PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 15 लोहड़ी

Punjab State Board PSEB 5th Class Hindi Book Solutions Chapter 15 लोहड़ी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 5 Hindi Chapter 15 लोहड़ी (2nd Language)

लोहड़ी अभ्यास

नीचे गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में दिये गये शब्दों को पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखने का अभ्यास करो :

  • ਲੋਹੜੀ = लोहड़ी
  • ਭੱਟੀ = भट्टी
  • ਲੋਕਗੀਤ = लोकगीत
  • ਪੰਜਾਬ = पंजाब
  • ਰੇਵੜੀਆਂ = रेवड़ियाँ
  • ਮੂੰਗਫਲੀ = मूंगफली
  • ਗਿੱਦਾ = गिद्दा
  • ਭੰਗੜਾ = भंगड़ा

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 15 लोहड़ी

नीचे एक ही अर्थ के लिए पंजाबी और हिंदी भाषा में शब्द दिये गये हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखो :

  • ਸਾਲੂ = दुपट्टा
  • ਪਾਥੀਆਂ = उपले
  • ਗੋਹਾ = गोबर
  • ਵਿਹੜਾ = आँगन
  • ਕੁੜੀ = लड़की
  • ਮੱਕੀ = मकई

पढ़ो, समझो और लिखो

(क) न् + द = न्द = सुदंर, आनन्द
त् + य = त्य = त्योहार
ध् + य = ध्य = मध्य

(ख) ल् + ल = ल्ल = दुल्ला, मोहल्ला
क = क्क = शक्कर, चक्कर
ट् + ट = ट्ट =भट्टी, लुट्टी
ग् + ग = ग्ग = भुग्गा

लोहड़ी शब्दार्थ Meaning

  • लोकगीत = साधारण जनता में प्रचलित गीत
  • उपले = गोबर में तूड़ी आदि मिलाकर हाथों से थोप पीटकर बनाई गई टिकिया,
  • गिद्दा = स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला पंजाबी लोकनृत्य
  • पोले = जूते
  • भंगड़ा = बड़े ढोल के ताल पर होने वाला पंजाबी लोकनृत्य

बताओ

प्रश्न 1.
लोहड़ी का त्योहार किस महीने में मनाया जाता है?
उत्तर :
ला गाहार जनतरी पहा। मना५. गाता है।

प्रश्न 2.
इस त्योहार को मनाने के लिए बच्चे क्या-क्या तैयारियाँ करते हैं?
उत्तर :
इस त्योहार को मनाने के लिए बच्चे टोलियाँ बनाकर घर-घर जाते हैं और लोहड़ी का गीत गाकर लोहड़ी माँगते हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 15 लोहड़ी

प्रश्न 3.
लकड़ियाँ किस आकार में चिनी जाती हैं?
उत्तर :
लकड़ियाँ गोलाकार में चिनी जाती हैं।

प्रश्न 4.
जलती हुई आग में क्या-क्या डाला जाता है?
उत्तर :
जलती हुई आग में तिल, रेवड़ियाँ आदि डाली जाती हैं।

प्रश्न 5.
लोहड़ी वाले दिन लोग क्या-क्या खाते हैं?
उत्तर :
लोहड़ी वाले दिन लोग, मँगफली, रेवड़ियाँ, गचक, भुग्गा और मकई के दाने आदि खाते हैं।

पढ़ो, समझो और लिखो

(क) लड़की = लड़कियाँ

  1. लड़का = लड़के
  2. टोली = …………………………
  3. उपला = …………………………
  4. लकड़ी = …………………………
  5. मुहल्ला = …………………………
  6. रेवड़ी = …………………………
  7. दाना = …………………………

उत्तर :
लड़की = लड़कियाँ।

  1. टोली = टोलियाँ।
  2. लकड़ी = लकड़ियाँ।
  3. रेवड़ी = रेवड़ियाँ।
  4. लड़का = लड़के।
  5. उपला = उपलें।
  6. मुहल्ला = मुहल्ले।
  7. दाना = दाने।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 15 लोहड़ी

इनसे नये शब्द बनाओ

  1. न्द
  2. त्य
  3. ध्य
  4. ट्ट
  5. ग्ग।

उत्तर :

  1. न्द = आनन्द।
  2. त्य = त्याग।
  3. ध्य = ध्यान।
  4. ट्ट = भट्ट।
  5. ग्ग = चुग्गा।

रचनात्मक अभिव्यक्ति
1. लोहड़ी के समय गाये जाने वाले अन्य गीत याद करें और स्कूल में या घर में लोहड़ी के त्योहार पर उन्हें सुनायें।
2. अध्यापक से पता करें कि साल में कितने महीने होते हैं? सभी महीनों के नाम लिखें।
3. आपके परिवेश में मनाये जाने वाले सभी त्योहारों की सूची बनायें और पता करें कि कौन सा त्योहार किस महीने में मनाया जाता है?

लोहड़ी बहुवैकल्पिक प्रश्न

प्रश्न 1.
लकड़ियाँ किस आकार की थीं?
(i) गोलाकार
(ii) लोहाकार
(iii) त्रिकोणाकार
(iv) वम्नाकार।
उत्तर :
(i) गोलाकार

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 15 लोहड़ी

प्रश्न 2.
लड़की-लड़कियां है तो लकड़ी हैं –
(i) लकड़ियाँ
(ii) लकड़ी
(iii) लबरी
(iv) लालिमा।
उत्तर :
(i) लकड़ियाँ

प्रश्न 3.
मुहल्ला-मुहल्ले है तो ‘लड़का’ है
(i) लकड़ी
(ii) लड़के
(iii) लड़े
(iv) लड़ी।
उत्तर :
(ii) लड़के

प्रश्न 4.
पंजाबी शब्द ‘डी’ का हिन्दी अर्थ है : लड़की/घड़ी/फड़ी/लड़ी।
उत्तर :
लड़की।

लोहड़ी Summary in Hindi

लोहड़ी पंजाब का प्रसिद्ध त्योहार है। यह त्योहार जनवरी महीने की तेरह तारीख को मनाया जाता है। लड़के-लड़कियाँ टोलियाँ बनाकर लोहड़ी का गीत गाते हुए घर-घर जाकर लोहड़ी माँगते हैं। सायंकाल के समय मुहल्ले के सभी लोग इकट्ठे होकर लकड़ियाँ इकट्ठी कर आग जलाते हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 15 लोहड़ी 1

उस आग में तिल, रेवड़ियाँ आदि डाली जाती हैं। फिर वे जलती हुई आग के चारों ओर गीत गाते हुए चक्कर लगाते हैं तथा उसके – पास बैठकर मूंगफली, रेवड़ियाँ, गचक, भुग्गा और मकई के दाने खाते हैं तथा एक-दूसरे को खिलाते हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 15 लोहड़ी

लोग आग के इर्द-गिर्द भँगडा और गिद्दा आदि डालते हैं इससे इस त्योहार का आनन्द और बढ़ जाता है।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका?

Punjab State Board PSEB 5th Class Hindi Book Solutions Chapter 14 हंस किसका? Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 5 Hindi Chapter 14 हंस किसका? (2nd Language)

हंस किसका? अभ्यास

नीचे गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में दिये गये शब्दों को पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखने का अभ्यास करो :

  • ਹੰਸ = हंस
  • ਰਾਜਕੁਮਾਰ = राजकुमार
  • ਸਿਧਾਰਥ = सिद्धार्थ
  • ਦੇਵਦੱਤ = देवदत्त
  • ਤੀਰ = तीर
  • ਪੱਟੀ = पट्टी
  • ਭਾਈਚਾਰਾ = भाईचारा
  • ਸੰਸਾਰ = संसार
  • ਪੇਮ = प्रेम
  • ਬੰਦ = बंद

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका?

नीचे एक ही अर्थ के लिए पंजाबी और हिंदी भाषा में शब्द दिये गये हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखो :

  • ਖਿੜੇ = खिले
  • ਪੰਛੀ = पक्षी
  • ਖੰਭ = पंख
  • ਤੀਰ ਕਮਾਨ = धनुष-बाण
  • ਜ਼ਖਮੀ = घायल

पढ़ो, समझो और लिखो

(क) द् + ध = द्ध, = सिद्धार्थ, बुद्ध
क् + ष = क्ष = पक्षी
प् + य = प्य = प्यार

(ख) ट् + ट = ट्ट = पट्टी
त् + त = त्त = उत्तर, देवदत्त

बताओ

प्रश्न 1.
राजकुमार का क्या नाम था?
उत्तर :
राजकुमार का नाम सिद्धार्थ था।

प्रश्न 2.
सिद्धार्थ कहाँ घूम रहा था?
उत्तर :
सिद्धार्थ बगीचे में घूम रहा था।

प्रश्न 3.
हंस क्यों छटपटा रहा था?
उत्तर :
हंस के शरीर में तीर लगा था इसीलिए वह छटपटा रहा था।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका?

प्रश्न 4.
सिद्धार्थ ने हंस की क्या सहायता की?
उत्तर :
सिद्धार्थ ने हंस को उठाकर धीरे से उसका तीर निकाला और फिर घाव धोकर उस पर पट्टी बाँधी।

प्रश्न 5.
सिद्धार्थ के चचरे भाई का क्या नाम था?
उत्तर :
सिद्धार्थ के चचेरे भाई का नाम देवदत्त था।

प्रश्न 6.
सिद्धार्थ के पिता ने हंस किसे और क्यों दिया?
उत्तर :
सिद्धार्थ के पिता ने हंस सिद्धार्थ को दिया क्योंकि उसने हंस को बचाया था।

प्रश्न 7.
सिद्धार्थ को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर :
सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 8.
गौतम बुद्ध ने संसार को कौन-सा पाठ पढ़ाया?
उत्तर :
गौतम बुद्ध ने संसार को सत्य, अहिंसा, प्रेम, दयालुता, करुणा, सहानुभूति और परोपकार का पाठ पढ़ाया।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका?

वाक्य पूरे करो

  1. बगीचे में …………………………………… फूल खिले हुए थे। – तीर
  2. हंस के शरीर में …………………………………… लगा हुआ था। – बचाने वाले
  3. मारने वाले से …………………………………… का हक ज्यादा होता है। – रंग-बिरंगे
  4. सिद्धार्थ बड़ा होकर …………………………………… बना। – गौतम बुद्ध
  5. …………………………………… सिद्धार्थ का चचेरा भाई था। – देवदत्त

उत्तर :

  1. रंग-बिरंगे
  2. तीर।
  3. बचाने वाले।
  4. गौतम बुद्ध
  5. देवदत्त।

पढ़ो और समझो

(क) पक्षी = पंछी
बगीचा = उपवन
तीर = बाण
शरीर = तन
पंख = पर
राजा = नृप
पशु-पक्षी = पशु और पक्षी
धनुष-बाण = धनुष और बाण
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्दों के पर्यायवाचीशब्द सामने दर्शाए गए हैं।

(ख) राजकुमार = राजा का कुमार
राजमहल = राजा का महल
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्दों के समास-शब्द सामने दर्शाये गए हैं। विद्यार्थी इन्हें समझ कर लिखने का अभ्यास करें।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका?

अन्तर समझो

(क) [हंस} के शरीर में तीर लगा हुआ था।
जोकर को देखकर मैं [हँस] पड़ा।
(ख) सिद्धार्थ हंस को लेकर राजमहल [की] ओर चल दिया।
देवदत्त ने शिकायत की [कि] सिद्धार्थ मेरा हंस नहीं दे रहा।
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्दों में (हंस/हँस) तथा (की/कि) शब्दों के अन्तर को दिखाया गया है। विद्यार्थी इन्हें समझें।

रचनात्मक अभिव्यक्ति

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका 2
चित्र देखकर वाक्य पूरे करो

  1. बालक …………………………………… को …………………………………… खिला रहा है।
  2. बालिका …………………………………… को …………………………………… पिला रही है।
  3. पिताजी …………………………………… को सहला रहे हैं।

उत्तर :

  1. बालक मुरगी को दाना खिला रहा
  2. बालिका गाय को पानी पिला रही है।
  3. पिताजी कुत्ते को सहला रहे हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका?

हंस किसका? बहुवैकल्पिक प्रश्न

प्रश्न 1.
सिद्धार्थ को किस नाम से जाना जाता है?
(i) गौतम बुद्ध
(ii) गौतम भाई
(iii) गौतमभाई
(iv) राजकुमार।
उत्तर :
(i) गौतम बुद्ध

प्रश्न 2.
सिद्धार्थ के पिता ने हंस किसे दिया?
(i) सिद्धार्थ को
(ii) चचेरे भाई को
(iii) ममेरे भाई को
(iv) किसी को नहीं।
उत्तर :
(i) सिद्धार्थ को

प्रश्न 3.
पंजाबी शब्द ‘सधी’ का हिन्दी अर्थ है : जख्म/घायल/पागल/सहगल
उत्तर :
घायल

प्रश्न 4.
पंजाबी शब्द ‘प’ का हिन्दी अर्थ है : बुद्ध/बुद्धा/प्रबुद्ध/प्रसून
उत्तर :
बुद्ध

हंस किसका? Summary in Hindi

राजकुमार सिद्धार्थ बहुत ही दयालु था। उसे पशुपक्षियों से बहुत प्यार था। एक दिन वह बगीचे में घूम रहा था। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। पक्षी चहचहा रहे थे। अचानक पक्षियों का चहचहाना बंद हो गया। सिद्धार्थ ने ऊपर देखा। तभी अचानक एक हंस उसके पैरों के पास आकर गिरा। वह छटपटा रहा था, उसके शरीर में तीर लगा हुआ था।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका?

सिद्धार्थ ने हंस को ऊपर उठाया। उसके पंखों पर प्यार से हाथ फेरते हए तीर को निकाला और उसके घाव को धोकर उस पर पट्टी बाँधी। इतने में सिद्धार्थ का चचेरा भाई देवदत्त वहाँ आया उसके हाथ में धनुष-बाण था। आते ही उसने सिद्धार्थ से कहा, “यह हंस मेरा है, इसे मुझे दे दो।”

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 14 हंस किसका 1

इस पर सिद्धार्थ ने कहा, “नहीं यह हंस मेरा है। मैंने इसे बचाया है।” इतना कहते हुए सिद्धार्थ हंस को लेकर राजमहल की ओर चल दिया। पीछे-पीछे देवदत्त भी चल पड़ा। देवदत्त ने राजा शुद्धोधन से सिद्धार्थ की शिकायत की।

सिद्धार्थ ने कहा, “पिता जी, देवदत्त ने इसे तीर से मारा है, लेकिन मैंने इसे बचाया है। इसलिए यह हंस मेरा है।” देवदत्त भी अपनी बात पर अड़ा रहा। राजा शुद्धोधन ने दोनों की बात सुन कर फैसला सुनाया कि “देवदत्त तुमने इसे अपने तीर से निशाना बनाया परन्तु सिद्धार्थ ने इसे बचाया है और मारने वाले से बचाने वाले का हक ज्यादा होता है। इसलिए यह हंस सिद्धार्थ का है।” यही सिद्धार्थ बड़ा होकर गौतमबुद्ध बना जिसने दया तथा अहिंसा का पाठ पढ़ाया।

हंस किसका? शब्दार्थ :

  • राजकुमार = राजा का बेटा
  • दयालु = कृपायुक्त
  • प्यार = प्रेम
  • छटपटाना = तड़पना
  • चचेरा भाई = चाचा का बेटा
  • राजमहल = राजा का महल
  • हक = अधिकार
  • घाव = जख्म
  • घायल = ज़ख्मी
  • अहिंसा = किसी को हानि न पहुँचाना
  • परोपकार = दूसरे का भला करना
  • भाईचारा = भाई का नाता या भाव
  • सहानुभूति = हमदर्दी

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन

Punjab State Board PSEB 8th Class Physical Education Book Solutions Chapter 3 विटामिन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 8 Physical Education Chapter 3 विटामिन

PSEB 8th Class Physical Education Guide विटामिन Textbook Questions and Answers

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –

प्रश्न 1.
विटामिन किसे कहते हैं ?
उत्तर-
विटामिन (Vitamins) विटामिन रासायनिक पदार्थ होते हैं। हमारे शरीर की वृद्धि के लिए इनकी बहुत आवश्यकता होती है। यह शरीर को शक्ति प्रदान करते हैं। यह हमारे शरीर की सुरक्षा करते हैं। इसलिए इन्हें रक्षक तत्त्व या जीवनदाता कहा जाता है। हमारे भोजन में इनका उचित मात्रा में विद्यमान होना बहुत ज़रूरी है। विटामिन मुख्य रूप से छः प्रकार के होते हैं। विटामिन ‘ए’, विटामिन ‘बी’, विटामिन ‘सी’, विटामिन ‘डी’, विटामिन ‘ई’ और विटामिन ‘के’। विटामिन भिन्न-भिन्न खाद्य पदार्थों में भिन्न-भिन्न मात्रा में मिलते हैं।

प्रश्न 2.
विटामिन का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
विटामिनों का महत्त्व (Importance of Vitamins) विटामिनों का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है –

  1. विटामिन हमारे स्वास्थ्य को ठीक रखते हैं।
  2. ये हमारी शारीरिक वृद्धि और विकास में सहायता करते हैं।
  3. ये हमारी पाचन शक्ति को बढ़ाते हैं।
  4. ये हमारे खून को साफ़ करते हैं और खून की मात्रा को बढ़ाते हैं।
  5. ये हड्डियों और दाँतों को मजबूत बनाते हैं।
  6. ये हमें बीमारियों का मुकाबला करने के योग्य बनाते हैं।
  7. विटामिनों के प्रयोग से चमड़ी के रोग दूर हो जाते हैं।

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन

प्रश्न 3.
विटामिन ‘ए’ क्या होता है ? इसकी कमी व अधिकता के बारे में लिखिए।
उत्तर-
विटामिन ‘ए’ (Vitamin A)-विटामिन ‘ए’ के काम निम्नलिखित हैं –

  1. इससे आँखों की ज्योति बढ़ती है।
  2. भूख बढ़ती है।
  3. पाचन-शक्ति ठीक रहती है।
  4. यह विटामिन शरीर के विकास और शक्ति की वृद्धि में योगदान देते हैं।

प्राप्ति के स्रोत (Sources)—ये अधिकतर, दूध, दही, मक्खन, पनीर, अण्डों, मछली, पत्तों वाली सब्जियों जैसे पालक और ताज़ी सब्जियों जैसे गाजर, बन्दगोभी, टमाटर तथा केले, संतरे, आम, पपीता और अनानास आदि फलों में मिलते हैं।

विटामिन ‘ए’ की कमी से होने वाली हानियाँ-विटामिन ‘ए’ की कमी से छत के रोगों से लड़ने की शक्ति कम हो जाती है और व्यक्ति बिमारियों का शिकार हो जाता है। आँखों में खारिश और जलन होने लग जाती है। इसकी कमी से रात को साफ दिखाई नहीं देता और व्यक्ति को अंधराता हो जाता है। अश्रु ग्रंथियां कार्य नहीं करतीं। त्वचा शुष्क और कठोर हो जाती है। गुर्दो में पत्थरी बनने की सम्भावना बढ़ जाती है। दांत टूटने लगते हैं। दाँतों में पायरिया नामक रोग हो जाता है।

विटामिन ‘ए’ की अधिक मात्रा से होने वाली हानियाँ- यदि बच्चों में विटामिन ‘ए’ की मात्रा बढ़ जाए तो बच्चों की त्वचा सूख जाती है। हाथों-पैरों की उंगलियों में सूजन आ जाती है। एक साधारण व्यक्ति में इस विटामिन की मात्रा बढ़ने से कमज़ोरी एवं थकावट महसूस होने लगती है। शरीर को सुस्ती और बेचैनी होने लगती है। कब्ज, सिरदर्द और जोड़ों में दर्द रहता है। आँखों में खून बहने के चिह्न प्रतीत होते हैं।

प्रश्न 4.
विटामिन ‘बी’ कम्पलैक्स समूह किसे कहते हैं ? इसके प्राप्ति के स्रोतों के बारे में लिखिए।
उत्तर-
विटामिन ‘बी'(Vitamin-B) यह कई विटामिनों का मिश्रण है। इस में विटामिन बी-1, बी-2, तथा बी-12 मिले रहते हैं। यह विटामिन बी-कम्पलैक्स (B-Complex) के नाम से जाना जाता है।

विटामिन ‘बी’ के कार्य (Functions of Vitamin-B) विटामिन ‘बी’ के कार्य इस प्रकार हैं –

  1. इस विटामिन से नर्वस सिस्टम (नाड़ी प्रणाली) ठीक रहता है।
  2. यह नाड़ियों, पेशियों, दिल और दिमाग को शक्ति प्रदान करता है।
  3. भूख को बढ़ाता है।
  4. चर्म रोगों से सुरक्षा करता है।

प्राप्ति के स्रोत (Sources)—यह दूध, दही, मक्खन, पनीर, दालों, अनाज, सोयाबीन, मटर, अण्डे, हरी और पत्तों वाली सब्जियों, जैसे-पालक, बन्दगोभी, शलगम, टमाटर, प्याज़ और सलाद आदि में पाया जाता है।

प्रश्न 5.
विटामिन ‘सी’ क्या है ? इसके कार्य लिखिए।
उत्तर-
विटामिन ‘सी’ (Vitamin C) विटामिन ‘सी’ पानी में घुलनशील है। इसके निम्नलिखित कार्य हैं –

  1. यह विटामिन लहू (खून, रक्त) को साफ़ रखता है।
  2. दांतों को मजबूत करता है।
  3. ज़ख्मों और टूटी हुई हड्डियों को भी शीघ्र ठीक करता है।
  4. शरीर की छूत की बीमारियों से रक्षा करता है।
  5. गले को ठीक रखता है।
  6. जुकाम से बचाता है।

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन (1)

प्राप्ति के स्रोत (Sources)- यह प्रायः रसदार और खट्टे पदार्थों में होता है। जैसेसंतरा, माल्टा, मुसम्मी, अंगूर, अनार, नींबू, अमरूद और आंवला आदि। इसके अतिरिक्त हरी सब्जियों, जैसे टमाटर, बन्दगोभी, गाजर, पालक, शलगम आदि में भी मिलता है।

विटामिन ‘सी’ की कमी से होने वाली हानियाँ-विटामिन ‘सी’ की कमी से ‘स्कर्वी’ रोग हो जाता है। हाथों-पैरों में दर्द और सूजन आ जाती है। हड्डियों का निर्माण और विकास रुक जाता है और हड़ियां टेढी-मेढी हो जाती हैं। ज़ख्म शीघ्र नहीं भरते और ज़ख्मों में से रक्त बहता है। दाँत कमजोर हो जाते हैं। मसूड़ों में से रक्त बहने लग जाता है। त्वचा का रंग पीला हो जाता है। आँखों के नीचे काले घेरे पड़ जाते हैं। छूत के रोग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है।

प्रश्न 6.
विटामिन ‘डी’ क्या है ? इस विटामिन की कमी से होने वाली हानियाँ लिखिए।
उत्तर-

विटामिन डी (Vitamin D)-विटामिन ‘डी’ चर्बी में घुलनशील है। इसके कार्य निम्नलिखित हैं
1. यह विटामिन हड्डियों और दाँतों का निर्माण करता है।
2. उन्हें मज़बूत भी बनाता है।
PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन (2)
3. बच्चों के शारीरिक विकास के लिए इसकी बहुत आवश्यकता होती है।

विटामिन ‘डी’ की कमी से होने वाली हानियाँ –
विटामिन ‘डी’ की कमी से मांसपेशियों व हड्डियों में दर्द होता है। छोटे बच्चों में दमा होने का डर रहता है। इसकी कमी से बच्चों को ‘सोका’ (शरीर का सूखना) रोग हो जाता है।

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन

प्रश्न 7.
विटामिन ‘ई’ क्या है ? इस विटामिन की प्राप्ति के स्रोत लिखिए।
उत्तर-
विटामिन ‘ई’ (Vitamin E)—विटामिन ‘ई’ चर्बी में घुलनशील है । इस विटामिन के कार्य इस प्रकार हैं –

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन (3)

  1. यह विटामिन स्त्रियों और पुरुषों में सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति को बढ़ाता है।
  2. यह नपुंसकता और बांझपन को रोकता है।

प्राप्ति के स्त्रोत (Sources)—यह बन्दगोभी, गाजर, सलाद, मटर, प्याज, टमाटर, फूलगोभी में होता है। इसके अतिरिक्त शहद, गेहूँ, चावल, बीजों के तेल, अण्डे की जर्दी, बादाम, पिस्ता, चने की दाल और दलिया में अधिक मात्रा में होता है।

प्रश्न 8.
विटामिन ‘के’ क्या है ? इस विटामिन की कमी से होने वाली हानियाँ लिखिए।
उत्तर-
विटामिन ‘के’ (Vitamin K)–विटामिन ‘के’ चर्बी में घुलनशील है। विटामिन ‘के’ के कार्य निम्नलिखित हैं

  1. यह विटामिन ज़ख्मों से रिस रहे रक्त को रोकता है।
  2. उसके जमाव में सहायता करता है।
  3. यह चमड़ी के रोगों से सुरक्षा करता है।

प्राप्ति के स्रोत (Sources)—यह अधिकतर बन्दगोभी, पालक, मछली, सोयाबीन, टमाटर और अण्डे की जर्दी आदि में होता है।

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन (4)

विटामिन ‘के’ की कमी से होने वाली हानियाँ-इस विटामिन का निर्माण छोटी आंत में होने के कारण इसकी कमी बहुत कम होती है। यदि किसी को विटामिन ‘के’ की कमी हो तो उसे चोट लगने से उसका रक्त बहना बंद नहीं होता। त्वचा खुरदरी हो जाती है। जिगर की बीमारियां और दस्त लग जाते हैं। खून की कमी से सम्बन्धित रोग लग जाते हैं। समय से पूर्व (Pre Mature) पैदा होने वाले बच्चों में इस विटामिन की कमी रहती है।

Physical Education Guide for Class 8 PSEB विटामिन Important Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
विटामिन की किस्में हैं –
(क) विटामिन A
(ख) विटामिन B
(ग) विटामिन C और D
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
विटामिन D कहाँ से प्राप्त होता है ?
(क) दूध से
(ख) अनाज से
(ग) फलों से
(घ) धूप से।
उत्तर-
(घ) धूप से।

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन

प्रश्न 3.
बेरी-बेरी रोग किस विटामिन की कमी से होता है ?
(क) विटामिन C
(ख) विटामिन A
(ग) विटामिन K
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) विटामिन C

प्रश्न 4.
किस विटामिन की कमी से स्कर्वी रोग होता है ?
(क) विटामिन C
(ख) विटामिन A
(ग) विटामिन D
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) विटामिन C

प्रश्न 5.
विटामिन की कमी से कौन-कौन से रोग लग जाते हैं ?
(क) अंधराता और चमड़ी के रोग
(ख) भूख नहीं लगती
(ग) अनीमिया रोग हो जाता है
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

बहुत छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
विटामिन कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
विटामिन छः प्रकार के होते हैं– A, B, C, D, E और K |

प्रश्न 2.
अंधराता रोग किस विटामिन की कमी के कारण होता है?
उत्तर-
यह रोग विटामिन A की कमी के कारण होता है।

प्रश्न 3.
किस विटामिन की कमी के कारण स्कर्वी रोग हो जाता है?
उत्तर-
विटामिन C की कमी के कारण।

प्रश्न 4.
बेरी-बेरी रोग किस विटामिन की कमी के कारण हो जाता है?
उत्तर-
विटामिन B की कमी के कारण।

प्रश्न 5.
पायोरिया रोग किस विटामिन की कमी के कारण होता है ?
उत्तर-
विटामिन C की कमी के कारण।

प्रश्न 6.
बांझपन का रोग किस विटामिन की कमी के कारण होता है?
उत्तर-
विटामिन E की कमी के कारण।

प्रश्न 7.
कौन-से विटामिन पानी में घुलनशील नहीं हैं ?
उत्तर-
विटामिन C, D, E और K ।

प्रश्न 8.
जीवन तत्त्व किन्हें कहते हैं?
उत्तर-
विटामिनों को।

प्रश्न 9.
पानी में घुलनशील विटामिन कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-
विटामिन B तथा C ।

छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
विटामिन क्या होते हैं ?
उत्तर-
विटामिन (Vitamins)-विटामिन ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं जो हमारे शरीर के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। अब तक कई प्रकार के विटामिनों की खोज की जा चुकी है, परन्तु प्रमुख विटामिन छ:- ही हैं। ये हैं-विटामिन ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’, ‘डी’, ‘ई’ और ‘के’। इनमें विटामिन ‘बी’ और ‘सी’ पानी में घुलनशील हैं और शेष विटामिन ‘ए’, ‘डी’, ‘ई’ और ‘के’ चर्बी में घुलनशील होते हैं। विटामिन एक प्रकार के विशेष पदार्थों में पाए जाते हैं। भोजन में विटामिनों का उचित मात्रा में होना बहुत ज़रूरी है। विटामिन का जीवन के लिए बहुत अधिक महत्त्व अनुभव करते हुए इन्हें ‘जीवन दाता’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 2.
विटामिन ‘ए’ के काम और प्राप्ति के स्रोत लिखो।
उत्तर-
विटामिन ‘ए’ (Vitamin A)-विटामिन ‘ए’ के काम निम्नलिखित हैं –

  1. इससे आँखों की ज्योति बढ़ती है।
  2. भूख बढ़ती है।
  3. पाचन-शक्ति ठीक रहती है।
  4. यह विटामिन शरीर के विकास और शक्ति की वृद्धि में योगदान देते हैं।

PSEB 8th Class Physical Education Solutions Chapter 3 विटामिन (5)

प्राप्ति के स्रोत (Sources)—ये अधिकतर, दूध, दही, मक्खन, पनीर, अण्डों, मछली, पत्तों वाली सब्जियों जैसे पालक और ताज़ी सब्जियों जैसे गाजर, बन्दगोभी, टमाटर तथा केले, संतरे, आम, पपीता और अनानास आदि फलों में मिलते हैं।

प्रश्न 3.
विटामिन ‘ई’ और ‘के’ के प्राप्ति स्त्रोत लिखें।
उत्तर-
विटामिन ‘ई’ की प्राप्ति के स्त्रोत (Sources)—यह बन्दगोभी, गाजर, सलाद, मटर, प्याज, टमाटर, फूलगोभी में होता है। इसके अतिरिक्त शहद, गेहूं, चावल, बीजों के तेल, अण्डे की जर्दी, बादाम, पिस्ता, चने की दाल और दलिया में अधिक मात्रा में होता है।
विटामिन ‘के’ की प्राप्ति के स्त्रोत (Sources)—यह अधिकतर बन्दगोभी, पालक, मछली, सोयाबीन, टमाटर और अण्डे की जर्दी आदि में होता है।

प्रश्न 4.
हमारे शरीर को विटामिन की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-
हमारे शरीर को विटामिनों की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से होती है –

  1. विटामिन हमारे स्वास्थ्य को बनाये रखते हैं।
  2. विटामिन हमारे शरीर में वृद्धि और विकास में सहायता करते हैं।
  3. विटामिन से हमें भूख लगती है।
  4. विटामिन हमारे रक्त को साफ करते हैं और इसमें बढ़ावा करते हैं।
  5. हड्डियों और दाँतों को मज़बूत रखते हैं।
  6. विटामिन हमारे शरीर में प्रतिरोधक शक्ति पैदा करते हैं।
  7. त्वचा के रोगों को ठीक करते हैं।
  8. वे हमारे शरीर को ताकत देते हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 4 जाति असमानताएं

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न ।

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति की कौन-सी विशेषता नहीं है ?
(क) अर्जित दर्जा
(ख) पूर्वजों का व्यवसाय
(ग) अपवित्र-पवित्र भेदभाव
(घ) सजातीयता।
उत्तर-
(क) अर्जित दर्जा।

प्रश्न 2.
जाति का परम्परागत सिद्धान्त किसके विचारों पर आधारित है ?
(क) जी०एस०घूर्ये
(ख) जी०एन० मजूमदार
(ग) लुईस डयूमोंट
(घ) जे०एच०हट्टन।
उत्तर-
(ख) जी०एन०मजूमदार ।

प्रश्न 3.
किस जाति को ‘द्विज जन्मा’ नहीं कहा जाता ?
(क) ब्राह्मण
(ख) क्षत्रिय
(ग) वैश्य
(घ) शूद्र।
उत्तर-
(घ) शूद्र।

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प्रश्न 4.
बोटोमोर के अनुसार, सामाजिक स्तरीकरण की कौन-सी विशेषता नहीं है :
(क) दासता
(ख) जाति
(ग) वर्ण
(घ) लिंग।
उत्तर-
(घ) लिंग।

प्रश्न 5.
कौन-सा संस्कार, जो व्यक्ति को ‘द्विज जन्मा’ बनाते हैं-
(क) जातिकर्म
(ख) जन्म-संस्कार
(ग) उपनयन संस्कार
(घ) नामकरण।
उत्तर-
(ग) उपनयन संस्कार।

प्रश्न 6.
‘अन्त्यज’ अवधारणा व्याख्या करता है-
(क) स्पृश्य-शूद्र
(ख) अस्पृश्य-शूद्र
(ग) भूमिहीन कृषक
(घ) जनजातियाँ।
उत्तर-
(ख) अस्पृश्य-शूद्र।

प्रश्न 7.
समाज का कौन-सा वर्ग ‘भेदभाव सुरक्षा नीति’ से जुड़ा है-
(क) उच्च वर्ग
(ख) मध्य वर्ग
(ग) अनुसूचित जातियाँ
(घ) प्रबल जातियाँ।
उत्तर-
(ग) अनुसूचित जातियाँ।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. ………………… अपनी जाति पहचान की गहन समझ है।
2. जाति एक ………………. दर्जा है।
3. जाति प्रथा में ………………. एवं . ………………. विवाह होते हैं।
4. ‘द्विज जन्मा’ अवधारणा का अर्थ ………………. जन्म है।
5. व्यावसायिक सिद्धान्त ………………. विचार से सम्बन्धित है।
उत्तर-

  1. जाति चेतना
  2. प्रदत्त
  3. सजातीय, विजातीय
  4. दोबारा
  5. अलौकिकता की दार्शनिकता।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. वर्ण व्यवस्था में, व्यक्ति की गतिशीलता की संभावना नहीं थी।
2. अस्पृश्य जाति को अंत्याज नाम से जाना जाता है।
3. जाति भारतीय समाज की प्रबल सामाजिक व्यवस्था है।
4. जाति एक सजातीय समूह है।
5. नागरिक व धार्मिक अयोग्यताएं व सुविधाएं अस्पृश्यता को बढ़ावा नहीं देती।
उत्तर-

  1. गलत
  2. सही
  3. सही
  4. सही
  5. गलत।

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D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
वैश्य — अलौकिकता की दार्शनिकता पर आधारित
ब्राह्मण — जाति से बाहर विवाह
विजातीय — लाल
रक्तवर्ण — व्यापार एवं व्यवसाय
परम्परागत सिद्धांत — धार्मिक रस्मों एवं रिवाज़ों को निभाना।
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
वैश्य — व्यापार एवं व्यवसाय
ब्राह्मण — धार्मिक रस्मों एवं रिवाज़ों को निभाना।
विजातीय –जाति से बाहर विवाह
रक्तवर्ण — लाल
परम्परागत सिद्धांत — अलौकिकता की दार्शनिकता पर आधारित

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. सामाजिक श्रम विभाजन जो उपलब्धियों पर आधारित है उसे क्या कहते हैं ?
उत्तर-उसे वर्ग व्यवस्था कहते हैं।

प्रश्न 2. रक्षात्मक सेवाओं के साथ कौन संबंधित है ?
उत्तर-रक्षात्मक सेवाओं के साथ अनुसूचित जातियां संबंधित हैं।

प्रश्न 3. अपनी ही जाति/समूह में विवाह को क्या कहते हैं ?
उत्तर-अपनी ही जाति/समूह में विवाह को सजातीय विवाह कहते हैं।

प्रश्न 4. जाति व्यवस्था पदानुसार के किस मॉडल पर आधारित है ?
उत्तर-वर्ण व्यवस्था के मॉडल पर।

प्रश्न 5. धार्मिक-सांस्कृतिक प्रकृति का दूसरा जन्म किस संस्कार पर आधारित है ?
उत्तर-उपनयन संस्कार पर।

प्रश्न 6. वर्ण क्या है ?
उत्तर-वर्ण एक ऐसा समूह है जो पेशे पर आधारित होता है अर्थात् एक ही पेशे को करने वाले लोग एक ही वर्ण के होते हैं।

प्रश्न 7. ‘शुद्धता-अशुद्धता सिद्धान्त’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-जाति व्यवस्था में प्रथम तीन जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य को शुद्ध समझा जाता था तथा निम्न जातियों को अशुद्ध समझा जाता था।

प्रश्न 8. जाति का उद्भव जिस अवधारणा से हुआ है उसे पहचानो।
उत्तर-शब्द जाति अंग्रेज़ी भाषा के शब्द Caste का हिंदी रूपांतरण है जो पुर्तगाली भाषा के शब्द CASTA से उत्पन्न हुआ है।

प्रश्न 9. किस वर्ण को जाति से बाहर समझा जाता है उसका नाम बताएं ?
उत्तर-निम्न जाति वर्ण को जाति से बाहर समझा जाता था।

प्रश्न 10. पदानुसार व्यवस्था के वर्ण मॉडल का उल्लेख करें।
उत्तर-वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण मिलते थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जातियां ।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
जाति व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
रिज़ले के अनुसार, “जाति परिवारों या परिवारों के समूहों का एक संकलन है जिसका सामान्य नाम होता है, जो एक काल्पनिक पूर्वज-मानव या देवता से सामान्य उत्पत्ति का दावा करता है। यह एक ही परम्परात्मक व्यवसाय करने पर बल देता है और एक सजातीय समुदाय के रूप में उनके द्वारा मान्य होता है जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने के योग्य है।”

प्रश्न 2.
आरोपित दर्जा क्या है ?
उत्तर-
वह दर्जा जो व्यक्ति को बिना किसी परिश्रम के केवल अपने परिवार, आयु, जाति के आधार पर प्राप्त होता है, उसे आरोपित दर्जा कहते हैं। जाति व्यवस्था में प्रथम तीन जातियों को उच्च स्थिति प्राप्त होती थी तथा निम्न जाति को निम्न स्थिति प्राप्त होती थी।

प्रश्न 3.
परम्परागत रूप से वर्गों से जुड़े व्यवसाय का उल्लेख करें।
उत्तर-

  • ब्राह्मण वर्ण-पढ़ना, पढ़ाना तथा धार्मिक कार्य पूर्ण करना।
  • क्षत्रिय वर्ण-लड़ना, राज्य करना तथा शासन प्रबन्ध संभालना।
  • वैश्य वर्ण-व्यापार करना व कृषि करना।
  • निम्न वर्ण-प्रथम तीन वर्गों की सेवा करना।

प्रश्न 4.
जाति गतिशीलता क्या है ?
उत्तर-
जाति गतिशीलता का अर्थ है अपनी जाति को छोड़कर दूसरी जाति को अपना लेना। चाहे परम्परागत रूप में यह संभव नहीं है परन्तु आधुनिक समय में संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण जैसी प्रक्रियाओं के कारण निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के ढंगों को अपना कर जाति गतिशीलता बढ़ा रहे हैं।

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IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
जी०एस० घूर्ये द्वारा जाति की दी गई विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
घूर्ये ने जाति व्यवस्था की छः विशेषताएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  • समाज का खण्डात्मक विभाजन।
  • पदानुसार विभाजन।
  • भोजन व सामाजिक व्यवहार पर नियंत्रण।
  • नागरिक व धार्मिक अयोग्यताएँ एवं सुविधाएँ।
  • व्यवसाय के अनियंत्रित अवसरों का अभाव।
  • विवाह पर नियंत्रण।

प्रश्न 2.
‘जाति के उद्भव’ का परम्परागत सिद्धान्त क्या है ?
अथवा
जाति के उद्भव का परम्परागत सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-
जाति के उद्भव का परम्परागत सिद्धान्त धार्मिक ग्रन्थों में जाति की उत्पत्ति के उल्लखों पर आधारित है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त श्लोक के अनुसार ब्रह्मा के मुँह से ब्राह्मण वर्ण, बाजुओं से क्षत्रिय वर्ण, जांघों से वैश्य वर्ण व पैरों से निम्न वर्ण उत्पन्न हुए। महाभारत के शान्तिपर्व तथा मनुस्मृति में भी ऐसा ही बताया गया है। इस प्रकार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई मानी गई है।
इसके आलोचक यह तर्क देते हैं कि वर्ण तथा जाति दो अलग-अलग धारणाएं हैं। वर्ण कर्म पर आधारित होता है जबकि जाति का आधार जन्म है। वास्तव में वर्ण जाति प्रथा का मुख्य आधार है जिसने उद्विकासीय क्रम में जाति का रूप ले लिया था।

प्रश्न 3.
जाति के उद्भव का व्यावसायिक सिद्धान्त क्या है ?
अथवा
जाति के उद्भव के व्यावसायिक सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
नेसफील्ड ने जाति की उत्पत्ति का व्यावसायिक सिद्धान्त दिया था। उसके अनुसार केवल व्यवसाय ही जाति की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है। सभी पेशे एक समान नहीं होते। जिन लोगों ने उच्च पेशा अपना लिया उनकी स्थिति ऊँची हो गई तथा निम्न पेशा अपनाने वाले व्यक्तियों की स्थिति निम्न हो गई।

इसके विरोध में आलोचक यह तर्क देते हैं कि इस सिद्धान्त में जाति के धार्मिक तत्त्वों की उपेक्षा की गई है। भारत में वर्तमान समय में 2/3 जनसंख्या कृषि से जुड़ी है। अगर व्यवसाय को आधार माना जाए तो कृषि से जुड़ी जनता की जाति एक ही होगी।

प्रश्न 4.
जाति की गतिशीलता को दिखलाने वाले तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • समाज सुधार आंदोलनों ने जाति व्यवस्था में काफ़ी परिवर्तन ला दिया।
  • भारत सरकार के प्रयासों तथा कानूनों के बनने के कारण भी जाति व्यवस्था परिवर्तित हो रही है।
  • अंग्रेजों ने भारत में कई प्रक्रियाएं शुरू की जिससे जाति व्यवस्था में गतिशीलता आई।
  • उद्योगों के प्रसार के कारण सभी जातियों के लोग इकट्ठे मिल कर कार्य करने लग गए जिस कारण जाति प्रथा के बंधन कमजोर हो गए।
  • आधुनिक शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था की गतिशीलता में सहायता की। (vi) यातायात तथा संचार साधनों के विकास के कारण भी जाति व्यवस्था कमजोर हो गई।

V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आप जाति से क्या समझते हैं ? जाति व वर्ण के पारस्परिक अन्तर को स्पष्ट करें।
अथवा जाति से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
जाति से आपका क्या अभिप्राय है ? जाति और वर्ण के मध्य अन्तर को बताइए।
अथवा
सामाजिक स्तरीकरण के रूप में जाति की व्याख्या कीजिए।
अथवा
जाति को परिभाषित कीजिए।
अथवा
जाति व्यवस्था की सामाजिक स्तरीकरण के रूप में व्याख्या कीजिए।
अथवा
जाति से आपका क्या अभिप्राय है? जाति तथा वर्ण के मध्य अन्तर की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
वैसे तो प्राचीन समय से भारतीय समाज में बहुत सी संस्थाएं नई आ रही हैं, परन्तु जाति व्यवस्था उन सभी में से सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है जिसने न केवल भारतीय समाज को विघटित होने से बचाया बल्कि इसने भारतीय समाज को एक सूत्र में भी बाँध कर रखा। जाति व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका तथा स्थिति उसकी जाति के अनुसार निश्चित हो जाती थी। यह माना जाता है कि प्राचीन समय में मौजूद वर्ण व्यवस्था में से ही जाति व्यवस्था की उत्पत्ति हुई। वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति का कार्य निश्चित होता था तथा सम्पूर्ण समाज चार भागों में विभाजित था। धीरेधीरे वर्ण व्यवस्था में कठोरता आ गई तथा इसने जाति व्यवस्था का रूप ले लिया। व्यक्ति की स्थिति तथा भूमिका उसकी जाति के अनुसार निश्चित हो गई तथा सामाजिक व्यवस्था ठीक ढंग से चलने लगी।

शब्द जाति अंग्रेजी भाषा के शब्द Caste का हिन्दी रूपांतर है। शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द Casta में से निकला है जिसका अर्थ नस्ल अथवा प्रजाति है। शब्द Caste लातीनी भाषा के शब्द Castus से भी सम्बन्धित है जिसका अर्थ शुद्ध नस्ल है। प्राचीन समय में चली आ रही जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित होती थी तथा व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता था वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्राचीन समय में तो व्यक्ति के जन्म से ही उसका कार्य, उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाते थे क्योंकि उसे अपनी जाति का परंपरागत पेशा अपनाना पड़ता था तथा उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार ही उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाती थी। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों के जीवन पर बहुत-सी पाबन्दियां लगाती थीं तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन पाबन्दियों को मानना आवश्यक होता था। __इस प्रकार जाति व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति के ऊपर जाति के नियमों के अनुसार कई पाबंदियां थीं। जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है जो अपने सदस्यों के जीवन सम्बन्धों, पेशे इत्यादि के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबंध रखता है। यह व्यवस्था भारतीय समाज के महत्त्वपूर्ण आधारों में से एक थी तथा यह इतनी शक्तिशाली थी कि कोई भी व्यक्ति इसके विरुद्ध कार्य करने का साहस नहीं करता था।

परिभाषाएं (Definitions): जाति व्यवस्था की कुछ परिभाषाएं प्रमुख समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों द्वारा दी गई हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है

  • राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstdt) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक अथवा अधिक विषयों पर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”
  • रिज़ले (Rislay) के अनुसार, “जाति परिवारों अथवा परिवारों के समूह का संकलन है जिसका एक समान नाम होता है तथा जो काल्पनिक पूर्वज-मनुष्य अथवा दैवीय के वंशज होने का दावा करते हैं, जो समान पैतृक कार्य अपनाते हैं तथा वह विचारक जो इस विषय पर राय देने योग्य हैं, इसे समजातीय समूह मानते हैं।”
  • ब्लंट (Blunt) के अनुसार, “जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह अथवा अन्तर्वैवाहिक समूहों का एकत्र है जिसका एक नाम है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत है, जो अपने सदस्यों पर सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध लगाती है, एक आम परम्परागत पेशे को अपनाती है अथवा एक आम उत्पत्ति की दावा करती है तथा साधारणतया एक समरूप समुदाय को बनाने वाली समझी जाती है।”
  • मार्टिनडेल तथा मोना चेसी (Martindale and Mona Chesi) के अनुसार, “जाति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसमें किसी व्यक्ति के कर्त्तव्य तथा विशेषाधिकार जन्म से ही निश्चित होते हैं, जिसे संस्कारों तथा धर्म की तरफ से मान्यता तथा स्वीकृति प्राप्त होती है।”
  • के० एल० केतकर (K.L. Ketkar) के अनुसार, “जाति एक सामाजिक समूह है जिसकी दो विशेषताएं हैं (a) सदस्यता उन व्यक्तियों तक सीमित होती है तथा जो उस जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति उस जाति में शामिल होते हैं (b) सदस्य एक सामाजिक नियम द्वारा समूह से बाहर विवाह करने से रोके जाते हैं।”
  • कूले (Cooley) के अनुसार, “जब श्रेणी लगभग निश्चित रूप से पैतृक होती है तो हम उसे जाति कहते हैं।”
  • मैकाइवर तथा पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “जब स्थिति पूर्णतया पूर्वनिश्चित होती है, मनुष्य बिना किसी उम्मीद को लेकर पैदा होते हैं तो वर्ग जाति का रूप ले लेता है।”

वर्ण व जाति में अंतर (Difference between Varna and Caste):

साधारणतया वर्ण तथा जाति को एक जैसे अर्थों में लिया जाता था तथा दोनों के समान अर्थ ही निकाल लिए जाते थे। साधारण व्यक्ति दोनों को एक जैसी ही चीज़ समझता है। परन्तु अगर ध्यान से देखा जाए तो दोनों ही अलग-अलग धारणाएं हैं तथा दोनों में बहुत अन्तर है। यह अन्तर इस प्रकार है-

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प्रश्न 2.
जाति के जन्म की परम्परागत तथा व्यावसायिक सिद्धान्त इनके उद्भव या जन्म की सम्पूर्ण तस्वीर पेश नहीं करते। विस्तार सहित लिखें।
उत्तर-
वास्तव में जाति की उत्पत्ति के केवल परम्परागत तथा व्यावसायिक सिद्धान्त ही नहीं बल्कि कई अन्य सिद्धान्त भी हैं जो इसकी उत्पत्ति के बारे में दिए जाते हैं। इस कारण ही परम्परागत तथा व्यावसायिक सिद्धान्त जाति की उत्पत्ति की सम्पूर्ण तस्वीर पेश नहीं करते। इन सभी का वर्णन इस प्रकार है

  1. परम्परागत सिद्धान्त।
  2. प्रजातीय सिद्धान्त।
  3. भौगोलिक सिद्धान्त।
  4. व्यावसायिक अथवा पेशे से सम्बन्धित सिद्धान्त।
  5. विकासवादी सिद्धान्त।
  6. धार्मिक सिद्धान्त।
  7. माना सिद्धान्त। अब हम इनका वर्णन विस्तार से करेंगे

1. परम्परागत सिद्धान्त (Traditional Theory) जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सम्बन्ध में परम्परागत सिद्धान्त हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में दिया गया है। वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन व्याख्या ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के एक मन्त्र पर आधारित है। इस मन्त्र के अनुसार चार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से हुई थी। ब्राह्मण, ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय ब्रह्मा की बाजुओं से, वैश्य जांघों से तथा चौथा वर्ण पैरों से उत्पन्न हुआ था। मनु ने भी मनुस्मृति में इसकी व्याख्या करते हुए चारों वर्गों के कार्य दिए थे। ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण शिक्षा देगा, क्षत्रिय बाजुओं से उत्पन्न हुए हैं इसलिए वह हथियारों का प्रयोग करके अन्य लोगों की रक्षा करेगा, वैश्य कृषि, व्यापार पशुपालन का कार्य करेगा तथा क्योंकि चौथा वर्ण पैरों से उत्पन्न हुआ था इसलिए वह ऊपर जाने वाले तीन वर्गों की सेवा करेगा। __ महाभारत में भी यह बताया गया है कि अलग-अलग जातियां तथा उपजातियां कैसे उत्पन्न हुईं। वैदिक काल में अनुलोम विवाह होते थे, परन्तु प्रतिलोम विवाह नहीं। क्योंकि प्रतिलोम विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं थी इसलिए इस विवाह से पैदा हुए बच्चे को माता-पिता का वर्ण नहीं मिलता था। उन्हें हिन्दू समाज से अलग कर दिया गया तथा आगे चल कर यह निम्न जातियां तथा उपजातियां बन गईं।

परन्तु परम्परागत सिद्धान्त की आलोचना होती है क्योंकि इस सिद्धान्त में वर्ण व्यवस्था का वर्णन मिलता है न कि जाति व्यवस्था का। समाजशास्त्रियों के अनुसार वर्ण तथा जाति अलग-अलग है। वह यह भी नहीं मानते कि सभी जातियां तथा उपजातियां अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह के कारण उत्पन्न हुई होंगी। कई विद्वान् मनु की आलोचना करते हैं कि जातियों का विभाजन वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न नहीं हुआ। अगर इस तरह होता तो उपजातियों की संख्या मुख्य जातियों की तुलना में कम होती, परन्तु स्थिति इसके विपरीत होती है।

2. प्रजातीय सिद्धान्त (Racial Theory)-बहुत-से विद्वानों ने जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के लिए प्रजातीय सिद्धान्त दिया है। रिज़ले, मैकाइवर, मैक्स वैबर, क्रोबर, इत्यादि के अनुसार जाति प्रथा के उत्पन्न होने में प्रजातीय तत्त्व महत्त्वपूर्ण है। घूर्ये, मजूमदार, दत्त इत्यादि भी इसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। रिज़ले के अनुसार जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिए तीन कारक उत्तरदायी हैं। (i) प्रजातीय मेल-जोल (ii) मेल-जोल से उत्पन्न अन्तरी मिश्रण तथा (ii) वर्ग भेद की भावना।
भारत में जाति व्यवस्था का आरम्भ इण्डो आर्य लोगों के आने के बाद शुरू हुई। इस प्रजाति का समाज चार भागों में विभाजित था तथा भारत आने के पश्चात् इन्होंने यह सिद्धान्त यहां पर भी लागू किया। आर्य लोगों ने भारत के मूल निवासियों को हरा कर उनके साथ एक पक्षीय वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए क्योंकि आर्य लोगों के पास स्त्रियां कम थीं। यहां अनुलोम विवाह की प्रथा शुरू हुई। आर्य लोगों ने अपनी लड़कियों के विवाह भारतीय लोगों से न किए जिस कारण प्रतिलोम विवाह को मान्यता न मिली। जब आर्य लोगों की आवश्यकताएं पूर्ण हो गईं तो उन्होंने अनुलोम विवाह बन्द कर दिए। अनुलोम विवाह के कारण प्रजातीय मिश्रण बढ़ गया तथा अलग-अलग जातियां अस्तित्व में आ गईं।

घूर्ये के अनुसार आर्य लोगों ने जीत प्राप्त करने के बाद अपने आपको भारत के मूल निवासियों से ऊँचा दर्जा दिया। उन्होंने अपने आपको ऊपर वाले तीन वर्षों में रखा तथा मूल निवासियों को दासों का दर्जा दिया। उन्होंने अपनी प्रजातीय शुद्धता कायम रखने के लिए मूल निवासियों से अलग रहने की नीति अपनाई। समय बीतने के साथ-साथ समाज उच्च तथा निम्न दर्जे के समूहों में विभाजित हो गया। इस कारण घुर्ये के अनुसार जाति प्रथा इण्डो आर्यन संस्कृति में ब्राह्मणों की देन है।

मजूमदार के अनुसार संस्कृति के संघर्ष तथा प्रजातीय मेल-जोल ने भारत में उच्च की तथा निम्न दर्जे के समूहों की रचना की। प्रजातीय मिश्रण कई कारणों की वजह से था जैसे आर्य लोगों में स्त्रियों कमी, उन्नत द्राविड़ संस्कृति, उनकी मातृ प्रधान व्यवस्था, देवी-देवताओं की पूजा, एक स्थान पर जीवन व्यतीत करने की इच्छा, अलग-अलग रीति-रिवाज इत्यादि। आर्य लोगों की द्राविड़ लोगों के ऊपर जीत के पश्चात् उनका आपस में मेलजोल तथा सांस्कृतिक संघर्ष चलता रहा। इस कारण कई सामाजिक समूहों का निर्माण हुआ जो अन्तर्वैवाहिक बन गए। यहां प्रत्येक समूह अथवा जाति का दर्जा उस समूह के रक्त की शुद्धता तथा दूसरे समूहों से अलग रहने के आधार पर निर्धारित हो गए।

प्रजातीय सिद्धान्त की आलोचना होती है क्योंकि इस सिद्धान्त ने वैवाहिक सम्बन्धों पर रोक के बारे में तो बताया है, परन्तु खाने-पीने के नियमों का कोई जिक्र नहीं किया है। मुसलमान तथा ईसाई सांस्कृतिक भिन्नता होने के कारण जाति का रूप धारण नहीं कर सके तथा जाति प्रथा की उत्पत्ति कई कारणों की वजह से हुई है। केवल एक ही कारण को इसकी उत्पत्ति का कारण नहीं माना जा सकता।

3. भौगोलिक सिद्धान्त (Geographical Theory)-जाति प्रथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भौगोलिक सिद्धान्त गिलबर्ट (Gilbert) ने दिया है। उसके अनुसार जातियों का निर्माण अलग-अलग समूहों के देश के अलग-अलग भागों में बसने के कारण हुआ है। यह विचार तमिल साहित्य में दिया गया है। इस विचार की पुष्टि कई उदाहरणों से होती है। जैसे सरस्वती नदी के किनारे रहने वाले ब्राह्मणों को सारस्वत ब्रह्मण कहा जाने लगा तथा कन्नौज में रहने वालों को कन्नौजिया कहा जाने लगा। इस प्रकार कई अन्य जातियों के नाम भी उनके निवास स्थान के आधार पर पड़ गए। परन्तु इस सिद्धान्त को अधिकतर विद्वानों ने नकार दिया है क्योंकि किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में कई जातियां मिलती हैं, परन्तु उन सभी के नाम उस क्षेत्र से सम्बन्धित नहीं होते।

4. व्यवसाय अथवा पेशे से सम्बन्धित सिद्धान्त (Occupational Theory)-व्यवसाय अथवा पेशे के आधार पर जाति प्रथा की उत्पत्ति का सिद्धान्त नैसफील्ड तथा डाहलमैन (Nesfield and Dahlmann) ने दिया है। नैसफील्ड के अनुसार जातियों की उत्पत्ति अलग-अलग पेशों के आधार पर हुई। उन्होंने प्रजातीय कारक को नकार दिया है। जाति प्रथा के अस्तित्व में आने से बहुत पहले ही नसली मिश्रण काफ़ी बढ़ चुका था। उसके अनुसार जाति प्रथा की उत्पत्ति धर्म के कारण भी नहीं हुई है क्योंकि धर्म वह कठोर आधार नहीं दे सकता जो जाति प्रथा के लिए आवश्यक है। इस प्रकार नैसफील्ड के अनुसार व्यवसाय अथवा पेशा ही जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है।

डाहलमैन के अनुसार शुरू में भारतीय समाज तीन भागों में बंटा हुआ था-पुरोहित, शासक तथा बुर्जुआ। इन तीनों वर्गों के पेशे धार्मिक, राजनीतिक तथा आर्थिक क्रियाओं से सम्बन्धित थे। इनके समूह पेशे तथा रिश्तों के आधार पर छोटे-छोटे समूहों में विभाजित हो गए। जो समूह पहले व्यावसायिक निगमों के रूप में सामने आए तथा धीरे-धीरे बड़े व्यावसायिक संघों का रूप धारण कर गए, आगे चल कर यह संघ जाति के रूप में विकसित हो गए।
इस सिद्धान्त की भी आलोचना हुई है। जाति प्रथा का धर्म से सीधा सम्बन्ध न बताना ठीक नहीं है। यह सिद्धान्त प्रजातीय कारकों को भी दूर करता है जोकि ठीक नहीं है क्योंकि उच्च तथा निम्न सामाजिक समूहों में कुछ न कुछ प्रजातीय अन्तर अवश्य होता है। इसके साथ ही अगर जाति प्रथा की उत्पत्ति व्यावसायिक संघों के कारण हुई है तो यह केवल भारत में ही क्यों सामने आई यूरोप के देशों में क्यों नहीं। इस प्रकार इस सिद्धान्त में इन बहुत-से प्रश्नों का उत्तर नहीं है।

5. विकासवादी सिद्धान्त (Evolutionary Theory) यह सिद्धान्त डैनज़िल इबैटस्न (Denzil Ibbetson) ने दिया था। उसके अनुसार जाति प्रथा की उत्पत्ति चार वर्णों के आधार पर नहीं हुई बल्कि यह तो आर्थिक आधार पर बने संघों द्वारा हुई है। उसके अनुसार पहले लोग खानाबदोशों की तरह रहते थे तथा जाति प्रथा अस्तित्व में नहीं आई थी। लोगों में आपस में रक्त सम्बन्ध होते थे तथा उच्च निम्न की भावना नहीं थी। परन्तु धीरे-धीरे इकट्ठे रहने से आर्थिक विकास शुरू हुआ तथा लोग कृषि व अन्य कार्य करने लग गए। समय के साथ-साथ आर्थिक जीवन जटिल हो गया तथा श्रम विभाजन की आवश्यकता महसूस होने लग गई। राजाओं का यह कर्त्तव्य बन गया कि वह ऐसी आर्थिक नीति का निर्माण करें जोकि श्रम विभाजन तथा पेशों की भिन्नता पर आधारित हों। इस कारण कई नए आर्थिक वर्ग अस्तित्व में आ गए। एक जैसा कार्य करने से सामुदायिक भावना का विकास हुआ। प्रत्येक संघ ने अपने पेशे सम्बन्धी रहस्यों को गुप्त रखने के लिए अन्तर्विवाह की नीति अपना ली। इस प्रकार जाति वैवाहिक होने के कारण जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई। धीरे-धीरे इन समूहों ने सामाजिक पदक्रम में अपना स्थान बना लिया।

इस सिद्धान्त की भी आलोचना हुई है क्योंकि पेशे के आधार पर संघ तो सभी समाजों में होते थे परन्तु जाति प्रथा केवल भारत में ही विकसित क्यों हुई। आर्थिक कारक को बहुत-से कारकों में से एक कारक तो माना जा सकता है परन्तु केवल एक ही कारक नहीं माना जा सकता।

6. धार्मिक सिद्धान्त (Religious Theory)—यह सिद्धान्त होकार्ट (Hocart) तथा सेनार्ट (Senart) ने दिया था। होकार्ट के अनुसार जाति प्रथा की उत्पत्ति तथा भारतीय समाज का विभाजन धार्मिक कर्मकाण्डों के सिद्धान्तों के कारण हुई थी। प्राचीन भारतीय समाज में धर्म का बहुत महत्त्व होता था जिस कारण देवताओं को बलि भी दी जाती थी। बलि की प्रथा में पूजा-पाठ तथा मन्त्र पढ़ना शामिल था जिसमें कई व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती थी। धीरे-धीरे धार्मिक कार्य करने वाले लोग संगठित हो गए तथा उन्होंने अलग-अलग जातियों का रूप धारण कर लिया। होकार्ट के अनुसार प्रत्येक जाति का पेशा पीढ़ी दर पीढ़ी चलता था तथा पेशे का मूल आधार धार्मिक था न कि आर्थिक।।

सेनार्ट के अनुसार भोजन सम्बन्धी प्रतिबंध धार्मिक कारणों की वजह से उत्पन्न हुए तथा लोग जातियों व उपजातियों में विभाजित हो गए। परन्तु कई समाज शास्त्रियों ने इस सिद्धान्त की आलोचना की है तथा कहा है कि जाति प्रथा एक सामाजिक संस्था है न कि धार्मिक संस्था। इसलिए यह सिद्धान्त ठीक नहीं है। वैसे भी जाति व्यवस्था काफ़ी जटिल है तथा इसकी उत्पत्ति का काफ़ी सरल वर्णन किया गया है जोकि ठीक नहीं है।

7. माना सिद्धान्त (Mana Theory)-हट्टन के अनुसार आर्य लोगों के भारत आने से पहले भी जाति व्यवस्था के तत्त्व भारतीय समाज में मौजूद थे। जब आर्य लोग भारत में आए तो उन्होंने इन तत्त्वों को अपने हितों की रक्षा के लिए और सुदृढ़ किया। उनसे पहले भारत में सामाजिक विभाजन अधिक स्पष्ट नहीं था, परन्तु आर्य लोगों ने इसे विभाजित किया तथा स्वयं को इस व्यवस्था में सबसे ऊपर रखा। हट्टन के अनुसार यह तो आरंभिक अवस्था थी। जाति प्रथा के प्रतिबंधों को उसने माना तथा टैबु की सहायता से स्पष्ट किया है। प्राचीन समाजों में माना को न दिखने वाली

अलौकिक शक्ति समझा जाता था जो प्रत्येक प्राणी में होती थी तथा छुने से एक-दूसरे में आ सकती थी। कबाइली लोग यह मानते थे कि माना शक्ति के कारण ही लोगों में अन्तर होते थे। माना के डर से ही कबाइली लोग अन्य तथा बाहर वाले व्यक्तियों से दूर रहते थे तथा अपने समूह में भी उन लोगों को नहीं छूते थे जिन्हें दुष्ट समझा जाता था। इस प्रकार कबीले के लोगों में कुछ चीज़ों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था जिसे टैबु कहते थे। लोगों में यह डर होता था कि टैबु को मानने वाले के ऊपर दैवीय प्रकोप हो जाएगा।

हट्टन के अनुसार माना तथा टैबु को मानने वाले हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों तथा बुद्ध धर्म को मानने वालों में भी मिलते हैं। आर्य लोगों के भारत आने से पहले भी यहां माना तथा टेबु से सम्बन्धित भेदभाव मिलते थे। इसकी वजह से विवाह, खाने-पीने, कार्य इत्यादि से सम्बन्धित प्रतिबंध अलग-अलग समूहों में मिलते थे। इस कारण जब जाति प्रथा शुरू हुई तो उसमें कई प्रकार की पाबन्दियां लगा दी गईं।

कई विद्वानों ने इस सिद्धान्त की आलोचना की है तथा कहा है कि माना, टैबु तो संसार के अन्य कबीलों में भी मिलते हैं, परन्तु जाति प्रथा कहीं भी देखने को नहीं मिलती है। इसके साथ ही कबीलों की संस्कृति पूर्ण भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हट्टन ने कोई ऐसा तथ्य भी पेश नहीं किए जिसके आधार पर माना जा सके कि आर्य लोगों से पहले भी भारत में मूल निवासी माना तथा टैबु के आधार पर बँटे हुए थे। इस प्रकार इस सिद्धान्त की भी आलोचना हुई है।

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प्रश्न 3.
उन परिवर्तनों का उल्लेख करें जिन्होंने भारत में जाति रहित समाज की संभावनाओं को उजागर किया है।
उत्तर-
पुरानी सभी संस्थाओं की तरह जाति प्रथा में बहुत-से परिवर्तन आ रहे हैं। जाति वास्तव में वैदिक काल में नहीं मिलती थी, परन्तु श्रम विभाजन के कारण समाज में जाति प्रथा आ गईं। धीरे-धीरे यह इतनी बढ़ गई कि अलगअलग जातियां एक-दूसरे से अलग होकर बहुत दूर हो गईं। जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों को तो बहुत ही दूर कर दिया गया। भारत के ऊपर बहुत-से विदेशी हमलावरों ने आक्रमण किए तथा जाति प्रथा में अलगअलग जातियों ने अपने सदस्यों के ऊपर इन हमलावरों के साथ मेल-जोल पर प्रतिबंध लगा दिए। इस कारण जाति प्रथा और कठोर हो गई। जाति एक प्रकार से बंद समूह बन कर रह गई। 19वीं शताब्दी के बाद भारतीय समाज में बहुत से परिवर्तन आए जिन्होंने जाति व्यवस्था को काफ़ी प्रभावित किया तथा इसका प्रभाव कम हो गया। यह परिवर्तन अचानक नहीं आए। बहुत-से कारकों ने इन परिवर्तनों में अपना योगदान दिया जिनका वर्णन निम्नलिखित है

1. सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन (Socio-religious reform movements)-भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के स्थापित होने से पहले भी कुछ धार्मिक लहरों ने जाति प्रथा की आलोचना की थी। बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म से लेकर इस्लाम तथा सिख धर्म ने भी जाति प्रथा का खण्डन किया। इनके साथ-साथ इस्लाम तथा सिख धर्म ने तो जाति प्रथा की जम कर आलोचना की। 19वीं शताब्दी में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरों ने भी जाति प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। राजा राम मोहन राय की तरफ से चलाया गया ब्रह्मो समाज, दयानंद सरस्वती की तरफ से चलाया गया आर्य समाज, राम कृष्ण मिशन इत्यादि इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरें थीं। इनके अतिरिक्त ज्योति राव फूले ने 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य समाज में सभी को समानता का दर्जा दिलाना था। जाति प्रथा की विरोधता तो महात्मा गांधी तथा डॉ० बी० आर० अंबेडकर ने भी की थी। महात्मा गांधी ने शोषित जातियों को हरिजन का नाम दिया तथा उन्हें अन्य जातियों की तरह समान अधिकार दिलाने के प्रयास किए। आर्य समाज ने मनुष्य के जन्म के स्थान पर उसके गुणों को अधिक महत्त्व दिया। इन सभी लोगों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो गया कि मनुष्य की पहचान उसके गुणों से होनी चाहिए न कि उसके जन्म से।

2. भारत सरकार के प्रयास (Efforts of Indian Government)-अंग्रेज़ी राज्य के समय तथा भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् कई महत्त्वपूर्ण कानून पास किए गए जिन्होंने जाति प्रथा को कमजोर करने में गहरा प्रभाव डाला। अंग्रेजी राज्य से पहले जाति तथा ग्रामीण पंचायतें काफ़ी शक्तिशाली थीं। ये पंचायतें तो अपराधियों को सज़ा तक दे सकती थीं तथा जुर्माने तक लगा सकती थीं। अंग्रेज़ी शासन के दौरान जातीय असमर्थताएं दूर करने का कानून (Caste Disabilities Removal Act, 1850) पास किया गया जिसने जाति पंचायतों को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। इस प्रकार विशेष विवाह कानून (Special Marriage Act, 1872) ने अलग-अलग जातियों के बीच विवाह को मान्यता दी जिसने परम्परागत जाति प्रथा को गहरे रूप से प्रभावित किया। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् Untouchability Offence Act, 1955 तथा Hindu Marriage Act, 1955 भी जाति प्रथा को गहरा आघात लगाया। Hindu Marriage Validation Act पास हुआ जिससे अलग-अलग धर्मों, जातियों, उपजातियों इत्यादि के व्यक्तियों के बीच होने वाले विवाह को कानूनी घोषित किया गया।

3. अंग्रेज़ों का योगदान (Contribution of Britishers)-जाति प्रथा के विरुद्ध एक खुला संघर्ष ब्रिटिश काल में शुरू हुआ। अंग्रेजों ने भारत में कानून के आगे सभी की समानता का सिद्धान्त लागू किया। जाति पर आधारित पंचायतों से उनके न्याय करने के अधिकार वापस ले लिए गए। सरकारी नौकरियां प्रत्येक जाति के लिए खोल दी गईं। अंग्रेज़ों की शिक्षा व्यवस्था धर्म निष्पक्ष थी। अंग्रेजों ने भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना करके तथा रेलगाडियों, बसों इत्यादि की शुरुआत करके जाति प्रथा को करारा झटका दिया। उद्योगों में सभी मिल कर कार्य करते थे तथा रेलगाड़ियों, बसों के सफर ने अलग-अलग जातियों के बीच सम्पर्क स्थापित किया। अंग्रेज़ों की तरफ से भूमि की खुली खरीदफरोख्त के अधिकार ने गाँवों में जातीय सन्तुलन को काफ़ी मुश्किल कर दिया।

4. औद्योगीकरण (Industrialization)-औद्योगीकरण ने ऐसी स्थितियां पैदा की जो जाति व्यवस्था के विरुद्ध थी। इस कारण उद्योगों में कई ऐसे नए कार्य उत्पन्न हो गए जो तकनीकी थे। इन्हें करने के लिए विशेष योग्यता तथा ट्रेनिंग की आवश्यकता थी। ऐसे कार्य योग्यता के आधार पर मिलते थे। इसके साथ सामाजिक संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों को ऊपर उठने का मौका प्राप्त हुआ। औद्योगीकरण ने भौतिकता में बढ़ौतरी करके पैसे के महत्त्व को बढ़ा दिया। पैसे के आधार पर तीन वर्ग–धनी वर्ग, मध्य वर्ग तथा निर्धन वर्ग पैदा हो गए। प्रत्येक वर्ग में अलगअलग जातियों के लोग पाए जाते थे। औद्योगीकरण से अलग-अलग जातियों के लोग इकटे उद्योगों में कार्य करने लग गए, इकट्ठे सफर करने लगे तथा इकट्ठे ही खाना खाने लगे जिससे अस्पृश्यता की भावना खत्म होनी शुरू हो गई। यातायात के साधनों के विकास के कारण अलग-अलग धर्मों तथा जातियों के बीच उदार दृष्टिकोण का विकास हुआ जोकि जाति व्यवस्था के लिए खतरनाक था। औद्योगीकरण ने द्वितीय सम्बन्धों को बढ़ाया तथा व्यक्तिवादिता को जन्म दिया जिससे सामुदायिक नियमों का प्रभाव बिल्कुल ही खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सम्बन्ध कानून के अनुसार खत्म होने लग गए। अब सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के आधार पर होते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को काफ़ी गहरा आघात लगाया।

5. नगरीकरण (Urbanization)-नगरीकरण के कारण ही जाति प्रथा में काफ़ी परिवर्तन आए। अधिक जनसंख्या, व्यक्तिगत भावना, सामाजिक गतिशीलता तथा अधिक पेशों जैसी शहरी विशेषताओं ने जाति प्रथा को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। बड़े-बड़े शहरों में लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर रहना पड़ता है। वह यह नहीं देखते कि उनका पड़ोसी किस जाति का है। इससे उच्चता निम्नता की भावना खत्म हो गई। नगरीकरण के कारण जब लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आए तो अन्तर्जातीय विवाह होने लग गए। इस प्रकार नगरीकरण ने अस्पृश्यता के अन्तरों को काफ़ी हद तक दूर कर दिया।

6. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)-अंग्रेज़ों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को लागू किया जिसमें विज्ञान तथा तकनीक पर अधिक बल दिया जाता है। शिक्षा के प्रसार से लोगों में जागृति आई तथा इसके साथ परम्परागत कद्रों-कीमतों में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए। जन्म पर आधारित दर्जे के स्थान पर प्रतियोगिता में प्राप्त दर्जे का महत्त्व बढ़ गया। स्कूल, कॉलेज इत्यादि पश्चिमी तरीके से खुल गए जहां सभी जातियों के बच्चे इकट्ठे मिलकर शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसने भी जाति प्रथा को गहरा आघात दिया।

7. संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण (Sanskritization, Westernization and Modernization)-संस्कृतिकरण का अर्थ है दो संस्कृतियों का आपस में मिलना तथा पश्चिमीकरण का अर्थ है पश्चिमी सभ्यता के तौर-तरीके अपना लेना। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने हमारे परम्परागत समाजों में काफ़ी परिवर्तन ला दिए। डैनिश पास्कल (Danish Pascal) के अनुसार आधुनिकीकरण के मुख्य लक्षण हैं-संचार के साधनों में सुधार, अधिक शहरीकरण, शिक्षा का प्रसार, सामाजिक गतिशीलता तथा राजनीतिक व आर्थिक मामलों में अधिक शामिल होना। आधुनिकीकरण के यह लक्षण भारतीय समाज में आए तथा उन्होंने जाति प्रथा के प्रभाव को काफी हद तक खत्म कर दिया।

8. नए सामाजिक समूहों का आगे आना (Emergence of New Social Groups)-अलग-अलग पेशों तथा उद्योगों में लगे लोगों ने नए सामाजिक समूह बना लिए जैसे कि ट्रेड यूनियन। इन यूनियनों तथा समूहों में भिन्न-भिन्न जातियों के लोग शामिल थे तथा उनका उद्देश्य अपने आर्थिक हितों की रक्षा करना था जिससे अलग-अलग जातियों के लोग एकजुट हो गए तथा आपसी सहयोग करने लग गए। इस प्रकार इन नए समूहों में जातीय चेतनता के स्थान पर वर्ग चेतना उत्पन्न हो गई।

9. यातायात तथा संचार साधनों में सुधार (Improvement in the Means of Transport and Communication)-ब्रिटिश राज्य के दौरान रेलों तथा सड़कों के विकास से यातायात के साधनों में काफ़ी सुधार हुआ। इन साधनों के विकास का प्रभाव सभी जातियों के लोगों पर पड़ा। लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आए जिससे इनका आपस में मेलजोल बढ़ना शुरू हो गया। शहरी रहने-सहने के ढंग बदल गए तथा लोगों की आर्थिक दशा में भी सुधार हुआ। इस तरह इन्होंने भी जाति व्यवस्था को काफ़ी बड़ा आघात दिया।

प्रश्न 4.
उन उदाहरणों का उल्लेख करें जो यह दर्शाते हैं कि भारतीय समाज में आज भी जाति एक प्रबल प्रथा है।
उत्तर-
जाति व्यवस्था पुरातन समय से भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग रही है। आज के आधुनिक युग में भी ग्रामीण भारतीय समाज में भी जाति व्यवस्था कायम रही है। पर जब हम जाति के अन्तरापृष्ठ की बात करते हैं तो हमारे सामने दो बातें मुख्य रूप से आती हैं। वे यह हैं –
(1) जाति वर्ग में परिवर्तित हो रही है। (2) जाति मजबूत हो रही है। इसको अब हम अलग-अलग करके देखेंगे।

1. क्या जाति वर्ग में बदल रही है (Is Caste System being Replaced by Class System)-बहुत-से विद्वानों का विचार यह है कि जाति व्यवस्था में आ रहे परिवर्तनों को देख कर हम यह कह सकते हैं कि जाति वर्ग में बदल रही है। उनके अनुसार शहरीकरण, आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण के कारण जाति की संरचना में काफ़ी परिवर्तन हुए हैं, जन्म की महत्ता कम है, जाति की व्यापार सम्बन्धी विशेषता बदल गई है। अब एक ही जाति के अन्दर वर्ग बन गए हैं व कई जातियों के लोग एक वर्ग का रूप ले रहे हैं। जाति वर्ग की विशेषताएं ग्रहण कर रही है। उदाहरणत: फैक्टरियों में ट्रेड यूनियनें बन रही हैं जो श्रमिकों के हितों की रक्षा करती हैं। इन ट्रेड यूनियनों में सभी जातियों के सदस्य होते हैं। यह इकट्ठे होते हैं क्योंकि उनका पेशा एक होता है। इनमें वर्ग चेतना पैदा हो जाती है व यह अपनी मांगों को मनवाने के लिए इकट्ठे होकर संघर्ष करते हैं।

निम्न जातियों के सभी लोग मिलकर संगठन बना रहे हैं। जाति व्यवस्था जो कि किसी समय बन्द व्यवस्था होती थी अब धीरे-धीरे वर्ग की भान्ति खुलती जा रही है। उद्योगों के साथ-साथ यही स्थिति कृषि में भी सामने आ रही है। औद्योगीकरण की वजह से घरेलू ग्रामीण उद्योग व और परम्परागत पेशे समाप्त हो गए हैं जिस कारण वह लोग खेती करने लगे हैं। जिन किसानों के पास ज़मीन नहीं थी वह मजदूरी करने लगे। भारत सरकार ने निम्न जातियों को ऊँचा उठाने के लिए कई तरह के कानून पास किए उन्हें कई तरह के आर्थिक राजनीतिक व सामाजिक अधिकार दिए। नई जातियों के लोगों को प्रत्येक क्षेत्र में राजनीतिक अधिकार दिए गए व सभी जातियां एकजुट होकर वर्ग का रूप धारण कर रही हैं। जातियों में बहुत सारे परिवर्तन आ रहे हैं। (इनका वर्णन पिछले प्रश्न में किया है) इस कारण जाति वर्ग के लक्षण ग्रहण कर रही है।

इस तरह इस व्याख्या के आधार पर हम कह सकते हैं कि जाति वर्ग के लक्षण ग्रहण करती जा रही है व जाति वर्ग का रूप ले रही है। इस तरह जाति बदल रही है।

2. जाति मज़बूत हो रही है (Caste is Restrengthing) चाहे ऊपर दी गई व्याख्या के आधार पर कई विद्वानों का यह भी विचार है कि जाति बदल नहीं रही बल्कि मज़बूत हो रही है। हम यह नहीं कह सकते कि जाति सच में बदल गई है। जाति का आधार सामाजिक होता है व वर्ग का आधार आर्थिक होता है। कुछ विद्वानों के अनुसार दोनों के स्वरूप में बहुत अन्तर है जिस कारण जाति और मजबूत होती जा रही है।
वह विद्वान् जाति के मज़बूत होने में निम्नलिखित तर्क देते हैं-

  • एक जाति के सदस्य अपनी जाति के अन्य सदस्यों तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिए आधुनिक संचार व्यवस्था, प्रेस आदि का सहारा ले रहे हैं।
  • जाति पर आधारित भिन्न-भिन्न राजनीतिक संस्थाएं खुल गई हैं जो कि अपनी जाति के पक्ष में प्रचार करती हैं व अपने सांसदों का चुनावों में समर्थन करती हैं। .
  • उम्मीदवार का चुनाव भी उस क्षेत्र के जाति के लोगों की गणना के आधार पर किया जाता है। जिस जाति के सदस्य अधिक गणना में है उस जाति के सदस्य को चुनाव में उम्मीदवार बनाया जाता है।
  • अलग-अलग जातियां अपने हितों को ध्यान में रखते हुए आपस में गठजोड़ कर लेती हैं ताकि अपने हितों की रक्षा की जा सके।
  • आजकल जाति पर आधारित कई प्रकार के राजनीतिक दल सामने आ रहे हैं।
  • आजकल भी लोग विवाह करवाने के लिए अपनी ही जाति का लड़का या लड़की ढूंढ़ना पसन्द करते हैं। अन्तर-जाति विवाह बहुत कम हो रहे हैं।
  • सरकार द्वारा निम्न जातियों को नौकरियां व विधायक संस्थाओं में सीटें आरक्षित दी गई हैं। इसी कारण ही निम्न जातियां व उच्च जातियों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत बढ़ती जा रही है व उनमें जाति चेतनता बढ़ती जा रही है।
  • रोज़गार सुविधाएं जाति के आधार पर देने से जाति चेतनता बढ़ रही है।

इस प्रकार यह सब कुछ देखकर हम कह सकते हैं कि चाहे जाति में बहुत परिवर्तन आ रहे हैं व यह वर्ग में बदल रही है पर फिर भी यह ग्रामीण समाज में पूरी तरह मज़बूती से टिकी हुई है। हमारी लोकतन्त्रीय संरचना ने इसको काफ़ी मज़बूती प्रदान की है।

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अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम कब पास हुआ था ?
(क) 1956
(ख) 1954
(ग) 1955
(घ) 1957
उत्तर-
(ग) 1955.

प्रश्न 2.
किस संस्था ने भारतीय समाज को काफ़ी अधिक विघटित किया है ?
(क) जाति व्यवस्था
(ख) वर्ग व्यवस्था
(ग) संयुक्त परिवार
(घ) दहेज प्रथा।
उत्तर-
(क) जाति व्यवस्था।

प्रश्न 3.
इनमें से कौन-सा वर्ग का आधार है ?
(क) पैसा
(ख) जन्म
(ग) जायदाद
(घ) धर्म।
उत्तर-
(ख) जन्म।

प्रश्न 4.
सबसे पहले शब्द ‘हरिजन’ किसने प्रयोग किया था ?
(क) डॉ० अम्बेदकर
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) संविधान
(घ) जी०एस०घूर्ये ।
उत्तर-
(ख) महात्मा गाँधी।

प्रश्न 5.
जाति की छः विशेषताएं किस प्रसिद्ध समाजशास्त्री ने दी थी ?
(क) घूर्ये
(ख) श्रीनिवास
(ग) दुबे
(घ) नार्वे।
उत्तर-
(क) घूर्ये।

प्रश्न 6.
जाति की उत्पत्ति का परम्परागत सिद्धांत किसने दिया था ?
(क) मजूमदार
(ख) कार्वे
(ग) श्रीनिवास
(घ) दुबे।
उत्तर-
(क) मजूमदार।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. घूर्ये ने जाति की . ………….. विशेषताएं दी थीं।
2. ………………. व्यवस्था ने जाति व्यवस्था का रूप ले लिया था।
3. परम्परागत सिद्धान्त ………………. में दिया गया था।
4. ………………. की प्रक्रिया से निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों की आदतें, व्यवहार इत्यादि को अपना लेते हैं।
5. ……………….. की प्रक्रिया से अस्पृश्यता लगभग खत्म हो गई है।
6. भारत में अस्पृश्यता की समस्या …………….. व्यवस्था के कारण है।
उत्तर-

  1. छ:
  2. वर्ण
  3. ऋग्वेद
  4. संस्कृतिकरण
  5. धर्मनिष्पक्षता
  6. जाति।

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C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं

1. जाति व्यवस्था पैसे पर आधारित है।
2. अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1960 में पास हुआ था।
3. जाति की उत्पत्ति का परम्परागत सिद्धांत ऋग्वेद में मिलता है।
4. जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था से निकली है।
5. प्रथम तीन जातियों को द्विज कहा जाता था।
उत्तर-

  1. गलत
  2. गलत
  3. सही
  4. सही
  5. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. …………………. व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।
उत्तर-जाति व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।

प्रश्न 2. शब्द Caste किस भाषा के शब्द से निकला है ?
उत्तर-शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द से निकला है।

प्रश्न 3. जाति किस प्रकार का वर्ग है ?
उत्तर-बन्द वर्ग

प्रश्न 4. जाति प्रथा में किसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी ?
उत्तर-जाति प्रथा में प्रथम वर्ण को अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी।

प्रश्न 5. जाति प्रथा में किस जाति का शोषण होता था ?
उत्तर-जाति प्रथा में निम्न जातियों का शोषण होता था।

प्रश्न 6. अन्तर्विवाह का क्या अर्थ है ?
उत्तर-जब व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता है तो उसे अन्तर्विवाह कहते हैं।

प्रश्न 7. जाति में व्यक्ति का पेशा किस प्रकार का होता है ?
उत्तर-जाति में व्यक्ति का पेशा जन्म पर आधारित होता है अर्थात् व्यक्ति को अपने परिवार का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता है।

प्रश्न 8. जाति में आपसी सम्बन्ध किस पर आधारित होते हैं ?
उत्तर-जाति में आपसी सम्बन्ध उच्चता तथा निम्नता पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 9. आवृत्त जाति व्यवस्था का क्या अर्थ है ?
उत्तर-जो वर्ग बदला नहीं जा सकता उसे आवृत्त जाति व्यवस्था कहते हैं।

प्रश्न 10. कच्चा भोजन तथा पक्का भोजन बनाने के लिए क्या प्रयोग होता है ?
उत्तर-कच्चा भोजन बनाने के लिए पानी तथा पक्का भोजन बनाने के लिए घी का प्रयोग होता है।

प्रश्न 11. जाति की उत्पत्ति का प्रजातीय सिद्धान्त किसने दिया था ?
उत्तर-जाति की उत्पत्ति का प्रजातीय सिद्धान्त जी० एस० घूर्ये ने दिया था।

प्रश्न 12. झूम कृषि ……………… करता है।
उत्तर-झूम कृषि जनजातीय समूह करता है।

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प्रश्न 13. भारतीय समाज में श्रम विभाजन किस पर आधारित था ?
उत्तर- भारतीय समाज में श्रम विभाजन जाति व्यवस्था पर आधारित था।

प्रश्न 14. पुस्तक Caste in India किसने लिखी थी ?
उत्तर-हट्टन ने।

प्रश्न 15. पुस्तक Races and Culture किसने लिखी थी ?
उत्तर-पुस्तक Races and Culture मज़मूदार ने लिखी थी।

प्रश्न 16. डॉ० घूर्ये ने जाति की कितनी विशेषताएं दी हैं ?
उत्तर-डॉ० घूर्ये ने जाति की छ: विशेषताएं दी हैं।

प्रश्न 17. जाति प्रथा की उत्पत्ति का नस्ली सिद्धान्त किसने दिया था ?
उत्तर-जाति प्रथा की उत्पत्ति का नस्ली सिद्धान्त घूर्ये ने दिया था।

प्रश्न 18. जाति प्रथा की उत्पत्ति का धार्मिक सिद्धान्त किसने दिया था ?
उत्तर-जाति प्रथा की उत्पत्ति का धार्मिक सिद्धान्त होकार्ट तथा सेनार्ट ने दिया था।

प्रश्न 19. जाति प्रथा की उत्पत्ति का पेशे का सिद्धान्त किसने दिया था ?
उत्तर-जाति प्रथा की उत्पत्ति का पेशे का सिद्धान्त नेसफील्ड ने दिया था।

प्रश्न 20. अस्पृश्यता अपराध अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 21. नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1976 में पास हुआ था।

प्रश्न 22. हिन्दू विवाह अधिनियम ………………………. में पास हुआ था।
उत्तर-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 23. अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में किस बात पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था ?
अथवा अस्पृश्यता अपराध अधिनियम।
उत्तर-इस अधिनियम में किसी भी व्यक्ति को अस्पृश्य कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। यह 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 24. सामाजिक स्तरीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित करने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं।

प्रश्न 25. भारत में लगभग कितनी जातियां पाई जाती हैं ?
उत्तर-भारत में लगभग 3000 जातियां पाई जाती हैं।

प्रश्न 26. जाति किस प्रकार के विवाह को मान्यता देती है ?
उत्तर-जाति अन्तर्विवाह को मान्यता देती है।

प्रश्न 27. प्राचीन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
उत्तर-प्राचीन भारतीय समाज चार भागों में विभाजित था।

प्रश्न 28. जाति व्यवस्था का क्या लाभ था ?
अथवा जाति व्यवस्था के एक सकारात्मक कार्य के बारे में लिखें।
उत्तर-इसने हिन्दू समाज का बचाव किया, समाज को स्थिरता प्रदान की तथा लोगों को एक निश्चित व्यवसाय प्रदान किया था।

प्रश्न 29. जाति प्रथा में किस प्रकार का परिवर्तन आ रहा है ?
अथवा जाति व्यवस्था में एक परिवर्तन बताएं।
उत्तर-जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा खत्म हो रही है, अस्पृश्यता खत्म हो रही है तथा परम्परागत पेशे खत्म हो रहे हैं।

प्रश्न 30. जाति की मुख्य विशेषता क्या है ?
अथवा
जाति की कोई दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-जाति की जन्मजात सदस्यता होती है, समाज का खण्डात्मक विभाजन होता है तथा व्यक्ति को परम्परागत पेशा प्राप्त होता है।

प्रश्न 31. जाति की उत्पत्ति का बहुकारक सिद्धान्त किसने दिया था ?
उत्तर-जाति की उत्पत्ति का बहुकारक सिद्धान्त हट्टन ने दिया था।

प्रश्न 32. जाति प्रथा से क्या हानि होती है ?
उत्तर-जाति प्रथा से निम्न जातियों का शोषण होता है, अस्पृश्यता बढ़ती है तथा व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं

प्रश्न 33. किसने जाति को राजनीतिक इकाई के रूप में माना है ?
उत्तर-सक्सैना ने जाति को राजनीतिक इकाई के रूप में माना है।

प्रश्न 34. जाति की सदस्यता का आधार क्या है ?
उत्तर-जाति की सदस्यता का आधार जन्म है।

प्रश्न 35. स्तरीकरण का स्थायी रूप क्या है ?
उत्तर-स्तरीकरण का स्थायी रूप जाति है।

प्रश्न 36. किस संस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है ?
उत्तर-जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है।

प्रश्न 37. किस विद्वान् ने जाति के कार्यों को तीन भागों में विभाजित किया है ?
उत्तर-हट्टन ने जाति के कार्यों को तीन भागों में विभाजित किया है।

प्रश्न 38. किस वेद के प्रमुख सूक्त में जाति की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है ?
उत्तर-ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में जाति की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।

प्रश्न 39. जाति शब्द किस भाषा से उत्पन्न हुआ है ?
अथवा जाति का शाब्दिक अर्थ। उत्तर-जाति शब्द अंग्रेजी भाषा के Caste शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जोकि पुर्तगाली शब्द Casta से बना है।

प्रश्न 40. जाति के कौन-से मुख्य आधार हैं ?
उत्तर-जाति एक बड़ा समूह होता है जिसका आधार जातीय भिन्नता तथा जन्मजात भिन्नता होता है।

प्रश्न 41. जाति में आपसी सम्बन्ध किस पर आधारित होते हैं ?
उत्तर-जाति में आपसी सम्बन्ध उच्चता और निम्नता पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 42. जाति में किसकी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा होती है ?
उत्तर-जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा सबसे ज़्यादा थी तथा ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा था।

प्रश्न 43. जाति प्रथा में प्रतिबन्ध क्यों लगाए जाते थे ?
उत्तर-

(i) इसलिए ताकि विभिन्न जातियां एक-दूसरे के सम्पर्क में न आएं।
(ii) इसलिए ताकि जाति श्रेष्ठता तथा निम्नता बनाई रखी जा सके।

प्रश्न 44. जाति प्रथा में व्यवसाय कैसे निश्चित होता था ?
उत्तर-जाति प्रथा में व्यवसाय परम्परागत होता था अर्थात् परिवार का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था।

प्रश्न 45. अन्तर्विवाह क्या होता है ?
उत्तर- इस नियम के अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था अर्थात् वह अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं करवा सकता।

प्रश्न 46. जाति एक बन्द वर्ग कैसे है ?
अथवा क्या जाति बंद समूह है? उत्तर-जाति एक बन्द वर्ग है क्योंकि व्यक्ति चाहकर भी अपनी योग्यता से अपनी जाति नहीं बदल सकता।

प्रश्न 47. व्यक्ति की सामाजिक स्थिति कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-जाति प्रथा में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी जाति पर निर्भर होती है जबकि वर्ग व्यवस्था में सामाजिक स्थिति उसकी व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 48. कौन-से कानूनों से जाति प्रथा कमजोर हुई है ?
उत्तर-

  1. हिन्दू विवाह कानून 1955
  2. विशेष विवाह अधिनियम 1954.

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प्रश्न 49. निम्न जातियों की सामाजिक निर्योग्यता क्या होती थी ?
उत्तर-निम्न जातियों की सामाजिक निर्योग्यता यह होती थी कि वह उच्च जातियों से सम्बन्ध नहीं रख सकते तथा वह उनके कुओं, तालाबों से पानी नहीं भर सकते थे।

प्रश्न 50. निम्न जातियों की धार्मिक निर्योग्यता क्या होती थी ?
उत्तर-निम्न जातियों के लोग धार्मिक शिक्षा नहीं ले सकते थे, पढ़ नहीं सकते थे तथा मन्दिरों में नहीं जा सकते थे।

प्रश्न 51. औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को किस प्रकार प्रभावित किया है ?
अथवा औद्योगीकरण का जाति व्यवस्था पर प्रभाव।।
उत्तर-उद्योगों में अलग-अलग जातियों के लोग मिलकर कार्य करने लग गए जिससे उच्चता निम्नता के सम्बन्ध खत्म होने शुरू हो गए।

प्रश्न 52. अस्पृश्यता क्या है ?
उत्तर-वह प्रक्रिया जिसमें विशेष जातियों के लोगों को निम्न जातियों के लोगों को छूने तक की आज्ञा नहीं होती थी उसे अस्पृश्यता कहा जाता था।

प्रश्न 53. अन्तर्जातीय विवाह।
उत्तर-जब दो अलग-अलग जातियों के व्यक्ति आपस में विवाह करते हैं तो इसे अन्तर्जातीय विवाह का नाम दिया गया है।

प्रश्न 54. क्या जाति बदल रही है ?
उत्तर-जी हां, बहुत से कारकों जैसे कि शिक्षा, औद्योगीकरण, नगरीकरण, कानूनों इत्यादि के कारण जाति बदल रही है।

प्रश्न 55. अन्तर्विवाह।
उत्तर-जब व्यक्ति अपनी ही जाति, समूह इत्यादि में विवाह करवाए तो उसे अन्तर्विवाह कहते हैं।

प्रश्न 56. जाति संस्तरण।
उत्तर-जाति संस्तरण का अर्थ है कि जाति व्यवस्था में चारों जातियों को निश्चित व्यवस्था में बांटा गया है।

प्रश्न 57. क्या वर्ग अन्तर्वैवाहिक है?
उत्तर-जी हां, वर्ग अन्तर्वैवाहिक भी होता है तथा बहुविवाही भी।

प्रश्न 58. जाति में पदक्रम।
उत्तर-जाति प्रथा में चार मुख्य जातियां होती थीं तथा वे थीं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जाति । यह ही जाति का पदक्रम होता था।

प्रश्न 59. वर्ग का आधार क्या है?
उत्तर-वर्ग का आधार पैसा, प्रतिष्ठा, शिक्षा, पेशा इत्यादि होते हैं।

प्रश्न 60. जाति व्यवस्था का मुख्य आधार क्या है?
उत्तर- जाति व्यवस्था का मूल आधार कुछ जातियों की उच्चता तथा कुछ जातियों की निम्नता थी।

प्रश्न 61. जाति में खाने-पीने तथा सामाजिक संबंधों पर प्रतिबन्ध।
उत्तर-जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों में खाने-पीने तथा उनमें सामाजिक संबंध रखने की भी मनाही होती है।

प्रश्न 62. जाति में विवाह संबंधी प्रतिबन्ध।
उत्तर-जाति में विवाह संबंधी प्रतिबन्ध होता था अर्थात् अलग-अलग जातियों में लोग आपस में विवाह नहीं करवा सकते थे।

प्रश्न 63. रक्त की शुद्धता बनाए रखना।
उत्तर-अलग-अलग जातियों में विवाह नहीं हो सकता था जिस कारण उनका रक्त आपस में नहीं मिलता था तथा रक्त की शुद्धता बनी रहती है।

प्रश्न 64. जाति सदस्यता जन्म पर आधारित।
उत्तर-व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है वह तमाम उम्र उस जाति का सदस्य रहता है तथा योग्यता होते हुए भी वह जाति बदल नहीं सकता।

प्रश्न 65. जाति सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
उत्तर-अगर किसी व्यक्ति को समस्या आती है तो जाति के सभी सदस्य उसकी सहायता करते हैं। इस प्रकार जाति सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

प्रश्न 66. जाति व्यवस्था के कोई दो दोष।
उत्तर-(i) इसमें एक विशेष जाति का शोषण होता था। (ii) इसमें अलग-अलग जातियों में द्वेष उत्पन्न होता है।

प्रश्न 67. वर्ग का आधार क्या है ?
उत्तर-आजकल वर्ग का आधार पैसा, व्यापार, पेशा इत्यादि है।

प्रश्न 68. अब तक कौन-से वर्ग अस्तित्व में आए हैं ?
उत्तर-अब तक अलग-अलग आधारों पर हज़ारों वर्ग अस्तित्व में आए हैं।

प्रश्न 69. भारतीय नागरिकों को कितने प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर- भारतीय नागरिकों को छः प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 70. ब्राह्मण वर्ण के कर्त्तव्य।।
उत्तर-पढ़ना, पढ़ाना, धार्मिक कार्य पूर्ण करना तथा यज्ञ करवाना ब्राह्मण वर्ण के कार्य थे।

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III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
समाज अलग-अलग जातियों में विभाजित हुआ था तथा समाज में इस कारण उच्च-निम्न की एक निश्चित व्यवस्था तथा भावना होती थी। इस निश्चित व्यवस्था को ही जाति में पदक्रम कहते हैं।

प्रश्न 2.
व्यक्ति की सामाजिक स्थिति कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी जाति पर निर्भर करती है जबकि वर्ग व्यवस्था में उसकी सामाजिक स्थिति उसकी व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर निर्भर करती है।

प्रश्न 3.
जाति सहयोग की भावना विकसित करती है।
उत्तर-
यह सच है कि जाति सहयोग की भावना विकसित करती है। एक ही जाति के सदस्यों का एक ही पेशा होने के कारण वह आपस में मिल-जुल कर कार्य करते हैं तथा सहयोग करते हैं।

प्रश्न 4.
कच्चा भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में पानी का प्रयोग हो उसे कच्चा भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में कई जातियों से कच्चा भोजन कर लिया जाता था तथा कई जातियों से पक्का भोजन।

प्रश्न 5.
पक्का भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में घी अथवा तेल का प्रयोग किया जाता है इसे पक्का भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में किसी विशेष जाति से ही पक्का भोजन ग्रहण किया जाता है।

प्रश्न 6.
आधुनिक शिक्षा तथा जाति।
उत्तर-
लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं जिस कारण धीरे-धीरे उन्हें जाति व्यवस्था के अवगुणों का पता चल रहा है। इस कारण अब उन्होंने जाति की पाबन्दियों को मानना बंद कर दिया है।

प्रश्न 7.
जाति में सामाजिक सुरक्षा।
उत्तर-
अगर किसी व्यक्ति के सामने कोई समस्या आती है तो जाति के सभी सदस्य इकट्ठे होकर उस समस्या को हल करते हैं। इस प्रकार जाति में व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।

प्रश्न 8.
जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित।
उत्तर-
यह सच है कि व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है क्योंकि व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है। वह योग्यता होने पर भी उसकी सदस्यता को छोड़ नहीं सकता है।

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प्रश्न 9.
रक्त की शुद्धता बनाए रखना।
उत्तर-
जब व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करवाता है तो इससे जाति की रक्त की शुद्धता बनी रहती है तथा अन्य जाति में विवाह न करवाने से उनका रक्त अपनी जाति में शामिल नहीं होता।

प्रश्न 10.
जाति की एक परिभाषा दें।
उत्तर-
राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstd) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक तथा एक से अधिक विषयों के ऊपर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”

प्रश्न 11.
निम्न जाति का शोषण।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का काफ़ी शोषण किया जाता था। उनके साथ काफ़ी बुरा व्यवहार किया जाता था तथा उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं दिए जाते थे।

प्रश्न 12.
जाति व्यवस्था में दो परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. अलग-अलग कानूनों के पास होने से जाति प्रथा में अस्पृश्यता के भेदभाव का खात्मा हो रहा है।
  2. अलग-अलग पेशों के आगे आने के कारण अलग-अलग जातियों के पदक्रम तथा उनकी उच्चता में परिवर्तन आ रहा है।

प्रश्न 13.
जातीय समाज का खण्डात्मक विभाजन।
अथवा
जातियों की संख्या तथा नाम बताएं।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में समाज चार भागों में विभाजित होता था पहले भाग में ब्राह्मण आते थे, दूसरे भाग में क्षत्रिय, तीसरे भाग में वैश्य तथा चतुर्थ भाग में निम्न जातियों के व्यक्ति आते थे।

प्रश्न 14.
विवाह संबंधी जाति में परिवर्तन।।
उत्तर-
अब लोग इकट्ठे कार्य करते हैं तथा नज़दीक आते हैं। इससे अन्तर्जातीय विवाह बढ़ रहे हैं। लोग अपनी इच्छा से विवाह करवाने लग गए हैं। बाल विवाह खत्म हो रहे हैं, विधवा विवाह बढ़ रहे हैं तथा विवाह संबंधी प्रतिबन्ध खत्म हो गए हैं।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न ।

प्रश्न 1.
जाति का अर्थ।
अथवा जाति।
उत्तर-
हिन्दू सामाजिक प्रणाली में एक उलझी हुई एवं दिलचस्प संस्था है जिसका नाम ‘जाति प्रणाली’ है। यह शब्द पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘जन्म’। इस प्रकार यह एक अन्तर-वैवाहिक समूह होता है, जिसकी सदस्यता जन्म के ऊपर आधारित है, इसमें कार्य (धन्धा) पैतृक एवं परम्परागत होता है। रहना-सहना, खाना-पीना, सम्बन्धों पर कई प्रकार के नियम (बन्धन) होते हैं। इसमें कई प्रकार की पाबन्दियां भी होती हैं, जिनका पालन उन सदस्यों को करना ज़रूरी होता है।

प्रश्न 2.
जाति व्यवस्था की कोई चार विशेषताएं बताएं।
अथवा जाति व्यवस्था की चार विशेषताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-

  1. जाति की सदस्यता जन्म के आधार द्वारा होती है।
  2. जाति में सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध होते हैं।
  3. जाति में खाने-पीने के बारे में प्रतिबन्ध होते हैं।
  4. जाति में अपना कार्य पैतृक आधार पर मिलता है।
  5. जाति एक अन्तर-वैवाहिक समूह है, विवाह सम्बन्धी बन्दिशें हैं।
  6. जाति में समाज अलग-अलग हिस्सों में विभाजित होता है। (vii) जाति प्रणाली एक निश्चित पदक्रम है।

प्रश्न 3.
पदक्रम क्या होता है ?
उत्तर-
जाति प्रणाली में एक निश्चित पदक्रम होता था, अभी भी भारत वर्ष में ज्यादातर भागों में ब्राह्मण वर्ण की जातियों को समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था। इसी प्रकार दूसरे क्रम में क्षत्रिय आते थे। वर्ण व्यवस्था के अनुसार तीसरा स्थान ‘वैश्यों’ का था, उसी प्रकार ही समाज में वैसा ही आज माना जाता था। इसी क्रम के अनुसार सबसे बाद वाले क्रम में चौथा स्थान निम्न जातियों का था। समाज में किसी भी व्यक्ति की स्थिति आज भी भारत के ज्यादा भागों में उसी प्रकार से ही निश्चित की जाती थी।

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प्रश्न 4.
समाज का जाति के आधार पर विभाजन।
उत्तर-
जाति प्रणाली ने भारतीय सामाजिक ढांचे को अथवा भारतीय समाज को कई हिस्सों में बांट दिया था, सामान्यतः इसके चार भाग ही माने जाते थे। इस प्रकार से इन चारों हिस्सों में सबसे पहले हिस्से में ब्राह्मण’ आते थे। दूसरे हिस्से में क्षत्रिय आते थे। इसके बाद वाला हिस्सा वैश्यों को मिला था और आखिर वाला और चौथा हिस्सा निम्न जातियों का माना गया था। इस तरह से हर खण्ड अथवा हिस्से का समाज में अपना-अपना दर्जा था, उसी प्रकार समाज में उनका स्थान, स्थिति अथवा कार्य प्रणाली था, जिसमें उनको अपने रीति-रिवाजों के अनुसार चलना था। इसके अनुसार जाति के सदस्यों को अपने सम्बन्धों का दायरा भी अपनी जाति तक ही सीमित रखना होता था। इस व्यवस्था में हर जाति अपने आप में एक सम्पूर्ण जीवन बिताने की एक ‘सामाजिक इकाई’ मानी जाती थी।

प्रश्न 5.
सदस्यता जन्म पर आधारित।
अथवा जाति की सदस्यता कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता जन्म के आधार पर मानी जाती थी। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का फैसला अथवा निर्धारण स्वयं नहीं कर सकता। जिस जाति में वह जन्म लेता है उसका सामाजिक दर्जा भी उसी के आधार पर ही निश्चित होता है। इस व्यवस्था में व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, वह अपनी जाति को अपनी मर्जी से बदल नहीं सकता था। जाति की सदस्यता यदि जन्म के आधार पर मानी जाती थी तो उसकी सामाजिक स्थिति उसके जन्म के आधार पर होती थी न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर।

प्रश्न 6.
जाति में खाने-पीने सम्बन्धी किस तरह के प्रतिबन्ध हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में कुछ इस तरह के नियम बताए गए हैं जिनमें यह स्पष्ट होता है कि कौन-कौन सी जातियों अथवा वर्गों में कौन-कौन से खाने-पीने के बारे में बताया गया था। इस तरह खाने-पीने की वस्तुओं को दो भागों में बांटा गया था। सारे भोजन को तो एक कच्चा भोजन माना जाता था और दूसरा पक्का भोजन। इसमें कच्चे भोजन को पानी द्वारा तैयार किया जाता था और पक्के भोजन को घी (Ghee) द्वारा तैयार किया जाता था। आम नियम यह था कि कच्चा भोजन कोई भी व्यक्ति तब तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसी जाति के ही व्यक्ति द्वारा तैयार न किया जाए। परन्तु दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में यदि क्षत्रिय एवं वैश्य भी तैयार करते थे, तो ब्राह्मण उसको ग्रहण कर लेते थे।

प्रश्न 7.
जाति से सम्बन्धित व्यवसाय।
उत्तर-
जाति व्यवस्था के नियमों के आधार पर व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित किया जाता था। उसमें उसे परम्परा के अनुसार अपने पैतृक धन्धे को ही अपनाना पड़ता था। जैसे ब्राह्मणों का काम समाज को शिक्षित करना था और क्षत्रियों के ऊपर सुरक्षा का दायित्व था और कृषि के कार्य वैश्यों में विभाजित थे। इसी प्रकार निम्न जातियों का कार्य बाकी तीनों समुदायों की सेवा करने का कार्य था। इसी प्रकार जिस बच्चे का जन्म जिस जाति विशेष में होता था उसे व्यवसाय के रूप में भी वही काम करना होता था। इस प्रणाली में व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार कोई व्यवसाय नहीं कर सकता था। इस जाति प्रकारों में सभी चारों वर्ग अपने कार्य को अपना धर्म समझ कर करते थे।

प्रश्न 8.
जाति में विवाह सम्बन्धी क्या नियम हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था, बहुत सारी जातियों और उपजातियों में विभाजित होती है और इनमें अपने समूह अथवा जाति से बाहर विवाह करने पर पाबन्दी होती है अर्थात् वह अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति इस नियम के विरुद्ध चलता था, तो उसे अपनी जाति से बाहर निकाल दिया जाता था मतलब कि उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था और इस तरह से वह किसी दूसरी जाति या उपजाति में भी शामिल नहीं हो सकता था। इस प्रथा के अनुसार सभी जातियों के लोग सभी अपनी-अपनी जाति में विवाह कर सकते थे।

प्रश्न 9.
जाति से सम्बन्धित प्रतिबन्ध।
अथवा जाति के साथ कौन-कौन से प्रतिबन्ध जुड़े थे ?
उत्तर-
जाति के साथ-साथ कुछ बन्दिशें अथवा नियम जुड़े हुए थे जिसके अनुरूप व्यक्ति को चलना पड़ता था, वह उनके विपरीत आचरण नहीं कर सकता था। जैसे कि-

  • हर व्यक्ति को परम्परा के अनुसार अपने पैतृक कार्य अपनाने पड़ते थे।
  • उसे खाने-पीने अथवा रहने-सहने के तरीकों को अपनी जाति के अनुसार चलना पड़ता था।
  • इसी प्रकार निम्न जातियों को मन्दिरों अथवा धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने की आज्ञा नहीं थी।
  • कई जातियों को अस्पृश्य समझा जाता था, वे बाकी तीनों जातियों के कुओं इत्यादि से पानी भी नहीं भर सकते थे अथवा ब्राह्मणों को स्पर्श भी नहीं कर सकते थे।

प्रश्न 10.
सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध।
उत्तर-
समाज अलग-अलग जातियों में बंटा हुआ था और इन सभी में ऊंच-नीच की भावना का जन्म हो चुका था, इसके अनुसार ऊंची जातियों वाले लोग गांवों के अन्दर रहते थे और निम्न जाति के लोग गांवों के बाहर के हिस्सों में रहते थे। इस प्रकार ये सभी एक-दूसरे से दूरी रखते थे। इसी तरह समाज के इस चौथे वर्ग को ब्राह्मणों के उठनेबैठने, पढ़ने-लिखने एवं साथ में रहने पर सख्त पाबन्दियां थीं। मन्दिरों के अन्दर जाने की मनाही थी। धार्मिक अनुष्ठानों में वे भाग नहीं ले सकते थे। इसी प्रकार ‘उपनयन’ संस्कार भी उनके लिए नहीं था। इस जाति व्यवस्था में निम्न जातियों के साथ सम्बन्धों पर बाकी जातियों पर प्रतिबन्ध लगे हुए थे।

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प्रश्न 11.
जाति सामाजिक सुरक्षा कैसे करती थी ?
उत्तर-
जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। हर जाति के व्यक्ति अपनी जाति के लोगों की हर समय सहायता करते थे, इस व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के ऊपर कोई भी मानसिक दबाव नहीं रहता था क्योंकि उसकी जाति के लोग हर विपत्ति में अर्थात् उसके हर दुःख-सुख में उसके भागीदार रहते थे। इस प्रकार से जाति उनकी दो प्रकार से सहायता करती थी। (i) एक तो समाज में उस व्यक्ति की स्थिति को निश्चित करना (ii) उसकी हर संकट के समय मदद करना।

प्रश्न 12.
जाति के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की प्रथा में जाति भिन्न तरह से अपने सदस्यों की सहायता करती है, उसमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

  • जाति व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण करती है।
  • व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  • हर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  • व्यक्ति एवं जाति के रक्त की शुद्धता बरकरार रखती है।
  • जाति राजनीतिक स्थिरता प्रदान करती है।
  • जाति अपने तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखती है।
  • जाति शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निर्धारण करती है।
  • जाति विशेष व्यक्ति के कर्तव्यों एवं अधिकारों का ध्यान करवाती है।

प्रश्न 13.
रक्त की शुद्धता।
अथवा जाति रक्त की शुद्धता को कैसे बनाए रखती है ? बताएं।
उत्तर-
जब यह बात स्पष्ट है कि जाति एक अन्तर-वैवाहिक सम्बन्धों का समूह है तो उसमें अपने आप रक्त की शुद्धता की सम्भावना बढ़ जाती है। जाति सम्बन्धों में यह बात सबसे ज्यादा प्रमुख मानी जाती है कि उसका हर सदस्य अपनी ही जाति में अपने वैवाहिक सम्बन्ध कायम करेगा। यदि वह व्यक्ति इस नियम की उल्लंघना करता है तो उसका बहिष्कार कर दिया जाता था, इस प्रकार अपनी जाति में ही विवाह की इस परम्परा से रक्त की शुद्धता बनी रहती थी।

प्रश्न 14.
जाति एवं व्यवसाय सम्बन्धी निपुणता।
अथवा जाति कैसे व्यवसाय में निपुणता लाती है ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में, हर जाति के कार्यों का निर्धारण पहले ही हो जाता है और फिर वही काम पीढ़ी-दरपीढ़ी चलता रहता है। इस प्रणाली का यह बहुत अच्छा गुण है कि उस विशेष कार्य में उस जाति की निपुणता हो जाती है और वह व्यक्ति अपने कार्य का मास्टर बन जाता है। इस प्रणाली में यह विशेषता है कि व्यक्ति स्वयं ही अपने पैतृक कामों को सीख जाता है और तकनीकी रूप से निपुण हो जाता है। उसे कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। एक ही कार्य को बार-बार करने से उसमें विशिष्टता आती जाती है।

प्रश्न 15.
अस्पृश्यता।
अथवा
जाति व्यवस्था अस्पृश्यता को जन्म देती है।
उत्तर-
समाज में अस्पृश्यता का बढ़ना, जाति प्रथा का कार्य है। समाज की कुल जनसंख्या के बड़े हिस्से को इसलिए अपवित्र माना गया था, क्योंकि जो वह कार्य करते थे उसे समाज में अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता था। इस व्यवस्था में वह उच्च जातियों को स्पर्श भी नहीं सकते थे और इसी क्रिया को समाज में छुआ-छूत की संज्ञा दे दी गई थी। इस व्यवस्था में वह न तो ऊपर की जातियों के साथ रह सकते थे और न ही उनसे कोई सामाजिक सम्बन्ध रख सकते थे। इस व्यवस्था में निम्न जाति के व्यक्तियों को गांवों के बाहर रहना पड़ता था। न ही वे शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। इस तरह से इस व्यवस्था ने समाज में इतना असंतुलन कर दिया कि जनसंख्या का ज़्यादा हिस्सा अनपढ़, ग़रीब एवं बेकार ही रह गया। इस व्यवस्था में कई प्रतिबन्ध होने के कारण वे लोग समाज की मुख्य धारा में पीछे रह गए क्योंकि इस व्यवस्था में उनके लिए कुछ भी नहीं था और वे सिर्फ बाकी वर्गों की सेवा के लिए ही थे।

प्रश्न 16.
जाति एक बन्द समूह है।
उत्तर-
जाति एक बन्द समूह है, जब हम इस बात का अच्छी तरह से विश्लेषण करेंगे तो जवाब ‘हां’ में ही आएगा। इससे यही अर्थ है कि बन्द समूह की जिस जाति में व्यक्ति का जन्म होता था, उसी के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति तय होती थी। व्यक्ति अपनी जाति को छोड़कर, दूसरी जाति में भी नहीं जा सकता। न ही वह अपनी जाति को बदल सकता है। इस तरह इस व्यवस्था में हम देखते हैं कि चाहे व्यक्ति में अपनी कितनी भी योग्यता हो, वह उसे प्रदर्शित नहीं कर पाता था क्योंकि जो उसे अपनी जाति समूह के नियमों के अनुसार कार्य करना होता था क्योंकि इसका निर्धारण ही व्यक्ति के जन्म के आधार पर था न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर। इस प्रकार जाति एक बन्द समूह ही था जिससे व्यक्ति अपनी इच्छा के आधार पर बाहर नहीं निकल सकता।

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प्रश्न 17.
जाति के गुण बताएं।
उत्तर-

  • जाति व्यवसाय का विभाजन करती है।
  • जाति सामाजिक एकता को बनाए रखती है।
  • जाति रक्त शुद्धता को बनाएं रखती है।
  • जाति शिक्षा के नियमों को बनाती है।
  • जाति समाज में सहयोग से रहना सिखाती है।
  • मानसिक एवं सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

प्रश्न 18.
निम्न जातियों का शोषण।
उत्तर-
समाज में जाति प्रथा ने लोगों को चार भागों में बांट दिया था, इसके अनुसार व्यक्ति की जाति के साथ ही उसकी पहचान एवं स्थिति होती थी। इस प्रकार जाति में उसकी सदस्यता उसके जन्म के आधार पर मानी गई थी। जिस भी जाति में वह व्यक्ति जन्म लेता था उसी के आधार पर समाज में उसकी पहचान मानी जाती थी। उच्च वर्ग की जातियों का निम्न जातियों के लोगों से ठीक व्यवहार नहीं था। इस व्यवस्था में निम्न जातियों का काम सिर्फ ऊपर की तीनों जातियों अर्थात् की सेवा करना था। इस व्यवस्था में उनके कोई भी अधिकार नहीं थे। उनकी परछाई को भी अपवित्र समझा जाता था। वह गांवों के अन्दर जो कुएं थे जहां पर कि बाकी तीनों समुदायों के लोग रहते थे, वहां से पानी पीने की भी आज्ञा नहीं थी। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में, मन्दिरों में अथवा सामाजिक आयोजनों में उनकी उपस्थिति को अपवित्र माना जाता था। इस तरह से निम्न जातियों का धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक, राजनीतिक रूप से सभी क्षेत्रों में भरपूर शोषण होता था। इस प्रथा का सबसे गलत पहलू था जिसमें मानवीय मूल्यों की कोई कद्र नहीं होती थी। इस जाति विशेष का भरपूर शोषण होता था।

प्रश्न 19.
जाति चेतनता।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की यह सबसे बड़ी त्रुटि थी कि उसमें कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के प्रति ज़्यादा सचेत नहीं होता था और यह कमी हर व्यवस्था में भी पाई जाती थी। क्योंकि इस व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति के आधार पर निश्चित होती थी, इसलिए व्यक्तिगत रूप से उतना जागरूक ही नहीं होता था। जब कि उसकी स्थिति एवं पहचान उनके जन्म के अनुसार ही होनी थी, तो उसे पता होता था कि उसे कौन-कौन से कार्य और कैसे करने हैं। यदि कोई व्यक्ति उच्च जाति में जन्म ले लेता था तो उसे पता होता था कि उसके क्या कर्त्तव्य हैं, यदि उसका जन्म निम्न जाति में हो जाता था, तो उसे पता ही होता था कि उसे सारे समाज की सेवा करनी है और इस स्वाभाविक प्रक्रिया में दखल-अन्दाजी नहीं करता था और उसी को दैवी कारण मानकर अपना जीवन-यापन करता जाता था।

प्रश्न 20.
जाति सामाजिक एकता में रुकावट है।
उत्तर-
इस व्यवस्था से क्योंकि समाज का विभाजन कई भागों में हो जाता था, इसलिए सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता था। इस व्यवस्था में हर जाति के अपने नियम एवं प्रतिबन्ध होते थे। इस तरह से अपनी जाति के अलावा दूसरी जाति से कोई ज़्यादा लगाव नहीं होता, क्यों जो उन्हें पता होता था कि उन्हें नियमों के अनुसार आचरण करना होता था। इस प्रथा में हमेशा उच्च वर्ग निम्न वर्ग के लोगों का शोषण करते थे। इस प्रकार से जाति भेद होने के कारण एक-दूसरे के प्रति नफरत की भावना भी उजागर हो जाती थी। इस तरह से यह भेदभाव समाज की एकता में बाधक बन जाता था और इस व्यवस्था की यह कमी थी, कोई व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर भी अपनी जाति को बदल नहीं सकता, सामाजिक ढांचे का संतुलन बिगाड़ देती है और यही समाज की उन्नति में बाधक बन जाती है।

प्रश्न 21.
किन-किन कारणों से जाति बदल रही है?
उत्तर-
19वीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों एवं धार्मिक विद्वानों ने समाज में काफ़ी बदलाव की कोशिशें की और कई सामाजिक कुरीतियों का जमकर खण्डन किया। इन्हीं कारणों को हम संक्षेप में इस तरह बता सकते हैं

  • समाज सुधार की लहर।
  • भारत सरकार की कोशिशें एवं कानूनों का बनना।
  • अंग्रेज़ी साम्राज्य का इसमें योगदान।
  • औद्योगीकरण के कारणों से आई तबदीली।
  • शिक्षा के प्रसार के कारण।
  • यातायात एवं संचार व्यवस्था के कारण।
  • आपसी मेल-जोल की वजह से।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं

प्रश्न 22.
जाति के अवगुण।
उत्तर-
स्त्रियों की दशा खराब होती है।

  • यह प्रथा अस्पृश्यता को बढ़ावा देती है।
  • यह जातिवाद को बढ़ाती है।
  • इससे सांस्कृतिक संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
  • सामाजिक एकता एवं गतिशीलता को रोकती है।
  • सामाजिक संतुलन को भी खराब करती है।
  • व्यक्तियों की कार्य कुशलता में भी कमी आती है।
  • सामाजिक शोषण के कारण गिरावट आती है।

प्रश्न 23.
जाति एवं वर्ग में क्या अन्तर हैं ?
उत्तर-

  • जाति धर्म पर आधारित है परन्तु वर्ग पैसे के ऊपर आधारित है।
  • जाति समुदाय का हित है, वर्ग में व्यक्तिगत हितों की बात है।
  • जाति को बदला नहीं जा सकता, वर्ग को बदला जा सकता है।
  • जाति बन्द व्यवस्था है परन्तु वर्ग खुली व्यवस्था का हिस्सा है।
  • जाति लोकतन्त्र के विरुद्ध है पर वर्ग लोकतान्त्रिक क्रिया है।
  • जाति में कई तरह के प्रतिबन्ध हैं, वर्ग में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं।
  • जाति में चेतना की कमी होती है परन्तु वर्ग में व्यक्ति चेतन होता है।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्ण व्यवस्था क्या होती है ? अर्थ विस्तार से समझाएं।
उत्तर-
भारतीय हिन्दू संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद का मिश्रण। इसके अनुसार परमात्मा को मिलना सबसे बड़ा सुख है, साथ-साथ में इस दुनिया के सुखों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसलिए इन दोनों तरह के सुखों के मिश्रण के लिए, हिन्दू संस्कृति में एक व्यवस्था बनाई गई है जिसे ‘वर्ण व्यवस्था’ कहते हैं। वर्ण व्यवस्था हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार होने के साथ-साथ हिन्दू धर्म का एक अटूट अंग है। इसलिए वर्ण के साथ सम्बन्धित कर्त्तव्यों को ‘वर्ण धर्म’ कहा जाता है। वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति एवं समाज के बीच में जो सम्बन्ध है उन्हें क्रमानुसार पेश किया गया था जिसकी सहायता से व्यक्ति सामाजिक संगठन को ठीक ढंग से चलाने में अपनी मदद देता था। वर्ण व्यवस्था के द्वारा भारतीय समाज को चार अलग-अलग भागों में विभाजित किया गया था ताकि समाज ठीक ढंग से चल सके।

‘वर्ण’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘रंग’। वैदिक समय के दौरान भारतीय समाज को ‘चार समूहों में विभाजित किया गया था। ये चार समूह थे-ब्राह्मण वर्ण, क्षत्रिय वर्ण, वैश्य वर्ण एवं चतुर्थ वर्ण। इस तरह के विभाजन के पीछे एक विशेष उद्देश्य था और वह उद्देश्य था कार्य का विभाजन’ जिसका अर्थ है समाज में कार्यों को चार भागों में विभाजित किया गया था। ब्राह्मणों’ के हिस्से में पढ़ाना और धार्मिक संस्कार पूरे करवाने का कार्य, ‘क्षत्रिय’ के जिम्मे देश या समाज की रक्षा का कार्य था। इसी तरह ‘वैश्य’ वर्ग का कार्य था व्यापार, मुद्रा एवं कृषि जैसे कार्य करना। इसी तरह चतुर्थ वर्ण का कार्य था उपरोक्त तीनों समूहों या वर्गों की सेवा करना। इसी प्रकार इन चारों समूहों को उनके कार्यानुसार रंग भी दिए गए थे, जैसे कि प्रथम वर्ण को ‘सफ़ेद रंग’, द्वितीय वर्ण को ‘लाल रंग’, ‘पीला रंग’ तृतीय वर्ण को एवं ‘काला रंग’ चतुर्थ वर्ण को प्राप्त था। ‘सफ़ेद रंग’ शुद्धता का प्रमाण था, ‘लाल रंग’ गुस्से एवं बहादुरी का प्रतीक, ‘पीला रंग’ जीवन की भौतिक वस्तुओं का प्रमाण, भोजन, कपड़े इत्यादि, इसी तरह ‘काला रंग’ निम्न होने का प्रमाण था। इस तरह का विभाजन या कार्य व्यवस्था मानवीय इच्छाओं की पूर्ति के लिए की गई थी। इस तरह की व्यवस्था या कार्यों का वितरण भारतीय समाज में ही नहीं बल्कि संसार की अन्य संस्कृतियों या सभ्यताओं में भी मिलता है।

वर्ण का अर्थ (Meaning of Varna)—साहित्य की दृष्टि से ‘वर्ण’ का अर्थ शब्द ‘वरी’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘चुनना’। हो सकता है वर्ण का सम्बन्ध कार्य के चुनाव’ से सम्बन्धित हो और इसी तरह एक ही वर्ण के सदस्य एक ही कार्य को करते हों। वैसे वर्ण का अर्थ रंग भी है जोकि अलग-अलग समूहों को दिया गया था। वही रंग उस समूह एवं वर्ण के कार्यों को दर्शाता था। डॉ० शर्मा के अनुसार वैदिक काल के लोगों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वह अपने शारीरिक लक्षणों का सही मूल्यांकन कर सकें, इसलिए वर्ण का अर्थ रंग या ‘जाति भिन्नता’ नहीं हो सकता। इसलिए ‘वर्ण’ शब्द मुख्य रूप से ‘कर्मों’ और ‘गुणों’ के साथ सम्बन्धित था। इसी तरह वर्ण-व्यवस्था, अलगअलग व्यक्तियों को ‘गुणों’ एवं ‘कर्मों’ के आधार पर तरह-तरह की श्रेणियों में बांटने की व्यवस्था है।

वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत सारे समाज को चार भागों में विभक्त करने का उद्देश्य था कि प्रत्येक व्यक्ति के कर्म धर्म के आधार पर इस तरह निर्धारित किए जाएं कि वह ‘मोक्ष’ प्राप्त कर सके जो कि प्रत्येक हिन्दू के जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है। वर्ण व्यवस्था में कार्यों को इस तरह से निर्धारित किया गया कि प्रत्येक व्यक्ति इसे करता हुआ ‘मोक्ष’ प्राप्त कर सके।

वर्ण व्यवस्था’ में एक और विचारधारा यह भी मायने रखती है कि सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए एक व्यवस्था को कायम किया गया ताकि लोग एक-दूसरे के कार्यों में रुकावट न डाल सकें। वर्ण व्यवस्था प्रत्येक वर्ण के ‘कार्य-क्षेत्र’ को निश्चित करती है, जिसे करते हुए समाज के और व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास की भावना मुमकिन (जागृत) हुई है। इस तरह वर्ण व्यवस्था एक तरफ व्यक्ति को उसके पैतृक कार्यों को अपनाने की प्रेरणा देती है एवं भौतिक इच्छाओं को घटाती है तथा दूसरी तरफ मनुष्य को ज्ञान, शक्ति एवं ‘आनन्द’ को भोगने की प्रेरणा भी देती है।

इस तरह से ‘वर्ण व्यवस्था’ एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें व्यक्तियों के कार्यों को उनके जन्म अनुसार विभाजित कर दिया जाता है और इस तरह व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वह यह काम सारी ज़िन्दगी करे ताकि सारी व्यवस्था जोकि सामाजिक व्यवस्था है बनी रहे एवं सुचारु रूप से काम कर सके।

प्रश्न 2.
वर्ण व्यवस्था में भिन्न-भिन्न वर्गों के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
वर्ण व्यवस्था पुरातन काल से परम्परागत हिन्दू समाज एवं सामाजिक संगठन का आधार रही है। वर्ण व्यवस्था को अस्तित्व में आने में कई सिद्धान्त, जैसे ‘कर्म’, ‘जन्म’, रंग एवं पुरुष इत्यादि मौजूद थे एवं ये सभी सिद्धान्त किसी-न-किसी रूप में वर्णों के कार्य-कलापों में एक जैसी चीज़ दर्शाते हैं। परम्परागत रूप में भारतीय समाज को (कर्म के आधार पर) चार भागों में विभक्त किया गया था। ये सभी चार वर्ण थे-ब्राह्मण वर्ण, क्षत्रिय वर्ण, वैश्य वर्ण एवं चतुर्थ वर्ण। ये सभी इसलिए बनाए गए थे ताकि समाज में संगठन बना रहे। इसी तरह इन्हीं चारों वर्गों के कार्य निश्चित कर दिए गए। इस वजह से किसी में भी कोई खींचा-तानी न हो। इसलिए कार्यों के लिए कुछ नियम बनाए गए और इन्हीं नियमों की पालना करना प्रत्येक के लिए आवश्यक था, इसलिए इन चारों वर्गों के कार्यों को निम्नलिखित ढंग से समझा जा सकता है-

1. ब्राह्मण वर्ण के कार्य-वर्ण व्यवस्था में सबसे उच्च स्थान ब्राह्मणों को दिया गया और इन्हें ब्राह्मण देवता भी कहा गया था। इनका मुख्य कार्य समाज को शिक्षित करना एवं ज्ञान प्रदान करना था। वेदों में ब्राह्मण को समाज का श्रेष्ठ सदस्य माना गया था। भगवद्गीता के अनुसार अन्तःकरण की शुद्धि, धर्म के लिए कष्ट सहन करना, माफ करना, शरीर की शुद्धता और परम तत्त्व का अनुभव, ये सभी एक ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण हैं। प्रथम वर्ण को समाज में सबसे उच्च स्थान प्राप्त था। ‘यज्ञ करना’ एवं करवाना, वेदों का अध्ययन करना, पढ़ाना एवं सभी धार्मिक अनुष्ठान करवाना ब्राह्मणों के प्रमुख कार्यों में आते हैं। उनकी उपस्थिति के बगैर सभी कार्य अधूरे माने जाते हैं। समाज में इस वर्ण का श्रेष्ठ स्थान था और लोग उन्हें दान-दक्षिणा भी देते थे। यदि इस वर्ण का अपने कार्यों से गुज़र-बसर नहीं हो सकता था तो वह ‘क्षत्रिय’ एवं वैश्य का कार्य भी अपना सकते थे। इस तरह इस वर्ण का कार्य समाज को शिक्षित करना एवं जन्म से मरण तक के सभी धार्मिक अनुष्ठान करवाना उनकी ज़िम्मेदारी थी।

2. क्षत्रिय वर्ण के कार्य-वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ण का कार्य लोगों की रक्षा करना है। ऋग्वेद में दूसरे वर्ण के व्यक्तियों के लिए ‘राजद’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है ‘महान्’ या ‘राजा’। इसीलिए इस ‘शब्द’ का प्रयोग हमेशा राज्य से सम्बन्धित व्यक्तियों के लिए ही प्रयोग में लाया जाता है। इसीलिए यह माना गया है कि जब तक कोई राज्य सुरक्षित नहीं है, वह तरक्की कैसे कर पायेगा। इस प्रकार ‘दूसरे वर्ण’ को राज्य की सुरक्षा का प्रमुख कार्य सौंपा गया है। भगवद् गीता के अनुसार, बहादुरी, तेजस्वी, धैर्यवान एवं राज्य चलाना, यह एक ‘दूसरे वर्ण’ के स्वाभाविक गुण हैं। एक क्षत्रिय का स्थान समाज में ब्राह्मणों के पश्चात् आता है। उसका कार्य राज्य का शासन सुरक्षा एवं संचालन करना होता है। इस प्रकार इस वर्ण के लोग ब्राह्मणों की सहायता लेते रहते थे। इस प्रकार समाज की सुरक्षा के लिए क्षत्रिय ज़िम्मेदार होते थे। किसी भी बाह्य आक्रमण की स्थिति हो या सुरक्षा की ज़िम्मेदारी क्षत्रियों की थी। इसी प्रकार धार्मिक ग्रन्थों, वेदों इत्यादि में कर्तव्यों की पालना के बारे में लिखा गया है।

3. वैश्य वर्ण के कार्य-समाज के आर्थिक कार्यों से सम्बन्धित समूह के व्यक्तियों को ‘वैश्य’ कहा गया है। ‘वैश्य’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है। मनुस्मृति में तृतीय वर्ण के मुख्य कार्य ‘दान दक्षिणा’ देना, पढ़ना, व्यापार करना, पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों की देखभाल करना, कृषि करना, यज्ञ करवाना दिए गए हैं। इसी सन्दर्भ में भगवद् गीता में भी वर्णन मिलता है कि वैश्य वर्ण के प्रमुख कार्य, कृषि, पशु-पालन, खरीद-फरोख्त वैश्यों के प्रमुख कार्यों में है। इस वर्ण के व्यक्ति आवश्यकतानुसार और कार्य भी कर सकते थे।

4. चतुर्थ वर्ण के कार्य-समाज के ऊपर वाले तीन वर्गों की सेवा करने के लिए एक वर्ण निश्चित किया गया था तथा यह चतुर्थ वर्ण होता था। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार ऊपर वाले तीन वर्गों की सेवा करना चतुर्थ वर्ण का कार्य था। इस प्रकार अन्य पुस्तकों में भी कहा गया है कि सभी वर्गों की सेवा करना चतुर्थ वर्ण का कार्य था। इस प्रकार चतुर्थ वर्ण का मुख्य कार्य ऊपर वाले तीनों वर्गों की सेवा करना था तथा उन्हें कोई भी सामाजिक तथा धार्मिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उन्हें धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ना तथा सुनना मना था। बाद में उन्हें कई प्रकार के कार्य करने के अधिकार मिल गए जैसे कि कृषि, लकड़ी का कार्य, शिल्प कला का कार्य इत्यादि।

इस तरह, इस सम्पूर्ण प्रणाली को हिन्दुओं के सामाजिक संगठन में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। यही प्रणाली परम्परागत भारतीय समाज का आधार रही है। ज्यादातर भारतीय ग्रन्थ इस मत से सहमत हैं कि वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के गुणों एवं कर्मों (कार्यों) पर आधारित थी। जन्म से इसका संबंध नहीं था।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं

प्रश्न 3.
वर्ण व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
वर्ण प्रणाली को भारतीय सामाजिक व्यवस्था में इसलिए स्थापित किया गया था कि भारतीय समाज को सुचारु रूप से चलाया जा सके। इस समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए समाज को चार अलग-अलग भागों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भाग का अलग-अलग कार्य रखा गया था ताकि कार्यों में कोई परेशानी न हो। वर्ण व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है-

1. श्रम विभाजन-वर्ण व्यवस्था में हरेक वर्ण का कार्य निश्चित कर दिया गया था ताकि मनुष्य की सभी सामाजिक आवश्यकताएं पूर्ण हो सकें। इसलिए हरेक वर्ण का कार्य निश्चित कर दिया गया था। इसमें हरेक व्यक्ति अपना निश्चित कार्य करता था तथा समाज की उन्नति में योगदान देता था। प्रथम वर्ण को पढ़ाने का कार्य, द्वितीय वर्ण को रक्षा का, तृतीय वर्ण को व्यापार का तथा चतुर्थ वर्ण को सेवा करने का कार्य दिया था। इस तरह वर्ण व्यवस्था में श्रम विभाजन हो जाता था।

2. यह गुणों तथा स्वभाव पर आधारित है-कुछ व्यक्तियों का कहना है कि वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित थी कि व्यक्ति जिस वर्ण में जन्म लेता है और उसी वर्ण का व्यवसाय अपनाना पड़ता था। परन्तु अगर पौराणिक ग्रन्थों को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि यह जन्म पर आधारित नहीं थी। शुरू में यह व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों तथा उनके स्वभाव पर आधारित थी परन्तु समय के साथ-साथ इसमें कठोरता आ गई तथा यह गुणों तथा स्वभाव पर नहीं बल्कि जन्म पर आधारित हो गई।

3. कर्म के सिद्धान्त पर बल-यह व्यवस्था कर्म के सिद्धान्त पर बल देती थी कि व्यक्ति ने जिस वर्ण में जन्म लिया था वह उस वर्ण के परम्परागत व्यवसाय को अपनाएगा तथा उस कार्य को करते हुए जीवन बिताएगा। इस तरह व्यक्ति को इसके साथ ही पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी समझाया गया था कि वह अगर अपने कार्य तथा कर्त्तव्य अच्छी तरह निभाएगा तो अगले जन्म में उसे अच्छा वर्ण प्राप्त होगा। इस तरह व्यक्ति अपने कर्तव्यों की पालना करने लग गए तथा अपनी स्थिति से भी सन्तुष्ट हो गए।

4. कर्तव्यों तथा अधिकारों का विभाजन-वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक वर्ण को कुछ कर्त्तव्य तथा अधिकार मिले होते थे। इसमें प्रथम वर्ण की स्थिति उच्च तथा अधिकार भी सबसे ज्यादा होते थे। इमसें सभी के कर्त्तव्य भी निश्चित होते थे तथा सभी के कर्तव्य समाज के लिए उपयोगी थे। एक के न होने से सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी। इसमें अधिकार भी निश्चित होते थे जिस वजह से सभी वर्गों में निश्चित स्तर पैदा हो गए तथा इनकी उच्च या निम्न स्थिति भी निश्चित हो गई।

5. कार्यों का निर्धारण-वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के परम्परागत तथा पूर्व निर्धारित कार्य होते थे तथा व्यक्ति को अपने वर्ण का ही कार्य अपनाना पड़ता था। इसका लाभ यह था कि व्यक्ति को रोज़ी कमाने के लिए इधर-उधर नहीं घूमना पड़ता था क्योंकि उसका कार्य तो जन्म से ही निश्चित हो जाता था।
इस तरह हम कह सकते हैं कि वर्ण व्यवस्था का प्राचीन समय में बहुत महत्त्व था। कर्म व्यवस्था भी इस के आधार पर ही आगे आई।

प्रश्न 4.
जी०एस० घूर्ये द्वारा दी गई जाति व्यवस्था की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
जी०एस० घूर्ये ने जाति व्यवस्था की छ: विशेषताएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है1. समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन। 2. अलग-अलग हिस्सों में पदक्रम। 3. सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां। 4. भिन्न-भिन्न जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थताएं तथा विशेषाधिकार। 5. मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी। 6. विवाह सम्बन्धी पाबन्दी। अब हम घूर्ये द्वारा दी गई विशेषताओं का वर्णन विस्तार से करेंगे-

1. समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society)-जाति व्यवस्था हिन्दू समाज को कई भागों में बांट देती है जिसमें प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर देती है। इस वजह से सदस्यों के बीच किसी विशेष समूह का हिस्सा होने के कारण चेतना होती है तथा इसी वजह से ही वह अपने आप को उस समूह का अटूट अंग समझने लग जाता है। समाज के इस तरह हिस्सों में विभाजन होने के कारण एक जाति के सदस्यों के अन्तर्कार्यों का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता है। यह भी देखने में आया है कि अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के तरीके तथा रस्मों-रिवाज अलग-अलग होते हैं। एक जाति के लोग अधिकतर अपनी जाति के सदस्यों के साथ ही अन्तक्रिया करते हैं। इस प्रकार घूर्ये के अनुसार प्रत्येक जाति अपने आप में पूर्ण सामाजिक जीवन बिताने वाली सामाजिक इकाई होती है।

2. पदक्रम (Hierarchy)-भारत के अधिकतर भागों में ब्राह्मण वर्ण को सबसे उच्च दर्जा दिया गया था। जाति व्यवस्था में एक निश्चित पदक्रम देखने को मिलता है। इस व्यवस्था में उच्च तथा निम्न जातियों का दर्जा तो लगभग निश्चित ही होता है परन्तु बीच वाली जातियों में कुछ अस्पष्टता है। परन्तु फिर भी दूसरे स्थान पर क्षत्रिय तथा तीसरे स्थान पर वैश्य आते थे।

3. सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on feeding and social intercourse)-जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट तथा विस्तृत नियम मिलते हैं जो यह बताते हैं कि कोई व्यक्ति किस जाति से सामाजिक मेल-जोल रख सकता है तथा कौन-सी जातियों से खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। सम्पूर्ण भोजन को कच्चे तथा पक्के भोजन की श्रेणी में रखा जाता है। कच्चे भोजन को पकाने के लिए पानी का प्रयोग तथा पक्के भोजन को पकाने के लिए घी का प्रयोग होता है। जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध में प्रतिबन्ध लगे होते हैं।

4. अलग-अलग जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थताएं तथा विशेषाधिकार (Civil and religious disabilities and privileges of various castes) अलग-अलग जातियों के विशेष नागरिक तथा धार्मिक अधिकार तथा निर्योग्यताएं होती थीं। कुछ जातियों के साथ किसी भी प्रकार के मेल-जोल पर पाबन्दी थी। वह मंदिरों में भी नहीं जा सकते थे तथा कुओं से पानी भी नहीं भर सकते थे। उन्हें धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। उनके बच्चों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था। परन्तु कुछ जातियां ऐसी भी थीं जिन्हें अन्य जातियों पर कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे।

5. मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी (Lack of unrestricted choice of occupation) जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार कुछ जातियों के विशेष, परम्परागत तथा पैतृक पेशे होते थे। जाति के सदस्यों को परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था चाहे अन्य पेशे कितने भी लाभदायक क्यों न हों। परन्तु कुछ पेशे ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी कर सकता था। इसके साथ बहुत-सी जातियों के पेशे निश्चित होते थे।

6. विवाह सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on Marriage) भारत के बहुत से हिस्सों में जातियों तथा उपजातियों में विभाजन मिलता है। यह उपजाति समूह अपने सदस्यों को बाहर वाले व्यक्तियों के साथ विवाह करने से रोकते थे। जाति व्यवस्था की विशेषता उसका अन्तर्वैवाहिक होना है। व्यक्ति को अपनी उपजाति से बाहर ही विवाह करवाना पड़ता था। विवाह सम्बन्धी नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को उसकी जाति से बाहर निकाल दिया जाता था।
इस प्रकार इस व्याख्या को देखने के बाद हम कह सकते हैं कि जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती है। पेशा पैतृक तथा परम्परागत होता है, अन्य जातियों से खाने-पीने तथा रहने-सहने की पाबन्दियां होती हैं तथा विवाह सम्बन्धी कठोर पाबन्दियां होती हैं।

प्रश्न 5.
जाति व्यवस्था की विशेषताओं का वर्णन करें।
अथवा जाति व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
अथवा जाति की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
जाति एक ऐसा समूह होता है जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती थीं। कोई भी अपने जीवन में अपनी जाति को उस समय तक नहीं छोड़ सकता जब तक कि किसी कारण की वजह से उसे जाति से बाहर न निकाल दिया जाए। जाति एक बन्द समूह थी अर्थात् कोई भी अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं करवा सकता था तथा इसकी रहनेसहने की पाबन्दियां होती थीं। जाति व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :

1. सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी (Membership was based on birth) जाति व्यवस्था की सबसे पहली विशेषता यह थी कि इसकी सदस्यता व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर नहीं बल्कि उसके जन्म पर आधारित होती थी। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का निर्धारण नहीं कर सकता। व्यक्ति में जितनी चाहे मर्जी योग्यता क्यों न हो वह अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था।

2. सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबंध (Restrictions on Social relations)—प्राचीन समय में समाज को अलग-अलग वर्गों के बीच विभाजित किया गया था तथा धीरे-धीरे इन वर्णों ने जातियों का रूप ले लिया। सामाजिक संस्तरण में किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से अच्छी थी तथा किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से निम्न थी। इस प्रकार सामाजिक संस्तरण के अनुसार उनके बीच सामाजिक सम्बन्ध भी निश्चित हो गए। यही कारण है कि अलग-अलग वर्गों
में उच्च निम्न की भावना पाई जाती थी। इन अलग-अलग जातियों के ऊपर एक-दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध रखने के ऊपर प्रतिबन्ध थे तथा वे एक-दूसरे से दूरी बना कर रखते थे। कुछ जातियों को तो पढ़ने-लिखने, कुओं से पानी भरने तथा मन्दिरों में जाने की भी आज्ञा नहीं थी। प्राचीन समय में ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के लिए उपनयन संस्कार पूर्ण करना पड़ता था। कुछेक वर्गों के लिए तो इस संस्कार को पूर्ण करने के लिए आयु निश्चित की गई थी, परन्तु कुछ को तो यह संस्कार पूर्ण करने की आज्ञा ही नहीं थी। इस प्रकार अलग-अलग जातियों के बीच सामाजिक सम्बन्धों को रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।

3. खाने-पीने पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Eatables)—जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट नियम मिलते थे जो यह बताते थे कि किस व्यक्ति ने किसके साथ सम्बन्ध रखने थे अथवा नहीं तथा वह किन जातियों के साथ खानेपीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे। सम्पूर्ण भोजन को दो भागों में विभाजित किया गया था। वह थे कच्चा भोजन तथा पक्का भोजन। कच्चा भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए पानी का प्रयोग होता था तथा पक्का भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए घी का प्रयोग होता था। साधारण नियम यह था कि कोई व्यक्ति कच्चा भोजन उस समय तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसकी अपनी ही जाति के व्यक्ति की तरफ से तैयार न किया गया हो। इसलिए बहुत-सी जातियां ब्राह्मण द्वारा कच्चा भोजन स्वीकार कर लेती थी परन्तु इसके विपरीत ब्राह्मण किसी अन्य जाति के व्यक्ति से कच्चा भोजन स्वीकार नहीं करते थे। पक्के भोजन को भी किसी विशेष जाति के व्यक्ति की तरफ से ही स्वीकार किया जाता था। इस प्रकार जाति व्यवस्था ने अलग-अलग जातियों के बीच खाने-पीने के सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगाए हुए थे तथा सभी के लिए इनकी पालना करनी ज़रूरी थी।

4. मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबंदी (Restriction on Occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार प्रत्येक जाति का कोई न कोई पैतृक तथा परंपरागत पेशा होता था तथा व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसे उसी जाति का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था। व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता था। उसे बचपन से ही अपने परम्परागत पेशे की शिक्षा मिलनी शुरू हो जाती थी तथा जवान होते-होते वह उस कार्य में निपुण हो जाता है। चाहे कुछ कार्य ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी व्यक्ति कर सकता था जैसे कि व्यापार, कृषि, मज़दूरी, सेना में नौकरी इत्यादि। परन्तु फिर भी अधिकतर लोग अपनी ही जाति का पेशा अपनाते थे। इस समय चार मुख्य वर्ण होते थे। पहले वर्ण का कार्य पढ़ना, पढ़ाना तथा धार्मिक कार्यों को पूर्ण करवाना था। दूसरे वर्ण का कार्य देश की रक्षा करना तथा राज्य चलाना था। तीसरे वर्ण का कार्य व्यापार करना, कृषि करना इत्यादि था। चौथे तथा अन्तिम वर्ण का कार्य ऊपर वाले तीनों वर्गों की सेवा करना था तथा इन्हें अपने परम्परागत कार्य ही करने पड़ते थे।

5. जाति अन्तर्वैवाहिक होती है (Caste is Endogamous)—जाति व्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था। जाति व्यवस्था बहुत-सी जातियों तथा उपजातियों में विभाजित होती थी। यह उपजातियां अपने सदस्यों को अपने समूह से बाहर विवाह करने की आज्ञा नहीं देती। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति अथवा उपजाति से बाहर निकाल दिया जाता था। परन्तु अन्तर्विवाह के नियम में कुछ छूट भी मौजूद थी। किसी विशेष स्थिति में अपनी जाति से बाहर विवाह करवाने की आज्ञा थी। परन्तु साधारण नियम यह था कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। इस प्रकार सभी जातियों के लोग अपने समूहों में ही विवाह करवाते थे।

6. समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society)—जाति व्यवस्था द्वारा हिन्दू समाज को कई भागों में विभाजित कर दिया गया था तथा प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर दिए गए थे। इस कारण ही सदस्यों में अपने समूह का एक हिस्सा होने की चेतना उत्पन्न होती थी अर्थात् वह अपने आप को उस समूह का अभिन्न अंग समझने लग जाते थे। समाज के इस प्रकार अलग-अलग हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों की सामाजिक अन्तक्रिया का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता था। जाति के नियमों को न मानने वालों को जाति पंचायत की तरफ से दण्ड दिया जाता था। अलग-अलग जातियों के रहनेसहने के ढंग तथा रस्मों-रिवाज भी अलग-अलग ही होते थे। प्रत्येक जाति अपने आप में एक सम्पूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत करने वाली सामाजिक इकाई होती थी।

7. पदक्रम (Hierarchy)-जाति व्यवस्था में अलग-अलग जातियों के बीच एक निश्चित पदक्रम मिलता था जिसके अनुसार यह पता चलता था कि किस जाति की सामाजिक स्थिति किस प्रकार की थी तथा उनमें किस प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते थे। चारों जातियों की इस व्यवस्था में एक निश्चित स्थिति होती थी तथा उनके कार्य भी उस संस्तरण तथा स्थिति के अनुसार निश्चित होते थे। कोई भी इस व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह नहीं खड़ा कर सकता था क्योंकि यह व्यवस्था तो सदियों से चली आ रही थी।

8. जाति से जुड़े प्रतिबन्ध (Restrictions Related to Caste)-जाति से कई प्रकार के प्रतिबन्ध जुड़े हुए थे जैसे कि :
(i) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना पड़ता था। (ii) प्रत्येक व्यक्ति को जाति प्रथा से सम्बन्धित खाने-पीने की पाबन्दियों को मानना पड़ता था। (ii) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति अथवा उपजाति में विवाह करवाना पड़ता था। (iv) कुछ जातियों को मन्दिरों में जाने तथा धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। (v) कुछ जातियों को जातीय संस्तरण में अपने से उच्च जातियों के कुओं से पानी भरने तथा नज़दीक आने की भी आज्ञा नहीं थी।

9. प्रत्येक जाति में कई उपजातियां होती थीं (There were many subcastes in each caste)-जाति व्यवस्था मुख्य रूप से हमारे देश भारत में ही पाई जाती थी तथा भारत में तीन हज़ार के लगभग जातियां मिलती थीं। प्रत्येक जाति आगे कई उपजातियों में विभाजित होती थी। व्यक्ति को अपनी उपजाति के नियमों के अनुसार ही चलना पड़ता था। उसके लिए इन नियमों की पालना करनी आवश्यक थी, जिनमें से अन्तर्विवाह का नियम काफ़ी महत्त्वपूर्ण था।

10. चेतना (Consciousness)-जातीय समूह की सदस्यता की चेतना सभी व्यक्तियों में मौजूद होती थी। यह चेतना जाति के नियमों तथा प्रथाओं की पालना करते हुए स्वयं ही आ जाती थी।

इस प्रकार इन विशेषताओं को देख कर हम कह सकते हैं कि जाति एक ऐसा अन्तर्वैवाहिक समूह होता था जिसमें सदस्यों के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगे हुए थे। प्रत्येक सदस्य के लिए अपनी जाति के नियमों की पालना करना आवश्यक होता था। चाहे जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को विभाजित कर दिया था, परन्तु फिर भी इसने अलगअलग जातियों में एकता की भावना को बनाकर रखा हुआ था। जब विदेशी हमलावरों ने देश पर हमला किया तो इसने उनके लिए अपने दरवाजे बन्द कर दिए ताकि भारतीय समाज के लोग अन्य समाजों के लोगों में न मिल जाएं। इस प्रकार जाति व्यवस्था भारतीय समाज के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्था थी।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं

प्रश्न 6.
जाति प्रथा के गुणों तथा अवगुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति अपने आप में एक ऐसा समूह है जिसने हिन्दू समाज तथा भारत में बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। जितना कार्य अकेला जाति व्यवस्था ने किया है उतने कार्य अन्य संस्थाओं ने मिल कर भी नहीं किए होंगे। इससे हम देखते हैं कि जाति व्यवस्था के बहुत से गुण हैं। परन्तु इन गुणों के साथ-साथ कुछ अवगुण भी हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है

जाति व्यवस्था के गुण अथवा लाभ (Merits or Advantages of Caste System) –

1. सामाजिक सुरक्षा देना (To give social security)—जाति प्रथा का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के सदस्यों की सहायता करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उन्हें इस बात का पता होता है कि अगर उन्हें किसी प्रकार की समस्या आएगी तो उसकी जाति हमेशा उनकी सहायता करेगी। जाति प्रथा सदस्यों की सामाजिक स्थिति भी निश्चित करती थी तथा प्रतियोगिता की सम्भावना को भी कम करती थी।

2. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation) जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह है कि यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष पेशे अथवा कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पारिवारिक कार्य के प्रति गुण स्वयं ही पैदा हो जाते थे। जिस परिवार में बच्चा पैदा होता था उससे कार्य सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार बिना किसी औपचारिक शिक्षा के विशेषीकरण हो जाता था। इसके साथ ही जाति व्यवस्था समाज में पेशे के लिए होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती थी तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती थी। इस प्रकार जाति व्यवस्था का यह गुण काफ़ी महत्त्वपूर्ण था।

3. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)-जाति प्रथा एक अन्तर्वैवाहिक समूह है। अन्तर्वैवाहिक का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था तथा अगर कोई इस नियम को नहीं मानता था तो उसे जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। ऐसा करने का यह लाभ होता था कि बाहर वाली किसी जाति के साथ रक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं होते थे तथा अपनी जाति के रक्त की शुद्धता बनी रहती थी। इस प्रकार जाति का एक गुण यह भी था कि यह रक्त की शुद्धता बनाए रखने में सहायता करती थी।

4. श्रम विभाजन (Division of Labour)-जाति व्यवस्था का एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण यह था कि यह सभी व्यक्तियों में अपने कर्त्तव्य के प्रति प्रेम तथा निष्ठा की भावना उत्पन्न करती थी। निम्न प्रकार के कार्य भी व्यक्ति अपना कर्तव्य समझ कर अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों में यह भावना भर देती थी कि प्रत्येक सदस्य को उसके पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में पेशा मिला है। उसे यह भी विश्वास दिलाया जाता था कि वर्तमान कर्तव्यों को पूर्ण करने से ही अगले जन्म में उच्च स्थिति प्राप्त होगी। इसका लाभ यह था कि निराशा खत्म हो जाती थी तथा सभी अपना कार्य अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया था। इन चारों भागों को अपने कार्यों का अच्छी तरह से पता था। ये सभी अपना कार्य अच्छे ढंग से करते थे तथा समय के साथसाथ अपने पेशे के रहस्य अपनी अगली पीढ़ी को सौंप देते थे। इस प्रकार समाज में पेशे के प्रति स्थिरता बनी रहती थी तथा श्रम विभाजन के साथ विशेषीकरण भी हो जाता था।

5. शिक्षा के नियम बनाना (To make Rules of Education)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने शिक्षा लेने के सम्बन्ध में निश्चित नियम बनाए हुए थे तथा धर्म को शिक्षा का आधार बनाया हुआ था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण, पेशे सम्बन्धी जानकारी तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य संबंधी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी जानकारी भी देती है। जाति व्यवस्था ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति के व्यक्ति ने कितनी शिक्षा लेनी है तथा कौन-से नियमों का पालन करना है। इस प्रकार जाति व्यवस्था ही प्रत्येक सदस्य के लिए उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।

6. सामाजिक एकता को बना कर रखना (To maintain Social Unity)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने हिन्दू समाज को एकता में बाँध कर रखा। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया था तथा प्रत्येक भाग को अलग-अलग कार्य भी दिए थे। जिस प्रकार श्रम विभाजन में प्रत्येक का कार्य अलग-अलग होता है उसी प्रकार जाति व्यवस्था ने भी समाज में श्रम विभाजन को पैदा किया था। यह सभी भाग अलग-अलग कार्य करते थे तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस प्रकार अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।

7. मानसिक सुरक्षा (Mental Security)-जाति व्यवस्था का एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण यह भी था कि जाति की तरफ से सुरक्षा प्राप्त होने के साथ प्रत्येक सदस्य मानसिक रूप से सुरक्षित रहता था। प्रत्येक व्यक्ति को जाति के नियमों से यह पता चल जाता था कि उसने किस समूह में विवाह करना है, धार्मिक यज्ञों में भाग लेता है अथवा कौन से व्यक्तियों के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने हैं। इस प्रकार जब लोगों को पेशे, विवाह, समस्याओं इत्यादि के समय जाति की तरफ से सहायता का भरोसा होता था तो वे मानसिक तौर पर सुरक्षित महसूस करते थे।

8. संस्कृति की वाहक (Carrier of Culture)—जाति व्यवस्था शुरू से ही संस्कृति की वाहक रही है। जाति व्यवस्था अलग-अलग जातियों की संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने में सहायता करती थी। प्रत्येक जाति के कुछ नियम, पेशे सम्बन्धी नियम, खाने-पीने सम्बन्धी नियम होते थे तथा जाति ही इन नियमों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की तरफ हस्तांतरित करती थी। इस प्रकार यह अति महत्त्वपूर्ण संस्कृति को नष्ट होने से बचाती थी। जाति व्यवस्था सामाजिक व्यवहार को सांस्कृतिक नियमों के अनुसार नियमित करती थी।

9. समाज में सहयोग (Co-operation in Society)-जाति प्रथा ने समाज में ऐसा प्रबन्ध कायम किया था कि इससे प्रजातीय, सामाजिक, पेशेवर तथा धार्मिक भिन्नता वाले वर्गों को उनकी भिन्नताओं को सामने रखते हुए भी समाज के सहकारी अंगों के रूप में जोड़ा जाता था। जाति प्रथा की सहायता से ही भारत आए अनेकों विदेशी लोग भारतीय समाज में घुल मिल गए।

10. हिन्दू समाज की सुरक्षा (Security of Hindu Society)-भारत के ऊपर बहुत से विदेशियों ने आक्रमण किया। पहले मध्य एशिया के कबीलों ने, फिर मुसलमानों, मुग़लों, अंग्रेज़ों इत्यादि ने भारत पर शासन किया। अगर जाति व्यवस्था न होती तो शायद हिन्दू समाज ने इनमें से किसी न किसी एक में मिल जाना था. तथा आज हिन्दू समाज का शायद नाम भी न होता। परन्तु जाति व्यवस्था ने इस तरह होने न दिया। जाति व्यवस्था एक अन्तर्वैवाहिक व्यवस्था थी जिसमें किसी अन्य जाति में विवाह करने की पाबंदी थी तथा अन्य जातियों के साथ रहने-सहने तथा खाने-पीने सम्बन्धी भी पाबन्दियां थीं। यही कारण था कि हिन्दू समाज अन्य समाजों के लोगों में मिलने से बच गया। इस प्रकार हिन्दू समाज की इस जाति व्यवस्था ने सुरक्षा की थी।

जाति व्यवस्था के अवगुण (Demerits of Caste System):
चाहे जाति व्यवस्था के बहुत से गुण थे तथा इसने सामाजिक एकता रखने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, परन्तु फिर भी इस व्यवस्था के कारण समाज में कई बुराइयां भी पैदा हो गई थीं। जाति व्यवस्था के अवगुण निम्नलिखित थे

1. स्त्रियों की निम्न स्थिति (Lower Status of Women)-जाति व्यवस्था के कारण स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न हो गई थी। जाति व्यवस्था के नियन्त्रणों के कारण हिन्दू स्त्रियों की स्थिति परिवार में नौकरानी से अधिक नहीं थी। जाति अन्तर्वैवाहिक समूह था जिस कारण लोगों ने अपनी जाति में वर ढूंढने के लिए बाल विवाह का समर्थन किया। इससे बहुविवाह तथा बेमेल विवाह को समर्थन मिला। कुलीन विवाह की प्रथा ने भी बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह तथा दहेज प्रथा जैसी समस्याओं को जन्म दिया। स्त्रियां केवल घर पर ही कार्य करती रहती थीं। उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं थे। इस प्रकार स्त्रियों से सम्बन्धित सभी समस्याओं की जड़ ही जाति व्यवस्था थी। जाति व्यवस्था ने ही स्त्रियों की प्रगति पर पाबंदी लगा दी तथा बाल विवाह पर बल दिया। विधवा विवाह को मान्यता न दी। स्त्रियां केवल परिवार की सेवा करने के लिए ही रह गई थीं।

2. अस्पृश्यता (Untouchability) अस्पृश्यता जैसी समस्या का जन्म भी जाति प्रथा की विभाजन की नीति के कारण ही हुआ था। कुल जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग को अपवित्र मान कर इसलिए अपमानित किया जाता था क्योंकि वे जो कार्य करते थे उसे अपवित्र माना जाता था। उनकी काफ़ी दुर्दशा होती थी तथा उनके ऊपर बहुत से प्रतिबंध लगे हुए थे। वे आर्थिक क्षेत्र में भाग नहीं ले सकते थे। इस प्रकार जाति व्यवस्था के कारण जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग समाज के ऊपर बोझ बन कर रह गया था। इस कारण समाज में निर्धनता आ गई। अलग-अलग जातियों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत उत्पन्न हो गई तथा जातिवाद जैसी समस्या हमारे सामने आई।

3. जातिवाद (Casteism)-जाति व्यवस्था के कारण ही लोगों की मनोवृत्ति भी सिकुड़ती चली गई। लोग विवाह सम्बन्धों तथा अन्य प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों के लिए जाति के नियमों पर निर्भर थे जिस कारण जातिवाद की भावना बढ़ गई। उच्च तथा निम्न स्थिति के कारण लोगों में गर्व तथा हीनता की भावना उत्पन्न हो गई। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा ने उनके बीच दूरियां पैदा कर दी। इस कारण देश में जातिवाद की समस्या सामने आई। जातिवाद के कारण लोग अपने देश के बारे में नहीं सोचते तथा इस समस्या को बढ़ाते हैं।

4. सांस्कृतिक संघर्ष (Cultural Conflict)—जाति एक बंद समूह है तथा अलग-अलग जातियों में एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध रखने पर प्रतिबंध होते थे। इन सभी जातियों के रहने-सहने के ढंग अलग-अलग थे। इस सामाजिक पृथक्ता ने सांस्कृतिक संघर्ष की समस्या को जन्म दिया। अलग-अलग जातियां अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों में विभाजित हो गईं। इन समूहों में कई प्रकार के संघर्ष देखने को मिलते थे। कुछ जातियां अपनी संस्कृति को उच्च मानती थीं जिस कारण वह अन्य समूहों से दूरी बना कर रखती थी। इस कारण उनमें संघर्ष के मौके पैदा होते रहते थे।

5. सामाजिक गतिशीलता को रोकना (To Stop Social Mobility)—जाति व्यवस्था में स्थिति का विभाजन जन्म के आधार पर होता था। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्रत्येक सदस्य को अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में पता होता था कि यह परिवर्तित नहीं हो सकती, इसी तरह ही रहेगी। इस भावना ने आलस्य को बढ़ाया। इस व्यवस्था में वह प्रेरणा नहीं होती, जिसमें व्यक्ति अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित होते थे क्योंकि वह परिश्रम करके भी अपनी सामाजिक स्थिति परिवर्तित नहीं कर सकते थे। यह बात आर्थिक प्रगति में भी रुकावट बनती थी। योग्यता होने के बावजूद भी लोग नया आविष्कार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्हें अपना पैतृक कार्य अपनाना पड़ता था। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा के कारण भारत में कई प्रकार के उद्योग पिछड़े हुए थे क्योंकि जाति व्यवस्था उन्हें ऐसा करने से रोकती थी।

6. कार्य कुशलता में रुकावट (Obstacle in Efficiency)—प्राचीन समय में व्यक्तियों में कार्य कुशलता में कमी होने का प्रमुख कारण जाति व्यवस्था तथा जाति का नियन्त्रण था। सभी जातियों के सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य नहीं करते थे बल्कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे। इसके साथ ही जातियां धार्मिक संस्कारों पर इतना बल देती थी कि लोगों का अधिकतर समय तो इन संस्कारों को पूर्ण करने में ही निकल जाता था। जातियों में पेशा वंश के अनुसार होता था तथा लोगों को अपना परम्परागत पेशा ही अपनाना पड़ता था चाहे उनमें उस कार्य के प्रति योग्यता होती थी अथवा नहीं। इस कारण उनमें कार्य के प्रति उदासीनता आ जाती थी।

7. जाति व्यवस्था तथा प्रजातन्त्र (Caste System and Democracy)—जाति व्यवस्था आधुनिक प्रजातन्त्रीय शासन के विरुद्ध है। समानता, स्वतन्त्रता तथा सामाजिक चेतना प्रजातन्त्र के तीन आधार हैं, परन्तु जाति व्यवस्था इन सिद्धान्तों के विरुद्ध जाकर भाग्य के सहारे रहने वाले समाज का निर्माण करती थी। यह व्यवस्था असमानता पर आधारित थी। जाति व्यक्ति को अपने नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने की आज्ञा देती थी जोकि प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध है। कुछ जातियों पर बहुत से प्रतिबंध लगा दिए गए थे जिस कारण योग्यता होते हुए भी वे समाज में ऊपर उठ नहीं सकते थे। इन लोगों की स्थिति नौकरों जैसी होती थी जोकि प्रजातन्त्र के समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

8. सामाजिक एकता के लिए रुकावट (Obstacle to Social Unity)—प्राचीन समय में भारतीय समाज चार अलग-अलग जातियों में विभाजित था जो आगे हज़ारों उपजातियों में विभाजित थे। इन अलग-अलग जातियों में एक निश्चित पदक्रम होता था तथा इनमें आपसी संबंध रखने के लिए कई प्रकार के प्रतिबंध होते थे। कुछ जातियों के साथ किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं रखा जाता था क्योंकि उस समय पवित्रता तथा अपवित्रता का संकल्प पाया जाता था। एक जाति के सदस्य आपस में ही सम्बन्ध रखते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करते थे। जाति प्रथा ने अलग-अलग जातियों के बीच इस प्रकार के सम्बन्ध उत्पन्न कर दिए जिससे समाज में संघर्ष, घृणा जैसी भावनाएं बढ़ गईं। इससे सामाजिक एकता के रास्ते में रुकावट उत्पन्न हो गई। शायद यही कारण है कि जब भारत के ऊपर विदेशी शक्तियों ने हमला किया तो हम इकट्ठे होकर उनका सामना न कर सके। अगर यह जाति प्रथा न होती तो शायद हम इकट्ठे होकर उनका सामना करते तथा देश के ऊपर विदेशी शक्तियां कब्जा न कर पातीं। इस प्रकार जाति प्रथा ने सामाजिक एकता के रास्ते में बहत-सी रुकावटें खडी की थीं।

9. व्यक्तिगत विकास में रुकावट (Obstacle in individual progress)—जाति व्यवस्था का एक अन्य महत्त्वपूर्ण अवगुण यह था कि इसने व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास के रास्ते में रुकावटें उत्पन्न की थीं। जाति प्रथा ने अपने सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन, उनके पेशे, विवाह, सामाजिक सम्बन्धों इत्यादि के लिए कई प्रकार के नियम बनाए हुए थे। कोई व्यक्ति अपनी मर्जी का पेशा नहीं अपना सकता था। उसे अपने परिवार अथवा जाति का ही पेशा अपनाना पड़ता था। चाहे उसमें कितनी योग्यता क्यों न हो, वह अपने पेशे को बदल नहीं सकता था। व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसके जन्म पर आधारित होती थी। कुछ जातियों के व्यक्तियों को आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया जाता था। वह तमाम उम्र दबे-कुचले ही रहते थे। इस प्रकार जाति व्यवस्था व्यक्तिगत विकास के रास्ते में बहुत बड़ी रुकावट थी।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं

प्रश्न 7.
जाति प्रथा में क्या परिवर्तन आ रहे हैं ? वर्णन करें।
उत्तर-
प्राचीन समय से ही जाति प्रथा भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण आधार रही है। बहुत-सी संस्थाएं उत्पन्न हुईं तथा धीरे-धीरे खत्म हो गईं, परन्तु जाति प्रथा का महत्त्व कम न हुआ। इसका प्रभाव उसी तरह कायम रहा। परन्तु अंग्रेज़ों के भारत आने के पश्चात् इसके प्रभाव में कमी आनी शुरू हो गई। इसके साथ-साथ अन्य कारकों ने भी इसका प्रभाव कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जैसे कि शहरीकरण, पश्चिमी शिक्षा का प्रसार, पश्चिमीकरण, सरकारी प्रयास, समाज सुधार आन्दोलन इत्यादि। बहुत से कारकों के कारण जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए। इन परिवर्तनों का वर्णन इस प्रकार है

1. अस्पृश्यता के भेदभाव का खात्मा (Abolition of discrimination of Untouchability)—प्राचीन समय से ही हमारे देश में अस्पृश्यता की प्रथा चली आ रही थी जिसके अनुसार कुछ विशेष जातियों को अन्य जातियों को छूने की पाबंदी थी। परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम (Untouchability Offence Act) पास किया। इस कानून के अनुसार किसी व्यक्ति को अस्पृश्य कहना अपराध घोषित कर दिया गया। अब कोई किसी को किसी स्थान पर जाने से नहीं रोक सकता, मन्दिर, मार्किट इत्यादि में जाने की पूर्ण स्वतन्त्रता है तथा कुओं से पानी भरने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। अगर कोई ऐसा करने से रोकेगा तो उसे कठोर दण्ड दिया जाएगा। कुछ जातियों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए उनके लिए आरक्षण की नीति का प्रयोग किया गया। इस नीति के अनुसार अनुसूचित जातियों/जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों के लिए शैक्षिक संस्थाओं तथा नौकरियों में कुछ स्थान आरक्षित रखे गए हैं ताकि वे पढ़-लिख कर तथा नौकरियां करके अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठा सकें। इन प्रयासों के कारण आजकल जाति प्रथा का प्रभाव लगभग खत्म हो गया है। सभी जातियों के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं। इन लोगों को आर्थिक सहायता भी दी जाती है ताकि वे अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर सकें। इस प्रकार सरकारी प्रयासों से समाज में से अस्पृश्यता की भावना तो खत्म ही हो गई है।

2. जातीय संस्तरण का खात्मा (End of Caste Hierarchy)—प्राचीन समय में अलग-अलग जातियों के बीच एक विशेष पदक्रम अथवा संस्तरण देखने को मिलता था। जिसके अनुसार प्रत्येक जाति की सामाजिक स्थिति निश्चित होती थी। परन्तु अंग्रेज़ों के भारत आने के पश्चात् इस जातीय संस्तरण में कमी आनी शुरू हो गई। अंग्रेज़ अपने साथ कई प्रक्रियाएं भी लेकर आए जैसे कि औद्योगीकरण, शहरीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण इत्यादि। इन प्रक्रियाओं के कारण लोग एक-दूसरे के नज़दीक आने लगे तथा उनमें जातीय भेदभाव खत्म होने लग गए। सामाजिक संस्तरण में निम्न स्थानों वाली जातियों की सामाजिक स्थिति ऊपर उठनी शुरू हो गई। सरकार ने कानून बनाकर अन्तर्जातीय विवाहों को मान्यता दे दी जिस कारण अलग-अलग जातियां एक-दूसरे के नज़दीक आ गईं। आजकल जाति व्यवस्था का स्थान वर्ग व्यवस्था ने ले लिया है जिसके अनुसार व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसके जन्म पर नहीं बल्कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर होती है। इस प्रकार आज के आधुनिक समय में जातीय संस्तरण का लगभग खात्मा हो गया है।

3. खाने-पीने की पाबंदियों का खात्मा (End of Restrictions Related to Feeding)—प्राचीन समय में जाति व्यवस्था ने अलग-अलग जातियों के बीच खाने-पीने के सम्बन्धों पर पाबन्दियां लगाई हुई थीं कि किस जाति से किस प्रकार के सम्बन्ध रखने हैं अथवा नहीं। परन्तु आजकल के समय में जाति प्रथा की इस प्रकार की पाबन्दियों की पालना करना सम्भव नहीं है। औद्योगीकरण के बढ़ने के कारण उद्योगों में सभी मिलकर कार्य करते हैं तथा इकट्ठे मिल कर खाते हैं। वे एक-दूसरे से यह भी नहीं पूछते कि वह किस जाति का है। शहरीकरण के कारण अलग-अलग जातियों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आए तथा उन्होंने खाने-पीने की पाबन्दियों को मानना तो बिल्कुल ही छोड़ दिया। हम होटलों में खाना खाने जाते हैं अथवा बाहर से कुछ खाने के लिए लाते हैं तो हम यह नहीं पूछते कि किस जाति के व्यक्ति ने खाना बनाया है। इस प्रकार आधुनिक समय में जाति प्रथा की खाने-पीने की पाबंदियां तो खत्म ही हो गई हैं।

4. उच्च जातियों की उच्चता में कमी (Decline in Upper Status of Upper Castes)-प्राचीन भारतीय समाज कई जातियों में विभाजित था तथा जातीय संस्तरण में कुछ जातियों की स्थिति उच्च व कुछ की स्थिति निम्न थी। अंग्रेजों के भारत आने के पश्चात् इस संस्तरण में परिवर्तन आना शुरू हो गया। अंग्रेज़ों ने जाति प्रथा की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि उन्होंने सभी को भारतीय ही समझा व सभी से समानता वाला व्यवहार करना शुरू कर दिया। उन्होंने यहां पर पश्चिमी शिक्षा की शुरुआत की जिसका आधार धार्मिक नहीं बल्कि विज्ञान था। उन्होंने यहां पर स्कूल, कॉलेज, महाविश्वविद्यालय खोले जहां पर सभी भारतीय शिक्षा ले सकते थे। इस प्रकार उन्होंने जातीय संस्तरण में ऊँचे स्थानों पर मौजूद जातियों की उच्चता खत्म कर दी। निम्न जातियों के लोग पढ़-लिख कर ऊँचा उठने लग गए तथा अपनी जाति के लोगों को भी ऊपर उठाने लग गए। अब लोगों को सामाजिक स्थिति उनके जन्म के आधार पर नहीं बल्कि उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर प्राप्त होने लग गई।

देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने भी कई कानून बना कर निम्न जातियों की निर्योग्यताएं खत्म कर दी। उन्हें तरह-तरह के अधिकार दिए गए ताकि वह अपनी स्थिति को ऊँचा उठा सकें। अब धर्म अथवा जाति के स्थान पर पैसे को अधिक महत्त्व प्राप्त होता है। किसी भी जाति का व्यक्ति अब पैसे कमा कर वर्ग व्यवस्था में अपनी स्थिति ऊँची कर सकता है। इस प्रकार उच्च जातियों की उच्चता खत्म होनी शुरू हो गई।

5. पेशे का चुनाव करने की स्वतन्त्रता (Freedom to Select the Occupation)–प्राचीन भारतीय समाज में अलग-अलग जातियों के पेशे निश्चित होते थे तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति का निश्चित पेशा अपनाना ही पड़ता था। व्यक्ति को न चाहते हुए भी अपने परिवार का ही पेशा अपनाना पड़ता था चाहे उसमें उसकी योग्यता हो या न हो। वह इसे बदल नहीं सकता था। अगर कोई ऐसा करता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। परन्तु आजकल के समय में ऐसा नहीं है। आजकल लोग पश्चिमी ढंग से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। हजारों प्रकार के पेशे सामने आ गए हैं तथा उन्हें अपनाने की लोगों को पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। लोग अब अपनी इच्छा से पेशा अपनाते हैं। व्यक्ति में जिस प्रकार की योग्यता होती है वह उसी तरह का पेशा अपनाता है। अब लोग केवल वह पेशा ही अपनाते हैं जिसमें उन्हें अधिक लाभ होता है। लोग उद्योगों में इकट्ठे मिलकर कार्य करते हैं। पेशा अब विशेषीकरण तथा श्रम विभाजन पर आधारित हो गया है। जन्म पर आधारित पेशों का तो लगभग खात्मा ही हो गया है।

6. स्त्रियों की ऊँची होती स्थिति (Growing status of women)-प्राचीन समय में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति काफ़ी निम्न थी। उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। स्त्रियों को अपना पूर्ण जीवन घर की चारदीवारी में ही व्यतीत करना पड़ता था। वे न तो शिक्षा ले सकती थी तथा न ही घर से बाहर निकल सकती थी। परन्तु अंग्रेजों ने लड़कियों की शिक्षा के लिए विशेष स्कूल तथा कॉलेज शुरू किए। बहुत से समाज सुधारकों ने भी स्त्रियों की स्थिति ऊपर उठाने के बहुत प्रयास किए। स्वतन्त्रता के बाद सरकार ने भी बहुत प्रयास किए। इन सभी के प्रयासों के कारण ही स्त्रियों की स्थिति में सुधार होना शुरू हो गया। अब स्त्रियां पढ़-लिख रही हैं, अच्छी नौकरियां कर रही हैं, सरकारी अफ़सर बनकर देश में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। अब लड़कियों को लड़कों की तरह ही पढ़ाया जाता है तथा अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए प्रेरित किया जाता है। अब इनके लिए स्थानीय स्व: संस्थाओं में 1/3 स्थान आरक्षित हैं। अब वे अपनी इच्छा से विवाह करवाती हैं तथा अपने निर्णय स्वयं लेती हैं। इस प्रकार समाज में उनकी स्थिति ऊँची होती जा रही है।

7. विवाह से सम्बन्धित परिवर्तन (Changes Related to Marriage)-समाज में जाति व्यवस्था काफ़ी प्राचीन समय से चली आ रही थी तथा इसने अलग-अलग जातियों के सदस्यों के लिए बहुत से नियम बनाए हुए थे। विवाह का नियम भी उन नियमों में से एक नियम था जिसके अनुसार व्यक्ति को अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था। अगर कोई व्यक्ति जाति से बाहर विवाह करवाता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। परन्तु समय के साथ-साथ इस नियम में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया। सरकार ने कई प्रकार के कानून बना कर अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता दे दी। आजकल सभी अपनी इच्छा से विवाह करवाते हैं। समाचार-पत्रों के matrimonials में caste no bar साधारणतया लिखा देखा जा सकता है। अब सभी जाति को नहीं बल्कि अच्छे जीवन साथी को प्राथमिकता देते हैं। दफ्तरों में इकट्ठे कार्य करने के कारण प्रेम विवाह साधारण बात हो गई है जिसमें जाति को कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती। अब बाल विवाह गैर-कानूनी घोषित हो गया है तथा विवाह की आयु सरकार द्वारा निश्चित कर दी गई है। विधवा विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त हो गई है। तलाकों की संख्या बढ़ गई है। इस प्रकार यह सब कुछ जाति प्रथा की पाबन्दियों के विरुद्ध हो रहा है जोकि प्रगतिशील समाज का एक सूचक है।

प्रश्न 8.
सुरक्षात्मक विभेदीकरण के अर्थ की व्याख्या करें। क्या सुरक्षात्मक विभेदीकरण सामाजिक न्याय के मूल्य की तरफ लेकर जाता है ?
उत्तर-
हमारे समाज में कई ऐसे समूह हैं जिन्हें अन्य समूह सदियों से दबाते आ रहे हैं तथा जिस कारण वह सामाजिक संस्तरण में निम्न स्तर पर थे। उनके साथ काफ़ी भेदभाव होता था। उनकी निम्न स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए सरकार ने एक नीति बनाई जिसे सुरक्षात्मक विभेदीकरण की नीति कहा जाता है। इस नीति के अनुसार सरकार उन समूहों के लिए शैक्षिक संस्थाओं, राजनीतिक संस्थाओं तथा नौकरियों में कुछ स्थान आरक्षित रखेगी ताकि उनकी सामजिक भेदभाव से सुरक्षा हो सके। इस नीति के कारण ही अब समाज का यह वर्ग धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है।

अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय समाज को देखें तो हमें पता चलता है कि समाज चार भागों या जातियों में विभाजित था-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा चतुर्थ वर्ण। ब्राह्मण का कार्य पढ़ना, पढ़ाना व धार्मिक कार्य पूर्ण करना था। क्षत्रिय का कार्य लड़ना, राज्य करना व शासन प्रबन्ध चलाना था। वैश्य का कार्य व्यापार करना व कृषि करना था। चौथी जाति का कार्य पहली तीन जातियों की सेवा करना व साफ़-सफ़ाई करना था। चौथी जाति की तरफ से किए गए कार्यों को अपवित्र माना जाता था जिस कारण इस जाति के लोगों को भी अपवित्र समझा जाने लगा। समय के साथ-साथ यह व्यवस्था मज़बूत होती गई तथा चौथी जाति के लोगों के साथ भेदभाव होने लगा। भेदभाव काफ़ी बढ़ गया तथा इन लोगों को दबाया जाने लगा। सदियों से यह लोग दबते आ रहे थे। इन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे तथा इनके साथ काफ़ी निर्योग्यताएं जोड़ दी गईं।

देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान बनना शुरू हुआ तथा संविधान निर्माताओं के सामने एक बहुत बड़ी समस्या थी कि देश में से भेदभाव कैसे दूर किया जाए तथा इन लोगों को सामाजिक संस्तरण में कैसे ऊपर उठाया जाए। इस समस्या का समाधान सामने आया आरक्षण के रूप में। संविधान में अनुसूचित जातियों के लिए शैक्षिक संस्थाओं, संसद तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण की नीति को अपनाया गया तथा कहा गया कि इनके लिए स्थान आरक्षित रखे जाएंगे। इस नीति को सुरक्षात्मक विभेदीकरण का नाम दिया जाता है। इस नीति का मुख्य उद्देश्य इन लोगों के सामाजिक संस्तरण में ऊपर उठाना था।
इस सुरक्षात्मक विभेदीकरण की नीति ने सामाजिक न्याय के मूल्य को प्राप्त करने में काफ़ी सहायता की है। आरक्षण की नीति से बहुत से अनुसूचित जाति के लोगों ने शिक्षा प्राप्त की तथा सरकारी नौकरियां की जिससे उनकी सामाजिक स्थिति में काफ़ी अधिक परिवर्तन आया। जो लोग पढ़ लिख गए उन्होंने परम्परागत पेशों को छोड़ दिया तथा आरक्षण का लाभ उठाया। इससे उन्हें अच्छी नौकरियां मिल गईं तथा उनके पास भी पैसा आना शुरू हो गया। इस प्रकार समाज में से असमानता तथा निर्धनता कम होनी शुरू हो गई। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सुरक्षात्मक विभेदीकरण की नीति ने सामाजिक न्याय प्राप्त करने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 जाति असमानताएं

जनजातीय समाज PSEB 12th Class Sociology Notes

  • प्राचीन समय में भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी जिसमें चार वर्ण होते थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जाति। वर्ण व्यवस्था पेशे पर आधारित थी तथा व्यक्ति अपना वर्ण परिवर्तित कर सकता था परन्तु समय के साथ वर्ण व्यवस्था पैतृक हो गई जिस कारण इसने जाति व्यवस्था का रूप ले लिया।
  • कई समाजशास्त्रियों तथा मानववैज्ञानिकों ने जाति व्यवस्था की परिभाषा दी है परन्तु भारतीय समाजशास्त्री जी०एस०घूर्ये (G.S. Ghurye) के अनुसार जाति व्यवस्था इतनी जटिल है कि इसकी परिभाषा देनी मुमकिन नहीं है। इस कारण उन्होंने इसकी छ: विशेषताएं दी हैं।
  • जाति एक ऐसा अन्तर्वैवाहिक समूह था जिसने अपने सदस्यों के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगाए हए थे जैसे कि अन्य जातियों से संबंध रखने पर, विवाह करने पर, खाने-पीने पर इत्यादि। एक जाति के लोगों के ऊपर अन्य जातियों के लोगों के साथ संबंध रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।।
  • हमारे देश भारत में जाति आधारित स्तरीकरण होता था जिसमें ब्राह्मणों को सबसे ऊपर तथा निम्न जातियों को निम्न स्थान पर रखा जाता था। एम०एन० श्रीनिवास के अनुसार अपवित्रता का संकल्प जाति व्यवस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।
  • आजकल सरकार ने अनुसूचित जातियों को आरक्षण की नीति से काफी सुरक्षा दी है। इस कारण इन जातियों के लोग इस नीति का लाभ उठाकर पैसा, स्थिति तथा सत्ता ग्रहण कर रहे हैं। शिक्षा प्राप्त करके सरकारी नौकरियों में, बड़े-बड़े उद्योगों में कार्य कर रहे हैं अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा कर रहे हैं।
  • वैसे तो भारतीय समाज में मौजूद जाति व्यवस्था के सामने आने के कई सिद्धांत समाजशास्त्रियों ने दिए हैं परन्तु उनमें परंपरागत सिद्धांत, धार्मिक सिद्धांत तथा पेशे पर आधारित काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं।
  • देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् सरकार ने कई कानून पास किए ताकि देश में जाति आधारित असमानताओं को दूर किया जा सके। इसके साथ-साथ कई अन्य कारण भी सामने आए जिनसे जाति व्यवस्था का प्रभाव काफ़ी कम हो गया जैसे कि औद्योगीकरण, नगरीकरण, धर्मनिष्पक्षता, लोकतन्त्रीकरण इत्यादि।
  • संस्कृतिकरण, पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रियाओं ने भी जाति व्यवस्था के प्रभाव को खत्म करने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके साथ ही आरक्षण की प्रक्रिया के कारण अनुसूचित जातियों के लोग सरकारी नीतियों का लाभ उठा रहे हैं तथा सामाजिक व्यवस्था में ऊपर उठ रहे हैं।
  • जाति चेतनता (Caste Consciousness)—अपनी जातिगत पहचान की काफ़ी अधिक समझ होने को जाति – चेतनता कहते हैं।
  • प्रबल जाति (Dominant Caste)-किसी भी क्षेत्र का वह जातिगत समूह जिसकी जनसंख्या भी अधिक हो तथा जिसका साधनों पर नियंत्रण हो।
  • जातिवाद (Casteism)—वह कार्य जिनसे एक जाति अपने सदस्यों को प्राथमिकता दे तथा अन्य जातियों के हितों की उपेक्षा कर दे।
  • संस्कृतिकरण (Sanskritization)—वह प्रक्रिया जिसमें निम्न जातियां उच्च जातियों की आदतें, विश्वास, खाने-पीने, रहने-सहने के तरीकों तथा व्यवहार को अपना कर सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने की कोशिश करती हैं।
  • सजातीय विवाह (Endogamy)-विवाह का वह प्रकार जिसमें व्यक्ति को अपने ही समूह या जाति में ही विवाह करना पड़ता है।
  • विजातीय विवाह (Exogamy)-विवाह का वह प्रकार जिसमें व्यक्ति को अपने समूह से बाहर विवाह करना पड़ता है।
  • पूर्वधारणा (Prejudice)किसी व्यक्ति या समूह के प्रति किसी प्रकार का पूर्व विचार रखना पूर्वधारणा है।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

Punjab State Board PSEB 5th Class Hindi Book Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता) Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 5 Hindi Chapter 13 काम ही पूजा (कविता) (2nd Language)

काम ही पूजा (कविता) अभ्यास

नीचे गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में दिये गये शब्दों को पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखने का अभ्यास करो :

  • ਲਲਾਰੀ = ललारी
  • ਪਗੜੀ = पगड़ी
  • ਧੋਬੀ = धोबी
  • ਗਵਾਲਾ = ग्वाला
  • ਕਿਸਾਨ = किसान
  • ਨਾਈ = नाई
  • ਮਾਲੀ = माली

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

नीचे एक ही अर्थ के लिए पंजाबी और हिंदी भाषा में शब्द दिये गये हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखो :

  • ਕੰਮ = काम
  • ਇਜੱਤ = सम्मान
  • ਘੁਮਿਆਰ = कुम्हार
  • ਵੱਟ = सिलवट
  • ਚੁੰਨੀ = चुनरी
  • ਪੈਸ = इस्त्री

पढ़ो, समझो और लिखो

(क) स् + त्+ र = स्र = इस्री
श् + ऋ = शृ = शृंगार
ग् + व = ग्व = ग्वाला
म् + ह = म्ह = कुम्हार

(ख) म् + म = म्म = सम्मान

(ग) ध + र् + म = धर्म
च + र् + म = चर्म

काम ही पूजा (कविता) शब्दार्थ Meanings

  • सम्मान = इज्जत
  • कुम्हार = मिट्टी के बर्तन बनाने वाला
  • चर्मकार= चमड़े का काम करने वाला
  • ललारी = रंगाई का काम करने वाला
  • मेहतर = सफ़ाई करने वाला
  • ग्वाला = घर में आकर दूध देने वाला व्यक्ति

बताओ

प्रश्न 1.
कुम्हार क्या काम करता है?
उत्तर :
कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है।

प्रश्न 2.
चर्मकार क्या काम करता है?
उत्तर :
चर्मकार, चमड़े का काम करता है।

प्रश्न 3.
रंगाई का काम करने वाले को क्या कहते हैं?
उत्तर :
रंगाई का काम करने वाले को ललारी कहते हैं।

प्रश्न 4.
धोबी क्या काम करता है?
उत्तर :
धोबी कपड़े धोता है और उन्हें इस्त्री करता है।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

प्रश्न 5.
अपने आस-पास के उन सभी लोगों के नाम लिखो जो अपने हाथ से काम करते हों।
उत्तर :
ग्वाला, धोबी, ललारी, माली, फेरीवाला आदि।

वाक्य बनाओ

  1. कुम्हार,
  2. चर्मकार,
  3. ललारी,
  4. माली,
  5. मेहतर,
  6. ग्वाला

उत्तर :

  1. कुम्हार-कुम्हार बर्तन बना रहा है।
  2. चर्मकार-चर्मकार चमड़ा रंग रहा है।
  3. ललारी-ललारी कपड़ों को रंग रहा है।
  4. माली-माली पौधे लगा रहा है।
  5. मेहतर-मेहतर सफाई कर रहा था।
  6. ग्वाला-ग्वाला दूध दोह रहा है।

तुक मिलाओ

  1. गान = …………………………………
  2. माली = …………………………………
  3. बनाता = …………………………………
  4. शृंगार = …………………………………

उत्तर :

  1. गान = सम्मान।
  2. माली = लाली।
  3. बनाता = सजाता।
  4. श्रृंगार = आधार।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

समझो

  1. घड़ा = घड़े
  2. कपड़ा = …………………………………
  3. जूता = …………………………………
  4. गमला = …………………………………

उत्तर :

  1. घड़ा = घड़े।
  2. कपड़ा = कपड़े।
  3. जूता = जूते।
  4. गमला = गमले।

इन से नये शब्द बनायें

स्र, र, ‘,’ (‘ऋ’ की मात्रा)
उत्तर :
स्त्र = स्त्री।
र् = मार्ग।
ऋ = मृग।

रचनात्मक अभिव्यक्ति
नीचे दिए गए चित्रों का ध्यान से देखो। प्रत्येक पर तीन चार वाक्य लिखें।

बच्चे घर के फालतू सामान से कोई फोटो फ्रेम, पेन/पेंसिल स्टेंड आदि बनायें अथवा कोई तसवीर बनाकर उसमें रंग भरें।

नीचे दिए गए शब्दों की सहायता से वाक्य पूरे करो –
कपड़ा, जूते, लकड़ी, लोहे, रंग

  1. लुहार ………………………………… का काम करता है।
  2. चर्मकार ………………………………… बनाता है।
  3. पेंटर खिड़की और दरवाज़ों पर ………………………………… करता है।
  4. जुलाहा ………………………………… बुनता है
  5. बढ़ई ………………………………… का काम करता है।

उत्तर :

  1. लुहार लोहे का काम करता है।
  2. हलवाई मिठाई बनाता है।
  3. पेंटर खिड़की और दरवाजों पर रंग करता है।
  4. जुलाहा कपड़ा बुनता है।
  5. बढ़ई लकड़ी का काम करता है।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

काम ही पूजा (कविता) बहुवैकल्पिक प्रश्न

प्रश्न 1.
पंजाबी शब्द ‘ललाठी’ का हिन्दी अर्थ है। लाती/लालिमा/ललारी/ललाही
उत्तर :
ललारी

प्रश्न 2.
पंजाबी शब्द ‘ठाडाला’ का हिन्दी अर्थ है: गवला/ग्वाला/गाला/पाला
उत्तर :
ग्वाला

प्रश्न 3.
कुम्हार क्या बनाता है?
(i) बर्तन
(ii) सर्तन
(iii) कुर्बान
(iv) तुरतन।
उत्तर :
(i) बर्तन

प्रश्न 4.
हम इन्हें क्या कहते हैं। सही पर गोला लगाओ?
कपड़ों को रंग करने वाला- धोबी/ललारी
उत्तर :
ललारी।

काम ही पूजा (कविता) Summary in Hindi

1. काम ही पूजा, काम धर्म है
इस मंत्र का, गान करें।
काम कोई भी, नहीं है छोटा
काम का हम सम्मान करें।

शब्दार्थ :

  • गान करें = गाएँ।
  • सम्मान = इज्ज़त, आदर।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

सरलार्थ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कविता ‘काम ही पूजा’ से ली गई हैं। इसमें कवि काम को पूजा के समान समझाते हुए, काम करने पर बल देते हुए कहता है कि काम करना ही हमारी पूजा होनी चाहिए, काम करना ही हमारा धर्म होना चाहिए। हमें इसी मंत्र को “ना चाहिए। काम कोई भी हो, वह छोटा नहीं होता। इसलिए हमें काम की इज्जत करनी चाहिए।

2. यह कुम्हार है-घड़े बनाता।
गमले बर्तन-खूब सजाता।
चर्मकार-जूते चमकाए।
टूटे गाँठ दे नए बनाए।

शब्दार्थ :

  • कुम्हार = मिट्टी के बर्तन बनाने वाला।
  • चर्मकार = चमड़े का काम करने वाला।
  • गाँठ कर = मुरम्मत करके।

सरलार्थ :
काम को पूजा समझना चाहिए इस तथ्य पर बल देते हुए कवि कहता है कि यह कुम्हार है, जो घड़े बनाता है। वह गमले और बर्तन बनाकर उन्हें खूब सजाता है। यह चमड़े का काम करने वाला चर्मकार है। जो जूते बनाकर उन्हें चमकाता है और पुराने टूटे हुए जूतों को गाँठ कर नए बना देता है।।

3. यह ललारी खुशियाँ बिखराता,
चुनरी पगड़ी पे रंग चढ़ाता।
रंगों से जब रंग मिल जाते,
जीवन को रंगीन बनाते।

शब्दार्थ :

  • ललारी = कपडे रंगने वाला।
  • रंगीन = खुशियों से भरा, रंगदार।

सरलार्थ :
कवि कहता है कि यह कपड़े रंगने वाला ललारी है जो कपड़ों को रंगकर हमारे जीवन में खुशियाँ भर देता है। वह चुनरी हो या पगड़ी, उस पर रंग चढ़ाता है। जब रंगों से रंग मिल जाते हैं तो। वे हमारे जीवन को रंगों से भर देते हैं। हमारे जीवन को खशियों से भरा बना देते हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

4. धोकर कपड़े इस्त्री है करता,
कपड़ों की सिलवट को हरता।
धुले-प्रैस कपड़े हम पाएँ,
धोबी को तब भूल न जाएं।

शब्दार्थ :

  • इस्त्री = प्रैस-कपड़ों की सिलवटें निकालने की क्रिया।
  • सिलवट = बल।
  • हरता = दूर करता।

सरलार्थ : कवि कहता है कि धोबी कपड़ों को धोकर उन पर इस्त्री करता है और इस तरह वह कपड़ों की सिलवटें दूर करता है। जब भी हम धुले हुए और इस्त्री किए हुए कपड़ों को प्राप्त करें हम धोबी को न भूल जाएँ।

5. हो किसान नाई या माली,
देते हैं जीवन को लाली।
मेहतर हो या फेरी वाला,
कोई नहीं कम चाहे ग्वाला॥

शब्दार्थ :

  • लाली = खुशियाँ।
  • ग्वाला = दूध बेचने वाला।

सरलार्थ :
कवि कहता है कि चाहे किसान हो, नाई हो या माली हो। ये सभी अपना-अपना काम करके हमारे जीवन को खुशियों से भर देते हैं। चाहे कोई मेहतर हो या कोई फेरी वाला हो या फिर ग्वाला हो, कोई भी कम नहीं है। सबका अपनाअपना महत्त्व है।

6. प्यारे बच्चो इतना जानो।
मन से करो जो भी ठानो।
काम ही जीवन का श्रृंगार।
काम ही है सुख का आधार॥

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 13 काम ही पूजा (कविता)

शब्दार्थ :

  • मन से करना = जी लगाकर करना।
  • ठानो = निश्चय करो।
  • श्रृंगार = सजावट।

सरलार्थ :
कवि कहता है कि प्यारे बच्चो इतना समझ लो कि जिस काम को करने का तुम निश्चय कर लेते हो उसे जी लगा कर करो क्योंकि काम ही जीवन की सजावट है और काम ही सुख का आधार है।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो!

Punjab State Board PSEB 5th Class Hindi Book Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो! Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 5 Hindi Chapter 12 हमारी भी सुनो! (2nd Language)

हमारी भी सुनो! अभ्यास

नीचे गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में दिये गये शब्दों को पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखने का अभ्यास करो :

  • ਗੇਂਦ = गेंद
  • ਗੱਪਸ਼ਪ = गपशप
  • ਦੁਰਘਟਨਾ = दुर्घटना
  • ਸੜਕ = सड़क
  • ਬੱਤੀ = बत्ती
  • ਬੁੱਤ = बुत
  • ਸਦਉਪਯੋਗ = सदुपयोग
  • ਦੁਰਉਪਯੋਗ = दुरुपयोग

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो!

नीचे एक ही अर्थ के लिए पंजाबी और हिंदी भाषा में शब्द दिये गये हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखो :

  • ਰਸਤਾ = पथ
  • ਮੋਟਰ ਗੱਡੀ = मोटर गाड़ी
  • ਖਤਰਾ = जोखिम
  • ਅੱਖਾਂ = आँखों
  • ਇੰਤਜਾਰ = प्रतीक्षा
  • ਸੁਰਖਿਆ = सुरक्षा
  • ਖੱਬੇ = बाएं
  • मॅने = दाएं

पढ़ो, समझो और लिखो

(क) प् + र = प्र = प्रयोग
क् + ष = क्ष = सुरक्षा
दु + र् = दुर् = दुर्घटना
ज + य = ज्य = ज्यादा

(ख) न् + न = न्न = चुन्नू-मुन्नू
ल् + ल = ल्ल = उल्लंघन
त् + त = त्त = बत्ती

हमारी भी सुनो! शब्दार्थ Meaning

  • दुःख = कष्ट, तकलीफ
  • उल्लंघन = नियम को तोड़ना
  • जोखिम = खतरा
  • दुर्घटना = बुरी घटना
  • दुरुपयोग = बुरा उपयोग
  • सदुपयोग = अच्छा उपयोग
  • इशारा = संकेत
  • अनदेखा = बिना देखे
  • बुत = मूर्ति की तरह जड़
  • प्रतीक्षा = इन्तज़ार

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो!

बताओ

प्रश्न 1.
चुन्नू-मुन्नू को चोट कैसे लगी?
उत्तर :
गेंद खेलते समय मोटर गाड़ी से टकरा जाने के कारण चुन्नू-मुन्नू को चोट लगी।

प्रश्न 2.
लाल बत्ती हमें क्या संकेत देती है?
उत्तर :
लाल बत्ती हमें रुकने का संकेत देती है।

प्रश्न 3.
पीली बत्ती पर हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर :
पीली बत्ती पर हमें चलने के लिए तैयार रहना चाहिए।

प्रश्न 4.
हरी बत्ती का क्या अर्थ है?
उत्तर :
हरी बत्ती चलने का संकेत देती है।

प्रश्न 5.
हमें सड़क कैसे पार करनी चाहिए?
उत्तर :
सड़क हमेशा पहले बाईं ओर देखकर फिर दाईं ओर देखकर पार करनी चाहिए।

प्रश्न 6.
सड़क पर काली-सफेद धारियाँ क्यों बनी होती हैं?
उत्तर :
सड़क पर काली-सफेद धारियाँ पैदल चलने वालों के लिए बनी होती हैं। इसे ज़ेबरा क्रासिंग कहते हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो!

सही मिलान करो

काली-सफेद धारियाँ – रुकना
पीली बत्ती – चलना
हरी बत्ती – तैयार रहना
लाल बत्ती – पैदल सड़क पार करना
उत्तर :
काली-सफ़ेद धारियाँ – पैदल सड़क पार करना।
पीली बत्ती – तैयार रहना।
हरी बत्ती – चलना।
लाल बत्ती – रुकना।

पढ़ो, समझो और लिखो

आज = कल
दाएँ = बाएँ
सुख = दुःख
चलना = रुकना
ऊपर = नीचे
सदुपयोग = दुरुपयोग
खड़ा = बैठा
काली = सफेद
उत्तर :
उपरोक्त शब्दों के विपरीतार्थक शब्द उनके सामने दिए गए हैं। विद्यार्थी उन्हें याद करके लिखें।

समझो

कालिमा = काला
लालिमा = लाल
पीतिमा = पीला
हरीतिमा = हरा

रचनात्मक कौशल
बच्चे ज़ेबरा लाइनों, लाल, पीली और हरी बत्ती का चित्र बनायें तथा उनमें रंग भरें।

इन्हें अपनायें

(1) हमेशा सड़क के बाईं ओर चलें।
(2) सड़क के निकट गेंद न खेलें।
(3) सड़क हमेशा दाएँ-बाएँ देखकर पार करनी चाहिए।
(4) पैदल चलते समय सड़क हमेशा काली-सफेद धारियों, जिन्हें ज़ेबरा लाइनें कहा जाता है, से पार करनी चाहिए।
(5) लाल बत्ती होने पर रुकना चाहिए।
(6) पीली बत्ती होने पर चलने के लिए तैयार रहना चाहिए।
(7) हरी बत्ती होने पर चलना चाहिए।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो!

हमारी भी सुनो! बहुवैकल्पिक प्रश्न

प्रश्न 1.
पंजाबी शब्द ‘टिंउलात’ का हिन्दी अर्थ : इंतर/अंतर/प्रतीक्षा/परीक्षा
उत्तर :
प्रतीक्षा

प्रश्न 2.
पंजाबी शब्द ‘अधां’ का हिन्दी अर्थ है : अंखी/आँखें/आँहें/आटी
उत्तर :
आँखें

प्रश्न 3.
लाल बत्ती क्या संकेत देती है ?
(i) रुकने
(ii) चलने
(iii) दौड़ने
(iv) भगाने।
उत्तर :
(i) रुकने

प्रश्न 4.
हरी बत्ती क्या संकेत देती है?
(i) रुकने
(ii) चलने
(iii) फिरने
(iv) दौड़ने।
उत्तर :
(i) चलने

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो!

प्रश्न 5.
अगर ‘आज’-कल है तो सदुपयोग है
(i) परसो
(ii) दुरुपयोग।
(iii) सच्चा
(iv) अच्छोपयोग।
उत्तर :
(ii) दुरुपयोग

प्रश्न 6.
अगर ‘ऊपर-नीचे है तो ‘काली’ है
(i) सफेद
(ii) कालिया
(iii) कलुआ
(iv) सफेदा।
उत्तर :
(i) सफेद।

हमारी भी सुनो! Summary in Hindi

सड़क पर पाये जाने वाले रास्ते और ट्रैफिक बत्तियाँ आपस में बातें करते हैं। कालिमा पैदल पथ को बताती है कि लोग उसका प्रयोग लापरवाही से करते हैं। आज ही सुबह चुन्नू-मुन्नू को चोट लग गई। वे गेंद खेलते-खेलते मोटरगाड़ी से टकरा गए। पैदलपथ ने कहा कि बच्चे मानते ही नहीं।

उन्हें मेरे साथ ही चलना चाहिए। हम लोगों की सेवा के लिए हैं पर लोग हमारा दुरुपयोग करते हैं। उनकी बातें सुनकर लालिमा और पीतिमा और हरीतिमा ने भी अपनी-अपनी राम कहानी सुनाई कि किस तरह लोग उनकी अनदेखी करते हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो! 1

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 12 हमारी भी सुनो!

उनकी बातें सुनकर जेबरा ने कहा कि यदि पैदल चलने वाले उसी से सड़क पार करें और वाहन चालक उससे पहले बनी सफेद लकीर पर वाहन रोक दें तो पैदल चलने वालों को असुविधा न हो। इस पर कालिमा ने कहा कि लोगों को सदा मेरी बायीं ओर ही चलना चाहिए।

पैदलपथ ने कहा कि यदि लोग हमारी बातों को मानेंगे तो दुर्घटना नहीं होगी।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

Punjab State Board PSEB 5th Class Hindi Book Solutions Chapter 11 साहसी दीपा Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 5 Hindi Chapter 11 साहसी दीपा (2nd Language)

साहसी दीपा अभ्यास

नीचे गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में दिये गये शब्दों को पढ़ो और हिन्दी शब्दों को लिखने का अभ्यास करो :

  • ਲੜਕੀ = लड़की
  • ਨੌਕਰੀ = नौकरी
  • ਸਹੇਲੀ = सहेली
  • ਨਦੀ = नदी
  • ਬਹਾਦੁਰ = बहादुर
  • ਮਗਰਮੱਛ = मगरमच्छ

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

नीचे एक ही अर्थ के लिए पंजाबी और हिन्दी भाषा में शब्द दिये गये हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ो और हिन्दी शब्दों को लिखो :

  • ਬਾਰ੍ਹਾਂ = बारह
  • ਜੀਉਂਦੇ = जीवित
  • ਪ੍ਰਸੰਸਾ = सराहना।
  • ਇਨਾਮ = पुरस्कार

पढ़ो, समझो और लिखो

(क) च् + छ = च्छ = अच्छा, मगरमच्छ
न् + य = न्य = धन्यवाद
ल् + द = ल्द = जल्दी
स् + क = स्क = पुरस्कार

बताओ

प्रश्न 1.
दीपा कैसी लड़की थी?
उत्तर :
दीपा साहसी लड़की थी।

प्रश्न 2.
दीपा नदी के किनारे क्या कर रही थी?
उत्तर :
दीपा नदी के किनारे कपड़े धो रही थी।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

प्रश्न 3.
‘बचाओ-बचाओ’ की आवाजें किसने लगाईं?
उत्तर :
बचाओ-बचाओ’ की आवाजें हरीश ने लगाईं।

प्रश्न 4.
दीपा की सहेली ने उसे नदी में कूदने से मना क्यों किया?
उत्तर :
पानी में तेजी से बढे आ रहे मगरमच्छ को देखकर दीपा की सहेली ने दीपा को पानी में कूदने से मना किया।

प्रश्न 5.
दीपा ने रवि को डूबने से कैसे बचाया?
उत्तर :
दीपा झट से पानी में कूद गई और रवि को पानी से निकाल कर बाहर ले आई। इस प्रकार उसने रवि को डूबने से और मगरमच्छ से बचाया।

प्रश्न 6.
दीपा को कौन-सा पुरस्कार, कब मिला?
उत्तर :
दीपा को वीरता का पुरस्कार 26 जनवरी को मिला।

वाक्य पूरे करो

होशियार किनारे मगरमच्छ बहादुर धन्यवाद वीरता पुरस्कार।

  1. दीपा ………………………. और ………………………. लड़की थी।
  2. नदी में ………………………. था।
  3. दीपा रवि को ………………………. पर ले आई।
  4. रवि और हरीश के माता-पिता ने दीपा का ………………………. किया।
  5. दीपा को 26 जनवरी के दिन ………………………. मिला।

उत्तर :

  1. दीपा बहादुर और होशियार लड़की थी।
  2. नदी में मगरमच्छ था।
  3. दीपा रवि को किनारे पर ले आई।
  4. रवि और हरीश के माता-पिता ने दीपा का धन्यवाद किया।
  5. दीपा को 26 जनवरी के दिन वीरता पुरस्कार मिला।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

वाक्य बनाओ

  1. हिम्मत,
  2. धन्यवाद,
  3. बहादुरी,
  4. पुरस्कार,
  5. ठान लेना,
  6. हिम्मत बंधाना,
  7. एक न मानना,
  8. खाली हाथ लौटना,
  9. अपना-सा मुँह लेकर रह जाना।

उत्तर :

  1. हिम्मत-वह बहुत हिम्मत करके मेरे पास आया।
  2. धन्यवाद-मुख्याध्यापक ने अतिथि का धन्यवाद किया।
  3. मगरमच्छ-मगरमच्छ पानी में रहता है।
  4. पुरस्कार-दीपा को उसकी बहादुरी पर वीरता पुरस्कार मिला।
  5. ठान लेना-मैंने इस प्रतियोगिता को जीतने की ठान ली है।
  6. एक न मानना-वह अपने माता-पिता की एक नहीं मानता, अपने मन की करता है।
  7. हिम्मत बँधाना-दीपा ने हरीश को हिम्मत बँधाई।
  8. खाली हाथ लौटना-मगरमच्छ को खाली हाथ लौटना पड़ा।
  9. अपना सा मुँह लेकर रह जाना-मगरमच्छ शिकार हाथ से निकलते देखकर अपना सा मुँह लेकर रह गया।

पढ़ो, समझो और लिखो

साल = वर्ष
लड़की = बालिका
किनारा = तट
जीवित – ज़िन्दा
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्दों के पर्यायवाची शब्द सामने दर्शाये गए हैं। विद्यार्थी इन पर्याय-शब्दों को स्मरण रखें।

लिंग बदलो

  1. माता = ……………………….
  2. लड़की = ……………………….

उत्तर :

  1. माता = पिता।
  2. लड़की = लड़का।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

समझो

गाँव = शहर
घर = बाहर
डूबना = तैरना
वीर = कायर
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्दों के विपरीतार्थक शब्द उनके सामने लिखे गए हैं। विद्यार्थी इन्हें समझकर कण्ठस्थ कर लें।

इनसे नये शब्द बनाओ

  1. च्छ
  2. न्य
  3. स्क
  4. ल्द

उत्तर :

  1. च्छ = स्वच्छ।
  2. न्य = अन्य।
  3. स्क= पुरस्कार।
  4. ल्द = जल्द।

रचनात्मक अभिव्यक्ति

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा 1
चित्र देखकर नीचे दिए गए शब्दों की सहायता से वाक्य पूरे करो

साहसी दुकान दीवाली पटाखों आग बच्चा बचा

…………………………………. का त्योहार है। बाज़ार में …………………………………. की दुकानें सजी हुई हैं। एक दुकान में अचानक …………………………………. लग गई है। एक …………………………………. आग में फँस गया है। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है। एक बालिका उसे जान पर खेलकर …………………………………. रही है। वह …………………………………. बालिका है।
उत्तर :
दीवाली का त्योहार है। बाज़ार में पटाखों की दुकानें सजी हुई हैं। एक दुकान में अचानक आग लग गई है। एक बच्चा आग में फँस गया है। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है। एक बालिका उसे जान पर खेलकर बचा रही है। वह साहसी बालिका है।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

साहसी दीपा बहुवैकल्पिक प्रश्न

प्रश्न 1.
दीपा कैसी लड़की थी?
(i) साहसी
(i) निडर
(iii) योगी
(iv) सुंदर।
उत्तर :
(i) साहसी

प्रश्न 2.
दीपा नदी किनारे क्या कर रही थी?
(i) कपड़े धो रही थी
(ii) कपड़े सिल रह थे
(iii) खेल रही थी
(iv) सो रही थी।
उत्तर :
(i) कपड़े धो रही थी

प्रश्न 3.
‘ठान लेना’ का अर्थ है
(i) पक्का इरादा
(ii) पक्की बात
(iii) पक्के लोग
(iv) पक्की रस्सी।
उत्तर :
(i) पक्का इरादा

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

प्रश्न 4.
अगर ‘गाँव’-शहर है तो ‘घर ………………………………. है।
(i) बाहर
(ii) बाह्य
(iii) बाहरी
(iv) बाहु।
उत्तर :
(i) बाहर।

साहसी दीपा Summary in Hindi

पाठ का सार माधोपुर गाँव में दीपा नामक लड़की रहती थी। उसकी आयु बारह वर्ष की थी। उसके पिता शहर में नौकरी करते थे और माँ घर में बीमार रहती थी। दीपा बड़ी बहादुर लड़की थी। सारे घर के कामकाज करती और नदी में कपड़े धोने भी जाती थी।

एक दिन दीपा अपनी सहेली के साथ नदी के किनारे कपडे धो रही थी और थोड़ी ही दूरी पर रवि और हरीश नदी में नहा रहे थे। नहाते-नहाते रवि नदी में डूबने लगा तो हरीश ने उसे बचाने की कोशिश की और सहायता के लिए चिल्लाने लगा।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा 2

उसकी आवाज़ सुनकर दीपा उसकी सहायता के लिए दौड़ी तो उसकी सहेली ने उसे मना कर दिया क्योंकि उसने देखा कि पानी में मगरमच्छ रवि की ओर चला आ रहा था। लेकिन दीपा ने इसकी परवाह नहीं की और पानी में कूद गई। उसने जल्दी से रवि को पकड़ा और किनारे पर ले आई।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 11 साहसी दीपा

इस प्रकार उसने रवि को मगरमच्छ से बचा लिया। इतने में दीपा की सहेली रवि और हरीश के माता-पिता को ले आई। अपने बच्चों को सुरक्षित देखकर वे बहुत खुश हुए और दीपा का धन्यवाद किया। गाँव के सभी लोगों ने भी दीपा के साहस की सराहना की।

दीपा की बहादुरी पर उसे 26 जनवरी को पुरस्कार दिया गया।

साहसी दीपा शब्दार्थ Meanings

  • होशियार = सावधान, चौकस
  • कोशिश = प्रयास, यत्न
  • मगरमच्छ = गहरे जल में पाया जाने वाला बहुत बड़ा, भीषण एवं हिंसक जंतु, घड़ियाल
  • चंगुल = हाथ की उँगलियों के मोड़ने से बनी मुद्रा, पकड़, काबू
  • धन्यवाद = कृतज्ञता
  • सराहना = प्रशंसा प्रकट करने का शब्द
  • पुरस्कार = इनाम

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 10 जन्म दिन

Punjab State Board PSEB 5th Class Hindi Book Solutions Chapter 10 जन्म दिन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 5 Hindi Chapter 10 जन्म दिन (2nd Language)

जन्म दिन अभ्यास

नीचे गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में दिये गये शब्दों को पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखने का अभ्यास करो :

  • ਜਨਮਦਿਨ = जन्मदिन
  • ਸਹਿਪਾਠੀ = सहपाठी
  • ਅਨਾਥ ਆਸ਼ਰਮ = अनाथाश्रम
  • ਮੋਮਬੱਤੀ = मोमबत्ती
  • ਗੁਬਾਰੇ = गुब्बारे
  • ਕੋਕ = केक
  • ਛੁੱਟੀ = छुट्टी
  • ਹਲਵਾ = हलवा

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 10 जन्म दिन

नीचे एक ही अर्थ के लिए पंजाबी और हिंदी भाषा में शब्द दिये गये हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखो :

  • ਭੈਣ = बहन
  • ਧੰਨਵਾਦ = धन्यवाद
  • ਨਾਚ = नृत्य
  • ਤਾੜੀਆਂ = तालियाँ
  • ਵਿਦਾਇਗੀ = अलविदा
  • ਹੌਸਲਾ = उत्साह

पढ़ो, समझो और लिखो

(क) न् + म = न्म = जन्म
स् + व = स्व = स्वागत
क् + र = क्र = आइसक्रीम
र् + वी = र्वी = चार्वी
स् + त = स्त = बिस्तर, दोस्त, मस्ती
न् + द = न्द = सुन्दर
र् + टी = र्टी = पार्टी
स् + क = स्क = स्कूल
न् + य = न्य = धन्यवाद
त् + स = त्स = उत्साहित
म् + ह + म्ह = तुम्हारा

(ख) श् + र = श्र = आश्रम

(ग) म् + म = म्म= मम्मी
ब् + ब + ब्ब = गुब्बारा
त् + य + त्य = नृत्य
ट् + ट + ट्ट = छुट्टी

किसने कहा

प्रश्न 1.
“चार्वी बेटी उठो! आज तुम्हारा जन्मदिन है।”
उत्तर :
चार्वी की माँ ने कहा है।

प्रश्न 2.
“अनाथाश्रम जाकर बच्चों को मिठाई भी तो बाँटनी है।”
उत्तर :
चावी के पापा ने कहा है।

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प्रश्न 3.
“तुम्हारे जन्मदिन के लिए केक और हलवा मैंने अपने हाथों से बनाया है।”
उत्तर :
चा की माँ ने कहा है।

प्रश्न 4.
“सात मोमबत्तियों को बुझा दो और आठवीं मोमबत्ती को जलती रहने दो।”
उत्तर :
चावी की माँ ने कहा है।

बताओ

प्रश्न 1.
चार्वी क्यों खुश है?
उत्तर :
चार्वी इसलिए खुश है क्योंकि आज उसका जन्मदिन है।।

प्रश्न 2.
चार्वी की बहन का क्या नाम है?
उत्तर :
चार्वी की बहन का नाम एलीका है।

प्रश्न 3.
चार्वी को जन्मदिन की बधाई सबसे पहले किसने दी?
उत्तर :
चार्वी को जन्मदिन की बधाई सबसे पहले माँ ने दी।

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प्रश्न 4.
चार्वी और एलीका ने जन्मदिन की क्या-क्या तैयारी की?
उत्तर :
चार्वी और एलीका ने सारे घर को गुब्बारों और झिलमिलाती झंडियों से सजा दिया।

प्रश्न 5.
चार्वी ने अपना जन्मदिन कैसे मनाया?
उत्तर :
चार्वी ने अपने जन्मदिन पर अनाथाश्रम जाकर बच्चों को मिठाई बॉटी, स्कूल में सहपाठियों को टाफियाँ बाँटी फिर घर पर पार्टी में केक काटा और सभी को केक, हलवा, गुलाब जामुन और समोसे खिलाए।

पढ़ो, समझो और लिखो।

(क) टॉफी = टॉफियाँ
झंडी = झंडियाँ
मिठाई = मिठाइयाँ
मोमबत्ती = मोमबत्तियाँ
ताली = तालियाँ
सहेली = सहेलियाँ
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्दों के बहुवचन रूप सामने दर्शाए गए हैं।

(ख) माता = पिता
बहन = भाई
मामा = मामी
बेटा – बेटी
चाचा = चाची
नाना = नानी
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्दों के विपरीत लिंगी शब्द सामने दर्शाये गए हैं।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 10 जन्म दिन

अन्तर समझो

(क) थोड़ी देर [में] मेहमान आते ही होंगे।
आज [मैं] टॉफियाँ लेकर स्कूल जाऊँगी।
[उसने] नयी पोशाक पहनी।
चार्वी [उन] का धन्यवाद कर रही थी।
उत्तर :
उपरोक्त रेखांकित शब्द युग्म शब्द कहलाते हैं।

इनसे नये शब्द बनाओ
क्र, श्र
उत्तर :
(i) क्र = क्रम, विक्रय।
(ii) ‘f = बर्फी, सर्दी।
(ii) श्र = श्रम, विश्राम।

रचनात्मक कौशल
जन्मदिन से संबंधित चित्र बनाओ और उसमें अलग-अलग रंग भरो।

रचनात्मक अभिव्यक्ति

  1. आज मेरा …………………………………. है।
  2. मैंने नयी …………………………………. पहनी है।
  3. मेरे माता-पिता …………………………………. लाये हैं।
  4. मैंने सबके साथ मिलकर …………………………………. काटा।
  5. सभी ने मिलकर …………………………………. गाया।

उत्तर :

  1. आज मेरा जन्मदिन है।
  2. मैंने नयी पोशाक पहनी है।
  3. मेरे माता-पिता उपहार लाए हैं।
  4. मैंने सबके साथ मिलकर केक काटा।
  5. सभी ने मिलकर गाना गाया।

अध्यापन निर्देश

  1. अध्यापक बच्चों को जन्मदिन की भाँति घर में होने वाले समारोहों को मिलकर मनाने की ओर प्रेरित करे। स्कूल में होने वाले समारोहों में सभी बच्चे मिलजुल कर काम करें। जिससे उनमें यह भावना विकसित हो कि खुशी के अवसर मिलजुल कर मनाने से मन खुश रहता है, सहयोग की भावना उत्पन्न होती है तथा किसी से भी कोई वस्तु लेते/ देते समय वे उसका धन्यवाद अवश्य करें।
  2. ‘र’ व्यंजन को संयुक्त करने के विभिन्न रूप पाठ संख्या 3 में समझाए गये हैं। अध्यापक उनका बार बार अभ्यास करवाये।

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जन्म दिन बहुवैकल्पिक प्रश्न

प्रश्न 1.
पंजाबी शब्द ‘मठमरिठ’ का हिन्दी अर्थ है : जन्म दिवस/जन्मदिन/जन्मपत्री/जन्मीपत्र
उत्तर :
जन्मदिन

प्रश्न 2.
‘टॉफी’-टाफियाँ है तो मोमबत्ती है :
(i) मोमबत्तियाँ
(ii) मोमबत्ती
(iii) मोमबत्तीय
(iv) मोम की बत्तिया।
उत्तर :
(i) मोमबत्तियाँ,

प्रश्न 3.
‘ताली’-तालियाँ है तो मिठाई है
(i) मीठा
(ii) मिठावाला
(iii) मिठाइयाँ
(iv) मिठाइयों।
उत्तर :
(iii) मिठाइयाँ।

जन्म दिन Summary in Hindi

आज चार्वी का जन्मदिन है। अभी वह सो ही रही थी कि उसके माता-पिता और बहन ने उसे जगाकर जन्मदिन की बधाई दी। माँ से उसने कहा कि वह आज स्कूल में अपने सहपाठियों के लिए टॉफियाँ ले जाएगी। माँ ने उसे पहले अनाथाश्रम में बच्चों को मिठाई बाँटने को कहा।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 10 जन्म दिन 1

स्कूल जाकर चार्वी ने अपने सहपाठियों को टाफियाँ बाँटीं। उसके घर आने पर उसके जन्मदिन की पार्टी मनाने की तैयारियाँ होने लगीं। समय पर चार्वी के रिश्तेदार, मेहमान और दोस्त आ गए। आज चार्वी का आठवाँ जन्म दिन था। उसने केक काटा। सब ने तालियाँ बजाकर उसे जन्मदिन की बधाई दी।

पार्टी में सब ने खूब मौज मस्ती की। उन्हें आज का दिन सदा याद रहेगा।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 10 जन्म दिन

जन्म दिन शब्दार्थ :

  • सहपाठी = साथ पढ़ने वाला
  • उपहार = तोहफा
  • अनाथाश्रम = वह स्थान जहाँ बिना माँ-बाप के बच्चे रखे जाते हैं।
  • मेहमान = अतिथि
  • नृत्य = नाच
  • अलविदा = विदा होते समय कहा जाने वाला एक पद- अच्छा, अब चलते हैं।
  • धन्यवाद = कृतज्ञता प्रकट करने का एक शब्द

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
जैन धर्म के आरंभ के बारे आप क्या जानते हैं ? वर्णन करो। (What do you know about the origin of Jainism ? Explain.)
उत्तर-
जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। इसका साधुओं वाला मार्ग और योग की रीतियों का आरंभ हड़प्पा काल में से ढूँढा जा सकता है। वैदिक साहित्य में जैन आचार्यों का वर्णन मिलता है। इससे पता चलता है कि जैन धर्म उस समय प्रचलित था। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार ऋषभनाथ जो कि उनका पहला तीर्थंकर था वह पहला व्यक्ति था जिससे मनुष्य की सभ्यता का आरंभ हुआ। इस तरह सभ्यता के आरंभ के समय पर ही जैन धर्म मौजूद था।
जैन शब्द संस्कृत के शब्द जिन से निकला है जिससे भाव है विजेता। विजेता से भाव उस व्यक्ति से है जिसने अपनी इंद्रियों और मन को जीत लिया हो। जैन धर्म को आरंभ में निरग्रंथ के नाम से जाना जाता है। निरग्रंथ से भाव था बंधनों से रहित अथवा मुक्त। जैन आचार्यों को तीर्थंकर भी कहा जाता है। तीर्थंकर से भाव है पुल बनाने वाला अथवा संसार के भवसागर से पार करने वाला गुरु। जैन दर्शन को अर्हत दर्शन भी कहा जाता है। अर्हत से भाव है पूजनीय। जैन धर्म को मानने वाले जैनी कहलाते हैं। जैन 24 तीर्थंकरों में विश्वास रखते हैं। इनके नाम ये हैं:—

  1. ऋषभनाथ
  2. अजित
  3. संभव
  4. अभिनंदन
  5. सुमति
  6. पद्मप्रभु
  7. सुपार्श्व
  8. चंद्रप्रभु
  9. पुष्पदंत
  10. शीतल
  11. श्रेयांसम
  12. वासुपूज्य
  13. विमल
  14. अनंत
  15. धर्म
  16. शाँति
  17. कुंथ
  18. अरह
  19. मल्लि
  20. मुनिसुव्रत
  21. नामि
  22. नेमि
  23. पार्श्वनाथ
  24. महावीर

जैनी ऋषभनाथ को जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार उनका जन्म अयोध्या में हुआ। उन्होंने कई वर्षों तक राज्य किया। बाद में उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र भरत को सौंप दिया और स्वयं संसार त्याग कर तपस्या में लग गये। अंत में उनको ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने इस ज्ञान के बारे लोगों को उपदेश दिया। इस तरह वह पहले तीर्थंकर कहलाये। ऋषभनाथ के बाद होने वाले 21 तीर्थंकरों को ऐतिहासिक बताना संभव नहीं है, परंतु जैनियों की पवित्र अनुश्रुतियों में इनका वर्णन आता है। जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और 24वें तीर्थंकर महावीर ऐतिहासिक व्यक्ति थे। स्वामी पार्श्वनाथ का जन्म स्वामी महावीर के जन्म से 250 वर्ष पहले बनारस के राजा अश्वसेन के घर हुआ था। उनकी माता जी का नाम वामादेवी था। उनका बचपन बहुत ही ऐश-ओ-आराम में बीता। 30 वर्षों की आयु में पार्श्वनाथ ने अपने सारे सुखों का त्याग कर दिया और सच्चे ज्ञान की खोज में निकल गये। उनको 83 दिनों के घोर तप के बाद परम ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन के बाकी 70 वर्ष अपने उपदेशों का प्रचार करने में व्यतीत किये। 777 ई० पू० के लगभग उन्होंने बिहार के माऊंट समेता नामक पहाड़ी पर निर्वाण प्राप्त किया। पार्श्वनाथ की शिक्षा को चार्तुयाम अथवा चार प्रण कहते हैं। यह चार प्रण ये हैं—

  1. सजीव वस्तुओं को कष्ट न पहुँचायें (अहिंसा)।
  2. झूठ न बोलो (सुनृत)।
  3. बिना दिये कुछ न लो (अस्तेय)।
  4. सांसारिक पदार्थों से मोह न करो (अपरिग्रह)।

स्वामी महावीर ने इन चार असूलों में एक और असूल जोड़ा जिसको ब्रह्मचर्य कहा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वामी महावीर जैन धर्म के संस्थापक नहीं बल्कि सुधारक थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 2.
(क) जैन धर्म में कुल कितने तीर्थंकर हुए हैं ?
(ख) भगवान् महावीर के जीवन पर प्रकाश डालें।
[(a) Give the total number of Tirthankaras in Jainism.
(b) Throw light on the life of Lord Mahavira.]
अथवा
महावीर की माता का क्या नाम था ? भगवान् महावीर के जन्म से पहले उनकी माता को कितने स्वप्न आए थे? भगवान महावीर के जीवन पर एक नोट लिखें।
(Give the name of Mahavir as mother. How many dreams Lord Mehavira’s mother had before giving birth to Mahavira ? Write a note on the life of Lord Mahavira.)
अथवा
जैन धर्म में कितने तीर्थंकर हुए हैं ? 24वें तीर्थंकर के जीवन पर नोट लिखें।
(Give the number of Tirthankaras in Jainism. Write a note on the life of 24th Tirthankara.)
अथवा
भगवान् महावीर जैन धर्म के कौन से तीर्थंकर थे ? उनके जीवन के संबंध में जानकारी दें।
(What was Lord Mahavira’s number among Jain Tirthankaras ? Write about Mahavira’s life.)
उत्तर-
जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं। 24वें तीर्थंकर स्वामी महावीर के जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ 1
LORD MAHAVIRA

1. महावीर का जन्म और बचपन (Birth and Childhood of Mahavira)- महावीर का जन्म 599 ई० पू० वैशाली (बिहार) के नज़दीक कुंडग्राम में हुआ। कुछ इतिहासकार उनकी जन्म तिथि 540 ई० पू० बताते हैं। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। महावीर जी के पिता जी का नाम सिद्धार्थ था और वह एक क्षत्रिय कबीले जनत्रिका के मुखिया थे। महावीर जी की माता जी का नाम तृषला था। वह लिच्छवी वंश के शासक चेटक की बहन थी। भगवान् महावीर के जन्म से पूर्व उसे 14 स्वप्न आए थे। महावीर को शिक्षा देने के लिए विशेष प्रबंध किये गये थे। महावीर जी का बचपन से ही सांसारिक वस्तुओं से कोई लगाव नहीं था। वह अपने ही विचारों में डूबे रहते थे।

2. विवाह (Marriage)—सांसारिक कार्यों की ओर महावीर जी का ध्यान लगाने के लिए उनके पिता जी ने महावीर का विवाह एक सुंदर राजकुमारी यशोदा से कर दिया। विवाह के समय महावीर जी की आयु कितनी थी इसके बारे हमें कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है। कुछ समय पश्चात् महावीर जी के घर एक पुत्री ने जन्म लिया। उसका नाम प्रियादर्शना रखा गया।

3. महान् त्याग और ज्ञान प्राप्ति (Renunciation and Enlightenment)-गृहस्थी जीवन भी महावीर जी की धार्मिक रुचियों की राह में किसी तरह की अड़चन (रुकावट) न बन सका। अपने माता-पिता की मृत्यु हो जाने के बाद महावीर अपने बड़े भाई नंदीवर्मन से आज्ञा लेकर गृह त्याग्न कर जंगलों में ज्ञान की खोज के लिए चले गये। उस समय महावीर जी की आयु 30 वर्ष थी। उन्होंने 12 वर्षों तक बड़ा कठोर तप किया। अंततः उनको ऋजुपालिका नदी के नज़दीक जरिमबिक गाँव में कैवल्य ज्ञान (सर्वोच्च सत्य) प्राप्त हुआ। इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद वर्धमान जिन (इंद्रियों पर जीत प्राप्त करने वाला) और महावीर (महान् विजयी) कहलाये। ज्ञान प्राप्ति के समय महावीर जी की आयु 42 वर्ष थी।

4. धर्म प्रचार (Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर जी ने लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूंर करने के लिए और उनको सच्चा मार्ग बताने के लिए अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके उपदेशों से बहुत सारे लोग प्रभावित हुए और वे महावीर जी के अनुयायी बन गये। महावीर जी के प्रसिद्ध प्रचार केंद्र राजगृह, वैशाली, कौशल, मिथिला, विदेह और अंग थे। जैन परंपराओं के अनुसार मगध के शासक बिंबिसार और उसके पुत्र अजातशत्रु ने जैन मत को स्वीकार कर लिया।

5. निर्वाण (Nirvana)—स्वामी महावीर ने लगभग 30 वर्षों तक अपना प्रचार किया। 72 वर्ष की आयु में पावा (पटना) में 527 ई० पू० में उन्होंने निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त किया। उस समय महावीर जी के 14,000 अनुयायी थे।

प्रश्न 3.
जैन धर्म के आरंभ तथा विकास के बारे में प्रकाश डालें। (Discuss the origin and development of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Jainism.)
उत्तर-
जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। इसका साधुओं वाला मार्ग और योग की रीतियों का आरंभ हड़प्पा काल में से ढूँढा जा सकता है। वैदिक साहित्य में जैन आचार्यों का वर्णन मिलता है। इससे पता चलता है कि जैन धर्म उस समय प्रचलित था। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार ऋषभनाथ जो कि उनका पहला तीर्थंकर था वह पहला व्यक्ति था जिससे मनुष्य की सभ्यता का आरंभ हुआ। इस तरह सभ्यता के आरंभ के समय पर ही जैन धर्म मौजूद था।
जैन शब्द संस्कृत के शब्द जिन से निकला है जिससे भाव है विजेता। विजेता से भाव उस व्यक्ति से है जिसने अपनी इंद्रियों और मन को जीत लिया हो। जैन धर्म को आरंभ में निरग्रंथ के नाम से जाना जाता है। निरग्रंथ से भाव था बंधनों से रहित अथवा मुक्त। जैन आचार्यों को तीर्थंकर भी कहा जाता है। तीर्थंकर से भाव है पुल बनाने वाला अथवा संसार के भवसागर से पार करने वाला गुरु। जैन दर्शन को अर्हत दर्शन भी कहा जाता है। अर्हत से भाव है पूजनीय। जैन धर्म को मानने वाले जैनी कहलाते हैं। जैन 24 तीर्थंकरों में विश्वास रखते हैं। इनके नाम ये हैं:—

  1. ऋषभनाथ
  2. अजित
  3. संभव
  4. अभिनंदन
  5. सुमति
  6. पद्मप्रभु
  7. सुपार्श्व
  8. चंद्रप्रभु
  9. पुष्पदंत
  10. शीतल
  11. श्रेयांसम
  12. वासुपूज्य
  13. विमल
  14. अनंत
  15. धर्म
  16. शाँति
  17. कुंथ
  18. अरह
  19. मल्लि
  20. मुनिसुव्रत
  21. नामि
  22. नेमि
  23. पार्श्वनाथ
  24. महावीर

जैनी ऋषभनाथ को जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार उनका जन्म अयोध्या में हुआ। उन्होंने कई वर्षों तक राज्य किया। बाद में उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र भरत को सौंप दिया और स्वयं संसार त्याग कर तपस्या में लग गये। अंत में उनको ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने इस ज्ञान के बारे लोगों को उपदेश दिया। इस तरह वह पहले तीर्थंकर कहलाये। ऋषभनाथ के बाद होने वाले 21 तीर्थंकरों को ऐतिहासिक बताना संभव नहीं है, परंतु जैनियों की पवित्र अनुश्रुतियों में इनका वर्णन आता है। जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और 24वें तीर्थंकर महावीर ऐतिहासिक व्यक्ति थे। स्वामी पार्श्वनाथ का जन्म स्वामी महावीर के जन्म से 250 वर्ष पहले बनारस के राजा अश्वसेन के घर हुआ था। उनकी माता जी का नाम वामादेवी था। उनका बचपन बहुत ही ऐश-ओ-आराम में बीता। 30 वर्षों की आयु में पार्श्वनाथ ने अपने सारे सुखों का त्याग कर दिया और सच्चे ज्ञान की खोज में निकल गये। उनको 83 दिनों के घोर तप के बाद परम ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन के बाकी 70 वर्ष अपने उपदेशों का प्रचार करने में व्यतीत किये। 777 ई० पू० के लगभग उन्होंने बिहार के माऊंट समेता नामक पहाड़ी पर निर्वाण प्राप्त किया। पार्श्वनाथ की शिक्षा को चार्तुयाम अथवा चार प्रण कहते हैं। यह चार प्रण ये हैं—

  1. सजीव वस्तुओं को कष्ट न पहुँचायें (अहिंसा)।
  2. झूठ न बोलो (सुनृत)।
  3. बिना दिये कुछ न लो (अस्तेय)।
  4. सांसारिक पदार्थों से मोह न करो (अपरिग्रह)।

स्वामी महावीर ने इन चार असूलों में एक और असूल जोड़ा जिसको ब्रह्मचर्य कहा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वामी महावीर जैन धर्म के संस्थापक नहीं बल्कि सुधारक थे।

1. महावीर का जन्म और बचपन (Birth and Childhood of Mahavira)- महावीर का जन्म 599 ई० पू० वैशाली (बिहार) के नज़दीक कुंडग्राम में हुआ। कुछ इतिहासकार उनकी जन्म तिथि 540 ई० पू० बताते हैं। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। महावीर जी के पिता जी का नाम सिद्धार्थ था और वह एक क्षत्रिय कबीले जनत्रिका के मुखिया थे। महावीर जी की माता जी का नाम तृषला था। वह लिच्छवी वंश के शासक चेटक की बहन थी। भगवान् महावीर के जन्म से पूर्व उसे 14 स्वप्न आए थे। महावीर को शिक्षा देने के लिए विशेष प्रबंध किये गये थे। महावीर जी का बचपन से ही सांसारिक वस्तुओं से कोई लगाव नहीं था। वह अपने ही विचारों में डूबे रहते थे।

2. विवाह (Marriage)—सांसारिक कार्यों की ओर महावीर जी का ध्यान लगाने के लिए उनके पिता जी ने महावीर का विवाह एक सुंदर राजकुमारी यशोदा से कर दिया। विवाह के समय महावीर जी की आयु कितनी थी इसके बारे हमें कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है। कुछ समय पश्चात् महावीर जी के घर एक पुत्री ने जन्म लिया। उसका नाम प्रियादर्शना रखा गया।

3. महान् त्याग और ज्ञान प्राप्ति (Renunciation and Enlightenment)-गृहस्थी जीवन भी महावीर जी की धार्मिक रुचियों की राह में किसी तरह की अड़चन (रुकावट) न बन सका। अपने माता-पिता की मृत्यु हो जाने के बाद महावीर अपने बड़े भाई नंदीवर्मन से आज्ञा लेकर गृह त्याग्न कर जंगलों में ज्ञान की खोज के लिए चले गये। उस समय महावीर जी की आयु 30 वर्ष थी। उन्होंने 12 वर्षों तक बड़ा कठोर तप किया। अंततः उनको ऋजुपालिका नदी के नज़दीक जरिमबिक गाँव में कैवल्य ज्ञान (सर्वोच्च सत्य) प्राप्त हुआ। इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद वर्धमान जिन (इंद्रियों पर जीत प्राप्त करने वाला) और महावीर (महान् विजयी) कहलाये। ज्ञान प्राप्ति के समय महावीर जी की आयु 42 वर्ष थी।

4. धर्म प्रचार (Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर जी ने लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूंर करने के लिए और उनको सच्चा मार्ग बताने के लिए अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके उपदेशों से बहुत सारे लोग प्रभावित हुए और वे महावीर जी के अनुयायी बन गये। महावीर जी के प्रसिद्ध प्रचार केंद्र राजगृह, वैशाली, कौशल, मिथिला, विदेह और अंग थे। जैन परंपराओं के अनुसार मगध के शासक बिंबिसार और उसके पुत्र अजातशत्रु ने जैन मत को स्वीकार कर लिया।

5. निर्वाण (Nirvana)—स्वामी महावीर ने लगभग 30 वर्षों तक अपना प्रचार किया। 72 वर्ष की आयु में पावा (पटना) में 527 ई० पू० में उन्होंने निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त किया। उस समय महावीर जी के 14,000 अनुयायी थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 4.
जैन धर्म की बुनियाद नैतिक शिक्षाएँ हैं चर्चा करो।
(“Ethical teachings are the foundation of Jainism.” Discuss.)
अथवा
जैन धर्म की नैतिक शिक्षाओं के विषय में जानकारी दीजिए। (Describe the Ethical teachings of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म की बुनियादी शिक्षाओं के विषय में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दीजिए।
(Describe in brief but meaningful the basic teachings of Jainism.)
अथवा
“नैतिक मूल्य जैन धर्म का आधार हैं।” प्रकाश डालिए।
(“Moral values are the basis of Jainism.” Elucidate.)
अथवा
जैन सदाचार पर एक विस्तृत नोट लिखो।
(Write a detailed note on Jain Ethics. )
अथवा
जैन धर्म के सदाचारक गुणों संबंधी जानकारी दो। (Discuss the Ethical values of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाओं की चर्चा करो।
(Discuss the main teachings of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म की नैतिक शिक्षाओं संबंधी जानकारी दो। (Give information about moral teachings of Jainism.)
अथवा
भगवान् महावीर की नैतिक शिक्षाओं के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the Ethical teachings of Lord Mahavira.)
अथवा
जैन धर्म की शिक्षाओं के बारे में बताएँ।
(Write the teachings of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म की नैतिक कीमतों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Ethical values of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म की नैतिक शिक्षाओं के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss about the Ethical teachings of Jainism.)
अथवा
भगवान् महावीर की मूल शिक्षाओं के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the basic teachings of Lord Mahavira.)
अथवा
जैन धर्म की मुख्य सदाचारक कीमतें कौन-सी हैं ? प्रकाश डालें। (What were the main Ethical values of Jainism ? Elucidate.)
अथवा
जैन धर्म की सदाचारक शिक्षाओं के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the Ethical teachings of Jainism.)
उत्तर-
जैन धर्म की अथवा महावीर जी की मुख्य नैतिक शिक्षाओं ने भारतीय संस्कृति को एक ऐसी देन दी जिस पर हमें आज भी गर्व है। जैन धर्म ने लोगों को त्रि-रत्न, अहिंसा, शुद्ध आचरण और आपसी भाइचारे का पाठ पढ़ाया। इसने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। इसका यज्ञों, बलियों, वेदों और संस्कृत भाषा की पवित्रता में कोई विश्वास नहीं था। इसने मनुष्य को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। निस्संदेह जैन धर्म की नैतिक शिक्षाओं ने भारतीय समाज को एक नई दिशा देने का एक महान् कार्य किया।—

1. त्रि-रत्न (Tri-Ratna)-जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्त करना है। इसको प्राप्त करने के लिए जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए त्रि-रत्नों पर चलना अति ज़रूरी है। ये तीन रत्न हैं-सच्चा विश्वास, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार। पहले रत्न के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को 24 तीर्थंकरों, नौ सच्चाइयों और जैन शास्त्रों में अटल विश्वास होना चाहिए। दूसरे रत्नानुसार जैनियों को सच्चा और पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यह तीर्थंकरों के उपदेशों के गहरे अध्ययन से प्राप्त होता है। इस ज्ञान के दो रूप बताये गये हैं जिनको प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। आत्मा द्वारा प्राप्त ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं और वह ज्ञान जो इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होता है उसको परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान की पाँच किस्में हैं, जिनके नाम इस तरह हैं-मति ज्ञान, श्रुति ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनपर्याय ज्ञान और केवल्य ज्ञान। तीसरे रत्नानुसार प्रत्येक व्यक्ति को सच्चे आचार के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। सच्चा आचार वह है जिसकी शिक्षा जैन धर्म देता है। ये तीनों रत्न साथ-साथ चलते हैं। इनमें से किसी एक की अनुपस्थिति मनुष्य को उसकी मंजिल तक नहीं पहुँचा सकती। उदाहरण के तौर पर जैसे एक दीये को प्रकाश देने के लिए उसमें तेल, बाती और आग का होना ज़रूरी है। यदि इसमें से एक भी वस्तु की कमी हो तो वह प्रकाश नहीं दे सकता।

2. अहिंसा (Ahimsa)-जैन धर्म में अहिंसा पर बहुत जोर दिया गया है। अहिंसा की महत्ता बताते हुए आचारांग सूत्र में कहा गया है, “सभी को अपना-अपना जीवन प्यारा है, सब ही सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता, अधिक कोई नहीं चाहता, सब को जीवन प्यारा है और सारे ही जीने की इच्छा रखते हैं।” इसीलिए जो हमारे लिए सुखमयी है वह दूसरों के लिए भी सुखमयी है। हिंसा दो तरह की होती है-मन से हिंसा और कर्म से हिंसा। कर्म अथवा अमल में आने वाली हिंसा से पहले मन भाव विचारों में हिंसा आती है। गुस्सा, अहंकार, लालच और धोखा मन की हिंसा है। इसलिए हिंसा से बचने के लिए मन के विचारों को शुद्ध करना अति ज़रूरी है। जैन धर्म के अनुसार मनुष्यों के अतिरिक्त पशुओं, पत्थरों और वृक्षों आदि में भी आत्मा निवास करती है। इसलिए हमें किसी जीव या निर्जीव को कष्ट नहीं देना चाहिए। इसी कारण जैनी लोग नंगे पाँव चलते हैं, मुँह पर पट्टी बाँधते हैं, पानी छान कर पीते हैं और अंधेरा हो जाने के बाद कुछ नहीं खाते ताकि किसी जीव की हत्या न हो जाये। बी० एन० लूनीया के अनुसार,
“अहिंसा जैन धर्म की आधारशिला है।”1

3. नौ सच्चाइयाँ (Nine Truths)-जैन दर्शन नौ सच्चाइयों की शिक्षा देता है। ये सच्चाइयाँ हैं(1) जीव-जैन दर्शन में आत्मा को जीव कहा गया है। यह चेतन सुरूप है। यह शरीर के कर्मों के अच्छे-बुरे फल भुगतता है और आवागमन के चक्र में पड़ता है। (2) अजीव-यह जंतु पदार्थ है। यह निर्जीव है और इनमें समझ नहीं होती। इनकी दो श्रेणियाँ हैं रूपी और अरूपी। (3) पुण्य-यह अच्छे कर्मों का नतीजा है। इसके नौ साधन हैं। (4) पाप-यह जीव के बंधन का मुख्य कारण है। इसके परिणामस्वरूप घोर सज़ायें मिलती हैं। (5) अशर्व-यह वह प्रक्रिया है जिसके अनुसार आत्मा अपने अंदर कर्मों को संचित करती रहती है। कर्म 8 किस्मों के होते हैं। (6) संवर-कर्म को आत्मा की ओर आने की क्रिया को रोकने को संवर कहते हैं। कर्म को रोकने की 57 विधियाँ हैं। (7) बंध-इससे भाव बंधन है। यह जीव (आत्मा) का पुदगल (परमाणु) से मेल है। बंध के लिए पाँच कारण जिम्मेवार हैं। (8) निर्जर-इस से भाव है दूर भगाना। यह कर्मों को नष्ट करने और जला देने का कार्य करता है। (9) मोक्ष-इसमें जीव कर्मों के जंजाल से मुक्त हो जाता है। यह पूर्ण शाँति की अवस्था है जिसमें हर तरह के दुःखों से छुटकारा प्राप्त हो जाता है।

4. कर्म सिद्धांत (Karma Theory)-जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस सिद्धांत के अनुसार, “जैसा करोगे वैसा भरोगे, जैसे बीजोगे वैसा काटोगे, यदि कर्म अच्छे होंगे तो अच्छा फल मिलेगा, बुरा करोगे तो बुरा होगा, किसी भी स्थिति में कर्मों से छुटकारा नहीं मिलेगा।” जैसे ही हमारे मन में कोई अच्छा या बुरा विचार आता है वह तुरंत जीव (आत्मा) से उसी तरह जुड़ जाता है, जैसे तेल लगे हुए शरीर में धूलि कण चिपक जाते हैं। ये कर्म आठ प्रकार के हैं-(1) ज्ञानवर्णीय कर्म-यह आत्मा के ज्ञान को रोकते हैं। (2) दर्शनवर्णीय कर्म-यह आत्मा की इच्छा शक्ति को रोकते हैं। (3) वैदनीय कर्म-ये सुख-दुःख उत्पन्न करने वाले कर्म हैं। (4) मोहनीय कर्म-ये आत्मा को मोह माया में फंसाने वाले कर्म हैं। (5) आयु कर्मये कर्म मनुष्य की आय को निर्धारित करते हैं। (6) नाम कर्म-ये कर्म मनुष्य की आय को निर्धारित करते हैं। (7) गोत्र कर्म-ये व्यक्ति के गोत्र और समाज में उसके ऊँचे या नीचे स्थान को निर्धारित करते हैं। (8) अंतरीय कर्म-ये अच्छे कर्म को रोकने वाले कर्म हैं।
कर्मों के कारण मनुष्य आवागमन के चक्रों में फंसा रहता है। कर्मों का नाश करके ही मनुष्य इससे छुटकारा प्राप्त कर सकता है।

5. अनेकांतवाद (The Doctrine of Manyness)-अनेकांतवाद जैन दर्शन का एक अनोखा दार्शनिक सिद्धांत है। अनेकांत शब्द किसी भी पदार्थ के अनेक धर्मों या गुणों का संकेत करता है। इसका भाव यह है कि जिस वस्तु का ज्ञान हमें जिस रूप में होता है, उसी वस्तु का ज्ञान किसी अन्य व्यक्ति को किसी और रूप में हो सकता है। उदाहरणतया जैसे एक बच्चे को उसकी माँ पुत्र समझती है, बहन भाई समझती है, दादी पोता समझती है, नानी दोहता समझती है और बच्चे उसको अपना मित्र समझते हैं। कहने से.भाव यह है कि हर पदार्थ अनेकांत या अनेक गुणों वाला है। इसी कारण हर पदार्थ के बारे में हमारा ज्ञान आंशिक होता है। इसको स्यादवाद कहा जाता है। यह अनेकांतवाद का दूसरा रूप है।

6. पाँच अणुव्रत अथवा महाव्रत (Five Annuvartas or Mahavartas)-जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन में पाँच अणुव्रतों अथवा महाव्रतों की पालना करनी चाहिए। इनके अनुसार (i) मनुष्य को सदा अहिंसा की नीति पर चलना चाहिए। (ii) उसको हमेशा सत्य बोलना चाहिए। (iii) उसको कोई भी ऐसी वस्तु अपने पास नहीं रखनी चाहिए जो उसको दान में प्राप्त न हुई हो। (iv) उसको अपने पास धन नहीं रखना चाहिए। (v) उसको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
इनमें से पहले चार सिद्धांतों का प्रचलन पार्श्वनाथ ने किया जबकि पाँचवां सिद्धांत महावीर जी ने शामिल किया। डॉक्टर के० सी० सौगानी के अनुसार,
“इन पाँच अणुव्रतों का पालन व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति लाने में सहायक है।’2

7. शुद्ध आचरण (Good Character) स्वामी महावीर ने शुद्ध आचरण को विशेष महत्त्व दिया। उन्होंने कहा कि हमें चोरी, झूठ, चुगली, लालच आदि बुराइयों से दूर रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। मनुष्य को पापी से नहीं, बल्कि पाप से नफरत करनी चाहिए।

8. चौबीस तीर्थंकरों की पूजा (Worship of Twenty Four Tirthankaras) जैन धर्म को मानने वाले अपने 24 तीर्थंकरों को देवते मान कर उनकी पूजा करते हैं। उनका विश्वास है कि तीर्थंकरों में पक्का विश्वास रखने से मनुष्य को निर्वाण की प्राप्ति होती है।

9. समानता में विश्वास (Belief in Equality)-जैन धर्म समानता के सिद्धांत में विश्वास रखता है। इसके अनुसार सारे मनुष्य बराबर हैं। इसलिए मनुष्यों को अमीर-गरीब, ऊँच-नीच आदि का भेदभाव नहीं करना चाहिए।

10. यज्ञों, बलियों आदि में अविश्वास (Disbelief in Yajnas and Sacrifices etc.)—जैन धर्म यज्ञों, बलियों और अन्य झूठे रीति-रिवाजों को एक अन्य ढोंग मात्र ही बताता है। उनके अनुसार कोई भी मनुष्य धर्म के बाह्य दिखावे से निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए जैन धर्म के लोगों को इन अंध-विश्वासों से दूर रहने को कहा।

11. वेदों और संस्कृत भाषा में अविश्वास (Disbelief in Vedas and Sanskrit Language)-स्वामी महावीर जी हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ-वेदों में कोई विश्वास नहीं रखते थे। उनका कहना था कि वेदों की रचना ईश्वरीय ज्ञान से नहीं हुई। इसलिए वेदों के मंत्रों को पढ़ना बिल्कुल व्यर्थ है। वह संस्कृत भाषा की पवित्रता में भी विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने सारी भाषाओं को पवित्र माना। उन्होंने अपने उपदेशों का प्रचार उस समय में प्रचलित अर्धमगधी भाषा में किया।

12. ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)-जैन धर्म ईश्वर की उपस्थिति में विश्वास नहीं रखता है। इसके अनुसार ईश्वर संसार की रचना, इसकी पालना और समाप्ति करने वाला नहीं है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए ईश्वर की कोई जरूरत नहीं है। मनुष्य की आत्मा ही उसकी महान् शक्ति है। मनुष्य सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करके निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।

13. निर्वाण (Nirvana) ‘महावीर जी के अनुसार मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है। जैनमत में निर्वाण से भाव आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है। निर्वाण प्राप्ति के बाद मनुष्य का इस संसार में जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है और उसको स्थाई शाँति मिलती है।

1. “Ahimsa is the sheet anchor of Jainism.” B.N. Luniya, Life and Culture in Ancient India (Agra : 1982) p. 162.
2. “The observance of these five vows is capable of bringing about individual as well as social progress.” Dr. K.C. Sogani, Jainism (Patiala : 1986) p. 65.

प्रश्न 5.
भगवान् महावीर का जीवन तथा प्रसिद्ध शिक्षाएँ बताएँ।
(Describe the life and important teachings of Bhagwan Mahavira.)
उत्तर-
जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं। 24वें तीर्थंकर स्वामी महावीर के जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. महावीर का जन्म और बचपन (Birth and Childhood of Mahavira)- महावीर का जन्म 599 ई० पू० वैशाली (बिहार) के नज़दीक कुंडग्राम में हुआ। कुछ इतिहासकार उनकी जन्म तिथि 540 ई० पू० बताते हैं। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। महावीर जी के पिता जी का नाम सिद्धार्थ था और वह एक क्षत्रिय कबीले जनत्रिका के मुखिया थे। महावीर जी की माता जी का नाम तृषला था। वह लिच्छवी वंश के शासक चेटक की बहन थी। भगवान् महावीर के जन्म से पूर्व उसे 14 स्वप्न आए थे। महावीर को शिक्षा देने के लिए विशेष प्रबंध किये गये थे। महावीर जी का बचपन से ही सांसारिक वस्तुओं से कोई लगाव नहीं था। वह अपने ही विचारों में डूबे रहते थे।

2. विवाह (Marriage)—सांसारिक कार्यों की ओर महावीर जी का ध्यान लगाने के लिए उनके पिता जी ने महावीर का विवाह एक सुंदर राजकुमारी यशोदा से कर दिया। विवाह के समय महावीर जी की आयु कितनी थी इसके बारे हमें कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है। कुछ समय पश्चात् महावीर जी के घर एक पुत्री ने जन्म लिया। उसका नाम प्रियादर्शना रखा गया।

3. महान् त्याग और ज्ञान प्राप्ति (Renunciation and Enlightenment)-गृहस्थी जीवन भी महावीर जी की धार्मिक रुचियों की राह में किसी तरह की अड़चन (रुकावट) न बन सका। अपने माता-पिता की मृत्यु हो जाने के बाद महावीर अपने बड़े भाई नंदीवर्मन से आज्ञा लेकर गृह त्याग्न कर जंगलों में ज्ञान की खोज के लिए चले गये। उस समय महावीर जी की आयु 30 वर्ष थी। उन्होंने 12 वर्षों तक बड़ा कठोर तप किया। अंततः उनको ऋजुपालिका नदी के नज़दीक जरिमबिक गाँव में कैवल्य ज्ञान (सर्वोच्च सत्य) प्राप्त हुआ। इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद वर्धमान जिन (इंद्रियों पर जीत प्राप्त करने वाला) और महावीर (महान् विजयी) कहलाये। ज्ञान प्राप्ति के समय महावीर जी की आयु 42 वर्ष थी।

4. धर्म प्रचार (Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर जी ने लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूंर करने के लिए और उनको सच्चा मार्ग बताने के लिए अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके उपदेशों से बहुत सारे लोग प्रभावित हुए और वे महावीर जी के अनुयायी बन गये। महावीर जी के प्रसिद्ध प्रचार केंद्र राजगृह, वैशाली, कौशल, मिथिला, विदेह और अंग थे। जैन परंपराओं के अनुसार मगध के शासक बिंबिसार और उसके पुत्र अजातशत्रु ने जैन मत को स्वीकार कर लिया।

5. निर्वाण (Nirvana)—स्वामी महावीर ने लगभग 30 वर्षों तक अपना प्रचार किया। 72 वर्ष की आयु में पावा (पटना) में 527 ई० पू० में उन्होंने निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त किया। उस समय महावीर जी के 14,000 अनुयायी थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 6.
जैन धर्म में त्रि-रत्न से क्या अभिप्राय है ? चर्चा करें।
(What is meant by three Jewels in Jainism ? Discuss.)
अथवा
‘त्रि-रत्न’ की व्याख्या करो और बताओ कि यह किस धर्म से संबंधित है ? (Explain Tri-Ratna and tell to which religion, do they belong.)
अथवा
जैन मत के तीन हीरों की व्याख्या करें।
(Explain the three Jewels of Jainism.).
अथवा
जैन धर्म के त्रि-रत्नों के बारे में चर्चा करो।
(Discuss the Tri-Ratnas of Jainism.)
उत्तर-
जैन दर्शन के सिद्धांतों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पहले जीव (आत्मा) शुद्ध रूप में होता है। बाद में यह कार्मिक पदार्थों के कारण दूषित हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को घोर दुःखों का सामना करना पड़ता है। यदि कार्मिक पदार्थों का नाश कर दिया जाये तो व्यक्ति इस भवसागर से पार उतर सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जैन दर्शन मोक्ष प्राप्ति को मनुष्य के जीवन का सबसे ऊँचा उद्देश्य मानता है। कोई भी व्यक्ति बिना किसी जाति, लिंग, धर्म, वर्ग या आयु पर इस मार्ग पर चल सकता है। इस मार्ग पर चलने के लिए जैन धर्म में त्रि-रत्न निर्धारित किये गये हैं। ये त्रि-रत्न हैं-(1) सच्चा विश्वास (2) सच्चा ज्ञान (3) सच्चा आचार। ये त्रि-रत्न मोक्ष प्राप्ति के तीन भिन्न-भिन्न मार्ग नहीं हैं, बल्कि एक मार्ग के तीन साथ-साथ चलने वाले रास्ते हैं। यदि इनमें से एक की भी कमी हो तो व्यक्ति अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। उदाहरण के तौर पर यदि किसी व्यक्ति ने अपने मकान की छत पर जाना हो तो उसको सीढ़ी लगानी पड़ेगी और यदि इस सीढ़ी के सिरे पर लगे दो और बीच में लगे डंडों में से एक चीज़ की भी कमी हो तो व्यक्ति किसी भी स्थिति में ऊपर नहीं पहुँच सकता। त्रि-रत्नों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित है—

1. सच्चा विश्वास (Right Belief)-जैन दर्शन के त्रि-रत्नों में सच्चा विश्वास नामक रत्न को पहला अथवा प्रमुख स्थान दिया गया है। क्योंकि यदि व्यक्ति में सच्चा विश्वास न हो तो वह सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार कभी प्राप्त नहीं कर सकता। सच्चा विश्वास से भाव यह है कि जो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उसे 24 जैन तीर्थंकरों, नौ महान् सच्चाइयों और जैन शास्त्रों में पक्की श्रद्धा होनी चाहिए। जैन शास्त्रों के अनुसार सच्चा विश्वास तभी पूरा हो सकता है यदि संबंधित व्यक्ति 8 अंगों को धारण करे। ये 8 अंग हैं—

  • जैन धर्म के सिद्धांतों के बारे कोई शंका नहीं होनी चाहिए।
  • सांसारिक वस्तुओं से कोई प्यार नहीं होना चाहिए।
  • शरीर में चाहे अनगिनत बुराइयाँ हैं, परंतु इसके प्रति कोई तिरस्कार की भावना नहीं होनी चाहिए।
  • गलत मार्ग की ओर कोई झुकाव नहीं होना चाहिए।
  • पवित्र व्यक्तियों की प्रशंसा की जानी चाहिए, परंतु दूसरे व्यक्तियों की निंदा नहीं की जानी चाहिए।
  • जो व्यक्ति धर्म की राह से भटक गये हों उनको ठीक मार्ग दर्शाना चाहिए।
  • धार्मिक व्यक्तियों का पूरा आदर किया जाना चाहिए।
  • जैन सिद्धांतों के प्रचार के लिए पूरे यत्न करने चाहिए।

सच्चा विश्वास किसी भी व्यक्ति द्वारा तब ही प्राप्त किया जा सकता है यदि वह तीन प्रकार के अंध-विश्वासों और आठ प्रकार के घमंडों से दूर रहे। तीन तरह के अंध-विश्वास ये हैं—

  • पहाड़ पर चढ़कर, नदी में नहाकर या आग पर चल कर अपने आप को पवित्र समझना।
  • झूठे देवी-देवताओं में विश्वास करना।
  • झूठे तपस्वियों का सत्कार करना।

आठ प्रकार के घमंड ये हैं—

  • ज्ञान का घमंड
  • पूजा का घमंड
  • परिवार का घमंड
  • जाति का घमंड
  • शक्ति का घमंड
  • दौलत का घमंड
  • तप का घमंड
  • सुंदर शरीर का घमंड।

सच्चा विश्वास हमारे लिए समृद्धि तथा मोक्ष का आधार तैयार करता है।

2. सच्चा ज्ञान (Right Knowledge)-सच्चा विश्वास ही सच्चे ज्ञान की आधारशिला है। इस कारण सच्चा विश्वास और सच्चे ज्ञान के मध्य गहरा संबंध है। सच्चा ज्ञान वह है जो जैन शास्त्रों में दिया गया है। जो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करना चाहता है उसके लिए सच्चे ज्ञान को प्राप्त करना अति ज़रूरी है। यह ज्ञान बाहर से नहीं आता बल्कि जीव पर पड़े कर्म पदार्थों के पर्दे को दूर हटाने से उत्पन्न हो जाता है। इस ज्ञान के दो रूप बताये गये हैं जिनको प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। वह ज्ञान जो आत्मा द्वारा सीधा प्राप्त किया जाता है प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है और वह ज्ञान जो इंद्रियों के रास्ते से प्राप्त होता है परोक्ष ज्ञान कहलाता है।
जैनी ज्ञान को पाँच तरह का बताते हैं—

  • मति ज्ञान-यह ज्ञान इंद्रियों द्वारा प्राप्त किया जाता है और यह सीमित होता है।
  • श्रुती ज्ञान-यह ज्ञान शास्त्रों को पढ़ने और या सुनने से प्राप्त होता है। इससे भूत, वर्तमान और भविष्य संबंधी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यह ज्ञान भी इंद्रियों के द्वारा जाना जा सकता है।
  • अवधि ज्ञान-दूर के समय या स्थान के बारे जो ज्ञान आत्मा के द्वारा होता है उसको अवधि ज्ञान कहते हैं।
  • मनपर्याय ज्ञान-यह वह ज्ञान है जिस द्वारा व्यक्ति किसी दूसरे के मन के विचारों को जान सकता है। यह ज्ञान भी आत्मा द्वारा होता है।
  • कैवल्य ज्ञान-यह पूर्ण सच्चा ज्ञान है। इसको परमार्थिक ज्ञान भी कहा जाता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति को सिद्ध कहा जाता है।

ज्ञान दोष तीन तरह से पैदा होता है—

  • इंद्रियों की गलती के कारण।
  • गलत अध्ययन के कारण।
  • अस्पष्ट दृष्टिकोण के कारण।

जैसे दूध की भारी मात्रा में थोड़ा-सा खट्टा डाल दिया जाये तो वह सारे दूध को खट्टा कर देता है। ठीक उसी तरह यदि व्यक्ति द्वारा प्राप्त ज्ञान में थोड़ा-सा भी दोष आ जाये तो वह सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।

3. सच्चा आचार (Right Conduct)-मोक्ष को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के लिए सच्चा विश्वास और सच्चा ज्ञान होने के बाद सच्चा आचार का होना अति ज़रूरी है। व्यक्ति का सच्चा आचार ही जीव के कार्मिक पदार्थों का नाश करता है और उसके लिए मोक्ष का मार्ग तैयार करता है। सच्चे आचार पर चलने के लिए जैन धर्म में कुछ नियम निर्धारित किये गये हैं। ये नियम यद्यपि समान रूप में आम लोगों और जैन मुनियों पर लागू होते हैं परंतु उन पर सख्ती का अंतर है । जैन मुनियों को इन नियमों की सख्ती से पालना करनी पड़ती है जबकि आम लोगों को कुछ छूट दी गई है। इन नियमों को पाँच महाव्रत या पाँच अणुव्रत कहा जाता है इनके अनुसार—

  • मनुष्य को कभी किसी जीव को दु:ख नहीं देना चाहिए और उसको अहिंसा की नीति पर चलना चाहिए।
  • उसको सदा सत्य बोलना चाहिए। उसके बोल मीठे और हितकारी होने चाहिए।
  • उसको कोई भी ऐसी वस्तु अपने पास नहीं रखनी चाहिए जो उसको दान में प्राप्त न हुई हो।
  • उसको सांसारिक वस्तुओं से मोह नहीं करना चाहिए।
  • उसको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

ऊपरलिखित त्रि-रत्नों पर चलने के कारण जीव के कर्म पदार्थ धीरे-धीरे नष्ट होने शुरू हो जाते हैं और वह अपने परम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त करता है। अंत में हम प्रसिद्ध लेखक जे० पी० सुधा के इन शब्दों से सहमत हैं,
“जैनियों के अनुसार सच्चा विश्वास, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार जो त्रि-रत्नों के तौर पर जाने जाते हैं उस मार्ग का निर्धारण करते हैं जो जीव अपने अंदर कार्मिक पदार्थों को आने से रोकते हैं और व्यक्ति को आवागमन के बंधनों से मुक्त करते हैं।”3

3. “According to the three jewels of right faith, right knowledge and right conduct, known as Triratna constitute the path which prevents fresh Karmic matter from entering the soul and frees the individual from the bonds of rebirth.” J.P. Sudha, Religions in India (New Delhi : 1978) p. 211.

प्रश्न 7.
जैन धर्म में अहिंसा पर नोट लिखें। (Write a note on Ahimsa (non-violence) of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत के बारे में प्रकाश डालें।
(Throw light on the Jain principle of Ahimsa.)
अथवा
अहिंसा से क्या भाव है ? जैन धर्म में इसका क्या महत्त्व है ? (What is meant by Ahimsa ? What is its importance in Jainism ?)
अथवा
जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत पर नोट लिखें।
(Write a note on the concept of Ahimsa in Jainism.)
उत्तर-
1. अहिंसा से अभिप्राय (Meaning of Ahimsa)-जैन धर्म में अहिंसा की नीति को जितना महत्त्व दिया गया है उतना विश्व के किसी अन्य धर्म में नहीं दिया गया। यदि अहिंसा को जैन धर्म की आधारशिला कह दिया तो इसमें कोई अतिकथनी नहीं होगी। अहिंसा से अभिप्राय है किसी भी जीवित चीज़ को कोई कष्ट न देना। जीवित जीवों को कस के बाँधने, उनको मारने-पीटने, उनकी हिम्मत से अधिक भार जोतने, उनको खुराक और पानी से वंचित रखने में जैन धर्म में मनाही है। इनके अतिरिक्त उनको अपने भोजन के लिए मारना बिल्कुल अनुचित है।
जैन दर्शन के अनुसार वृक्षों और पत्थरों आदि में भी जान होती है। इसलिए हमें उनको भी किसी किस्म का दु:ख नहीं देना चाहिए। आचारांग सूत्र में कहा गया है, “सभी को अपना जीवन प्यारा है, सभी सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता, अधिक कोई नहीं चाहता, सब को जीवन प्यारा है और सभी जीने की इच्छा रखते हैं।” इसलिए जो हमारे लिए सुखमयी है वह दूसरों के लिए भी सुखमयी है।

2. दो प्रकार की हिंसा (Two types of Ahimsa)-हिंसा दो प्रकार की होती है-विचार या मन से हिंसा और कर्म से भाव शारीरिक और बाहरी हिंसा। बाहरी हिंसा के व्यवहार में आने से पहले मनुष्य के विचारों में हिंसा आती है। जब मनुष्य के मन में आवेग उठते हैं और इन आवेगों के प्रति विचार उत्पन्न होते हैं तो व्यक्ति पाप करता है और हिंसा का दोषी बन जाता है। मनुष्य संसार के लालचों में फंसकर अपनी काम वासना को पूरा करने के लिए , किसी को धोखा देने के लिए, किसी से अपना बदला लेने के लिए हिंसा करता है। जब इससे संबंधित विचार व्यक्ति के मन में आते हैं तो वह पहले अपनी आत्मा को दूषित करता है। वह यहाँ ही बस नहीं करता और बाद में बाहरी हिंसा के द्वारा दूसरों को दुःख पहुँचाता है और स्वयं भी दुःखी होता है। हिंसा को रोकने के लिए व्यक्ति का अपने विचारों को शुद्ध करना ज़रूरी है। महावीर ने अपने शिष्यों को शिक्षा देते हुए कहा, “हे श्रमणो, पहले अपने आप से युद्ध करो और आत्म शुद्धि की ओर कदम बढ़ाओ। बाहरी युद्ध से कुछ नहीं होगा।”

3. अहिंसा जीवन का एक मार्ग (Ahimsa is a way of Life)-जैन दर्शन में अहिंसा को जीवन का एक मार्ग कहा गया है। किसी भी व्यक्ति द्वारा अहिंसा के प्रति प्रतिज्ञा का पूरी तरह पालन तभी संभव है यदि उसको हिंसा की किस्मों और रूपों के बारे में पूर्ण ज्ञान हो। जैनी सूत्रों में 108 प्रकार की हिंसा का वर्णन मिलता है जिन्हें चार वर्गों में बाँटा जा सकता है। पहले वर्ग में हिंसा तीन स्तर की है। हिंसा व्यक्ति स्वयं कर सकता है, यह दूसरों से करवाई जा सकती है और यह उसकी अपनी सहमति के द्वारा की जा सकती है। व्यक्ति मन, वाणी और शरीर द्वारा हिंसा कर सकता है। दूसरे वर्ग में तीन स्तरीय हिंसा नौ स्तरीय बन जाती है क्योंकि यह मन, वाणी और शरीर रूपी तीन साधनों में प्रत्येक साधन द्वारा की जा सकती है। तीसरे वर्ग में नौ स्तरीय हिंसा सताईस स्तरीय बन जाती है क्योंकि हिंसा की तीन स्थितियाँ हैं, भाव हिंसा के बारे में सोचना, हिंसा के लिए तैयारी करना और फिर उस को व्यावहारिक रूप देना। चौथे वर्ग में सत्ताईस स्तरीय हिंसा 108 स्तरीय हिंसा बन जाती है क्योंकि यह चार मनोवेगों में से किसी न किसी से उत्तेजित होती है।

4. हिंसा से बचने के साधन (Ways to Escape Ahimsa)-हिंसा के सभी रूपों में किसी से बचना आसान नहीं है। फिर भी जैनी अपने जीवन में इनसे बचने के लिए अनेक नियमों का पालन करते हैं। वे नंगे पाँव चलते हैं ताकि कोई कीड़ा उनके पाँवों के नीचे आकर मर न जाये। वे मुँह पर पट्टी बाँध कर रखते हैं ताकि कोई कीटपतंगा सांस से उनके अंदर न चला जाए। इस उद्देश्य से वे पानी छान कर पीते हैं और सूर्य ढलने के बाद भोजन नहीं करते। जैनी ज्यादातर व्यापार का धंधा करते हैं और खेतीबाड़ी बिल्कुल नहीं करते क्योंकि उनका विचार है कि खेतीबाड़ी करते समय अनेक जीवों की हत्या हो जाती है।
जैन धर्म में व्यक्ति के मन में हिंसा के विचारों को उभरने से रोकने के लिए शराब और दूसरी नशीली वस्तुओं के सेवन, माँस खाने और युद्ध करने की मनाही है। नशीली वस्तुओं का प्रयोग करने से हमारे अंदर काम वासना और अन्य कई वासनाएँ उत्तेजित होती हैं। इनसे पाप की भावना और हिंसा उत्पन्न होती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति लापरवाही में ही हिंसा कर देता है। माँस का प्रयोग करने पर इसलिए पाबंदी लगाई गई है ताकि मनुष्य पशुओं और पक्षियों को अपने भोजन के लिए न मारे और न ही वह हिंसा का भागीदार बने। युद्ध के दौरान व्यक्ति अपने दुश्मनों को मार कर बहुत बहादुरी का काम समझता है परंतु जैन दर्शन के अनुसार किसी भी व्यक्ति को मारना बिल्कुल अयोग्य है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

ऊपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि जैन धर्म में अन्य नियमों के मुकाबले अहिंसा के सिद्धांत पर अधिक बल दिया गया है। डॉक्टर ज्योति प्रसाद जैन का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“अहिंसा का जीवन सारी नैतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बुराइयों का राम बाण इलाज है। अहिंसा सर्वोच्च धर्म है और जहाँ अहिंसा है वहाँ जीत है।”4

4. “The Ahimstic way of life is the sure panacea for all moral, social, economic and political ills. Ahimsa is the highest religion, and where there is Ahimsa, there is victory.” Dr. Jyoti Prasad Jain, Religion and Culture of the Jains (New Delhi : 1983) p. 101.

प्रश्न 8.
जैन धर्म की नौ सच्चाइयों से क्या भाव है ? इनका संक्षेप वर्णन करो। (What is meant by Nine Truths of Jainism ? Explain briefly.)
अथवा
जैन धर्म के नौ तत्त्व कौन से हैं ? चर्चा करें।
(Which are the nine tatvas in Jainism ? Discuss.)
अथवा
जैन धर्म के नौ तथ्यों पर एक नोट लिखो।
(Write a note on nine tatvas of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म के नौ तत्त्वों से हमें क्या शिक्षा मिलती है ?
(What do we learn from nine tatvas of Jainism ?)
अथवा
जैन धर्म के नौ रत्नों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Nine Rattans of Jainism.)
उत्तर-
नौ सच्चाइयों अथवा तत्त्वों को जैन दर्शन में केंद्रीय स्थान प्राप्त है। वह व्यक्ति जो निर्वाण प्राप्त करने का चाहवान है उसके लिए इन नौ सच्चाइयों के बारे जानकारी होना अति जरूरी है। ये नौ सच्चाइयाँ हैं—
(i) जीव
(ii) अजीव
(iii) पुण्य ”
(iv) पाप
(v) आश्रव
(vi) बंध
(vii) संवर
(viii) निर्जर
(ix) मोक्ष।

दिगंबर संप्रदाय के अनुसार सात सच्चाइयाँ हैं । वे पाप और पुण्य को अलग नहीं मानते। उनके अनुसार ये अश्रव और बंध में शामिल हैं। इन सच्चाइयों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. जीव (Jiva)-जीव शब्द का अर्थ है आत्मा। यह चेतन तथ्य है। जैन दर्शन में जीव दो प्रकार के हैं। इनको सांसारिक जीव और मुक्त जीव कहा जाता है। सांसारिक जीव को बंधन जीव भी कहते हैं। यह जीव आवागमन के चक्र में रहता है और अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेता है और अपने अच्छे बुरे फल भुगतता है। मुक्त जीव वह जीव है जो पुनर्जन्म से रहित है। यह जीव अनंत ज्ञान वाला, अनंत शक्ति वाला और अनंत गुणों वाला होता है। यह जीव कर्मों के जाल से मुक्त होता है।

2. अजीव (Ajiva)-अजीव से भाव उन जड़ पदार्थों से है जिनमें चेतना नहीं होती जैसे पुस्तक, कागज़, मेज़ और स्याही आदि। उदाहरण के तौर पर ऊँट के शरीर में जीव फैल कर ऊँट जितना बड़ा हो जाता है और कीड़ी के शरीर में सिकुड़ कर कीड़ी जितना हो जाता है। यह जीव तब नहीं दिखाई देता है परंतु शरीर की क्रियाओं के आधार पर इसकी उपस्थिति का ज्ञान हो जाता है। परंतु जब शरीर का अंत हो जाता है तो जीव लोप हो जाता है। जीव जिस शरीर को धारण करता है वह उस के आकार का ही हो जाता है। अजीव दो प्रकार के होते हैं रूपी और अरूपी । रूपी वह हैं जो दिखाई देते हैं जैसे कुर्सी, पैन, घड़ा आदि। अरूपी वह हैं जो दिखाई नहीं देते जैसे समय, चिंता और खुशी आदि। जैन दर्शन में अजीवों के पाँच अचेतन तत्त्व बताए गए हैं। इनका संक्षेप वर्णन निम्नलिखित है

  • पुदगल (Pudgala)-पुदगल से भाव पदार्थ या परमाणु है। यह पुदगल रूप, स्पर्श, रस और गंध-चार गुणों वाले होते हैं। अग्नि के पुदगल रूप गुण वाले, वायु के पुदगल स्पर्श गुण वाले, जल के पुदगल रस गुण वाले और पृथ्वी के पुदगल गंध गुण वाले होते हैं। पुदगलों के दो रूप माने गए हैं-अणु रूप वाले और स्कंध रूप वाले। अणु रूप वाले पुदगल जीवों के भोग के लायक नहीं होते हैं जबकि स्कंध रूप वाले होते हैं। पुदगलों को सारे भौतिक जगत् की रचना का मूल आधार माना जाता है।
  • धर्म (Dharma) यह तत्त्व जीव और पुदगलों में गति पैदा करता है और उनके आपसी सहयोग में सहायक माना जाता है। जैसे मछली की गति के लिए पानी की ज़रूरत अति आवश्यक है ठीक उसी प्रकार जीवों और पुदगलों की गति के लिए धर्म की ज़रूरत अति आवश्यक है। धर्म के बिना गति पैदा नहीं हो सकती।
  • अधर्म (Adharma)-इसका स्वरूप और कार्य धर्म से बिल्कुल उल्ट है। यह जीवों की ओर पुदगलों की गति में रुकावट पैदा करता है। परंतु अधर्म को धर्म का विरोधी नहीं समझा जाता। अधर्म के द्वारा गति में पाई गई रुकावट जीव के आराम के लिए सहायक मानी गई है।
  • आकाश (Akasha)-आकाश से भाव वह स्थान है जिसमें जीव, मुदगल, धर्म और अधर्म सारे विस्तार वाले तत्त्व रहते हैं। इन तत्त्वों के आधार पर ही आकाश की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार आकाश दो प्रकार के हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश उस आकाश को कहा गया है जिस भाग में भौतिक लोक की स्थिति है और उससे ऊपर जो आकाश है उसको अलोकाकाश कहा गया है।
  • काल (Kala)-काल से भाव समय है। यह विस्तार वाला तत्त्व नहीं है। इसकी उपस्थिति का ज्ञान अनुमान के द्वारा प्राप्त होता है। काल को जगत् के परिवर्तन का मूल कारण माना गया है। भूत, वर्तमान, भविष्य से काल का संबंध है। काल को आदि और अंत वाला तत्त्व कहा जाता है।

3. पुण्य (Punya)-पुण्य वह कर्म है जो अच्छे अमलों से कमाये जाते हैं। पुण्य कमाने के अलग-अलग ढंग हैं। भूखे को खाना देना, प्यासे को पानी पिलाना, नंगे को कपड़ा देना, हाथों से सेवा करनी, मीठा बोलना आदि पुण्य के काम हैं, पुण्य को मानने के 42 साधन हैं। अच्छी सेहत, आर्थिक समृद्धि, प्रसिद्धि, अच्छा वैवाहिक जीवन, अच्छे रिश्तेदारों और दोस्तों का मिलना, अच्छी पढ़ाई और उच्च पदवियों पर नियुक्ति आदि अच्छे पुण्यों का ही नतीजा है। पुण्य को आत्मा का सहायक माना जाता है क्योंकि इससे खुशी प्राप्त होती है।

4. पाप (Papa)-पाप को जीव के बंधन का मुख्य कारण माना जाता है। जीवों को मारना, झूठ, चोरी, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, धोखा, नशा और दुश्मनी आदि सब पापों के भार में वृद्धि करते हैं। पापियों को घोर सजाएँ . मिलती हैं। आपने देखा होगा कि एक ही घर में पैदा हुए दो सगे भाइयों के जीवन में भारी अंतर होता है। एक ऊँची पदवी पर सुशोभित होता है और उसको प्रसिद्धि प्राप्त होती है। दूसरा दर-दर की ठोकरें खाता फिरता है, चोरियाँ करता है और बदनामी कमाता है। ऐसा क्यों होता है ? जैन दर्शन के अनुसार ऐसा व्यक्ति के पुण्य और पाप कमाने का कारण होता है। पापी मनुष्य कभी भी सुखी नहीं हो सकता और उसको अपने जीवन में घोर संकट का सामना करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति की आत्मा भी तड़पती रहती है। जैन सूत्रों के अनुसार पापों के 82 अलग-अलग परिणाम निकलते हैं।

5. आशरव (Asrava) ब्रह्मांड में अनगिनत सूक्ष्म अणु (कार्मिक पदार्थ) घूमते रहते हैं जिनको आत्मा अपने अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार अपनी ओर खींचती है। इस अंदर आने की कारवाई को आश्व कहते हैं। मनुष्य के कर्म आत्मा में उसी तरह शामिल होते हैं जैसे एक सुराख के रास्ते से नाव में पानी। कर्म जीव के बंधन का एक मुख्य कारण है। कर्म जड़ हैं। इसलिए आप जीव में प्रवेश नहीं करते, वे मन, वचन और शरीर की सहायता से जीव में प्रवेश करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं शुभ और अशुभ। यदि शुभ कर्म जीव में प्रवेश होंगे तो उसको सुख की प्राप्ति होगी और यदि कर्म अशुभ होंगे तो जीव को कष्ट होगा। इसलिए कर्मों का शुभ अथवा अशुभ होना व्यक्ति की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है।

6. बंध (Bandha)-जब कर्म पदार्थ का पर्दा जीव के शुद्ध स्वरूप पर पड़ जाता है तो वह दूषित हो जाता है। यह जीव के बंधन का कारण बनता है। जैन दर्शन के अनुसार इस दिशा की ओर ले जाने वाले पाँच कारण हैं।

  • मिथ्या दर्शन-इससे भाव गलत विश्वास है।
  • आवृत्ति-इससे भाव है प्रतिज्ञा की कमी।
  • प्रसाद-इससे भाव है लापरवाही।
  • काश्य-इससे भाव है काम वासना।
  • योग-इससे भाव है शरीर, मन और बोल की प्रक्रिया।
    बंध चार प्रकार के हैं—
  • प्रकृति-जीव से जुड़े कर्म पदार्थों का स्वरूप।
  • स्थिति-कर्म पदार्थ जीव से कितने समय के लिए जुड़े हैं।
  • अनुभाग-कर्म पदार्थ सख्त चरित्र के हैं या नर्म चरित्र के। (घ) प्रदेश जीव-जीव से जुड़े कर्म पदार्थों में अणुओं की संख्या।
    कर्मों के जाल में फंस कर जीव का व्यावहारिक रूप नष्ट हो जाता है और वह बंधन में फंस जाता है। इस कारण वह बार-बार जन्म लेता है और शरीर रूपी कैद भोगता है।

7. संवर (Sanvara)—योग क्रिया के द्वारा कर्म पदार्थ जीव की ओर खींचे आते हैं। मोक्ष प्राप्त करने के लिए इस क्रिया को रोकना अति ज़रूरी है। इसको संवर कहते हैं। इसको आश्व निरोध भी कहते हैं, जिससे भाव है कर्मों का हमारे अंदर प्रवेश करने से रुक जाना। कर्म को रोकने की 57 विधियाँ हैं। इनमें आत्म संयम, शुभ विचार, लोभ, मोह, अहंकार, क्रोध और पापों से परहेज़ आदि शामिल हैं। इस कारण जीव के इर्द-गिर्द एक ऐसी ऊँची दीवार बन जाती है जिसके अंदर कर्म पदार्थों का दाखिल होना असंभव है। जैसे एक तालाब में जिस नाली के द्वारा पानी जा रहा है उसको रोकना संभव है ठीक उसी प्रकार कर्म पदार्थों को संवर के द्वारा जीव में प्रवेश करने से रोकना संभव है।

8. निर्जर (Nirjara)-निर्जर से भाव कर्म पदार्थों को जीव से दूर हटाना है। यह जीव के द्वारा संचित कर्मों को नष्ट करने का एक मुख्य साधन है। संवर द्वारा जीव में कर्मों के बढ़ने और प्रवेश को रोका जाता है। परंतु पुराने कर्मों को जिन का जीव के भीतर आश्व हो गया है निर्जर के द्वारा नाश किया जा सकता है। निर्जर में तपस्या शामिल है। तपस्या अग्नि की तरह कर्म पदार्थों के इकट्ठे हुए ढेर को जला कर राख कर देती है। इसी प्रकार जब जीव पर से कर्म पदार्थों का पड़ा पर्दा हट जाता है तो उसका शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। जैसे बिलौर के सामने काला कपड़ा रखने से वह काला नज़र आने लग जाता है। परंतु जब कपड़ा हटा लिया जाता है तो उसकी अपनी चमक दुबारा प्रकट हो जाती है।

9. मोक्ष (Moksha)-जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य मोक्ष अथवा निर्वाण को प्राप्त करना है। इसमें जीव कर्मों के सारे बंधनों से मुक्त हो जाता है। कर्मों की समाप्ति से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। इसलिए संवर और निर्जर आवश्यक है। कर्मों के बंधन को तोड़ने के लिए जैनी तीन सद्गुणों के पालन की सिफ़ारिश करते हैं, जिनको त्रि-रत्न कहा जाता है। ये हैं सच्चा विश्वास, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार। मोक्ष जीव की प्राप्ति की सर्वोच्च अवस्था है। जो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर लेता है उसको सिद्ध कहते हैं । सिद्ध पुरुष जन्म, मृत्यु, सुख और दुःख से दूर है। वह ब्रह्मांड में चिरंजीवी शाँति प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 9.
जैन धर्म के पाँच महाव्रतों के महत्त्व का उल्लेख करें। (Describe the importance of Five Mahavartas in Jainism.)
अथवा
जैन धर्म के पाँच महाव्रतों के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the Five Mahavartas of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म में पाँच महाव्रतों का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालिए।
(What is the importance of Five Mahavartas in Jainism ? Elucidate.)
अथवा
जैन धर्म के पाँच अणुव्रतों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the Five Anuvartas of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म के पाँच अणुव्रतों का क्या महत्व है ? प्रकाश डालें।
(What is the importance of Five Anuvartas of Jainism ? Elucidate.) ।
उत्तर-
जैन धर्म में पाँच महाव्रतों को विशेष स्थान प्राप्त है। इन नियमों की पालना करनी प्रत्येक जैनी के लिए आवश्यक है। ये नियम बहुत कठोर हैं। ये नियम जैन भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए बनाए गए थे। गृहस्थियों के लिए ये नियम इतने कठोर नहीं थे। इनके लिए बनाए गए नियमों को पाँच अणुव्रत (Five Anuvartas) कहा जाता है। इन पाँच महाव्रतों या अणुव्रतों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. अहिंसा (Ahimsa)-जैन धर्म में अहिंसा पर बहुत ज़ोर दिया गया है। अहिंसा की महत्ता बताते हुए आचारांग सूत्र में कहा गया है, “सभी को अपना-अपना जीवन प्यारा है सब ही सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता, अधिक कोई नहीं चाहता, सब को जीवन प्यारा है और सारे ही जीने की इच्छा रखते हैं।” इसीलिए जो हमारे लिए सुखमयी है वह दूसरों के लिए भी सुखमयी है। हिंसा दो तरह की होती है-मन से हिंसा और कर्म से हिंसा। कर्म अथवा अमल में आने वाली हिंसा से पहले मन भाव विचारों में हिंसा आती है। गुस्सा, अहंकार, लालच और धोखा मन की हिंसा है। इसलिए हिंसा से बचने के लिए मन के विचारों को शुद्ध करना अति ज़रूरी है। जैन धर्म के अनुसार मनुष्यों के अतिरिक्त पशुओं, पत्थरों और वृक्षों आदि में भी आत्मा निवास करती है। इसलिए हमें किसी जीव या निर्जीव को कष्ट नहीं देना चाहिए। इसी कारण जैन लोग नंगे पाँव चलते हैं, मुँह पर पट्टी बाँधते हैं, पानी छान कर पीते हैं और अंधेरा हो जाने के बाद कुछ नहीं खाते ताकि किसी जीव की हत्या न हो जाये। बी० एन० लूनीया के अनुसार,
“अहिंसा जैन धर्म की आधारशिला है।”5

2. सत्य (Satya)-जैन धर्म में सत्य बोलने पर बहुत बल दिया गया है। हमें हमेशा सत्य और मीठे वचन बोलने चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति दूसरे के मन को मोह लेता है। झूठ बोलने से आत्मा को दुःख होता है। झूठ बोलने वाला व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता। वास्तव में झूठ बोलने से कलह-क्लेश बढ़ता है और इसका अंत नहीं होता। विवश होकर अंत में व्यक्ति को सत्य मानना ही पड़ता है। झूठ के परिणाम हमेशा बुरे ही होते हैं। हमें किसी के डर के कारण, लालच के कारण अथवा हंसी-मज़ाक में भी झूठ नहीं बोलना चाहिए। इसलिए हमें हमेशा सोच-समझ कर बोलना चाहिए। गुस्सा आने पर शांत बने रहना चाहिए। जैन धर्म में इस बात पर भी बल दिया गया है कि हमें किसी पर भी झूठा आरोप नहीं लगाना चाहिए। हमें किसी के साथ भी धोखा नहीं करना चाहिए। हमें किसी को भी गलत परामर्श देकर उसे मार्ग से विचलित नहीं करना चाहिए। झूठ बोलकर किसी का रिश्ता तय नहीं करना चाहिए। पंचायत अथवा किसी भी और स्थान पर झूठी गवाही नहीं देनी चाहिए। झूठ ही हिंसा को जन्म देता है। सत्य अहिंसा का आधार है।

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3. अस्तेय (Asteya)—जैन धर्म में अस्तेय को बहुत महत्त्व दिया गया है। अस्तेय का भाव है चोरी न करना। जैन धर्म में चोरी का अर्थ बहुत विशाल है। किसी की वस्तु चुरा लेनी एक सीधा अपराध है, लेकिन जैन धर्म में उसको चोरी ही माना गया है जो कोई भी व्यक्ति किसी द्वारा भूली हुई वस्तु का प्रयोग भी करता है। हमें किसी की वस्तु उसके मालिक की आज्ञा के बिना नहीं लेनी चाहिए। हमें किसी के घर में भी बिना आज्ञा के प्रवेश नहीं करना चाहिए। गुरु की स्वीकृति के बिना भिक्षा में प्राप्त अनाज को ग्रहण नहीं करना चाहिए। बिना स्वीकृति के हमें किसी के घर निवास नहीं करना चाहिए। यदि घर में रहने की स्वीकृति मिले तो उसकी आज्ञा के बिना उसकी वस्तु को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार चोरी के दो प्रकार हैं। ये हैं-सूक्ष्म चोरी और स्थूल चोरी। सूक्ष्म चोरी उसको कहते हैं जिस में मनुष्य अपने परिवार के हित के लिए संयम स्वभाव से काम करता है। जैसे जंगल में लकड़ी और फल आदि प्राप्त करना। समाज और कानून की नज़रों में जिस चोरी को दंड योग्य माना जाता है उसको स्थूल चोरी कहा जाता है। मिलावट करनी, चोर की सहायता करनी, चोरी का माल खरीदना, कम मापदंड करना, लोगों से धोखे के सा. अधिक ब्याज प्राप्त करने को स्थूल चोरी कहा जाता है। एक बार चोरी करने वाला मनुष्य ग़रीब घर में जन्म लेता है बार-बार चोरी करने वाला मनुष्य अगले जन्म में गुलाम के रूप में जन्म लेगा।

4. अपरिग्रह (Aparigraha) जैन धर्म में अपरिग्रह महाव्रत को बहुत महत्ता दी गई है। अपरिग्रह से भाव है सांसारिक वस्तुओं के प्रति मोह न रखना। ये सामान्य देखने में आता है कि गृहस्थी लोग आवश्यक वस्तुओं को आवश्यकता से ज्यादा इकट्ठा करते हैं। जीवन की आवश्यक वस्तुओं को इकट्ठा करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक भंडार इकट्ठा करना वास्तव में अन्य लोगों के अधिकार को मारना है। जितनी अधिक वस्तुओं को इकट्ठा करने की आकांक्षा बढ़ेगी उतना ही मन अशांत रहेगा। ऐसा मनुष्य कभी भी मोक्ष प्राप्त – * कर सकता। आवश्यकता से ज्यादा संपत्ति इकट्ठा करना भी एक अनुचित कर्म है। जैन साधुओं को आवप्रगकता से अधिक भोजन करने, कपड़े पहनने और बिस्तर आदि रखने की मनाही है। इस महाव्रत की पालना करने वाला व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है।

5. ब्रह्मचर्या (Brahmacharya)—जैन धर्म में ब्रह्मचर्या महाव्रत को विशेष महत्त्व प्राप्त है। इससे भाव है काम वासना से दूर रहना। जैन साधुओं के लिए इस सम्बन्धी कठोर नियम बनाए गए हैं। उनके लिए ये आवश्यक कि वे किसी स्त्री की ओर न देखें, उनसे बातें न करें, किसी भी स्त्री के साथ भूतकाल में बिताए समय को याद न करें। ऐसे किसी घर में न जाए जहाँ कोई स्त्री अकेली रहती हो। शुद्ध और थोड़ा भोजन खाना चाहिए। इस तरह जैन साधवियों के लिए भी नियम निश्चित हैं। उनके लिए किसी पुरुष के साथ बातचीत करने और उनके बारे में सोचने की मनाही है। ग्रहस्थियों के लिए केवल अपनी स्त्री का साथ करना ही ब्रह्मचर्या है। जैन धर्म में काम को वास्तव में जीवन को समाप्त करने वाला रोग माना गया है।
उपरोक्त पाँच महाव्रतों की पालना करने वाला व्यक्ति संयमी बन जाता है और निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्त करता है। डॉ० के० सी० सोगानी के अनुसार,
“इन पाँच महाव्रतों की पालना व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति के लिए सहायक है।”6

5. “Ahimsa is the sheet anchor of Jainism.” B.B. Luniya, Life and Culture in Ancient India (Agra : 1982) p. 162.
6. “The observance of these five rows is capable of bringing about individual as well as social progress.”: Dr. K.C. Sogani, op. cit., p, 65.

प्रश्न 10.
प्रमुख जैन संप्रदायों के बारे में जानकारी दें।
(Write about the main sects in Jainism.)
उत्तर-
जैनी अनेक संप्रदायों में बंटे हुए हैं। इनमें से कुछ प्रमुख संप्रदायों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार—

1. अजीविक (The Ajivika)-इस संप्रदाय का संस्थापक गोशाल था। वह स्वामी महावीर का शिष्य था और 6 वर्षों के पश्चात् उनसे अलग हो गया था। यह संप्रदाय अपने नियति (किस्मत) के विशेष सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध है। इसके अनुसार हर वस्तु की किस्मत पहले से ही निश्चित है। इस को मनुष्य के यत्नों के द्वारा बदला नहीं जा सकता। गोशाल के द्वारा प्रचारित धर्म भारत में 13वीं शताब्दी तक प्रफुल्लित रहा और बाद में लोप हो गया।

2. दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय (The Digambara and Shvetambra Sects)-जैन धर्म के सब संप्रदायों में से दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल के समय मगध में भयंकर अकाल पड़ा था। इसलिए भद्रबाहु जो जैनी भिक्षुकों का नेता था अपने साथ बहुत सारे भिक्षुओं को लेकर मैसूर (कर्नाटक) चला गया। जो भिक्षुक मगध में रह गये थे उन्होंने स्थूलभद्र को अपना मुखिया चुन लिया। इन भिक्षुकों ने पाटलिपुत्र में एक सभा का आयोजन किया और अपने साहित्य को एक नया रूप दिया। इस साहित्य को उन्होंने अंग का नाम दिया। इसके अतिरिक्त इन भिक्षुओं ने नंगे रहने की प्रथा को त्याग दिया और सफ़ेद कपड़े पहनने शुरू कर दिये। 12 वर्षों के पश्चात् जब भद्रबाहु अपने अन्य भिक्षुकों के साथ दुबारा मगध आया तो उसने स्थूलभद्र द्वारा किए गए परिवर्तनों को स्वीकार न किया। परिणामस्वरूप जैनी दो संप्रदायों दिगंबर और श्वेतांबर में बाँटे गए। दिगंबर से भाव था नग्न रहने वाले और श्वेतांबर से भाव था सफ़ेद वस्त्र पहनने वाले। इन दोनों में प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं—

  • दिगंबर संप्रदाय वाले नंगे रहते थे जबकि श्वेतांबर जाति वाले सफ़ेद वस्त्र पहनते थे।
  • दिगंबर संप्रदाय वालों का कहना है कि स्त्रियाँ तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकतीं जब तक वे पुरुष के रूप में जन्म नहीं लेती। श्वेतांबर संप्रदाय वाले इस सिद्धांत को गलत मानते हैं। उनका कहना है कि स्त्रियाँ इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं।
  • दिगंबर संप्रदाय वाले स्त्रियों को जैन संघ में शामिल होने की आज्ञा नहीं देते। दूसरी ओर श्वेतांबर संप्रदाय वाले स्त्रियों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं लगाते। उनका कहना था कि 19वीं तीर्थंकर मल्ली एक स्त्री थी। दिगंबर संप्रदाय वाले इस बात का खंडन करते हैं।
  • दिगंबर संप्रदाय वालों का कहना है कि स्वामी महावीर ने विवाह नहीं करवाया था। श्वेतांबर संप्रदाय वाले यह मानते हैं कि स्वामी महावीर ने विवाह करवाया था। उनकी एक पुत्री थी, जिसका नाम प्रियादर्शना था।
  • दिगंबर संप्रदाय वालों का यह मत है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले साधुओं को भोजन की ज़रूरत नहीं रहती जबकि श्वेतांबर मत वाले इस बात का खंडन करते हैं।
  • दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय वालों का धार्मिक साहित्य अलग-अलग है।
  • दिगंबर संप्रदाय वालों की मूर्तियाँ नंगेज होती हैं जबकि श्वेतांबर संप्रदाय वालों की मूर्तियों को कपड़े पहनाये जाते हैं और उनको गहनों से सजाया जाता है।

3. लोक संप्रदाय (Lonka Sect)-इस संप्रदाय का मुखिया लोंक सा था। वह अहमदाबाद का रहने वाला था। 1474 ई० में एक जैनी साधु ज्ञान जी ने कुछ धार्मिक जैनी ग्रंथों का उतारा करने के लिए लोक सा को कहा। इन ग्रंथों को पढ़ते समय लोंक सा ने देखा कि मूर्ति पूजा का वर्णन कहीं भी नहीं आया जबकि जैनी कई सदियों से मूर्ति पूजा करते आ रहे थे। इसलिए उसने जैन धर्म में प्रचलित मूर्ति पूजा का खंडन किया। इससे जैनियों में एक बड़ा विवाद शुरू हो गया ? भानाजी लोंक सा के मत से सहमत हुआ और इस तरह वह लोंक सा संप्रदाय का पहला आचार्य बना।

4. स्थानकवासी (Sthanakvasi)-इस संप्रदाय का संस्थापक वीराजी था। वह सूरत का रहने वाला था। इस नए संप्रदाय का नाम स्थानकवासी इसलिए पड़ा क्योंकि इस संप्रदाय के साधु मंदिरों की जगह मठों में रहते थे। वे बहुत ही सादा जीवन व्यतीत करते थे। वे मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्राओं में विश्वास नहीं रखते थे।

5. तेरा पंथ (Terapanth)-इंस संप्रदाय के संस्थापक मारवाड़ के भीखनजी थे। इसकी स्थापना 1706 ई० में की गई थी। इस संप्रदाय के तेरह धार्मिक नियम थे जिस कारण इस संप्रदाय का नाम तेरा पंथ पड़ा। यह संप्रदाय भी मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता। यह तप और अनुशासन पर बहुत ज़ोर देता है।

6. तारना पंथ (Taranapanina)-इस पंथ की स्थापना स्वामी तारना ने ग्वालियर में की थी। इस पंथ को मानने वाले मूर्ति पूजा, धर्म के बाहरी दिखावे और जाति भेदों के विरुद्ध हैं। उनके अपने अलग मंदिर हैं जिनमें मूर्तियाँ ही नहीं बल्कि पवित्र धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी की जाती है।

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प्रश्न 11.
जैन मत के प्रमुख संप्रदाय कौन से हैं ? उनके मध्य समानताएँ तथा भिन्नताएँ स्पष्ट करें।
(What are the main sects in Jainism ? Explain their similarities and differences.)
अथवा
जैन धर्म के फिरके दिगंबर और श्वेतांबर के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the sects Digambara and Shvetambra of Jainism.)
उत्तर-
दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय (The Digambara and Shvetambra Sects)-जैन धर्म के सब संप्रदायों में से दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल के समय मगध में भयंकर अकाल पड़ा था। इसलिए भद्रबाहु जो जैनी भिक्षुकों का नेता था अपने साथ बहुत सारे भिक्षुओं को लेकर मैसूर (कर्नाटक) चला गया। जो भिक्षुक मगध में रह गये थे उन्होंने स्थूलभद्र को अपना मुखिया चुन लिया। इन भिक्षुकों ने पाटलिपुत्र में एक सभा का आयोजन किया और अपने साहित्य को एक नया रूप दिया। इस साहित्य को उन्होंने अंग का नाम दिया। इसके अतिरिक्त इन भिक्षुओं ने नंगे रहने की प्रथा को त्याग दिया और सफ़ेद कपड़े पहनने शुरू कर दिये। 12 वर्षों के पश्चात् जब भद्रबाहु अपने अन्य भिक्षुकों के साथ दुबारा मगध आया तो उसने स्थूलभद्र द्वारा किए गए परिवर्तनों को स्वीकार न किया। परिणामस्वरूप जैनी दो संप्रदायों दिगंबर और श्वेतांबर में बाँटे गए। दिगंबर से भाव था नग्न रहने वाले और श्वेतांबर से भाव था सफ़ेद वस्त्र पहनने वाले। इन दोनों में प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं—

  1. दिगंबर संप्रदाय वाले नंगे रहते थे जबकि श्वेतांबर जाति वाले सफ़ेद वस्त्र पहनते थे।
  2. दिगंबर संप्रदाय वालों का कहना है कि स्त्रियाँ तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकतीं जब तक वे पुरुष के रूप में जन्म नहीं लेती। श्वेतांबर संप्रदाय वाले इस सिद्धांत को गलत मानते हैं। उनका कहना है कि स्त्रियाँ इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं।
  3. दिगंबर संप्रदाय वाले स्त्रियों को जैन संघ में शामिल होने की आज्ञा नहीं देते। दूसरी ओर श्वेतांबर संप्रदाय वाले स्त्रियों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं लगाते। उनका कहना था कि 19वीं तीर्थंकर मल्ली एक स्त्री थी। दिगंबर संप्रदाय वाले इस बात का खंडन करते हैं।
  4. दिगंबर संप्रदाय वालों का कहना है कि स्वामी महावीर ने विवाह नहीं करवाया था। श्वेतांबर संप्रदाय वाले यह मानते हैं कि स्वामी महावीर ने विवाह करवाया था। उनकी एक पुत्री थी, जिसका नाम प्रियादर्शना था।
  5. दिगंबर संप्रदाय वालों का यह मत है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले साधुओं को भोजन की ज़रूरत नहीं रहती जबकि श्वेतांबर मत वाले इस बात का खंडन करते हैं।
  6. दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय वालों का धार्मिक साहित्य अलग-अलग है।
  7. दिगंबर संप्रदाय वालों की मूर्तियाँ नंगेज होती हैं जबकि श्वेतांबर संप्रदाय वालों की मूर्तियों को कपड़े पहनाये जाते हैं और उनको गहनों से सजाया जाता है।

प्रश्न 12.
जैन संघ की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो। (Explain the salient features of Jain Sangha.)
अथवा
जैन धर्म के संघ-अनुशासन के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the Sangha discipline of Jainism.)
उत्तर-
जैन संघ की स्थापना स्वामी महावीर जी ने पावा नगर में की थी। इसने जैन धर्म के प्रसार में प्रशंसनीय योगदान दिया।

1. सदस्य (Member)-जैन संघ में चार प्रकार के लोग शामिल होते हैं जिनको भिक्षु और भिक्षुणियाँ तथा श्रावक और श्राविका कहा जाता था। भिक्षु और भिक्षुणियाँ वे थे जिन्होंने संसार का त्याग कर दिया था। श्रावक और श्राविका वे थे जो गृहस्थी का जीवन व्यतीत करते थे।

2. दीक्षा (Initiation)—जो व्यक्ति संघ में शामिल होना चाहता था उसको अपने माता-पिता और संरक्षक से आज्ञा लेनी पड़ती थी। इसके बाद वह अपना मुंडन करके, स्नान करके, सफ़ेद कपड़े पहन के भिक्षा का बर्तन लेकर किसी प्रमुख जैन आचार्य के पास जा कर दीक्षा लेता था। इस संस्कार को निष्कर्म संस्कार कहते थे। स्त्रियाँ भी जैन संघ में शामिल हो सकती थीं। जैन संघ के दरवाज़े सभी जातियों के लिए खुले थे। केवल अधर्मी व्यक्तियों को संघ में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।

3. अनुशासित जीवन (Disciplined Life)-दीक्षा प्राप्त करने के बाद भिक्षु-भिक्षुणियों को बहुत अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। उनको पाँच महाव्रतों, अहिंसा, सुनित, अस्तेय, अपरिगृह और ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था। उनको मन, वचन और शरीर से किसी को भी हिंसा पहुँचाने की मनाही थी। उनको झूठ बोलने, चोरी करने, अपने पास संपत्ति रखने, सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग करने, जूते, छाता, पलंग और कुर्सी आदि का प्रयोग करने, बिना आज्ञा किसी के घर जाने, गृहस्थी के बर्तनों में भोजन करने, अधिक खाने, रात हो जाने के बाद भोजन करने, किसी की निंदा करने, किसी स्त्री के साथ बातचीत करने, जिस घर में स्त्री हो वहाँ ठहरने आदि की सख्त मनाही थी। गृहस्थी व्यक्तियों को भी यद्यपि इन नियमों का पालन करने के लिए कहा गया है, परंतु उन पर इतनी सख्ती लागू नहीं की गई थी।

4. प्रतिदिन जीवन (Daily Life)-प्रत्येक भिक्षु अथवा भिक्षुणी अपने रोज़ाना जीवन को 8 भागों में बाँटता था। इनमें 4 भाग धार्मिक ग्रंथों की पढ़ाई के लिए, 2 तप के लिए, 1 खाने के लिए और 1 आराम करने के लिए निश्चित होता था। वे अपना भोजन प्रतिदिन माँग कर खाते थे। उनको एक से अधिक घर से भिक्षा लेने की मनाही थी। जैन संघ के सारे सदस्य वर्षा के चार महीनों में एक स्थान पर रह कर जैन धर्म का प्रचार करते थे। बाकी के आठ महीने वे अलग-अलग स्थानों पर जा कर जैन धर्म के प्रचार में व्यतीत करते थे।

5. जैन संघ का मुखिया (Chief of the Jain Sangha)-जैन संघ का मुखिया आचार्य कहलाता था। वह संघ के सारे भिक्षुओं पर नियंत्रण रखता था। केवल उसी को ही दीक्षा देने, संघ का सदस्य बनाने अथवा किसी को सज़ा देने का अधिकार था। इस पदवी के लिए बहुत ही सुलझे हुए और उच्च चरित्र के व्यक्ति को नियुक्त किया जाता था। स्त्रियों के अपने अलग संघ होते थे। इसके प्रमुख को प्रवर्तिनी कहा जाता था। उसका प्रमुख कार्य जैन संघ में अनुशासन स्थापित रखना था।

6. जैन संघ की भूमिका (Role of Jain Sangha)-जैन संघ ने भारत में जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जैन संघ में सम्मिलित होने वाले भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों ने जैन धर्म के प्रसार के लिए कोई प्रयास शेष नहीं छोड़ा। प्रसिद्ध लेखक एस० सी० रैचौधरी के अनुसार,

“वास्तव में जैन संघ के प्रयासों के कारण जैन धर्म ने भारत की भूमि में अपनी गहरी जड़ें बना लीं तथा यह आज भी कायम हैं।”7

7. “In fact, it is mainly due to their efforts that Jainism took root into Indian soil and still survives,” S.C. Raychoudhary, History of Ancient India (Delhi : 2006) p. 107.

प्रश्न 13.
जैन धर्म ग्रंथों की भाषा क्या है ? जैन धर्म ग्रंथों के बारे में प्रारंभिक जानकारी दें।
(What is the language of Jain scriptures ? Give preliminary information about Jain scriptures.)
अथवा
जैन धर्म ग्रंथों के बारे में प्रारंभिक जानकारी दें।
(Give preliminary information about the major Jain scriptures.)
अथवा
जैन मत के प्रमुख धार्मिक ग्रंथों की जानकारी दो। (Give information about the prominent scriptures of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म के प्रमुख ग्रंथों के बारे में आप क्या जानते हो ?
(What do you know about the prominent scriptures of Jainism ?)
अथवा
प्रमुख जैन धार्मिक ग्रंथों पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the prominent Jain scriptures.)
उत्तर-
जैनियों ने अनेक धार्मिक ग्रंथों की रचना की। इनमें से जो ग्रंथ हमें आज उपलब्ध हैं उनकी संख्या 45 है। ये सारे ग्रंथ जैन धर्म के श्वेतांबर संप्रदाय के साथ संबंधित हैं। ये ग्रंथ प्राकृत अथवा अर्ध मगधी जो उस समय लोगों की बोलचाल की आम भाषा थी में लिखे गए हैं। इन ग्रंथों को गुजरात में वल्लभी के स्थान पर 5वीं शताब्दी में लिखित रूप दिया गया। इनको एक प्रसिद्ध जैनी साधु देवरिद्धी ने संपूर्ण किया। इन ग्रंथों को 6 वर्गों में बाँटा गया है। इनके नाम हैं—
(1) 12 अंम
(2) 12 उपांग
(3) 10 प्राकिरण
(4) 6 छेदसूत्र
(5) 4 मूलसूत्र
(6) 2 विविध पुस्तकें।
इनका संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. 12 अंग (The Twelve Angas)-जैनियों के धार्मिक ग्रंथों में 12 अंगों को सब से अधिक पवित्र समझा जाता है। इन अंगों के नाम और उनका संक्षेप वर्णन इस प्रकार है

  • आचारांग सूत्र-इसमें जैन भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए नियमों का वर्णन किया गया है। इसमें महावीर के जीवन का भी वर्णन मिलता है।
  • सूत्रक्रितांग- इसमें कर्म और अहिंसा के सिद्धांतों के बारे में और नरक के दु:खों के बारे में वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इसमें विरोधी धर्मों के सिद्धांतों का खंडन इस उद्देश्य से किया गया है ताकि जैनियों का अपने धर्म में पक्का विश्वास रहे।
  • स्थानांग-इसमें जैन धर्म के अलग-अलग विषयों के बारे जानकारी दी गई है।
  • समवायांग-इसमें जैन सिद्धांतों का संख्यात्मक ढंग से वर्णन किया गया है।
  • भगवती सूत्र-इसको जैन धार्मिक साहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ समझा जाता है। इसमें जैन सिद्धांतों का प्रश्न-उत्तर रूप में वर्णन किया गया है। ये प्रश्न स्वामी महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम इंद्रभूति द्वारा पूछे गये थे और इनका उत्तर स्वामी महावीर ने स्वयं दिया था।
  • ज्ञात धर्म कथा-इसमें जैन धर्म से संबंधित प्रसिद्ध कथाओं का वर्णन मिलता है। इन कथाओं को उदाहरणों सहित समझाया गया है।
  • उपासकदशा-इसमें स्वामी महावीर के समय के 10 उन अमीर व्यक्तियों की कहानियाँ दी गई हैं जो महावीर के शिष्य बन गए थे और जिन्होंने कठोर तपस्या के बाद मोक्ष प्राप्त किया।
  • अंतक्रिदशा-इसमें उन जैन मुनियों के जीवन का वर्णन मिलता है जिन्होंने कठोर तप के बाद मोक्ष प्राप्त किया।
  • अनउत्तरोपपातिक-इसमें भी कुछ जैन मुनियों के जीवन का वर्णन मिलता है।
  • प्रश्न व्याकरण- इसमें पाँच महाव्रतों और पाँच अणुव्रतों का वर्णन किया गया है।
  • विपाकसूत्र-इसमें अच्छे या बुरे कर्मों से मिलने वाले फलों का वर्णन किया गया है।
  • दृष्टिवाद-यह अंग अब लोप हो चुका है। अन्य ग्रंथों में से इस अंग से संबंधित मिलते विवरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि इसमें विभिन्न सिद्धांतों का संक्षेप वर्णन किया गया था।

2. 12 उपांग (The Twelve Upangas)-प्रत्येक अंग का एक-एक उपांग है। इनमें मिथिहासिक कथाओं का अधिक वर्णन मिलता है। इनसे ज्योतिष, भूगोल और ब्रह्मांड आदि के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। कहीं-कहीं ऐतिहासिक घटनाओं का भी जिक्र आता है। 12 उपांगों में राज्य प्रश्नीय नामक उपांग सब से अधिक प्रसिद्ध है। इसमें जैन मुनी केश और पायोस नामक राजा के मध्य हुई वार्तालाप का विवरण लिखा हुआ है।

3. 10 प्राकिरण (The Ten Prakirans)-इनमें जैन धर्म से संबंधित विभिन्न विषयों को पद्य रूप में लिखा गया है। इनसे स्वामी महावीर के जीवन और उसके उपदेशों संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

4. 6 छेदसूत्र (The Six Chhedasutras)-इनमें जैन भिक्षुओं और भिक्षुणियों के आचार से संबंधित नियमों का वर्णन किया गया है। छेदसूत्रों में कल्पसूत्र को सबसे प्रसिद्ध माना जाता है। इसकी रचना भद्रबाह ने की थी। इसमें स्वामी महावीर की जीवन कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

5. 4 मूलसूत्र (The Four Mulasutras)-4 मूलसूत्रों को जैनी साहित्य में बहुमूल्य समझा जाता है। इनमें जैन धर्म से संबंधित कथाओं और उनसे मिलने वाली शिक्षा, जैन संघ के नियमों और कुछ जैन मुनियों के जीवन तथा उनके उपदेशों के बारे जानकारी प्राप्त होती है। ये सारे मूलरूप में लिखे गये हैं। मूलसूत्रों में उत्तर अध्ययन नामक सूत्र को सबसे महत्त्वपूर्ण समझा जाता है।

6. 2 विविध पुस्तकें (Two Miscellaneous Texts)—इनमें नंदीसूत्र और अनुयोगद्वार नामक पुस्तकें शामिल हैं। ये एक प्रकार से विश्वकोष हैं। इनमें जैन धर्म की विभिन्न शाखाओं, धार्मिक सिद्धांतों, अर्थशास्त्र और काम शास्त्र के विषयों के संबंध में जानकारी दी गई है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 14.
जैन धर्म का भारतीय सभ्यता को क्या योगदान है ? (What is the Legacy of Jainism to Indian Civilization ?)
उत्तर-
इसमें कोई शक नहीं कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की तरह उन्नत हो सका परंतु फिर भी इसने भारत में सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अपनी गहरी छाप छोड़ी।।

1. सामाजिक क्षेत्र में योगदान (Legacy in the Social Field) सामाजिक क्षेत्र में जैनियों ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। छठी शताब्दी में हिंदू धर्म में जाति प्रथा बड़ी कठोर हो गई थी। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से सख्त नफ़रत करते थे। शूद्र जाति के लोगों के साथ जानवरों से भी बुरा व्यवहार किया जाता था। महावीर ने जाति प्रथा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने अपने धर्म में प्रत्येक धर्म से संबंधित लोगों को शामिल किया। उन्होंने लोगों में आपसी भाईचारे और बराबरी का प्रचार किया। परिणामस्वरूप वह लोगों में फैली आपसी घृणा को काफी सीमा तक दूर करने में सफल हुए। इस प्रकार जैनियों ने भारतीय समाज को एक नया रूप दिया।

2. धार्मिक क्षेत्र में योगदान (Legacy in the Religious Field)-धार्मिक क्षेत्र में भी जैनियों का योगदान बहुत प्रशंसनीय था। जैन धर्म ने लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। जैन धर्म में फ़िजूल के रीति-रिवाजों, यज्ञों और बलियों आदि के लिए कोई स्थान नहीं था। जैन धर्म के यत्नों के कारण धार्मिक क्षेत्र में फैले बहुत सारे अंध-विश्वासों का अंत हो गया। जैन धर्म की बढ़ती हुई प्रसिद्धि को देखकर हिंदू धर्म के नेताओं ने अपने धर्म को सुरजीत करने के उद्देश्य से अपने धर्म में आवश्यक सुधार किए।

3. सांस्कृतिक क्षेत्र में योगदान (Legacy in the Cultural Field)—सांस्कृतिक क्षेत्र में भी जैन धर्म का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। जैन धर्म के सिद्धांतों ने अपने ग्रंथ प्राकृत, गुजराती, हिंदी, मराठी, कन्नड़ और तामिल भाषाओं में लिखे। परिणामस्वरूप इन क्षेत्रीय भाषाओं को बहुत उत्साह मिला। इन ग्रंथों में यद्यपि धर्म से संबंधित बातें लिखी गई हैं पर फिर भी इनसे हमें उस समय की भारत की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इस कारण इन जैनी ग्रंथों को भारतीय इतिहास का एक अमूल्य स्रोत माना जाता है। जैनियों ने कई प्रभावशाली और प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया। इन मंदिरों में कई बहुत मनमोहक मूर्तियाँ रखी जाती थीं। राजस्थान में माऊँट आबू और कर्नाटक में श्रावण बेलगोला में बने जैनियों के मंदिर अपनी भूवन निर्माण कला के कारण न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त जैनियों ने भारत में कई प्रसिद्ध स्तूपों का निर्माण भी करवाया।

4. लोक कल्याण के क्षेत्र में योगदान (Legacy in the Field of Public Welfare)-स्वामी महावीर ने अपने शिष्यों को समाज सेवा का उपदेश दिया था। इसी कारण जैनमत वालों ने लोगों की सहायता के लिए बहुत सी धर्मशालाएँ बनाईं। शिक्षा के प्रचार के लिए शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की, मनुष्यों और पशुओं के इलाज के लिए कई अस्पताल खुलवाए और कई अन्य लोक कल्याण के कार्य भी किए। जैनियों द्वारा स्थापित की गई कई शिक्षा संस्थाएँ आज भी प्रसिद्ध हैं। उनके द्वारा खोले गए अस्पतालों में आज भी ग़रीब रोगियों का मुफ्त इलाज होता है और जानवरों की देखभाल की जाती है।

5. राजनीतिक क्षेत्र में योगदान (Legacy in the Political Field) जैन मत में अहिंसा के सिद्धांत पर बहुत ज़ोर दिया जाता था। इसने लोगों को शांतमयी जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। परिणामस्वरूप कई राजाओं ने लड़ाई में हिस्सा लेना बंद कर दिया ताकि निर्दोष लोगों का खून न बहाया जाये। वे शांतिप्रिय बन गए। इसी कारण भारत में काफी समय तक शाँति और खुशहाली का वातावरण रहा परंतु दूसरी ओर इसका भारतीय राजनीति पर कुछ बुरा प्रभाव भी पड़ा। युद्धों में भाग न लेने के कारण भारतीय सेना कमजोर हो गई। परिणामस्वरूप वह बाद में होने वाले विदेशी आक्रमणों का डट कर मुकाबला न कर सकी। इसी कारण भारतीयों को सैंकड़ों वर्षों तक गुलामी का जीवन व्यतीत करना पड़ा।

समूचे रूप में हम यह कह सकते हैं कि जैनियों ने भारतीय समाज को कई क्षेत्रों में बहुमूल्य योगदान दिया। अंत में हम डॉक्टर वी० ए० मंगवी के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वास्तव में भारत में जैनियों की सबसे प्रमुख विशेषता भारतीय संस्कृति को दिया गया उनका बहुमूल्य योगदान का रिकार्ड है। उनकी सीमित एवं थोड़ी जनसंख्या को देखते हुए जैनियों ने जो योगदान भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों को दिया वह वास्तव में महान् है।”8

8. “In fact, the most outstanding characteristic of Jainism in India is their very impressive record of contributions to Indian culture in comparison with the limited and small population of Jains, the achievements of Jains in enriching the various aspects of Indian culture are re great.” Dr. V.A. Sangve, Aspects of Jaina Religion (New Delhi: 1990) p. 98.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
तीर्थंकर से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Tirthankara ?)
उत्तर-
जैन आचार्यों को तीर्थंकर कहा जाता है। तीर्थंकर से अभिप्राय है संसार के भवसागर से पार करने वाला गुरु। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं। पहले तीर्थंकर का नाम ऋषभनाथ था। 23वां तीर्थंकर पार्श्वनाथ था। वह स्वामी महावीर के जन्म से 250 वर्ष पहले हुए। 24वें तीर्थंकर स्वामी महावीर थे। उनको जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उनके समय में जैन धर्म ने अद्वितीय विकास किया।

प्रश्न 2.
पार्श्वनाथ। (Parshvanatha.)
उत्तर-
पार्श्वनाथ जैन धर्म का 23वां तीर्थंकर था। उसकी मुख्य शिक्षाएँ यह थीं—

  1. सजीव वस्तुओं को कष्ट न पहुँचायें (अहिंसा)।
  2. झूठ न बोलो (सुनृत)।
  3. बिना दिये कुछ न लो (अस्तेय)।
  4. सांसारिक पदार्थों से मोह न करो (अपरिग्रह)। 777 ई० पू० के लगभग उन्होंने बिहार के माऊँट समेता नामक पहाड़ी पर निर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 3.
स्वामी महावीर। (Lord Mahavira.)
उत्तर-
स्वामी महावीर का जन्म 599 ई० पू० वैशाली के निकट कुंडग्राम में हुआ। आपके पिता जी का नाम सिद्धार्थ तथा माता जी का नाम त्रिशला था। महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था। महावीर की शादी एक सुंदर राजकुमारी यशोदा से हुई। महावीर ने 30 वर्षों की आयु में गृह त्याग दिया था। उन्होंने 12 वर्ष तक घोर तपस्या के पश्चात् ज्ञान प्राप्त किया। आपने 30 वर्षों तक अपने ज्ञान का प्रसार किया। राजगृह, वैशाली, कौशल, मिथला, विदेह तथा अंग उनके प्रसिद्ध प्रचार केंद्र थे। 527 ई० पू० उन्होंने पावा में निर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 4.
भगवान महावीर की शिक्षाओं के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss about the teachings of Lord Mahavira.)
अथवा
स्वामी महावीर की शिक्षाएँ। (Teachings of Lord Mahavira.)
उत्तर-
स्वामी महावीर ने अपने अनुयायियों को तीन रत्नों पर चलने के लिए कहा। उन्होंने कठोर तप, अहिंसा तथा उच्च आचरण पर जोर दिया। वह समानता, आवागमन तथा कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। वह ईश्वर, यज्ञों, बलियों, वेद तथा संस्कृत में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार प्रत्येक जैनी को अपने जीवन में पाँच महाव्रतों की पालना करनी चाहिए। उनके अनुसार मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है।

प्रश्न 5.
त्रि-रत्न। (Tri-Ratna.)
अथवा
त्रि-रत्न क्या हैं ? (What is Tri-Ratna ?)
उत्तर-
स्वामी महावीर जी ने अपने अनुयायियों को तीन रत्नों पर चलने के लिए कहा। ये त्रि-रत्न थे-सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान तथा शुद्ध आचरण। पहले रत्न के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को 24 तीर्थंकरों में अटल विश्वास होना चाहिए। दूसरे रत्नानुसार जैनियों को सच्चा और पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए तथा इनको व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों में विश्वास नहीं रखना चाहिए। तीसरे रत्नानुसार प्रत्येक व्यक्ति को सच्चे आचार के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। इनमें से किसी एक ही अनुपस्थिति मनुष्य को उसकी मंज़िल तक नहीं पहुँचा सकती।

प्रश्न 6.
अहिंसा। (Ahimsa.)
उत्तर-
जैन धर्म में अहिंसा की नीति को जितना महत्त्व दिया गया है, उतना विश्व के किसी अन्य धर्म में नहीं दिया गया। अगर अहिंसा को जैन धर्म की आधारशिला कहा जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं होगा। अहिंसा से अभिप्राय है कि किसी भी जैव वस्तु को कष्ट न देना। जैन दर्शन के अनुसार मनुष्यों और पशुओं के अतिरिक्त वृक्षों तथा पत्थरों में भी आत्मा का निवास होता है। इस कारण हमें किसी जीव या निर्जीव को कष्ट नहीं देना चाहिए। इसी उद्देश्य से जैनी नंगे पाँव चलते हैं, मुँह पर पट्टी बाँधते हैं, पानी छान कर पीते हैं और सूर्य छिपने के पश्चात् भोजन नहीं करते।

प्रश्न 7.
स्वामी महावीर की शिक्षा के अनुसार एक जैन भिक्षु को कैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता था ? (According to the teachings of Lord Mahavira how a Jaina monk led his life ?)
उत्तर-

  1. स्वामी महावीर की शिक्षा के अनुसार जैन भिक्षुओं को बहुत स्वच्छ जीवन व्यतीत करना पड़ता था।
  2. प्रत्येक भिक्षु को पाँच प्रतिज्ञाओं की पालना करनी पड़ती थी।
  3. प्रत्येक भिक्षु को सदैव सत्य बोलना चाहिए। उनको अहिंसा की नीति की पालना करनी पड़ती थी।
  4. प्रत्येक भिक्षु के लिए आवश्यक था कि उनकी वेशभूषा और खाना-पीना बिल्कुल सादा हो।

प्रश्न 8.
स्वामी महावीर जी की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन के लिए क्या महत्त्व था ?
(What was the importance of the teachings of Lord Mahavira in the life of a common man ?)
उत्तर-
स्वामी महावीर जी की शिक्षाएँ साधारण मनुष्य के लिए महत्त्वपूर्ण थीं। भगवान् महावीर ने अपने धर्म में बिना किसी भेद-भाव के प्रत्येक वर्ग के लोगों को शामिल किया। इससे समाज में प्रचलित परस्पर घृणा बहुत सीमा तक दूर हुई और लोगों में परस्पर बंधुत्व एवं प्रेम-भाव बढ़ गया। स्वामी महावीर जी ने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। साधारण लोग भी इन परंपराओं के विरुद्ध थे। इसलिए उनके हृदयों पर स्वामी महावीर जी की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव पड़ा। स्वामी महावीर जी ने लोगों को समाज सेवा का उपदेश दिया।

प्रश्न 9.
स्वामी महावीर ने कौन-सी धार्मिक तथा सामाजिक बुराइयों का खंडन किया ? (Which religious and social evils were condemned by Lord Mahavira ?)
उत्तर-
स्वामी महावीर ने यज्ञों, बलियों, पुरोहितवाद तथा धर्म के बाहरी दिखावों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वह मूर्ति पूजा के विरुद्ध थे। उनको वेदों तथा संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं था। वह जाति प्रथा तथा समाज में प्रचलित अन्य रूढ़िवादी विचारों के घोर विरोधी थे। उन्होंने इन रीतियों को एक ढोंग बताया तथा कहा कि कोई भी व्यक्ति इनका पालन करने से निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता।

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प्रश्न 10.
दिगंबर। (Digambaras.)
उत्तर-
दिगंबर जैनियों का एक प्रमुख संप्रदाय है। दिगंबर से अभिप्राय है नग्न रहने वाले। इस संप्रदाय के भिक्षु नग्न रहते हैं। इस संप्रदाय को मानने वालों का कहना है कि स्त्रियाँ तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती जब तक वे पुरुष के रूप में जन्म नहीं, लेतीं। उन्हें जैन संघ में शामिल होने की आज्ञा नहीं दी जा सकती। इस संप्रदाय का कहना है कि स्वामी महावीर ने विवाह नहीं करवाया था। इनका अपना अलग साहित्य है।

प्रश्न 11.
श्वेतांबर। (Svetambaras.)
उत्तर-
श्वेतांबर जैन धर्म का एक प्रमुख संप्रदाय है। श्वेतांबर से अभिप्राय है सफेद वस्त्र धारण करने वाले। इस कारण इस संप्रदाय के लोग सफेद वस्त्र पहनते हैं। इस संप्रदाय के लोगों का कहना है कि स्त्रियाँ इसी जन्म में ही मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं। वे स्त्रियों को जैन संघ में शामिल होने की आज्ञा देते थे। उनका कहना है कि स्वामी महावीर ने विवाह करवाया था। इस संप्रदाय का अपना अलग साहित्य है।

प्रश्न 12.
जैन धर्म भारत में लोकप्रिय क्यों नहीं हो सका ? (Why could not Jainism become popular in India ?)
उत्तर-
जैन धर्म की शिक्षाएँ यद्यपि सरल थीं, परंतु कई कारणों से यह धर्म लोगों में लोकप्रिय न हो सका। पहला, जैन धर्म वालों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। दूसरा, जैन धर्म को बौद्ध धर्म की भाँति राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हो सका। तीसरा, जैन धर्म वाले कठोर तप, शरीर को अत्यधिक कष्ट देने में विश्वास रखते थे। इसके अतिरिक्त उनका अहिंसा में आवश्यकता से अधिक विश्वास था। जन सामान्य के लिए इन नियमों का पालन करना बहुत कठिन था। चौथा, बौद्ध धर्म के सिद्धांत सरल थे। परिणामस्वरूप लोगों ने जैन धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म को अपनाना आरंभ कर दिया।

प्रश्न 13.
जैन संघ के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Jain Sangha ?)
उत्तर-
जैन संघ की स्थापन स्वामी महावीर जी ने की थी। इसमें शामिल होने वाले प्रत्येक भिक्षु तथा भिक्षुणियों को अपने माता-पिता और संरक्षक से आज्ञा लेनी पड़ती थी। उनको बहुत अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। जैन संघ के सारे सदस्य वर्षा के चार महीनों को छोड़कर बाकी समय अलग-अलग स्थानों पर जाकर धर्म प्रचार करने में व्यतीत करते थे। जैन संघ का मुखिया आचार्य कहलाता था। स्त्रियों के अपने अलग संघ होते थे।

प्रश्न 14.
जैन मत की देन। (Legacy of Jainism.)
अथवा
जैन मत का प्रभाव। (Effects of Jainism.)
उत्तर-
जैन मत ने भारतीय सभ्यता को कई क्षेत्रों में बहुमूल्य देन दी। उन्होंने परस्पर भ्रातृत्व तथा समानता का प्रचार किया। जैन मत ने लोगों को सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। जैन धर्म के विद्वानों ने अनेक भाषाओं में अपने ग्रंथ लिखे। इस कारण क्षेत्रीय भाषाओं को उत्साह मिला। जैनियों ने अनेक प्रभावशाली तथा प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया। इस कारण भारतीय भवन निर्माण कला को एक नया उत्साह मिला। जैन धर्म ने शांति का संदेश दिया।

प्रश्न 15.
स्वामी पार्श्वनाथ पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on Lord Parshvanatha.)
उत्तर-
स्वामी पार्श्वनाथ का जन्म स्वामी महावीर के जन्म से 250 वर्ष पहले बनारस के राजा अश्वसेन के घर हुआ था। उनकी माता जी का नाम वामादेवी था। उनका बचपन बहुत ही ऐश-ओ-आराम में बीता। 30 वर्षों की आयु में पार्श्वनाथ ने अपने सारे सुखों का त्याग कर दिया और सच्चे ज्ञान की खोज में निकल गये। उनको 83 दिनों के घोर तप के बाद परम ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन के बाकी 70 वर्ष अपने उपदेशों का प्रचार करने में व्यतीत किये। 777 ई० पू० के लगभग उन्होंने बिहार के माऊँट समेता नामक पहाड़ी पर निर्वाण प्राप्त किया। पार्श्वनाथ की शिक्षा को चार्तुयाम अथवा चार प्रण कहते हैं। यह चार प्रण ये हैं—

  1. सजीव वस्तुओं को कष्ट न पहुँचायें (अहिंसा)।
  2. झूठ न बोलो (सुनृत)।
  3. बिना दिये कुछ न लो (अस्तेय)।
  4. सांसारिक पदार्थों से मोह न करो (अपरिग्रह)।

प्रश्न 16.
स्वामी महावीर पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on Lord Mahavira.)
अथवा
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर के महत्त्व को दर्शाइए।
(Describe the importance of 24th Tirthankar of Jainism.)
उत्तर-
स्वामी महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। उन्हें जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उनका जन्म 599 ई० पू० वैशाली के निकट कुंडग्राम में हुआ। उनके पिता जी का नाम सिद्धार्थ तथा माता जी का नाम त्रिशला था। महावीर का बचपन का नाम वर्द्धमान था। वे शुरू से ही बहुत विचारशील थे। वे सांसारिक कार्यों में बहुत कम रुचि लेते थे। महावीर की शादी एक सुंदर राजकुमारी यशोदा से की गई। उनके घर एक पुत्री ने जन्म लिया जिसका नाम प्रियदर्शना अथवा अनोजा रखा गया। महावीर ने 30 वर्षों की आयु में गृह त्याग दिया था। उन्होंने 12 वर्ष तक घोर तपस्या के पश्चात् ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने लोगों में फैले अंधकार को दूर करने के लिए अपने ज्ञान का प्रसार किया। राजगृह, वैशाली, कौशल, मिथला, विदेह तथा अंग उनके प्रसिद्ध प्रचार केंद्र थे। महावीर ने त्रि-रत्न अहिंसा, कठिन तप, शुद्ध आचरण आदि पर बल दिया। वह यज्ञों, बलियों, वेदों, संस्कृत भाषा तथा ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे। 527 ई० पू० उन्होंने पावा में निर्वाण प्राप्त किया। निस्संदेह जैन धर्म के विकास में उनका योगदान बहुमूल्य था।

प्रश्न 17.
भगवान महावीर की शिक्षाओं के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss about the teachings of Lord Mahavira.)
अथवा
स्वामी महावीर की शिक्षाएँ का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Discuss briefly the teachings of Lord Mahavira.)
अथवा
जैन धर्म की मुख्य शिक्षाएँ क्या थीं?
(What were the main teachings of Jainism ?)
अथवा
जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the pre-eminent teaching of Jainism.)
अथवा
जैन धर्म का आधार उसकी नैतिक कीमतें हैं। संक्षिप्त चर्चा करें।
(The base of Jainism is their Ethical values. Discuss in brief.)
अथवा
जैन धर्म की नैतिक कीमतों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the moral-values of Jainism.)
अथवा
नैतिक कीमतें जैन धर्म में प्रमुख हैं। चर्चा कीजिए।
(Moral values are supreme in Jainism. Discuss.)
उत्तर-
स्वामी महावीर जी की शिक्षाएँ अत्यंत सरल एवं प्रभावशाली थीं। उनके अनुसार मानव जीवन का परम उद्देश्य निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त करना है। अतः उन्होंने अपने अनुयायियों को तीन रत्नों—

  1. सच्ची श्रद्धा,
  2. सच्चा ज्ञान,
  3. और शुद्ध आचरण पर चलने के लिए कहा।

वे कठोर तप में विश्वास रखते थे। वे अहिंसा पर बहुत ज़ोर देते थे। उनके अनुसार मनुष्य और पशुओं के अतिरिक्त हमें पेड़-पौधों और पक्षियों आदि को भी कष्ट नहीं देना चाहिए। वे आवागमन और कर्म सिद्धांतों में विश्वास रखते थे। उन्होंने समानता व आपसी भाईचारे का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने हिंदू धर्म में फैले झूठे रीति-रिवाजों और यज्ञों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वे वेदों और संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने अपना प्रचार लोगों की साधारण भाषा में किया। वे परमात्मा के अस्तित्व में भी विश्वास नहीं रखते थे। उनका कथन था कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। अतः उसे ईश्वर की सहायता की आवश्यकता नहीं है। जैसा मनुष्य कर्म करेगा उसे वैसा ही फल प्राप्त होगा। वे तीर्थंकरों की उपासना में विश्वास रखते थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 18.
त्रि-रत्न से क्या भाव है ? इसका क्या महत्त्व है ? (What is meant by Tri-Ratnas ? What is its importance ?)
अथवा
त्रि-रत्न से क्या भाव है ?
(What is meant by Tri-Ratnas ?)
अथवा
आप त्रि-रत्न के बारे में क्या जानते हैं ? (What do you understand by Tri-Ratna ?)
अथवा
जैन धर्म के तीन रत्नों का उल्लेख करें। (Write about the Tri-Ratnas of Jainism.)
उत्तर-
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्त करना है। इसको प्राप्त करने के लिए जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए त्रि-रत्नों पर चलना अति ज़रूरी है। ये तीन रत्न हैंसच्चा विश्वास, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार। पहले रत्न के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को 24 तीर्थंकरों, नौ सच्चाइयों और जैन शास्त्रों में अटल विश्वास होना चाहिए। दूसरे रत्नानुसार जैनियों को सच्चा और पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यह तीर्थंकरों के उपदेशों के गहरे अध्ययन से प्राप्त होता है। इस ज्ञान के दो रूप बताये गये हैं जिनको प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। आत्मा द्वारा प्राप्त ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं और वह ज्ञान जो इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होता है उसको परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। तीसरे रत्नानुसार प्रत्येक व्यक्ति को सच्चे आचार के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। सच्चा आचार वह है जिसकी शिक्षा जैन धर्म देता है। ये तीनों रत्न साथ-साथ चलते हैं। इनमें से किसी एक की अनुपस्थिति मनुष्य को उसकी मंज़िल तक नहीं पहुँचा सकती। उदाहरण के तौर पर जैसे एक दीये को प्रकाश देने के लिए उसमें तेल, बाती और आग का होना ज़रूरी है। यदि इसमें से एक भी वस्त की कमी हो तो वह प्रकाश नहीं दे सकता।

प्रश्न 19.
जैन धर्म में अहिंसा का क्या महत्त्व है ? (What is the importance Ahimsa in Jainism ?)
अथवा
जैन धर्म में अहिंसा के महत्त्व का वर्णन करें।
(Explain the importance of Ahimsa in Jainism.)
उत्तर-
जैन धर्म में अहिंसा पर बहुत ज़ोर दिया गया है। अहिंसा की महत्ता बताते हुए आचारंग सूत्र में कहा गया है, “सभी को अपना-अपना जीवन प्यारा है, सब ही सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता, अधिक कोई नहीं चाहता, सब को जीवन प्यारा है और सारे ही जीने की इच्छा रखते हैं।” इसीलिए जो हमारे लिए सुखमयी है वह दूसरों के लिए भी सुखमयी है। हिंसा दो तरह की होती है-मन से हिंसा और कर्म से हिंसा। कर्म अथवा अमल में आने वाली हिंसा से पहले मन भाव विचारों में हिंसा आती है। गुस्सा, अहंकार, लालच और धोखा मन की हिंसा है। इसलिए हिंसा से बचने के लिए मन के विचारों को शुद्ध करना अति ज़रूरी है। जैन धर्म के अनुसार मनुष्यों के अतिरिक्त पशुओं, पत्थरों .और वृक्षों आदि में भी आत्मा निवास करती है। इसलिए हमें किसी जीव या निर्जीव को कष्ट नहीं देना चाहिए। इसी कारण जैनी लोग नंगे पाँव चलते हैं, मुँह पर पट्टी बाँधते हैं, पानी छान कर पीते हैं और अंधेरा हो जाने के बाद कुछ नहीं खाते ताकि किसी जीव की हत्या न हो जाये।

प्रश्न 20.
जैन धर्म की नौ सच्चाइयों पर नोट लिखो। (Write a short note on the Nine Truths of the Jainism.)
अथवा
जैन धर्म के नौ-तत्त्वों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the Nine Tatvas of Jainism.)
उत्तर-
जैन दर्शन नौ सच्चाइयों की शिक्षा देता है। ये सच्चाइयाँ हैं—

  1. जीव-जैन दर्शन में आत्मा को जीव कहा गया है। यह चेतन सुरूप है। यह शरीर के कर्मों के अच्छे-बुरे फल भुगतता है और आवागमन के चक्र में पड़ता है।
  2. अजीव-यह जंतु पदार्थ है। यह निर्जीव है और इनमें समझ नहीं होती। इनकी दो श्रेणियाँ हैं रूपी और अरूपी।
  3. पुण्य-यह अच्छे कर्मों का नतीजा है। इसके नौ साधन हैं।
  4. पाप-यह जीव के बंधन का मुख्य कारण है। इसके परिणामस्वरूप घोर सजायें मिलती हैं।
  5. अशर्व-यह वह प्रक्रिया है जिसके अनुसार आत्मा अपने अंदर कर्मों को संचित करती रहती है। कर्म 8 किस्मों के होते हैं।
  6. संवर-कर्म को आत्मा की ओर आने की क्रिया को रोकने को संवर कहते हैं। कर्म को रोकने की 57 विधियाँ हैं।
  7. बंध-इससे भाव बंधन है। यह जीव (आत्मा) का पुदगल (परमाणु) से मेल है। बंध के लिए पाँच कारण जिम्मेवार हैं।
  8. निर्जर-इस से भाव है दूर भगाना। यह कर्मों को नष्ट करने और जल देने का कार्य करता है।
  9. मोक्ष-इसमें जीव कर्मों के जंजाल से मुक्त हो जाता है। यह पूर्ण शाँति की अवस्था है जिसमें हर तरह के दुःखों से छुटकारा प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 21.
जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Karma Theory in Jain Philosophy ?)
अथवा
जैन धर्म का कार्य सिद्धांत के बारे में क्या विचार है ? (What is meant by Karma Theory of Jainism ?)
उत्तर-
जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस सिद्धांत के अनुसार, “जैसा करोगे वैसा भरोगे, जैसा बीजोगे वैसा काटोगे, यदि कर्म अच्छे होंगे तो अच्छा फल मिलेगा, बुरा करोगे तो बुरा होगा, किसी भी स्थिति में कर्मों से छुटकारा नहीं मिलेगा।” जैसे ही हमारे मन में कोई अच्छा या बुरा विचार आता है वह तुरंत जीव (आत्मा) से उसी तरह जुड़ जाता है, जैसे तेल लगे हुए शरीर से धूलि कण चिपक जाते हैं। ये कर्म आठ प्रकार के हैं-

  1. ज्ञानवर्णीय कर्म- यह आत्मा के ज्ञान को रोकते हैं।
  2. दर्शनवीय कर्म- यह आत्मा की इच्छा शक्ति को रोकते हैं।
  3. वैदनीय कर्म-ये सुख-दुःख उत्पन्न करने वाले कर्म हैं।
  4. मोहनीय कर्म-ये आत्मा को मोह माया में फंसाने वाले कर्म हैं।
  5. आयु कर्म-ये कर्म मनुष्य की आयु को निर्धारित करते हैं।
  6. नाम कर्म-ये कर्म मनुष्य के व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं।
  7. गोत्र कर्म-ये व्यक्ति के गोत्र और समाज में उसके ऊँचे या नीचे स्थान को निर्धारित करते हैं।
  8. अंतरीय कर्म-ये अच्छे कर्म को रोकने वाले कर्म हैं।

प्रश्न 22.
जैन धर्म में जीव एवं अजीव से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Jiva and Ajiva in Jainism ?)
अथवा
जैन धर्म में जीव से क्या अभिप्राय है?
(What is meant by Jiva in Jainism ?)
उत्तर-
1. जीव-जीव शब्द का अर्थ है आत्मा। यह चेतन तथ्य है। जैन दर्शन में जीव दो प्रकार के हैं। इनको सांसारिक जीव और मुक्त जीव कहा जाता है। सांसारिक जीव को बंधन जीव भी कहते हैं। यह जीव आवागमन के चक्र में रहता है और अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेता है और अपने अच्छे बुरे फल भुगतता है। मुक्त जीव वह जीव है जो पुनर्जन्म से रहित है। यह जीव अनंत ज्ञान वाला, अनंत शक्ति वाला और अनंत गुणों वाला होता है। यह जीव कर्मों के जाल से मुक्त होता है।

2. अजीव-अजीव से भाव उन जड़ पदार्थों से है जिनमें चेतना नहीं होती जैसे पुस्तक, कागज़, मेज़ और स्याही आदि। उदाहरण के तौर पर ऊँट के शरीर में जीव फैल कर ऊँट जितना बड़ा हो जाता है और कीड़ी के शरीर में सिकुड़ कर कीड़ी जितना हो जाता है । यह जीव तब नहीं दिखाई देता है परंतु शरीर की क्रियाओं के आधार पर इसकी उपस्थिति का ज्ञान हो जाता है। परंतु जब शरीर का अंत हो जाता है तो जीव लोप हो जाता है। जीव जिस शरीर को धारण करता है वह उस के आकार का ही हो जाता हैं।

प्रश्न 23.
जैन धर्म में पाप एवं पुण्य से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Papa and Punya in Jainism ?)
अथवा
जैन धर्म में पाप से क्या अभिप्राय है ?
(What is meant by Paap in the Jainism ?)
उत्तर-
1. पाप-पाप को जीव के बंधन का मुख्य कारण माना जाता है। जीवों को मारना, झूठ, चोरी, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, धोखा, नशा और दुश्मनी आदि सब पापों के भार में वृद्धि करते हैं। पापियों को घोर सजायें मिलती हैं। आपने देखा होगा कि एक ही घर में पैदा हुए दो सगे भाइयों के जीवन में भारी अंतर होता है। एक ऊँची पदवी पर सुशोभित होता है और उसको प्रसिद्धि प्राप्त होती है। दूसरा दर-दर की ठोकरें खाता फिरता है, चोरियाँ करता है और बदनामी कमाता है। ऐसा क्यों होता है ? जैन दर्शन के अनुसार ऐसा व्यक्ति के पुण्य और पाप कमाने का कारण होता है। पापी मनुष्य कभी भी सुखी नहीं हो सकता और उसको अपने जीवन में घोर संकट का सामना करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति की आत्मा भी तड़पती रहती है। जैन सूत्रों के अनुसार पापों के 82 अलगअलग परिणाम निकलते हैं।

2. पुण्य-पुण्य वह कर्म है जो अच्छे अमलों से कमाये जाते हैं। पुण्य कमाने के अलग-अलग ढंग हैं। भूखे को खाना देना, प्यासे को पानी पिलाना, नंगे को कपड़ा देना, हाथों से सेवा करनी, मीठा बोलना आदि पुण्य के काम हैं, पुण्य को मानने के 42 साधन हैं। अच्छी सेहत, आर्थिक समृद्धि, प्रसिद्धि, अच्छा वैवाहिक जीवन, अच्छे रिश्तेदारों और दोस्तों का मिलना, अच्छी पढ़ाई और उच्च पदवियों पर नियुक्ति आदि अच्छे पुण्यों का ही नतीजा है। पुण्य को आत्मा का सहायक माना जाता है क्योंकि इससे खुशी प्राप्त होती है।

प्रश्न 24.
महावीर जी की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन के लिए क्या महत्त्व था ? (What was the importance of Mahavira’s teachings in the life of a common man ?)
उत्तर-
महावीर जी की शिक्षाएँ साधारण मनुष्य के लिए महत्त्वपूर्ण थीं। उस समय हिंदू धर्म में जाति प्रथा बहुत कठोर हो गई थी। उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों से घृणा करते थे। भगवान महावीर ने अपने धर्म में _बिना किसी भेद-भाव के प्रत्येक वर्ग के लोगों को शामिल किया। इससे समाज में प्रचलित परस्पर घृणा बहुत सीमा तक दूर हुई और लोगों में परस्पर बंधुत्व एवं प्रेम-भाव बढ़ गया। महावीर जो ने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। साधारण लोग भी इन परंपराओं के विरुद्ध थे। इसलिए उनके हृदयों पर महावीर जी की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव पड़ा। महावीर जी की अहिंसा नीति के कारण लोगों को युद्ध से घृणा हो गई और वे शाँति को पसंद करने लगा। महावीर जी ने लोगों को समाज सेवा का उपदेश दिया। परिणामस्वरूप जैन मत वालों ने लोगों की सहायता के लिए बहुत-सी धर्मशालाएँ बनवाईं। शिक्षा प्रचार के लिए शिक्षा संस्थाएँ और मनुष्यों एवं पशुओं की चिकित्सा के लिए अस्पताल खोले।

प्रश्न 25.
महावीर की शिक्षा के अनुसार एक जैन भिक्षु को कैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता था ?
(What type of life a Jain monk had to lead according to the teachings of Mahavira ?)
उत्तर-
महावीर की शिक्षा के अनुसार जैन भिक्षुओं को बहुत स्वच्छ जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक भिक्षु को पाँच प्रतिज्ञाओं की पालना करनी पड़ती थी।

  1. प्रत्येक भिक्षु को सदैव सत्य बोलना चाहिए।
  2. उसको अहिंसा की नीति पर चलना चाहिए।
  3. उसको कोई भी ऐसी वस्तु अपने पास नहीं रखनी चाहिए जो उसको दान में प्राप्त न हुई हो।
  4. उसको अपने पास धन नहीं रखना चाहिए।
  5. उसको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

इनके अतिरिक्त भिक्षु के लिए आवश्यक था कि उनकी वेश-भूषा और खाना-पीना बिल्कुल सादा हो। उनके लिए छाता और सुगंध देने वाली वस्तुओं के प्रयोग करने पर प्रतिबंध था। भिक्षु के लिए किसी स्त्री से बातचीत करने पर भी प्रतिबंध था। उनको सदैव मीठे वचन बोलने के लिए कहा गया था जिससे किसी को दुःख न पहुँचे। उनको इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि उनके चलने से या खान-पीने में किसी जीव की हत्या न हो।

प्रश्न 26.
दिगंबर और श्वेतांबर पर एक नोट लिखें। (Write a note on Digambara and Svetambara.)
अथवा
दिगंबर तथा श्वेतांबर से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you understand by Digambara and Svetambara ?)
उत्तर-
जैन धर्म के सभी संप्रदायों में से दिगंबर तथा श्वेतांबर संप्रदायों को प्रमुख स्थान प्राप्त है। दिगंबर से अभिप्राय था नग्न रहने वाले तथा श्वेतांबर से अभिप्राय था श्वेत (सफ़ेद) वस्त्र धारण करने वाले। इन दोनों संप्रदायों में प्रमुख अंतर निम्नलिखित अनुसार थे—

  1. दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी नग्न रहते हैं जबकि श्वेतांबर संप्रदाय के अनुयायी सफ़ेद वस्त्र धारण करते हैं।
  2. दिगंबर संप्रदाय स्त्रियों को जैन संघ में सम्मिलित होने की आज्ञा नहीं देता जबकि श्वेतांबर संप्रदाय वाले ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं लगाते।
  3. दिगंबर संप्रदाय वालों का कहना है कि स्त्रियां तब एक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती जब तक वे पुरुष के रूप में जन्म नहीं लेतीं। श्वेतांबर संप्रदाय वाले इस सिद्धांत को गलत मानते हैं। उनका कथन है कि स्त्रियाँ इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं।
  4. दिगंबर संप्रदाय वालों का यह कथन है कि स्वामी महावीर जी ने विवाह नहीं करवाया था। श्वेतांबर संप्रदाय वालों का यह कथन है कि स्वामी महावीर जी ने विवाह करवाया था तथा उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम प्रियदर्शना था।
  5. दिगंबर संप्रदाय वालों का कथन है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले साधुओं को भोजन की आवश्यकता नहीं रहती जबकि श्वेतांबर संप्रदाय वाले इस बात का खंडन करते हैं।
  6. दिगंबर तथा श्वेतांबर संप्रदायों का साहित्य भी अलग-अलग है।
  7. दिगंबर संप्रदाय वालों की मूर्तियाँ नंगेज हैं जबकि श्वेतांबर संप्रदाय वालों की मूर्तियों को वस्त्र पहनाए जाते हैं तथा उन्हें गहनों से सुसज्जित किया जाता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 27.
जैन धर्म भारत में लोकप्रिय क्यों नहीं हो सका ? (Why could not Jainism become popular in India ?)
उत्तर-
जैन धर्म की शिक्षाएँ यद्यपि सरल थीं, परंतु कई कारणों से यह धर्म लोगों में लोकप्रिय न हो सका। पहला, जैन धर्म वालों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। किसी भी धर्म की सफलता के लिए ऐसा किया जाना आवश्यक होता है। दूसरा, जैन धर्म को बौद्ध धर्म की भाँति राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हो सका। यह सही है कि बिंबिसार, अजातशत्रु और खारवेल जैसे शासकों ने जैन धर्म को अपना संरक्षण दिया, परंतु वे बौद्ध धर्म की भाँति जैन धर्म को प्रगति के शिखर तक पहुँचाने में विफल रहे। तीसरा, जैन धर्म वाले कठोर तप, शरीर को अत्यधिक कष्ट देने में विश्वास रखते थे। इसके अतिरिक्त उनका अहिंसा में आवश्यकता से अधिक विश्वास था। वे मुँह पर पट्टी बाँधते थे, नंगे पाँव चलते थे और पानी छान कर पीते थे ताकि किसी जीव की मृत्यु न हो जाए। वे वृक्षों और पत्थरों को भी प्राणवान् मानते थे। इसलिए इन्हें कष्ट देना भी पाप समझा जाता था। वे बीमार पड़ने पर औषधि का भी प्रयोग नहीं करते थे। जन सामान्य के लिए इन नियमों का पालन करना बहुत कठिन था। चौथा, जैन धर्म के लोकप्रिय न होने का एक कारण यह भी था कि उस समय बौद्ध धर्म के सिद्धांत भी बहुत सरल थे। परिणामस्वरूप लोगों ने जैन धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म को अपनाना आरंभ कर दिया। पाँचवां, समय के साथ-साथ जैन लोगों ने हिंदू धर्म के कई सिद्धांतों को अपना लिया। परिणामस्वरूप वे अपने अलग अस्तित्व को न बनाए रख सके।

प्रश्न 28.
जैन स्रोत। (The Jaina Sources.)
उत्तर-
जैन स्रोत प्राचीन भारत के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। जैनियों ने अनेक ग्रंथों की रचना की। ये ग्रंथ प्राकृत अथवा अर्द्ध मगधी जो उस समय लोगों की बोलचाल की आम भाषा थी में लिखे गए हैं। जैनियों के धार्मिक ग्रंथों में 12 अंशों को सबसे महत्त्वपूर्ण एवं पवित्र समझ जाता है। इनमें महावीर के जीवन तथा जैन धर्म के सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया है। जैन धर्म के 12 उपांग भी हैं। इनमें अधिकाँश मिथिहासिक कथाओं का वर्णन मिलता है। जैन धर्म के 10 प्राकिरणों से महावीर के जीवन एवं उसके उपदेशों संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। 6 छेदसूत्रों में जैन भिक्षु एवं भिक्षुणियों के नियमों का वर्णन किया गया है। जैनी साहित्य में 4 मूलसूत्रों को बहुमूल्य समझा जाता है। इनसे जैन धर्म से संबंधित कथाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है।

प्रश्न 29.
जैन मत की भारतीय सभ्यता को क्या देन है ? (What is the legacy of Jainism to the Indian Civilization ?)
उत्तर-
जैन मत ने भारतीय सभ्यता को कई क्षेत्रों में बहुमूल्य देन दी। महावीर ने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने अपने धर्म में प्रत्येक जाति से संबंधित लोगों को शामिल किया। उन्होंने परस्पर भ्रातृत्व तथा समानता का प्रचार किया। परिणामस्वरूप समाज में फैली घृणा को काफ़ी सीमा तक दूर किया जा सका। जैन मत ने लोगों को सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। इसके प्रयत्नों के कारण लोगों में फैले बहुत-से धार्मिक अंध-विश्वासों का अंत हो गया। जैन धर्म की बढ़ती हुई प्रसिद्धि को देख कर हिंदू धर्म के नेताओं ने इसमें आवश्यक सुधार किए। जैन धर्म के विद्वानों ने अनेक भाषाओं में अपने ग्रंथ लिखे। इस कारण क्षेत्रीय भाषाओं को उत्साह मिला। ये ग्रंथ भारतीय इतिहास के बहुमूल्य स्रोत हैं। जैनियों ने अनेक प्रभावशाली तथा प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया। इस कारण भारतीय भवन निर्माण कला को एक नया उत्साह मिला। जैन धर्म ने लोगों के कल्याण के लिए अनेक धर्मशालाएँ, शौक्षिक संस्थाएँ तथा अस्पतालों आदि की स्थापना की जो आज भी जारी हैं। जैन धर्म ने शाँति का संदेश दिया। यह युद्धों के विरुद्ध था। इसका भारतीय राजनीति पर बुरा प्रभाव पड़ा।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. ‘जैन’ शब्द से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-विजेता।

प्रश्न 2. जैन धर्म को आरंभ में क्या नाम दिया गया था ?
उत्तर-निग्रंथ।

प्रश्न 3. निग्रंथ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-बंधनों से मुक्त।

प्रश्न 4. जैन आचार्यों को किस अन्य नाम से जाना जाता था ?
उत्तर-तीर्थंकर।

प्रश्न 5. तीर्थंकर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-संसार के भवसागर से पार कराने वाला गुरु।

प्रश्न 6. जैन धर्म में कुल कितने तीर्थंकर हुए हैं ?
उत्तर-24 तीर्थंकर।।

प्रश्न 7. जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर का क्या नाम था ?
अथवा
जैन धर्म के पहले तीर्थंकर का नाम बताओ।
उत्तर-ऋषभदेव।

प्रश्न 8. जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर कौन थे ?
उत्तर-पार्श्वनाथ।

प्रश्न 9. स्वामी पार्श्वनाथ जैन धर्म के कौन-से तीर्थंकर थे ?
उत्तर-23वें।

प्रश्न 10. स्वामी पार्श्वनाथ का जन्म कहाँ हुआ था ?
उत्तर-बनारस में।

प्रश्न 11. स्वामी पार्श्वनाथ के पिता जी कौन थे ?
उत्तर- बनारस के राजा अश्वसेन।

प्रश्न 12. स्वामी पार्श्वनाथ ने जब अपना घर त्याग दिया उस समय उनकी आयु कितनी थी ?
उत्तर-30 वर्ष।

प्रश्न 13. स्वामी पार्श्वनाथ ने कितने दिनों के घोर तप के बाद परम ज्ञान प्राप्त किया ?
उत्तर-83 दिनों के।

प्रश्न 14. स्वामी पार्श्वनाथ ने कितने सिद्धांतों का प्रचलन किया ?
उत्तर-स्वामी पार्श्वनाथ ने चार सिद्धांतों का प्रचलन किया।

प्रश्न 15. स्वामी पार्श्वनाथ के सिद्धांतों को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-चातुर्याम।

प्रश्न 16. स्वामी पार्श्वनाथ का कोई एक सिद्धांत बताएँ।
उत्तर-कभी झूठ न बोलो।

प्रश्न 17. स्वामी पार्श्वनाथ ने कितने वर्ष प्रचार किया ?
उत्तर-स्वामी पार्श्वनाथ ने 70 वर्ष प्रचार किया।

प्रश्न 18. स्वामी पार्श्वनाथ ने कब निर्वाण प्राप्त किया?
उत्तर-777 ई० पू०।

प्रश्न 19. जैन धर्म का संस्थापक कौन था और वह कितना तीर्थंकर था ?
उत्तर-जैन धर्म का संस्थापक स्वामी महावीर था और वह 24वां तीर्थंकर था।

प्रश्न 20. जैन धर्म का अंतिम तीर्थंकर कौन था ?
अथवा
जैन धर्म का 24वां तीर्थंकर कौन था ?
उत्तर-स्वामी महावीर जी।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 21. जैन धर्म के पहले व आखिरी तीर्थंकर का नाम बताएँ।
उत्तर-जैन धर्म के पहले तीर्थंकर का नाम ऋषभदेव था तथा आखिरी तीर्थंकर का नाम स्वामी महावीर था।

प्रश्न 22. स्वामी महावीर जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-599 ई० पू० कुंडग्राम में।

प्रश्न 23. स्वामी महावीर जी का जन्म कहाँ हुआ ?
उत्तर-कुंडग्राम में।

प्रश्न 24. स्वामी महावीर जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-सिद्धार्थ।

प्रश्न 25. स्वामी महावीर जी की माता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-त्रिशला।

प्रश्न 26. भगवान् महावीर जी के जन्म से पूर्व उनकी माता को कितने स्वप्न आए थे ?
उत्तर-14.

प्रश्न 27. स्वामी महावीर जी का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-वर्धमान।

प्रश्न 28. स्वामी महावीर जी का संबंध किस कबीले के साथ था ?
उत्तर-जनत्रिका।

प्रश्न 29. स्वामी महावीर जी का विवाह किसके साथ हुआ ?
उत्तर-यशोदा से।

प्रश्न 30. स्वामी महावीर जी की पुत्री का क्या नाम था ?
उत्तर-प्रियदर्शना।

प्रश्न 31. घर त्याग के समय स्वामी महावीर जी की आयु कितनी थी?
उत्तर-30 वर्ष।

प्रश्न 32. स्वामी महावीर जी ने कितने वर्षों तक कठोर तप किया ?
उत्तर-12 वर्ष।

प्रश्न 33. स्वामी महावीर जी ने कौन-सी आयु में ज्ञान प्राप्त किया ?
उत्तर-42 वर्ष की।

प्रश्न 34. कैवल्य ज्ञान से क्या भाव है ?
उत्तर-सर्वोच्च सत्य।

प्रश्न 35. स्वामी महावीर जी ने कितने वर्षों तक प्रचार किया ?
उत्तर-30 वर्ष।

प्रश्न 36. स्वामी महावीर जी के कोई दो प्रसिद्ध प्रचार केंद्रों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. राजगृह
  2. वैशाली।

प्रश्न 37. स्वामी महावीर जी ने कब निर्वाण प्राप्त किया?
उत्तर-527 ई० पू०।

प्रश्न 38. स्वामी महावीर जी ने कहाँ निर्वाण प्राप्त किया था ?
उत्तर-पावा में।

प्रश्न 39. स्वामी महावीर जी ने जब निर्वाण प्राप्त किया तब उनकी आयु क्या थी ?
उत्तर-72 वर्ष।

प्रश्न 40. जैन धर्म की बुनियादी कीमतें किसने निर्धारित की ?
उत्तर-स्वामी महाबीर जी ने।

प्रश्न 41. जैन धर्म की कोई एक प्रमुख शिक्षा बताएँ।
उत्तर-जैन धर्म अहिंसा में विश्वास रखता था।

प्रश्न 42. त्रिरत्न किस धर्म के साथ संबंधित है ?
उत्तर-जैन धर्म के साथ।

प्रश्न 43. जैन धर्म के तीन रत्न कौन-से हैं ?
अथवा
जैन धर्म के त्रिरत्नों के नाम बताएँ।
अथवा
जैन धर्म के तीन रत्न क्या हैं ?
उत्तर-

  1. सत्य-श्रद्धा
  2. सत्य-ज्ञान
  3. सत्य-आचरण।

प्रश्न 44. जैन धर्म में ब्रह्मचर्य का सिद्धांत किसने प्रचलित किया ?
उत्तर-स्वामी महावीर जी ने।

प्रश्न 45. जैन धर्म दर्शन में कितने तत्त्व माने गए हैं ?
उत्तर-9.

प्रश्न 46. जैन धर्म की कोई दो सच्चाइयाँ बताएँ।
उत्तर-

  1. पाप
  2. पुण्य।

प्रश्न 47. जैन दर्शन में आत्मा को क्या कहा गया है ?
उत्तर-जीव।

प्रश्न 48. जैन दर्शन में अजीव की कौन-सी दो श्रेणियाँ हैं ?
उत्तर-

  1. रूपी
  2. अरूपी

प्रश्न 49. जैन दर्शन में कर्म को आत्मा की ओर आने की क्रिया को रोकने को क्या कहते हैं ?
उत्तर-संवर।

प्रश्न 50. जैन धर्म में अशर्व के क्या अर्थ है ?
उत्तर-वह प्रक्रिया जिसके अनुसार आत्मा अपने अंदर कर्मों को संचित करती रहती है।

प्रश्न 51. जैन धर्म में पुदगल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-परमाणु।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 52. जैन धर्म के अनुसार कर्म कितनी प्रकार के हैं ?
उत्तर-8 प्रकार के।

प्रश्न 53. जैन धर्म के किसी एक प्रकार के कर्म का नाम बताएँ।
उत्तर-ज्ञानवर्णनीय कर्म।

प्रश्न 54. जैन धर्म में जीव से क्या भाव है ?
उत्तर-आत्मा।

प्रश्न 55. जैन धर्म में अजीव से क्या भाव है ?
उत्तर-जड़ पदार्थ।

प्रश्न 56. जैन दर्शन में कितनी प्रकार की हिंसा का वर्णन मिलता है ?
उत्तर-108 प्रकार की।

प्रश्न 57. जैन दर्शन में पुण्य को मानने के कितने साधन हैं ?
उत्तर-42.

प्रश्न 58. जैन दर्शन के अनुसार पाप के कितनी प्रकार के परिणाम निकलते हैं ?
उत्तर-82 प्रकार के।

प्रश्न 59. अनेकांतवाद का सिद्धांत किस धर्म के साथ संबंधित है ?
उत्तर-जैन धर्म के साथ।

प्रश्न 60. जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन में कितने अणुव्रतों की पालना करनी चाहिए ?
उत्तर-पाँच अणुव्रतों की।

प्रश्न 61. जैन धर्म में निर्वाण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-आवागमन के चक्र से मुक्ति।

प्रश्न 62. जैन धर्म को नास्तिक धर्म क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-क्योंकि यह धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता।

प्रश्न 63. अजीविक संप्रदाय का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-गौशाल।

प्रश्न 64. अजीविक संप्रदाय का प्रमुख सिद्धांत क्या था ?
उत्तर-इस संप्रदाय का प्रमुख सिद्धांत नियति (किस्मत) था।

प्रश्न 65. जैन धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय कौन-से हैं ?
उत्तर-जैन धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों के नाम दिगंबर एवं श्वेतांबर है।

प्रश्न 66. दिगंबर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-दिगंबर से अभिप्राय है नग्न रहने वाला।

प्रश्न 67. श्वेतांबर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-श्वेतांबर से अभिप्राय है श्वेत वस्त्र धारण करने वाला।

प्रश्न 68. लोंक सा कौन था ?
उत्तर-लोक सा लोंक संप्रदाय का मुखिया था।

प्रश्न 69. स्थानकवासी संप्रदाय का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-वीराजी।

प्रश्न 70. तेरा पंथ का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-भीखनजी।

प्रश्न 71. जैन संघ में कितनी तरह के लोग शामिल होते हैं ?
उत्तर-चार तरह के।

प्रश्न 72. जैन संघ में किन्हें सम्मिलित होने की आज्ञा नहीं थी ?
उत्तर- अधर्मी व्यक्तियों को।

प्रश्न 73. जैन धर्म में सम्मिलित होने वाले स्त्री एवं पुरुषों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-

  1. भिक्षुणियाँ
  2. भिक्षु।

प्रश्न 74. जैन धर्म ग्रंथों की भाषा क्या है ?
उत्तर-प्राकृत अथवा अर्ध मगधी।

प्रश्न 75. जैन धर्म में सर्वाधिक पवित्र पुस्तकें कौन-सी हैं ?
उत्तर-12 अंग।

प्रश्न 76. जैन धर्म के किसी एक अंग का नाम बताएँ।
उत्तर-आचारांग सूत्र।

प्रश्न 77. जैन धर्म के किस ग्रंथ में जैन भिक्षुओं से संबंधित नियम दिए गए हैं ?
उत्तर-आचारांग सूत्र में।

प्रश्न 78. जैन धर्म में कितने उपांग हैं ?
उत्तर-12 उपांग।

प्रश्न 79. कल्पसूत्र की रचना किसने की थी ?
उत्तर-भद्रबाहू ने।

प्रश्न 80. कल्पसूत्र का विषय क्या है ?
उत्तर-स्वामी महावीर जी का जीवन।

प्रश्न 81. जैन धर्म में कितने छेदसूत्र हैं ?
उत्तर-जैन धर्म में 6 छेदसूत्र हैं।

प्रश्न 82. जैन धर्म से संबंधित मूलसूत्र कितने हैं ?
उत्तर-4.

प्रश्न 83. जैन धर्म के दिगंबर से संबंधित कितनी पुस्तकें उपलब्ध हैं ?
उत्तर-4.

प्रश्न 84. दिगंबर संप्रदाय से संबंधित एक पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-पर्थमानु योग।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. जैन धर्म को आरंभ में ………….. के नाम से जाना जाता था।
उत्तर-निग्रंथ

प्रश्न 2. जैन धर्म में कुल ………. तीर्थंकर थे।।
उत्तर-24

प्रश्न 3. जैन धर्म के पहले तीर्थंकर का नाम ………… था।
उत्तर-ऋषभनाथ

प्रश्न 4. जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर …………… थे।
उत्तर- पार्श्वनाथ

प्रश्न 5. जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर …………… थे।
उत्तर-स्वामी महावीर

प्रश्न 6. स्वामी महावीर का जन्म ……….. में हुआ।
उत्तर-599 ई०पू०

प्रश्न 7. स्वामी महावीर की माता जी का नाम ………. था।
उत्तर-त्रिशला

प्रश्न 8. स्वामी महावीर के जन्म से पहले उनकी माता जी को ………… स्वप्न आए थे।
उत्तर-14

प्रश्न 9. स्वामी महावीर जी की पुत्री का नाम ………. था।
उत्तर-प्रियदर्शना

प्रश्न 10. ज्ञान प्राप्ति के समय स्वामी महावीर जी की आयु ………. थी।
उत्तर-42 वर्ष

प्रश्न 11. स्वामी महावीर जी ने ………. में निर्वाण प्राप्त किया।
उत्तर-527 ई० पू०

प्रश्न 12. जैन धर्म ……….. रत्नों में विश्वास रखता है।
उत्तर-तीन

प्रश्न 13. जैन धर्म में ब्रह्मचर्य का सिद्धांत ………. ने प्रचलित किया।
उत्तर-स्वामी महावीर

प्रश्न 14. जैन धर्म ………… सच्चाइयों में विश्वास रखता है।
उत्तर-नौ

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प्रश्न 15. जैन धर्म के अनुसार ………. वह प्रक्रिया है जिसके अनुसार आत्मा अपने आंतरिक कर्मों को संचित करती रहती है।
उत्तर-अशर्व

प्रश्न 16. जैन धर्म ………. प्रकार के कर्मों में विश्वास रखता है।
उत्तर-आठ

प्रश्न 17. अनेकांतवाद को ………… के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-स्यादवाद

प्रश्न 18. जैन धर्म ………… महाव्रतों में विश्वास रखता है।
उत्तर-पाँच

प्रश्न 19. जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च उद्वेश्य …………. प्राप्त करना है।
उत्तर-निर्वाण

प्रश्न 20. जैन धर्म के अनुसार पुदगल से भाव ……….. है।
उत्तर-परमाणु

प्रश्न 21. अजीविक संप्रदाय का संस्थापक ………… था।
उत्तर-गौशाल

प्रश्न 22. अजीविक संप्रदाय ……….. के सिद्धांत में विश्वास रखता था।
उत्तर-नियति

प्रश्न 23. ………. संप्रदाय वाले श्वेत वस्त्र धारण करते थे।
उत्तर-श्वेतांबर

प्रश्न 24. लोक संप्रदाय का संस्थापक ………. था।
उत्तर-लोक सा

प्रश्न 25. तेरा पंथ संप्रदाय का संस्थापक ……….. था।
उत्तर-भीखनजी

प्रश्न 26. जैन धर्म का संस्थापक ……….. कहलाता था।
उत्तर-आचार्य

प्रश्न 27. जैन धर्म ………… अंगों में विश्वास रखता है।
उत्तर-12

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. जैन धर्म कुल 20 तीर्थंकरों में विश्वास रखता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 2. जैन धर्म के पहले तीर्थंकर का नाम विमल था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. स्वामी पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. स्वामी पार्श्वनाथ को 23 दिनों के कठिन तप के पश्चात् ज्ञान प्राप्त हुआ था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. स्वामी पार्श्वनाथ की शिक्षा को चातुरयाम कहते हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. स्वामी महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. स्वामी महावीर का जन्म 567 ई०पू० में हुआ था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. स्वामी महावीर जी के बचपन का नाम वर्धमान था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. स्वामी महावीर जी की माता का नाम महामाया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 10. ज्ञान प्राप्ति के समय स्वामी महावीर जी की उनकी आयु 42 वर्ष थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. स्वामी महावीर जी ने पावा में निर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. जैन धर्म त्रि-रत्नों में विश्वास रखता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. जैन धर्म अहिंसा में विश्वास नहीं रखता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 14. जैन धर्म के अनुसार तत्व नौ प्रकार के हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 15. जैन धर्म तीन प्रकार के कर्मों में विश्वास रखता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 16. जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन में पाँच अनुव्रतों की पालना करनी चाहिए।
उत्तर-ठीक

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प्रश्न 17. जैन धर्म के अनुसार मानवीय जीवन का मुख्य उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. जैन धर्म के अनुसार सच्चा विश्वास सच्चे ज्ञान की आधारशिला है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 19. जैन धर्म के अनुसार ज्ञान पाँच प्रकार का होता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 20. जैन धर्म के अनुसार हिंसा आठ प्रकार की होती है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 21. जैन धर्म में जीव शब्द का अर्थ है ‘आत्मा’।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 22. जैन धर्म के अनुसार पुण्य प्राप्त करने के 42 साधन हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 23. जैन धर्म के अनुसार कर्म को रोकने की 57 विधियां हैं। .
उत्तर-ठीक

प्रश्न 24. जैन धर्म चार महाव्रतों में विश्वास रखता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 25. अजीविक संप्रदाय किस्मत के सिद्धांत में विश्वास रखता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 26. तारना संप्रदाय का संस्थापक भीखनजी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 27. स्थानकवासी संप्रदाय का संस्थापक वीराजी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 28. जैनियों के धार्मिक ग्रंथों में 12 अंगों को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चनें—

प्रश्न 1.
जैन धर्म कुल कितने तीर्थंकरों में विश्वास रखता है ?
(i) 20
(ii) 23
(iii) 24
(iv) 25
उत्तर-
(iii) 24

प्रश्न 2.
जैन धर्म का पहला तीर्थंकर कौन था ?
(i) पार्श्वनाथ
(ii) महावीर
(iii) विमल
(iv) ऋषभनाथ।
उत्तर-
(iv) ऋषभनाथ।

प्रश्न 3.
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर कौन थे ?
(i) विमल
(ii) अनंत
(iii) ऋषभनाथ
(iv) पार्श्वनाथ।
उत्तर-
(iv) पार्श्वनाथ।

प्रश्न 4.
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर कौन थे ?
(i) अभिनंदन
(ii) महावीर
(iii) पुष्पदंत
(iv) अजित।
उत्तर-
(ii) महावीर

प्रश्न 5.
स्वामी महावीर जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 566 ई० पू०
(ii) 567 ई० पू०
(iii) 569 ई० पू०
(iv) 599 ई० पू०।
उत्तर-
(iv) 599 ई० पू०।

प्रश्न 6.
स्वामी महावीर जी का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) लुंबिनी में
(ii) कुंडग्राम में
(iii) कुशीनगर में
(iv) कपिलवस्तु में।
उत्तर-
(ii) कुंडग्राम में

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प्रश्न 7.
स्वामी महावीर जी के पिता जी का नाम क्या था ?
(i) सिद्धार्थ
(ii) राहुल
(iii) वर्धमान
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i) सिद्धार्थ

प्रश्न 8.
स्वामी महावीर जी की माता जी का नाम क्या था ?
(i) त्रिशला
(ii) यशोधरा
(iii) महामाया
(iv) प्रजापति गौतमी।
उत्तर-
(i) त्रिशला

प्रश्न 9.
स्वामी महावीर जी के जन्म से पूर्व उनकी माता जी को कितने स्वप्न आए थे ?
(i) 8
(ii) 10
(iii) 12
(iv) 14.
उत्तर-
(iv) 14.

प्रश्न 10.
स्वामी महावीर जी के बचपन का नाम क्या था ?
(i) वर्धमान
(ii) सिद्धार्थ
(ii) राहुल
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i) वर्धमान

प्रश्न 11.
स्वामी महावीर जी की ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी आयु कितनी थी ?
(i) 20 वर्ष
(ii) 30 वर्ष
(iii) 35 वर्ष
(iv) 42 वर्ष।
उत्तर-
(iv) 42 वर्ष।

प्रश्न 12.
स्वामी महावीर जी को ज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई थी ?
(i) जरिमबिक गाँव
(ii) बौद्ध गया
(ii) वैशाली
(iv) कुंडग्राम।
उत्तर-
(i) जरिमबिक गाँव

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में कौन-सा स्वामी महावीर जी का प्रचार केंद्र नहीं था ?
(i) राजगृह
(ii) वैशाली
(iii) अंग
(iv) पुरुषपुर।
उत्तर-
(iv) पुरुषपुर।

प्रश्न 14.
स्वामी महावीर जी को कहाँ निर्वाण प्राप्त हुआ था ?
(i) विदेह
(ii) अंग
(iii) राजगृह
(iv) पावा।
उत्तर-
(iv) पावा।

प्रश्न 15.
स्वामी महावीर जी की निर्वाण प्राप्ति के समय उनकी आयु कितनी थी ?
(i) 60 वर्ष
(ii) 62 वर्ष
(iii) 72 वर्ष
(iv) 80 वर्ष।
उत्तर-
(iii) 72 वर्ष

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से कौन-सा धर्म त्रि-रत्नों में विश्वास रखता था ?
(i) बौद्ध धर्म
(ii) जैन धर्म
(iii) ईसाई धर्म
(iv) पारसी धर्म।
उत्तर-
(ii) जैन धर्म

प्रश्न 17.
जैन धर्म कितनी सच्चाइयों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(i) 5
(iii) 7
(iv) 9.
उत्तर-
(iv) 9.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 8 जैन धर्म की नैतिक शिक्षाएँ

प्रश्न 18.
जैन धर्म जीव के बंधन का मुख्य कारण किसे मानते हैं ?
(i) पाप
(ii) पुण्य
(iii) मोक्ष
(iv) अजीव।
उत्तर-
(i) पाप

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सी स्वामी महावीर जी की शिक्षा नहीं है ?
(i) वह अहिंसा में विश्वास रखते थे
(ii) वह कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे ।
(iii) वह समानता में विश्वास रखते थे
(iv) वह ईश्वर में विश्वास रखते थे।
उत्तर-
(iv) वह ईश्वर में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 20.
जैन धर्म कितने अनुव्रतों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(ii) 5
(iii) 7
(iv) 9.
उत्तर-
(ii) 5

प्रश्न 21.
जैन धर्म के अनुसार हिंसा कितने प्रकार की होती है ?
(i) 2
(ii) 3
(iii) 4
(iv) 5.
उत्तर-
(i) 2

प्रश्न 22.
कौन-सा तत्व जीव और पुदगल के मध्य गति पैदा करता है ?
(i) पुदगल
(ii) धर्म
(iii) अधर्म
(iv) पाप।
उत्तर-
(ii) धर्म

प्रश्न 23.
अजीविक संप्रदाय का संस्थापक कौन था ?
(i) गोशाल
(ii) स्वामी महावीर
(iii) वीराजी
(iv) भीखनजी।
उत्तर-
(i) गोशाल

प्रश्न 24.
निम्नलिखित में से कौन जैन धर्म के साथ संबंधित संप्रदाय नहीं हैं ?
(i) दिगंबर
(ii) श्वेतांबर
(iii) लोंक
(iv) महायान।
उत्तर-
(iv) महायान।

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प्रश्न 25.
निम्नलिखित में से कौन-सा धर्म जैन धर्म के साथ संबंधित नहीं है ?
(i) दीपवंश
(ii) कल्पसूत्र
(iii) भगवती सूत्र
(iv) आचारंग सूत्र।
उत्तर-
(i) दीपवंश

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता)

Punjab State Board PSEB 5th Class Hindi Book Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता) Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 5 Hindi Chapter 9 तितली रानी (कविता) (2nd Language)

तितली रानी (कविता) अभ्यास

नीचे गुरुमुखी और देवनागरी लिपि में दिये गये शब्दों को पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखने का अभ्यास करो :

  • ਤਿਤਲੀ = तितली
  • ਬਸੰਤ = बसंत
  • ਰੰਗੋਲੀ = रंगोली
  • ਗਿਆਨੀ = सयानी
  • ਨਾਨੀ = नानी
  • ਪਰੀ = परी

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता)

नीचे एक ही अर्थ के लिए पंजाबी और हिंदी भाषा में शब्द दिये गये हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ो और हिंदी शब्दों को लिखो :

  • ਖੰਭ = पंख
  • ਵਨ-ਸੁਵੰਨੀ = रंग-बिरंगी
  • ਰੁੱਤ = ऋतु
  • ਹੱਥ = हाथ
  • ਸਪਨਾ = स्वप्न
  • ਸੁਨਹਿਰਾ/ਸੋਨਾ = स्वर्ण

पढ़ो, समझो और लिखो

स् + व = स्व, प् + न = प्न = स्वप्न
स् + व + र् + ण = स्व र्ण

कविता की पंक्तियाँ पूरी करो :

(1) रंग-बिरंगी ………………………………..,
पंखों पर ………………………………..।

(2) रुत बसंत में ………………………………..,
गीत खुशी के ………………………………..।
उत्तर :
(1) रंग-बिरंगी जिसकी चोली।
पंखों पर जिसके रंगोली।

(2) रुत बसन्त में आती तितली,
गीत खुशी के गाती तितली।

बताओ

प्रश्न 1.
तितली के पंख कैसे होते हैं?
उत्तर :
तितली के पंख रंग-बिरंगे होते हैं।

प्रश्न 2.
तितली किस ऋतु में दिखाई देती है?
उत्तर :
तितली वसन्त ऋतु में दिखाई देती है।

प्रश्न 3.
नानी किसकी कहानी सुनाया करती थी?
उत्तर :
नानी स्वर्ण परी की कहानी सुनाया करती थी।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता)

तुक मिलाओ

  1. चोली = रंगोली
  2. सजाती = ………………………………..
  3. इठलाती = ………………………………..
  4. आती = ………………………………..

उत्तर :

  1. चोली = रंगोली।
  2. सजाती = शर्माती।
  3. इठलाती = लुभाती।
  4. आती = गाती।

वाक्य बनाओ

  1. रंग-बिरंगी
  2. बसंत
  3. कहानी
  4. सयानी

उत्तर :

  1. रंग-बिरंगी-लाल किला रंगबिरंगी रोशनी से सजा हुआ था।
  2. बसन्त-बसन्त में रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं।
  3. कहानी-नानी माँ ने हमें कहानी सुनाई।
  4. सयानी-रानी अब सयानी हो गई है।

रचनात्मक कौशल

तितली को उड़ते हुए देखो। तितली का चित्र बनाओ। उसमें रंग भरो।

अध्यापन निर्देश

1. अध्यापक गीत एवं अभिनय प्रणाली द्वारा कविता का सस्वर गायन करवाए। बच्चों के मन में प्राकृतिक वस्तुओं के प्रति प्रेम जागृत करे।
2. पाठ में ‘ऋतु’ को बोलचाल की भाषा में ‘रुत’ कहा गया है।
3. अध्यापक बच्चों को सभी ऋतुओं का ज्ञान देते हुए विशेष रूप से ऋतुराज बसंत ऋतु’ के बारे में बताये।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता)

तितली रानी (कविता) बहुवैकल्पिक प्रश्न

प्रश्न 1.
पंजाबी शब्द ‘उिँउली’ का हिन्दी अर्थ है : चितली/तितली/पुतली/नेतरी
उत्तर :
तितली

प्रश्न 2.
पंजाबी शब्द ‘व’ का हिन्दी अर्थ है : हल्की/हाथी/हाथ/हाथों
उत्तर :
हाथ

प्रश्न 3.
तितली के पंख कैसे होते हैं?
(i) रंग
(ii) बिरंगे
(iii) रंग-बिरंगे
(iv) बेरंग।
उत्तर :
(iii) रंग-बिरंगे

प्रश्न 4.
नानी किसकी कहानी सनाया करती थी?
(i) स्वर्ण की
(ii) परी की
(iii) स्वर्ण – परी की
(iv) राक्षस की।
उत्तर :
(iii) स्वर्ण-परी की

प्रश्न 5.
चोली से तुकबन्दी करते हुए शब्द मिलाएँ।
सही पर गोला लगाओ।
(i) रंगोली
(ii) तुली
(iii) कुली
(iv) टुली।
उत्तर :
(i) रंगोली

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता)

प्रश्न 6.
‘इठलाती’ से तुकबन्दी करते हुए शब्द मिलाएं।
(i) जीती
(ii) लुभाती
(iii) पत्री
(iv) छत्री।
उत्तर :
(ii) लुभाती।

तितली रानी (कविता) Summary in Hindi

1. तितली रानी, तितली रानी,
अपने घर को बड़ी सयानी।
रंग-बिरंगी जिसकी चोली,
पंखों पर जिसके रंगोली।
फूलों पर उड़ती-इठलाती,
बच्चों को यह बहुत लुभाती॥

शब्दार्थ :

  • सयानी = समझदार।
  • चोली = वस्त्र।।
  • इठलाती = गर्व करती।
  • लुभाती = अच्छी लगती है।

सरलार्थ-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कविता ‘तितली रानी’ से ली गई हैं। उसमें कवि तितली की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहता है कि तितली रानी अपने घर के लिए बहुत समझदार है। उसके रंग-बिरंगे पंख हैं। ऐसा लगता है जैसे उसके पंखों पर किसी ने रंगदार रंगोली सजा दी है। फूलों पर यह इठलाती हुई उड़ती जाती है। बच्चों को भी यह बहुत अच्छी लगती है।

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता) 1

2. आँखों में यह स्वप्न सजाती,
हाथ लगाने से शर्माती।
रुत बसन्त में आती तितली,
गीत खुशी के गाती तितली।
कभी कहा करती थी नानी,
स्वर्ण परी की एक कहानी।
तितली रानी, तितली रानी,
अपने घर को बड़ी सयानी॥

PSEB 5th Class Hindi Solutions Chapter 9 तितली रानी (कविता)

शब्दार्थ :

  • स्वप्न = सपने।
  • शर्माती = लज्जाती।
  • रुत = ऋतु, मौसम।
  • खुशी = प्रसन्नता।
  • स्वर्ण-परी = सुनहरी परी।
  • सयानी = समझदार।

सरलार्थ-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि तितली की सुन्दरता की प्रशंसा करते हुए कहता है कि यह सुन्दरतितली अपनी आँखों में सुन्दर सपने सजाती है। हाथलगाने से वह शरमा जाती है। जब बसन्त ऋतु आतीहै तब यह तितली प्रसन्नता से भर कर खुशी के गीत गाती है। कवि कहता है कि कभी हमें नानी सुनहरीपरी की एक कहानी सुनाती थी। तितली को देखकरहमें लगता है कि यही वह सुनहरी परी है। तितलीरानी, अपने घर के लिए बड़ी समझदार है।

तितली रानी (कविता) शब्दार्थ Meanings

  • रंगोली = अलग-अलग रंगों का मेल, त्योहार आदि पर रंगीन बुरादे से फर्श पर की जाने वाली चित्रकारी
  • स्वप्न = सपना
  • रुत = ऋतु
  • लुभाना = मोहित करना
  • स्वर्ण = सोना