Punjab State Board PSEB 7th Class Hindi Book Solutions Hindi Rachana Nibandh Lekhan निबंध-लेखन Exercise Questions and Answers, Notes.
PSEB 7th Class Hindi रचना निबंध-लेखन
1. महात्मा गांधी/मेरा प्रिय नेता
महात्मा गांधी भारत के महान् नेताओं में से एक थे। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के बल से अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। दुनिया के इतिहास में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा।
2 अक्तूबर, सन् 1869 को पोरबन्दर (गुजरात) में आपका जन्म हुआ। आप मोहनदास कर्मचन्द गांधी के नाम से प्रख्यात हुए। आपके पिता राजकोट के दीवान थे। माता पुतली बाई बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की एवं सती-साध्वी स्त्री थीं, जिनका प्रभाव गांधी जी पर आजीवन रहा। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा पोरबन्दर में हुई। मैट्रिक तक की शिक्षा आपने स्थानीय स्कूलों में ही प्राप्त की। तेरह वर्ष की आयु में कस्तूरबा के साथ आपका विवाह हुआ। आप कानून पढ़ने विलायत गए। वहाँ से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। मुम्बई में आकर वकालत का कार्य आरम्भ किया। किसी विशेष मुकद्दमे की पैरवी करने के लिए ये दक्षिणी अफ्रीका गए। वहाँ भारतीयों के साथ अंग्रेजों का दुर्व्यवहार देखकर इनमें राष्ट्रीय भावना जागृत हुई।
जब सन् 1915 में भारत वापस लौट आए तो अंग्रेज़ों का दमन-चक्र ज़ोरों पर था। रोल्ट एक्ट जैसे काले कानून लागू थे, सन् 1919 का जलियांवाला बाग की नरसंहारी दुर्घटनाओं से देश बेचैन था। गांधी जी ने देश की बागडोर अपने हाथ में लेते ही इतिहास का एक नया अध्याय आरम्भ किया। सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन चलाया, इसके बाद सन् 1928 में जब ‘साइमन कमीशन’ भारत आया तो गांधी जी ने उसका पूर्ण रूप से बहिष्कार किया। देश का सही नेतृत्व किया। सन् 1930 में नमक आन्दोलन तथा डांडी यात्रा का श्रीगणेश किया।
सन् 1942 के अन्त में द्वितीय महायुद्ध के साथ ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ आन्दोलन का बिगुल बजाया और कहा, “यह मेरी अन्तिम लड़ाई है।” वे अपने अनुयायियों के साथ गिरफ्तार हुए। इस प्रकार अन्त में अंग्रेज़ 15 अगस्त, सन् 1947 को यहाँ से विदा हुए। स्वतन्त्रता का पुजारी बापू गांधी 30 जनवरी, सन् 1948 को नाथूराम विनायक गोडसे की गोली का शिकार हुए। गांधी जी मरकर भी अमर हैं।
2. परिश्रम सफलता की कुंजी है/श्रम का महत्त्व
श्रम का अर्थ है-मेहनत। श्रम ही मनुष्य-जीवन की गाड़ी को खींचता है। चींटी से लेकर हाथी तक सभी जीव बिना श्रम के जीवित नहीं रह सकते। फिर मनुष्य तो अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। संसार की उन्नति-प्रगति मनुष्य के श्रम पर निर्भर करती है। श्रम करने की आदत बचपन में ही डाली जाए तो अच्छा है।
परिश्रम के अभाव में जीवन की गाड़ी नहीं चल ही सकती। यहां तक कि स्वयं का उठना-बैठना, खाना-पीना भी संभव नहीं हो सकता फिर उन्नति और विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज संसार में जो राष्ट्र सर्वाधिक उन्नत हैं, वे परिश्रम के बल पर ही इस उन्नत दशा को प्राप्त हुए हैं। जिस देश के लोग परिश्रमहीन एवं साहसहीन होंगे, वह प्रगति नहीं कर सकता। परिश्रमी मिट्टी से सोना बना लेते हैं।
यदि छात्र परिश्रम न करें तो परीक्षा में कैसे सफल हों। मजदूर भी मेहनत का पसीना बहाकर सड़कों, भवनों, बांधों, मशीनों तथा संसार के लिए उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। मूर्तिकार, चित्रकार अद्भुत कलाओं का निर्माण करते हैं। कवि और लेखक सब परिश्रम द्वारा ही अपनी रचनाओं से संसार को लाभ पहुंचाते हैं। कालिदास, तुलसीदास, टैगोर, शैक्सपीयर आदि परिश्रम के बल पर ही अमर हो गए हैं। परिश्रम के बल पर ही वे अपनी रचनाओं के रूप में अमर हैं।
आज हमारे देश में अनेक समस्याएँ हैं। उन सबसे समाधान का साधन परिश्रम है। परिश्रम के द्वारा ही बेकारी की, खाद्य की और अर्थ की समस्या का अंत किया जा सकता है। परिश्रमी व्यक्ति स्वावलंबी, ईमानदार, सत्यवादी, चरित्रवान् और सेवा भाव से युक्त होता है। परिश्रम करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपनी, परिवार की, जाति की तथा राष्ट्र की उन्नति में सहयोग दे सकता है। अतः मनुष्य को परिश्रम करने की प्रवृत्ति विद्यार्थी जीवन में ग्रहण करनी चाहिए।
3. नैतिक शिक्षा
नैतिक शिक्षा से अभिप्राय उन मूल्यों, गुणों और आस्थाओं की शिक्षा से है. जिन पर मानव की निजी और समाज की सर्वश्रेष्ठ समृद्धि निर्भर करती है। नैतिक शिक्षा व्यक्ति के आंतरिक सद्गुणों को विकसित एवं संपुष्ट करती है, क्योंकि व्यक्ति समष्टि का ही एक अंश है, इसलिए उसके सद्गुणों के विकास का अर्थ है-“समग्र समाज का सुसभ्य एवं सुसंस्कृत होना।”
नैतिक शिक्षा और नैतिकता में कोई अंतर नहीं है अर्थात् नैतिक शिक्षा को ही नैतिकता माना जाता है। समाज जिसे ठीक मानता है, वह नैतिक है और जिसे ठीक नहीं मानता वह अनैतिक है। कर्त्तव्य की आंतरिक भावना नैतिकता है, जो उचित एवं अनुचित पर बल देती है। महात्मा गाँधी नैतिक कार्य उसे मानते थे, जिसमें सदैव सार्वजनिक कल्याण की भावना निहित हो। स्वेच्छा से शुभ कर्मों का आचरण ही नैतिकता है।
नैतिक शिक्षा वस्तुतः मानवीय सद्वृत्तियों को उजागर करती है। यदि यह कहा जाए कि नैतिक शिक्षा ही मानवता का मूल है तो असंगत न होगा। नैतिक शिक्षा के अभाव में मानवता पनप ही नहीं सकती। क्योंकि मानव की कुत्सित वृत्तियाँ विश्व के लिए अभिशाप हैं। इन्हें केवल नैतिक शिक्षा से ही नियंत्रित किया जा सकता है। इसी के माध्यम से उसमें नव-चेतना का संचार हो सकता है। नैतिक शिक्षा ही व्यक्ति को उसके परम आदर्श की प्रेरणा दे सकती है और उसे श्रेष्ठ मनुष्य बनाती है।
नैतिक शिक्षा का संबंध छात्र-छात्राओं की आंतरिक वृत्तियों से है। नैतिक शिक्षा उनके चरित्र-निर्माण का एक माध्यम है क्योंकि चरित्र ही जीवन का मूल आधार है। इसलिए चरित्र की रक्षा करना नैतिक शिक्षा का मूल उद्देश्य है। नैतिकता को आचरण में स्वीकार किए बिना मनुष्य जीवन में वास्तविक सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। छात्रछात्राओं के चरित्र को विकसित एवं संवद्धित करने के लिए नैतिक शिक्षा अनिवार्य है। शिष्टाचार, सदाचार, अनुशासन, आत्म संयम, विनम्रता, करुणा, परोपकार, साहस, मानवप्रेम, देशभक्ति, परिश्रम, धैर्यशीलता आदि नैतिक गुण हैं। इनका उत्तरोत्तर विकास नितांत आवश्यक है। यह कार्य नैतिक शिक्षा के द्वारा ही परिपूर्ण हो सकता है।
नैतिक शिक्षा से ही छात्र-छात्राओं में देश-भक्ति के अटूट भाव पल्लवित हो सकते हैं। वैयक्तिक स्वार्थों से ऊपर उठकर उनमें देश के हित को प्राथमिकता प्रदान करने के विचार पनप सकते हैं। नैतिक शिक्षा से छात्र देश के प्रति सदैव जागरूक रहते हैं। इसी शिक्षा से उन में विश्व बंधुत्व की भावना को जागृत किया जा सकता है। जब उन में यह भाव विकसित होगा कि मानव उस विराट पुरुष की कृति है तो उनके समक्ष “वसुधैव कुटुंबकम्’ का महान् आदर्श साकार हो सकता है। यह तभी हो सकता है, जब उन्हें नैतिक शिक्षा दी गई हो।
महात्मा गाँधी जी कहा करते थे-” स्कूल या कॉलेज पवित्रता का मंदिर होना चाहिए, जहाँ कुछ भी अपवित्र या निकृष्ट न हो। स्कूल-कॉलेज तो चरित्र निर्माण की शालाएँ हैं।” इस कथन का सारांश यही है कि नैतिक शिक्षा छात्र-छात्राओं के लिए अनिवार्य है।
4. लाला लाजपत राय
भारत के इतिहास में ऐसे वीर पुरुषों की कमी नहीं है, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया। ऐसे वीर शहीदों में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का नाम हमेशा याद किया जाएगा। लाला जी का जन्म जगराओं के निकट ढुढीके गाँव में सन् 1865 में हुआ। इनके पिता लाला राधाकृष्ण वहाँ अध्यापक थे। लाला लाजपत राय ने मैट्रिक परीक्षा में छात्रवृत्ति ली। फिर गवर्नमैंट कॉलेज में दाखिल हुए। वहाँ उन्होंने एफ०ए० की परीक्षा पास की, फिर मुख्त्यारी और इसके बाद वकालत पास की।
वकालत पास करके पहले वे जगराओं में रहे। फिर हिसार आकर काम करने लगे। वहाँ पर तीन वर्ष तक म्यूनिसिपल कमेटी के सेक्रेटरी रहे। इसके बाद लाला जी लाहौर चले गए। वहाँ उनको आर्य समाज की सेवा करने का मौका मिला। लाला जी ने डी०ए०वी० कॉलेज की बड़ी सेवा की। गुरुदत्त और महात्मा हंसराज इनके साथ थे। पहले इनका कार्यक्षेत्र आर्य समाज था। बाद में ये राष्ट्रीय कार्यों में भाग लेने लगे। रावलपिंडी केस में लाला जी ने वहाँ के लोगों की पैरवी की। इसी प्रकार नहरी पानी के टैक्स पर किसानों में जब उत्तेजना फैली तो उन्होंने उनका नेतृत्व किया।
लाला जी सरकार की आँखों में खटकने लगे। परिणामस्वरूप सरकार उन्हें पकड़ने का बहाना सोचने लगी। उन्हीं दिनों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित क्रांतिकारी लोग उत्तेजना फैला रहे थे। बंग-भंग के आन्दोलन के समय पंजाब में भी लोगों में असन्तोष फैलने लगा। बस, सरकार को अच्छा मौका मिल गया। उसने लाला जी को पकड़कर मांडले जेल भेज दिया। वहाँ से छुटकर लाला जी ने यूरोप और अमेरिका की यात्रा की।
सन् 1928 ई० में साइमन कमीशन लाहौर आने वाला था। लाला जी उनके विरुद्ध बॉयकाट प्रदर्शन के लीडर थे। गोरी सरकार ने बौखलाकर जुलूस पर लाठियाँ बरसानी आरम्भ कर दीं। कम्बख्त असिस्टैंट पुलिस सुपरिण्टैंडेंट ने लाला जी पर लाठियाँ बरसाईं। इन घावों के कारण लाला जी 17 नवम्बर, सन् 1928 को प्रात:काल समूचे भारत को बिलखता छोड़कर इस संसार से चल बसे। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले। वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।
5. अमर शहीद सरदार भगत सिंह
सरदार भगत सिंह पंजाब के महान् सपूत थे। उन्होंने देश को आजाद करवाने के लिए क्रान्तिकारी रास्ता अपनाया। देश की खातिर हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर झूल गए। उनकी कुर्बानी रंग लाई और आज़ादी के लिए तड़प पैदा की। सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर, सन् 1907 को एक देशभक्त, रूढ़ि-मुक्त और इन्कलाबी परिवार में हुआ था। यह परिवार जालन्धर जिला के खटकड़ कलाँ गाँव से लायलपुर के एक गाँव में बस गया था। वहीं बार के इलाके में सरदार भगत सिंह का जन्म हुआ। इनके पिता सरदार किशन सिंह और चाचा सरदार अजीत सिंह कट्टर देशभक्त थे। क्रान्तिकारी कार्यवाहियों के कारण सरदार अजीत सिंह को माण्डले जेल में बन्दी बनाया गया था। सरदार भगत सिंह ने प्राइमरी शिक्षा गाँव में ही पाई। बाद में इन्हें लाहौर के डी० ए० वी० स्कूल में दाखिल कराया गया।
बाल्यावस्था में ही उनमें देशभक्ति और क्रान्ति के संस्कार उभर आए थे। अब वे पढ़ते कम और नवयुवकों और साथियों के संगठन में अधिक समय लगाते थे। सन् 1919 में सारे भारत में रौलेट-एक्ट का विरोध हुआ था। भगत सिंह सातवीं में पढ़ते थे, जब जलियाँवाला बाग का हत्याकाण्ड हुआ था। सन् 1920 में असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ। भगत सिंह पढ़ाई छोड़कर कांग्रेस के स्वयं सेवकों में भर्ती हो गए। इन्होंने अपना जीवन देश को अर्पण करने की प्रतिज्ञा ली। सन् 1926 में ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना हुई। भगत सिंह उसके जनरल सैक्रेटरी बने। इस सभा का उद्देश्य क्रान्तिकारी आन्दोलन को बढ़ावा देना था।
अक्तूबर, सन् 1927 में लाहौर में दशहरे के अवसर पर किसी ने बम फेंका। पुलिस ने सरदार भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया। वे दो सप्ताह हवालात में रहे। 30 अक्तूबर, सन् 1928 को ‘साइमन कमीशन’ लाहौर पहुँचा तो इसके विरोध का नेतृत्व “नौजवान भारत सभा” ने अपने हाथ में लिया। कांग्रेसी नेता लाला लाजपत राय साइमन कमीशन के विरुद्ध निकाले गए जुलूस में सबसे आगे थे। वे पुलिस द्वारा किए गए लाठीचार्ज से बुरी तरह घायल हो गए। कुछ दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। भगत सिंह ने अपने प्यारे नेता की हत्या का बदला सांडर्स की जान लेकर किया। वे पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर बच निकले।
8 अप्रैल, सन् 1929 को केन्द्रीय विधानसभा में एक काला कानून बनाया जा रहा था। सरदार भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने अपना रोष प्रकट करने के लिए केन्द्रीय विधानसभा में बम फेंका। उन्होंने ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अपने आपको गिरफ्तारी के लिए पेश किया। उन पर मुकद्दमा चला। 17 अक्तूबर, सन् 1930 को उन्हें फाँसी की सजा हुई।
23 मार्च, सन् 1931 को अंग्रेज़ सरकार ने सरदार भगत सिंह तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फाँसी के तख्ते पर चढ़ा दिया। यदि सरदार भगत सिंह अंग्रेज़ सरकार से माफी माँग लेते तो वे रिहा हो सकते थे, परन्तु भारत के इस सपूत ने जुल्म के आगे सिर झुकाना नहीं सीखा था। सरदार भगत सिंह अपनी शहादत से भारतीय नौजवानों के सामने एक महान् आदर्श कायम कर गए। सदियों तक भारत की आने वाली पीढ़ियाँ भगत सिंह और उनके साथियों की कुर्बानी से प्रेरणा लेती रहेंगी।
6. श्री गुरु नानक देव जी
भारत महापुरुषों और अवतारों का जन्मस्थान है। यहाँ अनेक ऋषि, मुनि, सन्त और नेता पैदा हुए हैं। गुरु नानक देव जी का नाम सन्तों में सबसे पहले लिया जाता है। उन्होंने अपने ज्ञान के प्रकाश से संसार को अज्ञान के अन्धेरे से निकाला।
गुरु नानक देव जी का जन्म जिला शेखूपुरा के तलवण्डी नामक ग्राम में सन् 1469 ई० में हुआ था। इनके पिता का नाम मेहता कालू राय जी और माता का नाम तृप्ता जी था। गुरु नानक देव जी जब 7 वर्ष के हुए तो इनको पढ़ने के लिए स्कूल में दाखिल करवाया गया। लेकिन इनका मन तो सदा भक्ति में ही लीन रहता था। पिता जी ने सोचा कि पुत्र ईश्वरभक्ति में रहा और कुछ कमाना न सीखा तो आगे चलकर क्या करेगा। उन्होंने नानक को व्यापार में डाला। पिता ने एक बार कुछ रुपए देकर सच्चा सौदा करने को कहा। वह चल पड़े। मार्ग में उन्हें कुछ साधु मिले। इन्होंने सोचा, इनकी सेवा करना ही सच्चा सौदा है। इन्होंने गाँव में सब रुपयों का आटा-दाल और सामान लाकर साधुओं को भेंट कर दिया।
14 वर्ष की आयु में गुरु नानक देव जी का विवाह मूलचन्द की पुत्री सुलक्षणी देवी से हुआ। इनके दो पुत्र हुए-श्रीचन्द और लक्ष्मीदास। वे लोगों को ‘सत्य’ का रास्ता बताने के लिए यात्रा में निकल पड़े। इन्होंने देश विदेश की यात्राएं कीं और लोगों को अपना उपदेश दिया। गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को निराकार बताया और कहा कि धर्म के नाम पर झगड़ना अच्छा नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अच्छे कामों से ही ईश्वर मिलता है, बुरे कामों से नहीं। हिन्दू और मुसलमान सभी उनका आदर करते थे।
ऐसे महान् पुरुषों का जीवन धन्य है जो मूल्य आदर्शों द्वारा हमारी बुराइयों को दूर करते हैं। गुरु नानक देव जी का नाम सदा अमर रहेगा। गुरु जी की वाणी आदि ग्रन्थ ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में संगृहीत है। करतारपुर (पाकिस्तान) में गुरु जी ज्योति-ज्योत समा गए। वहाँ विशाल गुरुद्वारा बना हुआ है।
7. श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी
श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के दसवें गुरु थे। वे एक महान् शूरवीर और तेजस्वी नेता थे। इनका जन्म 22 दिसम्बर, सन् 1666 ई० को पटना में हुआ। इनका बचपन का नाम गोबिन्द राय रखा गया। इनके पिता नौंवें गुरु श्री गुरु तेग़ बहादुर जी कुछ समय बाद पंजाब लौट आए थे। परन्तु यह अपनी माता गुजरी जी के साथ आठ साल तक पटना में ही रहे। गोबिन्द राय बचपन से ही स्वाभिमानी और शूरवीर थे। घुड़सवारी करना, हथियार चलाना, साथियों की दो टोलियां बनाकर युद्ध करना तथा शत्रु को जीतने के खेल खेलते थे। वे खेल में अपने साथियों का नेतृत्व करते थे। उनकी बुद्धि बहुत तेज़ थी। उन्होंने आसानी से हिन्दी, संस्कृति और फ़ारसी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
उन दिनों औरंगजेब के अत्याचार जोरों पर थे। वह तलवार के ज़ोर से हिन्दुओं को मुसलमान बना रहा था। भयभीत कश्मीरी ब्राह्मण गुरु तेग़ बहादुर जी के पास आए। उन्होंने गुरु जी से हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए प्रार्थना की। गुरु तेग़ बहादुर जी ने कहा कि इस समय किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। पास बैठे बालक गोबिन्द राय ने कहा”पिता जी, आप से बढ़कर महापुरुष और कौन हो सकता है।” तब गुरु तेग़ बहादुर जी ने बलिदान देने का निश्चय कर लिया। वे हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए दिल्ली पहुंच गए
और वहाँ उन्होंने अपनी शहीदी दी।
पिता जी की शहीदी के बाद गोबिन्द राय 11 नवम्बर, सन् 1675 ई० को गुरु गद्दी पर बैठे। उन्होंने औरंगज़ेब के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और हिन्दू धर्म की रक्षा का बीड़ा उठाया। वे अपने शिष्यों को सैनिक-शिक्षा देते थे। सन् 1699 में वैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द राय जी ने आनन्दपुर साहब में दरबार सजाया। भरी सभा में उन्होंने बलिदान के लिए पाँच सिरों की मांग की। एक-एक करके पाँच व्यक्ति अपना बलिदान देने के लिए आगे आए। गुरु जी ने उन्हें अमृत छकाया और स्वयं भी उनसे अमृत छका। इस तरह उन्होंने अन्याय और अत्याचार का विरोध करने के लिए खालसा पँथ की स्थापना की। उन्होंने अपना नाम गोबिन्द राय से गोबिन्द सिंह रख लिया।
गुरु जी की बढ़ती हुई सैनिक शक्ति को देखकर कई पहाड़ी राजे उनके शत्रु बन गए। पाऊंटा दुर्ग के पास भंगानी के स्थान पर फतेह शाह ने गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। सिक्ख बड़ी वीरता से लड़े। अन्त में गुरु जी विजयी रहे।
औरंगज़ेब ने गुरु जी की शक्ति समाप्त करने का निश्चय किया। उन्हें लाहौर और सरहिन्द के सूबेदारों को गुरु जी पर आक्रमण करने का हुक्म दिया। पहाड़ी राजा मुग़लों के साथ मिल गए। उन सबने कई महीनों तक आनन्दपुर को घेरे रखा। मुग़ल सेना से लड़ते-लड़ते गुरु जी चमकौर जा पहुँचे। चमकौर के युद्ध में गुरु जी के दोनों बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह शत्रुओं से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनके छोटे दोनों साहिबजादों जोरावर सिंह और फ़तेह सिंह को सरहिन्द के सूबेदार ने पकड़ कर जीवित ही दीवार में चिनवा दिया।
नंदेड़ में गुल खां नाम का एक पठान रहता था। उसकी गुरु जी से पुरानी शत्रुता थी। एक दिन उसने छुरे से गुरु जी पर हमला कर दिया। गुरु जी ने कृपाण के एक वार से उसे सदा की नींद सुला दिया। गुरु जी का घाव काफ़ी गहरा था। कई दिनों के बाद गुरु जी 7 अक्तूबर, सन् 1708 ई० को ज्योति-जोत समा गए।
8. महाराजा रणजीत सिंह
महाराजा रणजीत सिंह एक महान् वीर सपूत थे। इतिहास में उनका नाम शेरे पंजाब के नाम से मशहूर था। महाराजा रणजीत सिंह ने एक मज़बूत सिक्ख राज्य की स्थापना की थी। उन्होंने अफ़गानों की माँद में पहुँचकर उन्हें ललकारा था। इसके साथ ही रणजीत सिंह ने अंग्रेज़ों और मराठों पर भी अपनी बहादुरी की धाक जमाई थी। रणजीत सिंह का जन्म 2 नवम्बर, सन् 1780 को गुजराँवाला में हुआ। आपके पिता सरदार महा सिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। आपकी माता राज कौर जींद की फुलकिया मिसल के सरदार की बेटी थी। आपका बचपन का नाम बुध सिंह था। सरदार महासिंह ने जम्मू को जीतने की खुशी में बुध सिंह की जगह अपने बेटे का नाम रणजीत सिंह रख दिया।
महाराजा रणजीत सिंह को वीरता विरासत में मिली थी। उन्होंने दस साल की उम्र में गुजरात के भंगी मिसल के सरदार साहिब को लड़ाई में कड़ी हार दी थी। उस समय रणजीत सिंह के पिता महासिंह अचानक बीमार हो गए थे। इस कारण सेना की बागडोर रणजीत सिंह ने सम्भाली थी।
महाराजा रणजीत सिंह के पिता की मौत इनकी छोटी उम्र में ही हो गई थी। इस कारण ग्यारह साल की उम्र में ही उन्हें राजगद्दी सम्भालनी पड़ी। पन्द्रह साल की उम्र में महाराजा रणजीत सिंह का विवाह कन्हैया मिसल के सरदार गुरबख्श सिंह की बेटी महताब कौर से हुआ। इन्होंने दूसरा विवाह नकई मिसल के सरदार की बहन से किया।
महाराजा रणजीत सिंह ने बड़ी चतुराई से सभी मिसलों को इकट्ठा किया और हुकूमत अपने हाथ में ले ली। 19 साल की उम्र में आपने लाहौर पर अधिकार कर लिया और उसे अपनी राजधानी बनाया। धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर, अमृतसर, मुलतान, पेशावर आदि सब इलाके अपने अधीन करके एक विशाल राज्य की स्थापना की। आपने सतलुज की सीमा तक सिक्ख राज्य की जड़ें पक्की कर दी।
पठानों पर हमला करने के लिए महाराजा रणजीत सिंह आगे बढ़े। रास्ते में अटक नदी बड़ी तेज़ी से बह रही थी। सरदारों ने कहा-महाराज ! इस नदी को पार करना बहुत कठिन है, परन्तु महाराजा रणजीत सिंह ने कहा-जिसके मन में अटक है, उसे ही अटक नदी रोक सकती है। उन्होंने अपने घोड़े को एड़ी लगाई। घोड़ा नदी में कूद पड़ा। महाराजा देखते ही देखते नदी के पार पहुंच गए। उनके साथी सैनिक भी साहस, पाकर नदी के पार आ गए।
‘महाराजा अनेक गुणों के मालिक थे। वे जितने बड़े बहादुर थे, उतने ही बड़े दानी और दयालु भी थे। छोटे बच्चों से उन्हें बहुत प्यार था। उनका स्वभाव बड़ा नम्र था। चेचक के कारण उनकी एक आँख खराब हो गई थी। इन पर भी उनके चेहरे पर तेज़ था। वे प्रजापालक थे।
महाराजा रणजीत सिंह की अच्छाइयाँ आज भी हमारे दिलों में उत्साह भर रही हैं। उनमें एक आदर्श प्रशासक के गुण थे, जो आज के प्रशासक को रोशनी दिखा सकते हैं।
9. गुरु रविदास जी
आचार्य पृथ्वी सिंह आज़ाद के अनुसार भक्तिकाल के महान् संत कवि रविदास (रैदास) जी का जन्म विक्रमी सवंत् 1433 में माघ मास की पूर्णिमा को रविवार के दिन बनारस के निकट मंडरगढ़ नामक गाँव में हुआ। इस गाँव का पुराना नाम ‘मेंडुआ डीह’ था।
गुरु जी बचपन से ही संत स्वभाव के थे। उनका अधिकांश समय साधु संगति और ईश्वर भक्ति में व्यतीत होता था। गुरु जी जाति-पाति या ऊँच-नीच में विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने अहंकार के त्याग, दूसरों के प्रति दया भाव रखना तथा नम्रता का व्यवहार करने का उपदेश दिया। उन्होंने लोभ, मोह को त्याग कर सच्चे हृदय से ईश्वर भक्ति करने की सलाह दी। गुरु जी की वाणी में ऐसी शक्ति थी कि लोग उनके उपदेश सुनकर सहज ही उनके अनुयायी बन जाते थे। उनके अनुयायियों में महारानी झाला बाई और कृष्ण भक्त कवयित्री मीरा बाई का नाम उल्लेखनीय है। गुरु जी की वाणी के 40 पद आदि ग्रन्थ श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित हैं जो समाज कल्याण के लिए आज भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। रहती दुनिया तक गुरु जी की अमृतवाणी लोगों का मार्गदर्शन करती रहेगी।
10. काला धन : एक सामाजिक कलंक
मनुष्य की इच्छाएँ अनन्त हैं। अपनी इन इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए वह धन का आश्रय लेता है। समाज की व्यवस्था और राजनीति के दाँव-पेंच कुछ ऐसे होते हैं जो मनुष्य की इन इच्छाओं को बढ़ाते हैं। इनकी पूर्ति के लिए मनुष्य को अपनी वास्तविक आय से अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है। इससे वह अनुचित तरीके से आय के स्रोत ढूँढता है। इन स्रोतों से उसे जो आय होती है वह काला धन कहलाता है। हमारे देश में काला धन राजनीतिक आचार-व्यवहार को बदलने वाला तथा आर्थिक नियोजन को निरर्थक बनाने वाला है। इससे देश का अर्थतन्त्र डगमगा जाता है। देश की कर-नीति इसी काले धन के कारण असफल होती है। आधुनिक युग में भारतीय जन-जीवन का नैतिक और चारित्रिक पतन इसी कारण से हुआ है।
किसी भी व्यापार के लिए कर-चोरी से बचाया गया धन तथा किसी भी नौकरी करने वाले के लिए ऊपरी आय से प्राप्त धन ‘काला धन’ कहलाता है। काला धन तथा रिश्वत का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये दोनों भ्रष्टाचार को बढ़ाते हैं। काला धन देश की कार्य-प्रणाली में भ्रष्टाचार को प्रश्रय देकर उसे विषाक्त बनाता है। रिश्वत देने पर सरकारी कार्यालय में लाल फीताशाही की फ़ाइल तुरन्त हरकत में आ जाती है। अन्यथा कर्मचारी की कार्यक्षमता में कमी आ जाती है। काला धन विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होता है, जैसे बैंकों के लॉकरों में, व्यक्तिगत तिजोरियों में, पेटियों में, तहखानों तथा कभी चाँदी की सिल्लियों के रूप में तो कभी सोने के बिस्कुटों के रूप में और कभी हीरे-जवाहरात के रूप में।
आधुनिक युग में काला धन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान है। उसकी किसी भी प्रकार से उपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि ज़मीन या जायदाद खरीदनी हो अथवा देश की उन्नति के लिए कोई व्यापारिक संस्थान बनाना हो, सभी कार्यों के लिए काला धन चाहिए क्योंकि वास्तविक आय में कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा को पूर्ण नहीं कर सकता। इसी प्रकार मकान की रजिस्ट्री वास्तविक मूल्य के आधे में होती है और दुकान या संस्थान की पगड़ी का तो कोई हिसाब ही नहीं है। यह राशि लाखों और करोड़ों रुपये तक सम्भव है। इसी प्रकार सामाजिक क्षेत्र में जब कोई व्यक्ति अपनी लड़की की शादी करता है तो वास्तविक खर्च करने में असमर्थ होता है और फिर काले धन से ही लड़के वालों की माँग पूरी करता है जो दहेज के दानव के रूप में उसे नष्ट कर डालती है। इस प्रकार लड़के की कीमत ‘काला धन’ ही अदा करता है।
काले धन का सर्वाधिक उपयोग ऐशो-आराम के लिए होता है। इसके परिणामस्वरूप विलास की सामग्रियों की माँग बढ़ती जाती है, जिससे उन सामग्रियों के मूल्य में वृद्धि होती जाती है। इससे विलास की सामग्रियों का उत्पादन करने वालों को लाभ का सुअवसर प्राप्त होता है। इसका परिणाम यह होता है कि अन्य आवश्यक वस्तुओं की तुलना में, विलास की सामग्रियों के उत्पादन में पूँजी लगाना लोग अधिक पसन्द करते हैं। इस प्रकार पूँजी विनियोग की प्राथमिकता बदल जाती है। पूँजी-विनियोग की यह विकृति काले धन का सीधा परिणाम है। धीरे-धीरे यह एक स्थायी विकृति बनने लगती है। इसी कारण भारत जैसे विकासशील देश में एयरकंडीशनर और टेलीविज़न जैसी वस्तुओं का निर्माण करने वाली कम्पनियाँ उत्पादन-व्यय करने में कोई रुचि नहीं लेतीं।
काले धन की उत्पत्ति के तीन प्रमुख स्रोत-कराधन की ऊँची दर, आयात लाइसेंसों की चोरबाज़ारी और तस्करी है। यदि इन कारणों का समूल नष्ट कर दिया जाए तो काले धन में वृद्धि नहीं होगी। भारत में आय-कर की दर बहुत ऊँची है। ऐसी स्थिति में व्यापारी काले धन का आश्रय लेता है। इसके लिए छोटे व्यापारियों को करों के बोझ से मुक्त करना चाहिए तथा बड़े व्यापारियों का आय-कर प्रतिशत कम करना चाहिए।
विदेशों से तस्करी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए काले धन का सशक्त आधार है। भारतीय बाजारों में विदेशी वस्त्र, विदेशी घड़ी, टेलीविज़न तथा जीवनोपयोगी वस्तुएँ बहुत अधिक मात्रा में मिलती हैं। इनमें से अधिकांश माल तस्करी का होता है। यह तस्करी अधिकतर समुद्री मार्ग से होती है। इन्हें सहज ही रोका जा सकता है। आज का आर्थिक व्यापार काले धन के बल पर ही चल रहा है। आज के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर काले धन से बड़ा ही अनिष्टकारी प्रभाव डाला है। इसका सबसे भयंकर दुष्परिणाम यह है कि इससे सरकार की समस्त नीतियाँ निष्फल हो रही हैं।
काला धन आसानी से कमाया जा सकता है और इसे आसानी से छिपाया जा सकता है। इसका परिणाम यह होता है कि एक ओर बचत घट रही है तो दूसरी ओर उत्पादन की कमी हो रही है। धन का चक्र संकुचित होता जाता है, उसका उपयोग सीमित हो जाता है जिससे देश की बहुत क्षति हो रही है। इस पर कर भी नहीं देना पड़ता है। काले धन के लिए सरकार की नीतियाँ और कार्य-पद्धति ही मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है। सफ़ेद धन वाले का धन कर के नाम पर छीन लेना तथा काले धन को हाथ भी न लगा सकना कितनी असमर्थता की स्थिति है। सरकारी नियम ऐसे हैं कि आदमी को अनाज, चीनी जैसी आवश्यक वस्तुओं के लिए सरकारी परमिट की आवश्यकता पड़ती है, जिसे प्राप्त करने के लिए रिश्वत देना अनिवार्य हो जाता है। इसी कारण काला धन अपना क्षेत्र बढ़ाने में असमर्थ होता है। ऐसी स्थिति में सरकार को उचित कदम उठाना चाहिए।
सरकार का यह कर्त्तव्य है कि देश की आर्थिक स्थिति को अच्छी तरह समझकर नियम बनाए और नियन्त्रण करें, जिससे काले धन को पनपने का अवसर न मिले । कई बार सरकार जल्दबाजी में कदम उठाकर स्थिति को और भी उलझा देती है। इस दिशा में सतर्कता से काम लेना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो सफ़ेद धन धीरे-धीरे काला बन जाएगा और फिर कभी सफ़ेद नहीं बन सकेगा। इस प्रकार राष्ट्रीय क्षति बढ़ती जाएगी।
आज का काला धन देश की अर्थव्यवस्था पर हावी होकर उसे पंगु बना रहा है तथा देश के विकास कार्य को अवरुद्ध कर रहा है। इससे देश को प्रगति में बाधा आ रही है। देश, जीवन के अनिवार्य पदार्थों के उत्पन्नता को बढ़ाने में असमर्थ हो रहा है।
11. मेरा पंजाब
पौराणिक ग्रन्थों में पंजाब का पुराना नाम ‘पंचनद’ मिलता है। मुस्लिम शासन के आगमन पर इसका नाम पंजाब अर्थात् पाँच नदियों की धरती पड़ गया। किन्तु देश के विभाजन के पश्चात् अब रावी, व्यास और सतलुज तीन ही नदियाँ पंजाब में रह गई हैं। 15 अग्रस्त, सन् 1947 को इसे पूर्वी पंजाब की संज्ञा दी गई। 1 नवम्बर 1966 को इसमें से हिमाचल प्रदेश और हरियाणा प्रदेश अलग कर दिए गए किन्तु फिर से इस प्रदेश को पंजाब पुकारा जाने लगा। आज के पंजाब का क्षेत्रफल 50, 362 वर्ग किलोमीटर तथा सन् 2011 की जनगणना के अनुसार इसकी जनसंख्या 2.77 करोड़ है।
पंजाब के लोग बड़े मेहनती हैं। यही कारण है कि कृषि के क्षेत्र में यह प्रदेश सबसे आगे है। औद्योगिक क्षेत्र में भी यह प्रदेश किसी से पीछे नहीं है। पंजाब प्रदेश का प्रत्येक जिला अपनी अलग विशेषता रखता है। अमृतसर यदि कम्बल और शाल के लिए विख्यात है तो जालन्धर खेलों की सामग्री के लिए विश्वविख्यात है। लुधियाना ने हौजरी की वस्तुओं के लिए अपना नाम कमाया है। खेतीबाड़ी के क्षेत्र में भी पंजाब समस्त भारत का नेतृत्व करता है। पंजाब का प्रत्येक गाँव पक्की सड़कों से जुड़ा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी पंजाब देश में दूसरे नंबर पर है। यहाँ छ: विश्वविद्यालय हैं। गुरुओं, पीरों, वीरों की यह धरती उन्नति के नए शिखरों को छ रही है।
12. विद्यार्थी जीवन
अथवा
आदर्श विद्यार्थी
महात्मा गांधी जी कहा करते थे, “शिक्षा ही जीवन है।” इसके सामने सभी धन फीके हैं। विद्या के बिना मनुष्य कंगाल बन जाता है, क्योंकि विद्या का ही प्रकाश जीवन को आलोकित करता है। पढ़ने का समय बाल्यकाल से आरम्भ होकर युवावस्था तक रहता है।
भारतीय धर्मशास्त्रों ने मानव जीवन को चार आश्रमों में बाँटा है-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। मनुष्य की उन्नति के लिए विद्यार्थी जीवन एक महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इस काल में वे जो कुछ सीख पाते हैं, वह जीवन-पर्यन्त उनकी सहायता करता है। यह वह अवस्था है जिसमें अच्छे नागरिकों का निर्माण होता है।
विद्यार्थी जीवन की सफलता पर ही आगे के तीनों जीवन आश्रित हैं। विद्यार्थी का सबसे प्रमुख कर्त्तव्य पढ़ना, लिखना और सीखना है। इस जीवन में उसे शारीरिक सुख का कोई भी ध्यान नहीं करना चाहिए। विद्या चाहने वालों को शारीरिक सुख नहीं मिलता और शारीरिक सुख चाहने वालों को विद्या प्राप्त नहीं होती। माता-पिता तथा गुरु की आज्ञा मानने को ही विद्यार्थी का कर्तव्य माना जाता है। जो विद्यार्थी अपने माता-पिता तथा गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करते वे कभी भी विद्या प्राप्त नहीं कर सकते।
शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का समुचित विकास है। शिक्षा से विद्यार्थियों के अन्दर सामाजिकता के सुन्दर भाव उत्पन्न हो जाते हैं। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा निवास करती है। अतएव आवश्यक है कि विद्यार्थी अपने अंगों का समुचित विकास करें। खेल-कूद, दौड़, व्यायाम आदि के द्वारा शरीर भी बलिष्ठ होता है और मनोरंजन के द्वारा मानसिक श्रम का बोझ भी उतर जाता है। खेल के नियम में स्वभाव और मानसिक प्रवृत्तियाँ भी सध जाती हैं।
आज भारत के विद्यार्थी का स्तर गिर चुका है। उसके पास न सदाचार है न आत्मबल। इसका कारण विदेशियों द्वारा प्रचारित अनुपयोगी शिक्षा प्रणाली है। अभी तक भी उसी की अन्धा-धुन्ध नकल चल रही है। जब तक यह सड़ा-गला विदेशी शिक्षा पद्धति का ढांचा उखाड़ नहीं फेंका जाता, तब तक न तो विद्यार्थी का जीवन ही आदर्श बन सकता है और न ही शिक्षा सर्वांगपूर्ण हो सकती है। इसलिए देश के भाग्य-विधाताओं को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
13. विज्ञान वरदान या अभिशाप ?
अथवा
विज्ञान के चमत्कार
गत दो सौ वर्षों में विज्ञान निरन्तर उन्नति ही करता गया है। यद्यपि इससे बहुत पूर्व रामायण और महाभारत काल में भी अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों का उल्लेख मिलता है, परन्तु उनका कोई चिह्न आज उपलब्ध नहीं हो रहा। इसलिए 19वीं और 20वीं शताब्दी से विज्ञान का एक नया रूप देखने को मिलता है।
आधुनिक विज्ञान में असीम शक्ति है। इसने मानव जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया है। भाप, बिजली और अणु-शक्ति को वश में करके मनुष्य ने मानव-समाज को वैभव की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। तेज़ चलने वाले वाहन, समुद्र की छाती को रौंदने वाले जहाज़, असीम आकाश में वायु वेग से उड़ने वाले विमान और नक्षत्र लोक तक पहुँचने वाले राकेट प्रकृति का मानव की विजय के उज्ज्वल उदाहरण हैं।
ई० मेल, टेलीफोन, मोबाइल फोन, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा और ग्रामोफोन आदि ने हमारे जीवन में ऐसी सुविधाएँ प्रस्तुत कर दी हैं जिनकी कल्पना भी पुराने लोगों के लिए कठिन होती है। पहले मनुष्य का समय अन्न और वस्त्र इकट्ठा करते-करते बीत जाता था। दिन भर कठोर श्रम के बाद भी उसकी आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं हो पाती थीं, परन्तु अब मशीनों की सहायता से वह अपनी इन आवश्यकताओं को बहुत थोड़े समय काम करके पूर्ण कर सकता है। विज्ञान एक अद्भुत वरदान के रूप में मनुष्य को प्राप्त हुआ है।
प्रत्येक वैज्ञानिक आविष्कार का उपयोग मानव-हित के लिए उतना नहीं किया गया जितना मानव-जाति के अहित के लिए। वैज्ञानिक उन्नति से पूर्व भी मनुष्य लड़ा करते थे, परन्तु उस समय के युद्ध आजकल के युद्धों की तुलना में बच्चों के खिलौनों जैसे प्रतीत होते हैं। प्रत्येक नए वैज्ञानिक आविष्कार के साथ युद्धों की भयंकरता बढ़ती गई और उसकी भयानकता हिरोशिमा और नागासाकी में प्रकट हुई। जहाँ एक अणु बम के विस्फोट के कारण लाखों व्यक्ति मारे गए।
प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में जन और धन का जितना विनाश हुआ उतना शायद विज्ञान हमें सौ वर्षों में भी न दे सकेगा और यह विनाश केवल विज्ञान के कारण ही हुआ है। यह तो निश्चित है कि विज्ञान का उपयोग मनुष्य को करना है। विज्ञान वरदान सिद्ध होगा या अभिशाप, यह पूर्ण रूप से मानव-समाज की मनोवृत्ति पर निर्भर है। विज्ञान तो मनुष्य का दास बन गया है। मनुष्य उसका स्वामी है। वह जैसा आदेश देगा विज्ञान उसका पालन करेगा। यदि मानव-मानव रहा तो विज्ञान वरदान सिद्ध होगा और मानव दानव बन गया तो विज्ञान भी अभिशाप ही बनकर रहेगा।
14. सिनेमा के लाभ तथा हानियाँ
बीसवीं सदी के वैज्ञानिक आविष्कारों में सिनेमा भी एक है। इसका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में पड़ा है। नगर से लेकर ग्राम तक सभी बाल-वृद्ध सिनेमा देखने को उत्सुक रहते हैं। इसके गीतों का प्रभाव तो और भी अधिक है। इसका आविष्कार सन् 1860 ई० में अमेरिका के एडीसन नामक व्यक्ति ने किया था। भारत में सिनेमा का प्रवेश कराने वाले दादा साहिब ‘फालके’ कहे जाते हैं। सन् 1913 में उन्होंने प्रथम भारतीय फिल्म तैयार की। उस समय मूक चित्र दिखाए जाते थे। बोलने वाले चित्रों का दर्शन सन् 1928 में आरम्भ हुआ।
सिनेमा मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। शहरों की बात तो अलग रही, आजकल कस्बों तक में सिनेमा घर खुल गए हैं। मुम्बई और कोलकाता जैसे बड़े शहरों में तो सिनेमा घरों का जाल-सा बिछ गया है। सिनेमा मनोरंजन का साधन होने के साथसाथ शिक्षा प्रसार का भी प्रबल साधन है। विदेशों में शिक्षा प्रसार के लिए इसका माध्यम अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुआ है। शिक्षा-प्रसार की दशा में सबसे अधिक इसी माध्यम का सहारा लिया जाता है। भारत में भी इस ओर कदम उठाया जा रहा है। समाज सुधार में भी सिनेमा को ऊँचा स्थान दिया गया है। व्यवसाय के विज्ञापन और प्रचार के लिए भी सिनेमा एक अत्युत्तम साधन है। प्रत्येक सिनेमा-गृह में हमें अनेक विज्ञापन देखने को मिलते हैं। हज़ारों दर्शकों की दृष्टि उन पर पड़ती है।
किन्तु सिनेमा में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ कुछ दोष भी हैं। सबसे पहला दोष तो यह है कि इसका आँखों पर बुरा प्रभाव पड़ता है, चरित्र की हानि होती है। गन्दे और अश्लील चित्र इस आग में घी का काम करते हैं।
यद्यपि सिनेमा में अनेक दोष देखने को मिलेंगे, फिर भी ये ऐसे दोष नहीं जो दूर न किए जा सकते हों। इन दोषों को दूर करने के लिए भारत सरकार और फिल्म-निर्माता पूरी कोशिश कर रहे हैं। इससे भारतीय सिनेमा उद्योग का भविष्य उज्ज्वल प्रतीत हो रहा है।
15. समाचार-पत्र
अथवा
समाचार-पत्र और उसके लाभ
आज समाचार-पत्र जीवन का एक आवश्यक अंग बन गया है। समाचार-पत्रों की शक्ति असीम है। आज की वैज्ञानिक शक्तियाँ इसके बहुत पीछे रह गई हैं। प्रजातन्त्र शासन में तो इसका और भी अधिक महत्त्व है। देश की उन्नति और अवनति समाचार-पत्रों पर ही निर्भर करती है। भारत के स्वतन्त्रता-संघर्ष में समाचार-पत्रों एवं उनके सम्पादकों का विशेष योगदान रहा है। इसको किसी ने ‘जनता की सदा चलती रहने वाली पार्लियामेंट’ कहा है।
आजकल समाचार-पत्र जनता के विचारों के प्रसार का सबसे बड़ा साधन है। वह धनिकों की वस्तु न होकर जनता की वाणी है। वह पीड़ितों और दुःखियों की पुकार है। आज वह जनता का माता-पिता, स्कूल-कॉलेज, शिक्षक, थियेटर, आदर्श परामर्शदाता और साथी सब कुछ है। वह सच्चे अर्थों में जनता के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है।
डेढ़ दो रुपए के समाचार-पत्र में क्या नहीं होता। कान, देश-भर के महत्त्वपूर्ण और मनोरंजक समाचार, सम्पादकीय लेख, विद्वानों के लेख, नेताओं के भाषणों की रिपोर्ट, व्यापार और मेलों की सूचनाएँ और विशेष संस्करणों में स्त्रियों और बच्चों के उपयोग की सामग्री, पुस्तकों की आलोचना, नाटक, कहानी, धारावाहिक, उपन्यास, हास्य-व्यंग्यात्मक लेख आदि विशेष सामग्री रहती है।
समाचार-पत्र सामाजिक कुरीतियाँ दूर करने के लिए बड़े सहायक हैं। समाचार-पत्रों की खबरें बड़े-बड़ों के मिजाज़ ठीक कर देती हैं। सरकारी नीति के प्रकाश और उसके खण्डन का समाचार-पत्र सुन्दर साधन हैं। इनके द्वारा शासन में सुधार भी किया जा सकता है।
समाचार-पत्र व्यापार का सर्व सुलभ साधन है। विक्रय करने वाले और कार्य करने वाले दोनों ही समाचार-पत्रों को अपनी सूचना का माध्यम बनाते हैं। इससे जितना लाभ साधारण जनता को होता है, उतना ही व्यापारियों को। बाज़ार का उतार-चढ़ाव इन्हीं समाचार-पत्रों की सूचनाओं पर चलता है।
विज्ञापन आज के युग में बड़े महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं। प्रायः लोग विज्ञापनों वाले पृष्ठों को अवश्य पढ़ते हैं, क्योंकि इसी के सहारे वे अपनी जीवन यात्रा का प्रबन्ध करते हैं। इन विज्ञापनों में नौकरी की मांगें, वैवाहिक विज्ञापन, व्यक्तिगत सूचनाएँ और व्यापारिक विज्ञापन आदि होते हैं। चित्रपट जगत् के विज्ञापनों के लिए भी विशेष पृष्ठ होते हैं।
अन्त में यह कहना आवश्यक है कि समाचार-पत्र का बड़ा महत्त्व है, पर उसका उत्तरदायित्व भी है कि उसके समाचार निष्पक्ष हों, किसी विशेष पार्टी या पूँजीपति के स्वार्थ का साधन न बनें। आजकल के भारतीय समाचार-पत्रों में यह बड़ी कमी है। जनता की वाणी का ऐसा दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। पत्र के सम्पादकों को अपना दायित्व भली प्रकार समझना चाहिए।
16. देशभक्ति (स्वदेश प्रेम)
भूमिका-देशभक्ति का अर्थ है अपने देश से प्यार अथवा अपने देश के प्रति श्रद्धा । जो मनुष्य जिस देश में पैदा होता है, उसका अन्न-जल खा-पीकर बड़ा होता है, उसकी मिट्टी में खेलकर हृष्ट-पुष्ट होता है, वहीं पढ़-लिखकर विद्वान् बनता है, वही उसकी जन्म-भूमि है।
प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक प्राणी अपने देश से प्यार करता है। वह कहीं भी चला जाए, संसार भर की खुशियों तथा महलों के बीच में क्यों न विचरण कर रहा हो उसे अपना देश, अपना स्थान ही प्रिय लगता है, जैसा कि पंजाबी में कहा गया है
“जो सुख छज्जू दे चबारे,
न बलख न बुखारे।”
देश-भक्त सदा ही अपने देश की उन्नति के बारे में सोचता है। हमारा इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब देश पर विपत्ति के बादल मंडराए, जब-जब हमारी आज़ादी को खतरा रहा, तब-तब हमारे देश-भक्तों ने अपनी भक्ति-भावना दिखाई। सच्चे देश-भक्त अपने सिर पर लाठियाँ खाते हैं, जेलों में जाते हैं, बार-बार अपमानित किए जाते हैं तथा हँसते-हँसते फाँसी के फंदे चूम जाते हैं। जंगलों में स्वयं तो भूख से भटकते हैं साथ ही अपने बच्चों को भी बिलखते देखते हैं।
महाराणा प्रताप का नाम कौन भूल सकता है जो अपने देश की आज़ादी के लिए दरदर भटकते रहे, परन्तु शत्रु के आगे सिर नहीं झुकाया। महात्मा गांधी, जवाहर लाल, सुभाष, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, तिलक, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपत राय, मालवीय जी आदि अनेक देश-भक्तों ने आजादी प्राप्त करने के लिए अपना सच्चा देश-प्रेम दिखलाया। वे देश के लिए मर मिटे, पर शत्रु के आगे झुके नहीं। उन्होंने यह निश्चय किया था कि
‘सर कटा देंगे मगर,
सर झुकाएंगे नहीं।’
आज जो कुछ हमने प्राप्त किया है तथा जो कुछ हम बन पाए हैं उन सब के लिए हम देश-भक्त वीरों के ही ऋणी हैं। इन्हीं के त्याग के परिणामस्वरूप हम स्वतन्त्रता में साँस ले रहे हैं। इसलिए इन वीरों से प्रेरणा लेकर हमें भी नि:स्वार्थ भाव से अपने देश की सेवा करने का प्रण करना चाहिए तथा अपने देश की सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा, धर्म तथा मान-मर्यादा की रक्षा करनी चाहिए।
17. व्यायाम के लाभ
अच्छा स्वास्थ्य श्रेष्ठ धन है। इसके बिना जीवन नीरस है। शास्त्रों में कहा गया है, ‘शरीर ही धर्म का प्रधान साधन है।’ अतएव शरीर को स्वस्थ रखना व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है। स्वस्थ व्यक्ति ही सभी प्रकार की उन्नति कर सकता है। शरीर को स्वस्थ रखने का साधन व्यायाम है।
शरीर को एक विशेष ढंग से गति देना व्यायाम कहलाता है। यह कई प्रकार से किया जा सकता है। व्यायाम करने से शरीर में पसीना आता है जिससे अन्दर का मल दूर हो जाता है। इससे शरीर निरोग एवं फुर्तीला बनता है। आयु बढ़ती है। व्यायाम करने वाला व्यक्ति बड़े-से-बड़ा काम करने से भी नहीं घबराता। व्यायाम के अनेक प्रकार हैं। कुश्ती करना, दण्ड पेलना, बैठकें निकालना, दौडना, तैरना, घुड़सवारी, नौका चलाना, खो-खो खेलना, कबड्डी खेलना आदि पुराने ढंग के व्यायाम हैं। पहाड़ पर चढ़ना भी एक व्यायाम है। इनके अतिरिक्त आज अंग्रेज़ी ढंग के व्यायामों का भी प्रचार बढ़ रहा है। फुटबाल, वॉलीबाल, क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन, टेनिस आदि आज के नए ढंग के व्यायाम हैं। इनके द्वारा खेल-खेल में ही व्यायाम हो जाता है।
अब उत्तरोत्तर दुनिया भर में व्यायाम का महत्त्व बढ़ रहा है। भारत में भी इस ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। स्कूलों में प्रत्येक विद्यार्थी को व्यायाम में भाग लेना ज़रूरी हो गया है। खेलों को अनिवार्य विषय बना दिया गया है। शारीरिक शिक्षा भी पुस्तकों की पढ़ाई का एक आवश्यक अंग बन गई है।
भारत में प्राचीन काल से योगासन चले आ रहे हैं। गुरुकुलों और ऋषि कुलों में इनकी शिक्षा दी जाती थी। स्कूल-कॉलेजों में भी इनका प्रचलन हो रहा है। योगासन और प्राणायाम करने से आयु बढ़ती है। मुख पर तेज आता है, आलस्य दूर भागता है। प्रत्येक महापुरुष व्यायाम या श्रम को अपनाता रहा। पं० जवाहरलाल नेहरू प्रतिदिन शीर्षासन किया करते थे। महात्मा गांधी नियमित रूप से प्रातः भ्रमण करते थे। वे जीवन भर क्रियाशील रहे।
18. लोहड़ी
लोहड़ी का त्योहार विक्रमी संवत् के पौष मास के अन्तिम दिन अर्थात् मकर संक्रान्ति से एक दिन पहले मनाया जाता है। अंग्रेज़ी महीने के अनुसार यह दिन प्राय: 13 जनवरी को पड़ता है। इस दिन सामूहिक तौर पर या व्यक्तिगत रूप में घरों में आग जलाई जाती है और उसमें मूंगफली, रेवड़ी और फूल-मखाने की आहूतियाँ डाली जाती हैं। लोग एकदूसरे को तिल, गुड़ और मूंगफली बाँटते हैं। पता नहीं कब और कैसे इस त्योहार को लड़के के जन्म के साथ जोड़ दिया गया। प्रायः उन घरों में लोहड़ी विशेष रूप से मनाई जाती है जिस घर में लड़का हुआ हो। किन्तु पिछले वर्ष से कुछ जागरूक और समझदार लोगों ने लड़की होने पर भी लोहड़ी मनाना शुरू कर दिया है।
लोहड़ी, अन्य त्योहारों की तरह ही पंजाबी संस्कृति के सांझेपन का, प्रेम और भाईचारे का त्योहार है। खेद का विषय है कि आज हमारे घरों में ‘दे माई लोहड़ी-तेरी जीवे जोड़ी’ या सुन्दर मुन्दरियों हो, तेरा कौन बेचारा’ जैसे गीत कम ही सुनने को मिलते हैं। लोग लोहड़ी का त्योहार भी होटलों में मनाने लगे हैं जिससे इस त्योहार की सारी गरिमा ही समाप्त होकर रह गई है।
19. दशहरा
हमारे त्योहारों का किसी-न-किसी ऋतु के साथ सम्बन्ध रहता है। दशहरा शरद् ऋतु के प्रधान त्योहारों में से एक है। यह आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन श्रीराम ने लंकापति रावण पर विजय पाई थी, इसलिए इसको विजया दशमी कहते हैं।
भगवान् राम के वनवास के दिनों में रावण छल से सीता को हर कर ले गया था। राम ने हनुमान और सुग्रीव आदि मित्रों की सहायता से लंका पर आक्रमण किया तथा रावण को मार कर लंका पर विजय पाई। तभी से यह त्योहार मनाया जाता है।
विजयादशमी का त्योहार पाप पर पुण्य की, अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है। भगवान् राम ने अत्याचारी और दुराचारी रावण का नाश कर भारतीय संस्कृति और उसकी महान् परम्पराओं की पुनः प्रतिष्ठा की थी।
दशहरा रामलीला का अन्तिम दिन होता है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग प्रकार से यह दिन मनाया जाता है। बड़े-बड़े नगरों में रामायण के पात्रों की झांकियाँ निकाली जाती हैं। दशहरे के दिन रावण, कुम्भकर्ण तथा मेघनाद के कागज़ के पुतले बनाए जाते हैं। सायँकाल के समय राम और रावण के दलों में बनावटी लड़ाई होती है। राम रावण को मार देते हैं। रावण आदि के पुतले जलाए जाते हैं। पटाखे आदि छोड़े जाते हैं। लोग मिठाइयां तथा खिलौने लेकर घरों को लौटते हैं। कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। वहाँ देवताओं की शोभायात्रा निकाली जाती है।
इस दिन कुछ असभ्य लोग शराब पीते हैं और लड़ते हैं, यह ठीक नहीं है। यदि ठीक ढंग से इस त्योहार को मनाया जाए तो बहुत लाभ हो सकता है। स्थान-स्थान पर भाषणों का प्रबन्ध होना चाहिए जहाँ विद्वान् लोग राम के जीवन पर प्रकाश डालें।
20. दीवाली
भारतीय त्योहारों में दीपमाला का विशेष स्थान है। दीपमाला शब्द का अर्थ है-दीपों की पंक्ति या माला। इस पर्व के दिन लोग रात को अपनी प्रसन्नता प्रकट करने के लिए दीपों की पंक्तियाँ जलाते हैं और प्रकाश करते हैं। नगर और गाँव दीप-पंक्तियों से जगमगाने लगते हैं। इसी कारण इसका नाम दीपावली पड़ा।
भगवान् राम लंकापति रावण को मार कर तथा वनवास के चौदह वर्ष समाप्त कर अयोध्या लौटे तो अयोध्यावासियों ने उनके आगमन पर हर्षोल्लास प्रकट किया और उनके स्वागत में रात को दीपक जलाए। उसी दिन की पावन स्मृति में यह दिन बड़े समारोह से मनाया जाता है।
इसी दिन जैनियों के तीर्थंकर महावीर स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था। स्वामी दयानन्द तथा स्वामी रामतीर्थ भी इसी दिन निर्वाण को प्राप्त हुए थे। सिक्ख भाई भी दीवाली को बड़े उत्साह से मनाते हैं। इस प्रकार यह दिन धार्मिक दृष्टि से बड़ा पवित्र है।
दीवाली से कई दिन पूर्व तैयारी आरम्भ हो जाती है। लोग शरद् ऋतु के आरम्भ में घरों की लिपाई-पुताई करवाते हैं और कमरों को चित्रों से सजाते हैं। इससे मक्खी, मच्छर दूर हो जाते हैं। इससे कुछ दिन पूर्व अहोई माता का पूजन किया जाता है। धन त्रयोदशी के दिन पुराने बर्तनों को लोग बेचते हैं और नए खरीदते हैं। चतुर्दशी को घरों का कूड़ा-कर्कट निकालते हैं। अमावस्या को दीपमाला की जाती है।
इस दिन लोग अपने इष्ट-बन्धुओं तथा मित्रों को बधाई देते हैं और नव वर्ष में सुखसमृद्धि की कामना करते हैं। बालक-बालिकाएँ नए वस्त्र धारण कर मिठाई बाँटते हैं। रात को आतिशबाजी चलाते हैं। लोग रात को लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं। कहीं-कहीं दुर्गा सप्तशति का पाठ किया जाता है।
दीवाली हमारा धार्मिक त्योहार है। इसे यथोचित रीति से मनाना चाहिए। इस दिन विद्वान् लोग व्याख्यान देकर जन-साधारण को शुभ मार्ग पर चला सकते हैं। जुआ और शराब का सेवन बहुत बुरा है। इससे बचना चाहिए। आतिशबाज़ी पर अधिक खर्च नहीं करना चाहिए।
21. होली
मुसलमानों के लिए ईद का, ईसाइयों के लिए क्रिसमस का जो, स्थान है, वही स्थान हिन्दू त्योहारों में होली का है। यह बसन्त का उल्लासमय पर्व है। इसे ‘बसन्त का यौवन’ कहा जाता है। होली के उत्सव को आपसी प्रेम का प्रतीक माना है। होली प्रकृति की सहचरी है। बसन्त में जब प्रकृति के अंग-अंग में यौवन फूट पड़ता है, तो होली का त्योहार उसका श्रृंगार करने आता है। होली ऋतु-सम्बन्धी त्योहार है। शीत की समाप्ति पर किसान आनन्द-विभोर हो जाते हैं। खेती पक कर तैयार होने लगती है। इसी कारण सभी मिलकर हर्षोल्लास में खो जाते हैं।
होली मनुष्य मात्र के हृदय में आशा और विश्वास को जन्म देती है। नस-नस में नया रक्त प्रवाहित हो उठता है। बाल, वृद्ध सब में नई उमंगें भर जाती हैं। निराशा दूर हो जाती है। धनी-निर्धन सभी एक साथ मिलकर होली खेलते हैं।
कहते हैं कि भक्त प्रह्लाद भगवान् का नाम लेता था। उसका पिता हिरण्यकश्यप ईश्वर को नहीं मानता था। वह प्रहलाद को ईश्वर का नाम लेने से रोकता था। प्रह्लाद इसे किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार न था। प्रहलाद को अनेक दण्ड दिए गए, परन्तु भगवान् की कृपा से उसका कुछ भी न बिगड़ा। हिरण्यकश्यप की बहिन का नाम होलिका था। उसे वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। वह अपने भाई के आदेश पर प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर चिता में बैठ गई। भगवान् की महिमा से होलिका उस चिता में जलकर राख हो गई। प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ। यही कारण है कि आज होलिका जलाई जाती है।
आज कुछ लोगों ने होली का रूप बिगाड़ कर रख दिया है। सुन्दर एवं कच्चे रंगों के स्थान पर कुछ लोग स्याही और तवे की कालिमा का प्रयोग करते हैं। कुछ मूढ़ व्यक्ति एक-दूसरे पर गन्दगी फेंकते हैं। प्रेम और आनन्द के त्योहार को घृणा और दुश्मनी का त्योहार बना दिया जाता है। इन बुराइयों को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
होली के पवित्र अवसर पर हमें ईर्ष्या, द्वेष, कलह आदि बुराइयों को दूर भगाना चाहिए। समता और भाईचारे का प्रचार करना चाहिए। छोटे-बड़ों को गले मिलकर एकता का उदाहरण पेश करना चाहिए।
22. बसंत ऋतु
बसंत ऋतु को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। यह ऋतु विक्रमी संवत के महीने के चैत्र और वैशाख महीने में आती है। इस ऋतु के आगमन की सूचना हमें कोयल की कूहूकूहू की आवाज़ से मिल जाती है। वृक्षों पर, लताओं पर नई कोंपलें आनी शुरू हो जाती हैं। प्रकृति भी सरसों के फूले खेतों में पीली चुनरिया ओढ़े प्रतीत होती हैं। इसी ऋतु में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को बसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाता है जो पूर्ण मासी तक कौमदी महोत्सव तक मनाया जाता है। इस त्योहार में लोग पीले वस्त्र पहनते हैं। घरों में पीला हलवा या पीले चावल बनाया जाता है। कुछ लोग बसंत पंचमी वाले दिन व्रत भी रखते हैं।
पुराने जमाने में पटियाला और कपूरथला की रियासतों में यह दिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। पतंग बाजी के मुकाबले होते थे। कुश्तियों और शास्त्रीय संगीत का आयोजन किया जाता था। पुराना मुहावरा था कि ‘आई बसंत तो पाला उड़त’ किन्तु पर्यावरण दूषित होने के कारण अब तो पाला बसंत के बाद ही पड़ता है। पंजाबियों को ही नहीं समूचे भारतवासियों को अमर शहीद सरदार भगत सिंह का ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ इस दिन की सदा याद दिलाता रहेगा।
23. वैशाखी
मेले हमारी संस्कृति का अंग हैं। इन से विकास की प्रेरणा मिलती है। ये सद्गुणों को उजागर करते हैं। ये पर्व सहयोग और साहचर्य की भावना को जन्म देते हैं। वैशाखी का उत्सव हर वर्ष एक नवीन उत्साह व उमंग लेकर आता है। वैशाखी का पर्व सारे भारत में मनाया जाता है। ईस्वी वर्ष के 13 अप्रैल के दिन यह मेला मनाया जाता है। इस दिन लोगों में नई चेतना, एक नई स्फूर्ति और नया उत्साह दिखाई देता है। हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई सभी धर्मों के लोग यह पर्व बड़ी खुशी से मनाते हैं।
सूर्य के गिर्द वर्ष भर का चक्कर काट कर पृथ्वी जब दूसरा चक्कर शुरू करती है तो इसी दिन वैशाखी होती है। इसलिए यह सौर वर्ष का पहला दिन माना जाता है। इस दिन लोग नदी पर नहाने के लिए जाते हैं और आते समय गेहूँ के पके हुए सिट्टे लेकर आते हैं। वैशाखी पर किसानों में तो एक नई खुशी भर जाती है। उनकी वर्ष भर की मेहनत रंग लाती है। खेतों में गेहूं की स्वर्णिम डालियाँ लहलहाती देखकर उनका सीना तन जाता है। उनके पांव में एक विचित्र-सी हलचल होने लगती है, जो भंगड़े के रूप में ताल देने लगती है।
वैशाखी के दिन लोग घरों में अन्न दान करते हैं। इष्ट मित्रों में मिठाई बाँटते हैं। प्रत्येक को नए वर्ष की बधाई देते हैं। कई स्थानों पर इस मेले की विशेष चहल-पहल होती है। प्रात:काल ही मन्दिरों और गुरुद्वारों में लोग इकट्ठे हो जाते हैं। ईश्वर के दरबार में लोग नतमस्तक हो जाते हैं। झूलों पर बच्चों का जमघट देखते ही बनता है। हलवाइयों की दुकानों, रेहड़ी-छाबड़ी वालों के पास भीड़ जमी रहती है। अमृतसर का वैशाखी मेला देखने योग्य होता है।
प्रत्येक व्यक्ति वैशाखी का यह त्योहार हर्ष और उल्लास से मनाता है। इस दिन नए काम आरम्भ किये जाते हैं। पुराने कामों का लेखा-जोखा किया जाता है। स्कूलों का सत्र वैशाखी से आरम्भ होता है। सभी चाहते हैं कि यह त्योहार उनके लिए हर्ष का सन्देश लाए। समृद्धि का बोलबाला हो।
24. गणतन्त्र दिवस
ऐसे उत्सव जिनका सम्बन्ध सारे राष्ट्र तथा उसमें निवास करने वाले जन-जीवन से होता है, राष्ट्रीय उत्सवों के नाम से प्रसिद्ध हैं। 26 जनवरी इन्हीं में से एक है। यह हमारा गणतन्त्र दिवस है। 26 जनवरी राष्ट्रीय उत्सवों में विशेष स्थान रखता है, क्योंकि भारतीय गणतन्त्रात्मक लोक राज्य का अपना बनाया संविधान इसी पुण्य तिथि को लागू हुआ था। इसी दिन से भारत में गवर्नर-जनरल के पद की समाप्ति हो गई और शासन का मुखिया राष्ट्रपति हो गया।
सन् 1929 में जब लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष श्री जवाहल लाल नेहरू बने थे। उन्होंने यह घोषणा की थी कि 26 जनवरी के दिन प्रत्येक भारतवासी राष्ट्रीय झण्डे के नीचे खड़ा होकर प्रतिज्ञा करे कि हम भारत के लिए स्वाधीनता की मांग करेंगे और उसके लिए अन्तिम दम तक संघर्ष करेंगे। तब से प्रति वर्ष 26 जनवरी का पर्व मनाने की परम्परा चल पड़ी। आजादी के बाद 26 जनवरी, सन् 1950 को प्रथम एवम् अन्तिम गवर्नर-जनरल श्री राजगोपालाचार्य ने नव-निर्वाचित राष्ट्र पति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को कार्य भार सौंपा था।
यद्यपि यह पर्व देश के प्रत्येक ओर-छोर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है तथापि भारत की राजधानी दिल्ली में इसकी शोभा देखते ही बनती है। मुख्य समारोह सलामी, पुरस्कार वितरण आदि तो इण्डिया गेट पर ही होता है, पर शोभा यात्रा नई दिल्ली की प्रायः सभी सड़कों पर घूमती है। विभिन्न प्रान्तीय दल के लोग लोक नृत्य तथा शिल्प आदि का प्रदर्शन करते हैं। कई ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तुएँ भी उपस्थित की जाती है। छात्र-छात्राएँ भी इसमें भाग लेते हैं और अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।
26 जनवरी के उत्सव को साधारण जन समाज का पर्व बनाने के लिए इसमें प्रत्येक भारतवासी को अवश्य भाग लेना चाहिए। इस दिन राष्ट्रवासियों को आत्म-निरीक्षण भी करना चाहिएँ और सोचना चाहिए कि हमने क्या खोया तथा क्या पाया है। अपनी निश्चित की गई योजनाओं को हमें कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई है। देश को ऊँचा उठाने का पक्का इरादा करना चाहिए।
25. 15 अगस्त-स्वतन्त्रता दिवस
15 अगस्त, सन् 1947 भारतीय इतिहास में एक चिरस्मरणीय दिवस रहेगा। इस दिन सदियों से भारत माता की गुलामी के बन्धन टूक-टूक हुए थे। सबने शान्ति एवं सुख की साँस ली थी। स्वतन्त्रता दिवस हमारा सबसे महत्त्वपूर्ण तथा प्रसन्नता का त्योहार है। इस दिन के साथ गुंथी हुई बलिदानियों की अनेक गाथाएँ हमारे हृदय में स्फूर्ति और उत्साह भर देती है। लोकमान्य तिलक का यह उद्घोष “स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” हमारे हृदय में गुदगुदी उत्पन्न कर देता है। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय ने अपने रक्त से स्वतन्त्रता की देवी को तिलक किया था। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” का नारा लगाने वाले नेता भी सुभाषचन्द्र बोस की याद इसी स्वतन्त्रता दिवस पर सजीव हो उठती है।
महात्मा गांधी जी के बलिदान का तो एक अलग ही अध्याय है। उन्होंने विदेशियों के साथ अहिंसा के शस्त्र से मुकाबला किया और देश में बिना रक्तपात के क्रान्ति उत्पन्न कर दी। महात्मा गांधी के अहिंसा, सत्य एवं त्याग के सामने अत्याचारी अंग्रेजों को पराजय देखनी पड़ी। 15 अगस्त, सन् 1947 के दिन उन्हें भारत से बोरिया-बिस्तर गोल करना पड़ा। नेहरू परिवार ने इस स्वतन्त्रता यज्ञ में जो आहुति डाली वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई मिलती है। पं० जवाहर लाल नेहरू ने सन् 1929 को लाहौर में रावी के किनारे भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करने की प्रथम ऐतिहासिक घोषणा की थी। ये 18 वर्ष तक स्वतन्त्रता संघर्ष में लगे रहे, तब कहीं 15 अगस्त का यह शुभ दिन आया।
स्वतन्त्रता दिवस भारत के प्रत्येक नगर-नगर ग्राम-ग्राम में बड़े उत्साह तथा प्रसन्नता से मनाया जाता है। इसे भिन्न भिन्न संस्थाएँ अपनी ओर से मनाती हैं। सरकारी स्तर पर भी यह समारोह मनाया जाता है। अब तो विदेशों में रहने वाले भारतीय भी इस राष्ट्रीय पर्व को धूम-धाम से मनाते हैं। दिल्ली में लाल किले पर तिरंगा झंडा फहराया जाता है। 15 अगस्त के दिन देश के भाग्य-विधाता आत्म निरीक्षण करें और देश की जनता को अटूट देशभक्ति की प्रेरणा दें, तभी 15 अगस्त का त्योहार लक्ष्य पूर्ति में सहायक सिद्ध हो सकता है।
26. फुटबाल मैच
अथवा
आँखों देखा कोई मैच
पिछले महीने की बात है कि डी० ए० वी० हाई स्कल और सनातन धर्म हाई स्कल की फुटबाल टीमों का मैच डी० ए० वी० हाई स्कूल के मैदान में निश्चित हुआ। दोनों टीमें ऊँचे स्तर की थीं। इर्द-गिर्द के इलाके के लोग इस मैच को देखने के लिए इकट्ठे हुए थे। दोनों टीमों की प्रशंसा सबके मुख पर थी।
अलग-अलग रंगों की वर्दी पहन कर दोनों टीमें मैदान में उतरीं। सब दर्शकों ने तालियाँ बजाईं। रेफरी ने हिसल बजाई और खेल आरम्भ हो गया। पहली चोट सनातन धर्म स्कूल के खिलाड़ी ने की । उसके साथियों ने झट फुटबाल को सम्भाल लिया और दूसरे दल के खिलाड़ियों से बचाते हुए उनके गोल की ओर ले गए। गोल के समीप देर तक फुटबाल जमी रही। सबका अनुमान था कि सनातन धर्म स्कूल की ओर से गोल होकर रहेगा परन्तु यह अनुमान गलत सिद्ध हुआ।
दोनों स्कूलों के समर्थक अपने-अपने स्कूल का नाम लेकर जिन्दाबाद के नारे लगा रहे थे। चारों ओर तालियों से सारा क्रीडा क्षेत्र गूंज रहा था। इतने में सनातन धर्म स्कूल के खिलाड़ियों को भी जोश आ गया। बिजली की तरह दौड़ते हुए सनातन धर्म स्कूल के बैक और गोलकीपर आगे बढ़े, दोनों बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। उन दोनों ने गोल को बचाकर रखा। उन्होंने अनेक हमलों को नाकाम बना दिया। गेंद आगे चली गई। निर्णय होना सम्भव प्रतीत न होता था। दोनों टीमों के खिलाड़ी विवश हो गए। इतने में रेफरी ने हाफ टाइम सूचित करने के लिए लम्बी ह्विसल दी। खेल कुछ मिनट के लिए रुक गया।
थोड़ी देर विश्राम करने के पश्चात् खेल फिर से आरम्भ हुआ। दर्शकों का मैच देखने का कौतूहल बहुत बढ़ गया था। खेल का मैदान चारों और दर्शकों से भरा हुआ था। प्रतिष्ठित सज्जन बालकों का उत्साह बढ़ा रहे थे। अच्छा खेलने वालों को बिना किसी भेदभाव के शाबाशी दी जा रही थी। इस बार भी हार-जीत का निर्णय न हो सका। समय समाप्त हो गया। रेफरी ने समय समाप्त होने की सूचना लम्बी ह्विसल बजाकर दी।
दोनों पक्षों के लोगों ने अपने खिलाड़ियों को कन्धों पर उठा लिया। उन्हें अच्छा खेलने के लिए शाबाशी दी। इस प्रकार यह मैच हार-जीत का निर्णय हुए बिना ही अगले दिन तक के लिए समाप्त हो गया।
27. खेलों का महत्त्व
विद्यार्थी जीवन में खेलों का बड़ा महत्त्व है। पुस्तकों में उलझकर थका-मांदा विद्यार्थी जब खेल के मैदान में आता है तो उसकी थकावट तुरन्त गायब हो जाती है। विद्यार्थी अपने-आप में चुस्ती और ताज़गी अनुभव करता है। मानव-जीवन में सफलता के लिए मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शक्तियों के विकास से जीवन सम्पूर्ण बनता है।
स्वस्थ, प्रसन्न, चुस्त और फुर्तीला रहने के लिए शारीरिक शक्ति का विकास ज़रूरी है। इस पर ही मानसिक तथा आत्मिक विकास सम्भव है। शरीर का विकास खेल-कूद पर निर्भर करता है। सारा दिन काम करने और खेल के मैदान का दर्शन न करने से होशियार विद्यार्थी भी मूर्ख बन जाते हैं। यदि हम सारा दिन कार्य करते रहें तो शरीर में घबराहट, चिड़चिड़ापन या सुस्ती छा जाती है। ज़रा खेल के मैदान में जाइये, फिर देखिए, घबराहट चिड़चिड़ापन या सुस्ती कैसे दूर भागते हैं। शरीर हल्का और साहसी बन जाता है। मन में और अधिक कार्य की लगन पैदा होती है।
खेल दो प्रकार के होते हैं। एक वे जो घर पर बैठकर खेले जा सकते हैं। इनमें व्यायाम कम तथा मनोरंजन ज्यादा होता है, जैसे शतरंज, ताश, कैरमबोर्ड आदि। दूसरे प्रकार के खेल मैदान में खेले जाते हैं, जैसे-क्रिकेट, फुटबाल, वॉलीबाल, बॉस्केट बाल, कबड्डी आदि। इन खेलों से व्यायाम के साथ-साथ मनोरंजन भी होता है।
खेलों में भाग लेने से विद्यार्थी खेल मैदान में से अनेक शिक्षाएँ ग्रहण करता है। खेल संघर्ष द्वारा विजय प्राप्त करने की भावना पैदा करते हैं। खेलें हँसते-हँसते अनेक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना सिखा देती हैं। खेल के मैदान में से विद्यार्थी के अन्दर अनुशासन में रहने की भावना पैदा होती है। सहयोग करने तथा भ्रातृभाव की आदत बनती है। खेलकूद से विद्यार्थी में तन्मयता से कार्य करने की प्रवृत्ति पैदा होती है।
आजकल विद्यार्थियों में खेल-कूद को प्राथमिकता नहीं दी जाती। केवल वही विद्यार्थी खेल के मैदान में छाएँ रहते हैं जो कि टीमों के सदस्य होते हैं। शेष विद्यार्थी किसी भी खेल में भाग नहीं ले पाते । प्रत्येक विद्यालय में ऐसे खेलों का प्रबन्ध होना चाहिए जिनमें प्रत्येक विद्यार्थी भाग लेकर अपना शारीरिक तथा मानसिक विकास कर सके।
28. प्रातःकाल का भ्रमण
मनुष्य का शरीर स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है। स्वस्थ मनुष्य ही हर काम भलीभान्ति कर सकता है। शरीर को स्वस्थ रखने का साधन व्यायाम है। व्यायामों में भ्रमण सबसे सरल और लाभदायक व्यायाम है। भ्रमण का सर्वश्रेष्ठ समय प्रात:काल माना गया है।
प्रात:काल को हमारे शास्त्रों में ब्रह्ममुहूर्त का नाम दिया गया है। यह शुभ समय माना गया है। इस समय हर काम आसानी से किया जा सकता है। प्रातःकाल का पढ़ा शीघ्र याद हो जाता है। व्यायाम के लिए भी प्रात:काल का समय उत्तम है। प्रात:काल भ्रमण मनुष्य को दीर्घायु बनाता है।
प्रात:काल भ्रमण के अनेक लाभ हैं। सर्वप्रथम, हमारा स्वास्थ्य उत्तम होगा। हमारे पुढे दृढ़ होंगे। आँखों को ठण्डक मिलने से ज्योति बढ़ेगी। शरीर में रक्त -संचार तथा स्फूर्ति आएगी। प्रात:काल की वायु अत्यन्त शुद्ध तथा स्वास्थ्य निर्माण के लिए उपयुक्त होती है। यह शुद्ध वायु हमारे फेफड़ों के अन्दर जाकर रक्त शुद्ध करेगी। प्रात:काल की वायु धूलरहित तथा सुगन्धित होती है, जिससे मानसिक तथा शारीरिक बल बढ़ता है। प्रात:काल के समय प्रकृति अत्यन्त शान्त होती है और अपने सुन्दर स्वरूप से मन को मुग्ध करती है।
यदि प्रात:काल किसी उपवन में निकल जाएँ तो वहाँ के पक्षियों तथा फूलों, वृक्षों लताओं को देखकर आप आनन्द विभोर हो उठेंगे। प्रात:काल भ्रमण करते समय तेज़ी से चलना चाहिए। साँस नाक के द्वारा लम्बे-लम्बे खींचना चाहिए। प्रात:काल घास के क्षेत्रों में ओस पर भ्रमण करने से विशेष आनन्द मिलता है। प्रात:काल का भ्रमण यदि नियमपूर्वक किया जाए तो छोटे-मोटे रोग पास भी नहीं फटकते।
बड़े-बड़े नगरों के कार्य-व्यस्त मनुष्य जब रुग्ण हो जाते हैं अथवा मंदाग्नि के शिकार हो जाते हैं, तो उनको डॉक्टरों प्रातः भ्रमण की सलाह देते हैं। प्रात:काल का भ्रमण 4-5 किलोमीटर से कम नहीं होना चाहिए। भ्रमण करते समय छाती सीधी और भुजाएँ भी खूब हिलाते रहना चाहिए। कई लोगों के मत में प्रायः भ्रमण का आने तथा जाने का मार्ग भिन्नभिन्न होना चाहिए।
आज प्रात:काल के भ्रमण की प्रथा बहुत कम है, जिससे भान्ति-भान्ति की व्याधियों से पीडित मनुष्य स्वास्थ्य खो बैठे हैं। पुरुषों की अपेक्षा अस्सी प्रतिशत स्त्रियों के रुग्ण होने का मुख्य कारण तो यही है। वे घर की गन्दी वायु से बाहर नहीं निकलतीं। प्रातःकाल के भ्रमण में धन व्यय नहीं होता। अतएव हर व्यक्ति को प्रात:काल भ्रमण की आदत डालनी चाहिए।
29. टेलीविज़न के लाभ-हानियाँ
टेलीविज़न का आविष्कार सन् 1926 ई० में स्काटलैण्ड के इंजीनियर जॉन एल० बेयर्ड ने किया। भारत में इसका प्रवेश सन् 1964 में हुआ। दिल्ली में एशियाई खेलों के अवसर टेलीविज़न रंगदार हो गया। टेलीविज़न को आधुनिक युग का मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन
माना जाता है। केवल नेटवर्क के आने पर इस में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया है। आज देश भर में दूरदर्शन के अतिरिक्त तीन सौ से अधिक चैनलों द्वारा कार्यक्रम प्रसारित किए जा रहे हैं। इनमें कुछ चैनल तो केवल समाचार, संगीत या नाटक ही प्रसारित करते हैं।
टेलीविज़न के आने पर हम दुनिया के किसी भी कोने में होने वाले मैच का सीधा प्रसारण देख सकते हैं। आज व्यापारी वर्ग अपने उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए टेलीविज़न पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों का सहारा ले रहे हैं। ये विज्ञापन टेलीविज़न चैनलों की आय का स्रोत भी हैं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार में टेलीविज़न का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
टेलीविज़न की कई हानियाँ भी हैं। सबसे बड़ी हानि छात्र वर्ग को हुई है। टेलीविज़न उन्हें खेल के मैदान से तो दूर ले जाता ही है अतिरिक्त पढ़ाई में भी रुचि कम कर रहा है। टेलीविज़न अधिक देखना छात्रों की नेत्र ज्योति को भी प्रभावित कर रहा है। हमें चाहिए कि टेलीविज़न के गुणों को ही ध्यान में रखें इसे बीमारी न बनने दें।
30. पर्यावरण प्रदूषण
मानव सभ्यता को आज सबसे बड़ा खतरा पर्यावरण प्रदूषण से है। मनुष्य के आसपास का समस्त वातावरण, उसके प्रयोग में आने वाला समूचा जल भण्डार, उसके साँस लेने के लिए वायु, अन्न पैदा करने वाली धरती और यहाँ तक कि अन्तरिक्ष का सारा विस्तार भी स्वयं मनुष्य द्वारा दुषित कर दिया गया है। मनुष्य अपने आनन्द और उल्लास के लिए प्राकृतिक साधनों का पूर्णतया दोहन कर लेना चाहता है। यही कारण है कि आज पर्यावरण प्रदूषण समस्या विकराल रूप में खड़ी हुई है।
औद्योगीकरण की इस अन्धी दौड़ में संसार का कोई भी राष्ट्र पीछे नहीं रहना चाहता। विलास के साधनों का उत्पादन खूब बढ़ाया जा रहा है। धरती की सारी सम्पदा को उसके गर्भ से उलीच कर बाहर लाया जा रहा है। वह दिन भी आएगा जब हम सृष्टि की सारी प्राकृतिक सम्पदाओं से हाथ धो चुके होंगे। अब स्थिति इतनी गम्भीर हो गई है कि न शुद्ध जल और न वायु। पृथ्वी भी दूषित हो रही है। ध्वनि प्रदूषण लोगों के कान बहरे करने लगा है।
गैसीय वायुमण्डल से गुज़र कर आने वाली वर्षा भी विषैली बन जाती है। धुएँ के बादल उगलने वाली मिलों का रासायनिक कचरा, पानी के द्वारा सीधे तौर पर हमारे शरीर में प्रवेश कर रहा है। इसके अतिरिक्त भारी उद्योगों द्वारा छोड़े गए विषैले तत्व सब्जियों, फलों और अनाजों द्वारा हमारे रक्त में अनेक असाध्य रोग घुल रहे हैं। कागज़ की मिलें, चमड़ा बनाने के कारखाने, शक्कर बनाने के उद्योग, रायायनिक पदार्थ तैयार करने वाले संयन्त्र तथा ऐसे ही अनेक उद्योग प्रतिदिन करोड़ों लीटर दूषित पानी नदियों में बहते रहते हैं और हज़ारों टन हानिकारक गैसें वायुमण्डल में छोड़ते हैं। परिणाम हम देख ही रहे हैं। कैंसर बढ़ रहा है, अनेक प्रकार के हृदय रोग बढ़ रहे हैं, ब्रॉन्काइटस और दमे का रोग वृद्धि पर है, अपचन और अतिसार भी फैल रहा है। कुष्ठ रोग अपने नाना रूपों में प्रकट हो रहा है। इसके अतिरिक्त आज आए दिन नए रोग पैदा हो रहे हैं।
आधुनिक युग में जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई से प्रदूषण की समस्या और भी गम्भीर हो गई है। पेड़-पौधे हमारे बहुत उपयोगी संगी-साथी हैं, क्योंकि ये विषैली गैसों को पचाकर लाभदायक गैस छोड़ते हैं। जंगल हमारे लिए प्रभु का वरदान हैं, परन्तु थोड़े समय के लाभ के लिए हम इस वरदान को अभिशाप में बदल रहे हैं। वृक्ष विष पीकर हमें अमृत देते हैं। ये वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करते हैं और अन्य हानिकारक गैस कणों को भी चूसते हैं। इनकी पत्तियों में पाए जाने वाले रन्ध्र इस कार्य में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज विश्व में व्यापक रूप से पनपने वाल नये-नये उद्योगों ने इन वृक्षों के जीवन को भी खतरे में डाल दिया है।
वृक्ष प्रदूषण की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। वे वायुमण्डल में गैसों के अनुपात को समान रखते हैं। बाढ़, भू-स्खलन, भू-क्षरण, रेगिस्तानों के विस्तार, जल-स्रोतों के सूखने तथा वायु-प्रदूषण के रूप में होने वाली तबाही से भी जीवों की रक्षा करते हैं। इसलिए उनकी रक्षा करना मानव का परम धर्म है।
आज पर्यावरण को प्रदूषण से बचना बहुत ही आवश्यक है। शुद्ध जल, शुद्ध वायु एवं स्वच्छ भोजन तथा शान्त वातावरण मानव-जीवन की सुरक्षा के लिए अनिवार्य तत्व हैं। हमें प्रदूषण की रोकथाम के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए। इस समस्या को समाप्त करके ही हम प्राणिमात्र के दीर्घ जीवन को सुरक्षित रख सकते हैं।
31. मेरी पर्वतीय यात्रा
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। एक स्थान पर रहते-रहते मनुष्य का मन ऊब जाता है। वह इधर-उधर घूम कर अन्य प्रदेशों के रीति-रिवाजों आदि से परिचित होना चाहता है और इस प्रकार अपना ज्ञान बढ़ाता है।
दशहरे की छुट्टियां आने वाली थीं। मेरे मित्र सुरेंद्र ने आकर शिमला चलने की बात कही। माता जी से परामर्श करने के पश्चात् बात पक्की हो गई। अगले दिन प्रात:काल ही हम दोनों मित्र रेलगाड़ी में जा बैठे। मैदान तो मैंने देखे ही थे पर जब पर्वतीय क्षेत्र आया तो मैं देख रहा था कि नदियां कलकल ध्वनि के साथ इठलाती बहुत सुंदर लग रही थीं। रास्ते का दृश्य बड़ा मनोहारी था।
हम प्रसन्न मुद्रा में शिमला पहुंचे। शिमला हिमाचल प्रदेश की राजधानी है। अधिकतर मकान आधुनिक ढंग से बने हुए हैं। शहर के अंदर आधुनिक ढंग के कई होटल तथा सिनेमा गृह हैं जो कि वहां की सुंदरता को चार चांद लगाते हैं।
मुझे स्केटिंग रिंक बहुत सुंदर लगा। सुरेंद्र के पिता जी ने मुझे बताया कि शरद् ऋतु में युवक तथा युवतियां इस ऋतु का आनंद लूटने के लिये यहां पर आते हैं। सुरेंद्र को यह सब सुनने में कोई आनंद नहीं आ रहा था। वह तो राजभवन देखने का इच्छुक था। अतः कुछ समय के पश्चात् हम लोग विशाल भवन के सम्मुख थे। इस दो दिवसीय यात्रा से हमने इस विशाल नगरी का प्रत्येक ऐतिहासिक स्थान देख लिया।
दो दिवसीय यात्रा के पश्चात् हम सब वहां से चल पड़े। मैं और सुरेंद्र तो वहां से चलना नहीं चाहते थे। कारण कि हमें पर्वतीय छटा ने अत्यधिक आकृष्ट कर लिया था। वहां का शांत एवं सुंदर वातावरण मुझे अधिक प्रिय लग रहा था। पर सुरेंद्र के पिता केवल चार दिन का अवकाश लकर ही चले थे। अत: मन को मार कर हम सब वापस लौट पड़े। यह यात्रा सदा स्मरण होगी।
32. आँखों देखी प्रदर्शनी
हमारे देश में हर साल अनेक प्रदर्शनियां आयोजित होती हैं। लाखों लोग इनसे मनोरंजन प्राप्त करते हैं। प्रदर्शनियां देख कर व्यक्ति का ज्ञान भी बढ़ता है। दिल्ली में लगी उद्योग प्रदर्शनी मुझे कभी नहीं भूल सकती। मेरे मन-मस्तिष्क पर इस की छाप आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। इस अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी का विवरण इस प्रकार है
विगत मास दिल्ली में एक अंतर्राष्ट्रीय उद्योग प्रदर्शनी आयोजित की गई थी। यह प्रदर्शनी एक विशाल उद्योग मेला ही था। क्योंकि इसमें विश्व के लगभग साठ विकसित और विकासशील देशों ने भाग लिया था। तीन किलोमीटर की परिधि में फैली इस महान् एवं आकर्षक प्रदर्शनी में प्रत्येक देश ने अपने मंडप सजाए थे, जिनमें अपने देश की औद्योगिक झांकी प्रदर्शित की थी। मुख्य द्वार पर प्रदर्शनी में भाग लेने वाले देशों के झंडे फहरा रहे थे। जिधर भी नज़र उठती दूर तक मंडप ही दिखाई देते। इतनी बड़ी प्रदर्शनी को कुछ समय में देखना असंभव था।
छात्रों को यह प्रदर्शनी दिखाने की विशेष व्यवस्था की गई थी। सब से पहले हमारी टोली भारतीय मंडप में पहुँची। यह मंडप क्या था मानो एक विशाल भारत का लघु रूप था। देश में तैयार होने वाले छोटे-से-छोटे पुर्जे से लेकर युद्ध पोत तक का प्रदर्शन किया गया था। कहीं आधुनिक राडार युक्त तोपें थीं। कहीं नेट-जेट विमान और कहीं टैंक। वहां स्वदेश निर्मित साइकिलों, स्कूटरों, विभिन्न तरह की कारों, बसों का मॉडल देखकर आश्चर्य होने लगा था।
अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, पश्चिमी जर्मनी, जापान आदि विकसित देशों में मंडप देखकर हमारी टोली का प्रत्येक सदस्य चकित रह गया। एक से बढ़िया इलैक्ट्रानिक उपकरण। हर काम मिनटों-सैकिंडों में करने वाली मशीनें मनुष्य की दास बनी प्रतीत हुईं। मिनटों में मैले कपड़े धुल कर प्रैस होकर और तह लगकर आपके सामने लाने वाली धुलाई मशीनें। धड़कते दिल का साफ चित्र लेने वाले श्रेष्ठतम उपकरण चिकित्सा क्षेत्र में एक नई उपलब्धि है।
दिन भर हमारी टोली औद्योगिक प्रदर्शनी का कोना-कोना झांकती रही। इधर से उधर घूमते-घूमते हमारी टांगें जवाब देने लगी थीं, परंतु दिल नहीं भरे थे। आँखें हर नई चीज़ देखने को तरस रही थीं। शाम तक बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ सुना। ज्ञान के नये चूंट पीने को मिले। इसलिये यह अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक प्रदर्शनी सदा याद रहेगी।
33. इंटरनेट-सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में क्रान्ति
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इंटरनेट एक अद्भुत क्रान्ति है जो पूरे विश्व में बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हुई है। यह एक अनूठा माध्यम है जिसमें पुस्तक, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा और प्रिन्ट मीडिया के सभी गुण एक साथ समाहित हैं। इसकी पहुँच विश्वव्यापी है और कुछ ही पलों में दुनिया के किसी भी कोने में अति तीव्र गति से सामग्री को पहुँचा सकने की क्षमता रखता है। इसके द्वारा संसार के किसी भी कोने में छपने वाले पत्र-पत्रिका या अख़बार को पढ़ ही नहीं सकते बल्कि विश्वव्यापी जाल के भीतर जमा करोड़ों पृष्ठों में से अपने लिए उपयोगी सामग्री की खोज कर उसका उपयोग भी कर सकते हैं।
इंटरनेट एक अन्तर क्रियात्मक माध्यम है जो दूर-दूर बैठे लोगों के बीच आमने-सामने बैठे लोगों की तरह बातचीत करा सकता है। इसने शोधकर्ताओं और पढ़ने-लिखने वालों के बीच नई संभावनाएं जगा दी हैं और इस विशाल विश्व को विश्वग्राम बना दिया है। इसने सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रौद्योगिकी के बीच संगम स्थापित कर दिया है। जिसके परिणामस्वरूप यह सारी धरती सिमट गई है। एक समय था जब किसी पत्र को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने के लिए लम्बा समय लग जाता है पर अब इंटरनेट ने दूर-दराज के क्षेत्रों में बैठे लोगों को बौद्धिक रूप से बिल्कुल निकट ला खड़ा कर है। इसी के कारण मानवीय सम्बन्ध नई आशाओं से भर जाते हैं।
इंटरनेट के विशाल तन्त्र की सीमाएँ असीम हैं। इसके लिए कोई बन्धन नहीं है। कोई सरहदें नहीं हैं। यह व्यवस्था लाखों-करोड़ों कम्प्यूटरों का संजाल बनकर सूचनाओं के आदान-प्रदान को सुलभ बना देता है। संसार के किसी भी कोने में बैठा कोई भी व्यक्ति इसके माध्यम से अपने कम्प्यूटर से इंटरनेट जोड़कर सूचनाओं का सम्राट् बनने का अधिकारी बन जाता है। वास्तव में इसके जन्म का आरम्भ 1960 के दशक में तब हुआ था जब अमेरिकी सरकार ने सोवियत संघ के परमाणु आक्रमण से चिंतित होकर एक ऐसी व्यवस्था करनी चाही थी जिससे उसकी शक्ति किसी एक स्थान पर केन्द्रित न रहे। इसी प्रयास से अंतर-नेटिंग परियोजना बनी थी जो इंटरनेट के नाम से आज विश्वभर में अपने पाँव पसार चुकी है। इसकी लोकप्रियता इसकी विभिन्न प्रणालियों और सेवाओं के कारण से है। इसका विश्वव्यापी सम्पर्कों को व्यापकता सरलता से प्रदान करना है और प्रयोग करने वालों को बहुरंगी सेवाएं प्रदान करना है। यह इलेक्ट्रॉनिक डाक की सुविधा देता है जो लोगों में सबसे अधिक प्रचलित है। यह अति तीव्रता से बहुत कम खर्च पर डाक भेजने का साधन है। इंटरनेट से जुड़कर नेटवर्क पर समाचार बुलेटिन प्राप्त हो सकते हैं। यह नेट न्यूज़ उपलब्ध कराता है।
इलेक्ट्रॉनिक वाणिज्य बाज़ार से सम्बन्धित सभी गतिविधियों को संचालित कराता है। इसके माध्यम से उत्पादों के विपणन खरीद-बिक्री का लेखा-जोखा और सेवा को प्राप्त किया जा सकता है। इसके द्वारा व्यापार भौगोलिक सीमाओं को पार करके तेज़ी से बढ़ता है। इंटरनेट फ़ाइलों के बोझ को परे रखने का साधन है। किसी भी कार्यालय की फाइलों के ढेरों और उसके स्टोरों की अब आवश्यकता नहीं रह गई है। इंटरनेट के माध्यम से विश्व के किसी भी देश में छपी हुई पुस्तक या पत्र-पत्रिका पलभर में आप पढ़ सकते हैं। किसी घटना की सचित्र जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। कोई भी फ़िल्म देख सकते हैं। विज्ञान ने तो इंटरनेट के माध्यम से पूरे संसार को आपकी कम्प्यूटर टेबल पर उपस्थित करवा दिया है। कम्प्यूटर टेबल ही क्या-अब तो आप अपने मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट से जुड़कर विश्व के किसी भी कोने से जुड़ सकते हैं। आप यह कह सकते हैं कि अब तो दुनिया की सारी जानकारी आपकी जेब में है जिसे आप जब चाहे इस्तेमाल कर सकते हैं।
इंटरनेट ने जहाँ सुविधाओं के भण्डार हमें सौंप दिए हैं वहाँ इससे कुछ खतरे भी हैं। इसके माध्यम से अश्लील पन्नों को बटोर कर बच्चे गलत राह की ओर मुड़ सकते हैं। इंटरनेट ने केवल जागरुकता ही प्रदान नहीं अपितु कुछ नकारात्मक प्रभाव भी प्रस्तुत किए हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि एक सजग पाठक, दर्शक और श्रोता के रूप में हम अपनी आँखें, कान और दिमाग को खुला रखकर इसका उपयोग करें।
34. मोबाइल फ़ोन-सुख या दुःख का कारण
एक समय था जब टेलीफ़ोन पर किसी दूसरे से बात करने के लिए देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। किसी दूसरे नगर या देश में रहने वालों से बातचीत टेलीफ़ोन एक्सचेंज के माध्यम से कई-कई घण्टों के इन्तजार के बाद संभव हो पाती थी किन्तु अब मोबाइल के माध्यम से कहीं भी कभी भी सैकिंडों में बात की जा सकती है। सेटेलाइट मोबाइल फ़ोन के लिए यह कार्य और भी अधिक आसानी से सम्भव हो जाता है। तुरन्त बात करने और सन्देश पहुँचाने को इससे सुगम उपाय सामान्य लोगों के पास अब तक और कोई नहीं है। विज्ञान के इस अद्भुत करिश्मे की पहुंच इतनी सरल, सस्ती और विश्वसनीय है कि आज यह छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब, बच्चे-बूढ़े सभी के पास दिखाई देता है।
मोबाइल फ़ोन दुनिया को वैज्ञानिकों की ऐसी अद्भुत देन है जिसने समय की बचत कर दी है, धन को बचाया है और दूरियाँ कम कर दी हैं। व्यक्ति हर अवस्था में अपनों से जुड़ा-सा रहता है। कोई भी पल-पल की जानकारी दे सकता है, ले सकता है और इसी कारण यह हर व्यक्ति के लिए उसकी सम्पत्ति-सा बन गया है, जिसे वह सोतेजागते अपने पास ही रखना चाहता है। कार में, बस में, रेलगाड़ी में, पैदल चलते हुए, रसोई में, शौचालय में, बाज़ार में मोबाइल फ़ोन का साथ तो अनिवार्य-सा हो गया है। व्यापारियों और शेयर मार्किट से सम्बन्धित लोगों के लिए तो प्राण वायु ही बन चुका है। दफ्तरों, संस्थाओं और सभी प्रतिष्ठिानों में इसकी रिंग टोन सुनाई देती रहती है।
मोबाइल फ़ोन की उपयोगिता पर तो प्रश्न ही नहीं किया जा सकता। देश-विदेश में किसी से भी बात करने के अतिरिक्त यह लिखित संदेश, शुभकामना संदेश, निमन्त्रण आदि मिनटों में पहुँचा देता है। एसएमएस के द्वारा रंग-बिरंगी तस्वीरों के साथ संदेश पहुँचाए जा सकते हैं। अब तो मोबाइल फ़ोन चलते-फिरते कम्प्यूटर ही बन चुके हैं। जिनके माध्यम से आप अपने टी०वी० के चैनल भी देख-सुन सकते हैं। यह संचार का अच्छा माध्यम तो है ही, साथ ही साथ वीडियो गेम्स का भण्डार भी है। यह टॉर्च, घड़ी, संगणक, संस्मारक, रेडियो आदि की विशेषताओं से युक्त है। इससे उच्च कोटि की फोटोग्राफ़ी की जा सकती है। वीडियोग्राफ़ी का काम भी इससे लिया जा सकता है। इससे आवाज़ रिकॉर्ड की जा सकती है और उसे कहीं भी, कभी भी सुनाया जा सकता है। एक तरह से यह छोटा-सा उपकरण अलादीन का चिराग ही तो है।
मोबाइल फ़ोन केवल सुखों का आधार ही नहीं है बल्कि कई तरह की असुविधाओं और मुसीबतों का कारण भी है। बार-बार बजने वाली इसकी घंटी परेशानी का बड़ा कारण बनती है। जब व्यक्ति गहरी नींद में डूबा हो तो इसकी घंटी कर्कश प्रतीत होती है। मन में खीझ-सी उत्पन्न होती है। अनचाही गुमनाम कॉल आने से असुविधा का होना स्वाभाविक ही है। मोबाइल फ़ोन से जहाँ रिश्तों में प्रगाढ़ता बढ़ी है वहाँ इससे छात्रछात्राओं की दिशा में भटकाव भी आया है।
फ़ोन-मित्रों की संख्या बढ़ी है जिससे उनका वह समय जो पढ़ने-लिखने में लगना चाहिए था वह गप्पें लगाने में बीत जाता है। इससे धन भी व्यर्थ खर्च होता है। अधिकांश युवा वाहन चलाते समय भी मोबाइल फ़ोन से चिपके ही रहते हैं और ध्यान बँट जाने के कारण बहुत बार दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। मोबाइल फ़ोन अपराधी तत्वों के लिए सहायक बनकर बड़े-बड़े अपराधों के संचालन में सहायक बना हुआ है। जेल में बंद अपराधी भी चोरी-छिपे इसके माध्यम से अपने साथियों की दिशा-निर्देश देकर अपराध, फिरौती और अपहरण का कारण बनते हैं।
मोबाइल फ़ोन अदृश्य तरंगों से ध्वनि संकेतों का प्रेषण करते हैं जो मानव-समाज के लिए ही नहीं अपितु अन्य जीव-जन्तुओं के लिए भी हानिकारक होती हैं। ये मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। कानों पर बुरा प्रभाव डालती हैं और दृश्य के तारतम्य को बिगाड़ती हैं। यही कारण है कि चिकित्सकों द्वारा पेसमेकर प्रयोग करने वाले रोगियों को मोबाइल फ़ोन प्रयोग न करने का परामर्श दिया जाता है।
वैज्ञानिकों ने प्रमाणित कर दिया है कि भविष्य में नगरों में रहने वाली चिड़ियों की अनेक प्रजातियाँ अदृश्य तरंगों के प्रभाव से वहाँ नहीं रह पाएँगी। वे वहाँ से कहीं दूर चली जाएँगी या मर जाएँगी। जिससे खाद्य श्रृंखला भी प्रभावित होगी। प्रत्येक सुख के साथ दु:ख किसी-न-किसी प्रकार से जुड़ा रहता है। मोबाइल फ़ोन के द्वारा दिए गए सुखों और सुविधाओं के साथ कष्ट भी जुड़े हुए हैं।