PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

राजनीतिक दशा (Political Condition)

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी के जन्म समय ( 16वीं शताब्दी के आरंभ में) पंजाब की राजनीतिक दशा का वर्णन करो।
(Describe the political condition of Punjab at the time (In the beginning of the 16th century) of Guru Nanak Dev Ji’s birth.)
अथवा
बाबर के पंजाब पर किए गए आक्रमणों की संक्षिप्त जानकारी देते हुए उसकी सफलता के कारण बताएँ।
(While describing briefly the invasions of Babur over Punjab, explain the causes of his success.)
अथवा
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक अवस्था का वर्णन करें।
(Describe the political condition of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत दयनीय थी। पंजाब षड्यंत्रों का अखाड़ा बना हुआ था। उस समय पंजाब दिल्ली सल्तनत के अधीन था। इस पर लोधी वंश के सुल्तानों का शासन था। 16वीं शताब्दी के आरंभ में राजनीतिक दशा का शाब्दिक चित्रण निम्नलिखित अनुसार है—
लोधियों के अधीन पंजाब (The Punjab under the Lodhis)

1. ततार खाँ लोधी (Tatar Khan Lodhi)-1469 ई० में दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोधी ने ततार खाँ लोधी को पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह इस पद पर 1485 ई० तक रहा। उसने बहुत कठोरता पूर्वक पंजाब पर शासन किया। 1485 ई० में ततार खाँ लोधी ने सुल्तान बहलोल लोधी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सुल्तान ने अपने शहज़ादे निज़ाम खाँ को ततार खाँ के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। ततार खाँ निज़ाम खाँ से लड़ता हुआ मारा गया।

2. दौलत खाँ लोधी (Daulat Khan Lodhi)-दौलत खाँ लोधी ततार खाँ लोधी का पुत्र था। उसे 1500 ई० में नए सुल्तान सिकंदर लोधी ने पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह सिकंदर लोधी के शासनकाल में तो पूर्ण रूप से वफ़ादार रहा परंतु सुल्तान इब्राहीम के शासनकाल में वह स्वतंत्र होने के स्वप्न देखने लगा। इस संबंध में उसने, आलम खाँ लोधी जो कि इब्राहीम का सौतेला भाई था, के साथ मिलकर षड्यंत्र करने आरंभ कर दिए थे। जब इन षड्यंत्रों के संबंध में इब्राहीम लोधी को ज्ञात हुआ, तो उसने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को बंदी बना लिया। शीघ्र ही दिलावर खाँ पुनः पंजाब पहुँचने में सफल हो गया। यहाँ पहुँचकर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उसके साथ किए गए दुर्व्यवहार के संबंध में बताया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

3. प्रजा की दशा (Condition of Subject)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी। शासक वर्ग का प्रजा की ओर ध्यान ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। हिंदुओं पर अत्याचार बहुत बढ़ गए थे। उन्हें तलवार की नोक पर बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल किया जाता था। संक्षिप्त में उस समय चारों ओर अत्याचार, छल-कपट और भ्रष्टाचार फैला हुआ था। गुरु नानक देव जी ने वार माझ में इस प्रकार लिखा है—

काल काति राजे कसाई धर्म पंख कर उडरिया॥
कूड़ अमावस सच्च चंद्रमा दीसै नाहि कह चढ़िया॥

बाबर के आक्रमण
(Invasions of Babur)
1519 ई० से 1526 ई० के मध्य पंजाब को अपने अधिकार में लेने के लिए एक त्रिकोणीय संघर्ष आरंभ हो गया। यह संघर्ष इब्राहीम लोधी, दौलत खाँ लोधी तथा बाबर के बीच आरंभ हुआ। इस संघर्ष में अंततः बाबर विजयी हुआ। बाबर का जन्म मध्य एशिया में स्थित फरगना की राजधानी, अंदीजान में 14 फरवरी, 1483 ई० को हुआ था। वह तैमूर वंश से संबंध रखता था। बाबर ने भारत पर अपने साम्राज्य के विस्तार, भारतीय धन लूटने तथा भारत में इस्लाम के प्रसार के उद्देश्य से आक्रमण किए।

1. बाबर के प्रथम दो आक्रमण (First Two Invasions of Babur)—बाबर ने 1519 ई० में पंजाब पर दो बार आक्रमण किए। क्योंकि ये आक्रमण पंजाब के सीमावर्ती इलाकों पर किए गए थे। इसलिए इनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

2. बाबर का तीसरा आक्रमण 1520 ई० (Third Invasion of Babur 1520 A.D.)-बाबर ने 1520 ई० में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण किया। बाबर ने बहुसंख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी और उन्हें बेरहमी से लूटा। हज़ारों लोगों को बंदी बना लिया गया। गुरु नानक देव जी जो इस समय सैदपुर में ही थे, ने बाबर के इस आक्रमण की तुलना पाप की बारात के साथ की है। उन्होंने बाबर के अत्याचारों का वर्णन ‘बाबर वाणी’ में इस प्रकार किया है
खुरासान खसमाना किया, हिंदुस्तान डराया॥
आपे दोस न देई कर्ता, जम करि मुगल चढ़ाया।
ऐती मार पई करलाणै, तैं की दर्द न आया॥
बाबर की सेनाओं ने गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया था। तत्पश्चात् जब बाबर को यह ज्ञात हुआ कि उसकी सेनाओं ने किसी संत-महापुरुष को बंदी बनाया है, तो उसने शीघ्र उनकी रिहाई का आदेश दिया।

3. बाबर का चौथा आक्रमण 1524 ई० (Fourth Invasion of Babur 1524 A.D.)—पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी के निमंत्रण पर बाबर ने 1524 ई० में पंजाब पर चौथा आक्रमण किया। वह बिना किसी विशेष विरोध के लाहौर तक पहुँच गया था। लाहौर के पश्चात् उसने दौलत खाँ लोधी के सहयोग से दीपालपुर पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् बाबर ने समस्त जालंधर दोआब को अपने अधिकार में ले लिया। बाबर ने जालंधर दोआब तथा सुल्तानपुर के प्रदेशों का शासन दौलत खाँ को सौंपा। क्योंकि यह दौलत खाँ की उम्मीदों से बहुत कम था, इसलिए उसने बाबर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। बाबर ने उसे पराजित कर दिया तो वह शिवालिक की पहाड़ियों की ओर भाग गया। बाबर के काबुल लौटने के पश्चात् शीघ्र ही दौलत खाँ ने पुनः पंजाब पर अधिकार कर लिया।

4. बाबर का पाँचवाँ आक्रमण 1525-26 (Fifth Invasion of Babur 1525-26 A.D.)-बाबर ने दौलत खाँ को पाठ पढ़ाने के लिए नवंबर 1525 ई० में भारत पर पाँचवीं बार आक्रमण किया। बाबर के आगमन का समाचार पाकर दौलत खाँ ज़िला होशियारपुर में स्थित मलोट के दुर्ग में जाकर छुप गया। बाबर ने दुर्ग को घेरे में ले लिया। दौलत खाँ ने कुछ सामना करने के पश्चात् अपने शस्त्र फैंक दिए। इस प्रकार बाबर ने एक बार फिर समूचे पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया। पंजाब की विजय से प्रोत्साहित होकर बाबर ने अपनी सेनाओं को दिल्ली की ओर बढ़ने का आदेश दिया। जब इब्राहीम लोधी को इस संबंध में समाचार मिला तो वह बाबर का सामना करने के लिए पंजाब की ओर चल पड़ा। 21 अप्रैल, 1526 ई० को दोनों सेनाओं के मध्य पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम लोधी पराजित हुआ। इस प्रकार भारत में लोधी वंश का अंत हो गया और मुग़ल वंश की स्थापना हुई।

5. बाबर की विजय के कारण (Causes of Babur’s Success)—बाबर की विजय के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। प्रथम, इब्राहीम लोधी अपनी प्रजा में बहुत बदनाम था। इस कारण प्रजा ने सुल्तान का साथ न दिया। द्वितीय, उसकी सेना बड़ी निर्बल थी तथा अधिकतर लूट-मार ही करती थी। तृतीय, बाबर एक योग्य सेनापति था। उसकी सेना को कई लड़ाइयों का अनुभव था। चतुर्थ, बाबर के पास तोपखाना था और इब्राहीम के सैनिक तीर कमानों तथा तलवारों के साथ उसका मुकाबला न कर सके। इन कारणों से अफगानों की पराजय हुई तथा बाबर विजयी रहा।

सामाजिक दशा
(Social Condition)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 2.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज की मुख्य विशेषताएँ बयान करो।।
(Discuss the main features of the society of Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में सामाजिक अवस्था का वर्णन करें। (Discuss the social condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। दूसरी ओर हिंदू अधिक जनसंख्या में थे परंतु उन्हें लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती समझा जाता था। डॉक्टर जसबीर सिंह आहलुवालिया के अनुसार,
“जिस समय गुरु नानक जी ने अवतार धारण किया तो उस समय से पूर्व ही भारतीय समाज जड़ एवं पतित हो चुका था।”1
1. “When Guru Nanak appeared on the horizon, the Indian society had already become static and decadent.” Dr. Jasbir Singh Ahluwalia, Creation of Khalsa : Fulfilment of Guru Nanak’s Mission (Patiala : 1999) p. 19.

मुस्लिम समाज की विशेषताएँ (Features of the Muslim Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. समाज तीन वर्गों में विभाजित था (Society was divided into Three Classes)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में विभाजित था।

  • उच्च वर्ग (The Upper Class)-इस वर्ग में अमीर, खान, शेख़, मलिक, इकतादार, उलमा और काजी इत्यादि शामिल थे। इस वर्ग के लोग बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बहुत भव्य महलों में निवास करते थे। उच्च श्रेणी के लोगों की सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर होते थे।
  • मध्य वर्ग (The Middle Class)-इस श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, कृषक, विद्वान्, लेखक और राज्य के छोटे कर्मचारी शामिल थे। उनके जीवन तथा उच्च वर्ग के लोगों के जीवन-स्तर में बहुत अंतर था। किंतु हिंदुओं की तुलना में वे बहुत अच्छा जीवन बिताते थे।
  • निम्न वर्ग (The Lower Class)—इस वर्ग में दास-दासियाँ, नौकर और श्रमिक शामिल थे। इनकी संख्या बहुत अधिक थी। उनका जीवन अच्छा नहीं था। उनके स्वामी उन पर बहुत अत्याचार करते थे।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। वे बहुत कम शिक्षित होती थीं। बहु-विवाह और तलाक प्रथा ने उनकी दशा और दयनीय बना दी थी।

3. भोजन (Diet)-उच्च वर्ग के मुसलमान कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। वे माँस, हलवा, पडी और मक्खन इत्यादि का बहुत प्रयोग करते थे। उनमें मदिरापान की प्रथा सामान्य हो गई थी। मदिरा के अतिरिक्त वे अफीम और भाँग का भी प्रयोग करते थे। निम्न वर्ग से संबंधित लोगों का भोजन साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-उच्च वर्ग के मुसलमानों के वस्त्र बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल से निर्मित थे। निम्न वर्ग के लोग सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुषों में कुर्ता और पायजामा पहनने की, जबकि स्त्रियों में लंबा बुर्का पहनने की प्रथा थी।

5. शिक्षा (Education)-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी, जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे।

6. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे।

हिंदू समाज की विशेषताएँ (Features of the Hindu Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. जाति प्रथा (Caste System)-हिंदू समाज कई जातियों व उप-जातियों में विभाजित था। समाज में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। मुस्लिम शासन की स्थापना कारण ब्राह्मणों के प्रभाव में बहुत कमी आ गयी थी। इसा कारण अर्थात् मुस्लिम शासन के कारण ही क्षत्रियों ने नए व्यवसाय जैसे दुकानदारी, कृषि इत्यादि अपना लिए थे। वैश्य व्यापार और कृषि का ही व्यवसाय करते थे। शूद्रों के साथ इस काल में दुर्व्यवहार किया जाता था। इन जातियों के अतिरिक्त समाज में बहुत-सी अन्य जातियाँ एवं उप-जातियाँ प्रचलित थीं। ये जातियाँ परस्पर बहुत घृणा करती थीं।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों के समान नहीं था। लड़कियों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उनका अल्पायु में ही विवाह कर दिया जाता था। इस काल में सती प्रथा बहुत ज़ोरों पर थी। विधवा को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी।

3. खान-पान (Diet)-हिंदुओं का भोजन साधारण होता था। अधिकाँश हिंदू शाकाहारी होते थे। उनका भोजन गेहूँ, चावल, सब्जियाँ, घी और दूध इत्यादि से तैयार किया जाता था। वे माँस, लहसुन और प्याज का प्रयोग नहीं करते थे। ग़रीब लोगों का भोजन बहुत साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-हिंदुओं का पहनावा बहुत साधारण होता था। वे प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुष धोती और कुर्ता पहनते थे। वे सिर पर पगड़ी भी बाँधते थे। स्त्रियाँ साड़ी, चोली और लहंगा पहनती थीं। निर्धन लोग चादर से ही अपना शरीर ढाँप लेते थे।

5. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-हिंदू नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लडाइयाँ और मल्लयद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इनके अतिरिक्त हिंदू अपने त्यौहारों दशहरा, दीवाली, होली आदि में भी भाग लेते थे।

6. शिक्षा (Education)-हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था।

उपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि 16वीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम और हिंदू समाज में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। समाज में झूठ, धोखा, छल और कपट इत्यादि का बोलबाला था। लोगों के चरित्र का पतन हो चुका था। उनमें मानवता नाम की कोई चीज़ नहीं रही थी। डॉक्टर ए० सी० बैनर्जी का यह कहना बिल्कुल सही है,
“यह अनिश्चितता तथा हलचल का लंबा अंधकारमय काल था जिसने लोगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपने भद्दे दाग छोड़े।”2
2. “It was a long, dark age of uncertainty and restlessness, leaving its ugly scars on all aspects of people’s life.” Dr. A.C. Banerjee, Guru Nanak and His Times (Patiala : 1984) p. 19.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी के जन्म समय पंजाब की राजनीतिक तथा सामाजिक दशा का वर्णन करें।
(Explain the political and social conditions of Punjab at the birth of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक तथा सामाजिक दशा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the political and social conditions of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत दयनीय थी। पंजाब षड्यंत्रों का अखाड़ा बना हुआ था। उस समय पंजाब दिल्ली सल्तनत के अधीन था। इस पर लोधी वंश के सुल्तानों का शासन था। 16वीं शताब्दी के आरंभ में राजनीतिक दशा का शाब्दिक चित्रण निम्नलिखित अनुसार है—
लोधियों के अधीन पंजाब (The Punjab under the Lodhis)

1. ततार खाँ लोधी (Tatar Khan Lodhi)-1469 ई० में दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोधी ने ततार खाँ लोधी को पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह इस पद पर 1485 ई० तक रहा। उसने बहुत कठोरता पूर्वक पंजाब पर शासन किया। 1485 ई० में ततार खाँ लोधी ने सुल्तान बहलोल लोधी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सुल्तान ने अपने शहज़ादे निज़ाम खाँ को ततार खाँ के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। ततार खाँ निज़ाम खाँ से लड़ता हुआ मारा गया।

2. दौलत खाँ लोधी (Daulat Khan Lodhi)-दौलत खाँ लोधी ततार खाँ लोधी का पुत्र था। उसे 1500 ई० में नए सुल्तान सिकंदर लोधी ने पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह सिकंदर लोधी के शासनकाल में तो पूर्ण रूप से वफ़ादार रहा परंतु सुल्तान इब्राहीम के शासनकाल में वह स्वतंत्र होने के स्वप्न देखने लगा। इस संबंध में उसने, आलम खाँ लोधी जो कि इब्राहीम का सौतेला भाई था, के साथ मिलकर षड्यंत्र करने आरंभ कर दिए थे। जब इन षड्यंत्रों के संबंध में इब्राहीम लोधी को ज्ञात हुआ, तो उसने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को बंदी बना लिया। शीघ्र ही दिलावर खाँ पुनः पंजाब पहुँचने में सफल हो गया। यहाँ पहुँचकर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उसके साथ किए गए दुर्व्यवहार के संबंध में बताया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

3. प्रजा की दशा (Condition of Subject)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी। शासक वर्ग का प्रजा की ओर ध्यान ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। हिंदुओं पर अत्याचार बहुत बढ़ गए थे। उन्हें तलवार की नोक पर बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल किया जाता था। संक्षिप्त में उस समय चारों ओर अत्याचार, छल-कपट और भ्रष्टाचार फैला हुआ था। गुरु नानक देव जी ने वार माझ में इस प्रकार लिखा है—

काल काति राजे कसाई धर्म पंख कर उडरिया॥
कूड़ अमावस सच्च चंद्रमा दीसै नाहि कह चढ़िया॥

आर्थिक दशा
(Economic Condition)

प्रश्न 4.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की कृषि, व्यापार तथा उद्योगों के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about agriculture, trade and industries of the Punjab in the beginning of the sixteenth century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की आर्थिक दशा की मुख्य विशेषताएँ बयान करो।
(Describe the main features of the economic condition of Punjab in the beginning of the sixteenth century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी थी। उपजाऊ भूमि, विकसित व्यापार तथा लोगों के परिश्रम ने पंजाब को एक समृद्ध प्रदेश बना दिया। 16वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों के आर्थिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. कृषि (Agriculture)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। पंजाब की भूमि बहुत उपजाऊ थी। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे किंतु नहरों, तालाबों और कुओं का प्रयोग भी किया जाता था। यहाँ पर फसलों की भरपूर पैदावार होती थी। यहाँ की मुख्य फसलें गेहूँ, कपास, जौ, मकई, चावल और गन्ना थीं। फसलों की भरपूर उपज होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

2. उद्योग (Industries)-कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। यहाँ सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। समाना, सुनाम, सरहिंद, दीपालपुर, जालंधर, लाहौर और मुलतान इस उद्योग के प्रसिद्ध केंद्र थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के लिए उद्योग भी प्रचलित थे।

3. पशु पालन (Animal Rearing)-पंजाब के कुछ लोग पशु पालन का व्यवसाय करते थे। पंजाब में पालतू रखे जाने वाले मुख्य पशु गाय, बैल, भैंसे, घोड़े, खच्चर, ऊँट, भेड़ें और बकरियाँ इत्यादि थे। इन पशुओं से दूध, ऊन और भार ढोने का काम लिया जाता था।

4. व्यापार (Trade) पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। व्यापार का कार्यकछ विशेष श्रेणियों के हाथ में होता था। हिंदुओं की क्षत्रिय, महाजन, बनिया, सूद और अरोड़ा नामक जातियाँ तथा मुसलमानों में बोहरा और खोजा नामक जातियाँ व्यापार का कार्य करती थीं। माल के परिवहन का कार्य बनजारे करते थे। पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब घोड़े, फर, कस्तूरी और मेवे आयात करता था।

5. व्यापारिक नगर (Commercial Towns)-16वीं शताब्दी के आरंभ में लाहौर और मुलतान पंजाब के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे। इनके अतिरिक्त पेशावर, जालंधर, लुधियाना, फिरोज़पुर, सुल्तानपुर, सरहिंद, स्यालकोट, कुल्लू, चंबा और काँगड़ा भी व्यापारिक दृष्टि से पंजाब के प्रसिद्ध नगर थे।

6. जीवन स्तर (Standard of Living)-उस समय पंजाब के लोगों के जीवन स्तर में बहुत अंतर था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था, किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था, परंतु हिंदू अपना निर्वाह बहुत मुश्किल से करते थे। समाज में निर्धनों और कृषकों का जीवन-स्तर निम्न था। वे प्रायः साहूकारों के ऋणी रहते थे।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 5.
सोलहवीं शताब्दी में पंजाब के लोगों की सामाजिक व आर्थिक दशा कैसी थी ?
(What were the social and economic condition of people of Punjab in 16th century ?)
अथवा
सोलहवीं सदी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक और आर्थिक हालत का वर्णन करें।
(What were the social and economic condition of Punjab in the beginning of 16th century ? Discuss it.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। दूसरी ओर हिंदू अधिक जनसंख्या में थे परंतु उन्हें लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती समझा जाता था। डॉक्टर जसबीर सिंह आहलुवालिया के अनुसार,
“जिस समय गुरु नानक जी ने अवतार धारण किया तो उस समय से पूर्व ही भारतीय समाज जड़ एवं पतित हो चुका था।”1
1. “When Guru Nanak appeared on the horizon, the Indian society had already become static and decadent.” Dr. Jasbir Singh Ahluwalia, Creation of Khalsa : Fulfilment of Guru Nanak’s Mission (Patiala : 1999) p. 19.

मुस्लिम समाज की विशेषताएँ (Features of the Muslim Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. समाज तीन वर्गों में विभाजित था (Society was divided into Three Classes)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में विभाजित था।

  • उच्च वर्ग (The Upper Class)-इस वर्ग में अमीर, खान, शेख़, मलिक, इकतादार, उलमा और काजी इत्यादि शामिल थे। इस वर्ग के लोग बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बहुत भव्य महलों में निवास करते थे। उच्च श्रेणी के लोगों की सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर होते थे।
  • मध्य वर्ग (The Middle Class)-इस श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, कृषक, विद्वान्, लेखक और राज्य के छोटे कर्मचारी शामिल थे। उनके जीवन तथा उच्च वर्ग के लोगों के जीवन-स्तर में बहुत अंतर था। किंतु हिंदुओं की तुलना में वे बहुत अच्छा जीवन बिताते थे।
  • निम्न वर्ग (The Lower Class)—इस वर्ग में दास-दासियाँ, नौकर और श्रमिक शामिल थे। इनकी संख्या बहुत अधिक थी। उनका जीवन अच्छा नहीं था। उनके स्वामी उन पर बहुत अत्याचार करते थे।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। वे बहुत कम शिक्षित होती थीं। बहु-विवाह और तलाक प्रथा ने उनकी दशा और दयनीय बना दी थी।

3. भोजन (Diet)-उच्च वर्ग के मुसलमान कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। वे माँस, हलवा, पडी और मक्खन इत्यादि का बहुत प्रयोग करते थे। उनमें मदिरापान की प्रथा सामान्य हो गई थी। मदिरा के अतिरिक्त वे अफीम और भाँग का भी प्रयोग करते थे। निम्न वर्ग से संबंधित लोगों का भोजन साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-उच्च वर्ग के मुसलमानों के वस्त्र बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल से निर्मित थे। निम्न वर्ग के लोग सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुषों में कुर्ता और पायजामा पहनने की, जबकि स्त्रियों में लंबा बुर्का पहनने की प्रथा थी।

5. शिक्षा (Education)-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी, जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे।

6. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे।

हिंदू समाज की विशेषताएँ (Features of the Hindu Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. जाति प्रथा (Caste System)-हिंदू समाज कई जातियों व उप-जातियों में विभाजित था। समाज में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। मुस्लिम शासन की स्थापना कारण ब्राह्मणों के प्रभाव में बहुत कमी आ गयी थी। इसा कारण अर्थात् मुस्लिम शासन के कारण ही क्षत्रियों ने नए व्यवसाय जैसे दुकानदारी, कृषि इत्यादि अपना लिए थे। वैश्य व्यापार और कृषि का ही व्यवसाय करते थे। शूद्रों के साथ इस काल में दुर्व्यवहार किया जाता था। इन जातियों के अतिरिक्त समाज में बहुत-सी अन्य जातियाँ एवं उप-जातियाँ प्रचलित थीं। ये जातियाँ परस्पर बहुत घृणा करती थीं।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों के समान नहीं था। लड़कियों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उनका अल्पायु में ही विवाह कर दिया जाता था। इस काल में सती प्रथा बहुत ज़ोरों पर थी। विधवा को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी।

3. खान-पान (Diet)-हिंदुओं का भोजन साधारण होता था। अधिकाँश हिंदू शाकाहारी होते थे। उनका भोजन गेहूँ, चावल, सब्जियाँ, घी और दूध इत्यादि से तैयार किया जाता था। वे माँस, लहसुन और प्याज का प्रयोग नहीं करते थे। ग़रीब लोगों का भोजन बहुत साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-हिंदुओं का पहनावा बहुत साधारण होता था। वे प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुष धोती और कुर्ता पहनते थे। वे सिर पर पगड़ी भी बाँधते थे। स्त्रियाँ साड़ी, चोली और लहंगा पहनती थीं। निर्धन लोग चादर से ही अपना शरीर ढाँप लेते थे।

4. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-हिंदू नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लडाइयाँ और मल्लयद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इनके अतिरिक्त हिंदू अपने त्यौहारों दशहरा, दीवाली, होली आदि में भी भाग लेते थे।

5. शिक्षा (Education)-हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था।

उपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि 16वीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम और हिंदू समाज में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। समाज में झूठ, धोखा, छल और कपट इत्यादि का बोलबाला था। लोगों के चरित्र का पतन हो चुका था। उनमें मानवता नाम की कोई चीज़ नहीं रही थी। डॉक्टर ए० सी० बैनर्जी का यह कहना बिल्कुल सही है,
“यह अनिश्चितता तथा हलचल का लंबा अंधकारमय काल था जिसने लोगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपने भद्दे दाग छोड़े।”2
2. “It was a long, dark age of uncertainty and restlessness, leaving its ugly scars on all aspects of people’s life.” Dr. A.C. Banerjee, Guru Nanak and His Times (Patiala : 1984) p. 19.

धार्मिक अवस्था (Religious Condition)

प्रश्न 6.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों की धार्मिक अवस्था का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the religious condition of the people of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में दो मुख्य धर्म हिंदू धर्म तथा इस्लाम प्रचलित थे। ये दोनों धर्म आगे कई संप्रदायों में विभाजित थे। इनके अतिरिक्त पंजाब में बौद्ध मत तथा जैन मत भी प्रचलित थे। इन धर्मों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. हिंदू धर्म (Hinduism)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का सबसे प्रमुख धर्म हिंदू धर्म था। हिंदू धर्म वेदों में विश्वास रखता था। 16वीं शताब्दी में पंजाब के लोगों में रामायण तथा महाभारत बहुत लोकप्रिय थे। इस काल के समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व था। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कार ब्राह्मणों के बिना अधूरे समझे जाते थे। इस काल में ब्राह्मणों का चरित्र बहुत गिर चुका था। वे अपने स्वार्थों के लिए लोगों को लूटने के उद्देश्य से धर्म की गलत व्याख्या करते थे। वे भोली-भाली जनता को लूटकर बहुत खुशी अनुभव करते थे। उस समय पंजाब में हिंदू धर्म की निम्नलिखित संप्रदाएँ प्रचलित थीं

i) शैव मत (Shaivism)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में शैव मत बहुत लोकप्रिय था। इस मत के लोग शिव के अधिकतर पुजारी थे। उन्होंने स्थान-स्थान पर शिवालय स्थापित किए थे जहाँ शैव मत की शिक्षा दी जाती थी। शैव मत को मानने वाले जोगी कहलाते थे। जोगियों की मुख्य शाखा को नाथपंथी कहा जाता था। इसकी स्थापना गोरखनाथ ने की थी। क्योंकि जोगी कान में छेद करवा कर बड़े-बड़े कुंडल डालते थे इसलिए उन्हें कानफटे जोगी भी कहा जाता था। पंजाब में जोगियों का प्रमुख केंद्र जेहलम में गोरखनाथ का टिल्ला था। जोगियों ने ब्राह्मणों की रस्मों तथा जाति प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया।

ii) वैष्णव मत (Vaishnavism)-वैष्णव मत भी पंजाब में काफ़ी लोकप्रिय था। इस मत के लोग विष्णु तथा उसके अवतारों की पूजा करते थे। इस काल में श्री राम तथा श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार मान कर उनकी पूजा की जाती थी। इनकी स्मृति में पंजाब में अनेक स्थानों पर विशाल तथा सुंदर मंदिरों का निर्माण किया गया। इस मत के अनुयायी मदिरा तथा माँस आदि का प्रयोग नहीं करते थे।

iii) शक्ति मत (Shaktism)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों में शक्ति मत भी प्रचलित था। इस मत को मानने वाले लोग दुर्गा, काली तथा अन्य देवियों की पूजा करते थे। वे इन देवियों को शक्ति का प्रतीक समझते थे। इन देवियों को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। इन देवियों की स्मृति में अनेक मंदिरों का निर्माण किया गया। इनमें से ज्वालामुखी, चिंतपुरणी, चामुण्डा देवी तथा नैना देवी के मंदिर बहुत प्रसिद्ध थे।

2. इस्लाम (Islam)-इस्लाम की स्थापना हज़रत मुहम्मद साहिब ने 7वीं शताब्दी में मक्का में की थी। उन्होंने समाज में प्रचलित सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों का खंडन किया। उन्होंने एक ईश्वर तथा आपसी भ्रातृत्व का संदेश दिया। 16वीं शताब्दी के आरंभ में इस्लाम धर्म का प्रचार बड़ी तीव्र गति से हो रहा था। इसके दो प्रमुख कारण थे। प्रथम, भारत पर शासन करने वाले सभी सुल्तान मुसलमान थे। दूसरा, उन्होंने तलवार की नोक पर लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बनाया। इस्लाम के अनुयायी सुन्नी तथा शिया नामक दो संप्रदायों में बंटे हुए थे। सुन्नी मुसलमानों की संख्या अधिक थी तथा वे कट्टर विचारों के थे। मुसलमानों के धार्मिक नेताओं को उलमा कहा जाता था। वे इस्लामी कानूनों की व्याख्या करते थे तथा लोगों को पवित्र जीवन बिताने की प्रेरणा देते थे। वे अन्य धर्मों को घृणा की दृष्टि से देखते थे।

3. सूफ़ी मत (Sufism)-सूफी मत इस्लाम से संबंधित एक संप्रदाय था। यह मत पंजाब में बहुत लोकप्रिय हुआ। यह मत 12 सिलसिलों में बँटा हुआ था। इनमें से चिश्ती तथा सुहरावर्दी सिलसिले पंजाब में बहुत प्रसिद्ध थे। पंजाब में थानेश्वर, हाँसी, नारनौल तथा पानीपत सूफ़ियों के प्रसिद्ध केंद्र थे। इस मत के लोग केवल एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। वे मनुष्य की सेवा करना अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझते थे। वे संगीत में विश्वास रखते थे। सूफ़ियों ने हिंदुओं तथा मुसलमानों में आपसी मेलजोल रखने, सुल्तानों को कट्टर नीति का त्याग करने के लिए प्रेरित करने, साहित्य तथा संगीत की उन्नति के लिए प्रशंसनीय योगदान दिया।

4. जैन मत (Jainism)-जैन मत पंजाब के व्यापारी वर्ग में प्रचलित था। इस मत के लोग 24 तीर्थंकरों, त्रिरत्नों, अहिंसा, कर्म सिद्धांत तथा निर्वाण में विश्वास रखते थे। वे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे।

5. बौद्ध मत (Buddhism)-16वीं शताब्दी में पंजाब में बौद्ध मत को हिंदू धर्म का एक भाग माना जाता था। महात्मा बुद्ध को विष्णु का ही एक अवतार मानते थे। पंजाब के बहुत कम लोग इस मत में शामिल थे।

गुरु नानक देव जी ने अपनी रचनाओं में अनेक स्थानों पर 16वीं शताब्दी के लोगों की धार्मिक अवस्था का वर्णन किया है। उनके अनुसार हिंदू तथा मुसलमान दोनों धर्म बाह्याडंबरों जैसे शरीर पर भस्म मलना, माथे पर तिलक लगाना, कानों में कुंडल डालना, नदी में स्नान करना, रोजे रखना तथा कब्रों आदि की पूजा पर बहुत ज़ोर देते थे। धर्म की वास्तविकता को लोग पूरी तरह से भूल चुके थे। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“संक्षेप में गुरु साहिब के आगमन के समय भारत के दोनों धर्म-हिंदू धर्म तथा इस्लाम-भ्रष्टाचारी तथा पतित हो चुके थे। वे अपनी पवित्रता तथा गौरव को गंवा चुके थे।”3
3. “In short, at the time of Guru Nanak’s advent both the religions in India, Hinduism and Islam, had become corrupt and degraded. They had lost their pristine purity and glory.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1993) p.12.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 7.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक तथा धार्मिक अवस्था का वर्णन करें।
(Describe the social and religious condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। दूसरी ओर हिंदू अधिक जनसंख्या में थे परंतु उन्हें लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती समझा जाता था। डॉक्टर जसबीर सिंह आहलुवालिया के अनुसार,
“जिस समय गुरु नानक जी ने अवतार धारण किया तो उस समय से पूर्व ही भारतीय समाज जड़ एवं पतित हो चुका था।”1
1. “When Guru Nanak appeared on the horizon, the Indian society had already become static and decadent.” Dr. Jasbir Singh Ahluwalia, Creation of Khalsa : Fulfilment of Guru Nanak’s Mission (Patiala : 1999) p. 19.

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा कैसी थी ?
(What was the political condition of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक अवस्था ब्यान करें।
(Explain the political condition of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बड़ी खराब थी। लोधी सुल्तानों की ग़लत नीतियों के परिणामस्वरूप यहाँ अराजकता फैली हुई थी। शासक वर्ग भोग-विलास में डूबा रहता था। सरकारी कर्मचारी, काज़ी तथा उलमा भ्रष्ट एवं रिश्वतखोर हो गए थे। मुसलमान हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। उन्हें बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाता था। राज्य की शासन-व्यवस्था भंग होकर रह गई थी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी ने बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

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प्रश्न 2.
“16वीं सदी के आरंभ में पंजाब त्रिकोणी संघर्ष का अखाड़ा था।” व्याख्या करें।
(“’In the beginning of the 16th century, the Punjab was a cockpit of triangular struggle.” Explain.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब ‘त्रिकोणी संघर्ष’ का वर्णन कीजिए।
(Explain the triangular struggle of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
पंजाब के तिकोने (त्रिकोने) संघर्ष के बारे में आप क्या जानते हैं ? (P.S.E.B. June 2017) (What do you know about the triangular struggle in Punjab ?)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब में हुए त्रिकोणीय संघर्ष के बारे में संक्षेप में लिखें।
(Write in brief about the triangular struggle of the Punjab in the beginning of the 16th country.)
उत्तर-
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब त्रिकोणे संघर्ष का अखाड़ा था। यह त्रिकोणा संघर्ष काबुल के शासक बाबर, दिल्ली के शासक इब्राहीम लोधी तथा पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोधी के मध्य चल रहा था। दौलत खाँ लोधी पंजाब का स्वतंत्र शासक बनना चाहता था। इस संबंध में जब इब्राहीम लोधी को पता चला तो उसने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को बंदी बनाकर कारावास में डाल दिया। दौलत खाँ ने इस अपमान का बदला लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। इस त्रिकोणे संघर्ष के अंत में बाबर की जीत हुई।

प्रश्न 3.
दौलत खाँ लोधी कौन था ? (Who was Daulat Khan Lodhi ? )
अथवा
दौलत खाँ लोधी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Daulat Khan Lodhi.)
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी 1500 ई० में पंजाब का सूबेदार नियुक्त हुआ था। वह पंजाब में स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने के स्वप्न देख रहा था। इस संबंध में जब इब्राहीम लोधी को पता चला तो उसने दौलत खाँ लोधी को शाही दरबार में उपस्थित होने को कहा। दौलत खाँ ने अपने छोटे पुत्र दिलावर खाँ को दिल्ली भेज दिया। दिलावर खाँ को दिल्ली पहुँचते ही बंदी बना लिया गया। शीघ्र ही वह किसी प्रकार कारागार से भागने में सफल हो गया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

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प्रश्न 4.
बाबर के भारत पर आक्रमण के कोई तीन कारण लिखें। (Write any three causes of the invansions of Babur over India.)
उत्तर-

  1. बाबर अपने सामग्रज्य का विस्तार करना चाहता था।
  2. वह भारत से अतुल्य संपदा लूटना चाहता था।
  3. वह भारत में इस्लाम का प्रसार करना चाहता था।

प्रश्न 5.
बाबर ने सैदपुर पर कब आक्रमण किया ? सिख इतिहास में इस आक्रमण का क्या महत्त्व है ? (When did Babar invade Saidpur ? What is its importance in Sikh History ?)
अथवा
बाबर के पंजाब के तीसरे हमले का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of Babur’s third invasion over Punjab.)
उत्तर-
बाबर ने सैदपुर पर 1520 ई० में आक्रमण किया यहाँ के लोगों ने बाबर का सामना किया। फलस्वरूप बाबर ने क्रोधित होकर बड़ी संख्या में लोगों की हत्या कर दी और उनके मकानों एवं महलों को लूटपाट करने के पश्चात् आग लगा दी गई। हज़ारों स्त्रियों को बंदी बना लिया गया और उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। गुरु नानक देव जी जो इस समय सैदपुर में ही थे, ने बाबर की सेनाओं द्वारा लोगों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन ‘बाबर वाणी’ में किया है। बाबर की सेनाओं ने गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया था। बाद में बाबर की सेना ने गुरु जी को रिहा कर दिया।

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प्रश्न 6.
पानीपत की पहली लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दो।
(Give a brief account of the First Battle of Panipat.)
अथवा
बाबर तथा इब्राहीम लोधी के मध्य युद्ध कब तथा क्यों हुआ ? ।
(Why and when did the battle take place between Babur and Ibrahim Lodhi ?)
अथवा
पानीपत की पहली लड़ाई तथा इसके महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें।
(Explain the First Battle of Panipat and its significance.)
उत्तर-
बाबर ने पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी को सबक सिखाने के लिए नवंबर, 1525 ई० में पंजाब पर पाँचवीं बार आक्रमण किया। दौलत खाँ बाबर के सामने थोड़ा सा डटा परंतु शीघ्र ही उसने अपने हथियार डाल दिए। बाबर ने पंजाब की विजय से प्रोत्साहित होकर दिल्ली की ओर रुख किया। 21 अप्रैल, 1526 ई० को दोनों सेनाओं के बीच पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम लोधी की पराजय हुई। पानीपत की इस निर्णायक विजय के कारण भारत में मुग़ल वंश की स्थापना हुई।

प्रश्न 7.
पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर क्यों विजयी रहा ? (What led to the victory of Babur in the First Battle of Panipat ?)
अथवा
भारत में बाबर की विजय और अफ़गानों की पराजय के कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the causes of victory of Babur and defeat of the Afghans in India.)
उत्तर-

  1. दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोधी अपने दुर्व्यवहार और अत्याचार के कारण बहुत बदनाम था।
  2. इब्राहीम लोधी की सेना बहुत निर्बल थी।
  3. बाबर एक योग्य सेनापति था। उसको युद्धों का काफ़ी अनुभव था।
  4. बाबर द्वारा तोपखाने के प्रयोग ने भारी तबाही मचाई।

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प्रश्न 8.
पानीपत की प्रथम लड़ाई के तीन मुख्य परिणाम लिखें। (Write the three main results of the first battle of Panipat.)
उत्तर-

  1. लोधी वंश का अंत हो गया।
  2. मुग़ल साम्राज्य की स्थापना हो गई।
  3. नई युद्ध प्रणाली का आरंभ हुआ।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के अनुसार शासक अन्यायकारी क्यों थे? (According to Guru Nanak Dev Ji why the rulers were unjust ?)
उत्तर-

  1. वे हिंदुओं से ज़जिया एवं तीर्थ यात्रा कर वसूलते थे।
  2. वे किसानों एवं जनसाधारण पर बहुत अत्याचार करते थे। .
  3. वे रिश्वत लिए बिना इन्साफ (न्याय) नहीं करते थे।

प्रश्न 10.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक अवस्था कैसी थी?
(What was the social condition of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जन्म समय पंजाबियों की सामाजिक दशा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the social condition of Punjab at the time of birth of Guru Nanak Dev ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का समाज मुसलमान और हिंदू नामक दो वर्गों में बँटा हुआ था। मुसलमानों को विशेष अधिकार प्राप्त थे क्योंकि वे शासक वर्ग से संबंधित थे। उन्हें राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। दूसरी ओर हिंदुओं को लगभग सारे अधिकारों से वंचित रखा गया था। मुसलमान उनको काफिर कहते थे। मुसलमान हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत दयनीय थी।

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प्रश्न 11.
सोलहवीं शताब्दी के शुरू में पंजाब में स्त्रियों की स्थिति कैसी थी? (What was the social condition of women in Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं सदी के प्रारंभ में पंजाब की स्त्रियों की हालत के विषय में वर्णन कीजिए।
(Describe about the condition of women in Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। हिंदू समाज में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर नहीं समझा जाता था। उस समय बहुत-सी लड़कियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। उनका अल्पायु में विवाह कर दिया जाता था। उनकी शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। उस समय सती प्रथा भी पूरे जोरों पर थी। विधवा पर अनेक प्रकार की पाबंदियाँ लगायी जाती थीं। मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन पर कई पाबंदियाँ लगाई गई थीं।

प्रश्न 12.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में मुसलमानों की श्रेणियों का वर्णन करें।
(Give an account of the Muslim classes of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम समाज तीन श्रेणियों में बँटा हुआ था—

  1. उच्च श्रेणी-उच्च श्रेणी में अमीर, खान, शेख, काज़ी और उलमा शामिल थे। इस श्रेणी के लोग बड़े ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे।
  2. मध्य श्रेणी-मध्य श्रेणी में व्यापारी, सैनिक, किसान और राज्य के छोटे-छोटे कर्मचारी सम्मिलित थे। उनके जीवन तथा उच्च श्रेणी के जीवन में काफ़ी अंतर था।
  3. निम्न श्रेणी-इस श्रेणी में अधिकतर दास-दासियाँ एवं मज़दूर सम्मिलित थे। उन्हें अपना जीवन निर्वाह करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। उनको अपने स्वामी के अत्याचारों को सहन करना पड़ता था।

प्रश्न 13.
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब के समाज में मुसलमानों की सामाजिक अवस्था किस प्रकार थी?
(What was the social condition of Muslims of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जन्म के समय पंजाब के मुसलमान समाज की दशा के ऊपर रोशनी डालें।
(Throw light on the condition of muslim society of Punjab on the eve of Guru Nanak Dev Ji’s birth.)
उत्तर-
शासक वर्ग से संबंधित होने के कारण 16वीं शताब्दी में मुसलमानों की स्थिति हिंदुओं की अपेक्षा अच्छी थी। उस समय मुस्लिम समाज-उच्च श्रेणी, मध्य श्रेणी तथा निम्न श्रेणी में बँटा हुआ था। उच्च श्रेणी में अमीर, खान, शेख तथा मलिक इत्यादि आते थे। वे बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। मध्य श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, किसान तथा राज्य के छोटे कर्मचारी सम्मिलित थे। वे भी अच्छा जीवन व्यतीत करते थे। निम्न श्रेणी में दास-दासियाँ एवं मज़दूर सम्मिलित थे। उन्हें अपने जीवन के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी।

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प्रश्न 14.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में हिंदुओं की सामाजिक अवस्था कैसी थी ?
(What was the social condition of the Hindus of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में हिंदुओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। समाज का बहुवर्ग होते हुए भी उन्हें लगभग सारे अधिकारों से वंचित रखा गया था। उनको काफिर और जिम्मी कहा जाता था। उन्हें जजिया और यात्रा कर आदि देने पड़ते थे। मुसलमान हिंदुओं को बलपूर्वक इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश करते थे। उस समय हिंदू समाज कई जातियों व उपजातियों में बँटा हुआ था। उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों से घृणा करते थे। हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी।

प्रश्न 15.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के बारे में संक्षेप जानकारी दें।
(Give a brief account of prevalent education in the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है। मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। राज्य सरकार उन्हें अनुदान देती थी। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे अधिक शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे। हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी।

प्रश्न 16.
16वीं शताब्दी के आरंभ में लोगों के मनोरंजन के साधनों पर टिप्पणी लिखिए।
(Write a note on the means of entertainment of the people of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे समारोहों और महफिलों में बढ़कर भाग लेते थे। इनमें संगीतकार और नर्तकियाँ उनका मनोरंजन करती थीं। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे। मुसलमान ईद, नौरोज और शब-ए-बरात इत्यादि के त्योहारों को बड़ी धूम-धाम से मनाते थे। 16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू, नृत्य, गीत और संगीत के बहत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की आर्थिक हालत का संक्षिप्त ब्योरा दें।
(Give a brief account of the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
16वीं शताब्दी में पंजाब की आर्थिक दशा का संक्षिप्त वर्णन करें। .
(Briefly explain the economic condition of Punjab during the 16th century.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब की आर्थिक दशा का वर्णन कीजिए।
(Briefly mention the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब के लोग आर्थिक तौर पर खुशहाल थे। पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। भूमि उपजाऊ होने के कारण यहाँ फ़सलों की भरपूर पैदावार होती थी। इस कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार की संज्ञा दी जाती थी। पंजाब के लोगों का दूसरा मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी और गैर-सरकारी दोनों तरह के थे। उस समय पंजाब में कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग और लकड़ी उद्योग बहुत प्रसिद्ध थे। उस समय पंजाब का व्यापार बड़ा विकसित था।

प्रश्न 18.
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब की खेती-बाड़ी संबंधी संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the agriculture of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य कार्य खेती-बाड़ी था। पंजाब की ज़मीन बहुत उपजाऊ थी। खेती के अधीन और भूमि लाने के लिए राज्य सरकार की ओर से कृषकों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। यहाँ के लोग बड़े परिश्रमी थे। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे किंतु नहरों, तालाबों और कुओं का प्रयोग भी किया जाता था। पंजाब की प्रमुख फ़सलें गेहूँ, जौ, मक्का, चावल, और गन्ना थीं। फ़सलों की भरपूर पैदावार होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के उद्योग के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Punjab industries in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के प्रसिद्ध उद्योगों का विवरण दें। (Give an account of the main industries of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। सरकारी उद्योग बड़े-बड़े शहरों में स्थापित थे जबकि व्यक्तिगत (निजी) गाँवों में । पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इनमें सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के उद्योग भी प्रचलित थे।

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प्रश्न 20.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के व्यापार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the trade of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। माल के परिवहन का कार्य बनजारे करते थे। मेलों और त्योहारों के समय विशेष मंडियाँ लगाई जाती थीं। उस समय पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब इन देशों में घोड़े, फर, कस्तुरी और मेवे आयात करता था।

प्रश्न 21.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का जीवन स्तर कैसा था? (What was the living standard of people in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
उस समय पंजाब के लोगों का जीवन स्तर एक-सा नहीं था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था और वे ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बड़े शानदार महलों में रहते थे। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था , परंतु हिंदुओं का जीवन स्तर संतोषजनक नहीं था। समाज में निम्न श्रेणी के लोग न तो अच्छे वस्त्र पहन सकते थे न ही अच्छा भोजन खा सकते थे। वे प्रायः साहूकारों के ऋणी रहते थे।

प्रश्न 22.
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू धर्म की धार्मिक स्थिति कैसी थी ?
(What was the religious position of Hinduism in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का प्रमुख धर्म हिंदू धर्म था। यह धर्म भारत का सबसे प्राचीन धर्म था। इस धर्म के लोग वेदों में विश्वास रखते थे। 16वीं शताब्दी में पंजाब में रामायण तथा महाभारत बहुत लोकप्रिय थे। वे अनेक देवी-देवताओं की पूजा, तीर्थ यात्राओं, नदियों में स्नान करने को बहुत पवित्र समझते थे। वे ब्राह्मणों का बहुत सम्मान करते थे। ब्राह्मणों के सहयोग के बिना कोई भी धार्मिक कार्य अधूरा समझा जाता था।

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प्रश्न 23.
इस्लाम पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Islam.)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में इस्लाम की दशा कैसी थी ? (What was the condition of Islam in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
हिंदू धर्म के पश्चात् पंजाब का दूसरा मुख्य धर्म इस्लाम था। इसकी स्थापना सातवीं शताब्दी में मक्का में हज़रत मुहम्मद साहिब द्वारा की गई थी। उन्होंने अरब समाज में प्रचलित सामाजिक-धार्मिक बुराइयों का खंडन किया। उन्होंने एक ईश्वर तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। उनके अनुसार प्रत्येक मुसलमान को पाँच सिद्धांतों पर चलना चाहिए। इन सिद्धांतों को जीवन के पाच स्तंभ कहा जाता है।

प्रश्न 24.
सुन्नियों के बारे में एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a short note on the Sunnis.)
अथवा
सुन्नी मुसलमान। . (The Sunni Musalman.)
उत्तर-
पंजाब के मुसलमानों की बहुसंख्या सुन्नियों की थी। दिल्ली सल्तनत के सभी सुल्तान तथा मुग़ल सम्राट सुन्नी थे। इसलिए उन्होंने सुन्नियों को प्रोत्साहित किया तथा उन्हें विशेष सुविधाएँ प्रदान की। उस समय नियुक्त किए जाने वाले सभी काज़ी, मुफ्ती तथा उलेमा जी कि न्याय तथा शिक्षा देने का कार्य करते थे, सुन्नी संप्रदाय से संबंधित थे। सुन्नी हज़रत मुहम्मद साहिब को अपना पैगंबर समझते थे। वे कुरान को अपना सबसे पवित्र ग्रंथ समझते थे। वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वह इस्लाम के बिना किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं थे। वे हिंदुओं के कट्टर दुश्मन थे तथा उन्हें काफिर समझते थे।

प्रश्न 25.
शिया कौन थे? वर्णन करो। (Who were the Shias ? Explain.)
अथवा
शिया। (The Shias.)
उत्तर-
सुन्नियों के पश्चात् पंजाब के मुसलमानों में दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान शिया संप्रदाय को प्राप्त था। वे भी सुन्नियों की भांति हज़रत मुहम्मद साहिब को अपना पैगंबर मानते थे। वे कुरान को अपना पवित्र ग्रंथ स्वीकार करते थे। वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे भी प्रतिदिन पाँच बार नमाज पढ़ते थे। वे भी रमज़ान के महीने में रोज़े रखते थे। वे भी मक्का की यात्रा करना आवश्यक समझते थे। शिया तथा सुन्नियों में कुछ अंतर थे। इन मतभेदों के कारण सुन्नी तथा शिया एक-दूसरे के विरोधी हो गए।

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प्रश्न 26.
उलमा कौन थे ? उनके प्रमुख कार्य क्या थे। (Who were Ulemas ? What were their main functions ?)
उत्तर-

  1. उलमा कौन थे ? उलमा इस्लाम के विद्वान थे।
  2. उलमा के कार्य- उलमा के प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे—
    • वे इस्लामी कानून (शरीअत) की व्याख्या करते थे।
    • वे सुल्तान को हिंदुओं के विरुद्ध जिहाद के लिए प्रेरित करते थे।
    • वे इस्लाम के प्रसार के लिए योजनाएँ तैयार करते थे।

प्रश्न 27.
सूफ़ी मत की मुख्य शिक्षाएँ लिखें। (Write the main teachings of Sufism.)
अथवा
सूफ़ी कौन थे? (Who were Sufies ?)
उत्तर-

  1. सूफ़ी मुसलमानों का एक प्रसिद्ध संप्रदाय था।
  2. वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे अल्लाह को छोड़कर किसी अन्य की उपासना में विश्वास नहीं रखते थे।
  3. उनके अनुसार अल्लाह सर्वशक्तिमान् एवं सर्वव्यापक है।
  4. अल्लाह को प्राप्त करने के लिए वे पीर अथवा गुरु का होना अत्यावश्यक मानते थे। वे संगीत में विश्वास रखते थे।
  5. वे मानवता की सेवा को अपना परम धर्म मानते थे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in one Word to one Sentence)

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा कैसी थी ?
अथवा
बाबर के आक्रमण के समय पंजाब की राजनीतिक दशा कैसी थी ?
उत्तर-
बहुत शोचनीय।

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प्रश्न 2.
पंजाब की राजनीतिक दशा के संबंध में गुरु नानक देव जी ने क्या फरमाया है ?
उत्तर-
प्रत्येक ओर झूठ एवं रिश्वत का बोलबाला था।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी के जन्म के समय दिल्ली पर किस शासक का शासन था ?
अथवा
लोधी वंश का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
बहलोल लोधी।

प्रश्न 4.
सिकंदर लोधी कौन था ?
उत्तर-
भारत का सुल्तान।

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प्रश्न 5.
सिकंदर लोधी कब सिंहासन पर बैठा था ?
उत्तर-
1489 ई०।

प्रश्न 6.
इब्राहीम लोधी कब सिंहासन पर बैठा था ?
उत्तर-
1517 ई०।

प्रश्न 7.
लोधी वंश का अंतिम शासक कौन था ?
उत्तर-
इब्राहीम लोधी।

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प्रश्न 8.
दौलत खाँ लोधी कौन था ?
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी 1500 ई० से 1525 ई० तक पंजाब का सूबेदार था।

प्रश्न 9.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का शासक कौन था ?
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी।

प्रश्न 10.
पंजाब के त्रिकोणे संघर्ष से क्या भाव है ?
उत्तर-
16वीं सदी के आरंभ में इब्राहीम लोधी, दौलत खाँ लोधी तथा बाबर के मध्य चलने वाले सघंर्ष से है।

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प्रश्न 11.
बाबर कहाँ का शासक था ?
उत्तर-
काबुल।

प्रश्न 12.
बावर कौन था ?
उत्तर-
बावर काबुल का शासक था।

प्रश्न 13.
बाबर ने पंजाब पर अपना प्रथम आक्रमण कब किया ?
उत्तर-
1519 ई०।

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प्रश्न 14.
बाबर ने भारत पर आक्रमण क्यों किया ? कोई एक कारण लिखें।
उत्तर-
वह अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था।

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी ने बाबर के किस आक्रमण की तुलना ‘पाप की बारात’ से की है ?
उत्तर-
सैदपुर आक्रमण की।

प्रश्न 16.
बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण कब किया ?
उत्तर-
1520 ई०

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प्रश्न 17.
बाबर से सैदपुर पर आक्रमण के समय किस सिख गुरु साहिबान को बंदी बना लिया था ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी।

प्रश्न 18.
गुरु नानक देव जी को किस मुग़ल बादशाह ने गिरफ्तार किया था ?
उत्तर-
बाबर ने।

प्रश्न 19.
पानीपत की प्रथम लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
21 अप्रैल, 1526 ई०।

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प्रश्न 20.
पानीपत की प्रथम लड़ाई किसके मध्य हुई ?
उत्तर-
बाबर तथा इब्राहीम लोधी।

प्रश्न 21.
पानीपत की पहली लड़ाई का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
भारत में मुग़ल वंश की स्थापना।

प्रश्न 22.
पानीपत की प्रथम लड़ाई के पश्चात् भारत में किस वंश की स्थापना हुई ?
उत्तर-
मुग़ल वंश।

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प्रश्न 23.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का समाज किन दो प्रमुख वर्गों में विभाजित था ?
उत्तर-
मुस्लिम एवं हिंदु।

प्रश्न 24.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज कितने वर्गों में विभाजित था ?
उत्तर-
तीन।

प्रश्न 25.
16वीं शताब्दी पंजाब के मुस्लिम समाज की उच्च श्रेणी की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर-
वे बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे।

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प्रश्न 26.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का हिंदू समाज कितनी जातियों में बँटा था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 27.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में स्त्रियों की दशा कैसी थी ?
उत्तर-
बहुत अच्छी नहीं थी।

प्रश्न 28.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में मुस्लिम शिक्षा के एक प्रसिद्ध केंद्र का नाम बताएँ।
उत्तर-
लाहौर।

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प्रश्न 29.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय बताएँ।
उत्तर-
कृषि।

प्रश्न 30.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की किसी एक प्रमुख फ़सल का नाम बताएँ।
उत्तर-
गेहूँ।

प्रश्न 31.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सर्वाधिक विख्यात उद्योग कौन-सा था ?
उत्तर-
कपड़ा उद्योग।

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प्रश्न 32.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का एक सर्वाधिक प्रसिद्ध गर्म वस्त्र तैयार करने के केंद्र का नाम बताओ।
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 33.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब से निर्यात की जाने वाली किन्हीं दो प्रमुख वस्तुओं के नाम बताएँ।
उत्तर-
वस्त्र तथा अन्न।

प्रश्न 34.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की किसी एक व्यापारिक श्रेणी का नाम बताएँ।
उत्तर-
महाजन।

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प्रश्न 35.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के योगियों की मुख्य शाखा को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नाथपंथी अथवा गोरखपंथी।

प्रश्न 36.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के योगियों की मुख्य शाखां को क्या कहा गया था ?
उत्तर-
वे शिव की पूजा करते थे।

प्रश्न 37.
योगियों को कनफटे योगी क्यों कहा जाता था ?
उत्तर-
क्योंकि वे कानों में बड़े-बड़े कुंडल डालते थे।।

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प्रश्न 38.
शैव मत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इस मत के लोग शिव जी के पुजारी थे।

प्रश्न 39.
वैष्णव मत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इस मत के लोग विष्णु तथा उसके अवतारों की पूजा करते थे।

प्रश्न 40.
शक्ति मत से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
इस मत के लोग दुर्गा, काली आदि देवियों की पूजा करते थे।

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प्रश्न 41.
इस्लाम की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर-
हज़रत मुहम्मद साहिब।

प्रश्न 42.
इस्लाम कितने स्तंभों में विश्वास रखता है ?
उत्तर-
पाँच।

प्रश्न 43.
चिश्ती सिलसिले के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर-
शेख मुइनुद्दीन चिश्ती।

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प्रश्न 44.
शेख मुइनुद्दीन ने चिश्ती सिलसिले की स्थापना कहाँ की थी ?
उत्तर-
अजमेर।

प्रश्न 45.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का सबसे प्रसिद्ध नेता कौन था ?
उत्तर-
शेख फ़रीद जी।

प्रश्न 46.
सुहरावर्दी सिलसिले का संस्थापक कौन था?
उत्तर-
ख्वाज़ा बहाउद्दीन जकरिया।

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प्रश्न 47.
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव कहाँ रखी गई थी ?
उत्तर-
मुलतान में।

प्रश्न 48.
सूफ़ियों का कोई एक मुख्य सिद्धांत बताएँ।
उत्तर-
वे केवल एक अल्लाह में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 49.
उलमा कौन होते थे ?
उत्तर-
वह मुसलमानों के धार्मिक नेता थे।

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प्रश्न 50.
जजिया से क्या भाव है ?
उत्तर-
गैर मुसलमानों से वसूल किया जाने वाला एक धार्मिक कर।

प्रश्न 51.
भक्ति लहर का कोई एक मुख्य सिद्धांत लिखें।
उत्तर-
एक परमात्मा में विश्वास।

प्रश्न 52.
पंजाब में भक्ति लहर का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी।

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प्रश्न 53.
पंजाब में किस धर्म का विकास हुआ ?
उत्तर-
सिख धर्म का।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत……थी।
उत्तर-
(शोचनीय)

प्रश्न 2.
बहलोल लोधी ने……..में लोधी वंश की स्थापना की थी।”
उत्तर-
(1451 ई०)

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प्रश्न 3.
1469 ई० में गुरु नानक जी के जन्म समय दिल्ली का सुल्तान……था।
उत्तर-
(बहलोल लोधी)

प्रश्न 4.
इब्राहीम लोधी……..में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।
उत्तर-
(1517 ई०)

प्रश्न 5.
दौलत खाँ लोधी पंजाब का गवर्नर ………. में बना।
उत्तर-
(1500 ई०)

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प्रश्न 6.
1519 ई० से 1526 ई० के समय दौरान पंजाब को अपने अधीन करने के लिए………..संघर्ष आरंभ हो
उत्तर-
(तिकोणा)

प्रश्न 7.
1504 ई० में बाबर……….का शासक बना।
उत्तर-
(काबुल)

प्रश्न 8.
1519 ई० से 1526 ई० के दौरान बाबर ने पंजाब पर……..आक्रमण किए थे।
उत्तर-
(पाँच)

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प्रश्न 9.
बाबर ने पंजाब पर पहला आक्रमण……….में किया।
उत्तर
(1519 ई०)

प्रश्न 10.
बाबर ने……..आक्रमण के दौरान गुरु नानक देव जी को बंदी बना लिया था।
उत्तर-
(सैदपुर)

प्रश्न 11.
पानीपत का पहला आक्रमण………को हुआ।
उत्तर-
(21 अप्रैल, 1526 ई०)

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प्रश्न 12.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज……..वर्गों में विभाजित था।
उत्तर-
(तीन)

प्रश्न 13.
पंजाब में मुसलमानों के उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र…….और………थे।
उत्तर-
(लाहौर, मुलतान)

प्रश्न 14.
16वीं सदी के आरंभ में हिंदू समाज में ………………. को प्रमुखता प्राप्त थी।
उत्तर-
(ब्राह्मणों)

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प्रश्न 15.
16वीं सदी के आरंभ में स्त्रियों की दशा अच्छी………थी।
उत्तर-
(नही)

प्रश्न 16.
16वीं सदी के आरंभ में अधिकाँश हिंदू …………भोजन खाते थे।
उत्तर-
(शाकाहारी)

प्रश्न 17.
सदी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय……….था।
उत्तर-
(कृषि)

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प्रश्न 18.
16वी सदी के आरंभ में पंजाब का सब से प्रसिद्ध उद्योग………..था।
उत्तर-
(कपड़ा उद्योग)

प्रश्न 19.
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब में गर्म वस्त्र तैयार करने के प्रसिद्ध केंद्र…….और………था।
उत्तर-
(अमृतसर, कश्मीर)

प्रश्न 20.
16वीं सदी के आरंभ में ……… और………… पंजाब के सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र थे।
उत्तर-
(लाहौर, मुलतान)

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प्रश्न 21.
जोगी मत की स्थापना ……………. ने की थी।
उत्तर-
(गोरखनाथ)

प्रश्न 22.
……………भक्ति लहर का बानी था?
उत्तर-
(गुरु नानक देव जी)

प्रश्न 23.
इस्लाम का संस्थापक ……………. था।
उत्तर-
(हज़रत मुहम्मद साहिब)

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प्रश्न 24.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का सबसे प्रसिद्ध प्रचारक …………… था।
उत्तर-
(शेख फ़रीद)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत अच्छी थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
लोधी वंश का संस्थापक सिकंदर लोधी था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 3.
बहलोल लोधी 1451 ई० में सिंहासन पर बैठा था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
सिकंदर लोधी 1489 ई० में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
इब्राहीम लोधी 1517 ई० में लोधी वंश का नया सुल्तान बना था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 6.
दौलत खाँ लोधी 1469 ई० में पंजाब का सूबेदार नियुक्त हुआ था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 7.
बाबर का जन्म 1494 ई० में हुआ था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
बाबर ने 1504 ई० में काबुल पर कब्जा कर लिया था।
उत्तर-
ठीक

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 9.
बाबर ने भारत पर पहला आक्रमण 1519 ई० में किया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
बाबर ने सैदपुर पर 1524 ई० में आक्रमण किया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी ने बाबर के सैदपुर के आक्रमण की तुलना पाप की बारात से की है। . .
उत्तर-
ठीक

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 12.
बाबर और इब्राहिम लोधी के मध्य पानीपत की पहली लड़ाई 21 अप्रैल, 1526 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज दो श्रेणियों में बँटा हुआ था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
मुस्लिम समाज की निम्न श्रेणी में सबसे अधिक संख्या किसानों की थी।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 15.
16वीं शताब्दी के मुस्लिम समाज में स्त्रियों का बहत सम्मान किया जाता था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 16.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में मुस्लिम शिक्षा के दो प्रसिद्ध केंद्र लाहौर और मुलतान थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के हिंदू समाज में ब्राह्मणों को प्रमुखता प्राप्त थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 18.
16वीं शताब्दी के आरंभ में क्षत्रियों का मुख्य व्यवसाय खेतीबाड़ी करना था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी में स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशु पालन था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 21.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में सब से अधिक गेहूँ की पैदावार की जाती थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 22.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सबसे प्रसिद्ध उद्योग कपड़ा उद्योग था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 23.
16वीं शताब्दी में कश्मीर शालों के उद्योग के लिए अधिक प्रसिद्ध था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 24.
गोरखनाथ ने जोगियों की नाथ पंथी संप्रदाय की स्थापना की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
इस्लाम की स्थापना हज़रत मुहम्मद साहिब ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 26.
चिश्ती सिलसिले की नींव शेख मुइनुद्दीन चिश्ती ने रखी थी। .
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 27.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का प्रमुख प्रचारक शेख फ़रीद था। .
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
सुहरावर्दी सिलसिले का संस्थापक शेख बहाउद्दीन जकरिया था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
लोधी वंश की स्थापना किसने की थी ?
(i) बहलोल लोधी
(ii) दौलत खाँ लोधी
(iii) सिकंदर लोधी
(iv) इब्राहीम लोधी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 2.
बहलोल लोधी कब सिंहासन पर बैठा था?
(i) 1437 ई० में
(ii) 1451 ई० में
(iii) 1489 ई० में
(iv) 1517 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 3.
इब्राहीम लोधी कब दिल्ली के सिंहासन पर बैठा ?
(i) 1489 ई० में
(ii) 1516 ई० में
(iii) 1517 ई० में
(iv) 1526 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 4.
दौलत खाँ लोधी कौन था ?
(i) पंजाब का सूबेदार
(ii) दिल्ली का सूबेदार
(iii) अवध का सूबेदार
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 5.
दौलत खाँ लोधी किस राज्य का स्वतंत्र शासक बनना चाहता था ?
(i) मगध
(ii) दिल्ली ।
(iii) पंजाब
(iv) गुजरात।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
दौलत खाँ लोधी को पंजाब का सूबेदार कब नियुक्त किया गया था?
(i) 1489 ई० में
(i) 1500 ई० में
(iii) 1517 ई० में
(iv) 1526 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 7.
पंजाब के त्रिकोणीय संघर्ष में कौन शामिल नहीं था ?
(i) बाबर
(ii) दौलत खाँ लोधी
(iii) इब्राहीम लोधी
(iv) आलम खाँ लोधी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 8.
बाबर ने पंजाब पर प्रथम आक्रमण कब किया ?
(i) 1509 ई० में ।
(ii) 1519 ई० में
(iii) 1520 ई० में
(iv) 1524 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 9.
बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण कब किया था ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1520 ई० में
(iii) 1524 ई० में
(iv) 1526 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
बाबर के सैदपुर आक्रमण के समय कौन-से सिख गुरु साहिब को बंदी बनाया गया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 11.
बाबर और इब्राहीम लोधी के मध्य पानीपत की प्रथम लड़ाई कब हुई ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1525 ई० में ।
(iii) 1526 ई० में
(iv) 1556 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 12.
पानीपत की प्रथम लड़ाई में किसकी पराजय हुई ?
(i) बाबर की
(ii) महाराणा प्रताप की
(iii) इब्राहीम लोधी की
(iv) दौलत खाँ लोधी की।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 13.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज कितने वर्गों में विभाजित था ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 14.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की उच्च श्रेणी में निम्नलिखित में से कौन शामिल नहीं थे ?
(i) मलिक
(ii) शेख
(iii) इक्तादार
(iv) व्यापारी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 15.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज में कौन शामिल था ?
(i) व्यापारी
(ii) सैनिक
(iii) किसान
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 16.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की निम्न श्रेणी में निम्नलिखित में से कौन शामिल नहीं थे?
(i) काजी
(ii) नौकर
(iii) दास
(iv) मज़दूर।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुसलमानों का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा का केंद्र कौन-सा था ?
(i) सरहिंद
(ii) जालंधर
(iii) पेशावर
(iv) लाहौर।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 18.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय क्या था ?
(i) व्यापार
(ii) कृषि
(iii) उद्योग
(iv) पशु-पालन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सबसे प्रसिद्ध फ़सल कौन-सी थी ?
(i) गेहूँ
(ii) चावल
(iii) गन्ना
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 20.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सबसे प्रसिद्ध उद्योग कौन-सा था?
(i) चमड़ा उद्योग
(ii) वस्त्र उद्योग
(iii) शस्त्र उद्योग
(iv) हाथी दाँत उद्योग।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 21.
16वीं शताब्दी के आरंभ में निम्नलिखित में से कौन-सा गरम कपड़ा उद्योग का केंद्र नहीं था ?
(i) जालंधर
(ii) अमृतसर
(iii) कश्मीर
(iv) काँगड़ा।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 22.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र कौन-सा था ?
(i) लाहौर
(ii) लुधियाना
(iii) जालंधर
(iv) अमृतसर।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 23.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का प्रमुख धर्म कौन-सा था ?
(i) इस्लाम
(ii) हिंदू
(iii) इसाई
(iv) सिख।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 24.
योगियों की नाथपंथी शाखा की स्थापना किसने की थी ?
(i) गोरखनाथ
(ii) शिवनाथ
(iii) महात्मा बुद्ध
(iv) स्वामी महावीर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 25.
पुराणों में विष्णु के कितने अवतारों का वर्णन किया गया है ?
(i) 5
(ii) 10
(iii) 24
(iv) 25
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 26.
16वीं शताब्दी के आरंभ में निम्नलिखित में से कौन-सा मत हिंदू धर्म के साथ संबंधित नहीं था ?
(i) शैव मत
(ii) वैष्णव मत
(iii) शक्ति मत
(iv) सूफी मत।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 27.
इस्लाम का संस्थापक कौन था ?
(i) अबु बकर
(ii) उमर
(iii) हज़रत मुहम्मद साहिब
(iv) अली।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 28.
इस्लाम की स्थापना कब की गई थी ?
(i) पाँचवीं शताब्दी में
(ii) छठी शताब्दी में
(iii) सातवीं शताब्दी में
(iv) आठवीं शताब्दी में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 29.
इस्लाम का पहला खलीफ़ा कौन था ?
(i) अली
(ii) अबु बकर
(iii) उमर
(iv) उथमान।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 30.
सूफ़ी शेखों की विचारधारा को क्या कहा जाता है ?
(i) पीर
(i) दरगाह
(iii) तस्स वुफ़
(iv) सिलसिला।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 31.
चिश्ती सिलसिले का संस्थापक कौन था ?
(i) ख्वाजा मुइनुदीन चिश्ती
(ii) शेख बहाउदीन जकरिया
(iii) शेख फ़रीद जी
(iv) शेख निज़ामुदीन औलिया।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 32.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का सबसे प्रसिद्ध प्रचारक कौन था ?
(i) शेख निज़ामुद्दीन औलिया
(ii) शेख फ़रीद
(iii) शेख कुतबउदीन बख्तीआर काकी
(iv) ख्वाजा मुइनुदीन चिश्ती।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 33.
पंजाब में सुहरावर्दी सिलसिले का मुख्य केंद्र कहाँ था ?
(i) मुलतान
(ii) लाहौर
(iii) जालंधर
(iv) अमृतसर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 34.
निम्नलिखित में से किसने कव्वाली गाने की प्रथा को आरंभ किया ?
(i) इस्लाम ने
(ii) सूफ़ियों ने
(iii) हिंदुओं ने
(iv) सिखों ने।
उत्तर-
(i)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक हालत कैसी थी ? (What was the political condition of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक अवस्था ब्यान करें। (Explain the political condition of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बड़ी डावाँडोल थी। लोधी सुल्तानों की गलत नीतियों के कारण चारों ओर अराजकता फैली हुई थी। शासक वर्ग भोग-विलास में डूबा हुआ था। दरबारों में प्रतिदिन जश्न मनाए जाते थे। इन जश्नों में नर्तकियाँ बड़ी संख्या में भाग लेती थीं और मदिरा के दौर चलते थे। फलस्वरूप प्रजा की ओर ध्यान देने के लिए किसी के पास समय ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। यहाँ तक कि काजी एवं उलमा भी रिश्वत लेकर न्याय करते थे। मुसलमान हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। उन्हें तलवार के बल पर इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाता था। राज्य की शासन-व्यवस्था भंग होकर रह गई थी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी ने स्वतंत्र होने का प्रयास किया। इस संबंध में उसने बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। बाबर ने दौलत खाँ लोधी को पराजित करके 1525 ई० के अंत में पंजाब पर अधिकार कर लिया था। उसने 21 अप्रैल, 1526 ई० में पानीपत के प्रथम युद्ध में सुल्तान इब्राहीम लोधी को पराजित करके भारत में मुगल वंश की स्थापना की।

प्रश्न 2.
“16वीं सदी के आरंभ में पंजाब त्रिकोणे संघर्ष का अखाड़ा था।” व्याख्या करें। . .
(“’In the beginning of the 16th century, the Punjab was a cockpit of triangular struggle.” Explain.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब में ‘त्रिकोणीय संघर्ष’ का वर्णन कीजिए। (Explain the ‘Triangular struggle’ of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
पंजाब 16वीं सदी के आरंभ में त्रिकोणे संघर्ष का अखाड़ा था। यह त्रिकोणा संघर्ष राजसत्ता को प्राप्त करने के लिए काबुल के शासक बाबर, दिल्ली के शासक इब्राहीम लोधी तथा पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोधी के मध्य चल रहा था। दौलत खाँ लोधी पंजाब का स्वतंत्र शासक बनने के स्वप्न देख रहा था। इस संबंध में जब इब्राहीम लोधी को पता चला तो उसने दौलत खाँ लोधी को स्थिति को स्पष्ट करने के लिए शाही दरबार में उपस्थित होने को कहा। दौलत खाँ ने सुल्तान के क्रोध से बचने के लिए अपने छोटे पुत्र दिलावर खाँ को दिल्ली भेजा। दिल्ली पहुँचने पर इब्राहीम लोधी ने उसे बंदी बना कर कारावास में डाल दिया। दिलावर खाँ किसी प्रकार कारावास से भागने में सफल हो गया। पंजाब पहुँच कर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उसके साथ किए गए अपमानजनक व्यवहार के बारे में जानकारी दी। दौलत खाँ ने इस अपमान का बदला लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। बाबर भी इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में था। इस त्रिकोणे संघर्ष के अंत में बाबर विजयी हुआ। उसने 1525-26 ई० में न केवल पंजाब अपितु दिल्ली पर भी कब्जा कर लिया। इस प्रकार भारत में मुग़ल वंश की स्थापना हुई।

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प्रश्न 3.
दौलत खाँ लोधी कौन था ? दौलत खौ लोधी एवं इब्राहीम लोधी के बीच संघर्ष के क्या कारण थे ?
(Who was Daulat Khan Lodhi ? What were the causes of struggle between Daulat Khan Lodhi and Ibrahim Lodhi ?)
अथवा
दौलत खाँ लोधी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Daulat Khan Lodhi.)
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी पंजाब का सूबेदार (गवर्नर) था। वह इस पद पर 1500 ई० में नियुक्त हुआ था। दौलत खाँ लोधी और सुल्तान इब्राहीम लोधी के बीच संघर्ष का मुख्य कारण यह था कि दौलत खाँ पंजाब में स्वतंत्र शासन स्थापित करने का यत्न कर रहा था। इस संबंध में उसने आलम खाँ लोधी जोकि इब्राहीम लोधी का सौतेला भाई था और जो दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करना चाहता था, के साथ मिलकर षड्यंत्र करने आरंभ कर दिये थे। जब इन षड्यंत्रों के संबंध में इब्राहीम लोधी को ज्ञात हुआ तो उसने दौलत खाँ लोधी को शाही दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया। दौलत खाँ ने सुल्तान के क्रोध से बचने के लिए अपने छोटे पुत्र दिलावर खाँ को दिल्ली भेज दिया। जब दिलावर खाँ दिल्ली पहुंचा तो उसे बंदी बना लिया गया। उससे बहुत दुर्व्यवहार किया गया। शीघ्र ही वह किसी प्रकार कारागार से भागने और पुनः पंजाब लौटने में सफल हो गया। यहाँ पहुँच कर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उससे किए दुर्व्यवहार के संबंध में बताया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। बाद में दौलत खाँ लोधी बाबर के विरुद्ध हो गया था। बाबर ने अपने पाँचवें आक्रमण के दौरान दौलत खाँ लोधी को पराजित कर पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया था।

प्रश्न 4.
बाबर कौन था ? उसने पंजाब पर किस समय के दौरान और कितने आक्रमण किए ? इन आक्रमणों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Who was Babar ? When and how many times did he invade Punjab ? Write briefly about these invasions.)
अथवा
पंजाब पर बाबर द्वारा किए गए आक्रमणों का संक्षिप्त वर्णन करें। . (Give a brief account of Babar’s invasions over Punjab.)
उत्तर-
बाबर काबुल का शासक था। उसने 1519 ई० से 1526 ई० के समय के दौरान पंजाब पर पाँच आक्रमण किए। बाबर ने पंजाब पर पहला आक्रमण 1519 ई० में किया। इस आक्रमण के दौरान बाबर ने भेरा और बाजौर नामक क्षेत्रों पर अधिकार किया। बाबर के वापस जाते ही वहाँ के लोगों ने पुनः इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसी वर्ष बाबर ने पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। इस बार बाबर ने पेशावर को अपने अधिकार में ले लिया। 1520 ई० में बाबर ने पंजाब पर अपने तीसरे आक्रमण के दौरान बाजौर, भेरा और स्यालकोट के प्रदेशों को अपने अधिकार में ले लिया। तत्पश्चात् बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान बाबर ने सैदपुर में भारी लूट-पाट की। मुग़ल सेनाओं ने अन्य लोगों के साथ-साथ गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया। बाद में बाबर के कहने पर उन्हें रिहा कर दिया गया। 1524 ई० में दौलत खाँ लोधी के निमंत्रण पर बाबर ने पंजाब पर चौथी बार आक्रमण किया। बाबर ने बिना किसी कठिनाई के पंजाब पर अधिकार कर लिया। बाद में दौलत खाँ लोधी बाबर के विरुद्ध हो गया। दौलत खाँ लोधी को सबक सिखाने के लिए बाबर ने पंजाब पर पाँचवीं बार नवंबर, 1525 ई० में आक्रमण किया। बाबर ने दौलत खाँ को पराजित करके पंजाब पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् बाबर ने 21 अप्रैल, 1526 ई० में पानीपत के प्रथम युद्ध में सुल्तान इब्राहीम लोधी को पराजित करके भारत में मुग़ल वंश की स्थापना की।

प्रश्न 5.
बाबर ने सैदपुर पर कब आक्रमण किया ? सिख इतिहास में इस आक्रमण का क्या महत्त्व है ? (When did Babar invade Saidpur ? What is its importance in Sikh History ?)
उत्तर-
बाबर ने सैदपुर पर 1520 ई० में आक्रमण किया। यहाँ के लोगों ने बाबर का सामना किया। फलस्वरूप बाबर ने क्रोधित होकर बड़ी संख्या में लोगों की हत्या कर दी और उनके मकानों एवं महलों को लूट-पाट करने के पश्चात् आग लगा दी गई। हजारों स्त्रियों को बंदी बना लिया गया और उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। गुरु नानक देव जी जो इस समय सैदपुर में ही थे, ने बाबर की सेनाओं द्वारा लोगों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन ‘बाबर वाणी’ में किया है। बाबर की सेनाओं ने गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया था। बाद में जब बाबर को इस संबंध में ज्ञात हुआ कि उसकी सेनाओं ने किसी संत महापुरुष को बंदी बनाया है तो उसने शीघ्र ही उनकी रिहाई का आदेश दे दिया। बाबर ने अपनी आत्मकथा तुज़क-ए-बाबरी में लिखा है कि यदि उसे मालूम होता कि इस शहर में ऐसा महात्मा निवास करता है तो वह कभी भी इस शहर पर आक्रमण न करता। गुरु नानक देव जी के कहने पर बाबर ने बहत-से अन्य निर्दोष लोगों को भी रिहा कर दिया। इस प्रकार सिखों और मुग़लों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों की शुरुआत हुई।

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प्रश्न 6.
पानीपत की पहली लड़ाई के ऊपर नोट लिखें।
(Give a brief account of the First Battle of Panipat.)
अथवा
बाबर तथा इब्राहीम लोधी के मध्य युद्ध कब तथा क्यों हुआ ? (Why and when did the battle take place between Babar and Ibrahim Lodhi ?)
अथवा
पानीपत की पहली लड़ाई तथा इसके महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Explain the First Battle of Panipat and its significance.)
उत्तर-
बाबर ने पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी को सबक सिखाने के उद्देश्य से नवंबर, 1525 ई० में पंजाब पर पाँचवीं बार आक्रमण किया। दौलत खाँ ने थोड़ा सामना करने के पश्चात् अपने शस्त्र फेंक दिए। बाबर ने उसे क्षमा कर दिया। इस प्रकार बाबर ने एक बार फिर समूचे पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया। पंजाब की विजय से प्रोत्साहित होकर बाबर ने इब्राहीम लोधी के साथ दो-दो हाथ करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से उसने अपनी सेनाओं को दिल्ली की ओर बढ़ने का आदेश दिया। जब इब्राहीम लोधी को इस संबंध में समाचार मिला तो वह अपने साथ एक लाख सैनिकों को लेकर बाबर का सामना करने के लिए पंजाब की ओर चल पड़ा। बाबर के अंतर्गत उस समय 20 हज़ार सैनिक थे। 21 अप्रैल, 1526 ई० को दोनों सेनाओं के बीच पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम लोधी की पराजय हुई और वह युद्ध-भूमि में मारा गया। पानीपत की इस निर्णयपूर्ण विजय के कारण पंजाब से लोधी वंश सदा के लिए समाप्त हो गया और अब यह मुग़ल वंश के अधीन हो गया।

प्रश्न 7.
पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर क्यों विजयी रहा ? (What led to the victory of Babar in the First battle of Panipat ?)
अथवा
भारत में बाबर की विजय और अफ़गानों की पराजय के कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the causes of victory of Babar and defeat of the Afghans in India.)
उत्तर-
पानीपत के युद्ध में बाबर की विजय के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोधी अपने दुर्व्यवहार और अत्याचार के कारण अपने सरदारों और प्रजा में बहुत बदनाम था। वे ऐसे शासक से छुटकारा पाना चाहते थे। इब्राहीम लोधी की सेना भी बहुत निर्बल थी। उसके बहुत-से सैनिक केवल लूटमार के उद्देश्य से एकत्रित हुए थे। उनके लड़ने के ढंग पुराने थे और उनमें योजना की कमी थी। इब्राहीम लोधी ने पानीपत में 8 दिनों तक बाबर की सेना पर आक्रमण न करके भारी राजनीतिक भूल की। यदि वह बाबर को सुरक्षा प्रबंध मज़बूत न करने देता तो शायद युद्ध का परिणाम कुछ और ही निकलता। बाबर एक योग्य सेनापति था। उसको युद्धों का काफ़ी अनुभव था। बाबर द्वारा तोपखाने के प्रयोग ने भारी तबाही मचाई। इब्राहीम लोधी के सैनिक अपने तीरकमानों और तलवारों के साथ इनका मुकाबला न कर सके। इनके कारण अफ़गानों की पराजय हुई और बाबर विजयी रहा।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 8.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक अवस्था का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Explain the social condition of Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जन्म समय पंजाबियों की सामाजिक दशा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the social condition of Punjab at the time of birth of Guru Nanak Dev ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का समाज दो मुख्य वर्गों मुसलमान और हिंदू में बंटा हुआ था। शासक वर्ग से संबंधित होने के कारण मुसलमानों को समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। वे राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त थे। दूसरी ओर हिंदुओं को लगभग सारे अधिकारों से वंचित रखा गया था। मुसलमान उनको काफ़िर कहते थे। मुसलमान हिंदुओं पर इतने अत्याचार करते थे कि बहुत-से हिंदू मुसलमान बनने के लिए विवश हो गए। उस समय समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत दयनीय थी। उच्च श्रेणी के मुसलमानों के वस्त्र बहुत बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल के बने होते थे। शिकार, घुड़दौड़, शतरंज, नाच-गाने, संगीत, जानवरों की लड़ाइयाँ और ताश उस समय के लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन थे।

प्रश्न 9.
सोलहवीं शताब्दी के शुरू में पंजाब में स्त्रियों की स्थिति कैसी थी ? (What was the condition of women in Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के शुरू में पंजाब में स्त्रियों की दशा बहुत शोचनीय थी। हिंदू समाज में स्त्रियों का स्थान पुरुषों के बराबर नहीं था। उनको घर की चारदीवारी के अंदर बंद रखा जाता था। उस समय बहुत-सी लड़कियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। उस समय लड़कियों का विवाह अल्पायु में कर दिया जाता था। बाल विवाह के कारण उनकी शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। उस समय सती प्रथा भी पूरे जोरों पर थी। विधवा को पुनः शादी करने की आज्ञा नहीं थी। मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज की ओर से उन पर कई प्रतिबंध लगाए गए थे। वेश्या प्रथा, तलाक प्रथा और पर्दा प्रथा के कारण उनकी हालत बड़ी दयनीय हो गई थी। मुस्लिम समाज में उच्च वर्ग की स्त्रियों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्राप्त थीं पर इनकी संख्या बहुत कम थी।

प्रश्न 10.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम समाज किन-किन श्रेणियों में बंटा हुआ था और वे कैसा जीवन व्यतीत करते थे ?
(In to which classes were the Muslim society of the Punjab divided and what type of the life did they lead in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब के समाज में मुसलमानों की श्रेणियों का वर्णन करें।
(Give an account of the Muslim Classes of Punjab in the beginning of the. 16th Century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम समाज तीन श्रेणियों में बंटा हुआ था—

1. उच्च श्रेणी-उच्च श्रेणी में अमीर, खान, शेख, काज़ी और उलमा शामिल थे। इस श्रेणी के लोग बड़े ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बड़े-बड़े महलों में रहते थे। वे अपना अधिकतर समय जश्न मनाने में व्यतीत करते थे। उलमा तथा काज़ी मुसलमानों के धार्मिक नेता थे। इनका मुख्य कार्य इस्लामी कानूनों की व्याख्या करना तथा लोगों को न्याय देना था।

2. मध्य श्रेणी-मध्य श्रेणी में व्यापारी, सैनिक, किसान और राज्य के छोटे-छोटे कर्मचारी सम्मिलित थे। उनके जीवन तथा उच्च श्रेणी के लोगों के जीवन में काफ़ी अंतर था। परंतु उनका जीवन स्तर हिंदुओं की उच्च श्रेणी के मुकाबले बहुत अच्छा था।

3. निम्न श्रेणी-इस श्रेणी में अधिकतर दास-दासियाँ एवं मज़दूर सम्मिलित थे। इनका जीवन अच्छा नहीं था। उन्हें अपना जीवन निर्वाह करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। उनको अपने स्वामी के अत्याचारों को सहन करना पड़ता था।

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प्रश्न 11.
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब के समाज में मुसलमानों की सामाजिक अवस्था किस प्रकार थी ?
(What was the social condition of Muslims of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. समाज तीन वर्गों में विभाजित था-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में विभाजित-था।

i) उच्च वर्ग-इस वर्ग में अमीर, खान, शेख़, मलिक, इकतादार, उलमा और काज़ी इत्यादि शामिल थे। इस वर्ग के लोग बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बहुत भव्य महलों में निवास करते थे। उन की सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर होते थे।

ii) मध्य वर्ग—इस श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, कृषक, विद्वान्, लेखक और राज्य के छोटे कर्मचारी शामिल थे। उनके जीवन तथा उच्च वर्ग के लोगों के जीवन-स्तर में बहुत अंतर था। किंतु हिंदुओं की तुलना में वे बहुत अच्छा जीवन बिताते थे।

iii) निम्न वर्ग-इस वर्ग में दास-दासियाँ, नौकर और श्रमिक शामिल थे। इनकी संख्या बहुत अधिक थी। उनका जीवन अच्छा नहीं था। उनके स्वामी उन पर बहुत अत्याचार करते थे।

2. स्त्रियों की दशा-मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। वे बहुत कम शिक्षित होती थीं। बहुविवाह और तलाक प्रथा ने उनकी दशा और दयनीय बना दी थी।

3. भोजन-उच्च वर्ग के मुसलमान कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। वे माँस, हलवा, पूड़ी और मक्खन इत्यादि का बहुत प्रयोग करते थे। निम्न वर्ग से संबंधित लोगों का भोजन साधारण होता था।

4. पहनावा-उच्च वर्ग के मुसलमानों के वस्त्र बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल से निर्मित थे। निम्न वर्ग के लोग सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुषों में कुर्ता और पायजामा पहनने की, जबकि स्त्रियों में लंबा बुर्का पहनने की प्रथा थी।

5. शिक्षा-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी, जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे।

6. मनोरंजन के साधन-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे अपने त्योहारों को बड़ी धूम-धाम से मनाते थे।

प्रश्न 12.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में हिंदुओं की सामाजिक अवस्था कैसी थी ?
(What was the social condition of the Hindus of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. जाति प्रथा—हिंदू समाज कई जातियों व उप-जातियों में विभाजित था। समाज में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। मुस्लिम शासन की स्थापना के कारण क्षत्रियों ने नए व्यवसाय जैसे दुकानदारी, कृषि इत्यादि अपना लिए थे। वैश्य व्यापार और कृषि का ही व्यवसाय करते थे। निम्न जातियों के साथ इस काल में दुर्व्यवहार किया जाता था।

2. स्त्रियों की दशा-हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों के समान नहीं था। लड़कियों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उनका अल्पायु में ही विवाह कर दिया जाता था। इस काल में सती प्रथा बहुत ज़ोरों पर थी। विधवा को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी।

3. खान-पान—हिंदुओं का भोजन साधारण होता था। अधिकाँश हिंदू शाकाहारी होते थे। उनका भोजन गेहूँ, चावल, सब्जियाँ, घी और दूध इत्यादि से तैयार किया जाता था। वे माँस, लहसुन और प्याज़ का प्रयोग नहीं करते थे। गरीब लोग साधारण रोटी के साथ लस्सी पीकर अपना निर्वाह करते थे।

4. पहनावा—हिंदुओं का पहनावा बहुत साधारण होता था। वे प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुष धोती और कुर्ता पहनते थे। वे सिर पर पगड़ी भी बाँधते थे। स्त्रियाँ साड़ी, चोली और लहंगा पहनती थीं। निर्धन लोग चादर से ही अपना शरीर ढाँप लेते थे।

5.  मनोरंजन के साधन-हिंदू नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लड़ाइयाँ और मल्लयुद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इसके अतिरिक्त हिंदू अपने त्योहारों दशहरा, दीवाली, होली आदि में भी भाग लेते थे।

6. शिक्षा-16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था। धनी वर्ग के हिंदू मदरसों से उच्च शिक्षा प्राप्त करते थे।

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प्रश्न 13.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के बारे में संक्षेप जानकारी दें।
(Give a brief account of prevalent education in the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी। मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। राज्य सरकार उन्हें अनुदान देती थी। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। मदरसे प्रायः शहरों में ही होते थे। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे अधिक शिक्षा केंद्र लाहौर और मलतान में थे। इनके अतिरिक्त जालंधर, सुल्तानपुर, समाना, नारनौल, भटिंडा, सरहिंद, स्यालकोट और काँगड़ा भी शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे। हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था। धनी वर्ग के हिंदू अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए मुसलमानों के मदरसों में भेज देते थे। उनकी संख्या न के बराबर थी क्योंकि मुसलमान हिंदुओं को घृणा की दृष्टि से देखते थे।

प्रश्न 14.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन क्या थे ?
(What were the main means of entertainment of the people of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे समारोहों और महफिलों में बढ़कर भाग लेते थे। इनमें संगीतकार और नर्तकियाँ उनका मनोरंजन करती थीं। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे। मुसलमान ईद, नौरोज और शब-ए-बरात इत्यादि के त्योहारों को बड़ी धूम-धाम से मनाते थे। 16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू, नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लड़ाइयाँ और मल्लयुद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इनके अतिरिक्त हिंदू अपने त्योहारों में भी भाग लेते थे।

प्रश्न 15.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की आर्थिक हालत का संक्षिप्त ब्योरा दें।
(Give a brief account of the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
16वीं शताब्दी में पंजाब की आर्थिक हालत का वर्णन करें।
(Briefly explain the economic condition of Punjab during the 16th century.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब की आर्थिक दशा का वर्णन कीजिए।
(Briefly mention the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी थी। उपजाऊ भूमि, विकसित व्यापार तथा लोगों के परिश्रम ने पंजाब को एक समृद्ध प्रदेश बना दिया। 16वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों के आर्थिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. कृषि-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। पंजाब की भूमि बहुत उपजाऊ थी। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे। यहाँ पर फसलों की भरपूर पैदावार होती थी। यहाँ की मुख्य फसलें गेहूँ, कपास, जौ, मकई, चावल और गन्ना थीं। फसलों की भरपूर उपज होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

2. उद्योग-कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। यहाँ सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के लिए उद्योग भी प्रचलित थे।

3. पशु पालन-पंजाब के कुछ लोग पशु पालन का व्यवसाय करते थे। पंजाब में पालतू रखे जाने वाले मुख्य पशु गाय, बैल, भैंसे, घोड़े, खच्चर, ऊँट, भेड़ें और बकरियाँ इत्यादि थे। इन पशुओं से दूध, ऊन और भार ढोने का काम लिया जाता था।

4. व्यापार–पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। व्यापार का कार्य कुछ विशेष श्रेणियों के हाथ में होता था। पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब घोड़े, फर, कस्तूरी और मेवे आयात करता था।

5. व्यापारिक नगर-16वीं शताब्दी के आरंभ में लाहौर और मुलतान पंजाब के दो प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे। इनके अतिरिक्त पेशावर, जालंधर, अमृतसर तथा लुधियाना पंजाब के अन्य प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे।

6. जीवन स्तर-उस समय पंजाब के लोगों के जीवन स्तर में बहुत अंतर था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था, किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था, परंतु हिंदू अपना निर्वाह बहुत मुश्किल से करते थे। समाज में निर्धनों और कृषकों का जीवन-स्तर बहुत निम्न था।

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प्रश्न 16.
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब की खेती-बाड़ी संबंधी संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the agriculture of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य कार्य खेती-बाड़ी था। पंजाब की जमीन बहुत उपजाऊ थी। खेती के अधीन और भूमि लाने के लिए राज्य सरकार की ओर से कृषकों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। यहाँ के लोग बड़े परिश्रमी थे। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे किंतु नहरों, तालाबों और कुओं का प्रयोग भी किया जाता था। इन कारणों से चाहे पंजाब के कृषक पुराने ढंग से खेती करते थे तब भी यहाँ फसलों की भरपूर पैदावार होती थी। पंजाब की प्रमुख फसलें गेहूँ, जौ, मक्का , चावल और गन्ना थीं। इनके अतिरिक्त पंजाब में कपास, बाजरा, ज्वार, सरसों और कई किस्मों की दालें भी पैदा की जाती थीं। फसलों की भरपूर पैदावार होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के उद्योग के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Punjab Industries in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के प्रसिद्ध उद्योगों का विवरण दें। (Give an account of the main industries of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। सरकारी उद्योग बड़े-बड़े शहरों में स्थापित थे जबकि व्यक्तिगत (निजी) गाँवों में। पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। वहाँ सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। क्योंकि पंजाब के उच्च वर्ग के लोगों में रेशमी वस्त्र की बहुत माँग थी, इसलिए पंजाब में यह वस्त्र अधिक मात्रा में तैयार किया जाता था। समाना, सुनाम, सरहिंद, दीपालपुर, जालंधर, लाहौर और मुलतान इस उद्योग के प्रसिद्ध केंद्र थे। गुजरात और स्यालकोट में चिकन के वस्त्र तैयार किए जाते थे। मुलतान और सुल्तानपुर शीट के वस्त्रों के लिए विख्यात थे। स्यालकोट में धोतियाँ, साड़ियाँ, पगड़ियाँ और बढ़िया कढ़ाई वाली लुंगियाँ तैयार की जाती थीं। अमृतसर, काँगड़ा और कश्मीर गर्म वस्त्र तैयार करने के प्रसिद्ध केंद्र थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के लिए उद्योग भी प्रचलित थे।

प्रश्न 18.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के व्यापार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the trade of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। व्यापार का कार्य कुछ विशेष श्रेणियों के हाथ में होता था। हिंदुओं की क्षत्रिय, महाजन, बनिये, सूद और अरोड़ा नामक जातियाँ तथा मुसलमानों की बोहरा और खोजा नामक जातियाँ व्यापार का कार्य करती थीं। माल के परिवहन का कार्य बनजारे करते थे। व्यापारी चोरों, डाकुओं के भय से काफिलों के रूप में चलते थे। उस समय हुंडी बनाने की भी प्रथा थी। शाहूकार ब्याज पर पैसा देते थे। मेलों और त्योहारों के समय विशेष मंडियाँ लगाई जाती थीं। पंजाब में ऐसी मंडियाँ मुलतान, लाहौर, जालंधर, दीपालपुर, सरहिंद, सुनाम और समाना इत्यादि स्थानों पर लगाई जाती थीं। इन मंडियों से बड़ी संख्या में लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदते थे। पशुओं के व्यापार के लिए भी पंजाब में विशेष मंडियाँ लगती थीं। उस समय पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब घोड़े, फर, कस्तूरी और मेवे आयात करता था।

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प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का जीवन स्तर कैसा था ? (What was the living standard of people in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का जीवन स्तर एक-सा नहीं था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था और वे ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बड़े शानदार महलों में रहते थे। उनकी पोशाकें बहुत कीमती होती थीं तथा वे विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। सुरा तथा सुंदरी उनके जीवन का एक अभिन्न अंग था। उनकी सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर, दास तथा दासियाँ होती थीं। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। इसलिए वे अपना धन छुप कर खर्च करते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था, परंतु हिंदुओं का जीवन स्तर संतोषजनक नहीं था। हिंदू अपना निर्वाह बहुत मुश्किल से करते थे। समाज में निर्धनों और कृषकों का जीवन स्तर बहुत निम्न था। वे न तो अच्छे वस्त्र पहन सकते थे न ही अच्छा भोजन खा सकते थे। वे प्रायः साहूकारों के ऋणी रहते थे।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
बहलोल लोधी की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र सिकंदर लोधी 1489 ई० में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसने 1517 ई० तक शासन किया। मुस्लिम इतिहासकारों की दृष्टि में वह एक बहुत ही न्यायप्रिय और दयालु सुल्तान था परंतु उसकी न्यायप्रियता और दया केवल मुसलमानों तक ही सीमित थी। वह फिरोजशाह तुग़लक तथा औरंगजेब की भाँति एक कट्टर मुसलमान था। वह हिंदुओं को बहुत घृणा की दृष्टि से देखता था। उसने हिंदुओं के प्रति बहुत कठोर और अत्याचारपूर्ण नीति अपनाई। उसने हिंदुओं के अनेक प्रसिद्ध मंदिरों को नष्ट कर दिया था तथा उनके स्थानों पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। उसने हिंदुओं का यमुना में स्नान करने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने हिंदुओं को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल करना आरंभ कर दिया। उसने बोधन नामक एक ब्राह्मण को इसलिए मृत्यु के घाट उतार दिया क्योंकि उसने हिंदू धर्म को इस्लाम धर्म के समान अच्छा कहा था।

  1. सिकंदर लोधी कौन था ?
  2. सिकंदर लोधी कब सिंहासन पर बैठा ?
    • 1485 ई०
    • 1486 ई०
    • 1487 ई०
    • 1489 ई०
  3. मुस्लिम इतिहासकार सिकंदर लोधी को कैसा सुल्तान मानते थे ?
  4. सिकंदर लोधी ने हिंदुओं के प्रति कौन-सा कदम उठाया ?
  5. सिकंदर लोधी ने बोधन ब्राह्मण को क्यों मौत के घाट उतार दिया था ?

उत्तर-

  1. सिकंदर लोधी दिल्ली का सुल्तान था । उसने 1489 ई० से 1517 ई० तक शासन किया।
  2. 1489 ई०।
  3. एक बहुत ही न्यायप्रिय व दयालु सुल्तान।
  4. उसने हिंदुओं को ज़बरदस्ती इस्लाम धर्म में शामिल कर लिया।
  5. उसने हिंदू धर्म को इस्लाम धर्म के बराबर अच्छा कहा था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

2
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी। शासक वर्ग जश्नों में अपना समय व्यतीत करते थे। ऐसी स्थिति में प्रजा की ओर किसी का ध्यान ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। सुल्तान तो सुल्तान, काज़ी और उलेमा भी रिश्वत लेकर न्याय देते थे। हिंदुओं पर अत्याचार बहुत बढ़ गए थे। उन्हें तलवार की नोक पर बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल किया जाता था।

  1. 16वीं सदी के आरंभ में प्रजा की हालत कैसी थी ?
  2. 16वीं सदी के आरंभ में सरकारी कर्मचारियों का आचरण कैसा था ?
  3. 16वीं सदी के आरंभ में सुल्तान, काज़ी तथा उलेमा न्याय कैसे करते थे ?
  4. 16वीं सदी के आरंभ में राज्य की ओर से क्या नीति अपनाई जाती थी ?
  5. 16वीं शताब्दी में शासक वर्ग ……… में अपना समय व्यतीत करते थे।

उत्तर-

  1. 16वीं सदी के आरंभ में प्रजा की हालत दयनीय थी।
  2. उस समय सरकारी कर्मचारी बहुत भ्रष्ट हो चुके थे।
  3. उस समय सुल्तान, काजी तथा उलेमा रिश्वत लेकर न्याय करते थे।
  4. उस समय राज्य की ओर से हिंदुओं पर बहुत अत्याचार किए जाते थे।
  5. जश्नों ।

3
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। क्योंकि मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। उन्हें राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। दूसरी ओर हिंदू जोकि जनसंख्या के अधिकाँश भाग से संबंधित थे, को लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। मुसलमान हिंदुओं पर इतने अत्याचार करते थे कि बहुत-से हिंदू मुसलमान बनने पर विवश हो गए थे।

  1. 16वीं सदी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा को बहुत खराब क्यों माना जाता था ?
  2. 16वीं सदी के आरंभ में किन लोगों को अधिकारों से वंचित रखा गया था ?
  3. काफ़िर किसे कहा जाता था ?
  4. जज़िया क्या था ?
  5. मुसलमान ………… वर्ग से संबंध रखते थे।

उत्तर-

  1. क्योंकि समाज में स्त्रियों की हालत बड़ी दयनीय थी।
  2. हिंदुओं को।
  3. गैर-मुसलमानों को काफ़िर समझा जाता था।
  4. जज़िया हिंदुओं से लिया जाने वाला एक कर था।
  5. शासक।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

4
16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी। मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलेमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। राज्य सरकार उन्हें अनुदान देती थी। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। मदरसे प्रायः शहरों में ही होते थे। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे। इनके अतिरिक्त जालंधर, सुल्तानपुर, समाना, नारनौल, बठिंडा, सरहिंद, स्यालकोट और काँगड़ा भी शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे।

  1. 16वीं सदी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति क्यों नहीं हुई थी ?
  2. क्या मौलवी मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य करते थे ?
  3. मुसलमानों को आरंभिक शिक्षा कहाँ दी जाती थी ?
  4. 16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों की शिक्षा का कोई एक प्रसिद्ध केंद्र का नाम लिखें।
  5. मदरसे प्रायः …………… में होते थे।

उत्तर-

  1. 16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा देने की जिम्मेवारी सरकार की नहीं होती थी।
  2. हाँ, मौलवी मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य करते थे।
  3. मुसलमानों को आरंभिक शिक्षा मस्जिदों तथा मकतबों में दी जाती थी।
  4. 16वीं सदी के आरंभ में मुसलमानों की शिक्षा का एक प्रसिद्ध केंद्र लाहौर था।
  5. शहरों।

5
सूफी मत 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में बहुत लोकप्रिय था। सूफी संत शेख अथवा पीर के नाम से भी जाने जाते थे। वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे अल्लाह को छोड़ कर किसी अन्य की पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार अल्लाह सर्वशक्तिमान् है और वह प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है। अल्लाह को प्राप्त करने के लिए वे प्रेम भावना पर बल देते थे। वे धर्म के बाह्याडंबरों में विश्वास नहीं रखते थे। अल्लाह को प्राप्त करने के लिए वे पीर अथवा गुरु का होना अत्यावश्यक मानते थे। वे संगीत में भी विश्वास रखते थे। उन्होंने कव्वाली गाने की प्रथा चलाई। मनुष्य की सेवा करना वे आवश्यक मानते थे। उनका जाति-प्रथा में कोई विश्वास नहीं था। वे अन्य धर्मों का आदर करते थे। सूफ़ी शेखों की विचारधारा को तस्सवुफ़ भी कहा जाता है।

  1. सूफ़ी मत किस धर्म से संबंधित था ?
  2. सूफ़ी शेख अन्य किस नाम से जाने जाते थे ?
  3. सूफ़ी शेखों की विचारधारा को क्या कहा जाता है ?
  4. सूफी मत का कोई एक सिद्धांत लिखें।
  5. अल्लाह को प्राप्त करने के लिए सूफ़ी किस का होना आवश्यक मानते थे ?
    • पीर
    • कव्वाली
    • दरगाह
    • उपरोक्त सारे।

उत्तर-

  1. सूफी मत इस्लाम धर्म से संबंधित था।
  2. सूफ़ी शेख ‘पीर’ के नाम से जाने जाते थे।
  3. सूफ़ी शेखों की विचारधारा को तस्सवुफ़ कहा जाता था।
  4. वह एक अल्लाह में विश्वास रखते हैं।
  5. पीर।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा PSEB 12th Class History Notes

  • राजनीतिक दशा (Political Condition)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बड़ी दयनीय थी-पंजाब दिल्ली सल्तनत के अधीन था जिस पर लोधी सुल्तानों का शासन था— 1469 ई० में दिल्ली सुल्तान बहलोल लोधी ने ततार खाँ लोधी को पंजाब का गवर्नर नियुक्त कियाततार खाँ लोधी सुल्तान के खिलाफ किए गए असफल विद्रोह में मारा गया-1500 ई० में एक नए लोधी सुल्तान सिकंदर लोधी ने दौलत खाँ लोधी को पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया- इब्राहीम लोधी के नए सुल्तान बनते ही दौलत खाँ लोधी ने उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचने आरंभ कर दिए—दौलत खाँ ने बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया-बाबर ने 1519 ई० से 1526 ई० तक पंजाब पर पाँच आक्रमण किए—अपने पाँचवें आक्रमण के दौरान बाबर ने दौलत खाँ लोधी को हरा कर पंजाब पर अधिकार कर लिया-21 अप्रैल, 1526 ई० को पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोधी को परास्त किया—परिणामस्वरूप पंजाब लोधी वंश के हाथों से निकल कर मुग़ल वंश के हाथों में चला गया।
  • सामाजिक दशा (Social Condition)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा बड़ी ही दयनीय थी—समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था—शासक वर्ग से संबंधित होने के कारण मुसलमानों को विशेष अधिकार प्राप्त थे—मुस्लिम समाज उच्च, मध्य तथा निम्न वर्गों में विभाजित था—मुस्लिम स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी—हिंदू बहुसंख्या में थे, परंतु उन्हें अधिकारों से वंचित रखा गया था-हिंदू समाज कई जातियों तथा उपजातियों में बँटा हुआ था–हिंदू स्त्रियों को पुरुषों के बराबर नहीं समझा जाता था—समाज का अमीर वर्ग स्वादिष्ट भोजन करता और बहुमूल्य वस्त्र पहनता था–निम्न वर्गों का भोजन और वस्त्र साधारण होते थे—उस समय शिकार, चौगान, जानवरों की लड़ाइयाँ, शतरंज, नृत्य, संगीत और ताश आदि मनोरंजन के साधन थे—शिक्षा मस्जिदों, मदरसों और मंदिरों में प्रदान की जाती थी।
  • आर्थिक दशा (Economic Condition)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की आर्थिक दशा … बहुत अच्छी थी—पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था—यहाँ की मुख्य फसलें गेहूँ, कपास, जौ, मकई और गन्ना थीं—फसलों की पर्याप्त उपज होती थी—लोगों का दूसरा मुख्य व्यवसाय उद्योग था – उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था—चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने आदि के उद्योग भी प्रचलित थे—पशु पालन का व्यवसाय भी किया जाता था—पंजाब का आंतरिक तथा विदेशी व्यापार बड़ा उन्नत था—विदेशी व्यापार अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत और चीन आदि देशों के साथ था-लाहौर और मुलतान पंजाब के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध नगर थे—कम मूल्यों के कारण साधारण लोगों का निर्वाह भी सुगमता से हो जाता था।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

Punjab State Board PSEB 12th Class Geography Book Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Geography Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) Textbook Questions and Answers

प्रश्न I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में दें:

प्रश्न 1.
भारत के कुल घरेलू उत्पादन में कृषि उत्पादन का कितना हिस्सा है ?
उत्तर-
भारत के कुल घरेलू उत्पादन में कृषि का 17% हिस्सा है।

प्रश्न 2.
गेहूँ और चावल की उपज के लिए कौन-सी मिट्टी सही है ?
उत्तर-
गेहूँ की उपज के लिए उपजाऊ जलोढ़ी दोमट मिट्टी और दक्षिणी पठार की काली मिट्टी और चावल की उपज के लिए चिकनी दोमट मिट्टी सही है।

प्रश्न 3.
काली मिट्टी में उगाई जाने वाली कोई दो फ़सलों के नाम लिखो।
उत्तर-
कपास और गन्ना।

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प्रश्न 4.
खानाबदोश ज़िन्दगी जीने वाले लोगों का मुख्य धंधा क्या रहा है ?
उत्तर-
खानाबदोश ज़िन्दगी जीने वाले लोगों का मुख्य धंधा पशु-पालन रहा है।

प्रश्न 5.
धनगर चरागाहें कौन-से राज्यों में मिलती हैं ?
उत्तर-
धनगर चरागाहें मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में मिलती हैं।

प्रश्न 6.
कोई दो मोटे अनाजों का नाम लिखो।
उत्तर-
ज्वार, बाजरा।

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प्रश्न 7.
जोड़े बनाओ—
(i) बाग़वानी फ़सल — (क) चने
(ii) खुराकी अनाज — (ख) गन्ना
(iii) रोपण फ़सल — (ग) नींबू
(iv) नकद फ़सल — (घ) अदरक।
उत्तर-

  1. (ग),
  2. (क),
  3. (घ),
  4. (ख)।

प्रश्न 8.
कौन-से तीन राज्य भारत का अन्न भंडार कहलाते हैं ?
उत्तर-
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा।

प्रश्न 9.
हिमाचल प्रदेश की कौन-सी घाटी चाय उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, जोगिंदर नगर, मंडी इत्यादि स्थानों से चाय का उत्पादन होता है।

प्रश्न 10.
SOWT विश्लेषण में कितने किस्म की विशिष्टता शामिल है ?
उत्तर-
SOWT विश्लेषण में पंजाब की कृषि की ताकत, कमजोरी, अवसर इत्यादि खतरों का विश्लेषण किया जाता है।

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प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चार पंक्तियों में दें :

प्रश्न 1.
कोई दो भारतीय पशु-पालक भाईचारों और उनके राज्यों के नाम लिखो।
उत्तर-
गोला (गाय), करोमा (भेड़) पशु-पालक भाईचारा आंध्र प्रदेश में मिलते हैं और टोडा (भैंस) पशु-पालक भाईचारा मध्य प्रदेश में मिलते हैं।

प्रश्न 2.
ऋतु प्रवास क्या होता है ? स्पष्ट करो।
उत्तर-
जब पशु पालक चरवाहे अपने पशुओं के साथ मौसम बदलने के कारण दूसरे क्षेत्र में चले जाते हैं उसे ऋतु रवास कहते हैं। हिमालय के पहाड़ों में पशु-पालन ऋतु प्रवास के चक्र अनुसार होता है। सर्दी में चरवाहे, बर्फ से पहले ही पशुओं को लेकर मैदानी इलाकों में चले जाते हैं।

प्रश्न 3.
भारत में कृषि के मौसमों से पहचान करवाओ।
उत्तर-
भारतीय कृषि को मुख्य रूप में चार मौसमों में विभाजित किया जाता है—

  1. खरीफ-ज्वार, बाजरा, चावल, कपास, मूंगफली इत्यादि।
  2. जैद खरीफ-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास इत्यादि।
  3. रबी-गेहूँ, जौं, चने, अलसी के बीज, मटर, मसर इत्यादि।
  4. जैद रबी-तरबूज, तोरी, खीरा इत्यादि।

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प्रश्न 4.
निर्वाह कृषि क्या होती है ? नोट लिखो।
उत्तर-
इस कृषि प्रणाली द्वारा स्थानीय जरूरतों की पूर्ति करनी होती है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए ताकि जनसंख्या का पालन-पोषण किया जा सके। इसको निर्वाह कृषि कहते हैं। घूमंतु कृषि, स्थानाबंध कृषि और घनी कृषि निर्वाह कृषि कहलाती हैं। इस कृषि द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग को पूरा किया जाता है।

प्रश्न 5.
कोई चार नकद फ़सलों के नाम लिखो।
उत्तर-
चार नकद फसलों के नाम नीचे लिखे अनुसार हैं—

  1. कपास,
  2. पटसन,
  3. गन्ना,
  4. तम्बाकू।

प्रश्न 6.
हिमाचल प्रदेश में अधिकतर कौन-कौन से फलों के बाग मिलते हैं ?
उत्तर-
हिमाचल प्रदेश में अधिकतर सेब, चैरी, नाशपाती, आड़, बादाम, खुरमानी और अखरोट के बाग मिलते हैं।

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प्रश्न 7.
चाय पत्ती की किस्मों के नाम लिखो।
उत्तर-
चाय पत्ती की चार किस्मों के नाम नीचे दिए अनुसार हैं—

  1. सफेद चाय-मुरझाई हुई पत्ती।
  2. पीली चाय-ताजी पत्ती वाली चाय।
  3. हरी चाय-ताजी पत्ती।
  4. काली चाय-पीसी हुई छोटी पत्ती।

प्रश्न 8.
बाबा बूढ़न पहाड़ी कारोबार के इतिहास से परिचय करवाओ।
उत्तर-
काहवा का उत्पादन मुख्य रूप में 1600 ई० में शुरू हुआ था। जब एक सूफी संत बाबा बूढ़न ने यमन के ‘मोचा’ शहर से मक्का की तरफ यात्रा शुरू की तो मोचा शहर में काहवा की फलियों से बना काहवा पीकर देखा तो खुद को तरोताजा महसूस किया। वह काहवा के बीज वहाँ से अपने साथ लाए और कर्नाटक के चिंकमंगलूर शहर में बीज दिए। आज इस कारोबार को बाबा बूढ़न के पहाड़ कहा जाता है।

प्रश्न 9.
भारत में गन्ना उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्रों के बारे में बताएं।
उत्तर-
भारत में गन्ना उत्पादन महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, गुरदासपुर इत्यादि क्षेत्रों में अधिक होता है। दक्षिणी भारत में उगाया जाने वाला गन्ना बेहतर जलवायु के कारण अधिक मिठास और रसभरा होता है।

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प्रश्न 10.
सुनहरी रेशा क्या है ? यह कहाँ-कहाँ उपयोग किया जाता है ?
उत्तर-
पटसन एक सुनहरी चमकदार प्राकृतिक रेशेदार फ़सल है, इसलिए पटसन को सुनहरी रेशा कहते हैं। इसको नीचे दिए कारणों के लिए उपयोग किया जाता है—

  1. कृषि उत्पादों की संभाल के लिए, बोरी और रस्सी बनाने के लिए।
  2. टाट बनाने के लिए।
  3. कपड़े इत्यादि पटसन से ही बनते हैं।

प्रश्न III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 10-12 पंक्तियों में दें:

प्रश्न 1.
तापमान, वर्षा और मिट्टी के पक्ष से नीचे लिखे का मुकाबला करो।
1. गेहूँ और चावल
2. चाय और काहवा।
उत्तर-

गेहूँ चाय
1. गेहूँ की बिजाई के समय 10 से 15 डिग्री सैंटीग्रेड तापमान और कटाई के समय 21 से 26 डिग्री सैंटीग्रेड तापमान ठीक रहता है। 1. चाय के पौधे के लिए 20 से 30° सैंटीग्रेड तापमान ज़रूरी होता है।
2. गेहूँ के लिए 75 से 100 सैंटीमीटर वर्षा ठीक रहती है। 2. चाय की पैदावार के लिए 150 से 300 सैंटीमीटर वर्षा सालाना चाहिए।
3. उपजाऊ जलोढ़ी दोमट मिट्टी और दक्षिण के पठार की काली मिट्टी गेहूँ की फसल के लिए अच्छी मानी जाती है। 3. चाय की पैदावार के लिए अच्छी दोमट मिट्टी और जंगली मिट्टी सहायक होती है।

 

चावल काहवा
1. 24 डिग्री सैंटीग्रेड से 30 डिग्री सैंटीग्रेड तापमान चावलों की बिजाई और कटाई के लिये बिल्कुल ठीक माना जाता है। 1. काहवा के पौधे के बढ़ने के लिए 20° से 27° सैंटीग्रेड तापमान ठीक होता है। काहवा को काटने के समय तापमान गर्म होना चाहिए।
2. चावल की बेहतर फसल के लिए 50 से 200 सैंमी० सालाना वर्षा ज़रूरी है। 2. काहवा के लिये कम से कम 100 से 200 सैं०मी० सालाना वर्षा जरूरी है।
3. चिकनी, दोमट मिट्टी चावलों की फसल के लिए अच्छी मानी जाती है। 3. काहवा की पैदावार के लिए दोमट मिट्टी का उपयोग किया जाता है।

 

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प्रश्न 2.
पटसन की फसल के लिए जरूरी भौगोलिक हालातों और भारत के उत्पादन पर नोट लिखो।
उत्तर-
कपास के बाद पटसन दूसरी महत्त्वपूर्ण रेशेदार फ़सल है, इसको सुनहरी रेशे वाली फ़सल भी कहते हैं। पटसन की फसल के लिए ज़रूरी भौगोलिक हालत निम्नलिखित हैं—

  1. पटसन के उत्पादन के लिए गर्म और नमी वाले मौसम की ज़रूरत होती है। इसमें 24° से 35° सैंटीग्रेड तापमान की ज़रूरत होती है।
  2. पटसन के उत्पादन के लिए कम-से-कम नमी 80 से 90 प्रतिशत रहनी चाहिए।
  3. पटसन के उत्पादन के लिए 120 से 150 सैं०मी० तक वर्षा होनी चाहिए। पटसन की फसल काटने के बाद भी इसके रेशे बनाने की क्रिया के लिए अधिक पानी चाहिए।

उत्पादन-1947 में भारत-पाकिस्तान क्षेत्र विभाजन के साथ ही पटसन उद्योग को काफी नुकसान हुआ। पटसन का उत्पादन करने वाला 75% क्षेत्र बंगलादेश में रह गया।

विभाजन के कारण पटसन के अधिकतर कारखाने पश्चिमी बंगाल में रह गए। इसलिए बाद में भारत के पटसन के अधीन क्षेत्र में काफी बढ़ावा हुआ और साल 2015-16 में पटसन की 8842 गांठों का उत्पादन हुआ। भारत में पटसन का उत्पादन मांग से कम होता है। इसलिए हमें पटसन बंगलादेश से आयात करनी पड़ती है। 2016 में पटसन की आयात की मात्रा में 69% से 130% तक की कीमत का बढ़ाव दर्ज किया गया।

प्रश्न 3.
घनी निर्वाह कृषि पर नोट लिखो।
उत्तर-
घनी निर्वाह कृषि को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है :
1. चावल प्रधान घनी निर्वाह कृषि—इस तरह की कृषि में चावल एक प्रमुख फ़सल है। इस तरह की कृषि अधिकतर मानसूनी एशिया में की जाती है। इस तरह की कृषि में भूमि का आकार छोटा होता है। किसान और उसका पूरा परिवार सख्त मेहनत करके अपने निर्वाह योग्य अनाज पैदा करता है। बढ़ती जनसंख्या के कारण भूमि का आकार और छोटा हो जाता है। उदाहरण के तौर पर केरल और बंगाल।

2. घनी निर्वाह कृषि (चावल रहित)-भारत के कई भागों में धरातल, मिट्टी, जलवायु, तापमान, नमी इत्यादि और सामाजिक-आर्थिक कारणों के कारण चावल के अलावा और फसलें भी उगाई जाती है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घनी निर्वाह कृषि की जाती है।

प्रश्न 4.
भारत में उगाई जाने वाली फसलों के वितरण पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत में उगाई जाने वाली फसलों को हम नीचे लिखे अनुसार विभाजित कर सकते हैं:

  1. खाद्यान्न (Food Crops)-गेहूँ, मक्की, चावल, मोटे अनाज, ज्वार, बाजरा, दालें, अरहर इत्यादि।
  2. नकद फसलें (Cash Crops)-कपास, पटसन, गन्ना, तम्बाकू, तेलों के बीज, मूंगफली, अलसी, तिल, अरंडी का तेल, सफेद सरसों और काली सरसों इत्यादि।
  3. रोपण फसलें (Plantation Crops) चाय, काहवा, इलायची, मिर्च, अदरक, हल्दी, नारियल, सुपारी और रबड़ इत्यादि।
  4. बागवानी फसलें (Horticulture)-फल जैसे-सेब, आडू, नाशपाती, अखरोट, बादाम, स्ट्राबेरी, खुरमानियां, आम, केला, संतरा, किन्नू और सब्जियां इत्यादि।

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प्रश्न 5.
परती भूमि क्या होती है ? इसकी किस्में भी लिखो।
उत्तर-
परती भूमि-यह वह भूमि होती है, जो किसी कारण खाली छोड़ दी जाती है। इसमें भविष्य में उपयोग में लाने के लिए खाली छोड़ी भूमि, स्थाई चरागाहों और पेड़ों के नीचे भूमि आ जाती है। परती भूमि को मुख्य रूप में दो किस्मों में विभाजित किया जाता है—

  1. वर्तमान परती भूमि-ऐसी भूमि जो उत्पादन के योग्य है मगर किसान द्वारा वह एक साल के लिए या इससे कम समय के लिए खाली छोड़ दी जाती है, ताकि उसकी उपजाऊ शक्ति बढ़ जाए और वर्तमान में ऐसी भूमि परती भूमि कहलाती है।
  2. पुरानी परती भूमि-ऐसी ज़मीन जो कृषि योग्य है और उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने के लिए उसको 1 साल या इससे अधिक समय के लिए खाली छोड़ दी जाए, पुरानी परती भूमि कहलाती है।

प्रश्न 6.
हिमालय में पशु पालन पर नोट लिखें।
उत्तर-
हिमालय के पहाड़ों में पशु पालन ऋतु प्रवास के चक्र के अनुसार किया जाता है। सर्दी में बर्फ पड़ने से पहले ही चरवाहे अपने पशुओं को लेकर मैदानी क्षेत्रों में चले जाते हैं, ताकि उनके पशुओं के लिए चारे का भी अच्छा प्रबंध किया जा सके। गर्मी शुरू होते ही ये चरवाहे वापिस पहाड़ों की ओर चले आते हैं। पश्चिम और पूर्वी हिमालय श्रेणी में प्रवासी चरवाहे पशु पालते हैं। मुख्य तौर पर जम्मू कश्मीर में बकरवाल, भैसों को पालने वाले चरवाहे, ‘गुज़र, कानेत कौली, किन्नौरी, भेड़-पालन वाले भेटिया, शोरपा खुबू इत्यादि चरवाहे कबीले मिलते हैं।

प्रश्न 7.
पंजाब की कृषि की दरपेश खतरों (Threats) से परिचित करवाएं।
उत्तर-
पंजाब की कृषि को नीचे लिखे खतरों का सामना करना पड़ता है—

  1. खुदकुशी-कृषि में लगाए धन पर कम मुनाफे के कारण वापिस न मिलना और किसानों का कर्ज के घेरे में फंस जाना, इसी कारण पंजाब में किसानों द्वारा खुदकुशी की जा रही है। 1995 से 2015 तक 21 सालों में भारत में 3,18,528 किसान खुदकुशी कर चुके हैं।
  2. मौसम की अनिश्चितता-पंजाब में वर्षा, तापमान इत्यादि की अनिश्चितता के कारण प्राकृतिक स्रोतों का नुकसान हो रहा है।
  3. कीटों के हमले के कारण फसलों का नुकसान-फसलों पर जहरीली रासायनिक कीटनाशकों का प्रभाव कम हो गया और कीटों के लगातार हमले बढ़ रहे हैं।
  4. कर्जे की मार-बढ़ती लागत में महंगी हो रही मशीनरी, बीज और कम होती कृषि उत्पादन की कीमतों के कारण किसान और कर्जा लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं जिसके कारण वह कर्जदार हो जाते हैं।
  5. कृषिबाड़ी-कृषिबाड़ी में नई पीढ़ी का रुझान कम हो गया है।
  6. महंगी हो रही कृषि की लागत-किसानों की कृषि के साथ जुड़ी हर ज़रूरत की चीज़ महंगी होती जा रही

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प्रश्न IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 20 पंक्तियों में दो :

प्रश्न 1.
भारत में गेहूँ की कृषि के अलग-अलग पहलू के बारे में लिखो।
उत्तर-
गेहूँ रबी के मौसम की फसल है। यह फसल वास्तविकता में रोम सागर के पूर्व भाग, लेवांत (Levant) क्षेत्र से शुरू हुई मानी जाती है। पर अब यह फसल पूरे संसार में बीजी जाती है और मनुष्य के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। इसमें 13% प्रोटीन के तत्त्व मौजूद हैं जोकि बाकी अन्न फसलों के मुकाबले अधिक है। भारत दुनिया का चौथा बड़ा गेहूँ उत्पादक देश है यह दुनिया की 87% गेहूँ का उत्पादन करता है।

गेहूँ की पैदावार के लिए ज़रूरी हालात-गेहूँ उगाने के लिए बिजाई और कटाई का समय अलग-अलग जलवायु खंडों में विभाजित किया जाता है। भारत में गेहूँ की बिजाई आमतौर पर अक्तूबर/नवम्बर में की जाती है और इसकी कटाई अप्रैल महीने में की जाती है। गेहूँ मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों की मुख्य फ़सल है। इसके लिए ठंडी जलवायु और मध्यम वर्षा उपयोगी सिद्ध होती है। इसकी बिजाई समय तापमान 10 से 15 सैंटीग्रेड और कटाई के समय तापमान 21 से 26 डिग्री सैंटीग्रेड चाहिए। कटाई के समय भारी वर्षा और अधिक तापमान गेहूँ की फसल के लिए नुकसानदायक होता है। गेहूँ के लिए तकरीबन 75 से 100 सैंटीमीटर वर्षा चाहिए। इसके लिए जलोढ़ दामोदर और दक्षिणी पठार की काली मिट्टी बहुत उपयोगी है।

2014-15 में 31.0 लाख हैक्टेयर ज़मीन पर गेहूँ की फसल उगाई गई। गेहूँ का कुल उत्पादन 88.9 लाख टन था। 1971 में गेहूँ की पैदावार 1307 किलो प्रति हैक्टेयर से बढ़कर साल 2014-15 में 2872 किलो प्रति हैक्टेयर तक हो गया पर आज के समय में भी हमारे देश की पैदावार संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, रूस इत्यादि के मुकाबले काफी कम है।
संसार में उत्पादन-गेहूँ मध्य अक्षांश के शीत उष्ण खास के मैदानों की पैदावार है। संसार में गेहूँ की कृषि का क्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है।

देश उत्पादन (लाख टन) देश उत्पादन (लाख टन)
रूस 441 ऑस्ट्रेलिया 185
यू०एस०ए० 687 तुर्की 180
चीन 1226 अर्जेंटाइना 143
भारत 690
कनाडा 242
फ्रांस 339

उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा गेहूँ के प्रमुख उत्पादक हैं। इन राज्यों को भारत का अन्न भंडार भी कहते हैं। पंजाब गेहूँ का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश राज्य है और क्षेत्रफल के तौर पर यह पंजाब से छ: गुणा अधिक है।
PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) 1
व्यापार-गेहूँ के कुल उत्पादन का एक तिहाई (1/3) हिस्सा व्यापार में आ जाता है। भारत के मुख्य निर्यात राज्य पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश हैं जो अपनी गेहूँ को महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल इत्यादि जगह पर बेचते हैं।

भारत ने 1970-71 में 29.33 लाख टन गेहूँ की पैदावार की जो कि 1975-76 में 70.94 लाख टन तक पहुँच गई और 2015-16 में 618020.01 लाख टन गेहूँ का निर्यात होने लगा। मुख्य खरीददार बांगलादेश, अरब, ताइवान, नेपाल इत्यादि हैं।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

प्रश्न 2.
पंजाब का कृषि की SWOT पक्षों के बारे में बताते हुए प्रत्येक दो-दो विशेषताओं के बारे में लिखो।
उत्तर-
पंजाब की कृषि SWOT का अर्थ-Strengths (ताकत) Weaknesses (कमज़ोरी) Opportunities (अवसर), Threats (खतरे) इत्यादि पक्षों के बारे बताया।
पंजाब एक कृषि प्रधान प्रदेश है। यहाँ के निवासियों का मुख्य कार्य कृषि है। हरित क्रांति (1960) के बाद पंजाब की परंपरागत कृषि तो खत्म हो गई और पंजाब ने गेहूँ और चावल का रिकॉर्ड तोड़ उत्पादन किया। 1990 के बाद कृषि के बाद जुड़ी हुई मशीनरी और बीजों की बढ़ रही कीमतों और गेहूँ-चावल के फसली चक्र ने पंजाब के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण इत्यादि के माहौल के खराब कर दिया। इस सबकी रिपोर्ट इस तरह है—
1. (S) पंजाब की कृषि की ताकतें-पंजाब की कृषि का उत्पादन आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार काफी अधिक हो गया, क्योंकि—

  1. प्राकृतिक वातावरण अनुकूल-प्रकृति ने पंजाब को उपजाऊ मिट्टी, शुद्ध पानी के साथ नवाजा है। यहाँ की जलवायु कृषि के लिए बहुत ही अनुकूल है।
  2. हरित क्रांति का प्रभाव-1960 में आई हरित क्रांति के कारण लोगों ने बढ़िया बीजों, रासायनिक खादों का उपयोग, सिंचाई में सुधार के कारण और उपजाऊ जमीन के कारण फसलों का उत्पादन बहुत बढ़ा लिया।

इसके अतिरिक्त तकनीक की निपुणता इत्यादि के कारण कृषि का उत्पादन पहले से काफी बढ़ा लिया।
2. कृषि की कमजोरियां (W)—कृषि की विशेषता के साथ-साथ कई कमजोरियां भी हैं, जैसे कि—

  1. उत्पादन में स्थिरता/कमी-अधिक से अधिक भूमि के उपयोग के कारण भूमि की उपजाऊ शक्ति में कमी आ गई। जिस कारण 1970-80 के दशक के बाद पंजाब में कृषि के उत्पादन में कमी आई।
  2. मूल स्त्रोतों की बर्बादी-लोगों ने उत्पादन के लालच में प्राकृतिक स्रोतों का अधिक से अधिक उपयोग शुरू कर दिया क्योंकि तकनीक के बढ़ाव के कारण कृषि अधीन क्षेत्र भी काफी बढ़ गया जिस कारण प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग बढ़ गया और 1990 के बाद लगातार प्राकृतिक स्रोतों की बर्बादी हुई जिस कारण पानी का स्तर कम होता चला गया।

इसके बिना कटी फसल का भी काफी नुकसान हुआ और आधुनिक तकनीक तक कम पहुँच भी कृषि की एक कमजोरी है।
3. पंजाब की कृषि में अवसर (O)—पंजाब की कृषि ने लोगों को रोजगार के कई अवसर भी दिए हैं। जैसे कि—

  1. कृषि में बहुरूपता-फसली चक्र के कारण लोगों ने चावल और गेहूँ दो तरह की फसलों की पैदावार शुरू की जिसने पंजाब के प्राकृतिक स्रोतों को काफी नुकसान पहुँचाया जिस कारण फसली चक्र अब बदलता जा रहा है। पंजाब में किसानों को फल, सब्जियां इत्यादि पैदा करने के लिए अब प्रेरित किया जा रहा है। इस प्रकार कृषि में बहुरूपता आ रही है।
  2. जैविक कृषि को उत्साहित करना-रासायनिक कृषि को कम करने की और प्राकृतिक स्रोतों से बचाने के लिए जैविक कृषि की तरफ लोगों को प्रेरित करने की जरूरत है। दाल, सब्जी इत्यादि की पैदावार के साथ मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जा सकता है।

4. पंजाब की कृषि को खतरा (T)—पंजाब की कृषि की पैदावार के साथ-साथ कई खतरों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि—

  1. मौसम की अनिश्चितता-पंजाब में वर्षा, मौसम इत्यादि निश्चित नहीं है जिस कारण पानी का उपयोग अधिक हो रही है। क्योंकि वर्षा अनिश्चित हो रही है और कुदरती स्रोतों का नुकसान हो रहा है।
  2. कीटों के हमले कारण फसलों का नुकसान-फसली कीड़ों का प्रभाव बढ़ने के कारण फसलों का नुकसान हो रहा है। अब कीटनाशक दवाइयां, नदीननाशक तक बेअसर होते जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ साल पहले मालवा में कपास पट्टी सफेद मक्खी ने तबाह कर दिया था।
    इसके अतिरिक्त किसानों द्वारा खुदकुशियाँ कर्जे की मार, कृषि में नई पीढ़ी का कम रुझान, महंगी हो रही कृषि लागत इत्यादि कुछ खतरे पंजाब की कृषि को सहने पड़ रहे हैं।
    पंजाब को भारत का अन्न-भंडार कहा जाता है। पंजाब की कृषि ने एक नया इतिहास रचा है जिसने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए। इसलिए पंजाब की कृषि SWOT विश्लेषण विद्यार्थियों के लिए किया गया।

प्रश्न 3.
गन्ने की फसल के लिए जरूरी भौगोलिक हालात और इसके उत्पादन और वितरण से परिचय करवाओ।
उत्तर-
सारे संसार में खांड (चीनी) लोगों के भोजन का एक जरूरी अंग है। गन्ना और चुकन्दर खांड के दो मुख्य साधन हैं। संसार की 65% चीनी गन्ने और बाकी चुकन्दर से प्राप्त होती है। गन्ना एक व्यापारिक और औद्योगिक फसल है। गन्ने से कई पदार्थ जैसे, गुड़, शक्कर, सीरा, कागज, खाद, मोम इत्यादि तैयार किए जाते हैं। भारत को गन्ने का जन्मस्थान माना जाता है। यहाँ के गन्ने का विस्तार पश्चिमी देशों में हुआ है।
भौगोलिक हालात-गन्ने की फसल के लिए जरूरी भौगोलिक हालात नीचे लिखे अनुसार हैं—

1. तापमान-गन्ने की फसल को पूरी तरह तैयार होने के लिए तकरीबन 15 या कई बार 18 महीने लग जाते हैं। गन्ने को नमी वाली और गर्म जलवायु की जरूरत होती है। गन्ने की फसल के लिए 21° से लेकर 27° सैंटीग्रेड तक तापमान की जरूरत होती है। फसल को पकने के लिए 20 सैंटीग्रेड तक तापमान की जरूरत होती है जो फसल में मिठास को बढ़ा देता है।

2. वर्षा-गन्ना उगाने के समय 75 से लेकर 100 सैंटीमीटर तक वर्षा की जरूरत होती है। अगर वर्षा की मात्रा इससे अधिक हो जाए या भारी हो जाए तब गन्ने की मिठास कम हो जाती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा 100 सैं० मी० से कम होती है वहाँ सिंचाई की सहायता से कृषि की जाती है। गन्ने की फसल के लिए पकने के समय खुश्क और ठंडा मौसम अनुकूल रहता है। कोहरा गन्ने के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं होता। कोहरा पड़ने से पहले ही फसल को इसलिए काट लिया जाता है।

3. मिट्टी-गन्ने की पैदावार के लिए दोमट, चिकनी दोमट और काली मिट्टी उपयोगी है। दक्षिणी भारत की भूरी और लाल मिट्टी, लेटराइट मिट्टी काफी उपयोगी है। मिट्टी में चूना तथा फॉस्फोरस का अंश अधिक होना चाहिए। नदी घाटियों की कांप की मिट्टी गन्ने की फसल के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है।

4. सस्ते मज़दूर-गन्ने की कृषि में अधिकतर काम हाथ से किए जाते हैं। इसलिए सस्ते मजदूरों की जरूरत होती

5. धरातल-गन्ने की कृषि के लिए समतल मैदानी धरातल होना चाहिए। मैदानी भागों में जल-सिंचाई और यातायात के साधन आसानी से प्राप्त हो जाते हैं। मैदानी भागों में मशीनों को कृषि के लिए प्रयोग किया जाता है।

6. तटीय प्रदेश-अधिकतर गन्ने की पैदावार समुद्री तटीय भागों में की जाती है। यहाँ समुद्री हवा गन्ने में रस की मात्रा बढ़ा देती है।

उत्पादन-भारत ब्राजील के बाद संसार का दूसरा बड़ा गन्ना उत्पादक देश है। भारत में सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। यहाँ का उत्पादन देश के कुल उत्पादन का 38.61% होता है। दूसरे और तीसरे स्थान पर क्रमवार महाराष्ट्र और कर्नाटक हैं। इसके अतिरिक्त भारत में गन्ने का उत्पादन बिहार, हरियाणा, असम, गुजरात, आंध्रा प्रदेश और तमिलनाडु में होता है। पंजाब में गन्ने का उत्पादन गुरदासपुर, होशियारपुर, नवांशहर, रूपनगर इत्यादि जिलों में होता है।

2014-15 में पंजाब में गन्ने का उत्पादन 705 लाख क्विंटल था और 2015-16 में भारत में गन्ने का उत्पादन 26 मिलियन टन था जो कि पिछले साल से कम है। इसका कारण था कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में सूखा पड़ गया था।

भारत में गन्ने की कृषि के लिए आदर्श दशाएं दक्षिणी भारत में मिलती हैं। यहाँ उच्च तापक्रम और काफी वर्षा होती है जिसके कारण गन्ना लम्बे समय तक पीड़ा जा सकता है। उत्तर भारत में लम्बी, खुश्क ऋतु और ठंड के कारण अनुकूल दशाएं नहीं हैं। फिर भी उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई के कारण भारत का 80% गन्ना उत्तरी मैदान में होता है।
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वितरण—गन्ना उत्पादन के लिए निम्नलिखित तीन क्षेत्र प्रसिद्ध हैं—

  1. सतलुज गंगा के मैदान पंजाब से लेकर बिहार तक के प्रदेश इसमें शामिल है। इसमें 51% गन्ने के अतिरिक्त क्षेत्र आता है और उत्पादन 60% होता है।
  2. महाराष्ट्र और तमिलनाडु की पूर्व ढलान से लेकर पश्चिमी घाट वाली काली मिट्टी का क्षेत्र।
  3. आंध्र प्रदेश से कृष्णा घाटी का तटीय क्षेत्र।

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प्रश्न 4.
भारत में प्रमुख फसलों के वितरण पर विस्तार से नोट लिखें।
उत्तर-
भारत के लोगों का मुख्य रोज़गार कृषि है और लगभग आधी भारतीय जनसंख्या अपना जीवन निर्वाह कृषि और इसके साथ जुड़े सहायक रोजगारों से कर रही है। 2011-12 के राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे दफ्तर के अनुसार कुल जनसंख्या का 48.9% हिस्सा कृषि के अतिरिक्त आता है। पर कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा सिर्फ 17.4 प्रतिशत तक ही पहुँच सका है। भारत में धरातल, जलवायु, मिट्टी, तापमान इत्यादि की भिन्नता मिलती है और इस भिन्नता के कारण हम अलग-अलग फसलें बीजने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि उष्ण, उप उष्ण और शीत-उष्ण जलवायु में पैदा होने वाली फसलें हम उगाते हैं। भारत में उगाई जाने वाली फसलों का विस्तृत विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

1. खाद्यान्न- कृषिबाड़ी हमारे देश के लोगों की रीढ़ की हड्डी है और खाद्यान्न फसलें हमारे देश की कृषि की रीढ़ की हड्डी हैं। हमारे देश के लगभग तीन-चौथाई भाग में खाद्यान्न फसलें उगाई जाती हैं। देश के तकरीबन हर कोने में खाद्यान्न फसलें उगाई जाती हैं। गेहूँ, मक्की, चावल, मोटे अनाज, ज्वार, बाजरा, रागी, दालें, अरहर इत्यादि मुख्य खाद्यान्न फसलें हैं।

2. नकद फसलें-नकद फसलें कृषि सम्बन्धी फसलें हैं जो कि बेचने और लाभ या मुनाफे के लिए पैदा की जाती हैं। यह अधिकतर रूप में पर उनके द्वारा खरीदी जाती है जोकि एक खेत का हिस्सा नहीं होते। कपास, पटसन, गन्ना, तम्बाकू, तेलों के बीज, मूंगफली, अलसी, तिल, सफेद सरसों, काली सरसों इत्यादि मुख्य नकदी फसलें हैं।

3. रोपण फसलें-चाय, कॉफी, मसाले, इलायची, मिर्च, अदरक, हल्दी, नारियल, सुपारी और रबड़ इत्यादि मुख्य रोपण फसलें हैं। ये एक विशेष तरह की व्यापारिक फसलें हैं। इसमें किसी एक फसल की बड़े स्तर पर कृषि की जाती है। यह कृषि बड़े-बड़े आकार के फार्मों में की जाती है और केवल एक फसल की बिक्री के ऊपर ज़ोर दिया जाता है।

4. बागवानी फसलें-बागवानी व्यापारिक कृषि का ही एक घना रूप है। इसमें आमतौर पर फल जैसे-आड, सेब, नाशपाति, अखरोट, बादाम, स्ट्रॉबेरी, खुरमानी, आम, केला, नींबू, संतरा और सब्जियों इत्यादि का उत्पादन किया जाता है। इस कृषि का विकास संसार के औद्योगिक और शहरी क्षेत्रों के पास होता है। यह कृषि छोटे स्तर पर की जाती थी पर इसमें एक उच्च स्तर का विशेषीकरण होता है। भूमि पर घनी कृषि की जाती है। सिंचाई और खाद का प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक ढंग, उत्तम बीज और कीटनाशक दवाइयां इत्यादि का उपयोग किया जाता है। उत्पादों को जल्दी बिक्री करने के लिए यातायात की अच्छी सुविधा होती है। इस प्रकार प्रति व्यक्ति आमदन अधिक होती है।

प्रश्न 5.
भारत में कृषि के मौसमों की सूची बनाकर मुख्य पक्षों से पहचान करवाओ।
उत्तर-
भारत में कृषि के मुख्य मौसम दो हैं-खरीफ और रबी। इनको आगे दो उप मुख्य मौसमों में विभाजित किया जाता है। जैद खरीफ और रबी जैद। इन मौसमों और उप-मौसमों के आधार पर भारत की कृषि के मुख्य मौसमों की क्रमवार सूची और उनके पक्ष नीचे लिखे अनुसार हैं—

1. खरीफ-खरीफ की फसल की बिजाई का मुख्य काम मई में शुरू हो जाता है और इस फसल की कटाई का काम अक्तूबर में किया जाता है। दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के शुरू होते ही इस फसल की बुआई का काम शुरू कर दिया जाता है। मुख्य फसलें-ज्वार, बाजरा, चावल, मक्की, कपास, पटसन, मूंगफली, तम्बाकू इत्यादि प्रमुख खरीफ की फसलें हैं।

2. जैद खरीफ-इसकी बुआई का काम अगस्त में शुरू होता है और कटाई का काम जनवरी में होता है। मुख्य फसलें-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास, तिलहन के बीज इत्यादि जैद खरीफ की फसलें हैं।

3. रबी-इन फसलों की बुआई का काम अक्तूबर में शुरू हो जाता है और कटाई का काम मध्य अप्रैल में ही शुरू हो जाता है। लौट रही मानसून के समय तक इसकी बुआई चलती है। मुख्य फसलें-गेहूँ, जौ, चने, अलसी की बीज, सरसों, मसर, और मटर इत्यादि इस मौसम की मुख्य फसलें

4. जैद रबी-इसकी बुआई का काम फरवरी और मार्च तक होता है और कटाई का काम अप्रैल के मध्य से मई तक होता है। कई फसलों की कटाई जून तक भी पहुँच जाती है। मुख्य फसलें-तरबूज/खरबूजा, तोरिया, खीरा, अंधवा और सब्जियां इस मौसम की मुख्य फसलें हैं।

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Geography Guide for Class 12 PSEB आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) Important Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर (Objective Type Question Answers)

A. बहु-विकल्पी प्रश्न

प्रश्न 1.
“आर्थिक भूगोल पृथ्वी के तल पर आर्थिक क्रियाओं की क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन है।” यह किस भूगोलवेत्ता का कथन है ?
(A) जॉन अलैग्जेण्डर
(B) डॉर्कन बाल्ड
(C) मैक्फ्रालैन
(D) हंटिगटन।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 2.
नीचे दिए गए में से सहायक व्यवसाय कौन-सा है ?
(A) लकड़ी काटना
(B) कृषि
(C) खनिज निकालना
(D) निर्माण उद्योग।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सी बागानी फ़सल नहीं है ?
(A) काहवा
(B) गन्ना
(C) गेहूँ
(D) रबड़।
उत्तर-
(C)

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प्रश्न 4.
कौन-सा कबीला पशु चराने का कार्य करता है ?
(A) पिगमी
(B) बकरवाल
(C) रैड इण्डियन
(D) मिसाई।
उत्तर-
(B)

प्रश्न 5.
गहन निर्वाह कृषि की मुख्य फसल है :
(A) चावल
(B) गेहूँ
(C) मक्का
(D) कपास।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 6.
डेनमार्क किस कृषि के लिए प्रसिद्ध है ?
(A) मिश्रित कृषि
(B) पशु-पालन
(C) डेयरी फार्मिंग
(D) अनाज कृषि।
उत्तर-
(C)

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प्रश्न 7.
राईरा (रेबेरी) (ऊंट, भेड़, बकरी) चरागाह भाईचारा किस राज्य में मिलता है ?
(A) कर्नाटक
(B) केरल
(C) राजस्थान
(D) तमिलनाडु।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 8.
खरीफ की काल अवधि क्या है ?
(A) मई से अक्तूबर
(B) अगस्त से जनवरी
(C) अक्तूबर से जनवरी
(D) मई से जून।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 9.
चाय की कृषि के लिए किस प्रकार की मिट्टी उपयोग की जाती है ?
(A) गहरी मिट्टी
(B) काली मिट्टी
(C) चिकनी मिट्टी
(D) रेगर मिट्टी।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन-सी काहवे की किस्म नहीं है ?
(A) अरेबिका
(B) रोबसटा
(C) लाईवेरिका
(D) लगून।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से कौन-सी कपास की किस्म नहीं है ?
(A) लम्बे रेशे वाली
(B) साधारण रेशे वाली
(C) छोटे रेशे वाली
(D) मोटे रेशे वाली।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 12.
किस फसल को सुनहरी रेशा कहा जाता है ?
(A) पटसन
(B) काहवा
(C) गेहूँ
(D) चावल।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 13.
संसार का सबसे अधिक गन्ना कहाँ पर होता है ?
(A) ब्राज़ील
(B) कैनेडा
(C) कर्नाटक।
(D) यू०एस०ए०।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 14.
सफेद क्रांति किससे सम्बन्धित है ?
(A) दूध से
(B) कृषि से
(C) कोयले से
(D) चमड़े के उत्पादन से।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 15.
मनुष्य का सबसे पुराना धन्धा कौन-सा है ?
(A) मछली पालन
(B) कृषि
(C) औद्योगीकरण
(D) संग्रहण।
उत्तर-
(D)

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प्रश्न 16.
संग्रहण कहाँ की जाती है ?
(A) अमाजोन बेसिन
(B) गंगा बेसिन
(C) नील बेसिन
(D) हवांग हो।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 17.
कौन-सी फसल के उत्पादन में भारत का संसार में पहला स्थान है ?
(A) पटसन
(B) काहवा
(C) चाय
(D) चावल।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 18.
कौन-सा राज्य सबसे अधिक गेहूँ की पैदावार करता है ?
(A) उत्तर प्रदेश
(B) पंजाब
(C) हरियाणा
(D) राजस्थान।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 19.
हरित क्रांति किसकी पैदावार से सम्बन्धित है ?
(A) पटसन की
(B) चमड़े की
(C) फसलों की पैदावार की
(D) मछली की।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 20.
निम्नलिखित में से कौन सा खतरा पंजाब की कृषि को नहीं है ?
(A) मौसम की भिन्नता
(B) कर्ज की मार
(C) खुदकुशियाँ
(D) रोज़गार के साधन।
उत्तर-
(D)

B. खाली स्थान भरें :

  1. गुलाबी क्रांति …………….. के साथ सम्बन्धित है।
  2. पंजाब की ………………. कृषि सिंचाई अधीन है।
  3. ब्राज़ील के बाद ………………… संसार का दूसरा गन्ना उत्पादक देश है।
  4. भारत में ………………… का उत्पादन मांग से कम है।
  5. …………….. सुनहरी, चमकदार, कुदरती रेशेदार फसल है।
  6. लम्बे रेशे वाली कपास में रेशे की लम्बाई ……………….. कि०मी० तक होती है।

उत्तर-

  1. मीट उत्पादन,
  2. 80%,
  3. भारत,
  4. पटसन,
  5. पटसन,
  6. 24 से 25.

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C. निम्नलिखित कथन सही (✓) है या गलत (✗):

  1. कपास की कृषि के लिए 200 सैंटीमीटर वर्षा की जरूरत होती है।
  2. भारत के कपास के क्षेत्र के हिसाब से पहला और उत्पादन के हिसाब से चीन का पहला स्थान है।
  3. भारत 45 से अधिक देशों को काहवा निर्यात करता है।
  4. चाय की 10 प्रचलित किस्में हैं।
  5. भारत दुनिया का बड़ा चावल उत्पादक देश है।
  6. गेहूँ मुख्य रूप में उत्तर-पश्चिमी भारत पैदा की जाती है।

उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. गलत,
  5. सही,
  6. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्नोत्तर (One Word/Line Question Answers) :

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल का अर्थ समझने के लिए क्या ज़रूरी है ?
उत्तर-
आर्थिक भूगोल का अर्थ समझने के लिए उसकी शाखाओं का अध्ययन आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
टरशरी क्षेत्र कौन से होते हैं ?
उत्तर-
आर्थिकता का टरशरी क्षेत्र सेवाओं का उद्योग होता है।

प्रश्न 3.
भारत में कृषि के मौसम कौन-से हैं ?
उत्तर-
खरीफ, रबी और जैद।

प्रश्न 4.
एल नीनो का फसलों के उत्पादन पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-
एल नीनो के कारण वर्षा कम होती है और फसलों का उत्पादन कम होता है।

प्रश्न 5.
पश्चिम बंगाल में चावल की तीन फसलें बताओ।
उत्तर-
अमन, ओस, बोगे।

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प्रश्न 6.
चावल की कृषि के लिए तापमान और वर्षा कितनी आवश्यक है ?
उत्तर-
तापमान-21°C, वर्षा 150 cm.

प्रश्न 7.
संसार में सबसे अधिक चावल पैदा करने वाला देश कौन सा है ?
उत्तर-
चीन।

प्रश्न 8.
चावल का कटोरा किस प्रदेश को कहते हैं ?
उत्तर-
हिन्द-चीन।

प्रश्न 9.
गेहूँ की दो किस्में कौन-सी हैं ?
उत्तर-
शीतकालीन गेहूँ, बसन्तकालीन गेहूँ।

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प्रश्न 10.
भारत में गेहूँ उत्पन्न करने वाले तीन राज्य बताओ।
उत्तर-
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा।

प्रश्न 11.
एक रेशेदार फसल का नाम लिखो।
उत्तर-
कपास।

प्रश्न 12.
संयुक्त राज्य में कपास पेटी के तीन राज्य बताओ।
उत्तर-
टैक्सास, अलाबामा, टेनेसी।

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प्रश्न 13.
मिश्र देश में लम्बे रेशे वाली कपास का क्षेत्र बताओ।
उत्तर-
नील डेल्टा।

प्रश्न 14.
चाय की कृषि के लिए आवश्यक वर्षा तथा तापमान बताओ।
उत्तर-
वर्षा 200 सैं०मी०, तापमान 25°CI

प्रश्न 15.
दार्जिलिंग की चाय अपने स्वाद के लिए क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
अधिक ऊँचाई तथा पर्वतीय ढलानों के कारण धीरे-धीरे उपज बढ़ती है।

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प्रश्न 16.
गन्ने के उपज के लिए दो देश बताओ।
उत्तर-
क्यूबा तथा जावा।

प्रश्न 17.
फैजेन्डा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
ब्राज़ील में काहवे के बड़े-बड़े बाग़ान का।

प्रश्न 18.
कृषि से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
धरती से उपज प्राप्त करने की कला।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

प्रश्न 19.
Slash and burn कृषि किस वर्ग की कृषि है ?
उत्तर-
स्थानान्तरी कृषि।

प्रश्न 20.
भारत के तीन राज्य बताओ, जहाँ स्थानांतरी कृषि होती है ?
उत्तर-
मेघालय, नागालैंड, मणिपुर।

प्रश्न 21.
बागाती कृषि क्या है ?
उत्तर-
बड़े-बड़े खेतों पर एक व्यापारिक फसल की कृषि।

प्रश्न 22.
घनी कृषि करने वाले कोई दो देश बताओ।
उत्तर-
भारत और चीन।।

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प्रश्न 23.
काहवा की किस्में बताओ।
उत्तर-
अरेबिका और रोबस्टा।

प्रश्न 24.
पंजाब के कृषि की कोई दो ताकतों के बारे में बताओ।
उत्तर-
अनुकूल पर्यावरण और हरित क्रांति के प्रभाव।

प्रश्न 25.
पंजाब की कृषि को होने वाले कोई दो खतरे बताओ।
उत्तर-
कर्जे की मार, महंगी हो रही कृषि लागत।

प्रश्न 26.
परती भूमि को कौन-से दो भागों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
वर्तमान परती भूमि और पुरानी परती भूमि।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल की परिभाषा बताओ।
उत्तर-
भूगोल धरती को मनुष्य का निवास स्थान मानकर अध्ययन करता है और इसका वर्णन करता है। भूगोल किसी क्षेत्र में मनुष्य, पर्यावरण और मनुष्य की क्रियाओं का अध्ययन करता है।

प्रश्न 2.
एल नीनो और लानीना का कृषि की पैदावार पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-
संसार में एल नीनो और लानीना का कृषि की पैदावार पर बड़ा असर पड़ता है। एल नीनो के समय पर कम वर्षा होती है जिसके साथ फसलों का उत्पादन कुछ हद तक कम हो जाता है और लानीना के कारण वर्षा अच्छी हो जाती है और फसलों की पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3.
खानाबदोश पशु-पालक भारत में किन स्थानों पर मिलते हैं और यह कौन-से पशु पालते हैं ?
उत्तर-
भारत में खानाबदोश पशु-पालक पश्चिमी भारत में थार के रेगिस्तान, दक्षिण के पठार, हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों में मिलते हैं। यह मुख्य रूप में भैंस, गाय, भेड़, बकरी, ऊँट, खच्चर, गधे इत्यादि पालते हैं।

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प्रश्न 4.
मोनपा चरवाहों के बारे में बताओ।
उत्तर-
मोनपा चरवाहे अरुणाचल प्रदेश के तवांग इत्यादि स्थानों पर रहते हैं और इनकी नस्ली पहचान बोधी/ तिब्बती है। यह कामेरा, तबांग से नीचे वाले क्षेत्रों में ऋतु प्रवास के समय चले जाते हैं।

प्रश्न 5.
मनुष्य धंधों के नाम बताओ और इनके वर्ग भी बताओ।
उत्तर-
कृषि, पशु-पालन, खनिज निकालना, मछली पकड़ना। यह धंधे तीन वर्गों में विभाजित किये जाते हैं।

  1. आरम्भिक धंधे
  2. सहायक धंधे
  3. टरशरी धंधे।।

प्रश्न 6.
कृषि से आपका क्या अर्थ है ? कृषि का विकास किन कारणों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-
पृथ्वी से उपज प्राप्त करने की कला को कृषि (कृषि) कहते हैं। यह मनुष्य की मुख्य क्रिया है। कृषि का विकास धरातल, मिट्टी, जलवायु, सिंचाई, खाद इत्यादि यंत्रों के प्रयोग पर निर्भर करता है। अब कृषि सिर्फ किसी प्रक्रिया पर निर्भर नहीं है। कृषि का विकास तकनीकी ज्ञान और सामाजिक पर्यावरण की देन है।

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प्रश्न 7.
फिरतू (स्थानान्तरी) कृषि किसे कहते हैं ? इसके दोष कौन से हैं ?
उत्तर-
वनों को काट कर तथा झाड़ियों को जला कर भूमि को साफ कर लिया जाता है और फिर कृषि के लिए प्रयोग किया जाता है इसे स्थानान्तरी कृषि कहते हैं। इससे वनों का नाश होता है। इससे पर्यावरण को हानि होती है। इससे मिट्टी की उपजाऊ शक्ति कम होती है और मिट्टी अपरदन बढ़ जाता है।

प्रश्न 8.
भारत में कौन-से प्रदेशों में घूमंतु कृषि की जाती है ?
उत्तर-
भारत के कई प्रदेशों में इत्यादिवासी जातियों के लोग घूमंतु कृषि करते हैं। उत्तरी पूर्वी भारत के वनों में से त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, मिज़ोरम प्रदेशों में अनेक जन-जातियों द्वारा यह कृषि की जाती है। मध्य प्रदेश में भी यह कृषि प्रचलित है।

प्रश्न 9.
रोपण (बाग़ानी) कृषि किसे कहते हैं ? रोपण कृषि से किन फसलों की कृषि की जाती है ?
उत्तर-
उष्ण कटिबन्ध में जनसंख्या कम होती है जबकि यह कृषि बड़े-बड़े आकार के खेतों या बाग़ान पर की जाती है। रोपण कृषि की मुख्य फसलें हैं रबड़, चाय, काहवा, कॉफी, गन्ना, नारियल, केला इत्यादि।

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प्रश्न 10.
रोपण कृषि में क्या समस्याएं हैं ?
उत्तर-
रोपण कृषि वाले क्षेत्र कम आजादी वाले क्षेत्र हैं। यहाँ पर मजदूरों की कमी होती है। यहाँ उष्ण नमी वाले प्रदेशों में मिट्टी अपरदन और घातक कीड़ों और बीमारियों की समस्या है।

प्रश्न 11.
सामूहिक कृषि किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह एक ऐसी कृषि प्रणाली है जिसका प्रबंध इत्यादि सहकारिता के आधार पर किया जाता है। इस तरह की कृषि में सारे प्रतियोगी अपनी इच्छानुसार अपनी भूमि एक-दूसरे के साथ इकट्ठा करते हैं। कृषि का प्रबंध सहकारी संघ के द्वारा किया जाता है। डैनमार्क को सहकारिता का देश कहते हैं।

प्रश्न 12.
बुश फैलो (Bush Fallow) कृषि से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बुश फैलो कृषि स्थानान्तरी कृषि का ही एक उदाहरण है। वनों को काटना और झाड़ियों को जला कर भूमि को कृषि के लिए तैयार किया जाता है। इसको काटना और जलाना कृषि भी कहते हैं।

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प्रश्न 13.
झूमिंग (Jhumming) से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
यह कृषि भी स्थानान्तरी कृषि की एक उदाहरण है। भारत के उत्तर पूर्वी भाग में आदिम जातियों के लोग पेड़ों को काटकर या जलाकर भूमि को साफ़ कर लेते हैं। इन खेतों की उपजाऊ शक्ति कम होने पर नये खेतों को साफ़ किया जाता है।

प्रश्न 14.
चाय की कृषि पहाड़ी ढलानों वाली भूमि पर की जाती है। क्यों ?
उत्तर-
चाय के बाग़ पहाड़ी ढलानों पर होते हैं, इसके लिए अधिक वर्षा की आवश्यकता होती है। इसलिए भूमि का ढलानदार होना ज़रूरी होता है, ताकि पौधों की जड़ों में पानी इकट्ठा न हो।

प्रश्न 15.
काहवा के पौधों को पेड़ों की छाँव में क्यों लगाया जाता है ?
उत्तर-
सूर्य की सीधी और तेज़ किरणे काहवे की फसल के लिए हानिकारक होती हैं। पाला तथा तेज़ हवाएं काहवे के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए कहवे की कृषि सुरक्षित ढलानों पर की जाती है ताकि काहवे के पौधे तेज़ सूर्य की रोशनी और पाले से सुरक्षित रहें।

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प्रश्न 16.
कपास की फसल के पकते समय वर्षा क्यों नहीं होनी चाहिए ?
उत्तर-
कपास खुश्क क्षेत्रों की फसल है। फसल को पकते समय खुश्क मौसम की जरूरत होती है। आसमान साफ हों और चमकदार धूप होनी चाहिए। इसके साथ कपास का फूल अच्छी तरह खिल जाता है और चुनाई आसानी से हो जाती है।

प्रश्न 17.
संसार की अधिकतर गेहूँ 25° से 45° अक्षांशों में क्यों होती है ?
उत्तर-
गेहूँ शीत उष्ण प्रदेश का पौधा है। उष्ण कटिबन्ध अधिक तापमान के कारण शीत कटिबन्ध कम तापमान के कारण गेहूँ की कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। 25° से 45° अक्षांशों के बीच के प्रदेशों में शीत काल में कम सर्दी और कम वर्षा हो जाती हैं, जैसे रोम सागर खंड में।

प्रश्न 18.
दार्जिलिंग की चाय क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग क्षेत्र की चाय अपने विशेष स्वाद के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहाँ अधिक ऊंचाई के कारण तापमान कम रहता है। सारा साल सापेक्ष नमी रहती है। कम तापमान व नमी के कारण चाय धीरेधीरे बढ़ती है। इससे चाय का स्वाद अच्छा होता है।

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प्रश्न 19.
संसार का अधिक चावल दक्षिणी और दक्षिणी पूर्वी एशिया में क्यों मिलता है ?
उत्तर-
यह प्रदेश उष्ण कटिबन्ध में है। यहाँ पर तापमान सारा साल उच्च मिलता है। मानसून के कारण वर्षा अधिक होती है। नदियों से उपजाऊ मैदान और डेल्टा चावल की कृषि के लिए अनुकूल है। घनी जनसंख्या के कारण मजदूर अधिक मात्रा में मिल जाते हैं। इस प्रकार अनुकूल भौगोलिक हालतों के कारण दक्षिण-पूर्वी एशिया में सबसे अधिक चावल पैदा किए जाते हैं।

प्रश्न 20.
चाय की विभिन्न किस्मों का वर्णन करो।
उत्तर-
चाय निम्नलिखित किस्मों की होती है—

  1. सफेद चाय-इसकी पत्तियाँ मुरझाई हुई होती हैं।
  2. पीली चाय-इसकी पत्तियां ताजी होती हैं।
  3. हरी चाय-उत्तम प्रकार की चाय है।
  4. अलौंग चाय-सबसे उत्तम प्रकार की चाय है।
  5. काली चाय-जो कि साधारण प्रकार की चाय है।
  6. खमीरा करने के बाद बनाई पत्ती। इसका रंग हरा होता है।

प्रश्न 21.
ट्रक कृषि (Truck Farming) किसे कहते हैं ? उदाहरण दो।
उत्तर-
व्यापार के उद्देश्य से सब्जियों की कृषि को ट्रक कृषि कहते हैं। नगरों के इधर-उधर के क्षेत्रों में यह कृषि प्रसिद्ध है। इन चीजों को ट्रक के द्वारा नगर के बाज़ार तक भेजा जाता यह कृषि न्यूयार्क में लांग द्वीप (Long Island) में और भारत के श्रीनगर में डल झील में की जाती है।

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प्रश्न 22.
गन्ने की कृषि के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र कौन-से हैं ?
उत्तर-
गन्ने के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र हैं—

  1. सतलुज गंगा के मैदान से बिहार तक।
  2. महाराष्ट्र से तमिलनाडु के पूर्वी ढलानों से पश्चिमी घाट
  3. आन्ध्र प्रदेश में कृष्ण घाटी का तटीय क्षेत्र।

प्रश्न 23.
काहवा के प्रकार बताओ।
उत्तर-
काहवे के भारत में अधिकतर रूप में दो प्रकार से मिलते हैं—

  1. अरेबिका
  2. रोबस्टा।

हालांकि काहवा का लाईबेरिका और कई और प्रकार भी संसार में उगाये जाते हैं। प्रमुख रूप में अरेबिका और रोबस्टा प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 24.
भारत में उगाई जाने वाली फसलों को किस प्रकार की फसलों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
भारत में फसलों को इस प्रकार विभाजित किया जाता है :

  1. खाद्यान्न
  2. नकद फसलें
  3. रोपण फसलें
  4. बागवानी फसलें।

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प्रश्न 25.
जीविका कृषि किसे कहते हैं ?
उत्तर-
इस कृषि प्रणाली द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन से अधिक से अधिक जनसंख्या का भरण-पोषण किया जा सके। इसे निर्वाहक कृषि भी कहते हैं। स्थानान्तरी कृषि, स्थानबद्ध कृषि तथा गहन कृषि, जीविका कहलाती हैं। इस कृषि द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग को पूरा किया जाता है।

प्रश्न 26.
किसी देश की आर्थिकता को कुछ क्षेत्रों में क्यों विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
किसी देश की आर्थिकता को अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है, क्योंकि किसी क्षेत्र के कार्य में व्यस्त जनसंख्या का अनुपात ही उस देश की आर्थिक क्रिया के लिए उस क्षेत्र का महत्त्व तय करती है। इस तरह वर्गीकरण यह भी निश्चित करता है कि क्रियाओं का प्राकृतिक साधनों के साथ क्या और कितना सम्बन्ध है, क्योंकि मौलिक आर्थिक क्रियाओं का सम्बन्ध सीधे तौर पर धरती पर मिलते कच्चे साधनों के उपयोग से होता है। जो कृषि और खनिजों के रूप में मिलते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल क्या है ? इसका क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भूगोल पृथ्वी को मनुष्य का निवास स्थान मान कर अध्ययन करता है और इसका वर्णन करता है। भूगोल किसी क्षेत्र में मनुष्य, पर्यावरण और मानवीय क्रिया का अध्ययन करता है। आर्थिक भूगोल, मानवीय भूगोल की ही एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। आर्थिक भूगोल का विस्तृत अर्थ समझने के लिए इसकी शाखाओं का अध्ययन बहुत आवश्यक है।
आर्थिक भूगोल का हमारे देश भारत जोकि विकासशील देश के लिए बहुत महत्त्व रखता है, क्योंकि इसके अध्ययन द्वारा देश का विकास करने के ढंग-तरीकों का अध्ययन किया जाता है।

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प्रश्न 2.
किसी देश की आर्थिकता को कौन से मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है ? अध्ययन करो।
उत्तर-
किसी देश की आर्थिकता को मुख्य रूप में पाँच क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है जैसे कि—

  1. प्राकृतिक साधनों पर आधारित क्षेत्र-जो सीधे रूप में कृषि और प्राकृतिक साधनों पर आधारित हैं।
  2. सहायक क्षेत्र या दूसरे स्तर के क्षेत्र-इस क्षेत्र में कच्चे माल को इस्तेमाल करके काम में आने वाली चीजें बनाई जाती हैं। इसमें निर्माण उद्योग और नवीन उद्योग की तकनीकों को शामिल किया जाता है।
  3. टरशरी क्षेत्र या तीसरे स्तर के क्षेत्र-आर्थिकता का यह स्तर उद्योग के साथ सम्बन्धित है जैसे कि परिवहन, व्यापार, संचार साधन, यातायात का विभाजन, मंडी इत्यादि।
  4. चतुर्धातुक क्षेत्र या चौथे स्तर के क्षेत्र-इस क्षेत्र की क्रिया बौद्धिक विकास की क्रिया होती है, जैसे कि तकनीक और खोज कार्य इत्यादि।
  5. पांचवें स्तर के क्षेत्र-इसमें सर्वोत्तम और नीतिगत फैसले लेने वाली क्रिया को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 3.
काहवे के इतिहास पर नोट लिखो।
या
काहवे के पेशे को बाबा बूदन पहाड़ क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
काहवे के उत्पादन की मुख्य रूप में शुरुआत 1600 ई० में शुरू हुई। इसका इतिहास यह है कि एक सूफी फकीर बाबा बूदन ने यमन के मोचा शहर से मक्का तक की एक यात्रा शुरू की। तब मोचा शहर में काहवा की फलियों से बनाये काहवे को पिया और काहवा पीने के बाद उसकी सारी थकान दूर हो गई और उसने अपने आपको तरो ताज़ा महसूस किया। उसने काहवा का बीज वहाँ से लाकर कर्नाटक के स्थान चिकमंगलूर शहर में बीज दिया और आज इस पेशे को इस कारण बाबा बूदन पहाड़ भी कहते हैं।

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प्रश्न 4.
जीविका कृषि की मुख्य विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
जीविका कृषि की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं—

  1. खेत छोटे आकार के होते हैं।
  2. साधारण यन्त्र प्रयोग करके मानव श्रम पर अधिक जोर दिया जाता है।
  3. खेतों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने तथा मिट्टी का उपजाऊपन कायम रखने के लिए हर प्रकार की खाद, रासायनिक उर्वरक का प्रयोग किया जाता है।
  4. भूमि का पूरा उपयोग करने के लिए साल में दो-तीन या चार-चार फसलें भी प्राप्त की जाती हैं। शुष्क ऋतु में अन्य खाद्य फसलों की भी कृषि की जाती है।
  5. भूमि के चप्पे-चप्पे पर कृषि की जाती है। पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीदार खेत बनाए जाते हैं। अधिकतर कार्य मानव श्रम द्वारा किए जाते हैं। 6. चरागाहों के लिए भूमि प्राप्त न होने के कारण पशु पालन कम होता है।

प्रश्न 5.
उद्यान कृषि (Horticulture) की मुख्य किस्मों पर नोट लिखो।
उत्तर-
उद्यान कृषि की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं—

  1. बाज़ार के लिए सब्जी कृषि-बड़े-बड़े नगरों की सीमाओं पर सब्जियों की कृषि की जाती है। प्रत्येक मौसम के अनुसार ताजा सब्जियां बाज़ार में भेजी जाती हैं। भारत में मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता तथा श्रीनगर सब्जियों की कृषि के लिए प्रसिद्ध हैं।
  2. ट्रक कृषि-नगरों से दूर, अनुकूल जलवायु तथा मिट्टी के कारण कई प्रदेश में सब्जियों या फलों की कृषि की जाती है। इन फलों तथा सब्जियों का ऊँचा मूल्य प्राप्त करने के लिए नगरीय बाजारों में भेज दिया जाता है। इन वस्तुओं को प्रतिदिन नगरीय बाजारों में लाने के लिए ट्रकों का प्रयोग किया जाता है।
  3. पुष्प कृषि-इस कृषि द्वारा विकसित प्रदेशों में फूलों की माँग को पूरा किया जाता है।
  4. फल उद्यान-उपयुक्त जलवायु के कारण कई क्षेत्रों में विशेष प्रकार के फलों की कृषि की जाती है।

प्रश्न 6.
संसार में कृषि के बदलते स्वरूप पर नोट लिखो।
उत्तर-
जनसंख्या की वृद्धि के कारण और कृषि में नये बीजों के कारण तथा कृषि के मशीनीकरण के कारण कृषि का स्वरूप बड़ी तेजी से बदल रहा है। अब कृषि को करने का ढंग पिछले तरीकों से बिल्कुल अलग है। अब कृषि में अच्छे बीजों और कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है। किसानों के लिए कृषि अब एक प्रभावशाली पेशा बनता जा रहा है। कृषि का उत्पादन दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। भारत के कुल घरेलू उत्पादन में कृषि का हिस्सा 17% है और चीन का 10 प्रतिशत, जब कि संयुक्त राज्य अमेरिका का सिर्फ 1.5 प्रतिशत है। उष्ण खंडी घाट के मैदानों में दालें और अनाज की कृषि की जाती है और डेल्टाई क्षेत्रों में चावल की, शीतोउष्ण घास के मैदानों में अनाज के साथ फल, सब्ज़ियाँ और दूध का उत्पादन किया जाता है। इस तरह कृषि का स्वरूप बदलता जा रहा है। पहले लोग फसली चक्र से अनजान थे, पर अब अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाई जा रही हैं।

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प्रश्न 7.
पशु-पालन से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
प्रारम्भिक मनुष्य जंगलों में रहता था, जानवरों का शिकार करता था और कच्चा मांस खाता था। धीरे-धीरे उसने माँस पका के खाना शुरू कर दिया और फिर मांस पकाने और शिकार करने के अतिरिक्त जानवरों को पालना भी शुरू कर दिया। विश्व में धरातल के साथ-साथ जलवायु में भी काफी भिन्नता मिलती है। जिसके कारण देश की अलग अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के जानवर पाले जाते हैं। यह पशु-पालन परंपरागत तौर पर घास के मैदानों या चरागाहों में किया जाता है। इसलिए इसको Pastoralism भी कहते हैं। मौजूदा समय में तकनीकी विकास के कारण पशुपालन का पेशा और भी अधिक विकसित हो गया है और व्यापारिक स्तर पर भी इस पेशे को अपना लिया गया है।

प्रश्न 8.
भूमि के उपयोग के सारे पक्षों को विस्तृत रूप में लिखो।
उत्तर-
भूमि के सही उपयोग के लिए इसके सभी पक्षों की जानकारी अति आवश्यक है। इसके पक्षों की जानकारी इस प्रकार है—

  1. जंगल अतिरिक्त क्षेत्र-वह क्षेत्र जो जंगल के अधीन आता है। जंगलों अतिरिक्त क्षेत्र कहलाता है। जंगल अधीन बड़े क्षेत्र का अर्थ यह नहीं कि जंगल वहाँ पहले ही हों, बल्कि यह भी हो सकता है जंगल लगाने के लिए जगह भी वहाँ खाली करवाई जाए।
  2. बंजर और कृषि योग्य भूमि-इस भूमि के अधीन वह भूमि आती है जिसमें सड़कें, रेलगाड़ी और ट्रक या बंजर ज़मीन आती है।
  3. परती भूमि-यह कृषि योग्य भूमि, जो किसान द्वारा एक साल या उससे कम समय के लिए खाली छोड़ दी जाए, जिससे उसकी उपजाऊ शक्ति बढ़ जाए। परती भूमि कहलाती है।
  4. कल बिजाई अधीन क्षेत्र-वह भूमि जिस पर फसलें बीजी गई हों।
  5. कृषि अधीन कुल क्षेत्र-वह भूमि जिसमें फसलें बीजी गई हों।

प्रश्न 9.
जीविका कृषि पर नोट लिखो।
उत्तर-
इस कृषि द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन से अधिक से अधिक जनसंख्या का भरण-पोषण किया जा सके। इसे निर्वाहक कृषि भी कहते हैं। इसको दो हिस्सों में विभाजित किया जाता है—

1. इत्यादिकालीन या पुरानी निर्वाहक कृषि-इस तरह की कृषि किसान सिर्फ अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए करता है। इस कृषि में कोई मशीन या रासायनिक पदार्थ नहीं प्रयोग किया जाता है। अधिकतर कृषि स्थानान्तरी कृषि होती है। जिस कारण भूमि पहले से ही उपजाऊ होती है।

2. घनी निर्वाह कृषि-घनी निर्वाह कृषि को आगे दो भागों में विभाजित किया जाता है। एक जगह पर चावल अधिक उगाये जाते हैं उसे घनी चावल प्रधान निर्वाह कृषि कहते हैं। एक स्थान पर चावलों की जगह और फसलों की बिजाई की जाती है तो उसे चावल रहित निर्वाह कृषि कहते हैं।

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प्रश्न 10.
कृषि के मौसमों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत की कृषि को मुख्य रूप में चार मौसमों में विभाजित किया जाता है—

  1. खरीफ-ये फसलें मई से अक्तूबर तक की अवधि की होती हैं। इस मौसम की मुख्य फसलें हैं-ज्वार, बाजरा, चावल, मक्की, कपास, मूंगफली, पटसन इत्यादि।
  2. जैद खरीफ-इसकी समय अवधि अगस्त से जनवरी तक की है। इसकी मुख्य फसलें-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास, तेलों के बीज इत्यादि हैं।
  3. रबी-इसकी समय अवधि अक्तूबर से दिसम्बर तक की होती है। इसकी मुख्य फसलें हैं-गेहूँ, छोले, अलसी के बीज, सरसों, मसर और मटर इत्यादि।
  4. जैद रबी-इसका समय फरवरी से मार्च तक का होता है। इस मौसम की मुख्य फसलें है तरबूज, तोरिया, खीरा और सब्जियां इत्यादि।

प्रश्न 11.
गेहूँ की मुख्य किस्में बताओ।
उत्तर-
गेहूँ की किस्में-ऋतु के आधार पर गेहूँ को दो भागों में विभाजित किया गया है—

  1. सर्द ऋतु की गेहूँ-इस तरह गेहूँ गर्म जलवायु वाले प्रदेशों में नवम्बर से दिसम्बर तक के महीने में बीजी जाती हैं और गर्म ऋतु के शुरू में ही काट ली जाती हैं। विश्व में गेहूँ के कुल क्षेत्रफल 67% भाग में सर्द ऋतु के गेहूँ की फसल बोई जाती है।
  2. बसंत ऋतु का गेहूँ-बहुत ठंडे क्षेत्रों में बर्फ पिघल जाने के बाद बसंत ऋतु में इस तरह की फसल बोई जाती है।

प्रश्न 12.
चावल की मुख्य किस्में और बिजाई की पद्धतियों के बारे में बताओ।
उत्तर-
चावल की मुख्य रूप में दो किस्में होती हैं—

  1. पहाड़ी चावल-इन चावलों की पर्वतीय ढलानों सीढ़ीदार खेत बना के बिजाई की जाती हैं।
  2. ‘मैदानी चावल-इस किस्म में चावल की नदी घाटियों या डेल्टा में समतल धरती पर बिजाई की जाती है।

चावल बीजने की पद्धतियाँ-चावल बीजने में अधिक प्रसिद्ध तीन तरीके मिलते है।

  1. छटा दे के
  2. पनीरी लगा कर
  3. खोद कर।

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प्रश्न 13.
काहवा की कृषि के मुख्य क्षेत्र कौन से हैं ? काहवा की मुख्य किस्में बताओ।
उत्तर-
काहवा भी चाय की तरह एक पेय पदार्थ है। इसको बागाती कृषि कहते हैं। यह काहवा पेड़ों के फलों के बीजों का चूर्ण होता है। इसमें कैफ़ीन नामक पदार्थ होता है, जिसके कारण काहवा नशा देता है। काहवा का अधिक प्रयोग U.S.A. में होता, जबकि चाय का अधिक प्रयोग पश्चिमी यूरोप में होता है। इसका जन्म स्थान अफ्रीका के इथोपिया देश के कैफ़ा प्रदेश से माना जाता है।
काहवा की मुख्य किस्में—

  1. अरेबिका
  2. रोबस्टा
  3. लाईबेरिका।

प्रश्न 14.
कपास की विभिन्न किस्मों का वर्णन करें।
उत्तर-
रेशे की लम्बाई के अनुसार कपास को मुख्य रूप से तीन किस्मों में विभाजित किया जाता है—
1. लम्बे रेशे वाली कपास-इस प्रकार की कपास का रेशा 24 से 27 मिलीमीटर तक होता है और देखने में इस तरह की कपास काफी चमकदार होती है। भारत में इस किस्म की कपास कुल कपास के उत्पादन में 50% योगदान डालती है।

2. मध्य रेशे वाली कपास-इस प्रकार की कपास के रेशे की लम्बाई 20 से 24 मिलीमीटर तक की होती है। इसका कुल उत्पादन भारत में 44 प्रतिशत तक होता है।

3. छोटे रेशे वाली कपास-इस प्रकार की कपास का रेशा 20 मिलीमीटर तक लम्बाई वाला होता है। इस प्रकार के रेशे वाली कपास घटिया किस्म की कपास मानी जाती है।

प्रश्न 15.
पटसन की फसल को सुनहरी फसल क्यों कहते हैं ? पटसन की कृषि के लिए ज़रूरी हालातों पर नोट लिखें।
उत्तर-
पटसन एक सुनहरी और चमकदार प्राकृतिक रेशेदार फसल है; जिस कारण इसको सुनहरी रेशे वाली फसल कहते हैं। यह कपास के बाद मुख्य रेशेदार फसल है। पटसन से मुख्य रूप में कृषि के उत्पादन को संभालने के लिए बोरी, रस्सियां, टाट, कपड़े इत्यादि तैयार किये जाते हैं। इसकी माँग दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।

पटसन की कृषि की मुख्य हालात-पटसन की कृषि के लिए गर्म और नमी वाला मौसम चाहिए। इसको 24 सैंटीग्रेड से 35 सैंटीग्रेड तापमान की ज़रूरत होती है। इसकी कृषि के लिए 80 से 90 प्रतिशत तक की नमी की ज़रूरत होती हैं। इसके लिए 120 से 150 सैंटीमीटर वर्षा की ज़रूरत होती है। पटसन की फसल काटने के बाद भी इसको रेशे बनाने की क्रिया के लिए काफी अधिक पानी चाहिए।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

प्रश्न 16.
पंजाब की कृषि के लिए मुख्य ताकतें क्या हैं ?
उत्तर-
पंजाब की कृषि की मुख्य विशेषताएं और ताकतें निम्नलिखित अनुसार हैं—

  1. अनुकूल प्राकृतिक पर्यावरण-प्रकृति ने पंजाब को उपजाऊ मिट्टी, धरातल और शुद्ध पानी के साथ नवाजा है, जिस कारण अधिकतर लोग पंजाब में कृषि के पेशे से जुड़े हुए हैं।
  2. तकनीक का विकास-तकनीक के विकास के कारण नई-नई मशीनों का जन्म हुआ जिसके साथ कृषि का उत्पादन बढ़ गया है।
  3. हरित क्रान्ति का प्रभाव-1960 में हरित क्रान्ति के बाद अच्छे बीज और रासायनिक पदार्थों के प्रयोग के कारण उत्पादन में काफी वृद्धि हुई।

प्रश्न 17.
पंजाब की कृषि की कमजोरियों पर नोट लिखो।
उत्तर-
पंजाब की कृषि में विशेषताओं के साथ-साथ कुछ कमजोरियाँ भी हैं—
1. उत्पादन में कमी-1960 की हरित क्रान्ति के बाद किसानों ने अधिक-से-अधिक उत्पादन के लिए रासायनिक पदार्थों का उपयोग करना शुरू किया, जिसके साथ भूमि का उपजाऊपन कम हो गया और 1970 के बाद उत्पादन में भारी गिरावट आने लगी।

2. मूल स्रोतों की बर्बादी-कृषि में अधिकतर उत्पादन के कारण प्राकृतिक स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। कृषि के अधिक विकास के कारण पानी भी अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाता है, जिसके कारण पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है।

3. कटी फसल का नुकसान-फसल को काटने की परम्परा के अनुसार, काटने के बाद बहुत सारी फसल का नुकसान हो जाता है।

4. आधुनिक तकनीक तक कम पहुँच-पंजाब के बहुत सारे किसानों के पास अभी भी आधुनिक तकनीकों की कमी है क्योंकि गरीबी के कारण बहुत सारे किसान मूल्यवान मशीनें और रासायनिक पदार्थों को हासिल नहीं कर सकते।

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निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल क्या है ? आर्थिक भूगोल में आर्थिकता को कौन-से मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया गया है और आर्थिक भूगोल का महत्त्व भी बताओ।
उत्तर-
आर्थिक भूगोल भी मानव भूगोल की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। इसमें मनुष्य और पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। इसका उद्देश्य मनुष्य की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए गए उत्पादन प्रयत्नों का अध्ययन करना है। प्रत्येक क्षेत्र के पर्यावरण के अनुसार आर्थिक व्यवसायों का विकास होता है। जैसे घास के मैदानों में पशु-पालन, शीतोष्ण कटिबन्ध में लकड़ी काटना तथा मानसून खण्ड में कृषि मुख्य धन्धे हैं। इन धंधों के कारण ही प्रत्येक क्षेत्र का विस्तार स्तर विभिन्न है। इस प्रकार हम ज्ञात कर सकते हैं कि पृथ्वी पर प्राकृतिक साधनों का कहां, क्यों, कैसे और कब उपयोग किया जाता है। इस प्रकार आर्थिक भूगोल मानवीय क्रियाओं पर पर्यावरण के प्रभाव का विश्लेषण करता है। आर्थिक क्रियाओं के आर्थिक सम्बन्धों से आर्थिक भू-दृश्य का जन्म होता है जिसकी व्याख्या की जाती है। इस प्रकार आर्थिक भूगोल पृथ्वी पर मानव की आर्थिक क्रियाओं की क्षेत्रीय विभिन्नताओं, स्थानीय वितरण, स्थिति तथा उनके सम्बन्धों व प्रतिरूपों का अध्ययन है।

मेकफरलेन के अनुसार, “आर्थिक भूगोल उन भौगोलिक दशाओं का वर्णन है जो वस्तुओं के उत्पादन, परिवहन तथा व्यापार पर प्रभाव डालती हैं।”
किसी भी देश की आर्थिकता को आगे कई क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है, क्योंकि हर एक क्षेत्र में लगी जनसंख्या देश की आर्थिक क्रिया पर अलग असर डालती है। आर्थिक भूगोल में आर्थिकता को मुख्य रूप में अग्रलिखित क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है—

1. प्रारम्भिक क्षेत्र या पहले स्तर का क्षेत्र (Primary Sector)—प्रारम्भिक क्षेत्र में आमतौर पर कृषि या प्रारम्भिक क्रियाओं को शामिल किया जाता है। इसमें हर प्रकार की मानवीय ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कच्चे माल का उत्पादन किया जाता है। इस क्षेत्र में स्रोत कच्चे माल और खनिज पदार्थों के रूप में मिलते हैं।
Primary Level. Resources needed to make a pencitwood, Graphite (lead), Rubber, Metal comes from Primary sector.
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2. सहायक क्षेत्र या दूसरे स्तर का क्षेत्र (Secondary Sector)-इस क्षेत्र के बीच औद्योगिक विकास शामिल है। इस क्षेत्र में कच्चे माल से कोई प्रयोग योग्य सामान तैयार किया जाता है। इस क्षेत्र की मुख्य क्रियाएं हैं जैसे कि स्वचालित कार, कृषि के पदार्थ जैसे कि कपास से कपड़ा बनाना इत्यादि।

3. टरशरी क्षेत्र (Tertiary Sector)-इस क्षेत्र में उद्योग और क्षेत्रीय सेवाएं शामिल होती हैं। इस क्षेत्र में मुख्य रूप में सेवाएँ आती हैं। प्रारम्भिक क्षेत्र और सहायक क्षेत्र में पैदा किए और बनाए सामान को बाजारों में और इस क्षेत्र में बेचा जाता है।

4. चतुर्धातुक क्षेत्र (Quaternary Sector)-इस क्षेत्र में मुख्य रूप में क्रियाओं को शामिल किया जाता है। कई जटिल स्रोतों के संसाधन के लिए यहाँ ज्ञान इत्यादि का उपयोग किया जाता है।

5. पाँच का क्षेत्र (Quinary Sector)—इस क्षेत्र में आर्थिक विकास का स्तर अधिक होता है और लोगों के सामाजिक फैसले योग्य संस्थानों द्वारा लिए जाते हैं।

आर्थिक भूगोल का महत्त्व (Importance of Economic Geography)-आज के समय में आर्थिक भूगोल का अध्ययन बहुत उपयोगी है। पिछले कुछ सालों से भूगोल की इस शाखा का बहुत विकास हुआ है। आर्थिक भूगोल एक प्रगतिशील ज्ञान है। इसका अध्ययन क्षेत्र बहुत वृद्धि आई है। इसके अध्ययन के साथ यह आसानी से पता लगता है कि देश के किसी क्षेत्र में विकास की संभावना है और क्यों ? सफल कृषि, उद्योग और व्यापार आर्थिक भूगोल के ज्ञान पर निर्भर हैं। इसका अध्ययन किसानों के लिए, उद्योगपतियों के लिए, व्यापारियों के लिए, योजनाकारों के लिए, राजनीतिवानों के लिए और साधारण व्यक्तियों के लिए बहुत उपयोगी है।

प्रश्न 2.
कृषि की किस्मों पर एक नोट लिखो।
उत्तर-
कृषि को अलग-अलग किस्मों में विभाजित किया जाता है, जो कि निम्नलिखितानुसार हैं.
1. स्थानान्तरी कृषि (Shifting Cultivation)—यह कृषि का बहुत प्राचीन ढंग है जो अफ्रीका तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया के उष्ण आर्द्र वन प्रदेशों में रहने वाले इत्यादिवासियों का मुख्य धन्धा है। वनों को काट कर तथा झाड़ियों को जला कर भूमि को साफ कर लिया जाता है। वर्षा काल के पश्चात् उसमें फसलें बोई जाती हैं। जब दो-तीन फसलों के पश्चात् उस भूमि का उपजाऊपन नष्ट हो जाता है, तो उस क्षेत्र को छोड़ कर नए स्थान पर वनों को साफ करके नए खेत बनाए जाते हैं। इसे स्थानान्तरी कृषि कहते हैं। यह कृषि वन प्रदेशों के पर्यावरण की दशाओं के अनुकूल होती है। इसमें खेत बिखरे-बिखरे मिलते हैं। इस कृषि में फसलों के हेर-फेर के स्थान पर खेतों का हेर-फेर होता है। खेतों का आकार छोटा होता है। यह , आकार 0.5 से 0.7 हैक्टेयर तक होता है। इस कृषि में मोटे अनाज चावल, मक्की, शकरकन्द, कसावा इत्यादि कई फसलें एक साथ बोई जाती हैं।

2. स्थानबद्ध कृषि (Sedentary Agriculture)-यह कृषि स्थानान्तरी कृषि से कुछ अधिक उन्नत प्रकार की होती है। इसमें किसान स्थायी रूप से एक ही प्रदेश में कृषि करते हैं। जिन प्रदेशों में कृषि योग्य भूमि की कमी होती है, नई-नई कृषि भूमियां उपलब्ध नहीं होती, वहां लोग एक ही स्थान पर बस जाते हैं तथा स्थानबद्ध कृषि अपनाई जाती है। आजकल संसार में अधिकतर कृषि स्थानबद्ध कृषि के रूप में अपनाई जाती है। इस कृषि ने ही मानव को स्थायी जीवन प्रदान किया है। इस कृषि में अनुकूल भौतिक दशाओं के कारण आवश्यकताओं से कुछ अधिक उत्पादन हो जाता है। इसमें कृषि के उत्तम ढंग प्रयोग किए जाते हैं। इसमें फसलों का हेर-फेर किया जाता है। भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए खाद का भी प्रयोग होता है। मुख्य रूप से अनाजों की कृषि की जाती है।

3. जीविका कृषि (Subsistance Agriculture)—इस कृषि प्रणाली द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होता है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन से अधिक से अधिक जनसंख्या का भरण-पोषण किया जा सके। इसे निर्वाहक कृषि भी कहते हैं। इस द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग को पूरा किया जाता है। खेत छोटे आकार के होते हैं। साधारण यन्त्र प्रयोग करके मानव श्रम पर अधिक जोर दिया जाता है। खेतों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने तथा मिट्टी का उपजाऊपन कायम रखने के लिए हर प्रकार की खाद, रासायनिक उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। भूमि का पूरा उपयोग करने के लिए साल में दो, तीन या चार फसलें भी प्राप्त की जाती हैं। शुष्क ऋतु में अन्य खाद्य फसलों की भी कृषि की जाती है।

4. व्यापारिक कृषि (Commercial Agriculture)-इस कृषि में व्यापार के उद्देश्य से फसलों की कृषि की जाती है। यह जीविका कृषि से इस प्रकार भिन्न है कि इस कृषि द्वारा संसार के दूसरे देशों को कृषि पदार्थ निर्यात किए जाते हैं। अनुकूल भौगोलिक दशाओं में एक ही मुख्य फ़सल के उत्पादन पर जोर दिया जाता है ताकि व्यापार के लिए अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त हो सके। यह आधुनिक कृषि का एक प्रकार है। इसमें उत्पादन मुख्यतः बिक्री के लिए किया जाता है। यह कृषि केवल उन्नत देशों में ही होती है। यह बड़े पैमाने पर की जाती है। इसमें रासायनिक खाद, उत्तम बीज, मशीनों तथा जल-सिंचाई साधनों का प्रयोग किया जाता है।

5. गहन कृषि (Intensive Agriculture)-थोड़ी भूमि से अधिक उपज प्राप्त करने के ढंग को गहन कृषि कहते हैं। इस उद्देश्य के लिए प्रति इकाई भूमि पर अधिक मात्रा में श्रम और पूंजी लगाई जाती है। अधिक जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि कम होती है। इस सीमित भूमि से अधिक से अधिक उपज प्राप्त करके स्थानीय खपत की पूर्ति की जाती है। यह प्राचीन देशों की कृषि प्रणाली है। खेतों का आकार बहुत छोटा होता है। खाद, उत्तम बीज, कीटनाशक दवाइयां, सिंचाई के साधन तथा फसलों का हेर-फेर का प्रयोग किया जाता है।

6. विस्तृत कृषि (Extensive Agriculture)-कम जनसंख्या वाले प्रदेशों में कृषि योग्य भूमि अधिक होने के कारण बड़े-बड़े फार्मों पर होने वाली कृषि को विस्तृत कृषि कहते हैं। कृषि यन्त्रों के अधिक प्रयोग के कारण इसे यान्त्रिक कृषि भी कहते हैं। इस कृषि में एक ही फ़सल के उत्पादन पर जोर दिया जाता है ताकि उपज को निर्यात किया जा सके। इसलिए इसका दूसरा नाम व्यापारिक कृषि भी है। यह कृषि मुख्यतः नए देशों में की जाती है। इसमें अधिक से अधिक क्षेत्र में कृषि करके अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। यह एक आधुनिक कृषि प्रणाली है जिसका विकास औद्योगिक क्षेत्रों में खाद्यान्नों की मांग बढ़ने के कारण हुआ है। यह कृषि समतल भूमि वाले क्षेत्रों पर की जाती है जहाँ कृषि का आकार बहुत बड़ा होता है। कृषि यन्त्रों का अधिक प्रयोग किया जाता है। जैसे ट्रैक्टर, हारवैस्टर, कम्बाइन, थ्रेशर इत्यादि।

7. मिश्रित कृषि (Mixed Agriculture)-जब फ़सलों की कृषि के साथ-साथ पशु पालन इत्यादि सहायक धन्धे भी अपनाए जाते हैं तो उसे मिश्रित कृषि कहते हैं। इस कृषि में फसलों तथा पशुओं से प्राप्त पदार्थों में एक पूर्ण समन्वय स्थापित किया जाता है। इस कृषि में दो प्रकार की फसलें उत्पादित की जाती हैं-खाद्यान्न ‘ तथा चारे की फ़सलें। पशुओं को शीत ऋतु में चारे की फ़सलें खिलाई जाती हैं। ग्रीष्म ऋतु में चरागाहों पर चराया जाता है तथा खाद्यान्नों का एक भाग जानवरों को खिलाया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में मक्का पट्टी में मांस प्राप्त करने के लिए पशुओं को मक्का खिलाया जाता है। इसके साथ एक ही खेत पर एक साथ कई फसलों की कृषि की जाती है। इस प्रकार मुद्रा-फसलों की कृषि भी की जाती है। इस प्रकार की कृषि के लिए वैज्ञानिक ढंग प्रयोग किए जाते हैं। यह कृषि का एक अंग है।

8. उद्यान कृषि (Horticulture)-उद्यान कृषि व्यापारिक कृषि का एक सघन रूप है। इसमें मुख्यतः सब्जियों, फल और फूलों का उत्पादन होता है। इस कृषि का विकास संसार के औद्योगिक तथा नगरीय क्षेत्रों के पास होता है। यह कृषि छोटे पैमाने पर की जाती है परन्तु इसमें उच्च स्तर का विशेषीकरण होता है। भूमि पर सघन कृषि होती है। सिंचाई तथा खाद का प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक ढंग, उत्तम बीज तथा कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग किया जाता है। उत्पादों को बाज़ार में तुरन्त बिक्री करने के लिए यातायात की अच्छी सुविधाएं होती हैं। इस प्रकार प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक होती है।

9. रोपण कृषि (Plantation Agriculture)-यह एक विशेष प्रकार की व्यापारिक कृषि है। इसमें किसी एक नकदी की फसल की बड़े पैमाने पर कृषि की जाती है। यह कृषि बड़े-बड़े आकार के खेतों या बागान पर की जाती है इसलिए इसे बागानी कृषि भी कहते हैं। रोपण कृषि की मुख्य फसलें रबड़, चाय, काहवा, कोको, गन्ना, नारियल, केला इत्यादि हैं। इसमें केवल एक फसल की बिक्री के लिए कृषि पर जोर दिया जाता है। इसका अधिकतर भाग निर्यात कर दिया जाता है। इस कृषि में वैज्ञानिक विधियों, मशीनों, उर्वरक, अधिक पूंजी का प्रयोग होता है ताकि प्रति हैक्टेयर उपज को बढ़ाया जा सके, उत्तम कोटि का अधिक मात्रा में उत्पादन हो।

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प्रश्न 3.
कृषि से आपका क्या अर्थ है ? कृषि के वर्गीकरण और कृषिबाड़ी के मौसमों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भूमि से उपज प्राप्त करने की कला को कृषि (कृषि) कहते हैं। यह मनुष्य की प्राथमिक आर्थिक क्रिया है। कृषि का विकास धरातल, मिट्टी, जलवायु, सिंचाई, खाद और यंत्रों के प्रयोग पर निर्भर करता है। अब कृषि सिर्फ प्रकृति पर निर्भर नहीं है। कृषि का विकास तकनीकी ज्ञान और सामाजिक पर्यावरण की देन है।
संसार में कृषि का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। कृषि हमारे देश के लोगों की आर्थिकता का मुख्य साधन है। डॉ० एम०एस० रंधावा (1959) ने कृषि का वर्गीकरण किया। डॉ० महेन्द्र सिंह रंधावा का जन्म जीरा (फिरोजपुर) में हुआ। वह एक जीव विज्ञानी थे और इसके अतिरिक्त वह एक प्रशासनिक अधिकारी थे। उन्होंने भारतीय कृषि को अलगअलग क्षेत्रों में विभाजित किया है। जिसका ज्ञान हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह क्षेत्र इस प्रकार हैं—

1. शीत उष्ण हिमालय क्षेत्र (The Temperate Himalayan Region)—इन क्षेत्रों के अधीन मुख्य रूप में हिमालय के पास वाले पश्चिम में जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्व में अरुणाचल प्रदेश और असम के राज्य शामिल हैं। इसको आगे दो मंडलों में विभाजित किया जाता है।

  • पहले उपमंडल में वे राज्य शामिल हैं यहां वर्षा अधिक होती है जैसे कि पूर्व भाग में सिक्किम, नागालैंड, त्रिपुरा असम इत्यादि। इन राज्यों में घने जंगल मिलते हैं। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप में चावल और चाय की कृषि की जाती है।
  • दूसरे उपमंडल में वे राज्य शामिल हैं यहाँ मुख्य रूप में उद्यान इत्यादि की फसलें उगाई जाती हैं। इसमें पश्चिमी क्षेत्र जैसे कि जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांखड इत्यादि शामिल हैं। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से फल और सब्जियों इत्यादि की कृषि की जाती है पर मक्की, चावल, गेहूं और आलू की कृषि भी इन क्षेत्रों में प्रचलित है।

2. उत्तरी खुश्क क्षेत्र [The Northan Dry (Wheat) Region] —इन क्षेत्रों के अधीन पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरी पश्चिमी मध्य प्रदेश इत्यादि आते हैं, क्योंकि अब सिंचाई की सुविधा की काफी उपलब्ध है इसलिए राजस्थान को इस क्षेत्र में शामिल कर लिया गया है। पंजाब, हरियाणा जैसे प्रदेशों में ट्यूबवैल इत्यादि की मदद से कृषि की सिंचाई सुविधा दी जाती है। इन क्षेत्रों की मुख्य फसलें हैं-गेहूं, मक्की, कपास, सरसों, चने, चावल, गन्ना और मोटे अनाज।

3. पूर्वी नमी वाले क्षेत्र (The Eastern wet Region)-इन क्षेत्रों में भारत के पूर्वी भाग असम, मेघालय, मिजोरम, पश्चिमी बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश इत्यादि शामिल हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा 150 सैंटीमीटर तक हो जाती है जो कि चावलों की कृषि के लिए लाभदायक सिद्ध होती है। इन क्षेत्रों की मुख्य फसलें हैं चावल, पटसन, दालें, तिलहन, चाय और गन्ना इत्यादि।

4. पश्चिमी नमी वाले क्षेत्र (The Western wet Region)-इन क्षेत्रों के अधीन महाराष्ट्र और केरल तक का तटीय क्षेत्र शामिल होता है। यहाँ वर्षा 200 सैंटीमीटर होती है और कई बार 200 सैंटीमीटर से भी अधिक हो जाती है। इन क्षेत्रों की मुख्य फसलें नारियल, रबड़, काहवा, काजू और मसाले इत्यादि।

5. दक्षिणी क्षेत्र (South Region)-इस क्षेत्र के अधीन गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक इत्यादि क्षेत्र आते हैं। जहाँ वर्षा 50 से 100 सैंटीमीटर तक होती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें हैं-कपास, बाजरा, मूंगफली, तिलहन और दालें इत्यादि।

कृषि के मौसम (Agricultural Season)—भारत में कृषि को मुख्य रूप में चार मौसमों में विभाजित किया जाता हैं, जो हैं—

  1. खरीफ-इसकी बिजाई मई में होती है और कटाई अक्तूबर में की जाती है। इस कृषि अधीन आती मुख्य फसलें हैं-बाजरा, चावल, मक्की, कपास, मूंगफली, पटसन, तम्बाकू इत्यादि।
  2. जैद खरीफ-इस मौसम में बिजाई का समय अगस्त महीने में है और कटाई जनवरी में की जाती है। इस मौसम की फसलें हैं-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास, तेलों के बीज इत्यादि।
  3. रबी-इन फसलों की बिजाई अक्तूबर और कटाई अप्रैल के मध्य में शुरू हो जाती है। इसके अधीन आती फसलें हैं-गेहूं, जौ, अलसी के बीज, सरसों, मसूर और मटर इत्यादि।
  4. जैद रबी-इस मौसम में बिजाई का काम फरवरी में होता है और कटाई अप्रैल के मध्य तक होती है। इस मौसम की मुख्य फसलें हैं-तरबूज, तोरी, खीरा इत्यादि सब्जियां।।

प्रश्न 4.
गेहूं की कृषि के लिए अनुकूल भौतिक दशाओं की व्याख्या करो तथा भारत के प्रमुख गेहूं उत्पादन क्षेत्रों का वर्णन करो।
उत्तर-
गेहूं संसार का सबसे प्रमुख अनाज है। इसमें पौष्टिक तत्वों की काफी मात्रा शामिल होती है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चलता है कि सिंधु घाटी में गेहूं की कृषि आज से लगभग पांच हजार साल पहले से की जा रही है-रूम सागरी प्रदेशों को गेहूं का जन्म स्थान माना जाता है। गेहूं शब्द उर्दू भाषा के शब्द गंधुम से बना है जिसका हिंदी भाषा में अर्थ है गेहूं। यह एक मौसम की फसल है।
गेहूं की किस्में (Types of Wheat)-ऋतु के आधार पर गेहूं दो तरह की होती है—

  1. सर्द ऋतु की गेहूं (Winter Wheat)—इस तरह की गेहूं गर्म जलवायु के प्रदेशों में नवंबर-दिसंबर के महीने में बीजी जाती है और गर्म ऋतु के शुरू में ही काट ली जाती है। संसार में गेहूं कुल क्षेत्रफल के 67% भाग में सर्द ऋतु की गेहूं की बिजाई की जाती है।
  2. बसंत ऋतु की गेहूं (Spring Wheat)-बहुत ठंडे प्रदेशों में बर्फ पिघल जाने के तुरन्त बाद बसंत ऋतु में इस तरह की गेहूं की कृषि की जाती है। संसार में कुल गेहूं उगाने वाले क्षेत्रफल का 33% हिस्सा बसंत ऋतु की गेहूं अधीन आता है। जैसे-कैनेडा, चीन और रूस के उत्तरी भाग में।

उपज और भौगोलिक स्थिति (Geographical Conditions of Growth) गेहूं शीत-उष्ण कटिबन्ध का पौधा है, परन्तु यह अनेक प्रकार की जलवायु में उत्पन्न होता है। वर्ष में कोई समय ऐसा नहीं जबकि संसार में गेहूं की फसल बोई या काटी न जाए। गेहूं की उपज, क्षेत्रों का विस्तार 22° से 60° उत्तर तथा 20° से 45° दक्षिण अक्षांशों के बीच हैं। संसार में बहुत कम देश हैं जो गेहूं की कृषि नहीं करते। विश्व में अलग-अलग प्रदेशों में व्यापारिक ठंड उद्देश्य के लिए गेहूं की कृषि मध्य विस्तार हैं।

1. तापमान (Temperature) गेहूं की कृषि को बोते समय कम तापमान 10° C से 15° C और पकते समय ऊचे तापमान 20°C से 27° C आवश्यक है। गेहूं की फसल के लिए कम-से-कम 100 दिन पाला रहित मौसम चाहिए। गेहूं अति निम्न तापमान सह नहीं सकता।

2. वर्षा (Rainfall)-गेहूं की कृषि के लिए साधारण वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर तक होनी चाहिए। बोते समय ठंडे मौसम और साधारण वर्षा तथा पकते समय गर्म व खुश्क मौसम ज़रूरी है। इसलिए रूम सागरीय जलवायु गेहूं के लिए आदर्श जलवायु है। इसके अतिरिक्त चीन तुल, मानसून ब्रिटिश तुल और अर्ध मरुस्थल जलवायु के क्षेत्रों में भी गेहूं की कृषि की जाती है।

3. जल सिंचाई (Irrigation)-कम वर्षा वाले क्षेत्रों में गेहूं के लिए जल सिंचाई आवश्यक है जैसे कि सिन्ध …. घाटी और पंजाब के खुश्क भागों में खुश्क कृषि के ढंग अपनाये जाते हैं।

4. मिट्टी (Soil)—गेहूं के लिए दोमट तथा चिकनी मिट्टी उत्तम है। अमेरिका के प्रेयरीज तथा रूस के स्टेप प्रदेश की गहरी काली भूरी मिट्टी सबसे उत्तम है। इसमें वनस्पति के अंश तथा नाइट्रोजन में वृद्धि होती है।

5. धरातल (Topography)-गेहूं के लिए समतल मैदानी भूमि चाहिए ताकि उस पर कृषि यन्त्र और जल सिंचाई का प्रयोग किया जा सके। साधारण, ऊंची-नीची यां लहरदार धरातल और जल निकास का अच्छा विकास होता है।

6. आर्थिक तत्व (Economical Abstract)—गेहूं की फसल कृषि के लिए ट्रैक्टरों, कम्बाइन इत्यादि मशीनों का प्रयोग आवश्यक है। उत्तम बीज व खाद के प्रयोग से प्रति एकड़ उपज में वृद्धि होती है। गेहूं को रखने के लिए गोदामों की सुविधा आवश्यक है। गेहूं की कटाई के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता होती है। गेहूं के लिए रासायनिक खादों की आवश्यकता है। जिस कारण यूरोप के देशों में गेहूं की प्रति हैक्टेयर उपज आज बहुत अधिक है।

भारत के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र-भारत का संसार में गेहूं के उत्पादन में चौथा स्थान है। भारत में गेहूं रबी की फसल हैं। जहां कुल उत्पादन 664 लाख मीट्रिक टन है। देश में हरित क्रान्ति के कारण भारत गेहूं के उत्पादन में आत्म निर्भर हैं। अधिक उपज देने वाली किस्मों का उपयोग करने से उपज में भारी वृद्धि हुई है। भारत में अधिकतर वर्षा वाले क्षेत्र
और मरुस्थलों को छोड़कर उत्तरी भारत के सारे राज्यों में गेहूं की कृषि होती है। भारत के पर्वतीय ठंडे प्रदेशों में बसंत ऋतु की गेहूं की कृषि होती है। हिमाचल प्रदेश में किन्नौर, लाहौर, जम्मू कश्मीर में लद्दाख, सिक्किम और हिमालय के पर्वतीय भागों में इस किस्म के गेहूं की बिजाई की जाती है। गेहूं प्रमुख रूप में उत्तर-पश्चिमी भारत में बीजी जाती है।

1. उत्तर प्रदेश-यह राज्य भारत में सबसे अधिक (200 लाख टन) गेहूं उत्पन्न करता है। इस राज्य में गंगा यमुना, दोआब, तराई प्रदेश, गंगा-घाघरा दोआब प्रमुख क्षेत्र हैं। इस प्रदेश में नहरों द्वारा जल-सिंचाई तथा शीत काल की वर्षा की सुविधा है।

2. पंजाब-यह राज्य 110 लाख टन गेहूं का उत्पादन करता है। इसे भारत का अन्न भण्डार कहते हैं। यहाँ उपजाऊ मिट्टी, शीत काल की वर्षा, जल सिंचाई व खाद की सुविधाएँ प्राप्त हैं। इस राज्य में मालवा का मैदान तथा दोआब प्रमुख क्षेत्र हैं।

3. हरियाणा-हरियाणा में रोहतक से करनाल तक के क्षेत्र में गेहूं की पैदावार की जाती है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश में भोपाल जबलपुर क्षेत्र, राजस्थान में गंगानगर क्षेत्र, बिहार में तराई क्षेत्र, में गेहूं की पैदावार होती है। भारत ने साल 1970-71 में 29.23 लाख टन गेहूं की आयात की थी जो कि इन क्षेत्रों के अतिरिक्त भारत और मध्य प्रदेश के भोपाल जबलपुर के क्षेत्र राजस्थान के गंगानगर क्षेत्र और बिहार के तराई क्षेत्र गेहूं के उत्पादन के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। भारत के गेहूं के मुख्य खरीददार देश हैं बंगलादेश, नेपाल, अरब अमीरात, ताईवान और फिलपाइन्ज।
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PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

प्रश्न 5.
चावल की कृषि के लिए भौगोलिक दशाएं, उत्पादन और उत्तर भारत में मुख्य उत्पादक क्षेत्रों का वर्णन करो।
उत्तर-
संसार में चावल की कृषि पुराने समय से की जा रही है। चीन में चावल की कृषि ईसा से 3000 साल पहले ही की जाती थी। भारत तथा चीन को चावल की जन्मभूमि माना जाता है। इन देशों से ही यूरोप, उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका के देशों में चावल की कृषि का विस्तार हुआ है। मानसून प्रदेशीय एशिया के लोगों का मुख्य भोजन चावल है। संसार की लगभग 40% जनसंख्या का मुख्य भोजन चावल है। इसे Gift of Asia भी कहते हैं। चावल पैदा करने वाले देशों में जनसंख्या घनी होती है।
चावल की किस्में (Types of Rice)—चावलों की मुख्य रूप में दो किस्में होती हैं—

  1. पहाड़ी चावल (Upland Rice)—यहाँ चावलों की पर्वतीय ढलानों और सीढ़ीदार खेत बनाकर बिजाई की जाती है।
  2. मैदानी चावल (Lowland Rice)-इस किस्म के चावल की नदी घाटियों या डेल्टाई क्षेत्रों में समतल भूमि पर बिजाई की जाती है।

चावल की बिजाई के तरीके (Methods of Cultivation)-चावल की बिजाई के प्रसिद्ध तीन तरीके हैं1. छटा दे कर 2. पनीरी लगा कर 3. खोद कर।
उपज की भौगोलिक दशाएं (Conditions of Growth) चावल उष्ण और उपोष्ण कटिबन्ध का पौधा है। चावल की कृषि 40° उत्तर से 40° दक्षिण अक्षांशों के बीच होती है। मुख्यतः चावल की कृषि मानसून एशिया में सीमित हैं। यहाँ चावल की गहन जीविका कृषि की जाती है।

1. तापमान (Temperature)-चावल को बोते समय 20° C तथा पकते समय 24°C तापमान की आवश्यकता होती है। ऐसे तापमान के कारण ही पश्चिमी बंगाल में वर्ष में तीन फसलें होती हैं। चावल की फसल 120 200 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है।

2. वर्षा (Rainfall)-चावल की कृषि के लिए 100 से 150 सें.मी. तक वर्षा अनुकूल होती है। चावल का पौधा 15 सें०मी० पानी में 75 दिनों तक डूबा रहना चाहिए। गर्मी की ऋतु में वर्षा बहुत सहायक होती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल सिंचाई की सहायता से चावल की कृषि की जाती है, जैसे पंजाब में।

3. धरातल (Topography)-चावल के पौधे को हमेशा पानी में रखने के लिए समतल भूमि की आवश्यकता होती है ताकि वर्षा व जल सिंचाई से प्राप्त जल खेतों में खड़े रह सके। चीन और जापान की पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीनुमा कृषि की जाती है। अधिकतर भागों में 1000 मीटर की ऊंचाई तक चावल की कृषि होती है।

4. मिट्टी (Soil)-चावल की कृषि के लिए चिकनी या भारी दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। यह मिट्टी अधिक-से-अधिक पानी की बचत कर सकती है। इसी कारण चावल नदी घाटियों, डेल्टाओं तथा तटीय मैदानों में अधिक होता है। बाढ़ के मैदानी में मिट्टी, चावल की कृषि के लिए उत्तम है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस इत्यादि खादों की जरूरत होती है।

5. सस्ते मजदूर (Cheap Labour)-चावल की कृषि के सभी कार्य हाथ से करने पड़ते हैं। इसे “खुरपे की कृषि’ भी कहते हैं। इसीलिए घनी जनसंख्या वाले प्रदेशों में सस्ते मजदूरों की आवश्यकता होती है। इस कृषि, के लिए सारे काम हाथ से किए जाते हैं। इसलिए चावल की कृषि कार्य प्रधान कृषि है। इटली, U.S.A., और फिलीपाइंस में मशीनों के द्वारा चावल की कृषि होती है। चावल में ज़्यादा तापमान, अधिक वर्षा, अधिक धूप अधिक भारी मिट्टी और मजदूरों की जरूरत होती है।

उत्पादन (Production)—साल 2014-15 के समय में भारत में चावल का कुल उत्पादन 104.8 लाख टन था और प्रति हैक्टेयर उपज 2390 किलो थी। संसार का 90% चावल मानसून एशिया में ही पैदा होता है। इस चावल की खपत भी एशिया में ही हो जाती थी। चावल की कृषि मानसून एशिया तक सीमित नहीं लगभग हर देश में चावल की कृषि होती है। यह क्षेत्र एक चावल की त्रिकोण बनाते हैं, जो कि जापान, भारत और जावा को मिलाने से बनती है।

भारत का विश्व में चावल के उत्पादन में दूसरा स्थान है। देश की 23 % कृषि योग्य भूमि पर चावल की कृषि की जाती है। 400 लाख हैक्टेयर भूमि में 835 लाख मीट्रिक टन चावल उत्पन्न होता है। देश में चावल का प्रति हैक्टेयर उपज कम है। परन्तु अब जापानी तरीकों से और उत्तम बीजों से अधिक उपयोग कारण उपज में वृद्धि हो रही है।

भारत में राजस्थान और दक्षिणी पठार के शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर सारे भारत में चावल की कृषि होती है। भारत में चावल की कृषि के लिए आदर्श जलवायु है। 200 सैंटीमीटर से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में चावल एक मुख्य फसल है।
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  1. पश्चिमी बंगाल-यह राज्य भारत में सबसे अधिक (95 लाख टन) चावल का उत्पादन करता है। इस राज्य की 80% भूमि पर चावल की कृषि होती है। सारा साल ऊंचे तापमान व अधिक वर्षा के कारण वर्ष में तीन फसलें अमन, ओस तथा बोरो होती हैं। शीतकाल में अमन की फसल मुख्य फसल है, जिसका कुल उत्पादन का 86% भाग प्राप्त होता है।
  2. तमिलनाडु-इस राज्य में वर्ष में दो फसलें होती हैं। यह राज्य चावल उत्पन्न करने में दूसरा स्थान रखता है। यहाँ पर 58 लाख टन चावल उत्पन्न होता है।
  3. आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा-पूर्वी तटीय मैदान तथा नदी डेल्टाओं में चावल की कृषि होती है।
  4. बिहार, उत्तर प्रदेश-भारत के उत्तरी मैदान में उपजाऊ क्षेत्रों में जल सिंचाई की सहायता से चावल का उत्पादन होता है।
  5. पंजाब, हरियाणा-इन राज्यों में प्रति हैक्टेयर उपज सबसे अधिक है। ये राज्य भारत में कमी वाले भागों को चावल भेजते हैं। इन्हें भारत का चावल का कटोरा कहते हैं। चीन, जापान, भारत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, बांग्लादेश चावल आयात करने वाले प्रमुख देश हैं।

प्रश्न 6.
कपास की कृषि के लिए अनुकूल भौगोलिक दशाओं का वर्णन करो। भारत में कपास के वितरण, उत्पादन और व्यापार बताओ।
उत्तर-
कपास विश्व की सर्वप्रमुख रेशेदार फसल है। अरब और ईरान को कपास की जन्म भूमि माना जाता है। हैरोडोटस के लेखों से पता चलता है कि ईसा से 3000 हजार वर्ष पहले भारत में कपास की कृषि होती थी। आज के युग में कई प्रकार के बनावटी रेशे का उत्पादन होता है। सूती कपड़ा उद्योग कपास की उपज पर आधारित है।
कपास की किस्में (Types of Cotton) रेशे की लम्बाई के अनुसार कपास चार प्रकार की होती है।

  1. अधिक लम्बे रेशे वाली कपास (Very Long Staple)-इस कपास का रेशा 32 से 56 मिलीमीटर लम्बा होता है। ये अधिकतर मित्र तथा पीरू में होती हैं। इसको समुद्र द्वीपीय कपास यां मिस्री कपास भी कहते हैं।
  2. लम्बे रेशे वाली कपास (Long Staple) इस कपास का रेशा 31 मिलीमीटर से कुछ अधिक लम्बा होता है। यह सूडान तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में उत्पन्न की जाती है।
  3. मध्य रेशे वाली कपास (Medium Staple) 25 से 32 मिलीमीटर लम्बे रेशे वाली इस कपास का अधिक उत्पादन रूस तथा ब्राजील में होता है।
  4. छोटे रेशे वाली कपास (Short Staple) इस कपास का रेशा 25 मिलीमीटर से कम लम्बा होता है। इस कपास की अधिक उपज भारत में होती है। इसलिए इसे भारतीय कपास भी कहते हैं।

उपज की दशाएं (Conditions of Growth) कपास उष्ण तथा उपोष्ण प्रदेशों की उपज है इसकी कृषि 40° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के मध्य है।

  1. तापमान (Temperature) कपास के लिए, तेज चमकदार धूप तथा उच्च तापमान (22°C से 32°C) की आवश्यकता है। पाला इसके लिए हानिकारक है। अतः इसे 200 दिन पाला रहित मौसम चाहिए। समुद्री वायु के प्रभाव में उगने वाली कपास का रेशा लम्बा और चमकदार होता है।
  2. वर्षा (Rainfall) कपास के लिए 50 से से 100 सेंमी० वर्षा चाहिए। चुनते समय शुष्क पाला रहित मौसम होना चाहिए। फसल पकते समय वर्षा न हो। साफ आकाश तथा चमकदार धूप हो। अधिक वर्षा हानिकारक
  3. जल सिंचाई (Irrigation)-कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाते हैं जैसे पंजाब में इससे प्रति हैक्टेयर उपज भी अधिक होती है।
  4. मिट्टी (Soil)-कपास के लिए लावा की काली मिट्टी सबसे उचित है। मिट्टी में लोहे व चूने का अंश अधिक हो। लाल मिट्टी तथा नदियों की कांप की मिट्टी (दोमट मिट्टी) में भी कपास की कृषि होती है। खाद का प्रयोग अधिक हो ताकि मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बनी रहे।
  5. सस्ता श्रम (Cheap Labour)-कपास के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता है। कंपास चुनने के लिए स्त्रियों को लगाया जाता है।
  6. धरातल (Topography)-कपास की कृषि के लिए समतल मैदानी भाग अनुकूल होते हैं। साधारण ढाल वाले क्षेत्रों में पानी इकट्ठा नहीं होता।
  7. कीड़ों तथा बीमारियों की रोकथाम (Prevention of Insects and diseases)-अधिक ठण्डे प्रदेशों में बाल-वीविल (Boll Weevil) नामक कीड़ा कपास की फसल को नष्ट कर देता है। इन कीड़ों तथा कई बीमारियों की रोकथाम के लिए नाशक दवाइयां छिड़ ना आवश्यक है।

भारत में कपास का उत्पादन-कपास भारत की एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक फसल है। भारत का सूती कपड़ा उद्योग कपास पर निर्भर है। भारत विश्व की 10% कपास पैदा करके चौथे स्थान पर आता है। भारत की धरती पर संसार की सबसे अधिक कपास की कृषि होती है, परन्तु प्रति हैक्टेयर उपज कम है। भारत में 77 लाख हैक्टेयर धरती पर 12 लाख टन कपास पैदा की जाती है। भारत में अधिकतर छोटे रेशे वाली कपास उत्पन्न की जाती है। सूती कपड़ा उद्योग के लिए लम्बे रेशे वाले कपास मिस्र, सूडान और पाकिस्तान से मंगवाई जाती है।
उपज के क्षेत्र (Areas of Cultivation)-भारत में जलवायु तथा मिट्टी में विभिन्नता के कारण कपास के क्षेत्र बिखरे हुए हैं। उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिणी भारत में अधिक कपास होती है।

  1. काली मिट्टी का कपास क्षेत्र-काली मिट्टी का कपास क्षेत्र सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश राज्यों के भाग शामिल हैं। गुजरात राज्य भारत में सबसे अधिक कपास उत्पन्न करता है। इसे राज्य के खानदेश व बरार क्षेत्रों में देशी कपास की कृषि होती है।
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  2. लाल मिट्टी का क्षेत्र-तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों में लाल मिट्टी क्षेत्र में लम्बे रेशे वाली कपास (कम्बोडियन) उत्पन्न होती है।
  3. दरियाई मिट्टी का क्षेत्र-उत्तरी भारत में दरियाई मिट्टी के क्षेत्रों में लम्बे रेशे वाली अमेरिकन कपास की कृषि होती है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान राज्य प्रमुख क्षेत्र हैं। पंजाब में जल सिंचाई के कारण देश में सबसे अधिक प्रति हैक्टेयर उत्पादन है। संसार में कपास के कुल उत्पादन का 1/3 भाग निर्यात होता है। लगभग 20 देश कपास का निर्यात करते हैं। लम्बे रेशे वाली कपास का अधिक निर्यात होता है। यूरोप के सती कपड़ा उद्या में उन्नत देश कपास का अधिक आयात करते हैं। संसार में सबसे अधिक कपास यू०एस०ए निर्यात करता है। रूस, मित्र, सूडान, पाकिस्तान तथा ब्राजील भी कपास का निर्यात करते हैं। जापान, चीन, भारत, इंग्लैंड तथा यूरोप के अन्य देश आयात करते हैं।

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प्रश्न 7.
चाय की कृषि के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाओं का वर्णन करो। भारत में चाय के उत्पादन, वितरण तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के बारे में बताओ।
उत्तर-
चाय संसार में प्रमुख पेय पदार्थ है। असम, शान पठार तथा यूनान पठार को चाय की जन्मभूमि माना जाता है। यहां से ही एशिया के दूसरे भागों में चाय की कृषि का विस्तार हुआ। यूरोपियन लोगों के यत्नों से कई प्रदेशों में चाय की बागानी कृषि का विकास हुआ। चाय एक सदाबहार झाड़ीनुमा पौधा होता है। इसमें थीन (Theine) नामक तत्व होता है जिसके कारण पीने में नशा होता है।
चाय की किस्में (Types of Tea)

  1. सफेद चाय-मुरझाई हुई पत्ती
  2. पीली चाय-ताजी पत्ती वाली चाय
  3. हरी चाय-ताजी पत्ती
  4. लौंग चाय-ताजी पत्ती
  5. काली चाय-पीसी हुई पत्ती
  6. खमीरा करने के बाद बनाई पत्ती-हरी चाय।

उपज की दशाएं (Conditions of Growth)-चाय गर्म, आर्द्र प्रदेशों का पौधा है। उष्ण तथा उप-उष्ण प्रदेशों में 55° तक चाय की कृषि होती है।

  1. तापमान (Temperature)-चाय के लिए सारा साल समान रूप में ऊँचे तापमान 22° C से 29° C की आवश्यकता होती है। ऊँचे तापमान के कारण वर्ष भर पत्तियों की चुनाई होती है जैसे अमन में। पाला चाय के लिए हानिकारक होता है।
  2. वर्षा (Rainfall)—चाय के लिए अधिक वर्षा 200 से 250 सेंमी० तक होनी चाहिए। चाय के पौधों के लिए वृक्षों की छाया अच्छी होती है। 3. मिट्टी (Soil)-चाय के उत्तम स्वाद के लिए गहरी मिट्टी चाहिए जिसमें पोटाश, लोहा तथा फॉस्फोरस का अधिक अंश हो। चाय के स्वाद को अच्छा बनाने के लिए रासायनिक खाद का प्रयोग होता है।
  3. धरातल (Topography) चाय की कृषि पहाड़ी ढलानों पर की जाती है ताकि पौधों की जड़ों में पानी इकट्ठा न हो। प्राय: 300 मीटर की ऊंचाई वाले प्रदेश उत्तम माने जाते हैं। मिट्टी के बहाव को रोकने के लिए सीढ़ीदार खेत बनाये जाते हैं।
  4. श्रम (Labour)–चाय की पत्तियों को चुनने, सुखाने तथा डिब्बों में बन्द करने के लिए सस्ते मज़दूर चाहिए। प्राय: स्त्रियों को इन कार्यों में लगाया जाता है।
  5. प्रबन्ध (Administration)–बागान के अधिक विस्तार के कारण उचित प्रबन्ध पूंजी की आवश्यकता होती
  6. मौसम (Weather)-उच्च आर्द्रता, गहरी ओस तथा कुहरा पत्तियों के विकास में सहायक होता है।

भारत में उत्पादन-भारत में चाय एक व्यापारिक फसल है जिसकी बागाती कृषि होती है। भारत संसार में 30% चाय उत्पन्न करता है और पहला स्थान रखता है। भारत संसार में चाय निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है। देश में लगभग 700 चाय की कम्पनियां हैं। देश में लगभग 12,000 चाय के बाग हैं जिनमें मजदूर काम करते हैं। सर राबर्ट थरूस ने सन् 1823 में असम में चाय का पहला बाग लगाया। देश में 365 हजार हैक्टेयर भूमि में 70 करोड़ किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है। देश में हरी चाय और काली चाय दोनों ही पैदा की जाती हैं।
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उपज के क्षेत्र (Areas of Cultivation) भारतीय चाय का उत्पादन दक्षिणी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत में कहीं अधिक है। देश में चाय के क्षेत्र एक दूसरे से दूर-दूर हैं।

1. असम-यह राज्य भारत में सबसे अधिक चाय उत्पन्न करता है। इस राज्य में ब्रह्मपुत्र घाटी तथा दुआर का प्रदेश चाय के प्रमुख क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र को कई सुविधाएं प्राप्त हैं।

  • मानसून जलवायु,
  • अधिक वर्षा तथा ऊंचे तापमान,
  • पहाड़ी ढलाने,
  • उपजाऊ मिट्टी
  • योग्य प्रबन्ध।

2. पश्चिमी बंगाल-इस राज्य में दार्जिलिंग क्षेत्र की चाय अपने विशेष स्वाद के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहां अधिक ऊंचाई, अधिक नमी व कम तापमान के कारण चाय धीरे-धीरे बढ़ती है। जलपाइगुड़ी भी प्रसिद्ध क्षेत्र है।

  • तमिलनाडु में कोयम्बटूर तथा नीलगिरी क्षेत्र।
  • केरल में मालाबार तट।
  • कर्नाटक में कुर्ग क्षेत्र।
  • महाराष्ट्र में रत्नागिरी क्षेत्र ।

इसके अतिरिक्त झारखंड में रांची का पठार, हिमाचल प्रदेश में पालमपुर का क्षेत्र, उत्तरांचल में देहरादून का क्षेत्र, त्रिपुरा क्षेत्र में मेघालय प्रदेश। भारत संसार में सबसे अधिक 21% चाय निर्यात करता है। देश के उत्पादन का लगभग \(\frac{1}{4}\) भाग विदेशों को निर्यात किया जाता हैं। इससे लगभग ₹ 1250 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यह निर्यात मुख्य रूप में इंग्लैंड, रूस, ऑस्ट्रेलिया, कैनेडा इत्यादि 80 देशों का होता है। भारत में हर साल 30 करोड़ किलोग्राम चाय की खपत होती है।

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प्रश्न 8.
काहवा की कृषि के लिए भौगोलिक दशाओं, उत्पादन तथा भारत में वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
काहवा भी चाय की तरह एक पेय पदार्थ हैं। इसकी बागाती कृषि की जाती है। यह काहवा पेड़ों के फलों के बीजों का चूर्ण होता है। इसमें कैफीन नामक पदार्थ होता है जिसके कारण काहवा उत्तेजना प्रदान करता है। काहवा की अधिक प्रयोग U.S.A में होता है, जबकि चाय का अधिक प्रयोग पश्चिमी यूरोप में होता है। इसका जन्म स्थान अफ्रीका के इथोपिया देश के कैफ़ा प्रदेश को माना जाता है।
कहवा की किस्में (Types of coffee) काहवा की कई किस्में हैं, पर इनमें तीन प्रमुख किस्में हैं—

  1. अरेबिका-लातीनी अमरीका में।
  2. रोबस्टा-एशिया में।
  3. लिबिरिया-अफ्रीका में।

उपज की दशाएं (Conditions of Growth)-काहवा उष्ण कटिबन्ध के उष्ण आर्द्र प्रदेशों का पौधा है। अधिक काहवा अधिकांश 25° उत्तरी तथा 25° दक्षिणी अक्षांशों के बीच उच्च प्रदेशों में बोया जाता है। यह एक प्रकार के सदाबहार पौधे के फलों के बीजों को सूखा के पीस कर चूर्ण तैयार कर लिया जाता है।

1. तापमान (Temperature)-काहवे के उत्पादन के लिए सारा साल ऊंचा तापमान औसत 22° C होना चाहिए। पाला तथा तेज़ हवाएं काहवे के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए काहवे की कृषि सुरक्षित ढलानों पर की जाती है।

2. वर्षा (Rainfall) काहवे के लिए 100 से 200 सें०मी०, वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। वर्षा का वितरण वर्ष भर समान रूप से हो। शुष्क-ऋतु में जल सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाते हैं। फल पकते समय ठण्डे शुष्क मौसम की आवश्यकता होती है।

3. छायादार वृक्ष (Shady trees)—सूर्य की सीधी व तेज़ किरणे काहवे के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए काहवे के बागों में केले तथा दूसरे छायादार फल उगाए जाते हैं। यमन देश में प्रात:काल की धुंध सूर्य की तेज़ किरणों से सुरक्षा प्रदान करती है।

4. मिट्टी (Soil) काहवे की कृषि के लिए गहरी उपजाऊ मिट्टी होनी चाहिए जिसमें लोहा, चूना तथा वनस्पति के अंश अधिक हों। लावा की मिट्टी तथा दोमट्ट मिट्टी काहवे के लिए अनुकूल होती है।

5. धरातल (land)-काहवे के बाग पठारों तथा ढलानों पर लगाए जाते हैं ताकि पानी का अच्छा निकास हो। काहवा की कृषि 1000 मीटर तक ऊंचे देशों में की जाती है।

6. सस्ते श्रमिक (Cheap Labour)-काहवे की कृषि के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता होती है। पेड़ों को छांटने, बीज तोड़ने तथा काहवा तैयार करने में सब काम हाथों से किये जाते हैं।

7. बीमारियों की रोकथाम (Absence of Diseases) काहवे के बाग़ बीटल नामक कीड़े तथा कई बीमारियों के कारण भारत, श्रीलंका तथा इण्डोनेशिया में नष्ट हो गए हैं। इन बीमारियों की रोकथाम आवश्यक है।

भारत में उत्पादन और वितरण-भारत में कहवा की कृषि एक मुस्लिम फकीर बाबा बूदन द्वारा लाए गए बीजों द्वारा आरम्भ की गई। भारत में काहवे का पहला बाग सन् 1830 में कर्नाटक राज्य के चिकमंगलूर क्षेत्र में लगाया गया। धीरे-धीरे काहवे की कृषि में विकास होता गया। अब भारत में लगभग दो लाख हैक्टेयर भूमि पर दो लाख टन कहवे का उत्पादन होता है। देश में काहवे की खपत कम है। देश में कुल उत्पादन का 60न भाग विदेशों को निर्यात कर दिया
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जाता है। इस निर्यात से लगभग 330 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यह निर्यात कोजीकोड़े, मद्रास तथा बंगलौर की बन्दरगाहों से किया जाता है।
उपज के क्षेत्र-भारत के काहवे के बाग दक्षिणी पठार की पर्वतीय ढलानों पर ही मिलते हैं। उत्तरी भारत में ठण्डी जलवायु के कारण काहवे की कृषि नहीं होती।

  1. कर्नाटक राज्य-यह राज्य भारत में सबसे अधिक काहवा उत्पन्न करता है। यहां पश्चिमी घाट तथा नीलगिरी की पहाड़ियों पर काहवे के बाग मिलते हैं। इस राज्य में शिमोगा, काटूर, हसन तथा कुर्ग क्षेत्र काहवे के लिए प्रसिद्ध हैं।
  2. तमिलनाडु-इस राज्य में उत्तरी अर्काट से लेकर त्रिनेवली तक के क्षेत्र में काहवे के बाग मिलते हैं। यहां नीलगिरी तथा पलनी की पहाड़ियों की मिट्टी या जलवायु काहवे की कृषि के अनुकूल है।
  3. केरल-केरल राज्य में इलायची की पहाड़ियों का क्षेत्र।
  4. महाराष्ट्र में सतारा ज़िला।
  5. इसके अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश, असम, पश्चिमी बंगाल तथा अण्डेमान द्वीप में काहवा के लिए यत्न किए जा रहे है।

प्रश्न 8.
पटसन की कृषि के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाओं और भारत में इसके उत्पादन तथा वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
कपास के बाद पटसन एक महत्त्वपूर्ण रेशेदार फसल है। प्रयोग और उत्पादन के तौर पर पटसन की कृषि बहुत अच्छी है। यह सुनहरी रंग की एक प्राकृतिक रेशेदार फसल है। इसका रेशा सुनहरी रंग का होता है। इसलिए इसे सोने का रेशा भी कहते हैं। इससे टाट, बोरे, पर्दे, गलीचे तथा दरियां इत्यादि बनाई जाती हैं। व्यापार में महत्त्व के कारण इसे थोक व्यापारी का खाकी कागज़ भी कहते हैं। भारत का पटसन उद्योग पटसन की कृषि पर निर्भर करता है
उपज की दशाएं (Conditions of the production of Jute)-पटसन एक खरीफ के मौसम की फसल है। इसकी बिजाई मार्च-अप्रैल में की जाती है और पटसन की कृषि के लिए आवश्यक दशाएं हैं।

1. तापमान (Temperature)-पटसन के उत्पादन के लिए गर्म और नमी वाला तापमान चाहिए। इसके लिए 26° सैंटीग्रेड अनुकूल तापमान की आवश्यकता है। तापमान मुख्य रूप से 24° से 37° C तक बढ़ और कम हो सकता है। मुख्य रूप में नमी 80% से 90% आवश्यक होती है।

2. वर्षा (Rainfall)-पटसन एक प्यासा पौधा है। इसको अपने काश्त के दौरान पर्याप्त वर्षा की आवश्यकता होती है। पटसन के लिए अधिक वर्षा 150 सें०मी० की आवश्यकता पड़ती है। पटसन की कृषि के लिए पकने के बाद कटाई के समय भी रेशा बनाने के लिए अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है।

3. मिट्टी (Soil)—पटसन के लिए गहरी उपजाऊ मिट्टी उपयोगी है। नदियों में बाढ़ क्षेत्र, डेल्टा प्रदेश, पटसन के – लिए आदर्श क्षेत्र होते हैं यहां नदियों द्वारा हर वर्ष मिट्टी की नई परत बिछ जाती है। खाद का भी अधिक प्रयोग किया जाता है।

4. सस्ता श्रम (Cheap Labour)—पटसन को काटने, धोने और छीलने के लिए, सस्ते तथा कुशल मज़दूरों की आवश्यकता होती है।

5. HYV–पटसन के रेशे के उत्पादन की वृद्धि के लिए अच्छी किस्म के HYV बीजों की आवश्यकता होती है जैसे कि JRC-212, JRC-7447, JRO-632, JRO-7835 इसके लिए बहुत उपयोगी हैं।

6. स्वच्छ जल-पटसन को काटकर धोने के लिए नदियों के साफ पानी की आवश्यकता होती है।

भारत में उत्पादन और वितरण-भारत में पटसन का उत्पादन मांग से कम ही है। इसलिए हमें पटसन बंगलादेश से खरीदनी पड़ती है। भारत में मुख्य पटसन उत्पादन प्रदेश हैं—

1. पश्चिमी बंगाल-यह राज्य भारत में सबसे अधिक पटसन उत्पन्न करता है। यहां पर अनुकूल भौगोलिक दशाएं माजूद हैं। सस्ते मजदूरों माजूद हैं और जिस कारण पटसन की कृषि अच्छी होती है। यहां पर नदी घाटियां तथा गंगा डेल्टाई प्रदेश, अधिक वर्षा, ऊंचा तापमान इस कृषि के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ है। नाड़िया कूच, बिहार, जलपाईगुड़, हुगली, पश्चिम दिनाजपुर, वर्धमान मालदा और मेदनीपुर प्रांत पटसन की काश्त के लिए प्रसिद्ध हैं। सारी पटसन उद्योगों में चली जाती है। साल 2015-16 में पश्चिमी बंगाल में 8075 गाँठ पटसन पैदा की गई।

2. बिहार-भारत में पटसन उत्पादन के अतिरिक्त बिहार का दूसरा स्थान है। पूर्णिया, कटिहार, सहरसा इत्यादि प्रांतों में पटसन का उत्पादन अधिक होता है।

3. असम-यह तीसरा मुख्य पटसन उत्पादन राज्य है। बाकी मुख्य राज्यों का क्रम इस प्रकार है।
Top tute producing states of India 2012-13
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PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) PSEB 12th Class Geography Notes

  • आर्थिक भूगोल, मानव भूगोल की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। आर्थिक साधनों और उनके वितरण एवं भौगोलिक वितरण का अध्ययन ही आर्थिक भूगोल है।
  • मौलिक आर्थिक क्रियाओं का संबंध सीधे रूप में धरती में मिल रहे कच्चे साधनों के उपयोग के साथ होता ।
  • संसार में कृषि का स्वरूप दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है। फ़सलों और कृषि करने के तरीकों में दिन प्रतिदिन सुधार आ रहा है। अब कृषि लोगों के लिए सिर्फ एक रोज़गार नहीं, बल्कि एक उपयोगी रोज़गार बन गया है। कुल घरेलू उत्पादन में इसका हिस्सा भारत में 17%, चीन में 10%, यू०ए०एस० में 1.5% | रह गया है।
  • भारत में कृषि करने के मौसम हैं-रबी, खरीफ और जैद।
  • संसार में एल नीनो और ला नीना कृषि की पैदावार पर बड़ा असर डालती हैं।
  • पशु पालन खानाबदोशी लोगों का सबसे प्राचीन रोज़गार है। वह अपने जानवरों को चरागाहों और पानी की खोज के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक लेकर जाते हैं।
  • भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 328.73 मिलियन है पर उपयोग के लिए 30 करोड़ हैक्टेयर ही उपलब्ध है।
  • भूमि के उपयोग संबंधी रिकॉर्ड तैयार किया गया जिसमें जंगलों के अधीन क्षेत्र, बंजर और कृषि योग्य भूमि, परती भूमि, बिजाई अधीन क्षेत्र, कृषि अतिरिक्त क्षेत्र का रिकॉर्ड तैयार किया गया।
  • कृषि को मुख्य रूप में दो हिस्सों में विभाजित किया जाता है। प्राचीन निर्वाह कृषि और घनी निर्वाह कृषि। ।
  • मुख्य फ़सलें-खाद्यान्न-गेहूँ, चावल, मोटे अनाज, बाजरा, रागी, दालें, छोले, अरहर इत्यादि।
  • नकद फ़सलें-कपास, पटसन, गन्ना, तम्बाकू, तेल के बीज, मूंगफली, अलसी, तिल, अरंडी के बीज इत्यादि। |
  • रोपण कृषि-चाय, काहवा, मसाले, इलायची इत्यादि। |
  • बागवानी फ़सलें-फल, सब्ज़ियाँ, अखरोट, बादाम, स्ट्राबेरी, खुरमानी इत्यादि।
  • आर्थिक भूगोल-आर्थिक साधनों और उनके उपयोग के भौगोलिक वितरण का अध्ययन आर्थिक भूगोल है।
  • ऋतु प्रवास-पशु-पालक चरवाहे अपने पशुओं के साथ सर्दी शुरू होते ही मैदानी क्षेत्र में आ जाते हैं और गर्मी में वापिस अपने पहाड़ी क्षेत्रों में चले जाते हैं। इसको ऋतु प्रवास कहते हैं।
  • ग्रामीण काव्य (Pastoralism)-पशु-पालन के रोज़गार में जो खास कर परंपरागत तौर पर घास के मैदानों या चरागाहों में किया जाता है को अंग्रेज़ी में पैसट्रोलियम कहते हैं।
  • भारत में उगाई जाने वाली फ़सलों को मुख्य रूप में चार वर्गों में विभाजित किया जाता है—
    • खाद्यान्न
    • नकद फ़सलें
    • रोपण फ़सलें
    • बागवानी फ़सलें।
  • चाय की प्रचलित किस्में-सफेद चाय, पीली चाय, हरी चाय, लौंग चाय, काली चाय और खमीरीकरण के बाद बनाई चाय।
  • कपास की किस्में—
    • लम्बे रेशे वाली कपास-रेशे की लंबाई 24 से 27 मिलीमीटर।
    • मध्य रेशे वाली कपास-रेशे की लंबाई 20 से 24 मिलीमीटर।
    • छोटे रेशे वाली कपास-रेशे की लंबाई 20 मिलीमीटर से कम।
  • सुनहरी क्रांति-पटसन उत्पादन की तेज गति पकड़ने को सुनहरी क्रांति का नाम दिया गया है।
  • सफेद क्रांति-दूध और दूध से बनी वस्तुओं के उत्पादन के बढ़ावे को सफेद क्रांति कहते हैं।
  • बागवानी-बागवानी व्यापारिक कृषि का एक घना रूप है। इसमें मुख्य तौर से फल और फूलों का उत्पादन होता है। इस कृषि का विकास संसार के औद्योगिक और शहरी क्षेत्रों के पास होता है।
  • मिश्रित कृषि-जब फ़सलों की कृषि के साथ-साथ पशु-पालन इत्यादि के सहायक धंधे भी अपनाए जाते हैं तब उसे मिश्रित कृषि कहते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में पंचायती राज व्यवस्था के संगठन का विवरण दीजिए। (Describe Structure of Panchayati Raj System in India.)
उत्तर-
पंचायती राज स्वतन्त्र भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण खोज है। 4 दिसम्बर, 1960 को भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय पं० जवाहर लाल नेहरू ने राजपुरा (पटियाला, पंजाब) में भाषण देते हए कहा था कि पंजाब तथा समस्त देश में तीन क्रान्तियां चल रही हैं

  1. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)
  2. कृषि के नये औज़ार तथा तरीकों का प्रयोग (Use of New Tools and Methods of Agriculture)
  3. पंचायती राज की स्थापना (Establishment of Panchayati Raj)।

पंचायती राज के बारे में उन्होंने कहा कि इसकी स्थापना गांवों में की जा रही है तथा उसके द्वारा लोगों को अपने मामलों का प्रशासन तथा अपने क्षेत्र का विकास स्वयं करने की शक्ति दी जा रही है। इसके द्वारा लोग अपने गांवों को उन्नत तथा आत्म-निर्भर बना सकेंगे।

पंचायती राज की स्थापना सबसे पहले 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में हुई। आन्ध्र प्रदेश ने 1 नवम्बर, 1959 को पंचायती राज को अपनाया। असम, कर्नाटक एवं उड़ीसा ने 1959 में, बिहार, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश ने 1961 में, मध्य प्रदेश ने 1962 में, पश्चिमी बंगाल ने 1963 में तथा हिमाचल प्रदेश ने 1968 में पंचायती राज विधान लागू किया। इस समय भारत के लगभग सभी राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था लागू है। 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया है। पंजाब पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार पंजाब में पंचायती राज की चार संस्थाएं (i) ग्राम सभा, (ii) ग्राम पंचायत, (iii) पंचायत समिति तथा (iv) जिला परिषद् स्थापित की गईं।

पंचायती राज क्या है-पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिनके द्वारा गांव के लोगों को अपने गांवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार करने का अधिकार दिया गया है। गांव के लोग अपने इस अधिकार का प्रयोग पंचायतों द्वारा करते हैं। इसलिए इसे पंचायती राज कहा जाता है। पं० जवाहर लाल नेहरू ने कहा था “पंचायती राज ऐसा नया तरीका है जिसमें बिना बाहरी सहायता की बाट जोहे हम अपने प्रयत्नों से ही गांव के जीवन को सुखी बना सकते हैं।” पंचायती राज एक तीन-स्तरीय (Three tiered) ढांचा है जिसका निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत का है और उच्चतम स्तर जिला परिषद् का और बीच वाला स्तर पंचायत समिति का। कुछ राज्यों में दो-स्तरीय और कुछ राज्यों में तीन स्तरीय प्रणाली अपनाई गई है। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब राजस्थान, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में तीन स्तरीय प्रणाली है। परन्तु असम, मणिपुर, गोवा, मिज़ोरम इत्यादि राज्यों में दो स्तरीय प्रणाली है। ग्राम पंचायत गांव में होती है, पंचायत समिति विकास खण्ड या ब्लॉक में और जिला परिषद् ज़िले में। 73वें संशोधन द्वारा जो राज्य बहुत छोटे हैं और जिनकी जनसंख्या 20 लाख से कम है उनको पंचायत समिति के मध्य स्तर से मुक्त रखा गया है। इस ढांचे का कार्य क्षेत्र ज़िले के ग्रामीण भागों तक सीमित होता है और यह ग्रामीण जीवन के हर पक्ष से सम्बन्धित होता है। इस ढांचे में निर्वाचित सदस्य होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन और अन्य विकास कार्यों के लिए उत्तरदायी हैं।

1. पंचायत (Panchayats)-गांवों में पंचायतें स्थापित की गई हैं। एक गांव या गांवों के समूहों की जिनकी संख्या 200 से कम न हो, एक ग्राम सभा बनती है और गांवों का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य होता है। यह ग्राम सभा एक कार्यकारी परिषद् चुनती है जिसे ग्राम पंचायत कहते हैं। ग्राम पंचायत का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 तक विभिन्न राज्यों में अलग-अलग निर्धारित किया गया है। पंजाब के पंचायती राज एक्ट 1994 के अनुसार पंजाब में एक गांव जिसकी जनसंख्या 200 से लेकर 1000 तक होती है उस गांव की ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अतिरिक्त पांच पंच होते हैं और जिस गांव की जनसंख्या दस हजार से अधिक होगी उसके लिए सरपंच के अतिरिक्त 13 पंच होंगे। यह ग्राम पंचायत गांव का प्रशासन करती है और गांव के विकास तथा लोगों के जीवन को उन्नत करने का प्रयत्न करती है। ग्राम सभा की वर्ष में दो बैठकें होती हैं तथा ग्राम पंचायत इसके सामने अपने कार्यों की रिपोर्ट रखती है और आगे के प्रोग्राम पर ग्राम सभा की स्वीकृति लेती है। ग्राम पंचायत अपने कार्यों के लिए ग्राम सभा के प्रति उत्तरदायी है।

2. पंचायत समिति (Panchayat Samiti)-पंचायती राज के अन्तर्गत प्रत्येक ब्लॉक में पंचायत समिति की स्थापना की गई है। पंचायत समिति के क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के सदस्यों द्वारा अपने में से कुछ सदस्य चुने जाते हैं। पंजाब में सदस्यों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि तथा प्रत्यक्ष तौर पर चुने गये सदस्यों का अनुपात 60 : 40 था। परन्तु जून, 2002 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस व्यवस्था को गैर-संवैधानिक घोषित कर दिया। अतः अब पंचायत समितियों के सभी सदस्यों का चुनाव लोगों द्वारा किया जाता है। पंजाब विधान सभा के सदस्य, जिनके चुनाव क्षेत्रों का बड़ा हिस्सा जिस पंचायत समिति में आता है, उसके पदेन सदस्य होते हैं। पंचायत समिति के सभी सदस्यों को पंचायत समिति की बैठकों में भाग लेने तथा मतदान का अधिकार प्राप्त है। प्रत्येक पंचायत समिति में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़ी श्रेणियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं। प्रत्येक पंचायत समिति में प्रत्यक्ष तौर पर चुने गए सदस्यों का एक तिहाई भाग महिलाओं के लिए आरक्षित रखा गया है। खण्ड विकास अधिकारी पंचायत समिति का कार्यकारी (Executive Officer) होता है तथा यह उसकी आज्ञाओं और निर्णयों को लागू करता है। पंचायती राज के ढांचे में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान पंचायत समिति का है। ग्रामीण इलाकों में कृषि, पशु-पालन, ग्रामीण उद्योग, सिंचाई आदि की जितनी विकास योजनाएं हैं, सबकी सब इसी संस्था के अधीन होती हैं। यह कहना बिल्कुल ठीक है कि पंचायती राज की सफलता पंचायत समिति पर ही निर्भर है।

3. ज़िला परिषद् (Zila Parishad)-प्रत्येक जिले में एक ज़िला परिषद् स्थापित की गई है। जिला परिषद् के कुछ सदस्य प्रत्यक्ष तौर पर क्षेत्रीय चुनाव क्षेत्रों से चुने जाते हैं। पंजाब के पंचायती राज अधिनियम 1994 के अनुसार जिला परिषद् के सदस्यों की संख्या 10 से लेकर 25 तक हो सकती है जिनका चुनाव प्रत्यक्ष रूप में लोगों द्वारा किया जाएगा। पंजाब में जिला परिषद् के क्षेत्र में आने वाली पंचायत समितियों के सभी अध्यक्ष जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। प्रत्येक जिला परिषद् से अनुसूचित जातियों तथा पिछड़ी श्रेणियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं। महिलाओं के लिए प्रत्यक्ष तौर पर चुनी गई सीटों का एक तिहाई भाग आरक्षित रखा गया है। जिले के चुने गए विधानसभा तथा संसद् के सदस्य इसके सहायक होते हैं। जिलाधीश इसका पदेन सदस्य होता है। जिला परिषद् पंचायत समितियों के कार्यों की देखभाल करती है और उनमें तालमेल पैदा करने का प्रयत्न करती है।

पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद् एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं। ब्लॉक या क्षेत्र की पंचायतों के पंच
और सरपंच पंचायत समिति के 16 सदस्यों का चुनाव करते हैं और जिले की पंचायत समितियों के सदस्य अपने सदस्यों में से जिला परिषद् के कुछ सदस्य चुनते हैं। इस प्रकार पंचायतों के कुछ सदस्य पंचायत समिति के सदस्य होते हैं और पंचायत समितियों के कुछ सदस्य ज़िला परिषद् के सदस्य होते हैं। अतः पंचायत, पंचायत समिति तथा ज़िला परिषद् मूल रूप से सम्बन्धित हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 2.
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वें संवैधानिक संशोधन का वर्णन करें। (Explain 73rd Amendment relating to Panchayati Raj.)
अथवा
नई पंचायती राज व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या करें। (Describe the main characteristics of New Panchayati Raj System.)
अथवा
73वीं संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत पंचायती राज प्रणाली में क्या परिवर्तन किए गए हैं ?
(What changes have been made in Panchayati Raj System under 73rd constitutional amendment ?)
उत्तर-
सितम्बर, 1991 को लोकसभा में 72वां संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश किया गया था। इस विधेयक का सम्बन्ध भारतीय पंचायती राज व्यवस्था में सुधार करना था। पंचायती राज व्यवस्था में सुधार के लिए एक 30 सदस्य समिति गठित की गई जिसमें 20 सदस्य लोकसभा के और 10 सदस्य राज्य सभा के थे। लोकसभा के वरिष्ठ नेता नाथू राम मिर्धा को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दिसम्बर, 1992 में संसद् के सामने पेश की। इस समिति की सिफ़ारिशों को जो कि पंचायती राज व्यवस्था से सम्बन्धित थीं, 22 दिसम्बर को लोकसभा ने और 23 दिसम्बर को राज्य सभा ने स्वीकृति दे दी। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने पर इस संवैधानिक संशोधन का नम्बर 73वां हो गया क्योंकि इससे पूर्व 72 संशोधन हो चुके थे। इस संशोधन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. स्थानीय स्तर की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता (Constitutional Sanction to democratic institutions of Grass-Root level)–73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा स्थानीय स्तर की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। इसके लिए संविधान में भाग 9 (Part IX) और 11वीं अनुसूची शामिल करके निम्न स्तर पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।

2. ग्राम सभा और ग्राम पंचायत की परिभाषा (Definition of Gram Sabha and Gram Panchayat)73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा ग्राम सभा और ग्राम पंचायत की परिभाषा की गई है। ग्राम सभा में एक पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आने वाले गांव या गांवों के मतदाता ही ग्राम सभा के सदस्य हो सकते हैं और यही सारे मतदाता मिलकर ग्राम सभा का निर्माण करेंगे। इसका निर्माण राज्य विधानमण्डल के कानून के द्वारा ही होगा और इन्हें राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित काम ही करने पड़ेंगे। ग्राम पंचायत एक स्व-शासन संस्था है जिसका निर्माण सरकार ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए करती है।

3. तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था (Three tier Panchayati Raj System)-73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई है। निम्न स्तर पर ग्राम पंचायत और उच्च स्तर पर ज़िला परिषद् व मध्य में पंचायत समिति या ब्लॉक समिति की व्यवस्था है। जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख से कम है वहां द्वि-स्तरीय व्यवस्था की गई है। वहां मध्य स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को कायम करने या न करने की छूट दी गई है।

4. पंचायतों की रचना (Composition of Panchayats)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक राज्य का विधान मण्डल, प्रत्येक स्तर की पंचायत की रचना सम्बन्धी व्यवस्था स्वयं करेगा।

5. सदस्यों का चुनाव (Election of the Members)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक पंचायत के क्षेत्र को चुनाव क्षेत्रों में बांटा जायेगा और चुनाव क्षेत्रों से ही पंचायतों के सदस्यों का प्रत्यक्ष रूप से लोगों के द्वारा चुनाव होगा।

6. पंचायती चुनाव राज्य चुनाव आयोग की निगरानी में (Panchayat’s elections under the Supervision of State Election Commission)-प्रत्येक राज्य में होने वाले पंचायती चुनाव राज्य चुनाव आयोग की निगरानी, निर्देशन व नियन्त्रण में होंगे। चुनाव आयोग पंचायती राज के चुनावों से सम्बन्धित अधिसूचना जारी होने के बाद चुनावों की तिथि तय करता है, नामांकन-पत्रों की जांच-पड़ताल करता है, चुनाव चिह्न जारी करता है और निष्पक्ष व स्वतन्त्र, चुनाव करवाने की व्यवस्था करता है। इसके लिए राज्यों में स्वतन्त्र चुनाव आयोग की स्थापना की व्यवस्था की गई है। राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। चुनाव आयुक्त की सेवा शर्ते और कार्यकाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए कानूनों के अनुसार राज्यपाल निश्चित करता है। चुनाव आयुक्तों को हटाने के लिए वह प्रक्रिया अपनाई गई है जिस तरह उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाता है।

7. संसद् और विधानमण्डल के सदस्यों की प्रतिनिधिता (Representation of the Members of State Legislature and Parliament)-73वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल को यह शक्ति दी गई है कि वह विभिन्न स्तरों की पंचायतों में निम्नलिखित सदस्यों की प्रतिनिधित्वता की व्यवस्था करें
(i) पंचायत समिति और जिला परिषद् के चुनाव क्षेत्र में आने वाले लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों को इसमें प्रतिनिधित्वता दी जा सकती है।
(ii) राज्य सभा और विधान परिषद् के सदस्य जिनका नाम पंचायत समिति और जिला परिषद् के चुनाव क्षेत्र की मतदाता सूचियों में शामिल हो।
इन सदस्यों को पंचायत समिति और जिला परिषद् की बैठकों में वोट देने का अधिकार दिया गया है।

8. पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव व उसको पद से हटाने की विधि (Election and removal of the Chairman of Panchayats) ग्राम पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली द्वारा किए जाने की व्यवस्था है। अध्यक्ष को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले पद से हटाने की व्यवस्था की गई है। इसके लिए यह ज़रूरी है कि पंचायत अपने कुल सदस्यों के बहुमत और उपस्थित वोट देने वाले सदस्यों के बहुमत के साथ अध्यक्ष को हटाने सम्बन्धी प्रस्ताव पास करे। जब पंचायत का ऐसा प्रस्ताव ग्राम सभा को प्राप्त होगा तो ग्राम सभा उस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए अपनी एक विशेष बैठक बुलाएगी जिसमें ग्राम सभा के 50% सदस्यों का उपस्थित होना आवश्यक है। इस बैठक में अगर पंचायत के अध्यक्ष को पद से हटाने का प्रस्ताव उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों की सर्वसहमति से पास कर दिया जाए तो प्रधान को पद से अलग कर दिया जाता है।

9. ग्राम पंचायतों और पंचायत समिति के अध्यक्ष को उच्च संस्थाओं में प्रतिनिधित्वता (Representation to the Chairperson of village level Panchayats and Intermediate level Panchayats in the other Panchayats Institution)-73वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल को यह शक्ति दी गई है कि वह ग्रामीण स्तरीय पंचायत के अध्यक्षों में से पंचायत समिति में और पंचायत समिति के प्रधानों में से जिला परिषद् में प्रतिनिधित्वता दिए जाने की व्यवस्था कर सकती है।

10. पंचायत समिति और जिला परिषद् के प्रधानों का चुनाव और उन्हें पद से हटाने की विधि (Election and removal of the Chairmens of Panchayat Samiti and Zila Parishad) -73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि मध्य स्तरीय और जिला परिषद् के अध्यक्षों का चुनाव सम्बन्धित चुनाव क्षेत्र में से निर्वाचित सदस्यों में से ही किया जाएगा। अध्यक्ष को निश्चित कार्यकाल की समाप्ति से पहले पद से हटाने के लिए यह ज़रूरी है कि सम्बन्धित पंचायत के चुने हुए सदस्य उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत के साथ जो कि कुल सदस्यों का बहुमत भी होना चाहिए, के द्वारा प्रस्ताव पास करके अपने अध्यक्ष को पद से हटा सकते हैं।

11. सीटों में आरक्षण (Reservation of Seats)-73वें संशोधन द्वारा निम्नलिखित वर्गों के लिए सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है

  • पंचायती चुनावों के लिए प्रत्येक स्तर में अनुसूचित जाति और अनुसूचित कबीलों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार सीटों में आरक्षण की व्यवस्था होगी।
  • आरक्षित स्थानों में समय-समय पर परिवर्तन होगा।
  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए आरक्षित स्थानों में 1/3 सीटें अनुसूचित जाति की स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी जाएंगी।
  • कुल निर्वाचित सीटों का 1/3 भाग स्त्रियों के लिए आरक्षित होगा। यह आरक्षण अनुसूचित जाति की स्त्रियों के अतिरिक्त होगा।
  • विभिन्न स्तरों के चुनाव क्षेत्रों के अध्यक्षों की कुल संख्या का 1/3 भाग स्त्रियों के लिए आरक्षित होगा।
  • सभी पंचायती राज की संस्थाओं के अध्यक्ष पदों में से भी कुछ स्थान अनुसूचित जाति और जन जाति के लोगों के लिए आरक्षित रखे जाएंगे।

12. पंचायतों की अवधि (Tenure of a Panchayats)—प्रत्येक पंचायती चुनाव पांच साल में एक बार होना अनिवार्य है। यह चुनाव पांच साल की अवधि पूरी होने से पहले होना आवश्यक है। अगर किसी स्थान की पंचायतों को पहले भंग कर दिया गया है तो वहां छ: मास के भीतर चुनाव करवाना अनिवार्य है। इसी संशोधन द्वारा भारत की सभी पंचायतों की अवधि पांच वर्ष निश्चित की गई है।

13. सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications for Members)-प्रत्येक स्तर की पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए वही योग्यताएं निर्धारित हैं जो योग्यताएं राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने के लिए अनिवार्य हैं। जो व्यक्ति राज्य विधानमण्डल की सदस्यता के अयोग्य है वह पंचायत के चुनाव के लिए भी अयोग्य है। परन्तु इसके लिए निर्वाचन की आयु 21 वर्ष है।

14. पंचायतों की शक्तियां और कार्य (Powers and functions of Panchayats)-73वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल पंचायतों को ऐसी शक्तियां व काम सौंप सकता है जो कि स्व-शासन संस्थाओं के लिए अनिवार्य हैं। ये उत्तरदायित्व हैं-(i) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करनी और उन्हें लागू करना। (ii) 11वीं अनुसूची में शामिल विषय-सूची-इस विषय सूची में 29 विषय शामिल हैं जिनमें खेतीबाड़ी, भूमि सुधार, सिंचाई, पशु-पालन, मछली पालन, वन उत्पादन, लघु उद्योग, खादी, घरेलू उद्योग, ग्रामीण आवास, पीने का पानी, सड़कें, पुलों का निर्माण, शिक्षा, सेहत और सफाई, सांस्कृतिक गतिविधियां, मण्डियां और मेले आदि मुख्य हैं।

15. कर लगाने की शक्ति (Power to impose Taxes)-राज्य का विधानमण्डल कानून द्वारा पंचायतों को कुछ कर लगाने और उन्हें एकत्रित करने की शक्ति सौंप सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य की संचित निधि में से भी पंचायतों को सहायता राशि देने की व्यवस्था की गई है।

16. वित्त आयोग का निर्माण (Composition of Finance Commission)-73वें संशोधन द्वारा पंचायतों के लिए एक वित्त आयोग की व्यवस्था की गई है जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करेगा। इसमें कितने सदस्य होंगे, उनकी योग्यताएं, उनका निर्वाचन, शक्तियां आदि प्रश्नों से सम्बन्धित व्यवस्था राज्य विधानमण्डल द्वारा होगी। इसके कार्य इस प्रकार हैं
(i) पंचायतों की वित्त स्थिति सम्बन्धी विचार करना। (ii) राज्य सरकार द्वारा निर्धारित करों को राज्य सरकार और पंचायतों में बांटने सम्बन्धी सिद्धान्तों को निश्चित करना। (iii) पंचायतों को सौंपे जाने वाले करों से सम्बन्धित सिद्धान्तों को निश्चित करना (iv) राज्यपाल द्वारा सौंपे गए किसी अन्य विषय पर विचार करना।

17. वर्तमान पंचायतों का जारी रहना (Continuance of Existing Panchayats)-73वें संशोधन के लागू होने से पहले सभी पंचायतें अपने कार्यकाल की समाप्ति तक काम करती थीं। परन्तु अब राज्य विधानमण्डल द्वारा प्रस्ताव पास होने पर ही पंचायतों को अपनी अवधि से पहले भंग किया जा सकता है, न कि मुख्यमन्त्री की स्वेच्छाचारी शक्ति के प्रयोग से।

18. वर्तमान कानूनों का जारी रहना (Continuance of Existing Law)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि अगर प्रचलित कानून की कोई व्यवस्था इस संशोधन की व्यवस्थाओं से मेल नहीं रखती तो वह संशोधन के लागू होने के एक वर्ष के समय तक जारी रह सकती है।

19. पंचायतों के चुनाव झगड़े अदालतों के हस्तक्षेप से बाहर (Election Conflicts of Panchayats are outside the Jurisdiction of Courts)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि पंचायती चुनावों के क्षेत्र निश्चित करने वाले किसी भी कानून को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। पंचायत के लिए चुने गए किसी सदस्य को केवल उस संस्था में ही चुनौती दी जा सकती है जिसकी व्यवस्था राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून में की गई हो। ऐसे कानून को अदालती अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है।

निष्कर्ष (Conclusion)-नई पंचायती राज व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य निम्न स्तर पर लोगों को अपने विकास के मामलों में हिस्सेदारी को स्वस्थ बनाना, शक्तियों के बंटवारों को विश्वास योग्य बनाना, अपने गांवों के विकास के लिए योजनाएं स्वयं तैयार करना और उन्हें लागू करना है। पंचायती राज संस्थाओं में हिस्सेदारी को संवैधानिक सुरक्षा प्रदान की गई है। यह नई पंचायती राज व्यवस्था कितनी सफल होगी उसका फैसला नई पंचायती राज व्यवस्था के असली प्रयोग पर निर्भर करता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 3.
पंचायती राज से आपका क्या अभिप्राय है ? ग्राम पंचायत की बनावट और कार्यों की व्याख्या कीजिए।
(What do you mean by the Panchayati Raj ? Discuss the composition and functions of Gram Panchayat.)
अथवा
ग्राम पंचायत की शक्तियों और कार्यों को लिखें। (Write down the powers and functions of Gram Panchayat.)
उत्तर-
पंचायती राज का अर्थ- इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखें।
ग्राम पंचायत की बनावट एवं कार्य-गांवों में स्थानीय स्वशासन की मुख्य इकाई ग्राम पंचायत है। इस समय देश में 2,50,000 हज़ार से अधिक पंचायतें हैं। एक ग्राम पंचायत एक ग्राम या ग्राम समूह के लिए बनाई जाती है।

रचना (Composition)-पंजाब में 200 की आबादी वाले और हरियाणा में 500 की आबादी वाले हर गांव में पंचायत की स्थापना की गई है। यदि किसी गांव की जनसंख्या इससे कम है तो दो या अधिक गांवों की संयुक्त पंचायत स्थापित कर दी जाती है। पंजाब में पंचायतों की संख्या लगभग 11,960 और हरियाणा में लगभग 6155 है। ग्राम पंचायत का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 सदस्य तक अलग-अलग होता है। हरियाणा में पंचायत में 6 से 20 तक सदस्य होते हैं और पंजाब में 5 से 13 तक, जबकि उत्तर प्रदेश में 16 से 31 सदस्य होते हैं। इनकी संख्या गांव की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। उदाहरणस्वरूप पंजाब को पंचायती राज एक्ट 1994 के अनुसार पंजाब के एक गांव जिसकी जनसंख्या 200 से लेकर 1000 तक है, उस गांव की ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अतिरिक्त पांच पंच होते हैं और जिस गांव की जनसंख्या 1000 से 2000 तक हो वहां पर 7 पंच होते हैं तथा जिस गांव की आबादी 10,000 से ज्यादा हो तो उसके लिए सरपंच के इलावा 13 पंच होंगे। इस तरह पंजाब की एक ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अतिरिक्त कम-से-कम 5 और ज्यादा-से-ज्यादा 13 सदस्य हो सकते हैं। अनुसूचित जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की गई हैं। महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं।

चुनाव-पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है। प्रत्येक वयस्क नागरिक जो गांव का रहने वाला है, पंचायत के चुनाव में वोट डाल सकता है। पंजाब में 18 वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।

सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications for Members)-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  • गांव की मतदाताओं की सूची में उसका नाम हो।
  • दिवालिया, पागल और दण्डित न हो।
  • सरकारी कर्मचारी न हो।
  • वह राज्य विधानमण्डल या संसद् का सदस्य न हो।

आरक्षित स्थान-प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जातियों तथा जन-जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की गई हैं। पिछड़ी श्रेणी के लिए एक सीट आरक्षित-जिस ग्राम सभा क्षेत्र में पिछड़ी श्रेणी की जनसंख्या गांव की कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत से अधिक है उस गांव की पंचायत में एक सीट पिछड़ी श्रेणी के लिए आरक्षित रखी गई है।
स्त्री सदस्य (Women Members)-पंजाब में सन् 2017 से यह प्रावधान है कि ग्राम पंचायतों में 50% स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे ।

अवधि (Terms)-73वें संवैधानिक संशोधन से पूर्व पंचायतों की अवधि सभी राज्यों में एक समान नहीं थी। कुछ राज्यों में यह अवधि 3 वर्ष तो कुछ राज्यों में 5 वर्ष थी। लेकिन 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा अब पंचायतों की अवधि 5 वर्ष सुनिश्चित कर दी गई है। राज्य सरकार कुछ परिस्थितियों में पांच वर्ष से पूर्व भी पंचायत को भंग कर सकती है, लेकिन इसके लिए 6 मास के भीतर नई पंचायत के चुनाव हो जाने चाहिएं। उल्लेखनीय है कि भंग की गई पंचायत के स्थान पर नव-गठित पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं अपितु शेष समय तक रहता है।

सरपंच (Chairman)-पंचायत का एक अध्यक्ष होता है जिसे सरपंच कहा जाता है। पंजाब में सरपंच का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। सरपंच को भी अन्य सदस्यों की तरह अवधि पूरी होने से पहले हटाया जा सकता है। सरपंच को निर्णायक मत देने का अधिकार प्राप्त होता है।

बैठकें (Meetings)-पंचायत की बैठकें महीने में एक बार अवश्य होती हैं। पंचायत की बैठकें सरपंच बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है।

निर्णय (Decisions)-पंचायत के निर्णय साधारण बहुमत से होते हैं। परन्तु यदि किसी विषय के पक्ष और विपक्ष में बराबर मत हों तो सरपंच को निर्णायक मत देने का अधिकार है।

ग्राम पंचायत के कार्य तथा शक्तियां (POWERS AND FUNCTIONS OF THE GRAM PANCHAYATS)

पंचायत कई प्रकार के कार्य करती है। इन कार्यों को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है –

  1. (1) प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)
  2. (2) सार्वजनिक कार्य (Functions of Public Welfare)
  3. विकास सम्बन्धी कार्य(Development Functions)
  4. न्याय सम्बन्धी कार्य (Judicial Functions)

1. प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)—पंचायत को अपने क्षेत्र में कई प्रकार के प्रशासनिक कार्य करने पड़ते हैं

  • गांव में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना पंचायत का उत्तरदायित्व है।
  • पंचायत अपने क्षेत्र में अपराधियों को पकड़ने और अपराधों की रोकथाम करने के लिए पुलिस की सहायता करती है।
  • पंचायत 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके अपने क्षेत्र में शराब बेचने को निषेध कर सकती है।
  • गांव के सरकारी कर्मचारियों के कामों पर देख-रेख रखना पंचायत का काम है। यदि पटवारी, नम्बरदार, चौकीदार या कोई अधिकारी अपने कर्तव्य का ठीक प्रकार से पालन न करे तो पंचायत उसकी शिकायत जिलाधीश से कर सकती है। जिलाधीश के लिए अनिवार्य है कि वह ऐसी शिकायत पर कार्यवाही करे और उसका परिणाम पंचायत को बताए।
  • गांव में सड़कों, पुलों, गलियों और नालियों को बनाना और उनकी मुरम्मत करना पंचायत का काम है।

2. सार्वजनिक कल्याण सम्बन्धी कार्य (Functions of Public Welfare)-पंचायत ऐसे बहुत-से कार्य करती है जिससे जनता की भलाई हो जैसे

  • अपने क्षेत्र में सफ़ाई आदि का प्रबन्ध पंचायत करती है।
  • पंचायत लोगों के स्वास्थ्य को अच्छा बनाने का प्रयत्न करती है। इसके लिए वह अस्पताल, दवाखाने खोलती है तथा प्रसूति गृह, बालहित केन्द्र स्थापित करती है। लोगों को चेचक, हैज़ा आदि के टीके लगाए जाते हैं।
  • गांव में पीने के लिए शुद्ध पानी की व्यवस्था की जाती है और कुओं तथा तालाबों में दवाई आदि डाले जाने का प्रबन्ध किया जाता है।
  • सड़कों, गलियों और बाजारों में रोशनी का प्रबन्ध किया जाता है।
  • पंचायत अपने इलाके में प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध भी करती है। पंजाब और हरियाणा में यह काम सरकार ने अपने हाथ में लिया हुआ है।
  • यह लोगों के मानसिक विकास करने के लिए गांव में पुस्तकालय तथा वाचनालय स्थापित करती है।
  • गांव के सार्वजनिक स्थानों की देखभाल तथा सफ़ाई का प्रबन्ध पंचायत करती है।
  • वह शमशान भूमि का प्रबन्ध तथा उसकी देखभाल करती है।
  • गांव में नए वृक्ष लगाना तथा उनकी देखभाल करना भी उसका काम है।
  • पंचायत अपने इलाके में पशुओं की नस्ल को सुधारने का प्रयत्न करती है।
  • कृषि को उन्नत करना, किसानों के लिए अच्छे बीजों का प्रबन्ध करना और उन्हें कृषि के वैज्ञानिक तरीकों से परिचित करना भी पंचायत का कर्तव्य है।
  • पंचायत घरेलू उद्योग-धन्धों को विकसित करने का प्रयत्न करती है ताकि लोगों को अधिक-से-अधिक रोजगार मिल सके।
  • पंचायत लोगों के सामाजिक जीवन को सुधारने के प्रयत्न करती है और समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न करती है।
  • बाढ़, अकाल तथा दूसरे प्रकार के संकटों के समय पंचायतें अपने इलाके के लोगों की आर्थिक सहायता भी करती है।
  • पंचायत लोगों के मनोरंजन के लिए मेले, मण्डियां, प्रदर्शनी और दंगल आदि का प्रबन्ध करती है।

3. विकास सम्बन्धी कार्य (Development Functions)-पंचायतें ग्रामीण क्षेत्र में सामुदायिक विकास योजनाएं लागू करती हैं। पंचायतें अपने क्षेत्र के बहुमुखी विकास के लिए छोटी-छोटी योजनाएं बनाती हैं तथा उन्हें लागू करती हैं। कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिए किसानों को बढ़िया बीज तथा खाद बांटने का प्रबन्ध करती है। पंचायतें ग्रामीण उद्योगों के विकास के लिए भी प्रयास करती हैं।

4. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-कुछ राज्यों में पंचायतें अपने क्षेत्रों के छोटे-मोटे दीवानी, भूमि सम्बन्धी तथा फौजदारी मुकद्दमे का निर्णय भी करती है। कई राज्यों में अलग न्याय पंचायतों अथवा ‘अदालती पंचायतों’ की व्यवस्था की गई है। अदालती पंचायतों का संगठन सीमावर्ती कुछ पंचायतों को मिलाकर किया जाता है। पंजाब और हरियाणा में अदालती पंचायतों की स्थापना नहीं की गई है। पंचायतों को प्राय: निम्नलिखित न्यायिक शक्तियां प्राप्त हैं-

(1) दीवानी मुकद्दमे-साधारण पंचायत 200 रुपए तक के और विशेष अधिकारों वाली पंचायत को 500 रुपए के दीवानी मुकद्दमे सुनने और फैसले देने का अधिकार प्राप्त है। परन्तु पंचायतें वसीयत सम्बन्धी मुकद्दमे, नाबालिग तथा पागलों के विरुद्ध मुकद्दमे, सरकारी कर्मचारियों और दिवालियों के विरुद्ध मुकद्दमे नहीं सुन सकती।
(2) फौजदारी मुकद्दमे-गाली-गलोच, मारपीट, अश्लील गाने गाना, पशुओं के साथ निर्दयता का व्यवहार करना, सार्वजनिक भवनों को खराब करना, रास्ता रोकना आदि के फौजदारी मुकद्दमे पंचायतें सुनती हैं। पंचायतें 200 रुपए तक का जुर्माना कर सकती हैं। पंचायतें अपना आदेश पालन न करने वाली पर 25 रुपए तक जुर्माना कर सकती है। पंचायतों के सामने वकील उपस्थित नहीं हो सकते। दोनों ओर के व्यक्तियों को स्वयं उपस्थित होकर अपनी बात करनी पड़ती है। पंचायत के निर्णयों के विरुद्ध न्यायालयों में अपील की जा सकती है।

पंचायतों के आय के साधन (SOURCES OF INCOME OF PANCHAYAT)-

पंचायतों को अपना काम चलाने को लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। यह धन उन्हें निम्नलिखित साधनों से प्राप्त होता है

  1. गांव में से इकट्ठे होने वाले लगान का 10 प्रतिशत भाग पंचायत को मिलता है।
  2. पंचायत गांव में मकानों पर गृह कर (House Tax) लगाती है।
  3. गांव की साझी भूमि जिसे शामलात (Shamlat) कहते हैं, से भी आय प्राप्त होती है।
  4. पंचायत अपराधी पर जो जुर्माना करती है, उस धन को वह अपने पास रखती है।
  5. खाद की बिक्री आदि से भी पंचायत को आय होती है।
  6. किसी विशेष आवश्यकता पूर्ति के लिए पंचायत गांव के लोगों से विशेष कर इकट्ठा कर सकती है। यह कर धन के रूप में या मुफ्त परिश्रम (Free manual labour) के रूप में दिया जा सकता है।
  7. यह गांव में होने वाले मेलों, मण्डियों और प्रदर्शनी आदि पर भी लगा सकती है।
  8. पंचायत को राज्य सरकार के प्रति वर्ष धन की सहायता मिलती है ताकि वे अपना काम ठीक प्रकार से कर सकें।
  9. पंचायतें कई प्रकार के लाइसैंस भी देती हैं और उसके लिए वह फीस लेती है।
  10. मरे हुए पशुओं की खाल को बेचने से भी पंचायत को आय होती है।

पंचायतों पर सरकारी नियन्त्रण (GOVERNMENT CONTROL OVER PANCHAYATS)-

ग्राम पंचायतें अपने कार्यों एवं क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्र नहीं हैं। ग्राम पंचायतों पर राज्य सरकार का नियन्त्रण होता है। राज्य सरकार निम्नलिखित ढंगों से पंचायतों पर नियन्त्रण रखती है-

  • ग्राम पंचायतों की स्थापना राज्य सरकार के एक्ट के अधीन की जाती है। राज्य सरकारें ही ग्राम पंचायतों के संगठन, शक्तियों एवं कार्यों को निश्चित करती हैं।
  • राज्य सरकार या उनका कोई अधिकारी ग्राम पंचायतों को आवश्यक आदेश दे सकता है।
  • ग्राम पंचायत के मुख्य अधिकारियों की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है।
  • सरकार डिप्टी कमिश्नर द्वारा पंचायतों के बजट पर नियन्त्रण रखती है।
  • पंचायतें सरकार से अनुदान प्राप्त करती हैं। अतः सरकार पर पंचायतों पर नियन्त्रण होना स्वाभाविक है। सरकार पंचायतों के हिसाब-किताब की जांच-पड़ताल करती है।
  • सरकार या उसका अधिकारी पंचायत के कार्यों की जांच-पड़ताल कर सकता है।
  • विशेष परिस्थितियों में सरकार पंचायतों को भंग कर सकती है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 4.
ब्लॉक समिति की बनावट और कार्यों का वर्णन कीजिए।
(Explain the composition and functions of Block Samiti.)
अथवा
पंचायत समिति के कार्यों और शक्तियों का वर्णन कीजिए।
(Give the functions and powers of Panchayat Samiti.)
उत्तर-
पंचायती राज जोकि लगभग सारे भारत में उपस्थित है, एक तीन स्तरीय संगठन है। इसके बीच वाले स्तर को पंचायत समिति कहा जाता है। पंचायत समिति पंचायती ढांचे की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण इकाई है। इतनी शक्तियां, ज़िम्मेदारियां और किसी अन्य इकाई के पास नहीं हैं। इस इकाई को पंचायती राज की धुरी कहना गलत नहीं होगा। इस समय सारे देश में लगभग 6000 पंचायत समितियां हैं।

पंचायत समिति की रचना (Composition of Panchayat Samiti)-प्रत्येक विकास खण्ड (Development of Block) की एक पंचायत समिति होती है। उत्तर प्रदेश में उसे “क्षेत्र समिति” कहते हैं, मध्य प्रदेश में इसे ‘जन परिषद्’ तथा गुजरात में ‘तालुका पंचायत’ कहते हैं।
पंजाब में पंचायत समिति के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से लोगों द्वारा किया जाता है। अतः अब पंचायत समितियों के सभी सदस्यों का चुनाव लोगों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक पंचायत समिति के सदस्यों की संख्या समिति के क्षेत्र की जनसंख्या के अनुसार निश्चित की जाती है, परन्तु किसी भी पंचायत समिति के सदस्यों की संख्या 10 से कम नहीं हो सकती।
विधान सभा के सदस्य-पंजाब विधानसभा के सदस्य जिनके निर्वाचन क्षेत्र का बहुत भाग पंचायत समिति के क्षेत्र में आता है।
विधान परिषद् के सदस्य-अगर राज्य में विधान परिषद् है तो उनके सदस्य भी, जिनका नाम पंचायत समिति के क्षेत्र की मतदाता सूची में रजिस्टर हो।
आरक्षित स्थान-73वें संशोधन के अनुसार अनुसूचित जातियों व जन-जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षित स्थान देने की व्यवस्था की गई है।
महिलाओं के लिए आरक्षित स्थान-पंजाब में प्रत्येक पंचायत समिति में प्रत्यक्ष तौर पर कुल चुनी गई सीटों में से 50% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित रखी गई हैं।

सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications of Members)—पंचायत समिति का सदस्य चुने जाने या संयोजित (Co-opt.) किये जाने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
  • वह किसी सरकारी लाभदायक पद पर न हो
  • वह पागल या दिवालिया न हो
  • वह किसी न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।

अवधि (Tenure)-73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पंचायत समितियों की अवधि 5 वर्ष निश्चित की गई है। राज्य सरकार कुछ परिस्थितियों में पांच वर्ष से पूर्व भी पंचायत समिति को भंग कर सकती है, लेकिन इसके लिए 6 माह के भीतर नई पंचायत समिति के चुनाव करवाना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि भंग की गई पंचायत समिति के स्थान पर नवगठित पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं, अपितु शेष समय तक रहता है।

अध्यक्ष (Chairman)-पंचायत समिति के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष को चुनते हैं। अध्यक्ष पंचायत समिति की बैठकों में सभापतित्व करता है। इसकी अवधि भी पांच वर्ष होती है, परन्तु उसे इससे पहले दो तिहाई सदस्यों द्वारा भी हटाए जाने की व्यवस्था है।

कार्यकारी अधिकारी (Executive Officer) खण्ड विकास तथा पंचायत अधिकारी (B.D.O.) पंचायत समिति का कार्यकारी अधिकारी होता है। पंचायत समिति का दैनिक शासन उसी के द्वारा चलाया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई कर्मचारी होते हैं जिनमें तकनीकी विशेषज्ञ भी शामिल होते हैं।

बैठकें (Meetings)—पंचायत समिति की साधारण बैठकें एक वर्ष में कम-से-कम 6 बार बुलाई जाती हैं। पंचायत समिति के एक-तिहाई सदस्य यदि लिखकर दें तो पंचायत समिति की विशेष बैठकें बुलाई जा सकती हैं। साधारण बैठक दो महीने में एक बार अवश्य बुलाई जाती है।

गणपूर्ति (Quorum)—साधारण बैठकों के लिए कुछ सदस्यों का एक तिहाई और विशेष बैठकों के लिए आधे सदस्यों का उपस्थित होना आवश्यक है।

पंचायत समिति के कार्य तथा शक्तियां
(POWERS AND FUNCTIONS OF THE PANCHAYAT SAMITI)-

पंचायत समिति निम्नलिखित कार्य करती है-

1. पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण-पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्य पर देख-रेख करती है। पंचायत समिति पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण रखती है। उड़ीसा, राजस्थान, असम और महाराष्ट्र में पंचायत समिति अपने क्षेत्र के बजट को स्वीकार करती है।
2. कृषि का विकास-पंचायत समिति अपने क्षेत्र में कृषि को बढ़ावा देने का प्रयत्न करती है और किसानों में अच्छे बीज, खाद तथा वैज्ञानिक औज़ारों को बांटती है। पंचायत समिति चूहों, टिड्डी दल तथा कीड़ों आदि से फसलों को बचाने का प्रयत्न करती है।
3. सिंचाई-पंचायत समिति कृषि के विकास के लिए सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करती है।
4. लघु और कुटीर उद्योगों का विकास-पंचायत समिति अपने इलाके में घरेलू उद्योग-धन्धों को बढ़ावा देने का प्रयत्न करती है। वह इस सम्बन्ध में योजनाएं बनाने और लागू करने का अधिकार रखती है।
5. पशु-पालन और मछली पालन-पंचायत समिति पशु-नस्ल को अच्छा बनाने के कदम उठाती है। वह दूध को डेयरियां खोलने में लोगों की सहायता करती है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में मछली उद्योग को प्रोत्साहन देती है।
6. सफ़ाई और स्वास्थ्य-अपने क्षेत्र की सफ़ाई और स्वास्थ्य का उचित प्रबन्ध करना इसका कार्य है। इसके लिए वह अस्पताल खोलती है और प्रसूति गृह तथा बालहित केन्द्र स्थापित करती है। वह बीमारियों को रोकने के लिए टीके लगवाने तथा दूसरे कदम उठाने का प्रबन्ध करती है।
7. पीने के पानी की व्यवस्था-पंचायत समिति अपने क्षेत्र में पीने के पानी की व्यवस्था करती है। जल प्रदूषण को रोकती है।
8. वनों और वृक्षों का विकास-पंचायत समिति वनों के विकास के लिए वृक्ष लगाती है और उनकी देखभाल करती है।
9. सार्वजनिक निर्माण कार्य-पंचायत समिति अपने इलाके की सड़कों और पुलों के निर्माण और मुरम्मत का प्रबन्ध करती है। वह इलाके में सार्वजनिक नौका घाटों का प्रबन्ध करती है।
10. सहकारी समितियां-पंचायत समिति अपने इलाके में सहकारी समितियों को प्रोत्साहन देती है। कृषि,
औद्योगिक और सिंचाई के क्षेत्र में सहकारी समितियों की स्थापना की जाती है।
11. शिक्षा-पंचायत समिति अपने क्षेत्र में शिक्षा के विकास की ओर भी ध्यान देती है तथा इसमें एक पुस्तकालय
और वाचनालय आदि खोलने का प्रबन्ध करती है। ___ 12. सामुदायिक विकास-पंचायत समिति अपने क्षेत्र की सामुदायिक विकास परियोजनाओं (Community Development Projects) को लागू करती है और क्षेत्र के विकास का प्रयत्न करती है।
13. सहायता के कार्य-पंचायत समिति अपने क्षेत्र के लोगों की अकाल, बाढ़ तथा दूसरे संकट के समय आर्थिक सहायता का प्रयत्न करती है। ___ 14. सहकारी सम्पत्ति-पंचायत समिति सहकारी सम्पत्ति का प्रबन्ध तथा उनकी देखभाल करती है। पंचायत समिति सार्वजनिक हितों के लिए सम्पत्ति का अधिग्रहण भी कर सकती है। .
15. मनोरंजन सम्बन्धी कार्य-पंचायत समिति अपने क्षेत्र के लोगों के लिए सांस्कृतिक कार्यों की भी व्यवस्था करती है, वह खेल-कूद (Tournaments) का प्रबन्ध करती है, मनोरंजन केन्द्र स्थापित करती है, युवक केन्द्रों की व्यवस्था करती है और दंगल आदि का प्रबन्ध करके लोगों के मनोरंजन और सांस्कृतिक विकास के लिए प्रयत्न करती है। पंचायत समिति गांव वालों के लिए मेलों, प्रदर्शनियों तथा मण्डियों का प्रबन्ध करती है।
16. जन्म और मृत्यु का पंजीकरण- वह जन्म और मृत्यु का रजिस्टर भी रखती है जिसमें क्षेत्र में होने वाली जन्म-मरण सम्बन्धी सूचना लिखी जाती है।
17. विश्राम गृहों का प्रबन्ध-पंचायत समिति सरायों और विश्राम-गृहों का प्रबन्ध करती है। 18. सार्वजनिक वितरण प्रणाली-पंचायत समिति सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लागू करती है।
19. पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जाति एवं जनजाति का कल्याण-पंचायत समिति कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के लोगों को अन्याय तथा शोषण से बचाती है और उनकी भलाई के लिए उचित कदम उठाती है।
20. उपनियमों का निर्माण-पंचायत समिति आवश्यकता पड़ने पर अनेक विषयों पर उप-नियम बना सकती है।
21. भूमि की सुरक्षा-पंचायत समिति राज्य सरकार के भूमि संरक्षण कार्यक्रम में सरकार की सहायता करती है। .
22. गरीबी निवारण-पंचायत समिति गरीबी दूर करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यक्रम एवं योजनाएं बनाती है तथा उन्हें लागू करती है।
23. यातायात के साधनों का विकास-पंचायत समिति सड़कों की देखभाल करती है और यातायात के साधनों का विकास करती है।
24. अनौपचारिक ऊर्जा साधनों का विकास-पंचायत समिति का एक कार्य यह भी है कि वह अनौपचारिक ऊर्जा साधनों का विकास करे।
25. महिलाओं एवं बच्चों का विकास-पंचायत समिति महिलाओं एवं बच्चों के विकास के लिए भी कार्य करती
26. बिजली का प्रबन्ध-पंचायत समिति ग्रामीण क्षेत्र में बिजली का प्रबन्ध करती है।

आय के साधन (SOURCES OF INCOME)-

पंचायत समिति को निम्नलिखित साधनों से आय प्राप्त होती है-

  • पंचायत क्षेत्र में लगाए स्थानीय कर (Local Taxes) का कुछ भाग पंचायत समिति को मिलता है।
  • इसे मेलों तथा मण्डियों से भी आय प्राप्त होती है। पशुओं के मेलों में भाग लेने वाले पशुओं के मालिकों से यह फीस लेती है।
  • यह कई प्रकार के लाइसेंस भी देती है।
  • इसे राज्य सरकार से भी सहायता के रूप में धन मिलता है।
  • समिति को अपनी सम्पत्ति से भी आय होती है।
  • समिति जिला परिषद् की अनुमति से और भी कर लगा सकती है और अपनी आय को बढ़ा सकती है।
  • उसके क्षेत्र में इकट्ठे होने वाले लगान से भी कुछ भाग पंचायत समिति को मिलता है।

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प्रश्न 5.
जिला परिषद् का संगठन किस प्रकार किया जाता है, इसके कार्यों का वर्णन करो। (How is the Zila Parishad organised ? Discuss its functions.)
अथवा
जिला परिषद् के गठन और कार्यों का वर्णन कीजिए। (Describe the organisation and functions of the Zila Parishad.)
उत्तर-
पहले प्रत्येक जिले में जिला बोर्ड होते थे जो ग्रामीण क्षेत्रों के स्थानीय मामलों का प्रशासन करते थे। पंचायती राज की स्थापना के कारण ज़िला बोर्ड को तोड़ दिया गया है। अब प्रत्येक जिले में एक जिला परिषद् होती है। जिला परिषद् पंचायती राज की सर्वोच्च इकाई है। इस समय सारे देश में लगभग 500 जिला परिषदें हैं।

रचना (Composition)—पंचायत समिति की तरह जिला परिषद् में भी कई प्रकार के सदस्य होते हैं। पंजाब की प्रत्येक जिला परिषद् में निम्नलिखित सदस्य होते हैं

1. (क) जनता द्वारा निर्वाचित सदस्य-क्षेत्रीय चुनाव क्षेत्र में से जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुने गए सदस्य, जिनकी सदस्य संख्या 10 से लेकर 25 तक होती है।
(ख) पंचायत समितियों के सभी अध्यक्ष।
(ग) लोकसभा व राज्य विधानसभा के सदस्य-जिले का लोकसभा में व राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा व राज्य विधानसभा के सदस्य।
(घ) राज्यसभा व राज्य विधान परिषद् के सदस्य-परिषद् के निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में अंकित राज्यसभा व राज्य विधान परिषद के सदस्य।

2. जिला परिषद् के वह सदस्य जो जिला परिषद् के क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने गए हों या नहीं, को भी जिला परिषद् की बैठकों में अपने मत का प्रयोग करने का अधिकार है।
ज़िला परिषद् का प्रत्येक सदस्य 50 हजार की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। जिस जिला परिषद् की जनसंख्या पांच लाख या इससे कम है तो उसमें 10 सदस्य होते हैं और जिस जिला परिषद् की जनसंख्या 12 लाख या इससे ज्यादा है तो उस जिला परिषद् के सदस्यों की संख्या 25 से ज्यादा नहीं हो सकती है।

आरक्षित स्थान-जिला परिषद् में अनुसूचित जातियों, जन-जातियों तथा पिछड़ी श्रेणियों के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए गए हैं। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में अनुसूचित जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की गई हैं। पंजाब में 50% स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रखे गए हैं। जिला परिषद् में एक सीट पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षित रखी जाती है यदि उस जिले में पिछड़ी श्रेणियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत से कम न हो।

सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications of Members)-ज़िला-परिषद् का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं

  • वह भारत का नागरिक हो
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
  • वह सरकार या समिति परिषद् के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो
  • वह पागल या दिवालिया न हो और किसी न्यायालय द्वारा अयोग्य भी घोषित न किया गया हो।

अवधि (Tenure)-73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार जिला परिषद् का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया है। परन्तु कुछ परिस्थितियों में राज्य सरकार जिला परिषद् को समय से पूर्व भी भंग कर सकती है, परन्तु 6 महीने के अन्दर जिला परिषद् के चुनाव करवाना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि नवगठित जिला परिषद् का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं, अपितु शेष समय तक रहता है। पंजाब और हरियाणा में जिला-परिषद् का कार्यकाल 5 वर्ष है। सरकार इसे अवधि से पूर्व भी भंग कर सकती है। परन्तु 6 महीने के अन्दर चुनाव करवाना अनिवार्य है।

अध्यक्ष (Chairman)-ज़िला परिषद् का एक अध्यक्ष होता है जो जिला परिषद् के सदस्यों के द्वारा चुना जाता है। सदस्य उपाध्यक्ष (Vice-Chairman) भी चुनते हैं। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को अवधि पूरी होने से पहले दो तिहाई सदस्यों द्वारा हटाए जाने की व्यवस्था है। कई राज्यों में अध्यक्ष को वेतन मिलता हैं, परन्तु पंजाब और हरियाणा में अध्यक्ष को कोई वेतन नहीं मिलता है। जिला परिषद् के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष की सीटें अनुसूचित जातियों के लिए उनकी राज्य की कुल जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से आरक्षित की गई हैं।

सलाहकार (Advisors)-जिला स्तर पर लगे हुए किसी भी सरकारी अधिकारी को जिला परिषद् सलाह देने के लिए अपनी मीटिंग में उपस्थित होने के लिए कह सकती है। जिला परिषद् का ऐसा निमन्त्रण बाध्यकारी होता है।

सचिव (Secretary)-ज़िला परिषद् का एक सचिव होता है जो इसके दैनिक प्रशासन को चलाता है। सचिव को मासिक वेतन मिलता है। इसकी नियुक्ति जिला परिषद् की सिफ़ारिश पर सरकार द्वारा होती है।

बैठकें (Meetings)-जिला परिषद् की बैठक वर्ष में चार बार अवश्य होती है। जिला परिषद् की तीन महीने में एक बार बैठक होना अनिवार्य है। एक तिहाई सदस्यों की मांग से विशेष बैठक भी हो सकती है। सदस्यों की कुल संख्या का एक-तिहाई (1/3) भाग गणपूर्ति के लिए निश्चित किया गया है।

निर्णय (Decisions)-ज़िला परिषद् के निर्णय उपस्थित सदस्यों के बहुमत से किए जाते हैं। परन्तु यदि किसी विषय पर पक्ष और विपक्ष में मत बराबर हों तो अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार है।

समितियां (Committees)-ज़िला परिषद् अपने कार्यों को कुशलता से करने के लिए कई प्रकार की समितियों की स्थापना करती है।

जिला परिषद् के कार्य (FUNCTIONS OF THE ZILA PARISHAD)

जिला-परिषद् के कार्य सभी राज्यों में एक समान नहीं हैं। यह अलग-अलग राज्यो में अलग-अलग हैं। जिलापरिषद् को केवल समन्वय लाने वाली और निरीक्षण करने वाली संस्था (Co-ordinating and Supervisory Body) के रूप में ही स्थापित किया गया है। इसे निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-

(1) यह अपने क्षेत्र में पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय (Co-ordination) स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
(2) पंचायत समितियां अपना वार्षिक बजट पास करके ज़िला-परिषद् के पास भेजती है। जिला परिषद् उस पर सोच-विचार कर अपनी स्वीकृति देती है। वह चाहे तो उसमें परिवर्तन के सुझाव भी दे सकती है।
(3) जिला परिषद् अपने क्षेत्र की पंचायत समितियों के कार्यों पर देख-रेख रखती है।
(4) यदि कोई पंचायत समिति अपना काम ठीक प्रकार से न कर रही हो तो जिला परिषद् उसे कर्त्तव्य-पालन के सम्बन्ध में आदेश दे सकती है।
(5) जिला परिषद् जिले के ग्रामीण जीवन का विकास करने और लोगों के जीवन को ऊंचा उठाने के प्रयत्न करती है। (6) यह सरकार को जिले के ग्रामीण विकास के बारे में सुझाव भेज सकती है।
(7) यदि कोई विकास योजना से दो या दो से अधिक पंचायत समितियों का सामूहिक विकास हो तो ज़िला-परिषद् उनमें एकता लाने तथा उस योजना को सफल बनाने का प्रयत्न करती है।
(8) सरकार किसी भी विकास योजना को लागू करने का उत्तरदायित्व जिला परिषद् पर डाल सकती है। (9) जिला परिषद् के जिम्मे विशेष कार्य भी सौंपे गए हैं। जैसे कि पशु-पालन, मछली-पालन, सड़क आदि।
(10) ज़िला परिषद् सरकार को पंचायत समितियों के कार्यों में विभाजन तथा ताल-मेल के सम्बन्ध में परामर्श दे सकती है।
(11) जिला परिषद् खेती-बाड़ी के लिए बीज, फार्म तथा व्यापारिक कार्य खोलती है, गोदामों की स्थापना तथा देखभाल करती है और खेतीबाडी और मेलों का प्रबन्ध करती है।
(12) जिला परिषद् सिंचाई के साधनों का विकास करती है तथा सिंचाई योजनाओं के अधीन पानी का उचित बंटवारा करती है।
(13) जिला परिषद् सामूहिक पम्प सेट्स तथा वाटर वर्क्स लगवाती है।
(14) जिला परिषद् पार्कों का निर्माण, उनकी देखभाल करती है तथा बाग़ लगवाती है।
(15) जिला परिषद् सभी तरह के आंकड़ों को प्रकाशित करती है।
(16) जिला परिषद् जंगलों का विकास करती है तथा वृक्ष लगाती है।
(17) ज़िला परिषद् पशु-पालन तथा पशुओं की डेयरी के विकास के लिए अनेक कार्य करती है।
(18) जिला परिषद् अपने क्षेत्र में ज़रूरी वस्तुओं के वितरण का प्रबन्ध करती है।
(19) जिला परिषद् घरेलू तथा लघु उद्योगों के विकास के लिए अनेक कार्य करती है।
(20) ज़िला परिषद् अपने क्षेत्र में शिक्षा के विस्तार के लिए स्कूलों की स्थापना करती है। अनपढ़ता दूर करने के लिए तथा आम शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य करती है।
(21) ज़िला परिषद् गरीबी को दूर करने से सम्बन्धित कार्यक्रमों को लागू करती है।

जिला परिषद् की आय के साधन (SOURCES OF INCOME OF ZILA PARISHAD)

जिला परिषद् की आय के निम्नलिखित साधन हैं-

  • स्थानीय करों (Local Taxes) का कुछ भाग जिला परिषद् को मिलता है।
  • जिला परिषद् सरकार की आज्ञा से कुछ धन पंचायतों से ले सकती है।
  • राज्य सरकार जिला परिषद् की सहायता के रूप में प्रति वर्ष कुछ धन देती है।
  • जिला परिषद् को अपनी सम्पत्ति से बहुत-सी आय होती है।
  • जिला परिषद् सरकार की अनुमति से ब्याज पर उधार भी ले सकती है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 6.
भारत में पंचायती राज व्यवस्था की उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
(Explain the achievements of Panchayati Raj System in India.)
अथवा
भारत में पंचायती राज प्रणाली की उपलब्धियों/प्राप्तियों का वर्णन करें। (Discuss the achievements of Panchati Raj System in India.)
उत्तर-
पंचायती राज का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसे भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय पं० जवाहर लाल नेहरू ने क्रान्ति का नाम दिया, एक ऐसी क्रान्ति जो नवभारत का निर्माण करेगी। 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में पंचायती राज का उद्घाटन करते हुए पं० नेहरू ने कहा था, “हम भारत के लोकतन्त्र की आधारशिला रख रहे हैं।” दिसम्बर, 1992 में संसद् ने 73वां संविधान संशोधन सर्वसम्मति से पास करके पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी है। इस प्रकार निम्न स्तर पर भी लोकतन्त्र को मान्यता मिल गई है। निम्नलिखित बातों से पंचायती राज के महत्त्व का पता चलता है-

1. जनता का राज (People’s Participation)-पंचायती राज का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि यह जनता का राज है। विदेशी शासन का राज चाहे कितना भी कुशल क्यों न हो फिर भी उससे लोगों के नैतिक जीवन का स्तर ऊंचा नहीं हो सकता। एक प्रसिद्ध कथन है, “अच्छी सरकार से स्वशासन का स्थानापन्न नहीं हो सकता।” (“Good government is not substitution for self-government.) गांव में लोगों का अपना शासन स्थापित हो चुका है। अपने शासन से अच्छा कोई शासन नहीं होता। गांव का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य है और ग्राम पंचायत के चुनाव में भाग लेता है। ग्राम पंचायत ग्राम के प्रशासन सम्बन्धी, समाज कल्याण सम्बन्धी, विकास सम्बन्धी तथा न्याय सम्बन्धी सब कार्य करती है। इस प्रकार गांव का व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं निर्माता बना हुआ है। भारत का नागरिक अब किसी के अधीन नहीं है और वह वास्तविक रूप में अपने ऊपर स्वयं शासन करता है।

2. प्रत्यक्ष लोकतन्त्र (Direct Democracy)-पंचायती राज गांवों में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से कम नहीं है। गांव के सब लोग ग्रामसभा के सदस्य के रूप में, जिनकी बैठक वर्ष में दो बार बुलाई जाती है, गांव की समस्याओं पर विचार करते हैं और उनका निर्णय करते हैं। ग्रामसभा गांव की संसद् ( Parliament) की तरह है और गांव के सभी नागरिक इस संसद् के सदस्य हैं। पंचायती राज के वे सब लाभ हैं जो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से प्राप्त होते हैं। पंचायती राज की महत्ता को समझते हुए महात्मा गांधी ने स्वराज्य की मांग की थी जिसका अर्थ सम्पूर्ण गणतन्त्र था।

3. आत्म-निर्भरता (Self-sufficiency)-पंचायती राज का एक उद्देश्य यह है कि प्रत्येक गांव अपने विकास कार्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति, प्रशासन सम्बन्धी बातों तथा न्याय के सम्बन्ध में आत्म-निर्भर हो जाए। पंचायत तथा पंचायत समितियां जनता की संस्थाएं हैं और वे स्वयं टैक्स आदि लगाकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं, अपने विकास की योजनाएं भी संस्थाएं स्वयं बनाती हैं। पंचायती राज से पहले गांव के विकास की योजनाएं सरकारी कर्मचारी बनाते थे और वे अपनी इच्छा से उन्हें लाग करते थे अर्थात् गांव की विकास योजना तथा आवश्यकता पूर्ति सरकार की इच्छा पर निर्भर थी, परन्तु अब यह लोगों की अपनी इच्छा पर निर्भर है। विकास और पंचायत अधिकार (B.D.0.) अब पंचायत समिति द्वारा निश्चित योजना को लागू करता है।

4. आत्म-विश्वास (Self-confidence)-पंचायती राज से जनता में आत्म-विश्वास की भावना पैदा होती है जो कि किसी भी राष्ट्र को जीवित रखने तथा उसका विकास करने के लिए आवश्यक है। अभी तक प्रशासन के सब कार्यों में सरकार द्वारा ही पहल की जाती थी और सरकार द्वारा निश्चित योजना को ही लागू किया जाता था। लोगों को जो शक्ति मिलती थी उसका प्रयोग भी वे उसी तरीके के अनुसार करते थे जो तरीका सरकार निश्चित कर देती थी, परन्तु अब विकास योजनाओं को गांव वाले स्वयं बनाते हैं, स्वयं ही उन्हें लागू करते हैं। न्यायिक कार्यों में पंचायतों को स्वतन्त्रता दी गई है। पंचायत के सामने वकील नहीं आ सकते। प्रत्येक व्यक्ति पंचायत के सामने अपनी बात स्पष्ट रूप से कहता है। पंचायत के लिए न्याय का कोई विशेष और जटिल तरीका नहीं है। प्रत्येक पंचायत अपनी इच्छानुसार निर्णय करती है। अपने छोटे-छोटे झगड़ों के लिए अब गांव वालों को तहसील तथा जिले में जाने की आवश्यकता नहीं है। गांव वालों के सब काम गांव में बैठे-बैठे ही स्वयं उनके द्वारा हो जाते हैं। इस कारण उनमें आत्म-विश्वास पैदा होना स्वाभाविक है कि वे भी प्रशासन तथा विकास कार्य कर सकते हैं।

5. बाहरी हस्तक्षेप कम (Less outside Interference)–पंचायती राज की स्थापना से ग्रामीण प्रशासन तथा विकास कार्यों में बाहरी हस्तक्षेप बहुत कम हो गया है। सरकारी कर्मचारी अब ग्राम पंचायत समितियों तथा जिला परिषदों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। गांव के लोग अपनी इच्छानुसार ही सब बातों का निर्णय करते हैं। उन पर टैक्स भी उनकी अपनी इच्छा से लगते हैं, इन करों का प्रयोग जनता अपनी इच्छानुसार ही विकास तथा प्रशासन कार्यों पर करती है। बाहरी हस्तक्षेप के कम होने से लोगों में स्वतन्त्रता की भावना पैदा होती है। केवल लोकतन्त्र स्थापित करने से स्वतन्त्रता की भावना नहीं आ जाया करती। यह भावना लोगों में उस समय उत्पन्न होती है जब उन्हें अपने दैनिक कार्यों में पूर्ण स्वतन्त्रता हो। पंचायती राज ने लोगों को यह स्वतन्त्रता प्रदान की है।

6. लोगों को प्रशासन की शिक्षा (Training in Administration to the People)-भारत में लोकतन्त्र सरकार है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की ज़िम्मेदारी सम्भालने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। पंचायती राज लोगों को प्रशासन की शिक्षा देने का सर्वोत्तम साधन है। शहरों की स्थानीय संस्था नियम बनाने की प्रशिक्षण जो लोगों को देती हैं, परन्तु न्याय करने की प्रशिक्षण उन संस्थाओं के सदस्यों को नहीं मिलता। पंचायती राज गांव के लोगों को नियम बनाने, उन्हें लागू करने, विकास योजनाएं बनाने तथा लागू करने और न्याय करने का भी अवसर देता है। एक गांव में से सब कार्य करके व्यक्ति राज्य सरकार या संघ सरकार के लिए अच्छी प्रकार से योग्य बन जाता है।

7. गांवों की समस्याओं का हल (Solution of Village Problems)-गांवों तथा कस्बों की समस्याओं को हल करने के लिए पंचायती राज अति आवश्यक है। गांवों और कस्बों की विकास सम्बन्धी समस्याएं इतनी विविध और बड़ी हो गई हैं कि कोई भी प्रशासन भरपूर साधन होने पर भी उनका समाधान नहीं कर सकता। उन समस्याओं का हल स्थानीय लोग ही पंचायत के जरिए आम सहमति से कर सकते हैं। यह बात पिछले दो दशकों से स्पष्ट हो गई है।

8. ग्रामीण जीवन की शीघ्र उन्नति (Rapid Development of Rural Life)-पंचायती राज से ग्रामीण जीवन की उन्नति तेज़ी से होने लगी है और वह दिन दूर नहीं जब ग्रामीण एक पूर्ण और विकसित व्यक्ति होगा और उसकी ग़रीबी, अज्ञानता तथा बीमारी बीते दिनों की कहानी बनकर रह जाएगी। पंचायती राज से ग्रामीण सरकारी कर्मचारियों की इच्छा पर निर्भर नहीं रहते अपितु अब वे अपनी आवश्यकताओं को स्वयं अनुभव करते हुए इस बात का निर्णय स्वयं करते हैं कि उनको किन उपायों से प्राप्त किया जाए और उन उपायों को स्वयं तथा सरकारी कर्मचारियों की सहायता से पूरा करते हैं। अब गांव को अपने जीवन को स्वस्थ, सुखी और विकसित बनाने का अधिकार व्यक्ति को ही है और ऐसा करने में उसका रुचि लेना स्वाभाविक ही है। यह आशा है कि भविष्य में व्यक्ति का अपने प्रयत्नों से जीवन शीघ्र ही विकसित होगा।

9. स्वतन्त्रता की भावना का विकास-केवल लोकतन्त्र की स्थापना से ही स्वतन्त्रता की भावना का विकास नहीं होता बल्कि पंचायती राज की स्थापना से ही लोकतन्त्र की जड़ें मज़बूत होती हैं और स्वतन्त्रता की भावना विकसित होती है। ___पंचायती राज के महत्त्व का वर्णन करते हुए श्रीमती इन्दिरा जी ने कहा था कि, “हमारे देश के लोकतन्त्र की बनियाद मज़बूत होने में पंचायती राज संस्थाओं का प्रमुख स्थान रहा है। इन पर जो बड़ी आशाएं रखी गई हैं, वे पूरी हो सकती हैं, जबकि देहातों में रहने वाले कमजोर वर्ग के लोग, ग्रामीण स्वायत्त शासन में सक्रिय रूप से हिस्सा लें।”

10. न्यायिक कार्यों का महत्त्व-न्यायिक कार्यों में भी पंचायतों को स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। पंचायतों के समक्ष वकील उपस्थित नहीं हो सकते। प्रत्येक व्यक्ति पंचायत के सम्मुख अपनी बात स्पष्ट रूप से कह सकता है। पंचायत के लिए न्याय का कोई विशेष तथा जटिल ढंग नहीं है। प्रत्येक पंचायत अपनी इच्छा अनुसार फैसला करती है। अपने छोटे-छोटे झगड़ों के लिए अब गांव वालों को तहसील तथा जिले में जाने की आवश्यकता नहीं है।

11. धन का सही प्रयोग-पंचायती राज से सम्बन्धित संस्थाएं अपने-अपने क्षेत्र में धन एकत्रित करके उस धन को विकास योजनाओं में लगाती है। इससे धन का सही प्रयोग होता है।

12. केन्द्रीय और राज्य सरकारों के कार्यों को कम करती हैं -पंचायती संस्थाओं का एक महत्त्व यह है कि वह केन्द्रीय एवं राज्यों की सरकारों के कार्यों को कम करती हैं। केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों को अलग-अलग तरह के कार्य करने पड़ते हैं, जिससे वह ग्रामीण संस्थाओं के कार्य ठीक ढंग से नहीं कर पाती है। पंचायती संस्थाएं इनके कार्यों को कम करती हैं।

13. सामन्तवादी मूल्यों में कमी-पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना से सामन्तवादी मूल्यों में कमी आयी है, क्योंकि पंचायतों, पंचायत समितियों एवं जिला परिषदों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लोग तथा कथित उच्च जाति एवं सामान्त प्रवृत्ति के लोगों के बराबर बैठ कर निर्णय लेते हैं तथा नीतियां बनाते हैं।

पिछले कुछ समय से देश में पंचायती राज की उपयोगिता और महत्त्व पर बहुत अधिक बल दिया जा रहा है और पंचायती राज के प्रति यह नई जागरूकता भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने उत्पन्न की है। श्री राजीव गांधी ने कई बार कहा था कि बिना पंचायती राज संस्थाओं को मज़बूत बनाए गांवों की समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता। देश में पंचायती राज पद्धति को पुनर्जीवित और सुदृढ़ करने से ही सही रूप से शासन जनता का सच्चा प्रतिनिधि तथा उसके प्रति उत्तरदायी बन सकता हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 7.
पंचायती राज प्रणाली के क्या अवगुण हैं ? इसके अवगुणों को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
(What are the defects of Panchayati Raj System ? Give suggestions to remove its defects.)
अथवा
पंचायती राज की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
(Describe the problems of Panchayati Raj.)
उत्तर-
सन् 1952 में ग्राम पंचायत स्थापित की गई तथा पंचायतों को अधिक अधिकार दिए गए। बाद में गांवों में पंचायती राज स्थापित किया गया परन्तु इतने वर्ष बीतने के बाद भी पंचायती राज को वह सफलता नहीं मिली जिसकी आशा की गई थी। इनमें कई दोष पाए जाते हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. अशिक्षा (Imiteracy)-गांव के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं और इससे पंचायत के अधिकतर सदस्य भी अशिक्षित होते हैं। बहुत-सी पंचायतें तो ऐसी हैं जिनके सरपंच भी अशिक्षित हैं और अपने हस्ताक्षर नहीं कर सकते। जनता भी इनके कार्यों में अधिक दिलचस्पी नहीं लेती। परिणाम यह निकलता है कि पंचायतों के सदस्य अयोग्य तथा चालाक व्यक्ति चुने जाते हैं। जब तक चुनने वाले तथा चुने जाने वाले व्यक्ति शिक्षित नहीं होंगे तब तक कोई भी स्थानीय संस्था सफलता से काम नहीं कर सकती।

2. अज्ञानता (Ignorance)—चूंकि गांव के अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें पंचायती राज के उद्देश्यों का भी पता नहीं है। उदाहरण के लिए पंचायती राज के प्रमुख उद्देश्यों में से ग्रामीण जन-समुदाय को अधिक आत्मनिर्भर बनाना है, परन्तु केवल संस्थाएं चलाने वालों में से 1/5 ही इस उद्देश्य को जानते हैं तथा दुर्भाग्यवश ग्रामीण नेतृत्व में से 1/8 ही यह जानते हैं कि पंचायती राज के उद्देश्यों में एक बहत सारे कमजोर वर्गों को सुधारना भी है।

3. साम्प्रदायिकता (Communalism)—गांव के लोगों में जाति-भेद की भावना प्रबल है। पंचायतों के चुनाव जाति-भेद के आधार पर लड़े जाते हैं और चुने जाने के बाद भी उनके भेदभाव समाप्त नहीं होते बल्कि और भी बढ़ जाते हैं। पंच भी जाति-पाति के आधार पर आपस में लड़ते रहते हैं और पंचायत का काम ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। हमारे सामाजिक जीवन का यह बहुत बड़ा अभिशाप है, गन्दा दाग है। जब तक ठीक प्रकार की शिक्षा नहीं दी जाती, तब तक विचारों और दृष्टिकोण में अदला-बदली नहीं आएगी। ऐसी अदला-बदली करने में चाहे कितने ही कानून क्यों न बनाए जाएं, कुछ नहीं बन सकता। अदला-बदली विचारों में आनी चाहिए।

4. गुटबन्दी (Groupism)-पंचायतों तथा दूसरी संस्थाओं के चुनाव में लोग प्रायः अपने छोटे-छोटे ग्रुप या दल बना लेते हैं। पंचायतों के चुनाव दलों के आधार पर नहीं लड़े जाते। कम-से-कम चुनाव में दलों को भाग लेने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। जाति, धर्म और भाषा के आधार पर भी लोगों में गुटबन्दी चलती है। इसका परिणाम यह निकलता है कि पंचायत तथा नगरपालिका के काम ठीक प्रकार से नहीं चल पाते।

5. राजनीतिक दलों का अनुचित हस्तक्षेप (Undue Interference by Political Parties)—यह बात लगभग सर्वमान्य है कि स्थानीय स्वशासन में राजनीतिक दलों के लिए कोई स्थान नहीं है। कानून के अनुसार राजनीतिक दल पंचायतों के चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं कर सकते। कोई भी उम्मीदवार राजनीतिक दलों के चुनाव-निशान प्रयोग नहीं कर सकता। इतना होते हुए भी राजनीतिक दल इन संस्थाओं के कार्यों में हस्तक्षेप किए बिना नहीं रह सकते। यह दल गुटबन्दी को अधिक तीव्र कर देते हैं। इन दलों के समक्ष लोगों के कल्याण की बजाय इनका अपना ही कल्याण होता है।

6. सरकार का अत्यधिक नियन्त्रण (Excessive Control of the Government)—पंचायती राज की संस्थाओं पर सरकार का नियन्त्रण बहुत अधिक है और वह जब चाहे इनके कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है। इसका परिणाम यह निकलता है कि इन संस्थाओं में काम करने का उत्साह पैदा नहीं होता। सरकार इनके प्रस्तावों को रद्द कर सकती है और इनके बजट पर नियन्त्रण रखती है। इन संस्थाओं में सरकारी हस्तक्षेप के कारण ज़िम्मेदारी की भावना भी उत्पन्न नहीं हो पाती।

7. धन का अभाव (Lack of Funds)—पंचायती राज की संस्थाओं को कार्य तो राष्ट्र-निर्माण वाले सौंपे गए हैं, परन्तु इनके पास धन की इतनी व्यवस्था नहीं की गई कि ये अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकें। उनकी अपनी स्वतन्त्र आय भी इतनी नहीं होती कि वे अपनी आवश्यकताओं को अच्छी तरह पूरा कर सकें। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें सरकार से धन की सहायता लेनी पड़ती है। यदि स्थानीय संस्था कोई नई योजना बनाकर लागू करना चाहे तो नहीं कर सकती क्योंकि धन देना या न देना सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है।

8. ग़रीबी (Poverty)-भारत के अधिकांश लोग ग़रीब हैं। गांवों में तो ग़रीबी और भी अधिक है। ग़रीबी के कारण अधिक लोग टैक्स नहीं दे सकते और पंचायतें भी नए टैक्स लगा कर अपनी आय को बढ़ा नहीं सकतीं। ग़रीब व्यक्ति सारा दिन अपना पेट भरने की चिन्ता में ही लगे रहते हैं और गांव, नगर तथा देश की दशा के बारे में विचार करने का समय नहीं मिलता। इस कारण भी लोग अपने स्थानीय मामलों पर स्थानीय संस्था के कार्यों में रुचि नहीं ले पाते।

9. पंचायती राज के ढांचे का प्रश्न विवादास्पद है (Structure of Panchayati Rajis Controversial)शुरू से ही इस बात पर विवाद रहा है कि पंचायती राज का ढांचा क्या हो। बलवन्त राय मेहता ने त्रि-स्तरीय ढांचे की सिफ़ारिश की थी। परन्तु केरल और जम्मू-कश्मीर में यह ढांचा एक स्तरीय है जबकि उड़ीसा में द्वि-स्तरीय ढांचा कायम किया गया। पंजाब में 1978 में अकाली-जनता सरकार ने पंचायत समिति को समाप्त कर दिया था। अशोक मेहता समिति ने पंचायती राज को दो चरणों वाली बनाने की सिफारिश की परन्तु मई 1979 में मुख्यमन्त्रियों के सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि पंचायती राज त्रि-स्तरीय होना चाहिए। जनवरी, 1989 में पंचायती राज सम्मेलन में समापन भाषण देते हुए प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने स्पष्ट कहा कि जनसंख्या और क्षेत्रफल को देखते हुए पूरे देश में तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली कायम नहीं की जा सकती। इसे कुछ राज्यों में तीन स्तरीय और कुछ में दो स्तरीय ही रखना होगा।

10. अयोग्य और लापरवाह कर्मचारी (Inefficient and Careless Staff) स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं अपने दैनिक प्रशासकीय कार्यों के लिए अपने कर्मचारियों पर निर्भर हैं, परन्तु ये कर्मचारी प्रायः अयोग्य, लापरवाह और भ्रष्ट होते हैं।

11. ग्राम सभा का प्रभावहीन होना (Ineffective Role of Gram Sabha) ग्राम सभा पंचायती राज की प्रारम्भिक इकाई है तथा पंचायती राज की सफलता बहुत हद तक किसी संस्था के सक्रिय (Active) रहने पर निर्भर करती है। परन्तु बड़े अफसोस की बात है कि संस्था नाममात्र की संस्था बनकर रह गई है। इसकी बैठकें न तो नियमित रूप से होती हैं और न ही आने वाले नागरिक इसकी बैठकों में रुचि लेते हैं।

12. चुनाव का नियमित रूप से न होना (No Regular Election)—पंचायती राज का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि पंचायती संस्थाओं के चुनाव निश्चित अवधि के पश्चात् नहीं होते हैं।

पंचायती राज के दोषों को दूर करने के उपाय (METHODS TO REMOVE THE DEFECTS OF PANCHAYATI RAJ SYSTEM)-

1. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education) स्थानीय संस्थाओं को सफल बनाने के लिए प्रथम आवश्यकता शिक्षा के प्रसार की है। जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे और अपने कर्त्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति सजग नहीं होंगे, ये संस्थाएं सफलता के काम नहीं कर सकतीं।

2. सदस्यों का प्रशिक्षण (Training for the Members)-आज स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का काम पहले की तरह सरल नहीं है। पंचायती राज की संस्थाओं के काम तो बहुत ही अधिक पेचीदा और जटिल हैं। इन संस्थाओं के सदस्य प्रशिक्षण के बिना अपने कार्यों को ठीक तरह से नहीं निभा सकते और न ही उचित फैसले कर सकते हैं। अज्ञानता के कारण वह कर्मचारियों और सरकार के अफसरों की कठपुतली बन जाते हैं जो कि अवांछनीय है। इस कारण इन सदस्यों की प्रशिक्षण की पूरी-पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।

3. योग्य और ईमानदार कर्मचारी (Competent and Honest Staff)-किसी भी सरकारी संस्था या संगठन को ठीक ढंग से चलाने में कर्मचारियों का बहुत योगदान होता है। स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए। उनके वेतन आदि अन्य सरकारी कर्मचारियों के बराबर होने चाहिएं ताकि योग्य व्यक्ति इन संस्थाओं में नौकरी प्राप्त करने के लिए आकर्षित हों। इन कर्मचारियों के प्रशिक्षण की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।

4. सरकारी हस्तक्षेप में कमी (Less Government Interference)-स्थानीय संस्थाओं को अपने कार्यों में अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, तभी ये संस्थाएं सफल हो सकती हैं। सरकारी हस्तक्षेप या नियन्त्रण की बजाए इन संस्थाओं को उचित परामर्श (Proper Guidance) की अधिक आवश्यकता है।

5. धन की अधिक सहायता (More Financial Aid)-धन का अभाव भी एक बहुत बड़ा दोष है। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं की धन से पूरी-पूरी सहायता करे। लोगों के जीवन का सुधार करने के लिए जो नई योजनाएं ये संस्थाएं बनाएं सरकार को चाहिए कि उसके लिए उचित मात्रा में धन दे। इसके अतिरिक्त कुछ और टैक्स लगाये जाने का अधिकार इन संस्थाओं को मिलना चाहिए ताकि इनकी स्वतन्त्र आय हो और उन्हें सरकार से धन मांगने की कम आवश्यकता पड़े।

6. नियमित चुनाव (Regular Election)-पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव निश्चित अवधि के पश्चात् नियमित रूप से होने चाहिए। फरवरी, 1989 में राष्ट्रपति वेंकटरमण ने यह सुझाव दिया कि पंचायत के चुनाव को राज्यों की विधानसभाओं तथा लोकसभा के चुनावों की तरह अनिवार्य बना दिया जाए और इसके लिए संविधान में संशोधन कर दिया जाए। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव, चुनाव आयोग की देख-रेख में होने चाहिए। 73वें संविधान संशोधन के अन्तर्गत पंचायती राज संस्थाओं में पांच वर्ष में चुनाव कराए जाना और भंग किए जाने की स्थिति में छ: महीने के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य किया गया है।

7. राजनीतिक दलों पर रोक (Check on Political Parties)-स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में राजनीतिक दलों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है। वैसे तो कानून द्वारा इन दलों पर कुछ एक प्रतिबन्ध लगाए हुए हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप में ये प्रतिबन्ध निष्प्रभावी हैं। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से यह दल नगरपालिकाओं और पंचायती राज में आ ही घुसते हैं। इस कुप्रथा को रोकने के लिए कानून पर अधिक निर्भर रहना ठीक नहीं है बल्कि लोगों . की सावधानी और दलों की सद्भावना और शुभ नीति ही अधिक उपयोगी हो सकते हैं।

8. ग्राम सभा को सक्रिय किया जाना चाहिए (Gram Sabha should be made Active)-पंचायती राज को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि ग्राम सभा को एक प्रभावशाली संस्था बनाया जाए। इसकी बैठकें नियमित रूप से होनी चाहिएं और गांव के नागरिकों को इसकी कार्यवाहियों में रुचि नहीं लेनी चाहिए। जब तक गांव के नागरिक स्वयं अपनी समस्याओं तथा अपने क्षेत्र के प्रति उत्साह नहीं दिखाएंगे तब तक पंचायती राज का सफल होना नामुमकिन है। इसलिए 73वें संविधान संशोधन के अनुसार ग्राम सभा को पंचायती राज व्यवस्था का मूलाधार बनाया गया है। इस संशोधन के अनुसार ग्राम सभा ऐसे सारे काम करेगी जो राज्य विधानमण्डल उसे सौंपेगा।।

9. पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक शक्तियां देनी चाहिए (More Powers should be given to the Panchayati Raj Institutions)-पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक दायित्व व शक्तियां देनी चाहिए। ग्राम पंचायतों को गांव का सुधार करने का पूरा अधिकार होना चाहिए। ग्राम पंचायतों को गांवों के सभी निर्माण कार्यों के बारे में निर्णय करने तथा उन कार्यों को कराने का भार सौंप दिया जाए। इस तरह ब्लॉक क्षेत्र के निर्माण कार्यों का ब्लॉक पंचायतों को और जिले के निर्माण कार्यों का उत्तरदायित्व जिला परिषदों को सौंपा जाए।

10. अधिवेशन और चुनाव (Session and Election)-ग्राम सभा के अधिवेशनों को समयानुसार बुलाना चाहिए। स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी नियमित रूप से होने चाहिए।

11. एकरूपता (Uniformity)—अलग-अलग राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं के नाम और महत्त्व को एकजैसा कर देना चाहिए ताकि साधारण बुद्धि रखने वाले व्यक्ति भी सुगमता से समझ सकें।

12. स्वशासन के यूनिट-श्री जय प्रकाश नारायण इन संस्थाओं को इनसे सम्बन्धित स्तरों पर “स्व-शासन के यूनिट” समझने हैं तथा वह यह सुझाव देते थे कि राज्य सरकारों से इनका इस प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए जैसे की राज्य सरकारों का केन्द्रीय सरकार से होता है।
निष्कर्ष (Conclusion)-पंचायती राज में अनेक कमियों के बावजूद भी इसके महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता। पंचायत राज व्यवस्था ने देश के राजनीतिकरण (Politilisation) और आधुनिकीकरण (Modernization) में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। पंचायतों के चुनावों ने ग्रामीणों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न की है और पंचायती राज व्यवस्था के कारण उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी (Political Participation) में वृद्धि हुई है। 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी गई है। इस संशोधन द्वारा पंचायती संस्थाओं के चुनाव नियमित और निश्चित समय पर होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि साम्प्रदायिकता, हिंसा, भ्रष्टाचार इत्यादि बुराइयों को दूर किया जाए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 8.
शहरी स्थानीय संस्थाओं सम्बन्धी 74वें संवैधानिक संशोधन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (Explain the main features of 74th Amendment relating to Urban Local Self-Government.)
अथवा
शहरी स्थानीय संस्थाओं की नई प्रणाली की मुख्य विशेषताएं लिखिए। (Write down the main characteristics of the New System of Urban Local Bodies.)
उत्तर-
सितम्बर, 1991 को लोकसभा में 73वां संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश किया गया। इस विधेयक का सम्बन्ध शहरी स्थानीय संस्थाओं में सुधार करना था। दोनों सदनों की स्वीकृति मिलने पर शहरी स्वशासन में सुधार के लिए एक 30 सदस्यों की समिति गठित की गई, जिसमें 20 सदस्य लोकसभा के और 10 सदस्य राज्यसभा के शामिल किए गए। इस समिति के अध्यक्ष के० पी० सिंह देव (K. P. Singh Dev) थे। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट जुलाई, 1992 को संसद् के सामने पेश की। इस समिति की सिफ़ारिशों को जो कि शहरी स्वशासन में सुधार से सम्बन्धित थीं, 22 दिसम्बर, 1992 को लोकसभा ने और 23 दिसम्बर, 1992 को राज्यसभा ने अपनी स्वीकृति प्रदान की। राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त होने के बाद इसका नम्बर 74 हो गया क्योंकि इससे पूर्व 73 संवैधानिक संशोधनों को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी थी। इस संशोधन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. शहरी स्थानीय स्व-शासन की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता (Constitutional Sanction to Urban Local Bodies)-74वें संशोधन द्वारा संविधान में भाग 9A (Part IX A) में शामिल किया गया। इसके साथ ही 12वीं अनुसूची (12th Schedule) को भी इसमें शामिल किया गया है। भाग 9A में कुल 18 धाराएं हैं और 12वीं अनुसूची में ऐसे 18 विषय शामिल हैं, जिनके सम्बन्ध में योजनाओं को लागू करने का उत्तरदायित्व राज्य विधानमण्डल नगरपालिकाओं को सौंप सकता है।

2. तीन स्तरीय स्थानीय व्यवस्था (Three tier Urban Local Bodies)-74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रत्येक राज्य में तीन स्तरीय शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना की व्यवस्था की गई है। निम्न स्तर पर नगरपालिका, उच्च स्तर पर नगर-निगम और मध्य में नगर परिषद् की व्यवस्था की गई है।

3. नगरपालिका की रचना (Composition of Municipalities)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक राज्य का विधानमण्डल तीनों स्तर की नगरपालिकाओं की रचना सम्बन्धी व्यवस्था स्वयं करेगा। प्रत्येक नगरपालिका का क्षेत्र सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा। नगरपालिका के निर्वाचन क्षेत्र को वार्ड कहा जाएगा। इन वार्डों के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नगरपालिका के लिए अपने-अपने वार्ड का एक-एक प्रतिनिधि निर्वाचित करना होगा। चुनाव सम्बन्धी झगड़ों का निपटारा राज्य विधानमण्डल के कानून के अनुसार होगा।

4. (Provision to representation to persons of different Categories)-74वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल को यह शक्ति दी गई है कि वह विभिन्न स्तरों पर नगरपालिकाओं में निम्नलिखित वर्गों के व्यक्ति को प्रतिनिधित्वता प्रदान करें

  • जिन व्यक्तियों को नगरपालिकाओं के प्रशासन सम्बन्धी विशेष ज्ञान या अनुभव है। इन्हें किसी प्रस्ताव पर मतदान का अधिकार नहीं है।
  • नगरपालिका के क्षेत्र में रहने वाले लोकसभा और राज्य विधानसभा के सदस्य।
  • नगरपालिका के क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में दर्ज राज्यसभा और विधान परिषद् के सदस्य।
  • वार्ड समितियों के सभापति।

5. नगरपालिका के अध्यक्ष का चुनाव (Election of Chairman of the Municipalities)-74वें संशोधन द्वारा नगरपालिका अध्यक्ष का चुनाव, नगरपालिका के चुनाव क्षेत्रों में से प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों में से ही किया जाएगा।

6. वार्ड समिति (Ward Committee)-74वें संशोधन द्वारा तीन लाख से ज्यादा जनसंख्या वाली नगरपालिका में वार्ड समितियों की स्थापना की व्यवस्था की गई है। वार्ड समितियों की रचना व अधिकार क्षेत्र को निश्चित करने का काम राज्य विधानमण्डल को सौंपा गया है। राज्य विधानमण्डल अपने इस काम को कानून द्वारा पूरा करेगा। एक वार्ड समिति के क्षेत्र में आने वाले वार्डों से निर्वाचित नगरपालिका के सदस्य भी उस वार्ड समिति के सदस्य होंगे।

7. वार्ड समिति का अध्यक्ष (Chairman of Ward Committee)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि अगर वार्ड समिति के क्षेत्र में केवल एक ही सदस्य है तो नगरपालिका के लिए निर्वाचित उस वार्ड का सदस्य ही वार्ड समिति का अध्यक्ष होगा। अगर वार्ड समिति में दो या दो से अधिक सदस्य हों तो निर्वाचित सदस्यों में से एक सदस्य को वार्ड समिति के सदस्यों द्वारा समिति का अध्यक्ष निर्वाचित किया जाएगा।

8. वार्ड समिति के काम और शक्तियां (Powers and Functions of Ward Committee) वार्ड समितियों की शक्तियां और काम राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित किए जाएंगे। राज्य विधानमण्डल वार्ड समितियों को संविधान की 12वीं अनुसूची में शामिल विषयों से सम्बन्धित शक्तियां सौंप सकता है।

9. सीटों में आरक्षण की व्यवस्था (Provision of the Reservation of seats)-74वें संशोधन द्वारा निम्नलिखित वर्गों के लिए सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है-

  • प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार सीटें आरक्षित रखी गई हैं।
  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए आरक्षित स्थानों में से 1/3 सीटें अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए आरक्षित रखी गई हैं।
  • कुल निर्वाचित पदों का 1/3 भाग स्त्रियों (अनुसूचित जाति एवं जन-जाति की स्त्रियों समेत) के लिए आरक्षित
    होगा।
  • विभिन्न नगरपालिकाओं के अध्यक्ष पद के लिए 1/3 स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित होंगे।
  • राज्य विधानमण्डल कानून बना कर नागरिकों की किसी भी पिछड़ी श्रेणी के लिए स्थान आरक्षित रखने की व्यवस्था कर सकता है। .

10. निश्चित अवधि (Fixed Tenure)—प्रत्येक शहरी स्थानीय संस्थाओं का कार्यकाल पांच वर्ष निर्धारित किया गया है और उनका कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व नये चुनाव होना अनिवार्य है। निर्धारित समय से पहले भंग किए जाने सम्बन्धी मामले में चुनाव छ: महीने के भीतर होना अनिवार्य है। 74वें संशोधन द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि यदि किसी नगरपालिका को भंग या स्थगित किया जाता है तो उससे पूर्व उसे अपना पक्ष स्पष्ट करने का उचित मौका दिया जाना ज़रूरी है।

11. सदस्यों की योग्यताएं. (Qualifications of Members)-प्रत्येक स्तर की नगरपालिकाओं का चुनाव लड़ने के लिए वही योग्यताएं अनिवार्य हैं जो योग्यताएं विधानमण्डल के सदस्य बनने के लिए आवश्यक हैं । जो व्यक्ति विधानमण्डल का सदस्य बनने के अयोग्य है वह नगरपालिका का सदस्य बनने के भी अयोग्य है।

12. नगरपालिकाओं की शक्तियां और कार्य (Powers and functions of Municipalities)-74वें संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत नगरपालिकाओं की शक्तियां और ज़िम्मेदारियां निश्चित करने का काम राज्य विधानमण्डल को सौंपा गया है। संविधान की 12वीं अनुसूची में शामिल विषयों सम्बन्धी काम भी नगरपालिकाओं को सौंपे गए हैं। इसके अतिरिक्त राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा नगरपालिकाओं को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए योजनाएं तैयार करवाने का उत्तरदायित्व भी सौंप सकता है। 12वीं अनुसूची में कुल 18 विषय हैं और उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

शहरी योजनाबन्दी, जिसमें नगर योजनाबन्दी भी शामिल हैं, भवनों का निर्माण, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए योजनाबन्दी, सड़कें व पुल, घरेलू उद्योग और व्यापारिक महत्त्व का प्रोत्साहन, पानी की सप्लाई, स्वास्थ्य, अग्नि सेवाओं का प्रबन्ध, वातावरण की सुरक्षा, गन्दी बस्तियों का सुधार, शिक्षा और कला सम्बन्धी विकास, गलियों की रोशनी का प्रबन्ध आदि की व्यवस्था करना।

13. कर लगाना (Power to impose Taxes)—राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा नगरपालिकाओं को कुछ कर लगाने और एकत्रित करने का अधिकार सौंप सकती है। इसके अलावा राज्य विधानमण्डल द्वारा लगाने जाने वाले विभिन्न करों में से कुछ कर नगरपालिकाओं को सौंप सकता है। राज्य अपनी संचित निधि में से भी नगरपालिकाओं की सहायता के लिए कुछ धन-राशि दे सकता है।

14. वित्त आयोग का गठन व कार्य (Composition and Functions of Finance Commission)-74वें संशोधन द्वारा नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति पर नियन्त्रण करने के लिए वित्त आयोग की व्यवस्था की गई है जिसके सदस्यों की संख्या, जिनकी योग्यताएं, चुनाव, शक्तियां राज्य विधानमण्डल द्वारा निश्चित की जाएंगी। वित्त आयोग की नियुक्ति 73वां व 74वां संवैधानिक संशोधन लागू होने के एक वर्ष के भीतर राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाएगी। पांच वर्ष की अवधि पूरी होने पर पुनः अगले वित्त आयोग की नियुक्ति की जाएगी। इसके काम इस प्रकार हैं-

  • नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति सम्बन्धी विचार करना
  • राज्य सरकार द्वारा लगाए जाने वाले विभिन्न करों की धन-राशि सरकार और नगरपालिकाओं में बांटना
  • नगरपालिकाओं द्वारा सौंपे जाने वाले करों सम्बन्धी सिद्धान्तों का निर्माण करना
  • नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए राज्यपाल को सिफ़ारिश करना
  • राज्यपाल द्वारा नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति के हित में सौंपे गए किसी भी अन्य मामले पर विचार।

15. जिला योजनाबन्दी के लिए समिति (Committee for District Planning)-74वें संशोधन द्वारा प्रत्येक जिले में जिला स्तरीय योजनाबन्दी की व्यवस्था की गई है। राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा (1) जिला योजनाबन्दी समिति की रचना, (2) वह विधि जिस द्वारा समिति में स्थान भरे जाएंगे, जिसमें जिला योजनाबन्दी समिति के कुल सदस्यों का 4/5 भाग, जिला स्तरीय पंचायतों और जिले की नगरपालिकाओं से चुने गए सदस्यों द्वारा अपने में से चना जाना अनिवार्य होगा, (3) जिला योजनाबन्दी से सम्बन्धित ऐसे कार्य जो कि योजनाबन्दी समिति को सौंपे जाने हैं, (4) जिला योजनाबन्दी समितियों के अध्यक्षों की निर्वाचन विधि आदि से सम्बन्धी व्यवस्था कर सकता है।

16. जिला योजनाबन्दी के कार्य (Functions of the District Planning Committee)—इसका मुख्य काम ज़िला परिषदों और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को इकट्ठा करना और पूरे जिले के विकास के लिए ढांचा तैयार करना है। इसका प्रधान समिति द्वारा तैयार की गई विकास योजना को राज्य सरकार के सम्मुख पेश करता है।

17. बड़े शहरों की योजनाबन्दी (Committee for Metropolitan Planning)-74वें संशोधन द्वारा प्रत्येक शहर के लिए एक महानगर योजनाबन्दी समिति की व्यवस्था की गई है। इस समिति के द्वारा महानगर के विकास की योजनाएं बनाई जाती हैं। इसकी स्थापना उस नगर में की जाती है जिसकी जनसंख्या लगभग 20 लाख या इससे अधिक हो। ऐसे क्षेत्र में एक ज़िला या एक से अधिक जिले शामिल किए जा सकते हैं। राज्य की सरकार जनमत आदेश द्वारा ऐसे क्षेत्र को महानगर घोषित कर सकती है। राज्य सरकार की घोषणा के बिना किसी भी क्षेत्र को महानगर नहीं स्वीकार किया जा सकता।

18. महानगर योजनाबन्दी समिति की रचना और कार्य (Composition and functions of Metropolitan Planning Committee)–74वें संशोधन द्वारा इसकी रचना सम्बन्धी व्यवस्था राज्य सरकार के कानून द्वारा की जाएगी। महानगर योजनाबन्दी समिति के कुल सदस्यों का 2/3 भाग महानगर क्षेत्र की नगरपालिकाओं के चुने हुए सदस्यों और जिला परिषदों के अध्यक्षों में से निर्वाचित होना अनिवार्य है। इसकी योजनाबन्दी समिति में भारत सरकार, राज्य सरकार और दूसरी संस्थाओं को आवश्यकतानुसार प्रतिनिधित्व दिए जाने की व्यवस्था की गई है। राज्य सरकार के कानून द्वारा ही समिति के प्रधान का निर्वाचन निश्चित किया जाता है।

योजना समिति के कार्य (Functions of the Planning Committee)-इसका मुख्य काम महानगर के विकास के लिए योजनाएं तैयार करना है। अपने क्षेत्र के विकास के लिए योजनाएं तैयार करते समय इसे अपने क्षेत्र में आने वाली नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को ध्यान में रखना पड़ता है। इसके बाद महानगर के विकास के लिए योजना का निर्माण भारत सरकार और राज्य सरकार द्वारा घोषित उद्देश्यों को सम्मुख रखकर किया जाएगा। महानगर समिति द्वारा तैयार की गई योजना समिति के अध्यक्ष द्वारा राज्य सरकार को पेश की जाएगी।

19. नगरपालिकाओं का जारी रहना (Continuance of existing Municipalities)-74वें संशोधन से पहले नगरपालिकाएं अपने निर्धारित समय तक जारी रहती थीं और मुख्यमन्त्री ही इन्हें समय से पूर्व भंग कर सकता था। परन्तु 74वें संशोधन के बाद राज्य विधानमण्डल की सिफ़ारिश पर ही मुख्यमन्त्री नगरपालिकाओं को भंग कर सकता है। इसके लिए विधानमण्डल द्वारा एक प्रस्ताव पास किया जाना अनिवार्य है।

20. वर्तमान कानूनों का जारी रहना (Continuance of the existing laws)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि अगर वर्तमान कानून इस संशोधन द्वारा की गई व्यवस्थाओं से मेल नहीं खाते तो यह व्यवस्था इस संशोधन के लागू होने के एक वर्ष बाद तक जारी रह सकती है। इससे पहले भी पहली व्यवस्था में राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून बनाकर परिवर्तन किया जा सकता है।

21. नगरपालिकाओं के चुनाव, चुनाव आयोग की निगरानी में (Election of Municipalities are under supervision of Election Commission)-शहरी क्षेत्रों में कायम स्थानीय संस्थाओं के चुनावों की निगरानी, निर्देशन, नियन्त्रण, मतदाता सूचियों की तैयारी आदि कार्य संविधान के 73वें संशोधन द्वारा स्थापित स्वतन्त्र चुनाव आयोग द्वारा सम्पन्न करवाए जाएंगे। राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सम्बन्धी निर्णय राज्य के राज्यपाल द्वारा होगा। चुनाव आयुक्त की सेवा शर्ते और कार्यकाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए कानूनों के अनुसार राज्यपाल निश्चित करेगा। चुनाव आयुक्तों को हटाने के लिए वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जिसके द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाता है।

22. नगरपालिका के चुनाव विवाद अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर (Election matters of Municipalities are outside the Judicial Jurisdiction)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि नगरपालिका के चुनाव क्षेत्र निश्चित करने और उनके मध्य सीटों का बंटवारा करने वाला कानून को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। नगरपालिका के किसी भी सदस्य के चुनाव को केवल राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित संस्था में ही चुनौती दी जा सकती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-74वें संशोधन द्वारा पहली बार शहरी स्थानीय स्व-शासन से सम्बन्धित संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी गई है, नगरपालिका के लगातार चुनाव, उनके कार्यों और शक्तियों में व्यापक वृद्धि, इनकी वित्तीय स्थिति को मजबूत करने के लिए इनको कुछ कर लगाने की शक्ति प्रदान करना और सारे देश के लिए इन्हें एकरूपता प्रधान की गई है। यह स्थानीय प्रबन्ध को बढ़िया बनाने की दिशा में उठाया गया एक अच्छा और ठोस कदम है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 9.
नगर-निगम के संगठन और कार्यों का विवेचन कीजिए।
(Describe the organisation and functions of Municipal Corporation.)
अथवा
नगर-निगम के संगठन और कार्यों की चर्चा कीजिए।(Describe the organisation and functions of Municipal Corporation.)
उत्तर-
नगर-निगम शहरी स्थानीय स्वशासन की सर्वोच्च संस्था है। नगर-निगम की स्थापना बड़े-बड़े शहरों में की जाती है। नगर-निगम की स्थापना संसद् अथवा राज्य विधानमण्डल के द्वारा निर्मित कानून के अनुसार की जाती है। सब से पहले 1888 में एक अधिनियम के अन्तर्गत मुम्बई में नगर-निगम की स्थापना की गई थी। दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, यागरा, अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, कानपुर, हैदराबाद, लखनऊ, कलकत्ता (कोलकाता), पूना, बंगलौर, पटना, ग्वालियर, बनारस, शिमला, जबलपुर, भोपाल, इन्दौर, अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत, फरीदाबाद, पंचकूला, अम्बाला शहर, यमुनानगर, करनाल, हिसार, रोहतक, पानीपत आदि नगरों में स्थानीय शासन नगर-निगमों द्वारा चलाया जाता है।

नगर-निगम का संगठन (Organisation of Municipal Corporation)-भारत के विभिन्न नगर-निगमों का गठन प्राय: एक जैसा है। नगर-निगम के सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर सम्बन्धित क्षेत्र की जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है। निगम की सदस्य संख्या विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है। क्योंकि यह मुख्यतः शहर की जनसंख्या से सम्बन्धित होती है। पंजाब में नगर-निगम की सदस्य संख्या कम-से-कम 40 और अधिक-से-अधिक 50 होती है। अमृतसर, जालन्धर तथा लुधियाना निगम की संख्या 50 निश्चित की गई है। नगर-निगमों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जन-जाति के लिए स्थानों से आरक्षण का भी प्रावधान है। पंजाब में महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में प्रत्येक नगर-निगम में दो सीटें पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षित की गई हैं।

कार्यकाल (Tenure)-73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार नगर-निगम का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया है। परन्तु कुछ परिस्थितियों में राज्य सरकार नगर-निगम को समय से पूर्व भी भंग कर सकती है, परन्तु 6 महीने के अन्दर नगर-निगम के चुनाव करवाना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि नवगठित नगर-निगम का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं, अपितु शेष समय तक रहता है।
नगर-निगम के अधिकारी (Officers of the Municipal Corporation)-नगर-निगम के प्रमुख अधिकारी अग्रलिखित होते हैं :-

1. महापौर (Mayor)–महापौर नगर-निगम का राजनीतिक प्रशासक होता है। निगम की पहली बैठक में निगम के सभी सदस्य महापौर (Mayor) और उप महापौर (Deputy Mayor) का पांच वर्ष के लिए चुनाव करते हैं। महापौर नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा विचार-विमर्श का मार्ग-दर्शन करता है।

2. मुख्य प्रशासन अधिकारी (Chief Administrative Officer)-निगम का प्रशासन चलाने का उत्तरदायित्व मुख्य प्रशासन अधिकारी का होता है जिसे निगम कमिश्नर कहा जाता है। कमिश्नर की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है। दिल्ली के निगम कमिश्नर की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार करती है। निगम के सारे प्रशासनिक कार्य कमिश्नर के नियन्त्रण में होते हैं तथा यह आवश्यक मार्ग-दर्शन तथा नियन्त्रण करता है।

निगम के कार्य (FUNCTIONS OF CORPORATION)-

निगम के कार्यों को दो भागों में बांटा गया है-अनिवार्य तथा ऐच्छिक कार्य। अनिवार्य कार्यों में वे कार्य आते हैं जो नगर निगम को अवश्य करने होते हैं। ऐच्छिक कार्य वे होते हैं जो आवश्यक नहीं, परन्तु वित्तीय स्रोतों के आधार पर इन्हें किया जा सकता है।

अनिवार्य कार्य-

(1) अपने समस्त क्षेत्र की सफ़ाई का ध्यान रखना। (2) जल सप्लाई का प्रबन्ध करना। (3) नालियां बनवाना ताकि गन्दा पानी नगर से बाहर चला जाए। (4) बिजली का प्रबन्ध करना। (5) गन्दी बस्तियों (Slum Areas) का सुधार करना। (6) श्मशान भूमि बनाना। (7) प्रसूति सहायता केन्द्र तथा बच्चों के कल्याण केन्द्र खोलना। (8) यातायात सेवाओं का प्रबन्ध करना। (9) प्राइमरी या मिडल तक की शिक्षा का प्रबन्ध करना। (10) भवन-निर्माण के लिए नियम बनाना और नक्शे मन्जूर करना। (11) जन्म तथा मृत्यु के आंकड़े रखना। (12) तांगे, ठेले, साइकिल-रिक्शा, मोटररिक्शा, रेहड़ी आदि के लाइसेंस देना और उनके बारे नियम निश्चित करना। (13) गलियों, सड़कों, बाज़ारों और पुलों की मुरम्मत करना। (14) खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट को रोकना और अपराधियों को दण्ड देना। (15) गिरने वाले मकानों की मुरम्मत के लिए मकान मालिक को नोटिस देना। (46) निगम के क्षेत्र में व्यापार तथा कारखाना चलाने के इच्छुक लोगों को लाइसेंस देना। (17) छुआछूत के रोगों को फैलने से रोकने के लिए टीके लगाना। (18) आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड (Fire Brigade) का प्रबन्ध करना। (19) भांग, अफीम आदि नशीली वस्तुओं की बिक्री पर नियन्त्रण करना तथा उसकी बिक्री के विषय में नियम बनाना। (20) कर लगाना तथा बजट पास करना। (21) जनता की शिकायत पर विचार करना।

ऐच्छिक कार्य –

  • लोगों के मनोरंजन के लिए पॉर्क, चिड़िया घर और अजायब घर बनवाना।
  • पुस्तकालयों, थियेटरों, अखाड़ों तथा स्टेडियमों का निर्माण करना।
  • सार्वजनिक गृह-निर्माण।
  • नि:सहाय तथा अपंग लोगों की सहायता करना।
  • बीमारी से मुफ्त इलाज के लिए औषधालय खोलना।
  • बाज़ारों की स्थापना और प्रबन्ध करना।
  • शादियों का पंजीकरण करना।
  • मेलों नुमाइशों का संगठन तथा प्रबन्ध करना।
  • लोगों के लिए संगीत का प्रबन्ध करना।
  • महत्त्वपूर्ण अतिथियों का नागरिक अभिनन्दन करना।
  • आवारा कुत्तों, सुअरों तथा उपद्रवी जानवरों को पकड़ना या समाप्त करना।
  • सड़क के किनारे वृक्ष लगाना और उनकी देखभाल करना।
  • शहरी योजनाबंदी, जिसमें नगर योजनाबन्दी भी शामिल है।
  • अग्नि सेवाओं की व्यवस्था करना।
  • शहरी वनं पालन, वातावरण की सुरक्षा एवं सन्तुलन।
  • जन्म-मृत्यु का पंजीकरण।

आय के स्रोत (SOURCES OF INCOME)-

नगर-निगम की आय के साधन निम्नलिखित हैं :

(1) जल कर। (2) सफ़ाई कर। (3) बिजली की खपत पर कर। (4) थियेटर कर। (5) गाड़ी तथा पशु कर। (6) शहरी और देहाती क्षेत्र में जायदाद पर कर । (7) अखबारों में प्रकाशित विज्ञापनों के अतिरिक्त अन्य विज्ञापनों पर कर। (8) भवनों के नक्शे पास करने से प्राप्त फीस। (9) चुंगी। (10) स्थानीय कारपोरेशन में कुछ पैसा भूमि कर के साथ ही इकट्ठा किया जाता है। (11) जायदादों के तबादलों पर कर। (12) नगर-निगम सरकार से अनुदान प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 10. नगरपालिका के कार्य और आय के साधनों का वर्णन कीजिए। (Write down the functions and sources of Income of Municipal Council / Committee.)
अथवा
नगर-परिषद् की संरचना और इसके कार्यों का वर्णन करो। (Explain the composition and functions of Municipal Council.)
उत्तर-नगरों में स्थानीय स्वशासन की महत्त्वपूर्ण संस्था नगरपालिका है। यू० पी० में इन्हें ‘नगर बोर्ड’ कहा जाता है। सारे भारत में लगभग सोलह सौ नगरपालिकाएं हैं।
स्थापना (Establishment)-स्थानीय स्वशासन राज्य-सूची का विषय है और प्रत्येक राज्य अपने भू-क्षेत्र में इस संस्था की स्थापना आदि का निर्णय स्वयं करता है। नगरपालिका किस नगर में स्थापित की जाएगी, इसका निश्चय राज्य सरकार ही करता है। सरकार किसी भी स्थान या क्षेत्र को नगरपालिका क्षेत्र (Municipality) घोषित कर सकती है। प्रायः उस नगर की जितनी जनसंख्या 20,000 से अधिक हो, नगरपालिका स्थापित कर दी जाती है।

रचना (Composition)-नगरपालिका के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। प्रत्येक उस वयस्क नागरिक को जो नगरपालिका के क्षेत्र में रहते हैं मतदान का अधिकार है। चुनाव संयुक्त-चुनाव प्रणाली तथा गुप्त मतदान के आधार पर होता है। चुनाव का आधार पर इसको वार्डों (Wards) में बांटा जाता है। प्रत्येक वार्ड का एक सदस्य चुना जाता है।

74वें संविधान संशोधन के अनुसार प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति, जन-जाति और महिला प्रतिनिधियों के प्रति स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है। राज्य विधानसभा का हर सदस्य M.L.A. उन सब नगरपालिका का सहायक सदस्य (Associate Member) होता है जोकि चुनाव क्षेत्र (Constituency) में शामिल हैं। इस प्रकार के सदस्यों को नगरपालिका की बैठकों में भाषण आदि देने का अधिकार तो होता है, परन्तु मतदान में भाग लेने का नहीं।

योग्यताएं (Qualifications)-नगरपालिका के चुनाव में वही व्यक्ति खड़ा हो सकता है, जिसके पास निम्नलिखित योग्यताएं हों :-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  • किसी सरकार तथा नगरपालिका के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो।
  • वह उस नगर का रहने वाला हो और मतदाताओं की सूची में उसका नाम हो।
  • वह पागल तथा दिवालिया न हो। नगरपालिका के चुनाव में मताधिकार या चुनाव के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

अवधि (Tenure)-74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा नगर परिषद् एवं नगरपालिका का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में नगर परिषद् एवं नगरपालिका की अवधि पांच वर्ष है।
सरकार इससे पहले जब चाहे नगरपालिका को स्थगित या भंग कर सकती है और इसका कार्य किसी प्रशासक (Administrator) को सौंप सकती है। परन्तु नगरपालिका भंग होने की स्थिति में 6 महीने के अन्दर-अन्दर चुनाव करवाना अनिवार्य है। नगरपालिका के सदस्य को Municipal Commissioner या City Father कहा जाता है। इनको कोई वेतन नहीं मिलता है।

सभापति (President) नगरपालिका के सदस्य अपने में से एक सभापति और एक या दो उप-सभापति चुनते हैं। जहां उप-सभापतियों की संख्या दो होती है वहां एक को वरिष्ठ (Senior) और दूसरे को कनिष्ठ (Junior) उप-सभापति कहते हैं। नगरपालिका के सदस्य दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करके सभापति या उप-सभापति को पद से हटा सकते हैं। कुछ विशेष दोषों के आरोप में सरकार भी इनकी अवधि पूरा होने से पहले इन्हें पदच्युत कर सकती है।

सचिव, कार्यकारी अधिकारी (Secretary, Executive Officers)-नगरपालिका का एक सचिव होता है, जिसे नियमित रूप से वेतन मिलता है। वही नगरपालिका के दैनिक कार्य चलाता है। उसकी नियुक्ति नगरपालिका द्वारा होती है। कई बड़ी नगरपालिकाओं में सचिव के अतिरिक्त कार्यकारी अधिकारी (Executive Officer) होता है। जहां कार्यकारी अधिकारी हों वहां इसका स्थान सचिव से ऊंचा होता है। सचिव इस कार्यकारी अधिकारी के अधीन अपना कार्य करता है। कार्यकारी अधिकारी अपनी नगरपालिका का कार्यकारी मुखिया (Executive Chief) होता है और इसे बहुत विशाल शक्तियां प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त नगरपालिका के कई दूसरे स्थायी कर्मचारी भी होते हैं। जैसे-इंजीनियर, स्वास्थ्य अधिकारी, सफ़ाई इन्स्पैक्टर (Sanitary Inspector) तथा चुंगी इन्स्पैक्टर (Octroi Inspector) आदि।

नगरपालिका के कार्य (FUNCTIONS OF THE MUNICIPAL COMMITTEE)
1. सफ़ाई (Sanitation)–नगरपालिका का मुख्य कार्य है कि वह अपने नगर की सफ़ाई का प्रबन्ध करे। इसके लिए नगरपालिका कई प्रकार के कार्य करती है। प्रतिदिन सड़कों, बाज़ारों, गलियों की सफाई करवाई जाती है। गलियों और बाजारों में गन्दे पानी के लिए नालियां बनाई जाती हैं और प्रतिदिन इन नालियों की सफाई करवाई जाती है। नगर का कूड़ा-कर्कट इकट्ठा किया जाता है तथा उसे शहर से बाहर फेंके जाने की व्यवस्था की जाती है। यदि वह नगर की सफ़ाई का प्रबन्ध न करे तो गन्दगी फैल जाए और बीमारियां फैलने लगें। इस कार्य के लिए नगरपालिका में एक सफ़ाई इन्स्पैक्टर होता है तथा उसके अधीन दारोगा और ज़मींदार (सफ़ाई कर्मचारी) होते हैं।

2. सार्वजनिक स्वास्थ्य (Public Health)-नगर के लोगों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना भी नगरपालिका का बड़ा महत्त्वपूर्ण काम है। इसके लिए नगरपालिका चेचक, हैज़ा आदि के टीके लगाने का प्रबन्ध करती है। खाने-पीने की वस्तुओं की जांच की जाती है और गन्दी, गली-सड़ी तथा बीमारी फैलने वाली वस्तुओं के बेचे जाने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है। यह मेले आदि के दिनों में सफ़ाई आदि का विशेष प्रबन्ध तथा टीके लगाए जाने की व्यवस्था करती है। नगरपालिका रोगी व्यक्तियों के लिए अस्पताल तथा दवाखाने स्थापित करती है जहां रोगियों को मुफ्त दवा मिलती है। इसके अतिरिक्त नगरपालिका प्रसूति गृह, बालहित केन्द्र तथा परिवार नियोजन केन्द्र खोलती है। नगरपालिका खाद्य वस्तुओं तथा दूसरी वस्तुओं में मिलावट की रोकथाम का प्रबन्ध भी करती है। वर्षा के दिनों में कुंओं तथा तालाबों में कीटाणुओं को मारने की दवाई डाली जाती है और मच्छरों को मारने की दवाई छिड़कर कर मलेरिया फैलने से रोका जाता है। यदि नगरपालिका को पता चल जाए कि कोई संक्रामक रोग (Infectious Disease) का रोगी रहता है तो वह उसे वहां से अस्पताल जाने के लिए बाध्य कर सकती है। नगरपालिका लोगों के लिए सार्वजनिक पाखाने (Public Lavatories) भी बनाती है। बड़े-बड़े शहरों में तो उनकी विशेष आवश्यकता होती है।

3. सड़कें तथा पुल (Roads and Bridges)-नगरपालिका अपने इलाके में पक्की सड़कें तथा पुल बनाने का प्रबन्ध करती है। गलियों और बाजारों में भी पक्की सड़कें बनाई जाती हैं। पक्की सड़कों तथा पुलों की मुरम्मत भी नगरपालिका करवाती रहती है। इससे नगर के लोगों को आने-जाने में सुविधा मिलती है।

4. शिक्षा (Education)-अपने नगर के लोगों को शिक्षित करना भी नगरपालिका का काम है। इसके लिए नगरपालिका प्राइमरी तथा मिडिल स्कूल खोलती है। बड़े नगरों में हाई स्कूल तथा कॉलिज भी नगरपालिका द्वारा खोले जाते हैं। प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए शिक्षा केन्द्र (Adult Education Centre) भी खोले जाते हैं। लोगों के बौद्धिक विकास के लिए पुस्तकालय तथा वाचनालय भी स्थापित किए जाते हैं। नगरपालिका समाचार-पत्रों तथा ज्ञानवर्धक फिल्मों के दिखाये जाने का प्रबन्ध भी करती है। पंजाब तथा हरियाणा में कोई भी नगरपालिका किसी प्रकार की शिक्षा संस्था का संचालन नहीं करती बल्कि शिक्षा प्रसार के लिए काफ़ी मात्रा में खर्च करती है, जैसे कि छात्रवृत्तियां देकर, नगर में स्थित स्कूलों व कॉलिजों को आर्थिक सहायता (Grants) देकर। पंजाब के नगर मण्डी गोबिन्दगढ़ की नगरपालिका ने लड़कियों के लिए एक कॉलेज खोला हुआ है।

5. पानी और बिजली (Water and Electricity)-नगर के लोगों के पीने के लिए.शुद्ध पानी की व्यवस्था करना भी नगरपालिका का काम है। इसके लिए पहले कुओं की व्यवस्था की गई थी और उनमें दवाई आदि बलने का काम किया जाता था, परन्तु आजकल अधिकतर नगरों में नगरपालिका नलकूप लगाकर, पानी के बड़े-बड़े टैंक (Tanks) बनाकर, घरों, बाज़ारों तथा गलियों में नलके लगवाकर, लोगों के लिए पीने के पानी का प्रबन्ध करती है। इसके अतिरिक्त सड़कों तथा गलियों में रोशनी का प्रबन्ध भी नगरपालिका करती है।

6. परिवहन (Transport) बड़े-बड़े नगरों के लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने में काफ़ी समय लगता है और असुविधा होती है। इसको दूर करने के लिए वहां की नगरपालिकाएं बसों आदि का प्रबन्ध करती हैं। स्थानीय परिवहन के दूसरे साधन भी होते हैं जैसा तांगा, रिक्शा आदि। नगरपालिका तांगों तथा रिक्शाओं आदि के लाइसेंस देती हैं।

7. सुरक्षा सम्बन्धी कार्य (Security Functions) नगरपालिका शहरी सुरक्षा का प्रबन्ध करती है। वह आग बुझाने का प्रबन्ध करती है और इसके लिए आग बुझाने के इंजन रखे जाते हैं। वह पागल कुत्तों तथा जंगली जानवरों को मारने का प्रबन्ध करती है। वह पुराने तथा खतरनाक मकानों को गिराने का प्रबन्ध करती है।

8. मनोरंजन सम्बन्धी कार्य (Recreation Functions)-नगरपालिका शहर में रहने वाले लोगों के मनोरंजन के लिए कई कार्य करती है। नगरपालिका खेल के मैदान, पॉर्क और व्यायाम-शालाओं की व्यवस्था करती है। नगरपालिका थियेटर, कला केन्द्र, ड्रामा क्लब, मेलों, प्रदर्शनियों तथा मेलों और खेलों का प्रबन्ध करती है।

9. गरीबी दूर करना-नगरपालिका शहर में पाई जाने वाली गरीबी को दूर करने के लिए कई प्रकार की नीतियां एवं कार्यक्रम बनाती है।

10. पिछड़े एवं कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा-नगरपालिका शहर में रहने वाले कमज़ोर एवं पिछड़े वर्गों की भलाई के लिए कई प्रकार की नीतियां बनाती है।

11. अन्य कार्य (Other Functions)—

  • नगरपालिका श्मशान भूमि का प्रबन्ध और उसकी देखभाल करती
  • मकानों के नक्शे पास करती है और पुराने तथा खतरनाक मकानों को गिराने का प्रबन्ध करती है।
  • बड़े-बड़े नगरों में नगरपालिका द्वारा लोगों के लिए शुद्ध दूध, मक्खन, घी तथा दूसरी आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध किया जाता है।
  • जन्म और मृत्यु का रजिस्ट्रेशन भी नगरपालिका का महत्त्वपूर्ण काम होता है।
  • नगर की गलियों के नाम रखना और नम्बर लगाना तथा मकानों के नम्बर लगाना भी इसका काम होता है।
  • नगरपालिका बारात घर, सराय, विश्रामगृह आदि का निर्माण करती है।
  • नगरपालिका सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगाती है।
  • नगरपालिका नगर के विकास के लिए योजनाएं बनाती है।
  • नगरपालिका आवश्यकतानुसार भूमि प्राप्त करती और बेचती है।
  • नगरपालिका कर्मचारियों की भर्ती करती है और उन्हें आवश्यकता पड़ने पर नियमों के अन्तर्गत हटा भी सकती है।

नगरपालिका के आय के साधन (Sources of Income)-नगरपालिका को भी अपना कार्य चलाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। यह धन उसे निम्नलिखित साधनों से प्राप्त होता है :

  • चुंगीकर (Octroi)-नगरपालिका की आय का मुख्य साधन चुंगीकर है। वह कर नगर से शहर में आने वाली वस्तुओं पर लगाया जाता है।
  • मकानों पर कर (House Tax)-नगरपालिका अपने इलाके में मकानों पर कर लगाती है।
  • लाइसेंस फीस (Licence Fees)–नगरपालिका कई वस्तुओं के रखने पर टैक्स लगाती है जैसे तांगों, रेड़ों, ठेले, साइकिल, रिक्शा आदि के रखने पर लाइसेंस दिए जाते हैं।
  • टोल टैक्स (Toul Tax)-कई नगरों मे किसी विशेष स्थान पर जाने या किसी पुल अथवा नदी का प्रयोग करने पर नगरपालिका टैक्स लगा देती है। ऐसा टैक्स उत्तर प्रदेश में अधिक लगा हुआ है।
  • पानी तथा बिजली कर (Water and Electricity Tax)–नगरपालिका गलियों और बाजारों में बिजली तथा पानी का प्रबन्ध करती है, इसके लिए वह मकान के मालिकों पर पानी तथा बिजली कर लगाती है।
  • व्यापार तथा व्यवसायों पर कर (Professional Tax)-नगरपालिका अपने इलाके के व्यवसायों तथा व्यापार पर कर लगाती है।
  • मनोरंजन कर (Entertainment Tax)-नगरपालिका सिनेमा, थिएटर, दंगल आदि पर टैक्स लगा सकती है। 8. पशुओं पर टैक्स (Tax on Animals)-नगरपालिका पशुओं के रखने पर भी टैक्स लगा सकती है।
  • अपनी सम्पत्ति से आय (Income from its Property)–नगरपालिका की अपनी सम्पत्ति भी होती है, जिसे किराये पर दे दिया जाता है। इससे किराये की आय होती है।
  • ठेके (Contracts) नगरपालिका अपने क्षेत्र में कई प्रकार के ठेके देती है जैसे कि मुख्य स्थानों पर साइकिल स्टैण्ड आदि का ठेका, कुड़ा-कर्कट, खाद आदि का ठेका।
  • जुर्माने (Fines)–नगरपालिका को जुर्माने आदि से भी आय होती है। जो लोग इसके नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन पर जुर्माना किया जाता है।
  • राज्य सरकार की सहायता-प्रति वर्ष राज्य सरकार नगरपालिकाओं को सहायता के रूप में अनुदान देती है।
  • ऋण (Loan)-नगरपालिकाएं अपने कई बड़े-बड़े खर्चों को पूरा करने के लिए सरकार या बैंक से भी उधार लेती हैं।

नगरपालिका पर सरकार का नियन्त्रण (GOVERNMENT CONTROL OVER THE MUNICIPAL COMMITTEE)
नगरपालिका को स्थानीय मामलों का प्रशासन चलाने में कुछ स्वायत्तता तो प्राप्त होती, परन्तु वह बिल्कुल स्वतन्त्र नहीं होती। राज्य सरकार इसके कामों पर कई तरह का नियन्त्रण रखती है। सरकार निम्नलिखित तरीके से नगरपालिका पर नियन्त्रण रखती है :

  • ज़िले का ज़िलाधीश नगरपालिका के कार्यों पर देख-रेख रखता है।
  • यदि नगरपालिका अपना काम ठीक से न करे या अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान न दे तो जिलाधीश उसको सावधान कर सकता है। यदि नगरपालिका फिर भी अपना काम ठीक से न करे तो जिलाधीश सरकार से उसे भंग करने की सिफ़ारिश करके उसे भंग या स्थगित करवा सकता है।
  • नगरपालिका के हिसाब-किताब की जांच-पड़ताल (Audit) सरकार द्वारा की जाती है। सरकार कभी भी उसका निरीक्षण कर सकती है।
  • नगरपालिका जो भी उपनियम (Bye-Laws) बनाती है, उन्हें लागू करने से पहले सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती है।
  • सरकार किसी भी नगरपालिका को भंग करके वहां प्रशासक (Administrator) नियुक्त कर सकती है।
  • सरकार द्वारा नगरपालिका के सदस्यों की संख्या निश्चित की जाती है।
  • सरकार कई दोषों के कारण नगरपालिका के सदस्य या सभापति की अवधि पूरी होने से पहले उसे पदच्युत भी कर सकती है।
  • नगरपालिका के प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति सरकार की स्वीकृति से भी हो सकती है। सरकार किसी कर्मचारी को पदच्युत करने के लिए नगरपालिका को आदेश दे सकती है।
  • सरकार कभी भी नगरपालिका के रिकार्ड का निरीक्षण कर सकती है।
  • नगरपालिका को अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट सरकार को भेजनी पड़ती है।
  • नगरपालिका अपना बजट पास करके मन्जूरी के लिए सरकार के पास भेजती है। वह उसमें परिवर्तन करवा सकती है।
  • सरकार प्रति वर्ष नगरपालिका को धन की सहायता देती है। धन की सहायता देते समय सरकार उसे कोई भी कार्य करने के लिए कह सकती है।
    निष्कर्ष (Conclusion)-नगरपालिका का राष्ट्रीय जीवन में बहुत महत्त्व है। लोग अपनी प्रारम्भिक आवश्यकताओं जैसे कि गली-मुहल्ले की सफ़ाई, रात को रोशनी, पीने के लिए पानी, शिक्षा के लिए स्कूल, जन्म-मरण का हिसाबकिताब, बच्चों के लिए टीके, भयानक रोगों से बचाव और अन्य श्मशान भूमि के लिए नगरपालिका पर निर्भर है

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में पंचायती राज्य की रचना (संगठन) लिखिए।
अथवा
पंचायती राज का तीन-स्तरीय ढांचा क्या है?
उत्तर-
पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके द्वारा गांव के लोगों को अपने गांवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार करने का अधिकार दिया गया है। गांव के लोग इस अधिकार का प्रयोग पंचायतों द्वारा करते हैं। इसलिए इसे पंचायती राज कहा जाता है। पंचायती राज एक तीन स्तरीय (Three tiered) ढांचा है जिसका निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत का है और उच्चतम स्तर जिला परिषद् का और बीच वाला स्तर पंचायत समिति का। 73वें संशोधन द्वारा जो राज्य बहुत छोटे होते हैं और जिनकी जनसंख्या 20 लाख से कम है उनको पंचायत समिति के मध्य स्तर से मुक्त रखा गया है। इस ढांचे का कार्यक्षेत्र जिले के ग्रामीण भागों तक सीमित होता है और ग्रामीण जीवन के हर क्षेत्र से सम्बन्धित होता है। इस ढांचे के निर्वाचित सदस्य होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय विकास के कार्यों के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रश्न 2.
पंचायती राज के क्या उद्देश्य हैं ?
अथवा
पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य लिखिए।
उत्तर-

  • पंचायती राज का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • पंचायती राज का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने स्थानीय मामलों को स्वयं नियोजित करने और शासन प्रबन्ध चलाने का अवसर देना है।
  • गांवों के लोगों में सामुदायिक भावना और आत्म-निर्भरता की भावना पैदा करना। (4) पंचायती राज का एक उद्देश्य स्थानीय स्तर पर जन सहभागिता को बढ़ाना है।

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प्रश्न 3.
मेयर कौन होता है ? एक कॉर्पोरेशन में मेयर की क्या भूमिका है ?
अथवा
मेयर कौन होता है ? नगर निगम के मेयर को कैसे चुना जाता है ?
अथवा
मेयर किसे कहते हैं ? किसी निगम के मेयर की भूमिका लिखें।
उत्तर-
नगर निगम की राजनीतिक कार्यपालिका भी होती है जिसे प्रायः ‘मेयर’ (Mayor) अथवा महापौर (Mahapour) कहा जाता है। नगर निगम में मेयर का पद बहुत सम्मानपूर्ण तथा गौरवशाली होता है। मेयर का चुनाव निगम के सदस्यों में से किया जाता है। मेयर को शहर का प्रथम नागरिक समझा जाता है। मेयर ही निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा बैठकों की कार्यवाही उसके द्वारा ही नियन्त्रित की जाती है। राज्य सरकार तथा निगम में सामंजस्य व सम्पर्क बनाने का कार्य मेयर के द्वारा ही किया जाता है क्योंकि मेयर का चुनाव लोगों के द्वारा नहीं किया जाता इसलिए उसे लोगों की आवाज़ का प्रतिरूप नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर भी निगम अपने सभी प्रशासनिक, विधायी व अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य मेयर द्वारा ही करती है। महानगर का विकास भी काफ़ी हद तक मेयर की सक्रिय भूमिका पर ही निर्भर करता है।

प्रश्न 4.
नगर निगम की आय के कोई चार महत्त्वपूर्ण साधन लिखो।
अथवा
नगर निगम की आय के कोई चार साधन लिखो।
उत्तर-

  1. नगर निगम की आय का मुख्य स्रोत कर है। नगर निगम को सम्पत्ति कर, विज्ञापन कर, मनोरंजन कर आदि लगाने का अधिकार है।
  2. नगर निगम को मकानों, दुकानों इत्यादि के नक्शे पास करने पर फीस प्राप्त होती है।
  3. नगर निगम को पानी और बिजली से आय होती है।
  4. नगर-निगम सरकार से अनुदान प्राप्त करते हैं।

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प्रश्न 5.
ग्राम सभा क्या है ?
उत्तर-
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र के सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। हरियाणा में 500 तथा पंजाब में 200 की आबादी पर ग्राम सभा की स्थापना की जाती है। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होना आवश्यक है। ग्राम सभा अपने अध्यक्ष और कार्यकारी समिति का चुनाव करती है। ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता सरपंच करता है। ग्राम सभा पंचायत द्वारा बनाए गए बजट पर सोच-विचार करती है। और अपने क्षेत्र के लिए विकास योजना तैयार करती है। ग्राम सभा गांव से सम्बन्धित विकास योजनाओं को लागू करने में सहायता करती है। व्यवहार में ग्राम सभा कोई विशेष कार्य नहीं करती क्योंकि इसकी बैठकें बहुत कम होती हैं।

प्रश्न 6.
ग्राम पंचायत के कोई चार सार्वजनिक कार्य लिखो।
उत्तर-

  • गांव में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना पंचायत का उत्तरदायित्व है।
  • अपने क्षेत्र में सफाई आदि का प्रबन्ध पंचायत करती है।
  • पंचायत पशुओं की नस्ल को सुधारने का प्रयास करती है।
  • पंचायत लोगों के मनोरंजन का प्रबन्ध करती है।

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प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत की आमदनी के स्त्रोतों को लिखिए।
उत्तर-
पंचायतों की आय के साधन निम्नलिखित हैं-

  • कर-पंचायतों की आय का प्रथम साधन कर है। पंचायत राज्य सरकार द्वारा या पंचायती राज अधिनियम द्वारा स्वीकृत किए कर लगा सकती है जैसे सम्पत्ति कर, पशु कर, मार्ग कर, चुंगी कर इत्यादि।
  • फीस और जुर्माना-पंचायत की आय का दूसरा साधन इसके द्वारा किए गए जुर्माने तथा अन्य प्रकार के शुल्क हैं जैसे पंचायती विश्राम घर के प्रयोग के लिए फीस, गली तथा बाजारों में रोशनी करने का कर, पानी कर आदि। इन करों का प्रयोग केवल उन्हीं पंचायतों द्वारा किया जाता है जो ये सुविधाएं प्रदान करती हैं।
  • पंचायत की आय का मुख्य साधन सरकारी अनुदान है। सरकार पंचायतों को विकास सम्बन्धी योजनाओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न प्रकार के अनुदान देती है।
  • खाद की बिक्री आदि से भी पंचायत को आय होती है।

प्रश्न 8.
नई पंचायती राज प्रणाली की कोई चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
नई पंचायती राज प्रणाली की व्यवस्था 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा की गई है। उसकी मुख्य विशेषताएं अग्रलिखित हैं

  • 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संविधान के भाग 9 (Part IX) व 11वीं अनुसूची में शामिल करके निम्न स्तर पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं के रूप में संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है।
  • 73वें संशोधन द्वारा तीन स्तरीय निम्न स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्य में पंचायत समिति और उच्च स्तर पर ज़िला परिषद् के स्तर की पंचायती राज व्यवस्था की गई है।
  • 73वें संशोधन के द्वारा प्रत्येक स्तर के पंचायती चुनाव प्रत्यक्ष रूप में होंगे। (4) प्रत्येक पंचायती चुनाव पांच साल में होना आवश्यक है।

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प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत की रचना का वर्णन कीजिए।
अथवा
ग्राम पंचायत की संरचना लिखो।
उत्तर-
पंजाब में 200 की आबादी वाले, हरियाणा में 500 की आबादी वाले हर गांव में पंचायत की स्थापना की गई है। यदि किसी गांव की जनसंख्या इससे कम है तो दो या अधिक गांवों की संयुक्त पंचायत स्थापित कर दी जाती है। ग्राम पंचायतों का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 सदस्य तक अलग-अलग होता है। हरियाणा में 6 से 20 तक सदस्य होते हैं और पंजाब में 5 से 13 तक। उत्तर प्रदेश में 16 से 31 तक सदस्य होते हैं। इसकी सदस्य संख्या गांवों की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित की जाती है। उदाहरणस्वरूप पंजाब के एक गांव में जिसकी जनसंख्या 200 से लेकर 1000 तक है, उस गांव की ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अलावा पांच पंच होते हैं और जिस गांव जनसंख्या की 10,000 से अधिक है तो उसमें सरपंच के अतिरिक्त 13 पंच होते हैं। पंचायतों में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े कबीलों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 10.
ब्लाक समिति के चार महत्त्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-
पंचायत समिति निम्नलिखित कार्य करती है-

  • पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण-पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्यों की देख-रेख करती है। पंचायत समिति पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण रखती है। उड़ीसा, राजस्थान, असम तथा महाराष्ट्र में पंचायत समिति अपने क्षेत्र में पंचायतों के बजट को स्वीकार करती है।
  • सफ़ाई और स्वास्थ्य-अपने क्षेत्र की सफाई और स्वास्थ्य का उचित प्रबन्ध करना इसका कार्य है। इसके लिए वह अस्पताल खोलती है और प्रसूति-गृह तथा बाल हित केन्द्र स्थापित करती है। वह बीमारियों को रोकने के लिए टीके लगवाने तथा दूसरे कदम उठाने का प्रबन्ध करती है।
  • लघु और कुटीर उद्योगों का विकास-पंचायत समिति अपने इलाके में घरेलु उद्योग-धन्धों को बढावा देने का प्रयत्न करती है। वह इस सम्बन्ध में योजनाएं बनाने और लागू करने का अधिकार रखती है।
  • यह विश्राम ग्रहों की व्यवस्था करती है।

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प्रश्न 11.
जिला परिषद् क्या होती है? ।
अथवा
जिला परिषद् की रचना लिखिए।
उत्तर-
जिला परिषद त्रि-स्तरीय पंचायती राज ढांचे की सर्वोच्च संस्था है। पंचायती राज की अन्य संस्थाएं जिला परिषद् के निरीक्षण में कार्य करती हैं। जिला परिषद् में निम्नलिखित सदस्य आते हैं-

  • क्षेत्रीय चुनाव में से जनता द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर चुने हुए सदस्य, जिनकी गिनती 10 से 25 तक होगी।
  • पंचायत समितियों के सभी सदस्य।
  • जिले का लोकसभा व राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर रहे लोकसभा व राज्य विधानसभा के सदस्य।
  • राज्यसभा के सदस्य और राज्य विधान परिषद् के सदस्य, अगर कोई है और वे राज्य के जिस जिले में मतदाता के रूप में रजिस्टर्ड हों।

जिला परिषद् का प्रत्येक सदस्य 50 हजार की जनसंख्या का प्रतिनिधि होगा। जिस ज़िला परिषद् की जनसंख्या पांच लाख या इससे कम है तो उस में 10 सदस्य होंगे। जिस जिला परिषद् की जनसंख्या 12 लाख से कम या इससे अधिक है तो उसमें सदस्यों की संख्या 25 से अधिक नहीं होगी। प्रत्येक जिला परिषद् में नियमानुसार अनुसूचित जातियों व पिछड़ी जातियों के लिए कुल सीटों के अनुपात में से एक तिहाई सीटें उनके लिए आरक्षित की गई हैं। पंजाब में महिलाओं के लिए जिला परिषद में 50% स्थान आरक्षित किये गए हैं।

प्रश्न 12.
नगरपालिका की रचना लिखें।
उत्तर-
नगरपालिका के सदस्यों की संख्या सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित की जाती है। विभिन्न राज्यों में कम-से-कम 5 तथा अधिक-से-अधिक 50 सदस्य होते हैं। हरियाणा में नगरपालिका/नगरपरिषद् के कम-से-कम 11 और अधिक-से-अधिक 31 सदस्य हो सकते हैं। 74वें संविधान संशोधन के अनुसार प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और महिला प्रतिनिधियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है। राज्य विधानसभा का प्रत्येक सदस्य (M.L.A.) उन सब नगरपालिकाओं का सहायक सदस्य होता है जोकि उनके चुनाव क्षेत्र में शामिल हैं। सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। प्रत्येक उस वयस्क व्यक्ति को जोकि नगरपालिका के क्षेत्र में रहता है मताधिकार प्राप्त होता है। अनुसूचित जातियों के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए जा सकते हैं। चुनाव के लिए नगर को वार्डों में बांटा जाता है और प्रत्येक वार्ड से एक सदस्य चुना जाता है।

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प्रश्न 13.
नगरपालिका के चार महत्त्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य-नगर के लोगों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना भी नगरपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसके लिए नगरपालिका चेचक और हेज़ा आदि के टीके लगाने का प्रबन्ध करती है।
  • सड़कें तथा पुल-नगरपालिका अपने इलाके में पक्की सड़कें तथा पुल बनवाने का प्रबन्ध करती है। गलियों व बाजारों में भी पक्की सड़कें बनाई जाती हैं। पक्की सड़कों व पुलों की मुरम्मत भी नगरपालिका करवाती है। इससे नगर के लोगों को आने-जाने की सुविधा होती है।
  • नगरपालिका अपने क्षेत्र में परिवहन की व्यवस्था करती है।

प्रश्न 14.
जिला परिषद् के कोई चार कार्य लिखो।
उत्तर-
ज़िला परिषद् के कार्य सभी राज्यों में एक समान नहीं हैं। ये अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं। जिला परिषद् को केवल समन्वय लाने वाली और निरीक्षण करने वाली संस्था के रूप में ही स्थापित किया गया है। इसे निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं

  • यह अपने क्षेत्र में पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
  • जिला परिषद् जिले के ग्रामीण जीवन का विकास करने और लोगों के जीवन को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करती है।
  • यह सरकार को जिले के ग्रामीण विकास के बारे में सुझाव भेज सकती है।
  • यह सभी तरह के आंकड़ों को प्रकाशित करती है।

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प्रश्न 15.
पंजाब में नगर निगम की बनावट का वर्णन कीजिए।
अथवा
नगर-निगम किसे कहते हैं ?
उत्तर-
नगर-निगम शहरी स्थानीय स्वशासन की सर्वोच्च संस्था है। नगर-निगम की स्थापना बड़े-बड़े शहरों में की जाती है। नगर निगम की स्थापना संसद् अथवा राज्य विधानमण्डल के द्वारा निर्मित कानून के अनुसार की जाती है। नगरनिगम के सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर सम्बन्धित क्षेत्र की जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है। ये निर्वाचित सदस्य कुछ अन्य सदस्यों का निर्वाचन करते हैं। पंजाब नगर-निगम कानून के अनुसार यह संख्या कम-सेकम 40 और अधिक-से-अधिक 50 हो सकती है। भारत के विभिन्न नगर-निगमों का गठन प्रायः एक जैसा है। सबसे पहले 1888 के अधिनियम के अन्तर्गत मुम्बई में नगर-निगम की स्थापना की गई। नगर-निगम के अध्यक्ष को महापौर (Mayor) कहा जाता है। 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा नगर निगम में अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए एक तिहाई स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं के लिए नगर-निगमों में 50% स्थान आरक्षित किये गए हैं।

पंजाब में नगर-निगम चार बड़े शहरों अमृतसर, जालन्धर, पटियाला और लुधियाना में स्थापित हैं। पंजाब सरकार ने जुलाई 2011 में मोगा, फगवाड़ा, मोहाली तथा पठानकोट में भी नगर निगम बनाने का निर्णय लिया था।

प्रश्न 16.
पंचायत समिति की संरचना लिखो।
उत्तर-
1994 में पंजाब पंचायती राज अधिनियम अधीन यह व्यवस्था की गई है कि एक पंचायत समिति में कमसे-कम 6 और अधिक-से-अधिक 10 सदस्य लोगों द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर चुने जाएंगे। इनके अतिरिक्त प्रत्येक पंचायत समिति में उस क्षेत्र की ग्राम पंचायतों के लिए सरपंचों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित किए जाएंगे। प्रत्येक पंचायत समिति में अनुसूचित जातियों और स्त्रियों के लिए स्थान आरक्षित रखे जाते हैं। प्रत्येक पंचायत समिति में एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होता है जिनका चुनाव पंचायत समिति के सदस्यों में से ही सदस्यों द्वारा किया जाता है। उस क्षेत्र में से निर्वाचित किए गए विधानसभा, विधान परिषद्, लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्य भी पंचायत समिति के सहयोगी सदस्य होते हैं। पंचायतों की भान्ति ब्लॉक समितियों में भी अनुसूचित श्रेणियों तथा स्त्रियों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं के लिए पंचायत समिति में 50% स्थान आरक्षित किये गए हैं।

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प्रश्न 17.
नगर-निगम के चार कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • अपने समस्त क्षेत्र की सफ़ाई का ध्यान रखना।
  • जल सप्लाई का प्रबन्ध करना।
  • नालियां बनवाना ताकि गन्दा पानी शहर के बाहर चला जाए।
  • नगर-निगम बाज़ारों की स्थापना और प्रबन्ध करता है।

प्रश्न 18.
भारत में पंचायती राज्य प्रणाली की कोई चार कमजोरियां लिखिए।
उत्तर-
पंचायती राज की मुख्य समस्याएं अथवा दोष निम्नलिखित हैं-

  • अशिक्षा-गांव के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं और इससे पंचायत के अधिकतर लोग भी अशिक्षित होते हैं। बहुत-सी पंचायतें तो ऐसी हैं जिनके सरपंच भी अशिक्षित हैं और हस्ताक्षर नहीं कर सकते।
  • अज्ञानता-चूंकि गांव के अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें पंचायती राज के उद्देश्यों का भी पता नहीं है।
  • साम्प्रदायिकता-गांव के लोगों में जाति भेद की भावना प्रबल है। पंचायतों के चुनाव जाति भेद के आधार पर लड़े जाते हैं और चुने जाने के बाद भी उनके भेदभाव समाप्त नहीं होते बल्कि और भी बढ़ जाते हैं। पंच भी जाति आदि के आधार पर आपस में लड़ते हैं जिससे पंचायत का काम ठीक प्रकार से नहीं हो पाता।
  • पंचायत के कार्यों में राजनीति दलों का अनुचित हस्तक्षेप होता है।

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प्रश्न 19.
नगरपालिका का चुनाव कौन लड़ सकता है ?
उत्तर-
नगरपालिका के चुनाव में वही व्यक्ति खड़ा हो सकता है, जिसके पास निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  • किसी सरकार तथा नगरपालिका के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो।
  • वह उस नगर का रहने वाला हो और मतदाताओं की सूची में उसका नाम हो।
  • वह पागल तथा दिवालिया न हो। नगरपालिका के चुनाव में मताधिकार या चुनाव के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

प्रश्न 20.
भारतीय पंचायती राज की महत्ता का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पंचायती राज भारतीय लोकतन्त्र की आधारशिला है। निम्नलिखित बातों से पंचायती राज का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है-

  • जनता का राज-पंचायती राज का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि यह जनता का राज है। गांव में लोगों का अपना शासन स्थापित हो चुका है। अपने शासन से अच्छा कोई शासन नहीं होता। गांव का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य है और ग्राम पंचायत के चुनाव में भाग लेता है।
  • प्रत्यक्ष लोकतन्त्र-पंचायती राज गांवों में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से कम नहीं है। ग्राम सभा गांव की संसद् की तरह है और गांव के सभी नागरिक इस संसद् के सदस्य हैं। पंचायती राज के वे सभी लाभ हैं जो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से प्रभावित होते हैं।
  • आत्म-निर्भरता-पंचायती राज का एक उद्देश्य यह है कि प्रत्येक गांव अपने विकास कार्य की आवश्यकताओं की पूर्ति, प्रशासन सम्बन्धी बातों तथा न्याय के सम्बन्ध में आत्म-निर्भर हो जाए।
  • लोगों में स्वतन्त्रता की भावना का विकास होता है।

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प्रश्न 21.
पंचायती राज के दोषों को दूर करने के लिए चार उपाय लिखें।
उत्तर-
पंचायती राज के दोषों को दूर करने के महत्त्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं-

  • शिक्षा का प्रसार-स्थानीय संस्थाओं को सफल बनाने के लिए प्रथम आवश्यकता शिक्षा के प्रसार की है। शिक्षित व्यक्ति अपने मत का सोच-समझ कर प्रयोग कर सकते हैं और जाति-भेद के चक्कर में नहीं पड़ेंगे।
  • सदस्यों का प्रशिक्षण-इन संस्थाओं के सदस्य प्रशिक्षण के बिना अपने कार्यों को ठीक तरह से नहीं निभा सकते और न ही उचित फैसलें कर सकते हैं। अत: पंचायती राज के कर्मचारियों और सरकार के अफसरों के प्रशिक्षण की पूरी-पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।
  • योग्य और ईमानदार कर्मचारी-किसी भी सरकारी संस्था या संगठन को ठीक ढंग से चलाने में कर्मचारियों का बहुत योगदान होता है। स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए।
  • पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक शक्तियां देनी चाहिएं।

प्रश्न 22.
नगर सुधार ट्रस्ट क्या होता है ? इसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन करो।
अथवा
नगर सुधार ट्रस्ट से आपका क्या अभिप्राय है, और यह क्या काम करता है ?
उत्तर-
नगर सुधार ट्रस्ट बड़े-बड़े नगरों में स्थापित किया जाता है। पंजाब एवं हरियाणा के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण नगर में इसकी स्थापना की गई है। नगर सुधार ट्रस्ट के कुछ सदस्य नगरपालिका द्वारा चुने जाते हैं और शेष सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं। इसका एक अध्यक्ष होता है जो सरकार द्वारा मनोनीत होता है। अध्यक्ष को वेतन आदि मिलता है। अध्यक्ष के अतिरिक्त और भी महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते हैं। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, इसका काम नगर का सुधार या विकास करना एवं उसे सुन्दर बनाना है। गन्दी बस्ती को गिराकर नई बस्ती बनाना, सड़कों को चौड़ा करना, बगीचे लगवाना, पार्क बनवाना इसके मुख्य कार्य हैं। नगर के आस-पास जो नई बस्तियां बनती हैं, उनमें सड़कों, नालियों, पानी, रोशनी, मकानों के निर्माण आदि के कार्य पहले नगर सुधार ट्रस्ट करता है और जब वह बस्ती पूरी तरह सुधर जाए तो उसे नगरपालिका को सौंप दिया जाता है।

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प्रश्न 23.
1994 के पंजाब पंचायती राज एक्ट के अधीन स्थापित तीन परता (थ्री टायर) पंचायती राज प्रणाली का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
21 अप्रैल, 1994 को पंजाब पंचायती राज अधिनियम (Punjab Panchayati Raj Act, 1994) लागू हुआ था। इस अधिनियम द्वारा पंजाब में पंचायती राज की व्यवस्था नए रूप में की गई है। इस अधिनियम के अधीन पंजाब में ग्राम सभा के अतिरिक्त निम्नलिखित तीन संस्थाओं की व्यवस्था मिलती है

  • ग्राम पंचायत
  • पंचायत समिति
  • जिला परिषद्।

ये संस्थाएं पंजाब में ग्रामीण क्षेत्र के स्वशासन की संस्थाएं हैं और इन संस्थाओं को ही पंचायती राज का तीन स्तरीय ढांचा माना जाता है। पंजाब में इन संस्थाओं का गठन चुनावों द्वारा पांच साल के लिए किया जाता है।।

प्रश्न 24.
पंचायत समिति की आमदन के चार साधन लिखो।
उत्तर-

  • पंचायत समिति द्वारा लगाए गए कर-पंचायत समिति एवं जिला परिषद् एक्ट की धाराओं के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के कर लगा सकती है; जैसे व्यवसाय कर, टोकन कर, मार्ग कर, आय कर आदि से होने वाली आय।
  • सम्पत्ति से आय-पंचायत समिति के अधिकार में रखी गई सम्पत्ति से आय।
  • शुल्क-पंचायत समिति के द्वारा प्रदान की गई सेवाओं के शुल्क से आय। 4. पंचायत समिति को सरकार से भी सहायता के रूप में धन मिलता है।

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प्रश्न 25.
सरपंच का चुनाव कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
मार्च 2012 में पंजाब विधानसभा द्वारा पास किए गए पंजाब पंचायती राज (संशोधन) कानून के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है, कि सरपंच का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा किया जायेगा।

प्रश्न 26.
नगरपालिका से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नगरपालिका शहरी स्थानीय शासन की महत्त्वपूर्ण संस्था है। नगरपालिका का आकार सम्बन्धित नगर की जनसंख्या पर निर्भर करता है। विभिन्न राज्यों में नगरपालिका के कम-से-कम 5 तथा अधिक-से–अधिक 50 सदस्य होते हैं। नगरपालिका में कुलं निर्वाचित स्थानों का एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित होता है। नगरपालिका की अवधि 5 वर्ष होती है। इसके सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। नगरपालिका नगर की सफ़ाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, जलापूर्ति, रोशनी, लघु-उद्योग, इत्यादि अनेक स्थानीय महत्त्व के कार्य करती है। नगरपालिका विभिन्न कार्यों को करने के लिए अनेक प्रकार के कर लगाती हैं तथा राज्य सरकार से भी वित्तीय सहायता प्राप्त करती है।

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प्रश्न 27.
ग्राम पंचायत का सभापति कौन होता है ? उसके तीन कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
ग्राम पंचायत का सभापति सरपंच होता है। इसके तीन कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. सरपंच ग्राम पंचायतों की बैठकें बुलाता है और उनका सभापतित्व करता है।
  2. सरपंच ग्राम पंचायतों की कार्यवाहियों का रिकॉर्ड रखता है।
  3. सरपंच अपने गांव की पंचायतों के वित्तीय और कार्यकारी प्रशासन के लिए ज़िम्मेदार होता है।

प्रश्न 28.
छावनी बोर्ड क्या होता है?
अथवा
छावनी बोर्ड क्या होता है और यह क्या काम करता है ?
उत्तर-
छावनी बोर्ड की स्थापना सैनिक क्षेत्र में की जाती है। इसका उद्देश्य सैनिकों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रबन्ध करना होता है। छावनी बोर्ड, छावनी के सेवा कमांड के जनरल अधिकारी के निरीक्षण में कार्य करता है, जोकि रक्षा मन्त्रालय के अधीन होता है। छावनी बोर्ड के आधे सदस्यों का चुनाव शहर के लोगों द्वारा किया जाता है, जबकि आधे सदस्य मनोनीत किये जाते हैं। छावनी बोर्ड सैनिक क्षेत्र के लोगों को पानी, शिक्षा, सफ़ाई, स्वास्थ्य तथा बिजली आदि की सुविधाएँ उपलब्ध कराती है।

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प्रश्न 29.
पोर्ट ट्रस्ट क्या है ?
उत्तर-
पोर्ट ट्रस्ट बंदरगाह के क्षेत्र में स्थापित की जाती है। पोर्टट्रस्ट के कुछ सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं, तथा कुछ सदस्य व्यापारियों द्वारा चुने जाते हैं, पोर्ट ट्रस्ट का मुख्य उद्देश्य बंदरगाह पर उतरने वाले माल के लिए व्यापारिक सुविधाओं की व्यवस्था करना तथा बंदरगाह की साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखना है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मेयर किसे कहते हैं ? किसी निगम के मेयर की भूमिका लिखें।
उत्तर-
नगर-निगम की राजनीतिक कार्यपालिका भी होती है जिसको प्राय: ‘मेयर’ (Mayor) अथवा महापौर (Mahapour) कहा जाता है। नगर-निगम में मेयर का पद बहुत सम्मानपूर्ण तथा गौरवशाली होता है। मेयर का चुनाव निगम के सदस्यों में से किया जाता है। मेयर को शहर का प्रथम नागरिक समझा जाता है। मेयर ही निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा बैठकों की कार्यवाही उसके द्वारा ही नियन्त्रित की जाती है।

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प्रश्न 2.
नगर-निगम की आय के कोई दो महत्त्वपूर्ण साधन लिखो।
उत्तर-

  1. नगर-निगम की आय का मुख्य स्रोत कर है। नगर-निगम को सम्पत्ति कर, विज्ञापन कर, मनोरंजन कर आदि लगाने का अधिकार है।
  2. नगर-निगम को मकानों, दुकानों इत्यादि के नक्शे पास करने पर फीस प्राप्त होती है।

प्रश्न 3.
पंचायत समिति का गठन कैसे होता है ?
उत्तर-
प्रत्येक विकास खण्ड की एक पंचायत समिति होती है। पंजाब के पंचायती राज एक्ट 1994 के अनुसार पंचायत समिति में निम्नलिखित सदस्य होंगे

  1. पंचायत समिति के क्षेत्र की जनता द्वारा सीधे या प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्य, जिनकी संख्या 6 से 10 तक होगी।
  2. पंचायत समिति में आने वाली ग्राम पंचायतों के सरपंचों द्वारा चुने गए अपने प्रतिनिधि।

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प्रश्न 4.
ग्रामीण स्थानीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में कौन-सा भाग और अनुसूची अंकित की गई है ?
उत्तर-
ग्रामीण स्थानीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में भाग १ (Part-IX) और 11वीं अनुसूची अंकित की गई है।

प्रश्न 5.
शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में कौन-सा भाग तथा अनुसूची अंकित की गई है ?
उत्तर-
शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में भाग 9A तथा 12वीं अनुसूची अंकित की गई है।

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प्रश्न 6.
ग्राम सभा की संरचना लिखो।
उत्तर-
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र के सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होना आवश्यक है। ग्राम सभा अपने अध्यक्ष और कार्यकारी समिति का चुनाव करती है। ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता सरपंच करता है।

प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर-

  1. गांव में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना पंचायत का उत्तरदायित्व है।
  2. पंचायत अपने क्षेत्र में अपराधियों को पकड़ने और अपराधों की रोकथाम करने के लिए पुलिस की सहायता करती है।

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प्रश्न 8.
ग्राम पंचायत की बनावट लिखें।
उत्तर-
पंजाब में 200 की आबादी वाले, हरियाणा में 500 की आबादी वाले हर गांव में पंचायत की स्थापना की गई है। ग्राम पंचायतों का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 सदस्य तक अलग-अलग होता है। पंचायतों में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े कबीलों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। 73वें संशोधन के द्वारा महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से एक तिहाई स्थान देने की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 9.
पंचायत समिति के कोई दो मुख्य कार्य बताएं।
उत्तर-

  1. पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण-पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्यों की देखरेख करती है।
  2. सफ़ाई और स्वास्थ्य-अपने क्षेत्र की सफ़ाई और स्वास्थ्य का उचित प्रबन्ध करना इसका कार्य है।

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प्रश्न 10.
नगरपालिका की रचना लिखें।
उत्तर-
नगरपालिका के सदस्यों की संख्या सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित की जाती है। विभिन्न राज्यों में कम-से-कम 5 तथा अधिक-से-अधिक 50 सदस्य होते हैं। 74वें संविधान संशोधन के अनुसार प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और महिला प्रतिनिधियों के स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक उस वयस्क व्यक्ति को जोकि नगरपालिका के क्षेत्र में रहता है मताधिकार प्राप्त होता है।

प्रश्न 11.
नगरपालिका का चुनाव कौन लड़ सकता है?
उत्तर-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो।

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प्रश्न 12.
नगरपालिका के कोई दो महत्त्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. सफ़ाई-नगरपालिका का मुख्य कार्य अपने नगर की सफ़ाई का प्रबन्ध करना है।
  2. सार्वजनिक स्वास्थ्य-नगर के लोगों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना भी नगरपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य है।

प्रश्न 13.
ज़िला परिषद् के दो कार्य लिखें।
उत्तर-

  1. यह अपने क्षेत्र में पंचायत समीतियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
  2. ज़िला परिषद् जिले के ग्रामीण जीवन का विकास करने और लोगों के जीवन को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करती

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प्रश्न 14.
नगर-निगम किसे कहते हैं ?
उत्तर-
नगर-निगम की स्थापना संसद् अथवा राज्य विधानमण्डल के द्वारा निर्मित कानून के अनुसार की जाती है। नगर-निगम के सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर सम्बन्धित क्षेत्र की जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है। ये निर्वाचित सदस्य कुछ अन्य सदस्यों का निर्वाचन करते हैं।

प्रश्न 15.
शहरी क्षेत्र की स्थानीय संस्थाओं के नाम लिखो।
उत्तर-
74वें संशोधन द्वारा शहरी शासन के लिए तीन स्तरीय स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था की गई जिसका वर्णन इस प्रकार है

  1. नगर पंचायत (Nagar Panchayat)
  2. नगर परिषद् (Municipal Council)
  3. नगर निगम (Municipal Corporation)।

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प्रश्न 16.
भारत में पंचायती राज के कोई दो दोष लिखें।
उत्तर-

  1. अशिक्षा-गांव के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं और इससे पंचायत के अधिकतर लोग भी अशिक्षित होते हैं। जब तक चुनने वाले तथा चुने जाने वाले व्यक्ति शिक्षित नहीं होंगे तब तक कोई भी स्थानीय संस्था सफलता से काम नहीं कर सकती।
  2. अज्ञानता-चूंकि गांव के अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें पंचायती राज़ के उद्देश्यों का भी पता नहीं है।

प्रश्न 17.
नगर सुधार ट्रस्ट क्या होता है?
उत्तर-
नगर सुधार ट्रस्ट बड़े-बड़े नगरों में स्थापित किया जाता है। पंजाब एवं हरियाणा के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण नगर में इसकी स्थापना की गई है। नगर सुधार ट्रस्ट के कुछ सदस्य नगरपालिका द्वारा चुने जाते हैं और शेष सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं। इसका एक अध्यक्ष होता है जो सरकार द्वारा मनोनीत होता है। अध्यक्ष को वेतन आदि मिलता है। अध्यक्ष के अतिरिक्त और भी महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते हैं। इसका मुख्य काम नगर सुधार या विकास करना एवं उसे सुन्दर बनाना है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
पंचायती राज क्या है ?
उत्तर-
पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं, जिसके द्वारा गांव के लोगों को अपने गांवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार करने का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 2.
ग्राम पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए कम-से-कम आयु कितनी निर्धारित की गई है ?
उत्तर-
21 वर्ष की आयु निर्धारित की गई है।

प्रश्न 3.
पंचायती राज प्रणाली का ढांचा किस समिति की सिफ़ारिशों पर आधारित है ?
उत्तर-
बलवंत राय मेहता की सिफारिशों के आधार पर।

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प्रश्न 4.
बलवंत राय मेहता समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर कितने स्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई थी ?
उत्तर-
त्रि-स्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 5.
किस संवैधानिक संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है ?
उत्तर-
73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है।

प्रश्न 6.
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वां संवैधानिक संशोधन कब लागू हुआ था ?
उत्तर-
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वां संवैधानिक संशोधन 1993 में लागू हुआ था।

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प्रश्न 7.
किस राज्य ने तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली को पहले लागू किया ?
उत्तर-
राजस्थान ने तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली को पहले लागू किया।

प्रश्न 8.
पंचायत समिति का कार्यकारी अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर-
खण्ड विकास तथा पंचायत अधिकारी (B.D.O.) पंचायत समिति का कार्यकारी अधिकारी होता है।

प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव कौन करता है ?
उत्तर-
ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित पंचों द्वारा किया जाता है।

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प्रश्न 10.
नगर-निगम का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर-
नगर-निगम का अध्यक्ष मेयर होता है।

प्रश्न 11.
शहरी स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को किस संवैधानिक संशोधन द्वारा संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया?
उत्तर-
74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न 12.
पंजाब में किन शहरों में नगर-निगम स्थापित किये गये हैं ?
उत्तर-
अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, पटियाला तथा बठिण्डा में। पंजाब सरकार ने जुलाई 2011 में मोगा, फगवाड़ा, मोहाली तथा पठानकोट में भी नगर-निगम बनाने का निर्णय लिया था।

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प्रश्न 13.
ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है। प्रत्येक वयस्क नागरिक जो गांव का रहने वाला है, पंचायत के चुनाव में वोट डाल सकता है। पंजाब में 18 वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।

प्रश्न 14.
नगर-निगम का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर-
नगर-निगम का अध्यक्ष मेयर (महापौर) होता है।

प्रश्न 15.
नगरपालिका का चुनाव कितनी अवधि के लिए होता है ?
अथवा
नगर परिषद् का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर-
नगरपालिका का चुनाव पाँच वर्षों के लिए होता है।

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प्रश्न 16.
पंचायती राज के अधीन पंजाब पंचायती राज की सबसे ऊपरी व नीचे की संस्था का नाम लिखें।
उत्तर-
पंजाब पंचायती राज की सबसे ऊपरी संस्था ज़िला परिषद् तथा सबसे निचली संस्था ग्राम सभा है।

प्रश्न 17.
पंजाब में स्थानीय स्तर की संस्थाओं में महिलाओं के लिए कितनी सीटें आरक्षित की गईं ?
उत्तर-
पंजाब में स्थानीय स्तर की संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50% सीटें आरक्षित की गई हैं।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. आधुनिक राज्य का स्वरूप ……….. है।
2. …………….. ने पंचायती राज के त्रिस्तरीय ढांचे की सिफ़ारिश की।
3. शहरी स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को ………….. संवैधानिक संशोधन द्वारा संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
4. ……… संवैधानिक संशोधन द्वारा ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
5. स्थानीय स्वशासन …………….. का विषय है।
6. नगरपालिका की अवधि ………………. है।
उत्तर-

  1. कल्याणकारी
  2. बलवंत राय मेहता समिति
  3. 74वें
  4. 73वें
  5. राज्य सूची
  6. पांच वर्ष ।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें

1. शासन की कुशलता एवं जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शक्तियों का केन्द्रीयकरण होना आवश्यक
2. स्थानीय शासन से अभिप्राय उस व्यवस्था से है, जिसके अंतर्गत स्थानीय जनता, स्थानीय साधनों द्वारा स्थानीय
मामलों का प्रबंध स्वयं या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से नहीं करती है।
3. स्थानीय शासन को संवैधानिक दर्जा देने के लिए 73वां तथा 74वां संवैधानिक संशोधन किया गया।
4. 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा ग्राम सभा और ग्राम पंचायत को परिभाषित किया गया है।
5. 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पांच स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्तमान त्रिस्तरीय पंचायती राज का सुझाव किसने दिया था ?
(क) अशोक मेहता
(ख) बलवन्त राय मेहता
(ग) रजनी कोठारी
(घ) ए० डी० गोरवाला।
उत्तर-
(ख) बलवन्त राय मेहता

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प्रश्न 2.
किस राज्य ने तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली को पहले लागू किया ?
(क) तमिलनाडु
(ख) राजस्थान
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) पंजाब।
उत्तर-
(ख) राजस्थान

प्रश्न 3.
पंचायती राज इकाइयां उत्पत्ति हैं-
(क) पार्लियामेंट की
(ख) क्षेत्रीय कौंसिल की
(ग) राज्य विधानपालिका की
(घ) ऊपर में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) राज्य विधानपालिका की

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प्रश्न 4.
किस संवैधानिक संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है ?
(क) 64वें
(ख) 74वें
(ग) 73वें
(घ) 76वें।
उत्तर-
(ग) 73वें

प्रश्न 5.
73वीं संवैधानिक संशोधन के द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में किनके लिए स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं ?
(क) केवल स्त्रियों के लिए
(ख) अनुसूचित जाति के लिए
(ग) केवल बच्चों के लिए
(घ) स्त्रियों तथा अनुसूचित जाति के लिए।
उत्तर-
(घ) स्त्रियों तथा अनुसूचित जाति के लिए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1. सिख जीवन जाच क्या है ?
(What is Sikh Way of Life ?)
अथवा
सिख जीवन जाच सिख धर्म का आधार है। चर्चा कीजिए।
(Sikh way of life is the base of Sikhism. Discuss.)
अथवा
सिख रहित मर्यादा के प्रमुख लक्षणों के विषय में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the salient features of Sikh-Rahit Maryada.)
अथवा
धार्मिक सिख जीवन जाँच के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the religious Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवनचर्या की आलोचनात्मक दृष्टि से परख कीजिए। (Examine critically the Sikh Way of Life.)
अथवा
रहित मर्यादा से क्या अभिप्राय है ? सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(What is Code of Conduct ? Explain in briefthe Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिखी रहित मर्यादा लिखें।
(Write about the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार सिख जीवन के बारे में लिखें।
(Write about the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन मुक्ति में व्यक्तिगत रहनी के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the personal life in Sikh Code of Conduct.)
अथवा
गुरमत रहनी क्या है ? चर्चा कीजिए।
(What is Gurmat Life ? Discuss.)
अथवा
सिख जीवन युक्ति के मुख्य लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the salient features of Sikh Way of Life.)
अथवा
गुरसिख के जीवन के बारे में लिखें।
(Write about the Gursikh Way of Life.)
अथवा
सिग्न जीवन पद्धति के विषय में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Give a brief account of the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन जाच का स्रोत सिख रहित मर्यादा है। चर्चा कीजिए। (Sikh Rahit Maryada is the source of Sikh Way of Life. Discuss.)
अथवा
(Elucidate the salient features of Sikh Way of Life.)
उत्तर-
प्रत्येक जीवन पद्धति किसी न किसी दर्शन पर आधारित होती है। जैसे एक सच्चा हिंद गीता के उपदेशों के अनुसार, एक सच्चा मुसलमान कुरान के उपदेशों के अनुसार एवं एक सच्चा ईसाई बाइबल के उपदेशों को आधार मान कर अपना जीवन व्यतीत करने का प्रयास करता है। गुरु ग्रंथ साहिब जी में अनेक स्थानों पर सिख जीवन पद्धति का वर्णन किया गया है। 1699 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ का सृजन किया तो उन्होंने कुछ नियमों की घोषणा की जिनका पालन करना प्रत्येक खालसा के लिए अनिवार्य था। ये नियम आज भी रहितनामों के रूप में हमारे पास मौजूद हैं। रहितनामे कोई नई विचारधारा प्रस्तुत नहीं करते। ये गुरबाणी में वर्णित जीवन पद्धति की संक्षेप रूप में तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। सिख रहित मर्यादा जो शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर द्वारा जारी की गई है तथा जिसे प्रमाणिक माना जाता है का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है :—

(क) सिख कौन है ? (Who is a Sikh ?)
कोई भी स्त्री अथवा पुरुष जो एक परमात्मा, दस गुरु साहिबान (गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी तक), श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी एवं शिक्षा तथा दशमेश (गुरु गोबिंद सिंह जी) के अमृत में विश्वास रखता है वह सिख है।

(ख) नाम वाणी का अभ्यास
(Practice of Nam)

  1. सिख अमृत समय जाग कर स्नान करे तथा एक अकाल पुरुख (परमात्मा) का ध्यान करता हुआ ‘वाहिगुरु’ का नाम जपे।
  2. नितनेम का पाठ करे। नितनेम की वाणियाँ ये हैं-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपई एवं 10 सवैये। ये वाणिएँ अमृत समय पढ़ी जाती हैं। रहरासि साहिब-यह वाणी संध्या काल समय पढ़ी जाती है। सोहिला-यह वाणी रात को सोने से पूर्व पढ़ी जाती है। अमृत समय तथा नितनेम के पश्चात् अरदास करनी आवश्यक है।
  3. गुरवाणी का प्रभाव साध-संगत में अधिक होता है। अत: सिख के लिए उचित है कि वह गुरुद्वारों के दर्शन करे तथा साध-संगत में बैठ कर गुरवाणी का लाभ उठाए।
  4. गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश प्रतिदिन होना चाहिए। साधारणतयः रहरासि साहिब के पाठ के पश्चात् सुख आसन किया जाना चाहिए।
  5. गुरु ग्रंथ साहिब जी को सम्मान के साथ प्रकाश, पढ़ना एवं संतोखना चाहिए। प्रकाश के लिए आवश्यक है कि स्थान पूर्णतः साफ़ हो तथा ऊपर चांदनी लगी हो। प्रकाश मंजी साहिब पर साफ़ वस्त्र बिछा कर किया जाना चाहिए। गुरु ग्रंथ साहिब जी के लिए गदेले आदि का प्रयोग किया जाए तथा ऊपर रुमाला दिया जाए। जिस समय पाठ न हो रहा हो तो ऊपर रुमाला पड़ा रहना चाहिए। प्रकाश के समय चंवर किया जाना चाहिए।
  6. गुरुद्वारे में कोई मूर्ति पूजा अथवा गुरमत्त के विरुद्ध कोई रीति-संस्कार न हो।
  7. एक से दूसरे स्थान तक गुरु ग्रंथ साहिब को ले जाते समय अरदास की जानी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सिर के ऊपर गुरु ग्रंथ साहिब उठाया हो वह नंगे पाँव होना चाहिए।
  8. गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश अरदास करके किया जाए। प्रकाश करते समय गुरु ग्रंथ साहिब में से एक शबद का वाक लिया जाए।
  9. जिस समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की सवारी आए तो प्रत्येक सिख को उसके सम्मान के लिए खड़ा हो जाना चाहिए।
  10. गुरुद्वारे में प्रवेश करते समय अपने जूते अथवा चप्पल आदि बाहर उतार कर तथा हाथ-पाँव धो कर जाना चाहिए।
  11. गुरुद्वारे में दर्शन के लिए किसी देश, धर्म, जाति आदि पर कोई प्रतिबंध नहीं, पर उनके पास सिख धर्म में प्रतिबंधित वस्तुएँ तंबाकू आदि कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए।
  12. संगत में बैठते समय सिख, गैर-सिख, जाति-पाति, ऊँच-नीच आदि का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  13. किसी भी व्यक्ति द्वारा गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय अथवा संगत में गदेला, आसन, कुर्सी, चौकी अथवा मंजी आदि पर बैठना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  14. संगत में किसी सिख को नंगे सिर नहीं बैठना चाहिए। संगत में सिख स्त्रियों के लिए पर्दा करना अथवा चूंघट निकालने पर प्रतिबंध है।
  15. प्रत्येक गुरुद्वारे में निशान साहिब किसी ऊँचे स्थान पर लगा होना चाहिए।
  16. गुरुद्वारे में नगारा होना चाहिए तथा इसे समय अनुसार बजाया जाना चाहिए।
  17. संगत में कीर्तन केवल सिख कर सकता है।
  18. कीर्तन गुरवाणी को रागों में उच्चारण करना चाहिए।
  19. दीवान समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की ताबिया में केवल सिख (पुरुष अथवा स्त्री) को बैठने का अधिकार
  20. दीवान की समाप्ति के समय ‘हक्म’ लिया जाना चाहिए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

(ग) गुरुसिख की जीवन पद्धति
(Code of Conduct of Gursikh)
सिखों की जीवन पद्धति गुरमत्त के अनुसार होनी चाहिए। गुरमत्त यह है :—

  1. एक अकाल पुरुख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दा केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्त्तव्य है।
  7. सिख भांग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहांत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।
  16. लड़के के नाम के पीछे ‘सिंह’ तथा लड़की के नाम के पीछे ‘कौर’ शब्द लगाया जाए।
  17. सिखों का विवाह बिना किसी जाति-पाति अथवा गौत्र के विचार से होना चाहिए।
  18. सिख का विवाह ‘अनंदु’ रीति से करना चाहिए।
  19. बालक एवं बालिका का विवाह बचपन में करना प्रतिबंधित है। विवाह का दिन निश्चित करते समय अच्छे-बुरे दिन की खोज करना अथवा पत्री बनाना गुरमत्त के विरुद्ध है। इस संबंधी कोई भी दिन निश्चित किया जा सकता है।
  20. सेहरा, घड़ौली भरनी, रूठ जाना, छंद पढ़ने, हवन करना, वेश्या का नाच करवाना, शराब पीना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  21. विवाह के समय गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में दीवान हो। संगत अथवा रागी कीर्तन करें। फिर सम्बंधित वर एवं वधु को गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में बैठाया जाए। संगत की अनुमति लेकर ‘अनंदु’ के आरंभ की अरदास की जाए।
  22. साधारणतयः सिख को एक स्त्री के होते हुए दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए।
  23. प्राणी के देहांत के समय यदि वह चारपाई पर हो तो उसे नीचे नहीं उतारना चाहिए अथवा अन्य कोई गुरमत्त के विरुद्ध संस्कार नहीं करना चाहिए। केवल गुरवाणी का पाठ अथवा ‘वाहिगुरु’, ‘वाहिगुरु’ करना चाहिए।
  24. प्राणी के देहांत पर रोना एवं सियापा नहीं करना चाहिए।
  25. प्राणी चाहे छोटा हो अथवा बड़ा उसका संस्कार किया जाना चाहिए।
  26. संस्कार के लिए दिन अथवा रात का भ्रम नहीं करना चाहिए।
  27. दीवा, सियापा, पिंड क्रिया, श्राद्ध, बुड्डे का मरना आदि करना गुरमत्त के विरुद्ध हैं।
  28. सिखों को प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमी के अवसर पर जैसे नए गृह में प्रवेश करना, नई दुकान को खोलना, बालक को शिक्षा के लिए भेजना आदि के समय वाहिगुरु की सहायता के लिए अरदास की जानी चाहिए।
  29. सेवा सिख धर्म का एक विशेष अंग है। सेवा केवल पंखा करना तथा लंगर आदि से ही समाप्त नहीं हो जाती। सिख का संपूर्ण जीवन ही दूसरों की सेवा में व्यतीत होना चाहिए।
  30. प्रत्येक सिख को पाँच कक्कार केश, कंघा, कच्छा, कड़ा एवं कृपाण धारण करनी चाहिए।
  31. ये चार कुरीतियां नहीं करनी चाहिएँ—
    • केशों की बेअदबी।
    • कुट्ठा खाना
    • पर स्त्री-पुरुष का गमन
    • तंबाकू का प्रयोग।
      यदि इनमें से कोई आज्ञा भंग हो जाए तो उसे पुनः अमृत छकना पड़ेगा।।
  32. जिस सिख से रहित संबंधी कोई भूल हो जाए तो वह निकट के गुरुद्वारे में जाकर संगत के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करे।
  33. गुरुमत्ता केवल उन प्रश्नों पर ही हो सकता है जो सिख धर्म के प्रारंभिक सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हों। यह गुरमत्ता केवल गुरु पंथ द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सभा अथवा संगत द्वारा पास किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
“नैतिकता सिख जीवन पद्धति का आधार है।” प्रकाश डालिए। (“Morality is the base of the Sikh Way of Life.” Elucidate.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार नैतिक जीवन ही जीवन की कुंजी है। चर्चा करें। (According to Sikhism, Moral Life is Key of Life.)
अथवा
सिख धर्म में नैतिकता की विलक्षणता पर नोट लिखें।
(Write a note on the special features of Sikh Morality.)
अथवा
नैतिक जीवन ही सिख जीवन की कुंजी है। चर्चा करें। (Moral Life is the Key to Sikh Life. Discuss.)
अथवा
“सिख धर्म में नैतिकता सिख जीवनचर्या की कंजी है।” चर्चा कीजिए। (“Morality is the Key in Sikhism as per Sikh Way of Life.” Discuss.)
उत्तर-
गुरुसिख की जीवन पद्धति (Code of Conduct of Gursikh)-
सिखों की जीवन पद्धति गुरमत्त के अनुसार होनी चाहिए। गुरमत्त यह है :—

  1. एक अकाल पुरुख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दा केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्त्तव्य है।
  7. सिख भांग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहांत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।
  16. लड़के के नाम के पीछे ‘सिंह’ तथा लड़की के नाम के पीछे ‘कौर’ शब्द लगाया जाए।
  17. सिखों का विवाह बिना किसी जाति-पाति अथवा गौत्र के विचार से होना चाहिए।
  18. सिख का विवाह ‘अनंदु’ रीति से करना चाहिए।
  19. बालक एवं बालिका का विवाह बचपन में करना प्रतिबंधित है। विवाह का दिन निश्चित करते समय अच्छे-बुरे दिन की खोज करना अथवा पत्री बनाना गुरमत्त के विरुद्ध है। इस संबंधी कोई भी दिन निश्चित किया जा सकता है।
  20. सेहरा, घड़ौली भरनी, रूठ जाना, छंद पढ़ने, हवन करना, वेश्या का नाच करवाना, शराब पीना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  21. विवाह के समय गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में दीवान हो। संगत अथवा रागी कीर्तन करें। फिर सम्बंधित वर एवं वधु को गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में बैठाया जाए। संगत की अनुमति लेकर ‘अनंदु’ के आरंभ की अरदास की जाए।
  22. साधारणतयः सिख को एक स्त्री के होते हुए दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए।
  23. प्राणी के देहांत के समय यदि वह चारपाई पर हो तो उसे नीचे नहीं उतारना चाहिए अथवा अन्य कोई गुरमत्त के विरुद्ध संस्कार नहीं करना चाहिए। केवल गुरवाणी का पाठ अथवा ‘वाहिगुरु’, ‘वाहिगुरु’ करना चाहिए।
  24. प्राणी के देहांत पर रोना एवं सियापा नहीं करना चाहिए।
  25. प्राणी चाहे छोटा हो अथवा बड़ा उसका संस्कार किया जाना चाहिए।
  26. संस्कार के लिए दिन अथवा रात का भ्रम नहीं करना चाहिए।
  27. दीवा, सियापा, पिंड क्रिया, श्राद्ध, बुड्डे का मरना आदि करना गुरमत्त के विरुद्ध हैं।
  28. सिखों को प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमी के अवसर पर जैसे नए गृह में प्रवेश करना, नई दुकान को खोलना, बालक को शिक्षा के लिए भेजना आदि के समय वाहिगुरु की सहायता के लिए अरदास की जानी चाहिए।
  29. सेवा सिख धर्म का एक विशेष अंग है। सेवा केवल पंखा करना तथा लंगर आदि से ही समाप्त नहीं हो जाती। सिख का संपूर्ण जीवन ही दूसरों की सेवा में व्यतीत होना चाहिए।
  30. प्रत्येक सिख को पाँच कक्कार केश, कंघा, कच्छा, कड़ा एवं कृपाण धारण करनी चाहिए।
  31. ये चार कुरीतियां नहीं करनी चाहिएँ—
    • केशों की बेअदबी।
    • कुट्ठा खाना
    • पर स्त्री-पुरुष का गमन
    • तंबाकू का प्रयोग।
      यदि इनमें से कोई आज्ञा भंग हो जाए तो उसे पुनः अमृत छकना पड़ेगा।।
  32. जिस सिख से रहित संबंधी कोई भूल हो जाए तो वह निकट के गुरुद्वारे में जाकर संगत के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करे।
  33. गुरुमत्ता केवल उन प्रश्नों पर ही हो सकता है जो सिख धर्म के प्रारंभिक सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हों। यह गुरमत्ता केवल गुरु पंथ द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सभा अथवा संगत द्वारा पास किया जा सकता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 3.
मूल मंत्र की व्याख्या करें। मूल मंत्र गुरु-ग्रंथ साहिब में किस स्थान पर अंकित है ?
(Explain the Mul Mantra. Where is the Mul Mantra placed in the Guru Granth Sahib ?)
अथवा
मूल मंत्र की व्याख्या करते हुए सिख धर्म में परम सत्ता की एकता के सिद्धांत को स्पष्ट करें।
(Explain the Sikh doctrine of unity of God while discussing Mul Mantra.)
अथवा
सिख धर्म में एकेश्वरवाद से क्या भाव है ? मूल मंत्र का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(What is meant by Monotheism in Sikhism ? Give a brief account of Mul Mantra.)
अथवा
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the concept of Akal Purkh (God) in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म में ‘मूल मंत्र’ क्या है ? व्याख्या करें। .
(What is the ‘Mul Mantra’ in Sikhism ? Explain.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं : १ ओंकार सतनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि ॥ जपु॥ आदि सच्चु जुगादि सच्चु है भी सच्चु नानक होसी भी सच्चु ॥ इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरुख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह है-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह अपनी सृष्टि में मौजूद है। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी पर ही निर्भर करता है, वह डर एवं ईर्ष्या से मुक्त है। उस पर काल का प्रभाव नहीं होता। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसका प्रकाश अपने आपसे है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। अकाल पुरुख के स्वरूप का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है :—

1. ईश्वर एक है (God is One)-गुरुवाणी में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि ईश्वर एक है यद्यपि उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। सिख परंपरा के अनुसार मूल मंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘एक ओ अंकार’ है वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। वह ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन पोषण करता है तथा उसका विनाश कर सकता है। इसी कारण कोई भी पीर, पैगंबर, अवतार, औलिया, ऋषि तथा मुनि इत्यादि उसका मुकाबला नहीं कर सकते। ये सभी उस ईश्वर के दरबार में एक भिखारी की तरह हैं। ईश्वर के सामने उनका दर्जा उसी प्रकार है जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम तथा कृष्ण इत्यादि हज़ारों तथा लाखों हैं, किंतु ईश्वर एक है। अतः गुरवाणी में एक ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य देवीदेवता की पूजा को वर्जित किया गया है। गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

सदा सदा सो सैविए जो सभ महि रिहा समाए॥
अवर दूजा किउं सैविए जन्मे ते मर जाए॥

2. निर्गुण तथा सर्गुण (Nirguna and Sarguna)-ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है तथा सर्गुण भी। सर्वप्रथम संसार में चारों ओर अंधकार था। उस समय कोई धरती अथवा आकाश जीव-जंतु इत्यादि नहीं थे। ईश्वर अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसके एक हुकम के साथ ही यह धरती, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, पर्वत, दरिया, जंगल, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा फूल इत्यादि अस्तित्व में आ गए। इस प्रकार ईश्वर ने अपना रूपमान (प्रकट) किया। इन सब में उसकी रोशनी देखी जा सकती है। यह ईश्वर का सर्गुण स्वरूप है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बाजीगर जैसे बाजी पाई॥ नाना रूप भेख दिखलाई॥
सागु उतार थामिउ पसारा॥ तब ऐको एक ओ अंकारा॥

3. रचयिता, पालनकर्ता तथा नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)—ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और उसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना से पूर्व कोई धरती, आकाश नहीं थे तथा चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था। केवल ईश्वर का हुक्म (आदेश) चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके हुक्म के अनुसार ही संपूर्ण विश्व चलता है। ईश्वर ही सभी जीव-जंतुओं को रोजी-रोटी देता है तथा उनका पालनकर्ता है। ईश्वर की जब इच्छा हो तो वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

आपीन्है आपु साजिओ आपीन्है रचिओ नाउ॥
दुयी कुदरित साजीऐ करि आसणु डिठो चाउ॥
दाता करता आपि तूं तुसि देवहि करहि पसाउ॥
तूं जाणोई सभसै दे ले सहि जिंदु कवाउ॥
करि आसणु डिठो चाउ॥

4. सर्वशक्तिमान (Sovereign)—ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह जो चाहता है वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। वह अपनी शक्तियों के लिए किसी पर भी आश्रित नहीं है। उसे किसी भी सहायता की आवश्यकता नहीं। वह स्वयं सभी का सहारा है। उसकी सर्वशक्तिमानता के संबंध में गुरवाणी में अनेक स्थानों पर उदाहरण मिलते हैं। वह जब चाहे भिखारी को सिंहासन पर बिठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। धरती-आकाश तथा सभी जीव-जंतु उसके हुक्म का पालन करते हैं। संक्षेप में कोई भी ऐसा कार्य नहीं जिसे वह ईश्वर करने के योग्य न हो।

5. निराकार तथा सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)ईश्वर निराकार है। उसका कोई आकार अथवा रंग रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है। इसके बावजूद वह सर्वव्यापक है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान् है। उसे दिव्य दृष्टि से देखा जा सकता है। उसकी रोशनी सभी में मौजूद है। इसलिए वह सबके निकट है। उसे अपने से दूर न समझो। वह प्रत्येक स्थान पर मौजूद है। गुरु गोबिंद सिंह जी फरमाते हैं,

जलस तूही॥ थलस तूही॥ नदिस तूही॥ नदसु तूही॥
ब्रिछस तूही॥ पतस तूही॥ छितस तूही। उधरसु तूही॥

6. अमर (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान है। यह अस्थिर है। पर ईश्वर अमर है। वह आवागमन, जन्म-मृत्यु तथा समय आदि के चक्रों से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों-लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान् हैं किंतु ईश्वर नहीं।

7. महानता (Greatness)-गुरुवाणी में अनेक स्थानों पर ईश्वर की महानता का वर्णन मिलता है। संसार में उससे बड़ा दानी कोई और नहीं है। उसका धन भंडार इतना है कि बाँटने से भी खाली नहीं होता। वह मनुष्यों को अतुल्य ख़जाने से मालामाल कर सकता है। वह शरण आए महापापियों को क्षमा कर सकता है। उस ईश्वर की महानता के बारे में हज़ारों तथा लाखों भक्तों तथा संतों ने गुणगान किया है। फिर भी यह उसके गुणों के भंडार का एक छोटा-सा भाग ही है। वास्तव में उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसका ज्ञान, उसके उपहार, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महानता का ज्ञाता स्वयं है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

वडी वडिआई जा वडा नाउ॥
वडी वडिआई जा सचु निआउ॥
वडी वडिआई जा निहचल थाउ॥
वडी वडिआई जाणै आलाउ॥
वडी वडिआई बुझै सभि भाउ॥

8. न्यायशील (Just)—ईश्वर न्यायशील भी है। उसके दरबार में सभी को बिना किसी मतभेद के निष्पक्ष न्याय मिलता है। संसार के न्यायालयों में भ्रष्ट ढंग से अथवा उच्च पदों के अधिकारों का प्रयोग कर मनुष्य अपने पापों की सज़ा से बच सकता है, किंतु उस ईश्वर के न्यायालय में नहीं। वह मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों को भली-भांति जानता है। इसलिए उसे किसी पड़ताल की आवश्यकता नहीं। वहाँ केवल सच्चाई से निपटारा होता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 4.
नाम जपना, किरत करनी तथा बाँटकर छकना सिख धर्म के बुनियादी नियम हैं। व्याख्या करें।
(Remembering Divine Name, Honest Labour and Sharing With the Needy are the basis of the Sikh Way of Life. Discuss.)
अथवा
किरत करो, नाम जपो तथा बाँटकर छक्को के महत्त्व पर प्रकाश डालें। (Throw light on the importance of Kirat Karo, Nam Japo and Wand Chhako.)
अथवा
सिख धर्म में जीवन जाँच के निम्नलिखित आवश्यक अंश हैं—
(क) नाम जपना
(ख) किरत करना
(ग) बाँट कर छकना।
[Following are the necessary elements of life in Sikhism,
(a) Remembering Divine Name
(b) Honest Labour
(c) Sharing with the Others.]
अथवा
नाम जपना, किरत करना तथा बाँटकर छकना पर नोट लिखो।
(Write notes on the following : Nam Japna, Kirat-Karna, Wand Chhakna.)
उत्तर-
नाम जपना, किरत करनी तथा बाँटकर छकना सिख धर्म के तीन बुनियादी सिद्धांत हैं। इन्हें यदि सिख धर्म की संपूर्ण शिक्षा का सार कह दिया जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सिख धर्म में प्रत्येक सिख को अपना जीवन इन तीन सिद्धांतों के अनुसार व्यतीत करने की प्रेरणा दी गई है। इन सिद्धांतों से क्या भाव है तथा उनका क्या महत्त्व है इसका संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है :—

1. नाम जपना (Remembering Divine Name) सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

माउ तेरा निरंकारु है नाइं लइए नरकि न जाईए॥
गुरु तेग़ बहादुर जी फरमाते हैं,
गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीन॥
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास॥

2. किरत करनी (Honest Labour)-किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीवजंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता। ऐसा व्यक्ति वास्तव में उस परमात्मा के विरुद्ध गुनाह करता है। गुरु नानक देव जी स्वयं कृषि का कार्य करके अपनी किरत करते थे। उन्होंने सैदपुर में मलिक भागो का ब्रह्म भोज छकने की अपेक्षा भाई लालो की सूखी रोटी को खुशीखुशी स्वीकार किया। इसका कारण यह था कि भाई लालो एक सच्चा किरती था। सिखों के लिए कोई भी व्यवसाय करने पर प्रतिबंध नहीं। वह कृषि, व्यापार, दस्तकार, सेवा, नौकरी इत्यादि किसी भी व्यवसाय को अपना सकता है। किंतु उसके लिए चोरी, ठगी, डाका, धोखा, रिश्वत तथा पाप की कमाई करना सख्त मना है।

3. बाँट छकना (Sharing with the Needy)-सिख धर्म में बाँट छकने के सिद्धांत को काफी महत्त्व दिया गया है। बाँट छकने से भाव आवश्यक लोगों के साथ बाँटो। सिख धर्म खा कर पीछे बाँटने की नहीं अपितु पहले बाँटकर बाद में खाने की शिक्षा देता है। इसमें दूसरों को भी अपना भाई-बहन समझने तथा उन्हें पहले बाँटने की प्रेरणा दी गई है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

घालि खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राह पछाणे सेइ॥

दान देने अथवा बाँट के खाने के लिए केवल वही व्यक्ति सफल है जो श्रम की कमाई करके दान देता है। सिख धर्म में दसवंध देने का हुक्म है। इससे भाव यह है कि आप अपनी कमाई (आय) का दसवाँ हिस्सा लोक कल्याण कार्यों के लिए खर्च करें। गुरु अर्जुन देव जी ने कहा है,

ददा दाता एक है, सभ को देवनहारु॥
देदे तोटि न आवइ, अगनत भरे भंडार॥

प्रश्न 5.
सिख धर्म में संगत का महत्त्व दर्शाएँ।
(Explain the importance of Sangat in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार ‘संगत’ के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the Concept of Sangat in Sikhism.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

प्रश्न 6.
सिख धर्म में पंगत का महत्त्व दर्शाएँ।
(Explain the importance of Pangat in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म में पंगत के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the Concept of Pangat in Sikhism.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।

गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

प्रश्न 7.
सिख जीवनयापन की पद्धति में ‘संगत’ तथा ‘पंगत’ के महत्त्व के विषय में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of ‘Sangat’ and ‘Pangat’ in the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म में ‘संगत’ तथा ‘पंगत’ (पंक्ति) से क्या अभिप्राय है ? चर्चा कीजिए।
(What is meant by the Concept of ‘Sangat and Pangat’ in Sikhism ? Discuss.)
अथवा
सिख जीवन जाँच में संगत और पंगत के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the importance of Sangat and Pangat in Sikh Way of Life.) 14
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।
गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 8.
सिख धर्म में हवम संकल्प का वर्णन करें।
(Describe the Concept of Hukam in Sikhism.)
उत्तर-
हुक्म सिख दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण संकल्प है। हुक्म अरबी भाषा का शब्द है जिसके अर्थ है आज्ञा, फरमान अथवा आदेश। गुरुवाणी में अनेक स्थानों पर उस परमात्मा के हुक्म को मीठा करके मानने को कहा गया है। हुक्म से भाव उस परम विधान से है जिसके अनुसार संपूर्ण विश्व एक विशेष विधि के अनुसार कार्य कर रहा है।
गुरु नानक देव जी ‘जपुजी’ में लिखते हैं कि संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति परमात्मा के हुक्म के अनुसार हुई है। हुक्म के कारण ही जीव को प्रशंसा अथवा बदनामी मिलती है। हुक्म के कारण ही वह अच्छे-बुरे बनते हैं तथा दुःखसुख प्राप्त करते हैं। हुक्म के कारण वे पापों से मुक्त हो सकते हैं अथवा वे आवागमन के चक्र में भटकते रहते हैं। उसके हुक्म के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता। वास्तव में सृष्टि की सभी गतिविधियों दिन-रात, जल-धरती, वायु-अग्नि, चंद्रमा-सूर्य, लोक-परलोक पर उसका हुक्म चलता है। गुरु नानक देव जी फरमाते है,

हुकमै आवे हुकमै जाए॥
आगे पाछे हुकम समाए॥

संसार में उस मनुष्य का आना सफल है जिसने उस परमात्मा के हुक्म की पहचान की है। हुक्म को केवल वह मनुष्य पहचान सकता है जिसने हउमै का त्याग कर दिया हो तथा जि में उस परमात्मा के नाम का बसेरा हो। वह मनुष्य जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमगीन घटना को उस परमात्मा का हुक्म समझकर सहर्ष स्वीकार करता है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

जिउ जिउ तेरा हुकम तिवें तिउ हौवणा॥
जह जह रखै आप तह जाए खड़ोवणा॥

हुक्म की पहचान करने वाले मनुष्य पर उस परमात्मा की नदरि होती है। उसे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं होती क्योंकि वह जानता है कि जो कुछ घटित हो रहा है वह उस परमात्मा के अटल हुक्म के अनुसार ही हो रहा है। मनुष्य के अपने हाथों में कुछ भी नहीं है। ऐसे मनुष्य का मन सदैव शाँत रहता है तथा उसकी प्रत्येक प्रकार की तृष्णा समाप्त हो जाती है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

हुकमि मंनिए होवै परवाणु ता खसमै का महलु पाइसी॥
खसमै भावे सो करे मनहु चिंदिआ सो फलु पाइसी॥
ता दरगाह पैंधा जाइसी॥

जो व्यक्ति उस परमात्मा के हुक्म को नहीं मानते वे न केवल इस जन्म में घोर दुःखों का सामना करते हैं, अपितु आवागमन के चक्र में फंसे रहते हैं। उसके हुक्म की अवज्ञा करने वालों को यमदूतों से घोर मार (पिटाई) पड़ती है। ऐसे व्यक्तियों को कभी सुख नहीं मिलता तथा उनका इस संसार में आमा व्यर्थ जाता है। गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

मनमुख अंध करे चतुराई॥
भाणा न मने बहुत दुःख पाई॥
भरमे भूला आवै जावै॥

अत: गुरुवाणी में अपने हउमै का त्याग कर मनुष्य को उस परमात्मा के हुक्म की पालना करने का आदेश दिया गया है, क्योंकि उस परमात्मा का हुक्म अटल है इसलिए उसका पालन करने वाला व्यक्ति ही इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 9.
“अहं दीर्घ रोग है।” कैसे ? इसको दूर करने के क्या उपाय हैं ? (“‘Ego is a deep rooted disease.” How ? What are the means to remove it ?)
अथवा
सिख धर्म में ‘हउमै’ की अवधारणा का वर्णन करो।
(Describe the Concept of Ego in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। इस प्रकार उसका संसार बेटे, बेटियों, भाइयों, भतीजों, बहनों-बहनोइयों, मातापिता, सास-ससुर, जवाई, पति-पत्नी आदि के साथ संबंधित पास अथवा दूर की रिश्तेदारियों तक ही सीमित रहता है। यदि थोड़ी सी अपनत्व की डोर लंबी कर ली जाए तो इस निजी संसार में सज्जन-मित्र भी शामिल कर लिए जाते हैं। परंतु आखिर में इस संसार की सीमा निजी जान पहचान तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। इस निजी संसार की रचना के कारण मनुष्य में हउमै की भावना उत्पन्न होती है और वह अपने आपको इस आडंबर का मालिक समझने लगता है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता। हउमै के प्रभाव में जीव क्या-क्या करता है ? इसका उत्तर गुरु नानक देव जी देते हैं कि जीव के सारे कार्य हऊमै के बंधन में बंधे होते हैं। वह हउमै में जन्म लेता है, मरता है, देता है, लेता है, कमाता है, गंवाता है, कभी सच बोलता है और कभी झूठ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का हिसाब करता है, समझदारी और मूर्खता भी हउमै के तराजू में तौलता है। हउमै के कारण ही वह मुक्ति के सार को नहीं जान पाता। यदि वह हऊमै को जान ले तो उसे परमात्मा के दरबार के दर्शन हो सकते हैं। अज्ञानता के कारण मनुष्य झगड़ता है। कर्म के अनुसार ही लेख लिखे जाते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ॥
हउ विचि जंमिआ हउ विचि मुआ॥
हउ विचि दिता हउ विचि लइआ॥
हउ विचि खोटआ हउ विचि गइआ॥
हउ विचि सचिआरु. कूड़िआरु ॥
हउ विचि पाप पुनं वीचारु ॥
हउ विचि नरकि सुरगि अवतारु॥
हउ विचि हसे हउ विचि रोवै॥
हउ विचि भरीऐ हउ विचि धोवै॥
हउ विचि जाती जिनसी खोवै॥
हउ विचि मूरखु हउ विचि सिआणा॥
मोख मुकति की सार न जाणा॥
हउ विचि माइआ हउ विचि छाइआ॥
हउमै करि करि जंत उपाइया।
ह उमै बूझै ता दरु सूझै ॥
गिआन विहणा कथि कथि लूझै॥
नानक हुक मी लिखीए लेखु॥
जेहा वेखहि तेहा वेखु॥

हउमै के कारण मनुष्य के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। परिणामस्वरूप उसकी आत्मा दुःखी होती है। इसका मनुष्य को तब पता चलता है जब वह वृद्ध हो जाता है। उस समय मनुष्य की सभी इंद्रियां जवाब दे चुकी होती हैं। जिन्हें अपना मानकर उसने कई पाप किये होते हैं तथा जिन पर उसके कई अहसान होते हैं वे ही उससे मुख । मोड़ लेते हैं। परिणामस्वरूप उसे भारी आघात पहुँचता है तथा वह अपने किए पर पछताता है। परन्तु अब वह कुछ . करने योग्य नहीं रह जाता और उसे चारों तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आने लगता है।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-इलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले इसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्म मंथन करना, वैराग्य अपनाना, सेवा, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार, आदि ऐसे साधन हैं जिन पर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि॥
किरपा करे जे आपणी ता गुरु का सबदु कमाहि॥
नानकु कहै सुणहु जनहु इतु संजमि दुख जाहि॥

जब तक मनुष्य के अंदर हउमै है वह ‘नाम’ के महत्त्व को पहचान नहीं सकता और वह भक्त नहीं बन सकता। ये दोनों एक ही स्थान पर इकट्ठा नहीं रह सकते। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥
ह उमै सेव न होवई ता मन विरथा जाहि॥
हर चेत मन मेरे तु गुर का शब्द कमाहि ॥
हुकमि मनहि ता हरि मिले ता विचहु हउमै जाहि॥ रहाउ॥

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 10.
सिख धर्म में सिमरन का महत्त्व बयान करें। (Describe the importance of Simran in Sikhism.)
अथवा
सिमरन से क्या भाव है ? इसके क्या लाभ हैं ?
(What is meant by Simran ? What are its benefits ?)
अथवा
सिख धर्म के नाम के संकल्प पर नोट लिखें।
(Write a note on the Concept of Nam in Sikhism.)
उत्तर-
सिमरन अथवा नाम सिख दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है। गुरु ग्रंथ साहिब में नाम के गुणगान का वर्णन अनेक स्थानों पर किया गया है। उस ‘परमात्मा’ की प्राप्ति के लिए नाम ही सबसे बढ़िया साधन है। नाम की कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती क्योंकि यह बेअंत, अगम, अथाह तथा अमोलक है।
मनुष्य के पाँच शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार उसके व्यक्तित्व में नकारात्मक रुचियों को जन्म देते हैं। ये मनुष्य को उसके वास्तविक उद्देश्य से भटका कर उसे ऐश्वर्य, स्वाद तथा आनंद में मग्न रखते हैं। समय के साथ इन रुचियों के प्रति उत्साह कम हो जाता है। अतः इन्हें झूठ का प्रसार कहा जाता है। किंतु ये पाँच शत्रु मनुष्य के अंदर एक ऐसी अग्नि उत्पन्न करते हैं जिसमें अंततः वह भस्म हो जाता है। इस प्रकार संसार में उसका आना निष्फल हो जाता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

कूड़ि कूड़े नेह लगा विसरिआ करतारु॥
किसु नालि काचै दोसती सभु जगु चलणहारु ॥
कूड़ि मिठा कूड़ि माखिउ कूड़ि डोबे पुरु॥
नानकु वखाणे बेनती तुधु बाझ कूड़ो कुड़ि॥

नाम की आराधना के साथ जहां मन के दुर्भाव दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल भी हो जाता है। अतः मनुष्य के शारीरिक कष्ट भी दूर हो जाते हैं। वास्तव में नाम के जाप द्वारा व्यक्ति उस ऊँची अवस्था में पहुँच जाता है जहाँ उसे शारीरिक भूख तथा संसार के साथ लगाव नहीं रहता। नाम सिमरनि के साथ कई जन्मों की मन को लगी मैल उतर जाती है। मनुष्य के सभी दुःखों का नाश हो जाता है। उसके सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। आत्मा पर पड़ा माया का पर्दा हट जाता है तथा वह अपने वास्तविक रूप में प्रगट हो जाती है। अत: गुरुवाणी में मनुष्य को प्रत्येक प्रकार की चतुराई को त्याग कर उस परमात्मा के नाम का सहारा लेने पर बल दिया गया है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै।
प्रभ कै सिमरनि दुख जम् नसै॥
प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै॥
प्रभ कै सिमरनि दुश्मनु टरै ॥
प्रभ सिमरनि कछु विघन न लगै॥
प्रभ के सिमरनि अनदिन जागै॥
प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै॥
प्रभ के सिमरनि दुखु न संतापै।।
प्रभ कै सिमरनि साध के संगि॥
सरब निधान नानक हरि रंगि॥

उस परमात्मा के नाम का जाप करने वाला मनुष्य कभी भी किसी पर बोझ नहीं बनता। उसके सभी कार्य स्वयं होते चले जाते हैं क्योंकि परमात्मा स्वयं उसके कार्यों में सहायक होता है। नाम का जाप करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कंवल के फूल की भांति रहती है। वह जीव इस भवसागर से तर जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। परमात्मा के दरबार में ऐसे मनुष्य उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु॥
सणिणे अठसठि का इसनानु॥
सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु॥
सुणिए लागै सहजि धिआनु॥
नानक भगता सदा विगासु॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु॥

उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि (कृपा) हो। नाम के जाप के लिए मन को नियंत्रण में रखना, हउमै को दूर करना, नम्रता तथा सेवा आदि गुणों को धारण करना आवश्यक है। अतः नाम के जाप को गुरुवाणी में एक जीवन जाँच कहा गया है।
नाम के जाप के बिना मानव जीवन धिक्कार है। ऐसा मानव एक गधे की भांति मों जैसी बातें करता है। वह घोर कष्ट सहन करता है। वे यमलोक में जाते हैं। उन्हें यमदूतों की मार से कोई नहीं बचा सकता। उनके मुख भयावह लगते हैं। ऐसे निम्न मनुष्य का संसार में आना व्यर्थ है। फरीद जी फरमाते हैं,

फरीदा तिना मुख डरावणै जिना विसारिउ नाउ॥
ऐथे दुःख घणेरिआ अगै ठउर न ठाऊ ॥

गुरु तेग बहादुर जी फरमाते हैं कि आवागमन के चक्र में घूमते अनेक युगों के पश्चात् मानव का जीवन प्राप्त हुआ है। इस जन्म में अब परमात्मा से मिलाप की बारी है तो हे मानव तुम उस परमात्मा का नाम क्यों नहीं जपते ?

फिरत-फिरत बहुते युग हारिओ मानस देह लही॥
नानक कहत मिलन की बरिआ सिमरत कहा नहीं॥

प्रश्न 11.
सिख धर्म में ‘गुरु’ का क्या महत्त्व है ? वर्णन करें। (What is the importance of ‘Guru’ in Sikhism ? Explain.)
उत्तर-
सिख धर्म में गुरु को विशेष महत्त्व प्राप्त है। सच्चे गुरु की शक्ति अपार है। वह लंगड़ों को पर्वत पर चढ़ने की शक्ति प्रदान कर सकता है। वह अन्धों को त्रिलोक के दर्शन करवा सकता है। वह कीड़ी को हाथी जैसा बल दे सकता है। वह घोर अहंकारी को नम्रता का पुजारी बना सकता है। वह कंगाल को लखपति तथा लखपति को कंगाल बना सकता है। वह मुर्दे को जीवित कर सकता है। वह डूबते हुए पत्थरों को तैरा सकता है भाव वह हर असम्भव कार्य को सम्भव बना सकता है। गुरु बेसहारों का सहारा, अनाथों का नाथ तथा सदैव साथ रहने वाला है। वह मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले कर आता है। उसके बिना विश्व में फैले अज्ञानता के अंधकार को सहस्रों चंद्रमा तथा हज़ारों सूर्यों का प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता। गुरु अंगद देव जी फरमाते हैं,

जे सउ चंदा उगवहि सूरज चडहि हजार॥
एते चानण होदिआं गुरु बिन घोर अंधार॥

गुरु की पारस छोह मनुष्य को दैवी गुणों से भरपूर कर सकती है। गुरु का नाम लेने से विष अमृत बन जाता है। वह मनुष्य के मन में उत्पन्न कई जन्मों की मैल को पलक झपकते ही दूर कर सकता है। उसके मिलाप के साथ जीवन में प्रसन्नता आ जाती है तथा मन पर स्वयं नियंत्रण हो जाता है। मनुष्य के सभी कार्य अपने आप सफल हो जाते हैं। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

लख खुशीयां पातशाहीयां जे सतगुरु नदरि करे॥
निमख एक हर नामि दे मेरा मन तन सीतल होय॥

सिख धर्म में देहधारी गुरु पर विश्वास नहीं किया जाता क्योंकि वह सर्व कला संपूर्ण नहीं हो सकता। सच्चा गुरु परमात्मा स्वयं है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

आपे करता पुरुख विधाता॥ जिन आपे आप उपाए पछाता॥
आपे सतिगुरु आपे सेवक आपे सृष्टि उपाई है ॥

सच्चा गुरु एक ऐसा पुरुष है जिसके सामने चुगली एवं प्रशंसा एक जैसे होते हैं। उसका हृदय ब्रह्म ज्ञान का भंडार होता है। वास्तव में वह उस परमात्मा की सभी शक्तियों का स्वामी होता है। वह आत्मिक रूप से इतना ऊँचा होता है कि उसका अंत नहीं पाया जा सकता। वास्तव में सच्चे गुरु के अंदर परमात्मा के सभी गुण मौजूद होते हैं। इसी कारण सच्चे गुरु से मिलन मनुष्य के जीवन की काया पलट सकता है।
सच्चे गुरु का एक लक्षण यह भी है कि वह अपनी पूजा कभी नहीं करवाता क्योंकि उसे किसी प्रकार का कोई लालच नहीं होता। वह सदैव निरवैर रहता है। दोस्त तथा दुश्मन उसके लिए एक हैं। अगर कोई आलोचक भी उसकी शरण में आ जाए तो वह उसे भी माफ कर देता है। इसके अतिरिक्त वह कभी भी किसी का बुरा नहीं चाहता। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

सतिगुरु मेरा सदा सदा न आवे न जाए॥
उह अविनासी पुरुख है सब महि रिहा समाए॥

अज्ञानी गुरु के मिलाप से कभी भी जीवन के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह स्वयं अज्ञानता के अंधकार में भटक रहा होता है। सच्चे गुरु के साथ मिलाप तभी संभव है अगर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो। उसे शब्द के द्वारा जाना जा सकता है।

प्रश्न 12.
सिख धर्म में ‘कीर्तन’ संकल्प का वर्णन करें। (Discuss the Concept of ‘Kirtan’ in Sikhism.)
उत्तर-
सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है।
सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। उन्होंने अपनी यात्राओं के समय भाई मर्दाना जी को साथ रखा जो कीर्तन के समय रबाब बजाता था। गुरु नानक देव जी कीर्तन करते हुए अपने श्रद्धालुओं के मनों पर जादुई प्रभाव डालते थे। परिणामस्वरूप न केवल सामान्यजन अपितु सज्जन ठग, कोड्डा राक्षस, नूरशाही जादूगरनी, हमजा गौस तथा वली कंधारी जैसे कठोर स्वभाव के व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना न रह सके एवं आपके शिष्य बन गए। कीर्तन की इस प्रथा को शेष 9 गुरुओं ने भी जारी रखा। गुरु हरगोबिंद साहिब ने कीर्तन में वीर रस उत्पन्न करने के उद्देश्य से ढाडी प्रथा को प्रचलित किया।

प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है। इससे मनुष्य का सोया हुआ मन जाग उठता है, उसके दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं एवं कई जन्मों की मैल दूर हो जाती है। वह हरि नाम में लीन हो जाता है। मानव का मन निर्मल हो जाता है। उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठती है तथा उसका लोकपरलोक सफल हो जाता है। इस कारण कीर्तन को निरमोलक (अमूल्य) हीरा कहा जाता है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुरु दुआरे हरि कीर्तन सुणिए॥
सतिगुरु भेटि हरि जसु मुख भणिए।
कलि क्लेश मिटाए सतगुरु ॥
हरि दरगाह देवे माना है ॥

कीर्तन का गायन करने से अथवा इसके सुनने का सम्मान केवल उन मनुष्यों को प्राप्त होता है जिस पर उस परमात्मा की मिहर हो। उसकी मिहर के बिना न तो मानव को सांसारिक कार्यों से समय मिलता है तथा यद्यपि वह कभी कीर्तन में सम्मिलित भी होता है तो उसका मन नहीं लगता। कीर्तन से मनुष्य के सभी प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

हरि दिन रैन कीर्तन गाइए॥
बहु र न जौनी पाइए॥

प्रश्न 13.
सिख जीवनचर्या में सेवा की भूमिका के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the role of Seva in the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म में ‘सेवा’ के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
(Discuss the importance of ‘Seva’ in Sikhism.)
अथवा
सिख जीवन जाच में सेवा का महत्त्व दर्शाइए।
(Describe the importance of Sewa (Service) in Sikh way of life.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, पानी पिलाना, लंगर आदि ही संमिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को अपनी हउमै का त्याग कर परमात्मा को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। सेवा संबंधी गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

तेरी सेवा सो करहे जिस न लैहि तू लाई॥
बिनु सेवा किन्हें न पाइआ दूजे भरम खुआई॥

सिख इतिहास में अनेकों ऐसी उदाहरणें हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जिसने सेवा की वह गुरु घर का स्वामी बन गया, किंतु जिसमें हउमै आ गई उसे कुछ प्राप्त न हुआ। भाई लहणा जी द्वारा की गई गुरु नानक देव जी की अथक सेवा के कारण ही उन्हें गुरु अंगद का सम्मान प्राप्त हुआ! अमरदास जी यद्यपि आयु में बहुत बड़े थे किंतु फिर भी उन्होंने गुरु अंगद देव जी की इतनी सेवा की कि उन्हें न केवल गुरुगद्दी ही सौंपी गई अपितु उन्हें “निथावियाँ दी थां” (भाव जिसका कोई आश्रय नहीं है उनका सहारा) कह कर सम्मानित किया गया। दूसरी ओर श्रीचंद, दातू एवं दासू, पृथी चंद इत्यादि गुरु साहिबान के पुत्र होने के बावजूद सेवा के बिना गुरुगद्दी से वंचित रहे। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
मन बेचे सतिगुरु के पास ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निह कामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

मानव सेवा को ही उस परमात्मा की सेवा का सर्वोत्तम रूप समझा गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के समय लड़ी गई आनंदपुर की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों की बिना किसी भेदभाव के जल सेवा की तथा उनके जख्मों पर मरहम-पट्टी की। पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते हैं। भाई कन्हैया जी द्वारा यह सच्ची भावना से की गई सेवा आज भी सिखों के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य कर रही है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

आप गवाहि सेवा करे ता किछ पाए मानु॥
नानक जिस नो लगा तिस मिलै लगा सो परवानु॥

गुरमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरंतर भाग है। यह एक दिन अथवा दो दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अंदर झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 14.
सिख जीवन जाच के अनुसार सेवा और सिमरन का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें।
(As per Sikh Way of Life what is the importance of Seva and Simarn? Elucidate.)
अथवा
सिख जीवन जाच में सेवा व सिमरन का महत्त्व दर्शाएं।
(Describe the importance of Seva and Simran in Sikhism.).
उत्तर-
उत्तर-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, पानी पिलाना, लंगर आदि ही संमिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को अपनी हउमै का त्याग कर परमात्मा को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। सेवा संबंधी गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

तेरी सेवा सो करहे जिस न लैहि तू लाई॥
बिनु सेवा किन्हें न पाइआ दूजे भरम खुआई॥

सिख इतिहास में अनेकों ऐसी उदाहरणें हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जिसने सेवा की वह गुरु घर का स्वामी बन गया, किंतु जिसमें हउमै आ गई उसे कुछ प्राप्त न हुआ। भाई लहणा जी द्वारा की गई गुरु नानक देव जी की अथक सेवा के कारण ही उन्हें गुरु अंगद का सम्मान प्राप्त हुआ! अमरदास जी यद्यपि आयु में बहुत बड़े थे किंतु फिर भी उन्होंने गुरु अंगद देव जी की इतनी सेवा की कि उन्हें न केवल गुरुगद्दी ही सौंपी गई अपितु उन्हें “निथावियाँ दी थां” (भाव जिसका कोई आश्रय नहीं है उनका सहारा) कह कर सम्मानित किया गया। दूसरी ओर श्रीचंद, दातू एवं दासू, पृथी चंद इत्यादि गुरु साहिबान के पुत्र होने के बावजूद सेवा के बिना गुरुगद्दी से वंचित रहे। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
मन बेचे सतिगुरु के पास ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निह कामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

मानव सेवा को ही उस परमात्मा की सेवा का सर्वोत्तम रूप समझा गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के समय लड़ी गई आनंदपुर की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों की बिना किसी भेदभाव के जल सेवा की तथा उनके जख्मों पर मरहम-पट्टी की। पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते हैं। भाई कन्हैया जी द्वारा यह सच्ची भावना से की गई सेवा आज भी सिखों के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य कर रही है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

आप गवाहि सेवा करे ता किछ पाए मानु॥
नानक जिस नो लगा तिस मिलै लगा सो परवानु॥

गुरमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरंतर भाग है। यह एक दिन अथवा दो दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अंदर झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित सिख जीवन के सिद्धांतों के ऊपर नोट लिखो :
(क) हउमै
(ख) सेवा
(ग) जात-पात।
[Write brief notes on the following Principles of Sikh Way of Life :
(a) Humai (Ego)
(b) Seva (Service)
(c) Jat-Pat (Caste)]
उत्तर-
(क) हउमै (Haumai)-सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

(ख) सेवा (Seva)-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

(ग) जात-पात (Caste)-गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रश्न 16.
सिख धर्म में भाईचारा की अवधारणा’ के विषय में चर्चा कीजिए। (Discuss the Concept of ‘Brotherhood’ in Sikhism.)
उत्तर-
उत्तर-संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।
गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

जात-पात (Caste)-गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 17.
निम्नलिखित पर नोट लिखो :
(1) हउमै
(2) गुरु
(3) जप
(4) सेवा।
[Write note on the following :
(1) Egoity
(2) Guru
(3) Jap
(4) Seva.]
उत्तर-
हउमै (Haumai)-सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

2. गुरु (Guru)-सिख दर्शन में गुरु को विशेष स्थान प्राप्त है। सिख गुरु साहिबान परमात्मा तक पहुंचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वह ही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

बिनु सतिगुरु किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।
सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ॥
सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ॥
उतमु एह बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥
जग जीवनु दाता पाइआ॥

3. नाम जपना (Remembering Divine Name) सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

माउ तेरा निरंकारु है नाइं लइए नरकि न जाईए॥
गुरु तेग़ बहादुर जी फरमाते हैं,
गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीन॥
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास॥

4. सेवा (Seva)-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

प्रश्न 18.
सिख धर्म के निम्न संकल्पों के बारे में जानकारी दें।
(क) हउमै
(ख) सेवा
(ग) गुरु
[Write about the following concepts.
(a) Haumai
(b) Sava (Service)
(c) Guru.]
उत्तर-
(क) हउमै (Haumai)—सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

(ख) सेवा (Seva)—सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

(ग) गुरु (Guru)—सिख दर्शन में गुरु को विशेष स्थान प्राप्त है। सिख गुरु साहिबान परमात्मा तक पहुंचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वह ही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

बिनु सतिगुरु किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।
सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ॥
सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ॥
उतमु एह बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥
जग जीवनु दाता पाइआ॥

प्रश्न 19.
अमृत संस्कार के बारे में विस्तृत जानकारी दीजिए। (Give a detail account of Amrit Ceremony.)
उत्तर-
सिख पंथ में अमृत को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अमृत छकाने की रस्म शुरू गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। इस प्रथा को चरनअमृत कहा जाता था। यह प्रथा गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तक जारी रही।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस प्रथा को बदल दिया तथा खंडे की पाहुल (अमृत) नामक प्रथा का प्रचलन किया। अमृतपान करना प्रत्येक सिख के लिए आवश्यक है। जो सिख अमृतपान नहीं करता वह सिख कहलाने के योग्य नहीं है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर ने अमृत छकने के लिए निम्नलिखित विधि निर्धारत की है।

(क) अमृत संचार करने के लिए एक खास स्थान पर प्रबंध हो। वहां पर आम रास्ता न हो।
(ख) वहां पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश हो। कम-से-कम छ: तैयार-बर-तैयार सिंह हाज़िर हों जिनमें से एक ताबिया (गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी) और बाकी पाँच अमृतपान करवाने के लिए हों! इनमें सिंहणियाँ भी हो सकती हैं। इन सब ने केश-स्नान किया हो।
(ग) इन पाँच प्यारों में कोई अंगहीन (अँधा, काना, लँगड़ा-लूला) या दीर्घ रोग वाला न हो। कोई तनखाहिया (दंडनीय) न हो। सारे तैयार-बर-तैयार दर्शनी सिंह हों।
(घ) हर देश, हर मज़हब व जाति के हर एक स्त्री-पुरुष को अमृतपान करने का अधिकार है, जो सिख धर्म ग्रहण करे व उसके असलों पर चलने का प्रण करे।
बहुत छोटी अवस्था न हो, होश सभाली हो, अमृतपान करते समय हर एक प्राणी ने केश स्नान किया हो और हर एक पाँच ककार (केश, कृपाण (गातरे वाली) कछैहिरा, कंघा, कड़ा) का धारणकर्ता हो। पराधर्म का कोई चिन्ह न हो। सिर नंगा या टोपी न हो। छेदक गहने कोई न हों। अदब से हाथ जोड़कर श्री गुरु जी के हजूर खड़े हों।
(ङ) यदि किसी ने कुरहित करने के कारण पुनः अमृतपान करना हो तो उसको अलग करके संगत में पाँच प्यारे तनखाह (दंड) लगा लें।
(च) अमृतपान करवाने वाले पाँच प्यारों में से कोई एक सज्जन अमृतपान के अभिलाषियों को सिख धर्म के असूल समझाए।
सिख धर्म में कृतम की पूजा त्याग कर एक करतार की प्रेमाभक्ति व उपासना बताई गई है। इसकी पूर्णता के लिए गुरबाणी का अभ्यास, साध-संगत तथा पंथ की सेवा, उपकार, नाम का प्रेम और अमृतपान करके रहित-बहित रखना मुख्य साधन हैं, आदि। क्या आप इस धर्म को खुशी से स्वीकार करते हो ?
(छ) ‘हाँ’ का उत्तर आने पर प्यारों में से एक सज्जन अमृत की तैयारी का अरदासा करके ‘हुक्म’ ले। पाँच प्यारे अमृत तैयार करने के लिए बाटे के पास आ बैठे।
(ज) बाटा सर्वलौह का हो और चौकी, सुनहिरे आदि किसी स्वच्छ वस्त्र पर रखे हों।
(झ) बाटे में स्वच्छ जल व पतासे डाले जायें और पाँच प्यारे बाटे के इर्द-गिर्द बीर आसन लगा कर बैठ जायें।
(ट) और इन बाणियों का पाठ करें : जपुजी साहिब, जापु साहिब, १० सवैये (स्त्रावग सुध वाले) बेनती चौपई (‘हमरी करो हाथ दै रछा’ से ले कर ‘दुष्ट दोख ते लेहु बचाई’ तक), अनंदु साहिब।
(ठ) हर एक बाणी पढ़ने वाला बाँया हाथ बाटे के किनारे पर रखें और दायें हाथ से खंडा जल में फेरते जाये। सुरति एकाग्र हो। अन्य के दोनों हाथ बाटे के किनारे पर और ध्यान अमृत की ओर टिके।
(ड) पाठ होने के बाद प्यारों में से कोई एक अरदास करे।
(ढ) जिस अभिलाषी में अमृत की तैयारी के समय सारे संस्कारों में हिस्सा लिया है, वही अमृतपान करने में शामिल हो सकता है। बीच में आने वाला शामिल नहीं हो सकता।
(ण) अब श्री कलगीधर दशमेश पिता का ध्यान कर के हर एक अमृतपान करने वाले को बीर आसन करवा कर उसके बाँयें हाथ पर दायाँ हाथ रख कर,

1. बीर आसन : दायाँ घुटना ज़मीन पर रख कर दाईं टाँग का भार पैर पर रख कर बैठना और बायाँ घुटना ऊँचा करके रखना।
पाँच चुल्ले अमृत के छकाये (सेवन) जायें और हर चुल्ले के साथ यह कहा जाये—

‘बोल वाहिगुरु जी का खालसा’ वाहिगुरू जी की फतेह।’

अमृत छकने वाला अमृत छक कर कहे ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’, फिर पाँच छींटे अमृत के नेत्रों पर किए जायें, फिर पाँच छींटे केशों में डाले जायें। हर एक छीटें के साथ छकने वाला छकाने वाले के पीछे ‘वाहिगुरु जी का खालसा वाहिगुरु जी की फतेह’ गजाता जाये। जो अमृत बाकी रहे, उसको सारे अमृत छकने वाले (सिख तथा सिखनियाँ) मिल कर छकें।
(प) उपरांत पाँचों प्यारे मिल कर, एक आवाज़ से अमृत पान करने वालों को ‘वाहिगुरु’ गुरमंत्र बताकर, मूल मंत्र सुनायें और उनसे इसका रटन करवायें।

१ओंकार सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु,
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि॥

(फ) फिर पाँच प्यारों में से कोई रहित बतावे-आज से आपने सतिगुर के जनमे गवनु मिटाइआ है और खालसा पंथ में शामिल हुए हो। तुम्हारा धार्मिक पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी तथा धार्मिक माता साहिब कौर जी हैं। जन्म आपका केसगढ़ साहिब का है तथा वासी आनंदपुर साहिब की है। तुम एक पिता के पुत्र होने के नाते आपस में और अन्य सारे अमृतधारियों के धार्मिक भ्राता हो। तुम पिछली कुल, कर्म, धर्म का त्याग करके अर्थात् पिछली जात-पात, जन्म, देश, मज़हब का विचार तक छोड़कर, निरोल खालसा बन गये हो। एक अकालपुरुख के अतिरिक्त किसी देवी-देवता, अवतार, पैगंबर की उपासना नहीं करनी। दस गुरु साहिबान को तथा उनकी बाणी के बिना और किसी को अपना मुक्तिदाता नहीं मानना। आप गुरमुखी जानते हो (यदि नहीं जानते तो सीख लो) और हर रोज़ कम से कम इन नितनेम की बाणियों का पाठ करना या सुनना जपुजी साहिब, जापु साहिब, 10 सवैये (स्रावग सुद्य वाले) सोदर रहरासि तथा सोहिला श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ करना या सुनना, पाँच ककारों-केश, कृपाण, कछैहरा, कंघा, कड़ा को हर समय अंग संग रखना।
ये चार कुरहितें (विवर्जन) नहीं करने :

  1. शों का अपमान
  2. कुट्ठा खाना।
  3. परस्त्री या परपुरुष का गमन (भोगना)।
  4. तम्बाकू का प्रयोग।

इनमें से कोई कुरहित हो जाये तो फिर अमृतपान करना होगा। अपनी इच्छा के विरुद्ध अभूल हुई कोई कुरहित हो जाये तो कोई दंड नहीं। सिरगम नडी मार (जो सिख होकर यह काम करें) का संग नहीं करना। पंथ सेवा और गुरुद्वारों की टहल सेवा में तत्पर रहना, अपनी कमाई में से गुरु का दसवां (दशांश) देना आदि सारे काम गुरमति अनुसार करने
हैं।
खालसा धर्म के नियमानुसार जत्थेबंदी में एकसूत्र पिरोये रहना, रहित में कोई भूल हो जाये तो खालसे के दीवान में हाज़र हो कर विनती करके तन्ह (दंड) माफ़ करवाना, भविष्य के लिए सावधान रहना।
तनखाहिये (दंड के भागी) ये हैं :

  1. मीणे मसंद, धीरमलिये, रामराइये आदि पंथ विरोधियों या नड़ीमार, कुड़ीमार, सिरगुंम के संग मेल-मिलाप करने वाला तनखाहिया (दंड का भागी) हो जाता है।
  2. गैर-अमृतिये या पतित का जूठा खाने वाला।
  3. दाहड़ा रंगने वाला।
  4. पुत्र या पुत्री का रिश्ता मोल लेकर/देकर करने वाला।
  5. कोई नशा (भाँग, अफ़ीम, शराब, पोस्त, कुकीन आदि) का प्रयोग करने वाला।
  6. गुरमति के विरुद्ध कोई संस्कार करने करवाने वाला।
  7. रहित में कोई भूल करने वाला।

यह शिक्षा देने के उपरांत पाँच प्यारों में सो कोई सज्जन अरदासा करे। फिर गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी बैठा सिंह “हुक्म” ले। जिन्होंने अमृतपान किया है, उनमें से यदि किसी का नाम पहले श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी से नहीं था रखा हुआ, उसका नाम अब बदल कर रखा जाये।
अंत में कड़ाह प्रसाद बाँटा जाये। जहाज़ चढ़े सारे सिंह व सिंहणियां एक ही बाटे में से कड़ाह प्रसाद मिलकर सेवन करें।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 20.
सिख धर्म में अरदास का महत्त्व बयान करें।
[Explain the significance of the Ardaas (Prayer) in Sikhism.]
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है।
सिख धर्म में अरदास की परम्परा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। गुरु अर्जन देव जी के समय अरदास आदि ग्रंथ साहिब के सम्मुख करने की प्रथा आरंभ हुई। गुरु गोबिंद सिंह जी ने संगत के रूप में की जाती अरदास का प्रारंभ किया। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है। सिख इतिहास में इस संबंधी अनेकों उदाहरणें मिलती हैं। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

जो मांगे ठाकुर अपने ते सोई सोई देवे॥
नानक दास मुख ते जो बोले इहा उहा सच होवे॥

अरदास करते समय यदि गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश हो तो संपूर्ण संगत का मुख उस ओर होना चाहिए। यदि प्रकाश न हो तो किसी भी दिशा की ओर मुख करके अरदास की जा सकती है। अरदास करते समय मन की एकाग्रता का होना अति आवश्यक है। यदि हमारा ध्यान अरदास में नहीं तो चाहे हम हाथ जोड़ के खड़े हों उसका कोई लाभ नहीं। इसलिए अरदास में सम्मिलित होने वाली संगत को सावधान करने के लिए अरदास करने वाले भाई जी बार-बार यह कहते हैं “ध्यान करके बोलो जी वाहिगुरु'” संपूर्ण संगत उच्चे स्वर में “वाहिगुरु” का उच्चारण करती है। कीर्तन अथवा दीवान की समाप्ति के समय संपूर्ण संगत खड़ी होती है। यदि अरदास किसी विशेष उद्देश्य जैसे नामकरण, मंगनी एवं विवाह इत्यादि के लिए हो तो सम्पूर्ण संगत बैठी रहती है तथा संबंधित प्राणी ही खड़े होते हैं।

सिख धर्म में अरदास का आश्रय प्रत्येक सिख अवश्य लेता है। अरदास के मुख्य विषय यह हैं (1) उस परमात्मा के शुक्राने के तौर पर अरदास (2) नाम के लिए अरदास (3) वाणी की प्राप्ति के लिए अरदास (4) पापों का नाश करने के लिए अरदास (5) अपने पापों को बख्शाने के लिए अरदास (6) बच्चे के जन्म के शुक्राने के तौर पर की गई अरदास (7) बच्चे के नाम संस्कार के समय अरदास (8) बच्चे की शिक्षा आरंभ करते समय अरदास (9) मंगनी अथवा विवाह की अरदास (10) बच्चे की प्राप्ति के लिए अरदास (11) कुशल स्वास्थ्य के लिए अरदास (12) भाणा (हुक्म) मानने के लिए अरदास (13) यात्रा आरंभ करने के लिए अरदास (14) नया व्यवसाय आरंभ करते समय अरदास (15) नये घर में प्रवेश करते समय अरदास (16) नितनेम के पश्चात् अरदास (17) कीर्तन अथवा दीवान समाप्ति के पश्चात् अरदास (18) अमृतपान करवाते समय की गई अरदास (19) धर्म युद्ध आरंभ करते समय अरदास (20) परमात्मा से मिलन के लिए अरदास । गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

कीता लोडीए कम सो हर पहि आखिए॥
कारज देहि सवारि सतगुरु सच साखिए॥

संक्षेप में जीवन के प्रत्येक मोड़ पर अरदास का आश्रय लिया जाता है। विद्यार्थियों की जानकारी के लिए यहां शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा मान्यता प्राप्त अरदास का स्वरूप दिया जा रहा है :—
अरदास

१ओंकार वाहिगुरु जी की फतहि ॥
श्री भगौती जी सहाइ॥
वार श्री भगौती जी की पातशाही १०॥

प्रिथम भगौती सिमरि कै गुरु नानक लई धिआइ।
फिर अंगद गुर ते अमरदासु रामदासै होईं सहाइ।
अरजन हरगोबिंद नो सिमरौ श्री हरिराय।
श्री हरिक्रिशन धिआईऐ जिस डिठे सभि दुखि जाइ।
तेग़ बहादर सिमरिऐ घर नउ निधि आवै धाइ।
सभ थाईं होई सहाइ।
दसवें पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी !
सब थाईं होई सहाइ। ,
दसां पातशाहीयां की ज्योति स्वरूप श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के
पाठ दीदार का ध्यान धर कर बोलो जी वाहिगुरु!
पाँच प्यारों, चार साहिबजादों, चालीस मुक्तों,
हठियों, जपियों, तपियों जिन्होंने नाम जपा,
बांट खाया, देग चलाई, तेग वाही, देख कर अनडिठ किया,
तिनां प्यारियां सचिआरियां दी कमाई दा ध्यान धर कर
खालसा जी! बोलो जी वाहिगुरु !
जिन सिंह सिंहनियों ने धर्म हेतु सीस दिये,
अंग अंग कटवाए, खोपड़िआँ उतरवाईं, चर्खियों पर चढ़ाए गये,
आरों से तन चिरवाए,
गुरुद्वारों के सुधार और पवित्रता के निमित्त शहीद हुए, धर्म नहीं छोड़ा, सिख धर्म का केशों तथा
प्राणों सहित पालन किया,
उनकी कमाई का
ध्यान धर कर खालसा जी ! बोलो वाहिगुरु !
पाँचों तखतों, समूह गुरद्वारों का
ध्यान धर कर बोलो जी वाहिगुरु!
प्रथमे सरबत खालसा जी की अरदास है जी
सरबत खालसा जी को वाहिगुरु, वाहिगुरु,
वाहिगुरु चित आवे, चित आवन से
सर्व सुख हो, जहाँ जहाँ खालसा जी साहिब,
तहाँ तहाँ रक्षा रिआइत, देग तेग फतहि,
बिरद की लाज, पंथ की जीत, श्री साहिब जी सहाय,
खालसा जी का बोल बाले, बोलो जी वाहिगुरु!!!
सिखों को सिखी दान, केश दान, रहित दान,
विवेक दान, विसाह दान, भरोसा दान, दानों के सिर दान,
नाम दान, श्री अमृतसर जी के स्नान,
चोंकियाँ, झंडे, बुंगे जुगो जुग अट्टल, धर्म का जयकार
बोलो जी वाहिगुरु !!!
सिखों का मन नीवां, मति ऊची, मति का राखा आप
वाहिगुरु, हे अकाल पुरख! अपने पंथ
के सदा सहाई दातार जी! श्री ननकाणा साहिब तथा
और गुरुद्वारों, गुरधामों के, जिन से पंथ
को विछोड़ा गया है, खले दर्शन दीदार और
सेवा संभाल का दान खालसा जी को बख्शो।
हे नि:मानो के मान, निःताणो के ताण,
निःओटों की ओट, निरासरयों के आश्रय, सच्चे पिता वाहिगुरु !
आप की सेवा में …………… * की अरदास है।
अक्षर मात्रादि भूल चूक क्षमा करना,
सब दे कारज रास करने,
सेई प्यारे मेल, जिनां मिलियां,
तेरा नाम चित आवे।
नानक नाम चढ़दी कला॥
तेरे भाणे सरबत दा भला॥

अरदास का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। इसे पढ़ कर व्यक्ति की आत्मा प्रसन्न हो जाती है। अरदास यद्यपि छोटी है पर इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। वास्तव में यह गागर में सागर भरने वाली बात है। इससे हमें उस परमात्मा की भक्ति, सेवा, कुर्बानी तथा मानवता की भलाई के लिए कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। इससे मन शुद्ध होता है। मनुष्य की हउमै दूर होती है। उसके सभी दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं। मन पर पड़ी अनेक जन्मों की मैल दूर हो जाती है। मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। इस प्रकार अरदास उस परमात्मा से मिलन का एक संपूर्ण साधन है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

जा के वस खान सुलतान ॥
जा के वस हे सगल जहान ॥
जा का किया सब किछ होए ॥
तिस ते बाहर नाही कोए ॥
कहो बेनती अपने सतगुरु पास ॥
काज तुमारे देहि निभाए ॥ रहाउ॥

*यहां उस बाणी का नाम लें, जो पढ़ी है, अथवा जिस कार्य के लिए इकट्ठ या संगत एकत्र हुई हो, उसका उल्लेख उचित शब्दों में कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain in brief the Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिख जीवन जाच में दर्शाए गए संस्कारों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief Sanskaras as depicted in Sikh Way of-Life.)
उत्तर-

  1. एक अकाल पुरख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दाता केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।

प्रश्न 2.
मूलमंत्र की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain the brief the Mul Mantra.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं-एक ओ अंकार सतिनामु करता पुरुखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि॥ जापु॥ इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह हैं-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) की कोई चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [Describe any four features of Akal Purkh (God) in Sikhism.]
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया।
  2. ईश्वर ही संसार को रचने वाला, पालने वाला तथा नाश करने वाला है।
  3. ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी।
  4. ईश्वर आवागमन के चक्र से मुक्त है।

प्रश्न 4.
सिख धर्म में नाम जपने का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Remembering Divine Name in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है।

प्रश्न 5.
किरत करने से क्या अभिप्राय है ? (What is the meaning of Honest Labour ?)
उत्तर-
किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीव-जंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता।

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प्रश्न 6.
सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Sangat in Sikhism ?)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संग्रत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ? चर्चा कीजिए। (What is the importance of Pangat in Sikh Way of life ?)
अथवा
पंगत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Pangat.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली।

प्रश्न 8.
सिख धर्म में संगत व पंगत का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें। (What is the importance of Sangat and Pangat in Sikhism ? Elucidate.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संग्रत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं।

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली।

प्रश्न 9.
सिख धर्म में हुक्म का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Hukam in Sikhism ?)
उत्तर-
हुक्म सिख दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण संकल्प है। ‘हुक्म’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ हैआज्ञा, फरमान तथा आदेश। गुरवाणी में अनेक स्थानों पर परमात्मा के हुक्म को मीठा करके मानने को कहा गया है। गुरु नानक देव जी ‘जपुजी’ में लिखते हैं कि सारे संसार की रचना उस परमात्मा के हुक्म से हुई है। हुक्म से ही जीव को प्रशंसा मिलती है तथा हुक्म से ही जीव दुःख-सुख प्राप्त करते हैं। हुक्म से ही वे पापों से मुक्त होते हैं अथवा वे आवागमन के चक्र में भटकते रहते हैं।

प्रश्न 10.
सिख धर्म में हउमै से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Haumai in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। अगर हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

प्रश्न 11.
“हउमै एक दीर्घ रोग है।” कैसे ? (“Ego is deep rooted disease.” How ?)
उत्तर-
हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।

प्रश्न 12.
गुरु नानक साहिब की शिक्षाओं में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Guru in the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के गुरु सम्बन्धी क्या विचार थे ? (What was the concept of ‘Guru’ of Guru Nanak Dev Ji ?) i
उत्तर-
गुरु नानक साहिब परमात्मा तक पहुँचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ़ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ़ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वे ही नाम और शबद की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है।

प्रश्न 13.
सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Kirtan in Sikhism ?)
अथवा
सिख जीवन जाच में कीर्तन का बहुत महत्त्व है। चर्चा कीजिए। (Kirtan is very important in Sikh Way of life. Explain.)
उत्तर-
सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है। सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है।

प्रश्न 14.
सिख धर्म में सेवा के महत्त्व का वर्णन कीजिए। (Explain the importance of Seva in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, जल पिलाना, लंगर में सेवा आदि ही सम्मिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।

प्रश्न 15.
सिख गुरुओं के जाति बारे क्या विचार थे ? (What were the views of Sikh Gurus regarding caste ?)
अथवा
जाति प्रथा के बारे में गुरु नानक साहिब जी के विचार प्रकट करें। (Describe the views of Guru Nanak Sahib ji regarding caste system.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-जाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया।

प्रश्न 16.
सिख धर्म में अरदास के महत्त्व का वर्णन कीजिए। [Explain the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism.]
अथवा
सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है ? [What is the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism ?]:
अथवा
सिख जीवन जाच में अरदास के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Ardas in Sikh way of life.)
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है। सिख धर्म में अरदास की परंपरा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है।

प्रश्न 17.
सिखों की धार्मिक जीवन पद्धति पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए। (Discuss in brief the Religious Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन जाच की विलक्षणता दर्शाइए।
(Describe the distinction of Sikh Way of Life.)
उत्तर-

  1. सिख अमृत समय जाग कर स्नान करे तथा एक अकाल पुरख (परमात्मा) का ध्यान करता हुआ ‘वाहिगुरु’ का नाम जपे।
  2. नितनेम का पाठ करे। नितनेम की वाणियाँ ये हैं-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपई साहिब एवं 10 सवैये। ये वाणियाँ अमृत समय पढी जाती हैं।
    रहरासि साहिब-यह वाणी संध्या काल समय पढ़ी जाती है।
    सोहिला-यह वाणी रात को सोने से पूर्व पढी जाती है।
    अमृत समय तथा नितनेम के पश्चात् अरदास करनी आवश्यक है।
  3. गुरवाणी का प्रभाव साध-संगत में अधिक होता है। अतः सिख के लिए उचित है कि वह गुरुद्वारे के दर्शन करे तथा साध-संगत में बैठ कर गुरवाणी का लाभ उठाए।
  4. गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश प्रतिदिन होना चाहिए। साधारणतया रहरासि साहिब के पाठ के पश्चात् सुख आसन किया जाना चाहिए।
  5. गुरु ग्रंथ साहिब जी को सम्मान के साथ प्रकाश, पढ़ना एवं संतोखना चाहिए। प्रकाश के लिए आवश्यक है कि स्थान पूर्णतः साफ़ हो तथा ऊपर चांदनी लगी हो। प्रकाश मंजी साहिब पर साफ़ वस्त्र बिछा कर किया जाना चाहिए। गुरु ग्रंथ साहिब जी के लिए गदेले आदि का प्रयोग किया जाए तथा ऊपर रुमाला दिया जाए। जिस समय पाठ न हो रहा हो तो ऊपर रुमाला पड़ा रहना चाहिए। प्रकाश समय चंवर किया जाना चाहिए।
  6. गुरुद्वारे में कोई मूर्ति पूजा अथवा गुरमत के विरुद्ध कोई रीति-संस्कार न हो।
  7. एक से दूसरे स्थान तक गुरु ग्रंथ साहिब जी को ले जाते समय अरदास की जानी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सिर के ऊपर गुरु ग्रंथ साहिब उठाया हो, वह नंगे पाँव होना चाहिए।
  8. गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश अरदास करके किया जाए। प्रकाश करते समय गुरु ग्रंथ साहिब जी में से एक शबद का वाक लिया जाए।
  9. जिस समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की सवारी आए तो प्रत्येक सिख को उसके सम्मान के लिए खड़ा हो जाना चाहिए।

प्रश्न 18.
सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(Explain in brief the Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिख जीवन जाच में दर्शाए गए संस्कारों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief Sanskaras as depicted in Sikh Way of Life.)
उत्तर-

  1. एक अकाल पुरख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दाता केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्तव्य है।
  7. सिख भाँग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहाँत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।

प्रश्न 19.
मूलमंत्र की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain the brief the Mul Mantra.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं-एक ओ अंकार सतिनामु करता पुरुखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि॥ जापु॥ आदि सचु जुगादि सचु है भी सचु नानक होसी भी सचु। इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह हैं-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह अपनी सृष्टि में मौजूद है। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी पर निर्भर करता है, वह डर एवं ईर्ष्या से मुक्त है। उस पर काल का प्रभाव नहीं होता। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसका प्रकाश अपने आपसे है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 20.
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) की कोई पाँच विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
[Describe any five features of Akal Purkh (God) in Sikhism.]
अथवा
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें।
(Write a note on the Akal Takhat.)
उत्तर-
गुरवाणी में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि ईश्वर एक है यद्यपि उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। सिख परंपरा के अनुसार मूल मंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘एक ओ अंकार’ है वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। वह ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है तथा उसका विनाश कर सकता है। इसी कारण कोई भी पीर, पैगंबर, अवतार, औलिया, ऋषि तथा मुनि इत्यादि उसका मुकाबला नहीं कर सकते। ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है तथा सर्गुण भी। सर्वप्रथम संसार में चारों ओर अंधकार था। उस समय कोई धरती अथवा आकाश जीव-जंतु इत्यादि नहीं थे। ईश्वर अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसके एक हुकम के साथ ही यह धरती, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, पर्वत, दरिया, जंगल, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा फूल इत्यादि अस्तित्व में आ गए। इस प्रकार ईश्वर ने अपना आप रूपमान (प्रकट) किया। इन सब में उसकी रोशनी देखी जा सकती है। यह ईश्वर का सर्गुण स्वरूप है। ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और उसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना से पूर्व कोई धरती, आकाश नहीं थे तथा चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का हुक्म (आदेश) चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके हुक्म के अनुसार ही संपूर्ण विश्व चलता है।

प्रश्न 21.
सिख धर्म में नाम जपने का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of Remembering Divine Name in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 22.
किरत करने से क्या अभिप्राय है ?
(What is the meaning of Honest Labour ?) ।
उत्तर-
किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीव-जंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता। ऐसा व्यक्ति वास्तव में उस परमात्मा के विरुद्ध गुनाह करता है। गुरु नानक देव जी स्वयं कृषि का कार्य करके अपनी किरत करते थे। उन्होंने सैदपुर में मलिंक भागो का ब्रह्म भोज छकने की अपेक्षा भाई लालो की सूखी रोटी को खुशी-खुशी स्वीकार किया। इसका कारण यह था कि भाई लालो एक सच्चा किरती था। सिखों के लिए कोई भी व्यवसाय करने पर प्रतिबंध नहीं। वह कृषि, व्यापार, दस्तकारी, सेवा, नौकरी इत्यादि किसी भी व्यवसाय को अपना सकता है। किंतु उसके लिए चोरी, ठगी, डाका, धोखा, रिश्वत तथा पाप की कमाई करना सख्त मना है।

प्रश्न 23.
सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of Sangat in Sikhism ?)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है।
संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेदभाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 24.
सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ? चर्चा कीजिए।
(What is the importance of Pangat in Sikh Way of life ?)
अथवा
पंगत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the Pangat.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं, को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें दान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथीं देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 25.
सिख धर्म में संगत व पंगत का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें। (What is the importance of Sangat and Pangat in Sikhism ? Elucidate.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है।

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेदभाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। यह संस्था आज भी जारी है।

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं, को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें दान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथीं देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 26.
सिख धर्म में हउमै से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Haumai in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। अगर हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। इस प्रकार उसका संसार बेटे, बेटियों, भाइयों, भतीजों, बहनों-बहनोइयों, माता-पिता, सास-ससुर, जवाई, पति-पत्नी आदि के साथ संबंधित पास अथवा दूर की रिश्तेदारियों तक ही सीमित रहता है। अगर थोड़ी-सी अपनत्व की डोर लंबी कर ली जाए तो इस निजी संसार में सज्जन-मित्र भी शामिल कर लिए जाते हैं। परंतु आखिर में इस संसार की सीमा निजी जान-पहचान तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। इस निजी संसार की रचना के कारण मनुष्य में हउमै की भावना उत्पन्न होती है और वह अपने आपको इस आडंबर का मालिक समझने लगता है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

प्रश्न 27.
“हउमै एक दीर्घ रोग है।” कैसे ? (“Ego is deep rooted disease.” How ?)
उत्तर-
हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता। हउमै के प्रभाव में जीव क्या-क्या करता है ? इसका उत्तर गुरु नानक देव जी देते हैं कि जीव के सारे कार्य हऊमै के बंधन में बंधे होते हैं। वह हउमै में जन्म लेता है, मरता है, देता है,लेता है, कमाता है, गंवाता है, कभी सच बोलता है और कभी झूठ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का हिसाब करता है, समझदारी और मूर्खता भी हउमै के तराजू में तौलता है। हउमै के कारण ही वह मुक्ति के सार को नहीं जान पाता। अगर वह हऊमै को जान ले तो उसे परमात्मा के दरबार के दर्शन हो सकते हैं। अज्ञानता के कारण मनुष्य झगड़ता है। कर्म के अनुसार ही लेख लिखे जाते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है।

प्रश्न 28.
गुरु नानक साहिब की शिक्षाओं में गुरु का क्या महत्त्व है ?’ (What is the importance of Guru in the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक साहिब परमात्मा तक पहुँचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ़ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ़ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के ‘ रोग को दूर करते हैं। वे ही नाम और शबद की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है।

प्रश्न 29.
सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Kirtan in Sikhism ?)
अथवा
सिख जीवन जाच में कीर्तन का बहुत महत्त्व है। चर्चा कीजिए।
(Kirtan is very important in Sikh Way of life. Explain.)
उत्तर-सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है।
सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। उन्होंने अपनी यात्राओं के समय भाई मर्दाना जी को साथ रखा जो कीर्तन के समय रबाब बजाता था। गुरु नानक देव जी कीर्तन करते हुए अपने श्रद्धालुओं के मनों पर जादई प्रभाव डालते थे। परिणामस्वरूप न केवल सामान्यजन अपितु सज्जन ठग, कोड्डा राक्षस, नूरशाही जादूगरनी, हमजा गौंस तथा वली कंधारी जैसे कठोर स्वभाव के व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना न रह सके एवं आपके शिष्य बन गए। कीर्तन की इस प्रथा को शेष 9 गुरुओं ने भी जारी रखा। गुरु हरगोबिंद साहिब ने कीर्तन में वीर रस उत्पन्न करने के उद्देश्य से ढाडी प्रथा को प्रचलित किया।

प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है। इससे मनुष्य का सोया हुआ मन जाग उठता है, उसके दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं एवं कई जन्मों की मैल दूर हो जाती है। वह हरि नाम में लीन हो जाता है। मानव का मन निर्मल हो जाता है। उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठती है तथा उसका लोक-परलोक सफल हो जाता है। इस कारण कीर्तन को निरमोलक (अमूल्य) हीरा कहा जाता है।

प्रश्न 30.
सिख धर्म में सेवा के महत्त्व का वर्णन कीजिए। (Explain the importance of Seva in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है।

सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, जल पिलाना, लंगर आदि ही सम्मिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को गुरुमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरन्तर भाग है। यह एक दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा, वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अन्दर -झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 31.
सिख गुरुओं के जाति बारे क्या विचार थे ? (What were the views of Sikh Gurus regarding caste ?)
अथवा
जाति प्रथा के बारे में गुरु नानक साहिब जी के विचार प्रकट करें। (Describe the views of Guru Nanak Sahib ji regarding caste system.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-जाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 32.
सिख धर्म में अरदास के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
[Explain the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism.]
अथवा
सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है ?
[What is the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism ?]
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है।
सिख धर्म में अरदास की परंपरा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। गुरु अर्जन देव जी के समय अरदास आदि ग्रंथ साहिब के सम्मुख करने की प्रथा आरंभ हुई। गुरु गोबिंद सिंह जी ने संगत के रूप में की जाती अरदास का प्रारंभ किया। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है। सिख इतिहास में इस संबंधी अनेक उदाहरणे मिलती हैं।
सिख धर्म में अरदास का आश्रय प्रत्येक सिख अवश्य लेता है। अरदास के मुख्य विषय यह हैं—

  1. उस परमात्मा के शुक्राने के तौर पर अरदास
  2. नाम के लिए अरदास
  3. वाणी की प्राप्ति के लिए अरदास
  4. पापों का नाश करने के लिए अरदास
  5. अपने पापों को बख्शाने के लिए अरदास
  6. बच्चे के जन्म के शुक्राने के तौर पर की गई अरदास
  7. बच्चे के नाम संस्कार के समय अरदास
  8. बच्चे की शिक्षा आरंभ करते समय अरदास
  9. मंगनी अथवा विवाह की अरदास
  10. बच्चे की प्राप्ति के लिए अरदास
  11. कुशल स्वास्थ्य के लिए अरदास
  12. भाणा (हुक्म) मानने के लिए अरदास
  13. यात्रा आरंभ करने के लिए अरदास
  14. नया व्यवसाय आरंभ करते समय अरदास
  15. नये घर में प्रवेश करते समय अरदास
  16. नितनेम के पश्चात् अरदास।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. सिख कौन है ?
उत्तर-एक परमात्मा, दस गुरु साहिबान तथा गुरु ग्रंथ साहिब जी में विश्वास रखने वाला।

प्रश्न 2. प्रत्येक सिख को अपना जीवन किसके अनुसार व्यतीत करना चाहिए ?
उत्तर-गुरमति के अनुसार।

प्रश्न 3. सिख जीवन में नितनेम की कितनी वाणियां सम्मिलित हैं ?
अथवा
नितनेम की वाणियों के नाम लिखें।
उत्तर-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपाई साहिब, 10 सवैया, रहरासि साहिब और सोहिला।

प्रश्न 4. नितनेम में सम्मिलित किन्हीं दो वाणियों के नाम लिखें।
अथवा
प्रातःकाल में पढ़ी जाने वाली कोई दो वाणियाँ बताएँ।
अथवा
अमृत समय पढ़ी जाने वाली वाणियों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. जपुजी साहिब
  2. जापु साहिब।

प्रश्न 5. किस वाणी को सायंकाल में पढ़ना चाहिए ?
उत्तर-रहरासि साहिब।

प्रश्न 6. सिख जीवन में रात को सोते समय कौन-सी वाणी पढ़ी जाती है ?
अथवा
सिख धर्म के अनुसार रात को सोते समय कौन-सी वाणी पढ़ी जाती है ?
उत्तर-सिख जीवन में रात को सोते समय सोहिला नामक वाणी पढी जाती है।

प्रश्न 7. गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय किस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए ?
उत्तर-गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय ऊपर चाँदनी होनी चाहिए।

प्रश्न 8. गुरुद्वारे के अंदर प्रत्येक सिख के लिए कौन सी बातें वर्जित की गई हैं ? कोई एक बताएँ।
उत्तर-वह अपने जूते बाहर उतार कर आए।

प्रश्न 9. गुरुद्वारे में निशान साहिब कहाँ लगा होना चाहिए ?
उत्तर-किसी ऊँचे स्थान पर।।

प्रश्न 10. गुरमति जीवन का कोई एक सिद्धाँत बताएँ।
उत्तर- प्रत्येक सिख प्रतिदिन अपना कार्य आरंभ करने से पूर्व अरदास करेगा।

प्रश्न 11. प्रत्येक सिख के लिए कौन-से पाँच कक्कार धारण करने अनिवार्य हैं ?
अथवा
सिख जीवन जाच अनुसार सिखों के पांच ककार लिखें।
उत्तर-केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा तथा कृपाण।

प्रश्न 12. किन्हीं दो कुरीतियों के नाम लिखें जिन पर प्रत्येक सिख के लिए प्रतिबंध लगाया गया है ?
उत्तर-

  1. केशों को काटना
  2. तंबाकू का प्रयोग करना।

प्रश्न 13. गुश्मत्ता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-गुरमत्ता गुरु ग्रंथ साहिब जी की उपस्थिति में सरबत खालसा द्वारा जो निर्णय स्वीकार किए जाते हैं, उन्हें गुरमत्ता कहा जाता है।

प्रश्न 14. गुरमत्ता किन प्रश्नों पर हो सकता है ?
उत्तर-गुरमत्ता केवल सिख धर्म के मूल सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हो सकता है।

प्रश्न 15. सिख दर्शन में किसे सर्वोच्च माना गया है ?
उत्तर-अकाल पुरुख को।

प्रश्न 16. अकाल पुरुख का कोई एक लक्षण बताएँ।
उत्तर-वह सर्वशक्तिमान है।

प्रश्न 17. गुरवाणी के अनुसार व्यक्ति और परमात्मा के मिलाप सीढ़ी का कार्य कौन करता है ?
उत्तर-गुरु स्वयं।

प्रश्न 18. सिख धर्म में गुरु से क्या भाव है ?
उत्तर-सिख धर्म में सच्चा गुरु परमात्मा स्वयं है।

प्रश्न 19. सिख धर्म में गुरु का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-वह मुक्ति तक ले जाए वाली वास्तविक सीढ़ी है।

प्रश्न 20. संगत एवं पंगत की स्थापना कौन-से गुरु ने कहाँ की ?
अथवा
संगत व पंगत संस्था किस गुरु ने स्थापित की ?
उत्तर-संगत एवं पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में की।

प्रश्न 21. संगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-संगत से भाव है गुरमुख प्यारों की वह एकत्रता जहाँ परमात्मा की प्रशंसा की जाती है।

प्रश्न 22. संगत की स्थापना किसने की ?
उत्तर-संगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की।

प्रश्न 23. सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-संगत में जाने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाता है।

प्रश्न 24. पंगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकना।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 25. पंगत की स्थापना किसने की ?
उत्तर-गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 26. पंगत क्या होती है और यह किस गुरु साहिब के समय आरंभ हुई ?
उत्तर-

  1. पंगत से भाव है पंगत में बैठकर लंगर खाना।
  2. यह गुरु नानक साहिब के समय से आरंभ हुई।

प्रश्न 27. सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-इससे सिख धर्म के प्रचार को प्रोत्साहन मिला।

प्रश्न 28. सिख धर्म में हुक्म से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-हुक्म से अभिप्राय है आज्ञा अथवा आदेश।

प्रश्न 29. सिख धर्म में हुक्म का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-हुक्म मानने वाला व्यक्ति पर परमात्मा मेहरबान होता है।

प्रश्न 30. हुक्म न मानने वाले व्यक्ति के साथ क्या होता है ?
उत्तर-हुक्म न मानने वाला व्यक्ति आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।

प्रश्न 31. हउमै से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-अभिमान करना।

प्रश्न 32. हउमै किस प्रकार का रोग है ?
अथवा
सिख जीवन जाच में हउमै किस प्रकार का रोग है ?
उत्तर-हउमै एक दीर्घ रोग है।

प्रश्न 33. हउमै को किस प्रकार दूर किया जा सकता है ?
उत्तर-नाम जप कर।

प्रश्न 34. मनुष्य के कितने मनोविकार हैं ?
उत्तर-पाँच।

प्रश्न 35. मनुष्य के कोई दो मनोविकार बताएँ।
उत्तर-

  1. काम
  2. क्रोध।

प्रश्न 36. सिख को कौन-से विकारों से सावधान रहने के लिए कहा गया है ?
अथवा
सिख के जीवन में पांच मनो विकार कौन-से माने जाते हैं ?
उत्तर-सिख को काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार से सावधान रहने को कहा गया है।

प्रश्न 37. सेवा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-सेवा से अभिप्राय उस कार्य से है जिससे मानवता की भलाई हो।

प्रश्न 38. सिख धर्म में कौन-मा मनुष्य सेवा कर सकता है ?
उत्तर-सिख धर्म में वह मनुष्य सेवा कर सकता है जिस पर परमात्मा मेहरबान हो।

प्रश्न 39. सिख धर्म में परमात्मा को प्राप्त करने का सबसे बढ़िया साधन कौन-सा है ?
उत्तर-सिमरनि।

प्रश्न 40. सिख धर्म में सिमरनि का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-सिमरनि करने वाले व्यक्ति के मनोविकार दूर हो जाते हैं।

प्रश्न 41. सिख धर्म में किन तीन सिद्धांतों की पालना करना प्रत्येक सिख के लिए अनिवार्य है ?
उत्तर-किरत करना, नाम जपना तथा बाँट कर छकना।

प्रश्न 42. नाम जपना, किरत करना और बांट कर छकना किस धर्म के नियम हैं ?
उत्तर-सिख धर्म के।

प्रश्न 43. किरत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-किरत से अभिप्राय है मेहनत तथा ईमानदारी की कमाई करना।

प्रश्न 44. कीर्तन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-कीर्तन से अभिप्राय उस गायन से है जो परमात्मा की प्रशंसा में गाया जाता है।

प्रश्न 45. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा को किसने आरंभ किया ?
उत्तर-सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा को गुरु नानक देव जी ने आरंभ किया।

प्रश्न 46. सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-कीर्तन करने एवं सुनने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाता है।

प्रश्न 47. अरदास से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर- अरदास से अभिप्राय परमात्मा के सम्मुख प्रार्थना अथवा विनती करने से है।।

प्रश्न 48. क्या सिख धर्म में अरदास के लिए कोई समय निश्चित किया गया है ?
उत्तर- नहीं।

प्रश्न 49. सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है, ?
उत्तर-अरदास करने वाले व्यक्ति की हउमै दूर हो जाती है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. जपुजी साहिब की बाणी ………… समय पढ़ी जाती है।
उत्तर-अमृत

प्रश्न 2. ………… की बाणी शाम सूरज अस्त के पश्चात् पढ़ी जाती है। .
उत्तर-रहरासि साहिब

प्रश्न 3. मूल मंत्र ………. के आरंभ में दिया गया है।
उत्तर-जपुजी साहिब

प्रश्न 4. सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरख ………… है।
उत्तर-एक

प्रश्न 5. सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरख के ……….. रूप हैं।
उत्तर-दो

प्रश्न 6. सिख धर्म के अनुसार …………. सर्वशक्तिमान है।
उत्तर-अकाल पुरख

प्रश्न 7. सिख धर्म के बुनियादी सिद्धांत ………. हैं।
उत्तर-तीन

प्रश्न 8. सिख धर्म में पहला बुनियादी सिद्धांत ……….. है।
उत्तर-नाम जपना

प्रश्न 9. सिख धर्म के अनुसार किरत से भाव है……… की कमाई करना।
उत्तर-ईमानदारी

प्रश्न 10. संगत प्रथा की स्थापना ………… ने की थी।
उत्तर-गुरु नानक देव जी

प्रश्न 11. कतार में बैठकर लंगर छकने को ………. कहा जाता है।
उत्तर-पंगत

प्रश्न 12. हुक्म से भाव है ………. का आदेश।
उत्तर-परमात्मा

प्रश्न 13. हउमै ……….. रोग है।
उत्तर-दीर्घ

प्रश्न 14. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा ……… ने चलाई।
उत्तर-गुरु नानक देव जी

प्रश्न 15. सिख धर्म में ………. को विशेष महत्त्व दिया गया है।
उत्तर-सेवा

प्रश्न 16. सिख धर्म ………… का संदेश देता है।
उत्तर-सांझीवालता

प्रश्न 17. सिख धर्म में अमृत ग्रहण करवाने के लिए ………… प्यारों का होना अनिवार्य है।
उत्तर–पाँच

प्रश्न 18. सिख धर्म में परमात्मा के सम्मुख की जाने वाली प्रार्थना को ……… कहा जाता है।
उत्तर-अरदास

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. जपुजी साहिब का आरंभ मूलमंत्र से होता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. जापु साहिब को प्रातःकाल में पढ़ा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. सिख धर्म में नशों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. गुरुबाणी के अनुसार जगत की रचना नाशवान् नहीं है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. गुरुबाणी के अनुसार अकाल पुरुष एक है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. सिख धर्म में नाम सिमरन को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 7. सिख धर्म में संगत और पंगत की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. सिख धर्म के अनुसार हुक्म से भाव परमात्मा के आदेश से है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. सिख धर्म के अनुसार हऊमै दीर्घ रोग है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. सिख धर्म में अमृत पान के लिए पाँच प्यारों का होना अनिवार्य है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. सिख धर्म में अरदास किसी भी समय की जा सकती है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किस बाणी को अमृत समय नहीं पढ़ा जाता है ?
(i) जापुजी साहिब
(ii) जापु साहिब
(iii) रहरासि साहिब
(iv) अनंदु साहिब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किस बाणी को रात को सोते समय पढ़ा जाता है ?
(i) चौपाई साहिब
(ii) अनंदु साहिब
(iii) रहरासि साहिब
(iv) सोहिला)
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है
(i) गुरसिख देवी-देवताओं की उपासना कर सकते हैं ।
(ii) प्रत्येक गुरसिख के लिए अनिवार्य है कि वह अपना कोई भी कार्य आरंभ करने से पहले वाहिगुरु के सम्मुख अरदास करे।
(iii) प्रत्येक गुरसिख के लिए नशों के सेवन के लिए पाबंदी है।
(iv) वाहेगुरु जी का खालसा श्री वाहेगुरु जी की फ़तेह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किस बाणी में मूल मंत्र का वर्णन किया गया है ?
(i) जापु साहिब
(ii) जापुजी साहिब
(iii) अनंदु साहिब
(iv) रहरासि साहिब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 5.
सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरुष संबंधी निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है ?
(i) अकाल पुरुष अनेक हैं
(ii) वह निर्गुणहार है
(iii) वह सर्वव्यापक है
(iv) वह सबसे महान् है।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 6.
सिख धर्म के आरंभिक नियम कितने हैं ?
(i) 2
(ii) 3
(iii) 4
(iv) 5.
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 7.
सिख धर्म का प्रथम नियम क्या है ?
(i) नाम जपना
(ii) किरत करनी
(iii) बाँट छकना
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
संगत और पंगत संस्थाओं की स्थापना किसने की थी ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु राम दास जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
लंगर प्रथा की नींव किसने रखी ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु हरगोबिंद जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु नानक देव जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 10.
सिख धर्म में कीर्तन का आरंभ किसने किया था ?
(i) गुरु हर राय जी ने
(ii) गुरु हरकृष्ण जी ने
(iii) गुरु नानक देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
अमृत ग्रहण के लिए कम-से-कम कितने प्यारों का उपस्थित होना अनिवार्य है ?
(i) 2
(ii) 3
(iii) 4
(iv) 5
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 12.
सिख धर्म में अरदास कब की जा सकती है ?
(i) केवल अमृत समय
(ii) सायं समय
(iii) रात को सोने से पूर्व
(iv) किसी भी समय।
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म की चार उत्तम सच्चाइयों की आलोचनात्मक चर्चा कीजिए।
(Examine critically the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार सच्चाइयों बारे बताएँ।
(Explain the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार सामाजिक सदगुणों की व्याख्या करो।
(Explain the Four Social Virtues of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार महान सत्य कौन से हैं ? व्याख्या करो।
(What are the Four Noble Truths of Buddhism ? Explain.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य (महान् सच्चाइयाँ) के बारे जानकारी दो।
(Describe the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार आर्य सच्चाइयों के बारे नोट लिखो।
(Write about the Four Noble Truths of Buddhism.)
उत्तर-
चार पवित्र सच्चाइयाँ बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। इन सच्चाइयों को महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अनुभव द्वारा प्राप्त किया था। ये चार पवित्र सच्चाइयाँ अपने आप में एक दर्शन हैं। इनको चार आर्य सत्य भी कहा जाता है। क्योंकि यह चिरंजीवी है और सच्चाई पर आधारित है। महात्मा बुद्ध का कहना था कि इन पर अमल करने से मनुष्य अपने दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इन पर अमल करने के लिए मनुष्य को न तो किसी पुजारी और न ही अन्य कर्म कांडों की ज़रूरत है। पवित्र जीवन व्यतीत करना ही इसका मूल आधार है। चार पवित्र सच्चाइयाँ ये हैं—
1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
2. दुःखों का कारण है।
3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।

1. जीवन दुःखों से भरपूर है (Life is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है, इससे कोई व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता कि जीवन में दुःख ही दुःख हैं। जो भी व्यक्ति इस संसार में जन्म लेगा उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु को प्राप्त होना ज़रूरी है। यह महान् दुःख है। इन के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों दुःख हैं जिनको मनुष्य भोगता है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य जो चाहता है जब उसे प्राप्त नहीं होता तो वह दु:खी है। कोई मनुष्य ग़रीबी कारण दुःखी है और कोई अमीर होने पर भी दु:खी रहता है क्योंकि वह अधिक धन की लालसा करता है। कोई व्यक्ति बे-औलाद होने के कारण दुःखी रहता है और किसी की अधिक औलाद दुःख का कारण बनती है। यदि कोई भूखा है तो भी दुःखी है और कोई अधिक खा लेने के कारण दुःखी होता है। कोई अपने किसी रिश्तेदार के बिछड़ जाने के कारण दुःखी होता है और कोई अपने दुश्मन का मुँह देख लेने पर दुःखी होता है। जिनको मनुष्य सुख समझता है वह ही दु:ख का कारण बनते हैं क्योंकि सुख पल भर ही रहता है। वास्तव में दुःख मनुष्य के जीवन का एक ज़रूरी अंग है। यह मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक साथ रहता है। महात्मा बुद्ध का कहना है कि मृत्यु से दु:खों का अंत नहीं होता क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। यह केवल एक कहानी का अंत है, नये जीवन में पुराने संस्कार जुड़े होते हैं। संक्षेप में जीवन दुःखों की एक लंबी यात्रा है।

2. दुःखों का कारण है (There is a Cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध की दूसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का कारण है। प्रत्येक घटना का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यह नहीं हो सकता कि घटना का कोई कारण ही न हो। प्रत्येक घटना का संबंध किसी ऐसी पूर्ववर्ती घटना अथवा परिस्थितियों से होता है जिनके होने से यह होती है और जिनके न होने से यह नहीं होती। बिना कारण के परिणाम संभव नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य के दु:खों का क्या कारण है। महात्मा बुद्ध के अनुसार तृष्णा और अविद्या दुःखों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण हम बार-बार जन्म लेते हैं और दुःख पाते हैं। तृष्णा दुःख का कारण है क्योंकि जहाँ तृष्णा है वहाँ मनुष्य असंतुष्ट है। यदि वह संतुष्ट हो तो तृष्णा पैदा ही नहीं होती। तृष्णा जीवन भर बनी रहती है। यह मरने पर भी नहीं मरती और नया जन्म होने से दुगुनी शक्ति से खुद को पूरा करती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है—

  • ऐश करने की तृष्णा,
  • जीते रहने की तृण्णा,
  • अनहोने की तृष्णा। अविद्या से भाव अज्ञानता से है।

इसी कारण ही मनुष्य आवागमन के चक्रों में फंसा रहता है जिसका परिणाम दुःख है। जब तक मनुष्य इस आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं होता तब तक उसके दुःखों का अंत नहीं हो सकता। अविद्या के कारण ही मनुष्य अपने जीवन, संसार, सम्पत्ति और परिवार को स्थिर समझ लेता है जबकि वास्तव में यह सब नाशवान् है। जो जन्म लेता है वह मरता भी है।

3. दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)-महात्मा बुद्ध की तीसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का दुःख तथ्यों पर आधारित एक ठोस सच्चाई है। परंतु इससे यह भाव नहीं कि बुद्ध दर्शन निराशावादी है। वास्तव में यह दुःखी मनुष्य के लिए एक दीये का काम करता है। इसका कहना है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। जैसे कि ऊपर बताया गया है कि प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यदि इन कारणों से छुटकारा पा लिया जाये तो दुःखों से छुटकारा पा लिया जा सकता है। दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। तृष्णा के पूर्ण तौर पर मिट जाने से दुःख दूर हो जाता है। इस तृष्णा की समाप्ति का अर्थ अपनी सारी वासनाओं और भूखों पर रोक लगाना है। ऐसा करके मनुष्य अपने सारे दुःखों से छुटकारा और निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।

4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध की चौथी पवित्र सच्चाई यह है कि दु:खों का अंत करने का एक मार्ग है। इस मार्ग को वह मध्य मार्ग बताते हैं ! उनके अनुसार प्रवृत्ति (भोग का मार्ग) और निवृत्ति (तपस्या का मार्ग) दोनों ही गलत हैं क्योंकि यह अति पर आधारित हैं। प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए, उनको मारना नहीं चाहिए। बुद्ध के अनुसार इच्छाओं को पूरा करने पर इच्छाएँ पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। प्रत्येक इच्छा की पूर्ति जलती पर घी डालने का काम करती है । इच्छाओं से केवल नाशवान् सुख की प्राप्ति होती है जिसका अन्त दुःख होता है। दूसरी ओर निवृत्ति के मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। महात्मा बुद्ध के अनुसार इच्छाओं के दमन से यह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं। ये अंदर ही अंदर दबी हुई आग की तरह सुलगती रहती हैं और अवसर मिलने पर भड़क उठती हैं। इसके अतिरिक्त इच्छाओं के दमन से कई मानसिक और शारीरिक कष्ट आदि उत्पन्न होते हैं। इसलिए महात्मा बुद्ध ने इन दोनों अतिवादी मार्गों को गलत कहा। उन्होंने मध्य मार्ग अपनाने के पक्ष में प्रचार किया। मध्य मार्ग पर चलने के कारण इच्छाएँ धीरे-धीरे संयम के अधीन हो जाती हैं और परम शांति की प्राप्ति होती है। बुद्ध का यह मार्ग आठ सद्गुणों पर निर्भर करता है जिस कारण इसको अष्ट मार्ग भी कहते हैं। ये आठ सद्गुण हैं—

    • सच्चा विचार
    • सच्ची नीयत
    • सच्चा बोल
    • सच्चा व्यवहार
    • सच्ची रोज़ी
    • सच्चा यत्न
    • सच्चा मनोयोग
    • सच्चा ध्यान

संक्षेप में मध्य मार्ग पर चलकर ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। हरबंस सिंह और एल० एम० जोशी का यह कहना बिल्कुल ठीक है
“ये चार पवित्र सच्चाइयाँ यह बताती हैं कि दुःख हैं और दुःखों से मुक्त होने का एक मार्ग है।”1

1. “The four holy truths thus teach that there is suffering and that there is a way leading beyond suffering.” Harbans Singh and L. M. Joshi, An Introduction to Indian Religions (Patiala : 1996) p.134.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग स्पष्ट करो। (Describe the Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग की आलोचनात्मक दृष्टि पर जांच कीजिए। (Examine critically the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
“बौद्ध धर्म की बुनियादी शिक्षाएँ अष्टांग मार्ग में संकलित हैं।” प्रकाश डालिए। (“Basic teachings of Buddhism are incorporated in Ashtang Marga.” Elucidate.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के ‘अष्ट मार्ग’ के विषय में संक्षिप्त, परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful Ashta Marga of Lord Buddha.)
अथवा
‘अष्ट मार्ग’ बुद्ध धर्म की कुंजी है। प्रकाश डालें।
(“Ashta Marga is the key to Buddhism.’ Elucidate.)
अथवा
अष्ट मार्ग बौद्ध धर्म का आधार है। चर्चा कीजिए।
(Ashta Marga is the base of Buddhism. Discuss.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग पर चर्चा करो। (Discuss the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म में जीवन की कुंजी मध्य मार्ग है जिसकी प्राप्ति के लिए अष्टांग मार्ग बताया गया है। इसकी व्याख्या करो।
(In Buddhism the key to way of life is Middle Way which is realized through Ashtang Marga. Explain.)
अथवा
अष्टांग मार्ग की विस्तृत चर्चा करो।
(Discuss in detail the Ashtang Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग के बारे जानकारी दो।
(Write about the Ashtang Marga in Buddhism.)
अथवा
महात्मा बद्ध ने दःखों से मुक्त होने के लिए कौन-सा मार्ग बताया है ? उसकी विशेषतायें और महत्त्व बताओ।
(Which way has been told by Lord Buddha to stop sufferings ? Explain its features and importance.)
अथवा
बौद्ध धर्म के मध्य मार्ग बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Madhya Marga in Buddhism ?)
अथवा
अष्ट मार्ग बौद्ध धर्म की नैतिकता का मूल आधार है।
(Ashta Marga is the basis of Buddhist ethics.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग पर नोट लिखें। (Write a note on Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग पर एक विस्तृत नोट लिखें।
(Write a detailed note on the Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के दर्शाए अष्टांग मार्ग के बारे जानकारी दो।
(Write about the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के मध्य मार्ग की व्याख्या करें।
(Describe the Middle Path of Buddhism.)
अथवा
अष्ट मार्ग किसे कहते हैं ? संक्षिप्त उत्तर दें।
(What is the meaning of Ashta Marga ? Answer in brief.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्त करने के मार्ग का वर्णन करें।
(Describe the way of Nirvana according to Buddhism.)
अथवा
अष्ट मार्ग की संक्षिप्त व्याख्या करें।
Explain briefly about Ashta Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म का अष्टांग मार्ग क्या है ? चर्चा कीजिए।
(What is the Ashtang Marga of Buddhism ? Discuss.)
अथवा
मध्य मार्ग बौद्ध धर्म की कुंजी है। प्रकाश डालें।
(Madhya-Marga is the key of Buddhism. Elucidate.)
उत्तर- महात्मा बुद्ध ने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शांति, सूझ, ज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने के लिए लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार भोग का मार्ग और तपस्या का मार्ग दोनों ही गलत हैं क्योंकि ये अति पर आधारित हैं। वह जीवन जो ऐश-ओ-आराम में व्यतीत होता है और वह जीवन जो कठोर संन्यास में व्यतीत होता है बहुत ही दुःखदायक और व्यर्थ होता है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अंदर सांसारिक भोग और कठोर तप के दोनों मार्ग देखे थे। उनका कहना था इन मार्गों पर चल कर इच्छाओं पर काबू नहीं पाया जा सकता। इच्छाओं को संयम से जीतना चाहिए। इसलिए महात्मा बुद्ध ने अष्ट मार्ग की खोज की। क्योंकि ये दोनों अति के मार्गों का मध्यम रास्ता है इसलिए इस को मध्य मार्ग भी कहा जाता है। यह मार्ग मनुष्य को यह बताता है कि वह अपना नैतिक और धार्मिक जीवन किस तरह व्यतीत करे। इसके निम्नलिखित आठ भाग हैं—

  1. सच्चा विचार (समयक दृष्टि)
  2. सच्ची नीयत (समयक संकल्प )
  3. सच्चा बोल (समयक वाक्य)
  4. सच्चा व्यवहार (समयक कर्म)
  5. सच्ची रोज़ी (समयक आजीविका)
  6. सच्चा यत्न (समयक व्यायाम)
  7. सच्चा मनोयोग (समयक स्मृति)
  8. सच्चा ध्यान (समयक समाधि)

1. सच्चा विचार (Right View)-सच्चा विचार नैतिक जीवन की आधारशिला है। इसको सच्चा ज्ञान भी कहा जा सकता है। यदि मनुष्य का विचार गलत हो तो उसका जीवन दुःखों में घिरा रहता है। वह निर्वाण प्राप्ति नहीं कर सकता और आवागमन के चक्रों में भटकता रहता है। अविद्या (अज्ञानता) के कारण वह ऐसा करता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार चार पवित्र सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है क्योंकि इससे दुःख दूर करने का मार्ग खुलता है।

2. सच्ची नीयत (Right Intention)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत सच्ची होनी चाहिए। शुभ कर्म करने का निश्चय ही सच्ची नीयत कहलाता है। मनुष्य को सांसारिक भोग विलास से हमेशा कोसों दूर रहना चाहिए। उसको संसार में उस तरह अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए जैसे कीचड़ में कमल का फूल रहता है। मनुष्य को दूसरों के प्रति दया और अहिंसा की भावना रखनी चाहिए।

3. सच्चा बोल (Right Speech)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निन्दा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

4. सच्चा व्यवहार (Right Action)-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पडता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला है।

5. सच्ची रोज़ी (Right Livelihood)-महात्मा बुद्ध ने सच्ची रोज़ी कमाने पर बहुत ज़ोर दिया है। उनका कहना था कि रोज़ी ईमानदारी से कमानी चाहिए। हमें ऐसी रोज़ी नहीं कमानी चाहिए जिसमें धोखे, हिंसा, चोरी और भ्रष्टाचार आदि से काम लेना पड़े। हथियारों, नशीली वस्तुओं, माँस और मनुष्यों आदि का व्यापार करना सच्ची रोजी के साधन नहीं हैं क्योंकि ये मनुष्य के दुःखों का कारण बनते हैं।

6. सच्चा यत्न (Right Effort)-सच्चा यत्न मन में बुराइयों को पैदा होने से रोकता है। इसका मनोरथ यह है कि मनुष्य के मन में जन्मे हुए बुरे विचारों का अंत किया जाये और मन को अच्छे मार्ग की ओर ले जावे। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपने मन की कारवाई और विचारों के प्रति सदा चौकसी रखनी चाहिए। एक पल की ढील होने पर कोई बुरा विचार हमारे मन के अंदर आ सकता है जो कि मनुष्य को गिरावट के खड्डे में गिरा सकता है। इसलिए हमें विकारों का विश्लेषण करना चाहिए और अच्छे विचारों के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

7. सच्चा मनोयोग (Right Mindfulness)-सच्चा मनोयोग बुद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है। इसका अर्थ है मनुष्य का शरीर और मन के कार्यों के प्रति चेतन होना। यदि मनोयोग शुद्ध हो तो सद्विचार और सद्व्यवहार अपने आप उपजते हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को सदा चार पवित्र सच्चाइयों पर ध्यान रखना चाहिए। उसको शारीरिक अपवित्रता और मानसिक बुराइयों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

8. सच्चा ध्यान (Right Concentration)-महात्मा बुद्ध के अनुसार योग साधना के रास्ते से मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इसलिए उन्होंने सच्चे ध्यान (समाधि) पर अधिक जोर दिया। सच्चे ध्यान के लिए चार अवस्थाओं से गुजरना ज़रूरी है। पहली अवस्था में मनुष्य अपने मन को शुद्ध रख कर ध्यान में मग्न रहता है और उसे सुख की प्राप्ति होती है। दूसरी अवस्था में मनुष्य के सारे संदेह दूर हो जाते हैं और उसको आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त होता है। तीसरी अवस्था में आनंद समाप्त हो जाता है और मन सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है। इसको निर्विकार ध्यान कहते हैं। चौथी अवस्था में कुछ नहीं रहता और जीव शृंय (निर्वाण) को प्राप्त होता है। यह ध्यान की अंतिम मंजिल है। डॉक्टर एस० बी० शास्त्री का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध की शिक्षाओं की वास्तविक कुंजी है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।”2

2. “This noble Eightfold Path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S.B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ कौन-सी हैं ? अष्ट मार्ग का वर्णन करो।
(Which are the Four Noble Truths of Buddhism ? Describe Ashta Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग एवं चार उत्तम सच्चाइयों के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the Ashtang Marga and Four Noble Truths of Buddhism.)
उत्तर-
(क) चार महान् सच्चाइयां (Four Noble Truths)–बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ ये हैं:—

  1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
  2. दुःखों का कारण है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।

(ख) महात्मा बुद्ध ने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शांति, सूझ, ज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने के लिए लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार भोग का मार्ग और तपस्या का मार्ग दोनों ही गलत हैं क्योंकि ये अति पर आधारित हैं। वह जीवन जो ऐश-ओ-आराम में व्यतीत होता है और वह जीवन जो कठोर संन्यास में व्यतीत होता है बहुत ही दुःखदायक और व्यर्थ होता है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अंदर सांसारिक भोग और कठोर तप के दोनों मार्ग देखे थे। उनका कहना था इन मार्गों पर चल कर इच्छाओं पर काबू नहीं पाया जा सकता। इच्छाओं को संयम से जीतना चाहिए। इसलिए महात्मा बुद्ध ने अष्ट मार्ग की खोज की। क्योंकि ये दोनों अति के मार्गों का मध्यम रास्ता है इसलिए इस को मध्य मार्ग भी कहा जाता है। यह मार्ग मनुष्य को यह बताता है कि वह अपना नैतिक और धार्मिक जीवन किस तरह व्यतीत करे। इसके निम्नलिखित आठ भाग हैं—

  1. सच्चा विचार (समयक दृष्टि)
  2. सच्ची नीयत (समयक संकल्प )
  3. सच्चा बोल (समयक वाक्य)
  4. सच्चा व्यवहार (समयक कर्म)
  5. सच्ची रोज़ी (समयक आजीविका)
  6. सच्चा यत्न (समयक व्यायाम)
  7. सच्चा मनोयोग (समयक स्मृति)
  8. सच्चा ध्यान (समयक समाधि)

1. सच्चा विचार (Right View)-सच्चा विचार नैतिक जीवन की आधारशिला है। इसको सच्चा ज्ञान भी कहा जा सकता है। यदि मनुष्य का विचार गलत हो तो उसका जीवन दुःखों में घिरा रहता है। वह निर्वाण प्राप्ति नहीं कर सकता और आवागमन के चक्रों में भटकता रहता है। अविद्या (अज्ञानता) के कारण वह ऐसा करता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार चार पवित्र सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है क्योंकि इससे दुःख दूर करने का मार्ग खुलता है।

2. सच्ची नीयत (Right Intention)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत सच्ची होनी चाहिए। शुभ कर्म करने का निश्चय ही सच्ची नीयत कहलाता है। मनुष्य को सांसारिक भोग विलास से हमेशा कोसों दूर रहना चाहिए। उसको संसार में उस तरह अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए जैसे कीचड़ में कमल का फूल रहता है। मनुष्य को दूसरों के प्रति दया और अहिंसा की भावना रखनी चाहिए।

3. सच्चा बोल (Right Speech)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निन्दा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

4. सच्चा व्यवहार (Right Action)-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पडता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला है।

5. सच्ची रोज़ी (Right Livelihood)-महात्मा बुद्ध ने सच्ची रोज़ी कमाने पर बहुत ज़ोर दिया है। उनका कहना था कि रोज़ी ईमानदारी से कमानी चाहिए। हमें ऐसी रोज़ी नहीं कमानी चाहिए जिसमें धोखे, हिंसा, चोरी और भ्रष्टाचार आदि से काम लेना पड़े। हथियारों, नशीली वस्तुओं, माँस और मनुष्यों आदि का व्यापार करना सच्ची रोजी के साधन नहीं हैं क्योंकि ये मनुष्य के दुःखों का कारण बनते हैं।

6. सच्चा यत्न (Right Effort)-सच्चा यत्न मन में बुराइयों को पैदा होने से रोकता है। इसका मनोरथ यह है कि मनुष्य के मन में जन्मे हुए बुरे विचारों का अंत किया जाये और मन को अच्छे मार्ग की ओर ले जावे। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपने मन की कारवाई और विचारों के प्रति सदा चौकसी रखनी चाहिए। एक पल की ढील होने पर कोई बुरा विचार हमारे मन के अंदर आ सकता है जो कि मनुष्य को गिरावट के खड्डे में गिरा सकता है। इसलिए हमें विकारों का विश्लेषण करना चाहिए और अच्छे विचारों के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

7. सच्चा मनोयोग (Right Mindfulness)-सच्चा मनोयोग बुद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है। इसका अर्थ है मनुष्य का शरीर और मन के कार्यों के प्रति चेतन होना। यदि मनोयोग शुद्ध हो तो सद्विचार और सद्व्यवहार अपने आप उपजते हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को सदा चार पवित्र सच्चाइयों पर ध्यान रखना चाहिए। उसको शारीरिक अपवित्रता और मानसिक बुराइयों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

8. सच्चा ध्यान (Right Concentration)-महात्मा बुद्ध के अनुसार योग साधना के रास्ते से मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इसलिए उन्होंने सच्चे ध्यान (समाधि) पर अधिक जोर दिया। सच्चे ध्यान के लिए चार अवस्थाओं से गुजरना ज़रूरी है। पहली अवस्था में मनुष्य अपने मन को शुद्ध रख कर ध्यान में मग्न रहता है और उसे सुख की प्राप्ति होती है। दूसरी अवस्था में मनुष्य के सारे संदेह दूर हो जाते हैं और उसको आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त होता है। तीसरी अवस्था में आनंद समाप्त हो जाता है और मन सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है। इसको निर्विकार ध्यान कहते हैं। चौथी अवस्था में कुछ नहीं रहता और जीव शृंय (निर्वाण) को प्राप्त होता है। यह ध्यान की अंतिम मंजिल है। डॉक्टर एस० बी० शास्त्री का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध की शिक्षाओं की वास्तविक कुंजी है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।”2

2. “This noble Eightfold Path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S.B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म की चार पवित्र सच्चाइयाँ क्या हैं ? (What are the Four Noble Truths of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ। (Four Noble Truth of Buddhism.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार यह चार पवित्र सच्चाइयाँ हैं—

  1. जीवन दु:खों से भरपूर है। जन्म, रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु दुःख का कारण है।
  2. दुःखों का कारण तृष्णा है। इस तृष्णा के कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फँसा रहता है।
  3. तृष्णा का त्याग करने से दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. अष्ट मार्ग पर चल कर इन दुःखों का अंत किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
मध्य मार्ग अथवा अष्ट मार्ग से क्या अभिप्राय है ? (What do you understand by Middle Path or Eightfold Path ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने लोगों को आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता था क्योंकि यह कठोर तपस्या और भोग-विलास के बीच का मार्ग है। अष्ट मार्ग के सिद्धांत ये थे—

  1. सच्चा विचार
  2. सच्ची नीयत
  3. सच्चा बोल
  4. सच्चा व्यवहार
  5. सच्ची आजीविका
  6. सच्चा यत्न
  7. सच्चा मनोयोग
  8. सच्चा ध्यान।

यह पवित्र अष्ट मार्ग महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार है जिसको अपनाकर मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म की चार पवित्र सच्चाइयाँ क्या हैं ?
(What are the Four Noble Truths of Buddhism ?)
उत्तर-
चार पवित्र सच्चाइयाँ बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। इन सच्चाइयों को महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अनुभव द्वारा प्राप्त किया था। ये पवित्र सच्चाइयाँ अपने आप में एक दर्शन हैं। इनको चार आर्य सत्य भी कहा जाता है। क्योंकि यह चिरंजीवी है और सच्चाई पर आधारित है। महात्मा बुद्ध का कहना था कि इन पर अमल करने के मनुष्य अपने दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इन पर अमल करने के लिए मनुष्य को न तो किसी पुजारी और न ही अन्य कर्म कांडों की ज़रूरत है। पवित्र जीवन व्यतीत करना ही इसका मूल आधार है। चार पवित्र सच्चाइयाँ ये हैं—

  1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
  2. दुःखों का कारण है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. दु:खों का अंत करने का एक मार्ग है।

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या जीवन दुःखों से भरपूर है ? (According to Lord Buddha is life full of sufferings ?) .
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है। इससे कोई व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता कि जीवन में दुःख ही दुःख हैं। जो भी व्यक्ति इस संसार में जन्म लेगा उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु को प्राप्त होना ज़रूरी है। यह महान् दुःख है। इन के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों दुःख हैं जिनको मनुष्य भोगता है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य जो चाहता है जब उसे प्राप्त नहीं होता तो वह दुःखी है। कोई मनुष्य ग़रीबी कारण दुःखी है और कोई अमीर होने पर भी दुःखी रहता है क्योंकि वह अधिक धन की लालसा करता है। कोई व्यक्ति बे-औलाद होने के कारण दुःखी रहता है और किसी की अधिक औलाद दुःख का कारण बनती है। यदि कोई भूखा है तो भी दु:खी है और कोई अधिक खा लेने के कारण दुःखी होता है। कोई अपने किसी रिश्तेदार के बिछड़ जाने के कारण दुःखी होता है और कोई अपने दुश्मन का मुँह देख लेने पर दु:खी होता है। जिनको मनुष्य सुख समझता है वह ही दुःख का कारण बनते हैं क्योंकि सुख पल भर ही रहता है। वास्तव में दुःख मनुष्य के जीवन का एक ज़रूरी अंग है। यह मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक साथ रहता है। महात्मा बुद्ध का कहना है कि मृत्यु से दुःखों का अंत नहीं होता क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। यह केवल एक कहानी का अंत है, नये जीवन में पुराने संस्कार जुड़े होते हैं। संक्षेप में जीवन दु:खों की एक लंबी यात्रा है।

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःखों का क्या कारण है ?
(According to Lord Buddha is there a cause of sufferings ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की दूसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का कारण है। प्रत्येक घटना का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यह नहीं हो सकता कि घटना का कोई कारण ही न हो। प्रत्येक घटना का संबंध किसी ऐसी पूर्ववर्ता घटना अथवा परिस्थितियों से होता है जिनके होने से यह होती है और जिनके न होने से यह नहीं होती। बिना कारण के परिणाम संभव नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य के दुःखों का क्या कारण है। महात्मा बुद्ध के अनुसार तृष्णा और अजानता दु:खों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण हम बार बार जन्म लेते हैं और दुःख पाते हैं। तृष्णा दुःख का कारण है क्योंकि जहाँ तृष्णा है वहाँ मनुष्य असंतुष्ट है। यदि वह संतुष्ट हो तो तृष्णा पैदा ही नहीं होती। तृष्णा जीवन भर बनी रहती है। यह मरने पर भी नहीं मरती और नया जन्म होने से दुगुनी शक्ति से खुद को पूरा करती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है—

  1. ऐश करने की तृष्णा,
  2. जीते रहने की तृष्णा,
  3. अनहोने की तृष्णा।

अविद्या से भाव अज्ञानता से है। इसी कारण ही मनुष्य आवागमन के चक्रों में फंसा रहता है, जिसका परिणाम दुःख है। जब तक मनुष्य इस आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं होता तब तक उसके दुःखों का अंत नहीं हो सकता। अज्ञानता के कारण ही मनुष्य अपने जीवन, संसार, सम्पत्ति और परिवार को स्थिर समझ लेता है जबकि वास्तव में यह सब नाशवान् है। जो जन्म लेता है वह मरता भी है।

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या दुःखों का अंत किया जा सकता है ? (According to Lord Buddha can sufferings be stopped ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की तीसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का दुःख तथ्यों पर आधारित एक ठोस सच्चाई है। परंतु इससे यह भाव नहीं कि बुद्ध दर्शन निराशावादी है। वास्तव में यह दुःखी मनुष्य के लिए एक दीये का काम करता है। इसका कहना है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। जैसे कि ऊपर बताया गया है कि प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यदि इन कारणों से छुटकारा पा लिया जाए तो दुःखों से छुटकारा पा लिया जा सकता है। दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। तृष्णा के पूर्ण तौर पर मिट जाने से दुःख दूर हो जाता है। इस तृष्णा की समाप्ति का अर्थ अपनी सारी वासनाओं और भूखों पर रोक लगाना है। ऐसा करके मनुष्य अपने सारे दु:खों से छुटकारा और निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या दुःखों का अंत करने के लिए एक मार्ग है ? (According to Lord Buddha is there a way to stop sufferings ?) .
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की चौथी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है। इस मार्ग को वह मध्य मार्ग बताते हैं। उनके अनुसार प्रवृत्ति (भोग का मार्ग) और निवृत्ति (तपस्या का मार्ग) दोनों गलत हैं क्योंकि यह अति पर आधारित हैं। प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए, उनको मारना नहीं चाहिए। बुद्ध के अनुसार इच्छाओं को पूरा करने पर इच्छाएँ पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। प्रत्येक इच्छा की पूर्ति जलती पर घी डालने का काम करती है। इच्च्छाओं से केवल नाशवान् सुख की प्राप्ति होती है जिसका अंत दुःख होता है। दूसरी ओर निवृत्ति के मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। महात्मा बुद्ध के अनुसार इच्छाओं के दमन से यह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं। यह अंदर ही अंदर दबी हुई आग की तरह सुलगती रहती हैं और अवसर मिलने पर भड़क उठती हैं। इसके अतिरिक्त इच्छाओं के दमन से कई मानसिक और शारीरिक कष्ट आदि उत्पन्न होते हैं। इसलिए महात्मा बुद्ध ने इन दोनों अतिवादी मार्गों को गलत कहा। उन्होंने मध्य मार्ग अपनाने के पक्ष में प्रचार किया। मध्य मार्ग पर चलने के कारण इच्छाएँ धीरे-धीरे संयम के अधीन हो जाती हैं और परम शाँति की प्राप्ति होती है। बुद्ध का यह मार्ग आठ सद्गुणों पर निर्भर करता है जिस कारण इसको अष्ट मार्ग भी कहते हैं। ये आठ सद्गुण हैं—

  1. सच्चा विचार
  2. सच्ची नीयत
  3. सच्चा बोल
  4. सच्चा व्यवहार
  5. सच्ची रोज़ी
  6. सच्चा यत्न
  7. सच्चा मनोयोग
  8. सच्चा ध्यान।

संक्षेप में मध्य मार्ग पर चलकर ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध के मध्य मार्ग अथवा अष्ट मार्ग से क्या अभिप्राय है ?
(What do you understand by Middle Path or Eightfold Path of Lord Buddha ?)
अथवा
बुद्ध धर्म का अष्ट मार्ग क्या है ? जानकारी दीजिए।
(What is the Astha Marga of Buddhism ? Elucidate.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग का अध्यात्मिक महत्त्व दर्शाइए।
(Describe the religious importance of Ashta Marga in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म का अष्टांग मार्ग क्या है ?
(What is Ashtang Marga of Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने लोगों को आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता था क्योंकि यह कठोर तपस्या और भोग-विलास के बीच का मार्ग है। अष्ट मार्ग के सिद्धाँत ये थे—

  1. व्यक्ति के कर्म शुद्ध होने चाहिएं और उसको चोरी, नशों एवं भोग-विलास से दूर रहना चाहिए।
  2. उसको यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का अंत करके ही दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  3. उस विचार शुद्ध होने चाहिएं और उसको सांसारिक बुराइयों से दूर रहना चाहिए।
  4. व्यक्ति के वचन पवित्र होने चाहिएँ और उसको किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए।
  5. व्यक्ति को स्वच्छ जीवन व्यतीत करना चाहिए और उसको किसी के साथ कोई बुराई नहीं करनी चाहिए।
  6. व्यक्ति को बुरे कार्यों के दमन और दूसरों के कल्याण के लिए प्रयास करने चाहिए।
  7. व्यक्ति को अपना मन शुद्ध समाधि में लगाना चाहिए।
  8. व्यक्ति को अपना ध्यान पवित्र एवं सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।

प्रश्न 9.
बुद्ध धर्म के किन्हीं दो मार्गों का वर्णन करें।
(Explain any two Margas of Buddhism.) ।
उत्तर-
1. सच्चा बोल-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निंदा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

2. सच्चा व्यवहार-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पड़ता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. बौद्ध धर्म के महान् सत्य कितने हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 2. चार महान् सच्चाइयों का संबंध किस मत के साथ है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के साथ।

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म का कोई एक महान् सत्य बताएँ।
उत्तर-संसार दुखों का घर है।

प्रश्न 4. अष्ट मार्ग का आरंभ किसने किया था ?
उत्तर-अष्ट मार्ग का आरंभ महात्मा बुद्ध ने किया था।

प्रश्न 5. अष्ट मार्ग से क्या भाव है ?
अथवा
अष्ट मार्ग क्या है ?
उत्तर-अष्ट मार्ग से भाव आठ मार्ग हैं जिन पर चलकर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता था।

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म में दुखों के अंत के लिए किस मार्ग पर चलना आवश्यक बताया गया है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म में दुखों के अंत के लिए अष्ट मार्ग पर चलना आवश्यक बताया गया है।

प्रश्न 7. अष्ट मार्ग के कितने भाग हैं ? इसका दूसरा नाम क्या है ?
अथवा
अष्ट मार्ग के कुल कितने भाग हैं ?
उत्तर-

  1. अष्ट मार्ग के आठ भाग हैं।
  2. इसका दूसरा नाम मध्य मार्ग है।

प्रश्न 8. अष्ट मार्ग को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 9. बौद्ध धर्म का मध्य मार्ग क्या है ?
उत्तर-सांसारिक भोगों तथा कठोर तप के बीच के मार्ग को मध्य मार्ग कहा जाता है।

प्रश्न 10. बौद्ध धर्म के अनुसार नैतिक जीवन की आधारशिला क्या है ?
उत्तर-सच्चा विचार।

प्रश्न 11. अष्टांग मार्ग का ‘सच्चा विचार’ क्या है ?
उत्तर-चार पावन सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है।

प्रश्न 12. बौद्ध धर्म के अनुसार रोजी-रोटी कैसे कमानी चाहिए ?
उत्तर-ईमानदारी से।

प्रश्न 13. बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण की प्राप्ति के लिए किस मार्ग का पालन अनिवार्य बताया गया है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिए अष्ट मार्ग का पालन अनिवार्य बताया गया है।

प्रश्न 14. अष्ट मार्ग का संबंध किस धर्म के साथ है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के साथ।

प्रश्न 15. बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म दो प्रकार के हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 16. बौद्ध धर्म के अनुसार दो प्रकार के कर्म कौन से हैं ?
उत्तर-

  1. पवित्र कर्म
  2. अपवित्र कर्म।

प्रश्न 17. बौद्ध धर्म में योग और ध्यान की नींव किसे माना जाता है ?
उत्तर-सच्चे मनोयोग को।

प्रश्न 18. बौद्ध धर्म में शून्य से क्या भाव है ?
उत्तर-निर्वाण प्राप्त करना।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. बौद्ध धर्म के महान् सच्च ………… हैं।
उत्तर-चार

प्रश्न 2. चार पावन सच्चाइयों को चार ………… के नाम से भी जाना जाता हैं।
उत्तर-आर्य सच

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन ………. से भरपूर है।
उत्तर-दुखों

प्रश्न 4. बौद्ध धर्म के अनुसार वृष्णा ………. प्रकार की होती है।
उत्तर-तीन

प्रश्न 5. अविद्या से भाव है ……. ।।
उत्तर-अज्ञानता

प्रश्न 6. अष्ट मार्ग का संबंध ………. से है।
उत्तर-बौद्ध मत

प्रश्न 7. अष्ट मार्ग को ……… के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-मध्य मार्ग

प्रश्न 8. ………. नैतिक जीवन की आधार शिला है।।
उत्तर-सच्चा विचार

प्रश्न 9. महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत ……… होनी चाहिए। ..
उत्तर-सच्ची

प्रश्न 10. बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म ………. प्रकार के हैं।
उत्तर-दो

प्रश्न 11. सच्चा ………. बौद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है।
उत्तर-मनोयोग

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. चार महान् सच्चाइयां बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म के अनुसार तृष्णा पाँच प्रकार की होती है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 4. बौद्ध धर्म के अनुसार दुःखों का अंत कभी नहीं किया जा सकता।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. अष्ट मार्ग जैन धर्म के साथ संबंधित है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म के अनुसार कृर्म दो प्रकार के हैं।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 7. बौद्ध धर्म के अनुसार सच्चा प्रयत्न मन में बुराइयों के उत्पन्न होने को रोकता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 8. महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःखों से मुक्ति पाने के लिए अष्ट मार्ग पर चलना अनिवार्य है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म कितनी पवित्र सच्चाइयों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 8
उत्तर-
(ii) 4

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म की पहली पावन सच्चाई कौन-सी है ?
(i) दुःखों का कारण है
(ii) जीवन दुःखों से भरपूर है
(iii) दुःखों का अंत किया जा सकता है
(iv) दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।
उत्तर-
(ii) जीवन दुःखों से भरपूर है

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म कितने मार्गों में विश्वास रखता है ?
(i) 5
(ii) 6
(iii) 7
(iv) 8
उत्तर-
(iv) 8

प्रश्न 4.
अष्ट मार्ग किस धर्म के साथ संबंधित है ?
(i) जैन धर्म ,
(ii) बौद्ध धर्म
(iii) हिंदू धर्म
(iv) इस्लाम धर्म।
उत्तर-
(ii) बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
अष्ट मार्ग को अन्य किस मार्ग के नाम से जाना जाता है ?
(i) शाँति मार्ग
(ii) मध्य मार्ग
(iii) प्रवृत्ति मार्ग
(iv) निवृत्ति मार्ग।
उत्तर-
(ii) मध्य मार्ग

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस मार्ग को बौद्ध के योग और ध्यान की नींव माना जाता है ?
(i) सच्चा प्रयत्न
(ii) सच्चा विचार
(iii) सच्ची नियत
(iv) सच्चा मनोयोग।
उत्तर-
(iv) सच्चा मनोयोग।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

पंजाब के इतिहास संबंधी समस्याएँ । (Difficulties Regarding the History of the Punjab)

प्रश्न 1.
पंजाब के इतिहास की रचना में इतिहासकारों को किन मुख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ? बताइए।
(What difficulties were faced by the historians while constructing the History of Punjab ? Explain.)
अथवा
पंजाब के इतिहास की रचना करते समय इतिहासकारों को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(Which difficulties are being faced by historians while composing the History of Punjab ?)
अथवा
पंजाब का इतिहास लिखते समय इतिहासकारों को कौन-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
(Explain the difficulties faced by the historians while writing the History of Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना करना इतिहासकारों के लिए सदैव एक गंभीर समस्या रही है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसकी रचना करते समय उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला (Sikhs did not find time to write their own History) औरंगजेब की मृत्यु के बाद पंजाब में एक ऐसा दौर आया जो पूरी तरह से अशाँति तथा अराजकता से भरा हुआ था। सिखों तथा मुग़लों के मध्य शत्रुता चरम सीमा पर थी। इस पर नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाब की दशा और खराब कर दी। अतः ऐसे वातावरण में इतिहास लेखन का कार्य कैसे संभव था। इस क्षेत्र में जो थोड़े बहुत प्रयास हुए भी चे आक्रमणकारियों की भेंट चढ़ गए। परिणामस्वरूप आज के इतिहासकार महत्त्वपूर्ण ग्रंथों से वंचित हो गए।

2. मुस्लिम इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण विचार (Biased Views of Muslim Historians)—पंजाब के इतिहास को लिखने में सबसे अधिक जिन स्रोतों की सहायता ली गई है वे हैं फ़ारसी में लिखे गए ग्रंथ। इन ग्रंथों को मुसलमान लेखकों ने लिखा है जो सिखों के कट्टर दुश्मन थे। इन ग्रंथों को बड़ी जाँच-पड़ताल से पढ़ना पड़ता है क्योंकि इन इतिहासकारों ने अधिकतर तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। अतः इन ग्रंथों को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त औरंगजेब ने सरकारी तौर पर किसी भी राजनीतिक घटना को लिखने की मनाही कर दी थी। परिणामस्वरूप उस काल की पंजाब से संबंधित महत्त्वपूर्ण घटनाओं का सही विवरण उपलब्ध नहीं है।

3. ऐतिहासिक स्रोतों का नष्ट होना (Destruction of Historical Sources)-18वीं शताब्दी के लगभग 7वें दशक तक पंजाब में अशांति एवं अराजकता का वातावरण रहा। पहले मुग़लों तथा बाद में अफ़गानों ने पंजाब में सिखों की शक्ति को कुचलने में कोई प्रयास शेष न छोड़ा। 1739 ई० में नादिर शाह तथा 1747 से 1767 ई० तक अहमद शाह अब्दाली के 8 आक्रमणों के कारण पंजाब की स्थिति अधिक शोचनीय हो गई थी। ऐसे समय जब सिखों को अपने बीवी-बच्चों की सुरक्षा करना कठिन था तो वे अपने धार्मिक ग्रंथों को किस प्रकार सुरक्षित रख पाते। परिणामस्वरूप उनके अनेक धार्मिक ग्रंथ नष्ट हो गए। इस कारण सिखों को अपने अनेक अमूल्य ग्रंथों से वंचित होना पड़ा।

4. पंजाब मुगल साम्राज्य का एक भाग (Punjaba part of Mughal Empire)-पंजाब 1752 ई० तक मुग़ल साम्राज्य का भाग रहा था। इस कारण इसका कोई अलग से इतिहास न लिखा गया। आधुनिक इतिहासकारों को मुग़ल काल में लिखे गए साहित्य से पंजाब की बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है। अत: पर्याप्त विवरण के अभाव में पंजाब के इतिहास की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं की जा सकती।

5. पंजाब का बँटवारा (Partition of Punjab)-1947 ई० में पंजाब की पड़ी बँटवारे की मार ने भी पंजाब के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों को नष्ट कर दिया। परिणामस्वरूप इतिहासकार पंजाब की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री से वंचित रह गए।

पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोत (Main Sources of the History of the Punjab)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 2.
पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe briefly the important sources of the History of the Punjab.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों का वर्णन करें।
(Discuss the main sources of the Punjab History.) .
अथवा
1469 ई० से 1849 ई० तक के पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों की चर्चा करें। (Examine the sources of History of the Punjab from 1469 to 1849 A.D.)
उत्तर-
पंजाब के 1469 ई० से 1849 ई० तक के इतिहास के लिए अनेक प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं। इन स्रोतों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है—
(क) साहित्यिक स्रोत (Literary sources)
(ख) पुरातात्विक स्रोत (Archaeological sources)।

  1. साहित्यिक स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं—
    • सिखों के धार्मिक साहित्य।
    • ऐतिहासिक और अर्द्ध ऐतिहासिक सिख साहित्य।
    • फ़ारसी की ऐतिहासिक पुस्तकें।
    • भट्ट वहियाँ।
    • खालसा दरबार रिकॉर्ड।
    • विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेज़ों की रचनाएँ।
  2. पुरातात्विक स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं—
    • भवन तथा स्मारक।
    • सिक्के तथा चित्र।

(क) साहित्यिक स्रोत
(Literary Sources)

सिखों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)-सिखों के धार्मिक साहित्य की पंजाब के इतिहास के निर्माण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इनमें सबसे प्रमुख स्थान आदि ग्रंथ साहिब जी का आता है। इसे आजकल गुरु ग्रंथ साहिब जी कहा जाता है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इससे हमें उस काल की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। इसके बाद भाई मनी सिंह जी द्वारा 1721 ई० में संकलित ‘दशम ग्रंथ साहिब’ का स्थान है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इसमें कुल 18 ग्रंथ हैं। इनमें ऐतिहासिक रूप से ‘बचित्तर नाटक’ तथा ‘ज़फ़रनामा’ का नाम प्रमुख है। इन ग्रंथों में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा मुग़लों तथा सिखों के संबंधों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इसके बाद भाई गुरदास जी द्वारा लिखी गई 39 वारों का स्थान आता है। इनमें सिख गुरुओं के जीवन का बहुमूल्य विवरण दिया गया है। इनके अतिरिक्त गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित ‘जन्म साखियाँ’ तथा सिख गुरुओं के हुक्मनामे भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

2. ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिख साहित्य (Historical and Semi-Historical Sikh Literature)-पंजाब के इतिहास के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है सेनापत द्वारा रचित गुरसोभा। इसमें 1699 ई० से 1708 ई० तक आँखों देखी घटनाओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त भाई मनी सिंह जी द्वारा रचित सिखाँ दी भगतमाला, केसर सिंह छिब्बड़ द्वारा रचित बंसावली नामा, बावा कृपाल सिंह द्वारा रचित महिमा प्रकाश वारतक तथा प्राचीन पंथ प्रकाश जिसके लेखक रतन सिंह भंगू हैं, भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3. फ़ारसी के ऐतिहासिक ग्रंथ (Historical works in Persian)—फ़ारसी की अधिकतर रचनाएँ मुसलमानों द्वारा रचित हैं। उनकी रचनाएँ पंजाब या सिखों के इतिहास का वर्णन तो नहीं है, परंतु फिर भी हमें इतिहास लिखने में इनसे पर्याप्त सहायता मिलती है। इनमें बाबर द्वारा रचित बाबरनामा, अबुल फ़ज़ल द्वारा रचित आइन-एअकबरी और अकबरनामा, जहाँगीर द्वारा लिखी गई तुजक-ए-जहाँगीरी, सोहन लाल सूरी की उमदत-उततवारीख, बूटे शाह की तवारीख-ए-पंजाब, दीवान अमरनाथ की ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह तथा अलाउद्दीन मुफ्ती की इबरतनामा प्रमुख हैं।

4. भट्ट वहियाँ (Bhat Vahis)-भट्ट लोग अपनी वहियों में महत्त्वपूर्ण घटनाओं को तिथियों सहित दर्ज कर लेते थे। पंजाब के इतिहास निर्माण में इन वहियों का विशेष स्थान है। इनमें गुरु हरिगोबिंद सिंह जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी के गुरु-काल की अनेकों महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विवरण दर्ज है।

5. खालसा दरबार रिकॉर्ड (Khalsa Durbar Records)-महाराजा रणजीत सिंह के काल के सरकारी रिकॉर्ड तत्कालीन पंजाब पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। ये फ़ारसी भाषा में हैं तथा इनकी संख्या 1 लाख से भी ऊपर है। इनकी सूची सीता राम कोहली ने तैयार की थी।

6. विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेजों की रचनाएँ (Writings of Foreign Travellers and the Europeans)-पंजाब आने वाले विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेज़ी लेखकों ने भी पंजाब के इतिहास पर अपनी रचनाओं में पर्याप्त प्रकाश डाला है। इनमें जॉर्ज फोरस्टर द्वारा रचित “ए जर्नी फ्राम बंगाल टू इंग्लैंड’, मैल्कोम द्वारा रचित ‘स्केच ऑफ द सिखस्’, एच० टी० प्रिंसेप द्वारा रचित ‘ओरिज़न ऑफ़ सिख पॉवर इन द पंजाब’, कैप्टन विलियम उसबोर्न द्वारा रचित ‘द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह’, मरे द्वारा रचित हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब शामिल हैं। जे० डी० कनिंघम द्वारा लिखित ‘हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्’ सबसे अधिक विश्वसनीय तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसमें 1699 ई० से लेकर 1846 ई० तक की घटनाओं का विवरण दर्ज है।

(ख) पुरातात्विक स्रोत
(Archaeological Sources)
पंजाब के ऐतिहासिक भवन, स्मारक, सिक्के तथा चित्र भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण सहयोग देते हैं। सिख गुरुओं द्वारा बसाए गए खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, अमृतसर, तरनतारन, करतारपुर, आनंदपुर साहिब आदि धार्मिक नगर पंजाब के इतिहास की मुँह बोलती तस्वीर हैं। इसके अतिरिक्त 18वीं शताब्दी के अनेक सिख सरदारों द्वारा बनाए गए महल तथा दुर्ग भी पंजाब के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। हमें सिख गुरुओं तथा उनके वंशजों से संबंधित अनेक चित्र भी प्राप्त हुए हैं। इन चित्रों के माध्यम से हमें उस काल में पंजाब की सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। पंजाब के विभिन्न मुग़ल शासकों, बंदा सिंह बहादुर, महाराजा रणजीत सिंह, मुग़ल तथा सिख सरदारों द्वारा जारी किए गए सिक्कों से हमें उस काल की ऐतिहासिक तिथियों, धार्मिक विश्वासों तथा आर्थिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार ये सिक्के इतिहास निर्माण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सिरवों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)

प्रश्न 3.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में सिख धार्मिक साहित्य का मूल्यांकन करें।
(Evaluate the Sikh religious literature as a source of the Punjab History.)
अथवा
पंजाब के इतिहास जानने में गुरुमुखी साहित्य का क्या योगदान है ? (What is the contribution of Sikh Gurmukhi Literature in the History of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में आदि ग्रंथ साहिब तथा जन्म साखियों का महत्त्व बताओ।
(Describe the significance of the Adi Granth Sahib and Janam Sakhis as source of the Punjab History.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। इसमें दी गई जानकारी उस काल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक गतिविधियों पर प्रकाश डालती है। सिखों के धार्मिक साहित्यों का क्रमानुसार वर्णन इस प्रकार है—
1. आदि ग्रंथ साहिब जी (The Adi Granth Sahib Ji)—आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब जी तथा हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी सम्मिलित है। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई थी तथा इसे गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। इस प्रकार गुरु ग्रंथ साहिब जी में अब 6-गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है। आदि ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। क्योंकि यह जानकारी बहुत ही प्रमाणित है, इसलिए आदि ग्रंथ साहिब जी पंजाब के इतिहास के लिए एक अमूल्य स्रोत माना जाता है। डॉक्टर इंदू भूषण बैनर्जी के शब्दों में,
“इसे (आदि ग्रंथ साहिब जी को) सिखों की बाइबल कहा जाना चाहिए। विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सिख धर्म पर यह सबसे विश्वसनीय स्रोत है।”1

2. दशम ग्रंथ साहिब जी (Dasam Granth Sahib Ji) दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है। यह गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान और गुरु गोबिंद सिंह जी की पहाड़ी राजाओं के साथ लड़ाइयों को जानने के संबंध में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। ‘ज़फ़रनामा’ एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में दीना काँगड़ से औरंगज़ेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सेनापतियों द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी के साथ धोखा करने का उल्लेख किया है। दशम ग्रंथ वास्तव में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन और कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत है।
1. “It may be called the Bible of Sikhism and is admitted to be the greatest authority on Sikhism.” Dr. Indu Bhushan Banerjee, Evolution of Khalsa (Calcutta : 1972) pp. 281-82.

3. भाई गुरदास जी की वारें (Vars of Bhai Gurdas Ji)—भाई गुरदास जी एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

4. जन्म पाखियाँ (Janam Sakhis)-गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को ‘जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की पंजाबी में रचना हुई। परंतु इन जन्म साखियों में अनेक दोष व्याप्त हैं। इनमें घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया है। इन जन्म साखियों में घटनाओं का विवरण तथा तिथि क्रम में विरोधाभास मिलता है। इन दोषों के बावजूद ये जन्म साखियाँ गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में पर्याप्त प्रकाश डालती हैं। इन जन्म साखियों में महत्त्वपूर्ण हैं—

i) पुरातन जन्म साखी (Puratan Janam Sakhi)—इस जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था। यह जन्म साखी सबसे प्राचीन है। इसे अन्य जन्म साखियों की तुलना में सर्वाधिक विश्वसनीय माना जाता है।

ii) मेहरबान वाली जन्म साखी (Janam Sakhi of Meharban)-मेहरबान गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथी चंद के पुत्र थे। वे बड़े विद्वान् थे। उन्होंने गुरु नानक साहिब की उदासियों और करतारपुर में गुरु जी के निवास के संबंध में बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया। यह जन्म साखी काफ़ी विश्वसनीय मानी जाती है।

iii) भाई बाला जी की जन्म साखी (Janam Sakhi of Bhai Bala Ji)-भाई बाला जी गुरु नानक देव जी का बचपन का साथी था। वह गुरु नानक देव जी की उदासियों के समय उनके साथ था। इस जन्म साखी को कब तथा किसने लिखा इस संबंधी इतिहासकारों में मतभेद हैं। इस जन्म साखी में बहुत-सी बातें मनघढ़त हैं। इसलिए इस जन्म साखी को सबसे कम विश्वसनीय माना जाता है।

iv) भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी (Janam Sakhi of Bhai Mani Singh Ji)-इस जन्म साखी को ‘ज्ञान रत्नावली’ भी कहा जाता है। यह जन्म साखी गुरु गोबिंद सिंह जी के एक श्रद्धालु भाई मनी सिंह जी ने लिखी थी। इसकी रचना 1675 ई० से 1708 ई० के बीच की गई थी। यह जन्म साखी बहुत विश्वसनीय है।

v) हुक्मनामे (Hukamnamas)-हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश के सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। पंजाब के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर गंडा सिंह ने अपने अथक परिश्रम से 89 हुक्मनामों का संकलन किया। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी के तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। इन हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान तथा समकालीन समाज से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिरव साहित्य (Historical and Semi-Historical Sikh Literature)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 4.
पंजाब के इतिहास के विषय में जानकारी देने वाला ऐतिहासिक और अर्द्ध ऐतिहासिक सिख साहित्य कहाँ तक सहायक है ? वर्णन करो।
(How far is Sikh Historical and Semi-Historical Literature helpful in giving information about Punjab History ?)
उत्तर-
18वीं और 19वीं शताब्दी में बहुत-से ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिख साहित्य की रचना की गई थी। यह साहित्य पंजाब के इतिहास पर बहुत महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। प्रमुख साहित्यिक ग्रंथों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

श्री गुरसोभा (Sri Gursobha)-श्री गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में 1699 ई० से लेकर 1708 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया गया है। वास्तव में यह गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा कार्यों को जानने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोतों में से एक है।

2. सिखों की भगतमाला (Sikhan Di Bhagatmala)-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रंथ को भगत रत्नावली भी कहा जाता है। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम तथा जातियों के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

3. बंसावलीनामा (Bansavalinama)—बंसावलीनामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बड़ ने की थी। इसमें गुरु साहिबान से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक का इतिहास वर्णित किया गया है। यह ग्रंथ गुरु काल के बाद के इतिहास के लिए अधिक विश्वसनीय है। इसमें बहुत-सी ऐसी घटनाओं का वर्णन है जोकि लेखक की आँखों-देखी हैं।

i) महिमा प्रकाश (Mehma Prakash)-महिमा प्रकाश की दो रचनाएँ हैं। प्रथम का नाम महिमा प्रकाश वारतक और द्वितीय का नाम महिमा प्रकाश कविता है।

  • महिमा प्रकाश वारतक-इस पुस्तक की रचना 1741 ई० में बावा कृपाल सिंह ने की थी। इसमें गुरु साहिबान के जीवन का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है।
  • महिमा प्रकाश कविता-इस पुस्तक की रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

ii) गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (Gurpartap Suraj Granth)-यह एक विशाल ग्रंथ है। इसकी रचना भाई संतोख सिंह ने की थी। इस ग्रंथ के दो भाग हैं- .

  • नानक प्रकाश (Nanak Prakash)-इसकी रचना 1823 ई० में की गई थी। इसमें केवल गुरु नानक साहिब के जीवन का वर्णन है।
  • सूरज प्रकाश (Suraj Prakash)-इसकी रचना 1843 ई० में हुई थी। इसमें गरु अंगद साहिब से लेकर बंदा सिंह बहादुर तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। यद्यपि इसमें अनेक दोष हैं किंतु इसे सिख गुरुओं के जीवन से संबंधित ज्ञान का प्रमुख स्रोत माना जाता है।

4. प्राचीन पंथ प्रकाश (Prachin Panth Prakash)-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रतन सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह पहली ऐतिहासिक पुस्तक थी जो किसी सिख ने लिखी थी। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कथन पूर्णत: ठीक है,
“यह कार्य किसी सिख द्वारा सिख इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है और यह बहुत महत्त्व रखता है।”2

5. पंथ प्रकाश तथा तवारीख गुरु खालसा (Panth Prakash and Tawarikh Guru Khalsa)ये दोनों रचनाएँ ज्ञानी ज्ञान सिंह जी द्वारा रचित हैं। पंथ प्रकाश कविता के रूप में लिखी गई है जबकि तवारीख गुरु खालसा वारतक रूप में है। इन दोनों ग्रंथों में 1469 ई० से लेकर 1849 ई० तक की घटनाओं का विवरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त इनमें उस समय के प्रसिद्ध संप्रदायों और गुरुद्वारों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से पंथ प्रकाश की तुलना में तवारीख गुरु खालसा अधिक लाभदायक है।

2. “This work is the first attempt made by a Sikh to compile a Sikh history and is of supreme importance.”. Dr. Hari Ram Gupta, History of the Sikhs (Delhi : 1987) Vol. 2, p. 371.

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
ऐतिहासिक स्रोत हमारे लिए क्यों आवश्यक हैं ? पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत के संबंध में हमें कौन-सी मुख्य कठिनाइयाँ पेश आती हैं ?
(Why are historical sources important for us ? What difficulties do we face regarding the sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास का संकलन करने के लिए विद्यार्थियों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What problems are faced by the students in composing the History of the Punjab ? )
अथवा
पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए विद्यार्थियों के सामने आने वाली किन्हीं तीन समस्याओं का वर्णन कीजिए।
(Describe any three important problems being faced by the students in composing the History of the Punjab.)
उत्तर-

  1. गुरु साहिबान के काल से संबंधित प्राप्त ऐतिहासिक स्रोत काफ़ी अधूरे हैं। परिणामस्वरूप सही ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त करना कठिन है।
  2. मुसलमान लेखकों ने जान-बूझ कर सिख इतिहास को उचित रूप में प्रस्तुत नहीं किया।
  3. उस समय पंजाब में युद्धों के कारण चारों ओर अराजकता फैली हुई थी। इस वातावरण में सिखों को अपना इतिहास लिखने का अवसर नहीं मिला।
  4. पंजाब के बहुत सारे स्रोत अखोजित रह गए।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 2.
हुक्मनामों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Hukamnamas.)
उत्तर-
सिख गुरुओं अथवा गुरु परिवारों की ओर से समय-समय पर जारी किए गए आदेशों को ‘हुक्मनामा’ कहा जाता था। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। अब तक प्राप्त हुए हुक्मनामों की संख्या 89 है। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। सिख इन हुक्मनामों को परमात्मा का आदेश समझ कर उनकी पालना करते थे।

प्रश्न 3.
सिखों के धार्मिक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों का वर्णन करें।
(Give a brief account of the important historical sources related to religious literature of the Sikhs.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के लिए धार्मिक साहित्य पर आधारित तीन महत्त्वपूर्ण स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of three important sources based on religious literature of the Punjab History.)
उत्तर-

  1. 1604 ई० आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने किया था। आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक दशा की भी जानकारी प्राप्त होती है।
  2. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। यह गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन को जानने के लिए एक अमूल्य स्रोत है।
  3. भाई मनी सिंह जी द्वारा लिखित ‘ज्ञान-रत्नावली’ जन्म साखी भी बहुत-ही विश्वसनीय है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों को क्रम में दिया गया है।
  4. भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की। इन वारों से पहले 6 गुरु साहिबानों से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  5. हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान और समकालीन समाज के इतिहास के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

प्रश्न 4.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है ? किन्हीं तीन जन्म साखियों का वर्णन करें।
(What is meant by Janam Sakhis ? Explain any three main Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियों के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में एक नोट लिखें। (Write a note on the historical importance of Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियाँ क्या हैं ? भिन्न-भिन्न जन्म साखियों का महत्त्व बताएँ।
(What do you understand by Janam Sakhis ? What is the importance of different Janam Sakhis ?)
अथवा
किन्हीं तीन जन्म साखियों के बारे में चर्चा करें।
(Throw light on any three Janam Sakhis.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म, साखियाँ कहा जाता है।

  1. पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था जो सबसे प्राचीन और विश्वसनीय है।
  2. मेहरबान वाली जन्म साखी की रचना पृथी चंद के सुपुत्र मेहरबान ने की थी। उसने गुरु नानक साहिब जी की उदासियों का विस्तृत वर्णन किया है।
  3. भाई बाला की जन्म साखी की रचना कब और किसने की, इस संबंधी इतिहासकारों में काफ़ी मतभेद है। इस जन्म साखी में बहुत-सी मनघढंत बातों को सम्मिलित किया गया है।
  4. भाई मनी सिंह जी की जन्मसाखी-इसे ज्ञान रतनावली भी कहा जाता है। इसे भाई मनी सिंह जी ने लिखा था। यह बहुत विश्वसनीय है।

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प्रश्न 5.
मेहरबान वाली जन्म साखी पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Janam Sakhi of Meharban.)
उत्तर-
मेहरबान गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथी चंद के पुत्र थे। वह बड़े विद्वान् थे। उन्होंने गुरु नानक देव जी की उदासियों और करतारपुर में गुरु जी के निवास के संबंध में बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यह जन्म साखी काफ़ी विश्वसनीय है। इसमें घटनाओं का वर्णन क्रमानुसार दिया गया है। इसमें दिए गए व्यक्तियों तथा स्थानों के नाम आमतौर पर विश्वसनीय हैं। इसमें मनघडंत कहानियों का बहुत कम वर्णन किया गया है।

प्रश्न 6.
भाई गुरदास जी की वारों के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Vars of Bhai Gurdas Ji ?)
अथवा
भाई गरदास जी भल्ला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Bhai Gurdas Ji Bhalla.)
उत्तर-भाई गुरदास जी भल्ला, गुरु अमर दास जी के भाई दातार चंद भल्ला जी के पुत्र थे। वह तीसरे, चौथे, पाँचवें तथा छठे गुरुओं के समकालीन थे। वह एक उच्चकोटि के कवि एवं लेखक थे। उन द्वारा रचित वारों की संख्या 39 है। ये वारें पंजाबी भाषा में लिखी गई हैं। गुरु ग्रंथ साहिब जी के शब्दों के भावों को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इन वारों का अध्ययन करना आवश्यक है। ऐतिहासिक पक्ष से 1 तथा 11वीं वार बहुत महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 7.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में ‘आदि ग्रंथ साहिब जी’ का क्या महत्त्व है ? (Describe the importance of Adi Granth Sahib Ji as a source of the History of Punjab.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की विशेषताओं पर एक नोट लिखें।
(Write a note on the special features of Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी और इसके ऐतिहासिक महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of Adi Granth Sahib Ji and its historical importance.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करों। (Briefly explain the significance of Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ का सम्मान प्राप्त है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब और नवम गुरु, गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी सम्मिलित है। इसमें भक्तों, मुस्लिम संतों, सूफी संतों और भटों इत्यादि की वाणी को भी सम्मिलित किया गया है। हमें आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से उस काल के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

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प्रश्न 8.
दशम ग्रंथ साहिब जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Dasam Granth Sahib Ji ?)
अथवा
दशम ग्रंथ साहिब जी पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Dasam Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
दशम ग्रंथ साहिब जी गुरु गोबिंद सिंह जी तथा उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी द्वारा किया गया था। इसका उद्देश्य मुख्य रूप से अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सिखों में जोश उत्पन्न करना था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें से ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तति’, ‘चंडी की वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शबद हज़ारे’, ‘शस्त्रनामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। बचित्तर नाटक और ज़फ़रनामा ऐतिहासिक पक्ष से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 9.
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन में ‘बचित्तर नाटक’ का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Bachittar Natak in the life of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
‘बचित्तर नाटक’ पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bachittar Natak.)
उत्तर-
बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की एक अद्वितीय रचना है। इसका संबंध गुरु गोबिंद सिंह के जीवन वृत्तांत के साथ है। इसमें परमात्मा की स्तुति की गई है। संसार की रचना कैसे हुई, बेदी वंश तथा सोढी वंश के बारे विस्तृत जानकारी दी गई है। इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के बारे में भी प्रकाश डाला गया है। इसमें गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन के उद्देश्य का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 10.
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण दें। (Give a brief account of historical sources written in 18th century in Punjabi.)
उत्तर-

  1. गुरसोभा-गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में उसने 1699 ई० से लेकर 1708 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया है।
  2. सिखाँ दी भगतमाला-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम, जातियों तथा उनके निवास स्थान के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है।
  3. प्राचीन पंथ प्रकाश-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रत्न सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक साहिब जी से लेकर 18वीं शताब्दी के इतिहास का वर्णन किया गया है।
  4. बंसावलीनामा-बंसावलीनामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बड़ ने की थी। उसमें 18वीं सदी के मध्य तक के इतिहास का वर्णन किया गया है।
  5. महिमा प्रकाश कविता-इसकी रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के इतिहास का वर्णन किया गया है।

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प्रश्न 11.
गुरसोभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Gursobha.)
उत्तर-
गुरसोभा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने 1741 ई० में की थी। इस ग्रंथ में लेखक ने 1699 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी, से लेकर 1708 ई० तक जब वह ज्योति-जोत समाए थे, की आँखों देखी घटनाओं का वर्णन किया था। इसकी गणना गुरु गोबिंद सिंह जी के महत्त्वपूर्ण स्रोतों में की जाती है।

प्रश्न 12.
सिखाँ दी भगतमाला के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Sikhan Di Bhagatmala ?)
उत्तर-
इस ग्रंथ की रचना 18वीं शताब्दी के एक महान् सिख भाई मनी सिंह जी ने की थी। इसमें प्रथम 6 सिख गुरुओं, उनके समय के प्रसिद्ध सिखों, उनकी. जातियों एवं निवास स्थानों के बारे में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त इसमें उस समय की सामाजिक दशा के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है।

प्रश्न 13.
बंसावलीनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Bansavalinama.)
उत्तर-
इस ग्रंथ की रचना केसर सिंह छिब्बड़ ने 1780 ई० में की थी। इसमें 14 अध्याय हैं। प्रथम 10 अध्याय 10 सिख गुरुओं से संबंधित हैं। शेष 4 अध्याय चार साहिबजादों की शहीदी, बंदा सिंह बहादुर, माता सुंदरी जी तथा खालसा पंथ से संबंधित हैं। लेखक गुरु गोबिंद सिंह जी का समकालीन था। इसलिए उसने अनेक आँखों देखी घटनाओं का वर्णन किया है। यह 18वीं शताब्दी के सिख इतिहास के लिए हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है।

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प्रश्न 14.
प्राचीन पंथ प्रकाश का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of Prachin Panth Prakash.) .
उत्तर-
प्राचीन पंथ प्रकाश एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक रचना है। इस ग्रंथ की रचना 1841 ई० में रत्न सिंह भंगू ने की थी। इसमें लेखक ने गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। इसमें मुग़ल-सिख संबंधों, मराठा-सिख संबंधों तथा अफ़गान-सिख संबंधों के बारे में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक जानकारी प्रदान की गई है। यह प्रथम ऐतिहासिक पुस्तक थी जिसको किसी सिख ने लिखा।

प्रश्न 15.
पंजाब के इतिहास से संबंधित फ़ारसी के स्रोतों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account important Persian sources of the History of Punjab.)
अथवा
फ़ारसी के तीन मुख्य ऐतिहासिक स्रोतों का संक्षेप में वर्णन करें जो कि पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
(Give a brief mention of three important Persian sources which are essential for composing the History of Punjab.).
अथवा
पंजाब के इतिहास के तीन प्रसिद्ध फ़ारसी के स्रोतों का विवरण दों। (Give an account of three important Persian sources of the History of Punjab.)
उत्तर-

  1. आइन-ए-अकबरी-अकबरी के सिख गुरुओं के साथ संबंधों की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारा मुख्य स्रोत है। इसकी रचना अबुल फजल ने की थी।
  2. जंगनामा की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी। इस पुस्तक में उसने अब्दाली के आक्रमण का आँखों देखा हाल और सिखों की युद्ध विधि और चरित्र के संबंध में वर्णन किया है।
  3. उमदत-उत-तवारीख का लेखक महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी सोहन लाल सूरी था। यह ग्रंथ महाराजा के काल की ऐतिहासिक जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  4. तवारीख-ए-सिखाँ का लेखक खुशवक्त राय था। यह गुरु नानक साहिबं से लेकर 1811 ई० तक के इतिहास को जानने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  5. चार बाग़-ए-पंजाब का लेखक गणेश दास वडेहरा था। यह महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल का एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 16.
चार बाग़-ए-पंजाब पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Char Bagh-i-Punjab. )
उत्तर-
इस पुस्तक की रचना 1855 ई० में गणेश दास वडेहरा ने की थी। वह महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत कानूनगो के पद पर कार्यरत था। इस पुस्तक में लेखक ने महाराजा रणजीत सिंह से लेकर 1849 ई० तक पंजाब की घटनाओं का वर्णन किया है। इस पुस्तक में लेखक ने महाराजा रणजीत सिंह के काल से संबंधित आँखो-देखी घटनाओं का क्रमानुसार वर्णन किया है। इसमें पंजाब की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक दशा पर भी प्रकाश डाला गया है।

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प्रश्न 17.
पंजाब के इतिहास की जानकारी देने वाले महत्त्वपूर्ण अंग्रेज़ी स्रोतों पर प्रकाश डालें। (Mention important English sources which throw light on the History of Punjab.)
अथवा
अंग्रेज़ी में लिखे पंजाब के इतिहास के बारे में जानकारी देने वाले तीन महत्त्वपूर्ण स्रोतों पर प्रकाश डालें।
(Throw light on three important sources of information on Punjab History written in English.)
उत्तर-

  1. द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह-इस पुस्तक में कैप्टन विलियम उसबोर्न ने महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की भव्यता के संबंध में तथा सेना के संबंध में बहुत अधिक प्रकाश डाला है।
  2. हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब-इस पुस्तक में डॉक्टर मरे ने महाराजा रणजीत सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों से संबंधित बहुमूल्य स्रोत है।
  3. हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्- इस पुस्तक में डॉक्टर मैकग्रेगर ने महाराजा रणजीत सिंह तथा सिखों की अंग्रेजों के साथ लड़ाइयों से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।
  4. स्कैच आफ़ द सिखस-इस पुस्तक में मैल्कोम ने सिख इतिहास की संक्षेप जानकारी दी है।
  5. द पंजाब-इस पुस्तक में स्टाइनबख ने महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है।

प्रश्न 18.
भारतीय अंग्रेज सरकार के रिकॉर्ड के ऐतिहासिक महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the historical importance of Records of British Indian Government.)
उत्तर-
भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के आरंभ से लेकर सिख राज्य के पतन तक (1799-1849 ई०) के इतिहास को जानने के लिए हमारा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसमें से अधिकतर रिकॉर्ड भारत के राष्ट्रीय पुरालेख विभाग, दिल्ली में पड़े हुए हैं। इन रिकॉर्डों से हमें अंग्रेज़-सिख संबंधों, रणजीत सिंह के राज्य के बारे, अंग्रेज़ों के सिंध तथा अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों के बारे में बहुत विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 19.
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों के महत्त्व की चर्चा करें। (Examine the importance of coins in the construction of the History of the Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों का विशेष महत्त्व है। पंजाब के हमें मुग़लों, बंदा सिंह बहादुर, जस्सा सिंह आहलूवालिया, अहमद शाह अब्दाली तथा महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के मिलते हैं। ये सिक्के विभिन्न धातुओं से बने हुए हैं। इनमें से अधिकाँश सिक्के लाहौर, पटियाला एवं चंडीगढ़ के अजायबघरों में पड़े हैं। ये सिक्के तिथियों तथा शासकों संबंधी विवरण पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। अतः ये सिक्के पंजाब के इतिहास की कई समस्याओं को सुलझाने में हमारी सहायता करते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
पंजाब का इतिहास लिखने के संबंध में इतिहासकारों के समक्ष आने वाली किसी एक कठिनाई का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पंजाबियों को इतिहास लिखने में रुचि नहीं थी।

प्रश्न 2.
पंजाब के इतिहास से संबंधित सिखों का कोई एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बताएँ।
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी की रचना कब की गई थी?
उत्तर-
1604 ई०।

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प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 5.
सिखों का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ कौन-सा है?
अथवा
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक (ग्रंथ साहिब) का नाम क्या है?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 6.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था?
उत्तर-
1721 ई० में।

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प्रश्न 7.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 8.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संबंध किस गुरु से है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी।

प्रश्न 9.
दशम ग्रंथ साहिब जी में शामिलं गुरु गोबिंद सिंह जी की किसी एक रचना का नाम बताएँ।
उत्तर-
बचित्तर नाटक।

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प्रश्न 10.
बचित्तर नाटक की रचना किसने की?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने।

प्रश्न 11.
बचित्तर नाटक क्या है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा।

प्रश्न 12.
जफ़रनामा क्या है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को फ़ारसी में लिखा गया एक पत्र।

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प्रश्न 13.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को ज़फ़रनामा किस स्थान से लिखा गया ?
उत्तर-
दीना काँगड़।

प्रश्न 14.
जफ़रनामा को किस भाषा में लिखा गया ?
उत्तर-
फ़ारसी में।

प्रश्न 15.
भाई गुरदास जी कौन थे ?
उत्तर-
दातार चंद भल्ला के पुत्र।

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प्रश्न 16.
भाई गुरदास जी ने कुल कितनी वारों की रचना की?
उत्तर-
39.

प्रश्न 17.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
ये वे कथाएँ हैं जो कि गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित हैं।

प्रश्न 18.
किसी एक जन्म साखी का नाम लिखें।
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी।

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प्रश्न 19.
सर्वाधिक विश्वसनीय जन्म साखी कौन-सी है?
उत्तर-
पुरातन जन्म साखी।

प्रश्न 20.
ज्ञान रत्नावली का श्यथिता कौन था?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 21.
भाई बाला जी कौन थे?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के बचपन के साथी।

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प्रश्न 22.
हुक्मनामे क्या हैं ?
उत्तर-
‘हुक्मनामे’ का अर्थ है-आज्ञा पत्र।

प्रश्न 23.
गुरु तेग़ बहादुर जी के कितने हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं ?
उत्तर-
23.

प्रश्न 24.
सर्वाधिक हुक्मनामे किस गुरु साहिबान के प्राप्त होते हैं?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी।

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प्रश्न 25.
गुरु गोबिंद सिंह जी के कितने हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं ?
उत्तर-
34.

प्रश्न 26.
अब तक प्राप्त हुक्मनामों की कुल संख्या बताएँ।
उत्तर-
89.

प्रश्न 27.
सेनापत कौन था ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबार का एक प्रसिद्ध कवि।

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प्रश्न 28.
सिखाँ दी भमतमाला पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी ।

प्रश्न 29.
रत्न सिंह भंगू ने प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना कब की थी ?
उत्तर-
1841 ई० ।

प्रश्न 30.
प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना किसने की ?
उत्तर-
रत्न सिंह भंगू।

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प्रश्न 31.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना किसने की ?
उत्तर-
भाई संतोख सिंह जी।

प्रश्न 32.
‘बंसावलीनामा’ की रचना किसने की थी ?
उत्तर-
केसर सिंह छिब्बड़।

प्रश्न 33.
तुजक-ए-बाबरी का लेखक कौन था ?
उत्तर-
बाबर।

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प्रश्न 34.
अकबर के दरबार का सबसे प्रसिद्ध विद्वान् कौन था ?
उत्तर-
अबुल फज़ल.

प्रश्न 35.
आइन-ए-अकबरी तथा अकबरनामा की रचना किसने की ?
उत्तर-
अबुल फज़ल।

प्रश्न 35.
जहाँगीर की आत्म-कथा का नाम लिखो
उत्तर-
तुज़क-ए-जहाँगीरी।

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प्रश्न 37.
श्री गुरुसोभा का लेखक कौन था ?
उत्तर-
सेनापत।

प्रश्न 38.
खाफ़ी खाँ द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
मुंतखिब-उल-लुबाब।

प्रश्न 39.
जंगनामा का लेखक कौन था?
अथवा
‘जंगनामा’ पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
काज़ी नूर मुहम्मद।

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प्रश्न 40.
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल से संबंधित जानकारी देने वाले फ़ारसी के किसी एक प्रसिद्ध स्रोत के नाम बताएँ ।
उत्तर-
उमदत-उत-तवारीख।

प्रश्न 41.
महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी इतिहासकार कौन था?
अथवा
उमदत-उत-तवारीख का लेखक कौन था ?
उत्तर-
सोहन लाल सूरी।

प्रश्न 42.
सोहन लाल सूरी द्वारा रचित प्रसिद्ध रचना का नाम लिखें।
उत्तर-
उमदत-उत तवारीख।

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प्रश्न 43.
जफ़रनामा-ए-रणजीत सिंह का लेखक कौन था ?
उत्तर-
दीवान अमरनाथ।

प्रश्न 44.
तवारीख-ए-सिखाँ की रचना किसने की ?
उत्तर-
खुशवक्त राय ने।

प्रश्न 45.
तवारीख-ए-पंजाब का लेखक कौन था ?
उत्तर-
बूटे शाह।

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प्रश्न 46.
चार-बाग़-ए-पंजाब पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
गणेश दास वडेहरा।

प्रश्न 47.
भट्ट वहियें क्या थी ?
उत्तर-
भट्टों द्वारा संकलित ब्यौरा।

प्रश्न 48.
भट्ट वहियों की खोज किसने की ?
उत्तर-
ज्ञानी गरजा सिंह ने।

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प्रश्न 49.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड का संकलन किसने किया था ?
उत्तर-
सीता राम कोहली।

प्रश्न 50.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड से हमें किस काल के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह।

प्रश्न 51.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड किस भाषा में हैं ?
उत्तर-
फ़ारसी।

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प्रश्न 52.
जे० डी० कनिंघम की प्रसिद्ध रचना का नाम बताएँ।
उत्तर-
हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्।

प्रश्न 53.
स्कैच ऑफ द सिखस् का लेखक कौन था ?
उत्तर-
मैल्कोम।

प्रश्न 54.
द कोर्ट ऑफ कैंप ऑफ रणजीत सिंह का लेखक कौन था ?
उत्तर-
विलियम उसबोर्न।

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प्रश्न 55.
डाक्टर मरे ने किस पुस्तक की रचना की ?
उत्तर-
हिस्ट्री ऑफ द पंजाब।

प्रश्न 56.
सिख गुरुओं द्वारा निर्मित किसी एक प्रसिद्ध नगर का नाम बताएँ।
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 57.
सिखों के सर्वप्रथम सिक्के किसने जारी किए थे ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर ने।

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प्रश्न 58.
बंदा सिंह बहादुर ने किन गुरुओं के नाम पर सिक्के चलाए ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिंद सिंह जी।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
सिख गुरु साहिबान के इतिहास से संबंधित हमारा मुख्य स्रोत…….है।
उत्तर-
(जन्म साखियाँ)

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन……..में हुआ।
उत्तर-
(1604 ई०)

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प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन……ने किया था।
उत्तर-
(गुरु अर्जन साहिब जी)

प्रश्न 4.
………ने दशम ग्रंथ साहिब का संकलन किया।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

प्रश्न 5.
दशम ग्रंथ का संबंध……..से है।
उत्तर-
(गुरु गोबिंद सिंह जी)

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प्रश्न 6.
गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा का नाम……है।
उत्तर-
(बचित्तर नाटक)

प्रश्न 7.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए पत्र का नाम……..है।
उत्तर-
(ज़फ़रनामा)

प्रश्न 8.
भाई गुरदास जी ने कुल…….वारों की रचना की।
उत्तर-
(39)

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प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को……कहा जाता है।
उत्तर-
(जन्म साखियाँ)

प्रश्न 10.
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी को………भी कहा जाता है।
उत्तर-
(ज्ञान रत्नावली)

प्रश्न 11.
हुक्मनामों से भाव………है।
उत्तर-
(आज्ञा-पत्र)

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प्रश्न 12.
……..ने श्री गुरसोभा की रचना की।
उत्तर-
(सेनापत)

प्रश्न 13.
भाई मनी सिंह जी ने……..की रचना की।
उत्तर-
(सिखाँ दी भगत माला)

प्रश्न 14.
प्राचीन पंथ प्रकाश का लेखक………था।
उत्तर-
(रतन सिंह भंगू)

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प्रश्न 15.
तवारीख गुरु खालसा का लेखक……….था।
उत्तर-
(ज्ञानी ज्ञान सिंह)

प्रश्न 16.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना……….ने की।
उत्तर-
(भाई संतोख सिंह)

प्रश्न 17.
ज्ञान रत्नावली का लेखक……….था।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

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प्रश्न 18.
बाबर की आत्मकथा को……..कहा जाता है।
उत्तर-
(तुज़क-ए-बाबरी)

प्रश्न 19.
……….ने आइन-ए-अकबरी और अकबर नामा की रचना की।
उत्तर-
(अबुल फज़ल)

प्रश्न 20.
तुज़क-ए-जहाँगीरी…….की आत्मकथा है।
उत्तर-
(जहाँगीर)

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प्रश्न 21.
……….ने मुतंखिब-उल-लुबाब की रचना की।
उत्तर-
(खाफी खाँ)

प्रश्न 22.
……की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी।
उत्तर-
(जंगनामा)

प्रश्न 23.
……..महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी इतिहासकार था।
उत्तर-
(सोहन लाल सूरी)

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प्रश्न 24.
सोहन लाल सूरी ने…….की रचना की।
उत्तर-
(उमदत-उत-तवारीख)

प्रश्न 25.
बूटे शाह ने…….की रचना की।
उत्तर-
(तवारीख-ए-पंजाब)

प्रश्न 26.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह की रचना…..ने की थी।
उत्तर-
(दीवान अमरनाथ)

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प्रश्न 27.
गणेश दास वडेहरा ने……..की रचना की।
उत्तर-
(चार बाग़-ए-पंजाब)

प्रश्न 28.
द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह का लेखक……..था।
उत्तर-
(विलियम उसबोर्न)

प्रश्न 29.
जे० डी० कनिंघम ने…….की रचना की।
उत्तर-
(हिस्ट्री ऑफ द सिखस्)

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प्रश्न 30.
…………ने सिख राज के प्रथम सिक्के जारी किए।
उत्तर-
(बंदा सिंह बहादुर)

(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी को सिखों का सर्वोच्च और पवित्र ग्रंथ माना जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 3.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
गुरु गोबिंद सिंह द्वारा लिखी गई आत्मकथा का नाम ज़फ़रनामा है।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 5.
भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन के साथ संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी को ज्ञान रत्नावली भी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 9.
हुक्मनामे वह आज्ञा पत्र थे जो सिख गुरुओं या गुरु घरानों के साथ संबंधित सदस्यों ने सिख संगतों के नाम पर जारी किए।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
श्री गुरसोभा की रचना सेनापत ने 1741 ई० में की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
सिखाँ दी भगतमाला की रचना भाई मनी सिंह ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 12.
गुरप्रताप सूरज ग्रंथ की रचना भाई संतोख सिंह ने की।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
प्राचीन पंथ प्रकाश का लेखक ज्ञानी ज्ञान सिंह था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
बाबर की आत्मकथा को तुज़क-ए-बाबरी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 15.
माइन-ए-अकबरी और अकबरनामा का लेखक अबुल फज़ल था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
तुज़क-ए-जहाँगीरी की रचना शाहजहाँ ने की थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 17.
खुलासत-उत-तवारीख की रचना सुजान राय भंडारी ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 18.
जंगनामा का लेखक काजी नूर मुहम्मद था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
उमदत-उत-तवारीख का लेखक सोहन लाल सूरी था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह की रचना दीवन अमरनाथ ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 21.
चार बाग-ए-पंजाब की रचना गणेश दास वडेहरा ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 22.
खालसा दरबार रिकॉर्ड गुरमुखी भाषा में लिखा गया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 23.
‘स्केच ऑफ द सिखस्’ की रचना मैल्कोम ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 24.
‘द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह’ की रचना विलियम उसबोर्न ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
‘हिस्ट्री ऑफ द सिखस्’ का लेखक जे० डी० कनिंघम था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब हुआ ?
(i) 1601 ई० में
(ii) 1602 ई० में
(iii) 1604 ई० में
(iv) 1605 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 3.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था ?
(i) गुरु गोबिंद सिंह जी ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा दीप सिंह जी ने
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 4.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संबंध किस गुरु के साथ है ?
(i) पहले गुरु के साथ
(ii) तीसरे गुरु के साथ
(iii) पाँचवें गुरु के साथ
(iv) दशम गुरु के साथ।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 5.
ज़फ़रनामा किस गुरु साहिब ने लिखा था ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने ।
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 6.
बचित्तर नाटक क्या है ?
(i) गुरु नानक देव जी की आत्म-कथा
(ii) गुरु हरगोबिंद जी की आत्म-कथा
(iii) गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्म-कथा
(iv) बंदा सिंह बहादर की आत्म-कथा।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 7.
भाई गुरदास जी ने कुल कितनी वारों की रचना की ?
(i) 15
(ii) 20
(iii) 29
(iv) 39
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 8.
पुरातन जन्म साखी का संपादन किसने किया ?
(i) भाई काहन सिंह नाभा ने
(ii) भाई वीर सिंह ने
(iii) भाई मनी सिंह जी ने
(iv) मेहरबान ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
ज्ञान रत्नावली का रचयिता कौन था ?
(i) केसर सिंह छिब्बर
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) भाई बाला जी
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
मेहरबान वाली जन्म साखी का लेखक कौन था ?
(i) मनोहर दास
(ii) अकिल दास
(iii) भाई बाला जी
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 11.
हुक्मनामे क्या हैं ?
(i) सिख गुरुओं के आज्ञा-पत्र
(ii) सबसे प्रसिद्ध जन्म साखी
(iii) मुग़ल बादशाहों के आदेश
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
श्री गुरसोभा का रचयिता कौन था ?
(i) भाई मनी सिंह जी
(ii) रत्न सिंह भंगू
(iii) सेनापत
(iv) ज्ञानी ज्ञान सिंह।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 13.
बंसावली नामा की रचना किसने की थी ?
(i) केसर सिंह छिब्बड़ ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) भाई गुरदास जी ने
(iv) रतन सिंह भंगू ने।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 14.
सिखाँ दी भगतमाला की रचना किसने की ?
(i) भाई मनी सिंह जी ने
(ii) भाई दया सिंह ने
(iii) भाई संतोख सिंह ने
(iv) रत्न सिंह भंगू ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना किसने की ?
(i) सरूप दास भल्ला
(ii) भाई संतोख सिंह
(iii) रत्न सिंह भंगू
(iv) ज्ञानी ज्ञान सिंह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 16.
रल सिंह भंगू ने प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना कब की थी ?
(i) 1641 ई० में
(ii) 1741 ई० में
(ii) 1841 ई० में ।
(iv) 1849 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 17.
तवारीख गुरु खालसा का लेखक कौन था ?
(i) ज्ञानी ज्ञान सिंह
(ii) भाई संतोख सिंह
(iii) रत्न सिंह भंगू
(iv) भाई मनी सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
तुजक-ए-बाबरी का संबंध किस बादशाह से है ?
(i) हुमायूँ से
(ii) बाबर से
(iii) जहाँगीर से
(iv) अकबर से।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 19.
बाबर ने तुजक-ए-बाबरी की रचना किस भाषा में की थी ?
(i) फ़ारसी भाषा
(ii) तुर्की भाषा
(ii) उर्दू भाषा
(iv) अरबी भाषा।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 20.
आइन-ए-अकबरी तथा अकबरनामा की रचना किसने की ?
(i) अबुल फज़ल
(ii) सुजान राय भंडारी
(iii) सोहन लाल सूरी
(iv) काजी नूर मुहम्मद।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 21.
तुज़क-ए-जहाँगीरी की रचना किसने की ?
(i) बाबर
(ii) जहाँगीर
(iii) शाहजहाँ
(iv) औरंगजेब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 22.
खुलासत-उत-तवारीख की रचना किसने की ?
(i) सुजान राय भंडारी
(ii) काजी नूर मुहम्मद
(iii) खाफ़ी खाँ
(iv) सोहन लाल सूरी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 23.
खाफी खाँ ने किस प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की थी ?
(i) दबिस्तान-ए-मज़ाहिब
(ii) जंगनामा
(iii) खुलासत-उत-तवारीख
(iv) मुंतखिब-उल-लुबाब।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 24.
जंगनामा की रचना किसने की ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) काजी नूर मुहम्मद
(iii) खाफ़ी खाँ
(iv) अबुल फज़ल।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 25.
महारा जा रणजीत सिंह के दरबारी इतिहासकार सोहन लाल सूरी ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
(i) उमदत-उत-तवारीख
(ii) तवारीख-ए-सिखाँ
(iii) तवारीख-ए-पंजाब
(iv) इबरतनामा।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 26.
खुशवक्त राय ने तवारीख-ए-सिखाँ की रचना कब की थी ?
(i) 1764 ई० में
(ii) 1784 ई० में
(iii) 1811 ई० में
(iv) 1821 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 27.
तवारीख-ए-सिखाँ की रचना किसने की ?
(i) दीवान अमरनाथ
(ii) खुशवक्त राय
(iii) सोहन लाल सूरी
(iv) बूटे शाह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 28.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह के रचयिता कौन थे ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) दीवान अमरनाथ
(iii) अलाउदीन मुफ़ती
(iv) काजी नूर मुहम्मद।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 29.
गणेश दास वडेहरा की प्रसिद्ध पुस्तक का क्या नाम था ?
(i) तवारीख-ए-पंजाब
(ii) तवारीख-ए-सिखाँ
(iii) चार बाग़-ए-पंजाब
(iv) इबरतनामा।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 30.
खालसा दरबार रिकॉर्ड किस भाषा में है ?
(i) अंग्रेज़ी
(ii) फ़ारसी
(iii) उर्दू
(iv) पंजाबी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 31.
मैल्कोम ने स्केच ऑफ द सिखस् की रचना कब की थी ?
(i) 1802 ई० में
(ii) 1812 ई० में
(iii) 1822 ई० में
(iv) 1832 ई० में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 32.
द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह नाम की प्रसिद्ध पुस्तक का लेखक कौन था ?
(i) एच० टी० प्रिंसेप
(ii) विलियम उसबोर्न
(iii) डॉक्टर मैकग्रेगर
(iv) जे० डी० कनिंघम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 33.
निम्नलिखित में से हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस् का लेखक कौन था ?
(i) जे० डी० कनिंघम
(ii) अलैग्जेंडर बर्नज
(iii) डॉक्टर मरे
(iv) मैलकोम।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 34.
सिखों के सर्वप्रथम सिक्के किसने जारी किए थे ?
(i) गुरु गोबिंद सिंह जी ने
(ii) बंदा सिंह बहादुर ने
(iii) जस्सा सिंह आहलूवालिया
(iv) महाराजा रणजीत सिंह ने।
उत्तर-
(ii)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों की रचना करते समय पेश आने वाली मुश्किलों के बारे में बताएं।
(Explain the problems being faced for constructing the history of Punjab.)
अथवा
पंजाब के इतिहास को समझने में इतिहासकारों को किन छः मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(Which six problems are faced by the historians in understanding the history of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें कौन-सी मुख्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What are the main problems regarding the historical sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें कौन-सी छः मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(What six difficulties do we face regarding the historical sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास का संकलन करने के लिए विद्यार्थियों को कौन-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What problems are faced by the students in composing the history of the Punjab ?)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना करने में इतिहासकारों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला-औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद पंजाब में एक ऐसा दौर आया जो पूरी तरह से अशाँति तथा अराजकता से भरा हुआ था। सिखों को अपनी रक्षा के लिए पहाड़ों एवं वनों में जाकर शरण लेनी पड़ती थी। अतः ऐसे वातावरण में इतिहास लेखन का कार्य कैसे संभव था।

2. मुस्लिम इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण विचार-पंजाब के इतिहास को लिखने में सबसे अधिक जिन स्रोतों की सहायता ली गई है वे हैं फ़ारसी में लिखे गए ग्रंथ। इन ग्रंथों को मुसलमान लेखकों ने लिखा है जो सिखों के कट्टर दुश्मन थे। इन ग्रंथों को बड़ी जाँच-पड़ताल से पढ़ना पड़ता है क्योंकि इन इतिहासकारों ने अधिकतर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। अतः इन ग्रंथों को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

3. ऐतिहासिक स्रोतों का नष्ट होना-18वीं शताब्दी के लगभग 7वें दशक तक पंजाब में अशांति एवं अराजकता का वातावरण रहा। 1739 ई० में नादिर शाह तथा 1747 से 1767 ई० तक अहमद शाह अब्दाली के 8 आक्रमणों के कारण पंजाब की स्थिति अधिक शोचनीय हो गई थी। ऐसे समय जब सिखों के अनेक धार्मिक ग्रंथ नष्ट हो गए। इस कारण सिखों को अपने अनेक अमूल्य ग्रंथों से वंचित होना पड़ा।

4. अखोजित ऐतिहासिक स्रोत–अनेक सिख परिवारों तथा जागीरदारों के पास सिख मिसलों तथा महाराजा रणजीत सिंह के समय के पट्टे, निजी चिट्टियाँ, भट्ट वहियाँ तथा शास्त्र इत्यादि संदूकों में बंद पड़े हैं। ये लोग इनकी ऐतिहासिक महत्ता से वाकिफ नहीं हैं। इस कारण ये स्रोत अभी तक बिना खोज के ही पड़े हैं।

5. पंजाब मुग़ल साम्राज्य का एक भाग-पंजाब 1752 ई० तक मुग़ल साम्राज्य का भाग रहा था। इस कारण इसका कोई अलग से इतिहास न लिखा गया। आधुनिक इतिहासकारों को मुग़ल काल में लिखे गए साहित्य से पंजाब की बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है। अतः पर्याप्त विवरण के अभाव में पंजाब के इतिहास की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं की जा सकती।

6. पंजाब का बँटवारा-1947 ई० में भारत के बँटवारे के साथ-साथ पंजाब को भी दो भागों में विभाजित किया गया। इस बँटवारे के कारण अनेक ऐतिहासिक भवन एवं बहुमूल्य ग्रंथ पाकिस्तान में ही रह गए। इन के अतिरिक्त विभाजन के समय हुई भयंकर लूटमार के कारण बहुत-से ऐतिहासिक स्रोत नष्ट हो गए।

प्रश्न 2.
हुक्मनामों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Hukamnamas.)
उत्तर-
हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। अब तक 89 हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। गुरु गोबिंद सिंह जी के हुक्मनामों में तिथियों का वर्णन किया गया है। ये तिथियाँ ऐतिहासिक पक्ष से महत्त्वपूर्ण हैं। एक हुक्मनामे में गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख संगतों को निर्देश दिया है कि वो गुरु घर को भेजी जाने वाली रसद अथवा धन को मसंदों द्वारा भेजने की अपेक्षा स्वयं आकर जमा करवाएँ। उन्होंने अपने अंतिम हुक्मनामे में पंजाब के सिखों को यह आदेश दिया था कि वह बंदा सिंह बहादुर को अपना सैनिक नेता स्वीकार करें तथा उसे यथा संभव सहयोग दें। इनके अतिरिक्त अन्य हुक्मनामे गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिंद जी, गुरु हर राय जी, गुरु हरकृष्ण जी, माता गुजरी जी, माता सुंदरी जी, माता साहिब देवां जी, बाबा गुरदित्ता जी तथा बंदा सिंह बहादुर से संबंधित थे। ये हुक्मनामे गुरु साहिबान के समय के राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक और आर्थिक दशा पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। सिख इन हुक्मनामों को परमात्मा का आदेश समझ कर उनकी पालना करते थे। इनकी पालना के लिए वे अपना जीवन कुर्बान करने में गर्व महसूस करते थे। इन हुक्मनामों को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर द्वारा छपवाया गया है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 3.
सिखों के धार्मिक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों का वर्णन करें। ‘
(Give a brief account of the important historical sources related to religious literature of the Sikhs.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के लिए धार्मिक साहित्य पर आधारित महत्त्वपूर्ण स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of important sources based on religious literature of Punjab History.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। इस का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. आदि ग्रंथ साहिब जी-आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिबान्, हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी सम्मिलित है। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित कर ली गई। आदि ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

2. दशम ग्रंथ साहिब जी दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है।

3. भाई गुरदास जी की वारें-भाई गुरदास जी एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

4. जन्म साखियाँ-गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में बहत-सी जन्म साखियों की पंजाबी में रचना हुई। इन जन्म साखियों में पुरातन जन्म साखी, भाई मेहरबान वाली जन्म साखी, भाई बाला जी की जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी महत्त्वपूर्ण

5. हुक्मनामे–हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश के सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की मांग की गई थी।

प्रश्न 4.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है ? चार मुख्य जन्म साखियों का वर्णन करें। (What is meant by Janam Sakhis ? Explain briefly the four Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियों के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे एक नोट लिखें। . (Write a note on the historical importance of Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियाँ क्या हैं ? भिन्न-भिन्न जन्म साखियों का महत्त्व बताएँ।
(What do you understand by Janam Sakhis ? What is the importance of different Janam Sakhis ?).
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ कहा जाता है।—

  1. पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था। यह जन्म साखी सबसे प्राचीन है और काफ़ी विश्वसनीय भी।
  2. मेहरबान वाली जन्म साखी की रचना पृथी चंद के सपत्र मेहरबान ने की थी। गुरु घर से संबंधित होने के कारण मेहरबान गुरु नानक देव जी के जीवन से भली-भाँति परिचित था। उसने गुरु नानक देव जी की उदासियों का विस्तृत वर्णन किया है। यह जन्म साखी भी काफ़ी विश्वसनीय मानी जाती है।
  3. भाई बाला की जन्म साखी की रचना गुरु नानक देव जी के साथी बाला जी ने की थी। इस जन्म साखी में बहुत-सी मनगढंत बातों को सम्मिलित किया गया है लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। इसलिए यह जन्म साखी अधिक लाभप्रद नहीं है।
  4. ज्ञान रत्नावली नामक जन्म साखी की रचना भाई मनी सिंह जी ने की थी। ऐतिहासिक पक्ष से यह साखी बहुत विश्वसनीय है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों को सही रूप में प्रस्तुत किया गया है।

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प्रश्न 5.
भाई गुरदास जी की वारों के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Vars of Bhai Gurdas Ji ?)
अथवा
भाई गुरदास जी भल्ला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Bhai Gurdas Ji Bhalla.)
उत्तर-
भाई गुरदास भल्ला (1581-1635 ई०) गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला जी के पुत्र थे। वह तीसरे, चौथे, पाँचवें तथा छठे गुरुओं के समकालीन थे। वह एक उच्चकोटि के कवि एवं लेखक थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। ये वारें पंजाबी भाषा में लिखी गई हैं। गुरु ग्रंथ साहिब के शब्दों के भावों को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इन वारों का अध्ययन करना आवश्यक है। इसी कारण इन वारों को ‘गुरु ग्रंथ साहिब की कुंजी’ कहा जाता है। इन वारों से हम सिखों के प्रथम 6 गुरुओं के जीवन, सिख धर्म की शिक्षाओं, महत्त्वपूर्ण सिखों तथा नगरों के नाम, भक्तों तथा संतों के जीवन से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त करते हैं । ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा ग्यारहवीं वार बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जन्म से पूर्व संसार की दशा का वर्णन करते हुए गुरु नानक देव जी के आगमन की आवश्यकता, उनके जीवन से संबंधित प्रमुख घटनाओं की विस्तृत जानकारी दी है। इसके पश्चात् गुरु अंगद देव जी से लेकर गुरु हरगोबिंद जी तक का संक्षिप्त वर्णन दिया गया है। ग्यारहवीं वार में गुरु साहिबान से संबंधित प्रमुख सिखों के बारे में, उनके नामों के बारे में, उनके व्यवसायों के बारे में, जातियों तथा स्थानों आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।

प्रश्न 6.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में ‘आदि ग्रंथ साहिब’ जी का क्या महत्त्व है ?
(Describe the importance of ‘Adi Granth Sahib Ji’ as a source of the History of Punjab.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के ऊपर नोट लिखें।
(Write a note on Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी और इसके ऐतिहासिक महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief description of Adi Granth Sahib Ji and its historical importance.)
उत्तर-
1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य था।

1. संकलन की आवश्यकता-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, सिखों के नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथिया ने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की बाणी कहकर प्रचलित करनी आरंभ कर दी थी। गुरु अर्जन देव जी गुरु साहिबान की बाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे। तीसरा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची बाणी पढ़ने के लिए कहा था।

2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य अमृतसर के रामसर नामक एक स्थान पर किया गया। गुरु अर्जन देव जी वाणी लिखवाते गए और भाई गुरदास जी इसे लिखते गए। यह महान् कार्य अगस्त, 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश हरिमंदिर साहिब जी में किया गया। बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।

3. आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वाले-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों का वर्णन निम्नलिखित है

i) सिख गुरु-आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शब्द अंकित हैं। बाद में गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शब्द एवं श्लोक सम्मिलित किए गए।

ii) भक्त एवं संत-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की बाणी अंकित की गई है। प्रमख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, भक्त फ़रीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानंद जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शब्द हैं।

iii) भट्ट-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भट्टों के 123 सवैये भी अंकित किए गए हैं। कुछ प्रमुख भट्टों के नाम ये हैं-कलसहार जी, नल जी, बल जी, भिखा जी और हरबंस जी।

4. आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए हैं। इसकी बाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातृत्व का संदेश देती है। आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें 16वीं एवं 17वीं शताब्दियों के पंजाब के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दशा की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

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प्रश्न 7.
दशम ग्रंथ साहिब जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Dasam Granth Sahib ?)
अथवा
दशम ग्रंथ साहिब पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Dasam Granth Sahib.)
उत्तर-
दशम ग्रंथ साहिब सिखों का एक अन्य पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी तथा उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। इसका उद्देश्य मुख्य रूप से राजनीतिक तथा धार्मिक अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सिखों में जोश उत्पन्न करना था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें से ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तत’, ‘चंडी दी वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शबद हज़ारे’, ‘शस्त्रनामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘जफ़रनामा’ इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक पक्ष से बचित्तर नाटक और ज़फ़रनामा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखित आत्मकथा है। यह बेदी और सोढी जातियों के प्राचीन इतिहास, गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान और गरु गोबिंद सिंह जी की पहाड़ी राजाओं के साथ लड़ाइयों को जानने के संबंध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जफ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना काँगड़ नामक स्थान पर की थी। यह एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में औरंगज़ेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सैनापतियों के द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी से धोखा करने का उल्लेख बहुत साहूस और निर्भीकता से किया है। दशम ग्रंथ साहिब वास्तव में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन एवं कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत

प्रश्न 8.
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई छः ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण दें। (Give a brief account of six historical sources written in 18th century in Punjabi.)
उत्तर-
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

श्री गुरसोभा-श्री गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में उसने 1699 ई० में, जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, से लेकर 1708 ई० तक जब गुरु गोबिंद सिंह जी ज्योति-जोत समाए थे, की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया

2. सिखाँ दी भगतमाला-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रंथ को भगत रत्नावली भी कहा जाता है। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम, जातियों तथा उनके निवास स्थान और उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

3. बंसावली नामा-बंसावली नामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बर ने की थी। इसमें गुरु साहिबान से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक का इतिहास वर्णित किया गया है। सिख गुरुओं की तुलना में यह ग्रंथ बाद के इतिहास के लिए अधिक विश्वसनीय है।

4. महिमा प्रकाश-महिमा प्रकाश की दो रचनाएँ हैं। प्रथम का नाम महिमा प्रकाश वारतक और द्वितीय का नाम महिमा प्रकाश कविता है।

  • महिमा प्रकाश वारतक-इस पुस्तक की रचना 1741 ई० में कृपाल चंद ने की थी। इसमें गुरु साहिबान के जीवन का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है।
  • महिमा प्रकाश कविता-इस पुस्तक की रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

5. प्राचीन ग्रंथ प्रकाश-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रतन सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इस पुस्तक में तथ्यों का वर्णन क्रमानुसार और प्रमाणिक किया गया है।

6. तवारीख गुरु खालसा-इस ग्रंथ की रचना ज्ञानी ज्ञान सिंह ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 1849 ई० तक सिख राज्य के अंत तक की घटनाओं का वृत्तांत दिया गया है।

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प्रश्न 9.
पंजाब के इतिहास से संबंधित फ़ारसी के किन्हीं छः स्रोतों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of six important Persian sources of the History of Punjab.)
अथवा
फ़ारसी के मुख्य ऐतिहासिक स्रोतों का संक्षेप में वर्णन करें जो कि पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
(Give a brief mention of the important Persian sources which are essential for composing the History of Punjab.)
उत्तर-
1. आइन-ए-अकबरी की रचना अकबर के विख्यात दरबारी इतिहासकार अबुल फज़ल ने की थी। यह अकबर के सिख गुरुओं के साथ संबंधों को जानने के लिए हमारा मुख्य स्रोत है। इसके अतिरिक्त इससे हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक दशा के संबंध में भी कुछ जानकारी प्राप्त होती है।

2. तुजक-ए-जहाँगीरी मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा लिखित आत्मकथा है। इससे हमें गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। इसे पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु अर्जन देव जी को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया था।

3. जंगनामा की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी। वह 1764 ई० में अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमण के समय उसके साथ आया था। इस पुस्तक में उसने अब्दाली के साथ आक्रमण का आँखों देखा हाल और सिखों की युद्ध करने की विधि और उनके चरित्र के संबंध में वर्णन किया है।

4. उमदत-उत-तवारीख का लेखक महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी सोहन लाल सूरी था। इस ग्रंथ में उसने 1469 ई० से लेकर 1849 ई० तक के पंजाब के इतिहास का वर्णन किया है। यह महाराजा रणजीत सिंह के काल के लिए हमारा एक बहुत ही विश्वसनीय स्रोत है।

5. ज़फरनामा-ए-रणजीत सिंह-यह महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल से संबंधित एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसकी रचना दीवान अमरनाथ ने की थी। इस पुस्तक में महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल की 1837 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया गया है। कई इतिहासकार इस पुस्तक को उमदतउत्त-तवारीख से भी अधिक विश्वसनीय मानते हैं।

6. चार बाग़-ए-पंजाब-इस पुस्तक की रचना 1855 ई० में गणेश दास वडेहरा ने की थी। इस पुस्तक में लेखक ने प्राचीन कालीन पंजाब से लेकर 1849 ई० तक पंजाब की घटनाओं का वर्णन किया है।

प्रश्न 10.
पंजाब के इतिहास की जानकारी देने वाले छः महत्त्वपूर्ण अंग्रेजी स्रोतों पर प्रकाश डालें। (Mention six important English sources which throw light on the History of Punjab.)
अथवा
अंग्रेज़ी में लिखे पंजाब के इतिहास के बारे में जानकारी देने वाले महत्त्वपूर्ण स्रोतों पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the important sources of information on Punjab History written in English.)
उत्तर-
1. द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह-इस पुस्तक की रचना 1840 ई० में कैप्टन विलियम उसबोर्न ने की थी। उसने अपनी पुस्तक में महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की भव्यता के संबंध में तथा सेना के संबंध में बहुत अधिक प्रकाश डाला है। ऐतिहासिक पक्ष से एक बहुत ही लाभप्रद स्रोत है।

2. हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब-इस पुस्तक की रचना 1842 ई० में मरे ने की थी। इसके दो भाग हैं। इनमें सिखों के इतिहास का बहुत विस्तृत रूप में वर्णन किया गया है। यह महाराजा रणजीत सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों से संबंधित बहुमूल्य स्रोत है।

3. हिस्ट्री ऑफ़ दि सिखस्-इसकी रचना डॉक्टर मैकग्रेगर ने की थी। यह 1846 ई० में लिखी गई थी तथा यह दो भागों में है। इसमें महाराजा रणजीत सिंह तथा सिखों की अंग्रेजों के साथ लड़ाइयों से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।

4. द पंजाब-इसकी रचना 1846 ई० में स्टाईनबख ने की थी। वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में उच्च पद पर नियुक्त था। इसलिए उसने अपनी रचना में महाराजा रणजीत सिंह की सेना से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण विवरण दिए हैं।

5. स्कैच ऑफ सिखस्- इसकी रचना 1812 ई० में मैल्कोम ने की थी। वह ब्रिटिश सेना में कर्नल था। वह 1805 ई० में होल्कर का पीछा करता हुआ पंजाब आया था। इसमें उसने सिखों का इतिहास से उनकी संस्थाओं से संबंधित जानकारी दी है।

6. हिस्ट्री ऑफ द सिखस्-इसकी रचना 1849 ई० में जे०डी० कनिंघम ने की थी। इसमें सिख इतिहास की बहुमूल्य जानकारी दी गई है।

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प्रश्न 11.
भारतीय अंग्रेज सरकार के रिकॉर्ड के ऐतिहासिक महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the historical importance of Records of British Indian Government.)
उत्तर-
भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के आरंभ से लेकर सिख राज्य के पतन तक (1799-1849 ई०) के इतिहास को जानने के लिए हमारा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लुधियाना एजेंसी तथा दिल्ली रेजीडेंसी के रिकॉर्ड पंजाब से संबंधित अमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। इनमें से अधिकतर रिकॉर्ड मर्रे, ऑकटरलोनी, रिचमोंड, मैकग्रेगर, निक्लसन, कनिंघम, प्रिंसेप तथा ब्रॉडफुट इत्यादि अंग्रेज़ अफसरों द्वारा लिखा गया है। इसमें से अधिकतर रिकॉर्ड भारत के राष्ट्रीय पुरालेख विभाग, दिल्ली में पड़ा हुआ है। इन रिकॉर्डों से हमें अंग्रेज़-सिख संबंधों, रणजीत सिंह के राज्य के बारे में, अंग्रेजों के सिंध तथा अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों के बारे में बहुत विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है। इनके अतिरिक्त भारत के अंग्रेज़ी गवर्नर-जनरलों की ओर से इंग्लैंड की सरकार, कंपनी के उच्च अधिकारियों तथा अपने मित्रों आदि को लिखे निजी पत्रों से भी पंजाब की घटनाओं के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड अंग्रेजों के पक्ष से लिखे गये थे, परंतु फिर भी ये हमारे लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

प्रश्न 12.
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों के महत्त्व की चर्चा करें। (Examine the importance of coins in the construction of the History of the Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों का विशेष महत्त्व है। पंजाब से हमें मुग़लों, बंदा सिंह बहादुर, जस्सा सिंह आहलूवालिया, अहमद शाह अब्दाली तथा महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के मिले हैं। ये सिक्के विभिन्न धातुओं से बने हुए हैं। इनमें से अधिकाँश सिक्के लाहौर, पटियाला एवं चंडीगढ़ के अजायबघरों में पड़े हैं। ये सिक्के तिथियों तथा शासकों संबंधी विवरण पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। बंदा सिंह बहादुर के सिक्के यह सिद्ध करते हैं कि वह गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिंद सिंह जी का बहुत आदर करता.था। जस्सा सिंह आहलूवालिया के सिक्के यह बताते हैं कि उसने अहमद शाह अब्दाली के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया था। महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि उसमें बहुत नम्रता थी तथा वह स्वयं को खालसा पंथ का सेवक मानता था। इन सिक्कों में दी गई जानकारी के आधार पर साहित्यिक स्रोतों में दी गई जानकारी की पुष्टि होती है। अतः ये सिक्के पंजाब के इतिहास की कई समस्याओं को सुलझाने में हमारी सहायता करते हैं।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
किसी भी देश के इतिहास को भली-भाँति समझने के लिए उसके ऐतिहासिक स्रोतों की जानकारी होना अत्यावश्यक है। स्रोत इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें बहुत-सी मुश्किलें पेश आती हैं। फलस्वरूप सही जानकारी प्राप्त करना बहुत कठिन है। 18वीं शताब्दी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा। अशांति और अराजकता के इस वातावरण में जब सिखों ने अपने अस्तित्व के लिए जीवन और मृत्यु का दाँव लगाया था अपना इतिहास लिखने का समय न निकाल पाए। पंजाब के अधिकतर स्रोत 19वीं शताब्दी से संबंधित हैं जब पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख राज्य की स्थापना की।

  1. इतिहास के विद्यार्थियों के लिए स्रोत आवश्यक क्यों हैं ?
  2. पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों संबंधी हमें कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
  3. कौन-सी सदी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा ?
  4. पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने कौन-सी सदी में स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की ?
  5. पंजाब के इतिहास के अधिकतर स्रोत ………. शताब्दी से संबंधित हैं।

उत्तर-

  1. किसी भी देश के इतिहास को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इतिहास के विद्यार्थियों के लिए स्रोत आवश्यक
  2. ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ मिथिहास की मिलावट की गई है।
  3. 18वीं सदी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा।
  4. पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने 19वीं सदी में स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की।
  5. 19वीं।

2
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब जी की वाणी सम्मिलित थी। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई तथा इसे गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। इसके अतिरिक्त इसमें बहुत-से हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी को भी सम्मिलित किया गया है। आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब को चाहे ऐतिहासिक उद्देश्य से नहीं लिखा गया था, परंतु इसके गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

  1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब तथा किसने किया ?
  2. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा किस गुरु साहिब ने दिया ?
  3. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है ?
  4. आदि ग्रंथ साहिब जी का कोई एक महत्त्व बताएँ।
  5. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. ने किया।

उत्तर-

  1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
  2. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा गुरु गोबिंद सिंह जी ने दिया था।
  3. गुरु ग्रंथ साहिब जी में 6 गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है।
  4. यह सर्व सांझीवाद का संदेश देता है।
  5. गुरु अर्जन देव जी।

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3
दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तति’, ‘चंडी दी वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शब्द हज़ारे’, ‘शस्त्र नामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ इत्यादि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ‘बचित्तर नाटक’ गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है। ज़फ़रनामा’ की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना नामक स्थान पर की थी। यह एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में औरंगजेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सेनापतियों द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी के साथ धोखा करने का उल्लेख बहुत साहस और निडरता से किया है। दशम ग्रंथ साहिब जी वास्तव में गुरु गोबिंद . सिंह जी के जीवन और कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत है।

  1. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था ?
  2. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था ?
    • 1604 ई०
    • 1701 ई०
    • 1711 ई०
    • 721 ई०।.
  3. बचित्तर नाटक क्या है ?
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए पत्र का नाम क्या है ?
  5. गुरु गोबिंद सिंह जी ने जफ़रनामा में क्या लिखा था ?

उत्तर-

  1. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन भाई मनी सिंह जी ने किया था।
  2. 1721 ई०।
  3. बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा का नाम है।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगज़ेब को लिखे गए पत्र का नाम जफ़रनामा है।
  5. इसमें औरंगजेब के अत्याचारों का वर्णन किया गया है।

4
भाई गुरदास जी गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला के पुत्र थे। वे गुरु अर्जन देव जी और गुरु हरगोबिंद जी के समकालीन थे। वह एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से 1 वार तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इस वार में गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी, गुरु अर्जन देव जी तथा गुरु हरगोबिंद जी के जीवन का ब्योरा दिया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

  1. भाई गुरदास जी कौन थे ?
  2. भाई गुरदास जी ने कितनी वारों की रचना की ?
  3. भाई गुरदास जी की ………. वार में गुरु नानक देव जी के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
  4. गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी किसे कहा जाता है ?
  5. भाई गुरदास जी की वारों का क्या महत्त्व है ?

उत्तर-

  1. भाई गुरदास जी गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला के पुत्र थे।
  2. भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की।
  3. प्रथम।
  4. भाई गुरदास जी की वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है।
  5. इनमें पहले 6 गुरु साहिबानों तथा उनसे संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों के नामों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

5
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को ‘जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं और 18वीं शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की रचना हुई। ये जन्म साखियाँ पंजाबी भाषा में लिखी गईं। ये जन्म साखियाँ इतिहास के विद्यार्थियों के लिए नहीं अपितु सिख धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए रचित की गईं। इन जन्म साखियों में अनेक दोष व्याप्त हैं। प्रथम, इनमें घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया। दूसरा, इन जन्म साखियों में घटनाओं के विवरण तथा तिथि क्रम में विरोधाभास मिलता है। तीसरा, ये जन्म साखियाँ गुरु नानक देव जी के ज्योतिजोत समाने के काफ़ी समय पश्चात् लिखी गईं। चौथा, इनमें तथ्यों एवं कल्पना का मिश्रण किया गया है। इन दोषों के बावजूद ये जन्म साखियाँ गुरु नानक देव जी के जीवन के संबंध में पर्याप्त.प्रकाश डालती हैं।

  1. जन्म साखियों से क्या भाव है ?
  2. जन्म साखियों की रचना किस भाषा में की गई है ?
  3. किन्हीं दो जन्म साखियों के नाम बताएँ।
  4. जन्म साखियों का कोई एक दोष लिखें।
  5. ………. और ……….. शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की रचना हुई।

उत्तर-

  1. जन्म साखियों से भाव है गुरु नानक देव जी के जन्म तथा जीवन से संबंधित कथाएँ।
  2. जन्म साखियों की रचना पंजाबी भाषा में की गई है।
  3. पुरातन जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी।
  4. इनमें घटनाओं का वर्णन क्रमानुसार नहीं किया गया है।
  5. 17वीं, 18वीं।

6
हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। 18वीं शताब्दी में पंजाब में व्याप्त अव्यवस्था के दौरान अनेक हुक्मनामे नष्ट हो गए। पंजाब के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर गंडा सिंह ने अपने अथक परिश्रम से 89 हुक्मनामों का संकलन किया। इनमें से 23 गुरु तेग बहादुर जी के तथा 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी के हैं। इनके अतिरिक्त, अन्य हुक्मनामे गुरु अर्जन साहिब, गुरु हरगोबिंद साहिब, गुरु हर राय जी, गुरु हरकृष्ण जी, माता गुजरी, माता सुंदरी, माता साहिब देवां, बाबा गुरदित्ता जी तथा बंदा सिंह बहादुर से संबंधित थे। इन हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान तथा समकालीन समाज से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

  1. हुक्मनामों से क्या भाव है ?
  2. हुक्मनामे क्यों जारी किए जाते हैं ?
  3. पंजाब के किस प्रसिद्ध इतिहासकार ने हुक्मनामों का संकलन किया ?
  4. हुक्मनामों का कोई एक महत्त्व बताएँ।
  5. अब तक कितने हुक्मनामे उपलब्ध हैं ?
    • 23
    • 24
    • 79
    • 89.

उत्तर-

  1. हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु घरानों से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों तथा व्यक्तियों के नाम पर जारी किए।
  2. हुक्मनामे गुरु घर के लंगर के लिए राशन, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए माया, लड़ाइयों के लिए घोड़े तथा शस्त्र आदि मंगवाने के लिए जारी किए जाते थे।
  3. गंडा सिंह ने।
  4. इनसे हमें गुरु साहिबानों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
  5. 89.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत PSEB 12th Class History Notes

  1. पंजाब के इतिहास संबंधी समस्याएँ (Difficulties Regarding the History of the Punjab)-मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखे गए फ़ारसी के स्रोतों में पक्षपातपूर्ण विचार प्रकट किए गए हैं—पंजाब में फैली अराजकता के कारण सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला— विदेशी आक्रमणों के कारण पंजाब के अमूल्य ऐतिहासिक स्रोत नष्ट हो गए-1947 ई० के पंजाब के बँटवारे कारण भी बहुत से ऐतिहासिक स्रोत नष्ट हो गए।
  2. स्त्रोतों के प्रकार (Kinds of Sources)-पंजाब के इतिहास से संबंधित स्रोतों के मुख्य तथ्य इस प्रकार हैं—
    • सिखों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस काल की सर्वाधिक प्रमाणित ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया-दशम ग्रंथ साहिब जी गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है—इसका संकलन भाई मनी सिंह जी ने 1721 ई० में किया-ऐतिहासिक पक्ष से इसमें ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं…भाई गुरदास जी द्वारा लिखी गई 39 वारों से हमें गुरु साहिबान के जीवन तथा प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों का पता चलता है—गुरु नानक देव जी के जीवन पर आधारित जन्म साखियों में पुरातन जन्म साखी, मेहरबान जन्म साखी, भाई बाला जी की जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी महत्त्वपूर्ण हैं—सिख गुरुओं से संबंधित हुक्मनामों से हमें समकालीन समाज की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है—गुरु गोबिंद सिंह जी के 34 हुक्मनामों तथा गुरु तेग़ बहादुर सिंह जी के 23 हुक्मनामों का संकलन किया जा चुका है।
    • पंजाबी और हिंदी में ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक रचनाएँ (Historical and SemiHistorical works in Punjabi and Hindi)—’गुरसोभा’ से हमें 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना से लेकर 1708 ई० तक की घटनाओं का आँखों देखा वर्णन मिलता है—गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबारी कवि सेनापत ने की थी—’सिखाँ दी भगतमाला’ से हमें सिख गुरुओं के काल की सामाजिक परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है—इसकी रचना भाई मनी सिंह जी ने की थी—केसर सिंह छिब्बड़ द्वारा रचित ‘बंसावली नामा’ सिख गुरुओं से लेकर 18वीं शताब्दी तक की घटनाओं का वर्णन है—भाई संतोख सिंह द्वारा लिखित ‘गुरप्रताप सूरज ग्रंथ’ तथा रत्न सिंह भंगू द्वारा लिखित ‘प्राचीन पंथ प्रकाश’ का भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में विशेष स्थान है।
    • फ़ारसी में ऐतिहासिक ग्रंथ (Historical Books in Persian)-मुग़ल बादशाह बाबर की रचना ‘बाबरनामा’ से हमें 16वीं शताब्दी के प्रारंभ के पंजाब की ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती हैअबुल फज़ल द्वारा रचित ‘आइन-ए-अकबरी’ और ‘अकबरनामा’ से हमें अकबर के सिख गुरुओं के साथ संबंधों का पता चलता है—मुबीद जुलफिकार अरदिस्तानी द्वारा लिखित ‘दबिस्तान-ए-मज़ाहिब’ में सिख गुरुओं से संबंधित बहुमूल्य ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है—सुजान राय भंडारी की ‘खुलासत-उत-तवारीख’, खाफी खाँ की ‘मुंतखिब-उल-लुबाब’ और काज़ी नूर मुहम्मद की ‘जंगनामा’ से हमें 18वीं शताब्दी के पंजाब की जानकारी प्राप्त होती है—सोहन लाल सूरी द्वारा रचित ‘उमदत-उततवारीख’ तथा गणेश दास वडेहरा द्वारा लिखित ‘चार बाग़-ए-पंजाब’ में महाराजा रणजीत सिंह के काल से संबंधित घटनाओं का विस्तृत विवरण है।
    • भट्ट वहियाँ (Bhat vahis)—भट्ट लोग महत्त्वपूर्ण घटनाओं को तिथियों सहित अपनी वहियों में दर्ज कर लेते थे—इनसे हमें सिख गुरुओं के जीवन, यात्राओं और युद्धों के संबंध में काफ़ी नवीन जानकारी प्राप्त होती है।
    • खालसा दरबार रिकॉर्ड (Khalsa Darbar Records)-ये महाराजा रणजीत सिंह के समय के सरकारी रिकॉर्ड हैं—ये फ़ारसी भाषा में हैं और इनकी संख्या 1 लाख से भी ऊपर है—ये महाराजा रणजीत सिंह के काल की घटनाओं पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
    • विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेजों की रचनाएँ (Writings of Foreign Travellers and Europeans) विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेजों की रचनाएँ भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं—इनमें जॉर्ज फोरस्टर की ‘ऐ जर्नी फ्राम बंगाल टू इंग्लैंड’, मैल्कोम की ‘स्केच ऑफ़ द सिखस्’, एच० टी० प्रिंसेप की ‘ओरिज़न ऑफ़ सिख पॉवर इन पंजाब’, कैप्टन विलियम उसबोर्न की ‘द कोर्ट एण्ड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह’, सटाईनबख की ‘द पंजाब’ और जे० डी० कनिंघम द्वारा रचित ‘हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्’ प्रमुख हैं।
    • ऐतिहासिक भवन, चित्र तथा सिक्के (Historical Buildings, Paintings and Coins)पंजाब के ऐतिहासिक भवन, चित्र तथा सिक्के पंजाब के इतिहास के लिए एक अमूल्य स्रोत हैं—खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, अमृतसर, तरनतारन, करतारपुर और पाऊँटा साहिब आदि नगरों, विभिन्न दुर्गों, गुरुद्वारों में बने चित्रों तथा सिख सरदारों के सिक्कों से तत्कालीन समाज पर विशेष प्रकाश पड़ता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 6 आदि ग्रंथ

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
श्री गुरु अर्जन देव जी की ओर से अपनाए गए श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संपादन के लिए अपनाई गई संपादन योजना के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Editorial Scheme of Sri Guru Granth Sabib Ji adopted by Sri Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the Editing Art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया, कैसे किया, कब किया और कहां किया ? चर्चा करें।
(Who compiled, how compiled, when compiled and where compiled Guru Granth Sahib Ji ? Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन कार्य किसने और कैसे किया ? चर्चा कीजिए।
(Who and how did the editing work of Sri Guru Granth Sahib Ji ? Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने गुरु साहिबान की बाणी दर्ज है ? गुरु ग्रंथ साहिब की संपादन कला पर नोट लिखो।
(Give number of the Sikh Gurus whose composition are included in the Guru Granth Sahib Ji. Write a note on the Editorial Scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन-युक्ति का आलोचनात्मक दृष्टि से परीक्षण कीजिए।
(Examine critically the Editorial Scheme of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन एवं संपादन-युक्ति के इतिहास की चर्चा कीजिए।
(Discuss the history of compilation and Editing Scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की संपादन योजना कैसे बनी ? प्रकाश डालें। (How editing scheme of Adi Granth Sahib Ji was shaped ? Elucidate.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें। गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने रागों की वाणी अंकित है ?
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji. Give the number of musical measures under which hymns are included in the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें। जिन भक्तों की वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, उनमें से किन्हीं पाँच के नाम लिखें।
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji. Give names of any five Bhaktas, whose hymns are included in the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन के इतिहास पर प्रकाश डालें। (Throw light on the history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन करते समय गुरु अर्जन देव जी ने कौन-सी प्रणाली अपनाई ?
(Which methodology was adopted by Guru Arjan Dev Ji for editing of Guru Granth Sahib Ji ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी ने सिख धर्म को एक विलक्षण ग्रंथ देकर इसके संगठन में एक अहम भूमिका निभाई। चर्चा कीजिए।
(Guru Arjan Dev Ji made significant contribution in the development of Sikh faith by providing it a scripture. Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के विषय में जानकारी दीजिए। (Write about the editorial scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादना के संदर्भ में गुरु अर्जन देव जी की संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Editing Art of Guru Arjan Dev Ji in the context of editing Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें।
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन क्यों किया गया ? उसके महत्त्व का भी वर्णन करें।
(Why was Adi Granth Sahib Ji compiled ? Also explain its importance.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के गुरु ग्रंथ साहिब जी के संपादन पर नोट लिखें।
(Write a note on Guru Arjan Dev’s editing of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला बारे आप क्या जानते हैं ? विस्तृत चर्चा करें।
(What do you know about the editorial scheme of Guru Granth Sahib Ji ? Explain in detail.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की विषय वस्तु के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the contents of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन तथा संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the compilation and editing art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य था। इसका मुख्य उद्देश्य न केवल सिखों अपितु समूची मानव जाति को एक नई दिशा देना था। इसका संकलन कार्य अमृतसर के निकट रामसर नामक स्थान पर गुरु अर्जन देव जी के आदेश पर भाई गुरदास जी ने किया। इसमें सिखों के प्रथम 5 गुरु साहिबान, 15 भक्तों एवं सूफी संतों, 11 भाटों तथा 4 गुरु घर के परम सेवकों की वाणी बिना किसी जातीय अथवा धार्मिक मतभेद के अंकित की गई है। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी 31 रागों में विभाजित है। यह संपूर्ण वाणी परमात्मा की प्रशंसा में रची गयी है। इसमें कर्मकांडों अथवा अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में 16 अगस्त, 1604 ई० को हुआ तथा बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।
1706 ई० में गुरु गोबिंद साहिब जी ने दमदमा साहिब में आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ तैयार करवाई। इसमें गुरु साहिब ने गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद तथा श्लोक सम्मिलित किए। इन्हें गुरु गोबिंद सिंह जी के आदेश पर भाई मनी सिंह जी ने लिखा था। इस प्रकार आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 36 महापुरुषों की वाणी संकलित है। 6 अक्तूबर, 1708 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का सम्मान दिया। सिखों के मन में गुरु ग्रंथ साहिब जी का वही सम्मान तथा श्रद्धा है जो बाइबल के लिए ईसाइयों, कुरान के लिए मुसलमानों तथा वेदों एवं गीता के लिए हिंदुओं के मदों में है। वास्तव में यह न केवल सिखों का पवित्र धार्मिक ग्रंथ है अपितु सम्पूर्ण मानवता के लिए एक अमूल्य निधि है।

I. संपादन कला (Editorial Scheme)-

1. संकलन की आवश्यकता (Need for its Compilation)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु अर्जन साहिब जी के समय सिख धर्म का प्रसार बहुत तीव्र गति से हो रहा था। उनके नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई पृथिया स्वयं गुरुगद्दी प्राप्त करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर लोगों में प्रचलित करनी आरंभ कर दी थी। गुरु अर्जन देव जी गुरु साहिबान की वाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे ताकि सिखों को कोई संदेह न रहे। तीसरा, यदि सिखों का एक अलग राष्ट्र स्थापित करना था तो उनके लिए एक अलग धार्मिक ग्रंथ लिखा जाना भी आवश्यक था। चौथा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची वाणी पढ़ने के लिए कहा था। गुरु साहिब आनंदु साहिब में कहते हैं,

आवह सिख सतगुरु के प्यारो गावहु सच्ची वाणी॥
वाणी तां गावहु गुरु केरी वाणियां सिर वाणी॥
कहे नानक सदा गावहु एह सच्ची वाणी।

इन कारणों से गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करने की आवश्यकता अनुभव की।

2. वाणी को एकत्रित करना (Collection of Hymns)-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में लिखने के लिए भिन्न-भिन्न स्रोतों से वाणी एकत्रित की। प्रथम तीन गुरु साहिबान-गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र बाबा मोहन जी के पास पड़ी थी। इस
Class 12 Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ 1
GURU ARJAN DEV JI
वाणी को एकत्रित करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन देव जी ने पहले भाई गुरदास जी को तथा फिर बाबा बुड्डा जी को बाबा मोहन जी के पास भेजा किंतु वे अपने उद्देश्य में सफल न हो पाए। इसके पश्चात् गुरु साहिब स्वयं अमृतसर से गोइंदवाल साहिब नंगे पांव गए। गुरु जी की नम्रता से प्रभावित होकर बाबा मोहन जी ने अपने पास पड़ी समस्त वाणी गुरु जी के सुपुर्द कर दी। गुरु रामदास जी की वाणी गुरु अर्जन साहिब जी के पास ही थी। गुरु साहिब ने अपनी वाणी भी शामिल की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने हिंदू भक्तों और मुस्लिम संतों के श्रद्धालुओं को अपने पास बुलाया और कहा कि गुरु ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित करने के लिए वे अपने संतों की सही वाणी बताएं। गुरु ग्रंथ साहिब जी में केवल उन भक्तों और संतों की वाणी सम्मिलित की गई जिनकी वाणी गुरु साहिबान की वाणी से मिलती-जुलती थी। लाहौर के काहना, छज्जू, शाह हुसैन और पीलू की रचनाएँ रद्द कर दी गईं।

3. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन कार्य के लिए अमृतसर से दक्षिण की ओर स्थित एकांत एवं रमणीय स्थान की खोज की। इस स्थान पर गुरु साहिब ने रामसर नामक एक सरोवर बनवाया। इस सरोवर के किनारे पर एक पीपल वृक्ष के नीचे गुरु जी के लिए एक तंबू लगवाया गया। यहाँ बैठकर गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य आरंभ किया। गुरु अर्जन देव जी वाणी लिखवाते गए और भाई गुरदास जी इसे लिखते गए। यह महान् कार्य अगस्त, 1604 ई० में सम्पूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश 16 अगस्त, 1604 ई० को श्री हरिमंदिर साहिब जी में किया गया तथा बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।

4. ग्रंथ साहिब में योगदान करने वाले (Contributors in the Granth Sahib)-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल 5,894 शबद दर्ज किए गए हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  • सिख गुरु (Sikh Gurus)-आदि ग्रंथ साहिब जी में सिख गुरुओं का योगदान सर्वाधिक है। इसमें गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शबद अंकित हैं। तत्पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद और श्लोक शामिल किए गए।
  • भक्त एवं संत (Bhagats and Saints)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की वाणी अंकित की गई है। प्रमुख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, शेख फरीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानन्द जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शबद हैं। इसमें शेख फ़रीद जी के 112 श्लोक एवं 4 शब्द सम्मिलित हैं।
  • भाट (Bhatts)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों के शबद भी अंकित किए गए हैं। इन शबदों की कुल संख्या 125 है। कुछ प्रमुख भाटों के नाम ये हैं-नल जी, बल जी, जालप जी, भिखा जी और हरबंस जी।
  • अन्य (Others)-आदि ग्रंथ साहिब जी में ऊपरलिखित महापुरुषों के अतिरिक्त सत्ता, बलवंड, मरदाना और सुंदर की रचनाओं को भी सम्मिलित किया गया है।

5. वाणी का क्रम (Arrangement of the Bani)-आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 1430 पृष्ठ हैं। इनमें दर्ज की गई वाणी को तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में जपुजी साहिब, रहरासि साहिब और सोहिला आते हैं। इनका वर्णन ग्रंथ साहिब जी के 1 से 13 पृष्ठों तक किया गया है। दूसरा भाग जो कि गुरु ग्रंथ साहिब जी का मुख्य भाग कहलाता है, में वर्णित वाणी को 31 रागों के अनुसार 31 भागों में विभाजित किया गया है। यहाँ यह बात स्मरण रखने योग्य है कि अधिक प्रसन्नता और अधिक दुःख प्रकट करने वाले रागों को ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित नहीं किया गया है। प्रत्येक राग में प्रभु की स्तुति के पश्चात् पहले गुरु नानक साहिब तथा फिर अन्य गुरु साहिबान के शबद क्रमानुसार दिए गए हैं।

क्योंकि सभी गुरुओं के शबदों में ‘नानक’ का नाम ही प्रयुक्त हुआ है, इसलिए उनके शबदों में अंतर प्रकट करने के लिए महलों का प्रयोग किया गया है। जैसे गुरु नानक साहिब जी की वाणी के साथ महला पहला का प्रयोग किया गया है तथा गुरु अंगद साहिब जी की वाणी के साथ महला दूसरा का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक रागमाला में गुरु साहिबान के शबदों के पश्चात् भक्तों और सूफी संतों की रचनाएँ क्रमानुसार दी गई हैं। इस भाग का वर्णन गुरु ग्रंथ साहिब जी के 14 से लेकर 1353 पृष्ठों तक किया गया है। तीसरे भाग में भट्टों के सवैये, सिख गुरुओं और भक्तों के वे श्लोक हैं जिन्हें रागों में विभाजित नहीं किया जा सका। आदि ग्रंथ साहिब जी ‘मुंदावणी’ नामक दो श्लोकों से समाप्त होता है। ये श्लोक गुरु अर्जन देव जी के हैं। इनमें उन्होंने आदि ग्रंथ साहिब जी का सार और ईश्वर का धन्यवाद किया है। अंत में ‘रागमाला’ के शीर्षक के अन्तर्गत एक अन्तिका दी गई है। इस तीसरे भाग का वर्णन आदि ग्रंथ साहिब जी के 1353 पृष्ठों से लेकर 1430 पृष्ठों तक किया गया है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

आदि ग्रंथ साहिब जी का क्रम
(Arrangement of Adi Granth Sahib Ji)

  1. जपुजी साहिब 1-8
  2. रहरासि साहिब 8-12
  3. सोहिला 12-13
  4. सिरि राग 14-93
  5. माझ 94-150
  6. गउड़ी 151-346
  7. आसा 347-488
  8. गूजरी 489-526
  9. देवगांधारी 527-536
  10. बेहागड़ा 537-556
  11. वडहंस 557-594
  12. सोरठ 595-659
  13. धनासरी 660-695
  14. जैतसरी 696-710
  15. टोडी 711-718
  16. बैराड़ी 719-720
  17. तिलंग 721-727
  18. सूही 728-794
  19. बिलावल 795-858
  20. गोंड 859-875
  21. रामकली 876-974
  22. नटनारायण 975-983
  23. माली गउड़ा 984-988
  24. मारू 989-1106
  25. तुखारी 1107-1117
  26. केदारा 1118-1124
  27. भैरो 1125-1167
  28. वसंत 1168-1196
  29. सारंग 1197-1253
  30. मल्लहार 1254-1293
  31. कन्नड़ा 1294-1318
  32. कल्याण 1319-1326
  33. प्रभाति 1327-1351
  34. जैजावंती 1352-1353
  35. श्लोक सहस्कृति 1353-1360
  36. गाथा 1360-1361
  37. फुनहे 1361-1363
  38. चउबले 1363-1364
  39. श्लोक कबीर 1364-1377
  40. श्लोक फरीद 1377-1384
  41. सवैये गुरु अर्जन 1385-1389
  42. सवैये भट्ट 1389-1409
  43. गुरु साहेबान के श्लोक 1409-1426
  44. श्लोक गुरु तेग़ बहादुर 1426-1429
  45. मुंदावणी-1429
  46. रागमाला 1429-1430

6. वाणी एवं संगीत का सुमेल (Synthesis of Bani and Music)-सिख गुरु संगीत के महत्त्व से भली-भांति परिचित थे। इसलिए आदि ग्रंथ साहिब जी की बीड़ का संपादन करते समय गुरु अर्जन देव जी ने रागों के अनुसार अधिकतर वाणी को क्रम दिया है। इस वाणी की रचना 31 रागों के अनुसार की गई है। सिरि राग से लेकर प्रभाती राग तक कुल 30 रागों की रचना गुरु अर्जन देव जी ने अपनी वाणी में अंकित की। गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी राग जैजावंती में रची गयी। यह बात यहाँ स्मरण रखने योग्य है कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत खुशी अथवा बहुत गमी अथवा उत्तेजक प्रकार के रागों का प्रयोग नहीं किया गया है।

7. विषय (Subject)-आदि ग्रंथ साहिब जी में प्रभु की स्तुति की गई है। इसमें नाम का जाप, सच्चखण्ड की प्राप्ति और गुरु के महत्त्व के संबंध में प्रकाश डाला गया है। इसमें समस्त मानवता के कल्याण, प्रभु की एकता और विश्व-बंधुत्व का संदेश दिया गया है । इसमें गुरु साहिबान की जीवनियाँ अथवा चमत्कारों अथवा किसी प्रकार के सांसारिक मामलों का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार गुरु ग्रंथ साहिब जी का विषय नितांत धार्मिक है।

8. भाषा (Language)-आदि ग्रंथ साहिब जी गुरमुखी लिपि में लिखा गया है। इसमें 15वीं, 16वीं और 17वीं शताब्दी की पंजाबी, हिंदी, मराठी, गुजराती, संस्कृत तथा फ़ारसी इत्यादि भाषाओं के शबदों का प्रयोग किया गया है। गुरु साहिबान के शबद पंजाबी भाषा में हैं तथा अन्य भक्तों तथा सिख संतों की रचनाएँ दूसरी भाषाओं में हैं।
Class 12 Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ 2
SRI HARMANDIR SAHIB : AMRITSAR

II. आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व (Significance of Adi Granth Sahib Ji)
आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों का ही नहीं अपितु सारे संसार का एक अद्वितीय धार्मिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना ने सिख समुदाय को जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए और उनके संगठन को दृढ़ किया। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातत्व का संदेश देती है।

1. सिखों के लिए महत्त्व (Importance for the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के पश्चात् गुरु ग्रंथ साहिब जी को सिखों का गुरु माना जाने लगा। आज विश्व में प्रत्येक सिख गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ को बहुत मान-सम्मान सहित उच्च स्थान पर रेशमी रुमालों में लपेट कर रखा जाता है तथा इसका प्रकाश किया जाता है। सिख संगतें इसके सामने बहुत आदरपूर्ण ढंग से मत्था टेककर बैठती हैं। सिखों की जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी रस्में गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख पूर्ण की जाती हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों के लिए न केवल प्रकाश स्तंभ है, अपितु उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत है। डॉक्टर वजीर सिंह के अनुसार,
“आदि ग्रंथ साहिब जी वास्तव में उनका (गुरु अर्जन साहिब का) सिखों के लिए सबसे मूल्यवान् उपहार था।”1

2. भ्रातृत्व का संदेश (Message of Brotherhood)-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन देव जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है। आज के युग में जब लोगों में सांप्रदायिकता की भावना बहुत बढ़ गई है और विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, गुरु ग्रंथ साहिब जी की महत्ता और भी बढ़ जाती है। डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी के अनुसार, .
“जब तक मानव-जाति जीवित रहेगी, वह इस ग्रंथ से शांति, बुद्धिमत्ता और प्रोत्साहन प्राप्त करती रहेगी। यह समस्त मानव-जाति के लिए एक अमूल्य निधि और उत्तम विरासत है।”2

3. साहित्यिक महत्त्व (Literary Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

4. ऐतिहासिक महत्त्व (Historical Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी निस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं और 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में गुरु नानक साहिब ने लोधी शासकों के शासनप्रबंध की बहुत आलोचना की है। शासक श्रेणी कसाई बन गई थी। काज़ी घूस लेकर न्याय करते थे। शासकों और अन्य दरबारियों की नैतिकता का पतन हो चुका था। बाबर के आक्रमण के समय पंजाब के लोगों की दुर्दशा का आँखों देखा हाल गुरु नानक देव जी ने ‘बाबर वाणी’ में किया है। सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उन्हें बहुत निम्न स्थान प्राप्त था। उनमें सती प्रथा और पर्दे का बहुत प्रचलन था। विधवा का बहुत अनादर किया जाता था। हिंदू समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग बहुत अहंकार करते थे तथा निम्न जातियों पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय धर्म केवल बाह्याडंबर बनकर रह गया था। हिंदुओं और मुसलमानों में भारी अंध-विश्वास फैले हए थे। हिंदु वर्ग में ब्राह्मण और मुस्लिम वर्ग में मुल्ला जनता को लूटने में लगे हुए थे। मुसलमान धर्म के नाम पर हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। आर्थिक क्षेत्र में धनी वर्ग निर्धनों का बहुत शोषण करता था। उस समय की कृषि तथा व्यापार के संबंध में भी पर्याप्त प्रकाश गुरु ग्रंथ साहिब में डाला गया है। डॉक्टर ए०सी० बैनर्जी के अनुसार,
” आदि ग्रंथ साहिब जी 15वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से लेकर 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है। “3

5. अन्य महत्त्व (Other Importances)-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। मनुष्य को रहस्यमयी उच्चाइयों तक ले जाने के लिए संगीत को अत्यंत विलक्षण ढंग से वाणी के साथ जोड़ा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु का सम्मान देने की उदाहरण किसी अन्य धर्म के इतिहास में नहीं मिलती। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदि ग्रंथ साहिब ने मनुष्य को उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान करके उसकी गोद हीरे-मोतियों से भर दी है। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“आदि ग्रंथ जी का संकलन सिखों के इतिहास की एक युगांतकारी घटना मानी जाती है।”4

1. “The Adi Granth was indeed his most precious gift to the Sikh world.” Dr. Wazir Singh, Guru Arjan Dev (New Delhi : 1991, p. 21.
2. “As long as mankind lives it will derive peace, wisdom and inspiration from this scripture. It is a unique treasure, a noble heritage for the whole human race.” Dr. G. S. Mansukhani, A Hand Book of Sikh Studies (Delhi : 1978) p. 139.
3. “The Adi Granth is a rich mine of information on political, religious, social and economic conditions in the Punjab from the last years of the fifteenth to the beginning of the seventeenth century.” Dr. A. C. Banerjee, The Sikh Gurus and the Sikh Religion (Delhi : 1983) p. 194.
4. “The compilation of the Adi Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikhs (New Delhi : 1973) Vol. 1, p. 97.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 2.
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी सर्व सांझा पवित्र ग्रंथ है।
(Sri Guru Granth Sahib Ji is a sacred Granth of all common people. Discuss.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के संपादन की ऐतिहासिक महत्त्व की चर्चा कीजिए। (Discuss the historical importance of the editing work of Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व (Significance of Adi Granth Sahib Ji)
आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों का ही नहीं अपितु सारे संसार का एक अद्वितीय धार्मिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना ने सिख समुदाय को जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए और उनके संगठन को दृढ़ किया। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातत्व का संदेश देती है।

1. सिखों के लिए महत्त्व (Importance for the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के पश्चात् गुरु ग्रंथ साहिब जी को सिखों का गुरु माना जाने लगा। आज विश्व में प्रत्येक सिख गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ को बहुत मान-सम्मान सहित उच्च स्थान पर रेशमी रुमालों में लपेट कर रखा जाता है तथा इसका प्रकाश किया जाता है। सिख संगतें इसके सामने बहुत आदरपूर्ण ढंग से मत्था टेककर बैठती हैं। सिखों की जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी रस्में गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख पूर्ण की जाती हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों के लिए न केवल प्रकाश स्तंभ है, अपितु उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत है। डॉक्टर वजीर सिंह के अनुसार,
“आदि ग्रंथ साहिब जी वास्तव में उनका (गुरु अर्जन साहिब का) सिखों के लिए सबसे मूल्यवान् उपहार था।”1

2. भ्रातृत्व का संदेश (Message of Brotherhood)-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन देव जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है। आज के युग में जब लोगों में सांप्रदायिकता की भावना बहुत बढ़ गई है और विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, गुरु ग्रंथ साहिब जी की महत्ता और भी बढ़ जाती है। डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी के अनुसार, .
“जब तक मानव-जाति जीवित रहेगी, वह इस ग्रंथ से शांति, बुद्धिमत्ता और प्रोत्साहन प्राप्त करती रहेगी। यह समस्त मानव-जाति के लिए एक अमूल्य निधि और उत्तम विरासत है।”2

3. साहित्यिक महत्त्व (Literary Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

4. ऐति हासिक महत्त्व (Historical Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी निस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं और 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में गुरु नानक साहिब ने लोधी शासकों के शासनप्रबंध की बहुत आलोचना की है। शासक श्रेणी कसाई बन गई थी। काज़ी घूस लेकर न्याय करते थे। शासकों और अन्य दरबारियों की नैतिकता का पतन हो चुका था। बाबर के आक्रमण के समय पंजाब के लोगों की दुर्दशा का आँखों देखा हाल गुरु नानक देव जी ने ‘बाबर वाणी’ में किया है। सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उन्हें बहुत निम्न स्थान प्राप्त था। उनमें सती प्रथा और पर्दे का बहुत प्रचलन था। विधवा का बहुत अनादर किया जाता था। हिंदू समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग बहुत अहंकार करते थे तथा निम्न जातियों पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय धर्म केवल बाह्याडंबर बनकर रह गया था। हिंदुओं और मुसलमानों में भारी अंध-विश्वास फैले हए थे। हिंदु वर्ग में ब्राह्मण और मुस्लिम वर्ग में मुल्ला जनता को लूटने में लगे हुए थे। मुसलमान धर्म के नाम पर हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। आर्थिक क्षेत्र में धनी वर्ग निर्धनों का बहुत शोषण करता था। उस समय की कृषि तथा व्यापार के संबंध में भी पर्याप्त प्रकाश गुरु ग्रंथ साहिब में डाला गया है। डॉक्टर ए०सी० बैनर्जी के अनुसार,
” आदि ग्रंथ साहिब जी 15वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से लेकर 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है। “3

5. अन्य महत्त्व (Other Importances)-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। मनुष्य को रहस्यमयी उच्चाइयों तक ले जाने के लिए संगीत को अत्यंत विलक्षण ढंग से वाणी के साथ जोड़ा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु का सम्मान देने की उदाहरण किसी अन्य धर्म के इतिहास में नहीं मिलती। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदि ग्रंथ साहिब ने मनुष्य को उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान करके उसकी गोद हीरे-मोतियों से भर दी है। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“आदि ग्रंथ जी का संकलन सिखों के इतिहास की एक युगांतकारी घटना मानी जाती है।”4

1. “The Adi Granth was indeed his most precious gift to the Sikh world.” Dr. Wazir Singh, Guru Arjan Dev (New Delhi : 1991, p. 21.
2. “As long as mankind lives it will derive peace, wisdom and inspiration from this scripture. It is a unique treasure, a noble heritage for the whole human race.” Dr. G. S. Mansukhani, A Hand Book of Sikh Studies (Delhi : 1978) p. 139.
3. “The Adi Granth is a rich mine of information on political, religious, social and economic conditions in the Punjab from the last years of the fifteenth to the beginning of the seventeenth century.” Dr. A. C. Banerjee, The Sikh Gurus and the Sikh Religion (Delhi : 1983) p. 194.
4. “The compilation of the Adi Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikhs (New Delhi : 1973) Vol. 1, p. 97.

प्रश्न 3.
गुरु अर्जन देव जी के तैयार किए गुरु ग्रंथ साहिब जी के योगदानियों पर नोट लिखें।
(Write a brief note on the contributors of Guru Granth Sahib Ji prepared by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने वाणीकार थे ? उनका वर्णन कीजिए।
(How many are the contributors of Guru Granth Sahib Ji ? Give description of them.)
उत्तर-
ग्रंथ साहिब में योगदान करने वाले (Contributors in the Granth Sahib)-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल 5,894 शबद दर्ज किए गए हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. सिख गुरु (Sikh Gurus)-आदि ग्रंथ साहिब जी में सिख गुरुओं का योगदान सर्वाधिक है। इसमें गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शबद अंकित हैं। तत्पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद और श्लोक शामिल किए गए।
  2. भक्त एवं संत (Bhagats and Saints)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की वाणी अंकित की गई है। प्रमुख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, शेख फरीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानन्द जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शबद हैं। इसमें शेख फ़रीद जी के 112 श्लोक एवं 4 शब्द सम्मिलित हैं।
  3. भाट (Bhatts)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों के शबद भी अंकित किए गए हैं। इन शबदों की कुल संख्या 125 है। कुछ प्रमुख भाटों के नाम ये हैं-नल जी, बल जी, जालप जी, भिखा जी और हरबंस जी।
  4. अन्य (Others)-आदि ग्रंथ साहिब जी में ऊपरलिखित महापुरुषों के अतिरिक्त सत्ता, बलवंड, मरदाना और सुंदर की रचनाओं को भी सम्मिलित किया गया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब के संकलन और महत्त्व के संबंध में बताएँ।
[Write a note on the compilation and importance of Adi Granth Sahib (Guru Granth Sahib).]
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब पर संक्षेप नोट लिखें। (Write a note on Adi Granth Sahib.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था। गुरु अर्जन साहिब ने आदि ग्रंथ साहिब का कार्य रामसर में आरंभ किया। आदि ग्रंथ साहिब को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिबों, अन्य संतों और भक्तों की वाणी को भी सम्मिलित किया गया। इसका संकलन 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। बाद में गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी इसमें सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of Adi Granth Sahib ?)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के ऐतिहासिक महत्त्व की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Briefly explain the historical significance of Adi Granth Sahib Ji.)”
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। इसने सिखों में एक नवीन चेतना उत्पन्न की। इसमें बिना किसी जातीय भेदभाव, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन साहिब जी ने समस्त मानवता को आपसी भाईचारे का संदेश दिया। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। यह 15वीं से 17वीं शताब्दी के पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा को जानने के लिए हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन एवं महत्त्व के बारे में लिखें। (Write a note on the compilation and importance of Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कैसे हुआ ? संक्षिप्त चर्चा करें। (How Adi Granth Sahib Ji was compiled ? Discuss in brief.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था और सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का कार्य रामसर साहिब में आरंभ किया। इसमें गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी और गुरु अर्जन साहिब की वाणी सम्मिलित की गई। गुरु अर्जन साहिब जी के सर्वाधिक 2,216 शबद सम्मिलित किए गए। इनके अतिरिक्त गुरु अर्जन साहिब ने कुछ अन्य संतों और भक्तों की वाणी को सम्मिलित किया। आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। गुरु गोबिंद सिंह के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन सिख इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। इससे सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में भिन्न-भिन्न धर्म और जाति के लोगों की रचनाएँ सम्मिलित करके एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। 15वीं से 17वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति जानने के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी हमारा मुख्य स्त्रोत है। इनके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य तथा भाषाओं का एक अमूल्य खज़ाना है।

प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
(What was the need of the compilation of the Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु अर्जन साहिब जी के समय सिख धर्म का प्रसार बहुत तीव्र गति से हो रहा था। उनके नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन साहिब का बड़ा भाई पृथिया स्वयं गुरुगद्दी प्राप्त करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर लोगों में प्रचलित करना आरंभ कर दिया था। गुरु अर्जन साहिब गुरु साहिबान की वाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे ताकि सिखों को कोई संदेह न रहे। तीसरा, यदि सिखों का एक अलग राष्ट्र स्थापित करना था तो उनके लिए एक अलग धार्मिक ग्रंथ लिखा जाना भी आवश्यक था। चौथा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची वाणी पढ़ने के लिए कहा था। गुरु साहिब आनंदु साहिब में कहते हैं,

आवहु सिख सतगुरु के प्यारो गावहु सच्ची वाणी॥
वाणी तां गावहु गुरु केरी वाणियां सिर वाणी॥
कहे नानक सदा गावह एह सच्ची वाणी॥

इन कारणों से गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करने की आवश्यकता अनुभव की।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 5.
श्री गुरु अर्जन देव जी ने कौन-से पवित्र ग्रंथ का संपादन किया ? जानकारी दीजिए।
(Which sacred Granth was edited by Sri Guru Arjan Dev Ji ? Describe.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन तथा संपादन के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the compilation and editing of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the editing art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को कैसे एकत्र किया गया ?
(How were the hymns collected for Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में लिखने के लिए भिन्न-भिन्न स्त्रोतों से वाणी एकत्रित की। प्रथम तीन गुरु साहिबान-गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र बाबा मोहन,जी के. पास पड़ी थी। इस वाणी को एकत्रित करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन साहिब ने पहले भाई गुरदास जी को तथा फिर बाबा बुड्डा जी को बाबा मोहन जी के पास भेजा किंतु वे अपने उद्देश्य में सफल न हो पाए। इसके पश्चात् गुरु साहिब स्वयं अमृतसर से गोइंदवाल साहिब नंगे पाँव गए। गुरु जी की नम्रता से प्रभावित होकर बाबा मोहन जी ने अपने पास पड़ी समस्त वाणी गुरु जी के सुपुर्द कर दी। गुरु रामदास जी की वाणी गुरु अर्जन देव जी के पास ही थी। गुरु साहिब ने अपनी वाणी भी शामिल की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने हिंदू भक्तों और मुस्लिम संतों के श्रद्धालुओं को अपने पास बुलाया और कहा कि गुरु ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित करने के लिए वे अपने संतों की सही वाणी बताए। गुरु ग्रंथ साहिब में केवल उनू भक्तों और संतों की वाणी सम्मिलित की गई जिनकी वाणी गुरु साहिबान की वाणी से मिलती-जुलती थी। लाहौर के काहना, छज्जू, शाह हुसैन और पीलू की रचनाएँ रद्द कर दी गईं।

प्रश्न 6.
आदि ग्रंथ साहिब जी के महत्त्व के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the importance of Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-

  1. सिखों के लिए महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए।
  2. भ्रातत्व का संदेश-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन साहिब जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है।
  3. साहित्यिक महत्त्व-गुरु ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
  4. ऐतिहासिक महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी निःस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं से 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं।
  5. अन्य महत्त्व-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ? कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-सिखों के नेतृत्व के लिए एक पवित्र ग्रंथ की आवश्यकता थी।

प्रश्न 2. गुरु अर्जन देव जी ने प्रथम तीन गुरुओं की वाणी किससे प्राप्त की थी ?
उत्तर-बाबा मोहन जी से।

प्रश्न 3. बाबा मोहन जी कौन थे ?
उत्तर- बाबा मोहन जी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र थे।

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और किसने किया था ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम संकलन किसने तथा कब किया ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस गुरु साहिब ने किया ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में किया।

प्रश्न 5. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस वर्ष तथा किस स्थान पर हुआ ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संपादन कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में रामसर में हुआ।

प्रश्न 6. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन किसने, कब तथा कहाँ किया ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में रामसर नामक स्थान पर किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 7. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने के लिए गुरु अर्जन देव जी के साथ लेखक कौन था ?
उत्तर-भाई गुरदास जी।

प्रश्न 8. आदि ग्रंथ साहिब जी के प्रथम संपादक कौन थे ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 9. पहली बीड़ की रचना किसने तथा कहाँ की ?
उत्तर-पहली बीड़ की रचना गुरु अर्जन देव जी ने रामसर में की।

प्रश्न 10. प्रथम बीड़ की रचना किस वर्ष तथा किस स्थान पर की गई ?
उत्तर–प्रथम बीड़ की रचना 1604 ई० में रामसर में की गई।

प्रश्न 11. दूसरी बीड़ की रचना किसने तथा कहाँ की ?
उत्तर-दूसरी बीड़ की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दमदमा साहिब नामक स्थान पर की।

प्रश्न 12. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपूर्णता कब और कहाँ हुई ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपूर्णता 1706 ई० में तलवंडी साबो नामक स्थान में हुई।

प्रश्न 13. दूसरी बीड़ के लेखक कौन थे ?
उत्तर-भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
उत्तर-हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में।

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कब किया गया था ?
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश किस वर्ष हुआ ?
उत्तर-16 अगस्त, 1604 ई० को।

प्रश्न 16. दरबार साहिब, अमृतसर के प्रथम मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-बाबा बुड्ढा जी।

प्रश्न 17. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने महापुरुषों ने अपना योगदान दिया ?
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के कितने योगदानी हैं ?
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने रचयिता हैं ?
उत्तर-36 महापुरुषों ने।

प्रश्न 18. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने सिख गुरु साहिबान की वाणी शामिल है ?
उत्तर-6 सिख गुरु साहिबान की।

प्रश्न 19. किन्हीं दो सिख गुरुओं के नाम लिखें जिनकी वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में है ?
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी
  2. गुरु अंगद देव जी।

प्रश्न 20. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-976 शबद।

प्रश्न 21. आदि ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक शब्द किस सिख गुरु के हैं ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी के।

प्रश्न 22. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-2216 शबद।

प्रश्न 23. आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों की वाणी सम्मिलित की गई है ?
उत्तर-15 भक्तों की।

प्रश्न 24. गुरु ग्रंथ साहिब जी में जिन भक्तों की वाणी दर्ज है उनमें से किन्हीं दो के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. कबीर जी
  2. फ़रीद जी।

प्रश्न 25. आदि ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक शबद किस भक्त के हैं ?
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक कौन-से भक्त की वाणी दर्ज है ?
उत्तर-भक्त कबीर जी के।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 26. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-541 शबद।

प्रश्न 27. आदि ग्रंथ साहिब जी में बाबा फरीद जी के कितने श्लोक व शबद शामिल हैं ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी में बाबा फरीद जी के 112 श्लोक व 4 शबद शामिल हैं।

प्रश्न 28. आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भाटों की वाणी शामिल है ?
उत्तर-11 भाटों की।

प्रश्न 29. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों और भाटों की वाणी शामिल है ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में 15 भक्तों और 11 भाटों की वाणी शामिल है।

प्रश्न 30. आदि ग्रंथ साहिब जी में किनकी वाणी को सम्मिलित नहीं किया गया है ?
उत्तर-

  1. कान्हा,
  2. छज्जू,
  3. शाह हुसैन,
  4. पीलू।

प्रश्न 31. आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने पन्ने हैं ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल 1430 पन्ने हैं।

प्रश्न 32. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने रागों के अधीन वाणी अंकित है ?
उत्तर-31 रागों के।

प्रश्न 33. गुरु ग्रंथ साहिब जी में प्रयोग किए गए किन्हीं दो रागों के नाम बताएँ।
उत्तर-रामकली तथा बसंत।।

प्रश्न 34. गुरु ग्रंथ साहिब जी का आरंभ किस रचना से होता है ?
उत्तर-जपुजी साहिब।

प्रश्न 35. जपुजी साहिब की रचना किसने की ?
उत्तर-जपुजी साहिब की रचना गुरु नानक देव जी ने की।

प्रश्न 36. सुखमनी साहिब की रचना किसने की ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 37. आदि ग्रंथ साहिब जी का मुख्य विषय क्या है ?
उत्तर-परमात्मा की उपासना।

प्रश्न 38. आदि ग्रंथ साहिब जी की लिपि का नाम लिखो।
उत्तर-गुरुमुखी।

प्रश्न 39. किन्हीं दो भाषाओं के नाम लिखें जिनका प्रयोग आदि ग्रंथ साहिब जी में किया गया है ?
उत्तर-

  1. पंजाबी
  2. फ़ारसी।

प्रश्न 40. सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 41. गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी किसने दी ?
उत्तर-गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी गुरु गोबिंद सिंह जी ने दी।

प्रश्न 42. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी कब तथा किसने दी ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी 6 अक्तूबर, 1708 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने दी।

प्रश्न 43. आदि ग्रंथ साहिब जी का कोई एक महत्त्व बताओ।
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी ने संपूर्ण जाति को सांझीवालता का संदेश दिया।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. में किया गया था।
उत्तर-1604 ई०

प्रश्न 2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. ने किया था।
उत्तर–गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 3. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य ………. में किया गया था।
उत्तर-रामसर

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य ……….. ने किया।
उत्तर-भाई गुरदास जी

प्रश्न 5. आदि ग्रंथ साहिब जी का पहला प्रकाश ………. में किया गया था।
उत्तर-हरिमंदिर साहिब

प्रश्न 6. ……….. को हरिमंदिर साहिब का पहला मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।
उत्तर-बाबा बुड्ढा जी

प्रश्न 7. ………. ने आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ को तैयार किया था।
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी

प्रश्न 8. …….. ने आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया।
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी

प्रश्न 9. आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल …….. महापुरुषों के शबद हैं।
उत्तर-36

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प्रश्न 10. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के ……….. शबद हैं।
उत्तर-976

प्रश्न 11. आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शबद ……… के हैं।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 12. आदि ग्रंथ साहिब जी में ………. हिंदू भगतों और मुस्लिम संतों की बाणी दर्ज है।
उत्तर-15

प्रश्न 13. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के ………. शबद हैं।
उत्तर-541

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल ……….. ‘पृष्ठ हैं।
उत्तर-1430

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को ……… रागों में विभाजित किया गया है।
उत्तर-31

प्रश्न 16. आदि ग्रंथ साहिब जी को ………. लिपि में लिखा गया है।
उत्तर-गुरमुखी

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु रामदास जी ने किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1675 ई० में किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. आदि ग्रंथ साहिब जी के लेखन का कार्य भाई गुरदास जी ने किया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब का प्रथम प्रकाश आनंदपुर साहिब में किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. बाबा बुड्डा जी हरिमंदिर साहिब के पहले मुख्य ग्रंथी थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ गुरु गोबिंद सिंह जी ने तैयार करवाई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. आदि ग्रंथ साहिब में 36 महापुरुषों की बाणी संकलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 8. आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शब्द गुरु नानक देव जी के हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 9. आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 6 सिख गुरुओं की बाणी सम्मिलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. आदि ग्रंथ साहिब जी में पाँच भक्तों और मुस्लिम संतों की बाणी सम्मिलित है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 11. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के 541 शब्द हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों की बाणी संकलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. आदि ग्रंथ साहिब के कुल 1420 पृष्ठ हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को 31 रागों के अनुसार विभाजित किया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरमुखी लिपि में लिखा गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस ने किया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iii) गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था ?
(i) 1604 ई०
(ii) 1605 ई०
(iii) 1606 ई०
(iv) 1675 ई०।
उत्तर-
(i) 1604 ई०

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कहाँ किया गया था ?
(i) गंगासर में
(ii) रामसर में
(iii) गोइंदवाल साहिब में
(iv) तरनतारन में।
उत्तर-
(ii) रामसर में

प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखते समय किसने गुरु अर्जन देव जी की सहायता की ?
(i) बाबा बुड्डा जी
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) भाई गुरदास जी
(iv) बाबा दीप सिंह जी।
उत्तर-
(iii) भाई गुरदास जी

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प्रश्न 5.
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
(i) हरिमंदिर साहिब में
(ii) ननकाना साहिब में
(iii) श्री आनंदपुर साहिब में
(iv) पंजा साहिब में।
उत्तर-
(i) हरिमंदिर साहिब में

प्रश्न 6.
हरिमंदिर साहिब के प्रथम मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
(i) भाई गुरदास जी
(ii) बाबा बुड्डा जी
(iii) मीयाँ मीर जी
(iv) भाई मनी सिंह जी।
उत्तर-
(ii) बाबा बुड्डा जी

प्रश्न 7.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने सिख गुरुओं की बाणी सम्मिलित है ?
(i) 5
(ii) 6
(iii) 8
(iv) 10.
उत्तर-
(ii) 6

प्रश्न 8.
आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी के कितने शबद दिए गए हैं ?
(i) 689
(ii) 907
(iii) 976
(iv) 2216.
उत्तर-
(iv) 2216.

प्रश्न 9.
आदि ग्रंथ साहिब जी में निम्नलिखित में से किस भक्त के सर्वाधिक शबद थे ?
(i) फ़रीद जी
(ii) नामदेव जी
(iii) कबीर जी
(iv) गुरु रविदास जी।
उत्तर-
(iii) कबीर जी

प्रश्न 10.
आदि ग्रंथ साहिब जी में बाणी को कितने रागों में विभाजित किया गया है ?
(i) 11
(ii) 21
(iii) 30
(iv) 31.
उत्तर-
(iv) 31.

प्रश्न 11.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने पृष्ठ हैं ?
(i) 1405
(ii) 1420
(iii) 1430
(iv) 1440.
उत्तर-
(iii) 1430

प्रश्न 12.
आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा किसने दिया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अर्जन देव जी
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।

प्रश्न 13.
आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा कब दिया गया था ?
(i) 1604 ई०
(ii) 1675 ई०
(iii) 1705 ई०
(iv) 1708 ई०।
उत्तर-
(iv) 1708 ई०।

प्रश्न 14.
आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ को किसने लिखा था ?
(i) भाई गुरदास जी ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा बुड्डा जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(ii) भाई मनी सिंह जी ने

प्रश्न 15.
आदि ग्रंथ साहिब जी को किस भाषा में लिखा गया था ?
(i) गुरमुखी
(ii) हिंदी
(iii) अंग्रेज़ी
(iv) संस्कृत।
उत्तर-
(i) गुरमुखी

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक प्रशासन (Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के सिविल प्रबंध के बारे में विवरण दें।
(Give a brief account of the Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सिविल प्रबंध का वर्णन करें। (Describe the Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन प्रबंध का विस्तार सहित वर्णन करो।
(Explain in detail the Central and Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन का वर्णन कीजिए। (Describe the Central and Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय व स्थानीय शासन प्रबंध का विस्तृत ब्योरा दें।
(Give a detailed description of Maharaja Ranjit Singh’s Provincial and Local Administration.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय शासन का विस्तारपूर्वक वर्णन करो। (Describe in detail the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह न केवल एक महान् विजेता था अपितु एक उच्चकोटि का शासन प्रबंधक भी . था। उसके सिविल अथवा नागरिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
I. केंद्रीय शासन प्रबंध (Central Administration)
(क) महाराजा (The Maharaja)-महाराजा समूचे केंद्रीय प्रशासन का धुरा था। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा गैर-सैनिक अधिकारियों की नियुक्तियाँ करता था। वह अपनी इच्छानुसार किसी को भी उसके पद से अलग कर सकता था। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश था। उसके मुख से निकला हुआ हर शब्द प्रजा के लिये कानून बन जाता था। कोई भी व्यक्ति उसके आदेश का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। वह मुख्य सेनापति भी था तथा राज्य की सारी सेना उसके इशारे पर चलती थी। उसको युद्ध की घोषणा करने या संधि करने का अधिकार था। वह अपनी प्रजा पर नए कर लगा सकता था अथवा पुराने करों को कम या माफ कर सकता था। संक्षिप्त में महाराजा की शक्तियाँ किसी निरंकुश शासक से कम नहीं थीं परंतु महाराजा कभी भी इन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करता था।

(ख) मंत्री (Ministers)-प्रशासन प्रबंध की कुशलता के लिये महाराजा ने एक मंत्रिपरिषद् का गठन किया हुआ था। केवल योग्य एवं ईमानदार व्यक्तियों को ही मंत्री पद पर नियुक्त किया जाता था। इन मंत्रियों की नियुक्ति महाराजा स्वयं करता था। ये मंत्री अपने-अपने विभागों के संबंध में महाराजा को परामर्श देते थे। महाराजा के लिये उनके परामर्श को स्वीकार करना आवश्यक नहीं था। महाराजा के महत्त्वपूर्ण मंत्री निम्नलिखित थे
1. प्रधानमंत्री (Prime Minister) केंद्र में महाराजा के पश्चात् दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान प्रधानमंत्री का था। वह राज्य के सभी राजनीतिक मामलों में महाराजा को परामर्श देता था। वह राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण विभागों की देखभाल करता था। वह महाराजा की अनुपस्थिति में उसका प्रतिनिधित्व करता था। वह अपनी अदालत लगाकर मुकद्दमों का निर्णय भी करता था। हर प्रकार के प्रार्थना-पत्र उसके द्वारा ही महाराजा तक पहुँचाये जाते थे। वह महाराजा के सभी आदेशों को लागू करवाता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस पद पर अधिक देर तक राजा ध्यान सिंह रहा।

2. विदेश मंत्री (Foreign Minister)-महाराजा रणजीत सिंह के समय विदेश मंत्री का पद भी बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह विदेश नीति को तैयार करता था। वह महाराजा को दूसरी शक्तियों के साथ युद्ध एवं संधि के संबंध में परामर्श देता था। वह विदेशों से आने वाले पत्र महाराजा को पढ़कर सुनाता तथा महाराजा के आदेशानुसार उन पत्रों का जवाब भेजता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय विदेश मंत्री के पद पर फकीर अजीजउद्दीन लगा हुआ था।

3. वित्त मंत्री (Finance Minister)-वित्त मंत्री महाराजा के महत्त्वपूर्ण मंत्रियों में से एक था तथा उसको दीवान कहा जाता था। उसका मुख्य कार्य राज्य की आय तथा व्यय का ब्योरा रखना था। सभी विभागों के व्ययों आदि से संबंधित सभी कागज़ पहले दीवान के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध वित्त मंत्री दीवान भवानी दास, दीवान गंगा राम तथा दीवान दीनानाथ थे।

4. मुख्य सेनापति (Commander-in-Chief)-महाराजा रणजीत सिंह अपनी सेना का स्वयं ही मुख्य सेनापति था। विभिन्न अभियानों के समय महाराजा विभिन्न व्यक्तियों को सेनापति नियुक्त करता था। उनका मुख्य कार्य युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करना तथा उनमें अनुशासन रखना था। दीवान मोहकम चंद, मिसर दीवान चंद तथा सरदार हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के प्रख्यात सेनापति थे।

5. डियोढ़ीवाला (Deorhiwala)—डियोढ़ीवाला शाही राजवंश तथा राज दरबार की देखभाल करता था। उसकी अनुमति के बिना कोई व्यक्ति महलों के अंदर नहीं जा सकता था। इसके अतिरिक्त वह महाराजा के महलों के लिये पहरेदारों का भी प्रबंध करता था। इसके अतिरिक्त वह जासूसों का भी उचित प्रबंध करता था। महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध डियोढ़ीवाला जमादार खुशहाल सिंह था।

(ग) केंद्रीय विभाग या दफ्तर (Central Departments or Daftars)-महाराजा रणजीत सिंह ने प्रशासन की सुविधा के लिये केंद्रीय शासन प्रबंध को देखभाल के लिए विभिन्न विभागों या दफ्तरों में बाँटा हुआ था। इनकी संख्या के बारे में इतिहासकारों में विभिन्नता है। डॉ० जी० एल० चोपड़ा के अनुसार इनकी संख्या 15, डॉ० एन० के० सिन्हा के अनुसार 12 तथा डॉ० सीताराम कोहली के अनुसार 7 थी। इनमें से मुख्य दफ्तर निम्नलिखित थे—

  1. दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल (Daftar-i-Abwab-ul-Mal) यह दफ्तर राज्य के विभिन्न स्रोतों से होने वाली आय का ब्योरा रखता था।
  2. दफ्तर-ए-माल (Daftar-i-Mal)-यह दफ्तर विभिन्न परगनों से प्राप्त किये गये भूमि लगान का ब्योरा रखता था।
  3. दफ्तर-ए-वजुहात (Daftar-i-Wajuhat)-यह दफ्तर अदालतों के शुल्क, अफीम, भाँग तथा अन्य नशे वाली वस्तुओं पर लगे राजस्व से प्राप्त होने वाली आय का ब्योरा रखता था।,
  4. दफ्तर-ए-तोजिहात (Daftar-i-Taujihat)-यह दफ्तर शाही वंश की आय का ब्योरा रखता था।
  5. दफ्तर-ए-मवाजिब (Daftar-i-Mawajib) यह दफ्तर सैनिक तथा सिविल कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतनों का ब्योरा रखता था।
  6. दफ्तर-ए-रोजनामचा-इखराजात (Daftar-i-Roznamcha-i-Ikhrarat)—यह दफ्तर राज्य की दैनिक होने वाली आय का ब्योरा रखता था।

II. प्रांतीय प्रबंध (Provincial Administration)
महाराजा रणजीत सिंह ने शासन प्रबंध की कुशलता के लिए राज्य को चार बड़े सूबों में बाँटा हुआ था। इन सूबों के नाम ये थे—

  1. सूबा-ए-लाहौर,
  2. सूबा-ए-मुलतान,
  3. सूबा-ए-कश्मीर,
  4. सूबा-ए-पेशावर।

नाज़िम सूबे का मुख्य अधिकारी होता था। नाज़िम का मुख्य कार्य अपने अधीन प्रांत में शांति बनाये रखना था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों पर नज़र रखता था। वह भूमि का लगान एकत्र करने में कर्मचारियों की सहायता करता था। वह जिलों के कारदारों के कार्यों पर नज़र रखता था। इस तरह नाज़िम के पास असंख्य अधिकार थे, परंतु वह उनका दुरुपयोग नहीं कर सकता था। महाराजा अपनी इच्छानुसार नाज़िम को स्थानांतरित कर सकता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय–

  1. सरदार लहना सिंह मजीठिया,
  2. मिसर रूप लाल,
  3. दीवान सावन मल,
  4. करनैल मीहा सिंह,
  5. अवीताबिल नाज़िम थे।

III. स्थानीय प्रबंध (Local Administration)
1. परगनों का शासन प्रबंध (Administration of the Parganas)-प्रत्येक प्रांत को आगे कई परगनों में बाँटा गया था। परगने का मुख्य अधिकारी कारदार होता था। कारदार का लोगों के साथ प्रत्यक्ष संबंध था। उसकी स्थिति आजकल के डिप्टी कमिश्नर की तरह थी। उसको असंख्य कर्त्तव्य निभाने पड़ते थे। कारदार के मुख्य कार्य परगने में शाँति स्थापित करना, महाराजा के आदेशों की पालना करवाना, लगान एकत्र करना, लोगों के हितों का ध्यान रखना तथा दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनना था। कारदार की सहायता के लिए कानूनगो तथा मुकद्दम नामक कर्मचारी नियुक्त किए जाते थे।

2. गाँव का प्रबंध (Village Administration)-प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। इसे उस समय मौजा कहते थे। गाँवों का प्रबंध पंचायत चलाती थी। पंचायत ग्रामीणों की देखभाल करती थी तथा उनके झगड़ों का समाधान करती थी। लोग पंचायतों को भगवान् का रूप समझते थे तथा उनके निर्णयों को स्वीकार करते थे। पटवारी गाँव की भूमि का रिकॉर्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। मुकद्दम गाँव का मुखिया होता था। वह सरकार एवं लोगों के मध्य एक कड़ी का काम करता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

3. लाहौर शहर का प्रबंध (Administration of the City of Lahore)-महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रबंध अन्य शहरों से अलग ढंग से किया जाता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी ‘कोतवाल’ होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस पद पर इमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना, शहर में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देखभाल करना, व्यापार एवं उद्योग का ध्यान रखना, नाप-तोल की वस्तुओं पर नज़र रखना आदि थे। सारे शहर को मुहल्लों में बाँटा गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अधीन होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफ़ाई का प्रबंध करता था।

IV. लगान प्रबंध (Land Revenue Administration)
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने इस ओर अपना विशेष ध्यान दिया। लगान एकत्र करने की निम्नलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं—

  1. बटाई प्रणाली (Batai System)-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार फसल काटने के उपरांत अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।
  2. कनकूत प्रणाली (Kankut System)-1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को लागू किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फ़सल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।
  3. बोली देने की प्रणाली (Bidding System)—इस प्रणाली के अंतर्गत अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।
  4. बीघा प्रणाली (Bigha System)—इस प्रणाली के अंतर्गत एक बीघा की उपज के आधार पर लगान निश्चित किया जाता था।
  5. हल प्रणाली (Plough System)-इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।
  6. कुआँ प्रणाली (Well System)—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था।

भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फसलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं।

v. न्याय प्रबंध (Judicial Administration)
महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध बहुत साधारण था। कानून लिखित नहीं थे। न्याय उस समय की परंपराओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार किया जाता था। न्याय के संबंध में अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने राज्य भर में कई अदालतें स्थापित की थीं।

महाराजा के उपरांत राज्य की सर्वोच्च अदालत का नाम अदालते-आला था। यह नाज़िम तथा परगनों में कारदार की अदालतें दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनती थीं। न्याय के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने विशेष अधिकारी भी नियुक्त किए थे जिनको अदालती कहा जाता था। अधिकाँश शहरों तथा कस्बों में काज़ी की अदालत भी कायम थी। यहाँ न्याय के लिए मुसलमान तथा गैर-मुसलमान लोग जा सकते थे। गाँवों में पंचायतें झगड़ों का निर्णय स्थानीय परंपराओं के अनुसार करती थीं। महाराजा रणजीत सिंह के समय दंड कठोर नहीं थे। मृत्यु दंड किसी को भी नहीं दिया जाता था। अधिकतर अपराधियों से जुर्माना वसूल किया जाता था। परंतु बार-बार अपराध करने वालों के हाथ, पैर, नाक आदि काट दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध उस समय के अनुकूल था।

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महाराजा रणजीत सिंह की वित्तीय व्यवस्था (Financial Adminisration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के वित्तीय प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ बताएँ। (Discuss the salient features of Maharaja Ranjit Singh’s Financial Adminisration.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की आर्थिक व्यवस्था का विस्तार सहित वर्णन करें। (Describe the Financial System of Maharaja Ranjit Singh in detail.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की भू-राजस्व प्रणाली की चर्चा करें। (Discuss the Land Revenue System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर–
प्रत्येक राज्य को अपना शासन-प्रबंध चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। ऐसा धन एक योजनाबद्ध वित्तीय प्रणाली द्वारा एकत्रित किया जाता है। आरंभ में रणजीत सिंह ने खजाने की कोई नियमित व्यवस्था नहीं की हुई थी। 1808 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने वित्तीय संरचना में सुधार लाने के लिए दीवान भवानी दास को अपना वित्त मंत्री नियुक्त किया। महाराजा रणजीत सिंह के काल की वित्तीय व्यवस्था का वर्णन इस प्रकार है—

I. लगान प्रबंध (Land Revenue Administration)—महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। राज्य की कुल वार्षिक होने वाली तीन करोड़ रुपए की आय में से लगभग दो करोड़ रुपये भूमि लगान के होते थे। उस समय लगान एकत्र करने की निम्नलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं
1. बटाई प्रणाली (Batai System)—इस प्रणाली के अंतर्गत फसल काटने के उपरांत सरकार अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।

2. कनकूत प्रणाली (Kankut System)-1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को विकसित किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फसल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।

3. बोली देने की प्रणाली (Bidding System)-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार की ओर से अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।

4. हल प्रणाली (Plough System)—इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।

5. कुआँ प्रणाली (Well System)—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था। – भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फ़सलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं। हम डॉक्टर बी० जे० हसरत के विचार से सहमत हैं,

“रणजीत सिंह का लगान प्रबंध न तो अधिक दयापूर्ण था तथा न ही दयाहीन परंतु यह व्यावहारिक और उस समय के अनुकूल था।”1

1. “Neither unduly benevolent nor exceedingly oppressive, the land revenue system of Ranjit Singh was highly practical and suited to the requirements of the time.” Dr. B.J. Hasrat, Life and Times of Maharaja Ranjit Singh (Hoshiarpur : 1968). p.306.

2. सरकार की आय के अन्य साधन (Other Sources of Government Income)-महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि लगान के अतिरिक्त निम्नलिखित स्रोतों से भी आय होती थी—
1. चुंगी कर (Custom Duties)-राज्य की आय का दूसरा स्रोत चुंगी कर था। प्रत्येक वस्तु पर चुंगी लगाई जाती थी, जिससे 17 लाख रुपय वार्षिक आय होती थी।

2. नज़राना (Nazrana)-नज़राना भी राज्य की आय का मुख्य स्रोत था। यह राज्य के उच्चाधिकारी तथा अन्य लोग, महाराजा को विभिन्न अवसरों पर देते थे।

3. ज़ब्ती (Zabti)-ज़ब्ती से राज्य को काफ़ी आय प्राप्त होती थी। महाराजा रणजीत सिंह अपराधियों की संपत्ति जब्त कर लेता था। इसके अतिरिक्त जागीरदारों की मृत्यु के बाद उनकी जागीरें भी जब्त कर ली जाती थीं।

4. अदालतों से आय (Income from Judiciary)-अदालती आय भी राज्य की आय का एक अच्छा साधन था। दोषियों से सरकार जुर्माना लेती थी और निर्दोष प्रमाणित होने वाले व्यक्तियों से शुक्राना प्राप्त करती थी।

5. आबकारी (Excise)-आबकारी कर अफ़ीम, भाँग, शराब तथा अन्य मादक पदार्थों पर लगाया जाता था। (च) नमक से आय (Income from Salt)—केवल सरकार को खानों से नमक निकालने तथा बेचने का अधिकार था। इससे भी सरकार को कुछ आय होती थी।

6. अबवाब (Abwabs) अबवाब वे कर थे, जो भूमि लगान के साथ-साथ उगाहे जाते थे। ये प्रायः भूमि लगान का 5% से 15% भाग होते थे।

7. व्यवसाय कर (Professional Tax)-महाराजा रणजीत सिंह की सरकार ने विभिन्न व्यवसायों के लोगों पर व्यवसाय कर लगाया था। यह कर व्यापारियों पर एक रुपए से दो रुपए प्रति व्यापारी होता था।

व्यय (Expenditure)—महाराजा रणजीत सिंह के समय सरकार अपनी आय शासन संचालन, युद्ध-सामग्री तैयार करने, अधिकारियों को वेतन देने, कृषि को उन्नत करने, सरकारी योजनाओं, धर्मार्थ कार्यों तथा पुरस्कार आदि पर व्यय करती थी।

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महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा (Jagirdari System of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा पर चर्चा करें। (Discuss about the Jagirdari System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
जागीरदारी प्रथा महाराजा रणजीत सिंह से पहले भी सिख मिसलों में प्रचलित थी, परंतु महाराजा ने इस प्रथा को नया रूप दिया। महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

जागीरों की किस्में (Kinds of Jagirs)
महाराजा रणजीत सिंह के समय निम्नलिखित प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं—
1. सेवा जागीरें (Service Jagirs)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में सेवा जागीरें सब से महत्त्वपूर्ण थीं और इनकी संख्या भी सर्वाधिक थी। सभी सेवा जागीरें चाहे वह सैनिक हों अथवा असैनिक महाराजा की प्रसन्नता पर्यंत रहने तक रखी जा सकती थीं। इन जागीरों को घटाया अथवा बढ़ाया अथवा जब्त किया जा सकता था। सेवा जागीरें सैनिकों तथा असैनिक अधिकारियों को दी जाती थीं। इन जागीरों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

i) सैनिक जागीरें (Military Jagirs)—सैनिक जागीरें वे जागीरें थीं जिसमें जागीरदारों को राज्य की सेवा के लिए कुछ निश्चित घुड़सवार रखने पड़ते थे। इन जागीरदारों को अपनी निजी सेवाओं के बदले मिलने वाले वेतन तथा घुड़सवारों पर किए जाने वाले व्यय के बदले राज्य की ओर से जागीरें दी जाती थीं। महाराजा रणजीत सिंह इस बात का विशेष ध्यान रखता था कि प्रत्येक सैनिक जागीरदार अपने अधीन सरकार की ओर से निश्चित की गई संख्या में घुड़सवार अवश्य रखे। इसके लिए समय-समय पर जागीरदारों के घुड़सवारों का निरीक्षण किया जाता था। जिन जागीरदारों ने कम घुड़सवार रखे होते थे, उन्हें दंड दिया जाता था। 1830 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने घोड़ों को दागने का काम भी आरंभ कर दिया था।

ii) सिविल जागीरें (Civil Jagirs)–सिविल जागीरें राज्य के सिविल अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के स्थान पर दी जाती थीं। इन जागीरों से उन्हें लगान एकत्र करने का अधिकार प्राप्त था। सिविल जागीरदारों को अपने अधीन कोई निश्चित घुड़सवार नहीं रखने पड़ते थे। सिविल जागीरों की संख्या बहुत अधिक थी।

2. ईनाम जागीरें (Inam Jagirs)-ईनाम जागीरें वे जागीरें थीं, जोकि महाराजा रणजीत सिंह लोगों को उनकी विशेष सेवाओं के बदले अथवा विशेष कार्यों के बदले पुरस्कार के रूप में प्रदान करता था। ईनाम जागीरें । प्राय: स्थायी होती थीं।

3. गुजारा जागीरें (Subsistence Jagirs)—गुज़ारा जागीरें वे जागीरें थीं जो कि महाराजा लोगों को गुज़ारे अथवा आजीविका के लिए देता था। ऐसी जागीरों के लिए महाराजा किसी सेवा की आशा नहीं रखता था। ये जागीरें प्रायः महाराजा के संबंधियों, पराजित शासकों व उनके आश्रितों तथा जागीरदारों के आश्रितों को गुज़ारे के लिए दी जाती थीं। गुज़ारा जागीरें भी प्रायः ईनाम जागीरों की भाँति पैतृक अथवा स्थायी होती थीं।

4. वतन जागीरें (Watan Jagirs) वतन जागीरों को पट्टीदार जागीरें भी कहा जाता था। ये वे जागीरें होती थीं जो कि किसी जागीरदार को उसके अपने गाँव में दी जाती थीं। ये जागीरें सिख मिसलों के समय से चली आ रही थीं। ये जागीरें पैतृक (Hereditary) होती थीं। महाराजा रणजीत सिंह ने इन वतन जागीरों को जारी रखा. परंतु उसने कुछ वतन जागीरदारों को राज्य की सेवा के लिए कुछ घुड़सवार रखने का आदेश दिया था।

5. धर्मार्थ जागीरें (Dharmarth Jagirs) धर्मार्थ जागीरें वे जागीरें थीं जो धार्मिक संस्थाओं तथा गुरुद्वारों, मंदिरों और मस्जिदों अथवा धार्मिक व्यक्तियों को दी जाती थीं। धार्मिक संस्थाओं को दी गई धर्मार्थ जागीरों की आय यात्रियों के आवास, उनके लिए भोजन तथा पवित्र स्थानों के रख-रखाव पर व्यय की जाती थी। धर्मार्थ जागीरें स्थायी रूप से दी जाती थीं।

जागीरदारी प्रणाली की अन्य विशेषताएँ (Other Features of the Jagirdari System)
1. जागीरों का आकार (Size of the Jagirs) सभी जागीरों चाहे वे किसी भी वर्ग से संबंधित थीं, के आकार में बहुत अंतर था, परंतु यह अंतर सर्वाधिक सेवा जागीरों में था। सेवा जागीर एक गाँव के बराबर अथवा उसका कोई भाग या कुछ एकड़ से लेकर सारे जिले के समान बड़ी हो सकती थीं।

2. जागीरों का प्रबंध (Administration of the Jagirs)-जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से या तो जागीरदार स्वयं या अप्रत्यक्ष रूप से अपने एजेंटों के द्वारा करते थे। छोटी-छोटी जागीरों का प्रबंध तो जागीरदार स्वयं अथवा उनकी अनुपस्थिति में उनके परिवार के सदस्य करते थे, परंतु बहुत बड़ी जागीरें, जो कई क्षेत्रों में फैली होती थीं, उनका प्रबंध जागीरदार स्वयं अकेला नहीं कर सकता था, इसलिए जागीरों के प्रबंध की देख-रेख के लिए वह मुख्तारों की नियुक्ति करता था। जागीरदार अथवा उनके एजेंट सरकार द्वारा निश्चित किया गया लगान अपनी जागीरों . से एकत्र करते थे। जागीरदारों को इस बात का ध्यान रखना होता था कि उनके अधीन कार्यरत किसान अथवा श्रमिक उनसे रुष्ट न हों।

3. जागीरदारों के कर्त्तव्य (Duties of Jagirdars)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदार न केवल अपने अधीन जागीर में से लगान एकत्रित करने का कार्य करते थे, बल्कि उस जागीर में निवास करने वाले लोगों के न्याय संबंधी मामलों का निर्णय भी करते थे। कई बार महाराजा इन जागीरदारों में से वीर जागीरदारों को छोटेमोटे सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी सौंप देता था। कई बार महाराजा अपने अंतर्गत क्षेत्रों से शेष लगान एकत्रित करने की ज़िम्मेदारी जागीरदारों को सौंप देता था। कुछ जागीरदारों को कूटनीतिक मिशनों के लिए भेजा जाता था तथा कुछ अन्य को बाहर से आने वाले महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के स्वागत की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को बहुत-सी शक्तियाँ प्राप्त थीं।

जागीरदारी प्रणाली के गुण (Merits of the Jagirdari System)
1. लगान एकत्रित करने के झमेले से मुक्त (Free from the burden of Collecting Revenue)महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य के बहुत-से सिविल व सैनिक कर्मचारियों को जागीरें दी गई थीं। इन जागीरदारों को अपने अंतर्गत जागीर से भूमि का लगान एकत्रित करने का अधिकार दिया जाता था। इसलिए सरकार इन क्षेत्रों से लगान एकत्रित करने के झमेले से मुक्त हो जाती थी।

2. विशाल सेना का तैयार होना (A large force was prepared)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जिन जागीरदारों को सैनिक जागीरें दी गई थीं, उन्हें राज्य की सेवा के लिए सैनिक रखने पड़ते थे। महाराजा समय-समय पर इन सैनिकों का निरीक्षण भी करता था। जागीरदार आवश्यकता पड़ने पर अपने सैनिकों को महाराजा की सहायता के लिए भेजते थे। जागीरदारों के सैनिकों के कारण महाराजा रणजीत सिंह की एक विशाल सेना तैयार हो गई थी।

3. शासन व्यवस्था में सहायता (Help in the Administration)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदार न केवल लगान एकत्रित करने का ही कार्य करते थे, बल्कि अपने अधीन जागीर में वे सभी न्यायिक मामलों का भी निपटारा करते थे। इन जागीरदारों को नज़राना एकत्रित करने अथवा महाराजा के अधीन क्षेत्रों में शेष रहता लगान एकत्रित करने का अधिकार भी दिया जाता था। राज्य में शांति बनाए रखने के लिए वे छोटे-छोटे सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी करते थे। इस प्रकार ये जागीरदार महाराजा रणजीत सिंह की राज्य व्यवस्था चलाने में सहायक सिद्ध होते थे।

4. रणजीत सिंह की निरंकुशता पर अंकुश (Restriction on the despotism of Ranjit Singh)जागीरदारी प्रथा ने महाराजा रणजीत सिंह की असीमित शक्तियों पर अंकुश लगाने का भी कार्य किया था। क्योंकि महाराजा अपनी राज्य-व्यवस्था चलाने के लिये जागीरदारों की सहायता प्राप्त करता था, इसलिए वह स्वेच्छा से शासन नहीं कर सकता था। उसे जागीरदारों की प्रसन्नता का ध्यान रखना पड़ता था।

जागीरदारी प्रणाली के अवगुण (Demerits of the Jagirdari System)
1. सेना में एकता का अभाव (Lack of unity in the Army)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों के पास अपनी सेना होती थी। इस सेना में जागीरदार अपनी इच्छानुसार भर्ती करते थे। प्रत्येक जागीरदार के अंतर्गत इन सैनिकों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण एक जैसा नहीं होता था जिस कारण उनमें परस्पर तालमेल नहीं होता था। इसके अतिरिक्त ये सैनिक महाराजा की बजाए अपने जागीरदारों के प्रति अधिक वफ़ादार होते थे।

2. कृषकों का शोषण (Exploitation of Peasants)-जागीरदारों को अपने अधीन जागीर में से भूमि का लगान एकत्रित करने का अधिकार होता था। ये जागीरदार कृषकों से अधिक-से-अधिक लगान एकत्रित करने का प्रयास करते थे। बड़े जागीरदार प्रायः ठेकेदारों से निश्चित राशि लेकर उन्हें लगान एकत्रित करने की आज्ञा दे देते थे। ये ठेकेदार अधिक-से-अधिक लाभ कमाने के लिए कृषकों का बहुत शोषण करते थे।

3. जागीरदार ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे (Jagirdars used to lead a Luxurious Life) क्योंकि बड़े-बड़े जागीरदार बहुत धनवान् होते थे, इसलिए वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वे अपने महलों में रंगरलियाँ तथा जश्न मनाते रहते थे। इसका एक कारण यह भी था कि इन जागीरदारों को मालूम था कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी जागीर ज़ब्त की जा सकती थी। इस प्रकार राज्य के बहुमूल्य धन को व्यर्थ ही गँवा दिया जाता था।

4. जागीरदारी प्रथा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारियों के लिए हानिप्रद सिद्ध हुई (Jagirdari System proved harmful to the successors of Ranjit Singh)-महाराजा रणजीत सिंह ने जागीरदारों को बहुतसी शक्तियाँ सौंपी हुई थीं। अपने जीवित रहते हुए तो महाराजा ने उन्हें अपने नियंत्रण में रखा, किंतु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के अंतर्गत वे नियंत्रण में न रहे। उन्होंने राज्य के विरुद्ध षड्यंत्रों में भाग लेना आरंभ कर दिया। यह बात सिख साम्राज्य के लिए बहुत हानिप्रद सिद्ध हुई।

यद्यपि जागीरदारी प्रथा में कुछ दोष थे, तथापि यह महाराजा रणजीत सिंह के समय बहुत सफल रही।

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महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था (Judicial Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का मूल्यांकन करें। (Make an assessment of the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
(What do you know about the Judicial Administration of Ranjit Singh ? Explain in detail.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का वर्णन करो।”
(Explain the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली बहुत साधारण थी। उस समय कानून लिखित नहीं थे। निर्णय प्रचलित प्रथाओं व धार्मिक विश्वासों के आधार पर किए जाते थे। रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. न्यायालय (Courts)-महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी प्रजा को न्याय देने के लिए अपने साम्राज्य में निम्नलिखित न्यायालय स्थापित किए थे—
1. पंचायत (Panchayat)-महाराजा रणजीत सिंह के समय पंचायत सबसे लघु किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण न्यायालय थी। पंचायत में प्राय: पाँच सदस्य होते थे। गाँव के लगभग सभी दीवानी तथा फ़ौजदारी मामलों की सुनवाई पंचायत द्वारा की जाती थी। सरकार पंचायत के कार्यों में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी।

2. काज़ी का न्यायालय (Qazi’s Court) नगरों में काज़ी के न्यायालय स्थापित किए गए थे। रणजीत सिंह के समय सभी धर्मों के लोगों को इस पद पर नियुक्त किया जाता था। काज़ी के न्यायालय में पंचायतों के निर्णय के विरुद्ध अपीलें की जाती थीं।

3. जागीरदार का न्यायालय (Jagirdar’s Court) महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में जागीरों की व्यवस्था जागीरदारों के हाथ में होती थी। वे अपने न्यायालय लगाते थे, जिनमें अपनी जागीर से संबंधित दीवानी व फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय किए जाते थे।

4. कारदार का न्यायालय (Kardar’s Court) कारदार परगने का मुख्य अधिकारी होता था। उसके न्यायालय में परगने के सारे दीवानी तथा फ़ौजदारी मामलों की सुनवाई की जाती थी।

5. नाज़िम का न्यायालय (Nazim’s Court)—प्रत्येक प्रांत में न्याय का मुख्य अधिकारी नाज़िम होता था। वह प्रायः फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था।

6. अदालती का न्यायालय (Adalti’s Court)—महाराजा रणजीत सिंह के राज्य के सभी बड़े नगरों जैसे लाहौर, अमृतसर, पेशावर, मुलतान, जालंधर आदि में न्याय देने के लिए अदालती नियुक्त किए हुए थे। वे दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों की सुनवाई करते थे एवं अपना निर्णय देते थे।

7. अदालत-ए-आला (Adalat-i-Ala)-लाहौर में स्थापित अदालत-ए-आला महाराजा की अदालत के नीचे सबसे बड़ी अदालत थी। इस अदालत में कारदार और नाज़िम अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती थीं। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपील महाराजा की अदालत में की जा सकती थी।

8. महाराजा की अदालत (Maharaja’s Court)-महाराजा की अदालत सर्वोच्च अदालत थी। उसके निर्णय अंतिम होते थे। याचक न्याय लेने के लिए सीधे महाराजा के पास याचना कर सकता था। महाराजा कारदारों, नाज़िमों और अदालत-ए-आला के निर्णयों के विरुद्ध भी अपीलें सुनता था। केवल महाराजा को ही किसी भी अपराधी को मृत्यु दंड देने अथवा अपराधियों की सजा को कम अथवा माफ करने का अधिकार प्राप्त था।

2. अदालतों की कार्य प्रणाली (Working of the Courts)-महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालतों की कार्य प्रणाली साधारण एवं व्यावहारिक थी। न्याय प्राप्ति के लिए लोग राज्य में स्थापित किसी भी अदालत में जा सकते थे। कानून लिखित नहीं थे, इसलिए न्यायाधीश प्रचलित रीति-रिवाजों या धार्मिक परंपराओं के अनुसार अपने निर्णय देते थे। लोग इन अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध महाराजा के पास अपील कर सकते थे।
3. दंड (Punishments)-महाराजा रणजीत सिंह अपराधियों को सुधारना चाहता था। इसलिए वह अपराधियों को कड़े दंड देने के विरुद्ध था। मृत्यु दंड किसी भी अपराधी को नहीं दिया जाता था। बहुत-से अपराधों का दंड प्रायः जुर्माना ही होता था। अंग काटने का दंड केवल उन अपराधियों को दिया जाता था, जो बार-बार अपराध करते रहते थे।
4. महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का मूल्यांकन (Estimate of Maharaja Ranjit Singh’s Judicial System)
(क) दोष (Demerits)—

  1. न्याय को बेचा जाता था (Justice was Sold)-सरकार ने न्याय को अपनी आय का एक साधन बनाया हुआ था। सरकार को धन देकर दंड से बचा जा सकता था।
  2. न्यायालयों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे (Courts’ rights were not Clear)-महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालतों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे। इसलिए लोगों के साथ उचित न्याय नहीं किया जा सकता था।
  3. कोई लिखित कानून नहीं थे (No written Laws)-महाराजा रणजीत सिंह के समय कानून लिखित नहीं थे। इस प्रकार न्यायाधीश कई बार अपनी इच्छा का प्रयोग करते थे।

(ख) गुण (Merits)—

  1. न्याय को बेचा नहीं जाता था (Justice was not Sold)-अधिकाँश इतिहासकारों ने इस विचार का खंडन किया है कि महाराजा रणजीत सिंह के समय न्याय को बेचा जाता था।
  2. शीघ्र व सस्ता न्याय (Fast and Cheap Justice) महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का एक प्रमुख गुण यह था कि उस समय लोगों को शीघ्र व सस्ता न्याय मिलता था।
  3. कानून परंपराओं पर आधारित थे (Laws were based on Conventions) न्यायाधीश अपने निर्णय समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों और धार्मिक परंपराओं के आधार पर देते थे। लोग इन रीति-रिवाजों का बहुत सम्मान करते थे।
  4. न्यायाधीशों पर कड़ी निगरानी (Strict watch over Judges)—महाराजा रणजीत सिंह न्यायाधीशों । पर कड़ी निगरानी रखता था ताकि वे ठीक प्रकार से न्याय करें।

महाराजा रणजीत सिंह का सैनिक प्रबंध । (Military Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह की सेना का ब्योरा दीजिए। (Give an account of the military administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन का संक्षिप्त वर्णन करें। उसकी सेना को ‘शक्ति का इंजन’ क्यों कहा जाता है ?
(Write briefly the military organisation of Maharaja Ranjit Singh. Why was his army called the ‘Engine of Power’ ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध का वर्णन कीजिए।
(Describe the salient features of the Military Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध के गुण तथा अवगुण बताएँ।
(Describe the merits and demerits of the Military Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के पूर्व सिखों की सैनिक प्रणाली बहुत दोषपूर्ण थी। सैनिकों में अनुशासन का अभाव था। उनकी न तो कोई परेड होती थी तथा न ही किसी तरह का कोई प्रशिक्षण दिया जाता था। सैनिकों को नकद वेतन नहीं दिया जाता था। परिणामस्वरूप, सैनिक लूटमार की ओर अधिक ध्यान देते थे। महाराजा रणजीत सिंह पंजाब में एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना करने का स्वप्न देख रहा था। इस स्वप्न को पूरा करने के लिए, उसने एक शक्तिशाली तथा अनुशासित सेना की आवश्यकता अनुभव की। इस उद्देश्य से उसने अपनी सेना का आधुनिकीकरण करने का निश्चय किया। इस सेना में भारतीय तथा यूरोपियन दोनों प्रणालियों का अच्छे ढंग से सुमेल किया गया था। इस सेना का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

सेना का विभाजन (Division of Army)
महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना को दो भागों (i) फ़ौज-ए-आइन तथा (ii) फ़ौज़-ए-बेकवायद में बाँटा हुआ था। इन भागों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

फ़ौज-ए-आइन (Fauj-I-Ain)
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को फ़ौज-ए-आइन कहा जाता था। इसके तीन भाग थे—
(i) पैदल सेना
(ii) घुड़सवार सेना
(iii) तोपखाना।

i) पैदल सेना (Infantry)-महाराजा रणजीत सिंह पैदल सेना के महत्त्व को अच्छी प्रकार जानता था। अत: उसके शासनकाल में पैदल सेना की भर्ती जो 1805 ई० के पश्चात् शुरू हुई थी वह महाराजा के अंत तक जारी रही। आरंभ में इस सेना में सिखों की संख्या बहुत कम थी। इसका कारण यह था कि वे इस सेना को घृणा की दृष्टि से देखते थे। इसलिए आरंभ में महाराजा रणजीत सिंह ने पठानों एवं गोरखों को इस सेना में भर्ती किया। 1822 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने इस सेना को अच्छा प्रशिक्षण देने के लिए जनरल वेंतरा को नियुक्त किया। 1838-39 ई० में इस सेना की संख्या 26,617 हो गई थी।

ii) घुड़सवार (Cavalry)-अनुशासित सेना का भाग होने के कारण शुरू में सिख इस सेना में भी भर्ती न हुए। आरंभ में इस सेना में पठान, राजपूत तथा डोगरों आदि को भर्ती किया गया। परंतु बाद में कुछ सिख भी इसमें भर्ती हो गए। 1822 ई० में घुड़सवार सैनिकों को प्रशिक्षण देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने जनरल अलॉर्ड को नियुक्त किया। उसके योग्य नेतृत्व में शीघ्र ही घुड़सवार सेना बहुत शक्तिशाली बन गई। 1838-39 ई० में घुड़सवार सैनिकों की संख्या 4090 थी।

iii) तोपखाना (Artillery) तोपखाना महाराजा की सेना का विशेष अंग था। आरंभ में यह पैदल सेना का ही अंग था। 1810 ई० में तोपखाने का एक अलग विभाग खोला गया था। यूरोपीय ढंग का प्रशिक्षण देने के लिए जनरल कोर्ट एवं गार्डनर को इस विभाग में भर्ती किया गया। महाराजा रणजीत सिंह के समय में ही इस विभाग ने महत्त्वपूर्ण प्रगति कर ली थी। इस विभाग को चार भागों तोपखाना-ए-अस्पी, तोपखाना-ए-फीली, तोपखानाए-गावी तथा तोपखाना-ए-शुतरी में बाँटा गया था।

तोपखाना-ए-फीली में बहुत भारी तोपें थीं तथा इन्हें हाथियों से खींचा जाता था। तोपखाना-ए-शुतरी में वे तोपें थीं जिन्हें ऊँटों के द्वारा खींचा जाता था। तोपखाना-ए-अस्पी में वे तोपें थीं जिन्हें घोड़ों के द्वारा खींचा जाता था। तोपखाना-ए-गावी में वे तोपें थीं जिन्हें बैलों द्वारा खींचा जाता था।

फ़ौज-ए-खास
(Fauj-I-Khas)
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल वेंतूरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इस सेना में पैदल सेना की चार बटालियनें, घुड़सवार सेना की दो रेजिमैंटों तथा 24 तोपों का एक तोपखाना सम्मिलित था। इस सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षण देकर तैयार किया गया था। इस सेना में कुछ चुने हुए सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र तथा घोड़े भी अच्छी नस्ल के थे। इसलिए इस सेना को फ़ौज-ए-खास कहा जाता था। इस सेना का अपना अलग झण्डा तथा चिह्न थे।

फ़ौज-ए-बेकवायद (Fauj-i-Beqawaid)
फ़ौज-ए-बेकवायद वह सेना थी, जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी। इसके चार भाग थे
(i) घुड़चढ़े
(ii) फ़ौज-ए-किलाजात
(ii) अकाली
(iv) जागीरदार सेना।

i) घुड़चढ़े (Ghurcharas)-घुड़चढ़े बेकवायद सेना का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। ये दो भागों में बंटे हुए थे—

  • घुड़चढ़े खास-इसमें राजदरबारियों के संबंधी तथा उच्च वंश से संबंधित व्यक्ति सम्मिलित थे।
  • मिसलदार-इसमें वे सैनिक सम्मिलित थे, जो मिसलों के समय से सैनिक चले आ रहे थे। घुड़चढ़ों की तुलना में मिसलदारों का पद कम महत्त्वपूर्ण था। इनके युद्ध का ढंग भी पुराना था। 1838-39 ई० में घुड़चढ़ों की संख्या 10,795 थी।

ii) फ़ौज-ए-किलाजात (Fauj-i-Kilajat)-किलों की सुरक्षा के लिए महाराजा रणजीत सिंह के पास एक अलग सेना थी, जिसको फ़ौज-ए-किलाजात कहा जाता था। प्रत्येक किले में किलाजात सैनिकों की संख्या किले के महत्त्व के अनुसार अलग-अलग होती थी। किले के कमान अधिकारी को किलादार कहा जाता था।

iii) अकाली (Akalis) अकाली अपने आपको गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना समझते थे। इनको सदैव भयंकर अभियान में भेजा जाता था। वे सदैव हथियारबंद होकर घूमते रहते थे। वे किसी तरह के सैनिक प्रशिक्षण या परेड के विरुद्ध थे। वे धर्म के नाम पर लड़ते थे। उनकी संख्या 3,000 के लगभग थी। अकाली फूला सिंह एवं अकाली साधु सिंह उनके प्रसिद्ध नेता थे।

iv) जागीरदारी फ़ौज (Jagirdari Fauj)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों पर यह शर्त लगाई गई कि वे महाराजा को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता दें। इसलिए जागीरदार राज्य की सहायता के लिए पैदल तथा घुड़सवार सैनिक रखते थे।

अन्य विशेषताएँ (Other Features)
1. सेना की कुल संख्या (Total Strength of the Army)-अधिकतर इतिहासकारों का विचार है कि महाराजा रणजीत सिंह की सेना की कुल संख्या 75,000 से 1,00,000 के बीच थी।

2. रचना (Composition)-महाराजा रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न वर्गों से संबंधित लोग सम्मिलित थे। इनमें सिख, राजपूत, ब्राह्मण, क्षत्रिय मुसलमान, गोरखे, पूर्बिया हिंदुस्तानी सम्मिलित थे।

3. भर्ती (Recruitment)-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में भर्ती बिल्कल लोगों की इच्छा के अनुसार थी। केवल स्वस्थ व्यक्तियों को ही सेना में भर्ती किया जाता था। अफसरों की भर्ती का काम केवल महाराजा के हाथों में था।

4. वेतन (Pay)—पहले सैनिकों को या तो जागीरों के रूप में या ‘जिनस’ के रूप में वेतन दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिकों को नकद वेतन देने की परंपरा शुरू की। .

5. पदोन्नति (Promotions)-महाराजा रणजीत सिंह अपने सैनिकों की केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नति करता था। पदोन्नति देते समय महाराजा किसी सैनिक के धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था।

6. पुरस्कार तथा उपाधि (Rewards and Honours)-महाराजा रणजीत सिंह प्रत्येक वर्ष लाहौर दरबार । की शानदार सेवा करने वाले सैनिकों को तथा युद्ध के मैदान में वीरता दिखाने वाले सैनिकों को लाखों रुपये के पुरस्कार तथा ऊँची उपाधियाँ देता था।

7. अनुशासन (Discipline)-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में बहुत कड़ा अनुशासन स्थापित किया गया था। सैनिक नियमों का उल्लंघन करने वालों को कड़ा दंड दिया जाता था।

जनरल सर चार्ल्स गफ तथा आर्थर डी० इनस का विचार है,
“भारत में हमने जिन सेनाओं का मुकाबला किया उनमें से सिख सेना सबसे अधिक कुशल थी तथा जिसको पराजित करना सबसे अधिक कठिन था।”2

2.” “The Sikh army was the most efficient, the hardest to overcome, that we have ever faced in India.” Gen. Sir Charles Gough and Arthur D. Innes, The Sikhs and the Sikh Wars (Delhi : 1984) p. 33.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन प्रबंध की रूप-रेखा बताएँ।
(Give an outline of Central Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह राज्य का मुखिया था। उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। शासन प्रबंध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मंत्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढ़ीवाला प्रमुख थे। इन मंत्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए कुछ दफ्तरों की स्थापना भी की थी।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन में महाराजा की स्थिति कैसी थी? (What was the position of Maharaja in Central Administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का स्वरूप क्या था ? (Explain the nature of administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा राज्य का प्रमुख था। वह सभी शक्तियों का स्रोत था। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह मुख्य सेनापति था तथा राज्य की सारी सेना उसके संकेत पर चलती थी। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था और उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द लोगों के लिए कानून बन जाता था। महाराजा को किसी भी शासक के साथ युद्ध अथवा संधि करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय प्रबंध पर एक नोट लिखें। (Write a short note on the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह का प्रांतीय प्रबंध कैसा था ? (How was the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे में नाज़िम की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of Nazim in Province during the times of Maharaja Ranjit Singh?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य चार महत्त्वपूर्ण प्राँतों—

  1. सूबा-ए-लाहौर,
  2. सूबा-ए-मुलतान,
  3. सूबा-ए-कश्मीर,
  4. सूबा-ए-पेशावर में बँटा हुआ था।

प्रत्येक सूबा नाज़िम के अधीन होता था। उसका मुख्य कार्य अपने प्रांत में शांति बनाए रखना था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह भूमि का लगान एकत्रित करने में कर्मचारियों की सहायता करता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय प्रशासन का विश्लेषण करें। (Analyse the local administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
(What do you know about the local administration of Maharaja Ranjit Singh ? Explain.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रांतों को परगनों में विभाजित किया गया था। परगने का शासन प्रबंध कारदार के अधीन था। कारदार का मुख्य कार्य शाँति स्थापित रखना, महाराजा के आदेशों का पालन करवाना, लगान एकत्र करना तथा दीवानी और फ़ौजदारी मुकद्दमे सुनना था। कानूनगो तथा मुकद्दम, कारदार की सहायता करते थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव अथवा मौजा थी। गाँवों का प्रबंध पंचायतों के हाथ में होता था। पंचायत गाँवों के लोगों की देख-रेख करती थी।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कारदार की स्थिति क्या थी ? (What was the position of Kardar during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। वह परगने में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था। वह परगने से भूमि कर एकत्र करके केंद्रीय कोष में जमा करवाता था। वह परगना के आय-व्यय का पूरा विवरण रखता था। वह परगना के हर प्रकार के दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह परगना के लोगों के हितों का पूरा ध्यान रखता था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के मुख्य कार्य लिखो। (Write main functions of Kotwal during Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-

  1. महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना।
  2. नगर में शांति व व्यवस्था को कायम रखना।
  3. नगर में सफाई का प्रबंध करना।।
  4. नगर में आने वाले विदेशियों का ब्योरा रखना।
  5. नगर में उद्योग और व्यापार का निरीक्षण करना।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के प्रबंध बारे एक संक्षिप्त नोट लिखें। .
(Write a short note on the administration of city of Lahore during the times of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के लिए विशेष प्रबंध किया गया था। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर ईमाम बखश नियुक्त था।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह की लगान व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालें। (Write a note on the land revenue administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के आर्थिक प्रशासन पर नोट लिखें। (Write a note on the economic administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय में आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था। महाराजा रणजीत सिंह के समय में लगान एकत्र करने के लिए बटाई, कनकूत, बीघा, हल तथा कुआँ प्रणालियाँ प्रचलित थीं। लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान एकत्र करने वाले मुख्य अधिकारियों के नाम कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान नकद अथवा अन्न के रूप में दिया जा सकता था। लगान भूमि की उपजाऊ शक्ति के आधार पर लिया जाता था।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी व्यवस्था पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a brief note on Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं? (What were the chief features of Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय कई प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं। इन जागीरों में सेवा जागीरों को सबसे उत्तम समझा जाता था। ये जागीरें राज्य के उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के बदले में दी जाती थीं। इसके अतिरिक्त उस समय इनाम जागीरें, वतन जागीरें तथा धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं। धर्मार्थ जागीरें धार्मिक संस्थाओं अथवा व्यक्तियों को दी जाती थीं। जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से जागीरदार अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके एजेंट करते थे।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के न्याय प्रबंध पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What were the main features of the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। . (Write any five features of the Judicial system of Maharaja. Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के काल में न्याय व्यवस्था साधारण थी। न्याय उस समय प्रचलित रस्म-रिवाज़ों तथा धार्मिक ग्रंथों के आधार पर किया जाता था। अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए राज्य भर में कई न्यायालय स्थापित किए गए थे। गाँवों में झगड़ों का निपटारा पंचायतें करती थीं। शहरों तथा कस्बों में काज़ी का न्यायालय होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय में दंड बहुत कड़े नहीं थे।

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं?
(What were the main features of Maharaja Ranjit Singh’s military administration ?)
अथवा
रणजीत सिंह ने अपने सैनिक प्रबंध में क्या सुधार किए ?
(What reforms were introduced by Ranjit Singh to improve his military administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की सेना पर संक्षेप नोट लिखें।
(Write a short note on the military of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के फ़ौजी प्रबंध की कोई तीन विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(Describe any three Features of the military administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं? (What do you know about military administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था। उन्होंने सेना को प्रशिक्षण देने के लिए यूरोपीय अधिकारी भर्ती किए हुए थे। सैनिकों का ब्योरा रखने तथा घोड़ों को दागने की प्रथा भी आरंभ की गई। शस्त्रों के निर्माण के लिए राज्य में कारखाने स्थापित किए गए। महाराजा रणजीत सिंह व्यक्तिगत रूप से सेना का निरीक्षण करता था। युद्ध में वीरता प्रदर्शित करने वाले सैनिकों को विशेष पुरस्कार दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने जागीरदारी सेना को भी बनाए रखा।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन में फ़ौज-ए-खास के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Fauj-i-Khas of Maharaja Ranjit Singh’s army.)
उत्तर-
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल वेंतूरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इस सेना को यूरोपीय ढंग के कड़े प्रशिक्षण के अंतर्गत तैयार किया गया था। इस सेना में बहुत उत्तम सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र व घोड़े भी सबसे बढ़िया किस्म के थे। इस सेना का अपना अलग ध्वज चिह्न था। यह सेना बहुत अनुशासित थी।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार था ? (What was Maharaja Ranjit Singh’s attitude towards his subjects ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था। उसने सरकारी कर्मचारियों को यह आदेश दिया था कि वे प्रजा के कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की दशा जानने के लिए महाराजा भेष बदल कर प्रायः राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेश का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को कड़ा दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। महाराजा ने न केवल सिखों बल्कि हिंदुओं तथा मुसलमानों को भी संरक्षण दिया।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर पड़े प्रभावों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the effects of Ranjit Singh’s rule on the life of the people.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। उसने पंजाब में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। पंजाब के लोगों ने शताब्दियों के पश्चात् चैन की साँस ली। इससे पूर्व पंजाब के लोगों को एक लंबे समय तक मुग़ल तथा अफ़गान सूबेदारों के घोर अत्याचारों को सहन करना पड़ा था। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में एक उच्चकोटि के शासन प्रबंध की स्थापना की। उसके शासन का प्रमुख उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। उसने अपने राज्य में सभी अमानुषिक सज़ाएँ बंद कर दी थीं। मृत्यु की सज़ा किसी अपराधी को . भी नहीं दी जाती थी।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की धुरी कौन था ?
उत्तर-
महाराजा।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का कोई एक उद्देश्य बताएँ।
उत्तर-
प्रजा का भलाई करना।

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह की कोई एक शक्ति बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह राज्य की भीतरी तथा विदेश नीति का निर्धारण करता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री कौन था ?
उत्तर-
राजा ध्यान सिंह।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का मुख्य काम क्या होता था ?
उत्तर-
उसका मुख्य काम राज्य के सभी राजनीतिक विषयों पर महाराजा को परामर्श देना था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का नाम बताएँ।
उत्तर-
फकीर अज़ीज़-उद्दीन।

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
महाराजा को युद्ध एवं संधि से संबंधित परामर्श देना।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री कौन था ?
उत्तर-
दीवान भवानी दास।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के किसी एक विख्यात सेनापति का नाम बताएँ।
उत्तर-
हरी सिंह नलवा।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योढ़ीवाला के पद पर कौन नियुक्त था ?
उत्तर-
जमादार खुशहाल सिंह।

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय के ड्योढ़ीवाला का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
राज्य परिवार की देख-रेख करना।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की देख-भाल के लिए गठित किए गए दफ्तरों में से किसी एक का नाम बताएँ।
उत्तर-
दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य कितने सूबों (प्रांतों) में बँटा हुआ था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के किसी एक प्रांत का नाम लिखो।
उत्तर-
सूबा-ए-लाहौर।

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबा के मुखिया को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नाज़िम।

प्रश्न 16.
मिसर रूप लाल कौन था ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रसिद्ध नाज़िम।

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प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम का कोई एक मुख्य कार्य बताएँ।
उत्तर-
प्रांत में शांति बनाए रखना।

प्रश्न 18.
परगना के सर्वोच्च अधिकारी को क्या कहते थे?
उत्तर-
कारदार।

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय मुकद्दम का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
मुकद्दम गाँव में लगान एकत्र करने में सहायता करते थे।

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर की देख-रेख कौन करता था ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का शासन प्रबंध किस अधिकारी के अधीन होता था ?
उत्तर-
कोतवाल।

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प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का कोतवाल कौन था ?
उत्तर-
इमाम बख्श।

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के मुख्य कार्य क्या थे ?
उत्तर-
शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना।

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई को क्या कहते थे ?
उत्तर-
मौज़ा।

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लगान एकत्र करने के लिए प्रचलित किसी एक प्रणाली के नाम लिखें।
उत्तर-
बटाई प्रणाली।

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प्रश्न 25.
बटाई प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बटाई प्रणाली के अनुसार लगान फ़सल काटने के पश्चात् निर्धारित किया जाता था।

प्रश्न 26.
कनकूत प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
कनकूत प्रणाली के अनुसार लगान खड़ी फ़सल को देखकर निर्धारित किया जाता था।

प्रश्न 27.
भूमि लगान के अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का अन्य एक मुख्य साधन बताएँ।
उत्तर-
चुंगी कर।

प्रश्न 28.
जागीरदारी प्रथा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राज्य के कर्मचारियों को नकद वेतन के स्थान पर जागीरें दी जाती थीं।

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प्रश्न 29.
वतन जागीरें क्या थी ?
उत्तर-
ये वे जागीरें थीं जो किसी जागीरदार को उसके अपने गाँव में दी जाती थीं।

प्रश्न 30.
धर्मार्थ जागीरों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
ये वे जागीरें थीं जो धार्मिक संस्थाओं और व्यक्तियों को दी जाती थीं।

प्रश्न 31.
ईनाम जागीरें किसे दी जाती थीं ?
उत्तर-
विशेष सेवाओं के बदले अथवा बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को।

प्रश्न 32.
महाराजा रणजीत सिंह को दिए जाने वाले उपहारों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नज़राना।

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प्रश्न 33.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रचलित किसी एक न्यायालय का नाम बताएँ।
उत्तर-
काज़ी की अदालत।

प्रश्न 34.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की सबसे बड़ी अदालत कौन-सी होती थी ?
उत्तर-
अदालत-ए-आला।

प्रश्न 35.
महाराजा रणजीत सिंह से पहले सिख सेना का कोई एक मुख्य दोष बताएँ।
उत्तर-
सिख सेना में अनुशासन की भारी कमी थी ।

प्रश्न 36.
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा सिख सेना में किए गए सुधारों में से कोई एक बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने सिख सेना को पश्चिमी ढंग का प्रशिक्षण दिया।

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प्रश्न 37.
महाराजा रणजीत सिंह की सेना कौन-से दो मुख्य भागों में बँटी हुई थी ?
उत्तर-
फ़ौज-ए-आईन तथा फ़ौज-ए-बेकवायद।

प्रश्न 38.
महाराजा रणजीत सिंह ने पैदल सेना का गठन कब आरंभ किया ?
उत्तर-
1805 ई०।

प्रश्न 39.
महाराजा रणजीत सिंह के समय तोपखाना को कितने भागों में बाँटा गया था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 40.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने के लिए किसे नियुक्त किया था ?
उत्तर-
जनरल वेंतूरा।

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प्रश्न 41.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-खास का तोपखाना किसके अधीन था ?
उत्तर-
जनरल इलाही बख्श।

प्रश्न 42.
महाराजा रणजीत सिंह के समय हाथियों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-फीली।

प्रश्न 43.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ऊँटों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-शुतरी।

प्रश्न 44.
महाराजा रणजीत सिंह के समय घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-अस्पी।

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प्रश्न 45.
फ़ौज-ए-बेकवायद से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यह वह सेना थी जो निश्चित नियमों का पालन नहीं करती थी।

प्रश्न 46.
रणजीत सिंह की सेना के दो प्रसिद्ध यूरोपियन अफसरों के नाम लिखिए।
अथवा
रणजीत सिंह के यूरोपियन सेनापतियों में से किन्हीं दो के नाम बताओ।
उत्तर-
जनरल वेंतूरा तथा जनरल कोर्ट।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय…..राज्य का मुखिया था।
उत्तर-
(महाराजा)

प्रश्न 2.
राजा ध्यान सिंह महाराजा रणजीत सिंह का………था।
उत्तर-
(प्रधानमंत्री)

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का नाम…….था।
उत्तर-
(फ़कीर अज़ीजुद्दीन)

प्रश्न 4.
………….और……..महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध वित्तमंत्री थे।
उत्तर-
(दीवान भवानी दास, दीवान गंगा राम)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह का सबसे प्रसिद्ध सेनापति……था।
उत्तर-
(हरी सिंह नलवा)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योड़ीवाला के पद पर…………….नियुक्त था।
उत्तर-
(जमादार खुशहाल सिंह)

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प्रश्न 7.
ड्योड़ीवाला……….की देख-रेख करता था।
उत्तर-
(शाही राजघराने)

प्रश्न 8.
……….द्वारा राज्य के प्रतिदिन होने वाले खर्च का ब्योरा रखा जाता था।
उत्तर-
(दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-इखराजात)

प्रश्न 9.
…………द्वारा राज्य की बहुमूल्य वस्तुओं की देखभाल की जाती थी।
उत्तर-
(दफ्तर-ए-तोशाखाना)

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य…………..सूबों में बँटा हुआ था।
उत्तर-
(चार)

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय……………सूबे का मुख्य अधिकारी होता था।
उत्तर-
(नाज़िम)

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह समय कारदार……………..का मुख्य अधिकारी होता था।
उत्तर-
(परगना)

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय……………गाँवों की भूमि का रिकॉर्ड रखता था।
उत्तर-
(पटवारी)

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का मुख्य अधिकारी………होता था।
उत्तर-
(कोतवाल)

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प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रसिद्ध कोतवाल……………..था।
उत्तर-
(इमाम बख्श)

प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आमदनी का मुख्य स्रोत…………था।
उत्तर-
(भूमि का लगान)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लगान की………….प्रणाली सबसे अधिक प्रचलित थी।
उत्तर-
(बटाई)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि का लगान वर्ष में ……………..बार एकत्रित किया जाता था।
उत्तर-
(दो)

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प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में से…..जागीरें सबसे महत्त्वपूर्ण
उत्तर-
(सेवा)

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक संस्थाओं को दी जाने वाली जागीरों को……..जागीरें कहा जाता
उत्तर-
(धर्मार्थ)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की सबसे बड़ी अदालत को………कहा जाता था।
उत्तर-
(अदालत-ए-आला)

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालत-ए-माला की स्थापना……..में की गई थी।
उत्तर-
(लाहौर)

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प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को प्रायः………….की सजा दी जाती थी।
उत्तर-
(जुर्माना)

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को……..कहा जाता था।
उत्तर-
(फ़ौज-ए-आईन)

प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने घुड़सवार सेना को प्रशिक्षण देने के लिए जनरल अलॉर्ड को………में नियुक्त किया।
उत्तर-
(1822 ई०)

प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह के समय हाथियों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को…….कहा जाता था।
उत्तर-
(तोपखाना-ए-फीली)

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प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने के लिए………….को नियुक्त किया था।
उत्तर-
(जनरल वेंतूरा)

प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह की फ़ौज-ए-खास का तोपखाना जनरल…………….के अधीन था।
उत्तर-
(इलाही बख्श)

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह की उस फ़ौज को जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी उसे………कहा जाता था।
उत्तर-
(फ़ौज-ए-बेकवायद)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह राज्य की सभी आंतरिक व बाहरी नीतियों को तैयार करता था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का नाम राजा ध्यान सिंह था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
दीवान दीना नाथ महाराजा रणजीत सिंह का विदेशी मंत्री था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के समय वित्त मंत्री को दीवान कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
दीवान भवानी दास महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध वित्त मंत्री था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 6.
दीवान मोहकम चंद और सरदार हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध सेनापति थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जमादार खुशहाल सिंह ड्योढ़ीवाला के पद पर नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल द्वारा राज्य की आमदन का ब्योरा रखा जाता
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए- इखराजात द्वारा राज्य के प्रतिदिन होने वाले खर्च का ब्योरा रखा जाता था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय साम्राज्य की बाँट चार सूबों में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर इमाम बख्श नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दीवान गंगा राम ने दफ्तरों की स्थापना की।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आमदन का मुख्य स्रोत भूमि कर था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय बटाई प्रणाली सब से अधिक प्रचलित थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि का लगान वर्ष में तीन बार एकत्रित किया जाता था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सेवा जागीरों की संख्या सबसे अधिक थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक स्थानों को दी जाने वाली जागीरों को धर्मार्थ जागीरें कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लोगों को विशेष सेवाओं के बदले गुज़ारा जागीरें दी जाती थीं।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय शहरों में काज़ी की अदालतें स्थापित थीं।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रत्येक परगने में नाज़िम की अदालतें होती थीं।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालत-ए-आला की स्थापना लाहौर में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को कंठोर दंड दिए जाते थे।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना में देशी व विदेशी प्रणालियों का सुमेल किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को फ़ौज-ए-आईन कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह ने फौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने को जनरल वेंतूरा को नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को तोपखाना की प्रशिक्षण देने के लिए जनरल इलाही बख्श को नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-बेकवायद वह फ़ौज थी जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी।
उत्तर-
ठीक

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की धुरी कौन थी ?
(i) महाराजा
(ii) विदेश मंत्री
(iii) वित्त मंत्री
(iv) प्रधानमंत्री।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का क्या नाम था ?
(i) दीवान मोहकम चंद
(ii) राजा ध्यान सिंह
(iii) दीवान गंगानाथ
(iv) फकीर अज़ीजउद्दीन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
(i) दीवान मोहकम चंद
(ii) राजा ध्यान सिंह
(iii) फ़कीर अज़ीजउद्दीन
(iv) खुशहाल सिंह।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री नहीं था ?
(i) दीवान भवानी दास
(ii) दीवान गंगा राम
(iii) दीवान दीनानाथ
(iv) दीवान मोहकम चंद।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध सेनापति था ?
(i) हरी सिंह नलवा
(ii) मिसर दीवान चंद
(iii) दीवान मोहकम चंद
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय शाही महल और राज दरबार की देख-रेख कौन करता था ?
(i) ड्योड़ीवाला
(ii) कारदार
(iii) सूबेदार
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योड़ीवाला के पद पर कौन नियुक्त था ?
(i) ज़मांदार खुशहाल सिंह
(ii) संगत सिंह
(iii) हरी सिंह नलवा
(iv) जस्सा सिंह रामगढ़िया।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य कितने सूबों में बँटा हुआ था ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे के मुखिया को क्या कहा जाता था ?
(i) सूबेदार
(ii) कारदार
(iii) नाज़िम
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने का मुख्य अधिकारी कौन था ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने के मुख्य अधिकारी को क्या कहते थे ?
(i) नाज़िम
(ii) सूबेदार
(iii) कारदार
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का मुखिया कौन होता था?
(i) सूबेदार
(ii) कारदार
(iii) कोतवाल
(iv) पटवारी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का कोतवाल कौन था ?
अथवा
लाहौर शहर के मुख्य अधिकारी (कोतवाल) का नाम क्या था ?
(i) ध्यान सिंह
(ii) खुशहाल सिंह
(iii) इमाम बख्श
(iv) इलाही बख्श।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को क्या कहा जाता था ?
(i) परगना
(ii) “मौज़ा
(iii) कारदार
(iv) नाज़िम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज की आमदन का मुख्य स्रोत कौन-सा था ?
(i) भूमि का लगान
(ii) चुंगी कर
(iii) नज़राना
(iv) ज़ब्ती ।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में कौन-सी जागीर को सबसे महत्त्वपूर्ण समझा जाता था?
(i) ईनाम जागीरें
(ii) वतन जागीरें
(iii) सेवा जागीरें
(iv) गुजारा जागीरें।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक संस्थाओं को दी जाने वाली जागीरों को क्या कहते थे ?
(i) वतन जागीरें
(ii) ईनाम जागीरें
(iii) धर्मार्थ जागीरें
(iv) गुजारा जागीरें।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सबसे छोटी अदालत कौन-सी थी ?
(i) पंचायत
(ii) काज़ी की अदालत
(iii) जागीरदार की अदालत
(iv) कारदार की अदालत।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय महाराजा की अदालत के नीचे सबसे बड़ी अदालत कौन-सी थी ?
(i) नाज़िम की अदालत
(ii) अदालत-ए-आला
(iii) अदालती की अदालत
(iv) कारदार की अदालत।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को सामान्यतः कौन-सी सज़ा दी जाती थी ?
(i) मृत्यु की
(ii) जुर्माने की
(iii) अंग काटने की
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह से पहले सिखों की सैनिक प्रणाली में क्या दोष थे ?
(i) सैनिकों में अनुशासन की बहुत कमी थी
(ii) पैदल सैनिकों को बहुत घटिया समझा जाता था
(iii) सैनिकों को नकद वेतन नहीं दिया जाता था
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को क्या कहा जाता था ?
(i) फ़ौज-ए-आईन
(ii) फ़ौज-ए-खास
(iii) फ़ौज-ए-बेकवायद
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को सिखलाई देने के लिए किसे नियुक्त किया था ?
(i) जनरल इलाही बख्श
(ii) जनरल अलार्ड
(iii) जनरल वेंतूरा
(iv) जनरल कार्ट।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-खास तोपखाना किसके अधीन था ?
(i) जनरल इलाही बख्श
(ii) जनरल कोर्ट
(iii) कर्नल गार्डनर
(iv) जनरल वेंतूरा।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय उस फ़ौज को क्या कहते थे जो निश्चित नियमों का पालन नहीं करती थी?
(i) फ़ौज-ए-खास
(ii) फ़ौज-ए-बेकवायद
(iii) फ़ौज-ए-आईन
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने घुड़सवार सैनिकों को सिखलाई देने के लिए किसको नियुक्त किया ?
(i) जनरल वेंतुरा
(ii) जनरल अलॉर्ड
(iii) जनरल कोर्ट
(iv) जनरल इलाही बखा।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन प्रबंध की रूप-रेखा बताएँ। (Give an outline of Central Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा केंद्रीय शासन की धुरी था। उसके मुख से निकलां प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। महाराजा रणजीत सिंह अपने अधिकारों का प्रयोग जन-कल्याण के लिए करता था। शासन प्रबंध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मंत्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढीवाला नाम के मंत्री प्रमुख थे। इन मंत्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। प्रशासन की कुशलता के लिए रणजीत सिंह प्रायः अपने मंत्रियों का परामर्श मान लेता था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए 12 दफ्तरों (विभागों) की स्थापना की थी। इनमें विशेषकर दफ्तर-एअबवाब-उल-माल, दफ्तर-ए-तोजीहात, दफ्तर-ए-मवाजिब तथा दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-अखराजात प्रमुख थे। निश्चय ही रणजीत सिंह का शासन प्रबंध बहुत अच्छा था।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन में महाराजा की स्थिति कैसी थी ? (What was the position of Maharaja in Central Administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का स्वरूप क्या था ? (Explain the nature of administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा राज्य का प्रमुख था। वह सभी शक्तियों का स्रोत था। राज्य की भीतरी तथा बाहरी नीतियाँ महाराजा द्वारा तैयार की जाती थीं। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह जब चाहे किसी को भी उसके पद से अलग कर सकता था। वह मुख्य सेनापति था तथा राज्य की सारी सेना उसके संकेत पर चलती थी। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था और उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द लोगों के लिए कानून बन जाता था। कोई भी व्यक्ति उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था। महाराजा को किसी भी शासक के साथ युद्ध अथवा संधि करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। उसे अपनी प्रजा पर कोई भी कर लगा सकने तथा उसे हटाने का अधिकार था। संक्षेप में, महाराजा की शक्तियाँ किसी तानाशाह से कम नहीं थीं। महाराजा कभी भी इन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करता था। वह प्रजा के कल्याण में ही अपना कल्याण समझता था। निस्संदेह ऐसे महान् शासकों की उदाहरणे इतिहास में बहुत कम मिलती हैं।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय प्रबंध पर एक नोट लिखें। (Write a short note on the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह का प्रांतीय प्रबंध कैसा था ?
(How was the provincial administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे में नाज़िम की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of Nazim in Province during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने शासन व्यवस्था को कुशल ढंग से चलाने के लिए अपने राज्य को चार प्रांतों अथवा सूबों में विभाजित किया था। इनके नाम थे-सूबा-ए-लाहौर, सूबा-ए-मुलतान, सूबा-ए-कश्मीर तथा सूबा-ए-पेशावर। सूबे अथवा प्राँत का मुखिया नाज़िम कहलाता था। उसकी नियुक्ति महाराजा द्वारा की जाती थी। क्योंकि यह पद बहुत महत्त्व का होता था इसलिए महाराजा इस पद पर बहुत ही विश्वसनीय, समझदार, ईमानदार तथा अनुभवी व्यक्ति को ही नियुक्त करता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम को अनेक शक्तियाँ प्राप्त थीं।

  1. उसका प्रमुख कार्य अपने अधीन प्रांत में शाँति तथा कानून व्यवस्था को बनाए रखना था।
  2. वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करता था।
  3. वह प्रांत में महाराजा रणजीत सिंह के आदेशों को लागू करवाता था।
  4. वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों का निर्णय करता था तथा कारदारों के निर्णयों के विरुद्ध याचिकाएँ सुनता था।
  5. वह भूमि लगान एकत्र करने में कर्मचारियों की सहायता करता था।
  6. उसके अधीन कुछ सेना भी होती थी तथा कई बार छोटे-मोटे अभियानों का नेतृत्व भी करता था।
  7. वह जिलों के कारदारों के कार्यों का निरीक्षण भी करता था।
  8. वह निश्चित लगान समय पर केंद्रीय खजाने में जमा करवाता था।
  9. वह आवश्यकता पड़ने पर केंद्र को सेना भी भेजता था।
  10. वह प्रायः अपने प्राँत का भ्रमण करके यह पता लगाता था कि प्रजा महाराजा रणजीत सिंह के शासन से सन्तुष्ट है अथवा नहीं।

इस प्रकार नाज़िम के पास असीम अधिकार थे परंतु उसे अपने प्रांत के संबंध में कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने से पूर्व महाराजा रणजीत सिंह की अनुमति लेनी होती थी। महाराजा रणजीत सिंह स्वयं अथवा केंद्रीय अधिकारियों द्वारा नाज़िम के कार्यों का निरीक्षण करता था। संतुष्ट न होने पर नाज़िम को बदल दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम को अच्छी तन्खाहें मिलती थीं तथा वह बहुत शानों-शौकत से बड़े महलों में रहते थे।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय प्रबंध पर नोट लिखो। (Write a note on the local administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
(What do you know about the local administration of Maharaja Ranjit Singh ? Explain.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. परगनों का शासन प्रबंध–प्रत्येक प्रांत को आगे कई परगनों में बाँटा गया था। परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। कारदार के मुख्य कार्य परगने में शांति स्थापित करना, महाराजा के आदेशों की पालना करवाना, लगान एकत्र करना, लोगों के हितों का ध्यान रखना तथा दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनना था। कानूनगो एवं मुकद्दम कारदार की सहायता करते थे।

2. गाँव का प्रबंध प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसको उस समय मौज़ा कहते थे। गाँवों का प्रबंध पंचायतों के हाथ में होता थी। पंचायत ग्रामीणों की देखभाल करती थी तथा उनके छोटे-छोटे झगड़ों का समाधान करती थी। लोग पंचायतों का बहुत सम्मान करते थे तथा उनके निर्णयों को अधिकाँश लोग स्वीकार करते थे। पटवारी गाँव की भूमि का रिकॉर्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

3. लाहौर शहर का प्रबंध-महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रबंध अन्य शहरों से अलग ढंग से किया जाता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना, शहर में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देखभाल करना, शहर में सफाई का प्रबंध करना, शहर में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार एवं उद्योग का ध्यान रखना, नाप-तोल की वस्तुओं पर नज़र रखना आदि थे।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कारदार की स्थिति क्या थी ? (What was the position of Kardar during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रत्येक सूबे अथवा प्राँत को आगे कई परगनों में बाँटा हुआ था। परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। उसे अनेक कर्त्तव्य निभाने होते थे। वह परगने में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था। वह परगने से भूमि कर एकत्र करके केंद्रीय कोष में जमा करवाता था। वह परगना के आय-व्यय का पूरा विवरण रखता था। वह परगना के हर प्रकार के दीवानी तथा फौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह दोषियों को दंड भी देता था। कारदार अपने क्षेत्र का आबकारी तथा सीमा कर अधिकारी भी होता था। इसलिए परगना से इन करों को एकत्र करना उसका कर्त्तव्य था। वह कर न देने वाले लोगों के विरुद्ध कार्यवाही भी करता था। वह जनकल्याण अधिकारी भी था, इसलिए वह परगना के लोगों के हितों का पूरा ध्यान रखता था। इस संबंध में वह परगना के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से संपर्क रखता था। वह परगनों में घटने वाली समस्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं की सूचना रखता था क्योंकि वह एक लेखाकार के रूप में भी कार्य करता था। वह परगना में निर्मित सरकारी अन्न भंडारों में अन्न जमा करवाता था। वह परगना में महाराजा के आदेशों का पालन भी करवाता था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के प्रबंध बारे एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the administration of city of Lahore during the times of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के लिए विशेष प्रबंध किया गया था। यह व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर ईमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को व्यावहारिक रूप देना, शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देख-रेख करना, शहर में सफाई की व्यवस्था करना, शहरों में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार व उद्योग का निरीक्षण, नाप-तोल की वस्तुओं की जाँच करनी इत्यादि थे। वह दोषी लोगों के विरुद्ध वांछित कार्यवाही करता था। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह का लाहौर शहर का प्रबंध बहुत बढ़िया था।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह की लगान व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालें। (Describe main features of Maharaja Ranjit Singh’s land revenue administration.)
अथवा महाराजा रणजीत सिंह के आर्थिक प्रशासन पर नोट लिखें। (Write a note on the economic administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने इस ओर अपना विशेष ध्यान दिया। लगान एकत्र करने की अग्रलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं—
1. बटाई प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकौर फसल काटने के उपराँत अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।

2. कनकूत प्रणाली–1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को लागू किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फसल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।

3. बोली देने की प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।

4. बीघा प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत एक बीघा की उपज के आधार पर लगान निश्चित किया जाता था।

5. हल प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।

6. कुआँ प्रणाली—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था।

भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फसलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के जागीरदारी प्रबंध पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
(Write a brief note on Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the chief features of Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय में कई प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं। इन जागीरों में सेवा जागीरों को सबसे उत्तम समझा जाता था। ये जागीरें राज्य के उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के बदले में दी जाती थीं। इसके अतिरिक्त उस समय इनाम जागीरें, वतन जागीरें तथा धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं। धर्मार्थ जागीरें धार्मिक संस्थाओं अथवा व्यक्तियों को दी जाती थीं। ये जागीरें स्थायी रूप से दी जाती थीं। जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से जागीरदार अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके ऐजेंट करते थे। जागीरदारों को न केवल अपनी जागीरों से लगान एकत्र करने का अधिकार था, अपितु वे न्याय संबंधी विषयों का निर्णय भी करते थे। कई बार उन्हें सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी सौंपा जाता था। सैनिक जागीरदारों को सैनिक भर्ती करने का भी अधिकार प्राप्त था। जागीरदारी व्यवस्था में यद्यपि कुछ दोष अवश्य थे, परंतु यह प्रबंध तत्कालीन समय के अनुकूल था।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली की मुख्य विशेषताओं की चर्चा करें।
(Discuss the main features of the Judicial System of Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ बताएँ।। (Discuss the main features of the Judicial System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध बहुलै साधारण था। कानून लिखित नहीं थे। न्याय उस समय की परंपराओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार किया जाता था। न्याय के संबंध में अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने राज्य भर में कई अदालतें स्थापित की थीं। __महाराजा के उपरांत राज्य की सर्वोच्च अदालत का नाम अदालते-आला था। यह नाज़िम तथा परगनों में कारदार की अदालतें दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनती थीं। न्याय के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने विशेष अधिकारी भी नियुक्त किए थे जिनको अदालती कहा जाता था। अधिकाँश शहरों तथा कस्बों में काज़ी की अदालत भी कायम थी। यहाँ न्याय के लिए मुसलमान तथा गैर-मुसलमान लोग जा सकते थे। गाँवों में पंचायतें झगड़ों का निर्णय स्थानीय परंपराओं के अनुसार करती थीं। महाराजा रणजीत सिंह के समय दंड कठोर नहीं थे। मृत्यु दंड किसी को भी नहीं दिया जाता था। अधिकतर अपराधियों से जुर्माना वसूल किया जाता था। परंतु बार-बार अपराध करने वालों के हाथ, पैर, नाक आदि काट दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध उस समय के अनुकूल था।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What were the main features of Maharaja Ranjit Singh’s military administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की सेना पर संक्षेप नोट लिखें। (Write a short note on the military of Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. रचना-महाराजा रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न वर्गों से संबंधित लोग सम्मिलित थे। इनमें सिख, राजपूत, ब्राह्मण, क्षत्रिय, गोरखे तथा पूर्बिया हिंदुस्तानी सम्मिलित थे।

2. भर्ती-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में भर्ती बिल्कुल लोगों की इच्छा के अनुसार होती थी। केवल स्वस्थ व्यक्तियों को ही सेना में भर्ती किया जाता था। अफसरों की भर्ती का काम केवल महाराजा के हाथों में था। प्रायः उच्च तथा विश्वसनीय अधिकारियों के पुत्रों को अधिकारी नियुक्त किया जाता था।

3. वेतन-महाराजा रणजीत सिंह से पूर्व सैनिकों को या तो जागीरों के रूप में या ‘जिनस’ के रूप में वेतन दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिकों को नकद वेतन देने की परंपरा शुरू की।

4. पदोन्नति-महाराजा रणजीत सिंह अपने सैनिकों की केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नति करता था। पदोन्नति देते समय महाराजा किसी सैनिक के धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था।

5. पुरस्कार और उपाधि-महाराजा रणजीत सिंह प्रत्येक वर्ष लाहौर दरबार की शानदार सेवा करने वाले सैनिकों को और लड़ाई के मैदान में बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को लाखों रुपयों के पुरस्कार तथा ऊँची उपाधियाँ देता था।

6. अनुशासन-महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना में बहुत कड़ा अनुशासन स्थापित किया हुआ था। सैनिक नियमों का उल्लंघन करने वाले सैनिकों को कड़ा दंड दिया जाता था।

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन में फ़ौज-ए-खास के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Fauj-i-Khas of Maharaja Ranjit Singh’s army.)
उत्तर-
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल बैंतरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इसे ‘मॉडल ब्रिगेड’ भी कहा जाता था। इस सेना में पैदल सेना की चार बटालियनें, घुड़सवार सेना की दो रेजीमैंटें तथा 24 तोपों का एक तोपखाना शामिल था। इस सेना को यूरोपीय ढंग के कड़े प्रशिक्षण के अंतर्गत तैयार किया गया था। इस सेना में बहुत उत्तम सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र व घोड़े भी सबसे बढ़िया किस्म के थे। इसीलिए इस सेना को फ़ौज-ए-खास कहा जाता था। इस सेना का अपना अलग ध्वज चिह्न था। यह सेना बहुत अनुशासित थी। इस सेना को कठिन अभियानों में भेजा जाता था। इस सेना ने महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की। इस सेना की कार्य-कुशलता को देखकर अनेक अंग्रेज़ अधिकारी चकित रह गए थे।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह की फ़ौज-ए-बेक्वायद से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Fauj-i-Baqawaid of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
फ़ौज-ए-बेकवायद वह सेना थी, जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी। इसके चार भाग थे—
(i) घुड़चढ़े
(ii) फ़ौज-ए-किलाजात
(iii) अकाली
(iv) जागीरदार सेना।

i) घुड़चढ़े-घुड़चढ़े बेकवायद सेना का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। ये दो भागों में बँटे हुए थे—

  • घुड़चढ़े खास-इसमें राजदरबारियों के संबंधी तथा उच्च वंश से संबंधित व्यक्ति सम्मिलित थे।
  • मिसलदार-इसमें वे सैनिक सम्मिलित थे, जो मिसलों के समय से सैनिक चले आ रहे थे। घुड़चढ़ों की तुलना में मिसलदारों का पद कम महत्त्वपूर्ण था। इनके युद्ध का ढंग भी पुराना था। 1838-39 ई० में घुड़चढ़ों की संख्या 10,795 थी।।

ii) फ़ौज-ए-किलाजात-किलों की सुरक्षा के लिए महाराजा रणजीत सिंह के पास एक अलग सेना थी, जिसको फ़ौज-ए-किलाजात कहा जाता था। प्रत्येक किले में किलाजात सैनिकों की संख्या किले के महत्त्व के अनुसार अलग-अलग होती थी। किले के कमान अधिकारी को किलादार कहा जाता था।

iii) अकाली-अकाली अपने आपको गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना समझते थे। इनको सदैव भयंकर अभियान में भेजा जाता था। वे सदैव हथियारबंद होकर घूमते रहते थे। वे किसी तरह के सैनिक प्रशिक्षण या परेड के विरुद्ध थे। वे धर्म के नाम पर लड़ते थे। उनकी संख्या 3,000 के लगभग थी। अकाली फूला सिंह एवं अकाली साधु सिंह उनके प्रसिद्ध नेता थे।

iv) जागीरदारी फ़ौज-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों पर यह शर्त लगाई गई कि वे महाराजा को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता दें। इसलिए जागीरदार राज्य की सहायता के लिए पैदल तथा घुड़सवार सैनिक रखते थे।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार था ? (What was Ranjit Singh’s attitude towards his subjects ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था। वह प्रजा के हितों की कभी उपेक्षा नहीं करता था। उसने सरकारी कर्मचारियों को यह आदेश दिया था कि वे प्रजा के कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की दशा जानने के लिए महारांजा भेष बदल कर प्रायः राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेश का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को कड़ा दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। कश्मीर में जब एक बार भारी अकाल पड़ा तो महाराजा ने हज़ारों खच्चरों पर अनाज लाद कर कश्मीर भेजा था। महाराजा ने न केवल सिखों बल्कि हिंदुओं तथा मुसलमानों को भी संरक्षण दिया। उन्हें भारी संख्या में लगान मुक्त भूमि दान में दी गई। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह के समय में प्रजा बहुत समृद्ध थी।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर पड़े प्रभावों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the effects of Ranjit Singh’s rule on the life of the people.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। उसने पंजाब में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। पंजाब के लोगों ने शताब्दियों के पश्चात् चैन की. साँस ली। इससे पूर्व पंजाब के लोगों को एक लंबे समय तक मुग़ल तथा अफ़गान सूबेदारों के घोर अत्याचारों को सहन करना पड़ा था। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में एक उच्चकोटि के शासन प्रबंध की स्थापना की। उसके शासन का प्रमुख उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। उसने अपने राज्य में सभी अमानुषिक सज़ाएँ बंद कर दी थीं। मृत्यु की सज़ा किसी अपराधी को भी नहीं दी जाती थी। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने नागरिक प्रबंध के साथ-साथ सैनिक प्रबंध की ओर भी विशेष ध्यान दिया। इस शक्तिशाली सेना के परिणामस्वरूप वह साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल हुआ। महाराजा ने कृषि, उद्योग तथा व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष उपाय किए। परिणामस्वरूप उसके शासन काल में प्रजा बहुत समृद्ध थी। महाराजा रणजीत सिंह यद्यपि सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था, किंतु उसने अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई। आज भी लोग महाराजा रणजीत सिंह के शासन के गौरव को स्मरण करते हैं।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अन्त में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
महाराजा केंद्रीय शासन की धुरी था। उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। महाराजा रणजीत सिंह अपने अधिकारों का प्रयोग जन-कल्याण के लिए करता था। शासन प्रबन्ध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मन्त्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढ़ीवाला हम के मन्त्री प्रमुख थे। इन मन्त्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। प्रशासन की कुशलता के लिए रणजीत सिंह प्रायः अपने मन्त्रियों का परामर्श मान लेता था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए 12 दफ्तरों (विभागों) की स्थापना की थी। इनमें विशेषकर दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल, दफ्तरए-तोजीहात, दफ्तर-ए-मवाजिब तथा दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-अखराजात प्रमुख थे। निश्चय ही रणजीत सिंह का शासन प्रबध बहुत अच्छा था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन का धुरा कौन होता था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री कौन था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
    • राजा ध्यान सिंह
    • हरी सिंह नलवा
    • फकीर अजीजुद्दीन
    • दीवान मोहकम चंद।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की अच्छी देखभाल के लिए कितने दफ्तरों की स्थापना की गई थी ?
  5. दफ्तर-ए-तोजीहात का क्या काम होता था ?

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन का धुरा महाराजा स्वयं होता था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री राजा ध्यान सिंह था।
  3. फकीर अजीजुद्दीन।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की अच्छी देखभाल के लिए 12 दफ्तरों की स्थापना की गई थी।
  5. दफ्तर-ए-तोज़ीहात शाही घराने का हिसाब रखता था।

2
शासन-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के उद्देश्य से महाराजा रणजीत सिंह ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभाजित किया हुआ था। इन प्रांतों अथवा सूबों के नाम ये थे–(i) सूबा-ए-लाहौर, (ii) सूबा-ए-मुलतान, (ii) सूबाए-कश्मीर, (iv) सूबा-ए-पेशावर। प्राँत का प्रशासन चलाने की ज़िम्मेदारी नाज़िम की होती थी। नाज़िम का मुख्य कार्य अपने प्रांत में शांति बनाए रखना था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह भूमि का लगान एकत्रित करने में कर्मचारियों की सहायता करता था। वह जिलों के कारदारों के कार्यों का भी निरीक्षण करता था। इस प्रकार नाज़िम के पास असीमित अधिकार थे, परंतु उसे अपने प्रांत के संबंध में कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय करने से पूर्व महाराजा की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। महाराजा जब चाहे नाज़िम को परिवर्तित कर सकता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य को कितने सूबों में बाँटा हुआ था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के किन्हीं दो सूबों के नाम लिखें।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे का मुखिया कौन होता था ?
  4. नाज़िम का कोई एक मुख्य कार्य लिखें।
  5. महाराजा जब चाहे नाज़िम को …………. कर सकता था।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य को चार सूबों में बांटा हुआ था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के दो सूबों के नाम सूबा-ए-लाहौर तथा सूबा-ए-कश्मीर थे।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे का मुखिया नाज़िम होता था।
  4. वह अपने अधीन प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था।
  5. परिवर्तित।

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3
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसे उस समय मौज़ा कहते थे। गाँवों की व्यवस्था पंचायतों के हाथ में होती थी। पंचायत ग्रामीण लोगों की देख-रेख करती थी तथा उनके छोटे-मोटे झगडों को निपटाती थी। लोग पंचायत का बहुत सम्मान करते थे तथा उसके निर्ण: को अधिकतर लोग स्वीकार करते थे। पटवारी गाँवों की भूमि का रिकार्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। मुकद्दम (नंबरदार) गाँव का मुखिया होता था। वह सरकार व लोगों में एक कड़ी का कार्य करता था। चौकीदार गाँव का पहरेदार होता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कौन-सी थी ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को क्या कहा जाता था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव का प्रबंध किसके हाथ में होता था ?
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुकद्दम कौन था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँवों की भूमि का रिकार्ड कौन रखता था ?
    • मुकद्दम
    • चौधरी
    • पटवारी
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को मौज़ा कहते थे।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव का प्रबंध पंचायत के हाथ में होता था।
  4. मुकद्दम गाँव का मुखिया होता था।
  5. पटवारी।

4
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था । मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफ़ाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर इमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को व्यावहारिक रूप देना, शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देख-रेख करना, शहर में सफाई की व्यवस्था करना, शहरों में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार व उद्योग का निरीक्षण, नाप-तोल की वस्तुओं की जाँच करना इत्यादि थे। वह दोषी लोगों के विरुद्ध वांछित कार्यवाई करता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह जी के समय लाहौर शहर का मुख्य अधिकारी कौन था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर कौन नियुक्त था ?
  3. कोतवाल का एक मुख्य कार्य बताएँ।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुहल्ले का मुखिया कौन होता था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के समय ………… शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का मुख्य अधिकारी कोतवाल होता था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर इमाम बख्श नियुक्त था।
  3. शहर में शांति बनाए रखना।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुहल्ले का मुखिया मुहल्लेदार होता था।
  5. लाहौर।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन PSEB 12th Class History Notes

  • महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक प्रबंध (Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh)-महाराजा रणजीत सिंह के नागरिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
    • केंद्रीय शासन प्रबंध (Central Administration)–महासजा राज्य का मुखिया था-राज्य की सभी आंतरिक तथा बाह्य नीतियाँ महाराजा द्वारा तैयार की जाती थीं-प्रशासन व्यवस्था की देख-रेख के लिए एक मंत्रिपरिषद् का गठन किया हुआ था-मंत्रियों की नियुक्ति महाराजा स्वयं करता था-केंद्र में महाराजा के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान प्रधानमंत्री का था-विदेश मंत्री, वित्त मंत्री, मुख्य सेनापति और ड्योढ़ीवाला मंत्रिपरिषद् के अन्य मुख्य मंत्री थे-प्रबंधकीय सुविधाओं के लिए केंद्रीय शासन-व्यवस्था को अनेक दफ्तरों में विभाजित किया गया था।
    • प्रांतीय प्रबंध (Provincial Administration)-महाराजा ने अपने राज्य को चार बड़े प्राँतों में विभाजित किया हुआ था-ये प्राँत थे-सूबा-ए-लाहौर, सूबा-ए-मुलतान, सूबा-ए-कश्मीर और सूबाए-पेशावर-प्राँत का प्रशासन नाज़िम के हाथ में होता था-नाज़िम कभी भी महाराजा द्वारा परिवर्तित किया जा सकता था।
    • स्थानीय व्यवस्था (Local Administration)—प्रत्येक प्राँत कई परगनों में विभाजित थापरगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहते थे-प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव अथवा मौजा थी-गाँव की व्यवस्था पंचायत के हाथ में होती थी-पटवारी, चौधरी, मुकद्दम और चौकीदार गाँव के प्रमुख अधिकारी होते थे-लाहौर शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग थी।
    • वित्तीय व्यवस्था (Financial Administration)-राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था-लगान एकत्रित करने के लिए बटाई प्रणाली सर्वाधिक प्रचलित थी-इसके अतिरिक्त कनकूत प्रणाली, ज़ब्ती प्रणाली, बीघा प्रणाली, हल प्रणाली और इज़ारादारी प्रणाली भी प्रचलित थी-लगान वर्ष में दो बार एकत्रित किया जाता था—यह भूमि की उपजाऊ शक्ति पर निर्भर करता था-चुंगी कर, नज़राना, ज़ब्ती और आबकारी आदि से भी सरकार को आय होती थी।
    • जागीरदारी प्रथा (Jagirdari System)-जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में सेवा जागीरें सबसे महत्त्वपूर्ण थीं-इन जागीरों को घटाया, बढ़ाया अथवा जब्त किया जा सकता था ये सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को दी जाती थीं-इसके अतिरिक्त ईनाम जागीरें, गुज़ारा जागीरें, वतन जागीरें और धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं।
    • न्याय व्यवस्था (Judicial System)-न्याय प्रणाली साधारण थी-कानून लिखित नहीं थेनिर्णय प्रचलित प्रथाओं व धार्मिक विश्वासों के आधार पर किए जाते थे-न्याय व्यवस्था में पंचायत सबसे लघु और महाराजा की अदालत सर्वोच्च अदालत थी-लोग किसी भी अदालत में जाकर मुकद्दमा प्रस्तुत कर सकते थे-अपराधों का दंड प्रायः जुर्माना ही होता था। मृत्यु दंड किसी भी अपराधी को नहीं दिया जाता था। ।
  • महाराजा रणजीत सिंह का सैनिक प्रबंध (Military Administration of Maharaja Ranjit Singh)-महाराजा रणजीत सिंह ने अपने सैनिक प्रबंध की ओर विशेष ध्यान दिया-उसकी सेना में देशी एवं विदेशी दोनों सैनिक प्रणालियों का समन्वय किया गया था-सेना ‘फ़ौज-ए-आईन’ और ‘फ़ौज-ए-बेकवायद’ नामक दो भागों में विभाजित थी-फ़ौज-ए-आईन को पैदल, घुड़सवार और तोपखाना में विभाजित किया गया था-फ़ौज-ए-खास महाराजा की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली अंग थी-इसे जनरल वेंतूरा ने तैयार किया था—फ़ौज-ए-बेकवायद को निश्चित नियमों का पालन नहीं करना पड़ता था-रणजीत सिंह की सेना में भिन्न-भिन्न वर्गों से संबंधित लोग शामिल थेअधिकाँश इतिहासकारें का मत है कि उनकी सेना की संख्या 75,000 से 1,00,000 के बीच थी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है ? संसदीय शासन प्रणाली की कोई चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(What is meant by Parliamentary System ? Explain any four features of a parliamentary system of Government.)
उत्तर-
कार्यपालिका और विधानपालिका के सम्बन्धों के आधार पर दो प्रकार के शासन होते हैं-संसदीय तथा अध्यक्षात्मक। यदि कार्यपालिका और विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध हों और दोनों एक-दूसरे का अटूट भाग हों तो संसदीय सरकार होती हैं और यदि कार्यपालिका तथा विधानपालिका एक-दूसरे से लगभग स्वतन्त्र हों तो अध्यक्षात्मक सरकार होती है।

संसदीय सरकार का अर्थ (Meaning of Parliamentary Government)-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् (विधानपालिका) के प्रति उत्तरदायी होती है और जब तक अपने मद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग पत्र देना पड़ता है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार (Responsible Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इस सरकार को कैबिनेट सरकार (Cabinet Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां कैबिनेट द्वारा प्रयोग की जाती हैं।

1. डॉ० गार्नर (Dr. Garmer) का मत है कि, “संसदीय सरकार वह प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका, मन्त्रिमण्डल या मन्त्रिपरिषद् अपनी राजनीतिक नीतियों और कार्यों के लिए प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से विधानमण्डल या उसके एक सदन (प्रायः लोकप्रिय सदन) के प्रति और राजनीतिक तौर पर मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी हो जबकि राज्य का अध्यक्ष संवैधानिक या नाममात्र कार्यपालिका हो और अनुत्तरदायी हो।”

2. गैटेल (Gettell) के अनुसार, “संसदीय शासन प्रणाली शासन के उस रूप को कहते हैं जिसमें प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् अर्थात् वास्तविक कार्यपालिका अपने कार्यों के लिए कानूनी दृष्टि से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। चूंकि विधानपालिका के दो सदन होते हैं अतः मन्त्रिमण्डल वास्तव में उस सदन के नियन्त्रण में होता है जिसे वित्तीय मामलों पर अधिक शक्ति प्राप्त होती है जो मतदाताओं का अधिक सीधे ढंग से प्रतिनिधित्व करता है।”
इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है और राज्य का नाममात्र का मुखिया किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।
संसदीय सरकार को सर्वप्रथम इंग्लैंड में अपनाया गया था। आजकल इंग्लैंड के अतिरिक्त जापान, कनाडा, नार्वे, स्वीडन, बंगला देश तथा भारत में भी संसदीय सरकारें पाई जाती हैं।

संसदीय सरकार के लक्षण (FEATURES OF PARLIAMENTARY GOVERNMENT)
संसदीय प्रणाली के निम्नलिखित लक्षण होते हैं-

1. राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी (Head of the State is Nominal Executive)-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी होता है। सैद्धान्तिक रूप में तो राज्य की सभी कार्यपालिका शक्तियां राज्य के अध्यक्ष के पास होती हैं और उनका प्रयोग भी उनके नाम पर होता है, परन्तु वह उनका प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता। उसकी सहायता के लिए एक मन्त्रिमण्डल होता है, जिसकी सलाह के अनुसार ही उसे अपनी शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है। अध्यक्ष का काम तो केवल हस्ताक्षर करना है।

2. मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है (Cabinet is the Real Executive) राज्य के अध्यक्ष के नाम में दी गई शक्तियों का वास्तविक प्रयोग मन्त्रिमण्डल करता है। अध्यक्ष के लिए मन्त्रिमण्डल से सलाह मांगना और मानना अनिवार्य है। मन्त्रिमण्डल ही अन्तिम फैसला करता है और वही देश का वास्तविक शासक है। शासन का प्रत्येक विभाग एक मन्त्री के अधीन होता है और सब कर्मचारी उसके अधीन काम करते हैं । हर मन्त्री अपने विभागों का काम मन्त्रिमण्डल की नीतियों के अनुसार चलाने के लिए उत्तरदायी होता है।

3. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध (Close Relation between Executive and Legislature) संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। इसके सदस्य अर्थात् मन्त्री संसद् में से ही लिए जाते हैं। ये मन्त्री संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, बिल पेश करते हैं, बिलों पर बोलते हैं और यदि सदन के सदस्य हों तो मतदान के समय मत का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार मन्त्री प्रशासक (Administrator) भी हैं, कानून-निर्माता (Legislator) भी।

4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Responsibilty of the Cabinet)-कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल अपने सब कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। संसद् सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना पड़ता है। मन्त्रिमण्डल अपनी नीति निश्चित करता है, उसे संसद के सामने रखता है तथा उसका समर्थन प्राप्त करता है। मन्त्रिमण्डल, अपना कार्य संसद् की इच्छानुसार ही करता है।

5. उत्तरदायित्व सामूहिक होता है (Collective Responsibility)-मन्त्रिमण्डल इकाई के रूप में कार्य करता है और मन्त्री सामूहिक रूप से संसद् के प्रति उत्तरदायी होते हैं। यदि संसद् एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो समस्त मन्त्रिमण्डल को अपना पद छोड़ना पड़ता है। किसी विशेष परिस्थिति में एक मन्त्री अकेला भी हटाया जा सकता है।

6. मन्त्रिमण्डल का अनिश्चित कार्यकाल (Tenure of the Cabinet is not Fixed)-मन्त्रिमण्डल की अवधि भी निश्चित नहीं होती। संसद् की इच्छानुसार ही वह अपने पद पर रहते हैं। संसद् जब चाहे मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ कर सकती है, अर्थात् यदि निम्न सदन के नेता को ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है और उसकी इच्छानुसार ही दूसरे मन्त्रियों की नियुक्ति होती है।

7. मन्त्रिमण्डल की राजनीतिक एकरूपता (Political Homogeneity of the Cabinet)-संसदीय सरकार की एक विशेषता यह भी है कि इसमें मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही राजनीतिक दल से सम्बन्धित होते हैं। यह आवश्यक भी है क्योंकि जब तक मन्त्री एक ही विचारधारा और नीतियों के समर्थक नहीं होंगे, मन्त्रिमण्डल में सामूहिक उत्तदायित्व विकसित नहीं हो सकेगा।

8. गोपनीयता (Secrecy)—संसदीय सरकार में पद सम्भालने से पूर्व मन्त्री संविधान के प्रति वफादार रहने तथा सरकार के रहस्यों को गुप्त रखने की शपथ लेते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 2.
संसदीय शासन प्रणाली क्या है ? भारतीय संसदीय प्रणाली की कोई चार विशेषताओं का विस्तार से वर्णन करें।
(What is Parliamentary form of Government ? Explain any four characteristics of Indian Parliamentary govt. in detail.)
अथवा
भारत में संसदीय शासन की सरकार की विशेषताओं का वर्णन करो। (Discuss the main features of Parliamentary Government in India.)
अथवा
भारत की संसदीय प्रणाली की विशेषताएं लिखिए। (Write about the features of Indian Parliamentary Government.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है। भारत में भी स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान के अन्तर्गत प्रजातन्त्र की स्थापना की गई है। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। 24 जनवरी, 1950 को संविधान की अन्तिम बैठक में भाषण देते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि, “हमने भारत के लिए लोकतान्त्रिक संविधान का निर्माण किया है।” भारतीय लोकतन्त्र में वे सभी बातें पाई जाती हैं जो एक लोकतान्त्रिक देश में होनी चाहिए। प्रस्तावना से स्पष्ट पता चलता है कि सत्ता का अन्तिम स्रोत जनता है और संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने ऊपर लागू करने वाले भारत के लोग हैं।

वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। 61वें संशोधन के द्वारा प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष या अधिक है, मताधिकार दिया गया है। जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई मतभेद नहीं किया गया है। सभी नागरिकों को समान रूप से मौलिक अधिकार दिए गए हैं। इन अधिकारों के द्वारा भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र को मजबूत बनाया गया है। संविधान के चौथे अध्याय में राजनीति के निर्देशक तत्त्वों की व्यवस्था की गई है ताकि आर्थिक लोकतन्त्र की व्यवस्था की जा सके। संविधान का निर्माण करते समय इस बात पर काफ़ी विवाद हुआ कि भारत में संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना की जाए या अध्यक्षात्मक लोकतन्त्र की। संविधान सभा में सैय्यद काज़ी तथा शिब्बन लाल सक्सेना ने अध्यक्षात्मक लोकतन्त्र की जोरदार वकालत की। के० एम० मुन्शी, अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर आदि ने संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन किया और काफ़ी वाद-विवाद के पश्चात् बहुमत के आधार पर संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना की।

संसदीय शासन प्रणाली का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Parliamentary Govt.)इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखें।

भारत में संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं (FEATURES OF PARLIAMENTARY GOVERNMENT IN INDIA)
भारतीय संसदीय प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद (Distinction between Nominal and Real Executive)-भारतीय संसदीय प्रणाली की प्रथम विशेषता यह है कि संविधान के अन्तर्गत नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद किया गया है। राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान के अन्दर कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।

2. कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध (Close Relation between the Executive and the Parliament) कार्यपालिका और संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्रिमण्डल में ले लिया जाता है जो संसद् का सदस्य नहीं है तो उसे 6 महीने के अन्दरअन्दर या तो संसद् का सदस्य बनना पड़ता है या फिर मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र देना पड़ता है। लोकसभा में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है राष्ट्रपति उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रिमण्डल शासन चलाने का कार्य ही नहीं करता बल्कि कानून निर्माण में भी भाग लेता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, अपने विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं।

3. राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग है (President remains outside the Cabinet)–संसदीय प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग रहता है। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता। मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के प्रत्येक निर्णय से राष्ट्रपति को सूचित कर दिया जाता है।

4. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व (Leadership of the Prime Minister)-मन्त्रिमण्डल अपना समस्त कार्य प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में करता है। राष्ट्रपति राज्य का अध्यक्ष है और प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष है। प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार ही राष्ट्रपति अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। मन्त्रियों में विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री के द्वारा ही किया जाता है और वह जब चाहे मन्त्रियों के विभागों को बदल सकता है। वह मन्त्रिमण्डल की अध्यक्षता करता है। यदि कोई मन्त्री प्रधानमन्त्री से सहमत नहीं होता तो वह त्याग-पत्र दे सकता है। प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर किसी भी मन्त्री को पद से हटा सकता है। मन्त्रिमण्डल का जीवन तथा मृत्यु प्रधानमन्त्री के हाथों में होती है। प्रधानमन्त्री का इतना महत्त्व है कि उसे सितारों में चमकता हुआ चाँद (Shinning moon among the stars) कहा जाता है।

5. राजनीतिक एकरूपता (Political Homogeneity)—संसदीय शासन प्रणाली की अन्य विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक एकरूपता होती है। लोकसभा में जिस दल का बहुमत होता है उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री बनाया जाता है और प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल का स्वयं निर्माण करता है। प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी के सदस्यों को ही मन्त्रिमण्डल में शामिल करता है। विरोधी दल के सदस्यों को मन्त्रिमण्डल में नियुक्त नहीं किया जाता।

6. एकता (Solidarity)—भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक और विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल एक इकाई के समान कार्य करता है। मन्त्री एक साथ बनते हैं और एक साथ ही अपने पद त्यागते हैं। जो निर्णय एक बार मन्त्रिमण्डल के द्वारा कर लिया जाता है, मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य उस निर्णय के अनुसार ही कार्य करते हैं और कोई भी मन्त्री उसका विरोध नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल में जब कभी भी किसी विषय पर विचार होता है, उस समय प्रत्येक सदस्य स्वतन्त्रता से अपने-अपने विचार दे सकता है, परन्तु जब एक बार निर्णय ले लिया जाता है, चाहे वह निर्णय बहुमत के द्वारा क्यों न लिया गया हो, वह निर्णय समस्त मन्त्रिमण्डल का निर्णय कहलाता है।

7. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Ministerial Responsibility)-भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल को अपनी आंतरिक तथा बाहरी नीति संसद के सामने रखनी पड़ती है और संसद् की स्वीकृति मिलने के बाद ही उसे लागू कर सकता है। संसद् के सदस्य मन्त्रियों से उनके विभागों से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकते हैं और मन्त्रियों को प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है। यदि उत्तर स्पष्ट न हो या प्रश्नों को टालने की कोशिश की जाए तो सदस्य अपने इस अधिकार की रक्षा के लिए सरकार से अपील कर सकते हैं। यदि लोकसभा मन्त्रिमण्डल के कार्यों से सन्तुष्ट न हो तो वह उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर सकते हैं।

8. गोपनीयता (Secrecy) भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक अन्य विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल की बैठकें प्राइवेट और गुप्त होती हैं। मन्त्रिमण्डल की कार्यवाही गुप्त रखी जाती है और मन्त्रिमण्डल की बैठकों में उसके सदस्यों के अतिरिक्त किसी अन्य को उसमें बैठने का अधिकार नहीं होता। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) के अनुसार मन्त्रियों को पद ग्रहण करते समय मन्त्रिमण्डल की कार्यवाहियों को गुप्त रखने की शपथ लेनी पड़ती है।

9. प्रधानमन्त्री लोकसभा को भंग करवा सकता है (Prime Minister Can get the Lok Sabha Dissolved) भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक विशेषता यह है कि प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर लोकसभा को भंग करवा सकता है। जनवरी, 1977 में राष्ट्रपति अहमद ने प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की सलाह पर लोकसभा को भंग कर किया। 22 अगस्त, 1979 को राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह की सलाह पर लोकसभा को भंग किया। 6 फरवरी, 2004 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने 13वीं लोकसभा भंग कर दी।

10. मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं है (The Tenure of the Cabinet is not Fixed)-मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त है। इस प्रकार मन्त्रिमण्डल की अवधि लोकसभा पर निर्भर करती है। अत: यदि मन्त्रिमण्डल को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त रहे तो वह 5 वर्ष तक रह सकता है। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को जब चाहे हटा सकती है।

11. लोकसभा की श्रेष्ठता (Superiority of the Lok Sabha)-संसदीय सरकार की एक विशेषता यह होती है कि संसद् का निम्न सदन ऊपरि सदन की अपेक्षा श्रेष्ठ और शक्तिशाली होता है। भारत में भी संसद् का निम्न सदन (लोकसभा) राज्यसभा से श्रेष्ठ और अधिक शक्तिशाली है। मन्त्रिमण्डल के सदस्यों की आलोचना और उनसे प्रश्न पूछने का अधिकार संसद् के दोनों सदनों के सदस्यों को है, परन्तु वास्तव में मन्त्रिमण्डल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। लोकसभा ही अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है, परन्तु ये अधिकार राज्यसभा के पास नहीं है। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि लोकसभा ने वाजपेयी के विश्वास प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

12. विरोधी दल के नेता को मान्यता (Recognition to the Leader of the Opposition Party)-मार्च, 1977 को लोकसभा के चुनाव के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता सरकार ने संसदीय शासन प्रणाली को दृढ़ बनाने के लिए विरोधी दल के नेता को कैबिनेट स्तर के मन्त्री की मान्यता दी। ब्रिटिश परम्परा का अनुसरण करते हुए भारत में भी अगस्त,1977 में भारतीय संसद् द्वारा पास किए गए कानून के अन्तर्गत संसद् के दोनों सदनों में विरोधी दल के नेताओं को वही वेतन तथा सुविधाएं दी जाती हैं जो कैबिनेट स्तर के मन्त्री को प्राप्त होती हैं। मासिक वेतन और निःशुल्क आवास एवं यात्रा भत्ते की व्यवस्था की गई है। अप्रैल-मई, 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी को विरोधी दल के नेता के रूप में मान्यता दी गई। दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 3.
भारतीय संसदीय लोकतंत्र के कोई 6 दोषों या कमियों का वर्णन करें। (Explian six weaknesses or defects of Parliamentary democracy in India.)
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली के अवगुणों का वर्णन कीजिए। (Discuss the demerits of Indian Parliamentary System.)
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली के दोषों का वर्णन कीजिए। (Explain the defects of Indian Parliamentary System.)
उत्तर-
भारत में केन्द्र और प्रांतों में संसदीय शासन प्रणाली को कार्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं। भारतीय संसदीय प्रणाली की कार्यविधि के आलोचनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संसदीय प्रजातन्त्रीय प्रणाली में बहुत-सी त्रुटियां हैं जिनके कारण कई बार यह कहा जाता है कि भारत में संसदीय प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि के अध्ययन के पश्चात् निम्नलिखित दोष नज़र आते हैं-

1. एक दल की प्रधानता (Dominance of One Party)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि यहां पर कांग्रेस दल का ही प्रभुत्व छाया रहा है। 1950 से लेकर मार्च, 1977 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही। राज्यों में भी 1967 तक इसी की प्रधानता रही।
जनवरी, 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस (इ) को भारी सफलता मिली। कांग्रेस (इ) को 351 सीटें मिलीं जबकि लोकदल को 41 और जनता पार्टी को केवल 31 स्थान मिले। हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में दल-बदल द्वारा कांग्रेस (इ) की सरकारें स्थापित की गईं। मई, 1980 में 9 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में तमिलनाडु को छोड़कर 8 अन्य राज्यों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली और कांग्रेस (इ) की सरकारें बनीं। दिसम्बर, 1984 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (इ) को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई। ऐसा लगता था कि कांग्रेस का एकाधिकार पुनः स्थापित हो जाएगा। परन्तु नवम्बर, 1989 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (इ) की पराजय हुई और राष्ट्रीय मोर्चा को विजय प्राप्त हुई। फरवरी, 1990 में 8 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में महाराष्ट्र और अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर अन्य राज्यों में गैर-कांग्रेसी दलों को भारी सफलता प्राप्त हुई।

मई, 1991 के लोकसभा के चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव से स्पष्ट हो गया है कि अब कांग्रेस (इ) की प्रधानता 1977 से पहले जैसी नहीं रही। मई, 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 140 सीटें प्राप्त हुईं। पश्चिमी बंगाल, केरल, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश व पंजाब इत्यादि राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। इसी प्रकार फरवरी-मार्च, 1998 एवं सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के चुनावों में भी कांग्रेस को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् यद्यपि कांग्रेस ने केन्द्र में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके लिए अन्य दलों का समर्थन भी लेना पड़ा। अप्रैल-मई 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भी गठबन्धन सरकार का ही निर्माण किया गया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा उसे केवल 44 सीटें ही मिल पाईं, जबकि भाजपा को पहली बार स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। अतः अब कांग्रेस की प्रधानता समाप्त हो गई है।

2. संगठित विरोधी दल का अभाव (Lack of Effective Opposition)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि सदैव संगठित विरोधी दल के अभाव को अनुभव करती रही है।
लम्बे समय तक संगठित विरोधी दल न होने के कारण कांग्रेस ने विरोधी दलों की बिल्कुल परवाह नहीं की। परन्तु जनता पार्टी की स्थापना के पश्चात् भारतीय राजनीति व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल बनी और कांग्रेस को विरोधी बैंचों पर बैठने का पहली बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार कांग्रेस की हार से संगठित विरोधी दल का उदय हुआ।

सितम्बर-अक्तूबर 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को विपक्षी दल के रूप में और इस दल की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी को विपक्षी दल के नेता के रूप.में मान्यता दी गई है। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी दल के रूप में तथा इस दल के नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को विपक्षी दल के नेता के रूप में मान्यता दी गई। दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ।

3. बहुदलीय प्रणाली (Multiple Party System)—संसदीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक और बाधा बहुदलीय प्रणाली का होना है। भारत में फ्रांस की तरह बहुत अधिक दल पाए जाते हैं। स्थायी शासन के लिये दो या तीन दल ही होने चाहिए। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती। 1967 के चुनाव के पश्चात, बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि प्रान्तों में सरकारों के गिरने और बनने का पता भी नहीं चलता था। अत: संसदीय प्रजातन्त्र की कामयाबी के लिए दलों की संख्या को कम करना अनिवार्य है। मई, 1991 के लोकसभा के चुनाव के अवसर पर चुनाव आयोग ने 9 राष्ट्रीय दलों को मान्यता दी परन्तु फरवरी, 1992 में चुनाव कमीशन ने 3 राष्ट्रीय दलों की मान्यता रद्द कर दी। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय तथा 58 दलों को राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

4. सामूहिक उत्तरदायित्व की कमी (Absence of Collective Responsibility)-संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसका अभिप्राय यह है कि एक मन्त्री के विरुद्ध भी निन्दा प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया जाए तो समस्त मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। यह एक संवैधानिक व्यवस्था है जबकि व्यवहार में ऐसा होना चाहिए, परन्तु भारत में ऐसी परम्परा की कमी है।

5. अच्छी परम्पराओं की कमी (Absence of Healthy Convention)-संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है। इंग्लैण्ड में संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं के कारण ही है, परन्तु भारत में कांग्रेस शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई। इसके लिए विरोधी दल भी ज़िम्मेदार है।

6. अध्यादेशों द्वारा प्रशासन (Administration by Ordinances)-संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई है। संविधान निर्माताओं का यह उद्देश्य था कि जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो या असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो उस समय राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करेगा। परन्तु विशेषकर पिछले 20 वर्षों में कई बार अध्यादेश उस समय जारी किए गए हैं, जब संसद् का अधिवेशन एकदो दिनों में होने वाला होता है। बहुत अधिक अध्यादेश का जारी करना मनोवैज्ञानिक पक्ष में भी बुरा प्रभाव डालता है। लोग अनुभव करने लग जाते हैं कि सरकार अध्यादेशों द्वारा चलाई जाती है। इसके अतिरिक्त बहुत अधिक अध्यादेश जारी करना मनोवैज्ञानिक रूप से बुरा प्रभाव डालता है।

7. जनता के साथ कम सम्पर्क (Less Contact With the Masses)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते हैं। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को अपने विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान नहीं होता। .

8. चरित्र का अभाव (Lack of Character)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए मतदाता, शासक तथा आदर्श नागरिकों का चरित्र ऊंचा होना अनिवार्य है। परन्तु हमारे विधायक तथा राजनीतिक दलों के चरित्र का वर्णन करते हुए भी शर्म आती है। विधायक मन्त्री पद के पीछे दौड़ रहे हैं। जनता तथा देश के हित में न सोच कर विधायक अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता के नियमों का दिन-दिहाड़े मज़ाक उड़ा रहे हैं। विधायक अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दल बदलने में बिल्कुल नहीं झिझकते। .

9. दल-बदल (Defection)—भारतीय संसदीय लोकतन्त्र की सफलता में एक महत्त्वपूर्ण बाधा दल-बदल है। चौथे आम चुनाव के पश्चात् दल-बदल चरम सीमा पर पहुंच गया। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4000 विधायकों में से 1400 विधायकों ने दल बदले। सबसे अधिक दल-बदल कांग्रेस में हुआ। 22 जनवरी, 1980 को हरियाणा के मुख्यमन्त्री चौधरी भजन लाल 37 सदस्यों के साथ जनता पार्टी को छोड़कर कांग्रेस (आई) में शामिल हो गए। मई, 1982 को हरियाणा में चौधरी भजन लाल ने दल-बदल के आधार पर मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया। अनेक विधायक लोकदल को छोड़ कर कांग्रेस (आई) में शामिल हुए। दल-बदल संसदीय प्रजातन्त्र के लिए बहुत हानिकारक है क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होती है। अनेक सरकारें दल-बदल के कारण ही गिरती हैं। 1979 में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई को और 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह को दल-बदल के कारण ही त्याग-पत्र देना पड़ा था। 30 दिसम्बर, 1993 को कांग्रेस (इ) को दल-बदल द्वारा ही लोकसभा में बहुमत प्राप्त हुआ। वर्तमान समय में भी दलबदल की समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।

10. अनुशासनहीनता (Indiscipline)-विधायकों में अनुशासनहीनता भी भारतीय राजनीति में एक नया तत्त्व है। यह भावना भी 1967 के चुनावों के बाद ही विशेष रूप से उत्पन्न हुई है। विरोधी दलों ने राज्यों में अपना मन्त्रिमण्डल बनाने का प्रयत्न किया और कांग्रेस ने इसके विपरीत कार्य किया। शक्ति की इस खींचातानी में दोनों ही दल मर्यादा, नैतिकता और औचित्य की सीमाओं को पार कर गए और विधानमण्डलों में ही शिष्टाचार को भुलाकर आपस में लड़नेझगड़ने तथा गाली-गलोच करने लगे। इस खींचातानी में दलों ने यह सोचना ही छोड़ दिया कि क्या ठीक है, क्या गलत है। एक-दूसरे पर जूते फेंकने की घटनाएं घटने लगीं।

11. लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता पर सन्देह (Doubts about the Neutrality of the Speaker)लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) संसदीय प्रणाली की सरकार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः अध्यक्ष का निष्पक्ष होना आवश्यक है परन्तु भारत में केन्द्र एवं राज्यों में स्पीकर की निष्पक्षता पर सन्देह व्यक्त किया जाता है।।

12. राजनीतिक अपराधीकरण (Criminalisation of Politics)-भारत में राजनीतिक अपराधीकरण की समस्या निरन्तर गम्भीर होती जा रही है जोकि संसदीय शासन प्रणाली के लिए गम्भीर खतरा है। संसद् तथा राज्य विधानमण्डल अपराधियों के लिए सुरक्षित स्थान एवं आश्रय स्थल बनते जा रहे हैं। चुनाव आयोग के अनुसार 11वीं लोकसभा में 40 एवं विभिन्न राज्यों के विधानमण्डलों में 700 से अधिक सदस्य थे, जिन्हें किसी न किसी अपराध के अंतर्गत सज़ा मिल चुकी थी। इस समस्या से पार पाने के लिए चुनाव आयोग ने 1997 में एक आदेश द्वारा अपराधियों को चुनाव लड़ने के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 2014 में निर्वाचित हुई 16वीं लोकसभा में भी अपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति सांसद चुने गए।

13. त्रिशंकु संसद् (Hung Parliament)-भारतीय संसदीय प्रणाली का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि भारत में पिछले कुछ आम चुनावों में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पा रहा है। इसीलिए गठबन्धन सरकारों का निर्माण हो रहा है। त्रिशंकु संसद् होने के कारण सरकारें स्थाई नहीं हो पाती तथा क्षेत्रीय दल इसका अनावश्यक लाभ उठाते हैं।

14. डॉ० गजेन्द्र गडकर (Dr. Gajendra Gadkar) ने संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना करते हुए अपने लेख ‘Danger to Parliamentary Government’ में लिखा है कि राजनीतिक दल यह भूल गए हैं कि राजनीतिक सत्ता ध्येय न होकर सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साधन है। राजनीतिक दल उन सभी साधनों का, जिससे चाहे राष्ट्र के हित को हानि पहुंचती हो, प्रयोग करते झिझकते नहीं है, जिनसे वे राजनीतिक सत्ता प्राप्त करते हों। चौथे आम चुनाव के पश्चात, राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ गई थी। हड़ताल, बन्द हिंसात्मक साधनों का प्रयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। साम्प्रदायिक दंगे-फसाद संसदीय प्रजातन्त्र के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं।

15. गाडगिल (Gadgil) ने वर्तमान संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना करते हुए लिखा है कि सभी निर्णय जो संसद् में बहुमत से लिए जाते हैं, वे वास्तव में बहुमत के निर्णय न होकर अल्पमत के निर्णय होते हैं। सत्तारूढ़ दल अपने समर्थकों के साथ पक्षपात करते हैं और प्रत्येक साधन से चाहे वे जनता के हित में न हों सस्ती लोकप्रियता (Cheap Popularity) प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं । गाडगिल ने यह भी कहा है कि संसदीय सरकार एकमात्र धोखा है क्योंकि वास्तव में निर्णय बहुमत के नेताओं द्वारा लिए जाते हैं जो सभी पर लागू होते हैं।

16. डॉ० जाकिर हुसैन (Dr. Zakir Hussain) के अनुसार, “संसदीय प्रजातन्त्र को सबसे मुख्य खतरा हिंसा के इस्तेमाल से है। भारत में कई राजनीतिक दल यह जानते हुए भी कि बन्द आदि से हिंसा उत्पन्न होती है, जनता को इनका प्रयोग करने के लिए उकसाते रहते हैं।”
निःसन्देह भारतीय संसदीय शासन प्रणाली में अनेक दोष पाए जाते हैं, परन्तु यह कहना ठीक नहीं है कि भारत में संसदीय लोकतन्त्र असफल रहा है। भारत में संसदीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए उचित वातावरण है और संसदीय लोकतन्त्र की जड़ें काफ़ी मज़बूत हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 4.
भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक-आर्थिक तत्त्वों का वर्णन करें।
(Explain the socio-economic factors that influence the Indian Democracy.)
अथवा
लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तथा आर्थिक तत्त्वों का वर्णन करें।
(Discuss the social and economic factors conditioning Democracy.)
उत्तर-
भारत में लोकतन्त्र को अपनाया गया है और संविधान में लोकतन्त्र को सुदृढ़ बनाने के लिए भरसक प्रयत्न किया गया है। संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ घोषित किया गया है। प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि संविधान के निर्माण का उद्देश्य भारत के नागरिकों को कई प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्रदान करना है और इनमें मुख्य स्वतन्त्रताओं का उल्लेख प्रस्तावना में किया गया है। जैसे-विचार रखने की स्वतन्त्रता, अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छा, बुद्धि के अनुसार किसी भी बात में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता तथा अपनी इच्छानुसार अपने इष्ट देव की उपासना करने की स्वतन्त्रता आदि प्राप्त है।

प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है और बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है। प्रस्तावना में व्यक्ति के गौरव को बनाए रखने की घोषणा की गई है। संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। इन अधिकारों का उद्देश्य भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है, जिनका उद्देश्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। संविधान में सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक नागरिकों को जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो वोट डालने का अधिकार है। अप्रैल-मई, 2014 में 16 वीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर मतदाताओं की संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी। संविधान में अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों और पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं। निःसन्देह सैद्धान्तिक रूप में प्रजातन्त्र की आदर्श व्यवस्था कायम करने के प्रयास किए गए हैं, परन्तु व्यवहार में भारत में लोकतन्त्रीय प्रणाली को उतनी अधिक सफलता नहीं मिली जितनी कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, स्विटज़रलैण्ड आदि देशों में मिली है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक देश की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं और इनका लोकतन्त्रीय प्रणाली पर भी प्रभाव पड़ता है। भारत की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों ने लोकतन्त्र को बहुत अधिक प्रभावित किया है।

भारतीय प्रजातन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तत्त्व (SOCIAL FACTORS CONDITIONING INDIAN DEMOCRACY)-

1. सामाजिक असमानता (Social Inequality)-लोकतन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक समानता का होना आवश्यक है। सामाजिक समानता का अर्थ यह है कि धर्म, जाति, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर नागरिकों में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना के इतने वर्षों बाद भी सामाजिक असमानता पाई जाती है। भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों व वर्गों के लोग रहते हैं। समाज के सभी नागरिकों को समान नहीं समझा जाता। जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग के आधार पर व्यवहार में आज भी भेदभाव किया जाता है। निम्न जातियों और हरिजनों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा एवं असंतोष को बढ़ावा दिया है।

2. निरक्षरता (Illiteracy)-20वीं शताब्दी के अन्त में जब विश्व में पर्याप्त वैज्ञानिक व औद्योगिक प्रगति हो चुकी है, भारत जैसे लोकतन्त्रीय देश में अभी भी काफ़ी निरक्षरता है। शिक्षा एक अच्छे जीवन का आधार है, शिक्षा के बिना व्यक्ति अन्धकार में रहता है। अनपढ़ व्यक्ति में आत्म-विश्वास की कमी होती है इसलिए उसमें देश की समस्याओं को समझने व हल करने की क्षमता नहीं होती। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही अपने कर्तव्यों का। वह अपने अधिकारों के अनुचित अतिक्रमण से रक्षा नहीं कर सकता और न ही वह अपने कर्त्तव्यों को ठीक तरह से निभा सकता है। इसके अतिरिक्त अशिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण संकुचित होता है। वह जातीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद आदि के चक्कर में पड़ा रहता है। ___

3. जातिवाद (Casteism)-भारतीय समाज में जातिवाद की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। आज भारत में तीन हज़ार से अधिक जातियां और उपजातियां हैं। जातिवाद का भारतीय राजनीति से गहरा सम्बन्ध है। भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी राजनीति में जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान था। स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा बढ़ा ही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक सिद्ध हुआ है।

4. अस्पृश्यता (Untouchability)-अस्पृश्यता ने भारतीय लोकतन्त्र को अत्यधिक प्रभावित किया है। अस्पृश्यता भारतीय समाज पर एक कलंक है। यह हिन्दू समाज की जाति-प्रथा का प्रत्यक्ष परिणाम है।

यद्यपि भारतीय संविधान के अन्तर्गत छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है तथा छुआछूत को मानने वाले को दण्ड दिया जाता है, फिर भी भारत के अनेक भागों में अस्पृश्यता प्रचलित है। अस्पृश्यता ने भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित किया है। अस्पृश्यता के कारण हरिजनों में हीनता की भावना बनी रहती है, जिस कारण वे भारत की राजनीति में सक्रिय भाग नहीं ले पाते। छुआछूत के कारण समाज में उच्च वर्गों और निम्न वर्गों में बन्धुत्व की भावना का विकास नहीं हो पा रहा है। हरिजनों और जन-जातियों का शोषण किया जा रहा है और उन पर उच्च वर्गों द्वारा अत्याचार किए जाते हैं। भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए छुआछूत को व्यवहार में समाप्त करना अति आवश्यक है।

5. साम्प्रदायिकता (Communalism)—साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एकदूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। धर्म का भारतीय राजनीति पर सदैव ही प्रभाव रहा है। धर्म की संकीर्ण भावनाओं ने स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय राजनीति को साम्प्रदायिक झगड़ों का अखाड़ा बना दिया। धर्म के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच झगड़े चलते रहते थे और अन्त में भारत का विभाजन भी हुआ। परन्तु भारत का विभाजन भी साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं कर सका और आज फिर साम्प्रदायिक तत्त्व अपना सिर उठा रहे हैं।

6. सामाजिक तनाव और हिंसा (Social Tension and Violence)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक सहयोग और शान्ति का होना आवश्यक है। परन्तु भारत के किसी-न-किसी भाग में सदैव सामाजिक तनाव बना रहता है और हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं। सामाजिक तनाव उत्पन्न होने के कई कारण हैं। सामाजिक तनाव का महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक तथा आर्थिक असमानता है। कई बार क्षेत्रीय भावनाएं सामाजिक तनाव उत्पन्न कर देती हैं। साम्प्रदायिकता सामाजिक तनाव पैदा करने का महत्त्वपूर्ण कारण है। सामाजिक तनावों से हिंसा उत्पन्न होती है। उदाहरणस्वरूप 1983 से 1990 के वर्षों में पंजाब में 1992, 1993 में अयोध्या मुद्दे के कारण उत्तर प्रदेश में तथा 2002 में गुजरात में गोधरा कांड के कारण सामाजिक तनाव और हिंसा की घटनाएं होती रही हैं।

7. भाषावाद (Linguism)-भारत में भिन्न-भिन्न भाषाओं के लोग रहते हैं। भारतीय संविधान में 22 भाषाओं का वर्णन किया गया है और इसमें हिन्दी भी शामिल है। हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखित संघ सरकार की सरकारी भाषा घोषित की गई है। भाषावाद ने भारतीय लोकतन्त्र एवं राजनीति को काफी प्रभावित किया है। भाषा के आधार पर लोगों में क्षेत्रीयवाद की भावना का विकास हुआ और सीमा विवाद उत्पन्न हुए हैं। भाषा के विवादों ने आन्दोलनों, हिंसा इत्यादि को जन्म दिया। भाषायी आन्दोलनों से सामाजिक तनाव की वृद्धि हुई है। चुनावों के समय राजनीतिक दल अपने हितों के लिए भाषायी भानवाओं को उकसाते हैं। मतदान के समय मतदाता भाषा से काफी प्रभावित होते हैं। तमिलनाडु के अन्दर डी० एम० के० तथा अन्ना डी० एम० के० ने कई बार हिन्दी विरोधी आन्दोलन चला कर मतदाताओं को प्रभावित किया।

भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले आर्थिक तत्त्व
(ECONOMIC FACTORS CONDITIONING INDIAN DEMOCRACY)-

1. आर्थिक असमानता (Economic Inequality) लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। आर्थिक समानता का अर्थ है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए। परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष के पश्चात् आर्थिक असमानता बहत अधिक पाई जाती है। भारत में एक तरफ करोड़पति पाए जाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय का भोजन भी नहीं मिलता। भारत में देश का धन थोड़े-से परिवारों के हाथों में ही केन्द्रित है। भारत में आर्थिक शक्ति का वितरण समान नहीं है। अमीर दिन-प्रतिदिन अधिक अमीर होते जाते हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब होते जाते हैं। आर्थिक असमानता ने लोकतन्त्र को काफी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं और प्रायः धनी व्यक्तियों को पार्टी का टिकट दिया जाता है। चुनावों में धन का अधिक महत्त्व है और धन के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथों में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।

2. ग़रीबी (Poverty)-भारतीय लोकतन्त्र को ग़रीबी ने बहुत प्रभावित किया है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनको न तो खाने के लिए भर पेट भोजन मिलता है, न पहनने को कपड़ा और न रहने के लिए मकान। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। ग़रीब नागरिक को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता। वह सदा अपना पेट भरने की चिन्ता में लगा रहेगा और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना तो दूर की बात रही, वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 5.
भारतीय लोकतन्त्र की मुख्य समस्याओं का वर्णन करें।
(Discuss the major problems of Indian Democracy.)
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं और चनौतियों के बारे में लिखिए।
(Write down about problems and challenges to Indian democracy.)
उत्तर-
निःसन्देह सैद्धान्तिक रूप में भारत में प्रजातन्त्र की आदर्श-व्यवस्था कायम करने के प्रयास किए गये हैं परन्तु व्यवहार में आज भी भारतीय प्रजातन्त्र अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक बुराइयों से जकड़ा हुआ है और ये बुराइयां भारतीय लोकतन्त्र के लिए अभिशाप बन चुकी हैं। ये बुराइयां निम्नलिखित हैं-

1. सामाजिक तथा आर्थिक असमानता (Social and Economic Inequality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक व आर्थिक समानता का होना बहुत आवश्यक हैं। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना हुए इतने वर्ष हो चुके हैं फिर भी यहां पर सामाजिक व आर्थिक असमानता पाई जाती है। समाज के सभी नागरिकों को समान नहीं समझा जाता। जाति, धर्म, वंश, लिंग के आधार पर व्यवहार में आज भी भेदभाव किया जाता है। स्त्रियों को पुरुषों के समान नहीं समझा जाता। निम्न जातियों और हरिजनों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा एवं असन्तोष को बढ़ावा दिया है। निम्न वर्ग के लोगों ने कई बार आन्दोलन किए हैं और संरक्षण की मांग की है। सामाजिक असमानता से लोगों का दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण हो जाता है। प्रत्येक वर्ग अपने हित की सोचता है, न कि समस्त समाज एवं राष्ट्र के हित में। राजनीतिक दल सामाजिक असमानता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं और सत्ता पर उच्च वर्ग को लोगों का ही नियन्त्रण रहता है। सामाजिक असमानता के कारण समाज का बहुत बड़ा भाग राजनीतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहता है।

2. ग़रीबी (Poverty)-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। गरीब नागरिक को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता। वह सदा अपने पेट भरने की चिन्ता में लगा रहेगा और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता। दीन-दुःखियों से चुनाव लड़ने की आशा करना मूर्खता है। ग़रीब नागरिक अपनी वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। अत: यदि हम भारतीय प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल देखना चाहते हैं तो जनता की आर्थिक दशा सुधारनी होगी।

3. अनपढ़ता (Illiteracy) शिक्षा एक अच्छे जीवन का आधार है, शिक्षा के बिना व्यक्ति अन्धकार में रहता है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी भारत की लगभग 24 प्रतिशत जनता अनपढ़ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 15 से 35 वर्ष की आयु के बीच लगभग 10 करोड़ व्यक्ति अनपढ़ है। अनपढ़ व्यक्ति में आत्म-विश्वास की कमी होती है और उसमें देश की समस्याओं को समझने तथा हल करने की क्षमता नहीं होती है। अशिक्षित व्यक्ति को न हो तो अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही अपने कर्तव्यों का। वह अपने अधिकारों की अनुचित अतिक्रमण से रक्षा नहीं कर सकता और न ही वह अपने कर्तव्यों को ठीक तरह से निभा सकता है। इसके अतिरिक्त अशिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण संकुचित होता है। वह जातीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद आदि के चक्कर में पड़ा रहता है।

4. बेकारी (Unemployment) बेकारी प्रजातन्त्र की सफलता में एक बहुत बड़ी बाधा है। बेकार व्यक्ति की बातें सोचता रहता है। वह देश तथा समाज के हित में सोच ही नहीं सकता।।
बेकार व्यक्ति में हीन भावना आ जाती है और वह अपने आपको समाज पर बोझ समझने लगता है। बेकार व्यक्ति अपनी समस्याओं में ही उलझा रहता है और उसे समाज एवं देश की समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता। बेरोज़गारी के कारण नागरिकों के चरित्र का पतन हुआ है। इससे बेइमानी, चोरी, ठगी, भ्रष्टाचार की बढ़ोत्तरी हुई है। प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए बेकारी को जल्दी-से-जल्दी समाप्त करना अति आवश्यक है।

5. एक दल की प्रधानता (Dominance of one Party)-प्रजातन्त्र का महत्त्वपूर्ण दोष यह रहा है कि यहां पर कांग्रेस दल का ही प्रभुत्व छाया रहा है। 1950 से लेकर मार्च, 1977 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही है। राज्यों में भी 1967 तक इसी की प्रधानता रही है और 1971 के मध्यावधि चुनाव के पश्चात् फिर उसी दल के एकाधिकार के कारण अन्य दल विकसित नहीं हो पाए।

6. संगठित विरोधी दल का अभाव (Lack of Organised Opposition)-भारतीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि सदैव संगठित विरोधी दल के अभाव को अनुभव करती रही है।

संगठित विरोधी दल न होने के कारण कांग्रेस ने विरोधी दलों की बिल्कुल परवाह नहीं की। विरोधी दलों के नेताओं ने संसद् में सरकार के विरुद्ध कई बार यह आरोप लगाया है कि उन्हें अपने विचार रखने का पूरा अवसर नहीं दिया जाता है। कई बार तो सरकार संसद् में दिए गए वायदों को भी भूल जाती है।

जनता पार्टी की स्थापना के पश्चात् भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी का सत्तारूढ़ दल बना और कांग्रेस को विरोधी बैंचों पर बैठने का पहली बार सौभाग्य प्राप्त हुआ।

अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं एवं अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में विरोधी दल की मान्यता प्रदान की गई। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ।

7. बहुदलीय प्रणाली (Multiple Party System)—प्रजातन्त्र की सफलता में एक और बाधा बहुदलीय प्रणाली का होना है। भारत में फ्रांस की तरह बहुत अधिक दल पाए जाते हैं। स्थायी शासन के लिए दो या तीन दल ही होने चाहिएं। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती है। 1967 के चुनाव के पश्चात् बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि प्रान्तों में सरकारों के गिरने और बनने का पता भी नहीं चलता था। अतः संसदीय प्रजातन्त्र की कामयाबी के लिए दलों की संख्या को कम करना अनिवार्य है। संसदीय प्रजातन्त्रीय की सफलता की लिए जनता पार्टी का निर्माण एक महत्त्वपूर्ण कदम था। परन्तु जनता पार्टी का विभाजन हो गया और चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी (स) की स्थापना हुई। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

8. प्रादेशिक दल (Regional Parties)—भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या प्रादेशिक दलों का होना है। चुनाव आयोग ने 58 क्षेत्रीय दलों को राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता दी हुई है। प्रादेशिक दलों का महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, जो प्रजातन्त्र की सफलता के लिए ठीक नहीं। प्रादेशिक दल देश के हित की न सोचकर क्षेत्रीय हितों की सोचते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को खतरा पैदा हो गया है।

9. सिद्धान्तहीन राजनीति (Non-Principled Politics)-भारत में प्रजातन्त्र की सफलता में एक अन्य बाधा सिद्धान्तहीन राजनीति है। प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने सिद्धान्तहीन राजनीति का अनुसरण किया है। 1967 के बाद उनके राज्यों में मिली-जुली सरकारें बनी। सत्ता के लालच में ऐसे दल मिल गए जो आदर्शों की दृष्टि से एक-दूसरे के विरोधी थे। विरोधी दलों का लक्ष्य केवल कांग्रेस को सत्ता से हटाना था। कांग्रेस ने भी प्रजातान्त्रिक परम्पराओं का उल्लंघन किया। गर्वनर के पद का दुरुपयोग किया गया। आपात्काल में तमिलनाडु की सरकार को स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने के बावजूद भी हटा दिया गया। श्रीमती गांधी के लिए सफलता प्राप्त करना ही सबसे बड़ा लक्ष्य था चाहे इसके लिए कैसे भी साधन अपनाए गए। लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों के अवसर पर लगभग सभी राजनीतिक दल सिद्धान्तहीन समझौते करते हैं।

10. निम्न स्तर की राजनीतिक सहभागिता (Low level of Political Participation)-लोकतन्त्र की सफलता के लिए लोगों का राजनीति में सक्रिय भाग लेना आवश्यक है, परन्तु भारत में लोगों की राजनीतिक सहभागिता बहुत निम्न स्तर की है। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में लगभग 66.38% मतदाताओं ने भाग लिया। अतः लोगों की राजनीतिक उदासीनता लोकतन्त्र की समस्या है।

11. अच्छी परम्पराओं की कमी (Absence of Healthy Conventions)—प्रजातन्त्र की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है। इंग्लैण्ड में संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं के कारण ही है, परन्तु भारत में कांग्रेस के शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई है। इसके लिए विरोधी दल भी जिम्मेवार हैं।

12. अध्यादेशों द्वारा शासन (Administration by Ordinance)-संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई है। संविधान निर्माताओं का यह उद्देश्य था कि जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो या असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई तो उस समय राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करेगा। विशेषकर पिछले 20 वर्षों में कई बार अध्यादेश उस समय जारी किए गए जब संसद् का अधिवेशन एक-दो दिन में होने वाला होता है। आन्तरिक आपात्काल की स्थिति में तो ऐसा लगता है जैसे भारत सरकार अध्यादेशों द्वारा ही शासन चला रही है। अधिक अध्यादेशों से संसद् की शक्ति का ह्रास होता है। इसीलिए 25 जनवरी, 2015 को राष्ट्र के नाम दिए, अपने सम्बोधन में राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेशों को लागू करने पर अपनी चिन्ता जताई।

13. जनता के साथ कम सम्पर्क (Less Contract with the Masses) भारतीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते हैं। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को अपने विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान ही नहीं होता।

14. दल बदल (Defection)-भारतीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक अन्य बाधा दल बदल की बुराई है। चौथे आम चुनाव के पश्चात् दल बदल चरम सीमा पर पहुंच गया। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4000 विधायकों में से 1400 विधायकों ने दल बदले। सबसे अधिक दल-बदल कांग्रेस में हुआ। दल-बदल प्रजातन्त्र के लिए बहुत हानिकारक है क्योंकि इसमें से राजनीतिक अस्थिरता आती है और छोटे-छोटे दलों की स्थापना होती है। इससे जनता का अपने प्रतिनिधियों और नेताओं से विश्वास उठने लगता है।

15. विधायकों का निम्न स्तर (Poor Quality of Legislators)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या विधायकों का निम्न स्तर है। भारत के अधिकांश मतदाता अशिक्षित और साधारण बुद्धि वाले हैं, जिस कारण वे निम्न स्तर के विधायकों को चुन लेते हैं। अधिकांश विधायक स्वार्थी, हठधर्मी, बेइमान और रूढ़िवादी होते हैं। इसलिए ऐसे विधायकों को अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्व का अहसास नहीं होता। विधानमण्डल में सदस्यों का गाली-गलौच करना, मार-पीट करना, धरना देना, अध्यक्ष का आदेश न मानना इत्यादि सब विधायकों के घटिया स्तर के कारण होता है।

16. विधायकों में अनुशासन की कमी (Lack of Discipline among the Legislators)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या विधायकों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता है। विधानसभाओं में और संसद् में हाथापाई तथा मारपीट भी बढ़ती जा रही है।

17. चरित्र का अभाव (Lack of Character)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए मतदाता, शासक तथा आदर्श नागरिकों का चरित्र ऊंचा होना अनिवार्य है। परन्तु भारतीय जनता का तो कहना ही क्या, हमारे विधायक तथा राजनीतिक दलों के चरित्र का वर्णन करते हुए भी शर्म आती है। विधायक मन्त्री पद के पीछे दौड़ रहे हैं। जनता तथा देश के हित में न सोच कर विधायक अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता के नियमों का दिन-दिहाड़े मज़ाक उड़ा रहे हैं।

18. दोषपूर्ण निर्वाचन प्रणाली (Defective Electoral System)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या चुनाव प्रणाली का दोषपूर्ण होना है। भारत में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व चुनाव प्रणाली को अपनाया गया है। लोकसभा राज्य विधानसभाओं के सदस्य एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र से चुने जाते हैं, जिसके अन्तर्गत एक चुनाव क्षेत्र में अधिकतम मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित किया जाता है। इस प्रणाली के अन्तर्गत कई बार चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार को हारने वाले उम्मीदवारों से कम मत प्राप्त होते हैं।

19. जातिवाद की राजनीति (Politics of Casteism) भारत में न केवल जातिवाद उस रूप में विद्यमान है जिसे सामान्यतः जातिवाद कहा जाता है बल्कि इस रूप में भी कि ऊंची जातियां अब भी यह मानती हैं कि देश का शासन केवल ब्राह्मणों के हाथ में ही रहना चाहिए।” यदि चौधरी चरण सिंह ने मध्य जातियों की जातीय भावना का इस्तेमाल किया और श्रीमती गांधी ने ब्राह्मणों के स्वार्थ और अल्पसंख्यकों के भय से लाभ उठाया, वहीं जनता पार्टी ने भी हरिजन और अन्य कई जातियों को धुरी बनाने के कोशिश की। न केवल पार्टियां उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर करती हैं बल्कि उम्मीदवारों से भी यह उम्मीद की जाती है कि चुने जाने के बाद अपनी जाति के लोगों के काम निकलवाएंगे। राजनीति ने मरती हुई जात-पात व्यवस्था में नई जान फूंकी है और समाज में जातिवाद का जहर घोला है। जातिवाद पर आधारित भारतीय राजनीति लोकतन्त्र के लिए खतरा है।

20. साम्प्रदायिक राजनीति (Communal Politics)-स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व प्रति वर्ष देश के किसी-न-किसी भाग में साम्प्रदायिक संघर्ष होते रहते थे। मुस्लिम लीग की मांग पर ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ था। आज़ादी के बाद विदेशी शासक तो चले गए परन्तु साम्प्रदायिकता की राजनीति आज भी समाप्त नहीं हुई है। वास्तव में लोकतन्त्रीय प्रणाली तथा वोटों को राजनीति ने साम्प्रदायिकता को एक नया रूप दिया है। भारतीय राजनीति में ऐसे तत्त्वों की कमी नहीं है जो साम्प्रदायिक भावनाएं उभार कर मत पेटी की लड़ाई जीतना चाहते हैं।

21. क्षेत्रीय असन्तुलन (Regional Imbalances)-भारत एक विशाल देश है। भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों व भाषाओं के लोग रहते हैं। देश के कई प्रदेश एवं क्षेत्र विकसित हैं जबकि कई क्षेत्र अविकसित हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों, बिहार, असम व नागालैण्ड की जनजातियों तथा आन्ध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रेदश और उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों का जीवन-स्तर बहुत नीचा है। क्षेत्रीय भावना और क्षेत्रीय असन्तुलन लोकतन्त्र के लिए बड़ा भारी खतरा है।
क्षेत्रीयवाद से प्रभावित होकर अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ है। मतदाता क्षेत्रीयवाद की भावना से प्रेरित होकर मतदान करते हैं और राष्ट्र हित की परवाह नहीं करते। क्षेत्रीयवाद ने पृथकतावाद को जन्म दिया है।

22. सामाजिक तनाव (Social Tension)-सामाजिक तनाव लोकतन्त्र की सफलता में बाधा है। सामाजिक तनाव का राजनीतिक दलों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। धर्म, प्रान्तीयता और भाषा के आधार पर काम करने वाले राजनीतिक दल केन्द्र में स्थायी सरकार बनाने में अड़चने पैदा करते हैं और राष्ट्रीय दलों से सौदेबाजी करते हैं। जातीय तनाव से ऊंच-नीच की भावना को प्रोत्साहन मिलता है। नवयुवकों में निराशा और असन्तोष बढ़ता जा रहा है जिससे उनका लोकतन्त्र में विश्वास समाप्त होता जा रहा है। आर्थिक हितों के टकराव से मिल मालिकों और मज़दूरों में तनाव बढ़ा है, जिससे उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ा है। अत: लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए सामाजिक तनाव को कम करना बहुत आवश्यक है।

23. चुनाव बहुत खर्चीले हैं (Elections are very Expensive)-भारत में चुनाव बहुत खर्चीले हैं। चुनाव लड़ने के लिए अपार धन की आवश्यकता होती है। केवल धनी व्यक्ति ही चुनाव लड़ सकते हैं। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की नहीं सोच सकता। चुनाव में खर्च निर्धारित सीमा से ही अधिक होता है। कानून के अनुसार लोकसभा के चुनाव के लिए अधिकतम खर्च सीमा 15 लाख रुपए है जबकि विधानसभा के लिए 6 लाख रुपए है, परन्तु वास्तव में लोकसभा के चुनाव के लिए कम से कम 50 लाख खर्च होता है और महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा वाली सीट पर एक करोड़ से अधिक खर्च होता है। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के लोकसभा के चुनाव पर लगभग 845 करोड़ रुपए खर्च हुए। अप्रैल-मई, 2004 के लोकसभा के चुनाव पर लगभग 5000 करोड़ रुपये खर्च हुए जबकि अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में लगभग 30000 करोड़ रु० खर्च हुए।

24. स्वतन्त्र और ईमानदार प्रेस की कमी (Lack of Free and Honest Press)-प्रजातन्त्र में प्रेस का बहुत ही महत्त्वपूर्ण रोल होता है और प्रेस को प्रजातन्त्र का पहरेदार कहा जाता है। प्रेस द्वारा ही जनता को सरकार की नीतियों और समस्याओं का पता चलता है। परन्तु प्रेस का स्वतन्त्र और ईमानदार होना आवश्यक है। भारत में प्रेस पूरी तरह स्वतन्त्र तथा ईमानदार नहीं है। अधिकांश प्रेसों पर पूंजीपतियों का नियन्त्रण है और महत्त्वपूर्ण दलों से सम्बन्धिते हैं। अतः प्रेस लोगों को देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति की सही सूचना नहीं देते, जिसके कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं होता।

25. हिंसा (Violence)-चुनावों में हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, जोकि प्रजातन्त्र की सफलता के मार्ग में एक खतरनाक बाधा भी साबित हो सकती है। दिसम्बर, 1989 में लोकसभा के चुनाव में 100 से अधिक व्यक्ति मारे गए। गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान एक मन्त्री पर छुरे से वार किया गया जिसकी बाद में मृत्यु हो गई। हरियाणा के भिवानी चुनाव क्षेत्र में कई कार्यकर्ता मारे गए। उत्तर प्रदेश में अमेठी विधानसभा क्षेत्र में जनता दल के उम्मीदवार डॉ० संजय सिंह को गोली मारी गई। फरवरी, 1990 में आठ राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव में हिंसा की कई घटनाएं हुईं। मार्च, 1990 में हरियाणा में महम उप-चुनाव में हिंसा की घटनाओं के कारण चुनाव को रद्द कर दिया। मई, 1991 को लोकसभा के चुनाव में कई स्थानों पर हिंसक घटनाएं हुईं। इन हिंसक घटनाओं में 100 से अधिक व्यक्ति मारे गए और कांग्रेस (इ) अध्यक्ष श्री राजीव गांधी भी 21 मई, 1991 को बम विस्फोट में मारे गए। 1996 के लोकसभा के चुनाव में अनेक स्थानों पर हिंसक घटनाएँ हुईं। फरवरी, 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव में कुछ राज्यों में हिंसा की अनेक घटनाएँ हुईं। हिंसा की सबसे अधिक घटनाएँ बिहार में हुईं जहाँ 23 व्यक्ति मारे गए। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में 13वीं लोक सभा के चुनाव में पंजाब, बिहार, जम्मू-कश्मीर, असम, तमिलनाडु एवं आन्ध्र प्रदेश में हिंसात्मक घटनाएँ हुईं, जिनमें लगभग 100 व्यक्ति मारे गए। अप्रैलमई, 2004, 2009 तथा 2014 में हुए 14वीं, 15वीं एवं 16वीं लोकसभा के चुनावों के दौरान भी हुई राजनीतिक हिंसा में सैंकड़ों लोग मारे गए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 6.
क्षेत्रवाद से क्या अभिप्राय है ? भारत में क्षेत्रवाद के क्या कारण हैं ? भारतीय लोकतन्त्र पर क्षेत्रवाद के प्रभाव की व्याख्या करो। क्षेत्रवाद की समस्या को हल करने के लिए सुझाव दें।
(What is meant by Regionalism ? What are the causes of Regionalism is India ? Discuss the impact of Regionalism on Indian Democracy. Give suggestions to solve the problem of regionalism.)
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीति में जो नये प्रश्न उभरे हैं, उनमें क्षेत्रवाद (Regionalism) का प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। क्षेत्रवाद से अभिप्राय एक देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागृत है। भारत की राजनीति को क्षेत्रवाद ने बहुत अधिक प्रभावित किया है और यह भारत के लिए एक जटिल समस्या बनी रही है और आज भी विद्यमान है। आज यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि वह कौन है तो वह भारतीय कहने के स्थान पर बंगाली, बिहारी, पंजाबी, हरियाणवी आदि कहना पसन्द करेगा। यद्यपि संविधान के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को भारत की ही नागरिकता दी गई है तथापि लोगों में क्षेत्रीयता व प्रान्तीयता की भावनाएं इतनी पाई जाती हैं कि वे अपने क्षेत्र के हित के लिए राष्ट्र हित को बलिदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। 1950 से लेकर आज तक क्षेत्रवाद की समस्या भारत सरकार को घेरे हुए है और विभिन्न क्षेत्रों में आन्दोलन चलते रहते हैं।

क्षेत्रवाद को जन्म देने वाले कारण (CAUSES OF THE ORIGIN OF REGIONALISM)
क्षेत्रवाद की भावना की उत्पत्ति एक कारण से न होकर अनेक कारणों से होती है, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

1. भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण (Geographical and Cultural Causes)—स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब राज्यों का पुनर्गठन किया गया तब राज्यों की पुरानी सीमाओं को भुलाकर नहीं किया गया बल्कि उनके पुनर्गठन का आधार बनाया गया। इसी कारण एक राज्य के रहने वाले लोगों में एकता की भावना नहीं आ पाई। प्राय: भाषा और संस्कृति क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुमत सहयोग देते हैं। तमिलनाडु के निवासी अपनी भाषा और संस्कृति को भारतीय संस्कृति से श्रेष्ठ मानते हैं। वे राम और रामायण की कड़ी आलोचना करते हैं। 1925 में उन्होंने तमिलनाडु में कई स्थानों पर राम-लक्ष्मण के पुतले जलाए। 1960 में इसी आधार पर उन्होंने भारत से अलग होने के लिए व्यापक आन्दोलन चलाया।

2. ऐतिहासिक कारण (Historical Causes)-क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में इतिहासकार का दोहरा सहयोग रहा हैसकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक योगदान के अन्तर्गत शिव सेना का उदाहरण दिया जा सकता है और नकारात्मक के अन्तर्गत द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का कहना है कि प्राचीनकाल से ही उत्तरी राज्य दक्षिण राज्यों पर शासन करते आए हैं।

3. भाषा (Languages)–नार्मर डी पामर का कहना है कि भारत की अधिकांश राजनीति क्षेत्रवाद और भाषा के बहुत से प्रश्नों के चारों ओर घूमती है। इनका विचार है कि क्षेत्रवाद की समस्याएं स्पष्ट रूप से भाषा से सम्बन्धित हैं। भारत में सदैव ही अनेक भाषाएं बोलने वालों ने कई बार राज्य के निर्माण के लिए व्यापक आन्दोलन किए हैं। भारत सरकार ने भाषा के आधार पर राज्यों का गठन करके ऐसी समस्या उत्पन्न कर दी है जिसका अन्तिम समाधान निकालना बड़ा कठिन है।

4. जाति (Caste)—जाति ने भी क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही, वहीं पर क्षेत्रवाद का उग्र रूप देखने को मिला। जहां किसी एक जाति की प्रधानता नहीं रही वहां पर एक जाति ने दूसरी जाति को रोके रखा है और क्षेत्रीयता की भावना इतनी नहीं उभरी। यही कारण है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में क्षेत्रवाद का उग्र स्वरूप देखने को मिलता है जबकि उत्तर प्रदेश में नहीं मिलता है।

5. धार्मिक कारण (Religious Causes)-धर्म भी कई बार क्षेत्रवाद की भावनाओं को बढ़ाने में सहायता करता है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबा की मांग कुछ हद तक धर्म के प्रभाव का परिणाम थी।

6. आर्थिक कारण (Economic Causes) क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में आर्थिक कारण महत्त्वपूर्ण रोल अदा करते हैं। भारत में जो थोड़ा बहुत आर्थिक विकास हुआ है उसमें बहुत असमानता रही है। कुछ प्रदेशों का आर्थिक विकास हुआ है और कुछ क्षेत्रों का विकास बहुत कम हुआ है। इसका कारण यह रहा है कि जिन व्यक्तियों के हाथों में सत्ता रही है उन्होंने अपने क्षेत्रों के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया। उदाहरणस्वरूप 1966 से पूर्व पंजाब में सत्ता पंजाबियों के हाथों में रही जिस कारण हिसार, गुड़गांव, महेन्द्रगढ़, जीन्द आदि क्षेत्रों का विकास न हो पाया। आन्ध्र प्रदेश में सत्ता मुख्य रूप से आन्ध्र के नेताओं के पास रही जिस कारण तेलंगाना पिछड़ा रह गया। उत्तर प्रदेश में पूर्वी उत्तर प्रदेश पिछड़ा रह गया। राजस्थान में पूर्वी राजस्थान अविकसित रहं गया और इसी प्रकार महाराष्ट्र में विदर्भ का विकास नहीं हो पाया। अतः पिछले क्षेत्रों में यह भावना उभरी कि यदि सत्ता उनके पास होती तो उनके क्षेत्र पिछड़े न रह जाते। इसलिए इन क्षेत्रों के लोगों में क्षेत्रवाद की भावना उभरी और उन्होंने अलग राज्यों की मांग की। इसीलिए आगे चलकर सन् 1966 में हरियाणा एवं 2014 में तेलंगाना नाम के दो अलग राज्य भी बन गए।

7. राजनीतिक कारण (Political Causes)-क्षेत्रवाद की भावनाओं को भड़काने में राजनीतिज्ञों का भी हाथ रहा है। कई राजनीतिक यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र को अलग राज्य बना दिया जाएगा तो उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो जाएगी अर्थात् उनके हाथ में सत्ता आ जाएगी।
रजनी कोठारी ने क्षेत्रवाद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है, “पृथक्कता की भावना उनमें अधिक शक्तिशाली और खतरनाक है, जहां ऐसी आर्येतर जातियां हैं जो भारतीय संस्कृति की धारा में पूर्ण रूप में मिल नहीं पाई हैं जैसे उत्तर-पूर्व की आदिम जातियों का क्षेत्र है। यहां भी भारतीय लोकतन्त्रीय व्यवस्था और सरकारी विकास कार्यक्रमों का प्रभाव पड़ा है और धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के लोग भी देश की राजनीति में भाग लेने लगे हैं। पर राजनीतिकरण की यह प्रवृत्ति अभी शुरू हुई है। दूसरी ओर आधुनिकता के प्रसार से अपने पृथक् अस्तित्व की भावना भी उभरती है। इसलिए इनको सम्भालने के लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है-राजनीतिक गतिविधि बढ़ने और शिक्षा तथा आर्थिक विकास के फलस्वरूप छोटे समूहों में अब तक दबे या पिछड़े हुए समूह थे, अधिकारी और स्वायत्तता की आकांक्षाओं का उठना स्वाभाविक है।”

क्षेत्रवाद का राजनीति में योगदान (ROLE OF REGIONALISM IN POLITICS)
राजनीति में क्षेत्रीयवाद के योगदान को इस प्रकार सिद्ध किया जा सकता है-

  • क्षेत्रवाद के आधार पर राज्य केन्द्रीय सरकार में सौदेबाज़ी करती है। यह सौदेबाजी न केवल आर्थिक विकास के लिए होती है बल्कि कई महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए भी होती है। इस प्रकार के दबावों से हरियाणा राज्य का निर्माण हुआ।
  • राजनीतिक दल अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए क्षेत्रवाद का सहारा लेता है। पंजाब में अकाली दल ने और तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम दल ने अपने आपको शक्तिशाली बनाने के लिए क्षेत्रवाद का सहारा लिया।
  • मन्त्रिपरिषद् के सदस्य अपने-अपने क्षेत्रों का अधिक विकास करते हैं ताकि अपनी सीट को पक्का किया जा सके। श्री बंसीलाल ने भिवानी के क्षेत्र को चमका दिया और श्री सुखाड़िया ने उदयपुर क्षेत्र का बहुत अधिक विकास किया।
  • चुनावों के समय भी क्षेत्रवाद का सहारा लिया जाता है। क्षेत्रीयता के आधार पर राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं और क्षेत्रीयता की भावनाओं को भड़कार कर वोट प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है।
  • क्षेत्रवाद ने कुछ हद तक भारतीय राजनीति में हिंसक गतिविधियों को उभारा है। कुछ राजनीतिक दल इसे अपनी लोकप्रियता का साधन बना लेते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है। मन्त्रिमण्डल में प्रायः सभी मुख्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को लिया जाता है। साधारणतया यह शिकायत की जाती थी कि अब तक कोई प्रधानमन्त्री दक्षिणी राज्यों से नहीं बना। प्रधानमन्त्री को अपने मन्त्रिमण्डल में प्रत्येक को उसके महत्त्व के आधार पर प्रतिनिधित्व देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री व्यक्ति चुनने में स्वतन्त्र है, परन्तु क्षेत्र चुनने में नहीं।

क्षेत्रवाद की समस्या का समाधान (SOLUTION OF THE PROBLEM OF REGIONALISM)-

क्षेत्रवाद राजनीति की आधुनिक शैली है। क्षेत्रवाद उस समय तक कोई जटिल समस्या उत्पन्न नहीं करता जब तक वह सीमा के अन्दर रहता है, परन्तु जब वह भावना उग्र रूप धारण कर लेती है तब राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाती है।

सेलिग एस० हेरीसन ने इस सम्बन्ध में कहा, “यदि क्षेत्रवाद की भावना या किसी विशेष क्षेत्र के लिए अधिकार या स्वायत्तता की मांग बढ़ती चली गई तो इससे या तो देश अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों में बंट जाएगा या तानाशाही कायम हो जाएगी।” अतः क्षेत्रवाद की समस्या को सुलझाना अति आवश्यक है। कुछ विद्वानों ने क्षेत्रवाद की समस्या को सुलझाने के लिए राज्यों के पुनर्गठन की बात कही है। रजनी कोठारी का कहना है कि राज्यों को पुनर्गठित करते समय भाषा को ही एकमात्र आधार न माना जाए। राज्य की रचना के लिए भाषा के अतिरिक्त और भी कई सिद्धान्त हैं जैसे कि आकार, विकास की स्थिति, शासन की सुविधाएं, सामाजिक एकता तथा राजनीतिक व्यावहारिकता। मुम्बई, कोलकाता जैसे महानगर क्षेत्रों में शासन और विकास की स्वायत्त संस्थाएं कायम करने और इनको राज्य के अंश से अलग साधन देने की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया है यद्यपि इन नगरों का साइज (आकार) और समस्याएं दिन प्रतिदिन विकट होती जा रही हैं । साधारणतया राज्यों के पुनर्गठन के समर्थक तीन तर्क देते हैं-

  • छोटे-छोटे राज्यों के निर्माण से अधिक उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी। प्रशासन और जनता में समीप का सम्पर्क स्थापित होगा और शासन में कार्यकुशलता आ जाएगी।
  • छोटे-छोटे राज्यों से उस क्षेत्र का आर्थिक विकास अधिक होगा। (3) यदि पहले ही राज्य पुनर्गठन आयोग की बातों को मान लिया जाता है तो अलग राज्यों की स्थापना के लिए जो आन्दोलन हुए हैं वे भी न होते।

इन तीनों तर्कों का आलोचनात्मक उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है-

(1) यह अनिवार्य नहीं है कि छोटे राज्यों में ही जनता और प्रशासन में समीप का सम्पर्क स्थापित हो। यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार इस ओर कितना ध्यान देती है। एक बड़े राज्य में यदि प्रशासक चाहें तो जनता से सम्पर्क बनाए रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक अच्छी सरकार के लिए केवल सम्पर्क स्थापित करना इतना ज़रूरी नहीं होता जितना कि भ्रष्टाचारी को खत्म करना और जनता की भलाई के लिए अधिक-से-अधिक कार्य करना। छोटे-छोटे राज्यों में नियुक्तियां सिफ़ारिशों पर की जाती हैं क्योंकि आम व्यक्ति भी आसानी के साथ रिश्तेदारी निकाल लेता है। इससे प्रशासन में कार्यकुशलता नहीं रहती।

(2) यह कहना कि छोटे राज्यों के कारण आर्थिक विकास अधिक होता है, ठीक प्रतीत नहीं होता है। सारे देश की प्रगति का सम्बन्ध सभी राज्यों की उन्नति से जुड़ा होता है। अतः समस्त देश की उन्नति द्वारा ही राज्यों की प्रगति की जा सकती है न कि राज्यों को टुकड़ों में बांटने से। पिछड़े प्रदेशों की उन्नति करना केन्द्रीय सरकार की जिम्मेवारी है।

(3) यह कहना कि यदि राज्य पुनर्गठन आयोग की सभी सिफ़ारिशों को मान लिया जाता है तो अनेक आन्दोलन न होते, सही प्रतीत नहीं होता है। यदि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुसार कुछ प्रदेशों को राज्य बना दिया जाता तो हो सकता था अन्य प्रदेश आन्दोलन कर देते।
संक्षेप में, क्षेत्रवाद की समस्या का हल छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना नहीं है बल्कि पिछड़े क्षेत्रों का आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार को समाप्त करना, जनता के कल्याण के लिए अधिक कार्य करना इत्यादि।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 7.
भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका का उल्लेख करो।
(Describe the role of Casteism in Indian Politics.)
अथवा
भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जातिवाद ने किस प्रकार प्रभावित किया है ?
(How has Casteism affected the Indian democratic system ?)
उत्तर-
भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी राजनीति में जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था। स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा बढ़ा ही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है। जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता के बीज तो ब्रिटिश शासन में साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की मांग को स्वीकार करके ही बो दिए थे। 1909 के एक्ट के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को अपने प्रतिनिधि अलग चुनने का अधिकार दिया और फिर भारत की बहुत-सी जातियों ने इसी प्रकार अलग प्रतिनिधित्व की मांग की। महात्मा गान्धी जब दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भाग ले रहे थे तो उन्होंने देखा कि भारत से आए विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि अपनी जातियों के लिए ही सुविधाएं मांग रहे थे और राष्ट्रीय हित की बात कोई नहीं कर रहा था। इसी निराशा में वे वापस लौट आये। अंग्रेज़ों ने जातिवाद को दिल खोल कर बढ़ावा दिया। स्वतन्त्रता के पश्चात् कांग्रेस सरकार ने ब्रिटिश नीति का अनुसरण करके जातिवाद की भावना को बढ़ावा दिया है।

पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएं देकर कांग्रेस सरकार ने उसका एक अलग वर्ग बना दिया है। राजनीति के क्षेत्र में नहीं बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक तथा अन्य क्षेत्रों में भी जातिवाद का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। प्रो० वी० के० एन० मेनन (V. K. N. Menon) का यह निष्कर्ष ठीक है कि स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले के अपेक्षा बढ़ा है। राजनीतिज्ञों, प्रशासनाधिकारियों तथा विद्वानों ने स्वीकार किया है कि जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रो० मोरिस जोन्स (Morris Jones) ने अपनी खोज के आधार पर कहा है कि “राजनीति जाति से अधिक महत्त्वपूर्ण है और जाति पहले से राजनीति से अधिक महत्त्वपूर्ण है। शीर्षस्थ नेता भले ही जाति-रहित समाज के उद्देश्य की पालना करें, परन्तु वह ग्रामीण जनता जिसे मताधिकार प्राप्त किए हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं, केवल परम्परागत राजनीति की ही भाषा को समझती है जो जाति के चारों ओर घूमती है और न जाति शहरी सीमाओं से परे हैं।” स्व० जय प्रकाश नारायण ने एक बार कहा था, “भारत में जाति सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल है। जगदीश चन्द्र जौहरी ने तो यहां तक कहा है कि, “यदि मनुष्य राजनीति के संसार में ऊपर चढ़ना चाहते हैं तो उन्हें अपने साथ अपनी जाति व धर्म को लेकर चलना चाहिए।”

भारतीय राजनीति अथवा लोकतन्त्र में जाति की भूमिका (ROLE OF CASTE IN INDIAN POLITICS OR DEMOCRACY)

स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कहीं अधिक बढ़ा है। आज भारत के प्राय: सभी राज्यों में जाति का राजनीति पर बहुत गहरा प्रभाव है। प्रो० मोरिस जोन्स ने ठीक ही लिखा है कि चाहे देश के बड़े-बड़े नेता जाति-रहित समाज का नारा बुलन्द करते रहे परन्तु ग्रामीण समाज के नए मतदाता केवल परम्परागत राजनीति की भाषा को ही जानते हैं। परम्परागत राजनीति की भाषा जाति के ही चारों तरफ चक्कर लगाती है। रजनी कोठारी ने भी ऐसा ही मत प्रकट करते हुए कहा है कि यदि जाति के प्रभाव को अस्वीकार किया जाता है और उसकी उपेक्षा की जाती तो राजनीतिक संगठन में बाधा पड़ती है।

1. जातिवाद के आधार पर उम्मीदवारों का चयन (Selection of Candidates on the basis of Caste)चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन (Selection) करते समय जातिवाद भी अन्य आधारों में से एक महत्त्वपूर्ण आधार होता है। (”Caste considerations are given great weight in the selection of candidates and in the appeals to voters during election campaigns.” — Palmar) पिछले 16 आम चुनावों में सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को प्रमुख बना दिया है। प्रायः जिस निर्वाचन क्षेत्र में जिस जाति के मतदाता अधिक होते हैं, उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा किया जाता है। क्योंकि भारतीय जनता का बड़ा भाग भी अनपढ़ है और पढ़े-लिखे लोगों का दृष्टिकोण भी इंतना व्यापक नहीं है कि जाति के दायरे को छोड़ कर देश के हित में सोच सकें।

2. राजनीतिक नेतृत्व (Political Leadership)-भारतीय राजनीति में जातिवाद ने राजनीतिक नेतृत्व को भी प्रभावित किया है। नेताओं का उत्थान तथा पतन जाति के कारण हुआ है। जाति के समर्थन पर अनेक नेता स्थायी तौर पर अपना महत्त्व बनाए हुए हैं। उदाहरण के लिए हरियाणा में राव वीरेन्द्र सिंह अहीर जाति के समर्थन के कारण बहुत समय से नेता चले आ रहे हैं।

3. राजनीतिक दल (Political Parties)-भारत में राष्ट्रीय दल चाहे प्रत्यक्ष तौर पर जाति का समर्थन न करते हों परन्तु क्षेत्रीय दल खुले तौर पर जाति का समर्थन करते हैं और कई क्षेत्रीय दल जाति पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में डी० एम० के० (D.M.K.) तथा अन्ना डी० एम० के० (A.D.M.K.) ब्राह्मण विरोधी या गैर-ब्राह्मणों के दल

4. चुनाव-प्रचार में जाति का.योगदान (Contribution of Caste in Election Propaganda)-कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव-प्रचार में जाति का महत्त्वपूर्ण हाथ है। उम्मीदवार का जीतना या हारना काफ़ी हद तक जाति पर आधारित प्रचार पर निर्भर करता है। जिस जाति का बहुमत उस चुनाव क्षेत्र में होता है प्रायः उसी जाति का उम्मीदवार चुनाव में जीत जाता है। अब तो मठों के स्वामी भी चुनाव में भाग लेने लगे हैं।

5. जाति एवं प्रशासन (Caste and Administration)—प्रशासन में भी जातीयता का समावेश हो गया है। संविधान में हरिजनों और पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए संसद् तथा राज्य विधानमण्डल में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। सरकारी नौकरियों में भी इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं। संविधान के इन अनुच्छेदों के कारण सब जातियों में इन जातियों के प्रति ईर्ष्या की भावना का पैदा होना स्वाभाविक है। कर्नाटक राज्य ने पहले सरकारी नौकरियों में जितने व्यक्ति लिए इनमें लगभग 80 प्रतिशत हरिजन थे जिस कारण जातीय भावना और दृढ़ हो गई। सन् 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने नौकरियों में इस प्रकार के जातीय पक्षपात की निन्दा की और इसे संविधान के साथ धोखा कहा।

6. सरकार निर्माण में जाति का प्रभाव (Influence of Caste at the time of Formation of Govt.)जाति की राजनीति चुनाव के साथ ही समाप्त नहीं हो जाती बल्कि सरकार निर्माण में भी बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा करती है। मन्त्रिमण्डल बनाते समय बहुमत दल में जाति-राजनीति अपना चक्कर चलाए बिना नहीं रहती। राज्य में जिस जाति का ज़ोर होता है उसी जाति का कोई नेता ही मुख्यमन्त्री के रूप में सफल हो सकता है। पंजाब में 2007 एवं 2012 में जब अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो सरदार प्रकाश सिंह बादल मुख्यमन्त्री बने।

7. जाति और मतदान व्यवहार (Caste and Voting Behaviour)-चुनाव के समय मतदाता प्रायः जाति के आधार पर मतदान करते हैं । वयस्क मताधिकार ने जातियों को चुनावों को प्रभावित करने के अधिक अवसर प्रदान किए हैं। प्रत्येक जाति अपनी संख्या के आधार पर अपना महत्त्व समझने लगी है। जिसके जितने अधिक मत होते हैं, उसका महत्त्व भी उतना अधिक होता है।

8. पंचायती राज तथा जातिवाद (Panchayati Raj and Casteism)-स्वतन्त्रता के पश्चात् गांवों में पंचायती राज की व्यवस्था की गई। पंचायती राज के तीन स्तरों-पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद् चुनाव में जाति का बहुत महत्त्व है। कई बार चुनाव में जातिवाद की भावना भयानक रूप धारण कर लेती है तथा दंगे-फसाद भी हो जाते हैं। पंचायती राज की असफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण जातिवाद ही है।

श्री हरिसन ने अपनी पुस्तक ‘India, The Most Dangerous Decades’ में भारत के आम चुनावों में जातीय व्यवहार के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है, “निरपवाद रूप में जब जातीय कारक किसी जातीय विधानसभायी क्षेत्र में प्रकाश में आते हैं जो जटिल से जटिल चुनाव के अप्रत्याशित परिणाम स्पष्ट हो जाते हैं।”

(“Invariably, the most perplexing of election results become crystal clear when the caste factors in the constituency come to light.”_Harrison) उसके विचारानुसार, “चुनावों में जातीय निष्ठा, दलीय भावनाओं तथा दल की विचारधारा से पहले है।”
राजनीति का जातीय भावना से इतना अधिक प्रभावित होना राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। भारत में लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए चुनावों में जातिवाद के आधार को समाप्त करना होगा। इस आधार को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय हैं-

  • जातियों के नाम से चल रही सभी शिक्षा-संस्थाओं से जातियों का नाम हटाया जाए तथा इन संस्थाओं के प्रबन्धक-मण्डलों में विशिष्ट जातियों के प्रतिनिधित्व को समाप्त किया जाए।
  • सभी लोकतान्त्रिक, जाति-निरपेक्ष और धर्म-निरपेक्ष राजनीतिक दलों को मिलकर यह निश्चय करना चाहिए कि वे जातिवाद को प्रोत्साहन नहीं देंगे।
  • जाति पर आधारित राजनीतिक दलों को समाप्त किया जाना चाहिए।
  • विभिन्न जातियों तथा वर्गों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं तथा उन के प्रकाशित होने वाले ऐसे समाचारों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए जो जातिवाद को बढ़ावा देते हैं।
  • जातीय अथवा वर्गीय आधार पर सरकार द्वारा दी जाने वाली सभी सुविधाएं तुरन्त समाप्त कर दी जानी चाहिए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 8.
भारत में बढ़ते हुए साम्प्रदायवाद के पीछे क्या कारण हैं ? इन पर कैसे काबू पाया जा सकता है ? (What are the causes of rising communalism in India ? How can we curb it.)
उत्तर-
विदेशी शासन ने साम्प्रदायिकता का जो ज़हर भारतीय जन-मानस में घोला वह आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी निकल नहीं पाया है। भारत में राजनीति को साम्प्रदायिक आधार देकर राष्ट्र में अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिशें की जा रही हैं। साम्प्रदायिकता के खूनी पंजे राष्ट्र को जकड़ते जा रहे हैं और हम सब तमाशबीन बने खड़े हुए हैं। लोकतन्त्र धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धान्तों को स्वीकार करने के बाद भी साम्प्रदायिकता की जड़ें मज़बूत होती जा रही हैं।

साम्प्रदायिकता का अर्थ (Meaning of Communalism)-साम्प्रदायिकता से अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एक -दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना, एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्र के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है।
ए० एच० मेरियम (A.H. Merriam) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफादारी की अभिवृत्ति की ओर संकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”
डॉ० ई० स्मिथ (Dr. E. Smith) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता को आमतौर पर किसी धार्मिक ग्रुप के तंग, स्वार्थी, विभाजकता और आक्रमणशील दृष्टिकोण से जोड़ा जाता है।”

भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के कारण (Causes of the growth of Communalism in India)भारत में बढ़ते हुए सम्प्रदायवाद के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. पाकिस्तान की भूमिका (Role of Pakistan)—भारत के दोनों तरफ पाकिस्तान का अस्तित्व भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो इस देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है। जब कभी भी कोई दंगा-फसाद हुआ है, पाकिस्तानी नेताओं ने, रेडियो और समाचार-पत्रों ने वास्तविकता जाने बिना ही हिन्दुओं की मुसलमानों पर अत्याचार की कहानियां बनाई हैं। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान उग्रवादियों को हथियारों तथा धन से सहायता दे रहा है ताकि भारत में साम्प्रदायिक दंगे करवाए जा सकें।

2. विभिन्न धर्मों के लोगों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास (Lack of faith among the People of different religions)-भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी इत्यादि अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। प्रत्येक धर्म में अनेक सम्प्रदाय पाए जाते हैं। एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों पर विश्वास नहीं है। अविश्वास की भावना साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है।

3. साम्प्रदायिक दल (Communal Parties)—साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने में साम्प्रदायिक दलों का महत्त्वपूर्ण हाथ है। भारत में अनेक साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं। इन दलों की राजनीति धर्म के इर्द-गिर्द ही घूमती है। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई का कहना है कि यह दुर्भाग्य की बात है कि चुनावी सफलता के लिए सभी पार्टियां साम्प्रदायिक दलों से सम्बन्ध बनाए हुए हैं।

4. राजनीति और धर्म (Politics and Religion)-साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि राजनीति में धर्म घुसा हुआ है। धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता है।

5. सरकार की उदासीनता (Government’s Apathy)—साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि संघीय और राज्यों की सरकारों ने दृढ़ता से इस समस्या को हल करने का प्रयास नहीं किया है। कभी भी इस समस्या की विवेचना गम्भीरता से नहीं की गई और जब भी दंगे-फसाद हुए हैं तभी कांग्रेस सरकार ने विरोधी दलों पर दंगेफसाद कराने का दोष लगाया है।

6. साम्प्रदायिक शिक्षा (Communal Education)-कई प्राइवेट स्कूल तथा कॉलेजों में धर्म-शिक्षा के नाम पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता है।

7. पारिवारिक वातावरण (Family Environment)-कई घरों में साम्प्रदायिकता की बातें होती रहती हैं जिनका बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और बड़े होकर वे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं।

साम्प्रदायिकता को कैसे समाप्त किया जा सकता है? (HOW COMMUNALISM CAN BE CURBED ?).

एकता और उन्नति के लिए साम्प्रदायिकता को समाप्त करना अति आवश्यक है। साम्प्रदायिकता एक ऐसी चुनौती है जिसका स्थायी हल आवश्यक है। साम्प्रदायिकता को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जाते हैं-

1. शिक्षा द्वारा (By Education)-साम्प्रदायिकता को दूर करने का सबसे अच्छा साधन शिक्षा का प्रसार है। जैसे-जैसे शिक्षित व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जाएगी, धर्म का प्रभाव भी कम हो जाएगा और साम्प्रदायिकता की बीमारी भी दूर हो जाएगी। शिक्षा में धर्म-निरपेक्ष तत्त्वों का समावेश करने तथा स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर रोक लगाने से साम्प्रदायिकता पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिल सकती है। सही शिक्षा से राष्ट्रीय भावना पैदा होती है।

2. साम्प्रदायिक दलों का अन्त करके (By abolishing Communal Parties) सरकार को ऐसे सभी दलों को समाप्त कर देना चाहिए जो साम्प्रदायिकता पर आधारित हों। चुनाव आयोग को साम्प्रदायिक पार्टियों को मान्यता नहीं देनी चाहिए।

3. धर्म और राजनीति को अलग करके-साम्प्रदायिकता को रोकने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय यह है कि राजनीति को धर्म से अलग रखा जाए। केन्द्र सरकार ने साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए धार्मिक स्थलों का राजनीतिक उपयोग कानूनी तौर से प्रतिबन्धित कर दिया है, परन्तु उसका कोई विशेष असर नहीं हुआ है।

4. सामाजिक और आर्थिक विकास-साम्प्रदायिक तत्त्व लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन का पूरा फायदा उठाते हैं। अतः ज़रूरत इस बात की है कि जहाँ-कहीं कट्टरपंथी ताकतों का बोलबाला है वहां की ग़रीब बस्तियों के निवासियों की आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के हल के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं।

5. सुरक्षा बलों में सभी धर्मों को प्रतिनिधित्व-साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में सुरक्षा बल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि सुरक्षा बलों (पुलिस, सी० आर० पी०) में सभी धर्मों व जातियों को, जहां तक हो सकें समान प्रतिनिधित्व देना चाहिए।

6. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा-सरकार को अल्प-संख्यकों के हितों की रक्षा के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए और उनमें सुरक्षा की भावना पैदा करनी चाहिए।

7. अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक मान्यता-अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए स्थायी तौर पर अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की जानी चाहिए। अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।

8. कड़ी सज़ा-साम्प्रदायिकता बढ़ाने वालों को कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए।

9. विशेष अदालतें-साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को कड़ी सज़ा देने के लिए विशेष अदालतों की स्थापना की जानी चाहिए। जनवरी, 1990 में सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों से सम्बन्धित मामले निपटाने के लिए दिल्ली, मेरठ और भागलपुर में विशेष अदालतें गठित करने का निर्णय किया।

प्रजातन्त्र पर साम्प्रदायिकता का प्रभाव
(IMPACT OF COMMUNALISM ON DEMOCRACY)-

धर्म का भारतीय राजनीति पर सदैव ही प्रभाव रहा है। धर्म की संकीर्ण भावनाओं ने स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय राजनीति को साम्प्रदायिक झगड़ों का अखाड़ा बना दिया है। धर्म के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों में झगड़े चलते थे और अन्त में भारत का विभाजन भी हुआ। परन्तु भारत का विभाजन भी साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं कर सका और आज फिर साम्प्रदायिक तत्त्व अपना सिर उठा रहे हैं। साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित ढंगों से प्रजातन्त्र को प्रभावित किया है-

  • भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  • चुनावों में साम्प्रदायिकता की भावना महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चुनाव करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं और जिस चुनाव क्षेत्र में जिस सम्प्रदाय के अधिक मतदाता होते हैं प्रायः उसी सम्प्रदाय का उम्मीदवार उस चुनाव क्षेत्र में खड़ा किया जाता है। प्राय: सभी राजनीतिक दल चुनावों में वोट पाने के लिए साम्प्रदायिक तत्त्वों के साथ समझौता करते हैं।
  • राजनीतिक दल ही नहीं मतदाता भी धर्म से प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते हैं।
  • धर्म के नाम पर राजनीतिक संघर्ष और साम्प्रदायिक झगड़े होते रहते हैं। 1979-80 में साम्प्रदायिक दंगों की संख्या 304 थी। 1990 तथा दिसम्बर, 1992 में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मामले पर अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे-फसाद हुए। मार्च, 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हुए।
  • राजनीति को साम्प्रदायिक आधार देकर राष्ट्र में अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिश की जा रही है। आज आवश्यकता इस बात की है जो ताकतें धर्म-निरपेक्षता को आघात पहुंचाती हैं और साम्प्रदायिक राजनीति चला रही हैं उनके खिलाफ सख्त कदम उठाये जायें। लोकतन्त्र की सफलता और राष्ट्र की एकता के लिए साम्प्रदायिकता के खूनी पंजे को काटना ही होगा।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 9.
भारत में लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों का वर्णन करो। (Discuss the essential conditions for the success of Democracy in India.)
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों की व्याख्या करें। (Discuss the conditions essential for the success of Indian democracy.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है। इस शासन व्यवस्था को सर्वोत्तम माना गया है। परन्तु प्रजातन्त्र को प्रत्येक देश में एक समान सफलता प्राप्त नहीं हुई। कुछ देशों में प्रजातन्त्र प्रणाली को बहुत सफलता प्राप्त हुई जबकि कई देशों में इसको सफलता प्राप्त नहीं हुई है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए कुछ विशेष वातावरण और मनुष्यों के आचरण में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता रहती है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, स्विट्ज़रलैंड आदि देशों में प्रजातन्त्र शासन प्रणाली को सफलता मिली है क्योंकि इन देशों में उचित वातावरण मौजूद है।
भारतीय प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित शर्तों का होना आवश्यक है-

1. सचेत नागरिक (Enlightened Citizens)—प्रजातन्त्र की सफलता की प्रथम शर्त सचेत नागरिकता है। नागरिक बुद्धिमान, शिक्षित तथा समझदार होने चाहिएं। नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के प्रति सचेत होना चाहिए। नागरिकों को देश की समस्याओं में रुचि लेनी चाहिए। एक लेखक का कहना है कि “लगातार सतर्कता ही स्वतन्त्रता का मूल्य है।” (Constant vigilance is the price of liberty.)

2. शिक्षित नागरिक (Educated Citizens)—प्रजातन्त्र जनता की सरकार है और इसका शासन जनता द्वारा ही चलाया जाता है। इसलिए प्रजातन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला है । शिक्षा के प्रसार से ही नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान होता है। शिक्षित नागरिक ही अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित में भेद कर सकते हैं। शिक्षा नागरिक को शासन में भाग लेने के योग्य बनाती है। देश की समस्याओं को समझने के लिए तथा उनको सुलझाने के लिए शिक्षित नागरिकों का होना आवश्यक है। अत: शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्त है।

3. उच्च नैतिक स्तर (High Moral Standard) ब्राइस के मतानुसार प्रजातन्त्र की सफलता नागरिकों के उच्च नैतिक स्तर पर निर्भर करती है । नागरिकों का ईमानदार, निष्पक्ष तथा स्वार्थरहित होना आवश्यक है। प्रजातन्त्र में जनता को बहुत से अधिकार प्राप्त होते हैं, जिनका ईमानदारी से उपयोग होना प्रजातन्त्र की सफलता के लिए जरूरी होता है। उदाहरण के लिए, प्रजातन्त्र में नागरिकों को वोट देने का अधिकार प्राप्त होता है परन्तु नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने इस अधिकार का प्रयोग बुद्धिमता से करें। यदि नागरिक बेइमान हों, जमाखोर हों, चोरबाजारी करते हों, मन्त्री अपने स्वार्थ-हितों की पूर्ति में लगे रहते हों तथा सरकारी कर्मचारी रिश्वतें लेते हों तो वहां प्रजातन्त्र की सफलता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। अतः प्रजातन्त्र की सफलता के लिए नागरिक का नैतिक स्तर ऊंचा होना अनिवार्य है।

4. प्रजातन्त्र से प्रेम (Love for Democracy)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों के दिलों में प्रजातन्त्र के लिए प्रेम होना चाहिए। प्रजातन्त्र से प्रेम के बिना प्रजातन्त्र कभी सफल नहीं हो सकता।

5. आर्थिक समानता (Economic Equality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। बिना आर्थिक समानता के राजनीतिक प्रजातन्त्र एक हास्य का विषय बन जाता है। कोल ने ठीक ही कहा है, “बिना आर्थिक स्वतन्त्रता के राजनीतिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।” (“Political democracy is meaningless without economic democracy.”) साम्यवाद के समर्थकों की इस बात में सच्चाई है कि एक भूखे-नंगे व्यक्ति के लिए वोट के अधिकार का कोई महत्त्व नहीं है। मनुष्य को रोटी पहले चाहिए और वोट बाद में है। अतः प्रत्येक मनुष्य की आय इतनी अवश्य होनी चाहिएं कि वह अपना और अपने परिवार का उचित पालन कर सके तथा अपने बच्चों को शिक्षा दे सकें। प्रजातन्त्र तभी सफल हो सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति को पेट भर रोटी मिले, कपड़ा मिले तथा रहने को मकान मिले और कार्य करने का अवसर प्राप्त हो।

6. सामाजिक समानता (Social Equality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता के साथ सामाजिक समानता का होना भी आवश्यक है। यदि समाज में सभी व्यक्तियों को समान नहीं माना जाता और उनमें जाति, धर्म, रंग, वंश, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है तो प्रजातन्त्र को सफलता नहीं मिल सकती। समाज में सभी नागरिकों को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं और किसी व्यक्ति को ऊंचा-नीचा नहीं समझना चाहिए। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि समाज का संगठन समानता तथा न्याय के नियमों पर आधारित हो।

7. स्वस्थ जनमत (Sound Public Opinion)-प्रजातन्त्रात्मक सरकार जनमत पर आधारित होती है, जिस कारण प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्वस्थ जनमत का होना अति आवश्यक है। डॉ० बनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के शब्दों में, “जनमत नागरिकों के समस्त समूह का मत है। जनता का मत बनने के लिए बहुसंख्या काफ़ी नहीं तथा सर्वसम्मति की आवश्यकता नहीं।”

8. स्वतन्त्र तथा ईमानदार प्रेस (Free and Honest Press)—प्रजातन्त्र का शासन जनमत पर आधारित होता है। इसलिए शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए स्वतन्त्र तथा ईमानदार प्रेस का होना बहुत ज़रूरी है। नागरिक को अपने विचार प्रकट करने की भी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। यदि प्रेस पर किसी वर्ग अथवा पार्टी का नियन्त्रण होगा तो वह निष्पक्ष नहीं रह सकता जिसके परिणामस्वरूप जनता को झूठी खबरें मिलेंगी और झूठी खबरों के आधार पर बना जनमत शुद्ध नहीं हो सकता। यदि प्रेस पर सरकार का नियन्त्रण होगा तो जनता को वास्तविकता का पता नहीं चलेगा और सरकार की आलोचना करना भी कठिन हो जाएगा।

9. शान्ति और सुरक्षा (Peace and Order)–प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि देश में शान्ति और सुरक्षा का वातावरण हो। प्रजातन्त्र शासन ऐसे देशों में अधिक समय तक नहीं रह सकता जहां सदा युद्ध का भय बना रहता है। जिस देश में अशान्ति की व्यवस्था रहती है, वहां पर नागरिक अपने व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयत्न नहीं करते। युद्ध काल में न तो चुनाव हो सकते हैं और न ही नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। अतः प्रजातन्त्र ‘ की सफलता के लिए शान्ति व्यवस्था का होना आवश्यक है।

10. स्वतन्त्र चुनाव (Free Election)—प्रजातन्त्र में निश्चित अवधि के पश्चात् चुनाव होते हैं। चुनाव व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि चुनाव स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष हों तथा सत्तारूढ़ दल को कोई ऐसी सुविधा प्राप्त नहीं होनी चाहिए जो विरोधी दल को प्राप्त नहीं है। मतदाताओं को अपने मत को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। मतदाताओं पर दबाव डालकर उन्हें किसी विशेष दल के पक्ष में वोट डालने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

11. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा (Protection of Fundamental Rights)—प्रजातन्त्र में लोगों को कई प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त होते हैं जिनके द्वारा वे राजनीतिक भागीदार बन पाते हैं और अपने जीवन का विकास कर पाते हैं। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इन अधिकारों की सुरक्षा संविधान द्वारा की जानी चाहिए ताकि कोई व्यक्ति या शासक उनको कम या समाप्त करके प्रजातन्त्र को हानि न पहुंचा सके।

12. स्थानीय स्वशासन (Local Self-government)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना आवश्यक है क्योंकि स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही नागरिकों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है। स्थानीय स्वशासन से नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है और वे वोट का उचित प्रयोग करना सीखते हैं। ब्राइस का कहना है कि स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के बिना लोगों में स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न नहीं की जा सकती है। स्थानीय शासन को प्रशासनिक शिक्षा की आरम्भिक पाठशाला कहा जाता है। डी० टाक्विल (De Tocqueville) ने स्थानीय संस्थाओं के महत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है, “एक राष्ट्र भले ही स्वतन्त्र सरकार की पद्धति को स्थापित कर ले, परन्तु स्थानीय संस्थाओं के बिना इसमें स्वतन्त्रता की भावना नहीं आ सकती।”

13. लिखित संविधान (Written Constitution)-कुछ विद्वानों के अनुसार प्रजातन्त्र की सफलता के लिए संविधान का लिखित होना आवश्यक है। जिन देशों का संविधान लिखित होता है वहां पर सरकार की शक्तियों को संविधान में लिखा होता है। जिससे सरकार मनमानी नहीं कर सकती। यदि संविधान लिखित न हो तो सरकार अपनी इच्छा से अपनी शक्तियों का विस्तार कर लेगी। हेनरी मेन का कहना है कि अच्छे संविधान के साथ लोकतन्त्र के वेग को रोका जा सकता है तथा उसको एक तालाब के पानी की तरह शान्त बनाया जा सकता है।

14. स्वतन्त्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)-प्रजातन्त्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा संविधान की सुरक्षा के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। देश की न्यायपालिका विधानपालिका तथा कार्यपालिका से स्वतन्त्र होनी चाहिए। यदि न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं होगी तो वह अपना कार्य निष्पक्षता से नहीं कर सकेगी। जिस देश की न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं वहां पर नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित नहीं रहते। अतः प्रजातन्त्र शासन की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना अनिवार्य है।

15. संगठित राजनीतिक दल (Well Organised Political Parties)-प्रजातन्त्र शासन प्रणाली के लिए राजनीतिक दल आवश्यक हैं।
प्रजातन्त्र की सफलता के लिए राजनीतिक दलों का उचित संगठन होना चाहिए। दलों का संगठन जाति, धर्म, प्रान्त आदि के आधार पर न होकर आर्थिक आधार पर होना चाहिए। जो दल आर्थिक सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं उनका उद्देश्य देश का हित होता है। यदि देश में संगठित दल हों तो बहुत अच्छा है।

16. नागरिकों में सहयोग, समझौते तथा सहनशीलता की भावना (Spirit of Co-operation, Compromise and Toleration among the Citizens)-प्रजातन्त्र जनता का शासन है तथा जनता के द्वारा ही चलाया जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि नागरिकों में सहयोग, सहनशीलता तथा समझौते की भावना हो। प्रजातन्त्र में एक व्यक्ति को विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होती है तथा वे सरकार की आलोचना भी कर सकते हैं। दूसरे नागरिकों में इतनी सहनशीलता होनी चाहिए कि वे विरोधी विचारों के नागरिकों के विचारों को ध्यान से सुनें। दूसरे नागरिकों के विचारों को सुनकर लोगों को लड़ना-झगड़ना शुरू नहीं कर देना चाहिए। प्रजातन्त्र में एक दल सरकार बनाता है तथा दूसरे विरोधी दल का कार्य करते हैं। शासन दल के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे विरोधी दल की आलोचना को हंसते हुए बरदाश्त करें तथा विरोधी दल को आलोचना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

17. सेना का अधीनस्थ स्तर (Subordinate status of Army) विश्व के सफल प्रजातन्त्र देशों के अनुभव के अनुसार देश की सेना सरकार के असैनिक अंग (Civil Organ) के अधीन होनी चाहिए। सेना सरकार के अधीनस्थ रहने से ही प्रजातन्त्र की सहायक हो सकती है। यदि ऐसा न हो तो सेना प्रजातन्त्र की सबसे बड़ी विरोधी सिद्ध होगी जैसा कि संसार के अधिनायकवादी देशों का अनुभव है।

18. परिपक्व नेतृत्व (Mature Leadership)-प्रजातन्त्र शासन में जनता का नेतृत्व करने के लिए बुद्धिमान् नेताओं की आवश्यकता होती है। प्रजातन्त्र को सफल बनाने तथा समाप्त करने वाले नेता लोग ही होते हैं। वाशिंगटन तथा लिंकन जैसे महान् नेताओं ने अमेरिका को एक शक्तिशाली राज्य बनाया। इन महान् नेताओं की वजह से ही अमेरिका शक्तिशाली राज्य के साथ-साथ अमीर देश भी है। चर्चिल के नेतृत्व में इंग्लैण्ड ने द्वितीय महायुद्ध में विजय प्राप्त की। जब पाकिस्तान ने भारत पर 1965 ई० में आक्रमण किया तो हमारे प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश का बहुत अच्छा नेतृत्व किया और पाकिस्तान के हमले का मुंह तोड़ जबाव दिया। अतः प्रजातन्त्र की सफलता के लिए बुद्धिमान तथा चरित्रवान् नेता होना आवश्यक है।

19. दल-बदल के विरुद्ध बनाए गए कानून को प्रभावी ढंग से लागू करना (Strict Compliance with the Anti Defection Law)-भारतीय लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि दल-बदल के विरुद्ध बनाए गए कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाए। 1985 में दल-बदल को रोकने के लिए एक कानून बनाया गया था, परन्तु उस कानून में एक कमी यह थी कि यदि किसी दल के 1/3 सदस्य अलग हो जाते हैं, तो उसे दलबदल नहीं माना जाएगा। अतः इस कानून के बावजूद भी दल-बदल पर कोई प्रभावशाली रोक न लग सकी। अतः दिसम्बर, 2003 में संसद् ने 91वां संवैधानिक संशोधन पास किया। इस संशोधन में यह व्यवस्था की गई कि यदि कोई भी विधायक या सांसद दल-बदल करता है तो उसकी सदन की सदस्यता तुरन्त प्रभाव से समाप्त हो जाएगी और वह सदस्य उस सदन के शेष कार्यकाल के दौरान किसी सरकारी लाभदायक पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा 1/3 सदस्यों द्वारा किए जाने वाले दल-बदल की व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया। 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा बनाये गए कानून के अनुसार अब किसी भी रूप में दल-बदल नहीं किया जा सकता। अतः यदि इस कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाए तो इससे भारतीय लोकतन्त्र को सफल बनाने में मदद मिलेगी।

यदि ऊपरलिखित शर्ते पूरी हो जाएं तो प्रजातन्त्र शासन को सफलता मिलनी स्वाभाविक है। यदि किसी देश में प्रजातन्त्र के अनुकूल वातावरण नहीं होता तो वहां पर प्रजातन्त्र का स्थान शीघ्र ही कोई दूसरी सरकार ले लेती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जिस देश में ये सभी बातें नहीं पाई जाती हैं वहां पर प्रजातन्त्र की स्थापना नहीं की जा सकती है। जे० एस० मिल ने इस बात पर जोर दिया है कि प्रजातन्त्र की सफलता के लिए वहां के लोगों में इस शासन को बनाए रखने की इच्छा होनी चाहिए। प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए जनता में इच्छा का होना आवश्यक है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
संसदीय सरकार से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग-पत्र देना पड़ता है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार भी कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इस सरकार को कैबिनेट सरकार भी कहा जाता है। क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां कैबिनेट द्वारा प्रयोग की जाती हैं।

प्रश्न 2.
संसदीय शासन प्रणाली की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-
संसदीय सरकार की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-संसदीय सरकार में कार्यपालिका का असली मुखिया प्रधानमन्त्री होता है। प्रधानमन्त्री निम्न सदन का नेता होता है जिस कारण वह सदन का भी नेता होता है। मन्त्रियों में विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है।
  • कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी-मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है। विधानपालिका जब चाहे मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उस मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है।
  • राजनीतिक एकता-संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल के साथ सम्बन्धित होते हैं। जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, उस दल का मन्त्रिमण्डल बनता है और वही दल सरकार बनाता है। अन्य दल विरोधी दल की भूमिका अदा करते हैं।
  • संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल की बैठकें गुप्त होती हैं।

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प्रश्न 3.
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारतीय संसदीय शासन-प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद-राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान में कार्यपालिका की समस्य शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध-मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद की बैठकों में भाग लेते हैं, विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं। मन्त्रिमण्डल की सहायता के बिना कोई बिल पास नहीं हो सकता।
  • राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग है-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल का सदस्य नहीं होता और मन्त्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता। मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के प्रत्येक निर्णय से राष्ट्रपति को सूचित कर दिया जाता है।
  • प्रधानमन्त्री लोकसभा को भंग करवा सकता है।

प्रश्न 4.
उत्तरदायी सरकार का क्या अर्थ होता है?
उत्तर-
उत्तरदायी सरकार को संसदीय सरकार भी कहा जाता है। उत्तरदायी सरकार में कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है। विधानपालिका के सदस्यों को कार्यपालिका की आलोचना करने तथा उनसे प्रश्न पूछने का अधिकार प्राप्त होता है। कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। संसद् अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है। चूंकि संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है इसलिए उसको उत्तरदायी सरकार कहते हैं।

प्रश्न 5.
लोकतन्त्र को कौन-से सामाजिक तत्त्व प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-

  • सामाजिक असमानता-सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है। सामाजिक असमानता के कारण समाज का बहुत बड़ा भाग राजनीतिक कार्य के प्रति उदासीन रहता है।
  • अनपढ़ता- भारत में आज भी करोड़ों व्यक्ति अनपढ़ हैं। अनपढ़ व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी होती है इसलिए उसमें देश की समस्याओं को समझने तथा हल करने की क्षमता नहीं होती है।
  • जातिवाद-भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। चुनाव में उम्मीदवारों का चयन प्रायः जाति के आधार पर किया जाता है और मतदाता प्राय: जाति के आधार पर मतदान करते हैं।
  • छूआछूत ने भारतीय लोकतन्त्र को बहुत प्रभावित किया है।

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प्रश्न 6.
भारतीय लोकतंत्र की चार समस्याओं का वर्णन करो।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं-

  • सामाजिक असमानता–भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामाजिक असमानता है। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है। राजनीतिक दल सामाजिक असमानता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं और सत्ता पर उच्च वर्ग के लोगों का ही नियन्त्रण रहता है।
  • ग़रीबी-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब व्यक्ति के पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो दूर, ऐसा सोच भी नहीं सकता।
  • अनपढ़ता-भारत की लगभग 24 प्रतिशत जनता अनपढ़ है। भारत में अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अधिकारों का ज्ञान होता है और न कर्तव्यों का। वह मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता। अनपढ़ व्यक्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के नारे, जातिवाद, धर्म आदि से प्रभावित होकर अपने वोट का प्रयोग कर बैठता है।
  • भारतीय लोकतन्त्र की एक मुख्य समस्या जातिवाद है।

प्रश्न 7.
अनपढ़ता ने भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
अथवा
निरक्षरता भारतीय लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करती है ?
उत्तर-
आज जातिवाद, भाषावाद और प्रान्तीयता आदि के देश में बोलबाला होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण भारतीयों का अशिक्षित होना है। प्रजातन्त्र में जनमत ही सरकार की निरंकुशता पर अंकुश लगाता है। जनमत के भय से सरकार जनता के हित में नीतियों का निर्माण करती है, परन्तु भारत में अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। इसलिए सत्तारूढ़ दल चुनाव में किए गए वायदों को लागू कराने की चेष्टा नहीं करता। अनपढ़ व्यक्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के नारों, जातिवाद, धर्म, भाषावाद आदि से प्रभावित होकर अपने वोट का प्रयोग कर बैठता है। अतः भारतीय प्रजातन्त्र के सफल होने के लिए अधिक-से-अधिक जनता का शिक्षित एवं सचेत होना अत्यावश्यक है।

प्रश्न 8.
भारत ने संसदीय प्रणाली को क्यों अपनाया ?
अथवा
भारत ने संसदीय प्रणाली को क्यों ग्रहण किया?
उत्तर-
संविधान सभा में इस बात पर काफ़ी वाद-विवाद हुआ कि भारत के लिए संसदीय अथवा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली उचित रहेगी, परन्तु अन्त में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना करने का निर्णय निम्नलिखित कारणों से लिया गया-

  • संसदीय परम्पराएं-भारत में संसदीय शासन प्रणाली पहले से प्रचलित थी। 1919 के एक्ट द्वारा प्रान्तों में दोहरी शासन प्रणाली द्वारा आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई और 1935 के एक्ट के अन्तर्गत प्रान्तों में प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थापना की गई। अत: भारतीयों के लिए संसदीय शासन प्रणाली नई नहीं थी। इसी कारण राजनीतिज्ञों ने इसका समर्थन किया।
  • शक्ति और लचीलापन-श्री० के० एम० मुन्शी का विचार था कि संसदीय शासन प्रणाली में शक्ति तथा लचीलेपन का सम्मिश्रण रहता है।
  • विधानमण्डल तथा कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध-संसदीय प्रणाली में विधानमण्डल और कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और दोनों में तालमेल बना रहता है।
  • संसदीय शासन प्रणाली अधिक उत्तरदायी है।

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प्रश्न 9.
सामूहिक उत्तरदायित्व से आपका क्या भाव है?
अथवा
संसदीय शासन प्रणाली के अधीन सामूहिक (सांझी) जिम्मेवारी से क्या भाव है ?
अथवा
संसदीय लोकतन्त्र में सामूहिक उत्तरदायित्व का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय सरकार की मुख्य विशेषता है। भारतीय संविधान की धारा 75 (3) में कहा गया है कि “मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है। जब मन्त्रिमण्डल किसी विषय पर कोई नीति निर्धारित करता है तो इस नीति के लिए सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ है कि यदि विधानपालिका में किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास हो जाए तो वह प्रस्ताव पूर्ण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वा प्रस्ताव माना जाएगा और सभी मन्त्री सामूहिक रूप से त्याग-पत्र देंगे। सामूहिक उत्तरदायित्व के अतिरिक्त मन्त्री अपने विभाग के लिए विधानपालिका के प्रति व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं। संक्षेप में मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी है और विधानपालिका जब भी चाहे मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसको त्याग-पत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है। इसीलिए कहा जाता है कि, “मन्त्री इकट्ठे तैरले और इकट्ठे डूबते हैं।”

प्रश्न 10.
भारतीय संसदीय प्रणाली के किन्हीं चार दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत में केन्द्र और प्रान्तों में संसदीय शासन प्रणाली को कार्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं। भारतीय संसदीय प्रणाली की कार्य विधि के आलोचनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संसदीय प्रणाली में बहुत-सी त्रुटियां हैं जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • बहु-दलीय प्रणाली-संसदीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक बाधा बहु-दलीय प्रणाली का होना है। स्थायी शासन के लिए दो या तीन दल ही होने चाहिएं। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती।
  • अच्छी परम्पराओं की कमी-संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है, परन्तु भारत में कांग्रेस शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई है। इसके लिए विरोधी दल भी ज़िम्मेदार हैं।
  • जनता के साथ कम सम्पर्क-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को उसके विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान ही नहीं होता।
  • राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए अनैतिक गठबन्धन करते हैं।

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प्रश्न 11.
भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले चार आर्थिक तत्त्व लिखो।
उत्तर-

  1. आर्थिक असमानता-लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है, परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी आर्थिक असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता रहता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथ में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।
  2. ग़रीबी- भारतीय लोकतन्त्र को ग़रीबी ने बहुत प्रभावित किया है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब नागरिक अपने वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल ग़रीबी को हटाने का वायदा करते हैं ताकि ग़रीबों की वोटें प्राप्त की जा सकें परन्तु बाद में सब भूल जाते हैं।
  3. बेरोज़गारी-बेरोज़गारी और ग़रीबी परस्पर सम्बन्धित हैं और बेरोज़गारी ही ग़रीबी का कारण है। भारत में बेरोज़गारी शिक्षित तथा अशिक्षित दोनों प्रकार के लोगों में पाई जाती है। लाखों शिक्षित बेकार फिर रहे हैं। बेकारी की समस्या ने लोकतन्त्र को बहुत प्रभावित किया है।
  4. भारतीय लोकतन्त्र को आर्थिक क्षेत्रीय असन्तुलन ने प्रभावित किया है।

प्रश्न 12.
भारतीय लोकतन्त्र पर साम्प्रदायिकता के प्रभाव को लिखिए।
उत्तर-
साम्प्रदायिकता भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक गम्भीर समस्या है। साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित ढंगों से भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित किया है-

  • भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  • चुनावों में प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं।
  • राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि मतदाता भी धर्म से प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते हैं। यह प्रायः देखा गया है कि मुस्लिम मतदाता और सिक्ख मतदाता अधिकतर अपने धर्म से सम्बन्धित उम्मीदवार को ही वोट डालते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल में भी धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

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प्रश्न 13.
भारतीय लोकतन्त्र पर जातिवाद का प्रभाव लिखिए।
अथवा
जातिवाद भारतीय लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर-
भारतीय समाज में जातिवाद की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। जातिवाद ने भारतीय लोकतन्त्र को निम्नलिखित ढंग से प्रभावित किया है-

  • चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
  • राजनीतिक दल विशेषकर क्षेत्रीय दल खुलेआम जाति का समर्थन करते हैं।
  • भारतीय राजनीति में जातिवाद ने राजनीतिक नेतृत्व को भी प्रभावित किया है।
  • मतदाता जातीय आधार पर मतदान करता है।

प्रश्न 14.
भारतीय लोकतन्त्र को आर्थिक असमानता किस प्रकार प्रभावित करती है?
अथवा
आर्थिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करती है ?
उत्तर-
लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी आर्थिक असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। भारत में एक तरफ करोड़पति पाए जाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय का भोजन भी नहीं मिलता। भारत में देश का धन थोड़े-से परिवारों के हाथों में ही केन्द्रित है। भारत में आर्थिक शक्ति का वितरण समान नहीं है। अमीर दिन-प्रतिदिन अधिक अमीर होते जातें हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब होते जाते हैं। आर्थिक असमानता ने लोकतन्त्र को भी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं। और प्रायः धनी व्यक्तियों को ही पार्टी का टिकट दिया जाता है। चुनावों में धन का बहुत अधिक महत्त्व है और धन के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता रहता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथों में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।

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प्रश्न 15.
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए चार ज़रूरी शर्तों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए निम्नलिखित तत्त्वों का होना आवश्यक है

  • जागरूक नागरिकता-जागरूक नागरिकता भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है। निरन्तर देखरेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है।
  • शिक्षित नागरिक-भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला हैं।
  • स्थानीय स्वशासन-भारतीय प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना अनिवार्य है। 4. नागरिकों के मन में प्रजातन्त्र के प्रति प्रेम होना चाहिए।

प्रश्न 16.
भारतीय लोकतन्त्र पर बेरोज़गारी के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र को बेरोज़गारी कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
बेरोज़गारी युवकों में क्रोध तथा निराशा को जन्म देती है। उनका यह क्रोध समाज विरुद्ध घृणा तथा हिंसा का रूप धारण करता है। भारत के कई भागों में फैली अशान्ति का मुख्य कारण युवकों की बेरोज़गारी है। स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षित व्यक्तियों की बेरोज़गारी में अधिक वृद्धि हुई है। यह बेरोज़गारी भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक गम्भीर चेतावनी है। जहां बेरोज़गारी के कारण लोगों की निर्धनता में वृद्धि हुई है, वहां युवकों का लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों अथवा लोकतन्त्रीय नैतिक मूल्यों से विश्वास समाप्त हो गया है। ऐसे अविश्वास के कारण ही भारतीय राजनीति में हिंसक साधनों का प्रयोग बढ़ रहा है। इस तरह बेरोज़गारी भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बनी हुई है।

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प्रश्न 17.
राजनीतिक एकरूपता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता राजनीतिक एकरूपता है। संसदीय सरकार में मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य प्रायः एक ही राजनीतिक दल से लिए जाते हैं। इसी कारण मन्त्रियों के विचारों में राजनीतिक एकरूपता पाई जाती है। मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं। यदि मन्त्रियों में किसी विषय पर विवाद भी हो जाता है तो उसे सार्वजनिक नहीं किया जाता अपितु मन्त्रिपरिषद् की बैठकों में सरलता से हल कर लिया जाता है। राजनीतिक एकरूपता के कारण शासन संचालन में आसानी रहती है। उल्लेखनीय है कि मिले-जुले मन्त्रिमण्डल में राजनीतिक एकरूपता की स्थापना करना कठिन होता है। परन्तु इस समस्या से निपटने के लिए विभिन्न दल एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम बना लेते हैं। इस कार्यक्रम के प्रति मन्त्रिपरिषद् के सदस्य एकरूप होते हैं।

प्रश्न 18.
राष्ट्रपति को नाममात्र का संवैधानिक प्रमुख (Constitutional Head) क्यों कहा जाता है?
अथवा भारत में नाममात्र कार्यपालिका के बारे में लिखो।
उत्तर-
भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संसदीय शासन प्रणाली में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का अध्यक्ष होता है, जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिपरिषद् होती है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को सौंपी गई हैं। लेकिन व्यावहारिक रूप से इन शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है। राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही इन शक्तियों का प्रयोग करता है। मन्त्रिपरिषद् की सलाह के बिना और सलाह के विरुद्ध वह किसी भी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता। संविधान के 42वें संशोधन द्वारा यह कहा गया है कि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य है। 44वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि मन्त्रिपरिषद् द्वारा जो सलाह दी जाएगी राष्ट्रपति उस सलाह को एक बार पुनर्विचार के लिए भेज सकता है। लेकिन यदि पुनर्विचार के बाद उसी सलाह को भेजा जाता है तो राष्ट्रपति उसे मानने के लिए बाध्य है। इस प्रकार राष्ट्रपति केवल एक संवैधानिक मुखिया है।

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प्रश्न 19.
भारत में वास्तविक कार्यपालिका के बारे में लिखिए।
अथवा
भारत में वास्तविक कार्यपालिका कौन है?
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार भारतीय संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति के पास हैं। परन्तु राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का मुखिया अथवा नाममात्र की कार्यपालिका है। जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिपरिषद् है। चाहे संवैधानिक रूप से समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को सौंप दी गई हैं परन्तु राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल की सलाह के बिना तथा सलाह के विरुद्ध राष्ट्रपति कोई कार्य नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने पर बाध्य है। व्यावहारिक रूप से मन्त्रिमण्डल ही सारे कार्य करता है। नीतियों के निर्माण से लेकर सामान्य प्रशासन तक का समस्त कार्य मन्त्रिमण्डल ही करता है। इसलिए मन्त्रिमण्डल ही वास्तविक कार्यपालिका है।

प्रश्न 20.
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए कोई चार सुझाव दीजिए।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के चार सुझाव निम्नलिखित हैं

  • शिक्षा का प्रसार-भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए शिक्षा का प्रसार करना अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति हिंसा के स्थान पर शान्तिपूर्ण और संवैधानिक साधनों को अपनाना अधिक पसन्द करता है।
  • आर्थिक समानता-भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए आर्थिक असमानता को दूर करके आर्थिक समानता स्थापित की जानी चाहिए। ग़रीबी को दूर करके हिंसा को कम किया जा सकता है।
  • धर्म-निरपेक्षता-साम्प्रदायिकता हिंसा को बढ़ावा देती है। अतः धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करके भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को कम किया जा सकता है। साम्प्रदायिक राजनीतिक संगठनों पर रोक लगा देनी चाहिए।
  • बेरोज़गारी को दूर करना आवश्यक है।

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प्रश्न 21.
भारत में संसदीय सरकार के लिए बहुदलीय प्रणाली किस प्रकार का खतरा है ?
उत्तर-
बहुदलीय प्रणाली निम्नलिखित प्रकार से भारत में संसदीय सरकार के लिए खतरा है-

  • बहुदलीय प्रणाली में बनी सरकार सदैव कमज़ोर रहती है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मज़बूत एवं सुदृढ़ विपक्षी दल का अभाव रहता है।
  • बहुदलीय प्रणाली में कई बार सरकार बनाने में कठिनाई पैदा हो जाती है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मज़बूत एवं सुदृढ़ विकल्प का सदैव अभाव रहता है।

प्रश्न 22.
साम्प्रदायिकता क्या है?
उत्तर-
साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म जाति के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्रों के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है।

ए० एच० मेरियम के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफ़ादारी की अभिवृति की ओर सकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”
के० पी० करुणाकरण के अनुसार, “भारत में साम्प्रदायिकता का अर्थ वह विचारधारा है जो किसी विशेष धार्मिक समुदाय या जाति के सदस्यों के हितों के विकास का समर्थन करती है।”

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प्रश्न 23.
राजनीतिक हिंसा लोकतन्त्र के लिए खतरा कैसे है?
अथवा
भारतीय लोकतंत्र पर राजनैतिक हिंसा के कोई चार प्रभाव लिखिए।
उत्तर-

  • लोकतन्त्रीय संस्थाएं हिंसा के भय के वातावरण में कार्य करती हैं। ऐसे वातावरण में चुनाव अवश्य होते हैं, परन्तु इसमें मतदाता अपनी इच्छानुसार मतदान नहीं करते हैं।
  • हिंसा को रोकने के लिए सरकार को पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों पर बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ता है। यह खर्च राष्ट्रीय कोष पर बोझ बनता है जिस कारण सरकार अपनी विकास नीतियों का कार्य पूरा नहीं कर पाती है।
  • हिंसा सत्य की आवाज़ का दुश्मन है। कई राजनीतिक नेता हिंसा के कारण अपनी इच्छा को लोगों के सामने प्रकट नहीं कर पाते हैं जिस कारण सरकार की गतिविधियों की जानकारी लोगों को स्पष्ट रूप से नहीं मिल पाती है।
  • राजनीतिक हिंसा के कारण लोग राजनीति से दूर रहते हैं।

प्रश्न 24.
राजनैतिक हिंसा बढ़ने के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर-
राजनीतिक हिंसा बढ़ती जा रही है। इसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं-

  1. चुनावों के समय की जाने वाली रैलियों, सभाओं आदि में राजनीतिक नेता एक-दूसरे पर गम्भीर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं जिससे हिंसा भड़कती है।
  2. चुनावों के दौरान अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उन्मादी नारेबाजी की जाती है जिससे हिंसक घटनाएं होती हैं।
  3. राजनीतिक नेताओं द्वारा चुनाव जीतने के लिए हथियारबंद लोगों और पेशेवर अपराधियों का प्रयोग किया जाता है। ये लोग हिंसा भड़काने का कार्य करते हैं। .
  4. क्षेत्रवादी प्रवृत्तियों के कारण भी राजनीतिक हिंसा बढ़ी है।

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प्रश्न 25.
जनजीवन में बढ़ रही हिंसा को कैसे रोका जा सकता है ?
अथवा
सार्वजनिक जीवन में बढ़ रही हिंसा को कैसे रोका जा सकता है?
उत्तर-
जनजीवन में बढ़ रही हिंसा को निम्नलिखित ढंग से रोका जा सकता है-

  • शिक्षा का प्रसार-हिंसा के न्यूनीकरण के लिए शिक्षा का प्रसार करना अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति हिंसा के स्थान पर शान्तिपूर्ण और संवैधानिक साधनों को अपनाना अधिक पसन्द करता है।
  • आर्थिक समानता-हिंसा के न्यूनीकरण के लिए आर्थिक असमानता को दूर करके आर्थिक समानता स्थापित की जानी चाहिए। ग़रीबी को दूर करके हिंसा को कम किया जाता है।
  • धर्म-निरपेक्षता-साम्प्रदायिकता हिंसा को बढ़ावा देती है। अतः धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करके राजनीति में हिंसा को कम किया जाता है।
  • क्षेत्रीय असन्तुलन को समाप्त किया जाना चाहिए।

प्रश्न 26.
राजनीतिक दल-बदली भारतीय संसदीय सरकार के लिए किस प्रकार से खतरा है ?
उत्तर-

  • राजनीतिक दल-बदली से राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है।
  • राजनीतिक दल-बदली अवसरवाद की राजनीति को बढ़ावा देती है।
  • राजनीतिक दल-बदली से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  • राजनीतिक दल-बदली से मतदाताओं का विश्वास संसदीय शासन प्रणाली में कम होता है।

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प्रश्न 27.
भाषावाद ने भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-

  • भाषावाद ने राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को नुकसान पहुंचाया है।
  • सन् 1956 में राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया गया था। ।
  • भाषा के आधार पर ही लोगों में क्षेत्रवाद की भावना का विकास हुआ है।
  • भाषायी आधार पर राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली का अर्थ लिखें।
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

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प्रश्न 2.
संसदीय सरकार की दो विशेषताएं बताइएं।
उत्तर-

  • प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-संसदीय सरकार में कार्यपालिका का असली मुखिया प्रधानमन्त्री होता है। राजा या राष्ट्रपति कार्यपालिका का नाम मात्र का मुखिया होता है। प्रशासन की वास्तविक शक्तियां प्रधानमन्त्री के पास होती हैं।
  • कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी-मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 3.
भारतीय संसदीय प्रणाली की दो मुख्य विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद-राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान में कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध-मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं।

प्रश्न 4.
भारतीय लोकतन्त्र की दो मुख्य समस्याएं लिखो।
उत्तर-

  1. सामाजिक असमानता- भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामाजिक असमानता है। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है।
  2. ग़रीबी-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब व्यक्ति के पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो दूर, ऐसा सोच भी नहीं सकता।

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प्रश्न 5.
ग़रीबी के भारतीय लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। ग़रीब व्यक्ति सदा अपना पेट भरने की चिन्ता में लगा रहता है और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा।
  2. ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात, वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता। ग़रीब नागरिक वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। वह अपने मालिकों के विरुद्ध मतदान नहीं कर सकता। ग़रीब व्यक्ति अपने वोट को बेच डालता है।

प्रश्न 6.
भ्रष्टाचार के लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के नैतिक चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।
  2. भ्रष्टाचार के कारण ईमानदार एवं गरीब व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाते।

प्रश्न 7.
आर्थिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
भारत में बहुत अधिक आर्थिक असमानता पायी जाती है। आर्थिक असमानता ने भारतीय लोकतन्त्र को काफ़ी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं और प्रायः धनी व्यक्तियों को ही चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के टिकट दिए जाते हैं। चुनावों में धन का बहुत महत्त्व है और धन-बल पर तो चुनाव भी जीते जाते हैं।

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प्रश्न 8.
जातिवाद लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करता है ?
उत्तर-

  • चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
  • राजनीतिक दल विशेषकर क्षेत्रीय दल खुलेआम जाति का समर्थन करते हैं।

प्रश्न 9.
भारत में लोकतन्त्र की सफलता के लिए किन्हीं दो ज़रूरी शर्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. जागरूक नागरिकता-जागरूक नागरिकता भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है। निरन्तर देख-रेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है।
  2. शिक्षित नागरिक-भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला हैं।

प्रश्न 10.
साम्प्रदायिकता के भारतीय लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  2. चुनावों में प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1.
भारत में संसदीय सरकार की कोई एक विशेषता लिखो।
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली की एक विशेषता लिखो।
उत्तर-
भारत में कार्यपालिका एवं विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।

प्रश्न 2.
भारत में नाममात्र कार्यपालिका का अध्यक्ष कौन है ?
उत्तर-
भारत में नाममात्र कार्यपालिका अध्यक्ष राष्ट्रपति है।

प्रश्न 3.
भारत द्वारा संसदीय प्रणाली के चुनाव करने का एक कारण लिखो।
उत्तर-
भारत में संसदीय प्रणाली पहले से ही प्रचलित थी। इसी कारण राजनीतिज्ञों ने इसका समर्थन किया।

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प्रश्न 4.
भारतीय संसदीय प्रणाली का एक दोष लिखो।
उत्तर-
भारत में अच्छी संसदीय परम्पराओं का अभाव है।

प्रश्न 5.
राजनीतिक एकरूपता से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राजनीतिक एकरूपता से अभिप्राय यह है कि मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य प्रायः एक ही राजनीतिक दल से लिये जाते हैं।

प्रश्न 6.
सामाजिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र के लिए किस प्रकार समस्या है?
उत्तर-
सामाजिक रूप से दबे लोग राजनीति में क्रियाशील भूमिका नहीं निभाते।

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प्रश्न 7.
सामूहिक उत्तरदायित्व से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। मन्त्रिपरिषद् एक इकाई की तरह काम करती है और यदि विधानपालिका किसी एक मन्त्रि के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो सब मन्त्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ता है।

प्रश्न 8.
भारतीय लोकतन्त्र को गरीबी कैसे प्रभावित करती है ?
अथवा
गरीबी का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
गरीब व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाते।

प्रश्न 9.
भारत में बेरोज़गारी ने लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-
बेरोज़गार व्यक्ति सफल मतदाता की भूमिका नहीं निभा सकता।

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प्रश्न 10.
संसदीय शासन प्रणाली में लोकसभा को कौन किसके कहने पर भंग कर सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति लोकसभा को प्रधानमन्त्री (मन्त्रिपरिषद्) के कहने पर भंग कर सकता है।

प्रश्न 11.
संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल को कौन भंग (स्थगित) कर सकता है ?
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल को प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति भंग कर सकता है।

प्रश्न 12.
कानून के शासन से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कानून के शासन का अर्थ है देश में कानून सर्वोच्च है और कानून से ऊपर कोई नहीं है।

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प्रश्न 13.
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व से अभिप्राय यह है, कि प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग का व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 14.
भारत में असली कार्यपालिका कौन है ?
उत्तर-
भारत में असली कार्यपालिका प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिमण्डल है।

प्रश्न 15.
भ्रष्टाचार का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
भ्रष्टाचार के कारण भारतीय लोकतन्त्र में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है।

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प्रश्न 16.
भारत में अब तक कितने लोक सभा चुनाव हो चुके हैं ?
उत्तर-
भारत में अब तक लोकसभा के 16 आम चुनाव हो चुके हैं।

प्रश्न 17.
आर्थिक असमानता का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
राजनीतिक शक्ति पूंजीपतियों के हाथों में केन्द्रित होकर रह गई है।

प्रश्न 18.
भारतीय लोकतन्त्र को जातिवाद कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर-
चुनावों में जाति के नाम पर लोगों से वोट मांगें जाते हैं।

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प्रश्न 19.
भारतीय लोकतन्त्र पर साम्प्रदायिकता का क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
भारत में साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं।

प्रश्न 20.
भारत में निरक्षरता का मुख्य कारण क्या है ?
उत्तर-
भारत में निरक्षरता का मुख्य कारण बढ़ती हुई जनसंख्या एवं निर्धनता है।

प्रश्न 21.
भारत में लोकतन्त्र का भविष्य क्या है ?
उत्तर-
भारत में लोकतन्त्र का भविष्य उज्ज्वल है।

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प्रश्न 22.
भारत में अनपढ़ता ने लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित किया है ?
अथवा
अनपढ़ता का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
अनपढ़ व्यक्ति अपने मत का उचित प्रयोग नहीं कर सकता। प्रश्न 23. भारत में सर्वोच्च शक्ति किसके पास है ? उत्तर-भारत में सर्वोच्च शक्ति जनता के पास है।

प्रश्न 24.
क्षेत्रवाद के कौन-से दो पहलू हैं ?
उत्तर-

  1. राजनीतिक पहलू
  2. आर्थिक पहलू।

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प्रश्न 25.
जाति हिंसा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
अन्तर्जातीय हिंसा को जाति हिंसा कहा जाता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् ……………. की स्थापना की गई।
2. भारत में …………… शासन प्रणाली पाई जाती है।
3. भारत में ………….. वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।
4. भारत में ………….. संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
5. सैय्यद काज़ी एवं शिब्बन लाल सक्सेना ने संविधान सभा में ……………लोकतंत्र की जोरदार वकालत की।
उत्तर-

  1. प्रजातन्त्र
  2. संसदीय
  3. 18
  4. 61वें
  5. अध्यक्षात्मक ।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें

1. संसदीय शासन प्रणाली में उत्तरदायित्व का अभाव पाया जाता है।
2. प्रधानमंत्री लोकसभा को भंग नहीं करवा सकता।
3. संविधान के 86वें संशोधन द्वारा, अनुच्छेद 21-A मुफ्त व ज़रूरी शिक्षा का प्रबन्ध करती है।
4. 2014 के लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी दल की मान्यता प्रदान की गई।
5. भारत में राजनीतिक अपराधीकरण बढ़ता ही जा रहा है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय लोकतंत्र के समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियां हैं ?
(क) ग़रीबी
(ख) अनपढ़ता
(ग) बेकारी
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
आर्थिक असमानता को कम करने के लिए क्या करना चाहिए ?
(क) पंचवर्षीय योजनाएं लागू की जानी चाहिएं
(ख) आर्थिक सुधार से संबंधित कार्यक्रम लागू किये जाने चाहिएं
(ग) सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किये जाने चाहिएं
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से एक भारत में ग़रीबी का कारण है-
(क) विशाल जनसंख्या
(ख) शिक्षा
(ग) विकास
(घ) जागरूकता।
उत्तर-
(क) विशाल जनसंख्या

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “स्वतंत्रता के पश्चात् राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले की अपेक्षा बढ़ा है
(क) मोरिस जोन्स
(ख) रजनी कोठारी
(ग) डॉ० बी० आर० अंबेडकर
(घ) वी० के० आर० मेनन।
उत्तर-
(घ) वी० के० आर० मेनन।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्मTextbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बुद्ध धर्म के उद्भव के समय इसकी धार्मिक परिस्थितियों की चर्चा करें।
(Discuss the contemporary religious conditions of Buddhism at the time of its origin.)
अथवा
उन कारणों का संक्षेप वर्णन कीजिए जो बौद्ध धर्म के उद्भव के लिए उत्तरदायी थे।
(Give a brief account of those factors which led to the birth of Buddhism.)
उत्तर-
छठी शताब्दी ई०पू० में भारत के हिंदू समाज एवं धर्म में अनेक अंध-विश्वास तथा कर्मकांड प्रचलित थे। पुरोहित वर्ग ने अपने स्वार्थी हितों के कारण हिंदू धर्म को अधिक जटिल बना दिया था। अतः सामान्यजन इस धर्म के विरुद्ध हो गए थे। इन परिस्थितियों में भारत में कुछ नए धर्मों का जन्म हुआ। इनमें से बौद्ध धर्म सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे। इस धर्म के उद्भव के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है:—

1. हिंदू धर्म में जटिलता (Complexity in the Hindu Religion)-ऋग्वैदिक काल में हिंदू धर्म बिल्कुल सादा था। परंतु कालांतर में यह धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसमें अंध-विश्वासों और कर्मकांडों का बोलबाला हो गया। यह धर्म केवल एक बाहरी दिखावा मात्र बनता जा रहा था। उपनिषदों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों का दर्शन साधारण लोगों की समझ से बाहर था। लोग इस तरह के धर्म से तंग आ चुके थे। वे एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जो अंध-विश्वासों से रहित हो और उनको सादा जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दे सके। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० सतीश के० कपूर के शब्दों में,
“हिंदू समाज ने अपना प्राचीन गौरव खो दिया था और यह अनगिनत कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों से ग्रस्त था।”1

2. खर्चीला धर्म (Expensive Religion)-आरंभ में हिंदू धर्म अपनी सादगी के कारण लोगों में अत्यंत प्रिय था। उत्तर वैदिक काल के पश्चात् इसकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया। यह अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसका कारण यह था कि अब हिंदू धर्म में यज्ञों और बलियों पर अधिक जोर दिया जाने लगा था। ये यज्ञ कईकई वर्षों तक चलते रहते थे। इन यज्ञों पर भारी खर्च आता था। ब्राह्मणों को भी भारी दान देना पड़ता थ। इन यज्ञों के अतिरिक्त अनेक ऐसे रीति-रिवाज प्रचलित थे, जिनमें ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर भी लोगों को काफी धन खर्च करना पड़ता था। इस तरह के खर्च लोगों की पहुँच से बाहर थे। परिणामस्वरूप वे इस धर्म के विरुद्ध हो गए।

3. ब्राह्मणों का नैतिक पतन (Moral Degeneration of the Brahmanas)-वैदिक काल में ब्राह्मणों का जीवन बहुत पवित्र और आदर्शपूर्ण था। समय के साथ-साथ उनका नैतिक पतन होना शुरू हो गया। वे भ्रष्टाचारी, लालची तथा धोखेबाज़ बन गए थे। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साधारण लोगों को किसी न किसी बहाने मूर्ख बना कर उनसे अधिक धन बटोरने में लगे रहते थे। इसके अतिरिक्त अब उन्होंने भोग-विलासी जीवन व्यतीत करना आरंभ कर दिया था। इन्हीं कारणों से लोग समाज में ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे।

4. जाति-प्रथा (Caste System)-छठी शताब्दी ई० पू० तक भारतीय समाज में जाति-प्रथा ने कठोर रूप धारण कर लिया था। ऊँची जातियों के लोग जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करते थे। वे उनकी परछाईं मात्र पड़ जाने से स्वयं को अपवित्र समझने लगते थे। शूद्रों को मंदिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने आदि की आज्ञा नहीं थी। ऐसी परिस्थिति से तंग आकर शूद्र किसी अन्य धर्म के पक्ष में हिंदू धर्म छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

5. कठिन भाषा (Difficult Language)-संस्कृत भाषा के कारण भी इस युग के लोगों में बेचैनी बढ़ गई थी। इस भाषा को बहुत पवित्र माना जाता था, परंतु कठिन होने के कारण यह साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे-वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे। साधारण लोग इन धर्मशास्त्रों को पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठा कर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरू कर दी। अतः धर्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जिसके सिद्धांत जन-साधारण की भाषा में हों।

6. जादू-टोनों में विश्वास (Belief in Charms and Spells)-छठी शताब्दी ई० पू० में लोग बहुत अंधविश्वासी हो गए थे। वे भूत-प्रेतों तथा जादू-टोनों में अधिक विश्वास करने लगे थे। उनका विचार था कि जादूटोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। जागरूक व्यक्ति समाज को ऐसे अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी नए धर्म की राह देखने लगे।

7. महापुरुषों का जन्म (Birth of Great Personalities)-छठी शताब्दी ई० पू० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। उन्होंने अंधकार में भटकं रही मानवता को एक नया मार्ग दिखाया। इनमें महावीर तथा महात्मा बुद्ध के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी सरल शिक्षाओं से प्रभावित होकर बहु-संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गए थे। इन्होंने बाद में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का उल्लेख करते हुए बी० पी० शाह
और के० एस० बहेरा लिखते हैं,
“वास्तव में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के उदय ने लोगों में एक नया उत्साह भर दिया और उनके सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया।”2

  1. “ The Hindu society had lost its splendour and was plagued with multifarious rituals and superstitions.” Dr. Satish K. Kapoor, The Legacy of Buddha (Chandigarh: The Tribune : April 4, 1977) p. 5.
  2. “In fact, birth of Jainism and Buddhism gave a new impetus to the people and significantly moulded social and religious life.” B.P. Saha and K.S. Behera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p. 107.

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म के संस्थापक के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the life of founder of Buddhism ?)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Lord Buddha.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध धर्म के प्रारंभ के बारे प्रकाश डालें।
(Throw light on the life of Mahatma Buddha and the origin of Buddhism.)
उत्तर-
Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म 1
LORD BUDDHA

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parents)-महात्मा बुद्ध का जन्म न केवल भारत अपितु समस्त संसार के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी। उनकी जन्म तिथि के संबंध में इतिहासकारों में काफी मतभेद प्रचलित रहे। अधिकाँश इतिहासकार 566 ई०पू० को महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि स्वीकार करते हैं। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था। शुद्धोदन क्षत्रिय वंश से संबंधित था तथा वह नेपाल की तराई में स्थित एक छोटे से गणराज्य का शासक था। इस गणराज्य की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था। शुद्धोदन की दो रानियाँ थीं। इनके नाम महामाया अथवा महादेवी एवं प्रजापति गौतमी थे। ये दोनों बहनें थीं तथा कोलिय गणराज्य की राजकुमारियाँ थीं। महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम महामाया था।
महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक नाम सिद्धार्थ था। इस समय राज्य ज्योतिषी आसित ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो संसार का एक महान् सम्राट् बनेगा या एक महान् धार्मिक नेता। दुर्भाग्यवश सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद उसकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति गौतमी ने किया। इस कारण सिद्धार्थ को गौतम भी कहा जाने लगा।

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2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-सिद्धार्थ का पालन-पोषण बहुत लाड-प्यार से हुआ था। उन्हें विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के उचित प्रबंध किए गए। बाल्यावस्था में ही सिद्धार्थ चिंतनशील एवं कोमल स्वभाव के थे। वह बहुधा एकांत में रहना पसंद करते थे। यह देखकर उनके पिता को चिंता हुई। वह सिद्धार्थ का ध्यान आध्यात्मिक विचारों से हटाना चाहते थे ताकि उसका पुत्र एक महान् सम्राट बने। इस उद्देश्य से सिद्धार्थ के भोग-विलास के लिए राजमहल में यथासंभव प्रबंध किए गए। किंतु इन सब राजसी सुखों का सिद्धार्थ के मन पर कोई प्रभाव न पड़ा। जब सिद्धार्थ की आयु 16 वर्ष की हुई तो उनका विवाह एक अति सुंदर राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया। कुछ समय के पश्चात् उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल (बंधन) रखा गया। गृहस्थ जीवन भी सिद्धार्थ को सांसारिक कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर सका।

3. चार महान् दृश्य तथा महान् त्याग (Four Major Sights and Great Renunciation)-यद्यपि सिद्धार्थ को अति सुंदर महलों में रखा गया था किंतु उनका मन बाहरी संसार को देखने के लिए व्याकुल था। एक दिन वे अपने सारथी चन्न को लेकर राजमहल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। मानव जीवन के इन विभिन्न दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा। उन्होंने यह जान लिया कि संसार दुःखों का घर है। अत: सिद्धार्थ ने गृह-त्याग का निश्चय किया तथा एक रात अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोते हुए छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महान् स्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी।

4. ज्ञान की प्राप्ति (Enlightenment)-गृह त्याग करने के पश्चात् सिद्धार्थ ने सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न.हुई। अत: सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाड़ियों को लांघ अंत गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छ: वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका । वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। अतः सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथा तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

5. धर्म प्रचार (Religious Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने पीड़ित मानवता के उद्धार के लिए अपने ज्ञान का प्रचार करने का संकल्प लिया। वह सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुँचे । यहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश अपने उन पाँच साथियों को दिया जो गया में उनका साथ छोड़ गए थे। ये सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। शीघ्र ही महात्मा बुद्ध का यश चारों ओर फैलने लगा तथा उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का संगठित ढंग से प्रचार करने के उद्देश्य से मगध में बौद्ध संघ की स्थापना की । महात्मा बुद्ध ने 45 वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर जाकर अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके सरल उपदेशों का लोगों के मनों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बुद्ध के अनुयायी बनते चले गए। महात्मा बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायियों में मगध के शासक बिंबिसार तथा उसका पुत्र अजातशत्रु, कोशल का शासक प्रसेनजित, उसकी रानी मल्लिका तथा वहाँ का प्रसिद्ध सेठ अनाथपिंडिक, मल्ल गणराज्य का शासक भद्रिक तथा वहाँ का प्रसिद्ध ब्राह्मण आनंद, कौशांबी का शासक उदयन, वैशाली की प्रसिद्ध वेश्या आम्रपाली तथा कपिलवस्तु के शासक शुद्धोदन (बुद्ध के पिता), उसकी रानी प्रजापती गौतमी, महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा तथा उनके पुत्र राहुल के नाम उल्लेखनीय हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने परम शिष्य आनंद के आग्रह पर स्त्रियों को भी बौद्ध संघ में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दी।

6. महापरिनिर्वाण ( Mahaparnirvana)-महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा भटकी हुई मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। अपने जीवन के अंतिम काल में जब वह पावा पहुंचे तो उन्होंने वहां एक स्वर्णकार के घर भोजन किया। इसके पश्चात् उन्हें पेचिश हो गया। यहां से महात्मा बुद्ध कुशीनगर (मल्ल गणराज्य की राजधानी) पहुँचे। यहाँ 80 वर्ष की आयु में 486 ई० पू० में वैशाख की पूर्णिमा को अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the basic teachings of Lord Buddha.)
अथवा
बौद्ध धर्म की नैतिक शिक्षाओं के बारे चर्चा करें।
(Discuss the Ethical teachings of Buddhism.)“
अथवा
बौद्ध मत की मूल शिक्षाएँ बताएँ।
(Explain the basic teachings of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ क्या हैं ?
(What are the main teachings of Buddhism ?)
अथवा
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the teachings of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उन्होंने लोगों को सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने लोगों को यह बताया कि संसार दुःखों का घर है तथा केवल अष्ट मार्ग पर चल कर ही कोई व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की प्रचलित भाषा पाली में किया। उन्होंने किसी जटिल दर्शन का प्रचार नहीं किया। यही कारण था कि उनकी शिक्षाओं ने लोगों के मनों पर जादुई प्रभाव डाला तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए।

1. चार महान् सत्य (Four Noble Truths)-महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का सार चार महान् सत्य थे। इन्हें आर्य सत्य भी कहा जाता है क्योंकि यह सच्चाई पर आधारित हैं। ये चार महान् सत्य अग्र हैं—

  • संसार दुःखों से भरा हुआ है (World is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रथम सत्य यह है कि संसार दुःखों से भरा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव के जीवन में दुःख हैं। जन्म, बीमारी, वृद्धावस्था, अमीरी, गरीबी, अधिक संतान, नि:संतान तथा मृत्यु आदि सभी दुःख का कारण हैं।
  • दुःखों का कारण है (There is a cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध का दूसरा सत्य यह है कि दुःखों का कारण है। यह कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं। इन इच्छाओं के कारण मनुष्य आवागमन के चक्कर में भटकता रहता है।
  • दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)- महात्मा बुद्ध का तीसरा सत्य है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। यह अंत इच्छाओं का त्याग करने से हो सकता है।
  • दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध का चतुर्थ सत्य यह है कि दुःखों का अंत करने का केवल एक मार्ग है। इस मार्ग को अष्ट मार्ग अथवा मध्य मार्ग कहा जाता है। इस मार्ग पर चल कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। प्रसिद्ध विद्वान् जे० पी० सुधा के शब्दों में,

” महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचलित चार महान् सत्य उसकी शिक्षाओं का सार हैं। ये मानव जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं के बारे में उसके (बुद्ध) गहन् तथा दृढ़ विश्वास को बताते हैं।”3

3. “ The Four Noble Truths expounded by the Master constitute the core of his teachings. They contain his deepest and most considered convictions about human life and its problems.” J. P. Suda, Religions in India (New Delhi : 1978)p. 82.

2. अष्ट मार्ग (Eightfold Path)- महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है क्योंकि यह कठोर तप तथा ऐश्वर्य के मध्य का मार्ग था। अष्ट मार्ग के सिद्धांत निम्नलिखित थे—

  • सत्य कर्म (Right Action)–मनुष्य के कर्म शुद्ध होने चाहिएँ। उसे चोरी, ऐश्वर्य तथा जीव हत्या से दूर रहना चाहिए। उसे समस्त मानवता से प्रेम करना चाहिए।
  • सत्य विचार (Right Thought)-सभी मनुष्यों के विचार सत्य होने चाहिएँ। उन्हें सांसारिक बुराइयों तथा व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों से दूर रहना चाहिए।
  • सत्य विश्वास (Right Belief)-मनुष्य को यह सच्चा विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का त्याग करने से दुःखों का अंत हो सकता है। उन्हें अष्ट मार्ग से भटकना नहीं चाहिए।
  • सत्य रहन-सहन (Right Living)-सभी मनुष्यों का रहन-सहन सत्य होना चाहिए। उन्हें किसी से हेरा-फेरी नहीं करनी चाहिए।
  • सत्य वचन (Right Speech)-मनुष्य के वचन पवित्र तथा मृदु होने चाहिएँ। उसे किसी की निंदा अथवा चुगली नहीं करनी चाहिए तथा सदा सत्य बोलना चाहिए।
  • सत्य प्रयत्न (Right Efforts)- मनुष्य को बुरे कर्मों के दमन तथा दूसरों के कल्याण हेतु सत्य प्रयत्न करने चाहिएँ।
  • सत्य ध्यान (Right Recollection)-मनुष्य को अपना ध्यान पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।
  • सत्य समाधि (Right Meditation)- मनुष्य को बुराइयों का ध्यान छोड़कर सत्य समाधि में लीन होना चाहिए। डॉ० एस० बी० शास्त्री के अनुसार,

“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध शिक्षाओं का निष्कर्ष है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर, सकता है।”4

4. “This noble eightfold path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S. B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

3. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)-महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जैसे वह कार्य करता है. वैसा ही वह फल भोगता है। हमें पूर्व कर्मों का फल इस जन्म में मिला है तथा वर्तमान कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। जिस प्रकार मनुष्य की परछाईं सदैव उसके साथ रहती है ठीक उसी प्रकार कर्म मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते । महात्मा बुद्ध का कथन था, “व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम से न तो आकाश में, न समुद्र में तथा न ही किसी पर्वत की गुफा में बच सकता है।”
4. पुनर्जन्म में विश्वास (Belief in Rebirth)~महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था कि मनुष्य अपने कर्मों के कारण पुनः जन्म लेता रहता है। पुनर्जन्म का यह प्रवाह तब तक निरंतर चलता रहता है जब तक मनुष्य की तृष्णा तथा वासना समाप्त नहीं हो जाती। जिस प्रकार तेल तथा बत्ती के जल जाने से दीपक अपने आप शांत हो जाता है उसी प्रकार वासना के अंत से मनुष्य कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है तथा उसे परम शांति प्राप्त हो जाती है।
5. अहिंसा (Ahimsa)-महात्मा बुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य को सभी जीवों अर्थात् मनुष्यों, पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं से प्रेम तथा सहानुभूति रखनी चाहिए। वह जीव हत्या तो दूर, उन्हें सताना भी पाप समझते थे। इसलिए उन्होंने जीव हत्या करने वालों के विरुद्ध प्रचार किया।
6. तीन लक्षण (Three Marks)- महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में एक तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है, ये तीन लक्षण हैं—

  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थाई नहीं (अनित) हैं ।
  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं।

यह हमारे राजाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि ( अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होगा। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

7. पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  • छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  • मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  • झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  • नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  • किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  • समय पर भोजन खाएं
  • नाच-गानों आदि से दूर रहें
  • नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  • हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  • सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

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8. चार असीम सद्गुण (Four Unlimited Virtues)-महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं । मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है । यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से इर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

9. परस्पर भ्रातृ-भाव (Universal Brotherhood)-महात्मा बुद्ध ने लोगों को परस्पर भातृ-भाव का उपदेश दिया। वह चाहते थे कि लोग परस्पर झगड़ों को छोड़कर प्रेमपूर्वक रहें। उनका विचार था कि संसार में घृणा का अंत प्रेम से किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक वर्ण तथा जाति के लोगों को सम्मिलित करके समाज में प्रचलित ऊँच-नीच की भावना को पर्याप्त सीमा तक दूर किया। महात्मा बुद्ध ने दु:खी तथा रोगी व्यक्तियों की अपने हाथों सेवा करके लोगों के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत की।

10. यज्ञों तथा बलियों में अविश्वास (Disbelief in Yajnas and Sacrifices)- उस समय हिंदू धर्म में अनेक अंधविश्वास प्रचलित थे। वे मुक्ति प्राप्त करने के लिए यज्ञों तथा बलियों पर बहुत बल देते थे। महात्मा बुद्ध ने इन अंधविश्वासों को ढोंग मात्र बताया। उसका कथन था कि यज्ञों के साथ किसी व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदला जा सकता तथा बलियाँ देने से मनुष्य अपने पापों में अधिक वृद्धि कर लेता है। अतः इनसे किसी देवी-देवता को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।

11. वेदों तथा संस्कृत में अविश्वास (Disbelief in Vedas and Sanskrit)-महात्मा बुद्ध ने वेदों की पवित्रता को स्वीकार न किया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि धर्म ग्रंथों को केवल संस्कृत भाषा में पढ़ने से ही फल की प्राप्ति होती है। उन्होंने अपना प्रचार जन-भाषा पाली में किया।

12. जाति प्रथा में अविश्वास (Disbelief in Caste System)-महात्मा बुद्ध ने हिंदू समाज में व्याप्त जाति प्रथा का कड़े शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार छोटा अथवा बड़ा हो सकता है न कि जन्म से। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक जाति के लोगों को सम्मिलित किया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “सभी देशों में जाओ और धर्म के संदेश प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाओ और कहो कि इस धर्म में छोटे-बड़े और धनवान् तथा निर्धन का कोई प्रश्न नहीं। बौद्ध धर्म सभी जातियों के लिए खुला है। सभी जातियों के लोग इसमें इसी प्रकार मिल सकते हैं जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं।”

13. तपस्या में अविश्वास (Disbelief in Penance)-महात्मा बुद्ध का कठोर तपस्या में विश्वास नहीं था। उनके अनुसार व्यर्थ ही भूखा-प्यासा रह कर शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने स्वयं भी 6 वर्ष तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया था परंतु कुछ प्राप्ति न हुई। वह समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए अष्ट मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।

14. ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)-महात्मा बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं था। उनका कथन था कि इस संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति के द्वारा नहीं की गई है। परंतु वह यह अवश्य मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध ईश्वर संबंधी किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि जिन विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त प्रमाण न हों उनके समाधान की चेष्टा करना व्यर्थ है।

15. निर्वाण (Nirvana) महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद तथा शाँति की प्राप्ति हो जाती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदैव मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। वास्तव में निर्वाण वह अवस्था है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो इस सच्चाई का अनुभव करते हैं वे इस संबंध में बात नहीं करते हैं तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मों में जहाँ निर्वाण मृत्यु के उपरांत प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं ने अंधकार में भटक रही मानवता के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य किया। अंत में हम डॉ० बी० जिनानंदा के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वास्तव में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं एक ओर प्रेम और दूसरी ओर तर्क पर आधारित थीं।”5

5. “In fact, the Buddha’s teachings were based on love on the one hand and on logic on the other.” Dr. B. Jinananda, Buddhism (Patiala : 1969) p. 86.

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के जीवन तथा शिक्षाओं का वर्णन करें।
(Describe the life and teachings of Mahatma Buddha.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं की चर्चा करें।
(Discuss the life and teachings of Mahatma Buddha.)
उत्तर-

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parents)-महात्मा बुद्ध का जन्म न केवल भारत अपितु समस्त संसार के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी। उनकी जन्म तिथि के संबंध में इतिहासकारों में काफी मतभेद प्रचलित रहे। अधिकाँश इतिहासकार 566 ई०पू० को महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि स्वीकार करते हैं। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था। शुद्धोदन क्षत्रिय वंश से संबंधित था तथा वह नेपाल की तराई में स्थित एक छोटे से गणराज्य का शासक था। इस गणराज्य की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था। शुद्धोदन की दो रानियाँ थीं। इनके नाम महामाया अथवा महादेवी एवं प्रजापति गौतमी थे। ये दोनों बहनें थीं तथा कोलिय गणराज्य की राजकुमारियाँ थीं। महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम महामाया था।

महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक नाम सिद्धार्थ था। इस समय राज्य ज्योतिषी आसित ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो संसार का एक महान् सम्राट् बनेगा या एक महान् धार्मिक नेता। दुर्भाग्यवश सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद उसकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति गौतमी ने किया। इस कारण सिद्धार्थ को गौतम भी कहा जाने लगा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-सिद्धार्थ का पालन-पोषण बहुत लाड-प्यार से हुआ था। उन्हें विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के उचित प्रबंध किए गए। बाल्यावस्था में ही सिद्धार्थ चिंतनशील एवं कोमल स्वभाव के थे। वह बहुधा एकांत में रहना पसंद करते थे। यह देखकर उनके पिता को चिंता हुई। वह सिद्धार्थ का ध्यान आध्यात्मिक विचारों से हटाना चाहते थे ताकि उसका पुत्र एक महान् सम्राट बने। इस उद्देश्य से सिद्धार्थ के भोग-विलास के लिए राजमहल में यथासंभव प्रबंध किए गए। किंतु इन सब राजसी सुखों का सिद्धार्थ के मन पर कोई प्रभाव न पड़ा। जब सिद्धार्थ की आयु 16 वर्ष की हुई तो उनका विवाह एक अति सुंदर राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया। कुछ समय के पश्चात् उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल (बंधन) रखा गया। गृहस्थ जीवन भी सिद्धार्थ को सांसारिक कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर सका।

3. चार महान् दृश्य तथा महान् त्याग (Four Major Sights and Great Renunciation)-यद्यपि सिद्धार्थ को अति सुंदर महलों में रखा गया था किंतु उनका मन बाहरी संसार को देखने के लिए व्याकुल था। एक दिन वे अपने सारथी चन्न को लेकर राजमहल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। मानव जीवन के इन विभिन्न दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा। उन्होंने यह जान लिया कि संसार दुःखों का घर है। अत: सिद्धार्थ ने गृह-त्याग का निश्चय किया तथा एक रात अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोते हुए छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महान् स्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी।

4. ज्ञान की प्राप्ति (Enlightenment)-गृह त्याग करने के पश्चात् सिद्धार्थ ने सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न.हुई। अत: सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाड़ियों को लांघ अंत गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छ: वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका । वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। अतः सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथा तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

5. धर्म प्रचार (Religious Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने पीड़ित मानवता के उद्धार के लिए अपने ज्ञान का प्रचार करने का संकल्प लिया। वह सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुँचे । यहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश अपने उन पाँच साथियों को दिया जो गया में उनका साथ छोड़ गए थे। ये सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। शीघ्र ही महात्मा बुद्ध का यश चारों ओर फैलने लगा तथा उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का संगठित ढंग से प्रचार करने के उद्देश्य से मगध में बौद्ध संघ की स्थापना की । महात्मा बुद्ध ने 45 वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर जाकर अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके सरल उपदेशों का लोगों के मनों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बुद्ध के अनुयायी बनते चले गए। महात्मा बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायियों में मगध के शासक बिंबिसार तथा उसका पुत्र अजातशत्रु, कोशल का शासक प्रसेनजित, उसकी रानी मल्लिका तथा वहाँ का प्रसिद्ध सेठ अनाथपिंडिक, मल्ल गणराज्य का शासक भद्रिक तथा वहाँ का प्रसिद्ध ब्राह्मण आनंद, कौशांबी का शासक उदयन, वैशाली की प्रसिद्ध वेश्या आम्रपाली तथा कपिलवस्तु के शासक शुद्धोदन (बुद्ध के पिता), उसकी रानी प्रजापती गौतमी, महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा तथा उनके पुत्र राहुल के नाम उल्लेखनीय हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने परम शिष्य आनंद के आग्रह पर स्त्रियों को भी बौद्ध संघ में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दी।

6. महापरिनिर्वाण ( Mahaparnirvana)-महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा भटकी हुई मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। अपने जीवन के अंतिम काल में जब वह पावा पहुंचे तो उन्होंने वहां एक स्वर्णकार के घर भोजन किया। इसके पश्चात् उन्हें पेचिश हो गया। यहां से महात्मा बुद्ध कुशीनगर (मल्ल गणराज्य की राजधानी) पहुँचे। यहाँ 80 वर्ष की आयु में 486 ई० पू० में वैशाख की पूर्णिमा को अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।

महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उन्होंने लोगों को सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने लोगों को यह बताया कि संसार दुःखों का घर है तथा केवल अष्ट मार्ग पर चल कर ही कोई व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की प्रचलित भाषा पाली में किया। उन्होंने किसी जटिल दर्शन का प्रचार नहीं किया। यही कारण था कि उनकी शिक्षाओं ने लोगों के मनों पर जादुई प्रभाव डाला तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

1. चार महान् सत्य (Four Noble Truths)-महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का सार चार महान् सत्य थे। इन्हें आर्य सत्य भी कहा जाता है क्योंकि यह सच्चाई पर आधारित हैं। ये चार महान् सत्य अग्र हैं—

  1. संसार दुःखों से भरा हुआ है (World is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रथम सत्य यह है कि संसार दुःखों से भरा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव के जीवन में दुःख हैं। जन्म, बीमारी, वृद्धावस्था, अमीरी, गरीबी, अधिक संतान, नि:संतान तथा मृत्यु आदि सभी दुःख का कारण हैं।
  2. दुःखों का कारण है (There is a cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध का दूसरा सत्य यह है कि दुःखों का कारण है। यह कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं। इन इच्छाओं के कारण मनुष्य आवागमन के चक्कर में भटकता रहता है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)- महात्मा बुद्ध का तीसरा सत्य है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। यह अंत इच्छाओं का त्याग करने से हो सकता है।
  4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध का चतुर्थ सत्य यह है कि दुःखों का अंत करने का केवल एक मार्ग है। इस मार्ग को अष्ट मार्ग अथवा मध्य मार्ग कहा जाता है। इस मार्ग पर चल कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। प्रसिद्ध विद्वान् जे० पी० सुधा के शब्दों में,

” महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचलित चार महान् सत्य उसकी शिक्षाओं का सार हैं। ये मानव जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं के बारे में उसके (बुद्ध) गहन् तथा दृढ़ विश्वास को बताते हैं।”3

3. “ The Four Noble Truths expounded by the Master constitute the core of his teachings. They contain his deepest and most considered convictions about human life and its problems.” J. P. Suda, Religions in India (New Delhi : 1978)p. 82.

2. अष्ट मार्ग (Eightfold Path)- महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है क्योंकि यह कठोर तप तथा ऐश्वर्य के मध्य का मार्ग था। अष्ट मार्ग के सिद्धांत निम्नलिखित थे—

  1. सत्य कर्म (Right Action)–मनुष्य के कर्म शुद्ध होने चाहिएँ। उसे चोरी, ऐश्वर्य तथा जीव हत्या से दूर रहना चाहिए। उसे समस्त मानवता से प्रेम करना चाहिए।
  2. सत्य विचार (Right Thought)-सभी मनुष्यों के विचार सत्य होने चाहिएँ। उन्हें सांसारिक बुराइयों तथा व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों से दूर रहना चाहिए।
  3. सत्य विश्वास (Right Belief)-मनुष्य को यह सच्चा विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का त्याग करने से दुःखों का अंत हो सकता है। उन्हें अष्ट मार्ग से भटकना नहीं चाहिए।
  4. सत्य रहन-सहन (Right Living)-सभी मनुष्यों का रहन-सहन सत्य होना चाहिए। उन्हें किसी से हेरा-फेरी नहीं करनी चाहिए।
  5. सत्य वचन (Right Speech)-मनुष्य के वचन पवित्र तथा मृदु होने चाहिएँ। उसे किसी की निंदा अथवा चुगली नहीं करनी चाहिए तथा सदा सत्य बोलना चाहिए।
  6. सत्य प्रयत्न (Right Efforts)- मनुष्य को बुरे कर्मों के दमन तथा दूसरों के कल्याण हेतु सत्य प्रयत्न करने चाहिएँ।
  7. सत्य ध्यान (Right Recollection)-मनुष्य को अपना ध्यान पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।
  8. सत्य समाधि (Right Meditation)- मनुष्य को बुराइयों का ध्यान छोड़कर सत्य समाधि में लीन होना चाहिए। डॉ० एस० बी० शास्त्री के अनुसार,

“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध शिक्षाओं का निष्कर्ष है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर, सकता है।”4

4. “This noble eightfold path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S. B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

3. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)-महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जैसे वह कार्य करता है. वैसा ही वह फल भोगता है। हमें पूर्व कर्मों का फल इस जन्म में मिला है तथा वर्तमान कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। जिस प्रकार मनुष्य की परछाईं सदैव उसके साथ रहती है ठीक उसी प्रकार कर्म मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते । महात्मा बुद्ध का कथन था, “व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम से न तो आकाश में, न समुद्र में तथा न ही किसी पर्वत की गुफा में बच सकता है।”

4. पुनर्जन्म में विश्वास (Belief in Rebirth)~महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था कि मनुष्य अपने कर्मों के कारण पुनः जन्म लेता रहता है। पुनर्जन्म का यह प्रवाह तब तक निरंतर चलता रहता है जब तक मनुष्य की तृष्णा तथा वासना समाप्त नहीं हो जाती। जिस प्रकार तेल तथा बत्ती के जल जाने से दीपक अपने आप शांत हो जाता है उसी प्रकार वासना के अंत से मनुष्य कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है तथा उसे परम शांति प्राप्त हो जाती है।

5. अहिंसा (Ahimsa)-महात्मा बुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य को सभी जीवों अर्थात् मनुष्यों, पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं से प्रेम तथा सहानुभूति रखनी चाहिए। वह जीव हत्या तो दूर, उन्हें सताना भी पाप समझते थे। इसलिए उन्होंने जीव हत्या करने वालों के विरुद्ध प्रचार किया।

6. तीन लक्षण (Three Marks)- महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में एक तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है, ये तीन लक्षण हैं—

  1. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थाई नहीं (अनित) हैं ।
  2. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  3. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं।

यह हमारे राजाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि ( अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होगा। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

7. पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  1. समय पर भोजन खाएं
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

8. चार असीम सद्गुण (Four Unlimited Virtues)-महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं । मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है । यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से इर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

9. परस्पर भ्रातृ-भाव (Universal Brotherhood)-महात्मा बुद्ध ने लोगों को परस्पर भातृ-भाव का उपदेश दिया। वह चाहते थे कि लोग परस्पर झगड़ों को छोड़कर प्रेमपूर्वक रहें। उनका विचार था कि संसार में घृणा का अंत प्रेम से किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक वर्ण तथा जाति के लोगों को सम्मिलित करके समाज में प्रचलित ऊँच-नीच की भावना को पर्याप्त सीमा तक दूर किया। महात्मा बुद्ध ने दु:खी तथा रोगी व्यक्तियों की अपने हाथों सेवा करके लोगों के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत की।

10. यज्ञों तथा बलियों में अविश्वास (Disbelief in Yajnas and Sacrifices)- उस समय हिंदू धर्म में अनेक अंधविश्वास प्रचलित थे। वे मुक्ति प्राप्त करने के लिए यज्ञों तथा बलियों पर बहुत बल देते थे। महात्मा बुद्ध ने इन अंधविश्वासों को ढोंग मात्र बताया। उसका कथन था कि यज्ञों के साथ किसी व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदला जा सकता तथा बलियाँ देने से मनुष्य अपने पापों में अधिक वृद्धि कर लेता है। अतः इनसे किसी देवी-देवता को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।

11. वेदों तथा संस्कृत में अविश्वास (Disbelief in Vedas and Sanskrit)-महात्मा बुद्ध ने वेदों की पवित्रता को स्वीकार न किया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि धर्म ग्रंथों को केवल संस्कृत भाषा में पढ़ने से ही फल की प्राप्ति होती है। उन्होंने अपना प्रचार जन-भाषा पाली में किया।

12. जाति प्रथा में अविश्वास (Disbelief in Caste System)-महात्मा बुद्ध ने हिंदू समाज में व्याप्त जाति प्रथा का कड़े शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार छोटा अथवा बड़ा हो सकता है न कि जन्म से। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक जाति के लोगों को सम्मिलित किया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “सभी देशों में जाओ और धर्म के संदेश प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाओ और कहो कि इस धर्म में छोटे-बड़े और धनवान् तथा निर्धन का कोई प्रश्न नहीं। बौद्ध धर्म सभी जातियों के लिए खुला है। सभी जातियों के लोग इसमें इसी प्रकार मिल सकते हैं जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं।”

13. तपस्या में अविश्वास (Disbelief in Penance)-महात्मा बुद्ध का कठोर तपस्या में विश्वास नहीं था। उनके अनुसार व्यर्थ ही भूखा-प्यासा रह कर शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने स्वयं भी 6 वर्ष तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया था परंतु कुछ प्राप्ति न हुई। वह समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए अष्ट मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।

14. ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)-महात्मा बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं था। उनका कथन था कि इस संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति के द्वारा नहीं की गई है। परंतु वह यह अवश्य मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध ईश्वर संबंधी किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि जिन विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त प्रमाण न हों उनके समाधान की चेष्टा करना व्यर्थ है।

15. निर्वाण (Nirvana) महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद तथा शाँति की प्राप्ति हो जाती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदैव मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। वास्तव में निर्वाण वह अवस्था है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो इस सच्चाई का अनुभव करते हैं वे इस संबंध में बात नहीं करते हैं तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मों में जहाँ निर्वाण मृत्यु के उपरांत प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं ने अंधकार में भटक रही मानवता के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य किया। अंत में हम डॉ० बी० जिनानंदा के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वास्तव में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं एक ओर प्रेम और दूसरी ओर तर्क पर आधारित थीं।”5

5. “In fact, the Buddha’s teachings were based on love on the one hand and on logic on the other.” Dr. B. Jinananda, Buddhism (Patiala : 1969) p. 86.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
बौद्ध संघ की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ। (Explain the main features of the Buddhist Sangha.)
अथवा
बौद्ध संघ पर संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Buddhist Sangha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने संगठित ढंग से बौद्ध धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से बौद्ध संघ की स्थापना की। संघ से भाव बौद्ध भिक्षओं के संगठन से था। बौद्ध संघ देश के विभिन्न भागों में स्थापित किए गए थे। धीरे-धीरे ये संघ शक्तिशाली संस्था का रूप धारण कर गए तथा बौद्ध धर्म के प्रसार का प्रमुख केंद्र बन गए। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० आर० सी० मजूमदार के शब्दों में,
“विशेष धर्म के लोगों का संघ अथवा संगठन की कल्पना नयी न थी। गौतम बुद्ध के पूर्व और उनके समय में भी इस ढंग की अनेक संस्थाएँ थीं, किंतु बुद्ध को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने इन संस्थाओं को पूर्ण एवं व्यवस्थित रूप दिया।”6

6.” The idea of a Church, or a corporate body of men following a particular faith, was not certainly a new one and there were many organisations of this type at and before the time of Gautama Buddha. His credit, however, lies in the thorough and systematic character which he gave to these organisations,” Dr. R. C. Majumdar, Ancient India (Delhi : 1991) p. 163.

1. संघ की सदस्यता (Membership of the Sangha)-महात्मा बुद्ध के अनुयायी दो प्रकार के थे। इन्हें उपासक-उपासिकाएँ तथा भिक्षु-भिक्षुणियाँ कहा जाता था। उपासक तथा उपासिकाएं वे थीं जो गृहस्थ जीवन का पालन करते थे। भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ गृह त्याग कर संन्यास धारण करते थे। आरंभ में संघ प्रवेश की विधि बहत सरल थी। किंतु जब धीरे-धीरे संघ के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी एवं इसमें लोग प्रवेश पाने लगे जो अज्ञानी तथा अनुशासनहीन थे, जो जनता के दान से विलासमय जीवन व्यतीत करने के इच्छुक थे, जो डाकू, हत्यारे और ऋणी थे तथा जो राजा के दंड से बचना चाहते थे। उस समय ऐसी राजाज्ञा थी कि कोई भी अधिकारी किसी बौद्ध भिक्षु अथवा भिक्षुणी को हानि नहीं पहुँचायेगा। अत: महात्मा बुद्ध ने संघ में प्रवेश करने वाले सदस्यों के लिए कुछ योग्यताएँ निर्धारित कर दीं। इनके अनुसार अब संघ में प्रवेश पाने के लिए किसी भी स्त्री अथवा पुरुष के लिए कम-से-कम आयु 15 वर्ष निश्चित कर दी गई। उन्हें संघ का सदस्य बनने के लिए अपने माता-पिता अथवा अभिभावकों की स्वीकृति लेना आवश्यक था। अपराधी, दास तथा रोगी संघ के सदस्य नहीं बन सकते थे। संघ में किसी भी जाति का व्यक्ति प्रवेश पा सकता था।
संघ में प्रवेश करने वाले भिक्षु अथवा भिक्षुणी का सर्वप्रथम मुंडन किया जाता था तथा उसे पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे। इसके पश्चात् उसे यह शपथ ग्रहण करनी होती थी, “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” तत्पश्चात् उसे संघ के सदस्यों में से किसी एक को अपना गुरु धारण करना पड़ता था तथा 10 वर्षों तक उससे प्रशिक्षण लेना पड़ता था। ऐसे सदस्यों को ‘श्रमण’ कहा जाता था। यदि 10 वर्षों के पश्चात् उसकी योग्यता को स्वीकार कर लिया जाता तो उसे संघ का पूर्ण सदस्य मान लिया जाता तथा उसे भिक्षु अथवा भिक्षुणी की उपाधि प्रदान की जाती।

2. दस आदेश (Ten Commandments)-संघ सदस्यों को बड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। ये नियम थे—

  1. ब्रह्मचर्य का पालन करना।
  2. जीवों को कष्ट न देना।
  3. दूसरों की संपत्ति की इच्छा न करना।
  4. सदा सत्य बोलना।
  5. मादक पदार्थों का प्रयोग न करना।
  6. नृत्य-गान में भाग न लेना।
  7. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करना।
  8. गद्देदार बिस्तर पर न सोना।
  9. अपने पास धन न रखना तथा
  10. निश्चित समय को छोड़कर किसी अन्य अवसर पर भोजन न करना।

3. भिक्षुणियों के लिए विशेष नियम (Special rules for Nuns)-भिक्षुणियों के लिए बौद्ध संघ भिक्षुओं से पृथक् हुआ करते थे । अतः भिक्षुणियों के लिए कुछ अन्य नियम भी बनाए गए थे। ये नियम इस प्रकार थे—

  1. भिक्षुणियों को अपने कर्तव्यों को भली-भांति समझना चाहिएं।
  2. उन्हें 15 दिनों में एक बार भिक्षा लानी चाहिए।
  3. उन स्थानों पर जहाँ भिक्षु हों उन्हें वर्षाकाल में निवास नहीं करना चाहिए।
  4. उन्हें भिक्षुकों से पृथक् रहना चाहिए ताकि भिक्षु न तो उन्हें तथा न उनके कार्यों को देख सकें।
  5. वे भिक्षुणियों को कुमार्ग पर न डालें।
  6. वे पाप कर्मों तथा क्रोध आदि से मुक्त रहें।
  7. प्रत्येक पखवाड़े वे किसी भिक्षु के समक्ष अपने पापों को स्वीकार करें।
  8. प्रत्येक भिक्षुणी को चाहे वह वयोवृद्ध ही क्यों न हो नवीन भिक्षु के प्रति भी आदर प्रदर्शन करना चाहिए।

4. आवास (Residence)-बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ वर्षा काल के तीन माह को छोड़कर देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते रहते थे तथा लोगों को उपदेश देते थे। वर्षा के तीन माह वे एक स्थान पर निवास करते थे तथा अध्ययन का कार्य करते थे। उनके निवास स्थान आवास कहलाते थे। प्रत्येक आवास में अनेक विहार होते थे जहाँ भिक्षुभिक्षुणियों के लिए अलग कमरे होते थे। इन विहारों में जीवन सामूहिक था। प्रत्येक भिक्षु-भिक्षुणी को जो भी भिक्षा मिलती थी वह संघ के समस्त सदस्यों में वितरित की जाती थी। ये बौद्ध विहार धीरे-धीरे बौद्ध धर्म तथा शिक्षा प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र बन गए।

5. संघ का संविधान (Constitution of the Sangha)-प्रत्येक बौद्ध संघ लोकतंत्रीय प्रणाली पर आधारित था। इसके सभी सदस्यों के अधिकार समान थे। यहाँ कोई छोटा या बड़ा नहीं समझा जाता था। संघ में भिक्षुगण अपनी वरीयता के अनुसार आसन ग्रहण करते थे। संघ के अधिवेशन के लिए कम-से-कम 20 भिक्षुओं की उपस्थिति __ अनिवार्य थी। इस गणपूर्ति के बिना प्रत्येक अधिवेशन अवैध समझा जाता था। संघ में प्रत्येक विषय पर पूर्व दी गई सूचना के आधार पर प्रस्ताव प्रस्तुत किए. जाते थे। इसके पश्चात् प्रस्ताव पर वाद-विवाद होता था। जिस प्रस्ताव पर सदस्यों में मतभेद होता था वहां मतदान कराया जाता था। मतदान दो प्रकार का होता था-गुप्त तथा प्रत्यक्ष । यदि कोई भिक्षु अनुपस्थित होता था तो वह अपनी सहमति पहले दे जाता था। कभी-कभी कोई प्रस्ताव विशेष विचार के लिए किसी उप-समिति के सुपुर्द कर दिया जाता था। संघ के सभी निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते थे। प्रत्येक संघ की एक माह में दो बार बैठक अवश्य होती थी। इन बैठकों में धर्म के प्रचार के किए जा रहे प्रयासों तथा संघ के नियमों को भंग करने वाले भिक्षु-भिक्षुणियों को दंडित किया जाता था। प्रत्येक बौद्ध संघ में कुछ ऐसे विशेष अधिकारी होते थे जिन्हें संघ के सदस्य सर्वसम्मति से चुनते थे। ये अधिकारी भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए विहारों तथा उनके लिए भोजन आदि का प्रबंध करते थे। डॉ० अरुण भट्टाचार्जी के शब्दों में,
“अनुशासित संघ बौद्ध धर्म की अद्वितीय सफलता के स्तंभ थे।”7

6. संघ में फूट (Schism in Sangha)–बौद्ध संघों ने बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई थी। किंतु महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्षों के पश्चात् जब वैशाली में बौद्धों की दूसरी महासभा आयोजित की गई थी तो बौद्ध संघ में फूट पड़ गई। इससे बौद्ध धर्म में एकता न रही। प्रथम शताब्दी ई० में बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान अथवा महायान में बँट गया। बौद्ध संघ की इस फूट ने भारत में बौद्ध धर्म का पतन निश्चित कर दिया।

7. “The well disciplined Sanglia was the pillar of the success of Buddhism.” Dr. Arun Bhattacharjee, History of Ancient India (New Delhi : 1979) p. 122.

प्रश्न 6.
बौद्ध धर्म में संघ, निर्वाण एवं पंचशील के संबंध में जानकारी दें। (Write about Sangha, Nirvana and Panchsheel in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के संघ एवं पंचशील के बारे में जानकारी दें। (Write about Sangha and Panchsheel in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के निर्वाण के सिद्धांत संबंधी जानकारी दें।
(Write about the concept of Nirvana in Buddhism.)
उत्तर-
बौद्ध धर्म में संघ, निर्वाण तथा पंचशील नामक सिद्धांतों का विशेष महत्त्व है। बौद्ध धर्म के विकास में इन्होंने बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है :—
(क) बौद्ध संघ (Buddhist Sangha)
महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को संगठित करने के लिए बौद्ध संघ की स्थापना की थी। संघ से भाव बौद्ध भिक्षुओं के संगठन से था। धीरे-धीरे ये संघ एक शक्तिशाली संस्था का रूप धारण कर गए थे। प्रत्येक पुरुष अथवा स्त्री, जिसकी आयु 15 वर्ष से अधिक थी, बौद्ध संघ का सदस्य बन सकता था। अपराधियों, रोगियों तथा दासों को सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी। सदस्य बनने से पूर्व घर वालों से अनुमति लेना आवश्यक था। नए भिक्षु को संघ में प्रवेश के समय मुंडन करवा कर पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे और यह शपथ लेनी पड़ती थी “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूं, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” संघ के सदस्यों को बड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। ये नियम थे—

  1. ब्रह्मचर्य का पालन करना।
  2. जीवों को कष्ट न देना।
  3. दूसरों की संपत्ति की इच्छा न करना।
  4. सदा सत्य बोलना।
  5. मादक पदार्थों का प्रयोग न करना।
  6. नृत्य-गान में भाग न लेना।
  7. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करना ।
  8. गद्देदार बिस्तर पर न सोना
  9. अपने पास धन न रखना तथा
  10. निश्चित समय को छोड़कर किसी अन्य अवसर पर भोजन न करना।

संघ में सम्मिलित होने वाले भिक्षु तथा भिक्षुणी को दस वर्ष तक किसी भिक्षु से प्रशिक्षण लेना पड़ता था। इसमें सफल होने पर उन्हें संघ का सदस्य बना लिया जाता था। संघ के सभी सदस्यों को सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करना पड़ता था। वे अपना निर्वाह भिक्षा माँग कर करते थे। वर्षा ऋतु के तीन महीनों को छोड़ कर संघ के सदस्य सारा वर्ष विभिन्न स्थानों पर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए संघ की विशेष बैठकें बुलाई जाती थीं। इन बैठकों में सभी सदस्यों को भाग लेने की अनुमति थी। प्रत्येक बैठक में कम-से-कम दस सदस्यों का उपस्थित होना आवश्यक था। सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। इस संबंध में गुप्त मतदान करवाया जाता था। सदस्यों में मतभेद होने पर उस विषय का निर्णय इस उद्देश्य के लिए स्थापित उप-समितियों द्वारा किया जाता था। वास्तव में बौद्ध धर्म की प्रगति में इन बौद्ध संघों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ० एस० एन० सेन के अनुसार, “बौद्ध धर्म की अद्वितीय सफलता का कारण संगठित संघ थे।”8

8. “The phenomenal success of Buddhism was due to the organisation of the Sangha.” Dr. S.N. Sen, Ancient Indian History and Civilization (New Delhi : 1988) p. 67.

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(ख) निर्वाण (Nirvana)
महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करने से है। बौद्ध धर्म में निर्वाण संबंधी यह विचार दिया गया है कि यह न जीवन है तथा न मृत्यु। यह कोई स्वर्ग नहीं जहां देवते आनंदित हों। इसे शाँति एवं सदैव प्रसन्नता का स्रोत कहा गया है। यह सभी दुःखों, लालसाओं एवं इच्छाओं का अंत है। इसकी वास्तविकता पूरी तरह काल्पनिक है। इसका वर्णन संभव नहीं। निर्वाण की वास्तविकता तथा इसका अर्थ जानने के लिए उसकी प्राप्ति आवश्यक है। जो इस सच्चाई को जानते हैं वे इस संबंध में बातें नहीं करते तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जहाँ अन्य धर्मों में निर्वाण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है वहां बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में भी संभव है।

(ग) पंचशील (Panchsheel)
पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  1. समय पर भोजन खाएं
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

प्रश्न 7.
बौद्ध धर्म के प्रारंभिक वर्षों में बौद्ध संप्रदायों एवं समकालीन समाज पर विस्तृत नोट लिखिए।
(Write a detailed note on early Buddhist sects and society.)
उत्तर-
(क) प्रारंभिक बौद्ध संप्रदाय
(Early.Buddhist Sects) महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म 18 से भी अधिक संप्रदायों में विभाजित हो गया था। इनमें से अनेक संप्रदाय छोटे-छोटे थे तथा उनका कोई विशेष महत्त्व न था। बौद्ध धर्म के प्रमुख संप्रदायों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है:—

1. स्थविरवादी तथा महासंघिक (Sthaviravadins and Mahasanghika)-महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् 387 ई० पू० में वैशाली में आयोजित की गई दूसरी महासभा में बौद्ध संघ से संबंधित अपनाए गए 10 नियमों के कारण फूट पड़ गई। परिणामस्वरूप स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक अस्तित्व में आए। स्थविरवादी भिक्षु बौद्ध धर्म में चले आ रहे परंपरावादी नियमों के समर्थक थे। वे किसी प्रकार भी इन नियमों में परिवर्तन किए जाने के पक्ष में नहीं थे। महासंघिक नए नियम अपनाए जाने के पक्ष में थे। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक को सभा छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। शीघ्र ही स्थविरवादी 11 एवं महासंघिक 7 सम्प्रदायों में विभाजित हो गए।

2. हीनयान तथा महायान (Hinayana and Mahayana)-कनिष्क के शासन काल में प्रथम शताब्दी ई०. में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयाम से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान धर्म का प्रसार एशिया के दक्षिणी देशों भारत, श्रीलंका तथा बर्मा (म्यांमार) आदि देशों में हुआ। महायान धर्म का प्रसार एशिया के उत्तरी देशों चीन, जापान, नेपाल तथा तिब्बत आदि में हुआ। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे :—

  • हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  • हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  • हीनयान बोधिसत्वों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल अपने प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। कोई भी देवता निर्वाण प्राप्ति में उसकी सहायता नहीं कर सकता। महायान संप्रदाय बोधिसत्वों में पूर्ण विश्वास रखता था। बोधिसत्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  • हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जो कि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  • हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  • हीनयान संप्रदाय का हिंदू धर्म के साथ कोई संबंध न था, जबकि महायान संप्रदाय ने अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से हिंदू धर्म के अनेक सिद्धांतों को अपना लिया था।
  • हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अतः हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।
  • हीनयान संप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक, मिलिन्दपन्हो तथा महामंगलसूत्र आदि थे। महायान संप्रदाय के प्रमुख ग्रन्थ ललितविस्तार, बुद्धचरित तथा सौंदरानन्द आदि थे।

3. वज्रयान (Vajrayana)-8वीं शताब्दी में बंगाल तथा बिहार में बौद्ध धर्म का एक नया संप्रदाय अस्तित्व में आया। यह संप्रदाय जादू-टोनों तथा मंत्रों से जुड़ा हुआ था। इस संप्रदाय का विचार था कि जादू की शक्तियों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। इन जादुई शक्तियों को वज्र कहा जाता था। इसलिए इस संप्रदाय का नाम वज्रयान पड़ गया। इस संप्रदाय में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हो सकते थे। इस संप्रदाय में देवियों का महत्त्व बहुत बढ़ गया था। समझा जाता था कि इन देवियों द्वारा बोधिसत्व तक पहुँचा जा सकता है। इन देवियों को तारा कहा जाता था। ‘महानिर्वाण तंत्र’ वज्रयान की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक थी । वज्रयान की धार्मिक पद्धति को तांत्रिक भी कहते हैं । बिहार राज्य वज्रयान का सब से महत्त्वपूर्ण विहार विक्रमशिला में स्थित है। वज्रयान शाखा ने अपने अनुयायियों को मादक पदार्थों का सेवन करने, माँस भक्षण तथा स्त्री गमन की अनुमति देकर बौद्ध धर्म के पतन का डंका बजा दिया। एन० एन० घोष के अनुसार,
“बौद्ध धर्म के पतन का मुख्य कारण वज्रयान का अस्तित्व था जिसने नैतिकता का विनाश करके इसकी नींव को हिला कर रख दिया था।”9

9. “……..the chief cause of disappearance of Buddhism was the prevalence of Vajrayana which sapped its foundation by destroying all moral strength.” N. N. Ghosh, Early History of India (Allahabad : 1951) p. 65.

(ख) समाज
(Society) बौद्ध विचारधारा में एक आदर्श समाज की कल्पना की गई है। इस समाज के प्रमुख नियम ये हैं—

  1. समाज में सामाजिक समानता एवं धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना की गई थी। बौद्ध धर्म में जाति प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की गई है। बौद्ध धर्म के द्वार सभी धर्मों, जातियों एवं नस्लों के लिए खुले हैं।
  2. स्त्रियों को पुरुषों के समान दर्जा दिए जाने का प्रचार किया गया है।
  3. बुद्ध के लिए मन की पवित्रता तथा उच्च चरित्र, जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। उसने लोगों को झूठी गवाही न देने, झूठ न बोलने, किसी की चुगली न करने, नशीली वस्तुओं का प्रयोग न करने, चोरी न करने, अन्य पाप न करने तथा छोटे-से-छोटे जीव की भी हत्या न करने के लिए प्रेरित किया। महात्मा बुद्ध का कथन था कि,

“सौ वर्षों का वह जीवन भी तुच्छ है जिसमें परम सत्य की प्राप्ति नहीं होती, पर वह जिसे परम सत्य की प्राप्ति हो जाती है, उसके जीवन का एक दिन भी महान है।”
संक्षेप में यदि महात्मा बुद्ध के इन सिद्धांतों की सच्चे मन से पालना की जाए तो निस्संदेह हमारी यह पृथ्वी एक स्वर्ग का नमूना बन जाए।

प्रश्न 8.
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों बारे बताएँ।
(What do you know about the two main sects of Buddhism ?)
अथवा
हीनयान एवं महायान द्वारा प्रतिपादित विचार एवं विचारधारा कौन-सी है ? वर्णन करें।
(What thoughts and ideas are represented by Hinayana and Mahayana ? Discuss.)
अथवा
हीनयान एवं महायान से क्या भाव है ? दोनों के मध्य अंतर बताएं। (What is meant by Hinayana and Mahayana ? Distinguish between the two.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायाम तथा हीमयान संप्रदायों के बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you understand by Mahayana and Hinayana sects of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान संप्रदायों की मूल शिक्षाओं बारे बताएं। (Explain the basic teachings of Mahayana and Hinayana sects of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान संप्रदायों पर विस्तृत नोट लिखें। (Write a detailed note on the Buddhist sects named Mahayana and Hinayana.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायाम संप्रदाय के निकास तथा विकास के बारे में प्रकाश डालें।
(Throw light on the origin and growth of the Mahayana sect of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय की प्रगति के बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the development of Mahayana ? Discuss.)
उत्तर-
हीनयान तथा महायान (Hinayana and Mahayana)-कनिष्क के शासन काल में प्रथम शताब्दी ई०. में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयाम से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान धर्म का प्रसार एशिया के दक्षिणी देशों भारत, श्रीलंका तथा बर्मा (म्यांमार) आदि देशों में हुआ। महायान धर्म का प्रसार एशिया के उत्तरी देशों चीन, जापान, नेपाल तथा तिब्बत आदि में हुआ। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे :—

  1. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  2. हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  3. हीनयान बोधिसत्वों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल अपने प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। कोई भी देवता निर्वाण प्राप्ति में उसकी सहायता नहीं कर सकता। महायान संप्रदाय बोधिसत्वों में पूर्ण विश्वास रखता था। बोधिसत्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  4. हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जो कि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  5. हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  6. हीनयान संप्रदाय का हिंदू धर्म के साथ कोई संबंध न था, जबकि महायान संप्रदाय ने अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से हिंदू धर्म के अनेक सिद्धांतों को अपना लिया था।
  7. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अतः हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।
  8. हीनयान संप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक, मिलिन्दपन्हो तथा महामंगलसूत्र आदि थे। महायान संप्रदाय के प्रमुख ग्रन्थ ललितविस्तार, बुद्धचरित तथा सौंदरानन्द आदि थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 9.
प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों के बारे में संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the Early Buddhist scriptures.) –
अथवा
बौद्ध साहित्य के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about the Buddhist literature ? Explain.)
उत्तर–बौद्ध साहित्य बौद्ध धर्म की जानकारी के लिए हमारा बहुमूल्य स्रोत है। बौद्ध साहित्य यद्यपि अनेक भाषाओं में लिखा गया, किंतु अधिकतर साहित्य पालि एवं संस्कृत भाषाओं से संबंधित है। बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा से संबंधित साहित्य पालि भाषा में तथा महायान शाखा से संबंधित साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया।
(क) पालि भाषा में लिखा गया साहित्य
(Literature written in Pali)
बौद्ध धर्म से संबंधित प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे। प्रमुख बौद्ध ग्रंथों का संक्षिप्त ब्यौरा निम्न अनुसार है :—
1. त्रिपिटक (The Tripitakas)–त्रिपिटक बौद्ध धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इनके नाम विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटकों को प्रमुख स्थान प्राप्त है। पिटक का अर्थ है ‘टोकरी’ जिसमें इन ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था।—

(क) विनयपिटक (The Vinayapitaka)–विनयपिटक में बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियों के आचरण से संबंधित नियमों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसके तीन भाग हैं :

  1. सुत्तविभंग (The Suttavibhanga)—इसमें बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के लिए अपराधों की सूची तथा उनके प्रायश्चित दिए गए हैं। इन नियमों को पातिमोक्ख कहा जाता है।
  2. खंधक (The Khandhaka) खंधक दो भागों-महावग्ग एवं चुल्लवग्ग में विभाजित हैं। इनमें संघ के नियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त इनमें महात्मा बुद्ध से संबंधित अनेक कथाओं की चर्चा भी की गई है।
  3. परिवार (The Parivara)—यह विनयपिटक का अंतिम भाग है। यह प्रथम दो भागों का सारांश है तथा यह प्रश्न-उत्तर के रूप में लिखी गई है।

(ख) सुत्तपिटक (The Suttapitaka)—यह त्रिपिटकों का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है। यह पांच निकायों अथवा संग्रहों में विभक्त है—

  1. दीघ निकाय (The Digha Nikaya)—इसमें 34 लंबे सूत्र हैं जो स्वयं अपने में पूर्ण हैं । इनमें महात्मा बुद्ध के विभिन्न प्रवचनों का ब्यौरा दिया गया है।
  2. मज्झिम निकाय (The Majjhima Nikaya)—इसमें 152 सूत्र हैं जो दीघ निकाय की अपेक्षा छोटे हैं। इनमें महात्मा बुद्ध के वार्तालापों का वर्णन दिया गया है। इनके अन्त में उपदेश दिए गए हैं।
  3. संयुत निकाय (The Sanyutta Nikaya)—इसमें 7762 सूत्र हैं। इनमें आध्यात्मिक विषयों की चर्चा की गई है। इनमें महात्मा बुद्ध तथा अन्य देवी-देवताओं की कथाएं मिलती हैं। इनके अतिरिक्त इनमें विरोधी धर्मों का खंडन भी किया गया है।
  4. अंगुत्तर निकाय (The Anguttara Nikaya)-इसमें 2308 सूत्र हैं। इसका अधिकतर भाग गद्य में है किंतु कुछ भाग पद्य में भी है। इसमें बौद्ध धर्म तथा इसके दर्शन का वर्णन किया गया है।
  5. खुद्दक निकाय (The Khuddaka Nikaya)-इसमें बौद्ध धर्म से संबंधित विभिन्न विषयों की चर्चा की गई है। इसमें 15 विभिन्न पुस्तकें संकलित हैं। ये पुस्तकें अलग-अलग समय लिखी गईं। इन पुस्तकों में खुद्दक पाठ, धम्मपद, जातक एवं सूत्रनिपात नामक पुस्तकें प्रसिद्ध हैं। खुद्दक पाठ सबसे छोटी रचना है। इसमें 9 सूत्र हैं जो दीक्षा के समय पढ़े जाते हैं। धम्मपद बौद्ध धर्म से संबंधित सबसे पवित्र पुस्तक समझी जाती है। बोद्धि धम्मपद का उसी प्रकार प्रतिदिन पाठ करते हैं जैसे सिख जपुजी साहिब का एवं हिंदू गीता का।धम्मपद बौद्ध गीता के नाम से प्रसिद्ध है। इसका विश्व भर की भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म से संबंधित 549 कथाओं का वर्णन किया गया है। सुत्तनिपात कविता रूप में लिखी गई है। इसमें बौद्ध धर्म के प्रारंभिक इतिहास के संबंध में जानकारी दी गई है।

(ग) अभिधम्मपिटक (The Abhidhammapitaka)-अभिधम्म से भाव है ‘उत्तम शिक्षाएँ’। इस ग्रंथ का अधिकतर भाग प्रश्न-उत्तर रूप में लिखा गया है। इसमें आध्यात्मिक विषयों की चर्चा की गई हैं। इसमें 7 पुस्तकों का वर्णन किया गया है। इसमें धम्मसंगनी तथा कथावथु सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। धम्मसंगनी बौद्ध मनोविज्ञान से संबंधित महान् रचना है। कथावथु का लेखक मोग्गलिपुत्त तिस्स था। इसमें बौद्ध धर्म की स्थविरवादी शाखा से संबंधित नियमों का वर्णन किया गया है।
2. मिलिन्द पन्हो (Milind Panho)-यह बौद्ध धर्म से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण रचना है। यह 100 ई०पू० पंजाब में लिखी गई। इसमें पंजाब के एक यूनानी शासक मीनांदर तथा बौद्ध भिक्षु नागसेन के मध्य हुए धार्मिक वार्तालाप का विवरण दिया गया है। इसमें बौद्ध दर्शन के संबंध में महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है।
3. दीपवंश तथा महावंश (Dipavansa and Mahavansa)-इन दोनों बौद्ध ग्रंथों की रचना श्रीलंका में की गई थी। इन्हें पाँचवीं शताब्दी में लिखा गया था। इन बौद्ध ग्रंथों में वहां की बौद्ध कथाओं का विवरण मिलता है।
4. महामंगलसूत्र (Mahamangalsutra)—इस रचना में महात्मा बुद्ध द्वारा दिए गए शुभ एवं अशुभ कर्मों का ब्यौरा दिया गया है। बोद्धि इसका रोज़ाना पाठ करते हैं।

(ख) संस्कृत में लिखा गया साहित्य
(Literature written in Sanskrit)
बौद्ध धर्म का महायान संप्रदाय से संबंधित अधिकतर साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है—

  1. ललितविस्तार (The Lalitvistara) यह बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय से संबंधित प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों में से एक है। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन के बारे में अत्यंत रोचक शैली में वर्णन किया गया है।
  2. लंकावतार (The Lankavatara)—यह महायानियों का एक पवित्र ग्रंथ है। इसका चीन एवं जापान के बोद्धि प्रतिदिन पाठ करते हैं।
  3. सद्धर्मपुण्डरीक (The Saddharmapundarika)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ में महायान संप्रदाय के सभी नियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध को परमात्मा के रूप में दर्शाया गया है जिसने इस संसार की रचना की।
  4. प्रज्ञापारमिता (The Prajnaparamita)—यह महायान संप्रदाय का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें बौद्ध दर्शन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
  5. अवदान पुस्तकें (The Avadana Books)—ये वह पुस्तकें हैं जिनमें महायान संप्रदाय से संबंधित बौद्ध संतों, पवित्र पुरुषों एवं स्त्रियों की नैतिक एवं बहादुरी के कारनामों का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है। दिव्यावदान तथा अवदान शतक इस श्रेणी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
  6. बौद्धचरित (The Buddhacharita)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना महान् कवि अश्वघोष ने की थी। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन को एक महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
  7. सौंदरानन्द (The Saundrananda)-इस ग्रंथ की रचना भी अश्वघोष ने की थी। यह एक उच्च कोटि का ग्रंथ है। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित उन घटनाओं का विवरण विस्तारपूर्वक दिया गया है जिन का बुद्धचरित में संक्षेप अथवा बिल्कुल वर्णन नहीं किया गया है।
  8. मध्यमकसूत्र (The Madhyamaksutra)-यह प्रसिद्ध बोद्धि नागार्जुन की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि सारा संसार एक भ्रम है।
  9. शिक्षासम्मुचय (The Sikshasamuchchaya)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना शाँति देव ने की थी। इसमें महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन दिया गया है। इन्हें अनेक महायानी ग्रंथों से लिया गया हैं।
  10. बौधिचर्यावतार (The Bodhicharyavatara) इसकी रचना भी शांति देव ने की थी। यह कविता के रूप में लिखी गई है। इसमें बोधिसत्व के उच्च आदर्शों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 10.
बौद्ध धर्म के उद्भव एवं विकास के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the origin and development of Buddhism.)
अथवा
अशोक से पूर्व बुद्ध धर्म द्वारा की गई उन्नति के विषय में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful the progress made by Buddhism befare Ashoka.)
अथवा
सम्राट अशोक से पहले बौद्ध धर्म की स्थिति बताइए।
(Describe the position of Buddhism’before Samrat Ashoka.)
अथवा
महाराजा अशोक तक बौद्ध धर्म ने जो विकास किया उसके संबंध में विस्तृत जानकारी दें।
(Describe in detail the progress made by Buddhism till the time of King Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के आंदोलन की उत्पत्ति तथा विकास की जानकारी अशोक से पूर्व काल की ब्यान करें।
(Give introductory information about origin and expansion of Buddhism before Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के उद्गम तथा विकास के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the origin and development of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के उद्गम तथा विकास के बारे में एक विस्तृत नोट लिखें।
(Write a detailed note on the origin and development of Buddhism.)
अथवा
अशोक से पूर्व बौद्ध धर्म की उन्नति के बारे में व्याख्या करें।
(Explain the development of Buddhism before Ashoka.)
उत्तर-

I. बौद्ध धर्म का उद्भव ‘ (Origin of Buddhism)
छठी शताब्दी ई०पू० में भारत के हिंदू समाज एवं धर्म में अनेक अंध-विश्वास तथा कर्मकांड प्रचलित थे। पुरोहित वर्ग ने अपने स्वार्थी हितों के कारण हिंदू धर्म को अधिक जटिल बना दिया था। अतः सामान्यजन इस धर्म के विरुद्ध हो गए थे। इन परिस्थितियों में भारत में कुछ नए धर्मों का जन्म हुआ। इनमें से बौद्ध धर्म सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे। इस धर्म के उद्भव के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है:—

1. हिंदू धर्म में जटिलता (Complexity in the Hindu Religion)-ऋग्वैदिक काल में हिंदू धर्म बिल्कुल सादा था। परंतु कालांतर में यह धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसमें अंध-विश्वासों और कर्मकांडों का बोलबाला हो गया। यह धर्म केवल एक बाहरी दिखावा मात्र बनता जा रहा था। उपनिषदों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों का दर्शन साधारण लोगों की समझ से बाहर था। लोग इस तरह के धर्म से तंग आ चुके थे। वे एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जो अंध-विश्वासों से रहित हो और उनको सादा जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दे सके। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० सतीश के० कपूर के शब्दों में,
“हिंदू समाज ने अपना प्राचीन गौरव खो दिया था और यह अनगिनत कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों से ग्रस्त था।”1

2. खर्चीला धर्म (Expensive Religion)-आरंभ में हिंदू धर्म अपनी सादगी के कारण लोगों में अत्यंत प्रिय था। उत्तर वैदिक काल के पश्चात् इसकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया। यह अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसका कारण यह था कि अब हिंदू धर्म में यज्ञों और बलियों पर अधिक जोर दिया जाने लगा था। ये यज्ञ कईकई वर्षों तक चलते रहते थे। इन यज्ञों पर भारी खर्च आता था। ब्राह्मणों को भी भारी दान देना पड़ता थ। इन यज्ञों के अतिरिक्त अनेक ऐसे रीति-रिवाज प्रचलित थे, जिनमें ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर भी लोगों को काफी धन खर्च करना पड़ता था। इस तरह के खर्च लोगों की पहुँच से बाहर थे। परिणामस्वरूप वे इस धर्म के विरुद्ध हो गए।

3. ब्राह्मणों का नैतिक पतन (Moral Degeneration of the Brahmanas)-वैदिक काल में ब्राह्मणों का जीवन बहुत पवित्र और आदर्शपूर्ण था। समय के साथ-साथ उनका नैतिक पतन होना शुरू हो गया। वे भ्रष्टाचारी, लालची तथा धोखेबाज़ बन गए थे। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साधारण लोगों को किसी न किसी बहाने मूर्ख बना कर उनसे अधिक धन बटोरने में लगे रहते थे। इसके अतिरिक्त अब उन्होंने भोग-विलासी जीवन व्यतीत करना आरंभ कर दिया था। इन्हीं कारणों से लोग समाज में ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे।

4. जाति-प्रथा (Caste System)-छठी शताब्दी ई० पू० तक भारतीय समाज में जाति-प्रथा ने कठोर रूप धारण कर लिया था। ऊँची जातियों के लोग जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करते थे। वे उनकी परछाईं मात्र पड़ जाने से स्वयं को अपवित्र समझने लगते थे। शूद्रों को मंदिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने आदि की आज्ञा नहीं थी। ऐसी परिस्थिति से तंग आकर शूद्र किसी अन्य धर्म के पक्ष में हिंदू धर्म छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

5. कठिन भाषा (Difficult Language)-संस्कृत भाषा के कारण भी इस युग के लोगों में बेचैनी बढ़ गई थी। इस भाषा को बहुत पवित्र माना जाता था, परंतु कठिन होने के कारण यह साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे-वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे। साधारण लोग इन धर्मशास्त्रों को पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठा कर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरू कर दी। अतः धर्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जिसके सिद्धांत जन-साधारण की भाषा में हों।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

6. जादू-टोनों में विश्वास (Belief in Charms and Spells)-छठी शताब्दी ई० पू० में लोग बहुत अंधविश्वासी हो गए थे। वे भूत-प्रेतों तथा जादू-टोनों में अधिक विश्वास करने लगे थे। उनका विचार था कि जादूटोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। जागरूक व्यक्ति समाज को ऐसे अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी नए धर्म की राह देखने लगे।

7. महापुरुषों का जन्म (Birth of Great Personalities)-छठी शताब्दी ई० पू० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। उन्होंने अंधकार में भटकं रही मानवता को एक नया मार्ग दिखाया। इनमें महावीर तथा महात्मा बुद्ध के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी सरल शिक्षाओं से प्रभावित होकर बहु-संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गए थे। इन्होंने बाद में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का उल्लेख करते हुए बी० पी० शाह
और के० एस० बहेरा लिखते हैं,
“वास्तव में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के उदय ने लोगों में एक नया उत्साह भर दिया और उनके सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया।”2

1. “ The Hindu society had lost its splendour and was plagued with multifarious rituals and superstitions.” Dr. Satish K. Kapoor, The Legacy of Buddha (Chandigarh: The Tribune : April 4, 1977) p. 5.
2. “In fact, birth of Jainism and Buddhism gave a new impetus to the people and significantly moulded social and religious life.” B.P. Saha and K.S. Behera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p. 107.

II. बौद्ध धर्म का विकास
(Development of Buddhism)
महात्मा बुद्ध के अथक प्रयासों के कारण उनके जीवन काल में ही बौद्ध धर्म की नींव पूर्वी भारत में मज़बूत हो चुकी थी। उनके निर्वाण के पश्चात् बौद्ध संघों ने महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों को एकत्र करने, संघ से संबंधित नवीन नियम बनाने तथा बौद्ध धर्म के प्रसार के उद्देश्य से समय-समय पर चार महासभाओं का आयोजन किया। इन महासभाओं के आयोजन में विभिन्न शासकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म न केवल भारत अपितु विदेशों में भी फैला।

1. प्रथम महासभा 487 ई० पू० (First Great Council 487 B.C.)-महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के शीघ्र पश्चात् ही 487 ई० पू० राजगृह में बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम महासभा का आयोजन किया गया। राजगृह मगध के शासक अजातशत्रु की राजधानी थी। अजातशत्रु के संरक्षण में ही इस महासभा का आयोजन किया गया था। इस महासभा को आयोजित करने का उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणिक उपदेशों को एकत्र करना था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता महाकश्यप ने की थी। इस महासभा में त्रिपिटकोंविनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक की रचना की गई। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं संबंधी नियम, सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का वर्णन किया गया है। त्रिपिटकों के अतिरिक्त आरोपों की छानबीन करके महात्मा बुद्ध के परम शिष्य आनंद को दोष मुक्त कर दिया गया जबकि सारथी चन्न को उसके उदंड व्यवहार के कारण दंडित किया गया।

2. दूसरी महासभा 387 ई० पू० (Second Great Council 387 B.C.)-प्रथम महासभा के ठीक 100 वर्षों के पश्चात् 387 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया। इस महासभा का आयोजन मगध शासक कालाशोक ने किया था। इस महासभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इस सभा का आयोजन करने का कारण यह था कि बौद्ध संघ से संबंधित दस नियमों ने भिक्षुओं में मतभेद उत्पन्न कर दिए थे। इन नियमों के संबंध में काफी दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा, किंतु भिक्षुओं के मतभेदूर न हो सके। परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षु दो संप्रदायों में बंट गए। इनके नाम स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक थे। स्थविरवादी नवीन नियमों के विरुद्ध थे। वे बुद्ध के नियमों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। महासंघिक परंपरावादी नियमों में कुछ परिवर्तन करना चाहते थे ताकि बौद्ध संघ के अनुशासन की कठोरता को कुछ कम किया जा सके। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक भिक्षुओं को निकाल दिया गया।

3. तीसरी महासभा 251 ई० पू० (Third Great Council 251 B.C.)-दूसरी महासभा के आयोजन के बाद बौद्ध धर्म 18 शाखाओं में विभाजित हो गया था। इनके आपसी मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म की उन्नति को गहरा धक्का लगा। बौद्ध धर्म की पुनः प्रगति के लिए तथा इस धर्म में आई कुप्रथाओं को दूर करने के उद्देश्य से महाराजा अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में 251 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की तीसरी महासभा का आयोजन किया। इस महासभा में 1000 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। इस महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। यह महासभा 9 माह तक चलती रही। यह महासभा बौद्ध धर्म में आई अनेक कुप्रथाओं को दूर करने में काफी सीमा तक सफल रही। इस महासभा से थेरावादी भिक्षुओं के सिद्धांतों को न मानने वाले भिक्षुओं को निकाल दिया गया था। इस महासभा में कथावथु नामक ग्रन्थ की रचना की गई। इस महासभा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध प्रचारकों को भेजना था।

4. चौथी महासभा 100 ई० (Fourth Great Council 100 A.D.)-महाराजा अशोक की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध भिक्षुओं के मतभेद पुनः बढ़ गए थे। इन मतभेदों को दूर करने के उद्देश्य से कुषाण शासक कनिष्क ने जालंधर में आयोजन किया था। ईस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। वसुमित्र ने महाविभाष नामक ग्रंथ की रचना की जिसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा जाता है। इस महासभा में सम्मिलित एक अन्य विद्वान् अश्वघोष ने बुद्धचरित नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन किया गया है। इस महासभा में मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान तथा महायान में विभाजित हो गया। कनिष्क ने महायान संप्रदाय का समर्थन किया।

प्रश्न 11.
बौद्ध धर्म के विकास में महाराजा अशोक ने शसक्त भूमिका निभाई। प्रकाश डालिए।
(Maharaja Ashoka performed a strong role for the development of Buddhism. Elucidate.)
अथवा
महाराजा अशोक ने बुद्ध धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
(What contribution Maharaja Ashoka made for the development of Buddhism ? Discuss.)
अथवा
महाराजा अशोक के समय बौद्ध धर्म के विकास के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the development made by Buddhism during the time of Maharaja Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में अशोक के योगदान के बारे में प्रकाश डालें।
(Throw light on the contribution of Ashoka to the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक की भूमिका का वर्णन करें।
(Discuss the role of Emperor Ashoka in the development of Buddhism. )
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक का क्या योगदान था ? (Discuss the contribution of Emperor Ashoka in the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक के योगदान का वर्णन करें। (Discuss the contribution of Ashoka in the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास के लिए अशोक द्वारा की गई सेवाओं का वर्णन कीजिए।
(Describe the services rendered by Ashoka to the development of Buddhism.)
अथवा
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए किन साधनों का प्रयोग किया ? (What methods were adopted by Ashoka to the spread Buddhism ?)
अथवा
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म का फैलाव कैसे किया ? (How did Emperor Ashoka spread Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के प्रसार का वर्णन करें।
(Describe the spread of Buddhism.)
अथवा
“महाराजा अशोक के समय बौद्ध धर्म अधिक विकसित हुआ।” प्रकाश डालिए।
(“Buddhism was more developed during the period of Maharaja Ashoka.” Elucidate.)
उत्तर-
अशोक का नाम न केवल भारतीय बल्कि संसार के इतिहास में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यह उसके अथक यत्नों का ही परिणाम था कि बौद्ध धर्म शीघ्र ही संसार का सबसे लोकप्रिय धर्म बन गया। डॉक्टर डी० सी० सरकार के शब्दों में,
“अशोक बौद्ध धर्म का संरक्षक था तथा वह इस धर्म को जो कि पूर्वी भारत का एक स्थानीय धर्म था को संसार के सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्मों में से एक बनने के लिए जिम्मेवार था।”10

1. निजी उदाहरण (Personal Example)- अशोक के मन पर कलिंग के युद्ध के समय हुए रक्तपात ने गहरा प्रभाव डाला। परिणामस्वरूप अशोक ने हिंदू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धर्म को अपना लिया। इस धर्म को फैलाने के लिए अशोक ने लोगों के आगे निजी उदाहरण प्रस्तुत किया। उसने महल की सभी सुख-सुविधाएँ त्याग दी। उसने मांस खाना तथा शिकार खेलना बंद कर दिया। उसने युद्धों से सदा के लिए तौबा कर ली तथा शांति व प्रेम की नीति अपनाई। इस प्रकार अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपनाने के कारण उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह उसके पद चिंहों पर चलने का प्रयास करने लगी।

2. बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित करना (Buddhism was declared as the State Religion)अशोक ने बौद्ध धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से उसको राज्य धर्म घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप लोग बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित होने आरंभ हो गए। इसका कारण यह था कि उस समय लोग अपने राजा का बहुत सम्मान करते थे तथा उसकी आज्ञा को मानने में वे अपना गर्व समझते थे।

3. प्रशासनिक पग (AdministrativeSteps)-अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रसार करने के लिए कुछ प्रशासनिक पग भी उठाए। उसने धार्मिक उत्सवों के दौरान दी जाने वाली जानवरों की बलि पर पाबंदी लगा दी। उसने राजकीय रसोईघर में भी किसी प्रकार के जानवरों की हत्या की मनाही कर दी। इसके अतिरिक्त उसने वर्ष में 56 ऐसे दिन निश्चित किए जब जानवरों को मारा नहीं जा सकता था। वह समय-समय पर बुद्ध की शिक्षाओं संबंधी निर्देश जारी करता था। उसने अपने कर्मचारियों को भी लोगों की अधिक से अधिक सेवा करने के आदेश जारी किए।

4. व्यापक प्रचार (Wide Publicity)-अशोक के बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए इसका व्यापक प्रचार करवाया। बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को शिलालेखों, चट्टानों, पत्थरों आदि पर खुदवाया। इनको राज्य की प्रसिद्ध सड़कों तथा विशेष स्थानों पर रखा गया ताकि आने-जाने वाले लोग इनको अच्छी तरह पढ़ सकें। इस प्रकार सरकारी प्रचार भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।

5. धर्म यात्राएँ (Dharma Yatras)-अशोक ने बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी स्थानों की यात्रा की। वह लुंबिनी जहां बुद्ध का जन्म हुआ, बौद्ध गया जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ, सारनाथ जहाँ बुद्ध ने सबसे पहले प्रवचन दिया था, कुशीनगर जहाँ बुद्ध का निर्वाण (मृत्यु) हुआ, के पवित्र स्थानों पर गया। अशोक की इन यात्राओं के कारण बौद्ध धर्म का गौरव और बढ़ गया।

6. धर्म महामात्रों की नियुक्ति (Appointment of Dharma Mahamatras)- अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए महामात्र नामक कर्मचारी नियुक्त किए। इन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार करने में कोई प्रयास शेष न छोड़ा। इस कारण बौद्ध धर्म को एक नई प्रेरणा मिली।

7. विहारों तथा स्तूपों का निर्माण (Building of Viharas and Stupas)-अशोक ने राज्य भर में विहारों (बौद्ध मठों) का निर्माण करवाया। यहाँ आने वाले बौद्ध विद्वानों तथा विद्यार्थियों को राज्य की ओर से खुला संरक्षण दिया गया। इसके अतिरिक्त सारे राज्य में हज़ारों स्तूपों का भी निर्माण किया गया। इन स्तूपों में बुद्ध की निशानियाँ रखी जाती थीं। इन कारणों से बौद्ध धर्म अधिक लोकप्रिय हो सका।

8. लोक कल्याण के कार्य (Works of Public Welfare)-बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद अशोक ने अपना सारा जीवन लोगों के दिलों को जीतने में लगा दिया। प्रजा की सुविधा के लिए अशोक ने सड़कें बनवाईं तथा इसके किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाए। पानी पीने के लिए कुएँ खुदवाए। यात्रियों की सुविधा के लिए राज्य भर में सराएँ बनाई गईं। अशोक ने न केवल मनुष्यों के लिए अपितु पशुओं के लिए अस्पताल खुलवाए। अशोक के इन कार्यों के कारण बौद्ध धर्म को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से फैलने का अवसर मिला।।

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9. तीसरी बौद्ध सभा (Third Buddhist Council)- अशोक ने बौद्ध धर्म में चल रहे आपसी मतभेदों को दूर करने के लिए 251 ई० पू० पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा बुलवाई। इस सभा में अनेक बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। मोग्गलिपुत्त तिस्स इस सभा का अध्यक्ष था। यह सभा लगभग 9 माह तक चलती रही। इस सभा में बौद्धों का एक नया ग्रंथ कथावथु लिखा गया। यह सभा बौद्ध भिक्षुओं में एक नया जोश भरने में सफल रही तथा उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार अधिक ज़ोर-शोर से करना आरंभ कर दिया।

10. विदेशों में प्रचार (Foreign Missions)-अशोक ने विदेशों में भी बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने प्रचारक भेजे। ये प्रचारक श्रीलंका, बर्मा (म्यनमार), नेपाल, मिस्र व सीरिया आदि देशों में गए। अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा तथा पुत्र महेंद्र को श्रीलंका में प्रचार करने के लिए भेजा था। इन प्रचारकों का लोगों के दिलों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए। डॉक्टर आर० सी० मजूमदार का यह कहना पूर्णत: ठीक है,
“वह (अशोक) एक मार्ग-दर्शक के रूप में प्रकट हुआ जो बुद्ध के संदेश को एक गाँव से दूसरे गाँव, एक नगर से दूसरे नगर, एक प्रांत से दूसरे प्रांत, एक देश से दूसरे देश तथा एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक ले गया।”11

10. “Ashoka was a patron of the Buddha’s doctrine and was responsible for raising Buddhism for the status of a local secretarian creed of Eastern India to that of one of the principal religions of the world.” Dr. D.C. Sircar, Inscriptions of Ashoka (Delhi : 1957) p. 17.
11. “He appeared as the torch bearer, who led the gospel from village to village, from city to city, from province to province, from country to country and from continent to continent.” Dr. R.C. Majumdar, Ancient India (Delhi : 1971) p. 165.

प्रश्न 12.
बौद्ध धर्म की भारतीय सभ्यता को क्या देन है ? (What is the legacy of Buddhism to Indian Civilization ?)
अथवा
बौद्ध धर्म की देन का वर्णन करें। (Discuss the legacy of Buddhism.)
उत्तर-यद्यपि बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो चुका है, परंतु जो देन इसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को दी है। उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। बौद्ध धर्म ने भारत को कई क्षेत्रों में बड़ी गौरवपूर्ण धरोहर प्रदान की।

  1. राजनीतिक प्रभाव (Political Impact)—बौद्ध धर्म ने भारत में राजनीतिक स्थिरता, शांति तथा परस्पर एकता बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बौद्ध धर्म के अहिंसा तथा शांति के सिद्धांतों से उस समय के शक्तिशाली शासक बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने युद्धों का त्याग कर दिया और अपना समय प्रजा के कल्याण में लगा दिया। इससे जहां राज्य में शांति स्थापित हुई वहाँ प्रजा काफी समृद्ध हो गई। अशोक तथा कनिष्क जैसे शासकों ने विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने प्रचारक भेजे। इससे भारत तथा इन देशों में मित्रता स्थापित हुई, परंतु बौद्ध धर्म के अहिंसा के सिद्धांत का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में कुछ विनाशकारी प्रभाव भी पड़ा। युद्धों में भाग न लेने के कारण भारतीय सेना बहत दुर्बल हो गई। इस लिए जब बाद में भारतीयों को विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा तो उनकी हार हुई। इस पराजयों के कारण भारतीयों ने अपनी स्वतंत्रता गंवा ली और उन्हें चिरकाल तक दासता का जीवन व्यतीत करना पड़ा।

2. धार्मिक प्रभाव (Religious Impact)—बौद्ध धर्म की धार्मिक क्षेत्र में देन भी बड़ी महत्त्वपूर्ण थी1 बौद्ध धर्म के उदय से पूर्व हिंदू धर्म में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। लोग धर्म के वास्तविक रूप को भूलकर कर्मकांडों, पाखंडों, यज्ञों, हवनों तथा बलि आदि के चक्करों में फंसे हुए थे। समाज में ब्राह्मणों का बोलबाला था। उनके बिना कोई धार्मिक कार्य पूरा नहीं समझा जाता था, परंतु उस समय ब्राह्मण बहुत लालची तथा भ्रष्टाचारी हो चुके थे। उनका मुख्य उद्देश्य लोगों को किसी-न-किसी बहाने लूटना था। वे लोगों का सही मार्गदर्शन करने की अपेक्षा स्वयं भोग-विलास में डूबे रहते थे। इस प्रकार हिंदू धर्म केवल एक आडंबर बनकर रह गया था। महात्मा बुद्ध ने हिंदू धर्म में प्रचलित इन कुप्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी व्यक्ति बिना ब्राह्मणों के सहयोग से अपने धार्मिक कार्य संपन्न कर सकता है। उन्होंने संस्कृत भाषा की पवित्रता का भी खंडन किया। इस लिए काफी संख्या में लोग हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म में सम्मिलित होने लगे। इसीलिए हिंदू धर्म ने अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए अनेक आवश्यक सुधार किए। महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की सुंदर मूर्तियां निर्मित करके उनकी पूजा आरंभ कर दी। इस प्रकार बौद्ध धर्म ने भारत में मूर्ति-पूजा का प्रचलन किया जो आज तक जारी है।

3. सामाजिक प्रभाव Scial Inpact)— सामाजिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म की देन बहुत प्रशंसनीय है। बौद्ध धर्म के उदय से पहले हिंद धर्म में जाति प्रथा वही जटिल हो गई थी ! एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। शूद्र मो: न्यास किए जा थे; मात्मा बुद्ध ने जाति प्रथा के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया। उन्होंने अपने अनुयाः ” संदेश दिया। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में सभी जातियों और वर्गों को सम्मिलित क: भारतीय समाज को एक नया रूप प्रदान किया। निम्न वर्ग के लोगों को भी समाज में प्रगति करने का अवसरमा बौद्ध धर्म के प्रभावाधीन गों ने माँस-भक्षण, मदिरापान तथा अन्य नशों का सेवन बंद कर दिया और उन्नत तथा पत्र जीवन व्यती या आरंभ कर दिया। कालांतर में जब हिंदू धर्म पुनः लोकप्रिय होना आरंभ तुना तो बहुत से लोग बौद्ध धर्म को छोड़कर पुनः हिंदू धर्म में आ गए। इससे हिंदू समाज में कई जातियों तथा उप-जातियः अस्तित्व में आई।

4. सांस्कृतिक प्रभाव : (Cultural Impact)—सांस्कृतिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने भारत को बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन दी। बौद्ध संघों द्वारा न केवल बौद्ध धर्म का प्रचार किया जाता था, अपितु ये शक्षा देने के विख्यात केंद्र भी बन गए। तक्षशिला, नालंदा और त्रिक्रर्माणला नामक बौद्ध विश्वविद्यालयों ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में छात्र विदेशों से भी आते थे। बौद्ध विद्वानों द्वारा रचित ग्रंथों जैसे त्रिपिटक, जातक, बुद्धचरित, महाविभास, मिलिंद पहो, सौंदरानंद. ललित विस्तार तथा महामंगल सूत्र इत्यादि ने भातीय साहित्य में बहुमूल्य वृद्धि की। भवन निर्माण कला और मूर्तिकला के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म की देन को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। अशोक तथा कनिष्क के राज्य काल में भारत में बड़ी संख्या में स्तूपों तथा विहारों का निर्माण हुआ। महाराजा अशोक द्वारा निर्मित करवाए गए साँची तथा भरहुत स्तूपों की सुंदर कला को देख कर व्यक्ति चकित रह जाता है। कनिष्क के समय गांधार और मथुरा कली का विकास हुआ। इस समय महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की अति सुंदर मूर्तियाँ निर्मित की गईं।

इन मतियों को देख कर उस समय भूर्तिकला के क्षेत्र में हुई अद्वितीय उन्नति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। अजंता तथा जाप की फाओं को देखकर चित्रकला के क्षेत्र में उस समय हुए विकास का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। समय-समय पर बौद्ध भिक्षु धर्म प्रचार करने के लिए विदेशों जैसे-चीन, जापान, श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार). इंडानशिया, जावा, सुमात्रा तथा तिब्बत आदि देशों में जाते रहे। इससे न केवल इन देशों में बौद्ध धर्म फैला, अपितु भारतीय संस्कृति का विकास भी हुआ। आज भी इन देशों में कई भारतीय प्रथाएँ प्रचलित हैं। निस्संदेह यह भारतीयों के लिए एक बहुत ही गर्व की बात है। अंत में हम डॉक्टर एस० राधाकृष्णन के इन शब्दों से सहमत हैं,
“बौद्ध धर्म ने भारतीय संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इसका प्रभाव सभी ओर देखा जा सकता है।”12

12. Buddhisni da leti pemanen’ mark on the culture of India. Its influence is visible on all sides.” Dr. S. Radhakrishnan, Indian Philosophy Deihi: 1962) p.608.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म का उत्थान। (Emergence of Buddhism.)
उत्तर-
6वीं सदी ई० पूर्व हिंदू समाज तथा धर्म में अनगिनत कुरीतियाँ प्रचलित थीं। जाति प्रथा बहुत कठोर रूप धारण कर गई थी। शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक बुरा व्यवहार किया जाता था। अब लड़की का जन्म लेना दु:ख का कारण समझा जाता था। लोगों में अनेक अंध-विश्वास प्रचलित थे। यज्ञों तथा बलियों के कारण हिंदू धर्म बहुत खर्चीला हो गया था। ब्राह्मण बहुत भ्रष्टाचारी तथा धोखेबाज़ हो गए थे। हिंदू धर्म अब केवल एक बाहरी दिखावा बन कर रह गया था। इन कारणों से बौद्ध धर्म का उत्थान हुआ।

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध के जीवन की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a short account of the life of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उनका जन्म 566 ई० पू० में लुंबिनी में हुआ। उनके माता जी का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोधन था। आप का विवाह यशोधरा से हुआ था। आपने 29 वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था। 35 वर्ष की आयु में आपको बौद्ध गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था। आपने 45 वर्ष तक अपने धर्म का प्रचार किया था। मगध, कौशल, कौशांबी, वैशाली तथा कपिलवस्तु आप के प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र थे। 486 ई० पू० में कुशीनगर में आपने निर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 3.
लुंबिनी। (Lumbini.)
उत्तर-
लुंबिनी भारत में बौद्ध धर्म के सर्वाधिक पवित्र स्थानों में से एक है। यह स्थान नेपाल की तराई में भारत-नेपाल सीमा से लगभग 10 किलोमीटर दूर भैरवा जिले में स्थित है। इसका आधुनिक नाम रुमिनदेई है। यहाँ 566 ई० पू० वैशाख की पूर्णिमा को महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। इस बालक के जन्म समय देवताओं ने आकाश से फूलों की वर्षा की। महाराजा अशोक ने यहाँ महात्मा बुद्ध की स्मृति में एक स्तंभ बनवाया था। चीनी यात्रियों फाह्यान एवं ह्यनसांग ने अपने वृत्तांतों में इस स्थान का अति सुंदर वर्णन किया है।

प्रश्न 4.
बौद्ध गया। , (Bodh Gaya.)
उत्तर-
बौद्ध गया का बौद्ध धर्मावलंबियों में वही स्थान है जो हरिमंदिर साहिब, अमृतसर का सिखों में, बनारस का हिंदुओं में एवं मक्का का मुसलमानों में है। यह स्थान बिहार राज्य के गया नगर से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित है। यह वह स्थान है जहाँ एक पीपल के वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ (महात्मा बुद्ध) को ज्ञान प्राप्त हुआ था। उस समय सिद्धार्थ की आयु 35 वर्ष थी। यह घटना वैशाख की पूर्णिमा की थी। यहाँ 170 फीट ऊँचा महाबौद्धि मंदिर बना हुआ है।

प्रश्न 5.
सारनाथ। (Sarnath.)
उत्तर-
सारनाथ बौद्ध धर्मावलंबियों का एक अन्य पवित्र स्थान है। यह स्थान बनारस से लगभग 7 किलोमीटर उत्तर की दिशा की ओर स्थित है। यह वह स्थान है जहाँ महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अपने पुराने पाँच साथियों को प्रथम उपदेश दिया था। इस घटना को बौद्ध इतिहास में धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से स्मरण किया जाता है। यहाँ महाराजा अशोक ने एक प्रसिद्ध स्तंभ बनवाया था। यहाँ से गुप्त काल एवं कुषाण काल की महात्मा बुद्ध की अति सुंदर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

प्रश्न 6.
चार महान् दृश्य। (Four Major Sights.)
उत्तर-
सिद्धार्थ एक दिन अपने सारथि चन्न को लेकर महल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक बूढ़े, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। इन दृश्यों का सिद्धार्थ के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने जान लिया कि संसार दु:खों का घर है। इसलिए सिद्धार्थ ने घर त्याग देने का निश्चय किया। इस घटना को महान् त्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष की थी।

प्रश्न 7.
धर्म-चक्र प्रवर्तन। (Dharm-Chakra Pravartana.)
उत्तर-
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुंचे। यहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश अपने पुराने पाँच साथियों को दिया। वे बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस समय महात्मा बुद्ध ने उन्हें चार महान् सत्य तथा अष्ट मार्ग की जानकारी दी। इस घटना को धर्म-चक्र प्रवर्तन कहा जाता है।

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ। (Teachings of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार चार महान् सत्य तथा अष्ट मार्ग हैं। वे आवागमन, कर्म सिद्धांत, अहिंसा, मनुष्य के परस्पर भ्रातृ-भाव में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। वे जाति प्रथा, यज्ञों, बलियों, वेदों, संस्कृत भाषा और घोर तपस्या में विश्वास नहीं रखते थे। वह परमात्मा संबंधी चुप रहे।

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध के कर्म सिद्धांत के बारे में क्या विचार थे ? (What were Lord Buddha’s views about Karma theory ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता है। जैसे कर्म मनुष्य करेगा, उसे वैसा ही फल मिलेगा। हमें पिछले कर्मों का फल इस जन्म में मिला है और अब के कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। मनुष्य की परछाईं की तरह कर्म उसका पीछा नहीं छोड़ते।

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध के नैतिक संबंधी क्या विचार थे ? (What were Lord Buddha’s views about Morality ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध नैतिकता पर बहुत बल देते थे। उनके विचार से नैतिकता के बिना धर्म एक ढोंग मात्र रह जाता है। नैतिकता के मार्ग पर चलने के लिए महात्मा बुद्ध ने मनुष्यों को ये सिद्धांत अपनाने पर बल दिया—

  1. सदा सत्य बोलो।
  2. चोरी न करो।
  3. नशीले पदार्थों का सेवन न करो।
  4. स्त्रियों से दूर रहो।
  5. ऐश्वर्य के जीवन से दूर रहो।
  6. नृत्य-गान में रुचि न रखो।
  7. धन से दूर रहो।
  8. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करो।
  9. झूठ न बोलो और
  10. किसी को कष्ट न पहुँचाओ।

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प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध के ईश्वर के संबंध में विचार। (Lord Buddha’s .views about God.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं रखते थे। उनका कथन था कि संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति द्वारा नहीं की गई है परंतु वह यह आवश्यक मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध इस संबंध में किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे।

प्रश्न 12.
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Nirvana in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद और शांति की प्राप्ति हो सकती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदा के लिए मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। इस स्थिति का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 13.
हीनयान। (Hinyana.)
उत्तर-
हीनयान बौद्ध धर्म का एक प्रमुख संप्रदाय था। हीनयान से अभिप्राय है छोटा चक्कर या छोटा रथ। इस संप्रदाय के लोग महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध थे। वे मूर्ति पूजा के विरुद्ध थे। वे बौद्धिसत्व में विश्वास नहीं रखते थे। वे तर्क तथा अष्ट मार्ग में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपना प्रचार पाली भाषा में किया। इनके धार्मिक ग्रंथ भिन्न थे।

प्रश्न 14.
महायान। (Mahayana.)
उत्तर-
महायान बौद्ध धर्म का प्रमुख संप्रदाय था। महायान से अभिप्राय था बड़ा चक्कर या बड़ा रथ। इस संप्रदाय ने बुद्ध की शिक्षाओं में समय अनुसार परिवर्तन किये। वे मूर्ति पूजा और बौद्धिसत्व में विश्वास रखते थे। वे श्रद्धा पर अधिक बल देते थे। वे पाठ-पूजा को धर्म का आवश्यक अंग मानते थे। उन्होंने अपना प्रचार संस्कृत भाषा में किया। इनके धार्मिक ग्रंथ भिन्न थे।

प्रश्न 15.
प्रथम बौद्ध सभा। (First Buddhist Council.)
उत्तर-
प्रथम बौद्ध सभा का आयोजन 487 ई० पू० मगध के शासक अजातशत्रु द्वारा राजगृह में किया गया था। इसका उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणित उपदेशों को एकत्रित करना था। इसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसका नेतृत्व महाकश्यप ने किया। इसमें त्रिपिटक नाम के ग्रंथ लिखे गए। इस सभा में महात्मा बुद्ध के शिष्य आनंद पर लगाए गए आरोपों की जांच की गई तथा उसे निर्दोष घोषित किया गया।

प्रश्न 16.
दूसरी बौद्ध सभा। (Second Buddhist Council.)
उत्तर-
दूसरी बौद्ध सभा का आयोजन 387 ई० पू० में मगध के शासक कालाशौक ने वैशाली में किया था। इसका उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं में संघ के नियमों से संबंधित मतभेदों को दूर करना था। इस सभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसकी अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इसके द्वारा अपनाए गए दस नियमों के कारण बौद्ध भिक्ष पूर्वी तथा पश्चिमी नाम के दो वर्गों में विभाजित हो गए। पूर्वी भारत के भिक्षु महासंघिक तथा पश्चिम भारत के भिक्षु थेरावादी कहलाए।

प्रश्न 17.
तीसरी बौद्ध सभा। (Third Buddhist Council.)
उत्तर-
तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन सम्राट अशोक ने 251 ई० पू० में पाटलिपुत्र में किया था। इसका उद्देश्य बुद्ध धर्म में आई कुरीतियों को दूर करना था। इसमें 1000 भिक्षुओं ने भाग लिया। इसका नेतृत्व मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किया था। उसने कथावथु नामक ग्रंथ तैयार किया था। इस सभा में बौद्ध प्रचारकों को विदेशों में भेजने का निर्णय किया गया। यह सभा बौद्ध धर्म में आई कुरीतियों को काफ़ी सीमा तक दूर करने में सफल रही।

प्रश्न 18.
चौथी बौद्ध सभा। (Fourth Buddhist Council.)
अथवा
चतुर्थ बोद्धी कौंसिल क्यों बुलाई गई ? (Why was the Fourth Buddhist Council convened ?)
उत्तर-
चौथी बौद्ध सभा का आयोजन सम्राट कनिष्क ने पहली सदी ई० में कश्मीर में किया था। इस सभा का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं के आपसी मतभेदों को दूर करना था। इसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। उसने महाविभाष नामक ग्रंथ तैयार किया था। इस सभा के उप-प्रधान अश्वघोष ने बुद्धचरित नाम के प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। इस सभा के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षुओं में व्याप्त न केवल आपसी मतभेद समाप्त हुए बल्कि यह मध्य एशिया के देशों में भी फैला।

प्रश्न 19.
बौद्ध धर्म में संघ से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you understand by Sangha in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों को संगठित करने के लिए बौद्ध संघ की स्थापना की थी। प्रत्येक पुरुष या स्त्री, जिसकी आयु 15 वर्ष से अधिक हो बौद्ध संघ का सदस्य बन सकता था। अपराधियों, रोगियों, ऋणियों तथा दासों को सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी। सदस्य बनने से पहले घर वालों से अनुमति लेना आवश्यक था। नए भिक्षु को संघ में प्रवेश के समय मुंडन करवा कर पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे और यह शपथ लेनी पड़ती थी “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” संघ के सदस्यों को कड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। संघ के सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते थे।

प्रश्न 20.
त्रिपिटक। (The Tripitakas.)
उत्तर-
बौद्धि साहित्य में त्रिपिटक नामक ग्रंथ को प्रमुख स्थान प्राप्त है। ये पाली भाषा में लिखे गए हैं। इन के नाम विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक हैं। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के प्रतिदिन जीवन से संबंधित नियमों का, सुत्तपिटक में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों तथा अभिधम्मपिटक में आध्यात्मिक विषयों का वर्णन किया गया है। त्रिपिटक से अभिप्राय तीन टोकरियों से है जिसमें ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था।

प्रश्न 21.
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए क्या यत्न किए ? (What steps were taken by Ashoka to spread Buddhism ?)
उत्तर-
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए इसको राज्य धर्म घोषित किया। उसने स्वयं इस धर्म को ग्रहण किया। बौद्ध धर्म से संबंधित महत्त्वपूर्ण स्थानों की यात्राएँ कीं। धर्म महामात्रों को नियुक्त किया। बौद्ध विहारों तथा स्तूपों का निर्माण करवाया। पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन किया गया। विदेशों में बौद्ध प्रचारक भेजें।

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प्रश्न 22.
बौद्ध धर्म के जन्म के क्या कारण थे ? (What were the reasons of origin of Buddhism ?)
उत्तर-
6वीं शताब्दी ई०पू० में भारत में बौद्ध धर्म के उद्भव का मुख्य कारण हिंदू धर्म में प्रचलित बुराइयाँ थीं। उत्तर वैदिक काल में ही हिंदू धर्म में यज्ञों एवं व्यर्थ के रीति-रिवाजों पर बल दिया जाने लगा था। इन यज्ञों में बड़ी संख्या में पुरोहित सम्मिलित होते थे। उन्हें काफ़ी दान देना पड़ता था। वास्तव में हिंदू धर्म इतना खर्चीला हो चुका था कि यह साधारण लोगों की समर्था से बाहर हो चुका था। ब्राह्मण वर्ग बहुत भ्रष्ट एवं लालची हो चुका था। वे साधारण लोगों को किसी-न-किसी बहाने मूर्ख बनाकर लूटने में लगे थे। हिंदुओं के सभी ग्रंथ संस्कृत भाषा में थे। अत: ये साधारण लोगों की समझ से बाहर थे। समाज में जाति प्रथा ने काफ़ी जटिल रूप धारण कर लिया था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। शूद्रों के साथ घोर अन्याय किया जाता था। परिणामस्वरूप वे किसी अन्य धर्म के पक्ष में अपना धर्म छोड़ने को तैयार हो गए। उस समय के अनेक शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना संरक्षण प्रदान किया। अतः यह धर्म तीव्रता से प्रगति करने लगा।

प्रश्न 23.
महात्मा बुद्ध पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध, बौद्ध मत के संस्थापक थे। उनका जन्म 566 ई० पू० कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी में हुआ। उनकी माता का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोदन था। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। वह बचपन से ही गंभीर स्वभाव के थे। वह एकांत में रहना अधिक पसंद करते थे। 16 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ की शादी एक सुंदर राजकुमारी से कर दी गई। उनके घर एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम राहुल रखा गया। 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने घर त्याग दिया तथा वह सत्य की खोज में निकल पड़े। 35 वर्ष की आयु में उन्हें बोध गया में सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया। इस घटना को धर्म चक्र परिवर्तन कहा जाता है। महात्मा बुद्ध इसी तरह 45 वर्षों तक भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपने उपदेशों का प्रचार करते रहे। मगध, कौशल, कौशांबी, वैशाली तथा कपिलवस्तु उनके प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र थे। महात्मा बुद्ध ने चार महान् सच्चाइयों, अष्ट मार्ग, अहिंसा, परस्पर भ्रातृत्व की भावना का प्रचार किया। वह यज्ञों, बलियों, जाति प्रथा तथा संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं रखते थे। महात्मा बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 24.
महात्मा बुद्ध ने कहाँ तथा कैसे ज्ञान प्राप्त किया ? (How and where the Buddha realised Great Enlightenment?)
उत्तर-
सिद्धार्थ ने गृह त्याग करने के पश्चात् सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न हुई। अतः सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाडियों को लांघ कर गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छः वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर काँटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका। वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान को प्राप्ति हुई। अत: सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

प्रश्न 25.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। , Discuss briefly the teachings of Lord Buddha.)
अथवा
बौद्ध धर्म की कोई पाँच शिक्षाएँ लिखें।
(Write any five teachings of Buddhism.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उनकी शिक्षाओं का आधार चार महान् सत्य हैं—

  1. संसार दुःखों का घर है।
  2. इन दुःखों का कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं।
  3. इन इच्छाओं को त्यागने से मनुष्य के दुःखों का अंत हो सकता है।
  4. इच्छाओं का अंत अष्ट मार्ग पर चलकर किया जा सकता है।

वह अंहिसा में विश्वास रखते थे। वह कर्म सिद्धांत तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। कर्म परछाईं की तरह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भाईचारे की भावना का प्रचार किया। उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा की जा रही लूट-खसूट का विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य यज्ञों और बलि देने से निर्वाण (मुक्ति) की प्राप्ति नहीं कर सकता। वह वेदों और संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं रखते थे। वह कठोर तपस्या के पक्ष में नहीं थे। वह परमात्मा के अस्तित्व के बारे में मौन रहे। उनके अनुसार मानव जीवन का परम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है।

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म के तीन लक्षणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Three Marks in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है। ये तीन लक्षण हैं—

  1. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थायी नहीं (अनित) हैं।
  2. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  3. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं। यह हमारे रोज़ाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं।

महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि (अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं। मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होना। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

प्रश्न 27.
पंचशील पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Panchshila.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे-से-छोटे जीव की भी हत्या न करो।
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो। किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएँ। शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ। बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षओं एवं भिक्षणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है।

ये पाँच नियम हैं—

  1. समय पर भोजन खाएँ
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार-श्रृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म में चार असीम सद्गुणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Four Unlimited Virtues in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं। मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है। यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से ईर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

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प्रश्न 29.
बौद्ध संघ पर एक नोट लिखें। (Write a note on Buddhist Sangha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध द्वारा स्थापित किए गए संघों में कोई भी पुरुष या स्त्री जिसकी आयु 15 वर्षों से कम न हो इसका सदस्य बन सकता था। सदस्य बनने के लिए उनको घर वालों से आज्ञा लेनी पड़ती थी। किसी भी जाति से संबंधित व्यक्ति संघ का सदस्य बन सकता था, परंतु अपराधियों, रोगियों और दासों को सदस्य नहीं बनाया जाता था। संघ में प्रवेश के समय नए भिक्षु के लिए मुंडन संस्कार करना, तीन पीले कपड़े पहनने और इन शब्दों का उच्चारण करना अनिवार्य था-

  • मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
  • मैं ‘धम्म’ की शरण लेता हूँ।
  • मैं संघ की शरण लेता हूँ। इसके पश्चात् प्रत्येक भिक्षु को 10 आदेशों की पालना करनी पड़ती थी। उसको 10 वर्षों तक किसी भिक्षु से शिक्षा लेनी पड़ती थी। यदि वह अपने नियमों को पूरा करने में सफल हो जाता था तो उसको संघ का सदस्य बना लिया जाता था। नियम का पालन न करने वाले भिक्षुओं को संघ से निकाल दिया जाता था। संघ की सारी कारवाई लोकतंत्रीय नियमों पर आधारित थी।

प्रश्न 30.
बौद्ध धर्म में निर्वाण पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Nirvana in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या भाव है ?
(What is meant by Nirvana in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करने से है। बौद्ध धर्म में निर्वाण संबंधी यह विचार दिया गया है कि यह न जीवन है तथा न मृत्यु। यह कोई स्वर्ग नहीं जहाँ देवते आनंदित हों। इसे शाँति एवं सदैव प्रसन्नता का स्रोत कहा गया है। यह सभी दुःखों, लालसाओं एवं इच्छाओं का अंत है। इसकी वास्तविकता पूरी तरह काल्पनिक है। इसका वर्णन संभव नहीं। निर्वाण की वास्तविकता तथा इसका अर्थ जानने के लिए उसकी प्राप्ति आवश्यक है। जो इस सच्चाई को जानते हैं वे इस संबंध में बातें नहीं करते तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जहाँ अन्य धर्मों में निर्वाण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में भी संभव है।

प्रश्न 31.
हीनयान एवं महायान पर एक नोट लिखें। (Write a note on Hinayana and Mahayana.)
अथवा
बौद्ध धर्म के हीनयान तथा महायान के बारे में जानकारी दें।
(Describe the sect Hinayana and Mahayana of Buddhism.)
उत्तर-
कनिष्क के शासनकाल में प्रथम शताब्दी ई० में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयान से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे—

  1. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  2. हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  3. हीनयान बोधिसत्त्वों में विश्वास नहीं रखते थे। महायान संप्रदाय बोधिसत्त्वों में पूर्ण विश्वास रखते थे। बोधिसत्त्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  4. हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जोकि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  5. हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  6. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अत: हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।

प्रश्न 32.
बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Vajrayana sect of Buddhism ?)
उत्तर-
8वीं शताब्दी में बंगाल तथा बिहार में बौद्ध धर्म का एक नया संप्रदाय अस्तित्व में आया। यह संप्रदाय जादू-टोनों तथा मंत्रों से जुड़ा हुआ था। इस संप्रदाय का विचार था कि जादू की शक्तियों से मुक्ति की प्राप्ति की जा सकती है। इन जादुई शक्तियों को वज्र कहा जाता था। इसलिए इस संप्रदाय का नाम वज्रयान पड़ गया। इस संप्रदाय में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हो सकते थे। इस संप्रदाय में देवियों का महत्त्व बहुत बढ़ गया था। समझा जाता था कि इन देवियों द्वारा बोधिसत्त्व तक पहुँचा जा सकता है। इन देवियों को तारा कहा जाता था। ‘महानिर्वाण तंत्र’ वज्रयान की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक थी। वज्रयान की धार्मिक पद्धति को तांत्रिक भी कहते हैं। बिहार राज्य में वज्रयान का सबसे महत्त्वपूर्ण विहार विक्रमशिला में स्थित है। वज्रयान शाखा ने अपने अनुयायियों को मादक पदार्थों का सेवन करने, माँस भक्षण तथा स्त्रीगमन की अनुमति देकर बौद्ध धर्म के पतन का डंका बजा दिया।

प्रश्न 33.
बौद्ध स्त्रोत। (Buddhist Sources.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य की तरह बौद्ध साहित्य भी काफी विस्तृत है। बौद्ध साहित्य की रचना पालि तथा संस्कृत भाषाओं में की गई है। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ये बौद्ध धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। त्रिपिटकों के नाम सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेशों, विनयपिटक में भिक्षु-भिक्षुणियों से संबंधित नियमों तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन के संबंध में जानकारी दी गई है। जातक कथाएँ जिनकी संख्या 549 है, में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों का वर्णन किया गया है। इनमें हमें ईसा पूर्व तीसरी सदी से दूसरी सदी तक की भारतीय समाज की धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। मिलिंदपन्हों नामक ग्रंथ से हमें यूनानी शासक मीनांदर के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। कथावथु जिसकी रचना मोग्गलीपुत्त तिम्स ने की थी में राजा अशोक पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। बुद्धचरित सौंदरानंद वथा महाविभाष से हमें कुषाण वंश की जानकारी प्राप्त होती है। दीपवंश एवं महावंश भारत के श्रीलंका के साथ संबंधों पर प्रकाश डालते हैं।

प्रश्न 34.
त्रिपिटक क्या हैं ? इनका ऐतिहासिक महत्त्व क्या है ? (What are Tripitakas ? What is their historical importance ?)
अथवा
त्रिपिटक क्या हैं ?
(What are Tripitakas ?)
उत्तर-
त्रिपिटक बौद्ध धर्म में सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। पिटक का अर्थ है ‘टोकरी’ जिसमें इन ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था। त्रिपिटकों के नाम सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। ये पालि भाषा में लिखित हैं। सुत्तपिटक को पिटकों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें महात्मा बुद्ध के उपदेशों का वर्णन किया गया है। यह पाँच भागों दीर्घ निकाय, मझिम निकाय, संपुत निकाय, अंगतुर निकाय तथा खुदक निकाय में विभाजित है। खुदक निकाय में धम्मपद का वर्णन किया गया है। धम्मपद का बौद्ध भिक्षु उसी प्रकार रोजाना पाठ करते हैं जैसे सिख जपुजी साहिब का तथा हिंदू गीता का। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के आचरण से संबंधित नियम दिए गए हैं। इसमें इस बात का भी वर्णन किया गया है कि बौद्ध भिक्षुओं के लिए कौन-सी वस्तुएँ पाप हैं तथा उनका प्रायश्चित किस प्रकार किया जा सकता है। अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन के संबंध में जानकारी दी गई है। त्रिपिटकों के अध्ययन से हमें केवल बौद्ध धर्म के संबंध में ही नहीं अपितु तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में संबंध के भी काफी मूल्यवान् जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 35.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the First Great Council of Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के शीघ्र पश्चात् ही 487 ई० पू० राजगृह में बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम महासभा का आयोजन किया गया। राजगृह मगध के शासक अजातशत्रु की राजधानी थी। अजातशत्रु के संरक्षण में ही इस महासभा का आयोजन किया गया था। इस महासभा की आयोजित करने का उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणिक उपदेशों को एकत्र करना था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता महाकश्यप ने की थी। इस महासभा में त्रिपिटकों-विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक की रचना की गई। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं संबंधी नियम, सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का वर्णन किया गया है। त्रिपिटकों के अतिरिक्त आरोपों की छानबीन करके महात्मा बुद्ध के परम शिष्य आनंद को दोष मुक्त कर दिया गया जबकि सारथी चन्न को उसके उदंड व्यवहार के कारण दंडित किया गया।

प्रश्न 36.
दूसरी बौद्ध महासभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on the Second Great Council of Buddhism.)
उत्तर-
प्रथम महासभा के ठीक 100 वर्षों के पश्चात् 387 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया। इस महासभा का आयोजन मगध शासक कालाशोक ने किया था। इस महासभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इस सभा का आयोजन करने का कारण यह था कि बौद्ध संघ में संबंधित दस नियमों ने भिक्षुओं में मतभेद उत्पन्न कर दिए थे। इन नियमों के संबंध में काफी दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा, किंतु भिक्षुओं के मतभेद दूर न हो सके। परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षु दो संप्रदायों में बंट गए। इनके नाम स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक थे। स्थविरवादी नवीन नियमों के विरुद्ध थे। वे बुद्ध के नियमों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। महासंघिक परंपरावादी नियमों में कुछ परिवर्तन करना चाहते थे ताकि बौद्ध संघ के अनुशासन की कठोरता को कुछ कम किया जा सके। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक भिक्षुओं को निकाल दिया गया।

प्रश्न 37.
तीसरी बौद्ध महासभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Third Buddhist Council.)
उत्तर-
दूसरी महासभा के आयोजन के बाद बौद्ध धर्म 18 शाखाओं में विभाजित हो गया था। इनके आपसी मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म की उन्नति को गहरा धक्का लगा। बौद्ध धर्म की पुनः प्रगति के लिए तथा इस धर्म में आई कुप्रथाओं को दूर करने के उद्देश्य से महाराजा अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में 251 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की तीसरी महासभा का आयोजन किया। इस महासभा में 1000 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। इस महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। यह महासभा 9 माह तक चलती रही। यह महासभा बौद्ध धर्म में आईं अनेक कुप्रथाओं को दूर करने में काफी सीमा तक सफल रही। इस महासभा से थेरावादी भिक्षुओं के सिद्धांतों को न मानने वाले भिक्षुओं को निकाल दिया गया था। इस महासभा में कथावथु नामक ग्रंथ की रचना की गई। इस महासभा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध प्रचारकों को भेजना था।

प्रश्न 38.
चौथी बौद्ध महासभा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Fourth Great Council ?)
उत्तर-
महाराजा अशोक की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध भिक्षुओं के मतभेद पुन: बढ़ गए थे। इन मतभेदों को दूर करने के उद्देश्य से कुषाण शासक कनिष्क ने जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा का आयोजन प्रथम शताब्दी ई० में किया गया था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। वसुमित्र ने महाविभाष नामक ग्रंथ की रचना की जिसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा जाता है। इस महासभा में सम्मिलित एक अन्य विद्वान् अश्वघोष ने बुद्धचरित नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन किया गया है। इस महासभा में मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान तथा महायान में विभाजित हो गया। कनिष्क ने महायान संप्रदाय का समर्थन किया।

प्रश्न 39.
बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अशोक ने क्या प्रयास किए ? (What steps were taken by Ashoka for the spread of Buddhism ?)
उत्तर-
अशोक ने बौद्ध धर्म को फैलाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उससे पहले बौद्ध मत बहुत ही कम लोगों तक सीमित था। अशोक ने इस धर्म को अपनाकर इसमें एक नई रूह फूंक दी। उसने बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से इसे राज्य धर्म घोषित किया। इसका सारे राज्य भर में व्यापक प्रचार किया गया। बौद्ध
धर्म के प्रचार के लिए महामात्रों को नियुक्त किया गया। अशोक ने बौद्ध धर्म से संबंधित तीर्थ स्थानों की यात्राएँ की। समस्त राज्य में बौद्ध विहार तथा स्तूप बनवाए। पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा बुलाई। विदेशों में बौद्ध धर्म के लिए धर्म प्रचारकों को भेजा। श्रीलंका में अशोक का अपना पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा गए थे। अशोक के इन अथक यत्नों से बौद्ध धर्म संसार का एक महान् धर्म बन गया।

प्रश्न 40.
बौद्ध धर्म की भारतीय संस्कृति को क्या देन है ?
(What is the legacy of Buddhism to Indian Civilization ?)
उत्तर-
भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। समाज में एकता लाने के लिए महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक जाति के लोगों को अपने धर्म में सम्मिलित होने की अनुमति दी। स्त्रियों को बौद्ध धर्म में सम्मिलित करके उन्हें एक नया सम्मान दिया। उन्होंने लोगों को व्यर्थ के रीति-रिवाजों को त्यागने और सादा जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया। महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघों की स्थापना करके लोकतंत्र प्रणाली की नींव रखी। इन के सदस्य लोगों द्वारा गुप्त मतदान से चुने जाते थे। इनमें निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। बौद्ध धर्म की भवन निर्माण कला, मूर्तिकला, चित्रकला के क्षेत्रों में बहुत महान् देन है। गंधार, मथुरा और अमरावती महात्मा बुद्ध की सुंदर मूर्तियों के कारण आज भी प्रसिद्ध हैं। बौद्ध मत के बारे में लिखे गए धार्मिक ग्रंथों से हमें उस समय की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर कई राजाओं अशोक, कनिष्क और हर्ष आदि ने लोक कल्याण के अथक कार्य किए। बौद्ध धर्म के कारण भारत के विदेशों से मित्रतापूर्वक संबंध स्थापित हुए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 41.
स्तूप पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Stupa.)
उत्तर-
स्तूप बुद्ध के परिनिर्वाण (मुक्ति) के चिन्ह थे। यह एक अर्द्ध-गोलाकार गंबद होता था जिसके मध्य में स्थित एक छोटे-से कमरे में बुद्ध के अवशेष रखे जाते थे। कला के पक्ष से इन स्तूपों का बहुत महत्त्व था। अमरावती का स्तूप जोकि तमिलनाडु राज्य में है साँची एवं भरहुत के स्तूप जो मध्य प्रदेश में हैं, की उत्तम कला को देखकर व्यक्ति चकित रह जाता है। स्तूपों पर की गई नक्काशी की कला भी कम प्रभावशाली नहीं है। लकड़ी पर की गई नक्काशी के नमूने तो बहुत देर तक सुरक्षित न रह सके, परंतु अमरावती और साँची की पत्थर से बनी हुई दीवारों पर की गई सुंदर नक्काशी को आज भी देखा जा सकता है। इन पर बुद्ध के जन्म, गृह-त्याग, ज्ञान प्राप्ति, धर्म चक्कर परिवर्तन का पहला प्रवचन और महापरिनिर्वाण से संबंधित चित्रों को बड़े आकर्षक ढंग से दर्शाया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म का संस्थापक कौन था ?
अथवा
बौद्ध धर्म के बानी कौन थे ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध।

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म कितने वर्ष पुराना है ?
उत्तर-
2500 वर्ष।

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
छठी शताब्दी ई० पू० में।

प्रश्न 4.
बौद्ध धर्म के उत्थान का कोई एक कारण लिखो।
उत्तर-
हिंदू धर्म की जटिलता।

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
566 ई० पू० में।

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ ?
उत्तर-
लुंबिनी में।

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का जन्म 566 ई० पू० में लुंबिनी में हुआ।

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध के पिता जी का नाम बताएँ।
अथवा
महात्मा बुद्ध के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
शुद्धोधन।

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध के पिता जी किस गणराज्य के मुखिया थे ?
उत्तर-
शाक्य गणराज्य।

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध की माता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
महामाया।

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध के जन्म के कितने दिनों के बाद उनकी माता जी की मृत्यु हो गई थी ?
उत्तर-
7 दिन।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध का पालन किसने किया था ?
उत्तर-
प्रजापति गौतमी ने।

प्रश्न 13.
महात्मा बुद्ध का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
सिद्धार्थ।

प्रश्न 14.
महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान और बचपन का नाम क्या था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ तथा उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।

प्रश्न 15.
महात्मा बुद्ध का विवाह किसके साथ हुआ था ?
उत्तर-
यशोधरा के साथ।

प्रश्न 16.
महात्मा बुद्ध के पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर-
राहुल।

प्रश्न 17.
महात्मा बुद्ध की पत्नी तथा पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम यशोधरा और पुत्र का नाम राहुल था।

प्रश्न 18.
महात्मा बुद्ध के रथवान का क्या नाम था ?
उत्तर-
चन्न।

प्रश्न 19.
महात्मा बुद्ध के जीवन पर कितने दृश्यों का प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
चार दृश्यों का।

प्रश्न 20.
महान् त्याग के समय महात्मा बुद्ध की आयु क्या थी ?
उत्तर-
29 वर्ष।

प्रश्न 21.
महात्मा बुद्ध ने गृह त्याग के पश्चात् किसे अपना प्रथम गुरु धारण किया ?
उत्तर-
अरध कलाम को।

प्रश्न 22.
महात्मा बुद्ध को सत्य की प्राप्ति किस स्थान पर हुई ?
उत्तर-
बोध गया में।

प्रश्न 23.
ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु क्या थी ?
उत्तर-
35 वर्ष।

प्रश्न 24.
तथागत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तथागत से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जिसने सत्य को प्राप्त कर लिया हो।

प्रश्न 25.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन किस स्थान पर दिया था ?
उत्तर-
सारनाथ में।

प्रश्न 26.
धर्मचक्र परिवर्तन किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
सारनाथ में।

प्रश्न 27.
धर्मचक्र परिवर्तन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध द्वारा पाँच साथियों को बौद्ध धर्म में सम्मिलित करने की घटना को धर्मचक्र परिवर्तन कहा जाता है।

प्रश्न 28.
महात्मा बुद्ध के किन्हीं दो प्रसिद्ध प्रचार केंद्रों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. मगध
  2. वैशाली।

प्रश्न 29.
मगध के किन दो शासकों ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया था?
उत्तर-

  1. बिंबिसार
  2. अजातशत्रु।

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प्रश्न 30.
महात्मा बुद्ध ने कहाँ निर्वाण प्राप्त किया था ?
उत्तर-
कुशीनगर में।

प्रश्न 31.
महात्मा बुद्ध की निर्वाण प्राप्ति के समय आयु कितनी थी ?
उत्तर-
80 वर्ष।

प्रश्न 32.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार किस भाषा में किया ?
उत्तर–
पालि भाषा में।

प्रश्न 33.
बौद्ध धर्म कितने महान् सत्यों में विश्वास रखता है ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 34.
बौद्ध धर्म के किसी एक महान् सत्य के बारे में बताएँ।
उत्तर-
संसार दुखों से भरा हुआ है।

प्रश्न 35.
बौद्ध धर्म में कितने लक्षणों का वर्णन किया गया है?
उत्तर-
तीन।

प्रश्न 36.
बौद्ध धर्म में गृहस्थियों के लिए किस सिद्धांत का पालन आवश्यक बताया है ?
उत्तर-
पंचशील की।

प्रश्न 37.
पंचशील को किस अन्य नाम से भी जाना जाता है ?
उत्तर-
शिक्षापद के नाम से।

प्रश्न 38.
पंचशील के किसी एक सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर-
छोट-से-छोटे जीव की भी हत्या न करें।

प्रश्न 39.
बौद्ध धर्म में कितने असीम सद्गुणों की पालना करने को कहा गया है ?
उत्तर-
चार असीम सद्गुणों की।

प्रश्न 40.
बौद्ध धर्म के किसी एक असीम सद्गुण का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए।

प्रश्न 41.
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या भाव है ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म में निर्वाण से भाव उस दशा से है जहाँ मनुष्य के सभी दुखों का अंत हो जाता है।

प्रश्न 42.
बौद्ध संघ में प्रवेश के समय भिक्षु को क्या शपथ लेनी पड़ती थी ?
उत्तर-
“मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।”

प्रश्न 43.
बौद्ध संघ में सम्मिलित होने के लिए किसी व्यक्ति के लिए कम-से-कम कितनी आयु निश्चित की गई थी ?
उत्तर-
15 वर्ष।

प्रश्न 44.
बौद्ध संघ में सम्मिलित होने वाले सदस्यों के लिए कितने नियमों का पालन आवश्यक था ?
उत्तर-
10 नियमों का।

प्रश्न 45.
बौद्ध संघ में किनको शामिल नहीं किया जाता था ?
उत्तर-
बौद्ध संघ में अपराधियों, रोगियों तथा दासों को शामिल नहीं किया जाता था।

प्रश्न 46.
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों के नाम लिखें।
अथवा
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय कौन-कौन से हैं ?
अथवा
बुद्ध धर्म कौन-सी दो शाखाओं में बाँटा गया था ?
उत्तर-
हीनयान तथा महायान।

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प्रश्न 47.
हीनयान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हीनयान से अभिप्राय है छोटा चक्कर।

प्रश्न 48.
महायान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
महायान से अभिप्राय है बड़ा चक्कर।

प्रश्न 49.
बौद्ध धर्म की महायान शाखा किस सम्राट के शासन काल में अस्तित्व में आई ?
उत्तर-
कनिष्क के शासन काल में।

प्रश्न 50.
बौद्ध धर्म के त्रिपिटकों के नाम बताएँ।
उत्तर-
सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक।

प्रश्न 51.
त्रिपिटक किस भाषा में लिखे गए हैं ?
उत्तर–
पालि भाषा में।

प्रश्न 52.
किस पिटक में बुद्ध के उपदेशों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
सुत्तपिटक में।

प्रश्न 53.
किस पिटक में बौद्ध संघ के नियमों पर प्रकाश डाला गया है ?
उत्तर-
विनयपिटक में।

प्रश्न 54.
अभिधम्मपिटक का मुख्य विषय क्या है ?
उत्तर-
बौद्ध दर्शन।

प्रश्न 55.
जातक क्या है ?
उत्तर-
जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएँ दी गई हैं।

प्रश्न 56.
जातकों की कुल संख्या कितनी है ?
उत्तर-
549.

प्रश्न 57.
पातीमोख क्या है ?
उत्तर-
इसमें विनयपिटक में वर्णित नियमों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

प्रश्न 58.
बौद्ध धर्म के किस ग्रंथ को बौद्ध गीता कहा जाता है ?
उत्तर-
धम्मपद ग्रंथ को।

प्रश्न 59.
किस बौद्ध ग्रंथ में नागसेन एवं यूनानी शासक मिनांदर के वार्तालाप का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
मिलिंदपन्हो में।

प्रश्न 60.
बौद्ध धर्म से संबंधित श्रीलंका में किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की गई ?
उत्तर-
दीपवंश।

प्रश्न 61.
पालि भाषा में लिखे गए किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम लिखें।
उत्तर-
त्रिपिटक।

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प्रश्न 62.
संस्कृत भाषा में लिखे गए किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम लिखें।
उत्तर-
बुद्धचरित।

प्रश्न 63.
बुद्धचरित का लेखक कौन था ?
उत्तर-
अश्वघोष।

प्रश्न 64.
नागार्जुन ने किस बौद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
मध्यमकसूत्र।

प्रश्न 65.
किसी एक प्रसिद्ध अवदान पुस्तक का नाम लिखें।
उत्तर-
दिव्यावदान।

प्रश्न 66.
शिक्षा सम्मुचय का लेखक कौन था ?
उत्तर-
शाँति देव।

प्रश्न 67.
प्रथम बौद्ध महासभा कब आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
487 ई० पू० में।

प्रश्न 68.
प्रथम बौद्ध महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
राजगृह में।

प्रश्न 69.
प्रथम बौद्ध महासभा का अध्यक्ष कौन था ?
उत्तर-
महाकश्यप।

प्रश्न 70.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा किस शासक ने आयोजित की थी ?
उत्तर-
अजातशत्रु ने।

प्रश्न 71.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा में कौन-से ग्रंथ तैयार किए गए थे ?
उत्तर-
त्रिपिटक।

प्रश्न 72.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा कब आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
387 ई० पू० में।

प्रश्न 73.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा कहाँ आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
वैशाली में।

प्रश्न 74.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा में कौन-से दो संप्रदाय अस्तित्व में आए ?
उत्तर-
महासंघिक तथा थेरावादी।

प्रश्न 75.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
पाटलिपुत्र में।

प्रश्न 76.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
उत्तर-
251 ई० पू० में।

प्रश्न 77.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
उत्तर-
मोग्गलिपुत्त तिस्स ने।

प्रश्न 78.
मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
कथावथु नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की।

प्रश्न 79.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन किस शासक ने किया था ?
उत्तर-
कनिष्क ने।

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प्रश्न 80.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
जालंधर में।

प्रश्न 81.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
उत्तर-
वसुमित्र ने।

प्रश्न 82.
वसुमित्र ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
महाविभास नामक ग्रंथ की।

प्रश्न 83.
बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
बोधिसत्त्व किसको कहते हैं ? ।
उत्तर-
बोधिसत्त्व से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जो लोगों की भलाई के लिए बार-बार जन्म लेता है।

प्रश्न 84.
बौद्ध धर्म का प्रचार कौन-से राजा ने किया ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म का प्रचार राजा अशोक ने किया।

प्रश्न 85.
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए क्या किया ? कोई एक बिंदु दें।
उत्तर-
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित किया।

प्रश्न 86.
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए किसे श्रीलंका भेजा ?
उत्तर-
अपनी पुत्री संघमित्रा एवं पत्र महेंद्र को।

प्रश्न 87.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किस शासक ने किया था ?
अथवा
बौद्ध धर्म की किस राजा ने सरपरस्ती की ?
उत्तर-
महाराजा अशोक ने।

प्रश्न 88.
कौन-से दो राजाओं ने बौद्ध धर्म का विकास किया ?
उत्तर-
महाराजा अशोक और महाराजा कनिष्क।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1.
महात्मा बुद्ध का जन्म ………… में हुआ।
उत्तर-
566 ई०पू०

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म …………में हुआ।
उत्तर-
लुंबिनी

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध के पिता का नाम ……….. था।
उत्तर-
शुद्धोधन

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध की माता का नाम ………… था।
उत्तर-
महामाया

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम …………. था।
उत्तर-
सिद्धार्थ

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम ………… था।
उत्तर-
यशोधरा

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध के गृह त्याग के समय उनकी आयु ……….. थी।
उत्तर-
29 वर्ष

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति ……….. में हुई।
उत्तर-
बौद्ध गया

प्रश्न 9.
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश ………. में दिया।
उत्तर-
सारनाथ

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध ने महापरिनिर्वाण ……….. में प्राप्त किया था।
उत्तर-
कुशीनगर

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प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध ने ……….. में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
486 ई० पू०

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध ………… महान् सच्चाइयों में विश्वास रखते थे।
उत्तर-
चार

प्रश्न 13.
अष्ट मार्ग को ………… मार्ग भी कहा जाता है।
उत्तर-
मध्य

प्रश्न 14.
बौद्ध धर्म …………… लक्षणों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
तीन

प्रश्न 15.
बौद्ध धर्म ………….. नियमों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
पाँच

प्रश्न 16.
बौद्ध धर्म ………… सामाजिक सद्गुणों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
चार

प्रश्न 17.
बौद्ध संघ में शामिल होने के लिए कम से कम आयु ………… वर्ष निश्चित की गई है।
उत्तर-
15

प्रश्न 18.
बौद्ध संघ के सदस्यों को ………….. नियमों की पालना करनी पड़ती है।
उत्तर-
10

प्रश्न 19.
………. के समय बौद्ध धर्म की महायान शाखा का जन्म हुआ।
उत्तर-
निष्क

प्रश्न 20.
………….. में बौद्धी भिक्षुओं और भिक्षुणियों के दैनिक जीवन संबंधी नियमों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-
विनयपिटक

प्रश्न 21.
जातक कथाओं की कुल संख्या ……….. है।
उत्तर-
549

प्रश्न 22.
……….. नामक ग्रंथ की रचना श्री लंका में की गई थी।
उत्तर-
दीपवंश

प्रश्न 23.
बौद्ध चरित्र का लेखक ……… था।
उत्तर-
अश्वघोष

प्रश्न 24.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन …………. में किया गया।
उत्तर-
487 ई० पू०

प्रश्न 25.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन ………… ने किया था।
उत्तर-
अजातशत्रु

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन …………. में हुआ था।
उत्तर-
वैशाली

प्रश्न 27.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन ……….. में किया गया था।
उत्तर-
पाटलिपुत्र

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन ………….. ने किया था।
उत्तर-
कनिष्क

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए महाराजा अशोक ने अपनी पुत्री ……….. को श्री लंका भेजा था।
उत्तर-

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1.
महात्मा बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म 546 ई० पू० में हुआ।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम महामाया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के जीवन में चार महान् दृश्यों का गहरा प्रभाव पड़ा।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध के महान् त्याग के समय उनकी आयु 35 वर्ष थी।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध को बौद्ध गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध को वैसाख की पूर्णमासी वाले दिन ज्ञान प्राप्त हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वैशाली में दिया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध ने 72 वर्ष की आयु में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध ने कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार पालि भाषा में किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
बौद्ध धर्म पाँच पावन सच्चाइयों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 14.
बौद्ध धर्म अष्ट मार्ग में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
बौद्ध धर्म अहिंसा में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
बौद्धी संध में शामिल होने के लिए कम से कम आयु 20 वर्ष निश्चित की गई है।
उत्तर-
ग़लत

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 18.
बौद्ध धर्म पँचशील में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
बौद्ध धर्म की महायान शाखा का जन्म अशोक के समय हुआ था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 20.
बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा जादू-ट्रनों और मंत्रों में विश्वास रखती थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 21.
बौद्ध धर्म के त्रिपिटक नामक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गए थे।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 22.
बौद्धियों के लिए बनाए गए नियम पातीमोख में दिए गए हैं।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 23.
धर्मपद बौद्धी गीतों के नाम से प्रसिद्ध है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 24.
कथावथु का लेखक मोग्गलिपुत्त तिस्स था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
महावंश चीन में लिखी गई बौद्धियों की एक प्रसिद्ध पुस्तक है।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 26.
अश्वघोष ने बौद्ध चरित की रचना की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27.
लंकावतार महायानियों का एक प्रमुख ग्रंथ है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा की अध्यक्षता साबाकामी ने की थी।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन 487 ई० पू० में किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 30.
बौद्धियों की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 31.
बौद्धियों की तीसरी महासभा का आयोजन 251 ई० पू० में हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 32.
बौद्धियों की चौथी महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। ,
उत्तर-
ग़लत

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 33.
महाराजा अशोक ने अपनी पुत्र संघमित्रा को चीन में बौद्ध मत के प्रचार के लिए भेजा था।
उत्तर-
ग़लत

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा कारण बौद्ध धर्म के जन्म के लिए उत्तरदायी नहीं था ?
(i) हिंदू धर्म की सादगी
(ii) ब्राह्मणों का नैतिक पतन
(iii) जटिल जाति प्रथा
(iv) महापुरुषों का जन्म।
उत्तर-
(i) हिंदू धर्म की सादगी

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ था ?
(i) 466 ई० पू०
(ii) 566 ई० पू०
(iii) 577 ई० पू०
(iv) 599 ई० पू०।
उत्तर-
(ii) 566 ई० पू०

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ था ?
(i) वैशाली
(ii) कौशल
(iii) कुशीनगर
(iv) लुंबिनी।
उत्तर-
(iv) लुंबिनी।

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) शुद्धोधन
(ii) सिद्धार्थ
(iii) गौतम
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i) शुद्धोधन

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम क्या था ?
(i) महामाया
(ii) प्रजापति गौतमी
(iii) यशोधरा
(iv) देवकी।
उत्तर-
(i) महा

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) शुद्धोधन
(ii) वर्धमान
(iii) सिद्धार्थ
(iv) राहुल।
उत्तर-
(ii) वर्धमान

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध ने कितने दृश्यों को देखकर ग्रह त्याग का निर्णय किया ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 6
(iv) 8.
उत्तर-
(ii) 4

प्रश्न 8.
गृह त्याग के समय महात्मा बुद्ध की आयु कितनी थी ?
(i) 25 वर्ष
(ii) 27 वर्ष
(iii) 29 वर्ष
(iv) 35 वर्ष।
उत्तर-
(iii) 29 वर्ष

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति हुई थी ?
(i) अंग
(ii) राजगृह
(iii) वैशाली
(iv) बौद्धगया।
उत्तर-
(iv) बौद्धगया।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया ?
(i) कपिलवस्तु
(ii) लुंबिनी
(iii) कुशीनगर
(iv) सारनाथ।
उत्तर-
(iv) सारनाथ।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था ?
(i) कुशीनगर
(ii) कौशल
(iii) विदेह
(iv) कपिलवस्तु।
उत्तर-
(i) कुशीनगर

प्रश्न 12.
महापरिनिर्वाण प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु कितनी थी ?
(i) 45 वर्ष
(ii) 55 वर्ष
(iii) 80 वर्ष
(iv) 85 वर्ष ।
उत्तर-
(iii) 80 वर्ष

प्रश्न 13.
बौद्ध धर्म कितनी पावन सच्चाइयों में विश्वास रखता था ?
(i) 4
(ii) 5
(iii) 6
(iv) 7
उत्तर-
(i) 4

प्रश्न 14.
अष्टमार्ग का संबंध किस धर्म के साथ है ?
(i) जैन धर्म के साथ
(i) बौद्ध धर्म के साथ
(iii) इस्लाम के साथ
(iv) पारसी धर्म के साथ।
उत्तर-
(i) बौद्ध धर्म के साथ

प्रश्न 15.
बौद्ध धर्म कितने लक्षणों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 6
उत्तर-
(i) 3

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है ?
(i) महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे।
(ii) वे परस्पर भातृत्व में विश्वास रखते थे।
(iii) वे यज्ञों व बलियों में विश्वास रखते थे।
(iv) वे अहिंसा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-
(iii) वे यज्ञों व बलियों में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 17.
बौद्ध संघ में शामिल होने के लिए कम-से-कम कितनी आयु निश्चित की गई थी ?
(i) 15
(ii) 20
(iii) 30
(iv) 40
उत्तर-
(i) 15

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से किस संप्रदाय का संबंध बौद्ध धर्म के साथ नहीं है ?
(i) हीनयान
(ii) महायान
(iii) दिगंबर
(iv) वज्रयान।
उत्तर-
(iii) दिगंबर

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सा ग्रंथ बौद्ध धर्म के साथ संबंधित नहीं है ?
(i) त्रिपिटक
(ii) आचारंग सूत्र
(iii) दीपवंश
(iv) सौंदरानंद।
उत्तर-
(i) त्रिपिटक

प्रश्न 20.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार किस भाषा में किया था ?
(i) पालि में
(ii) संस्कृत में
(iii) हिंदी में
(iv) अर्ध मगधी में।
उत्तर-
(i) पालि में

प्रश्न 21.
निम्नलिखित में से कौन बौद्ध चरित का लेखक था ?
(i) महात्मा बुद्ध
(ii) अश्वघोष
(iii) नागार्जुन
(iv) शांति देव।
उत्तर-
(i) महात्मा बुद्ध

प्रश्न 22.
निम्नलिखित में से कौन-सी पुस्तक श्रीलंका में लिखी गई थी ?
(i) त्रिपिटक
(iI) दीपवंश
(iii) बौद्धचरित
(iv) ललित विस्तार।
उत्तर-
(Ii) दीपवंश

प्रश्न 23.
निम्नलिखित में से कौन-सी पुस्तक बौद्धी गीतों के नाम से प्रसिद्ध है ?
(i) जातक
(ii) पातीमोख
(iii) धमपद
(iv) महावंश।
उत्तर-
(iii) धमपद

प्रश्न 24.
जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म के साथ संबंधित कितनी कथाएँ प्रचलित हैं ?
(i) 549
(ii) 649
(iii) 749
(iv) 849.
उत्तर-
(i) 549

प्रश्न 25.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
(i) 485 ई० पू०
(ii) 486 ई० पू०
(iii) 487 ई० पू०
(iv) 488 ई० पू०।
उत्तर-
(iii) 487 ई० पू०

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
(i) राजगृह में
(ii) लुंबिनी में
(iii) कपिलवस्तु में
(iv) कुशीनगर में।
उत्तर-
(i) राजगृह में

प्रश्न 27.
त्रिपिटक नामक ग्रंथ बौद्ध धर्म की किस महासभा में लिखे गए थे ?
(i) पहली महासभा में
(ii) दूसरी महासभा में
(iii) तीसरी महासभा में
(iv) चौथी महासभा में।
उत्तर-
(i) पहली महासभा में

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प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
(i) 384 ई० पू०
(ii) 385 ई० पू०
(iii) 386 ई० पू०
(iv) 387 ई० पू०
उत्तर-
(iv) 387 ई० पू०

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) अजातशत्रु
(ii) कालासोक
(iii) महाकश्यप
(iv) अशोक।
उत्तर-
(i) अजातशत्रु

प्रश्न 30.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) 251 ई० पू०
(ii) 254 ई० पू०
(iii) 255 ई० पू०
(iv) 257 ई० पू०।
उत्तर-
(i) 251 ई० पू०

प्रश्न 31.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
(i) पाटलिपुत्र में
(ii) वैशाली में
(iii) राजगृह में
(iv) लुंबिनी में।
उत्तर-
(i) पाटलिपुत्र में

प्रश्न 32.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) अजातशत्रु ने
(ii) अशोक ने
(iii) हर्षवर्धन ने
(iv) कनिष्क ने।
उत्तर-
(ii) अशोक ने

प्रश्न 33.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
(i) महाकश्यप ने
(ii) सभाकामी ने
(iii) मोग्गलिपुत्त तिस्स ने
(iv) वसुमित्र ने।
उत्तर-
(iv) वसुमित्र ने।

प्रश्न 34.
महाराजा अशोक ने निम्नलिखित में से किसे श्रीलंका में प्रसार के लिए भेजा था ?
(i) राहुल को
(ii) आनंद को
(iii) आम्रपाली को
(iv) महेंद्र को।
उत्तर-
(iv) महेंद्र को।