PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 8 न्याय

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 8 न्याय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 8 न्याय

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा दीजिए और इसके तत्त्वों की व्याख्या करें। (Define State. Discuss its elements.)
अथवा
राज्य के मूलभूत तत्त्वों की विवेचना कीजिए। (Discuss the essential elements of a State.)
उत्तर-
राज्य एक प्राकृतिक और सर्वव्यापी, मानवीय संस्था है। व्यक्ति के सामाजिक जीवन को सुखी और सुरक्षित रखने के लिए जो संस्था अस्तित्व में आई, उसे राज्य कहते हैं। मनुष्य के जीवन के विकास के लिए राज्य एक आवश्यक संस्था है। यदि राज्य न हो, तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।

राज्य शब्द की उत्पत्ति (Etymology of the word)-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द से लिया गया है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीन काल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। परन्तु धीरे-धीरे इसका अर्थ बदलता गया। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

राज्य शब्द का गलत प्रयोग (Wrong use of the word ‘State’) अधिकांश तौर पर सामान्य भाषा में ‘राज्य’ शब्द का गलत प्रयोग किया जाता है। जैसे भारत में इसकी इकाइयों जैसे-पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश एवं अमेरिका में अटलांटा, बोस्टन, न्यूयार्क एवं वाशिंगटन जैसी इकाइयों को राज्य कह दिया जाता है, जबकि ये वास्तविक तौर पर राज्य नहीं हैं।

राज्य की परिभाषाएं (Definitions of State)–विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित

1. अरस्तु (Aristotle) के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर तथा समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।” (“The state is a Union of families and villages having for its end a perfect and self-sufficing life by which we mean a happy and honourable life.”) परन्तु यह परिभाषा बहुत पुरानी है और आधुनिक राज्य पर लागू नहीं होती।

2. ब्लंटशली (Bluntschli) का कहना है कि “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।” (“The state is a politically organised people of a definite territory.”)

3. अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Willson) के अनुसार, “एक निश्चित क्षेत्र में कानून की स्थापना के लिए संगठित लोगों का समूह ही राज्य है।” (“The state is a people organised for law within a definite territory.”) परन्तु यह परिभाषा भी ठीक नहीं समझी जाती क्योंकि इसमें राज्य की प्रभुसत्ता का कहीं भी उल्लेख नहीं है।

4. गार्नर (Garner) द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो, बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह से लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।” (“The state, as a concept of political science and public law, is a community of persons, more or less numerous permanently occupying a definite portion of territory, independent or nearly so, of external control and possessing an organised government to which the great body of inhabitants render habitual obedience.”)

5. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता को प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास चारों तत्त्व होंगे, उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चार तत्त्वों का होना आवश्यक है।

राज्य के आवश्यक तत्त्व (Essential Elements or Attributes of State)-

राज्य के अस्तित्व के लिए चार तत्त्वों का होना आवश्यक है जो कि जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में राज्य का निर्माण नहीं हो सकता। जनसंख्या (Population) और भू-भाग (Territory) को राज्य के भौतिक तत्त्व (Physical Element), सरकार (Government) को राज्य का राजनीतिक तत्त्व (Political Element) और प्रभुसत्ता (Sovereignty) को राज्य का आत्मिक तत्त्व (Spiritual Element) माना जाता है। इन तत्त्वों की व्याख्या नीचे की गई है :-

1. जनसंख्या (Population)-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। राज्य पशु-पक्षियों का समूह नहीं है। वह मनुष्यों की राजनीतिक संस्था है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर बल्कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस प्रकार बिना पति-पत्नी के परिवार, मिट्टी के बिना घड़ा और सूत के बिना कपड़ा नहीं बन सकता, उसी प्रकार बिना मनुष्यों के समूह के राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य में कितनी जनसंख्या होनी चाहिए, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। परन्तु राज्य के लिए पर्याप्त जनसंख्या होनी चाहिए। दस-बीस मनुष्य राज्य नहीं बना सकते।

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राज्य की जनसंख्या कितनी हो, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। प्लेटो (Plato) के मतानुसार, एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 होनी चाहिए। अरस्तु (Aristotle) के मतानुसार, जनसंख्या इतनी कम नहीं होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न इतनी अधिक होनी चाहिए कि भली प्रकार शासित न हो सके। रूसो (Rousseau) प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का समर्थक था, इसलिए उसने छोटे राज्यों का समर्थन किया। उसने एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 10,000 निश्चित की थी।

प्राचीन काल में नगर राज्यों की जनसंख्या बहुत कम हुआ करती थी, परन्तु आज के युग में बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो चुके हैं।
आधुनिक राज्यों की जनसंख्या करोड़ों में है। चीन राज्य की जनसंख्या लगभग 135 करोड़ से अधिक है जबकि भारत की जनसंख्या 130 करोड़ से अधिक है। परन्तु दूसरी ओर कई ऐसे राज्य भी हैं जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। उदाहरणस्वरूप, सान मेरीनो की जनसंख्या 25 हज़ार के लगभग तथा मोनाको की जनसंख्या 32 हज़ार के लगभग है जबकि नारु की जनसंख्या 9500 है। आधुनिक काल में कुछ राज्यों में बड़ी जनसंख्या एक बहुत भारी समस्या बन चुकी है और इन देशों में जनसंख्या को कम करने पर जोर दिया जाता है। उदाहरण के लिए भारत की अधिक जनसंख्या एक भारी समस्या है।

राज्यों की जनसंख्या निश्चित करना अति कठिन है, परन्तु हम अरस्तु के मत से सहमत हैं कि राज्य की जनसंख्या न इतनी कम होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न ही इतनी अधिक होनी चाहिए कि राज्य के लिए समस्या बन जाए। राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि वहां की जनता सुखी तथा समृद्धिशाली जीवन व्यतीत कर सके। गार्नर के मतानुसार, “राज्य की जनसंख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए कि वह राज्य सुदृढ़ रह सके। परन्तु उससे अधिक नहीं होनी चाहिए जिसके लिए भू-खण्ड तथा राज्य साधन पर्याप्त न हों।” प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ (Prof. R.H. Soltau) के अनुसार, “राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए-साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन-स्तर और सुरक्षा उत्पादन की आवश्यकताएं।”

2. निश्चित भू-भाग (Definite Territory)-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है। बिना निश्चित भूमि के राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। खानाबदोश कबीले (Nomadic Tribes) राज्य का निर्माण नहीं कर सकते क्योंकि वे एक स्थान पर नहीं रहते बल्कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। यही कारण है कि 1948 से पहले यहूदी लोग संसार-भर में घूमते रहते थे और उनका कोई राज्य नहीं था। यहूदी लोग (Jews) 1948 में ही स्थायी तौर पर अपना इज़राइल (Israel) नामक राज्य स्थापित कर सके। भू-भाग का निश्चित होना राज्यों की सीमाओं के निर्धारण के लिए भी आवश्यक है वरन् सीमा-सम्बन्धी झगड़े सदा ही अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का कारण बने रहेंगे।

भूमि में पहाड़, नदी, नाले, तालाब आदि भी शामिल होते हैं। भूमि के ऊपर का वायुमण्डल भी राज्य की भूमि का भाग माना जाता है। भूमि के साथ लगा हुआ समुद्र का 3 मील से 12 मील तक का भाग भी राज्य की भूमि में शामिल किया जाता है।

राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए, इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। प्राचीन काल में राज्य का क्षेत्रफल बहुत छोटा होता था, परन्तु आधुनिक राज्यों का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है। पर कई राज्यों का क्षेत्रफल आज भी बहुत छोटा है। रूस का क्षेत्रफल 17,075,000 वर्ग किलोमीटर है जबकि भारत का क्षेत्रफल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर है। पर सेन मेरीनो का क्षेत्रफल 61 वर्ग किलोमीटर है जबकि मोनाको का क्षेत्रफल 1.95 वर्ग किलोमीटर ही है। मालद्वीप राज्य का क्षेत्रफल 298 वर्ग किलोमीटर है। आज राज्य के बड़े क्षेत्र पर जोर दिया जाता है क्योंकि बड़े क्षेत्र में अधिक खनिज पदार्थ और दूसरे प्राकृतिक साधन होते हैं, जिससे देश को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। अमेरिका, रूस, चीन अपने बड़े क्षेत्रों के कारण शक्तिशाली हैं। दूसरी ओर इंग्लैण्ड, स्विट्ज़रलैंड, बैल्जियम इत्यादि देशों का क्षेत्रफल तो कम है परन्तु इन देशों ने भी बहुत उन्नति की है। अतः यह कहना कि देश की उन्नति के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र होना चाहिए, ठीक नहीं है। राज्य के क्षेत्र के सम्बन्ध में अरस्तु का मत ठीक प्रतीत होता है। उसने कहा है कि राज्य का क्षेत्र इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह आत्मनिर्भर हो सके और इतना अधिक विस्तृत नहीं होना चाहिए कि उस पर ठीक प्रकार से शासन न किया जा सके। अतः राज्य का क्षेत्रफल इतना होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और देश की सुरक्षा भी ठीक हो सके।

3. सरकार (Government)-सरकार राज्य का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। जनता का समूह निश्चित भू-भाग पर बस कर तब तक राज्य की स्थापना नहीं कर सकता जब तक उनमें राजनीतिक संगठन न हो। बिना सरकार के जनता का समूह राज्य की स्थापना नहीं कर सकता। सरकार देश में शान्ति की स्थापना करती है, कानूनों का निर्माण करती है तथा कानूनों को लागू करती है और कानून तोड़ने वाले को दण्ड देती है। सरकार लोगों के परस्पर सम्बन्धों को नियमित करती है। सरकार राज्य की एजेन्सी है जिसके द्वारा राज्य के समस्त कार्य किए जाते हैं। बिना सरकार के अराजकता उत्पन्न हो जाएगी तथा समाज में अशान्ति पैदा हो जाएगी। अत: राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।

संसार के सब राज्यों में सरकारें पाई जाती हैं, परन्तु सरकार के विभिन्न रूप हैं। कई देशों में प्रजातन्त्र सरकारें हैं, कई देशों में तानाशाही तथा कई देशों में राजतन्त्र है। उदाहरण के लिए भारत, नेपाल, इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी में प्रजातन्त्रात्मक सरकारें हैं जबकि क्यूबा, उत्तरी कोरिया, चीन आदि में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। कुछ देशों में संसदीय सरकार है और कुछ देशों में अध्यक्षात्मक सरकार है। इसी तरह कुछ देशों में संघात्मक सरकार है और कुछ में एकात्मक सरकार है। सरकार का कोई भी रूप क्यों न हो, उसे इतना शक्तिशाली अवश्य होना चाहिए कि वह देश में शान्ति की स्थापना कर सके और देश को बाहरी आक्रमणों से बचा सके।

4. प्रभुसत्ता (Sovereignty)—प्रभुसत्ता राज्य का चौथा आवश्यक तत्त्व है। प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है। इसके बिना राज्य की स्थापना नहीं की जा सकती। प्रभुसत्ता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति होती है। इस सर्वोच्च शक्ति के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठा सकता। सब मनुष्यों को सर्वोच्च शक्ति के आगे सिर झुकाना पड़ता है। प्रभुसत्ता दो प्रकार की होती है-आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty) तथा बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)।

आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty)-आन्तरिक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य का अपने देश के अन्दर रहने वाले व्यक्तियों, समुदायों तथा संस्थाओं पर पूर्ण अधिकार होता है। प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक समुदाय को राज्य की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। जो व्यक्ति राज्य के कानून को तोड़ता है, उसे सज़ा दी जाती है। राज्य को पूर्ण अधिकार है कि वह किसी भी संस्था को जब चाहे समाप्त कर सकता है।

बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)-बाहरी प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य के बाहर कोई ऐसी संस्था अथवा व्यक्ति नहीं है जो राज्य को किसी कार्य को करने के लिए आदेश दे सके। राज्य पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। यदि किसी देश पर किसी दूसरे देश का नियन्त्रण हो तो वह देश राज्य नहीं कहला सकता। उदाहरण के लिए सन् 1947 से पूर्व भारत पर इंग्लैण्ड का शासन था, अतः उस समय भारत एक राज्य नहीं था। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गए और इसके साथ ही भारत राज्य बन गया।

क्या कोई तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है ? (Is any Element the Most Important One ?)-

राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार, प्रभुसत्ता-अनिवार्य हैं। यह कहना कि इन तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, अति कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना नहीं हो सकती। लोगों के स्थायी रूप से रहने के लिए एक निश्चित भू-भाग की भी आवश्यकता होती है। सरकार के बिना राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता और प्रभुसत्ता के बिना राज्य के तीनों तत्त्व अर्थहीन हो जाते हैं। प्रभुसत्ता एक ऐसा तत्त्व है जो राज्यों को अन्य समुदाओं और संस्थाओं से श्रेष्ठ बनाता है। इसलिए कुछ लोगों का विचार है कि चारों तत्त्वों में से प्रभुसत्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रभुसत्ता राज्य की आत्मा और प्राण है। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। कोई भी तीन तत्त्व मिल कर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते। राज्यों के चारों तत्त्वों के समान महत्त्व पर बल देते हुए गैटेल (Gettell) ने कहा है कि, “राज्य न ही जनसंख्या है, न ही भूमि, न ही सरकार बल्कि इन सबके साथ-साथ राज्य के पास वह इकाई होनी आवश्यक है जो इसे एक विशिष्ट व स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता बनाती है।”

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-
विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”

2. गार्नर के द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

3. गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग, एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास ये चारों तत्त्व होंगे उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चारों तत्त्वों का होना आवश्यक है।

प्रश्न 2.
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम लिखें। किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. जनसंख्या
  2. निश्चित भू-भाग
  3. सरकार
  4. प्रभुसत्ता।

1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।

2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। भू-भाग निश्चित होना इसलिए भी आवश्यक है कि सीमा-सम्बन्धी विवाद न उत्पन्न हो। राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु राज्य का क्षेत्रफल इतना अवश्य होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और राज्य की सुरक्षा भी ठीक ढंग से हो सके।

प्रश्न 3.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  1. पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  2. पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।
  3. पंजाब की अपनी सरकार तो है परन्तु वह सम्पूर्ण नहीं है। राज्य की कई महत्त्वपूर्ण शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास हैं।
  4. पंजाब के पास न तो आन्तरिक प्रभुसत्ता है और न ही बाहरी प्रभुसत्ता है। इसे दूसरे राज्यों में राजदूत भेजने, उनके साथ युद्ध या सन्धियां करने, अपना संविधान बनाने आदि के अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

प्रश्न 4.
क्या राष्ट्रमण्डल एक राज्य है ?
उत्तर-
राष्ट्रमण्डल में ब्रिटेन के अतिरिक्त वे राष्ट्र सम्मिलित हैं जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने अब स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली है। राष्ट्रमण्डल राज्य नहीं है, क्योंकि उसकी न तो कोई जनसंख्या है, न भू-भाग और न ही कोई सरकार। इस मण्डल के सदस्य प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं। इसलिए राष्ट्रमण्डल के पास प्रभुसत्ता के होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। राष्ट्रमण्डल का सदस्य जब चाहे राष्ट्रमण्डल को छोड़ सकता है। अत: इसे राज्य नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 5.
क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य है ? यदि नहीं तो कारण बताओ।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं

  1. एक राज्य के सदस्य अप्रभुव्यक्ति (Non-sovereign Individuals) होते हैं परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य तो प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं।
  2. एक राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है, परन्तु इस संघ की नहीं।
  3. इस संघ के फैसलों को कानून का स्तर नहीं दिया जा सकता। यदि कोई सदस्य राज्य किसी फैसले को अपने हित के प्रतिकूल समझे तो वह उस आदेश की उपेक्षा कर सकता है और व्यावहारिक रूप में ऐसे कई उदाहरण हैं।
  4. इस संघ की न तो अपनी प्रजा है, न ही नागरिक और न ही कोई भू-क्षेत्र। जिस भू-भाग पर इस संघ के भवन और दफ्तर आदि स्थित हैं, वह भी इसका अपना नहीं बल्कि अमेरिका की सम्पत्ति है।
  5. इस संघ को महासभा, सुरक्षा परिषद् और दूसरे अंगों के बराबर कहना सरासर ग़लत और अमान्य है।

प्रश्न 6.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेजी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है और वह शब्द किस भाषा का है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यिावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

प्रश्न 7.
राज्य का सबसे आवश्यक तत्त्व कौन-सा है ? वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार, प्रभुसत्ता आवश्यक हैं। यह कहना कि चारों तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना तक नहीं हो सकती है। निश्चित भू-भाग के बिना भी राज्य नहीं बन सकता। सरकार के बिना समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। अतः सरकार ही राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति करती है। राज्य का चौथा तत्त्व प्रभुसत्ता बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि राज्य के अन्य तीन तत्त्व तो दूसरे समुदायों में भी मिल जाते हैं लेकिन प्रभुसत्ता केवल राज्य के पास ही होती है और इसे राज्य तथा अन्य समुदायों के बीच बांटा जा सकता है। प्रभुसत्ता ही एक ऐसा तत्त्व है जो राज्य को अन्य समुदायों से अलग रखता है या उसे सर्वश्रेष्ठ बनाता है। इसी कारण कुछ लेखक प्रभुसत्ता को अन्य तत्वों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना असम्भव है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेज़ी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

प्रश्न 2.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-

  • अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”
  • गार्नर के अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

प्रश्न 3.
राज्य के किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-

  1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।
  2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता।

प्रश्न 4.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  • पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  • पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्य को अंग्रेजी भाषा में क्या कहा जाता है ?
उत्तर-राज्य को अंग्रेज़ी भाषा में स्टेट (State) कहा जाता है।

प्रश्न 2. स्टेट (State) शब्द किस भाषा से बना है ?
उत्तर-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के स्टेट्स (Status) शब्द से बना है।

प्रश्न 3. स्टेट्स (Status) शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-स्टेट्स (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है।

प्रश्न 4. राज्य की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बटलशली के अनुसार, “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।”

प्रश्न 5. राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा किसने दी है ?
उत्तर-राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा गार्नर ने दी है।

प्रश्न 6. “मनुष्य स्वभाव और आवश्यकताओं के कारण सामाजिक प्राणी है।” किसका कथन है?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

प्रश्न 7. “जो समाज में नहीं रहता, वह या तो पशु है या फिर देवता” किसका कथन है ?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

प्रश्न 8. प्लेटो ने राज्य की अधिक-से-अधिक जनसंख्या कितनी निश्चित की है?
उत्तर-प्लेटो ने आदर्श राज्य की जनसंख्या 5,040 बताई है।

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प्रश्न 9. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, या ऐच्छिक?
उत्तर-राज्य की सदस्यता अनिवार्य है।

प्रश्न 10. किस विद्वान् ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है?
उत्तर-गार्नर ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है।

प्रश्न 11. रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए?
उत्तर-रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या 10000 होनी चाहिए।

प्रश्न 12. किस विद्वान् की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है?
उत्तर-गार्नर की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है।

प्रश्न 13. किस राज्य की जनसंख्या सबसे अधिक है?
उत्तर-साम्यवादी चीन की जनसंख्या सबसे अधिक है।

प्रश्न 14. क्या पंजाब राज्य है?
उत्तर-पंजाब राज्य नहीं है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य के ………….. आवश्यक तत्त्व माने जाते हैं।
2. राज्य के चार आवश्यक तत्त्व जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा ………. है।
3. प्लेटो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………. होनी चाहिए।
4. रूसो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………… होनी चाहिए।
5. ………….. के अनुसार राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए–साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन स्तर और ………… उत्पादन की आवश्यकताएं।
उत्तर-

  1. चार
  2. प्रभुसत्ता
  3. 5040
  4. 10000
  5. प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ, सुरक्षा।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राज्य का दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है।
2. निश्चित भूमि के बिना राज्य की स्थापना हो सकती है।
3. राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।
4. प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है।
5. प्रभुसत्ता चार प्रकार की होती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य के लिए आवश्यक है ?
(क) संसदीय सरकार
(ख) राजतन्त्र
(ग) गणतन्त्रीय सरकार
(घ) कोई भी सरकार।
उत्तर-
(घ) कोई भी सरकार।

प्रश्न 2.
प्रभुसत्ता किसका आवश्यक गुण है ?
(क) राष्ट्र
(ख) राज्य
(ग) समाज
(घ) सरकार।
उत्तर-
(ख) राज्य।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ
(ख) जापान
(ग) दक्षिण कोरिया
(घ) नेपाल।
उत्तर-
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) भारत
(ख) नेपाल
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।
उत्तर-
(ग) मध्य प्रदेश।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1. सिख जीवन जाच क्या है ?
(What is Sikh Way of Life ?)
अथवा
सिख जीवन जाच सिख धर्म का आधार है। चर्चा कीजिए।
(Sikh way of life is the base of Sikhism. Discuss.)
अथवा
सिख रहित मर्यादा के प्रमुख लक्षणों के विषय में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the salient features of Sikh-Rahit Maryada.)
अथवा
धार्मिक सिख जीवन जाँच के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the religious Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवनचर्या की आलोचनात्मक दृष्टि से परख कीजिए। (Examine critically the Sikh Way of Life.)
अथवा
रहित मर्यादा से क्या अभिप्राय है ? सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(What is Code of Conduct ? Explain in briefthe Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिखी रहित मर्यादा लिखें।
(Write about the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार सिख जीवन के बारे में लिखें।
(Write about the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन मुक्ति में व्यक्तिगत रहनी के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the personal life in Sikh Code of Conduct.)
अथवा
गुरमत रहनी क्या है ? चर्चा कीजिए।
(What is Gurmat Life ? Discuss.)
अथवा
सिख जीवन युक्ति के मुख्य लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the salient features of Sikh Way of Life.)
अथवा
गुरसिख के जीवन के बारे में लिखें।
(Write about the Gursikh Way of Life.)
अथवा
सिग्न जीवन पद्धति के विषय में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Give a brief account of the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन जाच का स्रोत सिख रहित मर्यादा है। चर्चा कीजिए। (Sikh Rahit Maryada is the source of Sikh Way of Life. Discuss.)
अथवा
(Elucidate the salient features of Sikh Way of Life.)
उत्तर-
प्रत्येक जीवन पद्धति किसी न किसी दर्शन पर आधारित होती है। जैसे एक सच्चा हिंद गीता के उपदेशों के अनुसार, एक सच्चा मुसलमान कुरान के उपदेशों के अनुसार एवं एक सच्चा ईसाई बाइबल के उपदेशों को आधार मान कर अपना जीवन व्यतीत करने का प्रयास करता है। गुरु ग्रंथ साहिब जी में अनेक स्थानों पर सिख जीवन पद्धति का वर्णन किया गया है। 1699 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ का सृजन किया तो उन्होंने कुछ नियमों की घोषणा की जिनका पालन करना प्रत्येक खालसा के लिए अनिवार्य था। ये नियम आज भी रहितनामों के रूप में हमारे पास मौजूद हैं। रहितनामे कोई नई विचारधारा प्रस्तुत नहीं करते। ये गुरबाणी में वर्णित जीवन पद्धति की संक्षेप रूप में तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। सिख रहित मर्यादा जो शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर द्वारा जारी की गई है तथा जिसे प्रमाणिक माना जाता है का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है :—

(क) सिख कौन है ? (Who is a Sikh ?)
कोई भी स्त्री अथवा पुरुष जो एक परमात्मा, दस गुरु साहिबान (गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी तक), श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी एवं शिक्षा तथा दशमेश (गुरु गोबिंद सिंह जी) के अमृत में विश्वास रखता है वह सिख है।

(ख) नाम वाणी का अभ्यास
(Practice of Nam)

  1. सिख अमृत समय जाग कर स्नान करे तथा एक अकाल पुरुख (परमात्मा) का ध्यान करता हुआ ‘वाहिगुरु’ का नाम जपे।
  2. नितनेम का पाठ करे। नितनेम की वाणियाँ ये हैं-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपई एवं 10 सवैये। ये वाणिएँ अमृत समय पढ़ी जाती हैं। रहरासि साहिब-यह वाणी संध्या काल समय पढ़ी जाती है। सोहिला-यह वाणी रात को सोने से पूर्व पढ़ी जाती है। अमृत समय तथा नितनेम के पश्चात् अरदास करनी आवश्यक है।
  3. गुरवाणी का प्रभाव साध-संगत में अधिक होता है। अत: सिख के लिए उचित है कि वह गुरुद्वारों के दर्शन करे तथा साध-संगत में बैठ कर गुरवाणी का लाभ उठाए।
  4. गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश प्रतिदिन होना चाहिए। साधारणतयः रहरासि साहिब के पाठ के पश्चात् सुख आसन किया जाना चाहिए।
  5. गुरु ग्रंथ साहिब जी को सम्मान के साथ प्रकाश, पढ़ना एवं संतोखना चाहिए। प्रकाश के लिए आवश्यक है कि स्थान पूर्णतः साफ़ हो तथा ऊपर चांदनी लगी हो। प्रकाश मंजी साहिब पर साफ़ वस्त्र बिछा कर किया जाना चाहिए। गुरु ग्रंथ साहिब जी के लिए गदेले आदि का प्रयोग किया जाए तथा ऊपर रुमाला दिया जाए। जिस समय पाठ न हो रहा हो तो ऊपर रुमाला पड़ा रहना चाहिए। प्रकाश के समय चंवर किया जाना चाहिए।
  6. गुरुद्वारे में कोई मूर्ति पूजा अथवा गुरमत्त के विरुद्ध कोई रीति-संस्कार न हो।
  7. एक से दूसरे स्थान तक गुरु ग्रंथ साहिब को ले जाते समय अरदास की जानी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सिर के ऊपर गुरु ग्रंथ साहिब उठाया हो वह नंगे पाँव होना चाहिए।
  8. गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश अरदास करके किया जाए। प्रकाश करते समय गुरु ग्रंथ साहिब में से एक शबद का वाक लिया जाए।
  9. जिस समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की सवारी आए तो प्रत्येक सिख को उसके सम्मान के लिए खड़ा हो जाना चाहिए।
  10. गुरुद्वारे में प्रवेश करते समय अपने जूते अथवा चप्पल आदि बाहर उतार कर तथा हाथ-पाँव धो कर जाना चाहिए।
  11. गुरुद्वारे में दर्शन के लिए किसी देश, धर्म, जाति आदि पर कोई प्रतिबंध नहीं, पर उनके पास सिख धर्म में प्रतिबंधित वस्तुएँ तंबाकू आदि कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए।
  12. संगत में बैठते समय सिख, गैर-सिख, जाति-पाति, ऊँच-नीच आदि का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  13. किसी भी व्यक्ति द्वारा गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय अथवा संगत में गदेला, आसन, कुर्सी, चौकी अथवा मंजी आदि पर बैठना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  14. संगत में किसी सिख को नंगे सिर नहीं बैठना चाहिए। संगत में सिख स्त्रियों के लिए पर्दा करना अथवा चूंघट निकालने पर प्रतिबंध है।
  15. प्रत्येक गुरुद्वारे में निशान साहिब किसी ऊँचे स्थान पर लगा होना चाहिए।
  16. गुरुद्वारे में नगारा होना चाहिए तथा इसे समय अनुसार बजाया जाना चाहिए।
  17. संगत में कीर्तन केवल सिख कर सकता है।
  18. कीर्तन गुरवाणी को रागों में उच्चारण करना चाहिए।
  19. दीवान समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की ताबिया में केवल सिख (पुरुष अथवा स्त्री) को बैठने का अधिकार
  20. दीवान की समाप्ति के समय ‘हक्म’ लिया जाना चाहिए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

(ग) गुरुसिख की जीवन पद्धति
(Code of Conduct of Gursikh)
सिखों की जीवन पद्धति गुरमत्त के अनुसार होनी चाहिए। गुरमत्त यह है :—

  1. एक अकाल पुरुख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दा केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्त्तव्य है।
  7. सिख भांग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहांत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।
  16. लड़के के नाम के पीछे ‘सिंह’ तथा लड़की के नाम के पीछे ‘कौर’ शब्द लगाया जाए।
  17. सिखों का विवाह बिना किसी जाति-पाति अथवा गौत्र के विचार से होना चाहिए।
  18. सिख का विवाह ‘अनंदु’ रीति से करना चाहिए।
  19. बालक एवं बालिका का विवाह बचपन में करना प्रतिबंधित है। विवाह का दिन निश्चित करते समय अच्छे-बुरे दिन की खोज करना अथवा पत्री बनाना गुरमत्त के विरुद्ध है। इस संबंधी कोई भी दिन निश्चित किया जा सकता है।
  20. सेहरा, घड़ौली भरनी, रूठ जाना, छंद पढ़ने, हवन करना, वेश्या का नाच करवाना, शराब पीना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  21. विवाह के समय गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में दीवान हो। संगत अथवा रागी कीर्तन करें। फिर सम्बंधित वर एवं वधु को गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में बैठाया जाए। संगत की अनुमति लेकर ‘अनंदु’ के आरंभ की अरदास की जाए।
  22. साधारणतयः सिख को एक स्त्री के होते हुए दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए।
  23. प्राणी के देहांत के समय यदि वह चारपाई पर हो तो उसे नीचे नहीं उतारना चाहिए अथवा अन्य कोई गुरमत्त के विरुद्ध संस्कार नहीं करना चाहिए। केवल गुरवाणी का पाठ अथवा ‘वाहिगुरु’, ‘वाहिगुरु’ करना चाहिए।
  24. प्राणी के देहांत पर रोना एवं सियापा नहीं करना चाहिए।
  25. प्राणी चाहे छोटा हो अथवा बड़ा उसका संस्कार किया जाना चाहिए।
  26. संस्कार के लिए दिन अथवा रात का भ्रम नहीं करना चाहिए।
  27. दीवा, सियापा, पिंड क्रिया, श्राद्ध, बुड्डे का मरना आदि करना गुरमत्त के विरुद्ध हैं।
  28. सिखों को प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमी के अवसर पर जैसे नए गृह में प्रवेश करना, नई दुकान को खोलना, बालक को शिक्षा के लिए भेजना आदि के समय वाहिगुरु की सहायता के लिए अरदास की जानी चाहिए।
  29. सेवा सिख धर्म का एक विशेष अंग है। सेवा केवल पंखा करना तथा लंगर आदि से ही समाप्त नहीं हो जाती। सिख का संपूर्ण जीवन ही दूसरों की सेवा में व्यतीत होना चाहिए।
  30. प्रत्येक सिख को पाँच कक्कार केश, कंघा, कच्छा, कड़ा एवं कृपाण धारण करनी चाहिए।
  31. ये चार कुरीतियां नहीं करनी चाहिएँ—
    • केशों की बेअदबी।
    • कुट्ठा खाना
    • पर स्त्री-पुरुष का गमन
    • तंबाकू का प्रयोग।
      यदि इनमें से कोई आज्ञा भंग हो जाए तो उसे पुनः अमृत छकना पड़ेगा।।
  32. जिस सिख से रहित संबंधी कोई भूल हो जाए तो वह निकट के गुरुद्वारे में जाकर संगत के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करे।
  33. गुरुमत्ता केवल उन प्रश्नों पर ही हो सकता है जो सिख धर्म के प्रारंभिक सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हों। यह गुरमत्ता केवल गुरु पंथ द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सभा अथवा संगत द्वारा पास किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
“नैतिकता सिख जीवन पद्धति का आधार है।” प्रकाश डालिए। (“Morality is the base of the Sikh Way of Life.” Elucidate.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार नैतिक जीवन ही जीवन की कुंजी है। चर्चा करें। (According to Sikhism, Moral Life is Key of Life.)
अथवा
सिख धर्म में नैतिकता की विलक्षणता पर नोट लिखें।
(Write a note on the special features of Sikh Morality.)
अथवा
नैतिक जीवन ही सिख जीवन की कुंजी है। चर्चा करें। (Moral Life is the Key to Sikh Life. Discuss.)
अथवा
“सिख धर्म में नैतिकता सिख जीवनचर्या की कंजी है।” चर्चा कीजिए। (“Morality is the Key in Sikhism as per Sikh Way of Life.” Discuss.)
उत्तर-
गुरुसिख की जीवन पद्धति (Code of Conduct of Gursikh)-
सिखों की जीवन पद्धति गुरमत्त के अनुसार होनी चाहिए। गुरमत्त यह है :—

  1. एक अकाल पुरुख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दा केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्त्तव्य है।
  7. सिख भांग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहांत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।
  16. लड़के के नाम के पीछे ‘सिंह’ तथा लड़की के नाम के पीछे ‘कौर’ शब्द लगाया जाए।
  17. सिखों का विवाह बिना किसी जाति-पाति अथवा गौत्र के विचार से होना चाहिए।
  18. सिख का विवाह ‘अनंदु’ रीति से करना चाहिए।
  19. बालक एवं बालिका का विवाह बचपन में करना प्रतिबंधित है। विवाह का दिन निश्चित करते समय अच्छे-बुरे दिन की खोज करना अथवा पत्री बनाना गुरमत्त के विरुद्ध है। इस संबंधी कोई भी दिन निश्चित किया जा सकता है।
  20. सेहरा, घड़ौली भरनी, रूठ जाना, छंद पढ़ने, हवन करना, वेश्या का नाच करवाना, शराब पीना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  21. विवाह के समय गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में दीवान हो। संगत अथवा रागी कीर्तन करें। फिर सम्बंधित वर एवं वधु को गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में बैठाया जाए। संगत की अनुमति लेकर ‘अनंदु’ के आरंभ की अरदास की जाए।
  22. साधारणतयः सिख को एक स्त्री के होते हुए दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए।
  23. प्राणी के देहांत के समय यदि वह चारपाई पर हो तो उसे नीचे नहीं उतारना चाहिए अथवा अन्य कोई गुरमत्त के विरुद्ध संस्कार नहीं करना चाहिए। केवल गुरवाणी का पाठ अथवा ‘वाहिगुरु’, ‘वाहिगुरु’ करना चाहिए।
  24. प्राणी के देहांत पर रोना एवं सियापा नहीं करना चाहिए।
  25. प्राणी चाहे छोटा हो अथवा बड़ा उसका संस्कार किया जाना चाहिए।
  26. संस्कार के लिए दिन अथवा रात का भ्रम नहीं करना चाहिए।
  27. दीवा, सियापा, पिंड क्रिया, श्राद्ध, बुड्डे का मरना आदि करना गुरमत्त के विरुद्ध हैं।
  28. सिखों को प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमी के अवसर पर जैसे नए गृह में प्रवेश करना, नई दुकान को खोलना, बालक को शिक्षा के लिए भेजना आदि के समय वाहिगुरु की सहायता के लिए अरदास की जानी चाहिए।
  29. सेवा सिख धर्म का एक विशेष अंग है। सेवा केवल पंखा करना तथा लंगर आदि से ही समाप्त नहीं हो जाती। सिख का संपूर्ण जीवन ही दूसरों की सेवा में व्यतीत होना चाहिए।
  30. प्रत्येक सिख को पाँच कक्कार केश, कंघा, कच्छा, कड़ा एवं कृपाण धारण करनी चाहिए।
  31. ये चार कुरीतियां नहीं करनी चाहिएँ—
    • केशों की बेअदबी।
    • कुट्ठा खाना
    • पर स्त्री-पुरुष का गमन
    • तंबाकू का प्रयोग।
      यदि इनमें से कोई आज्ञा भंग हो जाए तो उसे पुनः अमृत छकना पड़ेगा।।
  32. जिस सिख से रहित संबंधी कोई भूल हो जाए तो वह निकट के गुरुद्वारे में जाकर संगत के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करे।
  33. गुरुमत्ता केवल उन प्रश्नों पर ही हो सकता है जो सिख धर्म के प्रारंभिक सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हों। यह गुरमत्ता केवल गुरु पंथ द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सभा अथवा संगत द्वारा पास किया जा सकता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 3.
मूल मंत्र की व्याख्या करें। मूल मंत्र गुरु-ग्रंथ साहिब में किस स्थान पर अंकित है ?
(Explain the Mul Mantra. Where is the Mul Mantra placed in the Guru Granth Sahib ?)
अथवा
मूल मंत्र की व्याख्या करते हुए सिख धर्म में परम सत्ता की एकता के सिद्धांत को स्पष्ट करें।
(Explain the Sikh doctrine of unity of God while discussing Mul Mantra.)
अथवा
सिख धर्म में एकेश्वरवाद से क्या भाव है ? मूल मंत्र का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(What is meant by Monotheism in Sikhism ? Give a brief account of Mul Mantra.)
अथवा
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the concept of Akal Purkh (God) in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म में ‘मूल मंत्र’ क्या है ? व्याख्या करें। .
(What is the ‘Mul Mantra’ in Sikhism ? Explain.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं : १ ओंकार सतनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि ॥ जपु॥ आदि सच्चु जुगादि सच्चु है भी सच्चु नानक होसी भी सच्चु ॥ इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरुख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह है-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह अपनी सृष्टि में मौजूद है। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी पर ही निर्भर करता है, वह डर एवं ईर्ष्या से मुक्त है। उस पर काल का प्रभाव नहीं होता। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसका प्रकाश अपने आपसे है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। अकाल पुरुख के स्वरूप का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है :—

1. ईश्वर एक है (God is One)-गुरुवाणी में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि ईश्वर एक है यद्यपि उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। सिख परंपरा के अनुसार मूल मंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘एक ओ अंकार’ है वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। वह ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन पोषण करता है तथा उसका विनाश कर सकता है। इसी कारण कोई भी पीर, पैगंबर, अवतार, औलिया, ऋषि तथा मुनि इत्यादि उसका मुकाबला नहीं कर सकते। ये सभी उस ईश्वर के दरबार में एक भिखारी की तरह हैं। ईश्वर के सामने उनका दर्जा उसी प्रकार है जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम तथा कृष्ण इत्यादि हज़ारों तथा लाखों हैं, किंतु ईश्वर एक है। अतः गुरवाणी में एक ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य देवीदेवता की पूजा को वर्जित किया गया है। गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

सदा सदा सो सैविए जो सभ महि रिहा समाए॥
अवर दूजा किउं सैविए जन्मे ते मर जाए॥

2. निर्गुण तथा सर्गुण (Nirguna and Sarguna)-ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है तथा सर्गुण भी। सर्वप्रथम संसार में चारों ओर अंधकार था। उस समय कोई धरती अथवा आकाश जीव-जंतु इत्यादि नहीं थे। ईश्वर अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसके एक हुकम के साथ ही यह धरती, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, पर्वत, दरिया, जंगल, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा फूल इत्यादि अस्तित्व में आ गए। इस प्रकार ईश्वर ने अपना रूपमान (प्रकट) किया। इन सब में उसकी रोशनी देखी जा सकती है। यह ईश्वर का सर्गुण स्वरूप है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बाजीगर जैसे बाजी पाई॥ नाना रूप भेख दिखलाई॥
सागु उतार थामिउ पसारा॥ तब ऐको एक ओ अंकारा॥

3. रचयिता, पालनकर्ता तथा नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)—ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और उसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना से पूर्व कोई धरती, आकाश नहीं थे तथा चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था। केवल ईश्वर का हुक्म (आदेश) चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके हुक्म के अनुसार ही संपूर्ण विश्व चलता है। ईश्वर ही सभी जीव-जंतुओं को रोजी-रोटी देता है तथा उनका पालनकर्ता है। ईश्वर की जब इच्छा हो तो वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

आपीन्है आपु साजिओ आपीन्है रचिओ नाउ॥
दुयी कुदरित साजीऐ करि आसणु डिठो चाउ॥
दाता करता आपि तूं तुसि देवहि करहि पसाउ॥
तूं जाणोई सभसै दे ले सहि जिंदु कवाउ॥
करि आसणु डिठो चाउ॥

4. सर्वशक्तिमान (Sovereign)—ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह जो चाहता है वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। वह अपनी शक्तियों के लिए किसी पर भी आश्रित नहीं है। उसे किसी भी सहायता की आवश्यकता नहीं। वह स्वयं सभी का सहारा है। उसकी सर्वशक्तिमानता के संबंध में गुरवाणी में अनेक स्थानों पर उदाहरण मिलते हैं। वह जब चाहे भिखारी को सिंहासन पर बिठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। धरती-आकाश तथा सभी जीव-जंतु उसके हुक्म का पालन करते हैं। संक्षेप में कोई भी ऐसा कार्य नहीं जिसे वह ईश्वर करने के योग्य न हो।

5. निराकार तथा सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)ईश्वर निराकार है। उसका कोई आकार अथवा रंग रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है। इसके बावजूद वह सर्वव्यापक है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान् है। उसे दिव्य दृष्टि से देखा जा सकता है। उसकी रोशनी सभी में मौजूद है। इसलिए वह सबके निकट है। उसे अपने से दूर न समझो। वह प्रत्येक स्थान पर मौजूद है। गुरु गोबिंद सिंह जी फरमाते हैं,

जलस तूही॥ थलस तूही॥ नदिस तूही॥ नदसु तूही॥
ब्रिछस तूही॥ पतस तूही॥ छितस तूही। उधरसु तूही॥

6. अमर (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान है। यह अस्थिर है। पर ईश्वर अमर है। वह आवागमन, जन्म-मृत्यु तथा समय आदि के चक्रों से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों-लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान् हैं किंतु ईश्वर नहीं।

7. महानता (Greatness)-गुरुवाणी में अनेक स्थानों पर ईश्वर की महानता का वर्णन मिलता है। संसार में उससे बड़ा दानी कोई और नहीं है। उसका धन भंडार इतना है कि बाँटने से भी खाली नहीं होता। वह मनुष्यों को अतुल्य ख़जाने से मालामाल कर सकता है। वह शरण आए महापापियों को क्षमा कर सकता है। उस ईश्वर की महानता के बारे में हज़ारों तथा लाखों भक्तों तथा संतों ने गुणगान किया है। फिर भी यह उसके गुणों के भंडार का एक छोटा-सा भाग ही है। वास्तव में उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसका ज्ञान, उसके उपहार, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महानता का ज्ञाता स्वयं है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

वडी वडिआई जा वडा नाउ॥
वडी वडिआई जा सचु निआउ॥
वडी वडिआई जा निहचल थाउ॥
वडी वडिआई जाणै आलाउ॥
वडी वडिआई बुझै सभि भाउ॥

8. न्यायशील (Just)—ईश्वर न्यायशील भी है। उसके दरबार में सभी को बिना किसी मतभेद के निष्पक्ष न्याय मिलता है। संसार के न्यायालयों में भ्रष्ट ढंग से अथवा उच्च पदों के अधिकारों का प्रयोग कर मनुष्य अपने पापों की सज़ा से बच सकता है, किंतु उस ईश्वर के न्यायालय में नहीं। वह मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों को भली-भांति जानता है। इसलिए उसे किसी पड़ताल की आवश्यकता नहीं। वहाँ केवल सच्चाई से निपटारा होता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 4.
नाम जपना, किरत करनी तथा बाँटकर छकना सिख धर्म के बुनियादी नियम हैं। व्याख्या करें।
(Remembering Divine Name, Honest Labour and Sharing With the Needy are the basis of the Sikh Way of Life. Discuss.)
अथवा
किरत करो, नाम जपो तथा बाँटकर छक्को के महत्त्व पर प्रकाश डालें। (Throw light on the importance of Kirat Karo, Nam Japo and Wand Chhako.)
अथवा
सिख धर्म में जीवन जाँच के निम्नलिखित आवश्यक अंश हैं—
(क) नाम जपना
(ख) किरत करना
(ग) बाँट कर छकना।
[Following are the necessary elements of life in Sikhism,
(a) Remembering Divine Name
(b) Honest Labour
(c) Sharing with the Others.]
अथवा
नाम जपना, किरत करना तथा बाँटकर छकना पर नोट लिखो।
(Write notes on the following : Nam Japna, Kirat-Karna, Wand Chhakna.)
उत्तर-
नाम जपना, किरत करनी तथा बाँटकर छकना सिख धर्म के तीन बुनियादी सिद्धांत हैं। इन्हें यदि सिख धर्म की संपूर्ण शिक्षा का सार कह दिया जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सिख धर्म में प्रत्येक सिख को अपना जीवन इन तीन सिद्धांतों के अनुसार व्यतीत करने की प्रेरणा दी गई है। इन सिद्धांतों से क्या भाव है तथा उनका क्या महत्त्व है इसका संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है :—

1. नाम जपना (Remembering Divine Name) सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

माउ तेरा निरंकारु है नाइं लइए नरकि न जाईए॥
गुरु तेग़ बहादुर जी फरमाते हैं,
गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीन॥
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास॥

2. किरत करनी (Honest Labour)-किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीवजंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता। ऐसा व्यक्ति वास्तव में उस परमात्मा के विरुद्ध गुनाह करता है। गुरु नानक देव जी स्वयं कृषि का कार्य करके अपनी किरत करते थे। उन्होंने सैदपुर में मलिक भागो का ब्रह्म भोज छकने की अपेक्षा भाई लालो की सूखी रोटी को खुशीखुशी स्वीकार किया। इसका कारण यह था कि भाई लालो एक सच्चा किरती था। सिखों के लिए कोई भी व्यवसाय करने पर प्रतिबंध नहीं। वह कृषि, व्यापार, दस्तकार, सेवा, नौकरी इत्यादि किसी भी व्यवसाय को अपना सकता है। किंतु उसके लिए चोरी, ठगी, डाका, धोखा, रिश्वत तथा पाप की कमाई करना सख्त मना है।

3. बाँट छकना (Sharing with the Needy)-सिख धर्म में बाँट छकने के सिद्धांत को काफी महत्त्व दिया गया है। बाँट छकने से भाव आवश्यक लोगों के साथ बाँटो। सिख धर्म खा कर पीछे बाँटने की नहीं अपितु पहले बाँटकर बाद में खाने की शिक्षा देता है। इसमें दूसरों को भी अपना भाई-बहन समझने तथा उन्हें पहले बाँटने की प्रेरणा दी गई है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

घालि खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राह पछाणे सेइ॥

दान देने अथवा बाँट के खाने के लिए केवल वही व्यक्ति सफल है जो श्रम की कमाई करके दान देता है। सिख धर्म में दसवंध देने का हुक्म है। इससे भाव यह है कि आप अपनी कमाई (आय) का दसवाँ हिस्सा लोक कल्याण कार्यों के लिए खर्च करें। गुरु अर्जुन देव जी ने कहा है,

ददा दाता एक है, सभ को देवनहारु॥
देदे तोटि न आवइ, अगनत भरे भंडार॥

प्रश्न 5.
सिख धर्म में संगत का महत्त्व दर्शाएँ।
(Explain the importance of Sangat in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार ‘संगत’ के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the Concept of Sangat in Sikhism.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

प्रश्न 6.
सिख धर्म में पंगत का महत्त्व दर्शाएँ।
(Explain the importance of Pangat in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म में पंगत के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the Concept of Pangat in Sikhism.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।

गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

प्रश्न 7.
सिख जीवनयापन की पद्धति में ‘संगत’ तथा ‘पंगत’ के महत्त्व के विषय में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of ‘Sangat’ and ‘Pangat’ in the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म में ‘संगत’ तथा ‘पंगत’ (पंक्ति) से क्या अभिप्राय है ? चर्चा कीजिए।
(What is meant by the Concept of ‘Sangat and Pangat’ in Sikhism ? Discuss.)
अथवा
सिख जीवन जाँच में संगत और पंगत के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the importance of Sangat and Pangat in Sikh Way of Life.) 14
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।
गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 8.
सिख धर्म में हवम संकल्प का वर्णन करें।
(Describe the Concept of Hukam in Sikhism.)
उत्तर-
हुक्म सिख दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण संकल्प है। हुक्म अरबी भाषा का शब्द है जिसके अर्थ है आज्ञा, फरमान अथवा आदेश। गुरुवाणी में अनेक स्थानों पर उस परमात्मा के हुक्म को मीठा करके मानने को कहा गया है। हुक्म से भाव उस परम विधान से है जिसके अनुसार संपूर्ण विश्व एक विशेष विधि के अनुसार कार्य कर रहा है।
गुरु नानक देव जी ‘जपुजी’ में लिखते हैं कि संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति परमात्मा के हुक्म के अनुसार हुई है। हुक्म के कारण ही जीव को प्रशंसा अथवा बदनामी मिलती है। हुक्म के कारण ही वह अच्छे-बुरे बनते हैं तथा दुःखसुख प्राप्त करते हैं। हुक्म के कारण वे पापों से मुक्त हो सकते हैं अथवा वे आवागमन के चक्र में भटकते रहते हैं। उसके हुक्म के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता। वास्तव में सृष्टि की सभी गतिविधियों दिन-रात, जल-धरती, वायु-अग्नि, चंद्रमा-सूर्य, लोक-परलोक पर उसका हुक्म चलता है। गुरु नानक देव जी फरमाते है,

हुकमै आवे हुकमै जाए॥
आगे पाछे हुकम समाए॥

संसार में उस मनुष्य का आना सफल है जिसने उस परमात्मा के हुक्म की पहचान की है। हुक्म को केवल वह मनुष्य पहचान सकता है जिसने हउमै का त्याग कर दिया हो तथा जि में उस परमात्मा के नाम का बसेरा हो। वह मनुष्य जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमगीन घटना को उस परमात्मा का हुक्म समझकर सहर्ष स्वीकार करता है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

जिउ जिउ तेरा हुकम तिवें तिउ हौवणा॥
जह जह रखै आप तह जाए खड़ोवणा॥

हुक्म की पहचान करने वाले मनुष्य पर उस परमात्मा की नदरि होती है। उसे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं होती क्योंकि वह जानता है कि जो कुछ घटित हो रहा है वह उस परमात्मा के अटल हुक्म के अनुसार ही हो रहा है। मनुष्य के अपने हाथों में कुछ भी नहीं है। ऐसे मनुष्य का मन सदैव शाँत रहता है तथा उसकी प्रत्येक प्रकार की तृष्णा समाप्त हो जाती है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

हुकमि मंनिए होवै परवाणु ता खसमै का महलु पाइसी॥
खसमै भावे सो करे मनहु चिंदिआ सो फलु पाइसी॥
ता दरगाह पैंधा जाइसी॥

जो व्यक्ति उस परमात्मा के हुक्म को नहीं मानते वे न केवल इस जन्म में घोर दुःखों का सामना करते हैं, अपितु आवागमन के चक्र में फंसे रहते हैं। उसके हुक्म की अवज्ञा करने वालों को यमदूतों से घोर मार (पिटाई) पड़ती है। ऐसे व्यक्तियों को कभी सुख नहीं मिलता तथा उनका इस संसार में आमा व्यर्थ जाता है। गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

मनमुख अंध करे चतुराई॥
भाणा न मने बहुत दुःख पाई॥
भरमे भूला आवै जावै॥

अत: गुरुवाणी में अपने हउमै का त्याग कर मनुष्य को उस परमात्मा के हुक्म की पालना करने का आदेश दिया गया है, क्योंकि उस परमात्मा का हुक्म अटल है इसलिए उसका पालन करने वाला व्यक्ति ही इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 9.
“अहं दीर्घ रोग है।” कैसे ? इसको दूर करने के क्या उपाय हैं ? (“‘Ego is a deep rooted disease.” How ? What are the means to remove it ?)
अथवा
सिख धर्म में ‘हउमै’ की अवधारणा का वर्णन करो।
(Describe the Concept of Ego in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। इस प्रकार उसका संसार बेटे, बेटियों, भाइयों, भतीजों, बहनों-बहनोइयों, मातापिता, सास-ससुर, जवाई, पति-पत्नी आदि के साथ संबंधित पास अथवा दूर की रिश्तेदारियों तक ही सीमित रहता है। यदि थोड़ी सी अपनत्व की डोर लंबी कर ली जाए तो इस निजी संसार में सज्जन-मित्र भी शामिल कर लिए जाते हैं। परंतु आखिर में इस संसार की सीमा निजी जान पहचान तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। इस निजी संसार की रचना के कारण मनुष्य में हउमै की भावना उत्पन्न होती है और वह अपने आपको इस आडंबर का मालिक समझने लगता है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता। हउमै के प्रभाव में जीव क्या-क्या करता है ? इसका उत्तर गुरु नानक देव जी देते हैं कि जीव के सारे कार्य हऊमै के बंधन में बंधे होते हैं। वह हउमै में जन्म लेता है, मरता है, देता है, लेता है, कमाता है, गंवाता है, कभी सच बोलता है और कभी झूठ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का हिसाब करता है, समझदारी और मूर्खता भी हउमै के तराजू में तौलता है। हउमै के कारण ही वह मुक्ति के सार को नहीं जान पाता। यदि वह हऊमै को जान ले तो उसे परमात्मा के दरबार के दर्शन हो सकते हैं। अज्ञानता के कारण मनुष्य झगड़ता है। कर्म के अनुसार ही लेख लिखे जाते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ॥
हउ विचि जंमिआ हउ विचि मुआ॥
हउ विचि दिता हउ विचि लइआ॥
हउ विचि खोटआ हउ विचि गइआ॥
हउ विचि सचिआरु. कूड़िआरु ॥
हउ विचि पाप पुनं वीचारु ॥
हउ विचि नरकि सुरगि अवतारु॥
हउ विचि हसे हउ विचि रोवै॥
हउ विचि भरीऐ हउ विचि धोवै॥
हउ विचि जाती जिनसी खोवै॥
हउ विचि मूरखु हउ विचि सिआणा॥
मोख मुकति की सार न जाणा॥
हउ विचि माइआ हउ विचि छाइआ॥
हउमै करि करि जंत उपाइया।
ह उमै बूझै ता दरु सूझै ॥
गिआन विहणा कथि कथि लूझै॥
नानक हुक मी लिखीए लेखु॥
जेहा वेखहि तेहा वेखु॥

हउमै के कारण मनुष्य के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। परिणामस्वरूप उसकी आत्मा दुःखी होती है। इसका मनुष्य को तब पता चलता है जब वह वृद्ध हो जाता है। उस समय मनुष्य की सभी इंद्रियां जवाब दे चुकी होती हैं। जिन्हें अपना मानकर उसने कई पाप किये होते हैं तथा जिन पर उसके कई अहसान होते हैं वे ही उससे मुख । मोड़ लेते हैं। परिणामस्वरूप उसे भारी आघात पहुँचता है तथा वह अपने किए पर पछताता है। परन्तु अब वह कुछ . करने योग्य नहीं रह जाता और उसे चारों तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आने लगता है।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-इलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले इसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्म मंथन करना, वैराग्य अपनाना, सेवा, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार, आदि ऐसे साधन हैं जिन पर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि॥
किरपा करे जे आपणी ता गुरु का सबदु कमाहि॥
नानकु कहै सुणहु जनहु इतु संजमि दुख जाहि॥

जब तक मनुष्य के अंदर हउमै है वह ‘नाम’ के महत्त्व को पहचान नहीं सकता और वह भक्त नहीं बन सकता। ये दोनों एक ही स्थान पर इकट्ठा नहीं रह सकते। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥
ह उमै सेव न होवई ता मन विरथा जाहि॥
हर चेत मन मेरे तु गुर का शब्द कमाहि ॥
हुकमि मनहि ता हरि मिले ता विचहु हउमै जाहि॥ रहाउ॥

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 10.
सिख धर्म में सिमरन का महत्त्व बयान करें। (Describe the importance of Simran in Sikhism.)
अथवा
सिमरन से क्या भाव है ? इसके क्या लाभ हैं ?
(What is meant by Simran ? What are its benefits ?)
अथवा
सिख धर्म के नाम के संकल्प पर नोट लिखें।
(Write a note on the Concept of Nam in Sikhism.)
उत्तर-
सिमरन अथवा नाम सिख दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है। गुरु ग्रंथ साहिब में नाम के गुणगान का वर्णन अनेक स्थानों पर किया गया है। उस ‘परमात्मा’ की प्राप्ति के लिए नाम ही सबसे बढ़िया साधन है। नाम की कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती क्योंकि यह बेअंत, अगम, अथाह तथा अमोलक है।
मनुष्य के पाँच शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार उसके व्यक्तित्व में नकारात्मक रुचियों को जन्म देते हैं। ये मनुष्य को उसके वास्तविक उद्देश्य से भटका कर उसे ऐश्वर्य, स्वाद तथा आनंद में मग्न रखते हैं। समय के साथ इन रुचियों के प्रति उत्साह कम हो जाता है। अतः इन्हें झूठ का प्रसार कहा जाता है। किंतु ये पाँच शत्रु मनुष्य के अंदर एक ऐसी अग्नि उत्पन्न करते हैं जिसमें अंततः वह भस्म हो जाता है। इस प्रकार संसार में उसका आना निष्फल हो जाता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

कूड़ि कूड़े नेह लगा विसरिआ करतारु॥
किसु नालि काचै दोसती सभु जगु चलणहारु ॥
कूड़ि मिठा कूड़ि माखिउ कूड़ि डोबे पुरु॥
नानकु वखाणे बेनती तुधु बाझ कूड़ो कुड़ि॥

नाम की आराधना के साथ जहां मन के दुर्भाव दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल भी हो जाता है। अतः मनुष्य के शारीरिक कष्ट भी दूर हो जाते हैं। वास्तव में नाम के जाप द्वारा व्यक्ति उस ऊँची अवस्था में पहुँच जाता है जहाँ उसे शारीरिक भूख तथा संसार के साथ लगाव नहीं रहता। नाम सिमरनि के साथ कई जन्मों की मन को लगी मैल उतर जाती है। मनुष्य के सभी दुःखों का नाश हो जाता है। उसके सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। आत्मा पर पड़ा माया का पर्दा हट जाता है तथा वह अपने वास्तविक रूप में प्रगट हो जाती है। अत: गुरुवाणी में मनुष्य को प्रत्येक प्रकार की चतुराई को त्याग कर उस परमात्मा के नाम का सहारा लेने पर बल दिया गया है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै।
प्रभ कै सिमरनि दुख जम् नसै॥
प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै॥
प्रभ कै सिमरनि दुश्मनु टरै ॥
प्रभ सिमरनि कछु विघन न लगै॥
प्रभ के सिमरनि अनदिन जागै॥
प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै॥
प्रभ के सिमरनि दुखु न संतापै।।
प्रभ कै सिमरनि साध के संगि॥
सरब निधान नानक हरि रंगि॥

उस परमात्मा के नाम का जाप करने वाला मनुष्य कभी भी किसी पर बोझ नहीं बनता। उसके सभी कार्य स्वयं होते चले जाते हैं क्योंकि परमात्मा स्वयं उसके कार्यों में सहायक होता है। नाम का जाप करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कंवल के फूल की भांति रहती है। वह जीव इस भवसागर से तर जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। परमात्मा के दरबार में ऐसे मनुष्य उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु॥
सणिणे अठसठि का इसनानु॥
सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु॥
सुणिए लागै सहजि धिआनु॥
नानक भगता सदा विगासु॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु॥

उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि (कृपा) हो। नाम के जाप के लिए मन को नियंत्रण में रखना, हउमै को दूर करना, नम्रता तथा सेवा आदि गुणों को धारण करना आवश्यक है। अतः नाम के जाप को गुरुवाणी में एक जीवन जाँच कहा गया है।
नाम के जाप के बिना मानव जीवन धिक्कार है। ऐसा मानव एक गधे की भांति मों जैसी बातें करता है। वह घोर कष्ट सहन करता है। वे यमलोक में जाते हैं। उन्हें यमदूतों की मार से कोई नहीं बचा सकता। उनके मुख भयावह लगते हैं। ऐसे निम्न मनुष्य का संसार में आना व्यर्थ है। फरीद जी फरमाते हैं,

फरीदा तिना मुख डरावणै जिना विसारिउ नाउ॥
ऐथे दुःख घणेरिआ अगै ठउर न ठाऊ ॥

गुरु तेग बहादुर जी फरमाते हैं कि आवागमन के चक्र में घूमते अनेक युगों के पश्चात् मानव का जीवन प्राप्त हुआ है। इस जन्म में अब परमात्मा से मिलाप की बारी है तो हे मानव तुम उस परमात्मा का नाम क्यों नहीं जपते ?

फिरत-फिरत बहुते युग हारिओ मानस देह लही॥
नानक कहत मिलन की बरिआ सिमरत कहा नहीं॥

प्रश्न 11.
सिख धर्म में ‘गुरु’ का क्या महत्त्व है ? वर्णन करें। (What is the importance of ‘Guru’ in Sikhism ? Explain.)
उत्तर-
सिख धर्म में गुरु को विशेष महत्त्व प्राप्त है। सच्चे गुरु की शक्ति अपार है। वह लंगड़ों को पर्वत पर चढ़ने की शक्ति प्रदान कर सकता है। वह अन्धों को त्रिलोक के दर्शन करवा सकता है। वह कीड़ी को हाथी जैसा बल दे सकता है। वह घोर अहंकारी को नम्रता का पुजारी बना सकता है। वह कंगाल को लखपति तथा लखपति को कंगाल बना सकता है। वह मुर्दे को जीवित कर सकता है। वह डूबते हुए पत्थरों को तैरा सकता है भाव वह हर असम्भव कार्य को सम्भव बना सकता है। गुरु बेसहारों का सहारा, अनाथों का नाथ तथा सदैव साथ रहने वाला है। वह मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले कर आता है। उसके बिना विश्व में फैले अज्ञानता के अंधकार को सहस्रों चंद्रमा तथा हज़ारों सूर्यों का प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता। गुरु अंगद देव जी फरमाते हैं,

जे सउ चंदा उगवहि सूरज चडहि हजार॥
एते चानण होदिआं गुरु बिन घोर अंधार॥

गुरु की पारस छोह मनुष्य को दैवी गुणों से भरपूर कर सकती है। गुरु का नाम लेने से विष अमृत बन जाता है। वह मनुष्य के मन में उत्पन्न कई जन्मों की मैल को पलक झपकते ही दूर कर सकता है। उसके मिलाप के साथ जीवन में प्रसन्नता आ जाती है तथा मन पर स्वयं नियंत्रण हो जाता है। मनुष्य के सभी कार्य अपने आप सफल हो जाते हैं। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

लख खुशीयां पातशाहीयां जे सतगुरु नदरि करे॥
निमख एक हर नामि दे मेरा मन तन सीतल होय॥

सिख धर्म में देहधारी गुरु पर विश्वास नहीं किया जाता क्योंकि वह सर्व कला संपूर्ण नहीं हो सकता। सच्चा गुरु परमात्मा स्वयं है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

आपे करता पुरुख विधाता॥ जिन आपे आप उपाए पछाता॥
आपे सतिगुरु आपे सेवक आपे सृष्टि उपाई है ॥

सच्चा गुरु एक ऐसा पुरुष है जिसके सामने चुगली एवं प्रशंसा एक जैसे होते हैं। उसका हृदय ब्रह्म ज्ञान का भंडार होता है। वास्तव में वह उस परमात्मा की सभी शक्तियों का स्वामी होता है। वह आत्मिक रूप से इतना ऊँचा होता है कि उसका अंत नहीं पाया जा सकता। वास्तव में सच्चे गुरु के अंदर परमात्मा के सभी गुण मौजूद होते हैं। इसी कारण सच्चे गुरु से मिलन मनुष्य के जीवन की काया पलट सकता है।
सच्चे गुरु का एक लक्षण यह भी है कि वह अपनी पूजा कभी नहीं करवाता क्योंकि उसे किसी प्रकार का कोई लालच नहीं होता। वह सदैव निरवैर रहता है। दोस्त तथा दुश्मन उसके लिए एक हैं। अगर कोई आलोचक भी उसकी शरण में आ जाए तो वह उसे भी माफ कर देता है। इसके अतिरिक्त वह कभी भी किसी का बुरा नहीं चाहता। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

सतिगुरु मेरा सदा सदा न आवे न जाए॥
उह अविनासी पुरुख है सब महि रिहा समाए॥

अज्ञानी गुरु के मिलाप से कभी भी जीवन के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह स्वयं अज्ञानता के अंधकार में भटक रहा होता है। सच्चे गुरु के साथ मिलाप तभी संभव है अगर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो। उसे शब्द के द्वारा जाना जा सकता है।

प्रश्न 12.
सिख धर्म में ‘कीर्तन’ संकल्प का वर्णन करें। (Discuss the Concept of ‘Kirtan’ in Sikhism.)
उत्तर-
सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है।
सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। उन्होंने अपनी यात्राओं के समय भाई मर्दाना जी को साथ रखा जो कीर्तन के समय रबाब बजाता था। गुरु नानक देव जी कीर्तन करते हुए अपने श्रद्धालुओं के मनों पर जादुई प्रभाव डालते थे। परिणामस्वरूप न केवल सामान्यजन अपितु सज्जन ठग, कोड्डा राक्षस, नूरशाही जादूगरनी, हमजा गौस तथा वली कंधारी जैसे कठोर स्वभाव के व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना न रह सके एवं आपके शिष्य बन गए। कीर्तन की इस प्रथा को शेष 9 गुरुओं ने भी जारी रखा। गुरु हरगोबिंद साहिब ने कीर्तन में वीर रस उत्पन्न करने के उद्देश्य से ढाडी प्रथा को प्रचलित किया।

प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है। इससे मनुष्य का सोया हुआ मन जाग उठता है, उसके दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं एवं कई जन्मों की मैल दूर हो जाती है। वह हरि नाम में लीन हो जाता है। मानव का मन निर्मल हो जाता है। उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठती है तथा उसका लोकपरलोक सफल हो जाता है। इस कारण कीर्तन को निरमोलक (अमूल्य) हीरा कहा जाता है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुरु दुआरे हरि कीर्तन सुणिए॥
सतिगुरु भेटि हरि जसु मुख भणिए।
कलि क्लेश मिटाए सतगुरु ॥
हरि दरगाह देवे माना है ॥

कीर्तन का गायन करने से अथवा इसके सुनने का सम्मान केवल उन मनुष्यों को प्राप्त होता है जिस पर उस परमात्मा की मिहर हो। उसकी मिहर के बिना न तो मानव को सांसारिक कार्यों से समय मिलता है तथा यद्यपि वह कभी कीर्तन में सम्मिलित भी होता है तो उसका मन नहीं लगता। कीर्तन से मनुष्य के सभी प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

हरि दिन रैन कीर्तन गाइए॥
बहु र न जौनी पाइए॥

प्रश्न 13.
सिख जीवनचर्या में सेवा की भूमिका के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the role of Seva in the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म में ‘सेवा’ के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
(Discuss the importance of ‘Seva’ in Sikhism.)
अथवा
सिख जीवन जाच में सेवा का महत्त्व दर्शाइए।
(Describe the importance of Sewa (Service) in Sikh way of life.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, पानी पिलाना, लंगर आदि ही संमिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को अपनी हउमै का त्याग कर परमात्मा को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। सेवा संबंधी गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

तेरी सेवा सो करहे जिस न लैहि तू लाई॥
बिनु सेवा किन्हें न पाइआ दूजे भरम खुआई॥

सिख इतिहास में अनेकों ऐसी उदाहरणें हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जिसने सेवा की वह गुरु घर का स्वामी बन गया, किंतु जिसमें हउमै आ गई उसे कुछ प्राप्त न हुआ। भाई लहणा जी द्वारा की गई गुरु नानक देव जी की अथक सेवा के कारण ही उन्हें गुरु अंगद का सम्मान प्राप्त हुआ! अमरदास जी यद्यपि आयु में बहुत बड़े थे किंतु फिर भी उन्होंने गुरु अंगद देव जी की इतनी सेवा की कि उन्हें न केवल गुरुगद्दी ही सौंपी गई अपितु उन्हें “निथावियाँ दी थां” (भाव जिसका कोई आश्रय नहीं है उनका सहारा) कह कर सम्मानित किया गया। दूसरी ओर श्रीचंद, दातू एवं दासू, पृथी चंद इत्यादि गुरु साहिबान के पुत्र होने के बावजूद सेवा के बिना गुरुगद्दी से वंचित रहे। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
मन बेचे सतिगुरु के पास ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निह कामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

मानव सेवा को ही उस परमात्मा की सेवा का सर्वोत्तम रूप समझा गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के समय लड़ी गई आनंदपुर की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों की बिना किसी भेदभाव के जल सेवा की तथा उनके जख्मों पर मरहम-पट्टी की। पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते हैं। भाई कन्हैया जी द्वारा यह सच्ची भावना से की गई सेवा आज भी सिखों के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य कर रही है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

आप गवाहि सेवा करे ता किछ पाए मानु॥
नानक जिस नो लगा तिस मिलै लगा सो परवानु॥

गुरमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरंतर भाग है। यह एक दिन अथवा दो दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अंदर झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 14.
सिख जीवन जाच के अनुसार सेवा और सिमरन का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें।
(As per Sikh Way of Life what is the importance of Seva and Simarn? Elucidate.)
अथवा
सिख जीवन जाच में सेवा व सिमरन का महत्त्व दर्शाएं।
(Describe the importance of Seva and Simran in Sikhism.).
उत्तर-
उत्तर-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, पानी पिलाना, लंगर आदि ही संमिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को अपनी हउमै का त्याग कर परमात्मा को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। सेवा संबंधी गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

तेरी सेवा सो करहे जिस न लैहि तू लाई॥
बिनु सेवा किन्हें न पाइआ दूजे भरम खुआई॥

सिख इतिहास में अनेकों ऐसी उदाहरणें हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जिसने सेवा की वह गुरु घर का स्वामी बन गया, किंतु जिसमें हउमै आ गई उसे कुछ प्राप्त न हुआ। भाई लहणा जी द्वारा की गई गुरु नानक देव जी की अथक सेवा के कारण ही उन्हें गुरु अंगद का सम्मान प्राप्त हुआ! अमरदास जी यद्यपि आयु में बहुत बड़े थे किंतु फिर भी उन्होंने गुरु अंगद देव जी की इतनी सेवा की कि उन्हें न केवल गुरुगद्दी ही सौंपी गई अपितु उन्हें “निथावियाँ दी थां” (भाव जिसका कोई आश्रय नहीं है उनका सहारा) कह कर सम्मानित किया गया। दूसरी ओर श्रीचंद, दातू एवं दासू, पृथी चंद इत्यादि गुरु साहिबान के पुत्र होने के बावजूद सेवा के बिना गुरुगद्दी से वंचित रहे। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
मन बेचे सतिगुरु के पास ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निह कामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

मानव सेवा को ही उस परमात्मा की सेवा का सर्वोत्तम रूप समझा गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के समय लड़ी गई आनंदपुर की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों की बिना किसी भेदभाव के जल सेवा की तथा उनके जख्मों पर मरहम-पट्टी की। पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते हैं। भाई कन्हैया जी द्वारा यह सच्ची भावना से की गई सेवा आज भी सिखों के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य कर रही है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

आप गवाहि सेवा करे ता किछ पाए मानु॥
नानक जिस नो लगा तिस मिलै लगा सो परवानु॥

गुरमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरंतर भाग है। यह एक दिन अथवा दो दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अंदर झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित सिख जीवन के सिद्धांतों के ऊपर नोट लिखो :
(क) हउमै
(ख) सेवा
(ग) जात-पात।
[Write brief notes on the following Principles of Sikh Way of Life :
(a) Humai (Ego)
(b) Seva (Service)
(c) Jat-Pat (Caste)]
उत्तर-
(क) हउमै (Haumai)-सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

(ख) सेवा (Seva)-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

(ग) जात-पात (Caste)-गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रश्न 16.
सिख धर्म में भाईचारा की अवधारणा’ के विषय में चर्चा कीजिए। (Discuss the Concept of ‘Brotherhood’ in Sikhism.)
उत्तर-
उत्तर-संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।
गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

जात-पात (Caste)-गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 17.
निम्नलिखित पर नोट लिखो :
(1) हउमै
(2) गुरु
(3) जप
(4) सेवा।
[Write note on the following :
(1) Egoity
(2) Guru
(3) Jap
(4) Seva.]
उत्तर-
हउमै (Haumai)-सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

2. गुरु (Guru)-सिख दर्शन में गुरु को विशेष स्थान प्राप्त है। सिख गुरु साहिबान परमात्मा तक पहुंचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वह ही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

बिनु सतिगुरु किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।
सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ॥
सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ॥
उतमु एह बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥
जग जीवनु दाता पाइआ॥

3. नाम जपना (Remembering Divine Name) सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

माउ तेरा निरंकारु है नाइं लइए नरकि न जाईए॥
गुरु तेग़ बहादुर जी फरमाते हैं,
गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीन॥
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास॥

4. सेवा (Seva)-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

प्रश्न 18.
सिख धर्म के निम्न संकल्पों के बारे में जानकारी दें।
(क) हउमै
(ख) सेवा
(ग) गुरु
[Write about the following concepts.
(a) Haumai
(b) Sava (Service)
(c) Guru.]
उत्तर-
(क) हउमै (Haumai)—सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

(ख) सेवा (Seva)—सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

(ग) गुरु (Guru)—सिख दर्शन में गुरु को विशेष स्थान प्राप्त है। सिख गुरु साहिबान परमात्मा तक पहुंचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वह ही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

बिनु सतिगुरु किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।
सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ॥
सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ॥
उतमु एह बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥
जग जीवनु दाता पाइआ॥

प्रश्न 19.
अमृत संस्कार के बारे में विस्तृत जानकारी दीजिए। (Give a detail account of Amrit Ceremony.)
उत्तर-
सिख पंथ में अमृत को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अमृत छकाने की रस्म शुरू गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। इस प्रथा को चरनअमृत कहा जाता था। यह प्रथा गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तक जारी रही।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस प्रथा को बदल दिया तथा खंडे की पाहुल (अमृत) नामक प्रथा का प्रचलन किया। अमृतपान करना प्रत्येक सिख के लिए आवश्यक है। जो सिख अमृतपान नहीं करता वह सिख कहलाने के योग्य नहीं है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर ने अमृत छकने के लिए निम्नलिखित विधि निर्धारत की है।

(क) अमृत संचार करने के लिए एक खास स्थान पर प्रबंध हो। वहां पर आम रास्ता न हो।
(ख) वहां पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश हो। कम-से-कम छ: तैयार-बर-तैयार सिंह हाज़िर हों जिनमें से एक ताबिया (गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी) और बाकी पाँच अमृतपान करवाने के लिए हों! इनमें सिंहणियाँ भी हो सकती हैं। इन सब ने केश-स्नान किया हो।
(ग) इन पाँच प्यारों में कोई अंगहीन (अँधा, काना, लँगड़ा-लूला) या दीर्घ रोग वाला न हो। कोई तनखाहिया (दंडनीय) न हो। सारे तैयार-बर-तैयार दर्शनी सिंह हों।
(घ) हर देश, हर मज़हब व जाति के हर एक स्त्री-पुरुष को अमृतपान करने का अधिकार है, जो सिख धर्म ग्रहण करे व उसके असलों पर चलने का प्रण करे।
बहुत छोटी अवस्था न हो, होश सभाली हो, अमृतपान करते समय हर एक प्राणी ने केश स्नान किया हो और हर एक पाँच ककार (केश, कृपाण (गातरे वाली) कछैहिरा, कंघा, कड़ा) का धारणकर्ता हो। पराधर्म का कोई चिन्ह न हो। सिर नंगा या टोपी न हो। छेदक गहने कोई न हों। अदब से हाथ जोड़कर श्री गुरु जी के हजूर खड़े हों।
(ङ) यदि किसी ने कुरहित करने के कारण पुनः अमृतपान करना हो तो उसको अलग करके संगत में पाँच प्यारे तनखाह (दंड) लगा लें।
(च) अमृतपान करवाने वाले पाँच प्यारों में से कोई एक सज्जन अमृतपान के अभिलाषियों को सिख धर्म के असूल समझाए।
सिख धर्म में कृतम की पूजा त्याग कर एक करतार की प्रेमाभक्ति व उपासना बताई गई है। इसकी पूर्णता के लिए गुरबाणी का अभ्यास, साध-संगत तथा पंथ की सेवा, उपकार, नाम का प्रेम और अमृतपान करके रहित-बहित रखना मुख्य साधन हैं, आदि। क्या आप इस धर्म को खुशी से स्वीकार करते हो ?
(छ) ‘हाँ’ का उत्तर आने पर प्यारों में से एक सज्जन अमृत की तैयारी का अरदासा करके ‘हुक्म’ ले। पाँच प्यारे अमृत तैयार करने के लिए बाटे के पास आ बैठे।
(ज) बाटा सर्वलौह का हो और चौकी, सुनहिरे आदि किसी स्वच्छ वस्त्र पर रखे हों।
(झ) बाटे में स्वच्छ जल व पतासे डाले जायें और पाँच प्यारे बाटे के इर्द-गिर्द बीर आसन लगा कर बैठ जायें।
(ट) और इन बाणियों का पाठ करें : जपुजी साहिब, जापु साहिब, १० सवैये (स्त्रावग सुध वाले) बेनती चौपई (‘हमरी करो हाथ दै रछा’ से ले कर ‘दुष्ट दोख ते लेहु बचाई’ तक), अनंदु साहिब।
(ठ) हर एक बाणी पढ़ने वाला बाँया हाथ बाटे के किनारे पर रखें और दायें हाथ से खंडा जल में फेरते जाये। सुरति एकाग्र हो। अन्य के दोनों हाथ बाटे के किनारे पर और ध्यान अमृत की ओर टिके।
(ड) पाठ होने के बाद प्यारों में से कोई एक अरदास करे।
(ढ) जिस अभिलाषी में अमृत की तैयारी के समय सारे संस्कारों में हिस्सा लिया है, वही अमृतपान करने में शामिल हो सकता है। बीच में आने वाला शामिल नहीं हो सकता।
(ण) अब श्री कलगीधर दशमेश पिता का ध्यान कर के हर एक अमृतपान करने वाले को बीर आसन करवा कर उसके बाँयें हाथ पर दायाँ हाथ रख कर,

1. बीर आसन : दायाँ घुटना ज़मीन पर रख कर दाईं टाँग का भार पैर पर रख कर बैठना और बायाँ घुटना ऊँचा करके रखना।
पाँच चुल्ले अमृत के छकाये (सेवन) जायें और हर चुल्ले के साथ यह कहा जाये—

‘बोल वाहिगुरु जी का खालसा’ वाहिगुरू जी की फतेह।’

अमृत छकने वाला अमृत छक कर कहे ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’, फिर पाँच छींटे अमृत के नेत्रों पर किए जायें, फिर पाँच छींटे केशों में डाले जायें। हर एक छीटें के साथ छकने वाला छकाने वाले के पीछे ‘वाहिगुरु जी का खालसा वाहिगुरु जी की फतेह’ गजाता जाये। जो अमृत बाकी रहे, उसको सारे अमृत छकने वाले (सिख तथा सिखनियाँ) मिल कर छकें।
(प) उपरांत पाँचों प्यारे मिल कर, एक आवाज़ से अमृत पान करने वालों को ‘वाहिगुरु’ गुरमंत्र बताकर, मूल मंत्र सुनायें और उनसे इसका रटन करवायें।

१ओंकार सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु,
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि॥

(फ) फिर पाँच प्यारों में से कोई रहित बतावे-आज से आपने सतिगुर के जनमे गवनु मिटाइआ है और खालसा पंथ में शामिल हुए हो। तुम्हारा धार्मिक पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी तथा धार्मिक माता साहिब कौर जी हैं। जन्म आपका केसगढ़ साहिब का है तथा वासी आनंदपुर साहिब की है। तुम एक पिता के पुत्र होने के नाते आपस में और अन्य सारे अमृतधारियों के धार्मिक भ्राता हो। तुम पिछली कुल, कर्म, धर्म का त्याग करके अर्थात् पिछली जात-पात, जन्म, देश, मज़हब का विचार तक छोड़कर, निरोल खालसा बन गये हो। एक अकालपुरुख के अतिरिक्त किसी देवी-देवता, अवतार, पैगंबर की उपासना नहीं करनी। दस गुरु साहिबान को तथा उनकी बाणी के बिना और किसी को अपना मुक्तिदाता नहीं मानना। आप गुरमुखी जानते हो (यदि नहीं जानते तो सीख लो) और हर रोज़ कम से कम इन नितनेम की बाणियों का पाठ करना या सुनना जपुजी साहिब, जापु साहिब, 10 सवैये (स्रावग सुद्य वाले) सोदर रहरासि तथा सोहिला श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ करना या सुनना, पाँच ककारों-केश, कृपाण, कछैहरा, कंघा, कड़ा को हर समय अंग संग रखना।
ये चार कुरहितें (विवर्जन) नहीं करने :

  1. शों का अपमान
  2. कुट्ठा खाना।
  3. परस्त्री या परपुरुष का गमन (भोगना)।
  4. तम्बाकू का प्रयोग।

इनमें से कोई कुरहित हो जाये तो फिर अमृतपान करना होगा। अपनी इच्छा के विरुद्ध अभूल हुई कोई कुरहित हो जाये तो कोई दंड नहीं। सिरगम नडी मार (जो सिख होकर यह काम करें) का संग नहीं करना। पंथ सेवा और गुरुद्वारों की टहल सेवा में तत्पर रहना, अपनी कमाई में से गुरु का दसवां (दशांश) देना आदि सारे काम गुरमति अनुसार करने
हैं।
खालसा धर्म के नियमानुसार जत्थेबंदी में एकसूत्र पिरोये रहना, रहित में कोई भूल हो जाये तो खालसे के दीवान में हाज़र हो कर विनती करके तन्ह (दंड) माफ़ करवाना, भविष्य के लिए सावधान रहना।
तनखाहिये (दंड के भागी) ये हैं :

  1. मीणे मसंद, धीरमलिये, रामराइये आदि पंथ विरोधियों या नड़ीमार, कुड़ीमार, सिरगुंम के संग मेल-मिलाप करने वाला तनखाहिया (दंड का भागी) हो जाता है।
  2. गैर-अमृतिये या पतित का जूठा खाने वाला।
  3. दाहड़ा रंगने वाला।
  4. पुत्र या पुत्री का रिश्ता मोल लेकर/देकर करने वाला।
  5. कोई नशा (भाँग, अफ़ीम, शराब, पोस्त, कुकीन आदि) का प्रयोग करने वाला।
  6. गुरमति के विरुद्ध कोई संस्कार करने करवाने वाला।
  7. रहित में कोई भूल करने वाला।

यह शिक्षा देने के उपरांत पाँच प्यारों में सो कोई सज्जन अरदासा करे। फिर गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी बैठा सिंह “हुक्म” ले। जिन्होंने अमृतपान किया है, उनमें से यदि किसी का नाम पहले श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी से नहीं था रखा हुआ, उसका नाम अब बदल कर रखा जाये।
अंत में कड़ाह प्रसाद बाँटा जाये। जहाज़ चढ़े सारे सिंह व सिंहणियां एक ही बाटे में से कड़ाह प्रसाद मिलकर सेवन करें।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 20.
सिख धर्म में अरदास का महत्त्व बयान करें।
[Explain the significance of the Ardaas (Prayer) in Sikhism.]
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है।
सिख धर्म में अरदास की परम्परा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। गुरु अर्जन देव जी के समय अरदास आदि ग्रंथ साहिब के सम्मुख करने की प्रथा आरंभ हुई। गुरु गोबिंद सिंह जी ने संगत के रूप में की जाती अरदास का प्रारंभ किया। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है। सिख इतिहास में इस संबंधी अनेकों उदाहरणें मिलती हैं। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

जो मांगे ठाकुर अपने ते सोई सोई देवे॥
नानक दास मुख ते जो बोले इहा उहा सच होवे॥

अरदास करते समय यदि गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश हो तो संपूर्ण संगत का मुख उस ओर होना चाहिए। यदि प्रकाश न हो तो किसी भी दिशा की ओर मुख करके अरदास की जा सकती है। अरदास करते समय मन की एकाग्रता का होना अति आवश्यक है। यदि हमारा ध्यान अरदास में नहीं तो चाहे हम हाथ जोड़ के खड़े हों उसका कोई लाभ नहीं। इसलिए अरदास में सम्मिलित होने वाली संगत को सावधान करने के लिए अरदास करने वाले भाई जी बार-बार यह कहते हैं “ध्यान करके बोलो जी वाहिगुरु'” संपूर्ण संगत उच्चे स्वर में “वाहिगुरु” का उच्चारण करती है। कीर्तन अथवा दीवान की समाप्ति के समय संपूर्ण संगत खड़ी होती है। यदि अरदास किसी विशेष उद्देश्य जैसे नामकरण, मंगनी एवं विवाह इत्यादि के लिए हो तो सम्पूर्ण संगत बैठी रहती है तथा संबंधित प्राणी ही खड़े होते हैं।

सिख धर्म में अरदास का आश्रय प्रत्येक सिख अवश्य लेता है। अरदास के मुख्य विषय यह हैं (1) उस परमात्मा के शुक्राने के तौर पर अरदास (2) नाम के लिए अरदास (3) वाणी की प्राप्ति के लिए अरदास (4) पापों का नाश करने के लिए अरदास (5) अपने पापों को बख्शाने के लिए अरदास (6) बच्चे के जन्म के शुक्राने के तौर पर की गई अरदास (7) बच्चे के नाम संस्कार के समय अरदास (8) बच्चे की शिक्षा आरंभ करते समय अरदास (9) मंगनी अथवा विवाह की अरदास (10) बच्चे की प्राप्ति के लिए अरदास (11) कुशल स्वास्थ्य के लिए अरदास (12) भाणा (हुक्म) मानने के लिए अरदास (13) यात्रा आरंभ करने के लिए अरदास (14) नया व्यवसाय आरंभ करते समय अरदास (15) नये घर में प्रवेश करते समय अरदास (16) नितनेम के पश्चात् अरदास (17) कीर्तन अथवा दीवान समाप्ति के पश्चात् अरदास (18) अमृतपान करवाते समय की गई अरदास (19) धर्म युद्ध आरंभ करते समय अरदास (20) परमात्मा से मिलन के लिए अरदास । गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

कीता लोडीए कम सो हर पहि आखिए॥
कारज देहि सवारि सतगुरु सच साखिए॥

संक्षेप में जीवन के प्रत्येक मोड़ पर अरदास का आश्रय लिया जाता है। विद्यार्थियों की जानकारी के लिए यहां शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा मान्यता प्राप्त अरदास का स्वरूप दिया जा रहा है :—
अरदास

१ओंकार वाहिगुरु जी की फतहि ॥
श्री भगौती जी सहाइ॥
वार श्री भगौती जी की पातशाही १०॥

प्रिथम भगौती सिमरि कै गुरु नानक लई धिआइ।
फिर अंगद गुर ते अमरदासु रामदासै होईं सहाइ।
अरजन हरगोबिंद नो सिमरौ श्री हरिराय।
श्री हरिक्रिशन धिआईऐ जिस डिठे सभि दुखि जाइ।
तेग़ बहादर सिमरिऐ घर नउ निधि आवै धाइ।
सभ थाईं होई सहाइ।
दसवें पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी !
सब थाईं होई सहाइ। ,
दसां पातशाहीयां की ज्योति स्वरूप श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के
पाठ दीदार का ध्यान धर कर बोलो जी वाहिगुरु!
पाँच प्यारों, चार साहिबजादों, चालीस मुक्तों,
हठियों, जपियों, तपियों जिन्होंने नाम जपा,
बांट खाया, देग चलाई, तेग वाही, देख कर अनडिठ किया,
तिनां प्यारियां सचिआरियां दी कमाई दा ध्यान धर कर
खालसा जी! बोलो जी वाहिगुरु !
जिन सिंह सिंहनियों ने धर्म हेतु सीस दिये,
अंग अंग कटवाए, खोपड़िआँ उतरवाईं, चर्खियों पर चढ़ाए गये,
आरों से तन चिरवाए,
गुरुद्वारों के सुधार और पवित्रता के निमित्त शहीद हुए, धर्म नहीं छोड़ा, सिख धर्म का केशों तथा
प्राणों सहित पालन किया,
उनकी कमाई का
ध्यान धर कर खालसा जी ! बोलो वाहिगुरु !
पाँचों तखतों, समूह गुरद्वारों का
ध्यान धर कर बोलो जी वाहिगुरु!
प्रथमे सरबत खालसा जी की अरदास है जी
सरबत खालसा जी को वाहिगुरु, वाहिगुरु,
वाहिगुरु चित आवे, चित आवन से
सर्व सुख हो, जहाँ जहाँ खालसा जी साहिब,
तहाँ तहाँ रक्षा रिआइत, देग तेग फतहि,
बिरद की लाज, पंथ की जीत, श्री साहिब जी सहाय,
खालसा जी का बोल बाले, बोलो जी वाहिगुरु!!!
सिखों को सिखी दान, केश दान, रहित दान,
विवेक दान, विसाह दान, भरोसा दान, दानों के सिर दान,
नाम दान, श्री अमृतसर जी के स्नान,
चोंकियाँ, झंडे, बुंगे जुगो जुग अट्टल, धर्म का जयकार
बोलो जी वाहिगुरु !!!
सिखों का मन नीवां, मति ऊची, मति का राखा आप
वाहिगुरु, हे अकाल पुरख! अपने पंथ
के सदा सहाई दातार जी! श्री ननकाणा साहिब तथा
और गुरुद्वारों, गुरधामों के, जिन से पंथ
को विछोड़ा गया है, खले दर्शन दीदार और
सेवा संभाल का दान खालसा जी को बख्शो।
हे नि:मानो के मान, निःताणो के ताण,
निःओटों की ओट, निरासरयों के आश्रय, सच्चे पिता वाहिगुरु !
आप की सेवा में …………… * की अरदास है।
अक्षर मात्रादि भूल चूक क्षमा करना,
सब दे कारज रास करने,
सेई प्यारे मेल, जिनां मिलियां,
तेरा नाम चित आवे।
नानक नाम चढ़दी कला॥
तेरे भाणे सरबत दा भला॥

अरदास का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। इसे पढ़ कर व्यक्ति की आत्मा प्रसन्न हो जाती है। अरदास यद्यपि छोटी है पर इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। वास्तव में यह गागर में सागर भरने वाली बात है। इससे हमें उस परमात्मा की भक्ति, सेवा, कुर्बानी तथा मानवता की भलाई के लिए कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। इससे मन शुद्ध होता है। मनुष्य की हउमै दूर होती है। उसके सभी दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं। मन पर पड़ी अनेक जन्मों की मैल दूर हो जाती है। मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। इस प्रकार अरदास उस परमात्मा से मिलन का एक संपूर्ण साधन है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

जा के वस खान सुलतान ॥
जा के वस हे सगल जहान ॥
जा का किया सब किछ होए ॥
तिस ते बाहर नाही कोए ॥
कहो बेनती अपने सतगुरु पास ॥
काज तुमारे देहि निभाए ॥ रहाउ॥

*यहां उस बाणी का नाम लें, जो पढ़ी है, अथवा जिस कार्य के लिए इकट्ठ या संगत एकत्र हुई हो, उसका उल्लेख उचित शब्दों में कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain in brief the Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिख जीवन जाच में दर्शाए गए संस्कारों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief Sanskaras as depicted in Sikh Way of-Life.)
उत्तर-

  1. एक अकाल पुरख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दाता केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।

प्रश्न 2.
मूलमंत्र की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain the brief the Mul Mantra.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं-एक ओ अंकार सतिनामु करता पुरुखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि॥ जापु॥ इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह हैं-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) की कोई चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [Describe any four features of Akal Purkh (God) in Sikhism.]
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया।
  2. ईश्वर ही संसार को रचने वाला, पालने वाला तथा नाश करने वाला है।
  3. ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी।
  4. ईश्वर आवागमन के चक्र से मुक्त है।

प्रश्न 4.
सिख धर्म में नाम जपने का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Remembering Divine Name in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है।

प्रश्न 5.
किरत करने से क्या अभिप्राय है ? (What is the meaning of Honest Labour ?)
उत्तर-
किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीव-जंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता।

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प्रश्न 6.
सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Sangat in Sikhism ?)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संग्रत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ? चर्चा कीजिए। (What is the importance of Pangat in Sikh Way of life ?)
अथवा
पंगत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Pangat.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली।

प्रश्न 8.
सिख धर्म में संगत व पंगत का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें। (What is the importance of Sangat and Pangat in Sikhism ? Elucidate.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संग्रत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं।

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली।

प्रश्न 9.
सिख धर्म में हुक्म का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Hukam in Sikhism ?)
उत्तर-
हुक्म सिख दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण संकल्प है। ‘हुक्म’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ हैआज्ञा, फरमान तथा आदेश। गुरवाणी में अनेक स्थानों पर परमात्मा के हुक्म को मीठा करके मानने को कहा गया है। गुरु नानक देव जी ‘जपुजी’ में लिखते हैं कि सारे संसार की रचना उस परमात्मा के हुक्म से हुई है। हुक्म से ही जीव को प्रशंसा मिलती है तथा हुक्म से ही जीव दुःख-सुख प्राप्त करते हैं। हुक्म से ही वे पापों से मुक्त होते हैं अथवा वे आवागमन के चक्र में भटकते रहते हैं।

प्रश्न 10.
सिख धर्म में हउमै से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Haumai in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। अगर हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

प्रश्न 11.
“हउमै एक दीर्घ रोग है।” कैसे ? (“Ego is deep rooted disease.” How ?)
उत्तर-
हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।

प्रश्न 12.
गुरु नानक साहिब की शिक्षाओं में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Guru in the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के गुरु सम्बन्धी क्या विचार थे ? (What was the concept of ‘Guru’ of Guru Nanak Dev Ji ?) i
उत्तर-
गुरु नानक साहिब परमात्मा तक पहुँचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ़ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ़ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वे ही नाम और शबद की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है।

प्रश्न 13.
सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Kirtan in Sikhism ?)
अथवा
सिख जीवन जाच में कीर्तन का बहुत महत्त्व है। चर्चा कीजिए। (Kirtan is very important in Sikh Way of life. Explain.)
उत्तर-
सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है। सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है।

प्रश्न 14.
सिख धर्म में सेवा के महत्त्व का वर्णन कीजिए। (Explain the importance of Seva in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, जल पिलाना, लंगर में सेवा आदि ही सम्मिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।

प्रश्न 15.
सिख गुरुओं के जाति बारे क्या विचार थे ? (What were the views of Sikh Gurus regarding caste ?)
अथवा
जाति प्रथा के बारे में गुरु नानक साहिब जी के विचार प्रकट करें। (Describe the views of Guru Nanak Sahib ji regarding caste system.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-जाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया।

प्रश्न 16.
सिख धर्म में अरदास के महत्त्व का वर्णन कीजिए। [Explain the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism.]
अथवा
सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है ? [What is the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism ?]:
अथवा
सिख जीवन जाच में अरदास के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Ardas in Sikh way of life.)
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है। सिख धर्म में अरदास की परंपरा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है।

प्रश्न 17.
सिखों की धार्मिक जीवन पद्धति पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए। (Discuss in brief the Religious Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन जाच की विलक्षणता दर्शाइए।
(Describe the distinction of Sikh Way of Life.)
उत्तर-

  1. सिख अमृत समय जाग कर स्नान करे तथा एक अकाल पुरख (परमात्मा) का ध्यान करता हुआ ‘वाहिगुरु’ का नाम जपे।
  2. नितनेम का पाठ करे। नितनेम की वाणियाँ ये हैं-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपई साहिब एवं 10 सवैये। ये वाणियाँ अमृत समय पढी जाती हैं।
    रहरासि साहिब-यह वाणी संध्या काल समय पढ़ी जाती है।
    सोहिला-यह वाणी रात को सोने से पूर्व पढी जाती है।
    अमृत समय तथा नितनेम के पश्चात् अरदास करनी आवश्यक है।
  3. गुरवाणी का प्रभाव साध-संगत में अधिक होता है। अतः सिख के लिए उचित है कि वह गुरुद्वारे के दर्शन करे तथा साध-संगत में बैठ कर गुरवाणी का लाभ उठाए।
  4. गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश प्रतिदिन होना चाहिए। साधारणतया रहरासि साहिब के पाठ के पश्चात् सुख आसन किया जाना चाहिए।
  5. गुरु ग्रंथ साहिब जी को सम्मान के साथ प्रकाश, पढ़ना एवं संतोखना चाहिए। प्रकाश के लिए आवश्यक है कि स्थान पूर्णतः साफ़ हो तथा ऊपर चांदनी लगी हो। प्रकाश मंजी साहिब पर साफ़ वस्त्र बिछा कर किया जाना चाहिए। गुरु ग्रंथ साहिब जी के लिए गदेले आदि का प्रयोग किया जाए तथा ऊपर रुमाला दिया जाए। जिस समय पाठ न हो रहा हो तो ऊपर रुमाला पड़ा रहना चाहिए। प्रकाश समय चंवर किया जाना चाहिए।
  6. गुरुद्वारे में कोई मूर्ति पूजा अथवा गुरमत के विरुद्ध कोई रीति-संस्कार न हो।
  7. एक से दूसरे स्थान तक गुरु ग्रंथ साहिब जी को ले जाते समय अरदास की जानी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सिर के ऊपर गुरु ग्रंथ साहिब उठाया हो, वह नंगे पाँव होना चाहिए।
  8. गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश अरदास करके किया जाए। प्रकाश करते समय गुरु ग्रंथ साहिब जी में से एक शबद का वाक लिया जाए।
  9. जिस समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की सवारी आए तो प्रत्येक सिख को उसके सम्मान के लिए खड़ा हो जाना चाहिए।

प्रश्न 18.
सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(Explain in brief the Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिख जीवन जाच में दर्शाए गए संस्कारों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief Sanskaras as depicted in Sikh Way of Life.)
उत्तर-

  1. एक अकाल पुरख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दाता केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्तव्य है।
  7. सिख भाँग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहाँत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।

प्रश्न 19.
मूलमंत्र की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain the brief the Mul Mantra.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं-एक ओ अंकार सतिनामु करता पुरुखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि॥ जापु॥ आदि सचु जुगादि सचु है भी सचु नानक होसी भी सचु। इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह हैं-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह अपनी सृष्टि में मौजूद है। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी पर निर्भर करता है, वह डर एवं ईर्ष्या से मुक्त है। उस पर काल का प्रभाव नहीं होता। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसका प्रकाश अपने आपसे है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 20.
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) की कोई पाँच विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
[Describe any five features of Akal Purkh (God) in Sikhism.]
अथवा
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें।
(Write a note on the Akal Takhat.)
उत्तर-
गुरवाणी में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि ईश्वर एक है यद्यपि उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। सिख परंपरा के अनुसार मूल मंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘एक ओ अंकार’ है वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। वह ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है तथा उसका विनाश कर सकता है। इसी कारण कोई भी पीर, पैगंबर, अवतार, औलिया, ऋषि तथा मुनि इत्यादि उसका मुकाबला नहीं कर सकते। ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है तथा सर्गुण भी। सर्वप्रथम संसार में चारों ओर अंधकार था। उस समय कोई धरती अथवा आकाश जीव-जंतु इत्यादि नहीं थे। ईश्वर अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसके एक हुकम के साथ ही यह धरती, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, पर्वत, दरिया, जंगल, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा फूल इत्यादि अस्तित्व में आ गए। इस प्रकार ईश्वर ने अपना आप रूपमान (प्रकट) किया। इन सब में उसकी रोशनी देखी जा सकती है। यह ईश्वर का सर्गुण स्वरूप है। ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और उसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना से पूर्व कोई धरती, आकाश नहीं थे तथा चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का हुक्म (आदेश) चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके हुक्म के अनुसार ही संपूर्ण विश्व चलता है।

प्रश्न 21.
सिख धर्म में नाम जपने का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of Remembering Divine Name in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 22.
किरत करने से क्या अभिप्राय है ?
(What is the meaning of Honest Labour ?) ।
उत्तर-
किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीव-जंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता। ऐसा व्यक्ति वास्तव में उस परमात्मा के विरुद्ध गुनाह करता है। गुरु नानक देव जी स्वयं कृषि का कार्य करके अपनी किरत करते थे। उन्होंने सैदपुर में मलिंक भागो का ब्रह्म भोज छकने की अपेक्षा भाई लालो की सूखी रोटी को खुशी-खुशी स्वीकार किया। इसका कारण यह था कि भाई लालो एक सच्चा किरती था। सिखों के लिए कोई भी व्यवसाय करने पर प्रतिबंध नहीं। वह कृषि, व्यापार, दस्तकारी, सेवा, नौकरी इत्यादि किसी भी व्यवसाय को अपना सकता है। किंतु उसके लिए चोरी, ठगी, डाका, धोखा, रिश्वत तथा पाप की कमाई करना सख्त मना है।

प्रश्न 23.
सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of Sangat in Sikhism ?)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है।
संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेदभाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 24.
सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ? चर्चा कीजिए।
(What is the importance of Pangat in Sikh Way of life ?)
अथवा
पंगत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the Pangat.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं, को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें दान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथीं देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 25.
सिख धर्म में संगत व पंगत का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें। (What is the importance of Sangat and Pangat in Sikhism ? Elucidate.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है।

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेदभाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। यह संस्था आज भी जारी है।

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं, को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें दान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथीं देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 26.
सिख धर्म में हउमै से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Haumai in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। अगर हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। इस प्रकार उसका संसार बेटे, बेटियों, भाइयों, भतीजों, बहनों-बहनोइयों, माता-पिता, सास-ससुर, जवाई, पति-पत्नी आदि के साथ संबंधित पास अथवा दूर की रिश्तेदारियों तक ही सीमित रहता है। अगर थोड़ी-सी अपनत्व की डोर लंबी कर ली जाए तो इस निजी संसार में सज्जन-मित्र भी शामिल कर लिए जाते हैं। परंतु आखिर में इस संसार की सीमा निजी जान-पहचान तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। इस निजी संसार की रचना के कारण मनुष्य में हउमै की भावना उत्पन्न होती है और वह अपने आपको इस आडंबर का मालिक समझने लगता है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

प्रश्न 27.
“हउमै एक दीर्घ रोग है।” कैसे ? (“Ego is deep rooted disease.” How ?)
उत्तर-
हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता। हउमै के प्रभाव में जीव क्या-क्या करता है ? इसका उत्तर गुरु नानक देव जी देते हैं कि जीव के सारे कार्य हऊमै के बंधन में बंधे होते हैं। वह हउमै में जन्म लेता है, मरता है, देता है,लेता है, कमाता है, गंवाता है, कभी सच बोलता है और कभी झूठ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का हिसाब करता है, समझदारी और मूर्खता भी हउमै के तराजू में तौलता है। हउमै के कारण ही वह मुक्ति के सार को नहीं जान पाता। अगर वह हऊमै को जान ले तो उसे परमात्मा के दरबार के दर्शन हो सकते हैं। अज्ञानता के कारण मनुष्य झगड़ता है। कर्म के अनुसार ही लेख लिखे जाते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है।

प्रश्न 28.
गुरु नानक साहिब की शिक्षाओं में गुरु का क्या महत्त्व है ?’ (What is the importance of Guru in the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक साहिब परमात्मा तक पहुँचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ़ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ़ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के ‘ रोग को दूर करते हैं। वे ही नाम और शबद की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है।

प्रश्न 29.
सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Kirtan in Sikhism ?)
अथवा
सिख जीवन जाच में कीर्तन का बहुत महत्त्व है। चर्चा कीजिए।
(Kirtan is very important in Sikh Way of life. Explain.)
उत्तर-सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है।
सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। उन्होंने अपनी यात्राओं के समय भाई मर्दाना जी को साथ रखा जो कीर्तन के समय रबाब बजाता था। गुरु नानक देव जी कीर्तन करते हुए अपने श्रद्धालुओं के मनों पर जादई प्रभाव डालते थे। परिणामस्वरूप न केवल सामान्यजन अपितु सज्जन ठग, कोड्डा राक्षस, नूरशाही जादूगरनी, हमजा गौंस तथा वली कंधारी जैसे कठोर स्वभाव के व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना न रह सके एवं आपके शिष्य बन गए। कीर्तन की इस प्रथा को शेष 9 गुरुओं ने भी जारी रखा। गुरु हरगोबिंद साहिब ने कीर्तन में वीर रस उत्पन्न करने के उद्देश्य से ढाडी प्रथा को प्रचलित किया।

प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है। इससे मनुष्य का सोया हुआ मन जाग उठता है, उसके दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं एवं कई जन्मों की मैल दूर हो जाती है। वह हरि नाम में लीन हो जाता है। मानव का मन निर्मल हो जाता है। उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठती है तथा उसका लोक-परलोक सफल हो जाता है। इस कारण कीर्तन को निरमोलक (अमूल्य) हीरा कहा जाता है।

प्रश्न 30.
सिख धर्म में सेवा के महत्त्व का वर्णन कीजिए। (Explain the importance of Seva in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है।

सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, जल पिलाना, लंगर आदि ही सम्मिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को गुरुमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरन्तर भाग है। यह एक दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा, वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अन्दर -झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 31.
सिख गुरुओं के जाति बारे क्या विचार थे ? (What were the views of Sikh Gurus regarding caste ?)
अथवा
जाति प्रथा के बारे में गुरु नानक साहिब जी के विचार प्रकट करें। (Describe the views of Guru Nanak Sahib ji regarding caste system.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-जाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 32.
सिख धर्म में अरदास के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
[Explain the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism.]
अथवा
सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है ?
[What is the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism ?]
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है।
सिख धर्म में अरदास की परंपरा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। गुरु अर्जन देव जी के समय अरदास आदि ग्रंथ साहिब के सम्मुख करने की प्रथा आरंभ हुई। गुरु गोबिंद सिंह जी ने संगत के रूप में की जाती अरदास का प्रारंभ किया। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है। सिख इतिहास में इस संबंधी अनेक उदाहरणे मिलती हैं।
सिख धर्म में अरदास का आश्रय प्रत्येक सिख अवश्य लेता है। अरदास के मुख्य विषय यह हैं—

  1. उस परमात्मा के शुक्राने के तौर पर अरदास
  2. नाम के लिए अरदास
  3. वाणी की प्राप्ति के लिए अरदास
  4. पापों का नाश करने के लिए अरदास
  5. अपने पापों को बख्शाने के लिए अरदास
  6. बच्चे के जन्म के शुक्राने के तौर पर की गई अरदास
  7. बच्चे के नाम संस्कार के समय अरदास
  8. बच्चे की शिक्षा आरंभ करते समय अरदास
  9. मंगनी अथवा विवाह की अरदास
  10. बच्चे की प्राप्ति के लिए अरदास
  11. कुशल स्वास्थ्य के लिए अरदास
  12. भाणा (हुक्म) मानने के लिए अरदास
  13. यात्रा आरंभ करने के लिए अरदास
  14. नया व्यवसाय आरंभ करते समय अरदास
  15. नये घर में प्रवेश करते समय अरदास
  16. नितनेम के पश्चात् अरदास।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. सिख कौन है ?
उत्तर-एक परमात्मा, दस गुरु साहिबान तथा गुरु ग्रंथ साहिब जी में विश्वास रखने वाला।

प्रश्न 2. प्रत्येक सिख को अपना जीवन किसके अनुसार व्यतीत करना चाहिए ?
उत्तर-गुरमति के अनुसार।

प्रश्न 3. सिख जीवन में नितनेम की कितनी वाणियां सम्मिलित हैं ?
अथवा
नितनेम की वाणियों के नाम लिखें।
उत्तर-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपाई साहिब, 10 सवैया, रहरासि साहिब और सोहिला।

प्रश्न 4. नितनेम में सम्मिलित किन्हीं दो वाणियों के नाम लिखें।
अथवा
प्रातःकाल में पढ़ी जाने वाली कोई दो वाणियाँ बताएँ।
अथवा
अमृत समय पढ़ी जाने वाली वाणियों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. जपुजी साहिब
  2. जापु साहिब।

प्रश्न 5. किस वाणी को सायंकाल में पढ़ना चाहिए ?
उत्तर-रहरासि साहिब।

प्रश्न 6. सिख जीवन में रात को सोते समय कौन-सी वाणी पढ़ी जाती है ?
अथवा
सिख धर्म के अनुसार रात को सोते समय कौन-सी वाणी पढ़ी जाती है ?
उत्तर-सिख जीवन में रात को सोते समय सोहिला नामक वाणी पढी जाती है।

प्रश्न 7. गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय किस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए ?
उत्तर-गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय ऊपर चाँदनी होनी चाहिए।

प्रश्न 8. गुरुद्वारे के अंदर प्रत्येक सिख के लिए कौन सी बातें वर्जित की गई हैं ? कोई एक बताएँ।
उत्तर-वह अपने जूते बाहर उतार कर आए।

प्रश्न 9. गुरुद्वारे में निशान साहिब कहाँ लगा होना चाहिए ?
उत्तर-किसी ऊँचे स्थान पर।।

प्रश्न 10. गुरमति जीवन का कोई एक सिद्धाँत बताएँ।
उत्तर- प्रत्येक सिख प्रतिदिन अपना कार्य आरंभ करने से पूर्व अरदास करेगा।

प्रश्न 11. प्रत्येक सिख के लिए कौन-से पाँच कक्कार धारण करने अनिवार्य हैं ?
अथवा
सिख जीवन जाच अनुसार सिखों के पांच ककार लिखें।
उत्तर-केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा तथा कृपाण।

प्रश्न 12. किन्हीं दो कुरीतियों के नाम लिखें जिन पर प्रत्येक सिख के लिए प्रतिबंध लगाया गया है ?
उत्तर-

  1. केशों को काटना
  2. तंबाकू का प्रयोग करना।

प्रश्न 13. गुश्मत्ता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-गुरमत्ता गुरु ग्रंथ साहिब जी की उपस्थिति में सरबत खालसा द्वारा जो निर्णय स्वीकार किए जाते हैं, उन्हें गुरमत्ता कहा जाता है।

प्रश्न 14. गुरमत्ता किन प्रश्नों पर हो सकता है ?
उत्तर-गुरमत्ता केवल सिख धर्म के मूल सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हो सकता है।

प्रश्न 15. सिख दर्शन में किसे सर्वोच्च माना गया है ?
उत्तर-अकाल पुरुख को।

प्रश्न 16. अकाल पुरुख का कोई एक लक्षण बताएँ।
उत्तर-वह सर्वशक्तिमान है।

प्रश्न 17. गुरवाणी के अनुसार व्यक्ति और परमात्मा के मिलाप सीढ़ी का कार्य कौन करता है ?
उत्तर-गुरु स्वयं।

प्रश्न 18. सिख धर्म में गुरु से क्या भाव है ?
उत्तर-सिख धर्म में सच्चा गुरु परमात्मा स्वयं है।

प्रश्न 19. सिख धर्म में गुरु का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-वह मुक्ति तक ले जाए वाली वास्तविक सीढ़ी है।

प्रश्न 20. संगत एवं पंगत की स्थापना कौन-से गुरु ने कहाँ की ?
अथवा
संगत व पंगत संस्था किस गुरु ने स्थापित की ?
उत्तर-संगत एवं पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में की।

प्रश्न 21. संगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-संगत से भाव है गुरमुख प्यारों की वह एकत्रता जहाँ परमात्मा की प्रशंसा की जाती है।

प्रश्न 22. संगत की स्थापना किसने की ?
उत्तर-संगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की।

प्रश्न 23. सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-संगत में जाने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाता है।

प्रश्न 24. पंगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकना।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 25. पंगत की स्थापना किसने की ?
उत्तर-गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 26. पंगत क्या होती है और यह किस गुरु साहिब के समय आरंभ हुई ?
उत्तर-

  1. पंगत से भाव है पंगत में बैठकर लंगर खाना।
  2. यह गुरु नानक साहिब के समय से आरंभ हुई।

प्रश्न 27. सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-इससे सिख धर्म के प्रचार को प्रोत्साहन मिला।

प्रश्न 28. सिख धर्म में हुक्म से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-हुक्म से अभिप्राय है आज्ञा अथवा आदेश।

प्रश्न 29. सिख धर्म में हुक्म का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-हुक्म मानने वाला व्यक्ति पर परमात्मा मेहरबान होता है।

प्रश्न 30. हुक्म न मानने वाले व्यक्ति के साथ क्या होता है ?
उत्तर-हुक्म न मानने वाला व्यक्ति आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।

प्रश्न 31. हउमै से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-अभिमान करना।

प्रश्न 32. हउमै किस प्रकार का रोग है ?
अथवा
सिख जीवन जाच में हउमै किस प्रकार का रोग है ?
उत्तर-हउमै एक दीर्घ रोग है।

प्रश्न 33. हउमै को किस प्रकार दूर किया जा सकता है ?
उत्तर-नाम जप कर।

प्रश्न 34. मनुष्य के कितने मनोविकार हैं ?
उत्तर-पाँच।

प्रश्न 35. मनुष्य के कोई दो मनोविकार बताएँ।
उत्तर-

  1. काम
  2. क्रोध।

प्रश्न 36. सिख को कौन-से विकारों से सावधान रहने के लिए कहा गया है ?
अथवा
सिख के जीवन में पांच मनो विकार कौन-से माने जाते हैं ?
उत्तर-सिख को काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार से सावधान रहने को कहा गया है।

प्रश्न 37. सेवा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-सेवा से अभिप्राय उस कार्य से है जिससे मानवता की भलाई हो।

प्रश्न 38. सिख धर्म में कौन-मा मनुष्य सेवा कर सकता है ?
उत्तर-सिख धर्म में वह मनुष्य सेवा कर सकता है जिस पर परमात्मा मेहरबान हो।

प्रश्न 39. सिख धर्म में परमात्मा को प्राप्त करने का सबसे बढ़िया साधन कौन-सा है ?
उत्तर-सिमरनि।

प्रश्न 40. सिख धर्म में सिमरनि का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-सिमरनि करने वाले व्यक्ति के मनोविकार दूर हो जाते हैं।

प्रश्न 41. सिख धर्म में किन तीन सिद्धांतों की पालना करना प्रत्येक सिख के लिए अनिवार्य है ?
उत्तर-किरत करना, नाम जपना तथा बाँट कर छकना।

प्रश्न 42. नाम जपना, किरत करना और बांट कर छकना किस धर्म के नियम हैं ?
उत्तर-सिख धर्म के।

प्रश्न 43. किरत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-किरत से अभिप्राय है मेहनत तथा ईमानदारी की कमाई करना।

प्रश्न 44. कीर्तन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-कीर्तन से अभिप्राय उस गायन से है जो परमात्मा की प्रशंसा में गाया जाता है।

प्रश्न 45. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा को किसने आरंभ किया ?
उत्तर-सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा को गुरु नानक देव जी ने आरंभ किया।

प्रश्न 46. सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-कीर्तन करने एवं सुनने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाता है।

प्रश्न 47. अरदास से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर- अरदास से अभिप्राय परमात्मा के सम्मुख प्रार्थना अथवा विनती करने से है।।

प्रश्न 48. क्या सिख धर्म में अरदास के लिए कोई समय निश्चित किया गया है ?
उत्तर- नहीं।

प्रश्न 49. सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है, ?
उत्तर-अरदास करने वाले व्यक्ति की हउमै दूर हो जाती है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. जपुजी साहिब की बाणी ………… समय पढ़ी जाती है।
उत्तर-अमृत

प्रश्न 2. ………… की बाणी शाम सूरज अस्त के पश्चात् पढ़ी जाती है। .
उत्तर-रहरासि साहिब

प्रश्न 3. मूल मंत्र ………. के आरंभ में दिया गया है।
उत्तर-जपुजी साहिब

प्रश्न 4. सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरख ………… है।
उत्तर-एक

प्रश्न 5. सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरख के ……….. रूप हैं।
उत्तर-दो

प्रश्न 6. सिख धर्म के अनुसार …………. सर्वशक्तिमान है।
उत्तर-अकाल पुरख

प्रश्न 7. सिख धर्म के बुनियादी सिद्धांत ………. हैं।
उत्तर-तीन

प्रश्न 8. सिख धर्म में पहला बुनियादी सिद्धांत ……….. है।
उत्तर-नाम जपना

प्रश्न 9. सिख धर्म के अनुसार किरत से भाव है……… की कमाई करना।
उत्तर-ईमानदारी

प्रश्न 10. संगत प्रथा की स्थापना ………… ने की थी।
उत्तर-गुरु नानक देव जी

प्रश्न 11. कतार में बैठकर लंगर छकने को ………. कहा जाता है।
उत्तर-पंगत

प्रश्न 12. हुक्म से भाव है ………. का आदेश।
उत्तर-परमात्मा

प्रश्न 13. हउमै ……….. रोग है।
उत्तर-दीर्घ

प्रश्न 14. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा ……… ने चलाई।
उत्तर-गुरु नानक देव जी

प्रश्न 15. सिख धर्म में ………. को विशेष महत्त्व दिया गया है।
उत्तर-सेवा

प्रश्न 16. सिख धर्म ………… का संदेश देता है।
उत्तर-सांझीवालता

प्रश्न 17. सिख धर्म में अमृत ग्रहण करवाने के लिए ………… प्यारों का होना अनिवार्य है।
उत्तर–पाँच

प्रश्न 18. सिख धर्म में परमात्मा के सम्मुख की जाने वाली प्रार्थना को ……… कहा जाता है।
उत्तर-अरदास

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. जपुजी साहिब का आरंभ मूलमंत्र से होता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. जापु साहिब को प्रातःकाल में पढ़ा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. सिख धर्म में नशों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. गुरुबाणी के अनुसार जगत की रचना नाशवान् नहीं है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. गुरुबाणी के अनुसार अकाल पुरुष एक है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. सिख धर्म में नाम सिमरन को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 7. सिख धर्म में संगत और पंगत की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. सिख धर्म के अनुसार हुक्म से भाव परमात्मा के आदेश से है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. सिख धर्म के अनुसार हऊमै दीर्घ रोग है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. सिख धर्म में अमृत पान के लिए पाँच प्यारों का होना अनिवार्य है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. सिख धर्म में अरदास किसी भी समय की जा सकती है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किस बाणी को अमृत समय नहीं पढ़ा जाता है ?
(i) जापुजी साहिब
(ii) जापु साहिब
(iii) रहरासि साहिब
(iv) अनंदु साहिब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किस बाणी को रात को सोते समय पढ़ा जाता है ?
(i) चौपाई साहिब
(ii) अनंदु साहिब
(iii) रहरासि साहिब
(iv) सोहिला)
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है
(i) गुरसिख देवी-देवताओं की उपासना कर सकते हैं ।
(ii) प्रत्येक गुरसिख के लिए अनिवार्य है कि वह अपना कोई भी कार्य आरंभ करने से पहले वाहिगुरु के सम्मुख अरदास करे।
(iii) प्रत्येक गुरसिख के लिए नशों के सेवन के लिए पाबंदी है।
(iv) वाहेगुरु जी का खालसा श्री वाहेगुरु जी की फ़तेह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किस बाणी में मूल मंत्र का वर्णन किया गया है ?
(i) जापु साहिब
(ii) जापुजी साहिब
(iii) अनंदु साहिब
(iv) रहरासि साहिब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 5.
सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरुष संबंधी निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है ?
(i) अकाल पुरुष अनेक हैं
(ii) वह निर्गुणहार है
(iii) वह सर्वव्यापक है
(iv) वह सबसे महान् है।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 6.
सिख धर्म के आरंभिक नियम कितने हैं ?
(i) 2
(ii) 3
(iii) 4
(iv) 5.
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 7.
सिख धर्म का प्रथम नियम क्या है ?
(i) नाम जपना
(ii) किरत करनी
(iii) बाँट छकना
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
संगत और पंगत संस्थाओं की स्थापना किसने की थी ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु राम दास जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
लंगर प्रथा की नींव किसने रखी ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु हरगोबिंद जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु नानक देव जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 10.
सिख धर्म में कीर्तन का आरंभ किसने किया था ?
(i) गुरु हर राय जी ने
(ii) गुरु हरकृष्ण जी ने
(iii) गुरु नानक देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
अमृत ग्रहण के लिए कम-से-कम कितने प्यारों का उपस्थित होना अनिवार्य है ?
(i) 2
(ii) 3
(iii) 4
(iv) 5
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 12.
सिख धर्म में अरदास कब की जा सकती है ?
(i) केवल अमृत समय
(ii) सायं समय
(iii) रात को सोने से पूर्व
(iv) किसी भी समय।
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म की चार उत्तम सच्चाइयों की आलोचनात्मक चर्चा कीजिए।
(Examine critically the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार सच्चाइयों बारे बताएँ।
(Explain the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार सामाजिक सदगुणों की व्याख्या करो।
(Explain the Four Social Virtues of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार महान सत्य कौन से हैं ? व्याख्या करो।
(What are the Four Noble Truths of Buddhism ? Explain.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य (महान् सच्चाइयाँ) के बारे जानकारी दो।
(Describe the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार आर्य सच्चाइयों के बारे नोट लिखो।
(Write about the Four Noble Truths of Buddhism.)
उत्तर-
चार पवित्र सच्चाइयाँ बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। इन सच्चाइयों को महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अनुभव द्वारा प्राप्त किया था। ये चार पवित्र सच्चाइयाँ अपने आप में एक दर्शन हैं। इनको चार आर्य सत्य भी कहा जाता है। क्योंकि यह चिरंजीवी है और सच्चाई पर आधारित है। महात्मा बुद्ध का कहना था कि इन पर अमल करने से मनुष्य अपने दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इन पर अमल करने के लिए मनुष्य को न तो किसी पुजारी और न ही अन्य कर्म कांडों की ज़रूरत है। पवित्र जीवन व्यतीत करना ही इसका मूल आधार है। चार पवित्र सच्चाइयाँ ये हैं—
1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
2. दुःखों का कारण है।
3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।

1. जीवन दुःखों से भरपूर है (Life is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है, इससे कोई व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता कि जीवन में दुःख ही दुःख हैं। जो भी व्यक्ति इस संसार में जन्म लेगा उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु को प्राप्त होना ज़रूरी है। यह महान् दुःख है। इन के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों दुःख हैं जिनको मनुष्य भोगता है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य जो चाहता है जब उसे प्राप्त नहीं होता तो वह दु:खी है। कोई मनुष्य ग़रीबी कारण दुःखी है और कोई अमीर होने पर भी दु:खी रहता है क्योंकि वह अधिक धन की लालसा करता है। कोई व्यक्ति बे-औलाद होने के कारण दुःखी रहता है और किसी की अधिक औलाद दुःख का कारण बनती है। यदि कोई भूखा है तो भी दुःखी है और कोई अधिक खा लेने के कारण दुःखी होता है। कोई अपने किसी रिश्तेदार के बिछड़ जाने के कारण दुःखी होता है और कोई अपने दुश्मन का मुँह देख लेने पर दुःखी होता है। जिनको मनुष्य सुख समझता है वह ही दु:ख का कारण बनते हैं क्योंकि सुख पल भर ही रहता है। वास्तव में दुःख मनुष्य के जीवन का एक ज़रूरी अंग है। यह मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक साथ रहता है। महात्मा बुद्ध का कहना है कि मृत्यु से दु:खों का अंत नहीं होता क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। यह केवल एक कहानी का अंत है, नये जीवन में पुराने संस्कार जुड़े होते हैं। संक्षेप में जीवन दुःखों की एक लंबी यात्रा है।

2. दुःखों का कारण है (There is a Cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध की दूसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का कारण है। प्रत्येक घटना का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यह नहीं हो सकता कि घटना का कोई कारण ही न हो। प्रत्येक घटना का संबंध किसी ऐसी पूर्ववर्ती घटना अथवा परिस्थितियों से होता है जिनके होने से यह होती है और जिनके न होने से यह नहीं होती। बिना कारण के परिणाम संभव नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य के दु:खों का क्या कारण है। महात्मा बुद्ध के अनुसार तृष्णा और अविद्या दुःखों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण हम बार-बार जन्म लेते हैं और दुःख पाते हैं। तृष्णा दुःख का कारण है क्योंकि जहाँ तृष्णा है वहाँ मनुष्य असंतुष्ट है। यदि वह संतुष्ट हो तो तृष्णा पैदा ही नहीं होती। तृष्णा जीवन भर बनी रहती है। यह मरने पर भी नहीं मरती और नया जन्म होने से दुगुनी शक्ति से खुद को पूरा करती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है—

  • ऐश करने की तृष्णा,
  • जीते रहने की तृण्णा,
  • अनहोने की तृष्णा। अविद्या से भाव अज्ञानता से है।

इसी कारण ही मनुष्य आवागमन के चक्रों में फंसा रहता है जिसका परिणाम दुःख है। जब तक मनुष्य इस आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं होता तब तक उसके दुःखों का अंत नहीं हो सकता। अविद्या के कारण ही मनुष्य अपने जीवन, संसार, सम्पत्ति और परिवार को स्थिर समझ लेता है जबकि वास्तव में यह सब नाशवान् है। जो जन्म लेता है वह मरता भी है।

3. दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)-महात्मा बुद्ध की तीसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का दुःख तथ्यों पर आधारित एक ठोस सच्चाई है। परंतु इससे यह भाव नहीं कि बुद्ध दर्शन निराशावादी है। वास्तव में यह दुःखी मनुष्य के लिए एक दीये का काम करता है। इसका कहना है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। जैसे कि ऊपर बताया गया है कि प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यदि इन कारणों से छुटकारा पा लिया जाये तो दुःखों से छुटकारा पा लिया जा सकता है। दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। तृष्णा के पूर्ण तौर पर मिट जाने से दुःख दूर हो जाता है। इस तृष्णा की समाप्ति का अर्थ अपनी सारी वासनाओं और भूखों पर रोक लगाना है। ऐसा करके मनुष्य अपने सारे दुःखों से छुटकारा और निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।

4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध की चौथी पवित्र सच्चाई यह है कि दु:खों का अंत करने का एक मार्ग है। इस मार्ग को वह मध्य मार्ग बताते हैं ! उनके अनुसार प्रवृत्ति (भोग का मार्ग) और निवृत्ति (तपस्या का मार्ग) दोनों ही गलत हैं क्योंकि यह अति पर आधारित हैं। प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए, उनको मारना नहीं चाहिए। बुद्ध के अनुसार इच्छाओं को पूरा करने पर इच्छाएँ पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। प्रत्येक इच्छा की पूर्ति जलती पर घी डालने का काम करती है । इच्छाओं से केवल नाशवान् सुख की प्राप्ति होती है जिसका अन्त दुःख होता है। दूसरी ओर निवृत्ति के मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। महात्मा बुद्ध के अनुसार इच्छाओं के दमन से यह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं। ये अंदर ही अंदर दबी हुई आग की तरह सुलगती रहती हैं और अवसर मिलने पर भड़क उठती हैं। इसके अतिरिक्त इच्छाओं के दमन से कई मानसिक और शारीरिक कष्ट आदि उत्पन्न होते हैं। इसलिए महात्मा बुद्ध ने इन दोनों अतिवादी मार्गों को गलत कहा। उन्होंने मध्य मार्ग अपनाने के पक्ष में प्रचार किया। मध्य मार्ग पर चलने के कारण इच्छाएँ धीरे-धीरे संयम के अधीन हो जाती हैं और परम शांति की प्राप्ति होती है। बुद्ध का यह मार्ग आठ सद्गुणों पर निर्भर करता है जिस कारण इसको अष्ट मार्ग भी कहते हैं। ये आठ सद्गुण हैं—

    • सच्चा विचार
    • सच्ची नीयत
    • सच्चा बोल
    • सच्चा व्यवहार
    • सच्ची रोज़ी
    • सच्चा यत्न
    • सच्चा मनोयोग
    • सच्चा ध्यान

संक्षेप में मध्य मार्ग पर चलकर ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। हरबंस सिंह और एल० एम० जोशी का यह कहना बिल्कुल ठीक है
“ये चार पवित्र सच्चाइयाँ यह बताती हैं कि दुःख हैं और दुःखों से मुक्त होने का एक मार्ग है।”1

1. “The four holy truths thus teach that there is suffering and that there is a way leading beyond suffering.” Harbans Singh and L. M. Joshi, An Introduction to Indian Religions (Patiala : 1996) p.134.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग स्पष्ट करो। (Describe the Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग की आलोचनात्मक दृष्टि पर जांच कीजिए। (Examine critically the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
“बौद्ध धर्म की बुनियादी शिक्षाएँ अष्टांग मार्ग में संकलित हैं।” प्रकाश डालिए। (“Basic teachings of Buddhism are incorporated in Ashtang Marga.” Elucidate.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के ‘अष्ट मार्ग’ के विषय में संक्षिप्त, परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful Ashta Marga of Lord Buddha.)
अथवा
‘अष्ट मार्ग’ बुद्ध धर्म की कुंजी है। प्रकाश डालें।
(“Ashta Marga is the key to Buddhism.’ Elucidate.)
अथवा
अष्ट मार्ग बौद्ध धर्म का आधार है। चर्चा कीजिए।
(Ashta Marga is the base of Buddhism. Discuss.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग पर चर्चा करो। (Discuss the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म में जीवन की कुंजी मध्य मार्ग है जिसकी प्राप्ति के लिए अष्टांग मार्ग बताया गया है। इसकी व्याख्या करो।
(In Buddhism the key to way of life is Middle Way which is realized through Ashtang Marga. Explain.)
अथवा
अष्टांग मार्ग की विस्तृत चर्चा करो।
(Discuss in detail the Ashtang Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग के बारे जानकारी दो।
(Write about the Ashtang Marga in Buddhism.)
अथवा
महात्मा बद्ध ने दःखों से मुक्त होने के लिए कौन-सा मार्ग बताया है ? उसकी विशेषतायें और महत्त्व बताओ।
(Which way has been told by Lord Buddha to stop sufferings ? Explain its features and importance.)
अथवा
बौद्ध धर्म के मध्य मार्ग बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Madhya Marga in Buddhism ?)
अथवा
अष्ट मार्ग बौद्ध धर्म की नैतिकता का मूल आधार है।
(Ashta Marga is the basis of Buddhist ethics.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग पर नोट लिखें। (Write a note on Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग पर एक विस्तृत नोट लिखें।
(Write a detailed note on the Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के दर्शाए अष्टांग मार्ग के बारे जानकारी दो।
(Write about the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के मध्य मार्ग की व्याख्या करें।
(Describe the Middle Path of Buddhism.)
अथवा
अष्ट मार्ग किसे कहते हैं ? संक्षिप्त उत्तर दें।
(What is the meaning of Ashta Marga ? Answer in brief.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्त करने के मार्ग का वर्णन करें।
(Describe the way of Nirvana according to Buddhism.)
अथवा
अष्ट मार्ग की संक्षिप्त व्याख्या करें।
Explain briefly about Ashta Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म का अष्टांग मार्ग क्या है ? चर्चा कीजिए।
(What is the Ashtang Marga of Buddhism ? Discuss.)
अथवा
मध्य मार्ग बौद्ध धर्म की कुंजी है। प्रकाश डालें।
(Madhya-Marga is the key of Buddhism. Elucidate.)
उत्तर- महात्मा बुद्ध ने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शांति, सूझ, ज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने के लिए लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार भोग का मार्ग और तपस्या का मार्ग दोनों ही गलत हैं क्योंकि ये अति पर आधारित हैं। वह जीवन जो ऐश-ओ-आराम में व्यतीत होता है और वह जीवन जो कठोर संन्यास में व्यतीत होता है बहुत ही दुःखदायक और व्यर्थ होता है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अंदर सांसारिक भोग और कठोर तप के दोनों मार्ग देखे थे। उनका कहना था इन मार्गों पर चल कर इच्छाओं पर काबू नहीं पाया जा सकता। इच्छाओं को संयम से जीतना चाहिए। इसलिए महात्मा बुद्ध ने अष्ट मार्ग की खोज की। क्योंकि ये दोनों अति के मार्गों का मध्यम रास्ता है इसलिए इस को मध्य मार्ग भी कहा जाता है। यह मार्ग मनुष्य को यह बताता है कि वह अपना नैतिक और धार्मिक जीवन किस तरह व्यतीत करे। इसके निम्नलिखित आठ भाग हैं—

  1. सच्चा विचार (समयक दृष्टि)
  2. सच्ची नीयत (समयक संकल्प )
  3. सच्चा बोल (समयक वाक्य)
  4. सच्चा व्यवहार (समयक कर्म)
  5. सच्ची रोज़ी (समयक आजीविका)
  6. सच्चा यत्न (समयक व्यायाम)
  7. सच्चा मनोयोग (समयक स्मृति)
  8. सच्चा ध्यान (समयक समाधि)

1. सच्चा विचार (Right View)-सच्चा विचार नैतिक जीवन की आधारशिला है। इसको सच्चा ज्ञान भी कहा जा सकता है। यदि मनुष्य का विचार गलत हो तो उसका जीवन दुःखों में घिरा रहता है। वह निर्वाण प्राप्ति नहीं कर सकता और आवागमन के चक्रों में भटकता रहता है। अविद्या (अज्ञानता) के कारण वह ऐसा करता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार चार पवित्र सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है क्योंकि इससे दुःख दूर करने का मार्ग खुलता है।

2. सच्ची नीयत (Right Intention)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत सच्ची होनी चाहिए। शुभ कर्म करने का निश्चय ही सच्ची नीयत कहलाता है। मनुष्य को सांसारिक भोग विलास से हमेशा कोसों दूर रहना चाहिए। उसको संसार में उस तरह अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए जैसे कीचड़ में कमल का फूल रहता है। मनुष्य को दूसरों के प्रति दया और अहिंसा की भावना रखनी चाहिए।

3. सच्चा बोल (Right Speech)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निन्दा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

4. सच्चा व्यवहार (Right Action)-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पडता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला है।

5. सच्ची रोज़ी (Right Livelihood)-महात्मा बुद्ध ने सच्ची रोज़ी कमाने पर बहुत ज़ोर दिया है। उनका कहना था कि रोज़ी ईमानदारी से कमानी चाहिए। हमें ऐसी रोज़ी नहीं कमानी चाहिए जिसमें धोखे, हिंसा, चोरी और भ्रष्टाचार आदि से काम लेना पड़े। हथियारों, नशीली वस्तुओं, माँस और मनुष्यों आदि का व्यापार करना सच्ची रोजी के साधन नहीं हैं क्योंकि ये मनुष्य के दुःखों का कारण बनते हैं।

6. सच्चा यत्न (Right Effort)-सच्चा यत्न मन में बुराइयों को पैदा होने से रोकता है। इसका मनोरथ यह है कि मनुष्य के मन में जन्मे हुए बुरे विचारों का अंत किया जाये और मन को अच्छे मार्ग की ओर ले जावे। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपने मन की कारवाई और विचारों के प्रति सदा चौकसी रखनी चाहिए। एक पल की ढील होने पर कोई बुरा विचार हमारे मन के अंदर आ सकता है जो कि मनुष्य को गिरावट के खड्डे में गिरा सकता है। इसलिए हमें विकारों का विश्लेषण करना चाहिए और अच्छे विचारों के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

7. सच्चा मनोयोग (Right Mindfulness)-सच्चा मनोयोग बुद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है। इसका अर्थ है मनुष्य का शरीर और मन के कार्यों के प्रति चेतन होना। यदि मनोयोग शुद्ध हो तो सद्विचार और सद्व्यवहार अपने आप उपजते हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को सदा चार पवित्र सच्चाइयों पर ध्यान रखना चाहिए। उसको शारीरिक अपवित्रता और मानसिक बुराइयों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

8. सच्चा ध्यान (Right Concentration)-महात्मा बुद्ध के अनुसार योग साधना के रास्ते से मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इसलिए उन्होंने सच्चे ध्यान (समाधि) पर अधिक जोर दिया। सच्चे ध्यान के लिए चार अवस्थाओं से गुजरना ज़रूरी है। पहली अवस्था में मनुष्य अपने मन को शुद्ध रख कर ध्यान में मग्न रहता है और उसे सुख की प्राप्ति होती है। दूसरी अवस्था में मनुष्य के सारे संदेह दूर हो जाते हैं और उसको आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त होता है। तीसरी अवस्था में आनंद समाप्त हो जाता है और मन सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है। इसको निर्विकार ध्यान कहते हैं। चौथी अवस्था में कुछ नहीं रहता और जीव शृंय (निर्वाण) को प्राप्त होता है। यह ध्यान की अंतिम मंजिल है। डॉक्टर एस० बी० शास्त्री का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध की शिक्षाओं की वास्तविक कुंजी है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।”2

2. “This noble Eightfold Path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S.B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ कौन-सी हैं ? अष्ट मार्ग का वर्णन करो।
(Which are the Four Noble Truths of Buddhism ? Describe Ashta Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग एवं चार उत्तम सच्चाइयों के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the Ashtang Marga and Four Noble Truths of Buddhism.)
उत्तर-
(क) चार महान् सच्चाइयां (Four Noble Truths)–बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ ये हैं:—

  1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
  2. दुःखों का कारण है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।

(ख) महात्मा बुद्ध ने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शांति, सूझ, ज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने के लिए लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार भोग का मार्ग और तपस्या का मार्ग दोनों ही गलत हैं क्योंकि ये अति पर आधारित हैं। वह जीवन जो ऐश-ओ-आराम में व्यतीत होता है और वह जीवन जो कठोर संन्यास में व्यतीत होता है बहुत ही दुःखदायक और व्यर्थ होता है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अंदर सांसारिक भोग और कठोर तप के दोनों मार्ग देखे थे। उनका कहना था इन मार्गों पर चल कर इच्छाओं पर काबू नहीं पाया जा सकता। इच्छाओं को संयम से जीतना चाहिए। इसलिए महात्मा बुद्ध ने अष्ट मार्ग की खोज की। क्योंकि ये दोनों अति के मार्गों का मध्यम रास्ता है इसलिए इस को मध्य मार्ग भी कहा जाता है। यह मार्ग मनुष्य को यह बताता है कि वह अपना नैतिक और धार्मिक जीवन किस तरह व्यतीत करे। इसके निम्नलिखित आठ भाग हैं—

  1. सच्चा विचार (समयक दृष्टि)
  2. सच्ची नीयत (समयक संकल्प )
  3. सच्चा बोल (समयक वाक्य)
  4. सच्चा व्यवहार (समयक कर्म)
  5. सच्ची रोज़ी (समयक आजीविका)
  6. सच्चा यत्न (समयक व्यायाम)
  7. सच्चा मनोयोग (समयक स्मृति)
  8. सच्चा ध्यान (समयक समाधि)

1. सच्चा विचार (Right View)-सच्चा विचार नैतिक जीवन की आधारशिला है। इसको सच्चा ज्ञान भी कहा जा सकता है। यदि मनुष्य का विचार गलत हो तो उसका जीवन दुःखों में घिरा रहता है। वह निर्वाण प्राप्ति नहीं कर सकता और आवागमन के चक्रों में भटकता रहता है। अविद्या (अज्ञानता) के कारण वह ऐसा करता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार चार पवित्र सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है क्योंकि इससे दुःख दूर करने का मार्ग खुलता है।

2. सच्ची नीयत (Right Intention)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत सच्ची होनी चाहिए। शुभ कर्म करने का निश्चय ही सच्ची नीयत कहलाता है। मनुष्य को सांसारिक भोग विलास से हमेशा कोसों दूर रहना चाहिए। उसको संसार में उस तरह अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए जैसे कीचड़ में कमल का फूल रहता है। मनुष्य को दूसरों के प्रति दया और अहिंसा की भावना रखनी चाहिए।

3. सच्चा बोल (Right Speech)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निन्दा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

4. सच्चा व्यवहार (Right Action)-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पडता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला है।

5. सच्ची रोज़ी (Right Livelihood)-महात्मा बुद्ध ने सच्ची रोज़ी कमाने पर बहुत ज़ोर दिया है। उनका कहना था कि रोज़ी ईमानदारी से कमानी चाहिए। हमें ऐसी रोज़ी नहीं कमानी चाहिए जिसमें धोखे, हिंसा, चोरी और भ्रष्टाचार आदि से काम लेना पड़े। हथियारों, नशीली वस्तुओं, माँस और मनुष्यों आदि का व्यापार करना सच्ची रोजी के साधन नहीं हैं क्योंकि ये मनुष्य के दुःखों का कारण बनते हैं।

6. सच्चा यत्न (Right Effort)-सच्चा यत्न मन में बुराइयों को पैदा होने से रोकता है। इसका मनोरथ यह है कि मनुष्य के मन में जन्मे हुए बुरे विचारों का अंत किया जाये और मन को अच्छे मार्ग की ओर ले जावे। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपने मन की कारवाई और विचारों के प्रति सदा चौकसी रखनी चाहिए। एक पल की ढील होने पर कोई बुरा विचार हमारे मन के अंदर आ सकता है जो कि मनुष्य को गिरावट के खड्डे में गिरा सकता है। इसलिए हमें विकारों का विश्लेषण करना चाहिए और अच्छे विचारों के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

7. सच्चा मनोयोग (Right Mindfulness)-सच्चा मनोयोग बुद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है। इसका अर्थ है मनुष्य का शरीर और मन के कार्यों के प्रति चेतन होना। यदि मनोयोग शुद्ध हो तो सद्विचार और सद्व्यवहार अपने आप उपजते हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को सदा चार पवित्र सच्चाइयों पर ध्यान रखना चाहिए। उसको शारीरिक अपवित्रता और मानसिक बुराइयों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

8. सच्चा ध्यान (Right Concentration)-महात्मा बुद्ध के अनुसार योग साधना के रास्ते से मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इसलिए उन्होंने सच्चे ध्यान (समाधि) पर अधिक जोर दिया। सच्चे ध्यान के लिए चार अवस्थाओं से गुजरना ज़रूरी है। पहली अवस्था में मनुष्य अपने मन को शुद्ध रख कर ध्यान में मग्न रहता है और उसे सुख की प्राप्ति होती है। दूसरी अवस्था में मनुष्य के सारे संदेह दूर हो जाते हैं और उसको आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त होता है। तीसरी अवस्था में आनंद समाप्त हो जाता है और मन सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है। इसको निर्विकार ध्यान कहते हैं। चौथी अवस्था में कुछ नहीं रहता और जीव शृंय (निर्वाण) को प्राप्त होता है। यह ध्यान की अंतिम मंजिल है। डॉक्टर एस० बी० शास्त्री का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध की शिक्षाओं की वास्तविक कुंजी है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।”2

2. “This noble Eightfold Path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S.B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म की चार पवित्र सच्चाइयाँ क्या हैं ? (What are the Four Noble Truths of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ। (Four Noble Truth of Buddhism.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार यह चार पवित्र सच्चाइयाँ हैं—

  1. जीवन दु:खों से भरपूर है। जन्म, रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु दुःख का कारण है।
  2. दुःखों का कारण तृष्णा है। इस तृष्णा के कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फँसा रहता है।
  3. तृष्णा का त्याग करने से दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. अष्ट मार्ग पर चल कर इन दुःखों का अंत किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
मध्य मार्ग अथवा अष्ट मार्ग से क्या अभिप्राय है ? (What do you understand by Middle Path or Eightfold Path ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने लोगों को आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता था क्योंकि यह कठोर तपस्या और भोग-विलास के बीच का मार्ग है। अष्ट मार्ग के सिद्धांत ये थे—

  1. सच्चा विचार
  2. सच्ची नीयत
  3. सच्चा बोल
  4. सच्चा व्यवहार
  5. सच्ची आजीविका
  6. सच्चा यत्न
  7. सच्चा मनोयोग
  8. सच्चा ध्यान।

यह पवित्र अष्ट मार्ग महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार है जिसको अपनाकर मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म की चार पवित्र सच्चाइयाँ क्या हैं ?
(What are the Four Noble Truths of Buddhism ?)
उत्तर-
चार पवित्र सच्चाइयाँ बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। इन सच्चाइयों को महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अनुभव द्वारा प्राप्त किया था। ये पवित्र सच्चाइयाँ अपने आप में एक दर्शन हैं। इनको चार आर्य सत्य भी कहा जाता है। क्योंकि यह चिरंजीवी है और सच्चाई पर आधारित है। महात्मा बुद्ध का कहना था कि इन पर अमल करने के मनुष्य अपने दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इन पर अमल करने के लिए मनुष्य को न तो किसी पुजारी और न ही अन्य कर्म कांडों की ज़रूरत है। पवित्र जीवन व्यतीत करना ही इसका मूल आधार है। चार पवित्र सच्चाइयाँ ये हैं—

  1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
  2. दुःखों का कारण है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. दु:खों का अंत करने का एक मार्ग है।

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या जीवन दुःखों से भरपूर है ? (According to Lord Buddha is life full of sufferings ?) .
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है। इससे कोई व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता कि जीवन में दुःख ही दुःख हैं। जो भी व्यक्ति इस संसार में जन्म लेगा उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु को प्राप्त होना ज़रूरी है। यह महान् दुःख है। इन के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों दुःख हैं जिनको मनुष्य भोगता है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य जो चाहता है जब उसे प्राप्त नहीं होता तो वह दुःखी है। कोई मनुष्य ग़रीबी कारण दुःखी है और कोई अमीर होने पर भी दुःखी रहता है क्योंकि वह अधिक धन की लालसा करता है। कोई व्यक्ति बे-औलाद होने के कारण दुःखी रहता है और किसी की अधिक औलाद दुःख का कारण बनती है। यदि कोई भूखा है तो भी दु:खी है और कोई अधिक खा लेने के कारण दुःखी होता है। कोई अपने किसी रिश्तेदार के बिछड़ जाने के कारण दुःखी होता है और कोई अपने दुश्मन का मुँह देख लेने पर दु:खी होता है। जिनको मनुष्य सुख समझता है वह ही दुःख का कारण बनते हैं क्योंकि सुख पल भर ही रहता है। वास्तव में दुःख मनुष्य के जीवन का एक ज़रूरी अंग है। यह मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक साथ रहता है। महात्मा बुद्ध का कहना है कि मृत्यु से दुःखों का अंत नहीं होता क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। यह केवल एक कहानी का अंत है, नये जीवन में पुराने संस्कार जुड़े होते हैं। संक्षेप में जीवन दु:खों की एक लंबी यात्रा है।

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःखों का क्या कारण है ?
(According to Lord Buddha is there a cause of sufferings ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की दूसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का कारण है। प्रत्येक घटना का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यह नहीं हो सकता कि घटना का कोई कारण ही न हो। प्रत्येक घटना का संबंध किसी ऐसी पूर्ववर्ता घटना अथवा परिस्थितियों से होता है जिनके होने से यह होती है और जिनके न होने से यह नहीं होती। बिना कारण के परिणाम संभव नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य के दुःखों का क्या कारण है। महात्मा बुद्ध के अनुसार तृष्णा और अजानता दु:खों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण हम बार बार जन्म लेते हैं और दुःख पाते हैं। तृष्णा दुःख का कारण है क्योंकि जहाँ तृष्णा है वहाँ मनुष्य असंतुष्ट है। यदि वह संतुष्ट हो तो तृष्णा पैदा ही नहीं होती। तृष्णा जीवन भर बनी रहती है। यह मरने पर भी नहीं मरती और नया जन्म होने से दुगुनी शक्ति से खुद को पूरा करती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है—

  1. ऐश करने की तृष्णा,
  2. जीते रहने की तृष्णा,
  3. अनहोने की तृष्णा।

अविद्या से भाव अज्ञानता से है। इसी कारण ही मनुष्य आवागमन के चक्रों में फंसा रहता है, जिसका परिणाम दुःख है। जब तक मनुष्य इस आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं होता तब तक उसके दुःखों का अंत नहीं हो सकता। अज्ञानता के कारण ही मनुष्य अपने जीवन, संसार, सम्पत्ति और परिवार को स्थिर समझ लेता है जबकि वास्तव में यह सब नाशवान् है। जो जन्म लेता है वह मरता भी है।

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या दुःखों का अंत किया जा सकता है ? (According to Lord Buddha can sufferings be stopped ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की तीसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का दुःख तथ्यों पर आधारित एक ठोस सच्चाई है। परंतु इससे यह भाव नहीं कि बुद्ध दर्शन निराशावादी है। वास्तव में यह दुःखी मनुष्य के लिए एक दीये का काम करता है। इसका कहना है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। जैसे कि ऊपर बताया गया है कि प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यदि इन कारणों से छुटकारा पा लिया जाए तो दुःखों से छुटकारा पा लिया जा सकता है। दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। तृष्णा के पूर्ण तौर पर मिट जाने से दुःख दूर हो जाता है। इस तृष्णा की समाप्ति का अर्थ अपनी सारी वासनाओं और भूखों पर रोक लगाना है। ऐसा करके मनुष्य अपने सारे दु:खों से छुटकारा और निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या दुःखों का अंत करने के लिए एक मार्ग है ? (According to Lord Buddha is there a way to stop sufferings ?) .
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की चौथी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है। इस मार्ग को वह मध्य मार्ग बताते हैं। उनके अनुसार प्रवृत्ति (भोग का मार्ग) और निवृत्ति (तपस्या का मार्ग) दोनों गलत हैं क्योंकि यह अति पर आधारित हैं। प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए, उनको मारना नहीं चाहिए। बुद्ध के अनुसार इच्छाओं को पूरा करने पर इच्छाएँ पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। प्रत्येक इच्छा की पूर्ति जलती पर घी डालने का काम करती है। इच्च्छाओं से केवल नाशवान् सुख की प्राप्ति होती है जिसका अंत दुःख होता है। दूसरी ओर निवृत्ति के मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। महात्मा बुद्ध के अनुसार इच्छाओं के दमन से यह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं। यह अंदर ही अंदर दबी हुई आग की तरह सुलगती रहती हैं और अवसर मिलने पर भड़क उठती हैं। इसके अतिरिक्त इच्छाओं के दमन से कई मानसिक और शारीरिक कष्ट आदि उत्पन्न होते हैं। इसलिए महात्मा बुद्ध ने इन दोनों अतिवादी मार्गों को गलत कहा। उन्होंने मध्य मार्ग अपनाने के पक्ष में प्रचार किया। मध्य मार्ग पर चलने के कारण इच्छाएँ धीरे-धीरे संयम के अधीन हो जाती हैं और परम शाँति की प्राप्ति होती है। बुद्ध का यह मार्ग आठ सद्गुणों पर निर्भर करता है जिस कारण इसको अष्ट मार्ग भी कहते हैं। ये आठ सद्गुण हैं—

  1. सच्चा विचार
  2. सच्ची नीयत
  3. सच्चा बोल
  4. सच्चा व्यवहार
  5. सच्ची रोज़ी
  6. सच्चा यत्न
  7. सच्चा मनोयोग
  8. सच्चा ध्यान।

संक्षेप में मध्य मार्ग पर चलकर ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध के मध्य मार्ग अथवा अष्ट मार्ग से क्या अभिप्राय है ?
(What do you understand by Middle Path or Eightfold Path of Lord Buddha ?)
अथवा
बुद्ध धर्म का अष्ट मार्ग क्या है ? जानकारी दीजिए।
(What is the Astha Marga of Buddhism ? Elucidate.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग का अध्यात्मिक महत्त्व दर्शाइए।
(Describe the religious importance of Ashta Marga in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म का अष्टांग मार्ग क्या है ?
(What is Ashtang Marga of Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने लोगों को आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता था क्योंकि यह कठोर तपस्या और भोग-विलास के बीच का मार्ग है। अष्ट मार्ग के सिद्धाँत ये थे—

  1. व्यक्ति के कर्म शुद्ध होने चाहिएं और उसको चोरी, नशों एवं भोग-विलास से दूर रहना चाहिए।
  2. उसको यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का अंत करके ही दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  3. उस विचार शुद्ध होने चाहिएं और उसको सांसारिक बुराइयों से दूर रहना चाहिए।
  4. व्यक्ति के वचन पवित्र होने चाहिएँ और उसको किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए।
  5. व्यक्ति को स्वच्छ जीवन व्यतीत करना चाहिए और उसको किसी के साथ कोई बुराई नहीं करनी चाहिए।
  6. व्यक्ति को बुरे कार्यों के दमन और दूसरों के कल्याण के लिए प्रयास करने चाहिए।
  7. व्यक्ति को अपना मन शुद्ध समाधि में लगाना चाहिए।
  8. व्यक्ति को अपना ध्यान पवित्र एवं सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।

प्रश्न 9.
बुद्ध धर्म के किन्हीं दो मार्गों का वर्णन करें।
(Explain any two Margas of Buddhism.) ।
उत्तर-
1. सच्चा बोल-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निंदा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

2. सच्चा व्यवहार-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पड़ता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. बौद्ध धर्म के महान् सत्य कितने हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 2. चार महान् सच्चाइयों का संबंध किस मत के साथ है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के साथ।

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म का कोई एक महान् सत्य बताएँ।
उत्तर-संसार दुखों का घर है।

प्रश्न 4. अष्ट मार्ग का आरंभ किसने किया था ?
उत्तर-अष्ट मार्ग का आरंभ महात्मा बुद्ध ने किया था।

प्रश्न 5. अष्ट मार्ग से क्या भाव है ?
अथवा
अष्ट मार्ग क्या है ?
उत्तर-अष्ट मार्ग से भाव आठ मार्ग हैं जिन पर चलकर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता था।

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म में दुखों के अंत के लिए किस मार्ग पर चलना आवश्यक बताया गया है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म में दुखों के अंत के लिए अष्ट मार्ग पर चलना आवश्यक बताया गया है।

प्रश्न 7. अष्ट मार्ग के कितने भाग हैं ? इसका दूसरा नाम क्या है ?
अथवा
अष्ट मार्ग के कुल कितने भाग हैं ?
उत्तर-

  1. अष्ट मार्ग के आठ भाग हैं।
  2. इसका दूसरा नाम मध्य मार्ग है।

प्रश्न 8. अष्ट मार्ग को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 9. बौद्ध धर्म का मध्य मार्ग क्या है ?
उत्तर-सांसारिक भोगों तथा कठोर तप के बीच के मार्ग को मध्य मार्ग कहा जाता है।

प्रश्न 10. बौद्ध धर्म के अनुसार नैतिक जीवन की आधारशिला क्या है ?
उत्तर-सच्चा विचार।

प्रश्न 11. अष्टांग मार्ग का ‘सच्चा विचार’ क्या है ?
उत्तर-चार पावन सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है।

प्रश्न 12. बौद्ध धर्म के अनुसार रोजी-रोटी कैसे कमानी चाहिए ?
उत्तर-ईमानदारी से।

प्रश्न 13. बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण की प्राप्ति के लिए किस मार्ग का पालन अनिवार्य बताया गया है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिए अष्ट मार्ग का पालन अनिवार्य बताया गया है।

प्रश्न 14. अष्ट मार्ग का संबंध किस धर्म के साथ है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के साथ।

प्रश्न 15. बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म दो प्रकार के हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 16. बौद्ध धर्म के अनुसार दो प्रकार के कर्म कौन से हैं ?
उत्तर-

  1. पवित्र कर्म
  2. अपवित्र कर्म।

प्रश्न 17. बौद्ध धर्म में योग और ध्यान की नींव किसे माना जाता है ?
उत्तर-सच्चे मनोयोग को।

प्रश्न 18. बौद्ध धर्म में शून्य से क्या भाव है ?
उत्तर-निर्वाण प्राप्त करना।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. बौद्ध धर्म के महान् सच्च ………… हैं।
उत्तर-चार

प्रश्न 2. चार पावन सच्चाइयों को चार ………… के नाम से भी जाना जाता हैं।
उत्तर-आर्य सच

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन ………. से भरपूर है।
उत्तर-दुखों

प्रश्न 4. बौद्ध धर्म के अनुसार वृष्णा ………. प्रकार की होती है।
उत्तर-तीन

प्रश्न 5. अविद्या से भाव है ……. ।।
उत्तर-अज्ञानता

प्रश्न 6. अष्ट मार्ग का संबंध ………. से है।
उत्तर-बौद्ध मत

प्रश्न 7. अष्ट मार्ग को ……… के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-मध्य मार्ग

प्रश्न 8. ………. नैतिक जीवन की आधार शिला है।।
उत्तर-सच्चा विचार

प्रश्न 9. महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत ……… होनी चाहिए। ..
उत्तर-सच्ची

प्रश्न 10. बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म ………. प्रकार के हैं।
उत्तर-दो

प्रश्न 11. सच्चा ………. बौद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है।
उत्तर-मनोयोग

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. चार महान् सच्चाइयां बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म के अनुसार तृष्णा पाँच प्रकार की होती है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 4. बौद्ध धर्म के अनुसार दुःखों का अंत कभी नहीं किया जा सकता।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. अष्ट मार्ग जैन धर्म के साथ संबंधित है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म के अनुसार कृर्म दो प्रकार के हैं।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 7. बौद्ध धर्म के अनुसार सच्चा प्रयत्न मन में बुराइयों के उत्पन्न होने को रोकता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 8. महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःखों से मुक्ति पाने के लिए अष्ट मार्ग पर चलना अनिवार्य है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म कितनी पवित्र सच्चाइयों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 8
उत्तर-
(ii) 4

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म की पहली पावन सच्चाई कौन-सी है ?
(i) दुःखों का कारण है
(ii) जीवन दुःखों से भरपूर है
(iii) दुःखों का अंत किया जा सकता है
(iv) दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।
उत्तर-
(ii) जीवन दुःखों से भरपूर है

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म कितने मार्गों में विश्वास रखता है ?
(i) 5
(ii) 6
(iii) 7
(iv) 8
उत्तर-
(iv) 8

प्रश्न 4.
अष्ट मार्ग किस धर्म के साथ संबंधित है ?
(i) जैन धर्म ,
(ii) बौद्ध धर्म
(iii) हिंदू धर्म
(iv) इस्लाम धर्म।
उत्तर-
(ii) बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
अष्ट मार्ग को अन्य किस मार्ग के नाम से जाना जाता है ?
(i) शाँति मार्ग
(ii) मध्य मार्ग
(iii) प्रवृत्ति मार्ग
(iv) निवृत्ति मार्ग।
उत्तर-
(ii) मध्य मार्ग

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस मार्ग को बौद्ध के योग और ध्यान की नींव माना जाता है ?
(i) सच्चा प्रयत्न
(ii) सच्चा विचार
(iii) सच्ची नियत
(iv) सच्चा मनोयोग।
उत्तर-
(iv) सच्चा मनोयोग।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 6 आदि ग्रंथ

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
श्री गुरु अर्जन देव जी की ओर से अपनाए गए श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संपादन के लिए अपनाई गई संपादन योजना के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Editorial Scheme of Sri Guru Granth Sabib Ji adopted by Sri Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the Editing Art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया, कैसे किया, कब किया और कहां किया ? चर्चा करें।
(Who compiled, how compiled, when compiled and where compiled Guru Granth Sahib Ji ? Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन कार्य किसने और कैसे किया ? चर्चा कीजिए।
(Who and how did the editing work of Sri Guru Granth Sahib Ji ? Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने गुरु साहिबान की बाणी दर्ज है ? गुरु ग्रंथ साहिब की संपादन कला पर नोट लिखो।
(Give number of the Sikh Gurus whose composition are included in the Guru Granth Sahib Ji. Write a note on the Editorial Scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन-युक्ति का आलोचनात्मक दृष्टि से परीक्षण कीजिए।
(Examine critically the Editorial Scheme of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन एवं संपादन-युक्ति के इतिहास की चर्चा कीजिए।
(Discuss the history of compilation and Editing Scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की संपादन योजना कैसे बनी ? प्रकाश डालें। (How editing scheme of Adi Granth Sahib Ji was shaped ? Elucidate.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें। गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने रागों की वाणी अंकित है ?
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji. Give the number of musical measures under which hymns are included in the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें। जिन भक्तों की वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, उनमें से किन्हीं पाँच के नाम लिखें।
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji. Give names of any five Bhaktas, whose hymns are included in the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन के इतिहास पर प्रकाश डालें। (Throw light on the history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन करते समय गुरु अर्जन देव जी ने कौन-सी प्रणाली अपनाई ?
(Which methodology was adopted by Guru Arjan Dev Ji for editing of Guru Granth Sahib Ji ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी ने सिख धर्म को एक विलक्षण ग्रंथ देकर इसके संगठन में एक अहम भूमिका निभाई। चर्चा कीजिए।
(Guru Arjan Dev Ji made significant contribution in the development of Sikh faith by providing it a scripture. Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के विषय में जानकारी दीजिए। (Write about the editorial scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादना के संदर्भ में गुरु अर्जन देव जी की संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Editing Art of Guru Arjan Dev Ji in the context of editing Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें।
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन क्यों किया गया ? उसके महत्त्व का भी वर्णन करें।
(Why was Adi Granth Sahib Ji compiled ? Also explain its importance.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के गुरु ग्रंथ साहिब जी के संपादन पर नोट लिखें।
(Write a note on Guru Arjan Dev’s editing of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला बारे आप क्या जानते हैं ? विस्तृत चर्चा करें।
(What do you know about the editorial scheme of Guru Granth Sahib Ji ? Explain in detail.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की विषय वस्तु के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the contents of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन तथा संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the compilation and editing art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य था। इसका मुख्य उद्देश्य न केवल सिखों अपितु समूची मानव जाति को एक नई दिशा देना था। इसका संकलन कार्य अमृतसर के निकट रामसर नामक स्थान पर गुरु अर्जन देव जी के आदेश पर भाई गुरदास जी ने किया। इसमें सिखों के प्रथम 5 गुरु साहिबान, 15 भक्तों एवं सूफी संतों, 11 भाटों तथा 4 गुरु घर के परम सेवकों की वाणी बिना किसी जातीय अथवा धार्मिक मतभेद के अंकित की गई है। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी 31 रागों में विभाजित है। यह संपूर्ण वाणी परमात्मा की प्रशंसा में रची गयी है। इसमें कर्मकांडों अथवा अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में 16 अगस्त, 1604 ई० को हुआ तथा बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।
1706 ई० में गुरु गोबिंद साहिब जी ने दमदमा साहिब में आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ तैयार करवाई। इसमें गुरु साहिब ने गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद तथा श्लोक सम्मिलित किए। इन्हें गुरु गोबिंद सिंह जी के आदेश पर भाई मनी सिंह जी ने लिखा था। इस प्रकार आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 36 महापुरुषों की वाणी संकलित है। 6 अक्तूबर, 1708 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का सम्मान दिया। सिखों के मन में गुरु ग्रंथ साहिब जी का वही सम्मान तथा श्रद्धा है जो बाइबल के लिए ईसाइयों, कुरान के लिए मुसलमानों तथा वेदों एवं गीता के लिए हिंदुओं के मदों में है। वास्तव में यह न केवल सिखों का पवित्र धार्मिक ग्रंथ है अपितु सम्पूर्ण मानवता के लिए एक अमूल्य निधि है।

I. संपादन कला (Editorial Scheme)-

1. संकलन की आवश्यकता (Need for its Compilation)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु अर्जन साहिब जी के समय सिख धर्म का प्रसार बहुत तीव्र गति से हो रहा था। उनके नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई पृथिया स्वयं गुरुगद्दी प्राप्त करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर लोगों में प्रचलित करनी आरंभ कर दी थी। गुरु अर्जन देव जी गुरु साहिबान की वाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे ताकि सिखों को कोई संदेह न रहे। तीसरा, यदि सिखों का एक अलग राष्ट्र स्थापित करना था तो उनके लिए एक अलग धार्मिक ग्रंथ लिखा जाना भी आवश्यक था। चौथा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची वाणी पढ़ने के लिए कहा था। गुरु साहिब आनंदु साहिब में कहते हैं,

आवह सिख सतगुरु के प्यारो गावहु सच्ची वाणी॥
वाणी तां गावहु गुरु केरी वाणियां सिर वाणी॥
कहे नानक सदा गावहु एह सच्ची वाणी।

इन कारणों से गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करने की आवश्यकता अनुभव की।

2. वाणी को एकत्रित करना (Collection of Hymns)-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में लिखने के लिए भिन्न-भिन्न स्रोतों से वाणी एकत्रित की। प्रथम तीन गुरु साहिबान-गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र बाबा मोहन जी के पास पड़ी थी। इस
Class 12 Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ 1
GURU ARJAN DEV JI
वाणी को एकत्रित करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन देव जी ने पहले भाई गुरदास जी को तथा फिर बाबा बुड्डा जी को बाबा मोहन जी के पास भेजा किंतु वे अपने उद्देश्य में सफल न हो पाए। इसके पश्चात् गुरु साहिब स्वयं अमृतसर से गोइंदवाल साहिब नंगे पांव गए। गुरु जी की नम्रता से प्रभावित होकर बाबा मोहन जी ने अपने पास पड़ी समस्त वाणी गुरु जी के सुपुर्द कर दी। गुरु रामदास जी की वाणी गुरु अर्जन साहिब जी के पास ही थी। गुरु साहिब ने अपनी वाणी भी शामिल की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने हिंदू भक्तों और मुस्लिम संतों के श्रद्धालुओं को अपने पास बुलाया और कहा कि गुरु ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित करने के लिए वे अपने संतों की सही वाणी बताएं। गुरु ग्रंथ साहिब जी में केवल उन भक्तों और संतों की वाणी सम्मिलित की गई जिनकी वाणी गुरु साहिबान की वाणी से मिलती-जुलती थी। लाहौर के काहना, छज्जू, शाह हुसैन और पीलू की रचनाएँ रद्द कर दी गईं।

3. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन कार्य के लिए अमृतसर से दक्षिण की ओर स्थित एकांत एवं रमणीय स्थान की खोज की। इस स्थान पर गुरु साहिब ने रामसर नामक एक सरोवर बनवाया। इस सरोवर के किनारे पर एक पीपल वृक्ष के नीचे गुरु जी के लिए एक तंबू लगवाया गया। यहाँ बैठकर गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य आरंभ किया। गुरु अर्जन देव जी वाणी लिखवाते गए और भाई गुरदास जी इसे लिखते गए। यह महान् कार्य अगस्त, 1604 ई० में सम्पूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश 16 अगस्त, 1604 ई० को श्री हरिमंदिर साहिब जी में किया गया तथा बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।

4. ग्रंथ साहिब में योगदान करने वाले (Contributors in the Granth Sahib)-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल 5,894 शबद दर्ज किए गए हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  • सिख गुरु (Sikh Gurus)-आदि ग्रंथ साहिब जी में सिख गुरुओं का योगदान सर्वाधिक है। इसमें गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शबद अंकित हैं। तत्पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद और श्लोक शामिल किए गए।
  • भक्त एवं संत (Bhagats and Saints)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की वाणी अंकित की गई है। प्रमुख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, शेख फरीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानन्द जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शबद हैं। इसमें शेख फ़रीद जी के 112 श्लोक एवं 4 शब्द सम्मिलित हैं।
  • भाट (Bhatts)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों के शबद भी अंकित किए गए हैं। इन शबदों की कुल संख्या 125 है। कुछ प्रमुख भाटों के नाम ये हैं-नल जी, बल जी, जालप जी, भिखा जी और हरबंस जी।
  • अन्य (Others)-आदि ग्रंथ साहिब जी में ऊपरलिखित महापुरुषों के अतिरिक्त सत्ता, बलवंड, मरदाना और सुंदर की रचनाओं को भी सम्मिलित किया गया है।

5. वाणी का क्रम (Arrangement of the Bani)-आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 1430 पृष्ठ हैं। इनमें दर्ज की गई वाणी को तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में जपुजी साहिब, रहरासि साहिब और सोहिला आते हैं। इनका वर्णन ग्रंथ साहिब जी के 1 से 13 पृष्ठों तक किया गया है। दूसरा भाग जो कि गुरु ग्रंथ साहिब जी का मुख्य भाग कहलाता है, में वर्णित वाणी को 31 रागों के अनुसार 31 भागों में विभाजित किया गया है। यहाँ यह बात स्मरण रखने योग्य है कि अधिक प्रसन्नता और अधिक दुःख प्रकट करने वाले रागों को ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित नहीं किया गया है। प्रत्येक राग में प्रभु की स्तुति के पश्चात् पहले गुरु नानक साहिब तथा फिर अन्य गुरु साहिबान के शबद क्रमानुसार दिए गए हैं।

क्योंकि सभी गुरुओं के शबदों में ‘नानक’ का नाम ही प्रयुक्त हुआ है, इसलिए उनके शबदों में अंतर प्रकट करने के लिए महलों का प्रयोग किया गया है। जैसे गुरु नानक साहिब जी की वाणी के साथ महला पहला का प्रयोग किया गया है तथा गुरु अंगद साहिब जी की वाणी के साथ महला दूसरा का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक रागमाला में गुरु साहिबान के शबदों के पश्चात् भक्तों और सूफी संतों की रचनाएँ क्रमानुसार दी गई हैं। इस भाग का वर्णन गुरु ग्रंथ साहिब जी के 14 से लेकर 1353 पृष्ठों तक किया गया है। तीसरे भाग में भट्टों के सवैये, सिख गुरुओं और भक्तों के वे श्लोक हैं जिन्हें रागों में विभाजित नहीं किया जा सका। आदि ग्रंथ साहिब जी ‘मुंदावणी’ नामक दो श्लोकों से समाप्त होता है। ये श्लोक गुरु अर्जन देव जी के हैं। इनमें उन्होंने आदि ग्रंथ साहिब जी का सार और ईश्वर का धन्यवाद किया है। अंत में ‘रागमाला’ के शीर्षक के अन्तर्गत एक अन्तिका दी गई है। इस तीसरे भाग का वर्णन आदि ग्रंथ साहिब जी के 1353 पृष्ठों से लेकर 1430 पृष्ठों तक किया गया है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

आदि ग्रंथ साहिब जी का क्रम
(Arrangement of Adi Granth Sahib Ji)

  1. जपुजी साहिब 1-8
  2. रहरासि साहिब 8-12
  3. सोहिला 12-13
  4. सिरि राग 14-93
  5. माझ 94-150
  6. गउड़ी 151-346
  7. आसा 347-488
  8. गूजरी 489-526
  9. देवगांधारी 527-536
  10. बेहागड़ा 537-556
  11. वडहंस 557-594
  12. सोरठ 595-659
  13. धनासरी 660-695
  14. जैतसरी 696-710
  15. टोडी 711-718
  16. बैराड़ी 719-720
  17. तिलंग 721-727
  18. सूही 728-794
  19. बिलावल 795-858
  20. गोंड 859-875
  21. रामकली 876-974
  22. नटनारायण 975-983
  23. माली गउड़ा 984-988
  24. मारू 989-1106
  25. तुखारी 1107-1117
  26. केदारा 1118-1124
  27. भैरो 1125-1167
  28. वसंत 1168-1196
  29. सारंग 1197-1253
  30. मल्लहार 1254-1293
  31. कन्नड़ा 1294-1318
  32. कल्याण 1319-1326
  33. प्रभाति 1327-1351
  34. जैजावंती 1352-1353
  35. श्लोक सहस्कृति 1353-1360
  36. गाथा 1360-1361
  37. फुनहे 1361-1363
  38. चउबले 1363-1364
  39. श्लोक कबीर 1364-1377
  40. श्लोक फरीद 1377-1384
  41. सवैये गुरु अर्जन 1385-1389
  42. सवैये भट्ट 1389-1409
  43. गुरु साहेबान के श्लोक 1409-1426
  44. श्लोक गुरु तेग़ बहादुर 1426-1429
  45. मुंदावणी-1429
  46. रागमाला 1429-1430

6. वाणी एवं संगीत का सुमेल (Synthesis of Bani and Music)-सिख गुरु संगीत के महत्त्व से भली-भांति परिचित थे। इसलिए आदि ग्रंथ साहिब जी की बीड़ का संपादन करते समय गुरु अर्जन देव जी ने रागों के अनुसार अधिकतर वाणी को क्रम दिया है। इस वाणी की रचना 31 रागों के अनुसार की गई है। सिरि राग से लेकर प्रभाती राग तक कुल 30 रागों की रचना गुरु अर्जन देव जी ने अपनी वाणी में अंकित की। गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी राग जैजावंती में रची गयी। यह बात यहाँ स्मरण रखने योग्य है कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत खुशी अथवा बहुत गमी अथवा उत्तेजक प्रकार के रागों का प्रयोग नहीं किया गया है।

7. विषय (Subject)-आदि ग्रंथ साहिब जी में प्रभु की स्तुति की गई है। इसमें नाम का जाप, सच्चखण्ड की प्राप्ति और गुरु के महत्त्व के संबंध में प्रकाश डाला गया है। इसमें समस्त मानवता के कल्याण, प्रभु की एकता और विश्व-बंधुत्व का संदेश दिया गया है । इसमें गुरु साहिबान की जीवनियाँ अथवा चमत्कारों अथवा किसी प्रकार के सांसारिक मामलों का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार गुरु ग्रंथ साहिब जी का विषय नितांत धार्मिक है।

8. भाषा (Language)-आदि ग्रंथ साहिब जी गुरमुखी लिपि में लिखा गया है। इसमें 15वीं, 16वीं और 17वीं शताब्दी की पंजाबी, हिंदी, मराठी, गुजराती, संस्कृत तथा फ़ारसी इत्यादि भाषाओं के शबदों का प्रयोग किया गया है। गुरु साहिबान के शबद पंजाबी भाषा में हैं तथा अन्य भक्तों तथा सिख संतों की रचनाएँ दूसरी भाषाओं में हैं।
Class 12 Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ 2
SRI HARMANDIR SAHIB : AMRITSAR

II. आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व (Significance of Adi Granth Sahib Ji)
आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों का ही नहीं अपितु सारे संसार का एक अद्वितीय धार्मिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना ने सिख समुदाय को जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए और उनके संगठन को दृढ़ किया। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातत्व का संदेश देती है।

1. सिखों के लिए महत्त्व (Importance for the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के पश्चात् गुरु ग्रंथ साहिब जी को सिखों का गुरु माना जाने लगा। आज विश्व में प्रत्येक सिख गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ को बहुत मान-सम्मान सहित उच्च स्थान पर रेशमी रुमालों में लपेट कर रखा जाता है तथा इसका प्रकाश किया जाता है। सिख संगतें इसके सामने बहुत आदरपूर्ण ढंग से मत्था टेककर बैठती हैं। सिखों की जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी रस्में गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख पूर्ण की जाती हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों के लिए न केवल प्रकाश स्तंभ है, अपितु उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत है। डॉक्टर वजीर सिंह के अनुसार,
“आदि ग्रंथ साहिब जी वास्तव में उनका (गुरु अर्जन साहिब का) सिखों के लिए सबसे मूल्यवान् उपहार था।”1

2. भ्रातृत्व का संदेश (Message of Brotherhood)-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन देव जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है। आज के युग में जब लोगों में सांप्रदायिकता की भावना बहुत बढ़ गई है और विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, गुरु ग्रंथ साहिब जी की महत्ता और भी बढ़ जाती है। डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी के अनुसार, .
“जब तक मानव-जाति जीवित रहेगी, वह इस ग्रंथ से शांति, बुद्धिमत्ता और प्रोत्साहन प्राप्त करती रहेगी। यह समस्त मानव-जाति के लिए एक अमूल्य निधि और उत्तम विरासत है।”2

3. साहित्यिक महत्त्व (Literary Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

4. ऐतिहासिक महत्त्व (Historical Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी निस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं और 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में गुरु नानक साहिब ने लोधी शासकों के शासनप्रबंध की बहुत आलोचना की है। शासक श्रेणी कसाई बन गई थी। काज़ी घूस लेकर न्याय करते थे। शासकों और अन्य दरबारियों की नैतिकता का पतन हो चुका था। बाबर के आक्रमण के समय पंजाब के लोगों की दुर्दशा का आँखों देखा हाल गुरु नानक देव जी ने ‘बाबर वाणी’ में किया है। सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उन्हें बहुत निम्न स्थान प्राप्त था। उनमें सती प्रथा और पर्दे का बहुत प्रचलन था। विधवा का बहुत अनादर किया जाता था। हिंदू समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग बहुत अहंकार करते थे तथा निम्न जातियों पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय धर्म केवल बाह्याडंबर बनकर रह गया था। हिंदुओं और मुसलमानों में भारी अंध-विश्वास फैले हए थे। हिंदु वर्ग में ब्राह्मण और मुस्लिम वर्ग में मुल्ला जनता को लूटने में लगे हुए थे। मुसलमान धर्म के नाम पर हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। आर्थिक क्षेत्र में धनी वर्ग निर्धनों का बहुत शोषण करता था। उस समय की कृषि तथा व्यापार के संबंध में भी पर्याप्त प्रकाश गुरु ग्रंथ साहिब में डाला गया है। डॉक्टर ए०सी० बैनर्जी के अनुसार,
” आदि ग्रंथ साहिब जी 15वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से लेकर 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है। “3

5. अन्य महत्त्व (Other Importances)-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। मनुष्य को रहस्यमयी उच्चाइयों तक ले जाने के लिए संगीत को अत्यंत विलक्षण ढंग से वाणी के साथ जोड़ा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु का सम्मान देने की उदाहरण किसी अन्य धर्म के इतिहास में नहीं मिलती। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदि ग्रंथ साहिब ने मनुष्य को उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान करके उसकी गोद हीरे-मोतियों से भर दी है। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“आदि ग्रंथ जी का संकलन सिखों के इतिहास की एक युगांतकारी घटना मानी जाती है।”4

1. “The Adi Granth was indeed his most precious gift to the Sikh world.” Dr. Wazir Singh, Guru Arjan Dev (New Delhi : 1991, p. 21.
2. “As long as mankind lives it will derive peace, wisdom and inspiration from this scripture. It is a unique treasure, a noble heritage for the whole human race.” Dr. G. S. Mansukhani, A Hand Book of Sikh Studies (Delhi : 1978) p. 139.
3. “The Adi Granth is a rich mine of information on political, religious, social and economic conditions in the Punjab from the last years of the fifteenth to the beginning of the seventeenth century.” Dr. A. C. Banerjee, The Sikh Gurus and the Sikh Religion (Delhi : 1983) p. 194.
4. “The compilation of the Adi Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikhs (New Delhi : 1973) Vol. 1, p. 97.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 2.
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी सर्व सांझा पवित्र ग्रंथ है।
(Sri Guru Granth Sahib Ji is a sacred Granth of all common people. Discuss.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के संपादन की ऐतिहासिक महत्त्व की चर्चा कीजिए। (Discuss the historical importance of the editing work of Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व (Significance of Adi Granth Sahib Ji)
आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों का ही नहीं अपितु सारे संसार का एक अद्वितीय धार्मिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना ने सिख समुदाय को जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए और उनके संगठन को दृढ़ किया। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातत्व का संदेश देती है।

1. सिखों के लिए महत्त्व (Importance for the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के पश्चात् गुरु ग्रंथ साहिब जी को सिखों का गुरु माना जाने लगा। आज विश्व में प्रत्येक सिख गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ को बहुत मान-सम्मान सहित उच्च स्थान पर रेशमी रुमालों में लपेट कर रखा जाता है तथा इसका प्रकाश किया जाता है। सिख संगतें इसके सामने बहुत आदरपूर्ण ढंग से मत्था टेककर बैठती हैं। सिखों की जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी रस्में गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख पूर्ण की जाती हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों के लिए न केवल प्रकाश स्तंभ है, अपितु उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत है। डॉक्टर वजीर सिंह के अनुसार,
“आदि ग्रंथ साहिब जी वास्तव में उनका (गुरु अर्जन साहिब का) सिखों के लिए सबसे मूल्यवान् उपहार था।”1

2. भ्रातृत्व का संदेश (Message of Brotherhood)-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन देव जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है। आज के युग में जब लोगों में सांप्रदायिकता की भावना बहुत बढ़ गई है और विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, गुरु ग्रंथ साहिब जी की महत्ता और भी बढ़ जाती है। डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी के अनुसार, .
“जब तक मानव-जाति जीवित रहेगी, वह इस ग्रंथ से शांति, बुद्धिमत्ता और प्रोत्साहन प्राप्त करती रहेगी। यह समस्त मानव-जाति के लिए एक अमूल्य निधि और उत्तम विरासत है।”2

3. साहित्यिक महत्त्व (Literary Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

4. ऐति हासिक महत्त्व (Historical Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी निस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं और 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में गुरु नानक साहिब ने लोधी शासकों के शासनप्रबंध की बहुत आलोचना की है। शासक श्रेणी कसाई बन गई थी। काज़ी घूस लेकर न्याय करते थे। शासकों और अन्य दरबारियों की नैतिकता का पतन हो चुका था। बाबर के आक्रमण के समय पंजाब के लोगों की दुर्दशा का आँखों देखा हाल गुरु नानक देव जी ने ‘बाबर वाणी’ में किया है। सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उन्हें बहुत निम्न स्थान प्राप्त था। उनमें सती प्रथा और पर्दे का बहुत प्रचलन था। विधवा का बहुत अनादर किया जाता था। हिंदू समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग बहुत अहंकार करते थे तथा निम्न जातियों पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय धर्म केवल बाह्याडंबर बनकर रह गया था। हिंदुओं और मुसलमानों में भारी अंध-विश्वास फैले हए थे। हिंदु वर्ग में ब्राह्मण और मुस्लिम वर्ग में मुल्ला जनता को लूटने में लगे हुए थे। मुसलमान धर्म के नाम पर हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। आर्थिक क्षेत्र में धनी वर्ग निर्धनों का बहुत शोषण करता था। उस समय की कृषि तथा व्यापार के संबंध में भी पर्याप्त प्रकाश गुरु ग्रंथ साहिब में डाला गया है। डॉक्टर ए०सी० बैनर्जी के अनुसार,
” आदि ग्रंथ साहिब जी 15वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से लेकर 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है। “3

5. अन्य महत्त्व (Other Importances)-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। मनुष्य को रहस्यमयी उच्चाइयों तक ले जाने के लिए संगीत को अत्यंत विलक्षण ढंग से वाणी के साथ जोड़ा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु का सम्मान देने की उदाहरण किसी अन्य धर्म के इतिहास में नहीं मिलती। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदि ग्रंथ साहिब ने मनुष्य को उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान करके उसकी गोद हीरे-मोतियों से भर दी है। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“आदि ग्रंथ जी का संकलन सिखों के इतिहास की एक युगांतकारी घटना मानी जाती है।”4

1. “The Adi Granth was indeed his most precious gift to the Sikh world.” Dr. Wazir Singh, Guru Arjan Dev (New Delhi : 1991, p. 21.
2. “As long as mankind lives it will derive peace, wisdom and inspiration from this scripture. It is a unique treasure, a noble heritage for the whole human race.” Dr. G. S. Mansukhani, A Hand Book of Sikh Studies (Delhi : 1978) p. 139.
3. “The Adi Granth is a rich mine of information on political, religious, social and economic conditions in the Punjab from the last years of the fifteenth to the beginning of the seventeenth century.” Dr. A. C. Banerjee, The Sikh Gurus and the Sikh Religion (Delhi : 1983) p. 194.
4. “The compilation of the Adi Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikhs (New Delhi : 1973) Vol. 1, p. 97.

प्रश्न 3.
गुरु अर्जन देव जी के तैयार किए गुरु ग्रंथ साहिब जी के योगदानियों पर नोट लिखें।
(Write a brief note on the contributors of Guru Granth Sahib Ji prepared by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने वाणीकार थे ? उनका वर्णन कीजिए।
(How many are the contributors of Guru Granth Sahib Ji ? Give description of them.)
उत्तर-
ग्रंथ साहिब में योगदान करने वाले (Contributors in the Granth Sahib)-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल 5,894 शबद दर्ज किए गए हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. सिख गुरु (Sikh Gurus)-आदि ग्रंथ साहिब जी में सिख गुरुओं का योगदान सर्वाधिक है। इसमें गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शबद अंकित हैं। तत्पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद और श्लोक शामिल किए गए।
  2. भक्त एवं संत (Bhagats and Saints)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की वाणी अंकित की गई है। प्रमुख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, शेख फरीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानन्द जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शबद हैं। इसमें शेख फ़रीद जी के 112 श्लोक एवं 4 शब्द सम्मिलित हैं।
  3. भाट (Bhatts)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों के शबद भी अंकित किए गए हैं। इन शबदों की कुल संख्या 125 है। कुछ प्रमुख भाटों के नाम ये हैं-नल जी, बल जी, जालप जी, भिखा जी और हरबंस जी।
  4. अन्य (Others)-आदि ग्रंथ साहिब जी में ऊपरलिखित महापुरुषों के अतिरिक्त सत्ता, बलवंड, मरदाना और सुंदर की रचनाओं को भी सम्मिलित किया गया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब के संकलन और महत्त्व के संबंध में बताएँ।
[Write a note on the compilation and importance of Adi Granth Sahib (Guru Granth Sahib).]
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब पर संक्षेप नोट लिखें। (Write a note on Adi Granth Sahib.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था। गुरु अर्जन साहिब ने आदि ग्रंथ साहिब का कार्य रामसर में आरंभ किया। आदि ग्रंथ साहिब को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिबों, अन्य संतों और भक्तों की वाणी को भी सम्मिलित किया गया। इसका संकलन 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। बाद में गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी इसमें सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of Adi Granth Sahib ?)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के ऐतिहासिक महत्त्व की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Briefly explain the historical significance of Adi Granth Sahib Ji.)”
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। इसने सिखों में एक नवीन चेतना उत्पन्न की। इसमें बिना किसी जातीय भेदभाव, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन साहिब जी ने समस्त मानवता को आपसी भाईचारे का संदेश दिया। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। यह 15वीं से 17वीं शताब्दी के पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा को जानने के लिए हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन एवं महत्त्व के बारे में लिखें। (Write a note on the compilation and importance of Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कैसे हुआ ? संक्षिप्त चर्चा करें। (How Adi Granth Sahib Ji was compiled ? Discuss in brief.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था और सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का कार्य रामसर साहिब में आरंभ किया। इसमें गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी और गुरु अर्जन साहिब की वाणी सम्मिलित की गई। गुरु अर्जन साहिब जी के सर्वाधिक 2,216 शबद सम्मिलित किए गए। इनके अतिरिक्त गुरु अर्जन साहिब ने कुछ अन्य संतों और भक्तों की वाणी को सम्मिलित किया। आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। गुरु गोबिंद सिंह के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन सिख इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। इससे सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में भिन्न-भिन्न धर्म और जाति के लोगों की रचनाएँ सम्मिलित करके एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। 15वीं से 17वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति जानने के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी हमारा मुख्य स्त्रोत है। इनके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य तथा भाषाओं का एक अमूल्य खज़ाना है।

प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
(What was the need of the compilation of the Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु अर्जन साहिब जी के समय सिख धर्म का प्रसार बहुत तीव्र गति से हो रहा था। उनके नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन साहिब का बड़ा भाई पृथिया स्वयं गुरुगद्दी प्राप्त करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर लोगों में प्रचलित करना आरंभ कर दिया था। गुरु अर्जन साहिब गुरु साहिबान की वाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे ताकि सिखों को कोई संदेह न रहे। तीसरा, यदि सिखों का एक अलग राष्ट्र स्थापित करना था तो उनके लिए एक अलग धार्मिक ग्रंथ लिखा जाना भी आवश्यक था। चौथा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची वाणी पढ़ने के लिए कहा था। गुरु साहिब आनंदु साहिब में कहते हैं,

आवहु सिख सतगुरु के प्यारो गावहु सच्ची वाणी॥
वाणी तां गावहु गुरु केरी वाणियां सिर वाणी॥
कहे नानक सदा गावह एह सच्ची वाणी॥

इन कारणों से गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करने की आवश्यकता अनुभव की।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 5.
श्री गुरु अर्जन देव जी ने कौन-से पवित्र ग्रंथ का संपादन किया ? जानकारी दीजिए।
(Which sacred Granth was edited by Sri Guru Arjan Dev Ji ? Describe.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन तथा संपादन के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the compilation and editing of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the editing art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को कैसे एकत्र किया गया ?
(How were the hymns collected for Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में लिखने के लिए भिन्न-भिन्न स्त्रोतों से वाणी एकत्रित की। प्रथम तीन गुरु साहिबान-गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र बाबा मोहन,जी के. पास पड़ी थी। इस वाणी को एकत्रित करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन साहिब ने पहले भाई गुरदास जी को तथा फिर बाबा बुड्डा जी को बाबा मोहन जी के पास भेजा किंतु वे अपने उद्देश्य में सफल न हो पाए। इसके पश्चात् गुरु साहिब स्वयं अमृतसर से गोइंदवाल साहिब नंगे पाँव गए। गुरु जी की नम्रता से प्रभावित होकर बाबा मोहन जी ने अपने पास पड़ी समस्त वाणी गुरु जी के सुपुर्द कर दी। गुरु रामदास जी की वाणी गुरु अर्जन देव जी के पास ही थी। गुरु साहिब ने अपनी वाणी भी शामिल की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने हिंदू भक्तों और मुस्लिम संतों के श्रद्धालुओं को अपने पास बुलाया और कहा कि गुरु ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित करने के लिए वे अपने संतों की सही वाणी बताए। गुरु ग्रंथ साहिब में केवल उनू भक्तों और संतों की वाणी सम्मिलित की गई जिनकी वाणी गुरु साहिबान की वाणी से मिलती-जुलती थी। लाहौर के काहना, छज्जू, शाह हुसैन और पीलू की रचनाएँ रद्द कर दी गईं।

प्रश्न 6.
आदि ग्रंथ साहिब जी के महत्त्व के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the importance of Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-

  1. सिखों के लिए महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए।
  2. भ्रातत्व का संदेश-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन साहिब जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है।
  3. साहित्यिक महत्त्व-गुरु ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
  4. ऐतिहासिक महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी निःस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं से 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं।
  5. अन्य महत्त्व-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ? कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-सिखों के नेतृत्व के लिए एक पवित्र ग्रंथ की आवश्यकता थी।

प्रश्न 2. गुरु अर्जन देव जी ने प्रथम तीन गुरुओं की वाणी किससे प्राप्त की थी ?
उत्तर-बाबा मोहन जी से।

प्रश्न 3. बाबा मोहन जी कौन थे ?
उत्तर- बाबा मोहन जी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र थे।

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और किसने किया था ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम संकलन किसने तथा कब किया ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस गुरु साहिब ने किया ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में किया।

प्रश्न 5. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस वर्ष तथा किस स्थान पर हुआ ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संपादन कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में रामसर में हुआ।

प्रश्न 6. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन किसने, कब तथा कहाँ किया ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में रामसर नामक स्थान पर किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 7. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने के लिए गुरु अर्जन देव जी के साथ लेखक कौन था ?
उत्तर-भाई गुरदास जी।

प्रश्न 8. आदि ग्रंथ साहिब जी के प्रथम संपादक कौन थे ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 9. पहली बीड़ की रचना किसने तथा कहाँ की ?
उत्तर-पहली बीड़ की रचना गुरु अर्जन देव जी ने रामसर में की।

प्रश्न 10. प्रथम बीड़ की रचना किस वर्ष तथा किस स्थान पर की गई ?
उत्तर–प्रथम बीड़ की रचना 1604 ई० में रामसर में की गई।

प्रश्न 11. दूसरी बीड़ की रचना किसने तथा कहाँ की ?
उत्तर-दूसरी बीड़ की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दमदमा साहिब नामक स्थान पर की।

प्रश्न 12. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपूर्णता कब और कहाँ हुई ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपूर्णता 1706 ई० में तलवंडी साबो नामक स्थान में हुई।

प्रश्न 13. दूसरी बीड़ के लेखक कौन थे ?
उत्तर-भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
उत्तर-हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में।

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कब किया गया था ?
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश किस वर्ष हुआ ?
उत्तर-16 अगस्त, 1604 ई० को।

प्रश्न 16. दरबार साहिब, अमृतसर के प्रथम मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-बाबा बुड्ढा जी।

प्रश्न 17. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने महापुरुषों ने अपना योगदान दिया ?
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के कितने योगदानी हैं ?
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने रचयिता हैं ?
उत्तर-36 महापुरुषों ने।

प्रश्न 18. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने सिख गुरु साहिबान की वाणी शामिल है ?
उत्तर-6 सिख गुरु साहिबान की।

प्रश्न 19. किन्हीं दो सिख गुरुओं के नाम लिखें जिनकी वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में है ?
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी
  2. गुरु अंगद देव जी।

प्रश्न 20. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-976 शबद।

प्रश्न 21. आदि ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक शब्द किस सिख गुरु के हैं ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी के।

प्रश्न 22. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-2216 शबद।

प्रश्न 23. आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों की वाणी सम्मिलित की गई है ?
उत्तर-15 भक्तों की।

प्रश्न 24. गुरु ग्रंथ साहिब जी में जिन भक्तों की वाणी दर्ज है उनमें से किन्हीं दो के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. कबीर जी
  2. फ़रीद जी।

प्रश्न 25. आदि ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक शबद किस भक्त के हैं ?
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक कौन-से भक्त की वाणी दर्ज है ?
उत्तर-भक्त कबीर जी के।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 26. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-541 शबद।

प्रश्न 27. आदि ग्रंथ साहिब जी में बाबा फरीद जी के कितने श्लोक व शबद शामिल हैं ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी में बाबा फरीद जी के 112 श्लोक व 4 शबद शामिल हैं।

प्रश्न 28. आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भाटों की वाणी शामिल है ?
उत्तर-11 भाटों की।

प्रश्न 29. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों और भाटों की वाणी शामिल है ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में 15 भक्तों और 11 भाटों की वाणी शामिल है।

प्रश्न 30. आदि ग्रंथ साहिब जी में किनकी वाणी को सम्मिलित नहीं किया गया है ?
उत्तर-

  1. कान्हा,
  2. छज्जू,
  3. शाह हुसैन,
  4. पीलू।

प्रश्न 31. आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने पन्ने हैं ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल 1430 पन्ने हैं।

प्रश्न 32. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने रागों के अधीन वाणी अंकित है ?
उत्तर-31 रागों के।

प्रश्न 33. गुरु ग्रंथ साहिब जी में प्रयोग किए गए किन्हीं दो रागों के नाम बताएँ।
उत्तर-रामकली तथा बसंत।।

प्रश्न 34. गुरु ग्रंथ साहिब जी का आरंभ किस रचना से होता है ?
उत्तर-जपुजी साहिब।

प्रश्न 35. जपुजी साहिब की रचना किसने की ?
उत्तर-जपुजी साहिब की रचना गुरु नानक देव जी ने की।

प्रश्न 36. सुखमनी साहिब की रचना किसने की ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 37. आदि ग्रंथ साहिब जी का मुख्य विषय क्या है ?
उत्तर-परमात्मा की उपासना।

प्रश्न 38. आदि ग्रंथ साहिब जी की लिपि का नाम लिखो।
उत्तर-गुरुमुखी।

प्रश्न 39. किन्हीं दो भाषाओं के नाम लिखें जिनका प्रयोग आदि ग्रंथ साहिब जी में किया गया है ?
उत्तर-

  1. पंजाबी
  2. फ़ारसी।

प्रश्न 40. सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 41. गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी किसने दी ?
उत्तर-गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी गुरु गोबिंद सिंह जी ने दी।

प्रश्न 42. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी कब तथा किसने दी ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी 6 अक्तूबर, 1708 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने दी।

प्रश्न 43. आदि ग्रंथ साहिब जी का कोई एक महत्त्व बताओ।
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी ने संपूर्ण जाति को सांझीवालता का संदेश दिया।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. में किया गया था।
उत्तर-1604 ई०

प्रश्न 2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. ने किया था।
उत्तर–गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 3. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य ………. में किया गया था।
उत्तर-रामसर

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य ……….. ने किया।
उत्तर-भाई गुरदास जी

प्रश्न 5. आदि ग्रंथ साहिब जी का पहला प्रकाश ………. में किया गया था।
उत्तर-हरिमंदिर साहिब

प्रश्न 6. ……….. को हरिमंदिर साहिब का पहला मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।
उत्तर-बाबा बुड्ढा जी

प्रश्न 7. ………. ने आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ को तैयार किया था।
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी

प्रश्न 8. …….. ने आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया।
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी

प्रश्न 9. आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल …….. महापुरुषों के शबद हैं।
उत्तर-36

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 10. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के ……….. शबद हैं।
उत्तर-976

प्रश्न 11. आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शबद ……… के हैं।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 12. आदि ग्रंथ साहिब जी में ………. हिंदू भगतों और मुस्लिम संतों की बाणी दर्ज है।
उत्तर-15

प्रश्न 13. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के ………. शबद हैं।
उत्तर-541

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल ……….. ‘पृष्ठ हैं।
उत्तर-1430

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को ……… रागों में विभाजित किया गया है।
उत्तर-31

प्रश्न 16. आदि ग्रंथ साहिब जी को ………. लिपि में लिखा गया है।
उत्तर-गुरमुखी

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु रामदास जी ने किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1675 ई० में किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. आदि ग्रंथ साहिब जी के लेखन का कार्य भाई गुरदास जी ने किया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब का प्रथम प्रकाश आनंदपुर साहिब में किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. बाबा बुड्डा जी हरिमंदिर साहिब के पहले मुख्य ग्रंथी थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ गुरु गोबिंद सिंह जी ने तैयार करवाई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. आदि ग्रंथ साहिब में 36 महापुरुषों की बाणी संकलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 8. आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शब्द गुरु नानक देव जी के हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 9. आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 6 सिख गुरुओं की बाणी सम्मिलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. आदि ग्रंथ साहिब जी में पाँच भक्तों और मुस्लिम संतों की बाणी सम्मिलित है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 11. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के 541 शब्द हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों की बाणी संकलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. आदि ग्रंथ साहिब के कुल 1420 पृष्ठ हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को 31 रागों के अनुसार विभाजित किया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरमुखी लिपि में लिखा गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस ने किया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iii) गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था ?
(i) 1604 ई०
(ii) 1605 ई०
(iii) 1606 ई०
(iv) 1675 ई०।
उत्तर-
(i) 1604 ई०

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कहाँ किया गया था ?
(i) गंगासर में
(ii) रामसर में
(iii) गोइंदवाल साहिब में
(iv) तरनतारन में।
उत्तर-
(ii) रामसर में

प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखते समय किसने गुरु अर्जन देव जी की सहायता की ?
(i) बाबा बुड्डा जी
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) भाई गुरदास जी
(iv) बाबा दीप सिंह जी।
उत्तर-
(iii) भाई गुरदास जी

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 5.
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
(i) हरिमंदिर साहिब में
(ii) ननकाना साहिब में
(iii) श्री आनंदपुर साहिब में
(iv) पंजा साहिब में।
उत्तर-
(i) हरिमंदिर साहिब में

प्रश्न 6.
हरिमंदिर साहिब के प्रथम मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
(i) भाई गुरदास जी
(ii) बाबा बुड्डा जी
(iii) मीयाँ मीर जी
(iv) भाई मनी सिंह जी।
उत्तर-
(ii) बाबा बुड्डा जी

प्रश्न 7.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने सिख गुरुओं की बाणी सम्मिलित है ?
(i) 5
(ii) 6
(iii) 8
(iv) 10.
उत्तर-
(ii) 6

प्रश्न 8.
आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी के कितने शबद दिए गए हैं ?
(i) 689
(ii) 907
(iii) 976
(iv) 2216.
उत्तर-
(iv) 2216.

प्रश्न 9.
आदि ग्रंथ साहिब जी में निम्नलिखित में से किस भक्त के सर्वाधिक शबद थे ?
(i) फ़रीद जी
(ii) नामदेव जी
(iii) कबीर जी
(iv) गुरु रविदास जी।
उत्तर-
(iii) कबीर जी

प्रश्न 10.
आदि ग्रंथ साहिब जी में बाणी को कितने रागों में विभाजित किया गया है ?
(i) 11
(ii) 21
(iii) 30
(iv) 31.
उत्तर-
(iv) 31.

प्रश्न 11.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने पृष्ठ हैं ?
(i) 1405
(ii) 1420
(iii) 1430
(iv) 1440.
उत्तर-
(iii) 1430

प्रश्न 12.
आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा किसने दिया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अर्जन देव जी
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।

प्रश्न 13.
आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा कब दिया गया था ?
(i) 1604 ई०
(ii) 1675 ई०
(iii) 1705 ई०
(iv) 1708 ई०।
उत्तर-
(iv) 1708 ई०।

प्रश्न 14.
आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ को किसने लिखा था ?
(i) भाई गुरदास जी ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा बुड्डा जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(ii) भाई मनी सिंह जी ने

प्रश्न 15.
आदि ग्रंथ साहिब जी को किस भाषा में लिखा गया था ?
(i) गुरमुखी
(ii) हिंदी
(iii) अंग्रेज़ी
(iv) संस्कृत।
उत्तर-
(i) गुरमुखी

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 9 बाल विकास का अर्थ और महत्त्व

Punjab State Board PSEB 9th Class Home Science Book Solutions Chapter 9 बाल विकास का अर्थ और महत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Home Science Chapter 9 बाल विकास का अर्थ और महत्त्व

PSEB 9th Class Home Science Guide बाल विकास का अर्थ और महत्त्व Textbook Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
आधुनिक जीवन में बाल विकास का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
बाल विकास की आज के जीवन में बहुत महत्ता है। इसमें बच्चों में मिलने वाली व्यक्तिगत भिन्नताओं, उनके साधारण, असाधारण व्यवहार तथा बच्चे पर वातावरण के प्रभाव को जानने की कोशिश की जाती है।

प्रश्न 2.
बाल विकास की शिक्षा के अन्तर्गत आपको किस के बारे में शिक्षा मिलती है?
उत्तर-
बाल विकास की शिक्षा के अन्तर्गत मिलने वाली शिक्षा

  1. बच्चों की प्रवृत्ति को समझने के लिए
  2. बच्चे के व्यक्तित्व के विकास को समझने के लिए
  3. बच्चे के विकास बारे जानकारी
  4. बच्चे के लिए बढ़िया वातावरण पैदा करना
  5. बच्चों के व्यवहार को कन्ट्रोल करने के लिए
  6. बच्चों का मार्ग दर्शन
  7. पारिवारिक जीवन को खुशियों भरा बनाने के लिए

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 9 बाल विकास का अर्थ और महत्त्व

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 3.
किन-किन कारणों के कारण बच्चों का विकास उचित प्रकार से नहीं हो सकता?
उत्तर-
बच्चों का विकास कई कारणों से ठीक तरह नहीं होता जैसे

  1. बच्चों को विरासत से ही कुछ कमियां मिली हों जैसे-बच्चा मंद बुद्धि हो सकता है, अंगहीन हो सकता है।
  2. बच्चे में अच्छे गुण होने के बावजूद उसको अच्छा वातावरण न मिल सकने के कारण भी उसके विकास में रुकावट डाल सकता है।
  3. कई बार घरेलू झगड़े भी बच्चे के विकास में रुकावट डालते हैं।
  4. बच्चे की रुचि से विपरीत उससे ज़बरदस्ती कोई कार्य करवाना। जैसे किसी बच्चे को गाने-बजाने का शौक है तो उसे ज़बरदस्ती खेलने को कहा जाए।
  5. बचपन में बच्चे को माता-पिता का प्यार तथा देख-रेख न मिल सकना।

प्रश्न 4.
बाल विकास से आप क्या समझते हो?
उत्तर–
बाल विकास बच्चों की वृद्धि तथा विकास का अध्ययन है। इसमें गर्भ अवस्था से लेकर बालिग होने तक की सम्पूर्ण वृद्धि तथा विकास का अध्ययन करते हैं। इनमें शारीरिक, मानसिक, व्यावहारिक तथा मनोवैज्ञानिक वृद्धि तथा विकास शामिल हैं। इसके अतिरिक्त बच्चों में पाई जाने वाली व्यक्तिगत भिन्नताएं, उनके साधारण तथा असाधारण व्यवहार तथा वातावरण का बच्चे पर प्रभाव को जानने की कोशिश भी की जाती है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 5.
पारिवारिक सम्बन्धों का महत्त्व बताओ।
उत्तर-
मनुष्य का बच्चा अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं के लिए अपने आस-पास के लोगों पर अधिक समय के लिए निर्भर रहता है। बच्चे की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए परिवार होता है। इन ज़रूरतों को किस तरह पूरा किया जाता है इसका बच्चे के व्यक्तित्व पर प्रभाव होता है तथा इसका बड़े होकर पारिवारिक रिश्तों पर भी प्रभाव पड़ता है।
मनुष्य के पारिवारिक रिश्ते उसके सामाजिक जीवन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। क्योंकि हम इस समाज में ही विचरते हैं, इसलिए हमारे पारिवारिक रिश्ते तथा परिवार से बाहर के रिश्ते हमारे जीवन की खुशी का आधार होते हैं। इस तरह बच्चे के विकास में पारिवारिक सम्बन्ध काफ़ी महत्त्व रखते हैं।

प्रश्न 6.
परिवार की खुशी बच्चों के भविष्य के साथ कैसे जुड़ी हुई है?
उत्तर–
प्रत्येक परिवार की खुशी, उम्मीद तथा भविष्य बच्चों से जुड़ा होता है। बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं तथा परिवार में बच्चे यदि शारीरिक तथा मानसिक तौर पर स्वस्थ हों तो परिवार के लिए खुशी का कारण बनते हैं। परिवार खुश हो तो बच्चों के विकास के लिए सहायक रहता है। यदि परिवार में लड़ाई-झगड़े हों अथवा परिवार आर्थिक पक्ष से तंग हो तो इन बातों का बच्चों के भविष्य पर बुरा प्रभाव होता है।

Home Science Guide for Class 9 PSEB बाल विकास का अर्थ और महत्त्व Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

रिक्त स्थान भरें

  1. बाल विकास की शिक्षा से हमें वंश तथा ……….. सम्बन्धी जानकारी मिलती है।
  2. मानव शिशु बाकी प्राणियों के बच्चों में सबसे ……………….. होता है।
  3. व्यक्तियों के …………………. को ही समाज नहीं कहा जा सकता।

उत्तर-

  1. वातावरण,
  2. निर्बल,
  3. समुदाय।

एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
बच्चे के पालन-पोषण का मूल उत्तरदायित्व किसका है?
उत्तर-
माता-पिता का।

प्रश्न 2.
बाल विकास किस का अध्ययन है?
उत्तर-
बच्चों की वृद्धि तथा विकास।

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 9 बाल विकास का अर्थ और महत्त्व

ठीक/ग़लत बताएं

  1. बाल विकास तथा बाल मनोविज्ञान का आपस में गहरा संबंध है।
  2. बच्चे के विकास पर आस-पास के वातावरण का प्रभाव पड़ता है।
  3. घरेलू झगड़े बच्चे के विकास पर बुरा प्रभाव डालते हैं।
  4. बच्चे के पालन-पोषण की प्राथमिक जिम्मेवारी उसके मां-बाप की होती है।

उत्तर-

  1. ठीक,
  2. ठीक,
  3. ठीक,
  4. ठीक।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ठीक तथ्य हैं
(A) बचपन में बच्चे को माता-पिता का प्यार तथा देख-रेख न मिलने के कारण विकास अच्छी प्रकार नहीं होता।
(B) बच्चे के व्यवहार तथा रुचियों पर वातावरण का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
(C) प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तित्व की जड़ें उसके बचपन में होती हैं।
(D) सभी ठीक।
उत्तर-
(D) सभी ठीक।

प्रश्न 2.
ठीक तथ्य हैं
(A) बच्चे की रुचि के विपरीत उससे जबरदस्ती कोई कार्य करवाने से विकास ठीक नहीं होता।
(B) परिवार की आर्थिक तंगी का प्रभाव बच्चे के विकास पर पड़ता है।
(C) मानव शिशु अन्य प्राणियों के बच्चों में सबसे कमज़ोर होता है।
(D) सभी ठीक।
उत्तर-
(D) सभी ठीक।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आधुनिक जीवन में बाल विकास का क्या महत्त्व है?
उत्तर-

  1. बाल विकास तथा बाल मनोविज्ञान की सबसे बड़ी देन है। इससे हमें पता चला है कि साधारणतः एक बच्चे से एक अवस्था में क्या आशा रखी जाए। यदि कोई बच्चा इस आशा से बाहर जाए तो उसकी ओर हमें विशेष ध्यान देना होगा।
  2. बाल विकास की पढ़ाई से हमें बच्चों की जरूरतों सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। हम बच्चे के मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझ कर उसका पालन-पोषण कर सकते हैं जिससे उसका बहुपक्षीय विकास अच्छे ढंग से हो सके।
  3. बाल विकास के अध्ययन से हमें यह जानकारी मिलती है कि साधारण बच्चों से भिन्न बच्चों को किस तरह का वातावरण प्रदान करें कि वह हीन भावना का शिकार न हो जाए। जैसे शारीरिक अथवा मानसिक तौर पर विकलांग बच्चे, मन्द बुद्धि वाले बच्चे अपनी शारीरिक तथा मानसिक कमजोरियों से ऊपर उठकर अपना बहुपक्षीय विकास कर सकें।
  4. बाल विकास पढ़ने से हमें वंश तथा वातावरण सम्बन्धी जानकारी भी मिलती है। एक-दो ऐसे महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जो बच्चे के विकास में बहुत योगदान डालते हैं। वंश से हमें बच्चे के उन गुणों के बारे पता चलता है जो बच्चों को अपने माता-पिता से जन्म से ही मिले होते हैं तथा जिन्हें बदला नहीं जा सकता जैसे नैन-नक्श, कद-काठ, बुद्धि आदि। बच्चे के इर्द-गिर्द को वातावरण कहा जाता है जैसे भोजन, अध्यापक, किताबें, खेलें, मौसम आदि। वातावरण बच्चे के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालता है। अच्छा वातावरण बच्चे के व्यक्तित्व को उभारने में मदद करता है।

प्रश्न 2.
बाल विकास की शिक्षा के अन्तर्गत आपको किस के बारे में शिक्षा मिलती है?
उत्तर-
बाल विकास के अध्ययन में बच्चों में पाई जाने वाली व्यक्तिगत भिन्नताएं, उनके साधारण तथा असाधारण व्यवहार तथा इर्द-गिर्द का बच्चे पर प्रभाव को जानने की कोशिश भी की जाती है।
प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तित्व की जड़ें उसके बचपन में होती हैं। आजकल मनोवैज्ञानिक तथा समाज वैज्ञानिक किसी मनुष्य के व्यवहार को समझने के लिए उसके बचपन के हालातों की जांच-पड़ताल करते हैं। समाज वैज्ञानिक यह बात सिद्ध कर चुके हैं कि वे बच्चे जिन्हें बचपन में प्यार नहीं मिलता बड़े होकर अपराधों की ओर रुचित होते हैं।

  1. बच्चों की प्रवृत्ति को समझने के लिए-बाल विकास के अध्ययन से हम विभिन्न स्तरों पर बच्चों के व्यवहार तथा उनमें होने वाले परिवर्तनों से अवगत होते हैं। एक बच्चा विकास की विभिन्न स्थितियों से किस तरह गुज़रता है इसका पता बाल विकास के अध्ययन द्वारा ही चलता है।
  2. बच्चे के व्यक्तित्व के विकास को समझने के लिए-बाल विकास अध्ययन बच्चे के व्यक्तिगत विकास, उसके चरित्र निर्माण का अध्ययन करता है। ऐसे कौन-से तथ्य हैं जो भिन्न-भिन्न आयु के पड़ावों पर बच्चे के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं तथा बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में रुकावट डालने वाले कौन-से तत्त्व हैं, बाल विकास इनकी खोज करने के पश्चात् बच्चे की मदद करता है।
  3. बच्चे के विकास बारे जानकारी-गर्भ धारण से लेकर बालिग होने तक के शारीरिक विकास का अध्ययन बाल विकास का मुख्य भाग है। बाल विकास अध्ययन की मदद से बच्चे के शारीरिक विकास की रुकावटों तथा कारणों को अच्छी तरह समझ सकते हैं । बाल विकास बच्चे की शारीरिक विकास से सम्बन्धित समस्याओं को समझने में भी हमारी सहायता करता है।
  4. बच्चे के लिए बढ़िया वातावरण पैदा करना-बच्चे के व्यवहार तथा रुचियों पर वातावरण का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। बाल विकास के अध्ययन से वातावरण के बच्चे पर पड़ रहे बुरे प्रभावों का पता चलता है। बच्चे के व्यक्तित्व के बढ़िया विकास के लिए बढ़िया वातावरण उत्पन्न करने सम्बन्धी मां-बाप तथा अध्यापकों को सहायता मिलती है।
  5. बच्चों के व्यवहार को कन्ट्रोल करने के लिए-बच्चे का व्यवहार हर समय एक जैसा नहीं होता। बच्चे के व्यवहार से सम्बन्धित समस्याओं जैसे बिस्तर गीला करना, अंगूठा चूसना, डरना, झूठ बोलना आदि का कोई-न-कोई मनोवैज्ञानिक कारण अवश्य होता है। बाल विकास अध्ययन की सहायता से इन समस्याओं के कारणों को समझा तथा हल किया जा सकता है।
  6. बच्चों का मार्ग दर्शन-माता-पिता समय-समय पर बच्चों की रहनुमाई करते हैं। परन्तु आज-कल पढ़े-लिखे मां-बाप मार्ग-दर्शन विशेषज्ञों से बच्चों का मार्ग दर्शन करवाते हैं। यह मार्ग दर्शन विशेषज्ञ मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा उसकी रुचियां, छुपी हुई क्षमता तथा झुकाव का पता लगाकर बच्चों का मनोवैज्ञानिक मार्ग-दर्शन करते हैं।
  7. पारिवारिक जीवन को खुशियों भरा बनाने के लिए-बच्चे हर घर का भविष्य होते हैं। इसलिए उनका पालन-पोषण ऐसे वातावरण में होना चाहिए जो उनकी वृद्धि तथा विकास में सहायक हो। बाल विकास अध्ययन द्वारा हमें ऐसे वातावरण की जानकारी मिलती है। एक बढ़िया वातावरण में ही पारिवारिक प्रसन्नता, शान्ति उत्पन्न होती है। पीछे किए वर्णन से यह पता चलता है कि बाल विकास विज्ञान एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है जिसकी सहायता से हम बच्चों के शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक विकास से सम्बन्धित अनेकों पहलुओं से अवगत होते हैं। बच्चों के बचपन को खुशियों भरा बनाने के लिए यह विज्ञान बहुत लाभदायक है। खुशियों भरे बचपन वाले बच्चे ही भविष्य में स्वस्थ तथा प्रसन्न समाज रचेंगे। इस महत्त्वपूर्ण कार्य में बाल विकास विज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 9 बाल विकास का अर्थ और महत्त्व

बाल विकास का अर्थ और महत्त्व PSEB 9th Class Home Science Notes

  1. शारीरिक तथा मानसिक तौर पर स्वस्थ बच्चे ही देश का भविष्य हैं।
  2. बच्चे के पालन-पोषण की प्रारम्भिक ज़िम्मेदारी उसके मां-बाप की होती है।
  3. बाल विकास बच्चों की वृद्धि तथा विकास का अध्ययन है।
  4. बाल विकास तथा बाल मनोविज्ञान का आपस में गहरा सम्बन्ध है।
  5. मनुष्य के पारिवारिक रिश्ते उसके सामाजिक जीवन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
  6. सभी रिश्ते तथा सम्बन्ध मिलकर हमारे जीवन को आरामदायक बनाते हैं।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद

Punjab State Board PSEB 9th Class Social Science Book Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद

SST Guide for Class 9 PSEB वन्य समाज तथा बस्तीवाद Textbook Questions and Answers

(क) बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
औद्योगिक क्रांति किस महाद्वीप में आरंभ हुई ?
(क) एशिया
(ख) यूरोप
(ग) आस्ट्रेलिया
(घ) उत्तरी अमेरिका।
उत्तर-
(ख) यूरोप

प्रश्न 2.
इंपीरियल वन अनुसंधान संस्थान कहां स्थित है ?
(क) दिल्ली
(ख) मुंबई
(ग) देहरादून
(घ) अबोहर।
उत्तर-
(ग) देहरादून

प्रश्न 3.
भारत की आधुनिक बागवानी का जनक किसे कहा जाता है ?
(क) लार्ड डलहौजी
(ख) डाइट्रिच ब्रैडिस
(ग) कैप्टन वाटसन
(घ) लार्ड हार्डिंग।
उत्तर-
(ख) डाइट्रिच ब्रैडिस

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद

प्रश्न 4.
भारत में समुद्री जहाज़ों के लिए किस वृक्ष की लकड़ी सबसे अच्छी मानी जाती है?
(क) बबूल
(ख) ओक
(ग) नीम
(घ) सागवान
उत्तर-
(घ) सागवान

प्रश्न 5.
मुंडा आंदोलन क्रिस क्षेत्र में हुआ ?
(क) राजस्थान
(ख) छोटा नागपुर
(ग) मद्रास
(घ) पंजाब।
उत्तर-
(ख) छोटा नागपुर

(ख) रिक्त स्थान भरें :

  1. …………… और ……………… मनुष्य के लिए अति आवश्यक संसाधन हैं।
  2. कलोनियलइज्म लातीनी भाषा के शब्द ……………… से बना है।
  3. यूरोप में ………… के वृक्ष की लकड़ी से समुद्री जहाज़ बनाए जाते थे।
  4. विरसा मुण्डा को 8 अगस्त 1895 ई० को ………………. नामक स्थान से गिरफ्तार किया गया।
  5. परंपरागत कृषि को …………… कृषि भी कहा जाता था।

उत्तर-

  1. वन, जल
  2. कॉलोनिया
  3. ओक
  4. चलकट
  5. झुमी (स्थानांतरित)।

(ग) सही मिलान करो :

1. विरसा मुंडा – (अ) 2006
2. समुद्री जहाज़ – (आ) बबूल
3. जंड – (इ) धरती बाबा
4. वन अधिकार अधिनियम – (ई) खेजड़ी
5. नीलगिरि की पहाड़ियाँ – (उ) सागवान।
उत्तर-

  1. धरती बाबा
  2. सागवान
  3. खेजड़ी
  4. 2006
  5. बबूल।।

(घ) अंतर बताएं:

प्रश्न 1.
1. आरक्षित वन और सुरक्षित वन
2. वैज्ञानिक बागवानी और प्राकृतिक वन।
उत्तर-
1. आरक्षित वन और सुरक्षित वन-
आरक्षित वन-आरक्षित वन लकड़ी के व्यापारिक उत्पादन के लिए होते थे। इन वनों में पशु चराना व कृषि करना सख्त मना था।
सुरक्षित वन-सुरक्षित वनों में भी पशु चराने व खेती करने पर रोक थी। परंतु इन वनों के प्रयोग करने पर सरकार को कर देना पड़ता था।

2. वैज्ञानिक बागवानी और प्राकृतिक वन-
वैज्ञानिक बागवानी-वन विभाग के नियंत्रण में वृक्ष काटने की वह प्रणाली जिसमें पुराने वृक्ष काटे जाते हैं और नए वृक्ष उगाए जाते हैं।
प्राकृतिक वन-कई पेड़ पौधे जलवायु और मिट्टी की उर्वकता के कारण अपने आप उग आते हैं। फूल फूल कर यह बड़े हो जाते हैं। इन्हें प्राकृतिक वन कहते हैं। इनकी उगने में मानव का कोई योगदान नहीं होता।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
वन समाज से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वन समाज से अभिप्राय लोगों के उस समूह से है जिसकी आजीविका वनों पर निर्भर है और वह वनों के आस-पास रहते हैं।

प्रश्न 2.
उपनिवेशवाद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
एक राष्ट्र अथवा राज्य द्वारा किसी कमज़ोर देश की प्राकृतिक और मानवीय सम्पदा पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण तथा उसे अपने हितों के लिए उपयोग करना उपनिवेशवाद कहलाता है।

प्रश्न 3.
वनों की कटाई के कोई दो कारण लिखें।
उत्तर-

  1. कृषि का विस्तार।
  2. व्यापारिक फसलों की कृषि।

प्रश्न 4.
भारतीय समुद्री जहाज़ किस वृक्ष की लकड़ी से बनाए जाते थे ?
उत्तर-
सागवान।

प्रश्न 5.
किस प्राचीन भारतीय सम्राट ने जीव-जंतुओं के वध पर प्रतिबंध लगा दिया था
उत्तर-
सम्राट अशोक।

प्रश्न 6.
नीलगिरी की पहाड़ियों पर कौन-कौन से वृक्ष लगाए गए ?
उत्तर-
बबूल (कीकर)।

प्रश्न 7.
चार व्यापारिक फसलों के नाम बताएं।
उत्तर-
कपास, पटसन, चाय, काफी, रबड़ आदि।

प्रश्न 8.
बिरसा मुंडा ने कौन-सा नारा दिया ?
उत्तर-
‘अबुआ देश में अबुआ राज’।

प्रश्न 9.
जोधपुर के राजा को किस समुदाय के लोगों ने बलिदान देकर वृक्षों की कटाई से रोका ?
उत्तर-
बिश्नोई संप्रदाय।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
उपनिवेशवाद से क्या अभिप्राय है ? उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर-
एक राष्ट्र अथवा राज्य द्वारा किसी कमज़ोर देश की प्राकृतिक और मानवीय संपदा पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण और उसका अपने हितों के लिए उपयोग उपनिवेशवाद कहलाता है। स्वतंत्रता से पहले भारत पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण इसका उदाहरण है।

प्रश्न 2.
वन व आजीविका में क्या संबंध है ?
उत्तर-
वन हमारे जीवन का आधार हैं । वनों से हमें फल, फूल, जड़ी-बूटियां, रबड़, इमारती लकड़ी तथा ईंधन के लिए लकड़ी आदि मिलती है। वन जंगली-जीवों आश्रय स्थल हैं। पशु-पालन पर निर्वाह करने वाले अधिकतर लोग वनों पर निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त वन पर्यावरण को शुद्धता प्रदान करते हैं। वन वर्षा लाने में भी सहायक हैं। वर्षा की पुनरावृत्ति वनों में रहने वाले लोगों की कृषि, पशु-पालन आदि कार्यों में सहायक होती है।

प्रश्न 3.
रेलवे के विस्तार में वनों का प्रयोग कैसे किया गया ?
उत्तर-
औपनिवेशिक शासकों को रेलवे के विस्तार के लिए स्लीपरों की आवश्यकता थी जो कठोर लकड़ी से बनाए जाते थे। इसके अतिरिक्त भाप इंजनों को चलाने के लिए ईंधन भी चाहिए था। इसके लिए भी लकड़ी का प्रयोग किया जाता था। अत: बड़े पैमाने पर वनों को काटा जाने लगा। 1850 के दशक तक केवल मद्रास प्रेजीडेंसी में स्लीपरों के लिए प्रति वर्ष 35,000 वृक्ष काटे जाने लगे थे। इसके लिए लोगों को ठेके दिए जाते थे। ठेकेदार स्लीपरों की आपूर्ति के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करते थे। फलस्वरूप रेलमार्गों के चारों ओर के वन तेज़ी से समाप्त होने लगे। 1882 में जावा से भी 2 लाख 80 हजार स्लीपरों का आयात किया गया।

प्रश्न 4.
1878 ई० के वन अधिनियम के अनुसार वनों के वर्गीकरण का उल्लेख करें।
उत्तर-
1878 में 1865 के वन अधिनियम में संशोधन किया गया। नये प्रावधानों के अनुसार-

  1. वनों को तीन श्रेणियों में बांटा गया : आरक्षित, सुरक्षित व ग्रामीण।
  2. सबसे अच्छे जंगलों को ‘आरक्षित वन’ कहा गया। गांव वाले इन जंगलों से अपने उपयोग के लिए कुछ भी नहीं ले सकते थे।
  3. घर बनाने या ईंधन के लिए गांववासी केवल सुरक्षित या ग्रामीण वनों से ही लकड़ी ले सकते थे।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद

प्रश्न 5.
समकालीन भारत में वनों की क्या स्थिति है ?
उत्तर-
भारत राष्ट्र ऋषियों-मुनियों व भक्तों की धरती है। इन का वनों से गहरा संबंध रहा है। इसी कारण भारत में यहां वन तथा वन्य जीवों की सुरक्षा करने की परंपरा रही है। प्राचीन भारतीय सम्राट अशोक ने एक शिलालेख पर लिखवाया था उसके अनुसार जीव-जंतुओं को मारा नहीं जाएगा। तोता, मैना, अरुणा, कलहंस, नंदीमुख, सारस, बिना कांटे वाली मछलियां आदि जानवर जो उपयोगी व खाने के योग्य नहीं थे। इस के अतिरिक्त वनों को भी जलाया नहीं जाएगा।

प्रश्न 6.
झूम प्रथा (झूम कृषि) पर नोट लिखें।
उत्तर-
उपनिवेशवाद से पूर्व वनों में पारंपरिक कृषि की जाती थी, इसे झूम प्रथा अथवा झूमी कृषि (स्थानांतरित कृषि) कहा जाता था। कृषि की इस प्रथा के अनुसार जंगल के कुछ भाग के वृक्षों को काट कर आग लगा दी जाती थी। मानसून के बाद उस क्षेत्र में फसल बोई जाती थी, जिसको अक्तूबर-नवंबर में काट लिया जाता था। दो-तीन वर्ष लगातार इसी क्षेत्र में से फसल पैदा की जाती थी। जब उसकी उर्वरा शक्ति कम हो जाती थी, तो इस क्षेत्र में वृक्ष लगा दिए जाते थे, ताकि फिर से वन तैयार हो सके। ऐसे वन 17-18 वर्षों में पुनः तैयार हो जाते थे। वनवासी कृषि के लिए किसी अन्य स्थान को चुन लेते थे।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
वनों की कटाई के क्या कारण हैं ? वर्णन करें।
उत्तर-
औद्योगिक क्रांति से कच्चे माल और खाद्यपदार्थों की मांग बढ़ गई। इसके साथ ही विश्व में लकड़ी की मांग भी बढ़ गई, जंगलों की कटाई होने लगी और धीरे-धीरे लकड़ी कम मिलने लगी। इससे वन निवासियों का जीवन व पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हुआ। यूरोपीय देशों की आंख भारत सहित उन देशों पर टिक गई, जो वन-संपदा व अन्य प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए डचों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेज़ों आदि ने वनों को काटना आरंभ कर दिया। संक्षेप उपनिवेशवाद के अधीन वनों की कटाई के कारण निम्नलिखित थे।

  1. रेलवे-औपनिवेशिक शासकों को रेलवे के विस्तार के लिए स्लीपरों की आवश्यकता थी जो कठोर लकड़ी से बनाए जाते थे। इसके अतिरिक्त भाप इंजनों को चलाने के लिए ईंधन भी चाहिए था। इसके लिए भी लकड़ी का प्रयोग किया जाता था। अत: बड़े पैमाने पर वनों को काटा जाने लगा। 1850 के दशक तक केवल मद्रास प्रेजीडेंसी में स्लीपरों के लिए प्रति वर्ष 35,000 वृक्ष काटे जाने लगे थे। इसके लिए लोगों को ठेके दिए जाते थे। ठेकेदार स्लीपरों की आपूर्ति के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई करते थे। फलस्वरूप रेलमार्गों के चारों ओर के वन तेज़ी से समाप्त होने लगे। 1882 में जावा से भी 2 लाख 80 हज़ार स्लीपरों का आयात किया गया।
  2. जहाज़ निर्माण-औपनिवेशिक शासकों को अपनी नौ-शक्ति बढ़ाने के लिए जहाज़ों की आवश्यकता थी। इसके लिए भारी मात्रा में लकड़ी चाहिए थी। अत: मज़बूत लकड़ी प्राप्त करने के लिए टीक और साल के पेड़ लगाए जाने लगे। अन्य सभी प्रकार के वृक्षों को साफ़ कर दिया गया। शीघ्र ही भारत से बड़े पैमाने पर लकड़ी इंग्लैंड भेजी जाने लगी।
  3. कृषि-विस्तार-1600 ई० में भारत का लगभग 1/6 भू-भाग कृषि के अधीन था। परंतु जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ खादानों की मांग बढ़ने लगी। अत: किसान कृषि क्षेत्र का विस्तार करने लगे। इसके लिए वनों को साफ करके नए खेत बनाए जाने लगे। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश अधिकारी आरंभ में यह सोचते थे कि वन धरती की शोभा बिगाड़ते हैं। अतः इन्हें काटकर कृषि भूमि का विस्तार किया जाना चाहिए, ताकि यूरोप की शहरी जनसंख्या के लिए भोजन और कारखानों के लिए कच्चा माल प्राप्त किया जा सके। कृषि के विस्तार से सरकार की आय भी बढ़ सकती थी। फलस्वरूप 1880-1920 के बीच 67 लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र का विस्तार हुआ। इसका सबसे बुरा प्रभाव वनों पर ही पड़ा।
  4. व्यावसायिक खेती-व्यावसायिक खेती से अभिप्राय नकदी फसलें उगाने से है। इन फसलों में जूट (पटसन), गन्ना, गेहूं तथा कपास आदि फ़सलें शामिल हैं। इन फसलों की मांग 19वीं शताब्दी में बढ़ी। ये फसलें उगाने के लिए भी वनों का विनाश करके नई भमियां प्राप्त की गईं।
  5. चाय-कॉफी के बागान-यूरोप में चाय तथा काफ़ी की मांग बढ़ती जा रही थी। अतः औपनिवेशिक शासकों ने वनों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और वनों को काट कर विशाल भू-भाग बागान मालिकों को सस्ते दामों पर बेच दिया। इन भू-भागों पर चाय तथा काफ़ी के बागान लगाए गए।
  6. आदिवासी और किसान-आदिवासी तथा अन्य छोटे-छोटे किसान अपनी झोंपड़ियां बनाने तथा ईंधन के लिए पेड़ों को काटते थे। वे कुछ पेड़ों की जड़ों तथा कंदमूल आदि का प्रयोग भोजन के रूप में भी करते थे। इससे भी वनों का अत्यधिक विनाश हुआ।

प्रश्न 2.
उपनिवेशवाद के अंतर्गत बने वन-अधिनियमों का वन समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ? वर्णन करें।
उत्तर-

1. झूम खेती करने वालों को-औपनिवेशिक शासकों ने झूम खेती पर रोक लगा दी और इस प्रकार की खेती करने वाले जन समुदायों को उनके घरों से ज़बरदस्ती विस्थापित कर दिया। परिणामस्वरूप कुछ किसानों को अपना व्यवसाय बदलना पड़ा और कुछ ने इसके विरोध में विद्रोह कर दिया।

2. घुमंतू और चरवाहा समुदायों को-वन प्रबंधन के नये कानून बनने से स्थानीय लोगों द्वारा वनों में पशु चराने तथा शिकार करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फलस्वरूप कई घुमंतू तथा चरवाहा समुदायों की रोज़ी छिन गई। ऐसा मुख्यत: मद्रास प्रेजीडेंसी के कोरावा, कराचा तथा येरुकुला समुदायों के साथ घटित हुआ। विवश होकर उन्हें कारखानों, खानों तथा बागानों में काम करना पड़ा। ऐसे कुछ समुदायों को ‘अपराधी कबीले’ भी कहा जाने लगा।

3. लकड़ी और वन उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को-वनों पर वन-विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने के पश्चात् वन उत्पादों (कठोर लकड़ी, रब आदि) के व्यापार को बल मिला। इस कार्य के लिए कई व्यापारिक कंपनियां स्थापित हो गईं। ये स्थानीय लोगों से महत्त्वपूर्ण वन उत्पाद खरीद कर उनका निर्यात करने लगीं और भारी
मुनाफा कमाने लगीं। भारत में ब्रिटिश सरकार ने कुछ विशेष क्षेत्रों में इस व्यापार के अधिकार बड़ी-बड़ी यूरोपीय कंपनियों को दे दिए। इस प्रकार वन उत्पादों के व्यापार पर अंग्रेजी सरकार का नियंत्रण स्थापित हो गया।

4. बागान मालिकों को-ब्रिटेन में चाय, कहवा, रबड़ आदि की बड़ी मांग थी। अतः भारत में इन उत्पादों के बड़ेबड़े बागान लगाए गए। इन बागानों के मालिक मुख्यतः अंग्रेज़ थे। वे मजदूरों का खूब शोषण करते थे और इन उत्पादों के निर्यात से खूब धन कमाते थे।
PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद (1)

5. शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज़ अफसरों को-नये वन कानूनों द्वारा वनों में शिकार करने पर रोक लगा दी गई। जो कोई भी शिकार करते पकड़ा जाता था, उसे दंड दिया जाता था। अब हिंसक जानवरों का शिकार करना राजाओं तथा राजकुमारों के लिए एक खेल बन गया। मुगलकाल के कई चित्रों में सम्राटों तथा राजकुमारों को शिकार करते दिखाया गया है।
PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद (2)
ब्रिटिश काल में हिंसक जानवरों का शिकार बड़े पैमाने पर होने लगा। इसका कारण यह था कि अंग्रेज़ अफ़सर हिंसक जानवरों को मारना समाज के हित में समझते थे। उनका मानना था कि ये जानवर खेती करने वालों के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं। अत: वे अधिक-से-अधिक बाघों, चीतों तथा भेड़ियों को मारने के लिए पुरस्कार देते थे। फलस्वरूप 1875-1925 ई० के बीच पुरस्कार पाने के लिए 80 हज़ार बाघों, 1 लाख 50 हज़ार चीतों तथा 2 लाख भेड़ियों को मार डाला गया। महाराजा सरगुजा ने अकेले 1157 बाघों तथा 2000 चीतों को शिकार बनाया। जार्ज यूल नामक एक ब्रिटिश शासक ने 400 बाघों को मारा।

प्रश्न 3.
मुंडा आंदोलन पर नोट लिखो।
उत्तर-
भूमि, जल तथा वन की रक्षा के लिए किए गए आंदोलनों में मुंडा आंदोलन का प्रमुख स्थान है। यह आंदोलन आदिवासी नेता बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चलाया गया।
कारण-

  1. आदिवासी जंगलों को पिता और ज़मीन को माता की तरह पूजते थे। जंगलों से संबंधित बनाए गए कानूनों ने उनको इनसे दूर कर दिया।
  2. डॉ० नोटरेट नामक ईसाई पादरी ने मुंडा कबीले के लोगों तथा नेताओं को ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया
    और उन्हें लालच दिया कि उनकी ज़मीनें उन्हें वापिस करवा दी जाएंगी। परंतु बाद में सरकार ने साफ इंकार कर दिया।
  3. बिरसा मुंडा ने अपने विचारों के माध्यम से आदिवासियों को संगठित किया। सबसे पहले उसने अपने आंदोलन में सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पक्षों को मज़बूत बनाया। उसने लोगों को अंधविश्वासों से निकाल कर शिक्षा के साथ जोडने का प्रयत्न किया। जल-जंगल-ज़मीन की रक्षा और उन पर आदिवासियों के अधिकार की बात करके उसने आर्थिक पक्ष से लोगों को अपने साथ जोड़ लिया। इसके अतिरिक्त उसने धर्म और संस्कृति की रक्षा का नारा देकर अपनी संस्कृति बचाने की बात की।

आंदोलन का आरंभ तथा प्रगति-1895 ई० में वन संबंधी बकाए की माफी के लिए आंदोलन चला परंतु सरकार ने आंदोलनकारियों की मांगों को ठुकरा दिया। बिरसा मुंडा ने ‘अबुआ देश में अबुआ राज’ का नारा देकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजा दिया। 8 अगस्त, 1895 ई० को ‘चलकट’ स्थान पर उसे गिरफ्तार कर लिया गया और दो वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया। 1897 ई० में उसकी रिहाई के बाद उस क्षेत्र में अकाल पड़ा। बिरसा मुंडा ने अपने साथियों को साथ लेकर लोगों की सेवा की और अपने विचारों से लोगों को जागृत किया। लोग उसे धरती बाबा के तौर पर पूजने लगे। परंतु सरकार उसके विरुद्ध होती गई। 1897 ई० में लगभग 400 मुंडा विद्रोहियों ने खंटी थाने पर हमला कर दिया। 1898 ई० में तांगा नदी के इलाके में विद्राहियों ने अंग्रेज़ी सेना को पीछे की ओर धकेल दिया, परंतु बाद में अंग्रेजी सेना ने सैकड़ों आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया।

बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी, मृत्यु तथा आंदोलन का अंत-14 दिसंबर, 1899 ई० को बिरसा मुंडा ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध का ऐलान कर दिया, जोकि जनवरी 1900 ई० में सारे क्षेत्र में फैल गया। अंग्रेज़ों ने बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी के लिए ईनाम का ऐलान कर दिया। कुछ स्थानीय लोगों ने लालच वश 3 फरवरी, 1900 ई० में बिरसा मुंडा को छल से पकड़वा दिया। उसे रांची जेल भेज दिया गया। वहां अंग्रेजों ने उसे धीरे-धीरे असर करने वाला विष दिया, जिसके कारण 9 जून, 1900 ई० को उसकी मृत्यु हो गई। परंतु उसकी मृत्यु का कारण हैज़ा बताया गया, ताकि मुंडा समुदाय के लोग भड़क न जाएं। उसकी पत्नी, बच्चों और साथियों पर मुकद्दमे चला कर भिन्न-भिन्न प्रकार की यातनाएं दी गईं।
सच तो यह है कि बिरसा मुंडा ने अपने कबीले के प्रति अपनी सेवाओं के कारण अल्प आयु में ही अपना नाम अमर कर लिया। लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत करने तथा अपने धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिए तैयार करने के कारण आज भी लोग बिरसा मुंडा को याद करते हैं।

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PSEB 9th Class Social Science Guide वन्य समाज तथा बस्तीवाद Important Questions and Answers

I. बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
तेंद्र के पत्तों का प्रयोग किस काम में किया जाता है ?
(क) बीड़ी बनाने में ।
(ख) चमड़ा रंगने में
(ग) चाकलेट बनाने में
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) बीड़ी बनाने में ।

प्रश्न 2.
चाकलेट में प्रयोग होने वाला तेल प्राप्त होता है
(क) टीक के बीजों से
(ख) शीशम के बीजों से
(ग) साल के बीजों से
(घ) कपास के बीजों से।
उत्तर-
(ग) साल के बीजों से

प्रश्न 3.
आज भारत की कुल भूमि का लगभग कितना भाग कृषि के अधीन है ?
(क) चौथा
(ख) आधा
(ग) एक तिहाई
(घ) दो तिहाई।
उत्तर-
(ख) आधा

प्रश्न 4.
इनमें से वाणिज्यिक अथवा नकदी फसल कौन-सी है ?
(क) जूट
(ख) कपास
(ग) गन्ना
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 5.
कृषि-भूमि के विस्तार का क्या बुरा परिणाम है ?
(क) वनों का विनाश
(ख) उद्योगों को बंद करना
(ग) कच्चे माल का विनाश
(घ) उत्पादन में कमी।
उत्तर-
(क) वनों का विनाश

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प्रश्न 6.
19वीं शताब्दी में इंग्लैंड की रॉयल नेवी के लिए जलयान निर्माण की समस्या उत्पन्न होने का कारण था
(क) शीशम के वनों में कमी
(ख) अनेक वनों की कमी
(ग) कीकर के वनों में कमी
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ख) अनेक वनों की कमी

प्रश्न 7.
1850 के दशक में रेलवे के स्लीपर बनाए जाते थे
(क) सीमेंट से
(ख) लोहे से
(ग) लकड़ी से
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) लकड़ी से

प्रश्न 8.
चाय और कॉफी के बागान लगाए गए
(क) वनों को साफ़ करके
(ख) वन लगाकर
(ग) कारखाने हटाकर
(घ) खनन को बंद करके।
उत्तर-
(क) वनों को साफ़ करके

प्रश्न 9.
अंग्रेज़ों के लिए भारत में रेलवे का विस्तार करना ज़रूरी था
(क) अपने औपनिवेशिक व्यापार के लिए
(ख) भारतीयों की सुविधा के लिए
(ग) अंग्रेज़ उच्च अधिकारियों की सुविधा के लिए
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) अपने औपनिवेशिक व्यापार के लिए

प्रश्न 10.
भारत में वनों का पहला इंस्पेक्टर-जनरल था
(क) फ्रांस का केल्विन
(ख) जर्मनी का डीट्रिख चैंडिस
(ग) इंग्लैंड का क्रिसफोर्ड
(घ) रूस का निकोलस।
उत्तर-
(ख) जर्मनी का डीट्रिख चैंडिस

प्रश्न 11.
भारतीय वन सेवा (Indian Forest Service) की स्थापना कब हुई ?
(क) 1850 में
(ख) 1853 में
(ग) 1860 में
(घ) 1864 में।
उत्तर-
(घ) 1864 में।

प्रश्न 12.
निम्न में से किस वर्ष भारतीय वन अधिनियम बना
(क) 1860 में
(ख) 1864 में
(ग) 1865 में
(घ) 1868 में।
उत्तर-
(ग) 1865 में

प्रश्न 13.
1906 में इंपीरियल फारेस्ट रिसर्च इंस्टीच्यूट (Imperial Forest Research Institute) की स्थापना
(क) देहरादून में
(ख) कोलकाता में
(ग) दिल्ली में
(घ) मुंबई में।
उत्तर-
(क) देहरादून में

प्रश्न 14.
देहरादून के इंपीरियल फारेस्ट इंस्टीच्यूट (स्कूल) में जिस वन्य प्रणाली का अध्ययन कराया जाता था, वह थी
(क) मूलभूत वानिकी
(ख) वैज्ञानिक वानिकी
(ग) बागान वानिकी
(घ) आरक्षित वानिकी।
उत्तर-
(ग) बागान वानिकी

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प्रश्न 15.
1865 के वन अधिनियम में संशोधन हुआ ?
(क) 1878 ई०
(ख) 1927 ई०
(ग) 1878 तथा 1927 ई० दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) 1878 तथा 1927 ई० दोनों

प्रश्न 16.
1878 के वन अधिनियम के अनुसार ग्रामीण मकान बनाने तथा ईंधन के लिए जिस वर्ग के वनों से लकड़ी नहीं ले सकते थे
(क) आरक्षित वन
(ख) सुरक्षित वन
(ग) ग्रामीण वन
(घ) सुरक्षित तथा ग्रामीण वन।
उत्तर-
(क) आरक्षित वन

प्रश्न 17.
सबसे अच्छे वन क्या कहलाते थे ?
(क) ग्रामीण वन
(ख) आरक्षित वन
(ग) दुर्गम वन
(घ) सुरक्षित वन।
उत्तर-
(ख) आरक्षित वन

प्रश्न 18.
कांटेदार छाल वाला वृक्ष है.
(क) साल
(ख) टीक
(ग) सेमूर
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ग) सेमूर

प्रश्न 19.
स्थानांतरी कृषि का एक अन्य नाम है
(क) झूम कृषि
(ख) रोपण कृषि
(ग) गहन कृषि
(घ) मिश्रित कृषि।
उत्तर-
(क) झूम कृषि

प्रश्न 20.
स्थानांतरी कृषि में किसी खेत पर अधिक-से-अधिक कितने समय के लिए कृषि होती है ?
(क) 5 वर्ष तक
(ख) 4 वर्ष तक
(ग) 6 वर्ष तक
(घ) 2 वर्ष तक।
उत्तर-
(घ) 2 वर्ष तक।

प्रश्न 21.
चाय के बागानों पर काम करने वाला समुदाय था
(क) मेरुकुला
(ख) कोरवा
(ग) संथाल
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ग) संथाल

प्रश्न 22.
संथाल परगनों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करने बाले वन समुदाय का नेता था
(क) बिरसा मुंडा
(ख) सिद्धू
(ग) अलूरी सीता राम राजू
(घ) गुंडा ध्रुव।
उत्तर-
(ख) सिद्धू

प्रश्न 23.
बिरसा मुंडा ने जिस क्षेत्र में वन समुदाय के विद्रोह का नेतृत्व किया
(क) तत्कालीन आंध्र प्रदेश
(ख) केरल
(ग) संथाल परगना
(घ) छोटा नागपुर।
उत्तर-
(घ) छोटा नागपुर।

प्रश्न 24.
बस्तर में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह का नेता कौन था ?
(क) गुंडा ध्रुव
(ख) बिरसा मुंडा
(ग) कनु
(घ) सिद्ध।
उत्तर-
(क) गुंडा ध्रुव

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प्रश्न 25.
जावा का कौन-सा समुदाय वन काटने में कुशल था ?
(क) संथाल
(ख) डच
(ग) कलांग
(घ) सामिन।
उत्तर-
(ग) कलांग

II. रिक्त स्थान भरो:

  1. 1850 के दशक में रेलवे …………. के स्लीपर बनाए जाते थे।
  2. जर्मनी का ……………. भारत में पहला इंस्पेक्टर जनरल था।
  3. भारतीय वन अधिनियम ……………….. ई० में बना।
  4. 1906 ई० में ………………. में इंपीरियल फारेस्ट रिसर्च इंस्टीच्यूट की स्थापना हुई।
  5. …………………वन सबसे अच्छे वन कहलाते हैं।

उत्तर-

  1. लकड़ी
  2. डीट्रिख ब्रैडिस
  3. 1865
  4. देहरादून
  5. आरक्षित।

III. सही मिलान करो :

(क) – (ख)
1. तेंदू के पत्ते – (i) छोटा नागपुर
2. भारतीय वन अधिनियम – (ii) बीड़ी बनाने
3. इंपीरियल फारेस्ट रिसर्च इंस्टीचूट – (iii) साल के बीज
4. चाकलेट – (iv) 1865
5. बिरसा मुंडा – (v) 1906
उत्तर-

  1. बॉडी बनाने
  2. 1865
  3. 1906
  4. साल के बीज
  5. छोटा नागपुर।

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

उत्तर एक लाइन अथवा एक शब्द में :

प्रश्न 1.
वनोन्मूलन (Deforestation) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वनों का कटाव एवं सफ़ाई।

प्रश्न 2.
कृषि के विस्तारण का मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर-
बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए भोजन की बढ़ती हुई मांग को पूरा करना।

प्रश्न 3.
वनों के विनाश का कोई एक कारण बताओ।
उत्तर-
कृषि का विस्तारण।

प्रश्न 4.
दो नकदी फसलों के नाम बताओ।
उत्तर-
जूट तथा कपास।

प्रश्न 5.
19वीं शताब्दी के आरंभ में औपनिवेशिक शासक वनों की सफ़ाई क्यों चाहते थे ? कोई एक कारण बताइए।
उत्तर-
वे वनों को ऊसर तथा बीहड़ स्थल समझते थे।

प्रश्न 6.
कृषि में विस्तार किस बात का प्रतीक माना जाता है ?
उत्तर-
प्रगति का।

प्रश्न 7.
आरंभ में अंग्रेज़ शासक वनों को साफ़ करके कृषि का विस्तार क्यों करना चाहते थे ? कोई एक कारण लिखिए।
उत्तर-
राज्य की आय बढ़ाने के लिए।

प्रश्न 8.
इंग्लैंड की सरकार ने भारत में वन संसाधनों का पता लगाने के लिए खोजी दंल कब भेजे ?
उत्तर-
1820 के दशक में।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 7 वन्य समाज तथा बस्तीवाद

प्रश्न 9.
औपनिवेशिक शासकों को किन दो उद्देश्य की पूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर मज़बूत लकड़ी की ज़रूरत थी ?
उत्तर-
रेलवे के विस्तार तथा नौ-सेना के लिए जलयान बनाने के लिए।

प्रश्न 10.
रेलवे के विस्तार का वनों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
बड़े पैमाने पर वनों का कटाव।

प्रश्न 11.
1864 में ‘भारतीय वन सेवा’ की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
डीट्रिख चैंडिस (Dietrich Brandis) ने।

प्रश्न 12.
वैज्ञानिक वानिकी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वन विभाग के नियंत्रण में वृक्ष (वन) काटने की वह प्रणाली जिसमें पुराने वृक्ष काटे जाते हैं और नये वृक्ष लगाए जाते हैं।

प्रश्न 13.
बागान का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सीधी पंक्तियों में एक ही प्रजाति के वृक्ष उगाना।

प्रश्न 14.
1878 के वन अधिनियम द्वारा वनों को कौन-कौन से तीन वर्गों में बांटा गया ?
उत्तर-

  1. आरक्षित वन
  2. सुरक्षित वन
  3. ग्रामीण वन।

प्रश्न 15.
किस वर्ग के वनों से ग्रामीण कोई भी वन्य उत्पाद नहीं ले सकते थे ?
उत्तर-
आरक्षित वन।

प्रश्न 16.
मज़बूत लकड़ी के दो वृक्षों के नाम बताओ।
उत्तर-
टीक तथा साल।

प्रश्न 17.
दो वन्य उत्पादों के नाम बताओ जो पोषक गुणों से युक्त होते हैं।
उत्तर-
फल तथा कंदमूल।

प्रश्न 18.
जड़ी-बूटियां किस काम आती हैं ?
उत्तर-
औषधियां बनाने के।

प्रश्न 19.
महुआ के फल से क्या प्राप्त होता है ?
उत्तर-
खाना पकाने और जलाने के लिए तेल।

प्रश्न 20.
विश्व के किन भागों में स्थानांतरी (झूम) खेती की जाती है ?
उत्तर-
एशिया के कुछ भागों, अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका में।

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लघु उत्तरों वाले प्रश्न।

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक काल में कृषि के तीव्र विस्तारीकरण के मुख्य कारण क्या थे ?
उत्तर-
औपनिवेशिक काल में कृषि के तीव्र विस्तारीकरण के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

  1. 19वीं शताब्दी में यूरोप में जूट (पटसन), गन्ना, कपास, गेहूं आदि वाणिज्यिक फसलों की मांग बढ़ गई। अनाज शहरी जनसंख्या को भोजन जुटाने के लिए चाहिए था तथा अन्य फसलों का उद्योगों में कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाना था। अत: अंग्रेज़ी शासकों ने ये फसलें उगाने के लिए कृषि क्षेत्र का तेजी से विस्तार किया।
  2. 19वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अंग्रेज़ शासक वन्य भूमि को ऊसर तथा बीहड़ मानते थे। वे इसे उपजाऊ बनाने के लिए वन साफ़ करके भूमि को कृषि के अधीन लाना चाहते थे। .
  3. अंग्रेज़ शासक यह भी सोचते थे कि कृषि के विस्तार से कृषि-उत्पादन में वृद्धि होगी। फलस्वरूप राज्य को अधिक राजस्व प्राप्त होगा और राज्य की आय में वृद्धि होगी।
    अतः 1880-1920 ई० के बीच कृषि क्षेत्र में 67 लाख हेक्टेयर की बढ़ोत्तरी हुई।

प्रश्न 2.
1820 के बाद भारत में वनों को बड़े पैमाने पर काटा जाने लगा। इसके लिए कौन-कौन से कारक उत्तरदायी थे ?
उत्तर-
1820 के दशक में ब्रिटिश सरकार को मज़बूत लकड़ी की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ी। इसे पूरा करने के लिए वनों को बड़े पैमाने पर काटा जाने लगा। लकड़ी की बढ़ती हुई आवश्यकता और वनों के कटाव के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी थे-

  1. इंग्लैंड की रॉयल नेवी (शाही नौ-सेना) के लिए जलयान ओक के वृक्षों से बनाए जाते थे। परंतु इंग्लैंड के ओक वन समाप्त होते जा रहे थे और जलयान निर्माण में बाधा पड़ रही थी। अतः भारत के वन संसाधनों का पता लगाया गया और यहां के वृक्ष काट कर लकड़ी इंग्लैंड भेजी जाने लगी।
  2. 1850 के दशक में रेलवे का विस्तार आरंभ हुआ। इससे लकड़ी की आवश्यकता और अधिक बढ़ गई। इसका कारण यह था कि रेल पटरियों को सीधा रखने के लिए सीधे तथा मज़बूत स्लीपर चाहिए थे जो लकड़ी से बनाए जाते थे। फलस्वरूप वनों पर और अधिक बोझ बढ़ गया। 1850 के दशक तक केवल मद्रास प्रेजीडेंसी में स्लीपरों के लिए प्रतिवर्ष 35,000 वृक्ष काटे जाते थे।
  3. अंग्रेज़ी सरकार ने लकड़ी की आपूर्ति बनाये रखने के लिए निजी कंपनियों को वन काटने के ठेके दिये। इन कंपनियों ने वृक्षों को अंधाधुंध काट डाला।

प्रश्न 3.
वैज्ञानिक वानिकी के अंतर्गत वन-प्रबंधन के लिए क्या-क्या पग उठाए गए ?
उत्तर-
वैज्ञानिक वानिकी के अंतर्गत वन प्रबंधन के लिए कई महत्त्वपूर्ण पग उठाए गए-

  1. उन प्राकृतिक वनों को काट दिया गया जिनमें कई प्रकार की प्रजातियों के वृक्ष पाये जाते थे।
  2. काटे गए वनों के स्थान पर बागान व्यवस्था की गई। इसके अंतर्गत सीधी पंक्तियों में एक ही प्रजाति के वृक्ष लगाए गए।
  3. वन अधिकारियों ने वनों का सर्वेक्षण किया और विभिन्न प्रकार के वृक्षों के अधीन क्षेत्र का अनुमान लगाया। उन्होंने वनों के उचित प्रबंध के लिए कार्य योजनाएं भी तैयार की। .
  4. योजना के अनुसार यह निश्चित किया गया कि प्रतिवर्ष कितना वन आवरण काटा जाए। उसके स्थान पर नये वृक्ष लगाने की योजना भी बनाई गई ताकि कुछ वर्षों में नये पेड़ पनप जाएं।

प्रश्न 4.
वनों के बारे में औपनिवेशिक वन अधिकारियों तथा ग्रामीणों के हित परस्पर टकराते थे। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
वनों के संबंध में वन अधिकारियों तथा ग्रामीणों के हित परस्पर टकराते थे। ग्रामीणों को जलाऊ लकड़ी, चारा तथा पत्तियों आदि की आवश्यकता थी। अत: वे ऐसे वन चाहते थे जिनमें विभिन्न प्रजातियों की मिश्रित वनस्पति हो।
इसके विपरीत वन अधिकारी ऐसे वनों के पक्ष में थे जो उनकी जलयान निर्माण तथा रेलवे के प्रसार की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। इसलिए वे कठोर लकड़ी के वृक्ष लगाना चाहते थे जो सीधे और ऊंचे हों। अतः मिश्रित वनों का सफाया करके टीक और साल के वृक्ष लगाए गए।

प्रश्न 5.
वन अधिनियम ने ग्रामीणों अथवा स्थानीय समुदायों के लिए किस प्रकार कठिनाइयां उत्पन्न की ?
उत्तर-
वन अधिनियम से ग्रामीणों की रोजी-रोटी का साधन वन अर्थात् वन्य-उत्पाद ही थे। परंतु वन अधिनियम के बाद उनके द्वारा वनों से लकड़ी काटने, फल तथा जड़ें इकट्ठी करने और वनों में पशु चराने, शिकार एवं मछली पकड़ने पर रोक लगा दी गई। अतः लोग वनों से लकड़ी चोरी करने पर विवश हो गए। यदि वे पकड़े जाते थे, तो मुक्त होने के लिए उन्हें वन-रक्षकों को रिश्वत देनी पड़ती थी। ग्रामीण महिलाओं की चिंता तो और अधिक बढ़ गई। प्रायः पुलिस वाले तथा वन-रक्षक उनसे मुफ़्त भोजन की मांग करते रहते थे और उन्हें डराते-धमकाते रहते थे।

प्रश्न 6.
स्थानांतरी कृषि पर रोक क्यों लगाई गई ? इसका स्थानीय समुदायों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
स्थानांतरी कृषि पर मुख्य रूप से तीन कारणों से रोक लगाई गई–

  1. यूरोप के वन-अधिकारियों का विचार था कि इस प्रकार की कृषि वनों के लिए हानिकारक है। उनका विचार था कि जिस भूमि पर छोड़-छोड़ कर कृषि होती रहती है, वहां पर इमारती लकड़ी देने वाले वन नहीं उग सकते।
  2. जब भूमि को साफ़ करने के लिए किसी वन को जलाया जाता था, तो आस-पास अन्य मूल्यवान् वृक्षों को आग लग जाने का भय बना रहता था।
  3. स्थानांतरी कृषि से सरकार के लिए करों की गणना करना कठिन हो रहा था।
    प्रभाव-स्थानांतरी खेती पर रोक लगने से स्थानीय समुदायों को वनों से ज़बरदस्ती बाहर निकाल दिया गया। कुछ लोगों को अपना व्यवसाय बदलना पड़ा और कुछ ने विद्रोह कर दिया।

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प्रश्न 7.
1980 के दशक से वानिकी में क्या नये परिवर्तन आए हैं ?
उत्तर-
1980 के दशक से वानिकी का रूप बदल गया है। अब स्थानीय लोगों ने वनों से लकड़ी इकट्ठी करने के स्थान पर वन संरक्षण को अपना लक्ष्य बना लिया है। सरकार भी जान गई है कि वन संरक्षण के लिए इन लोगों की भागीदारी आवश्यक है। भारत में मिज़ोरम से लेकर केरल तक के घने वन इसलिए सुरक्षित हैं कि स्थानीय लोग इनकी रक्षा करना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझते हैं। कुछ गांव अपने वनों की निगरानी स्वयं करते हैं। इसके लिए प्रत्येक परिवार बारी-बारी से पहरा देता है। अतः इन वनों में वन-रक्षकों की कोई भूमिका नहीं रही। अब स्थानीय समुदाय तथा पर्यावरणविद् वन प्रबंधन को कोई भिन्न रूप देने के बारे में सोच रहे हैं।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में वनों का प्रथम इंस्पेक्टर-जनरल कौन था ? वन प्रबंधन के विषय में उसके क्या विचार थे ? इसके लिए उसने क्या किया ?
उत्तर-
भारत में वनों का प्रथम इंस्पेक्टर-जनरल डीट्रिख बेंडीज़ (Dietrich Brandis) था। वह एक जर्मन विशेषज्ञ था। वन प्रबंधन के संबंध में उसके निम्नलिखित विचार थे-

  1. वनों के प्रबंध के लिए एक उचित प्रणाली अपनानी होगी और लोगों को वन-संरक्षण विज्ञान में प्रशिक्षित करना होगा।
  2. इस प्रणाली के अंतर्गत कानूनी प्रतिबंध लगाने होंगे।
  3. वन संसाधनों के संबंध में नियम बनाने होंगे।
  4. वनों को इमारती लकड़ी के उत्पादन के लिए संरक्षित करना होगा। इस उद्देश्य से वनों में वृक्ष काटने तथा पशु चराने को सीमित करना होगा।
  5. जो व्यक्ति नई प्रणाली की परवाह न करते हुए वृक्ष काटता है, उसे दंडित करना होगा।
    अपने विचारों को कार्य रूप देने के लिए बेंडीज़ ने 1864 में ‘भारतीय वन सेवा’ की स्थापना की और 1865 के ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित होने में सहायता पहुंचाई। 1906 में ‘देहरादून में ‘द इंपीरियल फारेस्ट रिसर्च इंस्टीच्यूट’ की स्थापना की गई। यहां वैज्ञानिक वानिकी का अध्ययन कराया जाता था। परंतु बाद में पता चला कि इस अध्ययन में विज्ञान जैसी कोई बात नहीं थी।

प्रश्न 2.
वन्य प्रदेशों अथवा वनों में रहने वाले लोग वन उत्पादों का विभिन्न प्रकार से उपयोग कैसे करते हैं ?
उत्तर-
वन्य प्रदेशों में रहने वाले लोग कंद-मूल-फल, पत्ते आदि वन-उत्पादों का विभिन्ने ज़रूरतों के लिए उपयोग करते हैं।

  1. फल और कंद बहुत पोषक खाद्य हैं, विशेषकर मानसून के दौरान जब फ़सल कट कर घर न आयी हो।
  2. जड़ी-बूटियों का दवाओं के लिए प्रयोग होता है।
  3. लकड़ी का प्रयोग हल जैसे खेती के औज़ार बनाने में किया जाता है।
  4. बांस से बढ़िया बाड़ें बनायी जा सकती हैं। इसका उपयोग छतरियां तथा टोकरियां बनाने के लिए भी किया जा सकता है।
  5. सूखे हुए कुम्हड़े के खोल का प्रयोग पानी की बोतल के रूप में किया जा सकता है।
  6. जंगलों में लगभग सब कुछ उपलब्ध है-
    • पत्तों को आपस में जोड़ कर ‘खाओ-फेंको’ किस्म के पत्तल और दोने बनाए जा सकते हैं।
    • सियादी (Bauhiria vahili) की लताओं से रस्सी बनायी जा सकती है।
    • सेमूर (सूती रेशम) की कांटेदार छाल पर सब्जियां छीली जा सकती है।
    • महुए के पेड़ से खाना पकाने और रोशनी के लिए तेल निकाला जा सकता है।

वन्य समाज तथा बस्तीवाद PSEB 9th Class History Notes

  • वनों का महत्त्व – वन मानव समाज के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण संसाधन हैं। वनों से हमें इमारती लकड़ी, ईंधन, फल, गोंद, शहद, कागज़ तथा अन्य कई उत्पाद प्राप्त होते हैं। ग्रामीणों के लिए वन आजीविका का महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
  • वनोन्मूलन – वनोन्मूलन का अर्थ है-वनों की सफ़ाई। कृषि के विस्तार, रेलवे के विस्तार, जलयान निर्माण आदि कई कार्यों के लिए वनों को बड़े पैमाने पर काटा गया।
  • बागान – ऐसे बड़े-बड़े फार्म जहां एक सीधी पंक्ति में एक ही प्रजाति के वृक्ष लगाए जाते हैं, बागान कहलाते हैं।
  • इमारती लकड़ी के वृक्ष – इमारती लकड़ी मज़बूत तथा कठोर होती है। यह मुख्य साल तथा टीक के वृक्षों से मिलती है।
  • वनों पर नियंत्रण – वनों का महत्त्व ज्ञात होने के बाद औपनिवेशिक शासकों ने वन विभाग की स्थापना की और वन अधिनियम पारित करके वनों पर नियंत्रण कर लिया।
  • वन नियंत्रण के प्रभाव – वनों पर सरकार के नियंत्रण से वनों पर निर्भर रहने वाले आदिवासी कबीलों की रोजी-रोटी छिन गई और उनमें सरकार के विरुद्ध विद्रोह के भाव जाग उठे।
  • स्थानांतरी (झूम) खेती – इस प्रकार की खेती में वनों को साफ़ करके खेत प्राप्त किए जाते हैं। एक-दो वर्ष तक वहां पर कृषि करके उन्हें छोड़ दिया जाता है और किसी अन्य स्थान पर खेत बना लिए जाते हैं। वनों पर सरकारी नियंत्रण के पश्चात् इस प्रकार की कृषि पर रोक लगा दी गई।
  • वैज्ञानिक वानिकी – वन विभाग के नियंत्रण में वृक्ष काटने की वह प्रणली जिसमें पुराने वृक्ष काटे जाते हैं और नए वृक्ष उगाए जाते हैं।
  • बस्तर – बस्तर एक पठार पर स्थित है। वन नियंत्रण से प्रभावित यहां के आदिवासी कबीलों ने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह किए। इन विद्रोहों का आरंभ ध्रुव कबीले द्वारा हुआ।
  • जावा – जावा इंडोनेशिया का एक प्रदेश है। यहां के डच शासकों ने यहां के वनों का खूब शोषण किया और वहां के स्थानीय लोगों को मज़दूर बनाकर रख दिया। फलस्वरूप उन्होंने विद्रोह कर दिया जिसे दबाने में तीन महीने लग गए।
  • 1855 ई० – – लार्ड डल्हौज़ी ने वनों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए। इसकी अधीन मालाबार की पहाड़ियों में सागवान और नीलगिरि की पहाड़ियों में बबूल (कीकर) के वृक्ष लगाए गए।
  • 1864 ई० – वनों की रक्षा संबंधी कानूनों/नियमों की पालना हित भारतीय वन विभाग की स्थापना की गई। इसका मुख्य लक्ष्य व्यापारिक बाग़बानी को प्रोत्साहित करना था।
  • 1865 ई० – भारतीय वन अधिनियम 1865, वनों के प्रबंधन संबंधी कानून बनाने से संबंधित था।
  • 878 ई० – भारतीय वन अधिनियम 1878 इस अधिनियम के अंतर्गत वनों की तीन श्रेणियां बना दी गईं-
    • आरक्षित वन,
    • सुरक्षित वन,
    • ग्रामीण वन।
      इस कानून से जंगलों को निजी संपत्ति से सरकारी संपत्ति बनाने के अधिकार दिए गए और लोगों के जंगलों में जाने व
      उनका प्रयोग करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
  • 1906 ई० –  इंपीरियल वन अनुसंधान केंद्र, देहरादून की स्थापना की गई।
  • 1927 ई० –  वनों से संबंधित कानूनों को मजबूत करने, जंगली लकड़ी का उत्पादन बढ़ाने, इमारती लकड़ी व अन्य वन्य उपजों पर कर लगाने के उद्देश्य से भारतीय वन अधिनियम 1927 लागू किया गया। इस कानून में उल्लंघन करने वालों को कारावास व भारी जुर्माने का प्रावधान था।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति

Punjab State Board PSEB 9th Class Social Science Book Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 6 रूसी क्रांति

SST Guide for Class 9 PSEB रूसी क्रांति Textbook Questions and Answers

(क) बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
रूस की क्रांति के दौरान बोलश्विकों का नेतृत्व किसने किया ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) फ्रेडरिक एंजल्स
(ग) लैनिन
(घ) ट्रोस्टकी।
उत्तर-
(ग) लैनिन

प्रश्न 2.
रूस की क्रांति द्वारा समाज के पुनर्गठन के लिए कौन-सा विचार सबसे महत्त्वपूर्ण है ?
(क) समाजवाद
(ख) राष्ट्रवाद
(ग) उदारवाद
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) समाजवाद

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति

प्रश्न 3.
मैनश्विक समूह का नेता कौन था ?
(क) ट्रोस्टकी
(ख) कार्ल मार्क्स
(ग) ज़ार निकोल्स
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) ट्रोस्टकी

प्रश्न 4.
किस देश ने अपने आप को पहले विश्व युद्ध से बाहर निकला लिया.और जर्मनी से संधि कर ली ?
(क) अमेरिका
(ख) रूस
(ग) फ्रांस
(घ) इंग्लैंड।
उत्तर-
(ख) रूस

(ख) रिक्त स्थान भरो:

  1. ………… ने रूसी क्रांति के समय रूस के बोलश्विक संगठन का नेतृत्व किया।
  2. ………… का अर्थ है-परिषद् अथवा स्थानीय सरकार।
  3. रूस में चुनी गई सलाहकार संसद् को …………… कहा जाता था।
  4. ज़ोर का शाब्दिक अर्थ है ……………

उत्तर-

  1. लैनिन
  2. सोवियत
  3. ड्यूमा
  4. सर्वोच्च

(ग) अंतर बताओ :

प्रश्न 1.
1. बोलश्विक और मैनश्विक
2. उदारवादी और रूढ़िवादी
उत्तर-

1. बोलश्विक और मैनश्विक-बोलश्विक और मैनश्विक रूस के दो राजनीतिक दल थे। ये दल औद्योगिक मजदूरों के प्रतिनिधि थे। इन दोनों के बीच मुख्य अंतर यह था कि मैनश्विक संसदीय प्रणाली के पक्ष में थे, जबकि बोलश्विक संसदीय प्रणाली में विश्वास नहीं रखते थे। वे ऐसी पार्टी चाहते थे जो अनुशासन में बंधकर क्रांति के लिए कार्य करे।

2. उदारवादी और रूढ़िवादी-उदारवादी-उदारवादी यूरोपीय समाज के वे लोग थे जो समाज को बदलना चाहते थे। वे एक ऐसे राष्ट्र की स्थापना करना चाहते थे जो धार्मिक दृष्टि से सहनशील हो। वे वंशानुगत शासकों की निरंकुश शक्तियों के विरुद्ध थे। वे चाहते थे कि सरकार व्यक्ति के अधिकारों का हनन न करे। वे निर्वाचित संसदीय सरकार तथा स्वतंत्र न्यायपालिका के पक्ष में थे। इतना होने पर भी वे लोकतंत्रवादी नहीं थे। उनका सार्वभौमिक वयस्क मताधिका में कोई विश्वास नहीं था। वे महिलाओं को मताधिकार देने के भी विरुद्ध थे।
रूढ़िवादी-रैडिकल तथा उदारवादी दोनों के विरुद्ध थे। परंतु फ्रांसीसी क्रांति के बाद वे भी परिवर्तन की ज़रूरत को स्वीकार करने लगे थे। इससे पूर्व अठारहवीं शताब्दी तक वे प्राय परिवर्तन के विचारों का विरोध करते थे। फिर भी वे चाहते थे कि अतीत को पूरी तरह भुलाया जाए और परिवर्तन की प्रक्रिया धीमी हो।

(घ) सही मिलान करें:

1. लैनिन – मैनश्विक
2. ट्रोस्टकी – समाचार पत्र
3. मार्च की रूस की क्रांति – रूसी पार्लियामैंट
4. ड्यूमा – बोलश्विक
5. प्रावदा – 1917
उत्तर-

  1. बोलश्विक
  2. मैनश्विक
  3. 1917 ई०
  4. रूसी पार्लियामैंट
  5. समाचार पत्र।

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अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
20वीं शताब्दी में समाज के पुनर्गठन के लिए कौन-सा विचार महत्त्वपूर्ण माना गया ?
उत्तर-
20वीं शताब्दी में समाज के पुनर्गठन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण विचार ‘समाजवाद’ को माना गया।

प्रश्न 2.
‘ड्यूमा’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
ड्यूमा रूस की राष्ट्रीय सभा अथवा संसद् थी।

प्रश्न 3.
मार्च 1917 ई० की क्रांति के समय रूस का शासक कौन था ?
उत्तर:-
ज़ार निकोल्स।

प्रश्न 4.
1905 ई० में रूस की क्रांति का मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर-
1905 ई० में रूस की क्रांति का मुख्य कारण था-ज़ार को याचिका देने के लिए जाते हुए मज़दूरों पर गोली चलाया जाना।

प्रश्न 5.
1905 ई० में रूस की पराजय किस देश द्वारा हुई ?
उत्तर-
जापान से।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
अक्तूबर 1917 ई० की रूसी क्रांति के तत्कालीन परिणामों का वर्णन करो।
उत्तर-
रूस में 1917 की क्रांति के पश्चात् जिस अर्थव्यवस्था का निर्माण आरंभ हुआ उसकी विशेषताएं निम्नलिखित थीं

  1. मज़दूरों को शिक्षा संबंधी सुविधाएं दी गईं।
  2. जागीरदारों से जागीरें छीन ली गईं और सारी भूमि किसानों की समितियों को सौंप दी गई।
  3. व्यापार तथा उपज के साधनों पर सरकारी नियंत्रण हो गया।
  4. काम का अधिकार संवैधानिक अधिकार बन गया और रोजगार दिलाना राज्य का कर्त्तव्य बन गया।
  5. शासन की सारी शक्ति श्रमिकों और किसानों की समितियों (सोवियत) के हाथों में आ गई।
  6. अर्थव्यवस्था के विकास के लिए आर्थिक नियोजन का मार्ग अपनाया गया।

प्रश्न 2.
मैनश्विक और बोलश्विक पर नोट लिखो।
उत्तर-

  1. मैनश्विक-मैनश्विक ‘रूसी सामाजिक लोकतांत्रिक मज़दूर पार्टी’ का अल्पमत वाला भाग था। यह दल ऐसी पार्टी के पक्ष में था जैसी फ्रांस तथा जर्मनी में थी। इन देशों की पार्टियों की तरह मैनश्विक भी देश में निर्वाचित संसद् की स्थापना करना चाहते थे।
  2. बोलश्विक-1898 ई० में रूस में ‘रूसी सामाजिक लोकतांत्रिक मजदूर पार्टी’ का गठन हुआ था। परंतु संगठन तथा नीतियों के प्रश्न पर यह पार्टी दो भागों में बंट गई। इनमें से बहुमत वाला भाग ‘बोलश्विक’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस दल का मत था कि संसद् तथा लोकतंत्र के अभाव में कोई भी दल संसदीय सिद्धान्तों द्वारा परिवर्तन नहीं ला सकता है। यह दल अनुशासन में बंधकर क्रांति के लिए काम करने के पक्ष में था। इस दल का नेता लेनिन था।

प्रश्न 3.
रूस में अस्थायी सरकार की असफलता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
रूस में अस्थायी सरकार की असफलता के निम्नलिखित कारण थे

  1. युद्ध से अलग न करना-रूस की अस्थायी सरकार देश को युद्ध से अलग न कर सकी, जिसके कारण रूस की आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी।
  2. लोगों में अशांति-रूस में मज़दूर तथा किसान बड़ा कठोर जीवन व्यतीत कर रहे थे। दो समय की रोटी जुटाना भी उनके लिए एक बहुत कठिन कार्य था। अतः उनमें दिन-प्रतिदिन अशांति बढ़ती जा रही थी।
  3. खाद्य-सामग्री का अभाव-रूस में खाद्य-सामग्री का बड़ा अभाव हो गया था। देश में भुखमरी की-सी दशा उत्पन्न हो गई थी। लोगों को रोटी खरीदने के लिए लंबी-लंबी लाइनों में खड़ा रहना पड़ता था।
  4. देशव्यापी हड़तालें-रूस में मजदूरों की दशा बहुत खराब थी। उन्हें कठोर परिश्रम करने पर भी बहुत कम मज़दूरी मिलती थी। वे अपनी दशा सुधारना चाहते थे। अतः उन्होंने हड़ताल करना आरंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप देश में हड़तालों का ज्वार-सा आ गया।

प्रश्न 4.
लैनिन का अप्रैल प्रस्ताव क्या था ?
उत्तर-
लेनिन बोलश्विकों के नेता थे जो निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे। अप्रैल 1917 में वह रूस लौट आये। उनके नेतृत्व में बोलश्विक 1914 से ही प्रथम विश्वयुद्ध का विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि अब सोवियतों को सत्ता अपने हाथों में ले लेनी चाहिए। ऐसे में लेनिन ने सरकार के सामने तीन मांगें रखीं-

  1. युद्ध समाप्त किया जाए।
  2. सारी ज़मीन किसानों को सौंप दी जाए।
  3. बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाए। इन तीनों मांगों को लेनिन की ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 5.
अक्तूबर की क्रांति के बाद रूस में कृषि के क्षेत्र में क्या परिवर्तन आए ?
नोट : इसके लिए लघु उत्तरों वाले प्रश्न का प्रश्न क्रमांक 1 पढ़ें। केवल कृषि संबंधी बिंदु ही पढ़ें।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
1905 ई० की क्रांति से पूर्व रूस की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्था का वर्णन करें।
उत्तर-
19वीं शताब्दी में लगभग समस्त यूरोप में महत्त्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिवर्तन हुए थे। कई देश गणराज्य थे, तो कई संवैधानिक राजतंत्र । सामंती व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी और सामंतों का स्थान नए मध्य वर्गों ने ले लिया था। परंतु रूस अभी भी ‘पुरानी दुनिया’ में जी रहा था। यह बात रूस की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक दशा से स्पष्ट हो जायेगी

  1. रूसी किसानों की दशा अत्यंत शोचनीय थी। वहां कृषि दास-प्रथा अवश्य समाप्त हो चुकी थी, फिर भी किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं आया था। उनकी जोतें बहुत ही छोटी थीं और उन्हें विकसित करने के लिए उनके पास पूंजी भी नहीं थी। इन छोटी-छोटी जोतों को पाने के लिए भी उन्हें अनेक दशकों तक मुक्ति कर के रूप में भारी धन राशि चुकानी पड़ी।
  2. किसानों की भांति मज़दूरों की दशा भी खराब थी। देश में अधिकतर कारखाने विदेशी पूंजीपतियों के थे। उन्हें मजदूरों की दशा सुधारने की कोई चिंता नहीं थी। उनका एकमात्र उद्देश्य अधिक-से-अधिक मुनाफ़ा कमाना था। रूसी पूंजीपतियों ने भी मज़दूरों का आर्थिक शोषण किया। इसका कारण यह था कि उनके पास पर्याप्त पूंजी नहीं थी। वे मजदूरों को कम वेतन देकर पैसा बचाना चाहते थे और इस प्रकार विदेशी पूंजीपतियों का मुकाबला करना चाहते थे। मजदूरों को कोई राजनीतिक अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। उनके पास इतने साधन भी नहीं थे कि वे कोई मामूली सुधार लागू करवा सकें।

राजनीतिक दशा-

  1. रूस का जार निकोलस द्वितीय राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास रखता था। वह निरंकुशतंत्र की रक्षा करना अपना परम कर्त्तव्य समझता था। उसके समर्थक केवल कुलीन वर्ग तथा अन्य उच्च वर्गों से संबंध रखते थे। जनसंख्या का शेष सारा भाग उसका विरोधी था। राज्य के सभी अधिकार उच्च वर्ग के लोगों के हाथों में थे। उनकी नियुक्ति भी किसी योग्यता के आधार पर नहीं की जाती थी।
  2. रूसी साम्राज्य में ज़ार द्वारा विजित कई गैर-रूसी राष्ट्र भी सम्मिलित थे। ज़ार ने इन लोगों पर रूसी भाषा लादी और उनकी संस्कृतियों का महत्त्व कम करने का पूरा प्रयास किया। इस प्रकार रूस में टकराव की स्थिति बनी हुई थी।
  3. राज परिवार में नैतिक पतन चरम सीमा पर था। निकोलस द्वितीय पूरी तरह अपनी पत्नी के दबाव में था जो स्वयं एक ढोंगी साधु रास्पुतिन के कहने पर चलती थी। ऐसे भ्रष्टाचारी शासन से जनता. बहुत दु:खी थी।
    इस प्रकार रूस में क्रांति के लिए स्थिति परिपक्व थी।

प्रश्न 2.
औद्योगीकरण के रूस के आम लोगों पर क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-
औद्योगिक क्रांति रूस में सबसे बाद में आई। वहां खनिज पदार्थों की तो कोई कमी नहीं थी, परंतु पूंजी तथा स्वतंत्र श्रमिकों के अभाव के कारण वहां काफ़ी समय तक औद्योगिक विकास संभव न हो सका। 1867 ई० रूस ने कृषि दासों को स्वतंत्र कर दिया। उसे विदेशों से पूंजी भी मिल गई। फलस्वरूप रूस ने अपने औद्योगिक विकास की ओर ध्यान दिया। वहां उद्योगों का विकास आरंभ हो गया, परंतु इनका पूर्ण विकास 1917 ई० की क्रांति के पश्चात् ही संभव हो सका।
प्रभाव-औद्योगिक क्रांति का रूस के आम लोगों के जीवन के हर पहलू पर गहरा प्रभाव पड़ा। औद्योगिक क्रांति के प्रभाव निम्नलिखित थे

  1. भूमिहीन मजदूरों की संख्या में वृद्धि-औद्योगिक क्रांति ने छोटे-छोटे कृषकों को अपनी भूमि बेचकर कारखानों में काम करने पर बाध्य कर दिया। अत: भूमिहीन मजदूरों की संख्या में वृद्धि होने लगी।
  2. छोटे कारीगरों का मज़दूर बनना-औद्योगिक क्रांति के कारण अब मशीनों द्वारा मज़बूत व पक्का माल बड़ी शीघ्रता से बनाया जाने लगा। इस प्रकार हाथ से बने अथवा काते हुए कपड़े की मांग कम होती चली गई। अतः छोटे कारीगरों ने अपना काम छोड़ कर कारखाने में मजदूरों के रूप में काम करना आरंभ कर दिया।
  3. स्त्रियों तथा छोटे बच्चों का शोषण-कारखानों में स्त्रियों तथा कम आयु वाले बच्चों से भी काम लिया जाने लगा। उनसे बेगार भी ली जाने लगी। इसका उनके स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ा।
  4. मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव-मजदूरों के स्वास्थ्य पर खुले वातावरण के अभाव के कारण बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। अब वे स्वच्छ वायु की अपेक्षा कारखानों की दूषित वायु में काम करते थे।
  5. बेरोजगारी में वृद्धि-औद्योगिक क्रांति का सबसे बुरा प्रभाव यह हुआ कि इसने घरेलू दस्तकारियों का अंत कर दिया। एक अकेली मशीन अब कई आदमियों का काम करने लगी। परिणामस्वरूप हाथ से काम करने वाले कारीगर बेकार हो गए। .
  6. नवीन वर्गों का जन्म-औद्योगिक क्रांति से मज़दूर तथा पूंजीपति नामक दो नवीन वर्गों का जन्म हुआ। पूंजीपतियों ने मजदूरों के बहुत कम वेतन पर काम लेना शुरू कर दिया। परिणामस्वरुप निर्धन लोग और निर्धन हो गए तथा देश की समस्त पूंजी कुछ एक पूंजीपतियों की तिजोरियों में भरी जाने लगी। इस विषय में किसी ने कहा है, “औद्योगिक क्रांति ने धनिकों को और भी अधिक धनी तथा निर्धनों को और भी निर्धन कर दिया।”

प्रश्न 3.
समाजवाद पर एक विस्तारपूर्वक नोट लिखो। .
उत्तर-
समाजवाद की दिशा में कार्ल मार्क्स (1818-1882) और फ्रेडरिक एंगेल्स (1820-1895) ने कई नए तर्क पेश किए। मार्क्स का विचार था कि औद्योगिक समाज ‘पूंजीवादी’ समाज है। कारखानों में लगी पूंजी पर पूंजीपतियों का अधिकार है और पूंजीपतियों का मुनाफ़ा मज़दूरों की मेहनत से पैदा होता है। मार्क्स का मानना था कि जब तक निजी पूंजीपति इसी प्रकार मुनाफ़े का संचय करते रहेंगे तब तक मजदूरों की दशा में सुधार नहीं हो सकता। अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए मज़दूरों को पूंजीवाद तथा निजी संपत्ति पर आधारित शासन को उखाड़ फेंकना होगा। मार्क्स का कहना था पूंजीवादी शोषण से मुक्ति पाने के लिए मज़दूरों को एक बिल्कुल अलग तरह का समाज बनाना होगा जिसमें सारी संपत्ति पर पूरे समाज का नियंत्रण और स्वामित्व हो। उन्होंने भविष्य के इस समाज को साम्यवादी (कम्युनिस्ट) समाज का नाम दिया। मार्क्स को विश्वास था कि पूंजीपतियों के साथ होने वाले संघर्ष में अंतिम जीत मजदूरों की ही होगी।
समाजवाद की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. समाजवाद में समाज वर्ग विहीन होता है। इसमें अमीर-ग़रीब में कम-से-कम अंतर होता है। इसी कारण समाजवाद निजी संपत्ति का विरोधी है।
  2. इसमें मजदूरों का शोषण नहीं होता। समाजवाद के अनुसार सभी को काम पाने का अधिकार है।
  3. उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर पूरे समाज का अधिकार होता है, क्योंकि इसका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि समाज का कल्याण होता है।

प्रश्न 4.
किन कारणों से सामान्य जनता ने बोलश्विकका समर्थन किया ? .
उत्तर-
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से रूस में समाजवादी विचारों का प्रसार आरंभ हो गया था और कई एक समाजवादी संगठनों की स्थापना की जा चुकी थी। 1898 ई० में विभिन्न समाजवादी दल मिलकर एक हो गए और उन्होंने “रूसी समाजवादी लोकतांत्रिक मज़दूर दल” का गठन किया। इस पार्टी में वामपक्ष का नेता ब्लादीमीर ईलिच उल्यानोव था जिसे लोग लेनिन के नाम से जानते थे। 1903 ई० में इस गुट का दल में बहुमत हो गया और इनको बोलश्विक कहा जाने लगा। जो लोग अल्पमत में थे और उन्हें मैनश्विक के नाम से पुकारा गया।
बोलश्विक पक्के राष्ट्रवादी थे। वे रूस के लोगों की दशा में सुधार करना चाहते थे। वे रूस को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रुप में देखना चाहते थे। अपने इस स्वप्न को साकार करने के लिए उन्होंने जो उद्देश्य अपने सामने रखे। वे जनता के दिल को छू गए। इसलिए सामान्य जनता भी बोलश्विकों के साथ हो गई।

  1. समाजवाद की स्थापना-बोलशिवक लोगों का अंतिम उद्देश्य रूस में समाजवादी व्यवस्था स्थापित करना था। इसके अतिरिक्त उनके कुछ तत्कालीन उद्देश्य भी थे।
  2. जार के कुलीनतंत्र का अंत करना-बोलश्विक यह भली-भांति जानते थे कि ज़ार के शासन के अंतर्गत रूस के लोगों की दशा को कभी नहीं सुधारा जा सकता। अत: वे जार के शासन का अंत करके रूस में गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे।
  3. गैर-रूसी जातियों के दमन की समाप्ति-बोलश्विक रूसी साम्राज्य के गैर-रूसी जातियों के दमन को समाप्त करके उन्हें आत्म-निर्णय का अधिकार देना चाहते थे।
  4. किसानों के दमन का अंत-वे भू-स्वामित्व की असमानता का उन्मूलन और सामंतों द्वारा किसानों के दमन का अंत करना चाहते थे।

प्रश्न 5.
अक्तूबर की क्रांति के बाद बोलश्विक सरकार की ओर से क्या परिवर्तन किए गए ? विस्तारपूर्वक वर्णन करें।
उत्तर-
अक्तूबर क्रांति के पश्चात् बोलश्विकों द्वारा रूस में मुख्यतः निम्नलिखित परिवर्तन किए गए

  1. नवंबर 1917 में अधिकांश उद्योगों तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। फलस्वरूप इनका स्वामित्व एवं प्रबंधन सरकार के हाथों में आ गया।
  2. भूमि को सामाजिक संपत्ति घोषित कर दिया गया। किसानों को अनुमति दे दी गई कि वे सरदारों तथा जागीरदारों की भूमि पर कब्जा कर लें।
  3. शहरों में बड़े मकानों में मकान मालिकों के लिए पर्याप्त हिस्सा छोड़ कर शेष मकान के छोटे-छोटे हिस्से कर दिए गये ताकि बेघर लोगों को रहने की जगह दी जा सके।
  4. निरंकुशतंत्र द्वारा दी गई पुरानी उपाधियों के प्रयोग पर रोक लगा दी गई। सेना तथा सैनिक अधिकारियों के लिए नई वर्दी निश्चित कर दी गई।
  5. बोलश्विक पार्टी का नाम बदल कर रशियन कम्युनिस्ट पार्टी (बोलश्विक) रख दिया गया।
  6. व्यापार संघों पर नई पार्टी का नियंत्रण स्थापित कर दिया गया।
  7. गुप्तचर पुलिस ‘चेका’ (Cheka) को ओगपु (OGPU) तथा नकविड (NKVD) के नाम दिए गए। इन्हें बोलश्विकों की आलोचना करने वाले लोगों को दंडित करने का अधिकार दिया गया।
  8. मार्च, 1918 में अपनी ही पार्टी के विरोध के बावजूद बोलश्विकों ने ब्रेस्ट लिटोवस्क (Brest Litovsk) के स्थान पर जर्मनी से शांति संधि कर ली।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति

PSEB 9th Class Social Science Guide रूसी क्रांति Important Questions and Answers

I. बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
यूरोप के अतिवादी (radicals) किस के विरोधी थे ?
(क) निजी संपत्ति के
(ख) निजी संपत्ति के केंद्रीयकरण के
(ग) महिलाओं को मताधिकार देने के
(घ) बहुमत जनसंख्या की सरकार के।
उत्तर-
(ख) निजी संपत्ति के केंद्रीयकरण के

प्रश्न 2.
19वीं शताब्दी में यूरोप के रूढ़िवादियों (Conservative) के विचारों में क्या परिवर्तन आया ?
(क) क्रांतियां लाई जाएं
(ख) संपत्ति का बंटवारा समान हो
(ग) महिलाओं को संपत्ति का अधिकार न दिया जाए
(घ) समाज-व्यवस्था में धीरे-धीरे परिवर्तन लाया जाए।
उत्तर-
(घ) समाज-व्यवस्था में धीरे-धीरे परिवर्तन लाया जाए।

प्रश्न 3.
औद्योगिकीकरण से कौन-सी समस्या उत्पन्न हुई ?
(क) आवास
(ख) बेरोज़गारी
(ग) सफ़ाई
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4.
मेज़िनी राष्ट्रवादी था
(क) इटली का
(ख) फ्रांस का
(ग) रूस का
(घ) जर्मनी का।
उत्तर-
(क) इटली का

प्रश्न 5.
समाजवादी सभी बुराइयों की जड़ किसे मानते थे ?
(क) धन के समान वितरण को
(ख) उत्पादन के साधनों पर समाज के अधिकार को
(ग) निजी संपत्ति
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) निजी संपत्ति

प्रश्न 6.
राबर्ट ओवन कौन था
(क) रूसी दार्शनिक
(ख) फ्रांसीसी क्रांतिकारी
(ग) अंग्रेज़ समाजवादी
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) अंग्रेज़ समाजवादी

प्रश्न 7.
फ्रांसीसी समाजवादी कौन-सा था ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) फ्रेड्रिक एंगल्ज़
(ग) राबर्ट ओवन
(घ) लुई ब्लांक
उत्तर-
(घ) लुई ब्लांक

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति

प्रश्न 8.
कार्ल मार्क्स तथा फ्रेड्रिक एंगल्ज़ कौन थे ?
(क) समाजवादी
(ख) पूंजीवादी
(ग) सामंतवादी
(घ) वाणिज्यवादी।
उत्तर-
(क) समाजवादी

प्रश्न 9.
समाजवाद का मानना है
(क) सारी संपत्ति पर पूंजीपतियों का अधिकार होना चाहिए
(ख) सारी संपत्ति पर समाज (राज्य) का नियंत्रण होना चाहिए
(ग) सारा मुनाफ़ा उद्योगपतियों को मिलना चाहिए
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ख) सारी संपत्ति पर समाज (राज्य) का नियंत्रण होना चाहिए

प्रश्न 10.
द्वितीय इंटरनेशनल का संबंध था
(क) साम्राज्यवाद से
(ख) पूंजीवाद से ।
(ग) समाजवाद से
(घ) सामंतवाद से।
उत्तर-
(ग) समाजवाद से

प्रश्न 11.
ब्रिटेन में मज़दूर दल की स्थापना हुई
(क) 1900
(ख) 1905
(ग) 1914
(घ) 1919.
उत्तर-
(ख) 1905

प्रश्न 12.
रूसी साम्राज्य का प्रमुख धर्म था
(क) रूसी आर्थोडॉक्स चर्च
(ख) कैथोलिक
(ग) प्रोटेस्टैंट
(घ) इस्लाम।
उत्तर-
(क) रूसी आर्थोडॉक्स चर्च

प्रश्न 13.
क्रांति से पूर्व रूस की अधिकांश जनता का व्यवसाय था
(क) व्यापार
(ख) खनन
(ग) कारखानों में काम करना
(घ) कृषि।
उत्तर-
(घ) कृषि।

प्रश्न 14.
क्रांति से पूर्व रूस के सूती वस्त्र उद्योग में हड़ताल हुई
(क) 1914 ई०
(ख) 1896-97 ई०
(ग) 1916 ई०
(घ) 1904 ई०
उत्तर-
(ख) 1896-97 ई०

प्रश्न 15.
1914 से रूस में निम्नलिखित दल अवैध था
(क) रूसी समाजवादी वर्क्स पार्टी
(ख) बोलश्विक दल
(ग) मैनश्विक दल
(घ) उपरोक्त सभी
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी

प्रश्न 16.
रूसी साम्राज्य में मुस्लिम धर्म सुधारक क्या कहलाते थे ?
(क) ड्यूमा
(ख) उलेमा
(ग) जांदीदिस्ट
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) जांदीदिस्ट

प्रश्न 17.
निम्नलिखित भिक्षु रूस की ज़ारीना (जार की पत्नी) का सलाहकार था जिसने राजतंत्र को बदनाम किया
(क) रास्पुतिन
(ख) व्लादिमीर पुतिन
(ग) केस्की
(घ) लेनिन।
उत्तर-
(क) रास्पुतिन

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प्रश्न 18.
पूंजीपति के लिए मज़दूर ही मुनाफ़ा कमाता है, यह विचार दिया था
(क) कार्ल मार्क्स ने
(ख) लेनिन ने
(ग) केरेंस्की ने
(घ) प्रिंस ल्योव ने।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स ने

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से किसकी विचारधारा रूसी क्रांति लाने में सहायक सिद्ध हुई?
(क) मुसोलिनी
(ख) हिटलर
(ग) स्टालिन
(घ) कार्ल मार्क्स।
उत्तर-
(घ) कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 20.
1917 की रूसी क्रांति का आरंभ कहां से हुआ?
(क) ब्लाडीवास्टक
(ख) लेनिनग्राड
(ग) पीट्रोग्राड
(घ) पेरिस।
उत्तर-
(ग) पीट्रोग्राड

प्रश्न 21.
1917 की रूसी क्रांति का तात्कालिक कारण था
(क) ज़ार का निरंकुश शासन
(ख) जनता की दुर्दशा
(ग) 1905 की रूसी क्रांति
(घ) प्रथम महायुद्ध में रूस की पराजय।
उत्तर-
(घ) प्रथम महायुद्ध में रूस की पराजय।

प्रश्न 22.
1917 की रूसी क्रांति को जिस अन्य नाम से पुकारा जाता है
(क) फ्रांसीसी क्रांति
(ख) मार्क्स क्रांति
(ग) ज़ार क्रांति
(घ) बोलश्विक क्रांति।
उत्तर-
(घ) बोलश्विक क्रांति।

प्रश्न 23.
रूस में लेनिन ने किस प्रकार के शासन की घोषणा की?
(क) मध्यवर्गीय प्रजातंत्र
(ख) एकतंत्र
(ग) मज़दूरों, सिपाहियों तथा किसानों के प्रतिनिधियों की सरकार
(घ) संसदात्मक गणतंत्र।
उत्तर-
(ग) मज़दूरों, सिपाहियों तथा किसानों के प्रतिनिधियों की सरकार

प्रश्न 24.
इनमें से रूस के जार निकोलस ने किस प्रकार की सरकार को अपनाया ?
(क) निरंकुश
(ख) समाजवादी
(ग) साम्यवादी
(घ) लोकतंत्र।
उत्तर-
(क) निरंकुश

प्रश्न 25.
मैनश्विकों का नेता था
(क) एलेक्जेंडर केरेस्की
(ख) ट्रोटस्की
(ग) लेनिन
(घ) निकोलस द्वितीय।
उत्तर-
(क) एलेक्जेंडर केरेस्की

प्रश्न 26.
रूस की अस्थायी सरकार का तख्ता कब पलटा गया ?
(क) अगस्त, 1917
(ख) सितंबर, 1917
(ग) नवंबर, 1917
(घ) दिसंबर, 1917
उत्तर-
(ग) नवंबर, 1917

प्रश्न 27.
नवंबर 1917 की क्रांति का नेतृत्व किया था
(क) निकोलस द्वितीय
(ख) लेनिन
(ग) एलेक्जेंडर केरेंस्की
(घ) ट्रोटस्की।
उत्तर-
(ख) लेनिन

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प्रश्न 28.
रूसी क्रांति का कौन-सा परिणाम नहीं था ?
(क) निरंकुश शासन का अंत
(ख) श्रमिक सरकार
(ग) पूंजीपतियों का अंत
(घ) मैनश्विकों के प्रभाव में वृद्धि ।
उत्तर-
(घ) मैनश्विकों के प्रभाव में वृद्धि ।

रिक्त स्थान भरो:

  1. समाजवादी ……………. को सभी बुराइयों की जड़ मानते थे।
  2. …………….. फ्रांसीसी समाजवादी था।
  3. 1917 ई० में रूसी क्रांति का आरंभ …………………. से हुआ।
  4. 1917 ई० की रूसी क्रांति को …………………. क्रांति के नाम से पुकारा गया।
  5. …………………..मैनश्विकों का नेता था।
  6. रूसी क्रांति ……………… के शासनकाल में हुई।

उत्तर-

  1. निजी संपत्ति
  2. लुई ब्लांक
  3. पीट्रोग्राड
  4. बोलश्विक
  5. एलैक्जेंडर केरेंस्की
  6. ज़ार निकोलस द्वितीय।।

III. सही मिलान करो :

(क) – (ख)
1. मेज़िनी – (i) निरंकुश
2. राबर्ट ओवन – (ii) बोलश्विक क्रांति
3. जार निकोलस – (iii) इटली
4. रूसी क्रांति – (iv) फ्रांसीसी समाजवादी
5. लुई ब्लांक – (v) अंग्रेज़ समाजवादी
उत्तर-

  1. मेजिनी-इटली
  2. राबर्ट ओवन-अंग्रेज़ समाजवादी
  3. जार निकोलस-निरंकुश
  4. रूसी क्रांति| बोलश्विक क्रांति
  5. लुई ब्लांक-फ्रांसीसी समाजवादी।

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

उत्तर एक लाइन अथवा एक शब्द में :

प्रश्न 1.
रूस में बोलश्विक अथवा विश्व की प्रथम समाजवादी क्रांति कब हुई ?
उत्तर-
1917 में।

प्रश्न 2.
रूसी क्रांति किस ज़ार के शासनकाल में हुई ?
उत्तर-
ज़ार निकोलस द्वितीय के।

प्रश्न 3.
रूसी क्रांति से पूर्व कौन-से दो प्रसिद्ध दल थे?
उत्तर-
मैनश्विक तथा बोलश्विक।

प्रश्न 4.
रूस में अस्थाई सरकार किसके नेतृत्व में बनी थी?
उत्तर-
केरेंस्की

प्रश्न 5.
रूसी क्रांति का कोई एक कारण बताओ।
उत्तर-
ज़ार का निरंकुश शासन।

प्रश्न 6.
रूसी क्रांति की पहली उपलब्धि क्या थी?
उत्तर-
निरंकुश शासन की समाप्ति तथा चर्च की शक्ति का विनाश।

प्रश्न 7.
1917 से पूर्व रूस में किस सन् में क्रांति हुई थी?
उत्तर-
1905 में।

प्रश्न 8.
रूस में वर्कमैन्स सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी कब स्थापित हुई ?
उत्तर-
1895 में।

प्रश्न 9.
रूसी क्रांति का तात्कालिक कारण क्या था?
उत्तर-
प्रथम महायुद्ध।

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प्रश्न 10.
प्रथम महायुद्ध में रूस जर्मनी से किस वर्ष में पराजित हुआ?
उत्तर-
1915 में।

प्रश्न 11.
रूसी क्रांति का झंडा सर्वप्रथम कहां बुलंद किया गया?
उत्तर-
पैत्रोग्राद।

प्रश्न 12.
रूस में जार को सिंहासन त्यागने के लिए किसने बाध्य किया?
उत्तर-
ड्यूमा ने।

प्रश्न 13.
रूस में जार के शासन त्यागने के पश्चात् जो अंतरिम सरकार बनी थी, उसमें किस वर्ग का प्रभुत्व था?
उत्तर-
मध्यवर्ग का।

प्रश्न 14.
बोलश्विकों का नेतृत्व कौन कर रहा था?
उत्तर-
लेनिन।

प्रश्न 15.
रूस में क्रांति के परिणामस्वरूप समाज के किस वर्ग का प्रभुत्व स्थापित हुआ?
उत्तर-
कृषक एवं श्रमिक वर्ग।

प्रश्न 16.
रूस की क्रांति को विश्व इतिहास की प्रमुख घटना क्यों माना जाता है?
उत्तर-
समाजवाद की स्थापना के कारण।

प्रश्न 17.
रूसी क्रांति के परिणामस्वरूप रूस का क्या नाम रखा गया?
उत्तर-
सोवियत समाजवादी रूसी संघ।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
रूसी मज़दूरों के लिए 1904 ई० का साल बहुत बुरा रहा। उचित उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर-
रूसी मज़दूरों के लिए 1904 ई० का साल बहुत बुरा रहा। इस संबंध में निम्नलिखित उदाहरण दिए जा सकते हैं-1. ज़रूरी चीज़ों के मूल्य इतनी तेज़ी से बढ़े कि वास्तविक वेतन में 20 प्रतिशत तक की गिरावट आ गई। 2. उसी समय मजदूर संगठनों की सदस्यता में भी तेजी से वृद्धि हुई। 1904 में ही गठित की गई असेंबली ऑफ़ रशियन वर्कर्स (रूसी श्रमिक सभा) के चार सदस्यों को प्युतिलोव आयरन वर्क्स में उनकी नौकरी से हटा दिया गया तो मज़दूरों ने आंदोलन छेड़ने की घोषणा कर दी। 3. अगले कुछ दिनों के भीतर सेंट पीटर्सबर्ग के 110,000 से अधिक मजूदर काम के घंटे घटाकर आठ घंटे किए जाने, वेतन में वृद्धि और कार्यस्थितियों में सुधार की मांग करते हुए हड़ताल पर चले गए।

प्रश्न 2.
“रूसी जनता की समस्त समस्याओं का हल रूसी क्रांति में ही निहित था।” सिद्ध कीजिए।
अथवा
रूसी क्रांति के किन्हीं चार कारणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
क्रांति से पूर्व रूसी जनता का जीवन बड़ा कष्टमय था।

  1. रूस का जार निकोलस द्वितीय निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी राजा था। रूस की जनता उससे तंग आ चुकी थी।
  2. समाज में जन-साधारण की दशा बड़ी ही खराब थी। किसानों तथा मजदूरों में रोष फैला हुआ था। अब लोग इस दुःखी जीवन से छुटकारा पाना चाहते थे।
  3. राजपरिवार में नैतिक पतन व्याप्त था। राज्य का शासन एक ढोंगी साधु रास्पुतिन चला रहा था। परिणामस्वरूप पूरे शासनतंत्र में भ्रष्टाचार फैला हुआ था।
  4. प्रथम विश्व युद्ध में रूस को भारी सैनिक क्षति उठानी पड़ रही थी। अत: सैनिकों में भारी असंतोष बढ़ रहा था। इन समस्त समस्याओं का एक ही हल था-‘क्रांति’।

प्रश्न 3.
रूस को फरवरी 1917 की क्रांति की ओर ले जाने वाली किन्हीं तीन घटनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. 22 फरवरी को दाएं तट पर स्थित एक फ़ैक्टरी में तालाबंदी घोषित कर दी गई। अगले दिन इस फ़ैक्टरी के मज़दूरों के समर्थन में पचास फैक्टरियों के मज़दूरों ने भी हड़ताल कर दी। बहुत-से कारखानों में हड़ताल का नेतृत्व औरतें कर रही थीं।
  2. मज़दूरों ने सरकारी इमारतों को घेर लिया तो सरकार ने कयूं लगा दिया। शाम तक प्रदर्शनकारी तितर-बितर हो गए। परंतु 24 और 25 तारीख को वे फिर इकट्ठे होने लगे। सरकार ने उन पर नज़र रखने के लिए घुड़सवार सैनिकों और पुलिस को तैनात कर दिया।
  3. रविवार, 25 फरवरी को सरकार ने ड्यूमा को भंग कर दिया। 26 फरवरी को बहुत बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी बाएं तट के इलाके में इकट्ठे हो गए। 27 फरवरी को उन्होंने पुलिस मुख्यालयों पर आक्रमण करके उन्हें ध्वस्त कर दिया। रोटी, वेतन, काम के घंटों में कमी और लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में नारे लगाते असंख्य लोग सड़कों पर जमा हो गए।
    सिपाही भी उनके साथ मिल गए। उन्होंने मिलकर पेत्रोग्राद ‘सोवियत’ (परिषद) का गठन किया।
  4. अगले दिन एक प्रतिनिधिमंडल ज़ार से मिलने गया। सैनिक कमांडरों ने ज़ार को राजगद्दी छोड़ देने की सलाह दी। उसने कमांडरों की बात मान ली और 2 मार्च को उसने गद्दी छोड़ दी। सोवियत और ड्यूमा के नेताओं ने देश का शासन चलाने के लिए एक अंतरिम सरकार बना ली। इसे 1917 की फरवरी क्रांति का नाम दिया जाता है।
    (कोई तीन लिखें।)

प्रश्न 4.
अक्तूबर 1917 की रूसी क्रांति में लेनिन के योगदान का किन्हीं तीन बिंदुओं के आधार पर वर्णन कीजिए।
अथवा
1917 की रूसी क्रांति लेनिन के नाम से क्यों जुड़ी हुई है ? .
उत्तर-
लेनिन बोलश्विक दल का नेता था और क्रांति काल के दौरान वह निर्वासित जीवन बिता रहा था। अक्तूबर, 1917 की रूसी क्रांति में उसके योगदान का वर्णन इस प्रकार है-

  1. अप्रैल, 1917 में लेनिन रूस लौट आए। उन्होंने बयान दिया कि युद्ध समाप्त किया जाए, सारी ज़मीन किसानों को सौंप दी जाए और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाए।
  2. इसी बीच अंतरिम सरकार और बोलश्विकों के बीच टकराव बढ़ता गया। सितंबर में बोलश्विकों ने सरकार के विरुद्ध विद्रोह के बारे में चर्चा शुरू कर दी। सेना और फैक्टरी सोवियतों में मौजूद बोलश्विकों को इकट्ठा किया गया। सत्ता पर अधिकार के लिए लियॉन ट्रोटस्की के नेतृत्व में सोवियत की ओर से एक सैनिक क्रांतिकारी समिति का गठन किया गया।
  3. 24 अक्तूबर को विद्रोह शुरू हो गया। प्रधानमंत्री केरेस्की ने इसे दबाने का प्रयास किया, परंतु वह असफल रहा।
  4. शाम ढलते-ढलते पूरा शहर क्रांतिकारी समिति के नियंत्रण में आ गया और मंत्रियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। पेत्रोग्राद में अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस की बैठक हुई जिसमें बहुमत ने बोलश्विकों की कार्रवाई का समर्थन किया।

प्रश्न 5.
रूसी क्रांति की तत्कालीन उपलब्धियां क्या थी?
अथवा
1917 की रूसी क्रांति के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1917 ई० की रूसी क्रांति विश्व-इतिहास की एक अति महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसने न केवल रूस में निरंकुश शासन को समाप्त किया अपितु पूरे विश्व की सामाजिक तथा आर्थिक अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया। इस क्रांति के परिणामस्वरूप रूस में ज़ार का स्थान ‘सोवियत समाजवादी गणतंत्र का संघ’ नामक नई राजसत्ता ने ले लिया। इस नवीन संघ का उद्देश्य प्राचीन समाजवादी आदर्शों को प्राप्त करना था। इसका अर्थ था-प्रत्येक व्यक्ति से उसकी क्षमता के अनुसार काम लिया जाए और काम के अनुसार उसे पारिश्रमिक (मज़दूरी) दी जाए।

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प्रश्न 6.
समाजवाद की तीन विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
समाजवाद की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. समाजवाद में समाज वर्ग विहीन होता है। इसमें अमीर-ग़रीब में कम-से-कम अंतर होता है। इसी कारण समाजवाद निजी संपत्ति का विरोधी है।
  2. इसमें मज़दूरों का शोषण नहीं होता। समाजवाद के अनुसार सभी को काम पाने का अधिकार है।
  3. उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर पूरे समाज का अधिकार होता है, क्योंकि इसका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि समाज का कल्याण होता है।

प्रश्न 7.
1914 में रूसी साम्राज्य के विस्तार की संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
उत्तर-
1914 में रूस और उसके परे साम्राज्य पर ज़ार निकोलस II का शासन था। मास्को के आसपास के भूक्षेत्र के अतिरिक्त आज का फ़िनलैंड, लातविया, लिथुआनिया, एस्तोनिया तथा पोलैंड, यूक्रेन तथा बेलारूस के कुछ भाग रूसी साम्राज्य का अंग थे। यह साम्राज्य प्रशांत महासागर तक फैला हुआ था। आज के मध्य एशियाई राज्यों के साथ-साथ जॉर्जिया, आर्मेनिया तथा अज़रबैजान भी इसी साम्राज्य में शामिल थे। रूस में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च से उत्पन्न शाखा रूसी ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियैनिटी को मानने वाले लोग बहुमत में थे। परंतु इस साम्राज्य के अंतर्गत रहने वालों में कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, मुस्लिम और बौद्ध भी शामिल थे।

प्रश्न 8.
1905 की रूसी क्रांति के बाद ज़ार ने अपना निरंकुश शासन स्थापित करने के लिए क्या-क्या पग उठाए ? कोई तीन लिखिए।
उत्तर-
1905 की क्रांति के दौरान ज़ार ने एक निर्वाचित परामर्शदाता संसद् अर्थात् ड्यूमा के गठन पर अपनी सहमति दे दी। परंतु क्रांति के तुरंत बाद उसने बहुत से निरंकुश पग उठाए-

  1. क्रांति के समय कुछ दिन तक फैक्ट्री मज़दूरों की बहुत सी ट्रेड यूनियनें और फ़ैक्ट्री कमेटियां अस्तित्व में रही थीं। परंतु 1905 के बाद ऐसी अधिकतर कमेटियां और यूनियनें अनधिकृत रुप से काम करने लगीं क्योंकि उन्हें गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। राजनीतिक गतिविधियों पर भारी पाबंदियां लगा दी गईं।
  2. ज़ार ने पहली ड्यूमा को मात्र 75 दिन के भीतर और फिर से निर्वाचित दूसरी ड्यूमा को 3 महीने के भीतर बर्खास्त कर दिया।
  3. ज़ार अपनी सत्ता पर किसी तरह का अंकुश नहीं चाहता था। इसलिए उसने मतदान कानूनों में हेर-फेर करके तीसरी ड्यूमा में रूढिवादी राजनेताओं को भर डाला। उदारवादियों और क्रांतिकारियों को पूरी तरह बाहर रखा गया।

प्रश्न 9.
प्रथम विश्व युद्ध क्या था ? रूसियों की इस युद्ध के प्रति क्या प्रतिक्रियां थी?
उत्तर-
1914 में यूरोप के दो गठबंधनों (धड़ों) के बीच युद्ध छिड़ गया। एक धड़े में ऑस्ट्रिया और तुर्की (केंद्रीय शक्तियां) थे तथा दूसरे धड़े में फ्रांस, ब्रिटेन व रूस थे। बाद में इटली और रूमानिया भी इस धड़े में शामिल हो गए। इन सभी देशों के पास संसार भर में विशाल साम्राज्य थे, इसलिए यूरोप के साथ-साथ यह युद्ध यूरोप के बाहर भी फैल गया था। इसी युद्ध को पहला विश्वयुद्ध कहा जाता है।
आरंभ में इस युद्ध को रूसियों का काफ़ी समर्थन मिला। जनता ने पूरी तरह ज़ार का साथ दिया। परंतु जैसे-जैसे युद्ध लंबा खिंचता गया, ज़ार ने ड्यूमा की मुख्य पार्टियों से सलाह लेना छोड़ दिया। इसलिए उसके प्रति जनसमर्थन कम होने लगा। जर्मन-विरोधी भावनाएं भी दिन-प्रतिदिन बलवती होने लगी। इसी कारण ही लोगों ने सेंट पीटर्सबर्ग का नाम बदल कर पेत्रोग्राद रख दिया क्योंकि सेंट पीटर्सबर्ग जर्मन नाम था। ज़ारीना अर्थात् ज़ार की पत्नी अलेक्सांद्रा के जर्मन मूल के होने और रास्पुतिन जैसे उसके घटिया सलाहकारों ने राजशाही को और अधिक अलोकप्रिय बना दिया।

प्रश्न 10.
1918 के पश्चात् लेनिन ने ऐसे कौन-से कदम उठाये जो रूस में अधिनायकवाद सहज दिखाई देते थे? कलाकारों और लेखकों ने बोलश्विक दल का समर्थन क्यों किया?
उत्तर-

  1. जनवरी 1918 में असेंबली ने बोलश्विकों के प्रस्तावों को रद्द कर दिया। अतः लेनिन ने असेंबली भंग कर दी।
  2. मार्च 1918 में अन्य राजनीतिक सहयोगियों की असहमति के बावजूद बोलश्विकों ने ब्रेस्ट लिटोव्सक में जर्मनी से संधि कर ली।
  3. आने वाले वर्षों में बोलश्विक पार्टी अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस के लिए होने वाले चुनावों में हिस्सा लेने वाली एकमात्र पार्टी रह गई। अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस को अब देश की संसद् का दर्जा दे दिया गया था। इस प्रकार रूस एक-दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाला देश बन गया।
  4. ट्रेड यूनियनों पर पार्टी का नियंत्रण रहता था।
  5. गुप्तचर पुलिस बोलश्विकों की आलोचना करने वाले को दंडित करती थी। फिर भी बहुत से युवा लेखकों और कलाकारों ने बोलश्विक दल का समर्थन किया क्योंकि यह दल समाजवाद और परिवर्तन के प्रति समर्पित था।

प्रश्न 11.
रूस के लोगों की वे तीन मांगें बताओ जिन्होंने ज़ार का पतन किया।
उत्तर-
रूस के लोगों की निम्नलिखित तीन मांगों ने जार का पतन किया-

  1. देश में शांति की स्थापना की जाए और प्रत्येक कृषक को अपनी भूमि दी जाए।
  2. उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण हो।
  3. गैर-रूसी जातियों को समान दर्जा मिले और सोवियत को पूरी शक्ति दी जाए।

प्रश्न 12.
प्रथम विश्वयुद्ध ने रूस की फरवरी क्रांति (1917) के लिए स्थितियां कैसे उत्पन्न की ? तीन कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. प्रथम विश्वयुद्ध में 1917 तक रूस के 70 लाख लोग मारे जा चुके थे।
  2. युद्ध से उद्योगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। रूस के अपने उद्योग तो वैसे भी बहुत कम थे। अब बाहर से मिलने वाली आपूर्ति भी बंद हो गई, क्योंकि बाल्टिक सागर में जिस मार्ग से विदेशी औद्योगिक सामान आते थे उस पर जर्मनी का अधिकार हो चुका था।
  3. पीछे हटती रूसी सेनाओं ने रास्ते में पड़ने वाली फ़सलों और इमारतों को भी नष्ट कर डाला ताकि शत्रु सेना वहां टिक न सके। फ़सलों और इमारतों के विनाश से रूस में 30 लाख से भी अधिक लोग शरणार्थी हो गए। इन दशाओं ने सरकार और ज़ार, दोनों को अलोकप्रिय बना दिया। सिपाही भी युद्ध से तंग आ चुके थे। अब वे लड़ना नहीं चाहते थे।
    इस प्रकार क्रांति का वातावरण तैयार हुआ।

प्रश्न 13.
विश्व पर रूसी क्रांति के प्रभाव की चर्चा कीजिए।
अथवा
रूसी क्रांति के अंतर्राष्ट्रीय परिणामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
रूसी क्रांति के अंतर्राष्ट्रीय परिणामों का वर्णन इस प्रकार है-

  1. रूसी क्रांति के परिणामस्वरूप विश्व में समाजवाद एक व्यापक विचारधारा बन कर उभरा। रूस के बाद अनेक देशों में साम्यवादी सरकारें स्थापित हुईं।
  2. जनता की दशा सुधारने के लिए राज्य द्वारा आर्थिक नियोजन के विचार को बल मिला।
  3. विश्व में श्रम का गौरव बढ़ा। अब बाइबल का यह विचार फिर से जीवित हो उठा कि “जो काम नहीं करता, वह खाएगा भी नहीं।”
  4. रूसी क्रांति ने साम्राज्यवाद के विनाश की प्रक्रिया को तेज़ किया। पूरे विश्व में साम्राज्यवाद के विनाश के लिए एक अभियान चल पड़ा।

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प्रश्न 14.
1917 की क्रांति के बाद रूस विश्व-युद्ध से क्यों अलग हो गया?
उत्तर-
1917 ई० के बाद रूस निम्नलिखित कारणों से युद्ध से अलग हो गया-

  1. रूसी क्रांतिकारी आरंभ से ही लड़ाई का विरोध करते आ रहे थे। अतः क्रांति के बाद रूस युद्ध से हट गया।
  2. लेनिन के नेतृत्व में रूसियों ने युद्ध को क्रांतिकारी युद्ध में बदलने का निश्चय कर लिया था।
  3. रूसी साम्राज्य को युद्ध में कई बार मुंह की खानी पड़ी थी जिससे इसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची थी।
  4. युद्ध में 6 लाख से भी अधिक रूसी सैनिक मारे जा चुके थे।
  5. रूस के लोग किसी दूसरे के भू-भाग पर अधिकार नहीं करना चाहते थे।
  6. रूस के लोग पहले अपनी आंतरिक समस्याओं का समाधान करना चाहते थे।

प्रश्न 15.
रूस द्वारा प्रथम विश्व युद्ध से हटने का क्या परिणाम हुआ?
उत्तर-
1917 ई० में रूस प्रथम विश्व युद्ध से हट गया। रूसी क्रांति के अगले ही दिन बोलश्विक सरकार ने शांतिसंबंधी अज्ञाप्ति (Decree on Peace) जारी की। मार्च, 1918 में रूस ने जर्मनी के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर किये। जर्मनी की सरकार को लगा कि रूसी सरकार युद्ध को जारी रखने की स्थिति में नहीं है। इसलिए जर्मनी ने रूस पर कठोर शर्ते लाद दीं। परंतु रूस ने उन्हें स्वीकार कर लिया। त्रिदेशीय संधि में शामिल शक्तियां रूसी क्रांति और रूस के युद्ध से अलग होने के निर्णय के विरुद्ध थीं। वे रूसी क्रांति के विरोधी तत्त्वों को पुनः उभारने का प्रयत्न करने लगीं। फलस्वरूप रूस में गृह-युद्ध छिड़ गया जो तीन वर्षों तक चलता रहा। परंतु अंत में विदेशी शक्तियों तथा क्रांतिकारी सरकार के विरुद्ध हथियार उठाने वाले रूसियों की पराजय हुई और गृह-युद्ध समाप्त हो गया।

प्रश्न 16.
समाजवादियों के अनुसार ‘कोऑपरेटिव’ क्या थे ? कोऑपरेटिव निर्माण के विषय में रॉबर्ट ओवन तथा लूइस ब्लॉक के क्या विचार थे ?
उत्तर-
समाजवादियों के अनुसार कोऑपरेटिव सामूहिक उद्यम थे। ये ऐसे लोगों के समूह थे जो मिल कर चीजें बनाते थे और मुनाफ़े को प्रत्येक सदस्य द्वारा किए गए काम के हिसाब से आपस में बांट लेते थे। कुछ समाजवादियों की कोऑपरेटिव के निर्माण में विशेष रुचि थी। इंग्लैंड के जाने-माने उद्योगपति रॉबर्ट ओवेन (1771-1858) ने इंडियाना (अमेरिका) में नया समन्वय (New Harmony) के नाम से एक नयी प्रकार के समुदाय की रचना का प्रयास किया। कुछ समाजवादी मानते थे कि केवल व्यक्तिगत प्रयासों से बहुत बड़े सामूहिक खेत नहीं बनाए जा सकते। वे चाहते थे कि सरकार अपनी ओर से सामूहिक खेती को बढ़ावा दे। उदाहरण के लिए, फ्रांस में लुईस ब्लांक (18131882) चाहते थे कि सरकार पूंजीवादी उद्यमों की जगह सामूहिक उद्यमों को प्रोत्साहित करे।

प्रश्न 17.
स्तालिन कौन था ? उसने खेतों के सामूहीकरण का फैसला क्यों लिया ?
उत्तर-
स्तालिन रूस की कम्युनिस्ट पार्टी का नेता था। उसने लेनिन के बाद पार्टी की कमान संभाली थी। 1927-1928 के आसपास रूस के शहरों में अनाज का भारी संकट पैदा हो गया था। सरकार ने अनाज की कीमत निश्चित कर दी थी। कोई भी उससे अधिक कीमत पर अनाज नहीं बेच सकता था। परंतु किसान उस कीमत पर सरकार को अनाज बेचने के लिए तैयार नहीं थे। स्थिति से निपटने के लिए स्तालिन ने कड़े पग उठाए। उसे लगता था कि धनी किसान और व्यापारी कीमत बढ़ने की आशा में अनाज नहीं बेच रहे हैं। स्थिति से निपटने के लिए सट्टेबाजी पर अंकुश लगाना और व्यापारियों के पास जमा अनाज को जब्त करना ज़रूरी था। अतः 1928 में पार्टी के सदस्यों ने अनाज उत्पादक इलाकों का दौरा किया। उन्होंने किसानों से ज़बरदस्ती अनाज खरीदा और ‘कुलकों’ (संपन्न किसानों) के ठिकानों परं छापे मारे। जब इसके बाद भी अनाज की कमी बनी रही तो स्तालिन ने खेतों के सामूहिकीकरण का फैसला लिया। इसके लिए यह तर्क दिया गया कि अनाज की कमी इसलिए है, क्योंकि खेत बहुत छोटे हैं।

प्रश्न 18.
क्रांति से पूर्व रूस में औद्योगिक मजदूरों की शोचनीय दशा के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर-

  1. विदेशी पूंजीपति मज़दूरों का खूब शोषण करते थे। यहां तक कि रूसी पूंजीपति भी उन्हें बहुत कम वेतन देते थे।
  2. मजदूरों को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उनके पास मामूली सुधार लागू करवाने के लिए भी साधन नहीं थे।

प्रश्न 19.
रूसी क्रांति के समय रूस का शासक कौन था? उसके शासनतंत्र के कोई दो दोष बताओ।
अथवा
रूसी क्रांति के किन्हीं दो राजनीतिक कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
रूसी क्रांति के समय रूस का शासक ज़ार निकोलस द्वितीय था। उसके शासनतंत्र में निम्नलिखित दोष थे जो रूसी क्रांति का कारण बने।

  1. वह राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास रखता था तथा निरंकुश तंत्र की रक्षा करना अपना परम कर्त्तव्य समझता था।
  2. नौकरशाही के सदस्य किसी योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि विशेषाधिकार प्राप्त वर्षों से चुने जाते थे।

प्रश्न 20.
रूस में जार निकोलस द्वितीय क्यों अलोकप्रिय था? दो कारण दीजिए।
उत्तर-
रूस में ज़ार निकोलस द्वितीय के अलोकप्रिय होने के निम्नलिखित कारण थे-

  1. ज़ार निकोलस एक निरंकुश शासक था।
  2. ज़ार के शासनकाल में किसानों, मज़दूरों और सैनिकों की दशा बहुत खराब थी।

प्रश्न 21.
लेनिन कौन था? उसने रूस में क्रांति लाने में क्या योगदान दिया?
उत्तर-
लेनिन बोलश्विक दल का नेता था। मार्क्स और एंगल्ज़ के पश्चात् उसे समाजवादी आंदोलन का सबसे बड़ा नेता माना जाता है। उसने बोलश्विक पार्टी द्वारा रूस में क्रांति लाने के लिये अपना सारा जीवन लगा दिया।

प्रश्न 22.
“1905 की रूसी क्रांति 1917 की क्रांति का पूर्वाभ्यास थी।” इस कथन के पक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर-

  1. 1905 ई० की क्रांति ने रूसी जनता में जागृति उत्पन्न की और उसे क्रांति के लिए तैयार किया।
  2. इस क्रांति के कारण रूसी सैनिक तथा गैर-रूसी जातियों के लोग क्रांतिकारियों के घनिष्ठ संपर्क में आ गए।

प्रश्न 23.
लेनिन ने एक सफल क्रांति लाने के लिये कौन-सी दो मूलभूत शर्ते बताईं ? क्या ये शर्ते रूस में विद्यमान थीं?
उत्तर-
लेनिन द्वारा बताई गई दो शर्त थीं

  1. जनता पूरी तरह समझे कि क्रांति आवश्यक है और वह उसके लिए बलिदान देने को तैयार हो।
  2. वर्तमान सरकार संकट से ग्रस्त हो ताकि उसे बलपूर्वक हटाया जा सके। रूस में यह स्थिति निश्चित रूप से आ चुकी थी।

प्रश्न 24.
ज़ार का पतन किस क्रांति के नाम से जाना जाता है और क्यों? रूस की जनता की चार मुख्य मांगें क्या थीं?
उत्तर-
ज़ार के पतन को फरवरी क्रांति के नाम से जाना जाता है, क्योंकि पुराने रूसी कैलेंडर के अनुसार यह क्रांति 27 फरवरी, 1917 को हुई थी।
रूस की जनता की चार मांगें थीं-शांति, जोतने वालों को ज़मीन, उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण तथा गैर-रूसी राष्ट्रों को बराबरी का दर्जा।

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प्रश्न 25.
बोलश्विक पार्टी का मुख्य नेता कौन था? इस दल की दो नीतियां कौन-कौन सी थीं?
अथवा
1917 की रूसी क्रांति में लेनिन के दो उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
बोलश्विक पार्टी का नेता लेनिन था। लेनिन के नेतृत्व में बोलश्विक पार्टी की नीतियां (उद्देश्य) थीं-

  1. सारी सत्ता सोवियतों को सौंपी जाए।
  2. सारी भूमि किसानों को दे दी जाए।

प्रश्न 26.
रूसी क्रांति कब हुई? सोवियतों की अखिल रूसी कांग्रेस कब हुई? इसने सबसे पहला काम कौन-सा किया?
उत्तर-
रूसी क्रांति 7 नवंबर, 1917 को हुई। इसी दिन सोवियतों की एक अखिल रूसी कांग्रेस हुई। इसने सबसे पहला काम यह किया कि संपूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ले ली।

प्रश्न 27.
समाजवाद की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-

  1. समाजवाद के अनुसार समाज के हित प्रमुख हैं। समाज से अलग निजी हित रखने वाला व्यक्ति समाज का सबसे बड़ा शत्रु है।
  2. राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में सभी व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिएं।

प्रश्न 28.
साम्यवाद की दो मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-

  1. साम्यवाद समाजवाद का उग्र रूप है।
  2. इसका उद्देश्य उत्पादन तथा वितरण के सभी साधनों पर श्रमिकों का कठोर नियंत्रण स्थापित करना है।

प्रश्न 29.
रूसी क्रांति के दो अंतर्राष्ट्रीय परिणामों का विवेचन कीजिए।
उत्तर-

  1. रूस में किसानों तथा मजदूरों की सरकार स्थापित होने से विश्व के सभी देशों में किसानों और मजदूरों के सम्मान में वृद्धि हुई।
  2. क्रांति के पश्चात् रूस में साम्यवादी सरकार की स्थापना की गई। इसका परिणाम यह हआ कि संसार के अन्य देशों में भी साम्यवादी सरकारें स्थापित होने लगीं।

प्रश्न 30.
रूसी क्रांति का साम्राज्यवाद पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
रूसी क्रांतिकारी साम्राज्यवाद के विरोधी थे। अत: रूसी क्रांति ने साम्राज्यवाद के विनाश की प्रक्रिया को तेज़ किया। रूस के समाजवादियों ने साम्राज्यवाद के विनाश के लिए पूरे विश्व में अभियान चलाया।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
1917 से पहले रूस की कामकाजी आबादी यूरोप के बाकी देशों के मुकाबले किन-किन स्तरों पर भिन्न थी ?
अथवा
1917 से पहले रूस की श्रमिक जनसंख्या यूरोप के अन्य देशों की श्रमिक जनसंख्या से किस प्रकार भिन्न थी ?
उत्तर-
1917 से पहले रूस की श्रमिक जनसंख्या यूरोप के अन्य देशों की श्रमिक जनसंख्या से निम्नलिखित बातों में भिन्न थी

  1. रूस की अधिकांश जनता कृषि करती थी। वहां के लगभग 85 प्रतिशत लोग कृषि द्वारा ही अपनी रोज़ी कमाते थे। यह यूरोप के अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक था। उदाहरण के लिए फ्रांस और जर्मनी में यह अनुपात क्रमश: 40 प्रतिशत तथा 50 प्रतिशत ही था।
  2. यूरोप के कई अन्य देशों में औद्योगिक क्रांति आई थी। वहां कारखाने स्थानीय लोगों के हाथों में थे। वहां श्रमिकों का बहुत अधिक शोषण नहीं होता था। परंतु रूस में अधिकांश कारखाने विदेशी पूंजी से स्थापित हुए। विदेशी पूंजीपति रूसी श्रमिकों का खूब शोषण करते थे। जो कारखाने रूसी पूंजीपतियों के हाथों में थे, वहां भी श्रमिकों की दशा दयनीय थी। ये पूंजीपति विदेशी पूंजीपतियों से स्पर्धा करने के लिए श्रमिकों का खून चूसते थे।
  3. रूस में महिला श्रमिकों को पुरुष श्रमिकों की अपेक्षा बहुत ही कम वेतन दिया जाता था। बच्चों से भी 10 से 15 घंटों तक काम लिया जाता था। यूरोप के अन्य देशों में श्रम-कानूनों के कारण स्थिति में सुधार आ चुका था।
  4. रूसी किसानों की जोतें यूरोप के अन्य देशों के किसानों की तुलना में छोटी थीं।
  5. रूसी किसान ज़मींदारों तथा जागीरदारों का कोई सम्मान नहीं करते थे। वे उनके अत्याचारी स्वभाव के कारण उनसे घृणा करते थे। यहाँ तक कि वे प्रायः लगान देने से इंकार कर देते थे और ज़मींदारों की हत्या कर देते थे। इसके विपरीत फ्रांस में किसान अपने सामंतों के प्रति वफ़ादार थे। फ्रांसीसी क्रांति के समय वे अपने सामंतों के लिए लड़े थे।
  6. रूस का कृषक वर्ग एक अन्य दृष्टि से यूरोप के कृषक वर्ग से भिन्न था। वे एक संमय-अवधि के लिए अपनी जोतों को इकट्ठा कर लेते थे। उनकी कम्यून (मीर) उनके परिवारों की ज़रूरतों के अनुसार इसका बंटवारा करती थी।

प्रश्न 2.
1917 में ज़ार का शासन क्यों खत्म हो गया ?
अथवा
रूस में फरवरी 1917 की क्रांति के लिए उत्तरदायी परिस्थितियां।
उत्तर-
रूस से ज़ार शाही को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित परिस्थितियां उत्तरदायी थीं-

  1. रूस का ज़ार निकोलस द्वितीय राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास रखता था। निरंकुश तंत्र की रक्षा करना वह अपना परम कर्त्तव्य समझता था। उसके समर्थक केवल कुलीन वर्ग तथा अन्य उच्च वर्गों से संबंध रखने वाले लोग ही थे। जनसंख्या का शेष सारा भाग उसका विरोधी था। राज्य के सभी अधिकार उच्च वर्ग के लोगों के हाथों में थे। उनकी नियुक्ति भी किसी योग्यता के आधार पर नहीं की जाती थी।
  2. रूसी साम्राज्य में ज़ार द्वारा विजित कई गैर-रूसी राष्ट्र भी सम्मिलित थे। ज़ार ने इन लोगों पर रूसी भाषा लादी और उनकी संस्कृतियों का महत्त्व कम करने का पूरा प्रयास किया। इस प्रकार देश में टकराव की स्थिति बनी हुई थी।
  3. राजपरिवार में नैतिक पतन चरम सीमा पर था। निकोलस द्वितीय पूरी तरह अपनी पत्नी के दबाव में था जो स्वयं एक ढोंगी साधु रास्पुतिन के कहने पर चलती थी। ऐसे भ्रष्टाचारी शासन से जनता बहुत दु:खी थी।
  4. ज़ार ने अपनी साम्राज्यवादी इच्छाओं की पूर्ति के लिए देश को प्रथम विश्व-युद्ध में झोंक दिया। परंतु वह राज्य के आंतरिक खोखलेपन के कारण मोर्चे पर लड रहे सैनिकों की ओर पूरा ध्यान न दे सका। परिणामस्वरूप रूसी सेना बुरी तरह पराजित हुई और फरवरी, 1917 तक उसके 6 लाख सैनिक मारे गये। इससे लोगों के साथ-साथ सेना में असंतोष फैल गया। अतः क्रांति द्वारा जार को शासन छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया। इसे फरवरी क्रांति का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 3.
दो सूचियां बनाइए-एक सूची में फरवरी क्रांति की मुख्य घटनाओं और प्रभावों को लिखिए और दूसरी सूची में अक्तूबर क्रांति की प्रमुख घटनाओं और प्रभावों को दर्ज कीजिए।
अथवा
1917 की रूसी क्रांति की महत्त्वपूर्ण घटनाओं एवं प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
ज़ार की गलत नीतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा साधारण जनता एवं सैनिकों की दुर्दशा के कारण रूस में क्रांति का वातावरण तैयार हो चुका था। एक छोटी-सी घटना ने इस क्रांति का श्रीगणेश किया और यह दो चरणों में पूर्ण हुई। ये दो चरण थे–फरवरी क्रांति तथा अक्तूबर क्रांति। संक्षेप में क्रांति के पूरे घटनाक्रम का वर्णन निम्नलिखित है-

1. फरवरी क्रांति-इस क्रांति का आरंभ रोटी खरीदने का प्रयास कर रही औरतों के प्रदर्शन से हुआ। फिर मजदूरों की एक आम हड़ताल हुई जिसमें सैनिक और अन्य लोग भी सम्मिलित हो गए। 12 मार्च, 1917 को राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग क्रांतिकारियों के हाथों में आ गई। क्रांतिकारियों ने शीघ्र ही मास्को पर भी अधिकार कर लिया। ज़ार शासन छोड़ कर भाग गया और 15 मार्च को पहली अस्थायी सरकार केरेंस्की के नेतृत्व में बनी। ज़ार के पतन की इस घटना को फरवरी क्रांति कहा जाता है, क्योंकि पुराने रूसी कैलेंडर के अनुसार यह क्रांति 27 फरवरी, 1917 को घटित हुई थी। परंतु ज़ार का पतन क्रांति का आरंभ मात्र था।
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2. अक्तूबर क्रांति-जनता की चार मांगें सबसे महत्त्वपूर्ण थीं–शांति, भूमि का स्वामित्व जोतने वालों को, कारखानों पर मजदूरों का नियंत्रण तथा गैर रूसी जातियों को समानता का दर्जा । रूस की अस्थाई सरकार इनमें से किसी भी मांग को पूरा न कर सकी अतः उसने जनता का समर्थन खो दिया। लेनिन जो फरवरी की क्रांति के समय स्विट्ज़रलैंड में निर्वासन का जीवन बिता रहा था, अप्रैल में रूस लौट आया। उसके नेतृत्व में बोलश्विक पार्टी ने युद्ध समाप्त करने, किसानों को ज़मीन देने तथा “सारे अधिकार सोवियतों को देने” की स्पष्ट नीतियां सामने रखीं। गैर-रूसी जातियों के प्रश्न पर भी केवल लेनिन की बोल्शेविक पार्टी के पास एक स्पष्ट नीति थी।

लेनिन ने कभी रूसी साम्राज्य को “राष्ट्रों का कारागार” कहा था और यह घोषणा की थी कि सभी गैर-रूसी जनगणों को समान अधिकार दिये बिना कभी भी वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकती। उन्होंने रूसी साम्राज्य के जनगणों सहित सभी जनगणों के आत्मनिर्णय के अधिकार की घोषणा की।

केरेंस्की सरकार की अलोकप्रियता के कारण 7 नवंबर, 1917 को उसका पतन हो गया। इस दिन उसके मुख्यालय विंटर पैलेस पर नाविकों के एक दल ने अधिकार कर लिया। 1905 की क्रांति में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला लियोन त्रात्सकी भी मई, 1917 में रूस लौट आया था। पेत्रोग्राद सोवियत के प्रमुख के रूप में नवंबर के विद्रोह का वह एक प्रमुख नेता था। उसी दिन सोवियतों की अखिल-रूसी कांग्रेस की बैठक हुई और उसने राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ले ली। 7 नवंबर को होने वाली इस घटना को अक्तूबर क्रांति’ कहा जाता है, क्योंकि उस दिन पुराने रूसी कैलेंडर के अनुसार 25 अक्तूबर का दिन था।

इस क्रांति के पश्चात् देश में लेनिन के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ जिसने समाजवाद की दिशा में अनेक महत्त्वपूर्ण पग उठाये। इस प्रकार 1917 की रूसी क्रांति विश्व की प्रथम सफल समाजवादी क्रांति थी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित के बारे में संक्षेप में लिखिए :

  • कुलक (Kulaks)
  • ड्यूम-
  • 1900 से 1930 के बीच महिला कामगार
  • उदारवादी
  • स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम।

उत्तर-
कुलक-कुलक सोवियत रूस के धनी किसान थे। कृषि के सामूहीकरण कार्यक्रम के अंतर्गत स्तालिन ने इनका अंत कर दिया था।
PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति 2

ड्यूमा-ड्यूमा रूस की राष्ट्रीय सभा अथवा संसद् थी। रूस के ज़ार निकोलस द्वितीय ने इसे मात्र एक सलाहकार समिति में बदल दिया था। इसमें केवल अनुदारवादी राजनीतिज्ञों को ही स्थान दिया गया। उदारवादियों तथा क्रांतिकारियों को इससे दूर रखा गया।

1900 से 1930 के बीच महिला कामगार-रूस के कारखानों में महिला कामगारों (श्रमिकों) की संख्या भी पर्याप्त थी। 1914 में यह कुल श्रमिकों का 31 प्रतिशत थी। परंतु उन्हें पुरुष श्रमिकों की अपेक्षा कम मजदूरी दी जाती थी। यह पुरुष श्रमिक की मजदूरी का आधा अथवा तीन चौथाई भाग होती थी। महिला श्रमिक अपने साथी पुरुष श्रमिकों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहती थीं।

उदारवादी-उदारवादी यूरोपीय समाज के वे लोग थे जो समाज को बदलना चाहते थे। वे एक ऐसे राष्ट्र की स्थापना करना चाहते थे जो धार्मिक दृष्टि से सहनशील हो। वे वंशानुगत शासकों की निरंकुश शक्तियों के विरुद्ध थे। वे चाहते थे कि सरकार व्यक्ति के अधिकारों का हनन न करे। वे निर्वाचित संसदीय सरकार तथा स्वतंत्र न्यायपालिका के पक्ष में थे। इतना होने पर भी वे लोकतंत्रवादी नहीं थे। उनका सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार में कोई विश्वास नहीं था। वे महिलाओं को मताधिकार देने के भी विरुद्ध थे।

स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम-1929 में स्तालिन की साम्यवादी पार्टी ने सभी किसानों को सामूहिक खेतों (कोलखोज) में काम करने का आदेश जारी कर दिया। अधिकांश ज़मीन और साजो-सामान को सामूहिक खेतों में बदल दिया गया। सभी किसान सामूहिक खेतों पर मिल-जुल कर काम करते थे। कोलखोज के लाभ को सभी किसानों के बीच बांट दिया जाता था। इस निर्णय से क्रुद्ध किसानों ने सरकार का विरोध किया। विरोध जताने के लिए वे अपने जानवरों को मारने लगे। परिणामस्वरूप 1929 से 1931 के बीच जानवरों की संख्या में एक-तिहाई कमी आ गई। सरकार की ओर से सामूहिकीकरण का विरोध करने वालों को कड़ा दंड दिया जाता था। बहुत-से लोगों को निर्वासन अथवा देश-निकाला दे दिया गया। सामूहिकीकरण का विरोध करने वाले किसानों का कहना था कि वे न तो धनी हैं और न ही समाजवाद के विरोधी हैं। वे बस विभिन्न कारणों से सामूहिक खेतों पर काम नहीं करना चाहते।
सामूहिकीकरण के बावजूद उत्पादन में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई। इसके विपरीत 1930-1933 की खराब फसल के बाद सोवियत इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा। इसमें 40 लाख से अधिक लोग मारे गए।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 6 रूसी क्रांति

प्रश्न 5.
क्रांति से पूर्व रूस में समाज परिवर्तन के समर्थकों के कौन-कौन से तीन समूह (वर्ग) थे? उनके विचारों में क्या भिन्नता थी?
अथवा
रूस के उदारवादियों, रैडिकलों तथा रूढ़िवादियों के विचारों की जानकारी दीजिए।
उत्तर-
क्रांति से पूर्व रूस में समाज परिवर्तन के समर्थकों के तीन समूह अथवा वर्ग थे-उदारवादी रैडिकल तथा रूढ़िवादी।

उदारवादी-रूस के उदारवादी ऐसा राष्ट्र चाहते थे जिसमें सभी धर्मों को बराबर का दर्जा मिले तथा सभी का समान रूप से उदार हो। उस समय के यूरोप में प्रायः किसी एक धर्म को ही अधिक महत्त्व दिया जाता था। उदारवादी वंशआधारित शासकों की अनियंत्रित सत्ता के भी विरोधी थे। वे व्यक्ति मात्र के अधिकारों की रक्षा के समर्थक थे। उनका मानना था कि सरकार को किसी के अधिकारों का हनन करने या उन्हें छीनने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। यह समूह प्रतिनिधित्व पर आधारित एक ऐसी निर्वाचित सरकार चाहता था। जो शासकों और अफ़सरों के प्रभाव से मुक्त हो। शासन-कार्य न्यायपालिका द्वारा स्थापित किए गए कानूनों के अनुसार चलाया जाना चाहिए। इतना होने पर भी यह समूह लोकतंत्रवादी नहीं था। वे लोग सार्वभौलिक वयस्क मताधिकार अर्थात् सभी नागरिकों को वोट का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे।

रैडिक्ल-इस वर्ग के लोग ऐसी सरकार के पक्ष में थे जो देश की जनसंख्या के बहुमत के समर्थन पर आधारित हो। इनमें से बहुत-से महिला मताधिकार आंदोलन के भी समर्थक थे। उदारवादियों के विपरीत ये लोग बड़े ज़मींदारों और धनी उद्योगपतियों के विशेषाधिकारों के विरुद्ध थे। परंतु वे निजी संपत्ति के विरोधी नहीं थे वे केवल कुछ लोगों के हाथों में संपत्ति का संकेंद्रण का विरोध करते थे।।

रूढ़िवादी-रैडिकल तथा उदारवादी दोनों के विरुद्ध थे। परंतु फ्रांसीसी क्रांति के बाद वे भी परिवर्तन की ज़रूरत को स्वीकार करने लगे थे। इससे पूर्व अठारहवीं शताब्दी तक वे प्राय परिवर्तन के विचारों का विरोध करते थे। फिर भी वे चाहते थे कि अतीत को पूरी तरह भुलाया जाए और परिवर्तन की प्रक्रिया धीमी हो।

प्रश्न 6.
रूसी क्रांति के कारणों का विवेचन कीजिए। रूस द्वारा प्रथम विश्व-युद्ध में भाग लेने का रूसी क्रांति की सफलता में क्या योगदान है?
उत्तर-
रूसी क्रांति 20वीं शताब्दी के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यह क्रांति मुख्य रूप से यूरोपीय देशों में तेज़ी से बढ़ती हुई समाजवादी विचारधारा का परिणाम थी। इसलिए इसका महत्त्व राजनीतिक दृष्टि से कम, परंतु आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से अधिक था। इस क्रांति से रूस में एक ऐसे समाज की स्थापना हुई, जो जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक कार्ल मार्क्स के विचारों के अनुरूप था। रूस की इस महान् क्रांति के कारणों का वर्णन निम्न प्रकार है-

1. ज़ार की निरंकुशता-रूस का ज़ार निकोलस द्वितीय निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी था। उसे असीम अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त थीं जिन पर कोई नियंत्रण नहीं था। वह इनका प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता था। उच्च वर्ग के लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त थे, परंतु जन-साधारण की दशा बड़ी शोचनीय थी। उन्हें न तो कोई अधिकार प्राप्त था और न ही शासन में उनका हाथ था। अत: वे ज़ार के निरंकुश शासन का अंत कर देना चाहते थे।

2. रूस में मार्क्सवाद का प्रसार-रूस में औद्योगिक क्रांति आरंभ होने के कारण मजदूरों की दशा बड़ी खराब हो गई। उद्योगपति उनका जी भरकर शोषण कर रहे थे। मज़दूरों को न तो अच्छे वेतन मिलते थे और न ही रहने के लिए अच्छे मकान। इन परिस्थितियों में मज़दूरों का झुकाव मार्क्सवाद की ओर बढ़ने लगा। वे समझने लगे थे कि मार्क्सवादी सिद्धान्तों को अपनाकर ही देश में क्रांति लाई जा सकती है और उनके जीवन-स्तर को उन्नत किया जा सकता है। इस उद्देश्य से उन्होंने ‘सोशलिस्ट डैमोक्रेटिक पार्टी’ नामक एक संगठन स्थापित किया। 1903 ई० में यह संगठन दो भागों में बंट गया-बोल्शेविक तथा मैनश्विक। इनमें बोलश्विक क्रांतिकारी विचारों के थे। वे शीघ्र-से-शीघ्र देश में मजदूरों की तानाशाही स्थापित करना चाहते थे। इसके विपरीत मेनश्विक नर्म विचारों के थे। वे अन्य दलों के सहयोग से ज़ार की तानाशाही समाप्त करने के पक्ष में थे। उनका उद्देश्य देश में शांतिमय साधनों द्वारा धीरे-धीरे क्रांति लाना था। इस प्रकार रूस में क्रांति का पूरा वातावरण तैयार हो चुका था।

3. जन-साधारण की शोचनीय दशा-समाज में जनसाधारण की दशा बड़ी ही खराब थी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक रूस के समाज में दो वर्ग थे-उच्च वर्ग तथा दास कृषक। उच्च वर्ग के अधिकांश लोग भूमि के स्वामी थे। राज्य के सभी उच्च पदों पर वे ही आसीन थे। इसके विपरीत दास-कृषक (Serfs) लकड़ी काटने वाले तथा पानी भरने वाले ही बनकर रह गए थे। अत: वे अब इस दुःखी जीवन से छुटकारा पाना चाहते थे।

4. दार्शनिकों तथा लेखकों का योगदान–’ज़ार’ के अनेक प्रतिबंध लगाने पर भी पाश्चात्य जगत् के उदार विचारों ने रूस में साहित्य के माध्यम से प्रवेश किया। टॉलस्टाय, तुर्गनोव तथा दास्तोवस्की के उपन्यासों ने नवयुवकों के विचारों में क्रांति पैदा कर दी थी। देश में मार्क्स, बाकूनेन तथा क्रोपटकिन की विचारधाराएं भी प्रचलित थीं। इन विचारों से प्रभावित होकर लोगों ने ऐसे अधिकारों तथा सुविधाओं की मांग की जो कि पाश्चात्य देशों के लोगों को प्राप्त थीं। ज़ार ने जब उनकी मांगें ठुकराने का प्रयत्न किया तो उन्होंने क्रांति का मार्ग अपनाया।

5. रूस-जापान युद्ध-1904-1905 ई० में रूस तथा जापान के बीच एक युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस की हार हुई। जापान जैसे छोटे-से देश के हाथों परास्त होने के कारण रूसी जनता ज़ार के शासन की विरोधी बन गई। उन्हें विश्वास हो गया कि इस पराजय का एकमात्र कारण ज़ार की सरकार है जो युद्ध का ठीक प्रकार से संचालन करने में असफल रही है।

6. 1905 ई० की क्रांति-‘ज़ार’ के निरंकुश तथा अत्याचारी शासन के विरुद्ध 1905 ई० में रूस में एक क्रांति हुई। ‘ज़ार’ इस क्रांति का दमन करने में असफल रहा। विवश होकर उसने जनता को सुधारों का वचन दिया। राष्ट्रीय सभा अथवा ड्यूमा (Duma) बुलाने की घोषणा कर दी गई। परंतु निरंकुश शासन तथा संसदीय सरकार के मेल का यह नया प्रयोग असफल रहा। क्रांतिकारियों की आपसी फूट और मतभेदों का लाभ उठाकर ज़ार ने प्रतिक्रियावादी नीति का सहारा लिया। उसने ड्यूमा को परामर्श समिति मात्र बना दिया। ज़ार के इस कार्य से जनता में और भी अधिक असंतोष फैल गया।

7. प्रथम विश्व युद्ध-1914 ई० में प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हो गया। यह युद्ध रूसी क्रांति का तात्कालिक कारण बना। इस युद्ध में रूस बुरी तरह पराजित हो रहा था और इस युद्ध का देश पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा। लड़ाई के कारण कीमतें बढ़ गईं। इस पर पूंजीपतियों ने मनमानी करके स्थिति को और भी अधिक गंभीर बना दिया। इन परिस्थितियों को देखकर ड्यूमा ने उत्तरदायी शासन की मांग की। परंतु ज़ार ने उसे अस्वीकार कर दिया और उसके सदस्यों को जेलों में बंद कर दिया। दूसरी ओर रूसी सेनाओं की लगातार पराजय हो रही थी। अतः लोगों को यह विश्वास हो गया कि सरकार युद्ध का संचालन ठीक ढंग से नहीं कर रही है। इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि देश में मजदूरों ने हड़तालें करनी आरंभ कर दी, किसानों ने लूट-मार मचा दी और स्थान-स्थान पर दंगे होने लगे।
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प्रश्न 7.
रूस में अक्तूबर क्रांति (दूसरी क्रांति) के कारणों तथा घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन करो। इसका रूस पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
अक्तूबर क्रांति के कारणों तथा घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

  1. अस्थायी सरकार की विफलता-रूस की अस्थायी सरकार देश को युद्ध से अलग न कर सकी, जिसके कारण रूस की आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी।
  2. लोगों में अशांति-रूस में मज़दूर तथा किसान बड़ा कठोर जीवन व्यतीत कर रहे थे। दो समय की रोटी जुटाना भी उनके लिए एक बहुत कठिन कार्य था। अतः उनमें दिन-प्रतिदिन अशांति बढ़ती जा रही थी।
  3. खाद्य-सामग्री का अभाव-रूस में खाद्य-सामग्री का बड़ा अभाव हो गया था। देश में भुखमरी की-सी दशा उत्पन्न हो गई थी। लोगों को रोटी खरीदने के लिए लंबी-लंबी लाइनों में खड़ा रहना पड़ता था।
  4. देशव्यापी हड़तालें-रूस में मजदूरों की दशा बहुत खराब थी। उन्हें कठोर परिश्रम करने पर भी बहुत कम मज़दूरी मिलती थी। वे अपनी दशा सुधारना चाहते थे। अतः उन्होंने हड़ताल करना आरंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप देश में हड़तालों का ज्वार-सा आ गया।

घटनाएं-सर्वप्रथम मार्च, 1917 ई० में रूस के प्रसिद्ध नगर पैट्रोग्राड (Petrograd) से क्रांति का आरंभ हुआ। यहां श्रमिकों ने काम करना बंद कर दिया और साधारण जनता ने रोटी के लिए विद्रोह कर दिया। सरकार ने सेना की सहायता से विद्रोह को कुचलना चाहा। परंतु सैनिक लोग मज़दूरों के साथ मिल गए और उन्होंने मज़दूरों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। मज़दूरों तथा सैनिकों की एक संयुक्त सभा बनाई गई, जिसे सोवियत (Soviet) का नाम दिया गया। विवश होकर ज़ार निकोलस द्वितीय ने 25 मार्च, 1917 को राजगद्दी छोड़ दी। देश का शासन चलाने के लिए मिल्यूकोफ की सहायता से एक मध्यम वर्गीय अंतरिम सरकार बनाई गई। नई सरकार ने सैनिक सुधार किए। धर्म, विचार तथा प्रेस को स्वतंत्र कर दिया गया और संविधान सभा बुलाने का निर्णय लिया गया। परंतु जनता रोटी, मकान और शांति की मांग कर रही थी। परिणाम यह हुआ कि यह मंत्रिमंडल भी न चल सका और इसके स्थान पर नर्म विचारों के दल मैनश्विकों (Mansheviks) ने सत्ता संभाल ली, जिसका नेता केरेस्की (Kerensky) था।

नवंबर, 1917 में मैनश्विकों को भी सत्ता छोड़नी पड़ी। अब लेनिन के नेतृत्व में गर्म विचारों वाले दल बोलश्विक ने सत्ता संभाली। लेनिन ने रूस में एक ऐसे समाज की नींव रखी जिसमें सारी शक्ति श्रमिकों के हाथों में थी। इस प्रकार रूसी क्रांति का उद्देश्य पूरा हुआ।

रूस पर प्रभाव-

  1. मज़दूरों को शिक्षा संबंधी सुविधाएं दी गईं। उनके लिए सैनिक शिक्षा भी अनिवार्य कर दी गई।
  2. जागीरदारों से जागीरें छीन ली गईं।
  3. व्यापार तथा उपज के साधनों पर सरकारी नियंत्रण हो गया।
  4. देश के सभी कारखाने श्रमिकों की देख-रेख में चलने लगे।
  5. शासन की सारी शक्ति श्रमिकों और किसानों की सभाओं (सोवियत) के हाथों में आ गई।

प्रश्न 8.
प्रथम विश्वयुद्ध से जनता जार (रूस) को क्यों हटाना चाहती थी ? कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर-
प्रथम विश्वयुद्ध रूसियों के लिए कई मुसीबतें लेकर आया। इसलिए जनता ज़ार को प्रथम विश्वयुद्ध से हटाना चाहती थी। इस बात की पुष्टि के लिए निम्नलिखित उदाहरण दिए जा सकते हैं-

  1. प्रथम विश्वयुद्ध में ‘पूर्वी मोर्चे’ (रूसी मोर्चे) पर चल रही लड़ाई ‘पश्चिमी मोर्चे’ की लड़ाई से भिन्न थी। पश्चिम में सैनिक जो फ्रांस की सीमा पर बनी खाइयों से ही लड़ाई लड़ रहे थे वहीं पूर्वी मोर्चे पर सेना ने काफ़ी दूरी तय कर ली थी। इस मोर्चे पर बहुत से सैनिक मौत के मुँह में जा चुके थे। सेना की पराजय ने रूसियों का मनोबल तोड़ दिया था।
  2. 1914 से 1916 के बीच जर्मनी और ऑस्ट्रिया में रूसी सेनाओं को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा। 1917 तक लगभग 70 लाख लोग मारे जा चुके थे।
  3. पीछे हटती रूसी सेनाओं ने रास्ते में पड़ने वाली फ़सलों और इमारतों को भी नष्ट कर डाला ताकि शत्रु की सेना वहां टिक ही न सके। फ़सलों और इमारतों के विनाश के कारण रूस में 30 लाख से अधिक लोग शरणार्थी हो गए। इस स्थिति ने सरकार और जार, दोनों को अलोकप्रिय बना दिया। सिपाही भी युद्ध से तंग आ चुके थे। अब वे लड़ना नहीं चाहते थे।
  4. युद्ध से उद्योगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। रूस के अपने उद्योग तो पहले ही बहुत कम थे, अब बाहर से मिलने वाली आपूर्ति भी बंद हो गई। क्योंकि बाल्टिक सागर में जिस मार्ग से विदेशी सामान आता था उस पर जर्मनी का नियंत्रण हो चुका था।
  5. यूरोप के बाकी देशों की अपेक्षा रूस के औद्योगिक उपकरण भी अधिक तेज़ी से बेकार होने लगे। 1916 तक रेलवे लाइनें टूटने लगीं।
  6. हृष्ट-पुष्ट पुरुषों को युद्ध में झोंक दिया गया था। अतः देश भर में मजदूरों की कमी पड़ने लगी, और ज़रूरी सामान बनाने वाली छोटी-छोटी वर्कशॉप्स बंद होने लगीं। अधिकतर अनाज सैनिकों का पेट भरने के लिए मोर्चे पर भेजा जाने लगा। अतः शहरों में रहने वालों के लिए रोटी और आटे का अभाव पैदा हो गया। 1916 की सर्दियों में रोटी की दुकानों पर बार-बार दंगे होने लगे।

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प्रश्न 9.
1870 से 1914 तक यूरोप में समाजवादी विचारों के प्रसार का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1870 के दशक के आरंभ तक समाजवादी विचार पूरे यूरोप में फैल चुके थे।

  1. अपने प्रयासों में तालमेल लाने के लिए समाजवादियों ने द्वितीय इंटरनैशनल नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था भी बना ली थी।
  2. इंग्लैंड और जर्मनी के मजदूरों ने अपने जीवन तथा कार्यस्थितियों में सुधार लाने के लिए संगठन बनाना शुरु कर दिया था। इन संगठनों ने संकट के समय अपने सदस्यों को सहायता पहुंचाने के लिए कोष स्थापित किए और काम के घंटों में कमी तथा मताधिकार के लिए आवाज़ उठानी शुरू कर दी। जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) के साथ इन संगठनों के काफ़ी गहरे संबंध थे। वे संसदीय चुनावों में पार्टी की सहायता भी करते थे।
  3. 1905 तक ब्रिटेन के समाजवादियों तथा ट्रेड यूनियन आंदोलनकारियों ने लेबर पार्टी के नाम से अपनी एक अलग पार्टी बना ली थी।
  4. फ्रांस में भी सोशलिस्ट पार्टी के नाम से ऐसी ही एक पार्टी का गठन किया गया। परंतु 1914 तक यूरोप में समाजवादी कहीं भी अपनी सरकार बनाने में सफल नहीं हो पाए। यद्यपि संसदीय चुनावों में उनके प्रतिनिधि बड़ी संख्या में जीतते रहे और उन्होंने कानून बनवाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, तो भी सरकारों में रूढ़िवादियों, उदारवादियों और रैडिकलों का ही दबदबा बना रहा।

रूसी क्रांति PSEB 9th Class History Notes

  • रूस की क्रांति – 1917 में रूस में विश्व की सबसे पहली समाजवादी क्रांति हुई। यह क्रांति शांतिपूर्ण थी।
  • क्रांति के कारण – क्रांति से पूर्व रूस का सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक दृष्टिकोण क्रांति के अनुकूल था। किसानों तथा मजदूरों की दशा अत्यंत शोचनीय थी। रूस का ज़ार निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी था। साधारण जनता को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। इसलिए लोग ज़ार के विरुद्ध थे। ज़ार ने रूस को प्रथम विश्व-युद्ध में झोंक कर एक अन्य बड़ी गलती की। इस युद्ध में सैनिकों की दुर्दशा के कारण सैनिक भी ज़ार के विरुद्ध हो गए।
  • लेनिन – लेनिन को मार्क्स तथा एंगेल्स के बाद समाजवादी आंदोलन का महानतम् विचारक माना जाता है। उसने देश में बोल्शेविक दल को संगठित करने तथा क्रांति को सफल बनाने में विशेष भूमिका निभाई।
  • 1905 की क्रांति – 1905 में ज़ार को याचिका देने के लिए जाते हुए मजदूरों के समूह पर गोली चला दी गई। इस घटना ने क्रांति का रुप धारण कर लिया। इस क्रांति के दौरान संगठन का एक नया रूप विकसित हुआ। यह था सोवियत या मज़दूरों के प्रतिनिधियों की परिषद् । इस क्रांति ने 1917 की क्रांति की भूमिका तैयार की।
  • क्रांति का प्रारंभ – रूसी क्रांति का विस्फोट स्त्रियों के प्रदर्शन के कारण हुआ। उसके बाद मज़दूरों की एक आम हड़ताल हुई। 15 मार्च, 1917 को ज़ार द्वारा राज सिंहासन त्यागने के बाद रूस में प्रथम अस्थायी सरकार की स्थापना हुई। रूसी पंचांग के अनुसार इसे फरवरी क्रांति कहते हैं और इसका आरंभ 27 फरवरी से मानते हैं।
  • क्रांति की सफलता – पहली अंतरिम सरकार के पतन (7 नवंबर, 1917) के बाद लेनिन सरकार सत्ता में आई। इसे अक्तूबर क्रांति (रूसी पंचांग के अनुसार 25 अक्तूबर) के नाम से जाना जाता हैं।
  • सोवियत – 1905 की रूसी क्रांति के दौरान संगठन का एक नया रूप उभरा। इसे ‘सोवियत’ कहते हैं। सोवियत का अर्थ है मज़दूरों के प्रतिनिधियों की परिषद्। प्रारंभ में ये परिषदें हड़ताल चलाने वाली कमेटियां थीं, परंतु बाद में ये राजनीतिक सत्ता के साधन बन गईं। कुछ समय बाद किसानों की सोवियतों का निर्माण भी हुआ। रूसी सोवियतों ने 1917 की क्रांति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • फरवरी क्रांति – रूस में औरतों के प्रदर्शन के बाद मजदूरों की हड़ताल हुई। मज़दूरों ने 12 मार्च को राजधानी पीटर्सबर्ग पर अधिकार कर लिया। शीघ्र ही उन्होंने मास्को पर भी अधिकार कर लिया। ज़ार सिंहासन छोड़कर भाग गया और 15 मार्च को अंतरिम सरकार की स्थापना हुई। रूस की यह क्रांति पुराने रूसी कैलेंडर के अनुसार 27 फरवरी, 1917 को हुई थी। इसलिये इसे फरवरी क्रांति के नाम से पुकारा जाता है।
  • अक्तूबर क्रांति – अक्तूबर क्रांति वास्तव में 7 नवंबर, 1917 को हुई थी। उस दिन पुराने रूसी कैलेंडर के अनुसार 25 अक्तूबर का दिन था। इसलिए इस क्रांति को ‘अक्तूबर क्रांति’ का नाम दिया जाता है। इस क्रांति के परिणामस्वरूप केरेंस्की सरकार का अपनी अलोकप्रियता के कारण पतन हो गया। उसके मुख्यालय विंटर पैलेस पर नाविकों के एक दल ने अधिकार कर लिया। उसी दिन सोवियतों की अखिल रूसी कांग्रेस की बैठक हुई और उसने राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ले ली।
  • खूनी रविवार – 1905 ई० में रूसी क्रांतिकारी आंदोलन बल पकड़ रहा था। इसी दौरान पादरी गैथॉन के नेतृत्व में मजदूरों का एक जलूस जार के महल (विंटर पैलेस) के सामने पहुंचा तो उन पर गोलियां चलाई गईं। इस गोलीकांड में 100 से अधिक मजदूर मारे गए और लगभग 300 घायल हुए। इतिहास में इस घटना को ‘खूनी रविवार’ कहा जाता है। 1905 की क्रांति की शुरुआत इसी घटना से हुई थी।
  • कम्युनिस्ट इंटरनेशनल – कम्युनिस्ट इंटरनेशनल अथवा कामिंटर्न का संगठन 1919 में प्रथम और द्वितीय इंटरनेशनल की भांति किया गया था। इसीलिए इसे तृतीय इंटरनेशनल भी कहा जाता है। इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रांतियों को बढ़ावा देना था। प्रथम महायुद्ध के समय समाजवादी आंदोलन में फूट पड़ गई थी। इससे अलग होने वाला वामपंथी दल कम्युनिस्ट गुट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कामिंटर्न का संबंध इसी गुट से था। यह एक ऐसा मंच था जो विश्व भर की कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए नीतियां निर्धारित करता था।
  • समाजवाद – समाजवाद वह राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधनों पर राज्य का अधिकार होता है। इसका मुख्य उद्देश्य आर्थिक साधनों का समान वितरण है। इस व्यवस्था में समाज के किसी वर्ग का शोषण नहीं किया जाता। यह पूंजीवाद के बिलकुल विपरीत है।
  • 1850-1889 – रूस में समाजवाद पर वाद-विवाद
  • 1898 – रूसी समाजवादी प्रजातांत्रिक वर्क्स पार्टी का गठन
  • 1905 – खूनी रविवार तथा रूस में क्रांति
  • 1917
  • 2 मार्च – ज़ार का सत्ता से हटना
  • 24 अक्तूबर – पैत्रोग्राद में बोलश्विक क्रांति
  • 1918-20 – रूस में गृह-युद्ध
  • 1919 – कोमिंटर्न की स्थापना
  • 1929 – सामूहीकरण का आरंभ

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 6 मुख्य उद्योग

Punjab State Board PSEB 8th Class Social Science Book Solutions Geography Chapter 6 मुख्य उद्योग Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 8 Social Science Geography Chapter 6 मुख्य उद्योग

SST Guide for Class 8 PSEB मुख्य उद्योग Textbook Questions and Answers

I. नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर-20-25 शब्दों में दो :

प्रश्न 1.
लौह-इस्पात उद्योग को पहले दर्जे का उद्योग क्यों माना जाता है ?
उत्तर-
लौह-इस्पात उद्योग को निम्नलिखित कारणों से पहले दर्जे का उद्योग माना जाता है(1) यह उद्योग इंजीनियरिंग, यातायात के साधन तथा इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों को कच्चा माल देता है। (2) अन्य उद्योगों में प्रयोग होने वाली लगभग सभी मशीनें लोहे तथा इस्पात से बनती हैं।।

प्रश्न 2.
लौह-इस्पात उद्योग को स्थापित करने के लिए कौन-कौन सी आवश्यक अवस्थाएं हैं ?
उत्तर-
(1) कच्चे लोहे की पूर्ति (2) अच्छी किस्म के कोयले की प्राप्ति (3) पानी की निरन्तर आपूर्ति (4) तैयार माल के लिए खपत केन्द्रों की निकटता (5) यातायात के सस्ते तथा विकसित साधन (6) प्रशिक्षित मजदूर (7) पूंजी।

प्रश्न 3.
जमशेदपुर और डीट्रोयट शहर कहां-कहां स्थित हैं ?
उत्तर-
जमशेदपुर झारखंड राज्य में सिंहभूम जिले में स्थित है। पहले इसका नाम साकची था और यह बिहार राज्य का भाग था। डीट्रोयट यू० एस० ए० के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित है। यह महान् झीलों के किनारे बसा हुआ है। .

प्रश्न 4.
कपड़ों का निर्माण किन पदार्थों से किया जाता है ?
उत्तर-
कपड़ों का निर्माण कई प्रकार के कच्चे माल से किया जाता है। इनमें मुख्य रूप से कपास, ऊन, पटसन, रेशम तथा बनावटी (कृत्रिम) रेशा शामिल है।

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 6 मुख्य उद्योग

प्रश्न 5.
कपड़ा उद्योग को किन-किन श्रेणियों में बांटा जा सकता है ?
उत्तर-
कपड़ा उद्योग को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है
(1) सूती कपड़ा उद्योग (2) ऊनी कपड़ा उद्योग (3) रेशमी कपड़ा उद्योग (4) पटसन कपड़ा उद्योग (5) बनावटी रेशम तथा बनावटी रेशा कपड़ा उद्योग।

प्रश्न 6.
रेशम कहाँ से प्राप्त किया जाता है ?
उत्तर-
रेशम हमें एक प्रकार के कीड़े से प्राप्त होता है। ये कीड़े पौधों (विशेषकर शहतूत) की पत्तियों पर पलते हैं।

प्रश्न 7.
कपास की सबसे बढ़िया किस्म कौन-सी है ?
उत्तर-
लम्बे रेशे वाली कपास की सबसे बढ़िया किस्म है। इससे बना कपड़ा बाज़ार में महंगा बिकता है।

प्रश्न 8.
सूचना-तकनीक उद्योग में भारत ने कितनी उन्नति की है ?
उत्तर-
भारत ने सूचना तकनीक में बहुत अधिक उन्नति की है। हमारे देश में बंगलुरु, मुम्बई, पुणे, चेन्नई, हैदराबाद आदि सूचना तकनीक उद्योग के मुख्य केन्द्र हैं।

प्रश्न 9.
बंगलुरु में कौन-कौन से उद्योग पाए जाते हैं ?
उत्तर-
कर्नाटक की राजधानी बंगलुरु में मशीन टूल्ज़, संचार के साधन, घड़ियाँ, मोटरें तथा हवाई जहाज़ बनाने के उद्योग पाये जाते हैं। इस समय बंगलुरु कम्प्यूटर निर्माण उद्योग के लिए देश भर में प्रसिद्ध हैं। इसलिए इसे भारत की ‘सिलीकॉन घाटी’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 10.
सिलीकान घाटी कहां है ? यह पहले किस वस्तु के लिए प्रसिद्ध थी ?
उत्तर-
सिलीकान घाटी संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिम में कैलिफोर्निया राज्य में स्थित है। पहले यह फल उगाने के लिए प्रसिद्ध थी।

II. नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 70-75 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
कच्चे लोहे से स्टील बनाने की क्रिया बताएं।
उत्तर-
कच्चे लोहे से स्टील बनाने की क्रिया में सबसे पहले कच्चे माल को भट्ठियों में पिघलाया जाता है। पिघले हुए लोहे में से सभी अशुद्धियाँ निकाल कर लोहे को साफ़ कर लिया जाता है। साफ़ किए गये इस लोहे से स्टील बनाया जाता है तथा स्टील से भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाई जाती हैं।

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प्रश्न 2.
चीन और जापान के लौह-इस्पात औद्योगिक केन्द्रों के नाम लिखो।
उत्तर-
1. चीन के लौह-इस्पात केन्द्र-मंचूरिया, यंगसी घाटी तथा होपे सांतूंग।
2. जापान के लौह-इस्पात केन्द्र यवाता (Yawata), तोबाता (Tobata), क्यूसू (Kyushu), टोकियो (Tokyo), कावासाकी (Kawasaki), योकोहामा (Yokohoma), ओसाका (Osaka) तथा कोबे (Kobe) ।

प्रश्न 3.
जमशेदपुर में लौह-इस्पात उद्योग के लिए कौन-कौन सी अनुकूल अवस्थाएं मौजूद हैं ?
उत्तर-
जमशेदपर में लौह-इस्पात उद्योग के लिए निम्नलिखित अवस्थाएँ अनुकूल हैं

  • अच्छी किस्म का कच्चा लौह झारखण्ड के सिंहभूम तथा उड़ीसा के मयूरभंज की खानों से मिल जाता है।
  • कोयले की पूर्ति झरिया तथा रानीगंज की खानों से हो जाती है।
  • मैंगनीज़ तथा चूने के पत्थर जैसा कच्चा माल उड़ीसा से मिल जाता है।
  • पानी की आवश्यकता सुबरन रेखा (स्वर्ण रेखा) नदी से पूरी हो जाती है। ।
  • कोलकाता की बंदरगाह जमशेदपुर से लगभग 250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। लौह-इस्पात का अन्य देशों को निर्यात करने में यह बंदरगाह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • उद्योग के लिए बड़ी संख्या में सस्ते श्रमिक झारखण्ड, बिहार तथा उड़ीसा राज्यों से आसानी से मिल जाते हैं।
  • जमशेदपुर, मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली तथा कोलकाता जैसे नगरों के साथ सड़कों तथा रेलमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है। अतः यहाँ का तैयार माल देश के भिन्न-भिन्न भागों में आसानी से भेजा जाता है।

प्रश्न 4.
डीट्रोयट के लौह-इस्पात उद्योग के विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
डीट्रोयट यू० एस० ए० के लौह-इस्पात उद्योग का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। यह दो झीलों डरो तथा ऐरी के मध्य मिशीगन स्टेट में स्थित है। इसके आस-पास के क्षेत्र में कच्चा लौह, कोयला तथा लौह-इस्पात उद्योग के लिए अन्य कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में मिलता है। अतः डीट्रोयट में लौह को पिघलाने तथा स्टील बनाने के बहुत से कारखाने पाये जाते हैं। झीलों के किनारे बसा होने के कारण इस शहर को जल यातायात की सुविधा भी उपलब्ध है। जल मार्गों द्वारा यह स्थान यूरोप तथा एशिया की बड़ी-बड़ी मंडियों से जुड़ा हुआ है।

प्रश्न 5.
ऊनी वस्त्र उद्योग पर एक नोट लिखें।
उत्तर-
ऊनी कपड़ा उद्योग जानवरों के बालों पर निर्भर करता है। भेड़, बकरी, ऊंट, याक, खरगोश आदि जानवरों के बालों का प्रयोग ऊनी कपड़ा बुनने में किया जाता है। सबसे अधिक मात्रा में ऊन भेड़ों से प्राप्त की जाती है। ‘मैरीनो’ किस्म की भेड़ से लम्बे रेशे वाली बढ़िया प्रकार की ऊन मिलती है। संसार के लगभग प्रत्येक महाद्वीप में ऊन के लिए भेड़ें पाली जाती हैं। भेड़ें पालने वाले मुख्य देश आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, रूस, अर्जनटाइना, दक्षिणी अफ्रीका, चीन, युरुगवे, तुर्की, यू० एस० ए० तथा इंग्लैण्ड हैं। भेड़ें पालने वाले सभी देशों में ऊनी कपड़ा उद्योग काफ़ी विकसित है। ऊनी कपड़ा गर्म होता है। इसलिए इसे ठण्डे देशों या ठण्डे मौसम में पहना जाता है।

प्रश्न 6.
ओसाका शहर में सूती कपड़ा उद्योग के विकसित होने के कारण लिखें। (P.B. 2009 Set-B)
उत्तर-
औद्योगिक विकास की दृष्टि से ओसाका जापान का एक महत्त्वपूर्ण शहर है। यह जापान के किनकी (Kinki) क्षेत्र में आता है। यह अपने सूती कपड़ा उद्योग के लिए विख्यात है। जापान का 100% सूती कपड़ा ओसाका के उद्योगों की देन है। इसलिए इस शहर को ‘जापान का मानचेस्टर’ भी कहा जाता है। इस शहर में सूती कपड़ा उद्योग के विकास के लिए शहर की भौगोलिक स्थिति का बहुत बड़ा योगदान है। समुद्री मार्ग निकट होने के कारण कच्चे माल का आयात करना तथा तैयार माल का निर्यात करना सरल हो जाता है। इसके अतिरिक्त यहां की नम जलवायु भी सूती कपड़ा उद्योग के अनुकूल है। .

प्रश्न 7.
बंगालुरु शहर में कौन-कौन सी अवस्थाएं सूचना-तकनीक उद्योग के लिए अनुकूल हैं ?
उत्तर-
बंगालुरु कर्नाटक राज्य की राजधानी है। यह सूचना तकनीक उद्योग का बहुत बड़ा केन्द्र है। इस शहर की निम्नलिखित अवस्थाएँ सूचना-तकनीक उद्योग के लिए अनुकूल हैं

  • यहां सूचना-तकनीक उद्योग के लिए अधिक पढ़े-लिखे लोग आसानी से मिल जाते हैं।
  • यहां की जलवायु यहां रहने तथा काम करने के लिए बहुत अनुकूल है।
  • राज्य सरकार भी बंगालुरु में सूचना-तकनीक उद्योग के विकास में पूरा-पूरा सहयोग दे रही है।

प्रश्न 8.
सिलीकान घाटी के सूचना-तकनीक उद्योग के विकास पर एक नोट लिखें।
उत्तर-
सिलीकान घाटी संयुक्त राज्य अमेरिका (यू०एस०ए०) के पश्चिम में कैलीफोर्निया राज्य में स्थित है। यह यू० एस० ए० का एक बहुत बड़ा सूचना तकनीक केन्द्र है। यहां इनटैल (Intel), एप्पल (Apple) तथा सन (Sun) जैस बड़ी-बड़ी कम्प्यूटर कम्पनियों के उद्योग स्थापित हैं। अनुसन्धान को प्रोत्साहित करने के लिए.यहाँ 1951 में स्टेनफोर्ड रिसर्च पार्क की स्थापना की गई थी। इस कार्य के लिए यूनिवर्सिटी की ओर से सभी सुविधाएँ प्रदान की गई थीं। 1959 ई० तक यहां लगभग 100 सूचना तकनीक औद्योगिक कम्पनियों ने अपने उद्योग स्थापित कर लिए थे। इस समय सिलीकान घाटी में लगभग तीन लाख लोग काम कर रहे हैं। यहाँ अरबों रुपयों का सामान बेचा जाता है। सूचना तकनीक उद्योग के लिए सिलीकान घाटी में आवश्यक अवस्थाएँ भी अनुकूल हैं। यातायात के साधन पूरी तरह से विकसित हैं। सरकार की ओर से भी इस उद्योग को विकसित करने के लिए बहुत-सी सुविधाएँ दी जा रही हैं।

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III. नीचे लिखे प्रश्नों का उत्तर लगभग 250 शब्दों में दो :

प्रश्न 1.
लौह-इस्पात उद्योग का महत्त्व और आवश्यक अवस्थाएं बताइए। भारत के लौह-इस्पात केन्द्रों के नाम लिखो।
उत्तर-
लौह-इस्पात उद्योग एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण उद्योग है। इसका महत्त्व निम्नलिखित बातों से जाना जा सकता है

  • यह उद्योग इंजीनियरिंग, यातायात के साधन तथा इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग को कच्चा माल प्रदान करता है।
  • अन्य उद्योगों में प्रयोग होने वाली लगभग सभी मशीनें लौह-इस्पात से बनती हैं।
  • सभी प्रकार के औजार तथा हथियार लोहे से बनते हैं। .

आवश्यक अवस्थाएं-लौह-इस्पात उद्योग स्थापित करने के लिए निम्नलिखित अवस्थाओं का अनुकूल होना आवश्यक है-

1. कच्चे लौह की प्राप्ति-कच्चा लौह लौह-इस्पात का मुख्य कच्चा माल है। इसलिए इसकी प्राप्ति होना आवश्यक है। इस उद्योग को कच्चे लौह के भण्डार के समीप ही स्थापित किया जाना चाहिए, क्योंकि कच्चा लौह भारी होता है।

2. बढ़िया किस्म के कोयले की प्राप्ति-कच्चे लौह को भट्ठियों में पिघलाने के लिए बढ़िया किस्म के कोयले
की आवश्यकता होती है। कोयले के अतिरिक्त चूने का पत्थर, डोलोमाइट, मैंगनीज़ आदि भी लौह-इस्पात उद्योग के लिए आवश्यक हैं। इसलिए इन पदार्थों की पर्याप्त मात्रा में प्राप्ति होनी चाहिए।

3. जल की आपूर्ति-लौह को पिघलाने के पश्चात् इसे ठण्डा करने और धोने के लिए काफ़ी मात्रा में जल की
आवश्यकता होती है। इसलिए इस उद्योग के निकट जल की व्यवस्था या जल भण्डारों का होना अति आवश्यक है।

4. उद्योगों में तैयार माल के लिए मांग क्षेत्रों का समीप होना-लौह-इस्पात उद्योग में तैयार माल को बेचने के लिए मण्डियों का समीप होना अति आवश्यक है। मांग क्षेत्र समीप होने से समय की बचत होगी और तैयार माल के लिए यातायात का खर्चा कम होगा। यदि तैयार माल को अन्य देशों को निर्यात किया जाना हो तो उद्योग की स्थापना किसी बन्दरगाह के समीप की जानी चाहिए।

5. यातायात के सस्ते और विकसित साधन-लौह इस्पात उद्योग में प्रयोग होने वाली बहुत-सी वस्तुओं को लाने ले जाने के लिए बढ़िया किस्म के यातायात साधनों का होना अति आवश्यक है। श्रमिकों के आने-जाने के लिए भी यातायात के साधन ज़रूरी हैं।

6. पूँजी-लौह-इस्पात जैसे बड़े उद्योग स्थापित करने के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है। इसलिए यह उद्योग बहुत ही धनी व्यक्ति या विदेशी कम्पनियों के सहयोग से ही स्थापित हो सकता है।

7. शिक्षित श्रमिकों की आवश्यकता-लौह-इस्पात उद्योग में भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यों के लिए शिक्षित तथा अनुभवी श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इसलिए इस प्रकार के श्रमिकों का उपलब्ध होना जरूरी है।’

भारत के लौह-इस्पात केन्द्र-भारत के मुख्य लौह-इस्पात के केन्द्र जमशेदपुर तथा बोकारो (झारखंड), बर्नपुर तथा दुर्गापुर (पश्चिमी बंगाल), रुड़केला (उड़ीसा) तथा भिलाई (छत्तीसगढ़) और भद्रावती (कर्नाटक) हैं।

प्रश्न 2.
सूती कपड़ा उद्योग के संसार में वितरण का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
सूती कपड़ा उद्योग संसार के बहुत-से देशों में स्थापित है। इसके मुख्य उत्पादकों में संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व-सोवियत संघ के देश, इंग्लैंड, जापान, चीन, मिस्र और भारत आदि हैं। यूरोप में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली और पोलैंड जैसे देशों में सूती कपड़े का उत्पादन 18वीं या 19वीं शताब्दी से होने लगा था। इन देशों के अतिरिक्त बैल्जीयम, नीदरलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, तुर्की, चैकोस्लोवाकिया आदि देशों में भी सूती कपड़ा उद्योग स्थापित हैं। कुछ मुख्य देशों में सूती कपड़ा उद्योग का वितरण इस प्रकार हैं

जापान-जापान का सूती कपड़ा उद्योग अधिक पुराना नहीं है, परन्तु इस देश ने इस उद्योग में बहुत अधिक उन्नति की है। यह देश पूरे संसार का लगभग 5% सूत तैयार करता है। जापान, सूती कपड़ा उद्योग के लिए कच्चा माल मुख्य रूप से यू० एस० ए०, चीन तथा भारत से मंगवाता है। वहां नोबी पलेन तथा हानसिन क्षेत्र सूती कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। इस उद्योग के मुख्य केन्द्र ओसाका, कोबे तथा क्योटो हैं। – चीन-चीन इस समय संसार का सबसे बड़ा सूती कपड़ा उत्पादक देश है। चीन में इस उद्योग के मुख्य केन्द्र चीक्यिांग, सांतुंग, होपे, हुनान, सैंसी, नानकिंग, शंघाई आदि हैं।

यू० एस० ए०यू० एस० ए० में सूती कपड़ा उद्योग उत्तर-पूर्व, मध्य अटलांटिक तथा दक्षिणी क्षेत्रों में केन्द्रित है। इसके मुख्य केन्द्र न्यूबैडफोर्ड, मानचेस्टर, सैंट लारेंस, बोस्टन, फिलाडैलफिया, बाल्टीमोर, न्यूयार्क, ग्रीनविले, कोलम्बिया, एटलांटा तथा कैलीफोर्निया आदि हैं।
पूर्व-सोवियत संघ-पूर्व-सोवियत संघ के देशों में मास्को, लेनिनग्राड, युक्रेन, इवानोवो, यूराल, वोल्गा, मध्य एशिया का क्षेत्र तथा साइबेरिया आदि सूती कपड़ा बनाने के मुख्य क्षेत्र हैं।

मिस्त्र-मिस्र (Egypt) कपास के उत्पादन और सूती कपड़ा उद्योग में भले ही बहुत पीछे हैं, परन्तु इस देश का महत्त्व बहुत अधिक है। यहां लम्बे रेशे वाली कपास पैदा होती है, जिससे उत्तम कोटि का कपड़ा बनाया जाता है।

भारत-हमारे देश का सूती कपड़ा उद्योग बहुत ही पुराना है। यहां के हाथ से बुने कपड़ों की मांग संसार के भिन्नभिन्न देशों में रही है। परन्तु 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ तो हमारे सूती कपड़ा उद्योग को काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि बढ़िया किस्म की कपास पैदा करने वाले क्षेत्र पाकिस्तान में चले गये थे। अतः भारत ने अन्य देशों से कपास आयात करके अपने इस पुराने उद्योग को फिर से जीवित किया।

भारत में महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, पांडिचेरी, कर्नाटक तथा केरल सूती कपड़ा पैदा करने वाले मुख्य राज्य हैं। इस उद्योग के कुछ महत्त्वपूर्ण केन्द्र निम्नलिखित हैं

  • मुम्बई, शोलापुर, पूना, कोल्हापुर, सतारा, नागपुर, औरंगाबाद तथा अमरावती (महाराष्ट्र)।
  • अहमदाबाद, बड़ोदरा, भारुच, सूरत तथा राजकोट (गुजरात)।
  • ग्वालियर, उज्जैन, इंदौर, जबलपुर तथा भोपाल (मध्य प्रदेश)।
  • चेन्नई, मदुराए, स्लेम तथा पैरम्बूर (तमिलनाडु)।
  • कोलकाता, मुर्शिदाबाद तथा हुगली (पश्चिमी बंगाल)।
  • कानपुर, मुरादाबाद, वाराणसी, आगरा, बरेली, सहारनपुर तथा लखनऊ (उत्तर प्रदेश)।
  • लुधियाना, अमृतसर तथा फगवाड़ा (पंजाब)।
  • भिवानी, हिसार तथा पानीपत (हरियाणा)।
  • बंगलुरु तथा मैसूर (कर्नाटक)।
  • भीलवाड़ा, कोटा तथा अजमेर (राजस्थान)।

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 6 मुख्य उद्योग

प्रश्न 3.
सूचना-तकनीक उद्योग का महत्त्व बताते हुए संसार और भारत में इसके मुख्य केन्द्रों के बारे में लिखो।
उत्तर-
आज का युग मशीनी युग है। मशीनों के प्रयोग से हर प्रकार के उद्योग का तेजी से विकास हो रहा है। सूचना-तकनीक उद्योग भी इनमें से एक है। इसमें रेडियो, टेलीफोन, टेलीविज़न, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर आदि शामिल हैं।

सूचना-तकनीक उद्योग का महत्त्व-

(1) सूचना-तकनीक उद्योग ने संसार भर के लोगों को आपस में जोड़ने का काम किया है। इन यन्त्रों के प्रयोग ने मानव के जीवन में समृद्धि और उन्नति ला दी है। इन यन्त्रों तथा उपकरणों की सहायता से कोई भी सूचना, संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक बहुत ही शीघ्र पहुंचाई जा सकती है। परिणामस्वरूप सूचना-तकनीक यन्त्रों द्वारा हम संसार के किसी भी कोने में घटित घटना की जानकारी मिनटों और सैकिंडों में प्राप्त कर सकते हैं।
(2) अपने बैंक खातों में ए० टी० एम० द्वारा किसी भी समय इस तकनीक के द्वारा हम पैसे निकलवा सकते हैं।
(3) कम्प्यूटर की सूचना तकनीक उद्योग को बहुत बड़ी देन है। कम्प्यूटर को अपनी मर्जी से कहीं भी ले जा सकते हैं। इसमें बहुत-सी सूचना भी स्टोर की जाती है। आजकल तो मोबाइल सेटों में कम्प्यूटर और इंटरनेट की सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं।
PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 6 मुख्य उद्योग (1)

संसार में सूचना-तकनीक उद्योग का वितरण-संसार में पहले डिजीटल इलेक्ट्रानिक कम्प्यूटर का निर्माण 1946 में य० एस० ए० में हुआ था। आज संसार के सभी विकसित देश सूचना-तकनीक उद्योग में बहुत आगे निकल चुके हैं। इन देशों में यू० एस० ए० के अतिरिक्त कनाडा, इंग्लैंड, फ्रांस, चीन, रूस, जापान तथा जर्मनी आदि शामिल हैं। यू० एस० ए० की सिलीकान घाटी इस उद्योग का बहुत बड़ा केन्द्र है।

भारत में सूचना तकनीक उद्योग-भारत एक विकासशील देश है। यहां कम्प्यूटर बहुत देर बाद आया। परन्तु फिर भी देश ने सूचना-तकनीक उद्योग में बड़ी तेज़ी से उन्नति की है। भारत में बंगलुरु, मुम्बई, पूना, चेन्नई, हैदराबाद, नोएडा (दिल्ली), गुड़गांव, मोहाली, चण्डीगढ़ आदि शहर सूचना तकनीक उद्योग के मुख्य केन्द्र हैं। इनमें से बंगगलुरु इस उद्योग का सबसे बड़ा केन्द्र है। इसे भारत की ‘सिलीकान घाटी’ कह कर पुकारा जाता है।

PSEB 8th Class Social Science Guide मुख्य उद्योग Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Multiple Choice Questions)

(क) रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

(1) सिलीकान घाटी संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिम में ………. राज्य में स्थित है।
(2) रेडियो, टी०वी०, मोबाइल आदि ………. के मुख्य यंत्र हैं।
(3) ……… यू० एस० ए० का महत्त्वपूर्ण लौह-इस्पात केंद्र है।
(4) कपास को ……….. सोना भी कहा जाता है।
(Sample Paper) (5) …………. उद्योग का मुख्य कच्चा माल कपास है।
(6) …………. किस्म की भेड़ से लंबे रेशे वाली ऊन प्राप्त की जाती है।
(7) बोरियाँ, टाट तथा रस्से ……….. से बनते हैं।
उत्तर-

  1. कैलिफोर्निया
  2. सूचना तकनीक
  3. डीट्रोयट
  4. सफेद
  5. सूती कपड़ा उद्योग
  6. मेरीनो
  7. जूट (पटसन)।

(ख) सही कथनों पर (✓) तथा गलत कथनों पर (✗) का निशान लगाएं :

(1) लौह-इस्पात उद्योग को पहले दर्जे का उद्योग माना जाता है।
(2) जमशेदपुर भारत का सबसे पुराना लौह-इस्पात केंद्र है।
(3) लम्बे रेशे वाली कपास, कपास की सबसे बढ़िया किस्म है।
(4) कपास, पटसन, ऊन, रेशम आदि का उपयोग कपड़ा उद्योग में किया जाता है।
(5) सूती कपड़े के मुख्य उत्पादक प्रदेश सूरत, अहमदाबाद, मुंबई आदि हैं।
(6) बंगलुरु में मशीन टूल्स, घड़ियां, मोटरें तथा हवाई जहाज़ बनाने के उद्योग पाये जाते हैं।
उत्तर-

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अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
संसार में लौह-इस्पात उद्योग के वितरण में असमानता क्यों पाई जाती हैं ?
उत्तर-
इसका कारण यह है कि संसार में कच्चे लौह तथा कोयले का वितरण एक समान नहीं है।

प्रश्न 2.
संसार के किस देश ने कच्चा माल न होते हुए भी लौह-इस्पात उद्योग में बड़ी उन्नति की है और कैसे ?
उत्तर-
जापान ने कच्चा माल न होते हुए भी लौह-इस्पात उद्योग में बड़ी उन्नति की है। वह कच्चा लौह तथा कोयला संसार के अन्य देशों से मंगवाता है।

प्रश्न 3.
संयुक्त राज्य अमेरिका में लौह-इस्पात उद्योग के बड़े-बड़े केन्द्र कहां स्थित हैं ? किन्हीं चार केन्द्रों के नाम भी बताइए।
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमेरिका में लौह-इस्पात के बड़े-बड़े केन्द्र महान् झीलों के आस-पास स्थित हैं। इसके चार मुख्य केन्द्र पिट्सबर्ग, शिकागो, बरमिंघम तथा अलबामा हैं।

प्रश्न 4.
भारत का सबसे पुराना लौह-इस्पात केन्द्र (कारखाना) कौन-सा है ? इसे कब और किसने लगाया था ?
उत्तर-
भारत का सबसे पुराना लौह-इस्पात कारखाना टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी (TISCO) है। इसे 1907 ई० में जमशेद जी टाटा ने लगाया था।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित लौह-इस्पात केन्द्र ( कारखाने ) कब-कब और किस-किस देश के सहयोग से स्थापित किये गयेभिलाई, रुड़केला, दुर्गापुर तथा बोकारो।
उत्तर-
1. भिलाई-1957 में रूस के सहयोग से। 2. रुड़केला-1957 में जर्मनी की सहायता से। 3. दुर्गापुर-1959 में इंग्लैंड की सहायता से। . 4. बोकारो-1964 में रूस की सहायता से।

प्रश्न 6.
स्टील अथार्टी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (SAIL) की स्थापना कब और किस उद्देश्य से की गई ?
उत्तर-
स्टील अथार्टी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड की स्थापना 1973 में लौह-इस्पात उद्योग का अच्छा प्रबंध करने के लिए की गई।

प्रशन 7.
डीट्रोयट (यू० एस० ए०) किन-किन उद्योगों के लिए प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
लौह-इस्पात, मोटर गाड़ियां, कृषि मशीनरी, मशीनी पुर्जे, कैमिकल्स, फूड प्रोसेसिंग तथा समुद्री जहाज़ निर्माण आदि।

प्रश्न 8.
सूचना उद्योग में तैयार होने वाले यंत्रों के नाम बताओ।
उत्तर-
सूचना उद्योग में तैयार होने वाले मुख्य यंत्र हैं-रेडियो, टी० वी०, टेलीफोन, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर आदि।

प्रश्न 9.
प्रयोग होने वाले कच्चे माल के आधार पर हम कपड़ा उद्योग को कौन-कौन सी श्रेणियों में बांट सकते हैं ?
उत्तर–
प्रयोग होने वाले कच्चे माल के आधार पर हम इस उद्योग को निम्नलिखित श्रेणियों में बांट सकते हैं
(1) सूती कपड़ा उद्योग (2) ऊनी कपड़ा उद्योग (3) रेशमी कपड़ा उद्योग (4) पंटसन कपड़ा उद्योग (5) कृत्रिम रेशम और बनावटी रेशों द्वारा बुने गये कपड़े का उद्योग।

प्रश्न 10.
मुम्बई के बाद भारत का दूसरा बड़ा सूती कपड़ा औद्योगिक केन्द्र कौन-सा शहर है ? यह शहर किस राज्य में है ?
उत्तर-
भारत का दूसरा बड़ा सूती कपड़ा औद्योगिक केन्द्र अहमदाबाद है। यह शहर गुजरात राज्य में है।

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प्रश्न 11.
ओसाका को ‘जापान का मानचेस्टर’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
इंग्लैंड के मानचेस्टर की तरह ओसाका (जापान) का सूती कपड़ा उद्योग एक बहुत बड़ा केन्द्र है। जापान का 100% सूती कपड़ा इसी शहर के उद्योगों से प्राप्त होता है। इसीलिए ओसाका को ‘जापान का मानचेस्टर’ कहा जाता है।

प्रश्न 12.
किस शहर को भारत की ‘सिलीकान घाटी’ कहा जाता है ? यहां सूचना-तकनीक उद्योग का विकास कब आरंभ हुआ ?
उत्तर-
कर्नाटक राज्य के बंगलुरु शहर को भारत की ‘सिलीकान घाटी’ कहा जाता है। यहां सूचना-तकनीक उद्योग का विकास 1970 के बाद आरम्भ हुआ।

छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
कपड़े का निर्माण किस प्रकार के कच्चे माल से किया जाता है ? इस उद्योग का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
कपड़े का निर्माण कई प्रकार के कच्चे माल से किया जाता है। इनमें मुख्य रूप से कपास, पटसन, ऊन, रेशम तथा कृत्रिम रेशे शामिल हैं। महत्त्व-

  • कपड़ा उद्योग बहुत बड़ी मात्रा में लोगों को रोज़गार देता है और राष्ट्रीय आय में वृद्धि करता है।
  • संसार के बहुत-से देशों में कपड़ा उद्योग को मुख्य उद्योगों में शामिल किया जाता है। कपड़ा उद्योग द्वारा बनाया गया कपड़ा पहनने, घरों की सजावट और भिन्न-भिन्न वस्तुओं को पैक करने के काम आता है।
  • मानव की मूल आवश्यकताओं-रोटी, कपड़ा और मकान में कपड़े का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्न 2.
कपास से सूती कपड़ा बनाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
सबसे पहले श्रमिक खेतों से कपास के डोडे इकट्ठे करते हैं। इन्हें मशीनों द्वारा भी इकट्ठा किया जाता है। इनमें बीज होते हैं जिन्हें कपास से अलग कर दिया जाता है।
PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 6 मुख्य उद्योग (2)
इस कपास की पिंजाई करके इसे साफ़ किया जाता है। साफ़ की गई कपास से सूत काता जाता है। इस सूत के धागे (Yarn) को बुनकर कपड़ा तैयार किया जाता है। इसके पश्चात् कपड़े को ज़रूरत अनुसार रंगा जाता है या प्रिंट किया – जाता है। ज़रूरत होने पर इसे अच्छी तरह रंगरहित भी रहने दिया जाता है।

प्रश्न 3.
अहमदाबाद में सूती कपड़ा उद्योग के अनुकूल अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • अहमदाबाद (गुजरात राज्य) भारत की “कपास पेटी” में आता है इसलिए यहां की कपड़ा मिलों को कपास के रूप में कच्चा माल आसानी से प्राप्त हो जाता है।
  • यहां की जलवायु आर्द्र (नम) है। यह जलवायु कपड़ा उद्योग के लिए वरदान सिद्ध होती है क्योंकि इसमें धागा आसानी से नहीं टूटता।
  • आस-पास ही बड़ी संख्या में सस्ते श्रमिक मिल जाते हैं।
  • बिजली सस्ती है।
  • अहमदाबाद रेलों और सड़कों द्वारा देश के अन्य भागों से पूरी तरह से जुड़ा हुआ है।
  • मुंबई की तुलना में यहां भूमि सस्ते रेटों में मिल जाती है।
  • तैयार माल (कपड़ा) के लिए मांग क्षेत्र भारत में ही मिल जाता है।
  • सरकार भी कपड़ा उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक सुविधाएं प्रदान करती हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न-
रेशमी कपड़ा उद्योग, पटसन कपड़ा उद्योग तथा कृत्रिम रेशों से कपड़ा बनाने के उद्योग का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर-
रेशमी कपड़ा उद्योग-रेशमी कपड़ा उद्योग में रेशम को कच्चे माल के रूप में प्राप्त किया जाता है। रेशम एक प्रकार के कीड़े से प्राप्त किया जाता है जिसे शहतूत के वृक्ष के पत्तों पर पाला जाता है। रेशम से कपड़ा बनाने की कला लगभग 2500 ईसा पूर्व-चीन में आरंभ हुई थी। अन्य देशों में यह कला तीसरी या चौथी शताब्दी में ही पहुंची। रेशम से कपड़ा बनाने वाले मुख्य देश चीन, जापान, दक्षिणी कोरिया, रूस, भारत, उत्तरी कोरिया तथा ब्राज़ील हैं।
रेशमी कपड़ा काफ़ी महंगा होता है जो प्रायः धनी लोग ही पहनते हैं। इसलिए इसे ‘धनी पोषाक’ भी कहा जाता
है।

पटसन कपड़ा उद्योग-पटसन एक पौधे से मिलने वाला रेशा होता है। यह पौधा प्रायः गर्म और नम क्षेत्रों में उगाया जाता है। पटसन का उपयोग मुख्य रूप से बोरियां, टाट और रस्से बनाने में किया जाता है। परन्तु आजकल इससे कपड़ा भी बनाया जाने लगा है। पटसन से बने बारीक कपड़े की काफ़ी मांग है। पटसन उद्योग मुख्यतः चीन, भारत, बांग्ला देश, थाइलैंड और ब्राजील में विकसित हैं। इस उद्योग में भारत तथा बांग्लादेश संसार में अग्रणी हैं।

कृत्रिम रेशों से कपड़ा बनाने का उद्योग-कृत्रिम रेशों में कृत्रिम रेशे तथा कई प्रकार के अन्य रासायनिक रेशे शामिल हैं। कृत्रिम रेशम भी एक रासायनिक यौगिक है। इसे फैक्ट्रियों में तैयार किया जाता है। नाइलोन, टैरालीन, एवरीलोन, टैटरोन भी रासायनिक रेशे हैं। इनसे बना कपड़ा काफ़ी सस्ता तथा मजबूत होता है। इसलिए यह कपड़ा प्राकृतिक रेशों से बने कपड़े का अच्छा मुकाबला कर रहा है। कृत्रिम रेशों से कपड़ा बनाने वाले मुख्य देश जापान, यू० एस० ए०, इंग्लैंड, जर्मनी, भारत, चीन तथा इटली हैं।

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 6 मुख्य उद्योग

मुख्य उद्योग PSEB 8th Class Social Science Notes

  • लौह-इस्पात उद्योग – इस उद्योग को प्राथमिक या पहले दर्जे का उद्योग कहा जाता है क्योंकि यह उद्योग अन्य सभी उद्योगों का आधार है।
  • लौह-इस्पात उद्योग के लिए आवश्यक अवस्थाएं – कच्चे लौह की पूर्ति, बढ़िया किस्म का कोयला, पानी की निरन्तर आपूर्ति, मांग क्षेत्रों की समीपता, यातायात के सस्ते तथा विकसित साधन, शिक्षित श्रमिक तथा पूंजी। .
  • लौह-इस्पात उत्पन्न करने वाले मुख्य देश – चीन, जापान, यू० एस० ए०, रूस, जर्मनी, ब्राजील, भारत तथा इंग्लैण्ड।
  • भारत के मुख्य लौह-इस्पात केन्द्र – जमशेदपुर, बर्नपुर, दुर्गापुर, भिलाई, रुड़केला तथा बोकारो।
    डीट्रोयट – यह यू० एस० ए० का महत्त्वपूर्ण लौह-इस्पात केन्द्र है।
  • कपड़ा उद्योग – कपड़ा मानव की मूल आवश्यकताओं में से एक है। इसका निर्माण कई प्रकार के कच्चे माल द्वारा किया जाता है, जैसे-कपास, पटसन, ऊन, रेशम तथा कृत्रिम रेशे। ।
  • कच्चे माल के आधार पर कपड़ा उद्योग की किस्में – सूती कपड़ा उद्योग, ऊनी कपड़ा उद्योग, रेशमी कपड़ा उद्योग, पटसन वस्त्र उद्योग तथा कृत्रिम रेशम तथा बनावटी रेशों का कपड़ा उद्योग।
  • सूती कपड़ा उद्योग – इस उद्योग का मुख्य कच्चा माल कपास है।
  • सूती कपड़ा उद्योग के लिए आवश्यक तत्त्व – कच्चा माल, पूँजी, सस्ते श्रमिक, यातायात के विकसित साधन, मण्डी का समीप होना तथा अनुकूल जलवायु।
  • सूती कपड़े के मुख्य उत्पादक देश – यू० एस० ए०, रूस, जापान, चीन, इंग्लैण्ड, भारत तथा मिस्र।
  • भारत के मुख्य सूती कपड़ा उद्योग केन्द्र – मुम्बई, शोलापुर, नागपुर, अहमदाबाद, सूरत, ग्वालियर, चेन्नई, कोलकाता, हुगली, कानपुर, लखनऊ, हैदराबाद, भीलवाड़ा, लुधियाना, अमृतसर, फगवाड़ा आदि ।
  • ओसाका – जापान का महत्त्वपूर्ण सूती वस्त्र उद्योग केन्द्र जिसे ‘जापान का मानचेस्टर’ कहा जाता है।
  • सूचना-तकनीक उद्योग – महत्त्व-इसने संसार के लोगों को आपस में जोड़ दिया है।
    मुख्य यन्त्र-रेडियो, टी० वी०, टेलीफोन, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर इत्यादि।
    सूचना-तकनीक उद्योग वाले मुख्य देश-यू० एस० ए०, कनाडा, इंग्लैण्ड, चीन, फ्रांस, रूस, जापान, जर्मनी, भारत।
    भारत में सूचना तकनीक उद्योग के केन्द्र-बंगलुरु, मुम्बई, हैदराबाद, दिल्ली, चेन्नई, नोएडा, मोहाली, चण्डीगढ़ आदि।

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 5 औद्योगिक विकास

Punjab State Board PSEB 8th Class Social Science Book Solutions Geography Chapter 5 औद्योगिक विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 8 Social Science Geography Chapter 5 औद्योगिक विकास

SST Guide for Class 8 PSEB औद्योगिक विकास Textbook Questions and Answers

I. नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 20-25 शब्दों में दो :

प्रश्न 1.
वस्तु-निर्माण क्रिया से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लगभग सभी आरम्भिक (मूल) पदार्थ मनुष्य के प्रयोग में आने से पहले एक विशेष क्रिया से गुज़रते हैं। इसी क्रिया को वस्तु-निर्माण क्रिया कहते हैं। इस क्रिया को बताने के लिए उद्योग शब्द का प्रयोग किया जाता है। उद्योग में कच्चे माल को पक्के माल में बदला जाता है।

प्रश्न 2.
किसी देश के आर्थिक विकास का सही अंदाज़ा कैसे लगाया जा सकता है ?
उत्तर-
किसी देश के आर्थिक विकास का सही अनुमान (अंदाजा) देश के औद्योगिक विकास से लगाया जाता है। संसार के सभी विकसित देश औद्योगिक रूप से पूरी तरह विकसित हैं। .

प्रश्न 3.
उद्योगों को कौन-कौन से तत्त्व प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-
उद्योगों को निम्नलिखित तत्त्व प्रभावित करते हैं : (1) कच्चा माल (2) शक्ति के साधन (3) मजदूर (4) यातायात के साधन (5) बाज़ार अथवा मण्डी (6) पानी (7) जलवायु (8) पूंजी (9) सरकार की नीतियां (10) बैंक तथा बीमा आदि की सुविधाएं।

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 5 औद्योगिक विकास

प्रश्न 4.
निजी उद्योग किन उद्योगों को कहा जाता है ?
उत्तर-
वे उद्योग जो लोग निजी रूप से अथवा कोई फ़र्म बना कर स्थापित करते हैं, निजी उद्योग कहलाते हैं। उदाहरण के लिए एटलस अथवा हीरो साइकिल उद्योग। इस प्रकार उद्योगों में लागत तथा लाभ दोनों पर उद्योग के स्वामी का नियन्त्रण होता है।

प्रश्न 5.
कृषि आधारित उद्योगों में कौन-कौन से कच्चे माल का प्रयोग होता है ?
उत्तर-
कृषि पर आधारित उद्योगों में कृषि से प्राप्त कच्चे माल का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण-कपड़ा उद्योग में कपास को, चीनी उद्योग में गन्ने को तथा चाय उद्योग में चाय की पत्तियों को कच्चे माल के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।

प्रश्न 6.
समुद्री जहाज़ों के उद्योग भारत में कहां-कहां हैं ?
उत्तर-
भारत में समुद्री जहाज़ उद्योग विशाखापट्टनम, कोलकाता, चेन्नई, कोचीन (कोच्चि) तथा मुम्बई में स्थित है।

प्रश्न 7.
ऑटोमोबाइल उद्योग का प्रारम्भ कब हुआ ?
उत्तर-
ऑटोमोबाइल उद्योग का प्रारम्भ 19वीं शताब्दी में हुआ।

II. नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 70-75 शब्दों में दो :

प्रश्न 1.
उद्योगों का मानव जीवन पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
उद्योगों का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव है :(1) ये किसी देश के आर्थिक ढांचे को मज़बूत बनाते हैं। (2) ये देश में से गरीबी तथा बेरोज़गारी को दूर करने में सहायता करते हैं। (3) ये पुराने समाज को नये समाज में बदल देते हैं। (4) उद्योगों का विकास किसी देश के आर्थिक विकास को दर्शाता है। (5) उद्योग जीवन-स्तर को ऊंचा उठाते हैं।

प्रश्न 2.
कच्चा माल और शक्ति साधन उद्योगों को कैसे प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-
कच्चा माल तथा शक्ति के साधन उद्योगों को निम्नलिखित ढंग से प्रभावित करते हैं :-

  1. कच्चा माल-जिस पदार्थ से कोई वस्तु बनाई जाती है, उसे कच्चा माल कहते हैं। उदाहरण के लिए सूती वस्त्र उद्योग का कच्चा माल कपास है। कोई भी उद्योग लगाने के लिए आवश्यक कच्चे माल की पूर्ति आवश्यक है। यदि कच्चा माल भारी हो तो उद्योग को कच्चे माल के स्रोत के निकट ही स्थापित किया जाना चाहिए। दूसरी ओर यदि कच्चा माल हल्का हो तो उसे दूर तक ले जाया जा सकता है।
  2. शक्ति के साधन-उद्योगों को चलाने के लिए शक्ति के साधनों का होना आवश्यक है। कोयला, खनिज तेल तथा बिजली उद्योगों को चलाने वाले मुख्य शक्ति साधन हैं।

प्रश्न 3.
उद्योगों के विकास में सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
उद्योगों के विकास में सरकारी नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी स्थान पर उद्योग लगाने के लिए सरकार की मंजूरी लेना ज़रूरी होता है। यह मंजूरी सरकार के अलग-अलग विभागों से लेनी पड़ती है। इन विभागों में प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, वन विभाग, सुरक्षा विभाग आदि शामिल हैं। वैसे भी किसी स्थान पर कोई उद्योग केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार की योजना-नीतियों के अनुसार ही लगाया जा सकता है। किसी प्रदेश में औद्योगिकीकरण करना सीधे तौर पर सरकारी नीतियों पर ही निर्भर करता है। सरकारी नीति के अनुसार किसी सीमावर्ती प्रदेश में औद्योगिक विकास नहीं हो सकता।

प्रश्न 4.
बड़े, मध्यम और छोटे पैमाने वाले उद्योगों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर-
बड़े पैमाने के उद्योग-जिन उद्योगों में मजदूरों की संख्या बहुत अधिक होती है, उन्हें बड़े पैमाने के उद्योग कहा जाता है। इन उद्योगों में पूंजी भी बहुत अधिक लगती है। पूंजी की राशि 10 करोड़ या अधिक होती है। – मध्यम पैमाने के उद्योग-इन उद्योगों में मजदूरों की संख्या तथा पूंजी की राशि बड़े पैमाने के उद्योगों से कम होती है। पूंजी की राशि 5 करोड़ से 10 करोड़ तक होती है।

छोटे पैमाने के उद्योग-छोटे पैमाने के उद्योगों में मज़दूर बहुत ही कम संख्या में होते हैं। नई औद्योगिक नीति के अनुसार इन उद्योगों में पूंजी की लागत 5 करोड़ तक होती है।

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प्रश्न 5.
भारी और हल्के उद्योगों में उदाहरण सहित अन्तर स्पष्ट करो।
उत्तर-
भारी उद्योग-जिन उद्योगों का कच्चा माल बहुत भारी होता है, उन्हें भारी उद्योग कहते हैं। लोहा-इस्पात उद्योग, समुद्री जहाज़ उद्योग तथा रेलवे उद्योग भारी उद्योगों के उदाहरण हैं। हल्के उद्योग-जिन उद्योगों में हल्के कच्चे माल का प्रयोग किया जाता है, वे हल्के उद्योग कहलाते हैं। इनमें तैयार माल भी हल्का होता है। पंखे, पैसें, घड़ियां आदि उद्योग हल्के उद्योगों में शामिल हैं।

प्रश्न 6.
कपड़ा (वस्त्र) और लौह-इस्पात उद्योग के मुख्य देश कौन-कौन से हैं ? भारत के तीन कपड़ा उद्योग के केन्द्रों के नाम लिखो।
उत्तर-
कपड़ा उद्योग-कपड़ा उद्योग में इंग्लैण्ड संसार में सबसे आगे है। कपड़ा उद्योग के अन्य मुख्य देश संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, जापान, चीन, मित्र तथा भारत हैं।

लोहा-इस्पात उद्योग-लोहा-इस्पात उद्योग में संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ के देश तथा जर्मनी सबसे आगे है। ये देश संसार के कुल लोहा-इस्पात का 50 प्रतिशत पैदा करते हैं। इस उद्योग के अन्य मुख्य देश इंग्लैण्ड, फ्रांस, कनाडा, जापान, चीन तथा भारत हैं।
भारत में वस्त्र उद्योग के केन्द्र-भारत के तीन प्रमुख वस्त्र उद्योग केन्द्र मुम्बई (महाराष्ट्र), अहमदाबाद (गुजरात) तथा कोलकाता (पश्चिमी बंगाल) हैं।

प्रश्न 7.
हवाई जहाज़ों का प्रयोग कहाँ होता है ? भारत में हवाई जहाज़ बनाने वाले मुख्य केन्द्र कौन-से हैं ?
उत्तर-
हवाई जहाज़ों का प्रयोग निम्नलिखित कार्यों में होता है-

  1. दुर्गम स्थानों पर पहुंचने के लिए।
  2. वायु सेना में शत्रु के ठिकानों पर हमला करने के लिए।
  3. आपदा प्रभावित क्षेत्रों में राहत पहुंचाने के लिए।
  4. विदेशों से संपर्क बनाए रखने के लिए।
  5. तीव्र यात्रा के लिए।

III. नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर लगभग 200-250 शब्दों में लिखो :

प्रश्न 1.
उद्योगों को प्रभावित करने वाले तत्त्वों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर-
उद्योगों की स्थापना तथा विकास को कई तत्त्व प्रभावित करते हैं। इनमें से मुख्य तत्त्वों का वर्णन इस प्रकार-

  • कच्चा माल-जिस पदार्थ से कोई वस्तु बनाई जाती है, उसे कच्चा माल कहते हैं। उदाहरण के लिए सूती वस्त्र उद्योग का कच्चा माल कपास है। कोई भी उद्योग लगाने के लिए आवश्यक कच्चे माल की पूर्ति आवश्यक है। यदि कच्चा माल भारी हो तो उद्योग को कच्चे माल के स्रोत के निकट ही स्थापित किया जाना चाहिए। दूसरी ओर यदि कच्चा माल हल्का हो तो उसे दूर तक ले जाया जा सकता है।
  • शक्ति के साधन-उद्योगों को चलाने के लिए शक्ति के साधनों का होना आवश्यक है। कोयला, खनिज तेल तथा बिजली उद्योगों को चलाने वाले मुख्य शक्ति साधन हैं।
  • मज़दूर अथवा श्रमिक-उद्योगों को चलाने के लिए मज़दूरों की ज़रूरत होती है। मज़दूर सस्ते, कुशल तथा प्रशिक्षित होने चाहिए। आज के मशीनी युग में भी उद्योगों में मजदूरों का अपना महत्त्व है। .
  • यातायात के साधन-उद्योगों के लिए तरह-तरह का सामान इकट्ठा करने, मज़दूरों के आने-जाने तथा तैयार माल को बाज़ार तक पहुंचाने के लिए यातायात के विकसित साधनों की ज़रूरत होती है।
  • मण्डी अथवा बाज़ार-उद्योगों में तैयार माल को बेचने के लिए मण्डी (बाज़ार) निकट होनी चाहिए। बाज़ार में तैयार माल की मांग होना भी ज़रूरी है।
  • पानी-उद्योगों की स्थापना के लिए पानी भी बहुत आवश्यक है। इसलिए अनेक उद्योग नदियों तथा झीलों के किनारे लगाये जाते हैं। जिन उद्योगों को कम पानी की ज़रूरत होती है, उन्हें नदियों आदि से दूर भी लगाया जा सकता है। फिर भी मजदूरों के प्रयोग तथा अन्य छोटे-मोटे कार्यों के लिए आवश्यक पानी की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए।
  • जलवायु-उद्योगों की स्थापना पर जलवायु का प्रभाव भी पड़ता है। बहुत अधिक गर्म या ठण्डे स्थान उद्योगों की स्थापना के लिए ठीक नहीं रहते। सूती कपड़ा उद्योग के लिए थोड़ी नमी वाला स्थान उपयुक्त रहता है। ऐसे स्थान पर धागा बार-बार नहीं टूटता।
  • पूंजी-पूंजी के बिना किसी उद्योग की स्थापना नहीं की जा सकती। पूंजी कम होने पर उद्योग का विकास भी नहीं हो पाता। इसलिए उद्योग को आवश्यक पूंजी अवश्य मिलनी चाहिए।
  • सरकार की नीतियां–उद्योगों के विकास में सरकारी नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी स्थान पर उद्योग लगाने के लिए सरकार की मंजूरी लेना ज़रूरी होता है। वैसे भी किसी स्थान पर कोई उद्योग केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार की योजना-नीतियों के अनुसार ही लगाया जा सकता है। किसी प्रदेश में औद्योगिकीकरण करना अथवा कोई औद्योगिक विकेन्द्रीकरण करना सीधे तौर पर सरकारी नीतियों पर ही निर्भर करता है।
  • बैंक तथा बीमा आदि की सुविधाएं-उद्योगों की स्थापना, मज़दूरों को वेतन अथवा मजदूरी देने, कच्चा माल खरीदने तथा तैयार माल को बेचने आदि कार्यों के लिए पैसे का काफ़ी लेन-देन करना पड़ता है। अतः पैसे की सुरक्षा, उचित हिसाब-किताब तथा लेन-देन के लिए निकट ही बैंक की सुविधा होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त मशीनों पर काम करते समय किसी भी समय दुर्घटना हो सकती है जिससे मशीन अथवा श्रमिक को हानि पहुंच सकती है। इस क्षति की पूर्ति के लिए मशीनों तथा श्रमिकों के बीमे की सुविधा होनी चाहिए।

प्रश्न 2.
उद्योगों को मुख्य रूप से किस-किस आधार पर बांटा गया है ? कच्चे माल पर आधारित उद्योगों की किस्मों का वर्णन करो।
उत्तर-
उद्योगों को मुख्य रूप से निम्नलिखित आधारों पर बांटा गया है :

  1. आकार के आधार पर
  2. कच्चे माल के आधार पर
  3. स्वामित्व (मिलकियत) के आधार पर।

कच्चे माल के आधार पर उद्योगों का वर्गीकरण-कच्चे माल के आधार पर उद्योगों को निम्नलिखित दो प्रकार से बांटा गया है :

A. कच्चे माल के भार के आधार पर

  • भारी उद्योग-जिन उद्योगों का कच्चा माल बहुत भारी होता है, उन्हें भारी उद्योग कहते हैं । लोहा-इस्पात उद्योग, समुद्री जहाज़ उद्योग तथा रेलवे उद्योग भारी उद्योगों के उदाहरण हैं।
  • हल्के उद्योग-जिन उद्योगों में हल्के कच्चे माल का प्रयोग किया जाता है, वे हल्के उद्योग कहलाते हैं। इनमें तैयार माल भी हल्का होता है। पंखे, पैसें, घड़ियां आदि उद्योग हल्के उद्योगों में शामिल हैं।

B. कच्चे माल की किस्म अथवा स्रोत के आधार पर

  • खेती (कृषि) पर आधारित उद्योग-जिन उद्योगों के लिए कच्चा माल कृषि से प्राप्त होता है, उन्हें कृषि आधारित उद्योग कहते हैं। कपड़ा उद्योग, चाय उद्योग तथा चीनी उद्योग कृषि आधारित उद्योग हैं।
  • खनिज पदार्थों पर आधारित उद्योग-जिन उद्योगों में खनिज पदार्थों को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है, उन्हें खनिज-आधारित उद्योग कहा जाता है। लोहा-इस्पात उद्योग तथा एल्यूमीनियम उद्योग इनके उदाहरण हैं।
  • जानवरों पर आधारित उद्योग-इन उद्योगों के लिए कच्चा माल जानवरों से प्राप्त होता है। इन उद्योगों में डेयरी उद्योग, चमड़ा उद्योग, ऊनी कपड़ा उद्योग तथा जानवरों की हड्डियों से सम्बन्धित उद्योग शामिल हैं।
  • वनों (जंगलों) पर आधारित उद्योग-इन उद्योगों को कच्चा मालं वनों से प्राप्त होता है। इन उद्योगों के मुख्य उदाहरण कागज उद्योग, लकड़ी उद्योग तथा माचिस उद्योग हैं।

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 5 औद्योगिक विकास

PSEB 8th Class Social Science Guide औद्योगिक विकास Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Multiple Choice Questions)

(क) रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

1. वे उद्योग जिनका कच्चा माल भारी होता है ……….. उद्योग कहलाते हैं।
2. कपड़ा उद्योग, चाय उद्योग …………… उद्योग तथा कृषि आधारित उद्योग हैं।
3. डेयरी उद्योग, चमड़ा उद्योग आदि उद्योग …………. आधारित उद्योग हैं।
4. एक सहकारी संस्था बनाकर उसके सदस्यों के सहयोग से चलाए जाने वाले उद्योग ……….. कहलाते हैं।
5. प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले पदार्थ ………….. उत्पाद कहलाते हैं।
6. बंगलौर भारत के …………. राज्य की राजधानी है।
7. बड़े पैमाने के उद्योगों में – करोड़ या इससे अधिक पूंजी. वाले उद्योग शामिल हैं।
उत्तर-

  1. भारी
  2. चीनी
  3. जानवर
  4. सहकारी
  5. प्राथमिक
  6. कर्नाटक
  7. पांच।

(ख) सही कथनों पर (✓) तथा गलत कथनों पर (✗) का निशान लगाएं : .

1. कच्चा माल, शक्ति के साधन, मजदूर, मण्डी, पानी इत्यादि तत्त्व उद्योगों को प्रभावित करते हैं।
2. कागज उद्योग तथा लकड़ी उद्योग जानवरों पर आधारित उद्योग हैं।
3. पंजाब ट्रैक्टर लिमिटेड (मोहाली तथा होशियारपुर) निजी उद्योग हैं।
4. कपड़ा उद्योग में भारत संसार में सबसे आगे है।
5. छोटे पैमाने के उद्योगों में मज़दूर बहुत ही कम संख्या में होते हैं।
6. जिस पदार्थ से कोई वस्तु बनाई जाती है उसे पक्का माल कहा जाता है।
7. इंग्लैंड को कपड़ा उद्योग का लीडर माना जाता है।

उत्तर-

  1. (✗)
  2. (✗)
  3. (✗)
  4. (✗)
  5. (✓)
  6. (✗)
  7. (✓).

अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक उत्पाद (Primary Produsets) क्या होते हैं। ? मनुष्य को ये कहां से प्राप्त होते हैं ?
उत्तर-
प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले पदार्थ प्राथमिक उत्पादकहलाते हैं। मनुष्य को ये पदार्थ खेती, वनों, मछलियों, खानों तथा जानवरों से प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 2.
किस प्रकार के उद्योग कच्चे माल के स्रोत के निकट लगाए जाते हैं ?
उत्तर-
जिन उद्योगों का कच्चा माल तथा तैयार माल भारी होता है, वे कच्चे माल के स्रोत के निकट लगाये जाते हैं।

प्रश्न 3.
जंगलों तथा जानवरों पर आधारित दो-दो उद्योगों के नाम बताओ।
उत्तर-
जंगलों पर आधारित उद्योग-कागज उद्योग तथा लकड़ी उद्योग। .. जानवरों पर आधारित उद्योग-डेयरी उद्योग तथा चमड़ा उद्योग।

प्रश्न 4.
सहकारी उद्योग क्या होते हैं ?
उत्तर-
जो उद्योग एक सहकारी संस्था बना कर, उसके सदस्यों के सहयोग से लगाए जाते हैं, उन्हें सहकारी उद्योग कहते हैं। पंजाब ट्रैक्टर लिमिटेड (मोहाली तथा होशियारपुर) इसी प्रकार का उद्योग है।

प्रश्न 5.
कौन-कौन से उद्योगों को मुख्य उद्योगों में शामिल किया जाता है ? किन्हीं छः के नाम बताओ।
उत्तर-
(1) लोहा-इस्पात उद्योग (2) कपड़ा उद्योग (3) ऑटोमोबाइल उद्योग (4) समुद्री जहाज़ उद्योग (5) वायुयान उद्योग (6) रेलवे इंजनों का उद्योग।

प्रश्न 6.
भारत के लौह-इस्पात पैदा करने वाले चार राज्यों के नाम बताइए।
उत्तर-
बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा पश्चिमी बंगाल।

प्रश्न 7.
वायुयान उद्योग में संसार के कौन-कौन से देश अग्रणी हैं ?
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमेरिका, रूंस, इंग्लैण्ड, फ्रांस, कनाडा, इटली, आस्ट्रेलिया, जापान तथा चीन।

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अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
कोई चार उदाहरण दीजिए जिनसे पता चले कि लगभग प्रत्येक प्राथमिक पदार्थ मनुष्य के प्रयोग में आने से पहले एक विशेष प्रक्रिया में से गुजरता है।
उत्तर-

  • खेतों से प्राप्त गेहूं को पीसकर आटा बनाया जाता है। फिर आटे से रोटी, डबल रोटी, बिस्कुट तथा खाने के लिए अन्य पदार्थ बनाए जाते हैं।
  • कपास के गीले डोडों को साफ करके रूई बनाई जाती है। रूई से धागा तैयार करके कपड़ा बुना जाता है।
  • गन्ने के रस से चीनी तथा गुड़ बनाया जाता है। (4) धरती से प्राप्त कच्चे लौह को साफ़ करके लोहे या स्टील की वस्तुएं बनाई जाती हैं।

प्रश्न 2.
संसार के ऑटोमोबाइल उद्योग पर एक नोट लिखो।
उत्तर-
संसार में ऑटोमोबाइल उद्योग का प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में हुआ। इस उद्योग में संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान, फ्रांस, स्वीडन और यूरोप के कई अन्य देश मुख्य हैं। कनाडा, आस्ट्रेलिया, स्पेन, चीन और भारत जैसे देशों में भी बहुत से ऑटोमोबाइल उद्योग स्थापित हैं। भारत में इस उद्योग के मुख्य केन्द्र मुम्बई, चेन्नई, जमशेदपुर, जबलपुर, कोलकाता, कानपुर, अहमदाबाद, फरीदाबाद, गुड़गांव आदि हैं।

प्रश्न 3.
संसार तथा भारत में रेल इंजन तथा रेल के डिब्बे बनाने के उद्योगों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर-
संसार में रेल के इंजन तथा रेल के डिब्बे बनाने वाले मुख्य देश संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, इंग्लैण्ड, जर्मनी और जापान हैं। भारत में चितरंजन (पश्चिमी बंगाल) वाराणसी. (उत्तर प्रदेश) तथा जमशेदपुर (झारखण्ड) रेल के इंजन बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। पैराम्बूर (तमिलनाडु), बंगलौर (कर्नाटक) और कपूरथला (पंजाब) रेल के डिब्बे बनाने के मुख्य औद्योगिक केन्द्र हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न-
मालकीयत (स्वामित्व) आधारित उद्योगों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर-
मालकीयत आधारित मुख्य उद्योग निम्नलिखित हैं

  1. निजी क्षेत्र के उद्योग-जो उद्योग लोगों द्वारा निजी रूप से या फर्म बनाकर लगाये जाते हैं, उन्हें निजी क्षेत्र के उद्योग कहा जाता है। इस प्रकार के उद्योगों में पूंजी, लाभ या हानि पर उद्योग मालिक का नियन्त्रण होता है। हीरो साइकिल उद्योग इसी प्रकार का उद्योग है।
  2. सरकारी क्षेत्र के उद्योग-सरकार या उसकी एजेंसियों द्वारा लगाये गये उद्योग सरकारी क्षेत्र के उद्योग कहलाते हैं। इन उद्योगों में पूंजी, लाभ और हानि पर सरकार का नियन्त्रण होता है। भारत हैवी इलेक्ट्रिकल (भोपाल) और रेल कोच फैक्टरी कपूरथला आदि सरकारी क्षेत्र के उद्योगों के उदाहरण हैं।
  3. साझे क्षेत्र के उद्योग-जो उद्योग सरकार और प्राइवेट लोगों या एजेंसियों द्वारा साझे रूप में लगाये जाते हैं उन्हें साझे क्षेत्र के उद्योग कहा जाता है। उदाहरण के लिए पंजाब ट्रैक्टर लिमिटेड (मोहाली और होशियारपुर) तथा गुजरात औलकलीज़ लिमिटेड आदि उद्योग साझे क्षेत्र में आते हैं। .
  4. सहकारी क्षेत्र-जो उद्योग एक सहकारी संस्था बनाकर उसके सदस्यों के सहयोग से लगाये जाते हैं, उन्हें सहकारी उद्योग कहा जाता है। सहकारी चीनी मिलें तथा सहकारी कपड़ा मिलें इसी प्रकार के उद्योग हैं।
  5. बहु-देशीय उद्योग-इस प्रकार के उद्योगों में एक मुख्य कम्पनी अपना उद्योग, एक साथ कई देशों में लगाती है। इसीलिए इन उद्योगों को बहु-देशीय उद्योग कहा जाता है। बहु-देशीय उद्योगों में कारों की कम्पनियां तथा कोकाकोला आदि कम्पनियां शामिल हैं।

औद्योगिक विकास PSEB 8th Class Social Science Notes

  • निर्माण क्रिया – प्रत्येक प्राथमिक पदार्थ, मनुष्य के प्रयोग में आने से पहले एक विशेष क्रिया में से गुज़रता है इसे निर्माण क्रिया (Manufacturing) कहा जाता है।
  • उद्योगों का महत्त्व मनुष्य के जीवन में उद्योगों का बहुत महत्त्व है। ये रोज़गार जुटाते हैं तथा जीवन-स्तर को ऊंचा उठाते हैं।
  • उद्योगों को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक-
    • कच्चा माल
    • शक्ति साधन
    • श्रमिक
    • यातायात के साधन
    • मण्डियां
    • जल
    • जलवायु
    • पूंजी
    • सरकारी नीतियां
    • बैंक एवं बीमा सुविधाएं
  • उद्योगों का वर्गीकरण
    (A) आकार पर आधारित उद्योग

    • बड़े पैमाने वाले उद्योग
    • मध्यम पैमाने वाले उद्योग
    • छोटे पैमाने वाले उद्योग

(B) कच्चे माल पर आधारित उद्योग

(1) कच्चे माल के भार पर आधारित -भारी उद्योग, हल्के उद्योग
(2) कच्चे माल की किस्म या स्रोत के आधार पर –

  • कृषि आधारित उद्योग
  • खनिज पदार्थों पर आधारित उद्योग
  • जानवरों पर आधारित उद्योग
  • वनों पर आधारित उद्योग

(C) मलकीयत (स्वामित्व) के आधार पर-

  • निजी क्षेत्र के उद्योग
  • सरकारी क्षेत्र के उद्योग
  • सहकारी क्षेत्र -साझे क्षेत्र के उद्योग
  • बहु-देशीय कम्पनियां

PSEB 8th Class Social Science Solutions Chapter 5 औद्योगिक विकास

मुख्य उद्योग और वर्गीकरण – उद्योग तो कई प्रकार के हैं परन्तु मुख्य उद्योगों में लौह-इस्पात उद्योग, कपड़ा उद्योग, ऑटोमोबाइल उद्योग, समुद्री जहाजों के उद्योग, वायुयान उद्योग, रेलवे इंजन और रेल के डिब्बे बनाने वाले उद्योग तथा इलेक्ट्रोनिक्स उद्योग को शामिल किया जाता है। ये उद्योग संसार के भिन्न-भिन्न भागों में केन्द्रित हैं।

कृषि पर आधारित उद्योग – वस्त्र, चीनी, वनस्पति तेल आदि उद्योगों के लिए कच्चा माल कृषि से मिलता है। इसलिए इन्हें कृषि आधारित उद्योग कहते हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्मTextbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बुद्ध धर्म के उद्भव के समय इसकी धार्मिक परिस्थितियों की चर्चा करें।
(Discuss the contemporary religious conditions of Buddhism at the time of its origin.)
अथवा
उन कारणों का संक्षेप वर्णन कीजिए जो बौद्ध धर्म के उद्भव के लिए उत्तरदायी थे।
(Give a brief account of those factors which led to the birth of Buddhism.)
उत्तर-
छठी शताब्दी ई०पू० में भारत के हिंदू समाज एवं धर्म में अनेक अंध-विश्वास तथा कर्मकांड प्रचलित थे। पुरोहित वर्ग ने अपने स्वार्थी हितों के कारण हिंदू धर्म को अधिक जटिल बना दिया था। अतः सामान्यजन इस धर्म के विरुद्ध हो गए थे। इन परिस्थितियों में भारत में कुछ नए धर्मों का जन्म हुआ। इनमें से बौद्ध धर्म सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे। इस धर्म के उद्भव के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है:—

1. हिंदू धर्म में जटिलता (Complexity in the Hindu Religion)-ऋग्वैदिक काल में हिंदू धर्म बिल्कुल सादा था। परंतु कालांतर में यह धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसमें अंध-विश्वासों और कर्मकांडों का बोलबाला हो गया। यह धर्म केवल एक बाहरी दिखावा मात्र बनता जा रहा था। उपनिषदों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों का दर्शन साधारण लोगों की समझ से बाहर था। लोग इस तरह के धर्म से तंग आ चुके थे। वे एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जो अंध-विश्वासों से रहित हो और उनको सादा जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दे सके। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० सतीश के० कपूर के शब्दों में,
“हिंदू समाज ने अपना प्राचीन गौरव खो दिया था और यह अनगिनत कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों से ग्रस्त था।”1

2. खर्चीला धर्म (Expensive Religion)-आरंभ में हिंदू धर्म अपनी सादगी के कारण लोगों में अत्यंत प्रिय था। उत्तर वैदिक काल के पश्चात् इसकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया। यह अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसका कारण यह था कि अब हिंदू धर्म में यज्ञों और बलियों पर अधिक जोर दिया जाने लगा था। ये यज्ञ कईकई वर्षों तक चलते रहते थे। इन यज्ञों पर भारी खर्च आता था। ब्राह्मणों को भी भारी दान देना पड़ता थ। इन यज्ञों के अतिरिक्त अनेक ऐसे रीति-रिवाज प्रचलित थे, जिनमें ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर भी लोगों को काफी धन खर्च करना पड़ता था। इस तरह के खर्च लोगों की पहुँच से बाहर थे। परिणामस्वरूप वे इस धर्म के विरुद्ध हो गए।

3. ब्राह्मणों का नैतिक पतन (Moral Degeneration of the Brahmanas)-वैदिक काल में ब्राह्मणों का जीवन बहुत पवित्र और आदर्शपूर्ण था। समय के साथ-साथ उनका नैतिक पतन होना शुरू हो गया। वे भ्रष्टाचारी, लालची तथा धोखेबाज़ बन गए थे। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साधारण लोगों को किसी न किसी बहाने मूर्ख बना कर उनसे अधिक धन बटोरने में लगे रहते थे। इसके अतिरिक्त अब उन्होंने भोग-विलासी जीवन व्यतीत करना आरंभ कर दिया था। इन्हीं कारणों से लोग समाज में ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे।

4. जाति-प्रथा (Caste System)-छठी शताब्दी ई० पू० तक भारतीय समाज में जाति-प्रथा ने कठोर रूप धारण कर लिया था। ऊँची जातियों के लोग जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करते थे। वे उनकी परछाईं मात्र पड़ जाने से स्वयं को अपवित्र समझने लगते थे। शूद्रों को मंदिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने आदि की आज्ञा नहीं थी। ऐसी परिस्थिति से तंग आकर शूद्र किसी अन्य धर्म के पक्ष में हिंदू धर्म छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

5. कठिन भाषा (Difficult Language)-संस्कृत भाषा के कारण भी इस युग के लोगों में बेचैनी बढ़ गई थी। इस भाषा को बहुत पवित्र माना जाता था, परंतु कठिन होने के कारण यह साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे-वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे। साधारण लोग इन धर्मशास्त्रों को पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठा कर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरू कर दी। अतः धर्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जिसके सिद्धांत जन-साधारण की भाषा में हों।

6. जादू-टोनों में विश्वास (Belief in Charms and Spells)-छठी शताब्दी ई० पू० में लोग बहुत अंधविश्वासी हो गए थे। वे भूत-प्रेतों तथा जादू-टोनों में अधिक विश्वास करने लगे थे। उनका विचार था कि जादूटोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। जागरूक व्यक्ति समाज को ऐसे अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी नए धर्म की राह देखने लगे।

7. महापुरुषों का जन्म (Birth of Great Personalities)-छठी शताब्दी ई० पू० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। उन्होंने अंधकार में भटकं रही मानवता को एक नया मार्ग दिखाया। इनमें महावीर तथा महात्मा बुद्ध के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी सरल शिक्षाओं से प्रभावित होकर बहु-संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गए थे। इन्होंने बाद में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का उल्लेख करते हुए बी० पी० शाह
और के० एस० बहेरा लिखते हैं,
“वास्तव में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के उदय ने लोगों में एक नया उत्साह भर दिया और उनके सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया।”2

  1. “ The Hindu society had lost its splendour and was plagued with multifarious rituals and superstitions.” Dr. Satish K. Kapoor, The Legacy of Buddha (Chandigarh: The Tribune : April 4, 1977) p. 5.
  2. “In fact, birth of Jainism and Buddhism gave a new impetus to the people and significantly moulded social and religious life.” B.P. Saha and K.S. Behera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p. 107.

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म के संस्थापक के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the life of founder of Buddhism ?)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Lord Buddha.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध धर्म के प्रारंभ के बारे प्रकाश डालें।
(Throw light on the life of Mahatma Buddha and the origin of Buddhism.)
उत्तर-
Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म 1
LORD BUDDHA

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parents)-महात्मा बुद्ध का जन्म न केवल भारत अपितु समस्त संसार के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी। उनकी जन्म तिथि के संबंध में इतिहासकारों में काफी मतभेद प्रचलित रहे। अधिकाँश इतिहासकार 566 ई०पू० को महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि स्वीकार करते हैं। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था। शुद्धोदन क्षत्रिय वंश से संबंधित था तथा वह नेपाल की तराई में स्थित एक छोटे से गणराज्य का शासक था। इस गणराज्य की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था। शुद्धोदन की दो रानियाँ थीं। इनके नाम महामाया अथवा महादेवी एवं प्रजापति गौतमी थे। ये दोनों बहनें थीं तथा कोलिय गणराज्य की राजकुमारियाँ थीं। महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम महामाया था।
महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक नाम सिद्धार्थ था। इस समय राज्य ज्योतिषी आसित ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो संसार का एक महान् सम्राट् बनेगा या एक महान् धार्मिक नेता। दुर्भाग्यवश सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद उसकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति गौतमी ने किया। इस कारण सिद्धार्थ को गौतम भी कहा जाने लगा।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-सिद्धार्थ का पालन-पोषण बहुत लाड-प्यार से हुआ था। उन्हें विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के उचित प्रबंध किए गए। बाल्यावस्था में ही सिद्धार्थ चिंतनशील एवं कोमल स्वभाव के थे। वह बहुधा एकांत में रहना पसंद करते थे। यह देखकर उनके पिता को चिंता हुई। वह सिद्धार्थ का ध्यान आध्यात्मिक विचारों से हटाना चाहते थे ताकि उसका पुत्र एक महान् सम्राट बने। इस उद्देश्य से सिद्धार्थ के भोग-विलास के लिए राजमहल में यथासंभव प्रबंध किए गए। किंतु इन सब राजसी सुखों का सिद्धार्थ के मन पर कोई प्रभाव न पड़ा। जब सिद्धार्थ की आयु 16 वर्ष की हुई तो उनका विवाह एक अति सुंदर राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया। कुछ समय के पश्चात् उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल (बंधन) रखा गया। गृहस्थ जीवन भी सिद्धार्थ को सांसारिक कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर सका।

3. चार महान् दृश्य तथा महान् त्याग (Four Major Sights and Great Renunciation)-यद्यपि सिद्धार्थ को अति सुंदर महलों में रखा गया था किंतु उनका मन बाहरी संसार को देखने के लिए व्याकुल था। एक दिन वे अपने सारथी चन्न को लेकर राजमहल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। मानव जीवन के इन विभिन्न दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा। उन्होंने यह जान लिया कि संसार दुःखों का घर है। अत: सिद्धार्थ ने गृह-त्याग का निश्चय किया तथा एक रात अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोते हुए छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महान् स्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी।

4. ज्ञान की प्राप्ति (Enlightenment)-गृह त्याग करने के पश्चात् सिद्धार्थ ने सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न.हुई। अत: सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाड़ियों को लांघ अंत गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छ: वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका । वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। अतः सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथा तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

5. धर्म प्रचार (Religious Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने पीड़ित मानवता के उद्धार के लिए अपने ज्ञान का प्रचार करने का संकल्प लिया। वह सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुँचे । यहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश अपने उन पाँच साथियों को दिया जो गया में उनका साथ छोड़ गए थे। ये सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। शीघ्र ही महात्मा बुद्ध का यश चारों ओर फैलने लगा तथा उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का संगठित ढंग से प्रचार करने के उद्देश्य से मगध में बौद्ध संघ की स्थापना की । महात्मा बुद्ध ने 45 वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर जाकर अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके सरल उपदेशों का लोगों के मनों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बुद्ध के अनुयायी बनते चले गए। महात्मा बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायियों में मगध के शासक बिंबिसार तथा उसका पुत्र अजातशत्रु, कोशल का शासक प्रसेनजित, उसकी रानी मल्लिका तथा वहाँ का प्रसिद्ध सेठ अनाथपिंडिक, मल्ल गणराज्य का शासक भद्रिक तथा वहाँ का प्रसिद्ध ब्राह्मण आनंद, कौशांबी का शासक उदयन, वैशाली की प्रसिद्ध वेश्या आम्रपाली तथा कपिलवस्तु के शासक शुद्धोदन (बुद्ध के पिता), उसकी रानी प्रजापती गौतमी, महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा तथा उनके पुत्र राहुल के नाम उल्लेखनीय हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने परम शिष्य आनंद के आग्रह पर स्त्रियों को भी बौद्ध संघ में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दी।

6. महापरिनिर्वाण ( Mahaparnirvana)-महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा भटकी हुई मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। अपने जीवन के अंतिम काल में जब वह पावा पहुंचे तो उन्होंने वहां एक स्वर्णकार के घर भोजन किया। इसके पश्चात् उन्हें पेचिश हो गया। यहां से महात्मा बुद्ध कुशीनगर (मल्ल गणराज्य की राजधानी) पहुँचे। यहाँ 80 वर्ष की आयु में 486 ई० पू० में वैशाख की पूर्णिमा को अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the basic teachings of Lord Buddha.)
अथवा
बौद्ध धर्म की नैतिक शिक्षाओं के बारे चर्चा करें।
(Discuss the Ethical teachings of Buddhism.)“
अथवा
बौद्ध मत की मूल शिक्षाएँ बताएँ।
(Explain the basic teachings of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ क्या हैं ?
(What are the main teachings of Buddhism ?)
अथवा
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the teachings of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उन्होंने लोगों को सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने लोगों को यह बताया कि संसार दुःखों का घर है तथा केवल अष्ट मार्ग पर चल कर ही कोई व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की प्रचलित भाषा पाली में किया। उन्होंने किसी जटिल दर्शन का प्रचार नहीं किया। यही कारण था कि उनकी शिक्षाओं ने लोगों के मनों पर जादुई प्रभाव डाला तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए।

1. चार महान् सत्य (Four Noble Truths)-महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का सार चार महान् सत्य थे। इन्हें आर्य सत्य भी कहा जाता है क्योंकि यह सच्चाई पर आधारित हैं। ये चार महान् सत्य अग्र हैं—

  • संसार दुःखों से भरा हुआ है (World is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रथम सत्य यह है कि संसार दुःखों से भरा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव के जीवन में दुःख हैं। जन्म, बीमारी, वृद्धावस्था, अमीरी, गरीबी, अधिक संतान, नि:संतान तथा मृत्यु आदि सभी दुःख का कारण हैं।
  • दुःखों का कारण है (There is a cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध का दूसरा सत्य यह है कि दुःखों का कारण है। यह कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं। इन इच्छाओं के कारण मनुष्य आवागमन के चक्कर में भटकता रहता है।
  • दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)- महात्मा बुद्ध का तीसरा सत्य है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। यह अंत इच्छाओं का त्याग करने से हो सकता है।
  • दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध का चतुर्थ सत्य यह है कि दुःखों का अंत करने का केवल एक मार्ग है। इस मार्ग को अष्ट मार्ग अथवा मध्य मार्ग कहा जाता है। इस मार्ग पर चल कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। प्रसिद्ध विद्वान् जे० पी० सुधा के शब्दों में,

” महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचलित चार महान् सत्य उसकी शिक्षाओं का सार हैं। ये मानव जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं के बारे में उसके (बुद्ध) गहन् तथा दृढ़ विश्वास को बताते हैं।”3

3. “ The Four Noble Truths expounded by the Master constitute the core of his teachings. They contain his deepest and most considered convictions about human life and its problems.” J. P. Suda, Religions in India (New Delhi : 1978)p. 82.

2. अष्ट मार्ग (Eightfold Path)- महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है क्योंकि यह कठोर तप तथा ऐश्वर्य के मध्य का मार्ग था। अष्ट मार्ग के सिद्धांत निम्नलिखित थे—

  • सत्य कर्म (Right Action)–मनुष्य के कर्म शुद्ध होने चाहिएँ। उसे चोरी, ऐश्वर्य तथा जीव हत्या से दूर रहना चाहिए। उसे समस्त मानवता से प्रेम करना चाहिए।
  • सत्य विचार (Right Thought)-सभी मनुष्यों के विचार सत्य होने चाहिएँ। उन्हें सांसारिक बुराइयों तथा व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों से दूर रहना चाहिए।
  • सत्य विश्वास (Right Belief)-मनुष्य को यह सच्चा विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का त्याग करने से दुःखों का अंत हो सकता है। उन्हें अष्ट मार्ग से भटकना नहीं चाहिए।
  • सत्य रहन-सहन (Right Living)-सभी मनुष्यों का रहन-सहन सत्य होना चाहिए। उन्हें किसी से हेरा-फेरी नहीं करनी चाहिए।
  • सत्य वचन (Right Speech)-मनुष्य के वचन पवित्र तथा मृदु होने चाहिएँ। उसे किसी की निंदा अथवा चुगली नहीं करनी चाहिए तथा सदा सत्य बोलना चाहिए।
  • सत्य प्रयत्न (Right Efforts)- मनुष्य को बुरे कर्मों के दमन तथा दूसरों के कल्याण हेतु सत्य प्रयत्न करने चाहिएँ।
  • सत्य ध्यान (Right Recollection)-मनुष्य को अपना ध्यान पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।
  • सत्य समाधि (Right Meditation)- मनुष्य को बुराइयों का ध्यान छोड़कर सत्य समाधि में लीन होना चाहिए। डॉ० एस० बी० शास्त्री के अनुसार,

“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध शिक्षाओं का निष्कर्ष है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर, सकता है।”4

4. “This noble eightfold path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S. B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

3. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)-महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जैसे वह कार्य करता है. वैसा ही वह फल भोगता है। हमें पूर्व कर्मों का फल इस जन्म में मिला है तथा वर्तमान कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। जिस प्रकार मनुष्य की परछाईं सदैव उसके साथ रहती है ठीक उसी प्रकार कर्म मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते । महात्मा बुद्ध का कथन था, “व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम से न तो आकाश में, न समुद्र में तथा न ही किसी पर्वत की गुफा में बच सकता है।”
4. पुनर्जन्म में विश्वास (Belief in Rebirth)~महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था कि मनुष्य अपने कर्मों के कारण पुनः जन्म लेता रहता है। पुनर्जन्म का यह प्रवाह तब तक निरंतर चलता रहता है जब तक मनुष्य की तृष्णा तथा वासना समाप्त नहीं हो जाती। जिस प्रकार तेल तथा बत्ती के जल जाने से दीपक अपने आप शांत हो जाता है उसी प्रकार वासना के अंत से मनुष्य कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है तथा उसे परम शांति प्राप्त हो जाती है।
5. अहिंसा (Ahimsa)-महात्मा बुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य को सभी जीवों अर्थात् मनुष्यों, पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं से प्रेम तथा सहानुभूति रखनी चाहिए। वह जीव हत्या तो दूर, उन्हें सताना भी पाप समझते थे। इसलिए उन्होंने जीव हत्या करने वालों के विरुद्ध प्रचार किया।
6. तीन लक्षण (Three Marks)- महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में एक तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है, ये तीन लक्षण हैं—

  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थाई नहीं (अनित) हैं ।
  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं।

यह हमारे राजाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि ( अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होगा। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

7. पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  • छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  • मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  • झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  • नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  • किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  • समय पर भोजन खाएं
  • नाच-गानों आदि से दूर रहें
  • नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  • हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  • सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

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8. चार असीम सद्गुण (Four Unlimited Virtues)-महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं । मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है । यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से इर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

9. परस्पर भ्रातृ-भाव (Universal Brotherhood)-महात्मा बुद्ध ने लोगों को परस्पर भातृ-भाव का उपदेश दिया। वह चाहते थे कि लोग परस्पर झगड़ों को छोड़कर प्रेमपूर्वक रहें। उनका विचार था कि संसार में घृणा का अंत प्रेम से किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक वर्ण तथा जाति के लोगों को सम्मिलित करके समाज में प्रचलित ऊँच-नीच की भावना को पर्याप्त सीमा तक दूर किया। महात्मा बुद्ध ने दु:खी तथा रोगी व्यक्तियों की अपने हाथों सेवा करके लोगों के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत की।

10. यज्ञों तथा बलियों में अविश्वास (Disbelief in Yajnas and Sacrifices)- उस समय हिंदू धर्म में अनेक अंधविश्वास प्रचलित थे। वे मुक्ति प्राप्त करने के लिए यज्ञों तथा बलियों पर बहुत बल देते थे। महात्मा बुद्ध ने इन अंधविश्वासों को ढोंग मात्र बताया। उसका कथन था कि यज्ञों के साथ किसी व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदला जा सकता तथा बलियाँ देने से मनुष्य अपने पापों में अधिक वृद्धि कर लेता है। अतः इनसे किसी देवी-देवता को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।

11. वेदों तथा संस्कृत में अविश्वास (Disbelief in Vedas and Sanskrit)-महात्मा बुद्ध ने वेदों की पवित्रता को स्वीकार न किया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि धर्म ग्रंथों को केवल संस्कृत भाषा में पढ़ने से ही फल की प्राप्ति होती है। उन्होंने अपना प्रचार जन-भाषा पाली में किया।

12. जाति प्रथा में अविश्वास (Disbelief in Caste System)-महात्मा बुद्ध ने हिंदू समाज में व्याप्त जाति प्रथा का कड़े शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार छोटा अथवा बड़ा हो सकता है न कि जन्म से। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक जाति के लोगों को सम्मिलित किया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “सभी देशों में जाओ और धर्म के संदेश प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाओ और कहो कि इस धर्म में छोटे-बड़े और धनवान् तथा निर्धन का कोई प्रश्न नहीं। बौद्ध धर्म सभी जातियों के लिए खुला है। सभी जातियों के लोग इसमें इसी प्रकार मिल सकते हैं जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं।”

13. तपस्या में अविश्वास (Disbelief in Penance)-महात्मा बुद्ध का कठोर तपस्या में विश्वास नहीं था। उनके अनुसार व्यर्थ ही भूखा-प्यासा रह कर शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने स्वयं भी 6 वर्ष तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया था परंतु कुछ प्राप्ति न हुई। वह समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए अष्ट मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।

14. ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)-महात्मा बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं था। उनका कथन था कि इस संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति के द्वारा नहीं की गई है। परंतु वह यह अवश्य मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध ईश्वर संबंधी किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि जिन विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त प्रमाण न हों उनके समाधान की चेष्टा करना व्यर्थ है।

15. निर्वाण (Nirvana) महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद तथा शाँति की प्राप्ति हो जाती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदैव मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। वास्तव में निर्वाण वह अवस्था है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो इस सच्चाई का अनुभव करते हैं वे इस संबंध में बात नहीं करते हैं तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मों में जहाँ निर्वाण मृत्यु के उपरांत प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं ने अंधकार में भटक रही मानवता के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य किया। अंत में हम डॉ० बी० जिनानंदा के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वास्तव में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं एक ओर प्रेम और दूसरी ओर तर्क पर आधारित थीं।”5

5. “In fact, the Buddha’s teachings were based on love on the one hand and on logic on the other.” Dr. B. Jinananda, Buddhism (Patiala : 1969) p. 86.

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के जीवन तथा शिक्षाओं का वर्णन करें।
(Describe the life and teachings of Mahatma Buddha.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं की चर्चा करें।
(Discuss the life and teachings of Mahatma Buddha.)
उत्तर-

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parents)-महात्मा बुद्ध का जन्म न केवल भारत अपितु समस्त संसार के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी। उनकी जन्म तिथि के संबंध में इतिहासकारों में काफी मतभेद प्रचलित रहे। अधिकाँश इतिहासकार 566 ई०पू० को महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि स्वीकार करते हैं। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था। शुद्धोदन क्षत्रिय वंश से संबंधित था तथा वह नेपाल की तराई में स्थित एक छोटे से गणराज्य का शासक था। इस गणराज्य की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था। शुद्धोदन की दो रानियाँ थीं। इनके नाम महामाया अथवा महादेवी एवं प्रजापति गौतमी थे। ये दोनों बहनें थीं तथा कोलिय गणराज्य की राजकुमारियाँ थीं। महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम महामाया था।

महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक नाम सिद्धार्थ था। इस समय राज्य ज्योतिषी आसित ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो संसार का एक महान् सम्राट् बनेगा या एक महान् धार्मिक नेता। दुर्भाग्यवश सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद उसकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति गौतमी ने किया। इस कारण सिद्धार्थ को गौतम भी कहा जाने लगा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-सिद्धार्थ का पालन-पोषण बहुत लाड-प्यार से हुआ था। उन्हें विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के उचित प्रबंध किए गए। बाल्यावस्था में ही सिद्धार्थ चिंतनशील एवं कोमल स्वभाव के थे। वह बहुधा एकांत में रहना पसंद करते थे। यह देखकर उनके पिता को चिंता हुई। वह सिद्धार्थ का ध्यान आध्यात्मिक विचारों से हटाना चाहते थे ताकि उसका पुत्र एक महान् सम्राट बने। इस उद्देश्य से सिद्धार्थ के भोग-विलास के लिए राजमहल में यथासंभव प्रबंध किए गए। किंतु इन सब राजसी सुखों का सिद्धार्थ के मन पर कोई प्रभाव न पड़ा। जब सिद्धार्थ की आयु 16 वर्ष की हुई तो उनका विवाह एक अति सुंदर राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया। कुछ समय के पश्चात् उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल (बंधन) रखा गया। गृहस्थ जीवन भी सिद्धार्थ को सांसारिक कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर सका।

3. चार महान् दृश्य तथा महान् त्याग (Four Major Sights and Great Renunciation)-यद्यपि सिद्धार्थ को अति सुंदर महलों में रखा गया था किंतु उनका मन बाहरी संसार को देखने के लिए व्याकुल था। एक दिन वे अपने सारथी चन्न को लेकर राजमहल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। मानव जीवन के इन विभिन्न दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा। उन्होंने यह जान लिया कि संसार दुःखों का घर है। अत: सिद्धार्थ ने गृह-त्याग का निश्चय किया तथा एक रात अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोते हुए छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महान् स्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी।

4. ज्ञान की प्राप्ति (Enlightenment)-गृह त्याग करने के पश्चात् सिद्धार्थ ने सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न.हुई। अत: सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाड़ियों को लांघ अंत गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छ: वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका । वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। अतः सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथा तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

5. धर्म प्रचार (Religious Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने पीड़ित मानवता के उद्धार के लिए अपने ज्ञान का प्रचार करने का संकल्प लिया। वह सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुँचे । यहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश अपने उन पाँच साथियों को दिया जो गया में उनका साथ छोड़ गए थे। ये सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। शीघ्र ही महात्मा बुद्ध का यश चारों ओर फैलने लगा तथा उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का संगठित ढंग से प्रचार करने के उद्देश्य से मगध में बौद्ध संघ की स्थापना की । महात्मा बुद्ध ने 45 वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर जाकर अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके सरल उपदेशों का लोगों के मनों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बुद्ध के अनुयायी बनते चले गए। महात्मा बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायियों में मगध के शासक बिंबिसार तथा उसका पुत्र अजातशत्रु, कोशल का शासक प्रसेनजित, उसकी रानी मल्लिका तथा वहाँ का प्रसिद्ध सेठ अनाथपिंडिक, मल्ल गणराज्य का शासक भद्रिक तथा वहाँ का प्रसिद्ध ब्राह्मण आनंद, कौशांबी का शासक उदयन, वैशाली की प्रसिद्ध वेश्या आम्रपाली तथा कपिलवस्तु के शासक शुद्धोदन (बुद्ध के पिता), उसकी रानी प्रजापती गौतमी, महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा तथा उनके पुत्र राहुल के नाम उल्लेखनीय हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने परम शिष्य आनंद के आग्रह पर स्त्रियों को भी बौद्ध संघ में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दी।

6. महापरिनिर्वाण ( Mahaparnirvana)-महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा भटकी हुई मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। अपने जीवन के अंतिम काल में जब वह पावा पहुंचे तो उन्होंने वहां एक स्वर्णकार के घर भोजन किया। इसके पश्चात् उन्हें पेचिश हो गया। यहां से महात्मा बुद्ध कुशीनगर (मल्ल गणराज्य की राजधानी) पहुँचे। यहाँ 80 वर्ष की आयु में 486 ई० पू० में वैशाख की पूर्णिमा को अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।

महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उन्होंने लोगों को सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने लोगों को यह बताया कि संसार दुःखों का घर है तथा केवल अष्ट मार्ग पर चल कर ही कोई व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की प्रचलित भाषा पाली में किया। उन्होंने किसी जटिल दर्शन का प्रचार नहीं किया। यही कारण था कि उनकी शिक्षाओं ने लोगों के मनों पर जादुई प्रभाव डाला तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

1. चार महान् सत्य (Four Noble Truths)-महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का सार चार महान् सत्य थे। इन्हें आर्य सत्य भी कहा जाता है क्योंकि यह सच्चाई पर आधारित हैं। ये चार महान् सत्य अग्र हैं—

  1. संसार दुःखों से भरा हुआ है (World is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रथम सत्य यह है कि संसार दुःखों से भरा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव के जीवन में दुःख हैं। जन्म, बीमारी, वृद्धावस्था, अमीरी, गरीबी, अधिक संतान, नि:संतान तथा मृत्यु आदि सभी दुःख का कारण हैं।
  2. दुःखों का कारण है (There is a cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध का दूसरा सत्य यह है कि दुःखों का कारण है। यह कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं। इन इच्छाओं के कारण मनुष्य आवागमन के चक्कर में भटकता रहता है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)- महात्मा बुद्ध का तीसरा सत्य है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। यह अंत इच्छाओं का त्याग करने से हो सकता है।
  4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध का चतुर्थ सत्य यह है कि दुःखों का अंत करने का केवल एक मार्ग है। इस मार्ग को अष्ट मार्ग अथवा मध्य मार्ग कहा जाता है। इस मार्ग पर चल कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। प्रसिद्ध विद्वान् जे० पी० सुधा के शब्दों में,

” महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचलित चार महान् सत्य उसकी शिक्षाओं का सार हैं। ये मानव जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं के बारे में उसके (बुद्ध) गहन् तथा दृढ़ विश्वास को बताते हैं।”3

3. “ The Four Noble Truths expounded by the Master constitute the core of his teachings. They contain his deepest and most considered convictions about human life and its problems.” J. P. Suda, Religions in India (New Delhi : 1978)p. 82.

2. अष्ट मार्ग (Eightfold Path)- महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है क्योंकि यह कठोर तप तथा ऐश्वर्य के मध्य का मार्ग था। अष्ट मार्ग के सिद्धांत निम्नलिखित थे—

  1. सत्य कर्म (Right Action)–मनुष्य के कर्म शुद्ध होने चाहिएँ। उसे चोरी, ऐश्वर्य तथा जीव हत्या से दूर रहना चाहिए। उसे समस्त मानवता से प्रेम करना चाहिए।
  2. सत्य विचार (Right Thought)-सभी मनुष्यों के विचार सत्य होने चाहिएँ। उन्हें सांसारिक बुराइयों तथा व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों से दूर रहना चाहिए।
  3. सत्य विश्वास (Right Belief)-मनुष्य को यह सच्चा विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का त्याग करने से दुःखों का अंत हो सकता है। उन्हें अष्ट मार्ग से भटकना नहीं चाहिए।
  4. सत्य रहन-सहन (Right Living)-सभी मनुष्यों का रहन-सहन सत्य होना चाहिए। उन्हें किसी से हेरा-फेरी नहीं करनी चाहिए।
  5. सत्य वचन (Right Speech)-मनुष्य के वचन पवित्र तथा मृदु होने चाहिएँ। उसे किसी की निंदा अथवा चुगली नहीं करनी चाहिए तथा सदा सत्य बोलना चाहिए।
  6. सत्य प्रयत्न (Right Efforts)- मनुष्य को बुरे कर्मों के दमन तथा दूसरों के कल्याण हेतु सत्य प्रयत्न करने चाहिएँ।
  7. सत्य ध्यान (Right Recollection)-मनुष्य को अपना ध्यान पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।
  8. सत्य समाधि (Right Meditation)- मनुष्य को बुराइयों का ध्यान छोड़कर सत्य समाधि में लीन होना चाहिए। डॉ० एस० बी० शास्त्री के अनुसार,

“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध शिक्षाओं का निष्कर्ष है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर, सकता है।”4

4. “This noble eightfold path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S. B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

3. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)-महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जैसे वह कार्य करता है. वैसा ही वह फल भोगता है। हमें पूर्व कर्मों का फल इस जन्म में मिला है तथा वर्तमान कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। जिस प्रकार मनुष्य की परछाईं सदैव उसके साथ रहती है ठीक उसी प्रकार कर्म मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते । महात्मा बुद्ध का कथन था, “व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम से न तो आकाश में, न समुद्र में तथा न ही किसी पर्वत की गुफा में बच सकता है।”

4. पुनर्जन्म में विश्वास (Belief in Rebirth)~महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था कि मनुष्य अपने कर्मों के कारण पुनः जन्म लेता रहता है। पुनर्जन्म का यह प्रवाह तब तक निरंतर चलता रहता है जब तक मनुष्य की तृष्णा तथा वासना समाप्त नहीं हो जाती। जिस प्रकार तेल तथा बत्ती के जल जाने से दीपक अपने आप शांत हो जाता है उसी प्रकार वासना के अंत से मनुष्य कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है तथा उसे परम शांति प्राप्त हो जाती है।

5. अहिंसा (Ahimsa)-महात्मा बुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य को सभी जीवों अर्थात् मनुष्यों, पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं से प्रेम तथा सहानुभूति रखनी चाहिए। वह जीव हत्या तो दूर, उन्हें सताना भी पाप समझते थे। इसलिए उन्होंने जीव हत्या करने वालों के विरुद्ध प्रचार किया।

6. तीन लक्षण (Three Marks)- महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में एक तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है, ये तीन लक्षण हैं—

  1. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थाई नहीं (अनित) हैं ।
  2. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  3. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं।

यह हमारे राजाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि ( अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होगा। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

7. पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  1. समय पर भोजन खाएं
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

8. चार असीम सद्गुण (Four Unlimited Virtues)-महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं । मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है । यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से इर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

9. परस्पर भ्रातृ-भाव (Universal Brotherhood)-महात्मा बुद्ध ने लोगों को परस्पर भातृ-भाव का उपदेश दिया। वह चाहते थे कि लोग परस्पर झगड़ों को छोड़कर प्रेमपूर्वक रहें। उनका विचार था कि संसार में घृणा का अंत प्रेम से किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक वर्ण तथा जाति के लोगों को सम्मिलित करके समाज में प्रचलित ऊँच-नीच की भावना को पर्याप्त सीमा तक दूर किया। महात्मा बुद्ध ने दु:खी तथा रोगी व्यक्तियों की अपने हाथों सेवा करके लोगों के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत की।

10. यज्ञों तथा बलियों में अविश्वास (Disbelief in Yajnas and Sacrifices)- उस समय हिंदू धर्म में अनेक अंधविश्वास प्रचलित थे। वे मुक्ति प्राप्त करने के लिए यज्ञों तथा बलियों पर बहुत बल देते थे। महात्मा बुद्ध ने इन अंधविश्वासों को ढोंग मात्र बताया। उसका कथन था कि यज्ञों के साथ किसी व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदला जा सकता तथा बलियाँ देने से मनुष्य अपने पापों में अधिक वृद्धि कर लेता है। अतः इनसे किसी देवी-देवता को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।

11. वेदों तथा संस्कृत में अविश्वास (Disbelief in Vedas and Sanskrit)-महात्मा बुद्ध ने वेदों की पवित्रता को स्वीकार न किया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि धर्म ग्रंथों को केवल संस्कृत भाषा में पढ़ने से ही फल की प्राप्ति होती है। उन्होंने अपना प्रचार जन-भाषा पाली में किया।

12. जाति प्रथा में अविश्वास (Disbelief in Caste System)-महात्मा बुद्ध ने हिंदू समाज में व्याप्त जाति प्रथा का कड़े शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार छोटा अथवा बड़ा हो सकता है न कि जन्म से। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक जाति के लोगों को सम्मिलित किया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “सभी देशों में जाओ और धर्म के संदेश प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाओ और कहो कि इस धर्म में छोटे-बड़े और धनवान् तथा निर्धन का कोई प्रश्न नहीं। बौद्ध धर्म सभी जातियों के लिए खुला है। सभी जातियों के लोग इसमें इसी प्रकार मिल सकते हैं जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं।”

13. तपस्या में अविश्वास (Disbelief in Penance)-महात्मा बुद्ध का कठोर तपस्या में विश्वास नहीं था। उनके अनुसार व्यर्थ ही भूखा-प्यासा रह कर शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने स्वयं भी 6 वर्ष तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया था परंतु कुछ प्राप्ति न हुई। वह समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए अष्ट मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।

14. ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)-महात्मा बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं था। उनका कथन था कि इस संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति के द्वारा नहीं की गई है। परंतु वह यह अवश्य मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध ईश्वर संबंधी किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि जिन विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त प्रमाण न हों उनके समाधान की चेष्टा करना व्यर्थ है।

15. निर्वाण (Nirvana) महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद तथा शाँति की प्राप्ति हो जाती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदैव मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। वास्तव में निर्वाण वह अवस्था है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो इस सच्चाई का अनुभव करते हैं वे इस संबंध में बात नहीं करते हैं तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मों में जहाँ निर्वाण मृत्यु के उपरांत प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं ने अंधकार में भटक रही मानवता के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य किया। अंत में हम डॉ० बी० जिनानंदा के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वास्तव में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं एक ओर प्रेम और दूसरी ओर तर्क पर आधारित थीं।”5

5. “In fact, the Buddha’s teachings were based on love on the one hand and on logic on the other.” Dr. B. Jinananda, Buddhism (Patiala : 1969) p. 86.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
बौद्ध संघ की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ। (Explain the main features of the Buddhist Sangha.)
अथवा
बौद्ध संघ पर संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Buddhist Sangha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने संगठित ढंग से बौद्ध धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से बौद्ध संघ की स्थापना की। संघ से भाव बौद्ध भिक्षओं के संगठन से था। बौद्ध संघ देश के विभिन्न भागों में स्थापित किए गए थे। धीरे-धीरे ये संघ शक्तिशाली संस्था का रूप धारण कर गए तथा बौद्ध धर्म के प्रसार का प्रमुख केंद्र बन गए। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० आर० सी० मजूमदार के शब्दों में,
“विशेष धर्म के लोगों का संघ अथवा संगठन की कल्पना नयी न थी। गौतम बुद्ध के पूर्व और उनके समय में भी इस ढंग की अनेक संस्थाएँ थीं, किंतु बुद्ध को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने इन संस्थाओं को पूर्ण एवं व्यवस्थित रूप दिया।”6

6.” The idea of a Church, or a corporate body of men following a particular faith, was not certainly a new one and there were many organisations of this type at and before the time of Gautama Buddha. His credit, however, lies in the thorough and systematic character which he gave to these organisations,” Dr. R. C. Majumdar, Ancient India (Delhi : 1991) p. 163.

1. संघ की सदस्यता (Membership of the Sangha)-महात्मा बुद्ध के अनुयायी दो प्रकार के थे। इन्हें उपासक-उपासिकाएँ तथा भिक्षु-भिक्षुणियाँ कहा जाता था। उपासक तथा उपासिकाएं वे थीं जो गृहस्थ जीवन का पालन करते थे। भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ गृह त्याग कर संन्यास धारण करते थे। आरंभ में संघ प्रवेश की विधि बहत सरल थी। किंतु जब धीरे-धीरे संघ के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी एवं इसमें लोग प्रवेश पाने लगे जो अज्ञानी तथा अनुशासनहीन थे, जो जनता के दान से विलासमय जीवन व्यतीत करने के इच्छुक थे, जो डाकू, हत्यारे और ऋणी थे तथा जो राजा के दंड से बचना चाहते थे। उस समय ऐसी राजाज्ञा थी कि कोई भी अधिकारी किसी बौद्ध भिक्षु अथवा भिक्षुणी को हानि नहीं पहुँचायेगा। अत: महात्मा बुद्ध ने संघ में प्रवेश करने वाले सदस्यों के लिए कुछ योग्यताएँ निर्धारित कर दीं। इनके अनुसार अब संघ में प्रवेश पाने के लिए किसी भी स्त्री अथवा पुरुष के लिए कम-से-कम आयु 15 वर्ष निश्चित कर दी गई। उन्हें संघ का सदस्य बनने के लिए अपने माता-पिता अथवा अभिभावकों की स्वीकृति लेना आवश्यक था। अपराधी, दास तथा रोगी संघ के सदस्य नहीं बन सकते थे। संघ में किसी भी जाति का व्यक्ति प्रवेश पा सकता था।
संघ में प्रवेश करने वाले भिक्षु अथवा भिक्षुणी का सर्वप्रथम मुंडन किया जाता था तथा उसे पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे। इसके पश्चात् उसे यह शपथ ग्रहण करनी होती थी, “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” तत्पश्चात् उसे संघ के सदस्यों में से किसी एक को अपना गुरु धारण करना पड़ता था तथा 10 वर्षों तक उससे प्रशिक्षण लेना पड़ता था। ऐसे सदस्यों को ‘श्रमण’ कहा जाता था। यदि 10 वर्षों के पश्चात् उसकी योग्यता को स्वीकार कर लिया जाता तो उसे संघ का पूर्ण सदस्य मान लिया जाता तथा उसे भिक्षु अथवा भिक्षुणी की उपाधि प्रदान की जाती।

2. दस आदेश (Ten Commandments)-संघ सदस्यों को बड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। ये नियम थे—

  1. ब्रह्मचर्य का पालन करना।
  2. जीवों को कष्ट न देना।
  3. दूसरों की संपत्ति की इच्छा न करना।
  4. सदा सत्य बोलना।
  5. मादक पदार्थों का प्रयोग न करना।
  6. नृत्य-गान में भाग न लेना।
  7. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करना।
  8. गद्देदार बिस्तर पर न सोना।
  9. अपने पास धन न रखना तथा
  10. निश्चित समय को छोड़कर किसी अन्य अवसर पर भोजन न करना।

3. भिक्षुणियों के लिए विशेष नियम (Special rules for Nuns)-भिक्षुणियों के लिए बौद्ध संघ भिक्षुओं से पृथक् हुआ करते थे । अतः भिक्षुणियों के लिए कुछ अन्य नियम भी बनाए गए थे। ये नियम इस प्रकार थे—

  1. भिक्षुणियों को अपने कर्तव्यों को भली-भांति समझना चाहिएं।
  2. उन्हें 15 दिनों में एक बार भिक्षा लानी चाहिए।
  3. उन स्थानों पर जहाँ भिक्षु हों उन्हें वर्षाकाल में निवास नहीं करना चाहिए।
  4. उन्हें भिक्षुकों से पृथक् रहना चाहिए ताकि भिक्षु न तो उन्हें तथा न उनके कार्यों को देख सकें।
  5. वे भिक्षुणियों को कुमार्ग पर न डालें।
  6. वे पाप कर्मों तथा क्रोध आदि से मुक्त रहें।
  7. प्रत्येक पखवाड़े वे किसी भिक्षु के समक्ष अपने पापों को स्वीकार करें।
  8. प्रत्येक भिक्षुणी को चाहे वह वयोवृद्ध ही क्यों न हो नवीन भिक्षु के प्रति भी आदर प्रदर्शन करना चाहिए।

4. आवास (Residence)-बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ वर्षा काल के तीन माह को छोड़कर देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते रहते थे तथा लोगों को उपदेश देते थे। वर्षा के तीन माह वे एक स्थान पर निवास करते थे तथा अध्ययन का कार्य करते थे। उनके निवास स्थान आवास कहलाते थे। प्रत्येक आवास में अनेक विहार होते थे जहाँ भिक्षुभिक्षुणियों के लिए अलग कमरे होते थे। इन विहारों में जीवन सामूहिक था। प्रत्येक भिक्षु-भिक्षुणी को जो भी भिक्षा मिलती थी वह संघ के समस्त सदस्यों में वितरित की जाती थी। ये बौद्ध विहार धीरे-धीरे बौद्ध धर्म तथा शिक्षा प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र बन गए।

5. संघ का संविधान (Constitution of the Sangha)-प्रत्येक बौद्ध संघ लोकतंत्रीय प्रणाली पर आधारित था। इसके सभी सदस्यों के अधिकार समान थे। यहाँ कोई छोटा या बड़ा नहीं समझा जाता था। संघ में भिक्षुगण अपनी वरीयता के अनुसार आसन ग्रहण करते थे। संघ के अधिवेशन के लिए कम-से-कम 20 भिक्षुओं की उपस्थिति __ अनिवार्य थी। इस गणपूर्ति के बिना प्रत्येक अधिवेशन अवैध समझा जाता था। संघ में प्रत्येक विषय पर पूर्व दी गई सूचना के आधार पर प्रस्ताव प्रस्तुत किए. जाते थे। इसके पश्चात् प्रस्ताव पर वाद-विवाद होता था। जिस प्रस्ताव पर सदस्यों में मतभेद होता था वहां मतदान कराया जाता था। मतदान दो प्रकार का होता था-गुप्त तथा प्रत्यक्ष । यदि कोई भिक्षु अनुपस्थित होता था तो वह अपनी सहमति पहले दे जाता था। कभी-कभी कोई प्रस्ताव विशेष विचार के लिए किसी उप-समिति के सुपुर्द कर दिया जाता था। संघ के सभी निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते थे। प्रत्येक संघ की एक माह में दो बार बैठक अवश्य होती थी। इन बैठकों में धर्म के प्रचार के किए जा रहे प्रयासों तथा संघ के नियमों को भंग करने वाले भिक्षु-भिक्षुणियों को दंडित किया जाता था। प्रत्येक बौद्ध संघ में कुछ ऐसे विशेष अधिकारी होते थे जिन्हें संघ के सदस्य सर्वसम्मति से चुनते थे। ये अधिकारी भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए विहारों तथा उनके लिए भोजन आदि का प्रबंध करते थे। डॉ० अरुण भट्टाचार्जी के शब्दों में,
“अनुशासित संघ बौद्ध धर्म की अद्वितीय सफलता के स्तंभ थे।”7

6. संघ में फूट (Schism in Sangha)–बौद्ध संघों ने बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई थी। किंतु महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्षों के पश्चात् जब वैशाली में बौद्धों की दूसरी महासभा आयोजित की गई थी तो बौद्ध संघ में फूट पड़ गई। इससे बौद्ध धर्म में एकता न रही। प्रथम शताब्दी ई० में बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान अथवा महायान में बँट गया। बौद्ध संघ की इस फूट ने भारत में बौद्ध धर्म का पतन निश्चित कर दिया।

7. “The well disciplined Sanglia was the pillar of the success of Buddhism.” Dr. Arun Bhattacharjee, History of Ancient India (New Delhi : 1979) p. 122.

प्रश्न 6.
बौद्ध धर्म में संघ, निर्वाण एवं पंचशील के संबंध में जानकारी दें। (Write about Sangha, Nirvana and Panchsheel in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के संघ एवं पंचशील के बारे में जानकारी दें। (Write about Sangha and Panchsheel in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के निर्वाण के सिद्धांत संबंधी जानकारी दें।
(Write about the concept of Nirvana in Buddhism.)
उत्तर-
बौद्ध धर्म में संघ, निर्वाण तथा पंचशील नामक सिद्धांतों का विशेष महत्त्व है। बौद्ध धर्म के विकास में इन्होंने बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है :—
(क) बौद्ध संघ (Buddhist Sangha)
महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को संगठित करने के लिए बौद्ध संघ की स्थापना की थी। संघ से भाव बौद्ध भिक्षुओं के संगठन से था। धीरे-धीरे ये संघ एक शक्तिशाली संस्था का रूप धारण कर गए थे। प्रत्येक पुरुष अथवा स्त्री, जिसकी आयु 15 वर्ष से अधिक थी, बौद्ध संघ का सदस्य बन सकता था। अपराधियों, रोगियों तथा दासों को सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी। सदस्य बनने से पूर्व घर वालों से अनुमति लेना आवश्यक था। नए भिक्षु को संघ में प्रवेश के समय मुंडन करवा कर पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे और यह शपथ लेनी पड़ती थी “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूं, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” संघ के सदस्यों को बड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। ये नियम थे—

  1. ब्रह्मचर्य का पालन करना।
  2. जीवों को कष्ट न देना।
  3. दूसरों की संपत्ति की इच्छा न करना।
  4. सदा सत्य बोलना।
  5. मादक पदार्थों का प्रयोग न करना।
  6. नृत्य-गान में भाग न लेना।
  7. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करना ।
  8. गद्देदार बिस्तर पर न सोना
  9. अपने पास धन न रखना तथा
  10. निश्चित समय को छोड़कर किसी अन्य अवसर पर भोजन न करना।

संघ में सम्मिलित होने वाले भिक्षु तथा भिक्षुणी को दस वर्ष तक किसी भिक्षु से प्रशिक्षण लेना पड़ता था। इसमें सफल होने पर उन्हें संघ का सदस्य बना लिया जाता था। संघ के सभी सदस्यों को सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करना पड़ता था। वे अपना निर्वाह भिक्षा माँग कर करते थे। वर्षा ऋतु के तीन महीनों को छोड़ कर संघ के सदस्य सारा वर्ष विभिन्न स्थानों पर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए संघ की विशेष बैठकें बुलाई जाती थीं। इन बैठकों में सभी सदस्यों को भाग लेने की अनुमति थी। प्रत्येक बैठक में कम-से-कम दस सदस्यों का उपस्थित होना आवश्यक था। सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। इस संबंध में गुप्त मतदान करवाया जाता था। सदस्यों में मतभेद होने पर उस विषय का निर्णय इस उद्देश्य के लिए स्थापित उप-समितियों द्वारा किया जाता था। वास्तव में बौद्ध धर्म की प्रगति में इन बौद्ध संघों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ० एस० एन० सेन के अनुसार, “बौद्ध धर्म की अद्वितीय सफलता का कारण संगठित संघ थे।”8

8. “The phenomenal success of Buddhism was due to the organisation of the Sangha.” Dr. S.N. Sen, Ancient Indian History and Civilization (New Delhi : 1988) p. 67.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

(ख) निर्वाण (Nirvana)
महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करने से है। बौद्ध धर्म में निर्वाण संबंधी यह विचार दिया गया है कि यह न जीवन है तथा न मृत्यु। यह कोई स्वर्ग नहीं जहां देवते आनंदित हों। इसे शाँति एवं सदैव प्रसन्नता का स्रोत कहा गया है। यह सभी दुःखों, लालसाओं एवं इच्छाओं का अंत है। इसकी वास्तविकता पूरी तरह काल्पनिक है। इसका वर्णन संभव नहीं। निर्वाण की वास्तविकता तथा इसका अर्थ जानने के लिए उसकी प्राप्ति आवश्यक है। जो इस सच्चाई को जानते हैं वे इस संबंध में बातें नहीं करते तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जहाँ अन्य धर्मों में निर्वाण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है वहां बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में भी संभव है।

(ग) पंचशील (Panchsheel)
पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  1. समय पर भोजन खाएं
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

प्रश्न 7.
बौद्ध धर्म के प्रारंभिक वर्षों में बौद्ध संप्रदायों एवं समकालीन समाज पर विस्तृत नोट लिखिए।
(Write a detailed note on early Buddhist sects and society.)
उत्तर-
(क) प्रारंभिक बौद्ध संप्रदाय
(Early.Buddhist Sects) महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म 18 से भी अधिक संप्रदायों में विभाजित हो गया था। इनमें से अनेक संप्रदाय छोटे-छोटे थे तथा उनका कोई विशेष महत्त्व न था। बौद्ध धर्म के प्रमुख संप्रदायों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है:—

1. स्थविरवादी तथा महासंघिक (Sthaviravadins and Mahasanghika)-महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् 387 ई० पू० में वैशाली में आयोजित की गई दूसरी महासभा में बौद्ध संघ से संबंधित अपनाए गए 10 नियमों के कारण फूट पड़ गई। परिणामस्वरूप स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक अस्तित्व में आए। स्थविरवादी भिक्षु बौद्ध धर्म में चले आ रहे परंपरावादी नियमों के समर्थक थे। वे किसी प्रकार भी इन नियमों में परिवर्तन किए जाने के पक्ष में नहीं थे। महासंघिक नए नियम अपनाए जाने के पक्ष में थे। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक को सभा छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। शीघ्र ही स्थविरवादी 11 एवं महासंघिक 7 सम्प्रदायों में विभाजित हो गए।

2. हीनयान तथा महायान (Hinayana and Mahayana)-कनिष्क के शासन काल में प्रथम शताब्दी ई०. में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयाम से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान धर्म का प्रसार एशिया के दक्षिणी देशों भारत, श्रीलंका तथा बर्मा (म्यांमार) आदि देशों में हुआ। महायान धर्म का प्रसार एशिया के उत्तरी देशों चीन, जापान, नेपाल तथा तिब्बत आदि में हुआ। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे :—

  • हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  • हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  • हीनयान बोधिसत्वों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल अपने प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। कोई भी देवता निर्वाण प्राप्ति में उसकी सहायता नहीं कर सकता। महायान संप्रदाय बोधिसत्वों में पूर्ण विश्वास रखता था। बोधिसत्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  • हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जो कि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  • हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  • हीनयान संप्रदाय का हिंदू धर्म के साथ कोई संबंध न था, जबकि महायान संप्रदाय ने अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से हिंदू धर्म के अनेक सिद्धांतों को अपना लिया था।
  • हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अतः हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।
  • हीनयान संप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक, मिलिन्दपन्हो तथा महामंगलसूत्र आदि थे। महायान संप्रदाय के प्रमुख ग्रन्थ ललितविस्तार, बुद्धचरित तथा सौंदरानन्द आदि थे।

3. वज्रयान (Vajrayana)-8वीं शताब्दी में बंगाल तथा बिहार में बौद्ध धर्म का एक नया संप्रदाय अस्तित्व में आया। यह संप्रदाय जादू-टोनों तथा मंत्रों से जुड़ा हुआ था। इस संप्रदाय का विचार था कि जादू की शक्तियों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। इन जादुई शक्तियों को वज्र कहा जाता था। इसलिए इस संप्रदाय का नाम वज्रयान पड़ गया। इस संप्रदाय में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हो सकते थे। इस संप्रदाय में देवियों का महत्त्व बहुत बढ़ गया था। समझा जाता था कि इन देवियों द्वारा बोधिसत्व तक पहुँचा जा सकता है। इन देवियों को तारा कहा जाता था। ‘महानिर्वाण तंत्र’ वज्रयान की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक थी । वज्रयान की धार्मिक पद्धति को तांत्रिक भी कहते हैं । बिहार राज्य वज्रयान का सब से महत्त्वपूर्ण विहार विक्रमशिला में स्थित है। वज्रयान शाखा ने अपने अनुयायियों को मादक पदार्थों का सेवन करने, माँस भक्षण तथा स्त्री गमन की अनुमति देकर बौद्ध धर्म के पतन का डंका बजा दिया। एन० एन० घोष के अनुसार,
“बौद्ध धर्म के पतन का मुख्य कारण वज्रयान का अस्तित्व था जिसने नैतिकता का विनाश करके इसकी नींव को हिला कर रख दिया था।”9

9. “……..the chief cause of disappearance of Buddhism was the prevalence of Vajrayana which sapped its foundation by destroying all moral strength.” N. N. Ghosh, Early History of India (Allahabad : 1951) p. 65.

(ख) समाज
(Society) बौद्ध विचारधारा में एक आदर्श समाज की कल्पना की गई है। इस समाज के प्रमुख नियम ये हैं—

  1. समाज में सामाजिक समानता एवं धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना की गई थी। बौद्ध धर्म में जाति प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की गई है। बौद्ध धर्म के द्वार सभी धर्मों, जातियों एवं नस्लों के लिए खुले हैं।
  2. स्त्रियों को पुरुषों के समान दर्जा दिए जाने का प्रचार किया गया है।
  3. बुद्ध के लिए मन की पवित्रता तथा उच्च चरित्र, जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। उसने लोगों को झूठी गवाही न देने, झूठ न बोलने, किसी की चुगली न करने, नशीली वस्तुओं का प्रयोग न करने, चोरी न करने, अन्य पाप न करने तथा छोटे-से-छोटे जीव की भी हत्या न करने के लिए प्रेरित किया। महात्मा बुद्ध का कथन था कि,

“सौ वर्षों का वह जीवन भी तुच्छ है जिसमें परम सत्य की प्राप्ति नहीं होती, पर वह जिसे परम सत्य की प्राप्ति हो जाती है, उसके जीवन का एक दिन भी महान है।”
संक्षेप में यदि महात्मा बुद्ध के इन सिद्धांतों की सच्चे मन से पालना की जाए तो निस्संदेह हमारी यह पृथ्वी एक स्वर्ग का नमूना बन जाए।

प्रश्न 8.
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों बारे बताएँ।
(What do you know about the two main sects of Buddhism ?)
अथवा
हीनयान एवं महायान द्वारा प्रतिपादित विचार एवं विचारधारा कौन-सी है ? वर्णन करें।
(What thoughts and ideas are represented by Hinayana and Mahayana ? Discuss.)
अथवा
हीनयान एवं महायान से क्या भाव है ? दोनों के मध्य अंतर बताएं। (What is meant by Hinayana and Mahayana ? Distinguish between the two.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायाम तथा हीमयान संप्रदायों के बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you understand by Mahayana and Hinayana sects of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान संप्रदायों की मूल शिक्षाओं बारे बताएं। (Explain the basic teachings of Mahayana and Hinayana sects of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान संप्रदायों पर विस्तृत नोट लिखें। (Write a detailed note on the Buddhist sects named Mahayana and Hinayana.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायाम संप्रदाय के निकास तथा विकास के बारे में प्रकाश डालें।
(Throw light on the origin and growth of the Mahayana sect of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय की प्रगति के बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the development of Mahayana ? Discuss.)
उत्तर-
हीनयान तथा महायान (Hinayana and Mahayana)-कनिष्क के शासन काल में प्रथम शताब्दी ई०. में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयाम से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान धर्म का प्रसार एशिया के दक्षिणी देशों भारत, श्रीलंका तथा बर्मा (म्यांमार) आदि देशों में हुआ। महायान धर्म का प्रसार एशिया के उत्तरी देशों चीन, जापान, नेपाल तथा तिब्बत आदि में हुआ। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे :—

  1. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  2. हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  3. हीनयान बोधिसत्वों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल अपने प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। कोई भी देवता निर्वाण प्राप्ति में उसकी सहायता नहीं कर सकता। महायान संप्रदाय बोधिसत्वों में पूर्ण विश्वास रखता था। बोधिसत्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  4. हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जो कि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  5. हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  6. हीनयान संप्रदाय का हिंदू धर्म के साथ कोई संबंध न था, जबकि महायान संप्रदाय ने अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से हिंदू धर्म के अनेक सिद्धांतों को अपना लिया था।
  7. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अतः हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।
  8. हीनयान संप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक, मिलिन्दपन्हो तथा महामंगलसूत्र आदि थे। महायान संप्रदाय के प्रमुख ग्रन्थ ललितविस्तार, बुद्धचरित तथा सौंदरानन्द आदि थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 9.
प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों के बारे में संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the Early Buddhist scriptures.) –
अथवा
बौद्ध साहित्य के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about the Buddhist literature ? Explain.)
उत्तर–बौद्ध साहित्य बौद्ध धर्म की जानकारी के लिए हमारा बहुमूल्य स्रोत है। बौद्ध साहित्य यद्यपि अनेक भाषाओं में लिखा गया, किंतु अधिकतर साहित्य पालि एवं संस्कृत भाषाओं से संबंधित है। बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा से संबंधित साहित्य पालि भाषा में तथा महायान शाखा से संबंधित साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया।
(क) पालि भाषा में लिखा गया साहित्य
(Literature written in Pali)
बौद्ध धर्म से संबंधित प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे। प्रमुख बौद्ध ग्रंथों का संक्षिप्त ब्यौरा निम्न अनुसार है :—
1. त्रिपिटक (The Tripitakas)–त्रिपिटक बौद्ध धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इनके नाम विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटकों को प्रमुख स्थान प्राप्त है। पिटक का अर्थ है ‘टोकरी’ जिसमें इन ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था।—

(क) विनयपिटक (The Vinayapitaka)–विनयपिटक में बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियों के आचरण से संबंधित नियमों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसके तीन भाग हैं :

  1. सुत्तविभंग (The Suttavibhanga)—इसमें बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के लिए अपराधों की सूची तथा उनके प्रायश्चित दिए गए हैं। इन नियमों को पातिमोक्ख कहा जाता है।
  2. खंधक (The Khandhaka) खंधक दो भागों-महावग्ग एवं चुल्लवग्ग में विभाजित हैं। इनमें संघ के नियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त इनमें महात्मा बुद्ध से संबंधित अनेक कथाओं की चर्चा भी की गई है।
  3. परिवार (The Parivara)—यह विनयपिटक का अंतिम भाग है। यह प्रथम दो भागों का सारांश है तथा यह प्रश्न-उत्तर के रूप में लिखी गई है।

(ख) सुत्तपिटक (The Suttapitaka)—यह त्रिपिटकों का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है। यह पांच निकायों अथवा संग्रहों में विभक्त है—

  1. दीघ निकाय (The Digha Nikaya)—इसमें 34 लंबे सूत्र हैं जो स्वयं अपने में पूर्ण हैं । इनमें महात्मा बुद्ध के विभिन्न प्रवचनों का ब्यौरा दिया गया है।
  2. मज्झिम निकाय (The Majjhima Nikaya)—इसमें 152 सूत्र हैं जो दीघ निकाय की अपेक्षा छोटे हैं। इनमें महात्मा बुद्ध के वार्तालापों का वर्णन दिया गया है। इनके अन्त में उपदेश दिए गए हैं।
  3. संयुत निकाय (The Sanyutta Nikaya)—इसमें 7762 सूत्र हैं। इनमें आध्यात्मिक विषयों की चर्चा की गई है। इनमें महात्मा बुद्ध तथा अन्य देवी-देवताओं की कथाएं मिलती हैं। इनके अतिरिक्त इनमें विरोधी धर्मों का खंडन भी किया गया है।
  4. अंगुत्तर निकाय (The Anguttara Nikaya)-इसमें 2308 सूत्र हैं। इसका अधिकतर भाग गद्य में है किंतु कुछ भाग पद्य में भी है। इसमें बौद्ध धर्म तथा इसके दर्शन का वर्णन किया गया है।
  5. खुद्दक निकाय (The Khuddaka Nikaya)-इसमें बौद्ध धर्म से संबंधित विभिन्न विषयों की चर्चा की गई है। इसमें 15 विभिन्न पुस्तकें संकलित हैं। ये पुस्तकें अलग-अलग समय लिखी गईं। इन पुस्तकों में खुद्दक पाठ, धम्मपद, जातक एवं सूत्रनिपात नामक पुस्तकें प्रसिद्ध हैं। खुद्दक पाठ सबसे छोटी रचना है। इसमें 9 सूत्र हैं जो दीक्षा के समय पढ़े जाते हैं। धम्मपद बौद्ध धर्म से संबंधित सबसे पवित्र पुस्तक समझी जाती है। बोद्धि धम्मपद का उसी प्रकार प्रतिदिन पाठ करते हैं जैसे सिख जपुजी साहिब का एवं हिंदू गीता का।धम्मपद बौद्ध गीता के नाम से प्रसिद्ध है। इसका विश्व भर की भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म से संबंधित 549 कथाओं का वर्णन किया गया है। सुत्तनिपात कविता रूप में लिखी गई है। इसमें बौद्ध धर्म के प्रारंभिक इतिहास के संबंध में जानकारी दी गई है।

(ग) अभिधम्मपिटक (The Abhidhammapitaka)-अभिधम्म से भाव है ‘उत्तम शिक्षाएँ’। इस ग्रंथ का अधिकतर भाग प्रश्न-उत्तर रूप में लिखा गया है। इसमें आध्यात्मिक विषयों की चर्चा की गई हैं। इसमें 7 पुस्तकों का वर्णन किया गया है। इसमें धम्मसंगनी तथा कथावथु सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। धम्मसंगनी बौद्ध मनोविज्ञान से संबंधित महान् रचना है। कथावथु का लेखक मोग्गलिपुत्त तिस्स था। इसमें बौद्ध धर्म की स्थविरवादी शाखा से संबंधित नियमों का वर्णन किया गया है।
2. मिलिन्द पन्हो (Milind Panho)-यह बौद्ध धर्म से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण रचना है। यह 100 ई०पू० पंजाब में लिखी गई। इसमें पंजाब के एक यूनानी शासक मीनांदर तथा बौद्ध भिक्षु नागसेन के मध्य हुए धार्मिक वार्तालाप का विवरण दिया गया है। इसमें बौद्ध दर्शन के संबंध में महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है।
3. दीपवंश तथा महावंश (Dipavansa and Mahavansa)-इन दोनों बौद्ध ग्रंथों की रचना श्रीलंका में की गई थी। इन्हें पाँचवीं शताब्दी में लिखा गया था। इन बौद्ध ग्रंथों में वहां की बौद्ध कथाओं का विवरण मिलता है।
4. महामंगलसूत्र (Mahamangalsutra)—इस रचना में महात्मा बुद्ध द्वारा दिए गए शुभ एवं अशुभ कर्मों का ब्यौरा दिया गया है। बोद्धि इसका रोज़ाना पाठ करते हैं।

(ख) संस्कृत में लिखा गया साहित्य
(Literature written in Sanskrit)
बौद्ध धर्म का महायान संप्रदाय से संबंधित अधिकतर साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है—

  1. ललितविस्तार (The Lalitvistara) यह बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय से संबंधित प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों में से एक है। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन के बारे में अत्यंत रोचक शैली में वर्णन किया गया है।
  2. लंकावतार (The Lankavatara)—यह महायानियों का एक पवित्र ग्रंथ है। इसका चीन एवं जापान के बोद्धि प्रतिदिन पाठ करते हैं।
  3. सद्धर्मपुण्डरीक (The Saddharmapundarika)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ में महायान संप्रदाय के सभी नियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध को परमात्मा के रूप में दर्शाया गया है जिसने इस संसार की रचना की।
  4. प्रज्ञापारमिता (The Prajnaparamita)—यह महायान संप्रदाय का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें बौद्ध दर्शन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
  5. अवदान पुस्तकें (The Avadana Books)—ये वह पुस्तकें हैं जिनमें महायान संप्रदाय से संबंधित बौद्ध संतों, पवित्र पुरुषों एवं स्त्रियों की नैतिक एवं बहादुरी के कारनामों का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है। दिव्यावदान तथा अवदान शतक इस श्रेणी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
  6. बौद्धचरित (The Buddhacharita)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना महान् कवि अश्वघोष ने की थी। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन को एक महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
  7. सौंदरानन्द (The Saundrananda)-इस ग्रंथ की रचना भी अश्वघोष ने की थी। यह एक उच्च कोटि का ग्रंथ है। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित उन घटनाओं का विवरण विस्तारपूर्वक दिया गया है जिन का बुद्धचरित में संक्षेप अथवा बिल्कुल वर्णन नहीं किया गया है।
  8. मध्यमकसूत्र (The Madhyamaksutra)-यह प्रसिद्ध बोद्धि नागार्जुन की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि सारा संसार एक भ्रम है।
  9. शिक्षासम्मुचय (The Sikshasamuchchaya)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना शाँति देव ने की थी। इसमें महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन दिया गया है। इन्हें अनेक महायानी ग्रंथों से लिया गया हैं।
  10. बौधिचर्यावतार (The Bodhicharyavatara) इसकी रचना भी शांति देव ने की थी। यह कविता के रूप में लिखी गई है। इसमें बोधिसत्व के उच्च आदर्शों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 10.
बौद्ध धर्म के उद्भव एवं विकास के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the origin and development of Buddhism.)
अथवा
अशोक से पूर्व बुद्ध धर्म द्वारा की गई उन्नति के विषय में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful the progress made by Buddhism befare Ashoka.)
अथवा
सम्राट अशोक से पहले बौद्ध धर्म की स्थिति बताइए।
(Describe the position of Buddhism’before Samrat Ashoka.)
अथवा
महाराजा अशोक तक बौद्ध धर्म ने जो विकास किया उसके संबंध में विस्तृत जानकारी दें।
(Describe in detail the progress made by Buddhism till the time of King Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के आंदोलन की उत्पत्ति तथा विकास की जानकारी अशोक से पूर्व काल की ब्यान करें।
(Give introductory information about origin and expansion of Buddhism before Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के उद्गम तथा विकास के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the origin and development of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के उद्गम तथा विकास के बारे में एक विस्तृत नोट लिखें।
(Write a detailed note on the origin and development of Buddhism.)
अथवा
अशोक से पूर्व बौद्ध धर्म की उन्नति के बारे में व्याख्या करें।
(Explain the development of Buddhism before Ashoka.)
उत्तर-

I. बौद्ध धर्म का उद्भव ‘ (Origin of Buddhism)
छठी शताब्दी ई०पू० में भारत के हिंदू समाज एवं धर्म में अनेक अंध-विश्वास तथा कर्मकांड प्रचलित थे। पुरोहित वर्ग ने अपने स्वार्थी हितों के कारण हिंदू धर्म को अधिक जटिल बना दिया था। अतः सामान्यजन इस धर्म के विरुद्ध हो गए थे। इन परिस्थितियों में भारत में कुछ नए धर्मों का जन्म हुआ। इनमें से बौद्ध धर्म सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे। इस धर्म के उद्भव के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है:—

1. हिंदू धर्म में जटिलता (Complexity in the Hindu Religion)-ऋग्वैदिक काल में हिंदू धर्म बिल्कुल सादा था। परंतु कालांतर में यह धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसमें अंध-विश्वासों और कर्मकांडों का बोलबाला हो गया। यह धर्म केवल एक बाहरी दिखावा मात्र बनता जा रहा था। उपनिषदों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों का दर्शन साधारण लोगों की समझ से बाहर था। लोग इस तरह के धर्म से तंग आ चुके थे। वे एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जो अंध-विश्वासों से रहित हो और उनको सादा जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दे सके। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० सतीश के० कपूर के शब्दों में,
“हिंदू समाज ने अपना प्राचीन गौरव खो दिया था और यह अनगिनत कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों से ग्रस्त था।”1

2. खर्चीला धर्म (Expensive Religion)-आरंभ में हिंदू धर्म अपनी सादगी के कारण लोगों में अत्यंत प्रिय था। उत्तर वैदिक काल के पश्चात् इसकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया। यह अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसका कारण यह था कि अब हिंदू धर्म में यज्ञों और बलियों पर अधिक जोर दिया जाने लगा था। ये यज्ञ कईकई वर्षों तक चलते रहते थे। इन यज्ञों पर भारी खर्च आता था। ब्राह्मणों को भी भारी दान देना पड़ता थ। इन यज्ञों के अतिरिक्त अनेक ऐसे रीति-रिवाज प्रचलित थे, जिनमें ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर भी लोगों को काफी धन खर्च करना पड़ता था। इस तरह के खर्च लोगों की पहुँच से बाहर थे। परिणामस्वरूप वे इस धर्म के विरुद्ध हो गए।

3. ब्राह्मणों का नैतिक पतन (Moral Degeneration of the Brahmanas)-वैदिक काल में ब्राह्मणों का जीवन बहुत पवित्र और आदर्शपूर्ण था। समय के साथ-साथ उनका नैतिक पतन होना शुरू हो गया। वे भ्रष्टाचारी, लालची तथा धोखेबाज़ बन गए थे। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साधारण लोगों को किसी न किसी बहाने मूर्ख बना कर उनसे अधिक धन बटोरने में लगे रहते थे। इसके अतिरिक्त अब उन्होंने भोग-विलासी जीवन व्यतीत करना आरंभ कर दिया था। इन्हीं कारणों से लोग समाज में ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे।

4. जाति-प्रथा (Caste System)-छठी शताब्दी ई० पू० तक भारतीय समाज में जाति-प्रथा ने कठोर रूप धारण कर लिया था। ऊँची जातियों के लोग जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करते थे। वे उनकी परछाईं मात्र पड़ जाने से स्वयं को अपवित्र समझने लगते थे। शूद्रों को मंदिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने आदि की आज्ञा नहीं थी। ऐसी परिस्थिति से तंग आकर शूद्र किसी अन्य धर्म के पक्ष में हिंदू धर्म छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

5. कठिन भाषा (Difficult Language)-संस्कृत भाषा के कारण भी इस युग के लोगों में बेचैनी बढ़ गई थी। इस भाषा को बहुत पवित्र माना जाता था, परंतु कठिन होने के कारण यह साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे-वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे। साधारण लोग इन धर्मशास्त्रों को पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठा कर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरू कर दी। अतः धर्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जिसके सिद्धांत जन-साधारण की भाषा में हों।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

6. जादू-टोनों में विश्वास (Belief in Charms and Spells)-छठी शताब्दी ई० पू० में लोग बहुत अंधविश्वासी हो गए थे। वे भूत-प्रेतों तथा जादू-टोनों में अधिक विश्वास करने लगे थे। उनका विचार था कि जादूटोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। जागरूक व्यक्ति समाज को ऐसे अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी नए धर्म की राह देखने लगे।

7. महापुरुषों का जन्म (Birth of Great Personalities)-छठी शताब्दी ई० पू० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। उन्होंने अंधकार में भटकं रही मानवता को एक नया मार्ग दिखाया। इनमें महावीर तथा महात्मा बुद्ध के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी सरल शिक्षाओं से प्रभावित होकर बहु-संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गए थे। इन्होंने बाद में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का उल्लेख करते हुए बी० पी० शाह
और के० एस० बहेरा लिखते हैं,
“वास्तव में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के उदय ने लोगों में एक नया उत्साह भर दिया और उनके सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया।”2

1. “ The Hindu society had lost its splendour and was plagued with multifarious rituals and superstitions.” Dr. Satish K. Kapoor, The Legacy of Buddha (Chandigarh: The Tribune : April 4, 1977) p. 5.
2. “In fact, birth of Jainism and Buddhism gave a new impetus to the people and significantly moulded social and religious life.” B.P. Saha and K.S. Behera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p. 107.

II. बौद्ध धर्म का विकास
(Development of Buddhism)
महात्मा बुद्ध के अथक प्रयासों के कारण उनके जीवन काल में ही बौद्ध धर्म की नींव पूर्वी भारत में मज़बूत हो चुकी थी। उनके निर्वाण के पश्चात् बौद्ध संघों ने महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों को एकत्र करने, संघ से संबंधित नवीन नियम बनाने तथा बौद्ध धर्म के प्रसार के उद्देश्य से समय-समय पर चार महासभाओं का आयोजन किया। इन महासभाओं के आयोजन में विभिन्न शासकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म न केवल भारत अपितु विदेशों में भी फैला।

1. प्रथम महासभा 487 ई० पू० (First Great Council 487 B.C.)-महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के शीघ्र पश्चात् ही 487 ई० पू० राजगृह में बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम महासभा का आयोजन किया गया। राजगृह मगध के शासक अजातशत्रु की राजधानी थी। अजातशत्रु के संरक्षण में ही इस महासभा का आयोजन किया गया था। इस महासभा को आयोजित करने का उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणिक उपदेशों को एकत्र करना था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता महाकश्यप ने की थी। इस महासभा में त्रिपिटकोंविनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक की रचना की गई। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं संबंधी नियम, सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का वर्णन किया गया है। त्रिपिटकों के अतिरिक्त आरोपों की छानबीन करके महात्मा बुद्ध के परम शिष्य आनंद को दोष मुक्त कर दिया गया जबकि सारथी चन्न को उसके उदंड व्यवहार के कारण दंडित किया गया।

2. दूसरी महासभा 387 ई० पू० (Second Great Council 387 B.C.)-प्रथम महासभा के ठीक 100 वर्षों के पश्चात् 387 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया। इस महासभा का आयोजन मगध शासक कालाशोक ने किया था। इस महासभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इस सभा का आयोजन करने का कारण यह था कि बौद्ध संघ से संबंधित दस नियमों ने भिक्षुओं में मतभेद उत्पन्न कर दिए थे। इन नियमों के संबंध में काफी दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा, किंतु भिक्षुओं के मतभेदूर न हो सके। परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षु दो संप्रदायों में बंट गए। इनके नाम स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक थे। स्थविरवादी नवीन नियमों के विरुद्ध थे। वे बुद्ध के नियमों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। महासंघिक परंपरावादी नियमों में कुछ परिवर्तन करना चाहते थे ताकि बौद्ध संघ के अनुशासन की कठोरता को कुछ कम किया जा सके। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक भिक्षुओं को निकाल दिया गया।

3. तीसरी महासभा 251 ई० पू० (Third Great Council 251 B.C.)-दूसरी महासभा के आयोजन के बाद बौद्ध धर्म 18 शाखाओं में विभाजित हो गया था। इनके आपसी मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म की उन्नति को गहरा धक्का लगा। बौद्ध धर्म की पुनः प्रगति के लिए तथा इस धर्म में आई कुप्रथाओं को दूर करने के उद्देश्य से महाराजा अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में 251 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की तीसरी महासभा का आयोजन किया। इस महासभा में 1000 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। इस महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। यह महासभा 9 माह तक चलती रही। यह महासभा बौद्ध धर्म में आई अनेक कुप्रथाओं को दूर करने में काफी सीमा तक सफल रही। इस महासभा से थेरावादी भिक्षुओं के सिद्धांतों को न मानने वाले भिक्षुओं को निकाल दिया गया था। इस महासभा में कथावथु नामक ग्रन्थ की रचना की गई। इस महासभा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध प्रचारकों को भेजना था।

4. चौथी महासभा 100 ई० (Fourth Great Council 100 A.D.)-महाराजा अशोक की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध भिक्षुओं के मतभेद पुनः बढ़ गए थे। इन मतभेदों को दूर करने के उद्देश्य से कुषाण शासक कनिष्क ने जालंधर में आयोजन किया था। ईस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। वसुमित्र ने महाविभाष नामक ग्रंथ की रचना की जिसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा जाता है। इस महासभा में सम्मिलित एक अन्य विद्वान् अश्वघोष ने बुद्धचरित नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन किया गया है। इस महासभा में मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान तथा महायान में विभाजित हो गया। कनिष्क ने महायान संप्रदाय का समर्थन किया।

प्रश्न 11.
बौद्ध धर्म के विकास में महाराजा अशोक ने शसक्त भूमिका निभाई। प्रकाश डालिए।
(Maharaja Ashoka performed a strong role for the development of Buddhism. Elucidate.)
अथवा
महाराजा अशोक ने बुद्ध धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
(What contribution Maharaja Ashoka made for the development of Buddhism ? Discuss.)
अथवा
महाराजा अशोक के समय बौद्ध धर्म के विकास के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the development made by Buddhism during the time of Maharaja Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में अशोक के योगदान के बारे में प्रकाश डालें।
(Throw light on the contribution of Ashoka to the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक की भूमिका का वर्णन करें।
(Discuss the role of Emperor Ashoka in the development of Buddhism. )
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक का क्या योगदान था ? (Discuss the contribution of Emperor Ashoka in the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक के योगदान का वर्णन करें। (Discuss the contribution of Ashoka in the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास के लिए अशोक द्वारा की गई सेवाओं का वर्णन कीजिए।
(Describe the services rendered by Ashoka to the development of Buddhism.)
अथवा
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए किन साधनों का प्रयोग किया ? (What methods were adopted by Ashoka to the spread Buddhism ?)
अथवा
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म का फैलाव कैसे किया ? (How did Emperor Ashoka spread Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के प्रसार का वर्णन करें।
(Describe the spread of Buddhism.)
अथवा
“महाराजा अशोक के समय बौद्ध धर्म अधिक विकसित हुआ।” प्रकाश डालिए।
(“Buddhism was more developed during the period of Maharaja Ashoka.” Elucidate.)
उत्तर-
अशोक का नाम न केवल भारतीय बल्कि संसार के इतिहास में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यह उसके अथक यत्नों का ही परिणाम था कि बौद्ध धर्म शीघ्र ही संसार का सबसे लोकप्रिय धर्म बन गया। डॉक्टर डी० सी० सरकार के शब्दों में,
“अशोक बौद्ध धर्म का संरक्षक था तथा वह इस धर्म को जो कि पूर्वी भारत का एक स्थानीय धर्म था को संसार के सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्मों में से एक बनने के लिए जिम्मेवार था।”10

1. निजी उदाहरण (Personal Example)- अशोक के मन पर कलिंग के युद्ध के समय हुए रक्तपात ने गहरा प्रभाव डाला। परिणामस्वरूप अशोक ने हिंदू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धर्म को अपना लिया। इस धर्म को फैलाने के लिए अशोक ने लोगों के आगे निजी उदाहरण प्रस्तुत किया। उसने महल की सभी सुख-सुविधाएँ त्याग दी। उसने मांस खाना तथा शिकार खेलना बंद कर दिया। उसने युद्धों से सदा के लिए तौबा कर ली तथा शांति व प्रेम की नीति अपनाई। इस प्रकार अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपनाने के कारण उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह उसके पद चिंहों पर चलने का प्रयास करने लगी।

2. बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित करना (Buddhism was declared as the State Religion)अशोक ने बौद्ध धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से उसको राज्य धर्म घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप लोग बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित होने आरंभ हो गए। इसका कारण यह था कि उस समय लोग अपने राजा का बहुत सम्मान करते थे तथा उसकी आज्ञा को मानने में वे अपना गर्व समझते थे।

3. प्रशासनिक पग (AdministrativeSteps)-अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रसार करने के लिए कुछ प्रशासनिक पग भी उठाए। उसने धार्मिक उत्सवों के दौरान दी जाने वाली जानवरों की बलि पर पाबंदी लगा दी। उसने राजकीय रसोईघर में भी किसी प्रकार के जानवरों की हत्या की मनाही कर दी। इसके अतिरिक्त उसने वर्ष में 56 ऐसे दिन निश्चित किए जब जानवरों को मारा नहीं जा सकता था। वह समय-समय पर बुद्ध की शिक्षाओं संबंधी निर्देश जारी करता था। उसने अपने कर्मचारियों को भी लोगों की अधिक से अधिक सेवा करने के आदेश जारी किए।

4. व्यापक प्रचार (Wide Publicity)-अशोक के बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए इसका व्यापक प्रचार करवाया। बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को शिलालेखों, चट्टानों, पत्थरों आदि पर खुदवाया। इनको राज्य की प्रसिद्ध सड़कों तथा विशेष स्थानों पर रखा गया ताकि आने-जाने वाले लोग इनको अच्छी तरह पढ़ सकें। इस प्रकार सरकारी प्रचार भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।

5. धर्म यात्राएँ (Dharma Yatras)-अशोक ने बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी स्थानों की यात्रा की। वह लुंबिनी जहां बुद्ध का जन्म हुआ, बौद्ध गया जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ, सारनाथ जहाँ बुद्ध ने सबसे पहले प्रवचन दिया था, कुशीनगर जहाँ बुद्ध का निर्वाण (मृत्यु) हुआ, के पवित्र स्थानों पर गया। अशोक की इन यात्राओं के कारण बौद्ध धर्म का गौरव और बढ़ गया।

6. धर्म महामात्रों की नियुक्ति (Appointment of Dharma Mahamatras)- अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए महामात्र नामक कर्मचारी नियुक्त किए। इन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार करने में कोई प्रयास शेष न छोड़ा। इस कारण बौद्ध धर्म को एक नई प्रेरणा मिली।

7. विहारों तथा स्तूपों का निर्माण (Building of Viharas and Stupas)-अशोक ने राज्य भर में विहारों (बौद्ध मठों) का निर्माण करवाया। यहाँ आने वाले बौद्ध विद्वानों तथा विद्यार्थियों को राज्य की ओर से खुला संरक्षण दिया गया। इसके अतिरिक्त सारे राज्य में हज़ारों स्तूपों का भी निर्माण किया गया। इन स्तूपों में बुद्ध की निशानियाँ रखी जाती थीं। इन कारणों से बौद्ध धर्म अधिक लोकप्रिय हो सका।

8. लोक कल्याण के कार्य (Works of Public Welfare)-बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद अशोक ने अपना सारा जीवन लोगों के दिलों को जीतने में लगा दिया। प्रजा की सुविधा के लिए अशोक ने सड़कें बनवाईं तथा इसके किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाए। पानी पीने के लिए कुएँ खुदवाए। यात्रियों की सुविधा के लिए राज्य भर में सराएँ बनाई गईं। अशोक ने न केवल मनुष्यों के लिए अपितु पशुओं के लिए अस्पताल खुलवाए। अशोक के इन कार्यों के कारण बौद्ध धर्म को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से फैलने का अवसर मिला।।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

9. तीसरी बौद्ध सभा (Third Buddhist Council)- अशोक ने बौद्ध धर्म में चल रहे आपसी मतभेदों को दूर करने के लिए 251 ई० पू० पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा बुलवाई। इस सभा में अनेक बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। मोग्गलिपुत्त तिस्स इस सभा का अध्यक्ष था। यह सभा लगभग 9 माह तक चलती रही। इस सभा में बौद्धों का एक नया ग्रंथ कथावथु लिखा गया। यह सभा बौद्ध भिक्षुओं में एक नया जोश भरने में सफल रही तथा उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार अधिक ज़ोर-शोर से करना आरंभ कर दिया।

10. विदेशों में प्रचार (Foreign Missions)-अशोक ने विदेशों में भी बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने प्रचारक भेजे। ये प्रचारक श्रीलंका, बर्मा (म्यनमार), नेपाल, मिस्र व सीरिया आदि देशों में गए। अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा तथा पुत्र महेंद्र को श्रीलंका में प्रचार करने के लिए भेजा था। इन प्रचारकों का लोगों के दिलों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए। डॉक्टर आर० सी० मजूमदार का यह कहना पूर्णत: ठीक है,
“वह (अशोक) एक मार्ग-दर्शक के रूप में प्रकट हुआ जो बुद्ध के संदेश को एक गाँव से दूसरे गाँव, एक नगर से दूसरे नगर, एक प्रांत से दूसरे प्रांत, एक देश से दूसरे देश तथा एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक ले गया।”11

10. “Ashoka was a patron of the Buddha’s doctrine and was responsible for raising Buddhism for the status of a local secretarian creed of Eastern India to that of one of the principal religions of the world.” Dr. D.C. Sircar, Inscriptions of Ashoka (Delhi : 1957) p. 17.
11. “He appeared as the torch bearer, who led the gospel from village to village, from city to city, from province to province, from country to country and from continent to continent.” Dr. R.C. Majumdar, Ancient India (Delhi : 1971) p. 165.

प्रश्न 12.
बौद्ध धर्म की भारतीय सभ्यता को क्या देन है ? (What is the legacy of Buddhism to Indian Civilization ?)
अथवा
बौद्ध धर्म की देन का वर्णन करें। (Discuss the legacy of Buddhism.)
उत्तर-यद्यपि बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो चुका है, परंतु जो देन इसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को दी है। उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। बौद्ध धर्म ने भारत को कई क्षेत्रों में बड़ी गौरवपूर्ण धरोहर प्रदान की।

  1. राजनीतिक प्रभाव (Political Impact)—बौद्ध धर्म ने भारत में राजनीतिक स्थिरता, शांति तथा परस्पर एकता बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बौद्ध धर्म के अहिंसा तथा शांति के सिद्धांतों से उस समय के शक्तिशाली शासक बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने युद्धों का त्याग कर दिया और अपना समय प्रजा के कल्याण में लगा दिया। इससे जहां राज्य में शांति स्थापित हुई वहाँ प्रजा काफी समृद्ध हो गई। अशोक तथा कनिष्क जैसे शासकों ने विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने प्रचारक भेजे। इससे भारत तथा इन देशों में मित्रता स्थापित हुई, परंतु बौद्ध धर्म के अहिंसा के सिद्धांत का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में कुछ विनाशकारी प्रभाव भी पड़ा। युद्धों में भाग न लेने के कारण भारतीय सेना बहत दुर्बल हो गई। इस लिए जब बाद में भारतीयों को विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा तो उनकी हार हुई। इस पराजयों के कारण भारतीयों ने अपनी स्वतंत्रता गंवा ली और उन्हें चिरकाल तक दासता का जीवन व्यतीत करना पड़ा।

2. धार्मिक प्रभाव (Religious Impact)—बौद्ध धर्म की धार्मिक क्षेत्र में देन भी बड़ी महत्त्वपूर्ण थी1 बौद्ध धर्म के उदय से पूर्व हिंदू धर्म में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। लोग धर्म के वास्तविक रूप को भूलकर कर्मकांडों, पाखंडों, यज्ञों, हवनों तथा बलि आदि के चक्करों में फंसे हुए थे। समाज में ब्राह्मणों का बोलबाला था। उनके बिना कोई धार्मिक कार्य पूरा नहीं समझा जाता था, परंतु उस समय ब्राह्मण बहुत लालची तथा भ्रष्टाचारी हो चुके थे। उनका मुख्य उद्देश्य लोगों को किसी-न-किसी बहाने लूटना था। वे लोगों का सही मार्गदर्शन करने की अपेक्षा स्वयं भोग-विलास में डूबे रहते थे। इस प्रकार हिंदू धर्म केवल एक आडंबर बनकर रह गया था। महात्मा बुद्ध ने हिंदू धर्म में प्रचलित इन कुप्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी व्यक्ति बिना ब्राह्मणों के सहयोग से अपने धार्मिक कार्य संपन्न कर सकता है। उन्होंने संस्कृत भाषा की पवित्रता का भी खंडन किया। इस लिए काफी संख्या में लोग हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म में सम्मिलित होने लगे। इसीलिए हिंदू धर्म ने अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए अनेक आवश्यक सुधार किए। महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की सुंदर मूर्तियां निर्मित करके उनकी पूजा आरंभ कर दी। इस प्रकार बौद्ध धर्म ने भारत में मूर्ति-पूजा का प्रचलन किया जो आज तक जारी है।

3. सामाजिक प्रभाव Scial Inpact)— सामाजिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म की देन बहुत प्रशंसनीय है। बौद्ध धर्म के उदय से पहले हिंद धर्म में जाति प्रथा वही जटिल हो गई थी ! एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। शूद्र मो: न्यास किए जा थे; मात्मा बुद्ध ने जाति प्रथा के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया। उन्होंने अपने अनुयाः ” संदेश दिया। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में सभी जातियों और वर्गों को सम्मिलित क: भारतीय समाज को एक नया रूप प्रदान किया। निम्न वर्ग के लोगों को भी समाज में प्रगति करने का अवसरमा बौद्ध धर्म के प्रभावाधीन गों ने माँस-भक्षण, मदिरापान तथा अन्य नशों का सेवन बंद कर दिया और उन्नत तथा पत्र जीवन व्यती या आरंभ कर दिया। कालांतर में जब हिंदू धर्म पुनः लोकप्रिय होना आरंभ तुना तो बहुत से लोग बौद्ध धर्म को छोड़कर पुनः हिंदू धर्म में आ गए। इससे हिंदू समाज में कई जातियों तथा उप-जातियः अस्तित्व में आई।

4. सांस्कृतिक प्रभाव : (Cultural Impact)—सांस्कृतिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने भारत को बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन दी। बौद्ध संघों द्वारा न केवल बौद्ध धर्म का प्रचार किया जाता था, अपितु ये शक्षा देने के विख्यात केंद्र भी बन गए। तक्षशिला, नालंदा और त्रिक्रर्माणला नामक बौद्ध विश्वविद्यालयों ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में छात्र विदेशों से भी आते थे। बौद्ध विद्वानों द्वारा रचित ग्रंथों जैसे त्रिपिटक, जातक, बुद्धचरित, महाविभास, मिलिंद पहो, सौंदरानंद. ललित विस्तार तथा महामंगल सूत्र इत्यादि ने भातीय साहित्य में बहुमूल्य वृद्धि की। भवन निर्माण कला और मूर्तिकला के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म की देन को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। अशोक तथा कनिष्क के राज्य काल में भारत में बड़ी संख्या में स्तूपों तथा विहारों का निर्माण हुआ। महाराजा अशोक द्वारा निर्मित करवाए गए साँची तथा भरहुत स्तूपों की सुंदर कला को देख कर व्यक्ति चकित रह जाता है। कनिष्क के समय गांधार और मथुरा कली का विकास हुआ। इस समय महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की अति सुंदर मूर्तियाँ निर्मित की गईं।

इन मतियों को देख कर उस समय भूर्तिकला के क्षेत्र में हुई अद्वितीय उन्नति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। अजंता तथा जाप की फाओं को देखकर चित्रकला के क्षेत्र में उस समय हुए विकास का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। समय-समय पर बौद्ध भिक्षु धर्म प्रचार करने के लिए विदेशों जैसे-चीन, जापान, श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार). इंडानशिया, जावा, सुमात्रा तथा तिब्बत आदि देशों में जाते रहे। इससे न केवल इन देशों में बौद्ध धर्म फैला, अपितु भारतीय संस्कृति का विकास भी हुआ। आज भी इन देशों में कई भारतीय प्रथाएँ प्रचलित हैं। निस्संदेह यह भारतीयों के लिए एक बहुत ही गर्व की बात है। अंत में हम डॉक्टर एस० राधाकृष्णन के इन शब्दों से सहमत हैं,
“बौद्ध धर्म ने भारतीय संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इसका प्रभाव सभी ओर देखा जा सकता है।”12

12. Buddhisni da leti pemanen’ mark on the culture of India. Its influence is visible on all sides.” Dr. S. Radhakrishnan, Indian Philosophy Deihi: 1962) p.608.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म का उत्थान। (Emergence of Buddhism.)
उत्तर-
6वीं सदी ई० पूर्व हिंदू समाज तथा धर्म में अनगिनत कुरीतियाँ प्रचलित थीं। जाति प्रथा बहुत कठोर रूप धारण कर गई थी। शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक बुरा व्यवहार किया जाता था। अब लड़की का जन्म लेना दु:ख का कारण समझा जाता था। लोगों में अनेक अंध-विश्वास प्रचलित थे। यज्ञों तथा बलियों के कारण हिंदू धर्म बहुत खर्चीला हो गया था। ब्राह्मण बहुत भ्रष्टाचारी तथा धोखेबाज़ हो गए थे। हिंदू धर्म अब केवल एक बाहरी दिखावा बन कर रह गया था। इन कारणों से बौद्ध धर्म का उत्थान हुआ।

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध के जीवन की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a short account of the life of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उनका जन्म 566 ई० पू० में लुंबिनी में हुआ। उनके माता जी का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोधन था। आप का विवाह यशोधरा से हुआ था। आपने 29 वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था। 35 वर्ष की आयु में आपको बौद्ध गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था। आपने 45 वर्ष तक अपने धर्म का प्रचार किया था। मगध, कौशल, कौशांबी, वैशाली तथा कपिलवस्तु आप के प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र थे। 486 ई० पू० में कुशीनगर में आपने निर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 3.
लुंबिनी। (Lumbini.)
उत्तर-
लुंबिनी भारत में बौद्ध धर्म के सर्वाधिक पवित्र स्थानों में से एक है। यह स्थान नेपाल की तराई में भारत-नेपाल सीमा से लगभग 10 किलोमीटर दूर भैरवा जिले में स्थित है। इसका आधुनिक नाम रुमिनदेई है। यहाँ 566 ई० पू० वैशाख की पूर्णिमा को महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। इस बालक के जन्म समय देवताओं ने आकाश से फूलों की वर्षा की। महाराजा अशोक ने यहाँ महात्मा बुद्ध की स्मृति में एक स्तंभ बनवाया था। चीनी यात्रियों फाह्यान एवं ह्यनसांग ने अपने वृत्तांतों में इस स्थान का अति सुंदर वर्णन किया है।

प्रश्न 4.
बौद्ध गया। , (Bodh Gaya.)
उत्तर-
बौद्ध गया का बौद्ध धर्मावलंबियों में वही स्थान है जो हरिमंदिर साहिब, अमृतसर का सिखों में, बनारस का हिंदुओं में एवं मक्का का मुसलमानों में है। यह स्थान बिहार राज्य के गया नगर से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित है। यह वह स्थान है जहाँ एक पीपल के वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ (महात्मा बुद्ध) को ज्ञान प्राप्त हुआ था। उस समय सिद्धार्थ की आयु 35 वर्ष थी। यह घटना वैशाख की पूर्णिमा की थी। यहाँ 170 फीट ऊँचा महाबौद्धि मंदिर बना हुआ है।

प्रश्न 5.
सारनाथ। (Sarnath.)
उत्तर-
सारनाथ बौद्ध धर्मावलंबियों का एक अन्य पवित्र स्थान है। यह स्थान बनारस से लगभग 7 किलोमीटर उत्तर की दिशा की ओर स्थित है। यह वह स्थान है जहाँ महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अपने पुराने पाँच साथियों को प्रथम उपदेश दिया था। इस घटना को बौद्ध इतिहास में धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से स्मरण किया जाता है। यहाँ महाराजा अशोक ने एक प्रसिद्ध स्तंभ बनवाया था। यहाँ से गुप्त काल एवं कुषाण काल की महात्मा बुद्ध की अति सुंदर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

प्रश्न 6.
चार महान् दृश्य। (Four Major Sights.)
उत्तर-
सिद्धार्थ एक दिन अपने सारथि चन्न को लेकर महल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक बूढ़े, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। इन दृश्यों का सिद्धार्थ के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने जान लिया कि संसार दु:खों का घर है। इसलिए सिद्धार्थ ने घर त्याग देने का निश्चय किया। इस घटना को महान् त्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष की थी।

प्रश्न 7.
धर्म-चक्र प्रवर्तन। (Dharm-Chakra Pravartana.)
उत्तर-
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुंचे। यहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश अपने पुराने पाँच साथियों को दिया। वे बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस समय महात्मा बुद्ध ने उन्हें चार महान् सत्य तथा अष्ट मार्ग की जानकारी दी। इस घटना को धर्म-चक्र प्रवर्तन कहा जाता है।

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ। (Teachings of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार चार महान् सत्य तथा अष्ट मार्ग हैं। वे आवागमन, कर्म सिद्धांत, अहिंसा, मनुष्य के परस्पर भ्रातृ-भाव में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। वे जाति प्रथा, यज्ञों, बलियों, वेदों, संस्कृत भाषा और घोर तपस्या में विश्वास नहीं रखते थे। वह परमात्मा संबंधी चुप रहे।

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध के कर्म सिद्धांत के बारे में क्या विचार थे ? (What were Lord Buddha’s views about Karma theory ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता है। जैसे कर्म मनुष्य करेगा, उसे वैसा ही फल मिलेगा। हमें पिछले कर्मों का फल इस जन्म में मिला है और अब के कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। मनुष्य की परछाईं की तरह कर्म उसका पीछा नहीं छोड़ते।

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध के नैतिक संबंधी क्या विचार थे ? (What were Lord Buddha’s views about Morality ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध नैतिकता पर बहुत बल देते थे। उनके विचार से नैतिकता के बिना धर्म एक ढोंग मात्र रह जाता है। नैतिकता के मार्ग पर चलने के लिए महात्मा बुद्ध ने मनुष्यों को ये सिद्धांत अपनाने पर बल दिया—

  1. सदा सत्य बोलो।
  2. चोरी न करो।
  3. नशीले पदार्थों का सेवन न करो।
  4. स्त्रियों से दूर रहो।
  5. ऐश्वर्य के जीवन से दूर रहो।
  6. नृत्य-गान में रुचि न रखो।
  7. धन से दूर रहो।
  8. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करो।
  9. झूठ न बोलो और
  10. किसी को कष्ट न पहुँचाओ।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध के ईश्वर के संबंध में विचार। (Lord Buddha’s .views about God.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं रखते थे। उनका कथन था कि संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति द्वारा नहीं की गई है परंतु वह यह आवश्यक मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध इस संबंध में किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे।

प्रश्न 12.
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Nirvana in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद और शांति की प्राप्ति हो सकती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदा के लिए मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। इस स्थिति का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 13.
हीनयान। (Hinyana.)
उत्तर-
हीनयान बौद्ध धर्म का एक प्रमुख संप्रदाय था। हीनयान से अभिप्राय है छोटा चक्कर या छोटा रथ। इस संप्रदाय के लोग महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध थे। वे मूर्ति पूजा के विरुद्ध थे। वे बौद्धिसत्व में विश्वास नहीं रखते थे। वे तर्क तथा अष्ट मार्ग में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपना प्रचार पाली भाषा में किया। इनके धार्मिक ग्रंथ भिन्न थे।

प्रश्न 14.
महायान। (Mahayana.)
उत्तर-
महायान बौद्ध धर्म का प्रमुख संप्रदाय था। महायान से अभिप्राय था बड़ा चक्कर या बड़ा रथ। इस संप्रदाय ने बुद्ध की शिक्षाओं में समय अनुसार परिवर्तन किये। वे मूर्ति पूजा और बौद्धिसत्व में विश्वास रखते थे। वे श्रद्धा पर अधिक बल देते थे। वे पाठ-पूजा को धर्म का आवश्यक अंग मानते थे। उन्होंने अपना प्रचार संस्कृत भाषा में किया। इनके धार्मिक ग्रंथ भिन्न थे।

प्रश्न 15.
प्रथम बौद्ध सभा। (First Buddhist Council.)
उत्तर-
प्रथम बौद्ध सभा का आयोजन 487 ई० पू० मगध के शासक अजातशत्रु द्वारा राजगृह में किया गया था। इसका उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणित उपदेशों को एकत्रित करना था। इसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसका नेतृत्व महाकश्यप ने किया। इसमें त्रिपिटक नाम के ग्रंथ लिखे गए। इस सभा में महात्मा बुद्ध के शिष्य आनंद पर लगाए गए आरोपों की जांच की गई तथा उसे निर्दोष घोषित किया गया।

प्रश्न 16.
दूसरी बौद्ध सभा। (Second Buddhist Council.)
उत्तर-
दूसरी बौद्ध सभा का आयोजन 387 ई० पू० में मगध के शासक कालाशौक ने वैशाली में किया था। इसका उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं में संघ के नियमों से संबंधित मतभेदों को दूर करना था। इस सभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसकी अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इसके द्वारा अपनाए गए दस नियमों के कारण बौद्ध भिक्ष पूर्वी तथा पश्चिमी नाम के दो वर्गों में विभाजित हो गए। पूर्वी भारत के भिक्षु महासंघिक तथा पश्चिम भारत के भिक्षु थेरावादी कहलाए।

प्रश्न 17.
तीसरी बौद्ध सभा। (Third Buddhist Council.)
उत्तर-
तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन सम्राट अशोक ने 251 ई० पू० में पाटलिपुत्र में किया था। इसका उद्देश्य बुद्ध धर्म में आई कुरीतियों को दूर करना था। इसमें 1000 भिक्षुओं ने भाग लिया। इसका नेतृत्व मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किया था। उसने कथावथु नामक ग्रंथ तैयार किया था। इस सभा में बौद्ध प्रचारकों को विदेशों में भेजने का निर्णय किया गया। यह सभा बौद्ध धर्म में आई कुरीतियों को काफ़ी सीमा तक दूर करने में सफल रही।

प्रश्न 18.
चौथी बौद्ध सभा। (Fourth Buddhist Council.)
अथवा
चतुर्थ बोद्धी कौंसिल क्यों बुलाई गई ? (Why was the Fourth Buddhist Council convened ?)
उत्तर-
चौथी बौद्ध सभा का आयोजन सम्राट कनिष्क ने पहली सदी ई० में कश्मीर में किया था। इस सभा का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं के आपसी मतभेदों को दूर करना था। इसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। उसने महाविभाष नामक ग्रंथ तैयार किया था। इस सभा के उप-प्रधान अश्वघोष ने बुद्धचरित नाम के प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। इस सभा के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षुओं में व्याप्त न केवल आपसी मतभेद समाप्त हुए बल्कि यह मध्य एशिया के देशों में भी फैला।

प्रश्न 19.
बौद्ध धर्म में संघ से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you understand by Sangha in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों को संगठित करने के लिए बौद्ध संघ की स्थापना की थी। प्रत्येक पुरुष या स्त्री, जिसकी आयु 15 वर्ष से अधिक हो बौद्ध संघ का सदस्य बन सकता था। अपराधियों, रोगियों, ऋणियों तथा दासों को सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी। सदस्य बनने से पहले घर वालों से अनुमति लेना आवश्यक था। नए भिक्षु को संघ में प्रवेश के समय मुंडन करवा कर पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे और यह शपथ लेनी पड़ती थी “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” संघ के सदस्यों को कड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। संघ के सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते थे।

प्रश्न 20.
त्रिपिटक। (The Tripitakas.)
उत्तर-
बौद्धि साहित्य में त्रिपिटक नामक ग्रंथ को प्रमुख स्थान प्राप्त है। ये पाली भाषा में लिखे गए हैं। इन के नाम विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक हैं। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के प्रतिदिन जीवन से संबंधित नियमों का, सुत्तपिटक में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों तथा अभिधम्मपिटक में आध्यात्मिक विषयों का वर्णन किया गया है। त्रिपिटक से अभिप्राय तीन टोकरियों से है जिसमें ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था।

प्रश्न 21.
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए क्या यत्न किए ? (What steps were taken by Ashoka to spread Buddhism ?)
उत्तर-
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए इसको राज्य धर्म घोषित किया। उसने स्वयं इस धर्म को ग्रहण किया। बौद्ध धर्म से संबंधित महत्त्वपूर्ण स्थानों की यात्राएँ कीं। धर्म महामात्रों को नियुक्त किया। बौद्ध विहारों तथा स्तूपों का निर्माण करवाया। पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन किया गया। विदेशों में बौद्ध प्रचारक भेजें।

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प्रश्न 22.
बौद्ध धर्म के जन्म के क्या कारण थे ? (What were the reasons of origin of Buddhism ?)
उत्तर-
6वीं शताब्दी ई०पू० में भारत में बौद्ध धर्म के उद्भव का मुख्य कारण हिंदू धर्म में प्रचलित बुराइयाँ थीं। उत्तर वैदिक काल में ही हिंदू धर्म में यज्ञों एवं व्यर्थ के रीति-रिवाजों पर बल दिया जाने लगा था। इन यज्ञों में बड़ी संख्या में पुरोहित सम्मिलित होते थे। उन्हें काफ़ी दान देना पड़ता था। वास्तव में हिंदू धर्म इतना खर्चीला हो चुका था कि यह साधारण लोगों की समर्था से बाहर हो चुका था। ब्राह्मण वर्ग बहुत भ्रष्ट एवं लालची हो चुका था। वे साधारण लोगों को किसी-न-किसी बहाने मूर्ख बनाकर लूटने में लगे थे। हिंदुओं के सभी ग्रंथ संस्कृत भाषा में थे। अत: ये साधारण लोगों की समझ से बाहर थे। समाज में जाति प्रथा ने काफ़ी जटिल रूप धारण कर लिया था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। शूद्रों के साथ घोर अन्याय किया जाता था। परिणामस्वरूप वे किसी अन्य धर्म के पक्ष में अपना धर्म छोड़ने को तैयार हो गए। उस समय के अनेक शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना संरक्षण प्रदान किया। अतः यह धर्म तीव्रता से प्रगति करने लगा।

प्रश्न 23.
महात्मा बुद्ध पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध, बौद्ध मत के संस्थापक थे। उनका जन्म 566 ई० पू० कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी में हुआ। उनकी माता का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोदन था। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। वह बचपन से ही गंभीर स्वभाव के थे। वह एकांत में रहना अधिक पसंद करते थे। 16 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ की शादी एक सुंदर राजकुमारी से कर दी गई। उनके घर एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम राहुल रखा गया। 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने घर त्याग दिया तथा वह सत्य की खोज में निकल पड़े। 35 वर्ष की आयु में उन्हें बोध गया में सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया। इस घटना को धर्म चक्र परिवर्तन कहा जाता है। महात्मा बुद्ध इसी तरह 45 वर्षों तक भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपने उपदेशों का प्रचार करते रहे। मगध, कौशल, कौशांबी, वैशाली तथा कपिलवस्तु उनके प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र थे। महात्मा बुद्ध ने चार महान् सच्चाइयों, अष्ट मार्ग, अहिंसा, परस्पर भ्रातृत्व की भावना का प्रचार किया। वह यज्ञों, बलियों, जाति प्रथा तथा संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं रखते थे। महात्मा बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 24.
महात्मा बुद्ध ने कहाँ तथा कैसे ज्ञान प्राप्त किया ? (How and where the Buddha realised Great Enlightenment?)
उत्तर-
सिद्धार्थ ने गृह त्याग करने के पश्चात् सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न हुई। अतः सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाडियों को लांघ कर गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छः वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर काँटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका। वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान को प्राप्ति हुई। अत: सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

प्रश्न 25.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। , Discuss briefly the teachings of Lord Buddha.)
अथवा
बौद्ध धर्म की कोई पाँच शिक्षाएँ लिखें।
(Write any five teachings of Buddhism.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उनकी शिक्षाओं का आधार चार महान् सत्य हैं—

  1. संसार दुःखों का घर है।
  2. इन दुःखों का कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं।
  3. इन इच्छाओं को त्यागने से मनुष्य के दुःखों का अंत हो सकता है।
  4. इच्छाओं का अंत अष्ट मार्ग पर चलकर किया जा सकता है।

वह अंहिसा में विश्वास रखते थे। वह कर्म सिद्धांत तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। कर्म परछाईं की तरह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भाईचारे की भावना का प्रचार किया। उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा की जा रही लूट-खसूट का विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य यज्ञों और बलि देने से निर्वाण (मुक्ति) की प्राप्ति नहीं कर सकता। वह वेदों और संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं रखते थे। वह कठोर तपस्या के पक्ष में नहीं थे। वह परमात्मा के अस्तित्व के बारे में मौन रहे। उनके अनुसार मानव जीवन का परम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है।

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म के तीन लक्षणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Three Marks in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है। ये तीन लक्षण हैं—

  1. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थायी नहीं (अनित) हैं।
  2. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  3. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं। यह हमारे रोज़ाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं।

महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि (अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं। मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होना। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

प्रश्न 27.
पंचशील पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Panchshila.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे-से-छोटे जीव की भी हत्या न करो।
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो। किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएँ। शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ। बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षओं एवं भिक्षणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है।

ये पाँच नियम हैं—

  1. समय पर भोजन खाएँ
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार-श्रृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म में चार असीम सद्गुणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Four Unlimited Virtues in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं। मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है। यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से ईर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 29.
बौद्ध संघ पर एक नोट लिखें। (Write a note on Buddhist Sangha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध द्वारा स्थापित किए गए संघों में कोई भी पुरुष या स्त्री जिसकी आयु 15 वर्षों से कम न हो इसका सदस्य बन सकता था। सदस्य बनने के लिए उनको घर वालों से आज्ञा लेनी पड़ती थी। किसी भी जाति से संबंधित व्यक्ति संघ का सदस्य बन सकता था, परंतु अपराधियों, रोगियों और दासों को सदस्य नहीं बनाया जाता था। संघ में प्रवेश के समय नए भिक्षु के लिए मुंडन संस्कार करना, तीन पीले कपड़े पहनने और इन शब्दों का उच्चारण करना अनिवार्य था-

  • मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
  • मैं ‘धम्म’ की शरण लेता हूँ।
  • मैं संघ की शरण लेता हूँ। इसके पश्चात् प्रत्येक भिक्षु को 10 आदेशों की पालना करनी पड़ती थी। उसको 10 वर्षों तक किसी भिक्षु से शिक्षा लेनी पड़ती थी। यदि वह अपने नियमों को पूरा करने में सफल हो जाता था तो उसको संघ का सदस्य बना लिया जाता था। नियम का पालन न करने वाले भिक्षुओं को संघ से निकाल दिया जाता था। संघ की सारी कारवाई लोकतंत्रीय नियमों पर आधारित थी।

प्रश्न 30.
बौद्ध धर्म में निर्वाण पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Nirvana in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या भाव है ?
(What is meant by Nirvana in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करने से है। बौद्ध धर्म में निर्वाण संबंधी यह विचार दिया गया है कि यह न जीवन है तथा न मृत्यु। यह कोई स्वर्ग नहीं जहाँ देवते आनंदित हों। इसे शाँति एवं सदैव प्रसन्नता का स्रोत कहा गया है। यह सभी दुःखों, लालसाओं एवं इच्छाओं का अंत है। इसकी वास्तविकता पूरी तरह काल्पनिक है। इसका वर्णन संभव नहीं। निर्वाण की वास्तविकता तथा इसका अर्थ जानने के लिए उसकी प्राप्ति आवश्यक है। जो इस सच्चाई को जानते हैं वे इस संबंध में बातें नहीं करते तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जहाँ अन्य धर्मों में निर्वाण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में भी संभव है।

प्रश्न 31.
हीनयान एवं महायान पर एक नोट लिखें। (Write a note on Hinayana and Mahayana.)
अथवा
बौद्ध धर्म के हीनयान तथा महायान के बारे में जानकारी दें।
(Describe the sect Hinayana and Mahayana of Buddhism.)
उत्तर-
कनिष्क के शासनकाल में प्रथम शताब्दी ई० में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयान से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे—

  1. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  2. हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  3. हीनयान बोधिसत्त्वों में विश्वास नहीं रखते थे। महायान संप्रदाय बोधिसत्त्वों में पूर्ण विश्वास रखते थे। बोधिसत्त्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  4. हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जोकि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  5. हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  6. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अत: हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।

प्रश्न 32.
बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Vajrayana sect of Buddhism ?)
उत्तर-
8वीं शताब्दी में बंगाल तथा बिहार में बौद्ध धर्म का एक नया संप्रदाय अस्तित्व में आया। यह संप्रदाय जादू-टोनों तथा मंत्रों से जुड़ा हुआ था। इस संप्रदाय का विचार था कि जादू की शक्तियों से मुक्ति की प्राप्ति की जा सकती है। इन जादुई शक्तियों को वज्र कहा जाता था। इसलिए इस संप्रदाय का नाम वज्रयान पड़ गया। इस संप्रदाय में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हो सकते थे। इस संप्रदाय में देवियों का महत्त्व बहुत बढ़ गया था। समझा जाता था कि इन देवियों द्वारा बोधिसत्त्व तक पहुँचा जा सकता है। इन देवियों को तारा कहा जाता था। ‘महानिर्वाण तंत्र’ वज्रयान की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक थी। वज्रयान की धार्मिक पद्धति को तांत्रिक भी कहते हैं। बिहार राज्य में वज्रयान का सबसे महत्त्वपूर्ण विहार विक्रमशिला में स्थित है। वज्रयान शाखा ने अपने अनुयायियों को मादक पदार्थों का सेवन करने, माँस भक्षण तथा स्त्रीगमन की अनुमति देकर बौद्ध धर्म के पतन का डंका बजा दिया।

प्रश्न 33.
बौद्ध स्त्रोत। (Buddhist Sources.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य की तरह बौद्ध साहित्य भी काफी विस्तृत है। बौद्ध साहित्य की रचना पालि तथा संस्कृत भाषाओं में की गई है। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ये बौद्ध धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। त्रिपिटकों के नाम सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेशों, विनयपिटक में भिक्षु-भिक्षुणियों से संबंधित नियमों तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन के संबंध में जानकारी दी गई है। जातक कथाएँ जिनकी संख्या 549 है, में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों का वर्णन किया गया है। इनमें हमें ईसा पूर्व तीसरी सदी से दूसरी सदी तक की भारतीय समाज की धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। मिलिंदपन्हों नामक ग्रंथ से हमें यूनानी शासक मीनांदर के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। कथावथु जिसकी रचना मोग्गलीपुत्त तिम्स ने की थी में राजा अशोक पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। बुद्धचरित सौंदरानंद वथा महाविभाष से हमें कुषाण वंश की जानकारी प्राप्त होती है। दीपवंश एवं महावंश भारत के श्रीलंका के साथ संबंधों पर प्रकाश डालते हैं।

प्रश्न 34.
त्रिपिटक क्या हैं ? इनका ऐतिहासिक महत्त्व क्या है ? (What are Tripitakas ? What is their historical importance ?)
अथवा
त्रिपिटक क्या हैं ?
(What are Tripitakas ?)
उत्तर-
त्रिपिटक बौद्ध धर्म में सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। पिटक का अर्थ है ‘टोकरी’ जिसमें इन ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था। त्रिपिटकों के नाम सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। ये पालि भाषा में लिखित हैं। सुत्तपिटक को पिटकों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें महात्मा बुद्ध के उपदेशों का वर्णन किया गया है। यह पाँच भागों दीर्घ निकाय, मझिम निकाय, संपुत निकाय, अंगतुर निकाय तथा खुदक निकाय में विभाजित है। खुदक निकाय में धम्मपद का वर्णन किया गया है। धम्मपद का बौद्ध भिक्षु उसी प्रकार रोजाना पाठ करते हैं जैसे सिख जपुजी साहिब का तथा हिंदू गीता का। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के आचरण से संबंधित नियम दिए गए हैं। इसमें इस बात का भी वर्णन किया गया है कि बौद्ध भिक्षुओं के लिए कौन-सी वस्तुएँ पाप हैं तथा उनका प्रायश्चित किस प्रकार किया जा सकता है। अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन के संबंध में जानकारी दी गई है। त्रिपिटकों के अध्ययन से हमें केवल बौद्ध धर्म के संबंध में ही नहीं अपितु तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में संबंध के भी काफी मूल्यवान् जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 35.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the First Great Council of Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के शीघ्र पश्चात् ही 487 ई० पू० राजगृह में बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम महासभा का आयोजन किया गया। राजगृह मगध के शासक अजातशत्रु की राजधानी थी। अजातशत्रु के संरक्षण में ही इस महासभा का आयोजन किया गया था। इस महासभा की आयोजित करने का उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणिक उपदेशों को एकत्र करना था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता महाकश्यप ने की थी। इस महासभा में त्रिपिटकों-विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक की रचना की गई। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं संबंधी नियम, सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का वर्णन किया गया है। त्रिपिटकों के अतिरिक्त आरोपों की छानबीन करके महात्मा बुद्ध के परम शिष्य आनंद को दोष मुक्त कर दिया गया जबकि सारथी चन्न को उसके उदंड व्यवहार के कारण दंडित किया गया।

प्रश्न 36.
दूसरी बौद्ध महासभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on the Second Great Council of Buddhism.)
उत्तर-
प्रथम महासभा के ठीक 100 वर्षों के पश्चात् 387 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया। इस महासभा का आयोजन मगध शासक कालाशोक ने किया था। इस महासभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इस सभा का आयोजन करने का कारण यह था कि बौद्ध संघ में संबंधित दस नियमों ने भिक्षुओं में मतभेद उत्पन्न कर दिए थे। इन नियमों के संबंध में काफी दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा, किंतु भिक्षुओं के मतभेद दूर न हो सके। परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षु दो संप्रदायों में बंट गए। इनके नाम स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक थे। स्थविरवादी नवीन नियमों के विरुद्ध थे। वे बुद्ध के नियमों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। महासंघिक परंपरावादी नियमों में कुछ परिवर्तन करना चाहते थे ताकि बौद्ध संघ के अनुशासन की कठोरता को कुछ कम किया जा सके। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक भिक्षुओं को निकाल दिया गया।

प्रश्न 37.
तीसरी बौद्ध महासभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Third Buddhist Council.)
उत्तर-
दूसरी महासभा के आयोजन के बाद बौद्ध धर्म 18 शाखाओं में विभाजित हो गया था। इनके आपसी मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म की उन्नति को गहरा धक्का लगा। बौद्ध धर्म की पुनः प्रगति के लिए तथा इस धर्म में आई कुप्रथाओं को दूर करने के उद्देश्य से महाराजा अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में 251 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की तीसरी महासभा का आयोजन किया। इस महासभा में 1000 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। इस महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। यह महासभा 9 माह तक चलती रही। यह महासभा बौद्ध धर्म में आईं अनेक कुप्रथाओं को दूर करने में काफी सीमा तक सफल रही। इस महासभा से थेरावादी भिक्षुओं के सिद्धांतों को न मानने वाले भिक्षुओं को निकाल दिया गया था। इस महासभा में कथावथु नामक ग्रंथ की रचना की गई। इस महासभा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध प्रचारकों को भेजना था।

प्रश्न 38.
चौथी बौद्ध महासभा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Fourth Great Council ?)
उत्तर-
महाराजा अशोक की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध भिक्षुओं के मतभेद पुन: बढ़ गए थे। इन मतभेदों को दूर करने के उद्देश्य से कुषाण शासक कनिष्क ने जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा का आयोजन प्रथम शताब्दी ई० में किया गया था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। वसुमित्र ने महाविभाष नामक ग्रंथ की रचना की जिसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा जाता है। इस महासभा में सम्मिलित एक अन्य विद्वान् अश्वघोष ने बुद्धचरित नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन किया गया है। इस महासभा में मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान तथा महायान में विभाजित हो गया। कनिष्क ने महायान संप्रदाय का समर्थन किया।

प्रश्न 39.
बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अशोक ने क्या प्रयास किए ? (What steps were taken by Ashoka for the spread of Buddhism ?)
उत्तर-
अशोक ने बौद्ध धर्म को फैलाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उससे पहले बौद्ध मत बहुत ही कम लोगों तक सीमित था। अशोक ने इस धर्म को अपनाकर इसमें एक नई रूह फूंक दी। उसने बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से इसे राज्य धर्म घोषित किया। इसका सारे राज्य भर में व्यापक प्रचार किया गया। बौद्ध
धर्म के प्रचार के लिए महामात्रों को नियुक्त किया गया। अशोक ने बौद्ध धर्म से संबंधित तीर्थ स्थानों की यात्राएँ की। समस्त राज्य में बौद्ध विहार तथा स्तूप बनवाए। पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा बुलाई। विदेशों में बौद्ध धर्म के लिए धर्म प्रचारकों को भेजा। श्रीलंका में अशोक का अपना पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा गए थे। अशोक के इन अथक यत्नों से बौद्ध धर्म संसार का एक महान् धर्म बन गया।

प्रश्न 40.
बौद्ध धर्म की भारतीय संस्कृति को क्या देन है ?
(What is the legacy of Buddhism to Indian Civilization ?)
उत्तर-
भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। समाज में एकता लाने के लिए महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक जाति के लोगों को अपने धर्म में सम्मिलित होने की अनुमति दी। स्त्रियों को बौद्ध धर्म में सम्मिलित करके उन्हें एक नया सम्मान दिया। उन्होंने लोगों को व्यर्थ के रीति-रिवाजों को त्यागने और सादा जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया। महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघों की स्थापना करके लोकतंत्र प्रणाली की नींव रखी। इन के सदस्य लोगों द्वारा गुप्त मतदान से चुने जाते थे। इनमें निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। बौद्ध धर्म की भवन निर्माण कला, मूर्तिकला, चित्रकला के क्षेत्रों में बहुत महान् देन है। गंधार, मथुरा और अमरावती महात्मा बुद्ध की सुंदर मूर्तियों के कारण आज भी प्रसिद्ध हैं। बौद्ध मत के बारे में लिखे गए धार्मिक ग्रंथों से हमें उस समय की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर कई राजाओं अशोक, कनिष्क और हर्ष आदि ने लोक कल्याण के अथक कार्य किए। बौद्ध धर्म के कारण भारत के विदेशों से मित्रतापूर्वक संबंध स्थापित हुए।

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प्रश्न 41.
स्तूप पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Stupa.)
उत्तर-
स्तूप बुद्ध के परिनिर्वाण (मुक्ति) के चिन्ह थे। यह एक अर्द्ध-गोलाकार गंबद होता था जिसके मध्य में स्थित एक छोटे-से कमरे में बुद्ध के अवशेष रखे जाते थे। कला के पक्ष से इन स्तूपों का बहुत महत्त्व था। अमरावती का स्तूप जोकि तमिलनाडु राज्य में है साँची एवं भरहुत के स्तूप जो मध्य प्रदेश में हैं, की उत्तम कला को देखकर व्यक्ति चकित रह जाता है। स्तूपों पर की गई नक्काशी की कला भी कम प्रभावशाली नहीं है। लकड़ी पर की गई नक्काशी के नमूने तो बहुत देर तक सुरक्षित न रह सके, परंतु अमरावती और साँची की पत्थर से बनी हुई दीवारों पर की गई सुंदर नक्काशी को आज भी देखा जा सकता है। इन पर बुद्ध के जन्म, गृह-त्याग, ज्ञान प्राप्ति, धर्म चक्कर परिवर्तन का पहला प्रवचन और महापरिनिर्वाण से संबंधित चित्रों को बड़े आकर्षक ढंग से दर्शाया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म का संस्थापक कौन था ?
अथवा
बौद्ध धर्म के बानी कौन थे ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध।

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म कितने वर्ष पुराना है ?
उत्तर-
2500 वर्ष।

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
छठी शताब्दी ई० पू० में।

प्रश्न 4.
बौद्ध धर्म के उत्थान का कोई एक कारण लिखो।
उत्तर-
हिंदू धर्म की जटिलता।

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
566 ई० पू० में।

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ ?
उत्तर-
लुंबिनी में।

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का जन्म 566 ई० पू० में लुंबिनी में हुआ।

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध के पिता जी का नाम बताएँ।
अथवा
महात्मा बुद्ध के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
शुद्धोधन।

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध के पिता जी किस गणराज्य के मुखिया थे ?
उत्तर-
शाक्य गणराज्य।

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध की माता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
महामाया।

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध के जन्म के कितने दिनों के बाद उनकी माता जी की मृत्यु हो गई थी ?
उत्तर-
7 दिन।

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प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध का पालन किसने किया था ?
उत्तर-
प्रजापति गौतमी ने।

प्रश्न 13.
महात्मा बुद्ध का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
सिद्धार्थ।

प्रश्न 14.
महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान और बचपन का नाम क्या था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ तथा उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।

प्रश्न 15.
महात्मा बुद्ध का विवाह किसके साथ हुआ था ?
उत्तर-
यशोधरा के साथ।

प्रश्न 16.
महात्मा बुद्ध के पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर-
राहुल।

प्रश्न 17.
महात्मा बुद्ध की पत्नी तथा पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम यशोधरा और पुत्र का नाम राहुल था।

प्रश्न 18.
महात्मा बुद्ध के रथवान का क्या नाम था ?
उत्तर-
चन्न।

प्रश्न 19.
महात्मा बुद्ध के जीवन पर कितने दृश्यों का प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
चार दृश्यों का।

प्रश्न 20.
महान् त्याग के समय महात्मा बुद्ध की आयु क्या थी ?
उत्तर-
29 वर्ष।

प्रश्न 21.
महात्मा बुद्ध ने गृह त्याग के पश्चात् किसे अपना प्रथम गुरु धारण किया ?
उत्तर-
अरध कलाम को।

प्रश्न 22.
महात्मा बुद्ध को सत्य की प्राप्ति किस स्थान पर हुई ?
उत्तर-
बोध गया में।

प्रश्न 23.
ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु क्या थी ?
उत्तर-
35 वर्ष।

प्रश्न 24.
तथागत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तथागत से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जिसने सत्य को प्राप्त कर लिया हो।

प्रश्न 25.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन किस स्थान पर दिया था ?
उत्तर-
सारनाथ में।

प्रश्न 26.
धर्मचक्र परिवर्तन किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
सारनाथ में।

प्रश्न 27.
धर्मचक्र परिवर्तन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध द्वारा पाँच साथियों को बौद्ध धर्म में सम्मिलित करने की घटना को धर्मचक्र परिवर्तन कहा जाता है।

प्रश्न 28.
महात्मा बुद्ध के किन्हीं दो प्रसिद्ध प्रचार केंद्रों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. मगध
  2. वैशाली।

प्रश्न 29.
मगध के किन दो शासकों ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया था?
उत्तर-

  1. बिंबिसार
  2. अजातशत्रु।

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प्रश्न 30.
महात्मा बुद्ध ने कहाँ निर्वाण प्राप्त किया था ?
उत्तर-
कुशीनगर में।

प्रश्न 31.
महात्मा बुद्ध की निर्वाण प्राप्ति के समय आयु कितनी थी ?
उत्तर-
80 वर्ष।

प्रश्न 32.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार किस भाषा में किया ?
उत्तर–
पालि भाषा में।

प्रश्न 33.
बौद्ध धर्म कितने महान् सत्यों में विश्वास रखता है ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 34.
बौद्ध धर्म के किसी एक महान् सत्य के बारे में बताएँ।
उत्तर-
संसार दुखों से भरा हुआ है।

प्रश्न 35.
बौद्ध धर्म में कितने लक्षणों का वर्णन किया गया है?
उत्तर-
तीन।

प्रश्न 36.
बौद्ध धर्म में गृहस्थियों के लिए किस सिद्धांत का पालन आवश्यक बताया है ?
उत्तर-
पंचशील की।

प्रश्न 37.
पंचशील को किस अन्य नाम से भी जाना जाता है ?
उत्तर-
शिक्षापद के नाम से।

प्रश्न 38.
पंचशील के किसी एक सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर-
छोट-से-छोटे जीव की भी हत्या न करें।

प्रश्न 39.
बौद्ध धर्म में कितने असीम सद्गुणों की पालना करने को कहा गया है ?
उत्तर-
चार असीम सद्गुणों की।

प्रश्न 40.
बौद्ध धर्म के किसी एक असीम सद्गुण का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए।

प्रश्न 41.
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या भाव है ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म में निर्वाण से भाव उस दशा से है जहाँ मनुष्य के सभी दुखों का अंत हो जाता है।

प्रश्न 42.
बौद्ध संघ में प्रवेश के समय भिक्षु को क्या शपथ लेनी पड़ती थी ?
उत्तर-
“मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।”

प्रश्न 43.
बौद्ध संघ में सम्मिलित होने के लिए किसी व्यक्ति के लिए कम-से-कम कितनी आयु निश्चित की गई थी ?
उत्तर-
15 वर्ष।

प्रश्न 44.
बौद्ध संघ में सम्मिलित होने वाले सदस्यों के लिए कितने नियमों का पालन आवश्यक था ?
उत्तर-
10 नियमों का।

प्रश्न 45.
बौद्ध संघ में किनको शामिल नहीं किया जाता था ?
उत्तर-
बौद्ध संघ में अपराधियों, रोगियों तथा दासों को शामिल नहीं किया जाता था।

प्रश्न 46.
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों के नाम लिखें।
अथवा
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय कौन-कौन से हैं ?
अथवा
बुद्ध धर्म कौन-सी दो शाखाओं में बाँटा गया था ?
उत्तर-
हीनयान तथा महायान।

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प्रश्न 47.
हीनयान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हीनयान से अभिप्राय है छोटा चक्कर।

प्रश्न 48.
महायान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
महायान से अभिप्राय है बड़ा चक्कर।

प्रश्न 49.
बौद्ध धर्म की महायान शाखा किस सम्राट के शासन काल में अस्तित्व में आई ?
उत्तर-
कनिष्क के शासन काल में।

प्रश्न 50.
बौद्ध धर्म के त्रिपिटकों के नाम बताएँ।
उत्तर-
सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक।

प्रश्न 51.
त्रिपिटक किस भाषा में लिखे गए हैं ?
उत्तर–
पालि भाषा में।

प्रश्न 52.
किस पिटक में बुद्ध के उपदेशों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
सुत्तपिटक में।

प्रश्न 53.
किस पिटक में बौद्ध संघ के नियमों पर प्रकाश डाला गया है ?
उत्तर-
विनयपिटक में।

प्रश्न 54.
अभिधम्मपिटक का मुख्य विषय क्या है ?
उत्तर-
बौद्ध दर्शन।

प्रश्न 55.
जातक क्या है ?
उत्तर-
जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएँ दी गई हैं।

प्रश्न 56.
जातकों की कुल संख्या कितनी है ?
उत्तर-
549.

प्रश्न 57.
पातीमोख क्या है ?
उत्तर-
इसमें विनयपिटक में वर्णित नियमों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

प्रश्न 58.
बौद्ध धर्म के किस ग्रंथ को बौद्ध गीता कहा जाता है ?
उत्तर-
धम्मपद ग्रंथ को।

प्रश्न 59.
किस बौद्ध ग्रंथ में नागसेन एवं यूनानी शासक मिनांदर के वार्तालाप का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
मिलिंदपन्हो में।

प्रश्न 60.
बौद्ध धर्म से संबंधित श्रीलंका में किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की गई ?
उत्तर-
दीपवंश।

प्रश्न 61.
पालि भाषा में लिखे गए किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम लिखें।
उत्तर-
त्रिपिटक।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 62.
संस्कृत भाषा में लिखे गए किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम लिखें।
उत्तर-
बुद्धचरित।

प्रश्न 63.
बुद्धचरित का लेखक कौन था ?
उत्तर-
अश्वघोष।

प्रश्न 64.
नागार्जुन ने किस बौद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
मध्यमकसूत्र।

प्रश्न 65.
किसी एक प्रसिद्ध अवदान पुस्तक का नाम लिखें।
उत्तर-
दिव्यावदान।

प्रश्न 66.
शिक्षा सम्मुचय का लेखक कौन था ?
उत्तर-
शाँति देव।

प्रश्न 67.
प्रथम बौद्ध महासभा कब आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
487 ई० पू० में।

प्रश्न 68.
प्रथम बौद्ध महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
राजगृह में।

प्रश्न 69.
प्रथम बौद्ध महासभा का अध्यक्ष कौन था ?
उत्तर-
महाकश्यप।

प्रश्न 70.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा किस शासक ने आयोजित की थी ?
उत्तर-
अजातशत्रु ने।

प्रश्न 71.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा में कौन-से ग्रंथ तैयार किए गए थे ?
उत्तर-
त्रिपिटक।

प्रश्न 72.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा कब आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
387 ई० पू० में।

प्रश्न 73.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा कहाँ आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
वैशाली में।

प्रश्न 74.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा में कौन-से दो संप्रदाय अस्तित्व में आए ?
उत्तर-
महासंघिक तथा थेरावादी।

प्रश्न 75.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
पाटलिपुत्र में।

प्रश्न 76.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
उत्तर-
251 ई० पू० में।

प्रश्न 77.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
उत्तर-
मोग्गलिपुत्त तिस्स ने।

प्रश्न 78.
मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
कथावथु नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की।

प्रश्न 79.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन किस शासक ने किया था ?
उत्तर-
कनिष्क ने।

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प्रश्न 80.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
जालंधर में।

प्रश्न 81.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
उत्तर-
वसुमित्र ने।

प्रश्न 82.
वसुमित्र ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
महाविभास नामक ग्रंथ की।

प्रश्न 83.
बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
बोधिसत्त्व किसको कहते हैं ? ।
उत्तर-
बोधिसत्त्व से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जो लोगों की भलाई के लिए बार-बार जन्म लेता है।

प्रश्न 84.
बौद्ध धर्म का प्रचार कौन-से राजा ने किया ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म का प्रचार राजा अशोक ने किया।

प्रश्न 85.
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए क्या किया ? कोई एक बिंदु दें।
उत्तर-
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित किया।

प्रश्न 86.
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए किसे श्रीलंका भेजा ?
उत्तर-
अपनी पुत्री संघमित्रा एवं पत्र महेंद्र को।

प्रश्न 87.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किस शासक ने किया था ?
अथवा
बौद्ध धर्म की किस राजा ने सरपरस्ती की ?
उत्तर-
महाराजा अशोक ने।

प्रश्न 88.
कौन-से दो राजाओं ने बौद्ध धर्म का विकास किया ?
उत्तर-
महाराजा अशोक और महाराजा कनिष्क।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1.
महात्मा बुद्ध का जन्म ………… में हुआ।
उत्तर-
566 ई०पू०

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म …………में हुआ।
उत्तर-
लुंबिनी

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध के पिता का नाम ……….. था।
उत्तर-
शुद्धोधन

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध की माता का नाम ………… था।
उत्तर-
महामाया

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम …………. था।
उत्तर-
सिद्धार्थ

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम ………… था।
उत्तर-
यशोधरा

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध के गृह त्याग के समय उनकी आयु ……….. थी।
उत्तर-
29 वर्ष

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति ……….. में हुई।
उत्तर-
बौद्ध गया

प्रश्न 9.
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश ………. में दिया।
उत्तर-
सारनाथ

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध ने महापरिनिर्वाण ……….. में प्राप्त किया था।
उत्तर-
कुशीनगर

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प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध ने ……….. में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
486 ई० पू०

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध ………… महान् सच्चाइयों में विश्वास रखते थे।
उत्तर-
चार

प्रश्न 13.
अष्ट मार्ग को ………… मार्ग भी कहा जाता है।
उत्तर-
मध्य

प्रश्न 14.
बौद्ध धर्म …………… लक्षणों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
तीन

प्रश्न 15.
बौद्ध धर्म ………….. नियमों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
पाँच

प्रश्न 16.
बौद्ध धर्म ………… सामाजिक सद्गुणों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
चार

प्रश्न 17.
बौद्ध संघ में शामिल होने के लिए कम से कम आयु ………… वर्ष निश्चित की गई है।
उत्तर-
15

प्रश्न 18.
बौद्ध संघ के सदस्यों को ………….. नियमों की पालना करनी पड़ती है।
उत्तर-
10

प्रश्न 19.
………. के समय बौद्ध धर्म की महायान शाखा का जन्म हुआ।
उत्तर-
निष्क

प्रश्न 20.
………….. में बौद्धी भिक्षुओं और भिक्षुणियों के दैनिक जीवन संबंधी नियमों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-
विनयपिटक

प्रश्न 21.
जातक कथाओं की कुल संख्या ……….. है।
उत्तर-
549

प्रश्न 22.
……….. नामक ग्रंथ की रचना श्री लंका में की गई थी।
उत्तर-
दीपवंश

प्रश्न 23.
बौद्ध चरित्र का लेखक ……… था।
उत्तर-
अश्वघोष

प्रश्न 24.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन …………. में किया गया।
उत्तर-
487 ई० पू०

प्रश्न 25.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन ………… ने किया था।
उत्तर-
अजातशत्रु

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन …………. में हुआ था।
उत्तर-
वैशाली

प्रश्न 27.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन ……….. में किया गया था।
उत्तर-
पाटलिपुत्र

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन ………….. ने किया था।
उत्तर-
कनिष्क

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए महाराजा अशोक ने अपनी पुत्री ……….. को श्री लंका भेजा था।
उत्तर-

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नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1.
महात्मा बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म 546 ई० पू० में हुआ।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम महामाया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के जीवन में चार महान् दृश्यों का गहरा प्रभाव पड़ा।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध के महान् त्याग के समय उनकी आयु 35 वर्ष थी।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध को बौद्ध गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध को वैसाख की पूर्णमासी वाले दिन ज्ञान प्राप्त हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वैशाली में दिया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध ने 72 वर्ष की आयु में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध ने कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार पालि भाषा में किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
बौद्ध धर्म पाँच पावन सच्चाइयों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 14.
बौद्ध धर्म अष्ट मार्ग में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
बौद्ध धर्म अहिंसा में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
बौद्धी संध में शामिल होने के लिए कम से कम आयु 20 वर्ष निश्चित की गई है।
उत्तर-
ग़लत

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प्रश्न 18.
बौद्ध धर्म पँचशील में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
बौद्ध धर्म की महायान शाखा का जन्म अशोक के समय हुआ था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 20.
बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा जादू-ट्रनों और मंत्रों में विश्वास रखती थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 21.
बौद्ध धर्म के त्रिपिटक नामक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गए थे।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 22.
बौद्धियों के लिए बनाए गए नियम पातीमोख में दिए गए हैं।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 23.
धर्मपद बौद्धी गीतों के नाम से प्रसिद्ध है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 24.
कथावथु का लेखक मोग्गलिपुत्त तिस्स था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
महावंश चीन में लिखी गई बौद्धियों की एक प्रसिद्ध पुस्तक है।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 26.
अश्वघोष ने बौद्ध चरित की रचना की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27.
लंकावतार महायानियों का एक प्रमुख ग्रंथ है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा की अध्यक्षता साबाकामी ने की थी।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन 487 ई० पू० में किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 30.
बौद्धियों की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 31.
बौद्धियों की तीसरी महासभा का आयोजन 251 ई० पू० में हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 32.
बौद्धियों की चौथी महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। ,
उत्तर-
ग़लत

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प्रश्न 33.
महाराजा अशोक ने अपनी पुत्र संघमित्रा को चीन में बौद्ध मत के प्रचार के लिए भेजा था।
उत्तर-
ग़लत

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा कारण बौद्ध धर्म के जन्म के लिए उत्तरदायी नहीं था ?
(i) हिंदू धर्म की सादगी
(ii) ब्राह्मणों का नैतिक पतन
(iii) जटिल जाति प्रथा
(iv) महापुरुषों का जन्म।
उत्तर-
(i) हिंदू धर्म की सादगी

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ था ?
(i) 466 ई० पू०
(ii) 566 ई० पू०
(iii) 577 ई० पू०
(iv) 599 ई० पू०।
उत्तर-
(ii) 566 ई० पू०

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ था ?
(i) वैशाली
(ii) कौशल
(iii) कुशीनगर
(iv) लुंबिनी।
उत्तर-
(iv) लुंबिनी।

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) शुद्धोधन
(ii) सिद्धार्थ
(iii) गौतम
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i) शुद्धोधन

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम क्या था ?
(i) महामाया
(ii) प्रजापति गौतमी
(iii) यशोधरा
(iv) देवकी।
उत्तर-
(i) महा

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) शुद्धोधन
(ii) वर्धमान
(iii) सिद्धार्थ
(iv) राहुल।
उत्तर-
(ii) वर्धमान

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध ने कितने दृश्यों को देखकर ग्रह त्याग का निर्णय किया ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 6
(iv) 8.
उत्तर-
(ii) 4

प्रश्न 8.
गृह त्याग के समय महात्मा बुद्ध की आयु कितनी थी ?
(i) 25 वर्ष
(ii) 27 वर्ष
(iii) 29 वर्ष
(iv) 35 वर्ष।
उत्तर-
(iii) 29 वर्ष

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प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति हुई थी ?
(i) अंग
(ii) राजगृह
(iii) वैशाली
(iv) बौद्धगया।
उत्तर-
(iv) बौद्धगया।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया ?
(i) कपिलवस्तु
(ii) लुंबिनी
(iii) कुशीनगर
(iv) सारनाथ।
उत्तर-
(iv) सारनाथ।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था ?
(i) कुशीनगर
(ii) कौशल
(iii) विदेह
(iv) कपिलवस्तु।
उत्तर-
(i) कुशीनगर

प्रश्न 12.
महापरिनिर्वाण प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु कितनी थी ?
(i) 45 वर्ष
(ii) 55 वर्ष
(iii) 80 वर्ष
(iv) 85 वर्ष ।
उत्तर-
(iii) 80 वर्ष

प्रश्न 13.
बौद्ध धर्म कितनी पावन सच्चाइयों में विश्वास रखता था ?
(i) 4
(ii) 5
(iii) 6
(iv) 7
उत्तर-
(i) 4

प्रश्न 14.
अष्टमार्ग का संबंध किस धर्म के साथ है ?
(i) जैन धर्म के साथ
(i) बौद्ध धर्म के साथ
(iii) इस्लाम के साथ
(iv) पारसी धर्म के साथ।
उत्तर-
(i) बौद्ध धर्म के साथ

प्रश्न 15.
बौद्ध धर्म कितने लक्षणों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 6
उत्तर-
(i) 3

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है ?
(i) महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे।
(ii) वे परस्पर भातृत्व में विश्वास रखते थे।
(iii) वे यज्ञों व बलियों में विश्वास रखते थे।
(iv) वे अहिंसा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-
(iii) वे यज्ञों व बलियों में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 17.
बौद्ध संघ में शामिल होने के लिए कम-से-कम कितनी आयु निश्चित की गई थी ?
(i) 15
(ii) 20
(iii) 30
(iv) 40
उत्तर-
(i) 15

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प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से किस संप्रदाय का संबंध बौद्ध धर्म के साथ नहीं है ?
(i) हीनयान
(ii) महायान
(iii) दिगंबर
(iv) वज्रयान।
उत्तर-
(iii) दिगंबर

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सा ग्रंथ बौद्ध धर्म के साथ संबंधित नहीं है ?
(i) त्रिपिटक
(ii) आचारंग सूत्र
(iii) दीपवंश
(iv) सौंदरानंद।
उत्तर-
(i) त्रिपिटक

प्रश्न 20.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार किस भाषा में किया था ?
(i) पालि में
(ii) संस्कृत में
(iii) हिंदी में
(iv) अर्ध मगधी में।
उत्तर-
(i) पालि में

प्रश्न 21.
निम्नलिखित में से कौन बौद्ध चरित का लेखक था ?
(i) महात्मा बुद्ध
(ii) अश्वघोष
(iii) नागार्जुन
(iv) शांति देव।
उत्तर-
(i) महात्मा बुद्ध

प्रश्न 22.
निम्नलिखित में से कौन-सी पुस्तक श्रीलंका में लिखी गई थी ?
(i) त्रिपिटक
(iI) दीपवंश
(iii) बौद्धचरित
(iv) ललित विस्तार।
उत्तर-
(Ii) दीपवंश

प्रश्न 23.
निम्नलिखित में से कौन-सी पुस्तक बौद्धी गीतों के नाम से प्रसिद्ध है ?
(i) जातक
(ii) पातीमोख
(iii) धमपद
(iv) महावंश।
उत्तर-
(iii) धमपद

प्रश्न 24.
जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म के साथ संबंधित कितनी कथाएँ प्रचलित हैं ?
(i) 549
(ii) 649
(iii) 749
(iv) 849.
उत्तर-
(i) 549

प्रश्न 25.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
(i) 485 ई० पू०
(ii) 486 ई० पू०
(iii) 487 ई० पू०
(iv) 488 ई० पू०।
उत्तर-
(iii) 487 ई० पू०

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
(i) राजगृह में
(ii) लुंबिनी में
(iii) कपिलवस्तु में
(iv) कुशीनगर में।
उत्तर-
(i) राजगृह में

प्रश्न 27.
त्रिपिटक नामक ग्रंथ बौद्ध धर्म की किस महासभा में लिखे गए थे ?
(i) पहली महासभा में
(ii) दूसरी महासभा में
(iii) तीसरी महासभा में
(iv) चौथी महासभा में।
उत्तर-
(i) पहली महासभा में

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प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
(i) 384 ई० पू०
(ii) 385 ई० पू०
(iii) 386 ई० पू०
(iv) 387 ई० पू०
उत्तर-
(iv) 387 ई० पू०

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) अजातशत्रु
(ii) कालासोक
(iii) महाकश्यप
(iv) अशोक।
उत्तर-
(i) अजातशत्रु

प्रश्न 30.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) 251 ई० पू०
(ii) 254 ई० पू०
(iii) 255 ई० पू०
(iv) 257 ई० पू०।
उत्तर-
(i) 251 ई० पू०

प्रश्न 31.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
(i) पाटलिपुत्र में
(ii) वैशाली में
(iii) राजगृह में
(iv) लुंबिनी में।
उत्तर-
(i) पाटलिपुत्र में

प्रश्न 32.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) अजातशत्रु ने
(ii) अशोक ने
(iii) हर्षवर्धन ने
(iv) कनिष्क ने।
उत्तर-
(ii) अशोक ने

प्रश्न 33.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
(i) महाकश्यप ने
(ii) सभाकामी ने
(iii) मोग्गलिपुत्त तिस्स ने
(iv) वसुमित्र ने।
उत्तर-
(iv) वसुमित्र ने।

प्रश्न 34.
महाराजा अशोक ने निम्नलिखित में से किसे श्रीलंका में प्रसार के लिए भेजा था ?
(i) राहुल को
(ii) आनंद को
(iii) आम्रपाली को
(iv) महेंद्र को।
उत्तर-
(iv) महेंद्र को।