PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाज का अर्थ बताइये।
उत्तर-
मैकाइवर के अनुसार, “समाज सामाजिक संबंधों का जाल है।”

प्रश्न 2.
समाज और समुदाय किन शब्दों से लिये गए हैं ?
उत्तर-
समाज (Society) शब्द लातीनी भाषा के शब्द ‘Socius’ से निकला है जिसका अर्थ है साथ अथवा मित्रता। समुदाय (Community) भी लातीनी भाषा के शब्द ‘Communitas’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘सबका सांझा’।

प्रश्न 3.
किसने कहा, “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ?”
उत्तर-
ये शब्द अरस्तु (Aristotle) के हैं।

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प्रश्न 4.
सरल युग्म समाज, युग्म समाज, द्वि-युग्म समाज तथा त्रि-युग्म समाज का वर्गीकरण किसने दिया ?
उत्तर-
यह वर्गीकरण हरबर्ट स्पैंसर (Herbert Spencer) ने दिया था।

प्रश्न 5.
समिति किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करके संगठन का निर्माण करते है तो इस संगठित संगठन को समिति कहते हैं।

प्रश्न 6.
खुला समाज किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जिस समाज में अलग-अलग वर्गों में आने-जाने की पाबंदी नहीं होती उसे खुला समाज कहते हैं।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाज की तीन विशेषताएं बताइये।
उत्तर-

  1. समाज लोगों का समूह होता है जिनमें आपसी संबंध होते हैं।
  2. समाज हमेशा समानताओं तथा अंतरों पर निर्भर करता है।
  3. समाज सहयोग तथा संघर्ष पर आधारित होता है।
  4. प्रत्येक समाज में स्तरीकरण पाया जाता है।

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प्रश्न 2.
समाज के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
सम्पूर्ण संसार में बहुत-से समाज मिल जाते हैं जैसे कि जनजातीय समाज, ग्रामीण समाज, औद्योगिक समाज, उत्तर औद्योगिक समाज इत्यादि। परन्तु अलग-अलग विद्वानों ने समाजों के अलग-अलग आधारों पर प्रकार दिए हैं जैसे कि काम्ते (बौद्धिक विकास), स्पैंसर (संरचनात्मक जटिलता), मार्गन (सामाजिक विकास), टोनीज़ (सामाजिक संबंधों के प्रकार), दुर्थीम (एकता के प्रकार) इत्यादि।

प्रश्न 3.
समुदाय किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष क्षेत्र में संगठित रूप से रहते हैं तथा वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही वहां पर व्यतीत करते हैं तो उसे हम समुदाय कहते हैं। यह एक मूर्त संकल्प है जिसके सदस्यों के बीच हम भावना होती है।

प्रश्न 4.
समाज किस प्रकार समुदाय से भिन्न है ? दो अन्तर बताइये।
उत्तर-

  • समाज का कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं होता परन्तु समुदाय का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है।
  • समाज में सहयोग तथा संघर्ष दोनों होते हैं परन्तु समुदाय में केवल सहयोग ही होता है।

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प्रश्न 5.
समिति को परिभाषित कीजिए तथा इसकी विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
बोगार्डस के अनुसार, “सभा साधारणतया कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों का मिल कर कार्य करना है।” इसकी कुछ विशेषताएं होती हैं जैसे कि इसकी विचारपूर्वक स्थापना होती है, इसका निश्चित उद्देश्य होता है, इसका जन्म तथा विनाश होता रहता है, इसकी सदस्यता इच्छा पर आधारित होती है इत्यादि।

प्रश्न 6.
समुदाय तथा समिति के मध्य दो अन्तर बताइये।
उत्तर-

  1. समुदाय किसी निश्चित उद्देश्य के लिए नहीं बनाया जाता परन्तु सभा एक निश्चित उद्देश्य के लिए निर्मित होती है।
  2. समुदाय की सदस्यता ऐच्छिक नहीं होती परन्तु सभा की सदस्यता ऐच्छिक होती है।
  3. समुदाय का निश्चित संगठन नहीं होता परन्तु सभा का एक निश्चित संगठन होता है।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
मानव समाज पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
इस पृथ्वी पर मनुष्य तथा मानवीय समाज प्रकृति द्वारा बनाई गई एक अनुपम रचना है। मानवीय समाज की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो इसे पृथ्वी के अन्य जीवों से अलग करती हैं। इन विशेषताओं के कारण ही मानवीय समाज ने प्रगति की है तथा इसकी अपनी संस्कृति तथा सभ्यता विकसित हो सकी है। मानवीय समाज ने अपनी संस्कृति विकसित कर ली है जो काफ़ी आधुनिक स्तर पर पहुंच चुकी है चाहे प्रत्येक समाज के लिए यह अलग-अलग होती है। मानवीय समाज की इकाइयां अर्थात् मनुष्य अलग-अलग स्थितियों, उत्तरदायित्वों, अधिकारों, संबंधों के प्रति भी जागरूक होते हैं। मानवीय समाज हमेशा परिवर्तनशील होता है तथा इसमें समय के साथ-साथ परिवर्तन आते रहते हैं।

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प्रश्न 2.
अगस्ते कोंत द्वारा प्रस्तुत मानव समाज के तीन चरणों के नाम बताइये।
उत्तर-
अगस्ते कोंत ने मानवीय समाज के उद्विकास के तीन स्तर दिए हैं तथा वे हैं-

  1. आध्यात्मिक पड़ाव (Theological Stage)
  2. अधिभौतिक पड़ाव (Metaphysical Stage)
  3. सकारात्मक पड़ाव (Positive Stage)।

प्रश्न 3.
समुदाय के प्रमुख आधार कौन-से हैं ?
उत्तर-

  • समुदाय का जन्म स्वयं ही हो जाता है।
  • प्रत्येक समुदाय का एक विशेष नाम होता है।
  • समुदाय का अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जिसमें व्यक्ति रहता है।
  • आजकल के समुदाय का एक विशेष आधार होता है कि यह स्वयं में आत्मनिर्भर होता है।
  • प्रत्येक समुदाय में हम-भावना मिल जाती है।
  • समुदाय में हमेशा स्थिरता रहती है अर्थात् यह टूटते नहीं हैं।

प्रश्न 4.
समिति के तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर-

  1. राजनीतिक दल (Political Parties)
  2. लेबर यूनियन (Labour Union)
  3. धार्मिक संगठन (Religious Organisations)
  4. अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (International Associations)।

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प्रश्न 5.
टोनीज़ द्वारा प्रस्तुत समाज के प्रकार कौन से हैं ?
उत्तर-
1. जैमिन शाफ़ट (Gemein Schaft)-टोनीज़ के अनुसार, “जैमिनशाफ़ट एक समुदाय है जिसके सदस्य एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए रहते हैं तथा अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इस समुदाय के जीवन में स्थायी रूप तथा प्राथमिक संबंध पाए जाते हैं।” उदाहरण के लिए ग्रामीण समुदाय।।

2. गैसिल शाफ़ट (Gesell Schaft)-टोनीज़ के अनुसार गैसिल शाफ़ट एक नया सामाजिक प्रकरण है जो औपचारिक तथा कम समय वाला होता है। यह और कुछ नहीं बल्कि समाज के लोगों का जीवन है। इसके सदस्यों के बीच द्वितीय संबंध पाए जाते हैं।

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
समाज शब्द से आप क्या समझते हैं ? एक विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
साधारण भाषा में समाज का अर्थ ‘व्यक्तियों के समूह’ से लिया जाता है। बहुत से विद्वान् इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में करते हैं। इस प्रकार समाज का अर्थ किसी समूह के व्यक्तियों द्वारा लिया जा सकता है अपितु उनके मध्य के रिश्तों से नहीं। कभी-कभी समाज के अर्थ को किसी संस्था के नाम से भी लिया जाता है जैसेआर्य समाज, ब्रह्म समाज इत्यादि। इस प्रकार साधारण व्यक्ति की भाषा में समाज का अर्थ इन्हीं अर्थों में लिया जाता है, परन्तु समाजशास्त्र में इस शब्द का अर्थ कुछ और ही अर्थों में लिया जाता है।

समाजशास्त्र में ‘समाज’ शब्द का अर्थ लोगों के समूह से नहीं लिया जाता अपितु उनके बीच में पैदा हुए रिश्तों के फलस्वरूप जो सम्बन्ध पैदा हुए हैं उनसे लिया जाता है। सामाजिक रिश्तों में लोगों का बहुत महत्त्व होता है। वे समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं यह एक प्रक्रिया है न कि वस्तु। समाज में एक आवश्यक वस्तु लोगों के बीच के रिश्ते एवं अन्तर्सम्बन्धों के बीच के नियम हैं जिसके साथ समाज के सदस्य एक-दूसरे के साथ रहते हैं। जब समाजशास्त्री समाज शब्द का अर्थ साधारण रूप में करते हैं तो उनका अर्थ समाज में होने वाले सामाजिक सम्बन्धों के जाल से है और जब वह समाज शब्द को विशेष रूप में प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ होता है कि समाज उन व्यक्तियों का समूह है जिनमें विशेष प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते हैं।

समाज (Society)—जब समाजशास्त्री ‘समाज’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ सिर्फ लोगों के समूह मात्र से नहीं होता बल्कि उनका अर्थ होता है समाज के लोगों में पाए जाने वाले सम्बन्धों के जाल से जिसके साथ लोग एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। सिर्फ कुछ लोगों को इकट्ठा करने से ही समाज नहीं बन जाता। समाज उस समय ही बनता है जब समाज के उन लोगों में अर्थपूर्ण संबंध स्थापित हो जाएं। यह सम्बन्ध अस्थिर होते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते और न ही इनका कोई ठोस रूप होता है। हम केवल इन्हें महसूस कर सकते हैं। यह जीवन के प्रत्येक रूप में मौजूद होते हैं। इन सम्बन्धों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। यह तो आपस में इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि इनको अलग-अलग करना बहुत मुश्किल है। यह सभी सम्बन्ध जो व्यक्तियों के बीच होते हैं, इनके जाल को ही समाज कहते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते इसीलिए यह अमूर्त होते हैं।

कुछ लेखक यह विचार करते हैं कि समाज तभी बनता है जब इसके सदस्य एक-दूसरे को जानते हों और उनके कुछ आपसी हित हों। उदाहरण के लिए यदि कोई दो व्यक्ति बस में सफर कर रहे हों और एक-दूसरे को जानते न हों, तो वह समाज नहीं बना सकते। परन्तु यदि वही दो व्यक्ति आपस में बातचीत करनी शुरू कर देते हैं, एक-दूसरे के बारे में जानना शुरू कर देते हैं तो समाज का अस्तित्व कायम होना शुरू हो जाता है। उन दोनों के बीच में एक-दूसरे की तरफ व्यवहार ज़रूरी है।

वास्तव में समाज, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। व्यक्ति जो एक स्थान पर रहते हैं उनके बीच आपसी सम्बन्ध होते हैं और एक-दूसरे के साथ लाभ जुड़े होते हैं। वह एक-दूसरे के ऊपर निर्भर होते हैं और इस प्रकार समाज का निर्माण करते हैं।

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प्रश्न 2.
व्यक्ति तथा समाज अन्तःसम्बन्धित हैं। तर्क दीजिए।
उत्तर-
ग्रीक (यूनानी) फ़िलॉस्फर अरस्तु (Aristotle) ने कहा था कि “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” इस का अर्थ यह है कि मनुष्य समाज में रहता है। समाज के बिना मनुष्य की कीमत कुछ भी नहीं है। वह मनुष्य जो और मनुष्यों के साथ मिलकर साझे जीवन को नहीं निभाता, वह मनुष्यता के नीचे स्तर से है। मनुष्य को लंबा जीवन जीने के लिए बहुत सारी ज़रूरतों के लिए अन्य मनुष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। उसे अपनी सुरक्षा, भोजन, शिक्षा, सामान, कई प्रकार की सेवाओं के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। मनुष्य को हम सामाजिक प्राणी तीन अलग-अलग आधारों पर कह सकते हैं

1. मनुष्य प्रकृति से सामाजिक है (Man is social by nature)-सबसे पहले मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है। मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। कोई भी समाज से अलग रह कर आम तरीके से विकास नहीं कर सकता। बहुत-से समाजशास्त्रियों ने अनुभव किए हैं कि जो बच्चे समाज से अलग रह कर के बड़े हुए हैं वह सही तरह विकास नहीं कर सके हैं। यहाँ तक कि एक बच्चा 17 साल की उम्र का होकर भी सही तरह से चल नहीं सकता है। उसको शिक्षा देने के बाद भी वह साधारण मनुष्यों की भांति नहीं रह सका।

इसके साथ का एक केस हमारे सामने आया। 1920 में दो हिन्दू बच्चे एक भेड़िए की गुफ़ा में मिले थे। उनमें से एक बच्चा तो मिलने से कुछ समय बाद ही मर गया था पर दूसरे बच्चे ने अजीब तरह से व्यवहार किया। वह मनुष्यों की भाँति चल नहीं सकता था। वह उनकी तरह खा भी नहीं सकता था और बोल भी नहीं सकता था। वह जानवरों की तरह चार हाथों पैरों के भार चलता था, उस के पास कोई भाषा नहीं थी और वह भेड़िए की तरह चीखता था। वह बच्चा मनुष्यों से डरता था। उसके बाद उस बच्चे के साथ हमदर्दी और प्यार भरा व्यवहार अपनाया गया जिसके कारण वह कुछ सामाजिक आदतें और व्यवहार सीख सका।

एक और केस अमेरिका में एक बच्चे के साथ प्रयोग किया गया। उस बच्चे के माता-पिता का पता नहीं था। उसको 6 महीने की उम्र से ही एक कमरे में एकांत में रखा गया। 5 साल बाद देखा गया कि वह बच्चा न तो चल सकता है और न ही बोल सकता है तथा वह और मनुष्यों से भी डरता था।

यह सभी उदाहरण यह साबित करते हैं कि मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है। मनुष्य उस स्थिति में ही ठीक तरह से विकास कर सकते हैं जब वह समाज में रहते हों और अपने जीवन को दूसरे मनुष्यों के साथ बाँटते हों। उपरोक्त उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि उन बच्चों में मनुष्यों जैसा सामर्थ्य तो था पर सामाजिक समझौतों की कमी में वह सामाजिक तौर पर विकास करने में असमर्थ रहे। समाज में ऐसी चीज़ है जो मनुष्य की प्रकृति की आवश्यक चीज़ों को पूरा करती है। यह कोई भगवान् द्वारा थोपी गई चीज़ नहीं है बल्कि मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है।

2. आवश्यकता इन्सान को सामाजिक बनाती है (Necessity makes a man social)—मनुष्य समाज में इसलिए रहता है क्योंकि उसको समाज से बहुत कुछ चाहिए होता है। यदि वह समाज के दूसरे सदस्यों के साथ सहयोग नहीं करेगा तो उसकी बहुत-सी ज़रूरतें पूरी नहीं होंगी। हर बच्चा आदमी और औरत के आपसी सम्बन्धों का परिणाम होता है, बच्चा अपने माँ-बाप की देख-रेख में बड़ा होता है और अपने माँ-बाप के साथ रहते हुए वह बहुत कुछ सीखता है। बच्चा अपने अस्तित्व के लिए लिए पूरी तरह समाज पर निर्भर करता है। यदि एक नए जन्मे बच्चे को समाज की सुरक्षा न मिले तो शायद वह नया जन्मा बच्चा एक दिन भी जिंदा न रह सके। मनुष्य का बच्चा इतना असहाय होता है कि उसको समाज की सहायता की आवश्यकता पड़ती ही है। हम उसके खाने, कपड़े और रहने की ज़रूरतें पूरी करते हैं क्योंकि हम सब समाज में रहते हैं और सिर्फ समाज में रह कर ही ये आवश्यकताएं पूरी हो सकती हैं। ऊपर दी गई उदाहरणों ने यह साबित किया है कि जो बच्चे जानवरों द्वारा बड़े किए जाते हैं वह आदतों से जानवर ही रहते हैं। बच्चे के शारीरिक विकास और मानसिक विकास के लिए समाज का होना आवश्यक है। कोई भी तब तक मनुष्य नहीं कहलाता जब तक वह मनुष्य के समाज में अन्य मनुष्यों के साथ न रहे। खाने की भूख हमें अन्य लोगों के साथ सम्बन्ध बनाने को बाध्य करती है इसलिए हमें कुछ काम करने पड़ते हैं तथा यह काम औरों के साथ सम्बन्ध बनाते हैं। इस तरह सिर्फ मनुष्य की प्रकृति के कारण ही नहीं बल्कि अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए समाज में रहता है।

3. समाज व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाता है (Society makes personality)- मनुष्य समाज में अपने शारीरिक एवं मानसिक पक्ष को विकसित करने के लिए रहता है। समाज अपनी संस्कृति और विरासत को संभाल कर रखता है ताकि इसको अपनी अगली पीढ़ी को सौंपा जा सके। यह हमें स्वतन्त्रता भी देता है ताकि हम अपने गुणों को निखार सकें और अपने व्यवहार, इच्छाओं, विश्वास, रीतियों इत्यादि को परिवर्तित कर सकें। समाज के बिना व्यक्ति का मन एक बच्चे के मन की भाँति होता है। हमारी संस्कृति और हमारी विरासत हमारे व्यक्तित्व को बनाती हैं क्योंकि हमारे व्यक्तित्व पर सबसे ज्यादा प्रभाव हमारी संस्कृति का होता है। समाज सिर्फ हमारी शारीरिक आवश्यकताएं ही नहीं बल्कि मानसिक आवश्यकताओं को भी पूरी करता है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है। यदि मनुष्य मनुष्यों की तरह रहना चाहता है तो उसको समाज की ज़रूरत है। उसको सिर्फ एक दो या कुछ आवश्यकताओं के लिए ही नहीं बल्कि अपने व्यक्तित्व को बनाने के लिए भी समाज की आवश्यकता पड़ती है।

व्यक्तियों के बिना समाज भी अस्तित्व में नहीं आ सकता। समाज कुछ नहीं है बल्कि सम्बन्धों का एक जाल है और सम्बन्ध सिर्फ व्यक्तियों में ही हो सकते हैं। इसीलिए यह एक-दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों के बीच सम्बन्ध एक तरफ़ा नहीं है। यह दोनों एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए ज़रूरी हैं। व्यक्तियों को सिर्फ जीव नहीं कहा जा सकता और समाज सिर्फ मनुष्य की ज़रूरतों को पूरा करने का साधन नहीं है। समाज वह है जिसके बिना व्यक्ति नहीं रह सकते तथा व्यक्ति वह है जिनके बिना समाज अस्तित्व में नहीं आ सकता। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या समाज से ज्यादा मनुष्य ज़रूरी है या मनुष्यों से ज्यादा समाज ज़रूरी है। यह प्रश्न उस प्रश्न के समान है कि दुनिया में पहले मुर्गी आई या अंडा। वास्तविकता यह है कि सभी मनुष्य समाज में पैदा हुए हैं और पैदा होते ही समाज में डाल दिए जाते हैं। कोई भी पूर्ण रूप में व्यक्तिगत नहीं हो सकता और न ही कोई पूर्ण रूप में सामाजिक हो सकता है।

वास्तव में ये दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों में से यदि एक भी न हो तो दूसरे का होना मुश्किल है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज ही व्यक्ति में स्वैः (Self) का विकास करता है। समाज में रहकर ही व्यक्ति सामाजिक आदतों को ग्रहण करता है और सामाजिक बनता है। इसके साथ समाज व्यक्तियों के बिना नहीं बन सकता। समाज बनाने के लिए कम-से-कम दो व्यक्तियों की ज़रूरत पड़ती है। उनके बीच सम्बन्ध होना भी ज़रूरी है। इस तरह समाज व्यक्तियों के बीच में पैदा हुए सम्बन्धों का जाल है। इस तरह एक का अस्तित्व दूसरे पर निर्भर करता है। एक की अनुपस्थिति से दूसरे का अस्तित्व मुमकिन नहीं है।

प्रश्न 3.
समुदाय से आप क्या समझते हैं ? समुदाय की विशेषताओं की विस्तृत चर्चा कीजिए।
उत्तर–
प्रत्येक समाज में अलग-अलग प्रकार के समूह पाए जाते हैं। इन अलग-अलग प्रकार के समूहों को अलग-अलग प्रकार के नाम दिए गए हैं और समुदाय इन नामों में से एक है। समुदाय अपने आप में एक समाज है और यह एक निश्चित क्षेत्र में होता है जैसे-कोई गाँव अथवा शहर। जब से मनुष्य ने एक जगह पर रहना शुरू किया है तब से ही वह समुदाय में रहता आया है। सबसे पहले जब मनुष्य ने कृषि करनी शुरू की उस समय से ही व्यक्ति ने समुदाय में रहना शुरू कर दिया है क्योंकि व्यक्ति एक ही स्थान पर रहना शुरू हो गया और इसके साथ लेन-देन शुरू हो गया।

समाजशास्त्र में समुदाय का अर्थ- समाजशास्त्र में इस शब्द समुदाय के व्यापक अर्थ हैं। साधारण शब्दों में जब कुछ व्यक्ति एक समूह में, एक विशेष इलाके में संगठित रूप से रहते हैं और वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही उधर बिताते हैं तब उसको हम समुदाय कहते हैं। यह एक मूर्त संकल्प है। समुदाय की स्थापना जान-बूझ कर नहीं की जाती। इसका जन्म भी नहीं होता इसका तो विकास होता है और अपने आप ही हो जाता है। जब लोग इलाके में रहते हैं और सामाजिक प्रक्रियाएँ करते हैं तो यह अपने आप ही विकास कर जाता है। समुदाय का अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जहाँ सदस्य अपनी ज़रूरतें खुद ही पूरी कर लेते हैं क्योंकि सदस्यों में आपस में लेन-देन होता है। समुदाय के सदस्य अपनी हर प्रकार की ज़रूरत को खुद ही पूरा कर लेते हैं। जब व्यक्ति ज़रूरतें पूरी करने के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं तो उनमें साझ पैदा हो जाती है जिसके कारण हम भावना उत्पन्न हो जाती है। जब लोग आपस में मिलकर रहते हैं तो उनमें कुछ नियम भी उत्पन्न हो जाते हैं।

समुदाय की विशेषताएं या तत्त्व (Characteristics or Elements of Community) –

1. हम भावना (We feeling)—समुदाय की यह विशेषता होती है कि इसमें हम भावना होती है। हम भावना के कारण ही समुदाय का हर सदस्य अपने आपको एक-दूसरे से अलग नहीं समझता बल्कि उन पर विश्वास करते हैं कि वह सब एक हैं। वह औरों जैसा और औरों में से एक है।

2. भूमिका की भावना (Role feeling) समुदाय की दूसरी विशेषता यह है कि इसके सदस्यों में भूमिका की भावना होती है। समुदाय में हर किसी को कोई-न-कोई पद और भूमिका प्राप्त होती है और उन को पता होता है कि उन्होंने कौन-से काम करने हैं और कौन-से कर्तव्यों का पालन करना है ।

3. निर्भरता (Dependence)-समुदाय की एक और विशेषता यह होती है कि समुदाय के सदस्य अपनी ज़रूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और अकेले एक व्यक्ति के लिए समुदाय से अलग रहना सम्भव नहीं है। व्यक्ति सभी कार्य अकेले नहीं कर सकता। इसीलिए उसको अपने बहुत सारे कार्यों के लिए औरों पर निर्भर रहना पड़ता है।

4. स्थिरता (Permanence)—समुदाय में स्थिरता होती है। इसके सदस्य अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी होते हैं। यदि कोई व्यक्ति कुछ समय के लिए समुदाय छोड़कर चला जाता है तो कोई बात नहीं फिर भी वह अपने समुदाय से जुड़ा रहता है। यदि कोई अपना समुदाय छोड़कर विदेश चला जाता है तो समुदाय का दायरा बढ़ने लग जाता है क्योंकि बाहरी देश में जाने के बाद भी व्यक्ति अपने समुदाय को भूलता नहीं है। आज-कल कोई व्यक्ति सिर्फ एक समुदाय का सदस्य नहीं है। अलग-अलग समय में व्यक्ति अलग-अलग समुदाय का सदस्य होता है। इसलिए व्यक्ति चाहे जिस भी समुदाय का सदस्य हो उसमें भी स्थिरता रहती है।

5. आम जीवन (Common life)-समुदाय का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। उसका सिर्फ एक ही उद्देश्य होता है कि सारे अपना जीवन आराम से बिता सकें और मनुष्य अपना जीवन समुदाय में रहते हुए ही बिता देता है।

6. भौगोलिक क्षेत्र (Geographical Area) हर समुदाय का अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है जिसमें वह रहता है। बिना किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के समुदाय नहीं बन सकता।

7. अपने आप जन्म (Spontaneous Birth) समुदाय अपने आप ही पैदा हो जाता है। समुदाय का कोई विशेष इरादा नहीं होता। इसकी स्थापना जान-बूझ कर नहीं की जाती। जिस जगह पर व्यक्ति अधिक समय के लिए रहना शुरू कर देते हैं उधर समुदाय अपने आप पैदा हो जाता है। समुदाय उसको वे सभी सहूलतें देते हैं जिसके साथ मनुष्य अपनी ज़रूरतें आराम से पूरी कर सकता है।

8. विशेष नाम (Particular Name)-प्रत्येक समुदाय को एक विशेष नाम दिया जाता है जोकि समुदाय के बनने के लिए आवश्यक है।

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प्रश्न 4.
समुदाय को परिभाषित कीजिए। समुदाय किस अर्थ में समाज से भिन्न है ? चर्चा कीजिए।
उत्तर-
नोट- समुदाय की परिभाषा-इसके लिए प्रश्न देखें 3.
समुदाय तथा समाज में अंतर (Difference between Community and Society)

  1. समाज व्यक्तियों का समूह है जो स्वयं ही विकसित हो जाता है परन्तु समुदाय चाहे स्वयं ही विकसित होता है परन्तु यह होता किसी विशेष क्षेत्र में है।
  2. समाज का कोई विशेष भौगोलिक क्षेत्र नहीं होता परन्तु समुदाय का एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र होता है।
  3. समाज का कोई विशेष नाम नहीं होता परन्तु समुदाय का एक विशेष नाम होता है।
  4. समाज सामाजिक संबंधों पर आधारित होता है जिस कारण यह अमूर्त होता है परन्तु समुदाय एक मूर्त संकल्प है।
  5. प्रत्येक समाज अपने आप में आत्मनिर्भर नहीं होता परन्तु प्रत्येक समुदाय अपने आप में आत्मनिर्भर होता है जिस कारण यह अपने सदस्यों की सभी आवश्यकताएं पूर्ण कर सकता है।
  6. समाज के सदस्यों के बीच हम भावना नहीं होती परन्तु समुदाय के सदस्यों के बीच हम भावना होती है।

प्रश्न 5.
समुदाय तथा समिति के मध्य अन्तर कीजिए।
उत्तर-
समुदाय तथा समिति में अन्तर-

  1. समुदाय अपने आप में विकसित होता है, इसको बनाया नहीं जाता जबकि समिति का निर्माण जानबूझ कर किया जाता है।
  2. समुदाय का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। यह सभी के हितों की पूर्ति करता है जबकि समितियों का एक निश्चित उद्देश्य होता है।
  3. एक व्यक्ति एक समय में सिर्फ एक समुदाय का सदस्य होता है जबकि व्यक्ति एक ही समय में कई समितियों का सदस्य हो सकता है।
  4. समुदाय की सदस्यता व्यक्ति की ज़रूरत होती है जबकि समिति की सदस्यता ऐच्छिक होती है।
  5. समुदाय के लिए एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र का होना ज़रूरी है जबकि समिति के लिए यह जरूरी नहीं है।
  6. समुदाय अपने आप में एक उद्देश्य होता है जबकि समिति किसी उद्देश्य को पूरा करने का साधन होती है।
  7. समुदाय स्थायी होता है पर समिति अस्थायी होती है।
  8. व्यक्ति समुदाय में पैदा होता है और इसमें ही मर जाता है पर व्यक्ति समिति में इसीलिए हिस्सा लेता है क्योंकि उसको किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति करनी होती है।
  9. समुदाय का कोई वैधानिक दर्जा नहीं होता पर समिति का वैधानिक दर्जा होता है।

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प्रश्न 6.
समाज तथा सभा के मध्य अन्तर की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
1. सभा व्यक्तियों का समूह है जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए निर्मित की जाती है परन्तु समाज व्यक्तियों का समूह है जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि स्वयं ही विकसित हो जाता है।

2. सभा की सदस्यता व्यक्ति के लिए ऐच्छिक होती है तथा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात् इनकी सदस्यता छोड़ भी सकता है परन्तु समाज की सदस्यता ऐच्छिक नहीं होती बल्कि आवश्यक होती है तथा व्यक्ति को तमाम आयु समाज का सदस्य बन कर रहना पड़ता है। .

3. सभा एक मूर्त व्यवस्था है क्योंकि यह लोगों की आवश्यकताओं पर आधारित होती है परन्तु समाज अमूर्त व्यवस्था है क्योंकि यह सामाजिक संबंधों पर आधारित होता है जोकि अमूर्त होते हैं।

4. सभा चेतन रूप से लोगों के प्रयासों से विकसित होती है परन्तु समाज स्वयं ही विकसित हो जाते हैं तथा इसमें चेतन प्रयासों की आवश्यकता नहीं होती।

5. सभा का एक औपचारिक ढांचा होता है जिसमें प्रधान, सैक्रेटरी, कैशियर, सदस्य इत्यादि होते हैं तथा इनका चुनाव निश्चित समय के लिए होता है परन्तु समाज का कोई औपचारिक ढांचा नहीं होता तथा सभी व्यक्ति ही इसके सदस्य होते हैं। यह तमाम आयु इसकी सदस्यता नहीं छोड़ सकते।

6. सभा की उत्पत्ति केवल उन व्यक्तियों के प्रयासों का परिणाम होती है जिनके इसके साथ उद्देश्य जुड़े हुए होते हैं परन्तु समाज की उत्पत्ति सभी लोगों की सहमति से होती है तथा इसके साथ किसी व्यक्ति विशेष का स्वार्थ नहीं जुड़ा होता।

7. व्यक्ति अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के पश्चात् सभा को अचानक ही खत्म कर देते हैं परन्तु कोई भी व्यक्ति को तोड़ नहीं सकता तथा इसका अस्तित्व खत्म नहीं हो सकता।

8. सभा की उत्पत्ति विचार से नहीं बल्कि उद्देश्य से संबंधित होती है परन्तु समाज की उत्पत्ति सामाजिक संबंधों पर निर्भर करती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) :

प्रश्न 1.
यह शब्द किसके हैं-“मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।”
(A) मैकाइवर
(B) वैबर
(C) अरस्तु
(D) प्लेटो।
उत्तर-
(D) प्लेटो।

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प्रश्न 2.
समाज के निर्माण के लिए समानता तथा अन्तरों की क्या आवश्यकता है ?
(A) सम्बन्ध बनाने के लिए
(B) सामाजिक प्रगति के लिए
(C) समाज को जनसंख्यात्मक रूप में आगे बढ़ाने के लिए
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
मार्क्स के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे पहला समाज कौन-सा था ?
(A) आदिम साम्यवादी
(B) सामन्तवादी
(C) दास मूलक
(D) पूंजीवादी।
उत्तर-
(A) आदिम साम्यवादी।

प्रश्न 4.
व्यक्ति और व्यक्तियों के साथ सामाजिक सम्बन्ध क्यों बनाता है ?
(A) अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
(B) स्वयं निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए
(C) अपने आपको स्वार्थी व्यक्तियों के उत्पीड़न से बचने के लिए
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 5.
व्यक्ति एवं समाज एक-दूसरे के …….. माने जाते हैं।
(A) विरुद्ध
(B) पूरक
(C) समान
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(B) पूरक।

प्रश्न 6.
इनमें से समाज में क्या पाया जाता है ?
(A) समानता
(B) सहयोग
(C) संघर्ष
(D) संघर्ष तथा सहयोग।
उत्तर-
(D) संघर्ष तथा सहयोग।

प्रश्न 7.
व्यक्तियों का एक संगठन जो किन्हीं सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया गया है, उसे क्या कहते है ?
(A) एक समाज
(B) समाज
(C) समूह
(D) एक संगठन।
उत्तर-
(A) एक समाज।

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प्रश्न 8.
इनमें से कौन समुदाय के बीच नहीं आता ?
(A) केरल के लोग दिल्ली में
(B) अमेरिका में जन्मे लोग
(C) ट्रेड यूनियन आन्दोलन
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(D) कोई नहीं।

प्रश्न 9.
समाज किसका जाल है ?
(A) सामाजिक परिमापों का
(B) एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों का
(C) व्यक्तिगत रिश्तों का
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(B) एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों का।

प्रश्न 10.
व्यक्ति तथा समाज में क्या सम्बन्ध है ?
(A) मनुष्य प्रकृति से सामाजिक है तथा वह अकेला नहीं रह सकता
(B) मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के लिए समाज में रहता है
(C) समाज व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाता है
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. समाज ……………. पर आधारित होता है।
2. समुदाय लोगों की ……………. से स्वयं ही विकसित हो जाता है।
3. …………. की स्थापना विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच समझ कर की जाती है।
4. ………….. की सदस्यता व्यक्ति की इच्छा पर आधारित होती है।
5. समाज ……… होता है।
6. ……….. समाज में टोटम का महत्त्व होता है।
7. ………. की सदस्यता औपचारिक होती है।
उत्तर-

  1. सामाजिक संबंधों,
  2. अन्तक्रियाओं,
  3. समिति,
  4. समिति,
  5. अमूर्त,
  6. आदिवासी,
  7. समिति।

III. सही गलत (True/False) :

1. समाज की सदस्यता व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करती है।
2. समाज सामाजिक संबंधों के कारण बनता है।
3. समुदाय स्वयं विकसित होता है।
4. समिति का निर्माण जानबूझ कर दिया जाता है।
5. समिति की सदस्यता अनौपचारिक होती है।
6. मानवीय समाज में भाषा का बहुत महत्त्व होता है।
7. संस्था किसी कार्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिमापों की व्यवस्था है।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. सही,
  5. गलत,
  6. सही,
  7. सहीं।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
व्यक्तियों के समूह को कौन समाज कहता है ?
उत्तर-
एक साधारण व्यक्ति, व्यक्तियों के समूह को समाज कहता है।

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प्रश्न 2.
अगर समाज के सदस्यों के बीच सहयोग खत्म हो जाए तो क्या होगा ?
उत्तर-
अगर समाज के सदस्यों के बीच सहयोग खत्म हो जाए तो समाज खत्म हो जाएगा।

प्रश्न 3.
समाज………..पर आधारित है।
उत्तर-
समाज सम्बन्धों पर आधारित है।

प्रश्न 4.
किसने कहा था कि, “समाज समानताओं एवं असमानताओं के बिना चल नहीं सकता।”
उत्तर-
यह शब्द वैस्टमार्क के हैं।

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प्रश्न 5.
किताब SOCIETY का लेखक………….है।
उत्तर-
किताब SOCIETY के लेखक मैकाइवर तथा पेज हैं।

प्रश्न 6.
समाज अमूर्त क्यों होता है ?
उत्तर-
क्योंकि समाज सम्बन्धों का जाल है तथा सम्बन्ध अमूर्त होते हैं और हम सम्बन्धों को देख नहीं सकते।

प्रश्न 7.
समाज की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-
समाज सम्बन्धों पर आधारित होता है तथा भिन्नताओं और समानताओं पर आधारित होता है।

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प्रश्न 8.
समाज क्या होता है ?
उत्तर-
साधारण शब्दों में, व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं, परन्तु समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों के जाल को समाज कहते हैं।

प्रश्न 9.
समाज का प्रमुख आधार क्या होता है ?
उत्तर-
समाज की इकाइयों अर्थात् व्यक्तियों में पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्ध समाज के प्रमुख आधार हैं।

प्रश्न 10.
समुदाय क्या है ?
उत्तर-
समुदाय मनुष्यों का एक भौगोलिक समूह है जहाँ व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है।

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प्रश्न 11.
क्या मनुष्यों में सभी समूह समुदाय होते हैं ?
उत्तर-
जी नहीं, वे संस्थाएं अथवा कई अन्य प्रकार के समूह भी हो सकते हैं।

प्रश्न 12.
समुदाय का शाब्दिक अर्थ बताएं।
उत्तर-
समुदाय शब्द अंग्रेज़ी के Community शब्द का हिन्दी रूपांतर है जिसका अर्थ है इकट्ठे मिलकर बनाना।

प्रश्न 13.
शब्द Community किन दो लातीनी शब्दों को मिलाकर बना है ?
उत्तर-
शब्द Community लातीनी भाषा के शब्दों Com तथा Munus से मिलकर बना है।

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प्रश्न 14.
समुदाय कैसे विकसित होता है ?
उत्तर-
समुदाय लोगों की अंतक्रियाओं से स्वयं ही विकसित हो जाता है।

प्रश्न 15.
समुदाय का जन्म किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
समुदाय का जन्म अपने आप ही हो जाता है।

प्रश्न 16.
क्या समुदाय में सामुदायिक भावना होती है ?
उत्तर-
जी हाँ, समुदाय में सामुदायिक भावना होती है।

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प्रश्न 17.
सभा क्या है ?
उत्तर-
जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं तथा संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं।

प्रश्न 18.
सभा की स्थापना कैसे होती है ?
उत्तर-
सभा की स्थापना विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच-समझ कर की जाती है।

प्रश्न 19.
सभा की सदस्यता का आधार क्या है ?
उत्तर-
सभा की सदस्यता का आधार व्यक्ति की इच्छा है अर्थात् वह अपनी इच्छा से सभा का सदस्य बनता है।

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प्रश्न 20.
सभा की सदस्यता किस प्रकार की होती है ?
उत्तर-
सभा की सदस्यता औपचारिक होती है।

प्रश्न 21.
सभा तथा समुदाय में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-
समुदाय अपने आप विकसित होता है। इसे बनाया नहीं जाता परन्तु किसी संभा का निर्माण चेतन प्रयासों से किया जाता है।

अति लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज।
उत्तर-
समाज का अर्थ केवल लोगों के इकट्ठे होने से नहीं है बल्कि समाज के लोगों में पाए जाने वाले संबंधों के जाल से है जिससे लोग एक-दूसरे से जुड़े होते थे। तब लोगों के बीच संबंध बनते हैं तो समाज का निर्माण होता है।

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प्रश्न 2.
समाज की परिभाषा।
उत्तर-
पारसन्ज़ के अनुसार, “समाज को उन संबंधों की पूर्ण जटिलता के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है जो कार्यों के करने से उत्पन्न हुए हों तथा यह कार्य व उद्देश्य के रूप में किए गए हों चाहे वह आंतरिक हों या सांकेतिक।”

प्रश्न 3.
समाज की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  1. समाज संबंधों पर आधारित होता है, लोगों के बीच बिना संबंधों के समाज का निर्माण नहीं हो सकता।
  2. समाज समानताओं तथा भिन्नताओं पर आधारित होता है। दोनों के बिना समाज कायम नहीं हो सकता।

प्रश्न 4.
अमूर्तता।
उत्तर-
समाज अमूर्त होता है क्योंकि यह संबंधों का जाल है। इन संबंधों को हम देख नहीं सकते तथा न ही स्पर्श कर सकते हैं। इन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है क्योंकि हम इन्हें स्पर्श नहीं कर सकते इसलिए यह अमूर्त होता है।

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प्रश्न 5.
समाज में भाषा का महत्त्व।
उत्तर-
मानवीय समाज में भाषा का बहुत महत्त्व होता है क्योंकि भाषा ही अपने विचार व्यक्त करने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है। बिना भाषा के संबंध स्थापित नहीं हो सकते तथा समाज स्थापित नहीं हो सकता ।

प्रश्न 6.
मानवीय समाज तथा पशुओं के समाज में एक अन्तर।
उत्तर-
मानवीय समाज में केवल मनुष्य ही है जो बोल सकते हैं तथा अपने विचारों को स्पष्ट रूप दे सकते हैं। अन्य कोई पशु या प्राणी बोल नहीं सकता। वह केवल तरह-तरह की आवाजें निकाल सकते हैं।

प्रश्न 7.
समुदाय।
उत्तर-
जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष इलाके में संगठित रूप में रहते हैं तथा वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही वहीं व्यतीत करते हैं तो उसे हम समुदाय कहते हैं।

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प्रश्न 8.
समुदाय का शाब्दिक अर्थ।।
उत्तर-
समुदाय अंग्रेज़ी के Community का हिंदी रूपांतर है। यह लातीनी भाषा के दो शब्दों Com जिसका अर्थ है इकट्ठे मिलकर रहना तथा Munus जिसका अर्थ है बनाना, से मिल कर बना है तथा इकट्ठे होकर इसका अर्थ है इकट्ठे मिल कर बनाना।

प्रश्न 9.
सभा का अर्थ।
उत्तर-
सभा सहयोग के ऊपर आधारित होती है। जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं तथा संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं।

प्रश्न 10.
सभा की परिभाषा।
उत्तर-
गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “सभा व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो किसी निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए परस्पर संबंधित होते हैं तथा स्वीकृत कार्य प्रणालियों तथा व्यवहारों द्वारा संगठित रहते हैं।”

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प्रश्न 11.
संस्था का अर्थ।
उत्तर-
संस्था किसी कार्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिमापों की व्यवस्था है। संस्था तो किसी विशेष महत्त्वपूर्ण मानवीय क्रिया के द्वारा केंद्रित रूढ़ियों तथा लोकरीतियों का गुच्छा है। संस्थाएं तो संरचित प्रक्रियाएं हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने कार्य करता है।

प्रश्न 12.
संस्था का एक आवश्यक तत्त्व।
उत्तर-
विचार संस्था का आवश्यक तत्त्व है। किसी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए एक विचार की शुरुआत होती है जिसे समूह अपने लिए आवश्यक समझता है। इस कारण इसकी रक्षा के लिए संस्था विकसित होती है।

प्रश्न 13.
संस्था के प्रकार।
उत्तर-
वैसे तो संस्थाएं कई प्रकार की होती हैं परन्तु यह मुख्य रूप से चार प्रकार की होती हैं तथा वह हैं-

  1. सामाजिक संस्थाएं
  2. धार्मिक संस्थाएं
  3. राजनीतिक संस्थाएं
  4. तथा आर्थिक संस्थाएं।

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लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज का अर्थ।
उत्तर-
जब समाजशास्त्री समाज शब्द का उपयोग करते हैं तो उनका अभिप्राय केवल लोगों के योग मात्र से नहीं बल्कि उनका अर्थ होता है। समाज के लोगों में पाए गए सम्बन्धों के जाल से जिससे लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। केवल कुछ लोग इकट्ठे करने से समाज नहीं बन जाता। समाज केवल तब ही बनता है जब समाज के उन लोगों में अर्थ पूर्ण सम्बन्ध बन जाते हैं। यह सम्बन्ध अमूर्त होते हैं हम इन्हें देख नहीं सकते हैं। यह जीवन के हर रूप में मौजूद होते हैं इन सम्बन्धों को एक-दूसरे से भिन्न नहीं किया जा सकता। यह तो आपस में इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि इनको अलग करना कठिन है। यह सभी सम्बन्ध जो व्यक्तियों में होते हैं, इनके जाल को ही समाज कहते हैं। इन्हें हम देख नहीं सकते इसलिए यह अमूर्त होते हैं।

प्रश्न 2.
समाज की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. समाज सामाजिक सम्बन्धों पर आधारित होता है।
  2. समाज भिन्नताओं व समानताओं पर आधारित होता है।
  3. समाज के व्यक्ति एक-दूसरे पर अन्तर्निर्भर होते हैं।
  4. समाज अमूर्त होता है, क्योंकि यह सम्बन्धों का जाल है।
  5. समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त उसकी जनसंख्या होती है।
  6. समाज में सहयोग व संघर्ष ज़रूरी होता है।

प्रश्न 3.
समुदाय।
उत्तर-
आम शब्दों में, जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष क्षेत्र में संगठित रूप से रहते हैं व वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही वहां बिताते हैं तो उसको हम समुदाय कहते हैं। यह एक मूर्त संकल्प है। समुदाय की स्थापना जान-बूझ कर नहीं की जाती। इसका तो विकास अपने आप ही हो जाता है।

समुदाय का अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जहां सदस्य आप अपनी ज़रूरतों को पूरा कर लेते हैं। जब वह आपस में अपनी ज़रूरतें पूरी करते हैं तो उनमें ‘हम’ की भावना पैदा हो जाती है।

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प्रश्न 4.
समुदाय की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. प्रत्येक समुदाय में ‘हम’ की भावना होती है।
  2. समुदाय के सदस्यों में एकता की भावना होती है।
  3. समुदाय के सदस्य अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं।
  4. समुदाय में स्थिरता होती है व इसके सदस्य अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी होते हैं।
  5. समुदाय के लोग समुदाय में ही अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं।
  6. प्रत्येक समुदाय का अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है जिस में वह रहता है।
  7. समुदाय का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। यह तो अपने आप ही पैदा हो जाता है।

प्रश्न 5.
सभा।
उत्तर-
सभा सहयोग पर आधारित होती है। जब कुछ लोग विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं व संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं। आम शब्दों में, किसी विशेष उद्देश्य के लिए बनाए गए संगठन को सभा कहते हैं। सभा का एक निश्चित उद्देश्य होता है जिसकी पूर्ति के बाद इसको छोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 6.
सभा की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. सभा व्यक्तियों का समूह होती है।
  2. सभा की स्थापना किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच-विचार कर की जाती है।
  3. सभा के निश्चित उद्देश्य होते हैं।
  4. सभा का जन्म व विनाश होता रहता है।
  5. सभा की सदस्यता व्यक्ति की इच्छा पर आधारित होती है।
  6. सभा की सदस्यता पारम्परिक होती है।
  7. प्रत्येक सभा अपने कुछ अधिकारियों का चनाव करती है।
  8. प्रत्येक सभा के कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं।

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बड़े उत्तरों वाले प्रश्न :

प्रश्न 1.
समाज का अर्थ, परिभाषाओं तथा विशेषताओं के साथ बताएं।
उत्तर-
समाज का अर्थ-
साधारण भाषा में समाज का अर्थ ‘व्यक्तियों के समूह’ से लिया जाता है। बहुत से विद्वान् इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में करते हैं। इस प्रकार समाज का अर्थ किसी समूह के व्यक्तियों द्वारा लिया जा सकता है अपितु उनके मध्य के रिश्तों से नहीं। कभी-कभी समाज के अर्थ को किसी संस्था के नाम से भी लिया जाता है जैसेआर्य समाज, ब्रह्म समाज इत्यादि। इस प्रकार साधारण व्यक्ति की भाषा में समाज का अर्थ इन्हीं अर्थों में लिया जाता है, परन्तु समाजशास्त्र में इस शब्द का अर्थ कुछ और ही अर्थों में लिया जाता है।

समाजशास्त्र में ‘समाज’ शब्द का अर्थ लोगों के समूह से नहीं लिया जाता अपितु उनके बीच में पैदा हुए रिश्तों के फलस्वरूप जो सम्बन्ध पैदा हुए हैं उनसे लिया जाता है। सामाजिक रिश्तों में लोगों का बहुत महत्त्व होता है। वे समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं यह एक प्रक्रिया है न कि वस्तु। समाज में एक आवश्यक वस्तु लोगों के बीच के रिश्ते एवं अन्तर्सम्बन्धों के बीच के नियम हैं जिसके साथ समाज के सदस्य एक-दूसरे के साथ रहते हैं। जब समाजशास्त्री समाज शब्द का अर्थ साधारण रूप में करते हैं तो उनका अर्थ समाज में होने वाले सामाजिक सम्बन्धों के जाल से है और जब वह समाज शब्द को विशेष रूप में प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ होता है कि समाज उन व्यक्तियों का समूह है जिनमें विशेष प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते हैं।

समाज (Society)—जब समाजशास्त्री ‘समाज’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ सिर्फ लोगों के समूह मात्र से नहीं होता बल्कि उनका अर्थ होता है समाज के लोगों में पाए जाने वाले सम्बन्धों के जाल से जिसके साथ लोग एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। सिर्फ कुछ लोगों को इकट्ठा करने से ही समाज नहीं बन जाता। समाज उस समय ही बनता है जब समाज के उन लोगों में अर्थपूर्ण संबंध स्थापित हो जाएं। यह सम्बन्ध अस्थिर होते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते और न ही इनका कोई ठोस रूप होता है। हम केवल इन्हें महसूस कर सकते हैं। यह जीवन के प्रत्येक रूप में मौजूद होते हैं। इन सम्बन्धों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। यह तो आपस में इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि इनको अलग-अलग करना बहुत मुश्किल है। यह सभी सम्बन्ध जो व्यक्तियों के बीच होते हैं, इनके जाल को ही समाज कहते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते इसीलिए यह अमूर्त होते हैं।

कुछ लेखक यह विचार करते हैं कि समाज तभी बनता है जब इसके सदस्य एक-दूसरे को जानते हों और उनके कुछ आपसी हित हों। उदाहरण के लिए यदि कोई दो व्यक्ति बस में सफर कर रहे हों और एक-दूसरे को जानते न हों, तो वह समाज नहीं बना सकते। परन्तु यदि वही दो व्यक्ति आपस में बातचीत करनी शुरू कर देते हैं, एक-दूसरे के बारे में जानना शुरू कर देते हैं तो समाज का अस्तित्व कायम होना शुरू हो जाता है। उन दोनों के बीच में एक-दूसरे की तरफ व्यवहार ज़रूरी है।

वास्तव में समाज, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। व्यक्ति जो एक स्थान पर रहते हैं उनके बीच आपसी सम्बन्ध होते हैं और एक-दूसरे के साथ लाभ जुड़े होते हैं। वह एक-दूसरे के ऊपर निर्भर होते हैं और इस प्रकार समाज का निर्माण करते हैं।

परिभाषाएँ (Definitions)-
1. मैकाइवर और पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाज व्यवहारों एवं प्रक्रियाओं की, अधिकार एवं परस्पर सहयोग की, अनेक समूहों एवं विभागों की, मानव व्यवहार के नियन्त्रण एवं स्वाधीनता की व्यवस्था है। इस निरन्तर परिर्वतनशील व्यवस्था को हम ‘समाज’ कहते हैं। यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।”

2. गिडिंग्ज़ (Giddings) के अनुसार, “समाज एक संगठन है, यह पारस्परिक औपचारिक सम्बन्धों का ऐसा मेल है जिसके कारण उसके अन्तर्गत सभी व्यक्ति एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं।”

3. टालक्ट पारसन्ज (Talcot Parsons) के अनुसार, “समाज को उन सम्बन्धों की पूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो कार्यों के कारण से पैदा हुए हों और कार्य एवं उद्देश्य के रूप में किए गए हों चाहे वह आन्तरिक हों या सांकेतिक।”

4. कूले (Cooley) के अनुसार, “समाज स्वरूपों या प्रक्रियाओं का एक जाल है जिसमें हर कोई एक-दूसरे के साथ क्रिया करके जीता और आगे बढ़ता है और सभी एक-दूसरे के साथ इस प्रकार जुड़े होते हैं कि एक के प्रभावित होने के साथ बाकी सभी भी प्रभावित होते हैं।”

इस प्रकार समाज की ऊपर लिखी परिभाषाओं को देख कर हम यह कह सकते हैं कि यह परिभाषाएँ दो प्रकार की हैं। पहली प्रकार की हैं कार्यात्मक (Functional) परिभाषाएँ और दूसरी प्रकार की हैं संगठनात्मक (Structural) परिभाषाएँ। कार्यात्मक पक्ष से हम समाज को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं कि यह समूहों का जाल है जिसमें अनुपूरक प्रकार के रिश्ते हों जो एक-दूसरे के साथ और जिन व्यक्तियों को अपने जीवन के काम करने में मदद करें और व्यक्ति को और व्यक्तियों के साथ रहते हुए उस की इच्छाएं पूरी करने में मदद करें।

संगठनात्मक पक्ष से समाज तो हमारे रीति-रिवाजों, आदतों, संस्थाओं, इच्छाओं आदि की एक सामाजिक विरासत है। इस प्रकार समाज कार्यात्मक एवं संगठनात्मक रूप, दोनों के साथ परिभाषित किया गया है कि यह व्यक्तियों के आपसी रिश्तों के साथ बना है और साथ ही साथ यह एक व्यवस्था है, एक जाल है न कि लोगों का एकत्र। हम समाज को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि समाज मनुष्य के सम्बन्धों का वह संगठन है जिसको मनुष्यों द्वारा निर्मित, संचालित और परिवर्तित किया जाता है। सरल शब्दों में समाज एक अमूर्त धारणा है, समाज लोगों का सिर्फ समूह नहीं है। यह समाज सामाजिक सम्बन्धों का संगठन या व्यवस्था है।

समाज की विशेषताएँ (Characteristics of Society) –

1. समाज सम्बन्धों पर आधारित होता है (Society is based on relationships)-मैकाइवर और पेज के अनुसार, “समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।” इसका अर्थ यह हुआ कि समाज सम्बन्धों पर आधारित होता है। यहाँ ‘जाल’ शब्द का प्रयोग क्यों हुआ ? क्योंकि समाज में हजारों प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते हैं। सिर्फ एक परिवार में 15 से ज्यादा तरह के सम्बन्ध पाए जा सकते हैं। इस से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि समाज में कितने प्रकार के सम्बन्ध मौजूद होंगे। समाज केवल मनुष्यों का समूह मात्र नहीं है।

2. समाज अन्तरों और समानताओं पर आधारित होता है (Society depends upon likeness and differences)—समाज अन्तरों एवं समानताओं, दोनों पर आधारित होता है। दोनों के बिना समाज कायम नहीं रह सकता। यह चाहे एक-दूसरे के विरोध में रहती हैं परन्तु यह एक-दूसरे के बिना भी नहीं रह सकतीं। समाज में कभी समानता आती है और कभी अंतर आते है और इसलिए यह एक-दूसरे के पूरक होते हैं। सामाजिक सम्बन्ध तब ही स्थापित हो सकते हैं यदि किसी प्रकार की समानता हो क्योंकि इसके बिना एक-दूसरे के प्रति खिंचाव नहीं उत्पन्न हो सकता और समाज उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त अन्तरों का होना भी आवश्यक है।

3. अन्तर्निर्भरता (Inter-dependence)- समाज के बने रहने के लिए अन्तर्निर्भरता एक आवश्यक तत्त्व है। मनुष्य को अपनी ज़रूरतों को पूरा करने हेतु अन्य व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध रखने पड़ते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की इतनी समर्था नहीं होती कि वह सभी कार्य अपने आप कर सके । उसको अन्य व्यक्तियों पर निर्भर रहना ही पड़ता है। व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे दूसरों पर निर्भर होता जाता है क्योंकि उसकी आवश्यकताएं बढ़ती जाती हैं। इस प्रकार अन्तर्निर्भरता समाज का एक ज़रूरी तत्त्व है।

4. समाज अमूर्त होता है (Society is abstract)-समाज अमूर्त होता है क्योंकि यह सम्बन्धों का जाल है इन सम्बन्धों को हम देख नहीं सकते और न ही स्पर्श सकते हैं। इनको तो हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं। क्योंकि हम सम्बन्धों को स्पर्श नहीं सकते इसीलिए इनका कोई ठोस रूप नहीं होता। इसीलिए यह अमूर्त होते हैं। क्योंकि सम्बन्ध अमूर्त होते हैं इसीलिए सम्बन्धों द्वारा बना समाज भी अमूर्त होता है।

5. जनसंख्या (Population)-समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व मनुष्य है। मनुष्यों के बिना कोई समाज नहीं बन सकता। यदि मनुष्य ही नहीं होंगे तो सम्बन्ध कौन स्थापित करेगा और समाज कैसे बनेगा। व्यक्तियों के अस्तित्व के बिना समाज का अस्तित्व होना नामुमकिन है। इसीलिए ज़रूरी है कि जनसंख्या हो। जनसंख्या के होने के लिए भी कई चीजें ज़रूरी हैं जैसे-जनसंख्या को काफ़ी मात्रा में भोजन उपलब्ध हो, जनसंख्या की हर मुसीबत से सुरक्षा हो, समाज का और जनसंख्या का आगे बढ़ना ज़रूरी है क्योंकि यदि जनसंख्या न बढ़ी तो एक दिन सभी लोग खत्म हो जाएंगे। इस प्रकार जनसंख्या के बिना समाज का बनना नामुमकिन है।

6. समाज में सहयोग और संघर्ष ज़रूरी होता है (Co-operation and conflict are must for society)-जैसे समानताएं और अंतर समाज के अस्तित्व के लिए ज़रूरी हैं उसी प्रकार सहयोग एवं संघर्ष भी समाज के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। सहयोग समाज के निर्माण का एक ज़रूरी तत्त्व है। समाज में मनुष्य रहते हैं और वह एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। यह अन्तर्निर्भरता तब ही होती है यदि उनके बीच सहयोग होगा। एक बच्चे को बड़ा करने में कई हाथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और यह सिर्फ सहयोग पर आधारित है। परिवार भी तब ही आगे बढ़ता है यदि पति-पत्नी आपस में सहयोग करें। इस तरह समाज के हर पक्ष में सहयोग की आवश्यकता है। इसी तरह संघर्ष भी ज़रूरी है। जीवन जीने के लिए व्यक्ति को कई प्रकार की शक्तियों से लड़ना पड़ता है। जीने के लिए व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है।

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प्रश्न 3.
सभा की परिभाषा दें। सभा की विशेषताओं पर विस्तार से लिखें।
अथवा
सभा के अर्थ तथा लक्षणों की व्याख्या करें ।
उत्तर-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी होने के नाते उसकी कुछ आवश्यकताएं भी होती हैं। अपनी इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति कई प्रकार की कोशिशें करता है। वह तीन प्रकार की कोशिशें करता है-

  • पहली कोशिश यह होती है कि वह अपनी आवश्यकताएं बिना किसी सहायता के पूर्ण करें, पर आज कल के आधुनिक समाज में अकेले रह पाना और अकेले ही अपनी ज़रूरतें पूरी कर पाना सम्भव नहीं है।
  • दूसरा तरीका यह होता है वह अपनी आवश्यकता की चीजें दुनिया से छीनकर पूरी कर सके। पर दूसरों से छीनकर अपनी आवश्यकताएं पूरी करना मुमकिन नहीं है क्योंकि यह तरीका गैर-सामाजिक है और मनुष्य समाज में रहते हुए इस तरह के तरीके नहीं अपना सकता।
  • तीसरा आखिरी और सबसे बढ़िया तरीका यह है कि मनुष्य समाज में रहते हुए दूसरों के साथ सहयोग करते हुए अपनी ज़रूरतें पूरी करे क्योंकि यह ही जीवन का आधार है।

सभा भी इसी सहयोग पर आधारित है। जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं और संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं। आम शब्दों में, किसी विशेष मकसद के लिए बनाए गए संगठन को सभा कहते हैं। सभा का एक निश्चित उद्देश्य होता है जिसकी पूर्ति के बाद इसको छोड़ भी जा सकता है।

मनुष्य का स्वभाव और ज़रूरतें उसको समाज में रहने के लिए मजबूर करती हैं। जानवरों की तरह मनुष्यों की सिर्फ शारीरिक ज़रूरतें ही नहीं होतीं बल्कि इनसे ज्यादा ज़रूरी सामाजिक आवश्यकताएं भी होती हैं जिनको पूरा करना उसके लिए आवश्यक होता है। इस तरह जब समाज के अलग-अलग व्यक्ति अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं तो इसके साथ सभा या समिति का जन्म होता है। यहां एक बात ध्यान रखने वाली है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताएं पूर्ण होने के बाद इसको छोड़ भी सकता है।

परिभाषाएं (Definitions)-

  • बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार, “सभा आम तौर पर कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों का मिल कर काम करना है।”
  • जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “सभा परस्पर सम्बन्धित उन सामाजिक प्राणियों का एक समूह है जो एक निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आम संगठन बना लेते हैं।”
  • गिलिन और गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “सभा व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो किसी निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए परस्पर सम्बन्धित होते हैं और स्वीकृत कार्य प्रणालियों और व्यवहारों द्वारा संगठित. रहते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सभा के तीन मुख्य आधार हैं-

  • सब कुछ व्यक्तियों का समूह है।
  • यह संगठन सहयोग पर आधारित है।
  • इसके द्वारा कुछ उद्देश्यों की पूर्ति होती है।

इस तरह सभा हमारी सभी ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकती। संक्षेप में जब कोई व्यक्ति संगठित रूप में सोचविचार करके कुछ विशेष कामों की पूर्ति के लिए आपस में सहयोग करते हैं उस संगठन या समूह को सभा कहते

सभा की विशेषताएं (Characteristics of Association) –
1. सभा व्यक्तियों का समूह है (Group of people)-सभा की स्थापना कुछ व्यक्तियों के द्वारा की जाती है जिसके कारण इसको समूह कहा जाता है। इस तरह सभा मूर्त है क्योंकि व्यक्ति मूर्त होते हैं।

2. विचारपूर्वक स्थापना (Thoughtful establishment)—सभा समुदाय की तरह अपने आप ही पैदा नहीं हो जाती। इसका निर्माण तो किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच-समझ कर और विचार करने से स्थापित किया जाता है।

3. निश्चित उद्देश्य (Definite aim)- सभा के निश्चित उद्देश्य होते हैं। सभा हमारे सामाजिक जीवन की सारी ज़रूरतें नहीं बल्कि कुछ ज़रूरतें पूरी करती है और साथ ही साथ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करती है।

4. सभाओं का जन्म और विनाश होता रहता है (Association takes birth and comes to an end)- सभा का स्वभाव अस्थायी होता है क्योंकि इसकी स्थापना कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है और उन सारे उद्देश्यों की पूर्ति के बाद सभा की ज़रूरत भी खत्म हो जाती है।

5. सदस्यता इच्छा पर आधारित होती है (Membership is based on wish)—सभा व्यक्तियों का इच्छुक संगठन होता है। व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार इसका सदस्य बन सकता है और जब चाहे इसको छोड़ सकता है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति को जब लगता है कि सभा उसके लिए लाभदायक है तो वह उसको अपना लेता है और जब उसका फायदा पूरा हो जाता है तो उसे छोड़ देता है।

6. सभा की सदस्यता औपचारिक होती है (Formal membership)-इसकी सदस्यता औपचारिक होती है। वह जब चाहे इसको अपना सकता है और जब चाहे इसको छोड़ सकता है पर इसके लिए उसको त्याग-पत्र या प्रार्थना-पत्र देना पड़ता है और सदस्यता फीस भी देनी पड़ती है।

7. हर सभा कुछ अधिकारियों को चुनती है (Selection of officers) हर सभा अपने कामों के लिए कुछ अधिकारियों को चुनती है जैसे प्रधान, उप-प्रधान, सैक्रेटरी कैशियर इत्यादि। इन सबका चुनाव भी निश्चित समय पर होता है।

8. हर सभा के कुछ निश्चित नियम होते हैं (Definite rules)-हर सभा अपने कामों की पूर्ति के लिए नियम भी बनाती है और हर सदस्य को इन नियमों के अन्तर्गत रहकर काम करना पड़ता है।

9. सहयोग की भावना (Feeling of co-operation)—सभा का जन्म सहयोग की भावना पर आधारित होता है। किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सहयोग की भावना ही व्यक्ति को सभा का निर्माण करने के लिए प्रेरित करती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

समाज, समुदाय तथा समिति PSEB 11th Class Sociology Notes

  • अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता। व्यक्ति समाज से बाहर न तो रह सकता है तथा न ही इसके बारे में सोच सकता है। उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  • व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य लोगों से संबंध बनाने पड़ते हैं तथा सामाजिक संबंधों के जाल को समाज कहते हैं। जब दो अथवा दो से अधिक लोगों के बीच संबंध बनते हैं तो हम कह सकते हैं कि समाज का निर्माण हो रहा है।
  • सम्पूर्ण संसार में बहुत-से समाज मिल जाते हैं जैसे कि जनजातीय समाज, ग्रामीण समाज, औद्योगिक समाज, उत्तर-औद्योगिक समाज इत्यादि। अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने समाजों को अलग-अलग आधारों पर विभाजित किया है। उदाहरण के लिए काम्ते (बौद्धिक विकास), स्पैंसर (संरचनात्मक जटिलता),
    मार्गन (सामाजिक विकास), टोनीज़ (सामाजिक संबंधों के प्रकार), दुर्थीम (एकता के प्रकार) इत्यादि।
  • समाज की बहुत-सी विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह अमूर्त होता है, यह समानताओं तथा अंतरों पर आधारित होता है, इसमें सहयोग तथा संघर्ष दोनों होते हैं, इसमें स्तरीकरण की व्यवस्था होती है इत्यादि।
  • व्यक्ति का समाज से काफ़ी गहरा संबंध होता है क्योंकि व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता। उसे जीवन जीने के लिए अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। दुर्थीम के अनुसार समाज हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष से संबंधित है तथा उसमें मौजूद है। समाज के लिए भी व्यक्ति सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि व्यक्ति के बिना समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
  • जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में संगठित रूप से रहते हैं तथा वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना सम्पूर्ण जीवन ही वहां पर व्यतीत करते हैं तो उसे समुदाय कहते हैं। समुदाय में ‘हम’ भावना आवश्यक रूप में पाई जाती है।
  • समुदाय के कुछ आवश्यक तत्त्व होते हैं जैसे कि लोगों का समूह, निश्चित क्षेत्र, सामुदायिक भावना, समान संस्कृति इत्यादि। समाज तथा समुदाय में काफ़ी अंतर होता है।
  • सभा सहयोग पर आधारित होती है। जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए आपस में सहयोग करते हैं तथा संगठन बनाते हैं तो इस संगठित संगठन को सभा कहते हैं।
  • एकत्रता (Aggregate)-किसी स्थान पर इक्ट्ठे हुए लोगों का समूह जिनमें आपस में कोई संबंध नहीं होता।
  • सहयोग (Co-operation)-जब कुछ लोग किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक-दूसरे की सहायता करते हैं तो उसे सहयोग कहते हैं।
  • संस्था (Institution) समुदाय के बीच व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित करने वाला सामाजिक व्यवस्था का एक साधन।
  • कानून (Law)-लिखे हुए नियम जिन्हें किसी सरकारी संस्था द्वारा लागू किया जाता है।
  • पहचान (Identity)—एक व्यक्ति अथवा समूह के चरित्र की विशेषताएं जो यह बताती हैं कि वे कौन हैं तथा उनके लिए अर्थपूर्ण हैं।
  • उत्पादन के साधन (Means of Production)—वह साधन जिनसे समाज में भौतिक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, जिनमें न केवल तकनीक बल्कि उत्पादकों के आपसी संबंध भी शामिल हैं।
  • हम भावना (We-feeling)-वह शक्तिशाली भावना जिससे एक समूह के सदस्य स्वयं को पहचानते हैं तथा अन्य लोगों से अलग करते हैं। इससे उनमें शक्तिशाली एकता भी दिखती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Physical Education Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

PSEB 11th Class Physical Education Guide नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
समाज में आम प्रचलित कौन-कौन से नशे हैं ?
(Which Drugs are commonly used by the people in the society ?)
उत्तर-

  1. शराब
  2. अफीम
  3. तम्बाकू
  4. भांग
  5. हशीश
  6. नस्वार
  7. कोकीन
  8. ऐडरनवीन
  9. नार्कोटिक्स
  10. ऐनाबोलिक स्टीराइडस।

प्रश्न 2.
नशे क्या होते हैं ? (What are Drugs ?)
उत्तर-
नशा एक ऐसा पदार्थ है जिसका इस्तेमाल करने से शरीर में किसी न किसी तरह की उत्तेजना या आलस्यपन आ जाता है। मनुष्य के नाड़ी प्रबन्ध पर सभी नशीली वस्तुओं का बहुत बुरा असर पड़ता है जिसके कारण कई तरह के विचार, कल्पना तथा व्यक्ति को कोई सुध नहीं रहती और बुरी भावनाएं पैदा होती हैं। वह अपना, अपने परिवार तथा समाज के लोगों का नुकसान करता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

प्रश्न 3.
नशों की किस्में लिखें। (Write the types of Drugs.)
उत्तर-
नशे कई प्रकार के होते हैं ; जैसे-शराब, तम्बाकू, अफ़ीम, भांग, चरस, कैफीन तथा मैडीकल नशे या नशीली दवाइयां आदि।
1. शराब-शराब का सेहत पर प्रभाव (Effect of Alcohol on Health) शराब एक नशीला तरल पदार्थ है। शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बाज़ार में बेचने से पहले प्रत्येक शराब की बोतल पर यह लिखना ज़रूरी है। फिर भी बहुत से लोगों को इसकी लत (आदत) लगी हुई है जिससे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर को कई तरह के रोग लग जाते हैं। फेफड़े कमजोर हो जाते हैं और व्यक्ति की आयु घट जाती है। ये शरीर के सभी अंगों पर बुरा प्रभाव डालती है। पहले तो व्यक्ति शराब को पीता है कुछ समय के बाद शराब आदमी को पीने लग जाती है। भाव शराब शरीर के अंगों को नुकसान पहुंचाने लग जाती है।
शराब पीने की हानियाँ निम्नलिखित हैं—

  • शराब का असर दिमाग पर होता है। नाड़ी प्रबन्ध बिगड़ जाता है और दिमाग कमजोर हो जाता है। मनुष्य के सोचने की शक्ति घट जाती है।
  • शरीर में गुर्दे कमजोर हो जाते हैं।
  • शराब पीने से पाचन रस कम पैदा होना शुरू हो जाता है जिससे पेट खराब रहने लग जाता है।
  • श्वास की गति तेज़ और सांस की अन्य बीमारियां लग जाती हैं।
  • शराब पीने से रक्त की नाड़ियां फूल जाती हैं। दिल को अधिक काम करना पड़ता है और दिल के दौरे का डर बना रहता है।
  • लगातार शराब पीने से मांसपेशियों की शक्ति घट जाती है। शरीर बीमारियों का मुकाबला करने के योग्य नहीं रहता।
  • आविष्कारों से पता लगता है कि शराब पीने वाला मनुष्य शराब न पीने वाले व्यक्ति से काम कम करता है। शराब पीने वाले व्यक्ति को बीमारियां भी जल्दी लगती हैं।
  • शराब से घर, स्वास्थ्य, पैसा आदि बर्बाद होता है और यह एक सामाजिक बुराई है।

2. तम्बाकू-तम्बाकू पीना-खाना एक बहुत बुरी आदत बन चुका है। तम्बाकू पीने के अलग-अलग ढंग हैं, जैसे बीड़ी, सिगरेट पीना, सिगार पीना, हुक्का पीना, चिल्म पीना आदि। इसी तरह खाने के ढंग भी अलग हैं, जैसे तम्बाक चूने में मिला कर सीधे मुंह में रख कर खाना, या रगने में रखकर खाना, या गले में रखकर खाना आदि। तम्बाकू में खतरनाक ज़हर निकोटीन (Nicotine) होता है। इसके अलावा कार्बन-डाइऑक्साइड आदि भी होता है। निकोटीन का बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे सिर चकराने लग जाता है और फिर दिल पर प्रभाव करता है।

3. अफ़ीम-अफ़ीम पैपेबर सोनिफेरस नामक पौधे से प्राप्त किया जाता है, जो एक काले रंग का कसैला मादक पदार्थ है और जिसका प्रयोग नशे के रूप में किया जाता है।

4. चरस-यह भांग से बना नशीला पदार्थ होता है जिसके प्रयोग से आलस्य, नींद, उत्तेजना, बिमारी आदि महसूस होने लगती है। यह सोच शक्ति पर बुरा असर डालती है।

5. कोकीन-कोकीन कोका नामक पत्तियों से प्राप्त होने वाला नशीला पदार्थ है। इससे चिड़चिड़ापन आ जाता है। इसका प्रयोग करने से दिल का दौरा पड़ सकता है, दिल फेल भी हो सकता है।

6. नशीली दवाइयां-स्वास्थ्य संस्थानों में प्रयोग की जाने वाली कई प्रकार की दर्द निवारक दवाएँ होती हैं, जो किसी भयानक बिमारी या ऑप्रेशन के समय दर्द से राहत के लिए दी जाती हैं।

परन्तु आज कल ये दर्द निवारक दवाइयां डॉक्टरी सलाह के बिना नौजवान और खिलाड़ी वर्ग इनका आम जिंदगी में प्रयोग कर रहे हैं। इस तरह की दवाओं में कई तरह की नशीली गोलियां, पीने वाली दवाईयां, टीके, कैप्सूल आदि शामिल हैं। जैसे-डायाजेपाम, नेबूटाल, सेकोनाल, आदि।

प्रश्न 4.
तम्बाकू पर नोट लिखें। (Write a note on Tobacco.)
उत्तर-
हमारे देश में तम्बाकू पीना-खाना एक बहुत बुरी आदत बन चुका है। तम्बाकू निकोटीन के पौधों के पत्तों से प्राप्त नशीला पदार्थ होता है। तम्बाकू पीने के अलग-अलग ढंग हैं, जैसे बीड़ी, सिगरेट पीना, सिगार पीना, हुक्का पीना, चिल्म पीना आदि। इसी तरह खाने के ढंग भी अलग हैं, जैसे तम्बाकू चूने में मिला कर सीधे मुंह में रख कर खाना, या रगने में रखकर खाना, या गले में रखकर खाना आदि। तम्बाकू में खतरनाक ज़हर निकोटीन (Nicotine) होता है। इसके अलावा कार्बन-डाइऑक्साइड आदि भी होता है। निकोटीन का बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे सिर चकराने लग जाता है और फिर दिल पर प्रभाव करता है।
तम्बाकू के नुकसान इस तरह हैं—

  1. तम्बाकू खाने या पीने से नज़र कमजोर हो जाती है।
  2. इससे दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। दिल का रोग लग जाता है जो कि मृत्यु का कारण बन सकता है।
  3. आविष्कारों से पता लगा है कि तम्बाकू पीने या खाने से रक्त की नाड़ियां सिकुड़ जाती हैं।
  4. तम्बाकू शरीर के तन्तुओं को उत्तेजित रखता है, जिससे नींद नहीं आती और नींद न आने की हालत में बीमारी लग जाती है।
  5. तम्बाकू के प्रयोग से पेट खराब रहने लग जाता है।
  6. तम्बाकू के प्रयोग से खांसी लग जाती है जिससे फेफड़ों की टी० बी० होने का खतरा बढ़ जाता है।
  7. तम्बाकू से कैंसर की बीमारी का डर बढ़ जाता है। विशेष कर छाती का कैंसर और गले का कैंसर।
  8. तम्बाकू के प्रयोग से खुराक नली, मुंह के कैंसर का डर भी रहता है।

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प्रश्न 5.
अफ़ीम के शरीर पर पड़ने वाले कुप्रभाव लिखें। (Write about the fatal effects of using opium on our body.)
उत्तर-
अफ़ीम के शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावः

  1. हल्का-हल्का सिरदर्द महसूस होता रहता है।
  2. दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है।
  3. कोई भी निर्णय लेने की योग्यता कम हो जाती है।
  4. डर, घबराहट और बीमारी हालत महसूस होती है।
  5. वातावरण या हवा में अनावश्यक नमी या ठंड महसूस होती है।
  6. छाती में दर्द महसूस होता रहता है।
  7. होंठ और हाथों के नाखुन नीले हो जाते हैं।
  8. आँखों की पुतलियाँ सिकुड़ जाती है और कोई भी वस्तु साफ दिखाई नहीं देती।
  9. व्यक्ति साधारण परिस्थितियों में भी उतावलापन महसूस करता है।

प्रश्न 6.
नशे करने के क्या कारण हैं ? (What are the reasons of taking drugs ?)
उत्तर-
1. मीडिया-मीडिया द्वारा वैसे तो नौजवानों को नशे न करने के प्रति जागरुक किया जाता है। परन्तु विद्यार्थी गीतों, फिल्मों तथा नाटकों आदि में किए जाने वाले नशों के प्रयोग को फैशन या स्टेट्स समझने की भूल कर बैठते हैं।

2. अपना अस्तित्व दिखाना-कई बार माता-पिता द्वारा या समाज द्वारा विद्यार्थी या खिलाड़ी को अनदेखा किया जाता है। बच्चे या खिलाड़ी को लगता है कि उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा, इसलिए वह दूसरों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए ऐसे गलत तरीकों का प्रयोग करते हैं।

3. अपने आपको बड़ा साबित करना-कई बार दोस्तों मित्रों या माता-पिता द्वारा विद्यार्थी को अनजान या . छोटा कहकर कोई विशेष काम करने से रोक दिया जाता है। तब वह गुस्से में या अपने आपको बड़ा साबित करने के लिए ऐसे ग़लत तरीके का प्रयोग करता है।

4. बेरोज़गारी-बेरोज़गारी भी नशों के बढ़ रहे रुझान का बड़ा कारण है। जब किसी अधिक पढ़े-लिखे नौजवान या खिलाड़ी को समय पर नौकरी नहीं मिलती तो वह धीरे-धीरे निराशा का शिकार हो जाता है और अपने तनाव को घटाने के लिए नशों का प्रयोग करने लग जाता है।

5. मौज मस्ती के लिए—जवान लड़के और लड़कियों द्वारा पार्टी को मज़ेदार बनाने या अपनी मौज-मस्ती के लिए इन नशों का प्रयोग किया जाता है, जो धीरे-धीरे उनकी आदत बन जाती है।

6. मानसिक दबाव-कुछ नौजवान मानसिक दबाव के कारण जैसे पढ़ाई का बोझ, किसी समस्या का सामना न कर पाने की हालत में डिप्रेशन में चले जाते हैं, ऐसी हालत में से निकलने के लिए वे नशे का सहारा लेते

7. जानने की इच्छा-नौजवान उम्र के विद्यार्थी के भीतर हर एक नयी चीज़ के बारे में जानने की इच्छा होती है। अगर घर में किसी सदस्य द्वारा किसी नशे का प्रयोग किया जाता है तो बच्चे में भी उसको जानने की इच्छा पैदा होती है। वे पहले घर वालों से चोरी यह गलती करते हैं और धीरे-धीरे नशों की जकड़ में आ जाते हैं।

8. मानसिक दबाव-कुछ नौजवान मानसिक दबाव के कारण जैसे पढ़ाई का बोझ, किसी समस्या का सामना न कर पाने की हालत में डिप्रेशन में चले जाते हैं, ऐसी हालत में से निकलने के लिए वे नशे का सहारा लेते हैं।

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प्रश्न 7.
नशों का खिलाड़ी, परिवार, समाज तथा देश पर क्या प्रभाव पड़ता है ? (What are the bad effects of using drugs on a player, family, society and country ?)
उत्तर-
नशीले पदार्थों का शरीर, परिवार और समाज पर बुरा प्रभाव (Effects of Intoxicants on Individual, Family and Society And Their Abuses)—मनुष्य प्राचीन काल से ही नशीली वस्तुओं का प्रयोग करता आ रहा है। उसका विश्वास था कि इनके प्रयोग से रोग दूर होते हैं तथा मन ताज़ा होता है। परन्तु बाद में इनके कुप्रभाव भी देखने में आए हैं। आज के वैज्ञानिक युग में अनेक नई-नई नशीली वस्तुओं का आविष्कार हुआ है जिसके कारण क्रीड़ा जगत् दुविधा में पड़ गया है। इन नशीली वस्तुओं के सेवन से भले ही कुछ समय के लिए अधिक काम लिया जा सकता है, परन्तु नशे और अधिक काम से मानव रोग का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त करता है। इन घातक नशों में से कुछ नशे तो कोढ़ के रोग से भी बुरे हैं। शराब, तम्बाकू, अफीम, भांग, हशीश, ऐडरनविन तथा निकोटीन ऐसी नशीली वस्तुएं हैं जिनका सेवन स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।

प्रत्येक व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए किसी-न-किसी खेल में भाग लेता है। वह अपने साथियों तथा पड़ोसियों के साथ मेल-मिलाप तथा सद्भावना की भावना रखता है। इसके विपरीत एक नशे का गुलाम व्यक्ति दूसरों की सहायता करना तो दूर रहा, अपना बुरा-भला भी नहीं सोच सकता। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए बोझ होता है। वह दूसरों के लिए सिर दर्दी बन जाता है। परिवार में कलेश रहने के कारण बच्चों के विकास पर भी असर पड़ता है। वह पारिवारिक कार्यों तथा फैसलों में अपना कोई योगदान नहीं देता। समाज और परिवार में उसके कोई पास नहीं आता। वह न केवल अपने जीवन को दु:खद बनाता है, बल्कि अपने परिवार और सम्बन्धियों के जीवन को भी नरक बना देता है। सच तो यह है कि नशीली वस्तुओं का सेवन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव डालता है। इससे ज्ञान शक्ति, पाचन शक्ति, दिल, रक्त, फेफड़ों आदि से सम्बन्धित अनेक रोग लग जाते हैं।
नशीली वस्तुओं का प्रयोग करना खिलाड़ियों के लिए ठीक नहीं होता।
नशीली वस्तुओं के दोष (Harms of Intoxicants)-जो खिलाड़ी नशीली वस्तुओं का प्रयोग करते हैं उनके दोष निम्नलिखित हैं—

  1. चेहरा पीला पड़ जाता है।
  2. कदम लड़खड़ाते हैं।
  3. मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है।
  4. खेल का मैदान लड़ाई का मैदान बन जाता है।
  5. पाचन शक्ति खराब हो जाती है।
  6. तेज़ाबी अंश आमाशय की शक्ति को कम करते हैं।
  7. पेट के कई प्रकार के रोग लग जाते हैं।
  8. पेशियों के काम करने की शक्ति कम हो जाती है।
  9. खेल के मैदान में खिलाड़ी खेल का अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता।
  10. कैंसर और दमे की बीमारियां लग जाती हैं।
  11. खिलाड़ियों की स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है।
  12. नशे में डूबे खिलाड़ी खेल की परिवर्तित अवस्थाओं को नहीं समझ सकते और अपनी टीम की पराजय का कारण बन जाते हैं।
  13. नशे वाला खिलाड़ी लापरवाह हो जाता है।
  14. शरीर में समन्वय नहीं होता।
  15. नशे वाले खिलाड़ी के पैरों का तापमान सामान्य शक्ति के तापमान से 1.8° सैंटीग्रेड कम होता है।

नशीली वस्तुओं के सेवन का खिलाड़ियों तथा खेल पर बुरा प्रभाव पड़ता है जो कि इस प्रकार है—
1. शारीरिक समन्वय एवं स्फूर्ति का अभाव-नशे करने वाले खिलाड़ी में शारीरिक तालमेल तथा स्फूर्ति नहीं रहती। अच्छे खेल के लिये इनका होना बहुत जरूरी है। हॉकी, फुटबॉल, वॉलीबॉल आदि ऐसी खेलें हैं।

2. मन के सन्तुलन और एकाग्रचित्त का प्रभाव-किसी खिलाड़ी की मामूली-सी सुस्ती खेल का पासा पलट देती है। इतना ही नहीं नशे में धुत्त खिलाड़ी एकाग्रचित्त नहीं हो सकता। इसलिए वह खेल के दौरान ऐसी गलतियां कर देता है जिसके फलस्वरूप उसकी टीम को पराजय का मुंह देखना पड़ता है।

3. लापरवाही तथा बेफिक्री-नशे से ग्रस्त खिलाड़ी बहुत लापरवाह और बेफिक्र होता है। वह अपनी शक्ति तथा दक्षता का उचित अनुमान नहीं लगा सकता। कई बार जोश में आकर वह ऐसी चोट खा जाता है जिससे उसे आयु पर्यन्त पछताना पड़ता है।

4. खेल भावना का अन्त-नशे में रहने से खिलाड़ी की खेल भावना का अन्त हो जाता है। नशा करने वाले खिलाड़ी की स्थिति अर्द्ध-बेहोशी की होती है। उसके मन का सन्तुलन बिगड़ जाता है। वह खेल में अपनी ही हांकता है और साथी खिलाड़ी की बात नहीं सुनता।

5. सोचने का अभाव-वह रैफरी या अम्पायर के उचित निर्णयों के प्रति असहमति व्यक्त करता है। सहनशीलता की शक्ति की कमी हो जाती है।

6. नियमों की अवहेलना-वह खेल के नियमों की अवहेलना करता है।

7. मैदान लड़ाई का अखाड़ा बन जाना-नशे में रहने वाला खिलाड़ी खेल के मैदान को लड़ाई का अखाड़ा बना देता है।

अन्तर्राष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने खेल के दौरान नशीली वस्तुओं के प्रयोग पर पाबन्दी लगा दी है। यदि खेल के दौरान कोई नशे की दशा में पकड़ा जाता है तो उसका जीता हुआ इनाम वापस ले लिया जाता है। इसलिए खिलाड़ियों को चाहिए कि वे स्वयं को हर प्रकार की नशीली वस्तुओं के सेवन से दूर रखें और सर्वोत्तम खेल का प्रदर्शन करके अपने और अपने देश के नाम को चार चांद लगायें।

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प्रश्न 8.
अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति पर नोट लिखें। (Write a note on the International Olympic Committee.)
उतर-
आधुनिक युग में प्रत्येक खिलाड़ी खेल की दुनिया में अपना नाम चमकाना चाहता है। परन्तु कुछ ऐसे भी खिलाड़ी होते हैं जो बिना मेहनत किए अपना नाम चमकाने के लालच में कुछ गल्त दवाईयों का सहारा ले लेते है। ऐसी दवाईयां न सिर्फ खेल भावना को नुक्सान पहुंचाती हैं बल्कि उनकी सेहत को भी खराब करती हैं ! इसी को देखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी समिति बनाई गई है जो खिलाड़ियों को ऐसी दवाईयों का प्रयोग नहीं करने देती।

अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति द्वारा ऐसे मादक पदार्थों पर पाबंदी लगायी हुई है, जो खिलाड़ियों का प्रदर्शन बढ़ाने . के लिए प्रयोग किए जाते हैं। इन दवाओं का प्रयोग करने वालों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाती है। उनसे जीते हुए मैडल वापिस ले लिए जाते हैं और उनके खेलने पर पाबन्दी लगा दी जाती है। समिति द्वारा लंदन 2012 ओलंपिक खेलों में 1001 डोप टेस्ट किये गये और इन टेस्टों से पता चला कि 100 खिलाड़ियों ने पाबन्दी वाली दवा का प्रयोग किया हुआ था। इनमें अल्बेनियन वेटलिफ्टर हसन पूलाकू वह खिलाड़ी था, जिसके टेस्ट में ‘ऐनाबोलिक स्टीराईड’ पायी गयी।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
पैपेबर सोनिफेरस पौधे से कौन-सा नशीला पदार्थ मिलता है ?
उत्तर-
पैपेबर सोनिफेरस पौधे से अफीम मिलता है।

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प्रश्न 2.
शराब, तम्बाकू और अफीम क्या है ?
उत्तर-
शराब, तम्बाकू और अफीम नशीले पदार्थ हैं।

प्रश्न 3.
Central Nervous System को कौन प्रभावित करता है ?
उत्तर-
Central Nervous System को नशीली वस्तुएं प्रभावित करती हैं।

प्रश्न 4.
निकोटीआना कुल के पौधों और पत्तों से कौन-सा नशा प्राप्त किया जाता है ?
उत्तर-
निकोटीआना कुल के पौधों और पत्तों से तम्बाकू प्राप्त किया जाता है।

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प्रश्न 5.
ऐमसेटेमिन, कैफीन, कोकीन, नारकोटिक कौन-सी दवाइयां हैं ?
उत्तर-
खिलाड़ियों को उत्तेजित करने की।

प्रश्न 6.
पाबंदीशुदा दवाई खिलाड़ियों का भार कम करने वाली कौन-सी है ?
उत्तर-
डिऊरैटिकस दवाई खिलाड़ियों का भार घटाने वाली है।

प्रश्न 7.
अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी के क्या कार्य हैं ?
(a) ओलम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों की जांच करनी।
(b) नशों की जांच करनी।
(c) खिलाड़ियों को उत्साहित करना।
(d) खिलाड़ियों को इनाम देने।
उत्तर-
(a) ओलम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों की जांच करनी।

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प्रश्न 8.
ओलम्पिक कमेटी पाबंदी लगाती है ?
(a) नशीले पदार्थ
(b) पीने वाले पदार्थ
(c) खाने वाली ताकत वाली चीजें
(d) उपरोक्त को भी नहीं।
उत्तर-
(a) नशीले पदार्थ।

प्रश्न 9.
कोई तीन नशीले पदार्थों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. शराब,
  2. अफीम,
  3. तम्बाकू।

प्रश्न 10.
ओलम्पिक कमेटी ने खिलाड़ियों के कौन-कौन सी नशीली वस्तुओं पर पाबंदी लगाई।
उत्तर-
ऐमफेटेमिन, कैफीन, कोकीन, नार्कोटिक।

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प्रश्न 11.
अंतर्राष्ट्रीय कमेटी को कोई दो नाम लिखो।
उत्तर-

  1. नशों की जानकारी
  2. विजेता खिलाड़ियों को इनाम देने।

प्रश्न 12.
नशों से व्यक्ति की सेहत पर क्या असर होता है ?
उत्तर-
नाड़ी प्रबंध बिगड़ जाता है और दिमाग कमजोर हो जाता है।

प्रश्न 13.
नशीली वस्तुओं का खिलाड़ियों और खेल पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-
खेल भावना का अन्त, नियम के विरुध जाना तथा मैदान लड़ाई का अखाड़ा बन जाता है।

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प्रश्न 14.
शराब से व्यक्ति की सेहत पर क्या असर पड़ता है.?
उत्तर-
नाड़ी प्रबंध बिगड़ जाता है, दिमाग कमजोर हो जाता है।

प्रश्न 15.
तम्बाकू से क्या नुक्सान होता है ?
उत्तर-
तम्बाकू खाने या पीने से नजर कमजोर हो जाती है और कैंसर की बीमारी का डर बढ़ जाता है।

प्रश्न 16.
शराब पीने से किस विटामिन की कमी होती है ?
उत्तर-
शराब पीने से विटामिन ‘B’ की कमी होती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

प्रश्न 17.
शराब पीने से कौन-सा रोग होता है ?
उत्तर-
शराब पीने से सबसे बड़ा रोग ‘जिगर’ का हो जाता है।

प्रश्न 18.
सिगरेट, बीड़ी, नसवार और सिगार किस नशाखोरी के साथ संबंधित है ?
उत्तर-
तम्बाकू पीने से संबंधित है।

प्रश्न 19.
सिगरेट पीने से कौन-सा जहरीला पदार्थ मिलता है ?
उत्तर-
निकोटिन पदार्थ मिलता है।

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प्रश्न 20.
तम्बाकू पीने से मनुष्य का खून का दबाव कितना बढ़ जाता है ?
उत्तर-
20 mg खून का दबाव बढ़ जाता है।

अति छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अगर खिलाड़ी ओलम्पिक में नशीली दवाइयों का सेवन करता पकड़ा जाए तो उसको क्या जुर्माना पड़ता है ?
उत्तर-
अगर खिलाड़ी ने कोई मैडल जीता हो तो वह वापिस ले लिया जाता है और उससे नकद जुर्माना भी लिया जाता है।

प्रश्न 2.
नशीली वस्तुओं के कोई दो दोष लिखो।
उत्तर-
नशीली वस्तुओं के दोष निम्नलिखित हैं—

  1. चेहरा पीला हो जाता है।
  2. मानसिक संतुलन खराब हो जाता है।

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प्रश्न 3.
नशीली वस्तुओं के खिलाड़ियों पर कोई दो बुरे प्रभाव लिखो।
उत्तर-
नशीली वस्तुओं के खिलाड़ियों पर पड़ने वाले दो बुरे प्रभाव निम्नलिखित हैं—

  1. फुर्ती कम हो जाती है।
  2. मानसिक संतुलन की एकाग्रता कम हो जाती है।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
नशीली वस्तुओं के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. शराब
  2. अफ़ीम
  3. तम्बाकू
  4. भंग
  5. नारकोटिक्स
  6. हशीश
  7. नसवार
  8. कैफ़ीन
  9. ऐडग्वीन
  10. ऐनाबोलिक सटीराइड।

प्रश्न 2.
शराब का स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-

  1. श्वास की गति तेज हो जाती है और श्वास की दूसरी बीमारियाँ भी लग जाती है।
  2. शराब का असर पहले दिमाग पर होता है। नाड़ी प्रबंध बिगड़ जाता है और दिमाग कमजोर हो जाता है। मनुष्य की सोचने की शक्ति कम हो जाती है।
  3. शराब पीने से पाचक रस कम पैदा होना शुरू हो जाता है। जिसके कारण पेट खराब होने लगता है।
  4. शराब से गुर्दे कमजोर हो जाते हैं।

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प्रश्न 3.
तम्बाकू पर एक नोट लिखो।
उत्तर-
हमारे देश में तम्बाकू पीना और तम्बाकू खाना एक बहुत बुरी आदत बन चुकी है। तम्बाकू पीने के अलगअलग ढंग होते हैं। जैसे-बीड़ी पीना, सिगार पीना, चिलम पीना आदि। इस तरह खाने के ढंग भी अलग होते हैं, जैसेतम्बाकू में मिलाकर सीधा मुंह में रख कर खाना या पान में रख कर खाना। तम्बाकू में खतरनाक जहरीला निकोटीन (Nicotine) होता है। इसके अलावा अमोनिया कार्बनडाइआक्साइड आदि भी होती है। निकोटीन का बुरा असर सिर पर पड़ता है। जिसके साथ सिर चकराने लगता है और फिर दिल पर असर होता है।

प्रश्न 4.
अफ़ीम से शरीर पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव बताओ।
उत्तर-

  1. पाचन शक्ति खराब हो जाती है।
  2. चेहरा पीला पड़ जाता है।
  3. खेल का मैदान लड़ाई का मैदान बन जाता है।
  4. कदम लड़खड़ाते हैं।

प्रश्न 5.
नशे करने के दो कारण लिखो।
उत्तर-

  1. बेरोज़गारी-बेरोज़गारी भी नशों के बढ़ रहे शौक का बड़ा कारण है। जब खिलाड़ी को नौकरी नहीं मिलती और फिर उसका झुकाव नशों की तरफ चला जाता है।
  2. दोस्तो की तरफ से मज़बूर करना-खिलाड़ी को उसके साथियों द्वारा नशे की एक दो दफा नशा करने के लिए मजबूर करना और नशे को मज़ेदार चीज़ बता कर उसको नशा करवाया जाता है।

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प्रश्न 6.
नशों का खिलाड़ी, परिवार, समाज और देश पर प्रभाव लिखो।
उत्तर-
नशा एक ऐसी लाइलाज लत है। जिसको करने से व्यक्ति अपना धैर्य खो बैठता है। वह स्वास्थ्य तो खराब करता ही है, बल्कि अपने परिवार का जीना भी मुश्किल कर देता है। वह अपने नशे की जरूरत के लिए हर गलत तरीका अपनाता है। जिस कारण परिवार में कलेश रहता है। जिसका बुरा प्रभाव बच्चों की वृद्धि और विकास पर प्रभाव पड़ता है। समाज में व्यक्ति की इज्जत खत्म हो जाती है। हर कोई ऐसे नशेड़ी व्यक्ति से दूर रहता है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
नशीली वस्तुओं के शरीर पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के बारे में वर्णन करें।
उत्तर-
शराब, अफीम, तम्बाकू, हशीश आदि नशीली वस्तुएं हैं। इनके सेवन से भले ही कुछ समय के लिए अधिक काम लिया जा सकता है, परन्तु नशे और अधिक काम से मानव रोग का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त करता है। इन घातक नशों में से कुछ नशे तो कोढ़ के रोग से भी बुरे हैं। शराब, तम्बाकू, अफीम, भांग, हशीश, ऐडरनविन तथा निकोटीन ऐसी नशीली वस्तुएं हैं जिनका सेवन स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।
नशीली वस्तुओं के शरीर पर बुरे प्रभाव :—

  1. चेहरा पीला पड़ जाता है।
  2. कदम लड़खड़ाते हैं।
  3. मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है।
  4. खेल का मैदान लड़ाई का मैदान बन जाता है।
  5. पाचन शक्ति खराब हो जाती है।
  6. तेज़ाबी अंश आमाशय की शक्ति को कम करते हैं।
  7. पेट के कई प्रकार के रोग लग जाते हैं।
  8. पेशियों के काम करने की शक्ति कम हो जाती है।
  9. खेल के मैदान में खिलाड़ी खेल का अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता।
  10. कैंसर और दमे की बीमारियां लग जाती हैं।
  11. खिलाड़ियों की स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है।
  12. नशे में डूबे खिलाड़ी खेल की परिवर्तित अवस्थाओं को नहीं समझ सकते और अपनी टीम की पराजय का कारण बन जाते हैं।
  13. नशे वाला खिलाड़ी लापरवाह हो जाता है।
  14. शरीर में समन्वय नहीं होता।
  15. नशे वाले खिलाड़ी के पैरों का तापमान सामान्य शक्ति के तापमान से 1.8° सैंटीग्रेड कम होता है।

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प्रश्न 2.
डोपिंग किसे कहते हैं ? ब्लॅड डोपिंग तथा जीन डोपिंग के बारे में लिखें।
उत्तर-
डोपिंग से भाव है कुछ ऐसी मादक दवाओं या तरीकों का प्रयोग करना जिसके साथ खेल प्रदर्शन को बढ़ाया जाता है। डोपिंग दो तरह की होती है—

  1. शारीरिक विधि द्वारा
  2. दवाओं द्वारा

शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव—

  1. कई बार जल्दवाजी में दूसरे व्यक्ति के खून को मैच नहीं किया जाता, जिसके परिणामस्वरुप संक्रमण द्वार खिलाड़ी की मृत्यु भी हो सकती है।
  2. दूसरे व्यक्ति से किसी भी भयानक बीमारी के कीटाणु खिलाड़ी के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।
  3. कई बार अपनी ओर से रखे गए खून में भी संक्रमण हो सकता है। जिसके साथ व्यक्ति को भयानक बीमारियाँ लग सकती हैं या खिलाड़ी की मौत भी हो सकती है।

ब्लॅड डोपिंग-इस तरह की विधि खिलाड़ी की हिमोग्लोबिन की तीव्रता को बढ़ाया जाता है। जिसके साथ मांसपेशियों को ज्यादा ऑक्सीजन मिलती है। इसके साथ खिलाड़ी की कारगुजारी बढ़ती है। लम्बी दूरी की दौड़ों में एथलीट्स द्वारा यह विधि ज्यादा प्रयोग की जाती है।
जीन डोपिंग-जीन डोपिंग में अपने शरीर की सामर्थ्य बढ़ाने के लिए अपने ही जीन को बदला जाता है। इस डोपिंग से मांसपेशियों की वृद्धि होती है, शरीर की सहनशक्ति, ज्यादा दर्द सहन करने की शक्ति आदि बढ़ जाती है।

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules.

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. जिमनास्टिक टीम के खिलाड़ी = 8
  2. मुकाबला शुरू होने पर खिलाड़ी बदला जा सकता है। = नहीं
  3. ज्यूरी का फैसला = अंतिम
  4. चोट लगने पर या बीमार होने पर इंतज़ार किया जा सकता है = 30 मिनट
  5. विजेता टीम के कितने खिलाड़ियों के अंक गिने जाते हैं। = 6 खिलाड़ी
  6. अंक दिये जाते हैं = 0 से 10 तक
  7. बिना ज्यूरी के खिलाड़ी खेल छोड़ सकता है। = नहीं
  8. प्रतियोगिता के लिए अधिकारी = कम से कम 3 या पाँच
  9. लड़कों के लिए मुकाबले =
    • पैरेलल बार
    • वाल्टिंग होर्स
    • ग्राऊंड जिम्नास्टिक
    • हॉरिजोंटल बार
    • रोमन डिंग
    • पोमल होर्स।
  10. लड़कियों के लिए मुकाबले =
    • बीम बैलेंस (ज़रूरी)
    • ग्राऊंड जिम्नास्टिक (ज़रूरी)
    • अनइवर बार (ज़रूरी)
    • वाल्टिंग होर्स

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

PSEB 11th Class Physical Education Guide जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
ओलम्पिक में लड़कियों के लिए जिम्नास्टिक कब आरम्भ हुई ?
उत्तर-
1928 ई० के ओलम्पिक्स में।

प्रश्न 2.
लड़कों द्वारा किये जाने वाले जिम्नास्टिक्स अप्रेटस कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-

  1. फ्लोर एक्सरसाइज़
  2. पैरलल बार
  3. हॉरीजोंटल बार
  4. पोमेल हॉर्स
  5. रोमन रिंग्स
  6. वाल्टिंग हॉर्स

प्रश्न 3.
जिम्नास्टिक के मैच में वाल्टिंग हॉर्स की ऊंचाई लिखें।
उत्तर-
1350 मि. मी.।

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 4.
जिम्नास्टिक के मैच में लड़कों की प्रतियोगिता में जजमैंट के लिये कितने जज होते हैं ?
उत्तर-
एक सीनियर जज और 6 अन्य जज।

प्रश्न 5.
पैरलल बार की लम्बाई लिखें।
उत्तर-
3500 मि. मी.।

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

Physical Education Guide for Class 11 PSEB जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
जिमनास्टिक्स का इतिहास लिखें।
उत्तर-
इतिहास (History)-जिमनास्टिक्स एक प्राचीन खेल है। 2600 ईसा पूर्व चीन में जिमनास्टिक्स के व्यायाम किए जाते थे। परंतु इसका वास्तविक विकास यूनान व रोम में शुरू हुआ। ‘जिमनास्टिक्स’ शब्द यूनानी भाषा के ‘जिम्नोस’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ ‘नग्न शरीर’ है। नग्न शरीर के द्वारा जो व्यायाम किए जाते हैं उन्हें जिमनास्टिक कहा जाता है। ये व्यायाम शरीर को स्वस्थ रखने के लिए किए जाते थे। यूनान में जिमनास्टिक पर अधिक बल दिया। स्पार्टवासी अपने युवा वर्ग को जिमनास्टिक का प्रशिक्षण प्रदान कराने में अधिक कठोर थे। उन दिनों लड़कियों और लड़कों से यह आशा की जाती थी कि वह जिमनास्टिक द्वारा अपने स्वास्थ्य को ठीक रखें। यूनान और रोम की सभ्यताओं के पतन के साथ-साथ जिमनास्टिक भी यूनान और रोम से समाप्त हो गई।

जिमनास्टिक के महान् गाड फादर जॉन गुट्स मुथूस ने जिमनास्टिक को पर्शियन स्कूलों में शुरू किया। इस प्रकार जर्मनी ने जिमनास्टिक की पुनः खोज की जिस कारण सन् 1881 में अन्तर्राष्ट्रीय जिमनास्टिक फेडरेशन (International Gymnastic Federation) अस्तित्व में आई। सन् 1894 में पहली जिमनास्टिक प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था। प्रथम आधुनिक ओलम्पिक्स खेलों में पुरुषों के लिए जिमनास्टिक को शामिल किया गया जबकि महिलाओं के लिए जिमनास्टिक को सन् 1928 के ओलम्पिक्स में शामिल किया गया। सन् 1974 एशियाई खेलों में पहली बार इसको शामिल किया गया जिसका आयोजन तेहरान में हुआ था। सन् 1975 में प्रथम विश्व कप का आयोजन हुआ था। जिमनास्टिक एक मनमुग्ध, आकर्षक और अत्यन्त लोकप्रिय खेल है।

जिमनास्टिक के नये सामान्य नियम
(Latest General Rules Related to Gymnastics)
1. पुरुष छः इवेंट्स में भाग लेते हैं जिनमें फ्लोर एक्सरसाइजिज़, वाल्टिंग हार्स, पोमेल्ड हार्स, रोमन रिंग्स, हारीजोंटल बार और पैरलल बार्स होते हैं। महिलाएं चार इवेंट्स में भाग लेती हैं जिसमें वाल्टिंग हार्स, अनईवन बार्स, बैलेंसिंग बीम व फ्लोर एक्सरसाइज़िज होती हैं।

2. सभी जिमनास्ट इवेंट के शुरू होने के पहले तथा बाद में जज के सामने उपस्थित होते हैं। वह सिग्नल मिलने पर ही व्यायाम शुरू करते हैं। अगर एक्सरसाइज के समय वे गिर जाएं तो उन्हें फिर शुरू करने के लिए 30 सैकेंड का समय दिया जाता है।

3. टीम प्रतियोगिता के लिए प्रत्येक टीम के छह जिमनास्ट प्रत्येक एपरेंट्स पर एक अनिवार्य और एक ऐच्छिक, एक्सरसाइज़ करते हैं। सबसे ऊँचे पांच स्कोर को जोड़ लिया जाता है जिससे टीम के अंक जोड़े जा सकें।

4. जिमनास्ट के लिए उचित पोशाक पहनना आवश्यक है। वह पट्टियां बांध सकता है और स्लीपर्स पहन सकता है। जुराबें भी पहन सकता है। सिग्नल मिलने पर 30 सैकेंड में ही अपनी एक्सरसाइज़ शुरू करनी होती है।

होरीजोंटल बार और रोमन रिंग्ज में कोच या एक जिमनास्ट होना ज़रूरी है।

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
जिमनास्टिक के उपकरणों के बारे लिखें।
उत्तर-
खेल के मैदान एवं खेल से सम्बन्धित उपकरणों का वर्णन (Specification of Play field & Sports Equipment)—
(A) पुरुषों के लिए उपकरण (Equipment for men)
1. फर्श 12 × 12 मी०

2. पैरलल बार (Parallel Bar)
बार्स की लम्बाई = 3500 मि०मी०
बार्स की चौड़ाई = 420-520 मि०मी०
बार्स की ऊंचाई = 1750 मि०मी०
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
Parallel Bars

3. हॉरीजोंटल बार (Horizontal Bar)
बार का व्यास = 28 मि०मी०
बार की ऊंचाई = 2.550-2.700 मि०मी०
बार की लम्बाई = 2.400 मि०मी०
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 2
Horizontal Bars

4. पोमेल हॉर्स (Pommel Horse)
पोमेल हार्स की लम्बाई = 1600 मि०मी०
पोमेल हार्स की चौड़ाई = 350 मि०मी०
फर्श की ऊँचाई = 1100 मि०मी०
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 3
Pommel Horse

5. रोमन रिंग्स (Roman Rings)
व्यास (ग्रिप) = 28 मि०मी०
फर्श से स्टैंड की ऊँचाई = 5.500 मि०मी०
चमड़े की पट्टियों की लम्बाई = 700 मि०मी०
मोटाई = 4 मि०मी०
रिंग के अंदर का व्यास = 180 मि०मी०
फर्श से रिंग की ऊँचाई = 2.500 मि०मी०
चौड़ाई पटरियों की = 3.5 मि०मी०
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 4
Roman Rings
वॉल्टिंग हॉर्स (Vaulting Horse)
वॉल्टिंग हॉर्स की ऊँचाई = 1350 मि०मी०
मध्य में समायोजन करने वाले स्टैप्स = 50 मि०मी०
हॉर्स की ऊँचाई = 1600 मि०मी०
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 5
Vaulting Horse

(B) महिलाओं के लिए उपकरण (Equipment for Women)
1. फर्श = 12 मी० × 12 मी०
2. वाल्टिंग हॉर्स (Vaulting Horse)
वाल्टिंग हॉर्स की ऊंचाई = 1,250 मि०मी०
मध्य म समायोजन करने वाले स्टैप्स = 100-150 मि०मी०
हॉर्स की लम्बाई = 1,600 मि०मी०

3. बैलेसिंग बीम (Balancing Beam)
बीम की ऊंचाई = 1200 मि०मी०
बीम की लम्बाई = 1500 मि०मी०
बीम की चौड़ाई = 100 मि०मी०
ऊँचाई का समायोजन = 700-1200 मि०मी०
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 6
Balancing Beam

4. अन-ईवन बार (Uneven Bar)
अन-ईवन बार की लम्बाई = 2400 मि०मी०
फर्श से बार की ऊंचाई = 2300 मि०मी०
बार्स के बीच की दूरी = 580-900 मि०मी०
अपराइट्स का व्यास = 50-60 मि०मी०
अपराइट्स की मोटाई = 30 मि०मी०
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 7
Uneven Bar
जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 8
Gymnasium

महत्त्वपूर्ण टूर्नामैंट्स
(Important Tournaments)

  1. ओलम्पिक गेम्स
  2. एशियन गेम्ज
  3. वर्ल्ड कप
  4. आल इंडिया इन्टर यूनिवर्सिटी जिमनास्टिक्स चैम्पियनशिप
  5. नेशनल चैम्पियनशिप
  6. फेडरेशन कप
  7. स्कूल नेशनल गेम्स
  8. चाइना कप।

प्रसिद्ध खिलाड़ी
(Famous Sports Personalities)
(क) भारतीय खिलाड़ी

  1. शामलाल
  2. कु० कृपाली पटेल
  3. डॉ० कल्पना देवनाथ
  4. मोण्टू देवनाथ
  5. अन्जू दुआ
  6. सुनीता शर्मा।

(ख) विदेशी खिलाड़ी

  1. ओलगा कोहबुत
  2. नादिया कोमानेली
  3. नेलोकिम
  4. लुदिमिला जिस्कोवा
  5. डोवलूपी
  6. कीरनजन्ज।
  7. एलीवश सादी।

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
जिमनास्टिक के मुख्य कौशल लिखें।
उत्तर-
जिम्नास्टिक के मुख्य कौशल
(Fundamental Skill of Gymnastics)
पुरुषों के इवेंट्स (Men’s Events)
(A) पैरलल बार (Parrallel Bar)

  1. अप स्टार्ट
  2. फ्रंट अपराइज
  3. शोल्डर स्टैंट
  4. हैंड स्टैंड
  5. हैंड स्टैंड विद 180° टर्न
  6. हैंड स्टैंड ट फ्रंट टर्न ऑन दि शोल्डर
  7. वैकवर्ड रोल
  8. हैंड स्टैंड टू कार्ट व्हील

(B) हॉरीजोंटल बार (Horizontal Bar)

  1. अप स्टार्ट विद ओवर ग्रिप
  2. अप स्टार्ट विद अंडर ग्रिप
  3. शॉर्ट सर्कल
  4. वन लैग सर्कल विद हील फुट
  5. हील फुट
  6. स्विंग विद श्रू वाल्ट।

(C) पोमेल्ड हार्स (Pommaled Horse)

  1. फ्रंट स्पोर्ट पोजीशन
  2. सिंगल लैग हॉफ सर्कल
  3. डबल लैग सर्कल्स
  4. फ्रंट सीजर्स।

(D) रोमन रिग्स (Roman Rings)

  1. अप स्टार्ट
  2. बैक सर्कल टू बैक हैंग
  3. मसल-अप
  4. बैक लीवर
  5. बैक अपराइज
  6. डिस्लोकेशन
  7. बैक अपराइज विद एल पोजीशन।

(E) वॉल्टिंग हार्स (Vaulting Horse)

  1. स्ट्रैडल वॉल्ट
  2. स्कैटवाल्ट
  3. कार्ट व्हील
  4. हैंड स्टैंड टू कार्ट व्हील
  5. हैंड स्प्रिंग।

(F) फर्श पर किए जाने वाले व्यायाम (Floor Exercises)

  1. फॉरवर्ड रोल टु हैंड स्टैंड
  2. बैकवर्ड रोल टु हैंड स्टैंड
  3. फॉरवर्ड रोल टु हैंड स्प्रिंग
  4. हैंड स्प्रिंग टु डाइव रोल
  5. राउंड ऑफ टु फ्लिक-फ्लैक
  6. वन लैग हैंड स्प्रिंग
  7. हैंड स्टैंड टु फारवर्ड रोल विद स्ट्रेट लैग्स।

महिलाओं के इवेंट्स (Women Events)
(A) बैलेसिंग बीम (Balancing Beam)

  1. गैलोप स्टैप विद बैलेंस
  2. सीर्जस जम्प
  3. फारवर्ड रोल
  4. बैकवर्ड रोल
  5. कार्ट व्हील
  6. ब्रिज
  7. बैलेंस
  8. डिस्काउंट

(B) वाल्टिंग हॉर्स (Vaulting Horse)

  1. स्पलिट वॉल्ट
  2. हैंड स्प्रिंग
  3. स्कवैट वॉल्ट।

(C) अन-ईवन बार्स (Un-even Bars)

  1. स्प्रिंग ऑन अपर बार
  2. बैक अप-राइज
  3. वन लैग फारवर्ड सर्कल
  4. वन लैग बैकवर्ड सर्कल
  5. क्रास बैलेंस
  6. हैंड स्प्रिंग।

(D) फर्श के व्यायाम (Floor Exercises)

  1. फारवर्ड रोल टु हैंड स्टैंड
  2. बैकवर्ड रोल टु हैंड स्टैंड
  3. राउंड आफ
  4. स्लोबैक हैंड स्प्रिंग
  5. स्पलिट सिटिंग
  6. स्लो हैंड स्प्रिंग
  7. हैंड स्प्रिंग
  8. हैड स्प्रिंग।

खिलाड़ी
(Players)
टीम में आठ खिलाड़ी होते हैं और सभी खिलाड़ी सभी अभ्यासों में ही भाग लेते हैं। टीम चैम्पियनशिप के लिए छः सर्वोत्तम खिलाड़ियों का प्रदर्शन गिना जाता है।

अंक या प्वाइंट
(Points)

  1. प्रत्येक अभ्यास के लिए 0 से 10 तक अंक लगाए जाते हैं। एक प्वाइंट के आगे 10 भागों में बांटा जाता है।
  2. यदि निर्णायकों का पैनल पांच का हो तो उच्चतम और न्यूनतम अंकों को जोड़ दिया जाता है और मध्य के तीन अंकों की औसत ले ली जाती है।
  3. यदि पैनल तीन निर्णायकों का हो तो तीनों के अंकों को ही औसत के लिए लिया जाता है।

निर्णय
(Decision)

  1. पांच या कम-से-कम तीन निर्णायक प्रत्येक इवेंट के लिए प्रतियोगिता की समाप्ति तक रखे जाते हैं। इसमें से एक मुख्य निर्णायक माना जाता है।
  2. निर्णायक प्रत्येक उपकरण (आप्रेटस) पर पहले खिलाड़ी के कौतुक के आधार पर अंकों बारे शेष खिलाड़ियों के कौतुकों का मूल्यांकन करते हैं। अभ्यास के लिए परामर्श भी कर सकते हैं ताकि सामान्य आधार का निर्णय कर सकें।
  3. इसके पश्चात् वे स्वतन्त्र रूप में निर्णय करते हैं और किसी विशेष बात (जैसे कि दुर्घटना) के अतिरिक्त वे परामर्श नहीं करते।
  4. तीनों निर्णायकों के अंकों की औसत से परिणाम निकाला जाएगा।
  5. यदि दो निर्णायकों के अंकों में मतभेद हो तो मुख्य निर्णायक की अंकों की संख्या भी देखी जाती है।
  6. मुख्य निर्णायक का यह कर्त्तव्य है कि वह अन्य दोनों निर्णायकों की सन्धि करवाए। यदि ऐसा न हो सके तो मुख्य निर्णायक अपना निर्णय सुना सकता है।

जिम्नास्टिक्स (Gymnastics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 4.
जिमनास्टिक्स के साधारण नियम लिखें।
उत्तर-
प्रतियोगिता के सामान्य नियम
(General Rules of.Competition)
1. प्रतियोगिता के समय खिलाड़ियों को बदलने की आज्ञा नहीं होती।

2. इवेंट्स के जज तथा टीमें ठीक समय पर मैदान में पहुंच जानी चाहिएं।

3. यदि किसी खिलाड़ी की दुर्घटना हो जाए या वह बीमार पड़ जाए तो कप्तान उसी समय डॉक्टर को सूचित करें और उसकी पुष्टि प्राप्त करें।

4. उस खिलाड़ी को स्वस्थ होने के लिए और फिर खेल में सम्मिलित होने के लिए आधे घंटे के लिए खेल स्थगित की जा सकती है। यदि इस समय तक भी खिलाड़ी की दशा में सुधार नहीं होता तो उसे खेल से निकाल दिया जाता है और खेल आरम्भ करनी पड़ती है।

5. टीम प्रतियोगिताएं दो भागों में होंगी। पहले अनिवार्य अभ्यासों के लिए तथा फिर ऐच्छिक अभ्यासों के लिए।

6. केवल वही प्रतियोगी फाइनल में भाग ले सकेंगे जिन्होंने टीम प्रतियोगिता के सभी इवेंट्स में भाग लिया होगा।

7. अनिवार्य व्यायामों में खिलाड़ी को दूसरा अवसर व्यायाम करने के लिए मिल सकता है जबकि वह खिलाड़ी यह महसूस करें कि मेरा पहले प्रदर्शन (परफारमेंस) ठीक नहीं है, या वह अपने व्यायामों के कुछ व्यायाम करना भूल गया है लेकिन मैदान व्यायामों में दूसरा अवसर नहीं दिया जाता। दूसरा अवसर प्राप्त करने के लिए पहले व्यायाम समाप्त करने के उपरान्त खिलाड़ी को हाथ खड़े करके निर्णायक को दूसरा अवसर प्राप्त करने के लिए बताना होगा। परन्तु दूसरा अवसर अपनी टीम के सभी खिलाड़ियों के भाग लेने के बाद ही लेना होता है।

8. लम्बी दौड़ों के वाल्ट पर प्रत्येक खिलाड़ी को दो बार प्रयत्न करने का अधिकार है। सर्वोत्तम प्रदर्शन उचित स्वीकार किया जाता है।

9. फ्री स्टैडिंग अभ्यास को दोहराया नहीं जा सकता।

10. लम्बी दौड़ों के अतिरिक्त ऐच्छिक अभ्यास को दोहराया नहीं जाता।

11. प्रबन्धक उपकरणों की व्यवस्था करेंगे। कोई भी टीम अपने निजी उपकरण प्रयोग नहीं कर सकती।

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1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो शब्दों में दो :

प्रश्न (क)
ITCZ का पूरा नाम क्या है ?
उत्तर-
Inter Tropical Convergence Zone.

प्रश्न (ख)
नक्षत्रीय पवनों को अंग्रेजी में क्या कहते हैं ?
उत्तर-
Planetary winds.

प्रश्न (ग)
मानसून कौन-सी भाषा का शब्द है ?
उत्तर-
अरबी भाषा।

प्रश्न (घ)
साइबेरिया की कौन-सी झील मानसून सिद्धांत से संबंधित है ?
उत्तर-
बैकाल झील।

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प्रश्न (ङ)
मानसून फटने की क्रिया कब घटित होती है ?
उत्तर-
28 से 30 मई के मध्य केरल के तट पर।

प्रश्न (च)
पंजाब के दक्षिणी भागों में गर्मियों में बहती हवाओं को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
लू (loo)।

प्रश्न (छ)
ऑस्ट्रेलिया में चक्रवातों को किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-
विल्ली-विल्ली।।

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प्रश्न (ज)
Tornado का पंजाबी में क्या नाम है ?
उत्तर-
वावरोला।

प्रश्न (झ)
विपरीत चक्रवात का सिद्धांत किसने दिया ?
उत्तर-
फ्रांसिस गैलटन ने।

प्रश्न (ब)
यूरोप में फोहेन (Fohen) नाम से जानी जाने वाली पवनों को उत्तरी अमेरिका में कौन-सा नाम दिया जाता है ?
उत्तर-
चिनूक पवनें।

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2. प्रश्नों के उत्तर दो-चार वाक्यों में दो :

प्रश्न (क)
पश्चिमी पवनों को मलाहां की ओर से 40′, 50° और 60° अक्षांश पर क्या-क्या नाम दिए जाते हैं ?
उत्तर-
40° अक्षांश . – गर्जते चालीस
50° अक्षांश – गुस्सैल पचास
60° अक्षांश – कूकते (चीखते) साठ।

प्रश्न (ख)
स्थायी पवनों के उदाहरणों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. व्यापारिक पवनें
  2. पश्चिमी पवनें
  3. ध्रुवीय पवनें।

प्रश्न (ग)
फैरल के नियमानुसार उत्तरी गोलार्द्ध में क्या प्रभाव पड़ते हैं ?
उत्तर-
उत्तरी गोलार्द्ध में पवनें अपने दायीं ओर मुड़ जाती हैं।

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प्रश्न (घ)
एलनीनो का पता किसने लगाया था ?
उत्तर-
लगभग 100 साल पहले मौसम विभाग के डायरैक्टर जनरल गिलबर्ट वाल्कर (Gilbert Walker) ने एलनीनो का पता लगाया था।

प्रश्न (ङ)
सांता एना क्या है ?
उत्तर-
कैलीफोर्निया राज्य के दक्षिणी भागों में पहाड़ी क्षेत्रों से नीचे उतरती पवनों को सांता एना कहते हैं।

प्रश्न (च)
बलिजार्ड (Balizard) क्या है ?
उत्तर-
ध्रुवीय क्षेत्रों में चलने वाली ठंडी, शुष्क और बर्फीली पवनों को बलिजार्ड कहते हैं।

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प्रश्न (छ)
हरीकेन और बाईगुइस में क्या अंतर है ?
उत्तर-
खाड़ी मैक्सिको में चलने वाले चक्रवातों को हरीकेन कहते हैं जबकि फिलीपाइन के निकट चलने वाले चक्रवातों को बाईगुइस कहते हैं।

प्रश्न (ज)
हुद-हुद, नीलोफर और नानुक का आपस में क्या संबंध है ?
उत्तर-
सन् 2014 में, भारत के तट पर चलने वाले चक्रवातों को हुद-हुद, नीलोफर और नानुक नाम दिए गए थे।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 60 और 80 शब्दों में दें-

प्रश्न (क)
विपरीत चक्रवातों के रहते गर्मियों और सर्दियों के मौसम कैसे होते हैं ?
उत्तर-
विपरीत चक्रवातों का अर्थ है-उच्च हवा के दबाव के क्षेत्र। गर्मियों में विपरीत चक्रवातों के समय मौसम साफ-साफ, नीला आसमान, बादल रहित और शुष्क होता है। सर्दियों के मौसम में कोहरा और धुंध हो सकती है।

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प्रश्न (ख)
एल-नीनो क्या है ? व्याख्या करें।
उत्तर-
एल-नीनो गर्म जल की धारा है, जो दक्षिणी प्रशांत महासागर में पेरु-चिल्ली के तट के साथ-साथ छह से सात वर्षों के अंतराल से बहती है। हम्बोलाट की ठंडी धारा के विपरीत गर्म जल की धारा एल-नीनो बहती है, इसलिए मानसून की वर्षा कम हो जाती है।

प्रश्न (ग)
तिब्बत के पठार का मानसून पवनों संबंधी क्या योगदान है ?
उत्तर-
तिब्बत का पठार एक विशाल पठार है, जिसका क्षेत्रफल 2000-600000 वर्ग किलोमीटर है। यह पवनों के लिए प्राकृतिक रोक लगाता है और यहाँ गर्मियों के मौसम में तापमान बहुत अधिक हो जाता है, इसलिए पश्चिमी जेट धारा तिब्बत के उत्तर की ओर खिसक जाती है।

प्रश्न (घ)
‘आमों की बौछार’ स्पष्ट करें।
उत्तर-
जून के महीने में मानसून पवनें केरल के तट से शुरू होती हैं। इन्हें मानसून का फटना कहते हैं। यह वर्षा केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में आमों की उपज के लिए बहुत लाभदायक होती है। इसलिए इसे ‘आम्रवृष्टि’ (Mango Showers) भी कहा जाता है।

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प्रश्न (ङ)
पवन-पेटियों के फिसलने की क्रिया स्पष्ट करें।
उत्तर-
धरती की परिक्रमा के कारण, धरती के ऊपर सूर्य की स्थिति सारा साल लगातार बदलती रहती है। सूर्य की किरणें कभी भूमध्य रेखा पर, कभी कर्क रेखा पर और कभी मकर रेखा पर लंब रूप में पड़ती हैं। जब सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंब रूप में पड़ती हैं, तो पवन-पेटियाँ उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। इसके विपरीत जब सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लंब रूप में पड़ती हैं, तो पवन-पेटियाँ दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।

प्रश्न (च)
कोरिओलिस (Coriolis) प्रभाव क्या है ? पृथ्वी पर इसका क्या प्रभाव है ? संक्षेप में लिखें।
उत्तर-
कोरिओलिस प्रभाव (Coriolis effect)-धरातल पर पवनें कभी भी उत्तर से दक्षिण की ओर सीधी नहीं बहतीं। सभी पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दाएँ ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाएँ ओर मुड़ जाती हैं। इसे फैरल का नियम कहते हैं। (“All moving bodies are deflected to the right in the Northern Hemisphere and to the left in the Southern Hemisphere.”)

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हवा की दिशा में परिवर्तन का कारण धरती की दैनिक गति है। जब हवाएँ कम चाल वाले भागों से अधिक चाल वाले भागों की ओर आती हैं, तो पीछे रह जाती हैं। जैसे-उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवनें अपने दाएँ ओर मुड़ जाती हैं तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाएँ ओर मुड़ जाती हैं। इसे कोरिओलिस प्रभाव कहते हैं।

प्रश्न (छ)
शृंकां से क्या भाव है ? इस पर एक स्पष्ट नोट लिखें।
उत्तर-
उत्तरी अमेरिका में बसंत ऋतु में पर्वतों के नीचे उत्तर के मैदानों की ओर बहती गर्म शुष्क पवनों को चिनूक पवनें कहते हैं। कनाडा में पंजाबी में इसे ‘शंकां’ भी कहते हैं।

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4. प्रश्नों के उत्तर 150 से 250 शब्दों में लिखो-

प्रश्न (क)
स्थानीय पवनों के तापमान के आधार पर विभाजन और व्याख्या करें।
उत्तर-
स्थानीय पवनें (Local winds)-कुछ पवनें भू-तल के किसी छोटे-से सीमित भाग में चलती हैं, जिन्हें स्थानीय पवनें कहते हैं।

1. थल और जल समीर (Land and Sea Breezes)–थल पर स्थायी पवनों का एक सिलसिला है, पर जल और थल के तापमान की भिन्नता के कारण कुछ स्थानीय पवनें पैदा होती हैं। जल समीर और थल समीर अस्थायी पवनें हैं, जो समुद्र तल के निकट के क्षेत्रों में महसूस की जाती हैं। ये जल और थल की बहुत कम गर्मी के कारण पैदा होती हैं, इसलिए इन्हें छोटे पैमाने की मानसून पवनें (Monsoon on a Small Scale) भी कहते हैं।

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(i) जल समीर (Sea Breeze)—ये वे पवनें हैं, जो दिन के समय समुद्र से थल की ओर चलती हैं। उत्पत्ति का कारण (Origin)—दिन के समय सूर्य की तीखी गर्मी के कारण थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी गर्म हो जाता है। थल पर हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और वायु दबाव कम हो जाता है, परंतु समुद्र पर थल की तुलना में अधिक वायु दबाव रहता है। इस प्रकार थल पर कम दबाव का स्थान लेने के लिए समुद्र की ओर से ठंडी हवाएं चलती हैं। थल की गर्म हवा ऊपर उठकर समुद्र की ओर चली जाती है। इस प्रकार हवा के बहने का एक चक्र बन जाता है।

प्रभाव (Effects)-

  • जल समीर ठंडी और सुहावनी (Cool and fresh) होती है।
  • यह गर्मियों में तटीय क्षेत्रों में तापमान को कम करती है, परंतु सर्दियों में तटीय तापमान को ऊँचा करती है। इस प्रकार मौसम सुहावना और समान हो जाता है।
  • इसके प्रभाव समुद्र तट से 20 मील की दूरी तक सीमित रहते हैं।

(ii) थल समीर (Land Breeze)-ये वे पवनें हैं, जो रात के समय थल से समुद्र की ओर चलती हैं।
उत्पत्ति के कारण (Origin)—रात के समय स्थिति दिन से विपरीत होती है। थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी ठंडे हो जाते हैं। समुद्र पर वायु दबाव कम हो जाता है, परंतु थल पर वायु दबाव अधिक होता है। इस प्रकार थल की ओर से समुद्र की ओर पवनें चलती हैं। समुद्र की गर्म हवा ऊपर उठकर थल पर उतरती है, जिससे हवा चलने का चक्र बन जाता है।

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प्रभाव (Effects)–

  • इसका थल भागों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  • इन पवनों का फायदा उठाकर मछुआरे प्रातः थल समीर (Land Breeze) की सहायता से समुद्र की ओर बढ़ जाते हैं और शाम को जल समीर (Sea Breeze) के साथ-साथ तट की ओर वापस आ जाते हैं।
  • इसका प्रभाव तभी अनुभव होता है, जबकि आकाश साफ हो, दैनिक तापमान अधिक हो और तेज़ पवनें न बहती हों।

2. पर्वतीय और घाटी की पवनें (Mountain and Valley Winds)—यह आमतौर पर दैनिक पवनें होती हैं, जो दैनिक तापांतर के फलस्वरूप वायु-दबाव की भिन्नता के कारण चलती हैं।

(i) पर्वतीय पवनें (Mountain Winds)—पर्वतीय प्रदेशों में रात के समय पर्वत के शिखर से घाटी की ओर ठंडी और भारी हवाएँ चलती हैं, जिन्हें पर्वतीय पवनें (Mountain winds) कहा जाता है।।

उत्पत्ति (Origin)-रात के समय तेज विकिरण (Rapid Radiation) के कारण हवा ठंडी और भारी हो जाती है। यह हवा गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity) के कारण ढलानों से होकर नीचे उतरती है। इसे वायु प्रवाह (Air Drainage) भी कहते हैं।

प्रभाव (Effects)-इन पवनों के कारण घाटियाँ (Valleys) ठंडी हवा से भर जाती हैं, जिससे घाटी के निचले भागों पर पाला पड़ता है, इसीलिए कैलीफोर्निया (California) में फलों के बाग और ब्राजील में कॉफी (कहवा) के बाग ढलानों पर लगाए जाते हैं।

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(ii) घाटी की पवनें (Valley Winds)-दिन के समय घाटी की गर्म हवा ढलान के ऊपर से होकर चोटी की ओर ऊपर चढ़ती है। इसे घाटी की पवनें कहा जाता है।

उत्पत्ति (Origin)-दिन के समय पर्वत के शिखर पर तेज़ गर्मी और विकिरण के कारण हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और कम वायु दबाव हो जाता है। उसका स्थान लेने के लिए घाटी से हवाएँ ऊपर चढ़ती हैं। जैसे-जैसे ये पवनें ऊपर चढ़ती हैं, वे ठंडी होती जाती हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • ऊपर चढ़ने के कारण ये पवनें ठंडी होकर भारी वर्षा करती हैं।
  • ये ठंडी पवनें गहरी घाटियों में गर्मी की तेज़ी को कम करती हैं।

3. चिनक और फौहन पवनें (Chinook and Foehn Winds)-

(i) चिनूक पवनें (Chinnok Winds)-अमेरिका में रॉकी (Rocky) पर्वतों को पार करके प्रेरीज़ के मैदान में चलने वाली पवनों को चिनूक (Chinook) पवनें कहते हैं। चिनूक का अर्थ है-बर्फ खाने वाला। चूँकि ये पवनें अधिक तापमान के कारण बर्फ को पिघला देती हैं और कई बार 24 घंटों के समय में 50° F (10° C) तापमान बढ़ जाता है।

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(ii) फोहन पवनें (Foehn Winds)-यूरोप में अल्पस पर्वतों को पार करके स्विट्ज़रलैंड में उतरने वाली पवनों को फोहन (Foehn) पवनें कहते हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • ये पवनें तापमान बढ़ा देती हैं और बर्फ पिघल जाती है, जिससे फसलों को पकने में सहायता मिलती है।
  • ये पवनों की कठोरता को कम करती हैं।
  • बर्फ के पिघल जाने से पहाड़ी चरागाह वर्ष-भर खुले रहते हैं और पशु-पालन में आसानी रहती है।

4. बोरा और मिस्ट्रल (Bora and Mistral)—ये दोनों एक ही प्रकार की शीतल और शुष्क पवनें हैं, जिन्हें यूगोस्लाविया के एडरिआटिक सागर (Adriatic Sea) और इटली के तट पर बोरा तथा फ्रांस की रोम घाटी (Rome Valley) में मिस्ट्रल कहते हैं। शीतकाल में मध्य यूरोप अत्यंत ठंड के कारण उच्च वायु दाब के अंतर्गत होता है। इसकी तुलना में भूमध्य सागर में निम्न वायु दाब होता है। परिणामस्वरूप मध्य यूरोप में भूमध्य सागर की ओर से ठंडी और शुष्क पवनें चलने लगती हैं। आम तौर पर ये शक्तिशाली पवनें होती हैं, जिनकी गति तेज़ होती है। रोहन नदी की तंग घाटी में ये पवनें बड़ा भयानक रूप धारण कर लेती हैं और कई बार इनकी तेज़ गति के कारण मकानों की छतें भी उड़ जाती हैं।

5. बवंडर (Tornado)—संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्यवर्ती मैदानों में, गर्मी की ऋतु आरंभ होने के साथ ही तेज़ अंधेरियाँ चलनी शुरू हो जाती हैं, जिन्हें ‘बवंडर’ के नाम से पुकारा जाता है। इन मैदानों में, गर्मी की ऋतु आरंभ होते ही गर्मी में तेजी से वृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। फलस्वरूप वहाँ निम्न वायु दाब उत्पन्न हो जाता है। निकटवर्ती बर्फ से ढके रॉकी पर्वतों के उच्च वायु दाब से अत्यंत ठंडी शुष्क पवनें तेज़ गति से यहाँ पहुँचती हैं और मैक्सिको की खाड़ी से आती हुई गर्म और नम पवनों के साथ संबंध स्थापित कर लेती हैं। शीतल और शुष्क तथा उष्ण और नम पवनों के मेल से प्रचंड बवंडर की उत्पत्ति होती है। ये बवंडर बहुत विनाशकारी होते हैं।

6. लू (Loo)-भारत के उत्तरी विशाल मैदानों और पाकिस्तान के सिंध और इसकी सहायक नदियों के मैदानों में मई-जून के महीनों में बहुत गर्म पवनें चलती हैं। ये अक्सर शुष्क होती हैं, जो पश्चिमी दिशा की ओर बहती हैं। इन्हें ‘लू’ कहते हैं। इनका तापमान 45°-50° सैल्सियस के बीच होता है। ये बहुत असहनीय होती हैं।

7. हर्मटन (Harmattan)—पश्चिमी अफ्रीका में सहारा मरुस्थल से शुष्क, गर्म और धूल भरी पवनें चलती हैं। पश्चिमी अफ्रीका के पश्चिमी तटों के गर्म व शुष्क वातावरण की नमी शरीर के पसीने को सुखा देती है। इस प्रकार ये पवनें स्वास्थ्य के लिए ठीक समझी जाती हैं। परिणामस्वरूप इन्हें डॉक्टर (Doctor) कह कर पुकारा जाता है।

8. सिरोको (Sirroco)—सहारा मरुस्थल से ही गर्म, शुष्क और धूल भरी पवनें भूमध्य सागर की ओर चलती हैं। इटली में इन्हें सिरोको और सहारा में ‘सिमूम’ कहा जाता है। भूमध्य सागर को पार करते समय ये नमी ग्रहण कर लेती हैं। इटली में ये मौसम को अत्यंत गर्म और चिपचिपा कर देती हैं। इस प्रकार ये दुखदायी होती हैं।

9. बलिजार्ड (Blizard) बर्फ से ढके ध्रुवीय क्षेत्रों में चलने वाली ठंडी, शुष्क और बर्फीली पवनों को बलिजार्ड कहते हैं। इनकी गति 70 से 100 किलोमीटर घंटा होती है। इनमें मुसाफिर मार्ग में भटक जाते हैं, इसे बर्फ का अंधापन (Snow blindness) कहा जाता है।

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प्रश्न (ख)
स्थायी पवनें क्या हैं ? प्रकार सहित इनकी व्याख्या करें।
उत्तर-
पवनें (Winds)-वायु हमेशा उच्च दबाव वाले क्षेत्रों से निम्न दबाव वाले क्षेत्रों की ओर चलती है। इस चलती हुई वायु को पवन (Wind) कहते हैं। वायु-दबाव में अंतर आ जाने के कारण ही भू-तल पर चलने वाली पवनें उत्पन्न होती हैं। पवनों की दिशा (Direction of the wind) वह होती है, जिस दिशा से वे आती हैं।

1. भू-मंडलीय या स्थायी पवनें (Planetary or Permanent Winds)-
धरातल पर उच्च वायु दाब और निम्न वायु दाब की अलग-अलग पेटियाँ (Belts) होती हैं। उच्च वायु दाब और निम्न वायु दाब की ओर से लगातार पवनें चलती हैं। इन्हें स्थायी पवनें कहते हैं। ये सदा एक ही दिशा की ओर चलती हैं। स्थायी पवनें तीन प्रकार की होती हैं-

  1. व्यापारिक पवनें (Trade winds)
  2. पश्चिमी पवनें (Westerlies)
  3. ध्रुवीय पवनें (Polar winds)

1. व्यापारिक पवनें (Trade Winds) विस्तार (Extent) व्यापारिक पवनें वे स्थायी पवनें हैं, जो गर्म कटिबंध (Tropics) के मध्य भूमध्य रेखा की ओर चलती हैं। ये पवनें घोड़ा अक्षांशों (Horse Latitudes) या उपोष्ण कटिबंध के उच्च दबाव (Sub Tropical High Pressure) के क्षेत्र से डोलड्रमज़ (Dol Drums) या भूमध्य रेखा की निम्न वायु दबाव वाली पेटी की ओर चलती हैं। इनका विस्तार आम तौर पर 5°-35° उत्तर और दक्षिण तक चला जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें 6

दिशा (Direction)-ये दोनों गोलार्डों में पूर्व से आती दिखाई देती हैं, इसलिए इन्हें पूर्वी पवनें (Easterlies) भी कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्वी (North-East) और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी-पूर्वी (South-East) होती है। नाम का कारण (Why so Called ?)—इन पवनों को व्यापारिक पवनें (Trade winds) कहने के दो कारण हैं-

1. प्राचीन काल में यूरोप और अमेरिका के बीच समुद्री जहाजों को इन पवनों से बहुत सहायता मिलती थी। ये पवनें Backing winds के रूप में जहाज़ों की गति बढ़ा देती हैं, इसलिए व्यापार में सहायक होने के कारण इन्हें व्यापारिक पवनें कहा जाता है।

2. अंग्रेज़ी के मुहावरे, To blow trade का अर्थ है-लगातार बहना। ये पवनें लगातार एक ही दिशा की ओर बहती हैं। इसलिए इन्हें Trade winds कहते हैं।

उत्पत्ति का कारण (Why caused ?) भूमध्य रेखा पर बहुत गर्मी के कारण निम्न वायु दाब पेटी मिलती है। भूमध्य रेखा से ऊपर उठने वाली गर्म और हल्की हवा 30° उत्तर और दक्षिण के पास ठंडी और भारी होकर नीचे उतरती रहती है। ध्रुवों से खिसक कर आने वाली हवा भी इन अक्षांशों में नीचे उतरती है। इन नीचे उतरती हुई पवनों के कारण मकर रेखा के निकट उच्च वायु दाब पेटी बन जाती है। इसलिए भूमध्य रेखा के निम्न वायु दाब (Low Pressure) का स्थान ग्रहण करने के लिए 30° उत्तर और दक्षिण के उच्च वायु दाब से भूमध्य रेखा की ओर व्यापारिक पवनें चलती हैं।

दिशा परिवर्तन (Change in Direction)—यदि धरती स्थिर होती तो ये पवनें उत्तर-दक्षिण दिशा में चलतीं, परंतु धरती की दैनिक गति के कारण ये पवनें इस लंबवत् दिशा से हटकर एक तरफ झुक जाती हैं और Deflect हो जाती हैं। फैरल के नियम और कोरोलिस बल के कारण, ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • गर्म प्रदेशों में चलने के कारण ये पवनें आम तौर पर शुष्क होती हैं।
  • ये पवनें महाद्वीपों के पूर्वी भागों में वर्षा करती हैं और पश्चिमी भागों तक पहुँचते-पहुँचते शुष्क हो जाती हैं। यही कारण है कि पश्चिमी भागों में 20°-30° में गर्म मरुस्थल (Hot Deserts) मिलते हैं।
  • ये पवनें उत्तरी भाग में उच्च दाब (High Pressure) के निकट होने के कारण ठंडी (Cool) और शुष्क (Dry) होती हैं, पर भूमध्य रेखा के निकट दक्षिणी भागों में गर्म (Hot) और नम (Wet) होती हैं।
  • ये पवनें समुद्रों से लगातार और धीमी चाल में चलती हैं, पर महाद्वीपों में इनकी दिशा और गति में अंतर आ जाता है।

व्यापारिक पवनों के देश (Areas)-उत्तरी गोलार्द्ध में पूर्वी अमेरिका और मैक्सिको, दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया, पूर्वी अफ्रीका और पूर्वी ब्राज़ील।

2. पश्चिमी पवनें (Westerlies) विस्तार (Extent)-ये पवनें ऐसी स्थायी पवनें हैं जो शीतोष्ण (Temperate) खंड में 30° उच्च वायु दाब से 60° के उप-ध्रुवीय निम्न वायु दाब (Sub-Polar Low Pressure) की ओर चलती हैं। इनका विस्तार आम तौर पर 30° से 65° तक पहुँच जाता है। इन पवनों की उत्तरी सीमा ध्रुवीय सीमांत (Polar Fronts) और चक्रवातों (Cyclones) के कारण सदा बदलती रहती है।

दिशा (Direction)-उत्तरी गोलार्द्ध में इन पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिमी (South-west) होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में इन पवनों की दिशा उत्तर-पश्चिमी (North-west) होती है।

नाम का कारण (Why so Called ?)दोनों गोलार्डों में ये पवनें पश्चिम से आती हुई महसूस होती हैं, इसलिए इन्हें पश्चिमी पवनें कहते हैं। इनकी दिशा व्यापारिक पवनों के विपरीत होती है, इसलिए इन्हें प्रतिकूल व्यापारिक पवनें (Anti-Trade winds) भी कहते हैं।

उत्पत्ति का कारण (Why Caused ?)-कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट नीचे उतरती पवनों (Descending winds) के कारण उच्च वायु दाब हो जाता है। भूमध्य रेखा से गर्म और हल्की हवा इन अक्षांशों में नीचे उतरती है। इसी प्रकार ध्रुवों से खिसक कर आने वाली हवा भी नीचे उतरती है, परंतु 60°C अक्षांशों के निकट Antarctic Circle पर धरती की दैनिक गति के कारण निम्न वायु दाब हो जाता है। इसलिए 30° के उच्च वायु दाब की ओर से 60° के निम्न वायु दाब की ओर पश्चिमी पवनें चलती हैं।

दिशा परिवर्तन (Change in Direction)-आम तौर पर पवनों की दिशा उत्तर-दक्षिणी होनी चाहिए, परंतु धरती की दैनिक गति के कारण यह पवनें लंबवत् दिशा से हटकर एक ओर झुक जाती हैं। फैरल के नियम (Ferral’s Law) के अनुसार और कोरोलिस बल के कारण ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • समुद्रों की नमी से भरी होने के कारण यह पवनें अधिक वर्षा करती हैं।
  • यह पवनें पश्चिमी प्रदेशों में बहुत वर्षा करती हैं, परंतु पूर्वी भाग सूखे रह जाते हैं।
  • यह पवनें बहुत अस्थिर होती हैं। इनकी दिशा और शक्ति बदलती रहती है। चक्रवात (Cyclones) और प्रति-चक्रवात (Anti-cyclones) इनके मार्ग में अनिश्चित मौसम ले आते हैं। वर्षा, बादल, कोहरा, बर्फ और तेज़ आँधियों के कारण मौसम लगातार बदलता रहता है।
  • यह दक्षिणी गोलार्द्ध में समुद्रों पर लगातार और तेज़ चाल से चलती हैं। 40°-50° दक्षिण के अक्षांशों में इन्हें गर्जते चालीस (Roaring Forty) कहा जाता है। 50°-60° दक्षिण में इन्हें क्रमशः गुस्सैल पचास (Furious Fifties) और कूकते (चीखते) साठ (Shrieking Sixty) कहते हैं। इन प्रदेशों में ये इतनी तेज़ी से चलती हैं कि दक्षिणी अमेरिका के Cape-Horn पर समुद्री आवाजाही रुक जाती है।
  • व्यापारिक पवनों की तुलना में इनका प्रवाह-क्षेत्र बड़ा होता है।

पश्चिमी पवनों के क्षेत्र (Areas)-इन पवनों के कारण पश्चिमी यूरोप के सभी देशों में आदर्श जलवायु (Ideal Climate) होती है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी अमेरिका, पश्चिमी कनाडा, दक्षिणी-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड तथा दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका के प्रदेश इन पवनों के प्रभाव में आ जाते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें

प्रश्न (ग)
निम्नलिखित पर नोट लिखें-
(i) कोरियोलिस प्रभाव
(ii) ऐलनीनो प्रभाव।
उत्तर-
(i) कोरियोलिस प्रभाव (Coriolis Effect)
पवनों की दिशा पर पृथ्वी के घूमने का प्रभाव (Effect of Earth’s Rotation on Wind’s Direction)पवनें उच्च दाब से निम्न दाब की दिशा की ओर चलती हैं। आम तौर पर ये सीधी चलती हैं, परंतु पृथ्वी की दैनिक गति ऐसा नहीं होने देती। इस गति के कारण पवनों की दिशा में विचलन (Deflection) हो जाता है। इस मोड़ने वाली या विचलन वाली शक्ति को विचलन शक्ति (Deflection Force) कहते हैं। इस बल की खोज एक फ्रांसीसी गणित शास्त्री कोरियोलिस (G.G. de Coriolis, 1792-1843) ने की थी। उसके नाम पर ही इस बल को कोरियोलिस बल या प्रभाव (Coriolis Force or Effect) का नाम दिया गया है।

इस प्रभाव के फलस्वरूप भू-तल पर चलने वाली सारी पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दाएँ हाथ और दक्षिणी गोलार्द्ध में अपने बाएँ हाथ मुड़ जाती हैं। इस प्रकार इस तथ्य की पुष्टि एक अन्य वैज्ञानिक फैरल (Ferral) ने एक प्रयोग द्वारा की थी। इसे फैरल का नियम (Ferral’s Law) भी कहते हैं।

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(ii) ऐलनीनो प्रभाव (Al-Nino Effect)-
ऐलनीनो गर्म पानी की एक धारा है, जो दक्षिणी महासागर में पेरु तथा चिली के तट के साथ-साथ बहती है। यह 6-7 वर्षों बाद चलती है। इस तट के साथ हंबोलट की ठंडी धारा बहती है, पर ऐलनीनो में स्थिति विपरीत हो जाती है और गर्म पानी की धारा बहती है। इसी कारण पेरु आदि देशों में भारी वर्षा होती है, पर मानसूनी वर्षा कम हो जाती है। भारत आदि देशों में सूखे के हालात बन जाते हैं।

प्रश्न (घ)
मानसून की उत्पत्ति संबंधी भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का वर्णन करें।
उत्तर-
मानसून पवनें (Monsoon Winds)-परिभाषा (Definition)-मानसून वास्तव में अरबी भाषा के शब्द ‘मौसम’ से बना है। सबसे पहले इनका प्रयोग अरब सागर पर चलने वाली हवाओं के लिए किया गया था। मानसून पवनें वे मौसमी पवनें हैं, जिनकी दिशा मौसम के अनुसार बिल्कुल विपरीत होती है। ये पवनें गर्मी की ऋतु में छह महीने समुद्र से थल की ओर तथा सर्दी की ऋतु में छह महीने थल से समुद्र की ओर चलती हैं।

कारण (Causes)-मानसून पवनें वास्तव में एक बड़े पैमाने पर थल समीर (Land Breeze) और जल समीर (Sea Breeze) हैं। इनकी उत्पत्ति का कारण जल और थल के गर्म और ठंडा होने में भिन्नता (Difference in the cooling and Heating of land and water) है। जल और थल असमान रूप से गर्म और ठंडे होते हैं। इस प्रकार मौसम के अनुसार वायु दाब में भी अंतर हो जाता है, जिनसे हवाओं की दिशा विपरीत हो जाती है।

थल भाग समुद्र की अपेक्षा जल्दी गर्म और जल्दी ठंडा हो जाता है। दिन के समय समुद्र के निकट थल पर निम्न दाब (Low Pressure) और समुद्र पर उच्च दाब (High Pressure) होता है। परिणामस्वरूप समुद्र से थल की ओर जल समीर (Sea Breeze) चलती है, पर रात को दिशा विपरीत हो जाती है और थल से समुद्र की ओर थल समीर (Land Breeze) चलती है। इस प्रकार हर दिन वायु की दिशा बदलती रहती है परंतु मानसून पवनों की दिशा मौसम के अनुसार बदलती है। ये पवनें तट के निकट के प्रदेशों में ही नहीं, बल्कि एक पूरे महाद्वीप में चलती हैं। इसलिए मानसून पवनों को थल समीर (Land Breeze) और जल समीर (Sea Breeze) का एक बड़े पैमाने पर दूसरा रूप कह सकते हैं।

मानसून की उत्पत्ति के लिए जरूरी दशाएँ (Necessary Conditions)—मानसून पवनों की उत्पत्ति के लिए इन दशाओं की आवश्यकता होती है-

  • एक विशाल महाद्वीप का होना।
  • एक विशाल महासागर का होना।
  • थल और जल भागों के तापमान में काफी अंतर का होना।
  • एक लंबी तट रेखा का होना।

मानसूनी प्रदेश (Areas)-ये मानसून पवनें सदा उष्ण-कटिबंध में चलती हैं, परंतु एशिया में ये पवनें 60° उत्तरी अक्षांश तक चलती हैं। इसलिए मानसून खंड दो भागों में विभाजित होते हैं। हिमालय पर्वत इन्हें अलग करता है।

(i) पूर्वी एशियाई मानसून (East-Asia Monsoon)-हिंद-चीन (Indo-China), चीन और जापान क्षेत्र।
(ii) भारतीय मानसून (Indian Monsoon)-भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, बर्मा क्षेत्र।

गर्मी ऋतु की मानसून पवनें (Summer Monsoons)—मानसून पवनों के उत्पन्न होने और इनके प्रभाव के बारे में स्पष्ट करने के लिए एक ही वाक्य कहा जा सकता है-(“The chain of events is from temperature through pressure and winds to rainfall.”)

अथवा

Temp. → Pressure → Winds → Rainfall.
इन मानसून पवनों की तीन विशेषताएँ हैं-

(i) मौसम के साथ दिशा परिवर्तन।
(ii) मौसम के साथ वायु दाब केंद्रों का विपरीत हो जाना।
(iii) गर्मी ऋतु में वर्षा।

तापमान की भिन्नता के कारण वायु भार में अंतर पड़ता है और अधिक वायु भार से कम वायु भार की ओर ही पवनें चलती हैं। समुद्र से आने वाली पवनें वर्षा करती हैं। गर्मी की ऋतु में सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर सीधी पड़ती हैं, इसलिए भारत, चीन और मध्य एशिया के मैदान गर्म हो जाते हैं। इन थल भागों में कम वायु दाब केंद्र (Low Pressure Centres) स्थापित हो जाते हैं और हिंद महासागर तथा शांत महासागर से भारत और चीन की तरफ समुद्र से थल की ओर पवनें (Sea to Land Winds) चलती हैं। भारत में इन्हें दक्षिण-पश्चिमी गर्मी की ऋतु का मानसून (South-west Summer Monsoon) कहते हैं। चीन में इनकी दिशा दक्षिण-पूर्वी होती है। भारत में ये पवनें भारी वर्षा करती हैं, जिसे मानसून का फटना (Burst of Monsoon) भी कहते हैं। भारत में यह वर्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय कृषि इसी वर्षा पर निर्भर करती है। इसीलिए “भारतीय बजट को मानसून का जुआ” (“Indian Budget is a gamble of Monsoon.”) कहा जाता है।

सर्दी की मानसून पवनें (Winter Monsoon)-सर्दी की ऋतु में मानसून पवनों की उत्पत्ति थल भागों पर होती है। सूर्य की किरणें मकर रेखा पर सीधी चमकती हैं, इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध के थल भाग आस-पास के सागरों की तुलना. में ठंडे हो जाते हैं। मध्य एशिया में गोबी मरुस्थल (Gobi Desert) और भारत में राजस्थान प्रदेश में उच्च वायु दाब हो जाता है, इसीलिए इन भागों से समुद्र की ओर पवनें (Land to sea winds) चलती हैं। ये पवनें शुष्क और ठंडी होती हैं। भारत में इन्हें उत्तर-पूर्वी सर्दी ऋतु का मानसून (North-East winter Monsoon) कहते हैं। ये पवनें खाड़ी बंगाल को पार करने के बाद तमिलनाडु प्रदेश में वर्षा करती हैं। भू-मध्य रेखा पार करने के बाद ऑस्ट्रेलिया के तटीय भागों में भी इन पवनों से ही वर्षा होती है।

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मानसून पवनों की उत्पत्ति (Origin of Monsoons)-मानसून पवनों की उत्पत्ति के बारे में नीचे लिखी विचारधाराएँ प्रचलित हैं

1. तापीय विचारधारा (Thermal Concept)-इनकी उत्पत्ति का कारण जल और थल के गर्म और ठंडा होने में भिन्नता (Difference in the cooling and Heating of Land and Water) है। जल और थल असमान रूस से गर्म और ठंडे होते हैं। इस प्रकार मौसम के अनुसार वायु दाब में भी अंतर हो जाता है जिससे हवाओं की दिशा विपरीत हो जाती है। गर्मी की ऋतु में ये पवनें समुद्र से थल की ओर चलती हैं और शीत ऋतु में ये पवनें थल से समुद्र की ओर चलती हैं।

2. स्पेट की विचारधारा (Spate’s Concept) स्पेट नाम के विद्वान् के अनुसार मानसून पवनें चक्रवातों और प्रति-चक्रवातों के कारण पैदा होती हैं। इनके मिलने के कारण सीमांत बनते हैं, जिसमें चक्रवातीय हवा को मानसून कहते हैं।

3. फ्लॉन की विचारधारा (Flohn’s Concept)—मानसून पवनों की उत्पत्ति के बारे में सिद्धांतों में कमियों को देखते हुए फ्लॉन (Flohn) नामक विद्वान् ने एक नई विचारधारा को जन्म दिया। इसके अनुसार व्यापारिक पवनों और भूमध्य रेखीय निम्न वायु दाब क्षेत्र के आपसी मिलन स्थल (Inter-tropical convergence Zone-ITCZ) से पैदा हुए चक्रवातों के कारण मानसून पवनों की उत्पत्ति होती है और भारी वर्षा होती है, जिसे मानसून का फटना (Burst of Monsoon) कहते हैं। फ्लॉन के शब्दों में मानसून पवनें भू-मंडलीय पवन-तंत्र का ही रूपांतर हैं। (“The tropical Monsoon is simply a modification of Planetary wind system”.)

4. जेट प्रवाह विचारधारा (Jet Stream Theory)-वायुमंडल में ऊपरी सतहों में तेज़ गति से चलने वाली हवा को जेट प्रवाह कहते हैं। इस प्रवाह की गति 500 कि०मी० प्रति घंटा होती है। यह एक विशाल क्षेत्र को घेरे हुए 20°N-40°N के मध्य मिलती है। हिमालय पर्वत की रुकावट के कारण इसकी दो शाखाएँ हो जाती हैं-उत्तरी जेट प्रवाह और दक्षिणी जेट प्रवाह। दक्षिणी जेट प्रवाह भारत की जलवायु पर प्रभाव डालता है।
इस जेट प्रवाह के कारण दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पवनें भारत की ओर चलती हैं।

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प्रश्न (ङ)
चक्रवात क्या होते हैं ? उष्ण विभाजीय (कटिबंधीय) और शीतोष्ण विभाजीय (कटिबंधीय) चक्रवातों का वर्णन करें।
उत्तर-
चक्रवात निम्न वायुदाब का क्षेत्र होता है। चक्रवात में पवनें उत्तरी गोलार्द्ध (Northern Hemisphere) में घड़ी की दिशा के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध (Southern Hemisphere) में घड़ी की दिशा के साथ चलती हैं। इस प्रकार पवनों के उच्च वायु दाब से निम्न वायु दाब की ओर सुइयों के प्रतिकूल और अनुकूल चलने के कारण पवनों का एक चक्र उत्पन्न हो जाता है, जिसे चक्रवात कहते हैं। चक्रवात को उनकी स्थिति के अनुसार दो भागों में बांटा जाता है-

(1) शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclones)
(2) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)

1. शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclones) – ये चक्रवात शीतोष्ण कटिबंध में मुख्य रूप से 30° से 60° अक्षांशों के मध्य पश्चिमी पवनों की पेटी में उत्पन्न होते हैं, जो आकृति में प्रायः वृत्त-आकार या अंडाकार होते हैं। इन्हें वायुगर्त (Depression) या निम्न (Low) या ट्रफ (Trough) भी कहते हैं।

1. आकृति और विस्तार (Shape and Size)-ये चक्रवात प्राय: वृत्त-आकार या अंडाकार होते हैं। इनका व्यास 1000 से 2000 किलोमीटर तक होता है। कभी-कभी इनका व्यास 3000 किलोमीटर से भी बढ़ जाता है। इनकी दाब-ढलान (Pressure Gradient) कम होती है।

2. उत्पत्ति (Formation)-शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति उष्ण और शीतल वायु-पिंडों (Air Masses) के मिलने से होती है। गर्म प्रदेशों से आने वाली गर्म पश्चिमी पवनें जब ध्रुवों से आने वाली पवनों से शीतोष्ण कटिबंध में मिलती हैं, तो शीतल पवनें गर्म पवनों को चारों ओर से घेर लेती हैं, जिसके फलस्वरूप केंद्र में गर्म पवनों से निम्न वायु दाब और बाहर गर्म पवनों से उच्च दाब बन जाता है। इस प्रकार चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। इसे ध्रुवीय सीमांत सिद्धांत (Polar Front Theory) भी कहते हैं।
चक्रवातों के जीवन के इतिहास में अवस्थाओं का एक क्रम देखा जा सकता है-

1. पहली अवस्था-इस अवस्था के अनुसार दो वायु-राशियाँ एक-दूसरे के निकट आती हैं और सीमांत (Front) की रचना होती है। ध्रुवों की वायु-राशि और भूमध्य रेखा से आने वाली गर्म वायु विपरीत दिशाओं से आती है।

2. दूसरी अवस्था-इस अवस्था में उष्ण वायु-राशि में एक उभार उत्पन्न हो जाता है और फ्रंट एक तरंग का
रूप धारण कर लेता है। फ्रंट (Front) के दो भाग हो जाते हैं-उष्ण फ्रंट और शीत फ्रंट। गर्म वायु-राशि उष्ण फ्रंट (Warm Front) के निकट शीत वायु से टकराती है।

3. तीसरी अवस्था-इस अवस्था में शीत फ्रंट तेज़ी से आगे बढ़ता है। तरंगों की ऊँचाई और वेग में वृद्धि होती है। गर्म वायु-राशि का भाग छोटा हो जाता है।

4. चौथी अवस्था-इस अवस्था में तरंगों की ऊँचाई अधिकतम होती है। दोनों वायु राशियों में धाराएँ चक्राकार गति प्राप्त कर लेती हैं और चक्रवात का विकास होता है।

5. पाँचवी अवस्था-इस अवस्था में शीत फ्रंट उष्ण फ्रंट को पकड़ लेता है। शीतल वायु उष्ण वायु को धरातल पर दबा देती है।

6. अंतिम अवस्था-इस अवस्था में उष्ण वायु अपने स्रोत से हटकर ऊपर उठ जाती है। धरातल पर शीतल वायु की एक भँवर (Whirl) चक्रवात का निर्माण होता है।

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3. प्रवाह की दिशा (Direction of Movement)-चक्रवात सदा प्रवाहित होते रहते हैं। प्रायः ये प्रचलित पवनों द्वारा प्रवाहित होते हैं। पश्चिमी पवनों के कटिबंध में ये पूर्व दिशा की ओर चलते हैं। इनका क्षेत्र उत्तरी प्रशांत महासागर, उत्तरी संयुक्त राज्य अमेरिका और दक्षिणी कनाडा, उत्तरी अंधमहासागर और उत्तर-पश्चिमी यूरोप है।

4. वेग (Velocity)-इन चक्रवातों का वेग (गति) ऋतु और स्थिति पर निर्भर करता है। गर्म ऋतु की तुलना में शीतकाल में इनका वेग तीव्र होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में ये गर्मी की ऋतु में 60 कि०मी० प्रति घंटा और सर्दियों की ऋतु में 48 कि०मी० प्रति घंटे की गति से आगे बढ़ते हैं।

5. मौसम की स्थिति (Weather Conditions)—इनमें तापमान ऋतु परिवर्तन के साथ बदलता रहता है। शीतकाल में इसका अगला भाग कुछ उष्ण रहता है और पिछला भाग शीतल। गर्मी की ऋतु में पिछला भाग शीतकाल की तुलना में निम्न रहता है। आम तौर पर चक्रवात का अगला भाग पूरा वर्ष लगभग उष्ण-नम (Muggy) होता है। इन चक्रवातों के आने पर आकाश पर खंभ-आकारी बादल छा जाते हैं। सूर्य और चंद्रमा के आस-पास एक प्रकाश-वृत्त (Halo) बन जाता है। फिर धीरे-धीरे फुहार शुरू हो जाती है, जो जल्दी ही तेज़ वर्षा का रूप धारण कर लेती है। परंतु शीघ्र ही आकाश साफ और सुहावना हो जाता है। यह इस बात का प्रतीक है कि चक्रवात का केंद्र पहुँच गया है। जब यह केंद्र आगे बढ़ जाता है, तो मौसम फिर ठंडा हो जाता है। ठंड बहुत तेजी से बढ़ने लगती है। आकाश में घने बादल छा जाते हैं और वर्षा की झड़ी लग जाती है। वर्षा के साथ ओले भी पड़ने लगते हैं। बहुत तेज़ हवाएँ चलती हैं जिसके परिणामस्वरूप तापमान और भी कम हो जाता है। बादल गर्जते हैं और बिजली चमकती है। चक्रवात के शीत पिंड पर पहुँचने पर वर्षा बंद हो जाती है और इस प्रकार चक्रवात का अंत हो जाता है और आकाश साफ हो जाता है।

2. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)-

उष्ण कटिबंध 2372° उत्तर से 2372° दक्षिणी अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं। ये चक्रवात अपनी आकृति, वेग और मौसमी स्थिति संबंधी विशेषताओं में अलग हैं।

1. आकृति और विस्तार (Shape and size)-ये चक्रवात प्रायः वृत्ताकार और शीतोष्ण चक्रवातों की तुलना में छोटे व्यास के होते हैं। इनका व्यास 80 से 3000 कि०मी० तक होता है; पर कभी-कभी ये 50 कि०मी० से भी कम व्यास के होते हैं।

2. उत्पत्ति (Formation)-इनकी उत्पत्ति गर्मी के कारण उत्पन्न संवहन धाराओं (Convection Currents) के द्वारा होती है। मुख्य रूप में चक्रवात भूमध्य रेखीय निम्न वायु दाब पेटी में उत्पन्न संवहन धाराओं का प्रतिफल है, विशेष रूप से जब यह पेटी सूर्य के साथ उत्तर की ओर खिसक जाती है। इसकी उत्पत्ति गर्मी की ऋतु के अंतिम भाग में होती है।

3. प्रवाह की दिशा (Direction of Movement)-इन चक्रवातों का मार्ग विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होता है। प्राय: यह व्यापारिक पवनों के साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में प्रवाह करते हैं। जब ये महासागर से स्थल में प्रवेश करते हैं, तो उनकी शक्ति कम हो जाती है और वे जल्दी ही समाप्त हो जाते हैं।

4. वेग (Velocity)–इन चक्रवातों के वेग में भिन्नता पाई जाती है। प्रायः ये 32 कि०मी० प्रति घंटा के वेग से चलते हैं, परंतु इनमें से कुछ अधिक शक्तिशाली, जैसे-हरीकेन (Harricane) और टाईफून (Typhoon) 120 कि०मी० प्रति घंटा से भी अधिक गति से चलते हैं। सागरों में इनकी गति तेज़ हो जाती है, परंतु स्थल पर विभिन्न भू-आकृतियों द्वारा रुकावट होने पर ये कमज़ोर पड़ जाते हैं। ये सदा गतिशील नहीं रहते। कभी-कभी ये एक स्थान पर ही कई दिन तक रुककर भारी वर्षा करते हैं।

5. मौसमी स्थिति (Weather Conditions)-उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के केंद्र को ‘चक्रवात की आँख’ (Eye of the Cyclone) कहा जाता है। इस क्षेत्र में आकाश साफ होता है। केंद्र में पवनें गर्म होकर ऊपर उठती हैं, जिसके परिणामस्वरूप घने बादल बन जाते हैं और तेज़ वर्षा करते हैं। चक्रवात के अगले भाग (Front) में पिछले भाग (Rear) की तुलना में गर्मी अधिक होती है। चक्रवात के दाएँ और अगले भाग में अधिक वर्षा होती है। ये अपनी प्रचंड गति वाली पवनों के कारण अत्यंत विनाशकारी होते हैं। इनमें अलगअलग पिंड (Front) न होने के कारण शीतोष्ण चक्रवातों के समान तापमान की भिन्नता नहीं होती। इन चक्रवातों के आने से पहले पतले सिरस बादल (Cirrus Clouds) की उत्पत्ति होती है। मौसम शांत और गर्म होता है। धीरे-धीरे कपासी (Cumulus) और पतली परत (Stratus) वाले बादल आ जाते हैं। जल्दी ही आकाश बादलों से ढक जाता है। अंधेरी आ जाती है और बादल गर्जते हैं। इसके बाद बड़ी-बड़ी बूंदों वाली वर्षा प्रारंभ हो जाती है। चक्रवात के पिछले भाग में ओले पड़ते हैं और कुछ समय बाद मौसम सुहावना हो जाता है।

प्रभावित प्रदेश (Affected Regions)-विश्व में इनसे प्रभावित होने वाले प्रमुख देश नीचे लिखे हैं-

  • पश्चिमी द्वीप समूह (West Indies)-इन प्रदेशों में इन चक्रवातों को हरीकेन (Hurricane) कहते हैं।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका मैक्सिको (Mexico)—यहाँ इन्हें टोरनैडो (Tornado) कहते हैं।
  • बंगाल की खाड़ी और अरब सागर-यहाँ इन्हें साइक्लोन (Cyclone) या चक्रवात कहते हैं।
  • फिलीपाइन द्वीप समूह (Philippine Island)–चीन और जापान में इन्हें टाईफून (Typhoon) कहते हैं। .
  • पश्चिमी अफ्रीका का गिनी प्रदेश–यहाँ इन चक्रवातों को टोरनैडो (Tornado) कहते हैं।
  • ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पश्चिमी प्रदेश–यहाँ इन्हें विल्ली-विल्ली (Willy-Willy) का नाम दिया जाता है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का विनाशकारी प्रभाव-उष्ण कटिबंधीय चक्रवात निम्न दाब के केंद्र होते हैं। बाहर से तीव्र हवाएँ अंदर आती हैं। इनकी गति 200 कि०मी० प्रति घंटा होती है। ये चक्रवात महासागर के ऊपर बिना रोकटोक के चलते हैं। समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं, जिनसे समुद्री जहाजों को नुकसान होता है। समुद्री तटों के ऊपर छोटे-छोटे द्वीपों के ऊपर भयानक लहरें जान और माल का नुकसान करती हैं। हजारों लोग समुद्र में डूब जाते हैं। समुद्री यातायात ठप्प हो जाता है। सन् 1970 में बांग्लादेश में इसी प्रकार के चक्रवात आए थे, जिन्होंने जान और माल का बहुत अधिक नुकसान किया था।

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प्रश्न (च)
निम्नलिखित पर नोट लिखें(i) टोरनैडो (ii) विपरीत चक्रवात।
उत्तर-
(i) टोरनैडो या बवंडर (Tornado)-संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्यवर्ती मैदान में गर्मी की ऋतु के प्रारंभ होने के साथ तेज़ आंधियाँ चलनी आरंभ हो जाती हैं, जिन्हें बवंडर के नाम से पुकारा जाता है। इन मैदानों में गर्मी की ऋतु आरंभ होते ही गर्मी में तेजी से वृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। फलस्वरूप वहाँ निम्न वायु दाब उत्पन्न हो जाता है। निकटवर्ती बर्फ से ढके रॉकी पर्वत के उच्च वायु दाब से अत्यंत ठंडी और शुष्क पवनें तेज़ गति से यहाँ पहुँचती हैं और मैक्सिको की खाड़ी से आती हुई गर्म और नम पवनों के साथ संबंध स्थापित कर लेती हैं। शीतल और शुष्क तथा उष्ण और नम पवनों के मेल से प्रचंड बवंडर की उत्पत्ति होती है। ये बवंडर बहुत विनाशकारी होते हैं।

(ii) विपरीत चक्रवात (Anti-Cyclones)-विपरीत चक्रवात में वायु दाब की व्यवस्था चक्रवात से बिल्कुल विपरीत होती है। जब मध्य में उच्च वायु दाब और चारों ओर निम्न वायु दाब होता है, तो वायु दाब की इस स्थिति को प्रति चक्रवात कहते हैं। इसमें पवनें केंद्र से बाहर की ओर चलती हैं। फैरल के नियम के अनुसार, उत्तरी गोलार्द्ध में यह घड़ी की सुइयों के समान (Clockwise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत (Anti-Clock wise) चलती हैं। केंद्र से बाहर की ओर वायु दाब निम्न होता जाता है जिससे प्रति चक्रवात में समदाब रेखाएँ (Isobars) लगभग गोलात्मक होती हैं।

(क) आकृति और विस्तार (Shape and Size)-प्रति चक्रवात प्रायः वृत्त आकार के होते हैं, परंतु कभी-कभी दो चक्रवातों के बीच स्थित होने के कारण ये फलीदार (Wedge-Shaped) होते हैं। ये – बहुत बड़े होते हैं, जिनका व्यास 3000 कि०मी० से भी अधिक होता है। कभी-कभी तो इनका व्यास 9000 कि०मी० तक भी होता है। समूचे यूरोप और साइबेरिया जैसे विशाल भू-खंड को कभी-कभी एक ही प्रतिकूल चक्रवात घेर लेता है।

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(ख) मार्ग और वेग (Track and Velocity)-प्रतिकूल चक्रवात का अपना कोई निश्चित मार्ग नहीं होता क्योंकि ये प्रायः शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में रहते हैं और उनका मार्ग ही अपनाते हैं। कभी-कभी ये एक ही स्थान पर निरंतर कई दिनों तक रहते हैं। जब ये चलते हैं, तो इनका वेग 30 से 50 कि०मी० प्रति घंटा होता है। इनकी दिशा और मार्ग अनिश्चित होते हैं। ये अचानक प्रवाह दिशा में परिवर्तन भी कर लेते हैं।

Geography Guide for Class 11 PSEB वपवनें Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न तु (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पूर्वी पवनें किन्हें कहते हैं ?
उत्तर-
व्यापारिक पवनों को।

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प्रश्न 2.
व्यापारिक पवनों की उत्तरी गोलार्द्ध में दिशा बताएँ।
उत्तर-
उत्तरी-पूर्वी।

प्रश्न 3.
व्यापारिक पवनों के मरुस्थल कहाँ मिलते हैं ?
उत्तर-
पश्चिमी भागों में।

प्रश्न 4.
पश्चिमी पवनों की उत्तरी गोलार्द्ध में दिशा बताएँ।
उत्तर-
दक्षिणी-पश्चिमी।।

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प्रश्न 5.
उस प्राकृतिक खंड का नाम बताएँ, जहाँ पश्चिमी पवनों के कारण सर्दियों में वर्षा होती है।
उत्तर-
भू-मध्य सागरीय खंड।

प्रश्न 6.
शीतोष्ण चक्रवात किन पवनों के साथ-साथ चलते हैं ?
उत्तर-
पश्चिमी पवनों।

प्रश्न 7.
40°- 50° दक्षिणी अक्षांशों में पश्चिमी पवनों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
गर्जता चालीस।

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प्रश्न 8.
रॉकी पर्वत से नीचे उतर कर प्रेरीज़ में चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें।

प्रश्न 9.
अल्पस पर्वत से नीच उतर कर चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
फोहन पवनें।

प्रश्न 10.
दिन के समय तटीय क्षेत्रों में चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
जल-समीर।

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प्रश्न 11.
रात के समय तटीय क्षेत्रों में चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
थल-समीर।

प्रश्न 12.
दिन के समय पहाड़ी ढलानों के ऊपर उठने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
घाटी पवनें।

प्रश्न 13.
रात के समय घाटी ढलानों से नीचे उतरने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
पर्वतीय पवनें।

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प्रश्न 14.
आरोही पवनों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
घाटी पवनें।

प्रश्न 15.
अवरोही पवनों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
पर्वतीय पवनें।

प्रश्न 16.
बर्फ को खाने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
उत्तरी गोलार्द्ध में व्यापारिक पवनों की दिशा है
(क) उत्तर-पूर्वी
(ख) दक्षिण-पूर्वी
(ग) पश्चिमी
(घ) दक्षिणी।
उत्तर-
उत्तर-पूर्वी।

प्रश्न 2.
वायु दाब मापने की इकाई है-
(क) बार
(ख) मिलीबार
(ग) कैलोरी
(घ) मीटर।
उत्तर-
मिलीबार।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
नक्षत्रीय पवनों या स्थायी पवनों से क्या अभिप्राय है ? इनके उदाहरण बताएँ।
उत्तर-
भू-तल पर सदा एक ही दिशा में लगातार चलने वाली पवनों को स्थायी या नक्षत्रीय पवनें कहते हैं, जैसेव्यापारिक पवनें, पश्चिमी पवनें और ध्रुवीय पवनें।

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प्रश्न 2.
व्यापारिक पवनों की दिशा बताएँ।
उत्तर-
उत्तरीय गोलार्द्ध में व्यापारिक पवनें उत्तर-पूर्व दिशा में और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व दिशा में चलती हैं।

प्रश्न 3.
पश्चिमी पवनों की दिशा बताएँ।
उत्तर-
पश्चिमी पवनें उत्तरी-गोलार्द्ध में दक्षिण-पश्चिम दिशा में और दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पश्चिम दिशा में चलती हैं।

प्रश्न 4.
व्यापारिक पवनों के क्षेत्र में पश्चिमी भागों में मरुस्थल क्यों मिलते हैं ?
उत्तर-
व्यापारिक पवनें पूर्वी भागों में वर्षा करती हैं और पश्चिमी भाग शुष्क रह जाते हैं। यहाँ सहारा, थार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, कालाहारी, ऐटेकामा मरुस्थल मिलते हैं।

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प्रश्न 5.
दक्षिणी गोलार्द्ध में पश्चिमी पवनों के कोई चार उपनाम बताएँ।
उत्तर-
दक्षिणी गोलार्द्ध में थल की कमी के कारण पश्चिमी पवनों के मार्ग में कोई रुकावट नहीं होती। तेज़ गति से चलने के कारण इन्हें वीर पश्चिमी पवनें (Brave Westerlies) कहते हैं। 40°-50° अक्षाशों में गर्जता चालीस (Roaring forties), 50°-60° अक्षाशों में गुस्सैल पचास (Ferocious fifties) और 60° से आगे इन्हें कूकते या चीखते साठ (Shrieking Sixties) कहते हैं।

प्रश्न 6.
तटवर्ती भागों में चलने वाली दो स्थानीय पवनों के नाम बताएँ।
उत्तर-
थल समीर और जल समीर।

प्रश्न 7.
पर्वतीय भागों की दो स्थानीय पवनों के नाम बताएँ।
उत्तर-
पर्वतीय समीर और घाटी समीर।

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प्रश्न 8.
पर्वतीय ढलानों से नीचे उतरती दो स्थानीय पवनों के नाम बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें (उत्तरी अमेरिका) और फोहन पवनें (अल्पस पर्वत)।

प्रश्न 9.
थल समीर और जल समीर में क्या अंतर है ?
उत्तर-
तटवर्ती भागों में दिन के समय समुद्र से थल की ओर जल समीर चलती है, परंतु रात के समय थल से समुद्र की ओर थल समीर चलती है।

प्रश्न 10.
चिनूक पवनों और फोहन पवनों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें रॉकी पर्वतीय ढलानों से उतर कर अमेरिका और कनाडा के मैदानी भागों में चलती हैं। ये गर्म पवनें बर्फ को पिघला देती हैं। अल्पस पर्वत को पार करके फोहन पवनें स्विट्ज़रलैंड में चलती हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें

प्रश्न 11.
कुछ स्थानीय पवनों के नाम बताएँ, जो यूरोप और अफ्रीका की ओर चलती हैं।
उत्तर-

  1. बौरा पवनें-इटली
  2. मिस्ट्रल-फ्रांस के तट पर
  3. लू-उत्तरी भारत
  4. हर्मटन-पश्चिमी अफ्रीका
  5. सिरोको-इटली।

प्रश्न 12.
पवन पेटियों के खिसकने का क्या कारण है ?
उत्तर-
पृथ्वी की वार्षिक गति में 21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर और 22 दिसंबर को मकर रेखा पर लंब पड़ती है। परिणामस्वरूप उच्च तापमान के क्षेत्र भी अपना स्थान बदल लेते हैं, इसलिए गर्मियों में सभी पवनों की पेटियाँ कुछ उत्तर की ओर तथा सर्दी की ऋतु में दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।

प्रश्न 13.
पवन-पेटियों के खिसकने का रोम सागरीय खंड पर क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर-
पवन-पेटियों के खिसकने के कारण रोम सागरीय खंड (30°-45°) में गर्मी की ऋतु में उच्च वायु दाब पेटी बन जाती है और शुष्क ऋतु होती है, परंतु सर्दी की ऋतु में यहाँ पश्चिमी पवनें चलती हैं और वर्षा करती हैं। रोम सागरीय खंड को शीतकाल की वर्षा का खंड कहते हैं।

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प्रश्न 14.
कोरियोलिस बल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पवनें उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर चलती है, परंतु पृथ्वी की घूमने की गति के कारण उनमें विक्षेप बल पैदा होता है, जिसके कारण पवनें अपने दायीं या बायीं ओर मुड़ जाती हैं, इस बल को कोरियोलिस बल कहते हैं।

प्रश्न 15.
फैरल का सिद्धांत क्या है ?
उत्तर-
पृथ्वी के घूमने के प्रभाव के अंतर्गत भू-तल पर चलने वाली पवनें उत्तरी-गोलार्द्ध में अपने दाएँ हाथ और.. दक्षिणी गोलार्द्ध में अपने बाएँ हाथ की ओर मुड़ जाती हैं, इसे फैरल (Ferral) का सिद्धांत कहते हैं।

प्रश्न 16.
Buys Ballot का नियम क्या है ?
उत्तर-
Buys Ballot नामक वैज्ञानिक के अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में निम्न वायु दाब का क्षेत्र पवन प्रवाह की दिशा के दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवाह की दिशा के बायीं ओर होता है। इसे Buys Ballot का नियम कहते हैं।

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लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
भूमध्य रेखा का शांत खंड कैसे बनता है ?
उत्तर-
स्थिति (Location)-यह शांत खंड भूमध्य रेखा के दोनों तरफ 5°N और 5°S के मध्य स्थित है। इसे भूमध्य रेखा का शांत खंड (Equatorial Calms) भी कहते हैं। धरातल पर चलने वाली वायु की मौजूदगी नहीं होती या बहुत ही शांत वायु चलती है। यह शांत खंड भूमध्य रेखा के चारों ओर फैला हुआ है। इस खंड में सूर्य की किरणें पूरा वर्ष सीधी पड़ती हैं और औसत तापमान अधिक रहता है। हवा गर्म और हल्की होकर लगातार संवाहक धाराओं (Convection Currents) के रूप में ऊपर उठती रहती है और धरालत पर वायु दाब कम हो जाता है।

प्रश्न 2.
फैरल के नियम का वर्णन करें।
उत्तर-
फैरल का नियम (Ferral’s Law)-धरालत पर पवनें कभी भी उत्तर से दक्षिण की ओर सीधी नहीं चलतीं। सभी पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। इसे फैरल का नियम कहते हैं । (“All moving bodies are deflected to the right in the Northern Hemisphere and to the left in the Southern Hemisphere.”)

हवा की दिशा में परिवर्तन का कारण धरती की दैनिक गति है। जब हवाएँ धीमी चाल वाले भागों से तेज़ चाल वाले भागों की ओर आती हैं, तो पीछे रह जाती हैं, जैसे-उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें अपनी दायीं ओर मुड़ जाती हैं। पश्चिमी पवनें भी मुड़कर उत्तर-पश्चिमी दिशा में चलती हैं। इसी प्रकार दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। पश्चिमी पवनें भी मुड़कर दक्षिण-पश्चिमी दिशा में चलती हैं। इस विक्षेप शक्ति को कोरोलिस बल (Corolis Force) भी कहते हैं।

प्रश्न 3.
जल समीर और थल समीर में अंतर बताएँ।
उत्तर-
1. जल समीर (Sea Breeze)—ये वे पवनें हैं, जो दिन के समय समुद्र से थल की ओर चलती हैं। दिन के समय सूर्य की तीखी गर्मी से थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी गर्म हो जाता है। थल पर हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और निम्न वायु दाब बन जाता है, परंतु समुद्र पर थल की तुलना में अधिक वायु दाब रहता है। इस प्रकार थल पर निम्न दबाव का स्थान लेने के लिए समुद्र की ओर से ठंडी हवाएँ चलती हैं। थल की गर्म हवा ऊपर उठकर समुद्र की ओर चली जाती है, इस प्रकार हवा के बहने का एक चक्र बन जाता है। जल समीर ठंडी और सुहावनी (Cool and Fresh) होती है।

2. थल समीर (Land Breeze)-ये वे पवनें हैं, जो दिन के समय थल से समुद्र की ओर चलती हैं। रात को स्थिति दिन के विपरीत होती है। थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी ठंडे हो जाते हैं। समुद्र पर वायु दाब कम हो जाता है, परंतु थल पर अधिक वायु दाब होता है। इस प्रकार थल से समुद्र की ओर पवनें चलती हैं। समुद्र की गर्म हवा ऊपर उठकर थल पर उतरती है, जिससे हवा के बहने का एक चक्र बन जाता है।

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प्रश्न 4.
पर्वतीय और घाटी की पवनों में अंतर बताएँ।
उत्तर-
1. पर्वतीय पवनें (Mountain Winds)-पर्वतीय प्रदेशों में रात के समय पर्वत के शिखर से घाटी की ओर ठंडी और भारी हवाएं चलती हैं, जिन्हें पर्वतीय पवनें (Mountain Winds) कहते हैं। रात के समय तेज़ विकिरण (Rapid Radiation) के कारण हवा ठंडी और भारी हो जाती है। यह हवा गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity) के कारण ढलानों से होकर नीचे उतरती है। इसे वायु प्रवाह (Air Drainage) भी कहते हैं। इन पवनों के कारण घाटियाँ (Valleys) ठंडी हवाओं से भर जाती हैं, जिसके फलस्वरूप घाटी के निचले भागों
में पाला पड़ता है।

2. घाटी की पवनें (Valley Winds)-दिन के समय घाटी की गर्म हवाएँ ढलान पर से होकर चोटी की ओर ऊपर चढ़ती हैं, इन्हें घाटी की पवनें (Valley Winds) कहते हैं। दिन के समय पर्वत के शिखर पर तेज़ गर्मी और वायु दाब पेटियों के उत्तर दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह प्रदेश घोड़ा अक्षांशों की उच्च वायु दाब पेटी के प्रभाव में आ जाता है, जिसके कारण पवनें इस प्रदेश की ओर नहीं चलतीं। इसलिए यहाँ गर्मियों में वर्षा नहीं होती। इसके विपरीत सर्दियों में वायु दाब पेटियों के दक्षिणी दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह खंड पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है और ये पवनें इस खंड में वर्षा करती हैं। इस प्रकार भूमध्य सागरीय प्रदेश में शीतकाल में वर्षा होती है, जबकि गर्मी की ऋतु में यह शुष्क रहता है।

प्रश्न 5.
चक्रवात से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
चक्रवात (Cyclones)—वायु दाब में अंतर होने के कारण वायुमंडल गतिशील होता है। जिस क्षेत्र में वायु दाब निम्न होता है, उसके निकटवर्ती चारों ओर के क्षेत्रों में उच्च वायु दाब होता है, जिसके परिणामस्वरूप उच्च वायु दाब क्षेत्र से निम्न वायु क्षेत्र की ओर पवनें चलती हैं। फैरल के नियम अनुसार पृथ्वी की दैनिक गति के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं। परिणामस्वरूप इन पवनों की गति उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत (anti-clock wise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की समान (clock wise) दिशा में होती है। इस प्रकार पवनों के उच्च वायु दाब से निम्न वायु दाब की ओर सुइयों के विपरीत और अनुकूल चलने के कारण पवनों का एक चक्र उत्पन्न हो जाता है, जिसे चक्रवात कहते हैं।

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प्रश्न 6.
शीतोष्ण चक्रवात की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
शीतोष्ण चक्रवात (Temperate Cyclones)-

  • ये चक्रवात पश्चिमी पवनों के क्षेत्र में 35° से 65° के अक्षांशों के बीच पश्चिमी-पूर्वी दिशा में चलते हैं।
  • शीतोष्ण चक्रवात की शक्ल गोलाकार या V आकार जैसी होती है।
  • इस प्रकार के चक्रवातों की मोटाई 9 से 11 किलोमीटर और व्यास 100 किलोमीटर चौड़ा होता है।
  • चक्रवात की अभिसारी पवनें केंद्र की वायु को ऊपर उठा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप बादलों का निर्माण और वर्षा होती है।
  • साधारण रूप में इनकी गति 50 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। गर्मी की ऋतु की तुलना में शीतकाल में इनकी गति अधिक होती है।

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प्रश्न 7.
उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के प्रमुख गुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)-

  • ये चक्रवात 50 से 30° अक्षांशों के बीच व्यापारिक पवनों के साथ-साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में चलते हैं।
  • इनके केंद्र में निम्न दाब होता है और समदाब रेखाएँ गोलाकार होती हैं।
  • साधारण रूप में इनका आकार और विस्तार छोटा होता है। इनका व्यास 150 से 500 मीटर तक होता है।
  • चक्रवात के केंद्रीय भाग को ‘तूफान की आँख’ (Eye of the Storm) कहते हैं। ये प्रदेश शांत और वर्षाहीन होते हैं। ये गर्म वायु की धाराओं के रूप में ऊपर से उठने पर बनता है और इसकी ऊर्जा का स्रोत संघनन की गुप्त ऊष्मा है।
  • शीत ऋतु की तुलना में गर्मी की ऋतु में इनका अधिक विकास होता है।
  • इन चक्रवातों में हरीकेन और तूफान बहुत विनाशकारी होते हैं।
  • इन चक्रवातों द्वारा भारी वर्षा होती है।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
वायु पेटियों के खिसकने के कारण और प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
पृथ्वी की वार्षिक गति और इसका अपनी धुरी पर झुके रहने के कारण पूरा वर्ष सूर्य की किरणें एक समान नहीं पड़तीं। सूर्य की किरणें 21 जून को कर्क रेखा पर लंब पड़ती हैं, तब वायु पेटियाँ उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। 22 दिसंबर को सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लंब पड़ती हैं, तब वायु पेटियाँ दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।

इस क्रिया को वायु दाब पेटियों का सरकना (Swing of the Pressure Belts) कहते हैं। पवनें वायु दाब की भिन्नता के कारण उत्पन्न होती हैं, इसलिए वायु दाब पेटियों के साथ-साथ पवन पेटियाँ भी सरक जाती हैं।

कारण (Causes)—पृथ्वी की धुरी पर तिरछा स्थित होने के कारण परिक्रमा के समय सूर्य 237°N त 237°S तक (47° क्षेत्र) में अपनी स्थिति बदलता रहता है। इस स्थिति बदलने की क्रिया के कारण उच्च तापमान की पेटियाँ भी उत्तर या दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप वायु पेटियाँ भी सरकती हैं।

21 जून की दशा (Summer Solstice)—सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंब पड़ती हैं। इस क्षेत्र के उच्च वायु दाब का स्थान निम्न वायु दाब पेटी ले लेती है। उच्च वायु दाब पेटी उत्तर की ओर सरक जाती है।

22 दिसंबर की दशा (Winter Solstice)—सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लंब पड़ती हैं। उच्च वायु दाब पेटी कुछ दक्षिण की ओर खिसक जाती है और इसका स्थान निम्न वायु दाब पेटी ले लेती है।

वायु दाब और पवनों के खिसकने से नीचे लिखे प्रभाव पड़ते हैं-

प्रभाव (Effects)-

1. गर्मी की ऋतु में मानसून पवनों की उत्पत्ति (Formation of Summer Monsoons)-गर्म संक्रांति या 21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंब पड़ती हैं, जिसके फलस्वरूप भूमध्य रेखा पर निम्न वायु दाब पेटी कर्क रेखा की ओर खिसक जाती है। घोड़ा अक्षांशों के दक्षिणी उपोष्ण उच्च वायु दाब पेटी से आने वाली पवनें भूमध्य रेखा को पार करके फैरल के नियम के अनुसार, दक्षिण-पश्चिमी हो जाती हैं, उन्हें गर्मी की ऋतु की मानसून पवनें कहते हैं। इस प्रकार मानसूनी पवनें भूमंडलीय पवन-तंत्र (Planetary Wind System) का ही रूपांतर होती हैं।

2. सर्दी की ऋतु में मानसून पवनों की उत्पत्ति (Formation of Winter Monsoons)-शीत संक्रांति या 22 दिसंबर को सूर्य की लंब किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं, जिसके फलस्वरूप भूमध्य रेखीय निम्न दाब पेटी मकर रेखा की ओर खिसक जाती है। घोड़ा अक्षांशों की उत्तरी उपोष्ण उच्च वायु दाब पेटी की पवनें भूमध्य रेखा को पार करते ही, फैरल के नियम के अनुसार दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। फलस्वरूप दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पश्चिमी हो जाती है। उत्तरी गोलार्द्ध में इन पवनों को शीत काल की मानसूनी पवनों का नाम दिया जाता है।

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3. सुडान जैसे प्राकृतिक प्रदेशों पर प्रभाव (Effect on Sudan type of Natural Region)-सुडान जैसे प्राकृतिक प्रदेश 5° से 20° अक्षांश पर महाद्वीप के मध्यवर्ती क्षेत्रों में विस्तृत हैं। शीतकाल में वायु दाब पेटियों के दक्षिण दिशा में सरकने के फलस्वरूप यह खंड घोड़ा अक्षांशों की उच्च वायु दाब पेटी के प्रभाव के अंतर्गत आ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पवनें इस प्रदेश की ओर नहीं चलतीं, इसलिए यह क्षेत्र शीतकाल की वर्षा से रहित रहता है। इसके विपरीत गर्मियों में वायु दाब पेटियों के उत्तर दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह प्रदेश भूमध्य रेखीय निम्न वायु दाब पेटी के प्रभाव में आ जाता है, फलस्वरूप पवनें इस प्रदेश की ओर चलती हैं और वर्षा करती हैं। इस प्रकार सुडान प्रदेश में गर्मियों में वर्षा होती है।

4. रोम सागरीय प्राकृतिक प्रदेश पर प्रभाव (Effect on Mediterranean Type of Natural Region) रोम सागरीय प्राकृतिक प्रदेश 30°-45° अक्षांशों के बीच महाद्वीप के पश्चिमी भागों में विस्तृत है। गर्मियों में वायु दाब पेटियों के उत्तर दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह प्रदेश घोड़ा अक्षांशों की उच्च पेटी के प्रभाव में आ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पवनें इस प्रदेश की ओर नहीं चलतीं। इसलिए यह गर्मी की वर्षा से रहित रह जाता है। इसके विपरीत सर्दियों में वायु दाब पेटियों के दक्षिण दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह खंड पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है और ये पवनें इस खंड में वर्षा करती हैं। इस प्रकार रोम सागरीय प्रदेश में शीतकाल में वर्षा होती है, जबकि गर्मी की ऋतु शुष्क रहती है।

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प्रश्न 2.
उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों और शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की तुलना करें।
उत्तर-
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)-

  1. स्थिति-ये चक्रवात उष्ण कटिबंध में 50°- 30° अक्षांशों तक चलते हैं।
  2. दिशा-ये व्यापारिक पवनों के साथ पूर्व से पश्चिम की ओर चलते हैं।
  3. विस्तार-इनका व्यास 150 से 500 किलोमीटर तक होता है।
  4. आकार-ये गोल आकार के होते हैं।
  5. उत्पत्ति-ये संवाहक धाराओं के कारण जन्म लेते हैं।
  6. गति-इनमें हवा की गति 100 से 200 किलोमीटर प्रति घंटा होती है।
  7. रचना-यह अधिक गर्मी की ऋतु में अस्तित्व में आते हैं। इनके केंद्रीय भाग को ‘तूफान की आँख’ कहा जाता है।
  8. मौसम-इसमें थोड़े समय के लिए तेज़ हवाएँ चलती हैं और भारी वर्षा होती है।

शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclones)-

  1. ये चक्रवात शीतोष्ण कटिबंध में 35°-65° अक्षांश तक चलते हैं।
  2. ये पश्चिमी पवनों के साथ-साथ पश्चिम से पूर्व की ओर चलते हैं।
  3. इनका व्यास 1000 किलोमीटर से अधिक होता है।
  4. ये ‘V’ आकार के होते हैं।
  5. ये गर्म और ठंडी हवाओं के मिलने से जन्म लेते हैं।
  6. इनमें हवा की गति 30 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा होती है।
  7. यह अधिक सर्दी की ऋतु में बनते हैं। इसके दो भाग-उष्ण सीमांत और शीत सीमांत होते हैं।
  8. इसमें शीत लहर चलती है और कई दिनों तक रुक-रुककर वर्षा होती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Physical Education Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

PSEB 11th Class Physical Education Guide खेल मनोविज्ञान Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
खेल मनोविज्ञान शब्द कौन-से तीन शब्दों के मेल से बना है? (What are the three words combines Sports Psychology ?)
उत्तर-
‘खेल मनोविज्ञान’ शब्द तीन शब्दों का मेल है, खेल + मन + विज्ञान। खेल’ से भाव है ‘खेल और खिलाड़ी’ मन से ‘भाव है व्यवहार या मानसिक प्रक्रिया और ‘विज्ञान’ से भाव है अध्ययन करना अर्थात् खेल और खिलाड़ियों की हरकतों के व्यवहारों का प्रत्यक्ष रूप में अध्ययन करना, खेल मनोविज्ञान कहलाता है।

प्रश्न 2.
खेल मनोविज्ञान की परिभाषा लिखें। (Write definition of Sports Psychology.)
उत्तर-
ब्राउन और मैहोनी के अनुसार, “खेलों और शारीरिक सरगर्मियों में हर स्तर पर निपुणता बढ़ाने के लिए मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग करना ही खेल मनोविज्ञान है।”
(According to Brown and Mahoney “The sports psychology is the application of psychological principles sports and physical activity, at all levels’.)
खेल मनोविज्ञान का यूरोपियन संघ के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान खेलों के मानसिक आधार, कार्य और प्रभाव का अध्ययन है।”
(According to European Union of Sports psychology “Sports psychology is the study of the psychological oasis processed and effect of sports.)
आर० एन० सिंगर के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान शिक्षा और प्रयोगी क्रियाओं द्वारा, एथलैटिक, शारीरिक शिक्षा मनोरंजन और व्यायाम से सम्बन्धित लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाती है।” – (According to R.N. Singer, “Sports Psychology is encompossing scholarly education and practical activities associated with the understanding and influencing of related behaviour of people in Athletics, Physical Educations vigorous recreational activities and exercise.”)

मि० के० एम० बर्नस के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा के लिए मनोविज्ञान की वह शाखा है जो व्यक्ति शारीरिक योग्यता को बढ़ावा देती है खेल-कूद में भाग लेने से।”
(According to Mr. K.M. Burns, “Sports psychology for physical education is that branch of psychology which deals with Physical Fitness of an individual through his participation in games and sports.”)
खेल मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of Sports Psychology)-मनोविज्ञान एक विशाल विषय है। यह मनुष्य के ज्ञान की सभी शाखाओं पर लागू होता है। हमारी प्रत्येक क्रिया मनोविज्ञान द्वारा निर्धारित होती है। यह मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखने में सहायता करता है, परन्तु खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा में मनुष्य की शारीरिक योग्यता पर प्रकाश डालता है। खेल मनोविज्ञान इस बात पर जोर डालता है कि शारीरिक और मानसिक योग्यता खेल-कूद के द्वारा हासिल की जा सकती है। इसलिए खेल मनोविज्ञान की शारीरिक शिक्षा में बहुत बड़ा रोल है जिससे व्यक्ति का बहुमुखी विकास हो सके इसलिए हमें खेल मनोविज्ञान को अवश्य जानना चाहिए।

मनोविज्ञान मनुष्य के व्यवहार का ज्ञान है औ केल मनोविज्ञान खिलाड़ियों के व्यवहार जब वह खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं। उस समय के व्यवहार के अध्ययन को खेल मनोविज्ञान कहते हैं। खेल मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है जो खेल के मैदान में खिलाड़ियों के व्यवहार से सम्बन्धित है।
खेल मनोविज्ञान का खेल-कूद में बड़ा योगदान है। इसके द्वारा हम खिलाड़ियों का भिन्न-भिन्न स्थानों पर उनके मानसिक व्यवहार को देख सकते हैं।
करैटी के अनुसार-खेल मनोविज्ञान तीन भागों में बांटा जा सकता है—

  1. प्रयोगी खेल मनोविज्ञान (Experiment Sports Psychology)
  2. शिक्षक खेल मनोविज्ञान (Educational Sports Psychology)
  3. क्लीनिकल खेल मनोविज्ञान (Clinical Sports Psychology)।

प्रयोगी खेल मनोविज्ञान के खिलाड़ियों के खेल स्तर को उन्नत करने के लिए खोज की जाती है। शिक्षक मनोविज्ञान में आपसी सम्बन्ध और तालमेल के बारे में जाना जाता है जिससे टीम के प्रदर्शन को बढ़ावा मिल सके क्लीनिकल खेल मनोविज्ञान में खिलाड़ियों की उन कठिनाइयों का हल ढूँढा जाता है जो उनके प्रदर्शन में रुकावट डालती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 3.
खेल मनोविज्ञान का आधुनिक युग में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Sports Psychology in today’s scenario ?)
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान का आधुनिक युग में महत्त्व—
1. सरल से कठिन की ओर का सिद्धान्त (Principles of progression)—खिलाड़ी के खेल में भाग लेने से पहले उसको अपने शरीर को इस ढंग से गर्म करना चाहिए कि उसके लिए गर्म होने से पहले व्यायाम सरल होने चाहिए, क्योंकि पहले व्यायाम उसको शुरू में ही इतने मुश्किल दें तो मांसपेशियों में कई तरह के नुक्सान पैदा हो जाएंगे। इसलिए गर्म होने के लिए सरल से कठिन वाले सिद्धान्त हम हमेशा अपने सामने रखते हैं। इसी विषयानुसार खिलाड़ी को गर्म होने के समय उस द्वारा उठाए जाने वाले भार हम धीरे-धीरे बढ़ाते हैं।

2. स्वास्थ्य (Health)—एथलीट या खिलाड़ी को गर्म होने से पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। उसके स्वास्थ्य के अनुसार ही हमें उसको व्यायाम देने चाहिए। यदि किसी कमज़ोर स्वास्थ्य वाले खिलाड़ी के शरीर को अच्छी तरह गर्म करने के लिए कोई कठिन व्यायाम दे दें तो शरीर के अच्छी तरह गर्म होने के स्थान पर उसके शरीर की अलग-अलग प्रणालियों में नुक्स पड़ जाएगा। इनसे बचने के लिए हमें खिलाड़ी के शरीर को उसके स्वास्थ्य के अनुकूल गर्म करना चाहिए।

3. व्यक्ति की क्षमता या प्रशिक्षण अवस्था (Capacity or training of individual)—किसी भी खिलाड़ी या एथलीट को गर्म होने से पहले यह देखना चाहिए कि आका प्रशिक्षण किस अवस्था में चल रहा है या वह कितने सालों से प्रशिक्षण ले रहा है। किस खेल का प्रशिक्षण है और उसका उद्देश्य क्या है ? उसकी व्यक्तिगत अवस्था किस तरह की है, इसके प्रशिक्षण का जो कार्यक्रम चल रहा है, इन सारी बातों को सामने रखकर उसको गर्म करने वाले व्यायाम देने चाहिए।

4. क्रमवार (Systematic)—किसी भी खिलाड़ी या ऐथलीट को गर्म करने वाले व्यायाम इस तरह के देने चाहिएं कि उस ऐथलीट या खिलाड़ी के शरीर के सभी अंगों का तापमान और रक्त संचार ठीक ढंग से कार्य करें। उसके शरीर का कौन-सा भाग अधिक गर्म चाहिए। इसलिए उसको गर्म होने वाले व्यायाम क्रमवार देने चाहिएं।

5. जलवायु सम्बन्धी अवस्थाएं (Climate conditions)—किसी भी खिलाड़ी या ऐथलीट को गर्म करने वाले व्यायाम देने से पहले यह देखना चाहिए कि जिस स्थान पर खिलाड़ी को गर्म करने वाले व्यायाम दे रहे हैं। वहां का वातावरण कैसा है, वहां अधिक गर्मी है या अधिक सर्दी तो नहीं। खेल खुले मैदान के अन्दर हो रही है या जिम्नेजियम के अन्दर, दिन का समय है या रात का। सूर्य की धूप है या बरसात का मौसम। इन सभी बातों को सामने रखकर ही खिलाड़ियों को गर्म करने वाले व्यायाम देने चाहिएं।

6. भिन्नता (Variety)-खिलाड़ी को गर्म करने से पहले यह देखना चाहिए कि उसने किस खेल में कितनी देर भाग लेना है और खेल में उसका ज़ोर कितना लगता है। इन तरह खिलाड़ी को गर्म होने वाले व्यायाम उसकी खेल के अनुरूप ही देने चाहिएं।

7. भार, ऊंचाई, उम्र, शरीर की किस्म (Weight, height, age, body type)—खिलाड़ी को गर्म होने से पहले उसका भार, उसकी ऊंचाई, उसके शरीर की बनावट किस तह की है, यह देख लेना चाहिए। एक पांच साल के खिलाड़ी को यह व्यायाम नहीं दिया जा सकता, जो कि पच्चीस साल के खिलाड़ी को दिए हैं। एक लड़की को यह व्यायाम नहीं दिया जा सकता जो कि एक लड़के दो दिया जाता है क्योंकि लड़की और लड़के की बनावट में बहुत अन्तर है।

8. मुकाबला और काम करने की तीव्रता (According to competition and intensity of work)—खेल के मुकाबले को प्रमुख रखते हुए ही हमें खिलाड़ी को गर्म करने वाले व्यायाम देने चाहिए। मुकाबले को देखते हुए यह भी देखना पड़ता है कि कितनी देर पहले गर्म होना चाहिए, जिस से खिलाड़ी अपने खेल का अच्छा प्रदर्शन कर सके। एक सौ मीटर दौड़ में भाग लेने वाले ऐथलीट को गर्म होने वाले वे व्यायाम नहीं दिए जा सकते जो कि गोला फेंकने वाले या दस हज़ार मीटर दौड़ दौड़ने वाले या एक फुटबॉल का मैच खेलने वाले खिलाड़ी को दिया जाता है। इसलिए खिलाड़ी को मुकाबले के अनुसार ही गर्म होना चाहिए।

9. सभी शारीरिक अंगों से सम्बन्धित व्यायाम (Exercises pertaining to all parts of body)—गर्म होने वाले व्यायामों को इस ढंग से करना चाहिए कि खिलाड़ी के शरीर के सभी अंग गर्म हो जाएं। पैरों की अंगुलियों से लेकर सिर तक सभी अंग अच्छी तरह व्यायाम में लगे हुए हों, चार सौ मीटर की दौड़ दौड़ने के लिए भुजाओं को गर्म करने वाले व्यायाम उतने ही ज़रूरी हैं जितने व्यायाम टांगों के होने चाहिएं। इस तरह किसी भी खेल में भाग लेने से पहले शरीर के सभी अंगों को गर्म करना चाहिए।

10. क्रियाशीलता के लिए विशेष अभ्यास (Special exercises for activities)—अलग-अलग क्रियाशीलता के लिए विशेष गर्म होने के व्यायाम करवाने चाहिएं।

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प्रश्न 4.
प्रेरणा क्या है ? प्रेरणा के स्त्रोतों की व्याख्या कीजिए। (What is Motivation ? Explain its sources in detail.)
उत्तर-
प्रेरणा का अर्थ (Meaning of Motivation)—प्रेरणा का अर्थ विद्यार्थियों की सीखने की क्रियाओं में चि पैदा करना और उनको उत्साह देना है। प्रेरणा से विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में रूचि लेता है। खिलाड़ी खेलने में रुचि लेता है। मज़दूर फैक्टरी में अपने काम में रुचि लेता है और किसान अपने खेतों के कार्यों में रुचि लेता है। सच तो यह है कि प्रेरणा में इस तरह की चल शक्ति (Motive Force) है। यह एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को काम करने के लिए उत्साहित करती है। इस शक्ति के द्वारा मनुष्य अपनी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने का लगातार प्रयास करता है और अन्त में उसकी पूर्ति करने में सफलता प्राप्त करता है।

प्रेरणा की परिभाषाएं (Definitions of Motivation) मारगन और किंग के अनुसार, “प्रेरणा मनुष्य अथवा जानवर की उस स्थिति को दर्शाती है, जो उसके व्यवहार द्वारा अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ता है।”
(According to Margan and King “Motivation refers to take within a person or animal that derives behaviour towards some goal.”)
करूक और स्टेन के अनुसार, “प्रेरणा को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है। जिन हालतों द्वारा हमें कार्य करने के लिए दिशा और शक्ति मिलती है। उसे प्रेरणा कहते हैं।”
(According to Crooks and Stain, Motivation defined as, “Any condition that might energize . and direct our action.”)

क्रो और क्रो के अनुसार, “प्रेरणा सीखने में रुचि पैदा करने के साथ सम्बन्धित है और यह सीखने के लिए ज़रूरी है।”
According to Crow and Crow, “Motivation means inculcating in students the interest in activities of learning and motivating them in this regard. It is essential for learning.”
कैली के अनुसार, “सीखने की प्रक्रिया की प्रभावशाली व्यवस्था में प्रेरणा एक केन्द्रीय तत्व है। हर प्रकार सीखने में कोई-न-कोई प्रेरणा अवश्य होती है।”
(According to Kelly. Motivation is the central factor in the effective management of the process of learning, some type of motivation must be present in learning.”)
मुरैए के अनुसार “प्रेरणा एक आन्तरिक तत्व है जो कि व्यक्ति के व्यवहार को उकसाती है, दिशा देती है और एकसुर बनाती है।”
एलिजाबेथ और डेफी के अनुसार, “प्रेरणा व्यवहार की दिशा और तीव्रता को कहा जाता है।” (According to Rlizabeth and Duffy, “Motivation is direction and intensity of behaviour.”)
प्रेरणा की किस्में (Types of Motivation) प्रेरणा मुख्य तौर पर निम्नलिखित दो प्रकार की होती है –
(क) आंतरिक प्रेरणा (Intrinsic Motivation)
(ख) बाहरी प्रेरणा (Extrinsic Motivation) इनका संक्षिप्त वर्णन इस तरह है

(क) आंतरिक प्रेरणा (Intrinsic Motivation)—यह प्रेरणा व्यक्ति की प्राकृतिक इच्छा, आवश्यकता और प्रवृत्तियों के साथ सम्बन्धित होती है। इसलिए इसको प्राकृतिक प्रेरणा (Natural Motivation) कहते हैं। एक प्रेरित व्यक्ति किसी काम को इसलिए करता है क्योंकि काम करने से उसे खुशी अनुभव होती है। जब कोई विद्यार्थी किसी रोचक उपन्यास या किसी अच्छी कविता को पढ़ कर खुशी प्राप्त करता है तो वह आंतरिक रूप में प्रेरित (Motivated) होता है। ऐसी अवस्था में खुशी का स्रोत उसकी क्रियाओं में छिपा रहता है। (The source of happiness implied in actions) शिक्षा के स्रोत में आंतरिक प्रेरणा विशेष महत्त्व रखती है क्योंकि इसमें स्वाभाविक रुचि पैदा होती है और अंत तक भी रहती है।

(ख) बाहरी प्रेरणा (Extrinsic Motivation)-बाहरी प्रेरणा में खुशी का स्रोत क्रियाओं में नहीं होता। इसमें व्यक्ति जो भी काम करता है उसका उद्देश्य किसी मनोरथ को प्राप्त करना या पुरस्कार प्राप्त करना होता है। खुशी प्राप्त करने के लिए काम नहीं करता। अपनी आजीविका प्राप्त करने के लिए काम सीखना, प्रशंसा प्राप्ति के लिए काम करना, पदोन्नति के लिए काम करना आदि सभी इस प्रेरणा की श्रेणी में आते हैं। बाहरी प्रेरणा के स्थान पर आंतरिक प्रेरणा उत्साह एवं उत्तेजना का साधन है। इसलिए जहां तक सम्भव हो सके आंतरिक प्रेरणा का प्रयोग होना चाहिए।

1. प्राकृतिक अथवा आंतरिक प्रेरणा (Natural or Instrinsic Motivation)—प्राकृतिक प्रेरणा इस तरह की प्रेरणा होती है जोकि खिलाड़ी के भीतर पैदा होने के समय भी मौजूद होती है। कुछ प्राकृतिक प्रेरणाएं निम्नलिखित हो सकती हैं—

  • शारीरिक प्रेरणा (Physical Motivation) भूख, प्यास, काम आदि।
  • आंतरिक प्रेरणा (Internal Motivation) शौक, इच्छा आदि।
  • भावनात्मक प्रेरणा (Emotional Motivation) प्यार, सफलता, सुरक्षा व अपनापन।
  • सामाजिक प्रेरणा (Social Motivation) सामाजिक प्रगति व सामाजिक आवश्यकताएं इत्यादि।
  • प्राकृतिक प्रेरणा (Natural Motivation) आत्म-सम्मान, नेतृत्व व विश्वास इत्यादि।
  • नकल करने की प्रेरणा (Imitative Motivation) अच्छे खिलाड़ियों की नकल करना इत्यादि।

2. अप्राकृतिक अथवा कृत्रिम अथवा बाहरी प्रेरणा (Unnatural or Artificial or External Motivation) कृत्रिम प्रकार की प्रेरणा का भी खेलों की निपुणता में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। शारीरिक शिक्षा के अध्यापक व कोच इत्यादि कृत्रिम प्रेरणा के द्वारा ही खिलाड़ियों में खेल निपुणता लाने के लिए अक्सर बहुत सफल हो सकते हैं और खिलाड़ी प्रेरणा के द्वारा खेल मन लगा कर करते हैं। कृत्रिम प्रेरणा कुछ इस तरह की होती है—

  • पुरस्कार (Reward)-आर्थिक वस्तुओं (Material Reward) जैसे, बाल पैन, बैग, अटैची, तौलिए इत्यादि।
  • सामाजिक पुरस्कार (Social Reward)–तरक्की, नौकरी, कप, प्रमाण-पत्र इत्यादि।
  • सज़ा (Punishment)-इस तरह की प्रेरणा को नकारात्मक प्रेरणा कहा जाता है जैसे भय, जुर्माना, शारीरिक सज़ा इत्यादि। जहां तक हो सके इस तरह की प्रेरणा का कम-से कम प्रयोग होना चाहिए।
  • मुकाबले (Competition)-टूर्नामेंट, इंटराम्यूरल व एकस्ट्रा म्यूरल इत्यादि।
  • परीक्षाएं (Examination)-खेलों का मूल्यांकन नम्बर विजेता का स्थान देकर करना।
  • श्रवण-दृश्य सहायक सामग्री (Audio-Visual Aids)-जैसे फिल्में, तस्वीरें, आंखें, देख-भाल इत्यादि।
  • कोच व खिलाड़ी रिश्ता (Coach and Player Relationship)-अच्छा व्यवहार खिलाड़ी के भावों और उसकी ज़रूरतों का अहसास।
  • सहयोग (Cooperation)—आपसी सहयोग, अधिकारियों के साथ सहयोग इत्यादि।
  • लक्ष्य (Goal)-जीत, पुरस्कार, पदोन्नति, प्रशंसा इत्यादि।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 5.
खेल मनोविज्ञान की शाखाओं के नाम लिखिए। (Explain the various branches of Sports Psychology.)
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान की शाखाएँ—

  1. खेल संगठन मनोविज्ञान (Sports Organization Psychology)
  2. शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology)
  3. स्वास्थ्य मनोविज्ञान (Health Psychology)
  4. चिकित्सा और क्लीनिक मनोविज्ञान (Medical and Clinical Psychology)
  5. विकसित मनोविज्ञान (Development Psychology)
  6. व्यायाम मनोविज्ञान (Exercise Psychology)
  7. समाज और ग्रुप मनोविज्ञान (Social and Group Psychology)

प्रश्न 6.
खेल प्रदर्शन को प्रभावित करने वाले मनोवेज्ञानिक तत्वों की विस्तारपूर्वक जानकारी दीजिए। (Explain in detail the factors that affects the Sports Performance.)
उत्तर-
खेल कुशलता को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक तत्व (Psychological factors affecting the performance in game and sports)—प्रत्येक खिलाड़ी की अपने खेल को आगे बढ़ाने की इच्छा होती है। वह इसको बढ़ाने के लिए पूरी कोशिश करता है और खेल का ध्यान के साथ अभ्यास करता है ताकि वह उस खेल में अपना नाम बाकी खिलाड़ियों की तरह चांद की तरह चमका सके और अपने खेल जगत को सही लक्ष्य पर पहुंचाने में सफलता प्राप्त कर सके और अपना, अपने माता-पिता, स्कूल-कॉलेज, अपने जिले, राज्य और देश का नाम रौशन कर सके और अन्तर्राष्ट्रीय खेल मुकाबलों में अपने देश के झंडे को ऊंचा कर सके।

1. दिशा (Direction)-दिशाहीन व्यक्ति अपनी मंजिल पर नहीं पहुँच सकता है। किसी कार्य की पूर्ति के लिए उसकी दिशा, उद्देश्य या निशाने का अवश्य पता होना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में यदि विद्यार्थी और खिलाडियों को दिशा का पता नहीं है तो उनका प्रशिक्षण अर्थहीन है। यदि मनुष्य को प्रशिक्षण लेना हो तो उसको अपना उद्देश्य और मंजिल मालूम होनी चाहिए। समुद्र में आए तूफ़ान में किश्ती किनारे की तरफ तब ही जा सकती है जब नाविक को किनारे की दिशा का ज्ञान हो। इसलिए यदि प्रशिक्षण लेने वाले को प्रशिक्षण की दिशा का ज्ञान हो तो सिखलाई में बहुत आसानी हो जाती है।

2. सीखने का समय (Learning Time)-कहावत के अनुसार समय पर आरम्भ किया हुआ काम अवश्य मंज़िल हासिल कर लेता है। इस कहावत में बुद्धिमान लोगों की बुद्धिमत्ता स्पष्ट नज़र आती है। इसके अनुसार ही मनुष्य अपनी शिक्षा के लिए उचित समय का निर्णय करता है। यदि समय अनुकूल हो और सीखने के कार्य में रुचि हो तो काम आसान हो जाता है। देखने में आता है कि बच्चे शीघ्र सो जाते हैं। यदि उसके मातापिता चाहें कि उनके बच्चे रात को ही अपनी पढ़ाई करें तो यह बच्चों के अनुकूल न होकर रास्ते में रुकावट डालने का काम होगा। इसी प्रकार शारीरिक शिक्षा के विद्यार्थियों को सायंकाल के समय खेल के मैदान में रोका जाए और ग़लत समय पर उनको शारीरिक शिक्षा की क्रियाएं करने को कहा जाए तो उन विद्यार्थियों द्वारा अच्छे नतीजे प्राप्त नहीं किए जा सकेंगे क्योंकि प्रत्येक कार्य अपने उचित समय पर ही शोभा देता है और शिक्षा में सहायक होता है।

3. शारीरिक योग्यता (Physical Fitness) शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में शारीरिक क्रियाओं के प्रशिक्षण में शारीरिक योग्यता बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यदि व्यक्ति रोगी, सुस्त अथवा आलसी और और उसमें शारीरिक योग्यता की कमी हो तो हृदय, दिमाग़ और शारीरिक अंग किसी भी क्रिया को सीखने के लिए कठिनाई अनुभव करेंगे। इससे अधिक यदि मनुष्य किसी क्रिया को सीखने के लिए शारीरिक तौर पर ही स्वस्थ नहीं हो उसको अधिक कार्य करना पड़ेगा जिसके वह योग्य नहीं है। इस प्रकार वह प्रशिक्षण पूरा नहीं कर सकेगा। इसलिए शारीरिक योग्यता बहुत ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। उस मनुष्य के लिए भी और महत्त्वपूर्ण है जो व्यक्ति शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रशिक्षण लेना चाहता है।

4. अभ्यास और दोहराना (Practice and Revision)-केवल मौखिक ज्ञान से प्रशिक्षण पूरा नही होता। इसलिए अभ्यास अति आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा में अभ्यास का बहुत महत्त्व है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक अपने विद्यार्थियों को भिन्न-भिन्न तत्त्वों का ज्ञान देता है और नई-नई तकनीकें सिखाता है वहां उसे अभ्यास करने के लिए भी प्रेरणा देता है क्योंकि वह जानता है कि अभ्यास और दोहराई के बिना प्रशिक्षण का कार्य पूरा नहीं हो सकता है। अभ्यास और दोहराई द्वारा ही मनुष्य में आत्मविश्वास और कुशलता आती है, जो प्रशिक्षण में सहायक है।

5. व्यक्तिगत भिन्नताएं (Individual difference)—मनुष्यों, पक्षियों और सभी जीवधारी प्राणियों में सोचने, समझने और महसूस करने की भिन्नता होती है। इस प्रकार एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है। इसलिए एक व्यक्ति कम बुद्धिमान है तो दूसरा बुद्धि वाला है। इन भिन्नताओं का ही प्रशिक्षण पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। एक विद्यार्थी किसी चीज़ को शीघ्र सीख लेता है, जब कि दूसरा उस क्रिया को अधिक समय में भी सीख नहीं पाता है। इसका आधारभूत कारण विद्यार्थियों की व्यक्तिगत भिन्नता है। शारीरिक शिक्षा में यह भिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। एक शारीरिक शिक्षा के अध्यापक को इन भिन्नताओं का विशेष ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि इन भिन्नताओं के ज्ञान के बिना विद्यार्थियों को कुछ भी सिखाना मुमकिन नहीं है।

6. उचित समय पर सुधार (Correction at Proper Time)-प्रशिक्षण का कार्य उस समय तक अधूरा रहता है जब तक सीखने वाले व्यक्ति को अपनी ग़लती का एहसास न हो जो वह किसी वस्तु को सीखने के लिए कर रहा है उस ग़लती को उचित समय पर सुधारा न जा सके क्योंकि बार-बार ग़लती करने पर उसको आदत पड़ जाती है और उसे सुधारा नहीं जा सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि किसी वस्तु को सीखने के लिए उसकी ग़लती और कमियों को उचित समय पर सुधार लेना चाहिए जिससे प्रशिक्षण में कोई कमी महसूस न हो।

7. आवश्यक ज्ञान (Adequate Knowledge) किसी वस्तु को सीखने के लिए जब तक उसके बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त नहीं होता उस समय तक सीखने की क्रिया में पूर्णता प्राप्त नहीं होती। इस कमी से उससे बार-बार ग़लती होती है। इससे मनुष्य में हीन भावना आ जाती है। इसलिए सीखने वाले को उन वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना बहुत आवश्यक है जिसके बिना प्रशिक्षण अधूरा रह जाता है।

8. शिक्षा के लिए सुविधाएं (Facilities for learning)-प्रशिक्षण के कार्य में सुविधाओं की बड़ी भूमिका होती है। विशेष तौर पर शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों की शारीरिक शिक्षा की क्रियाओं को सीखने में सहायता मिलती है। आज कल हॉकी के अन्तर्राष्ट्रीय मैच ऎसरोटर्क अथवा पोलीग्रास के मैदानों पर खेले जाने लगे हैं और भारतीय टीम को इन मैदानों की कमी के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए भारत में भी इस प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जाने लगी हैं जिससे भारतीय खिलाड़ियों का प्रशिक्षण ठीक ढंग से हो सकें।

9. संतोष (Satisfaction) व्यक्ति कोई भी चीज़ तब ही सीखना चाहता है ताकि सीखने से उसे प्रसन्नता प्राप्त हो और उसे संतोष की भावना मिले जो वस्तु मनुष्य के भीतर इस प्रकार की भावना जागृत करने के काबिल होती है उनको कोई भी सीखने वाला आसानी से सीख सकता है और प्रसन्नता प्राप्त करता है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में जिस प्रकार एक जिमनास्टिक के खिलाड़ी को अपने शरीर को लचकीला बनाकर उस तकनीक का प्रदर्शन लोगों के सामने करके अति प्रसन्नता होती है जो उसको अधिक सीखने के लिए प्रेरित करती है।

10. देखने-सुनने की सुविधाएँ (Audi-Visual Aids)-आज शिक्षा प्रणाली में देखने-सुनने की सुविधाओं को बहुत महत्त्व दिया जाने लगा है क्योंकि इन सुविधाओं द्वारा विद्यार्थियों के दिमाग पर अति शीघ्र प्रभाव पड़ता है उनको कठिन-कठिन क्रिया भी आसानी से सिखाई जा सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में फिल्में, टैलीविज़न, रेडियो, चार्ट, नक्शे, मॉडल आदि आते हैं। जिनकी सहायता से प्रशिक्षण का काम और आसान हो गया है। शारीरिक शिक्षा की क्रियाओं के लिए देखने-सुनने की सुविधाओं का अपनाया जाना अति आवश्यक है। इनकी सहायता द्वारा संसार की बड़ी-से-बड़ी हस्ती को भी अंदाज में दिखाया जा सकता है जो आम लोगों के लिए उनको देख पाना अति कठिन होता है। इन सुविधाओं द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में बहुत लाभ पहुंचा है।

11. पूर्ण विधि का महत्त्व (Importance of Whole Method) कोई भी कार्य सीखने के लिए पूर्ण विधि का प्रयोग आवश्यक है जिससे सिखाने वाले को कोई परेशानी नहीं आती है। यदि शारीरिक शिक्षा की किसी क्रिया को पूरी तरह प्रदर्शन करके दिखा दिया जाए तो विद्यार्थियों के सामने उनकी पूरी तस्वीर खिंच जाती है। इस प्रकार इस पूर्ण विधि से सीखना अधूरी विधि से सीखने से अधिक लाभकारी होता है। जब तक हाथी को पूर्ण रूप से नहीं दिखाया जाता है उसके भिन्न-भिन्न भागों को दिखाकर उसकी स्थिति को नहीं समझाया जा सकता है क्योंकि (Whole is somthing more than the parts.)

12. नेतृत्व की भावना (Sense of Leadership) यदि व्यक्ति के भीतर नेतृत्व की भावना हो उसकी यह विशेषता प्रशिक्षण में अधिक सहायक है क्योंकि उसके अन्दर लोगों को आकर्षित करने की भावना होती है। जिससे प्रत्येक वस्तु को शीघ्र सीख कर लोगों के सामने मिसाल बन कर नेतृत्व करना चाहता है। इस गुण के द्वारा ही लोगों से सहयोग और परस्पर प्रेम प्राप्त करके शिक्षा की आवश्यकता को पूरा कर सकता है।

13. आन्तरिक निरीक्षण (Introspection) आन्तरिक निरीक्षण द्वारा ही प्रशिक्षण में बहुत-सी कमियों का ज्ञान हो जाता है और इन कमियों को सुधारने के लिए प्रेरणा मिलती है और शिक्षा प्राप्त कर उसे संतोष प्राप्त होता है जिससे प्रशिक्षण अधिक रोचक और आसान क्रिया बन जाती है. क्योंकि प्रत्येक क्रिया के अच्छे और बुरे पहलू को आन्तरिक निरीक्षण द्वारा जांचा जाता है।

14. अधिक भार (Over Load)-व्यक्ति की समर्था और योग्यता के मुताबिक उस पर अधिक भार डालकर प्रशिक्षण के काम को तेज़ किया जा सकता है। यदि खिलाड़ी किसी तकनीक को विशेष तरीके से प्रदर्शन करने में सफल नहीं हो पा रहा तो उसके प्रशिक्षण के ढंग को बदल दिया जाता है जिससे उस पर अधिक बोझ पड़ जाता है। उसका शरीर अधिक भार सहने की आदत प्राप्त कर लेता है और इस प्रकार प्रशिक्षण आसान होकर उसकी मंज़िल तक पहुँचने में सहायता करता है। उपरोक्त दिए हुए तत्त्व शिक्षा के कार्य में बहुत ही सहायक होते हैं जिनके द्वारा ही मनुष्य की शिक्षा का प्रोग्राम पूरा होता है। यह तत्त्व प्रशिक्षण में बहुत सहायता प्रदान करते हैं।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

Physical Education Guide for Class 11 PSEB खेल मनोविज्ञान Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
(1) सहयोग
(2) वजीफे
(3) प्रशांशा
(4) अच्छा वातावरण और खेल सहुलता। यह किस प्रेरणा के भाग हैं ?
उत्तर-
बाहरी प्रेरणा।

प्रश्न 2.
(1) शारीरिक प्रेरणा
(2) सामाजिक प्रेरणा
(3) भावनात्मक प्रेरणा
(4) कुदरती प्रेरणा, यह किस प्रेरणा का भाग हैं ?
उत्तर-
अन्दरूनी प्रेरणा।

प्रश्न 3.
खेल मनोविज्ञान कितने शब्दों का बना है ?
(a) तीन
(b) चार
(c) पांच
(d) आठ।
उत्तर-
(a) तीन।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 4.
प्रेरणा कितने प्रकार की होती है ?
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) छः।
उत्तर-
(a) दो।

प्रश्न 5.
खेल मनोविज्ञान की शाखाएं हैं ?
(a) सात
(b) छः
(c) पांच
(d) चार।
उत्तर-
(a) सात।

प्रश्न 6.
“खेलों और शारीरिक सरगर्मियों में हर स्तर पर निपुणता बढ़ाने के लिए मनोविज्ञान सिद्धान्तों का प्रयोग करना ही खेल मनोविज्ञान है।” यह किसका कथन है?
उत्तर-
ब्राउन और मैहोनी।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 7.
“मनोविज्ञान व्यक्ति के वातावरण के साथ जुड़ा उसकी क्रियाओं का अध्ययन करता है।” किसका कथन है ?
उत्तर-
बडबर्ड।

प्रश्न 8.
“मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार और मनुष्य सम्बन्धों का अध्ययन है”-किसका कथन है।”
उत्तर-
क्रो और क्रो।

प्रश्न 9.
“खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा के लिए मनोविज्ञान की वह शाखा है जो मनुष्य की शारीरिक योग्यता को खेलकूद में भाग लेना बढ़ाती है।” किसका कथन है ?
उत्तर-
के० एस० बन०।

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प्रश्न 10.
मनोविज्ञान का अर्थ लिखो।
उत्तर-
व्यक्ति के व्यवहार, उसकी प्रतिक्रियां, तरीके और सीखने के तरीकों के अध्ययन को मनोविज्ञान कहते हैं।

प्रश्न 11.
क्रो एंड क्रो की मनोविज्ञान की परिभाषा लिखो।
उत्तर-
“मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार और मानव सम्बन्ध का अध्ययन है।”

प्रश्न 12.
बडबर्ड की परिभाषा लिखो ?
उत्तर-
“मनोविज्ञान व्यक्ति के वातावरण के साथ जुड़ी उस क्रिया का अध्ययन है।”

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 13.
“खेलों और शारीरिक सरगर्मियों में हर स्तर पर निपुणता बढ़ाने के लिए मनोविज्ञान सिद्धान्तों का प्रयोग करना ही खेल मनोविज्ञान है।”, यह किसका कथन है।
उत्तर-
ब्राउन और मैहोनी।

प्रश्न 14.
“खेल मनोविज्ञान खेलों के मानसिक आधार, कार्य और प्रभाव का अध्ययन है।” यह किसका कथन है ?
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान का यूरोपियन संघ।

अति छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
खेल मनोविज्ञान क्या है ?
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान शिक्षा और प्रयोगी क्रिया एथलेटिकस शारीरिक शिक्षा, मनोरंजन और कसरत के साथ सम्बन्धित लोगों के व्यवहार में परिवर्तन ले आती है।।

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प्रश्न 2.
मनोविज्ञान का अर्थ लिखो।
उत्तर-
व्यक्ति का व्यवहार उसकी प्रतिक्रियाएं तरीके और सीखने के तरीके के अध्ययन को मनोविज्ञान कहते हैं।

प्रश्न 3.
मि० के० एम० बर्नस की परिभाषा लिखो।
उत्तर-
“खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा के लिए मनोविज्ञान की वह शाखा है, जो व्यक्ति शारीरिक योग्यता को बढ़ावा देती है खेल-कूद में भाग लेने से।”

प्रश्न 4.
प्रेरणा कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर-
प्रेरणा दो तरह की होती है :

  1. अन्दरूनी प्रेरणा
  2. बाहरी प्रेरणा।

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प्रश्न 5.
करूक और स्टेन के अनुसार प्रेरणा की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
“प्रेरणा को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-जिन हालतों द्वारा हमें कार्य करने के लिए दिशा और शक्ति मिलती है। उसे प्रेरणा कहते हैं।”

प्रश्न 6.
मनोविज्ञान की कोई चार शाखाओं के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. खेल संगठन मनोविज्ञान
  2. विकसित मनोविज्ञान
  3. स्वास्थ्य मनोविज्ञान
  4. शिक्षा मनोविज्ञान।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
खेल मनोविज्ञान का अर्थ लिखो।
उत्तर-
‘खेल मनोविज्ञान’ शब्द तीन शब्दों का मेल है। “खेल+मनो+विज्ञान खेल से भाव है।” खेल और खिलाड़ी, मनो तो भाव ‘व्यवहार’ मानसिक प्रक्रिया और विज्ञान से भाव ‘अध्ययन करना’ भाव खेल और खिलाड़ियों के व्यवहार का अध्ययन करना है।

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प्रश्न 2.
आर० एन० सिंगर के अनुसार, “मनोविज्ञान की परिभाषा लिखो।”
उत्तर-
“खेल मनोविज्ञान शिक्षा और प्रयोगी क्रियाओं द्वारा एथलैटिक शारीरिक शिक्षा, मनोरंजन और व्यायाम से सम्बन्धित लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाती है।”

प्रश्न 3.
मनोविज्ञान के कोई दो महत्त्व लिखें।
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान रीढ़ की हड्डी की तरह खिलाड़ी की प्रफोरमैंस को सफल बनाने के लिए दिशा निर्देश देता है। खेल मनोविज्ञान का सम्बन्ध बाइउमैकनिकस, किनज़ियालोजी, स्पोर्टस, फिज़िआलोजी स्पोटर्स मैडिसन विषयों के साथ है, जिसके साथ खिलाड़ियों के खेल कौशल और खेल व्यवहार में शोध करके खिलाड़ी की शारीरिक और मानसिक तन्दरुस्ती को बढ़ाया जाता है।

प्रश्न 4.
प्रेरणा की किस्में लिखो।
उत्तर-
(1) अन्दरूनी प्रेरणा या कुदरती प्रेरणा
(2) बाहरी या बनावटी प्रेरणा

1. अन्दरूनी या कुदरती प्रेरणा—

  • शारीरिक प्रेरणा
  • सामाजिक प्रेरणा
  • भावनात्मक प्रेरणा
  • कुदरती प्रेरणा।

2. बाहरी या बनावटी प्रेरणा।

  • ईनाम
  • सज़ा
  • मुकाबले
  • इम्तिहान

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बड़े उत्तर वाला प्रश्न (Long Answer Type Question)

प्रश्न-
प्रेरणा का अर्थ, परिभाषा तथा महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रेरणा का अर्थ (Meaning of Motivation)-प्रेरणा का अर्थ विद्यार्थियों की सीखने की क्रियाओं में रुचि पैदा करना और उनको उत्साह देना है। प्रेरणा से विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में रूचि लेता है। खिलाड़ी खेलने में रुचि लेता है। मज़दूर फ़ैक्टरी में अपने काम में रुचि लेता है और किसान अपने खेतों के कार्यों में रुचि लेता है। सच तो यह है कि प्रेरणा में इस तरह की चल शक्ति (Motive Force) है। यह एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को काम करने के लिए उत्साहित करती है। इस शक्ति के द्वारा मनुष्य अपनी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने का लगातार प्रयास करता है और अन्त में उसकी पूर्ति करने में सफलता प्राप्त करता है।

परिभाषा (Definition)—
करूक और स्टेन के अनुसार, “प्रेरणा को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है। जिन हालतों द्वारा हमें कार्य करने के लिए दिशा और शक्ति मिलती है। उसे प्रेरणा कहते हैं।”
क्रो और क्रो के अनुसार, “प्रेरणा सीखने में रुचि पैदा करने के साथ सम्बन्धित है और यह सीखने के लिए ज़रूरी है।”

कैली के अनुसार, “सीखने की प्रक्रिया की प्रभावशाली व्यवस्था में प्रेरणा एक केन्द्रीय तत्व है। हर प्रकार सीखने में कोई-न-कोई प्रेरणा अवश्य होती है।”
महत्त्व (Importance)-खेल निपुणता में प्रेरणा का बहुत ही आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है। खिलाड़ी जितनी देर तक प्रेरित नहीं होता तब तक वह कुछ सीखने के योग्य नहीं हो सकता तथा न ही उसमें कुछ सीखने के लिए रुचि ही पैदा होती है। खेलों के प्रति बच्चों में प्रेम पैदा करने के लिए प्रेरणा बहुत मूल्य योगदान देती है। यह खिलाड़ियों के अन्दर कई प्रकार की भावनाओं को जाग्रित करती है। इन मंजिलों अथवा आदर्शों की प्राप्ति के .. लिये खिलाड़ी तरह-तरह की मुश्किलों तथा कठिनाईयों को बर्दाशत करता है।

हाँसला, बहादुरी, निडरता तथा स्वयं कुर्बान होना आदि के गुण व्यक्ति अथवा खिलाड़ी के अन्दर किसी न किसी विशेष प्रेरणा द्वारा ही आते हैं तथा उनके अन्दर छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि किसी किस्म का भेदभाव पैदा नहीं होता। मन की शान्ति तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए खिलाड़ी प्रेरणा के इन स्त्रोतों का भरपूर उपयोग करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि खेल निपुणता के लिए प्रेरणा की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण, आवश्यक तथा लाभदायक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन किस प्रकार किया जाता है ?
(How is the President of India elected ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान के अन्तर्गत भारतीय संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 52 के अधीन भारतीय राज्य संगठन में राष्ट्रपति का पद निश्चित किया गया है। वह राज्य का अध्यक्ष है और भारत का समस्त शासन उसी के नाम पर चलता है। वह देश का सर्वोच्च अधिकारी तथा भारत का प्रथम नागरिक भी कहलाता है।

योग्यताएं (Qualifications)—राष्ट्रपति के पद के लिए के पद के लिए चुनाव लड़ सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह सभी योग्यताएं रखता हो जो संसद् का सदस्य बनने के लिए आवश्यक हैं।
  4. वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी स्थानीय सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो।M
  5. विधानमण्डल का सदस्य नहीं होना चाहिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (1)

5 जून, 1997 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी करके राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के लिए जमानत .. की राशि 2500 से बढ़ा कर 15 हज़ार रुपये कर दी है।
इस अध्यादेश के अनुसार राष्ट्रपति के पद के लिए उम्मीदवार का नाम 50 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित तथा 50 मतदाताओं द्वारा अनुमोदित होना अनिवार्य है।

चुनाव (Election)-भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक चुनाव मण्डल द्वारा होता है जिसमें लोकसभा के निर्वाचित सदस्य, राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य तथा राज्य की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। चुनाव एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation Single Transferable Vote System) के आधार पर होता है। संविधान के अनुसार, जहां तक सम्भव हो सकेगा, राष्ट्रपति के चुनाव में भिन्नभिन्न राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। इसी तरह जहां तक हो सकेगा, संसद् के सदस्यों तथा राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाएगा तथा संसद् के सदस्यों तथा राज्य की विधानसभाओं के सदस्यों की वोटों में समानता होगी। दूसरे शब्दों में, राष्ट्रपति के चुनाव में एक सदस्य एक मत’ (One Member One Vote) M गई, न ही अपनाई जा सकती थी। वैसे एक मतदाता को केवल एक ही मत मिलता है, परन्तु इसके मत की गणना नहीं होती, बल्कि उसका मूल्यांकन होता है। मतों की संख्या निम्न वर्णित तरीकों से ज्ञात की जाती है-

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (2)

पहले राज्य की सारी जनसंख्या को विधानसभा में कुल चुने हुए सदस्यों की संख्या से भाग देकर भजनफल (Quotient) को 1000 से बांट दिया जाए।

(1) राज्य की विधानसभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या
PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (3) यदि शेष 500 से अधिक हो तो पूरा गिन लिया जाता है और 500 से कम हो तो उसकी गिनती नहीं होती।
उदाहरण के लिए 2017 में पंजाब की जनसंख्या 1,35,51,060 थी और विधानसभा के निर्वाचित सदस्य 117 थे जिस कारण प्रत्येक सदस्य को 117 मत डालने का अधिकार प्राप्त था।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (4) लोकसभा तथा राज्यसभा के प्रत्येक सदस्य के राष्ट्रपति के चुनाव में वोट निकालने के लिए दोनों सदनों में चुने हुए सदस्यों की कुल संख्या में राज्यों की विधानसभाओं की सारी वोटों को बांट दिया जाता है।

(2) संसद् के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या =
PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (5)समस्त राज्यों की विधानसभाओं के समस्त मतों की संज्या संसद् के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की संज्या

उदाहरणस्वरूप, यदि समस्त राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा कुल 4,24,856 मत डाले गए हैं और संसद् के निर्वाचित सदस्यों की संख्या 705 हो तो संसद् के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य को \(\frac{424856}{705}=602 \frac{446}{705}=603\) मत देने का अधिकार होगा।

2017 के राष्ट्रपति के चुनाव में राज्यों की विधानसभाओं में सदस्यों के कुल मतों की संख्या 5,49,495 थी। संसद् के निर्वाचित सदस्यों की संख्या = 776 (लोकसभा 543 + राज्यसभा 233)
प्रत्येक सदस्य के मत =\(\frac{5,49,511}{776}\) = 708
संसद् के कुल सदस्यों के मत = 5,49,408
राष्ट्रपति के निर्वाचन मण्डलों के सदस्यों के कुल मत = 10,98,903
जुलाई 2017 में हुए राष्ट्रपति के चुनाव में कुल मतों की संख्या 10,98,903 थी।

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राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया (Procedure of Electing President)-राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया का वर्णन संविधान में नहीं किया गया है बल्कि इस सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार संसद् को दिया गया। भारतीय संसद् ने 1952 में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन एक्ट पास किया, जिसे 1974 में संशोधित किया गया। राष्ट्रपति के चुनाव की विधि निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रपति के चुनाव की अधिसूचना (Notification regarding the election of President) राष्ट्रपति का चुनाव कराने की शक्ति निर्वाचन आयोग के पास है। निर्वाचन आयोग राष्ट्रपति के चुनाव के बारे में अधिसूचना जारी करता है जिसमें नामांकन-पत्रों के भरने, उनकी जांच-पड़ताल करने, उन्हें वापस लेने तथा चुनाव की तिथि इत्यादि निर्धारित करने का वर्णन किया जाता है।
  • निर्वाचन अधिकारी की नियुक्ति (Appointment of Returning Officer)—निर्वाचन आयोग केन्द्रीय सरकार से सलाह करके निर्वाचन अधिकारी की नियुक्ति करता है और निर्वाचन अधिकारी की सहायता के लिए सहायक निर्वाचन अधिकारी नियुक्त करता है।
  • नामांकन-पत्रों का प्रवेश करना, उनकी जांच-पड़ताल और उन्हें वापस लेना (Filling of Nomination Papers, their Scrutiny and Withdrawal)—निश्चित तिथि से पहले उम्मीदवार नामांकन-पत्र भरने शुरू कर देते हैं और प्रवेश-पत्रों को भरने की तिथि समाप्त होने के बाद नामांकन-पत्रों की जांच-पड़ताल की जाती है कि उम्मीदवार निश्चित योग्यताओं को पूरा करते हैं या नहीं। जिस उम्मीदवार का नामांकन-पत्र ठीक नहीं होता उसे रद्द कर दिया जाता है।
  • मतदान (Polling)—निश्चित तिथि को राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मतदान दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में होता है। संसद् के सदस्य दिल्ली में मतदान करते हैं और विधानसभाओं के सदस्य राज्यों की राजधानियों में मतदान करते हैं। संसद् के सदस्य अपने राज्य की राजधानियों में मतदान कर सकते हैं। 1974 के कानून के अनुसार संसद् के सदस्य को अपने राज्य के मतदान केन्द्र पर वोट डालने के लिए कम-से-कम 10 दिन पहले चुनाव आयोग को सूचना देनी पड़ती है। मतदान के पश्चात् मतों की पेटियों को सील करके दिल्ली निर्वाचन अधिकारी के पास भेज दिया जाता है।
  • मतगणना और चुनाव परिणाम (Counting of Votes and Declaration of Results) निश्चित तिथि को निर्वाचन अधिकारी के ऑफिस में मतों की गिनती की जाती है। मतों की गिनती के पश्चात् चुनाव परिणाम घोषित किया जाता है।
    आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के कारण चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों को मतों का निश्चित कोटा प्राप्त करना पड़ता है। कोटा निश्चित करने के लिए अग्रलिखित विधि अपनाई जाती है।

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यदि किसी चुनाव में कुल 8,40,000 मत डाले जाएं तो एक उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए कम-से-कम \(\frac{8,40,000}{1+1}+1=4,20,001\) अवश्य मिलने चाहिए अर्थात् राष्ट्रपति पद पर चुने जाने के लिए यह आवश्यक है कि उम्मीदवार को मतों का पूर्ण बहुमत अवश्य प्राप्त होना चाहिए।

सबसे पहले उम्मीदवारों को प्रथम पसन्द (First Preference) वाले मतों को गिना जाता है। यदि पहले गिनती में किसी उम्मीदवार को कोटा प्राप्त नहीं होता तो सबसे कम वोटों वाले उम्मीदवार को पराजित घोषित कर दिया जाता है और उसकी वोटों को दूसरी पसन्द के अनुसार हस्तांतरित (Transfer) कर दिया जाता है। यदि फिर भी किसी को कोटा प्राप्त न हो सके तो फिर जो सबसे कम वोटों वाला उम्मीदवार होगा उसे पराजित घोषित कर दिया जाएगा और उसकी वोटों को दूसरी पसन्द के अनुसार हस्तांतरित कर दिया जाएगा। यह क्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक किसी एक उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो जाता।।

अब तक हुए राष्ट्रपति के चुनाव-अब तक राष्ट्रपति सम्बन्धी कुल 15 चुनाव हुए हैं। इनका ब्योरा इस प्रकार है। दो बार डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का, एक बार डॉ० राधाकृष्णन जी का, एक बार डॉ० जाकिर हुसैन जी का, एक बार डॉ० वी० वी० गिरी जी का, एक बार फखरुद्दीन अली अहमद का, एक बार श्री संजीवा रेड्डी का, एक बार ज्ञानी जैल सिंह का, एक बार डॉ० आर० वेंकटरमण का, एक बार डॉ० शंकर दयाल शर्मा और एक बार श्री के० आर० नारायणन का चुनाव हुआ। पहले चारों चुनावों में पहली मतगणना में ही सफल उम्मीदवार को कोटा प्राप्त हो गया था, परन्तु श्री वी० वी० गिरि के चुनाव के समय उन्हें कोटा दूसरी गणना (Second Count) में ही प्राप्त हो सका। 17 अगस्त, 1974 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में श्री फखरुद्दीन अली अहमद को 765587 मत प्राप्त हुए जबकि उनके निकटतम विरोधी श्री त्रिविद कुमार चौधरी को 189196 मत प्राप्त हुए। जुलाई 1977 में श्री संजीवा रेड्डी को सर्वसम्मति से राष्ट्रपति बनाया गया। यह पहला अवसर था जब राष्ट्रपति के पद के लिए चुनाव नहीं हुआ।

जुलाई, 1982 में कांग्रेस (आई) के उम्मीदवार ज्ञानी जैल सिंह अपने एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार श्री हंस राज खन्ना को 4,71,428 मूल्य के मतों से पराजित कर देश के सातवें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। ज्ञानी जैल सिंह को 8,54,113 मूल्य के मत तथा श्री खन्ना को 2,82,685 मूल्य के मत मिले। जुलाई, 1987 में कांग्रेस (इ) के उम्मीदवार आर० वेंकटरमण ने विपक्षी उम्मीदवार न्यायाधीश अय्यर को हराया। जुलाई, 1992 में कांग्रेस (इ) के उम्मीदवार उप-राष्ट्रपति डॉ० शंकर दयाल शर्मा भारत के नौवें राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने विपक्ष के उम्मीदवार जी० जी० स्वैल को 3,29,379 मतों से पराजित किया। जुलाई, 1997 में, राष्ट्रपति के पद के लिए 11वीं बार चुनाव हुआ। संयुक्त मोर्चा, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के सांझा उम्मीदवार उप-राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने शिव सेना के उम्मीदवार भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी० एन० शेषण को 9 लाख से अधिक मतों से पराजित किया। श्री के० आर० नारायणन प्रथम दलित हैं, जो राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए। राष्ट्रपति के लिए 12वां चुनाव जुलाई, 2002 में हुआ।

राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन, कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी के सांझा उम्मीदवार डॉ० पी० जे० अब्दुल कलाम ने वाम दलों की उम्मीदवार कैप्टन लक्ष्मी सहगल को हराया। इस चुनाव में डॉ० कलाम को निर्वाचक मण्डल के 4152 मत प्राप्त हुए जबकि श्रीमति सहगल को 459 मत प्राप्त हुए। जुलाई, 2007 में राष्ट्रपति के लिए 13वीं बार चुनाव हुआ। इस चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की उम्मीदवार श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने स्वतन्त्र उम्मीदवार श्री भैरों सिंह शेखावत को हराया। राष्ट्रपति के पद के लिए 14वां चुनाव जुलाई, 2012 में हुआ। इस चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के उम्मीदवार श्री प्रणव मुखर्जी ने, जिन्हें समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, शिवसेना एवं जनता दल (यू) का भी समर्थन प्राप्त था, श्री पी० ए० संगमा को हराया। श्री प्रणव मुखर्जी को 713763 (60%) मत प्राप्त हुए, जबकि श्री पी० ए० संगमा को 315987 (31%) मत प्राप्त हुए। राष्ट्रपति के पद के लिए 15वां चुनाव जुलाई, 2017 में हुआ। इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के उम्मीदवार श्री रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की उम्मीदवार श्रीमती मीरा कुमार को हराया।

चुनाव प्रणाली की आलोचना (Criticism of the Electoral System) –
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है–

1. अप्रजातन्त्रात्मक विधि (Undemocratic Method)-आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि अप्रजातन्त्रात्मक है क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष जनता द्वारा नहीं होता, परन्तु हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष जनता द्वारा चुनाव कराना आसान नहीं है।

2. जटिल विधि (Complex Method)-राष्ट्रपति के चुनाव की विधि बड़ी जटिल है, जिसे समझना आसान नहीं है।

3. यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व एकल संक्रमणीय प्रणाली नहीं है (It is not Proportional Representation and Single Transferable Vote System)-आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि को आनुपातिक प्रतिनिधित्व तथा एकल संक्रमणीय प्रणाली का नाम देना उचित नहीं है क्योंकि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लिए चुनाव क्षेत्र बहुसदस्यीय होना चाहिए, परन्तु राष्ट्रपति के चुनाव में में सीट एक होती है। अतः आनुपातिक प्रणाली की एक अनिवार्य आवश्यकता राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली पूर्ण नहीं करती।

4. अस्पष्टता (Not Clear)-राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली में कई बातें अस्पष्ट हैं। उदाहरणस्वरूप, यदि उम्मीदवारों की संख्या दो से अधिक हो तथा किसी को भी पहली गिनती में पूर्ण बहुमत न मिले और साथ ही यदि मतदाताओं ने अपनी दूसरी पसन्द न दी हो तो उस अवस्था में चुनाव का निर्णय किस प्रकार किया जाएगा इस विषय में संविधान में कुछ नहीं लिखा गया है।

राष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवाद (Dispute regarding Election of the President)-राष्ट्रपति का चुनाव सम्बन्धी विवाद केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुना जा सकता है। चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार या कम-से-कम दस निर्वाचकों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति के चुनाव को चुनौती दी जा सकती है। रिट का आधार सफल उम्मीदवार द्वारा रिश्वतखोरी, निर्वाचकों पर अनुचित प्रभाव, संविधान और राष्ट्रपति निर्वाचन सम्बन्धी कानून का उल्लंघन हो सकता है। डॉ० जाकिर हुसैन तथा श्री वी० वी० गिरि के चुनाव को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव सम्बन्धी रिटों को रद्द कर दिया।

कार्यकाल (Term of Office)-राष्ट्रपति अपने पद पर पांच वर्ष के लिए चुना जाता है और यह समय उस दिन से आरम्भ होता है जिस दिन राष्ट्रपति अपने पद पर आसीन होता है। उसे दोबारा चुने जाने का अधिकार है। भारत में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने तीसरी बार चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया तो यह आशा की गई थी कि कोई भी राष्ट्रपति तीसरी क्योंकि डॉ० राधाकृष्णन दूसरी बार खड़े नहीं हुए।

पांच वर्ष की अवधि से पहले केवल तीन कारणों से ही उसका पद खाली हो सकता है-(1) यदि वह स्वयं त्यागपत्र दे दे, (2) यदि उसकी मृत्यु हो जाए तथा (3) यदि उसे महाभियोग द्वारा पद से हटा दिया जाए।

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वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances)-राष्ट्रपति को 5,00,000 रु० मासिक वेतन मिलता है। राष्ट्रपति को मिलने वाले वेतन पर आय कर देना पड़ता है। राष्ट्रपति को रहने के लिए बिना किराए के निवास स्थान मिलता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को कई अन्य भत्ते मिलते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उसे 2,50,000 रुपये मासिक पेंशन मिलती है।

राष्ट्रपति को वेतन तथा भत्ते भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) से मिलते हैं। उनका वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधाएं उनके कार्यकाल में घटाई नहीं जा सकती।

प्रश्न 2.
भारतीय राष्ट्रपति के अधिकारों और कार्यों का उल्लेख कीजिए।
(Describe the powers and duties of the President of India.)
अथवा
संकटकालीन शक्तियों को छोड़ कर भारत के राष्ट्रपति की शक्तियों का उल्लेख करें।
(Explain the powers of the President of India, other than emergency.)
उत्तर-
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की व्यवस्था है । संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियां संविधान की धारा 53 के अनुसार राष्ट्रपति को दी गई हैं, जिनका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों की सहायता से कर सकता है। परन्तु वास्तव में संसदीय शासन व्यवस्था होने के कारण वह अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार न करके मन्त्रिमण्डल की सहायता से ही करता है ।

राष्ट्रपति की शक्तियां (Powers of the President)-राष्ट्रपति को मुख्य रूप से संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियां मिली हुई हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार की शक्तियां भी उसके पास हैं । वास्तव में भारत का समस्त शासन उसी ने नाम पर चलता है। उसकी शक्तियां को हम दो भागों में बांट सकते हैं-(क) शान्तिकालीन शक्तियां, तथा (ख) संकटकालीन शक्तियां।

(क) शान्तिकालीन शक्तियां (Powers in Normal Times)-राष्ट्रपति को शान्ति के समय जो शक्तियां मिली हुई हैं, वे भी कई प्रकार की हैं :

(1) कार्यपालिका शक्तियां (Executive Powers)
(2) विधायनी शक्तियां (Legislative Powers)
(3) वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)
(4) न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers) ।

1. कार्यपालिका शक्तियां (Executive Powers)-राष्ट्रपति को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं :

(i) प्रशासकीय शक्तियां (Administrative Powers)-भारत का समस्त प्रशासन उसी के नाम पर चलाया जाता है और भारत सरकार के सभी निर्णय औपचारिक रूप से उसी के नाम पर लिए जाते हैं । देश का सर्वोच्च शासक होने के नाते वह नियम तथा अधिनियम भी बनाता है ।
(ii) मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां (Powers relating to Council of Ministers)-राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री को नियुक्त करता है और उसके परामर्श से मन्त्रिमण्डल के अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है । वह मन्त्रियों को पदच्युत कर सकता है परन्तु प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही वह यह कार्य कर सकता है ।
(iii) नियुक्तियां करने की शक्तियां (Powers of making Appointments)—सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं । अटॉर्नी जनरल, चुनाव कमिश्नर, महालेखा परीक्षक, (Auditor and Comptroller General), संघीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा दूसरे सदस्य, यदि राज्यों का सांझा लोक सेवा आयोग हो तो उनका प्रधान तथा दूसरे सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायाधीशों, विदेशों को भेजे जाने वाले राजदूतों, राज्य के राज्यपालों तथा संघीय क्षेत्रों का राज्य-प्रबन्ध चलाने के लिए चीफ कमिश्नर तथा उप राज्यपाल आदि की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । राष्ट्रपति को कई प्रकार के आयोगों जैसे कि भाषा आयोग, वित्त आयोग, चुनाव आयोग, अनुसूचित जातियों, कबीलों तथा पिछड़े हुए वर्गों के सम्बन्ध में आयोग आदि निर्माण करने का भी अधिकार है ।
(iv) सैनिक शक्तियां (Military Powers)-राष्ट्रपति राष्ट्र की सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति है । वह स्थल सेना, जल सेना और वायु सेनाध्यक्षों को नियुक्त करता है । वह फील्ड मार्शल की उपाधि भी प्रदान करता है । वह राष्ट्रीय रक्षा समिति का अध्यक्ष है ।

(v) विदेशी सम्बन्धों की शक्तियां (Powers relating to Foreign Affairs)-राष्ट्रपति को विदेशी मामलों में भी बहुत-से-अधिकार प्राप्त हैं । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वह भारत का प्रतिनिधित्व करता है । दूसरे देशों को भेजे जाने वाले राजदूत उसी के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और अन्य देशों के राजदूतों को भारत में वही स्वीकार करता है। राष्ट्रपति युद्ध और शान्ति की घोषणा कर सकता है ।

(vi) राज्य सरकारों को निर्देश देने की शक्ति (Powers of issuing directions to State Governments)राष्ट्रपति को राज्यों के आपसी सम्बन्धों के बारे में कुछ निर्देश जारी करने और उन पर नियन्त्रण रखने तथा उनमें सहयोग उत्पन्न करने के भी कुछ अधिकार हैं। वह राज्य सरकारों को संघीय कानून के उचित पालन के लिए आदेश दे सकता है । आदिम जन-जाति क्षेत्रों के प्रशासन के लिए असम और नागालैंड के राज्यपाल राष्ट्रपति के एजेन्ट के रूप में काम करते हैं।

(vii) संघीय प्रदेशों का प्रशासन (Administration of Union Territories) केन्द्रीय प्रदेशों (Union Territories) का प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर ही चलता है ।

2. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-यद्यपि राष्ट्रपति संसद् का सदस्य नहीं होता फिर भी उसे संसद् का अभिन्न अंग होने के कारण वैधानिक शक्तियां प्राप्त हैं ।
राष्ट्रपति की विधायिनी शक्तियों का उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है :

(i) राष्ट्रपति की संसद् के अधिवेशन बुलाने और सत्रावसान सम्बन्धी शक्तियां-राष्ट्रपति ही संसद् के दोनों सदनों का अधिवेशन बुला सकता है, अधिवेशन का समय बढ़ा सकता है तथा उसे स्थगित कर सकता है । राष्ट्रपति ही अधिवेशन के स्थान और समय को निश्चित करता है। वह जब चाहे अधिवेशन बुला सकता है, परन्तु यह आवश्यक है कि पिछले अधिवेशन की अन्तिम बैठक और अगले अधिवेशन की पहली बैठक में छ: महीने से अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए।

(ii) राष्ट्रपति द्वारा संसद् में भाषण-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों में अलग-अलग या दोनों के सम्मिलित अधिवेशन को सम्बोधित कर सकता है । नई संसद् का पहला तथा वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के भाषण से ही आरम्भ होता है जिसमें राष्ट्रपति संसद् को उन उद्देश्यों की सूचना देता है जिनके लिए कि अधिवेशन बुलाया गया है राष्ट्रपति अपने भाषण में सरकार की गृह-नीति, विदेश-नीति तथा अन्य नीतियों पर प्रकाश डालता है ।

(iii) राज्यसभा के 12 सदस्य मनोनीत करना-राष्ट्रपति राज्यसभा के लिए ऐसे 12 सदस्यों को मनोनीत करता है । जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला या सामाजिक सेवा के बारे में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव होता है ।

(iv) लोकसभा में एंग्लो-इण्डियन को मनोनीत करना-राष्ट्रपति को 2 एंग्लो इण्डियन को लोकसभा का सदस्य मनोनीत करने के अधिकार प्राप्त है बशर्ते कि इस समुदाय को निर्वाचन द्वारा समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाया हो ।

(v) संसद् द्वारा पास किए गए बिलों पर स्वीकृति-दोनों सदनों के पास होने के बाद बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए आता है तथा उसकी स्वीकृति के बिना कानून नहीं बन सकता । धन विधेयक (Money Bill) पर उसे स्वीकृति देनी पड़ती है क्योंकि धन-बिल राष्ट्रपति की सिफ़ारिश पर ही पेश होते हैं । साधारण बिलों पर उसे निषेधाधिकार (Veto Power) का अधिकार प्राप्त है अर्थात् वह साधारण बिल पर अपनी स्वीकृति देने से इन्कार कर सकता है, स्वीकृति रोक सकता है तथा बिल को संसद् में वापस भेज सकता है। परन्तु यदि दूसरी बार संसद् साधारण बहुमत से बिल को पास कर देती है तो राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है । 1987 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैन सिंह ने भारतीय डाकघर (संशोधन) विधेयक को न तो स्वीकृति दी और न ही संसद् को वापस भेजा ।

(vi) कुछ बिल राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से संसद् में पेश किए जा सकते हैं-धन बिल और कुछ बिल जैसे कि नए राज्यों को बनाने तथा वर्तमान राज्यों के नाम और सीमा में परिवर्तन करने से सम्बन्ध रखने वाले बिल राष्ट्रपति की सिफ़ारिश के बिना संसद् में पेश नहीं किए जा सकते । व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाने वाले विधेयक इसी प्रकार का विधेयक है।

(vii) लोकसभा को भंग करने की शक्ति-लोकसभा की अवधि पांच वर्ष है, परन्तु राष्ट्रपति निश्चित अवधि से पहले भी लोकसभा को भंग कर सकता है । राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग प्रधानमन्त्री की सलाह से करता है । 26 अप्रैल, 1999 को राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर लोक सभा को भंग किया था।

(vii) राज्य विधानमण्डलों द्वारा पास कुछ बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं-गवर्नर राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए ऐसे बिलों के जिनका उद्देश्य निजी सम्पत्ति का अनिवार्य अर्जन हो या उच्च न्यायालय की शक्तियां को कम करना हो या संसद् द्वारा घोषित की गई आवश्यक वस्तुओं पर क्रय-विक्रय कर लगाना हो इत्यादि, राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है ।

(ix) अध्यादेश जारी करना-जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो और परिस्थितियां इस बात को बाध्य करती हों तो राष्ट्रपति को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने का अधिकार है । यह अध्यादेश उसी शक्ति और प्रभाव के साथ लागू होते हैं जिस प्रकार कि संसद् द्वारा बनाए गए अधिनियम । परन्तु संसद् का अधिवेशन आरम्भ होते ही ये उसके सामने रखे जाने आवश्यक हैं और अधिवेशन आरम्भ होने की तिथि से लेकर 6 सप्ताह तक वह अध्यादेश जारी रह सकता है । 6 सप्ताह पश्चात् अध्यादेश समाप्त हो जाएगा । इसके पहले भी संसद् अध्यादेश को रद्द कर सकती है और राष्ट्रपति भी जब चाहे उसे वापस ले सकता है। यदि संविधान की धाराओं को अच्छी तरह पढ़ा जाए तो इसका भाव निकलता है कि राष्ट्रपति द्वारा जारी किया गया अध्यादेश पूरे 772 मास तक चल सकता है । राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की पूर्ण छूट है तथा उसके निर्णय को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती ।

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(x) सन्देश भेजने का अधिकार-राष्ट्रपति संसद् के किसी भी सदन को सन्देश भेज सकता है । जिस सदन को राष्ट्रपति द्वारा सन्देश भेजा जा सकता है । वह शीघ्र ही उस सन्देश पर विचार करता है । सन्देश किसी ऐसे विधेयक के साथ जो या तो संसद् के समक्ष विचाराधीन हो अथवा जो महत्त्वपूर्ण हो, भेजा जाता है ।

3. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)—राष्ट्रपति को काफ़ी महत्त्वपूर्ण वित्तीय अधिकार प्रदान किए गए हैं:-

  • बजट पेश करना-सरकारी आय-व्यय का वार्षिक बजट राष्ट्रपति ओर से संसद् के समक्ष प्रस्तुत किया जाता
  • वित्त बिल प्रस्तुत करने की अनुमति देता है-राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना कोई वित्त बिल संसद में पेश नहीं किया जा सकता । उसकी अनुमति के बिना किसी वित्तीय अनुदान की मांग नहीं की जा सकती ।
  • आकस्मिक निधि पर नियन्त्रण-भारत की आकस्मिक निधि (Contingency Fund of India) राष्ट्रपति के अधीन है । इस निधि से वह किसी भी आकस्मिक खर्च के लिए संसद् की स्वीकृति से पूर्व ही धनराशि खर्च कर सकता है।
  • आयकर से होने वाली आय तथा पटसन के निर्यात कर से हुई आय का वितरण-राष्ट्रपति आय कर से होने वाली आय में विभिन्न राज्यों के भाग को निर्धारित करता है तथा यह भी निश्चित करता है कि पटसन के निर्यात कर की आय में से कुछ राज्यों को बदले में क्या धनराशि मिलनी चाहिए ।
  • राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति करता है ।

4. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-राष्ट्रपति को बहुत-सी न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं-

  • राष्ट्रपति को न्यायालयों द्वारा दण्डित व्यक्तियों के सम्बन्ध में क्षमा प्रदान (Pardon) करने और उनकी सज़ा को कम करने का अधिकार प्राप्त है अर्थात् राष्ट्रपति किसी अपराधी की सज़ा न केवल पूर्ण रूप से क्षमा कर सकता है बल्कि उसे कुछ दिनों के लिए लागू होने से रोक सकता है या उसके स्वरूप को परिवर्तित कर सकता है। 8 नवम्बर, 1997 को राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने निरंकारी संत बाबा गुरबचन सिंह की हत्या में अपराधी ठहराए गए अकाल तख्त के जत्थेदार भाई रणजीत सिंह को माफ़ी दी।
  • राष्ट्रपति राज्यों के उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियां करता है।
  • राष्ट्रपति किसी भी विषय में सर्वोच्च न्यायालय की सलाह ले सकता है । सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे विषयों पर सलाह देनी पड़ती है, परन्तु राष्ट्रपति के लिए परामर्श लेना आवश्यक नहीं है ।

(ख) राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers)-राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का वर्णन संविधान के 18वें भाग में किया गया है । अग्रलिखित तीन प्रकार की अवस्थाओं में राष्ट्रपति को संकटकाल की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त हैं :

  1. युद्ध, विदेशी आक्रमण तथा सशस्त्र-विद्रोह से उत्पन्न संकट ।
  2. किसी राज्य में संवैधानिक मशीनरी के फेल हो जाने के कारण उत्पन्न संकट ।
  3. देश में आर्थिक अथवा वित्तीय संकट के कारण उत्पन्न परिस्थिति ।

1. युद्ध, विदेशी आक्रमण तथा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न संकट (Emergency due to War, External aggression or Armed Rebellion-Act. 352)—संविधान की धारा 352 के अनुसार राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट (National Emergency) की घोषणा कर सकता है । यदि उसको विश्वास हो जाए कि गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है जैसे युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत अथवा उसके राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग की सुरक्षा खतरे में है । 59वें संशोधन के अनुसार आन्तरिक गड़बड़ी की स्थिति में पंजाब में आपात्काल को लागू किया जा सकता है । परन्तु राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा मन्त्रिमण्डल की लिखित सलाह से ही कर सकता है ।

2. राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल होने से उत्पन्न संकट (Emergency due to the constitutional breakdown-Art. 356)-जब राष्ट्रपति के राज्यपाल अथवा किसी अन्य स्त्रोत के आधार पर विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह इस आशय की घोषणा कर सकता है । संसद् की स्वीकृति के बिना यह घोषणा दो महीने तक लागू रह सकती है । संसद् की स्वीकृति मिलने पर यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और 6 महीने के बाद यदि संसद् दोबारा प्रस्ताव पास कर दे तो 6 महीने और लागू रह सकती है । 59वें संशोधन के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 3 वर्षों तक लागू रह सकता है। परन्तु 64वें संशोधन के अनुसार यह अवधि 6 महीने और बढ़ा दी गई और 68वें संशोधन के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 5 वर्ष तक लागू रह सकता है ।

3. आर्थिक संकट के समय उत्पन्न स्थिति (Emergency due to Financial Crisis-Art. 360)—यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी राज्य क्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह वित्तीय आपात् की घोषणा (अनुच्छेद 360) कर सकता है । ऐसी उद्घोषणा पर दो महीने के अन्दर संसद् की स्वीकृति प्राप्त हो जानी चाहिए । ऐसी उद्घोषणा अनिश्चित समय तक जारी रहती है ।

राष्ट्रपति की स्थिति (Position of the President)-भारत में राष्ट्रपति की उचित स्थिति क्या है, इसके बारे शक्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक शक्तिशाली पद का स्वामी है। यदि वह चाहे तो अपनी इन शक्तियों का प्रयोग करके तानाशाह भी बन सकता है ।

राष्ट्रपति की शक्तियों की कानूनी व्याख्या के आधार पर हम राष्ट्रपति के बारे में कुछ भी कह लें, परन्तु उसकी वास्तविक और व्यावहारिक स्थिति कुछ और ही है । भारत में संसदीय शासन प्रणाली है और राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का संवैधानिक अध्यक्ष है। वह केवल शान्ति के समय में ही नहीं बल्कि संकट के समय भी अपनी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही कर सकता है। मन्त्रिमण्डल की सलाह के बिना और सलाह के विरुद्ध वह किसी शक्ति का प्रयोग नहीं करता । 44वें संशोधन के अन्तर्गत अनुच्छेद 74 में संशोधन करके यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल द्वारा जो भी सलाह दी जाती है, राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल को उस पर पुनः विचार करने के लिए कह सकता है और पुनर्विचार करने के बाद मन्त्रिमण्डल जो सलाह राष्ट्रपति को देता है, उसे वह सलाह माननी पड़ेगी । उसका पद आदर और सम्मान का पद तो है, परन्तु शक्ति सम्पन्न नहीं । यदि वह अपनी शक्ति का प्रयोग अपनी इच्छा के अनुसार करने का प्रयत्न करे तो एक संवैधानिक संकट उत्पन्न हो सकता है तथा इस बात को मन्त्रिमण्डल व संसद् दोनों में से कोई भी सहन नहीं करेगा और उस पर महाभियोग लगाकर संसद् द्वारा उसे अपदस्थ कर दिया जायगा । 29 अप्रैल, 1977 को मन्त्रिमण्डल ने कार्यवाहक राष्ट्रपति को 9 राज्यों की विधानसभाओं को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू करने की सलाह दी जिस पर कार्यवाहक राष्ट्रपति बी० डी० जत्ती ने 24 घण्टे पश्चात् अर्थात् 30 अप्रैल, 1977 को अमल किया । कार्यवाहक राष्ट्रपति के 24 घण्टे बाद हस्ताक्षर करने की सभी समाचार-पत्रों ने अपने-अपने सम्पादकीय लेख में कड़ी आलोचना की और इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सलाह तुरन्त माननी चाहिए थी । डॉ० अम्बेदकर ने संविधान-सभा में भाषण देते हुए कहा था, “हमारे राष्ट्रपति की वही स्थिति है जो कि ब्रिटिश संविधान के अन्तर्गत वहां के सम्राट की। वह राज्य का अध्यक्ष है कार्यपालिका का नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, शासन नहीं ।”

राष्ट्रपति निम्नलिखित शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है :-

  1. सलाह देने का अधिकार (Right to Advice)-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल को किसी भी विषय पर सलाह दे सकता है । भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने उस समय के प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू को कई बार कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर सलाह दी । इसी प्रकार डॉ० राधाकृष्णन ने उस समय की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी को कई बार सलाह दी ।
  2. उत्साहित करने का अधिकार (Right to Encourage)-जब मन्त्रिमण्डल देश के हित में कार्य कर रहा हो तो राष्ट्रपति उसका उत्साह बढ़ाने के लिए उसकी प्रशंसा कर सकता है । भूतपूर्व राष्ट्रपति वी० वी० गिरी ने भूतपूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी को उनकी नीतियों के लिए समय-समय पर प्रोत्साहित किया ।
  3. चेतावनी देने का अधिकार (Right to Warn)-यदि मन्त्रिमण्डल देश के हित में कार्य न कर रहा हो तो राष्ट्रपति उसको चेतावनी दे सकता है । .
  4. सूचना प्राप्त करने का अधिकार (Right to be Informed)-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल व प्रधानमन्त्री से प्रशासन सम्बन्धी कोई भी सूचना प्राप्त कर सकता है ।
  5. संविधान की रक्षा का अधिकार (Right to Protect the Constitution)-राष्ट्रपति संविधान की रक्षा के लिए शपथ-बद्ध होता है । वह संविधान की रक्षा करने के लिए कई प्रकार के कदम उठा सकता है ।
  6. किसी बिल को पुनर्विचार के लिए भेजने का अधिकार (Right to send any bill for Reconsideration)-राष्ट्रपति किसी भी साधारण बिल को पुनर्विचार करने के लिए वापस भेज सकता है ।।

उपर्युक्त सभी कार्यों के लिए राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सलाह लेने की आवश्यकता नहीं होती है । वास्तव में राष्ट्रपति की स्थिति उसके अपने व्यक्तित्व पर निर्भर करती है । यदि एक अच्छे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति इस पद पर आसीन हो तो वह शासन पर भी अपना प्रभाव डाल सकता है । पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “हमने अपने राष्ट्रपति को वास्तविक शक्ति नहीं दी अपितु उसके पद को बड़ा शक्तिशाली तथा सम्मानजनक बनाया है ।” (“We have not given our President any real power but we have made his position one of great authority and dignity.”’)

प्रश्न 3.
भारतीय राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए । क्या भारतीय राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है ?
(Critically examine the emergency powers of the Indian President. Can Indian President become a dictator ?)
उत्तर-
जिस प्रकार किसी व्यक्ति के जीवन में कठिनाइयां आ सकती हैं, उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन में संकट आ सकते हैं । संकट का सामना करने के लिए सरकार के पास असाधारण शक्तियों का होना आवश्यक है । अतः संविधान के अन्तर्गत संकटकालीन धाराओं का वर्णन कर देना उचित होता है । भारतीय संविधान निर्माताओं ने संकटकाल का सामना करने के लिए संविधान के भाग 18 में संकटकालीन धाराओं का वर्णन किया है अर्थात् इस भाग में राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का वर्णन किया गया है ताकि देश की सुरक्षा को सुरक्षित रखा जा सके ।
संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में तीन प्रकार के संकट का वर्णन किया गया है :

  • युद्ध, विदेशी आक्रमण तथा सशस्त्र-विद्रोह से उत्पन्न संकट ।
  • किसी राज्य में संवैधानिक प्रणाली के फेल हो जाने के कारण बने आकस्मिक संकट।
  • देश में आर्थिक अथवा वित्तीय संकट के कारण उत्पन्न परिस्थिति ।

Mसंविधान की धारा 352 के अनुसार राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट (National Emergency) की घोषणा कर सकता है यदि उसको विश्वास हो जाए कि गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है जैसे युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत अथवा उसके राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग की सुरक्षा खतरे में है। 59वें संशोधन के अनुसार पंजाब में आन्तरिक गड़बड़ी (Internal disturbance) के आधार पर भी आपात्काल की घोषणा की जा सकती है। परन्तु राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे ।

राष्ट्रपति की राष्ट्रीय संकट की घोषणा एक महीने तक लागू रह सकती है । एक महीने के बाद संकटकालीन घोषणा समाप्त हो जाती है । यदि इससे पहले संसद् के दोनों सदन अलग-अलग इसको कुल संख्या के बहुमत और उपस्थित तथा मतदान के दो तिहाई सदस्यों ने पास न कर दिया हो । यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और संकटकाल की घोषणा को लागू रखने के लिए यह आवश्यक है कि 6 महीने के बाद संसद् के दोनों सदन संकटकाल की घोषणा के प्रस्ताव को पास करें । यदि लोकसभा संकटकाल की घोषणा लागू रहने के विरुद्ध प्रस्ताव को पास कर दे तो संकटकाल की घोषणा लागू नहीं रह सकती । लोकसभा के 10 प्रतिशत सदस्य अथवा अधिक सदस्य घोषणा के अस्वीकृति प्रस्ताव पर विचार करने के लिए लोकसभा की बैठक बुला सकते है ।

इस घोषणा के परिणाम (Effects of Proclamation)-राष्ट्रीय संकटकालीन घोषणा के समय शासन का संघीय रूप एकात्मक हो जाता है । समस्त देश का शासन संघीय सरकार के हाथ में आ जाता है ।

  1. केन्द्रीय सरकार राज्यों की सरकारों को निर्देश दे सकती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करें ? राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति के आदेशानुसार कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते हैं।
  2. संसद् को राज्य-सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है ।
  3. राष्ट्रपति को संघीय सरकार तथा राज्यों में धन विभाजन सम्बन्धी योजना में अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार मिल जाता है ।
  4. संसद् को संकटकाल के समय कानून द्वारा अपनी अवधि को एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाने का अधिकार मिल जाता है, परन्तु यह अवधि संकटकालीन घोषणा के समाप्त होने के 6 मास से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती ।
  5. धारा 19 के अन्तर्गत दी गई स्वतन्त्रताओं को स्थगित किया जा सकता है । परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार अनुच्छेद 19 में दिए गए अधिकार तभी स्थगित किए जा सकते हैं यदि संकटकाल की घोषणा युद्ध अथवा बाहरी हमले के कारण हो न कि सशस्त्र विद्रोह पर । 59वें संशोधन के अनुसार पंजाब में 19 अनुच्छेद में दी गई स्वतन्त्रताएं सशस्त्र विद्रोह अथवा आन्तरिक गड़बड़ी के कारण घोषित आपात्काल में भी स्थगित की जा सकती है ।
  6. राष्ट्रपति राज्य सूची के विषयों पर भी अध्यादेश जारी कर सकता है ।

7 M का सहारा लेने के अधिकारों को समस्त भारत या उसके किसी भी भाग में स्थगित कर सकता था, परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को लागू कराने के अधिकार को स्थगित नहीं किया जा सकता । 59वें संशोधन के अन्तर्गत पंजाब में आन्तरिक गड़बड़ी के कारण घोषित आपात्काल में इस अधिकार को भी स्थगित किया जा सकता है ।

चीनी आक्रमण पर राष्ट्रपति ने 20 अक्तूबर, 1962 को संकटकाल की घोषणा की थी । दूसरी बार यह घोषणा 3 दिसम्बर, 1971 को की गई और तीसरी बार 26 जून, 1975 को राष्ट्रपति ने आन्तरिक अशान्ति के कारण आपात्कालीन घोषणा की और इस आन्तरिक आपात्कालीन स्थिति को 21 मार्च, 1977 को समाप्त किया गया और 1971 में लागू की गई आपात्कालीन स्थिति को 27 मार्च, 1977 को समाप्त किया गया ।

2. राज्यों में संवैधानिक मशीनरी फेल होने से पैदा हुए संकट (Emergency due to the Constitutional break down)-Art. (356)-जब राष्ट्रपति को गवर्नर की रिपोर्ट पर अथवा किसी अन्य स्रोत के आधार पर विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह इस आशय की संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संसद् की स्वीकृति के बिना यह घोषणा 2 महीने तक लागू रह सकती है, संसद् की स्वीकृति मिलने पर यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और 6 महीने बाद यदि संसद् दोबारा प्रस्ताव पास कर दे तो 6 महीने और लागू रह सकती है। इस प्रकार की घोषणा साधारणतः अधिक-से-अधिक एक वर्ष तक लागू रह सकती है । एक वर्ष से अधिक तभी लागू रह सकती है यदि राष्ट्रीय संकटकालीन घोषणा लागू हो और चुनाव आयोग यह प्रमाण-पत्र दे कि विधानसभा के चुनाव करवाना कठिन है । 59वें संशोधन के अन्तर्गत पंजाब में राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि तीन वर्ष की गई और 68वें संशोधन के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 5 वर्ष तक लागू रह सकता है ।

प्रभाव (Effects) –

  1. राष्ट्रपति राज्य की सरकार के उच्च न्यायालय को छोड़ कर अन्य किसी अधिकारी के सब या कोई कार्य अपने हाथ में ले सकता है ।
  2. राष्ट्रपति घोषणा कर सकता है कि राज्य में विधानमण्डल की शक्तियां संसद् के अधिकार द्वारा या अधीन प्रयुक्त होंगी ।
  3. राज्य का मन्त्रिमण्डल तथा विधानमण्डल स्थगित अथवा भंग किया जा सकता है।
  4. राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है तथा उसके नियन्त्रण में रहते हुए उसकी सभी आज्ञाओं का पालन करता है ।
  5. संसद् उन वैधानिक शक्तियों को जो उसे राज्य विधानमण्डल के बदले में प्राप्त होती हैं, राष्ट्रपति को हस्तांतरित कर सकती है जो उसे अन्य किसी अधिकारी को सौंप सकता है ।
  6. जब लोकसभा का अधिवेशन न हो रहा हो तब राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि में से संसद् की आज्ञा मिलने तक आवश्यक व्यय को प्राधिकृत कर सकता है ।

1951 मे पंजाब में प्रथम बार इस घोषणा को लागू किया गया था । 1952 में पेप्सू, 1954 में आन्ध्र प्रदेश, 1966 में पंजाब, नवम्बर, 1972 में उत्तर प्रदेश तथा 1976 में गुजरात में इस घोषणा को लागू किया गया । मार्च, 1977 में जम्मू-कश्मीर में भी इस प्रकार की घोषणा को लागू किया गया । 30 अप्रैल, 1977 को कार्यवाहक राष्ट्रपति बी० डी० जत्ती (B. D. Jatti) ने भी नौ राज्यों-उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, पश्चिमी बंगाल, बिहार और उड़ीसा के विधानसभाओं को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू किया। 17 फरवरी, 1980 को राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने भी नौ राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडू, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, उड़ीसा और गुजरात की विधानसभाओं को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू किया।

पंजाब के राज्यपाल सिद्धार्थ शंकर रे की सिफ़ारिश पर 11 मई, 1987 को पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया और 25 फरवरी, 1992 को समाप्त हुआ । 6 दिसम्बर, 1992 को उत्तर प्रदेश में तथा 15 दिसम्बर, 1992 को मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा हिमाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति

3. आर्थिक संकट के समय उत्पन्न स्थिति (Emergency due to Financial Crisis, Art. 360) यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी राज्य क्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह वित्तीय आपात् की घोषणा (अनुच्छेद 360) कर सकता है । ऐसी उद्घोषणा पर दो महीने के अन्दर-अन्दर संसद् की स्वीकृति प्राप्त हो जानी चाहिए । वित्तीय संकट की घोषणा भारत में अभी तक एक बार भी नहीं की गई । इस प्रकार की संकट की स्थिति में राष्ट्रपति को निम्नलिखित विशेष शक्तियां मिलती हैं :-

(क) वह राज्यों द्वारा पास किए गए धन बिलों को अपनी स्वीकृति के लिए मंगवा सकता है ।
(ख) वह राज्यों को धन-सम्बन्धी कोई भी आदेश दे सकता है ।
(ग) वह सब सरकारी कर्मचारियों के (केन्द्र और राज्य के जिनमें सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों के जज भी सम्मिलित हैं), वेतन और भत्तों में कमी कर सकता है ।
(घ) राष्ट्रपति संघ तथा राज्यों के मध्य आय के साधारण विभाजन में परिवर्तन कर सकता है ।

संकटकालीन शक्तियों की आलोचना (Criticism of Emergency Powers) –

संविधान सभा के अन्दर तथा बाहर दोनों स्थानों पर राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की बड़ी तीव्र आलोचना की गई थी । यह आलोचना बड़ी गम्भीर तथा आधारपूर्ण थी । संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने यह विचार प्रकट किया कि एक ऐसे शासन अधिकारी को जो न तो जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप में चुना गया हो तथा न ही संसद् के सम्मुख उत्तरदायी हो, इतनी व्यापक शक्तियों का देना उचित नहीं लगता । कुछ अन्य सदस्यों का यह विचार था कि भारत का राष्ट्रपति इन शक्तियों के दुरुपयोग से लोकतन्त्र का अन्त कर सकता है । इसी विचारधारा को लेकर इस डर को प्रकट किया गया कि भारत का राष्ट्रपति अपनी संकटकालीन शक्तियों का सहारा लेकर उसी प्रकार की तानाशाही स्थापित कर सकता है। जैसे कि हिटलर ने वाइमर संविधान की धारा 48 का सहारा लेते हुए की थी । श्री एच० वी० कॉमथ (Shri H.V. Kamth) ने आलोचना करते हुए कहा था, “विश्व के लोकतन्त्रीय देशों के किसी भी संविधान की हमारे संविधान के संकटकाल सम्बन्धी अध्याय से तुलना नहीं की जा सकती ।”

श्री के० टी० शाह (K.T. Shah) ने इसको संविधान के सबसे अधिक अप्रगतिशील अध्याय की अन्तिम तथा सुन्दर झांकी कहा है ।
जिस समय संविधान सभा ने राष्ट्रपति द्वारा मौलिक अधिकारों को निलम्बित (Suspend) करने की व्याख्या को स्वीकार किया तब श्री० एच० वी० कॉमथ ने यह घोषणा की, “यह लज्जा तथा शोक का दिन है, परमात्मा भारतीयों की रक्षा करे ।” (“It is a day of Shame and sorrow, God save Indian people.”)
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के विरुद्ध कुछ और भी विचार दिए गए हैं जिस कारण इन शक्तियों की बहुत आलोचना की जाती है । वे विचार निम्नलिखित हैं-

1. आपात्काल की शक्तियों का दुरुपयोग होने की सम्भावना (Possibility of misuse of Emergency Powers)-राष्ट्रपति को यह पूर्ण अधिकार दिया गया है कि यदि वह अनुभव करे तो किसी युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के उत्पन्न होने से पूर्व ही संकटकाल की घोषणा कर सकता है तथा उसकी शक्ति को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है यदि ऐसा करने की मन्त्रिमण्डल लिखित सलाह दे ।।

2. मौलिक अधिकारों का स्थगन (Suspension of Fundamental Rights)—संकट के समय राष्ट्रपति लोगों के मौलिक अधिकारों और स्वतन्त्रताओं को भी नष्ट कर सकता है और इससे उसकी स्थिति और भी शक्तिशाली बन जाती है । वह सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित अधिकारों को भी समाप्त कर सकता है ।

3. यह संघात्मक सरकार के लिए खतरा है (Danger for Federation)—यह भी बड़े आश्चर्य की बात है कि संकटकाल की घोषणा के समय संघीय ढांचा एकात्मक सरकार में बदला जाता है तथा इकाइयों की सरकारें समाप्त कर दी जाती हैं । इसी कारण संविधान सभा में श्री टी० टी० कृष्णमाचारी (T.T. Krishanamahari) ने कहा था, “भारतीय संविधान साधारण काल में संघात्मक तथा युद्ध एवं अन्य संकटकालीन परिस्थतियों में एकात्मक रूप धारण कर लेता है ।”

4. राष्ट्रपति एक महीने के लिए तानाशाह बन सकता है (President can become despot for one month)—संकटकालीन स्थिति संसद् की स्वीकृति के बिना एक महीने तक लागू रह सकती है। उस समय राष्ट्रपति समस्त देश का शासन अपने हाथों में ले सकता है और अपनी स्थिति बहुत शक्तिशाली बना सकता है।

5. अनुच्छेद 356 का राजनीतिक उद्देश्य के लिए प्रयोग (Use of Article 356 for Political Purposes). केन्द्र में सत्तारूढ़ दल किसी ऐसे राज्य में भी जहां मन्त्रिमण्डल की स्थिति दृढ़ हो, संवैधानिक मशीनरी के फेल होने की घोषणा कर सकता है, केवल इसलिए कि वहां पर कोई अन्य पार्टी शासन चला रही है । अतः संघीय सरकार राष्ट्रपति के माध्यम से राज्य में विरोधी दलों द्वारा निर्मित सरकारों का दमन कर सकती है । व्यवहार में केन्द्र ने सत्तारूढ़ दल के अनुच्छेद 356 का कई बार दुरुपयोग किया है । 15 दिसम्बर, 1992 को केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा हिमाचल प्रदेश की सरकारें भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया क्योंकि इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें थीं । मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य की पूर्व भाजपा सरकार को भंग करने सम्बन्धी राष्ट्रपति की अधिसूचना अप्रैल 1993 को रद्द कर दी । उच्च न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा कि राष्ट्रपति की अधिसूचना संविधान के अनुच्छेद 356 के प्रावधानों की परिधि से बाहर है। सर्वोच्च न्यायालय ने अक्तूबर 1993 को एक फैसले में नागालैण्ड में (1987), कर्नाटक में (1989) को राष्ट्रपति शासन को लागू करने के फैसले को असंवैधानिक बताया ।।

राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सकता (President cannot become dictator)-राष्ट्रपति को संकटकालीन शक्तियां काफ़ी सोच-विचार के बाद दी गई हैं और इनका प्रयोग करके उसके तानाशाह बनने की कोई सम्भावना नहीं है । राष्ट्रपति को ऐसा करने से रोकने के लिए मन्त्रिमण्डल है जो वास्तव में शक्तियों का प्रयोग करता है :-

  1. राष्ट्रपति संकटकाल की उद्घोषणा मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही कर सकता है। 44वें संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है यदि ऐसा करने की मन्त्रिमण्डल लिखित सलाह दे।
  2. राष्ट्रपति को संकटकालीन घोषणा पर एक महीने के अन्दर संसद् की स्वीकृति प्राप्त करनी होती है । यदि संसद् स्वीकृति नहीं देती तो वह घोषणा लागू होनी बन्द हो जाती है । यदि लोकसभा भंग हो तो राज्यसभा की स्वीकृति आवश्यक है।
  3. संकट के समय भी राष्ट्रपति संसद् को भंग नहीं कर सकता। राष्ट्रपति लोकसभा को तो भंग कर सकता है, पर राज्यसभा को नहीं । लोकसभा को मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही भंग किया जा सकता है।
  4. यदि राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का उचित प्रयोग न करे या मनमानी करना चाहे तो संसद् उसके विरुद्ध महाभियोग लगाकर उसे पद से हटा सकती है।

संकटकालीन शक्तियों की औचित्यतता (Justification of Emergency Powers)-निःसन्देह संकटकालीन शक्तियां बहुत व्यापक हैं तथा इनके विरुद्ध दिए गए तर्क ठीक हैं, परन्तु इसके बावजूद भी हमें यह मानना पड़ता है कि इनका संविधान में देना औचित्यपूर्ण है। इनके निम्नलिखित कारण हैं-

  1. भारत ने सदा ही केन्द्रीय सरकार के निर्बल होने पर हानि उठाई है, इसलिए केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाना देश की स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है।
  2. भारत में संघीय सरकार ही देश की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी है । संघीय रूप की इतनी महत्ता नहीं जितनी कि राष्ट्रीय सुरक्षा की।
  3. जब संकटकाल की घोषणा लागू होती है तब संविधान को 19वीं धारा द्वारा दी गई स्वतन्त्रताएं भंग की जा सकती हैं। श्री अलादी कृष्णास्वामी अय्यर तथा डॉ० अम्बेदकर ने इस व्यवस्था का बड़ी योग्यता से पक्ष पोषण किया है । श्री अल्लादी के अनुसार देश तथा राष्ट्र का व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से पूर्व स्थान है। परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार अनुच्छेद 19वें दिए गए अधिकार तभी स्थगित किए जा सकते हैं यदि संकटकाल की घोषणा युद्ध अथवा बाहरी हमले के कारण की हो न कि सशस्त्र विद्रोह पर।
  4. वित्तीय संकट सम्बन्धी उप-धाराओं का होना भी बहुत उचित है।

निष्कर्ष (Conclusion)-ऊपरलिखित तर्कों के आधार पर हम कह सकते हैं कि संविधान निर्माताओं ने संकटकालीन धाराओं का संविधान में वर्णन करके कोई गलती नहीं की। संकटकालीन धाराओं के उचित प्रयोग से नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा की जा सकती है। श्री अमर नन्दी (Amar Nandi) ने राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की तुलना, “एक भरी हुई बन्दूक से की है जिससे नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा भी हो सकती है और नाश भी हो सकता है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रपति के चुनाव का ढंग बताएं। अभी तक राष्ट्रपति के कितने चुनाव हुए हैं ?
उत्तर-
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचन मण्डल द्वारा किया जाता है। निर्वाचन मण्डल में संसद् के दोनों सदनोंराज्यसभा तथा लोकसभा के निर्वाचित सदस्य तथा राज्य-विधान मण्डलों के चुने हुए सदस्य सम्मिलित होते हैं। निर्वाचन मण्डल में संसद् तथा राज्य विधानसभाओं में मनोनीत किए गए सदस्यों को सम्मिलित नहीं किया जाता। राष्ट्रपति का चुनाव एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार होता है। राष्ट्रपति के चुनाव में एक सदस्य एक मत वाली विधि नहीं अपनाई गई। वैसे एक मतदाता को केवल एक ही मत मिलता है। परन्तु उसके मत की गणना नहीं होती बल्कि उसका मूल्यांकन होता है। वर्तमान समय तक भारत में राष्ट्रपति पद के लिए पन्द्रह बार चुनाव हो चुके हैं।

प्रश्न 2.
‘राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र मुखिया है।’ व्याख्या करें।
उत्तर-
समस्त शासन राष्ट्रपति के नाम पर चलता है, परन्तु वह नाममात्र का मुखिया है जबकि अमेरिका का राष्ट्रपति राज्य का वास्तविक मुखिया है। इसका कारण यह है कि अमेरिका में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली है जबकि भारत में संसदीय शासन प्रणाली है। संसदीय शासन प्रणाली के कारण राष्ट्रपति संवैधानिक मुखिया है। राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है। व्यवहार में राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है।

प्रश्न 3.
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की चार आधारों पर आलोचना करें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है-

  1. अप्रजातन्त्रात्मक विधि-आलोचना का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि अप्रजातन्त्रात्मक है क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष जनता द्वारा नहीं होता, परन्तु हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष चुनाव जनता द्वारा करना आसान नहीं है।
  2. जटिल विधि-राष्ट्रपति के चुनाव की विधि बड़ी जटिल है जिसे समझना आसान नहीं है।
  3. यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व एकल संक्रमणीय प्रणाली नहीं है-आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि को आनुपातिक प्रतिनिधित्व तथा एकल संक्रमणीय प्रणाली का नाम देना उचित नहीं है क्योंकि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लिए चुनाव क्षेत्र बहु-सदस्यीय होना चाहिए, परन्तु राष्ट्रपति के चुनाव में सीट एक होती है। अतः आनुपातिक प्रणाली की एक अनिवार्य आवश्यकता राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली पूर्ण नहीं करती।
  4. राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली में कई बातें अस्पष्ट हैं।

प्रश्न 4.
राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने तथा उसे पद से हटाने के लिए संविधान में कौन-सी प्रक्रिया वर्णित है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति को पांच वर्ष के लिए चुना जाता है परन्तु यदि कोई राष्ट्रपति अपनी शक्तियों के प्रयोग में संविधान का उल्लंघन करे तो पांच वर्ष से पहले भी उसे अपने पद से महाभियोग द्वारा अपदस्थ किया जा सकता है। एक सदन राष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाता है। आरोपों के प्रस्ताव पर सदन में उसी समय विचार हो सकता है जब सदन के 1/4 सदस्यों के हस्ताक्षरों द्वारा इस आशय का नोटिस कम-से-कम 14 दिन पहले दिया जा चुका हो। यदि एक सदन में प्रस्ताव 2/3 बहुमत से पास हो जाए तो दूसरा सदन उन आरोपों की जांच-पड़ताल करता है। दूसरे सदन में आरोपों की जांच-पड़ताल के समय राष्ट्रपति स्वयं उपस्थित होकर या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपनी सफाई पेश कर सकता है। यदि दूसरा सदन 2/3 बहुमत से उन आरोपों की पुष्टि कर दे तो राष्ट्रपति को उसी दिन पद छोड़ना पड़ता है। जब तक दूसरा सदन राष्ट्रपति के हटाए जाने का प्रस्ताव पास नहीं करता, उस समय तक राष्ट्रपति अपने पद पर आसीन रहता है।

प्रश्न 5.
राष्ट्रपति की चार कार्यपालिका शक्तियां लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की मुख्य कार्यपालिका शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  1. प्रशासकीय शक्तियां-भारत का समस्त प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है और भारत सरकार के सभी निर्णय औपचारिक रूप से उसी के नाम पर लिए जाते हैं। देश का सर्वोच्च शासक होने के नाते वह नियम तथा अधिनियम भी बनाता है।
  2. मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां-राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसके परामर्श से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। वह प्रधानमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों को अपदस्थ कर सकता है।
  3. सैनिक शक्तियां-राष्ट्रपति राष्ट्र की सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति है। वह स्थल, जल तथा वायु सेनाध्यक्षों की नियुक्ति करता है। वह फील्ड मार्शल की उपाधि भी प्रदान करता है। वह राष्ट्रीय रक्षा समिति का अध्यक्ष है।
  4. नियुक्तियां करने की शक्ति-सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति

प्रश्न 6.
राष्ट्रपति की चार विधायिनी शक्तियां लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की मुख्य विधायिनी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  1. राष्ट्रपति की संसद् के अधिवेशन बुलाने और सत्रावसान सम्बन्धी शक्तियां-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों का अधिवेशन बुला सकता है। अधिवेशन का समय बढ़ा सकता है तथा उसे स्थगित कर सकता है। राष्ट्रपति ही अधिवेशन का समय और स्थान निश्चित करता है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा संसद् में भाषण-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों को अलग-अलग या दोनों के सम्मिलित अधिवेशन को सम्बोधित कर सकता है। नई संसद् का तथा वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के भाषण से ही आरम्भ होता है।
  3. राज्यसभा के 12 सदस्य मनोनीत करना-राष्ट्रपति राज्यसभा के लिए ऐसे 12 सदस्यों को मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान या सामाजिक सेवा के विषय में विशेष ज्ञान या अनुभव प्राप्त हो।
  4. लोकसभा को भंग करना-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सिफ़ारिश पर लोकसभा को समय से पहले भी भंग कर सकता है

प्रश्न 7.
राष्ट्रपति बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राष्ट्रपति बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिएं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह किसी सरकारी पद पर कार्यरत न हो।
  4. वह लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो।
  5. अपने चुनाव के बाद राष्ट्रपति, संसद् या राज्य विधानमण्डल के किसी सदन का सदस्य नहीं रह सकता।
  6. 5 जून, 1997 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी करके राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के लिए ज़मानत की राशि 2500 रु० से बढ़ाकर 15000 रु० कर दी है। इस अध्यादेश के अनुसार राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम 50 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित तथा 50 मतदाताओं द्वारा अनुमोदित होना अनिवार्य है।

प्रश्न 8.
राष्ट्रपति का वेतन तथा सुविधाएं बताएं।
उत्तर-
राष्ट्रपति को 5,00,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उसको कई प्रकार के भत्ते तथा विशेष अधिकार भी प्राप्त हैं। उसे रहने के लिए सरकारी निवास मिलता है, जिसे राष्ट्रपति भवन कहा जाता है। अवकाश प्राप्त करने के बाद राष्ट्रपति को 2,50,000 रुपए मासिक पेंशन मिलती है। राष्ट्रपति के कार्यकाल में उसके विरुद्ध कोई फ़ौजदारी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता। वह अपने किसी भी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय के सम्मुख उत्तरदायी नहीं है।

प्रश्न 9.
‘निर्वाचक मण्डल’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर-
‘निर्वाचक मण्डल’ प्रतिनिधियों का एक ऐसा समूह होता है जिसका निर्माण किसी विशेष पद के चुनाव के लिए किया जाता है। अमेरिका और भारत में राष्ट्रपति का चुनाव निर्वाचक मण्डल के द्वारा किया जाता है। भारत में निर्वाचक मण्डल में संसद् के दोनों सदनों के चुने हुए सदस्य और प्रान्तीय विधानसभाओं के चुने हुए सदस्य सम्मिलित होते हैं। राष्ट्रपति के चुनाव के समय यदि निर्वाचक मण्डल में कुछ स्थान रिक्त हों तो उसका राष्ट्रपति के निर्वाचन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

प्रश्न 10.
‘अध्यादेश’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर-
जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो और राष्ट्रपति यह अनुभव करता हो कि परिस्थितियां ऐसी हैं जिनके अनुसार कार्यवाही करनी आवश्यक है तो राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्राप्त है। इस अध्यादेश की शक्ति और प्रभाव वही होता है जो संसद् के द्वारा पास किए गए कानूनों का होता है और अधिवेशन आरम्भ होने की तिथि से लेकर 6 सप्ताह पश्चात् वह अध्यादेश जारी रह सकता है। 6 सप्ताह पश्चात् यह अध्यादेश समाप्त हो जाता है। इससे पहले भी संसद् अध्यादेश रद्द कर सकती है और राष्ट्रपति भी जब चाहे उसे वापस ले सकता है। राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का पूरा अधिकार है और उसके इस निर्णय को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

प्रश्न 11.
किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपनी इच्छा से प्रधानमन्त्री को नियुक्त कर सकता है ?
उत्तर-
कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को अपनी इच्छा से प्रधानमन्त्री को नियुक्त करने का अवसर मिल जाता है। ये परिस्थितियां हैं-(1) जब लोकसभा में किसी भी राजनीतिक पार्टी की स्पष्ट बहुसंख्या न हो।
अथवा
(2) कुछ दल मिलकर संयुक्त सरकार (Coalition Ministry) का निर्माण न कर सकें।
अथवा
(3) लोकसभा में दोनों दलों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। उपर्युक्त परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपनी विवेक, बुद्धि तथा उच्च सूझ-बूझ से काम लेते हुए अपनी इच्छानुसार किसी भी दल के नेता को जिसे वह स्थायी सरकार बनाने के योग्य समझता हो, मन्त्रिमण्डल बनाने के लिए आमन्त्रित कर सकता है।

प्रश्न 12.
‘निषेधाधिकार’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर-
निषेधाधिकार का अर्थ अपनी असहमति प्रकट करना अथवा प्रस्ताव के विरोध में मतदान कर उस प्रस्ताव को अस्वीकार करना है। भारतीय संसद् द्वारा पास किया गया बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर ही कानून का रूप ले सकता है। राष्ट्रपति संसद् द्वारा पास किए गए बिल पर निषेधाधिकार का प्रयोग कर सकता है परन्तु यदि उस बिल को संसद् दुबारा पास कर दें तब राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।

प्रश्न 13.
किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने से इन्कार कर सकता है ?
उत्तर-
44वें संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् द्वारा जो सलाह दी जाती है, राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् को उस पर पुनः विचार करने के लिए कह सकता है परन्तु पुनर्विचार करने के बाद मन्त्रिमण्डल जो सलाह राष्ट्रपति को देता है वह सलाह उसे माननी पड़ेगी। राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् की सलाह, चेतावनी तथा उत्साह देने का अधिकार प्राप्त है। पद ग्रहण करते समय राष्ट्रपति को शपथ लेनी पड़ती है कि वह संविधान की रक्षा करेगा। इसलिए वह मन्त्रिपरिषद् की ऐसी कोई बात मानने के लिए बाध्य नहीं जो संविधान की रक्षा में रुकावट डालती हो। इसी प्रकार लोकसभा को भंग करने, ऐसे प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल को पदच्युत करने में जो बहुमत का समर्थन खो बैठा हो, राष्ट्रपति अपने विवेक से काम ले सकता है।

प्रश्न 14.
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियां तीन प्रकार की हैं-

(क) राष्ट्रपति युद्ध, बाहरी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह की दशा में मन्त्रिमण्डल की लिखित सलाह पर संकटकाल की घोषणा कर सकता है।
(ख) जब राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा दी गई सूचना से या किसी और सूत्र से यह विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत संकटकाल की उद्घोषणा कर सकता है। राष्ट्रपति राज्य के मन्त्रिमण्डल तथा विधान सभा को भंग करके राज्य का प्रशासन अपने हाथों में ले सकता है।
(ग) यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि देश की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है या भारत की साख खतरे में है तो वह वित्तीय संकटकाल की उद्घोषणा जारी कर सकता है। ऐसे समय में राष्ट्रपति सभी कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कमी कर सकता है। वह राज्यों को धन सम्बन्धी कोई भी आदेश दे सकता है।

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प्रश्न 15.
राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकटकाल की घोषणा कब कर सकता है ? इसके प्रभाव का वर्णन करें।
उत्तर-
निम्नलिखित परिस्थितियों में राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा कर सकता है-

  1. युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न संकट।
  2. देश में आर्थिक अथवा वित्तीय संकट के कारण उत्पन्न परिस्थिति।

घोषणा के प्रभाव-राष्ट्रीय संकटकालीन घोषणा के समय शासन का संघीय रूप एकात्मक हो जाता है। समस्त देश का शासन सरकार के हाथ में आ जाता है।

  1. केन्द्रीय सरकार, राज्यों की सरकारों को निर्देश दे सकती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करें। राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति के आदेशानुसार कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते हैं।
  2. संसद् को राज्य-सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।
  3. राष्ट्रपति को संघीय सरकार तथा राज्यों में धन विभाजन सम्बन्धी योजना में अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार मिल जाता है।

प्रश्न 16.
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के गलत प्रयोग को रोकने के लिए क्या व्यवस्था की गई
उत्तर-
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के गलत प्रयोग को रोकने के लिए जनता पार्टी की सरकार ने 1979 में 44वां संवैधानिक संशोधन किया। इस संशोधन के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रावधान किए गए-

  1. राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा मन्त्रिमण्डल की लिखित सलाह पर ही कर सकता है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा लागू संकटकाल की घोषणा को लागू होने के एक महीने के भीतर संसद् के 2/3 बहुमत द्वारा स्वीकृति मिलनी आवश्यक है। यदि संकटकाल की घोषणा 6 महीने से ज्यादा लागू रखनी है तो उसे 6 महीने बाद पुनः संसद् की स्वीकृति लेनी आवश्यक है।
  3. संसद् कभी भी साधारण बहुमत द्वारा प्रस्ताव पास करके संकटकाल को खत्म कर सकती है।
  4. संविधान की धारा 21 में शामिल जीवन व व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकारों को संकटकाल में स्थगित किया जा सकता है।
  5. संकटकाल की घोषणा न्याय संगत होगी।

प्रश्न 17.
क्या राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सकता और अगर संकटकाल में भी तानाशाह बनना चाहे तो भी नहीं बन सकता। इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है और इसमें राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया होता है। राष्ट्रपति की शक्तियों का वास्तव में प्रयोग प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति यदि मनमानी करने की कोशिश करे तो उसे संसद् महाभियोग द्वारा हटा सकती है। राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा मन्त्रिपरिषद् की लिखित सलाह से ही कर सकता है। संसद् साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को संकटकाल समाप्त करने को कह सकती है।

प्रश्न 18.
उप-राष्ट्रपति के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  3. वह राज्यसभा का सदस्य होने की योग्यता रखता हो।
  4. वह किसी सरकारी पद पर आसीन न हो।
  5. वह संसद् का सदस्य न हो।
  6. वह विधानमण्डल का सदस्य न हो।

प्रश्न 19.
भारत के उप-राष्ट्रपति के कार्य बताएं।
उत्तर-
उप-राष्ट्रपति को दो प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं-

(1) उप-राष्ट्रपति के रूप में तथा
(2) राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में।

  1. उप-राष्ट्रपति के रूप में जब राष्ट्रपति का पद उसकी अनुपस्थिति, बीमारी तथा अन्य किसी कारण से अस्थायी रूप से खाली हो जाए, तो उप-राष्ट्रपति को राष्ट्रपति पद पर काम करना पड़ता है। राष्ट्रपति पद पर काम करते समय उप-राष्ट्रपति को राष्ट्रपति जैसा वेतन, भत्ता, सुविधाएं तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं।
  2. राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति होता है तथा वह अध्यक्ष के सभी कार्य करता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचन मण्डल द्वारा किया जाता है। निर्वाचन मण्डल में संसद् के दोनों सदनों का चुनाव एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार होता है। वैसे एक मतदाता को केवल एक ही मत मिलता है। परन्तु उसके मत की गणना नहीं होती बल्कि उसका मूल्यांकन होता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रपति की कोई दो कार्यपालिका शक्तियां लिखें।
उत्तर-

  1. प्रशासकीय शक्तियां-भारत का समस्त प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है और भारत सरकार के सभी निर्णय औपचारिक रूप से उसी के नाम पर लिए जाते हैं। देश का सर्वोच्च शासक होने के नाते वह नियम तथा अधिनियम भी बनाता है।
  2. मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां-राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसके परामर्श से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। वह प्रधानमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों को अपदस्थ कर सकता है।

प्रश्न 3.
राष्ट्रपति की कोई दो विधायिनी शक्तियां लिखें।
उत्तर-

  1. राष्ट्रपति की संसद् के अधिवेशन बुलाने और सत्रावसान सम्बन्धी शक्तियां-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों का अधिवेशन बुला सकता है। अधिवेशन का समय बढ़ा सकता है तथा उसे स्थगित कर सकता है। राष्ट्रपति ही अधिवेशन का समय और स्थान निश्चित करता है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा संसद में भाषण-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों को अलग-अलग या दोनों के सम्मिलित अधिवेशन को सम्बोधित कर सकता है। नई संसद् का तथा वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के भाषण से ही आरम्भ होता है।

प्रश्न 4.
राष्ट्रपति बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 5.
क्या राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सकता और अगर संकटकाल में भी तानाशाह बनना चाहे तो भी नहीं बन सकता। इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है और इसमें राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया होता है। राष्ट्रपति की शक्तियों का वास्तव में प्रयोग प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति यदि मनमानी करने की कोशिश करे तो उसे संसद् महाभियोग द्वारा हटा सकती है।

प्रश्न 6.
भारत के वर्तमान राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री के नाम बताएं।
उत्तर-
पद का नाम — व्यक्ति का नाम
1. राष्ट्रपति – श्री रामनाथ कोविंद
2. उप-राष्ट्रपति – श्री वेंकैया नायडू
3. प्रधानमन्त्री – श्री नरेन्द्र मोदी

प्रश्न 7.
राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति का वेतन बताएं।
उत्तर-
भारत के राष्ट्रपति का मासिक वेतन पांच लाख रुपये, जबकि उप-राष्ट्रपति का मासिक वेतन चार लाख रुपये है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राष्ट्रपति का कार्यकाल कितना है ? उसे क्या दोबारा चुना जा सकता है ?
उत्तर-राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का है और उसे दोबारा चुने जाने का अधिकार है।

प्रश्न 2. राष्ट्रपति का मासिक वेतन और रिटायर होने पर कितनी पेंशन मिलती है ?
उत्तर-राष्ट्रपति को 5,00,000 रु० मासिक वेतन और रिटायर होने पर 2,50,000 रु० मासिक पेंशन मिलती है।

प्रश्न 3. राष्ट्रपति कब अध्यादेश जारी कर सकता है ?
उत्तर-जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो और संकटकालीन परिस्थितियां बाध्य करती हों, तो राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार है।

प्रश्न 4. राष्ट्रपति राज्यसभा और लोकसभा के कितने सदस्य मनोनीत कर सकता है?
उत्तर-राष्ट्रपति राज्यसभा के 12 सदस्य और लोकसभा के 2 एंग्लो इंडियन सदस्य नियुक्त कर सकता है।

प्रश्न 5. भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे ?
उत्तर-भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद थे।

प्रश्न 6. राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने हेतु कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने हेतु कम-से-कम 35 वर्ष आयु होनी चाहिए।

प्रश्न 7. भारत के राष्ट्रपति को कौन निर्वाचित करता है?
उत्तर-भारत के राष्ट्रपति को निर्वाचक मण्डल निर्वाचित करता है।

प्रश्न 8. राष्ट्रपति को किस प्रकार हटाया जा सकता है?
उत्तर-राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है।

प्रश्न 9. राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा कब कर सकता है?
उत्तर-राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा तब करता है, जब मन्त्रिमण्डल संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे।

प्रश्न 10. जुलाई, 2017 में किसे भारत का राष्ट्रपति चुना गया ?
उत्तर-जुलाई, 2017 में श्री रामनाथ कोंविद को भारत का राष्ट्रपति चुना गया।

प्रश्न 11. भारत की सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति कौन होता है?
उत्तर-भारत की सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति राष्ट्रपति होता है।

प्रश्न 12. राष्ट्रपति किसे अपना त्याग-पत्र सौंपता है?
उत्तर-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र सौंपता है।

प्रश्न 13. राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उप-राष्ट्रपति कब तक राष्ट्रपति के पद पर रह सकता है?
उत्तर-छ: महीने तक।

प्रश्न 14. किस राष्ट्रपति का चुनाव सर्वसम्मति से हुआ?
उत्तर-नीलम संजीवा रेड्डी का चुनाव सर्वसम्मति से हुआ।

प्रश्न 15. राष्ट्रपति के पद का वर्णन संविधान के किस अनुच्छेद में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 52 में।

प्रश्न 16. अगस्त, 2017 में किसे भारत का उप-राष्ट्रपति चुना गया ?
उत्तर-अगस्त, 2017 में श्री वेंकैया नायडू को भारत का उप-राष्ट्रपति चुना गया।

प्रश्न 17. उप-राष्ट्रपति का मासिक वेतन कितना है ?
उत्तर-उप-राष्ट्रपति का मासिक वेतन चार लाख रु० है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. उपराष्ट्रपति ………….. की अध्यक्षता करता है।
2. राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को ………….. की राशि जमानत के रूप में जमा करवानी होती है।
3. राष्ट्रपति अनुच्छेद ……………. के अनुसार राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा कर सकता है।
4. राष्ट्रपति अनुच्छेद ……………….. के अनुसार किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है।
उत्तर-

  1. राज्यसभा
  2. 15000
  3. 352
  4. 356.

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प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. पं० जवाहर लाल नेहरू भारत के पहले राष्ट्रपति थे।
2. भारत के तीसरे राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन थे।
3. राष्ट्रपति को शपथ प्रधानमन्त्री दिलाता है।
4. संसद द्वारा पास किए विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजे जाते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के राष्ट्रपति की वैसी ही स्थिति है जैसे कि-
(क) अमेरिका के राष्ट्रपति
(ख) चीन के प्रधानमंत्री
(ग) पाकिस्तान के राष्ट्रपति
(घ) इंग्लैंड की रानी।
उत्तर-
(घ) इंग्लैंड की रानी।

प्रश्न 2.
भारतीय राष्ट्रपति की अवधि कितनी है ?
(क) 4 वर्ष
(ख) 5 वर्ष
(ग) 6 वर्ष
(घ) 10 वर्ष।
उत्तर-
(ख) 5 वर्ष

प्रश्न 3.
भारत के वर्तमान राष्ट्रपति कौन है ?
(क) पं. जवाहर लाल नेहरू
(ख) पं० शंकर दयाल शर्मा
(ग) डॉ० राधाकृष्णन
(घ) श्री रामनाथ कोंविद।
उत्तर-
(घ) श्री रामनाथ कोंविद।

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प्रश्न 4.
भारत के राष्ट्रपति को कौन निर्वाचित करता है ?
( क) जनता
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) संसद्
(घ) निर्वाचक मंडल।
उत्तर-
(घ) निर्वाचक मंडल।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के प्रधानमन्त्री की स्थिति की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
(Describe in brief the position of the Prime Minister.)
अथवा
भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ? उसकी शक्तियों और स्थिति का वर्णन करो।
(How is Prime Minister of India appointed ? Discuss his powers and position.)
अथवा
भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति किस प्रकार होती है ? उसके मन्त्रिपरिषद् और राष्ट्रपति के साथ सम्बन्धों का वर्णन करो।
(How is the Prime Minister of India appointed ? Discuss his relations with the Council of Ministers and the President.)
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 के अन्तर्गत राष्ट्रपति की सहायता के लिए एक मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई है जिसकी अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है। भारत के राज्य प्रबन्ध में प्रधानमन्त्री को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे संविधान द्वारा राष्ट्रपति को मुख्य कार्यपालक (Chief Executive Head of the State) नियुक्त किया गया है, किन्तु व्यावहारिक रूप में मुख्य कार्यपालिका के सब कार्य प्रधानमन्त्री ही करता है।

प्रधानमन्त्री की नियुक्ति (Appointment of the Prime Minister)-संविधान में कहा गया है कि प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। देश में संसदीय प्रणाली होने के कारण राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। वह केवल उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है जो लोकसभा में बहुमत दल वाली पार्टी का नेता चुना गया हो। दिसम्बर, 1984 में लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (आई) को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और राष्ट्रपति ने कांग्रेस (आई) के नेता श्री राजीव गांधी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। परन्तु कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को अपनी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है। ये परिस्थितियां निम्नलिखित हैं-

  • जब लोकसभा में किसी भी राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो, अथवा
  • कुछ दल मिलकर संयुक्त सरकार का निर्माण (Coalition Ministry) न कर सकें, अथवा
  • लोकसभा में दो दलों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
  • जब प्रधानमन्त्री की अचानक मृत्यु हो जाए।

उपर्युक्त परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपने विवेक, बुद्धि तथा उच्च सूझ-बूझ से काम लेते हुए अपनी इच्छानुसार किसी भी दल के नेता को, जिसे वह स्थायी सरकार बनाने के योग्य समझता हो, मन्त्रिमण्डल बनाने के लिए निमन्त्रण दे सकता है। 15 जुलाई, 1979 को प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई के त्याग-पत्र देने पर किसी भी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं था। अतः राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने अपनी सूझबूझ के अनुसार विपक्ष के नेता यशवन्तराय चह्वाण को सरकार बनाने का निमन्त्रण दिया। परन्तु उसने सरकार बनाने में असमर्थता जाहिर की। उसके बाद राष्ट्रपति ने चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई को अपने समर्थकों की सूची देने को कहा और अन्त में 26 जुलाई, 1979 को राष्ट्रपति ने चौधरी चरण सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया और उसे सरकार बनाने को कहा। 31 अक्तूबर, 1984 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की हत्या होने के कुछ समय बाद राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपनी इच्छा से श्री राजीव गांधी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। 1 अप्रैल-मई, 1996 के लोकसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ।

राष्ट्रपति ने लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 मई, 1996 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि लोकसभा में उन्हें बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं था। 1 जून, 1996 को राष्ट्रपति ने संयुक्त मोर्चा के नेता एच० डी० देवेगौड़ा को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया, क्योंकि कांग्रेस ने देवेगौड़ा को समर्थन देने का वायदा किया था। प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा ने 12 जून, 1996 को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त किया। मार्च, 1998, में 12वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी अथवा चुनावी गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राष्ट्रपति ने लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 मार्च, 1998 को लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त किया। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में 24 दलों वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन को बहुमत प्राप्त हुआ।

अतः राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने इस गठबन्धन के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अतः राष्ट्रपति डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने कांग्रेस के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के नेता डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोक सभा के चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रधानमन्त्री की योग्यताएं (Qualifications of the Prime Minister)-प्रधानमन्त्री की योग्यताओं का वर्णन संविधान में नहीं किया गया है, क्योंकि प्रधानमन्त्री के लिए संसद् का सदस्य होना आवश्यक है। इसलिए संसद् सदस्यों की योग्यताएं तथा अयोग्यताएं उस पर लागू होती हैं। इसके अतिरिक्त मन्त्रिमण्डलीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त होना चाहिए अर्थात् उसे बहुमत पार्टी का नेता होना चाहिए। व्यावहारिक रूप में उसमें व्यक्तिगत गुणों का होना आवश्यक है। जिस प्रकार ब्रिटेन के वाल्डविन के व्यक्तित्व में पाइप (Pipe) तथा चर्चिल के व्यक्तित्व में सिगार (Cigar) ने निखार ला दिया था, उसी प्रकार भारत में श्री नेहरू की प्रतिभा में गुलाब का फूल, श्री लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व में उनकी सादगी, श्रीमती इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता में उनका मनमोहक व्यक्तित्व और राजीव गांधी के व्यक्तित्व में उनका भोलापन और अच्छा आचरण चार चांद लगा देता था।

अवधि (Term)-साधारण रूप में प्रधानमन्त्री के पद की अवधि राष्ट्रपति की कृपादृष्टि पर आधारित है तथा इसका कार्यकाल 5 वर्ष समझा जाता है, परन्तु वास्तव में यह बात नहीं है। इसकी अवधि लोकसभा के बहुमत के समर्थन पर निर्भर करती है। जब प्रधानमन्त्री के पक्ष में लोकसभा का बहुमत नहीं रहता तथा उसके विरुद्ध अविश्वास का मत स्वीकार हो जाता है, तब प्रधानमन्त्री को त्याग-पत्र देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री का त्याग-पत्र सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र समझा जाता है। 28 मई, 1996 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि वे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं कर सके। वे केवल 13 दिन तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे। प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने 17 अप्रैल, 1999 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि वे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त न कर सके।

वेतन (Salary)-प्रधानमन्त्री को 1987 के अधिनियम के अनुसार वही वेतन और भत्ते मिलते हैं जो संसद् के सदस्य को मिलते हैं।
प्रधानमन्त्री के कार्य तथा शक्तियां (Powers and Functions of the Prime Minister)—प्रधानमन्त्री की शक्तियां एवं कार्य निम्नलिखित हैं-

1. मन्त्रिमण्डल का नेता (Leader of the Cabinet)-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का नेता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने वाला और नष्ट करने वाला प्रधानमन्त्री ही है। वास्तव में मन्त्रिमण्डल का प्रधानमन्त्री के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। यही कारण है कि उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” (“Key-stone of the Cabinet arch.’) कहा गया है। प्रधानमन्त्री को मन्त्रिमण्डल से सम्बन्धित निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं :-

(क) प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है (Formation of the Council of Ministers)राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रिपरिषद् के अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों के नाम राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत करता है तथा उसकी स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात् वे मन्त्री बन जाते हैं। क्योंकि राष्ट्रपति की स्वीकृति एक औपचारिक कार्यवाही है, इसलिए मन्त्रियों की नियुक्ति की वास्तविक शक्ति प्रधानमन्त्री के पास ही है। 91वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए। सितम्बर, 2017 में मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 थी।

(ख) विभागों का विभाजन (Allocation of Portfolios)-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है तथा इसमें परिवर्तन भी कर सकता है। सितम्बर, 2017 में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी मंत्रिपरिषद् का विस्तार एवं पुनर्गठन किया, इससे मंत्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 हो गई। इसमें 27 कैबिनेट मंत्री 37 राज्यमंत्री तथा 11 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री शामिल थे।

(ग) प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति (Chairman of the Cabinet)-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। वह कैबिनेट की बैठकों में सभापतित्व करता है। वह कार्यसूची तैयार करता है। बैठकों में होने वाले वाद-विवाद पर नियन्त्रण रखता है। मन्त्रिमण्डल के अधिकतर निर्णय वास्तव में प्रधानमन्त्री के ही निर्णय होते हैं।

(घ) मन्त्रियों की पदच्युति (Removal of the Ministers)-संविधान के अनुसार मन्त्री राष्ट्रपति की प्रसन्नता तक अपने पद पर रहते हैं, परन्तु वास्तव में मन्त्री तब तक अपने पद पर रह सकते हैं जब तक प्रधानमन्त्री चाहे । उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी व्यक्ति मन्त्रिपरिषद् में नहीं रह सकता। यदि कोई मन्त्री प्रधानमन्त्री के कहने के अनुसार त्यागपत्र न दे तो वह राष्ट्रपति को कहकर उसे पदच्युत करवा सकता है और दोबारा मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय अपने विरोधी व्यक्तियों को मन्त्रिमण्डल से बाहर रख सकता है।

1 अगस्त, 1990 को प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा उप प्रधानमन्त्री देवी लाल को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की सलाह से हटा दिया गया। जुलाई, 1992 को वाणिज्य मन्त्री पी. चिदम्बरम ने प्रतिभूति घोटाले के आरोप में दोषी ठहराए जाने के कारण अपना त्याग-पत्र प्रधानमन्त्री को दे दिया। जनवरी-फरवरी, 1996 में 6 केन्द्रीय मन्त्रियों ने हवाला कांड में शामिल होने के कारण त्यागपत्र दे दिए। 20 अप्रैल, 1998 को प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने त्याग-पत्र देने से इन्कार करने पर संचार मन्त्री बूटा सिंह को बर्खास्त कर दिया। इस प्रकार प्रधानमन्त्री को मन्त्रियों को हटाने का पूरा अधिकार प्राप्त है।

2. प्रधानमन्त्री का समन्वयकारी रूप (Prime Minister as a Co-ordinator)—प्रधानमन्त्री सरकार के भिन्न-भिन्न विभागों तथा उनके कार्यों में ताल-मेल रखता है। वह मन्त्रिमण्डल में एकता तथा सामूहिक उत्तरदायित्व स्थापित करता है। विभिन्न विभागों में जब मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं तब प्रधानमन्त्री ही उनको हल करता है।

3. योग्य सरकार के लिए उत्तरदायी (Responsible for able Government)-प्रधानमन्त्री सरकार की योग्यता के लिए उत्तरदायी है। उसको सदा यह ध्यान रखना पड़ता है कि उसकी सरकार तथा पार्टी की देश में साख बनी रहे। इस उत्तरदायित्व को निभाने हेतु वह अपने मन्त्रिमण्डल में समय-समय पर परिवर्तन भी कर सकता है। नवीन मन्त्रियों को नियुक्त कर सकता है तथा यदि ऐसा अनुभव करे कि किसी विशेष मन्त्री का मन्त्रिमण्डल में होना सरकार के हित में अथवा मान में नहीं है तो वह ऐसे मन्त्री को पद से हटा भी सकता है।

4. राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार (Principle Adviser of the President)-प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार है। राष्ट्रपति प्रशासन के प्रत्येक मामले पर प्रधानमन्त्री की सलाह लेता है। राष्ट्रपति को प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार ही शासन चलाना पड़ता है। राष्ट्रपति सीधा मन्त्रियों से बात न करके प्रधानमन्त्री के माध्यम से ही मन्त्रिमण्डल की सलाह लेता है।

5. राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी (Link between the President and the Cabinet)प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल के मध्य एक कड़ी का कार्य करता है। वह राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल के निर्णयों के विषय में सूचित करता है। मन्त्री, प्रधानमन्त्री की पूर्व स्वीकृति में राष्ट्रपति से मिल सकते हैं, परन्तु औपचारिक रूप में प्रधानमन्त्री ही राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल के सभी निर्णयों से सूचित करता है।

6. सरकार का मुखिया (Head of the Govt.) सरकार का मुखिया होने के नाते प्रधानमन्त्री राज्य प्रबन्ध चलाता है। गृह तथा विदेश नीति का निर्माण करता है। वह समस्त महान् नीतियों की मन्त्रिमण्डल की ओर से घोषणा भी करता है। बजट भी उसकी देख-रेख में तैयार होता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सहमति के बिना न कोई नियुक्ति करता है तथा न ही कोई उपाधि देता है।

7. सरकार का प्रमुख प्रवक्ता (Chief Spokesman of the Government)-प्रधानमन्त्री ही सरकार का प्रमुख प्रवक्ता है। संसद् तथा जनता के सामने मन्त्रिमण्डल की नीति और निर्णयों की घोषणा प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती है। वह सभी प्रशासकीय विभागों की जानकारी रखता है। जब कभी कोई मन्त्री संकट में हो तो उसकी सहायता करके मन्त्रिमण्डल-रूपी नौका को डूबने से बचाने का काम प्रधानमन्त्री ही करता है।

8. संसद् का नेता (Leader of the Parliament)—प्रधानमन्त्री को संसद् का नेता माना जाता है। सरकार की नीतियों की सभी महत्त्वपूर्ण घोषणाएं प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती हैं। जब संसद् के सामने कोई समस्या आ खड़ी होती है तब वह प्रधानमन्त्री की ओर पथ-प्रदर्शन की आशा से देखती है और उसकी सलाह के अनुसार ही निर्णय करती है। सदन में अनुशासन बनाए रखने के लिए वह स्पीकर की सहायता करता है। प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही राष्ट्रपति संसद् का अधिवेशन बुलाता है। संसद् का कार्यक्रम भी प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार निश्चित किया जाता है।

9. लोकसभा को भंग करने का अधिकार (Right to get Lok Sabha dissolved)—प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर लोकसभा को भंग करवा सकता है। 13 मार्च, 1991 को प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर की सलाह पर राष्ट्रपति आर० वेंकटरमण ने लोकसभा को भंग किया। 26 अप्रैल, 1999 को कैबिनेट की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने 12वीं लोकसभा को भंग कर दिया।

10. राष्ट्र का नेता (Leader of the Nation)-प्रधानमन्त्री राष्ट्र का नेता है। आम चुनाव प्रधानमन्त्री का चुनाव माना जाता है। जब देश पर कोई संकट आता है तब सारा देश प्रधानमन्त्री की ओर देखता है और जनता बड़े ध्यान से उसके विचारों को सुनती है। प्रधानमन्त्री जब भी किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में बोलता है तो वह समस्त राष्ट्र की तरफ से बोल रहा होता है।

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11. दल का नेता (Leader of the Party)-प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी का नेता है। पार्टी को संगठित करना और पार्टी की नीतियों को निश्चित करने में प्रधानमन्त्री का बड़ा हाथ होता है। आम चुनाव के समय पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव करना प्रधानमन्त्री का ही काम है। अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को विजयी बनाने के लिए वह ज़ोरदार भाषण देता है।

12. नियुक्तियां (Appointments)-शासन के सभी उच्च अधिकारियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सिफ़ारिश पर करता है। राज्य के गवर्नर, विदेशों में भेजे जाने वाले राजदूत, संघीय लोक सेवा आयोग के सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश तथा विभिन्न आयोगों तथा शिष्टमण्डलों के सदस्य आदि प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार ही नियुक्त किए जाते हैं।

13. गृह तथा विदेश नीति का निर्माण (Formation of the Internal and Foreign Policies)-गृह तथा विदेश नीति के निर्माण में प्रधानमन्त्री का ही हाथ है। भारत की विदेश नीति क्या होगी, इसका निर्णय प्रधानमन्त्री ही करता है। दूसरे देशों के साथ भारत के सम्बन्ध कैसे होंगे, इसका निर्णय भी प्रधानमन्त्री ही करता है। युद्ध और शान्ति की घोषणा का अधिकार भी वास्तव में प्रधानमन्त्री के पास ही है।

14. प्रधानमन्त्री राष्ट्रमण्डल के देशों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करता है (Establishes good relations with the Commonwealth Countries)-भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य है जिस कारण राष्ट्रमण्डल के देशों के साथ मैत्री के सम्बन्ध स्थापित करना प्रधानमन्त्री का कार्य है। प्रधानमन्त्री राष्ट्रमण्डल की बैठकों में भाग लेता है।

15. प्रधानमन्त्री की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers of the Prime Minister)—संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को विभिन्न संकटकालीन शक्तियां प्रदान की गई हैं, परन्तु इन शक्तियों का वास्तव में प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है क्योंकि राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग स्वेच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति को इन शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री की सलाह से करना होता है। 44वें संशोधन के द्वारा प्रधानमन्त्री की संकटकालीन शक्तियों पर एक प्रतिबन्ध लगाया गया है। इस संशोधन के अन्तर्गत राष्ट्रपति संकट की घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल राष्ट्रपति को संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे।

प्रधानमन्त्री की स्थिति (Position of the Prime Minister)-

प्रधानमन्त्री की ऊपरलिखित शक्तियों तथा कार्यों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे संविधान में सबसे अधिक शक्तिशाली अधिकारी है। डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) के शब्दों में, “यदि हमारे संविधान में किसी अधिकारी की तुलना अमेरिकन राष्ट्रपति से की जा सकती है तो वह हमारे देश का प्रधानमन्त्री ही है।” संविधान द्वारा कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं परन्तु इसका प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है। वह देश की वास्तविक मुख्य कार्यपालिका है। एक प्रसिद्ध लेखक के शब्दों में, “प्रधानमन्त्री की अन्य मन्त्रियों में वह स्थिति है जो सितारों में चन्द्रमा (Shining moon among the lesser stars) की होती है। वह एक धुरी है जिसके गिर्द राज्य प्रबन्ध की मशीनरी घूमती है अथवा हम उसे राज्यरूपी जहाज़ का कप्तान (Captain of the ship of the State) भी कहते हैं।”

प्रधानमन्त्री तानाशाह नहीं बन सकता (Prime Minister cannot become a dictator)-प्रधानमन्त्री की असाधारण शक्तियों को देखते हुए कई लोगों का विचार है कि वह इन शक्तियों के कारण तानाशाह बन सकता है। प्रो० के० टी० शाह (Prof. K.T. Shah) ने उसकी इन शक्तियों को दृष्टि में रखते हुए संविधान सभा में बोलते हुए ऐसा कहा था, “प्रधानमन्त्री की शक्तियों को देखकर मुझे ऐसा डर लगता है कि यदि वह चाहे तो किसी भी समय देश का तानाशाह बन सकता है।”

परन्तु दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी विचार है कि प्रधानमन्त्री, इन शक्तियों के होते हुए भी तानाशाह नहीं बन सकता है। उनके अनुसार प्रधानमन्त्री को मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। कई बार उसे दल के ऐसे सदस्यों को भी मन्त्रिमण्डल में लेना पड़ता है जिनको वह न चाहता हो तथा उनकी इच्छानुसार उनको विभाग भी देने पड़ते हैं। इनके अतिरिक्त मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय उसे देश के भिन्न-भिन्न भागों तथा श्रेणियों को प्रतिनिधित्व देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री की शक्तियों पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं-

  • संसद का नियन्त्रण-प्रधानमन्त्री संसद् के प्रति उत्तरदायी है और संसद् प्रधानमन्त्री को निरंकुश बनने से रोकती है। कई बार उसको संसद् की इच्छानुसार अपनी नीति में परिवर्तन भी करना पड़ता है।
  • जनमत–प्रधानमन्त्री जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकता। प्रधानमन्त्री को जनमत को ध्यान में रखकर शासन चलाना होता है। यदि कोई प्रधानमन्त्री जनमत की परवाह नहीं करता तो जनता ऐसे प्रधानमन्त्री को अगले चुनाव में हटा देती है।
  • विरोधी दल-प्रधानमन्त्री कोई निरंकुश सीज़र (Ceasar) नहीं बन सकता। उनके शब्द कोई अन्तिम निर्णय नहीं। किसी भी समय उनको चुनौती दी जा सकती है। प्रधानमन्त्री को विरोधी दलों के होते हुए काम करना पड़ता है। विरोधी दल प्रधानमन्त्री की आलोचना करके उसे निरंकुश नहीं बनने देते।

अन्त में, हम कह सकते हैं कि प्रधानमन्त्री का पद उसके व्यक्तित्व तथा देश के वातावरण पर और उसकी अपनी पार्टी के समर्थन पर निर्भर करता है। स्वर्गीय प्रधानमन्त्री नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी शक्तियों का प्रयोग लोकहित को मुख्य रखकर किया। 26 जून, 1975 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति ने आन्तरिक आपात्कालीन स्थिति की घोषणा की। संकटकाल में इन्दिरा गांधी की स्थिति हिटलर तथा नेपोलियन जैसे तानाशाहों से कम नहीं थी। परन्तु मार्च, 1977 में लोकसभा के चुनाव में इन्दिरा गांधी की बुरी तरह हार हुई। जनता ने यह प्रमाणित कर दिया कि प्रधानमन्त्री, तानाशाह नहीं बन सकता और उसको अपनी शक्तियों का प्रयोग देश के हित में करना होगा।

मिली-जुली सरकार का प्रधानमन्त्री एक दल की सरकार के प्रधानमन्त्री की अपेक्षा कम शक्तिशाली होता है क्योंकि प्रधानमन्त्री को सहयोगी दलों के समर्थन का पूरा विश्वास नहीं होता। संयुक्त मोर्चा की सरकार के प्रधानमन्त्री एच० डी० देवगौड़ा श्रीमती इन्दिरा गांधी के मुकाबले में अत्यधिक कमज़ोर प्रधानमन्त्री थे। भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी दलों के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्थिति सुदृढ़ व शक्तिशाली नहीं थी क्योंकि आए दिन कोई न कोई सहयोगी दल सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देता रहता था। अक्तूबर, 1999 में 24 दलों के राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बनी। परन्तु इस गठबन्धन के नेता अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर अपने सहयोगी दलों की कृपा पर निर्भर हैं।
मौखिक रूप से देना पड़ता है। कई बार मन्त्री के द्वारा अपने विभाग के सम्बन्ध में लिए गए निर्णय गलत सिद्ध होते हैं।

प्रश्न 2.
मन्त्रिपरिषद् के निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन करो। उनके कार्यों का भी उल्लेख करो।
(Describe the procedure for the formation of the Council of Minister. Also explain its functions.)
उत्तर-
संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु वह उनका प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सहायता से करता है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल द्वारा दी गई सलाह पर मन्त्रिमण्डल को पुनः विचार करने के लिए कह सकता है परन्तु मन्त्रिमण्डल द्वारा पुनः दी गई सलाह को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है।

मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of the Council of Ministers)—संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। परन्तु राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। जिस दल को लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अतः राष्ट्रपति ने कांग्रेस के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के नेता डॉ० मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया।

अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है। मन्त्री बनने के लिए आवश्यक है कि वह संसद् के दोनों सदनों में से किसी का भी सदस्य हो। प्रधानमन्त्री किसी ऐसे व्यक्ति को भी मन्त्री नियुक्त करवा सकता है जो संसद् का सदस्य न हो, परन्तु नियुक्ति के छ: महीने के अन्दर-अन्दर उस मन्त्री को संसद् का सदस्य अवश्य बनना पड़ता है।

मन्त्रियों की संख्या (Number of Ministers)-91वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए। सितम्बर, 2017 में मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 थी।

अवधि (Term of Office)-संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत ही यह कहा गया है कि मन्त्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर रहेंगे। सैद्धान्तिक रूप में मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति की इच्छा पर है परन्तु व्यवहार में मन्त्रिपरिषद् तब तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त रहे। यदि लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास कर दे तो मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। नवम्बर, 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह लोकसभा में विश्वास मत न प्राप्त कर सके जिस कारण मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ा। राष्ट्रपति नारायणन ने प्रधानमन्त्री वाजपेयी की सलाह पर संचार मन्त्री बूटा सिंह को 20 अप्रैल, 1998 को बर्खास्त किया। राष्ट्रपति किसी मन्त्री को प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही हटा सकता है न कि अपनी इच्छा से। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त न कर सके जिस कारण उन्हें और उनके मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ा।

मन्त्रिपरिषद् की बैठकें (Meetings of the Cabinet)–मन्त्रिमण्डल की बैठक सप्ताह में एक बार या आवश्यकता पड़ने पर एक-से अधिक बार भी हो सकती है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें प्रधानमन्त्री द्वारा बुलाई जाती हैं और ये बैठकें प्रधानमन्त्री के कार्यालय या निवास स्थान पर होती हैं। इन बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है। मन्त्रिमण्डल के सभी निर्णय बहुमत से किए जाते हैं।

मन्त्रिपरिषद् के कार्य (Functions of Council Ministers)—मन्त्रिपरिषद् वैसे तो एक सलाहकार परिषद् बताई गई है, परन्तु वास्तव में वह देश का वास्तविक शासक है। राष्ट्रपति की समस्त कार्यपालिका शक्तियां उसके द्वारा ही प्रयोग की जाती हैं। मन्त्रिपरिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण (Determination of National Policy)-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है। राष्ट्रीय नीतियों का निर्माण करते समय मन्त्रिमण्डल अपने दल के कार्यक्रम और सिद्धान्त को ध्यान में रखता है। मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय नीति का भी निर्माण करता है।

2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन (Conduct of Foreign Relations)-मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का भी निर्माण करता है और विदेश सम्बन्धों का संचालन करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है। मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्धों के बारे में निर्णय करता है, दूसरे देशों में राजदूतों को भेजता है। राजदूतों की नियुक्ति राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है। दूसरे देशों के साथ सन्धि-समझौते करना, व्यापारिक व आर्थिक समझौते करना, युद्ध की घोषणा और शान्ति की स्थापना इत्यादि प्रश्नों पर मन्त्रिमण्डल ही निर्णय लेता है।

3. प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over the Administration)—प्रशासन का प्रत्येक विभाग किसी-नकिसी मन्त्री के अधीन होता है और सम्बन्धित मन्त्रिमण्डल के द्वारा निर्धारित तथा संसद् द्वारा स्वीकृति के अनुसार अपने विभाग को सुचारु रूप से चलाने का प्रयत्न करता है। मन्त्रिपरिषद् प्रशासन के विभिन्न भागों में सहयोग तथा तालमेल उत्पन्न करने का प्रयत्न भी करता है ताकि विभिन्न विभाग एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य कर सकें तथा एक-दूसरे के विरोधी न बनें। समस्त भारत के कानूनों को अच्छे प्रकार से लागू करना, शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना तथा जनता के सर्वोत्तम हित के लिए शासन चलाना मन्त्रिमण्डल का कर्त्तव्य है।

4. विधायिनी कार्य (Legislative Functions)-सैद्धान्तिक रूप में कानून बनाना संसद् का कार्य है परन्तु व्यावहारिक रूप में यदि कहा जाए कि मन्त्रिमण्डल संसद् की स्वीकृति से कानून बनाता है तो गलत नहीं है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं और वे संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं। संसद् में अधिकतर बिल मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पेश किए जाते हैं। क्योंकि बहुमत मन्त्रिपरिषद् के साथ होता है, इसलिए मन्त्रिपरिषद् का पेश किया हुआ बिल आसानी से पास हो जाता है। मन्त्रिपरिषद् की इच्छा के विरुद्ध कोई भी बिल संसद् में पास नहीं हो सकता। मन्त्रिपरिषद् ही इस बात की सलाह राष्ट्रपति को देती है कि संसद् का अधिवेशन कब बुलाया जाए और उसे कब तक स्थापित किया जाए। संसद् का अधिकतम समय मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पेश किए गए बिलों पर विचार करने में खर्च होता है। वास्तव में संसद् पर मन्त्रिपरिषद् का नियन्त्रण है और वह अपनी इच्छा के अनुसार जो भी कानून चाहे पास करवा सकती है।

5. प्रदत्त-कानून निर्माण (Delegated Legislation)–संसद् प्रायः कानून का केवल ढांचा निश्चित करती है और उसमें विस्तार करने का अधिकार मन्त्रिमण्डल को सौंप देती है। मन्त्रिमण्डल के उप-नियम बनाने के अधिकार को प्रदत्त-व्यवस्थापन कहा जाता है। मन्त्रिमण्डल के इस अधिकार से मन्त्रिमण्डल का शासन पर और नियन्त्रण बढ़ जाता है।

6. वित्तीय कार्य (Financial Functions)-मन्त्रिमण्डल का वित्त सम्बन्धी कार्य भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। मन्त्रिमण्डल ही राज्य के समस्त व्यय के लिए उत्तरदायी है और उस समस्त व्यय की पूर्ति के लिए वित्त जुटाना उसी का काम है। वार्षिक बजट तैयार करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है और वित्त मन्त्री बजट को लोकसभा में पेश करता है। मन्त्रिमण्डल ही इस बात का निर्णय करता है कि कौन-सा नया कर लगाना है, या पुराने करों में बढ़ोत्तरी करनी है या पुराने करों को समाप्त करना है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

7. नियुक्तियां (Appointments)—महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं, परन्तु राष्ट्रपति अपनी इच्छा से नियुक्तियां न करके मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार करता है । राजदूतों, राज्य के राज्यपाल, अटॉरनी जनरल, संघ लोक सेवा आयोग, चुनाव आयोग तथा अन्य महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार करता है।

8. मन्त्रिमण्डल का समन्यवकारी स्वरूप (The Cabinet as a Co-ordinator)-मन्त्रिमण्डल का एक महत्त्वपूर्ण कार्य मन्त्रियों के विभिन्न विभागों में समन्वय पैदा करना है। सारा शासन कई विभागों में बांटा जाता है। एक विभाग का दूसरे विभाग पर प्रभाव पड़ता है और कई बार एक महत्त्वपूर्ण समस्या का कई विभागों से सम्बन्ध होता है। इसलिए प्रत्येक विभाग का दूसरे विभाग के साथ समन्वय होना चाहिए और यह कार्य मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है। विदेश नीति पर व्यापार नीति का प्रभाव पड़ता है। इस तरह शिक्षा सम्बन्धी नीति का दूसरे विभागों पर विशेषकर वित्त विभाग पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि एक विभाग का दूसरे विभाग के साथ समन्वय हो और यह महत्त्वपूर्ण कार्य मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है।

9. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers) 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल राष्ट्रपति को संकटकाल घोषित करने की लिखित सलाह दे।

10. जांच-पड़ताल की शक्ति (Power of Investigation) मन्त्रिमण्डल भूतपूर्व मन्त्रियों, मुख्यमन्त्रियों तथा अन्य अधिकारियों के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की जांच करने के लिए आयोग नियुक्त कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-मन्त्रिमण्डल की शक्तियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है मन्त्रिमण्डल देश का वास्तविक शासक है। राष्ट्रपति नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय नीति का निर्माण करना, धन पर नियन्त्रण, कानून बनाना, महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां करना इत्यादि सभी कार्य मन्त्रिमण्डल के द्वारा किए जाते हैं। श्री एम० वी० पायली (M.V. Pylee) का यह कहना सर्वथा उचित है, “संघीय मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीतियों का निर्माता, नियुक्तियां करने वाले सर्वोच्च अधिकारी, विभागों के आपसी झगड़ों का निर्णायक तथा सरकार के विभिन्न विभागों में तालमेल पैदा करने वाला सर्वोच्च अंग है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रधानमन्त्री कैसे नियुक्त होता है ?
उत्तर–
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, परन्तु ऐसा करने में वह अपनी इच्छा से काम नहीं ले सकता। प्रधानमन्त्री के पद पर उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। आम चुनाव के बाद जिस राजनीतिक दल को सदस्यों का बहुमत प्राप्त होगा, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है। यदि किसी भी राजनीतिक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो तो भी राष्ट्रपति को इस बारे में पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं मिलती बल्कि कठिनाई का सामना करना पड़ता है। ऐसी दशा में उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा के बहुमत सदस्यों का सहयोग प्राप्त कर सकता हो।

प्रश्न 2.
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। परन्तु राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। जिस दल को लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है।
अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है। मन्त्री बनने के लिए आवश्यक है कि वह संसद् के दोनों सदनों में से किसी का भी सदस्य हो। प्रधानमन्त्री किसी ऐसे व्यक्ति को भी मन्त्री नियुक्त करवा सकता है जो संसद् का सदस्य न हो, परन्तु नियुक्ति के छः महीने के अन्दर-अन्दर उस मन्त्री को संसद् का सदस्य अवश्य बनना पड़ता है।।

प्रश्न 3.
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला है। व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का नेता है। प्रधानमन्त्री ही मन्त्रिमण्डल को बनाता एवं नष्ट करता है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिमण्डल का कोई अस्तित्व नहीं है। अग्रलिखित कारणों से उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” कहा गया है(1) राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। (2) प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं, अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। (3) प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। (4) प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति मन्त्रियों को अपदस्थ कर सकता है।

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री की किन्हीं चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की निम्नलिखित मुख्य शक्तियां हैं-

  1. प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों की एक सूची तैयार कर स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. विभागों का विभाजन-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है और जब चाहे इसमें परिवर्तन कर सकता है।
  3. प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति-प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। वह कैबिनेट की बैठकों में सभापतित्व करता है। वह कार्य सूची तैयार करता है। बैठकों में होने वाले वाद-विवाद पर नियन्त्रण रखता है। मन्त्रिमण्डल के अधिकतर निर्णय वास्तव में प्रधानमन्त्री के निर्णय होते हैं।
  4. राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार–प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार है।

प्रश्न 5.
क्या प्रधानमन्त्री तानाशाह बन सकता है ?
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की असाधारण शक्तियों को देखते हुए कई लोगों का विचार है कि वह इन शक्तियों के कारण तानाशाह बन सकता है। परन्तु विद्वानों का विचार है कि प्रधानमन्त्री इन शक्तियों के होते हुए भी तानाशाह नहीं बन सकता है क्योंकि प्रधानमन्त्री की शक्तियों पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं-

  • प्रधानमन्त्री संसद् के प्रति उत्तरदायी है और संसद् प्रधानमन्त्री को निरंकुश बनने से रोकती है।
  • प्रधानमन्त्री जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकता। प्रधानमन्त्री को जनमत को ध्यान में रखकर शासन चलाना होता है।
  • प्रधानमन्त्री को सदैव विरोधी दल का ध्यान रखना पड़ता है। विरोधी दल प्रधानमन्त्री की आलोचना करके उसे निरंकुश नहीं बनने देते हैं।

प्रश्न 6.
प्रधानमन्त्री की स्थिति की चर्चा करो।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की शक्तियों तथा कार्यों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे संविधान में सबसे अधिक शक्तिशाली अधिकारी है। डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) के शब्दों में, “यदि हमारे संविधान में किसी अधिकार की तुलना अमेरिकन राष्ट्रपति से की जा सकती है तो वह हमारे देश का प्रधानमन्त्री ही है, राष्ट्रपति नहीं।” संविधान द्वारा कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु इनका प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है, वह देश की वास्तविक मुख्य कार्यपालिका है। एक प्रसिद्ध लेखक के शब्दों में, प्रधानमन्त्री की अन्य मन्त्रियों में वह स्थिति है जो सितारों में चन्द्रमा (Shining moon among the lesser stars) की होती है। वह एक धूरी है जिसके गिर्द राज्य की मशीनरी घूमती है अथवा हम उसे राज्यरूपी जहाज़ का कप्तान (Captain of the ship of the State) भी कहते हैं।

प्रश्न 7.
सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
भारतीय संविधान की धारा 75 (3) में स्पष्ट किया गया है कि मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। सामूहिक उत्तरदायित्व की बात हमने ब्रिटिश संविधान से ली है। भारतीय मन्त्रिमण्डल उस समय तक अपने पद पर रह सकता है जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो। यदि लोकसभा का बहुमत मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध हो जाए तो उसे अपना त्याग-पत्र देना पड़ेगा। मन्त्रिमण्डल एक इकाई की तरह काम करता है और यदि लोकसभा किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो सब मन्त्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ता है। यह उस समय होता है जबकि किसी मन्त्री ने कोई कार्यवाही मन्त्रिमण्डल की स्वीकृति से की हो। यदि उसने व्यक्तिगत रूप में निर्णय लिया हो तो उस समय केवल उसी मन्त्री को ही त्याग-पत्र देना पड़ता है।

प्रश्न 8.
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रियों तथा विधानपालिका में गहरा सम्बन्ध होता है। इस व्यवस्था में प्रत्येक मन्त्री अपने कार्यों और निर्णयों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होता है। प्रत्येक मन्त्री किसी-न-किसी प्रशासकीय विभाग का अध्यक्ष होता है। उस विभाग के कुशल संचालन का उत्तरदायित्व उस मन्त्री का होता है। अतः प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग को कुशलतापूर्वक चलाने के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होता है। विधानपालिका के सदस्य किसी भी मन्त्री से उसके विभाग के कार्यों के बारे में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। मन्त्री को उसका उत्तर लिखित अथवा मौखिक रूप से देना पड़ता है। कई बार मन्त्री के द्वारा अपने विभाग के सम्बन्ध में लिए गए निर्णय गलत सिद्ध होते हैं और इस कारण विधानपालिका में उसकी आलोचना की जाती है। यदि विधानपालिका में उस मन्त्री के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव पास कर दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में केवल उस मन्त्री को ही त्याग-पत्र देना पड़ता है सारे मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देने की आवश्यकता नहीं होती। भारत में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं; जैसे- श्री लाल बहादुर शास्त्री, श्री टी० टी० कृष्णमाचारी और श्री वी० के० मेनन ने अपनी गलतियों के कारण केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र दे दिए थे।

प्रश्न 9.
मन्त्रिपरिषद् के किन्हीं चार कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है।
  2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन–मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का निर्माण भी करता है और विदेशी सम्बन्धों का संचालन करता है । मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करता है तथा दूसरे देशों में राजदूत भेजता है।
  3. प्रशासन पर नियन्त्रण-प्रशासन का प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है और सम्बन्धित मन्त्री अपने विभाग को सुचारू ढंग से चलाने का प्रयत्न करता है। समस्त भारत में कानूनों को लागू करता, शान्ति व्यवस्था बनाए रखना और शासन को सुचारू रूप से चलाना मन्त्रिमण्डल का ही कार्य है।
  4. विधायिनी कार्य-मन्त्रिमण्डल द्वारा बहुत से विधायिनी कार्य किए जाते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रश्न 10.
भारतीय मन्त्रिमण्डल की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
भारतीय मन्त्रिमण्डल में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं

  1. नाममात्र का अध्यक्ष- भारतीय संविधान के अन्तर्गत संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई है। राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है। देश का समस्त शासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है, परन्तु वास्तव में शासन मन्त्रिमण्डल द्वारा चलाया जाता है।
  2. कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठता-संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। भारत में भी संसदीय शासन प्रणाली को ही अपनाया गया है। अतः मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं।
  3. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-भारतीय मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्य प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में करता है, राष्ट्रपति के नेतृत्व में नहीं। प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का ह्रदय एवं आत्मा है। वह इसकी आधारशिला है।
  4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व-मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 11.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में कितने प्रकार के मन्त्री होते हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर-
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में तीन प्रकार के मन्त्री होते हैं-कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री तथा उपमन्त्री।

  • कैबिनेट मन्त्री-मन्त्रिपरिषद् के सबसे महत्त्वपूर्ण मन्त्रियों को कैबिनेट मन्त्री कहा जाता है और कैबिनेट मन्त्री किसी महत्त्वपूर्ण विभाग के अध्यक्ष होते हैं।
  • राज्य मन्त्री-राज्य मन्त्री कैबिनेट मन्त्री के सहायक के रूप में कार्य करते हैं। ये कैबिनेट के सदस्य नहीं होते तथा न ही ये कैबिनेट की बैठक में भाग लेते हैं।
  • उपमन्त्री-ये किसी विभाग के स्वतन्त्र रूप से अध्यक्ष नहीं होते। इसका कार्य केवल किसी दूसरे मन्त्री के कार्य में सहायता देना होता है।

प्रश्न 12.
मन्त्रिमण्डल और मन्त्रिपरिषद् में अन्तर बताएं।
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् एक विशाल संस्था है। हमारे संविधान में भी मन्त्रिपरिषद् शब्द का ही प्रयोग किया जाता है, मन्त्रिमण्डल का नहीं। मन्त्रिमण्डल मन्त्रिपरिषद् का हिस्सा होता है। मन्त्रिपरिषद् में लगभग 80 सदस्य होते हैं जबकि मन्त्रिमण्डल में लगभग 30 मन्त्री होते हैं। मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य मन्त्रिमण्डल के सदस्य नहीं होते हैं । मन्त्रिपरिषद् में सभी मन्त्री होते हैं जबकि मन्त्रिमण्डल में केवल महत्त्वपूर्ण मन्त्री ही होते हैं। मन्त्रिपरिषद् की बैठकें बहुत कम होती हैं जबकि मन्त्रिमण्डल की बैठकें सप्ताह में प्रायः एक बार अवश्य होती हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रधानमन्त्री कैसे नियुक्त होता है ?
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, परन्तु ऐसा करने में वह अपनी इच्छा से काम नहीं ले सकता। प्रधानमन्त्री के पद पर उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। आम चुनाव के बाद जिस राजनीतिक दल को सदस्यों का बहुमत प्राप्त होगा, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है।

प्रश्न 2.
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है।

प्रश्न 3.
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला है। व्याख्या करें।
उत्तर–
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का नेता है। प्रधानमन्त्री ही मन्त्रिमण्डल को बनाता एवं नष्ट करता है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिमण्डल का कोई अस्तित्व नहीं है। निम्नलिखित कारणों से उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” कहा गया है-

  • राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  • प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं, अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है।

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री की किन्हीं दो शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों की एक सूची तैयार कर स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. विभागों का विभाजन-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है।

प्रश्न 5.
मन्त्रिपरिषद् के किन्हीं दो कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है।
  2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन-मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का निर्माण भी करता है और विदेशी सम्बन्धों का संचालन करता है। मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करता है तथा दूसरे देशों में राजदूत भेजता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. प्रधानमंत्री की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 2. राष्ट्रपति का प्रमुख सलाहकार कौन है ?
उत्तर-राष्ट्रपति का प्रमुख सलाहकार प्रधानमंत्री है।

प्रश्न 3. भारत का वास्तविक प्रशासक कौन है ?
उत्तर-भारत का वास्तविक प्रशासक प्रधानमंत्री है।

प्रश्न 4. प्रधानमन्त्री किसकी अध्यक्षता करता है ?
उत्तर-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल की अध्यक्षता करता है।

प्रश्न 5. मन्त्रिमण्डल किसके प्रति उत्तरदायी होता है ?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 6. भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-श्री नरेन्द्र मोदी।

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प्रश्न 7. भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहर लाल नेहरू थे।

प्रश्न 8. भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री कौन थे?
उत्तर- श्री मोरार जी देसाई।

प्रश्न 9. भारतीय प्रधानमन्त्री की अवधि कितनी होती है?
उत्तर- भारतीय प्रधानमन्त्री की अवधि लोकसभा के समर्थन पर निर्भर करती है।

प्रश्न 10. 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसने प्रधानमन्त्री बनने से इन्कार कर दिया?
उत्तर- श्रीमती सोनिया गांधी ने।

प्रश्न 11. मन्त्रिमण्डल में कौन-कौन शामिल होता है ?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल में कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री तथा उपमन्त्री शामिल होते हैं।

प्रश्न 12. किस प्रधानमन्त्री का विश्वास प्रस्ताव केवल एक मत से गिर गया था?
उत्तर-श्री अटल बिहारी वाजपेयी का।

प्रश्न 13. किस प्रधानमन्त्री का कार्यकाल केवल 13 दिन रहा?
उत्तर- श्री अटल बिहारी वाजपेयी का।

प्रश्न 14. मन्त्रिमण्डल के सदस्य किस सदन में से लिए जा सकते हैं?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल के सदस्य लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों सदनों में से लिए जा सकते हैं।

प्रश्न 15. मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था संविधान के किस अनुच्छेद में दी गई ?
उत्तर-अनुच्छेद 74 में।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राष्ट्रपति मन्त्रियों की नियुक्ति ………….के कहने पर करता है।
2. राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सिफ़ारिश पर ………….. को भंग कर सकता है।
3. भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री ………….. थे।
4. भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री …………… हैं।
5. श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बनते समय …………. के सदस्य थे।
उत्तर-

  1. प्रधानमन्त्री
  2. लोकसभा
  3. पं० जवाहर लाल नेहरू
  4. श्री नरेन्द्र मोदी
  5. लोकसभा।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. पं० जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा का कभी सामना नहीं किया।
2. प्रधानमन्त्री संसद् का अभिन्न अंग होता है।
3. प्रधानमन्त्री तानाशाह नहीं बन सकता।
4. भारत में राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिपरिषद् करता है।
5. भारत में संसद् मन्त्रियों से प्रश्न नहीं पूछ सकती।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश

प्रश्न 1.
भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे-
(क) पं० जवाहर लाल नेहरू
(ख) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ग) डॉ० अम्बेडकर ।
(घ) मोरारजी देसाई।
उत्तर-
(घ) मोरारजी देसाई।

प्रश्न 2.
भारत का वास्तविक शासक है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(घ) राज्यपाल।
उत्तर-
(ख)।

प्रश्न 3.
प्रशासन के लिए जिम्मेवार है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राज्यपाल
(घ) संसद्।
उत्तर-
(ख) प्रधानमन्त्री ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री को विश्वास प्राप्त होना चाहिए-
(क) राज्यसभा में
(ख) लोकसभा में
(ग) राज्य में विधानपालिका में
(घ) किसी में भी नहीं।
उत्तर-
(ख) लोकसभा में ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद् Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में राज्यसभा की रचना, कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन करो।
(Discuss the composition, functions and powers of Rajya Sabha in India.)
उत्तर-
भारत में संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संघात्मक शासन प्रणाली में विधानमण्डल के दो सदन होते हैं। भारतीय संसद् के भी दो सदन हैं-लोकसभा तथा राज्यसभा। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है और यह समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करता है। राज्यसभा संसद् का द्वितीय सदन है और यह राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है।

रचना (Composition)—संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है, जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे, 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जा सकते हैं जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। राज्यसभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धान्त जो अमेरिका की सीनेट की रचना में अपनाया गया है, भारत में नहीं अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है। उदाहरणस्वरूप जहां पंजाब से 7 तथा हरियाणा से 5 सदस्य निर्वाचित होते हैं वहां उत्तर प्रदेश 31 प्रतिनिधि भेजता है।

इस समय राज्यसभा में कुल सदस्य 245 हैं जिनमें से 233 राज्यों तथा केन्द्र प्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए गए हैं।
राज्यसभा के सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications of the Members of Rajya Sabha)-राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह संसद् द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
  4. वह पागल न हो, दिवालिया न हो।
  5. भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो।
  6. वह उस राज्य का रहने वाला हो जहां से वह निर्वाचित होना चाहता है।
  7. संसद् के किसी कानून या न्यायपालिका द्वारा राज्यसभा का सदस्य बनने के अयोग्य घोषित न किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद भी उसमें कोई ऐसी अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो भी उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।

चुनाव (Election)—प्रत्येक राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य अपने राज्य के लिए नियत सदस्य चुनते हैं। यह चुनाव आनुपातिक प्रणाली के अनुसार एकल हस्तान्तरण मतदान द्वारा किया जाता है। संघीय क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चुनाव संसद् द्वारा निश्चित तरीके से होता है।

अवधि (Term)-अमेरिकन सीनेट की तरह राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसके सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं और इसके 1/3 सदस्य प्रति दो वर्ष के पश्चात् अवकाश ग्रहण करते हैं। इस प्रकार दो वर्ष के पश्चात् राज्यसभा से 1/3 सदस्यों का चुनाव होता है। रिटायर होने वाले सदस्य दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं। राष्ट्रपति इस सदन को भंग नहीं कर सकता।

अधिवेशन (Sessions)—राज्यसभा की बैठकें राष्ट्रपति द्वारा बुलाई जाती हैं। एक वर्ष में राज्यसभा के कम-सेकम दो अधिवेशन अवश्य होते हैं। संविधान में स्पष्ट लिखा हुआ है कि पहले अधिवेशन की अन्तिम तिथि तथा दूसरे अधिवेशन की पहली तिथि में 6 मास से अधिक समय का अन्तर नहीं होना चाहिए। इसके विशेष अधिवेशन राष्ट्रपति जब चाहे बुला सकता है।
राज्यसभा की गणपूर्ति (Quorum of Rajya Sabha) संविधान में राज्य सभा की गणपूर्ति कुल सदस्यों का 1/10 भाग था अर्थात् जब तक 1/10 सदस्य उपस्थित नहीं होते राज्यसभा अपना कार्य आरम्भ नहीं कर सकती थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा राज्यसभा को अपनी गणपूर्ति संख्या स्वयं निश्चित करने का अधिकार दे दिया गया है।

राज्यसभा का अध्यक्ष (Chairman of the Rajya Sabha)-अमेरिका की तरह भारत का उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष (Ex-officio chairman) होता है। वर्तमान समय में उप-राष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू राज्यसभा के सभापति हैं। राज्य सभा अपने सदस्यों में से किसी एक को 6 वर्ष के लिए उपसभापति भी निर्वाचत करती है। 9 अगस्त, 2018 को राष्ट्रपति जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीद्वार श्री हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के उपसभापति चुने गए।

सभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। वह सदन में अनुशासन रखता है तथा राज्यसभा के कार्यों को नियमानुसार चलाता है। सभापति साधारणतः वोट नहीं डालता परन्तु जब किसी विषय पर दोनों पक्षों के समान वोट हों तो वह निर्णायक मत का प्रयोग करता है। सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है और अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालना करता है। सभापति के वेतन तथा भत्ते संसद् द्वारा निर्धारित किए जाते हैं।

राज्यसभा के कार्य तथा शक्तियां (Powers and Functions of the Rajya Sabha)-राज्यसभा को कई प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-धन विधेयकों को छोड़ कर कोई भी साधारण बिल राज्यसभा में पहले पेश हो सकता है। कोई भी बिल उस समय तक संसद् द्वारा पास नहीं समझा जा सकता और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए नहीं भेजा जा सकता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पास न हो जाए। यदि किसी बिल पर दोनों में मतभेद पैदा हो जाए तो राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार रखता है और उस बिल को उसके सामने रखा जाता है। संयुक्त बैठक में बिल पर हुआ निर्णय दोनों सदनों का सामूहिक निर्णय समझा जाता है। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में लोकसभा का अध्यक्ष ही सभापति का आसन ग्रहण करता है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्यसभा की वित्तीय शक्तियां लोकसभा की अपेक्षा बहुत कम हैं। धन बिल इसमें पेश नहीं हो सकता। धन बिल या बजट लोकसभा में पास होने के बाद ही राज्यसभा के पास आते हैं। राज्यसभा धन बिल को 14 दिन तक पास होने से रोक सकती है।

भारतीय राज्यसभा चाहे धन बिल को रद्द कर दे या उसमें परिवर्तन कर दे या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, इन सभी दशाओं में वह बिल राज्य सभा के पास समझा जाएगा, जिस रूप में लोकसभा ने उसे पास किया था
और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाएगा। लोकसभा की इच्छा है कि वह धन बिल पर राज्यसभा की सिफ़ारिश को माने या न माने।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-राज्यसभा की कार्यकारी शक्तियां बहुत सीमित हैं। राज्यसभा के सदस्य मन्त्रिमण्डल में लिए जा सकते हैं। राज्यसभा के सदस्यों को मन्त्रियों से प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार है और प्रश्नों द्वारा वे प्रशासन के कार्यों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। बजट पर विचार करते समय तथा काम रोको प्रस्ताव पेश करके भी राज्यसभा के सदस्य शासन की कड़ी आलोचना कर सकते हैं तथा मन्त्रिमण्डल पर प्रभाव डाल सकते हैं। परन्तु राज्यसभा अविश्वास प्रस्ताव द्वारा मन्त्रियों को नहीं हटा सकती।

4. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-राज्यसभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं-

  • वह लोकसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा अपदस्थ कर सकती है।
  • उप-राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग आरम्भ करने का अधिकार राज्यसभा को ही है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को पद से हटाए जाने का प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर चुनाव आयोग, महान्यायवादी (Attorney General) तथा नियन्त्रण एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास होने पर राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारी को हटा सकता है।
  • राज्यसभा अपने सदस्यों के व्यवहार तथा गतिविधियों की जांच-पड़ताल करने के लिए समिति नियुक्त कर सकती है और उसके विरुद्ध उचित कार्यवाही कर सकती है।
  • यदि कोई सदस्य, अन्य व्यक्ति अथवा संस्था राज्यसभा के विशेषाधिकार का उल्लंघन करती है तो राज्यसभा उसको दण्ड दे सकती है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर विशेष न्यायालयों (Special Courts) की स्थापना कर सकती है।

5. संवैधानिक शक्तियां (Constitutional Powers)—संवैधानिक मामलों में राज्य सभा को लोक सभा के समान अधिकार प्राप्त हैं। संविधान में संशोधन करने वाला बिल संसद् के किसी सदन में भी पेश हो सकता है अर्थात् संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव राज्यसभा में भी पेश किया जा सकता है। 59वां संशोधन बिल राज्यसभा में पेश किया गया था। संशोधन प्रस्ताव उस समय तक पास नहीं समझा जाता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पास न हो जाए।

6. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers)-राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर राष्ट्रपति द्वारा घोषित संकटकालीन उद्घोषणा को एक महीने से अधिक लागू रहने अथवा रद्द करने का प्रस्ताव करती है। यदि लोकसभा भंग हो तो केवल राज्यसभा का अनुमोदन ही आवश्यक है।

7. निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियां (Electoral Powers)-राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। उप-राष्ट्रपति के चुनाव में राज्यसभा के सभी सदस्य भाग लेते हैं। राज्यसभा अपना एक उप-सभापति चुनती है जिसे डिप्टी चेयरमैन कहते हैं।

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8. राज्यसभा की विशिष्ट शक्तियां (Special Powers of the Rajya Sabha)-राज्यसभा को कुछ विशिष्ट शक्तियां भी प्राप्त हैं। ये शक्तियां निम्नलिखित हैं

  • राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके संसद् को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  • 42वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि राज्यसभा अनुच्छेद 249 के अन्तर्गत प्रस्ताव पास करके अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं (All India Judicial Services) स्थापित करने के सम्बन्ध में संसद् को अधिकार दे सकती है।
  • राज्यसभा 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके नई अखिल भारतीय सेवाओं (All India Services) को स्थापित करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को दे सकती है।

9. अन्य कार्य (Other Functions)

  • जब राष्ट्रपति अपना आज्ञानुसार कोई भी मौलिक अधिकार छीनता है तो वह आज्ञा संसद् के दोनों सदनों में रखना ज़रूरी है।
  • जिन आयोगों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, उन सभी की रिपोर्ट दोनों सदनों के आगे रखनी आवश्यक है। राज्यसभा को भी लोकसभा की तरह उन पर विचार करने का अधिकार है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राज्यसभा की शक्तियों एवं कार्यों से स्पष्ट है कि राज्यसभा लोकसभा के मुकाबले में शक्तिहीन सदन है, परन्तु इस सदन के पास इतनी शक्तियां हैं कि यह आदर्श द्वितीय सदन बन सकता है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की स्थिति और उपयोगिता की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। (Critically discuss the position and utility of the Rajya Sabha.)
उत्तर-
राज्यसभा की स्थिति लोकसभा के मुकाबले में बहुत महत्त्वहीन है। कानून निर्माण तथा वित्तीय मामलों में इसे कोई विशेष शक्ति प्राप्त नहीं और सभी साधारण तथा धन बिल लोकसभा की इच्छानुसार पास होते हैं। यह साधारण बिल को अधिक-से-अधिक 6 महीने तक पास होने से रोक सकती है तथा धन बिल को केवल 14 दिन के लिए रोक सकती है। मन्त्रिमण्डल पर इसका कोई नियन्त्रण नहीं है। राज्यसभा की उपयोगिता के बारे में डॉ० अम्बेदकर ने भी सन्देह प्रकट किया था। राज्यसभा की आलोचना मुख्यतः निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  • असंघीय सिद्धान्त पर आधारित (Based on Non-federal Principle)-राज्यसभा का संगठन संघीय सिद्धान्त पर आधारित नहीं है। प्रान्तों को इसमें समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। प्रतिनिधि जनसंख्या के आधार पर भेजे जाते हैं।
  • दलगत प्रतिनिधित्व (Party-Representations)-राज्यसभा के सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व न करके दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • मनोनीत सदस्य (Nominated Members)-राज्यसभा राज्यों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती क्योंकि 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
  • चुनाव प्रणाली दोषपूर्ण (Defective Election System)-राज्यसभा के सदस्य अप्रत्यक्ष ढंग से चुने जाते हैं। अप्रत्यक्ष प्रणाली में भ्रष्टाचार का भय अधिक रहता है।
  • शक्तिहीन सदन (Powerless House)-राज्यसभा की शक्तियां लोकसभा से बहुत कम हैं। धन बिल को राज्यसभा केवल 14 दिन तक रोक सकती है और इसका कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं है।
  • बिलों को दोहराना लाभदायक नहीं है (Revision of Bills not Useful)-राज्यसभा का एक मुख्य कार्य बिलों को दोहराना है, ताकि बिल को जल्दी से पास किए जाने के कारण जो त्रुटियां रह गई हैं, उन्हें दूर किया जा सके। राज्यसभा को अपने इस कार्य में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती है क्योंकि साधारणतः एक ही दल का दोनों सदनों में बहुमत होने के कारण राज्यसभा आंखें बन्द करके बिलों को पास कर देती है।
  • राज्यसभा में प्रादेशिकता की भावना का ज़ोर अधिक रहता है। 8. राज्यसभा के सदस्य इनकी बैठकों में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाते तथा अधिकांश सदस्य अनुपस्थित रहते हैं।
  • राज्यसभा के अधिकांश सदस्य इतने अधिक पूरक प्रश्न (Supplementary Questions) पूछते हैं, जिनसे न केवल समय बर्बाद होता है बल्कि कभी-कभी सदस्यों और मन्त्रियों के बीच छोटे-मोटे झगड़े भी उत्पन्न हो जाते हैं।
  • राज्यसभा के बहुत-से सदस्य वे होते हैं जो लोकसभा का चुनाव हार चुके होते हैं। इस प्रकार राज्यसभा संसद् में घुसने के लिए पिछले दरवाज़े का काम करती है।

राज्यसभा की भूमिका (Role of Rajya Sabha)
अथवा
राज्यसभा की उपयोगिता (Utility of Rajya Sabha)

इसमें कोई सन्देह नहीं कि राज्यसभा निचले सदन की भान्ति एक शक्तिशाली संस्था नहीं है, परन्तु राज्यसभा को हम एक व्यर्थ संस्था नहीं कह सकते बल्कि राज्यसभा एक बहुत उपयोगी संस्था है।

मौरिस जोन्स (Morris Jones) के अनुसार, “राज्यसभा के तीन भारी गुण हैं। यह अतिरिक्त राजनीतिक पद प्रदान करती है जिसके लिए मांग है। यह अतिरिक्त वाद-विवाद के लिए अवसर प्रदान करती है जिसके लिए कभी-कभी आवश्यकता होती है और यह वैधानिक समय सूची की समस्याओं को हल करने में सहायता देती है।”

राज्यसभा संघात्मक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जो इस प्रकार है-

  • योग्य व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व (Representative of Able Persons)-इसमें देश के अनुभवी सज्जन राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राज्यसभा के 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। राष्ट्रपति उन्हीं व्यक्तियों की नियुक्ति करता है जिनकी विज्ञान, कला, साहित्य आदि में प्रसिद्धि होती है।
  • सरकारी कमजोरियों पर प्रकाश (Points out Shortcomings of the Govt.)-राज्यसभा के सदस्यों ने सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्नों पर आधे घण्टे की बहस के दौरान सरकार की कमजोरियों पर प्रकाश डाला और सरकार को महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए हैं।
  • सभी पहलुओं पर वाद-विवाद (Debates on AII Aspects)-राज्यसभा में प्रस्तुत प्रस्तावों के माध्यम से देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के सम्बन्ध में वाद-विवाद होता रहता है। यद्यपि सरकार इन प्रस्तावों को प्रायः स्वीकार नहीं करती तथापि इसका सरकार पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।
  • राज्यसभा अपने प्रस्ताव द्वारा राज्य सूची के किसी भी विषय को संसद् के अधिकार-क्षेत्र में ले जा सकती है।
  • केन्द्रीय सरकार राज्यसभा के परामर्श से किसी अखिल भारतीय सेवा की व्यवस्था कर सकती है।
  • संविधान में संशोधन करने वाला बिल राज्यसभा में प्रस्तुत हो सकता है और तब तक संशोधन नहीं हो सकता जब तक राज्यसभा भी पास न करे। 44वें संशोधन की पांच धाराओं को राज्यसभा ने रद्द कर दिया था।
  • राज्यसभा के सदस्य राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटा सकती है।
  • उप-राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग आरम्भ करने का अधिकार राज्यसभा को ही है।
  • राज्यसभा के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं और सरकार की आलोचना कर सकते हैं।
  • संकटकालीन घोषणा की स्वीकृति-जब राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर देता है तो राज्यसभा उस समय भी बनी रहती है तथा राष्ट्रपति को अपनी संकटकालीन घोषणा की स्वीकृति उससे लेनी पड़ती है।
  • बिलों का पुनर्निरीक्षण-राज्यसभा लोकसभा में शीघ्रतापूर्वक पास किए गए बिलों पर उचित ढंग से विचार करने के पश्चात् उसमें संशोधन के लिए सुझाव भी देती है। 1979 में राज्यसभा ने लोकसभा द्वारा विशेष न्यायालय विधेयक में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए जिसे लोकसभा ने तुरन्त स्वीकार कर लिया।
  • विवादहीन बिलों का पेश होना-महत्त्वपूर्ण बिल प्रायः लोकसभा में प्रस्तुत किए जाते हैं, परन्तु अवित्तीय विवादहीन बिल राज्यसभा में प्रस्तुत करके लोकसभा के समय की बचत की जाती है क्योंकि राज्यसभा विवादहीन और विरोधहीन बिलों पर खूब सोच-विचार करके लोकसभा के पास भेजती है। लोकसभा ऐसे बिलों पर कम विवाद करती है और शीघ्रता से पास कर देती है। इस प्रकार लोकसभा का समय बच जाता है और इस समय का प्रयोग इसके महत्त्वपूर्ण बिलों पर किया जाता है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर मुख्य चुनाव आयुक्त, महान्यायवादी तथा नियन्त्रक एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • वाद-विवाद का उच्च स्तर-राज्यसभा में विचार का स्तर लोकसभा की अपेक्षा उच्च रहता है, वहां प्रत्येक बिल पर शान्तिपूर्वक विचार होता है। एक तो सदस्यों की संख्या लोकसभा की तुलना में कम है, दूसरे इसके मैम्बर अधिक अनुभवी और विद्वान् होते हैं।
  • लोकतन्त्रीय परम्परा का प्रतीक-राज्यसभा लोकतन्त्रीय परम्पराओं के अनुकूल है। संसार के कुछ देशों को छोड़ कर बाकी सब देशों में संसद् के दो सदन हैं।
  • भारतीय संवैधानिक परम्परा के अनुकूल-भारत में ब्रिटिश शासन काल से ही केन्द्रीय विधान मण्डल के दो सदन चले आ रहे हैं। अत: संविधान निर्माताओं ने इसी परम्परा का पालन किया।

यह संविधान का केवल एक शृंगारात्मक अंग ही नहीं, यह सदन कनाडा की सीनेट की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली तथा उपयोगी है। यह अपने विवादों तथा सरकार की आलोचना द्वारा जनता पर अधिक प्रभाव डालता है। इसमें बहुतसे सुधारवादी बिल पेश हुए हैं और जिनसे राष्ट्र को बहुत-सा लाभ हुआ है। 1952 से 1956 के बीच राज्यसभा में 101 विधेयक प्रस्तुत किए गए थे। राज्यसभा के उप-सभापति श्री रामनिवास मिर्धा ने राज्यसभा की रजत जयन्ती के अपने स्वागत भाषण में राज्यसभा की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहा था कि इन 25 वर्षों में राज्यसभा में विधान आरम्भ करने वाले सदन के रूप में 350 सरकारी विधेयक पुनः स्थापित किए गए जिनमें कुछ सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और वैधानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे। इसमें हिन्दू कानून में दूरव्यापी परिवर्तन करने वाले विधेयक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना और शक्तियों का वर्णन करो।
[Describe the composition and powers of the Lok Sabha (House of People) in India.]
उत्तर-
लोकसभा भारतीय संसद् का निचला सदन है, परन्तु इसकी स्थिति ऊपरी सदन (राज्यसभा) से अधिक शक्तिशाली है। यह जनता का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि इसमें जनता के प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं और यही इसके अधिक शक्तिशाली होने का कारण है।

रचना (Composition)—प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 निश्चित की गई थी। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 545 निश्चित की गई। परन्तु अब ‘गोवा, दमन और दियू पुनर्गठन अधिनियम 1987’ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-

(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए, (ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और (ग) 2 ऐंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इंडियन नियुक्त किए हुए हैं।

चुनाव की विधि (Method of Election)-लोकसभा के चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचित प्रणाली के आधार पर होते हैं। सभी नागरिकों को जिनकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक हो, चुनाव में वोट डालने का अधिकार है। चुनाव गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। 5 लाख से 772 लाख की जनसंख्या के आधार पर एक सदस्य चुना जाता है और समस्त देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है। कुछ स्थान अनुसूचित जातियों तथा कबीलों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षित किए गए हैं। 2014 के लोकसभा के चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी।

अवधि (Term) लोकसभा के सदस्य पांच वर्ष के लिए चुने जाते हैं। संकट के समय इसकी अवधि को बढ़ाया जा सकता है, परन्तु एक समय में एक वर्ष से अधिक और संकटकालीन उद्घोषणा के समाप्त होने से छ: महीने से अधिक इसे नहीं बढ़ाया जा सकता। राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले जब चाहे लोकसभा को भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है। ऐसा कदम उसी समय उठाया जाएगा जब प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को इस प्रकार की सलाह दे। 6 फरवरी, 2004 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर राष्ट्रपति ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने 13वीं लोकसभा को भंग किया।

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योग्यताएं (Qualifications)-लोकसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं होनी आवश्यक हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत किसी लाभदायक पद पर आसीन व हो।
  4. वह संसद् द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएं रखता हो।
  5. वह पागल न हो, दिवालिया न हो।
  6. किसी न्यायालय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद भी किसी सदस्य में कोई अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।
  7. उसे किसी गम्भीर अपराध में दण्ड न मिल चुका हो।
  8. उसका नाम वोटरों की सूची में अंकित हो।
  9. नवम्बर, 1976 को संसद् में छुआछूत के विरुद्ध एक कानून पास किया गया। इस कानून के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी व्यक्ति को इस कानून के अन्तर्गत दण्ड मिला है तो वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सकता।
  10. लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले निर्दलीय उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक है कि उसका नाम दस मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित किया जाए।

गणपूर्ति (Ouorum)-लोकसभा की कार्यवाही आरम्भ होने के लिए उसके कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग गणपूर्ति के लिए निश्चित किया गया है, परन्तु 42वें संशोधन द्वारा गणपूर्ति निश्चित करने का अधिकार लोकसभा को दिया गया है।

अधिवेशन (Session)-राष्ट्रपति जब चाहे लोकसभा का अधिवेशन बुला सकता है, परन्तु एक वर्ष में दो अधिवेशन अवश्य बुलाए जाने चाहिए और राष्ट्रपति का यह विशेष उत्तरदायित्व है कि पहले अधिवेशन के आखिरी दिन और दूसरे अधिवेशन के पहले दिन के बीच छः मास से अधिक समय नहीं गुज़रना चाहिए। इसलिए अधिवेशन बुलाने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है।

अध्यक्ष (Speaker)—लोकसभा का एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होता है जिस का काम लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना, अनुशासन बनाए रखना तथा सदन की कार्यवाही को ठीक प्रकार से चलाना है। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुने जाते हैं। नई लोकसभा अपना नया अध्यक्ष चुनती है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से लोक सभा का अध्यक्ष चुना गया। लोकसभा अपने अध्यक्ष को जब चाहे प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकती है, यदि वे अपना काम ठीक प्रकार से न करे। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, अध्यक्ष के पद पर काम करता है।

विरोधी दल के नेता को सरकारी मान्यता (Official Recognition to the Leader of Opposition)मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ। जनता सरकार ने लोकतन्त्र को दृढ़ बनाने के लिए लोकसभा के विरोधी दल के नेता को कैबिनेट स्तर के मन्त्री के समान मान्यता दी थी। विरोधी दल के नेता को वही वेतन, भत्ते और सुविधाएं प्राप्त होती हैं जो कैबिनेट स्तर के मन्त्री को मिलती हैं। नौवीं लोकसभा में राजीव गांधी विपक्ष के नेता थे। मई, 2009 में 15वीं लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता दी गई थी, परन्तु दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लालकृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया था। मई, 2014 में 16वीं लोकसभा में किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया।

लोकसभा की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Lok Sabha) लोकसभा को बहुतसी शक्तियां प्राप्त हैं जो कई प्रकार की हैं-

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-लोकसभा भारतीय संसद् का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वास्तव में संसद् की विधायिनी शक्तियां लोकसभा ही प्रयोग करती है। इसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बन सकता । कोई भी बिल लोकसभा में पेश हो सकता है। यदि राज्यसभा लोकसभा द्वारा पास किए गए बिल पर छ: महीने तक कोई कार्यवाही न करे या उसे रद्द कर दे या उसमें ऐसे संशोधन प्रस्ताव पास करके भेज दे जो लोकसभा को स्वीकृत न हो तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की एक संयुक्त बैठक बुला सकता है। संयुक्त अधिवेशन में प्रायः वही निर्णय होता है जो लोकसभा के सदस्य चाहते हैं क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या राज्यसभा की सदस्य संख्या से दुगुनी से भी अधिक है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers) राष्ट्र के धन पर संसद् का नियन्त्रण है, परन्तु यह नियन्त्रण लोकसभा ही प्रयोग करती है। बजट तथा धन विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही पेश हो सकते हैं। लोकसभा के पास होने के बाद बजट या धन बिल राज्यसभा के पास सुझाव के लिए जाते हैं। राज्यसभा उस पर विचार करती है। राज्यसभा यदि धन विधेयक पर 14 दिन तक कोई कार्यवाही न करे या उसे रद्द कर दे या उसमें ऐसे संशोधन प्रस्ताव पास करके भेज दे जो लोकसभा को स्वीकृत न हों तो इन सभी दशाओं में वह बिल दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पास समझा जाएगा जिस रूप में लोकसभा ने पहले पास किया था और राष्ट्रपति को स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्र के धन पर लोकसभा को अन्तिम निर्णय करने का अधिकार है।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। लोकसभा के सदस्य मन्त्रियों से उनके कार्यों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकते हैं तथा सम्बन्धित मन्त्री को उसका उत्तर देना पड़ता है। लोकसभा के सदस्य सरकार की नीतियों की आलोचना भी कर सकते हैं तथा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी पास कर सकते हैं जिससे मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। 10 जुलाई, 1979 को लोकसभा के विरोधी दल के नेता यशवंतराव चह्वाण ने प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान होने से पूर्व ही प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने 15 जुलाई, 1979 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि जनता पार्टी के कई सदस्यों ने जनता पार्टी को छोड़ दिया था। नवम्बर 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह लोकसभा का विश्वास प्राप्त न कर सके जिस पर उन्हें त्याग-पत्र देना पड़ा। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत का प्रस्ताव पास न होने पर त्याग-पत्र दिया था। विश्वास मत के प्रस्ताव के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत पड़े।

4. संवैधानिक शक्तियां (Constitutional Powers) लोकसभा को संविधान में संशोधन करने के लिए प्रस्ताव पास करने का अधिकार है, लोकसभा में संशोधन का प्रस्ताव आवश्यक बहुमत से पास होने के बाद राज्यसभा के पास जाता है। यदि राज्यसभा भी उसे आवश्यक बहुमत से पास कर दे, तभी संशोधन लागू हो सकता है।

5. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-लोकसभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं, जिनका प्रयोग वह राज्यसभा के साथ मिलकर ही कर सकती है

  • लोकसभा राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग में भाग लेती है।
  • उपराष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाने का अधिकार केवल राज्यसभा को ही है, परन्तु उसमें निर्णय देने का अधिकार लोकसभा को है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के जजों को अपदस्थ किए जाने वाले प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • लोकसभा के साथ मिल कर मुख्य चुनाव आयुक्त, महान्यायवादी (Attorney General) तथा नियन्त्रण एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास होने पर राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारी को हटा सकता है।
  • यदि कोई सदस्य या व्यक्ति अथवा संस्था लोकसभा के विशेषाधिकार का उल्लंघन करती है तो लोकसभा इसको दण्ड दे सकती है।

6. चुनाव सम्बन्धी कार्य (Electoral Functions) लोकसभा स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर का चुनाव स्वयं करती है। लोकसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है।

7. जनता की शिकायतों को दूर करना (Redressal of Public Grievances)—लोकसभा के सदस्य जनता के प्रतिनिधि हैं, अतः इनका कर्तव्य है जनता की शिकायतों को सरकार तक पहुंचाना। लोकसभा के सदस्य इस कार्य को प्रश्नों द्वारा, स्थगन प्रस्ताव द्वारा तथा वाद-विवाद के अन्तर्गत शासक वर्ग की आलोचना के जरिए पूरा करते हैं।

8. लोकसभा की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers of the Lok Sabha)-लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई संकटकालीन उद्घोषणा का समर्थन कर सकती है। 44वें संशोधन के अनुसार यदि लोकसभा संकटकाल की घोषणा के लागू रहने के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर दे तो संकटकाल की घोषणा लागू नहीं रह सकती। लोकसभा के 10 प्रतिशत सदस्य अथवा अधिक सदस्य घोषणा के अस्वीकृत प्रस्ताव पर विचार करने के लिए लोकसभा की बैठक बुला सकते हैं।

9. विविध शक्तियां (Miscellaneous Powers) लोकसभा की अन्य शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्रों में परिवर्तन कर सकती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को लागू करने के लिए कानून बनाती है।
  • राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों को लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर स्वीकृत या अस्वीकृत करती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर संघ में नए राज्यों को सम्मिलित करती है, राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं तथा नामों में परिवर्तन कर सकती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर दो या दो से अधिक राज्यों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग या उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है।

लोकसभा की स्थिति (Position of the Lok Sabha)-लोकसभा भारतीय संसद् का निम्न सदन है जिसके लगभग सभी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। जनता का प्रतिनिधि सदन होने के कारण इसमें जनता का अधिक विश्वास है। यही कारण है कि लोकसभा संसद् का महत्त्वपूर्ण, प्रभावशाली, शक्तिशाली अंग है और संसद् की शक्तियों का वास्तविक प्रयोग करती है। इसे भारत की संसद् कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। लोकसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बन सकता। इसकी तुलना में राज्यसभा एक अत्यन्त महत्त्वहीन सदन है। प्रधानमन्त्री भी लोकसभा के ही बहुमत दल का नेता होता है और लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। प्रो० एम० पी० शर्मा (M.P. Sharma) के अनुसार, “यदि संसद् देश का सर्वोच्च अंग है, तो लोकसभा संसद् का सर्वोच्च अंग है, वस्तुतः सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए लोकसभा ही संसद् है।”

प्रश्न 4.
भारतीय संसद् की रचना, उसकी शक्तियों तथा कार्यों का वर्णन करो।
(Describe the composition, powers and functions of the indian Parliament.)
अथवा
संसद् के कार्यों की विवेचना कीजिए।
(Discuss the functions of Parliament.)
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनोंराज्यसभा एवं लोकसभा से मिलकर बनेगी।”

लोकसभा (Lok Sabha) लोकसभा संसद् का निम्न सदन है और समस्त देश का प्रतिनिधित्व करता है। 1973 में 31वें संशोधन के अनुसार लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 547 निश्चित की गई। ‘गोवा, दमन और दियू पुनर्गठन अधिनियम 1987′ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। आजकल लोकसभा में 545 सदस्य हैं। इनमें 543 निर्वाचित हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए गए हैं।

मनोनीत सदस्यों को छोड़कर शेष सभी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। लोकसभा की अवधि 5 वर्ष है। इसकी अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है और 5 वर्ष से पूर्व राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर इसको भंग भी कर सकता है। लोकसभा के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष तथा एक उपाध्यक्ष चुनते हैं।

राज्यसभा (Rajya Sabha)-राज्यसभा भारतीय संसद् का ऊपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 निश्चित की गई है जिसमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से जिन्हें विज्ञान, कला, साहित्य, समाज-सेवा आदि क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी हो, मनोनीत किया जाता है। शेष सदस्य राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। इस समय राज्यसभा के सदस्यों की कुल संख्या 245 है, जिसमें से 233 राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए गए हैं।

राज्यसभा के सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद रिटायर होते हैं। भारत का उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है। राज्यसभा के सदस्य अपने में से एक उपाध्यक्ष भी चुनते हैं जो अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके कार्यों को सम्पन्न करता है।

संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances of the Members of the Parliament)संसद् सदस्यों को समय-समय पर संसद् द्वारा निर्धारित वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधायें प्राप्त होती हैं।

संसद की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Parliament)-

भारतीय संसद् संघ की विधानपालिका है और संघ की सभी विधायिनी शक्तियां उसे प्राप्त हैं। विधायिनी शक्तियों के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की शक्तियां संसद् को दी गई हैं-

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-संसद् का मुख्य कार्य कानून-निर्माण करना है। संसद् की कानून बनाने की शक्तियां बड़ी व्यापक हैं। संघीय सूची में दिए गए सभी विषयों पर इसे कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची पर संसद् और राज्यों की विधानपालिका दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार है परन्तु यदि किसी विषय पर संसद् और राज्य की विधानपालिका के कानून में पारस्परिक विरोध हो तो संसद् का कानून लागू होता है। कुछ परिस्थितियों में राज्य सूची के 66 विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)—संसद् राष्ट्र के धन पर नियन्त्रण रखती है। वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पहले बजट संसद् में पेश किया जाता है। संसद् इस पर विचार करके अपनी स्वीकृति देती है। संसद् की स्वीकृति के बिना सरकार जनता पर कोई टैक्स नहीं लगा सकती और न ही धन खर्च कर सकती है।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive) हमारे देश में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष होने के नाते संसद् के प्रति उत्तरदायी नहीं है। जबकि मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त रहे।

4. राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करना (Determination of National Policies)-भारतीय संसद् केवल कानून ही नहीं बनाती वह राष्ट्रीय नीतियां भी निर्धारित करती है। यदि मन्त्रिपरिषद् संसद् द्वारा निर्धारित की गई नीतियों का पालन न करे तो संसद् के सदस्य सरकार की तीव्र आलोचना करते हैं तथा बहुधा ऐसे भी हो सकता है कि संसद् के सदस्य मन्त्रिपरिषद् से असन्तुष्ट हो जाने के कारण उससे भी त्याग-पत्र देने की मांग कर सकते हैं।

5. न्यायिक जांच (Judicial Powers)–संसद् राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति को यदि वे अपने कार्यों का ठीक प्रकार से पालन न करें तो महाभियोग लगाकर अपने पद से हटा सकती है। संसद् के दोनों सदन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के जजों को हटाने का प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। कुछ अन्य पदाधिकारियों को पदों से हटाए जाने के प्रस्ताव भी संसद् द्वारा पास किए जा सकते हैं।

6. संवैधानिक शक्तियां (Constituent Powers)-भारतीय संसद् को संविधान में संशोधन करने का भी अधिकार प्राप्त है। संविधान की कुछ धाराएं तो ऐसी हैं जिन्हें संसद् साधारण बहुमत से संशोधित कर सकती है। कुछ धाराओं का संशोधन करने के लिए संशोधन प्रस्ताव दोनों सदनों में सदन के बहुमत तथा उपस्थित वोट दे रहे सदस्यों के 2/3 बहुमत से पास होना आवश्यक है। कुछ संशोधन ऐसे भी हैं जिन पर कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों का समर्थन प्राप्त करने के बाद ही वे लागू हो सकते हैं।

7. सार्वजनिक मामलों पर वाद-विवाद (Deliberation over Public Matters)-संसद में जनता के प्रतिनिधि होते हैं और इसलिए वह सार्वजनिक मामलों पर वाद-विवाद का सर्वोत्तम साधन है। संसद् में ही सरकार की नीतियों तथा निर्णयों पर वाद-विवाद होता है और उनकी विभिन्न दृष्टिकोणों से आलोचना की जाती है। संसद् को जनता की शिकायतों पर प्रकाश डालने तथा उन्हें दूर करने का साधन भी कहा जा सकता है। संसद् सदस्य विभिन्न मामलों पर विचार प्रकट करते हुए अपने मतदाताओं की शिकायतों व आवश्यकताओं को सरकार के सामने रखते हैं और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते हैं।

8. निर्वाचन सम्बन्धी अधिकार (Electoral Powers)–संसद् उप-राष्ट्रपति का चुनाव करती है। संसद् राष्ट्रपति के चुनाव में भी महत्त्वपूर्ण भाग लेती है। लोकसभा अपने स्पीकर तथा डिप्टी-स्पीकर का चुनाव करती है और राज्यसभा अपने उपाध्यक्ष का चुनाव करती है।

9. विविध शक्तियां (Miscellaneous Powers)-

  • संसद् सम्बन्धित राज्य सरकार की सलाह से नवीन राज्य बना सकती है। उदाहरणतया, अगस्त, 2000 में संसद् ने तीन नए राज्यों-छत्तीसगढ़, उत्तराँचल और झारखण्ड की स्थापना की। संसद् वर्तमान राज्यों के नाम परिवर्तन कर सकती है।
  • संसद् किसी राज्य की विधानपरिषद् का अन्त कर सकती है अथवा बना भी सकती है। यह किसी राज्य की सीमाएं भी परिवर्तित कर सकती है।
  • राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई संकटकालीन उद्घोषणा पर एक महीने के अन्दर-अन्दर संसद् की स्वीकृति आवश्यक है। वह चाहे तो उसे अस्वीकृत भी कर सकती है।

भारतीय संसद् की स्थिति (Position of Indian Parliament) भारतीय संसद् को कानून निर्माण आदि के क्षेत्र में बहुत अधिक शक्तियां प्राप्त हैं, परन्तु भारतीय संसद् इंग्लैण्ड की संसद् की तरह प्रभुसत्ता सम्पन्न नहीं है।

ब्रिटिश संसद् द्वारा बनाए हुए कानूनों को संसद् के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति द्वारा सुधार अथवा रद्द नहीं किया जा सकता। न ही इंग्लैण्ड में किसी न्यायालय को संसद् के बनाए कानूनों पर पुनर्विचार (Judicial Review) करने का अधिकार है। भारतीय संसद् को ब्रिटिश संसद् की तुलना में सीमित अधिकार (Limited Powers) प्राप्त हैं। इसके मुख्य कारण ये हैं

  • लिखित संविधान की सर्वोच्चता-हमारे देश का संविधान लिखित है जो संसद् की शक्तियों को सीमित करता है। भारतीय संसद् संविधान के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकती।
  • संघीय व्यवस्था- भारत में इंग्लैण्ड के विपरीत संघीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है, जिस कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों में शक्तियों का बंटवारा किया गया है।
  • मौलिक अधिकार- भारतीय संसद् नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकती।
  • संसद् द्वारा पास किए गए कानून राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत किए जा सकते हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति-संसद् द्वारा पास किए गए कानूनों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है और न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकती है।
  • संशोधन करने की शक्ति सीमित है–संसद् को समस्त संविधान में संशोधन करने का अधिकार नहीं बल्कि उसकी महत्त्वपूर्ण धाराओं में संशोधन करने के लिए वह आधे राज्यों के समर्थन पर निर्भर रहती है।
  • राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्तियां-संसद् का जब अधिवेशन न हो रहा हो तो राष्ट्रपति अध्यादेश भी जारी कर सकता है। ये अध्यादेश भी कानून के समान शक्ति रखते हैं।
    इन सभी बातों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय संसद् ब्रिटिश संसद् का मुकाबला नहीं करती। प्रभुसत्ता सम्पन्न संसद् न होते हुए भी भारतीय संसद् को अपनी शक्तियों और कार्यों के कारण समस्त एशिया के विधानमण्डलों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 5.
संसद् में साधारण विधेयक कैसे पारित होते हैं ? समझा कर लिखिए।
(Describe the Procedure through which an ordinary bill is passed by parliament.)
अथवा
भारतीय संसद् में एक बिल एक्ट कैसे बनता है ?
(How does a bill become an Act in the Indian Parliament ?)
उत्तर-
संसद् का मुख्य काम कानून बनाना है। संविधान की धारा 107 से 112 तक कानून निर्माण सम्बन्धी बातों से सम्बन्धित है। दोनों सदनों में समान विधायिनी पक्रिया (Legislative Procedure) की व्यवस्था की गई है। किसी भी विधेयक को प्रत्येक सदन में पास होने के लिए पांच सीढ़ियों में से गुजरना पड़ता है-(1) बिल की पुनः स्थापना तथा प्रथम वाचन, (2) दूसरा वाचन, (3) समिति अवस्था, (4) प्रतिवेदन अवस्था और (5) तीसरा वाचन । भारत में सरकारी बिल तथा निजी सदस्य बिल (Private Member’s Bill) के पास करने का ढंग एक-सा है। किसी भी साधारण बिल के कानून का रूप धारण करने से पहले निम्नलिखित अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है-

1. पुनः स्थापना तथा प्रथम वाचन (Introduction and First Reading)—साधारण बिल संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। जो भी सदस्य कोई बिल पेश करना चाहता है उसे महीना पहले इस आशय की सूचना सदन के अध्यक्ष को देनी पड़ती है। परन्तु मन्त्रियों के लिए एक महीने का नोटिस देना अनिवार्य है। निश्चित तिथि को सम्बन्धित सदस्य खड़ा होकर सदन से बिल पेश करने की आज्ञा मांगता है जोकि प्रायः दे दी जाती है। यदि इस अवस्था में बिल का विरोध हो जैसे कि नवम्बर, 1954 मे निवारक नजरबन्दी संशोधन बिल (Preventive Detention Bill) का विरोध हुआ था, तो अध्यक्ष बिल पेश करने वाले बिल का विरोध करने वाले सदस्यों का संक्षिप्त रूप में बिल सम्बन्धी बात करने का मौका देता है। सदन का अध्यक्ष सदस्यों का मत ले लेता है। उपस्थिति सदस्यों के साधारण बहुमत से उसका निर्णय हो जाता है। बिल को पेश करने की आज्ञा मिल जाने पर सदस्य बिल का शीर्षक पढ़ता है, इस समय बिल पर कोई वाद-विवाद नहीं होता। महत्त्वपूर्ण बिलों पर इस समय उनकी मुख्य बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा सकता है। इस प्रकार बिल की पुनः स्थापना (Introduction) भी हो जाती है और उसका प्रथम वाचन भी। इसके बाद बिल को सरकारी गज़ट में छाप दिया जाता है।

2. द्वितीय वाचन (Second Reading)—बिल की पुन:स्थापना के बाद द्वितीय वाचन किसी भी समय पर प्रारम्भ हो सकता है। साधारणतः पुनः स्थापना तथा द्वितीय वाचन में दो दिनों का अन्तर होता है, परन्तु यदि सदन का अध्यक्ष आवश्यक समझे तो द्वितीय वाचन को प्राय: दो चरणों में बांटा जाता है।
प्रथम चरण में बिल को पेश करने वाला सदस्य निश्चित तिथि और समय पर यह प्रस्ताव पेश करता है कि बिल पर विचार किया जाए अथवा सदन की सलाह से किसी अन्य समिति के पास भेजा जाए अथवा बिल पर जनमत जानने के लिए इसे प्रसारित किया जाए। यदि प्रस्तावक सदस्य तीन विकल्पों में कोई एक प्रस्ताव लाता है तो कोई अन्य दूसरा प्रस्ताव भी ला सकता है। यदि बिल को प्रसारित करने का प्रस्ताव हो जाता है तो सदन का सचिवालय राज्य सरकारों को आदेश देता है कि वे अपने गज़ट में बिल को प्रकाशित करें तथा स्वीकृत संस्थाओं, सम्बन्धित व्यक्तियों तथा स्थानीय संस्थाओं का विचार लें, परन्तु इस सम्बन्धी प्रस्ताव निर्धारित तिथि के अन्दर किसी सुझाव तथा विचार के साथ सदन के सचिवालय में अवश्य ही पहुंचना चाहिए।

द्वितीय चरण में, बिल के सम्बन्ध में प्राप्त विचारों व सुझावों का संक्षिप्त रूप सदन के सदस्यों के बीच बांट दिया जाता है। प्रस्तावक सदस्य यह प्रस्ताव पेश करता है कि प्रवर या संयुक्त समिति के पास भेजा जाए। कभी-कभी अध्यक्ष की आज्ञा से बिल को बिना प्रवर या संयुक्त समिति में भेजे ही उस पर विचार करना शुरू हो जाता है, परन्तु इस स्तर पर वाद-विवाद सामान्य प्रकृति का होता है। बिल की धाराओं पर बहस नहीं की जाती बल्कि बिल के मौलिक सिद्धान्तों तथा उद्देश्यों पर वाद-विवाद होता है अर्थात् इस समय बिल के आधारमूल सिद्धान्तों पर ही बहस की जाती है, इसके पश्चात् स्पीकर बिल पर मतदान करवाता है। यदि बहुमत बिल के पक्ष में हो तो बिल किसी समिति के पास भेजा जाता है परन्तु यदि बहुमत विपक्ष में हो तो बिल रद्द हो जाता है।

3. समिति अवस्था (Committee Stage)—यदि सदन का निर्णय उस बिल को किसी विशेष कमेटी को भेजने का हो तो फिर ऐसा किया जाता है। जिस प्रवर समिति को वह बिल भेजा जाता है, उसमें बिल पेश करने वाला सदस्य तथा कुछ अन्य सदस्य होते हैं। यदि सदन का उप-सभापति इस समिति में हो तो फिर उसे ही इस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है। प्रवर समिति बिल की धाराओं पर विस्तारपूर्वक विचार करती है। समिति के प्रत्येक सदस्य को बिल की धाराओं, उपधाराओं, खण्डों तथा उपखण्डों आदि पर पूर्ण विस्तार से अपने विचार प्रकट करने और उनमें संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार है। पूरी छानबीन करने के पश्चात् समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है। यह सिफ़ारिश कर सकती है कि बिल रद्द कर दिया जाए या उसे मौलिक रूप में स्वीकर कर लिया जाए या उसे कुछ संशोधन सहित पास किया जाए। समिति अपनी रिपोर्ट निश्चित समय में सदन को भेज देती है।

4. प्रतिवेदन अवस्था (Report Stage)-समिति के लिए यह आवश्यक होता है कि वह बिल के सम्बन्ध में तीन महीने के अन्दर या सदन द्वारा निश्चित समय में अपनी रिपोर्ट सदन में पेश करे। रिपोर्ट तथा संशोधन बिल को छपवाकर सदन के सदस्यों में बांट दिया जाता है। समिति अपनी रिपोर्ट अवस्था पर बिल पर व्यापक रूप से विचार करती है। बिल की प्रत्येक धारा तथा समिति की रिपोर्ट तथा उसके द्वारा पेश किए संशोधन पर विस्तारपूर्वक वाद-विवाद होता है। वाद-विवाद के पश्चात् बिल की धाराओं पर अलग-अलग या सामूहिक रूप में मतदान करवाया जाता है। यदि बहुमत बिल के पक्ष में हो तो बिल पास कर दिया जाता है अथवा बिल रद्द हो जाता है।

5. तृतीय वाचन (Third Reading)-प्रवर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् बिल के तृतीय वाचन के लिए तिथि निश्चित कर दी जाती है। तृतीय वाचन किसी बिल की सदन में अन्तिम अवस्था होती है। इस अवस्था में प्रस्तावक यह प्रस्ताव पेश करता है कि बिल को पास किया जाए। इस अवस्था में बिल की प्रत्येक धारा पर विचार नहीं किया जाता। बिल के सामान्य सिद्धान्तों पर केवल बहस होती है और बिल की भाषा को अधिक-से-अधिक स्पष्ट बनाने के लिए यत्न किये जाते हैं। बिल में केवल मौखिक संशोधन किए जाते हैं। बिल की यह अवस्था औपचारिक है और बिल के रद्द होने की सम्भावना बहुत कम होती है।

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बिल दूसरे सदन में (Bill in the Second House)-एक सदन में पास होने के बाद बिल दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में भी बिल को इसी प्रकार की पांचों अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। यदि दूसरा सदन भी बिल को पास कर दे तो वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। यदि दूसरा सदन उसे रद्द कर दे या छ: महीने तक उस पर कोई कार्यवाही न करे या उसमें ऐसे सुझाव देकर वापस कर दे जो पहले सदन को स्वीकृत न हों तो राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है। बिल दोनों सदनों के उपस्थित तथा वोट देने वाले सभी सदस्यों के बहुमत से पास होता है, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या राज्य सभा की सदस्य संख्या के दुगने से भी अधिक है, इसलिए संयुक्त बैठक में लोकसभा की इच्छानुसार ही निर्णय होने की सम्भावना होती है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति (Assent of the President)-दोनों सदनों से पास होने के बाद बिल राष्ट्र की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उस पर एक बार अपनी स्वीकृति देने से इन्कार कर सकता है, परन्तु यदि संसद् उस बिल को दोबारा साधारण बहुमत से पास करके राष्ट्रपति के पास भेज दे तो इस बार राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है। स्वीकृति कितने समय में देनी आवश्यक है, इस विषय में संविधान चुप है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद बिल को सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और वह कानून बन जाता है।

धन-बिल के पास होने की प्रक्रिया-धन-बिल केवल मन्त्रियों द्वारा राष्ट्रपति की स्वीकृति से लोकसभा में पेश किया जा सकता है। लोकसभा द्वारा पास होने के पश्चात् धन-बिल को राज्यसभा के पास भेज दिया जाता है। राज्यसभा धन-बिल को अस्वीकार नहीं कर सकती। राज्यसभा अधिक-से-अधिक बिल को 14 दिन तक रोक सकती है। राज्यसभा की सिफारिशों को मानना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है। इसके बाद बिल को राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है और राष्ट्रपति हस्ताक्षर करने से इन्कार नहीं कर सकता।

प्रश्न 6.
लोकसभा के अध्यक्ष के चुनाव, शक्तियों तथा स्थिति की विवेचना कीजिए।
(Discuss the election, powers and position of the Speaker of Lok Sabha.)
उत्तर-
लोकसभा भारतीय संसद् का निम्न तथा जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदन है। संसद् की शक्तियां वास्तव में लोकसभा ही प्रयोग करती है। लोकसभा की अध्यक्षता उसके अध्यक्ष (Speaker) द्वारा की जाती है। लोकसभा अध्यक्ष के नेतृत्व में ही अपने समस्त कार्य करती है। लोकसभा के भंग होने पर भी अध्यक्ष का पद नई लोकसभा के कार्य तक बना रहता है। मुनरो (Munro) के अनुसार, “स्वीकर लोकसभा में प्रमुखतम व्यक्ति होता है।” (“The speaker is the most conspicuous figure in the house.”)

चुनाव (Election)-लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा उनसे ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी समय होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को 16वीं लोकसभा का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष के पद पर चुना जाता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

कार्यकाल (Term of Office)-लोकसभा के स्पीकर की अवधि 5 वर्ष है। यदि लोकसभा को भंग कर दिया जाए तो स्पीकर अपने पद का त्याग नहीं करता। वह उतनी देर तक अपने पद पर बना रहता है जब तक नई लोकसभा का चुनाव नहीं हो जाता तथा नई लोकसभा अपना स्पीकर नहीं चुन लेती । यदि स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर लोकसभा के सदस्य नहीं रहते तो उनको अपना पद त्यागना पड़ता है। स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर को 5 वर्ष की अवधि से पहले भी हटाया जा सकता है। यह तभी हो सकता है यदि लोकसभा के उपस्थित सदस्यों की बहसंख्या इसके लिए प्रस्ताव पास कर दे, परन्तु इस प्रकार का प्रस्ताव लोकसभा में तभी पेश हो सकता है यदि कम-से-कम 14 दिन पूर्व अध्यक्ष को ऐसे प्रस्ताव की सूचना दी गई हो। अभी तक स्पीकर के विरुद्ध चार-बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया है, परन्तु कभी भी प्रस्ताव पास नहीं हुआ। नौवीं लोकसभा के स्पीकर श्री रवि राय ने 18 महीने ही काम किया।

वेतन तथा भत्ता (Salary and Allowances)-लोकसभा अध्यक्ष को मासिक वेतन, अन्य भत्ते और रहने के लिए निःशुल्क स्थान आदि मिलता है। अध्यक्ष के वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाएं भारत की संचित निधि से दी जाती हैं जिनको न तो अध्यक्ष के कार्य काल के दौरान घटाया जा सकता है और न ही संसद् इन पर मतदान कर सकती है।

अध्यक्ष की शक्तियां व कार्य (Powers and Functions of the Speaker)-अध्यक्ष को अपने पद से सम्बन्धित बहुत-सी शक्तियां तथा बहुत से कार्यों को करना पड़ता है जोकि मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-

(क) व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियां (Regulatory Powers)-स्पीकर लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। सदन के सभी सदस्य उसी को सम्बोधित करते हैं। सदन के अध्यक्ष के नाते उसे अनेक व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियां प्राप्त हैं जो कि इस प्रकार हैं-

  • सदन की कार्यवाही चलाने के लिए सदन में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना स्पीकर का कार्य है। (2) स्पीकर सदन के नेता से सलाह करके सदन का कार्यक्रम निर्धारित करता है।
  • स्पीकर सदन की कार्यवाही-नियमों की व्याख्या करता है। स्पीकर की कार्यवाही के नियमों पर की गई आपत्ति पर निर्णय देता है जोकि अन्तिम होता है।
  • जब किसी बिल पर या विषय पर वाद-विवाद समाप्त हो जाता है तो स्पीकर उस पर मतदान करवाता है। वोटों की गिनती करता है तथा परिणाम घोषित करता है।
  • साधारणतः स्पीकर अपना वोट नहीं डालता, परन्तु जब किसी विषय पर वोट समान हों तो अपना निर्णायक वोट दे सकता है।
  • प्रस्तावों व व्यवस्था सम्बन्धी मुद्दों को स्वीकार करना।
  • स्पीकर ही इस बात का निश्चय करता है कि सदन की गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य उपस्थित हैं अथवा नहीं।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों की जानकारी के लिए या किसी विशेष महत्त्व के मामले पर सदन को सम्बोधित करता है।
  • स्पीकर सदन के नेता की सलाह पर सदन की गुप्त बैठक की आज्ञा देता है।
  • लोकसभा में सदस्यों को उनकी मातृभाषा में बोलने की आज्ञा देता है।
  • मन्त्री पद छोड़ने के पश्चात् किसी सदस्य को अपनी सफाई देने की आज्ञा देता है।

(ख) निरीक्षण व भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियां (Supervisory and Censuring Powers)—स्पीकर की निरीक्षण व भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • सदन की विभिन्न समितियों को नियुक्त करने में स्पीकर का हाथ होता है और ये समितियां स्पीकर के निरीक्षण में कार्य करती हैं।
  • स्पीकर स्वयं कुछ समितियों की अध्यक्षता करता है।
  • स्पीकर लोकसभा के सदस्यों के विशेषाधिकारों की रक्षा करता है।
  • स्पीकर सरकार को आदेश देता है कि वह लोकहित के लिए सदन को या उसकी समिति को अमुक सूचना भेजे।
  • स्पीकर की आज्ञा के बिना कोई सदस्य लोकसभा में नहीं बोल सकता।
  • यदि कोई सदस्य सदन में अनुचित शब्दों का प्रयोग करे तो स्पीकर अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने वाले सदस्य को अपने शब्द वापस लेने के लिए कह सकता है और वह संसद् की कार्यवाही से ऐसे शब्दों को काट सकता है जो उसकी सम्मति में अनुचित तथा असभ्य हों।
  • यदि कोई सदस्य सदन में गड़बड़ करे तो स्पीकर उसको सदन से बाहर जाने के लिए कह सकता है।
  • यदि कोई सदस्य अध्यक्ष के आदेशों का उल्लंघन करे तथा सदन के कार्य में बाधा उत्पन्न करे तो स्पीकर उसे निलम्बित (Suspend) कर सकता है। यदि कोई सदस्य उसके आदेशानुसार सदन से बाहर न जाए तो वह मार्शल की सहायता से उसे बाहर निकलवा सकता है।
  • सदन की मीटिंग में गड़बड़ होने की दशा में स्पीकर को सदन का अधिवेशन स्थगित करने का अधिकार है।
  • यदि सदन किसी व्यक्ति को अपने विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने के लिए दण्ड दे तो उसे लागू करना स्पीकर का काम है।
  • किसी कथित अपराधी को पकड़ने का आदेश जारी करना स्पीकर का कार्य है।

(ग) प्रशासन सम्बन्धी शक्तियां (Administrative Powers)-स्पीकर को प्रशासकीय शक्तियां भी प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं

  • स्पीकर का अपना सचिवालय होता है जिसमें काम करने वाले कर्मचारी उसके नियन्त्रण में काम करते हैं।
  • प्रेस तथा जनता के लिए दर्शक गैलरी में व्यवस्था करना स्पीकर का काम है।
  • सदन की बैठकों के लिए विभिन्न समितियों के कार्य-संचालन के लिए सदन के सदस्यों के लिए उपयुक्त स्थानों की व्यवस्था करना।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों के लिए निवास व अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करता है।
  • स्पीकर संसदीय कार्यवाहियों और अभिलेखों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था करता है।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों तथा कर्मचारियों के जीवन व उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए उचित प्रबन्ध करता है।
  • स्पीकर किसी गैर-सदस्य को सदन में प्रविष्ट नहीं होने देता।

(घ) विविध कार्य (Miscellaneous Powers)

  • कोई बिल वित्त बिल है या नहीं, इसका निर्णय स्पीकर करता है।
  • लोकसभा जब किसी बिल पर प्रस्ताव पास कर देती है तब उसे सदन अथवा राष्ट्रपति के पास स्पीकर ही हस्ताक्षर करके भेजता है।
  • दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता स्पीकर करता है।
  • स्पीकर राष्ट्रपति तथा संसद् के बीच एक कड़ी का कार्य करता है। राष्ट्रपति और संसद् के बीच पत्र-व्यवहार स्पीकर के माध्यम से ही होता है।
  • स्पीकर लोकसभा तथा राज्यसभा के बीच एक कड़ी का काम करता है। दोनों सदनों में पत्र-व्यवहार स्पीकर के माध्यम से ही होता है।
  • संसदीय शिष्टमण्डलों के सदस्यों को मनोनीत करना स्पीकर का कार्य है।
  • अन्तर संसदीय संघ में भारतीय संसदीय शिष्टमण्डल में पदेन अध्यक्ष के रूप में कार्य करना।
  • स्पीकर यदि किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए तो सदन को सूचना देता है।
  • सदन की अवधि पूर्ण होने पर स्पीकर विदाई भाषण देता है।

अध्यक्ष की स्थिति (Position of the Speaker) लोकसभा के अध्यक्ष का पद बड़ा महत्त्वपूर्ण तथा महान् आदर गौरव का है। मावलंकर (Mavlanker) ने एक स्थान पर कहा था, “सदन में अध्यक्ष की शक्तियां सबसे अधिक हैं।” (“His authority is supreme in the house.”) इसी प्रकार लोकसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री हुक्म सिंह (Hukam Singh) ने एक बार कहा था, “अध्यक्ष का पद राज्य के उच्च पदों में से एक है।” (“Speaker’s is one of highest office in the land.”) श्री एल० के० अडवाणी (L.K. Advani) ने मार्च 1977 में कहा था कि, “स्पीकर अथवा अध्यक्ष स्वयं में एक संस्था है।” इस पद पर बहुत-से योग्य, निष्पक्ष तथा विद्वान् व्यक्तियों ने कार्य किया है और उन्होंने इसके सम्मान को बढ़ाने में सहायता दी है। इसमें श्री वी० जे० पटेल जो केन्द्रीय विधानसभा के प्रथम स्पीकर थे और श्री जी० वी० मावलंकर (G.V. Mavlankar) का नाम जो लोकसभा के प्रथम स्पीकर थे, उल्लेखनीय हैं।

लोकसभा के अध्यक्ष का पद इंग्लैंड के कॉमन सदन के अध्यक्ष के समान सम्मानित तथा आदरपूर्ण न होते हुए भी काफ़ी प्रभावशाली, सम्मानित आदरपूर्ण है। स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा के स्पीकर के महत्त्व को बताते हुए कहा था, “अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधि है, वह सदन के गौरव, सदन की स्वतन्त्रता का प्रतिनिधित्व करता है और राष्ट्र की स्वतन्त्रता का प्रतीक है क्योंकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए उचित ही है कि उसका पद सम्मानित तथा स्वतन्त्र होना चाहिए और उच्च योग्यता तथा निष्पक्षता वाले व्यक्तियों के द्वारा ही इसे सुशोभित किया जाना चाहिए।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय संसद् की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों-राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनेगी।” राज्यसभा संसद् का ऊपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके 250 सदस्य हो सकते हैं जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है। लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। इनमें से 550 निर्वाचित और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति संघीय संसद् का भाग अवश्य है परन्तु इसका सदस्य नहीं है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे। 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। आजकल राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 245 है। राज्यसभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धान्त जो अमेरिका की सीनेट की रचना में अपनाया गया है, भारत में नहीं अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है। उदाहरणस्वरूप जहां पंजाब से 7 तथा हरियाणा से 5 सदस्य निर्वाचित होते हैं वहां उत्तर प्रदेश से 31 प्रतिनिधि।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 निश्चित की गई थी। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिक संख्या 545 निश्चित की गई। ‘गोवा, दमन और दीयू पुनर्गठन अधिनियम 1987’ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई। इस प्रकार लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-

(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए,
(ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और
(ग) 2 ऐंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए हुए हैं।

प्रश्न 4.
लोकसभा का सदस्य बनने के लिए संविधान में लिखित योग्यताएं बताएं।
उत्तर-
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो,
  • वह संसद् द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएं रखता हो,
  • वह पागल न हो, दिवालिया न हो,
  • किसी न्यायालय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो।
  • लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले आज़ाद उम्मीदवार के लिए आवश्यक है कि उसका नाम दस प्रस्तावकों द्वारा प्रस्तावित किया गया हो।

प्रश्न 5.
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह संसद् द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो,
  • वह पागल न हो, दिवालिया न हो,
  • भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो,
  • वह उस राज्य का रहने वाला हो जहां से वह निर्वाचित होना चाहता है,
  • संसद् के किसी कानून या न्यायपालिका द्वारा राज्यसभा का सदस्य बनने के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

प्रश्न 6.
लोकसभा में प्रश्नोत्तर काल का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकसभा के सदस्य मन्त्रियों से उनके विभागों के कार्यों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकते हैं जिनका मन्त्रियों को उत्तर देना पड़ता है। लोकसभा की दैनिक बैठकों का प्रथम घण्टा प्रश्नों का उत्तर देने के लिए निश्चित है। साधारणतया प्रशासकीय जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रश्न पूछे जाते हैं, परन्तु विरोधी दल कई बार सरकार की कमियों और उसके द्वारा किये गये स्वेच्छाचारी कार्यों पर प्रकाश डालने के लिए भी प्रश्न पूछ लेते हैं और मन्त्रियों को बड़ी सतर्कता के साथ इनका उत्तर देना पड़ता है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्य प्रश्न पूछने के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखते हैं।

प्रश्न 7.
राज्यसभा के सदस्यों को कौन-से विशेषाधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर-
(क) राज्यसभा के सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। सदन में दिए गए भाषणों के कारण उसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।
(ख) अधिवेशन के दौरान और 40 दिन पहले और अधिवेशन समाप्त होने के 40 दिन बाद तक सदन के किसी भी सदस्य को दीवानी अभियोग के कारण गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
(ग) सदस्यों को वे सब विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं जो संसद् द्वारा समय-समय पर निश्चित किए जाते हैं।

प्रश्न 8.
‘काम रोको प्रस्ताव’ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
सांसद अपना दैनिक कार्य पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार करते हैं। परन्तु कई बार देश में अचानक कोई विशेष और महत्त्वपूर्ण घटना घट जाती है, जैसे कि कोई रेल दुर्घटना हो जाए, कहीं पुलिस और जनता में झगड़ा होने से कुछ व्यक्तियों की जानें चली जाएं, ऐसे समय में संसद् का कोई भी सदस्य स्थगन (काम रोको) प्रस्ताव पेश कर सकता है। इस प्रस्ताव का यह अर्थ है कि सदन का निश्चित कार्यक्रम थोड़े समय के लिए रोक दिया जाए और उस घटना या समस्या पर विचार किया जाए। अध्यक्ष इस पर विचार करता है और यदि उचित समझे तो काम रोको प्रस्ताव स्वीकार करके सामने रख देता है। वह यदि ठीक न समझे तो उसे अस्वीकृत भी कर सकता है। प्रस्ताव की स्वीकृति दो चरणों में मिलती है, पहले अध्यक्ष के द्वारा और फिर सदन के द्वारा। अध्यक्ष अपनी स्वीकृति के बाद सदन से पूछता है और यदि सदस्यों की निश्चित संख्या उस प्रस्ताव के शुरू किए जाने के पक्ष में हो तो प्रस्ताव आगे चलता है वरन् नहीं। लोकसभा में यह संख्या पचास है। प्रस्ताव स्वीकार हो जाने पर सदन का निश्चित कार्यक्रम रोक दिया जाता है और उस विशेष घटना पर विचार होता है। संसद् सदस्यों को ऐसी दशा में सरकार की आलोचना का अवसर मिलता है। मन्त्रिमण्डल भी उस स्थिति पर विचार प्रकट करता है और सदस्यों को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है।

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प्रश्न 9.
वित्त बिल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वित्त बिल उसको कहते हैं जिसका सम्बन्ध टैक्स लगाने, बढ़ाने से तथा कम करने, खर्च करने, ऋण लेने, ब्याज देने आदि की बातों से हो। यदि इस बात पर शंका हो कि अमुक बिल धन बिल है या नहीं, तो इस सम्बन्ध में लोकसभा के स्पीकर का निर्णय अंतिम समझा जाता है। उस बिल को केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है। धन बिल केवल मन्त्री ही पेश कर सकते हैं।

प्रश्न 10.
राज्यसभा के अध्यक्ष के कोई चार कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. वह राज्यसभा के अधिवेशन में सभापतित्व करता है।
  2. वह राज्यसभा में शान्ति बनाए रखने तथा उसकी बैठकों को ठीक प्रकार से चलाने का जिम्मेदार है।
  3. वह सदस्यों को बोलने की आज्ञा देता है।
  4. उसे एक निर्णायक मत देने का अधिकार है।

प्रश्न 11.
किन परिस्थितियों में संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है ?
उत्तर-
राष्टपति निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाता है-

  1. संसद् के दोनों सदनों के विवादों को हल करने के लिए संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है।
  2. संयुक्त अधिवेशन तब बुलाया जाता है जब एक बिल को संसद् का एक सदन पास कर दे और दूसरा अस्वीकार कर दे।

प्रश्न 12.
राज्यसभा की विशेष शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यसभा को संविधान के अन्तर्गत कुछ विशेष शक्तियां दी गई हैं, जो कि इस प्रकार हैं-

  1. राज्यसभा राज्यसूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके संसद् को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  2. 42वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि राज्यसभा अनुच्छेद 249 के अन्तर्गत प्रस्ताव पास करके अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं (All India Judicial Services) स्थापित करने के सम्बन्ध में संसद् को अधिकार दे सकती है।
  3. संविधान के अनुसार राज्यसभा ही 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके नई अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं (All India Judicial Services) को स्थापित करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को दे सकती है।

प्रश्न 13.
लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्यों के चुनाव में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
लोकसभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं और प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष हो, वोट डालने का अधिकार प्राप्त होता है। एक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही उम्मीदवार का चुनाव होता है और जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे ही विजयी घोषित किया जाता है। राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है। इस तरह राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा ही होता है।

प्रश्न 14.
लोकसभा तथा राज्यसभा का क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर-
लोकसभा संसद् का निम्न सदन और राज्यसभा संसद् का ऊपरी सदन है। दोनों सदनों को समान शक्तियां प्राप्त नहीं हैं। लोकसभा राज्यसभा की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है। राज्यसभा साधारण बिल को 6 महीने के लिए और धन बिल को केवल 14 दिन तक रोक सकती है। लोकसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं हो सकता और देश के वित्त पर लोकसभा का ही नियन्त्रण है। राज्यसभा मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकती है, आलोचना कर सकती है परन्तु अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिपरिषद् को नहीं हटा सकती। यह अधिकार लोकसभा के पास है। राष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदन भाग लेते हैं और महाभियोग में भी दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 15.
संसद् के प्रमुख कार्य तथा शक्तियां क्या हैं ?
उत्तर-

  • संसद् का मुख्य कार्य कानून का निर्माण करना है।
  • संसद् का राष्ट्र के वित्त पर नियन्त्रण है और बजट पास करती है।
  • संसद् का मन्त्रिमण्डल पर नियन्त्रण है और मन्त्रिमण्डल संसद् के प्रति उत्तरदायी है।
  • संसद् राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करती है।
  • संसद् को न्याय सम्बन्धी शक्तियां प्राप्त हैं।
  • संसद् निर्वाचन सम्बन्ध कार्य करती है और संविधान में संशोधन करती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संसद् की शक्तियों पर कोई चार सीमाएं बताइए।
उत्तर-
भारतीय संसद् ब्रिटिश संसद् की तरह सर्वोच्च नहीं है। इस पर निम्नलिखित मुख्य सीमाएं हैं-

  1. भारतीय संसद् संविधान के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकती।
  2. संसद् मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकती।
  3. संसद् द्वारा पास किए गए कानून राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत किए जा सकते हैं।
  4. सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति संसद् की शक्तियों पर महत्त्वपूर्ण प्रतिबन्ध है।

प्रश्न 17.
साधारण विधेयक किस तरह कानून बनता है, समझाइए।
उत्तर–
संसद् का मुख्य कार्य कानून बनाना होता है। संविधान की धारा 107 से 112 तक कानून निर्माण प्रक्रिया से सम्बन्धित है। साधारण विधेयक को संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। विधेयक को प्रत्येक सदन में पास होने के लिए पाँच अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है-(1) बिल की पुनर्स्थापना तथा प्रथम वाचन, (2) दूसरा वाचन, (3) समिति अवस्था, (4) प्रतिवादन अवस्था और (5) तीसरा वाचन। भारत में सरकारी बिल तथा निजी सदस्य बिल (Private Member’s Bill) के पास करने का ढंग एक-सा है।

एक सदन में पास होने के बाद बिल दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में भी बिल को इसी प्रकार की पाँचों अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। यदि दूसरा सदन भी बिल को पास कर दे तो वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद बिल को सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और वह कानून बन जाता है।

प्रश्न 18.
लोकसभा के अध्यक्ष के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
लोकसभा का एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होता है जिसका काम लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना, अनुशासन बनाए रखना तथा सदन की कार्यवाही को ठीक प्रकार से चलाना है। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुने जाते हैं। नई लोकसभा अपना नया अध्यक्ष चुनती है। लोकसभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष को जब चाहे प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकती है, यदि वे अपना कार्य ठीक प्रकार से न करें। परन्तु ऐसा प्रस्ताव उस समय तक लोकसभा में पेश नहीं किया जा सकता जब तक कि इस आशय की पूर्व सूचना कम-से-कम 14 दिन पहले अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को न दी गई हो। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष अध्यक्ष के पद पर काम करता है।

प्रश्न 19.
लोकसभा का अध्यक्ष कौन होता है ? इसके चार मुख्य काम लिखें। (P.B. 1988)
उत्तर-
लोकसभा का एक अध्यक्ष होता है, जिसे स्पीकर कहा जाता है और स्पीकर का चुनाव लोकसभा के सदस्य अपने में से करते हैं।

  • स्पीकर लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
  • स्पीकर लोकसभा में अनुशासन बनाए रखता है। यदि कोई सदस्य सदन में गड़बड़ी पैदा करता है तो स्पीकर उस सदस्य को सदन से बाहर निकाल सकता है।
  • स्पीकर सदन की कार्यवाही चलाता है। वह सदस्यों को बिल पेश करने, काम रोकने का प्रस्ताव करने, स्थगन प्रस्ताव पेश करने आदि की स्वीकृति देता है।
  • स्पीकर सदस्यों को बोलने की स्वीकृति देता है। कोई भी सदस्य स्पीकर की स्वीकृति के बिना सदन में नहीं बोल सकता।

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प्रश्न 20.
लोकसभा के अध्यक्ष को किस प्रकार चुना जाता है ?
उत्तर-
लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी प्रकार होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से 16वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष के पद पर चुना जाता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

प्रश्न 21.
लोकसभा के अध्यक्ष की चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
अध्यक्ष को बहुत-सी शक्तियां प्राप्त हैं तथा उसे पद से सम्बन्धित अनेकों कार्य करने पड़ते हैं जोकि मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-

  1. सदन की कार्यवाही को चलाने के लिए शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना स्पीकर का कार्य है।
  2. स्पीकर सदन के नेता से सलाह करके सदन का कार्यक्रम निश्चित करता है।
  3. स्पीकर सदन के कार्यकारी नियमों की व्याख्या करता है।
  4. बिल पर वाद-विवाद के पश्चात् मतदान करवा कर परिणाम घोषित करता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय संसद् की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों-राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनेगी।””राज्यसभा संसद् का उपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके 250 सदस्य हो सकते हैं जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है। लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे। 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। आजकल राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 245 है।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-
(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए,
(ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और
(ग) 2 एंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए हुए हैं।

प्रश्न 4.
लोकसभा का सदस्य बनने के लिए संविधान में लिखित कोई दो योग्यताएं बताएं।
उत्तर-
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  1. वह भारत का नागरिक हो,
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 5.
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए कौन-सी दो योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 6.
वित्त बिल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वित्त बिल उसको कहते हैं जिसका सम्बन्ध टैक्स लगाने, बढ़ाने से तथा कम करने, खर्च करने, ऋण लेने, ब्याज देने आदि की बातों से हो। यदि इस बात पर शंका हो कि अमुक बिल धन बिल है या नहीं, तो इस सम्बन्ध में लोकसभा के स्पीकर का निर्णय अंतिम समझा जाता है। उस बिल को केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है। धन बिल केवल मन्त्री ही पेश कर सकते हैं।

प्रश्न 7.
राज्यसभा के अध्यक्ष के कोई दो कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. वह राज्यसभा के अधिवेशन में सभापतित्व करता है।
  2. वह राज्यसभा में शान्ति बनाए रखने तथा उसकी बैठकों को ठीक प्रकार से चलाने का ज़िम्मेदार है।

प्रश्न 8.
लोकसभा के अध्यक्ष को किस प्रकार चुना जाता है ?
उत्तर-
लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी प्रकार होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से 16वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया।

प्रश्न 9.
लोकसभा स्पीकर, डिप्टी स्पीकर तथा राज्यसभा के सभापति एवं उप-सभापति का नाम बताएं।
उत्तर-
पद का नाम — व्यक्ति का नाम
1. लोकसभा स्पीकर — श्रीमती सुमित्रा महाजन
2. लोकसभा का डिप्टी स्पीकर — श्री थंबी दुरई
3. राज्य सभा का सभापति — वेंकैया नायडू
4. राज्य सभा का उप-सभापति — श्री हरिवंश नारायण सिंह

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. भारत की विधानपालिका को क्या कहते हैं ?
उत्तर-भारत की विधानपालिका को संसद् कहते हैं।

प्रश्न 2. भारतीय संसद् के कितने सदन हैं ?
उत्तर- भारतीय संसद् के दो सदन हैं-

  1. लोकसभा
  2. राज्यसभा।

प्रश्न 3. राज्यसभा की अवधि कितनी है ?
उत्तर-राज्यसभा एक स्थायी सदन है।

प्रश्न 4. राज्यसभा के सदस्यों की अवधि कितनी है ?
उत्तर-राज्यसभा के सदस्यों की अवधि 6 वर्ष है।

प्रश्न 5. राज्यसभा के कितने सदस्य प्रति दो वर्ष बाद सेवानिवृत्त होते हैं ?
उत्तर-एक तिहाई सदस्य।

प्रश्न 6. राज्यसभा की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर-राज्यसभा की अध्यक्षता उप-राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 7. लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल कितना है?
उत्तर-लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष है।

प्रश्न 8. लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है?
उत्तर-लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 हो सकती है।

प्रश्न 9. राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है?
उत्तर-राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है।

प्रश्न 10. राज्यसभा धन बिल को कितने समय तक रोक सकती है?
उत्तर-राज्यसभा धन बिल को अधिकतम 14 दिनों तक रोक सकती है।

प्रश्न 11. संसद् के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर-लोकसभा का स्पीकर।

प्रश्न 12. संसद् का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-संसद् कानूनों का निर्माण करती है।

प्रश्न 13. संविधान अनुसार संसद् में कौन-कौन शामिल है?
उत्तर-

  1. लोकसभा,
  2. राज्यसभा तथा
  3. राष्ट्रपति।

प्रश्न 14. लोकसभा में 2 एंग्लो इंडियन सदस्यों को कौन मनोनीत करता है?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 15. राज्यसभा में 12 सदस्यों को कौन मनोनीत करता है?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 16. लोकसभा का सदस्य बनने के लिए कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-25 वर्ष।

प्रश्न 17. राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-30 वर्ष।

प्रश्न 18. लोकसभा में सबसे अधिक सदस्य किस राज्य से आते हैं ?
उत्तर-उत्तर प्रदेश से।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. संविधान के अनुच्छेद ………….. में संसद् का वर्णन किया गया है।
2. ……….. संसद् का निम्न सदन है।
3. लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए …………… स्थान आरक्षित रखे गए हैं।
4. लोकसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए …………… स्थान आरक्षित रखे गए हैं।
उत्तर-

  1. 79
  2. लोकसभा
  3. 84
  4. 47.

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प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. लोकसभा का सदस्य बनने के लिए 25 वर्ष की आयु होनी चाहिए।
2. राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए 35 वर्ष की आयु होनी चाहिए।
3. राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्यों को नियुक्त कर सकता है।
4. प्रधानमन्त्री लोकसभा में 12 ऐंग्लो इंडियन सदस्यों को मनोनीत कर सकता है।
5. लोकसभा का चुनाव पांच वर्ष के लिए किया जाता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या हो सकती है
(क) 250
(ख) 400
(ग) 500
(घ) 545.
उत्तर-
(क) 250।

प्रश्न 2.
संसद् के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है ?
(क) राज्यसभा का चेयरमैन
(ख) लोकसभा का स्पीकर
(ग) भारत का राष्ट्रपति
(घ) भारत का प्रधानमन्त्री।
उत्तर-
(ख) लोकसभा का स्पीकर।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित संसद का कार्य है-
(क) कानूनों का निर्माण करना
(ख) शासन करना
(ग) युद्ध की घोषणा करना
(घ) नियुक्तियां करना।
उत्तर-
(क) कानूनों का निर्माण करना।

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प्रश्न 4.
संविधान के अनुसार संसद् में सम्मिलित है
(क) लोकसभा, राज्यसभा और मन्त्रिमंडल
(ख) लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति
(ग) लोकसभा, राज्यसभा और प्रधानमन्त्री
(घ) लोकसभा, राज्यसभा और उप-राष्ट्रपति।
उत्तर-
(ख) लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियक्ति, शक्तियों तथा स्थिति का वर्णन करें।
(Explain the appointment, powers and position of the Governor of a state.)
अथवा
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है ? (How is the Governor of a State appointed ?)
अथवा
राज्यपाल की वास्तविक स्थिति की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain briefly the actual position of a State Governor.)
अथवा
आपके राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है ? उसकी शक्तियों और स्थिति का वर्णन करें।
(How is the Governor of a State appointed ? Discuss his powers and position.)
उत्तर-
भारत में संघीय प्रणाली की व्यवस्था होने के कारण राज्यों की अलग-अलग सरकारें हैं। राज्य की सरकारों का संगठन बहुत कुछ संघीय सरकार से मिलता-जुलता है। संविधान के अनुच्छेद 153 में अंकित है कि “प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा और एक ही व्यक्ति दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल हो सकता है।” राज्य का शासन राज्यपाल के नाम पर चलता है जो राज्य का अध्यक्ष है, परन्तु राज्यों में भी केन्द्र की तरह संसदीय शासन-व्यवस्था होने के कारण राज्यपाल नाममात्र का तथा संवैधानिक अध्यक्ष है। राज्य का मन्त्रिमण्डल ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका है और राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करता है। राज्यपाल की स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है जैसी कि केन्द्र में राष्ट्रपति की। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 160 राज्यपाल की नियुक्ति तथा कार्यो का वर्णन किया गया है।

राज्यपाल की नियुक्ति (Appointment)-प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति नियुक्त करता है तथा वह राष्ट्रपति की कृपा दृष्टि (During the pleasure of the President) तक ही अपने पद पर रह सकता है। व्यवहार में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से ही राज्यपाल को नियुक्त करता है। 18 अगस्त, 2016 को श्री वी० पी० सिंह बदनौर (Sh. V.P. Singh Badnore) को पंजाब का राज्यपाल नियुक्त किया गया।

राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ प्रथाएं स्थापित की गई हैं, जिनमें मुख्य निम्न प्रकार की हैं-

  • प्रथम परम्परा तो यह है कि ऐसे व्यक्ति को किसी राज्य में राज्यपाल नियुक्त किया जाता है जो उस राज्य का निवासी न हो।
  • दूसरे राष्ट्रपति किसी राज्यपाल को नियुक्त करने से पहले उस राज्य के मुख्यमन्त्री से भी इस बात का परामर्श लेता है।

योग्यताएं (Qualifications)-अनुच्छेद 157 के अन्तर्गत राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  • वह किसी राज्य में विधानमण्डल अथवा संसद् का सदस्य न हो तथा यदि हो, तो राज्यपाल का पद ग्रहण करने के समय उसका सदन वाला स्थान रिक्त समझा जाएगा।
  • राज्यपाल अपने पद पर नियुक्त होने के बाद किसी अन्य लाभदायक पद पर नहीं रह सकता।
  • वह किसी न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित न किया गया हो।

वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances)-राज्यपाल के वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाओं को निश्चित करने का अधिकार संसद् को दिया गया है, परन्तु राज्यपाल की नियुक्ति के बाद उसके वेतन तथा अन्य सुविधाओं में उसके कार्यकाल में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता जिससे उसकी हानि हो। प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को 3,50,000 रु० मासिक, नि:शुल्क सरकारी कोठी तथा कुछ भत्ते भी मिलते हैं। भत्तों की राशि समस्त राज्यों में एक जैसी नहीं है। राज्य के वातावरण तथा आवश्यकताओं के अनुसार भत्ते अधिक तथा कम दिये जाते हैं।

कार्यकाल (Term) साधारणतया राज्यपाल को 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है और वह अपने पद पर तब तक रह सकता है जब तक उसे राष्ट्रपति चाहे। राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने से पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है। 27 अक्तूबर, 1980 को राष्ट्रपति ने तामिलनाडु के राज्यपाल प्रभुदास पटवारी को बर्खास्त किया। जनवरी, 1990 में राष्ट्रपति वेंकटरमण ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार की सलाह पर सभी राज्यपालों को त्याग-पत्र देने को कहा। अधिकतर राज्यपालों ने तुरन्त अपने त्याग-पत्र भेज दिए। राज्यपाल चाहे तो स्वयं भी 5 वर्ष से पूर्व त्याग-पत्र दे सकता है। 22 जून, 1991 को पंजाब के राज्यपाल जनरल ओ० पी० मल्होत्रा (O.P. Malhotra) ने पंजाब में चुनाव स्थगित किए जाने के विरोध में त्याग-पत्र दे दिया।

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न्यायिक सुविधाएं (Immunities)-राज्यपाल को संविधान द्वारा कुछ न्यायिक सुविधाएं भी मिली हुई हैं-

  • उसको अपने पद की शक्तियों के प्रयोग तथा कर्तव्यों का पालन करने के लिए किसी भी न्यायालय के सम्मुख उत्तरदायी नहीं होना पड़ता।
  • उसके कार्यकाल में उसके विरुद्ध कोई फौजदारी अभियोग नहीं चलाया जा सकता।
  • अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय को उसे नजरबन्द करने की आज्ञा जारी करने का अधिकार नहीं है।
  • यदि किसी ने राज्यपाल के विरुद्ध दीवानी मुकद्दमा करना हो तो दो मास का नोटिस देना ज़रूरी है।

राज्यपाल का स्थानान्तरण (Transfer of Governor)-राष्ट्रपति जब चाहे किसी राज्य के राज्यपाल को दूसरे राज्य में स्थानान्तरण कर सकता है। उदाहरणस्वरूप 13 सितम्बर, 1977 को हरियाणा के राज्यपाल जय सुखलाल हाथी को पंजाब का राज्यपाल नियुक्त किया गया और उड़ीसा के राज्यपाल हरचरण सिंह बराड़ को हरियाणा का राज्यपाल नियुक्त किया गया। 8 अक्तूबर, 1983 को पश्चिमी बंगाल के राज्यपाल भैरव दत्त पांडे को पंजाब का राज्यपाल व पंजाब के राज्यपाल ए० पी० शर्मा को पश्चिमी बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया।

राज्यपाल की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Governor) –
राज्यपाल को लगभग वही शक्तियां तथा कार्य प्राप्त हैं जो केन्द्र में राष्ट्रपति को प्राप्त हैं। डी० डी० वसु (D.D. Basu) के शब्दों में, “राष्ट्रपति की आपात्कालीन शक्तियों और कूटनीतिक व सैनिक शक्तियों को छोड़ कर राज्यप्रशासन में शेष शक्तियां राष्ट्रपति की भांति राज्यपाल को भी प्राप्त हैं।”

राज्यपाल की शक्तियां तथा कार्य निम्नलिखित हैं-

(क) कार्यपालिका शक्तियां (Executive Powers)-संविधान के अनुच्छेद 154 के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियां राज्यपाल में निहित की गई हैं जिनका प्रयोग या तो स्वयं प्रत्यक्ष रूप से करता है या अपने अधीन कार्यपालिका द्वारा करता है। राज्यपाल को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं

  • राज्य का समस्त शासन गवर्नर के नाम से चलाया जाता है।
  • राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  • मन्त्री अपने पद पर राज्यपाल की कृपा-पर्यन्त रहते हैं। राज्यपाल भी मन्त्री को मुख्यमन्त्री की सलाह से हटा सकता है।
  • वह शासन के कार्य को सुविधापूर्वक चलाने के लिए तथा उस कार्य को मन्त्रियों में बांटने के लिए नियम बनाता है।
  • वह राज्य के महाधिवक्ता (Advocate General) और राज्य लोकसेवा आयोग के सभापति तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। राज्यों में बड़े-बड़े पदाधिकारियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा ही की जाती है।
  • राष्ट्रपति उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राज्यपाल की सलाह लेता है।
  • राज्यपाल मन्त्री के किसी निर्णय को मन्त्रिपरिषद् के पास विचार करने के लिए वापिस भेज सकता है।
  • वह प्रशासन के बारे में मुख्यमन्त्री से कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है।
  • असम के राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया है कि वह अनुसूचित कबीलों का ध्यान रखे।
  • राज्यपाल जब यह अनुभव करे कि राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी है कि राज्य प्रशासन लोकतन्त्रात्मक परम्पराओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तब वह राष्ट्रपति को इस सम्बन्ध में रिपोर्ट भेजता है और राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक संकट की घोषणा पर वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का शासन चलाता है।

(ख) विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)–राज्यपाल विधानमण्डल का सदस्य नहीं, फिर भी कानूननिर्माण में उसका महत्त्वपूर्ण हाथ है और इसलिए उसे विधानमण्डल का एक अंग माना जाता है। उसे निम्नलिखित विधायिनी शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता है।
  2. वह विधानमण्डल के दोनों सदनों में भाषण दे सकता है तथा उनको सन्देश भेज सकता है।
  3. वह विधानमण्डल के निम्न सदन विधानसभा को जब चाहे, भंग कर सकता है। अपने इस अधिकार का प्रयोग वह साधारणतया मुख्यमन्त्री के परामर्श पर ही करता है।
  4. प्रत्येक वर्ष विधानमण्डल का अधिवेशन राज्यपाल के भाषण से प्रारम्भ होता है जिसमें राज्य की नीति का वर्णन होता है।
  5. यदि राज्य विधानमण्डल में ऐंग्लो-इण्डियन जाति को उचित प्रतिनिधित्व न मिले, तो राज्यपाल उस जाति के एक सदस्य को विधानसभा में मनोनीत करता है।
  6. राज्य विधानमण्डल द्वारा पास हुआ बिल उतनी देर तक कानून नहीं बन सकता जब तक राज्यपाल अपनी स्वीकृति न दे दे। धन बिलों को राज्यपाल स्वीकृति देने से इन्कार नहीं कर सकता परन्तु साधारण बिलों को पुनर्विचार करने के लिए वापस भेज सकता है। यदि विधानमण्डल साधारण बिल दोबारा पास कर दे तो राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है। राज्यपाल कुछ बिलों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है।
  7. वह राज्य विधानमण्डल के उपरि सदन (विधानपरिषद्) के 1/6 सदस्यों को मनोनीत करता है। राज्यपाल ऐसे व्यक्तियों को मनोनीत करता है जिन्होंने विज्ञान, कला, साहित्य, समाज-सेवा आदि के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की हो।
  8. राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का भी अधिकार प्राप्त है। अध्यादेश को उसी प्रकार लागू किया जाता है जिस प्रकार विधानमण्डल के बनाए हुए कानून को, परन्तु यह अध्यादेश विधानमण्डल की बैठक आरम्भ होने के 6 सप्ताह के पश्चात् लागू नहीं रह सकता। यदि विधानमण्डल इस समय से पूर्व ही इसको समाप्त करने का प्रस्ताव पास कर दे, तो ऐसे अध्यादेशों का प्रभाव तुरन्त समाप्त हो जाता है। राज्यपाल स्वयं भी अध्यादेश वापस ले सकता है।
  9. राज्यपाल विधानपरिषद् के सभापति तथा उप-राष्ट्रपति के पद रिक्त होने पर किसी भी सदस्य को विधानपरिषद् की अध्यक्षता करने को कह सकता है।

(ग) वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्यपाल को निम्नलिखित वित्तीय शक्तियां प्राप्त हैं-

  • राज्यपाल की सिफ़ारिश के बिना कोई धन-बिल विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता।
  • राज्यपाल वित्त मन्त्री द्वारा वार्षिक बजट विधानसभा में पेश करवाता है। कोई भी अनुदान की मांग (Demand for Grant) बजट में बिना राज्यपाल की आज्ञा के प्रस्तुत नहीं हो सकती।
  • राज्य की आकस्मिक निधि (Contingency Fund of the State) पर राज्यपाल का ही नियन्त्रण है। यदि संकट के समय आवश्यकता पड़े, तो राज्यपाल इसमें से आवश्यकतानुसार व्यय कर लेता है तथा उसके पश्चात् विधानमण्डल से उस व्यय की स्वीकृति ले लेता है।

(घ) न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-राज्यपाल को निम्नलिखित न्यायिक शक्तियां प्राप्त हैं

  • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति राज्यपाल की सलाह लेता है।
  • जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति और पदोन्नति राज्यपाल ही करता है।
  • राज्यपाल उस अपराधी के दण्ड को क्षमा कर सकता है, घटा सकता है तथा कुछ समय के लिए स्थगित कर सकता है, जिसे राज्य से कानून के विरुद्ध अपराध करने पर दण्ड मिला हो।
  • राज्यपाल यह भी देखता है कि किसी न्यायालय के पास अधिक कार्य तो नहीं है। यदि हो, तो वह आवश्यकतानुसार अधिक न्यायाधीशों को नियुक्त कर सकता है।

(ङ) स्वैच्छिक अधिकार (Discretionary Powers)-राज्यपाल को कुछ स्वविवेकी शक्तियां भी प्राप्त हैं। स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग राज्यपाल अपनी इच्छा से करता है न कि मन्त्रिमण्डल के परामर्श से। राज्यपाल की मुख्य स्वविवेकी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • संघीय क्षेत्र के प्रशासक के रूप में यदि राष्ट्रपति ने राज्यपाल के समीप संघीय क्षेत्र (Union Territory) का प्रशासक भी नियुक्त कर दिया है तो उस क्षेत्र का प्रशासन स्वविवेक से चलाता है।
  • असम में आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में- असम राज्य के राज्यपाल को आदिम जातियों के सम्बन्ध में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार दिया गया है।
  • सिक्किम के राज्यपाल के विशेष उत्तरदायित्व-सिक्किम राज्य में शान्ति बनाए रखने के लिए तथा सिक्किम को जनसंख्या के सब वर्गों के सामाजिक तथा आर्थिक विकास के लिए सिक्किम के राज्यपाल को विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया है।
  • राज्य में संवैधानिक संकट होने पर-प्रत्येक राज्यपाल अपने राज्य में संवैधानिक मशीनरी के फेल हो जाने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को करता है जिस पर वह संकटकाल की घोषणा करता है। इस दशा में मन्त्रिपरिषद् को भंग कर दिया जाता है तथा वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है।
  • राज्यपाल अपने राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होता है।

राज्यपाल की स्थिति (Position of the Governor) – राज्यपाल एक संवैधानिक मुखिया के रूप में राज्य में राज्यपाल की स्थिति लगभग वही है जो कि संघीय सरकार में राष्ट्रपति की है। संविधान के दृष्टिकोण से सरकार की समस्त शक्तियां राज्यपाल में निहित हैं तथा मन्त्रिपरिषद् का कार्य उसको शासन में सहायता तथा परामर्श देना है। वह एक संवैधानिक शासक है तथा राज्य का सम्पूर्ण कार्य उसके नाम पर चलाया जाता है। राज्यपाल को जितनी भी शक्तियां प्राप्त हैं, उनका प्रयोग वह राज्य की मन्त्रिपरिषद् द्वारा करता है। हमारे संविधान में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि राज्यपाल के मन्त्रिपरिषद् के परामर्श को स्वीकार करना आवश्यक है अथवा नहीं, परन्तु देश तथा राज्यों में संसदीय प्रकार की सरकार स्थापित होने के कारण राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् की सम्मति से राज्य का प्रबन्ध चलाना पड़ता है। वास्तव में राज्यपाल की स्थिति एक संवैधानिक प्रमुख अथवा नाम मात्र प्रशासक की भान्ति है तथा राज्य की वास्तविक शक्ति मन्त्रिपरिषद् के पास है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

राज्यपाल केवल एक संवैधानिक मुखिया नहीं बल्कि वह एक प्रभावशाली अधिकारी है।
राज्यपाल के संवैधानिक प्रमुख होने का यह अर्थ नहीं कि उसका पद बिल्कुल ही प्रभावहीन है। चाहे उसकी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् ही करती है फिर भी राज्यपाल शासन का महत्त्वपूर्ण अधिकारी होता है। वह राष्ट्रपति का प्रतिनिधि तथा राज्य में केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि है। वह केन्द्रीय सरकार को अपने राज्यों के विषयों के सम्बन्ध में सूचित करता है। वह मन्त्रिपरिषद् को परामर्श देने, चेतावनी देने तथा उत्साह देने का अधिकार रखता है। वर्तमान संविधान के अधीन कुछ ऐसी परिस्थितियां भी हैं जिनके अनुसार राज्यपाल अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है, जो कि इस प्रकार हैं-

  • जब राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा करता है तो राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि बन जाता है। उसको राष्ट्रपति की आज्ञाओं का पालन करना पड़ता है।
  • जब राज्यपाल राष्ट्रपति को यह रिपोर्ट भेजता है कि राज्य-कार्य संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाया जा रहा, तो राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल हो जाने के कारण राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि (Agent) की स्थिति में राज्य सरकार के वास्तविक शासक (Real Ruler) के रूप में कार्य करता है। जब राज्यपाल राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट भेजता है तब वह किसी दल का पक्ष भी ले सकता है।
  • जब विधानसभा के चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता तब राज्यपाल अपनी इच्छा से मुख्यमन्त्री को नियुक्त करता है।
  • मन्त्रिपरिषद् को भंग करते समय राज्यपाल अपनी इच्छा का प्रयोग कर सकता है। 1967 के चुनाव के बाद पश्चिमी बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर ने अजय मुखर्जी के मन्त्रिमण्डल को भंग कर दिया और विधानसभा का अधिवेशन बुला कर यह तक नहीं देखा कि उनको विधानसभा में बहुमत प्राप्त है या नहीं।
  • विधानसभा का विघटन (Dissolution) करते समय जब तक बहुतम दल का नेता विधानसभा को भंग करने की सलाह राज्यपाल को देता है तब तो राज्यपाल को वह सलाह माननी पड़ती है, परन्तु इस सम्बन्ध में राज्यपाल को स्वविवेक का प्रयोग करने का अवसर तब प्राप्त होता है जबकि दल-बदल के कारण या अन्य किसी कारण से सरकार अल्पमत में रह गई हो।
  • राज्यपाल मुख्यमन्त्री से प्रशासन सम्बन्धी तथा वैधानिक कार्यों के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करने का अधिकार रखता है।
  • विधानमण्डल द्वारा पास किए बिल को अस्वीकार करते समय अथवा उसको विधानमण्डल के पुनर्विचार के लिए भेजते समय।
  • राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए बिल को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजते समय।
  • इसके अतिरिक्त असम के राज्यपाल को कुछ अधिक स्वैच्छिक (Discretionary) अधिकार प्राप्त हैं। उसको कुछ विशेष कबीलों तथा क्षेत्रों के राज्य-प्रबन्ध के लिए अपनी स्वेच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता है।

पायली ने ठीक ही कहा है कि, “राज्यपाल न तो नाममात्र का अध्यक्ष है, न ही रबड़ की मोहर है बल्कि एक ऐसा अधिकारी है जो राज्य के प्रशासन और जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला है।” राज्यपाल के कर्त्तव्यों के विषय में स्वर्गीय राष्ट्रपति श्री वी० वी० गिरि के शब्दों में, “राज्यपालों को संविधान के उपबन्धों, अपनी श्रेष्ठ बुद्धि और योग्यता के अनुसार जनता के हितों के लिए काम करना चाहिए।”

प्रश्न 2.
मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस तरह होता है ? मन्त्रिपरिषद् की शक्तियों का वर्णन करें।
(How is the Council of Ministers formed ? Explain its powers.)
उत्तर-
हमारे संविधान में केन्द्र तथा प्रान्तों में संसदीय शासन-व्यवस्था का प्रबन्ध किया गया है। अनुच्छेद 163 में लिखा हुआ है कि राज्यपाल की सहायता तथा उसको परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका मुखिया मुख्यमन्त्री होगा। राज्यपाल के कुछ अधिकारों को छोड़ कर शेष सभी अधिकारों का प्रयोग करने का अधिकार मन्त्रिपरिषद् को ही है। अतः केन्द्र की तरह प्रान्तों को शासन वास्तव में मन्त्रिपरिषद् द्वारा ही चलाया जा सकता है।

मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of the Council of Ministers)–मन्त्रिपरिषद् के निर्माण के लिए सबसे पहला महत्त्वपूर्ण पग मुख्यमन्त्री की नियुक्ति है। राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के अध्यक्ष मुख्यमन्त्री को सर्वप्रथम नियुक्त करता है, परन्तु राज्यपाल उसे अपनी इच्छा से नियुक्त नहीं कर सकता। जिस दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया जाता है। मुख्यमन्त्री की सलाह से राज्यपाल अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रियों के लिए विधानमण्डल के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य होना अनिवार्य है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त किया जाए जो किसी भी सदन का सदस्य न हो, तो उसको 6 महीने के के अन्दर-अन्दर विधानमण्डल के किसी एक सदन का सदस्य बनना पड़ता है। दिसम्बर, 2003 में पारित 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि राज्य मन्त्रिपरिषद का आकार विधानपालिका के निचले सदन (विधानसभा) की कुल सदस्य संख्या का 15% होगा। मार्च, 2017 में पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने अपने 9 सदस्यीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया।
विभागों का वितरण (Distribution of Portfolios)—संविधान के अनुसार मन्त्रियों में विभागों का विभाजन करने का उत्तरदायित्व राज्यपाल का है, परन्तु वास्तव में यह कार्य मुख्यमन्त्री द्वारा किया जाता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे अपने मन्त्रियों के विभागों को बदल सकता है।

कार्यकाल (Term of Office) मन्त्रिपरिषद् का कार्यकाल निश्चित नहीं है। वह अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है अर्थात् मन्त्रिपरिषद् उसी समय तक अपने पद पर रह सकती है जब तक कि उसे विधानसभा का विश्वास प्राप्त हो।

मन्त्रिपरिषद् की शक्तियां और कार्य (Powers and Functions of the Council of Ministers) राज्य की मन्त्रिपरिषद् की शक्तियां और कार्य भी संघीय मन्त्रिपरिषद् के कार्यों से मिलते-जुलते हैं। इसकी शक्तियों और कार्यों का उल्लेख निम्नलिखित कई श्रेणियों में किया जा सकता है-

  • नीति का निर्धारण (Determination of Policy)-मन्त्रिपरिषद् का मुख्य कार्य प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करना है। मन्त्रिपरिषद् राज्य की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं का हल निकालती है। नीतियां बनाते समय मन्त्रिपरिषद् अपने दल के कार्यक्रम व नीतियों को ध्यान में रखती है। मन्त्रिपरिषद् केवल नीति का निर्णय नहीं करती बल्कि उसे विधानमण्डल की स्वीकृति के लिए भी प्रस्तुत करती है।
  • प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over Administration)—शासन को अच्छी प्रकार चलाने के लिए कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है। विभाग में मन्त्री के अधीन कई सरकारी कर्मचारी होते हैं जो उसकी आज्ञानुसार कार्य करते हैं। मन्त्री को अपने विभाग का शासन मन्त्रिपरिषद् की निश्चित नीति के अनुसार चलाना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् प्रशासन चलाने के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है।
  • कानून को लागू करना तथा व्यवस्था को बनाए रखना (Enforcement of Law and Maintenance of Order)-राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानून को लागू करना मन्त्रिपरिषद् की ज़िम्मेवारी है। कानून का तब तक कोई महत्त्व नहीं है जब तक उसे लागू न किया जाए और कानूनों को सख्ती से अथवा नर्मी से लागू करना मन्त्रिपरिषद् पर निर्भर करता है। राज्य के अन्दर शान्ति को बनाए रखना मन्त्रिपरिषद् का कार्य है।
  • नियुक्तियां (Appointments)-राज्य की सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राज्यपाल मन्त्रिमण्डल के परामर्श से करता है। वास्तव में नियुक्तियों के सम्बन्ध में सभी निर्णय मन्त्रिमण्डल के द्वारा लिए जाते हैं और राज्यपाल उन सभी निर्णयों के अनुसार नियुक्तियां करता है। इन नियुक्तियों में एडवोकेट जनरल, राज्य के लोक-सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य, राज्य में विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों के पद इत्यादि सम्मिलित हैं।
  • विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-राज्य के कानून निर्माण में मन्त्रिपरिषद् का मुख्य हाथ होता है। मन्त्रिपरिषद के सभी सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं। ये विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं तथा वोट डालते हैं। सभी महत्त्वपूर्ण बिल मन्त्रिपरिषद् द्वारा तैयार किये जाते हैं और किसी-न-किसी मन्त्री द्वारा विधानमण्डल में पेश किए जाते हैं। मन्त्रिपरिषद् को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है, जिस कारण इसके द्वारा पेश किए गए सभी बिल पास हो जाते हैं। मन्त्रिपरिषद् की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं हो सकता।
  • वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्य का बजट मन्त्रिमण्डल द्वारा ही तैयार किया जाता है। मन्त्रिपरिषद् ही इस बात का निर्णय करती है कि कौन से नए कर लगाए जाएं और किस कर में कमी या बढ़ौतरी की जाए। बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण यह अपनी इच्छानुसार उन्हें पास करवा लेती है।
  • विभागों में तालमेल (Coordination among the Departments)-मन्त्रिपरिषद् का कार्य राज्य का प्रशासन ठीक प्रकार से चलाना है तथा मन्त्रिमण्डल का मुख्य कार्य भिन्न-भिन्न विभागों में तालमेल उत्पन्न करना है ताकि राज्य का प्रशासन-प्रबन्ध अच्छी तरह से चलाया जा सके। विभिन्न विभागों के मतभेदों को दूर करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है।

मन्त्रिपरिषद् की स्थिति (Position of the Council of Ministers)—निःसन्देह मन्त्रिपरिषद् ही राज्य की वास्तविक शासक है। राज्य के कानून बनवाने, उन्हें लागू करने तथा शासन करने में उसकी इच्छा ही प्रधान रहती है। मन्त्रिपरिषद् को वास्तविक स्थिति कुछ कारकों पर निर्भर है-(क) यदि मन्त्रिपरिषद् केवल एक दल से ही सम्बन्धित है और उस दल को विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त है तथा इसके साथ-साथ दलीय अनुशासन दृढ़ होने के नाते दलबदली की सम्भावना कम है तो मन्त्रिपरिषद् वास्तविक शासक होती है। (ख) यदि मन्त्रिपरिषद् मिली-जुली (Coalition) हो तो यह इतनी सुदृढ़ और शक्तिशाली नहीं होती (ग) धारा 356 के अन्तर्गत संकटकालीन घोषणा के दौरान तो मन्त्रिपरिषद् होती ही नहीं।

प्रश्न 3.
भारतीय संघ के राज्यों में नाममात्र कार्यपालिका तथा वास्तविक कार्यपालिका कौन होता है ? वास्तविक कार्यपालिका की शक्तियों की व्याख्या करे।
(Who is the Nominal Executive and Real Executive in the States of the Indian Union ? Explain the powers and position of the Real Executive.)
उत्तर-
भारतीय संघ के राज्यों में केन्द्र की तरह संसदीय प्रणाली की व्यवस्था की गई है। जिस तरह केन्द्र में राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका है, उसी तरह राज्यों में राज्यपाल नाममात्र की कार्यपालिका है। राज्य का शासन राज्यपाल के नाम पर चलता है जो राज्य का अध्यक्ष परन्तु राज्यपाल नाममात्र का तथा संवैधानिक अध्यक्ष है। राज्य का मन्त्रिमण्डल ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका है और राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करता है। केन्द्र की तरह राज्यों का शासन वास्तव में मन्त्रिपरिषद् द्वारा चलाया जाता है।
वास्तविक कार्यपालिका की शक्तियां एवं स्थिति-इसके लिए पिछला प्रश्न देखिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 4.
मुख्यमन्त्री को कौन नियुक्त करता है ? उसकी शक्तियों तथा स्थिति की व्याख्या करें।
(Who appoints the Chief Minister ? Discuss his powers and position.)
उत्तर-
राज्य का समस्त प्रशासन राज्यपाल के नाम पर ही चलाया जाता है परन्तु वास्तव में प्रशासन को राज्यपाल अपनी इच्छा के अनुसार न चला कर मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार चलाता है और मन्त्रिमण्डल मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करता है। राज्य में मुख्यमन्त्री की लगभग वही स्थिति है जो केन्द्र में प्रधानमन्त्री की अर्थात् देश का वास्तविक शासक प्रधानमन्त्री तथा राज्य का वास्तविक शासक मुख्यमन्त्री है।

नियुक्ति (Appointment)-मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे, मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में राज्यपाल को या तो विधानसभा में सबसे अधिक स्थान प्राप्त दल के नेता को अथवा यदि कुछ दलों ने मिलकर सभा में सबसे अधिक स्थान प्राप्त दल के नेता को अथवा यदि कुछ दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा और उन्हें स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया तो ऐसे मिले-जुले दलों के नेता को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त करना चाहिए। फरवरी, 1992 में पंजाब विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस (ई) को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और राज्यपाल ने कांग्रेस (इ) के नेता बेअन्त सिंह को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया। फरवरी, 1997 की पंजाब राज्य विधानसभा के चुनावों के पश्चात् अकाली दल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ को भारी सफलता प्राप्त हुई और सरदार प्रकाश सिंह बादल राज्य के मुख्यमन्त्री बने। फरवरी, 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और राज्यपाल ने कांग्रेस के कैप्टन अमरिन्दर सिंह को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया। फरवरी, 2017 में हुए पंजाब विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी सफलता प्राप्त हुई तथा कैप्टन अमरिन्दर सिंह राज्य के मुख्यमन्त्री नियुक्त किये गए।

वेतन और भत्ते (Salary and Allowances)—मुख्यमन्त्री के वेतन तथा भत्ते राज्य विधानमण्डल द्वारा निश्चित किए जाते हैं।
अवधि (Term of Office)-मुख्यमन्त्री का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं है। वह उसी समय तक अपने पद पर रह सकता है जब तक कि विधानसभा का बहुमत उसके साथ है। राज्यपाल अपनी इच्छानुसार जब चाहे उसे अपदस्थ नहीं कर सकता और बहुमत का समर्थन खोने पर वह पद पर नहीं रह सकता। मुख्यमन्त्री स्वयं भी जब चाहे, त्यागपत्र दे सकता है। 21 नवम्बर, 1996 को पंजाब के मुख्यमन्त्री हरचरण सिंह बराड़ ने अपना त्याग-पत्र राज्यपाल छिब्बर को दे दिया।

मुख्यमन्त्री की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Chief Minister)-मुख्यमन्त्री की शक्तियों और कार्यों को निम्नलिखित कई भागों में बांटा जा सकता है-

1. मुख्यमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् (Chief Minister and the Council of Minister)-मुख्यमन्त्री के बिना मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रधानमन्त्री की तरह उसे भी ‘मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला’ (Keystone of the Cabinet arch) कहा जा सकता है। मुख्यमन्त्री की मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां निम्नलिखित हैं-

(क) मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of the Council of Ministers)-राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् उन व्यक्तियों की सूची तैयार करता है जिन्हें वह मन्त्रिपरिषद् में लेना चाहता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रियों की सूची तैयार करके राज्यपाल को भेजता है और राज्यपाल की स्वीकृति के पश्चात् सूची में दिए गए व्यक्ति मन्त्री नियुक्त कर दिए जाते हैं। राज्यपाल सूची में दिए गए व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त करने से इन्कार नहीं कर सकता। मन्त्रिपरिषद् के निर्माण का वास्तविक कार्य मुख्यमन्त्री का है। दिसम्बर, 2003 में पारित 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि राज्य मन्त्रिपरिषद् का आकार विधानपालिका के निचले सदन (विधानसभा) की कुल सदस्य संख्या का 15% होगा। मार्च, 2017 में पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने अपने 9 सदस्यीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया।

(ख) मन्त्रियों की पदच्युति (Removal of Ministers)—मुख्यमन्त्री मन्त्रियों को अपने पद से हटा भी सकता है। यदि वह किसी मन्त्री के काम से प्रसन्न न हो या उसके विचार मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों, तो वह उस मन्त्री को त्याग-पत्र देने के लिए कह सकता है। यदि मन्त्री त्याग-पत्र न दे, तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को बर्खास्त करवा सकता है। यदि मन्त्री उसकी इच्छानुसार त्याग-पत्र न दे तो वह स्वयं भी अपना त्यागपत्र दे सकता है जिसका अर्थ यह होगा समस्त मन्त्रिपरिषद् का त्याग-पत्र। बहुमत दल का नेता होने के कारण जब दोबारा मन्त्रिमण्डल बनाने लगे, तो उस मन्त्री को छोड़कर अन्य सभी मन्त्रियों को मन्त्रिपरिषद् में ले सकता है। 16 फरवरी, 1993 को हरियाणा के मुख्यमन्त्री भजनलाल की सलाह पर राज्यपाल ने विज्ञान एवं टेकनालोजी राज्यमन्त्री डॉ० राम प्रकाश को बर्खास्त कर दिया।

(ग) विभागों का वितरण (Distribution of Portfolios)-मुख्यमन्त्री मन्त्रियों को केवल नियुक्त ही नहीं करता बल्कि उनमें विभागों का वितरण भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है। कोई भी मन्त्री यह मांग नहीं कर सकता कि उसे कोई विशेष विभाग मिलना चाहिए। मुख्यमन्त्री जब चाहे मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है। उदाहरणस्वरूप पंजाब के मुख्यमन्त्री हरचरण सिंह बराड़ ने 7 फरवरी, 1996 को अपने मन्त्रिमण्डल का विस्तार किया और मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन किया था।

(घ) मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष (Chairman of the Council of Ministers)-मन्त्रिपरिषद् अपना समस्त कार्य मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में ही करती है। मुख्यमन्त्री ही परिषद् की बैठक बुलाता है और इस बात का निश्चय करता है कि बैठक कब और कहां बुलाई जाए तथा उसमें किस विषय पर विचार किया जाएगा। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता है और मन्त्रिपरिषद् के निर्णय भी अधिकतर मुख्यमन्त्री की इच्छानुसार ही होते हैं।

(ङ) मन्त्रिमण्डल का नेतृत्व एवं प्रतिनिधित्व (Leadership and Representative of Cabinet)-मुख्यमन्त्री मन्त्रिमण्डल का नेतृत्व और प्रतिनिधित्व करता है। इसके महत्त्वपूर्ण निर्णयों की घोषणा जनता तथा विधानमण्डल के सामने मुख्यमन्त्री के द्वारा ही की जाती है। शासन की नीति पर मुख्यमन्त्री ही प्रकाश डालता है और उस पर उत्पन्न हुए मतभेदों का स्पष्टीकरण करता है।

2. राज्यपाल और मन्त्रिपरिषद के बीच कड़ी (Link between the Governor and Council of Ministers)-मुख्यमन्त्री ही मन्त्रिपरिषद् तथा राज्यपाल के बीच कड़ी है। कोई भी मन्त्री मुख्यमन्त्री की आज्ञा के बिना राज्यपाल से मिलकर प्रशासनिक मामलों के बारे में बातचीत नहीं कर सकता। मन्त्रिपरिषद् के बारे में मुख्यमन्त्री ही राज्यपाल को सूचित करता है। राज्यपाल भी, यदि उसे प्रशासन के बारे में कोई सूचना चाहिए, मुख्यमन्त्री के द्वारा ही प्राप्त कर सकता है।

3. शासन के विभिन्न विभागों में समन्वय (Co-ordination among the different Departments)शासन के विभिन्न विभागों में तालमेल होना आवश्यक है क्योंकि एक विभाग की नीतियों का दूसरे विभाग पर आवश्यक प्रभाव पड़ता है। यह तालमेल मुख्यमन्त्री द्वारा पैदा किया जाता है। मुख्यमन्त्री विभिन्न विभागों की देख-रेख करता है
और इस बात का ध्यान रखता है कि किसी विभाग की नीति का दूसरे विभाग पर बुरा प्रभाव न पड़े।

4. राज्यपाल का मुख्य सलाहकार (Principal Adviser of the Governor)—मुख्यमन्त्री राज्यपाल का मुख्य सलाहकार है और सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देता है। राज्यपाल प्रायः सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री की सलाह मान लेता है सिवाय उन विषयों को छोड़कर, जब वह केन्द्रीय सरकार के निर्देशन में काम कर रहा हो।

5. विधानमण्डल का नेता (Leader of the State Legislature)-मुख्यमन्त्री विधानमण्डल का नेता समझा जाता है जिसके नेतृत्व तथा मार्गदर्शन में विधान मण्डल अपना काम करता है। वह विधानसभा में बहुमत दल का नेता होता है और इसलिए विधानसभा उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकती। किसी गम्भीर समस्या के होने पर विधानमण्डल तथा पथ-प्रदर्शन के लिए मुख्यमन्त्री की ओर ही देखता है। दूसरे मन्त्रियों की ओर से दिए गए वक्तव्यों को स्पष्ट करना तथा यदि कोई ग़लत बात हो गई हो तो उसे ठीक करने का अधिकार भी मुख्यमन्त्री को ही है।

6. विधानसभा का विघटन (Dissolution of the Legislative Assembly)-मुख्यमन्त्री विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है और जब इस सदन में उसे बहुमत प्राप्त न रहे तब उसके सामने दो रास्ते होते हैं। प्रथम, या तो वह त्यागपत्र दे दे। द्वितीय, या फिर वह राज्यपाल को सलाह देकर सदन को विघटित कर सकता है। प्रायः राज्यपाल विघटन की मांग को अस्वीकार नहीं करता।

7. नियुक्तियां (Appointments)-राज्य में होने वाली सभी बड़ी-बड़ी नियुक्तियां मुख्यमन्त्री के हाथों में हैं। मन्त्री, एडवोकेट जनरल, लोकसेवा आयोग का अध्यक्ष तथा अन्य सदस्य, राज्य में स्थित यूनिवर्सिटियों के उप-कुलपति आदि की नियुक्तियां राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह के अनुसार करता है।

8. जनता का नेता (Leader of People)-मुख्यमन्त्री उसी प्रकार से राज्य की जनता का नेता है जिस प्रकार प्रधानमन्त्री समस्त राष्ट्र का नेता माना जाता है। राज्य की जनता का उसमें दृढ़ विश्वास रहता है और इस कारण उसकी स्थिति और भी महत्त्वपूर्ण बन जाती है। राज्य में होने वाले सामाजिक समारोहों का नेतृत्व भी मुख्यमन्त्री करता है। जैसे ज्ञानी जैलसिंह ने हरमन्दिर साहिब में हुई कार सेवा, गुरु गोबिन्द मार्ग की महायात्रा और रामचरित मानस की चार सौ साला शताब्दी के समारोहों का नेतृत्व किया।

9. दल का नेता (Leader of the Party)-मुख्यमन्त्री अपने दल का राज्य में नेतृत्व करता है, राज्य में दलों को संचालित करता है और नीतियां बनाता तथा उसका प्रचार करना उसी का कार्य है। चुनाव में मुख्यमन्त्री अपने दल का मुख्य वक्ता बन जाता है और अपने दल के उम्मीदवारों को चुनावों में विजयी करवाने में भरसक प्रयत्न करता है।

मुख्यमन्त्री की स्थिति (Position of the Chief Minister) राज्य में मुख्यमन्त्री की वही स्थिति है जोकि केन्द्र में प्रधानमन्त्री की है। राज्य में समस्त प्रशासन पर उसका प्रभाव रहता है। उसकी इच्छा के विरुद्ध न कोई कानून बन सकता है और न ही कोई टैक्स आदि लगाया जा सकता है। उसके मुकाबले में अन्य मन्त्रियों की स्थिति कुछ महत्त्व नहीं रखती। परन्तु मुख्यमन्त्री की वास्तविक स्थिति इस पर निर्भर करती है कि उसके राजनीतिक दल को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो।

मुख्यमन्त्री की वास्तविक स्थिति न केवल अपने दल के विधानसभा में बहुमत पर निर्भर करती है बल्कि इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसके दल के सदस्य उसे कितना सहयोग देते हैं। मुख्यमन्त्री की स्थिति पार्टी की हाईकमान और प्रधानमन्त्री के समर्थन पर भी निर्भर करती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

मुख्यमन्त्री की स्थिति उसके अपने व्यक्तित्व तथा राज्यपाल के व्यक्तित्व पर भी निर्भर करती है। चाहे मुख्यमन्त्री एक ही दल का नेता हो और उसे अपने दल का भी सहयोग प्राप्त हो, तब भी वह तानाशाह नहीं बन सकता, क्योंकि उसकी शक्तियों पर निम्नलिखित सीमाएं हैं जो उसे तानाशाह बनने नहीं देती-

  • विरोधी दल (Opposition Parties)-मुख्यमन्त्री को विरोधी दलों के होते हुए शासन चलाना होता है और विरोधी दल मुख्यमन्त्री की विधानमण्डल के अन्दर तथा बाहर आलोचना करके उसको तानाशाह बनने से रोकते हैं।
  • राज्य विधानमण्डल (State Legislature)-मुख्यमन्त्री राज्य विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है और विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके मुख्यमन्त्री को हटा सकती है।
  • गवर्नर (Governor)–यदि मुख्यमन्त्री जनता के हित के विरुद्ध कार्य करे तथा प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध चले, तो गवर्नर अपनी स्वेच्छाचारी शक्तियों का प्रयोग मुख्यमन्त्री के विरुद्ध कर सकता है।
    संक्षेप में, मुख्यमन्त्री की स्थिति उसके अपने व्यक्तित्व और उसके दल के समर्थन पर निर्भर करती है।

प्रश्न 5.
मुख्यमन्त्री तथा राज्यपाल के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करें।
(Discuss the relations between Chief Minister and Governor.)
उत्तर-
मुख्यमन्त्री तथा राज्यपाल में घनिष्ठ सम्बन्ध है। राज्यपाल राज्य का मुखिया है जबकि मुख्यमन्त्री सरकार का मुखिया है।

  • मुख्यमन्त्री की नियुक्ति-मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता हैं। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त होता है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है।
  • मुख्यमन्त्री को हटाना-राज्यपाल मुख्यमन्त्री को जब चाहे अपनी इच्छानुसार अपदस्थ नहीं कर सकता है। मुख्यमन्त्री बहुमत का समर्थन प्राप्त न होने पर पद पर नहीं रह सकता। यदि मुख्यमन्त्री विधानसभा को यह अवसर नहीं देता कि विधानसभा उसके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर सके तो राज्यपाल उसे हटा सकता है।
  • मन्त्रियों की नियुक्ति-मन्त्रियों की नियुक्ति राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से करता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रियों की सूची तैयार करके राज्यपाल को भेजता है और राज्यपाल सूची में दिए गए व्यक्तियों को मन्त्री नियुक्त करता है।
  • मन्त्रियों की पच्युति-राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों को हटा सकता है। परन्तु यदि मुख्यमन्त्री ने अपने मन्त्रिमण्डल में किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री रखा हुआ है जिसके विरुद्ध रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि के दोष हों तो राज्यपाल उसे पद से हटा सकता है, बेशक मुख्यमन्त्री का विश्वास अभी भी उस मन्त्री में हो।
  • मुख्यमन्त्री राज्यपाल का सलाहकार-मुख्यमन्त्री राज्यपाल का मुख्य सलाहकार है और सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देता है। राज्यपाल प्रायः सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री की सलाह मान लेता है। सिवाय उन विषयों को छोड़कर जब वह केन्द्रीय सरकार के निर्देशन में काम कर रहा हो।
  • राज्यपाल का प्रशासनिक सूचना प्राप्त करने का अधिकार-राज्यपाल को यह अधिकार प्राप्त है कि वह समय-समय पर प्रशासनिक मामलों में जानकारी प्राप्त करने के लिए मुख्यमन्त्री से आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकता है। मुख्यमन्त्री का भी यह कर्त्तव्य है कि मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णयों की सूचना राज्यपाल को दे। वह मुख्यमन्त्री को किसी ऐसे मामले के लिए जिस पर एक मन्त्री ने निर्णय लिया हो, समस्त मन्त्रिपरिषद् के सम्मुख विचार के लिए रखने को कह सकता है। इस प्रकार राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् को सलाह भी दे सकता है, प्रोत्साहन और चेतावनी भी।
  • नियुक्तियां- राज्य में होने वाली सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से करता है।
  • विधानसभा का विघटन–मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर विधानसभा को भंग करवा सकता है। प्रायः राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह मान लेता है परन्तु कई स्थितियों में सलाह मानने से इन्कार कर सकता है। 1967 में पंजाब में राज्यपाल ने विधानसभा को भंग करने की मुख्यमन्त्री गुरनाम सिंह की सिफ़ारिश को नहीं माना।
  • स्वैच्छिक अधिकार-राज्यपाल को कुछ स्वैच्छिक अधिकार प्राप्त होते हैं जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छानुसार करता है न कि मुख्यमन्त्री की सलाह से।

प्रश्न 6.
भारतीय संघ के राज्यों में मन्त्रिमण्डल प्रणाली की कार्य-विधि की व्याख्या कीजिए।
(Explain the working principles of the cabinet system in the states of the Indian Union.)
उत्तर-
राज्यों में संसदीय शासन व्यवस्था है। मन्त्रिमण्डल ही राज्यों का वास्तविक शासक है और उसकी सलाह के बिना तथा सलाह के विरुद्ध राज्यपाल कोई कार्य नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल के महत्त्व के कारण संसदीय शासन प्रणाली को मन्त्रिमण्डल शासन प्रणाली भी कहा जाता है। राज्यों की मन्त्रिमण्डल प्रणाली की निम्नलिखित विशेषताएं हैं

  • नाममात्र का अध्यक्ष (Nominal Head)-राज्यपाल नाममात्र का अध्यक्ष है। समस्त शासन उसी के नाम से चलाया जाता है परन्तु वास्तव में शासन मन्त्रिमण्डल द्वारा चलाया जाता है। वह राज्य का मुखिया है, सरकार का नहीं। सरकार का मुख्यिा मुख्यमन्त्री है।
  • कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठता (Close Relation between the Executive and Legislature)-राज्यों की विधानपालिका और मन्त्रिमण्डल में घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं, वाद-विवाद में हिस्सा लेते हैं, बिल पेश करते हैं, बिलों को पास कराते और मतदान कराते हैं।
  • मुख्यमन्त्री का नेतृत्व (Leadership of the Chief Minister)-राज्यों के मन्त्रिमण्डल अपना समस्त कार्य मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में करते हैं। मुख्यमन्त्री ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्तियां करता है। मुख्यमन्त्री ही मन्त्रियों में विभागों का बंटवारा करता है और जब चाहे विभाग बदल सकता है। उनके कार्यों की देख-भाल मुख्यमन्त्री ही करता है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें मुख्यमन्त्री के द्वारा ही बुलाई जाती हैं और वही अध्यक्षता करता है। मुख्यमन्त्री का त्याग-पत्र समस्त मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र समझा जाता है।
  • राजनीतिक एकता (Political Homogeneity)—कैबिनेट प्रणाली में मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य एक ही दल से लिए जाते हैं। इसके फलस्वरूप उनके विचार तथा सिद्धान्तों में एकता होती है। राज्यों में प्रायः मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही राजनीतिक दल से लिए जाते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल की एकता (Unity of the Cabinet) राज्य मन्त्रिमण्डल प्रणाली की एक यह भी विशेषता है कि मन्त्रिमण्डल एक इकाई के रूप में काम करता है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य “इकडे आते और इकटे जाते हैं।” किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास होने पर सभी मन्त्रियों को अपना त्याग-पत्र देना पड़ता है। मन्त्री इकट्ठे तैरते हैं और इकट्ठे डूबते हैं।
  • गोपनीयता (Secrecy)-मन्त्रिमण्डल की कार्यवाहियों की गोपनीयता शासन प्रणाली की एक विशेषता है। कोई भी मन्त्री मन्त्रिमण्डल की बैठक में हुए गुप्त वाद-विवाद तथा निर्णय आदि को सार्वजनिक तौर पर प्रकाशित नहीं कर सकता और न ही किसी को बता सकता है।
  • मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Responsibility of the Cabinet)-मन्त्रिमण्डल की एक यह भी विशेषता है कि वह अपने कार्यों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल को मनमानी करने का अधिकार नहीं है। विधानमण्डल के सदस्य मन्त्रियों से उनके प्रशासकीय विभागों के सम्बन्ध और पूरक प्रश्न (Supplementary questions) पूछ सकते हैं जिनका उन्हें उत्तर देना पड़ता है। यदि विधानसभा में मन्त्रिमण्डल बहुमत का समर्थन खो बैठे तो उसे त्याग-पत्र देना पड़ता है।
  • मन्त्रिमण्डल की समितियां (Committees in the Cabinet) राज्यों के मन्त्रिमण्डल में भिन्न-भिन्न विषयों में कई समितियां स्थापित की गई हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियुक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल की नियुक्ति–प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति नियुक्त करता है तथा वह राष्ट्रपति की कृपा दृष्टि तक ही अपने पद पर रह सकता है। व्यवहार में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से ही राज्यपाल को नियुक्त करता है।
राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ प्रथाएं स्थापित हो गई हैं, जिनमें मुख्य निम्न प्रकार हैं-

  • प्रथम परम्परा तो यह है कि ऐसे व्यक्ति को किसी राज्य में राज्यपाल नियुक्त किया जाता है जो उस राज्य का निवासी न हो।
  • दूसरे, राष्ट्रपति किसी राज्यपाल की नियुक्ति करने से पहले उस राज्य के मुख्यमन्त्री से भी इस बात का परामर्श लेता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल पद के लिए चार आवश्यक योग्यताएं लिखें।
उत्तर-
योग्यताएं- अनुच्छेद 157 के अन्तर्गत राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  3. वह किसी राज्य में विधानमण्डल अथवा संसद् का सदस्य न हो तथा यदि हो, तो राज्यपाल का पद ग्रहण करने के समय उसका सदन वाला स्थान रिक्त समझा जाएगा।
  4. राज्यपाल अपने पद पर नियुक्त होने के पश्चात् किसी अन्य लाभदायक पद पर नहीं रह सकता।

प्रश्न 3.
राज्यपाल के चार कार्यकाल का वर्णन करो।
उत्तर-
कार्यकाल-साधारणतया राज्यपाल को 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है और वह अपने पद पर तब तक रह सकता है जब तक राष्ट्रपति चाहे । राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने से पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है। 27 अक्तूबर, 1980 को राष्ट्रपति ने तमिलनाडु के राज्यपाल प्रभुदास पटवारी को बर्खास्त कर दिया। जनवरी, 1990 में राष्ट्रपति वेंकटरमन ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार की सलाह पर सभी राज्यपालों को त्याग-पत्र देने को कहा। अधिकतर राज्यपालों ने तुरन्त अपने त्याग-पत्र भेज दिये। राज्यपाल चाहे तो स्वयं भी 5 वर्ष से पूर्व त्याग-पत्र दे सकता है। 23 जून, 1991 को पंजाब के राज्यपाल जनरल ओ०पी० मल्होत्रा ने त्याग-पत्र दे दिया।

प्रश्न 4.
राज्यपाल की चार कार्यपालिका शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलाया जाता है।
  2. राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  3. राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह पर किसी भी मन्त्री को अपदस्थ कर सकता है।
  4. वह शासन के कार्य को सुविधापूर्वक चलाने के लिए तथा मन्त्रियों में बांटने के लिये नियम बनाता है।

प्रश्न 5.
राज्यपाल की चार वैधानिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल के पास निम्नलिखित वैधानिक शक्तियां हैं-

  1. राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता
  2. वह विधानमण्डल के दोनों सदनों में भाषण दे सकता है।
  3. वह विधानमण्डल के निम्न सदन को मुख्यमन्त्री की सलाह पर भंग कर सकता है।
  4. प्रत्येक वर्ष विधानमण्डल का अधिवेशन राज्यपाल के भाषण से प्रारम्भ होता है।

प्रश्न 6.
राज्यपाल की चार स्वेच्छिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल को कुछ स्वविवेकी शक्तियां भी प्राप्त हैं। स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग राज्यपाल अपनी इच्छा से करता है न कि मन्त्रिमण्डल के परामर्श से। राज्यपाल की मुख्य स्वविवेकी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  1. संघीय क्षेत्र के प्रशासक के रूप में- यदि राष्ट्रपति ने राज्यपाल को राज्य के समीप के संघीय क्षेत्र का प्रशासक भी नियुक्त कर दिया है तो उस क्षेत्र का प्रशासन स्वविवेक से चलाता है।
  2. असम में आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में-असम राज्य के राज्यपाल को आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार दिया गया है।
  3. सिक्किम के राज्यपाल के विशेष उत्तरदायित्व-सिक्किम राज्य में शान्ति बनाए रखने के लिए तथा सिक्किम की जनसंख्या के सब वर्गों के सामाजिक तथा आर्थिक विकास के लिए सिक्किम के राज्यपाल को विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया है।
  4. राज्य में संवैधानिक संकट होने पर-प्रत्येक राज्यपाल अपने राज्य में संवैधानिक मशीनरी के फेल हो जाने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को करता है जिस पर वह संकटकाल की घोषणा करता है। इस दशा में मन्त्रिपरिषद् को भंग कर दिया जाता है तथा वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 7.
राज्यपाल की स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलता है, परन्तु शासन चलाने वाला वह स्वयं नहीं है। संविधान में राज्यपाल को जो शक्तियां प्राप्त हैं, व्यवहार में उनका प्रयोग मन्त्रिमण्डल करता है। राज्यपाल कार्यपालिका का संवैधानिक अध्यक्ष है। परन्तु जब वह केन्द्रीय सरकार के एजेन्ट के रूप में काम करता है तो वह अधिक शक्तियों को प्रयोग कर सकता है। उस समय वह केन्द्रीय सरकार के आदेश के अनुसार काम करता है। वर्तमान समय में राज्यपाल के दायित्व पहले से अधिक बढ़ चुके हैं।

प्रश्न 8.
राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कैसे होता है ?
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् के निर्माण के लिए सबसे पहला महत्त्वपूर्ण पग मुख्यमन्त्री की नियुक्ति है। राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के अध्यक्ष को सर्वप्रथम मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है, परन्तु राज्यपाल उसे अपनी इच्छा से नियुक्त नहीं कर सकता। जिस दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया जाता है। मुख्यमन्त्री की सलाह से राज्यपाल अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रियों के लिए विधानमण्डल के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य होना अनिवार्य है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त किया जाए जो किसी भी सदन का सदस्य न हो, तो उसको 6 महीने के अन्दर-अन्दर विधानमण्डल के किसी एक सदन का सदस्य बनना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या भी मुख्यमन्त्री द्वारा निश्चित की जाती है।

प्रश्न 9.
मन्त्रिपरिषद् की चार शक्तियों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. नीति का निर्धारण-मन्त्रिपरिषद् का मुख्य कार्य प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करना है।
  2. प्रशासन पर नियन्त्रण-शासन को अच्छी प्रकार चलाने के लिए कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है। विभाग में मन्त्री के अधीन कई सरकारी कर्मचारी होते हैं जो उसकी आज्ञानुसार कार्य करते हैं। मन्त्री को अपने विभाग का शासन मन्त्रिपरिषद् की निश्चित नीति के अनुसार चलाना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् प्रशासन चलाने के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है।
  3. कानून को लागू करना तथा व्यवस्था को बनाए रखना- राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानून को लागू करना मन्त्रिपरिषद् की ज़िम्मेवारी है। कानून का तब तक कोई महत्त्व नहीं है जब तक उसे लागू न किया जाए
    और कानूनों को सख्ती से अथवा नर्मी से लागू करना मन्त्रिपरिषद् पर निर्भर करता है। राज्य के अन्दर शान्ति को बनाए रखना मन्त्रिपरिषद् का कार्य है।
  4. नियुक्तियां-राज्य की सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्यिां राज्यपाल मन्त्रिमण्डल के परामर्श से करता है।

प्रश्न 10.
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ?
उत्तर-
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे, मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में राज्यपाल को या तो विधानसभा में सबसे अधिक स्थान प्राप्त दल के नेता को अथवा यदि कुछ दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा है और उन्हें स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया है तो ऐसे मिले-जुले दलों के नेता को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त करना चाहिए। फरवरी, 2017 के पंजाब विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और कैप्टन अमरिन्दर सिंह पंजाब के मुख्यमन्त्री बने।

प्रश्न 11.
मुख्यमन्त्री की चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
मुख्यमन्त्री को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मुख्यमन्त्री अपने साथियों की एक सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेज देता है तथा राज्यपाल की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. मन्त्रियों की पदच्युति-मुख्यमन्त्री किसी भी मन्त्री को उसके पद से अपदस्थ कर सकता है। यदि मुख्यमन्त्री किसी मन्त्री के कार्यों से प्रसन्न न हो और उसके विचार उस मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को हटा सकता है।
  3. मन्त्रियों में विभागों का वितरण-मुख्यमन्त्री केवल मन्त्रियों की नियुक्ति ही नहीं करता बल्कि उनमें विभागों का वितरण भी करता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे उनके विभागों को बदल भी सकता है।
  4. राज्यपाल का मुख्य सलाहकार-मुख्यमन्त्री राज्यपाल का मुख्य सलाहकार है।

प्रश्न 12.
मुख्यमन्त्री का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर-
मुख्यमन्त्री का कार्यकाल निश्चित नहीं है। मुख्यमन्त्री उस समय तक अपने पद पर रहता है जब तक विधानसभा का बहुमत उसके साथ हो। परन्तु चौथे आम चुनाव के बाद नई परिस्थितियां उत्पन्न हुईं जिनके अधीन राज्यपाल ने विधानसभा द्वारा अविश्वास के प्रस्ताव की प्रतीक्षा किए बिना ही मुख्यमन्त्री को पदच्युत कर दिया। हरियाणा के राजनीतिक भ्रष्टाचार और प्रशासन में कुशलता के ह्रास के कारण राज्य के राज्यपाल श्री चक्रवर्ती ने मुख्यमन्त्री राव वीरेन्द्र सिंह को पदच्युत कर दिया था।

प्रश्न 13.
राज्य में मुख्यमन्त्री ही शक्तिशाली व्यक्ति है। कैसे ?
उत्तर-
केन्द्र की तरह राज्यों में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है। राज्य में राज्यपाल संवैधानिक मुखिया है जबकि मुख्यमन्त्री वास्तविक शासक है। राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलाया जाता है परन्तु वास्तविकता में राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से शासन चलाता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है और जब चाहे किसी मन्त्री को पद से हटा सकता है। मन्त्रिपरिषद् मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करता है। राज्य में सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां मुख्यमन्त्री द्वारा की जाती हैं। 5 वर्ष की अवधि से पूर्व यह विधानसभा को राज्यपाल को सलाह देकर भंग करवा सकता है। राज्य का सारा शासन मुख्यमन्त्री के इर्द-गिर्द घूमता है।

प्रश्न 14.
मुख्यमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् के साथ चार सम्बन्ध बताएं।
उत्तर-
मुख्यमन्त्री के बिना मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं है। मुख्यमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् में महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध निम्नलिखित हैं-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् उन व्यक्तियों की सूची तैयार करता है जिन्हें वह मन्त्रिपरिषद् में लेना चाहता है। मुख्यमन्त्री सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेजता है और राज्यपाल उस सूची के अनुसार ही मन्त्री नियुक्त करता है।
  2. विभागों का बंटवारा-मुख्यमन्त्री मन्त्रियों में विभागों का बंटवारा करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है।
  3. मन्त्रियों की पदच्युति-मुख्यमन्त्री यदि किसी मन्त्री के कार्यों से अप्रसन्न हो और उसके विचार उस मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को उसके पद से अपदस्थ कर सकता है।
  4. मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष–मन्त्रिपरिषद् अपना समस्त कार्य मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में ही करती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियुक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति नियुक्त करता है तथा वह राष्ट्रपति की कृपा दृष्टि तक ही अपने पद पर रह सकता है। व्यवहार में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से ही राज्यपाल को नियुक्त करता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल पद के लिए कोई दो आवश्यक योग्यताएं लिखें।
उत्तर-
योग्यताएं-अनुच्छेद 157 के अन्तर्गत राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैं

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।

प्रश्न 3.
राज्यपाल के कार्यकाल का वर्णन करो।
उत्तर-
साधारणतया राज्यपाल को 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है और वह अपने पद पर तब तक रह सकता है जब तक राष्ट्रपति चाहे। राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने से पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है।

प्रश्न 4.
राज्यपाल की कोई दो कार्यपालिका शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलाया जाता है।
  2. राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 5.
राज्यपाल की कोई दो वैधानिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता है।
  2. वह विधानमण्डल के दोनों सदनों में भाषण दे सकता है।

प्रश्न 6.
राज्यपाल की स्वेच्छिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. संघीय क्षेत्र के प्रशासक के रूप में-यदि राष्ट्रपति ने राज्यपाल को राज्य के समीप के संघीय क्षेत्र का प्रशासक भी नियुक्त कर दिया है तो उस क्षेत्र का प्रशासन स्वविवेक से चलाता है।
  2. असम में आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में- असम राज्य के राज्यपाल को आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 7.
राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कैसे होता है ?
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् के निर्माण के लिए सबसे पहला महत्त्वपूर्ण पग मुख्यमन्त्री की नियुक्ति है। मुख्यमन्त्री की सलाह से राज्यपाल अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रियों के लिए विधानमण्डल के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य होना अनिवार्य है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त किया जाए जो किसी भी सदन का सदस्य न हो, तो उसको 6 महीने के अन्दर-अन्दर विधानमण्डल के किसी एक सदन का सदस्य बनना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या भी मुख्यमन्त्री द्वारा निश्चित की जाती है।

प्रश्न 8.
मन्त्रिपरिषद् की दो शक्तियों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. नीति का निर्धारण (Determination of Policy)-मन्त्रिपरिषद् का मुख्य कार्य प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करना है।
  2. प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over Administration)-शासन को अच्छी प्रकार चलाने के लिए कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है।

प्रश्न 9.
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ?
उत्तर-
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे, मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता।

प्रश्न 10.
मुख्यमन्त्री की कोई दो शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मुख्यमन्त्री अपने साथियों की एक सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेज देता है तथा राज्यपाल की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. मन्त्रियों की पदच्युति-मुख्यमन्त्री किसी भी मन्त्री को उसके पद से अपदस्थ कर सकता है। यदि मुख्यमन्त्री किसी मन्त्री के कार्यों से प्रसन्न न हो और उसके विचार उस मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को हटा सकता है।

प्रश्न 11.
मुख्यमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् के साथ सम्बन्ध बताएं।
उत्तर-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् उन व्यक्तियों की सूची तैयार करता है जिन्हें वह मन्त्रिपरिषद् में लेना चाहता है। मुख्यमन्त्री सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेजता है और राज्यपाल उस सूची के अनुसार ही मन्त्री नियुक्त करता है।
  2. विभागों का बंटवारा-मुख्यमन्त्री मन्त्रियों में विभागों का बंटवारा करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है।

प्रश्न 12.
पंजाब के राज्यपाल एवं उसका वेतन तथा मुख्यमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-
पंजाब के वर्तमान राज्यपाल श्री वी०पी० सिंह बदनौर हैं, एवं उनका वेतन 3,50,000 रु० मासिक है। पंजाब के वर्तमान मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 2. राज्यपाल का मासिक वेतन कितना है ?
उत्तर-3,50,000 रु० ।

प्रश्न 3. राज्यपाल बनने के लिए कितनी आयु होनी चाहिए ?
उत्तर-35 वर्ष।

प्रश्न 4. मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-राज्यपाल।

प्रश्न 5. राज्यपाल की कोई एक वैधानिक शक्ति लिखिए।
उत्तर- राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता है।

प्रश्न 6. राज्यपाल की एक कार्यपालिका शक्ति का वर्णन करो।
उत्तर-राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।

प्रश्न 7. राज्य में संवैधानिक संकट के समय राज्यपाल की स्थिति क्या होती है ?
उत्तर-उस समय राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का वास्तविक शासक बन जाता है। राज्यपाल कार्यपालिका की सभी शक्तियों का प्रयोग करता है और प्रशासन चलाने की जिम्मेदारी उसी की होती है।

प्रश्न 8. राज्यपाल कब तक अपने पद पर रहता है ?
उत्तर-राज्यपाल की नियुक्ति केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राज्यपाल राष्ट्रपति की इच्छा पर्यंत अपने पद पर रहता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को उसके पद से हटा सकता है।

प्रश्न 9. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कौन करता है?
उत्तर- मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् मन्त्रियों की सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेजता है। राज्यपाल उस सूची में दिए गए व्यक्तियों को मन्त्री नियुक्त करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 10. मन्त्रिमण्डल तथा मन्त्रिपरिषद् में अन्तर बताइए।
उत्तर-मन्त्रिपरिषद् का वर्णन संविधान में किया गया है जबकि मन्त्रिमण्डल शब्द संविधान में नहीं मिलता।

प्रश्न 11. मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर-मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति में अपनी इच्छा का प्रयोग नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल या गठबन्धन के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है।

प्रश्न 12. राज्यपाल की एक स्वैच्छिक शक्ति बताइए।
उत्तर-जब राज्य विधानसभा में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता तब राज्यपाल अपनी इच्छा से मुख्यमन्त्री को नियुक्त करता है।

प्रश्न 13. मन्त्रिपरिषद् की एक शक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-मन्त्रिपरिषद् प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करती है।

प्रश्न 14. मुख्यमन्त्री की एक शक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-मन्त्रिपरिषद् का निर्माण मुख्यमन्त्री द्वारा किया जाता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य मन्त्रिपरिषद् का निर्माण ………….. करता है।
2. मुख्यमन्त्री …………… की अध्यक्षता करता है।
3. राज्य विधानमण्डल का नेता ……………. होता है।
4. राज्यपाल का मुख्य सलाहकार ………….. होता है।
उत्तर-

  1. मुख्यमन्त्री
  2. मन्त्रिपरिषद
  3. मुख्यमन्त्री
  4. मुख्यमन्त्री।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम से चलाया जाता है।
2. राज्यपाल प्रशासन के बारे में मुख्यमन्त्री से कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है।
3. राज्यपाल तानाशाह बन सकता है।
4. मुख्यमन्त्री राज्यपाल की नियुक्ति करता है।
5. मन्त्रिपरिषद नीति का निर्धारण करती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मुख्यमन्त्री को नियुक्त करता है
(क) राष्ट्रपति
(ख) राज्यपाल
(ग) प्रधानमन्त्री
(घ) विधानमण्डल।
उत्तर-
(ख) राज्यपाल ।

प्रश्न 2.
मुख्यमन्त्री की अवधि कितनी है ?
(क)5 वर्ष
(ख) निश्चित नहीं
(ग) 4 वर्ष
(घ) 3 वर्ष।
उत्तर-
(ख) निश्चित नहीं ।

प्रश्न 3.
राज्यपाल निम्नलिखित में से किसके प्रति उत्तरदायी है ?
(क) राज्य के लोगों के प्रति
(ख) राष्ट्रपति के प्रति
(ग) प्रधानमन्त्री के प्रति
(घ) लोकसभा के प्रति।
उत्तर-
(ख) राष्ट्रपति के प्रति ।

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प्रश्न 4.
विधानसभा का नेता है-
(क) मुख्यमन्त्री
(ख) राज्यपाल
(ग) स्पीकर
(घ) प्रधानमन्त्री।
उत्तर-
(क) मुख्यमन्त्री।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules.

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. बॉस्केट बाल कोर्ट की लम्बाई और चौड़ाई = 28 × 15 मीटर
  2. बॉस्केट बाल टीम के खिलाड़ी = 12 खिलाड़ी खेलते हैं, सात बदलवें खिलाड़ी
  3. कोर्ट के केन्द्रीय चक्र का अर्धव्यास = 1.80 मीटर
  4. रेखाओं की चौड़ाई = 5 मीटर
  5. बोर्ड की मोटाई = 3 सैं० मी०
  6. बोर्ड की ज़मीन से निचले भाग की ऊंचाई = 2.90 मीटर
  7. बोर्ड का आकार = 180 × 120 मीटर
  8. बाल का घेरा = 75 से 78 सै० मी०
  9. बाल का भार = 600 से 650 ग्राम
  10. बोर्ड के आयात का साइज़ = 49 × 45 ग्राम
  11. पोलों की दूरी = 2 मीटर
  12. खेल का समय = 40 मिनट के चार क्वाटर 10-2-10 (10) 10-2-10
  13. बास्केट बाल के अधिकारी = 1 रेफरी, 2 अम्पायर, 1-स्कोरर, 1-सहायक स्कोरर, 1 समय कीपर, 1 सोर्ट क्लॉक ऑपरेटर
  14. मैच खेलने वाले खिलाड़ियों की संख्या = 05 खिलाड़ी
  15. वैकल्पिक खिलाडी = 07 खिलाड़ी
  16. बॉल की परिधि (पुरुषों के लिए) (महिलाओं के लिए) = 74.9 सेंटीमीटर से 78 सेंटीमीटर 72.4 सेंटीमीटर से 37.7 सेंटीमीटर
  17. बाल का वजन (पुरुषों के लिए) (महिलाओं के लिए) = 567 ग्राम से 650 ग्राम 510 ग्राम से 567 ग्राम
  18. टाइम आऊट (30 सैकिण्ड) = पहले हाफ में 2 टाइम आऊट, दूसरे हाफ में 3 टाइम आऊट, अतिरिक्ति समय में 1 टाईम आऊट

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

बास्केट बाल खेल की संक्षेप रूप-रेखा (Brief outline of the Basket-Ball)

  1. बॉस्केट बाल का मैच दो टीमों के मध्य होता है। प्रत्येक टीम में पाँच-पाँच खिलाड़ी होते हैं। इसके अतिरिक्त सात अतिरिक्त खिलाड़ी होते हैं जिन्हें हम बदलवें खिलाड़ी (Substitutes) कहते हैं।
  2. प्रत्येक टीम चाहती है कि वह विरोधी टीम की बॉस्केट में गेंद डाल दे तथा विरोधी टीम को न ही गेंद मिले और न ही प्वाईंट।
  3. बॉस्केट बाल खेल का मैदान आयताकार होता है। मैदान की लम्बाई 28 मीटर तथा चौड़ाई 15 मीटर होती है।
  4. टीम के प्रत्येक खिलाड़ी की बनियान के सामने और पीछे नम्बर लगे होते हैं। एक टीम के दो खिलाड़ी एक ही नम्बर नहीं डाल सकते।
  5. जब तक मध्यान्तर (Interval) न हो या अधिकारी आज्ञा न दे कोई भी खिलाड़ी मैदान से बाहर नहीं जा सकता।
  6. खेल 10 – 2 – 10, 10, 10 – 2- 10 की चार अवधियों की होती है तथा दो अवधियों के पश्चात् 10 मिनट का विश्राम होता है।
  7. बॉस्केट बाल के खेल में खिलाड़ियों को जितनी बार चाहे बदला जा सकता है।
  8. जब कोई टीम 4 फ़ाऊल कर जाती है तो विरोधी टीम को 2 या 3 फ्री-थ्रोज़ हालात अनुसार दी जाती हैं।
  9. किसी टीम का एक खिलाड़ी यदि 5 फ़ाऊल कर दे तो उसे मैच में से बाहर निकाल दिया जाता है।
  10. खेल के मध्य किसी समय भी कोई खिलाड़ी बदला जा सकता है परन्तु शर्त यह है कि थ्रो उस टीम की हो।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

PSEB 11th Class Physical Education Guide बॉस्केट बाल (Basket Ball) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
बॉस्कट बाल कोर्ट की लम्बाई लिखें।
उत्तर-
28 मीटर।

प्रश्न 2.
बॉस्कट बाल कोर्ट की चौड़ाई लिखें।
उत्तर-
15 मीटर।

प्रश्न 3.
इस मैच में बदले जाने वाले खिलाड़ियों की संख्या लिखें।
उत्तर-
7 खिलाड़ी।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 4.
बॉस्कटबाल का घेरा पुरुषों के लिये कितना होता है ?
उत्तर-
74.9 सैं.मी. से 78 सें. मी.।

प्रश्न 5.
बॉस्कटबाल के मैच में कितने अधिकारी होते हैं ?
उत्तर-
रैफरी = 1, अम्पायर = 2, स्कोरर = 1, सहायक स्कोरर = 1, टाइम कीपर = 1, सोर्ट ब्लॉक आपरेटर -1.

प्रश्न 6.
बॉस्कट बाल खेल का समय लिखें।
उत्तर-
40 मिनट के चार क्वाटर 10-2-10 (10) 10-2-10.

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 7.
बॉस्कट बाल खेल के कोई तीन फाऊल लिखें।
उत्तर-

  1. अधिकारी को अपमानजनक ढंग से सम्बोधित करना या मिलना।
  2. असभ्य व्यवहार करना।
  3. विरोधी खिलाड़ी को तंग करना या उसकी आंखों के आगे हाथ करके उसे देखने में रुकावट डालना।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB बॉस्केट बाल (Basket Ball) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
बॉस्केट बाल का संक्षिप्त परिचय दीजिए। रैस्ट्रिक्टेड एरिया से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
खेल-बॉस्केट बाल खेल दो टीमों के बीच खेला जाता है। प्रत्येक टीम में पाँच-पाँच खिलाड़ी होते हैं। प्रत्येक टीम का यह लक्ष्य होता है कि वह विरोधी टीम की बॉस्केट में गेंद फेंक दे, न विरोधी टीम के हाथ गेंद लगने दे और न ही अंक प्राप्त करने दे।

कोर्ट-बॉस्केट बाल कोर्ट 28 मीटर लम्बा और 15 मीटर चौड़ा होगा। यह आयताकार और ठोस धरातल वाला होगा। यदि खेल हाल कमरे में हो तो हाल की छत की ऊंचाई कम-से-कम 7 मीटर होनी चाहिए। सम्बन्धित अधिकारी दो मीटर की लम्बाई और दो मीटर चौड़ाई की सीमा के अन्दर परिवर्तन (यह परिवर्तन एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं) की आज्ञा दे सकता है। फिर भी फीबा (FIBA-International Amateur Basketball Federation) की बड़ी सरकारी प्रतियोगिताओं के लिए निर्णित लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार नई कोर्ट (Court) बनाई जाएगी। कोर्ट में पर्याप्त मात्रा में एक-सा प्रकाश रहना चाहिए। – सीमा-रेखाएं-कोर्ट की परिधि स्पष्ट रेखाओं द्वारा अंकित की जाएगी जो प्रत्येक स्थान से बाधाओं से कम-से- . कम 2 मीटर की दूरी पर होगी। इन रेखाओं और दर्शकों के बीच दूरी कम-से-कम 3 मीटर की होगी।

केन्द्रीय वृत्त-कोर्ट के मध्य में एक वृत्त अंकित किया जाएगा। उसका अर्द्धव्यास 1.80 मीटर होगा। इसे केन्द्रीय वृत्त कहा जाता है।
केन्द्रीय रेखा-अन्त रेखाओं के समानान्तर केन्द्रीय रेखा खींची जाएगी जो कोर्ट को आगे वाली कोर्ट और पीछे वाली कोर्ट में विभक्त करेगी। यह रेखा 15 सम बाहर दोनों तरफ होगी।
बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
तीन अंक मैदानी गोल-क्षेत्र-एक नई मार्किंग “तीन अंक मैदानी गोल क्षेत्र” की जाती है। यह दो सीमित चा होती हैं जिनमें से प्रत्येक का बाहरी किनारों से अर्द्धव्यास 6.25 मीटर होता है। केन्द्र फर्श पर बिन्दु होता है, टोकरी के केन्द्र के ठीक लम्ब रूप होता है और किनारे वाली लकीरों पर समाप्त होती हुई पार्श्व रेखाओं के समानान्तर रहती है। केन्द्र अन्तिम लकीर के केन्द्रीय बिन्दु से 1.20 मीटर 0.225 मीटर + 0.10 मीटर + 1.525 मीटर होता है।
नोट-यह चाप केवल अर्द्ध वृत्त तक ही है और इसके पश्चात् पार्श्व रेखा के समानान्तर है (देखो चित्र)

फ्री-थो रेखाएं-प्रत्येक अन्त-रेखा के समानान्तर एक फ्री-थ्रो रेखा खींची जाएगी जो अन्त-रेखा के भीतर किनारे से 5.80 मीटर दूर होगी। इसकी लम्बाई 3.60 मीटर होगी तथा केन्द्र बिन्दु दोनों अन्त-रेखाओं के मध्य बिन्दुओं को जोड़ने वाली रेखा पर होगा।

प्रतिबद्ध क्षेत्र (रिस्ट्रिकटेड एरिया) तथा फ्री-थो रेखाएं-ये स्थान जिन पर परिधि अन्त-रेखाओं, फ्री-थ्रो रेखाओं से निकलने वाली रेखाओं से निर्धारित होती है, उन्हें प्रतिबद्ध क्षेत्र कहते हैं। सिरों की ओर फ्री-थ्रो रेखाएं इसके अर्द्धव्यास को अंकित करती हैं। इन रेखाओं का बाहरी किनारा अन्त-रेखाओं के मध्य बिन्दु से 3 मीटर होगा और फ्रीथ्रो रेखाओं के सिरों पर आकर समाप्त हो जाएगा।
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फ्री-थ्रो रेखाएं वे प्रतिबद्ध स्थान हैं जो कोर्ट में 1.80 मीटर के अर्द्धव्यास वाले अर्द्ध-वृत्त में फैले होते हैं। . पहली रेखा सिरे वाली रेखा के भीतरी किनारे में 1.75 मीटर है। पहली गली के स्थान से आगे एक उदासीन क्षेत्र (Neutral Zone) होगा जिसकी चौड़ाई 30 सैंटीमीटर होगी। दूसरी गली का स्थान 85 सैंटीमीटर चौड़ा होगा और उदासीन क्षेत्र के साथ लगता होगा। तीसरी गली का स्थान दूसरी गली के साथ लगता है और इसकी चौड़ाई 85 सेंटीमीटर होगी। जहां तक टूटे हुए अर्द्ध वृत्त का सम्बन्ध है, प्रत्येक अंकित क्षेत्र की लम्बाई 35 सैंटीमीटर होगी और दोनों भागों के बीच की दूरी 40 सम होगी।

पिछले बोर्ड का आकार, पदार्थ और स्थिति (Back Board-Size, Material and Position)-पीछे वाले बोर्ड कठोर लकड़ी के बनाए जाएंगे या फाइबर ग्लास के भी हो सकते हैं जिनकी मोटाई 3 सम होगी। ये टेढ़े रुख 1.80 मीटर तथा खड़े रुख में 1.20 मीटर होंगे। यहां रिंग लगता है, उसके पीछे बोर्ड पर 59 सैंटीमीटर × 45 सेंटीमीटर की आयत बनाई जाती है। किनारा रिंग की सतह के बराबर होगा। बोर्ड की सीमाएं 5 सैंटीमीटर चौड़ी रेखाओं द्वारा अंकित की जाएंगी।

यह बोर्ड के रंग के उलट वाले रंग की होगी। बोर्ड का निचला किनारा ज़मीन से 2.75 मीटर ऊंचा होगा। पीछे बोर्ड के आधार स्तम्भ सीमा के बाहरी क्षेत्र में अन्त-रेखाओं के बाह्य किनारे से कम-से-कम 1.00 मीटर दूर गाड़े जाएंगे।

बॉस्केट-बॉस्केट छल्लों और जाली की बनी होती है। बॉस्केट नारंगी रंग वाले अन्दर से 45 सैंटीमीटर व्यास के लोहे के घेरे होते हैं। घेरे की धातु 20 मिलीमीटर मोटी होगी। जाल सफ़ेद रस्सी का बना होता है जोकि छल्लों से लटकता है। यह छल्ले इस प्रकार के बने होते हैं कि जब गेंद इनसे गुज़रती है, वह इसे थोड़ी देर के लिए रोक लेते हैं।
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गेंद-गेंद गोलाकार होगी। यह चमड़े की बनी होगी और इसके अन्दर का ब्लैडर रबड़ का होगा। इसकी परिधि 75 सम से 78 सम होगी। इसका भार 600 ग्राम से 650 ग्राम होगा।

अब नियम यह आज्ञा देता है कि प्रयुक्त गेंद भी प्रयोग की जा सकती है। फिर भी गेंद के विषय में रैफरी ने सहमति प्रकट की हो। रैफरी प्रयुक्त गेंद चुन सकता है। जब गेंद एक बार चुन ली गई हो तो कोई भी टीम खेल की गेंद का प्रयोग नहीं करती। यदि उचित पुरानी गेंद न मिल सकती हो तो नई गेंद प्रयुक्त की जा सकती है।

बॉस्केट बॉल का इतिहास
(History of Basket Ball)
बॉस्केट बॉल एक उत्तेजना पूर्ण खेल है तथा इसका मूल स्थान अमेरिका है। इसका आविष्कार “अन्तर्राष्ट्रीय YMCA” के शिक्षक डॉ. स्मिथ (Dr. Smith) ने सन् 1891 में स्प्रिंगफील्ड मैसाशसटस (Springfiled Massa Chussets U.S.A.) में किया था। इसके नियम बाद में संशोधित (Revised) किए गए, जिनके अन्तर्गत ‘गोल’ (Goals) को कोर्ट (Court) के ठीक बाहर रखा गया, शारीरिक सम्पर्क (Body Contact) को स्वीकृति नहीं दी गई तथा गेंद के साथ-साथ दौड़ने को ‘फाऊल’ (Foul) घोषित कर दिया गया। अनुभवहीन खिलाड़ियों को खेल में शामिल करने के प्रयोजन से खेल को अधिक सरल बनाया गया। डॉ. स्मिथ ने खेल क्षेत्र के दोनों ओर दो बाक्स (Reach Baskets) दोनों ओर एक-एक, एक निश्चित ऊंचाई पर टांग दिए तथा खिलाड़ियों को स्कोर के लिए गेंद उन बाक्सों में फेंकनी पड़ती थी।
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अब गेंद के बाक्स से वापस आने की समस्या थी इसलिए ‘बाक्स’ के स्थान पर आज की तरह के ‘गोल’ प्रयोग किए गए। इस प्रकार यह खेल अमेरिका में शुरू हुआ तथा इसके नियमों को सन् 1934 में मानक (Standardised) रूप दिया गया।

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प्रश्न 2.
बॉस्केट बाल खेल में तकनीकी उपकरण (सामान) क्या-क्या होते हैं ?
उत्तर-
तकनीकी उपकरण (सामान)
(क)

  1. खेल की घड़ी (गेम-वाच)
  2. टाइम-आऊट के लिए घड़ी (टाइम-आऊट वाच)-एक
  3. स्टाप घड़ियां (स्टाप वाचिज़)-(क) टाइम कीपर के पास कम-से-कम दो घड़ियां होनी चाहिएं और खेल घड़ी मेज़ पर रखी जाएगी।

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(ख) स्कोर-शीट
(ग) कम-से-कम 20 सम × 10 सम आकार के एक से पांच तक अंक-एक से चार तक के काले रंग के अंक तथा पांच के लिए लाल रंग के अंक। .
(घ) 24 सैकिंड नियम के प्रबन्ध के लिए एक योग्य यन्त्र जिसको खिलाड़ी और दर्शक देख सकें।
(ङ) सब को दिखाई देने वाला एक खेल अंक बोर्ड स्कोर बोर्ड होगा जिस पर दोनों टीमों के खेल अंक लिखे जाएंगे।
(च) स्कोरर के पास दो लाल झण्डे दोनों टीमों के फाऊल मार्कर के हाथ में होंगे। इसे आठ फाऊल एक अवधि में होने की अवस्था में इस टीम की तरफ लिया जाएगा तथा खिलाड़ियों, कोच साहिब और खेल अधिकारियों को दिखाई दे सकेगा।
टीमें-प्रत्येक टीम में दस खिलाड़ी होंगे और सात खिलाड़ी प्रतिस्थापन के लिए होते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी की कमीज़ के सामने और पिछली ओर कमीज़ के रंग से अलग नम्बर लगे होते हैं। यह नम्बर 4 से 15 तक होते हैं।

एक टीम के सभी खिलाड़ी ऐसी कमीजें पहनेंगे जिनका रंग आगे और पीछे की ओर एक जैसा होगा।
खिलाड़ी द्वारा कोर्ट छोड़ना-जब तक मध्यान्तर (Interval) न हो जाए अथवा नियम स्वीकृति न दे कोई भी खिलाड़ी बिना अधिकारियों की आज्ञा के कोर्ट छोड़ कर बाहर नहीं जा सकता।

कप्तान-इसके अधिकार और कर्तव्य-केवल कप्तान की सूचना लेने के लिए या किसी तरह की व्याख्या के लिए अधिकारी से बातचीत कर सकता है। खिलाड़ी बदलने का अधिकार कोच या कोच के स्थान पर काम कर रहे अधिकारी का होता है।

खेल की अवधि-खेल 10-2-10-10-2-10 मिनट की चार अवधियों में खेला जाएगा। इन दोनों अवधियों में 10 मिनट का अवकाश होगा।
खेल का आरम्भ-खेल का आरम्भ रैफरी द्वारा किया जाएगा। वह दोनों विरोधियों के बीच केन्द्र में गेंद को ऊपर उछालेगा। खेल उस समय तक आरम्भ नहीं होगा जब तक एक टीम पांच खिलाड़ियों सहित मैदान में खेलने के लिए प्रस्तुत न हो जाए। यदि खेल आरम्भ होने के समय तक कोई अनुपस्थित टीम मैदान में नहीं पहुंचती तो उसकी विरोधी टीम को वॉक ओवर मिल जाता है, अर्थात् उसे बिना खेल के ही विजयी घोषित कर दिया जाता है।

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प्रश्न 3.
जम्प बाल और जम्प बाल के समय फाऊल बताएं।
उत्तर-
जम्प बाल-जम्प बाल के समय दो कूदने वाले अर्द्ध-वृत्त के अन्दर पांव रख कर अपनी-अपनी बॉस्केट के समीप खड़े होंगे तथा उनका एक पांव बीच में पड़ी रेखा के केन्द्र के पास होगा। उस समय कोई अधिकारी गेंद को इतनी ऊंचाई से ऊपर फैंकेगा कि उनमें से कोई खिलाड़ी उछल कर गेंद न पकड़ सके और गेंद उन दोनों के मध्य में गिरे। कोई खिलाड़ी गेंद को उस समय तक थपथपाने का यत्न नहीं करेगा जब तक उसने अधिकतम ऊंचाई प्राप्त न कर ली हो। कूदने वाला खिलाड़ी केवल दो बार ही गेंद को थपथपा सकता है।
जिस समय जम्प बाल (Jump Ball) में नियम तोड़ा जाता है इसके दण्ड-स्वरूप पार्श्व रेखा (Side line) पर से थ्रो-इन (Throw-in) दी जाती है। यह अपने विरोधियों के लिए केन्द्र बिन्दु होता है।

कोच (Coach) खेल के आरम्भ होने के निश्चित समय से लगभग 20 मिनट पहले कोच (Coach) फलांकन कर्ता (Scorer) को उन खिलाड़ियों के नाम और गिनती जिन्होंने खेल में खेलना है, के अतिरिक्त कप्तान, कोच और सहायक कोच के नाम देगा।

खेल के आरम्भ होने से स्कोर शीट (Score-Sheet) पर यह हस्ताक्षर करके खिलाड़ियों के नाम और गिनती से अपनी सहमति प्रकट करेंगे और उसी समय पांच खिलाड़ियों के नाम बताएंगे जिन्होंने खेल आरम्भ करना है।
ए (A) टीम का कोच यह जानकारी पहले देगा।

नोट-ऐसा न करने पर और जिससे खेल आरम्भ होने में देरी हो, कोच पर तकनीकी फाऊल (Technical Foul) का दोष लग सकता है और खेल दो फ्री-थ्रो (Free Throws) करने के पश्चात् आरम्भ होगा।

गोल-जब गेंद बास्केट में ऊपर से जाकर रुक जाए या निकल जाए तब गोल बन जाता है। रेखा के क्षेत्र से किए गए गोल के दो अंक तथा फ्री-थ्रो द्वारा किए गए गोल का एक अंक होता है। बिन्दु रेखा से परे फील्ड गोल लगाने के लिए प्रयत्न करने के तीन अंक दिए जाएंगे।

आक्रमण के समय बाधा उत्पन्न करना-जिस समय गेंद बॉस्केट के समतल के ऊपर से नीचे की ओर आती है तो कोई खिलाड़ी अपने सीमित क्षेत्र में न तो गेंद को छू सकता है और न ही वह इसे पकड़ सकता है चाहे वह गोल बनाने की कोशिश में हो।

प्रतिरक्षा के समय गेंद में बाधा-जब विरोधी खिलाड़ी गोल करने के लिए गेंद फेंकता है तथा सारी गेंद बॉस्केट के घेरे की सतह के ऊपर हो, उस समय जैसे ही गेंद नीचे आना शुरू करे, प्रतिरक्षा खिलाड़ी उसको छूने की बिल्कुल कोशिश नहीं करेगा। उल्लंघन होने पर गेंद मृत (Dead) हो जाती है। यदि फ्री-थ्रो के समय उल्लंघन हो तो फेंकने वाले के पक्ष में एक अंक यदि गोल की चेष्टा के समय हो तो फेंकने वाले के पक्ष में जोड़ दिए जाते हैं।

गोल के पश्चात् गेंद खेल में-गोल बनाने के 5 सैकिंड बाद विरोधी टीम का कोई खिलाड़ी, कोर्ट के अन्त में, परिधि से बाहर किसी भी बिन्दु से, जहां गोल बना था, गेंद खेल में डालेगा।

पिवटिंग
(Pivoting)
जब गेंद पकड़े हुए कोई खिलाड़ी एक ही पैर से एक बार या अधिक बार किसी दिशा में बढ़ता (घूमता) है तो इसे “पिवटिंग” (Pivoting) कहते हैं। खिलाड़ी के दूसरे पैर को जो जमीन के साथ सम्पर्क में रहता है—’पिवट’ कहा जाता है।
बॉस्केट बॉल में पिवटिंग निम्नलिखित तीन प्रकार की होती है—
1. स्थित पिवट (Stationary Pivot)—इस पिवट में—

  • एक खिलाड़ी दोनों पैरों को ज़मीन पर टिकाए हुए गेंद प्राप्त करता है।
  • यह रिबाउण्ड (Rebound) लेता है।
  • हवा में पास (Pass) देता है तथा दोनों पैरों को एक साथ ही भूमि पर टिकाते हुए वापस आता है। चाहे पैर एक-दूसरे के समान्तर हैं अथवा एक पैर दूसरे के सामने है। खिलाड़ी किसी भी पैर का प्रयोग करते हुए पिवट (रिवर्स अथवा रेयर पिवट) ले सकता है। यदि कोई खिलाड़ी ड्रिबलिंग (Dribbling) कर रहा है अर्थात् वह गतिशील है तो वह गेंद प्राप्त करके एक पैर को दूसरे पैर के सामने रखते हुए तथा सामने वाले पैर को किसी भी दिशा में गतिशील करते हुए स्ट्राइड स्टॉप (Stride Stop) में आ जाता है। इस पिवट का प्रयोग विपक्ष के खिलाड़ी से दूर जाने तथा अपने ही किसी साथी को खेल में लाने के लिए किया जाता है।

सामने या भीतरी पिवट
(Front or Inside Pivot)
इसकी तकनीक वही है जो रेयर पिवट (Rare Pivot) की है किन्तु इसमें अपने सामने के विपक्षी खिलाड़ी की तरफ टर्न (Turn) लिया जाता है अर्थात् गेंद पकड़े हुए खिलाड़ी एक पैर को आगे रख कर खड़ा होता है तथा दूरवर्ती पैर को विपक्षी खिलाड़ी के लगभग निकट रखते हुए अपने सामने के पैर पर पिवट लेता है।

अधिकारिक संकेत
(Official Signals)

  1. जब स्वतन्त्र थ्रो की संख्या का संकेत देता हो तो उंगलियों को अपने चेहरे की ऊंचाई पर रख कर कलाई से नीचे की ओर बार-बार गति दी जाती है।
  2. टाइम चार्ज (Charged Time Out) के लिए अधिकारी अपनी हथेली पर उंगलियों से T का चिह्न बनाता
  3. जम्प बॉल (Jump Ball) के संकेत के लिए अधिकारी अपने दोनों अंगूठे ऊपर करते हैं।
  4. त्रुटिपूर्ण ड्रिबल (Illegal dribble) के लिए वह Patting motion देता है।
  5. तीन सैकेण्ड के नियम (Three second rule) का उल्लंघन होने पर अधिकारी अपनी तीन उंगलियों (अंगूठा सहित) को साइड की तरफ करके संकेत करता है।
  6. किसी क्षेपण को निरस्त (Cancellation of a throw) करने के लिए अधिकारी अपने बाजुओं को अपने शरीर पर स्थानान्तरित करता है।
  7. स्टैपिंग (Stepping or travelling) के संकेत के लिए अधिकारी अपनी मुट्ठी घुमाता है।
  8. व्यक्तिगत फाऊल के लिए रैफरी बन्द मुट्ठी (Close fist) द्वारा संकेत करता है।
  9. व्यक्तिगत फाऊल की स्थिति में. यदि कोई स्वतन्त्र क्षेपण न देता हो तो अधिकारी अपनी उंगली को साइड रेखा की तरफ कर देता है।
  10. किसी तकनीकी फाऊल का संकेत देने के लिए अधिकारी खुली हथेली से ‘T’ बनाता है तथा उसे दूसरी हथेली पर दिखाता है।
  11. दोहरे फाऊल के संकेत के लिए वह अपनी बन्द मुट्टियों को अपने सिर के ऊपर हिलाता है।
  12. जानबूझ कर किए गए फाऊल के लिए रैफरी अपनी मुट्ठियों को बन्द रखते हुए अपनी कलाई को पकड़ कर संकेत करता है।
  13. धकेलने तथा चार्जिंग के संकेत के लिए रैफरी धकेलने जैसी नकल करता है।
  14. सीमाओं के उल्लंघन के लिए रैफरी हाथ हिला कर सीमा के बाहर संकेत करता है तत्पश्चात् उस टीम की बॉस्केट की तरफ संकेत करता है-जिसे “आऊट ऑफ़ बाऊण्ड-बॉल” दी गई है।
  15. टाइम आऊट के लिए अधिकारी सिर के ऊपर खुली हथेली से संकेत करता है।

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प्रश्न 4.
बॉस्केट बाल खेल के विभिन्न पासों के विषय में लिखें ।
उत्तर-
पास के प्रकार
(Types of Passes)
पासिंग (Passing)-बॉस्केट बॉल के खिलाड़ी को उन सभी प्रकार के पास (Passes) देने में निपुण होना चाहिए जिनका प्रयोग गेंद को अपने साथी को देने के लिए विपक्षी खिलाड़ी के ऊपर से, नीचे से अथवा उसके पास से फेंका जाता है।

पास देने के लिए आवश्यक बातें
(Some Essentials of Passing)
पास देने के लिए कुछ आवश्यक बातें निम्नलिखित हैं—

  1. पास देने से पहले सामने देखने की आदत बनाओ।
  2. पास प्राप्त करने वाले साथी की दूरी का अनुमान लगाना तथा साथ ही यह अनुमान भी लगाना कि कितने समय में गेंद उसके पास पहुंचेगी।
  3. पास करने से पहले विपक्षी खिलाड़ी की स्थिति का अनुमान लगाना।
  4. “पास” सही तथा शीघ्र होना चाहिए।

दो हाथ का छाती वाला या पश पास
(Two Handed Chest Pass or Push Pass)
बॉस्केट बॉल में यह सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाला पास है। कम या मध्यम दूरियों के लिए इस पास का प्रयोग होता है तथा इसमें कलाई द्वारा अतिरिक्त शक्ति लगाई जाती है। गेंद को छाती की ऊंचाई पर लाना चाहिए ताकि इसे सरलता से प्राप्त (Catch) किया जा सके। पास देने के लिए गेंद को छाती के सामने दोनों हाथों में पकड़ा जाता है, कोहनियां काफ़ी दूर होती हैं ताकि गति में अवरोध न हो। इस स्थिति में खिलाड़ी गेंद को पास, शूट या स्टार्ट (Pass, Shoot or Start) कर सकता है। भुजाओं को फैला कर तथा हथेली को पास की दिशा में घुमाकर गेंद को शक्ति के साथ आगे की ओर धकेलना चाहिए।

दो हाथ का बाउन्स पास (Two Handed Bounce Pass)—यह पास भी लगभग “Chest Pass” की तरह ही है। इसमें गेंद को ठीक पहले की तरह ही फेंका जाता है किन्तु इसे ज़मीन की तरफ प्राप्तकर्ता खिलाड़ी के यथासम्भव निकट फेंकते हैं ताकि वह गेंद को घुटनों तथा कमर के बीच किसी ऊंचाई पर प्राप्त करके ले। “बाउन्स पास” का प्रयोग साधारणतया छोटी दूरियों के लिए किया जाता है। बाउन्स पास देने के लिए गेंद को अपनी छाती या कमर की ऊंचाई पर दोनों हाथों में पकड़े कोहनियों को सीधा करें तथा हथेली से शक्ति के साथ गेंद को ज़मीन की तरफ इस प्रकार फेंको कि विपक्षी के पास से होकर जैसे ही गेंद ज़मीन को छुए, वह उछल कर प्राप्तकर्ता के हाथ में गिरे।

दो हाथों का अण्डर हैण्ड पास
(Two Handed Under Hand Pass)
इसे शौवल पास (Shoval Pass) भी कहते हैं। यह तब प्रयोग किया जाता है जब खिलाड़ी (Passer) अपने साथी खिलाड़ी के निकट ही हो। गेंद शीघ्र देने के लिए यह एक छोटा पास है। यह पास देने के लिए कोहनियों को बाहर की तरफ़ मोड़ते हुए दाएं या बाएं तरफ से दोनों हाथों का प्रयोग करो। दाईं साइड के पास के लिए बायां तथा बाईं साइड के पास के लिए तुम्हें दायां पैर आगे धकेलना चाहिए।

बेस बॉल पास
(Base Ball Pass) यह पास बहुत प्रभावशाली है। इसका प्रयोग गेंद को पिवट खिलाड़ी (Pivot Player) को देने अथवा लम्बा पास देने के लिए होता है। सुविधा के अनुसार दायां या बायां हाथ प्रयोग किया जा सकता है। पास को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए गेंद को अपने कन्धों के ऊपर तथा दाएं कान के निकट रखो। अब गेंद को पूरी शक्ति के साथ आगे फेंको। इस पूरी क्रिया में तुम्हारा दायां हाथ पीछे रहना चाहिए। इस पास में देखने की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गेंद को कलाई (न कि बाजुओं) की मदद से कितनी शक्ति से धकेला जाता है।

दो हाथों वाला साइड पास
(Two Handed Side Pass)
सिवाय हाथों की स्थिति के, यह पास “बेस बॉल पास” की तरह ही है। इसमें हाथों को गेंद के दोनों तरफ फैलाना चाहिए। इसे हुक के दाएं या बाएं किसी तरफ से भी खेला जा सकता है।

बैक पास
(Back Pass) अपने असुरक्षित साथी (Unguarded) को गेंद देने के लिए यह सर्वोत्तम पास है। इसमें गेंद को पीछे से, कलाई से तथा उंगलियों की मदद से पास किया जाता है। क्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए कूल्हों (Hips) को थोड़ा हिलाया जा सकता है। किसी भी हाथ से यह पास प्रभावशाली ढंग से दिया जा सकता है।

एक हाथ का बाऊन्स पास
(One Handed Bounce Pass)
यह दाएं या बाएं हाथ से दिया जाता है। इसका प्रयोग दो स्थितियों में किया जाता है।

  1. जब “गार्ड” खिलाड़ी (Guard Player) पासर खिलाड़ी (Passer Player) को बहुत निकट से गार्ड कर रहा
  2. जब गतिशील प्राप्तकर्ता खिलाड़ी बहुत निकट से गार्ड किया जा रहा हो।

इस ‘पास’ की तकनीक स्थिति के साथ बदलती रहती है। पहली स्थिति में पास को प्रभावशाली बनाने के लिए इसे शीघ्रता से तथा अकस्मात् (Suddenness and Surprise) किया जाता है। इसकी साधारण विधि में इसे शुरू करके आवश्यकतानुसार किसी भी साइड में शीघ्रता से हट जाना होता है। ठीक उसी समय गार्ड खिलाड़ी से बचने के लिए बाजू को कदम की दिशा में बढ़ा कर गेंद प्राप्तकर्ता की तरफ आवश्यकतानुसार स्विग (Swing) के साथ उछाल दिया जाता है। दूसरे प्रकार का ‘एक हाथ वाला पास’ तब आवश्यक होता है जब दौड़ता हुआ प्राप्तकर्ता (Receiver) खिलाड़ी बहुत निकट से गार्ड हो रहा हो। इस स्थिति में ‘गार्ड’ द्वारा इसी प्रकार का सीधा पुश पास प्रयोग करना सम्भावित है। इस पास (Pass) को फेंकने के लिए गेंद को थोड़ा-सा कन्धों के ऊपर कानों के पास रखा जाता है। इसके बाद बाजू को आगे तथा नीचे की तरफ इस तरह फैलाया जाता है कि गेंद को सामने स्विग किया जा सके परन्तु गेंद ‘गार्ड’ (जो प्राप्तकर्ता को कवर किए हैं) की पहुंच के बाहर होनी चाहिए।

फ्लिप पास
(Flip Pass)
‘फ्लिप पास’ का प्रयोग गेंद को निकट से ‘पास’ के लिए किया जाता है। यह आवश्यकतानुसार दोनों हाथों से या एक हाथ से किया जा सकता है। थोड़ी दूरी पर खड़े खिलाड़ी को गेंद फ्लिप करने के लिए झुकी हुई कलाई (Flexed Wrist) का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि यह एक छोटा ‘पास’ है गेंद को केवल कलाई द्वारा ही ‘फ्लिप’ किया जाता है ताकि गेंद को केवल इतना बल ही मिले कि प्राप्तकर्ता इसे सरलता से तथा निश्चित रूप से दबोच सके। क्योंकि दूरी कम होती है इसलिए प्रतिपक्षी खिलाड़ी इसे रोक नहीं सकता तथा प्राप्तकर्ता इसे सरलता से पकड़ लेता है।

एक हाथ का साइड पास
(One Handed Side Pass)
जब अधिक शुद्धता (Accuracy) तथा गति (Speed) की आवश्यकता न हो तो उस स्थिति में यह ‘पास’ प्रयोग किया जाता है। इस पास की तकनीक इस प्रकार है—
गेंद को अपने हाथों में पकड़ो, हाथों की उंगलियां अच्छी तरह फैली हुई हों ताकि पूरे गेंद को ढक सकें। अपने शरीर को थोड़ा-सा घुमाते हुए गेंद को दाएं कान के पास ले जाओ। कोहनियों को खोलते हुए तथा उसी समय बाएं पैर को आगे बढ़ाओ। कोहनी को नीचे की तरफ खोलते हुए दाएं हाथ से गेंद को आगे की ओर फेंको। विश्राम सहित (Relaxed) शरीर तथा कलाई द्वारा इसका पीछा करो। पास देते समय बाईं भुजा, दाईं भुजा की मदद करती है। परन्तु बाईं कोहनी छाती की ऊंचाई पर मुड़ी रहती है।

टिप अर्थात् वॉली पास
(Tip or Volley Pass)
किसी दिशा में भी एक कदम लेकर फ्रन्ट लाइन की स्थिति से यह पास दिया जा सकता है। गेंद पकड़ते समय एक हाथ गेंद के नीचे तथा दूसरा उसकी मदद करते हुए होता है। गेंद को उंगलियों के सिरों से या कलाई द्वारा फ्लिप करके थोड़ी दूर पर खड़े अपने साथी खिलाड़ी को लुढ़का दिया जाता है।

पासिंग क्रिया की आवश्यक बातें
(Some Hints on Passing Strategy)

  1. ‘पासर’ खिलाड़ी को प्राप्तकर्ता खिलाड़ी की स्थिति तथा उसके द्वारा की जाने वाली सम्भावित कार्यवाही का . पूर्व अनुमान लगा लेना चाहिए।
  2. पास देते समय शीघ्रता नहीं करनी चाहिए विशेषकर जब उसका साथी विपक्षी खिलाड़ियों से घिरा हआ हो।
  3. टीम का आफैन्स (Offence) मुख्य रूप से छोटे पासों (Short Passes) पर निर्भर होता है।

बॉस्केटबाल में प्रयुक्त शब्दावली
पिछला कोर्ट-कोर्ट का आधा भाग जहां से आक्रामक टीम आती है। अन्य शब्दों में, वह अर्द्ध भाग है जिसमें कि बॉस्केट होती है जिसको उन्होंने बचाना होता है।
ब्लाईंड पास-एक दिशा में देखते हुए बाल को पृथक् दिशा का प्रयोग करते हुए दूसरी दिशा में पास देना।
स्पष्ट शॉट-यह शॉट जो बोर्डों या रिंग को बिना छुए सीधा बॉस्केट में जाता है।

क्षेत्र से क्षेत्र की प्रतिरक्षा (Zone to Zone defence)—यह एक प्रकार की प्रतिरक्षा प्रणाली है जिसमें खिलाड़ी किसी क्षेत्र की केवल प्रतिरक्षा के ज़िम्मेदार होते हैं। इनका ध्यान केवल गेंद की तरफ होता है, प्रतिपक्षी खिलाड़ी की तरफ नहीं।

खिलाड़ी से खिलाड़ी की प्रतिरक्षा (Man to Man defence)—यह वह प्रतिरक्षा प्रणाली है जिसमें प्रत्येक खिलाड़ी की ज़िम्मेदारी किसी विशेष शत्रु खिलाड़ी से प्रतिरक्षा की होती है।
मिश्रित प्रतिरक्षा (Combined defence)—यह प्रतिरक्षा प्रणाली दोनों प्रणालियों ‘क्षेत्र से क्षेत्र’ तथा ‘खिलाड़ी से खिलाड़ी’ का मिश्रण है।

कट इन (Cut in)-किसी खिलाड़ी का दो या अधिक शत्रु खिलाड़ियों के मध्य से होकर गेंद प्राप्त करने के लिए किसी बॉस्केट की ओर तेज़ी से भागना ‘कट इन’ कहलाता है।

चार्जिंग (Charging)-किसी खिलाड़ी के साथ अनावश्यक शारीरिक सम्पर्क। किसी खिलाड़ी के बीच से निकलना तथा उससे बचने की कोशिश करना।

फाऊल आऊट (Fouled Out)-पांच फाऊलों के बाद खिलाड़ी को क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है। इसे फाऊल आऊट कहते हैं।
फ्रीज या हैल्ड गेंद (Freeze or Held bal)—गेंद को बजाय खेलने की कोशिश करने के उसे अपने पास ही रख लेना।

ओवर लोडिंग (Over Loading)—’क्षेत्र से क्षेत्र प्रतिरक्षा’ के विरुद्ध विरोधी खिलाड़ियों की आक्रामक प्रणाली। इस हेतु एक ही तरफ अधिक आक्रामक खिलाड़ियों को खड़े करने की प्रणाली को ओवरलोडिंग कहा जाता है।
पोस्ट खिलाड़ी (Post Player)—स्वतन्त्र थ्रो के क्षेत्र में खड़े आक्रामक खिलाड़ी को पोस्ट खिलाड़ी कहते हैं।
स्क्रीन (Screen)-जब कोई खिलाड़ी अपने साथी की रक्षा के लिए उसके गार्ड के मार्ग में स्वयं को खड़ा कर लेता है।

खेल का निर्णय-खेल में अधिक अंक प्राप्त करने वाली टीम को विजयी घोषित किया जाएगा।
खेल का अधिकार छिन जाना—मध्यान्तर या टाइम-आऊट के पश्चात् यदि कोई टीम रैफरी के बुलाने के बाद एक मिनट के अन्दर खेल के लिए मैदान में नहीं उतरती तो गेंद खेल में लाई जाएगी और अनुपस्थित टीम खेल अधिकार खो देगी। यदि खेल के दौरान किसी टीम के खिलाड़ियों की संख्या दो से कम रह जाए तो खेल समाप्त हो जाएगा और टीम भी खेल अधिकार खो देगी।

स्कोर तथा अतिरिक्त समय–यदि दूसरे खेल अर्द्धक की समाप्ति तक दोनों टीमों के अंक बराबर हों तो पांच मिनटों की अधिक अवधि दी जाएगी और ऐसी अवधि जब तक खेल का फैसला न हो, दी जाएगी। अतिरिक्त समय में बॉस्केट के चुनाव के लिए टॉस होगा और उसके बाद प्रत्येक अतिरिक्त समय के लिए बॉस्केट बदल लिया जाएंगे।

टाइम-आऊट-मध्यान्तर तक प्रत्येक टीम को दो टाइम-आऊट मिल सकते हैं तथा अतिरिक्त समय में एक टाइमआऊट मिल सकता है। किसी खिलाड़ी को चोट लगने की दशा में एक मिनट का टाइम-आऊट मिलता है। यदि इस बीच घायल खिलाड़ी ठीक नहीं होता तो उसकी जगह नया खिलाड़ी ले लिया जाता है।

खेल की समाप्ति-टाइम कीपर द्वारा खेल की समाप्ति की सूचना दिए जाने पर खेल समाप्त कर दिया जाएगा।
खिलाड़ी का बदलना-स्थानापन्न खिलाड़ी (Substitute Player) मैदान में उतरने से पहले स्कोरर के पास रिपोर्ट करेगा और तुरन्त खेलने के लिए प्रस्तुत रहेगा। अधिकारी का संकेत पाते ही मैदान में तुरन्त उतरेगा। स्थानापन्न को मैदान में उतरने के लिए 20 सैकिंड से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। यदि उसे अधिक समय लगता है तो टाइम-आऊट माना जाएगा और विरोधी दल के विरुद्ध अंकित कर दिया जाएगा।

मृत गेंद (Dead Ball)—गेंद उस समय भी मृत होती है जब गेंद जो पहले ही गोल के लिए शॉट (Shot) के लिए उड़ान में होती है और खिलाड़ी के द्वारा उस समय के पश्चात् छुई जाती है जब बाधा या फाऊल समय पूरा हो चुका होता है या जब फाऊल बुलाया जा चुका होता है। (ऊपर की ओर उड़ान में जब गेंद को छुआ जाता है, बॉस्केट यदि असफल हो, नहीं गिनी जाती।)

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
बास्केट बाल खेल में तीन सैकिण्ड, पांच सैकिण्ड, आठ सैकिण्ड और चौबीस सैकिण्ड नियम क्या
उत्तर-
तीन सैकिण्ड नियम-जब गेंद किसी टीम के अधिकार में हो तो उस टीम का कोई भी खिलाडी विरोधी टीम के प्रतिबद्ध क्षेत्र में तीन सैकिण्ड से अधिक नहीं रहेगा।
पांच सैकिण्ड नियम -जब पास का कोई रक्षक खिलाड़ी गेंद को खेलने से रोकता है और वह पांच सैकिण्ड के अन्दर गेंद को खेल में डालने की कोई सामान्य कोशिश नहीं करता तो वह ब्लॉकिंग कहलाता है।

आठ सैकिण्ड नियम -जब किसी टीम को मैदान के पिछले भाग में गेंद प्राप्त हो जाता है तो उसे आठ सैकिण्ड के अन्दर गेंद को अगले भाग में डालना पड़ता है।
चौबीस सैकिण्ड नियम-नये नियम के अनुसार पार्श्व रेखा (Side line) पर आऊट ऑफ बाऊंड्ज़ (Out of bounds) से थ्रो-इन के पश्चात् एक नई चौबीस (26) सैकिण्ड की अवधि तब तक आरम्भ नहीं होती जब तक—

  • गेंद आऊट ऑफ बाऊंड्ज़ (Out of bounds) नहीं जाती है और उसी टीम के खिलाड़ी के द्वारा थ्रो-इन नहीं ली जाती।
  • अधिकारी (Officials) ने किसी आहत को बचाने के लिए खेल को रोक (Suspend) कर दिया हो और आहत खिलाड़ी वाली टीम के खिलाड़ी ने थ्रो-इन (Throw-in) ली हो।

24 सैकिण्ड आप्रेटर (Operator) उस समय से घड़ी को रोके हुए समय से चलाये जब तक वह टीम थ्रो-इन (Throw-in) किये जाने के पश्चात् पुनः काबू पा लेती है।
फाऊल के बाद गेंद खेल में-जब गेंद किसी फाऊल के साथ खेल से बाहर हो जाए तो इस स्थिर गेंद को—

  1. बाहर से थ्रो करके, या
  2. किसी एक वृत्त में जम्प बाल द्वारा, या
  3. एक या अधिक फ्री-थ्रो द्वारा फिर खेल में लाया जाएगा।

थ्रो-इन-जब किसी नियम का उल्लंघन हो जाए तो गेंद स्थिर समझी जाती है और विरोधी टीम को साइड-लाइन के समीपवर्ती बिन्दु से थ्रो-इन के लिए दी जाती है।

अब नियम उस खिलाड़ी को आज्ञा देता है जिसने थ्रो-इन (Throw-in) करना है कि वह समाप्ति रेखा (End line) को छुए और यह नियम का उल्लंघन नहीं है।

फ्री-थ्रो-जिस खिलाड़ी पर फाऊल किया गया हो वह फ्री-थ्रो लेता है परन्तु किसी तकनीकी फाऊल होने की दशा में कोई भी खिलाड़ी फ्री-थ्रो ले सकता है। जब फ्री-थ्री ली जाती है, तो खिलाड़ियों की स्थिति इस प्रकार होती है—

  1. विरोधी टीम के दो खिलाड़ी बॉस्केट के समीप खड़े होंगे।
  2. अन्य खिलाड़ी भिन्न-भिन्न पोजीशन लेंगे।
  3. बाकी के खिलाड़ी कोई भी और पोजीशन ले सकते हैं परन्तु वे फ्री-थ्रो के समय बाधक नहीं बनने चाहिएं।

फ्री-थ्रो के उल्लंघन-फ्री-थ्रो करने वाले सैकिण्ड खिलाड़ी के अधिकार में गेंद देने के पश्चात्

  • इन पांच सैकिण्ड के अन्दर गेंद को इस तरह फेंकेगा कि खिलाड़ी द्वारा छुए जाने से पहले गेंद बॉस्केट में चली जाए या घेरे का स्पर्श कर ले।
  • गेंद के बॉस्केट की ओर जाते समय या अन्दर पहुंचने पर न तो वह और न ही कोई दूसरा खिलाड़ी गेंद या बॉस्केट को छुएगा।
  • वह फ्री-थ्रो लाइन या उसके परे भूमि को छुएगा और न ही किसी टीम का कोई दूसरा खिलाड़ी फ्री-थ्रो लाइन को छुएगा या फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी को बाधा पहुंचाएगा।

खेल को प्रतिबन्धित करना (Game to be Forefeited)-नये नियम के अनुसार रैफरी को अब यह आवश्यक नहीं है कि वह गेंद को उस विधि से खेल में रखे जैसे कि दोनों टीमें फर्श पर खेलने के लिए और खेल को प्रतिबन्धित करने के लिए तैयार हों। अब रैफरी के खेल में बुलाने के पश्चात् यदि एक टीम खेलने से इन्कार कर देती है तो खेल प्रतिबन्धित हो जाता है।

गेंद का पिछली कोर्ट को वापिस जाना (Ball Return to Back Court) नये नियम के अनुसार गेंद को टीम ए (A) को पिछली कोर्ट की ओर भेजा जाता है, शर्त यह है कि इसको टीम ए (A) का एक खिलाड़ी छूता है जबकि टीम ‘A’ सामने की कोर्ट में गेंद को नियन्त्रित रखती है। इसके अनुसार A, खिलाड़ी को छूना जबकि गेंद टीम ए के सामने की कोर्ट में टीम बी (B) के नियन्त्रण में है। यदि गेंद टीम ए (A) के सामने की कोर्ट में जाता है उसको ऐसा नहीं समझा जाता है कि पिछली कोर्ट में जाने दिया जाए।

इसके आगे केन्द्र (Mid-Point) से थ्रो-इन (Throw-in) के बीच अधिकारी (Official) यह निश्चित बताएगा कि खिलाड़ी बढ़ाई गई पार्श्व रेखा (Side-line) के दोनों ओर एक पैर रख कर पोजीशन स्थापित करता है।

आऊट आफ बाऊंड खेल पर नियम का उल्लंघन (Violation on Out of bounds play) यह नियम को तोड़ना नहीं है जबकि थ्रो-इन (Throw-in) दी गई है, खिलाड़ी गेंद को छोड़ते समय लकीर पर पांव रखता है।
दण्ड—
1. फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी द्वारा उल्लंघन होने पर कोई अंक रिकार्ड न होगा। फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी के विपक्षी की गेंद फ्री-थ्रो लाइन के सामने दे दी जाएगी।

2. फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी को टीम के अन्य खिलाड़ी द्वारा नियम का उल्लंघन होने पर भी अंक रिकार्ड होगा। यदि नियम (ख) का उल्लंघन दोनों टीमों द्वारा होता है तो कोई अंक दर्ज नहीं होगा और फ्री-थ्रो लाइन पर जम्प बाल द्वारा खेल जारी किया जाएगा।

3. यदि नियम (ग) का उल्लंघन फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी के साथी द्वारा होता है तथा फ्री-थ्रो सफल हो जाती है तो उल्लंघन की उपेक्षा करके गोल गिन लिया जाएगा और उसका दण्ड दिया जाएगा।

4. यदि (ग) नियम का उल्लंघन फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी के विरोधियों से होता है तो फ्री-थ्रो सफल होने पर उल्लंघन की उपेक्षा करके गोल गिना जाएगा।

5. यदि नियम (ग) का उल्लंघन दोनों टीमों द्वारा होता है और फ्री-थ्रो सफल हो जाती है तो उल्लंघन की उपेक्षा करके गोल गिना जाएगा। फ्री-थ्रो सफल न होने की दशा में फ्री-थ्रो लाइन पर जम्प बाल के साथ खेल पुनः जारी किया जाएगा।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 6.
बॉस्केट बाल खेल में खिलाड़ी के तकनीकी फाऊल लिखें।
उत्तर-
खिलाड़ी द्वारा तकनीकी फाऊल-कोई भी खिलाड़ी अधिकारियों द्वारा दी गई चेतावनी की अवहेलना नहीं करेगा और न ही ऐसा व्यवहार करेगा जो एक खिलाड़ी को शोभा न दे, जैसे—

  1. अधिकारी को अपमानजनक ढंग से सम्बोधित करना या मिलना।
  2. असभ्य व्यवहार करना।
  3. विरोधी खिलाड़ी को तंग करना या उसकी आंखों के आगे हाथ करके उसे देखने में रुकावट डालना।
  4. खेल को अनुसूचित ढंग से विलम्बित करना।
  5. फाऊल का संकेत मिलने पर ठीक ढंग से बाजू न उठाना।
  6. स्कोरर या रैफरी को बिना सूचित किए अपना नम्बर बदलना।।
  7. स्कोरर को सूचित किए बिना स्थानापन्न (Substitute) की तरह कोर्ट में प्रवेश करना।

दण्ड-प्रत्येक अपराध को एक फाऊल माना जाएगा और प्रत्येक फाऊल के लिए विरोधी को दो फ्री-थ्रो दी जाएंगी। इस नियम का बार-बार उल्लंघन किए जाने पर खिलाड़ी को अयोग्य घोषित करके खेल से निकाल दिया जाएगा।

कोच का स्थानापन्न (Substitute) द्वारा तकनीकी फाऊल-कोई कोच या स्थानापन्न बिना अधिकारी की आज्ञा के कोर्ट में दाखिल नहीं हो सकता, न ही कोर्ट के कार्यों को जानने के लिए अपना स्थान छोड़ सकता है और न ही किसी अधिकारी या विरोधी को अपमानजक ढंग से बुला सकता है।

दण्ड-कोच द्वारा इस नियम का उल्लंघन करने पर उसके नाम फाऊल दर्ज किया जाएगा। प्रत्येक अपराध के लिए एक फ्री-थ्रो दी जाएगी और बाल उसी टीम को केन्द्रीय रेखा पर थ्रो-इन करने के लिए मिलेगा। इस नियम के बारबार उल्लंघन किए जाने पर कोच को क्षेत्र की सीमाओं से बाहर निकाला जा सकता है।

निजी फाऊल-निजी फाऊल उस खिलाड़ी का होता है तो विरोधी खिलाड़ी को ब्लॉक करता है, पकड़ता है, धक्का देता है तथा उस पर आक्रमण करता है।
दण्ड-यदि शूटिंग करते समय खिलाड़ी पर फाऊल देता है तो—

  1. यदि गोल हो जाता है तो उसकी गिनती की जाएगी और एक फ्री-थ्रो दी जाएगी।
  2. यदि गोल (2 अंक) असफल हो, दो फ्री-थ्रो (Free Throw) दिए जाएंगे।
  3. यदि गोल (Goal) के लिए शाट (Shot) असफल होता है तो तीन फ्री-थ्रो (Free Throws) दिये जाएंगे।

जानबूझ कर (साभिप्राय ) फाऊल-यह वह शारीरिक फाऊल है जो किसी खिलाड़ी द्वारा जानबूझ कर दिया जाता है। जो खिलाड़ी बार-बार साभिप्राय फाऊल करता है उसे अयोग्य करार देकर खेल से निकाला जा सकता है।

दण्ड-अपराधी पर शारीरिक फाऊल का दोष लगाया जाएगा और दो फ्री-थ्रो दिए जाएंगे। यदि यह फाऊल ऐसे खिलाड़ी पर होता है तो गोल बनाता है तो यह गोल माना जाएगा और एक अतिरिक्त फ्री-थ्रो दी जाएगी।

डबल फाऊल-डबल फाऊल उस स्थिति में होता है जब दो खिलाड़ी एक-दूसरे के प्रति लगभग एक ही समय फाऊल करते हैं। डबल फाऊल होने पर निकटतम वृत्त से जम्प बाल द्वारा खेल पुनः शुरू करवा दी जाएगी।

बहुपक्षीय (Multiple) फाऊल-बहुपक्षीय फाऊल उस समय होता है जब एक टीम के दो या तीन खिलाड़ी एक ही विरोधी खिलाड़ी पर निजी फाऊल कर देते हैं।

इस स्थिति में प्रत्येक अपराधी खिलाड़ी पर एक फाऊल लगेगा और जिस खिलाड़ी के प्रति अपराध हुआ है उसे दो फ्री-थ्रो दी जाएगी। यदि फेंकने की प्रक्रिया में किसी खिलाड़ी के प्रति फाऊल हुआ है तो गोल बनने पर किया जाएगा और एक फ्री-थ्रो दी जाएगी।
पांच फाऊल-यदि कोई खिलाड़ी पांच फाऊल (निजी या तकनीकी) करता है तो उसे नियमानुसार बाहर निकाल देना चाहिए।

तीन और दो नियम (Three for two Rule)-जब खिलाड़ी गोल करने लगा हो तो उस पर विरोधी टीम का खिलाड़ी फाऊल कर दे और यदि गोल बन जाए तो एक और फ्री-थ्रो मिलेगा। गोल न होने की अवस्था में दोनों फ्रीथ्रो में से एक भी न होने पर अतिरिक्त फ्री-थ्रो मिलेगा।

चयन का अधिकार (Right of Option) केन्द्र बिन्दु (Mid Point) से थ्रो-इन के लिए चयन का अधिकार एक, दो और तीन थ्रो की दशा में लागू होता है। चयन करने से पहले कप्तान को कोच के साथ संक्षिप्त परामर्श करने की आज्ञा होती है।

टीम के द्वारा चार फाऊल (Four fouls by the Team)-जब टीम किसी अवधि में चार खिलाड़ियों का फ़ाऊल (निजी और तकनीकी) कर चुकती है, इस अवधि समय में सभी बाद के खिलाड़ियों को फाऊल होने पर दो फ्री-थ्रो मिलती है।