PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

PSEB 11th Class Geography Guide वायुमण्डल-बनावट और रचना Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो शब्दों में दीजिए-

प्रश्न (क)
धरती के इर्द-गिर्द लिप्त हवा के गिलाफ का क्या नाम है ?
उत्तर-
वायुमंडल।

प्रश्न (ख)
थर्मामीटर की खोज किस वैज्ञानिक ने, कब की थी ?
उत्तर-
गैलीलियो ने 1593 में।

प्रश्न (ग)
सूर्य से आ रही UV किरणों का नाम क्या है ?
उत्तर-
अल्ट्रा वायलेट किरणें।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (घ)
वायुमंडलीय गैसों में सबसे अधिक मात्रा किस गैस की है ?
उत्तर-
नाइट्रोजन 78.03%.

प्रश्न (ङ)
वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड दोनों का मिलकर कितने प्रतिशत हिस्सा है ?
उत्तर-
20.95 + 0.03 = 20.98%.

प्रश्न (च)
जलवाष्प धरती से कितनी दूरी तक वायुमंडल में मिलते हैं ?
उत्तर-
5 किलोमीटर की ऊँचाई तक।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (छ)
समताप मंडल की ऊँचाई कहाँ से कहाँ तक होती है ?
उत्तर-
16 किलोमीटर से 50 किलोमीटर तक।

प्रश्न (ज)
गैसीय और तरल पदार्थों के ताप-स्थानांतरण विधि का क्या नाम है ?
उत्तर-
वाष्पीकरण।

प्रश्न (झ)
सूर्य-सतह का तापमान कितने डिग्री सैल्सियस है ?
उत्तर-
10,180° F.

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (ज)
10. Green House का प्रभाव कायम रखने के लिए कौन-सी गैस सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है ?
उत्तर-
कार्बन-डाई-ऑक्साइड।

2. प्रश्नों के उत्तर एक या दो वाक्यों में दो :

प्रश्न (क)
वायुमंडलीय गैसीय मिश्रण की दो क्षीण विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
गैसीय मिश्रण रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन है। यह अदृश्य भी है।

प्रश्न (ख)
वायुमंडलीय आंकड़े भेजने वाले दो उपग्रहों के नाम लिखें।
उत्तर-
TIROS और GOES नामक उपग्रह।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (ग)
ऑक्सीजन मानवीय शरीर में किस स्रोत पर कार्य करती है ?
उत्तर-
ऊर्जा का स्रोत।

प्रश्न (घ)
जलवाष्प किन रूपों में धरती पर बरसते हैं ?
उत्तर-
वर्षा, ओले, बर्फबारी, ओस आदि।

प्रश्न (ङ)
वायुमंडल में मौसम से संबंधित कौन-सी दो क्रियाएँ होती हैं ?
उत्तर-
वाष्पीकरण और संघनन।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (च)
टरोपोपॉज़ (Tropopause) वायुमंडल की किन परतों के मध्य स्थित होता है ?
उत्तर-
परिवर्तन मंडल और समताप मंडल।

प्रश्न (छ)
पराबैंगनी किरणों की ज्यादा मात्रा से मनुष्य को कौन-से रोग हो सकते हैं ?
उत्तर-
पराबैंगनी किरणें मनुष्य को अंधा कर देती हैं और चमड़ी के रोग लग जाते हैं।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 60 से 80 शब्दों में दें:

प्रश्न (क)
धरती से छोड़ा एक गुब्बारा जो 700 किलोमीटर ऊपर चला जाए, तो वह वायुमंडल की परतों को किस क्रम में पार करेगा ?
उत्तर-

  1. परिवर्तन मंडल – 16 कि०मी० तक
  2. समताप मंडल – 50 कि०मी० तक
  3. मध्य मंडल – 80 कि०मी० तक
  4. आयन मंडल – 640 कि०मी० तक
  5. बाहरी मंडल — 640 कि.मी. से आगे।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (ख)
परिवर्तन मंडल का अंग्रेजी नाम Troposphere रखने संबंधी संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
यूनानी भाषा से लिए गए शब्द Tropos का अर्थ है-परिवर्तन या हलचल या मिक्सिंग। इस मंडल में मौसमीय परिवर्तन मिलते हैं।

प्रश्न (ग)
Ozone की परत की आवश्यकता और उस पर हो रहे नुकसान की चर्चा करें।
उत्तर-
ओज़ोन गैस की परत मानवीय जीवन के लिए ज़रूरी है। यह सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों को सोख लेती है और धरती को पराबैंगनी किरणों से बचाती है। वायुमंडल में ओजोन गैस की परत कम हो रही है, इसीलिए धरती का तापमान बढ़ रहा है और हिम-खंड पिघल रहे हैं और समुद्र-तल ऊँचा हो रहा है।

प्रश्न (घ)
वायुमंडल का विभाजन रासायनिक रचना के आधार पर करें।
उत्तर-
वायुमंडल में गैसें, जलवाष्प, धूलकण आदि शामिल होते हैं। नाइट्रोजन (78.03%) सबसे अधिक होता है, ऑक्सीजन (20.95%), कार्बनडाईऑक्साइड (0.03%) और जलवाष्प (2%) होते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (ङ)
सूर्य-तापन (Insolation) क्या है ? एक नोट लिखें।
उत्तर-
धरती से प्राप्त होने वाले सूर्य-विकिरण को सूर्य-तापन कहते हैं। सूर्य धरती और वायुमंडल के लिए ऊर्जा का प्रमुख साधन है। सूर्य-ताप का केवल 1/2 करोड़वां हिस्सा ही धरती पर पहुँचता है। यह ताप केवल 1.94 कैलोरी . प्रति सैंटीमीटर प्रति मिनट है। इस ऊर्जा का केवल 51 प्रतिशत भाग धरती पर पहुँचता है और धरातल को गर्म करता है।

प्रश्न (च)
भूमध्य रेखीय कम वायुदाब पेटी की उत्पत्ति के तीन बिंदु लिखें।
उत्तर-

  1. उच्च तापमान
  2. संवहन धाराएँ
  3. दैनिक गति।

प्रश्न (छ)
सम-दाब रेखाएँ क्या होती हैं ? नोट लिखें।
उत्तर-
धरातल पर सम वायु-दाब वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखाओं को सम-दाब रेखाएँ कहते हैं। ये वायु-दाब को समुद्र तल पर कम करके दिखाती हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

4. प्रश्नों का उत्तर 150 से 250 शब्दों में दो-

प्रश्न (क)
वायुदाब पर असर डालने वाले कौन-से कारक होते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
वायुमंडल का दबाव (Atmospheric Pressure)
धरती की आकर्षण-शक्ति (Gravity) के कारण हर वस्तु में भार होता है। हवा में भी भार होता है। आमतौर पर एक घन फुट में 1.2 औंस भार होता है।

हवा का दबाव सभी दिशाओं में एक समान होता है। यह एक प्रकार का स्तंभ होता है, जो वायुमंडल की सबसे ऊँची सीमा तक पहुँचता है। समुद्र-तल पर प्रति वर्ग इंच पर वायुमंडल का दबाव 14.7 पौंड या 6.68 किलोग्राम होता है या 1.03 किलोग्राम प्रति वर्ग सैंटीमीटर होता है। वायुमंडल का औसत या साधारण दबाव (Normal Pressure) 45° अक्षांश और समुद्र तल पर 29.92 इंच या 76 सैंटीमीटर या 1013.2 मिलीबार होता है।

तत्त्व (Factors) अनेक स्थानों पर समान दशाओं के कारण वायु दबाव समान होता है या वायुमंडल में कोई गति नहीं होती, परंतु कई कारणों से समय और स्थान के अनुसार वायु-दबाव बदलता रहता है। वे कारण हैं-

1. तापमान (Temperature)—गर्म होने पर हवा फैलकर हल्की हो जाती है। ठंडी हवा सिकुड़कर भारी हो जाती है। इसलिए यदि तापमान अधिक होगा, तो हवा का दबाव कम होगा। यदि तापमान कम होगा, तो हवा का दबाव अधिक होगा। जैसे कहा जाता है कि, “A rising Thermometer shows a falling Barometer.” यही कारण है कि वायु-दबाव दिन में कम और रात को अधिक होता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 1

2. ऊँचाई (Altitude) हवा की ऊपरी सतहों का भार निचली सतहों पर पड़ता है। नीचे की हवा भारी और घनी हो जाती है। समुद्र तल पर अधिक वायु दबाव पड़ता है। ऊपर जाने पर प्रत्येक 300 मीटर की ऊंचाई पर हवा का दबाव 1 इंच या 34 मिलीबार गिर जाता है। अनुमान है कि वायुमंडल का आधा दबाव केवल 5000 मीटर की ऊँचाई तक सीमित होता है।

3. जल-कण (Water vapours)-जल-कण हवा की तुलना में हल्के होते हैं, इसीलिए शुष्क हवा नम हवा की अपेक्षा भारी होती है। यही कारण है कि स्थलीय पवनें (Land winds) शुष्क होने के कारण समुद्री पवनों (Sea winds) की अपेक्षा भारी होती हैं।

4. दैनिक गति (Rotation)-धरती की दैनिक गति के कारण कई स्थानों पर हवा इकट्ठी हो जाती है और दूसरे
स्थानों पर हवा का दबाव कम हो जाता है। 60° अक्षांश पर कम वायु धरती की दैनिक गति के कारण ही होती है।

प्रश्न (ख)
जनवरी और जुलाई के महीनों के ताप-विभाजन की विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
तापमान का विश्व-विभाजन (World Distribution of Temperature)-
1. जनवरी की समताप रेखाएँ (January Isotherms) जनवरी का महीना उत्तरी गोलार्द्ध में ठंडा और दक्षिणी गोलार्द्ध में गर्म होता है। इसका कारण यह है कि इस समय सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा के निकट लंबवत् होता है, जिसके कारण वहाँ गर्मी की ऋतु और उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दी की ऋतु होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल भाग की प्रधानता होती है, इसलिए बहुत-से भाग पर सागरीय प्रभाव नहीं होता, जिसके फलस्वरूप उच्च अक्षांशों में महाद्वीपों के भीतरी भागों में तापमान तेजी से कम हो जाता है। इस समय न्यूनतम तापमान के तीन क्षेत्र साईबेरिया, ग्रीनलैंड और उत्तरी कनाडा में पाए जाते हैं। उत्तर-पूर्वी साईबेरिया में स्थित वोयांस्क (Verkhoyansk) का तापमान -50° सैल्सियस तक गिर जाता है। यह संसार का सबसे अधिक ठंडा स्थान है। फरवरी सन् 1892 में यहाँ तापमान -69° सैल्सियस (Minus 69° Celsius) तक कम हो गया था। गर्म जल-धाराओं के प्रभाव के कारण उत्तर-पश्चिमी यूरोप उत्तरी अमेरिका की तुलना में कम ठंडा है। दक्षिणी गोलार्द्ध में सूर्य की किरणों के लंबवत पड़ने के कारण सूर्य-ताप की प्राप्ति अधिक होती है, इसीलिए यहाँ तापमान अधिक रहता है। ब्राजील, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में 30° सैल्सियस से अधिक तापमान पाया जाता है।

2. जुलाई की समताप रेखाएँ (July Isotherms)-जुलाई, उत्तरी गोलार्द्ध का अत्यंत गर्म और दक्षिणी गोलार्द्ध का ठंडा महीना होता है। इस समय सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा के निकट लंबवत् होता है, जिसके कारण वहाँ गर्मी की ऋतु और दक्षिणी गोलार्द्ध में सर्दी की ऋतु होती है।

इस समय उत्तरी गोलार्द्ध के एक बहुत विस्तृत भाग में 30° सैल्सियस से भी अधिक तापमान रहता है। उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के मरुस्थलों और अर्ध शुष्क भूमियों में भी ज़ोरदार गर्मी पड़ती है। पाकिस्तान के जैकबाबाद (Jocobabad) और लीबिया में एल अज़ीज़ीया (El Azizia) संसार के सबसे अधिक गर्म स्थान हैं। एलअज़ीज़ीया में तो 58° सैल्सियस तापमान रिकॉर्ड किया गया है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (ग)
धरती पर सूर्य-ताप की गतिशीलता के बारे में चार विधियाँ बताएँ।
उत्तर-
वायुमंडल का गर्म और ठंडा होना (Heating and Cooling of the Atmosphere)-
चाहे वायुमंडल के ताप का स्रोत सूर्य ही है, परंतु यह ताप भू-तल द्वारा ही प्राप्त होता है। वायुमंडल सूर्य की किरणों के लिए पारदर्शी है, जोकि भू-तल पर पहुँचकर उसे गर्म करती हैं। भू-तल का ताप वायुमंडल को प्राप्त होता है। वायुमंडल के गर्म और ठंडा होने के नीचे लिखे ढंग हैं-

1. संचालन (Conduction)—एक अणु दूसरे अणु को स्पर्श द्वारा गर्मी देता है। इस क्रिया को संचालन कहते हैं। दिन के समय सूर्य-ताप द्वारा भू-तल गर्म हो जाता है। जब वायुमंडल की सबसे निचली परत गर्म भू-तल के संपर्क में आती है, तो संचालन द्वारा यह गर्मी ग्रहण कर लेती है। फिर निचली परत ऊपरी परत को गर्मी प्रदान करती है। इस प्रकार वायुमंडल गर्म होने लगता है। रात के समय भू-तल ठंडा हो जाता है और इसके संपर्क में आकर वायु भी ठंडी हो जाती है। तब वह ऊपरी परतों को संचालन द्वारा ठंडक प्रदान करती है। फलस्वरूप वायुमंडल धीरे-धीरे ठंडा होना आरंभ हो जाता है।

2. संवहन (Convection)-दिन के समय जब भू-तल सूर्य-ताप द्वारा गर्म हो जाता है, तो वायुमंडल की निचली तह गर्म भू-तल को स्पर्श करके गर्म हो जाती है। गर्म होकर हवा फैलती है, जिससे इसका आयतन (Volume) बढ़ जाता है और वह हल्की हो जाती है। हल्की वायु ऊपर उठने लगती है। उस खाली स्थान को पूरा करने के लिए आस-पास से ठंडी और भारी हवा आने लगती है। थोड़े समय के बाद वह भी गर्म होकर ऊपर उठने लगती है। इस प्रकार वायु की तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं, जिन्हें संवहन धाराएँ (Convectional Currents) कहते हैं। संवहन धाराएँ पूरे वायुमंडल को गर्म कर देती हैं। वायुमंडल के गर्म होने का सबसे बड़ा कारण ये धाराएँ ही हैं।

3. विकिरण (Radiation)-किसी गर्म वस्तु से जब ताप, तरंगों के रूप में प्रसारित होता है, तो उस क्रिया को विकिरण कहा जाता है। सूर्य-ताप द्वारा भू-तल के गर्म हो जाने पर इससे ताप का विकिरण होता है। इस प्रकार विकिरण लंबी तरंगों (Long waves) के रूप में होता है। वायुमंडल की गैसें सूर्य-ऊर्जा से आने वाली लघु और सूक्ष्म तरंगों को अधिक सोख नहीं सकतीं, परंतु भू-तल से उठने वाली लंबी तरंगों का अधिकांश भाग सोख लेती हैं। फलस्वरूप भू-तल की गर्मी से वायुमंडल गर्म होता रहता है। यही कारण है कि जिस दिन बादल होते हैं, उस दिन अधिक गर्मी होती है। मरुस्थलों के बादल रहित वायुमंडल में गर्मी का विकिरण उत्तम ढंग से होता है। शाम के समय और इसके बाद विकिरण के द्वारा भू-तल ठंडा होता रहता है, जिससे वायुमंडल भी अपनी गर्मी छोड़नी आरंभ कर देता है।

4. संपीड़न और समतापन द्वारा गर्म और ठंडा होना (Compression and Adiabatic Heating and Cooling) हवा का भार होता है। इस भार के कारण वायु भू-तल पर दबाव डालती है। इस दबाव के कारण संपीड़न (Compression) उत्पन्न होता है और वायु गर्म हो जाती है। वायुमंडल की ऊपरी परतें अपने दबाव से निचली परतों में संपीड़न उत्पन्न करके उन्हें गर्म कर देती हैं। इस प्रकार वायु के संपीड़न के कारण गर्म होने को समताप तापन (Adiabatic Heating) कहा जाता है। फलस्वरूप संपीड़न के कारण वायु गर्म होने और फैलने के कारण ठंडी हो जाती है।

प्रश्न (घ)
धरती पर तापमान के विभाजन पर कौन-से स्थायी तत्त्व प्रभाव डालते हैं ?
उत्तर
तापमान का क्षैतिजीय विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature)-
भू-तल पर अक्षांशों के अनुसार तापमान विभाजन के अध्ययन को तापमान का क्षैतिजीय विभाजन कहकर पुकारा जाता है। भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें पूरा वर्ष लंब पड़ती हैं और ध्रुवों पर सदा तिरछी (Oblique) पड़ती हैं। इसके फलस्वरूप भूमध्य रेखीय प्रदेश (Equatorial Region) में सूर्य-ताप (Insolation) सबसे अधिक और ध्रुवीय प्रदेशों में बहुत कम प्राप्त होता है। इस प्रकार भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर सूर्य-ताप की प्राप्ति कम होती जाती है।

तापमान के क्षैतिजीय विभाजन को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Controlling the Horizontal Distribution of Temperature)—किसी भी स्थान पर वहां के वायु के तापमान को उस स्थान का तापमान (Temperature of a Place) कहते हैं। यह तापमान छाया में लिया जाता है। किसी भी स्थान के तापमान को नीचे लिखे कारक प्रभावित करते हैं-

1. भूमध्य रेखा से दूरी (Distance from the Equator)-भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर अक्षांशों में वृद्धि के साथ-साथ तापमान कम होता जाता है। (Temperature decreases from the equator to the poles.) किसी भी अक्षांश पर गर्मी, सूर्य की किरणों के कोण (Angle of Sun’s rays) पर निर्भर करती है। इसका मूल कारण यह है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें सारा साल लगभग लंब पड़ती हैं और अक्षांशों के बढ़ने के साथ-साथ ये किरणें तिरछी होती जाती हैं। तिरछी किरणें लंब किरणों की तुलना में भू-तल के अधिक भाग को घेरती हैं। फलस्वरूप ये भू-तल के अधिक भाग को गर्म करती हैं और उनकी गर्मी अधिक क्षेत्र में फैलकर कम रह जाती है। इस प्रकार भूमध्य रेखा पर पड़ने वाली लंब किरणें, ध्रुवों पर पड़ने वाली तिरछी किरणों की तुलना में अधिक गर्मी प्रदान करती हैं। परिणामस्वरूप भूमध्य रेखा पर तापमान अधिक और ध्रुवों पर तापमान कम होता है।
उदाहरण-चेन्नई, कोलकाता की तुलना में अधिक गर्म होता है।

2. वायुमंडल की मोटाई (Thickness of the Atmosphere)-भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें लंब पड़ती हैं और अक्षांशों में वृद्धि होने से सूर्य की किरणें तिरछी होती जाती हैं। लंब किरणों की तुलना में तिरछी किरणों को वायुमंडल का अधिकांश भाग पार करना पड़ता है, फलस्वरूप उनकी अधिक गर्मी वायुमंडल के जलवाष्प और गैसें सोख लेती हैं। इस प्रकार भूमध्य रेखा पर उच्च ताप और ध्रुवों पर निम्न ताप रहता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 2

3. भूमि की ढलान (Slope of the land)—सूर्यमुखी ढलानें सूर्य विमुखी ढलानों की अपेक्षा गर्म होती हैं। जिस भूमि की ढलान सूर्य की ओर होती है, वहाँ सूर्य की किरणें तुलना में सीधी पड़ती हैं, इसलिए ऐसी भूमि अधिक गर्मी प्राप्त करती है। इसके विपरीत जिस भूमि की ढलान सूर्य से परे होती है, वहाँ किरणें तुलना में तिरछी पड़ती हैं। फलस्वरूप ऐसी भूमि को कम गर्मी प्राप्त होती है। उदाहरण के तौर पर हिमालय की उत्तरी ढलान पर स्थित तिब्बत के पठार पर तापमान कम और भारत की ओर दक्षिणी ढलान के अधिकांश भागों और नीचे स्थित गंगा-सतलुज के मैदान में तापमान अधिक रहता है। अल्पस पर्वत में इन्हें धूपदार ढलाने (Sunny Slopes) कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 3

4. सागर तल से ऊँचाई (Altitude above sea-level) भू-तल के निकट वायु की मात्रा अधिक होती है। ऊँचाई के साथ-साथ वायु की मात्रा कम होती जाती है। उष्णता का ग्रहण करना वायु की मात्रा पर निर्भर करता है। परिणामस्वरूप सागर-तल और कुछ ऊँचाई पर स्थित स्थानों का तापमान उच्च और अधिक ऊँचाई पर निम्न होता है। सागर-तल से प्रति 165 मीटर की ऊँचाई के साथ तापमान 1° सैंटीग्रेड कम होता जाता है, इसीलिए मैदानों की तुलना में पर्वत ठंडे होते हैं। (Mountains are cooler than plains.) उदाहरण-शिमला और नैनीताल, दिल्ली और इलाहाबाद की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं।

5. सागर तट से दूरी (Distance from the sea-coast)-गर्मियों में सागर, स्थल की तुलना में ठंडे होते हैं क्योंकि सागर की ठंडी पवनें (Sea Breeze) तटों की ओर चलती हैं और वहाँ के तापमान को कम कर देती हैं। इसके विपरीत सर्दियों में सागर, स्थल की तुलना में गर्म होते हैं क्योंकि ठंडी पवनें सागर की ओर चलती हैं और तटों की ठंडक अपने साथ सागर की ओर ले जाती हैं और तटों का तापमान कम नहीं होने देतीं। इस प्रकार तटों का तापमान वर्ष भर एक समान रहता है। इसके विपरीत सागर से दूर स्थित स्थान गर्मी की ऋतु में बहुत गर्म (Extreme climate) और सर्दी की ऋतु में बहुत ठंडे रहते हैं क्योंकि ये सागर के प्रभाव से दूर होते हैं। समुद्र का प्रभाव समकारी होता है और समकारी जलवायु (Equable Climate) होती है।
उदाहरण-दिल्ली की जलवायु कोलकाता की तुलना में कठोर होती है।

6. महासागरीय धाराएँ (Ocean Currents)-तटवर्ती प्रदेशों के तापमान पर महासागरीय धाराओं का प्रभाव पड़ता है। गर्म धाराएँ तापमान को बढ़ा देती हैं और ठंडी धाराएँ तापमान को कम कर देती हैं। गर्म धाराओं के ऊपर से प्रवाहित करने वाली पवनें गर्म होकर निकटवर्ती क्षेत्र को गर्मी प्रदान करती हैं। इसके विपरीत ठंडी धाराओं के ऊपर से प्रवाहित करने वाली पवनें निकटवर्ती क्षेत्रों को ठंडा कर देती हैं। दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पश्चिमी तट की तुलना में अधिक गर्म होते हैं। इसका मूल कारण है कि पश्चिमी तटों पर ठंडी धाराएँ और पूर्वी तटों पर गर्म धाराएँ प्रवाहित करती हैं।
उदाहरण-खाड़ी की गर्म धाराओं के कारण पश्चिमी यूरोप के बंदरगाह सर्दी की ऋतु में भी खुले रहते हैं।

7. प्रचलित पवनें (Prevailing Winds)-प्रचलित पवनें भी किसी स्थान के तापमान को प्रभावित करती हैं। उष्ण प्रदेशों की ओर से आने वाली पवनें तापमान अधिक कर देती हैं और शीत प्रदेशों की ओर से आने वाली पवनें तापमान को कम कर देती हैं। सर्दी की ऋतु में मध्य एशिया से आने वाली ठंडी पवनें उत्तरी और मध्य चीन के तापमान को बहुत कम कर देती हैं। हिमालय पर्वत इन पवनों को भारत की ओर आने से रोक देते हैं। नहीं तो, भारत भी उत्तरी चीन की भाँति बहुत ठंडा होता। इसी प्रकार सहारा मरुस्थल की गर्म पवनें इटली
के तापमान को अधिक कर देती हैं।

8. भूमि की प्रकृति (Nature of the land) रेत और काली मिट्टी तापमान बहुत जल्दी ग्रहण करने की शक्ति रखती हैं और जल्दी ही इसका विकिरण (Radiation) करके ठंडी हो जाती हैं। परिणामस्वरूप मरुस्थल तर (Wet) भूमि की तुलना में जल्दी गर्म और जल्दी ही ठंडे भी हो जाते हैं। मरुस्थलों में दिन के समय तापमान अधिक और रात को काफी कम हो जाता है। बर्फ से या वनस्पति से ढकी हुई भूमि सूर्य-ताप की अधिक मात्रा परावर्तित (Reflect) कर देती है जो बर्फ को पिघलाने और वनस्पति में से जल का वाष्पीकरण करने में खर्च हो जाता है।

9. वर्षा और बादल (Rainfall and Clouds)-जिन प्रदेशों में अधिक वर्षा होती है और वे बादलों से ढके रहते हैं, वहाँ तापमान अधिक नहीं होता क्योंकि बादल सूर्य-ताप के अधिकांश भाग को परावर्तित कर देते हैं। वर्षा का जल भूमि को ठंडक प्रदान करता है। भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें चाहे पूरा वर्ष लंब पड़ती हैं, परंतु फिर भी वर्षा और बादलों के कारण तापमान बहुत अधिक नहीं होता। इसके विपरीत उष्ण मरुस्थलों में बादल और वर्षा की कमी के कारण तापमान अधिक रहता है। (Highest temperature of the world are found on the tropics and not on the equator.)

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न (ङ)
वायुमंडल की रचना का तापमान के आधार पर वर्णन करें और प्रत्येक सतह के बारे में संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर-
वायुमंडल (Atmosphere)-
वायु अनेक गैसों के मिश्रण से बनी है। वायु ने पृथ्वी को चारों तरफ से एक विशाल आवरण के रूप में समेटा हुआ है। यह आवरण रंगहीन (Colourless), गंधरहित (Odourless) और स्वादरहित (Tasteless) है। पृथ्वी के चारों तरफ लिपटे वायु के इस विशाल आवरण को वायुमंडल कहते हैं। इसका अध्ययन ऋतु विज्ञान के अंतर्गत आता है। __ट्रीवार्था (Trevartha) के अनुसार, “पृथ्वी के इर्द-गिर्द गैसों का एक विशाल आवरण है, जो पृथ्वी का अटूट अंग है, वायुमंडल कहलाता है।” (“Surrounding the earth and yet an integral part of the planet is a gaseous envelope called the atmosphere.”)

मोंकहाऊस (Monkhouse) के अनुसार, “वायुमंडल गैसों की एक पतली परत है, जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी से चिपटी हुई है।” (“The atmosphere is a thin layer of gases held to the earth by gravitational attraction.”)
क्रिचफील्ड (Critchfield) के अनुसार, “वायुमंडल गैसों का एक गहरा आवरण है, जिसने पृथ्वी को पूरी तरह से घेरा हुआ है।” (“The atmosphere is a deep blanket of gases which entirely envelopes the earth.’)

वायुमंडल की ऊँचाई (Height of the Atmosphere) वायुमंडल रंगहीन (Colourless), गंधहीन (Odourless) स्वादहीन (Tasteless) और पारदर्शी (Transparent) है, जोकि पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण इसके साथसाथ पश्चिम से पूर्व दिशा में घूमता है। वर्तमान समय में, स्पूतनिक और अन्य कृत्रिम उपग्रहों की सहायता से वायुमंडल की ऊँचाई 16,000 किलोमीटर से 32,000 किलोमीटर तक बताई गई है। परंतु मनुष्य के लिए पहले 5-6 किलोमीटर ी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उसी ऊँचाई तक मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी गैसें-ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बनडाईऑक्साइड आदि काफी मात्रा में उपलब्ध हैं। भू-तल के निकट वायुमंडल सघन (Dense) होता है, परंतु ऊँचाई के साथ-साथ वायु की मात्रा कम होती जाती है भाव ऊँचाई के बढ़ने से वायुमंडल सूक्ष्म (Rarefied) होता जाता है। लगभग 572 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायु की मात्रा आधी और 11 किलोमीटर की ऊँचाई पर एक-चौथाई रह जाती है। वायुमंडल की जानकारी के लिए अनेक स्रोतों का प्रयोग किया जाता है।

वायुमंडल का महत्त्व (Importance of Atmosphere)—वायुमंडल मानव-जीवन पर कई प्रकार से प्रभाव डालता है-

  1. ऑक्सीजन गैस धरती पर मानव-जीवन का आधार है।
  2. नाइट्रोजन गैस वनस्पति का आधार है।
  3. वायुमंडल सूर्य के ताप को जब्त करके एक काँच के घर (Glass House) का काम करता है और पृथ्वी पर औसत दर्जे का तापमान (35°C) बनाए रखता है।
  4. वायुमंडल के जलवाष्प वर्षा का साधन हैं।
  5. वायुमंडल फसलों, मौसम, जलवायु, हवाई मार्गों पर प्रभाव डालता है।
  6. वायुमंडल की ओज़ोन गैस पराबैंगनी किरणों को रोककर पृथ्वी को हानिकारक प्रभावों से सुरक्षित करती है।

वायुमंडल की रचना (Composition of Atmosphere)-
वायुमंडल की रचना अलग-अलग गैसों (Gases), जलवाष्प (Water vapours) और धूलकणों (Dust Particles) के मेल से हुई है। वायुमंडल का 99 प्रतिशत भाग नाईट्रोजन (Nitrogen) और ऑक्सीजन (Oxygen) गैसों से बना हुआ है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 4

1. गैसें (Gases)—वायुमंडल का 99% भाग दो गैसों-ऑक्सीजन (Oxygen) और नाइट्रोजन (Nitrogen) से बना है। वायुमंडल में कुछ भारी गैसें भी हैं। ऊपरी सतहों में हल्की गैसें भी होती हैं। वायुमंडल में पाई जाने वाली गैसें नीचे लिखी हैं-

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 5

  • सक्रिय गैसें (Active Gases)—ऑक्सीजन, हाईड्रोजन, कार्बन-डाईऑक्साइड और ओज़ोन गैसें किसी स्थान की जलवायु पर प्रभाव डालती हैं। इन्हें सक्रिय गैसें कहा जाता है।
  • प्रभाव रहित गैसें (Inert Gases)-ऑर्गन, नियॉन, हीलियम, क्रिप्टोन और ज़ेनॉन प्रभावरहित गैसें हैं।

महत्त्वपूर्ण गैसें (Important Gases)-
1. नाइट्रोजन-वायुमंडल में इस गैस की सबसे अधिक मात्रा (4/5 भाग) है। यह गैस वस्तुओं को तेजी से जलने से बचाती है। यह पेड़-पौधों के जीवन के लिए लाभदायक होती है।

2. ऑक्सीजन (Oxygen)-मनुष्य के अस्तित्व के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण गैस है। इसके बिना मनुष्य साँस नहीं ले सकता। यह ऊर्जा की स्रोत है और वस्तुओं के जलने में सहायक होती है। ऊँचाई के साथ साथ इसकी मात्रा कम होती जाती है।

3. कार्बन-डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide)—यह भारी गैस पृथ्वी की निचली सतह पर मिलती है।
औद्योगीकरण और ईंधन के अधिक प्रयोग के कारण इसकी मात्रा बढ़ रही है, जिसके प्रभाव से पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ गया है।

4. ओज़ोन (Ozone) यह अधिक ऊँचाई पर मिलती है और सूर्य की पराबैंगनी किरणों (Ultra Violet Rays) को सोख लेती है। इससे पृथ्वी और मानव जीवन की सुरक्षा होती है।

5. ऑर्गन और हाइड्रोजन भी महत्त्वपूर्ण गैसें हैं।

2. धूल-कण (Dust Particles)-वायुमंडल में धूल-कण काफी मात्रा में होते हैं। इनके कारण ही आकाश में धुंधलापन छा जाता है। सूर्य के उदय होने और सूर्य के अस्त होने की लालिमा और अन्य रंग धूल-कणों के कारण ही होते हैं। सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद का धुंधलका (Twilight) इन धूल कणों के कारण ही उत्पन्न होता है। जल-कण धूल-कणों के साथ चिपके रहते हैं। यहीं से संघनन (Condensation) या जल वाष्प के जल में परिवर्तन हो जाने की क्रिया आरंभ होती है। फलस्वरूप यह धूल-कण आर्द्रताग्राही केंद्र (Hygroscopic Nuclei) कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त ये सूर्य की गर्मी को ग्रहण करने और फैलाने में बहुत प्रभावशाली होते हैं। ये धूल-कण भू-तल की मिट्टी के अलावा धुएँ, ज्वालामुखी विस्फोट से निकली राख, समुद्री नमक से भी उत्पन्न होते हैं। ये धूल-कण उल्कापात से भी प्राप्त होते हैं।

धूल कणों का महत्त्व (Importance of Dust Particles)-

  • धूल-कण सूर्य से ताप को सोख लेते हैं, जिससे वायुमंडल का तापमान बढ़ जाता है।
  • धूल-कणों के चारों तरफ जल-वाष्प का संघनन हो जाता है, जिससे वर्षा, कोहरा, बादल आदि बनते हैं।
  • धूल-कणों के कारण दृश्यता (Visibility) कम हो जाती है और कोहरा छा जाता है।
  • धूल-कणों के कारण सूर्य का निकलना, सूर्य का डूबना और इंद्रधनुष जैसे रंग-बिरंगे नज़ारे देखने को मिलते हैं।

3. जलवाष्प (Water-Vapours) वायुमंडल में गैसों की तरह अदृश्य रूप में जल भी होता है, जिसे जलवाष्प कहा जाता है। ये वाष्प-कण समुद्रों, झीलों, नदियों आदि से वाष्पीकरण क्रिया (Evaporation) द्वारा प्राप्त होते हैं। ये अधिकतर वायुमंडल की निचली सतहों में पाए जाते हैं। वायुमंडल में इसका बहुत महत्त्व है। भू-तल और वनस्पति, मनुष्य और पशु जीवन इसी के फलस्वरूप संभव हो पाया है। वाष्पकण के कारण ही बादलों की रचना होती है जिससे वर्षा और हिमपात होता है। ओस, कोहरा आदि वाष्पकणों से ही बनते हैं। वायुमंडल में वाष्पकणों के कारण ही इंद्रधनुष (Rainbow) और माला या प्रभामंडल (Halo) की रचना होती है। बादलों में बिजली चमकने और गर्जने (Roaring) की क्रिया भी जलवाष्प के कारण होती है। वायुमंडल के केवल 2% भाग में जलवाष्प मिलते हैं पर ये धरती के इर्द-गिर्द ताप के विभाजन पर काबू रखते हैं। इनके कारण ही पैदा हुई शक्ति से चक्रवात, अंधेरियाँ और तूफान चलते हैं।

विश्व के औसत तापमान का बढ़ना (Global Warming)-कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस पृथ्वी से विकिरण को सोख लेती है। बढ़ते औद्योगीकरण, परिवहन के तेज़ साधन, ईंधन के प्रयोग और जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण वायुमंडल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। इसी कारण पृथ्वी का ग्रीन-हाऊस प्रभाव भी बढ़ रहा है। – पृथ्वी का औसत तापमान 0.5° बढ़ गया है और डर है कि अगली सदी के अंत तक तापमान 3.5° बढ़ जाएगा। इससे समुद्र के पानी की सतह 11 मीटर ऊँची हो जाएगी और विश्व के कई तटवर्ती भाग पानी में डूब जाएंगे।

वायुमंडल का ढाँचा (Structure of the Atmosphere)-वायुमंडल के ढाँचे में अनेक सतहें हैं, जिनका वर्गीकरण तापमान और वायु-दबाव के आधार पर किया गया है। इन सतहों और उनकी विशेषताओं के बारे में आगे लिखा गया है

1. परिवर्तन मंडल (Troposphere)-वायुमंडल की यह सबसे निचली तह है। भू-तल से इसकी ऊँचाई 12 किलोमीटर तय की गई है। ध्रुवों की तुलना में भूमध्य रेखा की ओर इसकी ऊँचाई अधिक होती है। भूमध्य रेखा पर यह 16 किलोमीटर और ध्रुवों पर 6 किलोमीटर ऊँचा होता है। भारी गैसें, जलवाष्प और धूल-कण इसी मंडल में अधिक होते हैं। इसमें प्रति 165 मीटर की ऊँचाई पर 1° सैल्सियस तापमान कम हो जाता है। अंधेरी, तूफान, बादल गर्जन, बिजली चमकने आदि क्रियाएँ इसी मंडल में होती हैं। इसमें वायु कभी शांत नहीं रहती, निरंतर संवहन धाराएँ (Convection Currents) उठती रहती हैं और पवनें निरंतर रूप में प्रवाहित होती रहती हैं। फलस्वरूप इसे अशांत मंडल भी कहते हैं। इसमें संवहन धाराओं के उत्पन्न होने के फलस्वरूप इसे संवहनीय प्रदेश (Convectional Zone) का नाम भी दिया जाता है। ट्रोपोस्फीयर (Troposhere) दो शब्दों ‘ट्रोपो’ और ‘स्फीयर’ के मेल से बना है। ‘ट्रोपो’ का अर्थ है-परिवर्तन और ‘स्फीयर’ का अर्थ है-मंडल। इस प्रकार ट्रोपोस्फीयर का अर्थ हुआ-परिवर्तन मंडल, इसलिए इसे परिवर्तन मंडल कहा जाता है। इसे इस नाम से पुकारने का मुख्य कारण इसमें तापमान और वायु दिशा आदि में होने वाला परिवर्तन है।

महत्त्व (Importance)—परिवर्तन मंडल वायुमंडल की सबसे महत्त्वपूर्ण और निचली परत है।

  1. इस परत में जलवायु पर प्रभाव डालने वाली क्रियाएँ काम करती हैं।
  2. इस परत में गैसें, धूल-कण और जल-वाष्प मिलते हैं, जिनके कारण बादल, वर्षा, कोहरा आदि बनते
  3. इस परत में संवहन धाराएँ चलती हैं, जिससे ताप और नमी ऊँचाई तक पहुँच जाती है।
  4. इस क्षेत्र में ऊँचाई के साथ-साथ 1°C प्रति 165 मीटर की दर से तापमान कम होता है। इसे साधारण ताप कम होने की दर (Normal Lapse Rate) कहते हैं।
  5. इस परत में चक्रवात, अंधेरियाँ, तूफान आदि मौसम पर प्रभाव डालते हैं।

2. मध्य मंडल (Tropopause)-परिवर्तन मंडल की सीमा के ऊपर केवल 1/2 किलोमीटर चौडी एक परत है, जिसे मध्य मंडल कहते हैं। इसमें परिवर्तन मंडल की पवनें और संवहन धाराएँ चलनी बंद हो जाती हैं। यहाँ हर प्रकार की मौसमी घटनाएँ (Weather Phenomena) नहीं होतीं। यहाँ शांतमय वातवरण बना रहता है, इसलिए इसे शांत मध्यमंडल भी कहते हैं।

3. समताप मंडल (Stratosphere)-मध्य मंडल से ऊपर 13 से 80 किलोमीटर की ऊँचाई वाले वायुमंडल को समताप मंडल (Isothermal Zone) कहते हैं। इस मंडल की ऊँचाई अक्षाशों और ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है। ग्रीष्म ऋतु में इसकी ऊँचाई शीत ऋतु की तुलना में अधिक होती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि ग्रीष्म ऋतु में वायुमंडल की सभी परिवर्तनकारी क्रियाएँ अपनी अधिकतम सीमा पर होती हैं। इसका प्रभाव समताप मंडल की ऊँचाई में अंतर ला देता है। इस मंडल में तापमान लगभग एक समान रहता है, जिसके कारण उसका नाम समताप मंडल पड़ा है। इस खोज से पहले लोगों की यह धारणा थी कि वायुमंडल की ऊपरी सीमा तक तापमान कम होता जाता है। यह मंडल पूर्णरूप से संवहन-रहित (Non-Convective) होता है और इसमें अंधेरी, तूफान, बादल गर्जने और बिजली चमकने की क्रियाएँ नहीं होती। इसमें जल-कणों और धूल कणों की भी कमी होती है। महत्त्व (Importance)—इस क्षेत्र में जेट हवाई जहाज़ और रॉकेट आदि उड़ानों के लिए आदर्श दशाएँ
मिलती हैं।

4. ओज़ोन मंडल (Ozonosphere) वायुमंडल की यह सतह 80 किलोमीटर की ऊँचाई तक विस्तृत है। कुछ मौसम-वैज्ञानिक इसे समताप मंडल का भाग मानते हैं। इसमें ओजोन गैस की प्रधानता होती है। यह गैस सूर्य से निकलने वाली अत्यंत गर्म पराबैंगनी किरणों (Ultraviolet-Rays) को सोख लेती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 6

यदि यह मंडल न होता, तो ये पराबैंगनी किरणें पृथ्वी के वासियों को अंधा कर देतीं और उनकी त्वचा को जला देतीं। इसके विपरीत यदि ओज़ोन मंडल की मोटाई अधिक होती, तो पराबैंगनी किरणों की अधिकांश ऊर्जा नष्ट हो जाती और पृथ्वी पर जीवमंडल (Biosphere) होने की संभावना कम हो जाती क्योंकि भू-तल पर पर्याप्त मात्रा में गर्मी न पहुंचती। थोड़ी मात्रा में ये किरणें प्राणी-जीवन के लिए ज़रूरी हैं। इनसे शरीर को आवश्यक विटामिन मिलते हैं। यह वायुमंडल की मध्य वाली सतह है, इसलिए इसे मध्यमंडल (Mesosphere) भी कहते हैं।

ओज़ोन मंडल में सुराख (Ozone Hole)-सन् 1980 में, ओज़ोन मंडल की सतह पर अंटार्कटिका महाद्वीप के ऊपर एक बहुत बड़ा सुराख देखने में आया है, जिससे पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँच सकती हैं।

5. आयन मंडल (Ionosphere)—इस मंडल की ऊँचाई 80 से 40 किलोमीटर तक है। इस मंडल में ऊँचाई के साथ तापमान कम होता जाता है। लगभग 80 किलोमीटर पर तापमान -100° (Minus 100°) सैल्सियस तक पहुँच जाता है। इससे ऊपर तापमान में बढ़ौतरी होती जाती है। लगभग 100 किलोमीटर पर तापमान 100° सैल्सियस तक पहुँच जाता है। आयन मंडल में स्वतंत्र रूप में आयन कण (Ionised Particles) काफ़ी मात्रा में मिलते हैं, जो रेडियो तरंगों (Radio Waves) को पृथ्वी की ओर मोड़ देते हैं। यदि यह मंडल न होता तो रेडियो तरंगें दूर आकाश में चली जाती और वापस न आतीं। इन आयन कणों के कारण इस मंडल में अनेक विचित्र बिजली तथा चुंबकीय घटनाएँ होती हैं। ध्रुवीय प्रदेशों में आकाश की ओर एक विचित्र और मनोरंजक प्रकाश देखने को मिलता है। इस आयन मंडल में एक बिजली-चुंबकीय घटना (Electromagnetic Phenomena) होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में इस उत्तर-ध्रुवीय ज्योति (Aurora Borealis) और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी ध्रुवीय ज्योति (Aurora Australis) के नाम दिए जाते हैं। उच्च तापमान के कारण इसे ताप मंडल (Thermosphere) भी कहते हैं। इसमें हिम-किरणें (Cosmic Rays) भी मिलती हैं।

6. बाहरी मंडल (Exosphere)—यह वायुमंडल की सबसे ऊपरी सतह है, जिसकी ऊँचाई 640 किलोमीटर से अधिक है। यहां वायु अति सूक्ष्म होती है। इस मंडल से संबंधित अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। इसमें हीलियम और हाइड्रोजन गैसें मिलती हैं। यह सतह धीरे-धीरे अंतरिक्ष (Space) में विलीन हो जाती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 6.
(च) जलवायु विज्ञान में कई सम मूल-रेखाएं (Isopleths) प्रयोग में लाई जाती हैं। किन्हीं 10 सम मूल रेखाओं के नाम और उनकी किस्म की चर्चा करें।
उत्तर-
PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 7

Geography Guide for Class 11 PSEB वायुमण्डल-बनावट और रचना Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न तु (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
जर्मनी के किस वैज्ञानिक ने जलवायु का वर्गीकरण पेश किया था ?
उत्तर-
कौपन।

प्रश्न 2.
सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों का नाम बताएँ।
उत्तर-
पराबैंगनी किरणे।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 3.
वायुमंडल की अधिक-से-अधिक ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
16000 से 32000 कि०मी० ।

प्रश्न 4.
ऊँचाई के साथ तापमान कम होने की दर बताएँ।
उत्तर-
6.5°C प्रति कि०मी० ।

प्रश्न 5.
वायुमंडल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पृथ्वी के इर्द-गिर्द गैसों का आवरण।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 6.
वायुमंडल की दो प्रमुख गैसों के नाम बताएँ।
उत्तर-
ऑक्सीजन और नाइट्रोजन।

प्रश्न 7.
वायुमंडल में नाइट्रोजन गैस कितने प्रतिशत है ?
उत्तर-
78%.

प्रश्न 8.
वायुमंडल में ऑक्सीजन गैस कितने प्रतिशत है ?
उत्तर-
21%.

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 9.
वायुमंडल पृथ्वी के साथ क्यों जुड़ा हुआ है ? ।
उत्तर-
गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण।

प्रश्न 10.
वायुमंडल की निचली परत को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
परिवर्तन मंडल।

प्रश्न 11.
वायुमंडल की ऊपरी परत में मिलने वाली गैसों के नाम बताएँ।
उत्तर-
ऑर्गन, हीलियम।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 12.
ओज़ोन गैस किन किरणों को सोख लेती है ?
उत्तर-
पराबैंगनी किरणों को।

प्रश्न 13.
वायुमंडल की कौन-सी परत मौसम की रचना करती है ?
उत्तर-
परिवर्तन मंडल।

प्रश्न 14.
किस परत में वायुमंडलीय विघ्न मिलते हैं ?
उत्तर-
परिवर्तन मंडल।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 15.
किस परत में तापमान स्थिर होता है ?
उत्तर-
समताप मंडल।

प्रश्न 16.
सूर्य की किरणों की गति बताएँ।
उत्तर-
3 लाख कि०मी० प्रति सैकिंड।।

प्रश्न 17.
पृथ्वी के ताप का प्रमुख स्रोत बताएँ।
उत्तर-
सूर्य।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 18.
सूर्य की किरणें सबसे पहले किसे गर्म करती हैं-वायुमंडल या धरती ?
उत्तर-
धरती।

प्रश्न 19.
समताप रेखा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
समान तापमान वाली रेखाएँ।

प्रश्न 20.
तटीय भागों में कौन-सी जलवायु मिलती है ?
उत्तर-
समकारी सागरीय।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 21.
महाद्वीपों के भीतरी भागों की जलवायु के बारे में बताएँ।
उत्तर-
अति गर्मी और अति सर्दी।

प्रश्न 22.
उत्तरी-पश्चिमी यूरोप की समकारी जलवायु किस धारा के कारण है ?
उत्तर-
खाड़ी की धारा।

प्रश्न 23.
किस धारा के कारण कनाडा की जलवायु ठंडी है ?
उत्तर-
लैबरेडार की धारा।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 24.
कौन-सी ढलान अधिक गर्म है-उत्तरी या दक्षिणी ?
उत्तर-
दक्षिणी।

प्रश्न 25.
पर्वत ठंडे होते हैं या मैदान ?
उत्तर-
पर्वत।

प्रश्न 26.
सूर्य की कौन-सी किरणें अधिक गर्म होती हैं-लंब या तिरछी ?
उत्तर-
लंब।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 27.
पृथ्वी पर तापमान के बढ़ने का एक प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
सागरीय जल की सतह में वृद्धि।

प्रश्न 28.
समुद्र तल पर एक वर्ग सैं०मी० क्षेत्रफल पर वायु का भार बताएँ।
उत्तर-
1.03 किलोग्राम।

प्रश्न 29.
हमारे शरीर पर लगभग कितना वायुदाब है ?
उत्तर-
लगभग 1 टन।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 30.
ऊँचाई के साथ-साथ वायुमंडलीय दाब कम होने की दर क्या है ?
उत्तर–
प्रति 100 मीटर पर 12 मिलीबार या 300 मीटर पर 1 इंच।

प्रश्न 31.
सामान्य वायुदाब कितना होता है ?
उत्तर-
29.92 इंच या 76 सैं०मी० या 10.32 मिलीबार।

प्रश्न 32.
वायुमंडलीय दाब मापने वाले यंत्र का नाम बताएँ।
उत्तर-
बैरोमीटर।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 33.
भूमध्य रेखीय कम वायु दाब पेटी का विस्तार बताएँ।
उत्तर-
5°N – 5°S.

प्रश्न 34.
भूमध्य रेखीय कम वायु दाब पेटी का नाम बताएँ।
उत्तर-
डोलड्रम।

प्रश्न 35.
उप-उष्ण कम दाब पेटी का नाम बताएँ।
उत्तर-
घोड़ा अक्षांश।

प्रश्न 36.
पृथ्वी की दैनिक गति से पैदा होने वाली शक्ति का नाम बताएँ।
उत्तर-
कोरोलिस बल।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

बहुविकल्पी प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
वायुमंडल की सबसे निचली परत को क्या कहते हैं ?
(क) मध्य मंडल
(ख) आयन मंडल
(ग) अधोमंडल
(घ) बाहरी मंडल।
उत्तर-
अधोमंडल।

प्रश्न 2.
वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा कितने % है ?
(क) 15.95%
(ख) 71.95%
(ग) 20.95%
(घ) 25.95%.
उत्तर-
20.95%.

प्रश्न 3.
कौन-सी गैस ग्रीन हाऊस गैस है ?
(क) कार्बनडाइऑक्साइड
(ख) ओज़ोन
(ग) ऑक्सीजन
(घ) नाइट्रोजन।
उत्तर-
कार्बनडाइऑक्साइड।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 4.
कितनी ऊँचाई पर ऑक्सीजन गैस कम हो जाती है ?
(क) 100 कि०मी०
(ख) 110 कि०मी०
(ग) 120 कि०मी०
(घ) 130 कि०मी०।
उत्तर-
120 कि०मी०।

प्रश्न 5.
मानव-जीवन के लिए जरूरी है
(क) नाइट्रोजन
(ख) ऑक्सीजन
(ग) ऑर्गन
(घ) ओजोन।
उत्तर-
ऑक्सीजन।

प्रश्न 6.
प्रकाश की गति बताएँ।
(क) 3 लाख कि०मी० प्रति सैकिंड
(ख) 5 लाख कि०मी० प्रति सैकिंड
(ग) 10 लाख कि०मी० प्रति सैकिंड
(घ) 100 लाख कि०मी० प्रति सैकिंड।
उत्तर-
3 लाख कि०मी० प्रति सैकिंड।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 7.
सूर्य से पृथ्वी को प्राप्त होने वाली ऊर्जा को क्या कहते हैं ?
(क) तापमान
(ख) सूर्य ताप
(ग) सौर-विकिरण
(घ) ऊर्जा।
उत्तर-
सूर्य ताप।

प्रश्न 8.
सूर्य से आने वाले ताप का कितना प्रतिशत भाग पृथ्वी पर पहुँचता है ?
(क) 51%
(ख) 47%
(ग) 65%
(घ) 44%.
उत्तर-
51%.

प्रश्न 9.
कर्क रेखा पर सूर्य की किरणें किस दिन लंब पड़ती हैं ?
(क) 21 मार्च
(ख) 23 सितंबर
(ग) 22 दिसंबर
(घ) 21 जून।
उत्तर-
21 जून।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 10.
सामान्य वायु दाब कितना होता है ?
(क) 34 मिलीबार
(ख) 300 मिलीबार
(ग) 1013 मिलीबार
(घ) 900 मिलीबार।
उत्तर-
1013 मिलीबार।

प्रश्न 11.
भूमध्य रेखीय खंड में कम वायुदाब का क्या कारण है ?
(क) दैनिक गति
(ख) चक्रवात
(ग) धाराएँ
(घ) संवाहक धाराएँ।
उत्तर-
संवाहक धाराएँ।

प्रश्न 12.
वायुदाब मापने की इकाई क्या है ?
(क) बार
(ख) मिलीबार
(ग) कैलोरी
(घ) मीटर।
उत्तर-
मिलीबार।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न : (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
मौसम से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी स्थान के थोड़े और विशेष समय में वायुमंडल की दशाओं (तापमान, वायुदाब, पवनों, नमी, बादल और वर्षा) के अध्ययन को मौसम कहते हैं।

प्रश्न 2.
मौसम मानचित्र क्या है ? भारत के मौसम मानचित्र कहाँ बनाए जाते हैं ?
उत्तर-
किसी स्थान या प्रदेश के किसी निश्चित दिन और समय पर वायुमंडलीय दशाओं को दिखाने वाले मानचित्रों को मौसम मानचित्र (Weather Maps) कहते हैं। भारत के मौसम मानचित्र पुणे (Pune) में तैयार किए जाते हैं।

प्रश्न 3.
जलवायु से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी स्थान की एक लंबे समय के लिए (35 साल) औसत वायुमंडलीय दशाओं को जलवायु कहते हैं। जलवायु एक लंबे समय के बदलते मौसम का वर्णन होता है। (Climate is a composite picture of weather conditions.)

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 4.
जलवायु और मौसम में क्या अंतर है ?
उत्तर-
जलवायु और मौसम वायुमंडल की दशाओं का अध्ययन है, पर मौसम एक निश्चित और थोड़े समय का अध्ययन होता है, जबकि जलवायु एक लम्बे समय (35 साल) की वायुमंडलीय दशाओं का अध्ययन है। मौसम हर रोज़ बदलता रहता है, पर जलवायु एक स्थायी अवस्था है।

प्रश्न 5.
मौसम विज्ञान (Meteorology) और जलवायु विज्ञान (Climatology) में क्या अंतर है ?
उत्तर-
मौसम विज्ञान भौतिक विज्ञान की एक शाखा है, जिसमें एक छोटे-से क्षेत्र पर थोड़े समय के लिए वायुमंडलीय दशाओं का अध्ययन किया जाता है। जलवायु विज्ञान भौतिक भूगोल की एक शाखा है, जिसमें पृथ्वी पर अलग-अलग जलवायु के विभाजन का वर्णन किया जाता है।

प्रश्न 6.
वायुमंडल की परिभाषा बताएँ।
उत्तर-
पृथ्वी के इर्द-गिर्द गैसों का एक विशाल आवरण है, जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी से चिपका हुआ है और उसने पृथ्वी को पूरी तरह से घेरा हुआ है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 7.
वायुमंडल की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
कृत्रिम उपग्रहों की सहायता से पता लगा है कि वायुमंडल की ऊंचाई 16000 कि०मी० से 32000 कि०मी० तक है, पर मनुष्य के लिए निचले 5-6 कि०मी० ही महत्त्वपूर्ण होते हैं।

प्रश्न 8.
वायुमंडल की जानकारी के तीन स्रोत बताएँ।
उत्तर-

  1. उल्का
  2. उपग्रह
  3. मानव-रहित गुब्बारे।।

प्रश्न 9.
वायुमंडल की रचना के मूल तत्त्व कौन-से हैं ?
उत्तर-

  1. गैसें
  2. धूलकण
  3. जलवाष्प।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 10.
वायुमंडल की रचना किन गैसों से हुई है ? इन गैसों की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
गैस — ऊँचाई

1. नाइट्रोजन — 125 कि०मी० (78.03%)
2. ऑक्सीजन — 95 कि०मी० (20.95%)
3. कार्बनडाइऑक्साइड– 30 कि०मी० (0.03%)
4. हाइड्रोजन — 200 कि०मी० (0.01%)
5. ऑर्गन, हीलियम और ओज़ोन — (.08%)

प्रश्न 11.
वायुमंडल की प्रमुख परतों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. अशांत मंडल (परिवर्तन मंडल)
  2. समताप मंडल
  3. ओज़ोन मंडल
  4. आयन मंडल
  5. बाहरी मंडल।

प्रश्न 12.
ओज़ोन गैस का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
ओजोन गैस सूर्य की पराबैंगनी किरणों (Ultraviolet rays) को सोखकर पृथ्वी की हानिकारक प्रभावों से रक्षा करती है। यह गैस 80 कि०मी० तक मिलती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 13.
ओज़ोन मंडल में सुराख (Ozone Holes) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
सन् 1980 में ओज़ोन मंडल में अंटार्कटिका महाद्वीप के ऊपर एक बड़ा सुराख देखने में आया है, जिससे पराबैंगनी किरणें धरती पर पहुँच सकती हैं।

प्रश्न 14.
वायुमंडल में पाई जाने वाली ओज़ोन परत को समाप्त करने वाले प्रदूषणों के नाम बताएँ।
उत्तर-
उद्योगों से प्राप्त प्रदूषण ओजोन परत को समाप्त कर रहे हैं, जैसे-कार्बनडाइऑक्साइड, क्लोरीन, फ्लोरीन और क्लोरोफ्लोरो कार्बन।।

प्रश्न 15.
वायुमंडल में कार्बनडाइऑक्साइड गैस में वृद्धि क्यों हो रही है? इसका क्या प्रभाव हो सकता है ?
उत्तर-
औद्योगीकरण और ईंधन के अधिक प्रयोग के कारण कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिसके प्रभाव से पृथ्वी का तापमान भी बढ़ रहा है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 16.
वायुमंडल में वाष्यकण क्यों महत्त्वपूर्ण हैं ?
उत्तर-
वाष्पकण सूर्य के ताप को सोख लेते हैं। ये धरती के ताप पर नियंत्रण रखते हैं। वाष्प कणों की गुप्त ऊर्जा से तूफान चलते हैं। जल वाष्प से वर्षा, बादल, ओस आदि बनते हैं।

प्रश्न 17.
वायुमंडल में धूल-कणों का महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
धूल-कणों के आस-पास जल-वाष्प का संघनन होता है, जिससे वर्षा होती है। धूल-कणों के कारण दृश्यता कम हो जाती है। वायुमंडल में सूर्य के ताप को धूल कण सोख लेते हैं। धूलकणों को नमी-ग्रहण कण (Hygroscopic Nuclie) कहते हैं।

प्रश्न 18.
विश्वव्यापी ताप (Global Warming) में वृद्धि के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
औद्योगीकरण, तेज़ आवाजाही, जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण वायुमंडल में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिससे पृथ्वी का औसत तापमान 0.5° C बढ़ गया है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 19.
वायुमंडल की निचली परत कौन-सी है ? भूमध्य रेखा और ध्रुवों पर इसकी कितनी ऊँचाई है?
उत्तर-
वायुमंडल की निचली परत को परिवर्तन मंडल (अशांत मंडल) कहते हैं। भूमध्य रेखा पर इसकी ऊँचाई 16 कि०मी० और ध्रुवों पर 6 कि०मी० है।

प्रश्न 20.
परिवर्तन मंडल सबसे महत्त्वपूर्ण परत क्यों है ?
उत्तर-
इस परत में जलवायु पर प्रभाव डालने वाली क्रियाएँ होती हैं। इस परत में गैसें, धूल-कण, जल-वाष्प और संवहन धाराएँ चलती हैं, जिससे ताप और नमी पर प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 21.
मध्य परत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अशांत मंडल और समताप मंडल को अलग करने वाली 17 कि०मी० चौड़ी परत को मध्य परत (Tropo Pause) कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 22.
समताप मंडल जैट जहाजों की उड़ान के लिए लाभदायक क्यों है ?
उत्तर-
यह मंडल संवहन-रहित है और इसमें वायुमंडलीय विघ्न नहीं हैं, इसीलिए यह मंडल रॉकेट, जैट जहाजों आदि की उड़ान के लिए आदर्श है।

प्रश्न 23.
सूर्य तापन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धरती की सतह पर प्राप्त होने वाले सूर्य विकिरण को सूर्य तापन (Insolation) कहते हैं। यह कुल सूर्यविकिरण का V2,000,000,000 भाग है।

प्रश्न 24.
सूर्य तापन और विकिरण में अंतर बताएँ।
उत्तर-
सूर्य की सतह से पृथ्वी की सतह पर प्राप्त होने वाले सूर्य विकिरण को सूर्य तापन कहते हैं, जबकि सूर्य की बाहरी सतह-फोटोस्फीयर (Photosphere) से चारों ओर सूर्य की किरणों के फैलने को विकिरण कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 25.
सूर्य तापन की किरणों की कोई दो विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
ये किरणें 3 लाख कि०मी० प्रति सैकिंड की गति से चलती हैं। ये लघु तरंगों के रूप में चलती हैं।

प्रश्न 26.
सूर्य के स्थिर अंक (Solar Constant) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पृथ्वी प्रति मिनट 1.94 कैलोरी ताप प्रति वर्ग सैंटीमीटर प्राप्त करती है। इसे सूर्य का स्थिर अंक कहते हैं।

प्रश्न 27.
सूर्य तापन के कोई दो महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
सूर्य तापन के कारण पृथ्वी मनुष्य के निवास योग्य है। सूर्य तापन के प्रभाव के कारण ऋतुओं का परिवर्तन, पवनें, धाराएँ, मौसम और जलवायु निर्भर करते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 28.
उन दो प्रमुख कारकों के नाम बताएँ, जो सूर्य तापन की मात्रा पर प्रभाव डालते हैं।
उत्तर-

  1. सूर्य की किरणों का आप्तन कोण।
  2. दिन की लंबाई।

प्रश्न 29.
सूर्य ताप का कितना भाग वायुमंडल में नष्ट होता है और कितना भाग पृथ्वी पर पहुँचता है ?
उत्तर-
सूर्य ताप का 49% भाग वायुमंडल में नष्ट हो जाता है और 51% भाग पृथ्वी की सतह तक पहुँचता है। यह सूर्य विकिरण का दो अरबवां भाग है।

प्रश्न 30.
सूर्य ताप किन क्रियाओं के कारण वायुमंडल में नष्ट होता है ?
उत्तर-
PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 8
PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 9

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 31.
वायुमंडल को गर्म करने वाली पाँच क्रियाओं के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. विकिरण (Radiation)
  2. संवहन (Convection)
  3. संचालन (Conduction)
  4. संपीड़न (Compression)
  5. अभिवहन (Advection)

प्रश्न 32.
भूमध्य रेखा पर संसार के सबसे ऊँचे तापमान क्यों नहीं मिलते ?
उत्तर-
लंब किरणें पड़ने के बावजूद, अधिक बादलों के कारण भूमध्य रेखा पर सूर्य का ताप कम होता है, परन्तु कर्क रेखा पर साफ़ आकाश के कारण अधिक तापमान होता है।

प्रश्न 33.
सौर कलंक (Sun Spot) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सूर्य के तल पर पाए जाने वाले धब्बों को सौर कलंक कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 34.
किसी स्थान के तापमान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी स्थान पर, छाया में (In Shade), भूमि तल से 4 फुट ऊँची वायु की मापी हुई गर्मी को उस स्थान का तापमान कहते हैं।

प्रश्न 35.
सूर्य ताप और तापमान में क्या अंतर है ?
उत्तर-
सूर्य से धरती को प्राप्त होने वाली ऊर्जा को सूर्य ताप कहते हैं। यह लघु तरंगों के रूप में भू-तल को गर्म करती है, पर तापमान से अभिप्राय किसी स्थान पर धरातल से एक मीटर ऊंची हवा में गर्मी की मात्रा से है।

प्रश्न 36.
किसी स्थान के औसत दैनिक तापमान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी दिन के उच्चतम तापमान और न्यूनतम तापमान के औसत को दैनिक तापमान कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 37.
समताप रेखा क्या होती है ?
उत्तर-
धरातल पर एक समान तापमान वाले स्थानों को जोड़ने वाली रेखा को समताप रेखा कहते हैं। इस तापमान को समुद्र तल पर कम करके दिखाया जाता है।

प्रश्न 38.
साधारण ताप कम होने की दर (Normal lapse rate) क्या होती है ?
उत्तर-
वायुमंडल में ऊँचाई के साथ 1°C प्रति 165 मीटर की दर से तापमान कम होता है। इसे साधारण ताप कम होने की दर कहते हैं।

प्रश्न 39.
संसार के तीन प्रमुख ताप कटिबंधों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. उष्ण कटिबंध
  2. शीतोष्ण कटिबंध
  3. शीत कटिबंध।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 40.
औसत या नार्मल वायु दाब कितना होता है?
उत्तर-
45° अक्षांश पर समुद्र तल पर वायुमंडल का औसत या नार्मल दाब 29.92 इंच या 76 सैंटीमीटर या 1013.2 मिलीबार होता है।

प्रश्न 41.
वायु दाब और तापमान में क्या संबंध है ? ।
उत्तर-
वायु दाब और तापमान में विपरीत संबंध है। तापमान बढ़ने पर वायुदाब कम हो जाता है।

प्रश्न 42.
वायु दाब ऊँचाई के साथ किस दर से कम होता है ?
उत्तर-
ऊँचाई पर जाने से प्रति 300 मीटर पर हवा का दाब 1 इंच या 34 मिलीबार कम हो जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 43.
वायु दाब और परिक्रमण (Rotation) गति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
दैनिक गति के प्रभाव से विकेंद्रित बल के कारण कई क्षेत्रों में हवा बिखर जाती है और हवा का दाब कम हो जाता है। दैनिक गति के कारण विक्षेप भी साथ में उत्पन्न होता है, जिसे करोलिस बल कहते हैं। इस बल के कारण वायु दाब और पवनों की दिशा बदल जाती है। .

प्रश्न 44.
मिलीबार (Milibar) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
1000 डाईनज़ (Dynes) प्रति वर्ग सैंटीमीटर के वायु भार को मिलीबार कहते हैं।

प्रश्न 45.
वायु दाब किन तत्त्वों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-

  1. तापमान
  2. ऊँचाई
  3. जल वाष्प
  4. परिक्रमण।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 46.
वायु दाब पेटियों के उत्पन्न होने के दो प्रमुख कारण बताएँ।
उत्तर-

  1. तापीय कारण (Thermal)
  2. गति संबंधी कारण (Dynamic)

प्रश्न 47.
भू-तल पर कुल कितनी वायु दाब पेटियाँ हैं ?
उत्तर-
भू-तल पर कुल 7 वायु दाब पेटियाँ हैं-उच्च वायु दाब पेटियाँ कम वायु दाब पेटियों को अलग करती हैं।

प्रश्न 48.
डोलड्रमज़ (Doldrums) की स्थिति बताएँ।
उत्तर-
भूमध्य रेखीय कम वायु दाब पेटी को डोल ड्रमज़ (शांत मंडल) कहते हैं, जिसका विस्तार 10° N और 10°S अक्षांशों के मध्य होता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 49.
अश्व अक्षांश (Horse Latitudes) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
30°-35° उत्तर-दक्षिण अक्षांशों पर स्थित उच्च वायु दाब पेटी (शांत मंडल) को अश्व अक्षांश कहते हैं।

प्रश्न 50.
उप-ध्रुवीय कम दाब की पेटी के बनने के कोई तीन कारण बताएँ।
उत्तर-

  1. पृथ्वी की दैनिक गति के कारण वायु का ध्रुवों की ओर खिसकना।
  2. चक्रवातों के कारण कम वायु दाब का होना।
  3. गर्म धाराओं के कारण कम वायु दाब का होना।

प्रश्न 51.
समदाब रेखा (Isobars) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धरातल पर समान वायु दाब वाले क्षेत्रों को जोड़ने वाली रेखा को समदाब रेखा कहते हैं। यह वायु दाब समुद्र तल पर कम करके दिखाया जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

लघु उत्तरात्मक प्रश्न । (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
वायुमंडल में धूल-कणों का महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
वायुमंडल की निचली परत में धूल-कण मिलते हैं। इन धूल-कणों की कई तरह से विशेष महत्ता है।

  1. धूल-कण सूर्य ताप को सोख लेते हैं, जिससे वायुमंडल का तापमान बढ़ जाता है।
  2. धूल-कणों के चारों ओर जल-वाष्प का संघनन हो जाता है जिससे वर्षा, धुंध, बादल आदि बनते हैं।
  3. धूल-कणों के कारण दृश्यता (Visibility) कम हो जाती है और धुंध छा जाती है।
  4. धूल-कणों के कारण सूर्य के निकलने, सूर्य के डूबने और इंद्रधनुष जैसे रंग-बिरंगे नजारे देखने को मिलते हैं।

प्रश्न 2.
परिवर्तन मंडल को वायुमंडल की सबसे महत्त्वपूर्ण परत क्यों माना जाता है ?
उत्तर-
परिवर्तन मंडल वायुमंडल की सबसे महत्त्वपूर्ण और निचली परत है-

  1. इस परत में जलवायु पर प्रभाव डालने वाली क्रियाएँ काम करती हैं।
  2. इस परत में गैसें, धूल-कण और जल-वाष्प मिलते हैं, जिनके कारण बादल, वर्षा, धुंध आदि बनते हैं।
  3. इस परत में संवाहक धाराएँ चलती हैं, जिनके कारण ताप और नमी ऊँचाई तक पहुँच जाती है।
  4. इस क्षेत्र में ऊँचाई के साथ-साथ 1°C प्रति 165 मीटर की दर से तापमान कम होता है।
  5. इस परत में चक्रवात, अंधेरियाँ, तूफान आदि मौसम पर प्रभाव डालते हैं।

प्रश्न 3.
वायुमंडल में जल-वाष्य का महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
वायुमंडल के 2% भाग में जल-वाष्प मिलते हैं। ये वायुमंडल की निचली परत पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। ये सूर्य के ताप को सोख लेते हैं। ये धरती के आस-पास ताप के विभाजन को नियंत्रित रखते हैं। इनके कारण ही पैदा हुई शक्ति से चक्रवात, अंधेरियाँ और तूफान चलते हैं। जल-वाष्प के कारण ही वर्षा, धुंध, कोहरा, ओस, बादल आदि बनते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 4.
वायुमंडल का महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
वायुमंडल मानव-जीवन पर कई प्रकार से प्रभाव डालता है

  1. ऑक्सीजन गैस धरती पर मानव-जीवन का आधार है।
  2. कार्बन-डाइऑक्साइड गैस वनस्पति का आधार है।
  3. वायुमंडल सूर्य ताप को सोखकर एक काँच के घर (Glass House) का काम करता है।
  4. वायुमंडल के जल-वाष्प वर्षा का साधन हैं।
  5. वायुमंडल फसलों, मौसम, जलवाय, हवाई मार्गों पर प्रभाव डालता है।

प्रश्न 5.
परिवर्तन मंडल और समताप मंडल में अंतर बताएँ।
उत्तर –
परिवर्तन मंडल (Troposphere)

  1. यह वायुमंडल की सबसे निचली परत है।
  2. इसकी ऊँचाई ध्रुवों पर 8 कि०मी० और भूमध्य रेखा पर 20 कि०मी० होती है।
  3. इस परत में तापमान 1°C प्रति 165 मीटर की दर से कम होता है।
  4. इसमें उच्चवर्ती धाराएँ, बादल और अंधेरियाँ चलती हैं और इसे अशांत मंडल कहते हैं।

समताप मंडल (Stratosphere)

  1. यह भू-तल से ऊपर वायुमंडल की दूसरी परत है।
  2. इसकी ऊँचाई 16 कि०मी० से लेकर 72 कि०मी० तक होती है।
  3. इस परत में तापमान लगभग एक समान रहता है।
  4. इसमें उच्चवर्ती धाराएँ, बादल और अंधेरियाँ नहीं चलतीं और इसे शांत मंडल कहते हैं।

प्रश्न 6.
सूर्य तापन (Insolation) की परिभाषा दें।
उत्तर-
सूर्य वायुमंडल को गर्मी और रोशनी प्रदान करने वाला एक प्रमुख और मूल साधन है। सूर्य का व्यास पृथ्वी से सौ गुणा बड़ा है। सूर्य के धरातल का तापमान 10,000° F से अधिक है। सूर्य से सब दिशाओं में ताप तरंगें निकलती हैं। सूर्य का ताप रोशनी की गति से (186,000 मील या 3000,000 कि०मी० प्रति सैकिंड की दर से) वायुमण्डल में से निकलता है। धरती को सूर्य ताप का केवल दो अरबवां भाग ही (1/2000,000,000) प्राप्त होता है। अनुमान है कि धरती प्रति मिनट 1.94 calories गर्मी प्रति वर्ग सैंटीमीटर प्राप्त करती है। इसे सूर्य का स्थिर अंक (Solar Constant) कहते हैं। इस प्रकार धरती पर प्राप्त होने वाले सूर्य विकिरण को सूर्य तापन कहते हैं।

In = In coming
Insolation = Sol = Solar
Ation = Radiation
(Insolation means Incoming Solar Radiation.)

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 7.
ताप बजट सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर-
ताप बजट (Heat Budget)-ताप बजट से अभिप्राय ताप सन्तुलन से है। धरती पर औसत तापमान एक समान रहता है। धरती जितनी मात्रा में सूर्य ताप प्राप्त करती है, उतनी ही मात्रा में ताप धरातलीय विकिरण के द्वारा ब्रह्मांड में वापिस चला जाता है। इस प्रकार धरती और वायुमण्डल के ताप में एक सन्तुलन कायम हो जाता है। मान लो कि वायुमण्डल की ऊपरी सतह से प्राप्त होने वाला ताप 100 इकाई है। इसमें से 51 इकाई ताप ही धरती पर पहुँचता है, जैसे वायुमण्डल की ऊपरी सतह से प्राप्त ताप = 100%

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 10

धरती की सतह पर प्राप्त ताप = 100 – 49 = 51%
धरती की सतह पर प्राप्त 51% ताप धरातलीय विकिरण के द्वारा ब्रह्माण्ड में वापिस चला जाता है। इससे वायुमण्डल गर्म हो जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 11

प्रश्न 8.
किसी स्थान का तापमान किस प्रकार अक्षांश पर निर्भर करता है ?
उत्तर-
भूमध्य रेखा से दूरी (Distance from the Equator)–धरातल पर तापमान सदा अक्षांश के अनुसार होता है। भूमध्य रेखा के निकट वाले स्थान दूर वाले स्थानों से अधिक गर्म होते हैं। भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने से तापमान लगातार कम होता जाता है। (Temperature decreases from the Equator to the Poles.) किसी भी अक्षांश पर गर्मी सूर्य की किरणों के कोण (Angle of sun’s rays) पर निर्भर करती है। सीधी किरणें तिरछी किरणों की तुलना में अधिक गर्म होती हैं और कम सतह घेरने के कारण भूमि को जल्दी गर्म करती हैं। इसके अलावा सीधी किरणों को तिरछी किरणों की तुलना में वायुमण्डल में कम फासला तय करना पड़ता है। वायुमण्डल में मिली गैसें और वाष्प सूर्य की किरणों की गर्मी चूस लेते हैं। इसलिए तिरछी किरणों की बहुत सारी गर्मी नष्ट हो जाती है। अक्षांश के अनुसार सूर्य की किरणों का कोण बदलता रहता है और दिन की लम्बाई भी कम होती या बढ़ती रहती है।

भूमध्य रेखा पर सारा साल सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं, इसलिए ये प्रदेश पूरा वर्ष समान रूप में गर्म रहते हैं ध्रुवों की ओर जाते हुए सूर्य की किरणें लगातार तिरछी होती जाती हैं, इसलिए उच्च अक्षांशों (Higher Latitudes) के प्रदेश ठंडी जलवायु वाले होते हैं।

उदाहरण (Example)-

  1. मद्रास (चेन्नई), कोलकाता की तुलना में अधिक गर्म है।
  2. भारत की जलवायु इंग्लैण्ड की जलवायु की तुलना में अधिक गर्म है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 9.
ऊँचाई और तापमान का क्या सम्बन्ध है ?
अथवा
पर्वत मैदानों की तुलना में अधिक ठण्डे क्यों होते हैं ?
उत्तर-
समुद्र तल से ऊँचाई के साथ-साथ तापमान कम होता जाता है। तापमान के कम होने की दर 1°C प्रति 165 मीटर है। वायुमण्डल धरती से छोड़े गए ताप विकिरण (Radiation) से गर्म हो जाता है, इसलिए निचली सतहें पहले गर्म होती हैं और ऊपरी सतहें बाद में। पहाड़ी प्रदेश धरातल या गर्मी के साधन से दूर होने के कारण ठण्डे रहते हैं। पर्वत मैदानों की अपेक्षा अधिक ठण्डे होते हैं। (Mountains are cooler than plains.) ऊँचाई के अनुसार हवा का दबाव, घनत्व, भाप और धूल के कणों की कमी होती है। इस प्रकार ऊँचे प्रदेशों की शुद्ध और स्वच्छ हवा गर्मी को ज़ब्त नहीं करती। पहाड़ी प्रदेशों की कठोर चट्टानें जल्दी ही गर्मी छोड़ देती हैं, जो बिना रोक-टोक के वायुमण्डल से बाहर निकल जाती हैं। इस प्रकार कोई भी स्थान जितना ऊँचा होगा, वह उतना ही ठण्डा होगा।

उदाहरण (Examples)–शिमला और लुधियाना लगभग एक ही अक्षांश पर स्थित हैं, पर लुधियाना में जून का औसत तापमान 35°C होता है, जबकि शिमला में जून का औसत तापमान 20°C होता है।

प्रश्न 10.
किसी स्थान के दैनिक तापान्तर और वार्षिक तापान्तर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
दैनिक तापांतर (Daily range of Temperature)-किसी स्थान पर किसी दिन के अधिक-सेअधिक और कम-से-कम तापमान के अन्तर को उस स्थान का दैनिक तापान्तर कहते हैं। इसे Diurnal या Daily Range of Temperature भी कहते हैं।

Daily Range of Temperature = Daily Maximum Temperature – Daily Minimum Temperature

विशेषताएँ (Characteristics)-

  1. यह तटीय प्रदेशों में कम होता है।
  2. देश के भीतरी भागों में तापान्तर अधिक होता है।
  3. बादलों से घिरे प्रदेशों में तापान्तर अधिक होता है।
  4. खुले और साफ आकाश के कारण मरुस्थलों में तापान्तर अधिक होता है।

वार्षिक तापान्तर (Annual range of Tempeature)—किसी वर्ष के सबसे गर्म और सबसे ठण्डे महीनों के औसत तापमान के अन्तर को वार्षिक तापान्तर कहते हैं। आम तौर पर जुलाई महीने को सबसे गर्म और जनवरी महीने को सबसे ठण्डा महीना माना जाता है।

Annual Range of Temperature = Mean monthly Temperature of the hottest month (July) — Mean monthly Temperature of the coldest month (January)

विशेषताएँ (Characteristics)

  1. भूमध्य रेखा पर वार्षिक तापान्तर कम होता है।
  2. ध्रुवों की ओर यह लगातार बढ़ता जाता है।
  3. अन्दरूनी क्षेत्रों की अपेक्षा तटीय प्रदेशों में वार्षिक तापान्तर कम होता है।
  4. विश्व में सबसे अधिक वार्षिक तापान्तर साइबेरिया में वरखोयांस्क (Verkhoyansk) में 38°C होता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 11.
समताप रेखाओं से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
समताप रेखाएँ (Isotherms)-‘Iso’ शब्द का अर्थ है-समान और ‘Therms’ शब्द का अर्थ है’ तापमान।
इसलिए Isotherms’ शब्द का अर्थ है-समान तापमान की रेखाएँ (Lines of equal temperature) (Isotherms are lines joining the places of same (equal) temperature reduced to sea-level.) धरातल पर एक समान तापमान वाले स्थानों को जोड़ने वाली रेखाओं को समताप रेखाएँ कहते हैं। इस तापमान को समुद्र तल से कम करके दिखाया जाता है। इस प्रकार ऊँचाई के प्रभाव को दूर करने का यत्न किया जाता है। यह कल्पना की जाती है कि सभी स्थान समुद्र तल पर स्थित हैं। यदि कोई स्थान 1650 मीटर ऊँचा है और उसका वास्तविक तापमान 20°C है, तो उस स्थान का समुद्र तल पर तापमान 20°C + 10°C = 30°C होगा, क्योंकि प्रति 165 मीटर पर 1°C तापमान कम हो जाता है।

विशेषताएँ (Characteristics)-

  1. ये रेखाएँ पूर्व-पश्चिम दिशा की ओर फैली होती हैं।
  2. ये उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा दक्षिणी गोलार्द्ध में सीधी होती हैं क्योंकि यहाँ थल भाग की कमी होती है।
  3. ये रेखाएँ गर्मी की ऋतु में समुद्रों से भूमध्य रेखा की ओर तथा सर्दी की ऋतु में ध्रुवों की ओर मुड़ जाती हैं।
  4. जलवायु मानचित्रों में तापमान के विभाजन को समताप रेखाओं द्वारा दिखाया जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 12

प्रश्न 12.
समदाब रेखाओं पर नोट लिखें।
उत्तर-
समदाब रेखाएँ (Isobars)- Iso’ शब्द का अर्थ है-समान और ‘Bar’ शब्द का अर्थ है-दबाव। इसलिए ‘Isobars’ का अर्थ हुआ-समदाब रेखाएँ (Lines of Equal Pressure.)। .
(“’Isobars are lines joining the places of same pressure reduced to sea level.”) धरातल पर समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखाओं को समदाब रेखाएँ कहते हैं।
इस वायु दाब को समुद्र तल से कम करके दिखाया जाता है। ऊँचाई के प्रभाव को दूर करने का यत्न किया जाता है। यह कल्पना की जाती है कि सभी स्थान समुद्र तल पर स्थित हैं। यदि कोई स्थान 300 मीटर ऊँचा है और उसका वास्तविक वायु दाब 900 मिलीबार है, तो समुद्र तल पर उसका वायु दाब 900 + 34 = 934 मिलीबार होगा, क्योंकि प्रति 300 मीटर पर 34 मिलीबार वायु दाब कम हो जाता है।

विशेषताएँ (Characteristics)-

  1. ये रेखाएँ पूर्व-पश्चिम दिशा की ओर फैली होती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में ये अक्षांश रेखाओं के लगभग समानांतर हैं।
  2. दक्षिणी गोलार्द्ध में ये अक्षांश रेखाओं के लगभग समानांतर हैं।
  3. ये अधिक दबाव से कम दबाव की ओर खिंची चली जाती हैं।
  4. ये स्थल की अपेक्षा समुद्रों पर अधिक नियमित (Regular) होती हैं।
  5. जलवायु मानचित्रों में वायुदाब को समदाब रेखाओं से दिखाया जाता है।
  6. इनसे पवनों की दिशा और गति का पता चलता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 13.
अश्व अक्षांश से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
22° से 35° के बीच के अक्षांशों को अश्व अक्षांश (Horse latitudes) कहते हैं। कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट का यह प्रदेश शांत मण्डल (Belt of calm) कहलाता है। शांत भू-खण्ड में धरातल पर समानान्तर (Horizontal) गति नहीं होती। हवाएँ ऊपर से नीचे (Descending) या नीचे से ऊपर (Ascending) को चलती रहती हैं। ये हवाएँ न तो स्थायी होती हैं और न ही अधिक तेजी से बहती हैं। (“It is a zone where no permanent winds blow.”) वायुमण्डल शान्त होता है और मौसम साफ़ रहता है।

लगातार नीचे आती हुई वायु और दबाव (Compression) के कारण यहाँ उच्च वायुदाब होता है। इन अक्षांशों से ध्रुवों की ओर पश्चिमी पवनें और भूमध्य रेखा की ओर व्यापारिक पवनें चलती हैं।

प्रभाव (Effects)-नीचे आती हुई हवाएँ नमी के अंश को कम कर देती हैं और तापमान को बढ़ाती हैं, इसलिए इन प्रदेशों में वर्षा नहीं होती और इन अक्षांशों में महाद्वीपों के पश्चिमी भागों पर संसार के प्रसिद्ध गर्म मरुस्थल (Hot Deserts) मिलते हैं, जैसे-अरब, सहारा, कैलेफोर्निया, ऐटेकामा, कालाहारी।

नाम का कारण (Reason of Calling it Horse Latitudes)-इन अक्षांशों को घोड़ा या अश्व अक्षांश (Horse Latitude) इसलिए कहते हैं क्योंकि इन अक्षांशों में वायु शान्त हो जाने के कारण जहाज़ों को चलाने में कठिनाई होती थी। प्राचीन काल में जहाज़ों में घोड़े भरकर अमेरिका में ले जाए जाते थे। जब ये जहाज़ इन अक्षांशों में से गुज़रते थे, तो उन्हें हल्का करने के लिए कुछ घोड़ों को समुद्र में फेंक दिया जाता था।

प्रश्न 14.
भूमध्य रेखा के शान्त खण्ड की स्थिति और प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
स्थिति (Location)—यह शान्त खण्ड भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5°N और 5°S के बीच स्थित है। इसे . भूमध्य रेखा का शान्त खण्ड (Equatioral Calm) कहते हैं। धरातल पर या तो वायु होती ही नहीं या बहुत शान्त वायु चलती है। यह शान्त खण्ड भूमध्य रेखा के चारों ओर फैला हुआ है।

कारण (Causes)—इस खण्ड में सूर्य की किरणें पूरा वर्ष सीधी पड़ती हैं और औसत तापमान ऊँचा रहता है। हवा गर्म और हल्की होकर लगातार संवाहक धाराओं (Convection Currents) के रूप में ऊपर उठती रहती है और धरातल पर वायु दबाव कम हो जाता है। _प्रभाव (Effects)-गर्म हवा ऊपर उठने के कारण ठण्डी हो जाती है और द्रवीकरण (condensation) की क्रिया होती है। इसलिए इस खण्ड में पूरा वर्ष वर्षा होती रहती है। औसत वार्षिक वर्षा 200 सैंटीमीटर होती है। प्राचीन समय में हवाओं से चलने वाले जहाज़, इन अक्षांशों में हवा की कमी के कारण फँस जाते थे। उन्हें चलाने में बहुत कठिनाई होती थी।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
वायुमण्डल की बनावट का वर्णन करें। उत्तर
वायुमण्डल की बनावट (Composition of the Atmosphere)-
उत्तर-
वायुमण्डल की बनावट अलग-अलग गैसों, जलवाष्प (Water-vapours), धूल-कणों (Dust particles) के मिश्रण के फलस्वरूप हुई है। वायुमण्डल का 99 प्रतिशत नाइट्रोजन (Nitrogen) और ऑक्सीजन (Oxygen) द्वारा बना होता है।

I. गैसें (Gases)-वायुमण्डल में अनेक गैसें होती हैं, जिनमें नाइट्रोजन (Nitrogen), ऑक्सीजन (Oxygen), ऑर्गन (Organ), कार्बन-डाइऑक्साइड (Carbondioxide), हाइड्रोजन (Hydrogen), नीओन (Neon), हीलियम (Helium), क्रिप्टन (Krypton), जेनॉन (Xenon) और ओज़ोन (Ozone) प्रमुख हैं। इनमें से कुछ भारी गैसें और कुछ हल्की गैसें होती हैं। भारी गैसें वायुमण्डल की निचली परतों में और हल्की गैसें ऊपरी परतों में होती हैं, परन्तु वायुमण्डल में ऑक्सीजन और नाइट्रोजन गैसों की प्रधानता होती है। ये दोनों मिलकर वायुमण्डल में 99% होती हैं। वायुमण्डल में गैसों और उनकी मात्रा अग्रलिखित अनुसार है-

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 13

वायुमण्डल में कार्बन-डाइऑक्साइड.20 किलोमीटर की ऊँचाई तक, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन 100 किलोमीटर की ऊँचाई तक और हाइड्रोजन 150 किलोमीटर से भी अधिक ऊँचाई में होती है।

1. सक्रिय गैसें (Active Gases)-ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, कार्बन-डाइऑक्साइड और ओजोन गैसें किसी . स्थान की जलवायु पर प्रभाव डालती हैं। इन्हें सक्रिय या क्रियाशील गैसें कहते हैं।
2. प्रभाव रहित गैसें (Inert Gases)-ऑर्गन, निओन, हीलियम, क्रिप्टॉन और जेनॉन प्रभाव रहित गैसें हैं।
3. महत्त्वपूर्ण गैसें (Important Gases)-

  • नाइट्रोजन (Nitrogen)-इस गैस की वायुमण्डल में सबसे अधिक मात्रा (4/5 भाग) होती है। यह गैस वस्तुओं को तेज़ी से जलने से बचाती है। यह पेड-पौधों के जीवन के लिए लाभदायक है।
  • ऑक्सीजन (Oxygen)—मनुष्य के अस्तित्व के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण गैस है। इसके बिना मनुष्य साँस नहीं ले सकता। यह ऊर्जा का स्रोत है और वस्तुओं के जलने में सहायक होती है। ऊँचाई के साथ साथ यह कम होती जाती है।
  • कार्बन-डाइऑक्साइड (Carbon-dioxide)—यह भारी गैस पृथ्वी की निचली सतह पर मिलती है।
    औद्योगीकरण और ईंधन के अधिक प्रयोग के कारण इसकी मात्रा बढ़ रही है, जिसके प्रभाव से पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ गया है।
  • ओज़ोन (Ozone)—यह अधिक ऊँचाई पर मिलती हैं और सूर्य की पराबैंगनी किरणों (Ultra violet rays) को जब्त कर लेती है। इससे यह पृथ्वी पर मानव-जीवन की
    सुरक्षा करती है।
  • आर्गन और हाइड्रोजन (Argon and Hydrogen)—ये भी महत्त्वपूर्ण गैसें हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना 14

II. जल-वाष्प (Water Vapours) ताप से वायु गर्म हो जाती है और यह गर्म वायु भूमि पर स्थित जल का कुछ अंश और वर्षा के जल का कुछ भाग सोख लेती है। यह सोखा हुआ जल वायुमण्डल में न दिखाई देने वाले (Invisible) रूप में उपस्थित होता है। इसे जल-वाष्प कहते हैं। वायुमण्डल की ऊँचाई के साथ-साथ वाष्प की मात्रा कम हो जाती है। आम तौर पर ये 12 किलोमीटर से अधिक ऊँचाई पर नहीं होते। ताप द्वारा वायु के गर्म हो जाने पर इसमें जल-वाष्प धारण करने की सामर्थ्य बढ़ जाती है। शीतल वायु उष्ण वायु के टकराने से जल-वाष्प ग्रहण करती है। अवक्षेपण (Precipitation) का मुख्य स्रोत जल-वाष्प ही हैं। वायुमण्डल में संघनन क्रिया (Condensation) द्वारा जल-वाष्प जल में बदलकर अवक्षेपण से वर्षा, हिमपात आदि रूपों में धरती पर गिरते हैं। वायुमण्डल के केवल 2% भाग में जल-वाष्प मिलते हैं, परन्तु ये धरती के आस-पास ताप के विभाजन पर नियन्त्रण रखते हैं।

III. धूल-कण (Dust Particles)-चट्टानों के टूटने-फूटने और ज्वालामुखी के विस्फोट के कारण बहुत बारीक और सूक्ष्म कण वायु में लटकते रहते हैं। ये प्रकाश को फैलाने में सहायता करते हैं। वाष्प के रूप में जल इन धूल-कणों के आस-पास ही एकत्र होता है। फलस्वरूप आकाश नीले रंग का प्रतीत होता है। ये धूलकण कोहरा और धुंध बनाने में भी सहायता करते हैं। धूल-कणों के साथ चिपके जल-वाष्प संघनन क्रिया द्वारा बादलों का रूप धारण कर लेते हैं क्योंकि धूल-कण ठण्डे होकर जल-वाष्प में संघनन करते हैं। इस प्रकार धूल-कणों के कारण बादलों की रचना होती है, जो कि अवक्षेपण (Precipitation) करते हैं। इस प्रकार वायुमण्डल में स्थित धूल-कण मनुष्य के लिए बहुत महत्त्व रखते हैं। इन्हें आर्द्रताग्राही कण (Hygroscopic nuclei) कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 2.
वायुमण्डल की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
वायुमण्डल की विशेषताएँ (Properties of the Atmosphere)-

  • भू-तल के निकट वायुमण्डल घना (Dense) होता है। ऊपर ऊँचाई के साथ-साथ यह पतला होता जाता है।
  • जल-वाष्प अधिकतर 2000 मीटर की ऊँचाई तक और पूर्ण रूप में 1 किलोमीटर की ऊँचाई तक ही वायुमण्डल में स्थित होते हैं।
  • जल-वाष्प शुष्क वायु के मुकाबले में हल्के होते हैं। इस प्रकार यदि वायु में जल-वाष्प अधिक मात्रा में हों, तो वायु का घनत्व कम हो जाता है।
  • वायुमण्डल तापधारक (Diathermous) होता है, भाव इसमें ताप-किरणें ज़ब्त हो सकती हैं।
  • वायुमण्डल पारदर्शी (Transparent) होता है।
  • वायुमण्डल में अनेक गैसें, जलवाष्प, धूल-कण आदि पाए जाते हैं, परन्तु इसमें ऑक्सीजन और नाइट्रोजन दो गैसों की प्रधानता होती है। वायुमण्डल के लगभग 99 प्रतिशत भाग में ये दो गैसें ही होती हैं।
  • नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बन-डाइ-ऑक्साइड आदि भारी गैसें वायुमण्डल की निचली सतहों पर और निओन, हीलियम, क्रिप्टॉन, ओज़ोन आदि हल्की गैसें ऊपरी सतहों में मिलती हैं।
  • वायुमण्डल की निचली सतहों में धूल-कण पाए जाते हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय लालिमा इन धूल कणों के फलस्वरूप ही होती है। धुंधलका भी इन धूल-कणों के कारण ही होता है।
  • वायुमण्डल में प्रवेश करने वाली उल्काओं (Meteors) के लिए यह रुकावट होता है। यह अपनी घर्षण क्रिया द्वारा इन्हें जला देता है, फलस्वरूप बहुत-सी उल्काएँ भूतल पर पहुँचने से पहले ही जल के राख हो जाती हैं।
  • वायुमण्डल संवहन, विकिरण और दबाव (Compression) द्वारा गर्म होता है। वायु पर जब दबाव पड़ता है, तो यह गर्म हो जाती है और फैलने पर वायु ठंडी हो जाती है।

प्रश्न 3.
वायुमण्डल की महत्ता के बारे में बताएँ।
उत्तर-
वायुमण्डल की महत्ता (Importance of Atmosphere)-
वायुमण्डल नीचे लिखे क्षेत्रों में मनुष्य के लिए महत्त्वपूर्ण है –

1. जीवन का आधार-वायुमण्डल में ऑक्सीजन गैस मानव-जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। कार्बन-डाइऑक्साइड गैस वनस्पति के विकास के लिए ज़रूरी है। वायुमण्डल के बिना पृथ्वी के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इतना महत्त्वपूर्ण होने के कारण ही सौर-मण्डल में पृथ्वी को एक अद्वितीय ग्रह (Unique Planet) कहा जाता है।

2. तापमान का सन्तुलन-वायुमण्डल एक ग्लास-हाऊस के समान काम करता है और पृथ्वी के तापमान में सन्तुलन रखता है। दिन के समय वायुमण्डल सूर्य की किरणों को जब्त करता है और रात के समय भू-तल से होने वाले विकिरण को रोककर पृथ्वी के तापमान को मध्यम रखता है। पृथ्वी का औसत तापमान 35°C बना रहता है।

3. पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा-ऊपरी परतों में ओज़ोन गैस (Ozone Gas) सूर्य की पराबैंगनी किरणों (Ultra violet rays) को जब्त करके पृथ्वी पर मनुष्यों और जीव-जन्तुओं की सुरक्षा करती है।

4. मौसम और जलवायु-वायुमण्डल मौसम और जलवायु पर प्रभाव डालता है, जिसके कारण पृथ्वी के अलग-अलग भागों में अनेक प्रकार की जलवायु मिलती है।

5. रेडियो प्रसारण-आयन मण्डल पृथ्वी की रेडियो तरंगों को पृथ्वी पर वापस भेजकर रेडियो प्रसारण में सहायता करता है।

6. उल्काओं से सुरक्षा-वायुमण्डल में प्रवेश करके कई उल्काएँ (Meteors) नष्ट हो जाती हैं और पृथ्वी को सुरक्षा प्रदान करती हैं।

7. वायु मार्ग-वायुमण्डल की सतह में शांत हवा के कारण जैट जहाज़ तेज़ गति से उड़ सकते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 6 वायुमण्डल-बनावट और रचना

प्रश्न 4.
ताप कटिबन्धों का वर्णन करें।
उत्तर-
ताप कटिबन्ध (Temperature Zones)-धरती की धुरी (Axis) पर तिरछा स्थित होने के कारण सूर्य की किरणें भू-मध्य रेखा पर तो सीधी पड़ती हैं, पर भू-मध्य रेखा से दूर जाने पर लगातार तिरछी होती जाती हैं। परिणामस्वरूप अक्षांश के अनुसार तापमान कम होता जाता है, इसलिए तापखण्ड अलग-अलग अक्षांश रेखाओं के साथ ही निर्धारित होते हैं। अलग-अलग अक्षांशों की स्थिति सूर्य की किरणों के कोण पर आधारित होती है।
धरातल पर ताप विभाजन कई ताप-खण्डों द्वारा दिखाया जाता है। पुरातन यूनानी विद्वानों ने इन अक्षांश रेखाओं के आधार पर धरती को नीचे लिखे पाँच खण्डों में विभाजित किया है-

1. उष्ण कटिबन्ध (तप्त खण्ड) (Torrid Zone)—यह कटिबन्ध कर्क रेखा (23 \(\frac{1}{2}\)°N) और मकर रेखा (23 \(\frac{1}{2}\)°S) के मध्य स्थित है। इस खण्ड में पूरा वर्ष सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं, इसलिए यह कटिबन्ध धरती का सबसे गर्म कटिबन्ध है।

2. उत्तरी शीतोष्ण कटिबन्ध (Northern Temperate Zone)—यह कटिबन्ध कर्क रेखा (66\(\frac{1}{2}\)°N) और उत्तरी ध्रुव-चक्र (Arctic Circle) [66\(\frac{1}{2}\)°N) के मध्य स्थित है। इस खण्ड में तापमान की मध्यम दशाएँ होती हैं। इस खण्ड में सूर्य की किरणें सीधी नहीं पड़तीं।

3. दक्षिणी शीतोष्ण कटिबन्ध (Southern Temprate Zone)—यह खण्ड मकर रेखा (23\(\frac{1}{2}\)° S) दक्षिणी ध्रुव-चक्र (Antarctic Circle) (\(\frac{1}{2}\) °S) के मध्य स्थित है। इस खण्ड में न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न ही अधिक सर्दी। इस खण्ड में गर्मियों में दिन लम्बे और सर्दियों में छोटे होते हैं।

4. उत्तरी शीत कटिबन्ध (Northern Frigid Zone)—यह खण्ड उत्तरी ध्रुव 90° N और 66\(\frac{1}{2}\) °N के मध्य स्थित है। यहाँ हर स्थान पर दिन या रात की लम्बाई 24 घण्टों से अधिक होती है और अत्यन्त सर्दी पड़ती है।

5. दक्षिणी शीत कटिबन्ध (Southern Frigid Zone)—यह खण्ड दक्षिणी ध्रुव 90° 5 और 66\(\frac{1}{2}\)°S के मध्य स्थित है। यहाँ पूरा वर्ष सूर्य की किरणें बहुत तिरछी पड़ती हैं, इसलिए यहाँ बहुत कम तापमान होता है। ध्रुवों पर छह-छह महीनों के दिन-रात होते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
एक अकादमिक अनुशासन के रूप में समाज का औपचारिक अध्ययन किस देश में तथा किस शताब्दी में प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर-
एक विषय के रूप में समाज का औपचारिक अध्ययन फ्राँस (यूरोप) में 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ।

प्रश्न 2.
उन तीन कारकों के नाम बताइये जो एक स्वतन्त्र अनुशासन के रूप में समाजशास्त्र के विकास के लिए उत्तरदायी है।
उत्तर-
औद्योगिक क्रान्ति, फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण के विचारों के फैलाव से समाजशास्त्र का विकास एवं स्वतन्त्र विषय के रूप में हुआ।

प्रश्न 3.
नवजागरण से सम्बद्ध दो विचारकों के नाम बताइए।
उत्तर-
चार्ल्स मान्टेस्कयू (Charles Montesquieu) तथा जीन जैक्स रूसो (Jean Jacques Rousseau)।

प्रश्न 4.
फ्रांसीसी क्रान्ति किस वर्ष अस्तित्व में आयी ?
उत्तर-
फ्रॉसीसी क्रान्ति सन् 1789 में हुई थी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 5.
प्रत्यक्षवाद शब्द से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यह माना जाता है कि समाज कुछ स्थिर नियमों के अनुसार कार्य करता है, जिन्हें ढूंढा जा सकता है। इसे ही सकारात्मकवाद कहते हैं।

प्रश्न 6.
किसने समाजशास्त्र की दो शाखाओं सामाजिक स्थितिकी तथा सामाजिक गतिकी की चर्चा की ?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने यह नाम दिया।

प्रश्न 7.
अगस्ते कोंत के तीन चरणों के नियम को चार्ट द्वारा प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक 1

प्रश्न 8.
कार्ल मार्क्स का वर्ग का सिद्धांत किस निर्धारणवाद पर आधारित है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स का वर्ग का सिद्धांत उत्पादन के साधनों की मल्कियत पर आधारित है कि एक समूह के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा एक के पास नहीं होते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 9.
‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’ पुस्तक किसने लिखी है ?
उत्तर-
पुस्तक ‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’ कार्ल मार्क्स ने लिखी है।

प्रश्न 10.
कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत सामाजिक परिवर्तन के चरण कौन-से हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिर्वतन के चार मुख्य स्तर हैं–आदिम समुदाय समाज, दासमूलक समाज, सामन्ती समाज तथा पूँजीवादी समाज।

प्रश्न 11.
किसने समाज में उपस्थित एकता की प्रकृति के आधार पर समाज को वर्गीकृत है ?
उत्तर-
एमिल दुर्शीम ने समाज में मौजूद एकता की प्रकृति के आधार पर समाज को बाँटा है।

प्रश्न 12.
एमिल दुर्थीम द्वारा प्रस्तुत एकता के दो प्रकार बताइये।
उत्तर-
यान्त्रिक एकता (Mechnical Solidarity) तथा सावयवी एकता (Organic Solidarity)।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 13.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया के प्रकारों की सूची बताइये।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने चार प्रकार की सामाजिक क्रिया के बारे में बताया है- Zweekrational, Wertnational, Affeective क्रिया तथा Traditional क्रिया।

प्रश्न 14.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता के प्रकार बताइये।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने सत्ता के तीन प्रकार दिए हैं-परंपरागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मई सत्ता।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
नवजागरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-
नवजागरण वह समय था जब काफ़ी अधिक बौद्धिक विकास हुआ तथा दार्शनिक विचारों में बहुत परिवर्तन आए। यह समय 17वीं-18वीं शताब्दी के बीच था। इस समय के मशहूर विचारक मान्टेस्क्यू तथा रूसो थे। यह विचारक विज्ञान की सर्वोच्चता तथा विश्वास के ऊपर तर्क को ऊँचा मानते थे। इन विचारों के कारण ही सामाजिक प्रकटन में वैज्ञानिक विधि के प्रयोग पर बल दिया।

प्रश्न 2.
धर्मशास्त्रीय तथा तत्वशास्त्रीय चरणों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
कोंत के अनुसार आध्यात्मिक पड़ाव में मनुष्य के विचार काल्पनिक थे। वह सभी चीज़ों को परमात्मा के रूप में समझता था। धारणा यह थी कि चाहे सभी चीज़े निर्जीव हैं परन्तु उनमें सर्वशक्ति व्यापक है। अधिभौतिक पड़ाव 14वीं से 16वीं शताब्दी तक चला। इस समय बेरोक निरीक्षण का अधिकार सामने आया जिसकी कोई सीमा नहीं थी। इस कारण आत्मिकता का पतन हुआ जिसका सांसारिक पक्ष पर भी प्रभाव पड़ा।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 3.
जीववाद (Animism) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जीववाद एक विचारधारा है जिनमें लोग विश्वास करते हैं कि परमात्मा केवल चलने वाली या जीने वाली वस्तुओं में मौजूद है। शब्द Anima का अर्थ है आत्मा (Soul) या चाल (Movement)। लोगों ने जानवरों, पंक्षियों, पृथ्वी तथा हवा की भी पूजा करनी शुरू कर दी।

प्रश्न 4.
कार्ल मार्क्स की वर्ग की परिभाषा दीजिए।
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार, “वर्ग लोगों के ऐसे बड़े-बड़े समूहों को कहते हैं जो सामाजिक उत्पादन की इतिहास की तरफ से निर्धारित किसी पद्धति में, अपने-अपने स्थान की दृष्टि से, उत्पादन के साधनों के साथ अपने संबंध की दृष्टि से, परिश्रम के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका की दृष्टि से तथा परिणामस्वरूप सामाजिक सम्पत्ति के जितने हिस्से के वह मालिक होते हैं, उसके परिणाम तथा उसे प्राप्त करने के तौर-तरीके की दृष्टि से एक-दूसरे से अलग होते हैं।

प्रश्न 5.
वर्ग चेतना से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
प्रत्येक वर्ग अपने सदस्यों, उनकी सामाजिक स्थिति, रुतबें इत्यादि के बारे में चेतन होता है। इस प्रकार की चेतना को ही वर्ग चेतना कहा जाता है। सभी वर्गों के लोग अपने समूह के प्रति चेतन होते हैं जिस कारण वह साधारण तथा अपने वर्ग के सदस्यों के साथ ही संबंध रखना पसंद करते हैं।

प्रश्न 6.
ऐतिहासिक भौतिकवाद को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
ऐतिहासिक भौतिकवाद वह दार्शनिक विद्या है जो एक अखण्ड व्यवस्था के रूप में समाज का तथा उस व्यवस्था के कार्य तथा विकास को शामिल करने वाले मुख्य नियमों का अध्ययन करती है। संक्षेप में ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक विकास का दार्शनिक सिद्धांत है। इस प्रकार यह मार्क्स का सामाजिक तथा ऐसिहासिक सिद्धांत है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 7.
सामाजिक तथ्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
दुर्थीम ने सामाजिक तथ्य का सिद्धांत दिया था तथा अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय के अंत में इसकी परिभाषा दी। दुर्थीम के अनुसार, “एक सामाजिक तथ्य क्रिया करने का प्रत्येक स्थायी, अस्थायी तरीका है जो व्यक्ति के ऊपर बाहरी दबाव डालने में समर्थ होता है अथवा दोबारा क्रिया करने का प्रत्येक तरीका है जो किसी समाज में आम रूप से पाया जाता है परन्तु साथ ही व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है।

प्रश्न 8.
सावयवी एकता (Organic Solidarity) पर चर्चा कीजिए।
उत्तर-
सावयवी एकता आधुनिक समाजों में पाई जाती है तथा यह स्तर सदस्यों के बीच मौजूद अंतरों पर आधारित है। यह अधिक जनसंख्या वाले समाजों में पाई जाती है जहाँ पर लोगों के बीच अव्यक्तिगत सामाजिक संबंध पाए जाते हैं। इन समाजों में प्रतिकारी कानून पाए जाते हैं।

प्रश्न 9.
ज्वैकरेशनल क्रिया से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
Zweckrational क्रिया का अर्थ ऐसे सामाजिक व्यवहार से होता है जो उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कई उद्देश्यों की अधिक-से-अधिक प्राप्ति के लिए तार्किक रूप से निर्देशित हो। इसमें साधनों के चुनाव केवल उनकी विशेष कार्यकुशलता की तरफ ही ध्यान नहीं दिया जाता बल्कि मूल्य में की तरफ भी ध्यान जाता है।

प्रश्न 10.
भावनात्मक क्रिया किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह वह क्रियाएं हैं जो मानवीय भावनाओं, संवेगों तथा स्थायी अर्थों के कारण होती हैं। समाज में रहते हुए, प्रेम, नफरत, गुस्सा इत्यादि जैसी भावनाओं का सामना करना पड़ता है। इस कारण ही समाज में शान्ति या अशान्ति की अवस्था उत्पन्न हो जाती है। इन व्यवहारों के कारण परंपरा तथा तर्क का थोड़ा सा भी सहारा नहीं लिया जाता।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 11.
सत्ता को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
वैबर के अनुसार प्रत्येक संगठित समूह में सत्ता में तत्त्व मूल रूप में मौजूद होते हैं। संगठित समूह में कुछ तो साधारण सदस्य होते हैं तथा कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके पास ज़िम्मेदारी होती है तथा वह अन्य लोगों से वैधानिक तौर पर आदेश देकर अपनी बात मनवाते हैं। इस बात मनवाने की व्यवस्था को ही सत्ता कहते हैं।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
अगस्त कोंत द्वारा प्रतिपादित तीन चरणों के नियम की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
अगस्त कोंत ने समाज के उद्विकास का सिद्धांत दिया तथा कहा कि समाज के विकास के तीन पड़ाव हैं-आध्यात्मिक पड़ाव, अधिभौतिक पड़ाव तथा सकारात्मक पड़ाव। आध्यात्मिक पड़ाव में मनुष्य के सभी विचार काल्पनिक थे तथा वह सभी वस्तुओं को किसी आलौकिक जीव की क्रियाओं के परिणाम के रूप में मानता था। धारणा यह थी कि चाहे सभी वस्तुएं निर्जीव हैं परन्तु उनमें वह शक्ति व्यापक है। दूसरा पड़ाव अधिभौतिकं पडाव था जो 14वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक चला। इस पड़ाव में क्रान्तिक आंदोलन शुरू हुआ तथा प्रोटैस्टैंटवाद सामने आया। 16वीं शताब्दी में नकारात्मक सिद्धांत सामने आया जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन था। इसमें बेरोक निरीक्षण का अधिकार था तथा निरीक्षण की कोई सीमा नहीं थी। सकारात्मक पड़ाव में औद्योगिक समाज शुरू हुआ तथा विज्ञान सामने आया। इसमें सामाजिक व्यवस्था तथा प्रगति में कोई द्वन्द नहीं होता है।

प्रश्न 2.
यान्त्रिक एकता की विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-

  • यान्त्रिक एकता वाले समाज के सदस्यों के व्यवहारों में समरूपता मिलती है तथा उनके व्यवहार एक जैसे होते हैं।
  • समान विश्वास तथा भावनाएं यान्त्रिक एकता के प्रतीक हैं। इस समाज के सदस्यों में सामूहिक चेतना मौजूद होती है।
  • यान्त्रिक समाजों में दमनकारी कानून मिलते हैं जहाँ पर अपराधी को पूर्ण दण्ड देने की व्यवस्था होती है।
  • नैतिकता यान्त्रिक समाजों का मूल आधार होती है जिस कारण समाज में एकता बनी रहती है।
  • धर्म यान्त्रिक समाज में एकता का महत्त्वपूर्ण आधार है तथा धर्म के अनुसार ही आचरण तथा व्यवहार किया जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 3.
सावयवी एकता की विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-

  • आंगिक अथवा सावयवी एकता वाले समाजों में विभेदीकरण तथा विशेषीकरण पाया जाता है। समाज में बहत से वर्ग मिलते हैं।
  • इन समाजों में श्रम विभाजन का बोलबाला होता है तथा लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे पर निर्भर होते हैं।
  • इन समाजों में बहुत से संगठन तथा समूह मिलते हैं जिस कारण इनमें प्रतिकारी कानूनों की प्रधानता होती
  • सावयवी समाजों में समझौतों पर आधारित संबंध सामाजिक एकता का स्रोत होते हैं तथा नौकरियों में व्यक्तियों को अनुबंध पर रखा जाता है।
  • सावयवी एकता वाले समाजों में धर्म का प्रभाव काफ़ी कम होता है।
  • इस प्रकार के समाज आधुनिक समाज होते हैं।

प्रश्न 4.
धर्मशास्त्रीय एवं तत्वशास्त्रीय चरणों में अंतर कीजिए।
उत्तर-
1. धर्मशास्त्रीय पड़ाव-यह पड़ाव मानवता के शुरू होने के समय शुरू होता है जब मनुष्य प्राकृतिक शक्तियों से डरता था। वह सभी चीजों को किसी आलौकिक शक्ति की क्रियाओं के परिणाम के रूप में देखता था। वह सोचता था कि चाहे सभी वस्तुएं निर्जीव हैं परन्तु सब में परमात्मा मौजूद है। यह पड़ाव आगे तीन उप-पड़ावों प्रतीक पूजन, बहु-देवतावाद तथा एक-ईश्वरवाद में विभाजित है।

2. तत्वशास्त्रीय पड़ाव-इस पड़ाव को काम्ते आधुनिक समाज का क्रान्तिक समय भी कहता है। यह पड़ाव 5 शताब्दियों तक 14वीं से 19वीं तक चला। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में क्रान्तिक आंदोलन स्वयं ही चल पड़ा तथा क्रान्तिक फिलास्फी 16वीं शताब्दी में प्रोटैस्टैंटवाद में आने से शुरू हुई। दूसरा भाग 16वीं शताब्दी से शुरू हुआ। इसमें नकारात्मक सिद्धांत शुरू हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन था। इसमें बेरोक निरीक्षण का अधिकार था।

प्रश्न 5.
क्या आप सोचते हैं कि निकट भविष्य में साम्यवादी समाजों द्वारा पूँजीवाद को विस्थापित कर दिया जायेगा ?
उत्तर-
जी नहीं, हम नहीं सोचते कि आने वाले भविष्य में पूँजीवादी व्यवस्था को कम्युनिस्ट व्यवस्था बदल देगी। वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था स्वतन्त्र मार्कीट के सिद्धांत पर आधारित है जबकि कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था सरकारी नियन्त्रण के अन्तर्गत होती है तथा आजकल के समय में कोई भी सरकारी नियन्त्रण को पसन्द नहीं करता। 1917 में रूस में राजशाही को कम्युनिस्ट व्यवस्था ने बदल दिया था परन्तु वहां की अर्थव्यवस्था का कुछ ही समय में बुरा हाल हो गया था। इस कारण ही सन् 1990 में U.S.S.R. के टुकड़े हो गए थे तथा वह कई देशों में विभाजित हो गया था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कम्युनिस्ट पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं बदल सकती।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें:

प्रश्न 1.
क्या समाजशास्त्र एक पूर्ण विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है जिसकी कल्पना अगस्ते कोंत ने की थी ?
उत्तर-
शब्द समाजशास्त्र (Sociology) का प्रथम बार प्रयोग अगस्ते काम्ते ने 1839 में किया था। काम्ते ने एक पुस्तक लिखी ‘The Course on Positive Philosophy’ जो कि 6 भागों में छपी थी। इस पुस्तक में उन्होंने कहा था कि समाज में अलग-अलग भागों का अध्ययन अलग-अलग सामाजिक विज्ञान करते हैं, उदाहरण के लिए समाज के राजनीतिक हिस्से का अध्ययन राजनीति विज्ञान करता है, आर्थिक हिस्से का अध्ययन अर्थशास्त्र करता है। उस प्रकार एक ऐसा विज्ञान भी होना चाहिए जो समाज का अध्ययन करे। इस प्रकार उन्होंने समाज, सामाजिक संबंधों के अध्ययन की कल्पना की तथा उनकी कल्पना के अनुसार एक नया विज्ञान सामने आया जिसे समाजशास्त्र का नाम दिया गया।

काम्ते के पश्चात् हरबर्ट स्पैंसर ने भी कई संकल्प दिए जिससे समाजशास्त्र का दायरा बढ़ना शुरू हुआ। इमाईल दुर्थीम प्रथम समाज शास्त्री था जिसने समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने अपने अध्ययनों में वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया तथा कहा कि समाज का वैज्ञानिक विधियों, जैसे कि निरीक्षण की सहायता से अध्ययन किया जा सकता है। उनके द्वारा दिए संकल्पों, जैसे कि सामाजिक तथ्य, आत्महत्या का सिद्धांत, श्रम विभाजन का सिद्धांत, धर्म का सिद्धांत इत्यादि में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग साफ झलकता है। समाजशास्त्र के इतिहास में दुर्थीम पहले प्रोफैसर थे।

समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में स्थापित करने में कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर ने भी बहुत बड़ा योगदान दिया। कार्ल मार्क्स ने संघर्ष का सिद्धांत दिया तथा सम्पूर्ण समाजशास्त्र संघर्ष सिद्धांत में इर्द-गिर्द घूमता है।

मार्क्स ने समाज का आर्थिक पक्ष से अध्ययन किया तथा बताया कि समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। उन्होंने दो प्रकार के वर्गों तथा उनके बीच हमेशा चलने वाले संघर्ष का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद, वर्ग तथा वर्ग संघर्ष का सिद्धांत, अलगाव का सिद्धांत जैसे संकल्प समाजशास्त्र को दिए। मैक्स वैबर ने भी समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया तथा सामाजिक क्रिया का सिद्धांत दिया। उन्होंने समाजशास्त्र की व्याख्या दी, सामाजिक क्रिया का सिद्धांत दिया, सत्ता तथा प्रभुत्ता का सिद्धांत दिया, धर्म की व्याख्या दी तथा कर्मचारीतन्त्र का सिद्धांत दिया।

इन सभी समाजशास्त्र के संस्थापकों के पश्चात् बहुत से समाजशास्त्री हुए तथा समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में स्थापित करने में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। टालक्ट पारसन्ज़, जे० एस० मिल, राबर्ट मर्टन, मैलिनोवस्की, गिलिन व गिलिन, जी० एस० घूर्ये इत्यादि जैसे समाजशास्त्री इनमें से प्रमुख हैं।

अब पिछले कुछ समय से समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग काफ़ी हद तक किया जा रहा है ताकि अध्ययन को अधिक-से-अधिक वस्तुनिष्ठ तथा निष्पक्ष रखा जा सके। इससे एक क्षेत्र में किए अध्ययनों को दूसरे क्षेत्रों में भी लागू किया जा सकेगा। उपकल्पना, निरीक्षण, सैंपल विधि, साक्षात्कार, अनुसूची प्रश्नावली, केस स्टडी, वर्गीकरण, सारणीकरण, आँकड़ों के प्रयोग से समाजशास्त्र निश्चित रूप से एक विज्ञान के रूप में स्थापित हो गया है।

प्रश्न 2.
मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत बताइये।
उत्तर-
मार्क्स की उन्नत ‘वैज्ञानिक प्रस्थापना’ में यह बात भी शामिल है कि उन्होंने अलग सामाजिक समूहों पर सर्वप्रथम वर्गों के अस्तित्व की व्याख्या की थी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मार्क्स ने वर्गों की व्याख्या बहुत अच्छे प्रकार से की है। मार्क्स की विचारक खोज का मुख्य उद्देश्य यह पता करना था कि यह मानव समाज जिसमें हम सभी रहते हैं, और इसका जो रूप या स्वरूप हमें दिखाई देता है वह इस तरह क्यों है ? और इस समाज में परिवर्तन क्यों और किन शक्तियों के द्वारा आते हैं ? इसके साथ ही मार्क्स ने इसकी स्पष्ट व्याख्या और विवेचना की थी और लिखा था कि आने वाले समय में समाज में किस तरह और कैसे परिवर्तन आयेंगे ? अपनी खोजों के द्वारा मार्क्स और उसके निकट सहयोगी ‘ऐंजलस’ इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस समाज में काफ़ी अमानवीय शोषण फैला हुआ है। इसलिये उन्होंने अपनी खोज का दूसरा उद्देश्य उस समाज का निर्माण करना या स्थापना करनी है जो कि शोषण रहित हो बताया है ।

वर्ग किसे कहते हैं (What is Class) मार्क्स के वर्ग संघर्ष को समझने के लिये यह अति आवश्यक है कि पहले यह जाने कि वर्ग क्या है ? कार्ल मार्क्स ने इतिहास का अध्ययन करने के लिये इस बात की विशेष वकालत की कि हमें यह अध्ययन उस दृष्टिकोण से करना चाहिये जिसके साथ हम उन प्राकृतिक नियमों का पता लगा सकें जो पूरे मानव इतिहास का संचालन करते हैं और ऐसा करने के लिए हमें कुछ विशेष व्यक्तियों के कार्यों और आम व्यक्तियों के कार्यों और व्यवहारों की तरफ ध्यान देना चाहिये। प्रत्येक समाज लगभग कई जनसमूहों में बंटे हुए होते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न वर्ग एक विशेष सामाजिक आर्थिक इकाई का निर्माण करते थे। इस इकाई विशेष को हम वर्ग के नाम से जानते हैं।

मार्क्स ने अपने कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो किस्से के पहले अध्याय की शुरुआत भी इन्हीं शब्दों से की है कि अभी तक समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है और इतिहास में वर्णित समाजों में हर समाज में विभिन्न प्रकार की श्रेणियां पाई जाती हैं। सामाजिक श्रेणियों की बहरूपी दर्जाबंदी, प्राचीन रोम में पैट्रोशियन, नाई पलेबियन और दास मिलते थे। मध्यकाल में हमें सामन्तवादी अधीन जागीरदारी, उस्ताद, कारीगर, मज़दूर कारीगर, ज़मीनी दास इत्यादि दिखाई पड़ते हैं और लगभग इन सभी में द्वितीय श्रेणियां या वर्ग पाए जाते हैं।

मार्क्स की वर्ग व्यवस्था के आधार पर ही लेनिन ने वर्गों की व्याख्या और परिभाषा पेश की है। लेनिन ने लिखा है कि, “वर्ग लोगों के ऐसे बडे-बडे समूहों को कहते हैं जो सामाजिक उत्पादन की इतिहास की तरफ से निर्धारित किसी पद्धति में अपनी-अपनी जगह की नज़र से उत्पादन के साधनों के साथ अपने सम्बन्धों जो कि अधिकतर मामलों में कानून के द्वारा निश्चित और निरूपित होते हैं की नज़रों से, मेहनत के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका को नज़र से और फलस्वरूप सामाजिक सम्पत्ति के जितने भाग के वह मालिक होते हैं, उसके परिमाण और उसको प्राप्त करने के तौर-तरीकों की नज़र से एक दूसरे से अलग होते हैं।”

मार्क्स के अनुसार, “इतिहास की भौतिकवादी धारणा में यह कहा गया है कि मानव जीवन के विकास के लिये आवश्यक साधनों का उत्पादन और उत्पादन के उपरान्त बनी वस्तुओं का लेन-देन (Exchange) प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का आधार है। इतिहास में जितनी भी सामाजिक व्यवस्थाएं बनी हैं इसमें जिस तरह धन का बंटवारा हुआ है और समाज का वर्गों और श्रेणियों में बंटवारा हुआ है वह इस बात पर निर्भर है कि इस समाज में क्या उत्पादन हुआ है ? और कैसे हुआ है ? और फिर उपज की Exchange कैसे हुई ? मार्क्स के अनुसार, “किसी भी युग में परिश्रम का बंटवारा और जीवन जीने के साधनों की प्राप्ति के अलग-अलग साधनों के होने के कारण मनुष्य अलग-अलग वर्गों में बंट जाता है और प्रत्येक वर्ग की विशेष वर्ग चेतनता होती है।”

वर्ग से मार्क्स का अर्थ भारत की जातीय व्यवस्था से सम्बन्धित नहीं है बल्कि वर्ग से उनका अर्थ उस जातीय समूह व्यवस्था से है जिसकी परिभाषा उत्पादन की उस प्रक्रिया में उनकी भूमिका के साथ की जा सकती है। आम शब्दों में कहा जाये तो वर्ग लोगों के ऐसे समूहों को कहा जाता है, जो अपनी जीविका केवल एक ही ढंग से कमाते हैं, वर्ग का जन्म उत्पादन के तौर-तरीकों पर आधारित होता है। जैसे किसी उत्पादन व्यवस्था में परिवर्तन आता है, तो पुराने वर्गों के स्थान पर नये स्थान ले लेते हैं।

वर्ग संघर्ष (Class Struggle)-

इस तरह कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो-दो वर्गों की विवेचना की है। मार्क्स की वर्ग की धारणाओं को प्रत्येक समाज में ध्यान से समझने के पश्चात् हम अब इस स्थिति में है कि उसकी वर्ग संघर्ष की धारणा को समझें। मार्क्स ने बताया कि समाज के प्रत्येक वर्ग में दो प्रकार के परस्पर विरोधी वर्ग रहे हैं। एक शोषण करने वाला व दूसरा जो शोषण को सहन करता है। इनमें आपस में संघर्ष होता है। इसे मार्क्स ने ‘वर्ग संघर्ष’ का नाम दिया है। कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र में वह कहते हैं कि समाज के अस्तित्व के साथ-साथ ही वर्ग संघर्ष का भी जन्म हो जाता है। मार्क्स का यह वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त उसके विचारों से और संसार में भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

उनके प्रभाव के कारण ही ‘स्माल थास्टरीन बैवलीन’ और ‘कूले’ इत्यादि ने भी वर्ग संघर्ष को अपने चिन्तन का एक अंग रूप माना है।
मार्क्स के अनुसार, “उत्पादन की प्रक्रियाओं में अलग-अलग वर्गों की अलग-अलग भूमिकाएं होती हैं। अब वर्गों की आवश्यकताओं और हितों पर संघर्ष की स्थिति पैदा होना आवश्यक है। वही संघर्ष विरोधी विचारधारा में एक ‘आधार’ (Base) पैदा करता है। विकासशील उत्पादित शक्तियों और प्रकृतिवादी स्थिर सम्पत्ति के सम्बन्धों में टकराव पैदा होता है। इससे संघर्ष की गति भी तेजी से बढ़ती है। इतिहास की गति वर्गों की भूमिका के द्वारा ही निर्धारित होती है और सामाजिक एवं आर्थिक वर्ग उन सभी समाजों में पाए जाते हैं जहां श्रम विभाजन का आम सिद्धान्त लागू होता है।

मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष एक ऐसी उत्पादित व्यवस्था से जन्म लेता है, जो समाज को भिन्न-भिन्न वर्गों में बांट देती है। इसमें एक वर्ग तो काफ़ी कठोर परिश्रम करके उत्पादन करता है, जैसे दास, अर्द्धदास, किसान और मज़दूर इत्यादि और दूसरा वर्ग ऐसा है जो उत्पादन के लिये कोई परिश्रम किये बिना, बिना कोई काम किये उत्पादन के बड़े-बड़े भाग का उपयोग करता है, जैसे दासों के स्वामी, जागीरदार, ज़मींदार और पूंजीपति इत्यादि। मार्क्स के अनुसार, “इस वर्ग संघर्ष को मनुष्य के उत्पादन की पहली और ऊंची अवस्था तक पहुंचने में मदद करता है। वह मानते हैं कि कोई भी क्रान्ति जब सफल होती है तो उनके साथ नयी आर्थिक सामाजिक व्यवस्था का जन्म होता है।”

इस आधार पर ही मार्क्स ने अब तक के मानवीय इतिहास को चार युगों में विभाजित किया है-

1. पहला युग-इतिहास का पहला युग आदिम साम्यवादी समाज था। इस युग में उत्पादन के साधन अविकसित थे। उत्पादन के साधनों को आवश्यक वस्तुओं को उत्पन्न करने के लिए प्रयोग किया जाता था तथा संयुक्त परिश्रम के साथ इन्हें प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार उत्पादन पर सभी का समान अधिकार होता था। आर्थिक शोषण तथा वर्ग भेद नाम की कोई चीज़ मौजूद नहीं थी।

2. दूसरा युग-दूसरा युग दास मूलक समाज का था। कृषि, पशुपालन तथा धातु के औज़ारों के विकसित होने से उत्पादन व्यवस्था के सम्बन्ध बदल गए तथा दास प्रथा शुरू हो गयी। विकसित उत्पादन के साधनों के कारण व्यक्तिगत संपत्ति का संकल्प सामने आया। इस समय दास स्वामी तथा दासों के अलग-अलग वर्ग बन गए तथा वर्ग संघर्ष शुरू हो गया। मार्क्स का कहना था कि इस समाज से ही वर्ग संघर्ष की शुरुआत हुई क्योंकि मालिकों ने अपने दासों का शोषण करना शुरू कर दिया था।

3. तीसरा युग-सामन्ती समाज तीसरा युग था। इस युग में उत्पादन के साधनों पर कुछ सामन्तों तथा भूपतियों का अधिकार हो गया। इस युग में निजी सम्पत्ति की धारणा और सुद्रढ़ हो गई। कई विकासशील तथा अर्द्ध विकसित देशों में इस युग के अवशेष देखने को मिल जाएंगे। इस युग में सामन्तों तथा किसानों के दो वर्ग बन गए तथा वर्ग संघर्ष और तेज़ हो गया।

4. चौथा युग-चौथा युग पूँजीपति समाज था। 15वीं शताब्दी के अंत में विज्ञान का विकास होना शुरू हुआ। इससे उत्पादन व्यवस्था के सम्बन्धों तथा उत्पादन के नए साधनों में विरोध उत्पन्न हो गए। मशीनों का आविष्कार हुआ। बड़े-बड़े उद्योग स्थापित हुए जिससे पूँजीवादी युग शुरू हो गया तथा यह आज भी चल रहा है। इस व्यवस्था में एक तरफ तो उद्योगों के मालिक थे तथा दूसरी तरफ उन उद्योगों में कार्य करने वाले श्रमिक थे। इस प्रकार दो वर्ग पूँजीपति तथा श्रमिक बन गए। इस युग में विज्ञान की प्रगति से, शिक्षा के बढ़ने, बड़े उद्योगों में श्रमिकों के इकट्ठे रहने के कारण आसानी से संगठित होने से वर्ग चेतना का काफ़ी विकास हो गया है। आज का शोषित वर्ग अब शोषण तथा वर्ग विरोधों को और सहन करने को तैयार नहीं हैं। अब वर्ग संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। मार्क्स का कहना है कि पूँजीवादी युग का खात्मा आवश्यक है। शोषण पर आधारित यह अन्तिम व्यवस्था होगी। आज पूँजीवाद का खात्मा शुरू हो गया है। मनुष्यों का समाज तेज़ी से समाजवाद की तरफ बढ़ रहा है। रूस तथा चीन की समाजवादी सरकारों की स्थापना इसका प्रमाण है।

मार्क्स के अनुसार, “निजी सम्पत्ति ही शोषण की जड़ है। इसी के कारण ही मूल रूप से आर्थिक उत्पादन के क्षेत्र में समाज में दो मुख्य वर्ग हैं। इनमें एक वर्ग के हाथ में आर्थिक उत्पादन के सभी साधन केन्द्रित हो जाते हैं जिसके आधार पर यह वर्ग शोषित और कमजोर वर्ग का शोषण करता है।” इन वर्गों में आपस में समाज की हर युग (केवल आदिमयुग छोड़कर) में आपस में वर्ग संघर्ष चलता आया है। मार्क्स की मान्यता के अनुसार, सभी उत्पादन साधनों पर अधिकार करके शोषक वर्ग बल के साथ अपने सैद्धान्तिक विचारों एवं जीवन प्रणाली को सारे समाज पर थोपता है। मार्क्स के अनुसार, “वह वर्ग जो समाज की शोषक भौतिक शक्ति होता है, साथ ही समाज की शासक भौतिक शक्ति भी होता है। वह वर्ग जिसके पास भौतिक उत्पादन के साधन मौजूद होते हैं वह सामाजिक उत्पादन के साधनों पर भी नियन्त्रण रखता है। इस प्रकार के नियन्त्रण के लिए शोषक वर्ग बल प्रयोग भी करता है। उसके द्वारा समाज के ऊपर थोपे गये धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र और नैतिकता के विचार उसके इस प्रभाव को मज़बूत करने के लिये शोषण वर्ग के दास बन जाते हैं। शोषण की इस स्थिति को बरकरार रखने के लिए नये उभरते हुए शोषित वर्ग को बलपूर्वक दबाना आवश्यक हो जाता है। इसलिये मार्क्स ने कहा है बल नये समाज को अपने गर्भ में धारण करने वाले प्रत्येक पुराने समाज की ‘दाई’ (Midwife) है।

समाज का विकास अलग-अलग अवस्थाओं की देन हैं। किसी भी सामाजिक व्यवस्था अथवा ऐतिहासिक युग का मूल्यांकन हालातों, देश तथा काल के ऊपर निर्भर करता है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था स्थायी नहीं है। सभी प्रक्रियाएँ द्वन्दात्मक होती है। उत्पादन की नई तथा पुरानी प्रक्रिया में जो अन्दरूनी संघर्ष होता है वह ही इसकी प्रेरक शक्ति होती है। पुरानी के स्थान पर नई पद्धति को अपनाना आवश्यक होता है। धीरे-धीरे होने वाले परिमाणात्मक परिवर्तन तेज़ी से अचानक होने वाले गुणात्मक परिवर्तन में बदल जाते है। इसलिए विकास के नियम के अनुसार क्रान्तिकारी परिवर्तन आवश्यक तथा स्वाभाविक होते हैं।

यह परिवर्तन बल (Force) पर आधारित होते हैं। विकास के रास्ते में उभरने वाली असंगतियों के आधार पर विरोधी शक्तियों में टकराव होता है। अंत में वर्ग संघर्ष तेज़ होता है जिसमें शोषित वर्ग अर्थात् मज़दूर वर्ग का अन्तिम रूप में जीतना आवश्यक है। मार्क्स के अनुसार इन विरोधों के कारण पूंजीवाद स्वयं विनाश की तरफ बढ़ता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में दिन प्रतिदिन निर्धनता, बेरोज़गारी, भूखमरी बढ़ जाएगी। सहन करने की एक सीमा के पश्चात श्रमिक वर्ग क्रान्ति शुरू कर देगा। मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद शोषण पर आधारित अन्तिम व्यवस्था होगी। अपने स्वार्थों के साथ घिरे पूंजीवाद संसदीय नियमों के साथ अपने एकाधिकार का कभी भी त्याग नहीं करेंगे। जैसे कि महात्मा गांधी ने अपने ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की व्याख्या में कहा था। शांतिपूर्ण तरीके से शोषण को खत्म नहीं किया जा सकता था। इसके लिये क्रान्ति ज़रूरी है। समाज का एक बहुत बड़ा भाग (सर्वहारा) मजबूर हो जायेगा और यही क्रान्तिकारी हरियाली को दर्शायेगा।”

सर्वहारा (मज़दूर) वर्ग की लीडरशिप में वर्ग संघर्ष के द्वारा राज्य के यन्त्र पर अधिकार हो जाने के बाद समाजवाद के युग का आरम्भ होगा। मार्क्स के अनुसार राज्य शोषक वर्ग के हाथ में होने के कारण दमन की नीति एक बहुत बड़ा हथियार होता है। क्रान्ति के बाद भी सामन्तवाद और पूंजीवाद के दलाल प्रति क्रान्ति की कोशिश करते हैं। इसलिए पूंजीवाद के समाजवाद के बीच जाने के समय मज़दूर की सत्ता की अस्थाई अवस्था होगी। समाजवाद की स्थापना के बाद शोषण का अन्त हो जायेगा। इससे वर्ग समाप्त हो जाएंगे। इससे प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मेहनत का पूर्ण भाग मिल सकेगा। समाजवाद की अधिक उन्नतावस्था में प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता अनुसार मिलेगा। धीरे-धीरे राज्य जो शोषक वर्ग का हथियार रहा है, टूट जायेगा और इसके स्थान पर आपसी सहयोग और सहकारिता के आधार पर बनी संस्थाएं ले लेंगी। वर्गों और वर्ग संघर्ष का अन्त हो जायेगा।

सर्वहारा (मज़दूर) और पूंजीपति के बीच चले वर्ग संघर्ष का अन्त पूंजीवाद के अन्त के साथ ही होगा। उत्पादन के साधनों पर समाज का अधिकार हो जाने के साथ उत्पादन पर लगे प्रतिबन्ध हट जायेंगे। उत्पादन की शक्तियां और समय की बर्बादी भी खत्म हो जायेगी। वर्ग संघर्ष के द्वारा वर्गों का अन्त आज केवल एक दुःस्वप्न मात्र बन कर नहीं रह गया। संसार बड़ी तेज़ी से वर्गहीन समाजवादी समाज की स्थापना की तरफ बढ़ रहा है। ‘ऐंजलस’ ने काफ़ी समय पहले ही कहा था “आज इतिहास में पहली बार यह सम्भावना पैदा हो गई है कि सामाजिक उत्पादन के द्वारा समाज के प्रत्येक सदस्य को ऐसा जीवन मिल सके जो भौतिक दृष्टि से अच्छा हो जाये और दिन प्रतिदिन अधिक सुख सम्पन्न हो जाये, ऐसा नहीं एक ऐसे जीवन का निर्माण हो जिसमें व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का उन्मुख विकास संभावित हो। इस बात की सम्भावना पहली बार बनी है परन्तु बनी ज़रूर है।

श्रमिकों की क्रांति के द्वारा इन विरोधों तथा अन्य विरोधों का हल होगा। श्रमिकों की मुक्ति के इस कार्य को पूर्ण करना आधुनिक श्रमिक वर्ग का ऐतिहासिक फर्ज हैं। इसके बाद मनुष्य स्वयं श्रमिक के रूप में अपने इतिहास का निर्माण करेगा।

मार्क्स की एक दृढ़ विचारधारा है इस अन्तिम वर्ग संघर्ष के बाद होने वाले नये सामाजिक आर्थिक ढांचे में वर्ग संरचना में काफ़ी परिवर्तन की स्थिति होती है। जिन देशों में समाजवाद की विजय होती है वहां पर शोषक वर्ग समाप्त हो जाता है। वहां केवल मेहनतकश वर्ग ही रह जाता है। तब समाज का शासन शोषक वर्ग नहीं चलाता। जैसा कि पिछले सभी सामाजिक वर्गों में हुआ करता था, जिसमें भिन्न-भिन्न वर्ग होते थे बल्कि इसे मज़दूर वर्ग चलाता है। ये वर्ग समाज का नेतृत्व स्वतः अपने हाथों में ले लेता है और नये उत्पादन सम्बन्ध पैदा करता है। मजदूर वर्ग सभी मेहनतकश (उद्यमी) लोगों और मेहनतकश किसानों के साथ मिलकर अपना काम चलाते हैं । भिन्न-भिन्न वर्गों में नफरत भरे सम्बन्धों की जगह मित्रता, दोस्ती और आपसी भाईचारा ले लेता है। अन्ततः अमूल परिवर्तन उसको कहा जाता है जबकि समाज का मज़दूर वर्ग एक सहयोग पूर्ण वर्गहीन संरचना की तरफ बढ़ता है। इस तरह मज़दूर वर्ग की नीति का निशाना होता है वर्तमान सामाजिक समूहों के बीच के अन्तर को कम या समाप्त करना और एक वर्गहीन समाज का निर्माण करना।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 3.
रूस तथा चीन की साम्यवादी क्रांतियों पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
(i) रूसी क्रान्ति (Russian Revolution)-रूस पर रोमानोव (Romanov) परिवार का राज्य था। प्रथम विश्व युद्ध (1914) के शुरू होने के समय ज़ार निकोलस II का रूस पर राज्य था। मास्को के इर्द-गिर्द के क्षेत्र के अतिरिक्त उस समय के रूसी साम्राज्य में आज के मौजूदा देश फिनलैंड, लाटवीया, लिथुआनिया, ऐसटोनिया, पोलैंड का हिस्सा, यूक्रेन तथा बैलारूस भी शामिल थे। जार्जिया, आर्मीनिया तथा अज़रबाईजान भी इसका हिस्सा थे।

1914 से पहले रूस में राजनीतिक दलों की मनाही थी। 1898 में समाजवादियों ने रूसी लोकतान्त्रिक वर्कज़ पार्टी शुरू की तथा वह कार्ल मार्क्स के विचारों का समर्थन करते थे। परन्तु सरकारी नीतियों के अनुसार, इसे गैरकानूनी ढंग से कार्य शुरू करना पड़ा। इसने अपना अखबार शुरू किया, मज़दूरों को इकट्ठा करना शुरू किया तथा हड़तालें करनी शुरू की।

रूस में तानाशाही शासक था। अन्य यूरोपियन देशों के विपरीत, ज़ार वहाँ की संसद् के प्रति जबावदेह नहीं था। उदारवादियों ने एक आन्दोलन चलाया ताकि इस गलत प्रथा को खत्म किया जा सके। उदारवादियों ने समाजवादी लोकतन्त्रीय तथा सामाजिक क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर किसानों तथा मजदूरों को इकट्ठा किया। 1905 की क्रान्ति के दौरान संविधान की मांग की गई। उनके प्रयासों से प्रभावित होकर रूस के वर्कर चेतन हो गए तथा उन्होंने कार्य के घण्टे कम करने तथा तनख्वाह बढ़ाने की मांग की। जब वह क्रान्ति की तैयारी कर रहे थे, पुलिस ने उन पर हमला कर दिया। 100 से अधिक वर्कर मारे गए तथा 300 से अधिक जख्मी हो गए। क्योंकि यह घटना इतवार को हुई थी, इसलिए इसे Bloody Sunday के नाम से जाना जाता है।

1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तथा ज़ार ने रूस को लड़ाई में धकेल दिया। रूस की स्थिति, जोकि पहले ही खराब चल रही थी, और भी खराब हो गई। रूस लड़ाई में बुरी तरह उलझ गया था। एक तरफ ज़ार संसद् (डुमा) को भंग करने का प्रयास कर रहा था तथा दूसरी तरफ संसद् के सदस्य इस स्थिति से बचने का प्रयास कर रहे थे। इस स्थिति में पेट्रोग्राड में 22 फरवरी, 1917 को एक फैक्ट्री बंद हो गई तथा सभी वर्कर बेरोज़गार हो गए। हमदर्दी के कारण वहां की 50 फैक्ट्रियों के वर्करों ने भी हड़ताल कर दी। इस समय तक कोई भी राजनीतिक दल इस आन्दोलन की अगुवाही नहीं कर रहा था। सरकारी इमारतों को वर्करों ने घेर लिया तथा सरकार ने कयूं लगा दिया। शाम तक वर्कर भाग गए परन्तु 24 व 25 तारीख तक वह फिर इकट्ठे हो गए। सरकार ने सेना को बुला लिया तथा पुलिस को उनकी निगरानी के लिए कहा गया।

25 फरवरी इतवार को सरकार ने संसद् (डुमा) को भंग कर दिया। नेताओं ने इसके विरुद्ध बोलना शुरू कर दिया। प्रदर्शनकारी पूरी शक्ति से 26 तारीख को सड़कों पर वापिस आ गए। 27 तारीख को पुलिस का हैडक्वाटर तबाह कर दिया गया। सड़कों पर लोग बाहर आ गए तथा उन्होंने ब्रैड, तनख्वाह, कार्य में कम घण्टे तथा लोकतन्त्र के नारे लगाने शुरू कर दिए। सरकार ने सेना को वापिस बुला लिया परन्तु सेना ने लोगों पर गोली चलाने से मना कर दिया। जिस अफसर ने गोली चलाने का आदेश दिया था, उसे भी मार दिया गया। सेना के लोग भी आम जनता से मिल गए तथा सोवियत को बनाने के लिए उस इमारत में एकत्र हो गए जहाँ डुमा पिछली बार एकत्र हुई थी।

अगले दिन वर्करों का प्रतिनिधिमण्डल ज़ार को मिलने के लिए गया। सेना के बड़े अधिकारियों ने ज़ार को प्रदर्शनकारियों की बात मानने की सलाह दी। अंत 2 मार्च को ज़ार ने उनकी बात मान ली तथा ज़ार का शासन खत्म हो गया। अक्तूबर में लेनिन (Lenin) ने रूस का शासन संभाल लिया तथा रूसी क्रान्ति पूर्ण हो गई।

(ii) चीनी क्रान्ति (Chinese Revolution)-1 अक्तूबर, 1949 को चीनी कम्यूनिस्ट नेता माओ-त्से-तुंग ने People’s Republic of China को बनाने की घोषणा की। इस घोषणा से चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी तथा राष्ट्रवादी पार्टी के बीच चल रही लड़ाई खत्म हो गई जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद शुरू हुई थी। PRC के बनने के साथ ही चीन में लंबे समय से (1911 की चीनी क्रान्ति) चला आ रहा सरकारी उथल-पुथल का कार्य भी खत्म हो गया। राष्ट्रवादी पार्टी के हारने से अमेरिका ने चीन से सभी राजनीतिक संबंध खत्म कर दिए।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1921 में शंघाई में हुई थी। चीनी कम्यूनिस्टों ने 1926-27 के उत्तरी हमले के समय राष्ट्रवादी पार्टी का समर्थन किया। यह समर्थन 1927 के White Terror तक चला जब राष्ट्रवादियों ने कम्यूनिस्टों को मारना शुरू कर दिया।

1931 में जापान ने मंचुरिया पर कब्जा कर लिया। इस समय Republic of China की सरकार को तीन तरफ से हमले का डर था तथा वह थे जापानी हमला, कम्यूनिस्ट विद्रोह तथा उत्तर वाले लोगों के हमले का डर। चीन की सेना के कुछ उच्चाधिकारी Chiang-Kai-Shek के इस व्यवहार से दुखी हो गए कि वह आन्तरिक खतरों पर अधिक ध्यान दे रहा था न कि जापानी हमले पर। उन्होंने Shek को पकड़ लिया उसे कम्यूनिस्ट सेना से सहयोग करने के लिए कहा। यह राष्ट्रवादी सरकार तथा चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी (CCP) में सहयोग करने की पहली कोशिश थी परन्तु यह कोशिश कम समय के लिए ही थी। राष्ट्रवादियों ने जापान के ऊपर ध्यान करने की बजाए कम्यूनिस्टों को दबाने की तरफ ध्यान दिया जबकि कम्यूनस्टि ग्रामीण क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने में लगे रहे।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कम्यूनिस्टों के लिए समर्थन काफ़ी बढ़ गया। चीन में अमेरिकी अधिकारियों राष्ट्रवादियों के क्षेत्र में लोगों के समर्थन को दबाने के प्रयास किए। इन अलोकतान्त्रिक नातियों तथा युद्ध के दौरान हो रहे भ्रष्टाचार ने चीन की सरकार को कम्यूनिस्टों के विरुद्ध काफ़ी कमज़ोर कर दिया। कम्यूनिस्ट पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार करने शुरू किए जिससे उनका समर्थन बढ़ गया।

1945 में जापान युद्ध हार गया जिससे चीन में गृह युद्ध का खतरा बढ़ गया। Chiang Kai-Shek की सरकार को अमेरिकी समर्थन मिलना जारी रहा क्योंकि कम्यूनिस्टों के बढ़ते खतरे को चीन में केवल वह ही रोक सकता था। 1945 में Chiang-Kai-Shek तथा माओ-त्से-तुंग मिले ताकि लड़ाई के बाद की सरकार के गठन के ऊपर चर्चा की जा सके। दोनों लोकतन्त्र की बहाली, इकट्ठी सेना, चीन के राजनीतिक दलों की स्वतन्त्रता पर हामी भर चुके थे। सन्धि होने वाली थी परन्तु अमेरिका के दखल के कारण वह न हो सकी तथा 1946 में गृह युद्ध शुरू हो गए।

गृह युद्ध में 1947 से 1949 में कम्यूनिस्टों की जीत पक्की लग रही थी क्योंकि उन्हें जनसमर्थन प्राप्त था, उच्च दर्जे की सेना थी तथा मंचुरिया में जापानियों से छीने हुए हथियार भी थे। अक्तूबर 1949 में कई स्थान जीतने के पश्चात् माओ-त्से-तुंग ने People’s Republic of China के गठन की घोषणा की। Chiang-Kai-Shek अपनी सेना के पुनर्गठन के लिए ताईवान भाग गया। इस प्रकार 1949 में चीनी क्रान्ति पूर्ण हो गई।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र में दुर्थीम का योगदान बताइये।
उत्तर-
प्रसिद्ध समाज शास्त्री और दार्शनिक इमाइल दुर्थीम का जन्म 15 अप्रैल 1858 को उत्तरी-पूर्वी फ्रांस के लॉरेन (Lorraine) क्षेत्र में स्थित एपीनल (Epinal) नामक स्थान में हुआ था। दुर्थीम की आरम्भिक शिक्षा एपीनल की एक संस्था में हुई थी। बचपन से ही दुर्थीम एक मेधावी, प्रतिभाशाली तथा होनहार छात्र के रूप मे जाने जाते थे। दुर्थीम के पूर्वज ‘रेबी शास्त्रकार’ के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। इसीलिए प्रतिभा तो दुर्थीम को विरासत से प्राप्त हुई थी। एपीनल में ही ग्रेजुएट तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए दुर्थीम फ्रांस की राजधानी पैरिस में चले गए।

पैरिस में दुर्थीम की उच्च शिक्षा का आरम्भ हुआ। यहां पर उन्होंने विश्व प्रसिद्ध संस्था इकोल नारमेल अकादमी (Ecol Normale Superieure) में दाखिला लेने की कोशिश की। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इस संस्था में बहुत बढ़िया विद्यार्थियों को ही दाखिला मिलता था। दो असफल प्रयासों के बाद 1879 में दुर्थीम को इस संस्था में दाखिला मिल ही गया। यह संस्था फ्रांसीसी, लातिनी और ग्रीक दर्शन विषयों पर शिक्षा प्रदान करती थी और वहां के पूरे पाठ्यक्रम में यही विषय शामिल थे। लेकिन प्रत्यक्षवादी और वैज्ञानिक प्रवृत्ति वाले दुीम इन विषयों में ज्यादा रुचि न ले सकें क्योंकि वो तो समाज की असली, राजनीतिक, बौद्धिक और सामाजिक इत्यादि दिशाओं के अध्ययन में रुचि रखते थे।

दुर्थीम का यह पूर्ण विश्वास था कि ज्ञान में प्रत्यक्षवाद (Positivism) ज़रूर होना चाहिए। उनका मानना था कि अगर किसी भी ज्ञान अथवा दर्शन का अध्ययन करते समय वर्तमान, बौद्धिक और सामाजिक समस्याओं का अध्ययन नहीं किया जाता तो उस ज्ञान का कोई फायदा नहीं हैं। अपने इन विचारों के कारण दुर्थीम इस विश्व प्रसिद्ध संस्था के वातावरण से इतने असंतुष्ट थे कि वह कभी-कभी तो अपने अध्यापकों के विरुद्ध भी हो जाते थे। लेकिन फिर भी दुर्थीम ने इकोल नारमेल को अपने अंदर इतना बसा लिया कि उन्होंने अपने पुत्र आंद्रे को यहां दाखिल करवाया।

प्रसिद्ध प्रत्यक्षवादी और महान् इतिहासकार प्रोफैसर कुलांज (Prof. Fustel de Coulanges) 1880 में इस संस्था के निदेशक बने। वह दुीम के उन अध्यापकों में से एक थे जिनका दुीम से विशेष प्यार था। कुलांज ने वहां के पाठ्यक्रम में बदलाव किया जिससे दुर्थीम बहुत खुश हुए। दुीम कुलांज का इतना आदर करते थे कि लातिनी भाषा में उन्होंने मान्टेस्क्यू (Montesquieu) नामक किताब लिखी जो उन्होने कुलांज को समर्पित किया। वहां ही दुर्थीम इमाइल बोटरोकस (Emile Boutrocus) को भी मिले। यहीं पर ही दुर्थीम और विश्व प्रसिद्ध विद्वानों को मिले और उन प्रतिभावान विद्यार्थियों को मिले जो बाद में प्रमुख समाजशास्त्री बने। इन प्रसिद्ध विद्वानों के सम्पर्क में आने से दुर्थीम के बौद्धिक और मानसिक चिंतन में काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई।

1882 में वह इकोल नार्मेल को छोड़ कर 5 वर्षों तक पैरिस के पास स्थित हाई स्कूलों सेनस, सेंट क्युटिंन और ट्राईज़ में दर्शन शास्त्र पढ़ाते रहे। साथ ही साथ अपने प्रभाव से इन स्कूलों में समाजशास्त्र का नया पाठ्यक्रम भी शुरू किया। दुर्थीम बहुत बढ़िया अध्यापक के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसके बाद भी दुर्थीम का मन यहां न लगा। 1885-86 में वह उच्च अध्ययन के लिए नौकरी से एक वर्ष की छुट्टी लेकर वर्ष के अंत में जर्मनी चले गए।

जर्मनी में दुर्शीम ने अर्थशास्त्र, लोक मनोविज्ञान, सांस्कृतिक मनोविज्ञान इत्यादि का काफ़ी गहराई से अध्ययन किया । यहाँ दुीम ने काम्ते (Comte) के लेखों का बारीकी से अध्ययन किया और शायद उससे प्रभावित होकर समाजशास्त्रीय प्रत्यक्षवाद (Sociological Positivism) को जन्म दिया।

1887 में दुर्थीम जर्मनी आ गए और बोर्डिक्स विश्वविद्यालय में प्रवेश रूप से सामाजिक शास्त्र का एक नया अलग विभाग स्थापित किया और आप को यहां अध्ययन के लिए बुलाया गया। लगभग 9 वर्षा के निरन्तर अध्ययन के पश्चात् वह 1896 में इसी विभाग के प्रोफेसर बन गए। इस दौरान पैरिस विश्वविद्यालय द्वारा दुर्थीम को 1893 में उनके फ्रांसीसी भाषा में लिखे शोध ग्रंथ Dela Divsion du Travail Social (Division of Labour in Society) पर उनको बहुत डाक्टरेट की उपाधी दी। उनके इस ग्रंथ के छपने के बाद उनको बहुत प्रसिद्धि मिली। 1895 में दुर्शीम ने अपने दूसरे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ Les Regles de ea Methode Sociologique (The rules of Sociological Method) की रचना की। इसकी दो वर्षों के बाद 1897 में दुर्थीम ने तीसरे महान् ग्रंथ Le Suicide : Etude de Sociologie (Suicide A Study of Sociology) की रचना की। इन महान् ग्रंथों की रचना के बाद दुखीम का नाम विश्व के प्रमुख दार्शनिक समाज शास्त्री और महान् लेखक के रूप में जाना जाने लगा।

वर्ष 1898 में दुर्शीम ने ‘L’ Annee Sociologique नाम से समाजशास्त्र सम्बन्धी मैगज़ीन की शुरुआत की और 1910 तक आप इस मैगजीन के सम्पादक रहे। दुर्थीम के इस मैगजीन ने फ्रांस के बौद्धिक वातावरण को बहुत नाम कमाया। इसमें बहुत सारे उच्च कोटि के विचार को जार्जस, डेवी, लेवी स्टार्स, साईमन इत्यादि ने अपने पत्र छपवाए।

इस विश्वविद्यालय में दुर्थीम ने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की और उसके बाद 1902 में पैरिस विश्वविद्यालय में दुर्थीम को शिक्षा शास्त्र के प्रोफैसर पद पर नियुक्त किया गया। यहां एक महत्त्वपूर्ण बात थी कि उस समय तक विश्व में समाज शास्त्र का कोई अलग विभाग नहीं होता था। यह दुर्थीम की कोशिशों का ही नतीजा था कि 1913 में शिक्षा शास्त्र विभाग का नाम बदल कर शिक्षा शास्त्र और समाजशास्त्र रख दिया गया। यहां दुर्थीम ने और विषयों के साथ-साथ विकास और परिवार की शुरुआत, नैतिक शिक्षा, धर्म की उत्पत्ति, काम्ते और सेंट साईमन के सामाजिक दर्शन को बहुत लगन के साथ पढ़ाया। जिन विद्यार्थियों ने दुीम से शिक्षा प्राप्त की वह उनसे बहुत प्रभावित हुए। दुर्शीम ने एक और पुस्तक Les Farmes Elementains delavie Religieuse (Elementary forms of Religious Life) की रचना की।

र्बोडिक्स विश्वविद्यालय में नियुक्त होने के पश्चात् ही उन्होंने विवाह करवा लिए। उनकी पत्नी का नाम लुईस डरेफू (Louise Drefus) था और उनके दो बच्चे थे। उनकी लड़की का नाम मैंरी (Marie) और लड़के का नाम आंद्रे (Andre) था। दुर्शीम की पत्नी सम्पादन के काम से लेकर चैक करना, उसको संशोधित करना, पत्र व्यवहार करने जैसे सभी कार्य को बहुत मेहनत से करके दुर्थीम की सहायता करती थी।

दुर्शीम ने 1914 के पहले विश्व युद्ध में अपने पुत्र आंद्रे को समाज सेवा के लिए पेश किया और स्वयं अपने लेखों और भाषणों से जनता का मनोबल बना रखने के लिए जुट गए। युद्ध ने दुर्शीम जी को मानसिक तौर से काफ़ी कमज़ोर कर दिया क्योंकि वह शांति के समर्थक थे। जब दुर्थीम युद्ध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे तो उनको अपने पुत्र की मौत का समाचार मिला जिसकी मृत्यु लड़ाई के बुरी तरह जख्मी होने के कारण बुलगारीया के अस्पताल में हुई थी। आंद्रे उनका केवल पुत्र ही नहीं बल्कि सबसे अच्छा विद्यार्थी भी था इसी कारण उसकी मृत्यु ने दुर्थीम को अन्दर से तोड़ दिया।

दुर्थीम 1916 के अंत में एकदम बीमार हो गए लेकिन इसके पश्चात् भी वह 1917 में नीतिशास्त्र पर किताब लिखने के लिए फाऊंट नबलियु स्थान पर गए। 15 नवंबर, 1917 को असाधारण प्रतिभा वाले इस समाजशास्त्री की 59 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।

दुर्शीम की रचनाएं (Writings of Durkheim) –
दुर्शीम ने अपने जीवनकाल के समय कई महान् ग्रंथों की रचना की जिनके नाम निम्नलिखित हैं-

1. The Division of Labour in Society – 1893
2. The Rules of Sociological Method – 1895
3. Suicide – 1897
4. Elementary Forms of Religious Life – 1912
5. Education and Sociology (After Death) – 1922
6. Sociology and Philosophy (After Death) – 1924
7. Moral Education (After Death) – 1925
8. Sociology and Saint Simon(After Death) – 1924
9. Pragmatism and Sociology (After Death) – 1925

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 5.
वैबर द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया के प्रकारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
सामाजिक व्यवहार की पूरी व्याख्या करते हुए वैबर ने चार प्रकार के सामाजिक कार्यों की व्याख्या की है।

1. तार्किक उद्देश्यपूर्ण व्यवहार (Zweckrational)-वैबर ने बताया है कि तार्किक उद्देश्यपूर्ण सामाजिक व्यवहार का अर्थ ऐसे सामाजिक व्यवहार से होता है जो उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए अनेक उद्देश्यों की अधिक-से-अधिक प्राप्ति के लिए तार्किक रूप में निर्देशित हो, इसमें साधनों के चुनाव में केवल उनके विशेष प्रकार की कार्यकुशलता की तरफ ध्यान ही नहीं दिया जाता बल्कि भूल पर भी ध्यान दिया जाता है। साध्य और साधनों की अच्छी तरह जांच की जाती है और उसके आधार पर ही क्रिया सम्पादित होती है।

2. मूल्यात्मक व्यवहार (Wertrational)-मूल्यात्मक व्यवहार में किसी विशेष और स्पष्ट मूल को बहुत अधिक प्रभावशाली उपलब्ध साधनों के द्वारा स्थान दिया जाता है। दूसरे मूल्यों की कीमतों पर कुछ ध्यान नहीं दिया जाता है। इसमें तार्किक आधार नहीं हो सकता, बल्कि नैतिकता, धार्मिक या सुन्दरता के आधार पर ही मान ली गई है। नैतिक और धार्मिक मान्यताओं को बनाये रखने के लिए मूल्यात्मक क्रियाएं की जाती हैं। इन क्रियाओं को मानने में किसी भी प्रकार के तर्क की सहायता नहीं ली जाती है। वह इसी तरह ही मान ली जाती है क्योंकि इसके कारण सामाजिक सम्मान भी बढ़ता है और आत्मिक सन्तोष भी बढ़ता है।

3. संवेदात्मक व्यवहार (Assectual Behaviour)-ऐसी क्रियाएं मानवीय भावनाओं, संवेगों और स्थायी भावों के कारण होती हैं। समाज में रहते हुए हमें प्रेम, नफरत, गुस्सा इत्यादि भावनाओं का शिकार होना पड़ता है। इसके कारण ही समाज में शान्ति या अशान्ति की अवस्था पैदा हो जाती है। इन व्यवहारों के कारण परम्परा और तर्क का थोड़ा सा भी सहारा नहीं लिया जाता है।

4. परम्परागत व्यवहार (Traditional Behaviour)-परम्परागत क्रियाएं पहले से निश्चित प्रतिमानों के आधार पर की जाती हैं । सामाजिक जीवन को सरल और शांतमय रखने के लिए परम्परागत क्रियाएं महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। सम्भव है कभी वह स्थिति पैदा हो जाये, कि इन क्रियाओं द्वारा समाज में संघर्ष पैदा हो जाये कि इन क्रियाओं द्वारा तर्क, कार्यकुशलता और किसी और प्रकार का सहारा लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। सामाजिक प्रथाएं ही इन क्रियाओं को संचालित करती हैं ।।

वैबर ने बताया है कि सामाजिक क्रियाएं तीन प्रकार से निर्देशित होती हैं ।

प्रश्न 6.
वैबर किस प्रकार धर्म को आर्थिक क्रियाओं से जोड़ते हैं ?
उत्तर-
पूंजीवाद का सार (Essence of Capitalism)-वैबर का आरम्भिक अध्ययन एक ऐसी प्रवृत्ति पर केन्द्रित है जो आधुनिक समाज में विशेष रूप में दिखाई देती है। आर्थिक व्यवहारों पर धार्मिक प्रभावों को स्पष्ट करने के लिए 1904 से 1905 में जो लेख लिखे हैं उनके आधार पर उसकी सबसे प्रसिद्ध किताब The Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism के नाम से छपी। इस किताब के अधिकतर भाग में वैबर ने इस समस्या पर प्रकाश डाला है कि प्रोटैस्टैंट धर्म के विचारों या नीतियों ने किस प्रकार पूंजीवाद के विकास को प्रभावित किया है। यह विचार मार्क्स के इस सिद्धान्त के लिए एक खुली चुनौती थी कि मानव की सामाजिक व धार्मिक चेतना उसके सामाजिक वर्ग द्वारा निर्धारित होती है।

वैबर के विचारों से आधुनिक औद्योगिक जगत् के मानव की एकता स्पष्ट है कि उसको सख्त मेहनत करनी चाहिए। वैबर के अनुसार, “कठोर काम एक कर्तव्य है व इसका नतीजा इसी के बीच शामिल है।” यह विचार वैबर के दृष्टिकोण से आधुनिक औद्योगिक जगत् के मानव का विशेष गुण है। मानव अपने काम में अच्छी तरह काम इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उसको काम करना पड़ेगा बल्कि इसलिए कि वह ऐसा करना चाहता है। वैबर के अनुसार यह उसकी व्यक्तिक संतुष्टि का आधार है। वैबर ने स्वयं लिखा है कि एक व्यक्ति से अपनी आजीविका के मूल्य के प्रति होने वाले कर्त्तव्य का अनुभव करने की आशा की जाती है व वह ऐसा करता भी है चाहे वह किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो। अमरीका की एक कहावत है कि, “यदि कोई व्यक्ति काम करने के योग्य है तो उसे सबसे बढ़िया ढंग से पूरा करना चाहिए।” यह कहावत वैबर के अनुसार पूंजीवाद का सार भी है क्योंकि इस धारणा का सम्बन्ध किसी आलौकिक उद्देश्य से नहीं बल्कि आर्थिक जीवन में व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सफलता से है। चाहे किसी विशेष समय में यह धारणा धार्मिक नैतिकता से सम्बन्धित रही है। पूंजीवाद के सार को स्पष्ट करने के लिए वैबर ने उसकी तुलना एक अन्य आर्थिक क्रिया से की है जिसका नाम उन्होंने परम्परावाद रखा है। आर्थिक क्रियाओं में परम्परावाद वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अधिक लाभ के बाद भी कम-से-कम काम करना चाहता है।

वह काम के दौरान अधिक-से-अधिक आराम करना पसन्द करता है व काम के नये तरीके से अनुकूलन करने की इच्छा नहीं करते हैं। वह जीवन जीने के लिए साधारण तरीकों से ही खुश हो जाते हैं व एकदम लाभ प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। सिद्धान्तहीन रूप से धन का इकट्ठा करना आर्थिक परम्परावाद का ही एक हिस्सा है तथा ये सारी विशेषताएं पूंजीवाद के सार से पूरी तरह उलट हैं । असल में आधुनिक पूंजीवाद अन्तर्सम्बन्धित संस्थाओं का एक ऐसा बड़ा एकत्र (Complex) है, जिसका आधार आर्थिक कोशिशें हैं न कि स्टोरियों की कोशिशें। पूंजीवाद के अन्तर्गत व्यापारी निगमों का कानूनी रूप, संगठित लेन-देन का केन्द्र, सरकारी कर्जा पत्रों के रूप में सार्वजनिक कर्जा देने की प्रणाली व ऐसे उद्योगों के संगठनों का समूह है जिनका उद्देश्य वस्तुओं के तार्किक आधार पर उत्पादन करना होता है न कि उनका व्यापार करना। वैबर का विचार था कि दक्षिणी यूरोप, रोम अभिजात वर्ग व ओलबी नदी के पूर्व के ज़मींदारों की आर्थिक क्रियाएं अचानक लाभ प्राप्त करने के लिए की गईं जिनमें उन्होंने सारे नैतिक विचारों का त्याग कर दिया। उनकी क्रियाओं में आर्थिक लाभ की तार्किक कोशिशों की कमी थी जिस कारण उन्हें पूंजीवाद के बराबर नहीं रखा जा सकता।

वैबर के अनुसार पूंजीवाद के सार का गुण केवल पश्चिमी समाज का ही गुण नहीं है। अनेकों समाजों में ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपने व्यापार को बढ़िया ढंग से चलाया, जो नौकरों से भी अधिक मेहनत करते हैं, जिनका जीवन सादा था व जो अपनी बचत को भी व्यापार में ही लगा देते थे पर इसके बाद भी इन पंजीवादी विशेषताओं का प्रभाव पश्चिमी समाजों में कहीं ज्यादा मिलता रहा है, इसका कारण यह था कि पश्चिम में यह गुण एक व्यक्तिगत गुण न रहकर जीवन जीने के आम तरीके के रूप में विकसित हुआ। इस तरह लोगों में फैली कठोर मेहनत, व्यापारिक व्यवहार, सार्वजनिक कर्जा व्यवस्था, पूंजी का लगातार व्यापार में लगाते रहना व मेहनत के प्रति इच्छा ही पूंजीवाद का सार है। इसके विपरीत एकदम लाभ पाने की कोशिश, मेहनत को बोझ व श्राप समझकर उसको न करना, धन को इकट्ठा करना व जीवन जीने के साधारण स्तर से ही सन्तुष्ट हो जाना आम आर्थिक आदतें हैं।

प्रोटैस्टैंट नीति (Protestant Ethic) यह स्पष्ट करने के बाद कि उनके अध्ययन का उद्देश्य पूंजीवाद का सार है वैबर ने ऐसे अनेकों कारण बताए हैं जिनके आधार पर सुधार आन्दोलन के धार्मिक विचारों में इसकी उत्पत्ति को ढूंढना है। वैबर ने अपने एक विद्यार्थी बाडेन (Baden) को राज्य में धार्मिक सम्बन्धों व शिक्षा को चयन का अध्ययन करने के लिए कहा। बाडेन ने एक परिणाम यह पेश किया कि कैथोलिक विद्यार्थियों की तुलना में प्रोटैस्टैंट विद्यार्थी उन शिक्षा संस्थाओं में अधिक दाखिला लेते हैं जो औद्योगिक जीवन से सम्बन्धित हैं। एक और कारण यह भी था कि यूरोप में समय-समय पर कम गणना समूहों ने अपनी सामाजिक व राजनीतिक हानि को कठोर आर्थिक मेहनत से पूरा कर लिया जबकि कैथोलिक ऐसा न कर सके। इन हालातों के प्रभाव से वैबर की इस धारणा को बल मिला कि धार्मिक नीति व आर्थिक क्रियाओं में कोई सम्बन्ध ज़रूर है। इसके बाद वैबर ने यह भी देखा कि 16वीं सदी में बहुत सारे अमीर प्रदेशों व शहरों में प्रोटैस्टैंट धर्म स्वीकार कर लिया क्योंकि प्रोटैस्टैंट धर्म अपनी अनेकों नीतियों के कारण आर्थिक लाभ की कोशिशों को आगे बढ़ा रहा है। इसी आधार पर वैबर ने यह पता करने की कोशिश की कि प्रोटैस्टैंट धर्म का प्रचार आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए देशों में हुआ व अंतः पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बाद भी किसी क्षेत्र में कैथोलिक धर्म प्रभावशाली बना रहा।

The Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism लिखने में वैबर का उद्देश्य बहुत कुछ इस विरोध की व्याख्या के कारण आर्थिक जीवन पर धार्मिक नीतियों के प्रभाव को स्पष्ट करना था। वैबर यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि प्रोटैस्टैंट धर्म की नीतियां किस तरह उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गईं जो आर्थिक लाभों को तार्किक दृष्टि से प्राप्त करने के हक में थीं। इस तरह वैबर के अनुसार किसी भी धर्म के साथ सम्बन्धित सिद्धान्तों पर इस नज़र से विचार करना चाहिए कि यह सिद्धान्त अपने शिष्यों को किस तरह के व्यवहारों का प्रोत्साहन देता है। इस प्रश्न को ध्यान में रखते हुए वैबर ने प्रोटैस्टैंट धर्म के शुद्ध विचारवादी पादरियों के लेखों को परखा व उनके द्वारा बनाए कालविनवादी सिद्धान्तों का समुदाय के दैनिक व्यवहार पर प्रभाव स्पष्ट किया।

प्रोटैस्टैंट धर्म के नीति के रूप में सेंट पाल के इस आदेश को व्यापक रूप से ग्रहण किया जाने लगा कि, “जो व्यक्ति काम नहीं करेगा वह रोटी नहीं खाएगा व ग़रीब की तरह अमीर भी भगवान के गौरव को बढ़ाने के लिए किसी न किसी समय पर व्यापार को ज़रूर करे।” इस तरह मेहनती जीवन ही प्रोटैस्टैंट धर्म शुद्ध विचारवादी धार्मिक भक्ति के अनुसार है।

रिचर्ड बैक्सटर (Richard Baxter) ने कहा कि, “केवल धर्म के लिए ही भगवान् हमारी क्रियाओं की रक्षा करता है। मेहनत ही शक्ति का नैतिक व प्राकृतिक उद्देश्य है, केवल मेहनत से ही भगवान् की सबसे ज्यादा सेवा हो सकती है।” एक अन्य सन्त जॉन बयिन ने कहा था कि, “यह नहीं कहा जाएगा कि आप क्यों विश्वास करते थे, केवल ये कहा जाएगा कि आप कुछ मेहनत भी करते थे या केवल बातें ही करते थे।” इस तरह प्रोटैस्टैंट धर्म की नीति में काम करते जीवन को ही खुदा की भक्ति के रूप में मान लिया गया। प्रोटैस्टैंट धर्म में मेहनत की प्रशंसा ने नये नियमों को जन्म दिया। इसके अनुसार समय को व्यर्थ नष्ट करना पाप है। जीवन छोटा व मूल्यवान् है, इसलिए मानव को हर समय भगवान् का गौरव बढ़ाने के लिए अपना समय अपने उपयोगी काम में लगाना चाहिए। व्यर्थ की बातचीत, लोगों को ज्यादा मिलना, ज़रूरत से ज्यादा सोना व दैनिक कार्यों को हानि पहुंचा कर धार्मिक कार्यों में लगे रहना पाप है क्योंकि इनके कारण भगवान् के द्वारा दिए आजीविका काम को भगवान् की इच्छा के अनुसार पूरा नहीं किया जा सकता। इस दृष्टिकोण से प्रोटैस्टैंट धर्म की नीतियां व्यक्तिगत नीति के इस आदर्श के विरुद्ध हैं, “अमीर व्यक्ति कोई काम न करे या यह कि धार्मिक ध्यान सांसारिक कार्यों से ज्यादा मूल्यवान् है। यही प्रोटैस्टैंट नीति है।”

पूंजीवाद व प्रोटैस्टैंट नीति का सम्बन्ध (Relationship of Capitalism and Protestant Ethic)पूंजीवाद के सार व प्रोटैस्टैंट नीतियों के अध्ययन से वैबर को इनके अनेकों आधारों में समानता मिलती है। इन समानताओं ने वैबर को इस तथ्य पर विचार करने से प्रेरणा दी है कि आर्थिक व्यवहारों व धार्मिक नीतियों में समानताएं किन परिस्थितियों के कारण समानताओं का वर्णन परिस्थितियों के परिणाम से है। वैबर ने पहले 16वीं व 17वीं सदी में धर्म संघों व उनकी मान्यताओं में होने वाले परिवर्तनों का मानवीय व्यवहारों पर प्रभावों का अध्ययन किया। शुरू में अनेकों धर्म संघों ने भौतिक चीजों की प्राप्ति व उनके इकट्ठा करने पर जोर दिया व कुछ समय के बाद धन के एकत्र को अधार्मिकता की श्रेणी में रखा जाने लगा जिसमें मेहनत के सामने सारी इच्छाओं को समाप्त कर लेना ठीक था। इस धर्म संघ ने इच्छाओं के दमन करने की निष्पक्षता को खत्म करने के रूप में न लेकर श्रम के रास्ते में आने वाली रुकावट को इच्छा खत्म करने के रूप में स्पष्ट किया। वैबर के अनुसार, “जब इच्छा ख़त्म कर लेने की धारणा धर्म केन्द्रों की सीमा से बाहर निकल कर सांसारिक नैतिकता को प्रभावित करने लगी तो इसने आधुनिक अर्थव्यवस्था (पूंजीवाद) की रचना में ही अपना योगदान शुरू कर दिया।” इस परिवर्तन ने वैबर को अध्ययन की एक दिशा प्रदान की। धर्म की नीतियां ही वे मूल कारण हैं जो व्यक्ति के आर्थिक वे धर्म-निरपेक्ष व्यवहारों को प्रभावित करती हैं।

इस तरह वैबर ने अत्यधिक परिणामों द्वारा यह स्पष्ट किया कि किस तरह प्रोटैस्टैंट धर्म की नीतियां योग के अनेकों देशों में आरम्भिक पूंजीवाद के विकास के लिए ठीक हैं। प्रोटैस्टैंट धर्म के सुधार आन्दोलन के शुरू से ही धार्मिक समारोहों में प्रवेश करने का अधिकार उन लोगों को दिया जिनकी इन धर्म की नीतियों में बहुत ज्यादा श्रद्धा थी। धार्मिक परिषदों के सदस्यों को यह सिद्ध करना पड़ता था कि उनमें अपने धर्म की नीतियों को व्यावहारिक रूप देने की पूरी समर्था है। यह परम्परा वैबर के अनुसार साधनों से सम्बन्ध आजीविका को महत्त्व देकर आधुनिक पूंजीवाद के विकास में बहत ज्यादा सहायक सिद्ध हई। धीरे-धीरे प्रोटैस्टैंट धर्म की नैतिक शिक्षाओं को मानने वालों के जीवन की शैली एक व्यवस्थित शैली में बदल गई। वैबर ने इस स्थिति को एक ऐसी घटना के रूप में स्वीकार किया कि जिससे पश्चिमी जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं में तर्कवाद बढ़ा। यह तर्कवाद पश्चिमी सभ्यता के भिन्नभिन्न रूपों में स्पष्ट हुआ व पूंजीवाद के विकास से इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। इस तरह पूंजीवाद के सार व प्रोटैस्टैंट नीति के सम्बन्ध की व्याख्या के आधार पर धर्म को समझाया है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
मार्क्स के अनुसार समाज में कितने वर्ग होते हैं ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर-
(A) दो।

प्रश्न 2.
इनमें से कौन-सा वर्ग का प्रकार मार्क्स ने दिया था जो हरेक समाज में मौजूद होता है ?
(A) पूंजीपति वर्ग
(B) श्रमिक वर्ग
(C) दोनों (A + B)
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) दोनों (A + B)।

प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स ने समाज में वर्ग संघर्ष का कौन-सा कारण दिया है ?
(A) पूंजीपति वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग का शोषण
(B) श्रमिक वर्ग द्वारा पूंजीपति वर्ग का शोषण
(C) दोनों वर्गों में ऐतिहासिक दुश्मनी
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(A) पूंजीपति वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग का शोषण।

प्रश्न 4.
इनमें से कौन-सा संकल्प मार्क्स ने समाजशास्त्र को दिया था ?
(A) वर्ग संघर्ष
(B) ऐतिहासिक भौतिकवाद
(C) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 5.
दुर्खीम का जन्म कब हुआ था ?
(A) 1870
(B) 1858
(C) 1864
(D) 1868.
उत्तर-
(B) 1858.

प्रश्न 6.
फ्रांस में समाजशास्त्र में काम्ते का उत्तराधिकारी किसे कहा जाता है ?
(A) वैबर
(B) मार्क्स
(C) दुखीम
(D) स्पैंसर।
उत्तर-
(C) दुर्खीम।

प्रश्न 7.
इनमें से कौन-सी पुस्तक दुर्खीम ने लिखी थी ?
(A) Division of Labour in Society
(B) Suicide-A Study of Sociology
(C) The Rules of Sociological Method
(D) All of these.
उत्तर-
(D) All of these.

प्रश्न 8.
इनमें से कौन-सा सिद्धान्त दुर्खीम ने दिया था ?
(A) श्रम विभाजन
(B) सामाजिक तथ्य
(C) आत्महत्या का सिद्धांत
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 9.
दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य के कितने प्रकार दिए हैं ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर-
(B) तीन।

प्रश्न 10.
दुर्खीम ने इनमें से सामाजिक तथ्य का कौन-सा प्रकार दिया था ?
(A) बाध्यता
(B) बाहरीपन
(C) सर्वव्यापकता
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 11.
इनमें से कौन-सा संकल्प वैबर ने समाजशास्त्र को दिया है ?
(A) सत्ता
(B) आदर्श प्रारूप
(C) सामाजिक क्रिया
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. कार्ल मार्क्स …………… दार्शनिक थे।
2. मैक्स वैबर ने सामाजिक …………. का सिद्धांत दिया था।
3. श्रम विभाजन का सिद्धांत …………. ने दिया था।
4. ऐतिहासिक योगदान का संकल्प …………… ने दिया था।
5. कार्ल मार्क्स ने वर्ग ………….. का सिद्धांत दिया था।
6. वैबर अनुसार ………….. धर्म पूँजीवाद को सामने लाने के लिए उत्तरदायी है।
7. आत्महत्या का सिद्धांत ………….. ने दिया था।
उत्तर-

  1. जर्मन,
  2. क्रिया,
  3. दुर्खीम,
  4. कार्ल मार्क्स,
  5. संघर्ष,
  6. प्रोटैस्टैंट,
  7. दुर्खीम।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

III. सही/गलत (True/False) :

1. दुर्खीम फ्रांस में पैदा हुआ था।
2. दुर्खीम ने तीन प्रकार की आत्महत्या के बारे में बताया था।
3. वैबर ने चार प्रकार की सत्ता का वर्णन किया था।
4. मार्क्स के अनुसार समाज में तीन प्रकार के वर्ग होते हैं।’
5. मजदूर वर्ग पूँजीपति वर्ग का शोषण करता है।
6. सामाजिक एकता का सिद्धांत दुर्खीम ने दिया था।
उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. गलत,
  4. गलत,
  5. गलत,
  6. सही।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का जन्मदाता किसे कहा जाता है ?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का जन्मदाता कहा जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार कब किया गया था ?
उत्तर-
समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार 1839 में किया गया था।

प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स कब तथा कहाँ पैदा हुए थे ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स 5 मई, 1818 को प्रशिया के राईन प्रांत के ट्रियर शहर में पैदा हुए थे।

प्रश्न 4.
कार्ल मार्क्स को कब तथा कहां डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई थी ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स को 1841 को जेना विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि मिली थी।

प्रश्न 5.
Communist Menifesto कब तथा किसने लिखी थी ?
उत्तर-
Communist Menifesto सन् 1848 को मार्क्स तथा ऐंजल्स ने लिखा था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 6.
कार्ल मार्क्स की मृत्यु कब हुई थी ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स की मृत्यु 14 मार्च,1883 को हुई थी।

प्रश्न 7.
मार्क्स के अनुसार समाज में कितने वर्ग होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार समाज में दो प्रमुख वर्ग होते हैं-पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग।

प्रश्न 8.
मार्क्स ने समाजशास्त्र को कौन-से संकल्प दिए हैं ?
उत्तर-
मार्क्स ने समाजशास्त्र को वर्ग संघर्ष, ऐतिहासिक भौतिकवाद, सामाजिक परिवर्तन, अलगाव एवं अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत दिए हैं।

प्रश्न 9.
दुीम को फ्रांस में तथा समाजशास्त्र में किसका उत्तराधिकारी माना जाता है ?
उत्तर-
दुर्खीम को समाजशास्त्र में काम्ते का उत्तराधिकारी माना जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 10.
दुखीम किस विश्वविद्यालय में प्रोफैसर नियुक्त हए थे ?
उत्तर-
दुर्खीम पैरिस विश्वविद्यालय में प्रोफैसर नियुक्त हुए थे।

प्रश्न 11.
दुर्जीम ने समाजशास्त्र को कौन-से सिद्धांत दिए थे ?
उत्तर-
दुर्खीम ने समाजशास्त्र को सामाजिक तथ्य, आत्महत्या, धर्म, श्रम विभाजन इत्यादि जैसे सिद्धांत दिए थे।

प्रश्न 12.
वैबर के अनुसार सत्ता के कितने प्रकार हैं ?
उत्तर-
वैबर के अनुसार सत्ता के तीन प्रकार होते हैं-परंपरागत, वैधानिक व करिश्मई।

प्रश्न 13.
वैबर के अनुसार कौन-सा धर्म विकास के लिए उत्तरदायी है ?
उत्तर-
वैबर के अनुसार पूँजीवाद के विकास के लिए प्रोटैस्टैंट धर्म उत्तरदायी है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 14.
वैबर ने समाजशास्त्र को क्या योगदान दिया है ?
उत्तर-
वैबर ने सत्ता के प्रकार, आदर्श प्रारूप, सामाजिक क्रिया, पूँजीवाद, प्रोटैस्टैंट धर्म की व्याख्या इत्यादि जैसे संकल्पों का योगदान दिया है।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पूँजीवादी वर्ग क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी वर्ग ऐसा वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के सभी साधन होते हैं तथा वह सभी उत्पादन के साधनों का मालिक होता है जिनकी सहायता से वह अन्य वर्गों का शोषण करता है। अपने साधनों की सहायता से वह पैसे कमाता है तथा आराम का जीवन व्यतीत करता है। मार्क्स ने अनुसार एक दिन मज़दूर वर्ग इस वर्ग की सत्ता उखाड़ फेंकेगा।

प्रश्न 2.
मज़दूर वर्ग क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन के साधनों की मल्कियत नहीं होती। उसके पास कोई पूँजी या पैसा नहीं होता। उसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता। वह हमेशा पूँजपति वर्ग के हाथों शोषित होता रहता है। इस शोषण के कारण वह निर्धन होता जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 3.
पूँजीवाद क्या होता है ?
उत्तर-
पूँजीवाद एक आर्थिक व्यवस्था है जिसमें निजी सम्पत्ति की प्रधानता होती है तथा बाजार पर सरकारी नियन्त्रण न के बराबर होता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार कमाने का अधिकार होता है। पूँजीवाद में पूँजीपति अपने पैसे से और पैसा कमाता है तथा मजदूर वर्ग का शोषण करता है।

प्रश्न 4.
सामाजिक एकता क्या है ?
उत्तर-
दुर्खीम के अनुसार प्रत्येक समाज के कुछ मूल्य, आदर्श, विश्वास, व्यवहार के तरीके, संस्थाएं तथा कानून प्रचलित होते हैं जो समाज को बाँध कर रखते हैं। ऐसे तत्त्वों के कारण समाज में एकता बनी रहती है। इनके कारण समाज में संबंध बने रहते हैं तथा यह समाज में एकता उत्पन्न करते हैं जिसे हम सामाजिक एकता कहते हैं।

प्रश्न 5.
श्रम विभाजन क्या है ?
उत्तर-
दुर्खीम के अनुसार श्रम विभाजन का अर्थ अलग-अलग लोगों अथवा वर्गों में उनके सामर्थ्य तथा योग्यता के अनुसार कार्य का विभाजन करना है ताकि कार्य संगठित तरीके से पूर्ण किया जा सके। इसे ही श्रम विभाजन कहा जाता है। यह प्रत्येक समाज में पाया जाता है। इसकी उत्पत्ति नहीं बल्कि विकास होता है।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
आध्यात्मिक पड़ाव।
उत्तर-
काम्ते की सैद्धान्तिक स्कीम में आध्यात्मिक पड़ाव बहुत महत्ता रखता है। उसके अनुसार इस अवस्था में मानव के विचार काल्पनिक थे। मानव सब वस्तुओं को परमात्मा के रूप में या किसी आलौकिक जीव की उस समय की क्रियाओं के परिणामस्वरूप में देवता मानता व समझता था। धारणा यह होती थी कि सभी वस्तुएं चाहे निर्जीव हो व सजीव हैं या कार्यरूप अलौकिक शक्तियां हैं अर्थात् सब वस्तुओं में वही शक्ति व्यापक है। धार्मिक पड़ाव में मानव के बारे चर्चा करते काम्ते कहते हैं कि इस अवस्था में सृष्टि के ज़रूरी स्वभाव की खोज करना या प्राकृतिक घटनाओं के होने के अन्तिम कारणों को जानने के यत्न में मानव का दिमाग यह मान लेता है कि सब घटनाएं अलौकिक प्राणियों की तत्कालीन घटनाओं का प्रमाण है। यह आगे तीन उप पड़ावों-प्रतीक पूजन, बहुदेवतावाद व ऐकेश्वरवाद में बांटा है।

प्रश्न 2.
अधिभौतिक पड़ाव।
उत्तर-
इस पड़ाव को काम्ते आधुनिक समाज का क्रान्तिकाल भी कहते हैं। यह पड़ाव पांच शताब्दियों तक 14वीं से 19वीं तक चला। इसे दो भागों में बाँट सकते हैं। प्रथम भाग में क्रान्तिक आन्दोलन स्वयं ही चल पड़ा। क्रान्तिक फिलासफी 16वीं सदी में प्रोटैस्टैंटवाद के आने से आरम्भ हुई। यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि रोमन कैथोलिक वाद में आत्मिक व दुनियावी ताकतों के बिछड़ने से आध्यात्मिक सवालों के सामाजिक हालतों पर भी विचार करने का हौसला दिलाया। दूसरा भाग 16वीं सदी से आरम्भ हुआ। इस समय में नकारात्मक सिद्धान्त शुरू हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन था। इसमें प्रोटैस्टैन्टवाद हमारे सामने आया। इसमें बेरोक निरीक्षण का अधिकार था और यह विचार दिया कि निरीक्षण की कोई सीमा नहीं है जिस कारण आत्मिकता का पतन हुआ जिसका दुनियावी पक्ष पर भी असर हुआ।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 3.
सकारात्मक पड़ाव।
उत्तर-
इस पड़ाव को काम्ते औद्योगिक समाज के तौर पर देखता है तथा वे इसकी शुरुआत भी 14वीं सदी से ही मानते हैं। इस पड़ाव में सिद्धान्त व उसके प्रयोग में एक अन्तर पैदा हुआ। बौद्धिक कल्पना तीन अवस्थाओं में बांटी गई। ये है औद्योगिक या असली, एस्थैटिक या शाब्दिक व वैज्ञानिक या फिलास्फीकल। यह तीन अवस्थाएं प्रत्येक विषय के प्रत्येक पक्ष से मेल खाती हैं। औद्योगिक योजना का विशेष गुण राजनीतिक आजादी का होना है व इन्कलाबी पात्र का होना है। काम्ते सबसे ज्यादा महत्ता फिलास्फी व विज्ञान को देता है। उसका विचार है कि सकारात्मक पड़ाव में इन दोनों की बढ़त होती है इस पड़ाव की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सामाजिक व्यवस्था व विकास में कोई द्वन्द नहीं होता है।

प्रश्न 4.
सकारात्मकवाद।
उत्तर-
काम्ते के अनुसार सकारात्मकवाद का अर्थ वैज्ञानिक विधि है वैज्ञानिक विधि वह विधि है, जिसमें किसी विषय वस्तु के समझने व परिभाषित करने के लिए कल्पना या अनुमान का कोई स्थान नहीं होता। यह तो परीक्षण अनुभव वर्गीकरण व तुलना व ऐतिहासिक विधि की एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली होती है। इस तरह परीक्षण, अनुभव, वर्गीकरण तुलना व ऐतिहासिक विधि द्वारा किसी विषय के बारे में सब कुछ समझना व उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना सकारात्मकवाद है। सकारात्मकवाद का सम्बन्ध वास्तविकता से है कल्पना से नहीं। इसका सम्बन्ध उन निश्चित तथ्यों से है न कि अस्पष्ट विचारों से जिनका पूर्व ध्यान सम्भव है। सकारात्मकवाद वह प्रणाली है जो कि सर्वव्यापक रूप में सब को मान्य है।

प्रश्न 5.
सामाजिक स्थैतिकी।
उत्तर-
काम्ते ने समाज शास्त्र की इस शाखा की परिभाषा देकर लिखा है, समाज शास्त्र के स्थैतिकी अध्ययन से मेरा अभिप्राय सामाजिक प्रणाली के विभिन्न भागों में होने वाली क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित नियमों की खोज करने से है। काम्ते अनुसार सामाजिक स्थैतिकी में हम विभिन्न संस्थाओं व उनके बीच सम्बन्धों की चर्चा करते हैं। कृषि समाज को केवल उसकी विभिन्न संस्थाओं के अन्तर्सम्बन्धों की व्यवस्था के रूप में समझा जा सकता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 6.
सामाजिक गतियात्मकता।
उत्तर-
काम्ते के अनुसार समाज शास्त्र की दूसरी शाखा सामाजिक गतिशीलता में समाज की विभिन्न इकाइयों के विकास व उनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। काम्ते के विचार में सामाजिक गति आत्मिकता के नियम केवल बड़े समाज में ही स्पष्ट रूप में देखे जा सकते हैं। इस सम्बन्ध में काम्ते का निश्चित विचार था कि सामाजिक परिवर्तन के कुछ निश्चित पड़ावों में से निकलते हैं व उनमें लगातार प्रगति होती है।

प्रश्न 7.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्ग एक शोषण करने वाला व दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं, जिनमें संघर्ष होता है इसी को मार्क्स वर्ग संघर्ष कहते हैं । शोषण करने वाला वर्ग जिसको वह पूंजीपति वर्ग या Bourgouisses का नाम देता है उसके पास उत्पादन के साधन होते हैं और वह इन उत्पादन के साधनों से अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग जिसके वह मजदूर वर्ग या Proletariats का नाम देता है। उसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते। उसके पास रोजी कमाने के लिए केवल अपनी मेहनत बेचने के अलावा कुछ नहीं होता। वह पूंजीपति वर्ग से हमेशा शोषित होता है। इन दोनों में हमेशा एक संघर्ष चलता रहता है। इसी को मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।

प्रश्न 8.
मार्क्स के अनुसार किस समय वर्ग एवं वर्ग संघर्ष का अन्त हो जाएगा?
उत्तर-
मजदूर वर्ग के नेतृत्व में वर्ग संघर्ष के द्वारा राज्य पर अधिकार हो जाने के पश्चात् समाजवाद के युग का आरम्भ होगा। मार्क्स के अनुसार, राज्य शोषक ‘वर्ग के हाथों’ में दमन का बहुत बड़ा हाथ होता है। क्रान्ति के बाद भी सामन्तवाद व पूंजीवाद के दलाल प्रति क्रान्ति की कोशिश करते हैं। इसलिए पूंजीवाद के समाजवाद में जान कर संक्रमण काल में मजदूर की सत्ता की अस्थायी अवस्था होगी। समाजवाद की स्थापना के बाद शोषण का अन्त हो जाने पर वर्ग खत्म हो जाएगा व प्रत्येक व्यक्ति को अपने श्रम के अनुसार उत्पादन का लाभ मिलेगा। पर साम्यवाद की अधिक उन्नत अवस्था में प्रत्येक को उसकी ज़रूरत के अनुसार ही मिलने लग जाएगा। धीरे-धीरे राज्य जो शोषक वर्ग का हथियार रहा है, बिखर जाएगा व इसकी जगह आपसी सहयोग व सहकारिता के अनुसार पर आधारित संस्थाएं ले लेंगी। वर्गों व वर्ग संघर्ष का अन्त हो जाएगा।

प्रश्न 9.
पूंजीवादी वर्ग।
उत्तर-
मार्क्स ने पूंजीवादी वर्ग की धारणा दी है। उस अनुसार, समाज में एक वर्ग ऐसा होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं वह जो सभी उत्पादन के साधनों का मालिक होता है। वह अपने उत्पादन के साधनों की मदद से और वर्गों का शोषण करता है। इन साधनों की मदद से वे और पैसे कमाते हैं और अमीर हुए जाते हैं। इस पैसे व उत्पादन के साधनों की मलकीयत करके आराम की ज़िन्दगी व्यतीत करता है। यह एक प्रगतिशील वर्ग होता है। जो थोड़े समय में ही शक्तिशाली उत्पादन शक्ति का मालिक हो गया है, वह यहां आकर यदि उन्नति को रोकते हैं व मजदूर वर्ग का शोषण करते हैं एक दिन आएगा जब मज़दूर वर्ग, इस वर्ग की सत्ता उखाड़ फेंकेगे व समाजवादी समाज की स्थापना करेंगे।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 10.
मज़दूर वर्ग।
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार, समाज में दो वर्ग होते हैं। पूंजीपति वर्ग व मज़दूर वर्ग। इस मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन के साधनों की मलकियत नहीं होती। उसके पास कोई पूंजी (पैसा) नहीं होती। उसके पास अपनी रोजी कमाने के लिए अपनी मेहनत बेचने के अलावा और कोई तरीका नहीं होता। वह हमेशा पूंजीपति वर्ग के हाथों शोषित होता रहता है। पूंजीपति वर्ग हमेशा उनसे अधिक-से-अधिक काम लेता रहता है व कम-से-कम पैसा देता है। उसकी मेहनत ही अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करती है तथा उसको पूंजीपति वर्ग ही रखता है। इस शोषण के कारण ही मज़दूर वर्ग और ग़रीब होता जाता है। एक दिन दोनों में संघर्ष छिड़ जाएगा अन्त में मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग को उखाड़ गिराएगा व समाजवादी समाज की स्थापना करेगा।

प्रश्न 11.
वैधानिक सत्ता।
उत्तर-
जहां कहीं भी नियमों की ऐसी प्रणाली है जो निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार न्यायिक व प्रशासनिक रूप से की जाती है व जो एक नियमित समूह के सभी सदस्यों के लिए सही व मानने योग्य होती है, वहां व्यापक सत्ता है। जो व्यक्ति आदर्श की शक्ति को चलाते हैं वह विशेष रूप से श्रेष्ठ होते हैं। वह कानून द्वारा सारी विधि के अनुसार नियुक्त होते हैं या चुने जाते हैं और वे वैधानिक व्यवस्था को चलाने के लिए आप निर्देशित रहते हैं।

जो व्यक्ति बिना आदेशों के अधीन हैं वह वैधानिक रूप से समान हैं वह विधान का पालन करते हैं न कि उस विधान में काम करने वालों का। यह नियम उस उपकरण के लिए उपयोग किए जाते हैं जो वैधानिक सत्ता की प्रणाली का उपयोग करते हैं। यह संगठन स्वयं अबाध्य होते हैं। इसके अधिकारी उन नियमों के अधीन होते हैं जो इसकी सत्ता की सीमा निर्धारित करते हैं।

प्रश्न 12.
परम्परागत सत्ता।
उत्तर-
इस प्रकार की सत्ता में एक व्यक्ति की वैधानिक नियमों के अन्तर्गत एक पद पर बैठे होने के कारण नहीं बल्कि परम्परा के द्वारा माने हुए पदों पर बैठे होने के कारण प्राप्त होती है। चाहे इस पद को परम्परागत व्यवस्था के अनुसार परिभाषित किया जाता है। इस कारण ऐसे पद पर बैठे होने के कारण व्यक्ति को कुछ विशेष सत्ता मिल जाती है। उस प्रकार की सत्ता परम्परागत विश्वासों पर टिकी होने के कारण परम्परागत सत्ता कहलाती है। जैसे क्षेत्रीय युग में भारतीय गाँवों में मिलने वाली पंचायत में पंचों की सत्ता को ही ले लो। इन पंचों की सत्ता की तुलना भगवान् की सत्ता की तुलना से की जाती थी जैसे कि पंच परमेश्वर की धारणा में दिखाई देता था। उसी प्रकार पितृसत्तात्मक परिवार में पिता को परिवार से सम्बन्धित सभी विषयों में जो अधिकार पर सत्ता प्राप्त होती है उसका भी आधार वैधानिक न होकर परम्परा होता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 13.
चमत्कारी सत्ता।
उत्तर-
व्यक्तिगत सत्ता का स्रोत परम्परा से बिल्कुल भिन्न भी हो सकता है। आदेश की शक्ति एक नेता भी प्रयोग कर सकता है चाहे वह एक पैगम्बर हो, नायक हो, या अवसरवादी नेता हो पर ऐसा व्यक्ति तो ही चमत्कारी नेता हो सकता है जब वह सिद्ध कर दे कि तान्त्रिक शक्तियां देवी शक्तियां नायकत्व या अन्य अभूतपूर्व गुणों के कारण उसके पास चमत्कार है।

इस प्रकार यह सत्ता न तो वैधानिक नियमों पर व न ही परम्परा पर बल्कि कुछ करिश्मा या चमत्कार पर आधारित होती हैं। इस प्रकार की शक्ति केवल उन व्यक्तियों के पास सीमित होती है जिनके पास चमत्कारी शक्तियां होती हैं इस प्रकार की सत्ता प्राप्त करने में व्यक्ति को काफ़ी समय लग जाता है व पर्याप्त यानी पूरे साधनों, कोशिशों के बाद ही लोगों द्वारा यह सत्ता स्वीकार की जाती है। दूसरे शब्दों में एक व्यक्ति के द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास इस प्रकार किया जाता है कि लोग यह समझने लगें कि उसने अपने व्यक्तित्व में कोई चमत्कारी शक्ति का विश्वास कर लिया है। इसके बल पर ही वह और लोगों को अपने सामने झुका लेता है। व्यक्तियों द्वारा सत्ता स्वीकार कर ली जाती है। इस तरह करिश्माई नेता अपने प्रति या अपने लक्ष्य या आदर्श के प्रतिनिष्ठा के नाम पर दूसरों से आज्ञापालन करने की माँग करता है। जादूगर, पीर, पैगम्बर, अवतार, धार्मिक नेता, सैनिक योद्धा, दल के नेता इसी तरह की सत्ता सम्पन्न व्यक्ति होते हैं। लोग इसी कारण ऐसे लोगों की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं।

प्रश्न 14.
सामाजिक क्रिया।
उत्तर-
वैबर अनुसार सामाजिक क्रिया व्यक्तिगत क्रिया से भिन्न है। इसकी परिभाषा देते हुए वैबर ने लिखा है कि, “किसी भी क्रिया को करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा लिए गए Subjective अर्थ के अनुसार उस क्रिया में दूसरे व्यक्तियों के मन के भावों पर क्रियाओं का समावेश हो तथा उसी के अनुसार गतिविधि निर्धारित हो।” वैबर के अनुसार सामाजिक क्रिया और व्यक्तियों के भूत, वर्तमान या होने वाले व्यवहार द्वारा प्रभावित हो सकती है व हर प्रकार की बाहरी क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं हो सकती।

प्रश्न 15.
पूंजीवाद के मुख्य लक्षण बताओ।
उत्तर-

  • पूजीवाद में पूंजीपति का कमाए हुए लाभ पर पूरा अधिकार होता है।
  • पूंजीवाद में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने की कोशिश की जाती है ताकि अधिक-से-अधिक लाभ उठाया जा सके।
  • व्यापार को वैज्ञानिक तरीके से किया या चलाया जाना चाहिए।
  • उत्पादन हमेशा बाज़ार के सामने रखकर या बेचने के लिए किया जाता है।
  • लेखा-जोखा रखने की उन्नत विधि अपनाई जाती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 16.
सामाजिक तथ्य क्या है?
उत्तर-
विभिन्न प्रकार के समाजों में कुछ ऐसे तथ्य होते हैं, जो भौतिक प्राणीशास्त्री व मनोवैज्ञानिक तथ्यों से अलग होते हैं। दुर्खीम इस प्रकार के तथ्यों को सामाजिक तथ्य मानते हैं। दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की कुछ परिभाषा दी है। एक जगह दुर्खीम लिखते हैं, “सामाजिक तथ्य काम करने, सोचने व अनुभव करने के वे तरीके हैं जिस में व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अस्तित्व को बनाए रखने की उल्लेखनीय विशेषता होती है।”

एक अन्य स्थान पर दुर्खीम ने लिखा है, “सामाजिक तथ्यों में काम करने, सोचने, अनुभव करने के तरीके शामिल है, जो व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं व जो अपनी दबाव शक्ति के मध्यम से व्यक्ति को निर्धारित करते अपनी किताब के प्रथम Chapter की आखिरी पंक्तियों में इसकी विस्तार सहित परिभाषा पेश करते हुए लिखा है, “एक सामाजिक तथ्य क्रिया करने का प्रत्येक स्थायी, अस्थायी तरीका है, जो आदमी पर बाहरी दबाव डालने में समर्थ होता है या दोबारा क्रिया करने का प्रत्येक तरीका जो किसी समाज में आम रूप से पाया जाता है पर साथ ही साथ व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र भिन्न अस्तित्व रखता है।”

प्रश्न 17.
बाह्यता।
उत्तर-
बाह्यता (Exteriority)—सामाजिक तत्त्व की सबसे पहली व महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका बाहरीपन है। बाह्यता का अर्थ है सामाजिक तथ्य का निर्माण तो समाज के सदस्यों की ओर से ही होता है परन्तु सामाजिक तथ्य एक बार विकसित होने के पश्चात् फिर किसी व्यक्ति विशेष के नहीं रहते व वह उस अर्थ में कि इसको एक स्वतन्त्र वास्तविक रूप में अनुभव किया जाता है। वैज्ञानिक का उससे कोई आन्तरिक सम्बन्ध नहीं होता और न ही सामाजिक तथ्यों का व्यक्ति विशेष पर कोई प्रभाव पड़ता है।

इस प्रकार बाह्यता का अर्थ है कि सामाजिक तथ्य व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं। वह किसी व्यक्ति विशेष के नहीं होते बल्कि सम्पूर्ण समाज के होते हैं।

प्रश्न 18.
(विवशता) बाध्यता।
उत्तर-
बाध्यता या विवशता (Constraint) सामाजिक तथ्यों की दूसरी प्रमुख व महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी विवशता है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति पर सामाजिक तथ्यों का एक दबाव या विवशता का प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः सामाजिक तथ्यों का निर्माण एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्वारा नहीं होता बल्कि अनेकों व्यक्तियों द्वारा होता है। अतः यह बहुत शक्तिशाली होते हैं व किसी व्यक्ति पर इनकी विवशता के कारण प्रभाव पड़ता है।

दुर्खीम का मानना है कि सामाजिक तथ्य केवल व्यक्ति के व्यवहार को नहीं बल्कि उसके सोचने विचारने आदि के तरीके को प्रभावित करते हैं। दुर्खीम बताते हैं कि हम सामाजिक तथ्यों की यह विशेषता इस रूप में देख सकते हैं कि यह सामाजिक तथ्य आदमी की अभिरुचि के अनुरूप नहीं बल्कि व्यक्ति के व्यवहार उनके अनुरूप होता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 19.
व्यापकता।
उत्तर-
सामाजिक तथ्यों की तीसरी विशेषता यह है कि समाज विशेष में यह तथ्य आदि से अन्त तक फैले होते हैं। यह सब के साझे होते हैं। यह किसी व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत विशेषताएं नहीं होती। लेकिन व्यापकता अनेकों वैयक्तिक तथ्यों की केवल एक मात्र परिणाम ही नहीं होती। यह तो शुद्ध रूप में अपने स्वभाव से ही सामूहिक होती है। व्यक्तियों पर इनका प्रभाव इनकी सामूहिक विशेषता का परिणाम होता है।

प्रश्न 20.
सामाजिक तथ्य के प्रकार।
उत्तर-
दुर्खीम ने दो प्रकार के सामाजिक तथ्यों का वर्णन किया है। साधारण तथ्य (Normal) तथ्य तथा यह वह सामाजिक तथ्य होते हैं, जो पूरी मानव जाति के क्षेत्र में फैले होते हैं, व यदि वह सभी व्यक्तियों में नहीं तो उनमें से अधिकतर में पाए जाते हैं। व्याधिकीय या Pathological सामाजिक तथ्य वह होते हैं जो पूरी मानव जाति में न मिलकर कहीं-कहीं ही फैले होते हैं।

प्रश्न 21.
दमनकारी कानून क्या होते हैं ?
उत्तर-
दमनकारी कानून (Repressive Law)-दमनकारी कानूनों को एक प्रकार से सार्वजनिक कानून (Public Law) कहा जा सकता है। दुर्खीम के अनुसार, यह दो प्रकार के होते हैं –

(i) दण्ड सम्बन्धी कानून (Penal Laws)-जिनका सम्बन्ध कष्ट देने, हानि पहुंचाने, हत्या करने या स्वतन्त्रता न देने के साथ है। इन्हें संगठित दमनकारी कानून (Organized Repressive Law) कहा जा सकता है।

(ii) व्याप्त कानून (Diffused Laws)-कुछ दमनकारी कानून ऐसे होते हैं जो पूरे समूह में नैतिकता के आधार पर फैले होते हैं। इसलिए दुर्खीम इन्हें व्याप्त कानून कहते हैं। दुर्खीम के अनुसार, दमनकारी कानून का सम्बन्ध आपराधिक कार्यों से होता है। यह कानून अपराध व दण्ड की व्याख्या करते हैं। यह कानून समाज की सामूहिक जीवन की मौलिक दशाओं का वर्णन करते हैं। प्रत्येक समाज के अपने मौलिक हालात होते हैं इसलिए भिन्न-भिन्न समाजों में दमनकारी कानून भिन्न-भिन्न होते हैं। इन दमनकारी कानूनों की शक्ति सामूहिक दमन में होती है, व सामूहिक मन समानताओं से शक्ति प्राप्त करता है।

प्रश्न 22.
प्रतिकारी कानून।
उत्तर-
प्रतिकारी कानून (Restitutive Laws) कानून का दूसरा प्रकार प्रतिकारी कानून व्यवस्था है। यह कानून व्यक्तियों के सम्बन्धों में पैदा होने वाले असन्तुलन को साधारण स्थिति प्रदान करते हैं। इस वर्ग के अन्तर्गत व्यापारिक कानून, नागरिक कानून, संवैधानिक कानून, प्रशासनिक कानून इत्यादि आ जाते हैं। इनका सम्बन्ध पूरे समाज के सामूहिक स्वरूप से न होकर व्यक्तियों से होता है। यह कानून समाज के सदस्यों के व्यक्तिगत सम्बन्धों में पैदा होने वाले असन्तुलन को दोबारा सन्तुलित व व्यवस्थित करते हैं। दुर्खीम कहते हैं कि प्रतिकारी कानून व्यक्तियों व समाज को कुछ मध्य संस्थाओं से जोड़ता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 23.
यान्त्रिक एकता क्या होती है?
उत्तर-
यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार, यान्त्रिक एकता समाज की दण्ड संहिता में अर्थात् दमनकारी कानूनों के कारण होती है। समूह के सदस्यों में मिलने वाली समानताएं इस एकता का आधार हैं जिस समाज के सदस्यों में समानताओं से भरपूर जीवन होता है जहां विचारों, विश्वासों, कार्यों व जीवन शैली के साधारण प्रतिमान व आदर्श प्रचलित होते हैं व जो समाज इन समानताओं के परिणामस्वरूप एक सामूहिक इकाई के रूप में सोचता व क्रिया करता है वह यान्त्रिक एकता दिखलाता है। उसके सदस्य मशीन की तरह के भिन्न-भिन्न पुओं की भांति संगठित रहते हैं। दुर्खीम ने आपराधिक कार्यों को दमनकारी कानून व यान्त्रिक एकता की अनुरूपता का माध्यम बताया है।

प्रश्न 24.
आंगिक एकता क्या होती है?
उत्तर-
आंगिक एकता (Organic Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार दूसरी एकता आंगिक एकता है। दमनकारी कानून की शक्ति सामूहिक चेतना में होती है। सामूहिक चेतना समानताओं से शक्ति प्राप्त करती है। आदिम समाज में दमनकारी कानूनों की प्रधानता होती है, क्योंकि उनमें समानताएं सामाजिक जीवन का आधार हैं। दुर्खीम के अनुसार, आधुनिक समाज श्रम विभाजन व विशेषीकरण से प्रभावित है जिसमें समानता की जगह विभिन्नताएं प्रमुख हैं। सामूहिक जीवन की यह विभिन्नता व्यक्तिगत चेतना को प्रमुखता देती है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से समूह से बन्धा नहीं रहता। इस सम्बन्ध में मानवों के आपसी सम्बन्धों का महत्त्व ज्यादा होता है। यही कारण है कि दुर्खीम ने आधुनिक समाजों में दमनकारी कानून की जगह प्रतिकारी कानून की प्रधानता बताई है। विभिन्नता पूर्ण जीवन में मानवों को एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल एक काम में विशेष योग्यता प्राप्त कर सकता है व बाकी सारे कामों के लिए उसको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। समूह के मैम्बरों की यह आपसी निर्भरता उनकी व्यक्तिगत असमानता उन्हें एक-दूसरे के नज़दीक आने के लिए मजबूर करती है। जिसके आधार पर समाज में एकता की स्थापना होती है। इस एकता को दुर्खीम ने आंगिक एकता (Organic Solidarity) कहा है। यह प्रतिकारी कानून व्यवस्था में दिखाई देता है।

प्रश्न 25.
सामाजिक एकता क्या है?
उत्तर-
दुखीम कहते हैं कि प्रत्येक समाज में कुछ मूल आदर्श, विश्वास, व्यवहार के तरीके, संस्थाएं व कानून प्रचलित होते हैं जो कि समाज को एक सूत्र में बांध कर रखते हैं। ऐसे तत्त्वों के कारण समाज में सम्बद्धता बनी रहती है व एकता भी बनी रहती है। यह कारक समाज में सर्वसम्मत्ति पैदा करते हैं व एकता को बढ़ाते हैं। इस प्रकार की एकता को सामाजिक एकता कहते हैं। इन कारणों के नष्ट होने या बिखरने से सामाजिक एकता खतरे में पड़ जाती है। जिस कारण समाज विघटन की ओर जाने लगता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
काम्ते के तीन पड़ावों के सिद्धान्त का वर्णन करो।
उत्तर-
समाजशास्त्रीय क्षेत्र में काम्ते का एक महत्त्वपूर्ण योगदान उसके द्वारा पेश किया तीन पड़ावों का नियम है। उसने अपनी प्रसिद्ध किताब पाज़ीटिव फिलोस्फी (Positive Philosophy) में इस सिद्धान्त के बारे में बताया। इस सिद्धान्त का निर्माण काम्ते ने 1822 में किया जब कि उसकी उम्र केवल 24 साल की थी। काम्ते ने इस नियम का विचार कोन्डरसेट (Conderect), टुरर्गेट (Turoget) तथा सेन्ट साईमन (Saint Simon) से प्राप्त किया।

काम्ते का कहना है कि मानव के ज्ञान या चिन्तन प्रक्रियाओं का विकास नहीं हुआ है। वह तो कुछ निश्चित पड़ावों में से ही निकला है काम्ते लिखते हैं, “सारे समाजों में व सारे युगों में मानव के बौद्धिक विकास का अध्ययन करने से उस महान् आधार, मौलिक नियम का पता चलता है जिसके अधीन मानव का चिन्तन आवश्यक रूप से होता है व जिसका ठोस परिणाम संगठन के तथ्यों व हमारे ऐतिहासिक अनुभवों, दोनों में शामिल है। यह नियम इस प्रकार है, हमारा प्रत्येक प्रमुख संकल्प हमारे ज्ञान की प्रत्येक शाखा एक के बाद एक तीन भिन्न-भिन्न सैद्धान्तिक अवस्थाओं (Theoretical Conditions) में से होकर निकलती है तथा वह हैं आध्यात्मिक या काल्पनिक (Theological or fictious) अवस्था, अर्द्धभौतिक या अमूर्त (Metaphysical or abstract) अवस्था व वैज्ञानिक या सकारात्मक (Scientific or positive) अवस्था। सरल शब्दों में उपस्थित नियम का अर्थ है कि मानवीय जीवन के आरम्भ में जब लोगों ने किसी विषय के सम्बन्ध में बोध करना या ज्ञान प्राप्त करना होता था, तो वह आध्यात्मिक आधार पर सोच विचार करते थे। समय व्यतीत होने के साथ लोगों ने आध्यात्मिक आधार की जगह अर्द्धभौतिकी आधार के किसी भी विषय के बारे में ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया पर समय कुछ आगे बढ़ा तो मानव ने उपरोक्त दोनों आधारों की बजाय किसी प्रपंच के सकारात्मक आधार पर समझना आरम्भ किया। प्रथम अवस्था में कल्पना, दूसरी में भावना व तीसरी में तर्क प्रधान रहता है।

काम्ते ने इस नियम को मानवीय स्वभाव के पहलुओं पर आधारित किया। मानवीय स्वभाव के तीन महत्त्वपूर्ण पहलू निम्नलिखित हैं-
1. भावनाएं (Feelings)—मानव की भावनाएं उसे काम करने के लिए उत्साहित करती हैं तथा इन्हीं कामों की सेवा करता रहता है।

2. सोचशक्ति या विचार (Thought)-मानव इन भावनाओं की तृप्ति करने के बारे में सोचता है और विचार बनाता है। यह विचार इन भावनाओं की तृप्ति करने की ज़िम्मेदारी लेते हैं तथा इन्हें संचालित करने में मदद लेते

3. कार्य (Action)-भावनाओं की तृप्ति या उन्हें पूरा करने के लिए मानव कार्य करता है।
काम्ते का कहना था कि व्यक्ति जीवन तो ही जी सकता है, यदि उसके स्वभाव के इन तीन पहलुओं में तालमेल हो। यदि व्यक्ति की भावनाएं कुछ और हों, सोच कुछ व कार्य कुछ और करे तो ऐसा व्यक्ति साधारण जीवन नहीं जी सकता। इसी प्रकार सामाजिक व्यक्तियों के बीच सांझे व संचालित व्यवहारों की प्रणाली का होना व निरन्तरता के लिए संस्थाएं, ज्ञान कीमतें व विश्वासों की किसी प्रणाली का होना ज़रूरी है जो कि सफलतापूर्वक ढंग से समाज के सदस्यों की भावनाएं, विचारों व कार्यों में सम्बन्ध स्थापित करें।

काम्ते ने मानवता के इतिहास का निरीक्षण किया और कहा कि उपरोक्त समस्या के हल के लिए तीन सामाजिक प्रणालियां विकसित हुई हैं जिनमें उपरोक्त तालमेल था। वह इस प्रकार हैं-

  1. आध्यात्मिक पड़ाव (Theological Stage)
  2. अधिभौतिक पड़ाव (Metaphysical Stage)
  3. सकारात्मक पड़ाव (Positive Stage)

1. आध्यात्मिक पड़ाव (Theological Stage)-काम्ते की सैद्धान्तिक योजना में आध्यात्मिक पड़ाव बहुत महत्त्व रखता है। हमारा विचार है कि इसके अनुसार सामाजिक क्रम विकास का आरम्भ समझने के लिए पहले पड़ाव का अच्छी तरह निरीक्षण करना अनिवार्य है। उसके अनुसार आध्यात्मिक पड़ाव में मानव के विचार काल्पनिक थे। मानव सब वस्तुओं को परमात्मा के रूप में या किसी अलौकिक जीव की उस समय की क्रियाओं के परिणाम के रूप में देखता था, मानता व समझता था। धारणा यह होती थी कि सब वस्तुएं चाहे निर्जीव हैं चाहे सजीव का कार्य रूप, अलौकिक शक्तियां हैं। अर्थात् सब वस्तुओं में वही शक्ति व्यापक है। धार्मिक पड़ाव में मानव के विचारों के बारे में चर्चा करते हुए काम्ते लिखते हैं कि आध्यात्मिक अवस्था में सृष्टि के आवश्यक स्वभाव की ख़ोज करने या प्राकृतिक घटनाओं के होने के अन्तिम कारण को जानने के यत्न में मानव का दिमाग यह मान लेता है कि सब घटनाएं आलौकिक प्राणियों को तत्कालीन घटनाओं का सबूत हैं । काम्ते के अनुसार इस स्तर को नीचे तीन उप-स्तरों में बांटा जा सकता है।

(i)  प्रतीक पूजन (Festishism) सामाजिक गतिशीलता में काम्ते अपनी फ़िलास्फी के मल तत्त्व को स्थापित करके उसका मानव इतिहास के विश्लेषण में उपयोग करता है। उसकी धारणा है कि उसका मूल तत्त्व, सामाजिक विज्ञानों को फिर सजीव करेगा। आध्यात्मिक पड़ाव काम्ते के विचार अनुसार प्रतीक पूजन या फैटिशवाद के सिवाय अन्य किसी तरह भी शुरू नहीं हो सकता था। मानवीय सोच में यह विचार बनना प्राकृतिक था कि सभी बाहरी वस्तुओं में उनकी तरह से ही जीवन है। इस स्थिति में बौद्धिक जीवन से जज्बात अधिक हावी थे। प्रतीक पूजन की फिलास्फी का मूल तत्त्व यह विश्वास है कि लोगों के जीवन पर कई किस्म के अनजाने असर कुछ वस्तुओं के कार्यों के कारण सामने आते हैं जिनको वह जीवित समझते हैं। प्रतीक पूजन आध्यात्मिकता का बिगड़ा स्वरूप नहीं बल्कि इसका स्रोत है।

प्रतीक पूजन का सदाचार, भाषा, बोध व समाज से एक विशेष किस्म का सम्बन्ध था। मानव जाति की आरम्भिक अवस्था में भावुकता हावी थी। जिससे सदाचार व नैतिकता पर अधिक दबाव डाला जाता था। भाषा का चिन्तनात्मक आधार नहीं है। काम्ते का विचार है कि मानवीय भाषा का एक रूपीय आकार है। बौद्धिक स्तर पर फैटिशवाद बहुत जबरदस्त प्रणाली थी। इस अवस्था में मानव केवल आध्यात्मिक संकल्प देख व जान सकता है। बहुत ही कम प्राकृतिक प्रघटन होंगे जिनका उसे निजी अनुभव था जिनमें उसका ज्ञान बढ़ा था। परिणामस्वरूप इस उप-पड़ाव की सभ्यता का सार बहुत ही निम्न था। सामाजिक स्तर पर फैटिशवाद ने एक विशेष प्रकार के पादरीवाद को जन्म दिया। इसमें भविष्य बताने वाले व जादू-टोना करने वाले पादरी पैदा हुए क्योंकि प्रतीक पूजन अवस्था में प्रत्येक वस्तु का मानव से सीधा सम्बन्ध था इसलिए पादरीवाद एक संगठित रूप में विकसित नहीं हुआ। फिर आदमी की ज़िन्दगी पर यह फैटिश देवता बहुत प्रभाव नहीं डालते थे। परिणामस्वरूप चिन्तनशील श्रेणी के जन्म का इस उप-पड़ाव में कोई मौका नहीं था।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मानव की प्रकृति पर विजय इस उप-पडाव से आरम्भ होती है। सबसे विशेष पक्ष इस अवस्था में मानव का पशुओं को अपने बस करके पालतू बनाना है। काम्ते का ख्याल है कि बहुदेवतावाद, जोकि अगला उप-पड़ाव है का आरम्भ प्रतीक पूजन में ही ढूंढ़ा जा सकता है। एक प्रकार से वह इस बात को ऐतिहासिक ज़रूरत के स्तर पर ले जाते हैं। आध्यात्मिक पड़ाव के दूसरे उप-पड़ाव पर पहुँचने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बौद्धिक बदलाव मानव के तारों के बारे में विचार बदलने से शुरू हुए। तारों की पूजा फैटिशवाद में भी होती थी पर उनको देवताओं के दर्जे पर पहुँचने में एक अमूर्त स्थिति ने ठोस रूप दे दिया।

(ii) बहु देवतावाद-बहु देवतावाद की अवस्था सबसे अधिक सजीव रही है। इस उप-पड़ाव को समझने के लिए काम्ते सबसे पहले अपनी विश्लेषण विधि के बारे में प्रकाश डालते हैं। उसका कहना है कि हमारी विधि को बहु-देवतावाद के ज़रूरी गुणों का अमूर्त अध्ययन करना चाहिए। उसके बाद बह देवतावाद का उन गुणों के सन्दर्भ में निरीक्षण करना चाहिए। मानवीय बोध के विकास के आरम्भ में बहुत सी घटनाओं से सुमेल रखते देवताओं की आवश्यकता थी। बहु देवतावाद बुनियादी तौर से हर किस्म की वैज्ञानिक व्याख्या के खिलाफ थे, पर विज्ञान का आरम्भ इसी पड़ाव से हुआ। वास्तव में मानवीय बौद्ध का फैटिशवाद से बहु देवतावाद तक पहुँचना एक महान् प्राप्ति है। बहु देवतावाद की सामाजिक सोच दो पक्षों से कही जा सकती है यह है राजनीतिक व नैतिक।

(क) राजनीतिक आकार-राजनीति के बीज शुरू से ही मानव जाति में कई तरीकों से बीजे गए थे। शुरू में सियासत में सैनिक गुण जैसे कि हिम्मत व हौंसला सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व थे। बाद में समझदारी व कूटनीति ताकत का आधार बने। काम्ते के अनुसार बहु-देवतावाद की अवस्था में राजनीतिक आकार के कई पक्ष थे जैसे कि धर्म युद्ध व सैनिक प्रणाली। इसी उप-पड़ाव में धर्म ने सामाजिक महत्ता ग्रहण की। यूनानी सभ्यता में धार्मिक मेले व अन्य कई घटनाएं इस पक्ष को उजागर करते हैं। इसके सिवा इस अवस्था में सेना का विकास एक आवश्यकता थी। इस सैनिक सभ्याचार के विकास का मुख्य कारण यह था कि इस के बिना राजनीतिक आकार व उसकी तरक्की असम्भव थी। बहु-देवतावाद ने सैनिक अनुशासन को न केवल स्थापित ही किया बल्कि पूरी दृढ़ता से कायम भी रखा। राजनीतिक आकार के बहु देवतावाद के इस उप-पड़ाव में दो विशेष गुण हैं। यह हैं गुलाम प्रथा व आत्मिक व दुनियावी ताकत का केन्द्रीयकरण ।

(ख) नैतिकता-ऊपर दिए राजनीतिक आकार पर दिए वर्णन से स्पष्ट है कि नैतिकता की स्थिति बहुत बढ़िया नहीं थी। काम्ते के अनुसार गुलाम प्रथा में निजी पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध बुरी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। इसके सिवा नैतिकता राजनीतिक आकार के मुकाबले निम्न स्थिति में होती है। काम्ते के अनुसार बहु-देवतावाद की तीन अवस्थाएं हैं

(1) प्रथम अवस्था को काम्ते ने मिस्त्री या दैव शासकीय अवस्था का नाम दिया है। मध्य अवस्था के बौद्धिक व सामाजिक तत्त्व केवल पुरोहित पक्षों के हाथों में सम्पूर्ण सत्ता आ जाने से ही विकसित हो सकते हैं। इसका व्यापक स्तर पर क्रियाओं व पद्धतियों के योग बनाना व मानना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। परिणामस्वरूप इस प्रकार की बहु देवतावाद की अवस्था में एक विशेष किस्म की संस्था ने जन्म लिया जिनको जाति कहते हैं। सबसे पहले जाति-प्रथा एशिया के देशों में विकसित हुई। यह जाति-प्रथा चाहे सैनिक सभ्याचार में से निकली थी पर इस ने युद्ध की रुचियों पर काबू पाया व पुरोहितवाद को सत्ता दी। पश्चिमी सभ्यता में जाति-प्रथा विकसित नहीं हुई।

कामते के अनुसार इस सभ्यता में सामाजिक समतावाद मुख्य कीमत रही है। वह मार्क्स से बहुत सहमत लगता है जब वह कहता है कि उपनिवेशवाद इन्हीं एशियाई देशों के लिए बढ़ा है, क्योंकि पश्चिमी देशों के समतावाद ने जाति-प्रथा को तोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर जाति-प्रथा प्राचीन सभ्यता का व्यापक स्तर पर एक आधार है। इसकी व्यापकता इसकी मानवीय ज़रूरतों के लिए क्रियाशील होने का बहुत बड़ा सबूत है। जाति-प्रथा का बौद्धिक विकास में सब से बड़ी भूमिका इसका सिद्धान्त व अमल को भिन्न करना है। राजनीतिक तौर से इस की महत्ता समाज में शांति व व्यवस्था रखने में भी थी। पर इन सब गुणों के बावजूद दैवी शासकीय अवस्था उन्नति विरोधी थी।

(2) दूसरी अवस्था यूनानी या बौद्धिक थी जिसमें पहली बार बौद्धिक व सामाजिक तरक्की में अन्तर उत्पन्न किया गया। इस अवस्था के दौरान एक ऐसी चिन्तनशील कक्षा ने जन्म लिया जो सैद्धान्तिक सृजनों के अलावा कोई धन्धा नहीं करती थी इसलिए वह पुरोहित या पादरी समाज के विकल्प के रूप में उभर कर सामने आई। इसका असर विज्ञान की तरक्की पर पड़ा। इसमें सबसे विशेष रेखा गणित में हुआ क्रांतिकारी विकास है। विज्ञान के विकास को काम्ते बौद्धिक अवस्था में खोज के लिए तर्कशील स्वीकारात्मक को उपयोग से जोड़ते हैं। फिलासफी की प्रगति सबसे पहले विज्ञान के विकास के प्रभाव से शुरू हुई।

(3) तीसरी अवस्था को काम्ते ने रोमन या सैनिक का नाम दिया है। रोम की बहुत बड़ी प्राप्ति इसका अपने आप को दैवीय शासन से आजाद करवाना था जिसकी वजह से यहां राज्य प्रथा की जगह सीनेट का राज्य स्थापित हुआ। रोमन अवस्था का केन्द्रीय गुण इसकी युद्ध नीति थी। युद्ध का मुख्य उद्देश्य उपनिवेश इलाके स्थापित करना था। आदमी की चरित्र का विकास भी इस युद्ध सभ्याचार पर निर्भर था। उसको शुरू से ही सैनिक अनुशासन में पाला जाता था। अपनी जीत को बढ़ाने की लगातार बढ़ाने की नीति में ही रोम के पतन के कारण ढूंढ़े जा सकते हैं।

बहु-देवतावाद की इन तीन अवस्थाओं की एक व्यापक भूमिका है। काम्ते उन्हें मिस्त्र, यूनान व रोम के नमूनों के तौर पर देखता था। उसका मुख्य उद्देश्य तीन प्रकार के बहु देवतावाद को दर्शाना ही है।

(iii) एक ईश्वरवाद (Monotheism)-जब रोम ने सारे सभ्य जगत को इकट्ठा किया तो सामाजिक जीवन को ऊँचा करने के लिए एक ईश्वरवाद को बौद्धिक स्तर पर काम करने का मौका मिला। आध्यात्मिक फ़िलासफी का बौद्धिक पतन भी ज़रूरी होना था। काम्ते एक ईश्वरवाद की अवस्था की व्याख्या करने के लिए रोमन कैथोलिकवाद को उदाहरण के तौर पर पेश करता है। एक ईश्वरवाद मूलतयाः से एक विश्वास प्रणाली है जिसकी स्थापना राजनीतिक प्रणाली से स्वतन्त्र है। धर्म व राजनीतिक शक्ति में भिन्नता आना आधुनिक काल की महान् प्राप्ति है। रोमन कैथोलिकवाद की एक प्राप्ति नैतिकता को अपने अधिकार में लाना था। इससे पहले सदाचार सियासी ज़रूरतों द्वारा नियन्त्रत किया जाता था। इससे उप-पड़ाव में चिन्तनशील कक्षा का एक आज़ाद व प्रभावशाली अस्तित्व स्थापित हुआ। इसके परिणामस्वरूप सिद्धान्त व उसके अमल में पृथक्कता आई। अब सिद्धान्त बनाने के लिए अनुभव पर आधारित सन्दर्भ की आवश्यकता नहीं थी। राजनीति प्रणाली के बीच सुधार लाने के लिए अमूर्त सिद्धान्त बनाए जा सकते थे। इसी तरह समाज की भविष्य की ज़रूरतों के बारे में एक बात की जा सकती थी।

एक ईश्वरीवाद उप-पड़ाव में जागीरदारी प्रणाली को आधुनिक समाज की आधारशिला माना जा सकता है। नैतिक क्षेत्र में रोमन कैथोलिकवाद एक व्यापक नैतिकता कायम रखने में काफ़ी सफल रहा। नैतिकता की राजनीति से आज़ादी ने इसके विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग प्रकारों में पैदा होने में सहायता दी। जैसे निजी नैतिकता, पारिवारिक व सामाजिक नैतिकता परन्तु बौद्धिक गिरावट आई। इसके मुकाबले बहु-देवतावाद बौद्धिक विकास के लिए ज्यादा उचित था।

2. अधिभौतिक पड़ाव (Metaphysical Stage)-इस पड़ाव को काम्ते आधुनिक समाज क्रांति काल भी कहा जाता है। यह पड़ाव पांच सदियों तक चला। यह 14वीं से 19वीं सदी तक चला। इस समय को हम दो भागों में बांट सकते हैं। प्रथम भाग में क्रांतिक आन्दोलन अपने आप व अनजाने में ही शुरू हो गया। दूसरा भाग सोलहवीं सदी से आरम्भ हुआ। इसमें नकारात्मक सिद्धान्त शुरू हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक बदलाव था। क्रांतिक पड़ाव का आरम्भ एक ईश्वरीवाद का आत्मिक व दुनियावी शक्तियों को भिन्न करने के वक्त से ही माना जा सकता है। क्रान्तिक फिलासफी 16वीं सदी में प्रोटैस्टैंटवाद के आने से शुरू हुआ था। यहां ध्यान देने योग्य यह है कि रोमन कैथोलिकवाद में आत्मिक व दुनियावी शक्तियों में विभिन्नता ने आध्यात्मिक सवालों को सामाजिक मामलों पर ही विचार करने की शक्ति दी है। अधिभौतिक पड़ाव के द्वितीय भाग को हम तीन अवस्थाओं में बांट सकते हैं। प्रथम अवस्था में पुरानी प्रणाली का 15वीं सदी के अन्त तक अपने आप अन्त हो गया था। द्वितीय अवस्था में प्रोटैस्टैंट वाद हमारे सामने आया।

इसमें चाहे काफी निरीक्षण का अधिकार था पर यह ईसाई धर्मशास्त्र तक ही सीमित रहा। तृतीय अवस्था में देववाद (Deism) 18वीं सदी में आगे आया। इस ने निरीक्षण की सीमित सीमाओं को तोड़ कर यह विचार दिया कि इसकी कोई सीमा नहीं है। एक तरह से इस पड़ाव में मध्यकालीन दर्शन व कानूनी विशेषताओं का काल आया। इन्हीं दोनों ने कैथोलिक व्यवस्था को आघात दिया। परिणामस्वरूप आत्मिकता का पतन हुआ जिसका दुनियावी पक्ष पर भी सहजता से असर हुआ। जागीरदार समाज व उच्च श्रेणी का भी पतन हुआ। प्रोटैस्टैंट वाद ने व्यापक आज़ादी का रूझान पैदा किया, जिसके परिणाम से लोग पुरानी व्यवस्था के सामाजिक व बौद्धिक तत्त्वों को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। इस पड़ाव में नकारात्मक फिलासफी स्थापित हुई।

3. सकारात्मक पड़ाव (Positivism Stage)-सकारात्मक पड़ाव का आरम्भ समझने के लिए दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात यह कि काम्ते इसको औद्योगिक समाज के तौर पर देखते थे। दूसरी बात यह है कि वह इसका आरम्भ भी 14वीं सदी से ही मानते हैं जिसका अर्थ यह है कि आध्यात्मिक या क्रांतिक पड़ाव के साथसाथ ही सकारात्मक पड़ाव का आरम्भ हुआ, पर यह 19वीं सदी में आकर हावी होना प्रारम्भ हुआ। – सकारात्मक पड़ाव में सिद्धान्त व उसके प्रयोग में एक अन्तर पैदा हुआ। बौद्धिक कल्पना तीन अवस्थाओं में बांटी गई। ये थीं औद्योगिक या अमली, एस्थैटिक या काविक तथा वैज्ञानिक या फिलास्फीकल। यह तीन अवस्थाएं हर विषय के तीन पक्षों से मेल खाती हैं जैसे कि अच्छा या फायदेमन्द, सुन्दर और सच्चा। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण औद्योगिक पक्ष है जिसके आधार पर हम प्राचीन समाज से आधुनिक अवस्था की तुलना कर सकते हैं। औद्योगिक पक्ष में महत्त्वपूर्ण गुण राजनीतिक आज़ादी का पैदा होना है।

अन्त में काम्ते सबसे अधिक महत्ता फिलासफी व विज्ञान को देता है। उसका विचार है कि सकारात्मक पड़ाव में इन दोनों की सब से अधिक प्रभाव होता है। इस पड़ाव की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सामाजिक व्यवस्था व उन्नति में कोई द्वन्द्व नहीं होता।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 2.
काम्ते के सकारात्मक (Positivism) के सिद्धान्त का वर्णन करो।
उत्तर-
काम्ते ने अपनी पुस्तक ‘पॉजटिव फिलास्फी’ में जिस प्रकार संकल्प ‘सकारात्मक’ का उपयोग किया है, स्पष्ट रूप में विवादात्मक है। इसने सही में इस संकल्प का उपयोग विचारधारक हथियार के तौर से क्रान्ति के साथ-साथ संघर्ष करने के लिए किया।

काम्ते का मुख्य उद्देश्य सामाजिक प्रपंच के समझने के लिए नकारात्मक फिलास्फी के आलोचनात्मक व विनाशकारी सिद्धान्तों को रद्द करना व उनकी जगह सकारात्मक फिलास्फी के रचनात्मक तथा उजागर सिद्धान्तों को स्थापित करना था। दूसरे शब्दों में काम्ते का मुख्य आदर्श सामाजिक अध्ययन व खोज के वैज्ञानिक स्तर पर लाना था। सकारात्मकवाद प्राकृतिक विज्ञानों की विधि को सामाजिक अध्ययन में उपयोग के सामाजिक विज्ञान को भी उन्होंने यथार्थ बनाता है जितना कि भौतिकवाद रासायनिक विज्ञान आदि हैं। उसका विश्वास था कि सकारात्मकवाद द्वारा वास्तविक व सकारात्मक विधि द्वारा ज्ञान प्राप्त होगा व उसकी व्यवहारिक उपयोग द्वारा सामाजिक उन्नति को सम्भव बनाया जा सकेगा। वास्तविक या सकारात्मक ज्ञान सामाजिक पुनर्संगठन की भी ठोस बुनियाद होगी। सकारात्मकवाद का अन्तिम उद्देश्य सामाजिक पुनर्निर्माण या पुनर्संगठन है।

अब प्रश्न उठता है कि संकल्प सकारात्मकवाद से काम्ते का क्या अर्थ था।
संक्षेप शब्दों में सामाजिक प्रपंच का अध्ययन करने के लिए काम्ते द्वारा प्रयोग की गई वैज्ञानिक विधि ही सकारात्मकवाद है। काम्ते ने यह विधि ह्युम, कान्त व गाल से अध्ययन विधि के रूप में ग्रहण की। इसने अपने सिद्धान्तों का निर्माण करते हुए सकारात्मकवाद का उपयोग किया परन्तु अपनी पुस्तकों में सकारात्मकवाद की स्पष्ट व्याख्या नहीं की व न ही इसके नियमों की उचितता को सबित करने का यत्न किया। ऐसा काम्ते ने जानबूझ कर किया क्योंकि उसका विश्वास था कि विद्या की चर्चा उस प्रपंच के अध्ययन से भिन्न करके नहीं की जा सकती, जिसकी इस विद्या द्वारा खोज की जाए।

काम्ते का सकारात्मकवाद से क्या अर्थ था। यह जानने का एक ही तरीका है कि हम उसके इस संक्षेप सम्बन्धी कथनों को एकत्र करें जो उसकी लेखनी में बिखरे हुए हैं।

काम्ते के सकारात्मकवाद के बारे में कथनों के विश्लेषणात्मक अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि काम्ते अनुसार सकारात्मकवाद का अर्थ वैज्ञानिक विधि है। वैज्ञानिक विधि वह विधि है जिस में किसी विषयवस्तु को समझने व प्रभावित करने के लिए कल्पना या अनुमान का कोई स्थान नहीं होता। यह तो (1) परीक्षण (2) तर्जुबा (3) वर्गीकरण, तुलना तथा ऐतिहासिक विधि की एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली होती है। इस तरह परीक्षण, तजुर्बे, वर्गीकरण, तुलना व ऐतिहासिक विधि पर आधारित वैज्ञानिक विधि द्वारा किसी विषय के बारे में सब कुछ समझना और उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना सकारात्मकवाद है।

चैम्बलिन ने काम्ते के सकारात्मकवाद के अर्थों को इन शब्दों में स्पष्ट किया है कि काम्ते ने यह अस्वीकार किया था कि सकारात्मकवाद अनीश्वरवादी है क्योंकि वह किसी भी रूप में पर्याप्त श्रमिकता से सम्बन्ध नहीं है। उसका यह भी दावा था कि सकारात्मकवाद किस्मतवादी नहीं है क्योंकि वह यह स्वीकार करता है कि बाहरी अवस्था में परिवर्तन हो सकता है। वह आशावादी भी नहीं है क्योंकि इसमें आशावाद के आध्यात्मिक आधार का अभाव है। यह भौतिकवादी भी नहीं क्योंकि यह भौतिक शक्तियों को बौद्धिक शक्तियों के अधीन करता है। सकारात्मकवाद का सम्बन्ध वास्तविकता से है कल्पना से नहीं, उपयोगी ज्ञान से है नाकि पूर्ण ज्ञान से, इसका सम्बन्ध उन निश्चित तथ्यों से है जिसका कि पूर्व-ध्यान सम्भव है। इसका सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान से है न कि अस्पष्ट विचारों से आंगिक सच्चाई से है न कि दैवी सच्चाई से, सापेक्ष से है न कि निष्पक्ष से। अन्त में सकारात्मकवाद इस अर्थ में हमदर्दीपूर्ण है कि यह उन सब लोगों को एक भाईचारे में बांध देता है जो कि इसके मूल सिद्धान्तों तथा अध्ययन प्रणालियों पर विश्वास करते हैं। संक्षेप में सकारात्मकवाद विचार की वह प्रणाली है जो कि सर्वव्यापक रूप में सब को मान्य है।

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि सकारात्मकवाद परीक्षण, निरीक्षण वर्णन, वर्गीकरण, तुलना, तजुर्बे व ऐतिहासिक विधि पर आधारित वैज्ञानिक विधि है जिससे किसी भी विषय-सम्बन्धी वास्तविक व सकारात्मक ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

कान्त व ह्यूम के विचारों का अनुसरण करते हुए काम्ते इस बात को स्पष्ट थे कि विज्ञान को क्या प्राप्त करना चाहिए तथा इसको प्राप्त करने के लिए यत्न करना चाहिए। वैज्ञानिक ज्ञान का अध्ययन-क्षेत्र सीमित है। वैज्ञानिक ज्ञान में ऐसे तर्क-वाक्य शामिल हैं जोकि परम्परा में सम्बन्धों के बारे में व जिनकी जांच की जा सकती है। यह तर्कवाद दो किस्मों के हैं-

  1. सहयोग की समानताएं (Uniformities of co-existence) अध्ययन किए जा रहे प्रपंच बीच भागों की अन्तर्निर्भरता के बारे में।
  2. अनुक्रमण की समानताएं (Uniformities of succession)

काम्ते के समय प्रकृति विज्ञान जैसे कि गणित, तारा विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रासायन विज्ञान व जीव विज्ञान विकसित हो चुके थे और इनके विषय-वस्तु का अध्ययन वैज्ञानिक विधि द्वारा किया जाता था। काम्ते अपने समय की प्रचलित तात्विक तथा धार्मिक विधियों द्वारा सामाजिक प्रपंचों की अध्ययन प्रणाली से सन्तुष्ट नहीं थे। इसने तो वैज्ञानिक विधि को सर्वोच्च प्रधानता प्रदान की थी इसलिए यह सामाजिक अध्ययन कार्य को भी परीक्षण, निरीक्षण व वर्गीकरण को वैज्ञानिक कार्य प्रणाली के घेरे में लाने के पक्ष में हैं। काम्ते का कहना था कि अनुभव, निरीक्षण, तजुर्बा वर्गीकरण की व्यवस्थित कार्य प्रणालियों द्वारा न केवल प्राकृतिक प्रपंचों का ही अध्ययन सम्भव है बल्कि समाज का भी क्योंकि समाज भी प्रकृति का अंग है।

जिस प्रकार प्राकृतिक प्रपंच कुछ निश्चित नियमों पर आधारित होते हैं उसी तरह प्रकृति के अंग के रूप में सामाजिक प्रपंच भी कुछ निश्चित नियमों के अनुसार प्रतीत होते हैं। जैसे धरती की गति, सूर्य व चांद का उदय होना व छिपना आदि प्राकृतिक प्रपंच अवास्तविक नहीं हैं उसी तरह सामाजिक प्रपंच भी अवास्तविक नहीं होते, बल्कि पूर्व निश्चित नियमों अनुसार प्रतीत होते हैं। वैसे सामाजिक प्रपंच कैसे प्रतीत होते हैं ? इनकी गति व कर्म क्या हैं ? अर्थात् सामूहिक जीवन उस से सम्बन्धित मौलिक नियमों का अध्ययन यथार्थ रूप में सम्भव है। यह भी सकारात्मकवाद का बुनियादी सिद्धान्त है। स्पष्ट है कि काम्ते का सकारात्मकवाद कल्पना के आधार पर नहीं बल्कि निरीक्षण, परीक्षण, तजुर्बे, तुलना, ऐतिहासिक विधि को व्यवस्थित कार्य प्रणाली के आधार पर सामाजिक प्रपंचों की व्याख्या करता है। पहले कारण ढूंढ़ने की जगह कारण सम्बन्धों की खोज पर अधिक दबाव देता है।

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि काम्ते अनुसार सकारात्मवादी प्रणाली के अन्तर्गत सब से पहले हम अध्ययन विषय को चुनते हैं फिर परीक्षण द्वारा उस विषय से सम्बन्धित प्रकट होने वाले सब तथ्यों को एकत्र करते हैं। उसके किसी भी विषय के बारे, चाहे वह भौतिक है या सामाजिक, तथ्यों या सामग्री एकत्र करने के लिए प्रमुख विधि परीक्षण है। इसके बाद उसका वर्णन किया जाता है। फिर विश्लेषण करके सामान्य विशेषताओं के आधार पर इनका वर्गीकरण किया जाता है। अन्त में उस विषय से सम्बन्धित परिणाम निकाला जाता है फिर उसकी प्रामाणिकता की जांच तथा तुलना ऐतिहासिक विधि के उपयोग से की जाती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 3.
मैक्स वैबर द्वारा दिये गये सत्ता के प्रकारों का वर्णन करो ।
उत्तर-
मनुष्य की क्रियाएं मानवीय संरचना के अनुसार ही होती हैं। प्रत्येक संगठित समूह में सत्ता के तत्त्व मूल रूप में विद्यमान रहते हैं। संगठित संग्रह में कुछ तो आम (साधारण) सदस्य होते हैं और कुछ ऐसे व्यक्ति या सदस्य होते हैं जिनके पास जिम्मेवारी होती है। उन्हीं के पास ही सत्ता भी होती है। कुछ लोग प्रधान प्रशासक के रूप में होते हैं, सत्ता की दृष्टि से समूह की रचना इसी प्रकार की होती है और उसमें सत्ता के तत्त्व मौजूद रहते हैं।

मैक्स वैबर के अनुसार, “समाज में सत्ता विशेष रूप से आर्थिक आधारों पर ही आधारित होती है। यद्यपि आर्थिक कारक सत्ता के निर्माण में एक मात्र कारक नहीं कहा जाता है। आर्थिक जीवन में यह आसानी से स्पष्ट है कि एक तरफ मालिक वर्ग, उत्पादन के साधनों एवं मजदूरों की सेवाओं के ऊपर अधिकार डालने की कोशिश करते हैं और दूसरी तरफ मज़दूर वर्ग अपनी मज़दूरी (सेवाओं) के एवज़ में मजदूरों के लिए अधिक-से-अधिक अधिकार प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। सत्ता का केन्द्र उनके हाथ में रहता है जिनकी सम्पत्ति के ऊपर उत्पादन के साधन केन्द्रित हैं । इसी सत्ता के आधार पर ही मज़दूरों की आजादी खरीद ली जाती है और मालिकों को मजदूरों के ऊपर एक विशेष अधिकार प्राप्त हो जाता है।”

यद्यपि इस प्रकार की सत्ता अब कम होती जा रही है और काफ़ी कम भी हो गयी है। परन्तु फिर भी आर्थिक क्षेत्रों में निजी सम्पत्ति और उत्पादन के साधन किसी भी वर्ग के लिए सत्ता के निर्धारण में कारक सिद्ध होते हैं। संक्षेप में आर्थिक जीवन में एक स्थिर या संस्थागत अर्थव्यवस्था समाज के कुछ विशेष वर्गों को अधिकार या सत्ता प्रदान करती है। यह वर्ग अपनी उस सत्ता के बल पर दूसरे वर्ग के ऊपर काबू (Control) रखते हैं या उनसे ऊंची स्थिति पर विराजमान रहते हैं। संत्ता के संस्थागत होने के विषय में वैबर का विश्लेषण बहुत कुछ इसी दिशा में ही है। फिर भी वैबर ने तीन मुख्य सत्ताओं का वर्णन किया है, ये तीन प्रकार की सत्ता निम्नलिखित हैं-

  1. वैधानिक सत्ता (Legal Authority)
  2. परम्परागत सत्ता (Traditional Authority)
  3. करिश्माई सत्ता (Charismatic Authority)

1. वैधानिक सत्ता (Legal Authority)-जहां कहीं भी नियमों की ऐसी व्यवस्था है जो निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार न्यायिक व प्रशासनिक रूप से प्रयोग की जाती है और जोकि एक निश्चित समूह के सभी सदस्यों के लिए सही व मानने योग्य हो वह वैधानिक सत्ता है। जो व्यक्ति आदर्श रूपी शक्ति को चलाते हैं वह निश्चित रूप से श्रेष्ठ होते हैं। वह व्यक्ति कानून की सभी विधियों के अनुसार ही नियुक्त होते हैं या चुने जाते हैं और वह स्वयं वैधानिक व्यवस्था को चलाने के लिए निर्देशित रहते हैं। जो व्यक्ति इन आदेशों के अधीन हैं वे विधान के रूप में समान होते हैं। वह विधान का पालन करते हैं न कि विधान के काम करने वालों का ये नियम के लिए उनके द्वारा प्रयोग किये जाते हैं जो विधान की सत्ता की व्यवस्था का प्रयोग करते हैं। इस संगठन के अपने नियम होते हैं । इसके अधिकारी उन नियमों के अधीन होते हैं जो इसकी सत्ता की सीमा को निर्धारित करते हैं।

यह नियम सत्ता का कार्य करने वालों के ऊपर प्रतिबन्ध लगाते हैं, अधिकारी के व्यक्तिक रूप को उसके अधिकारी के रूप में करने वाले कार्य के सम्पादन से अलग करते हैं और यह आशा रखते हैं कि सम्पूर्ण कार्यवाही वैध होने के लिए लिखित में होनी चाहिए। इस प्रकार राज्य की ओर से बनाए कुछ साधारण नियमों के अनुसार पैदा अनेकों पद ऐसे हैं जिनके साथ एक विशेष प्रकार की सत्ता जुड़ी होती है। इस कारण जो भी व्यक्ति उन पदों पर बैठ जाता है उनके हाथों में उन पदों से सम्बन्धित सत्ता भी चली जाती है।

इसमें सत्ता का स्रोत किसी व्यक्ति की निजी प्रसिद्धि नहीं होता बल्कि जिन नियमों के अन्तर्गत वह इस विशेष पद पर बैठा है वह उन नियमों की सत्ता के अन्दर रहता है। इसलिए उसका कार्य क्षेत्र वहां तक सीमित है जहां तक विधान से सम्बन्धित नियम उसे विशेष अधिकार प्रदान करते हैं। एक व्यक्ति को विधान के नियमों के अनुसार जितना अधिकार प्राप्त हुआ है वह उससे बाहर जाकर या उसके अधिक सत्ता का प्रयोग नहीं कर सकता। इस तरह व्यक्ति को वैधानिक सत्ता के क्षेत्र और उससे बाहर के क्षेत्र में आधारभूत अन्तर होता है। जैसे जो व्यक्ति किसी अधिकारी पद पर कार्य कर रहा है वह अपने दफ्तर में जिन अधिकारों का अधिकारी है वह उसके घर के क्षेत्र से बिल्कुल भिन्न होता है। घर में वह कोई अधिकारी न होकर बल्कि पिता या पति के रूप में सत्ता में है। एक जटिल समाज में सत्ता प्रत्येक व्यक्ति के हाथों में समान नहीं होती बल्कि इसमें एक ऊंच-नीच का भेदभाव भी होता है अर्थात् वैधानिक अधिकार के समाज में उच्च-निम्न सताएं विराजमान हैं।।

2. परम्परागत सत्ता (Traditional Authority)-परम्परागत सत्ता उस सत्ता की वैधता के विश्वास पर आधारित है, जो हमेशा बनी रहती है। आदेश की शक्ति को पूर्ण करने वाले व्यक्ति आम रूप से प्रभु के समान होते हैं। वह अपनी स्थिति के कारण व्यक्तिगत सत्ता का उपयोग करते हैं और उनके पास स्वतन्त्र रूप से व्यक्तिगत निर्णयों के विशेषाधिकार भी प्राप्त होते हैं। इस प्रथा की नकल और व्यक्तिगत निरंकुशता ही तो ऐसे नियमों की विशेषताएं होती हैं। जो व्यक्ति इस प्रभु के आदेशों के अधीन होते हैं वह शाब्दिक अर्थों में उसके शिष्य होते हैं। वह प्रभु के लिए व्यक्तिगत रूप से शिष्य होने के कारण उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। भूतकाल से बने हुए पद के लिए उनकी पवित्र श्रद्धा होती है। इसलिए वह उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था या प्रथा के लिए दो प्रकार के उदाहरण हैं। पैतृक (Ancestral) शासन में इस उपकर्म में व्यक्तिगत अनुगामी होते हैं।

जैसे कि घर का अधिकारी, सम्बन्धी या कृपा पात्र व्यक्ति। एक सामन्तवादी समाज में इस उपकर्म के अन्तर्गत व्यक्तिगत रूप से शिष्य मित्र होते हैं जिसके अधीन जगीरदार या करदाता सरकार होती है। यह व्यक्तिगत नीचे वाले अधिकारी ही अपने प्रभु सत्ता के निरंकुश आदेशों या परम्परागत आदेशों के अधीन होते हैं तथा उनकी क्रियाओं का क्षेत्र या आदेश की शक्ति एक निम्न स्तर पर उसके प्रभु की Mirror Image होती है। इसके विपरीत एक सामन्तवादी समाज के पदाधिकारी व्यक्तिगत रूप से निर्भर नहीं होते। बल्कि सामाजिक रूप से प्रमुख मित्र होते हैं। जिन्होंने प्रभु भक्ति की कसमें खाई होती हैं और Grant या Contract के आधार पर जिनका स्वतन्त्र रूप से क्षेत्र होता है। सामन्तवादी और पितृनामी शासन का भेद और दोनों व्यवस्थाओं में परम्परात्मक और निरंकुश आदेशों की निकटता सभी प्रकार की परम्परात्मक प्रभुता में छाई रहती है।

इस प्रकार की सत्ता में एक व्यक्ति को विधि के नियमों के अनुसार एक पद पर बैठे होने के कारण नहीं बल्कि परम्परा के कारण बने हुए पदों पर बैठने के कारण प्राप्त होती है। यद्यपि इस पद को परम्परानुसार परिभाषित किया जाता है। इस कारण ऐसे पदों पर बैठे होने के कारण व्यक्ति को कुछ विशेष प्रकार की सत्ता प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार की सत्ता परम्परात्मक विश्वासों पर टिकी होती है। इसलिए यह परम्परात्मक सत्ता कहलाती है। जिस तरह खेती-बाड़ी युग में भारतीय गांवों में मिलने वाली पंचायतों में पंचों की सत्ता को ही ले लीजिए। पहले इन पंचों की सत्ता विधिनुसार नहीं आती थी बल्कि परम्परागत रूप में ही उन्हें सत्ता प्राप्त हो जाती थी। यहां तक कि पंचों की सत्ता को ईश्वरीय सत्ता के समान तक समझा जाता था।

जैसे कि ‘पंच परमेश्वर’ की धारणा में दिखता था। उसी प्रकार पितृसत्तात्मक परिवार में पिता को ही परिवार के साथ सम्बन्धित सभी विषयों में जो अधिकार और सत्ता प्राप्त होती है, उसका भी आधार वैधानिक न होकर परम्परा होती है। पिता के आदेश का पालन हम इसलिए नहीं करते कि उनको कोई वैधानिक सत्ता प्राप्त होती है बल्कि इसलिए करते हैं कि परम्परागत रूप में ऐसा होता रहा है। वैधानिक सत्ता वैधानिक नियमों के अनुसार निश्चित और सीमित होती है क्योंकि वैधानिक नियम निश्चित और स्पष्ट रूप से परिभाषित होते हैं। लेकिन परम्परा और सामाजिक नियमों में इतनी स्पष्टता और निश्चितता नहीं होती। इस कारण परम्परागत सत्ता की वैधानिक सत्ता की तरह कोई निश्चित सीमा नहीं होती है। उदाहरण के लिए किसी अधिकारी की सत्ता कहाँ से शुरू होकर कहां पर खत्म होती है, के बारे में कुछ सीमा तक निश्चित तौर पर कहा जा सकता है लेकिन उस व्यक्ति के घर में पति तथा पिता के रूप में सत्ता की क्या सीमाएँ हैं कहना कठिन है।

3. करिश्माई सत्ता (Charismatic Authority)—व्यक्तिगत सत्ता का स्रोत परम्परा से सर्वथा भिन्न भी हो सकता है। आदेश की शक्ति एक नेता भी प्रयोग कर सकता है। चाहे वह कोई पैगम्बर हो, या नायक हो, या अवसरवादी नेता हो परन्तु ऐसा नेता तभी चमत्कारी नेता हो सकता है, जब वह सिद्ध कर दे कि तान्त्रिक शक्तियां, दैवी शक्तियां या अन्य अभूतपूर्व गुणों के कारण उसके पास चमत्कार है। जो व्यक्ति इस प्रकार के नेता की आज्ञा का पालन करते हैं, वह शिष्य होते हैं। जो निश्चित नियमों या परम्परा से पवित्र पद की गरिमा की जगह उसके अभूतपूर्व गुणों में एक चमत्कारी नेता के अन्तर्गत पदाधिकारियों को उनके चमत्कार एवं व्यक्तिगत निर्भरता के आधार पर विश्वास करते हैं। उन शिष्य पदाधिकारियों को बड़ी मुश्किल से ही एक संगठन के रूप में माना जाता है और उनकी क्रियाओं का क्षेत्र और आदेश की शक्ति एवं दैवी सन्देश नकल करने वाले के आचरण पर निर्भर करती है। पदाधिकारियों का चुनाव इनमें से किसी एक आधार पर हो सकता है। परन्तु इनमें से कोई भी पदाधिकारी न तो नियमों से बंधा हुआ है न ही परम्परा के साथ बल्कि केवल नेता के निर्णय के साथ ही बंधा हुआ है।

इस प्रकार यह सत्ता न तो वैधानिक नियमों पर और न ही परम्परा पर, बल्कि करिश्मा या चमत्कार पर निर्भर करती है। इस प्रकार की शक्ति केवल उन व्यक्तियों तक सीमित होती है (आधारित होती), जिनके पास केवल चमत्कारी शक्तियां होती हैं। इस प्रकार की सत्ता प्राप्त करने में व्यक्ति को काफ़ी समय लग जाता है और पर्याप्त यानि पूरे साधनों के विचार के बाद लोगों द्वारा इस प्रकार की सत्ता स्वीकार की जाती है। दूसरे शब्दों में एक व्यक्ति के द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास इस तरह किया जाता है कि लोग ये समझने लगे कि उसने अपने व्यक्तित्व में कोई चमत्कारी शक्ति का विकास कर लिया है। इसी के बल पर ही वह लोगों को अपनी तरफ झुका लेता है और लोगों द्वारा उसकी सत्ता स्वीकार कर ली जाती है। इस तरह करिश्माई नेता अपने प्रति या अपने लक्ष्य के प्रति या आदर्शों के प्रति दूसरों से आज्ञा का पालन करवाने के लिए मांग करता है। जादूगर, पीर, पैगम्बर, अवतार, धार्मिक नेता, सैनिक, यौद्धा या किसी दल के नेता, इसी प्रकार की सत्ता सम्पन्न व्यक्ति माने जाते हैं।

लोग इस कारण ऐसे लोगों की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि उनमें कुछ चमत्कारी गुण होते हैं जो साधारण व्यक्तियों में देखने को नहीं मिलते। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति के दिल में इन विशेष गुणों के प्रति श्रद्धा स्वाभाविक होती है। इन गुणों को ज्यादातर दैवीय गुणों के समान अथवा उनके अंश के रूप में माना जाता है। इस कारण इस प्रकार की सत्ता से सम्पन्न व्यक्ति की आज्ञा लोग श्रद्धा और भक्ति के साथ पूर्ण करते हैं। इस सत्ता की भी परम्परात्मक सत्ता के जैसी कोई निश्चित सीमा नहीं होती। इस सत्ता की एक विशेषता यह है कि हालात के अनुसार यह सत्ता वैधानिक अथवा परम्परात्मक सत्ता में बदल जाती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 4.
वैबर की सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के बारे आप क्या जानते हैं ? व्याख्या करो।
उत्तर-
मैक्स वैबर की सामाजिक क्रिया (Max Weber’s Social-Action)-सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त की स्थापना में मैक्स वैबर का नाम काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। वैबर ने सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त की बड़ी ही खुली और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी व्याख्या की है। मैक्स वैबर सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के द्वारा ही समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति को स्पष्ट करता है। अनेक समाजशास्त्री रेमण्ड, इरविंग, जैटलिन, बोगार्डस और रैक्स इत्यादि ने वैबर की आलोचना का काम उसके इस सामाज शास्त्र से ही आरम्भ किया है। इससे पहले कि हम वैबर के सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त को समझने की कोशिश करें हम यह जान लें कि क्रिया और व्यवहार में कोई तकनीकी अन्तर नहीं मानना चाहिए।

समाज के सदस्यों के लिए यह ज़रूरी है कि वह सम्बन्धों के निर्माण के लिए अन्तर क्रिया करे। इन अन्तर क्रियाओं के आधार पर ही सामाजिक सम्बन्धों का जन्म होता है और व्यक्ति का जीवन इन सम्बन्धों के साथ ही बंधा हुआ होता है। व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार की क्रिया के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। इस उद्देश्य पूर्ति हेतु उसे क्रिया करनी पड़ती है। समाजशास्त्रीय रूप में सभी क्रियाएं सामाजिक क्रियाओं के दायरे में नहीं आती हैं बल्कि वही क्रियाएं सामाजिक क्रियाएं कही जाती हैं जिनको कर्ता अर्थात् क्रिया करने वाला कोई न कोई अर्थ देता है। व्यक्तियों की यह क्रिया बाहरी, अन्दरूनी, मानसिक एवं भौतिक हो सकती है। साथ ही काल या समय के नजरिये से क्रिया का सम्बन्ध वर्तमान, भूत, भविष्य तीनों में से किसी के साथ भी हो सकता है अर्थात् इसका सम्बन्ध किसी एक काल के साथ भी हो सकता है।

सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त को पेश करने का सेहरा सबसे पहले ‘अल्फ्रेड मार्शल’ को जाता है। मार्शल ने उपयोगितावादी धारणा की विवेचना करके ‘गतिविधि’ की धारणा को विकसित किया। गतिविधि को मार्शल ने मूल्य की एक विशेष श्रेणी माना है। इसी श्रेणी में दुर्खीम ने ‘सामाजिक तथ्य’ को प्रकट किया।

आधुनिक काल में सामाजिक क्रिया धारणा के प्रमुख प्रवर्तक मैक्स वैबर थे, जिन्होंने अर्थपूर्ण सिद्धान्त को सामने रखा। इस तरह वैबलीन, मैकाइवर, कार्ल मैनहाईम, पारसंस और मर्टन के नाम महत्त्वपूर्ण हैं। हम इसी श्रेणी में विलियम वैट, डेविड काईजमैन और सी० राईट मिल्स को भी रख सकते हैं। मैक्स वैबर ने अपनी ‘सामाजिक क्रिया’ की धारणा को अपनी पुस्तक “The Theory of Social & Economic Organisation” में पेश (प्रस्तुत) किया।

मैक्स वैबर के अनुसार, “सामाजिक क्रिया व्यक्तिक क्रिया से अलग है। वैबर ने इसको परिभाषित करते हुए लिखा है कि किसी भी क्रिया को हम तभी ही सामाजिक क्रिया मान सकते हैं, जब उस क्रिया को करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा लाये गये Subjective अर्थ के अनुसार उस क्रिया में दूसरे व्यक्तियों के सम्मान और भावों पर क्रियाएं इकट्ठी हों और उसी के अनुसार गतिविधि निर्धारित हो।”

मैक्स वैबर ने अपनी सामाजिक क्रिया की धारणा को समझाने के लिए इसको चार भागों में बांट कर समझाया है। वैबर ने लिखा है कि क्रियाओं का यह वर्गीकरण वस्तुओं के साथ सम्बन्धों पर आधारित है। पारसंस ने इसकी अभिमुखता का प्रारूप माना है। गरथ और मिल्स इसको प्रेरणा की दिशा कहते हैं।

वैबर के क्रिया के वर्गीकरण को समझने से पहले हम सामाजिक क्रिया की धारणा को पूरी तरह समझ लें। वैबर के अनुसार किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया मानने से पहले हमें चार बातों का ध्यान रखना चाहिए।

(1) मैक्स वैबर का मानना है कि सामाजिक क्रिया दूसरे या अन्य व्यक्तियों के भूत, वर्तमान या होने वाले व्यवहार द्वारा प्रभावित हो सकती है। यदि हम अपने पहले किये हुए किसी काम के लिए क्रिया करते हैं, तो वह भूतकालीन क्रिया होगी। यदि वर्तमान समय में कोई क्रिया करते हैं तो वह वर्तमान और यदि भविष्य को ध्यान में रखते हुए कोई क्रिया करते हैं तो वह भविष्य वाली क्रिया कहलायेगी।

(2) वैबर का कहना है कि हर प्रकार की बाहरी क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं हो सकती। बाहरी क्रिया असामाजिक है जो पूरी तरह जड़ और बेज़ानदार वस्तुओं द्वारा प्रभावित और उसकी क्रिया स्वरूप की जाती है। उदाहरण के लिए ईश्वर की अराधना, नमाज पढ़ना या अकेले ही समाधि लगाना, सामाजिक क्रिया नहीं है, परन्तु ब्राह्मणों के कहने पर पूजा अर्चना करना, मुल्लाओं के कहने पर नमाज पढ़ना इत्यादि सामाजिक क्रिया है।

(3) मनुष्य के कुछ सम्पर्क उस सीमा तक सामाजिक क्रिया में आते हैं जहां तक वह दूसरों के व्यवहार के साथ अर्थपूर्ण ढंग के साथ सम्बन्धित और प्रभावित होते हैं। हर प्रकार के सम्पर्क सामाजिक नहीं कहे जा सकते।

उदाहरण के लिए अगर सिनेमा की सीढ़ियां उतरते समय दो व्यक्ति आपस में टकरा जाएं तो यह सामाजिक क्रिया नहीं होगी, अगर वह आपस में संघर्ष पर उतर आए अथवा माफी मांगने लगे तो यह सामाजिक क्रिया होगी क्योंकि ऐसा करने से दोनों के व्यवहार आपस में सम्बन्धित और प्रभावित होते हैं।

(4) सामाजिक क्रिया न तो अनेक व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली एक जैसी क्रिया को कहा जाता है और न ही उस क्रिया को कहा जाता है जो कि केवल दूसरे व्यक्तियों द्वारा प्रभावित होती है।

उदाहरण के लिए बारिश होने पर सड़क पर अनेकों व्यक्तियों द्वारा छाता खोल लेने की क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं होती क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया का दूसरे अथवा और व्यक्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। वैबर कहते हैं कि दूसरे की क्रिया की नकल करना सामाजिक क्रिया नहीं है, जब तक कि वह और व्यक्ति जिसकी कि नकल की जा रही है, की क्रिया साथ अर्थपूर्ण सम्बन्ध न रखता हो अथवा उसकी क्रिया द्वारा अर्थपूर्ण रूप से प्रभावित न होता हो।

मैक्स वैबर के अनुसार सामाजिक क्रिया को समझने के लिए उसकी अर्थ मूलक व्याख्या की आवश्यकता होती है। इस व्याख्या को दो भागों में विभक्त करके समझाया जा सकता है।

  1. औसत प्रकार की अर्थ मूलक व्याख्या
  2. विशुद्ध प्रकार की अर्थ मूलक व्याख्या

वैबर ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि सामाजिक क्रिया का अध्ययन विशुद्ध अर्थ मूलक की व्याख्या के लिए करना चाहिए परन्तु इनको समझने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण विधियों का भी वर्णन किया गया है जिनके आधार पर समाज की धारणाओं को सही तरह समझा गया है। इसमें वैबर ने तर्कपूर्ण और अर्थपूर्ण व्याख्या पर जोर दिया है।

इस सम्बन्ध में वैबर ने यह बताया है कि सभी सामाजिक क्रियाओं के कुछ निश्चित अर्थ होते हैं और एक प्रेरक शक्ति भी होती है। यह दोनों ही दूसरे व्यक्तियों की प्रेरक शक्तियों और क्रियाओं में बदलते रहते हैं।

यहाँ एक बात बहुत महत्त्व की है कि समाज शास्त्री किसी सामाजिक क्रिया की व्याख्या उसके अर्थ के आधार पर करता है जो कि दूसरे की क्रियाओं द्वारा निर्देशित होता है। इस प्रकार समाज शास्त्र प्राकृतिक विज्ञानों से पूरी तरह अलग हो जाता है।

सामाजिक क्रिया के प्रकार (Types of Social Action)-देखें पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न IV (5)

वैबर ने बताया है कि सामाजिक क्रियाएं तीन प्रकार से निर्देशित होती हैं-

  1. परम्परागत प्रयोग-इसका अर्थ यह है कि जो क्रियाएं परम्परा के आधार पर सम्पादित की जायें। सामाजिक प्रथाएं मनुष्य की क्रियाओं को प्रभावित करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि लोगों की क्रियाएं परम्परा से हटकर बाहर नहीं जाती हैं और सामाजिक मर्यादा पूरी तरह बनी रहती है।
  2. हित-हित का अर्थ उन समरूपताओं से है जिसमें क्रियाओं को विवेकपूर्ण निर्देशन के रूप में समझा जा सके।
  3. न्यायसंगत व्याख्या-इससे सम्बन्धित व्यवहार क्रियाएं, कर्ता के किसी आदर्श के निश्चित होने की नज़र से निर्देशित होती हैं। ये ऐसे आदर्शों से भी निर्देशित होती हैं जोकि किसी विशेष निर्देश को पाने के लिए तार्किक समझे जाये।

सामाजिक क्रिया के सम्बन्ध में वैबर ने बताया कि सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर ही क्रिया निश्चित होती है।

वैबर ने आगे कहा है कि सामाजिक सम्बन्धों की पहली और आवश्यक कसौटी यह है कि उसमें प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया का दूसरे की कोशिश की तरह परस्पर रूप से निर्देशन हो। इसके Contents की प्रकृति चाहे अलगअलग प्रकार की क्यों न हो जैसे कि संघर्ष विरोध, यौन आकर्षण, मित्रता, अनुराग या आर्थिक लेन-देन इत्यादि।

इस सम्बन्ध में अर्थ का बड़ा ही महत्त्व है, अर्थ का मतलब उस अर्थ से है जो किसी विशेष दशा में लिया जाता है। यह अर्थ औसत रूप या सैद्धान्तिक रूप से बनाकर, विशुद्ध रूप में लाया जाता है।

वैबर ने यह भी बताया कि सामाजिक सम्बन्धों में पारम्परिक रूप के साथ निर्देशित बल के Subjective अर्थ एक समान ही है।

“सामाजिक क्रिया को अभिमुखता की प्राकृतिक के आधार पर दोबारा विवेक अभिमुख, अविवेक अभिमुख, सहानुभूति अभिमुख और आपसी अभिमुख क्रिया के रूप में रखा जा सकता है।” मानव के ज्ञान पर ही कुछ व्यवहार आधारित होते हैं तथा यह ज्ञान ही साधन के लक्ष्य का आधार होता है, लेकिन साथ ही कुछ ऐसे व्यवहार भी होते हैं जिसमें ज्ञान की प्रधानता ना होकर सामाजिक मूल्यों को प्रधानता दी जाती है। इन व्यवहारों को विवेकपूर्ण माना जाता है। कुछ व्यवहार उस श्रेणी में आते हैं जहां अपनापन और हमदर्दी को मानव द्वारा महत्त्व दिया जाता है। चाहे वह व्यवहार अविवेकपूर्ण हो और कुछ व्यवहार विवेकपूर्ण इसलिए भी हो जाते हैं क्योंकि मानव परम्परा को महत्त्व दे बैठता है। मानव सम्बन्धी तथ्य प्रत्यक्षवादी परिप्रेक्ष्य से विवेकपूर्ण क्रिया के अन्तर्गत परिभाषित किए जाते हैं।

इस स्थिति में पैरेटो और वैबर के एक-दूसरे के विचारों में भिन्नता आ जाती है कि अविवेकपूर्ण क्रिया, विवेकपूर्ण क्रिया से सही अलग क्रिया है। आपसी क्रिया ऐसी क्रिया है जिसमें परम्परागत तथ्य प्रधानता रखते हैं, औसत श्रेणी में संवेगात्मक अथवा हमदर्दी अभिमुख क्रिया को लेते हैं। मानवीय क्रियाओं की अभिमुखता, प्रचलन रुचि और सही आज्ञा से भी हो सकती है। विद्वानों की राय है कि वैबर की क्रिया के सिद्धान्त को अपनी इच्छा तथा आधारित क्रिया के सिद्धान्त से कुछ हद तक जाना जा सकता है। पारसंस के क्रिया के सिद्धान्त पर वैबर का प्रभाव देखा जा सकता है। विवेक की धारणा को वैबर ने 6 प्रकार से प्रयोग में लिया है।

मैक्स वैबर ने जिस क्रिया के सिद्धान्त को दिया है वह मार्क्स के सिद्धान्त से बिल्कुल अलग है। साधनयुक्त विवेक को वैबर ने अपने विचारों में प्रमुख स्थान दिया है। कर्ता की तरफ से उद्देश्य की प्राप्ति के मूल्य और उद्देश्य दोनों का मूल्यांकन इस प्रकार के व्यवहार में किया जाता है। कर्ता के द्वारा एक उद्देश्य की प्राप्ति से दूसरे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधन के बारे में कल्पना की जाती है। इस तरह की भावना वैबर के विचारों में थी। विवेक शब्द का प्रयोग वैबर ने व्यवहार और विश्वास दोनों के लिए किया है। यानि विवेकपूर्ण व्यवहार वही है जिसमें कर्ता के द्वारा विवेक को स्थान दिया जाता है और उसी के अनुरूप विश्वास के स्तर पर भी विवेक को महत्त्व दिया गया है। सामाजिक व्यवहार के रूप में अनेक विद्वानों ने ऊपरलिखित विवेचनाओं से नतीजा निकाला है कि जिसमें संवेगात्मक और सहानुभूति के तत्त्व मौजूद होते हैं ऐसे व्यवहारों को विवेकपूर्ण व्यवहार कहा गया है।

विवेक वैबर के लिए एक आदर्श रहा है। आपसी सामाजिक रचना के टूटने का एक मुख्य कारण वो बढ़ता हुआ विवेकीकरण है। विशेष तौर पर हम विवेकीकरण की बढ़ती हुई मात्रा को बाज़ार के सम्बन्धों में देख सकते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 5.
दुर्खीम के सामाजिक तथ्य की विवेचना करो।
अथवा
दुर्खीम के सामाजिक तथ्य के बारे में चर्चा करो।
उत्तर-
इमाइल दुर्खीम द्वारा दी गई “सामाजिक तथ्य” की विवेचना बहुत महत्त्वपूर्ण है। दुर्खीम के सामाजिक तथ्यों सम्बन्धी विचार उसकी दूसरी प्रमुख पुस्तक “दि रूलस ऑफ़ सोशोलोजीकल मैथड’ में दिखाई पड़ते हैं। दुर्खीम की 1895 में प्रकाशित ये पुस्तक समाजशास्त्र के शास्त्रीय ग्रन्थ के रूप में पहचानी जाती है।

दुर्खीम ने यह अनुभव किया कि समाज शास्त्र को एक स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में तब तक स्थापित नहीं किया जा सकता जब तक कि उसका अध्ययन वस्तु की विशेषता स्पष्ट न हो और इसकी खोज के लिये एक व्यवस्थित पद्धति शास्त्र का विकास न हो। इन दो उद्देश्यों के लिये दुर्खीम ने The Rules of Sociological Method की रचना की।

दुर्खीम ने काम्ते, स्पैंसर, मिल इत्यादि समाजशास्त्रियों की खामियों का अनुभव किया, और स्पष्ट लिखा है कि, “यह समाजशास्त्री जिनकी चर्चा हमने अभी की है, वह समाजों की प्रवृत्ति और समाजिक जैविकीय क्षेत्रों के मध्य सम्बन्धों के विषय में अस्पष्ट समाजीकरण से बहुत आगे चले गए थे।”

दुर्खीम ने अपने उद्देश्य के अनुरूप इस पुस्तक में दो प्रमुख कठिनाइयों का वर्णन किया।

  1. उन्होंने समाज शास्त्र के अध्ययन के लिये विद्यार्थियों के लिए सारी विषय सामग्री का निर्धारण किया। इस तरह करने के साथ उसने समाज-शास्त्र को मनोवैज्ञानिक और जीव संसार से मुक्त करवा कर उसे एक अलग स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान किया।
  2. प्राकृतिक विज्ञान की प्रत्यक्षयवादी, तथ्यात्मक अध्ययन पद्धति के रूप में देखा और इस पद्धति के सफल प्रयोग के लिये पालने योग्य नियमों का निर्माण किया।

दुर्खीम ने अपनी पुस्तक में सामाजिक तथ्य की विवेचना के लिए 6 मुख्य बातों की विवेचना की जिसको उसने 6 मुख्य (chapters) में पेश किया, जो कि निम्नलिखित हैं-

  1. सामाजिक तथ्य क्या है?
  2. सामाजिक तथ्यों के निरीक्षण और नियम।
  3. Normal और Pathological तथ्यों में भेद करने के नियम
  4. सामाजिक रूपों के वर्गीकरण के नियम
  5. सामाजिक तथ्यों की व्याख्या के नियम
  6. समाज शास्त्रीय प्रमाणों की स्थापना के साथ सम्बन्धित नियम।

सामाजिक तथ्य क्या हैं ?
(What are Social Facts ?)

दुर्खीम ने विषय सामग्री और अध्ययन पद्धति दोनों ही नज़रियों से समाज-शास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है। दुर्खीम ने समाज-शास्त्र की विषय सामग्री के रूप में सामाजिक तथ्यों को पेश किया है। दुर्खीम का स्पष्ट मानना है कि समाज-शास्त्र सभी मानवीय गतिविधियों का अध्ययन नहीं करता बल्कि अपने आपको केवल सामाजिक तथ्यों के अध्ययन तक ही सीमित रखता है।

दुर्खीम ने अपने इस अध्याय में यह बात स्पष्ट करने की कोशिश की है कि वास्तव में किन तथ्यों को सामाजिक तथ्य कहा जायेगा? सामाजिक तथ्यों की क्या विशेषताएं हैं और उनका अध्ययन किस प्रकार किया जायेगा? सामाजिक तथ्यों के अर्थ स्पष्ट करते हुए दुर्खीम कहते हैं कि सामाजिक तथ्यों के बारे में अनेक प्रकार की शंकाएं प्रचलित हैं और यही कारण है कि मनोविज्ञान, प्राणी शास्त्र और समाज शास्त्र के विषय वस्तु के सम्बन्धों में कई प्रकार की भ्रान्तियां भी मन में पड़ जाती हैं। स्वयं दुर्खीम ने लिखा है सामाजिक तथ्यों की पद्धति के बारे में जानने से पूर्व यह जानना ज़रूरी है कि कब तथ्यों को आमतौर पर ‘सामाजिक’ कहा जाता है। यह सूचना और भी अधिक आवश्यक है, क्योंकि ‘सामाजिक’ शब्द का प्रयोग अधिक अनिश्चित रूप में होता है। वर्तमान में इस शब्द का प्रयोग समाज में होने वाली किसी भी घटना के लिए किया जाता है चाहे उसकी सामाजिक रुचि कितनी ही कम क्यों न हो। परन्तु ऐसी कोई भी मानवीय घटना नहीं है जिसको सामाजिक न कहा जा सके। प्रत्येक व्यक्ति सोता है, खाता है, पीता है और विचार करता है और यह सामाजिक हित में होता है कि यह सभी कार्य सही व्यवस्थित ढंग से हों। यदि इन सबको सामाजिक तथ्य मान लिया जाये तो समाज शास्त्र की भिन्न रूप से कोई विषय वस्तु नहीं होगी। इससे समाज-शास्त्र, प्राणी शास्त्र और मनोविज्ञान शास्त्र में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

सामाजिक तथ्य के अर्थ की विवेचना करते हुए दुर्खीम ने सर्वप्रथम यह कहा कि सामाजिक तथ्यों को वस्तुओं के समान समझना चाहिए। यद्यपि दुर्खीम ने वस्तु शब्द का वास्तविक अर्थ कहीं भी स्पष्ट नहीं किया। दुर्खीम ने वस्तु शब्द को चार अलग-अलग अर्थों में प्रयोग किया है। यह हैं-

(1) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसमें कुछ विशेष गुण होते हैं जिसको बाहरी रूप में देखा जा सकता
है।
(2) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसको केवल अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है।
(3) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसका अस्तित्व मनुष्य के ऊपर बिल्कुल निर्भर नहीं।
(4) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसको केवल बाहरी तौर पर देखते हुए जाना जा सकता है। परन्तु क्योंकि सामाजिक तथ्य वस्तु के समान है, अतः यह कोई स्थिर धारणाएं नहीं हैं बल्कि गतिशील धारणा के रूप में जानने योग्य है। इस तरह हम देखते हैं कि समाज में कुछ ऐसे तथ्य होते हैं जो कि भौतिक प्राणी शास्त्र और मनोवैज्ञानिक तथ्यों से अलग होते हैं। दुर्खीम इस प्रकार के तथ्यों को सामाजिक तथ्य मानते हैं। दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की कुछ परिभाषाएं पेश की हैं, एक स्थान पर दुर्खीम लिखते हैं, “सामाजिक तथ्य कार्य करने, सोचने और अनुभव करने के वह तरीके हैं, जिसमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर ही अस्तित्व को बनाये रखने की उल्लेखनीय विशेषता होती है।”

एक अन्य स्थान पर दुर्खीम ने लिखा है कि, “सामाजिक तथ्यों में कार्य करने सोचने, अनुभव करने के वह तरीके हैं जिसमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अस्तित्व को बनाये रखने को उल्लेखनीय विशेषता होती है।” अपनी पुस्तक के पहले chapter की अन्तिम पंक्तियों में इसकी विस्तार के साथ परिभाषा पेश करते हुए लिखा है, “एक सामाजिक तथ्य क्रिया करने का हर स्थायी और अस्थायी तरीका है जो व्यक्ति पर बाहरी दबाव डालने में समर्थ होता है या फिर कृपा करने का हर तरीका जो किसी समाज में आम रूप में पाया जाता है परन्तु साथ ही साथ व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र अलग अस्तित्व रखता है।”

दुर्खीम की उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि “क्रिया करने के तरीके” सामाजिक तथ्य हैं। क्रिया करने के तरीकों में मानवीय व्यवहार के सभी पहलू शामिल हैं, जो उसके विचार, अनुभव और क्रिया के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यह सामाजिक वास्तविकता के अंग हैं। ऐसी सामाजिक घटना स्थायी भी हो सकती है, और अस्थायी भी हो सकती है। उदाहरणार्थ किसी समाज में आत्महत्याओं की, विवाहों की, मृत व्यक्तियों की संख्या में बहुत कम अन्तर होता है। अर्थात् इनकी वार्षिक दर आमतौर पर स्थित रहती है। अतः इसको सामाजिक तथ्य कहा जाता है।

इस तरह ‘भगवान्’ को सामाजिक तथ्य नहीं कहा जाता है क्योंकि वह वास्तविक निरीक्षण से दूर है। इस तरह मनही-मन सोचा गया, कोई विचार भी सामाजिक तथ्य की श्रेणी में नहीं आयेगा क्योंकि उनका कोई स्पष्ट रूप नहीं है। परन्तु किसी विद्वान् द्वारा दिया गया कोई भी सिद्धान्त, या नियम या ईश्वरीय सम्बन्धी पूजा, प्रार्थना या आराधना, जिसमें टोटमवाद भी शामिल है, को सामाजिक तथ्य माना जायेगा क्योंकि उनका साफ निरीक्षण सम्भव है। भाषा, लोक कथा, धार्मिक विश्वास, क्रियाएं, Business के नियम, नैतिक नियम इत्यादि सामाजिक तथ्यों की कितनी ही अनुपम उदाहरणे हैं क्योंकि इन सभी का निरीक्षण एवं परीक्षण सम्भव है और यह व्यक्ति के साथ जुड़े होते हैं। यह व्यक्ति के ऊपर दबाव डालने की शक्ति रखते हैं।

इस प्रकार दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की विवेचना दो प्रमुख यथार्थक मापदंडों के माध्यम से बहुत ही स्पष्ट रूप से हमारे सामने पेश की है, वह मापदंड है

  1. वह वैज्ञानिक के दिमाग से बाहर होने चाहिए और
  2. उसका वैज्ञानिक पर ज़रूरी अथवा मजबूरी का प्रभाव होना चाहिए।

सामाजिक तथ्यों की विशेषताएं (Characteristics of Social Facts) –

दुर्खीम की विवेचना के आधार पर हम देखते हैं कि दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की धारणा को समझने के लिए दो शब्दों बाहरीपन (Exteriority) और बाध्यता (Constraint) का सहारा लिया गया है। इन दोनों को सामाजिक तथ्यों की विशेषता के रूप में पेश किया जा सकता है।

1. बाहरीपन (Exteriority)-सामाजिक तथ्य की सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका बाहरीपन है। बाहरीपन का अर्थ है सामाजिक तत्त्वों का निर्माण लो समाज के सदस्यों के द्वारा ही होता है। परन्तु सामाजिक तथ्य एक बार विकसित होने के बाद फिर किसी व्यक्ति विशेष के नहीं रहते हैं और वह इस अर्थ में कि इसको एक स्वतन्त्र वास्तविकता के रूप में अनुभव किया जा सकता है अर्थात् विज्ञान का उसके साथ अन्दरूनी सम्बन्ध नहीं होता है और न ही सामाजिक तथ्यों का व्यक्ति विशेष पर कोई प्रभाव पड़ता है।

सामाजिक तथ्यों के बाहरीपन को स्पष्ट करने के लिए दुर्खीम ने इसको व्यक्तिगत चेतना,सामूहिक चेतना के अन्तर अथवा भेद के आधार पर स्पष्ट किया है। दुर्खीम ने व्यक्तिगत चेतना के स्वरूप और संगठन के अध्ययन से यह स्पष्ट किया है कि व्यक्तिगत चेतनाओं का मूल आधार भावनाएँ हैं। संवेदनाएं अलग-अलग सैलों की अंतर क्रियाओं का प्रतिफल है लेकिन अलग-अलग सैलों द्वारा पैदा होने वाली संवेदनाओं की अपनी खास विशेषता होती है, जो संगठन अथवा उत्पत्ति से पहले सोलां सैलों में से किसी में भी मौजूद नहीं थी। Synthesis and Suigeneris के इस सिद्धांत में दुर्खीम ने यह बताया है कि इकट्ठा होने से एक नई वस्तु का जन्म होता है। अर्थात् प्रसार और संयोग की क्रिया द्वारा तथ्य का रूप ही बदल जाता है। जैसे व्यक्तिगत विचारों का आधार स्नायुमंडल के अलग है। उसी प्रकार दुर्खीम कहते हैं कि सामाजिक विचारों का मूल आधार समाज के सदस्य होते हैं। सामूहिक चेतना का विकास व्यक्तिगत चेतना में मिलने से संगठन के विकास से होता है। इसी प्रकार दुर्खीम के शब्दों में, “यह व्यक्तिगत चेतना से बाहर रहने वाले विशेष तथ्यों को पेश करता है।”

एक उदाहरण से इसे और भी स्पष्ट किया जा सकता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के एक निश्चित योग के साथ पानी बनता है। पानी की अपनी कुछ विशेषताएं हैं। ये विशेषताएं न ऑक्सीजन की हैं और न ही हाइड्रोजन की हैं। पानी को अलग करके फिर पुनः ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को नहीं बनाया जा सकता। इस तरह व्यक्ति चेतनाओं के योग के साथ सामूहिक चेतना का निर्माण होता है। जो व्यक्तिगत तथ्यों से अलग अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। अतः वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए बाहरी होती है।

2. विवशता (Constraint)-सामाजिक तथ्यों की दूसरी प्रमुख और महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी विवशता है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति के ऊपर सामाजिक तथ्यों का एक दबाव या विवशता का एक प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः सामाजिक तथ्यों का निर्माण एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के द्वारा नहीं होता बल्कि अनेकों व्यक्तियों के द्वारा होता है। अतः ये बहुत शक्तिशाली होते हैं और किसी व्यक्ति के ऊपर इस विवशता के कारण प्रभाव पड़ता है।

दुर्खीम का मानना है कि सामाजिक तथ्य केवल व्यक्ति के व्यवहार को नहीं बल्कि उसके सोचने, विचार करने इत्यादि के तरीकों को भी प्रभावित करते हैं। दुर्खीम बताते हैं कि इन सामाजिक तथ्यों की यह विशेषता इस रूप में देख सकते हैं कि ये सामाजिक तथ्य व्यक्ति की अनुभूति के अनुरूप नहीं, बल्कि व्यक्ति का व्यवहार उनके
अनुरूप होता है।

दुर्खीम सामाजिक तथ्यों की इस विशेषता के विवेचन में अनेक उदाहरण पेश करते हैं। आपके अनुसार समाज में प्रचलित अनेक सामाजिक तथ्य जैसे कि नैतिक नियम, धार्मिक विश्वास, वित्तीय व्यवस्था, आदि सभी मनुष्य के व्यवहार और तरीकों को प्रभावित करते हैं। स्वयं दुर्खीम लिखते हैं कि यदि यह दबाव इन तथ्यों की अन्दरूनी विशेषताएं होती हैं और इसका सबूत यह है कि जब मैं इनका विरोध करने की कोशिश करता हूं तो यह और भी अधिक दबाव डाल देते हैं। वह आगे लिखते हैं” यदि मैं समाज के नियमों को नहीं मानता हूं तो जिस हंसी का पात्र मुझे बनाया जाता है और जिस तरह मुझे समाज से अलग रखा जाता है, और यह असली अर्थों में एक प्रकार के दण्ड या सज़ा की तरह प्रभाव डालने वाला होता है। यद्यपि ये विवशता तथा दबाव अप्रत्यक्ष होते हुए भी प्रभावकारी होते हैं।”

विवशता की एक और उदाहरण में दुर्खीम इसको स्पष्ट करते हैं, “मेरे लिए यह जरूरी नहीं कि मैं अपने देशवासियों से फ्रांसीसी अथवा किसी और भाषा में ही बात करूँ और प्रचलित मुद्रा का प्रयोग करूँ, लेकिन ये सब इससे विपरीत कार्य करना मेरे लिए संभव नहीं होगा। एक उद्योगपति के रूप में मैं बीत गई सदियों की तकनीकी विधियों को अपनाने में पूरी तरह स्वतन्त्र हैं लेकिन ऐसा करने से मैं अपने आपकी बरबादी को बुलावा दूंगा। लेकिन अगर मैं ज़रूरी तथ्यों से बचने की कोशिश करूंगा तो पूरी तरह असफल रह जाऊंगा। अगर मैं इन नियमों से अपने आप को स्वतन्त्र कर लेता हूँ तो सफलता से उनका विरोध करता हूँ तो भी मुझे हमेशा इनसे संघर्ष करने के लिए मज़बूर किया जाता है, और अंत में वह अपने बदले द्वारा अपने दबाव का अनुभव हमें करा देते हैं।”

दुर्खीम कहते हैं कि “कभी-कभी इस विवशता को प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख सकते। वह समाजीकरण की एक उदाहरण दे कर इसको स्पष्ट करते हैं कि जीवन के आरम्भिक काल में हमें बच्चे को खाने, पीने, व सोने के लिए विवश करते हैं। हम उसे सफ़ाई, शान्ति और कहना मानने के लिए भी विवश करते हैं। बाद में हम उसे दूसरों के प्रति उचित भाव, प्रथा, रीति रिवाजों, प्रति सम्मान करना और काम करने की आवश्यकता आदि के बारे में सिखाते हैं। विवशता अनुभव न होने के कारण यह होता है कि धीरे-धीरे यह विवशता आदतों में तबदील हो जाती है।”

सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतना से उत्तम रूप है क्योंकि सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतनाओं के अस्तित्व से विशेषताओं की संगठित (मिली-जुली) हुई चेतना है। दुर्खीम लिखते है, “एक सामाजिक तथ्य ‘विश्व दबाव’ की शक्ति से पहचाना जाता है जो कि व्यक्ति पर प्रयोग किया जाता है अथवा व्यक्ति पर प्रयोग करने योग्य हो।” दुर्खीम के अनुसार सामाजिक तथ्य ‘सामूहिक चेतना’ की श्रेणी में आते है इसीलिए यह चेतनाओं की चेतना है।

3. व्यापकता (Generality)—यह समाज विशेष में सांझे और आदि अंत तक फैले होते हैं। लेकिन यह विलक्षण विशेषता नहीं हो तो और न ही व्यापकता अनेकों व्यक्तिगत तथ्यों के केवल जोड़फल मात्र का परिणाम नहीं होते बल्कि यह तो शुद्ध रूप में अपने स्वभाव से ही सामूहिक होते हैं और व्यक्तियों पर इनका प्रभाव इनकी सामूहिक विशेषता का ही नतीजा है। इसीलिए इसको सामाजिक तथ्यों की तीसरी विशेषता कहा जाता है।
दुर्खीम के ऊपर लिखे सामाजिक तथ्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक तथ्यों की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएं होती हैं।

  1. सामाजिक तथ्य व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र अपना अलग स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। अर्थ यह कि व्यक्ति से अलग होते हैं।
  2. सामाजिक तथ्यों का व्यक्ति पर एक मज़बूरी का प्रभाव पड़ता है अर्थात् यह व्यक्ति पर दबाव डालने की शक्ति से भरे होते हैं।

ऊपर दी गई विवेचना के आधार पर दुर्खीम ने अपने पहले अध्याय की अंतिम लाईनों में सामाजिक तथ्य को पेश करते हुए लिखा है कि, “एक सामाजिक तथ्य काम करने का वह तरीका है, जो चाहे निश्चित हो अथवा नहीं, जो कि व्यक्ति पर बाहरी दबाव डालने की शक्ति रखता है अथवा काम करने का वह हर तरीका जो एक दिए हुए समाज में सभी तरफ सामान्य है और साथ ही व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र उसकी अपनी अलग स्थिति बनी रहती संक्षेप में दुर्खीम के अनुसार सामाजिक तथ्य कार्य करने का वह तरीका है, जो व्यक्तियों से बाहर है तथा व्यक्ति पर दबाव डालने की शक्ति रखता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 6.
दुर्खीम के श्रम विभाजन के सिद्धान्त की व्याख्या करो और इसके उत्तरदायक कारकों का स्पष्टीकरण करो।
अथवा
दुर्खीम के श्रम विभाजन के सिद्धान्त की विवेचना करो।
उत्तर-
दुर्खीम ने 1893 में फ्रैंच भाषा में अपनी पहली किताब De la Division du Trovail social के नाम से प्रकाशित की। चाहे यह दुर्खीम का पहला ग्रन्थ था पर उसकी प्रसिद्धि की यह एक आधार-शिला थी। इसी ग्रन्थ पर दुर्खीम को 1893 में पैरिस विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई थी। इस महान् ग्रन्थ में दुर्खीम ने सामाजिक श्रम विभाजन का प्रत्यक्ष सिद्धान्त पेश किया है। दुर्खीम की यह किताब तीन भागों में बांटी हुई है हर भाग में दुर्खीम ने श्रम विभाजन के भिन्न-भिन्न पक्षों की विवेचना की है। ये तीन खण्ड हैं-

  1. श्रम विभाजन के प्रकार्य (The functions of Division of Labour)
  2. कारण व दशाएं (Causes and Conditions)
  3. श्रम विभाजन के असाधारण स्वरूप (Abnormal forms of Division of Labour)

दुर्खीम ने अपनी किताब के पहले भाग ‘श्रम विभाजन के प्रकार्य’ में श्रम विभाजन को सामाजिक एकता (Social solidarity) का आधार सिद्ध करने की कोशिश की है। साथ ही उसके वैज्ञानिक अध्ययन की नज़र से कानूनों के स्वरूप, एकता के रूप, मानवीय सम्बन्धों के स्वरूप, अपराध, दण्ड, सामाजिक विकास आदि अनेकों मुश्किलों व धारणाओं की व्याख्या पेश की है। दूसरे हिस्से में श्रम विभाजन के कारणों व परिणामों का विस्तृत विश्लेषण पेश किया है। तीसरे खण्ड में दुर्खीम ने श्रम विभाजन के असाधारण स्वरूपों की विवेचना दी है।
अब हम दुर्खीम के पहले दोनों भागों की विवेचना की मदद से सामाजिक श्रम-विभाजन के सिद्धान्त की विवेचना करेंगे।

श्रम विभाजन के प्रकार्य (Functions of Division of Labour) –

दुर्खीम प्रत्येक सामाजिक तथ्य को एक नैतिक तथ्य के रूप में स्वीकार करते हैं। कोई भी सामाजिक प्रतिमान नैतिक आधार पर ही सुरक्षित रहता है। एक कार्यवादी के रूप में सबसे पहले दुीम ने श्रम विभाजन के कार्य की खोज की है। दुर्खीम ने सबसे पहले ‘प्रकार्य’ शब्द का अर्थ स्पष्ट किया है प्रकार्य के उन्होंने दो अर्थ बताए हैं।

(1) प्रकार्य का मतलब गति व्यवस्था से है अर्थात् क्रिया से है।
क्रिया के द्वारा पूरी होने वाली ज़रूरत से है।

दुर्खीम ‘प्रकार्य’ का प्रयोग दूसरे शब्दों में करते हैं इस प्रकार श्रम विभाजन के प्रकार्य से उनका अर्थ यह है कि श्रम विभाजन की प्रक्रिया समाज के अस्तित्व के लिए कौन-सी मौलिक ज़रूरत को पूरा करती है। प्रकार्य तो वह है जिसकी अनावश्यकता में उसके तत्त्वों की मौलिक ज़रूरत की पूर्ति नहीं हो सकती।

आमतौर से यह कहा जाता है कि श्रम विभाजन का प्रकार्य सभ्यता का विकास करना है क्योंकि यह स्पष्ट सच है कि श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ विशेषीकरण के नतीजे के तौर पर समाज में सभ्यता बढ़ती है। श्रम विभाजन के परिणाम के तौर पर उत्पादन शक्ति में बढ़ावा होता है, भौतिक व बौधिक विकास होता है व साधारण जीवन में सुख के उपभोग व ज्ञान का प्रसार होता है इसलिए आमतौर पर श्रम विभाजन को सभ्यता का स्रोत कहा जाता है।

मुश्किलों व धारणाओं की व्याख्या पेश की है। दूसरे हिस्से में श्रम विभाजन के कारणों व परिणामों का विस्तृत विश्लेषण पेश किया है। तीसरे खण्ड में दुर्थीम ने श्रम विभाजन के असाधारण स्वरूपों की विवेचना दी है।
अब हम दुर्थीम के पहले दोनों भागों की विवेचना की मदद से सामाजिक श्रम-विभाजन के सिद्धान्त की विवेचना करेंगे।

श्रम विभाजन के प्रकार्य
(Functions of Division of Labour)
दुर्थीम प्रत्येक सामाजिक तथ्य को एक नैतिक तथ्य के रूप में स्वीकार करते हैं। कोई भी सामाजिक प्रतिमान नैतिक आधार पर ही सुरक्षित रहता है। एक कार्यवादी के रूप में सबसे पहले दुीम ने श्रम विभाजन के कार्य की खोज की है। दुर्थीम ने सबसे पहले ‘प्रकार्य’ शब्द का अर्थ स्पष्ट किया है प्रकार्य के उन्होंने दो अर्थ बताए हैं।

  1. प्रकार्य का मतलब गति व्यवस्था से है अर्थात् क्रिया से है।
  2. प्रकार्य का दूसरा अर्थ इस क्रिया या गति और उसके अनुरूप ज़रूरतों के आपसी सम्बन्धों से है अर्थात् क्रिया के द्वारा पूरी होने वाली ज़रूरत से है।

दुर्थीम ‘प्रकार्य’ का प्रयोग दूसरे शब्दों में करते हैं इस प्रकार श्रम विभाजन के प्रकार्य से उनका अर्थ यह है कि श्रम विभाजन की प्रक्रिया समाज के अस्तित्व के लिए कौन-सी मौलिक ज़रूरत को पूरा करती है। प्रकार्य तो वह है जिसकी अनावश्यकता में उसके तत्त्वों की मौलिक ज़रूरत की पूर्ति नहीं हो सकती।

आमतौर से यह कहा जाता है कि श्रम विभाजन का प्रकार्य सभ्यता का विकास करना है क्योंकि यह स्पष्ट सच है कि श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ विशेषीकरण के नतीजे के तौर पर समाज में सभ्यता बढ़ती है। श्रम विभाजन के परिणाम के तौर पर उत्पादन शक्ति में बढ़ावा होता है, भौतिक व बौधिक विकास होता है व साधारण जीवन में सुख के उपभोग व ज्ञान का प्रसार होता है इसलिए आमतौर पर श्रम विभाजन को सभ्यता का स्रोत कहा जाता है।

दुर्शीम ने विरोध किया है। उसने सभ्यता के विकास को श्रम विभाजन का प्रकार्य नहीं माना है। दुर्थीम के अनुसार स्रोत का काम नहीं है। सुखों में बढ़ोत्तरी या बौद्धिक व भौतिक विकास प्रकार्य विभाजन के परिणाम से उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह इस प्रक्रिया के परिणाम हैं, काम नहीं। काम का अर्थ परिणाम नहीं होता।
सभ्यता के विकास में तीन प्रकार के विकास शामिल हैं और यह तीन प्रकार निम्नलिखित हैं-

  1. औद्योगिक अथवा आर्थिक पक्ष
  2. कलात्मक पक्ष
  3. वैज्ञानिक पक्ष।

दुर्शीम ने सभ्यता के इन तीनों ही पक्षों के विकास को नैतिक तत्त्वों से विहीन बताया है। उसके विचार में औद्योगिक, कलात्मक तथा वैज्ञानिक विकास के साथ-साथ समाजों में अपराध, आत्महत्या इत्यादि अनैतिक घटनाओं में बढ़ोत्तरी होती है। अंत दुर्थीम के श्रम विभाजन का कार्य सभ्यता का विकास नहीं है।

परन्तु दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का प्रकार्य क्या है ? दुर्थीम के अनुसार नये समूहों का निर्माण व उनकी एकता ही श्रम विभाजन के काम हैं। दुर्थीम ने समाज के अस्तित्व से सम्बन्धित किसी नैतिक ज़रूरत को ही श्रम विभाजन के काम के रूप में खोजने की कोशिश की है। उसके विचार अनुसार समाज के सदस्यों की गणना व उनके आपसी सम्बन्धों में अधिकता होने से धीरे-धीरे श्रम विभाजन की प्रक्रिया का विकास हुआ है। इस प्रक्रिया में बहुत सारे नए-नए व्यावसायिक व सामाजिक समूहों का निर्माण हुआ। इन भिन्न-भिन्न समूहों की एकता का प्रश्न समाज के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। इनकी आपसी एकता की अनावश्यकता में सामाजिक व्यवस्था न सन्तुलन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए इन भिन्न-भिन्न समूहों में एकता एक नैतिक ज़रूरत है।

अनुसार स्रोत का काम नहीं है। सुखों में बढ़ोत्तरी या बौद्धिक व भौतिक विकास प्रकार्य विभाजन के परिणाम से उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह इस प्रक्रिया के परिणाम हैं, काम नहीं। काम का अर्थ परिणाम नहीं होता।

सभ्यता के विकास में तीन प्रकार के विकास शामिल हैं और यह तीन प्रकार निम्नलिखित हैं-

  1. औद्योगिक अथवा आर्थिक पक्ष
  2. कलात्मक पक्ष
  3. वैज्ञानिक पक्ष।

दुर्खीम ने सभ्यता के इन तीनों ही पक्षों के विकास को नैतिक तत्त्वों से विहीन बताया है। उसके विचार में औद्योगिक, कलात्मक तथा वैज्ञानिक विकास के साथ-साथ समाजों में अपराध, आत्महत्या इत्यादि अनैतिक घटनाओं में बढ़ोत्तरी होती है। अंत दुर्खीम के श्रम विभाजन का कार्य सभ्यता का विकास नहीं है।

परन्तु दुर्खीम के अनुसार श्रम विभाजन का प्रकार्य क्या है ? दुर्खीम के अनुसार नये समूहों का निर्माण व उनकी एकता ही श्रम विभाजन के काम हैं। दुर्खीम ने समाज के अस्तित्व से सम्बन्धित किसी नैतिक ज़रूरत को ही श्रम विभाजन के काम के रूप में खोजने की कोशिश की है। उसके विचार अनुसार समाज के सदस्यों की गणना व उनके आपसी सम्बन्धों में अधिकता होने से धीरे-धीरे श्रम विभाजन की प्रक्रिया का विकास हुआ है। इस प्रक्रिया में बहुत सारे नए-नए व्यावसायिक व सामाजिक समूहों का निर्माण हुआ। इन भिन्न-भिन्न समूहों की एकता का प्रश्न समाज के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। इनकी आपसी एकता की अनावश्यकता में सामाजिक व्यवस्था न सन्तुलन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए इन भिन्न-भिन्न समूहों में एकता एक नैतिक ज़रूरत है।

दुर्खीम के अनुसार समाज की इसी ज़रूरत की पूर्ति श्रम-विभाजन की ओर से की जाती है। जहां एक ओर श्रम विभाजन से नए सामाजिक समूहों का निर्माण होता है, वहां दूसरी ओर इन समूहों की आपसी एकता व सामूहिकता बनी रहती है।

अन्त दुीम के अनुसार श्रम विभाजन का काम समाज में एकता स्थापित करना है। श्रम-विभाजन मानवों की क्रियाओं की भिन्नता से सम्बन्धित है पर यह भिन्नता भी समाज की एकता का आधार है। इस सामाजिक तथ्य के बारे दुर्खीम ने तथ्यात्मक आधार पर बताया है। उन्होंने कहा कि आपसी आकर्षण के दो विरोधी आधार हो सकते हैं। हम उन व्यक्तियों के प्रति ही नज़दीकी अनुभव करते हैं जो हमारी तरह हैं व उनकी ओर ही खिंचे जा सकते हैं। जो हमसे भिन्न हैं पर पूरी तरह की भिन्नता एक-दूसरे को अपनी ओर नहीं खींचती। ईमानदार बेइमानों को व खर्चीले कंजूसों को पसन्द नहीं करते। केवल यह भिन्नता इन दोनों को एक दूसरे के नज़दीक लाती है जो एक दूसरे की पूरक हैं। एक दोस्त में कोई कमी होती है, व वही चीज़ दूसरे में होती है जिस कारण दोनों के सम्बन्ध बनते हैं व एक दूसरे की ओर खिंचे जाते हैं।

दुर्खीम कहते हैं श्रम-विभाजन का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह नहीं कि यह बांटे हुए काम से उत्पादन में बढ़ोत्तरी करता है बल्कि यह है कि यह उनको संगठित करता है। अतः दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन समूहों का निर्माण करता है व उनमें एकता पैदा करता है।

कानून और एकता (Law and Solidarity) -दुर्खीम ने श्रम-विभाजन का काम समाज में एकता पैदा करना बताया है। सामाजिक एकता एक नैतिक तथ्य है। दुर्खीम श्रम-विभाजन से पैदा सामाजिक एकता को स्पष्ट करने के लिए कानून का वर्गीकरण करते हैं। किसी कानून के वर्गीकरण के अनुरूप उन्होंने सामाजिक एकता के प्रकार निर्धारित करते हैं। दुर्जीम ने दो प्रकारों के कानूनों के बारे में बताया है वे हैं-

(a) दमनकारी कानून (Repressive Law)
(b) प्रतिकारी कानून (Restitutive Law)

(a) दमनकारी कानून (Repressive Law)-दमनकारी कानूनों को एक प्रकार से सार्वजनिक कानून (Public Law) कहा जा सकता है। दुर्खीम के अनुसार यह दो प्रकार के होते हैं

(i) दण्ड सम्बन्धी कानून (Penal Law)-जिनका सम्बन्ध कष्ट देने, हानि पहुंचाने, हत्या करने या स्वतन्त्रता न देने से है। इनको संगठित दमनकारी कानून (Organized Repressive Law) कहा जाता है।

(ii) व्याप्त कानून (Diffused Law)-कुछ दमनकारी कानून ऐसे होते हैं जो पूरे समूह में नैतिकता के आधार पर फैले होते हैं। इसलिए दुर्खीम इनको व्याप्त कानून कहते हैं। दुर्खीम के अनुसार दमनकारी कानून का सम्बन्ध आपराधिक कार्यों से होता है। यह कानून अपराध व दण्ड की व्याख्या करते हैं। यह कानून समाज के सामूहिक जीवन की मौलिक दशाओं का वर्णन करते हैं। प्रत्येक समाज के अपने मौलिक हालात होते हैं। इसलिए भिन्नभिन्न समाजों में दमनकारी कानून भिन्न-भिन्न होते हैं। इन दमनकारी कानूनों की शक्ति सामूहिक दमन में होती है व सामूहिक मन समानताओं से शक्ति प्राप्त करता है।

(b) प्रतिकारी कानून (Restitutive Law) कानून का दूसरा भाग प्रतिकारी कानून व्यवस्था है। यह कानून व्यक्तियों के सम्बन्धों में पैदा होने वाले असन्तुलन को साधारण स्थिति प्रदान करते हैं। इस वर्ग के अन्तर्गत दीवानी (civil) कानून, व्यापारिक कानून, संवैधानिक कानून, प्रशासनिक कानून आदि आ जाते हैं। इनका सम्बन्ध पूरे समाज के सामूहिक स्वरूप से न होकर व्यक्तियों से होता है। यह कानून समाज के सदस्यों के व्यक्तिगत सम्बन्धों से पैदा होने वाले असन्तुलन के द्वारा सन्तुलित व व्यवस्थित होते हैं। दुर्खीम कहते हैं कि प्रतिकारी कानून व्यक्तियों व समाज के कुछ बीच की संस्थाओं से जोड़ते हैं।

कानून के उपरोक्त दो प्रकार के आधार पर दुर्खीम के अनुसार दो भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक एकताओं (Social Solidarity) का निर्माण होता है। यह दो प्रकार समाज की दो भिन्न-भिन्न जीवन-शैलियों के परिणाम हैं। दमनकारी-कानून का सम्बन्ध व्यक्तियों की साधारण प्रवृत्ति से है, समानताओं से है, जबकि प्रतिकारी कानून का सम्बन्ध विभिन्नताओं से या श्रम-विभाजन से है। दमनकारी कानून के द्वारा जिस प्रकार की सामाजिक एकता बनती है उसको दुर्खीम यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity) कहते हैं। प्रतिकारी कानून आंगिक एकता (Organic Solidarity) के प्रतीक है जिसका आधार श्रम-विभाजन है। अतः दुर्खीम के अनुसार समाज में दो प्रकार की सामाजिक एकता मिलती है।

(i) यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार यान्त्रिक एकता समाज की दण्ड संहिता में अर्थात् दमनकारी कानूनों के कारण होती है। समूह के सदस्यों में मिलने वाली समानताएं इस एकता का आधार हैं। जिस समाज के सदस्यों में समानताओं से भरपूर जीवन होता है, जहां विचारों, विश्वासों, कार्यों व जीवन इकाई के रूप में सोचता व क्रिया करता है, वह यान्त्रिक एकता दिखाता है अर्थात् उसके सदस्य मशीन के औज़ार भिन्न पुों की तरह संगठित रहते हैं। दुर्खीम ने अपराधी कार्यों के दमनकारी एकता कानून व यान्त्रिक एकता की अनुरूपता का माध्यम बताया है।

(ii) आंगिक एकता (Organic Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार दूसरी एकता आंगिक एकता है। दमनकारी कानून की शक्ति सामूहिक चेतना में होती है। सामूहिक चेतना समानताओं से शक्ति प्राप्त करती है। आदिम समाज में दमनकारी कानूनों की प्रधानता होती है क्योंकि उनमें समानताएं सामाजिक जीवन का आधार हैं। दुर्खीम के अनुसार आधुनिक समाज श्रम-विभाजन व विशेषीकरण से प्रभावित है जिसमें समानता की जगह विभिन्नताएं प्रमुख हैं। सामूहिक जीवन को यह विभिन्नता व्यक्तिगत चेतना को प्रमुखता देती है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से समूह से बंधा नहीं रहता। इस समाज में मानवों के आपसी सम्बन्धों का महत्त्व अधिक होता है। यही कारण है कि दुर्खीम ने आधुनिक समाजों में दमनकारी कानून की जगह प्रतिकारी कानून की प्रधानता बताई है। विभिन्नतापूर्ण जीवन में मानवों को एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल एक काम में विशेष योग्यता प्राप्त कर सकता है व बाकी सभी कामों के लिए उसके अन्य लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। समूह के सदस्यों को यह आपसी निर्भरता, उनकी व्यक्तिगत असमानता, उनके एक-दूसरे के नज़दीक आने के लिए मजबूर करती है जिसके आधार पर समाज में एकता की स्थापना होती है। इस एकता को दुर्खीम ने आंगिक एकता (Organic Solidarity) कहा है। यह प्रतिकारी कानून व्यवस्था में दिखाई देता है।

दुर्खीम के अनुसार यह एकता शारीरिक एकता के समान है। हाथ, पैर, नाक, कान, आँख आदि अपने-अपने विशेष कामों के आधार पर स्वतन्त्र अंगों के रूप में हाजिर रहते हैं पर उनके काम तो ही सम्भव हैं जब तक एकदूसरे से मिले (जुड़े) हुए हैं, हाथ शरीर से भिन्न होकर कोई काम नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में शरीर के भिन्नभिन्न अंगों में एकता तो है पर वह आपसी निर्भरता पर टिकी हुई है।

दुीम के अनुसार जनसंख्या के बढ़ने से समाज की ज़रूरतें भी बढ़ती जाती है। इन बढ़ती हुई ज़रुरतों को पूरा करने के लिए श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण हो जाता है। इसी कारण ही आधुनिक समाजों में आंगिक एकता दिखाई देती है। हम दुर्खीम के कानून, सामूहिक चेतना, एकता तथा समाजों को निम्न बने चित्र में से समझ सकते है। समाज को बनाए रखने के लिए सामाजिक एकता का होना बहुत ज़रूरी है। आदिम समाजों में समूह के सदस्यों में पूरी समानता होती है जिस कारण उनमें सामूहिक चेतना अधिक प्रबल होती है। वह एक-दूसरे पर कार्यात्मक दृष्टि से ही निर्भर नहीं होते बल्कि इतने जुड़े होते हैं कि उनमें हमेशा स्वाभाविक एकता बनी रहती है। यह एकता दुर्खीम के शब्दों में ठीक वैसी ही होती है जैसी कि किसी यन्त्र की एकता होती है। जिस प्रकार यन्त्र के किसी एक भाग को हिलाने से पूरा यन्त्र हरकत में आता है ठीक उसी प्रकार समानताओं पर आधारित इस एकता को दुर्खीम यान्त्रिक एकता कहते हैं।

दूसरी तरफ आधुनिक समाजों में विशेषीकरण बढ़ने से कार्यों का विभाजन हो गया है जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक विभिन्नताएं बढ़ गई है। इस श्रम विभाजन के नतीजे के कारण समूह के सभी एक-दूसरे पर निर्भर हो गए हैं। किसी प्राणी की शारीरिक एकता की तरह, सामाजिक एकता के भिन्न-भिन्न अंगों में कार्यात्मक से उत्पन्न ज़रूरी सहयोग इस पूरी एकता की क्रियाशीलता का आधार है। इसीलिए दुर्खीम श्रम विभाजन से उत्पन्न जो एकता समाज को मिलती है उसे आंगिक एकता कहते हैं।

(iii) संविदात्मक एकता (Contractual Solildarity)-आंगिक व यान्त्रिक एकता के अध्ययन के बाद दुर्खीम ने एक और एकता के बारे में बताया है, जिसको उसने संविदात्मक एकता (Contractual Solidarity) या समझौते वाली एकता कहा है।

दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन की प्रक्रिया समझौते पर आधारित सम्बन्धों को जन्म देती है। समूह के लोग आपसी समझौते के आधार पर एक-दूसरे की सेवाओं को प्राप्त करते हैं व परस्पर सहयोग करते हैं। यह सच है कि आधुनिक समाजों में समझौतों के आधार पर लोगों में सहयोग व एकता स्थापित होती है पर श्रम-विभाजन का काम संविदात्मक एकता की उत्पत्ति करना ही नहीं है। दुर्खीम के विचार से संविदात्मक एकता एक व्यक्तिगत तथ्य है चाहे यह समाज द्वारा ही चलती है।

कारण तथा दशाएं (Causes and Conditions)-दुर्खीम की पुस्तक The division of Labour in Society का दूसरा भाग श्रम विभाजन के कारणों, दशाओं तथा परिणामों से सम्बन्धित है। दुर्खीम श्रम विभाजन के कारणों तथा दिशाओं की व्याख्या पेश करते हुए लिखते हैं कि श्रम विभाजन के विकास के प्रेरक तथा सुख में बढ़ौत्तरी की इच्छा अथवा ‘आनन्द प्राप्ति’ नहीं है क्योंकि सुख में व्यक्तिगत तथ्य मौजूद हैं तथा सुख की इच्छा मनोवैज्ञोनिक का विषय है। समाजशास्त्रीय विवेचना का नहीं चाहे श्रम विभाजन को दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य माना है।

श्रम-विभाजन के कारण (Causes of Division of Labour)-दुीम ने श्रम-विभाजन की व्याख्या समाजशास्त्रीय आधार पर की है। उसने श्रम विभाजन के कारणों की खोज सामाजिक जीवन की दशाओं व उनसे पैदा सामाजिक ज़रूरतों से की है। इस नज़र से उसने श्रम-विभाजन के कारणों को दो भागों में बांटा है। पहला है प्राथमिक कारक व दूसरा है द्वितीय कारक। प्राथमिक कारक के रूप में दुर्खीम ने जनसंख्या में बढ़ोत्तरी व उससे उत्पन्न परिणामों को माना है। जबकिं द्वितीय कारकों को वह दो भागों में रखता है। वह है आम चेतना की बढ़ती हुई अस्पष्टता व पैतृकता का घटता हुआ प्रभाव।

अब हम इनके कारकों की विस्तार से व्याख्या करेंगे-

(i) जनसंख्या के आकार व घनत्व में बढ़ोत्तरी (Increase in Density and size of Population)दुर्खीम के अनुसार जनसंख्या के आकार व घनत्व में बढ़ोत्तरी ही श्रम-विभाजन का केन्द्रीय व प्राथमिक कारक है। दुर्खीम के अनुसार, “श्रम-विभाजन समाज में जटिलता व घनत्व के साथ सीधे अनुपात में रहता है व यदि सामाजिक विकास के दौरान यह लगातार बढ़ता है तो इसका कारण यह है कि समाज लगातार अधिक घनत्व व अधिक जटिल हो जाते हैं।” दुर्खीम के अनुसार जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के दो पक्ष हैं-जनसंख्या के आकार में अधिकता व जनसंख्या के घनत्व में अधिकता। यह दोनों पक्ष श्रम-विभाजन को जन्म देते हैं। जनसंख्या में बढ़ोत्तरी होने से सरल समाज समाप्त हो जाते हैं और मिश्रित समाज बनने लग जाते हैं। जनसंख्या विशेष केन्द्रों पर एकत्र होने लगती है। जनसंख्या के घनत्व को भी दुर्खीम ने दो भागों में बांटा है-

(a) भौतिक घनत्व (Material Density)-शारीरिक नज़र से लोगों का एक ही स्थान पर एकत्र होना घनत्व है।
(b) नैतिक घनत्व (Moral Density)-भौतिक घनत्व के परिणाम से लोगों के आपसी सम्बन्ध बढ़ते हैं जिससे उनकी क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं में बढ़ोत्तरी होती है। इन आपसी सम्बन्धों व अन्तर क्रियाओं में बढ़ोत्तरी से उत्पन्न जटिलता को दुर्खीम ने नैतिक घनत्व कहा है।

(ii) सामूहिक चेतना का कम होना या पतन-दुर्खीम ने श्रम-विभाजन को द्वितीय कारकों के बारे में बताया है। इसमें उसने सामूहिक चेतना के पतन को सबसे पहले रखा है। समानताओं पर आधारित समाज में सामूहिक चेतना प्रबल या ताकतवर होती है जिस कारण समूह के सदस्य व्यक्तिगत भावनाओं से प्रेरित होते हैं। सामूहिक भावना ही उनको रास्ता दिखाती है। दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन तब ही सम्भव है जब सामूहिक दृष्टिकोण की जगह व्यक्तिगत दृष्टिकोण का विकास हो जाए व व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना को नष्ट कर दे। अतः दुर्खीम के अनुसार, “चेतना निश्चित व मज़बूत होगी इसके विपरीत यह उतनी ही अधिक तेज़ होगी, जितना व्यक्ति अपने व्यक्तिगत वातावरण से समझौता करने में असमर्थ होगा।

(iii) पैतृकता व श्रम-विभाजन-दुीम ने द्वितीय कारक के दूसरे प्रकार को पैतृकता के घटते प्रभाव को कारण माना है। चाहे दुर्खीम ने सामाजिक घटनाओं की व्याख्या के लिए सामाजिक कारकों को ही प्राथमिकता दी है पर श्रम-विभाजन के विकास में पैतृकता का प्रभाव जितना अधिक होता है परिवर्तन के मौके उतने ही कम होते हैं।

अन्य शब्दों में श्रम विभाजन के विकास के लिए यह ज़रूरी है कि पैतृक गुणों को महत्त्व न दिया जाए। श्रम विभाजन का विकास तभी सम्भव है जब लोगों में प्रकृति तथा स्वभाव में भिन्नता हो, पैतृकता से प्राप्त योग्यताओं के आधार पर व्यक्तियों का वर्गीकरण करके उनको विशेष जातियों से सम्बन्धित करके, उनके पूर्वजों तथा अतीत से कठोरता से बांध देने की प्रक्रिया के फलस्वरूप यह होता है कि हम अपनी विशेष रुचिओं का विकास नहीं कर सकते तथा परिवर्तन नहीं कर सकते। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पैतृकता के आधार पर कार्यों का विभाजन भी श्रम विभाजन में रुकावट है। दुर्खीम के अनुसार समय की गति तथा सामाजिक विकास के साथ लगातार होने वाले परिवर्तन पैतृकता में लचकीला पन पैदा करते हैं अर्थात् पैतृकता के गुण कमजोर होने लग जाते हैं। परिणामस्वरूप व्यक्तियों की विभिन्नताएं विकसित हो जाती है तथा श्रम विभाजन में बढ़ोत्तरी होती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दुर्खीम ने जनसंख्या में बढ़ोत्तरी, सामूहिक चेतना का पतन तथा पैतृकता के घटते प्रभाव को श्रम विभाजन का कारक माना है।

श्रम-विभाजन के परिणाम (Consequences of Division of Labour)-श्रम-विभाजन के प्राथमिक व द्वितीय कारणों के पश्चात् दुर्खीम इसके विकास के परिणामस्वरूप होने वाले परिणामों पर रोशनी डालते हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘कार्य’ व ‘परिणाम’ दो भिन्न-भिन्न शब्द हैं। ऐसे बहत से तथ्य जो आम आदमी की नज़र से श्रम-विभाजन से कार्य दिखाई देते हैं। वह सच्चाई में उसके परिणाम है। दुर्खीम ने श्रम-विभाजन के बहुत सारे परिणामों की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित किया है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं

1. कार्यात्मक स्वतन्त्रता व विशेषीकरण-दुर्खीम ने शारीरिक श्रम-विभाजन व सामाजिक श्रम-विभाजन में अन्तर बताया है व सामाजिक श्रम-विभाजन के परिणाम बताए हैं। दुीम के अनुसार श्रम-विभाजन का एक परिणाम यह होता है कि जैसे ही काम अधिक बांटा जाता है उसी प्रकार काम करने की स्वतन्त्रता व गतिशीलता में बढ़ोत्तरी होती है। श्रम-विभाजन के कारण मानव अपनी कुछ विशेष योग्यताओं को विशेष काम में लगा देता है। दुीम के अनुसार श्रम-विभाजन के विकास का एक परिणाम यह भी होता है कि व्यक्तियों के काम उनके शारीरिक लक्षणों से स्वतन्त्र हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में मानव की संरचनात्मक विशेषताएं उनकी कार्यात्मक प्रवृत्तियों को अधिक प्रभावित नहीं करतीं।

2. सभ्यता का विकास-दुर्खीम ने शुरू में ही यह स्पष्ट किया है कि सभ्यता का विकास करना श्रम-विभाजन का काम नहीं है क्योंकि श्रम-विभाजन एक नैतिक तथ्य है व सभ्यता के तीन अंग, औद्योगिक या आर्थिक, कलात्मक व वैज्ञानिक विकास नैतिक विकास से सम्बन्ध नहीं रखते।

दुर्खीम ने श्रम-विभाजन के परिणाम के रूप में सभ्यता के विकास की व्याख्या की है। आपका कहना था कि जनसंख्या के आकार व घनता में अधिकता होने के साथ सभ्यता का विकास भी ज़रूरी हो जाता है। श्रम-विभाजन व सभ्यता दोनों साथ-साथ प्रगति करते हैं। परन्तु श्रम-विभाजन का विकास पहले होता है व उसके परिणामस्वरूप सभ्यता विकसित होती है। इसलिए दुर्खीम का मानना है कि सभ्यता न तो श्रम-विभाजन का लक्ष्य है व न ही उसका कार्य है बल्कि एक ज़रूरी परिणाम है।

3. सामाजिक प्रगति-प्रगति परिवर्तन का परिणाम है। श्रम-विभाजन भी परिवर्तन को जन्म देता है। परिवर्तन समाज में एक निरन्तर प्रक्रिया है। इसलिए प्रगति भी समाज में निरन्तर होती रहती है। दुर्खीम के अनुसार इस परिवर्तन का मुख्य कारण श्रम-विभाजन है। श्रम-विभाजन के कारण परिवर्तन होता है व परिवर्तन के कारण प्रगति होती है। इस तरह सामाजिक प्रगति श्रम-विभाजन का एक परिणाम है। दुर्खीम के विचार से प्रगति का प्रमुख कारक समाज है। हम इसलिए बदल जाते हैं क्योंकि समाज बदल जाता है। प्रगति तो रुक ही सकती है जब समाज रुक जाए पर वैज्ञानिक नज़र से यह सम्भव नहीं है। इसलिए दुर्खीम के अनुसार प्रगति भी सामाजिक जीवन का परिणाम है।

4. सामाजिक परिवर्तन व व्यक्तिगत परिवर्तन-दुर्खीम ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या श्रम-विभाजन के आधार पर की है। व्यक्तियों में होने वाले परिवर्तन समाज में होने वाले परिवर्तन का परिणाम हैं। दुर्खीम का मानना है कि समाज में होने वाले परिवर्तन मूल कारक हैं। जनसंख्या के आकार, वितरण व घनत्व में होने वाला परिवर्तन है जो मानवों में श्रम-विभाजन कर देता है व सारे व्यक्तिगत परिवर्तन इसी सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप होते हैं।

5. नवीन समूहों की उत्पत्ति व अन्तर्निर्भरता-दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन का एक परिणाम यह होता है कि विशेष कार्यों में लगे व्यक्तियों के विशेष हितों का विकास हो जाता है। इस प्रकार जितना अधिक श्रमविभाजन होता है उतनी ही अधिक अन्तर्निर्भरता बढ़ती है। अन्तर्निर्भरता सहयोग को जन्म देती है। इसलिए श्रमविभाजन सहयोग की प्रक्रिया को सामाजिक जीवन के लिए ज़रूरी बना देता है।

6. व्यक्तिवादी विचारधारा-दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप व्यक्तिगत चेतना बढ़ती है। सामूहिक चेतना का नियन्त्रण कम हो जाता है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व विशेषता व्यक्तिवादी विचारधारा को जन्म देती है। इस तरह श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप व्यक्तिवादी विचारधारा को बल मिलता है।

7. प्रतिकारी कानून व नैतिक दबाव-दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन कानूनी व्यवस्था में ही बदलाव कर देता है। श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप आपसी सम्बन्धों का विस्तार होता है व जटिलता व कार्यात्मक सम्बन्धों के कारण व्यक्तिगत समझौते का महत्त्व कम हो जाता है। मानवों के संविदात्मक या समझौते वाले सम्बन्धों को सन्तुलित करने के लिए प्रतिकारी या सहकारी कानूनों का विकास हो जाता है। श्रम-विभाजन जहां एक ओर व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन देता है, वहां दूसरी ओर यह व्यक्तियों में विशेष आचरण से सम्बन्धित व सामूहिक कल्याण से सम्बन्धित नैतिक जागरूकता का भी निर्माण करता है। दुर्खीम के विचार से व्यक्तिवाद मानवों की इच्छा पर फल नहीं बल्कि श्रम-विभाजन से उत्पन्न सामाजिक परिस्थिति का आवश्यक परिणाम है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक PSEB 11th Class Sociology Notes

  • 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के दौरान यूरोप के समाज में बहुत से परिवर्तन आए तथा यह कहा जाता है कि इन परिवर्तनों के अध्ययन के लिए ही समाजशास्त्र का जन्म हुआ।
  • 17वीं, 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में बहुत से विचारकों ने पुस्तकें लिखीं जिन्होंने समाजशास्त्र के उद्भव में काफ़ी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा इनमें मान्टेस्कयू (Montesquieu), रूसो (Rousseau) इत्यादि प्रमुख
  • अगस्ते कोंत, जोकि एक फ्रांसीसी दार्शनिक थे, को समाजशास्त्र का पितामह माना जाता है। उसने अपनी पुस्तक ‘The Course on Postitive Philosophy’ लिखी जिसमें उन्होंने 1839 में पहली बार शब्द Sociology का प्रयोग किया तथा इसे समाजशास्त्र का नाम दिया।
  • कोंत ने सकारात्मकवाद का सिद्धांत दिया तथा कहा कि सामाजिक घटनाओं को भी वैज्ञानिक व्याख्या से समझा जा सकता है तथा सकारात्मकवाद वह विधि है। इस प्रकार सकारात्मकवाद प्रेक्षण, तजुर्बे, तुलना तथा ऐतिहासिक विधि की एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली है जिससे समाज का वैज्ञानिक अध्ययन किया जा सकता है।
  • कोंत ने अलग-अलग समाजों का अध्ययन किया तथा कहा कि वर्तमान अवस्था में पहुँचने के लिए समाज को तीन पड़ावों से गुजरना पड़ता है तथा वह पड़ाव हैं-आध्यात्मिक पड़ाव, अधिभौतिक पड़ाव तथा सकारात्मक पड़ाव। यह ही कोंत का तीन पड़ावों का सिद्धांत है।
  • कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक थे जिन्हें संसार में उनके वर्ग तथा वर्ग संघर्ष पर दिए विचारों के लिए जाना जाता है। समाजवाद तथा साम्यवाद की धारणा भी मार्क्स ने ही दी है।
  • मार्क्स के अनुसार शुरू से लेकर अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। सभी समाजों में दो प्रकार के वर्ग होते हैं। प्रथम है पूँजीपति वर्ग जिसके पास उत्पादन के सभी साधन मौजूद हैं तथा दूसरा है मज़दूर वर्ग जिसके पास अपना श्रम बेचने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। दोनों के बीच अधिक प्राप्त करने के लिए संघर्ष चलता रहता है तथा इसको ही वर्ग संघर्ष कहते हैं।
  • इमाईल दुर्थीम भी समाजशास्त्र के संस्थापकों में से एक है। उन्होंने समाजशास्त्र को एक विज्ञापन के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। वह समाजशास्त्र के प्रथम प्रोफेसर भी थे।
  • वैसे तो समाजशास्त्र को दुर्थीम का काफ़ी योगदान है परन्तु उनके कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं-सामाजिक तथ्य का सिद्धांत, आत्महत्या का सिद्धांत, श्रम विभाजन का सिद्धांत, धर्म का सिद्धांत इत्यादि।
  • दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का सिद्धांत हमारे समाज में प्राचीन समय से ही मौजूद है। श्रम विभाजन के कारण ही समाज की प्रवृत्ति निश्चित होती है तथा इसमें मौजूद कानूनों की प्रकृति भी निश्चित होती है।
  • मैक्स वैबर भी एक प्रमुख समाजशास्त्री थे। मार्क्स की तरह वह भी जर्मनी के दाशनिक थे। उन्होंने भी समाजशास्त्र को बहत से सिद्धांत दिए जिनमें से प्रमुख हैं-सामजिक क्रिया का सिद्धांत, सत्ता तथा उसके प्रकार, प्रोटैस्टैंट एथिक्स तथा पूँजीवाद की आत्मा इत्यादि।
  • वर्ग (Class)–लोगों का समूह जिनके उत्पादन के साधन समान होते हैं।
  • सत्ता (Authority)-शक्ति का वह विशेष रूप जिसे सामाजिक व्यवस्था के नियमों, परिमापों का समर्थन प्राप्त होता है तथा साधारणतया इसे उन सभी की तरफ से वैध माना जाता है जो इसमें भाग लेते हैं।
  • सामाजिक क्रिया (Social Action)—वह क्रिया जिसमें अन्य व्यक्तियों की क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं को सामने रखा जाता है। इसे सामाजिक उस समय कहा जाता है जब क्रिया करने वाला व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों को सामने रखता है।
  • वर्ग चेतना (Class Consciousness)-एक वर्ग के सदस्यों के बीच अपने समूह के साधारण हितों की चेतना की मौजूदगी।
  • वर्ग संघर्ष (Class Struggle)-पूँजीपति तथा मजदूर वर्ग के बीच हमेशा हितों का संघर्ष होता है। यह हितों का संघर्ष दोनों वर्ग के बीच संघर्ष का कारण बनता है। जब लोगों में वर्ग चेतना बढ़ जाती है तो वर्ग संघर्ष भी बढ़ जाता है।
  • सकारात्मवाद (Positivism)-सकारात्मकवाद में माना जाता है कि समाज कुछ नियमों के अनुसार कार्य करता है जिन्हें ढूंढ़ा जा सकता है।
  • यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-समानताओं पर आधारित समाजों के सदस्यों के बीच एकता की एकता को यान्त्रिक एकता कहते हैं।
  • सावयवी एकता (Organic Solidarity)-कई समाजों में लोगों के बीच अंतर होते हैं जिस कारण वह एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। इन समाजों में लोगों के बीच मौजूद एकता को सावयवी एकता कहते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का जनक किसे माना जाता है ?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का जनक माना जाता है।

प्रश्न 2.
एक पृथक समाज विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की स्थापना हेतु उत्तरदायी दो महत्त्वपूर्ण कारकों के नाम बताइये।
उत्तर-
फ्रांसीसी क्रान्ति, प्राकृतिक विज्ञानों के विकास, औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण की प्रक्रिया ने समाजशास्त्र को अलग सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने में सहायता की।

प्रश्न 3.
किन दो शब्दों से ‘समाजशास्त्र’ की अवधारणा बनी तथा किस वर्ष समाजशास्त्र विषय का उद्भव हुआ ?
उत्तर-
समाजशास्त्र (Sociology) शब्द लातिनी शब्द ‘Socios’, जिसका अर्थ है समाज तथा ग्रीक भाषा के शब्द Logos, जिसका अर्थ है अध्ययन, दोनों से मिलकर बना है। सन् 1839 में अगस्ते काम्ते ने पहली बार इस शब्द का प्रयोग किया था।

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में दो सम्प्रदायों के नाम बताएं।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में दो स्कूलों के नाम हैं-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय तथा समन्वयात्मक सम्प्रदाय।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 5.
औद्योगीकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-
औद्योगीकरण का अर्थ है सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन का वह समय जिसने मानवीय समाज को ग्रामीण समाज से औद्योगिक समाज में बदल दिया।

प्रश्न 6.
ऐसे दो विद्वानों के नाम बताइये जिन्होंने भारत में समाजशास्त्र के विकास में योगदान दिया।
उत्तर-
जी० एस० घूर्ये, राधा कमल मुखर्जी, एम० एन० श्रीनिवास, ए० आर० देसाई इत्यादि।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र कहा जाता है। समाजशास्त्र में समूहों, सभाओं, संस्थाओं, संगठन तथा समाज के सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तथा यह अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से होता है। साधारण शब्दों में समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।

प्रश्न 2.
औद्योगिक क्रान्ति द्वारा उत्पन्न दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन बताइये।
उत्तर-

  • औद्योगिक क्रान्ति के कारण चीज़ों का उत्पादन घरों से निकल कर बड़े-बड़े उद्योगों में आ गया तथा उत्पादन भी बढ़ गया।
  • इससे नगरीकरण में बढ़ौतरी हुई तथा नगरों में कई प्रकार की समस्याओं ने जन्म लिया ; जैसे कि अधिक जनसंख्या, प्रदूषण, ट्रैफिक इत्यादि।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 3.
प्रत्यक्षवाद किसे कहते हैं ?
उत्तर-
प्रत्यक्षवाद (Positivism) का संकल्प अगस्ते कोंत (Auguste Comte) ने दिया था। उनके अनुसार प्रत्यक्षवाद एक वैज्ञानिक विधि है जिसमें किसी विषय वस्तु को समझने तथा परिभाषित करने के लिए कल्पना या अनुमान का कोई स्थान नहीं होता। इसमें परीक्षण, तजुर्बे, वर्गीकरण, तुलना तथा ऐतिहासिक विधि से किसी विषय के बारे में सब कुछ समझा जाता है।

प्रश्न 4.
वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method) ज्ञान प्राप्त करने की वह विधि है जिसकी सहायता से वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाता है। यह विधि एक सामूहिक विधि है जो अलग-अलग क्रियाओं को एकत्र करती है जिनकी सहायता से विज्ञान का निर्माण होता है।

प्रश्न 5.
वस्तुनिष्ठता (Objectivity) को परिभाषित कीजिए ?
उत्तर-
जब कोई समाजशास्त्री अपना अध्ययन बिना किसी पक्षपात के करता है तो उसे वस्तुनिष्ठता कहा जाता है। समाजशास्त्री के लिए निष्पक्षता रखना आवश्यक होता है क्योंकि अगर उसका अध्ययन निष्पक्ष नहीं होगा तो उसके अध्ययन में और उसके विचारों में पक्षपात आ जाएगा तथा अध्ययन निरर्थक हो जाएगा।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र एवं विषयवस्तु की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र संबंधी दो स्कूल प्रचलित हैं। प्रथम सम्प्रदाय है स्वरूपात्मक सम्प्रदाय जिसके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप का अध्ययन करता है जिस कारण यह विशेष विज्ञान है। दूसरा सम्प्रदाय है समन्वयात्मक सम्प्रदाय जिसके अनुसार समाजशास्त्र बाकी सभी सामाजिक विज्ञानों का मिश्रण है इस कारण यह साधारण विज्ञान है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 7.
समाजशास्त्री अपनी विषयवस्तु का अध्ययन करने के लिए किस प्रकार की वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करते हैं?
उत्तर-
समाजशास्त्री अपने विषय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए बहुत-सी वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करते हैं ; जैसे कि सैम्पल विधि, अवलोकन विधि, साक्षात्कार विधि, अनुसूची विधि, प्रश्नावली विधि, केस स्टडी विधि इत्यादि।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
स्वरूपात्मक चिन्तन सम्प्रदाय किस प्रकार समन्वयात्मक चिन्तन सम्प्रदाय से भिन्न है ?
उत्तर-
1. स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School)—स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के विचारकों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है जिसमें सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाता है। इन सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन कोई अन्य सामाजिक विज्ञान नहीं करता है जिस कारण यह कोई साधारण विज्ञान नहीं बल्कि एक विशेष विज्ञान है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक जार्ज सिम्मेल, मैक्स वैबर, स्माल, वीरकांत, वान विज़े इत्यादि हैं।

2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)-इस सम्प्रदाय के विचारकों के अनुसार समाजशास्त्र कोई विशेष विज्ञान नहीं बल्कि एक साधारण विज्ञान है। यह अलग-अलग सामाजिक विज्ञानों से सामग्री उधार लेता है तथा उनका अध्ययन करता है। इस कारण यह साधारण विज्ञान है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक दुर्थीम, हाबहाऊस, सोरोकिन इत्यादि हैं।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र के महत्त्व पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए। ।
उत्तर-

  • समाजशास्त्र समाज के वैज्ञानिक अध्ययन करने में सहायता करता है।
  • समाजशास्त्र समाज के विकास की योजना बनाने में सहायता करता है क्योंकि यह समाज का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करके हमें उसकी पूर्ण संरचना की जानकारी देता है।
  • समाजशास्त्र अलग-अलग सामाजिक संस्थाओं का हमारे जीवन में महत्त्व के बारे में बताता है कि यह किस प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में योगदान देते हैं।
  • समाजशास्त्र अलग-अलग सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करके उनको खत्म करने के तरीकों के
    बारे में बताता है।
  • समाजशास्त्र ने जनता की मनोवृत्ति बदलने में सहायता की है। विशेषतया इसने अपराधियों को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
  • समाजशास्त्र अलग-अलग संस्कृतियों को समझने में सहायता प्रदान करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 3.
किस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति का समाज पर एक व्यापक प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
सन् 1780 में फ्रांसीसी क्रान्ति आई तथा इससे फ्रांस के समाज में अचानक ही बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। देश की राजनीतिक सत्ता परिवर्तित हो गई तथा सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आ गए। क्रान्ति से पहले बहुत-से विचारकों ने परिवर्तन के विचार दिए। इससे समाजशास्त्र के बीज बो दिए गए तथा समाज के अध्ययन की आवश्यकता महसूस होने लगी। अलग-अलग विचारकों के विचारों से इसकी नींव रखी गई तथा इसे सामने लाने का कार्य अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) ने पूर्ण किया जो स्वयं एक फ्रांसीसी नागरिक थे। इस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने समाजशास्त्र के उद्भव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 4.
किस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति का समाज पर एक व्यापक पड़ा ?
उत्तर-
औद्योगिक क्रान्ति से समाज तथा सामाजिक व्यवस्था में बहुत से अच्छे तथा ग़लत प्रभाव सामने आए। उस समय नगर, उद्योग, नगरों की समस्याएं इत्यादि जैसे बहुत से मुद्दे सामने आए तथा इन मुद्दों ने ही समाजशास्त्र की नींव रखी। यह समय था जब अगस्ते काम्ते, इमाइल दुर्थीम, कार्ल मार्क्स, मैक्स वैबर इत्यादि जैसे समाजशास्त्री सामने आए तथा इनके द्वारा दिए सिद्धान्तों के ऊपर ही समाजशास्त्र टिका हुआ है। इन सभी समाजशास्त्रियों के विचारों में किसी-न-किसी ढंग से औद्योगिक क्रान्ति के प्रभाव छुपे हुए हैं। इस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति के प्रभावों से समाज में बहुत से परिवर्तन आए तथा इस कारण समाजशास्त्र के जन्म में औद्योगिक क्रान्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र अपनी विषय वस्तु में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करता है। विवेचना कीजिए। .
उत्तर-
समाजशास्त्र सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के लिए कई वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है। तुलनात्मक विधि, ऐतिहासिक विधि, वरस्टैहन इत्यादि कई प्रकार की विधियों का प्रयोग करके सामाजिक समस्याएं सुलझाता है। यह सब वैज्ञानिक विधियाँ हैं। समाजशास्त्र का ज्ञान व्यवस्थित है। यह वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करके ही ज्ञान प्राप्त करता है। इसमें कई अन्य वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि सैम्पल विधि, निरीक्षण विधि, अनुसूची विधि, साक्षात्कार विधि, प्रश्नावली विधि, केस स्टडी विधि इत्यादि। इन विधियों की सहायता से आंकड़ों को व्यवस्थित ढंग से एकत्र किया जाता है जिस कारण समाजशास्त्र एक विज्ञान बन जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें:

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र से आपका क्या अभिप्राय है ? समाजशस्त्र के विषय क्षेत्र पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
साधारण शब्दों में, समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है जिसमें मनुष्य के आपसी सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र मानव व्यवहार की आपसी क्रियाओं का अध्ययन करता है। यह इस बात को समझने का भी प्रयास करता है कि किस प्रकार अलग-अलग समूह सामने आए, उनका विकास हुआ और किस प्रकार समाप्त हो गए और फिर बन गए। समाज शास्त्र में कार्य-विधियों, रिवाजों, समूहों, परम्पराओं, संस्थाओं इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।

फ्रांसीसी वैज्ञानिक अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) को समाज शास्त्र का पितामह माना जाता है। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक, “पौज़िटिव फिलासफी” (Positive Philosophy) 1830-1842 के दौरान छ: भागों (Volumes) में छपी थी। इस पुस्तक में उन्होंने समाज का अध्ययन करने के लिए जिस विज्ञान का वर्णन किया उसका नाम उन्होंने ‘समाजशास्त्र’ रखा। इस विषय का प्रारम्भ 1839 ई० में किया गया।

यदि समाजशास्त्र के शाब्दिक अर्थों की विवेचना की जाए तो हम कह सकते हैं कि यह दो शब्दों Socio और Logos के योग से बना है। Socio का अर्थ है समाज और Logos का अर्थ है विज्ञान। यह दोनों शब्द लातीनी (Socio) और यूनानी (Logos) भाषाओं से लिए गए हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ हैसमाज का विज्ञान। समाज के सम्बन्धों का अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र कहते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)

  1. गिडिंग्ज़ (Giddings) के अनुसार, “समाजशास्त्र पूर्ण रूप से समाज का क्रमबद्ध वर्णन और व्याख्या
  2. मैकाइवर और पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के बारे में है, सम्बन्धों के जाल को हम समाज कहते हैं।”
  3. दुखीम (Durkheim) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति और विकास का अध्ययन है।”
  4. जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समाजशास्त्र मनुष्य की अंतक्रियाओं और अंतर्सम्बन्धों, उनके कारणों और परिभाषाओं का अध्ययन है।”
  5. मैक्स वैबर (Max Weber) के अनुसार, “समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध करवाने का प्रयास करता है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इसमें व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों अथात् व्यक्तियों के समूहों में पाया गया व्यवहार, उनके आपसी सम्बन्धों और कार्यों इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र यह भी बताता है कि मनुष्य के सभी रीति-रिवाज, जो उन्हें एक-दूसरे के साथ जोड़कर रखते हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य स्वभावों के उद्देश्यों और स्वरूपों को समझने का प्रयास समाजशास्त्र द्वारा ही किया जाता है।

समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र (Scope of Sociology) – समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र को वर्णन करने के लिए दो अलग-अलग विचारधाराओं से सम्बन्ध रखते हुए समाज शास्त्रियों ने अपने विचार दिए हैं। एक विचारधारा के समर्थकों ने समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान के रूप में स्वीकार किया है किन्तु दूसरी विचारधारा के समर्थकों ने समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र सम्बन्धी इसका एक सामान्य विज्ञान के रूप में वर्णन किया है। कहने से तात्पर्य यह है कि इन दोनों विरोधी विचारधाराओं ने अपने ही विचारों के अनुसार इसके विषय-क्षेत्र सम्बन्धी वर्णन किया है जिसका वर्णन निम्नलिखित है
दो अलग-अलग विचारधाराएं इस प्रकार हैं-

I. स्वरूपात्मक विचारधारा-‘समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।’
II. समन्वयात्मक विचारधारा-समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है।

I. स्वरूपात्मक विचारधारा-‘समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।’ (Formalistic School : ‘Sociology as a Special Science.’)-इस विचारधारा के समाज शास्त्रियों ने समाजशास्त्र को शेष सामाजिक विज्ञानों (Social Sciences) की तरह एक विशेष विज्ञान (Special Science) माना है। इस विचारधारा के समर्थक समाजशास्त्र को सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों के अध्ययन करने तक सीमित रखकर इसे विशेष विज्ञान बताते हैं। अन्य कोई भी सामाजिक विज्ञान सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन नहीं करता, केवल समाजशास्त्र ही ऐसा विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है। इस कारण समाजशास्त्र को विशेष विज्ञान कहा जाता है।

इस सम्प्रदाय के विचारधारकों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है क्योंकि यह केवल सामाजिक सम्बन्धों के रूपों का अध्ययन करता है तथा स्वरूप एवं अन्तर-वस्तु अलग-अलग चीजें हैं। समाजशास्त्र अपना विशेष अस्तित्व बनाए रखने के लिए सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है अन्तर-वस्तु का नहीं। इस प्रकार समाज शास्त्र मानवीय सम्बन्धों के स्वरूपों का वैज्ञानिक अध्ययन है। क्योंकि इस संप्रदाय के समर्थक स्वरूप पर बल देते हैं, इसलिए इसे स्वरूपात्मक सम्प्रदाय कहते हैं। अब हम इस सम्प्रदाय के अलग-अलग समर्थकों द्वारा दिए विचारों पर विचार करेंगे।

1. सिमेल (Simmel) के विचार-सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है। उनके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जबकि अन्य सामाजिक विज्ञान इन सम्बन्धों के अन्तर-वस्तु का अध्ययन करते हैं। सिमेल के विचारानुसार समाजशास्त्र का शेष सामाजिक विज्ञानों से अन्तर अलग-अलग दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है। सिमेल के अनुसार किसी भी सामूहिक सामाजिक घटना का अध्ययन किसी भी सामाजिक विज्ञान द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार समाजशास्त्र विशेष विज्ञान कहलाने के लिए उन भागों का अध्ययन करता है जिनका अध्ययन बाकी सामाजिक विज्ञान न करते हों। सिमेल के अनुसार अन्तक्रियाओं के दो रूप पाये जाते हैं तथा वह हैं सूक्ष्म रूप तथा स्थूल रूप।

सामाजिक सम्बन्ध जैसे प्रतियोगिता, संघर्ष, प्रभुत्व, अधीनता, श्रम विभाजन इत्यादि अन्तक्रियाओं का अमूर्त अथवा सूक्ष्म रूप होते हैं। सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र इन सूक्ष्म रूपों का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। कोई अन्य सामाजिक विज्ञान इनका अध्ययन नहीं करते। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र के अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ वे ही सम्बन्ध हैं जो रेखागणित के प्राकृतिक विज्ञानों के साथ पाए जाते हैं अर्थात् रेखागणित भौतिक वस्तुओं के स्थानीय स्वरूपों का अध्ययन करता है तथा प्राकृतिक विज्ञान इन भौतिक वस्तुओं के अन्तर-वस्तुओं का अध्ययन करते हैं। इसी प्रकार जब समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं तो शेष सामाजिक विज्ञान भी प्राकृतिक विज्ञानों की तरह इन अन्तर-वस्तुओं का अध्ययन करते हैं। इस प्रकार मानव के व्यवहार के सूक्ष्म रूपों का अध्ययन केवल समाजशास्त्र ही करता है जिस कारण इसे विशेष विज्ञान होने का सम्मान प्राप्त है।

इस प्रकार सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का और उनके सूक्ष्म रूपों का अध्ययन करता है इसलिए यह बाकी सामाजिक विज्ञानों से अलग है। इसलिए सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।

2. वीरकांत (Vierkandt) के विचार-वीरकांत जैसे समाजशास्त्री ने भी समाजशास्त्र को ज्ञान की उस विशेष शाखा के साथ सम्बन्धित बताया जिसमें उसने उन मानसिक सम्बन्धों के प्रकारों को लिया जो समाज में व्यक्तियों को एक-दूसरे से जोड़ती हैं। आपके अनुसार मनुष्य अपनी कल्पनाओं, इच्छाओं, स्वप्नों, सामूहिक प्रवृत्तियों के बिना समाज में दूसरे व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए प्रतियोगिता की भावना। एक खिलाड़ी की दूसरे खिलाड़ी के प्रति मुकाबले की भावना होती है, एक अध्यापक की दूसरे अध्यापक के साथ। कहने से तात्पर्य यह है कि प्रतियोगियों में पाए गए मानसिक सम्बन्ध एक ही होते हैं, अपितु भावनाएं एक समान नहीं होतीं। आपके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों से मानसिक स्वरूपों को अलग करके अध्ययन करता है। एक और उदाहरण के अनुसार, समाजशास्त्र किसी समाज की उत्पत्ति, विशेषताएं, विकास, प्रगति आदि का अध्ययन न करके उस समाज के मानसिक स्वरूपों का अध्ययन करता है। इस प्रकार समाजशास्त्र, विज्ञान के मूल तत्त्वों का अध्ययन करता है। जैसे प्यार, नफरत, सहयोग, प्रतियोगिता, लालच इत्यादि। वीरकांत इस प्रकार से समाजशास्त्र में सामाजिक स्वरूपों को मानसिक स्वरूपों से अलग करता है। अतः इस आधार पर उसने समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बताया है।

3. वान विजे (Von Weise) के विचार-वान विज़े इस बात पर बल देता है कि समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है। वह कहता है कि सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों को उनकी अन्तर-वस्तु से अलग करके उसका अध्ययन किया जा सकता है। उनके अनुसार “समाजशास्त्र सामाजिक या अन्तर-मानवीय प्रक्रियाओं का अध्ययन है।” इस दृष्टि से समाज शास्त्र का सीमित अध्ययन क्षेत्र है जिस के आधार पर हम समाज शास्त्र को दूसरे समाज शास्त्रों से अलग कर सकते हैं। आपके अनुसार समाजशास्त्र दूसरे समाजशास्त्रों के परिणामों से इस प्रकार एकत्रित नहीं करता अपितु सामाजिक जीवन सम्बन्धी उचित जानकारी प्राप्त करता है तथा अपने विषय-वस्तु में अमूर्त कर लेता है। उसने सामाजिक सम्बन्धों के 600 से अधिक प्रकार बताए और उनके रूपों का वर्गीकरण किया है। उनके द्वारा किए गए वर्गीकरण से इस विचारधारा को समझना काफ़ी सरल होता है। इस प्रकार वान विजे ने भी समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान मानने वाले विचारों का समर्थन किया है।

4. मैक्स वैबर के विचार (Views of Max Weber)-मैक्स वैबर ने भी स्वरूपात्मक विचारधारा के आधार पर समाजशास्त्र के क्षेत्र को सीमित बताया है। मैक्स वैबर ने समाजशास्त्र का अर्थ अर्थपूर्ण अथवा उद्देश्य पूर्ण सामाजिक क्रियाओं के अध्ययन से लिया है। उनके अनुसार प्रत्येक समाज में पायी गई क्रिया को हम सामाजिक क्रिया नहीं मानते। वह क्रिया सामाजिक होती है जिससे समाज के दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार पर प्रभाव पड़ता हो। उदाहरण के लिए यदि दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों की आपस में टक्कर हो जाये तो यह टक्कर होना एक प्राकृतिक प्रकटन है, परन्तु उनके वह प्रयत्न जिनसे वे अलग होते हैं या जो भाषा प्रयोग करके वे एक-दूसरे से अलग होते हैं वह उनका सामाजिक व्यवहार होता है। समाजशास्त्र, मैक्स वैबर के अनुसार, सामाजिक सम्बन्धों के प्रकारों का विश्लेषण और वर्गीकरण करने से सम्बन्धित है। इस प्रकार वैबर के अनुसार समाजशास्त्र का उद्देश्य सामाजिक व्यवहारों का व्याख्यान करना और उन्हें समझना है। इसलिए यह एक विशेष विज्ञान है।

II. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)-समन्वयात्मक सम्प्रदाय के विचारक समाजशास्त्र को साधारण विज्ञान मानते हैं। उनके अनुसार सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र बहुत खुला व विस्तृत है। इसलिए सामाजिक जीवन के अलग-अलग पक्षों जैसे-राजनीतिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, मानव वैज्ञानिक, आर्थिक इत्यादि का विकास हुआ है पर इन विशेष सामाजिक विज्ञानों के अतिरिक्त, जो कि किसी विशेष पक्ष का अध्ययन करते हैं, एक साधारण समाजशास्त्र की आवश्यकता है जोकि दूसरे विशेष विज्ञानों के परिणामों के आधार पर हमें सामाजिक जीवन के आम हालातों और सिद्धान्तों के बारे में बता सके। यह विचारधारा पहले सम्प्रदाय अर्थात् कि स्वरूपात्मक सम्प्रदाय से बिल्कुल विपरीत है क्योंकि यह सामाजिक सम्बन्धों के मूर्त रूप के अध्ययन पर ज़ोर देता है। इनके अनुसार, दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता के बिना हम सामाजिक सम्बन्धों को नहीं समझ सकते। इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्तक सोरोकिन (Sorokin), दुर्थीम (Durkheim) और हॉब हाऊस (Hob House) हैं।

1. सोरोकिन (Sorokin) के विचार-सोरोकिन ने स्वरूपात्मक विचारधारा की आलोचना करके समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान न मानकर एक सामान्य विज्ञान माना है। उसके अनुसार, समाजशास्त्र सामाजिक प्रकटना (Social Phenomenon) के अलग-अलग भागों में पाए गए सम्बन्धों का अध्ययन करता है। दूसरा, यह सामाजिक और असामाजिक सम्बन्धों का भी अध्ययन करता है और तीसरा वह सामाजिक प्रकटन (Social Phenomenon) के साधारण लक्षणों का भी अध्ययन करता है। इस तरह उसके अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक सांस्कृतिक प्रकटन के साधारण स्वरूपों, प्रकारों और दूसरे कई प्रकार के सम्बन्धों का साधारण विज्ञान है।” इस प्रकार समाजशास्त्र समान सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकटनों का सामान्य दृष्टिकोण से ही अध्ययन करता है।

2. हॉब हाऊस के विचार (Views of Hob House)-हॉब हाऊस ने भी सोरोकिन की तरह समाजशास्त्र के कार्यों के बारे में एक जैसे विचारों को स्वीकार किया है। उनके अनुसार यद्यपि समाजशास्त्र कई सामाजिक अध्ययनों का मिश्रण है परन्तु इसका अध्ययन सम्पूर्ण सामाजिक जीवन है। यद्यपि समाजशास्त्र समाज के अलगअलग भागों का अलग-अलग अध्ययन करता है पर वह किसी भी एक भाग को समाज से अलग नहीं कर सकता, और न ही वह दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वास्तव में प्रत्येक सामाजिक विज्ञान किसी-न-किसी तरीके से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। इतिहास का सम्बन्ध मनोवैज्ञानिक, मनोविज्ञान का राजनीति विज्ञान, राजनीति विज्ञान का समाज शास्त्र इत्यादि से है। इस प्रकार समाजशास्त्र इन सबका सामान्य विज्ञान माना जाता है क्योंकि यह मानवीय सामाजिक जीवन का सम्पूर्ण अध्ययन करता है, जिस कारण वह शेष विज्ञानों से सम्बन्धित है।

3. दुर्थीम के विचार (Durkheim’s views)-दुर्थीम के अनुसार, सभी सामाजिक संस्थाएं एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं और इनको एक-दूसरे से अलग करके हम इनका अध्ययन नहीं कर सकते। समाज का अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्र दूसरे सामाजिक विज्ञानों पर निर्भर करता है। उसके अनुसार समाजशास्त्र को हम तीन भागों में बांटते हैं

  • सामाजिक आकृति विज्ञान
  • सामाजिक शरीर रचना विज्ञान
  • सामान्य समाज शास्त्र

पहले हिस्से का सम्बन्ध मनुष्यों से सम्बन्धित भौगोलिक आधार जिसमें जनसंख्या, इसका आकार, वितरण आदि आ जाते हैं।

दूसरे भाग का अध्ययन काफ़ी उलझन भरा है जिस कारण इसे आगे अन्य भागों में बांटा जाता है जैसे धर्म का समाजशास्त्र, आर्थिक समाजशास्त्र, कानून का समाजशास्त्र, राजनीतिक समाजशास्त्र। यह सब विज्ञान सामाजिक जीवन के अलग-अलग अंगों का अध्ययन करते हैं पर इनका दृष्टिकोण सामाजिक होता है। तीसरे भाग में सामाजिक नियमों का निर्माण किया जाता है।

इस प्रकार दुखीम ने अपने ऊपर लिखे विचारों के मुताबिक समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान माना है क्योंकि यह हर प्रकार की संस्थाओं और सामाजिक प्रक्रियाओं के अध्ययन करने से सम्बन्धित है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र से क्या आप समझते हैं ? समाजशास्त्र की प्रकृति की चर्चा करें।
उत्तर-
समाजशास्त्र का अर्थ (Meaning of Sociology)- इसके लिये देखें पुस्तक के प्रश्न IV का प्रश्न 1.

समाजशास्त्र की प्रकृति (Nature of Sociology) –
समाजशास्त्र की प्रकृति पूर्णतया वैज्ञानिक है जोकि निम्नलिखित चर्चा से स्पष्ट हो जाएगा-

1. समाजशास्त्र वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करता है-समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों के अध्ययन करने हेतु वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करते हैं। यह विधियाँ जैसे-Historical Method, Comparative Method, Case Study Method, Experimental Method, Ideal Type, Verstehen हैं। समाजशास्त्र में यह विधियाँ वैज्ञानिक विधियों के आधार पर तैयार की गई हैं। समाजशास्त्र में तथ्य ढूंढ़ने के लिए वैज्ञानिक विधियों के सभी पड़ावों का प्रयोग किया जाता है जैसे दूसरे प्राकृतिक विज्ञान करते हैं। . इन सब विधियों का आधार वैज्ञानिक है और समाजशास्त्र में इन सब विधियों को प्रयोग में लाया जाता है। वर्तमान समय में इन उपरोक्त लिखित विधियों के अतिरिक्त कई और विधियाँ भी प्रयोग में लाई जा रही हैं। इस प्रकार यदि हम वैज्ञानिक विधि का प्रयोग समाजशास्त्र के अध्ययन में कर सकते हैं तो इसे हम एक विज्ञान मान सकते हैं।

2. समाजशास्त्र कार्य-कारणों के सम्बन्धों की व्याख्या करता है-यह केवल तथ्यों को एकत्रित नहीं करता बल्कि उनके बीच कार्य-कारणों के सम्बन्धों का पता करने का प्रयास करता है। यह मात्र ‘क्यों है’ का पता लगाने का प्रयास नहीं करता अपितु यह ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का भी पता लगाने का प्रयास करता है अर्थात् यह किसी तथ्य के कारणों और परिणामों का पता लगाने का भी प्रयास करता है।

समाजशास्त्र के द्वारा किसी भी समस्या सम्बन्धी केवल यह नहीं पता लगाया जाता कि समस्या क्या है ? इसके अतिरिक्त वह समस्या के उत्पन्न होने के कारणों अर्थात् ‘क्यों’ और ‘कैसे’ बारे में पता लगाने सम्बन्धी प्रयास करता है। उदाहरण के लिए यदि समाजशास्त्री बेरोज़गारी जैसी किसी भी समस्या का अध्ययन कर रहा हो तो इस समस्या के प्रति सम्बन्धित विषय सामग्री को एकत्रित करने तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखता अपितु इस समस्या के उत्पन्न होने के कारण का भी पता लगाता है और साथ ही उनके परिणामों का भी जिक्र करने का प्रयास करता है कि यह समस्या कैसे घटी और क्यों घटी। कार्य-कारण सम्बन्धों की व्याख्या करने के आधार पर हम इसे एक विज्ञान मान सकते हैं।

3. समाजशास्त्र क्या है’ का वर्णन करता है क्या होना चाहिए’ के बारे में कुछ नहीं कहता (Explains only what is not what it should be)-समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों तथा घटनाओं को उसी रूप में पेश करता है जिस रूप में उसने उसे देखा है। वह सामाजिक तथ्यों का निष्पक्षता से निरीक्षण करता है और किसी भी तथ्य को बिना तर्क के स्वीकार नहीं करता। यह मात्र विषय को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करता है अर्थात् ‘क्या है’ का वर्णन करता है।

जब समाजशास्त्री को सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करना पड़ता है तो वह सामाजिक तथ्यों को बिना तर्क के स्वीकार नहीं करता। वह केवल वास्तविक सच्चाई को ध्यान रखने तक ही अपने आपको सीमित रखता है। जैसे हम देखते हैं कि भौतिक विज्ञान में भौतिक नियमों और प्रक्रियाओं का ही अध्ययन किया जाता है उसी प्रकार समाजशास्त्र में हम केवल सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करते हैं और उस सामाजिक घटना का बिना किसी प्रभाव के अध्ययन करते हैं और उसका वर्णन करते हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र को एक सकारात्मक विज्ञान भी माना जाता है क्योंकि इसमें हम सामाजिक घटना का माध्यम तथ्यों के आधार पर अध्ययन करते हैं न कि प्रभाव के आधार पर। इसलिए भी हम समाजशास्त्र को एक विज्ञान मान सकते हैं।

4. समाजशास्त्र में पक्षपात रहित ढंग से अध्ययन किया जाता है (Objectivity)-समाजशास्त्र में किसी तथ्य का निरीक्षण बिना किसी पक्षपात के किया जाता है। समाजशास्त्री तथ्यों व प्रपंचों का निष्पक्ष और तार्किक रूप से अध्ययन करने का प्रयास करता है। मनुष्य अपनी प्रकृति के मुताबिक पक्षपाती हो सकता है, उसकी आदतें, भावनाएं इत्यादि अध्ययन में आ सकती हैं। परन्तु समाजशास्त्री प्रत्येक तथ्य का पक्षपात रहित तरीके से अध्ययन करता है और अपनी भावनाओं और पसन्दों को इसमें आने नहीं देता। :

समाजशास्त्र द्वारा किया गया किसी भी समाज का अध्ययन निष्पक्षता वाला होता है, क्योंकि समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों (facts) के आधार पर ही अध्ययन करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए जाति प्रथा की समस्या का यदि वह अध्ययन करता है तो वह इस सम्बन्ध में विषय सामग्री एकत्रित करते समय अपने विश्वास, विचार, भावनाओं इत्यादि को दूर रखकर करता है क्योंकि यदि वह इन्हें शामिल करेगा तो किसी भी समस्या का हल ढूंढ़ना कठिन हो जाए। कहने का अर्थ यह है कि समाजशास्त्री पक्षपात रहित होकर समस्या का निरीक्षण करने का प्रयास करता है। इस आधार पर भी हम समाजशास्त्र को एक विज्ञान मान सकते हैं

5. समाजशास्त्र में सिद्धान्तों और नियमों का प्रयोग भी किया जाता है (Sociology does frame laws)—वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग भी समाजशास्त्रियों द्वारा किया जाता है। समाजशास्त्र के सिद्धान्त सर्वव्यापक (Universal) होते हैं, परन्तु समाज में पाए गए परिवर्तनों के कारण इनमें परिवर्तन आता रहता है। परन्तु कुछ सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो सभी देशों के समय में समान रूप से सिद्ध होते हैं। यदि समाज में परिवर्तन न आए तो यह सिद्धान्त भी प्रत्येक समय लागू हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके हम अलग-अलग समय की परिस्थितियों से सम्बन्धित भी अध्ययन कर सकते हैं जिससे हमें समाज की यथार्थकता का भी पता लगता है। इसलिए भी इसे विज्ञान माना जा सकता है।

6. समाजशास्त्र के द्वारा भविष्यवाणी संभव है (Prediction through Sociology is possible)समाजशास्त्र के द्वारा हम भविष्यवाणी करने में काफ़ी सक्षम होते हैं। जब समाज में कोई समस्या उत्पन्न होती है तो समाजशास्त्र उस समस्या से सम्बन्धित केवल विषय-वस्तु ही नहीं इकट्ठा करता बल्कि उस समस्या का विश्लेषण करके परिणाम निकालता है और उस परिणाम के आधार पर भविष्यवाणी करने के योग्य हो जाता है जिससे वह यह भी बता सकता है कि जो समस्या समाज में पाई गई है, उसका आने वाले समय में क्या प्रभाव पड़ सकेगा और समाज को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र में उदभव के लिए कौन-से कारक उत्तरदायी थे ?
उत्तर-
18वीं शताब्दी के दौरन बहुत से मार्ग सामने आए जिन्होंने समाज को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया। उन बहुत से मार्गों में से तीन महत्त्वपूर्ण कारकों का वर्णन निम्नलिखित है-

(i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण आन्दोलन
(ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास
(iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण

इनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण आन्दोलन (French Revolution and Enlightenment Movement)-फ्रांस में सन् 1789 में एक क्रान्ति हुई। यह क्रान्ति अपने आप में पहली ऐसी घटना थी। इसका फ्रांसीसी समाज पर काफ़ी अधिक प्रभाव पड़ा क्योंकि इसने प्राचीन समाज को नए समाज में तथा ज़मींदारी व्यवस्था को पूंजीवादी व्यवस्था में बदल दिया। इसके साथ-साथ नवजागरण आन्दोलन भी चला जिसमें बहुत-से विद्वानों ने अपना योगदान दिया। इन विद्वानों ने बहुत सी पुस्तकें लिखीं तथा साधारण जनता की सोई हुई आत्मा को जगाया। इस समय के मुख्य विचारकों, लेखकों ने चर्च की सत्ता को चुनौती दी जोकि उस समय का सबसे बड़ा धार्मिक संगठन था। इन विचारकों ने लोगों को चर्च की शिक्षाओं तथा उनके फैसलों को अन्धाधुंध मानने से रोका तथा कहा कि वह स्वयं सोचना शुरू कर दें। इससे लोग काफ़ी अधिक उत्साहित हुए तथा उन्होंने अपनी समस्याओं को स्वयं ही तर्कशील ढंगों से सुलझाने के प्रयास करने शुरू किए।

इस प्रकार नवजागरण समय की विचारधारा समाजशास्त्र के उद्भव के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक बन कर सामने आई। इसे आलोचनात्मक विचारधारा का महत्त्वपूर्ण स्रोत माना गया। इसने लोकतन्त्र तथा स्वतन्त्रता के विचारों को आधुनिक समाज का महत्त्वपूर्ण भाग बताया। इसने जागीरदारी व्यवस्था में मौजूद सामाजिक अन्तरों को काफ़ी हद तक कम कर दिया तथा सम्पूर्ण शक्ति चर्च से लेकर जनता द्वारा चुनी सरकार को सौंप दी।

संक्षेप में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति तथा अमेरिका व फ्रांस की लोकतान्त्रिक क्रान्ति ने उस समय की मौजूदा संगठनात्मक सत्ता को खत्म करके नई सत्ता उत्पन्न की।

(ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास (Growth of Natural Sciences)-19वीं शताब्दी के दौरान प्राकृतिक विज्ञानों का काफ़ी अधिक विकास हुआ। प्राकृतिक विज्ञानों को काफ़ी अधिक सफलता प्राप्त हुई तथा इससे प्रभावित होकर बहुत-से सामाजिक विचारकों ने भी उनका ही रास्ता अपना लिया। उस समय यह विश्वास कायम हो गया कि अगर प्राकृतिक विज्ञानों के तरीकों को अपना कर भौतिक तथा प्राकृतिक घटनाओं को समझा जा सकता है तो इन तरीकों को सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए सामाजिक विज्ञानों पर भी लागू किया जा सकता है। बहुत से समाजशास्त्रियों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट, स्पैंसर, इमाइल, दुर्थीम, मैक्स वैबर इत्यादि ने समाज के अध्ययन में वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग की वकालत की। इससे सामाजिक विज्ञानों में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग शुरू हुआ तथा समाजशास्त्र का उद्भव हुआ।

(iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण (Industrial Revolution and Urbanisation)-समाजशास्त्र का उद्भव औद्योगिक क्रान्ति से भी प्रभावित हुआ। औद्योगिक क्रान्ति का आरम्भ सन् 1750 के बाद यूरोप विशेषतया ब्रिटेन में हुआ। इस क्रान्ति ने सम्पूर्ण यूरोप में काफ़ी अधिक परिवर्तन ला दिए। पहले उत्पादन घरों में होता था जो इस क्रान्ति में आरम्भ होने के पश्चात् उद्योगों में बड़े स्तर पर होने लगा। साधारण ग्रामीण जीवन तथा घरेलू उद्योग खत्म हो गए तथा विभेदीकृत नगरीय जीवन के साथ उद्योगों में उत्पादन सामने आ गया। इसने मध्य काल के विश्वासों, विचारों को बदल दिया तथा प्राचीन समाज आधुनिक समाज में परिवर्तित हो गया।

इसके साथ-साथ औद्योगीकरण ने नगरीकरण को जन्म दिया। नगर और बड़े हो गए तथा बहुत-से नए शहर सामने आ गए। नगरों के बढ़ने से बहुत-सी न खत्म होने वाली समस्याओं का जन्म हुआ जैसे कि काफ़ी अधिक भीड, कई प्रकार के प्रदूषण, ट्रैफिक, शोर-शराबा इत्यादि। नगरीकरण के कारण लाखों की तादाद में लोग गांवों से शहरों की तरफ प्रवास कर गए। परिणामस्वरूप लोग अपने ग्रामीण वातावरण से दूर हो गए तथा शहरों में गन्दी बस्तियाँ सामने आ गईं। नगरों में बहुत-से नए वर्ग सामने आए। अमीर अपने पैसे की सहायता से और अमीर हो गए तथा निर्धन अधिक निर्धन हो गए। नगरों में अपराध भी बढ़ गए।

बहुत से विद्वानों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, मैक्स वैबर, दुर्थीम, सिम्मेल इत्यादि ने महसूस किया कि नई बढ़ रही सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए समाज के वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है। इस प्रकार समाजशास्त्र का उद्भव हुआ तथा धीरे-धीरे इसका विकास होना शुरू हो गया।

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास का अध्ययन क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
उत्तर-
(i) समाजशास्त्र एक बहुत ही नया ज्ञान है जोकि अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही है। अगर हम समाजशास्त्र की अन्य सामाजिक विज्ञानों से तुलना करें तो हमें पता चलता है कि अन्य सामाजिक विज्ञान बहुत ही पुराने हैं जबिक समाजशास्त्र का जन्म ही सन् 1839 में हुआ था। यह समय वह समय था जब न केवल सम्पूर्ण यूरोप बल्कि संसार के अन्य देश भी बहुत-से परिवर्तनों में से निकल रहे थे। इन परिवर्तनों के कारण समाज में बहुत सी समस्याएं आ गई थीं। इन सभी परिवर्तनों, समस्याओं की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक था तब ही समाज कल्याण के बारे में सोचा जा सकता था। इस कारण समाजशास्त्र के उद्भव तथा विकास का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।

(ii) आजकल हमारे तथा यूरोपीय समाजों में बहुत सी समस्याएं मौजूद हैं। अगर हम सभी समस्याओं का ध्यान से अध्ययन करें तो पता चलता है कि इन समस्याओं का जन्म औद्योगिक क्रान्ति के कारण यूरोप में हुआ। बाद में यह समस्याएं बाकी संसार के देशों में पहुंच गईं। अगर हमें इन समस्याओं को दूर करना है तो हमें समाजशास्त्र के उद्भव के बारे में भी जानना होगा जोकि उस समय के दौरान ही हुआ था।

(iii) किसी भी विषय में बारे में जानकारी प्राप्त करने से पहले यह आवश्यक है कि हमें उसके उदभव के बारे में पता हो। इस प्रकार समाजशास्त्र का अध्ययन करने से पहले इसके उद्भव के बारे में अवश्य पता होना चाहिए।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र में नवजागरण युग पर एक टिप्पणी लिखिये।।
उत्तर-
नवजागरण युग अथवा आत्मज्ञान के समय का अर्थ यूरोप ने बौद्धिक इतिहास के उस समय से है जो 18वीं शताब्दी के आरम्भ से शुरू हुआ तथा पूर्ण शताब्दी के दौरान चलता रहा। इस समय से सम्बन्धित बहुतसे विचारक, कल्पनाएं, आंदोलन इत्यादि फ्रांस में ही हुए। परन्तु आत्मज्ञान के विचारक अधिकतर यूरोप के देशों विशेषतया स्कॉटलैंड में ही क्रियाशील थे।

नवजागरण युग को इस बात की प्रसिद्धि प्राप्त है कि इसके मनुष्यों तथा समाज के बारे में नए विचारों की नई संरचनाएं प्रदान की। इस आत्मज्ञान के समय के दौरान कई नए विचार सामने आए तथा जो आगे जाकर मनुष्य की गतिविधियों के आधार बनें। उनका मुख्य केन्द्र सामाजिक संसार था जिसने मानवीय संसार, राजनीतिक तथा आर्थिक गतिविधियां तथा सामाजिक अन्तर्कियाओं के बारे में नए प्रश्न खड़े किए। यह सभी प्रश्न एक निश्चित पहचानने योग्य संरचना (Paradigm) के अन्तर्गत ही पूछे गए। Paradigm कुछ एक-दूसरे से सम्बन्धित विचारों, मूल्यों, नियमों तथा तथ्यों का गुच्छा है जिसके बीच ही स्पष्ट सिद्धान्त सामने आते हैं। आत्मज्ञान के Paradigm के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जैसे कि विज्ञान, प्रगति, व्यक्तिवादिता, सहनशक्ति, स्वतन्त्रता, धर्मनिष्पक्षता, अनुभववाद, विश्ववाद इत्यादि।

मनुष्यों तथा उनके सामाजिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक हालातों के बारे में कई विचार प्रचलित थे। उदाहरण के लिए, 17वीं शताब्दी में महत्त्वपूर्ण विचारकों जैसे कि हॉब्स (Hobbes) [1588-1679] तथा लॉक (Locke) [1632-1704] ने सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दों के ऊपर एक धर्मनिष्पक्ष तथा ऐतिहासिक पक्ष से काफ़ी कुछ लिखा। इसलिए उन्होंने मानवीय गतिविधियों को अपने व्यक्तिगत पक्ष से देखा। मानवीय गतिविधियां मनुष्य द्वारा होती हैं तथा इनमें ऐतिहासिक पक्ष काफ़ी महत्त्वपूर्ण होता है तथा इनमें परिवर्तन आना चाहिए। दूसरे शब्दों में जिन परिस्थितियों के कारण गतिविधियां होती हैं उनसे व्यक्ति अपने हालातों में परिवर्तन ला सकता है।

18वीं शताब्दी के दौरान ही लोगों ने सोचना शुरू कर दिया कि किस प्रकार सामाजिक, आर्थिक तथा ऐतिहासिक प्रक्रियाएं जटिल प्रघटनाएं हैं जिनके अपने ही नियम तथा कानून हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में सोचा जाने लगा कि यह जटिल प्रक्रियाओं की उपज हैं जो सामाजिक दुनिया का अचानक निरीक्षण करके सामने नहीं आए। इस प्रकार समाजों का अध्ययन तथा उनका विकास प्राकृतिक संसार के वैज्ञानिक अध्ययन के साथ नज़दीक हो कर जुड़ गए तथा उनकी तरह नए ढंग करने लग गए।

इन विचारों के सामने लाने में दो विचारकों के नाम प्रमुख हैं : वीको (Vico) [1668-1774] तथा मान्टेस्क्यू (Montesquieu) [1689-1775]। उन्होंने New Science (1725) तथा Spirit of the Laws (748) किताबें क्रमवार लिखीं तथा यह व्याख्या करने का प्रयास किया कि किस प्रकार अलग-अलग सामाजिक हालात विशेष सामाजिक तत्त्वों से प्रभावित होते हैं। दूसरे शब्दों में, विशेष समाजों तथा उनकी कार्य प्रणालियों की व्याख्या करते समय जटिल ऐतिहासिक कारणों को भी शामिल किया जाता है।

रूसो (Rousseau) एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारक था जोकि इस प्रकार के विचार सामने लाने के लिए महत्त्वपूर्ण था। उसने एक पुस्तक ‘Social Contract’ लिखी जिसमें उसने कहा कि किसी देश के लोगों को अपना शासक चुनने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। उसने यह भी लिखा कि अगले लोग स्वयं प्रगति करना चाहते हैं तो यह केवल उनके द्वारा चुनी गई सरकार के अन्तर्गत ही हो सकता है।

नवजागरण के लेखकों ने यह विचार नकार दिया कि समाज तथा देश सामाजिक विश्लेषण की मूल इकाइयां हैं। उन्होंने विचार दिया है कि व्यक्ति ही सामाजिक विश्लेषण का आधार है। उनके अनुसार व्यक्ति में ही गुण, योग्यता तथा अधिकार मौजूद होते हैं तथा इन सामाजिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक सम्पर्क से ही समाज बना था। नवजागरण के लेखकों ने मानवीय कारण को महत्त्वपूर्ण बताया जोकि उस व्यवस्था के विरुद्ध था जिसमें प्रश्न पूछने को उत्साहित नहीं किया जाता था तथा पवित्रता अर्थात् धर्म सबसे प्रमुख थे। उन्होंने इस विचार का समर्थन किया कि अध्ययन के प्रत्येक विषय को मान्यता मिलनी चाहिए, कोई ऐसा प्रश्न न हो जिसका उत्तर न हो तथा मानवीय जीवन के प्रत्येक पक्ष का अध्ययन होना चाहिए। उन्होंने अमूर्त तर्कसंगतता की दार्शनिक परम्परा को प्रयोगात्मक परम्परा के साथ जोड़ दिया। इस जोड़ने का परिणाम एक नए रूप में सामने आया। मनुष्य की पता करने की इच्छा की नई व्यवस्था ने प्राचीन व्यवस्था को गहरा आघात पहंचाया तथा इसने वैज्ञानिक पद्धति से विज्ञान को पढ़ने पर बल दिया। इसने मौजूदा संस्थाओं के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा किया तथा कहा कि इन संस्थाओं में परिवर्तन करने चाहिए जो मानवीय प्रकृति के विरुद्ध हैं। सभी सामाजिक रुकावटों को दूर करना चाहिए जो व्यक्तियों के विकास में रुकावट हैं।

यह नया दृष्टिकोण न केवल प्रयोगसिद्ध (Empirical) तथा वैज्ञानिक था बल्कि यह दार्शनिक (Philosophical) भी था। नवजागरण विचारकों का कहना था कि सम्पूर्ण जगत् ही ज्ञान का स्रोत है तथा लोगों को यह समझ पर इसके ऊपर शोध करनी चाहिए। नए सामाजिक कानून बनाए जाने चाहिए तथा समाज को तर्कसंगत शोध (Empirical Inquiry) के आधार पर विकास करना चाहिए। इस प्रकार के विचार को सुधारवादी (Reformist) कहा जा सकता है जो प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं। यह विचारक इस बात के प्रति आश्वस्त थे कि नई सामाजिक व्यवस्था से प्राचीन सामाजिक व्यवस्था को सुधारा जा सकता है।

इस प्रकार नवजागरण के विचारकों के विचारों से नया सामाजिक विचार उभर कर सामने आया तथा इसमें से ही आरम्भिक समाजशास्त्री निकल कर सामने आए। अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) एक फ्रांसीसी विचारक था जिसने सबसे पहले ‘समाजशास्त्र’ शब्द दिया। पहले उन्होंने इसे सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम दिया जो समाज का अध्ययन करता था। बाद वाले समाजशास्त्रियों ने भी वह विचार अपना लिया कि समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है। नवजागरण विचारकों की तरफ से दिए गए नए. विचारों ने समाजशास्त्र के उद्भव तथा विकास में कई प्रकार से सहायता की। बहुत से लोग मानते हैं कि समाजशास्त्र का जन्म नवजागरण के विचारों तथा रूढ़िवादियों के उनके विरोध से उत्पन्न हुए विचारों के कारण हुआ। अगस्ते काम्ते भी उस रूढ़िवादी विरोध का ही एक हिस्सा था। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने नवजागरण के कुछ विचारों को लिया तथा कहा कि कुछ सामाजिक सुधारों की सहायता से पुरानी सामाजिक व्यवस्था को सम्भाल कर रखा जा सकता है। इस कारण एक रूढ़िवादी समाजशास्त्रीय विचारधारा सामने आयी।

अगस्ते काम्ते भी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता था तथा उसके बाद कार्ल मार्क्स ने भी ऐसा ही किया। कार्ल मार्क्स जर्मनी में पला बड़ा हुआ था जहां नवजागरण का महत्त्व काफ़ी कम रहा जैसे कि इसका महत्त्व इंग्लैंड, फ्रांस तथा उत्तरी अमेरिका में था। अगर हम ध्यान से देखें तो हम देख सकते हैं कि मार्क्स ने काफ़ी हद तक विचार नवजागरण के विचारों के कारण ही सामने आए हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) :

प्रश्न 1.
किसके अनुसार समाजशास्त्र सभी विज्ञानों की रानी है ?
(A) काम्ते
(B) दुर्थीम
(C) वैबर
(D) स्पैंसर।
उत्तर-
(A) काम्ते।

प्रश्न 2.
यह शब्द किसके हैं-“समाजशास्त्र दो भाषाओं की अवैध सन्तान है ?”
(A) मैकाइवर
(B) जिन्सबर्ग
(C) बीयरस्टैड
(D) दुर्थीम।
उत्तर-
(C) बीयरस्टैड।

प्रश्न 3.
इनमें से कौन संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय का समर्थक नहीं है ?
(A) दुर्थीम
(B) वैबर
(C) हाबहाऊस
(D) सोरोकिन।
उत्तर-
(B) वैबर।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 4.
इनमें से कौन-सी समाजशास्त्र की प्रकृति की विशेषता है ?
(A) यह एक व्यावहारिक विज्ञान न होकर एक विशुद्ध विज्ञान है।
(B) यह एक मूर्त विज्ञानं नहीं बल्कि अमूर्त विज्ञान है।
(C) यह एक निष्पक्ष विज्ञान नहीं बल्कि आदर्शात्मक विज्ञान है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र की विषय वस्तु निश्चित क्यों नहीं है ?
(A) क्योंकि यह प्राचीन विज्ञान है
(B) क्योंकि यह अपेक्षाकृत नया विज्ञान है
(C) क्योंकि प्रत्येक समाजशास्त्री की पृष्ठभूमि अलग है
(D) क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते।
उत्तर-
(D) क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते।

प्रश्न 6.
किताब Social Order के लेखक कौन थे ?
(A) मैकाइवर
(B) सिमेल
(C) राबर्ट बीयरस्टैड
(D) मैक्स वैबर।
उत्तर-
(C) राबर्ट बीयरस्टैड।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 7.
किसने समाजशास्त्र को Social Morphology, Social Physiology तथा General Sociology में बांटा है ?
(A) स्पैंसर
(B) दुर्थीम
(C) काम्ते
(D) वैबर।
उत्तर-
(B) दुर्थीम।

प्रश्न 8.
वैबर के अनुसार इनमें से क्या ठीक है ? ।
(A) साधारण प्रक्रियाओं का भी समाजशास्त्र है।
(B) समाजशास्त्र का स्वरूप साधारण है।
(C) समाजशास्त्र विशेष विज्ञान नहीं है।
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) समाजशास्त्र विशेष विज्ञान नहीं है।

प्रश्न 9.
सबसे पहले किस देश में समाजशास्त्र का स्वतन्त्र रूप में अध्ययन शुरू हुआ था ?
(A) फ्रांस
(B) जर्मनी
(C) अमेरिका
(D) भारत।
उत्तर-
(C) अमेरिका।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 10.
किसने कहा था कि समाजशास्त्र का नाम ETHOLOGY रखना चाहिए ?
(A) वैबर
(B) स्पैंसर
(C) जे० एस० मिल
(D) काम्ते।
उत्तर-
(C) जे० एस० मिल।

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. …………. ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।
2. समाजशास्त्र में सर्वप्रथम प्रकाशित पुस्तक …….. थी।
3. समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र से संबंधित ……….. सम्प्रदाय हैं।
4. वैबर समाजशास्त्र के ……….. सम्प्रदाय से संबंधित है।
5. दुर्थीम समाजशास्त्र के ………… सम्प्रदाय से संबंधित है।
6. ………… के जाल को समाज कहते हैं।
7. …………. ने समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम दिया था।
उत्तर-

  1. अगस्ते काम्ते,
  2. Principles of Sociology,
  3. दो,
  4. स्वरूपात्मक,
  5. संश्लेषणात्मक,
  6. सामाजिक संबंधों,
  7. काम्ते।

III. सही/गलत (True/False) :

1. मैक्स वैबर को समाजशास्त्र का पिता माना जाता है।
2. सबसे पहले 1839 में समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग किया गया था।
3. किताब Society के लेखक मैकाइवर तथा पेज थे।
4. सिम्मेल स्वरूपात्मक सम्प्रदाय से संबंधित थे।
5. फ्रांसीसी क्रांति का समाजशास्त्र के उद्भव में कोई योगदान नहीं था।
6. पुनः जागरण आंदोलन ने समाजशास्त्र के उद्भव में योगदान दिया।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. सही,
  5. गलत,
  6. सही।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers):

प्रश्न 1.
किताब Sociology किसने लिखी थी ?
उत्तर-
किताब Sociology के लेखक हैरी एम० जॉनसन थे।

प्रश्न 2.
किताब Society के लेखक………….थे।
उत्तर-
किताब Society के लेखक मैकाइवर तथा पेज थे।

प्रश्न 3.
………….ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 4.
किताब Cultural Sociology के लेखक कौन हैं ?
उत्तर-
किताब Cultural Sociology के लेखक गिलिन तथा गिलिन थे।

प्रश्न 5.
काम्ते के अनुसार समाजशास्त्र के मुख्य भाग कौन-से हैं ?
उत्तर-
काम्ते के अनुसार समाजशास्त्र के मुख्य भाग सामाजिक स्थैतिकी एवं सामाजिक गत्यात्मकता है।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र में सर्वप्रथम कौन-सी पुस्तक छपी थी ?
उत्तर-
समाजशास्त्र में सर्वप्रथम छपने वाली पुस्तक Principles of Sociology थी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 7.
स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक कौन थे ?
उत्तर-
सिमेल, वीरकांत, वैबर स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक थे।

प्रश्न 8.
संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक कौन थे ?
उत्तर-
दुर्थीम, सोरोकिन, हाबहाऊस इत्यादि संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक थे।

प्रश्न 9.
समाजशास्त्र का पिता किस को माना जाता है?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) को समाजशास्त्र का पिता माना जाता है जिन्होंने इसे सामाजिक भौतिकी का नाम दिया था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 10.
काम्ते ने समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार…………में किया था।
उत्तर-
काम्ते ने समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार 1839 में किया था।

प्रश्न 11.
समाजशास्त्र क्या होता है?
उत्तर-
समाज में पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र कहा जाता है।

प्रश्न 12.
समाज क्या होता है?
उत्तर-
मैकाइवर तथा पेज के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों के जाल को समाज कहते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 13.
किस समाजशास्त्री ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान का रूप दिया था?
उत्तर-
फ्रांसीसी समाजशास्त्री इमाईल दुीम (Emile Durkheim) ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान का रूप दिया था।

प्रश्न 14.
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में कितने सम्प्रदाय प्रचलित हैं?
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय-स्वरूपात्मक तथा संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय प्रचलित है।

प्रश्न 15.
समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम किसने दिया था?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम दिया था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 16.
समाजशास्त्र कौन-से दो शब्दों से बना है?
उत्तर-
समाजशास्त्र लातीनी भाषा के शब्द Socio तथा ग्रीक भाषा के शब्द Logos से मिलकर बना है।

अति लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का अर्थ।
उत्तर-
समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र अथवा समाज विज्ञान कहा जाता है। समाजशास्त्र में समूहों, संस्थाओं, सभाओं, संगठन तथा समाज के सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तथा यह अध्ययन वैज्ञानिक तरीके से होता है ।

प्रश्न 2.
चार प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों के नाम।
उत्तर-

  1. अगस्ते काम्ते – इन्होंने समाजशास्त्र को शुरू किया
  2. इमाइल दुर्थीम – इन्होंने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक रूप दिया
  3. कार्ल मार्क्स – इन्होंने समाजशास्त्र को संघर्ष का सिद्धांत दिया
  4. मैक्स वैबर – इन्होंने समाजशास्त्र को क्रिया का सिद्धांत दिया ।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र में सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक प्रक्रियाएं, सामाजिक संहिताएं, संस्कृति, सभ्यता, सामाजिक संगठन, सामाजिक अंशाति, समाजीकरण, रोल, पद, सामाजिक नियन्त्रण इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 4.
समाज का अर्थ।
उत्तर-
समाजशास्त्र में समाज का अर्थ है कि विशेष प्रकार के सामाजिक संबंधों के संगठन का पाया जाना तथा इसमें संगठन उन लोगों के बीच होता है जो काफ़ी समय से एक ही स्थान पर इकट्ठे रहते हों।

प्रश्न 5.
परिकल्पना।
उत्तर-
परिकल्पना का अर्थ चुने हुए तथ्यों के बीच पाए गए संबंधों के बारे में कल्पना किए हुए शब्दों से होता है जिसके साथ वैज्ञानिक जाँच की जा सकती है परिकल्पना को हम दूसरे शब्दों में सम्भावित उत्तर कह सकते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 6.
स्वरूपात्मक विचारधारा।
उत्तर-
इस विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जिस कारण यह विशेष विज्ञान है। कोई अन्य विज्ञान सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन नहीं करता केवल समाजशास्त्र करता है।

प्रश्न 7.
समन्वयात्मक विचारधारा।
उत्तर-
इस विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक साधारण विज्ञान है क्योंकि इसका अध्ययन क्षेत्र काफ़ी बड़ा तथा विस्तृत है। समाजशास्त्र सम्पूर्ण समाज का तथा सामाजिक संबंधों के मूर्त रूप का अध्ययन करता है।

प्रश्न 8.
समाजशास्त्र का महत्त्व।
उत्तर-

  • समाजशास्त्र पूर्ण समाज को एक इकाई मान कर अध्ययन करता है।
  • समाजशास्त्र सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करके उन्हें दूर करने में सहायता करता है।
  • समाजशास्त्र हमें संस्कृति को ठीक ढंग से समझने में सहायता करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 9.
समाजशास्त्र एक विज्ञान है ।
उत्तर-
जी हां, समाजशास्त्र एक विज्ञान है क्योंकि यह अपने विषय क्षेत्र का वैज्ञानिक विधियों को प्रयोग करके उसका निष्पक्ष ढंग से अध्ययन करता है। इस कारण हम इसे विज्ञान कह सकते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न 

प्रश्न 1.
समाज शास्त्र।
उत्तर-
फ्रांसिसी वैज्ञानिक अगस्ते काम्ते को समाज शास्त्र का पितामह माना गया है। सोशोलोजी शब्द दो शब्दों लातीनी (Latin) शब्द सोशो (Socio) व यूनानी (Greek) शब्द लोगस (Logos) से मिल कर बना है। Socio का अर्थ है समाज व लोगस का अर्थ है विज्ञान, अर्थात् कि समाज का विज्ञान्, अर्थ भरपूर शब्दों के अनुसार समाजशास्त्र का अर्थ समूहों, संस्थाओं, सभाओं, संगठन व समाज के सदस्य के अन्तर सम्बन्धों का वैज्ञानिक अध्ययन. करना व सामाजिक सम्बन्धों में पाए जाने वाले रीति-रिवाज, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि सब का समाजशास्त्र में अध्ययन किया जाता है। इसके अलावा संस्कृति का ही अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ।
उत्तर-
समाजशास्त्र (Sociology) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। Sociology दो शब्दों Socio व Logus से मिल कर बना है। Socio लातीनी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘समाज’ व Logos यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है विज्ञान। इस प्रकार Sociology का अर्थ है समाज का विज्ञान जो मनुष्य के समाज का अध्ययन करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र के जनक किसे माना जाता है व कौन-से सन् में इसको समाजशास्त्र का नाम प्राप्त हुआ ?
उत्तर-
फ्रांसिसी दार्शनिक अगस्ते काम्ते को परम्परागत तौर पर समाजशास्त्र का पितामह माना गया। इसकी प्रसिद्ध पुस्तक “पॉजीटिव फिलासफी” छ: भागों में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में काम्ते ने सन् 1838 में समाज के सम्बन्ध में जटिल अध्ययन करने के लिए जिस विज्ञान की कल्पना की उसका नाम उसने सोशोलोजी रखा।

प्रश्न 4.
वैज्ञानिक विधि।
उत्तर-
वैज्ञानिक विधि में हमें ऐसी समस्या का चुनाव करना चाहिए जो अध्ययन इस विधि के योग्य हो तथा इस समस्या के बारे में जो कोई खोज पहले हो चुकी हो तो हमें जितना भी साहित्य मिले अथवा सर्वेक्षण करना चाहिए। परिकल्पनाओं का निर्माण करना अनिवार्य होता है ताकि बाद में यह खोज का अवसर बन सके। इसके अलावा वैज्ञानिक विधि को अपनाते हुए सामग्री एकत्र करने की खोज को योजनाबद्ध करना पड़ता है ताकि इसका विश्लेषण व अमल किया जा सके। एकत्र की सामग्री का निरीक्षण वैज्ञानिक विधि का प्रमुख आधार होता है। इसमें किसी भी तकनीक को अपनाया जा सकता है व बाद में रिकॉर्डिंग करके सामग्री का विश्लेषण किया जाना चाहिए।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधि का इस्तेमाल कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के लिए कई वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है। तुलनात्मक विधि, ऐतिहासिक विधि, वैरस्टीन विधि आदि (Comparatve method, Historical method and Versten method etc.) कई प्रकार की विधियों का प्रयोग करके सामाजिक समस्याएं सुलझाता है। यह सब विधियों वैज्ञानिक हैं। समाज शास्त्र का ज्ञान व्यवस्थित है। यह वैज्ञानिक विधि का उपयोग करके ही ज्ञान प्राप्त करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र कैसे एक विज्ञान है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसमें समस्या को केवल “क्या है” के बारे ही नहीं बल्कि “क्यूं” व “कैसे” का भी अध्ययन करते हैं। समाज की यथार्थकता का भी पता हम लगा सकते हैं। समाजशास्त्र में भविष्यवाणी ही सहायी सिद्ध होती है। इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र में वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन भी किया जाता है। इसी कारण इसे हम एक विज्ञान भी स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 7.
समाजशास्त्र में प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग कैसे नहीं कर सकते ?
उत्तर-
समाजशास्त्र का विषय-वस्तु समाज होता है व यह मानवीय व्यवहारों व सम्बन्धों का अध्ययन करता है। मानवीय व्यवहारों में बहुत भिन्नता पाई जाती है। यदि हम बहन-भाई या माता-पिता या माता-पुत्र आदि सम्बन्धों को ले लें तो कोई भी दो बहनें, दो भाई इत्यादि का व्यवहार हमें एक जैसा नहीं मिलेगा। प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) में इस प्रकार की विभिन्नता नहीं पाई जाती बल्कि सर्व-व्यापकता पाई जाती है। इस कारण प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग हम प्राकृतिक विज्ञान में कर सकते हैं व समाज शास्त्र में इस विधि का प्रयोग करने में असमर्थ होते हैं। क्योंकि मानवीय व्यवहार में स्थिरता बहुत कम होती है।

प्रश्न 8.
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में बताएं ।
उत्तर-
समाज, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है व समाजशास्त्र इसका वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इस अध्ययन में समाजशास्त्र सारे ही सामाजिक वर्गों का, सभाओं का, संस्थाओं आदि का अध्ययन करता है। समाज शास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो प्रकार के विचार पाए गए हैं-

  • स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School) के अनुसार यह विशेष विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है। इसके मुख्य समर्थक जार्ज सिमल, मैक्स वैबर, स्माल, वीरकान्त, वान विज़े, रिचर्ड इत्यादि हैं।
  • समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School) के अनुसार यह एक सामान्य विज्ञान है। इसके मुख्य समर्थक इमाइल दुर्थीम, हाब हाऊस व सोरोकिन हैं। .

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 9.
समाजशास्त्र भविष्यवाणी नहीं कर सकता।
उत्तर-
समाजशास्त्र प्राकृतिक विज्ञान की भांति भविष्यवाणी नहीं कर सकता। यह सामाजिक सम्बन्धों व प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है। यह सम्बन्ध व प्रतिक्रियाएं प्रत्येक समाज में अलग-अलग होती हैं व इनमें परिवर्तन आते रहते हैं। समाज शास्त्र की विषय सामग्री की इस प्रकृति की वजह के कारण यह भविष्यवाणी करने में असमर्थ है। जैसे प्राकृतिक विज्ञान में भविष्यवाणी की जाती है। उसी तरह की समाजशास्त्र में भी भविष्यवाणी करनी सम्भव नहीं है। कारण यह है कि समाजशास्त्र का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों या व्यवहारों से होता है व यह अस्थिर होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक समाज अलग-अलग होने के साथ-साथ परिवर्तनशील भी होते हैं। अतः सामाजिक सम्बन्धों की इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखते हुए हम सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन में यथार्थवता नहीं ला सकते।

प्रश्न 10.
अगस्ते काम्ते।
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का पितामह (Father of Sociology) माना जाता है। 1839 में अगस्ते काम्ते ने कहा कि जिस प्रकार प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन अलग-अलग प्राकृतिक विज्ञान करते हैं, उस प्रकार समाज का अध्ययन भी एक विज्ञान करता है जिसे उन्होंने सामाजिक भौतिकी का नाम दिया। बाद में उन्होंने सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम परिवर्तित करके समाजशास्त्र कर दिया। काम्ते ने सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत, विज्ञानों का पदक्रम, सकारात्मकवाद इत्यादि जैसे संकल्प समाजशास्त्र को दिए।

प्रश्न 11.
यूरोप में समाजशास्त्र का विकास।
उत्तर-
महान् फ्रांसीसी विचारक अगस्ते काम्ते ने 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में समाज के विज्ञान को सामाजिक भौतिकी का नाम दिया। 1839 में उन्होंने इसका नाम परिवर्तित करके समाजशास्त्र रख दिया। 1843 में J.S. Mill ने ब्रिटेन में समाजशास्त्र को शुरू किया। हरबर्ट स्पैंसर ने अपनी पुस्तक Principles of Sociology से समाज का वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण किया। सबसे पहले अमेरिका ने 1876 में Yale University में समाजशास्त्र का अध्ययन स्वतन्त्र विषय रूप में हुआ। दुर्शीम ने अपनी पुस्तकों से समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विषय के रूप में विकसित किया। इस प्रकार कार्ल मार्क्स तथा वैबर ने भी इसे कई सिद्धांत दिए तथा इस विषय का विकास किया।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 12.
फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र।
उत्तर-
1789 ई० में फ्रांसीसी क्रान्ति आई तथा फ्रांसीसी समाज में अचानक ही बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। राजनीतिक सत्ता परिवर्तित हो गई तथा सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आए। क्रान्ति से पहले बहुत से विचारकों ने परिवर्तन के विचार दिए। इससे समाजशास्त्र के बीज बो दिए गए तथा समाज के अध्ययन की आवश्यकता महसूस होने लग गयी। अलग-अलग विचारकों के विचारों से इसकी नींव रखी गई तथा इसे सामने लाने का कार्य अगस्ते काम्ते ने पूर्ण किया जो स्वयं एक फ्रांसीसी नागरिक था।

प्रश्न 13.
नवजागरण काल तथा समाजशास्त्र।
उत्तर-
नवजागरण काल ने समाजशास्त्र के उद्भव में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसका समय 18वीं शताब्दी की शुरूआत में शुरू हुआ तथा पूरी शताब्दी चलता रहा। इस समय के विचारकों जैसे कि वीको (Vico), मांटेस्क्यू (Montesquieu), रूसो Rousseou) इत्यादि ने ऐसे विचार दिए जो समाजशास्त्र के जन्म में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन सभी ने घटनाओं का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया तथा कहा कि किसी भी वस्तु को तर्कसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज को तर्कसंगत व्याख्या के आधार पर विकसित करना चाहिए। इस प्रकार इन विचारों से नया सामाजिक विचार उभर कर सामने आया तथा इसमें से ही प्रारंभिक समाजशास्त्री निकले।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र की उत्पत्ति में अलग-अलग चरणों का वर्णन करें।
उत्तर-
मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। अपने जीवन के प्रारम्भिक स्तर से ही उसमें अपने इर्द-गिर्द के बारे में पता करने की इच्छा होती है। उसने समय-समय पर उत्पन्न हुई समस्याओं को दूर करने के लिए सामूहिक प्रयास किए। व्यक्तियों के बीच हुई अन्तक्रियाओं के साथ सामाजिक सम्बन्ध विकसित हुए जिससे नए-नए समूह हमारे सामने आए। मनुष्य के व्यवहार को अलग-अलग परम्पराओं तथा प्रथाओं की सहायता से नियन्त्रण में रखा जाता रहा है। इस प्रकार मनुष्य अलग-अलग पक्षों को समझने का प्रयास करता रहा है।

समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास के चरण (Stages of Origin and Development of Sociology)—समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया जाता है-

1. प्रथम चरण (First Stage)-समाजशास्त्र के विकास के प्रथम चरण को दो भागों में विभाजित करके बेहतर ढंग से समझा जा सकता है
(i) वैदिक तथा महाकाव्य काल (Vedic And Epic Era)—चाहे समाजशास्त्र के विकास की प्रारम्भिक अवस्था की शुरुआत को साधारणतया यूरोप से माना जाता है। परन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत के ऋषियों-मुनियों ने सम्पूर्ण भारत का विचरण किया तथा यहां के लोगों की समस्याओं अथवा आवश्यकताओं का गहरा अध्ययन तथा उनका मंथन किया। उन्होंने भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था को विकसित किया। इस बात का उल्लेख संसार के सबसे प्राचीन तथा भारत में लिखे महान् ग्रन्थ ऋग्वेद (Rig Veda) में मिलता है। वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत, रामायण, गीता इत्यादि जैसे ग्रन्थों से भारत में समाजशास्त्र की शुरुआत हुई। वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त आश्रम व्यवस्था, चार पुरुषार्थ, ऋणों की धारणा, संयुक्त परिवार इत्यादि भारतीय समाज में विकसित प्राचीन संस्थाओं में से प्रमुख है। इन धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भारत की उस समय की समस्याओं का समाजशास्त्रीय विश्लेषण देखने को मिलता है।

(ii) ग्रीक विचारकों के अध्ययन (Studies of Greek Scholars)-सुकरात के पश्चात् प्लैटो (Plato) (427-347 B.C.) तथा अरस्तु (Aristotle) (384-322 B.C.) ग्रीक विचारक हुए। प्लैटो ने रिपब्लिक तथा अरस्तु ने Ethics and Politics में उस समय के पारिवारिक जीवन, जनरीतियों, परम्पराओं, स्त्रियों की स्थिति इत्यादि का विस्तार से अध्ययन किया है। प्लैटो ने 50 से अधिक तथा अरस्तु ने 150 से अधिक छोटे बड़े राज्यों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व्यवस्थाओं का अध्ययन किया तथा अपने विचार दिए हैं।

2. द्वितीय चरण (Second Stage)-समाजशास्त्र के विकास के द्वितीय चरण में 6वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक का काल माना जाता है। इस काल के प्रारम्भिक चरण में सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए धर्म तथा दर्शन की सहायता ली गई। परन्तु 13वीं शताब्दी में समस्याओं को तार्किक ढंग से समझने का प्रयास किया गया। थॉमस एकन्युस (Thomes Acquines) तथा दांते (Dante) ने सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए कार्य कारण के सम्बन्ध को स्पष्ट किया। इस प्रकार समाजशास्त्र की रूपरेखा बनने लंग गई।

3. तृतीय अवस्था (Third Stage) समाजशास्त्र के विकास के तृतीय चरण को शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई। इस समय में कई ऐसे महान् विचारक हुए जिन्होंने सामाजिक घटनाओं के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया। हाब्स (Hobbes), लॉक (Locke) तथा रूसो (Rouseau) ने सामाजिक समझौते का सिद्धान्त दिया। थॉमस मूर (Thomes Moore) ने अपनी पुस्तक यूटोपिया (Utopia), मान्टेस्क्यू (Montesque) ने अपनी पुस्तक The Spirit of Laws, माल्थस (Malthus) ने अपनी पुस्तक जनसंख्या के सिद्धान्त’ की सहायता स्ने सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करके समाजशास्त्र के विकास में अपना योगदान दिया।

4. चतुर्थ चरण (Fourth Stage)-महान् फ्रांसीसी विचारक अगस्ते काम्ते (Auguste) ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में समाज के विज्ञान को सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम दिया। 1838 में उन्होंने इसका नाम बदल कर समाजशास्त्र (Sociology) रख दिया। उन्हें समाजशास्त्र का पितामह (Father of Sociology) भी कहा जाता है।

1843 में जे० एस० मिल (J.S. Mill) ने इग्लैंड में समाजशास्त्र को शुरू किया। हरबर्ट स्पैंसर ने अपनी पुस्तक Principles of Sociology तथा Theory of Organism से समाज का वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण किया। सबसे पहले अमेरिका की Yalo University में 1876 ई० में समाजशास्त्र का अध्ययन स्वतन्त्र विषय के रूप में हुआ। दुर्थीम ने अपनी पुस्तकों की सहायता से समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में विकसित करने लिए लिए योगदान दिया। मैक्स वैबर तथा अन्य समाजशात्रियों ने भी बहुत से समाजशास्त्रीय सिद्धान्त दिए। वर्तमान समय में संसार के लगभग सभी देशों में यह विषय स्वतन्त्र रूप में नया ज्ञान एकत्र करने का प्रयास कर रहा है।

भारत में समाजशास्त्र का विकास (Development of Sociology in India) भारत में समाजशास्त्र के विकास को निम्नलिखित कई भागों में बांटा जा सकता है-

1. प्राचीन भारत में समाजशास्त्र का विकास (Development of Sociology in Ancient India)भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति प्राचीन काल से ही शुरू हो गई थी। महर्षि वेदव्यास ने चार वेदों का संकल्प किया तथा महाभारत जैसे काव्य की रचना की। रामायण की रचना की गई। इनके अतिरिक्त उपनिषदों, पुराणों तथा स्मृतियों में प्राचीन भारतीय दर्शन की विस्तार से व्याख्या की गई है। इन सभी से पता चलता है कि प्राचीन भारत में विचारधारा उच्च स्तर की थी। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि प्राचीन भारत की समस्याओं, आवश्यकताओं, घटनाओं, तथ्यों, मूल्यों, आदर्शों, विश्वासों इत्यादि का गहरा अध्ययन किया गया है। वर्तमान समय में भारतीय समाज में मिलने वाली कई संस्थाओं की शुरुआत प्राचीन समय में ही हुई थी। इनमें वर्ण, आश्रम, पुरुषार्थ, धर्म, संस्कार, संयुक्त परिवार इत्यादि प्रमुख हैं।

चाणक्य का अर्थशास्त्र, मनुस्मृति तथा शुक्राचार्य का नीति शास्त्र जैसे ग्रन्थ प्राचीन काल की परम्पराओं, प्रथाओं, मूल्यों, आदर्शों, कानूनों इत्यादि पर काफ़ी रोशनी डालते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल से ही भारत में समाजशास्त्र का प्रारम्भ हो गया था।
मध्यकाल में आकर भारत में मुसलमानों तथा मुग़लों का राज्य रहा। उस समय की रचनाओं से भारत की उस समय की विचारधारा, संस्थाओं, सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है।

2. समाजशास्त्र का औपचारिक स्थापना युग (Formal Establishment Era Sociology)-1914 से 1947 तक का समय भारत में समाजशास्त्र की स्थापना का काल माना जाता है। भारत में सबसे पहले बंबई विश्वविद्यालय में 1914 में स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू हुआ। 1919 से अंग्रेज़ समाजशास्त्री पैट्रिक गिड़डस (Patric Geddes) ने यहां एम० ए० (M.A.) स्तर पर समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू किया। जी० एस० घूर्ये (G. S. Ghurya) उनके ही विद्यार्थी थे। प्रो० वृजेन्द्रनाथ शील के प्रयासों से 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू हुआ। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ० राधा कमल मुखर्जी तथा डॉ० डी० एन० मजूमदार उनके ही विद्यार्थी थे। चाहे 1947 तक भारत में समाजशास्त्र के विकास की गति कम थी परन्तु उस समय तक देश के बहुत से विश्वविद्यालियों में इसे पढ़ाने का कार्य शुरू हो गया था।

3. समाजशास्त्र का प्रसार युग (Expension Era of Sociology)-1947 में स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के बहुत से विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। वर्तमान समय में देश के लगभग सभी कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में इस विषय को पढ़ाया जा रहा है। विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त कई संस्थाओं में शोधकार्य चल रहे हैं।

Tata Institute of Social Science, Mumbai, Institute of Social Science, Agra, Institute of Sociology and Social work Lacknow I.I.T. Kanpur and I.I.T. Delhi इत्यादि देश के कुछेक प्रमुख संस्थान हैं जहां समाजशास्त्रीय शोध के कार्य चल रहे हैं। इनसे समाजशास्त्रीय विधियों तथा इसके ज्ञान में लगातार बढ़ौतरी हो रही है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 2.
फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र के विकास की विस्तार से चर्चा करें।
उत्तर-
सामाजिक विचार उतना ही प्राचीन है जितना समाज स्वयं है, चाहे सामाजशास्त्र का जन्म 19वीं शताब्दी के पश्चिमी यूरोप में देखा जाता है। कई बार समाजशास्त्र को ‘क्रान्ति युग का बालक’ भी कहा जाता है। वह क्रान्तिकारी परिवर्तन जो पिछली तीन सदियों में आए हैं, उन्होंने आज के समय में लोगों के जीवन जीने के तरीके सामने लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परिवर्तनों में ही समाजशास्त्र का उद्भव ढूंढ़ा जा सकता है। समाजशास्त्र ने सामाजिक उथल-पुथल (Social Upheavel) के समय में जन्म लिया था। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने जो विचार दिए, उनकी जड़ों में उस समय के यूरोप के सामाजिक हालातों में मौजूद थी।

यूरोप में आधुनिक युग तथा आधुनिकता को अवस्था ने तीन प्रमुख अवस्थाओं को सामने लाया तथा वह
थे प्रकाश युग (The Elightenment Period), फ्रांसीसी क्रान्ति (The French Revolution) तथा औद्योगिक क्रान्ति (The Industrial Revolution)। समाजशास्त्र का जन्म इन तीन अवस्थाओं अथवा प्रक्रियाओं की तरफ से लाए गए परिवर्तनों के कारण हुआ।

फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र का उद्भव (The French Revolution and Emergence of Sociology) —फ्रांसीसी क्रान्ति 1789 ई० में हुई तथा यह स्वतन्त्रता व समानता प्राप्त करने के मानवीय संघर्ष में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड़ (Turning point) साबित हुई। इससे यूरोप के समाज की राजनीतिक संरचना को बदल कर रख दिया। इसने जागीरदारी युग को खत्म कर दिया तथा समाज में एक नई व्यवस्था स्थापित की। इसने जागीरदारी व्यवस्था के स्थान पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को स्थापित किया।

फ्रांसीसी क्रान्ति से पहले फ्रांसीसी समाज तीन भागों में विभाजित था। प्रथम वर्ग पादरी वर्ग (Clergy) था। दूसरा वर्ग कुलीन (Nobility) वर्ग था तथा तीसरा वर्ग साधारण जनता का वर्ग था। प्रथम दो वर्गों की कुल संख्या फ्रांस की जनसंख्या का 2% थी, परन्तु उनके पास असीमित अधिकार थे। वह सरकार को कोई टैक्स नहीं देते थे। परन्तु तीसरा वर्ग को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे तथा उन्हें सभी टैक्सों का भार सहना पड़ता था। इन तीनों वर्गों की व्याख्या निम्नलिखित है-

1. प्रथम वर्ग-पादरी वर्ग (The First Order-Clergy)-यूरोप के सामाजिक जीवन में रोमन कैथोलिक चर्च सबसे प्रभावशाली तथा ताकतवर संस्था थी। अलग-अलग देशों में बहुत-सी भूमि चर्च के नियन्त्रण में थी। इसके अतिरिक्त चर्च को भूमि उत्पादन का 10% हिस्सा (Tithe) भी मिलता था। चर्च का ध्यान पादरी (Clergy) रखते थे तथा यह समाज का प्रथम वर्ग था। पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था तथा वह थे उच्च पादरी वर्ग तथा निम्न पादरी वर्ग (Upper Clergy and Lower Clergy)। उच्च पादरी वर्ग के पादरी कुलीन परिवारों से सम्बन्धित थे तथा चर्च की सम्पत्ति पर वास्तव में इनका अधिकार होता था। टीथे (Tithe) टैक्स का अधिकतर हिस्सा इनकी जेबों में जाता था। उनके पास विशेष अधिकार थे तथा वह सरकार को कोई टैक्स नहीं देते थे। वह काफ़ी अमीर थे तथा ऐश से भरपूर जीवन जीते थे। निम्न वर्ग में पादरी साधारण लोगों के परिवारों से सम्बन्धित थे। वह पूर्ण ज़िम्मेदारी से अपना कार्य करते थे। वह लोगों को धार्मिक शिक्षा देते थे। वह जन्म, विवाह, बपतिस्मा, मृत्यु इत्यादि से सम्बन्धित संस्कार पूर्ण करते थे तथा चर्च के स्कूलों को भी सम्भालते थे।

2. द्वितीय वर्ग-कुलीन वर्ग (Second Order-Nobility)-फ्रैंच समाज का द्वितीय वर्ग कुलीन वर्ग से सम्बन्धित था। वह फ्रांस की 2.5 करोड़ की जनसंख्या का केवल 4 लाख थे अर्थात् कुल जनसंख्या के 2% हिस्से से भी कम थे। शुरू से ही यह तलवार का प्रयोग करते थे तथा साधारण जनता की सुरक्षा के लिए लड़ते थे। इसलिए उन्हें तलवार का कुलीन (Nobles of Sword) भी कहा जाता था। यह भी दो भागों में विभाजित थे-पुराने कुलीन तथा नए कुलीन। पुराने कुलीन देश की कुल भूमि के 1/5 हिस्से के मालिक थे। कुलीन की स्थिति पैतृक थी क्योंकि उन्हें वास्तविक तथा पवित्र कुलीन कहा जाता था। यह सभी जागीरदारी होते थे। कुछ समय के लिए इन्होंने प्रशासक, जजों तथा फौजी नेताओं का भी कार्य किया। यह ऐश भरा जीवन जीते थे। इन्हें कई प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। नए कुलीन वह कुलीन थे जिन्हें राजा ने पैसे लेकर कुलीन का दर्जा दिया था। इस वर्ग ने 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ समय के बाद इसकी स्थिति भी पैतृक हो गई।

3. तृतीय वर्ग-साधारण जनता (Thrid Order-Commoners)-कुल जनसंख्या के केवल 2% प्रथम दो वर्गों से सम्बन्धित थे तथा 98% जनता तृतीय वर्ग से सम्बन्धित थी। यह वर्ग अधिकार रहित वर्ग था जिसमें अमीर उद्योगपति तथा निर्धन भिखारी भी शामिल थे। किसान, मध्यवर्ग, मज़दूर, कारीगर तथा अन्य निर्धन वर्ग इस समूह में शामिल थे। इन लोगों को किसी भी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। इस कारण इस समूह ने पूर्ण दिल से 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति में भाग लिया। उद्योगपति, व्यापारी, शाहूकार, डॉक्टर, वकील, विचारक, अध्यापक, पत्रकार इत्यादि मध्य वर्ग में शामिल थे। मध्य वर्ग ने फ्रांसीसी क्रान्ति की अगुवाई की। मजदूरों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें तो न केवल कम तनखाह मिलती थी बल्कि उन्हें बेगार (Forced Labour) भी करनी पड़ती थी। इन लोगों ने निर्धनता के कारण ढंगों में भाग लिया। यह लोग क्रान्ति के दौरान भीड़ में शामिल हो गए।

क्रान्ति की शुरुआत (Outbreak of Revolution)-लुई XVI फ्रांस का राजा बना तथा फ्रांस में वित्तीय संकट आया हुआ था। इस कारण उसे देश का रोज़ाना कार्य चलाने के लिए पैसे की आवश्यकता थी। वह लोगों पर नए टैक्स लगाना चाहता था। इस कारण उसे ऐस्टेट जनरल (Estate General) की मीटिंग बुलानी पड़ी जोकि एक बहुत पुरानी संस्था थी। पिछले 150 वर्षों में इसकी मीटिंग नहीं हुई थी। 5 मई, 1789 को ऐस्टेट जनरल की मीटिंग हुई तथा तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों ने मांग की कि सम्पूर्ण ऐस्टेट की इकट्ठी मीटिंग हो तथा वह एक सदन की तरह वोट करें। 20 जून, 1789 को देश की मीटिंग हाल पर सरकारी गार्डों ने कब्जा कर लिया। परन्तु तृतीय वर्ग मीटिंग के लिए बेताब था। इसलिए वह टैनिस कोर्ट में ही नया संविधान बनाने में लग गए। यह फ्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत थी।

फ्रांसीसी क्रान्ति की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना 14 जुलाई, 1789 को हुई। जब पैरिस की भीड़ ने बास्तील जेल पर धावा बोल दिया। उन्होंने सभी कैदियों को स्वतन्त्र करवा लिया। फ्रांस में इस दिन को स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। अब लुई XVI केवल नाम का ही राजा था। नैशनल असेंबली को बनाया गया ताकि फ्रांसीसी संविधान बनाया जा सके। इसने नए कानून बनाने शुरू किए। इसने मशहूर (Declaration of the right of man and citizen) बनाया। इस घोषणापत्र से कुछ महत्त्वपूर्ण घोषणाएं की गई जिसमें कानून के सामने समानता, बोलने की स्वतन्त्रता, प्रेस की स्वतन्त्रता तथा सभी नागरिकों की सरकारी दफ्तरों में पात्रता की घोषणा शामिल थी।

1791 में फ्रांस के राजा ने भागने का प्रयास किया परन्तु उसे पकड़ लिया गया तथा वापस लाया गया। उसे जेल में फेंक दिया गया तथा 21 जनवरी, 1793 को उसे जनता के सामने मार दिया गया। इसके साथ ही फ्रांस को गणराज्य (Republic) घोषित कर दिया गया। परन्तु इसके बाद आतंक का दौर शुरू हुआ तथा जिन कुलीनों, पादरियों तथा क्रान्तिकारियों ने सरकार का विरोध किया, उन्हें मार दिया गया। यह आतंक का दौर लगभग तीन वर्ष तक चला।

1795 में फ्रांस में Directorate की स्थापना हुई। Directorate 4 वर्ष तक चली तथा 1799 में नेपोलियन ने इसे हटा दिया। उसने स्वयं को पहले Director तथा बाद में राजा घोषित कर दिया। इस प्रकार नेपोलियन द्वारा Directorate को हटाने के बाद फ्रांसीसी क्रान्ति खत्म हो गई।

फ्रांसीसी क्रान्ति के प्रभाव (Effects of French Revolution)-फ्रांसीसी क्रान्ति के फ्रांस तथा सम्पूर्ण संसार पर कुछ प्रभाव पड़े जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
1. फ्रांसीसी क्रान्ति का प्रमुख प्रभाव यह था कि इससे पुरानी आर्थिक व्यवस्था अर्थात् जागीरदारी व्यवस्था खत्म हो गई तथा नई आर्थिक व्यवस्था सामने आई। यह नई आर्थिक व्यवस्था पूंजीवाद थी।

2. ऊपर वाले वर्गों अर्थात् पादरी वर्ग तथा कुलीन वर्ग के विशेषाधिकार खत्म कर दिए गए तथा सरकार की तरफ से वापस ले लिए गए। चर्च की सम्पूर्ण सम्पत्ति सरकार ने कब्जे में ले ली। सभी पुराने कानून खत्म कर दिए गए तथा नैशनल असेंबली ने सभी कानून बनाए।

3. सभी नागरिकों को स्वतन्त्रता तथा समानता का अधिकार दिया गया। शब्द ‘Nation’ को नया तथा आधुनिक अर्थ दिया गया अर्थात् फ्रांस केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है बल्कि फ्रांसीसी जनता है। यहां सम्प्रभुता (sovereignty) का संकल्प सामने आया अर्थात् देश के कानून तथा सत्ता सर्वोच्च है।।

4. फ्रांसीसी क्रान्ति का सम्पूर्ण संसार पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा। इसने अन्य देशों के क्रान्तिकारियों को अपनेअपने देशों के निरंकुश राजाओं के विरुद्ध कार्य करने के लिए उत्साहित किया। इससे प्राचीन व्यवस्था खत्म हो गई तथा लोकतन्त्र के आने का रास्ता साफ हुआ। इसने ही स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारा का नारा दिया। इस क्रान्ति के पश्चात् अलग-अलग देशों में कई क्रान्तियां हुईं तथा राजतन्त्र को लोकतन्त्र में परिवर्तित कर दिया गया।

फ्रांसीसी क्रान्ति ने मानवीय सभ्यता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने यूरोप के समाज तथा राजनीतिक व्यवस्था को पूर्णतया बदल दिया। प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था सामने आ गई। फ्रांस में कई क्रान्तिकारी परिवर्तन आए तथा बहुत से कुलीनों को मार दिया गया। इस प्रकार फ्रांसीसी समाज में उनकी भूमिका पूर्णतया खत्म हो गई। नैशनल असेंबली के समय कई नए कानून बनाए गए तथा जिससे समाज में बहुत से बुनियादी परिवर्तन आए। चर्च को राज्य की सत्ता के अन्तर्गत लाया गया तथा उसने राजनीतिक तथा प्रशासकीय कार्यों को दूर रखा गया। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ अधिकार दिए गए।

फ्रांसीसी क्रान्ति का अन्य देशों पर काफ़ी अधिक प्रभाव पड़ा। 19वीं शताब्दी के दौरान कई देशों में राजनीतिक क्रान्तियां हुईं। इन देशों की राजनीतिक व्यवस्था पूर्णतया बदल गई। समाजशास्त्र के उद्भव में यह महत्त्वपूर्ण कारण था। इन क्रान्तियों के साथ कई समाजों में अच्छे परिवर्तन आए तथा आरम्भिक समाजशास्त्रियों का यह मुख्य मुद्दा था। कई प्रारम्भिक समाजशास्त्री, जो यह सोचते थे कि क्रान्ति के केवल समाज पर केवल ग़लत प्रभाव होते हैं, अपने विचार परिवर्तित होने को बाध्य हुए। इन समाजशास्त्रियों में काम्ते तथा दुर्थीम प्रमुख हैं तथा इन्होंने इसके अच्छे प्रभावों पर अपने विचार दिए। इस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने समाजशास्त्र के उद्भव (Origin) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 3.
संक्षेप में औद्योगिक क्रान्ति तथा समाजशास्त्र के उद्भव के सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर-
आधुनिक उद्योगों की स्थापना औद्योगिक क्रान्ति के कारण हुई जो इंग्लैंड में 18वीं शताब्दी के अंतिम हिस्से तथा 19वीं शताब्दी के प्रथम हिस्से में शुरू हुई। इसने सबसे पहले ब्रिटेन तथा बाद में यूरोप तथा अन्य देशों के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में बहुत से परिवर्तन लाए। इसके दो महत्त्वपूर्ण पक्ष थे-

1. औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में विज्ञान तथा तकनीक का व्यवस्थित प्रयोग विशेषतया नई मशीनों के आविष्कार के क्षेत्र में। इसने उत्पादन व्यवस्था को प्रोत्साहित किया तथा इसने फैक्टरी व्यवस्था तथा वस्तुओं के अधिक उत्पादन पर बल दिया।

2. पुराने समय से हट कर व्यवस्थित मज़दूरी तथा बाज़ार को ढूंढ़ना। चीज़ों का काफ़ी अधिक उत्पादन करना ताकि सम्पूर्ण विश्व के अलग-अलग बाजारों में भेजा जा सके। इन वस्तुओं के उत्पादन में प्रयोग होने वाला कच्चा माल भी अलग-अलग देशों से ही प्राप्त किया गया।

औद्योगिकरण से उन समाजों में उथल-पुथल मच गई जो सदियों से स्थिर थे। नए उद्योगों तथा तकनीक ने सामाजिक तथा प्राकृतिक वातावरण को बदल दिया। किसान ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर शहरों की तरफ जाने लग गए। इन समझौतों पर आधारित शहरों में बहुत सी सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होनी शुरू हो गईं। परिवर्तन की दिशा का पता नहीं था तथा सामाजिक व्यवस्था के ऊपर बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया।

प्रथम औद्योगिक क्रान्ति 18वीं शताब्दी के दूसरे उत्तरार्द्ध में शुरू हुई परन्तु यह 1850 ई० तक द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति में मिल गई। इस समय तकनीकी तथा आर्थिक प्रगति काफ़ी तेज़ हो गई क्योंकि इस समय भाप से चलने वाली मशीनों तथा बाद में बिजली पर आधारित मशीनें सामने आ गयीं। इतिहासकार यह मानते हैं कि औद्योगिक क्रान्ति मानवीय इतिहास में होने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी।

औद्योगिक क्रान्ति का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। ग्रामीण लोगों ने शहरों की तरफ जाना शुरू कर दिया जहां उन्हें गंदे हालातों में रहना पड़ा। बढ़ी जनसंख्या, बढ़ती मांगें, बढ़ते उत्पादन से नए बाज़ारों की मांग सामने आयी। इस से बड़ी शक्तियों में एशिया तथा अफ्रीका के देशों में क्षेत्र जीतने की होड़ शुरू हुई। पूर्ण संसार की व्यवस्था बदल गई। सम्पूर्ण संसार में अव्यवस्था फैल गई। 1800-1850 ई० के दौरान अलग-अलग वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए हड़तालें करनी शुरू कर दी।

औद्योगिक क्रान्ति के महत्त्वपूर्ण विषय जिनसे प्रारम्भिक समाजशास्त्री सम्बन्धित थे वह थे मज़दूरों के हालात, जायदाद का परिवर्तन, औद्योगिक नगर, तकनीक तथा फैक्टरी व्यवस्था। इस पृष्ठभूमि में कुछ विचारक अपने समाज को नया बनाना चाहते थे। जो इन समस्याओं से सम्बन्धित थे वह प्रारम्भिक समाजशास्त्री थे क्योंकि वह इन समस्याओं का व्यवस्थित ढंग से अध्ययन करना चाहते थे। इन विचारकों में अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, इमाईल दुर्थीम, कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर प्रमुख थे। यह सभी विचारक अलग-अलग विषयों से आए थे।

अगस्ते काम्ते (1798-1857) को समाजशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है। उनके अनुसार जो विधियां भौतिक विज्ञान (Phycis) में प्रयोग की जाती हैं, वह ही समाज के अध्ययन में प्रयोग की जानी चाहिए। इस अध्ययन से उद्विकास (Evolution) के नियम विकसित होंगे तथा समाज के कार्य करने के ढंग सामने आएंगे। जब इस प्रकार का ज्ञान उपलब्ध हो गया तो हम नए समाज की स्थापना कर पाएंगे। इस प्रकार काम्ते ने सामाजिक उद्विकास का सिद्धान्त दिया जिसे हरबर्ट स्पैंसर ने आगे बढ़ाया। स्पैंसर के उद्विकास के विचारों को सामाजिक डार्विनवाद (Social Darwinism) का नाम भी दिया जाता है।

समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र विषय तथा विज्ञान के रूप में स्थापित करने का श्रेय इमाईल दुर्थीम (18581917) को जाता है जो एक फ्रांसीसी समाजशास्त्री थे। दुर्थीम का कहना था कि समाजशास्त्री को सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करना चाहिए जो निष्पक्ष होते हैं। सामाजिक तथ्य व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं परन्तु वह व्यक्तिगत व्यवहार पर दबाव डालने की शक्ति रखते हैं। इस प्रकार सामाजिक तथ्य व्यक्तिगत नहीं होते।

जर्मन समाजशास्त्रियों में कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर प्रमुख हैं। मार्क्स (1818-1883) के विचार समाजशास्त्र में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके अनुसार समाज में हमेशा से ही दो वर्ग रहे हैं जिनके पास है अथवा जिनके पास नहीं है (Have and Have-nots)। उनके अनुसार संघर्ष से ही समाज में परिवर्तन आता है। इस कारण उन्होंने वर्ग तथा वर्ग संघर्ष को सम्बन्ध महत्त्व दिया है। इस प्रकार मैक्स वैबर (1804-1920) की पुस्तकें भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार समाजशास्त्री को सामाजिक कार्य (Social Action) के सम्बन्ध समाज का अध्ययन करना चाहिए।

इस प्रकार समाजशास्त्र के विकास में फ्रांस (काम्ते, दीम), जर्मनी (मार्क्स, वैबर) तथा ब्रिटेन (स्पैंसर) ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन देशों के समाजों में बहुत-से सामाजिक परिवर्तन आए जिस कारण इन समाजों में 19वीं शताब्दी में समाजशास्त्री का उद्भव तथा विकास हुआ।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 4.
भारत में समाजशास्त्र के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत एक ऐसा देश है जहां अलग-अलग संस्कृतियों, जातियों, धर्मों इत्यादि के लोग इकट्ठे मिलकर रहते हैं। भारत पर अनेकों आक्रमणकारियों ने अलग-अलग कारणों के कारण हमले किए जिस वजह से हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था लम्बे समय से विघटित रही है। अंग्रेजों ने भारत पर लगभग 200 वर्ष तक राज किया परन्तु उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण भारत में सामाजिक विघटन रोकने के कोई प्रयास नहीं किए। इन हालातों के कारण हमारे देश में कई प्रकार की सामाजिक समस्याएं पैदा हो गईं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए सामाजिक हालातों का पूर्ण ज्ञान ज़रूरी है तथा यह समाजशास्त्र ही दे सकता है।

भारत में देश की आज़ादी के पश्चात् कई प्रकार की सामाजिक संस्थाएं शुरू हुईं जिससे यह स्पष्ट हुआ कि हमारे देश की सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए, समाज के लिए योजनाएं बनाने तथा पूर्ण समाज की संरचना को संगठित रखने के लिए समाजशास्त्र महत्त्वपूर्ण ही नहीं बल्कि ज़रूरी भी है। भारत में समाजशास्त्र का महत्त्व इस प्रकार है-

1. सामाजिक समस्याओं के हल में सहायक (Helpful in solving social problems)-हमारे समाज में अनेक प्रकार की समस्याएं प्रचलित हैं जैसे निर्धनता, भ्रष्टाचार, जातिवाद, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, अधिक जनसंख्या इत्यादि। इन समस्याओं का मुख्य कारण सामाजिक हालात ही है। सामाजिक हालातों में परिवर्तन करके ही लोगों के विचारों को परिवर्तित किया जा सकता है जोकि समस्या के हल के लिए ज़रूरी है। समाजशास्त्र इन सामाजिक हालातों के कारकों के बारे में बताता है जिससे इन समस्याओं को समझना आसान हो गया है। इससे इन समस्याओं का हल ढूंढ़ने में आसानी हुई है।

2. ग्रामीण क्षेत्रों के निर्माण में मददगार (Helpful in rural reconstruction)-भारतीय समाज एक ग्रामीण समाज है जहां की ज्यादातर जनसंख्या गांवों में रहती है। हमारे समाज का विकास गांवों के विकास पर निर्भर करता है। हमारे गांवों में अनेक प्रकार की समस्याएं हैं जो न सिर्फ अलग-अलग प्रकृति की हैं बल्कि अपने आप में जटिल भी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जातिवाद, बाल विवाह, जाति प्रथा, वहम इत्यादि समस्याएं प्रचलित हैं। इन समस्याओं का मुख्य कारण सामाजिक परिस्थितियां ही हैं। समाजशास्त्र की मदद से इन समस्याओं से सम्बन्धित ज्ञान इकट्ठा किया जा सकता है तथा बदले हुए हालातों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति को सुधारा जा सकता है।

3. शहरों के नियोजन में मददगार (Helpful in Urban Planning)-शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण ने हमारे समाज में कई प्रकार के परिवर्तन पैदा कर दिए हैं। हज़ारों नए व्यवसाय उत्पन्न हो गए हैं जिस वजह से गांवों की जनसंख्या शहरों में बस रही है। बहुत-से शहरों में जनसंख्या काफ़ी ज्यादा हो गई है जिस वजह से गन्दी बस्तियां बढ़ रही हैं। गन्दी बस्तियों से बहुत-सी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं जैसे अपराध, गरीबी, नशा करना इत्यादि। समाजशास्त्र इन सब के सम्बन्ध में ज्ञान इकट्ठा करता है तथा इन समस्याओं के समाधान के बारे में बताता है। इसके अलावा शहरों में भौतिकता में तो परिवर्तन आ रहे हैं परन्तु लोगों के विचारों में परिवर्तन नहीं आ रहे हैं जिससे कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। समाजशास्त्र उन बदले हुए हालातों के बारे में बताता है जिससे शहरों के लिए योजनाएं बनाना काफ़ी आसान हो गया है।

4. जनजातीय कल्याण में सहायक (Helpful in Tribal Welfare)-हमारे देश में नौ करोड़ के लगभग आदिवासी रहते हैं। समाजशास्त्र से हमें इनके बारे में सामाजिक तथा सांस्कृतिक ज्ञान प्राप्त होता है। अगर यह ज्ञान न हो तो इन समाजों को समझाना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह लोग हमारी संस्कृति से दूर जंगलों, पहाड़ों में रहते हैं। समाजशास्त्र हमें इनके सामाजिक हालातों के बारे में बताता है जिसके आधार पर इनके कल्याण से सम्बन्धित नीतियां बनाई जाती हैं।

5. श्रमिकों के कल्याण में सहायक (Helpful in labour welfare)-हमारे समाजों का स्वरूप धीरेधीरे औद्योगिक हो रहा है जहां उत्पादन तथा श्रमिकों के सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। इन के बीच के सम्बन्धों में तनाव आने से हमारे समाज का आर्थिक विकास ही नहीं बल्कि सामाजिक सम्बन्ध तथा विकास भी प्रभावित होता है। चाहे स्वतन्त्रता के बाद श्रमिकों के कल्याण के लिए कई प्रकार के कानून बनाए गए हैं परन्तु इन का लाभ तभी प्राप्त होगा अगर इनको मानवीय दृष्टिकोण से विकसित किया जाए। यह दृष्टिकोण हमें समाजशास्त्र के ज्ञान से ही प्राप्त होता है।

6. राजनीतिक समस्याओं में मददगार (Helpful in political problems)-हमारे देश में बहुत सारे राजनीतिक दल हैं जिस वजह से राजनीतिक समस्याएं दिन प्रतिदिन बढ़ रही हैं। दल लोगों में झगड़े करवाते हैं। समाजशास्त्र के ज्ञान की मदद से अलग-अलग समुदायों की राजनीतिक, साम्प्रदायिक समस्याओं को कम किया जा सकता है तथा उनका हल निकाला जा सकता है। . इस तरह इस विवरण से यह स्पष्ट है कि हमारे देश के विकास के लिए योजनाएं बनाने में तथा हमारे समाज में फैली समस्याओं को खत्म करने में समाजशास्त्र का ज्ञान काफ़ी महत्त्व रखता है। अगर यह ज्ञान सारी जनसंख्या तक फैला दिया जाए तो हमारा समाज भी प्रगति करेगा तथा इसमें मिलने वाली समस्याएं भी धीरे-धीरे कम हो जाएंगी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

समाजशास्त्र का उद्भव PSEB 11th Class Sociology Notes

  • समाजशास्त्र का उद्भव एक नई घटना है तथा इसके बारे में निश्चित समय नहीं बताया जा सकता कि यह कब विकसित हुआ। प्राचीन समय में बहुत से विद्वानों जैसे कि हैरोडोटस, प्लेटो, अरस्तु इत्यादि ने काफ़ी कुछ लिखा जो कि आज के समाज से काफ़ी मिलता-जुलता है।
  • एक विषय के रूप में समाजशास्त्र का उद्भव 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद शुरू हुआ जब समाज में बहुत-से परिर्वतन आए। बहुत से विद्वानों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, इमाईल दुर्थीम तथा मैक्स वैबर ने सामाजिक व्यवस्था, संघर्ष, स्थायीपन तथा परिवर्तन के अध्ययन पर बल दिया जिस कारण समाजशास्त्र विकसित हुआ।
  • तीन मुख्य प्रक्रियाओं ने समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र विषय के रूप में स्थापित करने में सहायता की तथा वह थी (i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण का आंदोलन (ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास तथा (iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण।
  • 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति में बहुत से विद्वानों ने योगदान दिया। उन्होंने चर्च की सत्ता को चुनौती दी तथा लोगों को बिना सोचे-समझे चर्च की शिक्षाओं को न मानने के लिए कहा। लोग इस प्रकार अपनी समस्याओं को तर्कपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए उत्साहित हुए।
  • 16वीं से 17वीं शताब्दी के बीच प्राकृतिक विज्ञानों ने काफ़ी प्रगति की। इस प्रगति ने सामाजिक विचारकों को भी प्रेरित किया कि वह भी सामाजिक क्षेत्र में नए आविष्कार करें। यह विश्वास सामने आया कि जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञानों की सहायता से जैविक संसार को समझने में सहायता मिली, क्या उस ढंग को सामाजिक घटनाओं पर भी प्रयोग किया जा सकता है ? काम्ते, स्पैंसर, दुर्थीम जैसे समाजशास्त्रियों ने उस ढंग से सामाजिक घटनाओं को समझने का प्रयास किया तथा वे सफल भी हुए।
  • 18वीं शताब्दी में यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति शुरू हुई जिससे उद्योग तथा नगर बढ़ गए। नगरों में कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो गईं तथा उन्हें समझने तथा दूर करने के लिए किसी विज्ञान की आवश्यकता महसूस की गई। इस प्रश्न का उत्तर समाजशास्त्र के रूप में सामने आया।
  • अगस्ते काम्ते ने 1839 ई० में सबसे पहले समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग किया तथा उन्हें समाजशास्त्र का पितामह कहा जाता है। समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ है समाज का विज्ञान।
  • कई विद्वान् समाजशास्त्र को एक विज्ञान का दर्जा देते हैं क्योंकि उनके अनुसार समाजशास्त्र वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है, यह निष्कर्ष निकालने में सहायता करता है, इसके नियम सर्वव्यापक होते हैं तथा यह भविष्यवाणी कर सकता है।
  • कुछेक विद्वान् समाजशास्त्र को विज्ञान नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार समाजशास्त्र में परीक्षण करने की कमी होती है, इसमें निष्पक्षता नहीं होती, इसमें शब्दावली की कमी होती है, इसमें आँकड़े एकत्र करने में मुश्किल होती है इत्यादि।
  • समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं तथा वह हैं स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School) तथा समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)।
  • स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जो कोई विज्ञान नहीं करता है। जार्ज सिमेल, टोनीज़, वीरकांत तथा वान वीजे इस सम्प्रदाय के समर्थन हैं।
  • समन्वयात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान नहीं है। बल्कि यह अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों का मिश्रण है जो अपनी विषय सामग्री अन्य सामाजिक विज्ञानों से उधार लेता है। दुर्थीम, हाबहाऊस, सोरोकिन इत्यादि इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक हैं।
  • समाजशास्त्र का हमारे लिए काफ़ी महत्त्व है क्योंकि यह अलग-अलग प्रकार की संस्थाओं का अध्ययन करता है, यह समाज के विकास में सहायता करता है, यह सामाजिक समस्याओं को हल करने में सहायता करता है तथा यह आम जनता के कल्याण के कार्यक्रम बनाने में सहायता करता है।
  • व्यक्तिवाद (Individualism)-वह भावना जिसमें व्यक्ति समाज के बारे में सोचने के स्थान पर केवल अपने बारे में सोचता है।
  • पूँजीवाद (Capitalism)-आर्थिकता की वह व्यवस्था जो बाज़ार के लेन-देन पर आधारित है। पूँजी का अर्थ है कोई सम्पत्ति जिसमें पैसा, इमारतें, मशीनें इत्यादि शामिल हैं जो बिक्री के लिए उत्पादन में प्रयोग की जाती हैं अथवा बाज़ार में लाभ कमाने के उद्देश्य से ली या दी जा सकती हैं। यह व्यवस्था उत्पादन के साधनों तथा सम्पत्तियों के व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित है।
  • मूल्य (Value)-व्यक्ति अथवा समूह द्वारा माना जाने वाला विचार कि क्या आवश्यक है, सही है, अच्छा है अथवा गलत है।
  • समष्टि समाजशास्त्र (Macro Sociology)-बड़े समूहों, संगठनों तथा सामाजिक व्यवस्थाओं का अध्ययन।
  • व्यष्टि समाजशास्त्र (Micro Sociology)-आमने-सामने की अन्तक्रियाओं के संदर्भ में मानवीय व्यवहार का अध्ययन।
  • औद्योगीकरण (Industrialisation) सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन का वह समय जिसने मानवीय समूह को ग्रामीण समाज से औद्योगिक समाज में बदल दिया।
  • नगरीकरण (Urbenisation)-वह प्रक्रिया जिसमें अधिक-से-अधिक लोग नगरों में जाकर रहने लग जाते हैं। इसमें नगरों में बढ़ौतरी होती है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
अकबर के नव राजनीतिक संकल्प के सन्दर्भ में मुग़लों की मनसबदार प्रणाली तथा जागीरदारी प्रथा की चर्चा करें।
उत्तर-
अकबर ने अपनी आवश्यकतानुसार शासन को नवीन रूप प्रदान किया। उसने स्वयं को धार्मिक नेताओं से स्वतन्त्र रखने का प्रयास किया। उसने सैनिक तथा असैनिक कार्यों के लिए मनसबदार नियुक्त किए तथा जागीर व्यवस्था को नये रूप में आरम्भ किया। इन सब का वर्णन इस प्रकार है :

I. नया राजनीतिक संकल्प-

मुग़ल प्रशासन कई प्रकार से पहले की राज्य व्यवस्थाओं से भिन्न था। अकबर के शासनकाल में राज्यतन्त्र का एक नवीन रूप उभरा। यही रूप उसके उत्तराधिकारियों के शसनकाल में भी चलता रहा। इस राज्यतन्त्र में पहला तत्त्व राजपद के नये संकल्प का था। बाबर पहले ही खलीफा का सहारा लेने की बजाय इस बात पर बल देता था कि वह तैमूर का उत्तराधिकारी है। इस तरह उसने खलीफा की काल्पनिक सत्ता समाप्त कर दी थी।

अकबर एक कदम और आगे बढ़ा। उसने राजनीतिक और सरकारी क्षेत्र में मुल्लाओं की भूमिका को बहुत घटा दिया। 1579 में उसके राज्य के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों और विद्वानों ने ‘महाज़र’ नामक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये। इसके अनुसार अकबर को इमाम-ए-आदिल अर्थात् एक न्यायशील नेता घोषित किया गया। अकबर को अब यह अधिकार दिया गया कि कानून के व्याख्याताओं द्वारा दी गई विरोधी रायों में से किसी एक का चुनाव कर के अपनी प्रजा के हित में निर्णय अथवा फतवा दे सके। वह कुरान के अनुकूल लोगों की भलाई के लिए स्वयं ही आज्ञा जारी कर सकता था। इस घोषणा के कारण अब वह मुसलमानों के विभिन्न सम्प्रदायों के साथ-साथ सारे ग़ैर-मुसलमान लोगों से अपनी प्रजा के रूप में समान व्यवहार कर सकता था। अकबर का यह विश्वास था कि उसने ईश्वर से अपनी सत्ता प्राप्त की है और सारी जनता ईश्वर की रचना होने के नाते बादशाह के समान व्यवहार की पात्र है। उसने हिन्दुओं से जज़िया तथा तीर्थ यात्रा कर लेने बन्द कर दिए।

उसने राजपूत राजकुमारियों से विवाह किया और उन्हें मुसलमान बनाये बिना ही महलों में अन्य रानियों के बराबर सम्मान दिया। उसने कई राजपूत सरदारों को भी अधीन राजाओं का दर्जा दिया।

हर्ष के पश्चात् अकबर पहला शासक था जिसने बड़े स्तर पर सामन्त प्रथा का विधिवत प्रयोग किया। उसके राज्य में 100 से भी अधिक सामन्त थे। सभी सामन्त गैर-मुसलमान थे। वे दूसरी शक्तियों से राजनीतिक सन्धि नहीं कर सकते थे। उन्हें गद्दी पर बैठने का अधिकार भी सम्राट प्रदान करता था। सामन्त के लिए यह आवश्यक था कि वह सम्राट को वार्षिक खिराज दे। सम्राट् की आज्ञा अनुसार आवश्यकता पड़ने पर सामन्तों को अभियानों के लिए सैनिक भेजने पड़ते थे। सम्राट् की अधीनता में रहते हुए सामन्तों को यह स्वतन्त्रता थी कि वे मुग़ल साम्राज्य में मनसबदार बन सकें। यह पद अधीन शासक के पद के अतिरिक्त था। इस प्रकार सामन्त और मनसबदार के रूप में अधीन राजा का मुग़ल साम्राज्य से दोहरा नाता रहता था। उसका अपना एक राजनीतिक स्तर भी होता था तथा वह प्रशासन का भागीदार भी होता था ।

II. मनसबदारी प्रणाली-

अकबर की मनसबदारी प्रणाली का मूल उद्देश्य सैनिक संगठन में सुधार लाना था। इस उद्देश्य से हर कमाण्डर का मनसब अथवा दर्जा निश्चित किया गया। इससे उसके अधीन सैनिकों की गिनती का पता चल जाता था। मनसब दस से आरम्भ होकर दस-दस के अन्तर से बढ़ते थे ताकि घुड़सवारों की गिनती करनी सरल हो जाए तथा पदों में अन्तर का भी स्पष्ट पता चले। जब अकबर को यह पता चला कि मनसबदार निश्चित संख्या में घुड़सवार नहीं रखते तो उसने दो प्रकार के मनसब बना दिए-जात और सवार। जात के अनुसार मनसबदार का व्यक्तिगत वेतन निश्चित किया जाता था और सवार मनसब से उसके घुड़सवारों की गिनती एवं उनके लिए वेतन निश्चित हो जाता था। अतः स्पष्ट है कि घुड़सवार न रखने को केवल जात मनसब दिया जाता था। इस प्रकार ‘सिविल’ और सैनिक अफसरों में अन्तर काफ़ी सीमा तक कम हो गया। अलग-अलग समय में एक ही व्यक्ति को सिविल’ से सैनिक और सैनिक से ‘सिविल’ सेवाओं में परिवर्तित किया जा सकता था। कुछ मनसबदारों के पास दोनों ही पद थे। ऐसे मनसबदारों को तीन वर्गों में बांटा गया था। पहले वर्ग के पास सवार तथा जात मनसब बराबर थे। दूसरे वर्ग में वे मनसबदार थे जिनका सवार मनसब जात मनसब के आधे से अधिक था। तीसरे प्रकार के मनसबदारों का सवार मनसब उसके जात मनसब के आधे से भी कम था। शाहजहां और औरंगजेब के शासनकाल में मनसबदारी प्रणाली में कुछ परिवर्तन अवश्य किया गया, किन्तु अकबर द्वारा विकसित की गई प्रणाली में मनसबदारों का मूल अस्तित्व बना रहा।

III. जागीरदारी प्रथा-

जागीरदारी प्रथा का स्रोत मनसबदारी था। अकबर सभी मनसबदारों को नकद वेतन नहीं दे सकता था। अतः उसने मनसबदारों को यह अधिकार दिया कि वे अपने वेतन के बराबर लगान वसूल कर लें। जिस भूमि से मनसबदार को लगान वसूल करने का अधिकार मिलता था, उसे उसकी जागीर माना जाता था। जागीरदार का अधिकार उस भूमि से लिए जाने वाले कर तक ही सीमित था। जो भूमि जागीर में नहीं दी जाती थी, उसे बादशाह का खालिसा कहा जाता था। जागीरों की भान्ति खालिसा भूमि भी देश के भिन्न-भिन्न भागों में होती थी।

मनसबदार की जागीर एक ही स्थान पर नहीं होती थी। साम्राज्य की नीति के अनुसार थोड़े-थोड़े समय बाद जागीरों को स्थानान्तरित कर दिया जाता था ताकि जागीरदार स्थानीय लोगों के साथ अधिक मेल-मिलाप न बढ़ा सकें। इसका परिणाम यह निकला कि जागीरदार अधिक लगान वसूल करने की चिन्ता में रहते थे और भूमि के सुधार की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं देते थे। उनका किसानों से व्यवहार भी अच्छा नहीं होता था। अकबर के उत्तराधिकारियों के समय जैसे-जैसे मनसबदारों की गिनती बढ़ती गई वैसे-वैसे जागीरदारों को उनकी इच्छा के अनुकूल जागीरें मिलनी कठिन हो गईं। 17वीं सदी के अन्त में तो मनसबदारों को जागीर प्राप्त करने के लिए कई वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। औरंगजेब के समय तक साम्राज्य का 80 प्रतिशत भाग जागीरों के रूप में दिया जा चुका था।
उन्हें अपनी जागीरों से आय भी कम प्राप्त होती थी। इस तरह जागीरदारी प्रथा में संकट की स्थिति बन गई और यह पतनोन्मुख हुई। इस प्रथा का पतन अन्तत: मुग़ल साम्राज्य के पतन का कारण बना।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 2.
लगान प्रबन्ध के सन्दर्भ में मुग़ल साम्राज्य के केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय प्रशासन की चर्चा करें।
उत्तर-
मुग़लों ने भारत में उच्चकोटि की शासन-प्रणाली की व्यवस्था की। इसके अधीन केन्द्रीय, प्रान्तीय, स्थानीय शासन तथा लगान प्रबन्ध का वर्णन इस प्रकार है :-

1. केन्द्रीय शासन-केन्द्रीय शासन का मुखिया स्वयं सम्राट् था। उसे असीम शक्तियां प्राप्त थीं जिन पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं था। उसे धरती पर ‘ईश्वर की छाया’ समझा जाता था। वह मुख्य सेनापति और मुख्य न्यायाधीश था। वह इस्लाम धर्म का संरक्षक तथा मुस्लिम जनता का आध्यात्मिक नेता भी था। शासन कार्यों में उसे सलाह देने के लिए एक मन्त्रिमण्डल होता था। प्रत्येक मन्त्री के पास एक अलग विभाग होता था। इसमें से कुछ प्रमुख मन्त्री ये थे-वकील या वज़ीर, दीवानए-आला, मीर बख्शी, सदर-उल-सुदूर, खान-एन्सामां तथा प्रधान काजी। सम्राट् के पश्चात् वकील या वजीर का पद सबसे बड़ा होता था। वह सम्राट् का सलाहकार था तथा अन्य विभागों की देखभाल करता था। दीवान-ए-आला वित्त मन्त्री होने के नाते सभी प्रकार के कर एकत्रित करता था। मीर बख्शी मनसबदारों का रिकार्ड रखता था।

2. प्रान्तीय शासन-मुग़लों ने अपने साम्राज्य को विभिन्न प्रान्तों में बांटा हुआ था। अकबर के शासन काल में प्रान्तों की संख्या 15 थी, जो औरंगजेब के समय में बढ़ कर 22 हो गई। प्रान्तीय शासन का मुखिया सूबेदार अथवा नाज़िम होता था। वह प्रान्त में कानून तथा व्यवस्था बनाए रखता था। वह सरकारी आज्ञाओं को भी लागू करवाता था। शासन-कार्यों में उसकी सहायता के लिए प्रान्तीय दीवान होता था। वह प्रान्त के वित्त विभाग का मुखिया होता था। वह सूबेदार के अधीन नहीं होता था। इसके अतिरिक्त बख्शी, सदर, काजी, वाकियानवीस तथा कोतवाल आदि अन्य अधिकारी थे। वे प्रान्तों में वही काम करते थे जो उनके मुखिया केन्द्र में करते थे।

3. स्थानीय शासन-मुग़लों ने शासन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रान्तों को आगे सरकारों में बांटा हुआ था। सभी प्रान्तों की सरकारों की संख्या 105 थी। फौजदार, अमल गुज़ार, वितक्ची तथा खज़ानेदार सरकार के प्रमुख अधिकारी थे। फौजदार सरकार का सैनिक तथा कार्यकारी अध्यक्ष होता था। वह सरकार में शान्ति तथा अनुशासन की व्यवस्था करता था। वह ही सम्राट के फरमानों को लागू करवाता था। अमल-गुज़ार सरकार के वित्त विभाग का मुखिया होता था। वह निम्न राजस्व अधिकारियों के कार्यों पर निगरानी रखता था और किसानों को अधिक-से-अधिक भूमि को हल तले लाने के लिए प्रेरित करता था। अमल-गुज़ार की सहायता के लिए वितिक्ची तथा पोतदार अथवा खज़ानेदार नामक दो अधिकारी होते थे। वितिक्ची राजस्व तथा उपज के आंकड़ों का रिकार्ड रखता था और कानूनगो के कार्यों का निरीक्षण करता था। पोतदार तथा खज़ानेदार कृषकों से भूमि कर एकत्रित करके कोष में रखता था। कोष की एक चाबी उसके पास होती थी और दूसरी अमलगुज़ार के अधिकार में रहती थी।

प्रत्येक सरकार को कई परगनों में बांटा गया था। परगनों के प्रमुख कर्मचारियों में शिकदार, आमिल, कानूनगो आदि के नाम लिए जा सकते थे। शिकदार परगने का कार्यपालक अधिकारी होता था। वह परगने में शान्ति तथा व्यवस्था की स्थापना करता था। परगने में फौजदारी मुकद्दमे का फैसला भी वही करता था। आमिल परगने के राजस्व विभाग का मुखिया होता था। उसके कार्य भूमिकर एकत्रित करना, दीवानी मुकद्दमों का फैसला करना तथा शान्ति स्थापना में शिकदार की सहायता करना था। आमिल की सहायता के लिए कानूनगो तथा पोतदार नामक दो अधिकारी होते थे। कानूनगो कृषकों की भूमि तथा भूमिकर सम्बन्धी सारे रिकार्ड रखता था। वह पटवारियों के कार्यों का निरीक्षण भी करता था। पोतदार परगने के किसानों से कर एकत्रित करता था। ग्राम का प्रबन्ध पंचायत के हाथों में होता था। पंचायत के मुख्य कार्यों में लोगों के झगड़ों का निपटारा करना, सफ़ाई तथा शिक्षा का प्रबन्ध करना, मेलों तथा उत्सवों का आयोजन करना आदि प्रमुख थे।

4. न्याय प्रबन्ध-मुग़ल साम्राज्य के अन्य विभागों की भान्ति न्याय प्रबन्ध भी सुव्यवस्थित था। साम्राज्य के सभी नगरों एवं मुख्य कस्बों में एक काजी और एक मुफ्ती नियुक्त किया जाता था। वे शरीअत (इस्लामी कानून) की शर्तों के अनुसार न्यायिक प्रशासन की देखभाल करते थे। मुफ्ती कानून की व्याख्या करता था तथा काजी निर्णय देता था। काज़ी की कचहरी में गैर-मुसलमान भी जा सकते थे। गांवों और कस्बों में पंचायतें भी थीं जो छोटे-मोटे झगड़ों का निपटारा करती थीं। न्याय का अधिकांश कार्य पंचायत तथा काजी ही कर लेते थे। प्रान्त में सूबेदार, दीवान तथा अन्य कर्मचारियों को भी न्याय करने का अधिकार प्राप्त था, विशेष रूप से उन मामलों में जिनसे उनका सीधा सम्बन्ध था। इसी प्रकार केन्द्र में बादशाह के अतिरिक्त सदर एवं अन्य मन्त्री न्याय कार्य करते थे। शाही लश्कर के लिए नियुक्त विशेष काजी को ‘काज़ी-उल-कुजात’ कहते थे।

5. लगान प्रबन्ध-मुग़ल राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत लगान (भूमिकर) था। अकबर ने कई अनुभवों के आधार पर भूमिकर की जब्ती व्यवस्था लागू की। इस व्यवस्था के अनुसार कृषि अधीन सारी भूमि को नापा गया। इस नाप के लिए एक निश्चित लम्बाई का गज़ प्रयोग में लाया गया जिसे इलाही गज़ कहते थे। नाप के लिए अब रस्से के स्थान पर बांस के टुकड़ों का प्रयोग होने लगा। फिर सारी भूमि को उर्वरता के आधार पर तीन श्रेणियों में बांट कर उनकी प्रति बीघा औसत उपज का हिसाब लगाया। इस औसत उत्पादन का तीसरा भाग सरकार का हिस्सा अथवा लगान निर्धारित किया गया। इसके पश्चात् प्रत्येक फसल को दस वर्षों की कीमतों की औसत निकाल कर लगान की मात्रा नकद राशि में निश्चित की गई। इस प्रकार प्रत्येक फसल को प्रति बीघा लगान दामों में निश्चित हुआ। ऐसे सभी प्रदेशों के लिए, जहां भूमि की उर्वरता तथा जलवायु लगभग एक थे, लगान को नकद राशि में परिवर्तित करने के लिए एक ही दर निश्चित की गई जिसे ‘दस्तूर’ कहते थे। कृषक से लिए जाने वाले लगान का हिसाब इसी दर से ही लगाते थे। बोई हुई भूमि के क्षेत्र का नाप प्रत्येक फसल के लिए किया जाता था। इस व्यवस्था में साधारणतः सरकार तथा किसान दोनों को आरम्भ से ही लगान की राशि का पता चल जाता था।

कुछ स्थानों पर जब्ती के साथ कनकूत तथा बटाई भी प्रचलित थी। बटाई के अनुसार फसल का एक निश्चित भाग लगान के रूप में लिया जाता था। यह किसानों के लिए तो लाभदायक था, परन्तु सरकार को कटी फसल की सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती थी। कनकूत में ऐसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उसमें खड़ी फसल के आधार पर उपज का अनुमान लगा लिया जाता था। सरकार के करिन्दे बाद में लगान की दर के अनुसार सरकार का हिस्सा वसूल करते थे। प्रायः लगान की राशि निश्चित करके नकदी में उसकी उगराही होती थी। अकबर के उत्तराधिकारियों के समय लगान की दर बढ़ती चली गई तथा 17वीं सदी के अन्त में यह दर उत्पादन के तीसरे भाग से बढ़ कर लगभग आधा भाग हो गई। समय बीतने पर वार्षिक नाप भी छोड़ दिया गया और पहले वर्षों में वसूल किए लगान के आधार पर कृषक का या सारे गांव का सामूहिक लगान निश्चित किया जाने लगा। इसे नस्क कहा जाता था।

सच तो यह है कि मुग़ल सरकार का प्रशासन समय की आवश्यकता के अनुकूल था। इसलिए इसमें आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर परिवर्तन भी होते रहते थे। परन्तु प्रशासन के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं होता था।

प्रश्न 3.
लोक कल्याण के कार्य तथा राजकीय संरक्षण का हवाला देते हुए मुग़ल काल में भवन निर्माण, चित्रकला, संगीत तथा साहित्य के क्षेत्र में हुई उन्नति पर लेख लिखें।
उत्तर-
मुग़ल काल में प्रजा हित का रूप वह नहीं था जैसा की वर्तमान कल्याणकारी राज्य में होता है। यह राजा की इच्छा पर निर्भर था कि वह प्रजा-हित के लिए क्या कुछ करता है या नहीं। फिर भी मुग़ल सम्राट् प्रजा हितकारी थे और वे सरकारी आय का कुछ भाग जनकल्याण तथा धर्मार्थ कार्यों पर व्यय करते थे। यात्रियों की सुविधा के लिए सरकार पुल और सड़कें बनवाती थी। लोगों के लिए अस्पताल और सराएं भी बनवाई जाती थीं। इनका प्रयोग सरकारी कार्यों के लिए भी होता था।

मुग़ल शासक मस्जिदों, मदरसों, सूफ़ी सन्तों तथा धार्मिक पुरुषों को संरक्षण देते थे। लोक कल्याण पर व्यय होने वाले राशि का अधिकतर भाग इन्हीं पर खर्च किया जाता था। इन्हें व्यय के लिए सरकार की ओर से कर मुफ़्त भूमि दे दी जाती थी। कुछ गैर-मुस्लिम संस्थाओं को भी सहायता मिलती थी। इनमें वैष्णव, जोगी, सिक्ख तथा पारसी संस्थाएं शामिल थीं। औरंगज़ेब के समय में भी इस सहायता पर कोई रोक न लगाई गई। अतः जब औरंगज़ेब ने कर मुक्त भूमि प्राप्त लोगों को भूमि का स्वामी घोषित किया तो गैर-मुस्लिम संस्थाएं भी अपनी-अपनी भूमि की स्वामी बन गईं। इस प्रकार की भूमि के स्वामी अब अपनी भूमि बेचने या गिरवी रखने में स्वतन्त्र थे।

भवन-निर्माण-

मुग़लकाल में एक लम्बे समय के पश्चात् देश में शान्ति स्थापित हुई। ऐसे वातावरण में जनता में अनेक कलाकार पैदा हुए। फलस्वरूप देश में सभी प्रकार की कलाओं तथा साहित्य का अद्वितीय विकास हुआ। बाबर को भवन बनवाने का बड़ा चाव था। उसके द्वारा बनवाए केवल दो भवन विद्यमान हैं-एक मस्जिद पानीपत में है और दूसरी मस्जिद रुहेलखण्ड के सम्भल नगर में है। हुमायूँ ने फतेहाबाद (जिला हिसार) में एक मस्जिद बनवाई। अकबर ने भी भवन-निर्माण कला को काफ़ी विकसित किया। उसके भवनों में फ़ारसी तथा भारतीय शैलियों का मिश्रण पाया जाता है। उसकी प्रमुख इमारतें ‘जहांगीर महल ‘हुमायूँ का मकबरा’ ‘फतेहपुर सीकरी में ‘जोधाबाई का महल’, ‘बुलन्द दरवाजा’ ‘दीवान-ए-खास’ प्रमुख हैं।

अकबर द्वारा बनाया गया ‘पंज-महल’ तथा ‘जामा मस्जिद’ भी देखने योग्य हैं। जहांगीर ने आगरा में एतमाद-उद्-दौला का मकबरा तथा सिकन्दरा में अकबर का मकबरा बनवाया। शाहजहां ने बहुत से भवनों का निर्माण करवाया। उसकी सबसे सुन्दर इमारत ‘ताजमहल’ है। उसने दिल्ली का लाल किला भी बनवाया। इसमें बने ‘दीवान-ए-खास’ तथा ‘दीवान-ए-आम’ विशेष रूप से देखने योग्य हैं। इसके अतिरिक्त उसने आगरा के दुर्ग में मस्जिद बनवाई। शाहजहां ने एक करोड़ रुपए की लागत से ‘तख्तए-ताऊस’ भी बनवाया। उसकी मृत्यु के बाद भवन निर्माण कला का विकास लगभग रुक-सा गया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद साम्राज्य में अराजकता फैल गई। फलस्वरूप बाद के मुग़ल सम्राटों को इस ओर विशेष ध्यान देने का अवसर ही न मिल सका।

चित्रकला-

मुग़ल सम्राटों ने चित्रकला में भी विशेष रुचि दिखाई। बाबर को हिरात में फारस की चित्रकला का ज्ञान हुआ। उसने उसे संरक्षण प्रदान किया। उसने अपनी आत्मकथा को चित्रित करवाया। हुमायूँ फारस के दो कलाकारों को अपने साथ भारत ले आया था। ये चित्रकार ‘मीर सैय्यद अली’ तथा ‘अब्दुल समद’ थे। इन चित्रकारों ने सुप्रसिद्ध फ़ारसी ग्रन्थ ‘दास्ताने-अमीर हमजा’ को चित्रित किया। अकबर के शासनकाल में चित्रकला ने भारतीय रूप धारण कर लिया। उसने फतेहपुर सीकरी के महलों की दीवारों पर बड़े सुन्दर चित्र अंकित करवाए। ‘सांवलदास,’ ‘ताराचन्द’ ‘जगन्नाथ’ आदि अकबर के समय के प्रसिद्ध चित्रकार थे। जहांगीर की चित्रकला में बड़ी रुचि थी। वह चित्र देख कर ही उसे बनाने वाले का नाम बता दिया करता था। उसके दरबार में अनेक चित्रकार थे जिनमें आगा रज़ा, अब्दुल हसन, मुहम्मद मुराद बहुत ही प्रसिद्ध थे। जहांगीर के बाद केवल राजकुमार दारा शिकोह के प्रयत्नों से ही चित्रकला का कुछ विकास हुआ। औरंगज़ेब तो चित्रकला को प्रोत्साहन देना कुरान के विरुद्ध समझता था। उसने अपने दरबार से सभी चित्रकारों को निकाल दिया।

संगीत कला-

औरंगज़ेब को छोड़ कर सभी मुग़ल सम्राटों ने संगीत कला को भी प्रोत्साहन दिया। बाबर ने संगीत से सम्बन्धित एक पुस्तक की रचना भी की। हुमायूँ सोमवार तथा बुधवार को बड़े प्रेम से संगीत सुना करता था। उसने अपने दरबार में अनेक संगीतकारों को आश्रय दे रखा था। अकबर को संगीत-कला से विशेष प्रेम था। वह स्वयं भी उच्च कोटि का गायक था। अबुल फज़ल के अनुसार उसके दरबार में गायकों की संख्या बहुत अधिक थी। तानसेन, बाबा रामदास, बैजू बावरा तथा सूरदास उसके समय के प्रसिद्ध संगीतकार थे। जहांगीर भी संगीतकारों का बड़ा आदर करता था। छः प्रसिद्ध गायक उसके दरबारी थे। शाहजहां प्रतिदिन शाम के समय संगीत सुना करता था। वह स्वयं भी एक अच्छा गायक था। उसकी आवाज़ बड़ी सुरीली थी। उसके दरबारी संगीतकारों में रामदास प्रमुख था। औरंगजेब को भी आरम्भ में गायन विद्या से काफ़ी लगाव था। परन्तु बाद में उसने अपने गायकों को दरबार से निकाल दिया । फलस्वरूप संगीत कला पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

मुग़ल काल में फ़ारसी साहित्य ने बहुत उन्नति की। अकबर के समय का फ़ारसी का सबसे बड़ा लेखक अबुल फज़ल था।’आइन-ए-अकबरी’ और ‘अकबरनामा’ उसकी प्रमुख रचनाएं है। अकबर के समय में रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का अनुवाद फ़ारसी भाषा में किया गया। बाबर की आत्मकथा ‘तुजके बाबरी’ का अनुवाद भी तुर्की से फ़ारसी भाषा में किया गया। अकबर के पश्चात् जहांगीर ने अपनी आत्मकथा लिखी। इस पुस्तक का नाम ‘तुज़के जहांगीरी’ है। शाहजहां के समय में फ़ारसी में कई ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना हुई। इनमें से लाहौरी का ‘बादशाहनामा’ प्रमुख है। मुग़ल राजकुमारियों ने भी फ़ारसी साहित्य की उन्नति में काफ़ी योगदान दिया। बाबर की पुत्री गुलबदन बेगम ने “हुमायूँ नामा” लिखा था।

नूरजहां, मुमताज़ महल, जहांआरा, जेबूनिस्सा ने भी अनेक कविताओं की रचना की। मुग़लकाल में हिन्दी साहित्य का काफ़ी विकास हुआ। मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘पद्मावत’ की रचना इसी काल में की। इस समय के कवियों में सूरदास और तुलसीदास का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सूरदास ने ‘सूरसागर’ तथा तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ नामक महान् ग्रन्थों की रचना की। इनके अतिरिक्त केशव दास, सुन्दर, भूषण आदि कवियों ने साहित्य की खूब सेवा की। . सच तो यह है कि मुगलकाल अपनी ललित कलाओं के कारण इतिहास में विशेष स्थान रखता है। आज भी ताज तथा तानसेन मुगलकाल की चरम सीमा के प्रतीक माने जाते हैं। फतेहपुर सीकरी के भवन, लाल किला, दिल्ली की जामा मस्जिद इस बात के प्रमाण हैं कि मुग़लकाल में ललित कलाओं का खूब विकास हुआ। उस समय की कला-कृतियां आज भी देश भर की शोभा हैं।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
मनसबदारी प्रथा किसने आरंभ की ?
उत्तर-
अकबर ने।

प्रश्न 2.
मुग़लकालीन कानूनगो किस प्रशासनिक स्तर का अधिकारी था ?
उत्तर-
परगने के स्तर का ।

प्रश्न 3.
बटाई से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बटाई मुग़लकाल की एक लगान प्रणाली थी ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 4.
अकबर के समय के दो प्रसिद्ध कवियों के नाम बताओ।
उत्तर-
फैजी तथा वज़ीरी।

प्रश्न 5.
मुगलकालीन जीवन का एक कार्य बताओ ।
उत्तर-
भूमिकर निर्धारित करना ।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) अकबर की मनसबदारी प्रथा का मुख्य उद्देश्य ……………. संगठन में सुधार करना था।
(ii) अकबरकालीन मुग़ल स्थापत्य कला मुख्य रूप से भारतीय तथा …………… कलाओं का समन्वय थी।
(iii) औरंगज़ेब ने ……….. में बादशाही मस्जिद का निर्माण करवाया।
(iv) सूरसागर ………… की रचना है।
(v) ………. दरवाज़ा संसार का सबसे बड़ा द्वार है।
उत्तर-
(i) सैनिक
(ii) ईरानी
(iii) लाहौर
(iv) सूरदास
(v) बुलंद ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

3. सही/ग़लत कथन

(i) जहांगीर ने चित्रकला का संरक्षण किया। — (✓)
(ii) हुमायूं तथा अकबर को चित्रकला से प्रेम नहीं था। — (✗)
(iii) अकबर ने गैर-मुसलमानों से जज़िया तथा तीर्थ यात्रा कर लेने बंद कर दिए। — (✓)
(iv) अकबर के समय भूमि की माप के लिए शहनशाही गज़ का प्रयोग किया जाता था। — (✗)
(v) औरंगज़ेब के समय मुग़ल प्रांतों की संख्या 22 थी। — (✓)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
मुगलकाल में पटवारी रिकार्ड रखता था:
(A) जनसंख्या से संबंधित
(B) गांव से संबंधित
(C) बड़े शहरों से संबंधित
(D) राज दरबार से संबंधित ।
उत्तर-
(B) गांव से संबंधित

प्रश्न (ii)
‘माहज़र’ नामक घोषणा-पत्र जारी हुआ-
(A) अकबर के समय में
(B) बाबर के समय में
(C) जहांगीर के समय में
(D) शाहजहां के समय में ।
उत्तर-
(A) अकबर के समय में

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न (iii)
जब्ती-व्यवस्था क्या थी ?
(A) मुगलकाल की व्यवस्था
(B) मुगलकाल की शिक्षा प्रणाली
(C) अमीरों से ज़बरदस्ती धन छीनने की व्यवस्था
(D) मुगलकाल के लगान उगाहने की एक व्यवस्था।
उत्तर-
(D) मुगलकाल के लगान उगाहने की एक व्यवस्था।

प्रश्न (iv)
मुगलकाल में प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करता था-
(A) मीर बख्शी
(B) मुख्य सदर
(C) वकील या वज़ीर
(D) मुख्य काजी ।
उत्तर-
(C) वकील या वज़ीर

प्रश्न (v)
‘मनसब’ का शाब्दिक अर्थ है-
(A) पदवी
(B) सवार
(C) जात
(D) उमरा ।
उत्तर-
(A) पदवी

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
‘नायब-ए-अमीर अलमोमिनीन’ का क्या अर्थ था ?
उत्तर-
‘नायब-ए-अमीर अलमोमिनीन’ का अर्थ था : खलीफा का नायब। ।

प्रश्न 2.
‘माहज़र’ पर कब हस्ताक्षर किये गए तथा इसमें अकबर को किस रूप में पेश किया गया ?
उत्तर-
‘माहज़र’ पर 1579 ई० में हस्ताक्षर किये गये। इसमें अकबर को इमाम-ए-आदिल अर्थात् न्यायशील नेता के रूप में पेश किया गया।

प्रश्न 3.
अकबर ने गैर-मुसलमानों से लिए जाने वाले कौन-से दो कर समाप्त किए ।
उत्तर-
अकबर ने गैर-मुसलमानों से तीर्थ यात्रा कर तथा जजिया कर लेने बन्द कर दिए।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 4.
सम्राट्-सामन्त सम्बन्धों में कौन-सी दो बातें आवश्यक थीं ?
उत्तर-
सामन्त दूसरी शक्तियों के साथ राजनीतिक सन्धि नहीं कर सकते थे। उन्हें मुग़ल सम्राट को वार्षिक नजराना भी देना पड़ता था।

प्रश्न 5.
अकबर की मनसबदारी प्रथा का मुख्य उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
अकबर की मनसबदारी प्रथा का मुख्य उद्देश्य सैनिक संगठन में सुधार करना था।

प्रश्न 6.
अकबर ने कौन-से दो प्रकार के मनसब बना दिए ?
उत्तर-
अकबर ने ज़ात और सवार नाम के दो अलग ‘मनसब’ बना दिए।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 7.
पाँच सौ से अधिक मनसब लेने वालों की गिनती किन में होती थी ? अकबर के दो प्रसिद्ध मनसबदारों के नाम बताएं।
उत्तर-
पाँच सौ से अधिक मनसब लेने वालों की गिनती शासक वर्ग में होती थी। अकबर के दो प्रसिद्ध मनसबदार अबुल फज़ल तथा बीरबल थे।

प्रश्न 8.
वेतन में जागीरदार क्या अधिकार प्राप्त करता था ?
उत्तर-
जागीरदार को वेतन के बराबर लगान वसूल करने का अधिकार प्राप्त होता था।

प्रश्न 9.
जागीर किसे कहा जाता था ?
उत्तर-
जागीर से अभिप्राय उस भूमि से था जिससे मनसबदार को लगान वसूल करने का अधिकार मिलता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 10.
खालिसा किसे कहा जाता था ?
उत्तर-
मुग़ल काल में उस सारी भूमि को खालिसा कहते थे जिससे किसी मनसबदार को लगान वसूल करने का अधिकार मिलता था।

प्रश्न 11.
जागीरों के स्थानान्तरण का किसानों पर क्या प्रभाव पड़ता था ?
उत्तर-
इसका प्रभाव यह पड़ता था कि जागीरदारों को अधिक से अधिक लगान वसूल करने की चिन्ता रहती थी और वे जागीर की भूमि की उन्नति की ओर अधिक ध्यान नहीं देते थे।

प्रश्न 12.
औरंगज़ेब के समय तक साम्राज्य की कुल आय का कौन-सा भाग जागीरों में दिया जा चुका था ?
उत्तर-
औरंगज़ेब के समय तक साम्राज्य का 80 प्रतिशत भाग जागीरों में दिया जा चुका था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 13.
अकबर के प्रारम्भिक वर्षों में केन्द्रीय सरकार में प्रमुख पद कौन सा था और यह किसको दिया गया ?
उत्तर-
अकबर के प्रारम्भिक वर्षों में केन्द्रीय सरकार में प्रमुख पद ‘वकील’ था। यह पद तब बैरम खां को दिया गया था।

प्रश्न 14.
दीवान के दो मुख्य कार्य बताएं।
उत्तर-
दीवान का कार्य भूमिकर निर्धारित करना और भूमि कर उगाहने सम्बन्धी नियम बनाना था। वह आय का बजट भी तैयार करता था।

प्रश्न 15.
मनसबदारों तथा शाही कारखानों से सम्बन्धित दो मन्त्रियों के नाम बताएं।
उत्तर-
मनसबदारों से सम्बन्धित मन्त्री मीर बख्शी तथा शाही कारखानों से सम्बन्धित मन्त्री मीर सामां था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 16.
सदर के दो मुख्य कार्य क्या थे ?
उत्तर-
सदर का काम शैक्षणिक तथा धार्मिक संस्थाओं की देखभाल करना था। वह योग्य व्यक्तियों तथा संस्थाओं को नकद धन या लगान मुक्त भूमि देता था।

प्रश्न 17.
कौन-से तीन मन्त्रियों का कार्य क्षेत्र प्रान्तों तक फैला हुआ था ?
उत्तर-
दीवान, भीर बख्शी तथा मीर सामां का कार्य क्षेत्र प्रान्तों तक फैला हुआ था।

प्रश्न 18.
अकबर तथा औरंगजेब के समय प्रान्तों की गिनती क्या थी ?
उत्तर-
अकबर के समय प्रान्तों की संख्या 15 और औरंगजेब के समय में 22 थी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 19.
प्रान्त से अगली प्रशासकीय इकाई कौन-सी थी और यह कौन-से अधिकारी के अधीन थी ?
उत्तर-
प्रान्त से अगली इकाई ‘सरकार’ थी। ‘सरकार’ का प्रबन्ध फौजदार के अधीन था।

प्रश्न 20.
राजस्व के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक इकाई कौन-सी थी और इसका मुख्य अफसर कौन था ?
उत्तर-
राजस्व की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई परगना थी। परगना आमिल के अधीन था।

प्रश्न 21.
कानूनगो किस स्तर का अधिकारी था और इसका मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
कानूनगो परगने का अधिकारी था जो आमिल के स्तर से छोटा होता था। वह भूमि तथा लगान सम्बन्धी रिकार्ड रखता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 22.
चौधरी (मुग़लकालीन) किन के बीच सम्पर्क सूत्र था ?
उत्तर-
चौधरी परगने एवं तप्पे (एक प्रशासनिक विभाग) के कर्मचारियों और कृषकों के बीच सम्पर्क सूत्र था।

प्रश्न 23.
पटवारी किससे सम्बन्धित रिकार्ड रखता था ?
उत्तर-
पटवारी गांव से सम्बन्धित रिकार्ड रखता था।

प्रश्न 24
कस्बे में न्याय प्रबन्ध के दो महत्त्वपूर्ण अधिकारियों के नाम तथा कार्य बताएं।
उत्तर-
कस्बों में मुफ्ती कानून की व्याख्या करता था तथा काजी मुकद्दमों का निर्णय देता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 25.
प्रान्तों और केन्द्र में न्याय देने वाले चार अधिकारियों के नाम बताएं।
उत्तर-
प्रान्तों में सूबेदार तथा दीवान को न्याय सम्बन्धी कार्य करने का अधिकार था। सदर तथा अन्य मन्त्री केन्द्र में न्याय देते थे।

प्रश्न 26.
पंचायतें कौन-से स्तरों पर झगड़ों का निपटारा करती थीं ?
उत्तर-
पंचायतें गांवों तथा कस्बों में झगड़ों का निपटारा करती थीं।

प्रश्न 27.
अकबर के समय कौन-से गज़ का प्रयोग किया जाता था और यह किस चीज़ का बना हुआ था ?
उत्तर-
अकबर के समय इलाही गज़ का प्रयोग किया जाता था। यह बांस का बना होता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 28.
अकबर के समय उत्पादन का कौन-सा भाग लगान के रूप में निर्धारित किया गया तथा 17वीं सदी में यह दर कितनी हो गई ?
उत्तर-
अकबर के समय उत्पादन का 1/3भाग लगान के रूप में निर्धारित किया गया। 17वीं सदी में यह दर 1/2 भाग हो गई।

प्रश्न 29.
बटाई से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बटाई एक लगान प्रणाली थी। इसके अनुसार उपज का एक निश्चित भाग लगान के रूप में लिया जाता था।

प्रश्न 30.
कनकूत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कनकूत अकबर कालीन लगान की एक प्रणाली थी जिसके अनुसार खड़ी फसल से उपज एवं लगान का अनुमान लगा लिया जाता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 31.
नस्क से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नस्क लगान की वह व्यवस्था थी जिसके द्वारा पहले वर्षों के वसूल किए गए लगान के आधार पर सारे गांव या कृषक पर लगान निर्धारित किया जाता था।

प्रश्न 32.
अकबर के समय लगान निर्धारित करने की सबसे महत्त्वपूर्ण विधि क्या थी तथा यह किस पर आधारित थी ?
उत्तर-
अकबर के समय लगान निर्धारित करने की सबसे महत्त्वपूर्ण विधि ज़ब्ती व्यवस्था थी। इसके अन्तर्गत कृषि योग्य भूमि पर लगान निश्चित किया जाता था।

प्रश्न 33.
मुग़ल सरकार निर्माण के कौन-से चार प्रकार के कार्यों पर धन खर्च करती थी ?
उत्तर-
मुग़ल सरकार सड़कें, पुल, अस्पताल, सरायें आदि के निर्माण पर धन खर्च करती थी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 34.
धर्मार्थ में दान कौन से-दो रूपों में दिया जाता था ? …
उत्तर-
धमार्थ में दान नकद तथा लगान मुक्त भूमि के रूप में दिया जाता था।

प्रश्न 35.
मुग़ल साम्राज्य का सरंक्षण पाने वाले किन्हीं चार धर्मों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुग़ल साम्राज्य का संरक्षण पाने वाले चार धर्म इस्लाम, सिक्ख, पारसी तथा वैष्णव एवं शैव मत थे।

प्रश्न 36.
1690 के बाद धर्मार्थ में भूमि लेने वाले का उस पर किस प्रकार का अधिकार हो गया ?
उत्तर-
वह इस भूमि का स्वामी बन गया। वह इसे बेच सकता था, गिरवी रख सकता था तथा दान में दे सकता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 37.
अकबर ने कौन-सा नया शहर बसाया तथा इसकी भवन निर्माण कला का एक शानदार नमूना बताएं ?
उत्तर-
अकबर ने फतेहपुर सीकरी नामक शहर बसाया। यहां का एक प्रसिद्ध भवन बुलन्द दरवाज़ा है।

प्रश्न 38.
आगरा का लाल किला किसने बनवाया तथा किस बादशाह ने इसका विस्तार किया ?
उत्तर-
आगरा का लाल किला अकबर ने बनवाया तथा शाहजहां ने इसका विस्तार किया।

प्रश्न 39.
हुमायूँ, अकबर, जहांगीर तथा शाहजहां के मकबरे किन स्थानों में हैं ?
उत्तर-
हुमायूँ, अकबर, जहांगीर तथा शाहजहां के मकबरे क्रमशः दिल्ली, सिकन्दरा, लाहौर तथा आगरा में हैं।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 40.
औरंगजेब ने कौन-सी दो मस्जिदों का निर्माण करवाया ?
उत्तर-
औरंगज़ेब ने दिल्ली के लाल किले में ‘मोती मस्ज़िद’ तथा लाहौर में ‘बादशाही मस्जिद’ का निर्माण करवाया।

प्रश्न 41.
शाहजहां द्वारा बनवाई गई दो सुन्दर इमारतों के नाम बताएं तथा ये कौन-से नगरों में हैं ?
उत्तर-
शाहजहां ने आगरा में ताजमहल तथा दिल्ली में जामा मस्जिद नामक सुन्दर भवन बनवाये।

प्रश्न 42.
कौन-से चार मुग़ल बादशाहों ने चित्रकला का संरक्षण किया ?
उत्तर-
हुमायूँ, अकबर, जहांगीर तथा शाहजहां ने चित्रकला का संरक्षण किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 43.
मुग़ल काल के चार प्रसिद्ध चित्रकारों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुग़ल काल के चार प्रसिद्ध चित्रकार जसवन्त, बसावन, उस्ताद मंसूर तथा अब्दुल समद थे।

प्रश्न 44.
मुग़ल चित्रकला का प्रभाव कौन-सी दो शैलियों पर देखा जा सकता है ?
उत्तर-
मुग़ल चित्रकला का प्रभाव राजपूत शैली और पंजाब की पहाड़ी शैली में देखा जा सकता है।

प्रश्न 45.
कौन-से तीन मुग़ल बादशाहों को संगीत सुनने का शौक था और तानसेन किसके दरबार में था ?
उत्तर-
अकबर, जहांगीर तथा शाहजहां को संगीत सुनने का चाव था। तानसेन अकबर के दरबार में था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 46.
अकबर के समय फ़ारसी के तीन प्रसिद्ध कवियों के नाम बताएं।
उत्तर-
अकबरकालीन फ़ारसी के तीन कवि फैज़ी, उर्फी तथा वज़ीरी थे।

प्रश्न 47.
अकबर के समय के दो इतिहासकारों के नाम तथा उनकी रचनाएं बताएं।
उत्तर-
अकबरकालीन दो इतिहासकार थे-अबुल फजल तथा अब्दुल कादिर। अबुल फज़ल ने अकबर नामा और आइन-ए-अकबरी तथा अब्दुल कादिर ने मुन्तखब-उत्-तवारीख नामक ग्रन्थ लिखे।

प्रश्न 48.
अकबर ने संस्कृत की कौन-सी चार कृतियों का फ़ारसी में अनुवाद करवाया ?
उत्तर-
अकबर ने संस्कृत की चार कृतियों राजतरंगिणी, पंचतन्त्र, महाभारत तथा रामायण का फ़ारसी में अनुवाद करवाया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 49.
मुगलकाल में किन आठ प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य लिखा गया ?
उत्तर-
मुगलकाल में बंगाली, उड़िया, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, अवधी, मराठी, ब्रजभाषा आदि आठ प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य लिखा गया।

प्रश्न 50.
मुगल राज्य व्यवस्था तथा प्रशासन की जानकारी के स्रोतों के चार प्रकारों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुग़ल राज्य व्यवस्था तथा प्रशासन की जानकारी के चार प्रकार के स्रोत हैं-अबुल फज़ल की ‘आइन-एअकबरी’, तत्कालीन कानूनी दस्तावेज़, बर्नियर का विवरण तथा प्रादेशिक साहित्य।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
‘माहज़र’ से क्या अभिप्राय था और इसका क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
माहज़र एक महत्त्वपूर्ण घोषणा-पत्र था जो अकबर के समय में जारी हुआ। इस घोषणा-पत्र द्वारा अकबर को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त हुए। इस घोषणा-पत्र पर 1579 ई० में उसके राज्य के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों और विद्वानों ने हस्ताक्षर किए। इसके अनुसार अकबर को इमाम-ए-आदिल अर्थात् न्यायशील नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इस घोषणा के अनुसार अकबर को अब यह अधिकार दिया गया कि वह कानून के व्याख्याताओं द्वारा दी गई विभिन्न व्याख्याओं में से अपनी इच्छा के अनुसार किसी एक को चुन सके और अपनी प्रजा को फतवा दे सके। वह कुरान के अनुकूल लोगों की भलाई के लिए स्वयं आज्ञा जारी कर सकता था। निःसन्देह इस घोषणा ने अकबर के हाथ मज़बूत कर दिये। अब वह मुसलमानों के विभिन्न सम्प्रदायों के साथ-साथ अपनी गैर-मुस्लिम प्रजा से एक-सा व्यवहार कर सकता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 2.
अकबर के अपने अधीन राजाओं के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध थे ?
उत्तर-
अकबर का अपने अधीन राजाओं अर्थात् सामन्तों पर काफ़ी नियन्त्रण था। मुग़ल साम्राज्य के स्थानीय शासक या सामन्त दूसरी शक्तियों से राजनीतिक सन्धि नहीं कर सकते थे। उन्हें राजसिंहासन पर बैठने का अधिकार केवल सम्राट् देता था। सामन्त के लिए आवश्यक था कि वह सम्राट् को वार्षिक खिराज दे। उसे सम्राट की आज्ञा पर आवश्यकता के समय अभियानों के लिए सैनिक टुकड़ियां भेजनी पड़ती थीं। अकबर के राज्य में सामन्तों की संख्या सौ से भी अधिक थी। इनमें अधिकांश सामन्त गैर-मुस्लिम थे। सामन्तों को यह स्वतन्त्रता थी कि वे मुग़ल साम्राज्य में मनसबदार बन सकें। यह पद ‘अधीन शासक’ के पद के अतिरिक्त होता था। इस प्रकार सामन्त और मनसबदार के रूप में अधीन शासकों का मुग़ल साम्राज्य से दोहरा सम्बन्ध स्थापित हो जाता था। इस प्रकार के सम्राट-सामन्त सम्बन्धों से मुगल साम्राज्य को काफ़ी लाभ पहुंचा।

प्रश्न 3.
‘जात और सवार’ मनसबदार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘जात और सवार ‘ मनसब का आरम्भ अकबर ने किया था। अकबर को यह पता चला था कि मनसबदार निश्चित संख्या में घुड़सवार नहीं रखते। इसे रोकने के लिए ही उसने दो प्रकार के मनसब बना दिये : जात और सवार। जात के अनुसार मनसबदार का व्यक्तिगत वेतन निश्चित किया जाता था । परन्तु सवार मनसब से उसके घुड़सवारों की गिनती एवं उनके वेतन का पता चलता था। जो मनसबदार कोई घुड़सवार नहीं रखते थे उन्हें केवल जात मनसब ही दिया जाता था। इस प्रकार सिविल और सैनिक अफ़सरों में अन्तर काफ़ी सीमा तक कम हो गया। किसी व्यक्ति को ‘सिविल’ से सैनिक और सैनिक से सिविल सेवाओं में भी लिया जा सकता था। जिन मनसबदारों के पास दोनों पद थे, उन्हें तीन वर्गों में बांटा गया था। पहले वर्ग के सवार तथा जात मनसब समान होते थे : दूसरे वर्ग में वे मनसबदार थे जिनका सवार पब उनके जात मनसब के आधे से अधिक था। जिनका सवार मनसब जात मनसब के आधे से भी कम था, उनकी गणना तीसरे दर्जे के मनसबदारों में होती थी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 4.
जागीरदारी प्रणाली में संकट से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जागीरदारी प्रणाली मुगलकालीन राज्य व्यवस्था का मुख्य अंग थी। परन्तु अकबर के उत्तराधिकारियों के समय में जागीरों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई। कहते हैं कि औरंगजेब के समय तक मुग़ल साम्राज्य का 80 प्रतिशत भाग जागीरों में बंटा हुआ था। अतः इस प्रथा में एक संकट सा उत्पन्न हो गया। अब मनसबदारों को जागीर दिए जाने के अनुमति पत्र मिल जाते थे, परन्तु उन्हें जागीर नहीं मिल पाती थी। यदि उन्हें जागीर मिल भी जाती तो उसकी आय उन्हें प्राप्त होने वाले वेतन से बहुत ही कम होती थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह बात मुग़ल साम्राज्य के पतन का कारण बनी।

प्रश्न 5.
मुग़ल साम्राज्य की केन्द्रीय सरकार में कौन-से मन्त्री थे और उनके मुख्य कार्य क्या थे ?
उत्तर-
केन्द्रीय सरकार में वकील के अतिरिक्त चार अन्य मुख्य मन्त्री थे। ये थे- दीवान, मीर सामां, मीर बख्शी तथा सदर। वकील का पद सभी मन्त्रियों में उच्च माना जाता था। परन्तु वह किसी भी विभाग का कार्य नहीं करता था। दीवान वित्त विभाग का मुखिया होता था। वह लगान की दर तथा लगान वसूल करने से सम्बन्धित नियम निर्धारित करता था। राज्य की वार्षिक आय-व्यय का हिसाब-किताब भी उसी के पास होता था। सैनिक विभागों के मुखिया को मीर बख्शी कहते थे। वह .सभी सैनिक कार्यों की देख-रेख करता था। वह अपने पास मनसबदारों की नियुक्ति तथा पदोन्नति के रिकार्ड रखता था। मीर सामां सरकारी कारखानों की देखभाल करता था और शाही महल की प्रतिदिन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। न्याय एवं धर्मार्थ विभाग के मुखिया को सदर कहते थे। वह सूफियों तथा अन्य धार्मिक पुरुषों को नकदी अथवा कर मुक्त भूमि के रूप में आवश्यक सहायता देता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 6.
मुग़लों के स्थानीय प्रशासन के मुख्य अधिकारी कौन-से थे और उनके कार्य क्या थे ?
उत्तर-
प्रत्येक प्रान्त का मुखिया एक सूबेदार होता था। प्रान्त सरकारों तथा परगनों में विभक्त था। प्रत्येक सरकार में एक फ़ौजदार था। उसकी सहायता थानेदार करते थे। फ़ौजदारों तथा थानेदारों का काम शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखना था। राजस्व की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई परगना थी जिसका मुख्य अधिकारी आमिल था। परगने में कानूनगो का पद भी बड़ा महत्त्वपूर्ण था। वह भूमि और लगान से सम्बन्धित सभी रिकार्ड रखता था। किसी-किसी प्रान्त में परगना तप्पों में बंटा होता था, जिनमें कई गाँव होते थे। प्रत्येक परगना या तप्पे में एक चौधरी होता था। वह सरकारी कर्मचारियों और कृषकों के बीच सम्पर्क सूत्र था। प्रत्येक गांव में कम-से-कम एक मुकद्दम या गांव का मुखिया होता था। उसका काम लगान की वसूली में चौधरी और अन्य कर्मचारियों की सहायता करना था। गांव से सम्बन्धित भूमि के रिकार्ड को रखने वाला कर्मचारी पटवारी कहलाता था।

प्रश्न 7.
जब्ती-व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
ज़ब्ती-व्यवस्था लगान उगाहने की एक व्यवस्था थी। अकबर ने यह व्यवस्था कई अनुभवों के बाद लागू की। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सारी कृषि योग्य भूमि को पहले नापा गया। इस नाप के लिए एक निश्चित लम्बाई का माप या गज़ प्रयोग में लाया गया। उसे इलाही गज़ कहते थे। नाप के लिए रस्सी के स्थान पर बांस के टुकड़ों का प्रयोग किया गया क्योंकि रस्सी सूखने या गीली होने पर कम या अधिक नाप देती थी। पैमाइश के बाद भूमि को तीन भागों में बांट कर उनकी प्रति बीघा औसत उपज निकाली गई। इस औसत उत्पादन का तीसरा भाग सरकार का भाग अथवा लगान निर्धारित किया गया । इस के पश्चात् दस वर्षों की कीमतों का मध्यमान निकाल कर लगान की मात्रा नकद निश्चित की गई। अतः प्रत्येक फसल का प्रति बीघा लगान दामों में भी निश्चित किया गया। यह व्यवस्था साम्राज्य के अधिकांश भाग में लागू थी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 8.
मुग़ल शासक किस प्रकार के प्रजा हितार्थ कार्य करते थे और किस प्रकार का संरक्षण प्रदान करते थे ?
उत्तर-
मुग़ल सम्राट् प्रजा हितकारी थे और वे सरकारी आय का कुछ भाग जनकल्याण तथा धमार्थ कार्यों पर व्यय करते थे। यात्रियों की सुविधा के लिए सरकार पुल और सड़के बनवाती थी। लोगों के लिए अस्पताल और सराएं भी बनवाई जाती थीं। इनका प्रयोग सरकारी कार्यों के लिए भी होता था। मुगल शासक मस्जिदों, मदरसों, सूफ़ी सन्तों तथा धार्मिक पुरुषों को संरक्षण देते थे। लोक कल्याण पर व्यय होने वाली राशि का अधिकतर भाग इन्हीं पर खर्च किया जाता था। इन्हें व्यय के लिए सरकार की ओर से कर मुक्त भूमि दे दी जाती थी। कुछ गैर-मुस्लिम संस्थाओं को भी यह सहायता मिलती थी। इनमें वैष्णव, जोगी, सिक्ख तथा पारसी संस्थाएं शामिल थीं। औरंगज़ेब ने कर मुक्त भूमि प्राप्त लोगों को भूमि का स्वामी घोषित कर दिया था। इस प्रकार का भूमि स्वामी अब अपनी भूमि को बेचने या गिरवी रखने में स्वतन्त्र थे।

प्रश्न 9.
मुगलों की भवन निर्माण कला (Architecture) में क्या देन है ?
उत्तर-
मुग़ल काल में वास्तुकला ने बड़ी उन्नति की। मुग़ल शासकों ने अनेक भव्य महलों, दुर्गों तथा मस्जिदों का निमार्ण करवाया और बहते हुए पानी से सुसज्जित अनेक बाग लगवाये। भवन-निर्माण में सबसे पहले अकबर ने रुचि दिखाई। उसने फतेहपुर सीकरी में बुलन्द दरवाज़ा और जामा मस्जिद का निर्माण करवाया। उसने आगरे का किला तथा लाहौर में भी एक दुर्ग बनवाया। अकबर के बाद शाहजहाँ ने भवन-निर्माण में रुचि ली। उसका सबसे सुन्दर भवन आगरा का ‘ताजमहल’ है। उसने दिल्ली में लाल किला और जामा मस्जिद का निर्माण भी करवाया । उसकी एक अन्य प्रसिद्ध कृति एक करोड़ की लागत से बना ‘तख्ते ताऊस’ है। उसके बाद मुग़ल काल में भवन निर्माण कला का विकास रुक गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 10.
मुगलकाल में चित्रकला के क्षेत्र में क्या उन्नति हुई ?
उत्तर-
मुग़ल काल में चित्रकला के क्षेत्र में असाधारण उन्नति हुई। अब्दुल समद, सैय्यद अली, सांवलदास, जगन्नाथ, ताराचन्द आदि चित्रकारों ने अपनी कलाकृतियों से चित्रकला का रूप निखारा। ये सभी चित्रकार अकबर के समय के प्रसिद्ध कलाकार थे। अकबर के बाद जहांगीर ने भी कला के विकास में रुचि ली। चित्रकला में उसकी इतनी रुचि थी कि वह चित्र को देखकर उसे बनाने वाले चित्रकार का नाम बता दिया करता था। उसके दरबार में भी आगा रजा, अब्दुल हसन, मुहम्मद नादिर, मुहम्मद मुराद आदि अनेक चित्रकार थे। जहांगीर की मृत्यु के बाद केवल राजकुमार दारा शिकोह ने ही चित्रकला के विकास में थोड़ा बहुत योगदान दिया। उसके प्रयत्नों से फकीर-उल्ला, मीर हाशिम आदि चित्रकार शाहजहां के दरबार की शोभा बने। औरंगजेब के काल में चित्रकला का विकास काफ़ी सीमा तक रुक गया।

प्रश्न 11.
मुगलकाल में साहित्यिक विकास का वर्णन करो।
उत्तर-
मुग़ल काल में साहित्य के क्षेत्र में खूब विकास हुआ। बाबर और हुमायूं साहित्य प्रेमी सम्राट् थे। बाबर स्वयं अरबी तथा फ़ारसी का बहुत बड़ा विद्वान् था। उसने ‘तुजके बाबरी’ नामक ग्रन्थ की रचना की जिसे तुर्की साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त है। हुमायूं ने इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में अनुवाद करवाया । उसके काल में लिखी गई पुस्तकों में ‘हुमायूंनामा’ प्रमुख है। सम्राट अकबर को भी विद्या से बड़ा लगाव था। उसके समय में लिखे गए ग्रन्थों में ‘अकबरनामा’ ‘तबकाते अकबरी’ ‘सूर सागर’ तथा ‘रामचरितमानस’ प्रमुख हैं। जायसी की ‘पद्मावत’ तथा केशव की रामचन्द्रिका की रचना भी इसी काल में हुई थी। जहांगीर ने भी साहित्य को काफ़ी प्रोत्साहन दिया। अनेक विद्वान् उसके दरबार की शोभा थे। वह स्वयं भी एक उच्चकोटि का विद्वान् था। उसने आत्मकथा लिखी थी। शाहजहां के समय अब्दुल हमीद लाहौरी एक प्रसिद्ध विद्वान् था। उसने ‘बादशाह नामा’ ग्रन्थ की रचना की थी । औरंगजेब के काल में साहित्य का विकास रुक गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अकबर अथवा मुगलों के केन्द्रीय प्रशासन के ढांचे का वर्णन करो।
उत्तर-
अकबर एक उच्चकोटि का प्रशासक था। उसने केन्द्र को अधिक से अधिक मजबूत बनाने का प्रयास किया। उसके द्वारा प्रचलित शासन प्रणाली पूरे मुगलकाल तक जारी रही। संक्षेप में, अकबर अथवा मुगलों के केन्द्रीय प्रशासन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन निम्न प्रकार है :-

1 सम्राट-अकबर के काल में सम्राट् शासन का केन्द्र बिन्दु था। शासन की सारी शक्तियां उसी के हाथ में थीं। उसकी शक्तियों पर किसी प्रकार की कोई रोक नहीं थी। फिर भी सम्राट् अन्यायी तथा अत्याचारी तानाशाह के रूप में कार्य नहीं करता था। मुल्लाओं और मौलवियों का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं था। वह अपने आपको ईश्वर का प्रतिनिधि समझता था।

2 मन्त्रिपरिषद्-शासन कार्यों में सम्राट् की सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था थी। मन्त्रियों के अधिकार आज के मन्त्रियों की भान्ति अधिक विस्तृत नहीं थे। वे सम्राट की आज्ञा अनुसार काम करते थे। अतः उन्हें सम्राट का सचिव कहना अधिक उचित है। प्रधानमन्त्री का पद अन्य मन्त्रियों से ऊंचा था। सभी गम्भीर विषयों पर सम्राट् उससे सलाह लेता था। सभी मन्त्री सम्राट के प्रतिऊत्तरदायी थे। वे अपने पद पर उसी समय तक कार्य कर सकते थे जब तक सम्राट् उनसे प्रसन्न रहता था।

प्रमुख मन्त्रियों तथा उनके विभागों का वर्णन इस प्रकार है :-

  • वकील या वजीर-वह प्रधानमन्त्री के रूप में कार्य करता था। वह सम्राट को प्रत्येक विषय में परामर्श देता था।
  • दीवान-वह आय-व्यय का हिसाब-किताब रखता था। उसके हस्ताक्षर के बिना किसी रकम का भुगतान सम्भव नहीं था।
  • मीर बख्शी-उसका कार्य सैनिक तथा असैनिक कर्मचारियों को वेतन देना था।
  • मुख्य सदर-धर्म सम्बन्धी सभी कार्य सम्पन्न करना उसका मुख्य कर्त्तव्य था।
  • खान-ए-सामां-वह सम्राट और उसके परिवार के लिए आवश्यक सामान की व्यवस्था करता था।
  • मुख्य काजी-मुख्य काजी न्याय-सम्बन्धी कार्य सम्पन्न करता था। सम्राट के बाद वही सबसे बड़ा न्यायाधीश था।
  • अन्य मन्त्री-उपर्युक्त मन्त्रियों के अतिरिक्त जंगलों का प्रबन्ध, डाक कार्यों, तोपखाने के प्रबन्ध आदि के लिए अलग मन्त्री होते थे। तोपखाने के मुखिया को मीर आतिश के नाम से पुकारा जाता था।

प्रश्न 2
अकबर के शासनकाल में प्रान्तीय प्रशासन का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
मुग़ल साम्राज्य बहुत विस्तृत था। प्रशासनिक सुविधा को ध्यान में रखते हुए मुग़लों ने अपने राज्य को कई प्रान्तों में बांट रखा था। अकबर के समय में इन प्रान्तों की संख्या 15 थी। प्रान्तीय शासन का आधार केन्द्रीय शासन था। प्रान्त में एक सिपहसालार अथवा नाज़िम, एत दीवान, एक बख्शी, काजी, वाकयानवीस तथा कोतवाल आदि अधिकारी होते थे। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

1. सिपहसालार अथवा नाजिम-प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार होता था। उसकी नियुक्ति स्वयं सम्राट् द्वारा की जाती थी तथा अपने कार्यों के लिए वह केवल सम्राट के प्रति उत्तरदायी होता था। उसके कर्तव्य निम्न प्रकार थे-

  • वह अपने प्रान्त में न्याय तथा व्यवस्था का प्रबन्ध करता था।
  • यदि कोई जागीरदार अथवा अधिकारी उसकी आज्ञा की अवहेलना करता, तो वह उसे दण्ड दे सकता था।
  • वह अपने प्रान्त के लोगों के मुकद्दमों का निर्णय करता था।
  • अपने प्रान्त की प्रजा की सुविधा के लिए वह अस्पताल, सड़कें, बाग, कुएं आदि बनवाता था।
  • भूमि कर एकत्रित करने में वह दीवान-ए-आमिल तथा अन्य अधिकारियों की सहायता करता था।
  • सूबे के सैनिकों में अनुशासन बनाए रखना उसी का कर्तव्य था
  • वह इस बात का ध्यान रखता था कि प्रान्त का व्यय उसकी आय से बढ़ने न पाए।

2. प्रान्तीय दीवान-प्रान्त में सिपहसालार के बाद प्रान्तीय दीवान का नम्बर आता था। यह प्रान्त के वित्त विभाग का मुखिया था। उसकी नियुक्ति सम्राट केन्द्रीय दीवान की सिफ़ारिश से करता था। वह प्रान्त की आय-व्यय का हिसाब रखता था। माल विभाग के कर्मचारियों की निगरानी करना भी उसी का कर्त्तव्य था। वह परगनों से भूमिकर एकत्रित करता था। मास में दो बार वह केन्द्रीय दीवान को कृषकों की अवस्था के बारे में तथा एकत्रित किए हुए धन के बारे में सूचित करता था।

3. बख्शी-सम्राट् मीर बख्शी की सिफ़ारिश पर प्रान्तीय बख्शी को नियुक्ति करता था। वह प्रान्त में सेना की भर्ती करता था तथा घोड़ों को दागने का प्रबन्ध करता था। सैनिकों की पदोन्नति तथा तबदीली करवाना और उनमें अनुशासन बनाए रखना बख्शी का ही कार्य था। वह खज़ाना अधिकारी के रूप में वेतन देने का भी कार्य करता था।

4. सदर तथा काजी-प्रत्येक प्रान्त में एक सदर होता था। उसकी नियुक्ति सम्राट् मुख्य सदर की सिफ़ारिश पर करता था। वह प्रान्त के महात्माओं तथा पीर-फकीरों की सूचियां तैयार करता था तथा उन्हें अनुदान एवं छात्र-वृत्तियां दिलवाता था। धमार्थ दी गई भूमि का प्रबंध करना और उससे सम्बन्धित झगड़ों का निपटारा करना सदर का कार्य होता था। प्रान्तीय काजी प्रान्त का न्यायाधीश होता था। वह फौजदारी मुकद्दमों का निर्णय करता था।

5. वाकयानवीस-वाकयानवीस प्रान्त के गुप्तचर विभाग का मुखिया होता था। गुप्तचरों के माध्यम से वह सम्राट को प्रान्त के अधिकारियों के कार्यों के बारे में गुप्त सूचनाएं भेजता था।

6. कोतवाल-प्रान्त के बड़े-बड़े नगरों में कोतवाल की नियुक्ति की जाती थी। वह नगर में शान्ति तथा व्यवस्था का प्रबन्ध करता था। वह वेश्याओं, शराब तथा मादक वस्तुओं को बेचने वालों पर कड़ी निगरानी रखता था। वह विदेशियों की देख-रेख भी करता था। कब्रिस्तान तथा श्मशान की भूमि का ठीक प्रबन्ध करना भी उसी का कर्तव्य था।

सच तो यह है कि मुग़लों का प्रान्तीय शासन-प्रबन्ध काफ़ी कुशल था। इसमें वे सभी विशेषताएं विद्यमान् थीं जिनके कारण पूरे प्रान्त में सुव्यवस्था बनी रहे और प्रान्त केन्द्र के नियन्त्रण में रहें।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 3.
मनसबदारी प्रथा से क्या अभिप्राय है ? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
‘मनसब’ अरबी भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ ‘पदवी’ अथवा ‘स्थान निश्चित करना’ है, परन्तु मुगलकाल में मनसबदार से अभिप्राय उस सैनिक अथवा नागरिक कर्मचारी से लिया जाता था जो प्रशासन चलाने में सम्राट की सहायता करता था। इर्विन के अनुसार ‘मनसबदार’ मुग़ल अधिकारी का पद होता था। यह पद उस अधिकारी का राज्य में दर्जा, वेतन तथा उसका शाही दरबार में स्थान निर्धारित करता था। प्रत्येक मनसबदार को अपने मनसब के अनुसार घुड़सवार, हाथी, ऊंट, खच्चर, छकड़े आदि रखने पड़ते थे, परन्तु एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि मनसबदार को अपने मनसब की संख्या के अनुसार घुड़सवार तथा अन्य साधन रखने का अधिकार नहीं था। वह उसका केवल एक निश्चित भाग ही रखता था। यह भाग राज्य की ओर से निश्चित किया जाता था। मनसब न केवल सैनिक अधिकारियों की ही दी जाती थी बल्कि असैनिक अधिकारियों को भी सौंपी जाती थी। मनसबदारों के अतिरिक्त अमीरों की और कोई भी श्रेणी नहीं थी।

मनसबदारी प्रथा की विशेषताएं-

1. मनसबदारों की नियुक्ति, पदोन्नति तथा पद-मुक्ति-मनसबदारों की नियुक्ति स्वयं सम्राट् करता था। उनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाती थी। भर्ती होने वाले व्यक्ति को मीर बख्शी के पास ले जाया जाता था। वह उसे सम्राट के सम्मुख पेश करता था और सम्राट् उसकी सलाह से प्रस्तुत होने वाले व्यक्ति को मनसबदार नियुक्त कर देता था। नियुक्ति होने पर उसका नाम सरकारी रजिस्टरों में दर्ज कर लिया जाता था। मनसबदारों की पदोन्नति भी सम्राट की इच्छा पर निर्भर होती थी। सम्राट् जब चाहे किसी भी मनसबदार को पद से मुक्त कर सकता था।

2. मनसबदारों की श्रेणियां-अकबर के समय में सबसे छोटा मनसबदार दस तथा सबसे बड़ा मनसबदार दस हज़ार सैनिक अपने पास रखता था। परन्तु आगे चल कर यह संख्या बीस हज़ार हो गई थी। पांच हज़ार से ऊपर की मनसब केवल राजकुमारों को अथवा उच्च कोटि के सरदारों को ही सौंपी जाती थी। राजकुमारों को छोड़कर मुगल साम्राज्य में पांच हजार या उससे अधिक सैनिकों वाले मनसबदार को ‘अमीर-उल-उमरा’ कहा जाता था। 3,000 से 4,000 वाले मनसबदार को ‘उमरा-ए-कुबर’ तथा 1,000 से 2,500 को ‘उमरा’ कहा जाता था। 20 से 1,000 मनसब वाले को केवल ‘मनसबदार’ कहा जाता था। छोटे सरकारी कर्मचारियों को मनसबदार की बजाय ऐजिनदार कहते थे।

3. मनसबदारों के पद-अकबर ने अपने शासन काल के अन्तिम वर्षों में 5,000 से नीचे के मनसबों के लिए ‘जात’ और ‘सवार’ नामक दो पद जारी किए। ये पद केवल 300 अथवा इससे ऊंचे ‘मनसब’ को दे दिए जाते थे। उदाहरण के लिए 300 सवार तथा 750 ‘जात’ परन्तु इन दोनों पदों के महत्त्व के विषय में इतिहासकारों में मतभेद पाया जाता है। ब्लैकमैन के अनुसार ‘जात से अभिप्राय सैनिकों की उस निश्चित संख्या से था जो मनसबदारों को अपने यहां रखनी पड़ती थी जबकि ‘सवार से तात्पर्य केवल घुड़सवारों की निश्चित संख्या से था। इसके विपरीत इर्विन का मत है कि ‘जात’ पद किसी मनसबदार के घुड़सवारों की वास्तविक संख्या प्रकट करता था, परन्तु ‘सवार’ एक प्रतिष्ठा का पद था जो जात द्वारा सूचित घुड़सवारों की संख्या से कुछ अधिक संख्या का परिचय देता था।

4. मनसबदारों के वेतन-मनसबदारों का वेतन उनकी श्रेणियों पर निर्भर करता था । निम्नलिखित तालिका से हमें कुछ मनसबदारों के वेतन का पता चल सकता है :-
PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध 1
इस वेतन में से मनसबदारों को अपने अधीन घुड़सवारों तथा घोड़ों का खर्च भी उठाना पड़ता था और सम्राट को कई प्रकार की भेटें देनी पड़ती थीं।

प्रश्न 4.
मनसबदारी प्रथा के गुण-दोषों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
मनसबदारी प्रथा के गुण :

  • इस प्रथा से जागीरदारी प्रथा समाप्त हो गई और विद्रोह का भय जाता रहा । अब प्रत्येक मनसबदार को वेतन लेने के लिए सम्राट् पर निर्भर रहना पड़ता था । इसके अतिरिक्त मनसबदारों पर सम्राट का पूरा नियन्त्रण होता था । उन्हें अपने सैनिकों तथा घोड़ों को उपस्थित करने के लिए किसी भी समय कहा जा सकता था । इस प्रकार सम्राट के विरुद्ध विद्रोह की सम्भावनाएं कम हो गईं ।
  • इस प्रथा में सभी पद योग्यता के आधार पर ही दिए जाते थे । अयोग्य होने पर मनसबदारों को पदमुक्त कर दिया जाता था। इस प्रकार योग्य तथा सफल अधिकारियों के नियुक्त होने से राज्य के सभी कार्य सुचारु रूप से चलने लगे ।
  • इससे सरकार जगीरदारों को बड़ी-बड़ी जगीरें देने के कारण होने वाली आर्थिक हानि से बच गई ।
  • ज़ब्ती प्रथा के अनुसार मृत्यु के पश्चात् मनसबदारों की सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जाती थी । इससे सरकार की आय में काफ़ी वृद्धि हुई ।

मनसबदारी प्रथा के दोष :-

(i) मनसबदारी प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह था कि मनसबदार सदैव सरकार को धोखा देने की चेष्टा में रहते थे । वे घुड़सवारों की निश्चित संख्या से बहुत कम घुड़सवार अपने पास रखते थे, परन्तु सरकार से वे पूरा वेतन प्राप्त करते थे । इस भ्रष्टाचार का अन्त करने के लिए घोड़ों को दागने तथा सैनिकों का हुलिया लिखने की प्रथा अवश्य जारी की गई, परन्तु इससे कोई विशेष लाभ न हुआ ।

(ii) मनसबदारों को भारी वेतन दिया जाता था । इस प्रकार सरकार के काफ़ी धन का अपव्यय हो जाता था । दूसरी ओर मनसबदार अधिक समृद्ध हो जाने के कारण अपने कर्तव्य का ठीक प्रकार से पालन नहीं करते थे और विलासिता में अपने धन को नष्ट करते रहते थे ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 13 मुग़ल राज्य-तन्त्र और शासन प्रबन्ध

प्रश्न 5.
मुग़लों के अधीन भारत में वास्तुकला के विकास का विवरण दीजिए ।
अथवा
वास्तुकला के विकास में अकबर, जहांगीर तथा शाहजहाँ के योगदान की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
मुग़ल काल में एक लम्बे समय के पश्चात् देश में शान्ति स्थापित हुई । शान्ति के कारण देश समृद्ध बना । राज्य के खजाने भर गए । ऐसे वातावरण में जनता में अनेक कलाकार पैदा हुए । सम्राटों ने कलाकारों को दरबार में आदरणीय स्थान दिया । फलस्वरूप देश में सभी प्रकार की कलाओं में नया निखार आया । कलाकारों ने धरती के सीने को भवनों से सजा दिया । संक्षेप में, इस काल में हुए वास्तुकला के विकास का वर्णन इस प्रकार है :-

1. बाबर के काल में-बाबर को भवन बनवाने का बड़ा चाव था । उसने आगरा, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर, अलीगढ़ में भवनों का निर्माण करने के लिए सैंकड़ों कारीगर लगाए थे । परन्तु उसके द्वारा बनाए हुए अधिकतर भवन अब नष्ट हो चुके हैं । इस समय उसके द्वारा बनाए गए केवल दो भवन विद्यमान हैं-एक मस्जिद पानीपत में है और दूसरी मस्जिद रुहेलखण्ड के सम्भल नगर में है।

2. हुमायूं के काल में-हुमायूं का अधिकतर समय युद्धों में गुज़रा । इसलिए वह कलाओं के विकास की ओर विशेष ध्यान न दे सका। फिर भी उसने कुछ मस्जिदों का निर्माण करवाया । उसमें एक मस्जिद फतेहाबाद (हरियाणा) में है ।

3. अकबर के काल में-अकबर ने भी भवन-निर्माण कला को काफ़ी विकसित किया । उसके भवनों में फ़ारसी तथा भारतीय शैलियों का मिश्रण पाया जाता है । आगरा के दुर्ग में जहांगीर महल’ तथा सीकरी की बहुत-सी इमारतों को देखने से ऐसा जान पड़ता है मानो इन्हें किसी राजपूत राजकुमार ने बनवाया हो । अकबर के शासनकाल के प्रथम वर्षों में दिल्ली में हुमायूं का मकबरा बना । अकबर द्वारा बनवाए नए फतेहपुर सीकरी के भवनों में जोधाबाई का महल बहुत सुन्दर है । 1576 ई० में उसने गुजरात विजय की खुशी में बुलन्द दरवाज़े का निर्माण करवाया । सीकरी में स्थित दीवान-ए-खास’ अकबर के कला-प्रेम का एक उत्तम नमूना है । अकबर द्वारा बना गया ‘पंच महल’ तथा ‘जामा मस्जिद’ भी देखने योग्य हैं ।

4. जहांगीर के काल में-जहांगीर को भवन निर्माण कला से विशेष प्रेम नहीं था । फिर भी उसके समय के दो भवन सिकन्दरा में ‘अकबर का मकबरा’ तथा आगरा में ‘एतमाद-उद्धौला का मकबरा’ कला की दृष्टि से काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं ।

5. शाहजहां के काल में-मुगल सम्राटों में शाहजहां को कला के क्षेत्र में विशेष स्थान प्राप्त है । उसने बहुत-से भवनों का निर्माण करवाया । उसकी सबसे सुन्दर इमारत ‘ताजमहल’ है । इसकी शोभा देखने वालों को चकाचौंध कर देती है । उसने दिल्ली का लाल किला बनवाया । इसमें बने ‘दीवान-ए-खास’ तथा ‘दीवान-ए-आम’ विशेष रूप से देखने योग्य हैं । शाहजहां ने आगरा के दुर्ग में मोती मस्जिद बनवाई जो भवन-निर्माण कला का एक सुन्दर नमूना है । शाहजहां ने एक करोड़ रुपये की लागत से ‘तख्त-ए-ताऊस’ को भी बनवाया ।

6. औरंगजेब के काल में-औरंगजेब के काल में भवन-निर्माण कला का विकास लगभग रुक गया । उसके समय में दिल्ली दुर्ग की मस्ज़िद, लाहौर की मस्ज़िद आदि कुछ इमारतों का निर्माण अवश्य हुआ, परन्तु ये सभी कला की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखतीं। – औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद साम्राज्य में अराजकता फैल गई । फलस्वरूप बाद के मुग़ल सम्राटों को इस ओर ध्यान देने का अवसर ही न मिल सका ।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे.

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे

प्रश्न 1.
मौसम संबंधी नक्शे क्या होते हैं ? इनमें प्रयोग किए जाने वाले चिन्हों का वर्णन करें।
उत्तर-
मौसम संबंधी नक्शे-किसी स्थान पर किसी विशेष समय की वायुमंडलीय दशाओं के अध्ययन को मौसम कहते हैं।
जो नक्शे किसी विशेष समय के मौसम के तत्त्वों, जैसे-तापमान, वायु, दबाव, पवनों, बादल और वर्षा आदि को दर्शाते हैं, उन्हें मौसमी नक्शे (Weather Maps) कहते हैं। भारत में ये नक्शे मौसम विज्ञान विभाग की ओर से प्रकाशित किए जाते हैं। इसका प्रमुख कार्यालय पुणे (Pune) शहर में है। ये नक्शे प्रतिदिन प्रातः के 8.30 बजे और संध्या के 5.30 बजे के मौसम को प्रकट करते हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी मौसम संबंधी समाचार और भविष्यवाणी (Forecasting) की जाती है।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे

मौसमी नक्शों का महत्त्व-मौसमी नक्शों का आर्थिक और वैज्ञानिक महत्त्व होता है-

  1. इनके आधार पर मौसम की भविष्यवाणी की जाती है।
  2. ये नक्शे कृषि, व्यापार और ढोने-ढुलाने के क्षेत्र के लिए उपयोगी होते हैं।
  3. ये नक्शे सैनिकों तथा जहाज़-चालकों के लिए लाभदायक होते हैं।
  4. हवाई जहाज़ों की उड़ानों पर इनकी सहायता से कंट्रोल किया जाता है।
  5. इनकी मदद से व्यापारी अपने कृषि-पदार्थों के भाव निश्चित करते हैं।
  6. मौसम के पूर्वानुमान से कई दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
  7. भारत में इनसैट B-1 की मदद से मौसम की भविष्यवाणी की जाती है।

ऋतु चिन्ह-रूढ़ चिन्हों के समान ही मौसमी नक्शों से वायुमंडलीय दशाएँ दर्शाने के लिए कुछ चिन्हों का प्रयोग किया जाता है, जिन्हें ऋतु चिन्ह (Weather Symbols) कहते हैं। इनके अभ्यास से मौसम के अलग-अलग तत्त्वों का ज्ञान हो जाता है।

  1. वायु दबाव (Pressure)—वायु दबाव को दर्शाने के लिए समदाब रेखाओं का प्रयोग किया जाता है।
  2. तापमान (Temperature) तापमान दर्शाने के लिए समताप रेखाओं का प्रयोग किया जाता है।
  3. पवनें (Winds)-पवनों की दिशा और गति तीरों की सहायता से दिखाई जाती है। इसके लिए ब्यूफोर्ट पैमाने का प्रयोग किया जाता है।
  4. बादल (Clouds)—बादलों की मात्रा और प्रकार दिखाने के लिए गोल चक्रों का प्रयोग किया जाता है।
  5. वर्षा (Rainfall)-वर्षा और दूसरे मौसमी तत्त्व दिखाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के चिन्ह प्रयोग किए जाते हैं।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे 1

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे 2

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules.

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. खिलाड़ियों की संख्या = कुल 14 खिलाड़ी
  2. मैच खेलने वाले खिलाड़ी = 8 खिलाड़ी 6 वैकल्पिक
  3. मैच का समय = 20-20 मिनट की दो मियादें (अवधियाँ)
  4. विश्राम का समय = 5 मिनट
  5. टाइम आऊट = एक हाफ में 2 टाइम आऊट
  6. टाइम आऊट का समय = 30 सेकंड

पंजाब स्टाइल अथवा वृत कबड्डी खेल की संक्षेप रूप-रेखा :
(Brief outline of Punjab Style or Circle Kabaddi Game)

  1. यह खेल दो टीमों के मध्य होती है। प्रत्येक टीम में 10 खिलाड़ी खेलते हैं तथा दो खिलाड़ी स्थानापन्न (Substitutes) होते हैं।
  2. खेल के दौरान किसी भी खिलाड़ी को चोट लग जाने पर उसका स्थान अतिरिक्त खिलाड़ी ग्रहण कर लेता है।
  3. खिलाड़ी केवल नंगे पांव खेल सकता है।
  4. खिलाड़ी कड़ा, अंगूठी आदि पहनकर नहीं खेल सकता।
  5. कोई भी खिलाड़ी निरन्तर दो से अधिक बार आक्रमण नहीं कर सकता।
  6. ऐसा स्पर्श या आक्रमण मना है जिससे खिलाड़ी के जीवन को भय उत्पन्न हो।
  7. मैदान के बाहर से कोचिंग देना मना है।
  8. विपक्षी खिलाड़ी आक्रामक खिलाड़ी के मुंह पर हाथ रख कर कबड्डी बोलने से नहीं रोक सकता।
  9. कोई भी खिलाड़ी तेल मल कर नहीं खेल सकता।
  10. यदि कोई खिलाड़ी दम भरते समय मार्ग में सांस तोड़े तो रैफरी दुबारा दम भरने के लिए कहता है।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

PSEB 11th Class Physical Education Guide सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
कबड्डी तथा सर्कल स्टाइल कबड्डी में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
कबड्डी

  1. कबड्डी के मैदान का आकार पुरुषों के लिये 13 मीटर ! 10 मीटर होता है और स्त्रियों के लिये मैदान का माप 11 मीटर ! 8 मीटर होता है।
  2. इसमें खिलाड़ियों की कुल संख्या 12 होती है।
  3. इसमें लॉबी अथवा बोनस लाइनें होती हैं।

सर्कल स्टाइल कबड्डी—

  1. सर्कल सटाइल कबड्डी में मैदान का आकार वृत्ताकार होता है जिसका अर्द्वव्यास 22 मीटर पुरुषों के लिये तथा 16 मीटर स्त्रियों के लिये होता है।
  2. इसमें खिलाड़ियों की कुल संख्या 14 (8 खिलाड़ी + 6 वैकल्पिक) होती है।
  3. इसमें कोई लॉबी अथवा बोनस लाइनें नहीं होती।

प्रश्न 2.
सर्कल स्टाइल कबड्डी में खिलाड़ियों की संख्या कितनी होती है ?
उत्तर-
कुल 14 खिलाड़ी।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
सर्कल कबड्डी के मैच में विश्राम का समय कितना होता है ?
उत्तर-
5 मिनट।

प्रश्न 4.
सर्कल कबड्डी के मैच में टाइम आऊट का कितना समय होता है ?
उत्तर-
30 सैकिण्ड।

प्रश्न 5.
सर्कल कबड्डी के मैच का समय लिखें।
उत्तर-
20-20 मिनट की दो अवधियां।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 6.
सर्कल कबड्डी के मैच में लाल कार्ड से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लाल कार्ड होने पर खिलाडी को मैच से बाहर निकाल दिया जाता है। यदि एक खिलाड़ी को दो बार लाल कार्ड दिखाया जाता है तो खिलाड़ी को पूरे टूर्नामैंट में से बाहर कर दिया जाता है। खिलाड़ी कोई भी मैच नहीं खेल सकता।

प्रश्न 7.
सर्कल कबड्डी के मैच में चेतावनी कार्ड कौन-कौन से होते हैं ?
उत्तर-
कबड्डी खेल में तीन प्रकार के चेतावनी कार्ड होते हैं—

  1. हरा कार्ड-यह एक चेतावनी कार्ड है। यदि एक खिलाड़ी को दूसरी बार हरा कार्ड दिखाया जाता है तो वह पीले कार्ड में से बदल जाता है।
  2. पीला कार्ड-पीले कार्ड होने पर 2 मिनट के लिए खिलाड़ी को मैच में से बाहर निकाला जाता है। यदि एक मैच में एक खिलाड़ी को दो बार पीला कार्ड दिखाया जाता है तो वह लाल कार्ड में बदल जाता है।
  3. लाल कार्ड-लाल कार्ड होने पर खिलाडी को मैच से बाहर निकाल दिया जाता यदि एक खिलाड़ी को दो बार लाल कार्ड दिखाया जाता है तो खिलाड़ी को पूरे टूर्नामेंट में से बाहर कर दिया जाता है। खिलाड़ी कोई भी मैच नहीं खेल सकता।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

Physical Education Guide for Class 11 PSEB सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
पंजाब स्टाइल कबड्डी के खेल के मैदान, खेल की अवधि, टीमें, अधिकारी और खिलाडियों को पोशाक के विषय में लिखें।
उत्तर-
खेल का मैदान (Play Ground) खेल का मैदान वृत्ताकार (Circular) होता है। वृत्त का अर्द्धव्यास 22 मीटर (लगभग 72 फुट) पुरुषों के लिये तथा 16 मीटर (लगभग 52 फुट) स्त्रियों के लिये होता है। केन्द्रीय रेखा इसे दो बराबर भागों में बांटती है। केन्द्रीय रेखा के मध्य में 20 फुट का गेट होता है। गेट के दोनों सिरों पर मिट्टी की ढेरियां बनाई जाती हैं। इन्हें पाला कहते हैं। प्रत्येक पाले का व्यास 6 इंच होता है। इनकी धरती से ऊंचाई एक फुट तक होती है। मध्य रेखा के दोनों ओर 20 फुट लम्बी रेखा के साथ ही डी-क्षेत्र लगाया जाता है। यह पालों से साइडों की ओर 15 फुट दूर होता है। यह मध्य रेखा को जा स्पर्श करता है तथा पाले इसके मध्य में आ जाते हैं।
खेल की अवधि (Duration of Play) खेल 20-20 मिनट की दो अवधियों में खेला जाता है। पहले 20 मिनट की खेल के पश्चात् 5 मिनट का अवकाश होता है। अवकाश के पश्चात् दोनों टीमें पक्ष बदल लेती हैं।

टीम (Teams)-प्रत्येक टीम में 8 खिलाड़ी होते हैं। इनके अतिरिक्त छ: खिलाड़ी वैकल्पिक होते हैं। मैच के अन्त में एक टीम में 8 खिलाड़ियों की संख्या बनी रहनी चाहिए। यदि कोई टीम 8 खिलाड़ियों से कम खिलाड़ियों से खेल रही है तो विरोधी टीम में उतने ही खिलाड़ी कम किए जाएंगे जितनी कि दूसरे खिलाड़ियों की संख्या 8 से कम है। जो भी टीम कम खिलाड़ियों के साथ खेल रही है उसका कोई खिलाड़ी रैफरी को सूचित करके खेल में सम्मिलित हो सकता है। यदि किसी खिलाड़ी को खेल के दौरान चोट लग जाती है तो उसे रिजर्व खिलाड़ी से बदल लिया जाता है। ‘ निर्णय (Decision) मैच में जो टीम अधिक अंक प्राप्त करती है उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। मैच बराबर रहने की दशा में 5-5 मिनट का अतिरिक्त समय दिया जाता है।
अधिकारी (Officials) मैच के निम्नलिखित अधिकारी होते हैं—
अम्पायर (1), रैफरी (1), स्कोरर (2), टाइम-कीपर (1)
सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
अपने-अपने अर्द्धकों में दोनों अम्पायर निर्णय देने का काम करते हैं। किसी विवाद की स्थिति में रैफरी का निर्णय अन्तिम माना जाता है।
टॉस (Toss)—दोनों टीमों के कप्तान साइड के चुनाव के लिए या पहले खिलाड़ी भेजने के लिए टॉस करते हैं।
पोशाक (Dress)—खिलाड़ी जांघिए पहन सकते हैं। जांघिए का रंग टीम के अनुसार होता है। खिलाड़ी नंगे पांव या फिर पतले रबड़ के तलों वाले टैनिस शू पहनकर खेल सकते हैं। खिलाड़ी अंगूठी (Rings), कड़े आदि धारण नहीं कर सकते क्योंकि इनसे विरोधी खिलाड़ी को चोट पहुंचने की सम्भावना होती है।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
पंजाब स्टाइल कबड्डी के नियमों का वर्णन करो।
उत्तर-
खेल के साधारण नियम
(General Rules of Play)
1. खिलाड़ी बारी-बारी से ‘कबड्डी’ शब्द का उच्चारण करते हुए विरोधी पक्ष की ओर जाएगा। ‘कबड्डी’ पालों से शुरू करनी चाहिए तथा सभी को सुनाई देनी चाहिए। रास्ते में सांस न टूटे और वापिस मुड़ते समय पालों तक सांस कायम रहना चाहिए।

2. कोई भी खिलाड़ी दो बार कबड्डी डाल सकता है।

3. ‘कबड्डी’ डालने वाला खिलाड़ी कम-से-कम आवश्यक सीमा को स्पर्श करे। यदि वह ऐसा नहीं करता तो अम्पायर उसे दोबारा कबड्डी डालने के लिए कह सकता है।

4. प्रत्येक खिलाड़ी को कई बार कबड्डी डालनी चाहिए। ऐसा न हो कि खेल पर एक दो प्रमुख खिलाड़ी एकाधिकार जमा लें।

5. जब कोई खिलाड़ी किसी विरोधी खिलाड़ी को स्पर्श करके वापस मुड़ रहा है तो उसका पीछा उस समय तक नहीं किया जा सकता जब तक वह अपने पक्ष की आवश्यक रेखा पार नहीं कर लेता।

6. यदि कबड़ी डालने वाला खिलाड़ी किसी विरोधी खिलाड़ी को छु लेता है तथा फिर अपने कोर्ट में वापिस आ जाता है तो कबड्डी डालने वाली टीम को एक अंक मिल जाता है।

7. कबड्डी डालने वाला तथा विरोधी पक्ष के खिलाड़ी छूने या पकड़ने के समय शेष सभी खिलाड़ी प्वाईंट का फैसला दिए जाने तक अस्थाई रूप में आऊट माने जाते हैं।

8. अस्थाई रूप में खिलाड़ी दूर रहते हैं। रक्षक टीम के खिलाड़ी द्वारा किसी बाधा उत्पन्न करने की दशा में आक्रामक टीम को प्वाईंट मिल जाता है।

9. आक्रमण के समय ‘छू’ या पकड़ हो जाए तथा यदि कबड्डी डालने वाला या विरोधी खिलाड़ी सीमा रेखा से बाहर चला जाए तो विरोधी टीम को 1 अंक मिलेगा। यदि दोनों खिलाड़ी बाहर निकल जाएं तो किसी को कोई प्वाइंट नहीं मिलेगा।

10. कोई भी ऐसी पकड़ या आक्रमण अयोग्य है जिसमें खिलाड़ी के जीवन को खतरा है। ठोकर मारना, दांतों से काटना, जांघिये को पकड़ना वर्जित है।

11. शरीर पर तेल या चिकनाहट वाली वस्तुओं का लेप करना मना है।

12. मैदान के बाहर से कोचिंग वर्जित है, यदि चेतावनी देने के बाद कोचिंग जारी रहती है तो जिस टीम को कोचिंग दी जा रही हो उसका एक अंक काट दिया जाए।

13. कोई भी रेडर 30 सैकिण्ड के अन्दर-अन्दर रेड डाल कर बिना किसी को हाथ लगाए वापिस आ सकता है। यदि तीस सैकिण्ड के समय में किसी विरोधी को हाथ नहीं लगता और वापिस अपने पाले में नहीं आता हो विरोधी टीम को एक अंक मिल जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा दीजिए और इसके तत्त्वों की व्याख्या करें। (Define State. Discuss its elements.)
अथवा
राज्य के मूलभूत तत्त्वों की विवेचना कीजिए। (Discuss the essential elements of a State.)
उत्तर-
राज्य एक प्राकृतिक और सर्वव्यापी, मानवीय संस्था है। व्यक्ति के सामाजिक जीवन को सुखी और सुरक्षित रखने के लिए जो संस्था अस्तित्व में आई, उसे राज्य कहते हैं। मनुष्य के जीवन के विकास के लिए राज्य एक आवश्यक संस्था है। यदि राज्य न हो, तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।

राज्य शब्द की उत्पत्ति (Etymology of the word)-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द से लिया गया है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीन काल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। परन्तु धीरे-धीरे इसका अर्थ बदलता गया। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

राज्य शब्द का गलत प्रयोग (Wrong use of the word ‘State’) अधिकांश तौर पर सामान्य भाषा में ‘राज्य’ शब्द का गलत प्रयोग किया जाता है। जैसे भारत में इसकी इकाइयों जैसे-पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश एवं अमेरिका में अटलांटा, बोस्टन, न्यूयार्क एवं वाशिंगटन जैसी इकाइयों को राज्य कह दिया जाता है, जबकि ये वास्तविक तौर पर राज्य नहीं हैं।

राज्य की परिभाषाएं (Definitions of State)–विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित

1. अरस्तु (Aristotle) के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर तथा समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।” (“The state is a Union of families and villages having for its end a perfect and self-sufficing life by which we mean a happy and honourable life.”) परन्तु यह परिभाषा बहुत पुरानी है और आधुनिक राज्य पर लागू नहीं होती।

2. ब्लंटशली (Bluntschli) का कहना है कि “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।” (“The state is a politically organised people of a definite territory.”)

3. अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Willson) के अनुसार, “एक निश्चित क्षेत्र में कानून की स्थापना के लिए संगठित लोगों का समूह ही राज्य है।” (“The state is a people organised for law within a definite territory.”) परन्तु यह परिभाषा भी ठीक नहीं समझी जाती क्योंकि इसमें राज्य की प्रभुसत्ता का कहीं भी उल्लेख नहीं है।

4. गार्नर (Garner) द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो, बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह से लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।” (“The state, as a concept of political science and public law, is a community of persons, more or less numerous permanently occupying a definite portion of territory, independent or nearly so, of external control and possessing an organised government to which the great body of inhabitants render habitual obedience.”)

5. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता को प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास चारों तत्त्व होंगे, उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चार तत्त्वों का होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

राज्य के आवश्यक तत्त्व (Essential Elements or Attributes of State)-

राज्य के अस्तित्व के लिए चार तत्त्वों का होना आवश्यक है जो कि जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में राज्य का निर्माण नहीं हो सकता। जनसंख्या (Population) और भू-भाग (Territory) को राज्य के भौतिक तत्त्व (Physical Element), सरकार (Government) को राज्य का राजनीतिक तत्त्व (Political Element) और प्रभुसत्ता (Sovereignty) को राज्य का आत्मिक तत्त्व (Spiritual Element) माना जाता है। इन तत्त्वों की व्याख्या नीचे की गई है :-

1. जनसंख्या (Population)-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। राज्य पशु-पक्षियों का समूह नहीं है। वह मनुष्यों की राजनीतिक संस्था है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर बल्कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस प्रकार बिना पति-पत्नी के परिवार, मिट्टी के बिना घड़ा और सूत के बिना कपड़ा नहीं बन सकता, उसी प्रकार बिना मनुष्यों के समूह के राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य में कितनी जनसंख्या होनी चाहिए, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। परन्तु राज्य के लिए पर्याप्त जनसंख्या होनी चाहिए। दस-बीस मनुष्य राज्य नहीं बना सकते।

राज्य की जनसंख्या कितनी हो, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। प्लेटो (Plato) के मतानुसार, एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 होनी चाहिए। अरस्तु (Aristotle) के मतानुसार, जनसंख्या इतनी कम नहीं होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न इतनी अधिक होनी चाहिए कि भली प्रकार शासित न हो सके। रूसो (Rousseau) प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का समर्थक था, इसलिए उसने छोटे राज्यों का समर्थन किया। उसने एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 10,000 निश्चित की थी।

प्राचीन काल में नगर राज्यों की जनसंख्या बहुत कम हुआ करती थी, परन्तु आज के युग में बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो चुके हैं।
आधुनिक राज्यों की जनसंख्या करोड़ों में है। चीन राज्य की जनसंख्या लगभग 135 करोड़ से अधिक है जबकि भारत की जनसंख्या 130 करोड़ से अधिक है। परन्तु दूसरी ओर कई ऐसे राज्य भी हैं जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। उदाहरणस्वरूप, सान मेरीनो की जनसंख्या 25 हज़ार के लगभग तथा मोनाको की जनसंख्या 32 हज़ार के लगभग है जबकि नारु की जनसंख्या 9500 है। आधुनिक काल में कुछ राज्यों में बड़ी जनसंख्या एक बहुत भारी समस्या बन चुकी है और इन देशों में जनसंख्या को कम करने पर जोर दिया जाता है। उदाहरण के लिए भारत की अधिक जनसंख्या एक भारी समस्या है।

राज्यों की जनसंख्या निश्चित करना अति कठिन है, परन्तु हम अरस्तु के मत से सहमत हैं कि राज्य की जनसंख्या न इतनी कम होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न ही इतनी अधिक होनी चाहिए कि राज्य के लिए समस्या बन जाए। राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि वहां की जनता सुखी तथा समृद्धिशाली जीवन व्यतीत कर सके। गार्नर के मतानुसार, “राज्य की जनसंख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए कि वह राज्य सुदृढ़ रह सके। परन्तु उससे अधिक नहीं होनी चाहिए जिसके लिए भू-खण्ड तथा राज्य साधन पर्याप्त न हों।” प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ (Prof. R.H. Soltau) के अनुसार, “राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए-साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन-स्तर और सुरक्षा उत्पादन की आवश्यकताएं।”

2. निश्चित भू-भाग (Definite Territory)-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है। बिना निश्चित भूमि के राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। खानाबदोश कबीले (Nomadic Tribes) राज्य का निर्माण नहीं कर सकते क्योंकि वे एक स्थान पर नहीं रहते बल्कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। यही कारण है कि 1948 से पहले यहूदी लोग संसार-भर में घूमते रहते थे और उनका कोई राज्य नहीं था। यहूदी लोग (Jews) 1948 में ही स्थायी तौर पर अपना इज़राइल (Israel) नामक राज्य स्थापित कर सके। भू-भाग का निश्चित होना राज्यों की सीमाओं के निर्धारण के लिए भी आवश्यक है वरन् सीमा-सम्बन्धी झगड़े सदा ही अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का कारण बने रहेंगे।

भूमि में पहाड़, नदी, नाले, तालाब आदि भी शामिल होते हैं। भूमि के ऊपर का वायुमण्डल भी राज्य की भूमि का भाग माना जाता है। भूमि के साथ लगा हुआ समुद्र का 3 मील से 12 मील तक का भाग भी राज्य की भूमि में शामिल किया जाता है।

राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए, इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। प्राचीन काल में राज्य का क्षेत्रफल बहुत छोटा होता था, परन्तु आधुनिक राज्यों का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है। पर कई राज्यों का क्षेत्रफल आज भी बहुत छोटा है। रूस का क्षेत्रफल 17,075,000 वर्ग किलोमीटर है जबकि भारत का क्षेत्रफल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर है। पर सेन मेरीनो का क्षेत्रफल 61 वर्ग किलोमीटर है जबकि मोनाको का क्षेत्रफल 1.95 वर्ग किलोमीटर ही है। मालद्वीप राज्य का क्षेत्रफल 298 वर्ग किलोमीटर है। आज राज्य के बड़े क्षेत्र पर जोर दिया जाता है क्योंकि बड़े क्षेत्र में अधिक खनिज पदार्थ और दूसरे प्राकृतिक साधन होते हैं, जिससे देश को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। अमेरिका, रूस, चीन अपने बड़े क्षेत्रों के कारण शक्तिशाली हैं। दूसरी ओर इंग्लैण्ड, स्विट्ज़रलैंड, बैल्जियम इत्यादि देशों का क्षेत्रफल तो कम है परन्तु इन देशों ने भी बहुत उन्नति की है। अतः यह कहना कि देश की उन्नति के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र होना चाहिए, ठीक नहीं है। राज्य के क्षेत्र के सम्बन्ध में अरस्तु का मत ठीक प्रतीत होता है। उसने कहा है कि राज्य का क्षेत्र इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह आत्मनिर्भर हो सके और इतना अधिक विस्तृत नहीं होना चाहिए कि उस पर ठीक प्रकार से शासन न किया जा सके। अतः राज्य का क्षेत्रफल इतना होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और देश की सुरक्षा भी ठीक हो सके।

3. सरकार (Government)-सरकार राज्य का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। जनता का समूह निश्चित भू-भाग पर बस कर तब तक राज्य की स्थापना नहीं कर सकता जब तक उनमें राजनीतिक संगठन न हो। बिना सरकार के जनता का समूह राज्य की स्थापना नहीं कर सकता। सरकार देश में शान्ति की स्थापना करती है, कानूनों का निर्माण करती है तथा कानूनों को लागू करती है और कानून तोड़ने वाले को दण्ड देती है। सरकार लोगों के परस्पर सम्बन्धों को नियमित करती है। सरकार राज्य की एजेन्सी है जिसके द्वारा राज्य के समस्त कार्य किए जाते हैं। बिना सरकार के अराजकता उत्पन्न हो जाएगी तथा समाज में अशान्ति पैदा हो जाएगी। अत: राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।

संसार के सब राज्यों में सरकारें पाई जाती हैं, परन्तु सरकार के विभिन्न रूप हैं। कई देशों में प्रजातन्त्र सरकारें हैं, कई देशों में तानाशाही तथा कई देशों में राजतन्त्र है। उदाहरण के लिए भारत, नेपाल, इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी में प्रजातन्त्रात्मक सरकारें हैं जबकि क्यूबा, उत्तरी कोरिया, चीन आदि में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। कुछ देशों में संसदीय सरकार है और कुछ देशों में अध्यक्षात्मक सरकार है। इसी तरह कुछ देशों में संघात्मक सरकार है और कुछ में एकात्मक सरकार है। सरकार का कोई भी रूप क्यों न हो, उसे इतना शक्तिशाली अवश्य होना चाहिए कि वह देश में शान्ति की स्थापना कर सके और देश को बाहरी आक्रमणों से बचा सके।

4. प्रभुसत्ता (Sovereignty)—प्रभुसत्ता राज्य का चौथा आवश्यक तत्त्व है। प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है। इसके बिना राज्य की स्थापना नहीं की जा सकती। प्रभुसत्ता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति होती है। इस सर्वोच्च शक्ति के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठा सकता। सब मनुष्यों को सर्वोच्च शक्ति के आगे सिर झुकाना पड़ता है। प्रभुसत्ता दो प्रकार की होती है-आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty) तथा बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)।

आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty)-आन्तरिक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य का अपने देश के अन्दर रहने वाले व्यक्तियों, समुदायों तथा संस्थाओं पर पूर्ण अधिकार होता है। प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक समुदाय को राज्य की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। जो व्यक्ति राज्य के कानून को तोड़ता है, उसे सज़ा दी जाती है। राज्य को पूर्ण अधिकार है कि वह किसी भी संस्था को जब चाहे समाप्त कर सकता है।

बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)-बाहरी प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य के बाहर कोई ऐसी संस्था अथवा व्यक्ति नहीं है जो राज्य को किसी कार्य को करने के लिए आदेश दे सके। राज्य पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। यदि किसी देश पर किसी दूसरे देश का नियन्त्रण हो तो वह देश राज्य नहीं कहला सकता। उदाहरण के लिए सन् 1947 से पूर्व भारत पर इंग्लैण्ड का शासन था, अतः उस समय भारत एक राज्य नहीं था। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गए और इसके साथ ही भारत राज्य बन गया।

क्या कोई तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है ? (Is any Element the Most Important One ?)-

राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार, प्रभुसत्ता-अनिवार्य हैं। यह कहना कि इन तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, अति कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना नहीं हो सकती। लोगों के स्थायी रूप से रहने के लिए एक निश्चित भू-भाग की भी आवश्यकता होती है। सरकार के बिना राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता और प्रभुसत्ता के बिना राज्य के तीनों तत्त्व अर्थहीन हो जाते हैं। प्रभुसत्ता एक ऐसा तत्त्व है जो राज्यों को अन्य समुदाओं और संस्थाओं से श्रेष्ठ बनाता है। इसलिए कुछ लोगों का विचार है कि चारों तत्त्वों में से प्रभुसत्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रभुसत्ता राज्य की आत्मा और प्राण है। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। कोई भी तीन तत्त्व मिल कर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते। राज्यों के चारों तत्त्वों के समान महत्त्व पर बल देते हुए गैटेल (Gettell) ने कहा है कि, “राज्य न ही जनसंख्या है, न ही भूमि, न ही सरकार बल्कि इन सबके साथ-साथ राज्य के पास वह इकाई होनी आवश्यक है जो इसे एक विशिष्ट व स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता बनाती है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-
विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”

2. गार्नर के द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

3. गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग, एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास ये चारों तत्त्व होंगे उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चारों तत्त्वों का होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 2.
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम लिखें। किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. जनसंख्या
  2. निश्चित भू-भाग
  3. सरकार
  4. प्रभुसत्ता।

1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।

2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। भू-भाग निश्चित होना इसलिए भी आवश्यक है कि सीमा-सम्बन्धी विवाद न उत्पन्न हो। राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु राज्य का क्षेत्रफल इतना अवश्य होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और राज्य की सुरक्षा भी ठीक ढंग से हो सके।

प्रश्न 3.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  1. पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  2. पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।
  3. पंजाब की अपनी सरकार तो है परन्तु वह सम्पूर्ण नहीं है। राज्य की कई महत्त्वपूर्ण शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास हैं।
  4. पंजाब के पास न तो आन्तरिक प्रभुसत्ता है और न ही बाहरी प्रभुसत्ता है। इसे दूसरे राज्यों में राजदूत भेजने, उनके साथ युद्ध या सन्धियां करने, अपना संविधान बनाने आदि के अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

प्रश्न 4.
क्या राष्ट्रमण्डल एक राज्य है ?
उत्तर-
राष्ट्रमण्डल में ब्रिटेन के अतिरिक्त वे राष्ट्र सम्मिलित हैं जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने अब स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली है। राष्ट्रमण्डल राज्य नहीं है, क्योंकि उसकी न तो कोई जनसंख्या है, न भू-भाग और न ही कोई सरकार। इस मण्डल के सदस्य प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं। इसलिए राष्ट्रमण्डल के पास प्रभुसत्ता के होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। राष्ट्रमण्डल का सदस्य जब चाहे राष्ट्रमण्डल को छोड़ सकता है। अत: इसे राज्य नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 5.
क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य है ? यदि नहीं तो कारण बताओ।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं

  1. एक राज्य के सदस्य अप्रभुव्यक्ति (Non-sovereign Individuals) होते हैं परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य तो प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं।
  2. एक राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है, परन्तु इस संघ की नहीं।
  3. इस संघ के फैसलों को कानून का स्तर नहीं दिया जा सकता। यदि कोई सदस्य राज्य किसी फैसले को अपने हित के प्रतिकूल समझे तो वह उस आदेश की उपेक्षा कर सकता है और व्यावहारिक रूप में ऐसे कई उदाहरण हैं।
  4. इस संघ की न तो अपनी प्रजा है, न ही नागरिक और न ही कोई भू-क्षेत्र। जिस भू-भाग पर इस संघ के भवन और दफ्तर आदि स्थित हैं, वह भी इसका अपना नहीं बल्कि अमेरिका की सम्पत्ति है।
  5. इस संघ को महासभा, सुरक्षा परिषद् और दूसरे अंगों के बराबर कहना सरासर ग़लत और अमान्य है।

प्रश्न 6.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेजी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है और वह शब्द किस भाषा का है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यिावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 7.
राज्य का सबसे आवश्यक तत्त्व कौन-सा है ? वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार, प्रभुसत्ता आवश्यक हैं। यह कहना कि चारों तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना तक नहीं हो सकती है। निश्चित भू-भाग के बिना भी राज्य नहीं बन सकता। सरकार के बिना समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। अतः सरकार ही राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति करती है। राज्य का चौथा तत्त्व प्रभुसत्ता बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि राज्य के अन्य तीन तत्त्व तो दूसरे समुदायों में भी मिल जाते हैं लेकिन प्रभुसत्ता केवल राज्य के पास ही होती है और इसे राज्य तथा अन्य समुदायों के बीच बांटा जा सकता है। प्रभुसत्ता ही एक ऐसा तत्त्व है जो राज्य को अन्य समुदायों से अलग रखता है या उसे सर्वश्रेष्ठ बनाता है। इसी कारण कुछ लेखक प्रभुसत्ता को अन्य तत्वों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना असम्भव है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेज़ी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

प्रश्न 2.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-

  • अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”
  • गार्नर के अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

प्रश्न 3.
राज्य के किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-

  1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।
  2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता।

प्रश्न 4.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  • पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  • पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्य को अंग्रेजी भाषा में क्या कहा जाता है ?
उत्तर-राज्य को अंग्रेज़ी भाषा में स्टेट (State) कहा जाता है।

प्रश्न 2. स्टेट (State) शब्द किस भाषा से बना है ?
उत्तर-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के स्टेट्स (Status) शब्द से बना है।

प्रश्न 3. स्टेट्स (Status) शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-स्टेट्स (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है।

प्रश्न 4. राज्य की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बटलशली के अनुसार, “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।”

प्रश्न 5. राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा किसने दी है ?
उत्तर-राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा गार्नर ने दी है।

प्रश्न 6. “मनुष्य स्वभाव और आवश्यकताओं के कारण सामाजिक प्राणी है।” किसका कथन है?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

प्रश्न 7. “जो समाज में नहीं रहता, वह या तो पशु है या फिर देवता” किसका कथन है ?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 8. प्लेटो ने राज्य की अधिक-से-अधिक जनसंख्या कितनी निश्चित की है?
उत्तर-प्लेटो ने आदर्श राज्य की जनसंख्या 5,040 बताई है।

प्रश्न 9. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, या ऐच्छिक?
उत्तर-राज्य की सदस्यता अनिवार्य है।

प्रश्न 10. किस विद्वान् ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है?
उत्तर-गार्नर ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है।

प्रश्न 11. रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए?
उत्तर-रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या 10000 होनी चाहिए।

प्रश्न 12. किस विद्वान् की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है?
उत्तर-गार्नर की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है।

प्रश्न 13. किस राज्य की जनसंख्या सबसे अधिक है?
उत्तर-साम्यवादी चीन की जनसंख्या सबसे अधिक है।

प्रश्न 14. क्या पंजाब राज्य है?
उत्तर-पंजाब राज्य नहीं है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य के ………….. आवश्यक तत्त्व माने जाते हैं।
2. राज्य के चार आवश्यक तत्त्व जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा ………. है।
3. प्लेटो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………. होनी चाहिए।
4. रूसो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………… होनी चाहिए।
5. ………….. के अनुसार राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए–साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन स्तर और ………… उत्पादन की आवश्यकताएं।
उत्तर-

  1. चार
  2. प्रभुसत्ता
  3. 5040
  4. 10000
  5. प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ, सुरक्षा।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राज्य का दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है।
2. निश्चित भूमि के बिना राज्य की स्थापना हो सकती है।
3. राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।
4. प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है।
5. प्रभुसत्ता चार प्रकार की होती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य के लिए आवश्यक है ?
(क) संसदीय सरकार
(ख) राजतन्त्र
(ग) गणतन्त्रीय सरकार
(घ) कोई भी सरकार।
उत्तर-
(घ) कोई भी सरकार।

प्रश्न 2.
प्रभुसत्ता किसका आवश्यक गुण है ?
(क) राष्ट्र
(ख) राज्य
(ग) समाज
(घ) सरकार।
उत्तर-
(ख) राज्य।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ
(ख) जापान
(ग) दक्षिण कोरिया
(घ) नेपाल।
उत्तर-
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) भारत
(ख) नेपाल
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।
उत्तर-
(ग) मध्य प्रदेश।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

PSEB 11th Class Geography Guide प्रमुख भू-आकार Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो शब्दों में दें:

प्रश्न (क)
भारत में अंदरूनी (आंतरिक) पर्वतों का सबसे बड़ा उदाहरण कौन-सा है ?
उत्तर-
हिमालय पर्वत।

प्रश्न (ख)
पूर्व कैंबरीअन काल कितने वर्ष पुराने समय को माना जाता है ?
उत्तर-
4.6 बिलियन (अरब) वर्ष।

प्रश्न (ग)
महाद्वीपों के खिसकने से पहले के सुपर महाद्वीप का नाम क्या था ?
उत्तर-
पैंजीआ।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (घ)
पृथ्वी की ऊपरी प्लेट के दो भाग कौन-कौन से होते हैं ?
उत्तर-
क्रस्ट और मैंटल।

प्रश्न (ङ)
एशिया का दिल’ किस प्रकार की भू-आकृति को कहते हैं ?
उत्तर-
पठार।

प्रश्न (च)
गुंबद पठार का विश्व प्रसिद्ध उदाहरण कौन-सा है ?
उत्तर-
ओज़ारक पठार।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (छ)
अफ्रीका की कौन-सी नदी ‘बाड़ के मैदान’ बनाती है ?
उत्तर-
नील नदी।

प्रश्न (ज)
ऑस्ट्रेलिया में नदियों के मैदानों को क्या नाम दिया जाता है ?
उत्तर-
मरे-डार्लिंग मैदान।

प्रश्न (झ)
परेरी, पंपाज़ और कैंटरबरी क्या हैं ?
उत्तर-
घास के मैदान।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (ब)
पृथ्वी पर ऊँचाई कहाँ से नापी जाती है ?
उत्तर-
समुद्र तल से।

2. प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दें

प्रश्न (क)
धरातलीय स्वरूपों को कौन-कौन से भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर-

  1. पहली श्रेणी के स्थल रूप
  2. दूसरी श्रेणी के स्थल रूप
  3. तीसरी श्रेणी के स्थल रूप।

प्रश्न (ख)
आकार के आधार पर पर्वतों को वर्गीकृत करें।
उत्तर-

  1. बलदार पर्वत
  2. ब्लॉक पर्वत
  3. गुंबददार पर्वत
  4. संग्रह पर्वत।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (ग)
बलदार या वलन पर्वत की परिभाषा दें।
उत्तर-
पर्वत भू-पटल की परतों में बल पड़ने के कारण इन्हें बलदार पर्वत कहा जाता है। तलछट में मोड़ पड़ने के कारण ऊँचे उठे भाग को Anticline और नीचे धंसे भाग को Syncline कहा जाता है।

प्रश्न (घ)
अलफ्रेड वैगनर ने कब और कौन-सी पुस्तक में महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त पेश किया था ?
उत्तर-
अल्फ्रेड वैगनर ने 1915 में अपनी पुस्तक ओरिज़न ऑफ कौन्टीनैंट एंड ओशंस (Origin of Continents and Oceans) में महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धान्त पेश किया था।

प्रश्न (ङ)
लुरेशिया में कौन-सा क्षेत्र सम्मिलित था ?
उत्तर-
उत्तरी अमेरिका, ग्रीनलैंड, यूरोप, रूस और चीन लुरेशिया में शामिल थे। इसे अंगारा लैंड भी कहा जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (च)
सीमावर्तीय पठार कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
पुरानी पर्वत श्रेणियों के साथ लगते पठारों को सीमावर्तीय पठार कहते हैं। ये पर्वतों के दामन में स्थित होते हैं।

प्रश्न (छ)
मैदान निर्माण के लिए जानी जाती रूस व चीन की नदियाँ कौन-सी हैं ?
उत्तर-
रूस में उब, येनसी, लीना और बोलगा नदियाँ और चीन में ह्वांग-हो, यांग-सी-कियांग नदियाँ मैदानों का निर्माण करती हैं।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 60 से 80 शब्दों में दें

प्रश्न (क)
ब्लॉक पर्वतों की परिभाषा दें।
उत्तर-
तनाव के कारण धरातल पर दरारें पड़ जाती हैं। कुछ भाग नीचे की ओर धंस जाते हैं और कुछ भाग बीच में ही खड़े रह जाते हैं। इन ऊँचे भागों को ब्लॉक पर्वत कहा जाता है। ये पर्वत खड़ी ढलान वाले होते हैं और ऊपरी तल समतल होता है, जैसे जर्मनी में हारझुट पर्वत, भारत में विंध्याचल पर्वत।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (ख)
आप अगर कृषि, सिंचाई तथा यातायात की सुविधाओं वाले क्षेत्रों में रह रहे हों, तो भौगोलिक पक्ष से ये कौन-से क्षेत्र होंगे ? विश्व-भर के ऐसे क्षेत्रों के नाम लिखें।
उत्तर-
मैदानों में कृषि की सुविधाएँ होती हैं। यहाँ नदियाँ और नहरें जल सिंचाई प्रदान करती हैं। यहाँ परिवहन के आसान साधन होते हैं। यहाँ सड़कों और रेलों के निर्माण की सुविधा होती है। ये सब क्षेत्र मैदान होते हैं। जैसे-अमेरिका में परेरी, यूरोप में स्टैपे, ऑस्ट्रेलिया में मरे-डार्लिंग, दक्षिण अमेरिका में पंपास, भारत में गंगा-ब्रह्मपुत्र, चीन में ह्वांग-हो और यांग-सी-कियांग।

प्रश्न (ग)
भौगोलिक पक्ष से खनिज पदार्थों की बहुतायत कौन-से धरातलीय क्षेत्रों में होती है ? विश्वभर से उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर-
विश्व में बहुत-से खनिज पठारों से मिलते हैं। पठार आग्नेय चट्टानों से बनते हैं। इनमें बहुमूल्य खनिज मिलते हैं। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में सोना, अफ्रीका के पठार में हीरा, सोना और तांबा, ब्राजील के पठार में लोहा और मैंगनीज़, दक्षिणी भारत में सोना, अभ्रक, मैंगनीज़ और छोटा नागपुर के पठार में लोहा, तांबा, अभ्रक और मैंगनीज़ के भंडार हैं।

प्रश्न (घ)
प्लेट टैक्टौनिक का सिद्धान्त विस्तार से समझाएँ।
उत्तर-
स्थलमंडल भू-प्लेटों में बंटा हुआ है। इसमें 6 मुख्य प्लेटें और 14 छोटे आकार की प्लेटें हैं। ये भू-प्लेटें खिसकती रहती हैं। परिणामस्वरूप महाद्वीप भी खिसकते रहते हैं। संपीड़न क्रिया प्लेटों की गति के कारण होती है। इससे महाद्वीप खिसकते हैं और पर्वत-निर्माण क्रिया होती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (ङ)
ताज़ा झरने, कीमती लकड़ी और घने जंगल पृथ्वी के कौन-से धरातलीय भाग में मिलते हैं ? विश्व-भर से उदाहरण देते हुए संक्षेप में चर्चा करें।
उत्तर-

  1. पर्वत धरती पर नदियों और झरनों के स्रोत हैं। ये पूरा वर्ष जल-सिंचाई प्रदान करते हैं। गंगा का मैदान हिमालय पर्वत का वरदान है।
  2. पर्वत घने जंगलों से ढके रहते हैं। यहाँ स्वास्थ्यवर्धक स्थान भी पाए जाते हैं।
  3. पर्वत बहुमूल्य लकड़ी के भंडार हैं। इन पर कई उद्योग निर्भर करते हैं। कनाडा, स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड आदि देशों का आर्थिक विकास जंगलों के कारण ही है। नॉर्वे, इटली, स्विट्ज़रलैंड में अनेकों जल-झरने मिलते हैं, जो पनबिजली पैदा करते हैं।

प्रश्न (च)
पर्वत-निर्माण शक्तियाँ या ओरोजैनी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धरती पर भू-अभिनीतियों में करोड़ों वर्षों से तलछट जमा हो रहे हैं। इन्हें भू-अभिनीति कहते हैं। तलछट में मोड़ पड़ने पर बलदार पर्वतों का निर्माण हुआ। उदाहरण के लिए हिमालय का निर्माण टेथिस भू-अभिनीति के तलछट में बल पड़ने के कारण हुआ। भू-अभिनीतियों में संपीड़न शक्तियों के कारण बलदार पर्वत बने हैं। इसे ओरोजैनी क्रिया कहते हैं।

4. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 150 से 250 शब्दों में दें-

प्रश्न (क)
पर्वतों के वर्गीकरण के आधार क्या-क्या हो सकते हैं ? उत्पत्ति के आधार पर वर्गीकरण का वर्णन करें।
उत्तर-
पर्वत (Mountains)-पर्वत प्रकृति की रहस्यमयी रचनाओं में से एक हैं। इन्होंने धरती का 12 प्रतिशत भाग घेरा हुआ है। _ ‘पर्वत ऐसे ऊँचे उठे हुए भू-खंड को कहते हैं, जो आस-पास के प्रदेश से कम-से-कम 900 मीटर अधिक ऊँचा हो। उसके तल का आधे से अधिक भाग तीखी ढलान वाला हो।’ __पर्वतों का आधार-क्षेत्र बड़ा होता है, पर ऊँचाई के साथ-साथ विस्तार कम होता जाता है, इसीलिए पर्वतों की चोटियों के क्षेत्र छोटे होते हैं। पर्वत और पहाड़ी में केवल ऊँचाई का अंतर होता है। पहाड़ी की ऊँचाई 900 मीटर से कम होती है।

पर्वत की प्रमुख विशेषताएँ (Main Features of Mountains)-

  1. आस-पास के क्षेत्रों से अधिक ऊँचाई (Highland Area)
  2. शिखर पर कम विस्तार (Small Summit)
  3. तीखी ढलान (Steep Slope)
  4. ऊँची-नीची भूमि (Rugged Land)
  5. आधार-क्षेत्र का बड़ा होना (Large Base)

पर्वतों के प्रकार (Types of Mountains)-धरातल पर पाए जाने वाले पर्वतों में बहुत भिन्नताएँ हैं। “किन्हीं भी दो पर्वतों में पूर्ण समानता नहीं होती है।” (“No two mountains are exactly alike)” ऊँचाई की दृष्टि से पर्वतों में बहुत अंतर होता है। ऊँचाई के अनुसार पर्वतों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

1. ऊँचाई के अनुसार (According to height)

  • छोटे पर्वत (Low Mountains)—जो पर्वत 3000 मीटर तक ऊँचे होते हैं।
  • कम ऊँचाई के पर्वत (Rugged Mountains)—जो पर्वत 3000 मीटर से 6000 मीटर तक ऊँचे होते हैं।
  • ऊँचे पर्वत (High Mountains)—जो पर्वत 6000 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं।

2. रचना के अनुसार (According to Formation)-

  • बलदार पर्वत (Folded Mountains)
  • ब्लॉक या अवरोधी पर्वत (Block Mountains)
  • अवशेषी पर्वत (Residual Mountains)
  • ज्वालामुखी पर्वत (Volcanic Mountains)
  • गुंबददार पर्वत (Dome Mountains)

(i) बलदार पर्वत (Folded Mountain)-बलदार पर्वतों का निर्माण भू-गर्भ के संपीड़न (Contraction) की दबाव (Compression) शक्तियों के कारण धरातल की परतों में बल पड़ने या मोड़ पड़ने के कारण होता है। पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण धरातल में मोड़ (Folds) पड़ जाते हैं। इस हलचल के कारण धरातल का एक भाग ऊपर उठ जाता है और दूसरा भाग नीचे धंस जाता है। ऊपर उठे हुए भाग को Anticline और नीचे धंसे हुए भाग को Syncline कहते हैं। बलदार पर्वत विश्व में सबसे नवीन, सबसे ऊँचे और अधिक विस्तार वाले हैं। सृजन और आयु के आधार पर ये पर्वत दो तरह के हैं-

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 1

(क) नवीन बलदार पर्वत (Young Fold Mountains)—जिस प्रकार भारत में हिमालय, यूरोप में अल्पस (Alps), उत्तरी अमेरिका में रॉकी (Rocky) और दक्षिणी अमेरिका में एंडीज़ (Andes) पर्वत हैं।

(ख) प्राचीन बलदार पर्वत (Old Fold Mountains)-जिस प्रकार उत्तरी अमेरिका में अपैलशियन (Appalachian) पर्वत और नॉर्वे के पर्वत।

(ii) ब्लॉक पर्वत या अवरोधी या भू-खंडीय पर्वत (Block Mountains) ब्लॉक पर्वत आमतौर पर समानांतर दरारों के बीच स्थित होते हैं, जिनका आकार मेज़ के समान होता है। ये पर्वत तनाव की क्रिया (Expansion) से बनते हैं। तनाव के कारण धरातल पर दरारें (Faults) पड़ जाती हैं। दरारों के कारण धरातल का एक बड़ा भाग ब्लॉक (Block) के रूप में ऊपर या नीचे सरक जाता है। इस प्रकार ऊपर उठे हुए भाग को होरस्ट (Horst) कहते हैं और नीचे धंसे भाग को गरैबन्स (Grabens) कहते हैं। इस प्रकार धरती की लंबवर्ती हलचलों (Vertical Movements) के कारण ब्लॉक पर्वत बनते हैं। ब्लॉक पर्वतों का ऊपरी भाग पठार के समान साफ होता है, परंतु चित्र-ब्लॉक पर्वत इसके किनारे तीखी ढलान वाले होते हैं। दरारों के द्वारा निर्माण के कारण इन्हें Fault Mountains भी कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 2

उदाहरण (Examples)-जर्मनी में वॉसजिज़ (Vosges) और ब्लैक फॉरेस्ट (Black Forest), पाकिस्तान में नमक के पहाड़ (Salt Range) और भारत में विंध्याचल पर्वत।

रिफ्ट घाटी (Rift Valley)—इसी प्रकार जब दो समानांतर दरारों (Faults) के बीच का भाग नीचे की ओर सरक जाता है और आस-पास के हिस्से ऊँचे उठे हुए दिखाई देते हैं, तो नीचे को सरका हुआ भाग रिफ्ट घाटी कहलाता है। उदाहरण (Examples)-यूरोप में राइन घाटी (RhineValley) और अमेरिका (U.S.A.) में कैलीफोर्निया घाटी (California Valley), एशिया में मृत सागर (Dead Sea), भारत में नर्मदा घाटी।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 3

(iii) अवशेषी पर्वत (Residual Mountains)-ये पर्वत बाहरी साधनों नदी, बर्फ, वायु आदि के खुरचने के कारण बनते हैं। बहुत समय तक लगातार अपरदन होने के कारण पर्वतों की ऊँचाई बहुत कम हो जाती है। ये पर्वत घिस-घिसकर नीची पहाड़ियों के रूप में बदल जाते हैं। इस प्रकार के पर्वत पुराने पर्वतों के बचेखुचे भाग होते हैं। इसलिए इन्हें Relict Mountains भी कहते हैं। कहीं-कहीं कठोर चट्टानों से बने भू-भाग ऊँचे क्षेत्रों के रूप में खड़े रहते हैं। ऐसे ऊँचे क्षेत्रों को अवशेषी पर्वत कहते हैं। अपरदन के साधनों से बने होने के कारण इन्हें अपरदित पर्वत (Mountains of Denudation) भी कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 4

उदाहरण (Examples) भारत में अरावली पर्वत (Aravali Mountains) और पूर्वी घाट, अमेरिका (U.S.A.) में ओज़ार्क (Ozark) पर्वत।

(iv) ज्वालामुखी पर्वत (Valcanic Moun tains) ज्वालामुखी पर्वत धरती के नीचे से निकलने वाला लावा (Lava) राख (Ash) आदि ठोस पदार्थों के जमाव के कारण बनते हैं। ज्वालामुखी के मुँह से निकला हुआ यह पदार्थ उसके मुख या गर्त के चारों तरफ एक परत के ऊपर दूसरी परत के रूप में लगातार जमता जाता है। इस प्रकार एक शंकु (Cone) का निर्माण हो जाता है। गाढ़े लावे के ऊँचे पर्वत बनते हैं। ऐसे पर्वतों को ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 5

उदाहरण (Examples)-जापान में फ्यूज़ीयामा (Fujiyama) पर्वत, चिली में ऐकनकेगुआ (Aconcagua),
इटली में वेसुवियस (Vesuvious) पर्वत और अफ्रीका में किलीमंजारो (Kilimanjaro) पर्वत।

(v) गुंबददार पर्वत (Dome Mountains)-भीतरी हलचल के कारण गर्म लावा बाहर आने का यत्न करता है।
नीचे की ओर दबाव के कारण धरातल पर एक उभार पैदा हो जाता है। जब धरातल एक चाप (Arch) के आकार में ऊपर उठ जाता है, तो गुंबद के आकार के पर्वत बनते हैं। गुंबद का ऊपरी भाग गोलाकार होता है। लावा के इस उभार से लोकोलिथ (Loccolith) और बैथोलिथ (Batholith) नाम के पर्वत बनते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • हवाई द्वीप में मोना लोआ (Maunaloa)
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में हैनरी पर्वत (Henry Mountains)

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (ख)
पठारों का वर्गीकरण करें और प्रत्येक किस्म की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर-
पठार (Plateau)—पठार एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक इकाई है। धरती का एक बड़ा भाग (33%) पठारों से घिरा हुआ है। “पठार वह प्रदेश होता है, जो आमतौर पर समुद्र तल से एक समान ऊँचाई वाला हो, इर्द-गिर्द के धरातल से एकदम ऊँचा और तीखी ढलान वाला हो।” (A Plateau is a highland with broad, flat summits.”) पठार आमतौर से समुद्र तल से 300 से 1000 मीटर तक ऊँचे होते हैं, पर पठार की ऊँचाई कुछ भी हो सकती है; जैसे अमेरिका (U.S.A.) में पीडमांट पठार (Piedmont Plateau) केवल 600 मीटर ऊँचा है, पर पामीर का पठार कई ऊँचे पर्वतों से भी ऊँचा है और उसे ‘संसार की छत’ (Roof of the world) कहते हैं।

पठारों की प्रमुख विशेषताएँ (Main Features of Plateau)-

  1. सपाट और विशाल शिखर।
  2. किनारों से तीखी ढलान।
  3. मेज के समान चौकोर ऊपरी सतह।
  4. पास के क्षेत्रों से एकदम ऊँचा होना।
  5. मैदानों की तुलना में अधिक ऊँचाई।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 6

पठार पठारों की किस्में (Types of Plateaus) –

1. अंतर-पर्वतीय पठार (Intermonteue Plateaus) 2. गिरीपद पठार (Piedmont Plateaus) 3. महाद्वीपीय पठार (Continental Plateaus) 4. ज्वालामुखी पठार (Volcanic Plateaus) 5. अपरदित पठार (Dissected Plateaus) 6. लोएस पठार (Loess Plateaus)

1. अंतर-पर्वतीय पठार (Intermonteue Plateaus) ये पठार चारों तरफ से ऊँचे पर्वतों से घिरे होते हैं।
(Such Plateaus have a mountain rim around them.”) ये पठार आस-पास के पर्वतों के निर्माण के साथ-साथ बनते रहते हैं, पर इन पठारों में मोड़ नहीं पड़ते और ये समतल रह जाते हैं। इन पठारों में नदियाँ किसी झील में गिरती हैं और अंतरवर्ती जल-प्रवाह (Inland Drainage) होता है। संसार के सबसे ऊँचे पठार इसी प्रकार के हैं।

उदाहरण (Examples) –

  • तिब्बत का पठार (Tibet Plateau) हिमाचल और कुनलुन (Kunlun) पर्वतों के बीच में स्थित है, जो कि 3600 मीटर ऊँचा है।
  • दक्षिणी अमेरिका में एंडीज़ (Andes) पर्वतों से घिरा हुआ है-बोलीविया (Bolivia) का पठार।

2. गिरीपद पठार (Piedmont Plateaus)—ये पठार पर्वतों के आधार पर बने होते हैं। इनके एक तरफ ऊँचे पर्वत और दूसरी तरफ मैदान या समुद्र होता है। मैदान की तरफ तीखी ढलान (Escarpment) होती है। इनका क्षेत्रफल बहुत नहीं होता।

उदाहरण (Examples)-

  • दक्षिण अमेरिका में एंडीज़ (Andes) पर्वत और अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) के बीच स्थित पेटेगोनिया (Patagonia) का पठार।
  • अमेरिका (U.S.A.) में एपलेशीयन (Appalachian) पर्वत के निकट पीडमांट पठार।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 7

3. महाद्वीपीय पठार (Continental Plateaus)—ये पठार ऐसे विशाल पठार हैं, जो किसी महाद्वीप या देश के काफ़ी बड़े क्षेत्र में फैले होते हैं। ये पठार मैदान या समुद्र के निकट एकदम ऊपर उठ जाते हैं। धरातल के सपाट क्षेत्रों में उभार (Uplift) के कारण ये पठार बनते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • सारा अफ्रीका महाद्वीप एक विशाल महाद्वीपीय पठार है।
  • स्पेन, अरब और ग्रीनलैंड के पठार।

4. ज्वालामुखी पठार (Volcanic Plateaus)—ये पठार धरातल पर लावा (Lava) के प्रवाह से बनते हैं। ज्वालामुखी विस्फोट के समय लावा चारों तरफ दूर-दूर तक फैल जाता है। इस प्रकार ये प्रदेश आस-पास के क्षेत्रों से दिखाई देते हैं। इन्हें ज्वालामुखी पठार कहते हैं। उदाहरण (Examples)-भारत का दक्षिणी पठार लगभग 7 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। अमेरिका (U.S.A.) में कोलंबिया पठार।

5. अपरदित पठार (Dissected Plateaus)—ये पठार नदियों के द्वारा अपरदित होते हैं। नदियाँ पठारों को काटकर कई इकाइयों (Platforms) में बाँट देती हैं। नमी वाले प्रदेशों में ढलान वाली ज़मीन पर अधिक कटाव होता है और कई तंग घाटियाँ (Ravines) बन जाती हैं। ऐसे ऊँचे-नीचे धरातल वाले पठार को अपरदित (Dissected) पठार कहते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • भारत में छोटा नागपुर का पठार।
  • स्कॉटलैंड (Scotland) का पठार।

6. लोएस पठार (Loess Plateaus)—वायु द्वारा बने पठार को लोएस पठार (Loess Plateau) कहते हैं। हवा अपने साथ मरुस्थलों से काफी मात्रा में बारीक मिट्टी उड़ाकर लाती है। यह मिट्टी एक परत पर दूसरी परत के रूप में जमा होती रहती है और पठार का रूप धारण कर लेती है।

उदाहरण (Examples)-(i) एशिया (Asia) के गोबी (Gobi) मरुस्थल से आने वाली हवाओं के कारण उत्तर-पश्चिमी चीन में लोएस (Loess) का पठार बन गया है। ये पठार पीली मिट्टी के जमाव के कारण बना है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (ग)
मैदानी क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों को पहाड़ों में रहने वाले लोगों के मुकाबले क्या आसानी होती है और क्या परेशानी होती है ? चर्चा करें।
उत्तर-
मैदानों का महत्त्व (Importance of Plains)—मैदानों में कृषि, उद्योग, व्यापार और मानवीय विकास की सभी सुविधाएँ होती हैं।

1. निवास की सुविधाएँ (Settlement of Population)—मैदानों में सपाट ज़मीन पर बस्तियों का विकास – संभव है। मैदानों में संसार की 75% आबादी निवास करती है।
PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 8
2. कृषि की सुविधाएँ (Agriculture Facilities)—समतल भूमि और उपजाऊ मिट्टी के कारण, मैदान कृषि योग्य उत्तम क्षेत्र होते हैं।

3. अन्न के भंडार (Storehouse of Grains)-मैदानों में सिंचाई की सुविधाएँ, उपजाऊ मिट्टी और मशीनों के प्रयोग के कारण अन्न का उत्पादन अधिक होता है। संसार की सभी व्यापारिक फसलें गेहूँ, गन्ना, कपास और पटसन आदि मुख्य तौर पर मैदानों में ही होती हैं।

4. सभ्यता (Civilization) संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास मैदानों में ही हुआ है। चीन और मिस्र की सभ्यता ने नदी घाटियों में ही जन्म लिया।

5. आसान परिवहन (Easy Transport)—मैदानों में सपाट भूमि के कारण चौड़ी और लंबी सड़कों (Highways), रेलमार्गों (Railways), जलमार्गों (Waterways) और हवाई अड्डों (Aerodromes) को बनाना आसान होता है। नदियों के द्वारा भी आवाजाही आसान होती है। नदियों की धीमी चाल के कारण इनमें नाव और जहाज़ चलाए जा सकते हैं।

6. उद्योग (Industries)—मैदान आर्थिक जीवन की धुरी होते हैं। सभी सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण, संसार के सभी बड़े उद्योग मैदानों में स्थित होते हैं। इसका कारण यह है कि सबसे पहले, मैदानों में कच्चा माल (Raw Material) आसानी से मिल जाता है। दूसरे, परिवहन और संचार के साधन प्राप्त होने के कारण माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से लाया व ले जाया जा सकता है। तीसरे, जनसंख्या अधिक होने के कारण मज़दूरी सस्ती होती है। व्यापार का विकास होता है।

7. नगर (Towns)-आर्थिक और सामाजिक सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण संसार के प्रमुख नगर मैदानों में ही स्थित हैं।

प्रश्न (घ)
उत्पत्ति के आधार पर मैदानों की भिन्न-भिन्न किस्मों का वर्णन करें।
उत्तर-
मैदान (Plains)-प्रमुख भू-आकारों (Major Landforms) में मैदान सबसे अधिक स्पष्ट और सरल हैं। स्थल के बहुत बड़े भाग (41%) पर इनका विस्तार है। मैदान धरती के निचले और समतल (सपाट) क्षेत्र होते हैं। “मैदान स्थल के वे सपाट भाग हैं, जो समुद्र तल से 150 मीटर से कम ऊँचाई पर हों और उनकी ढलान सपाट, मध्यम और साधारण हो।” (Plains are low lands of low relief and horizontal structure.”) मैदान सागर तल से ऊँचे या नीचे हो सकते हैं, परंतु अपने आस-पास के पठार या पर्वत से कभी भी ऊँचे नहीं हो सकते।

मैदानों के लक्षण (Features of Plains)-

  1. एक तरह की चट्टानें
  2. कम ढलान
  3. नीचा धरातल
  4. सपाट और एक समान सतह।

सभी मैदान समुद्र तल से एक समान ऊँचाई के नहीं होते। कई मैदान समुद्र तल से बहुत ऊँचे होते हैं, जैसे अमेरिका के महान मैदान (Great Plains of U.S.A.) 6000 फुट ऊँचे हैं, पर हॉलैंड (Holland) का तट समुद्र तल से भी नीचा है। धरातल के अनुसार मैदान चार तरह के हैं-

  1. सपाट मैदान (Flat Plains)
  2. ऊँचे-नीचे मैदान (Undulating Plains)
  3. लहरदार मैदान (Rolling Plains)
  4. अपरदित मैदान (Dissected Plains)

मैदान की रचना (Formation of Plains)-
मैदान तीन तरह से बनते हैं-

  1. अपरदन (Erosion) से।
  2. निक्षेप (Deposition) से।
  3. धरती की हलचल (Earth Movements) से।

मैदानों की किस्में (Types of Plains)-
रचना के अनुसार मैदानों की निम्नलिखित किस्में हैं-

  1. जलोढ़ मैदान (Alluvial Plains)
  2. अपरदन के मैदान (Pene Plains)
  3. हिमानी मैदान (Glaciated Plains)
  4. सरोवर से निर्मित मैदान (Lacustrine Plains)
  5. ज्वालामुखी मैदान (Volcanic Plains)
  6. तट के मैदान (Coastal Plains)
  7. चूनेदार मैदान (Karst Plains)
  8. लोएस मैदान (Loess Plains)

1. जलोढ़ मैदान (Alluvial Plains)-नदियों के द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी के जमाव से विशाल जलोढ़ मैदान बनते हैं। नदियों का उद्देश्य थल भाग को काटकर समुद्र तक ले जाना होता है। (Rivers Carry land to sea.) केवल उत्तरी अमेरिका की नदियाँ ही 80 करोड़ टन मिट्टी हर वर्ष समुद्र में जमा करती हैं। पर्वतों से निकलकर नदियाँ भाबर के मैदान (Bhabar Plains) बनाती हैं। निचली घाटी में बाढ़ के समय बारीक मिट्टी के जमाव के कारण बाढ़ के मैदान (Flood Plains) बनते हैं। सागर में गिरने से पहले एक समतल तिकोने आकार का एक मैदान बनता है, जिसे डेल्टा (Delta) कहते हैं। नदियों द्वारा बने मैदान बहुत उपजाऊ होते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • भारत में गंगा-सतलुज का विशाल मैदान।
  • चीन में ह्वांग-हो (Hwang Ho) नदी का मैदान।
  • अमेरिका (U.S.A.) में मिसीसीपी (Missisipi) का मैदान।

2. अपरदन के मैदान (Pene Plains)-‘Pene Plains’ शब्द दो शब्दों ‘Pene’ और ‘Plain’ के जोड़ से बना है। ‘Pene’ शब्द का अर्थ है-‘लगभग’ या आम तौर पर (Almost) और ‘Plain’ का अर्थ है-मैदान। इस प्रकार ‘Pene Plains’ का अर्थ है-लगभग मैदान या आम तौर पर समभूमि। एक लंबे समय तक बाहरी साधन बर्फ, जल, हवा आदि के लगातार कटाव के कारण, पर्वत या पठार घिसकर नीचे हो जाते हैं और मैदान का रूप धारण कर लेते हैं। ये मैदान पूरी तरह से सपाट नहीं होते। इन मैदानों की ढलान अत्यंत हल्की होती है। इनमें कठोर चट्टानों के रूप में ऊँचे टीले मिलते हैं। ऐसे मैदानों में कठोर चट्टानों के टीले नष्ट नहीं होते और बचे रहते हैं। इन्हें मोनैडनॉक (Monadnocks) कहते हैं। संसार में इस तरह के पूर्व सम-मैदान (Perfect Plains) बहुत कम मिलते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • फिनलैंड और साइबेरिया का मैदान।
  • भारत में अरावली प्रदेश।

3. हिमानी मैदान (Glaciated Plains)—ये मैदान हिम नदी या ग्लेशियर के कारण बनते हैं। ग्लेशियर कटाव द्वारा ऊँचे भागों को काट-छाँट कर सपाट मैदान बनाते हैं। इनमें झीलें, झरने, ऊँचे-नीचे और दलदली क्षेत्र मिलते हैं। जब बर्फ पिघलती है, तो अपने साथ बहाकर लाई हुई मिट्टी, बजरी, कंकर आदि निचले स्थानों और खड्डों में भर देती है। इससे सपाट मैदान बन जाता है। इन मैदानों में हिमोढ़ (Moraines) के जमाव से बने मैदान को ड्रिफ्ट मैदान (Drift Plains) भी कहते हैं। हिम नदी के अपरदन से भी मैदान बनते हैं, जिसमें छोटेछोटे टीले इधर-उधर बिखरे होते हैं।

उदाहरण (Examples)-हिम युग (Great Ice age) में उत्तरी अमेरिका और यूरोप बर्फ से ढके हुए थे। बर्फ के पिघलने से वहाँ हिमानी मैदान बन गए।

4. सरोवरी मैदान (Lacustrine Plains)-झीलों के भर जाने या सूख जाने से उन स्थानों पर सरोवरी मैदान बन जाते हैं। झीलों में गिरने वाली नदियाँ अपने साथ लाई हुई मिट्टी आदि झील में जमा करती रहती हैं, जिससे झील का तल (Bed) ऊँचा हो जाता है, गहराई कम हो जाती है और धीरे-धीरे झील पूरी तरह भरकर एक सपाट मैदान बन जाती है। धरती की अंदरूनी हलचल के कारण झील का तल ऊपर उठ जाने से भी ऐसे मैदान बनते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • उत्तरी अमेरिका की परेरीज़ (Prairies) का हरा मैदान प्राचीन काल की अगासीज़ (Agassiz) झील के भर जाने के कारण बना है।
  • कैस्पीयन सागर (Caspian Sea) का उत्तरी भाग सूख जाने के कारण मैदान बन गया है।

5. ज्वालामुखी मैदान (Volcanic Plains)-ज्वालामुखी के मुख से निकला पिघला लावा (Basic Lava) कई
किलोमीटर दूर तक फैल कर जम जाता है। लावा एक पतली चादर के रूप में, परतों में निचले क्षेत्र में जमा हो जाता है। इस प्रकार एक सपाट मैदान बनता है।

उदाहरण (Examples)-

  • इटली में नेपल्स (Naples) नगर के निकट वैसुवियस (Vesuvious) का मैदान।
  • अमेरिका (U.S.A.) के स्नेक (Snake) नदी का क्षेत्र।

6. तट के मैदान (Coastal Plains)-तट के मैदान आम तौर पर समुद्र के किनारे पर स्थित होते हैं। तट के जो भाग, पानी में डूब जाते हैं। वे भाग रेत और मिट्टी बिछ जाने के कारण तट के मैदान बनते हैं। समुद्र के पीछे हटने से भी थल भाग सूखकर मैदान बन जाते हैं। धरती की हलचल के कारण, तट के निकट कम गहरा समुद्र ऊँचा उठ जाता है, जिससे तट के मैदान बनते हैं। आम तौर पर तट के मैदानों की ढलान समुद्र की ओर कम होती है। इनका महत्त्व बंदरगाहों और समुद्री व्यापार के कारण होता है।

उदाहरण (Examples)-

  • अमेरिका (U.S.A.) में खाड़ी के तट का मैदान (Gulf Coast Plain)।
  • भारत के पूर्वी तट का मैदान।।

7. चूनेदार मैदान (Karst Plains)-चूने के क्षेत्रों में भूमिगत पानी के एक विशेष प्रकार के धरातल पर जल प्रवाह नहीं होता। चूने का पत्थर जल में घुल जाता है। सारे प्रदेश में चूने के ढेर और टीले दिखाई देते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • यूगोस्लाविया में कार्ट प्रदेश
  • भारत में जबलपुर क्षेत्र।

8. लोएस का मैदान (Loess Plains)—हवा द्वारा बने मैदानों को रेगिस्तानी या लोएस का मैदान कहते हैं। हवा रेत को उड़ाकर दूर-दूर के स्थानों पर जमा करती है। ऐसे मैदानों में रेत के टीले (Sand Dunes) अधिक होते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • उत्तर-पश्चिमी चीन में शैंसी और शांसी प्रदेशों में लोएस के मैदान मिलते हैं।
  • पंजाब और हरियाणा की सीमा पर लोएस के मैदान मिलते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न (ङ)
भारत के छोटे नागपुर क्षेत्र के लोग, केरल व हिमाचल प्रदेश के लोगों से किन मुद्दों पर भिन्न हो सकते हैं ? चर्चा करें।
उत्तर-
छोटा नागपुर का पठार एक अपरदित पठार है। बहता हुआ जल ऊँचे पर्वत को क्षीण कर पठार का आकार देता है। हिमाचल प्रदेश एक मोड़दार पर्वत है और केरल एक तटीय मैदान है। इन प्रदेशों के लोगों का जीवन और क्रियाएँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिमाचल प्रदेश एक पर्वतीय प्रदेश है और यहाँ कृषि की कमी है। पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेती होती है। ठंडी जलवायु के कारण गेहूँ की खेती सीमित होती है। यहाँ फलों की खेती महत्त्वपूर्ण है। हिमाचल के सेबों के बाग विश्व-भर में प्रसिद्ध हैं। यहाँ परिवहन के साधन सीमित हैं।

छोटा नागपुर एक अपरदित पठार है। यहाँ वर्षा की अधिक मात्रा के कारण मिट्टी का कटाव अधिक है। यहाँ खनिज । पदार्थ बहुत मिलते हैं। यहाँ लोहे और कोयले के भंडार हैं। खानें खोदना लोगों का कार्यक्षेत्र है। वनों का घनत्व बहुत अधिक है। आदिवासी लोग जंगलों में रहते हैं और पेड़ काटना भी एक रोज़गार है।

केरल के तटीय मैदानों में वर्षा बहुत अधिक होती है। यहाँ चावल की कृषि होती है। लोगों का मुख्य भोजन चावल है। यहाँ साक्षरता की ऊँची दर है, इसलिए लोग तकनीकी रूप से विकसित हैं। औद्योगिक विकास बहुत अधिक है। जनसंख्या का घनत्व भी अधिक है। मछली पकड़ना लोगों का एक रोज़गार है।

Geography Guide for Class 11 PSEB प्रमुख भू-आकार Important Questions and Answers

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पर्वतों की औसत ऊँचाई कितनी होती है ?
उत्तर-
900 मीटर से अधिक।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 2.
मोड़दार पर्वतों की रचना में कौन-सी शक्ति काम करती है ?
उत्तर-
संपीड़न क्रिया।

प्रश्न 3.
पर्वत के ऊँचे-ऊँचे भागों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
Anticline.

प्रश्न 4.
पर्वतीय भाग में नीचे धंसे भागों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
Syncline.

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 5.
नवीन मोड़दार पर्वतों का एक उदाहरण बताएँ।
उत्तर-
हिमालय पर्वत।

प्रश्न 6.
ब्लॉक पर्वतों में ऊँचे उठे भाग को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
होरस्ट।

प्रश्न 7.
दो समानांतर दरारों के बीच धंसे भाग को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
रिफ्ट घाटी।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 8.
रिफ्ट घाटी का एक उदाहरण बताएँ।
उत्तर-
राइन घाटी।

प्रश्न 9.
भारत में बचे-खुचे पर्वतों के उदाहरण दें।
उत्तर-
अरावली पर्वत।

प्रश्न 10.
अंतर-पर्वतीय पठार का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
तिब्बत पठार।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 11.
मैदानों की औसत ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
150 मीटर।

प्रश्न 12.
लोएस पठार कहाँ स्थित है ?
उत्तर-
उत्तर-पश्चिमी चीन में।

बहुविकल्पीय प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
किसी पर्वत की कम-से-कम ऊँचाई होती है।
(क) 500 मीटर
(ख) 600 मीटर
(ग) 900 मीटर
(घ) 1000 मीटर।
उत्तर-
900 मीटर।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 2.
नीचे लिखे में से कौन-सा मोड़दार पर्वत है ?
(क) ब्लॉक पर्वत
(ख) हिमालय
(ग) ओज़ारन
(घ) स्कॉटलैंड।
उत्तर-
हिमालय।

प्रश्न 3.
नीचे लिखे में से अंतर-पर्वतीय पठार बताएँ।
(क) पैट्रोलियम
(ख) तिब्बत
(ग) लोएस
(घ) छोटा नागपुर।
उत्तर-
तिब्बत।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न : (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
भू-तल पर प्रमुख भू-आकार बताएँ।
उत्तर-

  1. पर्वत
  2. मैदान
  3. पठार।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 2.
पर्वत किसे कहते हैं ?
उत्तर-
पर्वत ऐसे ऊँचे उठे हुए भू-खंड को कहते हैं, जो आस-पास के प्रदेश से कम-से-कम 900 मीटर अधिक ऊँचा हो। उसके तल का आधे से अधिक भाग तीखी ढलान वाला हो।

प्रश्न 3.
पर्वत और पहाड़ी में अंतर बताएँ।
उत्तर-
900 मीटर से कम ऊँचे प्रदेश को पहाड़ी कहते हैं, जबकि 900 मीटर से अधिक ऊँचे प्रदेश को पर्वत कहते हैं।

प्रश्न 4.
Anticline और Syncline में क्या अंतर है ? ।
उत्तर-
किसी वलण या बलदार पर्वत (Folded Mountains) के शिखर को Anticline और नीचे से हुए भाग को Syncline कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 5.
युवा या नवीन बलदार पर्वत किसे कहते हैं ?
उत्तर-
टरशरी युग (5 करोड़ वर्ष) के बाद बनने वाले पर्वतों को युवा पर्वत कहते हैं, जैसे-हिमालय, अल्पस पर्वत।

प्रश्न 6.
प्राचीन बलदार पर्वत किसे कहते हैं ?
उत्तर-
टरशरी युग से पहले बने पर्वतों को प्राचीन बलदार पर्वत कहते हैं, जैसे-युराल पर्वत और अरावली पर्वत. भारत के सबसे प्राचीन बलदार पर्वत हैं।

प्रश्न 7.
होरस्ट से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
दरारों के कारण कुछ भाग नीचे धंस जाते हैं। जो बीच वाला भाग ऊपर उठा होता है, तो उसे होरस्ट कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 8.
दरार घाटी किसे कहते हैं ?
उत्तर-
दो दरारों के बीच वाले भाग के नीचे फँस जाने से दरार घाटी की रचना होती है।

प्रश्न 9.
दरार घाटी के चार उदाहरण दें।
उत्तर-

  1. राइन घाटी
  2. नर्मदा घाटी
  3. मृत सागर
  4. लाल सागर।

प्रश्न 10.
ज्वालामुखी पर्वतों के तीन उदाहरण दें।
उत्तर-

  1. फ्यूज़ीयामा पर्वत
  2. वैसुवीयस पर्वत
  3. कोटोपैक्सी पर्वत।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 11.
पठार की परिभाषा दें।
उत्तर-
पठार वह प्रदेश होता है, जो समुद्र तल से एक जैसी ऊँचाई वाला हो और इर्द-गिर्द से एकदम ऊँचा और तीखी ढलान वाला हो।

प्रश्न 12.
अंतर-पर्वतीय पठार क्या होता है ?
उत्तर-
चारों तरफ से ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे प्रदेश को अंतर-पर्वतीय पठार कहते हैं, जैसे-तिब्बत का पठार।

प्रश्न 13.
पीडमांट पठार क्या है ?
उत्तर-
पर्वतों की निचली ढलानों पर स्थित पठार को पीडमांट पठार कहते हैं, जैसे-पैंटागोनिया पठार।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 14.
संसार के प्राचीन पठारों के उदाहरण दें।
उत्तर-

  1. ब्राज़ील पठार
  2. कनाडा का पठार
  3. गोंडवाना पठार।

प्रश्न 15.
पृथ्वी के तल पर थल और जल का विभाजन क्या है ?
उत्तर-
थल 29.2% और जल 70.8% ।

प्रश्न 16.
क्या महाद्वीप और महासागर स्थायी हैं ?
उत्तर-
नहीं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 17.
महाद्वीप विस्थापन सिद्धांत किसने पेश किया ?
उत्तर-
सन् 1915 में अल्फ्रेड वैगनर ने।

प्रश्न 18.
पैंजीया से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आदिकाल में जब सारे महाद्वीप इकट्ठे थे, तो उसे पैंजीया कहते थे।

प्रश्न 19.
पैंजीया के मध्यवर्ती भाग में कौन-सा सागर था ?
उत्तर-
टैथीज़ सागर।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 20.
गोंडवाना लैंड में कौन-से महाद्वीप शामिल थे ?
उत्तर-
ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका।

प्रश्न 21.
अंगारालैंड की क्या स्थिति थी ?
उत्तर-
टैथीज़ सागर के उत्तर में यूरेशिया महाद्वीप को अंगारालैंड कहते थे।

प्रश्न 22.
वैगनर के अनुसार अमेरिका के पश्चिम की ओर खिसकने का क्या कारण था ?
उत्तर-
ज्वारीय शक्ति।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 23.
Jig-Saw-Fit से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अंध महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तटों को यदि जोड़ा जाए, तो ये एक आरे के ब्लेडों के समान एकदूसरे में फिट हो जाते हैं जैसे कि ये दोनों कभी इकट्ठे थे।

प्रश्न 24.
प्लेट-टैक्टौनिक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पृथ्वी की पपड़ी और महासागरीय भू-पटल 6 कठोर भू-प्लेटों पर टिका हुआ है। ये प्लेटें खिसकती रहती हैं। इस क्रिया को Plate-Tectonics कहते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न : (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पर्वत क्या होते हैं ? इनकी तीन प्रमुख विशेषताएँ लिखें।
उत्तर-
पर्वत (Mountains)-पर्वत प्रकृति की रहस्यमयी रचनाओं में एक हैं। इन्होंने धरती का 12 प्रतिशत भाग घेरा हुआ है।
“पर्वत ऐसे उठे हुए भू-खंडों को कहते हैं, जो अपने आस-पास के प्रदेश से कम-से-कम 900 मीटर अधिक ऊँचा हो। उसके तल का आधे से अधिक भाग तीखी ढलान वाला हो।”

पर्वतों का आधार-क्षेत्र बड़ा होता है, पर ऊंचाई के साथ-साथ इनका विस्तार कम होता जाता है, इसलिए पर्वतों की चोटियों के क्षेत्र छोटे होते हैं। पर्वत और पहाड़ी में केवल ऊँचाई का अंतर होता है। पहाड़ी की ऊँचाई 900 मीटर से कम होती है।

पर्वतों की प्रमुख विशेषताएँ (Main Features of Mountains)-

  1. आस-पास के क्षेत्रों से अधिक ऊँचाई (High level area)
  2. शिखर का कम विस्तार (Small Summit)
  3. तीखी ढलान (Steep slope)

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 2.
अवशेषी पर्वत कैसे बनते हैं ?
उत्तर-
अवशेषी पर्वत (Residual Mountains)-ये पर्वत बाहरी साधनों नदी, बर्फ, वायु आदि के अपरदन के कारण बनते हैं। बहुत समय तक लगातार अपरदन होने के कारण पर्वतों की ऊँचाई बहुत कम हो जाती है। ये पर्वत घिसघिस कर नीची पहाड़ियों के रूप में बदल जाते हैं। इस तरह के पर्वत पुराने पर्वतों के बचे-खुचे भाग होते हैं, इसलिए इन्हें Relict Mountains भी कहते हैं। कहीं-कहीं कठोर चट्टानों के बने भू-भाग ऊँचे क्षेत्रों के रूप में बंधे खड़े रहते हैं। ऐसे ऊँचे क्षेत्रों को अवशेषी पर्वत कहते हैं। अपरदन के साधनों से बने होने के कारण इन्हें अपरदन के पर्वत (Mountains of Denudation) भी कहते हैं।

उदाहरण (Examples)—भारत में अरावली पर्वत (Aravali Mountains) और पूर्वी घाट, अमेरिका (U.S.A.) में ओज़ारक (Ozark) पर्वत।

प्रश्न 3.
पठार क्या होते हैं ? पठारों की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
पठार (Plateau)—पठार एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक इकाई है। धरती का एक बड़ा भाग (33%) पठारों से घिरा हुआ है। “पठार वह प्रदेश होता है, जो आमतौर पर समुद्र तल से एक समान ऊँचाई वाला हो। इर्द-गिर्द के धरातल से एकदम ऊँची और तीखी ढलान वाला हो।”
(“A Plateau is a highland with broad and flat summits”)

पठार आमतौर पर समुद्र तल से 300 से 1000 मीटर तक ऊँचे होते हैं, पर पठार की ऊँचाई कुछ भी हो सकती है, जैसे अमेरिका (U.S.A.) में पीडमांट पठार (Piedmont Plateau) केवल 600 मीटर ऊँचा है, पर पामीर का पठार कई ऊँचे पर्वतों से ऊँचा है और उसे ‘संसार की छत’ (Roof of the world) कहते हैं।

पठार की प्रमुख विशेषताएँ (Main features of Plateau)-

  1. सपाट और विशाल शिखर
  2. किनारों से तीखी ढलान।
  3. मेज के समान चौकोर ऊपरी सतह।
  4. निकट के क्षेत्रों से एकदम ऊँचा होना।

प्रश्न 4.
मैदान क्या होते हैं ?
उत्तर-
मैदान (Plains)—प्रमुख भू-आकारों (Major Land forms) में मैदान सबसे अधिक स्पष्ट और सरल होते हैं। थल के अधिकांश भाग (41%) पर इनका विस्तार है। मैदान धरती के निचले और समतल (सपाट) क्षेत्र होते हैं। “मैदान थल के वे सपाट भाग होते हैं, जो समुद्र तल से 150 मीटर से कम ऊँचाई पर होते हैं और जिनकी ढलान सपाट, मध्यम और साधारण होती है।” (“Plains are Lowlands of Low relief and horizontal structure”) मैदान सागर-तल से ऊँचे या नीचे हो सकते हैं, परन्तु अपने इर्द-गिर्द के पठार या पर्वत से कभी भी ऊँचे नहीं हो सकते।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 5.
अपरदन के मैदान कैसे बनते हैं ?
उत्तर-
अपरदन के मैदान (Pene Plains)—’Pene Plains’ शब्द दो शब्दों Pene और Plain के जोड़ से बना है। ‘Pene’ शब्द के अर्थ हैं ‘लगभग’ या आमतौर पर ‘Almost’ और ‘Plain’ का अर्थ है-मैदान। इस प्रकार ‘Pene Plain’ का अर्थ है-लगभग मैदान या आमतौर पर ‘समभूमि। एक लंबे समय तक बाहरी साधनों बर्फ, जल, हवा आदि के लगातार कटाव के कारण पर्वत या पठार घिसकर नीचे हो जाते हैं और मैदान का रूप धारण कर लेते हैं। ये मैदान पूरी तरह से सपाट नहीं होते। इन मैदानों की ढलान अत्यंत हल्की होती है। इनके बीच कठोर चट्टानों के रूप में ऊँचे टीले मिलते हैं। ऐसे मैदानों में कठोर चट्टानों के टीले नष्ट नहीं होते और बचे रहते हैं। इन्हें मोनैडनाक (Monadnaks) कहते हैं। विश्व में इस प्रकार के पूर्ण सम-मैदान (Perfected Pene Plains) बहुत कम मिलते हैं।

उदाहरण (Examples)–

  • फिनलैंड और साइबेरिया के मैदान
  • भारत में अरावली प्रदेश।

प्रश्न 6.
‘पठार खनिज पदार्थों के भंडार होते हैं।’ व्याख्या करें।
उत्तर-
बहुत-से पठारों से लाभदायक खनिज मिलते हैं। कई पठार ज्वालामुखी की प्रक्रिया के कारण खनिज पदार्थों के लिए प्रसिद्ध हैं। भारत के दक्षिणी पठार में कोयला, लोहा, मैंगनीज़ आदि मिलता है। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया और दक्षिणी अफ्रीका के पठार चूने की खानों के लिए प्रसिद्ध हैं। कनाडा के पठारों में तांबा और ब्राज़ील में लोहा मिलता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 7.
मैदानों में संसार की सबसे घनी जनसंख्या होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
विश्व की 80% जनसंख्या मैदानों में निवास करती है। मैदानों की सपाट ज़मीन पर बस्तियों का विकास होता है। सपाट भूमि और उपजाऊ भूमि के कारण ये मैदान कृषि योग्य प्रदेश होते हैं। मैदानों में रेलों, सड़कों और हवाई अड्डों का निर्माण आसान होता है। मैदान आर्थिक पक्ष से भी बड़े लाभदायक होते हैं, इसीलिए विश्व की अधिक जनसंख्या मैदानों में मिलती है।

प्रश्न 8.
मैदानों को विश्व का ‘अन्न भंडार’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
मैदान सपाट और उपजाऊ धरती के क्षेत्र हैं। गहरी मिट्टी और ऊँचे जल-स्तर के कारण यहाँ जल-सिंचाई के साधन मिलते हैं। मशीनों के प्रयोग के कारण अधिक अनाज उत्पन्न होता है। संसार की प्रमुख फसलें-कपास, गेहूँ, गन्ना, चावल आदि मैदानों में ही उगाई जाती हैं, इसीलिए मैदानों को संसार का ‘अन्न भंडार’ कहा जाता है।

प्रश्न 9.
पर्वतों से प्राप्त होने वाली संपत्तियों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
पर्वतों से मनुष्यों को अनेक लाभदायक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं-

  1. पर्वत खनिज संपत्ति के भंडार हैं, जैसे-कोयला, सोना, ताँबा, मैंगनीज आदि।
  2. पर्वतों से इमारती लकड़ी प्राप्त होती है। नर्म लकड़ी के कई उद्योग पर्वतों पर निर्भर करते हैं।
  3. पर्वत पन बिजली के स्रोत हैं।
  4. पर्वतों पर कई किस्म की फसलें उगाई जा सकती हैं; जैसे–चाय।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 10.
मैदानों पर मनुष्य का अधिकार सबसे पुराना है। क्यों ?
उत्तर-
प्राचीन काल से ही मैदान मानवीय सभ्यता के केन्द्र रहे हैं। आज भी मैदानों में संसार की 75% जनसंख्या निवास करती है।
नदी घाटियों और जलोढ़ मैदानों पर निवास स्थान, कृषि और आवाजाही की सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। इन्हीं सुविधाओं के कारण ही प्राचीन सभ्यताओं का जन्म नदी घाटियों में ही हुआ था। रोम, मिस्र और सिंधु घाटी की सभ्यताओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं। नदी घाटियों को सभ्यताओं का पालना (Cradle of Civilizations) भी कहा जाता है। यही कारण है कि मैदानों पर मनुष्य का अधिकार सबसे पुराना है।

प्रश्न 11.
अंतर-पर्वतीय पठारों और पर्वत-प्रांतीय पठारों में अंतर बताएँ।
उत्तर –
अंतर-पर्वतीय पठार (Piedmont Plateau) –

  1. ये पठार चारों तरफ से ऊँचे पर्वतों से घिरे होते हैं।
  2. इन पठारों में अंदरूनी जल-प्रवाह होता है।
  3. इनका विस्तार अधिक होता है।
  4. तिब्बत का पठार एक अंतर-पर्वतीय पठार है।

पर्वत-प्रांतीय पठार (Intermont Plateau) –

  1. ये पठार पर्वतों के आधार पर बने होते हैं।
  2. इनके एक तरफ समुद्र या मैदान स्थित होते
  3. इनका क्षेत्रफल सीमित होता है।
  4. पैंटोगोनीया का पठार एक पर्वत-प्रांतीय पठार है।

प्रश्न 12.
ब्लॉक पर्वतों और बलदार पर्वतों में अंतर बताएँ।
उत्तर-
ब्लॉक पर्वत (Fold Mountains)-

  1. ये पर्वत धरती की परतों में दरारें पड़ने से बनते हैं।
  2. इनका निर्माण सिकुड़ने और दबाव की शक्तियों से होता है।
  3. इनका शिखर मेज के समान चौकोर और समतल होता है।
  4. ऊँचे उठे हुए पर्वत को होरस्ट (Horst) और नीचे धंसे हुए पर्वत को दरार घाटी कहते हैं।
  5. विंध्याचल और वासजिस इसके उदाहरण हैं।

बलदार पर्वत (Block Mountains)-

  1. ये पर्वत चट्टानों की परतों में बल पड़ने से बनते हैं।
  2. इनका निर्माण तनाव और खिंचाव की शक्तियों से होता है।
  3. इसका शिखर ऊँचा-नीचा होता है।
  4. ऊपर उठे हुए भाग को Anticline और नीचे फँसे हुए भाग को Syncline कहते हैं।
  5. हिमालय और एल्पस पर्वत इसके उदाहरण हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 13.
ब्लॉक पर्वत और रिफ्ट घाटी में अंतर बताएँ।
उत्तर-
ब्लॉक पर्वत (Block Mountains)-

  1. दो दरारों के बीच ऊपर उठे हुए भू-खंड को ब्लॉक पर्वत कहते हैं।
  2. इसे होरस्ट पर्वत भी कहते हैं।
  3. इसका निर्माण ऊपर उठने की क्रिया से होता है।
  4. विंध्याचल एक ब्लॉक पर्वत है।

रिफ्ट घाटी (Rift Valley)-

  1. दो दरारों के बीच नीचे धंसे हुए भू-भाग को दरार घाटी कहते हैं।
  2. इसे रिफ्ट घाटी भी कहते हैं।
  3. इसका निर्माण नीचे धंसने की क्रिया से होता है।
  4. राइन घाटी एक रिफ्ट घाटी है।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
मैदानों का महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
मैदानों का महत्त्व (Importance of Plains)-मैदानों में कृषि, उद्योग, ढुलाई, व्यापार और मानवीय विकास की सभी सुविधाएँ होती हैं।
1. निवास की सुविधाएँ (Settlement of Population) मैदानों में सपाट ज़मीन पर बस्तियों का विकास संभव है। मैदानों में संसार की 75% जनसंख्या निवास करती है।

2. कृषि की सुविधाएँ (Agriculture facilities)-समतल भूमि, गहरी और उपजाऊ मिट्टी के कारण मैदान कृषि-योग्य उत्तम क्षेत्र होते हैं।

3. अन्न के भंडार (Store house of foodgrains)—मैदानों में सिंचाई की सुविधाएँ, उपजाऊ मिट्टी और मशीनों के प्रयोग के कारण अधिक अनाज उत्पन्न होता है। संसार की सभी व्यापारिक फसलें गेहूँ, गन्ना, कपास और पटसन आदि मुख्य रूप से मैदानों में होती हैं।

4. सभ्यताएँ (Civilizations)—संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास मैदानों में ही हुआ था। चीन और मिस्र की सभ्यताओं ने नदी घाटियों में ही जन्म लिया था।

5. आसान आवाजाही (Easy Transport)-मैदानों में सपाट भूमि के कारण चौड़ी और लंबी सड़कों (Highways), रेलमार्गों (Railways), जलमार्गों (Waterways) और हवाई अड्डों (Aerodromes) का निर्माण आसान होता है। नदियों द्वारा भी आवाजाही में आसानी होती है। नदियों की धीमी चाल के कारण इनमें नावें और जहाज़ चलाए जा सकते हैं।

6. उद्योग (Industries)-मैदान आर्थिक जीवन की धुरी होते हैं। सभी सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण संसार के सभी बड़े उद्योग मैदानों में स्थित हैं। इसका कारण यह है कि सबसे पहले, मैदानों में कच्चा माल (Raw materials) आसानी से मिल जाता है। दूसरे, आवाजाही और संचार के साधन उपलब्ध होने के कारण माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से लाया व ले जाया जा सकता है। तीसरे, जनसंख्या अधिक होने के कारण मज़दूरी सस्ती होती है। व्यापार का विकास होता है।

7. नगर (Towns/Cities)-आर्थिक और सामाजिक सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण संसार के प्रमुख नगर मैदानों में ही स्थित हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 2.
पठारों का महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
पठारों का महत्त्व (Importance of Plateaus)-
1. ठंडी जलवायु (Cool Climate)-पठार मैदानों की तुलना में ठंडे होते हैं। यही कारण है कि ऑस्ट्रेलिया और पूर्वी अफ्रीका के पठारों में यूरोप के निवासी जा बसे हैं और जनसंख्या अधिक है।

2. भेड़ें पालना (Sheep rearing)—पठारों में चरागाहों की सुविधा होती है। यहाँ भेड़-बकरियाँ पाली जाती हैं और ऊन प्राप्त होती है।

3. डेयरी फार्मिंग (Dairy Farming)-पठारों में घास के मैदानों में पशु पाले जाते हैं। यही कारण है कि अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में डेयरी फार्मिंग (Dairy Farming) का अधिक विकास हुआ है।

4. खनिज पदार्थों के भंडार (Storehouse of Minerals)-बहुत से पठार लाभदायक धातुओं और खनिज पदार्थों के भंडार हैं, जिनके आधार पर अलग-अलग उद्योगों का विकास हुआ है, जैसे-ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में ताँबा और सोना, अफ्रीका में हीरा, भारत में लोहा और मैंगनीज़।

5. उपजाऊ मिट्टी (Fertile Land) ज्वालामुखी पठार लावे की मिट्टी के कारण लाभदायक होते हैं; जैसे दक्षिण का पठार काली मिट्टी के कारण कपास की खेती के लिए लाभदायक है।

6. पन-बिजली (Water Power)—पठार की नदियाँ झरने बनाती हैं, जिनसे पन-बिजली प्राप्त होती है। अफ्रीका और भारत के दक्षिणी पठार में पन-बिजली की अधिक संभावनाएँ हैं।

दोष (Demerits)-
नीचे लिखे पठार मनुष्यों के निवास के योग्य नहीं होते-

  1. जहाँ जलवायु प्रतिकूल हो।
  2. जहाँ की भूमि उपजाऊ न हो।
  3. जिनमें कटाव आदि अधिक हो।
  4. जो बहुत ऊँचे और ठंडे हों।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 3.
पर्वतों के क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
पर्वत आर्थिक दृष्टि से सहायक हैं और रुकावट भी। इन प्रदेशों में सपाट भूमि की कमी, कम गहरी मिट्टी और पथरीली बनावट के कारण ज़मीन खेती के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होती है। आवाजाही के साधनों की कमी, प्रतिकूल जलवायु और निवास स्थानों की कमी के कारण जनसंख्या भी बहुत कम होती है। फिर भी पर्वत अनेक प्रकार से लाभदायक हैं1.

1. खनिज संपत्ति के स्त्रोत (Sources of Mineral Wealth)—पर्वत लाभदायक धातुओं और खनिजों के भंडार होते हैं। इन प्रदेशों में खानों के खनन का व्यवसाय विकास कर जाता है। रूस के यूराल पर्वतों में लोहा और मैंगनीज़, दक्षिणी अमेरिका के ऐंडीज़ में सोना, चाँदी, ताँबा, और संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.) के एपलेशियन पर्वत में कोयला मिलता है।

2. जंगलों का घर (Home of Forests)-पर्वत अलग-अलग प्रकार की इमारती लकड़ी से ढके होते हैं, जैसे हिमालय पर्वत पर साल और सागवान के जंगल मिलते हैं। कई तरह के उद्योग जंगलों पर आधारित होते हैं। इन जंगलों से ईंधन, कागज़, रेशम, दियासलाई आदि बनाने के लिए लकड़ी प्राप्त होती है। कई पहाड़ी देशों, जैसे स्वीडन और नॉर्वे की उन्नति इन जंगलों पर ही आधारित है।

3. स्वास्थ्यवर्धक स्थान (Health Resorts)-पर्वत मैदानों में रहने वाले लोगों को सदा अपनी ओर आकर्षित करते हैं। पर्वतों का निम्न तापमान, स्वास्थ्यवर्धक, सुहावनी जलवायु और आकर्षक दृश्य गर्मियों की ऋतु में आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं। जिस प्रकार कश्मीर और स्विट्ज़रलैंड में लाखों पर्यटक मन बहलाने के लिए विदेशों से घूमने-फिरने के लिए आते हैं, जिससे पर्यटन उद्योग (Tourist Industry) की आमदनी बढ़ जाती है। लोग अनेक पहाड़ी ढलानों पर स्कींग (Skiing) आदि खेल भी खेलते हैं।

4. सुरक्षा (Defence) सुरक्षा की दृष्टि से भी पर्वत लाभदायक हैं। भारत की उत्तरी सीमा पर हिमालय पर्वत देश की रक्षा का काम करता है। परंतु आज के वैज्ञानिक युग में पर्वत भी देश को आक्रमण से नहीं बचा सकते, जैसे-1962 में चीन ने हिमालय पर्वत के तिब्बत की ओर से भारत पर आक्रमण किया था।

5. प्राकृतिक सीमाएँ (Natural Boundaries)—ऊँचे पर्वत अलग-अलग देशों के बीच प्राकृतिक और राजनीतिक सीमाएँ बनाते हैं, जिस प्रकार भारत और चीन के बीच हिमालय पर्वत एक प्राकृतिक सीमा है। पर्वतीय स्थिति वाले बहुत-से छोटे-छोटे देश सदा स्वतंत्र रहते हैं, जैसे-नेपाल, स्विट्ज़रलैंड आदि। परंतु पर्वतीय सीमाएँ सही ढंग से निर्धारित नहीं होती हैं।

6. जलवायु (Climate)-पर्वतों की स्थिति और दिशा, वर्षा और तापमान पर प्रभाव डालती हैं। पर्वत नमी से भरपूर पवनों को रोककर वर्षा करते हैं। जैसे हिमालय पर्वत मानसून पवनों को रोककर भारत में काफी वर्षा करते हैं। पर्वत स्थिति के अनुसार गर्म और ठंडी वायु को एक देश से दूसरे देश में प्रवेश करने से रोकते हैं। हिमालय पर्वत मध्य एशिया की ठंडी हवाओं को रोक लेता है, नहीं तो उत्तरी भारत में सर्दियों की ऋतु चीन के समान अत्यंत कठोर होती। यदि हिमालय पर्वत न होता, तो गंगा का मैदान एक मरुस्थल होता।

7. चरागाह (Pastures)-पर्वतीय ढलानों पर चरागाहों की सुविधा होती है, जहाँ भेड़-बकरियाँ चराई जाती हैं पहाड़ी प्रदेशों में मौसमी पशु चारण (Transhumance) भी होता है।

8. नदियों के स्त्रोत (Sources of Rivers)-ऊँचे पर्वतों से अनेक नदियाँ निकलती हैं। ऊँचे बर्फीले पर्वतों से निकलने वाली नदियों से पूरा साल जल प्राप्त होता रहता है और सिंचाई के लिए स्थायी नहरें निकाली जाती हैं। गंगा का मैदान हिमालय पर्वत से निकलने वाली नदियों के कारण ही बना है।

9. पन-बिजली (Water Power)-पर्वतीय प्रदेशों में नदियों के मार्ग में अनेक झरने बनते हैं, जो पन-बिजली के विकास के लिए आदर्श स्थान होते हैं। जापान, इटली और स्वीडन जैसे पहाड़ी प्रदेशों में पन-बिजली के कारण ही औद्योगिक विकास हुआ है।

10. विशेष पैदावार (Special Crops)-पर्वतीय ढलानें कुछ विशेष उपजों के लिए अनुकूल क्षेत्र होती हैं, जैसे-चाय और कहवा/कॉफी आदि। भारत में असम की पहाड़ी ढलानों पर चाय के बाग़ (Tea Estates) मिलते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 4.
पर्वत निर्माणकारी परिकल्पना भू-अभिनीति का वर्णन करें।
उत्तर-
पर्वत निर्माणकारी परिकल्पना भ-अभिनीति (Mountain Building Theory-Geosynclines)-
पर्वत पृथ्वी के रहस्यमय भू-आकार हैं। इनकी रचना बहुत जटिल है। पर्वत-निर्माण एक निरंतर क्रिया नहीं है और कुछ युगों तक सीमित है। पर्वतीय सिलसिले बहुत जटिल हैं। इनके अध्ययन से इनकी विशेषताओं का पता चलता है-

1. तलछटी चट्टानें (Sedimentary Rocks) विश्व के सभी पर्वत परतदार चट्टानों से बने हैं। इन चट्टानों का जन्म समुद्र में होता है। पर्वतों के मोड़ों में उपलब्ध जीवाश्म भी प्रकट करते हैं कि पर्वत समुद्री फर्श से ही ऊपर उठे हैं। (Mountains have arisen out of sea.)

2. चाप आकार (Arc Shape)-संसार के बड़े-बड़े पर्वतों की स्थिति समुद्री तटों के समानांतर एक चाप के आकार की है, जैसे रॉकी एंडीज़ और हिमालय पर्वत । इनकी रचना धरातल की समानांतर दिशा पर दबाव पड़ने से हुई है इसीलिए इनका आकार बाहर की ओर चाप के समान है। एक खोज से पता चला है कि पर्वतीय क्षेत्रों की लंबाई अधिक है और चौड़ाई कम है। तलछटी चट्टानों की बहुत अधिक मोटाई का कारण खोजना बहुत कठिन है। इतनी अधिक मोटाई में तलछट के एकत्र होने का कारण भू-अभिनीति (Geosyncline) ही संभव है। भू-अभिनीति धरातल पर एक लंबा, तंग और कम गहरा भाग है, जिसमें नदियों के द्वारा जमा किए गए तलछट इकट्ठे होते हैं और उनके भार के नीचे दबकर वह नीचे को धंसता रहता है। (Geosynclines are long but narrow and shallow depressions in which sedimentation and subsidence take place simultaneously.) 1873 में एक वैज्ञानिक डैना ने इस प्रकार के निर्माण को भू-अभिनीति का नाम दिया। इसके आधार पर पर्वत-निर्माण में तीन चरण ज़रूरी हैं-

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 9

(i) भू-अभिनीति चरण (Geosyncline Stage)-पर्वत निर्माण में यह पहला चरण है, जबकि एक कम गहरे स्थान पर तलछट जमा होते हैं जिससे यह स्थान भर जाते हैं, इन्हें भू-अभिनीति कहते हैं। इस अवस्था में भू-अभिनीति की उत्पत्ति, तलछट का जमाव, तल का नीचे धंसना आदि क्रियाएँ होती हैं। इनके लिए कुछ दशाओं का होना ज़रूरी होता है

(क) भू-अभिनीति का समुद्र से नीचे मौजूद होना।
(ख) यह भू-अभिनीति लंबी, तंग और एक गर्त (Trough) के आकार के समान हो।
(ग) भू-अभिनीति के निकट कोई-न-कोई ऊँचा प्रदेश हो, जहाँ से नदियाँ मलबे को बहाकर ला सकें और भू-अभिनीति धीरे-धीरे मलबे से भर जाए।

(ii) पर्वत निर्माण का चरण (Orogenic Stage)-जब भू-अभिनीति पूरी हो जाती है, तो जमा हुई तलछट की मोटाई हज़ारों फुट तक पहुँच जाती है। तनाव और संपीड़न के कारण वलन क्रिया होती है, जिससे पर्वत बनते हैं। इसलिए भू-अभिनीतियों को पर्वतों का झूला (Cradle of Mountains) कहा जाता है।

प्रश्न 5.
वैगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का वर्णन करें। इसके पक्ष में प्रमाण दें।
उत्तर-
वैगनर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना (Wegner’s Continental Drift Hypothesis). महाद्वीपों के विस्थापन की कल्पना सबसे पहले फ्रांसीसी विद्वान् एंटोनीयो स्नाइडर ने सन् 1858 में की थी। इसके बाद एफ० जी० टेलर (F.G. Taylor) ने भी ऐसा ही विचार पेश किया था। परंतु ये दोनों विद्वान् अपने विचारों को स्पष्ट रूप देने में असमर्थ रहे, इसीलिए उन्हें मान्यता नहीं मिली। सन् 1912 में जर्मन वैज्ञानिक अल्फ्रेड वैगनर (Alfred Wegner) ने कुछ तथ्यों को सामने रखकर महाद्वीपीय विस्थापन की परिकल्पना प्रस्तुत की। सन् 1929 में वैगनर ने इसमें कुछ शोध करके इसे फिर से पेश किया। वैगनर वास्तव में एक मौसम वैज्ञानिक था, जो ऋतु-परिवर्तन (Variation of climate) की समस्याओं का समाधान खोजने में जुटा हुआ था।

थल-मंडल में अनेक क्षेत्रों में उष्ण-कटिबंधीय (Tropical), भू-मध्य-रेखीय (Equatorial) और ध्रुवीय (Polar) जलवायु अपनी वर्तमान स्थिति से दूर के स्थानों में पाई जाती है। इसके दो ही कारण हो सकते हैं-

  1. एक तो यह कि जलवायु में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है।
  2. फिर महाद्वीप खिसककर एक जलवायु खंड से दूसरे जलवायु खंड में आते रहते हैं। वैगनर ने उपरोक्त दूसरे कारण के आधार पर अपनी परिकल्पना पेश की।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 10

वैगनर के सिद्धांत की रूपरेखा (Outline of Wegner’s Hypothesis)-

1. वैगनर ने सियाल (SIAL) के बने हुए महाद्वीपों को बसाल्ट की सीमा पर तैरते हुए माना। वैगनर के अनुसार आदिकाल पुरातन जीवी महाकल्प (Late Palezoic Period-2700 years ago) में सभी महाद्वीप किसी विशाल महाद्वीप का अंग थे। इस विशाल महाद्वीप को उसने पैंजीया का नाम दिया। पैंजीया चारों तरफ से एक विशाल महासागर से घिरा हुआ था जिसे वैगनर ने पैंथालामा (Panthalamma) कहा है।

2. अंगारालैंड और गोंडवानालैंड-जीया के मध्य में पूर्व-पश्चिम दिशा में एक विस्तृत पर कम गहरा सागर था, जिसे टेथीज़ (Tetheys) का नाम दिया जाता है। टेथीज़ सागर के उत्तर के विस्तृत भाग को लुरेशिया (Laurasia) या अंगारालैंड (Angaraland) और सागर के दक्षिण के विस्तृत महाद्वीप को गोंडवानालैंड का नाम दिया गया है।

3. भूमध्यरेखा की ओर विस्थापन-वैगनर के अनुसार यह पैंजीया टूटकर भूमध्य रेखा और पश्चिम दिशा में स्थित हो गया। भूमध्य रेखा की ओर स्थित होने के कारण गुरुत्वाकर्षण में अंतर था।

4. पश्चिम की ओर विस्थापन-पैंजीया के खंडों का पश्चिम की ओर विस्थापन चंद्रमा की ज्वारीय शक्ति (Tide force) के कारण था। भूमध्य रेखा की ओर विस्थापन से मुख्य रूप में यूरोप और अफ्रीका प्रभावित हुए। पश्चिम की ओर विस्थापन से उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका प्रभावित हुए।

5. इसके बाद अलग-अलग युगों में टरशियरी युग (Tertiary Period-60 Lakh years ago) में अलग-अलग महाद्वीप और महासागर बने।

परिकल्पना के पक्ष में प्रमाण (Evidences in favour of the Hypothesis)-इस परिकल्पना के पक्ष में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं, जो नीचे लिखे हैं-

1. भौगोलिक प्रमाण (Geographical Proofs)-अंध महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तटों में समानता पाई गई है। ये दोनों तट एक आरे के समान तथा एक-दूसरे में फिट होने की स्थिति में होते हैं। पूर्वी ब्राज़ील का . उभार (Bulge) पश्चिमी अफ्रीका और गिनी तट में आसानी से फिट हो जाता है। इसे Jig-saw fit कहते हैं। अंध महासागर की मध्यवर्ती कटक (Mid-Atlantic Ridge) के एक तरफ अमेरिका और दूसरी तरफ अफ्रीका जुड़ जाते हैं। .

2. भू-गर्भीय प्रमाण (Geological Proofs)-अंध महासागर के दोनों तटों पर स्थित पर्वत श्रेणियों की दिशा और चट्टानों की ओर रेखाओं में समानता देखी गई है। अंध महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तट किसो समय एक थे।

3. चट्टानों के प्रमाण (Proofs of Rocks)-अंध महासागर के दोनों तटों पर पाई जाने वाली शैलों में समानता देखी गई है। ब्राज़ील का पठार, दक्षिण अफ्रीका, भारत का प्रायद्वीप पठार और ऑस्ट्रेलिया पठार की चट्टानें लगभग एक जैसी हैं।

4. जैविक प्रमाण (Biological Proofs)-उत्तर-पश्चिमी यूरोप और पूर्वी अमेरिका के भागों में वनस्पति और जीवों के अवशेषों में समानता पाई जाती है।

5. सर्वेक्षण के प्रमाण (Geodesy’s Proofs)—ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रीनलैंड 32 मीटर प्रति वर्ष की गति से उत्तरी अमेरिका की ओर खिसक रहा है। यह तथ्य 1832, 1870, और 1917 के माप पर आधारित है।
इस तथ्य से वैगनर के महाद्वीप खिसकने के विचार की पुष्टि होती है।

6. नवीन और आधुनिक प्रमाण प्लेट टैक्टौनिक का सिद्धांत (Plate Tectonic Theory) आधुनिक सर्वेक्षण में प्लेट टैक्टौनिक के सिद्धांत ने वैगनर के सिद्धांत की पुष्टि की है। जब इन भू-प्लेटों की सीमाओं पर संवहन धाराओं (Convection _Currents) की क्रिया होती है, तब भू-प्लेटें खिसकती हैं और महाद्वीप भी खिसकते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 6.
भू-प्लेट टैक्टौनिक सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर-
भू-प्लेट टैक्टौनिकस (Plate-tectonics)-आधुनिक परीक्षणों और खोज से पता चलता है कि स्थल मंडल और मैंटल भू-प्लेटों में विभाजित हैं। ये भू-प्लेटें खिसकती रहती हैं। भू-प्लेटों की सीमाओं पर अंदरूनी हलचल होती रहती है। परिणामस्वरूप भू-प्लेटों के साथ-साथ महाद्वीप भी खिसकते रहते हैं और कई क्रियाएँ और भू-आकार जन्म लेते हैं।

भू-प्लेटों के प्रकार (Types of Plates)-स्थल मंडल भू-प्लेटों का समूह है, जिसमें 6 मुख्य भू-प्लेटें और 14 छोटे आकार की प्लेटें हैं। इन भू-प्लेटों की औसत मोटाई 100 कि० मी० है और ये प्लेटें कई हज़ार कि०मी० चौड़ी हैं। भू-प्लेटें मुख्य रूप से दो प्रकार की हैं-

1. महाद्वीपीय भू-प्लेटें (Continental Plates)—इन प्लेटों में अधिक भाग महाद्वीपीय थल मंडल का होता
2. महासागरीय प्लेटें (Oceanic Plates)—इन प्लेटों का विस्तार महासागर के तल पर होता है। सारी पृथ्वी
को 6 मुख्य भू-प्लेटों में बाँटा गया है।

  • प्रशांत महासागरीय प्लेट
  • एशियाई प्लेट
  • अमेरिकी प्लेट
  • भारतीय प्लेट
  • अफ्रीकी प्लेट
  • अंटार्कटिक प्लेट

भू-प्लेटों के खिसकने के कारण-

1. तापीय संवहन-सन् 1928 में आर्थर होमज़ (Arthur Holmes) ने यह सिद्धान्त पेश किया कि मैगमा की संवहन तरंगों (Convection currents) के द्वारा महाद्वीपों का खिसकना होता है। उस समय इस सिद्धान्त को पूरी मान्यता नहीं मिली थी। आधुनिक समय में चुंबकीय सर्वे, रेडियो एक्टिव पदार्थों की खोज, मध्यसागरीय कटकों और सागरीय तल के फैलने (Ocean spreading) की खोज ने सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी के मैटल भाग में मैगमा की संवहन धाराएँ चलती हैं। इस प्रकार यह मैगमा ऊपर उठता है। इसके प्रवाह से भू-प्लेटें खिसकती हैं। परिणामस्वरूप महाद्वीपीय विस्थापन होता है। इस प्रकार पृथ्वी के केंद्रीय भाग में अणु-ऊर्जा के कारण संवहन धाराएं चलती हैं। ये भू-प्लेटें एक-दूसरे से महासागरीय कटकों और ट्रैचों के द्वारा अलग-अलग होती हैं।

2. संचालन क्रिया-गर्म धाराएँ ऊपर की ओर उठती हैं और फ़िर नीचे की ओर जाकर ठंडी हो जाती हैं। ये धाराएँ भू-प्लेटों को गतिशील बना देती हैं।

3. ज्वालामुखी क्रिया-भूतल के नीचे ज्वालामुखी के केंद्र संवहन धाराओं को जन्म देते हैं। इन्हें गर्म स्थल (Hot Spot) कहते हैं। ये भू-प्लेटों को गतिशील करते हैं।

भू-प्लेटों की कार्यविधि-भू-प्लेटों की तीन प्रकार की सीमाएँ बनती हैं-

  • निर्माणकारी प्लेट सीमा निर्माणकारी क्षेत्र वे सीमाएँ हैं, जहाँ प्लेटें एक-दूसरे से अलग होती हैं और मैगमा बाहर आता है। ऐसी सीमाओं पर ज्वालामुखी क्रिया और भूचाल आते हैं।
  • विनाशकारी प्लेट सीमा-ये वे सीमाएँ हैं, जहाँ एक प्लेट का सिरा दूसरी प्लेट के ऊपर चढ़ जाता है।
  • रूपांतर प्लेट सीमा-यहाँ भू-प्लेटें एक-दूसरे की विपरीत दिशा में साथ-साथ खिसकती हैं।

प्रभाव (Effects)-

1. महाद्वीपों का खिसकना (Continental Drift)-भू-प्लेटों के खिसकने का महाद्वीपों पर प्रभाव पड़ता है। महाद्वीप भू-प्लेटों के अंदर स्थापित हैं, इसीलिए वे प्लेटों के साथ गति करते हैं। इस खिसकाव से रिफ्ट घाटी, सागर और महासागर की रचना होती है।

2. पर्वत निर्माणकारी क्रिया (Mountain Building)-भू-प्लेटें अपनी सीमाओं पर सागरीय कटकों के द्वारा अलग-अलग होती हैं। इन सीमाओं पर भू-प्लेटें खिसकती हैं या टकराती हैं। कई स्थानों पर नीचे सरकने से भू-अभिनीति (Geosyncline) की रचना होती है। इसमें करोड़ों वर्षों तक तलछट जमा होते रहते हैं। इनके उठाव (uplift) के कारण मोड़दार पर्वत बनते हैं। गोंडवाना प्लेट के उत्तर की ओर खिसकने के कारण टैथीज़ सागर में हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ है। उत्तरी अमेरिका की भू-प्लेट के पश्चिम की ओर खिसकने से रॉकी और एंडीज़ पर्वतों का निर्माण हुआ है। इस प्रकार इस आधुनिक परिकल्पना ने भू-विज्ञान में एक नई क्रांति पैदा की है। इस सिद्धान्त से वैगनर के विस्थापन सिद्धान्त की पुष्टि होती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 11

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा सन्देश की चर्चा करें।
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के प्रवर्तक थे। इतिहास में उन्हें महान् स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपने जीवन में भटके लोगों को सत्य का मार्ग दिखाया और धर्मान्धता से पीड़ित समाज को राहत दिलाई। जिस समय श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ, उस समय पंजाब का सामाजिक तथा धार्मिक वातावरण अन्धकार में लिप्त था। लोग अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। हिन्दू और मुसलमानों में बड़ा भेदभाव था। श्री गुरु नानक देव जी ने इन सभी बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने ‘सत्यनाम’ का उपदेश दिया और लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया। उनके जीवन तथा शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :-

जन्म तथा माता-पिता-श्री गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1469 ई० को तलवण्डी (वर्तमान में ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में हुआ। उनके पिता का नाम मेहता कालू जी तथा माता का नाम तृप्ता जी था। आपकी बहन का नाम बेबे नानकी जी था।

बाल्यकाल, शिक्षा तथा व्यावसायिक जीवन-बचपन से ही श्री गुरु नानक देव जी दयावान थे। दीन-दुःखियों को देखकर उनका मन पिघल जाता था। 7 वर्ष की आयु में उन्हें पण्डित गोपाल की पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया। पण्डित जी उन्हें सन्तुष्ट न कर सके। तत्पश्चात् उन्हें पं० बृज नाथ के पास पढ़ने के लिए भेजा गया। वहां गुरु जी ने ‘ओ३म्’ शब्द का वास्तविक अर्थ बता कर पण्डित जी को चकित कर दिया। पढ़ाई में गुरु नानक देव जी की रुचि न देखकर उनके पिता जी ने उन्हें पशु चराने के लिए भेजा। वहां भी गुरु नानक देव जी प्रभु चिन्तन में मग्न रहते और पशु दूसरे किसानों के खेतों में चरते रहते थे। किसानों की शिकायतों से तंग आकर मेहता कालू जी ने श्री गुरु नानक देव जी को व्यापार में लगाने का प्रयास किया। उन्होंने श्री गुरु नानक देव जी को 20 रुपए देकर व्यापार करने भेजा। परन्तु गुरु जी ने ये रुपये भूखे साधुओं को भोजन खिलाने में व्यय कर दिये और इस व्यापार को सच्चा सौदा कहा।

विवाह-अपने पुत्र की सांसारिक विषयों में रुचि न देखकर मेहता कालू जी निराश हो गए। उन्होंने गुरु जी का विवाह बटाला के क्षत्रिय मूलचंद की सुपुत्री सुलक्खणी जी से कर दिया। उस समय गुरु जी की आयु केवल 14 वर्ष की थी। उनके यहां श्री चन्द और लखमी दास नामक दो पुत्र भी पैदा हुए। विवाह के पश्चात् गुरु नानक देव जी सुल्तानपुर लोधी चले गये। वहां उन्हें नवाब दौलत खां के अनाज घर में नौकरी मिल गई। उन्होंने पूरी ईमानदारी से काम किया। फिर भी वहां उनके विरुद्ध नवाब से शिकायत की गई। परन्तु जब जांच-पड़ताल हुई तो हिसाब-किताब बिल्कुल ठीक था। इस प्रकार अपनी ईमानदारी से वहां भी उन्होंने यश प्राप्त किया।

ज्ञान प्राप्ति, उदासियां तथा ज्योति जोत समाना-अपने जीवन के अगले 21 वर्षों में उन्होंने अनेक स्थानों का भ्रमण करके ज्ञान का प्रचार किया। वह लंका, तिब्बत, मक्का, कामरूप तथा भारत के कई नगरों में गए। उनकी यात्राओं को उदासियां कहा जाता है। अपनी यात्राओं के मध्य उन्होंने लोगों को जीवन का सच्चा मार्ग दिखाया। आप ने 1521 ई० में रावी नदी के किनारे करतारपुर साहिब नगर बसाया। यहां ही आप ने अपने जीवन के अंतिम समय धर्म प्रचार किया। अपना अन्त समय निकट आया देखकर गुरु जी ने अपना उत्तराधिकारी चुनना उचित समझा। उन्होंने अपने सेवक भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उनके बाद भाई लहना ने गुरु अंगद देव जी के नाम से गुरु पद संभाला। 1539 ई० में श्री गुरु नानक देव जी ज्योति जोत समा गए।

सन्देश-श्री गुरु नानक देव जी का सन्देश बड़ा आदर्श था। उन्होंने अपनी शिक्षाओं द्वारा पथ-विचलित जनता को जीवन का सच्चा मार्ग दिखाया। उनकी मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. ईश्वर सम्बन्धी विचार-श्री गुरु नानक देव जी ने इस बात का प्रचार किया कि ईश्वर एक है। वह अवतारवाद को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने ईश्वर को निराकार बताया। उनके अनुसार परमात्मा स्वयं-भू है। अतः इसकी मूर्ति बनाकर पूजा नहीं की जानी चाहिए। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है। वह संसार के कण-कण में रहता है। सारा संसार उसी की शक्ति से ही चल रहा है।

2. परमात्मा के नाम का जाप-श्री गुरु नानक देव जी ने परमात्मा के जाप पर बल दिया। उनके अनुसार गुरु सबसे महान् है। उसके बिना ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु रूपी जहाज़ में सवार होकर ही संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। अतः वह मनुष्य बड़ा भाग्यशाली है, जिसे सच्चा गुरु मिल जाता है।

3. अन्य शिक्षाएं-
1. जाति-पाति का खण्डन-श्री गुरु नानक देव जी रंग, धर्म तथा जाति के भेदभावों में विश्वास नहीं रखते थे। उनका कहना था कि हम सभी एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। इसलिए हम सब भाई-भाई हैं।

2. यज्ञ, बलि आदि का विरोध-श्री गुरु नानक देव जी ने यज्ञ, बलि, व्रत आदि कर्मकाण्डों को व्यर्थ बताया।

3. मानव-प्रेम और समाज सेवा-श्री गुरु नानक देव जी के अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर के प्राणियों से प्रेम नहीं करता, उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। उन्होंने अपने अनुयायियों को मानव-प्रेम और समाज-सेवा का उपदेश दिया।

4. उच्च नैतिक जीवन-श्री गुरु नानक देव जी ने लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि सदा सत्य बोलो, नाम जपो, मिल-बाँट कर छको, ईमानदारी की कमाई खाओ और दूसरे की भावनाओं को कभी ठेस मत पहुंचाओ।

5. गृहस्थ जीवन-गुरु नानक देव जी मुक्ति प्राप्त करने के लिए गृहस्थ जीवन को त्यागने के हक में नहीं थे। आप अंजन में निरंजन के समर्थक थे।

गुरु नानक देव जी का सन्देश निःसन्देह बड़ा महान् था। प्रत्येक स्त्री-पुरुष उनके बताए मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उन्होंने अपने समय के शासन में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा जोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी की सिक्ख पंथ के विकास की चर्चा करें।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी-श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के संस्थापक थे। उनके सरल सन्देश से प्रभावित हो कर अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने एक सिक्ख भाई लहना जी को गुरुगद्दी पर नियुक्त किया। इस प्रकार गुरु और सिक्ख की स्थिति परस्पर परिवर्तनशील बन गई। आगे चलकर सिक्ख इतिहास में यह विचार गुरु-पंथ के सिद्धान्त के रूप में विकसित हुआ। भाई लहना गुरु अंगद देव जी कहलाये।

गुरु अंगद देव जी-गुरु अंगद देव जी सिक्खों के दूसरे गुरु थे। उन्होंने अमृतसर जिले में स्थित खडूर साहिब में अपना प्रचार कार्य आरम्भ किया। उन्होंने गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित किया और उसे गुरुमुखी लिपि मे लिखा। यह वाणी बाद में गुरु ग्रन्थ साहिब के संकलन में सहायक सिद्ध हुई। गुरु अंगद देव जी ने स्वयं भी गुरु नानक देव जी के नाम पर वाणी लिखी। इससे गुरु पद की एकता दृढ़ हुई। उन्होंने संगत और लंगर की संस्थाओं को भी दृढ़ बनाया। गुरु नानक देव जी के पदचिन्हों पर चलते हुए 1552 ई० में गुरु अंगद देव जी ने भी अपने एक शिष्य अमरदास जी को गुरुगद्दी सौंप दी और स्वयं ज्योति-जोत समा गए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने गुरु-पद संभाला।

गुरु अमरदास जी-गुरु अमरदास जी ने लगभग 22 वर्ष तक सिक्खों का पथ-प्रदर्शन किया। इस अवधि में उन्होंने सिक्ख पंथ में अनेक नई बातों का समावेश किया। गुरु अंगद देव जी की भान्ति उन्होंने भी गुरु नानक देव जी के नाम पर वाणी की रचना की। उन्होंने खडूर साहिब को छोड़कर गोइन्दवाल साहिब को अपना प्रचार केन्द्र बना लिया। वहां उन्होंने बन रही बावली (बाऊली) का निर्माण कार्य पूरा करवाया। गुरु अमरदास जी ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर पढ़ने के लिये आनन्द साहिब नामक वाणी की रचना की। उनके समय में सिक्खों की संख्या काफ़ी बढ़ गई। इसलिए उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के बाहर भी प्रचार कार्य के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त किये। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या और भी बढ़ने लगी। उन्होंने पाठ-कीर्तन के लिए स्थान-स्थान पर अपनी धर्मशालाएं स्थापित की। उन्होंने लंगर प्रथा का विस्तार भी किया।

गुरु रामदास जी-गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 ई० से 1581 ई० तक गुरु पद पर रहे। उन्होंने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया

  1. उनका सबसे बड़ा योगदान रामदास पुर शहर की नींव डालना था। वह स्वयं भी यहीं रह कर प्रचार कार्य करने लगे।
  2. उन्होंने अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवर खुदवाए।
  3. उन्होंने मसंद प्रथा प्रारम्भ की। मसंद उनके लिए उनके सिक्खों से भेंट एकत्रित करके लाते थे।
  4. उनके समय में सिक्खों तथा उदासियों में समझौता हो गया।
  5.  गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे परन्तु योग्य पुत्र अर्जन देव जी को गुरुपद सौंपा।

गुरु अर्जन देव जी-गुरु अर्जन देव जी सिक्खों के पांचवें गुरु थे। आप 1581 ई० से 1606 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। सिक्ख धर्म के विकास में उन्होंने निम्नलिखित योगदान दिया

1. हरिमंदर साहिब का निर्माण-गुरु रामदास जी ने अमृतसर तथा सन्तोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई का कार्य आरम्भ किया था, परन्तु उनके ज्योति जोत समाने के कारण यह कार्य पूरा न हो सका था। अब यह कार्य गुरु अर्जन देव जी ने अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिक्खों के सहयोग से इन दोनों सरोवरों का निर्माण कार्य पूरा किया। उन्होंने ‘अमृतसर’ सरोवर के बीच हरिमंदर साहिब का निर्माण करवाया। जो कि सिक्खों का पवित्र धार्मिक स्थान बन गया।

2. तरनतारन की स्थापना तथा लाहौर में बावली का निर्माण-गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, सरोवरों का निर्माण करवाया। तरनतारन भी इनमें से एक था। अमृतसर की भान्ति तरनतारन भी सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। गुरु अर्जन देव जी ने अपनी लाहौर यात्रा के मध्य डब्बी बाजार में एक बावली का निर्माण करवाया। इसके निर्माण से बावली के निकटवर्ती प्रदेशों के सिक्खों को एक तीर्थ स्थान की प्राप्ति हुई।

3. हरगोबिन्दपुर तथा छहरटा की स्थापना और करतारपुर की नींव-गुरु जी ने अपने पुत्र हरगोबिन्द के जन्म के उपलक्ष्य में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिन्द नामक नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमृतसर के निकट पानी की कमी को दूर करने के लिए एक कुएं का निर्माण करवाया। इस कुएं पर छ: रहट चलते थे। इसलिए इसको छहरटा के नाम से पुकारा जाने लगा। धीरे-धीरे यहां पर एक नगर बस गया जो आज भी विद्यमान है। गुरु जी ने 1593 ई० में जालन्धर दोआब में एक नगर की स्थापना की जिसका नाम करतारपुर रखा गया।

4. मसन्द प्रथा का विकास-मसन्द प्रथा का आरम्भ गुरु रामदास जी ने किया था। गुरु अर्जन देव जी ने इस प्रथा में सुधार लाने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने सिक्खों को आदेश दिया कि वे अपनी आय का 1/10 भाग आवश्यक रूप से मसन्दों को जमा कराएं। मसन्द वैशाखी के दिन इस राशि को अमृतसर में गुरु जी के केन्द्रीय कोष में जमा करवा देते थे।

राशि को एकत्रित करने के लिए वे अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने लगे। इन्हें ‘संगती’ कहते थे। मसन्द दशांश इकट्ठा करने के अतिरिक्त अपने क्षेत्र में सिक्ख धर्म का प्रचार भी करते थे।

5. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन-गुरु अर्जन देव जी ने ‘आदि ग्रन्थ’ साहिब का संकलन करके सिक्खों को एक धार्मिक ग्रन्थ प्रदान किया। इस पवित्र ग्रन्थ में उन्होंने अपने से पहले चार गुरु साहिबान की वाणी, फिर भक्तों की वाणी तथा उसके पश्चात् भाटों की वाणी का संग्रह किया। इसमें भक्त कबीर, बाबा फरीद, संत रविदास, जयदेव, रामानन्द तथा सूरदास जी की वाणी को भी स्थान दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इस ग्रन्थ साहिब में गुरु तेग बहादुर जी की बाणी शामिल की गई तथा आदि ग्रन्थ को गुरु ग्रन्थ साहिब का दर्जा दिया गया। गुरु अर्जन देव जी ने धर्म पर दृढ़ रहकर अपने जीवन का बलिदान (1606) भी दिया। इस शहीदी से सिक्खों में एक नवीन उत्साह पैदा हुआ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 3.
गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिन्द जी, गुरु तेग बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी के सिक्ख पंथ के रूपान्तरण में योगदान की चर्चा करें।
उत्तर-
सिक्ख पंथ के विकास का आधार गुरु नानक देव जी के सरल एवं प्रभावशाली सन्देश थे। एक लम्बे समय तक यह पंथ शान्तिमय रूप धारण किए रहा। परन्तु गुरु अर्जन देव जी के समय में मुग़लों के धार्मिक अत्याचार बढ़ने लगे। उनके अत्याचारों का सामना शान्तिमय ढंग से करना असम्भव हो गया था। अतः सिक्ख पंथ का रूपान्तरण करना आवश्यक हो गया। इस कार्य में गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिन्द जी, गुरु तेग बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपना-अपना योगदान दिया, जिसका वर्णन इस प्रकार है: –

I. गुरु अर्जन देव जी के अधीन-

मुग़ल सम्राट अकबर के गुरु अर्जन देव जी के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। परन्तु अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहांगीर ने सहनशीलता की नीति को छोड़ दिया। ।

जहांगीर की धर्मान्धता चरम सीमा पर पहुंच गई। अत: जहांगीर ने अपने पुत्र को आशीर्वाद देने के जुर्म में गुरु अर्जन देव जी को कठोर शारीरिक कष्ट देने का आदेश जारी कर दिया। सिक्ख परम्पराओं के अनुसार गुरु जी को गर्म लौह पर बिठाया गया और उनके शरीर पर तपती हुई रेत डाली गई। फिर उन्हें उबलते पानी की देश में डाला गया। आप इन तसीहों को परमात्मा का हुक्म समझ कर सहते रहे। आप 30 मई, 1606 ई० को लाहौर में शहीद हो गये।

गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई : (1) गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश दिया, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है, जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अत: मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया। (2) गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को भड़का दिया और उनके मन में मुगल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। (3) इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

II. गुरु हरगोबिन्द जी के अधीन-

गुरु हरगोबिन्द जी सिक्खों के छठे गुरु थे। उनके पिता गुरु अर्जन देव जी को मुग़ल सम्राट जहांगीर ने शहीद करवा दिया था। उनकी शहीदी से सिक्खों के मन में गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अनुभव किया कि यदि उन्हें अपने धर्म की रक्षा करनी है तो उन्हें माला के साथ-साथ शस्त्र भी धारण करने पड़ेंगे। इस उद्देश्य से गुरु हरगोबिन्द जी ने नवीन नीति अपनाई।

नवीन नीति की कार्यवाहियां-
1. गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु हरगोबिन्द जी ने तलवारें धारण की और इस अवसर पर उन्होंने यह घोषणा की कि अब सिक्ख सत्यनाम का जाप करने के साथ-साथ अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए भी सदा तैयार रहेंगे। यह गुरु जी की नवीन नीति का आरम्भ था।

2. नवीन नीति का अनुसरण करते हुए गुरु हरगोबिन्द जी ने ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण की। उन्होंने दो तलवारें, छत्र और कलगी धारण कर ली।

3. गुरु हरगोबिन्द जी अब सिक्खों के आध्यात्मिक नेता होने के साथ-साथ उनके सैनिक नेता भी बन गए। वे सिक्खों के पीर भी थे और मीर भी। इन बातों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पीरी और मीरी नामक दो तलवारें धारण की।

4. गुरु जी सिक्खों को धार्मिक शिक्षा देते थे। परन्तु सांसारिक विषयों में सिक्खों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने हरिमंदर साहिब के सामने एक नया भवन बनवाया जिसका नाम ‘अकाल तख्त’ (ईश्वर की गद्दी) रखा गया।

गुरु हरगोबिन्द जी ने आत्मरक्षा के लिए एक सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक तथा स्वयंसेवक सम्मिलित थे। गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने मसन्दों को सन्देश भेजा कि यदि धन के बजाय घोड़े तथा सैनिक शस्त्र उपहार अथवा भेंट के रूप में भेजें। परिणामस्वरूप काफ़ी मात्रा में सैनिक सामग्री इकट्ठी हो गई। सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृतसर) के चारों ओर एक दीवार भी बनवाई गई। इस नगर में एक दुर्ग का निर्माण भी किया गया, जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्यों से सिक्खों में धार्मिक भावना के साथ-साथ सैनिक गुणों का भी विकास हुआ। फलस्वरूप उन्होंने मुगल अत्याचारों का डटकर सामना किया।

III. गुरु तेग़ बहादुर जी के अधीन-

नौवें सिक्ख गुरु तेग़ बहादुर जी के समय में कई मुसलमानों ने सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया। औरंगज़ेब इस बात को सहन नहीं कर सकता था; इसलिए उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को दण्ड देने का निश्चय कर लिया। इन्हीं दिनों मुग़ल अत्याचारों से तंग आकर कुछ कश्मीरी ब्राह्मण गुरु जी की शरण में आए। उन्होंने गुरु जी को बताया कि उनको ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा है। यह सुनकर गुरु जी ने कहा कि सम्राट् से कहो कि यदि तुम हमारे गुरु साहिब जी को मुसलमान बना लोगे तो वे भी इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। अतः गुरु जी को 1675 ई० मे दिल्ली बुलाया गया और उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश किया गया, परन्तु गुरु जी अपने धर्म पर अटल रहे। क्रोध में आकर औरंगजेब ने 11 नवम्बर, 1675 ई० को उन्हें शहीद करवा दिया। गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी से सिक्खों में एक नवीन जागृति आई।

IV. गुरु गोबिन्द सिंह जी के अधीन-

गुरु तेग़ बहादुर जी के पश्चात् गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के गुरु बने। उन्होंने सिक्ख धर्म की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न किए। उन्होंने मुग़ल अत्याचारों के विरुद्ध तलवार उठाई। वे अपने शिष्यों से भी भेंट के रूप में घोड़े तथा शस्त्र लेने लगे। उन्होंने सिक्खों को स्थायी सैनिक का रूप देने के लिए 1699 में खालसा की स्थापना की। इस प्रकार गुरु गोबिन्द सिंह जी ने एक विशाल सेना तैयार कर ली। गुरु जी ने साधारण व्यक्तियों को वीर सैनिकों में परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार वह राजनीतिक शक्ति में संगठित हुए और उन्होंने समय-समय पर मुग़लों से अनेक युद्ध किए।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
‘सच्चा सौदा’ किस सिक्ख गुरु से सम्बन्धित है ?
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी से।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 2.
श्री गुरु नानक देव जी का जन्म कहां हुआ था ?
उत्तर-
लाहौर के समीप तलवंडी नामक गांव में।

प्रश्न 3.
श्री गुरु नानक देव जी की माता का क्या नाम था?
उत्तर-
माता तृप्ता जी।

प्रश्न 4.
अमृतसर नगर किसने बसाया?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 5.
‘आदि ग्रंथ साहिब’ का संकलन किस गुरु साहिब ने किया?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने।

प्रश्न 6.
कौन-से गुरु ‘बाल गुरु’ के नाम से प्रसिद्ध हैं ?
उत्तर-
श्री गुरु हरकृष्ण जी।

प्रश्न 7.
सिक्खों के नौंवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
श्री गुरु तेग बहादुर जी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 8.
शहीदी देने वाले दो सिक्ख गुरुओं के नाम बताओ।
उत्तर-
श्री गुरु अर्जन देव जी तथा श्री गुरु तेग़ बहादुर जी।

प्रश्न 9.
गुरु गोबिन्द राय जी का जन्म कब और कहां हुआ?
(ii) उनके माता-पिता का नाम बताओ।
उत्तर-
(i) 22 दिसम्बर, 1666 ई० को पटना में
(ii) उनकी माता का नाम गुजरी जी और पिता का नाम श्री गुरु तेग़ बहादुर जी था।

प्रश्न 10.
भंगानी की विजय के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने कौन-कौन से किले बनवाए ?
उत्तर-
आनन्दगढ़, केसगढ़, लोहगढ़ तथा फतेहगढ़।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 11.
पांच प्यारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई मोहकम सिंह, भाई साहब सिंह तथा भाई हिम्मत सिंह।

प्रश्न 12.
खालसा का सृजन कब और कहां किया गया?
उत्तर-
1699 ई० में आनन्दपुर साहिब में।

2. रिक्त स्थान भरें

(i) ……………….. गुरु नानक देव जी की पत्नी थीं।
(ii) गुरु नानक देव जी के पुत्रों के नाम …………………… तथा ……………….
(iii) गुरु नानक देव जी द्वारा रचित चार बाणियां वार मल्हार, वार आसा, ……………… और …………..
(iv) ……………… का पहला नाम भाई लहना था।
(v) ………….. सिक्खों के चौथे गुरु थे।
(vi) ……………. नामक नगर की स्थापना गुरु अंगद देव जी ने की।
(vii) गुरु हरगोबिन्द जी ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्ष …………… में धर्म-प्रचार में व्यतीत किए।
(viii) उदासी’ मत गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र ………………. जी ने स्थापित किया।
(ix) मंजियों की स्थापना श्री गुरु ………………. ने की।
(x) गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को ……….. में हुआ।
(xi) हरमंदिर साहिब का निर्माण कार्य ….. ……. ई० में पूरा हुआ।
उत्तर-
(i) बीबी सुलखनी
(ii) श्रीचंद, लखमी दास
(iii) जपुजी साहिब, बारहमाहा
(iv) गुरु अंगद साहिब
(v) गुरु रामदास जी
(vi) गोइन्दवाल साहिब
(vii) कीरतपुर साहिब
(viii) बाबा श्रीचंद जी
(ix) अमरदास जी
(x) गोइन्दवाल साहिब
(xi) 1601.

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

3. सही/गलत कथन

(i) औरंगजेब कश्मीरी पंडितों को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था। — (√)
(ii) गुरु गोबिंद सिंह जी ने काजी पीर मुहम्मद से शिक्षा लेने से इन्कार कर दिया। — (×)
(iii) खालसा की स्थापना श्री गुरु हरगोबिंद जी ने की। — (×)
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘ज़फरनामा’ नामक पत्र मुग़ल सम्राट औरंगजेब को लिखा। — (√)
(v) दिल्ली में गुरु हरराय जी राजा जयसिंह के यहां ठहरे थे। — (×)

4. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
गोइन्दवाल साहिब में बाऊली (जल-स्रोत) का निर्माण किसने करवाया ?
(A) गुरु अर्जन देव जी ने
(B) गुरु नानक देव जी ने ।
(C) गुरु अमरदास जी ने
(D) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(C) गुरु अमरदास जी ने

प्रश्न (ii)
गुरु अर्जन देव जी ने रावी तथा ब्यास के बीच किस नगर की नींव रखी ?
(A) जालंधर
(B) गोइन्दवाल साहिब
(C) अमृतसर
(D) तरनतारन।
उत्तर-
(D) तरनतारन।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न (iii)
जहांगीर के काल में शहीद होने वाले सिक्ख गुरु थे –
(A) गुरु अंगद देव जी
(B) गुरु अमरदास जी
(C) गुरु अर्जन देव जी
(D) गुरु रामदास जी।
उत्तर-
(C) गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न (iv)
गुरु हरकृष्ण जी गुरु गद्दी पर बैठे-
(A) 1661 ई० में
(B) 1670 ई० में
(C) 1666 ई० में
(D) 1538 ई० में।
उत्तर-
(A) 1661 ई० में

प्रश्न (v)
‘बाबा बकाला’ वास्तव में थे
(A) गुरु तेग़ बहादुर जी
(B) गुरु हरकृष्ण जी
(C) गुरु गोबिन्द सिंह जी
(D) गुरु अमरदास जी।
उत्तर-
(A) गुरु तेग़ बहादुर जी

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न (vi)
गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म हुआ
(A) कीरतपुर साहिब में
(B) पटना में
(C) दिल्ली में
(D) तरनतारन में।
उत्तर-
(B) पटना में

प्रश्न (vii)
गुरु गद्दी को पैतृक रूप दिया
(A) गुरु अमरदास जी ने
(B) गुरु रामदास जी ने
(C) गुरु गोबिन्द सिंह जी ने
(D) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(A) गुरु अमरदास जी ने

प्रश्न (viii)
हरमंदिर साहिब का पहला मुख्य ग्रन्थी नियुक्त किया गया
(A) भाई पृथिया को
(B) श्री महादेव जी को
(C) बाबा बुड्डा जी को
(D) नत्था मल जी को।
उत्तर-
(C) बाबा बुड्डा जी को

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सिक्ख पंथ के बारे में जानकारी के गुरुमुखी लिपि में चार महत्त्वपूर्ण स्रोत कौन-से हैं ?
उत्तर-
सिक्ख पंथ के बारे में जानकारी के गुरुमुखी लिपि में चार महत्त्वपूर्ण स्रोत गुरु ग्रन्थ साहिब, भाई गुरदास की वारें, जन्मसाखियां तथा गुरसोभा हैं।

प्रश्न 2.
कौन-से दो गुरु साहिबान के हुक्मनामे उपलब्ध हैं ?
उत्तर-
हमें गुरु तेग़ बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी के हुक्मनामे उपलब्ध हैं।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी का जीवन मुख्य रूप से कौन-से तीन भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जीवन मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है-आरम्भिक जीवन तथा सुल्तानपुर लोधी में ज्ञान प्राप्ति, उनकी यात्राएँ अथवा उदासियाँ तथा करतारपुर में एक नये भाईचारे की स्थापना।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवण्डी नामक स्थान पर हुआ।

प्रश्न 5.
सुल्तानपुर लोधी में गुरु नानक देव जी ने किस लोधी अधिकारी के अधीन, किस विभाग में कितने वर्ष काम किया ?
उत्तर-
सुल्तानपुर लोधी में गुरु नानक देव जी ने दौलत खाँ लोधी के अधीन काम किया। उन्होंने मोदीखाने में दस वर्ष . तक कार्य किया।

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी को सत्य की प्राप्ति कहाँ और लगभग किस आयु में हुई ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी में सत्य की प्राप्ति हुई। इस समय उनकी आयु 30 वर्ष की थी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने एक नये भाईचारे का आरम्भ कहाँ और किन दो संस्थाओं द्वारा किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने एक नये भाईचारे का आरम्भ करतारपुर में संगत तथा लंगर नामक दो संस्थाओं द्वारा किया।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी मनुष्य के किन पांच शत्रुओं की बात करते हैं ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी मनुष्य के पांच शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की बात करते हैं।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के अनुसार सच्चा गुरु कौन है और वह किसके द्वारा शिक्षा देता है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा है। परमात्मा ‘शब्द’ के द्वारा शिक्षा देता है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी के अनुसार सही आचरण की आधारशिला क्या है तथा उसके लिए क्या करना आवश्यक है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार सही आचरण की आधारशिला दूसरों की सेवा है। उसके लिए मेहनत की कमाई करना आवश्यक है।

प्रश्न 11.
गुरु अंगद देव जी का आरम्भिक नाम क्या था और वे कब से कब तक गुरुगद्दी पर रहे ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का आरम्भिक नाम भाई लहना था। वह 1539 से 1552 तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 12.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र कौन-सा स्थान था तथा उन्होंने कौन-से कस्बे का निर्माण किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र अमृतसर जिले में खडूर साहिब था। उन्होंने गोइन्दवाल साहिब कस्बे का निर्माण किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 13.
गुरु अंगद देव जी ने किस नाम से वाणी रची और उन्होंने गुरुगद्दी के लिए किसको मनोनीत किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने नानक नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने गुरुगद्दी के लिए गुरु अमरदास जी को मनोनीत किया।

प्रश्न 14.
गुरु अमरदास जी ने बावली का निर्माण कहां करवाया तथा इसमें कितनी सीढ़ियां हैं ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने गोइन्दवाल साहिब में बावली का निर्माण कराया, जिसमें 84 सीढ़ियां हैं।

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी ने साधारण जीवन के किन दो अवसरों के लिए सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियां निश्चित की ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने जन्म तथा मरण के मौकों पर सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियाँ निश्चित की।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 16.
मंजियों की स्थापना किन गुरु साहिब ने की और वे कब-से-कब तक गुरुगद्दी पर रहे ?
उत्तर-
मंजियों की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की। वे 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 17.
अमृतसर की स्थापना करने वाले तथा सरोवर की खुदवाई करवाने वाले दो गुरु साहिबानों के नाम बताएं।
उत्तर-
अमृतसर की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी ने सरोवर की खुदाई कराई थी।

प्रश्न 18.
गुरु अमरदास जी के उत्तराधिकारी कौन थे ? उनका आरम्भिक नाम तथा गुरुआई का समय बताएं।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के उत्तराधिकारी गुरु रामदास जी थे। इनका आरम्भिक नाम भाई जेठा जी था। उनकी गुरुआई का समय 1574 ई० से 1581 ई० तक था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 19.
अमृत सरोवर में ‘धर्मशाला’ किन्होंने बनवाई तथा इसे क्या नाम दिया ?
उत्तर-
अमृत सरोवर में गुरु अर्जन देव जी ने धर्मशाला बनवाई थी और इसको हरमंदर साहिब का नाम दिया।

प्रश्न 20.
गुरु अर्जन देव जी ने किन तीन नगरों की नींव रखी और यह कौन-से दो दोआबों में हैं ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने बारी दोआब में तरनतारन तथा श्री हरगोबिन्दपुर और जालन्धर दोआब में करतारपुर की नींव रखी।

प्रश्न 21.
गुरु के प्रतिनिधियों को क्या कहा जाता था और ये संगतों से उनकी आय का कौन-सा भाग एकत्र करते थे ?
उत्तर-
गुरु के प्रतिनिधियों को मसन्द कहा जाता था। ये संगतों से उनकी आय का दसवां भाग एकत्र करते थे।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 22.
आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन किन्होंने और कब सम्पूर्ण किया ?
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में सम्पूर्ण किया।

प्रश्न 23.
आदि ग्रन्थ साहिब में जिन गुरुओं की वाणी सम्मिलित है, उनके नाम बताएं।
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब में गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी की वाणी सम्मिलित है। बाद में गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई।

प्रश्न 24.
‘मीरी’ और ‘पीरी’ की तलवारें किसने धारण की और ये किसकी प्रतीक थीं ?
उत्तर-
‘मीरी’ और ‘पीरी’ की तलवारें गुरु हरगोबिन्द जी ने धारण की। ‘पीरी’ की तलवार आध्यात्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी और ‘मीरी’ की तलवार सांसारिक नेतृत्व की।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 25.
गुरु हरगोबिन्द जी की गुरुगद्दी का समय क्या था और उन्होंने अमृतसर में कौन-से दो महत्त्वपूर्ण भवन बनवाए ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी की गुरुगद्दी का समय 1606 ई० से 1645 ई० तक था। उन्होंने अमृतसर में लोहगढ़ का किला बनवाया तथा हरमंदर साहिब के सामने अकाल तख्त बनवाया।

प्रश्न 26.
गुरु हरगोबिन्द जी को किस मुग़ल बादशाह ने कौन-से किले में नजरबन्द करवाया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी को जहांगीर ने ग्वालियर के किले में नजरबन्द करवाया।

प्रश्न 27.
गुरु हरगोबिन्द जी ने लाहौर प्रान्त को छोड़कर किस इलाके में किस स्थान पर रहने का फैसला किया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी ने लाहौर प्रान्त को छोड़कर कीरतपुर साहिब के स्थान पर रहने का फैसला किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 28.
पिरथी चन्द कौन था तथा उसके अनुयायियों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
पिरथी चन्द गुरु हरगोबिन्द जी का चाचा था। उसके अनुयायियों को ‘मीणे’ कहा जाता था।

प्रश्न 29.
मिहरबान का आरम्भिक नाम क्या था तथा वह किसका पुत्र था ?
उत्तर-
मिहरबान का आरम्भिक नाम मनोहर दास था। वह पिरथी चन्द का पुत्र था।

प्रश्न 30.
धीरमल किसका पौत्र था तथा वह किस स्थान पर रहने लगा था ?
उत्तर-
धीरमल गुरु हरगोबिन्द जी का पौत्र था। वह करतारपुर में रहने लगा था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 31.
गुरु हर राय जी किनके पौत्र थे और वे गुरुगद्दी पर कब से कब तक रहे ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी गुरु हरगोबिन्द जी के पौत्र थे। वे 1645 ई० से 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 32.
गुरु हर राय जी पर किस मुग़ल बादशाह ने किस शहज़ादे की सहायता करने का आरोप लगाया ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी पर औरंगजेब ने शहज़ादा दारा शिकोह की सहायता करने का आरोप लगाया।

प्रश्न 33.
गुरु हर राय जी के दो बेटों के नाम बताएं तथा उनमें से किन को गुरुगद्दी दी गई ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी के दो बेटों के नाम थे-रामराय जी तथा हरकृष्ण जी। गुरुगद्दी हरकृष्ण जी को दी गई थी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 34.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने किस वर्ष में गुरुआई सम्भाली और इस समय वे किस गांव में थे तथा यह किन दो नगरों के मध्य स्थित है ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने 1664 ई० में गुरुआई सम्भाली। इस समय वह बकाला में थे जो अमृतसर तथा जालन्धर के मध्य में है।

प्रश्न 35.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने किस पहाड़ी रियासत के इलाके में किस नये कस्बे की नींव रखी और यह बाद में किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने बिलासपुर रियासत में माखोवाल कस्बे की नींव रखी। यह बाद में आनन्दपुर साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 36.
गुरु तेग बहादुर जी अपनी यात्रा के दौरान किन चार नगरों में गये तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म कौन-से नगर में हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी अपनी यात्रा के दौरान आगरा, बनारस तथा गया में गये। गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म पटना में हुआ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 37.
गुरु तेग़ बहादुर जी को किस वर्ष में, किस शहर में, किस स्थान पर शहीद किया गया ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को 1675 ई० में दिल्ली में चांदनी चौक में शहीद किया गया।

प्रश्न 38.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपने पूर्वजों में से किन की नीति अपनाने का निश्चय किया तथा उन्होंने भेंट में किन दो वस्तुओं को प्राप्त करने को अधिक महत्त्व दिया ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने गुरु हरगोबिन्द जी की नीति अपनाने का निश्चय किया। उन्होंने भेंट में शस्त्र तथा घोड़े प्राप्त करने को अधिक महत्त्व दिया।

प्रश्न 39.
गुरु गोबिन्द सिंह जी का पहला युद्ध किस वर्ष में, किस स्थान पर और कहां के राजा के विरुद्ध हुआ ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी का पहला युद्ध श्रीनगर के राजा के साथ 1686 ई० में भंगाणी नामक स्थान पर हुआ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 40.
किस पहाड़ी राजा के कहने पर गुरु गोबिन्द सिंह जी ने मुगलों के विरुद्ध कौन-सी लड़ाई लड़ी तथा इसमें किसकी जीत हुई ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने पहाड़ी राजा भीमचन्द के कहने पर मुगलों के विरुद्ध नादौन की लड़ाई लड़ी। इसमें पहाड़ी राजाओं की जीत हुई।

प्रश्न 41.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर की सुरक्षा के लिए किन चार किलों का निर्माण किया था ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर की सुरक्षा के लिए आनन्दगढ़, केसगढ़, लोहगढ़ तथा फतेहगढ़ किलों का निर्माण किया था।

प्रश्न 42.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने कौन-से वर्ष, किस दिन और कहां पर खालसा की साजना की ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 ई० में वैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा की साजना की।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की यात्राओं अथवा उदासियों के बारे में बताएं।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपने सन्देश के प्रसार के लिए कुछ यात्राएं कीं। उनकी इन यात्राओं को उदासियां भी कहा जाता है। इन यात्राओं को तीन या चार हिस्सों अथवा उदासियों में बांटा जाता है। यह समझा जाता है कि इस दौरान गुरु नानक देव जी ने उत्तर में कैलाश पर्वत से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक तथा पश्चिम में पाकपटन से लेकर पूर्व में असम तक की यात्रा की थी। वह सम्भवत: भारत से बाहर लंका, मक्का, मदीना तथा बगदाद भी गये थे। उनके जीवन के लगभग बीस वर्ष ‘उदासियों’ में गुजरे। अपनी सुदूर ‘उदासियों’ में गुरु साहिब विभिन्न धार्मिक विश्वासों वाले अनेक लोगों के सम्पर्क में आये। ये लोग भान्ति-भान्ति की संस्कार विधियों और रस्मों का पालन करते थे। गुरु नानक साहिब ने इन सभी लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया।

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ‘माया’ मुक्ति के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा है। उनका माया का संकल्प वास्तविक है। यह वेदान्त की भान्ति ब्रह्माण्डीय भ्रम डालने वाला नहीं है। उनके अनुसार प्रभु ने ब्रह्माण्ड की रचना स्वयं को रूपवान करने के लिए की है। अतः रचनाकार और रचना में अन्तर जानना आवश्यक है। मनुष्य के मलिन भाव और ऐन्द्रिक सुख मनुष्य को माया से बाँध कर रखते हैं। इसलिए वह परमात्मा से दूर रहता है। इसी सन्दर्भ में ही गुरु नानक देव जी मनुष्य के पांच शत्रुओं की बात करते हैं, जिनके नाम हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। मनुष्य में अहं अथवा ‘हउमै’ की अभिव्यक्ति है। यह परमात्मा और मनुष्य के बीच एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दीवार है। मनुष्य की ‘मनमुखता’ ही उसके लिए यह समझना कठिन कर देती है कि केवल परमात्मा ही एक सर्वशक्तिमान् सत्ता है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खण्डन किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अनेक व्यर्थ के धार्मिक विश्वासों एवं व्यवहारों का खण्डन किया। उन्होंने अनुभव किया कि ब्राह्मण बाहरी कर्मकाण्ड में रत हैं जिनमें सही आत्मिक जिज्ञासा या धार्मिक श्रद्धा-भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा और मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण अवसरों से सम्बन्धित संस्कार-विधियां और रीति-रिवाजों का खंडन किया। गुरु नानक देव जी ने जोगियों की पद्धति को भी अस्वीकार कर दिया। इसके दो मुख्य कारण थे : जोगियों द्वारा परमात्मा के प्रति व्यवहार में श्रद्धा-भक्ति का अभाव और अपने मठवासी जीवन में सामाजिक दायित्व से विमुखता। गुरु नानक देव जी ने वैष्णव भक्ति को भी अस्वीकृत किया और अपनी विचारधारा में अवतारवाद को कोई स्थान न दिया। उन्होंने मुल्ला लोगों के विश्वासों, रस्मों एवं व्यवहारों का खण्डन किया।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ क्या थे ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ बड़े महत्त्वपूर्ण थे। उनका सन्देश सभी के लिए था। प्रत्येक स्त्रीपुरुष उनके बताये मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उनके अनुयायियों में समानता के विचार को वास्तविक रूप संगत और लंगर की संस्थाओं में मिला। इसलिए यह समझना कठिन नहीं है कि गुरु नानक देव जी ने जात-पात पर आधारित भेदभावों का बड़े स्पष्ट शब्दों में खण्डन क्यों किया। उन्होंने अपने आपको जनसाधारण के साथ सम्बन्धित किया। इस स्थिति में उन्होंने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा जोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खण्डन क्यों किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का जोरदार खण्डन किया। ब्राह्मण दिखावे के कर्मकाण्डों में लिप्त थे। वे लोग वेद, शास्त्रों, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा तथा जन्म-मरण के अवसर पर विभिन्न धार्मिक संस्कारों पर भी बड़ा बल देते हैं। वह स्वयं सच्ची प्रभु भक्ति में विश्वास रखते थे। इसी कारण उन्होंने ब्राह्मणों तथा उनकी धार्मिक पद्धति का कड़ा विरोध किया। इस्लाम धर्म में मुल्ला लोगों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था। वे अपने आपको इस्लाम का रक्षक समझते थे और इसके सिद्धान्तों को बाहरी रूप से अपनाने पर बड़ा बल देते थे। गुरु नानक देव जी को दिखावे का यह जीवन बिल्कुल पसन्द नहीं था। अत: उन्होंने उस समय ब्राह्मणों के साथ-साथ मुल्लाओं के आडंबरों का भी विरोध किया।

प्रश्न 6.
गुरु अमरदास जी पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी सिक्खों के तीसरे गुरु थे। आपका जन्म अमृतसर जिले में हुआ था। आपने गुरु अंगद देव जी की सेवा बहुत श्रद्धा और प्यार से की। इसी के फलस्वरूप आपको गुरुगद्दी प्राप्त हुई। गुरु अमरदास जी गुरुगद्दी पर बीस वर्ष रहे। उन्होंने सिक्ख पंथ के विकास के लिए अनेक कार्य किये।

  • गुरु अंगद देव जी की भान्ति गुरु अमरदास जी ने भी श्री गुरु नानक देव जी के नाम से वाणी की रचना की।
  • उन्होंने गोइन्दवाल साहिब में एक बावली बनवाई, जिसमें उनके सिक्ख (शिष्य) धार्मिक अवसरों पर स्नान करते थे। इस बावली की 84 सीढ़ियां हैं।
  • गुरु अमरदास जी ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर पढ़ने के लिये आनन्द साहिब नामक वाणी की रचना की।
  • उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के बाहर प्रचार कार्य के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या बढ़ने लगी।
  • उन्होंने पाठ-कीर्तन के लिए स्थान-स्थान पर अपनी धर्मशालाएं स्थापित की।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 7.
गुरु रामदास जी ने सिक्ख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 से 1581 तक गुरु पद पर रहे। उन्होंने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया-

  • उनका सबसे बड़ा योगदान रामदास पुर शहर की नींव डालना था। वह स्वयं भी यहीं कह कर प्रचार कार्य करने लगे।
  • उन्होंने अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवर खुदवाए।
  • उन्होंने मसंद प्रथा प्रारम्भ की। मसंद उनके लिए उनके सिक्खों से भेंट एकत्रित करके लाते थे।
  • उनके समय में सिक्खों तथा उदासियों में समझौता हो गया।

प्रश्न 8.
आदि ग्रन्थ साहिब के संकलन तथा महत्त्व के बारे में बताएं।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन सिक्ख पंथ के विकास में सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव था। इसके लिए तैयारी पहले गुरु साहिबान के समय में आरम्भ हो चुकी थी। गुरु अर्जन देव जी ने गुरु अमरदास जी के बड़े पुत्र से पहले तीन गुरु साहिबान तथा कुछ भक्तों की वाणी की पोथियां प्राप्त की। इसमें उन्होंने गुरु रामदास जी तथा अपनी वाणी के साथ-साथ और कुछ अन्य सन्तों, भक्तों एवं सूफ़ी शेखों की रचनायें शामिल की। यह काम 1604 ई० तक सम्पूर्ण कर लिया गया। आदि ग्रन्थ साहिब की हरिमंदर साहिब में स्थापना की गई और बाबा बुड्डा जी इसके पहले ग्रन्थी नियुक्त हुए। आदि ग्रन्थ साहिब को गुरु ग्रन्थ साहिब का दर्जा दिया गया और यह सिक्ख धर्म का मूल स्रोत बन गया। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय ही आदि ग्रन्थ साहिब में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित कर ली गई। आदि ग्रन्थ साहिब का महत्त्व इस बात से जाना जा सकता है कि इस ग्रन्थ में भक्तों तथा सन्तों के साथ-साथ गुरु साहिबानों की वाणी सामूहिक रूप में प्राप्त हुई जो सिक्ख पंथ का सच्चा मार्गदर्शन करने लगी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 9.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी ने सिक्ख पंथ के इतिहास पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख पंथ के इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।
1. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जाओ, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।

2. गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों के मन में मुगल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी।

3. इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए।

प्रश्न 10.
गुरु हरगोबिन्द साहिब की नई नीति तथा गतिविधियों के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द साहिब की नवीन नीति तथा गतिविधियों के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। गुरु साहिब ने आत्मरक्षा के लिए एक सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक तथा स्वयंसेवक सम्मिलित थे। गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने मसन्दों को सन्देश भेजा कि वह धन के बजाय घोड़े तथा शस्त्र उपहार अथवा भेंट के रूप में भेजें। सिक्खों की सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृतसर) के चारों ओर एक दीवार बनवाई गई। इस नगर में एक दुर्ग का निर्माण भी किया गया, जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्यों से सिक्खों में धार्मिक भावना के साथ-साथ सैनिक गुणों का भी विकास हुआ। फलस्वरूप उन्होंने मुग़ल अत्याचारों का डटकर सामना किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 11.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख पंथ में साम्प्रदायिक विभाजन तथा बाहरी खतरे की समस्या को कैसे हल किया?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख धर्म में विद्यमान अनेक सम्प्रदायों की तथा बाहरी खतरों की समस्या को भी बड़ी कुशलता से निपटाया। सर्वप्रथम गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं से अनेक युद्ध किए और उन्हें पराजित किया। उन्होंने अत्याचारी मुग़लों का भी सफल विरोध किया। 1699 ई० में गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ने खालसा की स्थापना करके अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए एक और महत्त्वपूर्ण पग उठाया। खालसा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिक्खों ने शस्त्रधारी का रूप धारण कर लिया। खालसा की स्थापना से गुरु जी को सिक्ख धर्म में विद्यमान् विभिन्न सम्प्रदायों से निपटने का अवसर भी मिला। गुरु जी ने घोषणा की कि सभी सिक्ख ‘खालसा’ का रूप हैं और उनके साथ जुड़े हुए हैं। इस प्रकार मसन्दों का महत्त्व समाप्त हो गया और सिक्ख धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय खालसा में विलीन हो गए।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ईश्वर के बारे में गुरु नानक देव जी के विचारों का वर्णन करते हुए उनकी किन्हीं पांच शिक्षाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएं उतनी ही आदर्श थीं जितना कि उनका जीवन। वह कर्मकाण्ड, जाति-पाति, ऊंच-नीच आदि संकीर्ण विचारों से कोसों दूर थे। उन्हें तो सत्यनाम से प्रेम था और इसी का सन्देश उन्होंने अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक प्राणी को दिया। उनकी मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है :

1. ईश्वर की महिमा-गुरु साहिब ने ईश्वर की महिमा का बखान अपने निम्नलिखित विचारों द्वारा किया है :

  • एक ईश्वर में विश्वास-श्री गुरु नानक देव जी ने इस बात का प्रचार किया कि ईश्वर एक है। वह अवतारवाद को स्वीकार नहीं करते थे।
  • ईश्वर निराकार तथा स्वयं-भू है-श्री गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को निराकार बताया। उनके अनुसार परमात्मा स्वयं-भू है। अत: उसकी मूर्ति बनाकर पूजा नहीं की जानी चाहिए।
  • ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है- श्री गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् बताया। उनके अनुसार ईश्वर संसार के कण-कण में विद्यमान है। सारा संसार उसी की शक्ति पर चल रहा है।
  • ईश्वर दयालु है-श्री गुरु नानक देव जी का कहना था कि ईश्वर दयालु है। वह अपने भक्तों के पास हर पल रहता है। उनके सभी काम आप संवारता है।

2. सतनाम के जाप पर बल–श्री गुरु नानक देव जी ने सतनाम के जाप पर बल दिया। वह कहते थे कि आत्मा की बुरे विचारों रूपी मैल को सतनाम के जाप से ही धोया जा सकता है।

3. गुरु का महत्त्व-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु की बहुत आवश्यकता है। गुरु रूपी जहाज़ में सवार होकर संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। उनका कथन है कि “सच्चे गुरु की सहायता के बिना किसी ने भी ईश्वर को प्राप्त नहीं किया।” गुरु ही मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है।

4. कर्म सिद्धान्त में विश्वास-गुरु नानक देव जी का विश्वास था कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। उनके अनुसार बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है। इसके विपरीत, शुभ कर्म करने वाला व्यक्ति जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है और निर्वाण प्राप्त करता है।

5. आदर्श गृहस्थ जीवन पर बल-गुरु नानक देव जी ने आदर्श गृहस्थ जीवन पर बल दिया है। उन्होंने लोगों को संसार में रहकर अच्छा जीवन व्यतीत करने और पवित्र बनने का सन्देश दिया है। उन्होंने इस धारणा को सर्वथा गलत सिद्ध कर दिखाया कि संसार माया जाल है और उसका त्याग किए बिना व्यक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। उनके शब्दों में, “अंजन माहि निरंजन रहिए” अर्थात् संसार में रहकर भी मनुष्य को पृथक् और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।

6. मनुष्य-मात्र से प्रेम-गुरु नानक देव जी रंग-रूप के भेद-भावों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार एक ईश्वर की सन्तान होने के नाते सभी मनुष्य भाई-भाई हैं। वह कहते थे, “मैं सभी मनुष्यों को महान् समझता हूँ और किसी को भी नीचा नहीं समझता क्योंकि सभी मनुष्यों को बनाने वाला एक ही है।” अतः उन्होंने लोगों को मनुष्य-मात्र से प्रेम करने का सन्देश दिया।

7. जाति-पाति का खण्डन-गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उनकी दृष्टि में न कोई हिन्दू था और न कोई मुसलमान। उनके अनुसार सभी जातियों तथा धर्मों में मौलिक एकता और समानता विद्यमान है।

8. समाज सेवा-गुरु नानक देव जी के अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर प्राणियों से प्रेम नहीं करता, उसे ईश्वर की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। उन्होंने अपने अनुयायियों को निःस्वार्थ भाव से मानव प्रेम और समाज सेवा करने का उपदेश दिया। उनके अनुसार मानवता के प्रति प्रेम, ईश्वर के प्रति प्रेम का ही प्रतीक है।

9. मूर्ति-पूजा का खण्डन-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति-पूजा का कड़े शब्दों में खण्डन किया। उनके अनुसार ईश्वर की मूर्तियां बनाकर पूजा करना व्यर्थ है, क्योंकि ईश्वर अमूर्त तथा निराकार है।

10. यज्ञ, बलि तथा व्यर्थ के कर्मकाण्डों में अविश्वास-गुरु नानक देव जी ने व्यर्थ के कर्मकाण्डों का घोर खण्डन किया और ईश्वर की प्राप्ति के लिए यज्ञों तथा बलि आदि को व्यर्थ बताया। उनके अनुसार बाहरी दिखावे का प्रभु भक्ति में कोई स्थान नहीं है।

11. सर्वोच्च आनन्द (सचखण्ड) की प्राप्ति-गुरु नानक देव जी के अनुसार मनुष्य जीवन का उद्देश्य सर्वोच्च आनन्द (सचखण्ड) की प्राप्ति है। सर्वोच्च आनन्द वह मानसिक स्थिति है जहां मनुष्य सभी चिन्ताओं तथा कष्टों से मुक्त हो जाता है। उसका दुःखी हृदय शान्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है।

12. नैतिक जीवन पर बल-गुरु नानक देव जी ने लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने आदर्श जीवन के लिए कई सिद्धान्त प्रस्तुत किए-

  • सदा सत्य बोलना।
  • नाम जपना।
  • नेक कमाई खाना।
  • दूसरों की भावनाओं को कभी ठेस न पहुंचाना
  • मिल-बाँट कर छकना। ‘किरत करना, वंड खाना तथा नाम जपना’ इस सिद्धान्त का मूल सार है।
    सच तो यह है कि गुरु नानक देव जी एक महान् सन्त और समाज सुधारक थे।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 2.
गुरु अर्जन देव जी ने सिक्ख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
अथवा
सिख धर्म के प्रसार के लिए श्री गुरु अर्जन देव जी द्वारा किए गए किन्हीं पांच कार्यों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के गुरुगद्दी सम्भालते ही सिक्ख धर्म के इतिहास ने नवीन दौर में प्रवेश किया। उनके प्रयास से हरिमंदर साहिब बना और सिक्खों को अनेक तीर्थ स्थान मिले। यही नहीं उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब का संकलन किया जिसे सिक्ख धर्म में सबसे अधिक पूजनीय स्थान प्राप्त है। संक्षेप में, गुरु अर्जन देव जी के कार्यों तथा सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. हरिमंदर साहिब का निर्माण-गुरु रामदास जी के ज्योति जोत समाने के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर तथा सन्तोखसर नामक सरोवरों का निर्माण कार्य पूरा किया। उन्होंने ‘अमृतसर’ तालाब के बीच हरिमंदर साहिब का निर्माण करवाया। गुरु जी ने इसके चारों ओर एक-एक द्वार रखवाया। ये द्वार इस बात का प्रतीक हैं कि हरिमंदर साहिब सभी जातियों तथा धर्मों के लोगों के लिए खुला है।

2. तरनतारन की स्थापना-गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, सरोवरों तथा स्मारकों का निर्माण करवाया। तरनतारन भी इनमें से एक था। उन्होंने इसका निर्माण प्रदेश के ठीक मध्य में करवाया। अमृतसर की भान्ति तरनतारन भी सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

3. लाहौर में बाऊली का निर्माण-गुरु अर्जन देव जी ने अपनी लाहौर यात्रा के दौरान डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इसके निर्माण से बाऊली के निकटवर्ती प्रदेशों के सिक्खों को एक तीर्थ स्थान की प्राप्ति हुई।

4. हरगोबिन्दपुर तथा छहरटा की स्थापना-गुरु जी ने अपने पुत्र हरगोबिन्द के जन्म की खुशी में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिन्दपुर नामक नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमृतसर के निकट पानी की कमी को दूर करने के लिए एक कुएं का निर्माण करवाया। इस कुएं पर छः रहट चलते थे। इसलिए इसे छहरटा के नाम से पुकारा जाने लगा।

5. करतारपुर की नींव रखना-गुरु जी ने 1539 ई० में जालन्धर दोआब में एक नगर की स्थापना की जिसका नाम करतारपुर रखा गया। यहां उन्होंने एक सरोवर का निर्माण करवाया जो गंगसर के नाम से प्रसिद्ध है।

6. मसन्द प्रथा का विकास-गुरु अर्जन देव जी ने मसन्द प्रथा में सुधार लाने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने सिक्खों को आदेश दिया कि वह अपनी आय का 1/10 भाग आवश्यक रूप से मसन्दों को जमा कराएं। मसन्द वैशाखी के दिन इस राशि को अमृतसर के केन्द्रीय कोष में जमा करवा देते थे। राशि को एकत्रित करने के लिए वे अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने लगे। इन्हे ‘संगती’ कहते थे। दशांश इकट्ठा करने के अतिरिक्त मसन्द उस क्षेत्र में सिक्ख धर्म का प्रचार करते थे।

7. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन करके सिक्खों को एक महान् धार्मिक ग्रन्थ प्रदान किया। गुरु जी ने आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन कार्य रामसर में आरम्भ किया। इस कार्य में भाई गुरदास जी ने गुरु जी को सहयोग दिया। अन्त में 1604 ई० में आदि ग्रन्थ साहिब की रचना का कार्य सम्पन्न हुआ। इस पवित्र ग्रन्थ में उन्होंने अपने से पहले चार गुरु साहिबान की वाणी, फिर भक्तों की वाणी तथा उसके पश्चात् भाटों की वाणी का संग्रह किया।

8. घोड़ों का व्यापार-गुरु जी ने सिक्खों को घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रेरित किया। इससे सिक्खों को निम्नलिखित लाभ हुए :

  • उस समय घोड़ों के व्यापार से बहुत लाभ होता था। परिणामस्वरूप सिक्ख धनी हो गए। अब उनके लिए दसवंद (1/10) देना कठिन न रहा।
  • इस व्यापार से सिक्खों को घोड़ों की अच्छी परख हो गई। यह बात उनके लिए सेना संगठन के कार्य में बड़ी काम आई।

9. धर्म प्रचार कार्य-गुरु अर्जन देव जी ने धर्म-प्रचार द्वारा भी अनेक लोगों को अपना शिष्य बना लिया। उन्होंने अपनी आदर्श शिक्षाओं, सद्व्यवहार, नम्र स्वभाव तथा सहनशीलता से अनेक लोगों को प्रभावित किया। उनके प्रभाव में आकर हज़ारों लोग उनके अनुयायी बन गए। इनमें कुछ मुसलमान भी सम्मिलित थे।

संक्षेप में, इतना कहना ही काफ़ी है कि गुरु अर्जन देव जी के काल में सिक्ख धर्म ने बहुत प्रगति की। आदि ग्रन्थ साहिब की रचना हुई, तरनतारन, करतारपुर तथा छहरटा अस्तित्व में आए तथा हरिमंदर साहिब सिक्ख धर्म की शोभा बन गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 3.
आदि ग्रन्थ साहिब पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब सिक्खों का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। वे इसका ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ कहकर आदर करते हैं। इस ग्रन्थ का संकलन श्री गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
आदि ग्रन्थ साहिब की रचना (संकलन) के कारण-आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन कई कारणों से किया गया-

1. गुरु अर्जन देव जी के पहले के चार गुरु साहिबान की रचनाएं बिखरी पड़ी थीं। गुरु अर्जन देव जी ने इन रचनाओं को सुरक्षित करने के लिए इनका संग्रह आवश्यक समझा।

2. गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथिया ने सिक्ख गुरु साहिबान के नाम पर अनेक गीतों की रचना कर ली थी। अतः एक साधारण सिक्ख के लिए गुरु साहिबान के वास्तविक शबदों को ढूंढ़ना बड़ा कठिन हो गया था। इस बात को ध्यान में रखते हुए गुरु साहिबान की वास्तविक वाणी का संग्रह करना आवश्यक था।

3. गुरु अर्जन देव जी सिक्खों के पथ-प्रदर्शन के लिए कुछ विशेष नियम बनाना चाहते थे। अतः उनके मन में एक नियमपुस्तक तैयार करने का विचार उत्पन्न हुआ।

4. सिक्खों के पास अपनी लिपि तथा भाषा पहले ही थी। अब गुरु अर्जन देव जी ने यह अनुभव किया कि उन्हें उनकी बोलचाल की भाषा में एक धार्मिक ग्रन्थ दिया जाना चाहिए।

आदि ग्रन्थ साहिब की रचना-सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास जी के पुत्र बाबा मोहन गोइन्दवाल साहिब में पहले तीन गुरु साहिबान की रचनाओं को लिपिबद्ध कर रहे थे। यह रचनाएं प्राप्त करने के लिए गुरु अर्जन देव जी स्वयं नंगे पांव चलकर गोइन्दवाल साहिब गए। बाबा मोहन जी गुरु जी की विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सारी वाणी गुरु अर्जन देव जी को सौंप दी। गुरु जी ने अनेक हिन्दू और मुसलमान विद्वानों को भी आदि ग्रन्थ साहिब की रचना में सहायता देने के लिए आमन्त्रित किया।

प्रारम्भिक तैयारी के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर से लगभग पांच मील दक्षिण की ओर एक एकान्त स्थान पर आदि ग्रन्थ साहिब की रचना का कार्य आरम्भ किया। 1604 ई० में यह कार्य मुकम्मल हो गया। इसको अमृतसर के हरिमंदर साहिब में प्रतिष्ठित किया गया। बाबा बुड्डा जी को वहां का पहला मुख्य ग्रन्थी नियुक्त किया गया।

विषय-वस्तु-आदि ग्रन्थ साहिब में पहले पांच सिक्ख गुरु साहिबान की बाणी सम्मिलित है। बाद में गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में गुरु तेग़ बहादुर जी की बाणी भी इसमें शामिल कर ली गई। इसमें कुछ हिन्द्र तथा मुसलमान सन्तों और फ़कीरों तथा प्रसिद्ध भाटों की रचनाएं भी शामिल हैं।

प्रश्न 4.
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान क्यों हुआ ? इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान मुग़ल सम्राट जहांगीर के समय में जून 1606 ई० को हुआ।
कारण-
(1) गुरु साहिब की शहीदी के पीछे मुख्यतः जहांगीर की कट्टर धार्मिक नीति का हाथ था। वह कट्टर मुसलमान था।

(2) गुरु जी द्वारा आदि ग्रन्थ साहिब की रचना ने जहांगीर के सन्देह को और बढ़ा दिया। गुरु जी के शत्रुओं ने जहांगीर को बताया कि आदि ग्रन्थ साहिब में इस्लाम धर्म के विरुद्ध काफ़ी कुछ लिखा गया है। यह सुनकर मुग़ल सम्राट का क्रोध काफ़ी बढ़ गया। उसने श्री गुरु अर्जन देव जी को कठोर शारीरिक कष्ट देने का आदेश जारी कर दिया। बाद में लाहौर के मुसलमान फकीर मियांमीर के प्रयत्नों से इस दण्ड को दो लाख रुपए के जुर्माने में बदल दिया गया। परन्तु गुरु जी ने जुर्माना देना स्वीकार नहीं किया। वह अपने धन का प्रयोग केवल निर्धनों एवं अनाथों की सेवा के लिए ही व्यय करना चाहते थे। अतः मुग़ल सम्राट ने क्रोध में आकर गुरु जी के लिए फिर से मृत्यु दण्ड का आदेश जारी कर दिया। सिक्ख परम्पराओं के अनुसार गुरु जी को क्रूर यातनाएं दी गईं। उनके शरीर पर गर्म रेत डाली गई और उन्हें उबलते पानी में डाला गया। कुछ विद्वानों के अनुसार गुरु जी ने यातनाओं के बीच रावी नदी में स्नान करने की इच्छा प्रकट की और वहां उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

शहीदी की प्रतिक्रिया-गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई :

1. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।

2. गुरु जी की शहीदी से सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहंची और उनके मन में मुस्लिम राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई।

3. इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिये तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 5.
गुरु हरगोबिन्द जी की नई नीति का वर्णन करो।
अथवा
श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब की नई नीति की पांच मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के पश्चात् उनके पुत्र हरगोबिन्द जी सिक्खों के छठे गुरु बने। उन्होंने एक नई नीति को जन्म दिया। इस नीति का प्रमुख उद्देश्य सिक्खों को शान्ति-प्रिय होने के साथ निडर तथा साहसी बनाना था। गुरु साहिब द्वारा अपनाई गई नवीन नीति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं:

1. राजसी चिन्ह तथा ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण करना-नवीन नीति का अनुसरण करते हुए गुरु हरगोबिन्द जी ने ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण की तथा अनेक राजसी चिन्ह धारण करने आरम्भ कर दिए। उन्होंने शाही वस्त्र धारण किए और सेली तथा टोपी की जगह दो तलवारें, छत्र और कलगी धारण कर ली। गुरु जी अब अपने अंगरक्षक भी रखने लगे।

2. मीरी तथा पीरी-गुरु हरगोबिन्द जी अब सिक्खों के आध्यात्मिक नेता होने के साथ-साथ उनके सैनिक नेता भी बन गए। वे सिक्खों के पीर भी थे और मीर भी। इन दोनों बातों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पीरी तथा मीरी नामक दो तलवारें धारण की। उन्होंने सिक्खों की शारीरिक उन्नति पर विशेष बल दिया। उन्होंने सिक्खों को व्यायाम करने, कुश्तियां लड़ने, शिकार खेलने तथा घुड़सवारी करने की प्रेरणा दी। इस प्रकार उन्होंने सन्त सिक्खों को सन्त सिपाहियों का रूप भी दे दिया।

3. अकाल तख्त का निर्माण-गुरु जी सिक्खों को आध्यात्मिक शिक्षा देने के अतिरिक्त सांसारिक विषयों में भी उनका पथ-प्रदर्शन करना चाहते थे। हरिमंदर साहिब में वे सिक्खों को धार्मिक शिक्षा देने लगे। परन्तु सांसारिक विषयों में सिक्खों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने हरिमंदर साहिब के सामने एक नया भवन बनाया जिसका नाम अकाल तख्त (ईश्वर की गद्दी) रखा गया। इस प्रकार भवन के अन्दर निर्मित 12 फुट ऊंचे चबूतरे पर बैठकर वे सिक्खों की सैनिक तथा राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने लगे।

4. सेना का संगठन-गुरु हरगोबिन्द जी ने आत्मरक्षा के लिए सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक सम्मिलित थे। माझा के अनेक युद्ध प्रिय लोग गुरु जी की सेना में भर्ती हो गए। मोहसिन फ़ानी के मतानुसार, गुरु जी ने सेना में 800 घोड़े 300,घुड़सवार तथा 60 बन्दूकची थे। उनके पास 500 ऐसे स्वयं सेवक भी थे जो वेतन नहीं लेते थे। इसके अतिरिक्त पैंदे खां नामक पठान के अधीन पठानों की एक पृथक् सेना थी।

5. घोड़ों तथा शस्त्रों का संग्रह-गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन-नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने सिक्खों से आग्रह किया कि जहां तक सम्भव हो वे शस्त्र तथा घोड़े ही भेंट में दे। परिणामस्वरूप गुरु जी के पास काफ़ी मात्रा में सैनिक सामग्री इकट्ठी हो गई।

6. अमृतसर की किलेबन्दी-गुर जी ने सिक्खों की सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृत्सर) के चारों ओर एक दीवार बनवाई । इस नगर में दुर्ग का निर्माण भी किया गया जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस किले में काफ़ी सैनिक सामग्री रखी गई।

7. गुरु जी की दिनचर्या में परिवर्तन-गुरु हरिगोबिन्द जी की नवीन नीति के अनुसार उनकी दिनचर्या में भी कुछ परिवर्तन आए। नई दिनचर्या के अनुसार वे प्रातःकाल स्नान आदि करके हरिमंदर साहिब में धार्मिक उपदेश देने के लिए चले जाते थे और फिर अपने सैनिकों में प्रात:काल का भोजन बांटते थे। इसके पश्चात् वे कुछ समय के लिए विश्राम करके शिकार के लिए निकल पड़ते थे। गुरु जी ने अब्दुल तथा नत्थामल को जोशीले गीत ऊंचे स्वर में गाने के लिए नियुक्त किया। उन्होंने दुर्बल मन को सबल बनाने के लिए अनेक गीत मण्डलियां बनाईं। इस प्रकार गुरु जी ने सिक्खों में नवीन चेतना और नये उत्साह का संचार किया।

8. आत्मरक्षा की भावना-गुरु हरिगोबिन्द जी की नवीन नीति आत्मरक्षा की भावना पर आधारित थी। वह सैनिक बल पर न तो किसी के प्रदेश पर अधिकार करने के पक्ष में थे और न ही किसी पर ज़बरदस्ती आक्रमण करने के पक्ष में थे। यह सच है कि उन्होंने मुग़लों के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े। परन्तु इन युद्धों का उद्देश्य मुग़लों के प्रदेश छीनना नहीं था बल्कि उनसे अपनी रक्षा करना था।

प्रश्न 6.
(क) उन परिस्थितियों का वर्णन करो जो गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी थीं।
(ख) सिक्ख इतिहास में उनकी शहीदी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
(क) परिस्थितियां-गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी निम्नलिखित परिस्थितियों में हुई :

1. सिक्खों और मुग़लों में बढ़ता हुआ विरोध-अकबर के शासनकाल के बाद मुग़लों और सिक्खों के आपसी सम्बन्ध बिगड़ने लगे, परन्तु जहांगीर के समय से मुग़लों और सिक्खों में आपसी शत्रुता शुरू हो गई। जहांगीर ने सिक्ख गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया था। अतः सिक्खों ने भी आत्मरक्षा के लिए शस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिए थे। उनके शस्त्र धारण करते ही मुग़लों तथा सिक्खों में शत्रुता इतनी गहरी हो गई जो आगे चलकर गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का कारण बनी।

2. औरंगजेब की असहनशीलता की नीति-औरंगज़ेब एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने अपनी हिन्दू जनता पर अत्याचार करने शुरु कर दिए और उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने का प्रयास भी किया। औरंगज़ेब द्वारा निर्दोष लोगों पर लगाए जा रहे प्रतिबन्धों ने गुरु तेग़ बहादुर जी के मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे अपनी जान देकर भी इन अत्याचारों से लोगों की रक्षा करेंगे। आखिर उन्होंने यही किया।

3. सिक्ख धर्म का उत्साहपूर्ण प्रचार-गुरु नानक देव जी के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने भी स्थान-स्थान पर भ्रमण करके सिक्ख मत का प्रचार किया। औरंगज़ेब सिक्ख धर्म के इस प्रचार को सहन न कर सका। वह मन ही मन सिक्ख गुरु तेग़ बहादुर जी से ईर्ष्या करने लगा।

4. राम राय की शत्रुता-गुरु हरकृष्ण जी के भाई राम राय ने औरंगजेब से शिकायत की कि गुरु जी का धर्म प्रचार का कार्य राष्ट्र हित के विरुद्ध है। उसकी बातों में आकर औरंगजेब ने गुरु जी को सफ़ाई पेश करने के लिए मुग़ल दरबार में (दिल्ली) बुलाया और जहां गुरु जी ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

5. कश्मीरी ब्राह्मणों की पुकार-कुछ कश्मीरी ब्राह्मण मुग़ल अत्याचारों से तंग आ चुके थे। उन्हें कश्मीर का मुग़ल गवर्नर ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था। उन्होंने गुरु जी से यह प्रार्थना की कि वे उनकी रक्षा करें। ब्राह्मणों की दुःख भरी कहानी सुनकर गुरु जी ने कहा कि इस समय धर्म को बलिदान की आवश्यकता है। अतः उन्होंने ब्राह्मणों से कहा कि वे औरंगजेब से जाकर कहें कि “पहले हमारे गुरु साहिब को मुसलमान बनाओ, फिर हम सब लोग भी आपके धर्म को स्वीकार कर लेंगे।” इस प्रकार आत्म-बलिदान की भावना से प्रेरित होकर गुरु तेग़ बहादुर जी दिल्ली की ओर चल पड़े जहां उन्हें शहीद कर दिया गया।

(ख) शहीदी का महत्त्व-इतिहास में गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के महत्त्व को निम्नलिखित बातों के आधार पर जाना जा सकता है-

1. धर्म के प्रति बलिदान की परम्परा को बनाये रखना-गुरु तेग़ बहादुर जी ने धर्म के प्रति अपने जीवन का बलिदान देकर गुरु साहिबान के बलिदान की परम्परा को बनाए रखा। उनसे पहले गुरु अर्जन देव जी ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था।

2. खालसा की स्थापना- गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान से गुरु गोबिन्द सिंह जी इस परिणाम पर पहुंचे कि जब तक भारत में मुग़ल राज्य रहेगा, तब धार्मिक अत्याचार समाप्त नहीं होंगे। मुग़ल अत्याचारों का सामना करने के लिए उन्होंने 1699 ई में आनन्दपुर साहिब में खालसा की स्थापना की।

3. मुग़लों के विरुद्ध घृणा तथा बदले की भावनाएं-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान से मुग़लों के अत्याचारों के विरुद्ध घृणा तथा बदले की भावनाएं भड़क उठीं।

4. मुग़ल साम्राज्य को धक्का-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने मुग़ल साम्राज्य की नींव हिला दी। गुरु गोबिन्द सिंह जी के वीर खालसा मुग़ल साम्राज्य से निरन्तर जूझते रहे जिससे मुग़लों की शक्ति को भारी धक्का पहुंचा।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 7.
गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन तथा पूर्व खालसा काल में सफलताओं का सक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा
निम्नलिखित पर नोट लिखिए :
(क) भंगानी तथा नादौन के युद्ध
(ख) खालसा की स्थापना।
उत्तर
गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के दसवें तथा अन्तिम गुरु थे। वे अद्भुत प्रतिभा के स्वामी थे। उनमें एक साथ अनेक योग्यताएं विद्यमान् थीं। वह एक महान् आध्यात्मिक नेता जन्मजात सेनानायक, कुशल संगठनकर्ता और प्रतिभाशाली विद्वान् थे। डॉ० इन्दु भूषण बैनर्जी के शब्दों में “गुरु गोबिन्द सिंह जी की गणना सभी युगों के सबसे महान् भारतीयों में की जानी चाहिए। वे नौवें गुरु तेग बहादुर जी के इकलौते पुत्र थे। इनका जन्म 22 दिसम्बर, 1666 ई० को पटना में हुआ। उनके बचपन के 6 वर्ष पटना में व्यतीत हुए।

शिक्षा तथा पिता की शहीदी- 1673 ई० में गुरु तेग बहादुर जी पटना से मक्खोवाल आ गए। वहां गोबिन्द राय जी को घुड़सवारी तथा युद्ध कला की शिक्षा दी गई। इन्होंने अरबी तथा फ़ारसी तथा गुरुमुखी का ज्ञान प्राप्त किया।

गोबिन्द राय अभी 9 वर्ष के ही थे कि इनके पिता गुरु तेग़ बहादुर को हिन्दू धर्म के लिए शहीदी देनी पड़ी। इस शहीदी का गोबिन्द राय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। गुरुगद्दी सम्भालते ही उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए सैनिक तैयारियां आरम्भ कर दी। डॉ० इन्दु भूषण बैनर्जी ने गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन को दो कालों में बांटा है-(क) पूर्व खालसा काल (ख) उत्तर खालसा काल।

(क) पूर्व खालसा काल (1675-1699) –

पूर्व खालसा काल में गुरु जी ने सर्वप्रथम अपनी एक सेना तैयार करनी आरम्भ की और कुछ ही समय में उन्होंने एक शक्तिशाली सेना तैयार कर ली। गुरु जी ने एक नगारा भी बनवाया जिसे रणजीत नगारा के नाम से पुकारा जाता था।

बिलासपुर का राजा भीमचन्द गुरु जी की बढ़ती हुई सैनिक शक्ति से घबरा उठा और वह उनके विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने लगा। श्रीनगर के राजा का ‘बिलासपुर से सम्बन्ध होने से दोनों की शक्ति बढ़ गई। यह बात नाहन के राजा मेदिनी प्रकाश के लिए चिन्ताजनक थी। उसने गुरु जी से सम्बन्ध बढ़ाने चाहे और गुरु जी को अपने यहां आमन्त्रित किया। गुरु जी ने उसके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया। वहां उन्होंने पौण्टा नामक किले का निर्माण करवाया। पौण्टा में गुरु जी ने फिर से सेना का संगठन आरम्भ कर दिया।

भंगानी तथा नादौन के युद्ध-1688 ई० में बिलासपुर के राजा भीमचन्द ने अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिल कर गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। पौण्टा से लगभग 6 मील दूर भंगानी के स्थान पर पहाड़ी राजाओं तथा सिक्खों में घमासान युद्ध हुआ। युद्ध में पठान तथा उदासी सैनिक गुरु जी का साथ छोड़ गए। परन्तु ठीक इसी समय पर सढौरा का पीर बुद्धशाह गुरु जी की सहायता के लिए आ पहुंचा। उनकी सहायता से गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं को बुरी तरह परास्त किया। यह गुरु जी की पहली महत्त्वपूर्ण विजय थी। भंगानी विजय के पश्चात् गुरु जी आनन्दपुर वापस आ गए। उन्होंने आनन्दपुर को अपना कार्य-क्षेत्र बनाया। उन्होंने लोहगढ़, केसगढ़, आनन्दगढ़ तथा फतेहगढ़ नामक चार दुर्गों का निर्माण भी करवाया।

उनकी बढ़ती हुई शक्ति को देखकर भीमचन्द तथा अन्य पहाड़ी राजाओं ने गुरु जी से मित्रता कर लेने में ही अपनी भलाई समझी। अब वे इतने निश्चिन्त हो गए कि उन्होंने मुग़ल सम्राट् को वार्षिक कर देना भी बन्द कर दिया। मुग़ल सम्राट् इसे सहन न कर सका। उसने सरहिन्द के मुग़ल गवर्नर को पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दिया। शीघ्र ही सरहिन्द के मुग़ल-गवर्नर ने अलिफ खां के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं तथा गुरु जी के विरुद्ध एक विशाल सेना भेज दी। कांगड़ा से 20 मील दूर नादौन के स्थान पर घमासान युद्ध हुआ। मुग़ल बुरी तरह पराजित हुए। कुछ समय पश्चात् सरहिन्द के गवर्नर ने गुरु जी के विरुद्ध एक बार फिर सेना भेजी, परन्तु अब भी उसे पराजय ही हाथ लगी। अन्त में औरंगजेब के बेटे राजकुमार मुअज्जम ने मिर्जाबेग के नेतृत्व में एक भारी सेना गुरु जी के विरुद्ध भेजी। गुरु जी ने मिर्जाबेग को भी पराजित कर दिया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना 1

खालसा की स्थापना-1699 ई० को वैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर साहिब में एक विशाल सभा बुलवाई। इस सभा में लगभग 80 हज़ार लोग शामिल हुए। जब सभी लोग अपने स्थान पर बैठ गए तो गुरु जी ने नंगी तलवार घुमाते हुए कहा-“क्या आप में कोई ऐसा सिक्ख है जो धर्म के लिए अपना सिर दे सके ?” सारी सभा में सन्नाटा छा गया। गुरु जी ने इस वाक्य को तीन बार दोहराया। तब लाहौर निवासी दयाराम ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। गुरु जी उसे शिविर में ले गए और खून से लथपथ तलवार लेकर बाहर आए। एक बार फिर उन्होंने बलिदान की मांग की। इस प्रकार यह मांग बार-बार दोहराई गई। क्रमश: धर्मदास, मोहकम चन्द, साहिब चन्द तथा हिम्मत राय ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। सिक्ख इतिहास में इन पांचों व्यक्तियों को पांच प्यारे’ कह कर पुकारा जाता है। गुरु जी ने दोधारी तलवार (खण्डा) से पाहुल तैयार करके इन पांचों व्यक्तियों को अमृत पान करवाया। इस प्रकार वे ‘खालसा’ कहलाए और सिंह बन गए। गुरु जी ने स्वयं भी उनके हाथों से अमृत पान किया। इस प्रकार वे भी गोबिन्द राय से गोबिन्द सिंह बन गए। गुरु जी द्वारा खालसा की स्थापना के विषय में डॉ० इन्दू बनर्जी ने लिखा है-

“उन्होंने खालसा नामक एक नवीन संगठन को जन्म देकर भारतीय इतिहास में एक सक्रिय शक्ति का समावेश fanelli” (“He brought a new people (Khalsa) into being and released a new dynamic force into the arena of Indian History.”)

प्रश्न 8.
उत्तर खालसा काल में गुरु गोबिन्द सिंह जी की गतिविधियों एवं सफलताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन की 1699 ई० के पश्चात् की अवधि उत्तर खालसा काल के नाम से प्रसिद्ध है। इस काल में गुरु साहिब की गतिविधियों एवं सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

आनन्दपुर साहिब का प्रथम (1701 ई० ) तथा दूसरा युद्ध ( 1703 ई०)-खालसा की स्थापना से पहाड़ी राजा घबरा गए। अतः भीमचन्द ने अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर आनन्दपुर साहिब पर आक्रमण कर दिया। कम सैनिकों के होने पर भी गुरु जी ने उनका डटकर सामना किया। पहाड़ी राजा पराजित हुए। परन्तु कुछ समय पश्चात् पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों से सहायता प्राप्त करके आनन्दपुर साहिब पर एक बार फिर आक्रमण कर दिया। इस बार भी उन्हें कोई सफलता न मिली। विवश होकर उन्हें गुरु जी से सन्धि करनी पड़ी। पहाड़ी राजा सन्धि के बाद भी सैनिक तैयारियां करते रहे। उन्होंने गुजरों को अपने साथ मिला लिया। मुग़ल सम्राट ने भी उनकी, सहायता की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। 1703 ई० में सरहिन्द के गवर्नर वज़ीर खां ने सिक्खों की शक्ति को कुचलने के लिए एक विशाल सेना भेजी। सभी ने मिलकर आनन्दपुर साहिब को घेरा डाल दिया।

गुरु जी ने अपने वीर सिक्खों की सहायता से मुग़लों का डट कर सामना किया। परन्तु अन्त में गुरु जी को आनन्दपुर साहिब छोड़ना पड़ा। मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी का पीछा किया। जब वे सिरसा नदी पार कर रहे थे तो सेना में भगदड़ मच जाने के कारण गुरु जी की माता जी तथा उनके दो छोटे पुत्र जुझार सिंह तथा फतेह सिंह उनसे बिछुड़ गए। गुरु जी के पुराने रसोइए गंगू ने गुरु जी से विश्वासघात किया और गुरु पुत्रों को मुग़लों के हवाले कर दिया। सरहिन्द के सूबेदार वज़ीर खां ने उन्हें मुसलमान बनने को कहा, परन्तु निडर साहिबजादों ने अपना धर्म बदलने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें दीवार में चिनवा दिया गया और वे शहीदी को प्राप्त हुए।

चमकौर साहिब (1704 ई०) तथा खिदराना ( 1705 ई०) के युद्ध-सिरसा नदी को पार करके गुरु जी चमकौर पहुंचे। पहाड़ी राजाओं तथा मुग़ल सेनाओं ने उन्हें यहां भी आ घेरा। उस समय गुरु जी के साथ उनके दो पुत्र अजीत सिंह तथा जोरावर सिंह के अतिरिक्त केवल 40 सिक्ख थे। उन्होंने मुग़लों का डटकर सामना किया। गुरु जी के दोनों पुत्र और 35 सिक्ख सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। सिक्खों के प्रार्थना करने पर गुरु जी अपने 5 साथियों सहित माछीवाड़ा के जंगलों में चले गए। इसके बाद गुरु जी कोटकपूरा पहुंचे। मुग़ल सेना अब भी उनके पीछे थी। इसलिए कोटकपूरा के चौधरी ने गुरु जी को शरण देने से इन्कार कर दिया। गुरु जी वहां से सीधे खिदराना पहुंचे । यहा मुग़लों के साथ उनका अन्तिम युद्ध हुआ। इस युद्ध में वे चालीस सिक्ख भी गुरु जी से आ मिले जो आनन्दपुर साहिब के युद्ध में उनका साथ छोड़ गये थे। इस बार वे बड़ी वीरता से लड़े और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने इन शहीदों को अपनी पिछली भूल के लिए क्षमा कर दिया और उनकी मुक्ति के लिए प्रार्थना भी की । इसलिए खिदराना का नाम ‘श्री मुक्तसर साहिब’ पड़ गया।

ज्योति जोत समाना-गुरु जी ने अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्ष तलवण्डी साबो में व्यतीत किए। 1707 ई० में बहादुरशाह सम्राट् बना। वह गुरु साहिब को अपना मित्र समझता था क्योंकि उत्तराधिकार के युद्ध में गुरु साहिब ने उसकी सहायता की थी। 1708 ई० में गुरु जी बहादुर शाह के साथ दक्षिण की ओर गए। मार्ग में वह कुछ समय के लिए नांदेड नामक स्थान पर ठहरे। यहां एक पठान ने उन पर छुरे से वार कर दिया। अतः 1708 ई० को वे ज्योति जोत समा गए।

इस प्रकार गुरु गोबिन्द सिंह जी का जीवन संघर्ष और बलिदान की एक अनोखी गाथा है। डॉ० हरि राम गुप्ता के शब्दों में, “गुरु साहिब के आदर्श तथा कारनामें उनकी पीढ़ी में ही लोगों के धार्मिक, सैनिक तथा राजनीतिक जीवन में एक परिवर्तन ले आये।”<sup>1</sup>

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 9.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की नींव कैसे रखी ?
अथवा
खालसा पंथ की स्थापना के लिए कौन-सी परिस्थितियां उत्तरदायी थीं ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना 1699 ई० में वैशाखी के दिन की। इसके लिए अनेक परिस्थितियां उत्तरदायी थीं :
(1) गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय में भारत की राजनीतिक दशा बड़ी शोचनीय थी। मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। गुरु जी यह सब देखकर बहुत दु:खी हुए। काफ़ी विचार के पश्चात् वे इस निर्णय पर पहुंचे कि मुग़लों के अत्याचारों से बचने के लिए स्थायी रूप से शस्त्र उठाना आवश्यक है। इसीलिए गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।

(2) भारतीय समाज में अभी बहुत-सी बुराइयां चली आ रही थीं। इनमें से एक बुराई जाति-प्रथा थी। डॉ० गंडा सिंह के मतानुसार जाति-प्रथा राष्ट्रीय एकता के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बन गई थी। कई जातियों के लोगों में काफ़ी अन्तर आ चुका था। इस अन्तर को मिटाने के लिए ही गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।

(3) खालसा की स्थापना से पहले गुरु गोबिन्द सिंह जी पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर अत्याचारी मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते थे। परन्तु शीघ्र ही गुरु जी को यह पता चल गया कि पहाड़ी राजाओं पर विश्वास करना ठीक नहीं है। अनेक अवसरों पर पहाड़ी राजा गुरु जी के विरुद्ध मुग़ल सरकार से जा मिले। ऐसी दशा में औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए अपने सैनिकों का दल होना आवश्यक था। अतः उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की।

(4) खालसा पंथ की स्थापना का एक और कारण सिक्ख धर्म की आन्तरिक दशा भी थी। रामराय और धीरमल के अनुयायी गुरु जी को बहुत तंग कर रहे थे। गुरु तेग़ बहादुर जी भी रामराइयों तथा धीरमल्लियों से तंग आकर आनन्दपुर साहिब चले गए थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी बुरे लोगों से सिक्ख धर्म की रक्षा करना चाहते थे। इसलिए भी उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की।

(5) गुरु अर्जन देव जी के समय में मसन्द भेंट इकट्ठा करने के साथ-साथ प्रचार कार्यों में बड़ी रुचि लेते थे। परन्त धीरे-धीरे मसन्द प्रथा में दोष आ गए। मसन्द भेंट से प्राप्त धन का दुरुपयोग करने लगे थे और अपने आपको स्वतन्त्र समझने लगे थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने यह अनुभव किया कि जब तक इस प्रथा का अन्त नहीं किया जाता तब तक सिक्ख धर्म उन्नति नहीं कर सकता । अतः गुरु जी ने मसन्दों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए नए वर्ग खालसा की स्थापना की।

पांच प्यारों का चुनाव- 1699 ई० में बैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ का निर्माण किया। इस वर्ष उन्होंने बैशाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में सिक्ख धर्म के अनुयायियों की एक महान् सभा बुलाई। इस सभा में विभिन्न प्रदेशों से 80,000 के लगभग लोग इकट्ठे हुए। जब सब लोग सभा में बैठ गए तो गुरु जी सभा में पधारे । उन्होंने तलवार को म्यान से निकाल कर घुमाया और ललकार कर कहा-“कोई ऐसा सिक्ख है जो धर्म के लिए अपना सीस भेंट कर सकता है। यह सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया। अन्त में दयाराम नामक एक क्षत्रिय ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। गुरु जी उसे समीप लगे एक तम्बू में ले गए । तंबू से बाहर आकर उन्होंने एक अन्य बलिदान की मांग की। इस बार दिल्ली निवासी धर्मदास ने अपने आपको भेंट किया। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने यह क्रम तीन बार फिर दोहराया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए क्रमश: मोहकम चन्द, साहिब चन्द तथा हिम्मत राय नामक तीन और व्यक्तियों ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। यहां यह स्पष्ट करना उचित होगा कि गुरु जी ने यह सब कुछ अपने अनुयायियों की परीक्षा लेने के लिए किया था। अन्त में गुरु जी पांचों व्यक्तियों को सभा के सामने लाए और उन्हें पांच प्यारे’ का नाम दिया।

खण्डे का पाहुल-गुरु जी ने पांच प्यारों का चुनाव करने के पश्चात् पांच प्यारों को अमृतपान करवाया जिसे ‘खण्डे का. पाहुल’ कहा जाता है। गुरु जी ने इन्हें आपस में मिलते समय ‘श्री वाहिगुरु जी का खालसा, श्री वाहिगुरु जी की फतेह’ कहने का आदेश दिया। इसी समय गुरु जी ने बारी-बारी पांचों प्यारों की आंखों तथा केशों पर अमृत के छींटे डाले और उन्हें (प्रत्येक प्यारे को) ‘खालसा’ का नाम दिया। सभी प्यारों के नाम के पीछे ‘सिंह’ शब्द जोड़ दिया गया। फिर गुरु जी ने पांच प्यारों के हाथ से स्वयं अमृत ग्रहण किया। इस प्रकार ‘खालसा’ का जन्म हुआ। गुरु जी का कथन था कि उन्होंने यह सब ईश्वर के आदेश से किया है। खालसा की स्थापना के अवसर पर गुरु जी ने ये शब्द कहे-“खालसा गुरु है और गुरु खालसा है। तुम्हारे और मेरे बीच अब कोई अन्तर नहीं है।”

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 10.
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था ?
अथवा
खालसा की स्थापना सिख शक्ति के उत्थान में किस प्रकार सहायक सिद्ध हुई ? किन्हीं पांच तथ्यों के आधार पर इसकी विवेचना कीजिए।
उत्तर-
खालसा की स्थापना सिक्ख इतिहास की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। डॉ० हरिराम गुप्ता के शब्दों में “खालसा की स्थापना देश के धार्मिक तथा राजनीतिक इतिहास की एक युग-प्रवर्तक घटना थी।” (“The creation of the Khalsa was an epoch making event in the religious and political history of the country.”)

इस घटना का महत्त्व निम्नलिखित बातों से जाना जाता है :-
1. गुरु नानक देव जी द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्यों की पूर्ति-गुरु नानक देव जी ने सिक्ख धर्म की नींव रखी थी। उनके सभी उत्तराधिकारियों ने सिक्ख धर्म के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण काम किए। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा का सृजन करके उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्य को सम्पन्न किया।

2. मसन्द प्रथा का अन्त-चौथे गुरु रामदास जी ने मसन्द प्रथा का आरम्भ किया था। कुछ समय तक मसन्दों ने सिक्ख धर्म के प्रचार तथा प्रसार में उल्लेखनीय योगदान दिया। परन्तु गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तक मसन्द लोग स्वार्थी, लोभी तथा भ्रष्टाचारी हो गए। इसलिए गुरु गोबिन्द सिंह जी ने धीरे-धीरे मसन्द प्रथा का अंत कर दिया।

3. खालसा संगतों के महत्त्व में वृद्धि-गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ने खालसा संगत को खण्डे का पाहुल छकाने का अधिकार दिया। उन्हें आपस में मिलकर निर्णय करने का अधिकार भी दिया गया। परिणामस्वरूप खालसा संगतों का महत्त्व बढ़ गया।

4. सिक्खों की संख्या में वृद्धि-गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्खों को अमृत छका कर खालसा बनाया। इसके उपरान्त गुरु साहिब ने यह आदेश दिया कि खालसा के कोई पाँच सिंह अमृत छका कर किसी को भी खालसा में शामिल कर सकते हैं। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होने लगी।

5. सिक्खों में नई शक्ति का संचार-खालसा की स्थापना से सिक्खों में एक नई शक्ति का संचार हुआ। अमृत छकने के बाद वे स्वयं को सिंह कहलाने लगे। सिंह कहलाने के कारण उनमें भय तथा कायरता का कोई अंश न रहा। वे अपना चरित्र भी शुद्ध रखने लगे। इसके अतिरिक्त खालसा जाति-पाति का भेदभाव समाप्त हो जाने से सिंहों में एकता की भावना मज़बूत हुई।

6. मुगलों का सफलतापूर्वक विरोध-गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा का सृजन करके सिक्खों में वीरता तथा साहस की भावनाएं भर दीं। उन्होंने चिड़िया को बाज़ से तथा एक सिक्ख को एक लाख से लड़ना सिखाया। परिणामस्वरूप गुरु जी के सिक्खों ने 1699 ई० से 1708 ई० तक मुग़लों के साथ कई सफलतापूर्वक युद्ध लड़े।

7. गुरु साहिब के पहाड़ी राजाओं से युद्ध-खालसा की स्थापना से पहाड़ी राजा भी घबरा गए। विशेष रूप में बिलासपुर का राजा भीमचन्द गुरु साहिब की सैनिक कार्यवाहियों को देख कर भयभीत हो उठा। उसने कई अन्य पहाड़ी राजाओं से गठजोड़ करके गुरु साहिब की शक्ति को दबाने का प्रयास किया। अतः गुरु साहिब को पहाड़ी राजाओं से कई युद्ध करने पड़े।

8. सिक्ख सम्प्रदाय का पृथक स्वरूप-गुरु गोबिन्द सिंह जी के काल तक सिक्खों के अपने कई तीर्थ-स्थान बन गए थे। उनके लिए पवित्र ग्रन्थ ‘आदि ग्रन्थ’ साहिब का संकलन भी हो चुका था। वे अपने ही ढंग से तीज-त्योहार मनाते थे। अब खालसा की स्थापना से सिक्खों ने पाँच ‘ककारों’ का पालन करना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने बाहरी स्वरूप को भी जन-साधारण से अलग कर लिया।

9. हिन्दू धर्म की रक्षा-औरंगज़ेब हिन्दुओं पर अत्यधिक अत्याचार कर रहा था। खालसा के सिंह इन अत्याचारों का डट कर सामना करने लगे। खालसा से प्रभावित होकर देश के अन्य राज्यों के लोग भी औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म मिटने से बच गया।

10. अन्ध-विश्वासों का अन्त-खालसा हिन्दुओं में प्रचलित अन्ध-विश्वासों को नहीं मानता था। उन्होंने यज्ञ, बलि, व्रत, मूर्ति पूजा तथा अन्य कई अन्ध-विश्वासों से नाता तोड़ लिया। इस प्रकार खालसा की साजना से अंध-विश्वासों तथा अज्ञान का नाश हुआ।

11. सिक्खों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान-खालसा के संगठन से सिक्खों में वीरता, निडरता, हिम्मत तथा आत्म-बलिदान की भावनाएँ जागृत हो उठीं। परिणामस्वरूप उन्होंने गुरु जी के ज्योति जोत समाने के पश्चात् भी मुग़लों से संघर्ष जारी रखा। अंतत: बन्दा बहादुर के नेतृत्व में उन्होंने पंजाब के बहुत-से प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया। बन्दा . बहादुर के बाद सिक्खों को भले ही भयंकर कष्टों और भीषण संकट से गुज़रना पड़ा, तो भी उन्होंने बड़े साहस तथा दृढ़ संकल्प का परिचय दिया। अंतत: पंजाब के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे स्वतन्त्र सिक्ख राज्य (मिसलें) स्थापित हो गए।
सच तो यह है कि खालसा की स्थापना ने ‘सिंहों’ को ऐसा अडिग विश्वास प्रदान किया जिसे कभी भी विचलित नहीं किया जा सकता।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules.

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. टेबल टेनिस खेल की किस्म = दो सिंगल और डबल
  2. टेबल टेनिस मेज़ की लम्बाई और चौड़ाई = 274 × 152.5 सैंटीमीटर
  3. खेलने वाले फर्श की ऊंचाई = 76 सैंटीमीटर
  4. खेलने वाले फर्श से जाल की ऊंचाई = 15.25 सेंटीमीटर
  5. जाल की लम्बाई = 183 सैंटीमीटर
  6. गेंद का वज़न = 2.5 ग्रेन से 2.7 ग्रेन
  7. गेंद किस वस्तु का बना होता है। = सेल्यूलाइड अथवा सफेद प्लास्टिक
  8. गेंद की परिधि = 40 सैंटीमीटर
  9. गेंद का रंग = सफेद
  10. मैच के अधिकारी = 1 रैफ़री, अम्पायर, 1 सहायक, 4 कार्नर जज
  11. गेमों के मध्य अन्तराल = 1 मिनट
  12. मैच के दौरान टाइम आउट = 1 मिनट
  13. रेखाओं की चौड़ाई = 2 सैं०मी०
  14. सतह को विभाजित करने वाली रेखा की चौड़ाई = 3 मि०मी०
  15. मेज़ का आकार = आयताकार
  16. मेज़ का रंग = पक्का हरा

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

टेबल टेनिस खेल की संक्षेप रूप-रेखा (Brief outline of the Table Tennis Game)

  1. टेबल टेनिस के मेज़ की लम्बाई 274 सैंटीमीटर और चौड़ाई 152.5 सैंटीमीटर होती है।
  2. टेबल टेनिस की खेल दो प्रकार की होती है-सिंगल्ज़ तथा डबल्ज़। सिंगल्ज़-इसमें कुल खिलाड़ी दो होते हैं। एक खिलाड़ी खेलता है तथा एक खिलाड़ी अतिरिक्त होता है। डबल्ज़-इसमें चार खिलाड़ी होते हैं, जिनमें से दो खेलते हैं तथा दो खिलाड़ी अतिरिक्त होते हैं।
  3. डबल्ज़ खेल के लिए खेलने की सतह (Playing Surface) को 3 सैंटीमीटर चौड़ी सफ़ेद रेखाओं द्वारा दो भागों में बांटा जाएगा।
  4. टेबल टेनिस की खेल में सिरों तथा सर्विस आदि के चुनाव का फैसला टॉस द्वारा किया जाता है।
  5. टॉस जीतने वाला सर्विस करने का फैसला करता है तथा टॉस हारने वाला सिरे का चुनाव करता है।
  6. सिंगल्ज़ खेल में 2 प्वाइंटों के बाद सर्विस बदल दी जाती है।
  7. मैच की अन्तिम सम्भव गेम में जब कोई खिलाड़ी या जोड़ी पहले 10 प्वाइंट कर ले तो सिरे बदल लिए जाते हैं।
    टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
  8. मैच एक पांच गेमों या सात गेमों में से सर्वोत्तम गेम होता है।
  9. टेनिस के टेबल की लाइनें सफेद होनी चाहिएं।
  10. टैनिस के टेबल का शेष भाग हरा और नीला होना चाहिए।

PSEB 11th Class Physical Education Guide टेबल टेनिस (Table Tennis) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
टेबल टेनिस के मेज़ का आकार कैसा होता है ?
उत्तर-
आयताकार।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
टेबल टेनिस मेज़ की ऊंचाई कितनी होती है ?
उत्तर-
टेबल टेनिस मेज़ की ऊँचाई 76 सेंटीमीटर होती है।

प्रश्न 3.
टेबल टेनिस मेज़ का रंग कैसा होता है ?
उत्तर-
पक्का हरा।

प्रश्न 4.
टेबल टेनिस खेल में कितने अधिकारी होते हैं ?
उत्तर-
रैफरी = 1, अम्पायर = 1, कार्नर जज = 4

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
टेबल टेनिस मैच में टास जीतने वाला खिलाड़ी सर्विस का चयन करता है या साइड का चयन करता
उत्तर-
टास जीतने वाला खिलाड़ी सर्विस या साइड दोनों में से एक का चयन कर सकता है।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB टेबल टेनिस (Table Tennis) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
टेबल टेनिस की खेल के सामान का संक्षेप वर्णन करें।
उत्तर-
मेज़ (Table)-मेज़ आयताकार होता है। इसकी लम्बाई 274 सैंटीमीटर तथा चौड़ाई 152.5 सेंटीमीटर होती है। इसकी ऊपरी सतह फर्श से 76 सैंटीमीटर ऊंची होगी। मेज़ किसी भी पदार्थ से निर्मित हो सकता है, परन्तु उसके धरातल पर 30.5 सेंटीमीटर की ऊंचाई से कोई प्रामाणिक गेंद फैंकने पर एक सार ठप्पा खाएगी जो 22 सैंटीमीटर से कम तथा 25 सैंटीमीटर से अधिक ऊंचा नहीं होना चाहिए। मेज़ के ऊपरी धरातल को क्रीड़ा तल (Playing Surface) कहते हैं। यह गहरे हल्के रंग का होता है। इसके प्रत्येक किनारे 42 सैंटीमीटर चौड़ी श्वेत रेखा होगी, 152.2 सैं० मी० के किनारे वाली रेखाएं अन्त रेखाएं तथा 23.4 सैंटीमीटर किनारे की रेखाएं पार्श्व (साइड) रेखाएं कहलाती हैं। डबल्ज़ खेल में मेज़ की सतह 3 मिलीमीटर चौड़ी सफेद रेखा दो भागों में विभक्त होती है जो साइड रेखा के समान्तर तथा प्रत्येक के समान दूरी पर होती है, इसे केन्द्र रेखा कहते हैं।
Class 11 Physical Education Practical टेबल टेनिस (Table Tennis) 2
जाल (Net) जाल की लम्बाई 183 सैं० मी० होती है। इसका ऊपरी भाग क्रीड़ा तल (Playing Surface) से 15.25 सैं० मी० ऊंचा होता है। यह रस्सी द्वारा 15.25 सैं० मी० ऊंचे सीधे खड़े डण्डों से बांधा होता है। प्रत्येक डण्डे की बाहरी सीमा उसी पार्श्व रेखा अर्थात् 15.25 सैंटीमीटर से बाहर की ओर होती है।

गेंद (Ball)-गेंद गोलाकार होती है। यह सैल्यूलाइड अथवा प्लास्टिक की सफ़ेद पीली परन्तु प्रतिबिम्बहीन होती है। इसका व्यास 37.2 मिलीमीटर से कम तथा 40 मि० मी० से अधिक नहीं होता। इसका भार 2.5 ग्रेन से कम तथा 2.7 ग्रेन से अधिक नहीं होता।
रैकेट (Racket) रैकेट किसी भी आकार या भार का हो सकता है। इसका तल गहरे रंग का होना चाहिए। यह खेल 21 अंक का होता है।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
टेबल टेनिस खेल में निम्नलिखित से आपका क्या भाव है ?
(1) टेबल का कम
(2) बाल खेल में
(3) अच्छी सर्विस
(4) अच्छी वापिसी
(5) लैट।
उत्तर-
खेल का क्रम (Order of Play) एकल (Single) खेल में सर्विस करने वाला (सर्वर) लगातार पांच वार सर्विस करता है, चाहे उसका अंक बने या न बने। उसके पश्चात् सर्विस दूसरे खिलाड़ी को मिलती है। इस तरह उसे भी पांच सर्विस करने का हक मलता है। इस तरह हर पांच सर्विस करने के बाद सर्विस में तबदीली होती है।
Class 11 Physical Education Practical टेबल टेनिस (Table Tennis) 3
दोकल (Double)-खेल में सर्वर सर्विस करता है तथा रिसीवर अच्छी वापसी करेगा। सर्वर का साथी फिर बढ़िया वापसी करेगा और बारी-बारी प्रत्येक खिलाड़ी उसी क्रम से बढ़िया वापसी करेंगे।

उत्कृष्ट (अच्छी) सर्विस (Good Service)-सर्विस में गेंद का सम्पर्क करता हुआ मुक्त हाथ खुला, अंगुलियां जुड़ी हुईं तथा अंगूठा मुक्त रहेगा और क्रीड़ा तल के लेवल के द्वारा सर्वर गेंद को ला कर हवा में इस प्रकार सर्विस शुरू करेगा कि गेंद हर समय निर्णायक को नज़र आए।
गेंद फिर इस प्रकार प्रहारित होगी कि सर्वप्रथम सर्वर का स्पर्श करके सीधे जाल के ऊपर या आस-पास पार करती हुई पुनः प्रहारक के क्षेत्र का स्पर्श कर ले।

दोकल (Double)-खेल में गेंद पहले सर्वर का दायां अर्द्धक या उसके जाल की ओर की केन्द्र रेखा स्पर्श करके जाल के आस-पास या सीधे ऊपर से गुज़र कर प्रहारक के दायें अर्द्धक या उसके जाल की ओर केन्द्र रेखा स्पर्श करे।

उत्कृष्ट (अच्छी) वापसी (A Good Return)-सर्विस या निवर्तन (Return) की हुई गेंद खिलाड़ी द्वारा इस प्रकार प्रहारित की जाएगी कि वह सीधे जाल को पार करके या चारों ओर पार करके विरोधी के क्षेत्र को स्पर्श कर ले।
बाल खेल में (Ball in Play)-सर्विस में हाथ द्वारा आगे को बढ़ाने के क्षण में गेंद खेल में मानी जाएगी जब तक कि—

  1. गेंद एक क्षेत्र में दो बार स्पर्श नहीं कर लेती।
  2. वह किसी खिलाड़ी को या उसके वस्त्र को छू नहीं लेती।
  3. वह किसी खिलाड़ी द्वारा एक से अधिक बार लगातार प्रहारित नहीं हो जाती।
  4. सर्विस को छोड़ कर वह प्रत्येक क्षेत्र को रैकेट तुरन्त प्रहारित किए बिना एकान्तर से स्पर्श नहीं कर लेती।
  5. बिना टप्पा खाए आती है।
  6. वह जाल तथा उसकी टेकों (Supports) को छोड़ कर किसी अन्य वस्तु से छू जाए।
  7. दोकल (Double) खेल की सर्विस में सर्वर या रिसीवर की बाईं कोर्ट को छू ले।
  8. डबल्ज़ खेल में यदि टीम से बाहर के खिलाड़ी ने प्रहार किया हो।

लैट (Let)-विराम लैट होता है—

  1. अच्छी सर्विस होने पर गेंद यदि जाल पार करते समय जाल या उसकी टेकों को छू जाती है।
  2. जब सर्विस प्राप्तकर्ता या उसके साथी के तैयार न होने की अवस्था में सर्विस कर दी जाए।
  3. यदि किसी दुर्घटना के कारण कोई खिलाड़ी अच्छी सर्विस या रिटर्न करने से रुक जाता है।
  4. यदि किसी त्रुटि को दूर करने के लिए खेल रोका जाता है।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
टेबल टेनिस खेल में अंक कैसे मिलते हैं और खिलाड़ी कैसे विजय होता है ?
उत्तर-
अंक (Points)-नियम 9 में दी गई स्थिति को छोड़ कर कोई भी खिलाड़ी अंक खो देगा—

  1. यदि वह अच्छी सर्विस करने में असफल रहता है।
  2. यदि विपक्षियों में से किसी एक द्वारा सर्विस या अच्छी रिटर्न होते पर वह अच्छी रिटर्न में असफल हो जाए।
  3. यदि किसी खिलाड़ी या गेंद के खेल में रहते हुए क्रीड़ा तल को हिला दे।
  4. यदि उसका मुक्त हाथ गेंद के खेल में रहते हुए क्रीड़ा तल का स्पर्श कर ले।
  5. यदि गेंद खेल में आने से पूर्व अन्त रेखा या पार्श्व रेखा पार करती हुई उनकी ओर की मेज़ के क्रीड़ा तल को स्पर्श नहीं कर पाई है।
  6. यदि गेंद बिना टप्पा खाये लौटता है।
  7. दोकल खेल (Double) में यदि वह उचित अनुक्रम के बिना गेंद को प्रहारित नहीं करता।

जब कोई खिलाडी सर्विस करता है या कोई स्ट्रोक मारता है तो उसकी तरफ से खेली गई गेंद विरोधी तरफ से टप्पा खाने की बजाए सीधी उसके रैकेट को लगती है तो उस अवस्था में टेकन होता है जो अंक या स्ट्रोक मारने वाले को मिलता है।

खेल (Game)-खेल उस खिलाड़ी या जोड़े द्वारा जीती हुई मानी जाएगी जो पहले 11 अंक बना लेगा। यदि दोनों खिलाड़ी जोड़े 10 अंक बना लेते हैं तो उस वक्त दोनों खिलाड़ी या जोड़े को क्रमवार एक-एक सर्विस करने के लिए सुचेत किया जाता है जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले दो अंक विरोधी से अधिक बना लेगा वह विजयी कहलाएगा।

मैच (Match)-मैच एक गेम, तीन गेम या पांच गेम का होगा। खेल निरन्तर जारी रहेगा, जब तक कोई खिलाड़ी या युगल विश्राम के लिए नहीं कहता। यह विश्राम पांच खेल वाले में से तीसरी और चौथी खेल के बीच पांच मिनट से अधिक नहीं होगा। अन्तरवर्ती क्षेत्रों में विश्राम एक मिनट से अधिक नहीं होगा।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 4.
टेबल टेनिस में दिशा और सर्विस का चुनाव कैसे होता है ? दिशा परिवर्तन कैसे होता है ? सर्विस और रसीव करने की ग़लतियों पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
दिशा और सर्विस का चुनाव (Selection of side and service)-प्रत्येक मैच में दिशा का चुनाव तथा सर्वर या प्रहारक बनने का अधिकार चुनता है तो विपक्षी को दिशा चुनने का अधिकार होगा। यह रीति विपरीत क्रम में भी रहेगी। टॉस जीतने वाला यदि चाहे तो विपक्षी को प्रथम चयन का अधिकार दे सकता है।

दोकल (Double)-खेल में जिस जोड़े को पहले सर्विस करने का अधिकार होगा वह निश्चित करेगा कि किस साथी को ऐसा करना है। इसी प्रकार मैच के प्रथम खेल में विपक्षी जोड़ा भी यह निश्चित करेगा कि किस साथी खिलाड़ी ने पहले सर्विस प्राप्त करनी है।

दिशा परिवर्तन तथा सर्विस
(Change of Ends and Service)
खेल में एक दिशा से प्रारम्भ करने वाला खिलाड़ी या जोड़ा उससे अगले खेल में दूसरी ओर से प्रारम्भ करेगा। यह क्रम मैच के अन्त तक जारी रहेगा। मैच के अन्तिम खेल में जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले 5 फलांकन बना लेगा वह दिशा परिवर्तन कर सकता है। एकल (Single) खेल में 2 अंक के पश्चात् रिसीवर सर्वर बन जाएगा और सर्वर रिसीवर और यही क्रम मैच के अन्त तक जारी रहेगा (नीचे दी हुई स्थिति को छोड़ कर)।

दोकल खेल में पहली 2 सर्विस उस जोड़े के चुने हुए साथी द्वारा होगी जिन्हें निर्णय का अधिकार या विपक्षी जोड़े के चुने हुए साथी द्वारा प्राप्त की जाएगी। दूसरी 2 सर्विस, प्रथम 2 सर्विस प्राप्त करने वाला प्रहार करेगा तथा पहली 2 सर्विस करने वाला सर्वर उन्हें प्राप्त करेगा। तीसरी 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस करने वाला सर्वर का साथी करेगा तथा प्रथम 2 सर्विस प्राप्त करने वाला प्रहारक का साथी उन्हें प्राप्त करेगा। चौथी 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस करने वाला प्रहारक का साथी करेगा तथा प्रथम 2 सर्विस करने वाला सर्वर उन्हें प्राप्त करेगा। पांचवीं 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस के समान संक्रमिन होगी। खेल इसी क्रम में जारी रहेगा जब तक खेल समाप्त नहीं हो (नीचे दी हुई स्थिति को छोड़ कर) जाता।

फलांकन के 10 अंक होने पर या खेल के एकस्पिडाइट पद्धति के अन्तर्गत खेले जाने पर सर्विस और प्रहार करने का क्रम वही रहेगा, किन्तु खेल के अन्त तक प्रत्येक खिलाड़ी बारी-बारी से केवल एक सर्विस करेगा जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले खेल में सर्विस करेगा वह उससे अगले खेल में सर्विस प्राप्त करेगा।

‘दोकल’ मैच के अन्तिम खेल में 5 फलांकन पर जोड़े दिशा परिवर्तन कर लेंगे। इस तरह सिगल्ज़ में भी अन्तिम गेंद में 10 अंक खेलने के बाद दिशा बदल जाती है।

दिशा में सर्विस अनियमतता (Out of orders of Ends of Service) यदि कोई खिलाड़ी समय पर दिशा परिवर्तन नहीं करते तो वे त्रुटि ज्ञात होते ही दिशाएं बदलेंगे, जब तक कि त्रुटि के बाद खेल समाप्त न हो चुका हो। तब त्रुटि की उपेक्षा कर दी जाएगी। किसी भी परिस्थिति में त्रुटि ज्ञात होने से पूर्व वे सब बनाए हुए अंक माने जाएंगे।

यदि कोई खिलाड़ी अपनी बारी के बिना सर्विस करता है तो त्रुटि ज्ञात होते ही खेल रोक दिया जाएगा और खेल उस खिलाड़ी की सर्विस या प्राप्ति द्वारा पुनः जारी किया जाएगा जिस खेल के प्रारम्भिक क्रम के अनुसार करनी चाहिए थी या फलांकन के 5 पर पहुंचने पर। यदि नियम 14 के अंतर्गत उस क्रम में परिवर्तन हो गया तो उसी क्रम के अनुसार उसे सर्विस करनी या प्राप्त करनी चाहिए। किसी भी परिस्थिति में त्रुटि होने से पूर्व के सब बनाये हुए अंक माने जाएंगे।