्तव्य हैं जिन्हें केवल मात्र दोहराया गया है। उदाहरण के लिए तीसरा कर्त्तव्य कहता है कि नागरिकों को भारत की सम्प्रभुता की रक्षा करनी चाहिए, लगभग वही बात चौथे कर्त्तव्य के अन्तर्गत इन शब्दों में रखी गई है कि नागरिकों को देश की रक्षा करनी चाहिए।

6. कुछ मौलिक कर्त्तव्य व्यर्थ हैं-संविधान में शामिल किए गए कुछ कर्त्तव्य व्यर्थ हैं, क्योंकि उनके लिए देश में पहले ही साधारण कानूनों के अन्तर्गत व्यवस्था की जा चुकी है। जैसे 1956 का “The Supression of Immoral Traffic in Women and Girls” का कानून उन रीतियों की मनाही करता है जिनसे नारियों का अनादर होता है। इसी प्रकार 1971, “The Prevention of Insult to National Honours” कानून राष्ट्रीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे और राष्ट्रीय गान का सम्मान करने की व्यवस्था करता है और जो नागरिक इस कानून का उल्लंघन करता है उसे तीन वर्ष तक की कैद की सजा या जुर्माना या दोनों दण्ड दिए जा सकते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना की गई है, परन्तु इससे मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। संविधान में मौलिक कर्तव्यों के अंकित किए जाने से ये नागरिकों को सदैव याद दिलाते रहेंगे कि नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य भी हैं। आवश्यकता इस बात की है कि नागरिकों में इन कर्तव्यों के प्रति जागृति उत्पन्न की जाये और जो व्यक्ति इन कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते उनके विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
42वें संशोधन द्वारा संविधान में अंकित मौलिक कर्तव्यों में से किन्हीं चार मौलिक कर्त्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

  • संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना-भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  • राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”
  • भारतीय प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह भारत की प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन एवं रक्षा करे।
  • लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलना।

प्रश्न 2.
मौलिक कर्त्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
संविधान में मौलिक कर्तव्यों को अंकित किया जाना एक प्रगतिशील कदम है। मौलिक कर्त्तव्यों का निम्नलिखित महत्त्व है-

  • मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्त्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  • मौलिक कर्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।
  • मौलिक कर्त्तव्य संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक-संविधान की प्रस्तावना में लिखित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।
  • मौलिक कर्त्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं।

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का वर्णन संविधान में क्यों किया गया है ?
उत्तर-
देश की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें। भारतीय संविधान में केवल अधिकारों का वर्णन था, जिस कारण नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन थे। इसलिए नागरिकों के कर्तव्यों का वर्णन संविधान में किया गया ताकि नागरिक केवल अधिकारों की बात ही न सोचें बल्कि अपने कर्तव्यों के पालन करने के विषय में भी सोचें। इसके अतिरिक्त संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब भारत के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 4.
संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों में क्या कमियां हैं ?
उत्तर-

  • संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों की पहली कमी यह है कि इन कर्त्तव्यों को लागू करने के सम्बन्ध में कोई भी प्रबन्ध नहीं किया गया है। इस तरह ये केवल संविधान के आकार को ही बढ़ाते हैं।
  • इन कर्त्तव्यों की दूसरी कमी यह है कि इन मौलिक कर्त्तव्यों में कुछ महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों जैसे कि आवश्यक मतदान, ईमानदारी, अनुशासन का पालन करना, अधिकारों का मान आदि को इनमें शामिल नहीं किया गया है जबकि ये नागरिक के आवश्यक कर्त्तव्य हैं।
  • मौलिक कर्तव्यों का वर्णन मौलिक अधिकारों से अलग किया गया है जबकि कर्त्तव्य अधिकारों के साथ-साथ चलते हैं।
  • मौलिक कर्त्तव्य आदर्श हैं, इन पर चलना असम्भव है।

प्रश्न 5.
वर्तमान समय में भारतीय संविधान में कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
वर्तमान समय में भारतीय संविधान में 11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। 42वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A मौलिक कर्तव्य शामिल किया गया। इस नये भाग में 51-A नाम का एक अनुच्छेद जोड़ा गया जिसमें नागरिकों के दस कर्तव्यों का वर्णन किया गया। परन्तु दिसम्बर, 2002 में 86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्त्तव्य जोड़ा गया, जिससे मौलिक कर्तव्यों की कुल संख्या 11 हो गई।

प्रश्न 6.
राष्ट्र की सामाजिक संस्कृति को संरक्षित रखने के मौलिक कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत एक विशाल देश है, जिसमें भिन्न-भिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों वाले लोग रहते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोगों की अपनी अलग संस्कृति है। इस प्रकार भारत में रहने वाले लोगों की एक संस्कृति नहीं, बल्कि अनेक संस्कृतियां पाई जाती हैं, परन्तु इन विभिन्न संस्कृतियों में महत्त्वपूर्ण समानताएं भी पाई जाती हैं और इन सांस्कृतिक समानताओं को राष्ट्र की संयुक्त संस्कृति कहा जाता है। राष्ट्र की एकता और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए यह आवश्यक है कि युवकों को भारतीय संस्कृति की महानता के बारे में बताया जाए ताकि युवक अपनी संस्कृति पर गर्व कर सकें। इसलिए मौलिक कर्त्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि, “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण संस्कृति तथा शानदार विरासत का सम्मान करे तथा इनको स्थिर रखे।”

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था किस संशोधन द्वारा की गई?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में शामिल किन्हीं दो मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना- भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  • राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  • मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  • मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान के किस भाग एवं किस अनुच्छेद में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-संविधान के भाग IV-A तथा अनुच्छेद 51-A में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. संविधान के भाग IV-A में नागरिकों के कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 3. नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को संविधान में किस संशोधन के द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 4. संविधान के किस भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-भाग IV में।

प्रश्न 5. संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा से संबंधित है ?
उत्तर-अनुच्छेद 51 में।

प्रश्न 6. मौलिक अधिकारों एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय संगत हैं, जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं।

प्रश्न 7. निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के कितने-से-कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 36 से 51 तक।

प्रश्न 8. संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं ?
उत्तर-अनुच्छेद 37 के अनुसार।

प्रश्न 9. शिक्षा के अधिकार का वर्णन किस भाग में किया गया है?
उत्तर-शिक्षा के अधिकार का वर्णन भाग III में किया गया है।

प्रश्न 10. किस संवैधानिक संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का रूप दिया गया?
उत्तर-86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …….. संशोधन द्वारा …….. में मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया।
2. वर्तमान समय में संविधान में ……….. मौलिक कर्त्तव्य शामिल हैं।
3. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन अनुच्छेद ………. तक में किया गया है।
4. मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत ……… नहीं हैं।
उत्तर-

  1. 42वें, IV-A
  2. ग्यारह
  3. 36 से 51
  4. न्यायसंगत।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारतीय संविधान में 44वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्य शामिल किये गए।
2. आरंभ में भारतीय संविधान में 6 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया था, परंतु वर्तमान समय में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है।
3. नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।
4. अनुच्छेद 51 के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।
5. निर्देशक सिद्धांत कानूनी दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व रखते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
किस संविधान से हमें निर्देशक सिद्धांतों की प्रेरणा प्राप्त हुई है ?
(क) ब्रिटेन का संविधान
(ख) स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान
(ग) अमेरिका का संविधान
(घ) आयरलैंड का संविधान।
उत्तर-
(घ) आयरलैंड का संविधान।

प्रश्न 2.
निर्देशक सिद्धान्तों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-
(क) ये नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हैं
(ख) इनको न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है
(ग) ये सकारात्मक हैं
(घ) ये सिद्धान्त राज्य के अधिकार हैं।
उत्तर-
(ग) ये सकारात्मक हैं

प्रश्न 3.
“राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक ऐसे चैक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है।” यह कथन किसका है ?
(क) प्रो० के० टी० शाह
(ख) मिस्टर नसीरूद्दीन
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) महात्मा गाँधी।
उत्तर-
(क) प्रो० के० टी० शाह

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा मौलिक कर्त्तव्य नहीं है ?
(क) संविधान का पालन करना
(ख) भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना
(ग) सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना
(घ) माता-पिता की सेवा करना।
उत्तर-
(घ) माता-पिता की सेवा करना।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों का क्या अर्थ है ? मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्त्वों में क्या अन्तर है ?
(What is the meaning of the Directive Principles of State Policy ? How are these principles different from the Fundamental Rights ?)
अथवा
मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धान्तों के परस्पर सम्बन्धों का वर्णन करो।
(Examine the relationship between Fundamental Rights and Directive Principles.)
उत्तर-
भारतीय संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का समावेश इसकी विशेषता है। इन सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के चौथे भाग में धारा 36 से 51 तक किया गया है। संविधान निर्माताओं ने इन सिद्धान्तों का विचार आयरलैंड के संविधान से लिया।

राज्यनीति के निर्देशक तत्त्वों का अर्थ-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति को कुछ ऐसे अधिकार और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था। अनुच्छेद 37 के अनुसार, “इस भाग में शामिल उपबन्ध न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते, परन्तु फिर भी जो सिद्धान्त रखे गए हैं, वे देश के शासन प्रबन्ध की आधारशिला हैं और कानून बनाते समय इन सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।”

मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में अन्तर (Difference between Fundamental Rights and Directive Principles)-
भारतीय संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों की घोषणा की गई है जिनका प्रयोग करके नागरिक अपने जीवन का विकास कर सकते हैं। संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों की घोषणा की गई है जिसका उद्देश्य भारतीय लोगों का आर्थिक, सामाजिक, मानसिक तथा नैतिक विकास करना तथा भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है अर्थात् दोनों के उद्देश्य समान दिखाई देते हैं, परन्तु दोनों में अन्तर है। हम दोनों को समान प्रकृति वाले नहीं कह सकते।

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निर्देशक सिद्धान्तों तथा मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित भेद हैं-

1. मौलिक अधिकार न्याय-योग्य हैं तथा निर्देशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं-निर्देशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं हैं, जबकि मौलिक अधिकार न्याय-योग्य हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालयों द्वारा लागू करवाया जा सकता है जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है तो नागरिक सरकार के उस कार्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकता है, परन्तु इसके विपरीत, यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।

2. मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं। मौलिक अधिकार सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। वे उसको कोई विशेष कार्य करने से मना करते हैं। उदाहरणस्वरूप, मौलिक अधिकार सरकार को आदेश देते हैं कि वह नागरिकों में जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं। ये सरकार को कुछ निश्चित कार्य करने का आदेश देते हैं। उदाहरणस्वरूप, वे सरकार को ऐसी नीति अपनाने का आदेश देते हैं जिससे देश के नागरिकों का जीवन-स्तर ऊंचा उठ सके तथा बेरोज़गारी की समाप्ति हो सके।

3. मौलिक अधिकार व्यक्ति से और निर्देशक सिद्धान्त समाज से सम्बन्धित-मौलिक अधिकार मुख्यतः व्यक्ति से सम्बन्धित हैं और उनका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना है। मौलिक अधिकार ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनमें व्यक्ति अपने में निहित गुणों का विकास कर सके। परन्तु निर्देशक सिद्धान्त समाज के विकास पर बल देते हैं। अनुच्छेद 38 में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य ऐसे समाज की व्यवस्था करेगा जिसमें सभी को सामाजिक व आर्थिक न्याय मिल सके।

4. मौलिक अधिकारों का उद्देश्य राजनीतिक लोकतन्त्र है परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों का आर्थिक लोकतन्त्रमौलिक अधिकारों द्वारा जो अधिकार नागरिकों को दिए गए हैं वे देश में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं। अनुच्छेद 19 में छः प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है जोकि राजनीतिक लोकतन्त्र की आधारशिला हैं, परन्तु राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में जो सिद्धान्त दिए गए हैं, उनका लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है ताकि राजनीतिक लोकतन्त्र को सफल बनाया जा सके।

5. मौलिक अधिकारों से निर्देशक सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक है-मौलिक अधिकारों का सम्बन्ध केवल राज्य में रहने वाले व्यक्तियों से है जबकि निर्देशक सिद्धान्तों का अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी महत्त्व है।

6. मौलिक अधिकार प्राप्त किए जा चुके हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को अभी लागू नहीं किया गयामौलिक अधिकार लोगों को मिल चुके हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को अभी व्यावहारिक रूप नहीं दिया गया। निर्देशक सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको प्राप्त करना सरकार का लक्ष्य है।

7. दोनों के बीच यदि विरोध हो तो किसे महत्त्व मिलेगा ?-25वें संशोधन तथा 42वें संशोधन से पूर्व मौलिक अधिकारों को निर्देशक सिद्धान्तों से अधिक प्रधानता प्राप्त थी। इसमें सन्देह नहीं कि निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्तव्य है, परन्तु ऐसा करते हुए राज्य किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता। एक मुकद्दमे में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “राज्य को चाहिए कि वह निर्देशक सिद्धान्तों के उचित पालन के लिए कानून बनाए लेकिन उसके द्वारा बनाए गए नए कानूनों से मौलिक अधिकारों को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए।”

परन्तु 25वें संशोधन ने इस स्थिति में परिवर्तन कर दिया है क्योंकि इस संशोधन ने अनुच्छेद 39 (B) और 39 (C) के निर्देशक सिद्धान्त को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि किसी भी सरकार द्वारा बनाया कोई भी ऐसा कानून जो अनुच्छेद 39B या 39C में वर्णन किए गए निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए बनाया गया है, इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून धारा 14, 19 या 31 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। 42वें संशोधन की धारा (Clause) 4 द्वारा यह व्यवस्था की गई कि संविधान के चौथे भाग में दिए सभी या किसी भी निर्देशक सिद्धान्त को लागू करने के लिए बनाया गया कोई कानून इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून धारा 14, 19 या 31 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। परन्तु १ मई, 1980 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने महत्त्वपूर्ण निर्णय में 42वें संशोधन की धारा (Clause) 4 को रद्द कर दिया है। इस निर्णय के बाद निर्देशक सिद्धान्तों की वही स्थिति हो गई जो 42वें संशोधन से पहले थी।

वैसे तो मौलिक अधिकार तथा निर्देशक सिद्धान्त साथ-साथ चलते हैं, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त मौलिक सिद्धान्तों के पूरक कहे जा सकते हैं जो कि उनके विरुद्ध नहीं चल सकते। मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं और निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। इस दृष्टि से वे एक दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 2.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों की सहायता से हमारा देश सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति किस प्रकार कर सकता है ?
(How can true social and economic goals of the country be achieved through Directive Principles ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान के चौथे भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लेख है। ये सिद्धान्त सामाजिक तथा आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रयत्नशील भारत के लिए मार्गदर्शक भी हैं। श्री ग्रेनविल आस्टिन के शब्दों में, “ये निर्देशक-सिद्धान्त उन मानवीय सामाजिक आदर्शों की व्यवस्था करते हैं, जो भारतीय सामाजिक क्रान्ति का लक्ष्य हैं। निर्देशक-सिद्धान्त भारत में वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना का विश्वास दिलाते हैं क्योंकि सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र के बिना राजनीतिक लोकतन्त्र अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता है।” डॉ० अम्बेदकर ने संविधान सभा में भाषण देते हुए एक बार कहा था कि “संविधान का उद्देश्य केवल राजनीतिक लोकतन्त्र की नहीं, बल्कि ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है, जिसमें सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र का भी समावेश हो।”

इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर 42वें संशोधन 1976 द्वारा संविधान की प्रस्तावना में परिवर्तन कर भारत को एक समाजवादी राज्य घोषित किया गया है। प्रस्तावना में समाजवादी शब्द का शामिल किया जाना संविधान के सामाजिक और आर्थिक अंश को दृढ़ करता है और इस बात का विश्वास दिलाता है कि देश की उन्नति और विकास का फल कुछ लोगों के हाथों में ही केन्द्रित नहीं होगा, बल्कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों में न्याय-युक्त आधार पर बांट दिया जाएगा। भारतीय संविधान ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहता है, जिसमें राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त हो।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त इस बात की पूर्ति का साधन हैं। संविधान के निर्देशक सिद्धान्तों में यह आदेश दिया गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा, जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्र के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो। नागरिक को समान रूप से अपनी आजीविका कमाने के पर्याप्त साधन प्राप्त हों। स्त्री और पुरुष को समान काम के लिए समान वेतन प्राप्त हो। समाज के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार से हो कि सभी लोगों की भलाई हो सके। देश की अर्थव्यस्था इस प्रकार संचालित की जाए कि देश का धन तथा उत्पादन के साधन जनसाधारण के हितों के विरुद्ध कुछ व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित न हों।

श्रमिकों, पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो तथा उन्हें आर्थिक आवश्यकताओं से विवश होकर ऐसे धन्धे न अपनाने पड़ें, जो उनकी आयु और शक्ति के अनुकूल न हों। राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के अर्न्तगत लोगों को काम देने, शिक्षा का प्रबन्ध करने तथा बेरोज़गारी, बुढ़ापे, बीमारी और अंगहीनता की अवस्था में लोगों को सार्वजनिक सहायता देने का प्रयत्न करेगा। राज्य मज़दूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन स्तर तथा अधिक से अधिक सामाजिक सुविधाओं का प्रबन्ध करे। 42वें संशोधन 1976 द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य उपर्युक्त कानून या किसी अन्य ढंग से आर्थिक दृष्टि से कमज़ोरों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का प्रयत्न करेगा। राज्य कानून द्वारा या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदार बनाने के लिए पग उठाएगा।

प्रश्न 3.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का संक्षिप्त में उल्लेख कीजिए जो देश की आर्थिक नीतियों से सम्बन्धित हैं।
(Give a brief account of those Directive Principles which reflect the country’s economic policies.)
अथवा
राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के क्या अर्थ है ? भारतीय संविधान में दिए गए राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन करो।
(What is the meaning of Directive Principles of State Policy and discuss the Directive Principles of state policy as embodied in Indian Constitution ?)
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन 36 से 51 तक की धाराओं में किया गया है और इन का सम्बन्ध राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक, प्रशासनिक, शिक्षा-सम्बन्धी तथा अन्तर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों से है। यों इनका वर्गीकरण करना कठिन है, लेकिन कुछ विद्वानों ने इस दिशा में प्रयास किया है। डॉ० एम० पी० शर्मा ने राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को तीन वर्गों में रखा है-(1) समाजवादी सिद्धान्त, (2) गांधीवादी सिद्धान्त, (3) उदारवादी सिद्धान्त। हम इन सिद्धान्तों को चार श्रेणियों में बांट सकते हैं
(1) समाजवादी एवं आर्थिक सिद्धान्त, (2) गांधीवादी सिद्धान्त, (3) उदारवादी सिद्धान्त तथा (4) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा से सम्बन्धित सिद्धान्त।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

1. समाजवादी एवं आर्थिक सिद्धान्त (Socialaistic and Economic Principles)—कुछ निर्देशक सिद्धान्त ऐसे भी हैं जिनके लागू करने से समाजवादी व्यवस्था स्थापित होने की सम्भावना है। ऐसे सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

  • राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिस में सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार हो कि जन-साधारण के हित की प्राप्ति हो सके।
  • आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि धन और उत्पादन के साधनों का सर्व-साधारण के लिए अहितकारी केन्द्रीयकरण न हो।
  • श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और वे अपनी आर्थिक आवश्यकता से मज़बूर होकर कोई ऐसा काम करने पर बाध्य न हों जो उनकी आयु तथा शक्ति के अनुकूल न हो।
  • बचपन तथा युवावस्था का शोषण व नैतिक परित्याग से संरक्षण हो।
  • राज्य लोगों के भोजन को पौष्टिक बनाने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य यथासम्भव इस बात का प्रयत्न करे कि सभी नागरिकों को बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीन होने की अवस्था में सार्वजनिक सहायता प्राप्त करने, काम पाने तथा शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो।
  • राज्य को मज़दूरों के लिए न्यायपूर्ण परिस्थितियों तथा स्त्रियों के लिए प्रसूति सहायता देने का यत्न करना चाहिए।
  • राज्य प्रत्येक श्रेणी के मजदूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन-स्तर तथा आवश्यक छुट्टियों का प्रबन्ध करे। राज्य इस प्रकार का प्रबन्ध करे कि मज़दूर सामाजिक तथा सांस्कृतिक सुविधाओं को अधिक-से-अधिक प्राप्त करें।

2. गांधीवादी सिद्धान्त (Gandhian Principles)—इस श्रेणी में दिए गए सिद्धान्त गांधी जी के उन विचारों पर आधारित हैं जो वे स्वतन्त्र भारत के निर्माण के लिए रखते थे। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वे प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सकें।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को उत्साह देगा।
  • राज्य समाज के निर्बल वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों (Scheduled Castes) तथा अनुसूचित कबीलों (Scheduled Tribes) की शिक्षा तथा उनके आर्थिक हितों की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न करेगा तथा उनको सामाजिक अन्याय तथा लूट-खसूट से बचाएगा।
  • राज्य शराब तथा अन्य नशीली वस्तुओं को जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, रोकने का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य गायों, बछड़ों तथा दूध देने वाले अन्य पशुओं के वध को रोकने के लिए प्रयत्न करेगा।

3. उदारवादी सिद्धान्त (Liberal Principles) अन्य सिद्धान्तों को जो इस प्रकार की श्रेणियों में नहीं आते हम उन्हें उदारवादी सिद्धान्त कह कर पुकार सकते हैं और इनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के उचित कदम उठाएगा।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस के वर्ष के अन्दर चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य कृषि तथा पशु-पालन का संगठन आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के आधार पर करेगा।
  • राज्य लोगों के जीवन-स्तर तथा भोजन-स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करेगा और सार्वजनिक स्वास्थ्य का सुधार करेगा।
  • राज्य उन स्मारकों, स्थानों तथा वस्तुओं की जिन्हें संसद् द्वारा ऐतिहासिक या कलात्मक दृष्टि से राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दिया गया हो रक्षा करेगा और उन्हें तोड़ने, बेचने, बाहर भेजने (Export), कुरूप या नष्ट किए जाने से बचाएगा।

4. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा से सम्बन्धित सिद्धान्त (Principles to promote International Peace and Security)-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में केवल राज्य की आन्तरिक नीति से सम्बन्धित ही निर्देश नहीं दिए गए बल्कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, इस विषय में भी निर्देश दिए गए हैं।
अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित कार्य करने के लिए कहा गया है-

(क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना।
(ख) दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना।
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों तथा कानूनों के लिए सम्मान उत्पन्न करना।
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटाने के लिए मध्यस्थता का रास्ता अपनाना।

42वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का विस्तार किया गया है। इस संशोधन द्वारा निम्नलिखित नए सिद्धान्त शामिल किए गए हैं-

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि बच्चों को स्वस्थ, स्वतन्त्र और प्रतिष्ठापूर्ण वातावरण में अपने विकास के लिए अवसर और सुविधाएं प्राप्त हों।
  • राज्य ऐसी कानून प्रणाली के प्रचलन की व्यवस्था करेगा जो समान अवसर के आधार पर न्याय का विकास करें। आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का राज्य प्रयत्न करेगा।
  • राज्य कानून द्वारा या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदार बनाने के लिए पग उठाएगा। (4) राज्य वातावरण की सुरक्षा और विकास करने तथा देश के वन और वन्य जीवन को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा।

44वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का विस्तार किया गया है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत अनुच्छेद 38 में एक और निर्देशक सिद्धान्त जोड़ा गया है। 44वें संशोधन के अनुसार राज्य विशेषकर आय की असमानता को न्यूनतम करने और न केवल व्यक्तियों में बल्कि विभिन्न क्षेत्रों अथवा व्यवसायों में लगे लोगों के समूहों में स्तर, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को दूर करने का प्रयास करेगा।

इस तरह राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ सम्बन्धित हैं, क्योंकि ये सिद्धान्त कई विषयों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि इनको परस्पर किसी विशेष फिलॉसफी के साथ नहीं जोड़ा गया। यह तो एक तरह का प्रयत्न था कि इन सिद्धान्तों द्वारा सरकार को निर्देश दिए जाएं ताकि सरकार उन कठिनाइयों को दूर कर सके जो कठिनाइयां उस समाज में विद्यमान थीं।

प्रश्न 4.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को किस ढंग से किस सीमा तक क्रियान्वयन किया जा चुका है ? विवेचन कीजिए। (How far and in what manner have the Directive Principles been implemented ? Discuss.)
उत्तर-
भारत सरकार तथा राज्यों की सरकारों ने 1950 से लेकर अब तक निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए हैं

1. कमजोर वर्गों की भलाई (Welfare of Weaker Sections) सरकार ने कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े कबीलों की भलाई के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। अनुसूचित जातियों, कबीलों और पिछड़े हुए वर्गों के बच्चों को स्कूलों तथा कॉलेजों में विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। सरकारी नौकरियों में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। पंजाब सरकार ने राज्य सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान तथा पिछड़ी जातियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे हैं। जबकि तमिलनाडु सरकार ने जुलाई, 1995 को पास किए एक बिल के अन्तर्गत राज्य सेवाओं में 69 प्रतिशत स्थान अनुसूचित जातियों व पिछड़ी जातियों के लिए सुरक्षित रखे हैं। लोकसभा में अनुसूचित जाति के लिए 84 एवं अनुसूचित जनजाति के लिए 47 स्थान आरक्षित रखे गए हैं। 95वें संशोधन द्वारा संसद् और राज्य विधानमण्डलों में इनके लिए 2020 ई० तक स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।

2. ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति और भूमि-सुधार (Abolition of Zamindari System and Land Reforms) ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने और भूमि-सुधार के लिए अनेक कानून पास किए गए हैं।

3. पंचवर्षीय योजनाएं (Five Year Plans)—सरकार ने देश की आर्थिक, सामाजिक उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की। मार्च, 2017 में 12वीं पंचवर्षीय योजना खत्म हो गई। इन योजनाओं का उद्देश्य प्राकृतिक साधनों का जनता के हित के लिए प्रयोग करना तथा लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा करना इत्यादि है।

4. पंचायती राज की स्थापना (Establishment of Panchayati Raj)-बलवंत राय मेहता कमेटी की रिपोर्ट, 1957 के अनुसार, प्रायः सभी राज्यों में पंचायती राज को लागू किया गया है। 73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा पंचायतों को गांवों के विकास के लिए अधिक शक्तियां दी गई हैं।

5. सामुदायिक योजनाएं (Community Projects)-गांवों का विकास करने के लिए सामुदायिक योजनाएं चलाई गई हैं।

6. निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा (Free and Compulsory Education)—प्रायः सभी राज्यों में प्राइमरी शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य है। पंजाब में मिडिल तक शिक्षा नि:शुल्क है जबकि जम्मू-कश्मीर में एम० ए० तक शिक्षा निःशुल्क है।

7. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण (Separation of Judiciary From Executive) पंजाब और हरियाणा में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् कर दिया गया है और कई राज्यों में इस दिशा में उचित कदम उ ठाए गए हैं।

8. नशाबन्दी (Prohibition)—सरकार ने नशीली वस्तुओं तथा नशाबन्दी के लिए प्रयास किए हैं। जनता सरकार ने नशाबन्दी पर बहुत बल दिया था।

9. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन (Encouragement to Cottage Industries)—सरकार ने कुटीर और लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए खादी और कुटीर उद्योग आयोग की स्थापना की है जो लघु और कुटीर उद्योगों को कई प्रकार की आर्थिक और तकनीकी सहायता देता है।

10. बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण (Nationalisation of Big Industries)—सरकार ने मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया है।

11. स्त्रियों के लिए समान अधिकार (Equal Rights for Women)-स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिए गए हैं। वेश्यावृत्ति को कानून द्वारा समाप्त किया जा चुका है।

12. विश्व शान्ति का विकास (Promotion of World Peace)-भारतीय सरकार ने विश्व शान्ति के लिए तटस्थता और सह-अस्तित्व की नीति को अपनाया है।

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13. समाजवाद की स्थापना के लिए सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया है और राजाओं के प्रिवी-पर्स भी समाप्त कर दिए हैं।

14. कृषि की उन्नति (Development of Agriculture)-कृषि की उन्नति के लिए सरकार ने अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। वैज्ञानिक आधार पर इसका संगठन किया जा रहा है। जनता सरकार का 1979-80 का बजट किसानों का बजट कहलाता था क्योंकि इस बजट में किसानों को बहुत रियायतें दी गई थीं।

15. सारे देश के लिए एक Civil Code प्राप्त करने के दृष्टिकोण से हिन्दू कोड बिल (Hindu Code Bill) जैसे कानून बनाए गए हैं।

16. प्राचीन स्मारकों (Ancient Monuments) की रक्षा के लिए भी कानून बनाए जा चुके हैं।

17. पशुओं की नस्ल सुधारने के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं। पशु-पालन से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम देहाती क्षेत्रों में चालू हैं। अधिकांश राज्यों में गौ, बछड़े, दूध देने वाले पशुओं का वध निषेध करने वाले कानून बनाये गए हैं।

18. संविधान के 25वें तथा 42वें संशोधन का मुख्य उद्देश्य निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना है।

19. अन्त्योदय-कुछ राज्यों में एक नया कार्यक्रम अन्त्योदय आरम्भ किया गया है। इसके अन्तर्गत ऐसे ग़रीब परिवार आते हैं जिनकी कुल सम्पत्ति एक हजार से भी कम है। ऐसे परिवारों को विशेष सहायता देकर ऊपर उठाने का प्रयास किया जा रहा है।

20. अनुसूचित जातियों का विकास-अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों के आर्थिक, सामाजिक एवं
शैक्षिक विकास को गति देने और उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से निम्नलिखित उपाय किए गए हैं

(i) राज्यों और केन्द्रीय मन्त्रालयों को स्पेशल कम्पोनेंट प्लान कर दिया गया है।
(ii) राज्यों के विशेष कम्पनोनेंट प्लान को विशेष केन्द्रीय सहायता दी गई है।
(iii) राज्यों में अनुसूचित जाति विकास निगम स्थापित किए गए हैं।
(iv) मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ रहे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों के छात्रों के लिए बुक बैंक योजना शुरू की गई है। तीन विद्यार्थियों के एक समूह को 5000 रुपए की लागत की पाठ्य पुस्तकों का एक सैट दिया गया है। वर्ष 1987-88 में इस योजना के लिए 55 लाख का प्रावधान किया गया था।
(v) मलिन व्यवसाय में लगे लोगों के बच्चों के लिए प्री-मैट्रिक स्कालरशिप योजना को लागू किया गया है।
(vi) अनुसचित जाति और अनुसूचित जन जाति के प्रार्थियों के लिए कोचिंग एवं सहायता योजना शुरू की गई है।

यद्यपि निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं, परन्तु अभी बहुत कुछ करना शेष है। किसानों की दशा आज भी शोचनीय है, बेरोज़गारी की गति तेजी से बढ़ रही है, शराब का बोलबाला है और कमजोर वर्ग के लोगों को सामाजिक न्याय न मिलने के बराबर है। पंचायती राज की संस्थाओं को अनेक कारणों से विशेष सफलता नहीं मिली। आज भी भारत में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है। मई 1986 में संसद् ने मुस्लिम महिला विधेयक पास किया जोकि ‘Civil Code’ की भावना के विरुद्ध है। संक्षेप में निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने की गति बहुत धीमी है और सरकार को इन सिद्धान्तों को लागू करने के लिए शीघ्र ही उचित कदम उठाने चाहिएं।

प्रश्न 5.
नीति निर्देशक तत्त्वों के पीछे कौन-सी शक्ति कार्य कर रही है ? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
(Write a paragraph on the sanction behind the Directive Principles.)
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करवाने के लिए न्यायपालिका के पास नहीं जाया जा सकता क्योंकि इनके पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। यद्यपि इनके पीछे कानून की शक्ति नहीं है, तथापि निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानून से बढ़कर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं होती। जनमत की शक्ति उस शक्ति से लाख गुना अधिक होती है जो शक्ति कानून के पीछे होती है। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

प्रो० पायली (Pylee) ने ठीक ही कहा है कि “निर्देशक सिद्धान्त राष्ट्र की आत्मा का आधारभूत स्तर हैं तथा जो इनका उल्लंघन करेंगे वे अपने आपको उस उत्तरदायित्व की स्थिति से हटाने का खतरा मोल लेंगे जिसके लिए उन्हें चुना गया है।” 42वें संशोधन की धारा 4 द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि संविधान के चौथे भाग में दिए गए सभी या किसी भी निर्देशक सिद्धान्त को लागू करने के लिए बनाया गया कोई भी कानून इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून 13, 19 या 31 (अनुच्छेद 31 को 44वें संशोधन द्वारा संविधान से निकाल दिया गया है) अनुच्छेदों में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है अथवा इन अनुच्छेदों द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। परन्तु 9 मई, 1980 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में 42वें संशोधन की धारा 4 को रद्द कर दिया है।

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान में दिए गए निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
(Critically examine the Directive Principles of State Policy as embodied in the Constitution.)
उत्तर-
संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। परन्तु इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता अर्थात् इन सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। इसलिए इन सिद्धान्तों की कड़ी आलोचना हुई है और संविधान में इनका उल्लेख निरर्थक बताया गया है। डॉ० जैनिंग्ज का विचार है कि निर्देशक सिद्धान्तों का कोई महत्त्व नहीं। प्रो० के० टी० शाह (K.T. Shah) का कहना है कि “राज्यनीति के सिद्धान्त उस चैक के समान हैं जिस का भुगतान बैंक सुविधा पर छोड़ दिया गया गया है।” श्री नासिरद्दीन (Nassiruddin) ने कहा था कि, “निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व नए वर्ष के दिन की जाने वाली प्रतिज्ञाओं से अधिक नहीं जिन्हें अगले दिन ही भुला दिया जाता है।” निम्नलिखित बातों के आधार पर निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचना हुई है और इन्हें निरर्थक तथा महत्त्वहीन बताया गया है-

1. ये कानूनी दृष्टिकोणों से कोई महत्त्व नहीं रखते (No Legal Value)-निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि ये न्याय-योग्य नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। इनको न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार इनको लागू नहीं करती तो कोई व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता।

2. निर्देशक सिद्धान्तों के विषय बहुत अनिश्चित तथा अस्पष्ट (Vague and Indefinite)-निर्देशक सिद्धान्तों में बहुत-सी बातें अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं। उदाहरणस्वरूप, समाजवादी सिद्धान्तों में मज़दूरों तथा स्वामियों के परस्पर सम्बन्धों के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा गया है। श्रीनिवासन (Srinivasan) ने इन सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए कहा कि इन सिद्धान्तों की व्यवस्था विशेष प्रेरणादायक नहीं है।

3. पवित्र विचार (Pious Wish)-ये सिद्धान्त संविधान-निर्माताओं की पवित्र भावनाओं का एक संग्रहमात्र ही हैं। श्रद्धालु जनता को आसानी से झूठा सन्तोष प्रदान किया जा सकता है। सरकार इनसे सस्ती लोकप्रियता (Cheap Popularity) प्राप्त कर सकती है, हार्दिक लोकप्रियता नहीं। श्री वी० एन० राव के मतानुसार, “राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त राज्य के अधिकारियों के लिए नैतिक उपदेश के समान हैं और उनके विरुद्ध यह आलोचना की जाती है कि संविधान में नैतिक उपदेशों के लिए स्थान नहीं है।”

4. राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रभु राज्य में अप्राकृतिक हैं (Unnatural in Sovereign States)ये सिद्धान्त निरर्थक हैं क्योंकि निर्देश केवल अपने अधीन तथा घटिया को दिए जाते हैं। दूसरे, यह बात बड़ी हास्यास्पद तथा अर्थहीन लगती है कि प्रभुत्व-सम्पन्न राष्ट्र अपने आपको आदेश दे। यह तो समझ में आ सकता है कि एक बड़ी सरकार अपने अधीन सरकारों को आदेश दे। अतः ये सिद्धान्त अस्वाभाविक हैं।

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5. संवैधानिक द्वन्द्व (Constitutional Conflict) आलोचकों का कहना है कि यदि राष्ट्रपति, जो संविधान के संरक्षण की शपथ लेते हैं, किसी बिल को इस आधार पर स्वीकृति देने से इन्कार कर दें कि वह निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है तो क्या होगा ? संविधान सभा में श्री के० सन्थानम (K. Santhanam) ने यह भय प्रकट किया कि इन निर्देशक तत्त्वों के कारण राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री अथवा राज्यपाल और मुख्यमन्त्री के बीच मतभेद पैदा हो सकते

6. इनका सही ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया (They are not properly classified) डॉ० श्रीनिवासन (Srinivasan) के अनुसार, “निर्देशक सिद्धान्तों का उचित ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है और न ही उन्हें क्रमबद्ध रखा गया है। इस घोषणा में अपेक्षाकृत कम महत्त्व वाले विषयों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आर्थिक व सामाजिक प्रश्नों के साथ जोड़ दिया गया है। इसमें आधुनिकता का प्राचीनता के साथ बेमेल मिश्रण किया गया है। इसमें तर्कसंगत और वैज्ञानिक व्यवस्थाओं को भावनापूर्ण और द्वेषपूर्ण समस्याओं के साथ जोड़ा गया है।”

7. इसमें राजनीतिक दार्शनिकता अधिक है और व्यावहारिक राजनीति कम है-ये सिद्धान्त आदर्शवाद पर ज़ोर देते हैं जिस कारण कहा जाता है कि ये सिद्धान्त एक प्रकार से राजनीति दर्शन ही हैं, व्यावहारिक दर्शन तथा व्यावहारिक राजनीति नहीं। ये लोगों को सान्त्वना नहीं दे सकते।

8. साधन का उल्लंघन (Means ignored)-डॉ० जेनिंग्ज (Jennings) का कहना है कि “संविधान का यह अध्याय सिर्फ लक्ष्य की चर्चा करता है, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन नहीं।”

9. संविधान में इनका समावेश सरल लोगों को धोखा देना है-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों से भारत के अनपढ़ तथा सरल लोगों को धोखा देने का प्रयत्न किया गया है। इनमें अधिकतर निर्देशक सिद्धान्त न तो व्यावहारिक हैं तथा न ही ठोस, इनमें से बहुत से ऐसे हैं जिन पर चला नहीं जा सकता। उदाहरतया नशाबन्दी अथवा शराब की मनाही से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्त । यह सिद्धान्त जहां सदाचार की दृष्टि से आदर्श हैं वहां कई आर्थिक समस्याएं भी उत्पन्न कर देते हैं। जहां कहीं भी भारत में नशाबन्दी कानून लागू किया है यह केवल असफल ही नहीं रहा अपितु इससे राष्ट्रीय आय में बहुत हानि हुई है। उदाहरणस्वरूप नवम्बर, 1994 में आंध्र प्रदेश में नशाबन्दी लागू की गई परन्तु मार्च 1997 को इसे रद्द करना पड़ा क्योंकि इसके कारण राज्य को राजस्व की भारी क्षति उठानी पड़ी थी। इसी प्रकार हरियाणा के मुख्यमन्त्री चौ० बंसी लाल ने 1996 में शराब बन्दी लागू की, लेकिन इसके परिणामस्वरूप हरियाणा राज्य को आर्थिक बदहाली का सामना करना पड़ा। अन्ततः 1 अप्रैल, 1998 को पुनः शराब की बिक्री खोल दी गई।
इस प्रकार इन कई बातों के आधार पर निर्देशक सिद्धान्तों को निरर्थक और महत्त्वहीन बताया गया है।

प्रश्न 7.
हमारे संविधान में दिए गए राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
(Discuss the importance of Directive Princinples of State Policy as stated in our Constitution.)
उत्तर-
संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। परन्तु इन सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति न होने के कारण यद्यपि इनकी कड़ी आलोचना की गई है और इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू भी नहीं करवाया जा सकता, फिर भी यह कहना कि ये सिद्धान्त निरर्थक व अनावश्यक हैं, गलत है। इन सिद्धान्तों का संविधान में विशेष स्थान है और ये सिद्धान्त भारतीय शासन के आधारभूत सिद्धान्त हैं। कोई भी सरकार इनको दृष्टि से विगत नहीं कर सकती। निम्नलिखित बातों से इनकी उपयोगिता तथा महत्त्व सिद्ध हो जाता है।

1. सरकार के लिए मार्गदर्शक (Guidelines for the Government)-निर्देशक सिद्धान्तों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ये सत्तारूढ़ दल के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। संविधान की धारा 37 के अनुसार, “इन सिद्धान्तों को शासन के मौलिक आदेश घोषित किया गया है जिन्हें कानून बनाते तथा लागू करते समय प्रत्येक सरकार का कर्त्तव्य माना गया है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल मन्त्रिमण्डल बनाए उसे अपनी आन्तरिक तथा बाह्य नीति निश्चित करते समय इन सिद्धान्तों को अवश्य ध्यान में रखना पड़ेगा। इस तरह ये सिद्धान्त मानों सभी राजनीतिक दलों का सांझा चुनावपत्र है।”

2. कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा (Declaration of Ideal of a Welfare State)-इन सिद्धान्तों द्वारा कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा की गई है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों को अपनाना आवश्यक होता है वे सब निर्देशक सिद्धान्तों में पाई जाती हैं। जस्टिस सप्र (Justice Sapru) का मत है कि “राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में वे समस्त दर्शन विद्यमान हैं जिनके आधार पर किसी भी आधुनिक जाति में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकती है।”

3. सरकार की सफलताओं को जांचने के मापदण्ड (Basic Standard for assessing the Achievements of the Government)-इन सिद्धान्तों का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि वे भारतीय जनता के पास सरकार की सफलताओं को आंकने की कसौटी है। मतदाता इन आदर्शों को सम्मुख रखकर अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने अपनी शासन सम्बन्धी नीति को बनाते समय किस सीमा तक इन सिद्धान्तों को सम्मुख रखा है।

4. मौलिक अधिकारों को वास्तविक बनाने में सहायक-मौलिक अधिकारों ने लोगों को राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा समानता प्रदान की, परन्तु जब तक इन निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करके बेरोज़गारी दूर नहीं होती और आर्थिक व सामाजिक समानता की व्यवस्था नहीं हो जाती, राजनीतिक अधिकारों का कोई लाभ नहीं हो सकता।

5. लाभदायक नैतिक आदर्श (Useful Moral Precepts)-कुछ लोग निर्देशक सिद्धान्तों को नैतिक आदर्श के नाम से पुकारते हैं, परन्तु इस बात से भी उनकी उपयोगिता कम नहीं होती। संविधान में उनका उल्लेख करने से ये नैतिक आदर्श एक निश्चित रूप में तथा सदा जनता और सरकार के सामने रहेंगे।

6. न्यायपालिका के मार्गदर्शक (Guidelines for the Judiciary)-निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायपालिका के द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता, परन्तु फिर भी बहुत से मामलों में न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं और बहुत से मुकद्दमों में इनका उल्लेख भी किया गया है।

7. स्थिरता तथा निरन्तरता (Stability and Continuity)-निर्देशक सिद्धान्त से राज्य की नीति में एक प्रकार की स्थिरता और निरन्तरता आ जाती है। कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो, उसे इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर ही अपनी नीतियों का निर्माण करना होता है और शासन चलाना होता है। इससे शासन की नीति में स्थिरता और निरन्तरता का आना स्वभाविक है।

8. जनमत का समर्थन (Support of Public Opinion) निःसन्देह निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है, परन्तु इनके पीछे कानून से बढ़कर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर कोई शक्ति नहीं होती। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

9. ये भारत में वास्तविक लोकतन्त्र का विश्वास दिलाते हैं (Faith in real Democracy)-निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व इस बात में भी है कि भारत में ये वास्तविक लोकतन्त्र का विश्वास दिलाते हैं क्योंकि इनकी स्थापना से आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना होती है जो सच्चे लोकतन्त्र के लिए आवश्यक है।

10. ये सामाजिक क्रान्ति का आधार हैं (These are Basis of Social Revolution)-निर्देशक सिद्धान्त नई सामाजिक दशा के सूचक हैं। ये सामाजिक क्रान्ति का आधार हैं।

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निर्देशक सिद्धान्तों का संविधान में उल्लेख किया जाना निरर्थक नहीं बल्कि बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। सरकार और जनता के सामने इनके द्वारा ऐसे आदर्श प्रस्तुत कर दिए गए हैं जिन्हें लागू करने से भारत को धरती का स्वर्ग बनाया जा सकता है। लोकतन्त्र में कोई भी आसानी से इनकी अवहेलना नहीं कर सकता। इनके बारे में श्री एम० सी० छागला (M.C. Chhagla) ने लिखा है कि “यदि इन सिद्धान्तों को लागू कर दिया जाये तो हमारा देश वास्तव में धरती पर स्वर्ग बन जाएगा।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार
और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था। अनुच्छेद 37 के अनुसार, “इस भाग में शामिल उपबन्ध न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते। फिर भी इनमें जो सिद्धान्त रखे गए हैं, वे देश के शासन प्रबन्ध की आधारशिला हैं और कानून बनाते समय इन सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।”

प्रश्न 2.
भारत के संविधान में अंकित निर्देशक सिद्धान्तों के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप इस प्रकार है-

  • संसद् तथा कार्यपालिका के लिए निर्देश-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त भावी सरकारों तथा संसद के लिए कुछ नैतिक निर्देश हैं जिनके आधार पर सरकार को अपनी नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।
  • आर्थिक लोकतन्त्र-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • निर्देशक सिद्धान्त न्याययोग्य नहीं है।

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प्रश्न 3.
मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में चार अन्तर बताएं।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों और मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालय द्वारा लागू करवाया जा सकता है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता।
  • मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है। मौलिक अधिकार सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। वे सरकार को कोई विशेष कार्य करने से रोकते हैं। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप सकारात्मक है। वे सरकार को कोई विशेष कार्य करने का आदेश देते हैं।
  • मौलिक अधिकार व्यक्ति से और निर्देशक सिद्धान्त समाज से सम्बन्धित-मौलिक अधिकार मुख्यत: व्यक्ति से सम्बन्धित हैं और उनका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त सम्पूर्ण समाज के विकास पर बल देते हैं।
  • मौलिक अधिकारों से निर्देशक सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक है।

प्रश्न 4.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए चार समाजवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-
कुछ सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो समाजवादी व्यवस्था पर आधारित हैं। वे निम्नलिखित हैं-

  • राज्य ऐसी सामजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को आजीविका के साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार हो कि जन-साधारण के हित की प्राप्ति हो सके।

प्राश्न 5.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए चार उदारवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए उदारवादी सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का उचित कदम उठाएगा।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस वर्ष के अन्दर चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य कृषि तथा पशु-पालन का संगठन आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के आधार पर करेगा।

प्राश्न 6.
कोई चार गांधीवादी निर्देशक सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वह प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सके।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देगा।
  • राज्य शराब तथा अन्य नशीली वस्तुओं का जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, रोकने का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य गायों, बछड़ों तथा दूध देने वाले अन्य पशुओं के वध को रोकने के लिए प्रयत्न करेगा।

प्राश्न 7.
निर्देशक सिद्धान्तों की चार आधारों पर आलोचना करें।
उत्तर-
निर्देशक सिद्धान्तों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है-

  • ये कानूनी मुष्टिकोणों से कोई महत्त्व नहीं रखते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार इनके अनुसार काम नहीं करती तो उसके विरुद्ध न्यायालय में नहीं जाया जा सकता।
  • निर्देशक सिद्धान्तों के विषय बहुत अनिश्चित तथा अस्पष्ट-निर्देशक सिद्धान्तों में बहुत-सी बातें अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं। उमाहरणस्वरूप, समाजवादी सिद्धान्तों में मजदूरों तथा स्वामियों के परस्पर सम्बन्धों के विषय में कुछ नहीं कहा गया है।
  • पवित्र विचार-ये सिद्धान्त संविधान निर्माताओं की पवित्र भावनाओं का संग्रह मात्र ही है। इनसे अनभिज्ञ जनता को आसानी से झूठा संतोष प्रदान किया जा सकता है। सरकार इससे सस्ती लोकप्रियता प्राप्त कर सकती है, हार्दिक लोकप्रियता नहीं।
  • इनका सही ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है।

प्राश्न 8.
निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व बाताएं।
उत्तर-
निम्नलिखित बातों से निर्देशक सिमान्तों का महत्व स्पष्ट हो जाता है-

  • सरकार के लिए मार्गदर्शक-निर्देशक सिद्धान्तों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ये राजनीतिक दलों के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। चाहे कोई भी दल मन्त्रिमण्डल बनाए, वह आपनी नीतियों का निर्माण इन्हीं सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर ही करता है।
  • कल्यणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा-इन सिद्धान्तों के द्वारा कल्याणकरी राज्य के आदर्श की घोषण की गई है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों को अपनाना आवश्यक होता है, वे सब बातें निर्देशक सिद्धान्तों में पाई जाती हैं।
  • सरकार की सफलताओं को जांचने का मापदण्ड-इन सिद्धान्तों के द्वारा ही जनता सरकार की सफलताओं का अनुमन लगाती है। मतदाता इस आदर्श को सम्मुख रखकर ही अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने किस सीमा तक इन सिद्धान्तों का पालन किया है।
  • ये न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शन का काम करते हैं।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में दिए गए निर्देशक सिद्धान्तों में से कोई चार सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य ऐसे समाज का निर्माण करेगा जिसमें लोगों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्राप्त होगा।
  • स्त्रियों और पुरुषों को आजीविका कमाने के समान अवसर दिए जाएंगे।
  • देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून तथा समान न्याय संहिता की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • बच्चों और नवयुवकों की नैतिक पतन तथा आर्थिक शोषण से रक्षा हो।

प्रश्न 10.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को संविधान में समावेश करने का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर-

  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का उद्देश्य भारत में सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • निर्देशक सिद्धान्त विधानमण्डलों तथा कार्यपालिका को मार्ग दिखाते हैं कि उन्हें अपना अधिकार किस प्रकार प्रयोग करना चाहिए।
  • ये सिद्धान्त ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना चाहते हैं जिनमें न्याय, स्वतन्त्रता और समानता विद्यमान् हो तथा जनता सुखी और सम्पन्न हो।
  • निर्देशक सिद्धांत न्यायपालिका के लिए मार्ग दर्शक का काम करते हैं।

प्रश्न 11.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कौन-सी शक्ति काम कर रही है ?
उत्तर-
निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानून की शक्ति न होकर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं होती। जनमत की शक्ति उस शक्ति से लाख गुना अधिक होती है जो शक्ति कानून के पीछे होती है। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

प्रश्न 12.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में से किन्हीं चार सिद्धान्तों की व्याख्या करें जिनका सम्बन्ध आर्थिक, शैक्षिक स्वतन्त्रताओं तथा विदेश नीति से है।
उत्तर-

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • बच्चों और नवयुवकों की नैतिक पतन तथा आर्थिक शोषण से रक्षा हो।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस वर्ष के अन्दर 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।

प्रश्न 13.
भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्त लिखें।
उत्तर–
भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन अनुच्छेद 51 में किया गया है। अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित काम करने के लिए कहा गया है-

  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को प्रोत्साहन देगा।
  • राज्य दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखेगा।
  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों और कानूनों के लिए सम्मान पैदा करेगा।
  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को हल करने के लिए मध्यस्थ का रास्ता अपनाएगा।
  • राज्य को न संस्थाओं में विश्वास है जो कि विश्व-शान्ति व सुरक्षा के साथ सम्बन्धित हो।

प्रश्न 14.
“निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं।” सिद्ध कीजिए।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों की तरह न्याय-योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्त राज्यों के लिए कुछ निर्देश हैं। इनके पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है। इनको न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि कोई सरकर इनको लागू नहीं करती तो कोई व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता अर्थात् किसी न्यायालय द्वारा किसी भी सरकार को इन सिद्धान्तों को अपनाने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। यह राज्य या सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह इन सिद्धान्तों को कहां तक मानती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 15.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में से किन्हीं चार का उल्लेख कीजिए जिन्हें व्यावहारिक रूप दिया जा चुका है।
उत्तर-
भारत में निम्नलिखित नीति निर्देशक तत्त्वों को व्यावहारिक रूप दिया गया है

  • कमजोर वर्गों की भलाई-अनुसूचित जातियों, कबीलों और पिछड़े हुए वर्गों के बच्चों को स्कूलों और कॉलेजों में विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। सरकारी नौकरियों में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। संसद् और राज्य विधानमण्डल में इनके लिए 2020 तक सीटें सुरक्षित रखी गई हैं।
  • ज़मींदारी प्रथा का अन्त और भूमि-सुधार-किसानों की दशा सुधारने के लिए ज़मींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया है तथा भूमि सुधार कानूनों को पारित करके सम्पत्ति के लिए विकेन्द्रीयकरण की स्थापना का प्रयत्न किया गया है।
  • पंचवर्षीय योजनाएं-सरकार ने देश की आर्थिक व सामाजिक उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की। आजकल 12वीं पंचवर्षीय योजना चल रही है।
  • बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान में अंकित निर्देशक सिद्धान्तों के स्वरूप का वर्णन करें।
उत्तर-

  • संसद् तथा कार्यपालिका के लिए निर्देश-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त भावी सरकारों तथा संसद के लिए कुछ नैतिक निर्देश हैं जिनके आधार पर सरकार को अपनी नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।

प्रश्न 3.
मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दो अन्तर बताएं।
उत्तर-

  1. मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालय द्वारा लागू करवाया जा सकता है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता।
  2. मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप सकारात्मक है।

प्रश्न 4.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए कोई दो समाजवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य ऐसी सामजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को आजीविका के साधन प्राप्त हो सकें।

प्रश्न 5.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए दो उदारवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का उचित कदम उठाएगा।

प्रश्न 6.
कोई दो गांधीवादी निर्देशक सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वह प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सके।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देगा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान के किस भाग एवं किस अनुच्छेद में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-संविधान के भाग IV-A तथा अनुच्छेद 51-A में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. संविधान के भाग IV-A में नागरिकों के कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 3. नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को संविधान में किस संशोधन के द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 4. संविधान के किस भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-भाग IV में।

प्रश्न 5. संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा से संबंधित है ?
उत्तर-अनुच्छेद 51 में।

प्रश्न 6. मौलिक अधिकारों एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय संगत हैं, जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं।

प्रश्न 7. निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के कितने-से-कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 36 से 51 तक।

प्रश्न 8. संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं ?
उत्तर-अनुच्छेद 37 के अनुसार।

प्रश्न 9. शिक्षा के अधिकार का वर्णन किस भाग में किया गया है?
उत्तर-शिक्षा के अधिकार का वर्णन भाग III में किया गया है।

प्रश्न 10. किस संवैधानिक संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का रूप दिया गया?
उत्तर-86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …….. संशोधन द्वारा …….. में मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया।
2. वर्तमान समय में संविधान में ……….. मौलिक कर्त्तव्य शामिल हैं।
3. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन अनुच्छेद ………. तक में किया गया है।
4. मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत ……… नहीं हैं।
उत्तर-

  1. 42वें, IV-A
  2. ग्यारह
  3. 36 से 51
  4. न्यायसंगत।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारतीय संविधान में 44वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्य शामिल किये गए।
2. आरंभ में भारतीय संविधान में 6 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया था, परंतु वर्तमान समय में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है।
3. नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।
4. अनुच्छेद 51 के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।
5. निर्देशक सिद्धांत कानूनी दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व रखते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
किस संविधान से हमें निर्देशक सिद्धांतों की प्रेरणा प्राप्त हुई है ?
(क) ब्रिटेन का संविधान
(ख) स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान
(ग) अमेरिका का संविधान
(घ) आयरलैंड का संविधान।
उत्तर-
(घ) आयरलैंड का संविधान।

प्रश्न 2.
निर्देशक सिद्धान्तों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-
(क) ये नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हैं
(ख) इनको न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है
(ग) ये सकारात्मक हैं
(घ) ये सिद्धान्त राज्य के अधिकार हैं।
उत्तर-
(ग) ये सकारात्मक हैं

प्रश्न 3.
“राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक ऐसे चैक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है।” यह कथन किसका है ?
(क) प्रो० के० टी० शाह
(ख) मिस्टर नसीरूद्दीन
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) महात्मा गाँधी।
उत्तर-
(क) प्रो० के० टी० शाह

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा मौलिक कर्त्तव्य नहीं है ?
(क) संविधान का पालन करना
(ख) भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना
(ग) सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना
(घ) माता-पिता की सेवा करना।
उत्तर-
(घ) माता-पिता की सेवा करना।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 22 मौलिक अधिकार

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की विशेषताओं की व्याख्या करो।
(Discuss the special features of the Fundamental Rights as given in the Indian Constitution.)
अथवा
हमारे संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की प्रकृति की व्याख्या करो।
(Discuss the nature of Fundamental Rights as mentioned in our Constitution.)
उत्तर-
भारत के संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है और संविधान द्वारा उनकी केवल घोषणा ही नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा भी की गई है। भारत के संविधान में मूल अधिकारों का वर्णन केवल इसलिए ही नहीं किया गया कि उस समय यह कोई फैशन था। यह वर्णन उस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए लिया गया है, जिसके अनुसार सरकार कानून के अनुसार कार्य करे, न कि गैर-कानूनी तरीके से।

मौलिक अधिकारों की प्रकृति अथवा स्वरूप
अथवा
मौलिक अधिकारों की विशेषताएं

संविधान ने जो भी मौलिक अधिकार घोषित किए हैं, उनकी कुछ अपनी ही विशेषताएं हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

1. व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े व्यापक तथा विस्तृत हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं (Art. 12-35) में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तार से व्याख्या की गई है।

2. मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की यह विशेषता है कि ये भारत के सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।

3. मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं-कोई भी अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं हो सकता। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार भी असीमित नहीं हैं। संविधान के अन्दर ही मौलिक अधिकारों पर अनेक प्रतिबन्ध लगाए गए हैं।

4. मौलिक अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं-मौलिक अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकारों की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और उनके माध्यम से प्रत्येक ऐसी संस्था जिसको कानून बनाने का अधिकार है, पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा स्थानीय सरकारों को मौलिक अधिकारों के अनुसार ही कानून बनाने पड़ते हैं तथा ये कोई ऐसा कानून नहीं बना सकतीं जो मौलिक अधिकारों पर के विरुद्ध हो।

5. अधिकार न्याय योग्य हैं-मौलिक अधिकार न्यायालयों द्वारा लागू किए जा सकते हैं। यदि इन अधिकारों में से किसी का उल्लंघन किया जाता है, तो वह व्यक्ति जिसको इनके उल्लंघन से हानि होती है, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संसद् अथवा राज्य विधान-मण्डलों के पास हुए कानून तथा आदेश को अवैध घोषित कर सकती है यदि वह कानून अथवा आदेश संविधान के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हो।

6. अधिकार निलम्बित किए जा सकते हैं-राष्ट्रपति संकट काल की घोषणा करके संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को निलम्बित कर सकता है तथा साथ ही उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में इन अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध अपील करने के अधिकार का भी निषेध कर सकता है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत दिए निजी और स्वतन्त्रता के अधिकार को आपात्कालीन स्थिति के दौरान भी स्थगित नहीं किया जा सकता, परन्तु 59वें संशोधन द्वारा इस अधिकार को भी निलम्बित किया जा सकता है।

7. नकारात्मक तथा सकारात्मक अधिकार-हमारे संविधान में नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों प्रकार के अधिकार हैं। नकारात्मक अधिकार निषेधों की तरह हैं जो राज्य की शक्ति पर सीमाएं लगाते हैं। उदाहरणस्वरूप अनुच्छेद 18 राज्यों को आदेश देता है कि वह किसी नागरिक को सेना या विद्या सम्बन्धी उपाधि के अलावा और किसी प्रकार की उपाधि नहीं देंगे, यह नकारात्मक अधिकार है। सकारात्मक अधिकार वे होते हैं जो नागरिक को किसी काम को करने की स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। बोलने का अधिकार सकारात्मक अधिकार है।

8. कुछ मौलिक अधिकार विदेशियों को भी प्राप्त हैं-संविधान में कुछ अधिकार तो केवल भारतीय नागरिकों को दिए गए हैं, जैसे अनुच्छेद 15, 16, 19 तथा 30 में वर्णित अधिकार और कुछ अधिकार नागरिकों तथा विदेशियों को समान रूप में मिले हैं, जैसे कानून के समक्ष समानता तथा समान संरक्षण, धर्म की स्वतन्त्रता, शोषण के विरुद्ध अधिकार इत्यादि।

9. इनका संशोधन किया जा सकता है-मौलिक अधिकारों की अनुच्छेद 368 में दी गई विधि कार्यविधि में संशोधन किया जा सकता है। इसके लिए कुल सदस्यों के बहुमत एवं संसद् के दोनों सदनों में से प्रत्येक में उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत का होना ज़रूरी है।

10. मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए विशेष संवैधानिक व्यवस्था-अनुच्छेद 32 में लिखा है कि भारत में किसी भी अधिकारी द्वारा यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों को छीनने का प्रयत्न किया जाता है, तो वह अपने अधिकारों को लागू कराने के लिए उचित विधि द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है ताकि आदेश अथवा रिट, हैबीयस कॉर्पस (Habeaus Corpus), मण्डामस (Mandamus), वर्जन (Prohibition), कौवारण्टो (Quo Warranto) एवं सरटरारी (Certiorari) जो भी उचित हो, जारी करवा सके।

11. साधारण व्यक्तियों तथा संस्थाओं पर लागू होना-मौलिक अधिकारों का प्रभाव सरकार तथा सरकारी संस्थाओं के अतिरिक्त गैर-सरकारी व्यक्तियों और संस्थाओं पर भी है।

12. संविधान नागरिक स्वतन्त्रताओं पर अधिक बल देता है-मौलिक अधिकारों की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें नागरिक स्वतन्त्रताओं (कानून के समक्ष समता, भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता इत्यादि) पर ही अधिक बल दिया गया है। मौलिक अधिकारों में आर्थिक अधिकारों, जैसे काम करने का अधिकार का वर्णन नहीं किया है।

13. भारतीय संविधान में न तो प्राकृतिक और न ही अप्रगणित अधिकारों का वर्णन है (No Natural and Uneumerated Rights in the Indian Constitution)-प्राकृतिक अधिकार व्यक्ति को प्रकृति की ओर से मिले होते हैं। यह मनुष्य को जन्म से ही प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों का सम्बन्ध प्राकृतिक न्याय से है। यह राज्य और सरकार के जन्म से पूर्व के हैं, अतः अधिकारों के सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों का आधार संविधान में लिखा जाना मात्र नहीं है। इनका आधार सामाजिक समझौता है। सामाजिक समझौते के आधार पर ही राज्य की स्थापना हुई थी, परन्तु भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का आधार प्राकृतिक आधार नहीं है।

अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय संविधान में प्रगणित अधिकारों की व्याख्या तो कर ही सकता है, साथ ही वह अनेकों दूसरे अधिकारों की व्याख्या कर सकता है जिसका स्पष्ट रूप से संविधान में वर्णन नहीं, ऐसा अमेरिका के संविधान में लिखा है। किन्तु गोपालन बनाम मद्रास (चेन्नई) राज्य वाले विवाद में भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने यह फैसला कर दिया था कि “जब तक विधानमण्डल द्वारा बनाया गया कोई अधिनियम संविधान के किसी उपबन्ध के विपरीत नहीं, उस अधिनियम को केवल इस आधार पर कि न्यायालय उसे संविधान की भावना के विरुद्ध समझता है अवैध नहीं घोषित किया जाएगा।”

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(Explain in brief the meaning of the fundamental rights given in the constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान में दिए गए नगारिक अधिकारों का संक्षेप में वर्णन करें।
(Explain in brief the fundamental rights enshrined in the India constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान में अंकित मौलिक अधिकारों का वर्णन करो। इनका महत्त्व क्या है ?
(Describe briefly the fundamental rights as given in the Indian constitution. What is their significance ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में धारा 12 से 35 तक की धाराओं में किया गया है।
44वें संशोधन से पूर्व संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा गया था परन्तु 44वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 में संशोधन करके और अनुच्छेद 31 को हटा कर सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकाल कर कानूनी अधिकार बना दिया गया है। अतः 44वें संशोधन के बाद 6 मौलिक अधिकार रह गये हैं जो निम्नलिखित हैं

1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 व 18) [Right to Equality (Art. 14, 15, 16, 17 and 18)] – समानता का अधिकार एक महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है जिसका वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। भारतीय संविधान में नागरिकों को निम्नलिखित समानता प्रदान की गई है

(I) कानून के समक्ष समानता (Equality before Law, Art. 14) संविधान के अनुच्छेद 14 में “कानून के समक्ष समानता और कानूनों के समान संरक्षण” शब्दों का एक साथ प्रयोग किया गया है और संविधान में लिखा गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा।

कानून के समक्ष समानता (Equality before Law) का अर्थ यह है कि कानून के सामने सभी बराबर हैं और किसी को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। कोई भी व्यक्ति देश के कानून से ऊपर नहीं है। सभी व्यक्ति भले ही उनकी कुछ भी स्थिति हो, साधारण कानून के अधीन हैं और उन पर साधारण न्यायालय में मुकद्दमा चलाया जा सकता है।
कानून के समान संरक्षण (Equal Protection of Law) का यह आभप्राय कि समान परिस्थितियों में सब के साथ समान व्यवहार किया जाए।

अपवाद (Exceptions)—इस अधिकार के निम्नलिखित अपवाद हैं।

  • विदेशी राज्यों के अध्यक्ष तथा राजदूतों के विरुद्ध भारतीय कानूनों के अन्तर्गत कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।
  • राष्ट्रपति तथा राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध उनके कार्यकाल में कोई फौजदारी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता।
  • मन्त्रियों, विधानमण्डल के सदस्यों, न्यायाधीशों और दूसरे कर्मचारियों को भी कुछ विशेषाधिकार दिए गए हैं और ये विशेषाधिकार साधारण नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं।

(II) भेदभाव की मनाही (Prohibition of Discrimination, Art. 15)—अनुच्छेद 15 के अनुसार अग्रलिखित व्यवस्था की गई है-

  • राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल वंश, जाति लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं करेगा।
  • दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और मनोरंजन के सार्वजनिक स्थानों के ऊपर दिए गए किसी आधार पर किसी नागरिक को अयोग्य व प्रतिबन्धित नहीं किया जाएगा।
  • उन कुओं, तालाबों, नहाने के घाटों, सड़कों व सैर के स्थानों से जिनकी राज्य की निधि से अंशतः या पूर्णतः देखभाल की जाती है अथवा जिनको सार्वजनिक प्रयोग के लिए दिया गया हो, किसी नागरिक को जाने की मनाही नहीं होगी अर्थात् सार्वजनिक स्थान सभी नागरिकों के लिए बिना किसी भेदभाव के खुले हैं।

अपवाद (Exception)-अनुच्छेद 15 में दिए गए अधिकारों के निम्न दो अपवाद हैं-

  • राज्य स्त्रियों और बच्चों के हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था कर सकता है।
  • राज्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जन-जातियों तथा अनुसूचित कबीलों के लोगों की भलाई के लिए विशेष व्यवस्थाओं का प्रबन्ध कर सकता है।

(III) सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता (Equality of Opportunity in Matter of Public Employment-Art. 16) अनुच्छेद 16 राज्य में सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियां या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, लिंग, जन्म-स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

(IV) छुआछूत की समाप्ति (Abolition of Untouchability, Art. 17)-अनुच्छेद 17 द्वारा छुआछूत को समाप्त किया गया है। किसी भी व्यक्ति के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना या उसको अछूत समझकर सार्वजनिक स्थानों, होटलों, घाटों, तालाबों, कुओं, सिनेमा घरों, पार्कों तथा मनोरंजन के स्थानों के उपयोग से रोकना कानूनी अपराध है। छुआछूत की समाप्ति एक महान् ऐतिहासिक घटना है।

(V) उपाधियों की समाप्ति (Abolition of Titles, Art. 18) अनुच्छेद 18 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि-

  • सेना या शिक्षा सम्बन्धी उपाधि के अतिरिक्त राज्य कोई और उपाधि नहीं देगा।
  • भारत का कोई भी नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
  • कोई व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं, परंतु भारत में किसी लाभप्रद अथवा भरोसे के पद पर नियुक्त है, राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना किसी विदेशी से कोई उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता।
  • कोई भी व्यक्ति जो राज्य के किसी लाभदायक पद पर विराजमान है, राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना कोई भेंट, वेतन अथवा किसी प्रकार का पद विदेशी राज्य से प्राप्त नहीं कर सकता।

भारत सरकार नागरिकों को भारत रत्न (Bharat Ratan), पदम् विभूषण (Padam Vibhushan), पदम् भूषण (Padam Bhushan), पद्म श्री (Padam Shri) आदि उपाधियां देती है जिस कारण अलोचकों का कहना है कि ये उपाधियां अनुच्छेद 18 के साथ मेल नहीं खातीं।

2. स्वतन्त्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 से 22 तक (Right to Freedom Art. 19 to 22) – स्वतन्त्रता का अधिकार प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि समानता का अधिकार। भारत के संविधान में स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 19 से 22 में किया गया है। स्वतन्त्रता के अधिकार को संविधान का ‘प्राण तथा आत्मा’ और स्वतन्त्रताओं का पत्र कहा जाता है। श्री एम० वी० पायली (M. V. Pylee) ने लिखा है, “स्वतन्त्रता के अधिकार सम्बन्धी ये चार धाराएं मौलिक अधिकारों के अध्याय का मूल आधार हैं।” अब हम अनुच्छेद 19 से 22 तक में दिए गए स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन करते हैं-

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(क) अनुच्छेद 19-अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत नागरिकों को निम्नलिखित 6 स्वतन्त्रताएं प्राप्त हैं

  • भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता-प्रत्येक नागरिक को भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। कोई भी नागरिक बोलकर या लिखकर अपना विचार प्रकट कर सकता है परन्तु भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता असीमित नहीं है।
  • शान्तिपूर्ण तथा बिना अस्त्रों के सम्मेलन की स्वतन्त्रता-भारतीय नागरिकों को शान्तिपूर्ण तथा बिना हथियारों के अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सम्मेलन करने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु राज्य भारत की प्रभुसत्ता और अखण्डता, सार्वजनिक व्यवस्था के हित में शान्तिपूर्वक तथा बिना शस्त्रों के इकट्ठे होने के अधिकार को सीमित कर सकता है।
  • संस्था तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता-संविधान नागरिकों को अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संस्था तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। परन्तु संघ तथा संस्था बनाने के अधिकार को राज्य भारत की प्रभुसत्ता तथा अखण्डता, सार्वजनिक व्यवस्था तथा नैतिकता के हित में उचित प्रतिबन्ध लगाकर सीमित कर सकता है।
  • समस्त भारत में चलने-फिरने की स्वतन्त्रता-संविधान नागरिकों को समस्त भारत में घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। भारत के किसी भी भाग में जाने के लिए पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं है, परन्तु राज्य जनता के हितों और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
  • भारत के किसी भाग में रहने तथा बसने की स्वतन्त्रता- भारतीय नागरिक किसी भी भाग में रह सकते हैं
    और अपना निवास स्थान बना सकते हैं। राज्य जनता के हितों और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर भी उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
  • कोई भी व्यवसाय, पेशा करने अथवा व्यापार एवं वाणिज्य करने की स्वतन्त्रता- प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा से कोई भी व्यवसाय, पेशा अथवा व्यापार करने की स्वतन्त्रता दी गई है। राज्य किसी नागरिक को कोई विशेष व्यवसाय अपनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।

(ख) जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की सुरक्षा (Right of Life and Personal Liberty-Art. 20-22)

अनुच्छेद 20 व्यक्ति और उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करता है; जैसे-

  • किसी व्यक्ति को किसी ऐसे कानून का उल्लंघन करने पर दण्ड नहीं दिया जा सकता जो कानून उसके अपराध करते समय लागू नहीं था।
  • किसी व्यक्ति को उससे अधिक सज़ा नहीं दी जा सकती जितनी अपराध करते समय प्रचलित कानून के अधीन दी जा सकती है।
  • किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध उसी अपराध के लिए एक बार से अधिक मुकद्दमा नहीं चलाया जाएगा और दण्डित नहीं किया जाएगा।
  • किसी अभियुक्त को अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 21 में लिखा है कि कानून द्वारा स्थापित पद्धति के बिना, किसी व्यक्ति को उसके जीवन और उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।

शिक्षा का अधिकार (Right to Education)-दिसम्बर, 2002 में राष्ट्रपति ने 86वें संवैधानिक संशोधन को अपनी स्वीकृति प्रदान की। इस स्वीकृति के बाद शिक्षा का अधिकार (Right to Education) संविधान के तीसरे भाग में शामिल होने के कारण एक मौलिक अधिकार बन गया है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त होगा। बच्चों के माता-पिता अभिभावकों या संरक्षकों का यह कर्त्तव्य होगा कि वे अपने बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध करवाएं, जिनसे उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा के अधिकार के लागू होने के बाद भारतीय बच्चे इस अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं, क्योंकि मौलिक अधिकारों में शामिल होने के कारण ये अधिकार न्याय योग्य है।

1 अप्रैल, 2010 से बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009′ के लागू होने के पश्चात् 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पाने का कानूनी अधिकार मिल गया है।

(ग) गिरफ्तारी एवं नज़रबन्दी के विरुद्ध रक्षा (Protection against Arrest and Detention in Certain Cases-Art. 22) –
अनुच्छेद 22 गिरफ्तार तथा नजरबन्द नागरिकों के अधिकारों की घोषणा करता है। अनुच्छेद 22 के अनुसार-

  • गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को, गिरफ्तारी के तुरन्त पश्चात् उसकी गिरफ्तारी के कारणों से परिचित कराया जाना चाहिए।
  • उसे अपनी पसन्द के वकील से परामर्श लेने और उसके द्वारा सफाई पेश करने का अधिकार होगा।
  • बन्दी-गृह में बन्द किए गए किसी व्यक्ति को बन्दी-गृह से किसी मैजिस्ट्रेट के न्यायालय तक की यात्रा के लिए आवश्यक समय निकाल कर 24 घण्टों के अन्दर-अन्दर निकट-से-निकट मैजिस्ट्रेट के न्यायालय में उपस्थित किया जाए।
  • बिना मैजिस्ट्रेट की आज्ञा के 24 घण्टे से अधिक समय के लिए किसी व्यक्ति को कारावास में नहीं रखा जाएगा।
    अपवाद-अनुच्छेद 22 में लिखे अधिकार उस व्यक्ति को नहीं मिलते जो शत्रु विदेशी है या निवारक नजरबन्दी कानून के अनुसार गिरफ्तार किया गया हो।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
(Right Against Exploitation-Art. 23-24) – संविधान के 23वें तथा 24वें अनुच्छेदों में नागरिकों के शोषण के विरुद्ध अधिकारों का वर्णन किया गया है। इस अधिकार का उद्देश्य है कि समाज का कोई भी शक्तिशाली वर्ग किसी निर्बल वर्ग पर अन्याय न कर सके।

(I) मानव के व्यापार और बलपूर्वक मज़दूरी की मनाही (Prohibition of traffic in human beings and forced Labour)-अनुच्छेद 23 के अनुसार ‘मनुष्यों का व्यापार, बेगार और अन्य प्रकार का बलपूर्वक श्रम निषेध है और इस व्यवस्था का उलंलघन करना दण्डनीय अपराध है।’ जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब भारत के कई भागों में दासता और बेगार की प्रथा प्रचलित थी। ज़मींदार किसानों से बहुत काम करवाया करते थे, परन्तु उसके बदले उनको कोई मज़दूरी नहीं दी जाती थी। मनुष्यों को विशेषकर स्त्रियों को पशुओं की तरह खरीदा और बेचा जाता था, अतः इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए अनुच्छेद 23 द्वारा उठाया गया पग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
अपवाद-परन्तु इस अधिकार का एक अपवाद है। सरकार को जनता के हितों के लिए अपने नागरिकों से आवश्यक सेवा (Compulsory Service) करवाने का अधिकार है।

(II) कारखानों आदि में बच्चों को काम पर लगाने की मनाही (Prohibition of employment of children in factories etc.)–अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी भी बच्चे को किसी भी कारखाने अथवा खान में नौकर नहीं रखा जा सकता और न ही किसी संकटमयी नौकरी में लगाया जा सकता है। यह इसलिए किया गया है ताकि बच्चों को काम में लगाने के स्थान पर उनको शिक्षा दी जा सके। इसीलिए निर्देशक सिद्धान्तों में राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा का प्रबन्ध करे।

4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25, 26, 27 व 28)
(Right to Freedom of Religion-Art. 25, 26, 27 and 28) –
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है।

(i) अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा किसी भी धर्म को मानने व उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था नैतिकता, स्वास्थ्य और संविधान के तीसरे भाग की अन्य व्यवस्थाओं पर विचार करते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता (Freedom of Conscience) का अधिकार प्राप्त है और बिना रोक-टोक के धर्म में विश्वास (Profess) रखने, धार्मिक कार्य करने (Practice) तथा प्रचार (Propagation) करने का अधिकार है। यह अनुच्छेद भारत में एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। राज्य किसी धर्म विशेष का पक्षपात नहीं करता है और न ही उसे कोई विशेष सुविधा ही प्रदान करता है।

(ii) अनुच्छेद 26 के अनुसार धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता (Freedom to manage Religious Affairs) दी गई है। सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता को ध्यान में रखते हुए धार्मिक समुदायों या उसके किसी भाग को निम्नलिखित अधिकार दिए गए हैं
(क) धार्मिक एवं परोपकार के उद्देश्यों से संस्थाएं स्थापित करे तथा उन्हें चलाए। (ख) धार्मिक मामलों में अपने कार्यों का प्रबन्ध करे। (ग) चल तथा अचल सम्पत्ति का स्वामित्व ग्रहण करे। (घ) वह अपनी सम्पत्ति का कानून के अनुसार प्रबन्ध करे।

(iii) अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी धर्म विशेष के प्रसार के लिए कर न देने की स्वतन्त्रता है-किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी विशेष धर्म या धार्मिक समुदाय के विकास या बनाए रखने के लिए खर्च किया जाता हो।

(iv) सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर रोक-अनुच्छेद 28 में निम्नलिखित व्यवस्था की गई है
(क) किसी भी सरकारी शिक्षण संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी, परन्तु यह धारा ऐसी शिक्षण संस्था ‘ पर लागू नहीं होती जिसका प्रबन्ध सरकार करती है, परन्तु जिसकी स्थापना किसी धनी, दानी अथवा ट्रस्ट द्वारा की गई है, तो ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देना वांछित घोषित करता है।
(ख) गैर-सरकारी शिक्षा संस्थाओं में जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है अथवा जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त होती है किसी विद्यार्थी को उसकी इच्छा के विरुद्ध धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने या धार्मिक पूजा में सम्मिलित होने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। यदि विद्यार्थी वयस्क न हो तो उसके संरक्षक की अनुमति आवश्यक है।

धार्मिक स्वतन्त्रता से स्पष्ट पता चलता है कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है जिसमें व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार अपने धर्म को मानने की स्वतन्त्रता दी गई है।

5. सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) (Cultural and Educational Rights—Art. 29 and 30)- भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले लोग हैं जिनकी भाषा, रीति-रिवाज और सभ्यता एक-दूसरे से भिन्न हैं। अनुच्छेद 29 तथा 30 के अधीन नागरिकों को विशेषतः अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। ये अधिकार निम्नलिखित हैं-

(क) भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार (Right to conserve the Language, Script and Culture)-

  • अनुच्छेद 29 के अनुसार भारत के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग या उसके किसी भाग को जिसकी अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति हो, उसे यह अधिकार है कि वह उनकी रक्षा करे।
    अनुच्छेद 29 के अनुसार केवल अल्पसंख्यकों को ही अपनी भाषा, संस्कृति इत्यादि को सुरक्षित रखने का अधिकार प्राप्त नहीं है बल्कि यह अधिकार नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को प्राप्त है।
  • किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाई जाने वाली शिक्षा संस्था में प्रवेश देने से धर्म, जाति, वंश, भाषा या इसमें किसी के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता।

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(ख) अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा-

  • अनुच्छेद 30 के अनुसार सभी अल्पसंख्यकों को चाहे वे धर्म पर आधारित हों या भाषा पर, यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी इच्छानुसार शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करें तथा उनका प्रबन्ध करें।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार राज्य द्वारा शिक्षण संस्थाओं को सहायता देते समय शिक्षा संस्था के प्रति इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा कि अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध के अधीन है, चाहे वह अल्पसंख्यक भाषा के आधार पर हो या धर्म के आधार पर।

6. संवैधानिक उपायों का अधिकार (अनुच्छेद 32) (Right to Constitutional Remedies—Art. 32) – अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की प्राप्ति और रक्षा के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकता है। यदि सरकार हमारे किसी मौलिक अधिकार को लागू नहीं करती या उसके विरुद्ध कोई काम करती है तो उसके विरुद्ध न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है और न्यायालय द्वारा उस अधिकार को लागू करवाया जा सकता है या उस कानून को रद्द करवाया जा सकता है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय को इस सम्बन्ध में कई प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की कई पक्षों से आलोचना की गई है। मौलिक अधिकारों द्वारा नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा की गई है और कार्यपालिका तथा संसद् की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगा दिया गया है। हम एम० वी० पायली (M. V. Pylee) के इस कथन से सहमत हैं कि “सम्पूर्ण दृष्टि से संविधान में अंकित मौलिक अधिकार भारतीय प्रजातन्त्र को दृढ़ तथा जीवित रखने का आधार हैं।”

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में लिखित संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकार पर विवेचना कीजिए।
(Discuss the fundamental right to constitutional remedies.)
उत्तर-
संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन कर देना ही काफ़ी नहीं है, इनकी सुरक्षा के उपायों की व्यवस्था भी उतनी ही आवश्यक है, इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में न्यायिक उपचारों की व्यवस्था की। इन उपचारों का वर्णन अनुच्छेद 32 में किया गया है। अनुच्छेद 32 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है-

  • मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को उचित कार्यवाही करने का अधिकार प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 226 के अनुसार इन मौलिक अधिकारों को लागू करवाने का अधिकार उच्च न्यायालय को भी दिया गया है।
  • सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए निर्देश, आदेश और लेख-बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), निषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari) व अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto) जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
  • संसद् कानून द्वारा किसी भी न्यायालय को, सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों को हानि पहुंचाए बिना उसके क्षेत्राधिकार को स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत आदेश (Writ) जारी करने की सब या कुछ शक्ति दे सकती है।
  • उन परिस्थितियों को छोड़ कर जिनका संविधान में वर्णन किया गया है संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकारों को स्थगित नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए निम्नलिखित आदेश जारी कर सकता है-

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus)-‘हेबियस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो’, (Let us have the body)। इस आदेश के अनुसार न्यायालय किसी अधिकारी को जिसने किसी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसकी गिरफ्तारी के कानून का औचित्य या अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने का आदेश दे सकता है। अतः इस प्रकार की यह व्यवस्था नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए बहुत बड़ी सुरक्षा है।

2. परमादेश का आज्ञा पत्र (Writ of Mandamus)-‘मैण्डैमस’ शब्द भी लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है, “हम आदेश देते हैं।” (We Command) । इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसे कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो। ये आदेश केवल सरकारी कर्मचारियों या अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध नहीं बल्कि स्वयं सरकार तथा अधीनस्थ न्यायालयों, न्यायिक संस्थाओं के विरुद्ध भी जारी किया जा सकता है यदि वे अपने अधिकारों का उचित प्रयोग और कर्त्तव्य का पालन न करें।

3. प्रतिषेध अथवा मनाही आज्ञा पत्र (Writ of Prohibition)-इस शब्द का अर्थ है “रोकना अथवा मनाही करना”। इस आदेश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय किसी निम्न न्यायालय को आदेश देता है कि वह अमुक कार्य जो उसके अधिकार-क्षेत्र से बाहर है न करे अथवा एक दम बन्द कर दे। जहां परमादेश किसी कार्य को करने का आदेश देता है वहां प्रतिषेध किसी कार्य को न करने का आदेश देता है। प्रतिषेध केवल न्यायिक अथवा अर्द्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों के विरुद्ध जारी किया जा सकता है और उस सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता जो न्यायिक कार्य न कर रहा हो।

4. उत्प्रेषण लेख (Writ of Certiorari)—इसका अर्थ है, “अच्छी प्रकार सूचित करो।” यह आदेश न्यायालय निम्न न्यायालय को जारी करता है जिसके द्वारा निम्न न्यायालय को किसी अभियोग के विषय में अधिक जानकारी देने का आदेश दिया जाता है। यह लेख निम्न न्यायालय के मुकद्दमे की सुनवाई आरम्भ होने से पहले तथा उसके बाद भी जारी किया जाता है।

5. अधिकार-पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto)—इसका अर्थ है “किस के आदेश से” अथवा किस अधिकार से। यह आदेश उस समय जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य को करने का दावा करता है जिसको करने का उसको अधिकार न हो। इस लेख (Writ) के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को पद ग्रहण करने से रोकने के लिए निषेध जारी कर सकता है और उक्त पद के रिक्त होने की तब तक के लिए घोषणा कर सकता है जिसके लिए अवकाश प्राप्ति की उम्र 70 से कम है तो न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध अधिकार-पृच्छा लेख जारी कर उस पद को रिक्त घोषित कर सकता है।

डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) ने अनुच्छेद 32 में दिए गए संवैधानिक उपचारों को संविधान की आत्मा तथा हृदय बताया है। उन्होंने अनुच्छेद 32 के सम्बन्ध में कहा था, “यदि मुझ से कोई यह पूछे कि संविधान का कौन-सा महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद है, जिसके बिना संविधान प्रभाव शून्य हो जाएगा तो मैं इस अनुच्छेद के अतिरिक्त किसी और अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान का हृदय है।”

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में दिए हुए मौलिक अधिकारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करो।
(Give a critical assessment of the fundamental rights as contained in the constitution.)
उत्तर-
वर्तमान युग में प्राय: सभी देशों में नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए जाते हैं क्योंकि बिना मौलिक अधिकारों के व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। भारत में तो मौलिक अधिकारों की अन्य देशों के मुकाबले में आवश्यकता अधिक थी। इसी कारण संविधान निर्माताओं ने संविधान में मौलिक अधिकारों की बड़ी विस्तृत व्याख्या की। संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 14 से 32 तक में मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गई है।

44वें संशोधन से पूर्व संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा गया था परन्तु 44वें संशोधन के अन्तर्गत सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकालकर कानूनी अधिकार बनाने की व्यवस्था की गई है। अतः 44वें संशोधन के बाद 6 मौलिक अधिकार रह गए हैं जो कि अग्रलिखित हैं-

  • समानता का अधिकार (Right to Equality)
  • स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom)
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation)
  • धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Religious Freedom)
  • सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (Cultural and Educational Right)
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

नोट-इन अधिकारों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।

मौलिक अधिकारों की आलोचना (Criticism of Fundamental Rights) – मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित अधिकारों पर कड़ी आलोचना की गई है

1. बहुत अधिक बन्धन- मौलिक अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध लगाए गए हैं कि अधिकारों का महत्त्व बहुत कम हो गया है। इन अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध हैं कि नागरिकों को यह समझने के लिए कठिनाई आती है कि इन अधिकारों द्वारा उन्हें कौन-कौन सी सुविधाएं दी गई हैं।

2. निवारक नज़रबन्दी व्यवस्था-अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की व्यवस्था की गई है, परन्तु इसके साथ ही संविधान में निवारक नजरबन्दी की भी व्यवस्था की गई है। जिन व्यक्तियों को निवारक नज़रबन्दी कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया हो उनको अनुच्छेद 22 में दिए गए अधिकार प्राप्त नहीं होते। निवारक नज़रबन्दी के अधीन सरकार कानून बना कर किसी भी व्यक्ति को बिना मुकद्दमा चलाए अनिश्चित काल के लिए जेल में बन्द कर सकती है तथा उसकी स्वतन्त्रता का हनन कर सकती है।

3. आर्थिक अधिकारों का अभाव-मौलिक अधिकारों की इसलिए भी कड़ी आलोचना की गई है कि इस अध्याय में आर्थिक अधिकारों का वर्णन नहीं किया गया है जबकि समाजवादी राज्यों में आर्थिक अधिकार भी दिए जाते हैं।

4. संकटकाल के समय अधिकार स्थागित किए जा सकते हैं-राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत संकटकाल की घोषणा कर के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर सकता है। राष्ट्रपति द्वारा मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जाना लोकतन्त्र की भावना के विरुद्ध है।

5. मौलिक अधिकारों की भाषा कठिन और अस्पष्ट मौलिक अधिकारों की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि मौलिक अधिकारों की भाषा उलझन वाली तथा कठिन है।

6. न्यायपालिका के निर्णय संसद् के कानूनों द्वारा रद्द-सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार संसद् के कानूनों को इस आधार पर रद्द किया है कि वे कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, परन्तु संसद् ने संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका द्वारा रद्द घोषित किए गए कानूनों को वैध तथा संवैधानिक घोषित कर दिया।

मौलिक अधिकारों का महत्त्व (Importance of Fundamental Rights) – यह कहना है कि मौलिक अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं है एक बड़ी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 1950 में ‘लीडर’ नामक पत्रिका ने मौलिक अधिकारों के बारे में कहा था कि “व्यक्तिगत अधिकारों पर लेख जनता को कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता की सम्भावना के विरुद्ध आश्वासन देता है। इन मौलिक अधिकारों का मनोवैज्ञानिक महत्त्व है, जिसकी कोई भी बुद्धिमान राजनीतिज्ञ उपेक्षा नहीं कर सकता।’ मौलिक अधिकारों का व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के सम्बन्ध में विशेष महत्त्व है। मौलिक अधिकार वास्तव में लोकतन्त्र की आधारशिला हैं। मौलिक अधिकारों के अध्ययन का महत्त्व निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं-व्यक्ति अपने व्यक्तित्व.का विकास तभी कर सकता है जब उसे आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार नागरिकों को वे सुविधाएं प्रदान करते हैं जिनके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है।

2. मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता को रोकते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इस में है कि ये सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं। केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारें शासन चलाने के लिए अपनी इच्छानुसार कानून नहीं बना सकतीं। कोई भी सरकार इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।

3. मौलिक अधिकार व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में उचित सामंजस्य स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों द्वारा व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में सामंजस्य उत्पन्न करने के लिए काफ़ी सीमा तक सफल प्रयास किया गया है।

4. मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये कानून के शासन की स्थापना करते हैं। सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं और सभी को कानून द्वारा समान संरक्षण प्राप्त है।

5. मौलिक अधिकार सामाजिक समानता स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकार सामाजिक समानता स्थापित करते हैं। मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के दिए गए हैं। सरकार धर्म, जाति, भाषा, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं कर सकती है।

6. मौलिक अधिकार धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करते हैं- अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं और यह धार्मिक स्वतन्त्रता भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करती है। यदि भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य न बनाया जाता तो भारत की एकता ही खतरे में पड़ जाती।

7. मौलिक अधिकार अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करते हैं- अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार दिया गया है। अल्पसंख्यक अपनी पसन्द की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं और उनका संचालन करने का अधिकार भी उनको प्राप्त है। सरकार अल्पसंख्यकों के साथ किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं करेगी।

8. मौलिक अधिकार भारतीय लोकतन्त्र की आधारशिला हैं-समानता, स्वतन्त्रता तथा भ्रातृभाव लोकतन्त्र की नींव है। मौलिक अधिकारों द्वारा समानता, स्वतन्त्रता तथा भ्रातृभाव की स्थापना की गई है।

निष्कर्ष (Conclusion) हम प्रो० टोपे (Tope) के इस कथन से सहमत हैं कि, “मैं यह मानता हूं कि मौलिक अधिकारों सम्बन्धी अध्याय में कुछ त्रुटियां रह गई हैं, परन्तु इस पर भी यह अध्याय सामूहिक रूप से सन्तोषजनक है।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का क्या अर्थ है ? भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर-
मौलिक अधिकार उन आधारभूत आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण अधिकारों को कहा जाता है जिनके बिना देश के नागरिक अपने जीवन का विकास नहीं कर सकते। जो स्वतन्त्रताएं तथा अधिकार व्यक्ति तथा व्यक्तित्व का विकास करने के लिए समाज में आवश्यक समझे जाते हों, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है। भारतीय संविधान में मूल रूप से सात प्रकार के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है, परन्तु 44वें संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया गया। अतः अब 6 तरह के अधिकार नागरिकों को प्राप्त हैं।

संविधान में नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं-

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  5. सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार
  6. संवैधानिक उपायों का अधिकार।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की चार विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
मौलिक अधिकारों की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े विस्तृत तथा व्यापक हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  • मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की एक विशेषता यह है कि ये भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।
  • मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं-कोई भी अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं हो सकता। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार भी असीमित नहीं हैं। संविधान के अन्तर्गत ही मौलिक अधिकारों पर कई प्रतिबन्ध लगाए गए हैं।
  • मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 3.
समानता के अधिकार का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
समानता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा। कानून के सामने सभी बराबर हैं और कोई कानून से ऊपर नहीं है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। सरकारी पदों पर नियुक्तियां करते समय जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता है। सभी नागरिकों को सभी सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करने का समान अधिकार है। छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। सेना तथा शिक्षा सम्बन्धी उपाधियों को छोड़ कर अन्य सभी उपाधियों को समाप्त कर दिया गया है।

प्रश्न 4.
कानून के समान संरक्षण पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
कानून के समान संरक्षण से यह अभिप्राय है कि समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार किया जाए। जेनिंग्स (Jennings) के अनुसार, “समानता के अधिकार का यह अर्थ है कि समान स्थिति में लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाए और समान लोगों के ऊपर समान कानून लागू हो।”

अनुच्छेद 14 द्वारा दिए गए समानता के अधिकार की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री के० सुब्बाराव (K. Subba Rao) ने 1960 में कहा था कि “कानून के समक्ष समानता नकारात्मक तथा कानून द्वारा समान सुरक्षा सकारात्मक विचार है। पहला इस बात की घोषणा करता है कि प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है, कोई भी व्यक्ति विशेष सुविधाओं का दावा नहीं कर सकता तथा सब श्रेणियां समान रूप से देश के साधारण कानून के अधीन हैं तथा बाद वाला एक-जैसी दशाओं तथा एक-जैसी स्थिति में एक-जैसे व्यक्तियों की समान सुरक्षा स्वीकार करता है। उत्तरदायित्व स्थापित करते समय या विशेष सुविधाएं प्रदान करते समय किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।”
कानून के समक्ष समानता का अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही नहीं बल्कि विदेशी नागरिकों को भी प्राप्त है।

प्रश्न 5.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अनुच्छेद 16 राज्य के सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

वेंकटरमन बनाम मद्रास (चेन्नई) राज्य [Vankataraman Vs. Madras (Chennai) State] के मुकद्दमे में सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास (चेन्नई) सरकार की 1951 की उस साम्प्रदायिक राज्याज्ञा (Communal Gazetted Order of Madras (Chennai) Government] को अवैध घोषित कर दिया था जिसके अन्तर्गत कुछ तकनीकी संस्थाओं और अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों के अतिरिक्त कुछ अन्य वर्गों और सम्प्रदायों के लिए स्थान सुरक्षित रखे गए थे।

प्रश्न 6.
अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतन्त्रताओं का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
अनुच्छेद 19 में 6 प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है-

  • प्रत्येक नागरिक को भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है।
  • प्रत्येक नागरिक को शान्तिपूर्वक तथा बिना हथियारों के इकट्ठे होने और किसी समस्या पर विचार करने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को संस्थाएं तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को समस्त भारत में घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को भारत के किसी भी भाग में रहने तथा बसने की स्वतन्त्रता है।
  • प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा से कोई भी व्यवसाय, पेशा अथवा नौकरी करने की स्वतन्त्रता है।

प्रश्न 7.
भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार को समझाइए।
उत्तर-
प्रत्येक नागरिक को भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। कोई भी नागरिक बोलकर या लिखकर अपने विचार प्रकट कर सकता है। प्रेस की स्वतन्त्रता, भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता का एक साधन है। परन्तु भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता असीमित नहीं है। संसद् भारत की प्रभुसत्ता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टता अथवा नैतिकता, न्यायालय का अपमान, मान-हानि व हिंसा के लिए उत्तेजित करना आदि के आधारों पर भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के द्वारा दी गई धर्म की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है। सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता का समान अधिकार प्राप्त है और बिना रोक-टोक के धर्म में विश्वास रखने, धार्मिक कार्य करने तथा प्रचार करने का अधिकार है। सभी व्यक्तियों को धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता दी गई है। किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी विशेष धर्म या धार्मिक समुदाय के विकास या बनाए रखने के लिए खर्च किया जाना हो। किसी भी सरकारी शिक्षण संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती। गैर-सरकारी शिक्षण संस्थाओं में जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है अथवा जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त होती है, किसी विद्यार्थी को उसकी इच्छा के विरुद्ध धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने या धार्मिक पूजा में सम्मिलित होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 9.
शोषण के विरुद्ध अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संविधान की धारा 23 और 24 के अनुसार नागरिकों को शोषण के विरुद्ध अधिकार दिए गए हैं। इस अधिकार के अनुसार व्यक्तियों को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता। किसी भी व्यक्ति से बेगार नहीं ली जा सकती। किसी भी व्यक्ति की आर्थिक दशा से अनुचित लाभ नहीं उठाया जा सकता और कोई भी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी ऐसे कारखाने या खान में नौकर नहीं रखा जा सकता, जहां उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में ‘शिक्षा के अधिकार’ की व्याख्या का वर्णन करें।
उत्तर-

  • किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाए जाने वाली संस्था में प्रवेश देने से धर्म, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म पर आधारित हों या भाषा पर, यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करें तथा उनका प्रबन्ध करें।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार राज्य द्वारा शिक्षण संस्थाओं को सहायता देते समय शिक्षण संस्था के प्रति इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा, कि वह अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध के अधीन हैं, चाहे वह अल्पसंख्यक भाषा के आधार पर हो या धर्म के आधार पर।

प्रश्न 11.
संवैधानिक उपचारों के अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संवैधानिक उपचारों का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति की रक्षा का अधिकार है। अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की प्राप्ति और रक्षा के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकता है। यदि सरकार हमारे किसी मौलिक अधिकार को लागू न करे या उसके विरुद्ध कोई काम करे तो उसके विरुद्ध न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है और न्यायालय द्वारा उस अधिकार को लागू करवाया जा सकता है या कानून को रद्द कराया जा सकता है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय को इस सम्बन्ध में कई प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान के दिए गए मौलिक अधिकारों के कोई चार महत्त्व लिखें।
उत्तर-

  • मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं-व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास तभी कर सकता है जब उसे आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार नागरिकों को वे सुविधाएं प्रदान करते हैं जिनके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है।
  • मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता को रोकते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये अधिकार सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं। केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारें शासन चलाने के लिए अपनी इच्छानुसार कानून नहीं बना सकती। कोई भी सरकार इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।
  • मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये कानून के शासन की स्थापना करते हैं।
  • मौलिक भारतीय लोकतन्त्र की आधारशीला है।

प्रश्न 13.
बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘हेबयिस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।’ (Let us have the body) इस आदेश के अनुसार, न्यायालय किसी भी अधिकारी को, जिसने किसी व्यक्ति को गैर-काननी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसकी गिरफ्तारी के कानून का औचित्य या अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने या आदेश दे सकता है।

प्रश्न 14.
परमादेश के आज्ञा-पत्र (Writ of Mandamus) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘मैण्डमस’ शब्द लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है ‘हम आदेश देते हैं’ (We Command)। इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी भी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसा कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

प्रश्न 15.
अधिकार पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
इसका अर्थ है ‘किसके आदेश से’ अथवा ‘किस अधिकार से’। यह आदेश उस समय जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य को करने का दावा करता हो जिसको करने का उसका अधिकार न हो। इस आदेश के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को एक पद ग्रहण करने से रोकने के लिए निषेध जारी कर सकता है और उक्त पद के रिक्त होने की तब तक के लिए घोषणा कर सकता है जब तक कि न्यायालय द्वारा कोई निर्णय न हो।

प्रश्न 16.
86वें संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत शिक्षा के अधिकार की क्या व्यवस्था की गई है ?
उत्तर-
दिसम्बर 2002 में राष्ट्रपति ने 86वें संवैधानिक संशोधन को अपनी स्वीकृति प्रदान की। इस स्वीकृति के बाद शिक्षा का अधिकार (Right to Education) संविधान के तीसरे भाग में शामिल होने के कारण एक मौलिक अधिकार बन गया है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त होगा। बच्चों के माता-पिता अभिभावकों या संरक्षकों का यह कर्त्तव्य होगा, कि वे अपने बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध करवाएं, जिनसे उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा के अधिकार के लागू होने के बाद भारतीय बच्चे इस अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं क्योंकि मौलिक अधिकारों में शामिल होने के कारण ये अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 17.
मौलिक अधिकारों की श्रेणी में से सम्पत्ति के अधिकार को क्यों निकाल दिया गया है ?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मूल रूप से सम्पत्ति के अधिकार का मौलिक अधिकारों के अध्याय में वर्णन किया गया था, परन्तु 44वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों में से निकल दिया गया है। मौलिक अधिकारों की श्रेणी में से सम्पत्ति के अधिकारों को निम्नलिखित कारणों से निकाला गया है-

(1) भारत में निजी सम्पत्ति के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों में से निकाल दिया गया है।
(2) 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवाद शब्द रखा गया। समाजवाद और सम्पत्ति का अधिकार एक साथ नहीं चलते। अतः सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से निकाल दिया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-मौलिक अधिकार उन आधारभूत आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण अधिकारों को कहा जाता है जिनके बिना देश के नागरिक अपने जीवन का विकास नहीं कर सकते। जो स्वतन्त्रताएं तथा अधिकार व्यक्ति तथा व्यक्तित्व का विकास करने के लिए समाज में आवश्यक समझे जाते हों, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है।

प्रश्न 2.
संविधान में भारतीय नागरिकों को कितने मौलिक अधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर-
संविधान में भारतीय नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं-

  • समानता का अधिकार
  • स्वतन्त्रता का अधिकार
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार
  • धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  • सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार
  • संवैधानिक उपायों का अधिकार।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की दो विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े विस्तृत तथा व्यापक हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  2. मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की एक विशेषता यह है कि ये भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।

प्रश्न 4.
समानता के अधिकार का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
समानता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा। कानून के सामने सभी बराबर हैं और कोई कानून से ऊपर नहीं है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। सरकारी पदों पर नियुक्तियां करते समय जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अनुच्छेद 16 राज्य के सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

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प्रश्न 6.
अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतन्त्रताओं में से किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
अनुच्छेद 19 में 6 प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है-

  1. प्रत्येक नागरिक को भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है।
  2. प्रत्येक नागरिक को शान्तिपूर्वक तथा बिना हथियारों के इकट्ठे होने और किसी समस्या पर विचार करने की स्वतन्त्रता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के किस भाग में किया गया है ? आजकल इनकी संख्या कितनी है ?
उत्तर-मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में किया गया है। आजकल नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 2. भारतीय संविधान में अंकित मौलिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतंत्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  5. शैक्षिणक एवं सांस्कृतिक अधिकार
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 3. समानता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर-अनुच्छेद 14 से 18 तक।

प्रश्न 4. स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर-अनुच्छेद 19 से 22 तक।

प्रश्न 5. शोषण के विरुद्ध अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर- अनुच्छेद 23 एवं 24 में।

प्रश्न 6. धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 25 से 28 तक।

प्रश्न 7. शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 29 एवं 30 में।

प्रश्न 8. संवैधानिक उपचारों के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 32 में।

प्रश्न 9. जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का सम्बन्ध किस अनुच्छेद से है?
उत्तर-अनुच्छेद 21 से।

प्रश्न 10. सम्पत्ति का अधिकार कैसा अधिकार है?
उत्तर-संपत्ति का अधिकार एक कानूनी अधिकार है।

प्रश्न 11. मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं, या नहीं ?
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 12. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा कौन करता है?
उत्तर- मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सर्वोच्च न्यायालय करता है।

प्रश्न 13. मौलिक अधिकारों में संशोधन किसके द्वारा किया जा सकता है?
उत्तर-संसद् द्वारा।

प्रश्न 14. 44वें संशोधन द्वारा किस मौलिक अधिकार को संविधान में से निकाल दिया गया है?
उत्तर-44वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को संविधान में से निकाल दिया गया है।

प्रश्न 15. किस मौलिक अधिकार को संविधान की आत्मा कहा जाता है?
उत्तर-संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 16. हैबियस कॉपर्स (Habeas Corupus) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-लैटिन भाषा से।

प्रश्न 17. हैबियस कॉपर्स का क्या अर्थ है?
उत्तर-हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।

प्रश्न 18. मैंडामस (Mandamus) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-लैटिन भाषा से।

प्रश्न 19. मैंडामस शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर–हम आदेश देते हैं।

प्रश्न 20. को-वारंटो (Quo-Warranto) का क्या अर्थ है?
उत्तर-किस आदेश से।

प्रश्न 21. किस मौलिक अधिकार को संकटकाल के समय भी स्थगित नहीं किया जा सकता ?
उत्तर-व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. अनुच्छेद 19 के अंतर्गत नागरिकों को ………. प्रकार की स्वतंत्रताएं दी गई हैं।
2. ……….. के अनुसार ………… से कम आयु वाले किसी भी बच्चे को किसी भी कारखाने अथवा खान में नौकर नहीं रखा जा सकता।
3. ………. के अनुसार धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतंत्रता दी गई है।
4. ………. ने अनुच्छेद 32 में दिए गए संवैधानिक उपचारों को संविधान की आत्मा तथा हृदय बताया है।
5. …….. लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।
उत्तर-

  1. छह
  2. अनुच्छेद 24, 14 वर्ष
  3. अनुच्छेद 26
  4. डॉ० अम्बेडकर
  5. हैबियस कॉर्पस।

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प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 10 से 20 तक में नागरिकों के 10 मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया
2. 42वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकालकर कानूनी अधिकार बनाने की व्यवस्था की गई।
3. मौलिक अधिकार न्याय संगत नहीं हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत न्यायसंगत हैं।
4. अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के अधिकार का वर्णन किया गया है।
5. अनुच्छेद 19 में 10 प्रकार की स्वतन्त्राओं का वर्णन किया गया है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संपत्ति का अधिकार
(क) मौलिक अधिकार
(ख) कानूनी अधिकार
(ग) नैतिक अधिकार
(घ) राजनीतिक अधिकार।
उत्तर-
(ख) कानूनी अधिकार ।

प्रश्न 2.
मौलिक अधिकार
(क) न्याय योग्य हैं
(ख) न्याय योग्य नहीं हैं
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 3.
जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संबंध किस अनुच्छेद से है ?
(क) अनुच्छेद 21
(ख) अनुच्छेद 19
(ग) अनुच्छेद 18
(घ) अनुच्छेद 20.
उत्तर-
(क) अनुच्छेद 21।

प्रश्न 4.
मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) सर्वोच्च न्यायालय
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) स्पीकर।
उत्तर-
(ख) सर्वोच्च न्यायालय।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन

Punjab State Board PSEB 9th Class Social Science Book Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Social Science Economics Chapter 2 मानव-संसाधन

SST Guide for Class 9 PSEB मानव-संसाधन Textbook Questions and Answers

(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न

रिक्त स्थान भरें:

(i) भारत का विश्व में जनसंख्या के आकार के अनुसार …….. स्थान है।
(ii) अशिक्षित लोग समाज में परिसम्पत्ति की अपेक्षा ………….. बन जाते हैं।
(iii) देश की जनसंख्या का आकार, इसकी कार्यकुशलता, शैक्षिक योग्यता उत्पादकता आदि ………………… कहलाते हैं।
(iv) …………. क्षेत्र में प्राकृतिक साधनों का उपयोग करके उत्पादन क्रियाएं की जाती है।
(v) ……… क्रियाएं वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन में सहायक होती हैं।

उत्तर-

  1. दूसरे
  2. दायित्व
  3. मानव संसाधन
  4.  प्राथमिक
  5. आर्थिक।

बहुविकल्पी प्रश्न :

प्रश्न 1. कृषि अर्थव्यवस्था किस क्षेत्र की उदाहरण है ?
(अ) प्राथमिक
(आ) सेवाएां
(इ) गौण।
उत्तर-
(अ) प्राथमिक

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन

प्रश्न 2.
कृषि क्षेत्र में 5 से 7 मास लोग बेकार रहते है, इस बेकारी को क्या कहते हैं ?
(अ) छिपी बेरोज़गारी
(आ) मौसमी बेरोज़गारी
(इ) शिक्षित बेरोज़गारी।
उत्तर-
(आ) मौसमी बेरोज़गारी

प्रश्न 3.
भारत में जनसंख्या की कार्यशीलता की आयु की सीमा क्या है ?
(अ) 15 वर्ष से 59 वर्ष तक
(आ) 18 वर्ष से 58 वर्ष तक
(इ) 16 वर्ष से 60 वर्ष तक।
उत्तर-
(अ) 15 वर्ष से 59 वर्ष तक

प्रश्न 4.
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या है ?
(अ) 1210.19 मिलियन
(आ) 130 मिलियन
(इ) 121.19 मिलियन।
उत्तर-
(अ) 1210.19 मिलियन

सही/गलत :

  1. एक गृहिणी का अपने गृह में कार्य करना एक आर्थिक क्रिया है।
  2. नगर में अधिक छिपी हुई बेरोज़गारी होती है।
  3. मानव पूंजी में निवेश करने से देश विकसित होता है।
  4. अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक देश की जनसंख्या का स्वस्थ होना ज़रूरी है।
  5. सन् 1951 से 2011 तक भारत की साक्षरता दर में वृद्धि हुई है।

उत्तर-

  1. गलत
  2. गलत
  3. सही
  4. सही

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
दो प्राकृतिक साधनों के नाम बनाएं।
उत्तर-
दो प्राकृतिक साधन निम्न हैं1. वायु 2. खनिज।

प्रश्न 2.
जर्मनी एवं जापान जैसे देशों ने तीव्र गति से आर्थिक विकास कैसे किया ?
उत्तर-
जर्मनी तथा जापान जैसे देशों में मानव पूंजी निर्माण में निवेश करके तीव्र आर्थिक विकास किया है।

प्रश्न 3.
आर्थिक क्रियाएं क्या हैं ?
उत्तर-
आर्थिक क्रियाएं वे क्रियाएं हैं जो धन कमाने के उद्देश्य से की जाती हैं।

प्रश्न 4.
गुरुप्रीत तथा मनदीप द्वारा की गई दो आर्थिक क्रियाएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
गुरुप्रीत खेत में काम करता है तथा मनदीप को एक निजी बस्ती में रोजगार मिल गया है।

प्रश्न 5.
गौण-क्षेत्र की कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर-
गौण-क्षेत्र के दो उदाहरण निम्नलिखित हैं-

  1. चीनी का गन्ने से निर्माण।
  2. कपास से कपड़े का निर्माण ।

प्रश्न 6.
गैर आर्थिक (अनार्थिक) क्रियाएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
गैर आर्थिक क्रियाएं वे क्रियाएं हैं जो धन कमाने के उद्देश्य से नहीं की जाती हैं।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन

प्रश्न 7.
जनसंख्या की गुणवत्ता के दो निर्धारकों के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. अच्छी शिक्षा
  2. लोगों का अच्छा स्वास्थ्य।

प्रश्न 8.
सर्वाधिक साक्षर राज्य का नाम क्या है ?
उत्तर-
केरल।

प्रश्न 9.
6 से 14 वर्ष तक के आयु वर्ग के सभी बच्चों को एलीमैंटरी शिक्षा प्रदान करने के लिए उठाए गए कदम का नाम बताएं।
उत्तर-
सर्व शिक्षा अभियान।

प्रश्न 10.
भारत में जनसंख्या की कार्यशीलता आयु की सीमा क्या है ?
उत्तर-
15-59 वर्ष।

प्रश्न 11.
भारत सरकार द्वारा रोज़गार अवसर प्रदान करने के लिए उठाए गए दो कार्यक्रमों का नाम बताएं।
उत्तर-

  1. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना।
    संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना।

(स्व) लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
मानव संसाधन से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी देश की जनसंख्या का वह भाग जो कुशलता, शिक्षा उत्पादकता तथा स्वास्थ्य से संपन्न होता है उसे मानव संसाधन कहते हैं। मानव संसाधन एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है क्योंकि यह प्राकृतिक संसाधनों को अधिक उपयोगी बना देता है। एक देश जिसमें शिक्षित तथा प्रशिक्षित व्यक्ति अधिक संख्या में हों उनकी उत्पादकता अधिक होती है।

प्रश्न 2.
मानव संसाधन किस प्रकार भूमि व भौतिक पूंजी जैसे अन्य साधनों से श्रेष्ठ है ?
उत्तर-
मानव संसाधन अन्य साधनों जैसे भूमि व भौतिक पूंजी से इसलिए उत्तम है क्योंकि यह अन्य साधन स्वयं नियोजित नहीं हो सकते। मानव संसाधन ही इन साधनों का प्रयोग करता है। इस तरह बड़ी जनसंख्या एक दायित्व नहीं है। इन्हें मानवीय पूंजी में निवेश करके संपत्ति में बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए शिक्षा व स्वास्थ्य पर किया गया व्यय लोगों को प्रशिक्षित व शिक्षित तथा स्वस्थ बनाता है जिससे आधुनिक तकनीक का प्रयोग करके देश का विकास किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
आर्थिक व अनार्थिक क्रियाओं में क्या अन्तर है।
उत्तर-
इनमें भेद निम्न हैं-

आर्थिक क्रियाएं अनार्थिक क्रियाएं
1. आर्थिक क्रियाएं अर्थव्यवस्था में वस्तुओं व सेवाओं का प्रवाह करती हैं। 1. अनार्थिक क्रियाओं से वस्तुओं व सेवाओं का कोई  प्रवाह अर्थव्यवस्था में नहीं होता।
2. जब आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि होती है तो इसका अर्थ है अर्थव्यवस्था प्रगति में है। 2. अनार्थिक क्रियाओं में होने वाली कोई भी वृद्धि अर्थव्यवस्था की प्रगति की निर्धारक नहीं है।
3. आर्थिक क्रियाओं से वास्तविक व राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। 3. अनार्थिक क्रियाओं में से कोई राष्ट्रीय आय व वास्तविक आय में वृद्धि नहीं होती।

 

प्रश्न 4.
मानव पूंजी निर्माण में शिक्षा की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
शिक्षा मानव पूंजी निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है-

  1. शिक्षा आर्थिक तथा सामाजिक विकास का मुख्य साधन है।
  2. शिक्षा विज्ञान और तकनीक के विकास में सहायता करती है।
  3. शिक्षा श्रमिकों की कार्यकुशलता को बढ़ाती है।
  4. शिक्षा लोगों की मानसिक क्षमताओं को बढ़ाने में सहायता करता है।
  5. शिक्षा राष्ट्रीय आय को बढ़ाती है। प्राकृतिक गुणवत्ता को बढ़ाती है और प्राथमिक कुशलता में वृद्धि करती है।

प्रश्न 5.
भारत सरकार द्वारा शिक्षा के प्रसार के लिए कौन-से कदम उठाए गए हैं।
उत्तर-
भारत सरकार ने निम्न कदम उठाए हैं :

  1. शिक्षा संस्थानों का निर्माण किया जा रहा है।
  2. प्राथमिक विद्यालयों को लगभग 5,00,000 गांवों में खोला गया है।
  3. ‘सर्व शिक्षा अभियान’ सभी को अनिवार्य शिक्षा प्रदान करवाने की सिफ़ारिश करती है जो 6-14 वर्ष के सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देती है।
  4. बच्चों के पौष्टिक स्तर को बढ़ाने के लिए ‘मिड-डे-मील’ योजना शुरू की गई है।
  5. सभी जिलों में नवोदय विद्यालय खोले गए हैं।

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प्रश्न 6.
बेरोज़गारी शब्द की व्याख्या करें। देश की बेरोज़गारी दर को निर्धारित करते समय किस वर्ग के लोगों को सम्मिलित नहीं किया जाता ?
उत्तर-
बेरोज़गारी वह स्थिति है जिसमें वह व्यक्ति जो प्रचलित मज़दूरी की दर पर काम करने को तैयार होता है पर उसे काम नहीं मिलता है। किसी देश में कार्यशील जनसंख्या वह जनसंख्या होती है जो 15-59 वर्ष की आयु के बीच होती है। 15 से कम आयु के बच्चों और 59 से अधिक आयु के वृद्ध यदि काम ढूंढ़ते भी हैं तो उन्हें बेरोज़गार नहीं कहा जाता।

प्रश्न 7.
भारत में बेरोजगारी के दो कारण बताएं।
उत्तर-
कारण (Causes)-

  1. जनसंख्या में वृद्धि (Increase in Population)-भारत में बेरोज़गारी का मुख्य कारण जनसंख्या में होने वाली वृद्धि है। जनसंख्या बढ़ने से देश को संपत्ति का एक बड़ा भाग इस जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने में खर्च हो जाता है और रोज़गार के अवसरों को बढ़ाने के लिए कम साधन बचते हैं।
  2. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली (Defected Education System) सरकार ने लोगों के जीवन स्तर को उठाने के लिए कई कॉलेजों और स्कूलों की स्थापना की है जिसमें आज करोड़ों छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। परंतु उनको रोज़गार नहीं मिलता जिसका मुख्य कारण दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली का होना है।

प्रश्न 8.
छिपी बेरोज़गारी व मौसमी बेरोज़गारी में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर-

छिपी बेरोजगारी मौसमी बेरोजगारी
1. नगरीय क्षेत्र बेरोज़गारी का वह प्रश्न है जिसमें श्रमिक कार्य करते हुए प्रतीत होते हैं पर ये वास्तव में होते नहीं हैं। 1. यह बेरोज़गारी का वह प्रकार है जिसमें श्रमिक कुछ  विशेष मौसम में ही कार्य प्राप्त करते हैं।
2. यह प्रायः कषि क्षेत्र में पायी जाती है। 2. वह प्रायः कृषि संबंधी उद्योगों में पायी जाती है।
3. यह प्रायः ग्रामीण क्षेत्रों में पायी जाती है। 3. वह ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में पायी जाती है।

 

प्रश्न 9.
नगरीय क्षेत्र में शिक्षित बेकारी में तीव्र गति से क्यों वृद्धि हो रही है ?
उत्तर-
शिक्षित बेरोज़गारी शहरी बेरोज़गारी का उदाहरण हैं। यह शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक पाई जाती है। शहरों में तीव्र गति से खुलने वाले स्कूल व शैक्षिक संस्थानों से शिक्षित बेरोज़गारी को बढ़ाया है क्योंकि रोज़गार का स्तर इतना नहीं बढ़ा है जितनी विद्यालयों की संख्या बढ़ी है।

प्रश्न 10.
बेरोज़गार लोग समाज के लिए परिसम्पत्ति की अपेक्षा बोझ (देनदारी) क्यों बन जाते हैं। स्पष्ट करो।
उत्तर-
बेरोजगार व्यक्ति एक देश के लिए संपत्ति के स्थान पर दायित्व होता है क्योंकि इससे मानव शक्ति संसाधनों का दुरुपयोग होता है। बेरोज़गारी गरीबी को बढ़ाता है। इससे निराशा की स्थिति उत्पन्न होती है। बेरोज़गार लोग कार्यशील जनसंख्या पर निर्भर रहते हैं।

प्रश्न 11.
अशिक्षित व कमज़ोर स्वास्थ्य वाले लोग अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-
जनसंख्या की गुणवत्ता किसी देश की संवृद्धि का निर्धारण करती है। शिक्षित जनसंख्या देश के लिए संपत्ति होती है तथा अस्वस्थ लोग अर्थव्यवस्था के लिए दायित्व होता है। किसी देश की संवृद्धि के लिए शिक्षित जनसंख्या एक महत्त्वपूर्ण आगत है। यह आधुनिकीकरण तथा सामर्थ्य को बढ़ाता है। शिक्षित व्यक्ति न केवल अपनी व्यक्तिगत संवृद्धि को मानव-संसाधन बढ़ाता है बल्कि समुदाय की भी संवृद्धि बढ़ाता है। जबकि दूसरी ओर अस्वस्थता वह स्थिति है जिसमें लोग शारीरिक व बौद्धिक रूप से ठीक नहीं होते हैं।

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अन्य अभ्यास के प्रश्न

क्रिया-1

अपने गांव अथवा अपनी कॉलोनी में जाकर मालूम करें कि:
(i) भिन्न-भिन्न घरों की औरतें गृहकार्य करती हैं अथवा बाहर कार्य करने जाती है ?
(ii) उनका कार्य आर्थिक क्रिया में आता है अथवा गैर आर्थिक क्रिया में ?
(iii) आर्थिक व गैर-आर्थिक क्रियाओं के दो-दो उदाहरण दें।
(iv) आपके घर में आपकी माता जी द्वारा किया गया कार्य आर्थिक अथवा गैर-आर्थिक क्रिया में किस के अंतर्गत आता
उत्तर-

  1. मेरे गांव में अधिकतर महिलाएं अपने घरों में ही कार्य करती हैं। कुछ महिलाएं बाहर काम करने भी जाती हैं। जो दफ्तरों में दूसरे घरों में साफ़-सफाई के लिए भी जाती हैं।
  2. जो महिलाएं अपने घरों में घरेलू कार्य कर रही हैं जैसे खाना बनाना, साफ सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना, पशुओं को चारा डालना आदि सभी क्रियाएं गैर आर्थिक क्रियाएं ही हैं। दूसरी ओर जो महिलाएं दफ्तरों में कार्य कर रही हैं तथा दूसरों के घरों में काम कर रही हैं वे क्रियाएं आर्थिक क्रियाएं हैं।
  3. आर्थिक क्रिया के उदाहरण-
    • राज द्वारा एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में कार्य करना
    • डॉक्टर द्वारा अस्पताल में रोगियों की देखभाल करना।
      गैर-आर्थिक क्रिया के उदाहरण-

      •  गृहिणी द्वारा किया गया घरेलू कार्य
      • एक अध्यापक द्वारा अपने बच्चे को घर में पढ़ाना।
      • मेरी माता जी एक अध्यापिका हैं। उनका कार्य आर्थिक क्रिया में आता है।

क्रिया-2

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन 1
जनगणना वर्ष के आंकड़े
ग्राफ 2.1 भारत में साक्षरता दर

ग्राफ 2.1 का अध्ययन कीजिए तथा निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
(i) क्या वर्ष 1951 से 2011 तक व्यक्तियों की साक्षरता दर में वृद्धि हुई है ?
(ii) भारत ने किस वर्ष 50% की साक्षरता दर को पार किया ?
(iii) किस वर्ष भारत की साक्षरता दर सर्वाधिक रही ?
(iv) महिलाओं की साक्षरता दर किस वर्ष अधिकतम है ?
(v) अपने अध्यापक से चर्चा कीजिए। भारत में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की साक्षरता दर कम क्यों है ?
उत्तर-

  1. हाँ वर्ष 1951 से 2011 तक साक्षरता-दर लगातार बढ़ी है जो कि ग्राफ 2.1 से स्पष्ट है।
  2. वर्ष 2001 में भारत में साक्षरता दर 50% से पार हुई थी।
  3. वर्ष 2011 में भारत की साक्षरता-दर सबसे अधिक है।
  4. वर्ष 2011 में महिलाओं की साक्षरता-दर सबसे अधिक है।
  5. भारत में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की साक्षरता-दर इसलिए कम है क्योंकि लोग लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को स्कूल कम भेजते हैं। लड़कियों को ये घरेलू कार्यों में लगा देते हैं।

क्रिया-3

तालिका 2.2. भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार स्वास्थ्य सुविधाएं
PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन 2

आइए चर्चा करें:

सारणी 2.2 को पढ़िए तथा निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) वर्ष 1951 से 2010 तक डिसपैंसरी व अस्पतालों की संख्या में कितनी वृद्धि है।
(ii) वर्ष 2001 से 2013 तक चिकित्सकों की संख्या में कितनी वृद्धि हुई।
(iii) वर्ष 1981 से 2013 तक स्वास्थ्य संस्थाओं में बैडों की संख्या कितनी वृद्धि हुई।
(iv) अपने गांव अथवा निकटवर्ती गांव की डिसपैंसरी में जाकर मालूम कीजिए तथा ज्ञात कीजिए कि इनमें कौन-सी सुविधाएं दी जा रही हैं तथा किन की आवश्यकता अधिक है ?
उत्तर-

  1. तालिका 2.2 से स्पष्ट है कि वर्ष 1951 से 2010 तक औषधालयों व अस्पतालों की संख्या बढ़ी नहीं है। अर्थात् कुछ वर्षों में बढ़ी है तथा कुछ में कम हुई है।
  2. हाँ, वर्ष 2001 से 2016 तक डॉक्टरों की संख्या बढ़ी है।
  3. हाँ, वर्ष 1981-2016 तक बिस्तरों की संख्या बढ़ी है।
  4. नज़दीक के औषधालय का दौरा करने से ज्ञात हुआ कि वहाँ स्टॉफ की कमी थी। यहाँ तक कि वहाँ डॉक्टर भी उपलब्ध नहीं था। केवल एक थर्मासिस्ट व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे। अन्य सुविधाएं ठीक थीं।

PSEB 9th Class Social Science Guide मानव-संसाधन Important Questions and Answers

रिक्त स्थान भरें :

  1. जनसंख्या के आकार में चीन विश्व में ……… स्थान पर है।
  2. अस्वस्थ लोग समाज के लिए ………. होते हैं न कि एक परिसंपत्ति।
  3. जापान ने …………… संसाधनों में निवेश किया है।
  4. गृहणी द्वारा किया गया घरेलू कार्य एक …………… क्रिया है।
  5. वर्ष 2011 में भारत में …………. राज्य की साक्षरता दर सबसे कम थी।
  6. 2011 जनगणना के अनुसार भारत की साक्षरता दर ………… प्रतिशत है।

उत्तर-

  1. पहला
  2. दायित्व
  3. मानव
  4. गैर-आर्थिक
  5. बिहार
  6. 74.

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
जनसंख्या अर्थव्यवस्था पर हो सकती है ? …
(क) दायित्व
(ख) परिसंपत्ति
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) उपरोक्त दोनों

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प्रश्न 2.
मानव पूंजी निर्माण किस में निवेश से होता है ?
(क) शिक्षा
(ख) चिकित्सा
(ग) प्रशिक्षण
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
भारत में मानव पूंजी निर्माण को दर्शाता है-
(क) हरित क्रांति
(ख) सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) मज़दूर क्रांति।
उत्तर-
(ख) सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति

प्रश्न 4.
शीला द्वारा अपने घर में खाना बनाना, कपड़े धोना, बर्तन साफ करना आदि कौन-सी क्रिया है ?
(क) आर्थिक
(ख) ग़ैर-आर्थिक
(ग) धन क्रिया
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) ग़ैर-आर्थिक

प्रश्न 5.
कृषि, वानिकी व पशुपालन कौन-से क्षेत्रक के अंतर्गत आते हैं ?
(क) प्राथमिक
(ख) द्वितीयक
(ग) तृतीयक
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) प्राथमिक

प्रश्न 6.
उत्खनन और विनिर्माण किस क्षेत्रक में आते हैं ?
(क) द्वितीयक
(ख) तृतीयक
(ग) प्राथमिक
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) द्वितीयक

प्रश्न 7.
व्यापार, परिवहन, संचार व बैंकिंग सेवाएं आदि कौन-से क्षेत्रक में आती हैं ?
(क) प्राथमिक
(ख) द्वितीयक
(ग) तृतीयक
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) तृतीयक

प्रश्न 8.
भारत में जीवन प्रत्याशा कितने वर्ष है ?
(क) 66
(ख) 70
(ग) 55
(घ) 75.8.
उत्तर-
(घ) 75.8.

प्रश्न 9.
भारत में अशोधित जन्म-दर प्रति हज़ार व्यक्तियों के पीछे कितनी है ?
(क) 26.1
(ख) 28.2
(ग) 20.4
(घ) 35.1.
उत्तर-
(क) 26.1

प्रश्न 10.
भारत में मृत्यु-दर प्रति हज़ार व्यक्तियों के पीछे कितनी है ?
(क) 9.8
(ख) 8.7
(ग) 11.9
(घ) 25.1.
उत्तर-
(ख) 8.7

प्रश्न 11.
2001 में भारत में साक्षरता-दर कितने प्रतिशत थी ?
(क) 65
(ख) 75
(ग) 60
घ) 63.
उत्तर-
(क) 65

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प्रश्न 12.
2001 में ग्रामीण क्षेत्र में कौन-सी बेरोज़गारी पायी जाती है ?
(क) मौसमी
(ख) प्रच्छन्न बेरोज़गारी।
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) ऐच्छिक बेरोज़गारी।
उत्तर-
(ग) उपरोक्त दोनों

प्रश्न 13.
नगरीय क्षेत्रों में कौन-सी बेरोज़गारी अधिकांशतः पायी जाती है ?
(क) मौसमी
(ख) ऐच्छिक
(ग) प्रच्छन्न
(घ) शिक्षित।
उत्तर-
(घ) शिक्षित।

प्रश्न 14.
श्रमिकों का गांव से शहरों की ओर काम की तलाश में जाना क्या कहलाता है ?
(क) प्रवास
(ख) आवास
(ग) खोज
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) प्रवास

प्रश्न 15.
देश की उत्पादन क्षमता में वृद्धि किसके निवेश से होती है ?
(क) भूमि में
(ख) भौतिक पूंजी में
(ग) मानव पूंजी में
(घ) उपरोक्त सभी में।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी में।

प्रश्न 16.
इनमें से कौन प्राथमिक क्षेत्र का उदाहरण है ?
(क) कृषि
(ख) विनिमय
(ग) संचार
(घ) व्यापार।
उत्तर-
(क) कृषि

प्रश्न 17.
इनमें से कौन द्वितीयक क्षेत्र का उदाहरण है ?
(क) कृषि
(ख) विनिर्माण
(ग) संचार
(घ) बैंकिंग।
उत्तर-
(ख) विनिर्माण

प्रश्न 18.
इनमें से कौन तृतीयक क्षेत्र का उदाहरण है ?
(क) कृषि
(ख) विनिर्माण
(ग) बैंकिंग
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) बैंकिंग

प्रश्न 19.
आर्थिक क्रियाएं कितने प्रकार की होती हैं ?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार।
उत्तर-
(ख) दो

प्रश्न 20.
किस वर्ष भारत में साक्षरता-दर सबसे अधिक थी ?
(क) 2001
(ख) 1991
(ग) 2000
(घ) 1981.
उत्तर-
(क) 2001

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प्रश्न 21.
किस प्रकार के लोग समाज के लिए दायित्व होते हैं ?
(क) शिक्षित
(ख) स्वस्थ
(ग) अस्वस्थ
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) अस्वस्थ

प्रश्न 22.
भारत में सर्व शिक्षा अभियान कब लागू किया गया ?
(क) 2008
(ख) 2010
(ग) 2007
(घ) 2005.
उत्तर-
(ख) 2010

प्रश्न 23.
इनमें से किस देश ने मानव संसाधन पर अधिक मात्रा में निवेश किया है?
(क) पाकिस्तान
(ख) चीन
(ग) भारत
(घ) जापान।
उत्तर-
(घ) जापान।

प्रश्न 24.
इनमें से कौन एक बाज़ार क्रिया है?
(क) एक शिक्षक द्वारा स्कूल में पढ़ाना।
(ख) एक शिक्षक द्वारा अपने बच्चे को पढ़ाना।
(ग) एक कृषक द्वारा स्वयं उपभोग के लिए सब्जियां उगना।
(घ) एक माता द्वारा बच्चों की देखभाल करना।
उत्तर-
(क) एक शिक्षक द्वारा स्कूल में पढ़ाना।

सही/गलत :

  1. शिक्षित व स्वस्थ जनसंख्या दायित्व होती है।
  2. 2011 जनगणना के अनुसार पुरुषों की साक्षरता दर 82.10 प्रतिशत है।
  3. ‘ भारत में वर्ष 1983 से 2011 तक औसत बेरोज़गारी दर 9 प्रतिशत रही है।
  4. गुणवत्ता वाली जनसंख्या अच्छी शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर निर्भर नहीं करती है।
  5. खनन तथा वानिकी द्वितीय क्षेत्र की क्रियाएं हैं।

उत्तर-

  1. गलत
  2. सही
  3. सही
  4. गलत
  5. गलत।

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
जनसंख्या मानव पूंजी में कब बदलती है ?
उत्तर-
जब शिक्षा, प्रशिक्षण और चिकित्सा सेवाओं में निवेश किया जाता है तो जनसंख्या मानव पूंजी में बदल जाती है।

प्रश्न 2.
मानव पूंजी निर्माण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जब मानव संसाधन को और अधिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य द्वारा विकसित किया जाता है तो उसे मानव पूंजी निर्माण कहते हैं।

प्रश्न 3.
मानव पूंजी निर्माण के भारत को दो लाभ बताएं।
उत्तर-
मानव पूंजी निर्माण से भारत में हरित क्रांति आई है जिससे खाद्यान्नों की उत्पादकता में कई गुणा वृद्धि हुई है। मानव पूंजी निर्माण से ही भारत में सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति एक आश्चर्यजनक उदाहरण है।

प्रश्न 4.
जापान कैसे विकसित देश बना ?
उत्तर-
जापान ने मानव संसाधन पर निवेश किया है। उनके पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं थे। वे अब अपने देश के लिए आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों का आयात कर लेते हैं।

प्रश्न 5.
क्या 1951 से जनसंख्या की साक्षरता-दर बढ़ी है ?
उत्तर-
हां, साक्षरता-दर 1951 के 18 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 65 प्रतिशत हो गई है।

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प्रश्न 6.
कोई देश विकसित कैसे बन सकता है ?
उत्तर-
कोई भी देश लोगों में विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश से विकसित बन सकता है।

प्रश्न 7.
भारत में जीवन प्रत्याशा कितनी है ?
उत्तर-
यह वर्ष 2017 में 75.8 वर्ष थी।

प्रश्न 8.
बेरोज़गारी क्या होती है ?
उत्तर-
बेरोज़गारी उस समय विद्यमान कही जाती है, जब प्रचलित मज़दूरी की दर पर काम करने के लिए इच्छुक लोग रोज़गार नहीं पा सकते।

प्रश्न 9.
जन्म-दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जन्म-दर से अभिप्राय प्रति हज़ार व्यक्तियों के पीछे जितने बच्चे जन्म लेते हैं, उससे है।

प्रश्न 10.
मृत्यु-दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर–
प्रति हज़ार व्यक्तियों के पीछे जितने लोगों की मृत्यु होती है वही मृत्यु-दर कहलाती है।

प्रश्न 11.
बेरोज़गारी क्या है ?
उत्तर-
एक स्थिति जिसमें श्रमिक बाज़ार में प्रचलित मज़दूरी पर काम करने को तैयार हैं पर उन्हें काम नहीं मिलता है।

प्रश्न 12.
राष्ट्रीय आय क्या होती है ?
उत्तर-
यह एक देश द्वारा उत्पादित वस्तुओं व सेवाओं का कुल योग होता है।

प्रश्न 13.
सर्व शिक्षा अभियान क्या है ?
उत्तर-
यह एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमें 6-14 वर्ष के सभी आयु वर्ग के बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 14.
कार्य बल संख्या में किस वर्ग की जनसंख्या को शामिल किया गया है ?
उत्तर-
कार्य बल जनसंख्या में 15 से 59 वर्ष के व्यक्तियों को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 15.
किसी कार्य को करने के लिए पांच व्यक्ति चाहिए पर उसमें 8 व्यक्ति लगे हैं। इसे कौन-सी बेरोज़गारी कहा जाएगा?
उत्तर-
प्रच्छन्न बेरोज़गारी।

प्रश्न 16.
मौसमी बेरोज़गारी क्या है ?
उत्तर-
इस तरह की बेरोज़गारी में व्यक्ति वर्ष के कुछ विशेष महीनों में कार्य प्राप्त कर पाते हैं।

प्रश्न 17.
इनमें से कौन-से तत्त्व मानव के विकास के गुणों को बढ़ाते हैं ?
उत्तर-
शिक्षा तकनीकी एवं स्वास्थ्य।

प्रश्न 18.
तृतीयक कार्य क्षेत्र से संबंधित दो कार्य क्षेत्र बताएं।
उत्तर-

  1. परिवहन
  2. बैंकिंग।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
जनसंख्या की गुणवत्ता की व्याख्या करें।
उत्तर-
जनसंख्या की गुणवत्ता साक्षरता-दर, जीवन-प्रत्याशा से निरूपित व्यक्तियों के स्वास्थ्य और देश के लोगों द्वाराप्राप्त कौशल निर्माण पर निर्भर करती है। यह अंततः देश की संवृद्धि-दर निर्धारित करती है। अस्वस्थ व निरक्षर जनसंख्या अर्थव्यवस्था पर बोझ होती है तथा स्वस्थ व साक्षर जनसंख्या परिसंपत्तियां होती हैं।

प्रश्न 2.
शिक्षा के महत्त्व की व्याख्या करें।
उत्तर-
शिक्षा का महत्त्व निम्नलिखित है-

  1. शिक्षा अच्छी नौकरी और अच्छे वेतन के रूप में फल देती है।
  2. यह विकास के लिए महत्त्वपूर्ण आगत है।
  3. इससे जीवन के मूल्य विकसित होते हैं।
  4. यह राष्ट्रीय आय और सांस्कृतिक समृद्धि में वृद्धि करती है।
  5. यह प्रशासन की कार्य-क्षमता बढ़ाती है।

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प्रश्न 3.
बेरोज़गारी के प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर-
बेरोज़गारी के निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं

  1. बेरोज़गारी से जनशक्ति संसाधन की बर्बादी होती है। जो लोग अर्थव्यवस्था के लिए परिसंपत्ति होते हैं, बेरोज़गारी के कारण बोझ में बदल जाते हैं।
  2. इससे युवकों में निराशा और हताशा की भावना बढ़ती है।
  3. बेरोज़गारी से आर्थिक बोझ में वृद्धि होती है। कार्यरत जनसंख्या पर बेरोज़गारी की निर्भरता बढ़ती है।
  4. इससे समाज के जीवन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  5. किसी अर्थव्यवस्था के समग्र विकास पर बेरोज़गारी का अधिकतर प्रभाव पड़ता है। इसमें वृद्धि मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था का सूचक है।

प्रश्न 4.
छिपी बेरोज़गारी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
छिपी बेरोज़गारी या प्रच्छन्न बेरोज़गारी के अंतर्गत लोग नियोजित प्रतीत होते हैं, उनके पास भूमि होती है, जहां उन्हें काम मिलता है। ऐसा प्रायः कृषिगत काम में लगे परिजनों में होता है। किसी काम में पांच लोगों की आवश्यकता है लेकिन उसमें आठ लोग होते हैं। इनमें तीन अतिरिक्त हैं। अगर तीन लोगों को हटा दिया जाए तो खेत की उत्पादकता में कोई कमी नहीं आएगी। खेत में पांच लोगों के काम की आवश्यकता है और तीन अतिरिक्त लोग प्रच्छन्न रूप से नियोजित हैं।

प्रश्न 5.
मौसमी बेरोज़गारी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मौसमी बेरोज़गारी तब होती है, जब लोग वर्ष के कुछ महीनों में रोजगार प्राप्त नहीं कर पाते हैं। कृषि पर आश्रित लोग आमतौर पर इस तरह की समस्या से जूझते हैं। वर्ष में कुछ व्यस्त मौसम होते हैं जब बुआई, कटाई और गहाई होती है। कुछ विशेष महीनों में कृषि पर आश्रित लोगों को अधिक काम नहीं मिल पाता।

प्रश्न 6.
शिक्षित बेरोज़गारी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
शहरी क्षेत्रों के मामले में शिक्षित बेरोज़गारी एक सामान्य परिघटना बन गई है। मैट्रिक स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री धारी अनेक युवक रोजगार पाने में असमर्थ हैं। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि मैट्रिक की तुलना में स्नातक युवकों में बेरोज़गारी अधिक तेजी से बढ़ी है। एक विरोधाभासी जनशक्ति स्थिति सामने आई है कि कुछ विशेष श्रेणियों में जनशक्ति के आधिक्य के साथ ही कुछ अन्य श्रेणियों में जनशक्ति की कमी विद्यमान है।

प्रश्न 7.
बाज़ार व गैर-बाज़ार क्रियाओं का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर-
बाज़ार क्रियाओं में वेतन या लाभ के उद्देश्य से की गई क्रियाओं के लिए पारिश्रमिक भुगतान किया जाता है। इनमें सरकारी सेवा सहित वस्तु सेवाओं का उत्पादन शामिल है। गैर-बाज़ार क्रियाओं से अभिप्राय स्व- उपभोग के लिए उत्पादन है। इनमें प्राथमिक उत्पादों का उपभोग और प्रसंस्करण तथा अचल संपत्तियों का स्वलेखा उत्पादन आता है।

प्रश्न 8.
जनसंख्या एक मानवीय साधन है, व्याख्या करें।
उत्तर-
यह विशाल जनसंख्या का एक सकारात्मक पहलू है जिसे प्रायः उस वक्त अनदेखा कर दिया जाता है जब हम इसके नकारात्मक पहलू को देखते हैं अर्थात् भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक जनसंख्या की पहुंच की समस्याओं पर विचार करते समय। जब इस विद्यमान मानव संसाधन को और अधिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य द्वारा विकसित किया जाता है, तब हम इसे मानव पूँजी निर्माण कहते हैं।

प्रश्न 9.
द्वितीयक व तृतीयक क्षेत्रों में कौन-सी क्रियाएँ की जानी हैं ?
उत्तर-
द्वितीयक क्षेत्रों में उत्खनन और विनिर्माण शामिल है, जबकि तृतीयक क्षेत्र में परिवहन, बैंकिंग, संचार, बीमा, व्यापार, शिक्षा आदि किए जाते हैं।

प्रश्न 10.
आर्थिक क्रियाएं क्या होती हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर-
आर्थिक क्रियाएं वह क्रियाएं होती हैं जिनके फलस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। ये क्रियाएं राष्ट्रीय आय में मूल्य वर्धन करते हैं। आर्थिक क्रियाएं दो प्रकार की होती हैं।-
1. बाज़ार क्रियाएं
2. गैर-बाज़ार क्रियाएं।।

  1. बाज़ार क्रियाएं-बाज़ार क्रियाओं में वेतन या लाभ के उद्देश्य से की गई क्रियाओं के लिए पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता है।
  2. गैर-बाज़ार क्रियाएं-इसमें स्व-उपभोग के लिए उत्पादन क्रियाओं को शामिल किया जाता है। इनमें प्राथमिक उत्पादों का उपभोग और प्रसंस्करण तथा अचल संपत्तियों का स्वलेखा उत्पादन आता है।

प्रश्न 11.
बाज़ार क्रियाओं व गैर-बाज़ार क्रियाओं में भेद करें।
उत्तर-
बाज़ार क्रियाओं व गैर-बाज़ार क्रियाओं में निम्नलिखित अंतर हैं-

बाज़ार क्रियाएं गैर-बाज़ार क्रियाएं
1. बाज़ार क्रियाओं में वेतन या लाभ के उद्देश्य से की गई सेवाओं के लिए पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता है। 1. गैर-बाज़ार क्रियाओं में स्व: उपभोग के लिए उत्पादन किया जाता है।
2. इसमें वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन सरकारी सेवाओं के साथ किया जाता है। 2. इसमें प्राथमिक उत्पादों का उपभोग और प्रसंस्करण एवं अचल संपत्तियों का स्वलेखा उत्पादन आता है।
3. इसके मुख्य उदाहरण, शिक्षक द्वारा स्कूल में पढ़ाना, खनन का कार्य इत्यादि हैं। 3. प्राथमिक उत्पादों का उपभोग व अचल संपत्तियों का स्वलेखा आदि इसके उदाहरण हैं।

 

प्रश्न 12.
1. ग्रामीण क्षेत्रों में पायी जाने वाली दो प्रकार की बेरोज़गारियां कौन-सी हैं ?
2. उन चार कारणों को बताएं जिन पर संख्या की गुणवत्ता निर्भर करती है।
3. कौन-सा क्षेत्रक (प्राथमिक क्षेत्रक में ) अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक जनशक्ति को नियोजित करता है?
उत्तर-

1.

  • प्रच्छन्न बेरोज़गारी तथा
  • मौसमी बेरोज़गारी या ग्रामीण क्षेत्रों में पाए जाने वाली दो मुख्य बेरोज़गारियां हैं।

2.

  • स्वास्थ्य
  • जीवन प्रत्याशा
  • शिक्षा
  • कार्यकुशलता।

3.कृषि क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जो अर्थव्यवस्था में अधिकतर जनशक्ति को नियोजित करता है।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन

प्रश्न 13.
1. वे दो मुख्य क्रियाएं बताएं जो प्राथमिक क्षेत्र में की जाती हैं।
2. वे दो मुख्य क्रियाएं बताएं जो तृतीय क्षेत्र में की जाती हैं।
3. वे दो मुख्य क्रियाएं बताएं जो द्वितीय क्षेत्र में की जाती हैं।
उत्तर-
1.

  • मत्सय पालन
  • खनन

2.

  • बैंकिंग
  • बीमा

3.

  • उल्ख नन
  • विनिर्माण।

प्रश्न 14.
1. ऐसे चार तत्व बताएं जो मानव संसाधन की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं ?
2. उत्पादन के चार संसाधनों के नाम बताएं।
उत्तर-
1.

  • शिक्षा
  • स्वास्थ्य
  • तकनीकी
  • प्रशिक्षण।

2.

  • भूमि
  • पूंजी
  • श्रम
  • उद्यमी।

प्रश्न 15.
सर्व शिक्षा अभियान क्या है?
उत्तर-
सर्व शिक्षा अभियान 6-14 वर्ष आयु वर्ग के सभी स्कूली बच्चों को वर्ष 2010 तक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। राज्यों, स्थानीय सरकारों और प्राथमिक शिक्षा सार्वभौमिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समुदाय की सहभागिता के साथ केंद्रीय सरकार की एक समयबद्ध पहल है।

प्रश्न 16.
1. कृषि क्षेत्र में कौन-सी बेरोज़गारियां पाई जाती हैं ?
2. प्रच्छन्न बेरोज़गारी का अर्थ बताएं।
उत्तर-

  1. प्रच्छन्न व मौसमी बेरोज़गारी कृषि क्षेत्र में पाई जाती है।
  2. प्रच्छन्न बेरोज़गारी से अभिप्राय उस बेरोज़गारी से है जिसमें लोग कार्य करते हुए प्रतीत होते हैं पर वे होते नहीं हैं।

प्रश्न 17.
मानव पूंजी में किया जाने वाला निवेश बाद में बदलकर भौतिक पूंजी में किए गए निवेश का रूप धारण कर लेता है। व्याख्या करें।
उत्तर-

  1. मानव पूंजी श्रमिकों की उत्पादकता को बढ़ाता है।
  2. मानव पूंजी श्रमिकों की गुणवत्ता में वृद्धि करता है।
  3. स्वस्थ, शिक्षित व प्रशिक्षित व्यक्ति उत्पादन के साधनों का कुशल प्रयोग कर सकते हैं।
  4. एक देश मानव संसाधनों का निर्यात करके विदेशी विनिमय प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 18.
इन सभी कार्यों को प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक समूहों में बांटे।
बैंकिंग, बीमा, डेयरी, उत्खनन, खनन, संचार, शिक्षा, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, कृषि, विनिर्माण, वानिकी, पर्यटन तथा व्यापार।
उत्तर-

प्राथमिक क्षेत्र द्वितीयक क्षेत्र तृतीयक क्षेत्र
1. डेयरी 1. उत्खनन 1. बैंकिंग
2. खनन 2. विनिर्माण 2. बीमा
3. मत्स्य पालन 3. संचार
4. मुर्गी पालन 4. शिक्षा
5. कृषि 5. पर्यटन
6. वानिकी 6. व्यापार।

 

प्रश्न 19.
शिक्षा के क्षेत्र में दसवीं पंचवर्षीय योजना के मुख्य उद्देश्य क्या हैं ?
उत्तर-
शिक्षा के क्षेत्र में दसवीं पंचवर्षीय योजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. दसवीं योजना अंत तक उच्च शिक्षा में 18-23 वर्ष आयु वर्ग के नामांकन में वर्तमान 6 प्रतिशत से 9 प्रतिशत तक की वृद्ध करने का प्रयास किया गया है।
  2. यह रणनीति पहुंच में वृद्धि, गुणवत्ता, राज्यों के लिए विशेष पाठ्यक्रम में परिवर्तन को स्वीकार करना, व्यवसायीकरण तथा सूचना प्रौद्योगिकों के उपयोग का जाल बिछाने पर केंद्रित है।
  3. दसवीं योजना दूरस्थ शिक्षा, संचार प्रौद्योगिकी की शिक्षा देने वाले शिक्षण संस्थानों के अभिसरण पर भी केंद्रित है।

प्रश्न 20.
बेरोज़गारी क्या है? भारत में बेरोज़गारी के मुख्य प्रकार क्या हैं ?
उत्तर-
बेरोज़गारी वह स्थिति है जिसमें श्रमिक मज़दूरी की वर्तमान दर पर काम करने को तैयार होते हैं पर उन्हें काम नहीं मिलता है।
बेरोज़गारी के प्रकार-

  1. मौसमी बेरोजगारी
  2. शिक्षित बेरोज़गारी
  3. प्रच्छन्न बेरोज़गारी
  4. संरचनात्मक बेरोज़गारी
  5. तकनीकी बेरोज़गारी।

प्रश्न 21.
ग्रामीण क्षेत्रों में पाई जाने वाली दो प्रकार की मुख्य बेरोज़गारी क्या है ? इसके लिए मुख्य चार कारण बताएं।
उत्तर-
मौसमी बेरोज़गारी व प्रच्छन्न बेरोज़गारी ग्रामीण क्षेत्रों में पायी जाने वाली मुख्य बेरोज़गारियां हैं। कारण-

  1. कृषि क्षेत्र में विविधता की कमी।
  2. पूंजी की कमी।
  3. अति जनसंख्या के कारण बड़े परिवार।
  4. लघु व कुटीर उद्योग का अल्पविकास।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन

प्रश्न 22.
प्रच्छन्न बेरोज़गारी व शिक्षित बेरोज़गारी में अंतर करें।
उत्तर-
प्रच्छन्न बेरोज़गारी व शिक्षित बेरोज़गारी में निम्नलिखित अंतर हैं :

प्रच्छन्न बेरोजगारी शिक्षित बेरोजगारी
1. प्रच्छन्न बेरोज़गारी वह बेरोज़गारी है जिसमें व्यक्ति कार्य करते हुए प्रतीत होते हैं पर वह होते नहीं हैं। 1. शिक्षित बेरोज़गारी वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति शिक्षित होते हैं पर उनके पास रोज़गार नहीं होता है।
2. यह प्रायः ग्रामीण क्षेत्रों में पायी जाती है। 2. यह प्रायः शहरी क्षेत्रों में पायी जाती है।

 

प्रश्न 23.
तीनों क्षेत्रकों में रोज़गार की स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. प्राथमिक क्षेत्रक-भारत में, प्राथमिक क्षेत्रक में अर्थव्यवस्था की अधिकतर जनसंख्या नियोजित है। परंतु इसमें प्रच्छन्न बेरोज़गारी विद्यमान है। इसमें अब और अधिक व्यक्ति नियोजित करने की क्षमता नहीं है। इसलिए बाकी श्रमिक द्वितीयक व ततीयक क्षेत्रों की ओर जा रहे हैं।
  2. द्वितीयक क्षेत्रक-द्वितीयक क्षेत्रक में लघु स्तरीय विनिर्माण भी अधिक व्यक्तियों को रोज़गार प्रदान करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में और अधिक व्यक्तियों को नियोजित करने के लिए गांवों में कुटीर उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए।
  3. तृतीयक क्षेत्रक-तृतीयक क्षेत्र भारत में से बेरोज़गारी को दूर करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रक है।

प्रश्न 24.
मौसमी बेरोज़गारी क्या होती है? इस बेरोज़गारी के लिए उत्तरदायी मुख्य कारण क्या है ?
उत्तर-
मौसमी बेरोज़गारी तब होती है जब लोग वर्ष के कुछ महीनों में रोजगार प्राप्त नहीं कर पाते हैं। कृषि पर आश्रित लोग आमतौर पर इस तरह की समस्या से जूझते हैं।
कारण-

  1. कृषि की विविधता में कमी।।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं कुटीर उद्योगों की कमी।
  3. कृषि के व्यापारीकरण का अभाव।

प्रश्न 25.
प्रच्छन्न बेरोज़गारी क्या है? उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रच्छन्न बेरोज़गारी के अंतर्गत लोग नियोजित प्रतीत होते है। उनके पास भूखंड होता है, जहाँ उन्हें काम मिलता है। ऐसा प्रायः कृषिगत काम में लगे परिजनों में होता है। किसी काम में पांच लोगों की आवश्यकता होती है लेकिन उसमें आठ लोग लगे होते हैं। इसमें तीन लोग अतिरिक्त हैं। ये तीनों इसी खेत पर काम करते हैं जिस पर पांच लोग काम करते हैं। इन तीनों द्वारा किया गया अंशदान पांच लोगों द्वारा किए गए योगदान में कोई बढ़ोत्तरी नहीं करता। यदि तीन लोगों को हटा दिया जाए तो उत्पादकता में कोई कमी नहीं आयेगी। खेत में पांच लोगों के काम की आवश्यकता होती है और तीन अतिरिक्त लोग प्रच्छन्न रूप से नियोजित होते हैं।

प्रश्न 26.
मानवीय पूंजी उत्पादन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन क्यों हैं ? तीन कारण दें।
उत्तर-
मानवीय पूंजी उत्पादन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन निम्नलिखित कारणों से हैं-

  1. कुछ उत्पादन क्रियाओं में ज़रूरी कार्यों को करने के लिए बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे कर्मियों की ज़रूरत होती है।
  2. बहुत-सी क्रियाओं में शारीरिक कार्य करने वाले श्रमिकों की ज़रूरत होती है।
  3. केवल मानवीय पूंजी में ही उद्यमवृत्ति का गुण पाया जाता है।

प्रश्न 27.
जापान जैसे देश कैसे धनी व विकसित बने ? तीन कारणों से व्याख्या करें।
उत्तर-
जापान जैसे देश के धनी व विकसित बनने के तीन कारणों की व्याख्या निम्नलिखित है-

  1. उन्होंने लोगों में विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश किया है।
  2. उन लोगों ने भूमि और पूंजी जैसे अन्य संसाधनों का कुशल उपयोग किया है।
  3. इन लोगों ने जो कुशलता और प्रौद्योगिकी विकसित की, उसी से ये देश धनी व विकसित बने हैं।

प्रश्न 28.
भारत में स्वास्थ्य स्तर की स्थिति की व्याख्या करें।
उत्तर-
किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य उसे अपनी क्षमता को प्राप्त करने और बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है। अस्वस्थ लोग किसी संगठन के लिए बोझ बन जाते हैं। वास्तव में, स्वास्थ्य अपना कल्याण करने का एक अपरिहार्य आधार है। इसलिए जनसंख्या की स्वास्थ्य स्थिति को सुधारना किसी देश की प्राथमिकता होती है। हमारी राष्ट्रीय नीति का लक्ष्य भी जनसंख्या के अल्प सुविधा प्राप्त वर्गों पर विशेष ध्यान देते हुए स्वास्थ्य सेवाओं, परिवार कल्याण और पोष्टिक सेवा तक इनकी पहुंच को बेहतर बनाना है। पिछले पांच दशकों में भारत ने सरकारी और निजी क्षेत्रों में प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक सेवाओं के लिए आपेक्षित एक विस्तृत स्वास्थ्य आधारित संरचना और जनशक्ति का निर्माण किया है।

प्रश्न 29.
बेरोज़गारी क्या है ? इसके मुख्य प्रभाव क्या होते हैं ?
उत्तर-
बेरोज़गारी उस समय विद्यमान कही जाती है, जब प्रचलित मज़दूरी की दर पर काम करने के लिए इच्छुक लोग रोज़गार नहीं पा सके। प्रभाव-बेरोज़गारी से जनशक्ति संसाधन की बर्बादी होती है। जो लोग अर्थव्यवस्था के लिए परिसंपत्ति होते हैं, बेरोज़गारी के कारण दायित्व में बदल जाते हैं, युवकों में निराशा और हताशा की भावना होती है। लोगों के पास अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त मुद्रा नहीं होती। शिक्षित लोगों के साथ जो कार्य करने के इच्छुक हैं और सार्थक रोजगार प्राप्त करने में असमर्थ हैं, यह एक बड़ा सामाजिक अपव्यय है। बेरोज़गारी से आर्थिक बोझ में वृद्धि होती है। कार्यरत जनसंख्या पर बेरोज़गारी की निर्भरता बढ़ती है। किसी व्यक्ति और साथ-ही साथ समाज के जीवन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 30.
मानव पूंजी निर्माण क्या है ? मानव पूंजी संसाधन अन्य संसाधनों से भिन्न कैसे हैं ?
उत्तर-
मानव पूंजी निर्माण से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति उपलब्ध करवाना और उनकी संख्या में वृद्धि करना है जो शिक्षित, कुशल तथा अनुभव संपन्न हों, जो एक देश के आर्थिक विकास के लिए बहुत आवश्यक है। व्यक्तियों को अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं, उनकी जीवन प्रत्याशा में वृद्धि, शिशु मृत्यु-दर में कमी करके और उनको तकनीकी ज्ञान देकर उन्हें मानव पूंजी बनाया जा सकता है। मानव पूंजी संसाधन भूमि व भौतिक पूंजी जैसे अन्य संसाधनों से भिन्न है क्योंकि मानव संसाधन भूमि और भौतिक पूंजी जैसे अन्य संसाधनों का प्रयोग कर सकता है। अन्य साधन अपने आप उपयोगी नहीं हो सकते।

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प्रश्न 31.
1. सकल राष्ट्रीय उत्पादक क्या होता है?
2. जापान के पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं है, फिर भी वे विकसित देश कैसे हैं ? कारण बताएं।
उत्तर-

  1. सकल राष्ट्रीय उत्पादन एक देश के निवासियों के द्वारा एक वर्ष की अवधि में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादक का मूल्य है।
    • जापान देश ने मानव संसाधन पर भारी निवेश किया है।
    • उन्होंने लोगों में विशेष रूप से उनकी शिक्षा व स्वास्थ्य पर निवेश किया।
    • शिक्षित व स्वस्थ व्यक्ति भूमि व पूंजी जैसे साधनों का अधिक कुशल उपयोग कर सकते हैं।

प्रश्न 32.
किसी देश के लिए उसकी जनसंख्या के स्वास्थ्य के स्तर में सुधार करना मुख्य पहल होती है। कारण बताएं।
उत्तर-

  1. अच्छा स्वास्थ्य श्रमिकों की निपुणता को बढ़ाता है।
  2. एक अस्वस्थ श्रमिक देश के लिए दायित्व होता है।
  3. स्वस्थ नागरिक उत्पादन का मूलभूत संसाधन होता है।
  4. किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य उसे अपनी क्षमता को प्राप्त करने और बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है।

प्रश्न 33.
किस प्रकार अर्थव्यवस्था के समग्र विकास पर बेरोज़गारी का अहितकर प्रभाव पड़ता है? चार बिंदुओं पर इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर-

  1. बेरोज़गारी से जनशक्ति संसाधन की बर्बादी होती है जो लोग अर्थव्यवस्था के लिए परिसंपत्ति होते हैं। बेरोज़गारी के कारण दायित्व में बदल जाते हैं।
  2. युवकों में इससे निराशा और हताशा की भावना होती है क्योंकि इनके पास अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त मुद्रा नहीं होती।
  3. बेरोज़गारी से आर्थिक बोझ में वृद्धि होती है।
  4. कार्यरत जनसंख्या पर बेरोज़गारी की निर्भरता बढ़ती जाती है जिससे समाज के जीवन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 34.
भारतीय अर्थव्यवस्था में द्वितीयक क्षेत्र के महत्त्व के बिंदु बताइए।
उत्तर-
इसके महत्त्व के निम्न बिंदु हैं-

  1. इस क्षेत्रक में विनिर्माण के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों को अन्य वस्तुओं में बदला जाता है।
  2. सभी औद्योगिक क्रियाएं इस क्षेत्र में होती हैं।
  3. इस क्षेत्र की क्रियाएं प्राथमिक व तृतीयक क्षेत्रक के विकास में सहायता करती है।
  4. इस क्षेत्र के उत्पादन से अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता संभव होती है।

प्रश्न 35.
औपचारिक व अनौपचारिक क्षेत्र में तुलना करें।
उत्तर-
इनमें अंतर निम्न बिंदुओं द्वारा दर्शाया जा सकता है-

औपचारिक क्षेत्र अनौपचारिक क्षेत्र
1. इस क्षेत्र में 10 या 10 से अधिक व्यक्ति नियोजित होते हैं। 1. इसमें 10 से कम व्यक्ति या कई बार एक भी व्यक्ति नियोजित नहीं होता है।
2. इसमें श्रम बल का बहुत कम प्रतिशत लगभग 7 प्रतिशत नियोजित होता है। 2. इसमें श्रम बल का बहुत अधिक भाग लगभग 93 प्रतिशत नियोजित होता है।
3. इसमें श्रमिक सामाजिक सुरक्षा लाभ प्राप्त करते हैं। 3. इसमें श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा के लाभ प्राप्त नहीं होते हैं।
4. इसमें संवृद्धि के बढ़ने से रोज़गार भी बढ़ता है। 4. इसमें संवृद्धि के बढ़ने से रोज़गार कम होता है।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में मानव पूंजी निर्माण में क्या समस्याएँ हैं ? समझाइए।
उत्तर-
भारत में मानव पूंजी निर्माण में निम्न समस्याएँ हैं

  1. निर्धनता (Poverty)-भारत के अधिकतर लोग निर्धन हैं जो प्राथमिक स्तर की शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं जुटाने में भी असफल हैं। अतः निर्धनता मानव पूंजी निर्माण की एक मुख्य समस्या है।
  2. अनपढ़ता (Illeteracy)-भारत के अधिकतर लोग निरक्षर हैं जिससे वह शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं के लाभ को नहीं समझ पाते हैं और मानव पूंजी निर्माण में सहयोग नहीं देते हैं।
  3. सीमित क्षेत्रों में ज्ञान (Knowledge in Limited Area)—मानव पूंजी का ज्ञान कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है। अभी बहुत-से क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ इसका अर्थ भी पता नहीं है।
  4. स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं का अभाव (Lack of Medical Facilities)-भारत में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित हैं। सभी क्षेत्रों में अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध न होने के कारण सभी लोग शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं।
  5. शिक्षा संबंधी सुविधाओं का अभाव (Lack of Educational Facilities)-भारत में शिक्षा संबंधी सुविधाएं भी कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। अभी तक कुछ क्षेत्रों में तो प्राथमिक स्तर की भी शिक्षा उपलब्ध नहीं है। अत: यह भी मानवीय पूंजी निर्माण की एक मुख्य समस्या है।
  6. जनसंख्या में वृद्धि (Increase in population)-देश में जनसंख्या में हो रही तीव्र वृद्धि से मानव पूंजी निर्माण में हमेशा बाधा आती रही है।

प्रश्न 2.
मानवीय पूंजी की आर्थिक विकास में भूमिका बताइए।
उत्तर-
मानवीय पूंजी निम्न तरह से आर्थिक विकास में सहायक होती है-

  1. श्रम की कार्यकुशलता (Efficiency of Labour)—मानवीय पूंजी श्रमिकों की कार्यकुशलता को बढ़ाने में सहायक होती है और कुशल श्रमिकों को रोजगार प्रदान करके उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है जो आर्थिक विकास के लिए अति आवश्यक है।
  2. प्रशिक्षण तथा तकनीकी ज्ञान (Training and Technical Knowledge)-मानवीय श्रम बनने के लिए लोगों में प्रशिक्षण तथा तकनीकी ज्ञान का होना बहुत आवश्यक है। प्रशिक्षित श्रमिक ही अपने कार्य को अधिक तीव्रता, अधिक मात्रा और अधिक कुशलता से कर सकते हैं जो आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है।
  3. व्यवसाय का बढ़ता हुआ आकार (Large Size of Business)-व्यवसाय के बढ़ते हुए आकार के कारण अधिकतर यंत्रीकरण किया गया है जो केवल प्रशिक्षित श्रमिकों द्वारा संचालित किए जा सकते हैं और उत्पादन में सहायक होते हैं।
  4. उत्पादन लागत में कमी (Decrease in Production Cost) यदि उत्पादन प्रशिक्षित श्रमिकों द्वारा किया जाता है तो उत्पादन अधिक होता है और उत्पादन लागत कम आती है जिससे उद्यमियों के लाभ बढ़ते हैं और उन्हें व्यवसाय में और अधिक निवेश की प्रेरणा मिलती है।
  5. औद्योगीकरण का आधार (Bases of Industrialisation)-अल्पविकसित देशों में औद्योगीकरण का आधार रखने के लिए मानव पूंजी निर्माण में निवेश करना आवश्यक है। क्योंकि अधिकतर मानवीय पूंजी होने से औद्योगीकरण का विस्तार होगा।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 2 मानव-संसाधन

मानव-संसाधन PSEB 9th Class Economics Notes

  • संसाधन – अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिए व्यक्ति, संगठन या राष्ट्र | द्वारा किए गए प्रयास संसाधन हैं।
  • प्राकृतिक संसाधन – वायु, खनिज, भूमि, जल आदि का प्रयोग मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है इन्हें ही प्राकृतिक संसाधन कहते हैं।
  • मानवीय संसाधन – किसी राष्ट्र की जनसंख्या का वह भाग जो कार्यकुशलता, शिक्षा प्रशिक्षण व स्वास्थ्य से संपन्न है।
  • जापान व जर्मनी के आर्थिक विकास के कारण – इनका मानव पूंजी निर्माण में निवेश खासकर स्वास्थ्य व शिक्षा में।
  • भारत, बांग्लादेश व पाकिस्तान में अल्पविकास के कारण – उनकी अशिक्षित, अस्वस्थ व अकार्यकुशल बड़ी जनसंख्या।
  • आर्थिक क्रियाएं – वे सभी कार्य जो धन कमाने के उद्देश्य से किए जाते हैं।
  • गैर आर्थिक क्रियाएं – वे सभी कार्य जो धन कमाने के उद्देश्य से नहीं किए जाते हैं।
  • प्राथमिक क्षेत्र – प्राथमिक क्षेत्र वह क्षेत्र है जो प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग द्वारा वस्तुएं निर्मित करता है।
  • प्राथमिक क्षेत्र की किस्मों के उदाहरण – कृषि, पशु-पालन, डेयरी, मुर्गीपालन, मत्सय पालन, खनन, वानिकी आदि।
  • द्वितीयक क्षेत्र – द्वितीयक क्षेत्र वे क्षेत्र हैं जो प्राथमिक क्षेत्र के उत्पाद का कच्चे माल के रूप में प्रयोग करके अंतिम उत्पाद तैयार करता है।
  • तृतीयक क्षेत्र – वह क्षेत्र जो सेवाओं का निर्माण करता है।
  • जनसंख्या, संपत्ति या दायित्व के रूप में – अशिक्षित व अस्वस्थ जनसंख्या किसी देश के लिए दायित्व है जबकि शिक्षित व स्वस्थ जनसंख्या किसी देश के लिए संपत्ति है।
  • बेरोजगारी – जब कोई व्यक्ति मज़दूरी की प्रचलित दर पर काम करने को | तैयार हो पर उसे काम न मिले।
  • मौसमी बेरोजगारी – इसका अर्थ है जब लोग पूरे वर्ष में कुछ महीने काम न करें व रोजगार के लिए भटकते रहें।
  • अदृश्य बेरोज़गारी। – यह बेरोज़गारी का वह रूप है जिसमें श्रमिक कार्य करते हुए प्रतीत होते हैं पर वे वास्तव में होते नहीं हैं।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

Punjab State Board PSEB 9th Class Social Science Book Solutions History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

SST Guide for Class 9 PSEB पहनावे का सामाजिक इतिहास Textbook Questions and Answers

(क) बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
सूती कपड़ा किससे बनता है ?
(क) कपास
(ख) जानवरों की खाल
(ग) रेशम के कीड़े
(घ) ऊन।
उत्तर-
(क) कपास

प्रश्न 2.
बनावटी रेशे का विचार सबसे पहले किस वैज्ञानिक ने दिया ?
(क) मेरी क्यूरी
(ख) राबर्ट हुक्क
(ग) लुइस सुबाब
(घ) लार्ड कर्जन।
उत्तर-(ख) राबर्ट हुक्क

प्रश्न 3.
कौन-सी शताब्दी में यूरोप के लोग अपने सामाजिक स्तर, वर्ग अथवा लिंग के अनुसार कपड़े पहनते थे ?
(क) 15वीं
(ख) 16वीं
(ग) 17वीं
(घ) 18वीं।
उत्तर-(घ) 18वीं।

प्रश्न 4.
किस देश के व्यापारियों ने भारत की छींट का आयात शुरू किया ?
(क) चीन
(ख) इंग्लैंड
(ग) इटली
(घ) फ्रांस।
उत्तर-(ख) इंग्लैंड

(ख) रिक्त स्थान भरें :

  1. पुरातत्व वैज्ञानिकों को ………… के नज़दीक हाथी दांत की बनी हुई सुइयाँ प्राप्त हुईं।
  2.  रेशम का कीड़ा प्रायः ………. के वृक्षों पर पाला जाता है।
  3. ……….. वस्त्रों के अवशेष मिस्र, बेबीलोन, सिंधु घाटी की सभ्यता से मिले हैं।
  4. औद्योगिक क्रांति का आरंभ ……………. महाद्वीप में हुआ था।
  5. स्वदेशी आंदोलन ……….. ई० में आरंभ हुआ।

उत्तर-

  1. कोस्तोनकी (रूस)
  2. शहतूत
  3. ऊनी
  4. यूरोप
  5. 1905

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

(ग) सही मिलान करो :

1. बंगाल का विभाजन – रविंद्रनाथ टैगोर
2. रेशमी कपड़ा – चीन
3. राष्ट्रीय गान – 1789 ई०
4. फ्रांसीसी क्रांति – महात्मा गांधी
5. स्वदेशी लहर – लार्ड कर्जन।
उत्तर-

  1. लार्ड कर्जन
  2. चीन
  3. रविंद्रनाथ टैगोर
  4. 1789 ई०
  5. महात्मा गांधी।

(घ) अंतर स्पष्ट करो :

प्रश्न 1.
1. ऊनी कपड़ा और रेशमी कपड़ा
2. सूती कपड़ा और कृत्रिम रेशों से बना कपड़ा।
उत्तर-
1. ऊनी कपड़ा और रेशमी कपड़ा ऊनी कपड़ा
ऊन से बनता है। ऊन वास्तव में एक रेशेदार प्रोटीन है, जो विशेष प्रकार की चमड़ी की कोशिकाओं से बनती है। ऊन भेड़, बकरी, याक, खरगोश आदि जानवरों से भी प्राप्त की जाती है। मैरिनो नामक भेड़ों की ऊन सबसे उत्तम मानी जाती है। मिस्र, बेबीलोन, सिंधु घाटी की सभ्यता में ऊनी वस्त्रों के अवशेष मिले हैं। इससे मालूम होता है कि उस समय के लोग भी ऊनी कपड़े पहनते थे।

रेशमी कपड़ा-
रेशमी कपड़ा रेशम के कीड़ों से प्राप्त रेशों से बनता है। रेशम का कीड़ा अपनी सुरक्षा के लिए अपने इर्द-गिर्द एक कवच तैयार करता है। यह कवच उसकी लार का बना होता है। इस कवच से ही रेशमी धागा तैयार किया जाता है। रेशम का कीड़ा प्रायः शहतूत के वृक्षों पर पाला जाता है। रेशमी कपड़ों की तकनीक सबसे पहले चीन में विकसित हुई। भारत में भी हज़ारों वर्षों से रेशमी कपड़े का प्रयोग किया जा रहा है।

2. सूती कपड़ा और कृत्रिम रेशों से बना कपड़ा
सूती कपड़ा-
सूती कपड़ा कपास से बनाया जाता है। भारत में लोग सदियों से सूती वस्त्र पहनते आ रहे हैं। कपास और सूती वस्त्रों के प्रयोग के ऐतिहासिक प्रमाण प्राचीन सभ्यताओं में भी मिलते हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता में कपास और सूती कपड़े के प्रयोग के बारे में प्रमाण मिले हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में भी कपास के विषय में चर्चा की गई है।

कृत्रिम (बनावटी) रेशे से बने कपड़े-
कृत्रिम रेशे बनाने का विचार सबसे पहले एक अंग्रेज़ वैज्ञानिक राबर्ट हुक्क (Robert Hook) के मन में आया। इसके बारे में एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने भी लिखा। परंतु सन् 1842 ई० में अंग्रेज़ी वैज्ञानिक लुइस सुबाब ने बनावटी रेशों से कपड़े तैयार करने की एक मशीन तैयार की। कृत्रिम रेशों को तैयार करने के लिए शहतूत, एल्कोहल, रबड़, मनक्का, चर्बी और कुछ अन्य वनस्पतियां प्रयोग में लाई जाती हैं। नायलोन, पोलिस्टर और रेयान मुख्य कृत्रिम रेशे हैं। पोलिस्टर और सूत से बना कपड़ा टेरीकाट भारत में बहुत प्रयोग किया जाता है। आजकल अधिकतर लोग कृत्रिम रेशों से बने वस्त्रों का ही उपयोग करते हैं।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आदिकाल में मनुष्य शरीर ढकने के लिए किसका प्रयोग करता था ?
उत्तर-
आदिकाल में मनुष्य शरीर ढकने के लिए पत्तों, वृक्षों की छाल और जानवरों की खाल का प्रयोग करता था।

प्रश्न 2.
कपड़े कितनी तरह के रेशों से बनते हैं ?
उत्तर-
कपड़े चार तरह के रेशों से बनते हैं-सूती, ऊनी, रेशमी तथा कृत्रिम।

प्रश्न 3.
किस किस्म की भेड़ों की ऊन सबसे बढ़िया होती है ?
उत्तर-
मैरिनो।

प्रश्न 4.
स्त्रियों ने सबसे पहले किस देश में पहनावे की आज़ादी संबंधी आवाज़ उठाई ?
उत्तर-
फ्रांस।

प्रश्न 5.
इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति से पहले सूती कपड़ा किस देश से आयात करता था ?
उत्तर-
भारत से।

प्रश्न 6.
खादी लहर चलाने वाले प्रमुख भारतीय नेता का नाम बताओ।
उत्तर-
महात्मा गांधी।

प्रश्न 7.
नामधारी संप्रदाय के लोग किस रंग के कपड़े पहनते हैं ?
उत्तर-
सफेद।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्य को पहनावे की ज़रूरत क्यों पड़ी ?
उत्तर-
पहनावा व्यक्ति की बौद्धिक, मानसिक व आर्थिक स्थिति का प्रतीक है। पहनावे का प्रयोग केवल तन ढकने के लिए ही नहीं किया जाता, बल्कि इसके द्वारा मनुष्य की सभ्यता, सामाजिक स्तर आदि का भी पता चलता है। इसलिए मनुष्य को पहनावे की ज़रूरत पड़ी।

प्रश्न 2.
रेशमी कपड़ा कैसे तैयार होता है ?
उत्तर-
रेशमी कपड़ा रेशम के कीड़ों से प्राप्त रेशों से बनता है। रेशम का कीड़ा प्रायः शहतूत के वृक्षों पर पाला जाता है। यह कीड़ा अपनी सुरक्षा के लिए अपने इर्द-गिर्द एक कवच बना लेता है। यह कवच उसकी लार का बना होता है। इस कवच से ही रेशमी धागा तैयार किया जाता है। रेशमी कपड़ों की तकनीक सबसे पहले चीन में विकसित हुई।

प्रश्न 3.
औद्योगिक क्रांति का मनुष्य के पहनावे पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
18वीं-19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति का मनुष्य के पहनावे पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े :

  1. सूती कपड़े का उत्पादन बहुत अधिक बढ़ गया। अतः लोग मशीनों से बना सूती कपड़ा पहनने लगे।
  2. बनावटी रेशों से वस्त्र बनाने की तकनीक विकसित होने के बाद बड़ी संख्या में लोग कृत्रिम रेशों से बनाए गए वस्त्र पहनने लगे। इसका कारण यह था कि ये वस्त्र बहुत हल्के होते थे और इन्हें धोना भी आसान था परिणामस्वरूप भारीभरकम वस्त्र धीरे-धीरे विलुप्त होने लगे।
  3. वस्त्र सस्ते हो गए। फलस्वरूप कम वस्त्र पहनने वाले लोग भी अधिक से अधिक वस्त्रों का प्रयोग करने लगे।

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प्रश्न 4.
स्त्रियों के पहरावे पर महायुद्धों का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
महायुद्धों के परिणामस्वरूप महिलाओं के पहरावे में निम्नलिखित परिवर्तन आये-

  1. आभूषणों तथा विलासमय वस्त्रों का त्याग–अनेक महिलाओं ने आभूषणों तथा विलासमय वस्त्रों का त्याग कर दिया। फलस्वरूप सामाजिक बंधन टूट गए और उच्च वर्ग की महिलाएं अन्य वर्गों की महिलाओं के समान दिखाई देने लगीं।
  2. छोटे वस्त्र-प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान व्यावहारिक आवश्यकताओं के कारण वस्त्र छोटे हो गए। 1917 ई० तक ब्रिटेन में 70 हजार महिलाएं गोला-बारूद के कारखानों में काम करने लगी थी। कामगार महिलाएं ब्लाउज़, पतलून के अतिरिक्त स्कार्फ पहनती थीं जिसे बाद में खाकी ओवरआल और टोपी में बदल दिया गया। स्कर्ट की लंबाई कम हो गई। शीघ्र ही पतलून पश्चिमी महिलाओं की पोशाक का अनिवार्य अंग बन गई जिससे उन्हें चलनेफिरने में अधिक आसानी हो गई।
  3. वस्त्रों के रंग तथा बालों के आकार में परिवर्तन-भड़कीले रंगों का स्थान सादा रंगों ने लिया। अनेक महिलाओं ने सुविधा के लिए अपने बाल छोटे करवा लिए।
  4. सादा वस्त्र तथा खेलकूद-बीसवीं शताब्दी के आरंभ में बच्चे नए स्कूलों में सादा वस्त्रों पर बल देने और हारश्रृंगार को निरुत्साहित करने लगे। व्यायाम और खेलकूद लड़कियों के पाठ्यक्रम का अंग बन गए। खेल के समय लड़कियों को ऐसे वस्त्रों की आवश्यकता थी जिससे उनकी गति में बाधा न पड़े। जब वे काम पर जाती थीं तो वे आरामदेह और सुविधाजनक वस्त्र पहनती थीं।

प्रश्न 5.
स्वदेशी आंदोलन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संकेत-इसके लिए दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न का प्रश्न क्रमांक 4 पढ़ें।

प्रश्न 6.
राष्ट्रीय पोशाक तैयार करने से संबंधित किए गए यत्नों का संक्षेप वर्णन करो।
उत्तर-
19वीं शताब्दी के अंत में राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। राष्ट्र की सांकेतिक पहचान के लिए राष्ट्रीय पोशाक पर विचार किया जाने लगा। भारत के विभिन्न भागों में उच्च वर्गों में स्त्री-पुरुषों ने स्वयं ही वस्त्रों के नए-नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए। 1870 के दशक में बंगाल के टैगोर परिवार ने भारत के स्त्री तथा पुरुषों की राष्ट्रीय पोशाक के डिजाइन के प्रयोग आरंभ किए। रविंद्रनाथ टैगोर ने सुझाव दिया कि भारतीय तथा यूरोपीय वस्त्रों को मिलाने के स्थान पर हिंदू तथा मुस्लिम वस्त्रों के डिजाइनों को आपस में मिलाया जाए। इस प्रकार बटनों वाले एक लंबे कोट (अचकन) को भारतीय पुरुषों के लिए आदर्श पोशाक माना गया।

भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की परंपराओं को ध्यान में रखकर भी एक वेशभूषा तैयार करने का प्रयास किया गया। 1870 के दशक के अंत में सतेंद्रनाथ टैगोर की पत्नी ज्ञानदानंदिनी टैगोर ने राष्ट्रीय पोशाक तैयार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने साड़ी पहनने के लिए पारसी स्टाइल को अपनाया। इसमें साड़ी को बाएं कंधे पर पिन किया जाता था। साड़ी के साथ मिलते-जुलते ब्लाउज तथा जूते पहने जाते थे। जल्दी ही इसे ब्रह्म समाज की स्त्रियों ने अपना लिया। अतः इसे ब्रालिका साड़ी के नाम से जाना जाने लगा। शीघ्र ही यह शैली महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के ब्रह्म-समाजियों तथा गैरब्रह्मसमाजियों में प्रचलित हो गई।

प्रश्न 7.
पंजाबी महिलाओं के पहनावे पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
पंजाब अंग्रेजी शासन के अधीन (1849 ई०) सबसे बाद में आया। इसलिए पंजाब के लोगों विशेषकर महिलाओं के कपड़ों पर विदेशी संस्कृति का प्रभाव बहुत ही कम दिखाई दिया। पंजाब मुख्य रूप से अपनी परंपरागत ग्रामीण संस्कृति से जुड़ा रहा और यहां की महिलाएं परंपरागत वेशभूषा ही अपनाती रहीं। सलवार, कुर्ता और दुपट्टा
ही पंजाबी महिलाओं की पहचान बनी रही। विवाह के अवसर पर वे रंगबिरंगे वस्त्र तथा भारी आभूषण पहनती थीं। लड़कियां विवाह के अवसर पर फुलकारी निकालती थीं। दुपट्टों को गोटा लगा कर आकर्षक बनाया जाता था। सूटों पर कढ़ाई भी की जाती थी। शहरी औरतें साड़ी और ब्लाउज़ भी पहनती थीं। सर्दियों में स्वेटर, कोटी और स्कीवी पहनने का रिवाज था।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
कपड़ों में प्रयोग किए जाने वाले विभिन्न रेशों का वर्णन करें।
उत्तर-
नए-नए रेशों के आविष्कार के कारण लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के रेशों से बने कपड़े पहनने लगे। मौसम. सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक प्रभावों के कारण लोगों के पहनावे में निरंतर परिवर्तन आता रहा है जोकि आज भी जारी है।
पहनावे के इतिहास के लिए अलग-अलग तरह के रेशों के बारे में जानना ज़रूरी है, इनका वर्णन इस प्रकार है-

  1. सूती कपड़ा-सूती कपड़ा कपास से बनाया जाता है। भारत में लोग सदियों से सूती वस्त्र पहनते आ रहे हैं। कपास और सूती वस्त्रों के प्रयोग के ऐतिहासिक प्रमाण प्राचीन सभ्यताओं में भी मिलते हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता में से भी कपास और सूती कपड़े के प्रयोग के बारे में प्रमाण मिले हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में भी कपास के विषय में चर्चा की गई है।
  2. ऊनी कपड़ा-ऊन वास्तव में एक रेशेदार प्रोटीन है, जो विशेष प्रकार की चमड़ी की कोशिकाओं से बनती है। ऊन भेड़, बकरी, याक, खरगोश आदि जानवरों से भी प्राप्त की जाती है। मैरिनो नामक भेड़ों की ऊन सबसे उत्तम मानी जाती है। मिस्र, बेबीलोन, सिंधु घाटी की सभ्यता में ऊनी वस्त्रों के अवशेष मिले हैं। इससे मालूम होता है कि उस समय के लोग भी ऊनी कपड़े पहनते थे।
  3. रेशमी कपड़ा-रेशमी कपड़ा रेशम के कीड़ों से प्राप्त रेशों से बनता है। रेशम का कीड़ा अपनी सुरक्षा के लिए अपने इर्द-गिर्द एक कवच तैयार करता है। यह कवच उसकी लार का बना होता है। इस कवच से ही रेशमी धागा तैयार किया जाता है। रेशम का कीड़ा प्रायः शहतूत के वृक्षों पर पाला जाता है। रेशमी कपड़ों की तकनीक सबसे पहले चीन में विकसित हुई। भारत में भी रेशमी कपड़े का प्रयोग हज़ारों वर्षों से किया जा रहा है।
  4. कृत्रिम रेशे से बना कपड़ा-कृत्रिम रेशे बनाने का विचार सबसे पहले एक अंग्रेज़ वैज्ञानिक राबर्ट हुक्क (Robert Hook) के मन में आया। इसके बारे में एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने भी लिखा। परन्तु सन् 1842 ई० में अंग्रेज़ी वैज्ञानिक लुइस सुबाब ने बनावटी रेशों से कपड़े तैयार करने की एक मशीन तैयार की। कृत्रिम रेशों को तैयार करने के लिए शहतूत, एल्कोहल, रबड़, मनक्का, चर्बी और कुछ अन्य वनस्पतियां प्रयोग में लाई जाती हैं। नायलोन, पोलिस्टर ओर रेयान मुख्य कृत्रिम रेशे हैं। पोलिस्टर और सूत से बना कपड़ा टैरीकाट भारत में बहुत प्रयोग किया जाता है। आजकल अधिकतर लोग कृत्रिम रेशों से बने वस्त्रों का उपयोग करते हैं।

प्रश्न 2.
औद्योगिक क्रांति ने साधारण लोगों के पहनावे पर क्या प्रभाव डाला ? वर्णन करें।
उत्तर-
18वीं-19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति ने समस्त विश्व के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक ढांचे पर अपना गहरा प्रभाव डाला। इससे लोगों के विचारों तथा जीवन-शैली में परिवर्तन आया, परिणामस्वरूप लोगों के पहनावे में भी परिवर्तन आया।
कपड़े का उत्पादन मशीनों से होने के कारण कपड़ा सस्ता हो गया और वह बाज़ार में अधिक मात्रा में आ गया। यह मशीनी कपड़ा होने के कारण अलग-अलग डिज़ाइनों में आ गया। इसलिए लोगों के पास पोशाकों की संख्या में वृद्धि हो गई। संक्षेप में आम लोगों के पहनावे पर औद्योगिक क्रांति के निम्नलिखित प्रभाव पड़े।

  1. रंग-बिरंगे वस्त्रों का प्रचलन–18वीं शताब्दी में यूरोप के लोग अपने सामाजिक स्तर, वर्ग अथवा लिंग के अनुरूप कपड़े पहनते थे। पुरुषों व स्त्रियों के पहनावें में बहुत अंतर था। महिलाएं पहनावे में स्कर्ट और ऊंची एड़ी वाले जूते पहनती थीं। पुरुष पहनावे में नैक्टाई का प्रयोग करते थे। समाज के उच्च वर्ग का पहनावा आम लोगों से अलग होता
    था परंतु 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रांति ने कुलीन वर्ग के लोगों के विशेष अधिकारों को समाप्त कर दिया। इसके परिणामस्वरूप सभी वर्गों के लोग भी अपनी इच्छा के अनुसार रंग-बिरंगे कपड़े पहनने लगे। फ्रांस के लोग स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में लाल टोपी पहनते थे। इस प्रकार आम लोगों द्वारा रंग-बिरंगे कपड़े पहनने का प्रचलन पूरे विश्व में प्रसिद्ध हो गया।

2. स्त्रियों के पहनावे में परिवर्तन-

  1. फ्रांसीसी क्रांति व फिजूल-खर्च रोकने संबंधी कानूनों से पहनावे में किए सुधारों को स्त्रियों ने स्वीकार नहीं किया। 1830 ई० में इंग्लैंड में कुछ महिला-संस्थाओं ने स्त्रियों के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग शुरू कर दी। जैसे ही सफरेज आंदोलन का प्रसार हुआ, तो अमेरिका की 13 ब्रिटिश बस्तियों में पहनावा-सुधार आंदोलन शुरू हुआ।
  2. प्रैस व साहित्य ने तंग कपड़े पहनने के कारण नवयुवतियों को होने वाली बीमारियों के बारे में बताया उनका मानना था कि तंग पहनावे से शरीर का विकास, मेरूदंड में विकार व रक्त संचार प्रभावित होता है। इसलिए बहुत सारे महिला-संगठनों ने सरकार से लड़कियों की शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए पोशाकों में सुधारों की माँग की।
  3. अमेरिका में भी कई महिला-संगठनों ने स्त्रियों के लिए पारंपरिक पोशाक की निंदा की। कई महिला-संस्थाओं ने लंबे गाउन की अपेक्षा स्त्रियों के लिए सुविधाजनक परिधान पहनने की मांग की क्योंकि यदि स्त्रियों की पोशाक आरामदायक होगी, तभी वे आसानी से काम कर सकेंगी।
  4. 1870 ई० में दो संस्थाएं ‘नेशनल वूमैन सफरेज़ ऐसोसिएशन’ और ‘अमेरिकन वुमैन सफरेज़ ऐसोसिएशन’ ने मिलकर स्त्रियों के पहनावे में सुधार करने के लिए आंदोलन आरंभ किया। रूढ़िवादी विचारधारा के लोगों के कारण यह आंदोलन असफल रहा। फिर भी स्त्रियों की सुंदरता और पहनावे के नमूनों में परिवर्तन होना आरंभ हो गया।

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प्रश्न 3.
भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान पहनावे में हुए परिवर्तनों का वर्णन करो।
उत्तर-
औपनिवेशिक शासन के दौरान जब पश्चिमी वस्त्र शैली भारत में आई तो अनेक पुरुषों ने इन वस्त्रों को अपना लिया। इसके विपरीत स्त्रियां परंपरागत कपड़े ही पहनती रहीं।
कारण-

  1. भारत का पारसी समुदाय काफ़ी धनी था। वे लोग पश्चिमी संस्कृति से भी प्रभावित थे। अत: सबसे पहले पारसी लोगों ने ही पश्चिमी वस्त्रों को अपनाया। भद्रपुरुष दिखाई देने के लिए उन्होंने बिना कालर के लंबे कोट, बूट और छड़ी को अपनी पोशाक का अंग बना लिया।
  2. कुछ पुरुषों ने पश्चिमी वस्त्रों को आधुनिकता का प्रतीक समझ कर अपनाया।
  3. भारत के जो लोग मिशनरियों के प्रभाव में आकर ईसाई बन गये थे, उन्होंने भी पश्चिमी वस्त्र पहनने शुरू कर दिए।
  4. कुछ बंगाली बाबू कार्यालयों में पश्चिमी वस्त्र पहनते थे, जबकि घर में आकर अपनी परंपरागत पोशाक धारण कर लेते थे।

इतना होने के बावजूद ग्रामीण समाज में पुरुषों तथा स्त्रियों के पहरावे में कोई विशेष अंतर नहीं आया। केवल मशीनों से बना कपड़ा सुंदर तथा सस्ता होने के कारण अधिक प्रयोग किया जाने लगा। इसके अतिरिक्त भारतीय पहरावे तथा पश्चिमी पहरावे के बीच टकराव की घटनाएं भी सामने आईं। परंतु जातिगत नियमों में बंधा भारतीय ग्रामीण समुदाय पश्चिमी पोशाक-शैली से दूर ही रहा।
समाज में स्त्रियों की स्थिति-इससे पता चलता है कि समाज पुरुष-प्रधान था जिसमें नारी स्वतंत्र नहीं थी। उसका कार्य घर की चार दीवारी तक ही सीमित था। वह नौकरी पेशा नहीं थी।

प्रश्न 4.
भारतीय लोगों के पहनावे पर स्वदेशी आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
1905 ई० में अंग्रेज़ी सरकार ने बंगाल का विभाजन कर दिया। इसे बंग-भंग भी कहा जाता है। स्वदेशी आंदोलन बंग-भंग के विरोध में चला। बहिष्कार भी स्वदेशी आंदोलन का एक अंग था। यह राजनीतिक विरोध कम, परंतु कपड़ों से जुड़ा विरोध अधिक था। लोगों ने इंग्लैंड से आने वाले कपड़े को पहनने से इंकार कर दिया और देश में ही बने कपड़े को पहल दी। गांधी जी द्वारा प्रचलित खादी स्वदेशी पोशाक की पहचान बन गई। विदेशी कपड़े की जगह-जगह होली जलाई गई और विदेशी कपड़े की दुकानों पर धरने दिए।
वास्तव में विदेशी संस्कृति से जुड़ी प्रत्येक वस्तु का त्याग करके स्वदेशी माल अपनाया गया। इस आंदोलन ने ग्रामीणों को रोज़गार प्रदान किया और वहां के कपड़ा उद्योग में नई जान डाली। इसलिए ग्रामीण समुदाय अपनी परम्परागत वस्त्रशैली से ही जुड़ा रहा। बहुत से लोगों ने खादी को भी अपनाया। परंतु खादी बहुत अधिक महंगी होने के कारण बहुत कम स्त्रियों ने इसे अपनाया। गरीबी के कारण वे कई गज़ लम्बी साड़ी के लिए महंगी-खादी नहीं खरीद पाती थीं।

प्रश्न 5.
पंजाबी लोगों के पहनावे संबंधी अपने विचार लिखो।
उत्तर-
पंजाबी महिलाओं का पहनावा-इसके लिए लघु उत्तरों वाले प्रश्नों में क्रमांक 7 पढ़ें पुरुषों का पहनावा-पंजाबी पुरुषों का पहनावा कोई अपवाद नहीं था। वे भी विदेशी पहनावे के प्रभाव से लगभग अछूते ही रहे। क्योंकि पंजाब कृषि प्रधान प्रदेश रहा है इसीलिए यहां के पुरुषों का पहनावा परंपरागत किसानों जैसा रहा। वे कुर्ता, चादरा पहनते थे और सिर पर पगड़ी पहनते थे। कुछ पंजाबी किसान सिर पर पगड़ी के स्थान पर परना (साफ़ा) भी लपेट लेते थे। पुरुष मावा लगी तुरेदार पगड़ी बड़े गर्व से पहनते थे। आज कुछ पुरुष पगड़ी के नीचे फिफ्टी भी बांधते हैं। यह कम लंबाई की एक छोटी पगड़ी होती है। विवाह-शादी के अवसर पर लाल गुलाबी अथवा सिंदूरी रंग की पगड़ी बांधी जाती थी। शोक के समय वे सफ़ेद अथवा हल्के रंग की पगड़ी बांधते थे। निहंग सिंहों तथा नामधारी संप्रदाय के लोगों का अपना अलग पहनावा है। उदाहरण के लिए नामधारी लोग सफेद रंग के कपड़े पहनते हैं। धीरेधीरे कुर्ते-चादरे की जगह कुर्ते-पायजामे ने ले ली।
अब पंजाबी पहनावे का रूप और भी बदल रहा है। आज पढ़े-लिखे तथा नौकरी पेशा लोग कमीज़ तथा पेंट (पतलून) का प्रयोग करने लगे हैं। पुरुषों के पहनावे में भी विविधता आ रही है। वे मुख्य रूप से पंजाबी जूती और बूट आदि पहनते हैं।

PSEB 9th Class Social Science Guide पहनावे का सामाजिक इतिहास Important Questions and Answers

I. बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
मध्यकालीन फ्रांस में वस्त्रों के प्रयोग का आधार था
(क) लोगों की आय
(ख) लोगों का स्वास्थ्य
(ग) सामाजिक स्तर
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ग) सामाजिक स्तर

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प्रश्न 2.
मध्यकालीन फ्रांस में निम्न वर्ग के लिए जिस चीज़ का प्रयोग वर्जित था
(क) विशेष कपड़े
(ख) मादक द्रव्य (शराब)
(ग) विशेष भोजन
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
फ्रांस में वस्त्रों का जो रंग देशभक्त नागरिक का प्रतीक नहीं था
(क) नीला
(ख) पीला
(ग) सफ़ेद
(घ) लाल।
उत्तर-
(ख) पीला

प्रश्न 4.
फ्रांस में स्वतंत्रता को दर्शाती थी
(क) लाल टोपी
(ख) काली टोपी
(ग) सफ़ेद पतलून
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) लाल टोपी

प्रश्न 5.
वस्त्रों की सादगी किस भावना की प्रतीक थी ?
(क) स्वतंत्रता
(ख) समानता
(ग) बंधुत्व
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ख) समानता

प्रश्न 6.
फ्रांस में व्यय-नियामक कानून (संपचुअरी कानून) समाप्त किए
(क) फ्रांसीसी क्रांति ने
(ख) राजतंत्र ने
(ग) सामंतों ने
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) फ्रांसीसी क्रांति ने

प्रश्न 7.
विक्टोरियन इंग्लैंड में उस स्त्री को आदर्श स्त्री माना जाता था जो
(क) लंबी तथा मोटी हो
(ख) छोटे कद की तथा भारी हो
(ग) पीड़ा और कष्ट सहन कर सके
(घ) पूरी तरह वस्त्रों से ढकी हो।
उत्तर-
(ग) पीड़ा और कष्ट सहन कर सके

प्रश्न 8.
इंग्लैंड में महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए (सफ्रेज) आंदोलन चला
(क) 1800 के दशक में
(ख) 1810 के दशक में
(ग) 1820 के दशक में
(घ) 1830 के दशक में।
उत्तर-
(घ) 1830 के दशक में।

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प्रश्न 9.
इंग्लैंड में वूलन टोपी पहनना कानूनन अनिवार्य क्यों था?
(क) पवित्र दिनों के महत्त्व के लिए
(ख) उच्च वर्ग की शान के लिए
(ग) वूलन उद्योग के संरक्षण के लिए
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) वूलन उद्योग के संरक्षण के लिए

प्रश्न 10.
विक्टोरियन इंग्लैंड की स्त्रियों में जिस गुण का विकास बचपन से ही कर दिया जाता था
(क) विनम्रता
(ख) कर्त्तव्यपरायणता
(ग) आज्ञाकारिता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 11.
विक्टोरियन इंग्लैंड के पुरुषों में निम्न गुण की अपेक्षा की जाती थी
(क) निर्भीकता
(ख) स्वतंत्रता
(ग) गंभीरता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 12.
वस्त्रों को ढीले-ढाले डिज़ाइन में बदलने वाली पहली महिला श्रीमती अमेलिया बलूमर (Mrs. Amelia Bloomer) का संबंध था
(क) अमेरिका
(ख) जापान
(ग) भारत
(घ) रूस।
उत्तर-
(क) अमेरिका

प्रश्न 13.
1600 ई० के बाद इंग्लैंड की महिलाओं को जो सस्ता व अच्छा कपड़ा मिला वह था
(क) इंग्लैंड की मलमल
(ख) भारत की छींट
(ग) भारत की मलमल
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) भारत की छींट

प्रश्न 14.
इंग्लैंड से सूती कपड़े का निर्यात आरंभ हुआ
(क) औद्योगिक क्रांति के बाद
(ख) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद
(ग) 18वीं शताब्दी में
(घ) 17वीं शताब्दी के अंत में।
उत्तर-
(क) औद्योगिक क्रांति के बाद

प्रश्न 15.
स्कर्ट के आकार में एकाएक परिवर्तन आया
(क) 1915 ई० में
(ख) 1947 ई० में
(ग) 1917 ई० में
(घ) 1942 ई० में।
उत्तर-
(क) 1915 ई० में

प्रश्न 16.
भारत में पश्चिमी वस्त्रों को अपनाया गया
(क) 20वीं शताब्दी में
(ख) 16वीं शताब्दी में
(ग) 19वीं शताब्दी में
(घ) 17वीं शताब्दी में।
उत्तर-
(ग) 19वीं शताब्दी में

प्रश्न 17.
भारत में पश्चिमी वस्त्र शैली को सर्वप्रथम अपनाया
(क) मुसलमानों ने
(ख) पारसियों ने
(ग) हिंदुओं ने
(घ) ईसाइयों ने।
उत्तर-
(ख) पारसियों ने

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प्रश्न 18.
विक्टोरियन इंग्लैंड में लड़कियों को बचपन से ही सख्त फीतों में बँधे कपड़ों अर्थात् स्टेज़ में कसकर क्यों बाँधा जाता था ?
(क) क्योंकि इन कपड़ों में लड़कियां सुंदर लगती थीं।
(ख) क्योंकि ऐसे वस्त्र पहनने वाली लड़कियां फैशनेबल मानी जाती थीं
(ग) क्योंकि यह विश्वास किया जाता था कि एक आदर्श नारी को पीड़ा और कष्ट सहन करने चाहिएं
(घ) क्योंकि नारी आज़ादी से घूम-फिर न सके और घर पर ही रहे।
उत्तर-
(ग) क्योंकि यह विश्वास किया जाता था कि एक आदर्श नारी को पीड़ा और कष्ट सहन करने चाहिएं

प्रश्न 19.
खादी का संबंध निम्न में से किससे है ?
(क) भारत में बनने वाला सूती वस्त्र
(ख) भारत में बनी छींट
(ग) हाथ से कते सूत से बना मोटा कपड़ा
(घ) भारत में बना मशीनी कपड़ा।
उत्तर-
(ग) हाथ से कते सूत से बना मोटा कपड़ा

प्रश्न 20.
महात्मा गांधी ने हाथ से कती हुई खादी पहनने को बढ़ावा दिया क्योंकि
(क) यह आयातित वस्त्रों से सस्ती थी
(ख) इससे भारतीय मिल-मालिकों को लाभ होता
(ग) यह आत्मनिर्भरता का लक्षण था
(घ) वह रेशम के कीड़े मारने के विरुद्ध थे।
उत्तर-
(ग) यह आत्मनिर्भरता का लक्षण था

प्रश्न 21.
गोलाबारूद की फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं के लिए कैसा कपड़ा पहनना व्यावहारिक नहीं था?
(क) ओवर ऑल और टोपियां
(ख) पैंट और ब्लाउज़
(ग) छोटे स्कर्ट और स्कार्फ
(घ) लहराते गाउन और कार्सेट्स।
उत्तर-
(घ) लहराते गाउन और कार्सेट्स।

प्रश्न 22.
‘पादुका सम्मान’ नियम किस गवर्नर-जनरल के समय अधिक सख़्त हुआ ?
(क) लॉर्ड वेलज़ेली
(ख) लॉर्ड विलियम बेंटिंक
(ग) लॉर्ड डल्हौज़ी
(घ) लॉर्ड लिटन।
उत्तर-
(ग) लॉर्ड डल्हौज़ी

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प्रश्न 23.
हिंदुस्तानियों से मिलने पर ब्रिटिश अफ़सर कब अपमानित महसूस करते थे ?
(क) जब हिंदुस्तानी अपना जूता नहीं उतारते थे
(ख) जब हिंदुस्तानी अपनी पगड़ी नहीं उतारते थे
(ग) जब हिंदुस्तानी हैट पहने होते थे
(घ) जब हिंदुस्तानी उन्हें अपना हैट उतारने को कहते थे।
उत्तर-
(ख) जब हिंदुस्तानी अपनी पगड़ी नहीं उतारते थे

II. रिक्त स्थान भरो:

  1. फ्रांस में … …….. स्वतंत्रता को दर्शाती थी।
  2. फ्रांस में व्यय-नियायक कानून (संपचुअरी कानून) का संबंध …………… से है।
  3. ………………. के दशक में इंग्लैंड में महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए (सफ्रेज) आंदोलन चला।
  4. …………. वस्त्रों को ढीले-ढाले डिज़ाइन में बदलने वाली पहली अमरीकी महिला थी।
  5. भारत में पश्चिमी वस्त्रों को सबसे पहले …………….. समुदाय ने अपनाया।

उत्तर-

  1. लाल टोपी
  2. पहनावे
  3. 18304.
  4. श्रामता अमालया बलमर
  5. पारसा।

III. सही मिलान करो

(क) – (ख)
1. महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकार – (i) घुटनों से ऊपर पतलून पहनने वाले लोग।
2. वूलन टोपी – (ii) हाथ से कते सूत से बना मोटा कपड़ा।
3. भारत की छींट – (iii) सफ्रेज आंदोलन।
4. खादी – (iv) इंग्लैंड में वूलन उद्योग संरक्षण।
5. सेन्स क्लोट्टीज़ – (v) सस्ता तथा अच्छा कपड़ा।

उत्तर-

  1. सफेज आंदोलन
  2. इंग्लैंड में वूलन उद्योग संरक्षण
  3. सस्ता तथा अच्छा कपडा
  4. हाथ से कते सूत से बना मोटा कपडा
  5. घुटनों से ऊपर पतलून पहनने वाले लोग।

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

उत्तर एक लाइन अथवा एक शब्द में :

प्रश्न 1.
इंग्लैंड में कुछ विशेष दिनों में ऊनी टोपी पहनना अनिवार्य क्यों कर दिया गया?
उत्तर-
अपने ऊनी उद्योग के संरक्षण के लिए।

प्रश्न 2.
वस्त्रों संबंधी नियम के समाप्त होने के बाद भी यूरोप के विभिन्न वर्गों में वेशभूषा संबंधी अंतर समाप्त क्यों न हो सका?
उत्तर-
निर्धन लोग अमीरों जैसे वस्त्र नहीं पहन सकते थे।

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प्रश्न 3.
जेकोबिन क्लब्ज़ के सदस्य स्वयं को क्या कहते थे?
उत्तर-
सेन्स क्लोट्टीज़ (Sans Culottes)।

प्रश्न 4.
सेन्स क्लोट्टीज़ का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर-
घुटनों से ऊपर रहने वाली पतलून पहनने वाले लोग।

प्रश्न 5.
विक्टोरिया काल की स्त्रियों को सुंदर बनाने में किस बात की भूमिका रही?
उत्तर-
उनकी तंग वेशभूषा की।

प्रश्न 6.
इंग्लैंड में ‘रेशनल ड्रैस सोसायटी’ की स्थापना कब हुई ?
उत्तर-
1881 में।

प्रश्न 7.
एक अमरीकी ‘वस्त्र सुधारक’ का नाम बताओ।
उत्तर-
श्रीमती अमेलिया ब्लूमर (Mrs. Amelia Bloomer)।

प्रश्न 8.
किस विश्व विख्यात घटना ने स्त्रियों के वस्त्रों में मूल परिवर्तन ला दिया?
उत्तर-
प्रथम विश्व युद्ध ने।

प्रश्न 9.
भारत के साथ व्यापार के परिणामस्वरूप कौन-सा भारतीय कपड़ा इंग्लैंड की स्त्रियों में लोकप्रिय हुआ?
उत्तर-
छींट।

प्रश्न 10.
कृत्रिम धागों से बने वस्त्रों की कोई दो विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. धोने में आसान,
  2. संभाल करना आसान।

प्रश्न 11.
भारत में पश्चिमी वस्त्रों को सबसे पहले किस समुदाय ने अपनाया?
उत्तर-
पारसी।

प्रश्न 12.
ट्रावनकोर में दासता का अंत कब हुआ?
उत्तर-
1855 ई० में।

प्रश्न 13.
भारत में पगड़ी किस बात की प्रतीक मानी जाती थी?
उत्तर-
सम्मान की।

प्रश्न 14.
भारत में राष्ट्रीय वस्त्र के रूप में किस वस्त्र को सबसे अच्छा माना गया ?
उत्तर-
अचकन (बटनों वाला एक लंबा कोट)।

प्रश्न 15.
स्वदेशी आंदोलन किस बात के विरोध में चला?
उत्तर-
1905 के बंगाल-विभाजन के विरोध में।

प्रश्न 16.
बंगाल का विभाजन किसने किया?
उत्तर-
लॉर्ड कर्जन ने।

प्रश्न 17.
स्वदेशी आंदोलन में किस बात पर विशेष बल दिया गया?
उत्तर-
अपने देश में बने माल के प्रयोग पर।

प्रश्न 18.
महात्मा गांधी ने किस प्रकार के वस्त्र के प्रयोग पर बल दिया?
उत्तर-
खादी पर।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
फ्रांस के सम्प्चुअरी (Sumptuary) कानून क्या थे ?
उत्तर-
लगभग 1294 से लेकर 1789 की फ्रांसीसी क्रांति तक फ्रांस के लोगों को सम्प्चुअरी कानूनों का पालन करना पड़ता था। इन कानूनों द्वारा समाज के निम्न वर्ग के व्यवहार को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। इनके अनुसार-

  1. निम्न वर्ग के लोग कुछ विशेष प्रकार के वस्त्रों तथा विशेष प्रकार के भोजन का प्रयोग नहीं कर सकते थे।
  2. उनके लिए मादक द्रव्यों के प्रयोग की मनाही थी।
  3. उनके लिए कुछ विशेष क्षेत्रों में शिकार करना भी वर्जित था।

वास्तव में ये कानून लोगों के सामाजिक स्तर को दर्शाने के लिए बनाए गए थे। उदाहरण के लिए अरमाइन (ermine) फर, रेशम, मखमल, जरी जैसी कीमती वस्तुओं का प्रयोग केवल राजवंश के लोग ही कर सकते थे। अन्य वर्गों के लोग इस सामग्री का प्रयोग नहीं कर सकते थे।

प्रश्न 2.
यूरोपीय पोशाक संहिता और भारतीय पोशाक संहिता के बीच कोई दो फर्क बताइए।
उत्तर-

  1. यूरोपीय ड्रेस कोड (पोशाक संहिता) में तंग वस्त्रों को महत्त्व दिया जाता था ताकि चुस्ती बनी रहे। इसके विपरीत भारतीय ड्रेस कोड में ढीले-ढाले वस्त्रों का अधिक महत्त्व था। उदाहरण के लिए यूरोपीय लोग कसी हुई पतलून पहनते थे। परंतु भारतीय धोती अथवा पायजामा पहनते थे।
  2. यूरोपीय ड्रेस कोड में स्त्रियों के वस्त्र ऐसे होते थे जो उनकी शारीरिक बनावट को आकर्षक बनाएं। उदाहरण के लिए इंग्लैंड की महिलाएं अपनी कमर को सीधा रखने तथा पतला बनाने के लिए कमर पर एक तंग पेटी पहनती थीं। वे एक तंग अधोवस्त्र का प्रयोग भी करती थीं। इसके विपरीत भारतीय महिलाएं रंग-बिरंगे वस्त्र पहन कर अपनी सुंदरता बढ़ाती थीं। वे प्रायः रंगदार साड़ियां प्रयोग करती थीं।

प्रश्न 3.
1805 ई० में अंग्रेज अफसर बेंजामिन हाइन ने बंगलोर में बनने वाली चीज़ों की एक सूची बनाई थी, जिसमें निम्नलिखित उत्पाद भी शामिल थे :

  • अलग-अलग किस्म और नाम वाले जनाना कपड़े
  • मोटी छींट
  • मखमल
  • रेशमी कपड़े

बताइए कि बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में इनमें से कौन-कौन से किस्म के कपड़े प्रयोग से बाहर चले गए होंगे और क्यों ?
उत्तर-
20वीं शताब्दी के आरंभ में मलमल का प्रयोग बंद हो गया होगा। इसका कारण यह है कि इस समय तक इंग्लैंड के कारखानों में बना सूती कपड़ा भारत के बाजारों में बिकने लगा था। यह कपड़ा देखने में सुंदर, हल्का तथा सस्ता था। अतः भारतीयों ने मलमल के स्थान पर इस कपड़े का प्रयोग करना आरंभ कर दिया था।

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प्रश्न 4.
विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि महात्मा गांधी ‘राजद्रोही मिडिल टेम्पल वकील’ से ज़्यादा कुछ नहीं हैं और (अधनंगे फकीर का दिखावा) कर रहे हैं।
चर्चिल ने यह वक्तव्य क्यों दिया और इससे महात्मा गांधी की पोशाक की प्रतीकात्मक शक्ति के बारे में क्या पता चलता है ?
उत्तर-
गांधी जी की छवि एक महात्मा के रूप में उभर रही थी। वह भारतीयों में अधिक-से-अधिक लोकप्रिय होते जा रहे थे। फलस्वरूप राष्ट्रीय आंदोलन दिन-प्रतिदिन सबल होता जा रहा था। विंस्टन चर्चिल यह बात सहन नहीं कर पा रहे थे। इसलिए उन्होंने उक्त टिप्पणी की।
महात्मा गांधी की पोशाक पवित्रता, सादगी तथा निर्धनता की प्रतीक थी। अधिकांश भारतीय जनता के भी यही लक्षण थे। अतः ऐसा लगता था जैसे महात्मा गांधी के रूप में पूरा राष्ट्र ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती दे रहा हो।

प्रश्न 5.
सम्प्चुअरी (Sumptuary laws) कानूनों द्वारा उत्पन्न असमानताओं पर फ्रांसीसी क्रांति का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
फ्रांसीसी क्रांति ने सम्प्चुअरी कानूनों (Sumptuary laws) द्वारा उत्पन्न सभी असमानताओं को समाप्त कर दिया। इसके बाद पुरुष और स्त्रियां दोनों ही खुले और आरामदेह वस्त्र पहनने लगे। फ्रांस के रंग-नीला, सफेद और लाल लोकप्रिय हो गए क्योंकि ये देशभक्त नागरिक के प्रतीक चिह्न थे। अन्य राजनीतिक प्रतीक भी अपने वेश-भूषा के अंग बन गए। इनमें स्वतंत्रता की लाल टोपी, लंबी पतलून और टोपी पर लगने वाला क्रांति का बैज (Cockade) शामिल थे। वस्त्रों की सादगी समानता की भावना को व्यक्त करती थी।

प्रश्न 6.
वस्त्रों की शैली पुरुषों तथा स्त्रियों के बीच अंतर पर बल देती थी। इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर-
पुरुषों और स्त्रियों के वस्त्रों के फैशन में अंतर था। विक्टोरिया कालीन स्त्रियों को बचपन से ही विनीत, आज्ञाकारी, विनम्र और कर्तव्यपारायण बनने के लिए तैयार किया जाता था। उसी को आदर्श महिला माना जाता था जो कष्ट और पीड़ा सहन करने की क्षमता रखती हो। पुरुषों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे गंभीर, शक्तिशाली, स्वतंत्र
और आक्रामक हों जबकि स्त्रियां, विनम्र, चंचल, नाजुक तथा आज्ञाकारी हों। वस्त्रों के मानकों में इन आदर्शों की झलक मिलती थी। बचपन से ही लड़कियों को तंग वस्त्र पहनाए जाते थे। इसका उद्देश्य उनके शारीरिक विकास को नियंत्रित करना था। जब लड़कियाँ थोड़ी बड़ी होती तो उन्हें तंग कारसैट्स (Corsets) पहनने पड़ते थे। तंग कपड़े पहने पतली कमर वाली स्त्रियों को आकर्षक एवं शालीन माना जाता था। इस प्रकार विक्टोरिया कालीन पहरावे ने चंचल एवं आज्ञाकारी महिला की छवि उभारने में भूमिका निभाई।

प्रश्न 7.
यूरोप की बहुत-सी स्त्रियां नारीत्व के आदर्शों में विश्वास रखती थीं। उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर-
इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत-सी महिलाएं नारीत्व के आदर्शों में विश्वास रखती थीं। ये आदर्श उस वायु में थे जिसमें वे सांस लेती थीं, उस साहित्य में थे जो वे पढ़ती थीं और उस शिक्षा में थे जो वह स्कूल और घर में ग्रहण करती थीं। बचपन से ही वे यह विश्वास लेकर बड़ी होती थीं कि पतली कमर होना नारी धर्म है। महिला के लिए पीड़ा सहन करना अनिवार्य था। आकर्षक और नारी सुलभ लगने के लिए वे कोरसैट्ट (Corset) पहनती थीं। कोरसै? उनके शरीर को जो यातना तथा पीड़ा पहुंचाता था, उसे वे स्वाभाविक रूप से सहन करती थीं।

प्रश्न 8.
महिला-मैगज़ीनों के अनुसार तंग वस्त्र तथा ब्रीफ़ (Corsets) महिलाओं को क्या हानि पहुँचाते हैं ? इस संबंध में डॉक्टरों का क्या कहना था ?
उत्तर-
कई महिला मैगज़ीनों ने महिलाओं को तंग कपड़ों तथा ब्रीफ़ (Corsets) से होने वाली हानियों के बारे में लिखा। ये हानियां निम्नलिखित थीं-

  1. तंग पोशाक और कोरसैट्स (Corsets) छोटी लड़कियों को विकृत. तथा रोगी बनाती हैं।
  2. ऐसे वस्त्र शारीरिक विकास और रक्त संचार में बाधा डालते हैं।
  3. ऐसे वस्त्रों से मांसपेशियां (muscles) अविकसित रह जाती हैं और रीढ़ की हड्डी में झुकाव आ जाता है।
    डॉक्टरों का कहना था कि महिलाओं को अत्यधिक कमज़ोरी और प्रायः मूर्छित हो जाने की शिकायत रहती है। उनका शरीर निढाल रहता है।

प्रश्न 9.
अमेरिका के पूर्वी तट पर बसे गोरों ने महिलाओं की पारंपरिक पोशाक की किन बातों के कारण आलोचना की ?
उत्तर-
अमेरिका के पूर्वी तट पर बसे गोरों ने महिलाओं की पारंपरिक पोशाक की कई बातों के कारण आलोचना की। उनका कहना था कि

  1. लंबी स्कर्ट झाड़ का काम करती है और इसमें धूल तथा गंदगी इकट्ठी हो जाती है। इससे बीमारी पैदा होती है।
  2. यह स्कर्ट भारी और विशाल है। इसे संभालना कठिन है। 3. यह चलने फिरने में रुकावट डालती है। अत: यह महिलाओं के लिए काम करके रोज़ी कमाने में बाधक है।
    उनका कहना था कि वेशभूषा में सुधार महिलाओं की स्थिति में बदलाव लाएगा। यदि वस्त्र आरामदेह और सुविधाजनक हों तो महिलाएं काम कर सकती हैं, अपनी रोज़ी कमा सकती हैं और स्वतंत्र भी हो सकती हैं।

प्रश्न 10.
ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रांति भारत के वस्त्र उद्योग के पतन का कारण कैसे बनी ?
उत्तर-
ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति से पहले भारत के हाथ से बने सूती वस्त्र की संसार भर में जबरदस्त मांग थी। 17वीं शताब्दी में पूरे विश्व के सूती वस्त्र का एक चौथाई भाग भारत में ही बनता था। 18वीं शताब्दी में अकेले बंगाल में दस लाख बुनकर थे। परंतु ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति ने कताई और बुनाई का मशीनीकरण कर दिया। अत: भारत की कपास कच्चे माल के रूप में ब्रिटेन में जाने लगी और वहां पर बना मशीनी माल भारत आने लगा। भारत में बना कपड़ा इसका मुकाबला न कर सका जिससे उसकी मांग घटने लगी। फलस्वरूप भारत के बुनकर बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गये और मुर्शिदाबाद, मछलीपट्टनम तथा सूरत जैसे सूती वस्त्र केंद्रों का पतन हो गया।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
समूचे राष्ट्र को खादी पहनाने का गांधी जी का सपना भारतीय जनता के केवल कुछ हिस्सों तक ही सीमित क्यों रहा ?
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उत्तर-
गांधी जी पूरे देश को खादी पहनाना चाहते थे। परंतु उनका यह विचार कुछ ही वर्गों तक सीमित रहा। अन्य वर्गों को खादी से कोई लगाव नहीं था। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

  1. कई लोगों को गांधी जी की भांति अर्द्धनग्न रहना पसंद नहीं था। वे एकमात्र लंगोट पहनना सभ्यता के विरुद्ध समझते थे। उन्हें इसमें लाज भी आती थी।
  2. खादी महंगी थी और देश के अधिकतर लोग निर्धन थे। कुछ स्त्रियां नौ-नौ गज़ की साड़ियां पहनती थीं। उनके लिए खादी की साड़ियां पहन पाना संभव नहीं था।
  3. जो लोग पश्चिमी वस्त्रों के प्रति आकर्षित हुए थे, उन्होंने भी खादी पहनने से इंकार कर दिया।
  4. देश का मुस्लिम समुदाय अपनी परंपरागत वेशभूषा बदलने को तैयार नहीं था।

प्रश्न 2.
अठारहवीं शताब्दी में पोशाक शैलियों और सामग्री में आए बदलावों के क्या कारण थे ?
उत्तर-
18वीं शताब्दी में पोशाक शैलियों तथा उनमें प्रयोग होने वाली सामग्री में निम्नलिखित कारणों से परिवर्तन आए-

  1. फ्रांसीसी क्रांति ने संप्चुअरी कानूनों को समाप्त कर दिया।
  2. राजतंत्र तथा शासक वर्ग के विशेषाधिकार समाप्त हो गए।
  3. फ्रांस के रंग-लाल, नीला तथा सफ़ेद-देशभक्ति के प्रतीक बन गए अर्थात् इन रंगों के वस्त्र लोकप्रिय होने लगे।
  4. समानता को महत्त्व देने के लिए लोग साधारण वस्त्र पहनने लगे।
  5. लोगों की वस्त्रों के प्रति रुचियां भिन्न-भिन्न थीं।
  6. स्त्रियों में सौंदर्य की भावना ने वस्त्रों में बदलाव ला दिया।
  7. लोगों की आर्थिक दशा ने भी वस्त्रों में अंतर ला दिया।

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प्रश्न 3.
अमेरिका में 1870 के दशक में महिला वेशभूषा में सुधार के लिए चलाए गए अभियान की संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
उत्तर-
1870 के दशक में नेशनल वुमन सफ्रेज ऐसोसिएशन (National Women Suffrage Association) और अमेरिकन वुमन सफ्रेज ऐसोसिएशन (American Suffrage Association) ने महिला वेशभूषा में सुधार का अभियान चलाया। पहले संगठन की मुखिया स्टेंटन (Stanton) तथा दूसरे संगठन की मुखिया लूसी स्टोन (Lucy Stone) थीं। उन्होंने नारा लगाया वेशभूषा को सरल एवं सादा बनाओ, स्कर्ट का आकार छोटा करो और कारसैट्स (Corsets) का प्रयोग बंद करो। इस प्रकार अटलांटिक के दोनों ओर वेश-भूषा में विवेकपूर्ण सुधार का अभियान चल पड़ा। परंतु सुधारक सामाजिक मूल्यों को शीघ्र ही बदलने में सफल न हो पाये। उन्हें उपहास तथा आलोचना का सामना करना पड़ा। रूढ़िवादियों ने हर स्थान पर परिवर्तन का विरोध किया। उन्हें शिकायत थी कि जिन महिलाओं ने पारंपरिक पहनावा त्याग दिया है, वे सुंदर नहीं लगतीं। उनका नारीत्व और चेहरे की चमक समाप्त हो गई है। निरंतर आक्षेपों का सामना होने के कारण बहुत-सी महिला सुधारकों ने पुनः पारंपरिक वेश-भूषा को अपना लिया।
कुछ भी हो उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देने लगे। विभिन्न दबावों के कारण सुंदरता के आदर्शों और वेशभूषा की शैली दोनों में बदलाव आ गया। लोग उन सुधारकों के विचारों को स्वीकार करने लगे जिनका उन्होंने पहले उपहास उड़ाया था। नए युग के साथ नई मान्यताओं का सूत्रपात हुआ।

प्रश्न 4.
17वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक ब्रिटेन में वस्त्रों में होने वाले परिवर्तनों की जानकारी दीजिए। . .
उत्तर-
17वीं शताब्दी से पहले ब्रिटेन की अति साधारण महिलाओं के पास फलैक्स, लिनन तथा ऊन के बने बहुत ही कम वस्त्र होते थे। इनकी धुलाई भी कठिन थी।
भारतीय छींट-1600 के बाद भारत के साथ व्यापार के कारण भारत की सस्ती, सुंदर तथा आसान रख-रखाव वाली भारतीय छींट इंग्लैंड (ब्रिटेन) पहुंचने लगी। अनेक यूरोपीय महिलाएं इसे आसानी से खरीद सकती थीं और पहले से अधिक वस्त्र जुटा सकती थीं।

औद्योगिक क्रांति और सूती कपड़ा-उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के समय बड़े पैमाने पर सूती वस्त्रों का उत्पादन होने लगा। वह भारत सहित विश्व के अनेक भागों को सूती वस्त्रों का निर्यात भी करने लगा। इस प्रकार सूती कपड़ा बहुत बड़े वर्ग को आसानी से उपलब्ध होने लगा। 20वीं शताब्दी के आरंभ तक कृत्रिम रेशों से बने वस्त्रों ने वस्त्रों को और अधिक सस्ता कर दिया। इनकी धुलाई और संभाल भी अधिक आसान थी। वस्त्रों के भार तथा लंबाई में परिवर्तन-1870 के दशक के अंतिम वर्षों में भारी भीतरी वस्त्रों का धीरे-धीरे त्याग कर दिया गया। अब वस्त्र पहले से अधिक हल्के, अधिक छोटे और अधिक सादे हो गए। फिर भी 1914 तक वस्त्रों की लंबाई में कमी नहीं आई। परंतु 1915 तक स्कर्ट की लंबाई एकाएक कम हो गई। अब यह घुटनों तक पहुंच गई।

प्रश्न 5.
अंग्रेजों की भारतीय पगड़ी तथा भारतीयों की अंग्रेजों के टोप के प्रति क्या प्रतिक्रिया थी और क्यों?
उत्तर-
भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में कुछ विशेष वस्त्र विरोधाभासी संदेश देते हैं। इस प्रकार की घटनाएं संशय और विरोध पैदा करती हैं। ब्रिटिश भारत में भी वस्त्रों का बदलाव इन विरोधों से होकर निकला। उदाहरण के लिए हम पगड़ी और टोप को लेते हैं। जब यूरोपीय व्यापारियों ने भारत आना आरंभ किया तो उनकी पहचान उनके टोप से की जाने लगी। दूसरी ओर भारतीयों की पहचान उनकी पगड़ी थी। ये दोनों पहनावे न केवल देखने में भिन्न थे, बल्कि ये अलगअलग बातों के सूचक भी थे। भारतीयों की पगड़ी सिर को केवल धूप से ही नहीं बचाती थी बल्कि यह उनके आत्मसम्मान का चिह्न भी थी। बहुत से भारतीय अपनी क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय पहचान दर्शाने के लिए जान बूझ कर भी पगड़ी पहनते थे। इसके विपरीत पाश्चात्य परंपरा में टोप को सामाजिक दृष्टि से उच्च व्यक्ति के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए उतारा जाता था। इस परंपरावादी भिन्नताओं ने संशय की स्थिति उत्पन्न कर दी। जब कोई भारतीय किसी अंग्रेज़ अधिकारी से मिलने जाता था और अपनी पगड़ी नहीं उतारता था तो वह अधिकारी स्वयं को अपमानित महसूस करता था।

प्रश्न 6.
1862 में ‘जूता सभ्याचार’ (पादुका सम्मान) संबंधी मामले का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारतीयों को अंग्रेज़ी अदालतों में जूता पहन कर जाने की अनुमति नहीं थी। 1862 ई० में सूरत की अदालत में जूता सभ्याचार संबंधी एक प्रमुख मामला आया। सूरत की फ़ौजदारी अदालत में मनोकजी कोवासजी एंटी (Manockjee Cowasjee Entee) नामक व्यक्ति ने जिला जज के सामने जूता उतारकर जाने से मना कर दिया था। जज ने उन्हें जूता उतारने के लिए बाध्य किया, क्योंकि बड़ों का सम्मान करना भारतीयों की परंपरा थी। परंतु मनोकजी अपनी बात पर अड़े रहे। उन्हें अदालत में जाने से रोक दिया गया। अतः उन्होंने विरोध स्वरूप एक पत्र मुंबई (बंबई) के गवर्नर को लिखा।

अंग्रेज़ों ने दबाव देकर कहा कि क्योंकि भारतीय किसी पवित्र स्थान अथवा घर में जूता उतार कर प्रवेश करते हैं, इसलिए वे अदालत में भी जूता उतार कर प्रवेश करें। इसके विरोध में भारतीयों ने प्रत्युत्तर में कहा कि पवित्र स्थान तथा घर में जूता उतार कर जाने के पीछे दो विभिन्न अवधारणाएं हैं। प्रथम इससे मिट्टी और गंदगी की समस्या जुड़ी है। सड़क पर चलते समय जूतों को मिट्टी लग जाती है। इस मिट्टी को सफ़ाई वाले स्थानों पर नहीं जाने दिया जा सकता था। दूसरे, वे चमड़े के जूते को अशुद्ध और उसके नीचे की गंदगी को प्रदूषण फैलाने वाला मानते हैं। इसके अतिरिक्त, अदालत जैसा सार्वजनिक स्थान आखिर घर तो नहीं है। परंतु इस विवाद का कोई हल न निकला। अदालत में जूता पहनने की अनुमति मिलने में बहुत से वर्ष लग गए।

प्रश्न 7.
भारत में चले स्वदेशी आंदोलन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
स्वदेशी आंदोलन 1905 के बंग-भंग के विरोध में चला। भले ही इसके पीछे राष्ट्रीय भावना काम कर रही थी तो भी इसके पीछे मुख्य रूप से पहनावे की ही राजनीति थी।
पहले तो लोगों से अपील की गई कि वे सभी प्रकार के विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करें और माचिस तथा सिगरेट जैसी चीज़ों को बनाने के लिए अपने उद्योग लगाएं। जन आंदोलन में शामिल लोगों ने शपथ ली कि वे औपनिवेशिक राज का अंत करके ही दम लेंगे। खादी का प्रयोग देशभक्ति का प्रतीक बन गया। महिलाओं से अनुरोध किया गया कि वे रेशमी कपड़े तथा काँच की चूड़ियां फेंक दें और शंख की चूड़ियां पहनें। हथकरघे पर बने मोटे कपड़े को लोकप्रिय बनाने के लिए गीत गाए गए तथा कविताएं रची गईं।

वेशभूषा में बदलाव की बात उच्च वर्ग के लोगों को अधिक भायी क्योंकि साधनहीन ग़रीबों के लिए नई चीजें खरीद पाना मुश्किल था। लगभग पंद्रह साल के बाद उच्च वर्ग के लोग भी फिर से यूरोपीय पोशाक पहनने लगे। इसका कारण यह था कि भारतीय बाजारों में भरी पड़ी सस्ती ब्रिटिश वस्तुओं को चुनौती देना लगभग असंभव था। इन सीमाओं के बावजूद स्वदेशी के प्रयोग ने महात्मा गांधी को यह सीख अवश्य दी कि ब्रिटिश राज के विरुद्ध प्रतीकात्मक लड़ाई में कपड़े की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

प्रश्न 8.
वस्त्रों के साथ गांधी जी के प्रयोगों के बारे में बताएं।
उत्तर-
गांधी जी ने समय के साथ-साथ अपने पहनावे को भी बदला। एक गुजराती बनिया परिवार में जन्म लेने के कारण बचपन में वह कमीज़ के साथ धोती अथवा पायजामा पहनते थे और कभी-कभी कोट भी। लंदन में उन्होंने पश्चिमी सूट अपनाया। भारत में वापिस आने पर उन्होंने पश्चिमी सूट के साथ पगड़ी पहनी।
शीघ्र ही गांधी जी ने सोचा कि ठोस राजनीतिक दबाव के लिए पहनावे को अनोखे ढंग से अपनाना उचित होगा। 1913 में डर्बन में गांधी जी ने सिर के बाल कटवा लिए और धोती कुर्ता पहन कर भारतीय कोयला मज़दूरों के साथ विरोध करने के लिए खड़े हो गए। 1915 ई० में भारत वापसी पर उन्होंने काठियावाड़ी किसान का रूप धारण कर लिया। अंततः 1921 में उन्होंने अपने शरीर पर केवल एक छोटी सी धोती धारण कर ली। गांधी जी इन पहनावों को जीवन भर नहीं अपनाना चाहते थे। वह तो केवल एक या दो महीने के लिए ही किसी भी पहनावे को प्रयोग के रूप में अपनाते थे। परंतु शीघ्र ही उन्होंने अपने पहनावे को ग़रीबों के पहनावे का रूप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अन्य वेशभूषाओं का त्याग कर दिया और जीवन भर एक छोटी सी धोती पहने रखी। इस वस्त्र के माध्यम से वह भारत के साधारण व्यक्ति की छवि पूरे विश्व में दिखाने में सफल रहे और भारत-राष्ट्र का प्रतीक बन गये।
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PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

पहनावे का सामाजिक इतिहास PSEB 9th Class History Notes

  • सम्प्चुअरी कानून – मध्यकालीन फ्रांस के ये कानून निम्न वर्ग के व्यवहार को नियंत्रित करते थे। इनके अनुसार वे लोग राजवंश के लोगों जैसी वेश-भूषा धारण नहीं कर सकते थे।
  • नारी सुंदरता तथा वस्त्र – इंग्लैंड में नारी सुंदरता को विशेष महत्त्व दिया जाता था। अतः उन्हें विशेष प्रकार के तंग वस्त्र पहनाए जाते थे ताकि उनकी शारीरिक बनावट में निखार आए।
  • वस्त्रों के प्रति स्त्रियों की प्रतिक्रिया – सभी-स्त्रियों ने निर्धारित वस्त्र-शैली को स्वीकार न किया। कई स्त्रियों ने पीड़ा और कष्ट देने वाले वस्त्रों का विरोध किया।
  • नयी सामग्री – 17वीं शताब्दी में ब्रिटेन की अधिकतर स्त्रियां फ्लैक्स, लिनन या ऊन से बने वस्त्र पहनती थीं जिन्हें धोना कठिन था। बाद में वे सूती वस्त्र (कपास से बने) पहनने लगीं। ये सस्ते भी थे और इन्हें धोना भी आसान था।
  • महायुद्ध और पहरावा – दो महायुद्धों के परिणामस्वरूप पहरावे में काफ़ी अंतर आया। कामकाजी महिलाएं पतलून, ब्लाऊज़ तथा स्कार्फ पहनने लगीं।
  • भारत में पश्चिमी वस्त्र – भारत में पश्चिमी वस्त्रों को सर्वप्रथम पारसियों ने अपनाया। दफ्तरों में काम करने वाले बंगाली बाबू तथा ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले पिछड़े लोग भी पश्चिमी वस्त्र पहनने लगे।
  • जूतों सम्बन्धी टकराव – ब्रिटिश काल में अदालतों में जूते पहन कर जाने पर रोक थी। यह नियम टकराव का विषय बन गया।
  • स्वदेशी आंदोलन – यह आंदोलन 1905 के बंगाल-विभाजन (लॉर्ड कर्जन द्वारा) के विरोध में चला। इसमें ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार किया गया तथा स्वदेशी माल के प्रयोग पर बल दिया गया। इससे भारतीय उद्योगों को बल मिला।
  • खादी – गांधी जी पूरे भारत को खादी पहनाना चाहते थे। परंतु कुछ वर्गों में पश्चिमी वस्त्रों का आकर्षण था। इसके अतिरिक्त खादी अपेक्षाकृत महंगी थी। अतः गांधी जी का सपना पूरा न हो सका।
  • फिफ्टी – सिक्ख सैनिक पाँच मीटर की पगड़ी बांधते थे, परंतु युद्ध के दौरान हमेशा भारी और लंबी पगड़ी पहनना संभव नहीं था। इसलिए सैनिकों के लिए पगड़ी की लंबाई कम करके दो मीटर कर दी गई। इस छोटी पगड़ी को फिफ्टी कहा जाता था।
  • पंजाबी लोगों का पहनावा एवं सभ्यता – पंजाबी लोगों के पहनावे और सभ्यता पर अंग्रेजी शासन का बहुत कम प्रभाव पड़ा। स्त्रियों का पहनावा लंबा कुर्ता, सलवार तथा दुपट्टा ही रहा। पुरुष मुख्य रूप से कुर्ता, पायजामा तथा पगड़ी पहनते थे। शादी विवाह पर रंगदार तथा सजावट वाले कपड़े पहनने का रिवाज़ था। शोक के समय सफेद अथवा हल्के रंग के वस्त्र पहने जाते थे। परंतु आज के ग्लोबल विश्व में पंजाबी पहनावे का रूप बदलता जा रहा है।
  • 1842 – अंग्रेज़ वैज्ञानिक लुइस सुबाब द्वारा कृत्रिम रेशों से कपड़ा तैयार करने की मशीन का निर्माण।
  • 1830 ई. – इग्लैंड में महिला संस्थानों द्वारा स्त्रियों के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग।
  • 1870 ई. – दो संस्थाओं नेशनल वुमैन सफरेज़ एसोसिएशन और ‘अमेरिकन वुमैन सफरेज़ एसोसिएशन’ द्वारा स्त्रियों के पहनावे में सुधार के लिए आंदोलन ।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

Punjab State Board PSEB 9th Class Physical Education Book Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Physical Education Chapter 4 प्राथमिक सहायता

PSEB 9th Class Physical Education Guide प्राथमिक सहायता Textbook Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक सहायता के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
डॉक्टरी सहायता के मिलने से पहले जो रोगी या घायल की चिकित्सा की जाती है, उसे प्राथमिक सहायता (First Aid) कहते हैं।

प्रश्न 2.
फ्रैक्चर का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
किसी हड्डी के टूटने या उसमें दरार पड़ जाने को फ्रैक्चर कहा जाता है।

प्रश्न 3.
बेहोशी क्या है ?
उत्तर-
बेहोशी का अर्थ है चेतना का खोना।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्रश्न 4.
विद्युत् का झटका क्या है ?
उत्तर-
विद्युत् की नंगी तार जिसमें धारा प्रवाहित हो रही हो, के अचानक हाथ से लगने से जो झटका लगता है।

प्रश्न 5.
फ्रैक्चर की किन्हीं दो किस्मों के नाम लिखें।
उत्तर-
(1) सरल फ्रैक्चर (2) बहुखण्ड फ्रैक्चर ।

प्रश्न 6.
जटिल फ्रैक्चर अधिक हानिकारक होता है। ठीक अथवा ग़लत?
उत्तर-
ठीक।

प्रश्न 7.
दबी हुई फ्रैक्चर का नुकसान नहीं होता ? ठीक अथवा ग़लत ?
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 8.
बेहोशी के कोई दो चिन्ह लिखें।
उत्तर-

  1. रोगी की नब्ज़ धीरे-धीरे चलती है
  2. त्वचा ठण्डी हो जाती है।

प्रश्न 9.
जोड़ का उतरना क्या होता है ?
उत्तर-
हड्डी का जोड़ वाले स्थान से खिसकना, जोड़ उतरना (Dislocation) कहलाता

प्रश्न 10.
पट्टे के तनाव अथवा मोच में अन्तर होता है ?
उत्तर-
हां, अन्तर होता है।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक सहायता के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about First Aid ?)
उत्तर-
हमारे दैनिक जीवन में प्रायः दुर्घनाएं तो होती रहती हैं। स्कूल जाते समय साइकिल से टक्कर, खेल के मैदान में चोट लग जाना आदि। प्रायः घटना स्थल पर डॉक्टर उपस्थित नहीं होता। डॉक्टर के पहुंचने से पहले रोगी या घायल को जो सहायता दी जाती है, उसे प्राथमिक सहायता (First Aid) कहते हैं।

प्रश्न 2.
प्राथमिक सहायता के क्या नियम हैं ?
(Describe the various rules of First Aid ?)
उत्तर-
प्राथमिक सहायता के मुख्य नियम इस प्रकार हैं –

  • रोगी को हमेशा आरामदायक हालत में रखो।
  • रोगी को हमेशा धैर्य देना चाहिए।
  • रोगी को प्रेम और हमदर्दी देनी चाहिए।
  • यदि खून बह रहा हो तो सबसे पहले खून बन्द करने का प्रबन्ध करना चाहिए।
  • भीड़ को अपने इर्द-गिर्द से दूर कर दो।
  • रोगी के कपड़े इस ढंग से उतारो जिससे उसे कोई तकलीफ़ न हो।
  • उसे तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।
  • उतनी देर तक सहायता देते रहना चाहिए जितनी देर तक उसमें प्राण बाकी हैं।
  • यदि सांस रुकता हो तो बनावटी सांस देने का प्रबन्ध करना चाहिए।
  • यदि ज़ख्म छिल गया हो तो उसे साफ़ करके पट्टी बांध दो।
  • दुर्घटना के समय जिस चीज़ की पहले आवश्यकता हो उसे पहले करना चाहिए।
  • रोगी को नशीली चीज़ न दो।
  • हड्डी टूटने की हालत में रोगी को ज्यादा हिलाना-जुलाना नहीं चाहिए।
  • रोगी को हमेशा खुली हवा में रखो।
  • यदि रोगी सड़क पर धूप में पड़ा हो तो उसे ठंडी छांव में पहुंचाना चाहिए।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायता क्या होती है ? इसकी हमें क्यों ज़रूरत है ?
(What is First Aid ? Why we need it ?)
उत्तर-
हमारे जीवन में प्रायः दुर्घटनाएं होती रहती हैं। खेल के मैदान में खेलते समय, सड़क पर चलते समय, स्कूल की प्रयोगशाला में काम करते समय, घर में सीढ़ियां चढ़तेउतरते समय, रसोई घर में काम करते हुए या स्नानागृह में स्नान करते समय व्यक्ति किसी भी प्रकार की दुर्घटना का शिकार हो सकता है। कई बार खेल के मैदान में अनेक दुर्घटनाएं हो जाती हैं। इन दुर्घटनाओं से बचाव के लिए आवश्यक है कि खेल का मैदान न ही अधिक कठोर हो और नन्ही अधिक नर्म। खेल का सामान भी ठीक प्रकार का बना हो और खेल किसी कुशल-प्रबन्धक की देख-रेख में खेली जाए। ऐसे समय यह तो सम्भव नहीं कि डॉक्टर हर जगह मौजूद हो। डॉक्टर के पहुंचने से पहले या डॉक्टर तक ले जाने से पहले उपलब्ध साधनों से दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को जो सहायता दी जाती है, उसे प्राथमिक सहायता कहते हैं।

इस प्रकार डॉक्टरी सहायता के मिलने से पहले जो रोगी या घायल की चिकित्सा की जाती है, उसे प्राथमिक सहायता (First Aid) कहते हैं।
यदि घायल या दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को प्राथमिक सहायता प्रदान न की जाए तो हो सकता है कि घटना स्थल पर ही दम तोड़ दे।
अन्त में हम यह कह सकते हैं कि प्राथमिक सहायता घायल या रोगी के लिए जीवनरूपी अमृत के समान है। इसलिए प्राथमिक सहायता जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।

प्रश्न 4.
हॉकी खेलते समय यदि तुम्हारे घुटने की हड्डी उतर जाए तो आप क्या करोगे ?
(What will you do if you got dislocation of your knee joint while playing Hockey ?)
उत्तर-
यदि हॉकी खेलते समय मेरे घुटने की हड्डी उतर जाये तो मैं इसका इलाज इस प्रकार करूंगा हड्डी को इलास्टिक वाली पट्टी बांधूगा। मैं यह पूरी कोशिश करूंगा कि चोट वाली जगह पर किसी भी प्रकार का भार न पड़े। चोट वाली जगह पर स्लिग डाल लूंगा ताकि हड्डी में हिलजुल न हो।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक सहायक (First Aider) के गुणों और कर्तव्यों का वर्णन करो।
(What are the qualities and duties of First Aider ?)
उत्तर–
प्राथमिक सहायक में निम्नलिखित गुण होने चाहिएं –

  • प्राथमिक सहायक चुस्त तथा समझदार हो।
  • वह शैक्षणिक योग्यता रखता हो।
  • उसमें सहन-शक्ति होनी चाहिए।
  • उसका दूसरों से व्यवहार अच्छा हो।
  • दूसरों से किसी प्रकार का भेद-भाव न करे।
  • प्रत्येक कार्य को तेज़ी से करे।
  • उसका स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए।
  • उसका चरित्र अच्छा हो।
  • उसमें यह शक्ति होनी चाहिए कि कठिन से कठिन कार्य को आसानी से करे।
  • वह ईमानदार होना चाहिए।
  • वह चुस्त होना चाहिए।
  • उसमें योजना बनाने की शक्ति होनी चाहिए।
  • प्राथमिक सहायक सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए।
  • वह साहस वाला होना चाहिए।
  • प्राथमिक सहायक सोचने की शक्ति वाला होना चाहिए।

प्राथमिक सहायक के कर्त्तव्य इस प्रकार हैं –

  1. पहला कार्य पहले करना चाहिए।
  2. रोगी को सदैव हौसला देना चाहिए।
  3. जितना शीघ्र हो सके डॉक्टर का प्रबन्ध करना चाहिए।
  4. यदि आवश्यक हो तो रोगी के कपड़े आवश्यकतानुसार उतार देने चाहिएं।
  5. रोगी के प्राण बचाने के लिए अन्तिम श्वास तक सहायता करनी चाहिए।
  6. रोगी को सदैव आराम की दशा में रखें।
  7. रोगी के इर्द-गिर्द शोर न हो।
  8. यदि रक्त बह रहा हो तो रक्त को बन्द करने का प्रबन्ध पहले करना चाहिए।
  9. रोगी को सदैव खुली वायु में रखें।
  10. यदि दुर्घटना बिजली के करंट या गैस से हुई हो तो एक-दम बिजली या गैस बन्द कर दें।

प्रश्न 2.
पट्टे के तनाव से क्या अभिप्राय है ? इसके कारण, चिन्ह तथा उपचार का वर्णन करो।
(What is strain ? Describe its causes, symptoms and treatment.)
उत्तर-
मांसपेशियों के खिंचाव को ही मांसेपशियों का तनाव कहते हैं। ऐसी दशा में मांसपेशियों में सूजन आ जाती है तथा अत्यधिक पीड़ा होती है।
मांसपेशियों में तनाव के कारण (Causes of Strain) मांसपेशियों में तनाव के . कारण निम्नलिखित हैं –

  • शरीर में से पसीने के रूप में पानी का निकास हो जाना।
  • आवश्यकता से अधिक थकावट।
  • शरीर के अंगों का परस्पर समन्वय न होना।
  • खेल के मैदान का अधिक कठोर होना।
  • मांसपेशियों को एक दम हरकत में लाना।
  • शरीर को गर्म (Warm up) न करना।
  • खेल के सामान का ठीक न होना।
  • शरीर की शक्ति का उचित अनुपात में न होना।

चिन्ह (Symptoms)-

  • मांसपेशियों में अचानक खिंचाव सा आ सकता है।
  • मांसपेशियां कमज़ोरी के कारण काम करने के योग्य नहीं रहतीं।
  • चोट लगने के एक दम बाद पीड़ा महसूस होती है।
  • चोट वाली जगह पर गड्डा दिखाई देता है।
  • कभी-कभी चोट वाली जगह के आस-पास की जगह नीले रंग की हो जाती है।
  • चोट वाली जगह नर्म लगती है।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

बचाव (Safety Measures) –

  • खेल का मैदान समतल व साफ़-सुथरा होना चाहिए। इसमें कंकर आदि बिखरे नहीं होने चाहिएं।
  • ऊंची तथा लम्बी छलांग के अखाड़े नर्म रखने चाहिएं।
  • खिलाड़ियों को चोटों से बचने के लिए आवश्यक शिक्षा देनी चाहिए।
  • खेल आरम्भ करने से पहले कुछ हल्के व्यायाम करके शरीर को गर्म (Warm up) करना चाहिए।
  • गीले या फिसलन वाले मैदान पर नहीं खेलना चाहिए।
  • खेल का सामान अच्छी प्रकार का होना चाहिए।
  • खिलाड़ियों को परस्पर सद्भावना रखनी चाहिए। खेल कभी क्रोध में आकर नहीं खेलना चाहिए।

इलाज (Treatment)-

  • चोट वाली जगह पर ठंडे पानी की पट्टी या बर्फ़ रखनी चाहिए।
  • चोट वाली जगह पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • चोट वाली जगह के अंग को हिलाना नहीं चाहिए।
  • चोट वाली जगह पर 24 घण्टे पश्चात् सेंक या मालिश करना चाहिए।

प्रश्न 3.
मोच के क्या कारण हैं ? इसकी निशानियों तथा उपचार के बारे में वर्णन करो।
(What is sprain ? Discuss its causes, symptoms and treatment.)
उत्तर-
किसी जोड़ के बन्धनों के फट जाने को मोच कहते हैं।

कारण (Causes)-

  • गीले या फिसलन वाले मैदान में खेलना।
  • मैदान में पड़े कंकर आदि का पांव के नीचे आ जाना।
  • खेल के मैदान में गड्डे आदि का होना।
  • अनजान-खिलाड़ी का गलत ढंग से खेलना।
  • अखाड़ों की ठीक तरह से गोडी न करना।

चिन्ह (Symptoms)-

  • थोड़ी देर के बाद मोच वाली जगह पर सूजन होने लगती है।
  • सूजन वाली जगह पर पीड़ा होने लगती है।
  • मोच वाले भाग की सहन करने, कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है।
  • गम्भीर मोच की दशा में जोड़ की ऊपरी त्वचा का रंग नीला हो जाता है।

इलाज (Treatment)-मोच.का इलाज इस प्रकार है-

  • मोच वाले स्थान को अधिक हिलाना नहीं चाहिए।
  • घाव वाले स्थान पर 48 घण्टे तक पानी की पट्टियां रखनी चाहिएं।
  • मोच वाले स्थान पर आठ के आकार की पट्टी बांधनी चाहिए।
  • मोच वाले स्थान पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • यदि हड्डी टूटी हो तो एक्सरे करवाना चाहिए।
  • 48 से 72. घण्टे के पश्चात् ही सेंक देना चाहिए।
  • मोच वाले स्थान को सदैव ध्यान से रखना चाहिए। जहां एक बार मोच आ जाए, दोबारा फिर आ जाती है। (“Once a sprain, always a sprain.”)
  • मोच ठीक होने के पश्चात् ही क्रियाएं करनी चाहिएं।

प्रश्न 4.
जोड़ के उतरने के कारण, चिन्ह तथा इलाज बताओ।
(Write down the causes, symptoms and treatment of dislocation of joints.)
उत्तर-
हड्डी का जोड़ वाले स्थान से खिसकना जोड़ उतरना (Dislocation) कहलाता है।

कारण (Causes)-

  • किसी बाहरी भार के तेज़ी से हड्डी से टकराने से हड्डी अपनी जगह छोड़ देती है।
  • खेल का सामान शारीरिक शक्ति से अधिक भारी होना।
  • खेल के मैदान का असमतल या अधिक कोठर या नर्म होना।
  • खेल में भाग लेने से पहले शरीर को हल्के व्यायामों से गर्म (Warm up) करना।
  • खिलाड़ी का अचानक गिर जाना।

चिन्ह (Symptoms) –

  • चोट वाली जगह बेढंगी सी दिखाई देती है।
  • चोट वाली जगह अपने आप हिल नहीं सकती।
  • चोट वाली जगह पर सूजन आ जाती है।
  • सोट वाली जगह पर पीड़ा होती है।

इलाज (Treatment)—जोड़ के खिसकने के इलाज इस प्रकार हैं –

  •  ह को इलास्टिक वाली पट्टी बांधनी चाहिए।
  • घाव वाले स्थान पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • घ. पाले स्थान पर स्लिग डाल देना चाहिए ताकि हड्डी हिल न सके।
  • जोड़ को अधिक हिलाना नहीं चाहिए।
  • जोड़ को 48 से 72 घण्टे के पश्चात् ही सेंक देना चाहिए।

प्रश्न 5.
हड्डी की टूट या फ्रैक्चर के कारण, चिन्ह तथा इलाज बताओ।
(Mention the causes of Fracture, its symptoms and treatment.)
उत्तर-
हड्डी की टूट के कारण (Causes of Fracture) हड्डी की टूट के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –

  • खिलाड़ी का बहुत जोश, खुशी या क्रोध में बेकाबू होकर खेलना।
  • बहुत सख्त या नर्म मैदान में खिलाड़ी का गिरना।
  • असमतल या फिसलने वाले मैदान में खेलना।
  • किसी योग्य और कुशल व्यक्ति की देख-रेख में खेल न खेला जाना।

चिन्ह (Symptoms)-

  • टूट वाली जगह के समीप सूजन हो जाती है।
  • टूट वाली जगह शक्तिहीन हो जाती है।
  • टूट वाली जगह पर पीड़ा होती है।
  • टूट वाली जगह बेढंगी हिल-जुल होती है।
  • अंग कुरुप हो जाता है।
  • हाथ लगा कर हड्डी की टूट का पता लगाया जा सकता है।

इलाज (Treatment)-

  • टूट वाली जगह को हिलाना नहीं चाहिए।
  • रक्त बहने की दशा में पहले रक्त को रोकने का प्रयास करना चाहिए।
  • घाव वाली जगह पर पट्टी बांध देनी चाहिए।
  • घायल को एक्स-रे के लिए ले जाना चाहिए।
  • टूट वाली जगह पर पट्टियों तथा चपटियों का सहारा बांधना चाहिए।
  • घायल को और इलाज के लिए डॉक्टर के पास पहुंचाना चाहिए।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्रश्न 6.
मोच किसे कहते हैं ? इसके लिए प्राथमिक सहायता क्या हो सकती है ?
(What is sprain ? How you will render a first Aid to a person who got Sprain ?)
उत्तर-
मोच (Sprain)—किसी जोड़ के बन्धन (ligaments) का फट जाना मोच (Sprain) कहलाता है। साधारणतया टखने, घुटने, रीढ़ की हड्डी तथा कलाई को मोच आती है।
मोच के प्रकार (Type of Sprain)-मोच निम्नलिखित तीन प्रकार की होती है—

  • नर्म मोच (Mild Sprain)—इस दशा में मोच की जगह में कुछ कमज़ोरी, सूजन तथा पीड़ा अनुभव होती है।
  • दरमियानी मोच (Mediocre Sprain)—इस दशा में सूजन तथा पीड़ा में वृद्धि हो जाती है।
  • पूर्ण मोच (Complete Sprain)—इस दशा में पीड़ा इतनी अधिक हो जाती है कि सहन नहीं की जा सकती।

प्राथमिक सहायता (First Aid) –

  • जिस जगह पर चोट आई हो वहां ज़रा भी हिल-जुल नहीं होनी चाहिए।
  • चोट वाली जगह पर 48 घण्टे तक ठंडे पानी की पट्टियां रखनी चाहिएं।
  • मोच वाली जगह पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • टखने में मोच आने की दशा में ‘आठ’ के आकार की पट्टी बांधनी चाहिए।
  • मोच वाली जगह पर 48 घण्टे से 72 घण्टे के पश्चात् सेंक देना वा मालिश करनी चाहिए।
  • हड्डी टूटने की आशंका होने पर एक्सरे करवाना चाहिए।
  • मोच ठीक होने के बाद योग क्रियाएं करनी चाहिएं।

प्रश्न 7.
फ्रैक्चर (टूट) की कितनी किस्में हैं ? सबसे खतरनाक टूट कौन-सी है ?
(Describe the types of Fracture ? Which is the most dangerous fracture ?)
उत्तर-
फ्रैक्चर का अर्थ (Meaning of Fracture)-किसी हड्डी के टूटने या उसमें दरार पड़ जाने को फ्रैक्चर कहा जाता है।
फ्रैक्चर के कारण-हड्डियों के टूटने या उसमें दरार पड़ जाने के कई कारण हो सकते हैं। इसमे से सबसे बड़ा कारण किसी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चोट (Direct of Indirect Injury) हो सकती है।

फ्रैक्चर के प्रकार (Types of Fracture)
1. सरल या बन्द फ्रैक्चर (Simple or Closed Fracture)-जब कोई बाह्य घाव न हो जो टूटी हुई हड्डी तक जाता हो। देखें चित्र।
PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (1)

2. खुला फ्रैक्चर (Compound or Open Fracture)-जब कोई ऐसा घाव हो जो टूटी
PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (2)

हड्डी तक जाता हो अथवा जब हड्डी के टूटे हुए भाग चमड़ी या मांस को चीर कर बाहर निकल आते हैं और कीटाणु फ्रैक्चर वाले स्थान में प्रविष्ट हो जाते हैं। देखें चित्र।

3. जटिल फ्रैक्चर (Complicated Fracture)-हड्डी टूटने के साथ-साथ दिमाग़, फेफड़े, जिगर, गुर्दे पर चोट लगने से जोड़ भी उतर जाता है। एक जटिल फ्रैक्चर सरल या खुला हो सकता है।
इसके अतिरिक्त कई अन्य फैक्चर भी होते हैं जो प्राथमिक चिकित्सक को पता नहीं चलते। इनमें से मुख्य फ्रैक्चरों का विवरण नीचे दिया जाता है

4. बुहखण्ड फ्रैक्चर (Comminuted Fracture)-जब हड्डी कई स्थानों से टूट जाती है। देखो चित्र।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (3)

5. पचड़ी फ्रैक्चर (Impacted Fracture) जब टूटी हड्डियों के सिरे एक-दूसरे में धंस जाते हैं। देखो चित्र।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (4)

6. कच्चा या हरी लकड़ी जैसी फ्रैक्चर (Green Stick Fracture)—ऐसा फ्रैक्चर प्रायः छोटे बच्चों में होता है। उनकी हड्डियां कोमल होती हैं । जब उनकी हड्डी टूट जाती है तो वह पूरी तरह आर-पार निकल कर टेढ़ी हो जाती है या उसमें दराड़ आ जाती है। देखो चित्र।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (5)

7. दबा हुआ फ्रैक्चर (Depressed Fracture)—जब खोपड़ी के ऊपर वाले भाग या उसके आस-पास कहीं हड्डी टूट जाए या अन्दर धंस जाए। देखें चित्र-पचड़ी फ्रैक्चर।। इनमें सबसे खरतनाक टूट या फ्रैक्चर जटिल फ्रैक्चर है। इस टूट के कारण मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जाता है। इसलिए यह फ्रैक्चर सबसे भयानक है।

प्रश्न 8.
बेहोशी क्या है ? इसके चिन्हों तथा इलाज के बारे में बताओ।
(What is unconsciousness ? Mention its symptoms and treatment.)
उत्तर-
बेहोशी (Unconsciousness) बेहोशी का अर्थ है चेतना का खोना। चिन्ह (Symptoms) बहोशी के निम्नलिखित लक्षण होते हैं –

  • नब्ज़ धीमी चलती है।
  • त्वचा ठण्डी और चिपचिपी हो जाती है।
  • चेहरा पीला पड़ जाता है।
  • रक्त का दबाव कम हो जाता है।

इलाज (Treatment) –

  • रोगी की नब्ज़ और दिल की धड़कन अच्छी तरह देख लेनी चाहिए।
  • रोगी की जीभ को पिछली ओर खिसकने नहीं देना चाहिए।
  • यदि शरीर के कपड़े तंग हों तो उतार देने चाहिएं।
  • खुली वायु आने देनी चाहिए।
  • दिल पर मालिश करनी चाहिए।
  • सांस की गति कम होने की दशा में कृत्रिम सांस देना चाहिए।
  • रोगी को पूरा होश न आने तक मुंह के द्वारा कुछ खाने के लिए नहीं देना चाहिए।
  • जब तक रोगी होश में न आए उसे पानी या गर्म चीज़ पीने के लिए देनी चाहिए।
  • रोगी को स्पिरिट अमोनिया सुंघा देनी चाहिए। यदि यह न मिल सके तो प्याज़ ही सुंघा देना चाहिए।
  • जिस कारण से बेहोशी हुई हो उसका इलाज करना चाहिए।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्रश्न 9.
सांप के काटने की अवस्था में रोगी को आप कैसी प्राथमिक सहायता देंगे?
(What First Aid will you render to a patient in case of snake bite ?)
उत्तर-
सांप के काटने की अवस्था में प्राथमिक सहायता
(First Aid in case of Snake-bite) सांप के काटने से व्यक्ति की मृत्यु होने की सम्भावना हो सकती है। इसलिए ऐसे व्यक्ति को तुरन्त प्राथमिक सहायता दी जानी चाहिए। सांप द्वारा डंसे व्यक्ति को निम्नलिखित विधि द्वारा प्राथमिक सहायता देनी चाहिए –

  • रक्त परिभ्रमण को रोकना (Stopping the circulation of blood) सर्वप्रथम जिस अंग पर सांप ने डंसा है उस अंग में रक्त परिभ्रमण को रोकना चाहिए। इसके लिए हृदय की ओर वाले भाग के ऊपर के भाग को कपड़े के साथ या रस्सी के साथ कस कर बांध देना चाहिए। यह बन्धन पैर या भुजा के गिर्द घुटने या कुहनी के ऊपर बांधना चाहिए। प्रत्येक 10-20 मिनट के पश्चात् इस को आधे मिनट के लिए ढीला छोड़ना चाहिए। .
  • पानी या लाल दवाई से धोना (Washing with water or Potassium per-manganate)-जिस स्थान पर सांप ने डंक मारा हो उस स्थान को पानी या लाल दवाई (Potassium permanganate) के साथ धो लेना चाहिए।
  • कटाव लगाना (To make an incision)-डंक वाले स्थान को चाकू या ब्लेड के साथ 1″ (2.5 सम) लम्बा और 1″ (1.25 सम) गहरा कटाव लगाना चाहिए। चाकू या ब्लेड को पहले कीटाणु रहित कर लेना चाहिए। कटाव लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी बड़ी रक्त नली को कोई हानि न हो।
  • रोगी को घूमने-फिरने न देना (Not allowing the patient to move)-रोगी को घूमने-फिरने न दिया जाए। रोगी के चलने-फिरने से शरीर में विष फैल जाता है।।
  • शरीर को गर्म रखना (Keeping the body warm) रोगी के शरीर को गर्म रखा जाए। उसको पीने के लिए गर्म चाय देनी चाहिए।
  • कृत्रिम श्वास देना (Administering artificial respiration) रोगी का सांस रुकने की दशा में उसको कृत्रिम श्वास देना चाहिए।
  • रोगी को उत्साहित करना (Encouraging the patient)-रोगी को उत्साहित करना चाहिए।
  • डॉक्टर के पास या अस्पताल में पहुंचाना (Taking toadoctor or hospital)रोगी को शीघ्र ही किसी डॉक्टर के पास या अस्पताल में पहुंचाना चाहिए।

प्रश्न 10.
पानी में डूबने पर आप रोगी को कैसी प्राथमिक सहायता देंगे ?
(What First Aid will you render to a patient of drowning ?)
उत्तर-
पानी में डूबने का उपचार
(The Treatment of Drowning)

नहरों, तालाबों और नदियों में कई बार स्नान करते या इनको पार करते समय कई व्यक्ति डूब जाते हैं।
यदि डूबे हुए व्यक्ति को पानी में से निकाल कर प्राथमिक सहायता दी जाए तो उसके जीवन की रक्षा की जा सकती है। पानी में डूबे हुए व्यक्ति को निम्नलिखित विधि से प्राथमिक सहायता देनी चाहिए –

  • पेट में से पानी निकालना (Removing water from the belly)-डूबे हुए व्यक्ति को पानी से बाहर निकालो। फिर उसको पेट के बल घड़े पर लिटा कर उस के पेट में से पानी निकाला जाएगा। घड़ा न मिलने की अवस्था में उसको पेट के बल लिटा कर । उसे कमर से पकड़ कर ऊपर को उछालो। ऐसा करने से उसके पेट में से पानी निकल जाएगा।
  • रोगी को सूखे कपड़े पहनाना (Making the patient wear dry clothes)रोगी को सूखे कपड़े पहनने के लिए दो।

प्रश्न 11.
जले हुए व्यक्ति को आप कैसी प्राथमिक सहायता देंगे ? (What First Aid will you render to a patient in case of burning ?)
उत्तर-
जलना (Burning)-
कारक तथा प्रभाव (Causes and Effects) – कई बार आग, गर्म बर्तनों, रासायनिक पदार्थ, तेज़ाब तथा विद्युत्धारा से व्यक्ति जल जाता है। इस से त्वचा, मांसपेशियां और ऊतक (Tissues) नष्ट हो जाते हैं।
कभी-कभी गर्म चाय, गर्म दूध, गर्म काफी, भाप या तेजाब से घाव (Scalds) हो जाते हैं। त्वचा लाल हो जाती है, जल जाती है या कपड़े शरीर से चिपक जाते हैं। असहनीय दर्द होता है। कभी-कभी व्यक्ति अधिक जलने से मर भी जाता है।

उपचार (Treatment)-

  • जले हुए भाग का ध्यानपूर्वक उपचार करना चाहिए।
  • यदि कपड़ों को आग लग जाए तो भागना नहीं चाहिए। व्यक्ति को लेट जाना चाहिए और करवटें बदलनी चाहिएं।
  • जिस व्यक्ति के कपड़ों को आग लग जाए उसे कम्बल या मोटे कपड़े से ढक देना चाहिए।

प्रश्न 12.
बिजली के झटके से क्या अभिप्राय है ? आप रोगी को कैसी प्राथमिक सहायता देंगे ?
(What do you mean by electric shock ? How will you treat it ?)
उत्तर-
विद्युत् का झटका (Electric Shock)-

विद्युत् की नंगी तार जिसमें धारा प्रवाहित हो रही हो, को अचानक हाथ लगाने से या लग जाने से झटका लगता है। कई बार व्यक्ति तार से चिपक जाता है, परन्तु कई बार दूर जा गिरता है। विद्युत् के झटके के साथ रोगी बेसुध हो जाता है। कई बार शरीर झुलस भी जाता है। यदि किसी कारण (Main Switch) न मिले तो निम्नलिखित ढंग प्रयोग करने चाहिएं –

  • रबड़ के दस्ताने और सूखी लकड़ी का प्रयोग करना (Using the rubber gloves and dry wood) यदि विद्युत् की शक्ति 5 वोल्ट तक हो तो रबड़ के दस्ताने या सूखी लकड़ी का प्रयोग करके व्यक्ति को बचाना चाहिए। इसमें विद्युत् की धारा नहीं गुज़रती। गीली वस्तु या धातु का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  • प्लग निकालना (Removing the plug) यदि विद्युत् की तार किसी दूर के स्थान से आ रही है तो प्लग (Plug) निकाल देना चाहिए या फिर तार तोड़ देनी चाहिए।

उपचार (Treatment)-

  • कृत्रिम सांसदेना (Giving artificial respiration)यदि रोगी का सांस बन्द हो तो उसको कृत्रिम सांस देना चाहिए।
  • झुलसे या सड़े अंगों का उपचार (Treatment of Scalded or Burnt part)यदि कोई अंग झुलस या सड़ गया हो तो उसका उपचार करना चाहिए।
  • रोगी को उत्साहित करना (Encouraging the patient) रोगी को उत्साहित करना चाहिए।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्राथमिक सहायता PSEB 9th Class Physical Education Notes

  • प्राथमिक सहायता-डॉक्टर के पास ले जाने से पहले रोगी को जो प्राथमिक सहायता दी जाती है ताकि उसकी जीवन रक्षा हो सके, उसे प्राथमिक सहायता कहते
    हैं।
  • प्राथमिक सहायता की ज़रूरत-अगर दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को प्राथमिक सहायता न दी जाए तो हो सकता है कि उसकी मृत्यु हो जाए। इसलिए प्राथमिक सहायता रोगी के लिए जीवन रूपी अमृत है।
  • पुट्ठों का तनाव-मांसपेशियों के खिंचें जाने को पुट्ठों का तनाव कहते हैं। आवश्यकता से अधिक थकावट और शरीर के अंगों का आपसी तालमेल न होने के कारण पुट्ठों का तनाव हो जाता है।
  • मोच-किसी जोड़ के बन्धन का फट जाना ही मोच है। मोच वाली जगह को हिलाना नहीं चाहिए और 48 घंटों तक सर्द पानी की पट्टियां करनी चाहिएं और उसके बाद उन्हें गर्म करना चाहिए।
  • फ्रैक्चर-हड्डी टूटना फ्रैक्चर होता है।
  • बेहोशी-बेहोशी का अर्थ चेतना गंवाना है। बेहोशी में नब्ज़ धीरे-धीरे चलती है और चमड़ी ठण्डी हो जाती है।
  • फ्रैक्चर की किस्में-फ्रैक्चर, सादी, गुंझलदार, दबी हुई और बहुखण्डीय हो … सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा दीजिए और इसके तत्त्वों की व्याख्या करें। (Define State. Discuss its elements.)
अथवा
राज्य के मूलभूत तत्त्वों की विवेचना कीजिए। (Discuss the essential elements of a State.)
उत्तर-
राज्य एक प्राकृतिक और सर्वव्यापी, मानवीय संस्था है। व्यक्ति के सामाजिक जीवन को सुखी और सुरक्षित रखने के लिए जो संस्था अस्तित्व में आई, उसे राज्य कहते हैं। मनुष्य के जीवन के विकास के लिए राज्य एक आवश्यक संस्था है। यदि राज्य न हो, तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।

राज्य शब्द की उत्पत्ति (Etymology of the word)-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द से लिया गया है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीन काल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। परन्तु धीरे-धीरे इसका अर्थ बदलता गया। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

राज्य शब्द का गलत प्रयोग (Wrong use of the word ‘State’) अधिकांश तौर पर सामान्य भाषा में ‘राज्य’ शब्द का गलत प्रयोग किया जाता है। जैसे भारत में इसकी इकाइयों जैसे-पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश एवं अमेरिका में अटलांटा, बोस्टन, न्यूयार्क एवं वाशिंगटन जैसी इकाइयों को राज्य कह दिया जाता है, जबकि ये वास्तविक तौर पर राज्य नहीं हैं।

राज्य की परिभाषाएं (Definitions of State)–विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित

1. अरस्तु (Aristotle) के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर तथा समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।” (“The state is a Union of families and villages having for its end a perfect and self-sufficing life by which we mean a happy and honourable life.”) परन्तु यह परिभाषा बहुत पुरानी है और आधुनिक राज्य पर लागू नहीं होती।

2. ब्लंटशली (Bluntschli) का कहना है कि “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।” (“The state is a politically organised people of a definite territory.”)

3. अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Willson) के अनुसार, “एक निश्चित क्षेत्र में कानून की स्थापना के लिए संगठित लोगों का समूह ही राज्य है।” (“The state is a people organised for law within a definite territory.”) परन्तु यह परिभाषा भी ठीक नहीं समझी जाती क्योंकि इसमें राज्य की प्रभुसत्ता का कहीं भी उल्लेख नहीं है।

4. गार्नर (Garner) द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो, बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह से लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।” (“The state, as a concept of political science and public law, is a community of persons, more or less numerous permanently occupying a definite portion of territory, independent or nearly so, of external control and possessing an organised government to which the great body of inhabitants render habitual obedience.”)

5. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता को प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास चारों तत्त्व होंगे, उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चार तत्त्वों का होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

राज्य के आवश्यक तत्त्व (Essential Elements or Attributes of State)-

राज्य के अस्तित्व के लिए चार तत्त्वों का होना आवश्यक है जो कि जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में राज्य का निर्माण नहीं हो सकता। जनसंख्या (Population) और भू-भाग (Territory) को राज्य के भौतिक तत्त्व (Physical Element), सरकार (Government) को राज्य का राजनीतिक तत्त्व (Political Element) और प्रभुसत्ता (Sovereignty) को राज्य का आत्मिक तत्त्व (Spiritual Element) माना जाता है। इन तत्त्वों की व्याख्या नीचे की गई है :-

1. जनसंख्या (Population)-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। राज्य पशु-पक्षियों का समूह नहीं है। वह मनुष्यों की राजनीतिक संस्था है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर बल्कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस प्रकार बिना पति-पत्नी के परिवार, मिट्टी के बिना घड़ा और सूत के बिना कपड़ा नहीं बन सकता, उसी प्रकार बिना मनुष्यों के समूह के राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य में कितनी जनसंख्या होनी चाहिए, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। परन्तु राज्य के लिए पर्याप्त जनसंख्या होनी चाहिए। दस-बीस मनुष्य राज्य नहीं बना सकते।

राज्य की जनसंख्या कितनी हो, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। प्लेटो (Plato) के मतानुसार, एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 होनी चाहिए। अरस्तु (Aristotle) के मतानुसार, जनसंख्या इतनी कम नहीं होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न इतनी अधिक होनी चाहिए कि भली प्रकार शासित न हो सके। रूसो (Rousseau) प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का समर्थक था, इसलिए उसने छोटे राज्यों का समर्थन किया। उसने एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 10,000 निश्चित की थी।

प्राचीन काल में नगर राज्यों की जनसंख्या बहुत कम हुआ करती थी, परन्तु आज के युग में बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो चुके हैं।
आधुनिक राज्यों की जनसंख्या करोड़ों में है। चीन राज्य की जनसंख्या लगभग 135 करोड़ से अधिक है जबकि भारत की जनसंख्या 130 करोड़ से अधिक है। परन्तु दूसरी ओर कई ऐसे राज्य भी हैं जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। उदाहरणस्वरूप, सान मेरीनो की जनसंख्या 25 हज़ार के लगभग तथा मोनाको की जनसंख्या 32 हज़ार के लगभग है जबकि नारु की जनसंख्या 9500 है। आधुनिक काल में कुछ राज्यों में बड़ी जनसंख्या एक बहुत भारी समस्या बन चुकी है और इन देशों में जनसंख्या को कम करने पर जोर दिया जाता है। उदाहरण के लिए भारत की अधिक जनसंख्या एक भारी समस्या है।

राज्यों की जनसंख्या निश्चित करना अति कठिन है, परन्तु हम अरस्तु के मत से सहमत हैं कि राज्य की जनसंख्या न इतनी कम होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न ही इतनी अधिक होनी चाहिए कि राज्य के लिए समस्या बन जाए। राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि वहां की जनता सुखी तथा समृद्धिशाली जीवन व्यतीत कर सके। गार्नर के मतानुसार, “राज्य की जनसंख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए कि वह राज्य सुदृढ़ रह सके। परन्तु उससे अधिक नहीं होनी चाहिए जिसके लिए भू-खण्ड तथा राज्य साधन पर्याप्त न हों।” प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ (Prof. R.H. Soltau) के अनुसार, “राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए-साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन-स्तर और सुरक्षा उत्पादन की आवश्यकताएं।”

2. निश्चित भू-भाग (Definite Territory)-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है। बिना निश्चित भूमि के राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। खानाबदोश कबीले (Nomadic Tribes) राज्य का निर्माण नहीं कर सकते क्योंकि वे एक स्थान पर नहीं रहते बल्कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। यही कारण है कि 1948 से पहले यहूदी लोग संसार-भर में घूमते रहते थे और उनका कोई राज्य नहीं था। यहूदी लोग (Jews) 1948 में ही स्थायी तौर पर अपना इज़राइल (Israel) नामक राज्य स्थापित कर सके। भू-भाग का निश्चित होना राज्यों की सीमाओं के निर्धारण के लिए भी आवश्यक है वरन् सीमा-सम्बन्धी झगड़े सदा ही अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का कारण बने रहेंगे।

भूमि में पहाड़, नदी, नाले, तालाब आदि भी शामिल होते हैं। भूमि के ऊपर का वायुमण्डल भी राज्य की भूमि का भाग माना जाता है। भूमि के साथ लगा हुआ समुद्र का 3 मील से 12 मील तक का भाग भी राज्य की भूमि में शामिल किया जाता है।

राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए, इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। प्राचीन काल में राज्य का क्षेत्रफल बहुत छोटा होता था, परन्तु आधुनिक राज्यों का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है। पर कई राज्यों का क्षेत्रफल आज भी बहुत छोटा है। रूस का क्षेत्रफल 17,075,000 वर्ग किलोमीटर है जबकि भारत का क्षेत्रफल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर है। पर सेन मेरीनो का क्षेत्रफल 61 वर्ग किलोमीटर है जबकि मोनाको का क्षेत्रफल 1.95 वर्ग किलोमीटर ही है। मालद्वीप राज्य का क्षेत्रफल 298 वर्ग किलोमीटर है। आज राज्य के बड़े क्षेत्र पर जोर दिया जाता है क्योंकि बड़े क्षेत्र में अधिक खनिज पदार्थ और दूसरे प्राकृतिक साधन होते हैं, जिससे देश को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। अमेरिका, रूस, चीन अपने बड़े क्षेत्रों के कारण शक्तिशाली हैं। दूसरी ओर इंग्लैण्ड, स्विट्ज़रलैंड, बैल्जियम इत्यादि देशों का क्षेत्रफल तो कम है परन्तु इन देशों ने भी बहुत उन्नति की है। अतः यह कहना कि देश की उन्नति के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र होना चाहिए, ठीक नहीं है। राज्य के क्षेत्र के सम्बन्ध में अरस्तु का मत ठीक प्रतीत होता है। उसने कहा है कि राज्य का क्षेत्र इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह आत्मनिर्भर हो सके और इतना अधिक विस्तृत नहीं होना चाहिए कि उस पर ठीक प्रकार से शासन न किया जा सके। अतः राज्य का क्षेत्रफल इतना होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और देश की सुरक्षा भी ठीक हो सके।

3. सरकार (Government)-सरकार राज्य का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। जनता का समूह निश्चित भू-भाग पर बस कर तब तक राज्य की स्थापना नहीं कर सकता जब तक उनमें राजनीतिक संगठन न हो। बिना सरकार के जनता का समूह राज्य की स्थापना नहीं कर सकता। सरकार देश में शान्ति की स्थापना करती है, कानूनों का निर्माण करती है तथा कानूनों को लागू करती है और कानून तोड़ने वाले को दण्ड देती है। सरकार लोगों के परस्पर सम्बन्धों को नियमित करती है। सरकार राज्य की एजेन्सी है जिसके द्वारा राज्य के समस्त कार्य किए जाते हैं। बिना सरकार के अराजकता उत्पन्न हो जाएगी तथा समाज में अशान्ति पैदा हो जाएगी। अत: राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।

संसार के सब राज्यों में सरकारें पाई जाती हैं, परन्तु सरकार के विभिन्न रूप हैं। कई देशों में प्रजातन्त्र सरकारें हैं, कई देशों में तानाशाही तथा कई देशों में राजतन्त्र है। उदाहरण के लिए भारत, नेपाल, इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी में प्रजातन्त्रात्मक सरकारें हैं जबकि क्यूबा, उत्तरी कोरिया, चीन आदि में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। कुछ देशों में संसदीय सरकार है और कुछ देशों में अध्यक्षात्मक सरकार है। इसी तरह कुछ देशों में संघात्मक सरकार है और कुछ में एकात्मक सरकार है। सरकार का कोई भी रूप क्यों न हो, उसे इतना शक्तिशाली अवश्य होना चाहिए कि वह देश में शान्ति की स्थापना कर सके और देश को बाहरी आक्रमणों से बचा सके।

4. प्रभुसत्ता (Sovereignty)—प्रभुसत्ता राज्य का चौथा आवश्यक तत्त्व है। प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है। इसके बिना राज्य की स्थापना नहीं की जा सकती। प्रभुसत्ता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति होती है। इस सर्वोच्च शक्ति के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठा सकता। सब मनुष्यों को सर्वोच्च शक्ति के आगे सिर झुकाना पड़ता है। प्रभुसत्ता दो प्रकार की होती है-आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty) तथा बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)।

आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty)-आन्तरिक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य का अपने देश के अन्दर रहने वाले व्यक्तियों, समुदायों तथा संस्थाओं पर पूर्ण अधिकार होता है। प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक समुदाय को राज्य की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। जो व्यक्ति राज्य के कानून को तोड़ता है, उसे सज़ा दी जाती है। राज्य को पूर्ण अधिकार है कि वह किसी भी संस्था को जब चाहे समाप्त कर सकता है।

बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)-बाहरी प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य के बाहर कोई ऐसी संस्था अथवा व्यक्ति नहीं है जो राज्य को किसी कार्य को करने के लिए आदेश दे सके। राज्य पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। यदि किसी देश पर किसी दूसरे देश का नियन्त्रण हो तो वह देश राज्य नहीं कहला सकता। उदाहरण के लिए सन् 1947 से पूर्व भारत पर इंग्लैण्ड का शासन था, अतः उस समय भारत एक राज्य नहीं था। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गए और इसके साथ ही भारत राज्य बन गया।

क्या कोई तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है ? (Is any Element the Most Important One ?)-

राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार, प्रभुसत्ता-अनिवार्य हैं। यह कहना कि इन तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, अति कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना नहीं हो सकती। लोगों के स्थायी रूप से रहने के लिए एक निश्चित भू-भाग की भी आवश्यकता होती है। सरकार के बिना राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता और प्रभुसत्ता के बिना राज्य के तीनों तत्त्व अर्थहीन हो जाते हैं। प्रभुसत्ता एक ऐसा तत्त्व है जो राज्यों को अन्य समुदाओं और संस्थाओं से श्रेष्ठ बनाता है। इसलिए कुछ लोगों का विचार है कि चारों तत्त्वों में से प्रभुसत्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रभुसत्ता राज्य की आत्मा और प्राण है। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। कोई भी तीन तत्त्व मिल कर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते। राज्यों के चारों तत्त्वों के समान महत्त्व पर बल देते हुए गैटेल (Gettell) ने कहा है कि, “राज्य न ही जनसंख्या है, न ही भूमि, न ही सरकार बल्कि इन सबके साथ-साथ राज्य के पास वह इकाई होनी आवश्यक है जो इसे एक विशिष्ट व स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता बनाती है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-
विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”

2. गार्नर के द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

3. गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग, एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास ये चारों तत्त्व होंगे उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चारों तत्त्वों का होना आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम लिखें। किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. जनसंख्या
  2. निश्चित भू-भाग
  3. सरकार
  4. प्रभुसत्ता।

1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।

2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। भू-भाग निश्चित होना इसलिए भी आवश्यक है कि सीमा-सम्बन्धी विवाद न उत्पन्न हो। राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु राज्य का क्षेत्रफल इतना अवश्य होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और राज्य की सुरक्षा भी ठीक ढंग से हो सके।

प्रश्न 3.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  1. पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  2. पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।
  3. पंजाब की अपनी सरकार तो है परन्तु वह सम्पूर्ण नहीं है। राज्य की कई महत्त्वपूर्ण शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास हैं।
  4. पंजाब के पास न तो आन्तरिक प्रभुसत्ता है और न ही बाहरी प्रभुसत्ता है। इसे दूसरे राज्यों में राजदूत भेजने, उनके साथ युद्ध या सन्धियां करने, अपना संविधान बनाने आदि के अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

प्रश्न 4.
क्या राष्ट्रमण्डल एक राज्य है ?
उत्तर-
राष्ट्रमण्डल में ब्रिटेन के अतिरिक्त वे राष्ट्र सम्मिलित हैं जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने अब स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली है। राष्ट्रमण्डल राज्य नहीं है, क्योंकि उसकी न तो कोई जनसंख्या है, न भू-भाग और न ही कोई सरकार। इस मण्डल के सदस्य प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं। इसलिए राष्ट्रमण्डल के पास प्रभुसत्ता के होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। राष्ट्रमण्डल का सदस्य जब चाहे राष्ट्रमण्डल को छोड़ सकता है। अत: इसे राज्य नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 5.
क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य है ? यदि नहीं तो कारण बताओ।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं

  1. एक राज्य के सदस्य अप्रभुव्यक्ति (Non-sovereign Individuals) होते हैं परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य तो प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं।
  2. एक राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है, परन्तु इस संघ की नहीं।
  3. इस संघ के फैसलों को कानून का स्तर नहीं दिया जा सकता। यदि कोई सदस्य राज्य किसी फैसले को अपने हित के प्रतिकूल समझे तो वह उस आदेश की उपेक्षा कर सकता है और व्यावहारिक रूप में ऐसे कई उदाहरण हैं।
  4. इस संघ की न तो अपनी प्रजा है, न ही नागरिक और न ही कोई भू-क्षेत्र। जिस भू-भाग पर इस संघ के भवन और दफ्तर आदि स्थित हैं, वह भी इसका अपना नहीं बल्कि अमेरिका की सम्पत्ति है।
  5. इस संघ को महासभा, सुरक्षा परिषद् और दूसरे अंगों के बराबर कहना सरासर ग़लत और अमान्य है।

प्रश्न 6.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेजी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है और वह शब्द किस भाषा का है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यिावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

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प्रश्न 7.
राज्य का सबसे आवश्यक तत्त्व कौन-सा है ? वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार, प्रभुसत्ता आवश्यक हैं। यह कहना कि चारों तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना तक नहीं हो सकती है। निश्चित भू-भाग के बिना भी राज्य नहीं बन सकता। सरकार के बिना समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। अतः सरकार ही राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति करती है। राज्य का चौथा तत्त्व प्रभुसत्ता बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि राज्य के अन्य तीन तत्त्व तो दूसरे समुदायों में भी मिल जाते हैं लेकिन प्रभुसत्ता केवल राज्य के पास ही होती है और इसे राज्य तथा अन्य समुदायों के बीच बांटा जा सकता है। प्रभुसत्ता ही एक ऐसा तत्त्व है जो राज्य को अन्य समुदायों से अलग रखता है या उसे सर्वश्रेष्ठ बनाता है। इसी कारण कुछ लेखक प्रभुसत्ता को अन्य तत्वों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना असम्भव है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेज़ी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

प्रश्न 2.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-

  • अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”
  • गार्नर के अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

प्रश्न 3.
राज्य के किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-

  1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।
  2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता।

प्रश्न 4.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  • पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  • पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्य को अंग्रेजी भाषा में क्या कहा जाता है ?
उत्तर-राज्य को अंग्रेज़ी भाषा में स्टेट (State) कहा जाता है।

प्रश्न 2. स्टेट (State) शब्द किस भाषा से बना है ?
उत्तर-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के स्टेट्स (Status) शब्द से बना है।

प्रश्न 3. स्टेट्स (Status) शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-स्टेट्स (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है।

प्रश्न 4. राज्य की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बटलशली के अनुसार, “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।”

प्रश्न 5. राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा किसने दी है ?
उत्तर-राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा गार्नर ने दी है।

प्रश्न 6. “मनुष्य स्वभाव और आवश्यकताओं के कारण सामाजिक प्राणी है।” किसका कथन है?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

प्रश्न 7. “जो समाज में नहीं रहता, वह या तो पशु है या फिर देवता” किसका कथन है ?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 8. प्लेटो ने राज्य की अधिक-से-अधिक जनसंख्या कितनी निश्चित की है?
उत्तर-प्लेटो ने आदर्श राज्य की जनसंख्या 5,040 बताई है।

प्रश्न 9. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, या ऐच्छिक?
उत्तर-राज्य की सदस्यता अनिवार्य है।

प्रश्न 10. किस विद्वान् ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है?
उत्तर-गार्नर ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है।

प्रश्न 11. रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए?
उत्तर-रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या 10000 होनी चाहिए।

प्रश्न 12. किस विद्वान् की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है?
उत्तर-गार्नर की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है।

प्रश्न 13. किस राज्य की जनसंख्या सबसे अधिक है?
उत्तर-साम्यवादी चीन की जनसंख्या सबसे अधिक है।

प्रश्न 14. क्या पंजाब राज्य है?
उत्तर-पंजाब राज्य नहीं है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य के ………….. आवश्यक तत्त्व माने जाते हैं।
2. राज्य के चार आवश्यक तत्त्व जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा ………. है।
3. प्लेटो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………. होनी चाहिए।
4. रूसो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………… होनी चाहिए।
5. ………….. के अनुसार राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए–साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन स्तर और ………… उत्पादन की आवश्यकताएं।
उत्तर-

  1. चार
  2. प्रभुसत्ता
  3. 5040
  4. 10000
  5. प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ, सुरक्षा।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राज्य का दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है।
2. निश्चित भूमि के बिना राज्य की स्थापना हो सकती है।
3. राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।
4. प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है।
5. प्रभुसत्ता चार प्रकार की होती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य के लिए आवश्यक है ?
(क) संसदीय सरकार
(ख) राजतन्त्र
(ग) गणतन्त्रीय सरकार
(घ) कोई भी सरकार।
उत्तर-
(घ) कोई भी सरकार।

प्रश्न 2.
प्रभुसत्ता किसका आवश्यक गुण है ?
(क) राष्ट्र
(ख) राज्य
(ग) समाज
(घ) सरकार।
उत्तर-
(ख) राज्य।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ
(ख) जापान
(ग) दक्षिण कोरिया
(घ) नेपाल।
उत्तर-
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) भारत
(ख) नेपाल
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।
उत्तर-
(ग) मध्य प्रदेश।