PSEB 11th Class History Solutions उद्धरण संबंधी प्रश्न

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions उद्धरण संबंधी प्रश्न.

PSEB 11th Class History Solutions उद्धरण संबंधी प्रश्न

Unit 1

(1)

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए।
सिन्धु घाटी की सभ्यता से हमारा अभिप्राय उस प्राचीन सभ्यता से है जो सिन्धु नदी की घाटी में फली-फूली। इस सभ्यता के लोगों ने नगर योजना, तकनीकी विज्ञान, कृषि तथा व्यापार के क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिभा का परिचय दिया।
श्री के० एम० पानिक्कर के शब्दों में “सैंधव लोगों ने उच्चकोटि की सभ्यता का विकास कर लिया था।” (“A very high state of civilization had been reached by the people of the Indus.”)
यदि गहनता से सिन्धु घाटी की सभ्यता का अध्ययन किया जाए तो इतिहास की अनेक गुत्थियां सुलझाई जा सकती हैं। सिन्धु घाटी का धर्म आज के हिन्दू धर्म से मेल खाता है। उनकी कला-कृतियां उत्कृष्टता लिए हुए थीं। उनकी लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई। इसे पढ़े जाने पर सिन्धु घाटी का चित्र अधिक स्पष्ट हो जाएगा।

1. केवल मोहनजोदड़ो से प्राप्त मोहरों की संख्या बताएं। इन मोहरों का प्रयोग किस लिए किया जाता था ?
2. भारतीय सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति की क्या देन है ?
उत्तर-
1. मोहनजोदड़ो से 1200 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। इनका प्रयोग सामान के गट्ठरों या भरे बर्तनों की सुरक्षा अथवा उन पर ‘सील’ लगाने के लिए किया जाता था।
2. सिन्धु घाटी की सभ्यता के निम्नलिखित चार तत्त्व आज भी भारतीय जीवन में देखे जा सकते हैं :

  • नगर योजना-सिन्धु घाटी के नगर एक योजना के अनुसार बसाए गए थे। नगर में चौड़ी-चौड़ी सड़कें और गलियां थीं। यह विशेषता आज के नगरों में देखी जा सकती है।
  • निवास स्थान-सिन्धु घाटी के मकानों में आज की भान्ति खिड़कियां और दरवाज़े थे। हर घर में एक आंगन, स्नान गृह तथा छत पर जाने के लिए सीढ़ियां थीं।।
  • आभूषण एवं श्रृंगार-आज की स्त्रियों की भान्ति सिन्धु घाटी की स्त्रियां भी श्रृंगार का चाव रखती थीं। वे सुर्थी तथा पाऊडर का प्रयोग करती थीं और विभिन्न प्रकार के आभूषण पहनती थीं। उन्हें बालियां, कड़े तथा । गले का हार पहनने का बहुत शौक था।
  • धार्मिक समानता-सिन्धु घाटी के लोगों का धर्म आज के हिन्दू धर्म से बहुत हद तक मेल खाता है। वे शिव, मातृ देवी तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करते थे। आज भी हिन्दू लोगों में उनकी पूजा प्रचलित है।

(2)

मोहरें प्राचीन शिल्पकला को सिन्धु घाटी की विशिष्ट देन समझी जाती है। केवल मोहनजोदड़ो से ही 1200 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। ये कृतियां भले ही छोटी हैं फिर भी इन की कला इतनी श्रेष्ठ है कि इनके चित्रों में शक्ति और ओज झलकता है। इनका प्रयोग सामान के गट्ठरों या भरे बर्तनों की सुरक्षा के लिए किया जाता था। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि मोहरों का प्रयोग एक प्रकार का प्रतिरोधक (taboo) लगाने के लिए होता था। इन मोहरों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी के समाज में विभिन्न पदवियों और उपाधियों की व्यवस्था प्रचलित थी। इन मोहरों पर पशुओं तथा मनुष्यों की आकृतियां बनी हुई हैं। पशुओं से सम्बन्धित आकृतियां बड़ी कलात्मक हैं। परन्तु मोहरों पर बनी मानवीय आकृतियां उतनी कलात्मकता से नहीं बनी हुई हैं। मोहरों के अधिकांश नमूने उनकी किसी धार्मिक महत्ता के सूचक हैं। एक आकृति के दाईं तरफ हाथी और चीता हैं, बाईं ओर गैंडा और भैंसा हैं। उनके नीचे दो बारहसिंगे या बकरियां हैं। इन ‘पशुओं के स्वामी’ को शिव का पशुपति रूप समझा जाता है। मोहरों पर पीपल के वृक्ष के बहुत चित्र मिले हैं।

1. सिन्धु घाटी की सभ्यता के धर्म की विशेषताएं क्या थी ?
2. सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि के बारे में अब तक क्या पता चल सका है ?
उत्तर-1. खुदाई में एक मोहर मिली है जिस पर एक देवता की मूर्ति बनी हुई है। देवता के चारों ओर कुछ पशु दिखाए गए हैं। इनमें से एक बैल भी है। सर जॉन मार्शल का कहना है कि यह पशुपति महादेव की मूर्ति है और लोग इसकी पूजा करते थे। खुदाई में मिली एक अन्य मोहर पर एक नारी की मूर्ति बनी हुई है। इसने विशेष प्रकार के वस्त्र पहने हुए हैं। विद्वानों का मत है कि यह धरती माता (मातृ देवी) की मूर्ति है और हड़प्पा संस्कृति के लोगों में इसकी पूजा प्रचलित थी। लोग पशु-पक्षियों, वृक्षों तथा लिंग की पूजा में भी विश्वास रखते थे। वे जिन पशुओं की पूजा करते थे, उनमें से कूबड़ वाला बैल, सांप तथा बकरा प्रमुख थे। उनका मुख्य पूजनीय वृक्ष पीपल था। खुदाई में कुछ तावीज़ इस बात का प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के लोग अन्धविश्वासी थे और जादू-टोनों में विश्वास रखते थे।

2. सिन्धु घाटी के लोगों ने एक विशेष प्रकार की लिपि का आविष्कार किया जो चित्रमय थी। यह लिपि खुदाई में मिली मोहरों पर अंकित है। यह लिपि बर्तनों तथा दीवारों पर लिखी हुई भी पाई गई है। इनमें 270 के लगभग वर्ण हैं। इसे बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है। यह लिपि आजकल की तथा अन्य ज्ञात लिपियों से काफ़ी भिन्न है, इसलिए इसे पढ़ना बहुत ही कठिन है। भले ही विद्वानों ने इसे पढ़ने के लिए अथक प्रयत्न किए हैं तो भी वे अब तक इसे पूरी तरह पढ़ नहीं पाए हैं। आज भी इसे पढ़ने के प्रयत्न जारी हैं। अतः जैसे ही इस लिपि को पढ़ लिया जाएगा, सिन्धु घाटी की सभ्यता के अनेक नए तत्त्व प्रकाश में आएंगे।

(3)

भारतीय आर्य सम्भवतः मध्य एशिया से भारत में आये थे। आरम्भ में ये सप्त सिन्धु प्रदेश में आकर बसे और लगभग 500 वर्षों तक यहीं टिके रहे। ये मूलतः पशु-पालक थे और विशाल चरागाहों को अधिक महत्त्व देते थे। परन्तु धीरे-धीरे वे कृषि के महत्त्व को समझने लगे। अधिक कृषि उत्पादन की खपत के लिए नगरों का विकास भी होने लगा। फलस्वरूप आर्य लोग एक विशाल क्षेत्र में फैलते गए। इस प्रकार कृषि तथा नगरों के विकास ने आर्यों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ अन्य तत्त्वों ने भी उनके प्रसार में सहायता पहुंचाई।

1. भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में कौन-से क्षेत्र बताए जाते हैं ?
2. आर्य लोग यमुना नदी की पूर्वी दिशा में कब बढ़े ? उनके इस दिशा में विस्तार के क्या कारण थे ?
उत्तर-
1. भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में मुख्य रूप से मध्य एशिया अथवा सप्त सिन्धु प्रदेश, उत्तरी ध्रुव तथा मध्य एशिया के क्षेत्र बताए जाते हैं। मध्य प्रदेश तथा सप्त सिन्धु प्रदेश का सम्बन्ध प्राचीन भारत से है।
2. आर्य लोग लगभग 500 वर्ष तक सप्त सिन्धु प्रदेश में रहने के पश्चात् यमुना नदी के पूर्व की ओर बढ़े। इस दिशा में उनके विस्तार के मुख्य कारण ये थे। इस समय तक आर्यों ने सप्त सिन्धु के अनेक लोगों को दास बना रखा था। इन दासों से वे जंगलों को साफ करने के लिए भेजते थे। जहां कहीं जंगल साफ हो जाते वहां वे खेती करने लगते थे। उस समय आर्य लोहे के प्रयोग से भी परिचित हो गए। लोहे से बने औजार तांबे अथवा कांसे के औज़ारों की अपेक्षा अधिक मज़बूत और तेज थे। इन औज़ारों की सहायता से वनों को बड़ी संख्या में साफ किया जाता था। आर्यों के तीव्र विस्तार का एक अन्य कारण यह था कि सिन्धु घाटी का सभ्यता की सीमाओं के पार कोई शक्तिशाली राज्य अथवा कबीला नहीं था। परिणाम स्वरूप आर्यों को किसी विरोधी का सामना न करना पड़ा और वे बिना किसी बाधा विस्तार करते गए।

(4)

आर्यों के धर्म में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ भी होते थे जिनमें सारा गांव या कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों के रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे। इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि इन्द्र देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान तथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा हुई मानी गई थी।

1. राजसूय यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
2. आर्यों के मुख्य देवताओं के बारे में बताएं।
उत्तर-
1. राजसूय यज्ञ राज्य में दैवी शक्ति का संचार करने के लिए किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि राजपद को दैवी देन माना जाने लगा था।
2. ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी, तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य लोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है। आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की ही उपासना की जाती थी। इन्द्र के अतिरिक्त वे रुद्र, अग्नि, पृथ्वी, वायु, सोम आदि देवताओं की उपासना भी करते थे।

(5)

जैन धर्म और बौद्ध धर्म का उदय छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ। इस समय तक देश के राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में नए विचार उभर रहे थे। देश में कुछ बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो चुके थे। इनमें शासक नवीन विचारों के पनपने का कोई विरोध नहीं कर रहे थे। इसी प्रकार सामाजिक एवं धार्मिक वातावरण भी नवीन धार्मिक आन्दोलनों के उदय के अनुकूल था। वैदिक धर्म में अनेक कुरीतियां आ गई थीं। व्यर्थ के रीति-रिवाजों, महंगे यज्ञों और ब्राह्मणों के झूठे प्रचार के कारण यह धर्म अपनी लोकप्रियता खो चुका था। इन सब कुरीतियों का अन्त करने के लिए देश में लगभग 63 नये धार्मिक आन्दोलन चले जिनका नेतृत्व विद्वान् हिन्दू कर रहे थे। परन्तु ये सभी धर्म लोकप्रिय न हो सके। केवल दो धर्मों को छोड़कर शेष सभी समाप्त हो गये। ये दो धर्म थे-जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म।

1. महात्मा बुद्ध के जन्म और मृत्यु से सम्बन्धित स्थानों के नाम बताएं।
2. महात्मा बुद्ध अथवा बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1. महात्मा बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी वाटिका में हुआ। उनकी मृत्यु कुशीनगर के स्थान पर हुई।
2. महात्मा बुद्ध ने लोगों को जीवन का सरल मार्ग सिखाया। उन्होंने लोगों को बताया कि संसार दुःखों का घर है। दुःखों का कारण तृष्णा है। निर्वाण प्राप्त करके ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छूट सकता है। निर्वाण-प्राप्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों को अहिंसा, नेक काम तथा सदाचार पर चलने के लिए कहा। सच तो यह है कि बौद्ध धर्म ने व्यर्थ के रीति-रिवाजों यज्ञों तथा कर्मकाण्डों को त्यागने पर बल दिया।

(6)

जैनियों ने अपने तीर्थंकरों की याद में विशाल मंदिर तथा मठ बनवाए। ये मंदिर अपने प्रवेश द्वारों तथा सुन्दर मूर्तियों के कारण प्रसिद्ध थे। दिलवाड़ा का जैन मन्दिर ताजमहल को लजाता है। कहते हैं कि मैसूर में बनी जैन धर्म की सुन्दर मूर्तियां दर्शकों को आश्चर्य में डाल देती हैं। इसी प्रकार आबू पर्वत का जैन-मन्दिर, एलोरा की गुफाएं तथा खुजराहो के जैन मन्दिर कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। जैन धर्म में इस महान् योगदान की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जैन धर्म के अनुयायियों ने लोक भाषाओं का प्रचार किया। उनका अधिकांश साहित्य संस्कृत की बजाय स्थानीय भाषाओं में लिखा गया। यही कारण है कि कन्नड़ साहित्य आज भी अपने उत्कृष्ट साहित्य के लिए जैन धर्म का आभारी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के साहित्य में खूब योगदान दिया।

1. सबसे अधिक प्रभावशाली जैन मन्दिर कौन-से दो स्थानों पर हैं ?
2. महावीर की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन के लिए क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
1. सबसे अधिक प्रभावशाली जैन मन्दिर राजस्थान में आबू पर्वत पर तथा मैसूर में श्रावणवेलगोला में हैं।
2. महावीर की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन में बड़ा महत्त्व था। इसका वर्णन इस प्रकार है-

  • उन्होंने जाति-प्रथा का घोर विरोध किया। इससे भारतीय समाज में लोगों का आपसी मेल-जोल बढ़ने लगा। भेदभाव का स्थान सहकारिता ने ले लिया। ऊंच-नीच की भावना समाप्त होने लगी और समाज प्यार और भाईचारे की भावनाओं से ओत-प्रोत हो गया।
  • महावीर ने लोगों को समाज-सेवा का उपदेश दिया। अतः लोगों की भलाई के लिए जैनियों ने अनेक संस्थाएं स्थापित की। इससे न केवल जनता का ही भला हुआ बल्कि दूसरे धर्मों के अनुयायियों को भी समाज सेवा के कार्य करने का प्रोत्साहन मिला।
  • जैन धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर ब्राह्मणों ने भी पशु-बलि, कर्म-काण्ड तथा अन्य कुरीतियों का त्याग करना शुरू कर दिया। इस प्रकार वैदिक धर्म भी काफ़ी सरल बन गया।
  • इसके अतिरिक्त महावीर ने अहिंसा पर बल दिया। अहिंसा के सिद्धान्त को अपना कर लोग मांसाहारी से शाकाहारी बन गए। उनका जीवन सरल तथा संयमी बना।

(7)

जय देवानांपिय पिपदरसी ने अपने शासन के आठ वर्ष पूरे किए तो उन्होंने कलिंग (आधुनिक तटवर्ती ओडिशा) पर विजय प्राप्त की। डेढ़ लाख पुरुषों को निष्काषित किया गया। एक लाख मारे गए और इससे भी ज्यादा की मृत्यु हुई। कलिंग पर शासन स्थापित करने के बाद देवानांपिय धम्म के गहन अध्ययन, धम्म के स्नेह और धम्म के उपदेश में डूब गए हैं। यही देवानांपिय के लिए कलिंग की विजय का पश्चात्ताप है। देवानांपिय के लिए यह बहुत वेदनादायी और निदनीय है कि जब कोई किसी राज्य पर विजय प्राप्त करता है तो पराजित राज्य का हनन होता है, वहां लोग मारे जाते हैं, निष्कासित किए जाते हैं।

1. ‘देवानांपिप पियदरसी’ किसे पुकारते थे ? उनका संक्षेप में वर्णन कीजिए।
2. अशोक पर कलिंग युद्ध के पड़े प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
1. ‘देवानांपिय पियदरसी’ सम्राट असोक (अशोक) को पुकारते हैं। उन्होनें कलिंग (आधुनिक तटवर्ती ओडिशा) पर विजय प्राप्त की थी।
2. कलिंग युद्ध के अशोक पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े

  • उन्होंने युद्धों का सदा के लिए त्याग कर दिया।
  • वह धम्म के अध्ययन, धम्म के स्नेह तथा धम्म के उपदेश में डूब गए।
  • वह प्रजा-हितकारी शासक बन गए।

(8)

यह प्रयाग प्रशस्ति का एक अंश है :
धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों और शुभकार्यों में संपन्न उन्होनें पैर के तलबे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया है। वे परमात्मा पुरुष हैं, साधु (भले) की समृद्धि और असाधु (बुरे) के विनाश के कारण हैं। वे अज्ञेय हैं। उनके कोमल हृदय को भक्ति और विनय से ही वश में किया जा सकता है। वे करुणा से भरे हुए हैं। वे अनेक सहस्त्र गांवों के दाता है। उनके मस्तिष्क की दीक्षा दीन-दुखियों, विरहणियों और पीड़ितों के उद्धार के लिए की गई है। वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति है। वे देवताओं के कुबेर (धन-देव), वरुण (समुद्र-देव), इंद्र (वर्षा के देवता) और यम (मृत्यु-देव) के तुल्य हैं।

1. समुद्रगुप्त कौन था ? उनकी तुलना किन देवताओं से की गई है ?
2. लेखक ने समुद्रगुप्त के किन गुणों अथवा सफलताओं का उल्लेख किया है ? कोई चार बताइए।
उत्तर-
1. समुद्र गुप्त संभवतः सबसे शक्तिशाली गुप्त सम्राट था। उसकी तुलना धन-देव कुबेर, समुद्र-देव वरुण, वर्षा के देवता
इंद्र तथा मृत्यु-देव यम से की गई है।
2. हरिषेण के अनुसार-

  • धरती पर समुद्रगुप्त का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। उन्होंने अपने पैर के तलबे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया था।
  • वह परमात्मा पुरुष थे-साधु (भले) की समृद्धि तथा असाधु (बुरे) के विनाश कारण।
  • वह अजेय थे।
  • उनके कोमल मन को भक्ति और विनय से ही वश में किया जा सकता था।

(9)

गुप्त काल में गणित, ज्योतिष तथा चिकित्सा विज्ञान में काफ़ी प्रगति हुई-
आर्यभट्ट गुप्त युग का महान् गणितज्ञ तथा ज्योतिषी था। उसने ‘आर्यभट्टीय’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यह अंकगणित, रेखागणित तथा बीजगणित के विषयों पर प्रकाश डालता है। उसने गणित को स्वतन्त्र विषय के रूप में स्वीकार करवाया। संसार को ‘बिन्दु’ का सिद्धान्त भी उसी ने दिया। आर्यभट्ट पहला व्यक्ति था जिसने यह घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उसने सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के वास्तविक कारणों पर भी प्रकाश डाला।

गुप्त युग का दूसरा महान् ज्योतिषी अथवा नक्षत्र-वैज्ञानिक वराहमिहिर था। उसने ‘पंच सिद्धान्तिका’, ‘बृहत् संहिता’ तथा ‘योग-यात्रा’ आदि ग्रन्थों की रचना की। ब्रह्मगुप्त एक महान् ज्योतिषी तथा गणितज्ञ था। उसने न्यूटन से भी बहुत पहले गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को स्पष्ट किया। वाग्यभट्ट इस युग का महान् चिकित्सक था। उसका ‘अष्टांग संग्रह’ नामक ग्रन्थ चिकित्सा जगत् के लिए अमूल्य निधि है। इसमें चरक तथा सुश्रुत नामक महान् चिकित्सकों की संहिताओं का सार दिया गया है। इस काल में पाल-काव्य ने ‘हस्त्यायुर्वेद’ की रचना की। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध पशु चिकित्सा से है। लोगों को उस समय रसायनशास्त्र तथा धातु विज्ञान का भी ज्ञान था।

1. चिकित्सा के क्षेत्र में दो प्रसिद्ध गुप्तकालीन विद्वानों के नाम बताओ।
2. आर्यभट्ट का खगोल विज्ञान में क्या योगदान था ?
उत्तर-
1. चिकित्सा के क्षेत्र में दो प्रसिद्ध गुप्तकालीन विद्वान् थे-चरक और सुश्रुत।
2. आर्यभट्ट गुप्त काल का एक महान् वैज्ञानिक एवं खगोलशास्त्री था। उसने अपनी नवीन खोजों द्वारा खगोलशास्त्र को काफ़ी समृद्ध बनाया। ‘आर्य भट्टीय’ उसका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उसने यह सिद्ध किया कि सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण, राहू और केतू नामक राक्षसों के कारण नहीं लगते बल्कि जब चन्द्रमा कार्य और पृथ्वी के बीच में आ जाता है तो चन्द्रग्रहण होता है। आर्यभट्ट ने स्पष्ट रूप में यह लिख दिया था कि सूर्य नहीं घूमता बल्कि पृथ्वी ही अपनी धुरी के चारों ओर घूमती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि खगोल विज्ञान में आर्यभट्ट ने महान् योगदान दिया।

(10)

गप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। देश में अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य उभर आये थे। इनमें से एक थानेश्वर का वर्धन राज्य भी था। प्रभाकर वर्धन के समय में यह काफ़ी शक्तिशाली था। उसकी मृत्यु के बाद 606 ई० में हर्षवर्धन राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। वैसे भी हर्ष अपने राज्य की सीमाओं में वृद्धि करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अनेक सैनिक अभियान किए। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार उसने देश में राजनीतिक एकता की स्थापना की और देश को अच्छा शासन प्रदान किया।

1. हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाले चीनी यात्री का नाम बताओ और यह कब से कब तक भारत में रहा ?
2. हर्षवर्धन के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
1. हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाला चीनी यात्री ह्यनसांग था। वह 629 से 645 ई० तक भारत में रहा।
2. हर्षवर्धन एक महान् चरित्र का स्वामी था। उसे अपने परिवार से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को मुक्त करवाने और उसे ढूंढने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिरा। वह एक सफल विजेता तथा कुशल प्रशासक था। उसने थानेश्वर के छोटे से राज्य को उत्तरी भारत के विशाल राज्य का रूप दिया। वह प्रजाहितैषी और कर्तव्यपरायण शासक था। यूनसांग ने उसके शासन प्रबन्ध की बड़ी प्रशंसा की है। उसके अधीन प्रजा सुखी और समृद्ध थी। हर्ष धर्मपरायण और सहनशील भी था। उसने बौद्ध धर्म को अपनाया और सच्चे मन से इसकी सेवा की। उसने अन्य धर्मों का समान आदर किया। दानशीलता उसका एक अन्य बड़ा गुण था। वह इतना दानी था कि प्रयाग की एक सभा में उसने अपने वस्त्र भी दान में दे दिए थे और अपना तन ढांपने के लिए अपनी बहन से एक वस्त्र लिया था। हर्ष स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था और उसने कला और विद्या को संरक्षण प्रदान किया।

Unit 2

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए

(1)

आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। यह नगर हर्षवर्धन की राजधानी था। उत्तरी भारत में इस नगर की स्थिति बहुत अच्छी थी। क्योंकि इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा के मैदान पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे। इन राजवंशों ने बारी-बारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैन्य शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर तीनों राज्यों का पतन हो गया। राष्ट्रकूटों पर उत्तरकालीन चालुक्यों ने अधिकार कर लिया। प्रतिहार राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया और पाल वंश की शक्ति को चोलों ने समाप्त कर दिया।

1. कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम बताएं।
2. राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में क्या कमियां थीं ?
उत्तर-
1. कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम थे-पालवंश, प्रतिहार वंश तथा राष्ट्रकूट वंश।
2. राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में ये कमियां थी-

  • राजपूतों में आपसी ईष्या और द्वेष बहुत अधिक था। इसी कारण वे सदा आपस में लड़ते रहे। विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करते हुए उन्होंने कभी एकता का प्रदर्शन नहीं किया।
  • राजपूतों को सुरा, सुन्दरी तथा संगीत का बड़ा चाव था। किसी भी युद्ध के पश्चात् राजपूत रास-रंग में डूब जाते थे।
  • राजपूत समय में संकीर्णता का बोल-बाला था। उनमें सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा प्रचलित थी। वे तन्त्रवाद में विश्वास रखते थे जिनके कारण वे अन्ध-विश्वासी हो गये थे।
  • राजपूत समाज एक सामन्ती समाज था। सामन्त लोग अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। अत: लोग अपने सामन्त या सरदार के लिए लड़ते थे; देश के लिए नहीं।

(2)

नैतिक दृष्टिकोण से समस्त मुस्लिम जगत का धार्मिक नेता खलीफा माना जाता था। वह बगदाद में निवास करता था। परन्तु सुल्तान खलीफा का नाममात्र का प्रभुत्व स्वीकार करते थे। यद्यपि कुछ सुल्तान खलीफा के नाम से खुतबा पढ़वाते थे और सिक्कों पर भी उसका नाम अंकित करवाते थे, परन्तु यह प्रभुत्व केवल दिखावा मात्र था। वास्तविक सत्ता सुल्तान के हाथ में ही थी। वह केवल अपने पद को सुदृढ़ बनाने के लिए खलीफा से स्वीकृति प्राप्त कर लेते थे। सुल्तान की शक्तियां असीम थीं। उसकी इच्छा ही कानून थी। वह सेना का प्रधान और न्याय का मुखिया होता था। वास्तव में वह पृथ्वी पर भगवान् का प्रतिनिधि समझा जाता था।

1. दिल्ली सल्तनत की जानकारी के लिए स्रोतों के चार प्रमुख प्रकार बताएं।
2. क्या दिल्ली सल्तनत को एक धर्म-तन्त्र कहना उपयुक्त होगा ?
उत्तर-
1. दिल्ली सल्तनत की जानकारी के लिए स्रोतों के चार प्रमुख प्रकार हैं-समकालीन दरबारी इतिहासकारों के वृत्तान्त, कवियों की रचनाएं, विदेशी यात्रियों के वृत्तान्त तथा सिक्के।
2. धर्म-तन्त्र से हमारा अभिप्राय पूर्ण रूप से धर्म द्वारा संचालित राज्य से है। दिल्ली सल्तनत के कई सुल्तान खलीफा के नाम पर राज्य करते थे और कुछ ने तो अपने समय के खलीफा से मान्यता-पत्र भी लिया था। परन्तु वास्तव में खलीफा की मान्यता का सुल्तान की शक्ति का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। सुल्तान से शरीअत (इस्लामी कानून) के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा की जाती थी। परन्तु उसकी नीति एवं कार्य प्रायः उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करते थे। कभी-कभी शरीअत के कारण कुछ जटिल समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती थीं। ऐसे समय सुल्तान जानबूझ कर अनदेखी कर देते थे। वास्तव में जब कोई सुल्तान शरीअत की दुहाई देता था तो यह साधारणतः उसकी शासक के रूप में कमजोरी का चिन्ह माना जाता था। इसलिए दिल्ली सल्तनत को एक धर्म-तन्त्र समझना उचित नहीं होगा।

(3)

बलबन ने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक कार्य किए। सबसे पहले उसने ‘लौह और रक्त नीति’ द्वारा आन्तरिक विद्रोहों का दमन किया और राज्य में शान्ति स्थापित की। बलबन ने दोआब क्षेत्र के सभी लुटेरों और डाकुओं का वध करवा दिया। उसने मंगोलों से राज्य की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सैनिक सुधार किये। पुराने सिपाहियों के स्थान पर नये योग्य सिपाहियों को भर्ती किया गया। सीमावर्ती किलों को भी सुदृढ़ बनाया गया। उसने बंगाल के विद्रोही सरदार तुगरिल खां को भी बुरी तरह पराजित किया। बलबन ने राज दरबार में कड़ा अनुशासन स्थापित किया। उसने सभी शक्तिशाली सरदारों से शक्ति छीन ली ताकि वे कोई विद्रोह न कर सकें। उसने अपने राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछा दिया। इस प्रकार के कार्यों से उसने दिल्ली सल्तनत को आन्तरिक विद्रोहों और बाहरी आक्रमणों से पूरी तरह सुरक्षित बनाया। इसी कारण ही बलबन को दास वंश का महान् शासक कहा जाता है।

1. बलबन ने कौन-से चार प्रदेशों में विद्रोहों को दबाया ?
2. मंगोलों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए दिल्ली के सुल्तानों ने क्या पग उठाए ?
उत्तर-
1. बलबन ने बंगाल, दिल्ली, गंगा-यमुना दोआब, अवध एवं कोहर के प्रदेशों में विद्रोहों को दबाया।
2. मंगोलों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए दिल्ली के सुल्तानों ने अनेक पग उठाए। इस सम्बन्ध में बलबन तथा अलाऊद्दीन खिलजी की भूमिका विशेष महत्त्वपूर्ण रही जिसका वर्णन इस प्रकार है-

  • उन्होंने सीमावर्ती प्रदेशों में नए दुर्ग बनवाए और पुराने दुर्गों की मुरम्मत करवाई। इन सभी दुर्गों में योग्य सैनिक अधिकारी नियुक्त किए गए।
  • उन्होंने मंगोलों का सामना करने के लिए अपने सेना का पुनर्गठन किया। वृद्ध तथा अयोग्य सैनिकों के स्थान पर युवा सैनिकों की भर्ती की गई। सैनिकों की संख्या में भी वृद्धि की गई।
  • सुल्तानों ने द्वितीय रक्षा-पंक्ति की भी व्यवस्था की। इसके अनुसार मुल्तान, दीपालपुर आदि प्रान्तों में विशेष सैनिक टुकड़ियां रखी गईं और विश्वासपात्र अधिकारी नियुक्त किए। अत: यदि मंगोल सीमा से आगे बढ़ भी आते तो यहां उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ता।
  • सुल्तानों ने मंगोलों को पराजित करने के पश्चात् कड़े दण्ड दिए। इसका उद्देश्य उन्हें सुल्तान की शक्ति के आतंकित करके आगे बढ़ने से रोकना ही था।

(4)
विजयनगर के सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्णदेव राय (शासनकाल 1509-29) ने शासनकाल के विषय में अमुक्तमल्यद नामक तेलुगु भाषा में एक कृति लिखी। व्यापारियों के विषय में उसने लिखा :

एक राजा को अपने बंदरगाहों की सुधारना चाहिए और वाणिज्य को इस प्रकार प्रोत्साहित करना चाहिए कि घोड़ों, हाथियों, रत्नों, चंदन मोती तथा अन्य वस्तुओं का खुले तौर पर आयात किया जा सके……..उसे प्रबंध करना चाहिए कि उन विदेशी नाविकों जिन्हें तूफानों, बीमारी या थकान के कारण उनके देश में उतरना पड़ता है, की भली-भांति देखभाल की जा सके…..सुदूर देशों के व्यापारियों, जो हाथियों और अच्छे घोड़ों का आयात करते है, को रोज़ बैठक में बुलाकर, तोहफ़े देकर तथा उचित मुनाफे की स्वीकृति देकर अपने साथ संबद्ध करना चाहिए ऐसा करने पर ये वस्तुएं कभी भी तुम्हारे दुश्मनों तक नहीं पहुंचेगी।

1. विजयनगर का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था ? उसकी कृति का नाम तथा भाषा बताओ।
2. वह व्यापार एवं वाणिज्य की वृद्धि के लिए क्या-क्या पग उठाना चाहता था ? कोई तीन बिंदु लिखिए। इसका क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
1. विजयनगर का सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्णदेव राय था। उसकी कृति का नाम ‘अमुक्तमल्यद’ है जो तेलुगु भाषा में है।
2. व्यापार एवं वाणिज्य की वृद्धि के लिए वह

  • बंदरगाहों को सुधारना चाहता था।
  • घोड़ों, हाथियों, रत्नों, चंदन, मोती आदि वस्तुओं के आयात को प्रोत्साहन देना चाहता था।
  • राज्य में आने वाले विदेशी नाविकों की उचित देखभाल करना चाहता था। इन सबका उद्देश्य यह था कि वे वस्तुएं शत्रु के हाथ में पहुंच पाएं।

(5)
सन्त लहर के प्रचारक अवतारवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते थे। वे मूर्ति-पूजा के भी विरुद्ध थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है और वह मनुष्य के मन में निवास करता है। अतः परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराइयों में डूब जाना चाहिए। अन्तरात्मा से परमात्मा को खोज निकालने का नाम ही मुक्ति है। इस अनुभव से मनुष्य की आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन हो जाती है। सन्तों के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा तुल्य है। जिस किसी को भी सच्चा गुरु मिल जाता है, उसके लिए परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं है। संत जाति-प्रथा के भेदभाव के विरुद्ध थे। कुछ प्रमुख सन्तों के नाम इस प्रकार हैं-कबीर, नामदेव, सधना, रविदास, धन्ना तथा सैन जी। श्री गुरु नानक देव जी भी अपने समय के महान् सन्त हुए हैं।

1. गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से किन्हीं चार का नाम बताएं।
2. सन्त कौन थे ?
उत्तर-
1. गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से चार के नाम हैं-भक्त कबीर, नामदेव जी, रामानन्द जी तथा घनानन्द जी।
2. सन्त भक्ति-लहर के प्रचारक थे। उन्होंने 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के मध्य भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भक्ति लहर का प्रचार किया। लगभग सभी भक्ति प्रचारकों के सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक एक समान थे। परन्तु कुछ एक प्रचारकों ने विष्णु अथवा शिव के अवतारों की पूजा को स्वीकार न किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी खण्डन किया। उन्होंने वेद, कुरान, मुल्ला, पण्डित, तीर्थ स्थान आदि में से किसी को भी महत्त्व न दिया। वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि परमात्मा निराकार है। ऐसे सभी प्रचारकों को ही प्रायः सन्त कहा जाता है। वे प्रायः जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों का प्रचार करते थे।

(6)
यह रचना कबीर की मानी जाती है :
हे भाई यह बताओ, किस तरह हो सकता है
कि संसार में एक नहीं दो स्वामी हों ?
किसने तुम्हें भनित किया है ?
ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है : जैसे-अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि तथा हज़रत ।
विभिन्नताएं तो केवल शब्दों में हैं जिनका आविष्कार हम स्वयं करते हैं।
कबीर कहते हैं दोनों ही भुलावे में है।
इनमें से कोई एक नाम को प्राप्त नहीं कर सकता
एक बकरे को मारता है और दूसरा गाय को।
वे पूरा जीवन विवादों में ही गंवा देते हैं।

1. कबीर जी के अनुसार संसार में कितने स्वामी (ईश्वर) हैं ? लोग ईश्वर को कौन-कौन से नामों से पुकारते हैं ? ये नाम कहां से लिए गए ?
2. कबीर जी के अनुसार हिंदू तथा मूसलमान दोनों ही ईश्वर को नहीं पा सकते ? क्यों ?
उत्तर-
1. कबीर जी के अनुसार संसार का स्वामी एक ही है। लोग उसे अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि, हज़रत आदि नामों से पुकारते हैं। ये सभी नाम मनुष्य के अपने ही बनाए हुए हैं।
2. कबीर जी के अनुसार हिंदू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर को नहीं पा सकते क्योंकि वे विवादों में घिरे हुए है। दोनों ही पापी है। वे निर्दोष पशुओं का वध करते हैं।

(7)
श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के प्रवर्तक थे। इतिहास में उन्हें महान् स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपने जीवन में भटके लोगों को सत्य का मार्ग दिखाया और धर्मान्धता से पीड़ित समाज को राहत दिलाई। जिस समय श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ, उस समय पंजाब का सामाजिक तथा धार्मिक वातावरण अन्धकार में लिप्त था। लोग अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। हिन्दू और मुसलमानों में बड़ा भेदभाव था। श्री गुरु नानक देव जी ने इन सभी बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने ‘सत्यनाम’ का उपदेश दिया और लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया।

1. गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
2. गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ क्या थे ?
उत्तर-
1. गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवण्डी नामक स्थान पर हुआ।
2. गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ बड़े महत्त्वपूर्ण थे। उनका सन्देश सभी के लिए था। प्रत्येक स्त्री पुरुष उनके बताये मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उनके अनुयायियों में समानता के विचार को वास्तविक रूप संगत और लंगर की संस्थाओं में मिला। इसलिए यह समझना कठिन नहीं है कि गुरु नानक साहिब ने जात-पात पर आधारित भेदभावों का बड़े स्पष्ट शब्दों में खण्डन क्यों किया। उन्होंने अपने आपको जनसाधारण के साथ सम्बन्धित किया। इस स्थिति में उन्होंने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा ज़ोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

(8)
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई : (1) गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है, जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया। (2) गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को भड़का दिया और उनके मन में मुस्लिम राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। (3) इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

1. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन किन्होंने और कब सम्पूर्ण किया ?
2. गुरु अर्जन देव जी की शहीदी ने सिक्ख पंथ के इतिहास पर क्या प्रभाव डाला ?
उत्तर-
1. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में सम्पूर्ण किया।
2. गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख पंथ के इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

  • गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अत: मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी की शहीदी ने इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।
  • शहीदी ने सिक्खों के मन में मुग़ल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी।
  • इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए।

(9)
गुरु जी ने पांच प्यारों का चुनाव करने के पश्चात् पांच प्यारों को अमृतपान करवाया जिसे ‘खण्डे का पाहुल’ कहा जाता है। गुरु जी ने इन्हें आपस में मिलते समय ‘श्री वाहिगुरु जी का खालसा, श्री वाहिगुरु जी की फतेह’ कहने का आदेश दिया। इसी समय गुरु जी ने बारी-बारी पांचों प्यारों की आंखों तथा केशों पर अमृत के छींटे डाले और उन्हें (प्रत्येक प्यारे को) ‘खालसा’ का नाम दिया। सभी प्यारों के नाम के पीछे ‘सिंह’ शब्द जोड़ दिया गया। फिर गुरु जी ने पांच प्यारों के हाथ से स्वयं अमृत ग्रहण किया। इस प्रकार ‘खालसा’ का जन्म हुआ। गुरु जी का कथन था कि उन्होंने यह सब ईश्वर के आदेश से किया है। खालसा की स्थापना के अवसर पर गुरु जी ने ये शब्द कहे-“खालसा गुरु है और गुरु खालसा है। तुम्हारे और मेरे बीच अब कोई अन्तर नहीं है।”

1. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने कौन-से वर्ष, किस दिन और कहां पर खालसा की साजना की ?
2. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख पंथ में साम्प्रदायिक विभाजन तथा बाहरी खतरे की समस्या को कैसे हल किया ?
उत्तर-
1. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 ई० में वैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा की साजना की।
2. गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख धर्म में विद्यमान् अनेक सम्प्रदायों की तथा बाहरी खतरों की समस्या को भी बड़ी
कुशलता से निपटाया। सर्वप्रथम गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं से अनेक युद्ध किए और उन्हें पराजित किया। उन्होंने अत्याचारी मुग़लों का भी सफल विरोध किया। 1699 ई० में गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा की स्थापना करके अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए एक और महत्त्वपूर्ण पग उठाया। खालसा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिक्खों ने शस्त्रधारी का रूप धारण कर लिया। खालसा की स्थापना से गुरु जी को सिक्ख धर्म में विद्यमान् विभिन्न सम्प्रदायों से निपटने का अवसर भी मिला। गुरु जी ने घोषणा की कि सभी सिक्ख ‘खालसा’ का रूप हैं और उनके साथ जुड़े हुए हैं। इस प्रकार मसन्दों का महत्त्व समाप्त हो गया और सिक्ख धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय खालसा में विलीन हो गए।

Unit 3

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए।

(1)
औरंगज़ेब एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट् था और वह सारे भारत पर मुग़ल पताका फहराना चाहता था। इसके अतिरिक्त उसे दक्षिण में शिया रियासतों का अस्तित्व भी पसन्द नहीं था। दक्षिण के मराठे भी काफ़ी शक्तिशाली होते जा रहे थे। वह उनकी शक्ति को कुचल देना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने दक्षिण को विजय करने का निश्चय किया। उसने बीजापुर राज्य पर कई आक्रमण किए। कुछ असफल अभियानों के बाद 1686 ई० में वह इस पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा। अगले ही वर्ष उसने रिश्वत और धोखेबाजी से बीजापुर राज्य को भी अपने अधीन कर लिया। परन्तु इन दो राज्यों की विजय उसकी निर्णायक सफलता नहीं थी बल्कि उसकी कठिनाइयों का आरम्भ थी। अब उसे शक्तिशाली मराठों से सीधी टक्कर लेनी पड़ी। इससे पूर्व उसने वीर मराठा सरदार शिवाजी को दबाने के अनेक प्रयत्न किए थे, परन्तु उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी। अब मराठों का नेतृत्व शिवाजी के पुत्र शंभू जी के हाथ में था। 1689 ई० में औरंगजेब ने उसे पकड़ लिया और उसका वध कर दिया। औरंगज़ेब की यह सफलता भी एक भ्रम मात्र थी। मराठे शीघ्र ही पुनः स्वतन्त्र हो गए। इसके विपरीत औरंगजेब का बहुत-सा धन और समय दक्षिण के अभियानों में व्यर्थ नष्ट हो गया। यहां तक कि 1707 ई० में दक्षिण में अहमदनगर के स्थान पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार ‘दक्षिण’ औरंगज़ेब और मुग़ल साम्राज्य दोनों के लिए कब्र सिद्ध हुआ।

1. औरंगजेब दक्कन में किस वर्ष से किस वर्ष तक रहा ?
2. औरंगजेब की दक्षिण नीति की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
1. औरंगज़ेब दक्कन में 1682 ई० से 1707 ई० तक रहा।
2. औरंगज़ेब को दक्षिण की शिया रिसायतों का अस्तित्व पसन्द नहीं था। वह मराठों की शक्ति को भी कुचल देना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने दक्षिण को विजय करने का निश्चय किया। उसने गोलकुण्डा राज्य पर कई आक्रमण किए। कुछ असफल अभियानों के बाद 1687 ई० में वह इस राज्य पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा। अगले ही वर्ष उसने रिश्वत और धोखेबाजी से बीजापुर राज्य को अपने अधीन कर लिया। दक्षिण में मराठों का नेतृत्व शिवाजी के पुत्र शम्भा जी के हाथ में था। 1689 ई० में औरंगजेब ने उसे पकड़ लिया और उसका वध कर दिया। औरंगजेब की यह सफलता एक भ्रम मात्र थी। मराठे शीघ्र ही पुनः स्वतन्त्र हो गए। 1707 ई० में दक्षिण में अहमदनगर के स्थान पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार ‘दक्षिण’ औरंगजेब और मुग़ल साम्राज्य दोनों के लिए कब्र सिद्ध हुआ।

(2)
आइने में वर्गीकरण मापदंड की निम्नलिखित सूची दी गई है :
अकबर बादशाह ने अपनी गहरी दूरदर्शिता के साथ ज़मीनों का वर्गीकरण किया और हरेक (वर्ग की ज़मीन) के लिए अलग-अलग राजस्व निर्धारित किया। पोलज़ वह जमीन है जिसमें एक के बाद एक हर फसल की सालाना खेती होती है और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता है। परोती वह ज़मीन है जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह अपनी खोई ताकत वापस पा सके। छछर वह ज़मीन है जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है। बंजर वह ज़मीन है जिस पर पांच या उससे ज्यादा वर्षों से खेती नहीं की गई है। पहले दो प्रकार की ज़मीन की तीन किस्में है। अच्छी मध्यम और खराब वे हर किस्म की ज़मीन के उत्पाद को जोड़ देते है और इसका तीसरा हिस्सा मध्यम उत्पाद माना जाता है। जिसका एक तिहाई हिस्साशाही शुल्क माना जाता है।

1. भूमि के वर्गीकरण की यह सूची किस ग्रंथ से ली गई है ? इसका लेखक कौन था ?
2. किन्हीं तीन प्रकार की ज़मीनों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए
उत्तर-
1. भूमि के वर्गीकरण की यह सूची आईन से ली गई है। इसका लेखक अबुल फजल था।
2. (i) पोलज़-यह वह जमीन थी जिसमें एक के बाद एक हर फसल की खेती होती थी। इसे खाली नहीं छोड़ा जाती था।
(ii) परोती-इस ज़मीन को कुछ समय के लिए खाली छोड़ दिया जाता था ताकि वह अपनी खोई हुई उपजाऊ शक्ति फिर से प्राप्त कर ले।
(iii) छछर-इस भूमि को तीन-चार वर्षों तक खाली रखा जाता था।

(3)
जोवान्नी कारेरी के लेख (वर्नियर के लेख पर आधारित) के निम्नलिखित अंश से हमें पता चलता है कि मुग़ल साम्राज्य में कितनी भारी मात्रा में बाहर से धन आ रहा था-
(मुग़ल) साम्राज्य की धन-संपत्ति का अंदाजा लगाने के लिए पाठक इस बात पर गौर करें कि दुनिया भर में विचरने वाला सारा सोना-चांदी आखिकार यहीं पहुंच जाता है। ये सब जानते हैं कि इसका बहुत बड़ा हिस्सा अमेरिका से आता है, और यूरोप में कई राज्यों से होते हुए (इसका) थोड़ा-सा हिस्सा कई तरह की वस्तुओं के लिए तुर्की में जाता है, और थोड़ा-सा हिस्सा रेशम के लिए स्मिरना होते हुए फारस पहुंचता है। अब चूंकि तुर्की लोग कॉफी से अलग नहीं रह सकते, जो कि ओमान और अरबिया से आती है…..(और) न ही फारस, अरबिया और तुर्की (के लोग) भारत की वस्तुओं के बिना रह सकते हैं। (वे) मुद्रा की विशाल मात्रा लाल सागर पर केवल महेल के पास स्थित मोचा भेजते हैं। (इसी तरह वे ये मुद्राएं) फारस की खाड़ी पर स्थित पराग भेजते हैं…..बाद में ये (सारी सपत्ति) जहाजों में इंदोस्तान (हिंदुस्तान) भेज दी जाती है। भारतीय जहाजों के अलावा जो डच, अंग्रेज़ी और पुर्तगाली जहाज़ पर साल इंदोस्तान की वस्तुएं लेकर पेंगू, तानस्सेरी (म्यांमार के हिस्से) स्याम (थाइलैंड), सीलोन (श्रीलंका)….मालद्वीप के टापू, मोज़बीक और अन्य जगहों पर ले जाते हैं। (इन्हीं जहाज़ों को) निश्चित तौर पर बहुत सारा सोना-चांदी इन देशों से लेकर वहां (हिंदूस्तान) पहुंचाना पड़ता है। वो सब कुछ तो डच लोग जापान की खानों से हासिल करते है, देर-सवेर इंदोस्तान (को) चला जाता है, और यहां से यूरोप को जाने वाली सारी वस्तुएं, चाहे वो फ्रांस जाएं या इंग्लैंड या पुर्तगाल, सभी नकद में खरीदी जाती हैं, जो (नकद) वहीं (हिंदुस्तान) रह जाता है।

1. वर्नियर कौन था ?
2. मुग़ल-काल में विश्व भर में विचरने वाला सारा सोना-चांदी अंततः कहां और कैसे पहुंचता था ?
उत्तर-
1. वर्नियर एक विदेशी यात्री था जो फ्रांस में आया था।
2. मुग़लकाल में विश्व भर में विचरने वाला सारा सोना-चांदी अंततः भारत में पहुंचता था। इसका एक बहुत बड़ा भाग अमेरिका में जाता था। इसका एक थोड़ा-सा हिस्सा यूरोप के राज्यों से होते हुए तुर्की तथा एक और हिस्सा स्मिरना के रास्ते फारस पहुंचता था। परंतु तुर्की तथा फारस भारत की वस्तुओं के बिना नहीं रह सकते थे। अतः वहां पहुंचने वाला सोना-चांदी भी इन वस्तुओं के बदले भारत आ जाता था।

(4)
शिवाजी ने उच्चकोटि के शासन-प्रबन्ध द्वारा भी मराठों को एकता के सूत्र में बांधा। केन्द्रीय शासन का मुखिया छत्रपति (शिवाजी) स्वयं था। राज्य की सभी शक्तियां उसके हाथ में थीं। छत्रपति को शासन कार्यों में सलाह देने के लिए आठ मन्त्रियों का एक मन्त्रिमण्डल था। इसे अष्ट-प्रधान कहते थे। प्रत्येक मन्त्री के पास एक अलग विभाग था। शिवाजी ने अपने राज्य को तीन प्रान्तों में बांटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त आगे चलकर परगनों अथवा तर्कों में बंटे हुए थे। शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी।

शिवाजी की न्याय-प्रणाली बड़ी साधारण थी। परन्तु यह लोगों की आवश्यकता के अनुरूप थी। मुकद्दमों का निर्णय प्रायः हिन्दू धर्म की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता था। राज्य की आय के मुख्य साधन भूमि-कर, चौथ तथा सरदेशमुखी थे। शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया। उनकी सेना में घुड़सवार तथा पैदल सैनिक शामिल थे। उनके पास एक शक्तिशाली समुद्री बेड़ा, हाथी तथा तोपें भी थीं। सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था। उनकी सेना की सबसे बड़ी विशेषता अनुशासन थी। शिवाजी एक उच्च चरित्र के स्वामी थे। वह एक आदर्श पुरुष, वीर योद्धा, सफल विजेता तथा उच्च कोटि के शासन प्रबन्धक थे। धार्मिक सहनशीलता तथा देश-प्रेम उनके चरित्र के विशेष गुण थे। देश-प्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने मराठा जाति को संगठित किया और एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना की।

1. चौथ तथा सरदेशमुखी लगान के कौन-से भाग थे ?
2. शिवाजी के राज्य प्रबन्ध की मुख्य विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
1. चौथ लगान का चौथा भाग तथा सरदेशमुखी लगान का दसवां भाग होता था।
2. शिवाजी का राज्य प्रबन्ध प्राचीन हिन्दू नियमों पर आधारित था। शासन के मुखिया वह स्वयं थे। उनकी सहायता तथा परामर्श के लिए 8 मन्त्रियों की राजसभा थी, जिसे अष्ट-प्रधान कहते थे। इसका मुखिया ‘पेशवा’ कहलाता था। प्रत्येक मन्त्री के अधीन अलग-अलग विभाग थे। प्रशासन की सुविधा के लिए राज्य को चार प्रान्तों में बांटा गया था। प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त परगनों में बंटे हुए थे। शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी। इसका प्रबन्ध ‘पाटिल’ करते थे। शिवाजी के राज्य की आय का सबसे बड़ा साधन भूमिकर था। भूमि-कर के अतिरिक्तः चौथ, सरदेशमुखी तथा कुछ अन्य कर भी राज्य की आय के मुख्य साधन थे। न्याय के लिए पंचायातों की व्यवस्था थी। शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन भी किया। उन्होंने घुड़सवार सेना भी तैयार की। घुड़सवार सिपाही पहाड़ी प्रदेशों में लड़ने में फुर्तीले होते थे। शिवाजी के पास एक समुद्री बेड़ा भी था।

(5)
1716 ई० में बन्दा बहादुर की शहीदी के पश्चात् सिक्खों के लिए अन्धकार युग आ गया। इस युग में मुग़लों ने सिक्खों का अस्तित्व मिटा देने का प्रयत्न किया। परन्तु सिक्ख अपनी वीरता और साहस के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहे। 1716 से 1752 तक लाहौर के पांच मुग़ल सूबेदारों ने सिक्खों को दबाने के प्रयत्न किए। इनमें से पहले गवर्नर । अब्दुल समद को लाहौर से मुल्तान भेज दिया गया और उसके पुत्र जकरिया खां को लाहौर का सूबेदार बनाया गया। उसे हर प्रकार से सिक्खों को दबाने के आदेश दिए गए। उसने कुछ वर्षों तक तो अपने सैनिक बल द्वारा सिक्खों को दबाने के प्रयत्न किए। परन्तु जब उसे भी कोई सफलता मिलती दिखाई न दी तो उसने अमृतसर के निकट सिक्खों को एक बहुत बड़ी जागीर देकर उन्हें शान्त करने का प्रयत्न किया। उसने मुग़ल सम्राट् से स्वीकृति भी ले ली थी कि सिक्ख नेता को नवाब की उपाधि दी जाए। यह उपाधि कपूर सिंह को मिली और वह नवाब कपूर सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। फलस्वरूप कुछ समय तक सिक्ख शान्त रहे और उन्होंने अपने-अपने जत्थों को शक्तिशाली बनाया। इसी बीच कुछ जत्थेदारों ने फिर से मुग़लों का विरोध करना और सरकारी खजानों को लूटना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे मुग़लों और सिक्खों में फिर जोरदार संघर्ष छिड़ गया।

1. 1716 से 1752 तक लाहौर के किन्हीं चार मुगल सूबेदारों के नाम बताएं।
2. सिक्खों की शक्ति को कुचलने में मीर मन्नू की असफलता के कोई चार कारण बताओ ।
उत्तर-
1. 1716 से 1752 तक लाहौर के चार सूबेदार थे-अब्दुल समद खां, जकरिया खां, याहिया खां तथा मीर मन्नू।
2. सिक्खों की शक्ति को कुचलने में मीर मन्नू की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

  • दल खालसा की स्थापना-मीर मन्नू के अत्याचारों के समय तक सिक्खों ने अपनी शक्ति को दल खालसा के रूप में संगठित कर लिया । इसके सदस्यों ने देश, जाति तथा पन्थ के हितों की रक्षा के लिए प्राणों तक की बलि देने का प्रण कर रखा था।
  • दीवान कौड़ामल की सिक्खों से सहानूभूति-मीर मन्नू के दीवान कौड़ामल को सिक्खों से विशेष सहानुभूति थी। अतः जब कभी भी मीर मन्नू सिक्खों के विरुद्ध कठोर कदम उठाता, कौड़ामल उसकी कठोरता को कम कर देता था।
  • अदीना बेग की दोहरी नीति-जालन्धर-दोआब के फ़ौजदार अदीना बेग ने दोहरी नीति अपनाई हुई थी।
    उसने सिक्खों से गुप्त सन्धि कर रखी थी तथा दिखावे के लिए एक-दो अभियानों के बाद वह ढीला पड़ जाता था।
  • सिक्खों की गुरिल्ला युद्ध नीति-सिक्खों ने अपने सीमित साधनों को दृष्टि में रखते हुए गुरिल्ला युद्ध की नीति को अपनाया। अवसर पाते ही वे शाही सेनाओं पर टूट पड़ते और लूट-मार करके फिर जंगलों की ओर भाग जाते।

(6)
महाराजा रणजीत सिंह को शक्तिशाली सेना के महत्त्व का पूरा ज्ञान था। वह जानता था कि सेना को शक्तिशाली बनाए बिना राज्य को सुदृढ़ बनाना असम्भव है। इसलिए महाराजा ने अपनी सेना की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने अंग्रेज़ कम्पनी से भागे हुए सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। सैनिकों को यूरोपियन ढंग से संगठित करने के लिए सेना में यूरोपीय अफसरों को भी नौकरी दी गई। उनकी सहायता से पैदल तथा घुड़सवार सेना और तोपखाने को मजबूत बनाया गया। पैदल सेना में बटालियन, घुड़सवारों में रेजीमैंट और तोपखाने में बैटरी नामक इकाइयां बनाईं गईं। इसके अतिक्ति महाराजा प्रतिदिन अपनी सेना का स्वयं निरीक्षण करता था। उसने सेना में हुलिया और दाग की प्रथा भी अपनाई ताकि सैनिक अधिकारियों तथा जागीरदारों के अधीन निश्चित संख्या में सैनिक तथा घोड़े प्रशिक्षण पाते रहें। सेना को अच्छे शस्त्र जुटाने के लिए कुछ कारखाने स्थापित किए गए जिनमें तोपें, बन्दूकें तथा अन्य हथियार बनाए जाते थे। महाराजा की इस सुदृढ़ सेना से साम्राज्य भी सुदृढ़ हुआ।

1. यूरोपीय अफसरों की सहायता से महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना के कौन-से तीन अंगों को सशक्त बनाया ?
2. महाराजा रणजीत सिंह को ‘शेरे पंजाब’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
1. उसने यूरोपीय अफसरों की सहायता से सेना के पैदल, घुड़सवार तथा तोपखाना नामक अंगों को सशक्त बनाया।
2. महाराजा रणजीत सिंह एक सफल विजेता व कुशल शासक था। उसने पंजाब को एक दृढ़ शासन प्रदान किया। उसने सिक्खों को एक सूत्र में पिरो दिया। उसके राज्य में प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी। महाराजा रणजीत सिंह कट्टर धर्मी नहीं था। उसके दरबार में सिक्ख, मुसलमान आदि सभी धर्मों के लोग थे। सरकारी नौकरियां योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। वह बड़ा दूरदर्शी था। उसने जीवन भर अंग्रेजों से मित्रता बनाए रखी। इस तरह उसने राज्य को शक्तिशाली अंग्रेजों से सुरक्षित रखा। इन्हीं गुणों के कारण महाराजा रणजीत सिंह की गणना इतिहास के महान् शासकों में की जाती है और उसे ‘शेरे पंजाब’ के नाम से याद किया जाता है।

(7)
पुर्तगालियों, डचों तथा अंग्रेजों को भारत के साथ व्यापार करता देखकर फ्रांसीसियों के मन में भी इस व्यापार से लाभ उठाने की लालसा जागी। अतः उन्होंने भी 1664 ई० में अपनी व्यापारिक कम्पनी स्थापित कर ली। इस कम्पनी ने सूरत और मसौलीपट्टम में अपनी व्यापारिक बस्तियां बसा लीं। उन्होंने भारत के पूर्वी तट पर पांडीचेरी नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बना लिया। उन्होंने बंगाल में चन्द्रनगर की नींव रखी। 1721 ई० में मारीशस तथा माही पर उनका अधिकार हो गया। इस प्रकार फ्रांसीसियों ने पश्चिमी तट, पूर्वी तट तथा बंगाल में अपने पांव अच्छी तरह जमा लिए और वे अंग्रेजों के प्रतिद्वन्द्वी बन गए।

1741 ई० में डुप्ले भारत में फ्रांसीसी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल बनकर आया। वह बड़ा कुशल व्यक्ति था और भारत में फ्रांसीसी राज्य स्थापित करना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष होना आवश्यक था। अत: 1744 ई० से 1764 ई० तक के बीस वर्षों में भारत में फ्रांसीसियों और अंग्रेज़ों के बीच युद्ध छिड़ गया। यह संघर्ष कर्नाटक के युद्धों के नाम से प्रसिद्ध है। इन युद्धों में अन्तिम विजय अंग्रेजों की हुई। फ्रांसीसियों के पास केवल पांच बस्तियां-पांडिचेरी, चन्द्रनगर, माही, थनाओ तथा मारीशस ही रह गईं। इन बस्तियों में वे अब केवल व्यापार ही कर सकते थे।

1. फ्रांसीसियों की मुख्य दो फैक्टरियां कौन-सी थीं तथा ये कब स्थापित की गईं ?
2. फ्रांसीसी कम्पनी के विरुद्ध अंग्रेजी कम्पनी की सफलता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
1. फ्रांसीसियों ने अपनी दो मुख्य फैक्टरियां 1674 में पांडिचेरी में तथा 1690 में चन्द्रनगर में स्थापित की।
2. फ्रांसीसी कम्पनी के विरूद्ध अंग्रेज़ी कम्पनी की सफलता के मुख्य कारण ये थे
(i) अंग्रेजों के पास फ्रांसीसियों से अधिक शक्तिशाली जहाज़ी बेड़ा था।
(ii) इंग्लैण्ड की सरकार अंग्रेजी कम्पनी की धन से सहायता करती थी। परन्तु फ्रांसीसी सरकार फ्रांसीसियों की सहायता नहीं करती थी।
(iii) अंग्रेजी कम्पनी की आर्थिक दशा फ्रांसीसी कम्पनी से काफ़ी अच्छी थी। अंग्रेज़ कर्मचारी बड़े मेहनती थे और
आपस में मिल-जुल कर काम करते थे। राजनीति में भाग लेते हुए भी अंग्रेजों ने व्यापार का पतन न होने दिया। इसके विपरीत फ्रांसीसी एक-दूसरे के साथ द्वेष रखते थे तथा राजनीति में ही अपना समय नष्ट कर देते थे।
(iv) प्लासी की लड़ाई (1756 ई०) के बाद बंगाल का धनी प्रदेश अंग्रेजों के प्रभाव में आ गया था। यहां के अपार धन से अंग्रेज़ अपनी सेना को खूब शक्तिशाली बना सकते थे।

UNIT-4

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िये और अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर सावधानीपूर्वक लिखिए।

(1)
1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। इसके पश्चात् सिक्खों का नेतृत्व करने वाला कोई योग्य नेता न रहा। शासन की सारी शक्ति सेना के हाथ में आ गई। अंग्रेजों ने इस अवसर का लाभ उठाया और सिक्ख सेना के प्रमुख अधिकारियों को लालच देकर अपने साथ मिला लिया। इसके साथ-साथ उन्होंने पंजाब के आस-पास के इलाकों में अपनी सेनाओं की संख्या बढ़ानी आरम्भ कर दी और सिक्खों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने लगे। उन्होंने सिक्खों से युद्ध किये, दोनों युद्धों में सिक्ख सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। परन्तु अपने अधिकारियों की गद्दारी के कारण वे पराजित हुए। प्रथम युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने पंजाब का केवल कुछ भाग अंग्रेज़ी राज्य में मिलाया और वहाँ सिक्ख सेना के स्थान पर अंग्रेज सैनिक रख दिये गये। परन्तु 1849 ई० में दूसरे सिक्ख दूसरे युद्ध की समाप्ति पर लॉर्ड डल्हौजी ने पूरे पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

1. ‘लैप्स के सिद्धान्त’ से क्या अभिप्राय था ?
2. भारत में अंग्रेजी राज्य के विस्तार में सहायक सन्धि का क्या योगदान रहा ?
उत्तर-
1. लैप्स के सिद्धान्त से अभिप्राय डल्हौज़ी के उस सिद्धान्त से था जिस के अन्तर्गत सन्तानहीन शासकों के राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिए जाते थे। वे पुत्र गोद लेकर अंग्रेजों की अनुमति के बिना उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं कर सकते थे।
2. भारत में अंग्रेजी राज्य के विस्तार में सहायक सन्धि का बड़ा सक्रिय योगदान रहा। इस नीति का मुख्य आधार अंग्रेज़ी शक्ति के प्रभाव को भारतीय राज्यों में बढ़ावा देना था। सबल भारतीय शक्तियां निर्बल राज्यों को हड़पने में लगी हुई थीं। इन कमज़ोर राज्यों को संरक्षण की आवश्यकता थी। वे मिटने की बजाए अर्द्ध-स्वतन्त्रता स्वीकार करने के लिए तैयार थे। सहायक सन्धि उनके उद्देश्यों को पूरा कर सकती थी। उनकी बाहरी आक्रमण और भीतरी गड़बड़ से सुरक्षा के लिए अंग्रेजी सरकार वचनबद्ध होती थी। अत: इस नीति को अनेक भारतीय राजाओं ने स्वीकार कर लिया जिनमें हैदराबाद, अवध, मैसूर, अनेक राजपूत राजा तथा मराठा प्रमुख थे। परन्तु इसके अनुसार सन्धि स्वीकार करने वाले राजा को अपने व्यय पर एक अंग्रेजी सेना रखनी पड़ती थी। परिणामस्वरूप उनकी विदेश नीति अंग्रेजों के अधीन आ जाती थी। परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेजी राज्य का खूब विस्तार हुआ।

(2)
अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से पूर्व भारतीय सूती कपड़ा उद्योग उन्नति की चरम सीमा पर पंहुचा हुआ था। भारत में बने सूती कपड़े की इंग्लैंड में बड़ी मांग थी। इंग्लैंड की स्त्रियां भारत के बेल-बूटेदार वस्त्रों को बहुत पसन्द करती थीं। कम्पनी ने आरम्भिक अवस्था में कपड़े का निर्यात करके खूब पैसा कमाया। परन्तु 1760 तक इंग्लैंड ने ऐसे कानून पास कर दिए जिनके अनुसार रंगे कपड़े पहनने की मनाही कर दी गई। इंग्लैंड की एक महिला को केवल इसलिए 200 पौंड जुर्माना किया गया था क्योंकि उसके पास विदेशी रूमाल पाया गया था। इंग्लैंड का व्यापारी तथा औद्योगिक वर्ग कम्पनी की व्यापारिक नीति की निन्दा करने लगा। विवश होकर कम्पनी को वे विशेषज्ञ इंग्लैंड वापस भेजने पड़े जो भारतीय जुलाहों को अंग्रेजों की मांगों तथा रुचियों से परिचित करवाते थे। इंग्लैंड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर आयात कर बढ़ा दिया और कम्पनी की कपड़ा सम्बन्धी आयात नीति पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए। इन सब बातों के परिणामस्वरूप भारत के सूती वस्त्र उद्योग को भारी क्षति पहुंची।

1. भारत में पहली कपड़ा मिल कब, किसने और कहां लगवाई ?
2. भारत में धन की निकासी किन तरीकों से होती थी ?
उत्तर-
1. कपड़े की पहली मिल मुम्बई में कावासजी नानाबाई ने 1853 में स्थापित की।
2. अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारत को बहुत हानि हुई। देश का धन देश के काम आने के स्थान पर विदेशियों के काम आने लगा। 1757 के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा इसके कर्मचारियों ने भारत से प्राप्त धन को इंग्लैण्ड भेजना आरम्भ कर दिया। कहते हैं कि 1756 ई० से 1765 तक लगभग 60 लाख पौंड की राशि भारत से बाहर गई।
और तो और लगान आदि से प्राप्त राशि भी भारतीय माल खरीदने में व्यय की गई। अतिरिक्त सिविल सर्विस और सेना के उच्च अफसरों के वेतन का पैसा भी देश से बाहर जाता था। औद्योगिक विकास का भी अधिक लाभ विदेशियों को ही हुआ। विदेशी पूंजीपति इस देश पर धन लगाते थे और लाभ की रकम इंग्लैण्ड में ले जाते थे। इस तरह भारत का धन कई प्रकार से विदेशों में जाने लगा।

(3)
धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों ने मुख्य रूप से दो महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्याओं पर बल दिया : स्त्रियों की भलाई तथा जाति भेद को समाप्त करना। इन कार्यक्रमों का आधार मानवीय समानता की विचारधारा थी। परन्तु समानता की यह विचारधारा केवल धर्म के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी। इसका राजनीतिक महत्त्व भी था। अंग्रेजों के राज्य में कानूनी रूप से तो सभी भारतीय समान थे, परन्तु सामाजिक या राजनीतिक रूप से नहीं थे। . भारत में स्त्रियों की संख्या देश की जनसंख्या से लगभग आधी थी। विश्व के अन्य समाजों की भान्ति भारत में भी स्त्री पुरुष के अधीन थी। धर्म और कानून की व्यवस्था भी उसके पक्ष में नहीं थी। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि कुप्रथाएं इसी असमानता का परिणाम थीं। धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों ने स्त्रियों की भलाई पर बल दिया। उनके प्रयासों का परिणाम भी अच्छा निकला। धीरे-धीरे स्त्रियों ने राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों में स्वयं भाग लेना आरम्भ कर दिया। उन्होंने समानता की मांग की। देश के प्रमुख नेताओं ने इसका जोरदार समर्थन किया। परिणामस्वरूप स्त्रीपुरुष की समानता का आदर्श स्वीकार कर लिया गया।

1. ‘रिवाइवलिज़म’ से क्या अभिप्राय है ?
2. भारतीय नारी की दशा सुधारने के लिए आधुनिक सुधारकों द्वारा किए गए कोई चार कार्य लिखिए।
उत्तर-
1. धर्म के नाम पर तथा बीते समय का हवाला देते हुए लोगों में जागृति लाने के प्रयास को रिवाइवलिज़म का नाम दिया जाता है।
2. (i) सती-प्रथा के कारण स्त्री को अपने पति की मृत्यु पर उसके साथ जीवित ही चिता में जल जाना पड़ता था। आधुनिक समाज-सुधारकों के प्रयत्नों से इस अमानवीय प्रथा का अन्त हो गया।
(ii) विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। समाज-सुधारकों के प्रयत्नों से उन्हें दोबारा विवाह करने की आज्ञा मिल गई।
(iii) आधुनिक सुधारकों का विश्वास था कि पर्दे में बन्द रहकर नारी कभी उन्नति नहीं कर सकती, इसलिए उन्होंने स्त्रियों को पर्दा न करने के लिए प्रेरित किया।
(iv) स्त्रियों को ऊंचा उठाने के लिए समाज-सुधारकों ने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया।

(4)
प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर भारतीयों को प्रसन्न करने के लिए माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट प्रकाशित की गई। भारतीयों .. ने युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की थी। उन्हें विश्वास था कि युद्ध में विजयी होने के पश्चात् सरकार उन्हें पर्याप्त अधिकार देगी। परन्तु इस रिपोर्ट से भारतीय निराश हो गए। सरकार भी भयभीत हो गई कि अवश्य कोई नया आन्दोलन आरम्भ होने वाला है। अत: स्थिति पर नियन्त्रण पाने के लिए सरकार ने रौलेट एक्ट पास कर दिया। इस एक्ट के अनुसार वह किसी भी व्यक्ति को बिना वकील, बिना दलील, बिना अपील बन्दी बना सकती थी। इस काले कानून का विरोध करने के लिए महात्मा गांधी आगे बढ़े। उन्होंने जस्ता को शान्तिमय ढंग से इसका विरोध करने के लिए कहा। इस शान्तिमय विरोध को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया ! स्थान-स्थान पर सभाएं बुलाई गईं और जलूस निकाले गए। कांग्रेस का आन्दोलन जनता का आन्दोलन बन गया। पहली बार भारत की जनता ने संगठित होकर अंग्रेज़ों का विरोध किया। 6 अगस्त, 1919 ई० को सारे भारत में हड़ताल की गई। महात्मा गांधी ने लोगों को शान्तिमय विरोध करने के लिए कहा था। फिर भी कहीं-कहीं अप्रिय घटनाएं हुईं। 13 अप्रैल, 1919 ई० को जलियांवाला बाग की दुःखद घटना से भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। पंजाब के लोकप्रिय नेता डॉ० सत्यपाल तथा डॉ० किचलू को सरकार ने बन्दी बना लिया था। अमृतसर की जनता विरोध प्रकट करने के लिए बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में एकत्रित हुई। नगर में मार्शल-ला लगा हुआ था। जनरल डायर ने लोगों को चेतावनी दिए बिना ही एकत्रित लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया। हजारों निर्दोष स्त्री-पुरुष मारे गए। इससे सारे भारत में रोष की लहर दौड़ गई।

1. जलियांवाला बाग कांड कब और कहां हुआ तथा इसके लिए उत्तरदायी अंग्रेज़ अफसर का नाम बताएं।
2. स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में ‘रौलेट एक्ट’ तथा ‘जलियांवाला बाग’ का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
1. जलियांवाला बाग का कांड 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में हुआ। इसके लिए जनरल डायर उत्तरदायी था।
2. स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में रौलेट एक्ट तथा जलियांवाला बाग का विशेष महत्त्व है। रौलेट एक्ट के अनुसार किसी भी मुकद्दमे का फैसला बिना ‘ज्यूरी’ के किया जा सकता था तथा किसी भी व्यक्ति को मुकद्दमा चलाये बिना नज़रबन्द रखा जा सकता था। इस एक्ट के कारण भारतीय लोग भड़क उठे। उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। गांधी जी ने इस एक्ट के विरुद्ध अहिंसात्मक हड़ताल की घोषणा कर दी। स्थान-स्थान पर दंगे-फसाद हुए। जलियांवाला बाग में शहर के लोगों ने एक सभा का प्रबन्ध किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन को दबाने के लिए जनरल डायर ने सभा में एकत्रित लोगों पर गोली चला दी जिसके कारण बहुत-से लोग मारे गए अथवा घायल हो गए। इस घटना से भारत के लोग और भी अधिक भड़क उठे। उन्होंने अंग्रेज़ों से स्वतन्त्रता प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इस घटना से अंग्रेज़ शासकों तथा भारतीय नेताओं के बीच एक अमिट दरार पड़ गई।

(5)
साइमन कमीशन का प्रत्येक स्थान पर भारी विरोध किया गया था। परन्तु कमीशन ने विरोध के बावजूद अपनी रिपोर्ट प्रकाशित कर दी। साइमन कमीशन की रिपोर्ट को भारत के किसी भी राजनीतिक दल ने स्वीकार नहीं किया। अतः अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों को सर्वसम्मति से अपना संविधान तैयार करने की चुनौती दी। इस विषय में भारतीयों ने अगस्त, 1928 ई० में नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की, परन्तु अंग्रेज़ी सरकार ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप भारतीयों की निराशा और अधिक बढ़ गई।

1929 ई० में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ। यह अधिवेशन भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। गांधी जी ने ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पेश किया जो पास कर दिया गया। 31 दिसम्बर की आधी रात को नेहरू जी ने रावी नदी के किनारे स्वतन्त्रता का तिरंगा झण्डा फहराया। यह भी निश्चित हुआ कि हर वर्ष 26 जनवरी को स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाये। 26 जनवरी, 1930 को यह दिन’ सारे भारत में बड़े जोश के साथ मनाया गया और लोगों ने स्वतन्त्रता प्राप्त करने की प्रतिज्ञा की। अपने उद्देश्य की पर्ति के लिए उन्होंने सरकारी कानूनों तथा संस्थाओं का बहिष्कार करने की नीति अपनाई।

1. भारतीयों ने ‘साइमन कमीशन’ का विरोध क्यों किया तथा पंजाब के कौन-से नेता इस विरोध में घायल हुए तथा उनका देहान्त कब हुआ ?
2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन का वर्णन कीजिए। इसका हमारे स्वतन्त्रता संग्राम पर क्या प्रभाव पड़ा ।
उत्तर-
1. भारतीयों ने साइमन कमीशन का विरोध इसलिए किया क्योंकि कोई भी भारतीय इस कमीशन का सदस्य नहीं था।
लाला लाजपतराय इस विरोध में घायल हुए और 1928 में उनकी मृत्यु हो गई।
2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन 1930 ई० में चलाया गया। इस आन्दोलन का उद्देश्य सरकारी कानूनों को भंग करके सरकार के विरुद्ध रोष प्रकट करना था। आन्दोलन का आरम्भ गान्धी जी ने अपनी डांडी यात्रा से किया। 12 मार्च,1930 ई० को उन्होंने साबरमती आश्रम से अपनी यात्रा आरम्भ की। मार्ग में अनेक लोग उनके साथ मिल गये। 24 दिन की कठिन यात्रा के बाद वे समुद्र तट पर पहुंचे और उन्होंने समुद्र के पानी से नमक बनाकर नमक कानून भंग किया। इसके बाद देश में लोगों ने सरकारी कानून को भंग करना आरम्भ कर दिया। इस आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने बड़ी कठोरता से काम लिया। हज़ारों देशभक्तों को जेल में डाल दिया गया। गान्धी जी को भी बन्दी बना लिया गया। यह आन्दोलन फिर भी काफी समय तक चलता रहा। इस प्रकार इस आन्दोलन का हमारे स्वतन्त्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव पड़ा। अब देश की जनता इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगी।

(6)
विद्रोही सिपाहियों की एक अर्जी जो बच गई-
एक सदी पहले अंग्रेज़ हिंदुस्तान आए और धीरे-धीरे फ़ौजी टुकड़ियां बनाने लगे। इसके बाद वे हर राज्य के मालिक बन बैठे। हमारे पुरुखों ने सदा उनकी सेवा की है और हम भी उनकी नौकरी में आए। ईश्वर की कृपा से हमारी सहायता में अंग्रेजो ने जो चाहा वो इलाका जांच लिया। उनके लिए हमारे जैसे हजारों हिंदुस्तानी जवानों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी लेकिन न हमने कभी पैर खींचे और न कोई बहाना बनाया और न ही कभी बग़ावत के रास्ते पर चले।

लेकिन सन् 1857 में अग्रेजों ने ये हुक्म जारी कर दिया कि अब सिपाहियों को इंगलैंड से नए कारतूस और बंदूकें दी जाएंगी। इन कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है और गेहूं के आटे में हड्डियों का चूरा मिलाया जा रहा है। ये चीजें पैदल-सेना, घुड़सवारों और गोलअंदाज फ़ौज को हर रेजीमेंट में पहुंचा दी गई हैं।

उन्होंने ये कारतूस थर्ड लाइट केवेलरी के सवारों (घुड़सवार सैनिक) को दिए और उन्हें दांतों से खींचने के लिए कहा। सिपाहियों ने इस हुक्म का विरोध किया और कहा कि वे ऐसा कभी नहीं करेंगे क्योंकि अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। इस पर अंग्रेज़ अफ़सरों ने तीन रेजीमेंटों के जवानों को परेड करवा दी। 1400 अंग्रेज़ सिपाही, यूरोपीय सैनिकों की दूसरी बटालियनें और घुड़सवार गोलअंदाज फौज को तैयार कर भारतीय सैनिकों को घेर लिया गया। हर पैदल रैजीमेंट के सामने छरों से भरी छह-छह तोपें तैनात कर दी गईं और 84 नए सिपाहियों को गिरफ्तार करके, बेड़ियां डालकर, जेल में बंद कर दिया गया। छावनी के सवारों को इसलिए जेल में डाला गया ताकि हम डर कर नए कारतूसों को दांतों से खींचने लगें। इसी कारण हम और हमारे सारे सहोदर इकट्ठा होकर अपनी आस्था की रक्षा के लिए अंग्रेज़ों से लड़े…. । हमें दो साल तक युद्ध जारी रखने पर मजबूर किया गया। धर्म व आस्था के सवाल पर हमारे साथ खड़े राजा और मुखिया अभी भी हमारे साथ हैं और उन्होंने भी सारी मुसीबतें झेली हैं। हम दो साल तक इसलिए लड़े ताकि हमारा अकायद (आस्था) और मज़हब दूषित न हों। अगर एक हिंदू या मुसलमान का धर्म ही नष्ट हो गया तो दुनिया में बचेगा क्या ?

1. इन सिपाहियों का संबंध किस विद्रोह से है ?
2. भारतीय जवानों ने अंग्रेजों की सहायता किस प्रकार की ?
3. 1857 में भारतीय सैनिकों में अंग्रेजों के किस आदेश से रोष फैला ?
4. सिपाहियों द्वारा नए कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार करने पर उनके साथ कैसा व्यवहार किया गया ?
उत्तर-
1. इन सिपाहियों क संबंध 1857 के विद्रोह से है।
2. भारतीय जवानों ने अंग्रेजों के लिए अनेक प्रदेश जीते। इसके लिए अनेक कुर्बानियों देनी पड़ीं। परंतु वे कभी पीछे नहीं हटे।
3. 1857 में अंग्रेजों ने ये आदेश जारी किया कि अब सिपाहियों को इंग्लैंड से नए कारतूस और बंदूकें दी जाएंगी।
सिपाहियों का कहना था कि वे कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है और गेहूं के आटे में हड्डियों का चूरा मिलाकर खिलाया जा रहा है। ये चीजें पैदल-सेना, घुड़सवारों और गोलअंदाज फ़ौज की हर रेजीमेंट में पहुंचा दी गई हैं। इस बात से उनमें रोष फैला।
4. सिपाहियों द्वारा नए कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार करने पर उनके साथ कठोर व्यवहार किया गया। उन्हें ब्रिटिश जवानों द्वारा घेर लिया गया। प्रत्येक पैदल रेजीमेंट के सामने छरों से भरी छह-छह तोपें तैनात कर दी गईं। 84 नए सिपाहियों को गिरफ्तार करके, बेड़ियां डाल दी गईं और उन्हें जेल में बंद कर दिया गया।

(7)
5 अप्रैल, 1930 को महात्मा गांधी ने दांडी में कहा था-
जब मैं अपने साथियों के साथ दांडी के इस समुद्रतटीय टोले की तरफ चला था तो मुझे यकीन नहीं था कि हमें यहां तक आने दिया जाएगा। जब मैं साबरमती में था तब भी यह अफवाह थी कि मुझे गिरफ़तार किया जा सकता है। तब मैंने सोचा था कि सरकार मेरे साथियों को तो दांडी तक आने देगी लेकिन मुझे निश्चित ही यह छूट नहीं मिलेगी। यदि कोई यह कहता है कि इससे मेरे हृदय में अपूर्ण आस्था का संकेत मिलता है तो मैं इस आरोप को नकारने वाला नहीं हूं। मैं यहां तक पहुंचा हूं, इसमें शांति और अहिंसा का कम हाथ नहीं है। इस सत्ता को सब महसूस करते हैं। अगर सरकार चाहे तो वह अपने इस आचरण के लिए अपनी पीठ थपथपा सकती है क्योंकि सरकार चाहती वो हम में से प्रत्येक को गिरफ्तार कर सकती थी। जब सरकार यह कहती है कि उसके पास शांति की सेना को गिरफ्तार करने का साहस नहीं था तो हम उसकी प्रशंसा करते है। सरकार को ऐसी सेना की गिरफ्तारी में शर्म महसूस होती है। अगर कोई व्यक्ति ऐसा काम करने में शर्म महसूस करता है जो . उसके पड़ोसियों को भी रास नहीं आ सकता, तो वह एक शिष्ट-सभ्य व्यक्ति है। सरकार को हमें ऐसा करने के लिए बधाई दी जानी चाहिए भले ही उसने विश्व जनमत का ख्याल करके ही यह फैसला क्यों न लिया हो।
कल हम नमक-कर कानून तोडेंगे। सरकार उसको बर्दाश्त करती है कि नहीं यह सवाल अलग है। हो सकता है सरकार हमें ऐसा करने दे लेकिन उसने हमारे जत्थे के बारे मुख्य धैर्य और सहिष्णुता दिखायी है उसके लिए वह अभिनंदन की पात्र है …..।

यदि मुझे और गुजरात व देश भर के सारे मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता है तो क्या होगा ? यह आंदोलन इस विश्वास पर आधारित है कि जब एक पूरा राष्ट्र उठ खड़ा होता है और आगे बढ़ने लगता है तो उसे नेता की ज़रूरत नहीं रह जाती।

1. गांधीजी ने दांडी मार्च की शरूआत क्यों की ?
2. नमक यात्रा उल्लेखनीय क्यों थी ?
3. शांति और अहिंसा को सब महसूस करते हैं ? गांधी जी ने ऐसा क्यों कहा ?
उत्तर-
1. नमक कानून के अनुसार नमक के उत्पादन और विक्रय पर राज्य का एकाधिकार था। प्रत्येक भारतीय घर में नमक का प्रयोग होता था, परन्तु उन्हें घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने से रोका गया था। इस प्रकार उन्हें दुकानों से ऊंचे दाम पर नमक खरीदने के लिए बाध्य किया गया। अत: नमक कानून के विरुद्ध जनता में काफी असंतोष था। गांधी जी भी नमक कानून को सबसे घृणित कानून मानते थे। स्वतन्त्रता संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया। गांधी जी इस कानून को तोड़कर जनता में व्याप्त असंतोष को अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध एकजुट करना चाहते थे। इसी नमक कानून को तोड़ने के उद्देश्य से ही गांधी जी ने दांडी मार्च शुरू किया।

2. नमक यात्रा कम-से-कम निम्नलिखित तीन कारणों से उल्लेखनीय थी।-

  • इसके चलते महात्मा गांधी दुनिया की नज़र में आए। इस यात्रा को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक रूप से जाना।
  • यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। समाजवादी कार्यकारी
    कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने गांधी को समझाया था कि वे अपने आंदोलन को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी स्वयं उन असंख्य औरतों में से एक थी जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ्तारी दी थी।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अभास हुआ था कि अब उनका
    राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में भागीदार बनाना पड़ेगा।

3. गांधी जी शांति के पुजारी थे और सत्य एवं अहिंसा में बहुत अधिक विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि अहिंसा पर आधारित शांतिपूर्ण आंदोलन को बड़ी-से-बड़ी शक्ति भी नहीं दबा सकती। इसलिए उन्होंने यह कहा कि शांति और अहिंसा (की ताकत) को सभी महसूस करते है।

(8)
महात्मा गांधी जानते थे कि उनकी स्थिति “बीहड़ में एक आवाज़” जैसी है लेकिन फिर भी वे विभाजन की सोच का विरोध करते रहे-
किंतु आज हम कैसे दुखद परिवर्तन देख रहे हैं। मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूं जब हिंदू और मुसलमान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जला जा रहा हूं कि उस दिन को जल्दी-जल्दी साकार करने के लिए क्या करू। लोगों से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें….। हिंदू और मुसलमान दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं। उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं, और एक ही जबान बोलते हैं।
प्रार्थना सभा में भाषण, 7 सितंबर, 1946, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी, खंड 92, पृ० 139.

लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो मांग उठायी है वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है और मुझे इसको पापपूर्ण कृत्य करने से कोई संकोच नहीं है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का। जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बांट देना चाहते हैं वे भारत और इस्लाम, दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, परंतु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते जिसे मैं ग़लत मानता हूँ।

1. महात्मा गांधी पुनः क्या देखना चाहते थे ? व्याख्या कीजिए।
2. पाकिस्तान की मांग किस प्रकार गैर-इस्लामिक थी ? स्पष्ट कीजिए।
3. महात्मा गांधी ने ऐसा क्यों कहा कि उनकी आवाज़ बीहड़ में एक आवाज़ थी ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
1. महात्मा गांधी हिंदुओं तथा मुसलमानों को फिर से एक होता देखना चाहते थे। वे चाहते थे हिंदू तथा मुसलमान आपसी . सलाह के बिना कोई काम न करें। वास्तव में वह विभाजन की स्थिति को रोकना चाहते थे।
2. महात्मा गांधी का कहना था कि-

  • मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो मांग उठायी है वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार को तोड़ने का।
  • जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बांट देना चाहते हैं और वे भारत और इस्लाम दोनों का शत्रु हैं।

3. विभाजन की बढ़ती हुई सोच के कारण देश का वातावरण विषैला हो चुका था ऐसा लगता था पूरा देश दूर-दूर तक एक वीरान जंगल की तरह फैला है जिसमें किसी की आवाज़ सुनाई नहीं दे सकती। इसलिए वह यह महसूस कर रहे थे-उनकी आवाज़ बीहड़ में एक आवाज़ के समान है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 2 शारीरिक शिक्षा और इसका महत्त्व

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions Chapter 2 शारीरिक शिक्षा और इसका महत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Physical Education Chapter 2 शारीरिक शिक्षा और इसका महत्त्व

PSEB 11th Class Physical Education Guide शारीरिक शिक्षा और इसका महत्त्व Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
जिन्दगी द्वारा पैदा हुई चुनौतियों से किस तरह निपटा जा सकता है ?
(How to handle the challenges generated by the life ?)
उत्तर-
आधुनिक युग में मनुष्य भौतिक पदार्थों को एकत्र करने में इतना उलझा हुआ है कि उसके पास अपने लिए ही समय नहीं है। यह युग मानव के लिए तनाव, दबाव तथा चिंता का युग बन कर रह गया है। इसीलिए अत्याधिक व्यक्ति खुशी से भरपूर और लाभदायक जीवन नहीं गुजार रहे हैं। ऐसे व्यस्तता भरे जीवन कारण प्रत्येक विषय की धारणाओं में परिवर्तन हो रहे हैं जिस कारण शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ है। आज शारीरिक शिक्षा का सम्बन्ध शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ मानव के जीवन के हर पक्ष के साथ है। शारीरिक शिक्षा मनुष्य को अपने व्यस्तता भरे जीवन को ठीक ढंग के साथ व्यतीत करने के लिए उसकी मदद करती है। इसके साथ मनुष्य शारीरिक कौशल, शरीर की जानकारी, जीवन-मूल्य और स्वास्थ्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के गुण प्राप्त करता है। इन गुणों के साथ व्यक्ति में साहस पैदा होता है और वह जीवन की मुश्किलों का सुदृढ़ता से सामना कर पाता है। आधुनिक मशीनी युग और क्रिया रहित जिंदगी में उत्पन्न हुई चुनौतियों का सामना शारीरिक शिक्षा तथा शारीरिक व्यायाम द्वारा ही किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
शारीरिक शिक्षा की परिभाषा लिखें।
(Write the definition of Physical Education.)
उत्तर-
शारीरिक शिक्षा एक ऐसा ज्ञान है जो शरीर से सम्बन्ध रखता है। शरीर को बनावट, विकास और स्वास्थ्य देता है और इसका साधन शारीरिक क्रियाएं ही हैं। इस विषय के बारे में भिन्न-भिन्न परिभाषायें हैं जिनमें से कुछ इस तरह हैं
डैल्बर्ट उबर्टीउफर के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा उन सभी तुजुर्षों का जोड़ है जो किसी व्यक्ति को शारीरिक हरकत द्वारा प्राप्त होते हैं।”
(“Physical Education is the sum of those experiences which come to the individual through movement.”
—Delbert Oberteuffer)
आर० कैसिडी के शब्दों में “शारीरिक शिक्षा उन सभी तबदीलियों का जोड़ है जो व्यक्ति में हरकत के द्वारा आती
(“Physical Education is the sum of change in the individual caused by experiences, which bring in motor Activity.”
—R. Cassedy)
जे०बी०नैश लिखते हैं, “शारीरिक शिक्षा समूची विद्या का वह भाग है जिसका सम्बन्ध मांसपेशियों की क्रियाओं तथा उनसे सम्बन्धित क्रियाओं के साथ है।”
(“Physical Education is that part of whole field of education that deals with big muscle activities and their related responses.”
—J.B. Nash)
चार्ल्स ए० बियोकर के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा सम्पूर्णता का अभिन्न अंग है जिसका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक तौर पर ठीक शहरी पैदा करना है, इस तक पहुंचने के लिए शारीरिक क्रियाओं का स्थान चुना गया है ताकि इसको प्राप्त कर सकें।”
(“Physical education is an integral part of total education process and has its aim the development of physical, mentally, educationally and socially fit citizens through the Medium of physical activities, selected with a view to realising these outcomes.”
—Charles A. Bucher)
जे०एफ०विलियम के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा व्यक्ति की कुल शारीरिक क्रियाओं का जोड़ है जो कि अपनी भिन्नता के अनुसार चुनी जाती हैं तथा अपने उद्देश्य के अनुसार प्रयोग की जाती हैं।”
(“Physical Education is the sum of man’s physical activities selected and conducted as to their out comes.”
—J.F. Williams)

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 2 शारीरिक शिक्षा और इसका महत्त्व

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा का क्या लक्ष्य है ?
(What is the aim of Physical Education ?)
उत्तर-
‘लक्ष्य’ व ‘उद्देश्य’ शब्दों में अन्तर
(Difference in the terms aim and objective)
शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य व उद्देश्य जानने से पहले हम यह आवश्यक समझते हैं कि लक्ष्य व उद्देश्य शब्द में अंतर स्पष्ट किया जाए।
आम तौर पर लक्ष्य व उद्देश्य एक-दूसरे के लिए प्रयोग किए जाते हैं। लेकिन वास्तव में ये दोनों ही शब्द समानार्थक नहीं हैं। इन दोनों शब्दों में अंतर की एक स्पष्ट रेखा अंकित है जो इनके अर्थों में भिन्नता लाती है।

“लक्ष्य तो अंतिम निशाना होता है। जब कि उद्देश्य एक विशेष नपा-तुला व नज़र आने वाला पड़ाव है। अगर हमारा लक्ष्य सर्व उच्च मंजिल है तो उद्देश्य इस मंजिल तक पहुंचने के छोटे-छोटे पड़ाव हैं जो कि मंज़िल के रास्ते में स्थित हैं जिन से गुजर कर हम मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।”
इस तरह हम कह सकते हैं कि मंज़िल रूपी सीढ़ी पर चढ़ने के लिए उद्देश्य सहारे का काम करते हैं।

जब शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य उच्चकोटि के नागरिकों का निर्माण करना है तो उस व्यक्ति को शारीरिक दृष्टि के साथ हृदय-पुष्ट रखना इसका उद्देश्य है। इससे अच्छी आदत विकसित करना व उसको चरित्र वाले गुणों से जोड़ना इसके दूसरे उद्देश्य हैं। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसका शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास करना ज़रूरी उद्देश्य है।

शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य (Aim of Physical Education) शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य सम्बन्धी अलग-अलग विद्वानों ने अपने-अपने तरीके के साथ विचार प्रकट किए हैं। इनमें प्रमुख विद्वानों के विचार इस तरह हैं

“शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य एक कुशल नेतृत्व, उचित सुविधाएं व काफ़ी समय दिलाना है जिससे व्यक्ति या संगठनों को इस तरह की स्थितियों में भाग लेने का अवसर मिल सके ताकि वह शारीरिक रूप के साथ आनंददायक, मानसिक रूप के साथ संतोषजनक व सामाजिक रुख से तंदुरुस्त है।”
(“Physical Education should aim to provide the skilled leadership, adequate facilities and ample time for affording full opportunity for individuals and groups to participate in situation that are physically wholesome, mentally stimulating and satisfying and socially sound.”)

जे०आर० शरमन के विचार (Views of J.R. Sharman)_”शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य लोगों के अनुभवों को इस सीमा तक प्रभावित करना है कि हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार समाज में ठीक तरह रह सके, अपनी ज़रूरतों को बढ़ा सके व सुधार कर सके तथा लोगों को संतुष्ट करने की अपनी योग्यता विकसित कर सके।”
(“The aim of Physical Education is to influence the experiences of person to the extent that each individual within the limits of his capacity may be helped to adjust successfully in society, to increase and improve his wants and to develop the ability to satisfy his wants.”)

शारीरिक शिक्षा के केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड के विचार (Views of Central Advisory Board of Physical Education)-“शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बच्चे को शारीरिक, मानसिक व भावात्मक तौर पर योग्य बनाना है व उसमें इस तरह के निजी व सामाजिक गुण विकसित करना है जिससे वह समाज के अन्य सदस्यों के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक रह सके व अच्छा नागरिक बन सके।”
(“’The aim of physical education is to make every child physically, mentally fit and also to develop in him such personality and social qualities as will help him live happily with others and build him as a good citizen.”)

शारीरिक शिक्षा कॉलेजों के प्रिंसीपलों के सम्मेलन में प्रकट किए गए विचार (Views expressed in conference of principles of physical training colleges)-“शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य भारतीय बच्चों व जवानों को इस तरह के अवसर प्रदान करना है जिससे वह शारीरिक, मानसिक व भावात्मक रूप से स्वस्थ बनें तो उनमें इस तरह कुशलता व दृष्टिकोण का विकास हो जिस द्वारा वह परिवर्तनशील, समाज में अधिक समय तक एक सूत्र पैदा करते रह सकें।”
(“Physical education should aim to provide opportunities that will make the children and youth of India, Physically, mentally and constitutionally fit and develop in them the skills and attitudes conducive to long happy and creative living in the fluid changing society.”)

निष्कर्ष (Conclusion)—उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य का पूर्ण विकास करना है। लगभग सभी विद्वान् इस विचार से सहमत हैं कि शारीरिक शिक्षा के माध्यम से मनुष्य में इस तरह के गुण विकसित किए जाएं जिनसे उनका शारीरिक, मानसिक व भावात्मक विकास हो सके।

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प्रश्न 4.
शारीरिक शिक्षा के किन्हीं तीन उद्देश्यों की विस्तारपूर्वक जानकारी दीजिए।
(Explain any three objectives of Physical Education in detail.)
उत्तर-
शारीरिक शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Physical Education)—जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि लक्ष्य अंतिम निशाना होता है जिसकी प्राप्ति के लिए कुछ उद्देश्य होते हैं। आम तौर पर लक्ष्य एक ही होता है लेकिन उसको एकत्र करने के लिए उद्देश्य अनेक हो सकते हैं। इसी तरह शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य तो एक ही होता है व वह है व्यक्ति का पूर्ण विकास, लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कई उद्देश्य हैं। शारीरिक शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी अलग-अलग विद्वानों ने अपने-अपने विचार पेश किए हैं। प्रमुख विद्वानों के विचार इस तरह हैं—

  1. लॉस्की (Laski) के अनुसार शारीरिक शिक्षा के नीचे लिखे पांच उद्देश्य हैं—
    • शारीरिक पक्ष वाला विकास (Physical aspect of development)
    • भावात्मक पक्ष वाला विकास (Emotional aspect of development)
    • सामाजिक पक्ष वाला विकास (Social aspect of development)
    • बौद्धिक पक्ष वाला विकास (Intellectual aspect of development)
    • न्यूरो मांसपेशी पक्ष वाला विकास (Neuro-muscular aspect of development)
  2. जे०बी०नैश (J.B. Nash) ने शिक्षा के नीचे लिखे चार उद्देश्यों का वर्णन किया है—
    • न्यूरो मांसपेशी विकास (Neuro muscular development)
    • भावात्मक विकास (Emotional development)
    • उचित बात समझने की योग्यता का विकास (Interpretative development)
    • शारीरिक अंगों का विकास (Organic development)
  3. एक अन्य विद्वान बक बाल्टर ने शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों को तीन वर्गों में बांटा है। ये इस तरह “जए।
    • स्वास्थ्य (Health)
    • नैतिक आचरण (Moral character)
    • व्यर्थ समय का उचित प्रयोग (Worthy use or leisure)
  4. प्रसिद्ध विद्वान् एच० सी० बक ने शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों का वर्गीकरण इस तरह किया है—
    • शारीरिक अंगों का विकास (Organic development)
    • न्यूरो मांस पेशियों में तालमेल का विकास (Development of neuro muscular co-ordination)
    • खेल व शारीरिक क्रियाओं के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास (Development of right attitude towards play and physical activites).

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प्रश्न 5.
शारीरिक शिक्षा का क्या महत्त्व है ? इसकी विस्तारपूर्वक जानकारी दीजिए।
(What is the importance of Physical Education ? Explain in detail.)
उत्तर-
शारीरिक शिक्षा का महत्त्व (Importance of Physical Education)
1. शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum of Physical Education)—शारीरिक शिक्षा साधारण शिक्षा का ही एक अंग है। इसके द्वारा बहुत-से गुणों को विकसित किया जा सकता है जो कि राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा के पाठ्यक्रम द्वारा मनुष्य में सहनशीलता, सामाजिकता, नागरिकता और दूसरों के लिए प्रतिष्ठा की भावना सिखाई जा सकती है। शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता। इसलिए यह राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने में अपना पूरा योगदान डालती है।

2. शारीरिक शिक्षा में साम्प्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहीं (No Place for Communalism in Physical Education)-शारीरिक शिक्षा किसी तरह भी साम्प्रदायिकता को अपने निकट नहीं आने देती। शारीरिक शिक्षा रंग-रूप, जातिवाद, धर्म, वर्ग, समुदाय के भेदभाव को स्वीकार नहीं करती। इसलिए सारी मनुष्य जाति की भलाई का ही विशेष महत्त्व है। घटिया विचारों को यह स्वीकार नहीं करती जिनके द्वारा जातिवाद के झगड़े उत्पन्न हों। साम्प्रदायिकता हमारे देश के लिए बहुत घातक है। शारीरिक शिक्षा इस खतरे को कम करते हुए राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करती है।

3. समानता और शारीरिक शिक्षा (Equality and Physical Education) शारीरिक शिक्षा असमानता को स्वीकार नहीं करती। इसके लिए छोटा-बड़ा, अमीर-ग़रीब सभी एक-जैसे हैं। आज के युग में असमानता एक गम्भीर समस्या है। शारीरिक शिक्षा इस समस्या को समाप्त कर राष्ट्रीय एकता की भावना लोगों को प्रदान करती है।

4. प्रान्तीयवाद और शारीरिक शिक्षा (Provincialism and Physical Education) शारीरिक शिक्षा में प्रान्तीयवाद का कोई स्थान नहीं है। जब कोई खिलाड़ी शारीरिक क्रियाएं करता है उस समय उसमें प्रान्तीयवाद की कोई भावना नहीं होती है कि वह अमुक प्रान्त का निवासी है। उसको केवल मानव भलाई का लक्ष्य ही दिखाई पड़ता है। खिलाड़ी खेलते समय आपस में सहयोग रखते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का सत्कार करते हैं, जिससे उनमें एकता में वृद्धि होती है। देश शक्तिशाली बनता है और राष्ट्रीय एकता समृद्ध होती है।

5. भाषावाद और शारीरिक शिक्षा (Linguism and Physical Education)-भारतवर्ष में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। कई प्रान्तों में भाषा के लिए झगड़े हो रहे हैं। कहीं पर पंजाबी, कहीं तमिल भाषा का झगड़ा, कहीं बंगला एवं उड़िया भाषाओं के नाम पर झगड़ा उत्पन्न हुआ है। एक स्थान की भाषा दूसरे स्थान पर समझने में कठिनाई आती है, परन्तु शारीरिक शिक्षा किसी भी भाषा के झगड़े में न पड़ते हुए इसे स्वीकार ही नहीं करती। अच्छा खिलाड़ी चाहे वह बंगला बोलता हो या पंजाबी, सभी को अपना भाई मानते हैं। सभी खिलाड़ी एक टीम के रूप में मैदान में आते हैं। आपसी सहयोग से अपने देश की मान-मर्यादा को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। इस तरह शारीरिक शिक्षा भाषाओं के झगड़े को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करने का यत्न करती है।

6. फुर्सत का समय और शारीरिक शिक्षा (Leisure Time and Physical Education)-फुर्सत का समय वह समय है जब मनुष्य के पास कोई काम करने के लिए नहीं होता। बहुत-से लोग फुर्सत का समय उपयोगी ढंग से व्यतीत नहीं करते, व्यर्थ में लड़ते-झगड़ते रहते हैं और अपना और दूसरों का नुकसान करते. रहते हैं। ये झगड़े कई बार इतने बढ़ जाते हैं जिससे देश में बहुत-सी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं और देश की एकता एवं अखण्डता को खतरा पैदा हो जाता है। फुर्सत के समय को उपयोगी ढंग से व्यतीत करने के लिए शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम में बहुत-सी क्रियाएं हैं। सभी बच्चों और नवयुवकों के फुर्सत के समय के उपयोगी प्रयोग के लिए क्रियाएं होती हैं ताकि नवयुवकों की शक्ति अच्छे मार्ग पर लगाई जाए जिससे राष्ट्रीय एकता की समस्या का समाधान हो सकता है।

7. देश भक्ति , अनुशासन और सहनशीलता (Patriotism, Discipline and Tolerance)-शारीरिक शिक्षा द्वारा देश भक्ति की भावना उत्पन्न होती है। शारीरिक शिक्षा नवयुवकों में देश भक्ति की भावना पैदा करके उसके व्यक्तित्व को विकसित करती है। एन०सी०सी०, ए०सी०सी०, गर्ज़ गाइड और एन०एस०एस० द्वारा शारीरिक शिक्षा देकर उनके स्वास्थ्य में वृद्धि की जाती है। इसके साथ-साथ देश भक्ति और देश प्रेम की भावना भी पैदा की जाती है। खेलों का उद्देश्य खिलाड़ियों में इस भावना को उत्पन्न करना है और सहनशीलता की भावना में वृद्धि करना है। खेलों द्वारा खिलाड़ियों में सहनशीलता, देश भक्ति और अनुशासन आदि गुणों को विकसित करके उनको राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करने को प्रेरित करती है।

8. राष्ट्रीय चरित्र और शारीरिक शिक्षा (National Character and Physical Education)-खेलों में सामाजिक गुणों के महत्त्व को ध्यान में रखा गया है। इनके द्वारा राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करना, उनमें राष्ट्रीय चरित्र का विकास करना तथा सामाजिक ज्ञान को बढ़ाना है। यदि लोगों में राष्ट्रीय चरित्र की कमी हो तो देश या कौम उन्नति नहीं कर सकते। शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम इस प्रकार बनाए जाते हैं जिससे नवयुवकों में देश-प्रेम तथा आदर की भावना पैदा हो जिससे राष्ट्रीय चरित्र एवं राष्ट्रीय एकता मजबूत हो। इन सभी गुणों के बिना राष्ट्रीय एकता बनी नहीं रह सकती। शारीरिक शिक्षा राष्ट्रीय चरित्र द्वारा राष्ट्रीय एकता को हमेशा बनाए रखती है।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB शारीरिक शिक्षा और इसका महत्त्व Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
क्या शारीरिक शिक्षा और स्वास्थ्य शिक्षा एक ही है ?
उत्तर-
नहीं, शारीरिक शिक्षा और स्वास्थ्य शिक्षा एक नहीं है।

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प्रश्न 2.
“शारीरिक स्वास्थ्य में वृद्धि, सामाजिक गुण में वृद्धि, संस्कृति।” किसका कथन है ?
(a) एच. कलर्क
(b) हैथरिंगटन
(c) बक वाल्टर
(d) जे० बी० नैश।
उत्तर-
(a) एच. कलर्क।

प्रश्न 3.
“शारीरिक विकास के उद्देश्य , मानसिक विकास के उद्देश्य, हरकत व कार्य शक्ति के विकास, सामाजिक विकास के उद्देश्य।” यह किसका कथन है ?
(a) जे० बी० नैश
(b) हैथरिंगटन
(c) जे०आर०शरमन
(d) लॉस्की।
उत्तर-
(b) हैथरिंगटन।

प्रश्न 4.
“शारीरिक अंगों का विकास, न्यूरो मांसपेशियों में तालमेल का विकास, खेल व शारीरिक क्रियाओं के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास” यह उद्देश्य किस के अनुसार है ?
(a) जे० बी० नैश
(b) एच. कलर्क
(c) एच. सी. बक
(d) हैथरिंगटन।
उत्तर-
(c) एच. सी. बक।

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प्रश्न 5.
न्यूरो मांसपेशी विकास, भावात्मक विकास, उचित बात समझने की योग्यता का विकास, शारीरिक अंगों का विकास। यह उद्देश्य किसके अनुसार है ?
(a) जे० बी० नैश
(b) बक वाल्टर
(c) एच. सी. बक
(d) लॉस्की
उत्तर-
(a) जे० बी० नैश।

प्रश्न 6.
“शारीरिक शिक्षा उन सभी तुजुओं का जोड़ है जो किसी व्यक्ति को शारीरिक हरकत द्वारा प्राप्त होते हैं।” यह किसका कथन है ?
(a) डैल्बर्ट उबर्टीउफर
(b) आर कैसिडी
(c) जे०बी०नैश
(a) चार्ल्स ए०बियोकर।
उत्तर-
(a) डैल्बर्ट उबर्टीउफर।

प्रश्न 7.
शारीरिक शिक्षा क्या है ?
उत्तर-
शारीरिक शिक्षा एक ऐसा ज्ञान है जो शरीर से सम्बन्ध रखता है।

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प्रश्न 8.
“शारीरिक शिक्षा व्यक्ति की कुल शारीरिक क्रियाओं का जोड़ है जो कि अपनी भिन्नता के अनुसार धुनी जाती हैं तथा अपने उद्देश्य के अनुसार प्रयोग की जाती हैं।” यह किस का कथन है ?
उत्तर-
जे० एफ० विलियम।

प्रश्न 9.
“शारीरिक शिक्षा समूची विद्या का वह भाग है जिसका सम्बन्ध मांसपेशियों की क्रियाओं तथा उनसे सम्बन्धित क्रियाओं के साथ है।” यह किसका कथन है ?
उत्तर-
जे०बी०नैश।

प्रश्न 10 .
शारीरिक शिक्षा सम्पूर्णता का अभिन्न अंग है जिसका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक तौर पर ठीक शहरी पैदा करना है, इस तक पहुंचने के लिए शारीरिक क्रियाओं का स्थान चुना गया है ताकि इसको प्राप्त कर सकें।”
उत्तर-
चार्ल्स ए. बूचर।

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अति छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
शारीरिक शिक्षा के कोई तीन उद्देश्य लिखें।
उत्तर-

  1. शारीरिक विकास,
  2. मानसिक विकास,
  3. भावनात्मक विकास।

प्रश्न 2.
शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र लिखो।
उत्तर-
विद्यार्थियों का बहुमुखी विकास जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक विकास करने की अनगिनत शारीरिक क्रिया द्वारा कोशिश की जाती है।

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा के कोई तीन महत्त्व लिखें।
उत्तर-

  1. शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम
  2. शारीरिक शिक्षा में साम्प्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहीं।
  3. देशभक्ति, अनुशासन तथा सहनशीलता।

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छोटे उत्तरों वाले प्रश्न | (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
जे० एफ० विलियम के अनुसार शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य क्या है ?
उत्तर-
शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य कुशल मार्गदर्शन करना है जिससे मनुष्य या संगठन को इस तरह की स्थिति में भाग लेने का अवसर मिलता है ताकि वह आनन्ददायक मानसिक रूप और प्रेरक रूप से स्वस्थ रहे।

प्रश्न 2.
शारीरिक शिक्षा सलाहकार बोर्ड के अनुसार शारीरिक शिक्षा की परिभाषा लिखो।
उत्तर-
“शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बच्चे को शारीरिक, मानसिक व भावात्मक तौर पर योग्य बनाना है व उसमें इस तरह के निजी व सामाजिक गुण विकसित करना है जिससे वह समाज के अन्य सदस्यों के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक रह सके व अच्छा नागरिक बन सके।”

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प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा के केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड के अनुसार शारीरिक शिक्षा की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
“शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बच्चे को शारीरिक, मानसिक व भावात्मक तौर पर योग्य बनाना है। उसमें इस तरह के निजी व सामाजिक गुण विकसित करना है जिससे वह समाज के अन्य सदस्यों के साथ स्वतापूर्वक रह सके व अच्छ नागरिक बन सके।”

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बड़े उत्तर वाला प्रश्न (Long Answer Type Question)

प्रश्न-
शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र बताओ।
उत्तर-
आज शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र इतना विशाल है कि खेलों से लेकर मनोरंजन और भौतिक चिकित्सा (Physiotheraphy) तक शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में शामिल हैं! आज शारीरिक शिक्षा विद्यार्थियों के शारीरिक मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक और नैतिक विकास में योगदान दे रही है। शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र निम्नलिखित क्रियाओं का सुमेल है-

1. संशोधक व्यायाम (Corrective Exercises)-इन व्यायामों द्वारा किसी खिलाड़ी या व्यक्ति की शारीरिक समस्याओं को दूर किया जा सकता है। कई बार मांसपेशियों की कमज़ोरी, हड्डियों की बनावट या चोट लगने के कारण शारीरिक त्रुटि पैदा हो जाती है। भौतिक चिकित्सा (Physiotheraphy) की मदद से हलके व्यायामों के द्वारा इन त्रुटियों का इलाज किया जा सकता है।

2. आत्म-रक्षक व्यायाम (Self Defence Activities) – इसमें वे सभी क्रियाएं शामिल होती हैं जिनकी सहायता से व्यक्ति आत्म-रक्षा कर सकता है। इन क्रियाओं के द्वारा व्यक्ति को आत्म-रक्षा करने के भिन्न भिन्न कौशल सिखाए जाते हैं। गतका, मुक्केबाजी, कराटे, कुश्ती, जूडो आदि खेल इस क्षेत्र में शामिल होती हैं।

3. ताल नाच (Rhythmics)-संगीत या ताल के साथ की जाने वाली क्रियाएं इसमें शामिल होती हैं। जैसे, डम्बल, लेज़ियम (रिदमिक जिमनास्टिक) लोक-नृत्य क्रियाएं आदि।

4. मनोरंजन क्रियाएं (Recreational Activities)-दैनिक जीवन की भाग-दौड़ के उपरांत जब मानव ऊब जाता है तो मनोरंजन उसके जीवन में दोबारा ताज़गी भरने की शक्ति रखता है। मनोरंजन के लिए मानव कई प्रकार की क्रियाएं कर सकता है, जैसे कैंप लाना, पिकनिक, पहाड़ों की सैर, मछली पकड़ना आदि। मनोरंजन की ये सभी क्रियाएं भी शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में ही शामिल हैं।

5. यौगिक क्रियाएं (Yogic Activites)-योग भारत की एक पुरातन विधि है जो आज पूरे संसार में प्रचलित हो रही है। योग में अलग-अलग आसन, प्राणायाम और अन्य क्रियाएं शामिल होती हैं जिनका प्रयोग व्यायाम, इलाज, ध्यान लगाने आदि के लिए किया जाता है।

6. शैक्षिक क्षेत्र (Educational Scope)-शारीरिक शिक्षा में हम अलग-अलग विषयों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, जैसे-जीव विज्ञान, शारीरिक बनावट, मनोविज्ञान, भौतिक चिकित्सा आदि। विद्यार्थी भविष्य में इन विषयों को अपने पेशे के रूप में अपना सकते हैं।

7. व्यावसायिक क्षेत्र (Vocational Scope)—शारीरिक शिक्षा सिर्फ एक खिलाड़ी ही नहीं बनाता बल्कि शारीरिक शिक्षा अध्याय, प्रशिक्षक, खेल पत्रकार, कमैंटेटर आदि प्रमुख व्यवसायों में भी जाने का अवसर प्रदान करता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 1 ख़रीफ़ की फसलें

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 1 ख़रीफ़ की फसलें Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 1 ख़रीफ़ की फसलें

PSEB 11th Class Agriculture Guide ख़रीफ़ की फसले Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
ख़रीफ़ की दो अनाज वाली फसलों के नाम लिखो।
उत्तर-
धान, मक्की तथा ज्वार ।

प्रश्न 2.
धान की दो उन्नत किस्मों के नाम बताओ।
उत्तर-
पी०आर०-123, पी०आर०-122.

प्रश्न 3.
देसी कपास की दोहरी किस्म की एक एकड़ खेती के लिए कितना बीज चाहिए ?
उत्तर-
1.5 किलो बीज प्रति एकड़।

प्रश्न 4.
मक्की को हानि पहुंचाने वाले मुख्य कीट का नाम बताओ।
उत्तर-
मक्की का गन्डोया।

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प्रश्न 5.
गन्ने के दो रोगों के नाम बताओ।
उत्तर-
रत्ता रोग, लाल धारियों वाला रोग।

प्रश्न 6.
हरी खाद के रूप में बोई जाने वाली दो फसलों के नाम बताओ।
उत्तर-
सन् तथा लैंचा।

प्रश्न 7.
मक्की की एक एकड़ की बुआई के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
पर्ल पॉपकार्न के लिए 7 किलो तथा अन्य किस्मों के लिए 8 किलो प्रति एकड़, चारे वाली मक्की के लिए 30 किलो बीज प्रति एकड़।

प्रश्न 8.
कपास की बुआई का समय बताओ।
उत्तर-
1 अप्रैल से 15 मई।

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प्रश्न 9.
गन्ने में बोई जाने वाले एक अन्तर फसल का नाम बताओ। उत्तर-गर्म ऋतु की मूंगी या मांह।। प्रश्न 10. ख़रीफ के चारे की दो फसलों के नाम लिखो।
उत्तर-
मक्की , बाजरा, गवारा आदि।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
फसल चक्र किसे कहते हैं ?
उत्तर-
पूरे वर्ष में एक खेत में जो फसलें उगाई जाती हैं, उसको फसल चक्कर कहा जाता है, जैसे-धान-गेहूँ, धान-आलू-सूर्यमुखी आदि।

प्रश्न 2.
धान आधारित दो फसल चक्रों के नाम लिखो।
उत्तर-
धान-गेहूँ/बरसीम, धान-गेहूँ-सठ्ठी मक्की, धान-आलू-सठ्ठी मूंगी/सूर्यमुखी।

प्रश्न 3.
हरी खाद क्यों दी जाती है ?
उत्तर-
हरी खाद में फलीदार फसलें होती हैं; जैसे-दालों वाली फसलें, सन्, लैंचा आदि। इन फसलों के कारण भूमि में नाइट्रोजन तत्त्व की वृद्धि होती है तथा हरी खाद की फसल को जुताई करके भूमि में दबा दिया जाता है। इससे भूमि में मल्लहड़ की भी वृद्धि होती है तथा भूमि की उपजाऊ शक्ति में वृद्धि होती है।

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प्रश्न 4.
मक्की की बुआई की विधि बताओ।
उत्तर-
मक्की की बुवाई का समय मई के अंतिम सप्ताह से अंत जून तक का है। बुवाई के समय पंक्तियों में फासला 60 सैं०मी० तथा पौधे से पौधे का फासला 22 सैं०मी० रखना चाहिए।

प्रश्न 5.
मक्की में इटसिट की रोकथाम बताओ।
उत्तर-
मक्की में इटसिट की रोकथाम के लिए एट्राटाप नदीन-नाशक का प्रयोग बुवाई से 10 दिनों के अन्दर-अन्दर करना चाहिए।

प्रश्न 6.
धान में कद्दू क्यों किया जाता है ?
उत्तर-
धान की फसल के लिए पानी की अधिक आवश्यकता होती है। कद्दू करने से भूमि में पानी रोकने की शक्ति बढ़ जाती है, पानी का वाष्पीकरण कम होता है। नदीनों की समस्या में कमी आती है। धान की पनीरी लगानी आसान हो जाती है।

प्रश्न 7.
गन्ने की बुआई के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
एक एकड़ कमाद के लिए तीन आंखों वाली 20 हज़ार गुल्लियां या चार आंखों वाली 15 हज़ार गुल्लियां या 5 आंखों वाली 12 हज़ार गुल्लियों की आवश्यकता है।

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प्रश्न 8.
पतझड़ ऋतु के गन्ने की बुआई का समय और विधि बताओ।
उत्तर-
पतझड़ ऋतु की गन्ने की बुआई का समय 20 सितम्बर से 20 अक्तूबर का है। बुवाई 90 सैं०मी० फासले की पंक्तियों में की जाती है।

प्रश्न 9.
मूंगी के पत्ते सुखाने के लिए स्प्रे का समय और मात्रा बताओ।
उत्तर-
जब कम्बाइन से मूंगी की कटाई करनी हो तो जब लगभग 80% फलियां पक जाती हैं तो ग्रैमक्सोन का स्प्रे करके पत्ते तथा तने सुखा दिये जाते हैं।

प्रश्न 10.
धान में खरपतवार की रोकथाम का तरीका बताओ।
उत्तर-
धान में स्वांक तथा मोथा नदीन होते हैं। पनीरी लगाने से 15 तथा 30 दिन बाद पैडीवीडर के साथ दो गुडाइयां करें या नदीनों को हाथ से खींच कर निकाल दें। उचित दवाइयों का उचित मात्रा में तथा उचित समय पर प्रयोग करना चाहिए।

(ग) पांच-छ: वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
धान में हरी खाद के उपयोग के बारे में लिखो।
उत्तर-
गेहूँ की कटाई के शीघ्र बाद ही लैंचा (जंतर) की हरी खाद बो देनी चाहिए तथा इसे दबाने के बाद धान की बुवाई करनी चाहिए। सट्ठी मुंगी को भी गेहूँ काटने के तुरन्त बाद बो कर फलियां तोड़कर मूंगी की फसल को खेत में हरी खाद के तौर पर दबाकर शीघ्र ही धान लगा दें।
हरी खाद में देसी खाद के सभी गुण होते हैं। उससे किसान रासायनिक खादें डालने से बच जाता है क्योंकि फलीदार फसल की फलियों में फॉस्फोरस, रेशे में पोटाशियम तथा जड़ों में नाइट्रोजन मिलती है।

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प्रश्न 2.
धान की सीधी बुआई के बारे में जानकारी दो।
उत्तर-
धान की सीधी बुआई केवल मध्यम से भारी भूमियों में ही करनी चाहिए। हल्की (रेतीली) भूमि में फसल में लोहा तत्त्व की कमी हो जाती है तथा फसल की पैदावार कम हो जाती है।

बुवाई का समय-सीधी बुवाई के लिए उचित समय जून का पहला पखवाड़ा है। बीज की मात्रा-इसके लिए बीज की मात्रा 8-10 किलो प्रति एकड़ की आवश्यकता

गहराई तथा पंक्तियों में फासला-बीज को 2-3 सैं०मी० गहराई पर धान वाली ड्रिल से 20 सैं०मी० चौड़ी पंक्तियों में बोना चाहिए। धान की सीधी बुवाई के लिए कम समय पर पकने वाली किस्में ही लेनी चाहिए।

खरपतवार (नदीनों) की रोकथाम-बुवाई से 2 दिनों के अन्दर-अन्दर सटोंप का प्रयोग करना चाहिए। फसल की बुवाई से 30 दिन बाद यदि फसल में स्वांक तथा मोथा नदीन हों तो नोमनीगोल्ड का प्रयोग किया जाता है। चौड़े पत्ते वाले नदीनों के लिए सैगमैंट नदीननाशक का प्रयोग करना चाहिए।

खाद-60 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ के हिसाब से तीन बराबर भागों में बांट कर बुवाई से दो, पांच तथा नौ सप्ताह बाद छट्टा विधि से डालना चाहिए। सिंचाई-फसल को तीन से पांच दिनों के भीतर पानी देते रहें।

प्रश्न 3.
मक्की में रासायनिक खादों के प्रयोग के बारे में बताओ।
उत्तर-
मक्की में प्रति एकड़ के लिए 50 किलो नाइट्रोजन, 24 किलो फॉस्फोरस तथा 12 किलो पोटाश की आवश्यकता होती है। पोटाश तत्व का प्रयोग मिट्टी जांच के आधार पर करना चाहिए। सारी फॉस्फोरस, सारी पोटाश तथा तीसरा भाग नाइट्रोजन खाद बुवाई करते समय ही डाल देनी चाहिए। नाइट्रोजन का एक भाग जब फसल घुटनों तक बढ़ जाए तो डालें तथा दूसरा भाग बूर पड़ने से पहले डाल देना चाहिए। यदि गेहूँ को फॉस्फोरस की खाद सिफारिश मात्रा में डाली हो तो मक्की के लिए इसकी आवश्यकता नहीं रहती।

प्रश्न 4.
कपास के बीज की शुद्धि का विवरण दो।
उत्तर-
बी०टी० नरमा की किस्मों के लिए 750 ग्राम, बी० टी० रहित दोहरी किस्मों के लिए 1 किलो, साधारण किस्मों के लिए 3 किलो, देसी कपास की दोगली किस्मों के लिए 1.5 किलो तथा साधारण किस्मों के लिए 3 किलो प्रति एकड़ बीज की आवश्यकता होती है। सिफारिश की गई उल्लीनाशक दवाइयों से बीज की सुधाई करें। फसल को तेले से बचाने के लिए बीज को गाचो या करुज़र दवाई लगानी चाहिए।

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प्रश्न 5.
गन्ने को गिरने से कैसे बचाया जा सकता है ?
उत्तर-
गन्ने की फसल को गिरने से बचाना चाहिए क्योंकि गिरी फसल पर कोहरे का अधिक प्रभाव पड़ता है। फसल को गिरने से बचाने के लिए मानसून शुरू होने से पहले जून के अन्त में मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। अगस्त के अंत में या सितम्बर के शुरू में फसलों के पूले बांध देने चाहिएं।

Agriculture Guide for Class 11 PSEB ख़रीफ़ की फसले Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सावनी (खरीफ) की फसल कब बोई जाती है ?
उत्तर-
जून-जुलाई या मानसून के आने पर।

प्रश्न 2.
सावनी (ख़रीफ) की फसल कब काटी जाती है ?
उत्तर-
अक्तूबर-नवम्बर में।

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प्रश्न 3.
सावनी (ख़रीफ) की फसलों को किन श्रेणियों में बांटा जाता है ?
उत्तर-
तीन–1. अनाज 2. दालें तथा तेल बीज 3. कपास, कमाद तथा सावनी के चारे।

प्रश्न 4.
सावनी (ख़रीफ) की अनाज वाली फसलें बतायें।
उत्तर-
धान, बासमती, ज्वार, मक्की, बाजरा।

प्रश्न 5.
धान की पैदावार में कौन-सा देश अग्रणी है ?
उत्तर-
चीन।

प्रश्न 6.
भारत में धान की पैदावार सबसे अधिक कहां होती है ?
उत्तर-
पश्चिमी बंगाल।

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प्रश्न 7.
धान को किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-
धान तथा जीरी।

प्रश्न 8.
पंजाब में धान की काश्त के नीचे कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
28 लाख हैक्टेयर।

प्रश्न 9.
पंजाब में धान की औसत पैदावार कितनी है ?
उत्तर-
60 क्विंटल प्रति हैक्टेयर।

प्रश्न 10.
धान की कृषि के लिए कद्दू करने से पहले खेत को किस कराहे से समतल करना चाहिए ?
उत्तर-
लेज़र कराहे से।

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प्रश्न 11.
धान के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
प्रति एकड़ आठ किलो बीज।।

प्रश्न 12.
चौड़े पत्ते वाले धान के नदीन जैसे घरीला आदि के लिए कौन-सी दवाई का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
एलग्रिप या सेगमैंट।

प्रश्न 13.
धान की सिंचाई में पानी की बचत के लिए किस यंत्र की सहायता ली जाती है ?
उत्तर-
टैंशीयोमीटर।

प्रश्न 14.
धान की सीधी बुवाई किस तरह की भूमि में ठीक रहती है ?
उत्तर-
मध्यम से भारी भूमि।

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प्रश्न 15.
धान की फसल के लिए जिंक की कमी के लिए क्या प्रयोग किया जाता है तथा कितनी मात्रा है ?
उत्तर-
जिंक सल्फेट, 25 किलो प्रति एकड़ के अनुसार।

प्रश्न 16.
धान के दानों को गोदाम में रखने के लिए नमी की मात्रा बताओ।
उत्तर-
12%.

प्रश्न 17.
बासमती की किस्में बताएं।
उत्तर-
पंजाब बासमती-3, पूसा पंजाब बासमती 1509, पूसा पंजाब बासमती-1121.

प्रश्न 18.
बासमती की पनीरी की बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
पूसा पंजाब बासमती 1509 के लिए पनीरी जून के दूसरे पखवाड़े तथा अन्य किस्मों के लिए जून के पहले पखवाड़े में बोई जाती है।

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प्रश्न 19.
बासमती को अधिक नाइट्रोजन तत्त्व डालने से क्या होता है ?
उत्तर-
फसल अधिक बढ़ कर गिर जाती है तथा पैदावार कम हो जाती है।

प्रश्न 20.
मक्की की पैदावार में कौन-सा देश अग्रणी है ?
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमरीका।

प्रश्न 21.
मक्की की पैदावार में भारत में कौन-सा राज्य आगे है ?
उत्तर-
आंध्रा प्रदेश।

प्रश्न 22.
पंजाब में मक्की की कृषि के अधीन क्षेत्रफल बताएं।
उत्तर-
1 लाख 25 हज़ार हैक्टेयर।

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प्रश्न 23.
मक्की की पंजाब में औसत पैदावार बताएं।
उत्तर-
15 क्विंटल प्रति एकड़।

प्रश्न 24.
मक्की के लिए कितनी वर्षा ठीक रहती है ?
उत्तर-
50 से 75 सैं०मी०।

प्रश्न 25.
मक्की के लिए कैसी भूमि ठीक रहती है ?
उत्तर-
अच्छे जल निकास वाली मध्यम से भारी।।

प्रश्न 26.
मक्की की पर्ल पॉपकार्न के लिए बीज की मात्रा बताएं।
उत्तर-
7 किलो प्रति एकड़।

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प्रश्न 27.
मक्की की आम प्रयोग वाली किस्में बताएं।
उत्तर-
पी०एम०एच०-1, पी०एम०एच-2.

प्रश्न 28.
मक्की की विशेष प्रयोग वाली किस्में बताओ।
उत्तर-
पंजाब स्वीट कार्न-1, पर्ल पॉपकार्न ।

प्रश्न 29.
मक्की की बुवाई का समय बताएं।
उत्तर-
मई के अंतिम सप्ताह से अन्त जून तक तथा अगस्त के दूसरे पखवाड़े में मक्की की बुवाई की जा सकती है।

प्रश्न 30.
मक्की की बुवाई के लिए पंक्तियों का तथा पौधों का आपसी फासला बताओ।
उत्तर-
60 सैं०मी०, 22 सैं०मी०।

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प्रश्न 31.
मक्की में इटसिट के लिए कौन-सा नदीननाशक प्रभावशाली है ?
उत्तर-
एट्राटाप।

प्रश्न 32.
मक्की में कृषि के ढंग से नदीनों की रोकथाम के लिए क्या बोया जाता है ?
उत्तर-
रवाह (चने)।

प्रश्न 33.
डीला/मोथा की रोकथाम के लिए कौन-सी दवाई का प्रयोग करोगे ?
उत्तर-
2, 4-डी।

प्रश्न 34.
साधारण मक्की को कितनी सिंचाई की आवश्यकता होती है ?
उत्तर-
4-6 सिंचाइयों की।

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प्रश्न 35.
भारत में सब से अधिक दालों की पैदावार कहां होती है ?
उत्तर-
राजस्थान।

प्रश्न 36.
पंजाब में मूंगी की कृषि के अधीन कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
5 हज़ार हैक्टेयर।

प्रश्न 37.
पंजाब में मूंगी की पैदावार बतायें।
उत्तर-
350 किलो प्रति एकड़।

प्रश्न 38.
मुंगी की कृषि के लिए कौन-सी भूमि उचित नहीं है ?
उत्तर-
कलराठी या सेम वाली भूमि।

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प्रश्न 39.
मूंगी के लिए बीज की मात्रा बतायें।
उत्तर-
8 किलो बीज प्रति एकड़।

प्रश्न 40.
मुंगी के लिए बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
जुलाई का पहला पखवाड़ा।

प्रश्न 41.
मुंगी के लिए खालों (सियाड़) का फासला तथा पौधे से पौधे का फासला बताओ।
उत्तर-
खालों (सियाड़) का फासला 30 सैं०मी० तथा पौधे से पौधे का फासला 10 सैं०मी०।

प्रश्न 42.
मूंगी में नदीनों (खरपतवार) की रोकथाम के लिए नदीन-नाशक बताओ।
उत्तर-
ट्रेफलिन या वासालीन।

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प्रश्न 43.
पंजाब में मांह की कृषि के अधीन क्षेत्रफल बताओ।
उत्तर-
2 हज़ार हैक्टेयर।

प्रश्न 44.
पंजाब मांह की औसत पैदावार बताओ।
उत्तर-
180 किलो प्रति एकड़।

प्रश्न 45.
मांह की कृषि के लिए कौन-सी भूमि ठीक नहीं ?
उत्तर-
लवणीय-क्षारीय, कलराठी, सेम वाली।

प्रश्न 46.
मांह के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
6-8 किलो प्रति एकड़।

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प्रश्न 47.
अर्द्ध पहाड़ी क्षेत्रों में मांह की बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
15 से 25 जुलाई तक।

प्रश्न 48.
अर्द्ध पहाड़ी क्षेत्रों के अतिरिक्त मांह की बुवाई का समय क्या है ?
उत्तर-
जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक।

प्रश्न 49.
मांह की बुवाई के लिए पंक्तियों में फासला बतायें।
उत्तर-
30 सैं०मी०।

प्रश्न 50.
मांह में कौन-सा कीटनाशक प्रयोग होता है ?
उत्तर-
सटोंप।

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प्रश्न 51.
सोयाबीन की पैदावार किस देश में सबसे अधिक होती है ?
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमरीका में।

प्रश्न 52.
भारत में सोयाबीन किस राज्य में अधिक होती है ?
उत्तर-
मध्य प्रदेश।

प्रश्न 53.
सोयाबीन आधारित फसल चक्र बतायें।
उत्तर-
सोयाबीन-गेहूँ/जौ।

प्रश्न 54.
सोयाबीन की किस्में बताओ।
उत्तर-
एस०एल०-958, एस०एल०-744.

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प्रश्न 55.
सोयाबीन की बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
जून का पहला पखवाड़ा।

प्रश्न 56.
सोयाबीन की बुवाई के लिए पंक्तियों का फासला बताओ।
उत्तर-
45 सैं०मी०।

प्रश्न 57.
सोयाबीन में नदीनों की रोकथाम के लिए कौन-सी दवाइयां प्रयोग की जाती हैं ?
उत्तर-
स्टौंप, परिमेज़।

प्रश्न 58.
सोयाबीन के मुख्य कीड़े बताओ।
उत्तर-
बालों वाली सुंडी तथा सफेद मक्खी।

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प्रश्न 59.
ऐसी फसल बताओ जो दाल भी है तथा तेल बीज फसल भी है ?
उत्तर-
सोयाबीन।

प्रश्न 60.
सबसे अधिक तेल बीज पैदा करने वाला देश बताओ।
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमरीका।

प्रश्न 61.
भारत में तेल बीज पैदा करने वाला प्रदेश बताओ।
उत्तर-
राजस्थान।

प्रश्न 62.
मूंगफली की पैदावार सबसे अधिक कौन-से देश में है ?
उत्तर–
चीन में।

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प्रश्न 63.
मूंगफली की पैदावार भारत में कहां अधिक होती है ?
उत्तर-
गुजरात में।

प्रश्न 64.
पंजाब में मूंगफली की कृषि के अधीन क्षेत्रफल बताओ।
उत्तर-
15 हज़ार हैक्टेयर।

प्रश्न 65.
पंजाब में मूंगफली की औसत पैदावार बताओ।
उत्तर-
7 क्विंटल प्रति एकड़।

प्रश्न 66.
मूंगफली का एक फसली चक्कर बताओ।
उत्तर-
मूंगफली – आषाढ़ी की फसलें।

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प्रश्न 67.
मूंगफली की किस्में बताओ।
उत्तर-
एस०जी०-91, एस०जी०-84.

प्रश्न 68.
मूंगफली के बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
38-40 किलो बीज (गिरियां) प्रति एकड़।

प्रश्न 69.
मूंगफली के लिए बरानी बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
मानसून शुरू होने पर।

प्रश्न 70.
सेंजु फसल वाली मूंगफली के लिए बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
अंत अप्रैल से अंत मई तक।

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प्रश्न 71.
मूंगफली में नदीनों की रोकथाम के लिए नदीननाशकों के नाम बताओ।
उत्तर-
टरैफलान, सटोंप।

प्रश्न 72.
ख़रीफ के लिए पशुओं के चारे की फसलें बताओ।
उत्तर-
मक्की, ज्वार (चरी), बाजरा।

प्रश्न 73.
कपास की पैदावार में कौन-सा देश आगे है ?
उत्तर-
चीन।

प्रश्न 74.
कपास भारत में कहां अधिक होती है ?
उत्तर-
गुजरात में।

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प्रश्न 75.
पंजाब में कपास के अधीन क्षेत्रफल बताओ ।
उत्तर-
5 लाख हैक्टेयर।

प्रश्न 76.
कपास की पंजाब में औसत पैदावार बताओ।
उत्तर-
230 किलो रूई प्रति एकड़।

प्रश्न 77.
कपास के लिए कौन-सी भूमि ठीक नहीं है ?
उत्तर-
कलराठी तथा सेम वाली।

प्रश्न 78.
नरमे की साधारण किस्म बतायें।
उत्तर-
एल०एच०-2108.

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प्रश्न 79.
कपास के लिए बी०टी० नरमे के बीज बताओ।
उत्तर-
750 ग्राम प्रति एकड़।

प्रश्न 80.
देसी कपास की दोहरी किस्में बताओ।
उत्तर-
पी०ए०यू० 626 एच० ।

प्रश्न 81.
कपास की बुवाई के लिए समय बताओ।
उत्तर-
1 अप्रैल से 15 मई।

प्रश्न 82.
कपास के सियाड़ (खाल) में फासला बताओ।
उत्तर-
67 सैं०मी०।

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प्रश्न 83.
कपास में प्रयोग किए जाने वाले नदीननाशक के नाम बताओ।
उत्तर-
टरैफलिन, सटोंप, ग्रैमकसोन तथा राऊंडअप।

प्रश्न 84.
कमाद की पैदावार किस देश में अधिक है ?
उत्तर-
ब्राज़ील में।

प्रश्न 85.
भारत में कमाद की पैदावार कहां अधिक है ?
उत्तर-
उत्तर प्रदेश।

प्रश्न 86.
पंजाब में कमाद की कृषि के अधीन क्षेत्रफल बताओ।
उत्तर-
80 हज़ार हैक्टेयर।

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प्रश्न 87.
पंजाब में कमाद की औसत पैदावार कितनी है ?
उत्तर-
280 क्विंटल प्रति एकड़।

प्रश्न 88.
कमाद में से चीनी की प्राप्ति कितनी होती है ?
उत्तर-
9%.

प्रश्न 89.
कमाद के लिए कैसी भूमि ठीक रहती है ?
उत्तर-
मध्यम से भारी भूमि।

प्रश्न 90.
बसंत ऋतु की कमाद की अगेती किस्में बताओ।
उत्तर-
सी०ओ०जे०-85, सी०ओ०जे०-83.

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प्रश्न 91.
कमाद के बीज के लिए चार आंखों वाली कितनी गुल्लियों की आवश्यकता है ?
उत्तर-
15 हज़ार गुल्लियों की एक एकड़ के लिए।

प्रश्न 92.
भार के अनुसार कमाद के बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
30 से 35 क्विंटल प्रति एकड़।

प्रश्न 93.
कमाद की बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
मध्य फरवरी से अंत मार्च तक।

प्रश्न 94.
गन्ने में (खरपतवारों) की रोकथाम के लिए प्रयोग की जाती दवाइयां बताओ।
उत्तर-
एट्राटाफ, सैनकोर, 2,4-डी।

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प्रश्न 95.
पतझड़ ऋतु की कमाद की किस्में बताओ।
उत्तर-
सी०ओ० जे०-85, सी०ओ०जे०-83.

प्रश्न 96.
पतझड़ ऋतु के कमाद के लिए बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
20 सितम्बर से 20 अक्तूबर।

प्रश्न 97.
कमाद में यदि गेहूँ या राईया बोया हो तो कौन-सा नदीननाशक प्रयोग किया जाना चाहिए ?
उत्तर-
आईसोप्रोटयूरान।

प्रश्न 98.
कमाद में यदि लहसुन बोया हो तो कौन-सा नदीननाशक प्रयोग करना चाहिए ?
उत्तर-
सटोंप।

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प्रश्न 99.
एक बड़े पशु को लगभग कितना चारा प्रतिदिन चाहिए ?
उत्तर-
40 किलो हरा चारा।

प्रश्न 100.
सावनी के चारे कौन-से हैं ?
उत्तर-
बाजरा, मक्की, ज्वार (चरी), नेपीयर बाजरा, गिन्नी घास, गवारा, रवाह आदि।

प्रश्न 101.
मक्की का चारा कितने दिनों में तैयार हो जाता है ?
उत्तर-
50-60 दिनों में।

प्रश्न 102.
मक्की की चारे वाली किस्म बताओ।
उत्तर-
जे 1006.

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प्रश्न 103.
चारे के लिए मक्की की बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
मार्च के पहले सप्ताह से मध्य सितम्बर तक।

प्रश्न 104.
चारे वाली मक्की को कौन-सा कीट लगता है ?
उत्तर-
मक्की का गड़यां।

प्रश्न 105.
कौन-से चारे को पशु अधिक खुश होकर खाते हैं ?
उत्तर-
ज्वार (चरी)।

प्रश्न 106.
ज्वार की किस्में बताओ।
उत्तर-
एस०एल०-104.

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प्रश्न 107.
ज्वार के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
20-25 किलो प्रति एकड़।

प्रश्न 108.
अग्रिम या अगेते ज्वार के लिए बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
अगेते चारे के लिए बुवाई मध्य मार्च से शुरू कर देनी चाहिए।

प्रश्न 109.
ज्वार के लिए बुवाई का ठीक समय बतायें।
उत्तर-
मध्य जून से मध्य जुलाई ।

प्रश्न 110.
ज्वार की पंक्तियों में फासला बताओ।
उत्तर-
22 सैं०मी०।

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प्रश्न 111.
यदि गवारा तथा चरी मिला कर बोये गये हों तो कौन-सा नदीननाशक प्रयोग होता है ?
उत्तर-
सटोंप।

प्रश्न 112.
बाजरे वाले फसल चक्र के बारे में बताओ।
उत्तर-
बाजरा – मक्की – बरसीम।

प्रश्न 113.
बाजरे की किस्में बताओ।
उत्तर-
पी०एच०बी०एफ०-1, एफ०बी०सी०-16.

प्रश्न 114.
बाजरे के लिए बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
6-8 किलो बीज प्रति एकड़।

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प्रश्न 115.
बाजरे के लिए बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
मार्च से अगस्त।

प्रश्न 116.
बाजरे की बुवाई का ढंग बताओ।
उत्तर-
छट्टा विधि द्वारा बुवाई की जाती है।

प्रश्न 117.
बाजरे में नदीनों की रोकथाम के लिए दवाई बतायें।
उत्तर-
ऐटराटाफ।

प्रश्न 118.
बाजरे की सिंचाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
आमतौर पर 2-3 सिंचाइयां काफ़ी है ।

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प्रश्न 119.
बाजरे की कटाई कितने दिनों बाद की जाती है ?
उत्तर-
45-55 दिनों बाद।

प्रश्न 120.
बाजरे की बीमारियां बताओ।
उत्तर-
सिट्टों का रोग, गुदियां रोग।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
धान की बुवाई के लिए जलवायु और ज़मीन के बारे में बताओ।
उत्तर-
धान के लिए अधिक गर्मी, अधिक नमी और अधिक पानी की ज़रूरत होती है। इसलिए मध्यम से भारी भूमि अच्छी रहती है। इसके लिए तेज़ाबी से क्षारीय भूमि भी ठीक है।

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प्रश्न 2.
धान की बुवाई के लिए बीज की मात्रा और सुधाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
एक एकड़ की बुवाई के लिए 8 किलो बीज की पनीरी की ज़रूरत होती है। फसल को रोगों से बचाने के लिए बीज की सिफ़ारिश की गई फंफूदी दवाइयों के घोल में 8-10 घण्टे तक भिगो कर सुधाई कर लेनी चाहिए।

प्रश्न 3.
धान में चौड़े पत्ते वाले नदीनों की रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
धान में चौड़े पत्ते वाले नदीन जैसे-घरीला, सनी आदि पैदा हो जाते हैं। इनकी रोकथाम के लिए एलग्रिप या सैगमैंट में से किसी एक नदीन-नाशक का प्रयोग पनीरी लगाने से 15-20 दिनों बाद करो।

प्रश्न 4.
धान में जिंक की कमी के संबंध में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
ज़िक की कमी के कारण पौधे बौने रह जाते हैं पैदावार कमज़ोर दिखाई देती है। पौधों के पत्ते जंग लगे, भूरे हो जाते हैं। पत्ते के बीच वाली नाड़ी का रंग बदल जाता है तथा बाद में पत्ते सूख जाते हैं। जिंक की कमी पूरी करने के लिए कद् करते समय 25 किलो जिंक सल्फेट प्रति एकड़ के हिसाब से बिखेर दें।

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प्रश्न 5.
धान की कटाई तथा संभाल के बारे में लिखो।
उत्तर-
जब फसलों की मुंजरें पक जाएं तथा नाड़ी पीली हो जाए तो फसल की कटाई की जाती है। दानों को गोदाम में रखते समय ध्यान रखें कि इनमें नमी की मात्रा 12% से अधिक नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न 6.
बासमती की पनीरी की बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
पूसा पंजाब बासमती 1509 की पनीरी जून के दूसरे पखवाड़े तथा पंजाब बासमती-3 तथा पूसा बासमती-1121 की पनीरी जून के पहले पखवाड़े में बोई जाती है।

प्रश्न 7.
बासमती की पनीरी को खेतों में लगाने का समय बताओ।
उत्तर-
पूसा पंजाब बासमती 1509 पनीरी को जुलाई के दूसरे पखवाड़े तथा पंजाब बासमती 3 तथा पूसा बासमती 1121 की पनीरी को जुलाई के पहले पखवाड़े में कद्दू किए खेत में लगाने चाहिएं। प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से 33 पौधे लगाएं।

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प्रश्न 8.
मक्की के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
मक्की को उगने से लेकर तैयार होने तक सीलन वाली तथा गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। फसल तैयारी के समय यदि कम सीलन तथा बहुत अधिक तापमान हो तो पत्तों को हानि पहुंचाता है। इससे परागकण सूख जाते हैं तथा परागण क्रिया अच्छी प्रकार नहीं होती तथा दाने कम बनते हैं। 50 सैं०मी० से 75 सें०मी० वर्षा मक्की के लिए ठीक रहती है। अच्छे जल निकास वाली मध्यम से भारी भूमि अच्छी रहती है।

प्रश्न 9.
मक्की के लिए सिंचाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
मक्की को 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है परन्तु यह आवश्यकता वर्षा पर निर्भर है। मक्की के तैयार होने तथा सूत कातने के समय पानी देने का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

प्रश्न 10.
मक्की की कटाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
जब छल्लियों के पर्दे (छिलके या खग्गे) सूखकर भूरे हो जाएं परन्तु टांडे तथा पत्ते बेशक हरे ही रहें। दानों में नमी की मात्रा 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।

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प्रश्न 11.
मूगी के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
मूंगी के लिए गर्म जलवायु ठीक रहती है। यह फसल अन्य दाल फसलों से अधिक गर्मी तथा शुष्कता सहन कर सकती है। इस फसल के लिए कलराठी तथा सेम वाली भूमि ठीक नहीं है।

प्रश्न 12.
मूंगी के लिए भूमि की तैयारी तथा खाद के बारे में बताओ।
उत्तर-
भूमि की तैयारी के लिए खेत की 2-3 बार जुताई की जाती है तथा सुहागा चला कर समतल किया जाता है। इस प्रकार प्रति एकड़ के हिसाब से बुवाई के समय 5 किलो नाइट्रोजन तथा 16 किलो फास्फोरस ड्रिल की जाती है।

प्रश्न 13.
मूंगी के लिए नदीनों को रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
नदीनों की रोकथाम के लिए एक या दो गुडाइयां करनी चाहिए। नदीनों की रोकथाम के लिए ट्रेफलिन या वासालीन नदीननाशक को बुवाई से पहले प्रयोग किया जाना चाहिए या सटोंप को बुवाई से 2 दिनों के भीतर-भीतर प्रयोग करना चाहिए।

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प्रश्न 14.
मूंगी की कटाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
मूंगी की जब 80% के लगभग फलियां पक जाएं तो इसको दातरी से काटा जाता है। गहाई के लिए ग्रैशर का प्रयोग भी किया जाता है। यदि कम्बाइन से मूंगी काटनी हो तो जब लगभग 80% फलियां पक जाएं तो ग्रेगकसोन का छिड़काव करके पत्ते तथा तने सुखा दिए जाते हैं।

प्रश्न 15.
मांह के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
इस फसल के लिए गर्म तथा नमी वाली जलवायु उचित है। इस के लिए लगभग हर प्रकार की भूमि ठीक रहती है परन्तु लवणीय क्षारीय, कलराठी या सेम वाली भूमि इसकी कृषि के लिए उचित नहीं है।

प्रश्न 16.
मांह की उन्नत किस्मों, भूमि की तैयारी तथा नदीनों की रोकथाम के बारे में बतायें।
उत्तर-

  1. उन्नत किस्में-मांह 114, मांह 338.
  2. भूमि की तैयारी-दो या तीन बार जुताई के बाद सुहागा चलायें।
  3. नदीनों की रोकथाम-बुवाई से एक माह बाद एक गुडाई करनी चाहिए या बुवाई से 2 दिनों के अन्दर सटोंप का छिड़काव किया जाता है।

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प्रश्न 17.
माह के लिए बुवाई का समय बताओ।
उत्तर-
मांह की नीम पहाड़ी क्षेत्रों में बुवाई 15 से 25 जुलाई तक तथा दूसरे क्षेत्रों में जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक करनी चाहिए। असिंचित (बरानी)
स्थितियों में बुवाई मानसून शुरू होने पर की जाती है। बुवाई 30 सैं०मी० दूरी की पंक्तियों में की जाती है।

प्रश्न 18.
मांह की फसल के लिए सिंचाई तथा कटाई के बारे में बताओ।
उत्तर-

  1. सिंचाई-साधारणतया सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती परन्तु गर्मी अधिक होने पर एक पानी की आवश्यकता होती है।
  2. कटाई-जब पत्ते झड़ जाते हैं तथा फलियां स्लेटी काली हो जाएं तो फसल कटाई के लिए तैयार होती है।

प्रश्न 19.
सोयाबीन के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
इस फसल के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता है। इसको सभी प्रकार की भूमियों में बोया जा सकता है परन्तु अच्छे जल निकास वाली, लवण तथा क्षार से रहित उपजाऊ भूमि इसकी कृषि के लिए उचित रहती है।

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प्रश्न 20.
सोयाबीन वाला फसल चक्र, इसकी उन्नत किस्में तथा भूमि की तैयारी के बारे में बताओ।
उत्तर-
1. फसल चक्र-सोयाबीन-गेहूँ/जौ।
2. उन्नत किस्में-एस०एल०-958, एस०एल० 744.
3. भूमि की तैयारी-भूमि को दो बार जोतकर हर बार सुहागा फेर कर समतल करें।

प्रश्न 21.
सोयाबीन के लिए बीज की मात्रा तथा शुद्धि के बारे में बताओ तथा बुवाई का ढंग भी बताओ।
उत्तर-
बीज की मात्रा 25-30 किलो प्रति एकड़ के हिसाब से आवश्यकता है। शुद्धि सिफ़ारिश की गई फंफूदी नाशक दवाइयों से करनी चाहिए। यदि पहली बार खेत में बुवाई करनी हो तो बीज को जीवाणु खाद कल्चर ज़रूर लगाएं। बुवाई 45 सैं०मी० की पंक्तियों में की जाती है।

प्रश्न 22.
सोयाबीन में नदीनों की रोकथाम के बारे में बतायें।
उत्तर-
दो बार गुडाई करें। गुडाई बुवाई से 20 तथा 40 दिनों बाद करनी चाहिए। बुवाई के 1-2 दिनों के अन्दर सटोंप या बुवाई से 15-20 दिनों बाद परीमेज़ का स्प्रे करके नदीनों की रोकथाम की जा सकती है।

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प्रश्न 23.
सोयाबीन के लिए खादों के बारे में बताओ।
उत्तर-
सोयाबीन की बुवाई से पहले 4 टन प्रति एकड़ के हिसाब से रूड़ी का प्रयोग करें। बुवाई के समय फसल को 13 किलो नाइट्रोजन तथा 32 किलो फास्फोरस प्रति एकड़ के हिसाब से डालें।

प्रश्न 24.
सोयाबीन की सिंचाई के बारे में बतायें।
उत्तर-
सोयाबीन को आमतौर पर 3-4 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है जब फलियों में दाने पड़ जाते हैं तब पानी देना आवश्यक है परन्तु वर्षा ठीक मात्रा में हो जाए तो पानी की आवश्यकता नहीं है।

प्रश्न 25.
सोयाबीन की कटाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
जब बहुत सारे पत्ते झड़ जाएं तथा फलियों का रंग बदल जाए तो फसल की कटाई कर देनी चाहिए। जब दाने स्टोर करने हों तो दानों में नमी 7% से अधिक नहीं होनी चाहिए।

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प्रश्न 26.
सोयाबीन के कीट तथा रोगों के बारे में बताओ।
उत्तर-
बालों वाली सूंडी तथा सफेद मक्खी इसके मुख्य कीट हैं तथा चितकबरा रोग इसकी मुख्य बीमारी है।

प्रश्न 27.
मूंगफली के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
बरानी फसल के लिए जुलाई, अगस्त तथा सितम्बर में लगभग 50 सैं०मी० एक जैसी वर्षा बहुत आवश्यक है। हल्की तथा मध्यम भूमि इसके लिए ठीक है।

प्रश्न 28.
मूंगफली के लिए उन्नत किस्में भूमि की तैयारी तथा फसल चक्कर बताओ।
उत्तर-
उन्नत किस्में-एस०जी०-99, एस०जी०-84. भूमि की तैयारी-दो बार जुताई करके खेत तैयार हो जाता है। फसल चक्कर-मूंगफली – आषाढ़ी (रबी) की फसलें।

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प्रश्न 29.
मूंगफली के लिए बीज की मात्रा तथा सुधाई, बुवाई का ढंग बताओ।
उत्तर-
सिफ़ारिश की गई उल्लीनाशक दवाइयों से बीज की सुधाई की जाती है। बीज की मात्रा 38-40 किलो बीज (गिरी) प्रति एकड़ प्रयोग किया जाता है। फसल की बुवाई के लिए रौणी करके 30 x 15 सैं०मी० की दूरी पर बोया जाना चाहिए।

प्रश्न 30.
मूंगफली के लिए खादों के बारे में बताओ।
उत्तर-
मूंगफली को 6 किलो नाइट्रोजन, 8 किलो फॉस्फोरस तथा 10 किलो पोटाश की एक एकड़ के हिसाब से आवश्यकता होती है। पोटाश का प्रयोग मिट्टी की जांच करवा कर ही करनी चाहिए। फॉस्फोरस तत्त्व के लिए सुपरफॉस्फेट का प्रयोग करना चाहिए। इसमें सल्फर तत्त्व होता है जो कि तेल बीज फसलों के लिए ज़रूरी है। यदि फॉस्फोरस की आवश्यकता न हो तो 50 किलो जिप्सम प्रति एकड़ के हिसाब से प्रयोग करें।

प्रश्न 31.
मूंगफली में नदीनों की रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
इसके लिए 3 तथा 6 सप्ताह के बाद दो गुडाइयां की जाती हैं। नदीनों की रोकथाम के लिए बुवाई के दो दिनों के अन्दर सटोंप का छिड़काव किया जाता है या टरैफलान के छिड़काव के बाद उसी दिन मूंगफली बो दें।

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प्रश्न 32.
मूंगफली की सिंचाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
मूंगफली को वर्षा पर निर्भर करते हुए 2 या 3 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। यदि वर्षा न हो तो फूल पड़ने पर पहला पानी देना चाहिए। गट्ठियां बन जाने पर वर्षा अनुसार एक या दो पानी लगाए जाते हैं।

प्रश्न 33.
मूंगफली की खुदाई कीट तथा रोगों के बारे में बताओ।
उत्तर-
मूंगफली की खुदाई-सारी फसल जब एक जैसी पीली हो जाए तथा पुराने पत्ते झड़ने लगते हैं तो मूंगफली की खुदाई करनी चाहिए।
कीड़े तथा रोग-कंबल कीड़ा (भब्बू कुत्ता) सफेद सूंड, चेपा इसके मुख्य कीट हैं तथा बीज का गलना, गिच्ची का गलना तथा टिक्का रोग इसके मुख्य रोग हैं।

प्रश्न 34.
कपास के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
कपास के लिए गर्म तथा शुष्क जलवायु की आवश्यकता है। इसकी कृषि के लिए कलराठी तथा सेम वाली भूमियों के अलावा सभी प्रकार की भूमि ठीक रहती है।

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प्रश्न 35.
नरमे की किस्में तथा फसल चक्र बताओ।
उत्तर-
फसल चक्र-कपास-गेहूँ/जौं, कपास-सूर्यमुखी, कपास-राईया, कपास-सेंजी/ बरसीम/जवी।
उन्नत किस्म-बी०टी० किस्म-एन०एस०सी०-855, अंकुर 3028, एम०आर०सी०7017, आर०सी०एच०-650.
बी०टी० रहित दोगली किस्म-एल०एच०-144. साधारण किस्म-एल०एच०-2108. देसी दोहरी किस्में-पी०ए०यू०-626 एच। देसी साधारण किस्में-एफ०डी०के०-124, एल०डी०-694.

प्रश्न 36.
नरमे के लिए बीज की मात्रा तथा शुद्धि के बारे में बताओ।
उत्तर-
बीज की मात्रा-प्रति एकड़ के हिसाब से निम्नलिखित अनुसार हैबी०टी० नरमा-700 ग्राम। बी०टी० रहित दोहरी किस्म-1 किलो। साधारण किस्म-3 किलो। देसी कपास की दोहरी किस्म-1.5 किलो। देसी साधारण किस्म-3 किलो।।
बीज की सुधाई सिफ़ारिश की गई फफूंदीनाशक दवाइयों से की जाती है। फसल को तेले से बचाने के लिए बीज को गाचो या क्रूज़र दवाई लगायें।

प्रश्न 37.
नरमे की बुवाई का समय तथा ढंग बताओ।
उत्तर-
समय-1 अप्रैल से 15 मई। खाइयों की दूरी-67 सैं०मी० ।
पौधे से पौधे का फासला-साधारण किस्मों के लिए 60 सैं०मी०, बी०टी० तथा बी०टी० रहित दोहरी किस्मों के लिए 75 सैं०मी०, देसी कपास की किस्मों के लिए 45 सैं०मी०, देसी कपास की दोहरी किस्मों के लिए 60 सैं०मी०।

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प्रश्न 38.
नरमे में नदीनों की रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
नदीनों की रोकथाम के लिए गुडाई की जाती है। कुल 2 से 3 गुडाइयां की जाती हैं। पहली गुडाई पहली सिंचाई से पहले की जाती है। गुडाई करने के लिए ट्रैक्टर से चलने वाले टिल्लर या बैलों से चलने वाली त्रिफाली से भी की जा सकती है। इटसिट/ चुपत्ती तथा मधाना/मकड़ा को काबू करने के लिए ट्रैफलिन का प्रयोग बुवाई से पहले किया जाता है या सटोंप का बुवाई के 24 घण्टे के भीतर-भीतर छिड़काव किया जाता है तथा इसके 45 दिनों के बाद एक गुडाई करें या ग्रामैकसोन तथा राऊंडअप में से एक दवाई को सुरक्षित हुड लगा कर फसल की पंक्तियों में नदीनों के ऊपर सीधा छिड़काव करें।

प्रश्न 39.
नरमे के लिए खादों के प्रयोग के बारे में बताओ।
उत्तर-
साधारण किस्में-30 किलो नाइट्रोजन तथा 12 किलो फॉस्फोरस प्रति एकड़।
बी०टी० तथा बी०टी० रहित दोहरी किस्मों के लिए-60 किलो नाइट्रोजन तथा 12 किलो फॉस्फोरस प्रति एकड़ के लिए पोटाश तत्व वाली खाद मिट्टी की जांच करवा कर ही डालें। सारी फॉस्फोरस बुवाई के समय ही तथा आधी नाइट्रोजन पौधे विरले करते समय तथा शेष नाइट्रोजन फूल निकलने के समय डालें।

प्रश्न 40.
नरमे के लिए सिंचाई तथा चुनने के बारे में बताओ।
उत्तर-
वर्षा पर निर्भर करते हुए 4 से 6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुवाई से 4 से 6 सप्ताह बाद तथा बाद में सिंचाई दो या तीन सप्ताह के अन्तर पर करनी चाहिए।
चुगाई-मण्डी में अच्छा मूल्य लेने के लिए 15-20 दिनों के अन्तर पर साफ़ तथा सूखे नरमे को चुन लेना चाहिए।

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प्रश्न 41.
नरमे के कीड़ों के बारे में बताओ।
उत्तर-
नरमे को हानि पहुंचाने वाले कीड़े हैं-तेला, चेपा, मीली वग, गुलाबी सूंडी, अमरीकन सूंडी, तंबाकू की सूंडी, सफेद मक्खी आदि।

प्रश्न 42.
बी०टी० कपास पर कौन-सा कीड़ा हमला नहीं करता तथा कौन-से करते हैं ?
उत्तर-
बी०टी० कपास पर अमरीकन सूंडी हमला नहीं करती क्योंकि इसमें एक बैक्टीरिया का जीन डाला जाता है जो एक प्रोटीन पैदा करता है जिसको खाने से सूंडियां मर जाती हैं। रस चूसने वाले कीडे तथा तंबाकू की संडी का इस पर हमला हो सकता है।

प्रश्न 43.
कमाद के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
गर्म जलवायु कमाद के लिए ठीक रहती है। इसके लिए मध्यम से भारी भूमि ठीक रहती है। यह फसल क्षारीय तथा लवणी भूमि के प्रति कुछ सीमा तक सहनशील है।

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प्रश्न 44.
बसंत ऋतु की कमाद के लिए उन्नत किस्मों तथा फसल चक्र के बारे में बताओ।
उत्तर-
फसल चक्र-धान/मक्की/कपास-राईया-कमाद-पहले वर्ष की कटाई के बाद बचा गन्ने का भाग (मूढा)-दूसरे वर्ष का बचा गन्ने का भाग (मूढा)-गेहूं।
उन्नत किस्में-अगेती किस्में-सी०ओ०जे०-85, सी०ओ०जे०-83. मध्यम किस्में-सी०ओ०पी०बी०-91 तथा सी०ओ०जे०-88. पिछेती किस्म-सी०ओ०जे०-89.

प्रश्न 45.
कमाद के लिए भूमि की तैयारी के बारे में बताओ।
उत्तर-
खेत को चार से छः बार जुताई की आवश्यकता है। प्रत्येक जुताई के बाद सुहागा फेरना चाहिए। इस फसल के लिए 45-50 सैं०मी० गहरी जुताई की आवश्यकता होती है तथा यह फसल के लिए लाभदायक है क्योंकि इस प्रकार भूमि के नीचे बनी सख्त सतह टूट जाती है, पानी की धरती में समाने की शक्ति बढ़ जाती है तथा गन्ने की जड़ों को गहरा जाने में सहायक सिद्ध होती है।

प्रश्न 46.
कमाद के लिए बीज का चुनाव तथा भार अनुसार बीज की मात्रा बताओ।
उत्तर-
बुवाई के लिए गन्ने का ऊपरी दो बटा तीन (2/3) निरोल भाग ही प्रयोग करना अच्छा रहता है। भार के अनुसार कमाद के बीज की 30 से 35 क्विंटल प्रति एकड़ के हिसाब से आवश्यकता पड़ती है।

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प्रश्न 47.
कमाद के लिए बुवाई का समय तथा ढंग बताओ।
उत्तर-
बुवाई का समय-मध्य फरवरी से अंत मार्च तक।
बुवाई का ढंग-75 सैं०मी० वाली खाइयों में गुल्लियां रखकर सुहागा फेरा जाता है तथा फिर पानी लगा दिया जाता है। एक और पानी 4-5 दिनों के बाद लगाया जाता है।

प्रश्न 48.
गन्ने की फसल में अन्तर फसलों के बारे में क्या जानते हो ?
उत्तर-
गन्ने की दो पंक्तियों में गर्म ऋतु की मूंगी या मांह की एक पंक्ति बो कर इन फसलों का 1 से 2 क्विंटल प्रति एकड़ उत्पादन अधिक लिया जा सकता है। इन फसलों की बुवाई से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है तथा गन्ने की पैदावार पर भी बुरा प्रभाव नहीं होता।

प्रश्न 49.
गन्ने की फसल के लिए खादों के बारे में बताओ।
उत्तर-
गोबर की खाद-गन्ने की फसल के लिए बुवाई से 15 दिन पहले 8 टन गोबर की खाद प्रति एकड़ के हिसाब से डाली जाती है।
नाइट्रोजन खाद-बीज वाली (नई) फसल के लिए 60 किलो नाइट्रोजन तथा गन्ने की कटाई के बाद बचे (मूढा) भाग से बोई फसल के लिये 90 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ के हिसाब से डाली जाती है।
फॉस्फोरस तत्व-मिट्टी की जांच के आधार पर यदि फॉस्फोरस की कमी हो जाए तो 12 किलो फॉस्फोरस प्रति एकड़ के हिसाब से डाली जाती है। पंजाब में साधारणत: पोटाश तत्व की कमी नहीं होती।

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प्रश्न 50.
कमाद के लिए खादें तथा डालने का ढंग बताओ।
उत्तर-
खाद – डालने का ढंग
नाइट्रोजन:

  1. बीज फसल को नाइट्रोजन खाद का आधा भाग कमाद जमने के बाद पहले पानी के साथ डाला जाता है।
  2. शेष आधी खाद मई-जून में डाली जाती है।
  3. गन्ने को काटने के बाद बचे भाग (मूढा) से तैयार फसल के लिए नाइट्रोजन वाली खाद को फरवरी-अप्रैल तथा मई में डाला जाता है।

फॉस्फोरस

  1. खालों में गुल्लियों के नीचे डाली जाती है।
  2. मूढे वाली फसल में फरवरी से जुलाई के समय कमाद की पंक्तियों के पास ड्रिल की जाती है।

प्रश्न 51.
गन्ने में नदीन की रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
नदीनों की रोकथाम के लिए दो तीन गुडाइयां की जाती हैं। नदीनों की रोकथाम पंक्तियों में पुआल बिछा कर भी की जाती है। यदि दवाई का प्रयोग करना हो तो एटराटाफ या सैनकोर की स्प्रे बुवाई से दो-तीन दिनों के भीतर-भीतर की जाती है। लपेटा वेल तथा चौड़े पत्ते वाले नदीनों के लिए 2,4-डी का प्रयोग किया जाता है। यदि गन्ना में मूंगी या मांह बोया हो तो पहले बताए नदीननाशकों की जगह पर बुवाई से दो दिन के अन्दर ‘सटोंप का छिड़काव करना चाहिए।

प्रश्न 52.
गन्ने को सिंचाई की आवश्यकता के बारे में बताओ।
उत्तर-
अप्रैल से जून में गर्म तथा शुष्क मौसम होता है। इसलिए इन दिनों में 7 से 12 दिनों के अन्तर पर पानी लगाते रहना चाहिए। सर्दी में पानी एक महीने के अन्तर पर लगाया जाता है।

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प्रश्न 53.
गन्ने की फसल को कोरे से बचाने के बारे में बताओ।
उत्तर-
गन्ने की फसल को गिरने नहीं देना चाहिए। गिरी हुई फसल पर कोरे का अधिक प्रभाव होता है। सर्दी में फसल को पानी लगाने से भूमि गर्म रहती है तथा फसल पर कोरे का अधिक प्रभाव नहीं होता। यदि फसल मूढे वाली रखने के लिए काटी हो तो खेत को पानी लगा देना चाहिए तथा खेत को पंक्तियों के बीच में से जोतना चाहिए।

प्रश्न 54.
पतझड़ ऋतु के कमाद की उन्नत किस्मों तथा बुवाई का समय तथा ढंग भी बताओ।
उत्तर-
उन्नत किस्में-सी०ओ०जे०-85, सी०ओ०जे०-83. बुवाई का समय-20 सितम्बर से 20 अक्तूबर। पंक्तियों में फासला-90 सैं०मी० अन्तर।

प्रश्न 55.
पतझड़ ऋतु वाली कमाद के लिए अन्तर फसलों तथा नदीनों की रोकथाम के बारे में बताओ।
उत्तर-
अन्तर फसलें-पतझड़ ऋतु वाली कमाद के लिए अन्तर फसलें हैं-आलू, गेहूँ, तोरीया, बंदगोभी, राईया, गोभी सरसों, चने, मटर, मूली, लहसुन आदि।
नदीनों की रोकथाम–गन्ने की फसल में यदि गेहूँ या राईया बोया हो तो आईसोप्रोटयूरान तथा यदि लहसुन बोया हो तो सटोंप का प्रयोग करना चाहिए।

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प्रश्न 56.
पतझड़ की कमाद के लिए खादों के बारे में बताओ।
उत्तर-
पतझड़ की कमाद के लिए 90 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन खाद के तीन बराबर भाग किए जाते हैं तथा एक भाग बुवाई के समय, एक भाग मार्च के अन्त में तथा शेष रहता तीसरा भाग अप्रैल के अन्त में डाला जाता है। मिट्टी जांच के आधार पर फॉस्फोरस तथा पोटाश खाद का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 57.
चारे वाली मक्की की बुवाई का समय तथा ढंग बताओ।
उत्तर-
बुवाई का समय-मार्च के पहले सप्ताह से लेकर मध्य सितम्बर तक।
पंक्तियों में फासला – 30 सैं०मी० ।

प्रश्न 58.
चारे वाली मक्की के लिए खादों का विवरण दें।
उत्तर-
खेत तैयार करने से पहले 10 टन गोबर की खाद का प्रयोग किया जाता है। बुवाई के समय 23 किलो नाइट्रोजन तथा 12 किलो फॉस्फोरस खाद की आवश्यकता होती है।

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प्रश्न 59.
चारे वाली मक्की के लिए नदीनों की रोकथाम बारे बताओ।
उत्तर-
नदीनों की रोकथाम के लिए एटराटाफ का प्रयोग किया जाता है। इसको बुवाई से पहले दो दिन के भीतर-भीतर प्रयोग करो। छिड़काव, नदीनों के 2 से 3 पत्ते आ जाने पर भी किया जा सकता है। जब मक्की के चारे में खाद मिला कर बोया हो तो सटोंप की बुवाई से 2 दिनों के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।

प्रश्न 60.
चारे की मक्की के लिए कटाई तथा कीड़े के बारे में बताओ।
उत्तर-
मक्की की फसल दोधे पर हो तथा दाने नर्म होने पर फसल कटाई के लिए तैयार होती है। इसको लगभग 50-60 दिन लगते हैं।
मक्की का गड़यां इस का मुख्य कीड़ा है।

प्रश्न 61.
ज्वार (चरी) के लिए जलवायु तथा भूमि के बारे में बताओ।
उत्तर-
ज्वार की फसल के लिए गर्म तथा शुष्क जलवायु ठीक रहती है। यह प्रत्येक प्रकार की भूमि में हो सकती है परन्तु भारी भूमि के लिए उचित रहती है।

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प्रश्न 62.
ज्वार की उन्नत किस्में, भूमि की तैयारी, बीज की मात्रा तथा सुधाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
उन्नत किस्में-एस०एल०-44.
भूमि की तैयार-खेत की तैयारी के लिए एक बार तवियों तथा दो बार कल्टीवेटर से जुताई की जाती है।
बीज की मात्रा तथा सुधाई-20-25 किलो बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता है। इसकी सिफ़ारिश की गई उल्लीनाशक दवाइयों से सुधाई की जाती है।

प्रश्न 63.
ज्वार के लिए नदीनों की रोकथाम के बारे में बताएं।
उत्तर-
खाद-ज्वार की बुवाई से दो दिनों के अन्दर एटराटाफ का छिड़काव किया जाता है। इससे इटसिट/चुपत्ती की अच्छी तरह रोकथाम हो जाती है। जब गवारा तथा चरी को मिला कर बोया जाता है तो सटोप का छिड़काव बुवाई से दो दिनों के भीतर-भीतर करना चाहिए।

प्रश्न 64.
ज्वार के लिए खाद तथा सिंचाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
खाद-इसको बुवाई के समय 8 किलो फॉस्फोरस की आवश्यकता है तथा नाइट्रोजन की 20 किलो मात्रा भी बुवाई के समय तथा महीने बाद शेष 20 किलो नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। यह सभी खादें एक एकड़ के लिए हैं।
सिंचाई-अगेते मौसम के चारे, मार्च-जून वाले को 5 सिंचाइयों की आवश्यकता है। वर्षा वाली फसल को वर्षा के अनुसार 1-2 पानी देने की आवश्यकता है।

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प्रश्न 65.
ज्वार की कटाई, कीड़े तथा रोग के बारे में बताओ।
उत्तर-
कटाई-जब लगभग 65-80 दिनों की फसल गोभे से दोधे की अवस्था में होती है तो इसकी कटाई कर लेनी चाहिए। इस अवस्था में अधिक आहारीय तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं।
कीड़े तथा रोग-शाख की मक्खी, घोड़ा तथा गुझिया इसके मुख्य कीड़े हैं। बीज सड़ना तथा छोटे पौधों का मरना इसके मुख्य रोग हैं।

प्रश्न 66.
बाजरे के लिए फसल चक्र, उन्नत किस्में, भूमि की तैयारी के बारे में बताओ।
उत्तर-
फसल चक्र-बाजरा-मक्की-बरसीम। उन्नत किस्में-पी०एच०बी०एफ०-1, एफ०बी०सी०-16. भूमि की तैयारी-भूमि की 2-3 बार जुताई करनी चाहिए।

प्रश्न 67.
बीज की मात्रा तथा सुधाई, बुवाई का समय तथा ढंग के बारे में बताओ।
उत्तर-
बीज की मात्रा तथा सुधाई-6-8 किलो बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता है। सुधाई के लिए सिफ़ारिश की गई उल्लीनाशक दवाई का प्रयोग करो।
बुवाई का ढंग और समय-मार्च से अगस्त में बुवाई करनी चाहिए। बुवाई छट्टा विधि से की जाती है।

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प्रश्न 68.
बाजरे के लिए नदीनों की रोकथाम, सिंचाई, कटाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
नदीनों की रोकथाम-एटराटाफ का छिड़काव बुवाई से 2 दिनों के अन्दर करें। सिंचाई-इसको 2-3 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।
कटाई-बुवाई से 45-55 दिनों बाद जब बल्लियां निकलनी शुरू होने वाली होती हैं, फसल कटाई के लिए तैयार होती है।

प्रश्न 69.
बाजरे के लिए खादों का विवरण दें।
उत्तर-
बाजरे के खेत की तैयारी से पहले 10 टन गोबर की खाद प्रति एकड़ का प्रयोग किया जाता है। बुवाई के समय 10 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ तथा 10 किलो बुवाई से 3 सप्ताह बाद डाली जाती है ।

प्रश्न 70.
बाजरे के कीड़े तथा बीमारियों के बारे में बताओ।
उत्तर-
बाजरे को हानि पहुंचाने वाले कीड़े हैं-स्लेटी भंडी, जड़ का कीड़ा, घोड़ा इसके मुख्य कीड़े हैं तथा बल्लियों के रोग तथा गुंदीया रोग इसकी मुख्य बीमारियां हैं।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बाजरे की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
स्वयं करें।

प्रश्न 2.
धान की पनीरी की बुवाई के बारे में बताओ।
उत्तर-
धान की पनीरी की बुवाई के लिए उचित समय 15 से 30 मई का है। भूमि की तैयारी के समय 12-15 टन गली-सड़ी गोबर की खाद प्रति एकड़ प्रयोग करनी चाहिए। पनीरी की बुवाई के समय आवश्यक खादें; जैसे-12 किलो नाइट्रोजन, 10 किलो फॉस्फोरस तथा 13 किलो जिंक प्रति एकड़ के हिसाब से डालनी चाहिए। बीजों की सुधाई करके गीली बोरियों के ऊपर 7-8 सैं०मी० मोटी सतह में बिखेर दिया जाता है तथा ऊपर से गीली बोरियों से ढक दिया जाता है। इन ढके बीजों के ऊपर समय-समय पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। बीज 24 से 36 घण्टे के अन्दर अंकुरित हो जाते हैं। इन्हें छट्टा विधि से बो देना चाहिए। साढ़े छ: मरले में 8 किलो बीज की पनीरी एक एकड़ के लिए काफ़ी रहती है। पनीरी में नदीनों की रोकथाम बूटाकलोर या सोफिट के प्रयोग से की जाती है। पनीरी की बुवाई से 15 दिन बाद 12 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ और डालनी चाहिए। 25-30 दिनों में पनीरी खेत में लगाने के लिए तैयार हो जाती है।

प्रश्न 3.
मकैनीकल ट्रांसप्लांटर द्वारा धान की पनीरी लगाने के बारे में बताओ।
उत्तर-
मशीन से धान लगाने के लिए पनीरी को विशेष ढंग से तैयार किया जाता है। एक प्लास्टिक शीट को छेद करके बिछाया जाता है। इसके ऊपर मशीन के आकार के खानों वाले फ्रेम में रखकर मिट्टी डाली जाती है। इस मिट्टी के ऊपर अंकुरित बीज डाला जाता है। बीज को मिट्टी की पतली परत से ढक दिया जाता है। इस के ऊपर हाथ वाले फव्वारे से पानी का छिड़काव किया जाता है। फ्रेम को ध्यान से धीरे से उठा लिया जाता है। प्रतिदिन पानी का छिड़काव करके मैट को गीला रखा जाता है। एक एकड़ के हिसाब से 10-12 किलो बीज से तैयार 200 मैट की आवश्यकता पड़ती है।

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प्रश्न 4.
बासमती की कृषि के बारे में बताओ।
उत्तर-
स्वयं करें।

प्रश्न 5.
मक्की की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
स्वयं करें।

प्रश्न 6.
मुंगी की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
स्वयं करें।

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प्रश्न 7.
मांह की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
स्वयं करें।

प्रश्न 8.
मूंगफली की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
स्वयं करें।

प्रश्न 9.
कपास की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
स्वयं करें।

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प्रश्न 10.
कमाद की कृषि का विवरण दें।
उत्तर-
स्वयं करें।

ख़रीफ़ की फसले PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • ख़रीफ़ की फसलें जून-जुलाई या मानसून के आने पर बोई जाती हैं।
  • ख़रीफ़ की फसलों की कटाई अक्तूबर-नवम्बर में की जाती है।
  • ख़रीफ़ की फसलें हैं-अनाज वाली, दालें तथा तेल बीज, कपास, गन्ना, सावन के चारे।
  • कुछ ख़रीफ़ की फसलें हैं-धान, बासमती, मक्की, मांह, मूंगफली, कपास गन्ना, ज्वार तथा बाजरा।
  • धान को जीरी के नाम से भी जाना जाता है।
  • धान की पैदावार में चीन विश्व में तथा पश्चिमी बंगाल भारत में सबसे आगे
  • पंजाब में धान की कृषि के अधीन 28 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल है। इससे औसत पैदावार 60 क्विंटल प्रति हैक्टेयर मिल जाती है।
  • धान को अधिक गर्मी, अधिक सीलन तथा अत्यधिक पानी की आवश्यकत होती है।
  • धान के लिए मध्यम से भारी भूमि अच्छी है।
  • धान की उन्नत किस्में हैं-पी०आर०-123, पी०आर०-122, पी०आर०-121 पी०आर०-118, पी०आर०-116।
  • धान के लिए एक एकड़ के लिए 8 किलो बीज की आवश्यकता है।
  • धान की पनीरी 15 से 30 मई तक बोई जाती है।
  • मशीन (मकैनिकल ट्रांसप्लांटर) से धान लगाने के लिए पनीरी को विशेष ढं से तैयार किया जाता है।
  • धान की पनीरी खेतों में 25-30 दिनों की होने पर जून के दूसरे पखवाड़े में बो जाती है।
  • धान में संवाक तथा मौथा नदीन होते हैं।
  • धान की सीधी बुवाई केवल मध्यम से भारी भूमियों में ही करनी चाहिए।
  • फसल की मुंजरें पक जाएं तथा पराली के पीले होने पर धान की कटाई व लेनी चाहिए।
  • तने का गन्डोया, पत्ता लपेट सूंडी, सफेद पीठ वाले टिड्डे तथा भूरे टिड्डे धान के कीड़े हैं।
  • बासमती की किस्में हैं-पंजाब बासमती-3, पूसा पंजाब बासमती-1509, पूसा बासमती-1121.
  • पूसा बासमती 1509 की पनीरी जून के दूसरे पखवाड़े तथा पंजाब बासमती 3 तथा पूसा बासमती 1121 की पनीरी जून के पहले पखवाड़े में बोई जाती है।
    बासमती को नाइट्रोजन तत्त्व वाली खाद अधिक मात्रा में नहीं डालनी चाहिए।
  • मक्की की पैदावार में संयुक्त राज्य अमरीका विश्व में तथा भारत में आंध्रा प्रदेश सबसे आगे हैं।
  • पंजाब में मक्की की कृषि के अधीन क्षेत्रफल 1 लाख 25 हज़ार हैक्टेयर है। मक्की की औसत पैदावार 15 क्विंटल प्रति एकड़ है।
  • मक्की को उत्पन्न होने से लेकर फसल पकने तक नमी वाली गर्म जलवायु की आवश्यकता है।
  • मक्की की किस्में-पी०एम०एच०-1, पी०एम०एच०-2 मक्की की आम प्रयोग वाली किस्में हैं तथा विशेष प्रयोग वाली किस्में हैं-पंजाब स्वीट कार्न-1 तथा पर्ल पॉपकार्न।
  • मक्की की पर्ल पॉपकर्न किस्म के लिए 7 किलो तथा अन्य किस्मों के लिए 8 किलो बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • मक्की की बुवाई मई के अंतिम सप्ताह से अंत जून तक की जाती है।
  • मक्की को 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता है।
  • मक्की का गन्डोया मक्की में मुख्य कीड़ा है।
  • मक्की में बीज का सड़ना, पौधे का झुलसना, टांडे का गलना आदि रोग लग सकते हैं।
  • ख़रीफ़ की दाल वाली फसलें-मूंगी, मांह तथा तेल बीज वाली फसलों में मूंगफली तथा तिल बीज हैं।
  • सोयाबीन, दाल तथा तेल बीज दोनों श्रेणियों में है।
  • दालों की पैदावार में भारत विश्व में अग्रणी देश है परन्तु दालों की खपत भी भारत में अधिक है। इसलिए दालों को आयात करना पड़ता है।
  • पंजाब में मूंगी की कृषि 5 हज़ार हैक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है। इसकी औसत पैदावार 350 किलो प्रति एकड़ है।
  • मुंगी के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है।
  • मूंगी के लिए कलराठी या सेम वाली भूमियां ठीक नहीं हैं।
  • मूंगी की उन्नत किस्में हैं-पी०ए०यू०-911, एम०एल०-818.
  • मूंगी की बुवाई जुलाई के पहले पखवाड़े में की जाती है।
  • मूंगी में नदीनों की रोकथाम के लिए ट्रेफलिन या वासालीन का प्रयोग किया जाता है।
  • मूंगी की लगभग 80% फलियां पक जाने पर काट लें।
  • मुंगी को हरा तेला, सफेद मक्खी, बालों वाली संडी (कंबल कीडा), फली छेदक सुंडी तथा जुएं आदि कीड़े लग सकते हैं।
  • पंजाब में मांह की कृषि लगभग 2 हज़ार हैक्टेयर क्षेत्रफल में होती है तथा इसकी औसत पैदावार लगभग 180 किलो प्रति एकड़ है।
  • मांह की विकसित किस्में हैं-मांह 114, मांह 338.
  • जब पत्ते झड़ जाएं तथा फलियां सलेटी काली हो जाएं तो फसल काटने के लिए तैयार है।
  • सोयाबीन की पैदावार में संयुक्त राज्य अमरीका दुनिया में तथा मध्य प्रदेश भारत में सबसे आगे है।
  • सोयाबीन से खाने वाले तेल, सोया दूध तथा इस से बनने वाली अन्य वस्तुएं, बेकरी की वस्तुएं तथा दवाइयां आदि तैयार होती हैं।
  • सोयाबीन को गर्म जलवायु की आवश्यकता है।
  • सोयाबीन की उन्नत किस्में हैं-एस०एल०-958, एस०एल०-744.
  • सोयाबीन के 25-30 किलो बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है।
  • सोयाबीन की बुवाई जून के पहले पखवाड़े में की जाती है।
  • सोयाबीन की कटाई तब करें जब सारे पत्ते झड़ जाएं तथा फलियों का रंग बदल जाए।
  • सोयाबीन को बालों वाली सूंडी तथा सफेद मक्खी नामक कीड़े लगते हैं।
  • सोयाबीन को चितकबरा रोग लग जाता है।
  • संयुक्त राज्य अमरीका दुनिया में सब से अधिक तेल बीज पैदा करने वाला देश है तथा भारत में राजस्थान ऐसा प्रदेश है।
  • मूंगफली की पैदावार में चीन दुनिया में तथा गुजरात भारत में सबसे आगे है।
  • पंजाब में मूंगफली की कृषि 15 हज़ार हैक्टेयर क्षेत्रफल में होती है।
  • पंजाब में मूंगफली की औसत पैदावार 7 क्विंटल प्रति एकड़ है।
  • मूंगफली की किस्में हैं-एम०जी०-99, एस०जी०-84.
  • मूंगफली के बीज (गिरियां) की मात्रा 38-40 किलो प्रति एकड़ का प्रयोग होता है।
  • मूंगफली की सारी फसल के एक जैसा पीला होने तथा पुराने पत्तों के झड़ने पर फसल की खुदाई की जाती है।
  • मूंगफली की फसल को चेपा, सफेद सुंड तथा कंबल कीड़ा आदि कीड़े लगते
  • मूंगफली की बीमारियां हैं-बीज का गलना, गिच्ची का गलना तथा टिक्का रोग।
  • कपास को धागे के लिए तथा गन्ने को चीनी प्राप्त करने के लिए बोया जाता
  • पशुओं के चारे के लिए मक्की, ज्वार (चरी) तथा बाजरा सावनी की फसलें हैं।
  • कपास की पैदावार दुनिया में चीन में सबसे अधिक तथा भारत में गुजरात में है।
  • ‘पंजाब में कपास की कृषि लगभग 5 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में होती है।
  • पंजाब में कपास की औसत पैदावार 230 किलो रूई प्रति एकड़ है।
  • कपास गर्म तथा शुष्क जलवायु की फसल है।
  • नरमे (कपास) की किस्में हैं-(i) बी०टी० किस्में-आर०सी०एच०-650, एन०सी०एस०-850, अंकुर 3028, एम०आर०सी० 7017, (ii) बी०टी० रहित दोहरी किस्में हैं-एल०एच०एच०-144, (iii) साधारण किस्में हैं-एल०एच०-2018.
  • देसी कपास की किस्में हैं-दोगली-पी०ए०यू०-626 एच, साधारण किस्में एफ०डी०के०-124, एल०डी०-694.
  • कपास की बुवाई का समय 1 अप्रैल से 15 मई है।
  • कपास में इटसिट/चुपत्ती, मधाना/मकड़ा आदि नदीन होते हैं।
  • कपास के कीट हैं-रस चूसने वाले कीट; जैसे-तेला, चेपा, सफेद मक्खी तथा मीली बग्ग। तंबाकू की सूंडी, गुलाबी सूंडी, चितकबरी सूंडी तथा अमरीकन सूंडी।
  • कपास की बीमारियां हैं-पत्ता मरोड़, बैक्टीरियल ब्लाइट, पत्ते कुम्हला जाना, पैरा विल्ट तथा पत्ते झड़ना आदि।
  • गन्ना (कमाद) की पैदावार में ब्राजील दुनिया में सबसे आगे है तथा उत्तर प्रदेश भारत में सबसे आगे है।
  • पंजाब में गन्ने की कृषि के अधीन 80 हज़ार हैक्टेयर भूमि है।
  • गन्ना की पंजाब में पैदावार लगभग 280 क्विंटल प्रति एकड़ है। इसमें से 9% चीनी की प्राप्ति हो जाती है।
  • गन्ना के लिए गर्म जलवायु तथा मध्यम भूमि उपयुक्त रहती है।
  • बसंत ऋतु के गन्ना की किस्में हैं-सी०ओ०जे०-85, सी०ओ०जे०-83 अगेता, सी०ओ०पी०बी०-91, सी०ओ०जे०-88 मध्यम श्रेणी तथा सी०ओ०जे०-89 पछेती पकने वाली किस्में हैं।
  • एक एकड़ गन्ना के लिए तीन आंखों वाली 20 हज़ार गुल्लियों या चार आंखों वाली 15 हज़ार गुल्लियों या 5 आंखों वाली 12 हज़ार गुल्लियों की आवश्यकता पड़ती है।
  • गन्ने की बुवाई का समय मध्य फरवरी से अंत मार्च तक का है।
  • पतझड़ ऋतु के गन्ने की किस्में हैं-सी०ओ०जे०-85 तथा सी०ओ०जे०-83.
  • पतझड़ में गन्ने की बुवाई का समय 20 सितम्बर से 20 अक्तूबर का है।
  • गन्ने के कीट हैं-कमाद का घोड़ा, सफेद मक्खी, दीमक तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के गड़एं।
  • कमाद के रोग हैं-रत्ता रोग, मुरझाना (सोका), लाल धारियों का रोग, आग का — साड़ा।
  • एक बड़े पशु को लगभग 40 किलो हरा चारा प्रतिदिन चाहिए।
  • मक्की ख़रीफ फसल का मुख्य चारा है। यह 50-60 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं। 88. चारे के लिए मक्की की किस्म है-जे०-1006.
  • चारे के लिए मक्की के बीज की मात्रा 30 किलो प्रति एकड़ है।
  • ज्वार (चरी) को पशु अधिक खुशी से खाते हैं।
  • ज्वार को गर्म तथा शुष्क जलवायु की आवश्यकता है।
  • ज्वार की किस्म है-एस०एल०-44.
  • ज्वार के लिए 20-25 किलो बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता है।
  • ज्वार के अग्रिम चारे के लिए बुवाई मध्य मार्च से शुरू की जाती है।
  • ज्वार की बुवाई का उचित समय मध्य जून से मध्य जुलाई है।
  • ज्वार की कटाई गोभे से दूध की अवस्था पर करने से अधिक पौष्टिक तत्त्व प्राप्त होते हैं।
  • बाजरे की किस्में हैं-पी०एच०बी०एफ०-1, एफ०बी०सी०-16.
  • बाजरे के लिए बीज की मात्रा 6-8 किलो प्रति एकड़ है।
  • बाजरे के कीट हैं-जड़ का कीड़ा, स्लेटी भुंडी तथा घोड़ा है।
  • बाजरे के रोग हैं-हरे सिट्टों का रोग, गुंदिया रोग।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Practical Geography Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना.

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना

प्रश्न-
नक्शों को बड़ा और छोटा करने की विधियाँ बताएँ।
उत्तर-
नक्शों को बड़ा और छोटा करना-कई बार किसी क्षेत्र के अलग-अलग आकार के नक्शों की ज़रूरत होती है। इस उद्देश्य के लिए नक्शे का पैमाना बदलकर उसे बड़ा या छोटा किया जाता है। इस प्रकार नक्शे को बड़ा या छोटा करने का अर्थ है कि नक्शे का पैमाना बदल देना (Change of Scale)।

ज़रूरत (Necessity)-

  1. जब किसी नक्शे पर अधिक वर्णन दिखाने हों, तो नक्शे को बड़ा किया जाता है।
  2. दो नक्शों को आपस में जोड़ने के लिए उनका पैमाना बदलकर एक किया जाता है।
  3. पुस्तकों और एटलसों के लिए नक्शे को छोटा करना पड़ता है।

नक्शे को बड़ा और छोटा करने के लिए नीचे लिखी विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं-

1. ग्राफिक विधियाँ (Graphical Methods)

  • वर्ग विधि (Square Method)
  • समरूप त्रिभुज विधि (Method of Similar Triangles)

2.यांत्रिका विधियाँ (Mechanical Methods)-

  • फोटोग्राफी की मदद से (Camera Method)
  • पैंटोग्राफ द्वारा (By Pantograph)

विधियाँ (Methods)
वर्ग विधि (Square Method)—यह सबसे आसान विधि है, जिसमें किसी यंत्र की आवश्यकता नहीं होती। इसमें मूल नक्शे पर वर्गों का एक जाल बनाकर (Net work of Squares) नक्शे को बड़ा या छोटा किया जाता है।

PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना

PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना 1

रचना विधि (Steps of Construction)-

1. मूल नक्शे (Original map) पर किसी एक इकाई के वर्ग बनाए जाते हैं।
2. इन वर्गों का आकार (Size of the squares) सुविधानुसार निश्चित किया जाता है।
3. यदि नक्शे को बड़ा करना हो, तो नए नक्शे पर वर्ग की भुजा नीचे लिखे फार्मूले के अनुसार निश्चित की जाती है।

PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना 2

4. एक नए कागज़ पर छोटे या बड़े वर्ग बनाए जाते हैं। इनकी कुल गिनती मूल नक्शे जितनी ही होती है।
5. नए नक्शे पर हर वर्ग में मूल नक्शे के वर्णन को अंकित कर लिया जाता है। इसके लिए वर्गों के कटाव की सहायता ली जाती है।

PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना

उदाहरण-दिए हुए अफ्रीका के नक्शे, जिसकी प्रतिनिधि भिन्न \(\frac{1}{40,000,000}\) है। इस नक्शे को \(\frac{1}{80,000,000}\) की प्रतिनिधि भिन्न पर बनाएँ।

रचना (Construction)-नया नक्शा मूल नक्शे से छोटे पैमाने पर है, इसलिए नक्शे के आकार को कम करना होगा। मूल नक्शे को 1′ की भुजा के वर्गों में बना लें। पूरे नक्शे पर 10 x 10 = 100 वर्ग बनेंगे। यदि मूल नक्शे के वर्ग की भुजा 1′ है, तो नए नक्शे पर वर्ग की भुजा फार्मूले से ढूँढ़ी जाती है।
PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 3 नक्शों को बड़ा और छोटा करना 3
नए नक्शे पर \(\frac{1}{2}\)” की भुजा वाले 10 × 10 = 100 वर्ग बनाएँ। मूल नक्शे पर वर्गों को देखकर नए नक्शे में ब्यौरा भर लें।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
एकात्मक सरकार का अर्थ और विशेषताओं की व्याख्या करें। (Discuss the meaning and features of Unitary Government.)
उत्तर–
आधुनिक राज्य क्षेत्र व जनसंख्या में इतने विशाल हैं कि प्रत्येक राज्य को प्रान्तों अथवा इकाइयों में बांटा गया है। इन प्रान्तों अथवा इकाइयों को प्रान्तीय शासन चलाने के लिए कुछ अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। इन प्रान्तीय सरकारों का केन्द्रीय सरकारों से क्या सम्बन्ध है, इस आधार पर सरकारों का वर्गीकरण एकात्मक तथा संघात्मक रूपों में किया जाता है। एकात्मक सरकार में शासन की समस्त शक्तियां अन्तिम रूप में केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं जबकि संघात्मक सरकार में शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं।

एकात्मक सरकार की परिभाषाएं (Definitions of Unitary Government)-एकात्मक शासन वह शासन है जिसमें शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं। सुविधा की दृष्टि से केन्द्रीय सरकार प्रान्तों की स्थापना करती है तथा उन्हें थोड़े-बहुत अधिकार प्रदान करती है। केन्द्रीय सरकार जब चाहे इन प्रान्तों की सीमाएं घटा-बढ़ा भी सकती है। एकात्मक शासन की भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • डायसी (Dicey) के अनुसार, “एक केन्द्रीय शक्ति के द्वारा सर्वोच्च शक्ति का स्वाभाविक प्रयोग किया जाना ही एकात्मक शासन है।” (“Unitary government is the habitual exercise of supreme legislative authority by one central power.”)
  • डॉ० फाइनर (Finer) के अनुसार, “एकात्मक शासन वह होता है जहां एक केन्द्रीय सरकार में सम्पूर्ण शासन शक्ति निहित होती है और जिसकी इच्छा व जिसके प्रतिनिधि कानूनी दृष्टि में सर्वशक्तिमान होते हैं।”
  • प्रोफेसर स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “एकात्मक राज्य वह है जो एक केन्द्रीय शासन के अधीन संगठित हो।” (“A unitary state is one organised under a single central government.”)
    • प्रो० गार्नर (Garner) के अनुसार, “जब संविधान द्वारा सरकार की सब शक्तियां अकेले केन्द्रीय अंग तथा अन्य अंगों को दी जाएं, जिससे स्थानीय सरकारें अपनी शक्तियां और स्वतन्त्रता तथा अपना अस्तित्व तक प्राप्त करती हों, वहां एकात्मक सरकार होती है।”
      इंग्लैण्ड, फ्रांस, जापान, श्रीलंका, चीन, इटली तथा जर्मनी में एकात्मक शासन प्रणाली पाई जाती है।
  • PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

एकात्मक सरकार के लक्षण (Features of Unitary Government)-
एकात्मक शासन की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  • शक्तियों का केन्द्रीयकरण (Centralization of Powers)—एकात्मक शासन में शासन की शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती हैं। शासन की सुविधा के लिए राज्यों को प्रान्तों में बांटा गया होता है और उन्हें कुछ अधिकार तथा शक्तियां दी जाती हैं। केन्द्र जब चाहे प्रान्तों के अधिकारों तथा शक्तियों को छीन सकता है और उनकी शक्तियां जब चाहे घटा-बढ़ा सकता है। इन प्रान्तों अथवा इकाइयों का अस्तित्व केन्द्र के ऊपर निर्भर करता है।
  • प्रभुसत्ता (Sovereignty)-एकात्मक शासन में प्रभुसत्ता केन्द्र में निहित होती है
  • इकहरी नागरिकता (Single Citizenship)-एकात्मक शासन में एक ही नागरिकता होती है। इंग्लैण्ड में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त है।
  • इकहरा शासन (Single Administration)-एकात्मक शासन में इकहरी शासन व्यवस्था होती है। इसमें एक ही विधानपालिका, एक ही कार्यपालिका तथा एक ही सर्वोच्च न्यायपालिका होती है।
  • लिखित अथवा अलिखित संविधान (Written or Unwritten Constitution)-एकात्मक शासन में संविधान लिखित हो सकता है और अलिखित भी। इंग्लैण्ड का संविधान अलिखित है जबकि जापान का संविधान लिखित है।
  • कठोर अथवा लचीला संविधान (Rigid or Flexible Constitution) एकात्मक शासन का संविधान कठोर अथवा लचीला हो सकता है। इंग्लैण्ड का संविधान लचीला है जबकि जापान का संविधान कठोर है।
  • प्रान्तों का अस्तित्व केन्द्र पर निर्भर करता है (Existence of the Provinces depends upon Centre)प्रान्तीय सरकारों का अस्तित्व और उनकी शक्तियां केन्द्रीय सरकार की इच्छा पर निर्भर होती हैं। प्रान्तों के अस्तित्व तया शक्तियों में परिवर्तन करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न 2.
एकात्मक सरकार के गुणों और दोषों की व्याख्या करें। (Discuss the merits and demerits of Unitary Government.)
उत्तर-
एकात्मक शासन के गुण (Merits of Unitary Government)-एकात्मक शासन के निम्नलिखित गुण हैं-

  • शक्तिशाली शासन (Strong Administration)-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है। सभी शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं। प्रान्तीय सरकारें केन्द्रीय सरकार के आदेशानुसार कार्य करती हैं। कानूनों को बनाने तथा लागू करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र पर होती है। इस तरह शासन शक्तिशाली होता है जिस कारण देश की विदेश नीति भी प्रभावशाली होती है।
  • सादा शासन (Simple Administration)-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन अति सरल होता है। शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं जिसके कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में मतभेद उत्पन्न नहीं होते। सादा शासन होने के कारण एक अनपढ़ व्यक्ति को भी अपने देश के शासन के संगठन का ज्ञान होता है।
  • लचीला प्रशासन (Flexible Government)-संविधान अधिक कठोर न होने के कारण समयानुसार आसानी से बदला जा सकता है। संकटकाल के लिए यह शासन-प्रणाली बहुत उपयुक्त है। केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए किसी भी समय प्रान्तों की शक्तियों को कम किया जा सकता है।
  • कम खर्चीला शासन (Less Expensive)—एकात्मक शासन प्रणाली संघात्मक सरकार की अपेक्षा कम खर्चीली होती है। इसमें एक ही विधानपालिका तथा एक ही कार्यपालिका होती है जिससे खर्च कम होता है। प्रान्तों में विधानमण्डल तथा कार्यपालिका न होने के कारण धन की बचत होती है।
  • शासन की एकरूपता (Uniformity in Administration)-कानून बनाने के लिए एक ही विधानपालिका होती है तथा कानूनों को लागू करने के लिए एक ही कार्यपालिका होती है। इससे सारे राज्य में शासन की एकरूपता बनी रहती है। एक नागरिक देश के किसी भी भाग में क्यों न चला जाए उसे एक ही तरह के कानूनों का पालन करना होता है।
  • राष्ट्रीय एकता (National Unity)—एकात्मक शासन प्रणाली में राष्ट्रीय एकता की भावनाओं में वृद्धि होती है। इसका कारण यह है कि सभी नागरिकों को एक से कानून का पालन करना पड़ता है और उन्हें एक ही नागरिकता प्राप्त होती है। नागरिकों में प्रान्तीयता की भावनाएं उत्पन्न नहीं होती जिससे राष्ट्रीय एकता बनी रहती है।
  • कार्यकुशल शासन (Efficient Administration)-एकात्मक शासन प्रणाली में शासन में कुशलता आ जाती है क्योंकि इस शासन व्यवस्था में केन्द्र तथा प्रान्तों में मतभेद तथा गतिरोध उत्पन्न नहीं होते। एकात्मक सरकार में शासन में कुशलता होती है क्योंकि समस्त निर्णय केन्द्र द्वारा लिए जाते हैं। केन्द्र शीघ्र निर्णय लेकर उन्हें शीघ्रता से लागू करता है। इससे शासन में कुशलता का आना स्वाभाविक है।
  • संकटकाल के लिए उपयुक्त (Suitable in time of Emergency) शासन की समस्त शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं, जिसके कारण सरकार शक्तिशाली होती है। संकट के समय केन्द्र शीघ्र निर्णय लेकर संकट का सामना दृढ़ता से कर सकता है।
  • इकहरी नागरिकता (Single Citizenship) एकात्मक शासन में इकहरी नागरिकता होती है और प्रत्येक व्यक्ति समस्त देश का नागरिक होता है, किसी प्रान्त का नहीं। इससे उनकी वफ़ादारी अविभाजित रहती है और वह देश के प्रति वफ़ादार रहता है।
  • छोटे-छोटे राज्यों के लिए उपयुक्त (Suitable for Small States)-एकात्मक शासन प्रणाली छोटे राज्यों के लिए उपयुक्त है। कम क्षेत्र वाले प्रदेश को छोटे-छोटे प्रान्तों में बांटना ठीक नहीं होता क्योंकि प्रत्येक छोटे क्षेत्र में अलग सरकार स्थापित करने से ख़र्च भी बहुत बढ़ जाते हैं।
  • वैदेशिक सम्बन्धों में दृढ़ता (Strong and Firm in Foreign Relations)-एकात्मक सरकार दूसरे राज्यों से अपने सम्बन्ध स्थापित करने और उनके संचालन में दृढ़ता से काम ले सकती है। अन्य राज्यों से सन्धि करते समय केन्द्रीय सरकार को प्रान्तीय सरकारों से सलाह करने की आवश्यकता नहीं होती।
  • उत्तरदायित्व निश्चित किया जा सकता है (Responsibility can be fixed)-सारे देश का शासन केन्द्रीय शासन के अधीन होता है जिसके कारण उत्तरदायित्व निश्चित करना आसान है।

एकात्मक शासन के दोष (Demerits of Unitary Government)-

बहुत-से राज्य एकात्मक शासन प्रणाली को अपनाए हुए हैं। एकात्मक शासन प्रणाली के बहुत-से अवगुण भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • केन्द्र निरंकुश बन जाता है (Centre becomes Despotic)-एकात्मक शासन में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है जिसके कारण केन्द्र के निरंकुश बन जाने का सदा भय बना रहता है।
  • स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती (Local needs are not fulfilled)—प्रत्येक प्रान्त की अपनी समस्याएं होती हैं जिनके लिए विशेष प्रकार के कानूनों की आवश्यकता होती है। केन्द्रीय सरकार को न तो स्थानीय आवश्यकताओं का पूरा ज्ञान होता है और न ही कानून प्रान्तों के लिए बनाए जाते हैं। वह तो एक ही कानून सब प्रान्तों के लिए बनाती है।
  • बड़े राज्यों के लिए अनुपयुक्त (Unsuitable for big States)-एकात्मक सरकार उन राज्यों के लिए जिनका क्षेत्रफल तथा जनसंख्या बहुत अधिक होती है, उपयुक्त नहीं है क्योंकि केन्द्रीय सरकार दूर-दूर फैले हुए भागों में शासन की व्यवस्था अच्छी प्रकार से लागू नहीं कर सकती।
  • केन्द्रीय सरकार का कार्य बढ़ जाता है (Central Government becomes over-burdened)—एकात्मक सरकार में सारे देश का शासन केन्द्र के द्वारा चलाया जाता है। जिससे केन्द्रीय सरकार का कार्य बढ़ जाता है। केन्द्रीय सरकार को ही देश की समस्याओं तथा विदेशी मामलों को सुलझाना पड़ता है। शासन के सभी निर्णय केन्द्र के द्वारा लिए जाते हैं जिससे केन्द्र का कार्यभार बहुत बढ़ जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि केन्द्र प्रत्येक कार्य को कुशलता से नहीं कर पाता और कई समस्याओं को सुलझाने के लिए केन्द्र को समय ही नहीं मिल पाता है।
  • नौकरशाही का प्रभाव (Influence of Bureaucracy)-एकात्मक शासन में स्थानीय शासन नहीं होने के कारण सरकारी कर्मचारियों की शक्ति तथा प्रभाव बहुत बढ़ जाता है। प्रान्तों का शासन जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा नहीं चलाया जाता बल्कि प्रान्तों के शासन के लिए सरकारी कर्मचारी नियुक्त किए जाते हैं जो जनता की समस्याओं के प्रति उदासीन होते हैं। सरकारी कर्मचारी अपनी मनमानी करते हैं, क्योंकि उन पर स्थानीय नियन्त्रण नहीं होता।
  • शासन में दक्षता नहीं आती (Administration does not become efficient)—एकात्मक शासन में राष्ट्रीयता तथा प्रान्तीय मामलों का प्रबन्ध केन्द्र को ही करना पड़ता है। इससे उसके काम इतने बढ़ जाते हैं कि वह कोई भी काम ठीक प्रकार से नहीं कर सकती, यहां तक कि राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य भी ठीक समय पर और अच्छी तरह नहीं हो पाते।
  • लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती (People do not get Political Education)—प्रान्तों में सारा प्रबन्ध केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा होता है और वहां की जनता को शासन के साथ सम्मिलित नहीं किया जाता है। प्रान्तीय विधानमण्डलों के अभाव में समय-समय पर चुनाव आदि भी नहीं होते, इसलिए जनता को राजनीति में भाग लेने का अवसर कम मिलता है।
  • नागरिकों की सार्वजनिक कार्यों में अरुचि (No interest of Citizens towards Local Affairs)एकात्मक शासन में स्थानीय समस्याओं से सम्बन्धित सभी निर्णय केन्द्रीय सरकार के द्वारा किए जाते हैं। स्थानीय समस्याओं पर विचार करने तथा उन्हें सुलझाने के लिए वहां के लोगों को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती। इससे जनता में स्थानीय समस्याओं में कोई रुचि नहीं रहती और उनका उत्साह भी कम हो जाता है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि जनता स्वयं शासन में रुचि ले और अपनी समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करें।

निष्कर्ष (Conclusion) एकात्मक शासन के गुण भी हैं और दोष भी। किसी देश में यह प्रणाली ठीक सिद्ध होती है और किसी देश में उचित नहीं समझी जाती।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 3.
संघवाद से क्या अभिप्राय है ?
(What is the meaning of federalism ?)
उत्तर-
संघात्मक शासन उसे कहते हैं जहां संविधान के द्वारा शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं और दोनों अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। इसका अर्थ यह है कि केन्द्रीय सरकार प्रान्तों को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और न ही प्रान्त केन्द्रीय सरकार को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। संघात्मक शासन में दोहरी सरकार होती है। प्रभुसत्ता न तो केन्द्रीय सरकार में निहित होती है और न ही प्रान्तीय सरकारों में और न ही प्रभुसत्ता केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती है। प्रभुसत्ता वास्तव में राज्य के पास होती है।

संघवाद को अंग्रेज़ी भाषा में ‘फेडरलिज्म’ (Federalism) कहते हैं। फेडरलिज्म शब्द लेटिन भाषा के शब्द फोईडस (Foedus) से बना है जिसका अर्थ है सन्धि अथवा समझौता। संघात्मक सरकार इस प्रकार समझौते का परिणाम होती है। जिस तरह किसी समझौते के लिए एक से अधिक पक्षों का होना आवश्यक होता है उसी तरह संघात्मक राज्य की स्थापना करने के लिए दो या दो से अधिक राज्यों के बीच समझौते की आवश्यकता होती है। उदाहरणस्वरूप प्रारम्भ में अमेरिका के 13 राज्यों ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की स्थापना की। आज अमेरिका के 50 राज्य हैं। भारत, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैण्ड, दक्षिणी अफ्रीका तथा कनाडा में संघात्मक सरकारें पाई जाती हैं।

संघात्मक सरकार की परिभाषाएं (Definitions of Federal Government)-

संघात्मक सरकार की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं की गई हैं-

  • माण्टेस्कयू (Montesquieu) के अनुसार, “संघात्मक सरकार एक ऐसा समझौता है जिसके द्वारा बहुत से एकजैसे राज्य एक बड़े राज्य के सदस्य बनने को सहमत हो जाते हैं।” (“Federal Government is a convention by which several similar states agree to become members of a large one.”)
  • हैमिल्टन (Hamilton) के अनुसार, “संघात्मक शासन राज्यों का एक समुदाय है जो एक नए राज्य का निर्माण करता है।” (“Federation is an association of states that form a new one.”)
  • डॉ० फाईनर (Dr. Finer) के शब्दों में, “संघात्मक राज्य वह है जिसमें अधिकार और शक्ति का कुछ भाग स्थानीय क्षेत्रों में निहित हो व दूसरा भाग एक केन्द्रीय संस्था के पास हो जिसको स्थानीय क्षेत्रों के समुदाय ने अपनी इच्छा से बनाया हो।”
  • अमेरिकन सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, “संघात्मक राज्य तोड़े न जा सकने वाले राज्यों का बना, तोड़ा जा सकने वाला संघ है।” (“Destructible union composed of indestructible states.”)
  • गार्नर (Garmer) की परिभाषा स्पष्ट तथा अन्य परिभाषाओं से श्रेष्ठ है। उसके अनुसार, “संघात्मक एक ऐसी प्रणाली है जिसमें केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक सामान्य प्रभुसत्ता के अधीन होती हैं। ये सरकारें अपने निश्चित क्षेत्र में जिसको संविधान अथवा संसद् का कोई अधिनियम निश्चित करता है, सर्वोच्च होती हैं। संघ सरकार जैसा कि प्रायः यह कह दिया जाता है कि अकेली सरकार केन्द्रीय ही नहीं होती वरन् यह केन्द्र तथा स्थानीय सरकारों को मिला कर बनती है। स्थानीय सरकार संघ का उतना ही भाग है जितना कि केन्द्रीय सरकार, यद्यपि वह न तो केन्द्र द्वारा बनाई जाती है और न ही उसके अधीन होती है।”

प्रश्न 4.
संघात्मक शासन व्यवस्था में जो तीन सामान्य सिद्धान्त अपनाये जाते हैं, उनका वर्णन कीजिए।
(Describe the three general principles that are followed in federalism.)
अथवा
संघात्मक सरकार के आवश्यक तत्त्वों की व्याख्या करें।
(Discuss the essential features of a federal government.)
उत्तर-
संघात्मक सरकार के निम्नलिखित आवश्यक तत्त्व तथा विशेषताएं होती हैं-

1. लिखित संविधान (Written Constitution)-संघात्मक सरकार का संविधान सदैव लिखित होना चाहिए ताकि केन्द्र तथा प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन निश्चित तथा स्पष्ट किया जा सके। यदि संविधान अलिखित होगा तो दोनों सरकारों में झगड़े तथा गतिरोध उत्पन्न होते हैं क्योंकि दोनों सरकारों की शक्तियां निश्चित तथा स्पष्ट नहीं होती। अतः समझौते के अनुच्छेद लिखित होने चाहिएं अर्थात् संविधान लिखित होना चाहिए।

2. संविधान की सर्वोच्च (Supremacy of the Constitution)—संघात्मक सरकार में संविधान की सर्वोच्चता होना अति आवश्यक है। संविधान की सर्वोच्चता का अर्थ है कि समझौते की शर्ते जिसके द्वारा संघ राज्य की स्थापना की गई है, केन्द्र तथा प्रान्तीय सरकारों के ऊपर लागू होती हैं। न तो केन्द्र और न ही प्रान्त संविधान का उल्लंघन कर सकता है क्योंकि ऐसा करना समझौते का उल्लंघन करना है जिसके द्वारा संघात्मक राज्य की स्थापना की गई है। कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समुदाय या संस्था संविधान से ऊपर नहीं है। संविधान का उल्लंघन करने का अधिकार किसी को प्राप्त नहीं होता। जब कभी केन्द्र तथा प्रान्तों में गतिरोध उत्पन्न हो जाए तो दोनों को संविधान की धाराओं के अनुसार कार्य करना होता है। केन्द्र तथा प्रान्त अपने अधिकार तथा शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं, इसलिए संविधान का सर्वोच्च होना आवश्यक है। अमेरिका, भारत, स्विट्ज़रलैण्ड आदि संघात्मक राज्यों में संविधान सर्वोच्च है।

3. कठोर संविधान (Rigid Constitution) संविधान की सर्वोच्चता तभी कायम रह सकती है यदि संविधान कठोर हो। संविधान में संशोधन केन्द्रीय संसद् अथवा प्रान्तीय विधानमण्डल द्वारा साधारण कानून निर्माण की विधि से नहीं होना चाहिए। संविधान में संशोधन करने का अधिकार यदि केन्द्रीय सरकार को प्राप्त होगा तो केन्द्रीय सरकार अपनी इच्छानुसार संविधान में संशोधन करके प्रान्तों के अधिकारों तथा शक्तियों को छीनने की चेष्ठा करेगी और शीघ्र ही एकात्मक शासन की स्थापना हो जाएगी। संविधान में संशोधन केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों, दोनों की स्वीकृति से होना चाहिए। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैण्ड इत्यादि संघात्मक राज्यों के संविधान कठोर हैं। अमेरिका का संविधान विश्व के शेष सब संविधानों से कठोर है।

4. शक्तियों का विभाजन (Distribution of Powers)—संघात्मक सरकार का अनिवार्य तत्त्व यह है कि शासन प्रणाली में राज्य की सभी शक्तियां केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों में बंटी होती है। शक्तियों का बंटवारा प्रायः इस तरीके से किया जाता है कि जो विषय सारे देश से सम्बन्धित होते हैं ते केन्द्रीय सरकार को सौंप दिए जाते हैं और जो विषय स्थानीय महत्त्व के होते हैं उन्हें प्रान्तीय सरकारों को सौंप दिया जाता हे।

इस प्रकार सुरक्षा, विदेशी सम्बन्ध, विदेशी व्यापार, साता भात के साधन, मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय केन्द्रीय सरकार के पास रहते हैं और स्थानीय महत्त्व के विषय जैसे कि शिक्षा, जेल, पुलिस, कृषि, स्वास्थ्य, सफ़ाई आदि प्रान्तों के पास रहते हैं। शक्तियों के विभाजन के लिए तीन तरीके अपनाए जाते हैं-

  • प्रथम, केन्द्रीय सरकार की शक्तियां निश्चित कर दी जाती हैं और शेष अधिकार (Residuary Powers) प्रान्तों तथा इकाइयों को दे दिए जाते हैं। इस प्रणाली को अमेरिका में अपनाया गया है।
  • द्वितीय, प्रान्तीय सरकारों अथवा इकाइयों की शक्तियां निश्चित कर दी जाती हैं और शेष अधिकार केन्द्र को दे दिए जाते हैं। इस प्रणाली को कनाडा में अपनाया गया है।
  • तृतीय, केन्द्र तथा प्रान्तों दोनों की शक्तियां निश्चित कर दी जाती हैं और शेष शक्तियों का भी वर्णन कर दिया जाता है जिन्हें समवर्ती विषय (Concurrent Subjects) कहा जाता है। समवर्ती विषयों पर केन्द्र तथा प्रान्त दोनों ही कानून बना सकते हैं और यदि किसी विषय पर केन्द्र तथा प्रान्तों के कानूनों में झगड़ा उत्पन्न हो जाए तो केन्द्र का कानून लागू होता है। भारत में इसी प्रणाली को अपनाया गया है।

5. न्यायपालिका की श्रेष्ठता (Supremacy of the Judiciary)-संघात्मक सरकार में एक स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा सर्वोच्च न्यायपालिका का होना आवश्यक है। संघात्मक सरकार में न्यायपालिका को तीन मुख्य कार्य करने पड़ते

  • केन्द्र तथा प्रान्तों के झगड़ों को निपटाना-संघात्मक सरकार में केन्द्र तथा प्रान्तों में शक्तियों का बंटवारा होता है। इस विभाजन के कारण कई बार केन्द्र तथा प्रान्तों में अथवा दो प्रान्तों में पारस्परिक झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन झगड़ों को निपटाने के लिए निष्पक्ष न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है ताकि ऐसे झगड़ों पर निष्पक्ष निर्णय दिया जा सके।
  • संविधान की व्याख्या करना-संघात्मक सरकार का संविधान लिखित होता है जिस कारण कई बार संविधान की धाराओं की व्याख्या करने की आवश्यकता पड़ जाती है। संविधान की व्याख्या करने का यह अधिकार न्यायपालिका को प्राप्त होता है और न्यायपालिका का निर्णय अन्तिम होता है।
  • संविधान की रक्षा-संघात्मक सरकार में संविधान सर्वोच्च होता है। इसकी सर्वोच्चता को कायम रखने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका पर होती है। न्यायपालिका यह देखती है कि केन्द्रीय सरकार अथवा प्रान्तीय सरकार संविधान का उल्लंघन तो नहीं करती। यदि केन्द्र सरकार अथवा प्रान्तीय सरकारें कोई ऐसा कानून बनाती हैं जो संविधान का उल्लंघन करता हो तो न्यायपालिका इस कानून को अवैध घोषित कर सकती है। भारत तथा अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति प्राप्त है।

6. द्वि-सदनीय विधानमण्डल (Bicameral Legislature)—संघात्मक शासन प्रणाली में द्वि-सदनीय विधानमण्डल का होना आवश्यक है। एक सदन समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है जबकि दूसरा सदन प्रान्तों अथवा इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। निम्न सदन (Lower House) का कार्य सारे राष्ट्र के हितों की रक्षा करना होता है जबकि ऊपरी सदन (Upper House) का मुख्य कार्य प्रान्तों के हितों की रक्षा करना होता है। भारत में संसद् के दो सदन हैं : लोकसभा तथा राज्यसभा। अमेरिका में भी कांग्रेस के दो सदन हैं : प्रतिनिधि सदन तथा सीनेट।

7. दोहरी नागरिकता (Double Citizenship)-संघात्मक प्रणाली की एक विशेषता यह भी होती है कि इसमें नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है। नागरिकों को एक तो सारे राष्ट्र की नागरिकता प्राप्त होती है और एक उस राज्य की नागरिकता प्राप्त होती है जिसमें वे रहे होते हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले व्यक्ति (विदेशियों को छोड़कर) को संयुक्त राज्य अमेरिका की नागरिकता के अतिरिक्त उस राज्य की नागरिकता भी प्राप्त होती है जिसमें उसका निवास स्थान होता है।

प्रश्न 5.
संघात्मक सरकार के गुणों और दोषों की व्याख्या करें।
(Discuss the merits and demerits of Federal Government.)
उत्तर-
संघात्मक सरकार में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं
संघात्मक सरकार के गुण (Merits of Federal Government)-

1. विभिन्नता में एकता (Unity in Diversity)-इस शासन व्यवस्था का मुख्य गुण यह है कि इसमें विभिन्नता में एकता की प्राप्ति की जाती है। जिन देशों में धार्मिक, भाषायी तथा जातीय विभिन्नता पाई जाती है, उन देशों में संघात्मक सरकार द्वारा राष्ट्रीय एकता को कायम रखा जा सकता है। संघात्मक सरकार में इकाइयां अपनी स्वायत्तता भी बनाए रखती हैं क्योंकि संघ की इकाइयां अपने कार्यों में स्वतन्त्र होती हैं।

2. यह निर्बल राज्यों की शक्तिशाली राज्यों से सुरक्षा करता है (It safeguards the Weak States from Stronger Ones)—संघात्मक सरकार में छोटे-छोटे राज्य मिल कर शक्तिशाली संगठन बनाकर अपनी रक्षा कर सकते हैं। बिना संघात्मक सरकार के यह सम्भव है कि छोटे-छोटे राज्य राज्यों के हाथों में स्वतन्त्रता भी खो बैठें। आज यदि अमेरिका शक्तिशाली है तो सिर्फ संघ शासन के कारण। जो सम्मान आज अमेरिका के राज्यों को प्राप्त है वह कभी उन्हें न मिलता यदि इन राज्यों ने मिलकर संघ की स्थापना न की होती। इसके अतिरिक्त आज राज्य की सुरक्षा के लिए बहुत अधिक धन ख़र्च होता है जिसे कोई भी छोटा राज्य सहन नहीं कर सकता। अतः संसदीय शासन द्वारा ही छोटे-छोटे राज्य अपनी सुरक्षा कर सकते हैं।

3. शासन में कार्यकुशलता (Efficiency in Administration) शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा प्रान्तों में विभाजन होता है जिस कारण केन्द्र पर कार्य का बोझ नहीं बढ़ता। कार्य के विभाजन के कारण दोनों सरकारें अपना कार्य कुशलता से करती हैं। किसी के पास कार्य अधिक नहीं होता। कार्यभार अधिक न होने के कारण प्रत्येक समस्या को सुलझाने के शीघ्र निर्णय ले लिया जाता है। केन्द्रीय सरकार को छोटी-छोटी बातों की चिन्ता नहीं होती जिससे केन्द्र अपना कीमती समय बड़ी-बड़ी समस्याओं में लगा सकता है। अतः शक्तियों के इस विभाजन से कार्य कुशलता में वृद्धि होती है। एकात्मक शासन में केन्द्रीय सरकार के पास कार्य-भार अधिक होने के कारण प्रत्येक निर्णय में देरी होती है। इंग्लैण्ड में संसद् के पास काम अधिक और समय कम होता है।

4. आर्थिक विकास के लिए लाभदायक (Useful for Economic Progress)—संघात्मक सरकार से अधिक आर्थिक उन्नति होती है। छोटे-छोटे राज्यों के आर्थिक साधन इतने नहीं होते कि वे उन्नति कर सकें। संघात्मक राज्य के साधन बहुत बढ़ जाते हैं जिससे समस्त देश की उन्नति होती है।

5. यह केन्द्रीय सरकार को निरंकुश बनने से रोकती है (It checks the despotism of Central Government)-संघात्मक सरकार में शक्तियों के विभाजन के कारण केन्द्र की शक्तियां सीमित होती हैं। सीमित शक्तियों के कारण केन्द्र निरंकुश नहीं बन सकता। इस तरह संघ राज्य में नागरिकों की स्वतन्त्रता सुरक्षित रहती है।

6. यह बड़े राज्यों के लिए उपयुक्त है (It is suitable for big States)-संघात्मक सरकार उन राज्यों के लिए जिनका क्षेत्रफल विशाल होता है तथा जिनकी जनसंख्या बहुत अधिक होती है, उपयुक्त है। बड़े राज्यों का शासन केन्द्र ठीक तरह से नहीं चला सकता। बड़े राज्यों को प्रान्तों में बांट कर स्थानीय शासन उन्हें सौंप दिया जाना चाहिए ताकि केन्द्र का भार हल्का हो जाए।

7. यह नागरिकों की प्रतिष्ठा बढ़ाती है (It enhances the Prestige of the Citizens)-संघ की नागरिकता से नागरिकों की प्रतिष्ठा बढ़ती है। पंजाब या असम अथवा हरियाणा जैसे छोटे राज्य का नागरिक होने की अपेक्षा भारत का नागरिक होना अधिक गौरव की बात है।

8. राजनीतिक शिक्षा (Political Education)—संघात्मक सरकार में लोगों को एकात्मक शासन की अपेक्षा राजनीतिक शिक्षा अधिक मिलती है। केन्द्र के अतिरिक्त प्रान्तों में विधानमण्डल होने के कारण बार-बार चुनाव होते हैं जिससे लोगों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है।

9. स्थानीय मामलों में रुचि (Interest in Local Affairs)-संघात्मक सरकार में स्थानीय प्रशासन लोगों के अपने हाथों में होता है जिसके कारण लोग स्थानीय मामलों में रुचि लेते हैं। लोगों में शासन के प्रति उदासीनता समाप्त हो जाती है क्योंकि शासन उनका अपना होता है।

10. यह विश्व राज्य के लिए एक आदर्श है (It is model for the World State)-संघात्मक सरकार विश्व राज्य की स्थापना की ओर एक कदम है। जब छोटे राज्य संघ बना कर सफलता से कार्य कर सकते हैं तो संसार के सभी देश विश्व राज्य की स्थापना करके भी सफलता से कार्य कर सकते हैं।

11. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा (International Prestige)-संघीय शासन व्यवस्था के अधीन सदस्य राज्यों की अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। आज संसार में अमेरिका को अधिक शक्तिशाली राष्ट्र माना जाता है, क्योंकि अमेरिका 50 राज्यों का सम्मिलित राज्य है।

12. बचत (Economy)-संघ प्रणाली का एक अन्य गुण बचत है क्योंकि इसके अनेक प्रकार के राज्य अपनी प्रभुसत्ता का त्याग करके एक बड़ा राज्य बना लेते हैं जिसके फलस्वरूप उन राज्यों की सुरक्षा के लिए सेना, पुलिस आदि पर इतना खर्च नहीं होता जितना कि उनके अलग-अलग रहने पर होता है।

संघात्मक सरकार की हानियां (Disadvantages of Federal Government)-

संघात्मक सरकार के गुणों के साथ-साथ कुछ दोष भी हैं। इसके मुख्य अवगुण वही हैं जो कि एकात्मक शासन प्रणाली के गुण हैं

1. दुर्बल शासन (Weak Government)-संघात्मक सरकार शक्तियों के विभाजन के कारण दुर्बल सरकार होती है। केन्द्रीय सरकार न तो प्रत्येक विषय पर कानून बना सकती है और न ही प्रान्तों में हस्तक्षेप कर सकती है। केन्द्र के बनाए हुए कानूनों को सर्वोच्च न्यायपालिका अवैध घोषित कर सकती है। प्रो० डायसी के मतानुसार, “संघीय संविधान एकात्मक संविधान की अपेक्षा कमज़ोर होता है।”

2. राष्ट्रीय एकता को ख़तरा (Danger to National Unity)—इस शासन प्रणाली में प्रान्तों को काफ़ी स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिससे नागरिकों में प्रान्तीयता की भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं। नागरिक प्रान्तीय भावनाओं में फंस कर राष्ट्र के हित को भूल जाते हैं। प्रत्येक सम्प्रदाय अपना अलग प्रान्त चाहता है और उसकी प्राप्ति के लिए वह आन्दोलन भी करता है। प्रत्येक प्रान्त अपने बारे में सोचता है न कि देश के लिए। कई बार प्रान्त यह सोचने लगता है कि केन्द्रीय सरकार उनके साथ अन्याय कर रही है। वे केन्द्र से सहयोग करना छोड़ देते हैं।

3. संघ के टूटने का भय (Fear of disintegration of Federation)—संघ शासन प्रणाली में यह भय सदा बना रहता है कि कहीं एक इकाई या कुछ इकाइयां मिलकर संघ से अलग होने का प्रयास न करें। प्रान्तों की अपनी सरकार होती है और वह अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। यदि किसी विषय पर केन्द्र तथा प्रान्त का आपस में मतभेद हो जाए तो वह संघ से अलग होने का प्रयत्न करेगा। उदाहरणस्वरूप सोवियत संघ में संघात्मक सरकार पाई जाती थी। दिसम्बर, 1991 में सोवियत संघ के 15 राज्य अलग होकर स्वतन्त्र राज्य बन गए और इस प्रकार सोवियत संघ नाम का देश ही समाप्त हो गया।

4. विदेश नीति में कमज़ोर (Weak in Foreign Policy)-अधिकांश राज्यों की सरकारें विदेशी के साथ किए गए समझौतों की शर्तों को पूरा करने में अनेक प्रकार की अड़चनें डाल कर संघात्मक सरकार के मार्ग में कठिनाई उत्पन्न कर देती हैं। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय सरकार विदेश नीति को दृढ़ता से नहीं अपना सकती क्योंकि उसे पूर्ण विश्वास नहीं होता कि राज्यों की सरकारें उसकी नीति का समर्थन करेंगी अथवा नहीं।

5. केन्द्र और राज्यों में झगड़े (Conflicts between Central and State Government)—संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र और राज्यों में अधिकार क्षेत्र सम्बन्धी झगड़े प्रायः उत्पन्न हो जाते हैं। संघात्मक शासन में प्रायः राज्य की सीमाओं पर झगड़े चलते रहते हैं। भारत इस तथ्य की पुष्टि करता है।

6. खर्चीला शासन (Expensive Government)—संघात्मक शासन एक खर्चीला शासन है क्योंकि इसमें दो प्रकार की सरकारें होती हैं। केन्द्रीय सरकार द्वारा अलग खर्च होता है और प्रान्तीय सरकारों द्वारा अलग। दोहरे शासन के कारण खर्चा भी लगभग दोहरा होता है। जनता को अधिक कर देने पड़ते हैं जिससे तंग आकर साधारण जनता विद्रोह करने के लिए भी तैयार हो जाती है। बार-बार चुनावों पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं।

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7. संविधान समय के अनुसार नहीं बदलता (Constitution does not change with Time)—संघात्मक सरकार में संविधान कठोर होता है, जिसके कारण संविधान में आसानी से संशोधन नहीं किया जा सकता। इसका परिणाम यह निकलता है कि कुछ देर बाद देश का संविधान समय से बहुत पीछे रह जाता है और वह समाज की आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाता। कई बार कठोर संविधान क्रान्ति का कारण बन जाता है।

8. शासन की एकरूपता का न होना (No Uniformity of Administration)—संघात्मक प्रणाली का यह अवगुण है कि समस्त देश में एक-सी शासन व्यवस्था नहीं मिलती। प्रत्येक प्रान्त एक ही विषय पर अपनी इच्छा के अनुसार कानून बनाता तथा कर लगाता है। इसका परिणाम यह होता है कि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न प्रकार के कानून होते हैं और कर भी अलग-अलग लगते हैं। इससे लोगों में प्रान्तीयता की भावना भी आ जाती है।

9. बुरे प्रशासन के लिए किसी को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता (No body can be held responsible for bad Administration)-संघात्मक शासन में अकेले केन्द्र को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं। प्रशासनिक असफलता के लिए एक सरकार दूसरी को दोषी ठहराने का प्रयत्न करती है।

10. दोहरी नागरिकता हानिकारक है (Double Citizenship is Harmful)-संघात्मक प्रणाली में नागरिक को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है, परन्तु दोहरी नागरिकता हानिकारक है। नागरिकों को दो सरकारों के प्रति वफादार रहना पड़ता है, जिस के कारण नागरिक दोनों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकता।

11. न्यायपालिका का अनावश्यक महत्त्व (Undue Importance of Judiciary)—संघ सरकार में संविधान की व्याख्या के लिए न्यायपालिका की आवश्यकता होती है। कई बार यह देखा गया है कि न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या कानून की भावना के अनुसार नहीं बल्कि अपनी दृष्टिकोण के अनुसार करती है। जिस न्यायपालिका के न्यायाधीश खुले रूप में ही कहें कि “हम संविधान के अधीन हैं पर संविधान क्या है यह हम बतलाएंगे” तो वहां संविधान न्यायपालिका के हाथ में खिलौना बन जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)—यह ठीक है कि संघ सरकार की त्रुटियां हैं। पर आधुनिक युग में अधिक-से-अधिक देशों में इसी शासन को स्थापित किया जा रहा है क्योंकि इसमें न केवल लोगों को अपने स्थानीय मामलों में आवश्यक शिक्षा मिलती है अपितु कई देशों ने इस व्यवस्था द्वारा अनुकरणीय उन्नति की है। अमेरिका तथा रूस इस बात के साक्षी हैं। लॉस्की (Laski) ने ठीक ही कहा, “क्योंकि आज का समाज संघीय है, इसलिए शक्ति की बांट भी होनी चाहिए।” (Because society is federal authority must also be federal.)

प्रश्न 6.
संघात्मक और एकात्मक सरकारों में अन्तर करें।
(Distinguish between Federal and the Unitary form of Government.)
उत्तर-
केन्द्र तथा राज्यों के आपसी सम्बन्धों और शासन की शक्तियों की अवस्थिति (Location) के आधार पर शासन एकात्मक होता है। एकात्मक या संघात्मक शासन प्रणाली में समस्त शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं और इकाइयों पर इसका पूर्ण नियन्त्रण होता है, परन्तु संघात्मक प्रणाली में केन्द्र और इकाइयों में शक्तियां बंटी होती हैं और दोनों ही अपने क्षेत्र में स्वायत्तता से कार्य करती हैं।

एकात्मक और संघात्मक सरकारों में भिन्नता (Distinction between Unitary and Federal forms of Government) उपर्युक्त चर्चा के आधार पर दोनों सरकारों में अन्तर को विस्तारपूर्वक नीचे दर्शाया गया है : –

1. सरकारों की संख्या (Number of Governments)-एकात्मक प्रणाली के अधीन एक राज्य में एक ही सरकार होती है। नेपाल, श्रीलंका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ऐसी प्रणाली के उदाहरण हैं। संघात्मक प्रणाली में केन्द्रीय सरकार के अतिरिक्त इकाइयों की अपनी अलग-अलग सरकार होती है।

2. शासन का संगठन (Government Set-up) -एकात्मक सरकार में शासन का संगठन इकहरा होता है। सारे राज्य में एक ही सरकार होने के नाते देश-भर में एक समान कानून होते हैं, एक जैसी कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था होती है। इंग्लैंड के नागरिक चाहे वे अपने देश के किसी भी भाग में रहते हों सब एक प्रकार के कानून के अधीन होते हैं। संघात्मक सरकार में शासन का संगठन दोहरा होता है। हर नागरिक का सम्बन्ध दो व्यवस्थापिकाओं, दो कार्यपालिकाओं और न्यायपालिकाओं से होता है। उदाहरणस्वरूप, पंजाब में रहने वाला व्यक्ति रेलगाड़ी, डाक व तार विषयों के लिए केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित है और पुलिस, मोटर, बस, सिनेमाघर, शिक्षा आदि विषयों के लिए पंजाब सरकार के सम्बद्ध है।

3. आपसी सम्बन्ध (Mutual Relations)-एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत भी एक से अधिक सरकारें होती हैं जैसे भारत में सन् 1935 से पहले थीं। परन्तु ऐसी स्थिति में प्रान्तीय सरकारों का स्तर अधीनता (Subordination) का होता है। ये सरकारें अपने हर कार्य में केन्द्रीय सरकार के अधीन होती हैं। प्रान्तीय सरकारों के पास किसी प्रकार की स्वायत्तता (Autonomy) नहीं होती। संघात्मक प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार और प्रान्तीय सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होती हैं और एक सरकार दूसरी सरकार की शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। अमेरिका, कैनेडा और वर्तमान भारत में ऐसी ही व्यवस्था है।

4. शक्तियों का स्त्रोत (Sources of Powers) एकात्मक प्रणाली में प्रान्तीय सरकारों की शक्तियों का स्रोत केन्द्रीय सरकार होती है अर्थात् प्रान्तीय सरकारें उन्हीं शक्तियों का प्रयोग करती हैं जो केन्द्र सरकार उन्हें प्रदत्त (Delegate) करती है। केन्द्रीय सरकार कभी भी इन शक्तियों को परिवर्तित कर सकती हैं। संघात्मक प्रणाली में केन्द्रीय सरकार और प्रान्तीय सरकारें अपनी-अपनी शक्तियां राज्य के संविधान से प्राप्त करती हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार के पास अधिकार नहीं होता कि प्रान्तों की शक्तियों में कोई भी परिवर्तन कर सके। ऐसा परिवर्तन केवल संविधान में संशोधन द्वारा ही सम्भव है।

5. संविधान की प्रकृति (Nature of Constitution)-वैसे तो आजकल लिखित संविधान की प्रणाली लगभग हर देश में अपनाई जाती है। हां, एकात्मक प्रणाली के लिए लिखित और कठोर संविधान आवश्यक नहीं है। इंग्लैण्ड का संविधान न लिखित ही है और न ही कठोर। परन्तु संघात्मक प्रणाली के लिए संविधान का लिखित और कठोर होना अनिवार्य है।

6. नागरिकता (Citizenship)—एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत नागरिकों को इकहरी नागरिकता (Single Citizenship) प्राप्त होती है, जैसा कि इंग्लैंड, फ्रांस आदि राज्यों में है। संघात्मक प्रणाली के अधीन दोहरी नागरिकता (Double Citizenship) प्राप्त हो सकती है, जैसा कि अमेरिका में।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एकात्मक सरकार का अर्थ एवं परिभाषा लिखें।
उत्तर-
एकात्मक शासन वह शासन है जिसमें शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं। सुविधा की दृष्टि से केन्द्रीय सरकार प्रान्तों की स्थापना करती है तथा उन्हें थोड़े-बहुत अधिकार प्रदान करती है। केन्द्रीय सरकार जब चाहे इन प्रान्तों की सीमाएं भी घटा-बढ़ा सकती है। एकात्मक शासन की भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. डायसी के अनुसार, “एक केन्द्रीय शक्ति के द्वारा सर्वोच्च शक्ति का प्रयोग किया जाना ही एकात्मक शासन है।”
  2. डॉ० फाइनर के मतानुसार, “एकात्मक शासन वह होता है जहां एक केन्द्रीय सरकार में सम्पूर्ण शासन निहित होता है और जिसकी इच्छा व जिसके प्रतिनिधि कानूनी दृष्टि में सर्वशक्तिमान् होते हैं।”
  3. प्रोफेसर स्ट्रांग के अनुसार, “एकात्मक राज्य वह राज्य है जो केन्द्रीय शासन के अधीन हो।”

प्रश्न 2.
एकात्मक सरकार की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
एकात्मक शासन की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  • शक्तियों का केन्द्रीयकरण-एकात्मक शासन में शासन की शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती हैं। शासन की सुविधा के लिए राज्यों को प्रान्तों में बांटा गया होता है और उन्हें कुछ अधिकार तथा शक्तियां दी जाती हैं। केन्द्र जब चाहे प्रान्तों के अधिकारों तथा शक्तियों को छीन सकता है।
  • प्रभुसत्ता-एकात्मक शासन में प्रभुसत्ता केन्द्र में निहित होती है ।
  • इकहरी नागरिकता-एकात्मक शासन में एक ही नागरिकता होती है। इंग्लैंड में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त है।
  • इकहरा शासन-एकात्मक शासन में इकहरी शासन व्यवस्था होती है।

प्रश्न 3.
एकात्मक सरकार के चार गुण बताइए।
उत्तर-
एकात्मक शासन के निम्नलिखित गुण हैं-

  • शक्तिशाली शासन-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है । सभी शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं। प्रान्तीय सरकारें केन्द्रीय सरकार के आदेशानुसार कार्य करती हैं । कानूनों को बनाने तथा लागू करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र पर ही होती है । इस तरह शासन शक्तिशाली होता है जिस कारण देश की विदेश नीति भी प्रभावशाली होती है ।
  • सादा शासन-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन अति सरल होता है । शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं जिसके कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में मतभेद उत्पन्न नहीं होते। सादा शासन होने के कारण एक अनपढ़ व्यक्ति को भी अपने देश के शासन के संगठन का ज्ञान होता है ।
  • लचीला प्रशासन-संविधान अधिक कठोर न होने के कारण समयानुसार आसानी से बदला जा सकता है । संकटकाल के लिए यह शासन प्रणाली बहुत उपयुक्त है। केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए किसी भी समय प्रान्तों की शक्तियों को कम किया जा सकता है।
  • कम खर्चीला शासन-एकात्मक शासन प्रणाली संघात्मक सरकार की अपेक्षा कम खर्चीली होती है।

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प्रश्न 4.
एकात्मक सरकार के चार दोषों का वर्णन करें।
उत्तर-
एकात्मक सरकार में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • केन्द्र निरंकुश बन जाता है-एकात्मक शासन प्रणाली में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है जिसके कारण केन्द्र के निरंकुश बन जाने का भय होता है ।
  • स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती–प्रत्येक प्रान्त की अपनी अलग समस्याएं होती हैं जिसके लिए उन्हें विशेष कानूनों की आवश्यकता होती है। केन्द्रीय सरकार को न तो स्थानीय आवश्यकताओं का पूर्ण ज्ञान होता है और न ही कानून प्रान्तों के लिए बनाए जाते हैं। केन्द्रीय सरकार एक ही कानून को सब प्रान्तों पर लागू कर देती है।
  • बड़े राज्यों के लिए अनुपयुक्त-एकात्मक शासन प्रणाली उन राज्यों के लिए उपयुक्त नहीं है जिनका क्षेत्रफल या जनसंख्या बहुत अधिक है क्योंकि केन्द्रीय सरकार दूर-दूर तक फैले हुए भागों में शासन व्यवस्था अच्छी प्रकार से लागू नहीं कर सकती।
  • कार्यभार में वृद्धि-एकात्मक सरकार में सारे देश का शासन केन्द्र द्वारा चलाया जाता है, जिससे केन्द्रीय सरकार का कार्य बढ़ जाता है।

प्रश्न 5.
संघात्मक सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
संघात्मक शासन उसे कहते हैं जहां संविधान के द्वारा शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं और दोनों अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। इसका अर्थ यह है कि केन्द्रीय सरकार को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और न ही प्रान्त केन्द्रीय सरकार को दिए गए कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते हैं । संघात्मक शासन में दोहरी सरकार होती है। प्रभुसत्ता न तो केन्द्रीय सरकार में निहित होती है और न ही प्रान्तीय सरकारों में और न ही प्रभुसत्ता केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती है। प्रभुसत्ता वास्तव में राज्यों के पास होती है।।

संघवाद को अंग्रेज़ी भाषा में ‘फेडरलिज्म’ (Federalism) कहते हैं। फेडरलिज्म शब्द लेटिन भाषा के शब्द फोईडस (Foedus) से बना है जिसका अर्थ है सन्धि अथवा समझौता। संघात्मक सरकार इस प्रकार समझौते का परिणाम होती है। जिस तरह किसी समझौते के लिए एक से अधिक पक्षों का होना आवश्यक होता है उसी तरह संघात्मक राज्य की स्थापना करने के लिए दो या दो से अधिक राज्यों के बीच समझौते की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 6.
संघात्मक सरकार की कोई तीन परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-
संघात्मक सरकार की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • माण्टेस्क्यू के अनुसार, “संघात्मक सरकार एक ऐसा समझौता है जिसके द्वारा बहुत-से एक जैसे राज्य एक बड़े राज्य के सदस्य बनने को सहमत हो जाते हैं।”
  • डॉ० फाइनर के शब्दों में, “संघात्मक राज्य वह है जिसमें अधिकार व शक्तियों का कुछ भाग स्थानीय क्षेत्रों में निहित हो व दूसरा भाग एक केन्द्रीय संस्था के पास हो जिसको स्थानीय क्षेत्रों के समुदायों ने अपनी इच्छा से बनाया हो।”
  • गार्नर की परिभाषा स्पष्ट तथा अन्य परिभाषाओं से श्रेष्ठ हैं। उनके अनुसार, “संघात्मक एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक सामान्य प्रभुसत्ता के अधीन होती हैं। ये सरकारें अपने निश्चित क्षेत्र में जिसको संविधान अथवा संसद् का कोई अधिनियम निश्चित करता है, सर्वोच्च होती है। संघ सरकार जैसा कि प्रायः कह दिया जाता है कि अकेली केन्द्रीय सरकार ही नहीं होती वरन् यह केन्द्र तथा स्थानीय सरकारों को मिला कर बनती है। स्थानीय सरकार संघ का उतना ही भाग है जितना कि केन्द्रीय सरकार का यद्यपि वह न तो केन्द्र द्वारा बनाई जाती है न ही उसके अधीन होती है।

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प्रश्न 7.
संघात्मक शासन की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
संघात्मक शासन प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं-

  • लिखित संविधान-संघात्मक सरकार का संविधान सदैव लिखित होना चाहिए ताकि केन्द्र तथा प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन स्पष्ट एवं निश्चित किया जा सके। यदि शक्तियों का विभाजन स्पष्ट नहीं होगा तो दोनों सरकारों के मध्य गतिरोध की सम्भावना रहेगी।
  • संविधान की सर्वोच्चता-संघात्मक शासन प्रणाली में संविधान का सर्वोच्च होना आवश्यक है क्योंकि कभीकभी केन्द्र और राज्यों में शक्तियों के विभाजन को लेकर आपस में विवाद हो जाता है तब उस विवाद को संविधान की धाराओं के अनुसार सुलझाया जाता है।
  • कठोर संविधान-संघात्मक शासन प्रणाली में संविधान का कठोर होना भी आवश्यक है ताकि केन्द्रीय सरकार उसमें आसानी से संशोधन करके राज्य सरकारों की शक्तियों को घटा-बढ़ा न सके। संविधान में संशोधन केन्द्र और राज्य सरकारों की अनुमति से होना चाहिए।
  • शक्तियों का विभाजन-संघात्मक सरकार का अनिवार्य तत्त्व यह है, कि शासन प्रणाली में राज्य की सभी शक्तियां केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों में बंटी होती हैं।

प्रश्न 8.
संघात्मक शासन प्रणाली के चार गुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
संघात्मक सरकार में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • विभिन्नता में एकता-इस शासन व्यवस्था का मुख्य गुण यह है कि इसमें विभिन्नता में एकता पाई जाती है। इस शासन प्रणाली में विभिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं, सम्प्रदायों आदि के राज्यों को मिला कर एक मज़बूत केन्द्रीय सरकार की स्थापना की जाती है।
  • शासन में कार्य-कुशलता-शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा राज्यों में विभाजन होता है जिस कारण केन्द्र पर कार्य का अधिक बोझ नहीं होता। कार्य में विभाजन के कारण कार्य भार कम हो जाता है तथा निर्णय शीघ्र लिए जाते हैं। शक्तियों के विभाजन से कार्य में कुशलता आती है।
  • आर्थिक विकास के लिए लाभदायक-संघात्मक शासन प्रणाली में उन्नति में वृद्धि होती है। छोटे-छोटे राज्यों के पास इतने अधिक आर्थिक साधन नहीं होते कि वे अपनी उन्नति कर सकें। संघात्मक राज्य के साधन बहुत बढ़ जाते हैं जिससे समस्त देश की उन्नति होती है।
  • राजनीतिक शिक्षा-संघात्मक सरकार में लोगों को एकात्मक शासन की अपेक्षा राजनीतिक शिक्षा अधिक मिलती है।

प्रश्न 9.
संघात्मक शासन प्रणाली के कोई चार दोष लिखें।
उत्तर-
संघात्मक शासन प्रणाली में निम्नलिखित मुख्य दोष पाए जाते हैं-

  • दुर्बल शासन-संघात्मक सरकार शक्तियों के विभाजन के कारण दुर्बल सरकार होती है। केन्द्रीय सरकार न तो प्रत्येक विषय पर कानून बना सकती है और न ही प्रान्तों के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार रखती है।
  • राष्ट्रीय एकता को खतरा-नागरिक प्रान्तीय भावनाओं में फंस कर राष्ट्रीय हितों को भूल जाते हैं। प्रत्येक प्रान्त राष्ट्रीय हित में न सोचकर अपने हित में सोचता है। इससे राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा होता है।
  • संघ के टूटने का भय-संघीय शासन प्रणाली में सदा यह भय बना रहता है कि कोई इकाई या कुछ इकाइयां मिलकर संघ से अलग होने का प्रयत्न न करें। प्रान्तों की अपनी सरकार होती है और वह अपने कार्यों में स्वतन्त्र होती है। यदि किसी विषय पर केन्द्र तथा प्रान्त में मतभेद हो जाएं तो वह संघ से अलग होने का प्रयत्न करेगा।
  • केन्द्र और राज्यों में झगड़े-संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र और राज्यों में अधिकार क्षेत्र सम्बन्धी झगड़े प्रायः उत्पन्न हो जाते हैं।प्रश्न 10. एकात्मक सरकार और संघात्मक सरकार में कोई चार अन्तर बताएं।
    उत्तर-एकात्मक सरकार और संघात्मक सरकार में निम्नलिखित तीन मुख्य अन्तर पाए जाते हैं-
  • सरकारों की संख्या-एकात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र और राज्य में एक ही सरकार होती है जबकि संघात्मक शासन प्रणाली में एक केन्द्रीय सरकार के अतिरिक्त राज्यों की सरकारें भी होती हैं।
  • शासन का संगठन-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन इकहरा होता है। परन्तु संघात्मक सरकार में दोहरी शासन व्यवस्था होती है।
  • आपसी सम्बन्ध- एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत भी एक से अधिक सरकारें हो सकती हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में वे पूर्णतया सरकार के अधीन होती हैं। प्रान्तीय सरकारों के पास किसी भी तरह की स्वायत्तता नहीं होती। संघात्मक शासन में केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होती हैं और एक सरकार दूसरी सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
  • नागरिकता-एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त होती है, जबकि संघात्मक प्रणाली के अधीन दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एकात्मक सरकार का अर्थ लिखें।
उत्तर-
एकात्मक शासन वह शासन है जिसमें शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं। सुविधा की दृष्टि से केन्द्रीय सरकार प्रान्तों की स्थापना करती है तथा उन्हें थोड़े-बहुत अधिकार प्रदान करती है। केन्द्रीय सरकार जब चाहे इन प्रान्तों की सीमाएं भी घटा-बढ़ा सकती है।

प्रश्न 2.
एकात्मक सरकार के दो गुण बताइए।
उत्तर-

  1. शक्तिशाली शासन-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है । सभी शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं।
  2. सादा शासन-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन अति सरल होता है। शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं जिसके कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में मतभेद उत्पन्न नहीं होते।

प्रश्न 3.
एकात्मक सरकार के दो दोषों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. केन्द्र निरंकुश बन जाता है-एकात्मक शासन प्रणाली में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है जिसके कारण केन्द्र के निरंकुश बन जाने का भय होता है।
  2. स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती–प्रत्येक प्रान्त की अपनी अलग समस्याएं होती हैं जिसके लिए उन्हें विशेष कानूनों की आवश्यकता होती है। केन्द्रीय सरकार को न तो स्थानीय आवश्यकताओं का पूर्ण ज्ञान होता है और न ही कानून प्रान्तों के लिए बनाए जाते हैं। केन्द्रीय सरकार एक ही कानून को सब प्रान्तों पर लागू कर देती है।

प्रश्न 4.
संघात्मक सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
संघात्मक शासन उसे कहते हैं जहां संविधान के द्वारा शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं और दोनों अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। इसका अर्थ यह है कि केन्द्रीय सरकार को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और न ही प्रान्त केन्द्रीय सरकार को दिए गए कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

प्रश्न 5.
संघात्मक शासन प्रणाली के दो गुणों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. विभिन्नता में एकता-इस शासन व्यवस्था का मुख्य गुण यह है कि इसमें विभिन्नता में एकता पाई जाती है।
  2. शासन में कार्य-कुशलता-शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा राज्यों में विभाजन होता है जिस कारण केन्द्र पर कार्य का अधिक बोझ नहीं होता। कार्य में विभाजन के कारण कार्य भार कम हो जाता है तथा निर्णय शीघ्र लिए जाते हैं। शक्तियों के विभाजन से कार्य में कुशलता आती है।

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प्रश्न 6.
संघात्मक शासन प्रणाली के कोई दो दोष लिखें।
उत्तर-

  1. दुर्बल शासन-संघात्मक सरकार शक्तियों के विभाजन के कारण दुर्बल सरकार होती है।
  2. राष्ट्रीय एकता को खतरा-इस शासन प्रणाली में प्रान्तों को काफ़ी स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिससे नागरिकों में प्रान्तीयता की भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. एकात्मक सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-एकात्मक सरकार में शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं।

प्रश्न 2. एकात्मक सरकार की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-प्रो० स्ट्रांग के अनुसार, “एकात्मक राज्य वह है, जो एक केन्द्रीय शासन के अधीन संगठित हो।”

प्रश्न 3. एकात्मक सरकार का कोई एक लक्षण लिखें।
उत्तर-एकात्मक सरकार में शासन की शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती हैं।

प्रश्न 4. एकात्मक सरकार का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है।

प्रश्न 5. एकात्मक सरकार का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-एकात्मक सरकार में केन्द्र के निरंकुश बनने का डर बना रहता है।

प्रश्न 6. इंग्लैण्ड में किस प्रकार का शासन है?
उत्तर-इंग्लैण्ड में एकात्मक शासन है।

प्रश्न 7. अमेरिका में कैसा शासन पाया जाता है?
उत्तर-अमेरिका में संघात्मक शासन पाया जाता है।

प्रश्न 8. भारत में किस प्रकार का शासन पाया जाता है ?
उत्तर- भारत में संघात्मक शासन पाया जाता है।

प्रश्न 9. संघात्मक सरकार की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर-हेमिल्टन के अनुसार, “कुछ राज्यों के संयोजन से बने हुए नए राज्य को संघ कहते हैं।”

प्रश्न 10. संघात्मक सरकार की कोई एक विशेषता बताओ।
उत्तर-संघीय शासन प्रणाली में संविधान लिखित होता है।

प्रश्न 11. संघात्मक सरकार का कोई एक गुण बताओ।
उत्तर-संघीय सरकार निर्बल राज्यों की शक्तिशाली राज्यों से रक्षा करती है।

प्रश्न 12. संघात्मक सरकार का कोई एक दोष बताओ।
उत्तर-इसमें सरकार दुर्बल होती है।

प्रश्न 13. संघात्मक और एकात्मक सरकार में कोई एक भेद बताओ।
उत्तर-संघात्मक सरकार का संविधान लिखित होता है, परन्तु एकात्मक सरकार का संविधान अलिखित भी हो सकता है।

प्रश्न 14. एकात्मक शासन में सभी शक्तियां कहां पर केन्द्रित होती हैं ?
उत्तर-एकात्मक शासन में शक्तियां एक केन्द्रीय सरकार में केन्द्रित होती हैं।

प्रश्न 15. संघात्मक शासन में संविधान लिखित होता है, या अलिखित?
उत्तर-संघात्मक शासन में संविधान लिखित होता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 16. फैडरलिज्म शब्द किस भाषा से निकला है?
उत्तर-फैडरलिज्म शब्द लातीनी भाषा से निकला है।

प्रश्न 17. फोइडस (Foedus) का क्या अर्थ है?
उत्तर-फोइडस का अर्थ सन्धि अथवा समझौता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. एकात्मक सरकार में केन्द्र सुविधा के अनुसार ………. की स्थापना करती है।
2. ……….. सरकार जब चाहे प्रान्तों की सीमाएं घटा-बढ़ा सकती है।
3. एकात्मक सरकार ………… के समय उपयुक्त होती है।
4. आलोचकों के अनुसार केन्द्रीय सरकार में …….. आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती।
5. एकात्मक सरकार में केन्द्रीय सरकार का ………. बढ़ जाता है।
उत्तर-

  1. प्रान्तों
  2. केन्द्रीय
  3. संकटकाल
  4. स्थानीय
  5. कार्य।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. संघवाद को अंग्रेज़ी में फेडरलिज्म (Federalism) कहते हैं।
2. फेडरलिज्म शब्द लैटिन भाषा के शब्द फोईडस (Foedus) से बना है, जिसका अर्थ है, सन्धि अथवा समझौता।
3. संघात्मक सरकार झगड़े का परिणाम होती है।
4. संघात्मक सरकार में लिखित संविधान की आवश्यकता नहीं होती।
5. संघात्मक सरकार में संविधान का सर्वोच्च होना आवश्यक है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किस देश में एकात्मक शासन व्यवस्था पाई जाती है ?
(क) भारत
(ख) संयुक्त राज्य अमेरिका
(ग) स्विट्ज़रलैंड
(घ) जापान।
उत्तर-
(घ) जापान।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किस देश में संघात्मक शासन प्रणाली पाई जाती है ?
(क) इंग्लैंड
(ख) जापान
(ग) साम्यवादी चीन
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।
उत्तर-
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न 3.
यह किसने कहा है, “एक केन्द्रीय शक्ति के द्वारा सर्वोच्च शक्ति का प्रयोग किया जाना ही एकात्मक शासन है।”
(क) डॉ० फाइनर
(ख) लॉर्ड ब्राइस
(ग) डायसी
(घ) गैटेल।
उत्तर-
(ग) डायसी।

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “संघात्मक शासन राज्यों का एक समुदाय है, जोकि नए राज्य का निर्माण करता
(क) माण्टेस्कयू
(ख) डॉ० फाइनर
(ग) जैलीनेक
(घ) हैमिल्टन।
उत्तर-
(घ) हैमिल्टन।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर एक आलोचनात्मक नोट लिखो। (Write a critical note on the Preamble to the Indian Constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की क्या महत्ता है ? (What is the significance of the Preamble to the Constitution of India ?)
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है, हमारे देश के संविधान का मूल दर्शन (Basic Philosophy) हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है जिसे के० एम० मुन्शी ने राजनीतिक जन्मपत्री (Political Horoscope) का नाम दिया है।

प्रस्तावना (Preamble)-संविधान सभा ने 1947 में एक उद्देश्य सम्बन्धी प्रस्ताव पास किया था जिसमें उसने अपने सामने कुछ उद्देश्यों को रखा था और उसी प्रस्ताव के आधार पर संविधान का निर्माण हुआ। संविधान के बनने के बाद संविधान सभा ने प्रस्तावना सहित ही उस संविधान को स्वीकार किया। संविधान की प्रस्तावना में उन भावनाओं का वर्णन है, जो 13 दिसम्बर, 1946 को पं० जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) के तत्त्व थे। उद्देश्य प्रस्ताव में कहा गया है कि संविधान-सभा घोषित करती है कि इसका ध्येय व दृढ़ संकल्प भारत को सर्वप्रभुत्व सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाना है और इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल प्रस्तावना में किया गया है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके समाजवाद (Socialist), धर्म-निरपेक्ष (Secular) तथा अखण्डता (Integrity) के शब्दों को प्रस्तावना में अंकित किया गया है। हमारे वर्तमान संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है-

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने तथा समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा तथा अवसर की समता प्राप्त कराने और उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर, अपनी इस संविधान सभा में, आज 26 नवम्बर, 1949 ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, सम्वत् दो हज़ार छ: विक्रमी) को एतद् द्वारा, इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।

“We, the people of India, having solemnly resolved to constitute India into a Sovereign, Socialist, Secular, Democratic Republic, and to secure to all its citizens, Justice, social, economic and political liberty of thought, expression, belief, faith and worship, Equality of status and of opportunity, and to promote among them all, Fraternity assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation.

In our Constituent Assembly, this twenty-sixth day of November 1949, do hereby Adopt, Enact, and Give to ourselves this Constitution.”
संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है। जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध हो और उसका अर्थ स्पष्ट न हो तो न्यायालय उसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। वास्तव में प्रस्तावना को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वोत्तम व्याख्या हो सकती है। प्रस्तावना से हमें यह पता चलता है कि संविधान निर्माताओं की भावनाएं क्या थीं।

“प्रस्तावना संविधान बनाने वालों के मन की कुंजी है।”
सर्वोच्च न्यायालय के भू० पू० मुख्य न्यायाधीश श्री सुब्बाराव ने एक निर्णय देते हुए कहा था, “जिस उद्देश्य की प्राप्ति की संविधान से आशा की गई है, वह स्पष्ट रूप से इसकी प्रस्तावना में दिया गया है। इसमें इसके आदर्श तथा आकांक्षाएं निहित हैं।” इस प्रकार हमारे संविधान की प्रस्तावना के उद्देश्यों, लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा हमारे स्वप्नों का स्पष्ट पता चल जाता है। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर के अनुसार, संविधान की प्रस्तावना से संविधान के मूल दर्शन का ज्ञान होता है। संविधान सभा के सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने प्रस्तावना की सराहना करते हुए कहा था, “प्रस्तावना संविधान का सबसे मूल्यवान अंग है। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है। यह संविधान का रत्न है।” कुछ वर्ष पूर्व श्री० एन० ए० पालकीवाला ने सुप्रीमकोर्ट में 28वें और 29वें संशोधनों की आलोचना करते समय कहा था कि प्रस्तावना संविधान का एक अनिवार्य अंग है।

1973 में केशवानन्द भारती के मुकद्दमे के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि प्रस्तावना संविधान का अंग है।
वी० एन० शुक्ला (V.N. Shukla) ने प्रस्तावना के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है, “यह सामान्यतया राजनीतिक, नैतिक व धार्मिक मूल्यों का स्पष्टीकरण करती है जिन्हें संविधान प्रोत्साहित करना चाहता है।”
भारतीय संविधान की प्रस्तावना स्पष्ट रूप से तीन बातों पर प्रकाश डालती है-

(क) संवैधानिक शक्ति का स्रोत क्या है ? (ख) भारतीय शासन-व्यवस्था कैसी है ? (ग) संविधान के उद्देश्य या लक्षण क्या हैं ?
(क) संवैधानिक शक्ति का स्रोत (Source of Constitutional Authority)—प्रस्तावना से ही हमें पता चलता है कि इस संविधान को बनाने वाला कौन है। संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने पर लागू करने वाले भारत के लोग हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। प्रस्तावना इन्हीं शब्दों से आरम्भ होती है, “हम भारत के लोग………उस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।” ये शब्द इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता की सर्वोच्च शक्ति है। संविधान को विदेशी शक्ति ने भारतीयों पर नहीं लादा बल्कि जनता ही समस्त शक्ति का मूल स्रोत है।

(ख) भारतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप (Nature of Indian Constitutionl System)—संविधान की प्रस्तावना से हमें भारत की शासन व्यवस्था के स्वरूप का भी पता चलता है। प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाए जाने के लिए घोषणा की है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी व धर्म-निरपेक्ष शब्दों को अंकित किया गया है, अतः भारतीय शासन व्यवस्था की निम्नलिखित पांच विशेषताएं हैं

  1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)
  2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)
  4. भारत लोकतन्त्रीय राज्य है (India is a Democratic State)
  5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republic State)

(ग) संविधान के उद्देश्य (Objectives of the Constitution)—प्रस्तावना से इस बात का भी स्पष्ट पता चलता है कि संविधान द्वारा किन उद्देश्यों की पूर्ति की आशा की गई है। वे उद्देश्य कई प्रकार के हैं-

  • न्याय (Justice)-संविधान का उद्देश्य है कि भारत के सभी नागरिकों को न्याय मिले और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में नागरिकों के साथ अन्याय न हो। इस बहुमुखी न्याय से ही नागरिकों के जीवन का पूर्ण विकास सम्भव है और इसकी प्राप्ति लोकतन्त्रात्मक ढांचे से ही हो सकती है।
  • स्वतन्त्रता (Liberty)—प्रस्तावना में नागरिकों की स्वतन्त्रताओं का उल्लेख किया गया है, जैसे कि विचार रखने की स्वतन्त्रता, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छा और बुद्धि के अनुसार किसी भी बात में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छानुसार अपने इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता।
  • समानता (Equality)—प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है। प्रतिष्ठा की समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान हैं तथा सभी को कानून की समान सुरक्षा प्राप्त है। अवसर की समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर विकसित होने का समान अवसर प्राप्त है।
  • बन्धुत्व (Fraternity)-प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है।
  • प्रस्तावना में व्यक्ति के गौरव को बनाए रखने की घोषणा की गई है।
  • संविधान का उद्देश्य राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता को बनाए रखना है।

निष्कर्ष (Conclusion)-संविधान की प्रस्तावना सत्तारूढ़ दल के लिए, चाहे वह कोई भी हो, मार्गदर्शक का काम देती है और संविधान के विभिन्न उपबन्धों की व्याख्या करने और उसके बारे में उत्पन्न मतभेद या वाद-विवाद को सुलझाने में सहायता करती है। (“It is a key to open the minds of the maker.”) प्रस्तावना उद्देश्य है, जबकि संविधान उसकी पूर्ति का साधन है, इसलिए प्रस्तावना के महत्त्व को हम कम नहीं कर सकते। एम० वी० पायली (M.V. Pylee) के अनुसार, “प्रस्तावना संविधान की आत्मा है। इसमें भारतीय लोगों का एक संकल्प है कि वे मिलकर न्याय, स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृभाव के कार्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करेंगे।”

प्रश्न 2.
“भारत प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य है।” व्याख्या कीजिए।
(“India is a Sovereign Socialist, Secular, Democratic, Republic.” Explain and Discuss.)
उत्तर-
संविधान की प्रस्तावना से हमें भारत की शासन व्यवस्था के स्वरूप का पता चलता है। प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाए जाने की घोषणा की गई है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी व धर्म-निरपेक्ष शब्दों को अंकित किया गया है। इस प्रकार अब भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। ये पांचों शब्द भारतीय संवैधानिक प्रणाली के मुख्य आधार हैं-

  1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)
  2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)
  4. भारत लोकतन्त्रीय राज्य है (India is a Democratic State)
  5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republic State)

1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)-प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्वसम्पन्न राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। वह किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है। भारत न तो अब ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन है जैसा कि यह 15 अगस्त, 1947 से पहले था तथा न ही अधिराज्य अथवा उपनिवेश जैसा कि यह 15 अगस्त, 1947 से लेकर 26 जनवरी, 1950 तक रहा है। इसके विपरीत, भारत वैसे ही पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है जैसे कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, रूस आदि। किसी भी विदेशी शक्ति को इसकी विदेशी नीति तथा गृह-नीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। यह ठीक है कि भारत आज भी राष्ट्रमण्डल का सदस्य है, परन्तु इसकी सदस्यता स्वतन्त्रता पर कोई बन्धन नहीं है। भारत जब चाहे राष्ट्रमण्डल की सदस्यता को छोड़ सकता है।

भारत का संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य होना भी उसकी स्वतन्त्रता पर कोई प्रभाव नहीं डालता। भारत अपनी इच्छा से सदस्य बना है और जब चाहे इसकी सदस्यता को छोड़ सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत एक प्रभुत्त्व-सम्पन्न राज्य है और राष्ट्रमण्डल का सदस्य और संयुक्त राष्ट्र का सदस्य होने से इसकी प्रभुसत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)-42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके ‘समाजवादी’ (Socialist) शब्द अंकित किया गया है। समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही 42वें संशोधन के अन्तर्गत राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को मौलिक अधिकारों से श्रेष्ठ घोषित किया गया। सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए अनेक कदम उठाए हैं। 42वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में कुछ समाजवादी सिद्धान्त सम्मिलित किए गए हैं। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 39 (F) में यह लिखा गया है कि, “राज्य विशेष रूप से ऐसी नीति का निर्माण करे जिसके द्वारा……… बच्चों को स्वतन्त्रता तथा गौरव की अवस्थाओं में समग्र रूप में विकसित होने के लिए अवसर तथा सुविधाएं प्राप्त हो सकें तथा बच्चों तथा युवकों की रक्षा हो सके।” अनुच्छेद 39-A द्वारा निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था की गई है। इस धारा के अन्तर्गत आर्थिक पक्ष से कमज़ोर लोगों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था के लिए सरकार को निर्देश दिया गया।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

अनुच्छेद 43-A में यह व्यवस्था की गई है कि, “राज्य उचित कानूनी या किसी अन्य विधि से इस कानून के लिए प्रयत्न करेगा कि किसी उद्योग से सम्बन्धित कारोबार के प्रयत्न में अथवा अन्य संस्थाओं में श्रमिकों को भाग लेने का अवसर प्राप्त हो।”

श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए 20-सूत्रीय कार्यक्रम अपनाया और इस 20-सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने के लिए राज्यों को कड़े निर्देश दिए गए। 10 जून, 1976 को मास्को में एक सार्वजनिक सभा में भाषण देते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था, “हम एक ऐसे समाज का निर्माण करने के लिए यत्न कर रहे हैं जिनसे लोगों को राजनीतिक निर्णय करने तथा आर्थिक विकास में भाग लेने के पूर्ण अवसर प्राप्त होंगे। हम चाहेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति को गणना का एक अंक नहीं मिलेगा बल्कि एक विशेष व्यक्तित्व का स्वामी समझा जाये।”

मार्च, 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता पार्टी की सरकार ने स्पष्ट शब्दों में समाजवादी समाज की स्थापना करने की घोषणा की। जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री चन्द्रशेखर ने 1 मई, 1977 को जनता पार्टी की सभा में भाषण देते हुए समाजवादी समाज के निर्माण के लिये भरसक प्रयत्न करने की घोषणा की। श्री राजीव गांधी की सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए भरसक प्रयत्न किए और 20-सूत्रीय कार्यक्रम लागू करने के लिए राज्यों को कड़े निर्देश दिए थे।

3. भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)-42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द अंकित करके भारत को स्पष्ट शब्दों में धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, भारतीय संविधान में ऐसी ही व्यवस्था की गई है जो भारत को निःसन्देह धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाती है। भारत में सभी धर्म के लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता दी गई है। कोई व्यक्ति जिस धर्म को चाहे मान सकता है, धर्म का प्रचार कर सकता है और राज्य धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। राज्य किसी विशेष धर्म की किसी प्रकार की सहायता नहीं कर सकता।

4. भारत एक लोकतान्त्रिक राज्य है (India is a Democratic State)-संविधान की प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्रीय राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि शासन शक्ति किसी एक व्यक्ति या वर्ग विशेष के हाथों में नहीं बल्कि समस्त जनता के पास है। लोग शासन चलाने के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं और ये प्रतिनिधि अपने कार्यों के लिए समस्त जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म, सम्प्रदाय तथा जाति से सम्बन्धित हो, समान अधिकार दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को समाप्त करके संयुक्त चुनाव प्रणाली को अपनाया गया है। भारत में राजनीतिक प्रजातन्त्र की स्थापना के साथ-साथ प्रस्तावना में आर्थिक व सामाजिक प्रजातन्त्र की स्थापना का आदर्श भी प्रस्तुत किया गया है।

5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republican State)—प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ गणराज्य भी घोषित किया है। गणराज्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैण्ड व जापान गणराज्य नहीं है, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक है, परन्तु भारत एक गणराज्य है क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिये चुना जाता है। अत: भारत अमेरिका व स्विट्जरलैंड की तरह पूर्ण रूप से गणराज्य है।

कुछ लोगों का कहना है कि भारत की गणराज्य की स्थिति उसकी राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से मेल नहीं खाती है। आस्ट्रेलिया के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री सर राबर्ट मेन्ज़ीज़ (Sir Robert Menzies) ने 1949 में कहा था, “यह समझ नहीं आता कि भारत एक तरफ़ गणराज्य है और उसकी ब्रिटिश क्राऊन के प्रति कोई निष्ठा नहीं है। दूसरी तरफ़ वह राष्ट्रमण्डल का सदस्य है जिसकी ब्रिटिश क्राऊन के प्रति पूर्ण और अविच्छेद निष्ठा है।” परन्तु अब राष्ट्रमण्डल की वह स्थिति नहीं है जो पहले थी। अब यह ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के स्थान पर केवल राष्ट्रमण्डल है जिसके सदस्य स्वतन्त्र राज्य हैं जो पारस्परिक हितों के कारण एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। भारत का अध्यक्ष ब्रिटिश सम्राट् न होकर भारत का राष्ट्रपति है। भारतीयों की ब्रिटिश सम्राट् के प्रति कोई निष्ठा नहीं है, अतः राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत की गणराज्य की स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं डालती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। हमारे देश में संविधान का मूल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है। विश्व के अन्य संविधानों की तरह हमारे संविधान का आरम्भ भी प्रस्तावना से होता है। संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है। जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध हो और इसका अर्थ स्पष्ट न हो तो न्यायालय उसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। वास्तव में प्रस्तावना को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वोत्तम व्याख्या हो सकती है। प्रस्तावना से यह पता चलता है कि संविधान निर्माताओं की भावनाएं क्या थीं। चाहे यह संविधान का कानूनी अंग नहीं है फिर भी यह संविधान की कुंजी, संविधान की आत्मा और संविधान का रत्न है। इसीलिए के० एम० मुन्शी ने प्रस्तावना को राजनीतिक जन्म पत्री का नाम दिया है।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘गणराज्य’ शब्द की व्याख्या करो।
अथवा
गणराज्य शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ ‘गणराज्य’ भी घोषित किया गया है। ‘गणराज्य’ में राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैंड और जापान गणराज्य नहीं हैं, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक हैं, परन्तु भारत एक गणराज्य है, क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है। गणराज्य की परिभाषा करते हुए मिस्टर मैडीसन (Madison) ने कहा है कि, “गणराज्य एक ऐसी सरकार है जिसकी शक्तियों का स्रोत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जनता का महान् समूह है तथा जिसकी शक्तियों का प्रयोग उन लोगों द्वारा होता है जो अपने पद पर निश्चित समय के लिए जनता की प्रसन्नता या अपने सद्व्यवहार तक रहते हैं।” मैडीसन द्वारा दी गई परिभाषा भारत पर पूर्ण रूप से लागू होती है। भारत में सरकार की शक्तियों का अन्तिम स्रोत जनता है और शासन जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है। संविधान में संशोधन करने का अधिकार भी संसद् को दिया गया है। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मन्त्री, संसद् सदस्य, राज्यपाल आदि का कार्यकाल संविधान द्वारा निश्चित किया गया है।

प्रश्न 3.
सार्वभौमिक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संविधान की प्रस्तावना में भारत को सार्वभौमिक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाये रखने की घोषणा की गई है। सार्वभौमिक का अर्थ है कि भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है और वह किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है। प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्रीय राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि शासन शक्ति किसी एक व्यक्ति या वर्ग विशेष के हाथों में नहीं बल्कि समस्त जनता के पास है। लोग शासन चलाने के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं, प्रतिनिधि अपने कार्यों के लिये समस्त जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। प्रस्तावना में लोकतन्त्र के साथ-साथ गणराज्य भी घोषित किया गया है। भारत एक गणराज्य है क्योंकि राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है।

प्रश्न 4.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘सामाजिक’, ‘आर्थिक’ तथा ‘राजनीतिक न्याय’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सामाजिक न्याय (Social Justice) सामाजिक न्याय का अर्थ है कि किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, लिंग, रंग आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं होने दिया जाएगा। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए संविधान के तीसरे भाग में समानता का अधिकार दिया गया है।

आर्थिक न्याय (Economic Justice)-आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हों तथा उसके कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो। आर्थिक न्याय के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन के साधन कुछ व्यक्तियों के हाथों में नहीं होने चाहिएं। राष्ट्रीय धन पर सभी का नियन्त्रण और अधिकार समान होना चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्त दिए गए

राजनीतिक न्याय (Political Justice)—राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 5.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त बन्धुत्व’ की स्थापना का अर्थ एवं महत्त्व बताइए।
उत्तर-
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है। डॉ० अम्बेदकर के अनुसार, बन्धुत्व का तात्पर्य सभी भारतीयों में भ्रातृ-भाव है। उनके शब्दों में यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो सामाजिक जीवन को एकत्व एवं सुदृढ़ता प्रदान करता है। डॉ० अम्बेदकर के मतानुसार, “बिना बन्धुत्व के स्वतन्त्रता और समानता केवल ऊपरी रंग की तरह अधिक टिकाऊ नहीं रह सकती। स्वतन्त्रता और समानता और बन्धुत्व के उद्देश्यों को हम एक-दूसरे से पृथक नहीं कर सकते, बल्कि हमें इन तीनों को एक साथ लेकर चलना पड़ेगा।” साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद इत्यादि बुराइयों को तभी जड़ से उखाड़ कर फैंका जा सकता है जब सभी नागरिकों में बन्धुत्व की भावना पाई जाती हो।

प्रश्न 6.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त राष्ट्र की एकता’ और ‘अखण्डता’ शब्दों का महत्त्व बताइए।
उत्तर-
संविधान निर्माता अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति से अच्छी तरह वाकिफ थे। अंग्रेज़ों की इसी नीति के कारण भारत का विभाजन हुआ था। इसीलिए संविधान निर्माता भारत की एकता को बनाए रखने के लिए बड़े इच्छुक थे। अतः संविधान की प्रस्तावना में राष्ट्र की एकता को बनाए रखने की घोषणा की गई। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया गया, सभी नागरिकों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई, समस्त देश के लिए एक ही संविधान की व्यवस्था की गई तथा 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गई। 42वें संशोधन द्वारा राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता (Integrity) शब्द जोड़ा गया है।

प्रश्न 7.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘धार्मिक विश्वास, निष्ठा तथा उपासना की स्वतन्त्रता’ का क्या महत्त्व है ?
उत्तर–
प्रस्तावना में धार्मिक स्वतन्त्रता तथा धर्म-निरपेक्षता पर बल दिया गया है। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को किसी भी धर्म में विश्वास रखने तथा अपनी इच्छानुसार इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह जिस धर्म में चाहे, विश्वास रखे और अपने देवता या परमात्मा की जिस तरह चाहे पूजा करे। किसी भी नागरिक को कोई विशेष धर्म ग्रहण करने के लिए या किसी विशेष ढंग से पूजा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। राज्य को नागरिक के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। भारत के विभिन्न धर्मों के लोगों में सद्भावना एवं सहयोग की भावना को बनाए रखने के लिए धर्म की स्वतन्त्रता पर बल देना अति आवश्यक था।

प्रश्न 8.
42वें संवैधानिक संशोधन (1976) के द्वारा प्रस्तावना में कौन-कौन से परिवर्तन किए गए ?
उत्तर-
42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रस्तावना में प्रभुसत्ता सम्पन्न, लोकतन्त्रीय, गणतन्त्र शब्दों के स्थान पर, प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रीय, गणराज्य शब्द शामिल किए गए हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्र की एकता शब्द की जगह पर राष्ट्र की एकता और अखण्डता शब्द शामिल किए गए हैं।

प्रश्न 9.
प्रस्तावना के अनुसार भारत में शक्ति का स्रोत क्या है ?
उत्तर-
प्रस्तावना के अनुसार भारत में शक्ति का स्रोत संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने पर लागू करने वाले भारत के लोग हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। प्रस्तावना इन शब्दों से आरम्भ होती है, “हम भारत के लोग ……… इस संविधान को स्वीकृत, अधिनियमित और आत्म-अर्पित करते हैं। ये शब्द इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता ही सर्वोच्च शक्ति है। संविधान को किसी विदेशी शक्ति ने भारत पर नहीं थोपा है बल्कि यह सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत है।”

प्रश्न 10.
“भारत प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रीय गणराज्य है।” व्याख्या करो।
उत्तर-

  1. भारत पूर्ण रूप से प्रभुत्व सम्पन्न राज्य है। भारत अपने आन्तरिक मामलों और बाहरी मामलों में स्वतन्त्र है।
  2. संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत सरकार का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है।
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है। भारत का अपना कोई धर्म नहीं है। सभी नागरिकों को धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है।
  4. भारत में लोकतन्त्र है। शासन की सभी शक्तियों का स्रोत जनता है। शासन जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चलाया जाता है।
  5. भारत एक गणराज्य है। राष्ट्रपति भारत राज्य का अध्यक्ष है जोकि अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है।

प्रश्न 11.
प्रस्तावना में शामिल संविधान के उद्देश्य कौन-से हैं ?
उत्तर-
प्रस्तावना में शामिल संविधान के उद्देश्य इस प्रकार हैं-

  1. संविधान का उद्देश्य यह है कि सभी नागरिकों को न्याय मिले और जीवन के किसी भी क्षेत्र में नागरिकों के साथ अन्याय न हो।
  2. प्रस्तावना में नागरिकों की स्वतन्त्रता का उल्लेख किया गया है; जैसे-विचार प्रकट करने, विचार रखने, अपनी इच्छानुसार अपने इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता।
  3. प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है।
  4. प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। हमारे देश में संविधान का मल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है। विश्व के अन्य संविधानों की तरह हमारे संविधान का आरम्भ भी प्रस्तावना से होता है। संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘गणराज्य’ शब्द की व्याख्या करो।
उत्तर-
प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ ‘गणराज्य’ भी घोषित किया गया है। ‘गणराज्य’ में राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैंड और जापान गणराज्य नहीं हैं, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक हैं, परन्तु भारत एक गणराज्य है, क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. प्रस्तावना में किस प्रकार के न्याय का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. प्रस्तावना किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रस्तावना एक संविधान का आमुख होता है, जिसमें उसके कारणों एवं उद्देश्यों का वर्णन किया गया होता है।

प्रश्न 3. भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता दी गई है ?
उत्तर-भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 4. संविधान की प्रस्तावना में अखंडता’ शब्द किस संवैधानिक संशोधन द्वारा समाविष्ट किया गया है ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 5. संविधान में प्रस्तावना का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-संविधान की प्रस्तावना से संवैधानिक शक्ति के स्रोतों, भारतीय शासन व्यवस्था के स्वरूप एवं संविधान के उद्देश्यों का पता चलता है।

प्रश्न 6. भारतीय संविधान की मौलिक प्रस्तावना में भारत को क्या घोषित किया गया था?
उत्तर- भारतीय संविधान की मौलिक प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया था।

प्रश्न 7. भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरम्भ किससे होता है?
उत्तर- भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरम्भ ‘हम भारत के लोग’ से आरम्भ होता है।

प्रश्न 8. संविधान के उद्देश्य का वर्णन कहां पर होता है?
उत्तर-संविधान के उद्देश्य का वर्णन प्रस्तावना में होता है।

प्रश्न 9. कौन-से संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए हैं?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 10. भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को क्या घोषित करती है ?
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को प्रभुसत्ता संपन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, प्रजातन्त्रात्मक गणतन्त्र घोषित करती है।

प्रश्न 11. भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर किस देश के संविधान की प्रस्तावना का प्रभाव पड़ा?
उत्तर-अमेरिका।

प्रश्न 12. संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार किसके पास है?
उत्तर-संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार संसद् को है।

प्रश्न 13. संविधान की प्रस्तावना में अब तक कितनी बार संशोधन किया जा चुका है?
उत्तर-एक बार।

प्रश्न 14. प्रस्तावना में किस प्रकार के न्याय का वर्णन किया गया है?
उत्तर-प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 15. प्रस्तावना किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रस्तावना एक संविधान का आमुख होता है, जिसमें उसके कारणों एवं उद्देश्यों का वर्णन किया गया होता है।

प्रश्न 16. भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता दी गई है?
उत्तर-भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है।

प्रश्न 17. संविधान की प्रस्तावना में ‘अखंडता’ शब्द किस संवैधानिक संशोधन द्वारा समाविष्ट किया गया है?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत के संविधान का मूल दर्शन ……… में निहित है।
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना ………… से आरंभ होती है।
3. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद व धर्म-निरपेक्ष शब्द ………. द्वारा जोड़े गए हैं।
4. ………….. ने प्रस्तावना को जन्म-पत्री कहा है।
5. 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में ………. ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया।
उत्तर-

  1. प्रस्तावना
  2. हम भारत के लोग
  3. 42वें संशोधन
  4. के० एम० मुंशी
  5. पं० नेहरू।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत के संविधान का मूल दर्शन प्रस्तावना में निहित है।
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना “भारत एक गणराज्य है” से आरंभ होती है।
3. संविधान सभा में 1949 में एक उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव पास किया गया था, जिसमें उसने अपने सामने कुछ उद्देश्यों को रखा और उसी प्रस्ताव के आधार पर संविधान का निर्माण हुआ।
4. के० एम० मुंशी के अनुसार, प्रस्तावना संविधान बनाने वालों के मन की कुंजी है।
5. 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष तथा अखंडता के शब्दों को अंकित किया गया है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरंभ कैसे होता है ?
(क) हम भारत के लोग
(ख) भारत के लोग
(ग) भारत को संपूर्ण
(घ) भारत एक समाजवादी।
उत्तर-
(क) हम भारत के लोग

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 2.
संविधान के दर्शन में शामिल होते हैं-
(क) न्याय
(ख) स्वतंत्रता
(ग) समानता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
प्रभुत्व संपन्न कौन है ?
(क) लोकसभा
(ख) राष्ट्रपति
(ग) जनता
(घ) संविधान।
उत्तर-
(ग) जनता

प्रश्न 4.
संविधान के उद्देश्य का वर्णन कहां मिलता है ?
(क) प्रस्तावना में
(ख) मौलिक अधिकारों में
(ग) संकटकालीन धाराओं में
(घ) राज्यनीति के निर्देशक सिद्धांत में।
उत्तर-
(क) प्रस्तावना में।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
(Describe in brief the functions of the Judiciary.)
उत्तर-
न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है जिसका मुख्य कार्य विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करना तथा परस्पर झगड़ों को निपटाना है। इस अंग की कुशल व्यवस्था पर ही नागरिकों के हितों तथा अधिकारों की रक्षा निर्भर करती है। न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करते समय कई नए कानूनों को भी जन्म देती है। संघात्मक राज्यों में न्यायपालिका केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों के झगड़ों को निपटाती है तथा संविधान की रक्षा करती है। न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि शासन की कार्यकुशलता का अनुमान न्यायपालिका की कुशलता से ही लगाया जाता है।

लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) ने ठीक ही लिखा है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जांचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई अच्छी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और वस्तु का नागरिकों की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उसके इस ज्ञान से कि एक निश्चित, शीघ्र तथा निष्पक्ष न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है।” न्यायपालिका का कर्त्तव्य है कि वह अमीर अथवा गरीब, शक्तिशाली अथवा निर्बल, सरकारी अथवा गैर-सरकारी का भेदभाव किए बिना न्याय करे। जब किसी नागरिक पर अत्याचार होता है तो वह न्यायपालिका के संरक्षण में जाता है और इस विश्वास से जाता है कि उचित न्याय मिलेगा। प्रजातन्त्र राज्यों में न्यायपालिका का महत्त्व दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है क्योंकि न्यायपालिका को अनेक कार्य करने पड़ते हैं।

मैरियट (Merriot) ने ठीक ही लिखा है, “सरकार के जितने भी मुख्य कार्य हैं, न्याय कार्य उनमें निःसन्देह अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध नागरिकों से होता है। चाहे कानून बनाने की मशीनरी कितनी ही विस्तृत और वैज्ञानिक क्यों न हो, चाहे कार्यपालिका का संगठन कितना ही पूर्ण क्यों न हो, परन्तु फिर भी नागरिक का जीवन दुःखी हो सकता है तथा उसकी सम्पत्ति को खतरा उत्पन्न हो सकता है यदि न्याय करने में देरी हो जाए या न्याय में दोष रह जाए अथवा कानून की व्यवस्था पक्षतापूर्ण या भ्रामक हो।” गार्नर ने तो यहां तक लिखा है कि न्यायपालिका के बिना एक सभ्य राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न्यायपालिका के अभाव में चोरों, डाकुओं तथा अन्य शक्तिशाली शक्तियों का निर्बलों की सम्पत्ति पर कब्जा हो जाएगा और चारों ओर अन्याय का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। लोग कानूनों का ठीक प्रकार से पालन करें और दूसरों के अधिकारों का हनन न करें, इसके लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। इस लोकतन्त्रात्मक युग में न्यायपालिका के अभाव में किसी भी राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती।

न्यायपालिका के कार्य (Functions of Judiciary)-

न्यायपालिका के कार्य विभिन्न प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। संविधान की प्रकृति, राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप, न्यायपालिका के संगठन इत्यादि पर न्यायपालिका के कार्य निर्भर करते हैं। आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यता निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-

1. न्याय करना (To do Justice)न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। विधानमण्डल के बनाए गए कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है, परन्तु राज्य के अन्तर्गत कई नागरिक ऐसे होते हैं जो कानूनों का उल्लंघन करते हैं। कार्यपालिका ऐसे नागरिकों को पकड़कर न्यायपालिका के सामने पेश करती है ताकि कानून तोड़ने वाले नागरिकों को सज़ा दी जा सके। न्यायपालिका उन मुकद्दमों को सुनकर निर्णय करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकद्दमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं। अतः न्यायपालिका फौजदारी तथा दीवानी दोनों तरह के मुकद्दमों को सुनती है। न्यायपालिका व्यक्तियों के बीच हुए झगड़ों तथा सरकार और नागरिकों के बीच हुए झगड़ों का निर्णय करती है। न्यायपालिका न्याय करके नागरिकों को बुरे नागरिकों तथा सरकार के अत्याचारों से बचाती है।

2. कानून की व्याख्या करना (To Interpret Laws)-न्यायपालिका विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है। विधानमण्डल के बनाए हुए कानून कई बार स्पष्ट नहीं होते जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने लाभ के लिए उस कानून की व्याख्या करता है। अत: कानून की स्पष्टता की आवश्यकता पड़ती है। न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका द्वारा की गई कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इन्कार नहीं कर सकता। अमेरिका तथा भारत में न्यायपालिका को कानून की व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त है।

3. कानूनों का निर्माण (Making of Laws)-साधारणतया कानून निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कई नए अर्थों को जन्म देते हैं जिनसे कानून का अर्थ ही बदल जाता है और एक नए कानून का निर्माण हो जाता है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों की व्याख्या करते समय कई नए कानूनों को निर्माण किया है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जहां कानून बना नहीं होता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता, समानता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं। इस प्रकार न्यायपालिका कानूनों का निर्माण भी करती है।

4. संविधान का संरक्षक (Guardian of the Constitution)—जिन देशों में संविधान लिखित होता है वहां पर प्रायः संविधान को राज्य का सर्वोच्च कानून माना जाता है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका पर होती है। न्यायपालिका को अधिकार प्राप्त होता है कि यदि विधानपालिका कोई ऐसा कानून बनाए जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दे। न्यायपालिका की इस शक्ति को न्यायिक पुनर्निरीक्षण (Judicial Review) की शक्ति का नाम दिया गया है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को ही प्राप्त होता है। इस प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है। अमेरिका तथा भारत में न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार तथा न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है।

5. संघ का संरक्षक (Guardian of Federation)-जिन देशों में संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है वहां न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र तथा राज्य अपनी शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं। परन्तु कई बार केन्द्र तथा राज्यों के बीच कई प्रकार के झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन पारस्परिक झगड़ों का निर्णय न्यायपालिका के द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य होता है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के क्षेत्र में दखल दे।

6. व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण (Guardian of Individual Rights)-भारत, जापान, अमेरिका, कनाडा इत्यादि देशों के संविधानों में व्यक्ति के अधिकारों का वर्णन किया गया है। व्यक्ति के अधिकारों का संविधान में वर्णन ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि उन अधिकारों को लागू करना तथा उनको सुरक्षित करना और भी महत्त्वपूर्ण है। न्यायपालिका ही व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है तथा दूसरे व्यक्तियों अथवा सरकार को व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकती है, भारत में प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह सुप्रीम कोर्ट अथवा हाई कोर्ट के पास अपील कर सकता है यदि उसके किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ हो। सुप्रीम कोर्ट विधानमण्डल के कानूनों को भी रद्द कर सकती है यदि वे कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हों।

7. सलाह देना (Advisory Functions)-कई देशों में न्यायपालिका कानूनी मामलों में सलाह भी देती है। इंग्लैण्ड में प्रिवी-कौंसिल (Privy Council) की न्यायिक समिति से संवैधानिक समस्याओं पर परामर्श लिया जाता है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर सुप्रीम कोर्ट की सलाह ले सकता है, परन्तु सुप्रीम कोर्ट की सलाह मानना अथवा न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर करता है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को सलाह देने से इन्कार कर दिया है। कैनेडा का गवर्नर-जनरल भी कुछ बातों पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह ले सकता है।।

8. प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)-कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा निम्न न्यायालयों पर प्रशासकीय नियन्त्रण करती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

9. आज्ञा-पत्र जारी करना (To Act Injunctions and Writs of Mandamus)-न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे प्रमुख कार्य नहीं कर सकते और साथ ही कोई कार्य जिनके करने से लोग बचना चाहते हों, करवा सकती है। यदि वे कार्य न किए जाएं तो न्यायालयों का अपमान माना जाता है, जिस पर न्यायालय बिना अभियोग चलाए दण्ड दे सकता है। कई बार न्यायालय मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ़ रिकार्ड के कार्य (To Act as a Court of Record)-न्यायपालिका कोर्ट ऑफ़ रिकार्ड का भी कार्य करती है जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकद्दमों में निर्णयों तथा सरकार को दिए गए परामर्शों का रिकार्ड रखना पड़ता है। ये निर्णय तथा परामर्श की प्रतियां किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं।

11. विविध कार्य (Miscellaneous Functions)-न्यायपालिका उपरलिखित कार्यों के अतिरिक्त कुछ और भी कार्य करती है
(क) न्यायपालिका नाबालिगों की सम्पत्ति की देख-रेख के लिए संरक्षक (Trustee) नियुक्त करती है।
(ख) जब किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति के स्वामित्व के सम्बन्ध में झगड़ा उत्पन्न होता है, तब न्यायालय उस सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लेता है और उस समय तक प्रबन्ध करता है जब तक उस झगड़े का फैसला न हो जाए।
(ग) न्यायपालिका नागरिक विवाह (Civil Marriage) की अनुमति देती है। (घ) न्यायपालिका विवाह-विच्छेद (Divorce) के मुकद्दमे भी सुनती है। (ङ) शस्त्र इत्यादि रखने के लिए लाइसेंस जारी करती है।
(च) भारत में निर्वाचन सम्बन्धी अपीलें हाई कोर्ट सुनती है। उच्च अधिकारियों को शपथ दिलवाना न्यायपालिका का ही कार्य है।

निष्कर्ष (Conclusion)-किसी भी सरकार का न्यायपालिका अंग अपने कार्यों व शक्तियों का निर्धारण स्वयं नहीं करता। वह निर्धारण राज्य के संविधान और विधानपालिका के कानूनों द्वारा किया जाता है। इस कारण हर राज्य में न्यायपालिका के कार्य सदा एक समान नहीं होते। इसके अतिरिक्त एक प्रजातन्त्रात्मक ढांचे में न्यायपालिका को संविधान और लोगों के अधिकारों का रक्षक माना जाता है। अच्छे प्रजातन्त्र के आवश्यक तत्त्वों में निपुण और स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रमुख स्थान है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है ? यह किस तरह से प्राप्त की जा सकती है ?
(What is meant by ‘Independence of Judiciary’ ? How can it be secured ?)
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ (Meaning of Independence of Judiciary)-वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को निष्पक्षता तथा कुशलता से तभी कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं, जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि न्यायपालिका कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा नहीं कर सकेंगे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व (Importance of Independence of Judiciary)-आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा कर सकती है। अमीर-गरीब, शक्तिशाली, निर्बल, पढ़े-लिखे, अनपढ़ तथा सरकारी, गैर-सरकारी सभी को न्याय तभी मिल सकता है जब न्यायाधीश स्वतन्त्र हों। यदि न्यायाधीश विधानमण्डल के अधीन होंगे तो वे विधानमण्डल के कानूनों को असंवैधानिक घोषित नहीं कर सकेंगे और इस तरह वे संविधान की रक्षा नहीं कर सकेंगे। लोकतन्त्र की सफलता के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का होना आवश्यक है। माण्टेस्क्यू ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए ही शक्तियों का पृथक्करण का सिद्धान्त दिया ताकि सरकार के तीनों अंग स्वतन्त्र होकर कार्य कर सकें।

संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में केन्द्र तथा प्रान्तों में शक्तियों का विभाजन होता है। कई बार शक्तियों के विभाजन पर केन्द्र तथा प्रान्तों में झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन झगड़ों को निपटाने के लिए एक स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। बिना स्वतन्त्र न्यायपालिका के संघीय शासन सफलतापूर्वक चल ही नहीं सकता है।

अमेरिकन राष्ट्रपति टाफ्ट ने न्यायपालिका के महत्त्व के विषय में कहा है, “सभी मामलों में, चाहे वे व्यक्ति तथा राज्य के बीच में हों, चाहे अल्पसंख्यक वर्ग और बहुमत के बीच में हों, न्यायपालिका को निष्पक्ष रहना चाहिए और बिना किसी भय के निर्णय देना चाहिए।” डॉ० गार्नर (Garner) ने न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है, “यदि न्यायाधीशों में प्रतिभा और निर्णय देने की स्वतन्त्रता न हो तो न्यायपालिका का यह सारा ढांचा खोखला प्रतीत होगा और ऊंचे उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।” (“If judges lack wisdom, probity and freedom of decision, the high purposes for which the Judiciary is established cannot be realised.’) अत: व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान की रक्षा के लिए, संघ की सफलता के लिए, न्याय के लिए तथा लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने वाले तत्त्व (Factors that Establish the Independence of Judiciary)—प्रत्येक लोकतन्त्रीय राज्य में न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए कोशिश की जाती है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने के लिए निम्नलिखित तत्त्व सहायक हैं-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग (Mode of Appointment of Judges)-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनकी नियुक्ति किस ढंग से की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के तीन ढंग हैं
(क) जनता द्वारा चुनाव (Election by the People)
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव (Election by the Legislature)
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति (Appointment by the Executive)

(क) जनता द्वारा चुनाव-न्यायाधीशों की नियुक्ति के सब ढंगों में जनता द्वारा चुने जाने का ढंग सबसे अधिक दोषपूर्ण है। इसलिए यह पद्धति अधिक प्रचलित नहीं है।
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव-स्विट्ज़रलैण्ड तथा रूस में न्यायाधीशों का चुनाव विधानमण्डल द्वारा किया जाता है। यह पद्धति भी न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए उचित नहीं है।
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति-न्यायाधीशों की नियुक्ति का सबसे अच्छा ढंग कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति है। संसार के मुख्य देशों में इसी प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत में सुप्रीमकोर्ट तथा हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश राष्ट्रपति सीनेट की अनुमति से नियुक्त करता है। इंग्लैण्ड, कैनेडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अफ्रीका में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा ही की जाती है। यह प्रणाली इसलिए अच्छी समझी जाती है क्योंकि कार्यपालिका योग्य व्यक्तियों को नियुक्त कर सकती है। इससे राजनीतिक दलों का प्रभाव भी कम हो जाता है।

2. नौकरी की सुरक्षा (Security of Service) न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उनको नौकरी की सुरक्षा प्राप्त हो। उनको हटाने का तरीका काफ़ी कठिन होना चाहिए ताकि कार्यपालिका अपनी इच्छा से उन्हें न हटा सके। यदि न्यायाधीशों को नौकरी की चिन्ता रहेगी तो वह अपना कार्य कुशलतापूर्वक नहीं कर सकेंगे। यदि न्यायाधीशों को यह पता हो कि उन्हें तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक वे भ्रष्टाचारी साधनों का प्रयोग नहीं करते तो इससे वे बिना किसी डर के न्याय कर सकते हैं। न्यायाधीश कार्यपालिका के अत्याचारों के विरुद्ध तभी निर्णय दे सकते हैं जब उनकी अपनी नौकरी सुरक्षित हो और न्यायाधीश की नौकरी तभी सुरक्षित हो सकती है यदि उन्हें हटाने की विधि कठोर हो। इसलिए संसार के अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नौकरी को सुरक्षित रखा गया है ताकि वे स्वतन्त्र होकर अपना कार्य कर सकें। भारत में सुप्रीमकोर्ट तथा हाईकोर्ट के न्यायाधीश को राष्ट्रपति उसी समय हटा सकता है जब संसद् के दोनों सदन अपने कुल सदस्यों के उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से एक प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति से किसी न्यायाधीश को हटाने की सिफ़ारिश करते हैं।

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3. लम्बा कार्यक्रम (Long Tenure)-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों का कार्यक्रम काफ़ी लम्बा हो। यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल थोड़ा हो तो न्यायाधीश कभी भी स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष होकर कार्य नहीं कर सकते। जब न्यायाधीशों को कार्यकाल छोटा होता है तब न्यायाधीश रिश्वतें लेकर थोड़े समय में अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं। कार्यकाल थोड़ा होने की दशा में न्यायाधीशों को दोबारा न चुने जाने की चिन्ता रहती है। इसलिए न्यायाधीशों का कार्यकाल काफ़ी लम्बा होना चाहिए। इसके अतिरिक्त लम्बे कार्यकाल का यह भी होता है कि न्यायाधीशों को अपने कार्य का अनुभव हो जाता है जिससे वे अपने कार्य को अधिक कुशलतापूर्वक करते हैं। संसार के प्रायः सभी देशों में न्यायाधीशों को अपने कार्य का अनुभव हो जाता है जिससे वे अपने कार्य को अधिक कुशलतापूर्वक करते हैं। संसार के प्रायः सभी देशों में न्यायाधीशों का कार्यकाल काफ़ी लम्बा रखा जाता है। भारत में सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक तथा हाईकोर्ट के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक सदाचार पर्यन्त अपने पद पर बने रहते हैं। इंग्लैण्ड में न्यायाधीश सदाचार पर्यन्त अपने पद पर रहते हैं। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सदाचार के आधार पर जीवन भर अपने पद पर रहते हैं।

4. न्यायाधीशों को अच्छा वेतन तथा पैन्शन (Good Salary and Pension to Judges)-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें अच्छा वेतन मिले ताकि वे अपना गुजारा अच्छी तरह कर सकें और अपने जीवन स्तर को अपने पद के अनुसार रखें। यदि न्यायाधीशों को अच्छा वेतन नहीं मिलेगा तो वे अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचारी साधनों का प्रयोग करेंगे। भारतवर्ष में न्यायाधीशों को बहुत अच्छा वेतन मिलता है-सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रुपये तथा न्यायाधीशों को 2,50,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है जबकि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 2,50,000 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है।

अच्छे वेतन के अतिरिक्त न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन भी मिलनी चाहिए ताकि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् अपनी रोजी की चिन्ता न रहे। यदि उन्हें रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन न दी जाए तो इसका अर्थ होगा कि वे अपने कार्यकाल में अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने की कोशिश करेंगे ताकि रिटायर होने के पश्चात् उनका जीवन सुख से व्यतीत हो सके। इससे न्यायाधीश भ्रष्टाचार के रास्ते पर चलने लगेंगे। भारतवर्ष तथा अमेरिका में न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् अच्छी पैन्शन दी जाती है।

5. सेवा की शर्तों में हानिकारक परिवर्तन न होना (No change in the terms of their disadvantage)न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के पश्चात् उनकी हानि के लिए वेतन, पैन्शन, छुट्टियों के नियमों में कोई परिवर्तन न किया जाए।

6. न्यायाधीशों की उच्च योग्यताएं (High Qualifications of Judges)-न्यायाधीश तभी स्वतन्त्र रह सकते हैं जब उनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर हुई हो तथा न्यायाधीशों के लिए उच्च योग्यताएं निश्चित होनी चाहिएं। अयोग्य न्यायाधीश जिनकी नियुक्ति सिफ़ारिश पर की जाती है कभी भी निष्पक्ष नहीं रह सकते और न ही अपने कार्य को कुशलता से कर सकते हैं। यदि न्यायाधीशों को कानून का पूर्ण ज्ञान नहीं होगा तो वे चतुर वकीलों की बातों में आ जाएंगे और न्याय निष्पक्षता से नहीं कर पाएंगे। भारत में सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश वही व्यक्ति बन सकता है जो हाई कोर्ट में पांच वर्ष न्यायाधीश रहा हो अथवा दस वर्ष तक हाई कोर्ट में एडवोकेट रहा तो अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि में एक प्रसिद्ध कानूनज्ञाता हो।

7. रिटायर होने के पश्चात् वकालत की मनाही (No Practice after Retirement) न्याय की निष्पक्षता के लिए आवश्यक है कि उन्हें रिटायर होने के पश्चात् वकालत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् वकालत करने का अधिकार होगा तो इससे न्याय दूषित होगा। जब कोई न्यायाधीश रिटायर होने के पश्चात् कोर्ट के सामने वकील की हैसियत से पेश होता है तो उसके साथी न्यायाधीश उसका पक्षपात करेंगे, जिससे न्याय निष्पक्ष नहीं होगा। भारत में न्यायाधीश को वकालत करने की बिल्कुल मनाही है।

8. अवकाश प्राप्ति के पश्चात् न्यायाधीशों की सेवाओं पर प्रतिबन्ध (Restrictions on utilising services of Judges after Retirement) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् किसी भी प्रकार का राजकीय अथवा अर्द्ध-राजकीय पद नहीं दिया जाना चाहिए।

9. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण (Separation of Judiciary from the Executive)न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाये तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार न दिया जाये। यदि एक ही व्यक्ति के हाथों में कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियां दे दी जाएं तो वह उनका दुरुपयोग करेगा अर्थात् यदि मुकद्दमा चलाने वाला ही न्यायाधीश हो तो इससे नागरिकों को न्याय नहीं मिलेगा।

10. न्यायपालिका को व्यापक अधिकार (Sufficient Powers to Judiciary) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका को काफ़ी अधिकार प्राप्त हों। न्यायपालिका को साधारणतया विधानमण्डल तथा कार्यपालिका से निर्बल माना जाता है क्योंकि विधानमण्डल का नियन्त्रण देश के वित्त पर होता है जबकि कार्यपालिका का नियन्त्रण देश की शक्ति (सेना) पर होता है। इसलिए न्यायपालिका को सम्मान का स्थान देने के लिए आवश्यक हो जाता है कि इसको भी काफ़ी शक्तियां प्राप्त हों ताकि न्यायपालिका अपना कार्य स्वतन्त्रता से कर सके। अत: न्यायपालिका को विधानमण्डल के कानूनों को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

11. कार्य की स्वतन्त्रता (Liberty of Action)-न्यायाधीश को अपने कार्य में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। वे जब किसी भी मुकद्दमे का निर्णय कर रहे हों, किसी अन्य व्यक्ति को उनके काम में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों के कार्यों की सार्वजनिक आलोचना भी नहीं होनी चाहिए। भारत में प्रत्येक न्यायालय उनके काम में हस्तक्षेप करने वाले तथा उसका अनादर करने वाले के विरुद्ध स्वयं मुकद्दमा चला कर उसे दण्ड दे सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion) उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा की जाए। एक बार नियुक्ति करने पर उनका कार्यकाल सदाचारपर्यन्त लम्बा हो, उनको हटाने का तरीका कठिन हो, उसकी नियुक्ति के लिए उच्च योग्यताएं निश्चित हों, उन्हें अच्छा वेतन मिले तथा रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन दी जाए तथा न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाये। अतः ये सब तत्त्व मिल कर ही न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को कायम रख सकते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के चार कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-
न्यायपालिका के मुख्य तीन कार्य निम्नलिखित हैं

  1. न्याय करना-विधानमण्डल के बनाए गए कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है, परन्तु राज्य के अन्तर्गत कई नागरिक ऐसे भी होते हैं जो इन कानूनों का उल्लंघन करते हैं। कार्यपालिका ऐसे व्यक्तियों को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष पेश करती है। न्यायपालिका मुकद्दमों को सुनकर न्याय करती है।
  2. कानून की व्याख्या-न्यायपालिका, विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है। कई बार विधानमण्डल के बनाए हुए कानून स्पष्ट नहीं होते। अतः कानूनों की स्पष्टता की आवश्यकता पड़ती है। तब न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या कर उन्हें स्पष्ट करती है।
  3. कानूनों का निर्माण-साधारणतया कानूनों का निर्माण विधानपालिका के द्वारा किया जाता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानूनों की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कई नए अर्थों को जन्म देते हैं जिससे उस कानून का अर्थ ही बदल जाता है और एक नए कानून का निर्माण होता है।
  4. संविधान का संरक्षक-न्यायपालिका संविधान की संरक्षक मानी जाती है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ तथा महत्त्व लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ-वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलता एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व-आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा कर सकती है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में विभाजन होता है। कई बार शक्तियों के विभाजन पर केन्द्र और राज्यों में झगड़ा हो जाता है। इन झगड़ों को निपटाने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए कोई चार शर्ते लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका को निम्नलिखित तथ्यों द्वारा स्वतन्त्र बनाया जा सकता है-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनकी नियुक्ति किस ढंग से की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के क्रमश: तीन ढंग हैं-
    (1) जनता द्वारा चुनाव (2) विधानमण्डल द्वारा चुनाव (3) कार्यपालिका द्वारा चुनाव। न्यायाधीशों की नियुक्ति का सबसे अच्छा ढंग कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति है।
  2. नौकरी की सुरक्षा-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें नौकरी की सुरक्षा प्राप्त हो। उन्हें हटाने का तरीका काफ़ी कठिन होना चाहिए ताकि वे निष्पक्षता और कुशलता से अपना कार्य कर सकें।
  3. लम्बा कार्यकाल-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों का कार्यकाल लम्बा हो। यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल थोड़ा होगा तो वे कभी भी स्वतन्त्रतापूर्वक एवं निष्पक्षता से अपना कार्य नहीं कर सकेंगे।
  4. अच्छा वेतन-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है, कि उन्हें अच्छा वेतन मिले।

प्रश्न 4.
बंदी उपस्थापक अथवा प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
‘हैबियस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।’ (Let us have the body.) इस आदेश के अनुसार, न्यायालय किसी अधिकारी को, जिसने किसी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसके गिरफ्तारी के कानूनों का औचित्य अथवा अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने का आदेश दे सकता है।

प्रश्न 5.
परमादेश लेख (Writ of Mandamus) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
‘मैण्डमस’ शब्द लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है, “हम आदेश देते हैं” (We Command)। इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाधित कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसे कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

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प्रश्न 6.
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से क्यों खास महत्त्व दिया जाता है ?
उत्तर-
न्यायपालिका को राज्य सरकार के तीनों अंगों में विशेष महत्त्व प्राप्त होता है। ब्राइस के अनुसार, “यदि किसी राज्य के प्रशासन की जानकारी आप को प्राप्त करनी है तो आपके लिए यह आवश्यक है कि आप वहां की न्यायपालिका का अध्ययन करें और यदि न्याय व्यवस्था अच्छी व सुचारु है तो प्रशासन बढ़िया है।” न्यायपालिका को निम्नलिखित कारणों द्वारा खास महत्त्व प्राप्त है-

  • न्यायपालिका संविधान की रक्षक है।
  • न्यायपालिका लोगों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करती है।
  • जिन देशों में संघात्मक शासन प्रणाली है वहां न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में काम करती है।
  • न्यायपालिका विधानमण्डल के बनाए कानूनों की व्याख्या करती है।
  • कई देशों में न्यायपालिका कानूनी मामलों में सलाह भी देती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के दो कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-

  1. न्याय करना-न्यायपालिका मुकद्दमों को सुनकर न्याय करती है।
  2. कानून की व्याख्या-न्यायपालिका, विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका स्वतन्त्रता का अर्थ लिखें।
उत्तर-
वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलता एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बुल्जे के अनुसार, “संविधान उन नियमों का समूह है, जिनके अनुसार सरकार की शक्तियां, शासितों के अधिकार तथा इन दोनों के आपसी सम्बन्धों को व्यवस्थित किया जाता है।”

प्रश्न 2. संविधान के कोई दो रूप/प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. विकसित संविधान
  2. निर्मित संविधान।

प्रश्न 3. विकसित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो संविधान ऐतिहासिक उपज या विकास का परिणाम हो, उसे विकसित संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 4. लिखित संविधान किसे कहते हैं ? ।
उत्तर-लिखित संविधान उसे कहा जाता है, जिसके लगभग सभी नियम लिखित रूप में उपलब्ध हों।

प्रश्न 5. अलिखित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-अलिखित संविधान उसे कहते हैं, जिसकी धाराएं लिखित रूप में न हों, बल्कि शासन संगठन अधिकतर रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं पर आधारित हो।

प्रश्न 6. कठोर एवं लचीले संविधान में एक अन्तर लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान की अपेक्षा लचीले संविधान में संशोधन करना अत्यन्त सरल है।

प्रश्न 7. लचीले संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर- लचीला संविधान समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 8. किसी एक विद्वान् का नाम लिखें, जो लिखित संविधान का समर्थन करता है?
उत्तर-डॉ० टॉक्विल ने लिखित संविधान का समर्थन किया है।

प्रश्न 9. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता।

प्रश्न 10. एक अच्छे संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-संविधान स्पष्ट एवं सरल होता है।

प्रश्न 11. अलिखित संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-यह समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 12. अलिखित संविधान का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-अलिखित संविधान में शक्तियों के दुरुपयोग की सम्भावना बनी रहती है।

प्रश्न 13. लिखित संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान निश्चित तथा स्पष्ट होता है।

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प्रश्न 14. लिखित संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान समयानुसार नहीं बदलता।

प्रश्न 15. जिस संविधान को आसानी से बदला जा सके, उसे कैसा संविधान कहा जाता है ?
उत्तर-उसे लचीला संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 16. जिस संविधान को आसानी से न बदला जा सकता हो, तथा जिसे बदलने के लिए किसी विशेष तरीके को अपनाया जाता हो, उसे कैसा संविधान कहते हैं ?
उत्तर-उसे कठोर संविधान कहते हैं। प्रश्न 17. लचीले संविधान का एक दोष लिखें। उत्तर-यह संविधान पिछड़े हुए देशों के लिए ठीक नहीं।

प्रश्न 18. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान निश्चित एवं स्पष्ट होता है।

प्रश्न 19. कठोर संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान क्रान्ति को प्रोत्साहन देता है।

प्रश्न 20. शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Power) का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया?
उत्तर-शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त मान्टेस्क्यू ने प्रस्तुत किया।

प्रश्न 21. संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कौन हैं ?
उत्तर-संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कार्ल-मार्क्स हैं।

प्रश्न 22. संविधानवाद के मार्ग की एक बड़ी बाधा लिखें।
उत्तर-संविधानवाद के मार्ग की एक बाधा युद्ध है।

प्रश्न 23. अरस्तु ने कितने संविधानों का अध्ययन किया?
उत्तर-अरस्तु ने 158 संविधानों का अध्ययन किया।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………. संविधान उसे कहा जाता है, जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके।
2. जिस संविधान को सरलता से न बदला जा सके, उसे …………… संविधान कहते हैं।
3. लिखित संविधान एक ……………. द्वारा बनाया जाता है।
4. ……………. संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
5. ……………. में क्रांति का डर बना रहता है।
उत्तर-

  1. लचीला
  2. कठोर
  3. संविधान सभा
  4. अलिखित
  5. लिखित संविधान।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अलिखित संविधान अस्पष्ट एवं अनिश्चित होता है।
2. लचीले संविधान में क्रांति की कम संभावनाएं रहती हैं।
3. कठोर संविधान अस्थिर होता है।
4. एक अच्छा संविधान स्पष्ट एवं निश्चित होता है।
5. कठोर संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कठोर संविधान का गुण है
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता
(ख) संघात्मक राज्य के लिए उपयुक्त नहीं है
(ग) समयानुसार नहीं बदलता
(घ) संकटकाल में ठीक नहीं रहता।
उत्तर-
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता

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प्रश्न 2.
एक अच्छे संविधान का गुण है-
(क) संविधान का स्पष्ट न होना
(ख) संविधान का बहुत विस्तृत होना
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय
(घ) बहुत कठोर होना।
उत्तर-
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय

प्रश्न 3.
“संविधान उन नियमों का समूह है, जो राज्य के सर्वोच्च अंगों को निर्धारित करते हैं, उनकी रचना, उनके आपसी सम्बन्धों, उनके कार्यक्षेत्र तथा राज्य में उनके वास्तविक स्थान को निश्चित करते हैं।” किसका कथन है ?
(क) सेबाइन
(ख) जैलिनेक
(ग) राबर्ट डाहल
(घ) आल्मण्ड पावेल।
उत्तर-
(ख) जैलिनेक

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से एक अच्छे संविधान की विशेषता है-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित
(ख) अस्पष्टता
(ग) कठोरता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

PSEB 11th Class Geography Guide हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व Textbook Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न तु (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिंद महासागर का विस्तार बताएँ।
उत्तर-
7 करोड़ 80 लाख वर्ग किलोमीटर।

प्रश्न 2.
हिंद महासागर विश्व के महासमुद्री क्षेत्र का कितने प्रतिशत है ?
उत्तर-
20.9%.

प्रश्न 3.
कौन-से महाद्वीप हिंद महासागर के तटों को छूते हैं ?
उत्तर-
एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 4.
हिंद महासागर के पश्चिम की ओर के किन्हीं दो छोटे सागरों के नाम बताएँ।
उत्तर-
लाल सागर और अरब सागर।

प्रश्न 5.
हिंद महासागर में मिलने वाली धातुओं की गाँठें बताएँ।
उत्तर-
मैंगनीज़, तांबा और कोबाल्ट।

प्रश्न 6.
हिंद महासागर के तट पर मिलने वाले तेल क्षेत्र बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी कच्छ, खंबात की खाड़ी, मुंबई हाई।

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अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न – (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
भू-राजनीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय संबंधों के बारे में भूगोल के योगदान और विश्लेषण के तरीके को भू-राजनीति कहते हैं।

प्रश्न 2.
कौन-से देशांतर हिंद महासागर की सीमाएँ हैं ?
उत्तर-
दक्षिणी गोलार्द्ध में कैपटाऊन का लंबकार 18°82′ पूर्व हिंद महासागर को भौगोलिक पक्ष से अंध महासागर से और तस्मानिया प्रायद्वीप का दक्षिण-पूर्वी लंबकार 147° पूर्व, प्रशांत महासागर से अलग करता है।

प्रश्न 3.
हिंद महासागर को ‘ग्रेट रेस बेस’ क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
भू-राजनीतिक महत्ता के कारण सभी बड़ी शक्तियाँ इस क्षेत्र पर कब्जा करने में लगी हुई हैं।

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प्रश्न 4.
हिंद महासागर को ‘तृतीय विश्व का हृदय’ क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
पूर्वी भागों को तृतीय विश्व या ‘तीसरी दुनिया’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में हिंद महासागर एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक मार्ग है, इसलिए इस महत्त्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग के कारण इसे ‘तृतीय विश्व का हृदय’ कहा जाता है।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न । (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिंद महासागर की उसके पड़ोसी देशों के साथ सीमाएँ बताएँ।’ .
उत्तर-
विश्व के तीन महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के तटीय किनारे इस महाद्वीप को छूते हैं, जबकि यह महासागर अपने उत्तर की ओर एशियाई धरती से बंद है, परंतु दक्षिण की ओर इसका खुला प्रसार है। अंतर्राष्ट्रीय हाइड्रोग्राफिक ऑर्गेनाइजेशन (आई० एच० ओ०) अंटार्कटिका के तट को हिंद महासागर का दक्षिणी सिरा मानती है। विश्व की कुल तट रेखा का 40% भाग हिंद महासागर के तटों को छूता है।

प्रश्न 2.
हिंद महासागर के पास वाले कम गहरे सागरों के नाम बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर में कई ऐसे कम गहरे सागर शामिल हैं, जो पास वाले तटीय क्षेत्रों को छूते हैं। इनमें मैलागासी सागर, लक्षद्वीप सागर, लाल सागर, अदन की खाड़ी, अरब की खाड़ी, ओमान की खाड़ी, अरब सागर, पाक जलडमरू, सुवा सागर, तिमौर सागर, अराफरा सागर, कारपैंटरिया की खाड़ी के टोर जलडमरू, ऐगज़माऊथ खाड़ी, ऑस्ट्रेलियाई धुंडी, स्पैंसर खाड़ी और बास जलडमरू आदि शामिल हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 3.
हिंद महासागर के आस-पास कितने देश हैं ?
उत्तर-
हिंद महासागर के आस-पास 38 + 15 + 15 देश पड़ते हैं, जो हिंद महासागरीय रिम ऐसोसिएशन (Indian Ocean Rim Association) की ओर से संगठित हैं। इनमें अफ्रीका के 13, मध्य पूर्व (Middle East) के 11, दक्षिणी एशिया के 5, दक्षिण-पूर्वी एशिया के 5, पूर्वी तिमोर, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस तथा बर्तानिया के कब्जे वाले क्षेत्र शामिल हैं।

प्रश्न 4.
हिंद महासागर में अलग-अलग संकरे मार्ग बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर में पड़ते अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मार्गों में कम-से-कम 7 संकरे मार्ग आते हैं-

  1. मोजंबिक चैनल,
  2. बाब-अल-मेंडर,
  3. सुएज़ या स्वेज़ नदी,
  4. स्ट्रेट ऑफ होरमूज,
  5. मलाका स्ट्रेट,
  6. सूंदा स्ट्रेट,
  7. लोबोक स्ट्रेट।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिंद महासागर के नक्शे और विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर का उत्तरी क्षेत्र ऐतिहासिक और कार्य शैली के पक्ष से बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह पूर्वी और पश्चिमी भागों से कई सँकरे जल डमरुओं (Straits) से जुड़ा हुआ है। पश्चिम में लाल सागर और अरब की खाड़ी तथा पूर्व में मलाका जल डमरू, तिमौर सागर और अराफरा सागर इसके अंग हैं।

विशेषताएं-हिंद महासागर की अपनी अलग विलक्षण विशेषताएँ हैं-

  1. सुदूर दक्षिणी भाग को छोड़कर बाकी सारे महासागर का जल न केवल गर्म और शांत है, बल्कि यहाँ बहती हवाओं का वेग भी अनुमान से बहुत अधिक भटकता नहीं।
  2. सर्दी और गर्मी की बदलती ऋतु में हवाओं की बदलती दिशा, हवाओं के वेग द्वारा गहराई वाले सागरों में जहाज़रानी को आसान कर देती है।
  3. हिंद महासागर में किसी विरोधी (विपरीत) धारा का प्रवाह भी नहीं है।
  4. ‘रोरिंग फोर्टीज़’ नामक पश्चिमी वायु, जो 40° दक्षिण की ओर चलती है, गुड होप जल डमरू से ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट तक सागरीय जहाजरानी में बहुत सहायक सिद्ध होती है।

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प्रश्न 2.
हिंद महासागरों के प्राकृतिक साधनों का वर्णन करें।
उत्तर-
हिंद महासागर विभिन्न प्राकृतिक साधनों से भरपूर है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
1. समुद्री समूह-समुद्री समूह में रेत, बजरी और शैल (खोल) के समूह मिलते हैं, जो किसी-न-किसी रूप में निर्माण कार्यों के लिए प्रयोग किए जाते हैं। ये समूह महाद्वीपीय शैल्फों पर मिलते हैं।

2. प्लेसर-प्लेसर समूहों में मिलने वाले वे खनिज हैं, जो सागरीय रेत और बजरी में मिलते हैं। ये भारी और लचकीले रासायनिक विशेषताओं वाले खनिज होते हैं, जो खनिज पदार्थों के अपरदन के कारण सागरीय जल में शामिल हो जाते हैं। इन खनिजों में सोना, टिन, प्लास्टिक, टाइटेनियम, मैग्नेटाइट (लोहा), जिरकोनियम बोरियम और रत्न आदि शामिल हैं।

3. बहु-धात्वीय गाँठे-समुद्र में ऐसी गाँठें भी मिलती हैं, जो अनेक धातुओं के मिश्रण से बनी होती हैं। हिंद महासागर में मैंगनीज़, तांबा, गिल्ट (निकल) और कोबाल्ट आदि धातुओं का मिश्रण अधिक मात्रा में पाया जाता है।

4. मैंगनीज़ गाँठे-ये धात्वीय गाँठें सबसे पहले 1872-76 के दौरान चैलेंजर की वैज्ञानिक यात्रा के दौरान खोजी गई, परंतु इनका खोज कार्य 1950 के दशक के अंत में ही आरंभ किया जा सका। संयुक्त राष्ट्र ने भारत को हिंद महासागर के डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से ही बहु धात्वीय गाँठे निकालने की अनुमति दी है। हिंद महासागर की गोद में फास्फेट, बेरीयम सल्फेट, तांबा, कोबाल्ट, कच्चा लोहा, बॉक्साइट, सल्फर आदि भी मिलता है। मैंगनीज़ की गाँठे समुद्री फर्श पर सतह से 2 से 6100 मीटर की गहराई तक मिलती हैं।

5. तेल और गैस-हिंद महासागर की महाद्वीपीय शैल्फ खनिज तेल से भरपूर है। वर्तमान समय में, कुल तेल और गैस के उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा सागरीय भंडारों से आता है और 75 से अधिक देश समुद्रों में से तेल और गैस उत्पन्न करते हैं। भारत के नज़दीकी क्षेत्र कच्छ की शैल्फ, खंबात की खाड़ी और मुंबई हाई खनिज तेल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र हैं, जबकि आंध्र प्रदेश के तट से परे समुद्र में स्थित कृष्णा-गोदावरी बेसिन प्राकृतिक गैस के बड़े स्रोत के रूप में प्रसिद्ध है। विश्व-भर में खनिज तेल और गैस के उत्पादन के लिए अरब की खाड़ी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस खाड़ी की विशेषता यह भी है कि यह सागर से थोड़ा हटकर है। कम गहरी है और आने वाली कठिनाइयाँ भी कम हैं। सऊदी अरब, कुवैत, बहरीन, कतार, संयुक्त अरब अमीरात (यू०ए०ई०), इरान और इराक इस खाड़ी से सबसे अधिक लाभ लेने वाले देश हैं।

प्रश्न 3.
हिंद महासागर की भू-राजनीति और समस्याएँ बताएँ।
उत्तर-
भू-राजनीति (Geo-Politics)-हिंद महासागर की भू-राजनीति कुछ प्राथमिक बिंदुओं के आस-पास घूमती है, जोकि इस प्रकार हैं-

  1. ऋतु परिवर्तन
  2. ध्रुवीकरण और उत्जीविता समीकरण
  3. प्राकृतिक संसाधनों का विकास
  4. आर्थिक विकास पर बेरोक आपूर्ति तंत्र

समस्याएँ-

  1. हिंद महासागर के सभी क्षेत्रों में व्यापारिक जहाज़रानी पर डकैतियाँ।
  2. व्यापक साधनों का विकास, विशेष रूप से खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, खनिज पदार्थों और मछलियों के रूप में फैली आर्थिकता के पक्ष।
  3. हिंद महासागर के निकट के तटीय क्षेत्रों में, समुद्री जल में बंदरगाहों के निर्माण पर राजनीतिक और वित्तीय परिणाम।
  4. क्षेत्रीय और गैर-क्षेत्रीय देशों की ओर से हिंद महासागर में जल-सेना शक्ति का प्रदर्शन।

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प्रश्न 4.
चीन की ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज’ कूटनीति का वर्णन करें।
उत्तर-
स्टरिंग ऑफ पर्लज़ (String of Pearls) वास्तव में चीन की ओर से अपने खनिज तेल के व्यापार को सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह एक राजनीतिक युक्ति है। चीन अपने बढ़ रहे भू-राजनीतिक प्रभाव को समर्थ बनाने के लिए कूटनीति संबंधों द्वारा सुरक्षा-शक्ति को ही ताकतवर नहीं बना रहा, बल्कि अपनी बंदरगाहों और हवाई अड्डों की सुरक्षा की ओर भी विशेष ध्यान दे रहा है। चीन की यह कोशिश दक्षिण चीन सागर से स्वेज़ नदी तक प्रसार करने की है, जिसमें मलाका स्ट्रेट, स्ट्रेट ऑफ होरमूज़, अरब की खाड़ी और लाल सागर सहित सारे हिंद महासागर में अड्डे बनाना शामिल है। चीन का ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज़’ इन व्यापारिक समुद्री भागों में से होकर गुजरता है और भविष्य में एशियाई ऊर्जा स्रोतों तक पहुँचने का सपना देखता है।

भारत ने सन् 1971 से 1999 तक मलाका स्ट्रेट पर पाबंदी लगाकर चीन और पाकिस्तान के बीच पनपते स्वतंत्र समुद्री संबंधों पर रोक लगा दी थी। ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज़’ की नीति वास्तव में चीन की ओर से हिंद महासागर में हर . प्रकार के व्यापारिक संबंधों को बिना मानव हस्तक्षेप के और भारत के स्वतंत्र अस्तित्व’ को प्रभाव मुक्त करने के लिए अपनाई है। यद्यपि चीन का मानना है, “हम सभी का महासागर पर समान रूप से अधिकार है, इस पर किसी एक का अधिकार नहीं है। हम किसी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन नहीं करेंगे और न ही किसी ताकत का प्रदर्शन करेंगे और न ही किसी अन्य देश के साथ ईर्ष्या को बढ़ावा देंगे।”

पर्लज़ (चीनी अड्डे)

  1. हांगकांग (विस्तृत प्रशासकीय क्षेत्र)
  2. हैनान का टापू (टांगकिंग की खाड़ी)
  3. वूडी टापू
  4. स्पार्टा टापू (छ: देश-चीन, वियतनाम, ताईवान, मलेशिया, फिलीपाइन्ज़ और बरुनी के अधीन)
  5. कैमपोंग सोम
  6. कराह ईस्थमस-थाईलैंड
  7. म्यांमार के कोको टापू
  8. म्यांमार का तटीय शहर सितवें
  9. बांग्लादेश में चिट्टागांग
  10. श्रीलंका में हंबनटोटा
  11. मालद्वीप में हाराओ अतोल
  12. पाकिस्तान (बलोचिस्तान) में गवाडर
  13. ईराक में अल-अहदाब
  14. कीनिया में लामू
  15. सूडान में उत्तरी बंदरगाह (North Port)

प्रश्न 5.
भारत की ओर से चीन की ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज़’ नीति का क्या जवाब दिया गया ?
उत्तर-
भारतीय जल सेना और भारतीय जल सैनिक राजनीतियों/कूटनीतियों के पक्ष को सामने रखते हुए सन् 2007 में एक दस्तावेज़ ‘इंडियन मेरीटाईम डॉक्टरिन’ जारी किया, जिसमें भारतीय जल सेना ने ‘स्ट्रेट ऑफ होरमूज़’ से ‘मलाका स्ट्रेट’ तक भारतीय जल सेना की भरपूर गतिविधियों की बात की गई। इस दस्तावेज़ में अंतर्राष्ट्रीय समुद्री व्यापारिक मार्गों की पुलिस की देख-रेख और तंग समुद्री मार्गों पर पूर्ण नियंत्रण की बात की गई। पिछले दो दशकों के दौरान भारत ने अपनी विदेश नीति के अंतर्गत हिंद महासागर के आस-पास के देशों में अपने हितों का विशेष ध्यान रखते हुए मारीशस, मालदीव, सिसली और मैडगास्कर के द्वीपीय देशों और दक्षिणी अफ्रीका, तंजानिया और मोजम्बिक आदि देशों के साथ अपने संबंधों में प्रसार किया है।

भारतीय जल सेना के पास अति आधुनिक हाइड्रोग्राफिक (जल सर्वेक्षण और चित्रकारी) कैडर है, जिसमें पूरे उपकरणों से युक्त सर्वेक्षणीय समुद्री जहाज़, कई सर्वेक्षणीय किश्तियाँ, देहरादून में विश्व-स्तर के इलैक्ट्रॉनिक चार्ट तैयार करने की सुविधा और गोवा में एक हाइड्रोग्राफिक प्रशिक्षण स्कूल है। चीन की तरह ही भारत अपनी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए खनिज तेल के आयात पर निर्भर करता है। भारत का 89% के लगभग खनिज तेल समुद्री जहाज़ के मार्ग से भारत तक पहुँचता है, जो भारत की कुल ऊर्जा की ज़रूरतों की 33% पूर्ति करता है। इसलिए प्रमुख समुद्री मार्गों की सुरक्षा सबसे अहम् आर्थिक ज़रूरत बन जाती है। इतिहास साक्षी है कि भारत शुरू से ही हिंद महासागर में डकैती और आतंकी कार्रवाइयों का सदा से ही तीखा विरोधी रहा है।

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प्रश्न 6.
महासागरों संबंधी बनाए गए U.N.O. के कानूनों का वर्णन करें।
उत्तर-
महासागरों संबंधी कानूनों के बारे में संयुक्त राष्ट्रीय सम्मेलन (UNCOLS)—सन् 1972 से 1982 तक सागरों संबंधी अंतर्राष्ट्रीय नियमावली और कानून बनाने हेतु संयुक्त राष्ट्र की ओर से करवाए गए सम्मेलनों के दौरान तीसरे सम्मेलन के सम्मुख आए अंतर्राष्ट्रीय समझौते को समुद्री सम्मेलनों का कानून भी कह दिया जाता है। इस कानून के अंतर्गत विश्व-भर के महासागरों की पूर्ति करने हेतु राष्ट्रों के अधिकार और कर्तव्य तय कर दिए गए हैं, वित्तीय कार्यवाही के लिए नियमावली बना दी गई है और समुद्री प्राकृतिक साधनों के प्रबंध के लिए अनिवार्य आदेश जारी कर दिए गए हैं। यू० एन० कोल्ज़ (UNCOLS) सन् 1994 में लागू हुआ और इस सम्मेलन में अगस्त 2014 में, 165 देश और यूरोपीय संघ शामिल हुए। सम्मेलन के दौरान कई नियम भी लागू किए गए, जिनमें से महत्त्वपूर्ण थे-सीमा निर्धारण, जहाजरानी नियम, द्वीप समूहों के अधिकार-क्षेत्र और यातायात नियम, विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ), महाद्वीपीय शैल्फ की सीमाएँ, समुद्री फर्श पर खनन के नियम, समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा, विज्ञान अन्वेषण और झगड़ों के निपटारे संबंधी नियम। सम्मेलन के दौरान कई क्षेत्रों में सीमाएँ निर्धारित की गई हैं या परिभाषित की गईं।

1. बेस लाइन-निम्न जल रेखा या वह सीधी रेखा, जो गहरे तटीय क्षेत्रों में चट्टानी भित्तियों को जोड़ती है।

2. आंतरिक (Internal) जल-क्षेत्र-तट के निकट का वह जल-क्षेत्र जो बेस लाइन और तट के बीच हो। इस क्षेत्र के लिए संबंधित देश ही नियम तय करता है, लागू करता है और यहाँ के साधनों का प्रयोग करता है। विदेशी जहाजों और किश्तियों को किसी भी अन्य देश के आंतरिक जल-क्षेत्र में आने-जाने की आज्ञा नहीं होती।

3. क्षेत्रीय (Territorial) जल-क्षेत्र-बेस लाइन से 12 नाटीकल मील (सड़क के 22 किलोमीटर या 14 मील) तक का क्षेत्र क्षेत्रीय जल-क्षेत्र होता है जिसके बारे में तटीय देश को नियम-कानून बनाने का अधिकार होता है और वह प्राकृतिक साधनों का प्रयोग भी कर सकता है। शांतमयी ढंग से गुजरने वाले विदेशी जहाज़ों और किश्तियों को भी इस क्षेत्र में से गुज़रने की अनुमति होती है, जबकि युद्ध नीति रखने वाले महत्त्वपूर्ण स्ट्रेटों (जल-डमरुओं) में से गुजरने वाले युद्धपोतक नावों को आज्ञा लेनी पड़ती है।

4. टापू-समूह (आरकीपिलाजिक) जल-क्षेत्र-सम्मेलन के दौरान द्वीप समूही जल-क्षेत्र की परिभाषा चौथे भाग (अध्याय) में दी गई, जिसमें किसी देश को अपनी क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करने के लिए आधार भी परिभाषित किए गए। द्वीप-समूहों में से सबसे बाहरी द्वीप के सबसे बाहरी भागों को जोड़ती एक बेस लाइन खींच ली जाती है और इस रेखा के अंदर आते जल-क्षेत्र को द्वीप-समूह जल-क्षेत्र का नाम दिया जाता है। किसी भी देश को अपने इस जल-क्षेत्र संबंधी संपूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त होती है।

5. निकटवर्ती (Contiguous) जल-क्षेत्र-किसी भी तट से 12 नाटीकल मील (22 किलोमीटर) की सीमा से आगे 12 नाटीकल मील की सीमा तक के जल-क्षेत्र को निकटवर्ती जल-क्षेत्र माना जाता है। इस क्षेत्र में कोई भी देश चार विषयों-निर्यात शुल्क, शुल्क निर्धारण, आवास नियम और प्रदूषण संबंधी अपने नियम लागू कर
सकता है।

6. विशेष आर्थिक क्षेत्र (Exclusive Economic Zone)-किसी भी देश की बेस लाइन से आगे, क्षेत्रीय जल-क्षेत्र में और आगे 200 नाटीकल मील (370 किलोमीटर या 230 मील) तक का जल-क्षेत्र विशेष आर्थिक क्षेत्र होता है, जहाँ के प्राकृतिक साधनों के प्रयोग के सभी अधिकार तटीय देशों के पास सुरक्षित होते हैं।

7. महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)—महाद्वीपीय शैल्फ को किसी भी थल-क्षेत्र का प्राकृतिक विस्तार माना जाता है, जोकि भू-क्षेत्र से महाद्वीपीय तट के बाहरी सिरे तक या फिर 200 नाटीकल मील किलोमीटर) में से जो अधिक हो, तक माना जाता है। किसी स्थान पर यदि महाद्वीपीय शैल्फ कम हो तो उसका जल-क्षेत्र 200 नाटीकल मील तक माना ही जाएगा।

8. समुद्री कानून संबंधी अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल (आई० ई० एल० ओ० एस०)-यह ट्रिब्यूनल नियम-कानूनों की व्यवस्था के अतिरिक्त मछली पकड़ने संबंधी नियमों और विशेषकर समुद्री वातावरण के झगड़ों के निपटारे संबंधी कार्य करता है।

9. अंतर्राष्ट्रीय समुद्री थल अथॉरिटी (International Sea-Bed Authority – I.S.A) – missing अधिकारित जल-क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र, जोकि अंतर्राष्ट्रीय समुद्री थल का क्षेत्र माना जाता है, में खनिज पदार्थों संबंधी और अन्य नियंत्रण अथवा संगठन के लिए अंतर-सरकारी टीम तैयार की गई है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय समुद्री थल अथॉरिटी के नाम से जाना जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
व्यवस्थापिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
(Describe the functions of a legislature.)
अथवा
आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य में विधानमण्डल के कार्यों का वर्णन करें।
(Describe the functions of the legislature in a modern democratic state.)
उत्तर-
सरकार के तीनों अंगों में से विधानपालिका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। विधानपालिका राज्य की इच्छा को कानून के रूप में निर्मित करती है। कार्यपालिका विधानपालिका के बनाए हुए कानूनों को लागू करती है तथा न्यायपालिका इन कानूनों की व्याख्या करती है। इस प्रकार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका अपने कार्यों के लिए विधानमण्डल पर निर्भर करती हैं। इसलिए विधानमण्डल का कार्यपालिका तथा न्यायपालिका से महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि इसी का देश के वित्त पर नियन्त्रण होता है।

विधानमण्डल के कार्य देश की शासन प्रणाली पर निर्भर करते हैं। लोकतन्त्रीय राज्यों में विधानमण्डल को प्रायः निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं :

1. कानून निर्माण का कार्य (Law Making Functions)—विधानमण्डल का प्रथम कार्य कानूनों का निर्माण करना है। विधानमण्डल देश की परिस्थितियों के अनुसार तथा नागरिकों की आवश्यकताओं के अनुसार कानूनों का निर्माण करता है। विधानमण्डल जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है और जनता की इच्छा विधानमण्डल के कानूनों में ही प्रकट होती है। आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्यों में कानून का मुख्य स्रोत विधानमण्डल है।

2. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-लोकतन्त्र राज्यों में विधानमण्डल का कार्यपालिका पर थोड़ा बहुत नियन्त्रण अवश्य होता है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपने समस्त कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होती है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं और मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे विधानमण्डल का विश्वास प्राप्त हो। अविश्वास प्रस्ताव पास होने की दशा में मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ता है। विधानमण्डल के सदस्य मन्त्रियों से अनेक प्रश्न पूछ सकते हैं और मन्त्रियों को पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते हैं। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका प्रत्यक्ष तौर पर विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं होती। फिर भी विधानमण्डल का कार्यपालिका पर थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को बड़ी-बड़ी नियुक्तियां करने तथा सन्धियां करने के लिए सीनेट की अनुमति लेनी पड़ती है। सीनेट विधानमण्डल का ऊपरी सदन है।

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3. वित्त पर नियन्त्रण (Control over Finance)-संसार के प्रायः सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में वित्त पर विधानमण्डल का नियन्त्रण होता है। कार्यपालिका विधानमण्डल की अनुमति के बिना एक पैसा खर्च नहीं कर सकती। विधानमण्डल प्रति वर्ष बजट पास करती है। टैक्स लगाना, टैक्सों में संशोधन करना तथा करों को समाप्त करना विधानमण्डल का ही कार्य है।

4. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-कई देशों में विधानपालिका को न्यायिक कार्य भी करने पड़ते हैं। अमेरिका में विधानमण्डल राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति पर महाभियोग चला कर उन्हें पद से हटा सकता है। भारत में भी संसद् राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति को महाभियोग के द्वारा हटा सकती है। कैनेडा में तलाक के मुकद्दमे विधानमण्डल द्वारा सुने जाते हैं। स्विट्ज़रलैंड में क्षमादान का अधिकार विधानमण्डल के पास है।

5. संविधान में संशोधन (Amendment in the Constitution) सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में संविधान में संशोधन करने का अधिकार विधानमण्डल के पास है। कुछ देशों में संविधान में संशोधन साधारण बहुमत से किया जा सकता है। जबकि कुछ देशों में संशोधन करने के लिए विशेष विधि अपनाई जाती है। इंग्लैण्ड में संसद् संविधान में साधारण बहुमत से संशोधन कर सकती है। हमारे देश में संसद् को संविधान की कुछ धाराओं को दो-तिहाई बहुमत से संशोधन करने के लिए आधे राज्यों की अनुमति की भी आवश्यकता होती है।

6. चुनाव-सम्बन्धी कार्य (Electoral Functions)-विधानमण्डल चुनाव सम्बन्धी कार्य भी करती है। भारतवर्ष में राष्ट्रपति का चुनाव संसद् के दोनों सदनों के चुने हुए राष्ट्र तथा प्रान्तों की विधानसभाओं के सदस्य मिलकर करते हैं। उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद् के दोनों सदन मिलकर करते हैं। इंग्लैण्ड में विधानमण्डल का निम्न सदन अपने स्पीकर का चुनाव करता है। स्विट्ज़रलैण्ड में कार्यपालिका के सदस्यों का चुनाव विधानमण्डल के द्वारा ही किया जाता है।

7. जांच-पड़ताल सम्बन्धी कार्य (Investigating Functions)-व्यवस्थापिका महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक मामलों की छानबीन करने के लिए विशेषज्ञों की समितियां नियुक्त करती है। ये समितियां निश्चित समय के अन्दर अपनी रिपोर्ट व्यवस्थापिका के सामने पेश करती हैं। व्यवस्थापिका इन रिपोर्टों पर विचार करती है और व्यवस्थापिका का निर्णय अन्तिम होता है।

8. विदेश नीति पर नियन्त्रण (Control over Foreign Policy)-व्यवस्थापिका राज्य के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की देखभाल भी करती है। मन्त्रिमण्डल को अपनी विदेश नीति विधानमण्डल से पास करानी पड़ती है। गणतन्त्रात्मक राज्यों में कोई भी युद्ध या सन्धि उस समय तक नहीं की जा सकती जब तक विधानमण्डल की उस विषय में राय न ले ली जाए।

9. लोगों की शिकायतें दूर करना (Redressal of the Grievences of the People)-आजकल लोकतन्त्र के युग में विधानमण्डल लोगों की शिकायतों को जोकि प्रशासन के विरुद्ध हों, दूर करने के प्रयत्न भी करता है। विधानमण्डल में जनता के प्रतिनिधि होते हैं। जनता को जो भी शिकायत, कठिनाई या समस्या हो, वह अपने प्रतिनिधियों के पास भेज देते हैं। प्रतिनिधि उन्हें विधानमण्डल में प्रस्तुत करते हैं, उनके बारे में मन्त्रियों से प्रश्न भी पूछते हैं और प्रयत्न करते हैं कि वह कठिनाई या समस्या हल हो या शिकायत दूर हो। जनता के पास सरकार के विरुद्ध आवाज़ उठाने का यह एक बहुत बड़ा प्रभावशाली साधन है।

10. विचारशील कार्य (Deliberative Functions)-व्यवस्थापिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य राजनीतिक मामलों
और शासन सम्बन्धी नीतियों पर विचार-विमर्श और वाद-विवाद करना है। किसी भी विषय पर कानून बनाने से पहले अथवा निर्णय लेने से पूर्व उस पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया जाता है। व्यवस्थापिका में विभिन्न हितों, वर्गों और सम्प्रदायों के प्रतिनिधि होते हैं तथा सभी को अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होती है।

11. अन्य कार्य (Other Functions) विधानपालिका देश के आर्थिक विकास की योजनाओं की स्वीकृति देती है। सरकारी निगमों की स्थापना के लिए कानून बनाती है। कार्यपालिका के किसी एक सदस्य या समस्त मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध लगे आरोपों की जांच-पड़ताल करने के लिए जांच कमीशन नियुक्त करती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-इस प्रकार आधुनिक राज्य में व्यवस्थापिका को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है और इसे कानून बनाने के अतिरिक्त प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखने के अधिकार भी दिए जाते हैं। प्रायः सभी देशों में युद्ध और शान्ति की घोषणा व्यवस्थापिका की स्वीकृति से ही की जा सकती है। लोकतन्त्र में इसको सर्वोच्च स्थान मिलना स्वाभाविक ही है।

प्रश्न 2.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्था के लाभ तथा हानियों की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
(Examine critically advantages and disadvantages of the bicameral system.)
अथवा
द्विसदनीय विधानमण्डल के लाभ तथा हानियों का वर्णन कीजिए। (Explain the merits and demerits of the bicameral system.)
उत्तर-
विधानमण्डल सरकार के तीनों अंगों में से सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। संसार के प्रायः सभी देशों में विधानमण्डल पाया जाता है, परन्तु इसके संगठन पर बहुमत में मतभेद पाया जाता है अर्थात् इस प्रश्न पर कि क्या विधानमण्डल के दो सदन होने चाहिएं अथवा एक सदन होना चाहिए, काफ़ी मतभेद पाया जाता है। जॉन स्टुअर्ट मिल, सर हैनरी मेन तथा लेकी आदि लेखकों ने विधानमण्डल के दो सदनों का समर्थन किया है। परन्तु बेन्थम, अबेसियस तथा बैंजमिन फ्रैंकलिन आदि लेखकों ने विधानमण्डल के एक सदन का समर्थन किया है।

जिस प्रकार लेखकों के विचारों में भिन्नता पाई जाती है, उसी प्रकार व्यवहार में कई देशों में विधानमण्डल के दो सदन हैं जबकि कुछ देशों में एक सदन है। इंग्लैंण्ड, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, स्विट्ज़रलैण्ड, जापान, स्वीडन, नार्वे तथा भारतवर्ष में विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं। पहले सदन को निम्न सदन तथा दूसरे सदन को उपरि सदन कहा जाता है। परन्तु चीन, तुर्की तथा पुर्तगाल में एक सदन पाया जाता है। भारत के कई राज्यों में जैसे कि राजस्थान, नागालैण्ड, उड़ीसा, केरल, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी बंगाल तथा पंजाब में एक सदन पाया जाता है जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, जम्मूकश्मीर आदि राज्यों में द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका है। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले दो सदन के पक्ष में तथा विपक्ष में दिए गए तर्कों का अध्ययन करना आवश्यक है।

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द्विसदनात्मक विधानमण्डल के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Bicameralism)-

द्विसदनात्मक विधानमण्डल के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं :

1. दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है (Second Chamber checks the Despotism of the Lower House)—जिस देश में एक सदन होता है वहां पर सदन निरंकुश बन जाता है। यह साधारणतः कहा जाता है कि “शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट करती है और निरंकुश सत्ता उसे पूर्णतया भ्रष्ट कर देती है।” एक सदन का यही हाल होता है। जिस दल का सदन में बहुमत होता है वह अपनी मनमानी करता है और अल्प-संख्यकों पर अत्याचार करता है। पहले सदन की निरंकुशता को रोकने के लिए दूसरे सदन का होना आवश्यक है। दूसरा सदन पहले सदन को मनमानी करने से रोकता है और इस प्रकार नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।

2. दूसरा सदन अविचारपूर्ण तथा जल्दी में पास किए गए कानूनों को रोकता है (Second Chamber prevents the Hasty and Ill considered Legislation)-दूसरा सदन पहले सदन द्वारा जल्दी में पास किए बिलों को कानून बनने से रोकता है। बहुमत दल जनता से किए गए वायदों को पूरा करने के लिए जोश में आकर विभिन्न कानून पास कर देता है। पहले सदन के पास अधिक समय कम होने के कारण बिल जल्दबाजी में पास कर दिए जाते हैं। दूसरा सदन पहले सदन के द्वारा जल्दबाजी तथा अविचारपूर्ण पास किए गए बिलों को कुछ समय के लिए रोक लेता है जिससे जनता की राय का पता चलता है।

3. यह बिलों को दोहराने वाला सदन है (It is a Revisory Chamber)-दूसरा सदन पहले सदन द्वारा पास हुए बिलों को दोहराता है और विधेयक में रह गई त्रुटियों को दूर करता है। वास्तव में किसी विषय को दोहराना कोई बुरी बात नहीं है। ब्लंटशली (Bluntschli) ने ठीक कहा है कि “दो आंखों की अपेक्षा चार आंखें अच्छी तरह देखती हैं। विशेषतः जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया जाना हो।”

4. दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है (Second Chamber Saves the time of the Lower House)-एक सदन के पास इतना अधिक कार्य होता है कि प्रत्येक बिल पर पूर्ण विचार करके पास करना असम्भव है। दूसरे सदन में विवादहीन तथा विरोध-हीन बिलों को पेश किया जाता है, इन बिलों पर पूर्ण रूप से विचार करने के पश्चात् बिल को पहले सदन के पास भेज दिया जाता है। पहला सदन इन बिलों को शीघ्र ही पास कर देता है। इस प्रकार दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है।

5. दूसरा सदन विशेष हितों और अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आवश्यक है (Second Chamber is essential for giving Representation to Special Interests and Minorities)-दूसरे सदन का होना आवश्यक है ताकि विशेष वर्गों तथा अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जा सके। इसके अतिरिक्त प्रत्येक देश में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो चुनाव लड़ना पसन्द नहीं करते पर उनकी योग्यता की देश को आवश्यकता होती है। ऐसे योग्य व्यक्तियों की योग्यता का लाभ तभी उठाया जा सकता है जब विधानमण्डल का दूसरा सदन हो। इन योग्य व्यक्तियों को दूसरे सदन में नामजद किया जाता है।

6. दूसरा सदन संघात्मक राज्यों के लिए अनिवार्य है (Second Chamber is essential in Federal Form of Government) संघात्मक सरकार की सफलता के लिए दूसरा सदन अनिवार्य है ताकि दूसरे सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देकर सब इकाइयों के हितों की रक्षा की जा सके। ऐसे सिद्धान्त अमेरिका तथा स्विट्ज़रलैण्ड आदि देशों में हैं। अमेरिका में प्रत्येक इकाई उपरि सदन में दो सदस्य भेजती है।

7. दूसरा सदन अधिक स्थायी (Second Chamber is more Stable)-दूसरा सदन पहले सदन की अपेक्षा अधिक चिरस्थायी होता है। इंग्लैण्ड का लॉज सदन तो पैतृक है। कनाडा के सीनेट के सदस्य जीवन भर के लिए मनोनीत होते हैं और भारत में राज्य सभा के एक-तिहाई (1/3) सदस्य प्रत्येक दो वर्ष के पश्चात् रिटायर होते हैं और निचले सदन की अवधि केवल 5 वर्ष की है इसलिए दूसरे सदन के सदस्य अधिक अनुभवी होते हैं। ऐसे सदस्य अपने अनुभव के आधार पर कानून में अच्छे-अच्छे सुझाव दे सकते हैं।

8. द्वि-सदनीय विधानमण्डल जनमत का अच्छी तरह प्रतिनिधित्व करता है (Bicameral Legislature better reflects the Public Opinion)-विधानमण्डल के दोनों सदन मिलकर जनमत का अच्छी तरह प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। एक सदन जनमत का ठीक प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। निम्न सदन की अवधि प्राय: चार अथवा पांच वर्ष होती है और कई बार सदन को अवधि से पूर्व भी भंग कर दिया जाता है। परन्तु दूसरा सदन अधिक स्थायी होता है। जब निम्न सदन को भंग कर दिया जाता है तब जनता का प्रतिनिधित्व दूसरा सदन करता है। इसके अतिरिक्त निम्न सदन कई बार अपनी अवधि समाप्त होने से पहले ही पुराना हो जाता है और परिवर्तित जनमत का प्रतिनिधित्व ठीक तरह से नहीं करता। परन्तु उपरि सदन के सदस्य कुछ समय पश्चात् रिटायर होते रहते हैं तथा उनके स्थान पर नए सदस्यों का चुनाव किया जाता है जो परिवर्तित जनमत का प्रतिनिधित्व करते हैं।

9. द्वि-सदनीय विधानमण्डल कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करता है (Bicameral Legislature gives more Independence to the Executive)-द्वि-सदनीय विधानमण्डल में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। कार्यपालिका अपना कार्य तभी कुशलता से कर सकती है जब उसे कार्य करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। कई बार कार्यपालिका को अपनी नीतियों को एक सदन में समर्थन प्राप्त नहीं होता पर यदि दूसरे सदन में उनका समर्थन प्राप्त हो जाए तो वे अपना कार्य विश्वास से कर सकते हैं। इससे कार्यपालिका की निर्भरता एक सदन पर नहीं रहती। कार्यपालिका दो सदनों के होने से अधिक स्वतन्त्र हो जाती है।

10. दूसरे सदन में उच्च स्तर के भाषण होते हैं (High Quality of Speeches in Second Chamber)दूसरे सदन के भाषणों का स्तर निम्न सदन की अपेक्षा ऊंचा होता है। इसके दो कारण हैं

  • निम्न सदन के सदस्यों के बोलने के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगे हुए होते हैं। परन्तु उपरि सदन के सदस्यों के बोलने पर कम प्रतिबन्ध होते हैं और उन्हें बोलने के लिए भी काफ़ी समय मिल जाता है। भाषण की स्वतन्त्रता होने के कारण सदस्य अपने विचारों को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट करते हैं और उनके भाषण का स्तर काफ़ी ऊंचा होता है।
  • दूसरे सदन में अनुभवी व्यक्ति होते हैं।

11. देरी करने की उपयोगिता (Utility of delaying Power)-दूसरे सदन के बिलों को पास करने में देरी लगाने की अपनी विशेष उपयोगिता है। दूसरा सदन विधेयकों को पास करने में इतनी देरी लगा देता है, जिससे जनता को उस विधेयक पर सोच-विचार करने तथा मत प्रकट करने के लिए समय मिल जाता है।

12. ऐतिहासिक समर्थन (Historical Support)-दूसरे सदन की उपयोगिता का समर्थन इतिहास द्वारा भी किया जाता है। इंग्लैण्ड में 1649 ई० में क्रामवैल (Cromwell) ने लार्ड सदन को समाप्त कर दिया, परन्तु 1660 ई० में लार्ज़ सदन को पुनः स्थापित किया गया। अमेरिका में स्वतन्त्रता के पश्चात् एक सदनीय विधानमण्डल की स्थापना की गई थी, परन्तु वह ठीक कार्य न कर सका जिसके फलस्वरूप 1787 ई० के संविधान के अन्तर्गत में द्वि-सदनीय प्रणाली को अपनाया गया। इंग्लैण्ड, भारत, फ्रांस, अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड, कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि सभी देशों में संसद् के दो-दो सदन हैं। इतिहास दूसरे सदन के पक्ष में है, इसके विरुद्ध नहीं।

दूसरे सदन के विपक्ष में तर्क (Arguments against Second Chamber)-

बहुत से विद्वानों का यह मत है कि दूसरा सदन आवश्यक नहीं। दूसरे सदन के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

1. जनता की इच्छा एक है, दो नहीं (People have Only One Will not Two)—एक सदन के समर्थकों के अनुसार किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं। जनता या तो किसी विषय के पक्ष में होगी या विपक्ष में। जनमत को इसलिए एक सदन ही अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकता है और वह एक सदन निचला सदन है क्योंकि निचले सदन में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं।

2. दूसरा सदन या तो व्यर्थ है या शरारती (Second Chamber is either Mischievous or Superfluous)अबेसियस ने कहा है “यदि उपरि सदन निम्न सदन से सहमत हो जाता है तो व्यर्थ है और यदि विरोध करता है तो शरारती है”। कहने का अभिप्राय यह है कि उपरि सदन निम्न सदन के प्रत्येक बिल को पास कर देता है तो उसका लाभ नहीं होता। इस प्रकार उपरि सदन व्यर्थ है। यदि उपरि सदन निम्न सदन के रास्ते में रुकावटें करता है अर्थात् बिल को पास नहीं करता तो वह शरारती है।

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3. गतिरोध की सम्भावना (Possibility of Deadlocks)-विधानमण्डल के दूसरे सदन का यह भी दोष होता है कि दोनों सदनों में गतिरोध की सम्भावना रहती है। दोनों सदनों में गतिरोध की सम्भावना उस समय और भी बढ़ जाती है जब एक सदन में एक दल का बहुमत हो और दूसरे सदन में किसी अन्य राजनीतिक दल का।

4. कानून जल्दी में पास नहीं किए जाते (Laws are not passed in Hurry)-दूसरे सदन के समर्थकों का यह कहना है कि एक सदन होने से कानून जल्दी तथा उतावलेपन में पास होते हैं, ठीक नहीं है। एक सदन में बिल पूर्ण सोच-विचार करने के पश्चात् कानून बनाया जाता है। बिल को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। उदाहरणस्वरूप भारत तथा इंग्लैण्ड में बिल पास होने से पूर्व तीन वाचन (Three Readings) होते हैं। बिल को कमेटी स्टेज से भी गुज़रना पड़ता है। जब बिल को सदन पास कर देता है तब बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

5. उपरि सदन निम्न सदन की निरंकुशता को नहीं रोकता (Second Chamber does not check the Despotism of the First Chamber)-द्वि-सदनीय विधान मण्डल के समर्थकों के अनुसार दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है परन्तु यह ठीक नहीं है। निम्न सदन को बहुत शक्तियां प्राप्त होती हैं जिनकी वजह से निम्न सदन जिस बिल को चाहे, पास कर सकता है। दूसरा सदन पहले सदन को बिल पास करने से नहीं रोकताहां, बिल को पास करने में कुछ देर कर सकता है। इंग्लैण्ड में हाऊस ऑफ लार्ड्स साधारण बिल को एक वर्ष के लिए रोक सकता है जबकि धन बिल को केवल 30 दिन के लिए रोक सकता है। भारत में राज्यसभा धन बिल को 14 दिन के लिए रोक सकती है। साधारण बिलों पर भी राज्यसभा की शक्ति लोक सभा से कम ही है।

6. संघात्मक राज्यों में दूसरा सदन आवश्यक नहीं (Second Chamber is not essential in a Federal Form of Government)—संघात्मक सरकारों में दूसरे सदन का होना आवश्यक नहीं है। दूसरे सदन के सदस्यों का चुनाव पहले सदन की तरह दलों के आधार पर ही होता है। सदस्य अपने राज्यों के हितों को ध्यान में रखकर वोट का प्रयोग नहीं करते बल्कि पार्टी के आदेशों पर चलते हैं।

7. दूसरे सदन के संगठन में कठिनाइयां (Difficulties in Organising the Second Chamber)-दूसरे सदन की आलोचना इसलिए भी की जाती है क्योंकि इसके संगठन की समस्या है। निम्न सदन के सदस्य जनता द्वारा चुने जाते हैं, परन्तु प्रश्न उत्पन्न होता है कि दूसरे सदन के सदस्य किस प्रकार चुने जाएं ? विभिन्न देशों में दूसरे सदन का संगठन विभिन्न आधारों पर किया गया है। अमेरिका में दूसरे सदन के सदस्य पहले सदन की तरह जनता के द्वारा चुने जाते हैं, इसका कोई लाभ नहीं। इंग्लैण्ड में दूसरे सदन के अधिक सदस्य पैतृक आधार पर नियुक्त किए जाते हैं, यह प्रणाली प्रजातन्त्र के विरुद्ध है। भारत में राज्यसभा के सदस्य अप्रत्यक्ष तौर पर चुने जाते हैं तथा कुछ मनोनीत किये जाते हैं। इसलिए दूसरे सदन के संगठन का कोई सन्तोषजनक हल नहीं मिला है।

8. दूसरे सदन को शक्तियां देने में कठिनाइयां (Difficulties in giving Powers to Second Chamber)दूसरे सदन के संगठन की तरह यह भी एक समस्या है कि दूसरे सदन को शक्तियां दी जाएं। यदि दूसरे सदन को पहले सदन से कम शक्तियां दी जाएं तो वह उस पर कोई नियन्त्रण नहीं रखता। पर दूसरी तरफ यदि दूसरे सदन को पहले सदन के समान शक्तियां दी जाएं तो इससे दोनों में गतिरोध उत्पन्न होंगे जिससे शासन ठीक प्रकार से चलाना कठिन हो जाए।

9. दूसरा सदन प्रायः रूढ़िवादी होता है (Second Chamber is generally a Conservative House)दूसरे सदन में विशेष हितों के प्रतिनिधि होते हैं जो प्रायः अपने विचारों में रूढ़िवादी होते हैं। ये सदस्य प्रगतिशील नहीं होते और न ही लोगों के कल्याण के लिए कोई कार्य करना चाहते हैं। ये केवल अपने हितों की रक्षा करना चाहते हैं। इस सदन में बड़े-बड़े पूंजीपति, उद्योगपति, ठेकेदार इत्यादि होते हैं जो निम्न सदन को पसन्द नहीं करते। अतः दूसरा सदन निम्न सदन में पास किए गए प्रगतिशील कानूनों को पास करने में रुकावट डालता है।

10. अधिक खर्च (More Expenditure)-दूसरा सदन लाभदायक नहीं है पर इसका देश के बजट पर बोझ पड़ा रहता है। दूसरे सदन के सदस्यों के वेतन, भत्ते इत्यादि इतने हो जाते हैं कि उस धन राशि को किसी और कार्य पर लगाया जा सकता है।

11. विशेष हितों तथा अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की आवश्यकता नहीं है-जब दूसरे सदन के सदस्य दलों के आधार पर अपने मत का प्रयोग करते हैं तब इससे विशेष हितों की रक्षा नहीं हो पाती। इसलिए दूसरे सदन की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त विशेष हितों तथा अल्पसंख्यकों को पहले सदन में ही प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। योग्य व्यक्तियों को पहले सदन में भी मनोनीत किया जा सकता है तथा अल्पसंख्यकों को अन्य उपायों के द्वारा प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-द्वितीय सदन के पक्ष तथा विपक्ष में तर्कों का अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि द्वितीय सदन की कड़ी आलोचना के बावजूद भी इस सदन के बहुत लाभ हैं। यही कारण है कि कई देशों में जहां एक सदनीय प्रणाली को अपनाया गया, असफल रहने के पश्चात् फिर द्वि-सदनीय प्रणाली की स्थापना की गई। प्रो० लीकॉक ने ठीक ही कहा है, कि एक सदनीय विधानमण्डल की परीक्षा हो चुकी है, और यह असफल रही है। आज संसार के अधिकांश देशों में द्वि-सदनीय विधानमण्डल है। यही इनकी उपयोगिता का सबसे बड़ा प्रमाण है।

प्रश्न 3.
एक-सदनीय विधानमण्डल के तीन लाभ तथा तीन हानियां बताइए।
(Discuss three advantages and three disadvantages of a Unicameral Legislature.)
उत्तर-
चीन, बुल्गारिया, नेपाल, तुर्की तथा पुर्तगाल में एक सदनीय विधानमण्डल पाया जाता है जबकि भारत, हालैण्ड, अमेरिका आदि देशों में द्वि-सदनीय विधानमण्डल पाया जाता है। एक सदनीय विधानमण्डल के लाभ भी हैं और हानियां भी। एक सदनीय विधानमण्डल के लाभ-एक सदनीय विधानमण्डल के तीन मुख्य लाभ इस प्रकार हैं-

  • एक सदनीय विधानमण्डल जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है-किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं। जनता या तो किसी विषय में होगी या विपक्ष में । इसलिए जनमत को एक सदन ही अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकता है।
  • कम खर्चीला-एक सदनीय विधानमण्डल से खर्चा कम होता है और देश के बजट पर अधिक बोझ नहीं पड़ता। दूसरे सदन पर खर्च होने वाले धन को देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है।
  • एक सदनीय विधानमण्डल में कानून शीघ्र पास होते हैं-एक सदनीय विधानमण्डल में कानून पास करने में अनावश्यक समय बर्बाद नहीं होता। एक सदन दूसरे सदन में बिल भेजने से बिल के पास करने में देरी होती है। जब एक ही सदन में बिल पर पूरा विचार हो जाता है तो उस पर दोबारा विचार करने के लिए दूसरे सदन की कोई आवश्यकता नहीं है।

एक सदनीय विधानमण्डल की हानियां-एक सदनीय विधानमण्डल की मुख्य तीन हानियां इस प्रकार हैं-

  • एक-सदनीय विधानमण्डल निरंकुश बन जाता है-यह आम कहा जाता है कि “शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट कर देती है।” एक सदन का भी यही हाल होता है जिस दल का सदन बहुमत में होता है, वह अपनी मनमानी करता है और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करता है।
  • एक-सदनीय विधानमण्डल में बिलों पर पूरा विचार नहीं होता-एक सदनीय विधानमण्डल में बिलों को बिना विचार किए तेज़ी से पास कर दिया जाता है। एक-सदनीय विधानमण्डल में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। चुनाव के समय जनता के साथ बहुत वायदे होते हैं जिसके कारण जनता की वाह-वाह लेने के लिए सत्तारूढ़ दल तेज़ी से कानून पास करते जाते हैं। इस तरह राष्ट्र के हित की कोई परवाह नहीं की जाती।
  • संघात्मक शासन प्रणाली के लिए उचित नहीं-एक सदनीय विधानमण्डल संघीय शासन प्रणाली के लिए ठीक नहीं है क्योंकि राज्यों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विधानपालिका से क्या अभिप्राय है ? इसकी कितनी किस्में हैं ?
उत्तर-
विधानपालिका से हमारा अभिप्राय सरकार के उस अंग से है जो राज्य प्रबन्ध के लिए कानूनों का निर्माण करता है। विधानपालिका सरकार के बाकी दोनों अंगों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। लॉस्की के अनुसार, “विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सीमाओं का निर्धारण करती है।” यह प्रचलित कानूनों में संशोधन करती है। यदि यह महसूस करे कि यह कानून ठीक नहीं है तो यह उन कानूनों को रद्द भी कर सकती है। विधानपालिका दो तरह की हो सकती है-एक सदनीय विधानपालिका और दो सदनीय विधानपालिका। इन दोनों का वर्णन इस प्रकार है

  • एक सदनीय विधानपालिका-एक सदनीय विधानपालिका में एक सदन होता है। उदाहरणस्वरूप चीन, टर्की, श्रीलंका आदि में विधानपालिका एक सदनीय है।
  • दो सदनीय विधानपालिका-इस तरह की विधानपालिका में विधानपालिका के दो सदन-ऊपरी सदन व निम्न सदन होते हैं। उदाहरणस्वरूप अमेरिका, ब्रिटेन, भारत, स्विट्ज़रलैण्ड आदि राज्यों में विधानपालिका दो सदनीय है।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के चार महत्त्वपूर्ण कार्य बताएं।
उत्तर-
आधुनिक समय में व्यवस्थापिका के तीन महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं-

  • कानून-निर्माण का कार्य-व्यवस्थापिका का प्रमुख कार्य कानूनों का निर्माण करना है। व्यवस्थापिका जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है और जनता की इच्छा को विधानमण्डल के कानूनों द्वारा प्रकट किया जाता है।
  • कार्यपालिका पर नियन्त्रण-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तभी तक अपने पद पर बनी रह सकती है जब उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त हो। विधानपालिका अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटा सकती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका प्रत्यक्ष तौर पर व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती परन्तु फिर भी विधानमण्डल का थोड़ा-बहुत प्रभाव कार्यपालिका पर पड़ता है।
  • वित्त पर नियन्त्रण-संसार के प्रायः सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में वित्त पर विधानमण्डल का नियन्त्रण होता है। कार्यपालिका, विधानमण्डल की अनुमति के बिना धन खर्च नहीं कर सकती। विधानमण्डल प्रतिवर्ष बजट पास करती है। टैक्स लगाना, पुराने टैक्सों में संशोधन करना और करों को समाप्त करना विधानपालिका का ही कार्य है।
  • संविधान में संशोधन-सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में संविधान में संशोधन करने का अधिकार विधानमण्डल के पास है।

प्रश्न 3.
द्वि-सदनीय विधानपालिका के पक्ष में चार तर्क लिखें।
उत्तर-
द्वि-सदनीय विधानमण्डल के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

  1. दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है-दूसरा सदन पहले सदन को मनमानी करने से रोकता है और नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
  2. दूसरा सदन अविचारपूर्ण तथा जल्दी से पास किए गए कानूनों को रोकता है-दूसरा सदन पहले सदन के द्वारा जल्दबाज़ी तथा अविचारपूर्ण पास किए गए बिलों को कुछ समय के लिए रोक लेता है, जिससे जनता को उन पर विचार करने को समय मिल जाता है।
  3. दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है-दूसरे सदन में विचारहीन तथा विरोधीहीन बिलों को पेश किया जाता है, इन बिलों पर पूर्ण रूप से विचार-विमर्श करने के पश्चात् बिल दूसरे सदन में पेश किया जाता है। पहला सदन इन बिलों को शीघ्र ही पास कर देता है। इस प्रकार दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है।
  4. अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व-दूसरे सदन का होना आवश्यक है, ताकि विशेष वर्गों तथा अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जा सके।

प्रश्न 4.
दूसरे सदन के विपक्ष में चार तर्क दीजिए।
उत्तर-
दूसरे सदन के विपक्ष में निम्नलिखित मुख्य तर्क दिए जाते हैं-

  • जनता की इच्छा एक है, दो नहीं-एक सदन के समर्थकों के अनुसार किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं, क्योंकि निम्न सदन में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं अतः वही जनता की इच्छा को अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकते हैं।
  • दूसरा सदन या तो व्यर्थ है या शरारती-कहने का अभिप्राय यह है कि यदि ऊपरि सदन, निम्न सदन के प्रत्येक बिल को पास कर देता है तो वह व्यर्थ है। उसका कोई लाभ नहीं है और यदि वह निम्न सदन के द्वारा पास किए गए बिलों का विरोध करता है तो वह शरारती है।
  • गतिरोध की सम्भावना-विधानमण्डल के दूसरे सदन का एक दोष यह भी होता है कि दोनों सदनों में गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। दोनों सदनों में गतिरोध की सम्भावना उस समय और भी बढ़ जाती है जब एक सदन में एक दल का बहुमत हो और दूसरे सदन में किसी अन्य राजनीतिक दल का।
  • अधिक खर्च- दूसरा सदन लाभदायक नहीं है, पर इसका देश के बजट पर बोझ पड़ा रहता है।

प्रश्न 5.
अविश्वास प्रस्ताव का अर्थ संक्षेप में समझाइए।
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों और नीतियों के संचालन के लिए विधानपालिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है। मन्त्रिमण्डल का कार्यकाल विधानपालिका के समर्थन पर निर्भर करता है। विधानपालिका मन्त्रियों को अविश्वास प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकता है। अविश्वास का प्रस्ताव एक ऐसा प्रस्ताव है जिसके द्वारा विधानपालिका मन्त्रियों को उनके पद से हटा सकता है। यदि विधानपालिका का निम्न सदन किसी एक मन्त्री अथवा समस्त मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर देता है तो सभी मन्त्रियों को सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अनुसार अपने पदों से त्याग-पत्र देना पड़ता है। इस अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा विधानपालिका कार्यपालिका पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है।

प्रश्न 6.
निन्दा प्रस्ताव (Censure Motion) का अर्थ बताएं। (Textual Question) (P.B. 1988)
उत्तर-
संसदीय सरकार में विधानपालिका निन्दा प्रस्ताव के द्वारा भी कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है। निन्दा प्रस्ताव के द्वारा विधानपालिका के सदस्य मन्त्रियों के द्वारा अपनाई गई नीतियों तथा उनके प्रशासनिक कार्यों की निन्दा करते हैं। जब विधानपालिका के निम्न सदन में निन्दा प्रस्ताव पास कर दिया जाता है तब मन्त्रिमण्डल को अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ता है। इस प्रस्ताव की शक्ति अविश्वास प्रस्ताव के समान होती है।

प्रश्न 7.
स्थगन प्रस्ताव (Adjournment Motion) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
विधानपालिका अपना दैनिक कार्य पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार करती है। परन्तु कई बार देश में अचानक कोई विशेष और महत्त्वपूर्ण घटना घट जाती है, जैसे कि कोई रेल दुर्घटना, कहीं पुलिस और जनता में झगड़ा होने से कुछ व्यक्तियों की मौत हो जाए इत्यादि तो ऐसे समय संसद् का कोई भी सदस्य स्थगन प्रस्ताव (काम रोको प्रस्ताव) पेश कर सकता है। इस प्रस्ताव का यह अर्थ है कि सदन का निश्चित कार्यक्रम थोड़े समय के लिए रोक दिया जाए और उस घटना या समस्या पर विचार किया जाए। अध्यक्ष इस पर विचार करता है और यदि उचित समझे तो स्वीकार कर लेता है। अध्यक्ष अपनी स्वीकृति के बाद सदन से पूछता है और यदि सदस्यों की निश्चित संख्या उस प्रस्ताव के शुरू किए जाने के पक्ष में हो तो प्रस्ताव आगे चलता है वरन् नहीं। प्रस्ताव स्वीकार हो जाने पर सदन का निश्चित कार्यक्रम रोक दिया जाता है और उस विशेष घटना पर विचार होता है। इस प्रकार स्थगन प्रस्ताव सरकार का ध्यान किसी महत्त्वपूर्ण घटना या समस्या की ओर आकर्षित करने के लिए पेश किया जाता है।

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प्रश्न 8.
द्वितीय वाचन (Second Reading) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
विधानपालिका में कानून बनने से पूर्व बिल को अनेक चरणों से गुज़रना पड़ता है। ये चरण प्रथम वाचन, द्विवीय वाचन, सामति स्तर, रिपोर्ट स्तर तथा तृतीय वाचन होते हैं। इन चरणों में से द्वितीय वाचन का चरण एक विशेष महत्त्वपूर्ण चरण होता है। बिल के द्वितीय वाचन के समय ही सदस्यों को वाद-विवाद का पहला अवसर मिलता है। प्रायः बिल को पेश करने वाला बिल के सिद्धान्तों तथा उद्देश्यों पर प्रकाश डालता है। विधानपालिका के सदस्यों को बिल के मौलिक सिद्धान्तों की आलोचना करने का अवसर मिलता है। इस चरण में बिल पर मतदान भी करवाया जाता है। द्वितीय वाचन ही बिल को जीवन अथवा मृत्यु प्रदान करता है।

प्रश्न 9.
द्वि-सदनीय प्रणाली पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
क्या विधानमण्डल के दो सदन होने चाहिए अथवा एक सदन होना चाहिए, इस बारे में काफ़ी मतभेद पाया जाता है। जे० एस० मिल, सर हैनरी मेन आदि लेखकों ने द्वि-सदनीय विधानमण्डल का समर्थन किया है। जब विधानमण्डल के दो सदन हों तो उसे द्वि-सदनीय विधानमण्डल कहा जाता है। इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड, भारत आदि देशों में विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं। पहले सदन को निम्न सदन तथा दूसरे सदन को उपरि सदन कहा जाता है।

प्रश्न 10.
व्यवस्थापिका किस भान्ति कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है ?
उत्तर–
संसदीय सरकार में व्यवस्थापिका निम्नलिखित तरीकों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है-

  • व्यवस्थापिका के सदस्य कार्यपालिका (मन्त्रियों) से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं और मन्त्रियों को पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है।
  • स्थगन अथवा काम रोको प्रस्ताव लाकर व्यवस्थापिका सार्वजनिक महत्त्व के मामलों पर विवाद कर सकती है।
  • बजट अस्वीकार करके या अविश्वास प्रस्ताव पास करके व्यवस्थापिका कार्यपालिका को हटा सकती है।

अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका प्रत्यक्ष तौर पर व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती। परन्तु फिर भी कार्यपालिका का थोड़ा-बहुत काम व्यवस्थापिका पर निर्भर होता है।

प्रश्न 11.
विधानपालिका की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
आमतौर पर राज्यों में द्वि-सदनीय विधानपालिका पाई जाती है जिसमें एक सदन को निम्न सदन (Lower House) और दूसरे को उच्च सदन (Upper Chamber) कहा जाता है। निम्न सदन के सदस्य प्रायः वयस्क मताधिकार के आधार पर जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। उच्च सदन के सदस्यों का चुनाव विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न तरीके से किया जाता है। भारत में उच्च सदन के सदस्यों का चुनाव राज्य विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत-प्रणाली द्वारा होता है और अमेरिका में प्रत्यक्ष रूप में होता है। इंग्लैण्ड में उच्च सदन के अधिकांश सदस्य पैतृक होते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विधानपालिका से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विधानपालिका से हमारा अभिप्राय सरकार के उस अंग से है जो राज्य प्रबन्ध के लिए कानूनों का निर्माण करता है। विधानपालिका सरकार के बाकी दोनों अंगों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। लॉस्की के अनुसार, “विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सीमाओं का निर्धारण करती है।”

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के दो महत्त्वपूर्ण कार्य बताएं।
उत्तर-

  • कानून-निर्माण का कार्य-व्यवस्थापिका का प्रमुख कार्य कानूनों का निर्माण करना है। व्यवस्थापिका जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है और जनता की इच्छा को विधानमण्डल के कानूनों द्वारा प्रकट किया जाता है।
  • कार्यपालिका पर नियन्त्रण-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तभी तक अपने पद पर बनी रह सकती है जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त हो। विधानपालिका अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटा सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

प्रश्न 3.
द्वि-सदनीय विधानपालिका के पक्ष में दो तर्क लिखें।
उत्तर-

  • दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है-जिस देश में विधानमण्डल में एक सदन होता है वहां पर वह निरंकुश बन जाता है। पहले सदन की निरंकुशता को रोकने के लिए दूसरे सदन का होना आवश्यक है। दूसरा सदन पहले सदन को मनमानी करने से रोकता है और नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
  • दूसरा सदन अविचारपूर्ण तथा जल्दी से पास किए गए कानूनों को रोकता है-दूसरा सदन पहले सदन के द्वारा जल्दबाज़ी तथा अविचारपूर्ण पास किए गए बिलों को कुछ समय के लिए रोक लेता है, जिस जनता को उन पर विचार करने का समय मिल जाता है।

प्रश्न 4.
दूसरे सदन के विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर-

  • जनता की इच्छा एक है, दो नहीं-एक सदन के समर्थकों के अनुसार किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं, क्योंकि निम्न सदन में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं अतः वही जनता की इच्छा को अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकते हैं।
  • दूसरा सदन या तो व्यर्थ है शरारती-कहने का अभिप्राय यह है कि यदि ऊपरी सदन, निम्न सदन के प्रत्येक बिल को पास कर देता है तो वह व्यर्थ है। उसका कोई लाभ नहीं है और यदि वह निम्न सदन के द्वारा पास किए गए बिलों का विरोध करता है तो वह शरारती है।

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बुल्जे के अनुसार, “संविधान उन नियमों का समूह है, जिनके अनुसार सरकार की शक्तियां, शासितों के अधिकार तथा इन दोनों के आपसी सम्बन्धों को व्यवस्थित किया जाता है।”

प्रश्न 2. संविधान के कोई दो रूप/प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. विकसित संविधान
  2. निर्मित संविधान।

प्रश्न 3. विकसित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो संविधान ऐतिहासिक उपज या विकास का परिणाम हो, उसे विकसित संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 4. लिखित संविधान किसे कहते हैं ? ।
उत्तर-लिखित संविधान उसे कहा जाता है, जिसके लगभग सभी नियम लिखित रूप में उपलब्ध हों।

प्रश्न 5. अलिखित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-अलिखित संविधान उसे कहते हैं, जिसकी धाराएं लिखित रूप में न हों, बल्कि शासन संगठन अधिकतर रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं पर आधारित हो।

प्रश्न 6. कठोर एवं लचीले संविधान में एक अन्तर लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान की अपेक्षा लचीले संविधान में संशोधन करना अत्यन्त सरल है।

प्रश्न 7. लचीले संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर- लचीला संविधान समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 8. किसी एक विद्वान् का नाम लिखें, जो लिखित संविधान का समर्थन करता है?
उत्तर-डॉ० टॉक्विल ने लिखित संविधान का समर्थन किया है।

प्रश्न 9. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता।

प्रश्न 10. एक अच्छे संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-संविधान स्पष्ट एवं सरल होता है।

प्रश्न 11. अलिखित संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-यह समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 12. अलिखित संविधान का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-अलिखित संविधान में शक्तियों के दुरुपयोग की सम्भावना बनी रहती है।

प्रश्न 13. लिखित संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान निश्चित तथा स्पष्ट होता है।

प्रश्न 14. लिखित संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान समयानुसार नहीं बदलता।

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प्रश्न 15. जिस संविधान को आसानी से बदला जा सके, उसे कैसा संविधान कहा जाता है ?
उत्तर-उसे लचीला संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 16. जिस संविधान को आसानी से न बदला जा सकता हो, तथा जिसे बदलने के लिए किसी विशेष तरीके को अपनाया जाता हो, उसे कैसा संविधान कहते हैं ?
उत्तर-उसे कठोर संविधान कहते हैं। प्रश्न 17. लचीले संविधान का एक दोष लिखें। उत्तर-यह संविधान पिछड़े हुए देशों के लिए ठीक नहीं।

प्रश्न 18. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान निश्चित एवं स्पष्ट होता है।

प्रश्न 19. कठोर संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान क्रान्ति को प्रोत्साहन देता है।

प्रश्न 20. शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Power) का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया?
उत्तर-शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त मान्टेस्क्यू ने प्रस्तुत किया।

प्रश्न 21. संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कौन हैं ?
उत्तर-संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कार्ल-मार्क्स हैं।

प्रश्न 22. संविधानवाद के मार्ग की एक बड़ी बाधा लिखें।
उत्तर-संविधानवाद के मार्ग की एक बाधा युद्ध है।

प्रश्न 23. अरस्तु ने कितने संविधानों का अध्ययन किया?
उत्तर-अरस्तु ने 158 संविधानों का अध्ययन किया।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………. संविधान उसे कहा जाता है, जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके।
2. जिस संविधान को सरलता से न बदला जा सके, उसे …………… संविधान कहते हैं।
3. लिखित संविधान एक ……………. द्वारा बनाया जाता है।
4. ……………. संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
5. ……………. में क्रांति का डर बना रहता है।
उत्तर-

  1. लचीला
  2. कठोर
  3. संविधान सभा
  4. अलिखित
  5. लिखित संविधान।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अलिखित संविधान अस्पष्ट एवं अनिश्चित होता है।
2. लचीले संविधान में क्रांति की कम संभावनाएं रहती हैं।
3. कठोर संविधान अस्थिर होता है।
4. एक अच्छा संविधान स्पष्ट एवं निश्चित होता है।
5. कठोर संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कठोर संविधान का गुण है
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता
(ख) संघात्मक राज्य के लिए उपयुक्त नहीं है
(ग) समयानुसार नहीं बदलता
(घ) संकटकाल में ठीक नहीं रहता।
उत्तर-
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता

प्रश्न 2.
एक अच्छे संविधान का गुण है-
(क) संविधान का स्पष्ट न होना
(ख) संविधान का बहुत विस्तृत होना
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय
(घ) बहुत कठोर होना।
उत्तर-
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय

प्रश्न 3.
“संविधान उन नियमों का समूह है, जो राज्य के सर्वोच्च अंगों को निर्धारित करते हैं, उनकी रचना, उनके आपसी सम्बन्धों, उनके कार्यक्षेत्र तथा राज्य में उनके वास्तविक स्थान को निश्चित करते हैं।” किसका कथन है ?
(क) सेबाइन
(ख) जैलिनेक
(ग) राबर्ट डाहल
(घ) आल्मण्ड पावेल।
उत्तर-
(ख) जैलिनेक

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से एक अच्छे संविधान की विशेषता है-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित
(ख) अस्पष्टता
(ग) कठोरता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 17 सरकार के अंग-कार्यपालिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 17 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 17 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1. कार्यपालिका की परिभाषा दीजिए तथा उसके विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
(Define the term ‘Executive’ and discuss its various forms.)
उत्तर-कार्यपालिका सरकार का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों को कार्यपालिका के द्वारा ही लागू किया जाता है। प्राचीनकाल में सम्राट् स्वयं ही कानून बनाता था, कानून को लागू करता था तथा कानून की व्याख्या करता था। परन्तु आधुनिक राज्यों में शक्तियों के पृथक्करण होने के कारण कार्यपालिका केवल कानूनों को लागू करती है। गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो कानून के रूप में प्रकट जनता की इच्छा को लागू करता है।” डॉ० गार्नर (Garner) ने कार्यपालिका की परिभाषा करते हुए लिखा है, “व्यापक तथा सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत वे सभी अधिकारी, राज्य कर्मचारी तथा एजेंसियां आ जाती हैं जिनका कार्य राज्य की इच्छा को, जिसे विधानमण्डल ने प्रकट कर कानून का रूप दे दिया है, कार्यरूप में परिणत करता है।” डॉ० गार्नर की यह परिभाषा बहुत व्यापक है, इसमें राज्य का अध्यक्ष, प्रधानमन्त्री, मन्त्रिपरिषद्, पुलिस तथा सेना के सभी छोटे-बड़े कर्मचारी शामिल हैं जो शासन में भाग लेते हैं। यदि हम कार्यपालिका की संकुचित परिभाषा लें तो उसमें अध्यक्ष, प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् ही आते हैं।

कार्यपालिका कई प्रकार की है जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

1. वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका (Real and Nominal Executive)-प्राचीनकाल में वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में कोई अन्तर नहीं होता था। सम्राट के पास शासन की सभी शक्तियां होती थीं और उन शक्तियों का प्रयोग सम्राट् स्वयं करता था, परन्तु इंग्लैण्ड में शानदार क्रान्ति के पश्चात् मन्त्रिमण्डल का उदय हुआ, जिसने सम्राट की शक्तियों का प्रयोग करना शुरू कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका बन गई और सम्राट नाममात्र का मुखिया। इस प्रकार वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में अन्तर उत्पन्न हुआ। संसदीय सरकार में यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है। संसदीय सरकार में संविधान के अनुसार कार्यपालिका की सारी शक्तियां राज्य व अध्यक्ष के पास होती हैं, परन्तु इन शक्तियों का प्रयोग अध्यक्ष स्वयं नहीं करता। राज्य के अध्यक्ष की शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, भारत, डैनमार्क तथा हालैण्ड में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका है। अध्यक्षात्मक सरकार में वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में कोई अन्तर नहीं पाया जाता। अमेरिका में संविधान के अन्तर्गत कार्यपालिका की शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं और व्यवहार में भी इन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति ही करता है। इस प्रकार राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका है।

2. संसदीय तथा अध्यक्षात्मक कार्यपालिका (Parliamentary and Presidential Executive)-संसदीय सरकार में नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में अन्तर होता है। राज्य का अध्यक्ष (सम्राट् तथा राष्ट्रपति) नाममात्र का मुखिया होता है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् के सदस्य भी होते हैं और वे अपने समस्त कार्यों के लिए सामूहिक रूप से संसद् के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य तब तक अपने पद पर रह सकते हैं जब तक उन्हें संसद् का बहुमत प्राप्त हो। संसद् के सदस्य अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ कर सकते हैं। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अर्थात् वास्तविक कार्यपालिका का संसद् से बहुत समीप का सम्बन्ध होता है।

अध्यक्षात्मक सरकार में राज्य का अध्यक्ष वास्तविक कार्यपालिका है। संविधान के अन्तर्गत कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति के पास होती हैं और राष्ट्रपति ही उन शक्तियों का प्रयोग करता है। राष्ट्रपति अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है और न ही वह संसद् का सदस्य होता है। राष्ट्रपति संसद् की बैठकों में भाग नहीं ले सकता। वह केवल संसद् को सन्देश भेज सकता है। संसद् के सदस्य राष्ट्रपति को अविश्वास प्रस्ताव पास करके नहीं हटा सकते। राष्ट्रपति को केवल महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है। अमेरिका में राष्ट्रपति 4 वर्ष के लिए चुना जाता है और वह अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है।।

3. एकल तथा बहुल कार्यपालिका (Single and Plural Executive)—एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक व्यक्ति के हाथ में होती हैं। अमेरिका में एकल कार्यपालिका पाई जाती है क्योंकि अमेरिका में कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं। राष्ट्रपति को सलाह देने के लिए एक मन्त्रिमण्डल है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के सदस्य राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और उसके प्रति उत्तरदायी हैं। राष्ट्रपति का निर्णय अन्तिम होता है। संसदीय सरकारों में भी एकल कार्यपालिका होती है क्योंकि मन्त्रिमण्डल एक इकाई की तरह कार्य करता है और प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का अध्यक्ष होता है। _जहां कार्यपालिका की शक्तियां अनेक व्यक्तियों के पास होती हैं, उसे बहुल कार्यपालिका कहा जाता है। स्विटज़रलैण्ड में बहुल कार्यपालिका है। स्विट्ज़रलैण्ड में कार्यपालिका की शक्तियां एक फैडरल कौंसिल के पास हैं जिसके सात सदस्य होते हैं। इन सात सदस्यों की शक्तियां समान हैं। फैडरल कौंसिल के अध्यक्ष को शेष सदस्यों से अधिक शक्तियां प्राप्त नहीं हैं।

4. पैतृक तथा चुनी हुई कार्यपालिका (Hereditary and Elective Executive)-पैतृक कार्यपालिका वहां होती है जहां राज्य का अध्यक्ष राजा होता है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके लड़के अथवा लड़की को राजसिंहासन पर बैठाया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, हालैण्ड तथा डैनमार्क में पैतृक कार्यपालिका पाई जाती है।

चुनी हुई कार्यपालिका वहां पर पाई जाती है जहां कार्यपालिका का अध्यक्ष प्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चुना जाता है अथवा जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है। चुनी हुई कार्यपालिका में अध्यक्ष निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है और उसकी मृत्यु या उसकी अवधि के समाप्त होने पर उसके पुत्र को पैतृक आधार पर अध्यक्ष नहीं बनाया जाता। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है जबकि पीरू तथा चिल्ली में राष्ट्रपति जनता द्वारा चुना जाता है।

5. राजनीतिक और स्थायी कार्यपालिका (Political and Permanent Executive)-राजनीतिक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो राजनीतिक आधार पर कुछ समय के लिए चुनाव द्वारा या किसी अन्य साधन द्वारा नियुक्त की जाती है। राजनीतिक कार्यपालिका को किसी भी समय हटाया जा सकता है। उदाहरण के लिए भारत में केन्द्र और राज्यों में मन्त्रिमण्डल राजनीतिक कार्यपालिका है। मन्त्रिमण्डल का सदस्य बनने के लिए कोई शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता निश्चित नहीं है। चुनाव में जिस दल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल का मन्त्रिमण्डल बनता है। . नीतियों का निर्माण राजनीतिक कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है।

स्थायी कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर न होकर शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता के आधार पर की जाती है। देश के राजनीतिक परिवर्तन के साथ-स्थायी कार्यपालिका में परिवर्तन नहीं होता। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार बने, स्थायी कार्यपालिका निष्पक्षता से कार्य करती रहती है। स्थायी कार्यपालिका का मुख्य कार्य राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्माण की गई नीतियों को लागू करना होता है। असैनिक सेवाएं अथवा प्रशासकीय सेवाएं स्थायी कार्यपालिका का रूप हैं।

6. अधिनायकीय और संवैधानिक (Dictatorial and Constitution Executive)-जो कार्यपालिका अपने अस्तित्व और शक्तियों के लिए राज्य के संविधान पर निर्भर हो, वह संवैधानिक कार्यपालिका कहलाती है। सभी प्रजातन्त्रात्मक राज्यों में इसके उदाहरण हैं जो कार्यपालिका अपने अस्तित्व और शक्तियों के लिए शारीरिक बल या सैनिक बल पर निर्भर हो. अधिनायकीय कार्यपालिका कहलाती है।

7. नियुक्ति या मनोनीत कार्यपालिका (Appointive or Nominated Executive)—मनोनीत कार्यपालिका उसे कहते हैं जिसमें देश के मुखिया को किसी व्यक्ति द्वारा मनोनीत किया जाए। स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में गवर्नर-जनरल की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट् द्वारा की जाती थी। आजकल कैनेडा, न्यूज़ीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, आदि देशों के गवर्नर-जनरलों की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट् अथवा साम्राज्ञी द्वारा की जाती है। भारत में राज्यों के राज्यपालों को राष्ट्रपति नियुक्त करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 17 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 2. सरकार के अंगों में कार्यपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
(Describe the functions performed by the executive organ of a government.)
अथवा
आधुनिक समय में कार्यपालिका के भिन्न-भिन्न कार्यों का वर्णन करें। (Describe the various functions performed by the executive in modern times.)
उत्तर-आधुनिक राज्य पुलिस राज्य न होकर कल्याणकारी राज्य है। राज्य का मुख्य उद्देश्य जनता की भलाई के लिए कार्य करना है। कल्याणकारी राज्य के उदय होने से कार्यपालिका के कार्य भी बहुत बढ़ गए हैं। कार्यपालिका का मुख्य काम विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों को लागू करना है। इस कार्य के अतिरिक्त कार्यपालिका को अनेक कार्य करने पड़ते हैं। कार्यपालिका के कार्य भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न हैं। वास्तव में कार्यपालिका के कार्य सरकार के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। आधुनिक राज्य में कार्यपालिका के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं

1. कानून लागू करना और शान्ति व्यवस्था को बनाए रखना (Enforcement of Laws and Maintenance of Order) कार्यपालिका का प्रथम कार्य विधानमण्डल के कानूनों को लागू करना तथा देश में शान्ति व्यवस्था को बनाए रखना होता है। कार्यपालिका का कार्य कानूनों को लागू करना है चाहे वह कानून बुरा हो चाहे अच्छा। कार्यपालिका देश में शान्ति की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस का प्रबन्ध करती है। पुलिस उन व्यक्तियों को जो कानून तोड़ते हैं, गिरफ्तार करती है और उन पर मुकद्दमा चलाती है।

2. नीति निर्धारण (Formulation of Policy) कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य नीति निर्धारण करना है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति को निर्धारित करके संसद् के सम्मुख पेश करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका को अपनी नीतियों को विधानमण्डल के सामने पेश नहीं करना पड़ता। कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक तथा विदेश नीति को निश्चित करती है और उस नीति के आधार पर ही अपना शासन चलाती है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता है।

3. नियुक्तियां करने और हटाने की शक्ति (Powers of Appointment and Removal) कार्यपालिका को देश का शासन चलाने के लिए अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। सिविल कर्मचारियों की नियुक्ति अधिकतर प्रतियोगिता की परीक्षा के आधार पर की जाती है। भारत में राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट के न्यायाधीशों, राजदूतों, ऍटार्नी जनरल, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को ऊंचे अधिकारियों की नियुक्ति के लिए सीनेट की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अमेरिका का राष्ट्रपति उन सब कर्मचारियों को हटाने का अधिकार रखता है जिन्हें कांग्रेस महाभियोग के द्वारा नहीं हटा सकती।

4. विदेश सम्बन्धी कार्य (Foreign Relations)-दूसरे देशों में सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। देश की विदेश नीति को कार्यपालिका ही निश्चित करती है। देश के दूसरे देशों से कैसे सम्बन्ध होंगे, यह कार्यपालिका पर निर्भर करता है। कार्यपालिका अपने देश के राजदूतों को दूसरे देशों में भेजती है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रहने की स्वीकृति देती है। दूसरे देशों से सन्धि-समझौते करने के लिए सीनेट की स्वीकृति भी लेनी पड़ती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में कार्यपालिका का अध्यक्ष या उसका प्रतिनिधि भाग लेता है।

5. कानून सम्बन्धी कार्य (Legislative Functions) कार्यपालिका के पास कानून से सम्बन्धित कुछ शक्तियां होती हैं। संसदीय सरकार में कार्यपालिका का कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं, वे विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं और बिल पेश करते हैं। वास्तव में 95 प्रतिशत बिल मन्त्रियों के द्वारा पेश किए जाते हैं क्योंकि मन्त्रिमण्डल का विधानमण्डल में बहुमत होता है इसलिए बिल पास भी हो जाते हैं। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के समर्थन के बिना कोई बिल पास नहीं हो सकता। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका विधानमण्डल में स्वयं बिल पेश नहीं करती, परन्तु कार्यपालिका को विधानमण्डल के पास सन्देश भेजने का अधिकार होता है प्रायः सभी देशों में उतनी देर बिल कानून नहीं बन सकता जितनी देर कार्यपालिका की स्वीकृति प्राप्त न हो। संसदीय सरकार में कार्यपालिका को विधानमण्डल का अधिवेशन बुलाने का अधिकार भी होता है। जब विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं हो रहा होता, उस समय कार्यपालिका को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने का अधिकार प्राप्त होता है।

6. वित्तीय कार्य (Financial Functions)-देश के धन पर विधानमण्डल का नियन्त्रण होता है और विधानमण्डल की स्वीकृति बिना कार्यपालिका एक पैसा खर्च नहीं कर सकती, परन्तु कार्यपालिका ही बजट को तैयार करती है और विधानमण्डल में पेश करती है। क्योंकि कार्यपालिका को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त है इसलिए प्रायः बजट पास हो जाता है। चूंकि नए कर लगाने, कर घटाने तथा कर समाप्त करने के बिल कार्यपालिका ही विधानमण्डल में पेश करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका स्वयं बजट पेश नहीं करती अपितु बजट कार्यपालिका की देखरेख में ही तैयार किया जाता है। अमेरिका में राष्ट्रपति बजट की देख-रेख करता है जबकि भारत में वित्त मन्त्री बजट पेश करता है।

7. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-न्याय करना न्यायपालिका का मुख्य कार्य है, परन्तु कार्यपालिका के पास भी कुछ न्यायिक शक्तियां होती हैं। बहुत से देशों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। कार्यपालिका के अध्यक्ष के पास अपराधी के दण्ड को क्षमा करने, उसे कम करने का भी अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है। इंग्लैण्ड में यह शक्ति सम्राट के पास है। राजनीतिक अपराधियों को मुक्तिदान (Amnesty) देने का अधिकार भी कई देशों में कार्यपालिका के पास है।

8. सैनिक कार्य (Military Functions)-देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा के लिए कार्यपालिका का अध्यक्ष सेना का अध्यक्ष होता है। भारत तथा अमेरिका में राष्ट्रपति अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति (कमाण्डर-इनचीफ) हैं। सेना के संगठन तथा अनुशासन से सम्बन्धित नियम कार्यपालिका के द्वारा ही बनाए जाते हैं। आन्तरिक शान्ति को बनाए रखने के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है। सेना के अधिकारियों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा ही की जाती है। भारत का राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा कर सकता है। जब देश में संकटकालीन घोषणा हो तब कार्यपालिका सैनिक कानून (Martial Law) लागू कर सकती है। अमेरिका में राष्ट्रपति युद्ध की घोषणा कांग्रेस की स्वीकृति से ही कर सकता है।

9. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers)—जब देश में आन्तरिक गड़बड़ हो या विदेशी हमले का डर हो तो उस समय कार्यपालिका का मुखिया संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकटकाल के समय कार्यपालिका बहुत शक्तिशाली हो जाती है और संकट का सामना करने के लिए कार्यपालिका अपनी इच्छा से शासन चलाती है।

10. उपाधियां तथा सम्मान प्रदान करना (Granting of Titles and Honours)-प्रायः सभी देशों में कार्यपालिका को महान् व्यक्तियों को उनकी असाधारण और अमूल्य सेवाओं के लिए उपाधियां और सम्मान प्रदान करने का अधिकार प्राप्त होता है। भारत और अमेरिका में यह अधिकार राष्ट्रपति के पास है जबकि इंग्लैण्ड में राजा के पास।

निष्कर्ष (Conclusion) कार्यपालिका कार्यों की उपर्युक्त दी गई सूची से यह सिद्ध होता है कि यह सरकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। विधानपालिका और न्यायपालिका तो अवकाश (Recess) पर चली जाती है, परन्तु कार्यपालिका सदा काम पर (On Duty) रहती है। पुलिस स्टेशन और सेना कभी बन्द नहीं होते। वैसे तो सरकार के प्रत्येक अंग का अपना-अपना महत्त्व है परन्तु कार्यपालिका का महत्त्व इन दिनों बहुत बढ़ गया है। सारे राज्य का नेतृत्व इसके पास है। सरकार के उत्तरदायित्वों में जिनती वृद्धि होती है, कार्यपालिका के कार्य और महत्त्व उतने अधिक बढ़ जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है ? उसकी किस्में भी लिखें।
उत्तर-सरकार के तीन अंग होते हैं-विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका । विधानपालिका कानून बनाने, कार्यपालिका कानूनों को लागू करने और न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करने का काम करती है। कार्यपालिका को सरकार का प्रबन्धकीय अंग कहा जाता है। गिलक्राइस्ट ने कार्यपालिका की व्याख्या करते हुए कहा है कि, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो कानून बना कर लोगों की इच्छाओं को प्रकट करता है। कार्यपालिका कई तरह की हो सकती है-

  • नाममात्र कार्यपालिका।
  • एकात्मक या एकल और बहुल कार्यपालिका।
  • संसदीय और अध्यक्षात्मक कार्यपालिका।
  • निरंकुश और संवैधानिक कार्यपालिका।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 17 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 2. वास्तविक कार्यपालिका (Real Executive) व नाममात्र कार्यपालिका (Nominal Executive) में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-संसदीय सरकार में यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है। संसदीय सरकार में संविधान के अनुसार कार्यपालिका की सारी शक्तियां राज्य के अध्यक्ष के पास होती हैं, परन्तु इन शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, भारत, डैनमार्क तथा हालैंड में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका है। अध्यक्षात्मक सरकार में वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में कोई अन्तर नहीं पाया जाता। अमेरिका में संविधान के अन्तर्गत कार्यपालिका की शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं और व्यवहार में भी इन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति ही करता है। इसी कारण राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका है।

प्रश्न 3. स्थायी कार्यपालिका और राजनीतिक कार्यपालिका में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-राजनीतिक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो राजनीतिक आधार पर कुछ समय के लिए चुनाव द्वारा या किसी अन्य साधन द्वारा नियुक्त की जाती है। राजनीतिक कार्यपालिका को किसी भी समय हटाया जा सकता है। उदाहरण के लिए भारत में केन्द्र और राज्यों में मन्त्रिमण्डल राजनीतिक कार्यपालिका है। मन्त्रिमण्डल का सदस्य बनने के लिए कोई शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता निश्चित नहीं है। चुनाव में जिस दल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है, रसी दल का मन्त्रिमण्डल बनता है। नीतियों का निर्माण राजनीतिक कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है।

स्थायी कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर न होकर शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता के आधार पर की जाती है। देश के राजनीतिक परिवर्तन के साथ स्थायी कार्यपालिका में परिवर्तन नहीं होता। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार बने, स्थायी कार्यपालिका निष्पक्षता से कार्य करती रहती है। स्थायी कार्यपालिका का मुख्य कार्य राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्मित की गई नीतियों को लागू करना होता है। असैनिक सेवाएं अथवा प्रशासकीय सेवाएं स्थायी कार्यपालिका का रूप हैं।

प्रश्न 4. कार्यपालिका के चार कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-कार्यपालिका के चार महत्त्वपूर्ण कार्य इस प्रकार हैं-

  • प्रशासन सम्बन्धी कार्य-कार्यपालिका के मुख्य कार्य विधानमण्डल के पास किए हुए कानूनों को लागू करना तथा उन कानूनों के अनुसार शासन चलाना है। कानून और व्यवस्था द्वारा राज्य में शान्ति स्थापित करना भी इसी का काम है।
  • सैनिक कार्य-आन्तरिक शान्ति के साथ-साथ नागरिकों को बाहरी आक्रमणों से बचाना भी कार्यपालिका का कार्य है। इसके लिए कार्यपालिका सैनिक प्रबन्ध तथा युद्ध संचालन के कार्य करती है। दूसरे देशों से युद्ध और सन्धि की घोषणा कार्यपालिका द्वारा की जाती है।
  • नीति निर्धारण-कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य देश की आन्तरिक तथा विदेश नीति को निश्चित करना है और उस नीति के आधार पर अपना शासन चलाना है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता है।
  • विदेश सम्बन्धी कार्य-दूसरे देशों से सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है।

प्रश्न 5. बहमखी कार्यपालिका (Plural Executive) क्या होती है ?
उत्तर-बहुमुखी कार्यपालिका उसे कहते हैं जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित न होकर एक से अधिक अथवा किसी संस्था को प्राप्त होती हैं। स्विट्ज़रलैण्ड में कार्यपालिका की शक्तियों का प्रयोग उन सदस्यों की एक संस्था के द्वारा किया जाता है जिसे संघीय परिषद् कहते हैं। संघीय परिषद् के सात सदस्य होते हैं।

प्रश्न 6. संसदीय कार्यपालिका तथा अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में भेद बताओ।
उत्तर-संसदीय कार्यपालिका वह कार्यपालिका है जहां राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया होता है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् में से लिए जाते हैं और संसद् के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं।
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका वह कार्यपालिका है जहां राज्य का अध्यक्ष वास्तविक मुखिया होता है। मन्त्री संसद् के सदस्य नहीं होते हैं और न ही संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं। ये संसद् के प्रति उत्तरदायी भी नहीं होते हैं। संसद् को उनको हटाने का अधिकार भी नहीं होता।

प्रश्न 7. पैतृक तथा चुनी हुई कार्यपालिका में भेद बताइए।
उत्तर-पैतृक कार्यपालिका वहां होती है जहां राज्य का अध्यक्ष राजा होता है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके लड़के अथवा लड़की को राजसिंहासन पर बैठाया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, नेपाल, नार्वे, कुवैत, हालैण्ड तथा डेनमार्क में पैतृक कार्यपालिका पाई जाती है।
चुनी हुई कार्यपालिका वहां पर पाई जाती है जहां कार्यपालिका का अध्यक्ष प्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चुना जाता है अथवा जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है। चुनी हुई कार्यपालिका में अध्यक्ष निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है और उसकी मृत्यु या उसकी अवधि के समाप्त होने पर उसके पुत्र को पैतृक आधार पर अध्यक्ष नहीं बनाया जाता। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है जबकि पीरू तथा चिली में राष्ट्रपति जनता द्वारा चुना जाता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-राज्य की इच्छा सरकार द्वारा प्रकट होती है और राज्य की इच्छा की पूर्ति सरकार द्वारा ही होती है। गार्नर ने सरकार की परिभाषा करते हुए लिखा है कि, “सरकार उस संगठन का नाम है जिसके द्वारा राज्य की इच्छा का निर्माण, अभिव्यक्ति तथा उसकी पूर्ति होती है। प्रत्येक सरकार की तीन प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं- कानून बनाना, कानून को लागू करना तथा कानून की व्याख्या करना। सरकार के इन तीन कार्यों के तीन अंगों द्वारा किया जाता है।”

प्रश्न 2. कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-सरकार के तीन अंग होते हैं-विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका । विधानपालिका कानून बनाने, कार्यपालिका कानूनों को लागू करने और न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करने का काम करती है। कार्यपालिका को सरकार का प्रबन्धकीय अंग कहा जाता है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्य की इच्छा किसके द्वारा प्रकट होती है ?
उत्तर-राज्य की इच्छा सरकार द्वारा प्रकट होती है।

प्रश्न 2. सरकार के कितने अंग हैं ?
उत्तर-सरकार के तीन अंग हैं।

प्रश्न 3. सरकार के तीन अंगों के नाम लिखें।
उत्तर-(1) व्यवस्थापिका (2) कार्यपालिका (3) न्यायपालिका।

प्रश्न 4. विधानपालिका का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-कानून बनाना।

प्रश्न 5. कार्यपालिका का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-देश का प्रशासन चलाना।

प्रश्न 6. एकल कार्यपालिका किसे कहते हैं ?
उत्तर-एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक ही व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित होती हैं।

प्रश्न 7. बहुल कार्यपालिका किसे कहते हैं ?
उत्तर-बहुल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक ही व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित न होकर एक से अधिक व्यक्तियों अथवा किसी संस्था को प्राप्त होती हैं।

प्रश्न 8. शक्तियों के पृथक्करण का कोई एक उद्देश्य लिखें।
उत्तर-संविधान की रक्षा शक्तियों के पृथक्करण का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

प्रश्न 9. अधिकारों की रक्षा कौन करता है?
उत्तर-अधिकारों की रक्षा न्यायपालिका करती है।

प्रश्न 10. प्रशासनिक कार्य कौन करता है?
उत्तर-प्रशासनिक कार्य कार्यपालिका करती है।

प्रश्न 11. विदेशों से सम्बन्ध कौन स्थापित करता है?
उत्तर-कार्यपालिका विदेशों से सम्बन्ध स्थापित करती है।

प्रश्न 12. किस देश में बहुल कार्यपालिका पाई जाती है?
उत्तर-स्विट्ज़रलैण्ड में बहुल कार्यपालिका पाई जाती है।

प्रश्न 13. द्विसदनीय विधानमण्डल के पक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है।

प्रश्न 14. द्विसदनीय विधानमण्डल के विपक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-जनता की इच्छा एक होती है, दो नहीं।

प्रश्न 15. एक सदनीय विधानमण्डल का कोई एक गुण बताइए।
उत्तर-एक सदनीय विधानमण्डल जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।

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प्रश्न 16. एक सदनीय विधानमण्डल का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-एक सदनीय विधानमण्डल निरंकुश बन जाता है।

प्रश्न 17. एक सदनीय व्यवस्थापिका का अर्थ समझाइए।
उत्तर-जिस व्यवस्थापिका का एक सदन होता है, उसे एक सदनीय व्यवस्थापिका कहा जाता है।

प्रश्न 18. यह कथन किसका है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जांचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई अच्छी कसौटी नहीं है?”
उत्तर-यह कथन लॉर्ड ब्राइस का है।

प्रश्न 19. न्यायपालिका का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर- न्यायपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है।

प्रश्न 20. कानूनों की व्याख्या कौन करता है?
उत्तर-कानूनों की व्याख्या न्यायपालिका करती है।

प्रश्न 21. संविधान का संरक्षक किसे माना जाता है?
उत्तर-संविधान का संरक्षक न्यायपालिका को माना जाता है।

प्रश्न 22. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है, कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष एवं निडर होने चाहिएं।

प्रश्न 23. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने वाला कोई एक तत्त्व लिखें।
उत्तर-न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा होनी चाहिए।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………. का मुख्य कार्य न्याय करना है।
2. शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त ………… ने दिया।
3. मान्टेस्क्यू की पुस्तक ………….. है।
4. दूसरा सदन पहले सदन की …………… को रोकता है।
5. ……… विधानमण्डल में कानून शीघ्र पास हो जाते हैं।
उत्तर-

न्यायपालिका
मान्टेस्क्यू
The Spirit of Law
निरंकुशता
एक सदनीय।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. राज्य के अध्यक्ष की शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है।
2. स्विट्ज़रलैण्ड में एकल कार्यपालिका पाई जाती है।
3. कानून लागू करना एवं शान्ति व्यवस्था बनाए रखना कार्यपालिका का कार्य है।
4. प्रदत्त व्यवस्था के कारण कार्यपालिका अधिक शक्तिशाली हो गई है।
5. न्यायपालिका विधानपालिका के बनाए हुए कानूनों को लागू करती है।
उत्तर-

सही
ग़लत
सही
सही
ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जाँचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई कसौटी नहीं है।”
(क) लॉर्ड ब्राइस
(ख) लॉस्की
(ग) टी० एच० ग्रीन
(घ) विलोबी।
उत्तर-
(क) लॉर्ड ब्राइस

प्रश्न 2.
न्यायाधीशों की नियुक्ति की सर्वोत्तम पद्धति कौन-सी है ?
(क) जनता द्वारा चुनाव
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता स्थापित करने वाले तत्त्व हैं-
(क) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति
(ख) नौकरी की सुरक्षा
(ग) अच्छा वेतन
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4.
विधानपालिका की शक्तियों के पतन का कारण है-
(क) कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि
(ख) विधानपालिका तक लोगों की पहुंच कठिन है
(ग) कल्याणकारी राज्य की धारणा ने कार्यपालिका के महत्त्व को बढ़ाया है
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।