PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS).

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से सामाजिक आन्दोलन की कौन-सी विशेषता नहीं है ?
(क) सामूहिक चेतना
(ख) निश्चित विचारधारा
(ग) सामूहिक गतिशीलता
(घ) केवल स्वभाव में हिंसक प्रवृत्ति ।
उत्तर-
(घ) केवल स्वभाव में हिंसक प्रवृत्ति ।

प्रश्न 2.
सत्यशोधक आन्दोलन का किसने प्रतिनिधित्व किया ?
(क) ज्योतिराँव फूले
(ख) डॉ० अम्बेदकर
(ग) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर
(घ) नारायण गुरु।
उत्तर-
(क) ज्योतिराव फूले।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा जाति आधारित आन्दोलन नहीं है ?
(क) माहर आन्दोलन
(ख) SNDP आन्दोलन
(ग) सत्यशोधक आन्दोलन
(घ) नील आन्दोलन।
उत्तर-
(घ) नील आन्दोलन।

प्रश्न 4.
आत्म सम्मान आन्दोलन किसने आरम्भ किया ?
(क) पेरियार ई० वी० रामास्वामी
(ख) डॉ० अम्बेदकर
(ग) श्री नारायण गुरु
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) पेरियार ई० वी० रामास्वामी।

प्रश्न 5.
जब लोग वर्तमान सामाजिक व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं होते व सारी सामाजिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की वकालत करते हो तो इस प्रकार के आन्दोलन को कहते हैं-
(क) पुनः रुत्थानवादी आन्दोलन
(ख) सुधार आन्दोलन
(ग) क्रान्तिकारी आन्दोलन
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) क्रान्तिकारी आन्दोलन।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. SEWA से अभिप्राय ……….. है।
2. वर्ग आन्दोलन में ………. एवं ………. आन्दोलन शामिल हैं।
3. ……… ने मानवता के लिए एक धर्म व एक ईश्वर का नारा दिया।
4. ………. ने सती प्रथा की रोकथाम के लिए महत्त्वपूर्ण प्रयास किए।
5. किसानों को ………….. कृषि करने को विवश किया गया जिसके परिणामस्वरूप नील आन्दोलन हुआ।
उत्तर-

  1. Self Employed Women’s Association
  2. कामगार, स्त्री
  3. श्री नारायण गुरु
  4. राजा राम
  5. मोहन राय
  6. नील की।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. सामाजिक आन्दोलन में लगातार सामूहिक गतिशीलता, औपचारिक अथवा अनौपचारिक संगठन द्वारा होती है।
2. सामाजिक आन्दोलन हमेशा स्वभाव में शान्तिपूर्वक होते हैं।
3. मेहर आन्दोलन का आधार है-हिन्दू जाति के धर्म को पूरी तरह से अस्वीकारना।
4. SNDP आन्दोलन ज्योतिरॉव फूले द्वारा संस्थापित हुआ।
उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. सही
  4. गलत।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
आत्म सम्मान आन्दोलन — चण्डी प्रसाद भट्ट
मेहर आन्दोलन — मेधा पाटेकर
चिपको आन्दोलन — पैरियार० ई० वी० रामास्वामी
ब्रह्म समाज — राजा राम मोहन राय
नर्मदा बचाओ आन्दोलन — डॉ० अम्बेदकर।
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ –कॉलम ‘बी’
आत्म सम्मान आन्दोलन –पैरियार० ई० वी० रामास्वामी
मेहर आन्दोलन –डॉ० अम्बेदकर।
चिपको आन्दोलन — चण्डी प्रसाद भट्ट
ब्रह्म समाज –राजा राम मोहन राय
नर्मदा बचाओ आन्दोलन — मेधा पाटेकर

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. श्री नारायण धर्म परिपालन आन्दोलन की नींव किसने रखी ?
उत्तर- श्री नारायण गुरु ने।

प्रश्न 2. मज़दूर महाजन संघ की नींव किसने रखी ?
उत्तर-महात्मा गांधी ने।

प्रश्न 3. ब्रह्म समाज की नींव किसने रखी ?
उत्तर-राजा राम मोहन राय ने।

प्रश्न 4. चिपको आन्दोलन का जनक कौन है ?
उत्तर-चण्डी प्रसाद भट्ट।

प्रश्न 5. चिपको आन्दोलन के किस महापुरुष को उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए ‘पदम् श्री’ विभूषण से नवाज़ा गया ?
उत्तर-सुन्दर लाल बहुगुणा को।

प्रश्न 6. चिपको आन्दोलन के नेता कौन थे ?
उत्तर-चण्डी प्रसाद भट्ट तथा सुन्दर लाल बहुगुणा।

प्रश्न 7. किन्हीं दो जाति आधारित आन्दोलनों के नाम दें।
उत्तर-सत्यशोधक आन्दोलन तथा श्री नारायण धर्म परिपालना जाति आन्दोलन।

प्रश्न 8. किसान किन्हें कहा जाता है ?
उत्तर-वह व्यक्ति जो अपनी भूमि पर कृषि करके फसल का उत्पादन करता है, उसे किसान कहा जाता है।

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प्रश्न 9. SEWA का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-SEWA शब्द को Self Employed Women’s Association के लिए प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 10. ब्रह्म समाज की नींव किसने रखी ?
उत्तर-राजा राम मोहन राय ने।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन को चिपको क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
सरकार ने गढ़वाल क्षेत्र के जंगलों को ठेकेदारों को दे दिया ताकि वे पेड़ काट सकें। चण्डी प्रसाद भट्ट, गौरा देवी तथा सुन्दर लाल बहुगुणा ने इस आन्दोलन को चलाया था। जब ठेकेदार पेड़ काटने आते तो स्त्रियां पेड़ों को चिपक कर उनसे आलिंगन कर लेती थीं। इस कारण इसे चिपको आन्दोलन कहते हैं।

प्रश्न 2.
जाति आन्दोलन से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जाति आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य निम्न जातियों के संघर्ष को सामने लाना था। यह आन्दोलन इस कारण चलाए गए थे ताकि न केवल आर्थिक शोषण से छुटकारा मिल सके बल्कि अस्पृश्यता जैसी प्रथाओं तथा इससे सम्बन्धित विचारधारा को समाज में से खत्म किया जा सके।

प्रश्न 3.
वर्णन करें: (a) किसान आन्दोलन (b) नारी आन्दोलन।
उत्तर-
(a) किसान आन्दोलन-किसान आन्दोलन मुख्य रूप से पंजाब के क्षेत्र में चलाए गए थे। इनका मुख्य उद्देश्य किसानों के कर्जे तथा करों को कम करना था। यह आन्दोलन उस समय तक चलते रहे जब तक कि इससे संबंधित कानून नहीं पास हो गए।
(b) नारी आन्दोलन-सदियों से स्त्रियों को दबाया जा रहा था। समाज में उनकी स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में कई आन्दोलन चले। राजा राम मोहन राय, ईश्वर-चन्द्र विद्यासागर, जी० के० कार्वे इत्यादि इन आन्दोलनों के प्रमुख नेता थे।

प्रश्न 4.
वर्ग आन्दोलन से आपका क्या अभिप्राय है ? किन्हीं वर्ग आन्दोलन के नाम दें।
उत्तर-
वर्ग आन्दोलन में श्रमिकों के आन्दोलन तथा किसानों के आन्दोलन आ जाते हैं। श्रमिकों तथा किसानों की मुख्य माँग थी कि उन्हें आर्थिक शोषण से छुटकारा दिलाया जा सके। श्रमिक संघ आन्दोलन वर्ग आन्दोलन का ही एक प्रकार हैं।

प्रश्न 5.
वर्ग आन्दोलन के उद्भव के लिए उत्तरदायी घटकों की संक्षेप में चर्चा करें।
उत्तर-
वर्ग आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों को आर्थिक शोषण से छुटकारा दिलाना था। कम आय, अधिक कार्य करने के घण्टे, कार्य करने के गंदे हालात, देशी तथा विदेशी पूँजीपतियों के हाथों होता शोषण इन आन्दोलनों को शुरू करने का मुख्य कारण था।

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IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आप पर्यावरण आन्दोलन से क्या समझते हैं ? इस प्रकार के आन्दोलन के आरम्भ होने का कारण स्पष्ट करें।
उत्तर-
पर्यावरण आन्दोलन कई सामाजिक समूहों के इकट्ठे होकर संघर्ष करने का एक बहुत बढ़िया उदाहरण है। यह आंदोलन वातावरण को बचाने के लिए चलाए गए थे। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य स्रोतों पर नियंत्रण, स्थानीय लोगों का अपनी संस्कृति को बचाने का अधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा तथा पर्यावरण के संतुलन को बना कर रखने के लिए चलाए गए थे। वास्तव में आधुनिक समय में विकास पर काफ़ी ज़ोर दिया जाता है तथा यह विकास प्राकृतिक स्रोतों के शोषण से ही हो सकता है। परन्तु इस विकास का प्रकृति पर काफ़ी बुरा प्रभाव पड़ता है। इस बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए पर्यावरण आन्दोलन चलाए गए थे ताकि पर्यावरण की सुरक्षा की जा सके तथा इसके सन्तुलन को बना कर रखा जा सके।

प्रश्न 2.
किन्हीं दो जाति आन्दोलनों की चर्चा करें।
उत्तर-

  • सत्यशोधक आन्दोलन-यह आन्दोलन सत्य शोधक समाज ने चलाया था जिसे ज्योतिराव फूले ने शुरू किया था। उन्होंने मुख्य रूप से कहा था कि महाराष्ट्र में मुख्य विभाजन एक तरफ ब्राह्मण हैं तथा दूसरी तरफ निम्न जातियां हैं। इस प्रकार इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणों के प्रत्येक प्रकार के विशेषाधिकार खत्म करना था ताकि निम्न जातियों को भी समाज में उच्च स्थान मिल सके।
  • श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन-यह आन्दोलन 1895 में श्री नारायण गुरु ने केरल में चलाया था। वह स्वयं इज़ावा जाति से संबंध रखते थे जिन्हें अस्पृश्य समझा जाता था। इस जाति को मूर्ति पूजा या जानवरों की बलि नहीं देने दी जाती थी। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य इज़ावा लोगों का उत्थान तथा अस्पृश्यता की प्रथा को खत्म करना था। साथ ही ऐसे मन्दिरों का निर्माण करना था जो सभी जातियों के लिए खुले हों।

प्रश्न 3.
पंजाब में किसान आन्दोलन के तत्त्वों की चर्चा करें।
उत्तर-
पंजाब में किसान आन्दोलन मुख्य रूप से जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर, लायलपुर तथा शेखुपुरा जिलों में ही सीमित थे। इन जिलों में केवल वे सिख किसान रहते थे जो स्वयं कृषि करते थे। पंजाब के राजघरानों ने किसानों के गुस्से का सामना किया। पटियाला में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण आन्दोलन चला जिसका मुख्य उद्देश्य उस भूमि को वापिस लेना था जिसे ज़मींदारों तथा सरकारी अफसरों के गठजोड़ ने हड़प ली थी। ज़मीदारों की भूमि पर कार्य करने वाले किसानों ने ज़मींदारों को फसल का हिस्सा देने से मना कर दिया। इस आन्दोलन के प्रमुख नेता भगवान् सिंह लौंगोवालिया, जागीर सिंह जग्गो तथा बाद में तेजा सिंह स्वतन्त्र थे। यह आन्दोलन उस समय तक चलता रहा जब तक कानून पास नहीं हो गए तथा भूमि पर काश्त करने वाले काश्तकारों को ही भूमि का मालिक नहीं बना दिया।

प्रश्न 4.
नारी आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? कोई एक ऐसे आन्दोलन का नाम बताएं।
अथवा
नारी आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? कोई दो आन्दोलनों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
वैदिक काल के दौरान स्त्रियों की स्थिति बहुत बढ़िया थी तथा उन्हें प्रत्येक प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। परन्तु समय के साथ-साथ उन से सभी अधिकार छीन लिए गए। समाज की अधिकतर बुराइयां उनसे ही संबंधित थीं। इस कारण उनकी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए 19वीं शताब्दी के शुरू से ही आन्दोलन चलना शुरू हो गए थे जिन्हें नारी आन्दोलन कहा जाता है। सबसे पहले आन्दोलन ब्रह्मो समाज ने शुरू किया जिसे राजा राम मोहन राय ने चलाया था। उन्होंने उस समय चल रही सती प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया था। उनके प्रयासों के कारण ही 1829 में लार्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा निषेध अधिनियम, 1829 पास किया तथा सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया। इस प्रकार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने भी विधवा विवाह के लिए आन्दोलन किया तथा 1856 में विधवा विवाह कानून पास करवाया।

प्रश्न 5.
स्वतंत्रता पूर्व एवं स्वतंत्रता पश्चात् नारियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है ?
उत्तर-
1947 में भारत को अंग्रेजों से स्वतन्त्रता मिल गई तथा अगर इससे पहले तथा बाद की स्थिति की तुलना करें तो हमें पता चलता है कि दोनों समय में नारियों की स्थिति में काफ़ी अन्तर आया है। 1947 से पहले उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे, वे पढ़-लिख नहीं सकती थीं। चाहे उनके लिए स्कूल भी खोले गए परन्तु उन्हें सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त नहीं था तथा उन्हें पढ़ने-लिखने नहीं दिया जाता था। परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् जब संविधान बना तथा स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार दिए गए। उन्हें अपने पिता तथा पति की सम्पत्ति में अधिकार दिया गया। वे पढ़ने-लिखने लग गईं तथा नौकरियां करने लग गईं। 2011 में उनकी साक्षरता दर 65% थी। अब वह प्रत्येक क्षेत्र में भाग ले रही हैं तथा अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा कर रही हैं।

V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक आन्दोलन तथा इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
अथवा
सामाजिक आन्दोलन तथा इसकी विशेषताओं पर नोट लिखो।
उत्तर–
किसी भी समाज में सामाजिक आन्दोलन तब जन्म लेता है जब वहाँ के व्यक्ति समाज में पाई जाने वाली सामाजिक परिस्थितियों से असंतुष्ट होते हैं तथा उसमें परिवर्तन लाना चाहते हैं। किसी भी तरह का सामाजिक आंदोलन बिना किसी विचारधारा (Ideology) के विकसित नहीं होता है। कभी-कभी सामाजिक आंदोलन किसी परिवर्तन के विरोध के लिए भी विकसित होता है। प्रारंभिक समाज-शास्त्री सामाजिक आंदोलन को परिवर्तन लाने का एक प्रयास मानते थे, परंतु आधुनिक समाज शास्त्री, आंदोलनों को समाज में परिवर्तन करने या फिर उसे परिवर्तन को रोकने के रूप में लेते हैं। विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से सामाजिक आंदोलन को निम्नलिखित रूप से समझाने का प्रयास किया है-

  • मैरिल एवं एल्ड्रिज (Meril and Eldridge) के अनुसार “सामाजिक आंदोलन रूढ़ियों में परिवर्तन के लिए अधिक या कम मात्रा में चेतन रूप से किए गए प्रयास हैं।”
  • हर्टन व हंट (Hurton and Hunt) के शब्दों में “सामाजिक आंदोलन समाज अर्थात् उसके सदस्यों में परिवर्तन लाने या उसका विरोध करने का सामूहिक प्रयास है।”
  • रॉस (Rose) के शब्दानुसार, “सामाजिक आंदोलन सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लोगों की एक बड़ी संख्या के एक औपचारिक संगठन को कहते हैं, जो अनेक व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास से प्रभुत्ता संपन्न, संस्कृत स्कूलों संस्थाओं या एक समाज के विशिष्ट वर्गों को संशोधित अथवा स्थानांतरित करता है।”

हरबर्ट ब्लूमर (Herbert Blumer) के अनुसार, “सामाजिक आंदोलन जीवन की एक नयी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए सामूहिक प्रयास कहा जा सकता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक आंदोलन समाज में व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक व्यवहार है, जिसका उद्देश्य प्रचलित संस्कृति एवं सामाजिक संरचना में परिवर्तन करना होता है या फिर हो रहे परिवर्तन को रोकना होता है। अतः सामाजिक आंदोलन को सामूहिक प्रयास और सामाजिक क्रिया के प्रयास के रूप में समझा जा सकता है।

विशेषताएं-सामाजिक आंदोलनों की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है

  • सामूहिक चेतना-किसी भी सामाजिक आन्दोलन की पहली विशेषता उसमें सामूहिक चेतना का होना है। एक-दूसरे के साथ होने की चेतना एकता को बढ़ाती है। इस कारण अधिक से अधिक लोग इसमें भाग लेते हैं।।
  • सामूहिक प्रयास-सामूहिक आन्दोलन केवल एक या दो व्यक्ति शुरू नहीं कर सकते इसके लिए बहुत से व्यक्तियों का इकट्ठे होना तथा उनके सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। अगर सामूहिक प्रयास नहीं होंगे तो आन्दोलन भी शुरू नहीं होगा।
  • पक्की विचारधारा-सामाजिक आन्दोलन शुरू करने के लिए आवश्यक है कि इसकी एक विचारधारा हो जिसमें सभी सदस्य विश्वास करते हों। अगर विचारधारा ही नहीं होगी तो आन्दोलन कहाँ से शुरू होगा। साथ ही यह विचारधारा लगातार चलती रहनी चाहिए ताकि आन्दोलन अपने उद्देश्य से न भटक जाए।
  • परिवर्तन को प्रोत्साहित करना-सामाजिक आन्दोलन दो कारणों की वजह से होता है। पहला यह समाज की मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहता है तथा दूसरा यह परिवर्तन का विरोध भी कर सकता है। दोनों ही स्थितियों में परिवर्तन तो आता ही है। इस प्रकार सामाजिक आन्दोलनों से किसी-न-किसी प्रकार का परिवर्तन तो आता ही है।
  • नई व्यवस्था सामने लाना-सामाजिक आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना होता है। इस परिवर्तन से प्राचीन व्यवस्था का स्थान लेने के लिए एक नई व्यवस्था सामने आती है जोकि अपने आप में ही एक परिवर्तन का प्रतीक है।
  • हिंसक अथवा अहिंसक-यह आवश्यक नहीं है कि सामाजिक आन्दोलन केवल अहिंसक हो। यह हिंसक भी हो सकता है। कभी-कभी जनता मौजूदा व्यवस्था के इतने विरुद्ध हो जाती है कि वह उसे परिवर्तित करने के लिए हिंसक रास्ता भी अपना लेती है।

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प्रश्न 2.
सामाजिक आन्दोलन से आपका क्या अभिप्राय है ? इसके विभिन्न प्रकारों की चर्चा करें।
उत्तर-
सामाजिक आन्दोलन का अर्थ-देखें पिछला प्रश्न। सामाजिक आन्दोलन के प्रकार–सामाजिक आन्दोलन के निम्नलिखित प्रकार हैं
(i) सुधारवादी आन्दोलन-सुधारवादी आन्दोलन वे होते हैं जो समाज की मौजूदा व्यवस्था से या तो संतुष्ट होते हैं परन्तु वे पूर्ण समाज में नहीं बल्कि समाज के कुछ हिस्सों में परिवर्तन लाना चाहते हैं। प्रैस तथा चर्च जैसी संस्थाओं को सामाजिक आन्दोलन लाने के लिए प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए भारत में चले समाज सुधार आन्दोलन जिनमें ब्रह्मो समाज प्रमुख आन्दोलन थे। इसने देश में से कई सामाजिक बुराइयों को खत्म करने का प्रयास किया जैसे कि सती प्रथा, अन्तर्जातीय विवाह का न होना, विवाह संबंधी कई प्रकार के प्रतिबन्ध इत्यादि।

(ii) क्रान्तिकारी आन्दोलन-क्रान्तिकारी आन्दोलन मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं होते। ऐसे आन्दोलन समाज में अचानक परिवर्तन लाने के लिए चलाए जाते हैं। क्योंकि वे मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट नहीं होते इसलिए वे पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। उदाहरण के लिए 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति तथा 1917 की रूसी क्रान्ति जिन्होंने मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ कर नई सामाजिक व्यवस्था को स्थापित किया।

(iii) पुनरुत्थानवादी आन्दोलन-इन आन्दोलनों को Reactionary आन्दोलन भी कहा जाता है। इस प्रकार के आन्दोलन का मुख्य तत्त्व भी असंतुष्टता में छुपा हुआ है। इनके सदस्यों को कई परिवर्तन ठीक नहीं लगते तथा ये प्राचीन मूल्यों को दोबारा स्थापित करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए गाँधी जी की तरफ से चलाया गया खादी ग्रामोद्योग का आन्दोलन।

प्रश्न 3.
वर्ग व जाति आन्दोलन का अन्तर स्पष्ट करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
जाति आन्दोलन-जाति आन्दोलन निम्न जातियों तथा पिछड़े वर्गों में संघर्ष को सामने लाने के लिए चलाए गए थे। यह आंदोलन न केवल आर्थिक शोषण को खत्म करने के लिए चलाए गए थे बल्कि अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई तथा उससे संबंधित परम्परागत विचारधारा को खत्म करने के लिए चलाए गए थे। निम्न जातियों को सदियों से दबाया जा रहा था, उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे, उन्हें केवल सफाई का कार्य दिया जाता था जिससे काफ़ी कम आय होती थी। इस कारण वह काफ़ी निर्धन थे। उनका प्रत्येक प्रकार से शोषण होता था।

इसलिए समय-समय पर कई प्रकार के आन्दोलन चले ताकि उनकी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाया जा सके। सबसे पहले ज्योतिराव फूले ने महाराष्ट्र में सत्यशोधक आन्दोलन चलाया था ताकि प्रत्येक प्रकार की उच्च जातियों की सत्ता को दूर किया जा सके तथा निम्न जातियों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त हो सके। इसके पश्चात् 1895 में श्री नारायण गुरु ने केरल में श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन चलाया ताकि इज़ावा समुदाय को समाज में अधिकार प्राप्त हो सकें। वह चाहते थे कि समाज में से अस्पृश्यता जैसी बुराइयां खत्म हो सकें तथा ऐसे मंदिर बनाए जाएं जो सभी जातियों के लिए खुले हों। उन्होंने सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिए ‘एक धर्म व एक भगवान्’ का भी नारा दिया। उनके पश्चात् 1925 में पैरियार रामास्वामी ने तमिलनाडु में आत्मसम्मान आंदोलन चलाया जिसका मुख्य उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना था यहां पिछड़ी जातियों को समान अधिकार प्राप्त हो सकें। डॉ० बी० आर० अंबेदकर ने भी महार जाति की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए कई आन्दोलन चलाए।

वर्ग आधारित आन्दोलन-वर्ग आधारित आन्दोलन में हम श्रमिक आन्दोलन तथा किसानों के आन्दोलन ले सकते हैं। श्रमिकों तथा किसानों की यह माँग थी कि उनके आर्थिक शोषण का खात्मा हो। देश में कई श्रमिक सभाएं बनी जिनसे हमें पता चलता है कि उद्योगों में कार्य करने वाले श्रमिकों की क्या मांगें थीं। अंग्रेजों के समय के दौरान ही देश में जूट उद्योग, कपास उद्योग, चाय उद्योग के कारखाने लगने शुरू हो गए तथा निर्धन लोगों को इनमें काम मिलना शुरू हो गया। उन्हें अधिक समय कार्य करना पड़ता था, कम वेतन मिलता था, कार्य करने के हालात अच्छे नहीं थे तथा पूँजीपति उनका शोषण करते थे। अलग-अलग समय में वर्करों के लिए कई प्रकार के कानून पास किए गए परन्तु उनकी स्थिति में कोई सुधार न हुआ। इस कारण श्रमिक संघ बनाए गए ताकि उनकी स्थिति में सुधार किया जा सके। इस प्रकार किसानों का भी शोषण होता था।

जमींदार अपनी भूमि किसानों को किराए पर देते थे तथा बिना कोई परिश्रम किए किसानों से उनके उत्पादन का बड़ा हिस्सा ले जाते थे। वास्तविक परिश्रम करने वाले किसान भूखे रह जाते थे तथा बिना परिश्रम करने वाले जमींदार ऐश करते थे। इस कारण पंजाब व कई अन्य क्षेत्रों में इससे संबंधित कई आंदोलन चले जिस कारण देश की स्वतंत्रता के पश्चात् कई कानून बनाए गए तथा जमींदारी व्यवस्था को खत्म कर दिया गया। वास्तविक कृषि करने वाले किसानों को ही भूमि का मालिक बना दिया गया।

प्रश्न 4.
किसान आंदोलन से आपका क्या अभिप्राय है ? इसके निर्धारक घटकों का वर्णन करते हए किसी किसान आन्दोलन की चर्चा करें।
उत्तर-
कृषक या किसान आंदोलनों का संबंध किसानों तथा कृषि कार्यों के बीच पाए जाने वाले संबंधों से है। जब कृषि कार्यों को करने वालों तथा भूमि के मालिकों के बीच तालमेल ठीक नहीं बैठता तो कृषि करने वाले आंदोलनों का रास्ता अपना लेते हैं तथा यहीं से किसान आंदोलन की शुरुआत होती है। असल में यह आंदोलन किसानों के शोषण के कारण होते हैं।

इनका मूल आधार वर्ग संघर्ष है तथा यह श्रमिक आंदोलन से अलग हैं। डॉ० तरुण मजूमदार ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है कि, “कृषि कार्यों से संबंधित हरेक वर्ग के उत्थान तथा शोषण मुक्ति के लिए किए गए साहसी प्रयत्नों को कृषक आंदोलन की श्रेणी में रखा गया है।” – इन आन्दोलनों का महत्त्वपूर्ण आधार कृषि व्यवस्था होती है। भूमि व्यवस्था की विविधता तथा कृषि संबंधों ने खेतीहर वर्गों के बीच एक विस्तृत संरचना का विकास किया है। यह संरचना अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रही है। भारत में खेतीहर वर्ग को तीन भागों में बांट सकते हैं-(i) मालिक (Owner), (ii) किसान (Farmer), (iii) मज़दूर (Labourer)।

मालिक को भूमि का मालिक या भूपति भी कहते हैं। संपूर्ण भूमि का मालिक यही वर्ग होता है जिस पर खेती का कार्य होता है। किसान का स्थान भूपति के बाद आता है। किसान वर्ग में छोटे-छोटे भूमि के टुकड़ों के मालिक तथा काश्तकार होते हैं। यह अपनी भूमि पर स्वयं ही खेती करते हैं। तीसरा वर्ग मज़दूर का है जो खेतों में काम करके जीविका कमाता है। इस वर्ग में भूमिहीन, कृषक, ग़रीब काश्तकार तथा बटईदार आते हैं।

किसान आंदोलन अनेकों कारणों की वजह से अलग-अलग समय पर शुरू हुए। औद्योगीकरण के कारण जब खेतीहर मजदूरों की जीविका पर असर पड़ता है तो आंदोलनों की मदद से खेतीहर मज़दूर विरोध करते हैं। इसके साथ ही खेती से संबंधित चीज़ों के दाम बढ़ने, मालिकों द्वारा ज्यादा लाभ प्राप्त करने के लिए विशेष प्रकार की खेती करवाना, अधिकारियों की नीतियां तथा शोषण की आदत का पाया जाना, खेतीहर मजदूरों को बंधुआ मज़दूर रख कर उनसे अपनी मर्जी का कार्य करवाना आदि ऐसे कारण रहे हैं जिनकी वजह से कृषक आंदोलन शुरू हुए।

पंजाब में किसान आन्दोलन-पंजाब किसान गतिविधियों का मुख्य केन्द्र था। 1930 में किसान सभा सामने आई। इनकी मुख्य माँग कर्जे तथा भूमि कर में कमी से संबंधित थी। इसके अतिरिक्त एक अन्य मुद्रा जिसने सभी का ध्यान खींचा वह था अमृतसर तथा लाहौर जिलों में भूमि कर की Resettlement करना था। जिले के मुख्यालय में जत्थे भेजे गए तथा प्रदर्शन किए गए। इस आंदोलन की चरम सीमा 1939 में लाहौर किसान मोर्चे के सामने आने से हुई। राज्य के कई जिलों से सैंकड़ों किसानों को गिरफ्तार किया गया।

पंजाब में किसान आन्दोलन मुख्य रूप से जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर, लायलपुर तथा शेखुपुरा ज़िलों तक ही सीमित था। इन जिलों में केवल वह सिक्ख किसान ही रहते थे जो अपनी कृषि करते थे। पंजाब के राज घरानों ने भी किसानों के गुस्से का सामना किया। पटियाला में भी एक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन चला जिसका मुख्य उद्देश्य उस भूमि को वापस लेना था जिसके ऊपर जमींदारों तथा सरकारी अफसरों के गठजोड़ ने कब्जा कर लिया था। ज़मींदारों की ज़मीनों पर कृषि करने वाले किसानों ने भी ज़मींदारों को फसल का हिस्सा देने से मना कर दिया। इस आंदोलन के प्रमुख नेता भगवान् सिंह लौंगोवालिया, जगीर सिंह जग्गो तथा बाद में तेजा सिंह स्वतंत्र थे। यह आंदोलन उस समय तक चलते रहे जब तक कानून पास नहीं हो गए तथा ज़मीनों पर काश्त करने वाले काश्तकारों को भूमि का मालिक नहीं बना दिया गया।

PSEB 12th Class Sociology Solutions PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन

प्रश्न 5.
भारत में नारी जाति की स्थिति का वर्णन करें। नारी आन्दोलनों ने किस प्रकार नारी जाति की स्थिति में सुधार लाने का कार्य किया है ?
उत्तर-
दुनिया तथा भारत में लगभग आधी जनसंख्या स्त्रियों की है पर अलग-अलग देशों में स्त्रियों की स्थिति समान नहीं है। हिंदू शास्त्रों में स्त्री को अर्धांगिनी माना गया है तथा हिन्दू समाज में इनका वर्णन लक्ष्मी, दुर्गा, काली, सरस्वती इत्यादि के रूप में किया गया है। स्त्री को भारत में भारत माता कह कर भी बुलाते हैं तथा उसके प्रति अपना आभार तथा श्रद्धा प्रकट करते हैं। यहां तक कि कई धार्मिक यज्ञ तथा कर्मकाण्ड स्त्री के बगैर अधूरे माने जाते हैं। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी अच्छी थी पर मध्य युग आते-आते स्त्रियों की स्थिति काफ़ी दयनीय हालत में पहंच गई। 19वीं शताब्दी में बहुत-से समाज सुधारकों ने स्त्रियों की स्थिति सुधारने का प्रयास किया। 20वीं सदी में स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गईं तथा उन्होंने आज़ादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इसी के साथ उनके दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया तथा इनकी राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में काफ़ी भागीदारी बढ़ गई।

फिर भी इन परिवर्तनों, जोकि हम आज देख रहे हैं, के बावजूद समाज में स्त्रियों की स्थिति अलग-अलग कालों में अलग-अलग रही है जिनका वर्णन निम्नलिखित है

1. वैदिक काल (Vedic Age) वैदिक काल को भारतीय समाज का स्वर्ण काल भी कहा जाता है। इस युग में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी अच्छी थी। उस समय का साहित्य जो हमारे पास उपलब्ध है उसे पढ़ने से पता चलता है कि इस काल में स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने, विवाह तथा सम्पत्ति रखने के अधिकार पुरुषों के समान थे। परिवार में स्त्री का स्थान काफ़ी अच्छा होता था तथा स्त्री को धार्मिक तथा सामाजिक कार्य पूरा करने के लिए बहुत ज़रूरी माना जाता था। इस समय में लड़कियों की उच्च शिक्षा पर काफ़ी ध्यान दिया जाता था। उस समय पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुरीतियां नहीं थीं, चाहे बह-पत्नी विवाह अवश्य प्रचलित थे पर स्त्रियों को काफ़ी सम्मान से घर में रखा जाता था। विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध नहीं था। सती प्रथा का कोई विशेष प्रचलन नहीं था इसलिए विधवा औरत सती हो भी सकती थी तथा नहीं भी। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान ही थी। इस युग में स्त्री का अपमान करना पाप समझा जाता था तथा स्त्री की रक्षा करना वीरता का काम समझा जाता था। भारत में स्त्री की स्थिति काफ़ी उच्च थी तथा पश्चिमी देशों में वह दासी से ज़्यादा कुछ नहीं थी। यह काल 4500 वर्ष पहले था।

2. उत्तर वैदिक काल (Post Vedic Period)-यह काल ईसा से 600 वर्ष पहले (600 B.C.) शुरू हुआ तथा ईसा के 3 शताब्दी (300 A.D.) बाद तक माना गया। इस समय में स्त्रियों को वह आदर-सत्कार, मान-सम्मान न मिल पाया जो उनको वैदिक काल में मिलता था। इस समय बाल-विवाह प्रथा शुरू हुई जिस वजह से स्त्रियों को शिक्षा प्राप्ति में कठिनाई होने लगी। शिक्षा न मिल पाने की वजह से उनका वेदों का ज्ञान खत्म हो गया या न मिल पाया जिस वजह से उनके धार्मिक संस्कारों में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस काल में स्त्रियों के लिए पति की आज्ञा मानना अनिवार्य हो गया तथा विवाह करना भी ज़रूरी हो गया। इस काल में बहु-पत्नी प्रथा बहुत ज्यादा प्रचलित हो गई थी तथा स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न हो गई थी। इस काल में विधवा विवाह पर नियन्त्रण लगना शुरू हो गया तथा स्त्रियों ‘का काम सिर्फ घर के उत्तरदायित्व पूर्ण करना रह गया था। इस युग में आखिरी स्तर पर आते-आते स्त्रियों की स्वतंत्रता तथा अधिकार काफ़ी कम हो गए थे तथा उनकी स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण लगने शुरू हो गए थे।

3. स्मृति काल (Smriti Period)-इस काल में मनु स्मृति में दिए गए सिद्धान्तों के अनुरूप व्यवहार करने पर ज्यादा ज़ोर देना शुरू हो गया था। इस काल में बहुत-सी संहिताओं जैसे मनु संहिता, पराशर संहिता तथा याज्ञवल्क्य संहिता रचनाओं की रचना की गई। इसलिए इस काल को धर्म शास्त्र काल के नाम से भी पुकारा जाता है। इस काल में स्त्रियों की स्थिति पहले से भी ज्यादा निम्न हो गई। स्त्री का सम्मान सिर्फ माता के रूप में रह गया था। विवाह करने की उम्र और भी कम हो गई तथा समाज में स्त्री को काफ़ी हीन दृष्टि से देखा जाता था। मनुस्मृति में तो यहां तक लिखा है कि स्त्री को हमेशा कड़ी निगरानी में रखना चाहिए, छोटी उम्र में पिता की निगरानी में, युवावस्था में पति की निगरानी में तथा बुढ़ापे में पुत्रों की निगरानी में रखना चाहिए। इस काल में विधवा विवाह पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा सती प्रथा को ज्यादा महत्त्व दिया जाने लगा। स्त्रियों का मुख्य धर्म पति की सेवा माना गया। विवाह 10-12 साल की उम्र में ही होने लगे। स्त्री का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। स्त्रियों के सभी अधिकार पति या पुत्र को दे दिए गए। पति को देवता कहा गया तथा पति की सेवा ही उसका धर्म रह गया था।

4. मध्य काल (Middle Period) मध्यकाल में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना के बाद तो स्त्रियों की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म की रक्षा, स्त्रियों की इज्जत तथा रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए स्त्रियों के लिए काफ़ी कठोर नियमों का निर्माण कर दिया था। स्त्री शिक्षा काफ़ी हद तक खत्म हो गई तथा पर्दा प्रथा काफ़ी ज्यादा चलने लगी। लड़कियों के विवाह की उम्र भी घटकर 8-9 वर्ष ही रह गई। इस वजह से बचपन में ही उन पर गृहस्थी का बोझ लाद दिया जाता था। सती प्रथा काफ़ी ज्यादा प्रचलित हो गई थी तथा विधवा विवाह पूरी तरह बन्द हो गए थे। स्त्रियों को जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरुष के अधीन कर दिया गया तथा उनके सारे अधिकार छीन लिए गए। मध्य काल का समय स्त्रियों के लिए काला युग था। परिवार में उसकी स्थिति शून्य के समान थी तथा उसे पैर की जूती समझा जाता था। स्त्रियों को ज़रा-सी ग़लती पर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। उनका सम्पत्ति का अधिकार भी वापस ले लिया गया था।

5. आधुनिक काल (Modern Age)-अंग्रेजों के आने के बाद आधुनिक काल शुरू हुआ। इस समय औरतों के उद्धार के लिए आवाज़ उठनी शुरू हुई तथा सबसे पहले आवाज़ उठाई राजा राममोहन राय ने जिनके यत्नों की वजह से सती प्रथा बन्द हुई तथा विधवा विवाह को कानूनी मंजूरी मिल गई। फिर और समाज सुधारक जैसे कि दयानन्द सरस्वती, गोविन्द रानाडे, रामाबाई रानाडे, विवेकानंद इत्यादि ने भी स्त्री शिक्षा तथा उनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। इनके यत्नों की वजह से स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार होने लगा। स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त होने लगी तथा वे घर की चार-दीवारी से बाहर निकल कर देश के स्वतन्त्रता संग्राम में हिस्सा लेने लगीं। शिक्षा की वजह से वे नौकरी करने लगी तथा राजनीतिक क्षेत्र में भी हिस्सा लेने लगीं जिस वजह से वे आर्थिक तौर पर आत्म निर्भर होने लगीं। आजकल स्त्रियों की स्थिति काफ़ी अच्छी है क्योंकि शिक्षा तथा आत्म निर्भरता की वजह से स्त्री को अपने अधिकारों का पता चल गया है। आज से संपत्ति रखने, पिता की जायदाद से हिस्सा लेने तथा हर तरह के वह अधिकार प्राप्त हैं जो पुरुषों को प्राप्त हैं।

स्त्रियों की स्थिति ऊपर उठाने के प्रयास (Efforts to uplift the Status of Women)-देश की आधी जनसंख्या स्त्रियों की है। इसलिए देश के विकास के लिए यह भी ज़रूरी है कि उनकी स्थिति में सुधार लाया जाए। उनसे संबंधित कुप्रथाओं तथा अन्धविश्वासों को समाप्त किए गए। स्वतन्त्रता के बाद भारत के संविधान में कई ऐसे प्रावधान किये गये जिनसे महिलाओं की स्थिति में सुधार हो। उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर बनाने के लिए अलग-अलग कानून बनाए गए। आजादी के बाद देश की महिलाओं के उत्थान, कल्याण तथा स्थिति में सुधार के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं-

1. संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions)-महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान हैं

(a) अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के सामने सभी समान हैं।
(b) अनुच्छेद 15 (1) द्वारा धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भारतीय से भेदभाव की मनाही
(c) अनुच्छेद 15 (3) के अनुसार राज्य महिलाओं तथा बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करें।
(d) अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्य रोज़गार तथा नियुक्ति के मामलों में सभी भारतीयों को समान अवसर प्रदान करें।
(e) अनुच्छेद 39 (A) के अनुसार राज्य पुरुषों तथा महिलाओं को आजीविका के समान अवसर उपलब्ध करवाए।
(f) अनुच्छेद 39 (D) के अनुसार पुरुषों तथा महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाए।
(g) अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य कार्य की न्यायपूर्ण स्थिति उत्पन्न करें तथा अधिक-से-अधिक प्रसूति सहायता प्रदान करें।
(h) अनुच्छेद 51 (A) (E) के अनुसार स्त्रियों के गौरव का अपमान करने वाली प्रथाओं का त्याग किया जाए।
(i) अनुच्छेद 243 के अनुसार स्थानीय निकायों-पंचायतों तथा नगरपालिकाओं में एक तिहाई स्थानों को महिलाओं
के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है।

2. कानून (Legislations)-महिलाओं के हितों की सुरक्षा तथा उनकी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए कई कानूनों का निर्माण किया गया जिनका वर्णन निम्नलिखित है

(a) सती प्रथा निवारण अधिनियम, 1829, 1987 (The Sati Prohibition Act)
(b) हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 (The Hindu Widow Remarriage Act)
(c) बाल विवाह अवरोध अधिनियम (The Child Marriage Restraint Act)
(d) हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति पर अधिकार (The Hindu Women’s Right to Property Act) 1937.
(e) विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act) 1954.
(f) हिन्दू विवाह तथा विवाह विच्छेद अधिनियम (The Hindu Marriage and Divorce Act) 1955 & 1967.
(g) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (The Hindu Succession Act) 1956.
(h) दहेज प्रतिबन्ध अधिनियम (Dowry Prohibition Act) 1961, 1984, 1986.
(i) मातृत्व हित लाभ अधिनियम (Maternity Relief Act) 1961. 1976.
(j) मुस्लिम महिला तलाक के अधिकारों का संरक्षण अधिनियम (Muslim Women Protection of Rights of Divorce) 1986.

ऊपर लिखे कानूनों में से चाहे कुछ आज़ादी से पहले बनाए गए थे पर उनमें आजादी के बाद संशोधन कर लिए गए हैं। इन सभी विधानों से महिलाओं की सभी प्रकार की समस्याओं जैसे दहेज, बाल विवाह, सती प्रथा, सम्पत्ति का उत्तराधिकार इत्यादि का समाधान हो गया है तथा इनसे महिलाओं की स्थिति सुधारने में मदद मिली है।

3. महिला कल्याण कार्यक्रम (Women Welfare Programmes)-स्त्रियों के उत्थान के लिए आज़ादी के बाद कई कार्यक्रम चलाए गए जिनका वर्णन निम्नलिखित है

(a) 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया तथा उनके कल्याण के कई कार्यक्रम चलाए गए।
(b) 1982-83 में ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक तौर पर मज़बूत करने के लिए डवाकरा कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
(c) 1986-87 में महिला विकास निगम की स्थापना की गई ताकि अधिक-से-अधिक महिलाओं को रोज़गार के अवसर प्राप्त हों।
(d) 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग का पुनर्गठन किया गया ताकि महिलाओं के ऊपर बढ़ रहे अत्याचारों को रोका जा सके।

4. देश में महिला मंडलों की स्थापना की गई। यह महिलाओं के वे संगठन हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के कल्याण के लिए कार्यक्रम चलाते हैं। इन कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च का 75% पैसा केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड देता है।

5. शहरों में कामकाजी महिलाओं को समस्या न आए इसीलिए सही दर पर रहने की व्यवस्था की गई है। केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने होस्टल स्थापित किए हैं ताकि कामकाजी महिलाएं उनमें रह सकें।

6. केन्द्रीय समाज कल्याण मण्डल ने सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम देश में 1958 के बाद से चलाने शुरू किए ताकि ज़रूरतमंद, अनाथ तथा विकलांग महिलाओं को रोजगार उपलब्ध करवाया जा सके। इसमें डेयरी कार्यक्रम भी शामिल हैं।

इस तरह आज़ादी के पश्चात् बहुत सारे कार्यक्रम चलाए गए हैं ताकि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाया जा सके। अब महिला सशक्तिकरण में चल रहे प्रयासों की वजह से भारतीय महिलाओं का बेहतर भविष्य दृष्टिगोचर होता है।

प्रश्न 6.
आप पर्यावरण आन्दोलन से क्या समझते हैं ? किन्हीं दो पर्यावरण आन्दोलन की विस्तार से चर्चा करें।
अथवा
पर्यावरणीय आन्दोलन से सम्बन्धित चिपको आन्दोलन तथा नर्मदा बचाओ आन्दोलन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
आधुनिक समय में विकास पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। विकास की बढ़ती माँग के कारण प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण एवं अनियंत्रित उपयोग के कारणों के फलस्वरूप विकास के ऐसे प्रतिमान पर चिंता प्रकट की जा रही है। वर्तमान समय में यह माना जाता रहा है कि विकास से सभी वर्गों के लोगों को लाभ पहुंचेगा परंतु वास्तव में बड़े-बड़े उद्योग, धंधे कृषकों को उनकी आजीविका तथा घरों दोनों से दूर कर रहे हैं। उद्योगों के उत्तरोत्तर विकास के बढ़ने के कारण औद्योगिक प्रदूषण जैसी भयंकर समस्या सामने आ रही है। औद्योगिक प्रदूषण के प्रभाव को देखते हुए इससे बचाव कैसे किया जा सकता है। इसके लिए अनेक पारिस्थितिकीय आंदोलन शुरू हुए।

पर्यावरण आंदोलन को हम कई सामाजिक समूहों के इकट्ठे होकर कोई कठोर कदम उठाने की क्रिया के रूप में देख सकते हैं। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य साधनों पर नियन्त्रण, वातावरण की सुरक्षा तथा पर्यावरण संतुलन बनाकर रखना था। 1970 तथा 1980 के दशकों में देश को पर्यावरण प्रदूषण से बचाने के लिए कई संघर्ष शुरू हुए ताकि बड़े बाँधों को बनने से रोका जा सके तथा जिन्हें उनकी भूमि से उजाड़ा गया है उन्हें कहीं और बसाया जा सके।

(i) चिपको आन्दोलन-चिपको आंदोलन 1970 के दशक में उत्तराखंड (उस समय उत्तर प्रदेश) के पहाड़ी इलाकों में शुरू हुआ। यहाँ के जंगल वहाँ पर रहने वाले गाँववासियों की रोजी-रोटी का साधन थे। लोग जंगलों से चीजें इकट्ठी करके अपना जीवनयापन करते थे। सरकार ने इन जंगलों को राजस्व प्राप्त करने के लिए ठेके पर दे दिया। जब लोग जंगलों से चीजें, लकड़ी इकट्ठी करने गए तो ठेकेदारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया क्योंकि ठेकेदार स्वयं जंगलों को काटकर पैसा कमाना चाहते थे। कई गाँवों के लोग इसके विरुद्ध हो गए तथा उन्होंने मिलकर संघर्ष करना शुरू कर दिया। जब ठेकेदार जंगलों के वृक्ष काटने आते तो लोग पेड़ों के इर्द-गिर्द लिपट जाते या चिपक जाते थे ताकि वह पेड़ों को न काट सकें। महिलाओं तथा बच्चों ने भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। प्रमुख पर्यावरणवादी सुंदर लाल बहुगुणा भी इस आंदोलन से जुड़ गए। लोगों के पेड़ों से चिपकने के कारण ही इस आंदोलन को चिपको आंदोलन कहा गया। अंत में आंदोलन को सफलता प्राप्त हुई तथा सरकार ने हिमालयी क्षेत्र के पेड़ों की कटाई पर 15 वर्ष की रोक लगा दी।

(ii) नर्मदा बचाओ आंदोलन-नर्मदा बचाओ आंदोलन को मेधा पाटेकर तथा बाबा आम्टे ने कई अन्य लोगों के साथ मिलकर शुरू किया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन एक बहुत ही शक्तिशाली आंदोलन था जिसे 1985 में शुरू किया गया था। यह आंदोलन गुजरात की नर्मदा नदी के ऊपर बन रहे सरदार सरोवर डैम के विरुद्ध शुरू हुआ था। 1978 में नर्मदा Water Dispute Tribunal ने नर्मदा वैली प्रोजैक्ट को मान्यता दे दी। सबसे अधिक विवाद वाला डैम सरदार सरोवर प्रोजैक्ट था। इस डैम के बनने से लगभग 40 लाख लोगों को उनके घरों, भूमि से हटाया जाना था।

मेधा पाटेकर इस आंदोलन की प्रमुख नेता थी तथा उन्होंने भारत की सुप्रीम कोर्ट में एक केस किया ताकि सरदार सरोवर डैम को बनने से रोका जा सके। शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलन के हक में निर्णय दिया तथा बाँध का कार्य बंद हो गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित राज्यों से कहा कि पहले उजाड़े गए लोगों को दोबारा किसी अन्य स्थान पर बसाया जाए। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ बाँध का कार्य को शुरू करने की आज्ञा दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था की कि लोगों को बसाने के कार्य का निरीक्षण किया जाए। चाहे नर्मदा बचाओ आन्दोलन बाँध के बनने से रोकने के कार्य को पूर्णतया रोकने में सफल नहीं हो पाया परन्तु इसने लोगों को वातावरण के प्रति तथा उजाड़े गए लोगों को दोबारा बसाने के प्रति काफ़ी जागरूक किया।

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अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I. वस्तानष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज की बुराइयों को दूर करने के लिए कौन-सा आन्दोलन शुरू होता है ?
(क) सुधारवादी आन्दोलन
(ख) रुत्थानवादी आन्दोलन
(ग) क्रान्तिकारी आन्दोलन
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) सुधारवादी आन्दोलन।

प्रश्न 2.
चिपको आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका किसने निभाई थी ?
(क) चण्डी प्रसाद भट्ट
(ख) लाल बहादुर शास्त्री
(ग) मेधा पाटेकर
(घ) अरुन्धति राय।
उत्तर-
(क) चण्डी प्रसाद भट्ट।

प्रश्न 3.
किसे चिपको आन्दोलन में योगदान के लिए पद्म विभूषण का सम्मान मिला था ?
(क) मेधा पाटेकर
(ख) सुन्दर लाल बहुगुणा
(ग) चण्डी प्रसाद भट्ट
(घ) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर।
उत्तर-
(ख) सुन्दर लाल बहुगुणा।।

प्रश्न 4.
सत्यशोधक आन्दोलन किसने चलाया था ?
(क) राजा राम मोहन राय
(ख) सुन्दर लाल बहुगुणा
(ग) ज्योतिराव फूले
(घ) दयानंद सरस्वती।
उत्तर-
(ग) ज्योतिराव फूले।

प्रश्न 5.
महार आन्दोलन किसने चलाया था ?
(क) ज्योतिराव फूले
(ख) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर
(ग) राजा राम मोहन राय
(घ) डॉ० बी० आर० अम्बेदकर।
उत्तर-
(घ) डॉ० बी० आर० अम्बेदकर।

प्रश्न 6.
सती प्रथा को गैर-कानूनी किसने घोषित करवाया था ?
(क) राजा राम मोहन राय
(ख) डॉ० अम्बेदकर
(ग) ज्योतिराव फूले
(घ) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर।
उत्तर-
(क) राजा राम मोहन राय।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. डॉ० अंबेदकर ………… जाति से सम्बन्ध रखते थे।
2. सत्य शोधक समाज ………… ई० में स्थापित किया गया था।
3. आत्म सम्मान आन्दोलन ………. ने शुरू किया था।
4. श्री नारायण गुरु ……….. जाति से सम्बन्ध रखते थे। ।
5. मज़दूर महाजन सभा ………… ने शुरू की थी।
उत्तर-

  1. महार,
  2. 1873,
  3. पैरियार रामास्वामी,
  4. इज़ावा,
  5. महात्मा गाँधी।

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C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. डॉ० अम्बेदकर ने जैन धर्म अपना लिया था।
2. पैरियार रामास्वामी ने केरल में आत्मसम्मान आन्दोलन चलाया था।
3. सत्यशोधक समाज महाराष्ट्र में चलाया गया था।
4. आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस 1920 में शुरू हुई थी।
5. ब्रह्मो समाज राजा राम मोहन राय ने चलाया था।
6. सामाजिक आन्दोलन की प्रकृति हमेशा शांतिपूर्वक होती है।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. गलत,
  3. सही,
  4. सही,
  5. सही,
  6. गलत।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. किसे आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है ?
उत्तर-राजा राम मोहन राय को आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है।

प्रश्न 2. सबसे पहले शब्द सामाजिक आन्दोलन किसने तथा कहाँ प्रयोग किया था ?
उत्तर-जर्मन विद्वान् Lorenz Van Stein ने अपनी पुस्तक ‘History of the French Social Movement : From 1789 to the present’ में सन् 1850 में।

प्रश्न 3. फ्रांसीसी क्रान्ति कब हुई थी ?
उत्तर-फ्रांसीसी क्रान्ति 1789 में हुई थी।

प्रश्न 4. सामाजिक आंदोलन का एक आवश्यक तत्त्व बताएं।
उत्तर-सामूहिक चेतना सामाजिक आंदोलन का एक आवश्यक तत्त्व है।

प्रश्न 5. सामाजिक आंदोलन का मुख्य उद्देश्य क्या होता है ?
उत्तर-प्राचीन व्यवस्था को बदल कर नई व्यवस्था स्थापित करना।

प्रश्न 6. कौन से आंदोलन में तेजी से परिवर्तन आता है ?
उत्तर-क्रान्तिकारी आंदोलन में तेजी से परिवर्तन आता है।

प्रश्न 7. सत्यशोधक समाज किसने तथा कब शुरू किया था ?
उत्तर-सत्यशोधक समाज ज्योतिराव फूले ने 1873 में शुरू किया था।

प्रश्न 8. सत्यशोधक समाज का मुख्य मुद्दा क्या था ?
उत्तर-सत्यशोधक समाज का मुख्य मुद्दा प्रत्येक प्रकार से ब्राह्मणों की सत्ता का खात्मा करना था।

प्रश्न 9. श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन कब, कहाँ तथा किसने शुरू किया था ?
उत्तर-श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन श्री नारायण गुरु ने 1895 में केरल में शुरू किया था।

प्रश्न 10. श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन क्यों शुरू किया गया था
उत्तर-इज़ावा जाति की सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने के लिए तथा अस्पृश्यता जैसी बुराई को दूर करने के लिए।

प्रश्न 11. आत्म-सम्मान आन्दोलन किसने, कब तथा कहाँ शुरू किया था ?
उत्तर-आत्म-सम्मान आन्दोलन पैरियार ई० वी० रामास्वामी ने 1925 में तमिलनाडु में शुरू किया था।

प्रश्न 12. आत्म-सम्मान आन्दोलन का मुख्य मुद्दा क्या था ?
उत्तर- इस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा जाति आधारित समाज में पिछड़ी जातियों में आत्म सम्मान की भावना को जगाना था।

प्रश्न 13. डॉ० अंबेदकर ने कब तथा कौन-सा धर्म अपना लिया था ?
उत्तर-डॉ० अंबेदकर ने 1956 ई० में बौद्ध धर्म अपना लिया था।

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प्रश्न 14. वर्ग आधारित आन्दोलन में क्या कुछ शामिल होता है ?
उत्तर-वर्ग आधारित आन्दोलन में श्रमिकों के आन्दोलन तथा किसानों के आन्दोलन शामिल होते हैं।

प्रश्न 15. मज़दूर महाजन संघ की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर- मज़दूर महाजन संघ की स्थापना महात्मा गांधी ने की थी।

प्रश्न 16. अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना कब तथा कहाँ हुई थी ? ।
उत्तर-इसकी स्थापना 1920 में बंबई में हुई थी तथा लाला लाजपत राय इसके प्रथम प्रधान थे।

प्रश्न 17. 1866-68 में नील विद्रोह कहाँ हुआ था ?
उत्तर-1866-68 में नील विद्रोह दरभंगा तथा चंपारन में हुआ था।

प्रश्न 18. किसान आन्दोलन मुख्य रूप से कहाँ शुरू हुए थे ?
उत्तर-किसान आन्दोलन मुख्य रूप से पंजाब में शुरू हुआ था।

प्रश्न 19. सती प्रथा को किसने खत्म करवाया था ?
उत्तर-सती प्रथा को राजा राम मोहन राय ने लार्ड विलियम बैंटिंक की सहायता से शुरू करवाया था।

प्रश्न 20. SEWA बैंक कब शुरू हुआ था ?
उत्तर-SEWA बैंक 1974 में शुरू हुआ था।

प्रश्न 21. चिपको आन्दोलन कब तथा कहाँ शुरू हुआ था ?
उत्तर-चिपको आन्दोलन गढ़वाल क्षेत्र में मार्च 1973 में शुरू हुआ था।

प्रश्न 22. चिपको आन्दोलन के प्रमुख नेता कौन थे ?
उत्तर-चण्डी प्रसाद भट्ट, गौरा देवी व सुन्दर लाल बहुगुणा इसके प्रमुख नेता थे।

प्रश्न 23. एपीको आन्दोलन कब तथा कहाँ शुरू हुआ था ?
उत्तर-एपीको आन्दोलन कर्नाटक में सितंबर 1983 में शुरू हुआ था।

प्रश्न 24. नर्मदा बचाओ आन्दोलन कहाँ तथा क्यों शुरू हुआ था ?
उत्तर- यह गुजरात में पर्यावरण को बचाने के लिए तथा लोगों को बसाने के लिए शुरू हुआ था।

III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक आन्दोलन क्या होते हैं ?
अथवा
सामाजिक आन्दोलन।
उत्तर-
समाज के कुछ अनावश्यक हालात होते हैं जो सदियों से चले आ रहे होते हैं। इन स्थितियों में कुछ लोग इकट्ठे होकर सामाजिक व्यवस्था को बदलने का सामूहिक प्रयास करते हैं। इन सामूहिक प्रयासों को ही सामाजिक आन्दोलन कहते हैं। आन्दोलन के सदस्य अलग-अलग ढंगों से संबंधित मुद्दे सामने लाने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक आन्दोलन की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  • सामूहिक चेतना सामाजिक आन्दोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है। लोगों के बीच चेतना जागती है तो ही आन्दोलन जन्म लेता है।
  • सामाजिक आन्दोलन एक विचारधारा के साथ चलता है। बिना निश्चित विचारधारा के आन्दोलन नहीं चल सकता।

प्रश्न 3.
सत्यशोधक आन्दोलन।
उत्तर-
यह एक गैर-ब्राह्मण आन्दोलन था जिसे ज्योतिबा फूले ने सत्यशोधक समाज के माध्यम से चलाया था। उनका कहना था कि ब्राह्मणों ने परंपरा के आधार पर अपनी सत्ता स्थापित की हुई है। इसलिए इनकी प्रत्येक प्रकार की सत्ता खत्म होनी चाहिए तथा निम्न जातियों को ऊपर उठाया जाना चाहिए।

प्रश्न 4.
श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन।
उत्तर-
इस आन्दोलन को श्री नारायण गुरु ने केरल में चलाया था। वह स्वयं इज़ावा समुदाय से संबंध रखते थे जिसे निम्न जाति समझा जाता था। वह अस्पृश्यता को खत्म करना चाहते थे तथा ऐसे मन्दिरों का निर्माण करना चाहते थे जो सभी समुदायों के लिए खुले हों।

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प्रश्न 5.
आत्म सम्मान आन्दोलन।
उत्तर-
इस आन्दोलन को 1925 में पैरीयार स्वामी ने तमिलनाडु में चलाया था। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य जाति आधारित समाज में पिछड़ी जातियों को ऊँचा उठाना तथा उनके लिए आत्म-सम्मान उत्पन्न करना था। उन्होंने कर्म व धर्म जैसे सामाजिक सिद्धान्त के विरुद्ध आन्दोलन चलाया था।

प्रश्न 6.
महार जाति।
उत्तर-
महार जाति महाराष्ट्र की एक निम्न जाति थी। बौद्ध धर्म को अपनाने से पहले यह वहां की जनसंख्या का बहुत बड़ा समूह था। महार लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थिति काफ़ी निम्न थी। वह महाराष्ट्र में ही अलग रहते थे तथा यह माना जाता था कि उनके स्पर्श करने से अन्य लोग अपवित्र हो जाएंगे। वह निम्न स्तर के कार्य करते थे।

प्रश्न 7.
नील आन्दोलन।
उत्तर-
मुख्य रूप से नील आन्दोलन बिहार के दरभंगा तथा चंपारन जिलों में चला था क्योंकि अंग्रेज़ नील उगाने वाले किसानों का काफ़ी शोषण करते थे। उनसे जबरदस्ती नील उगवाया जाता था तथा नील सस्ते दामों पर खरीदा जाता था। इस शोषण से दुखी होकर वहां के किसानों ने आंदोलन चलाए थे।

प्रश्न 8.
ब्रह्मो समाज।
उत्तर-
ब्रह्मो समाज को राजा राम मोहन राय ने 1828 में कलकता में शुरू किया था। वह आधुनिक पश्चिमी विचारों से काफी प्रभावित थे। ब्रह्मो समाज सती प्रथा के विरुद्ध था जिस कारण इनके प्रयासों की वजह से अंग्रेज़ी सरकार ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इसने स्त्रियों की शिक्षा तथा सम्पत्ति अधिकार पर भी बल दिया।

प्रश्न 9.
पर्यावरण आन्दोलन।
उत्तर-
हमारे देश में पर्यावरण को खराब होने से बचाने के लिए समय-समय पर कई आन्दोलन चले। इस आन्दोलन में बहुत से लोगों ने इकट्ठे भाग लिया तथा पर्यावरण को दूषित होने से बचाया। चिपको आन्दोलन, एपिको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन इसकी प्रमुख उदाहरणें हैं जिनसे पर्यावरण को खराब होने से बचाया गया।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
समाज सुधार आंदोलनों की मदद से हम क्या परिवर्तन ला सकते हैं ?
उत्तर-
भारत एक कल्याणकारी राज्य है जिसमें हर किसी को समान अवसर उपलब्ध होते हैं। पर कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य जनता के जीवन को सुखमय बनाना है, पर यह तभी संभव है अगर समाज में फैली हुई कुरीतियों तथा अंध-विश्वासों को दूर कर दिया जाए। इनको दूर सिर्फ समाज सुधारक आंदोलन ही कर सकते हैं। सिर्फ कानून बनाकरकुछ हासिल नहीं हो सकता। इसके लिए समाज में सुधार ज़रूरी हैं। कानून बना देने से सिर्फ कुछ नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर बाल विवाह, दहेज प्रथा, विधवा विवाह, बच्चों से काम न करवाना इन सभी के लिए कानून हैं पर ये सब चीजें आम हैं। हमारे समाज के विकास में ये चीजें सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। अगर हमें समाज का विकास करना है तो हमें समाज सुधार आंदोलनों की जरूरत है। इसलिए हम समाज सुधार आंदोलनों के महत्त्व को भूल नहीं सकते।

प्रश्न 2.
सामाजिक आंदोलन की कोई चार विशेषताएं बताओ।
अथवा सामाजिक आंदोलन के दो लक्षण बताएँ।
उत्तर-

  • सामाजिक आंदोलन हमेशा समाज विरोधी होते हैं।
  • सामाजिक आंदोलन हमेशा नियोजित तथा जानबूझ कर किया गया प्रयत्न है।
  • इसका उद्देश्य समाज में सुधार करना होता है।
  • इसमें सामूहिक प्रयत्नों की ज़रूरत होती है क्योंकि एक व्यक्ति समाज में परिवर्तन नहीं ला सकता।

प्रश्न 3.
सामाजिक आंदोलन की किस प्रकार की प्रकृति होती है ?
उत्तर-

  • सामाजिक आंदोलन संस्थाएं नहीं होते हैं क्योंकि संस्थाएं स्थिर तथा रूढ़िवादी होती हैं तथा संस्कृति का ज़रूरी पक्ष मानी जाती हैं। यह आंदोलन अपना उद्देश्य पूरा होने के बाद खत्म हो जाते हैं।
  • सामाजिक आंदोलन समितियां भी नहीं हैं क्योंकि समितियों का एक विधान होता है। यह आंदोलन तो अनौपचारिक, असंगठित तथा परंपरा के विरुद्ध होता है।
  • सामाजिक आंदोलन दबाव या स्वार्थ समूह भी नहीं होते बल्कि यह आंदोलन सामाजिक प्रतिमानों में बदलाव की मांग करते हैं।

प्रश्न 4.
सामाजिक आंदोलन के स्तरों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • सामाजिक आंदोलन के पहले स्तर पर जनता में असन्तोष होता है। बिना असन्तोष के आन्दोलन नहीं चल सकता। इसे अशांति का स्तर भी कहा जा सकता है।
  • इस स्तर को popular stage भी कह सकते हैं क्योंकि लोगों का असन्तोष उन्हें इकट्ठा कर देता है। लोगों का नेता उनकी समस्याएं दूर करने का वायदा करता है।
  • तीसरा स्तर रस्मीकरण की प्रक्रिया है। संगठन अपनी विचारधारा बताता है तथा अगर इसे मान लिया जाता है तो सामूहिक प्रयास किया जाता है। इसे आन्दोलन की शुरुआत भी कह सकते हैं।
  • चौथा स्तर संस्थाकरण का होता है तथा आन्दोलन के बीच बस जाता है। आन्दोलन के उद्देश्य को समाज द्वारा मान लिया जाता है।
  • पाँचवां स्तर आन्दोलन का खात्मा है। कई बार उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् आन्दोलन खत्म हो जाता है या कई बार आन्दोलन अपने आप ही खत्म हो जाता है।

प्रश्न 5.
सत्यशोधक आन्दोलन।
उत्तर-
सत्यशोधक आन्दोलन एक गैर-ब्राह्मण आन्दोलन था। इसका प्रतिनिधित्व सत्यशोधक समाज ने किया जिसे 1873 में ज्योतिराव फूले ने शुरू किया था। वह माली जाति से संबंध रखते थे। इस जाति के अधिकतर सदस्य माली थे जो फूल, फल तथा सब्जियाँ उगाते थे। फूले तथा उनके साथियों का कहना था कि महाराष्ट्र के लोगों का विभाजन दो ढंग से होता था। एक तरफ ब्राह्मण थे तथा दूसरी तरफ पिछड़ी जातियों के लोग थे। ब्राह्मण लोग अपनी परंपरागत सत्ता तथा ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान प्राप्त नई सत्ता के आधार पर समाज का विभाजन कर देते थे। इस आन्दोलन की विचारधारा इस विचार पर टिकी थी कि ब्राह्मणों की प्रत्येक प्रकार की सत्ता को खत्म कर दिया जाए। निम्न जातियों के उत्थान की यह सबसे पहली तथा आवश्यक शर्त थी।

प्रश्न 6.
श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन।
उत्तर-
श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन को श्री नारायण गुरु ने 1893 में केरल में शुरू किया था। श्री नारायण गुरु स्वयं इज़ावा समुदाय से संबंध रखते थे। इज़ावा जाति को अशुद्ध जाति समझा जाता था। इज़ावा लोगों को मूर्ति पूजा तथा जानवरों की बलि देने की आज्ञा नहीं थी। इस आंदोलन में दो मुख्य बिंदुओं पर ध्यान दिया गया। पहला बिन्दु था अस्पृश्यता का खात्मा तथा दूसरा था ऐसे मंदिरों का निर्माण करना जो सभी जातियों के लिए खुले हों। उन्होंने विवाह, धार्मिक पूजा पाठ तथा अंतिम संस्कार से संबंधित नियम बनाने का भी प्रयास किया। उन्होंने एक नया नारा भी दिया, “सम्पूर्ण मानवता के लिए एक धर्म तथा एक भगवान्।”

PSEB 12th Class Sociology Solutions PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन

प्रश्न 7.
आत्म-सम्मान आन्दोलन।
उत्तर-
1925 में पैरियार ई० वी० रामास्वामी ने तमिलनाडु में आत्म-सम्मान आन्दोलन की शुरुआत की। इस आन्दोलन का उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना था जिसमें पिछड़ी जातियों के लोगों के पास भी समान अधिकार हो। इस आन्दोलन का एक अन्य उद्देश्य पिछड़ी जातियों के लिए जाति आधारित समाज में आत्म सम्मान की स्थापना करना था। तमिलनाडु में यह आन्दोलन काफ़ी प्रभावशाली रहा। इस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा आर्थिक व सामाजिक समानता स्थापित करना था। इस आन्दोलन ने धर्म तथा कर्म के नाम पर चल रही सामाजिक बुराइयों को खत्म करने की तरफ भी ध्यान केन्द्रित किया। पैरियार ने यह भी कहा कि इस आन्दोलन का संस्थाकरण किया जाना चाहिए ताकि अपने उद्देश्य प्राप्त किए जा सकें।

प्रश्न 8.
नील आन्दोलन।
उत्तर-
हमारे देश में किसान विद्रोह अंग्रेजों के समय से चले आ रहे हैं। नील विद्रोह 1859-60 में बंगाल में शुरू हुआ था। नील की कृषि पर यूरोप के लोगों का आधिपत्य था। यूरोप में नील की काफ़ी माँग थी जिस कारण इसकी कृषि में काफ़ी लाभ था। किसानों को गेहूँ, चावल के स्थान पर नील उगाने के लिए बाध्य किया जाता था तथा उनका कई ढंग से शोषण किया जाता था। 1859 में किसानों ने हथियारबंद विद्रोह कर दिया क्योंकि अब वह शारीरिक अत्याचार नहीं सहन कर सकते थे। बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग ने उनका लड़ाई में साथ दिया। सरकार ने एक कमीशन भी बनाया ताकि व्यवस्था में से उनका शोषण कम किया जा सके। परन्तु किसानों का विरोध जारी रहा। 1866-68 में दरभंगा तथा चंपारन के नील किसानों ने बड़े स्तर पर विद्रोह भी किया।

प्रश्न 9.
ब्रह्मो समाज।
उत्तर-
राजा राम मोहन राय को आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है तथा उन्होंने 1828 ई० में ब्रह्मो समाज का गठन किया था। वह काफ़ी पढ़े-लिखे तथा समझदार व्यक्ति थे तथा उन्हें एक दर्जन से अधिक भाषाएं आती थी। ब्रह्मो समाज आधुनिक पश्चिमी विचारों से काफी प्रभावित थे। उन दिनों में सती प्रथा काफ़ी चल रही थी। उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा कहा कि इस प्रथा का जिक्र धार्मिक ग्रन्थों में है ही नहीं। इसलिए उन्होंने उस समय के गवर्नर-जनरल को इस प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करने के लिए प्रेरित किया जिस कारण 1829 में ‘सती प्रथा निषेध अधिनियम पास किया गया। इस समाज ने स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए उनकी शिक्षा पर काफ़ी बल दिया। इस समाज ने उन विधवा स्त्रियों की स्थिति सुधारने की तरफ बल दिया जो काफ़ी बुरे हालातों में जी रही थी। इस समाज ने स्त्रियों के लिए उत्तराधिकार तथा उनके लिए सम्पत्ति की भी माँग की।’

प्रश्न 10.
एपीको आन्दोलन क्या है ?
उत्तर-
उत्तराखण्ड के इलाकों में चिपको आन्दोलन चला था जिससे प्रभावित होकर कर्नाटक के एक जिले के किसानों ने वृक्षों को बचाने के लिए उस प्रकार का आन्दोलन चलाया। दक्षिण भारत में इस प्रकार के आन्दोलन को एपीको आन्दोलन का नाम दिया गया। कर्नाटक की स्थानीय भाषा में इसे आलिंगन या एपीको कहा जाता है। सितंबर 1983 में सलकानी क्षेत्र के लोगों ने पाण्डुरंग हेगड़े की अगुवाई में कालस जंगल के पेड़ों के आलिंगन किया। यह आन्दोलन दक्षिण भारत में फैल गया। इस आंदोलन में लोगों को जागृत करने के लिए कई तरीकों को अपनाया गया जैसे कि लोक-नाच, नुक्कड़ नाटक इत्यादि। इस आन्दोलन को काफी हद तक सफलता भी मिल गई तथा राज्य सरकार ने बहुत से जंगलों में हरे वृक्षों की कटाई पर प्रतिबन्ध लगा दिया। केवल सूखे वृक्षों को स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही काटा जा सकता था।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में चले स्त्री आन्दोलन की व्याख्या करें।
उत्तर-
भारतीय समाज में समय-समय पर अनेक ऐसे आंदोलन शुरू हुए हैं जिनका मुख्य उद्देश्य स्त्रियों की दशा में सुधार करना रहा है। भारतीय समाज एक पुरुष-प्रधान समाज है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं ने अपने शोषण, उत्पीड़न इत्यादि के लिए अपनी स्थिति में सुधार के लिए आवाज़ उठाई है। पारंपरिक समय से ही महिलाएं बाल-विवाह, सती-प्रथा, विधवा विवाह पर रोक, पर्दा प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का शिकार होती आई हैं। महिलाओं को इन सब शोषणात्मक कुप्रथाओं से छुटकारा दिलवाने के लिए देश के समाज सुधारकों ने समय-समय पर आंदोलन चलाए हैं।

इन आंदोलनों में समाज सुधारक तथा उनके द्वारा किए गए प्रयास सराहनीय रहे हैं। इन आंदोलनों की शुरुआत 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही हो गई ती। राजा राजमोहन राय, दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ऐनी बेसेंट इत्यादि का नाम इन समाज सुधारकों में अग्रगण्य है। सन् 1828 में राजा राममोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना तथा 1829 में सती प्रथा अधिनियम का बनाया जाना उन्हीं का प्रयास रहा है। स्त्रियों के शोषण के रूप में पाए जाने वाले बाल-विवाह पर रोक तथा विधवा पुनर्विवाह को प्रचलित कराने का जनमत भी उन्हीं का अथक प्रयास रहा है। इसी तरह महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी ने भी कई ऐसे ही प्रयास किए जिनका प्रभाव महिलाओं के जीवन पर सकारात्मक रूप से पड़ा है। महर्षि कर्वे स्त्री-शिक्षा एवं विधवा पुनर्विवाह के समर्थक रहे। इसी प्रकार केशवचंद्र सेन एवं ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों के अंतर्गत ही 1872 में ‘विशेष विवाह अधिनियम’ तथा 1856 में विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम बना। इन अधिनियमों के आधार पर ही विधवा पुनर्विवाह एवं अंतर्जातीय विवाह को मान्यता दी गई। इनके साथ ही कई महिला संगठनों ने भी महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए कई आंदोलन शुरू किए।

महिला आंदोलनकारियों ही कई महिला संगठनों ने भी महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए कई आंदोलन शुरू किए। महिला आंदोलनकारियों में ऐनी बेसेंट, मैडम कामा, रामाबाई रानाडे, मारग्रेड नोबल आदि की भूमिका प्रमुख रही है। भारतीय समाज में महिलाओं को संगठित करने तथा उनमें अधिकारों के प्रति साहस दिखा सकने का कार्य अहिल्याबाई व लक्ष्मीबाई ने प्रारंभ किया था। भारत में कर्नाटक में पंडिता रामाबाई ने 1878 में स्वतंत्रता से पूर्व पहला आंदोलन शुरू किया था तथा सरोज नलिनी की भी अहम् भूमिका रही है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व प्रचलित इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप ही अनेक ऐसे अधिनियम पास किए गए जिनका महिलाओं की स्थिति सुधार में योगदान रहा है। इसी प्रयास के आधार पर स्वतंत्रता पश्चात् अनेक अधिनियम बनाए गए जिनमें 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 का हिंदू उत्तराधिकार का अधिनियम एवं 1961 का दहेज निरोधक अधिनियम प्रमुख रहे हैं। इन्हीं अधिनियमों के तहत स्त्री-पुरुष को विवाह के संबंध में समान अधिकार दिए गए तथा स्त्रियों को पृथक्करण, विवाह-विच्छेद एवं विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति प्रदान की गई है। इसी प्रकार संपूर्ण भारतीय समाज में समय-समय पर और भी ऐसे कई आंदोलन चलाए गए हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य स्त्रियों को शोषण का शिकार होने से बचाना रहा है।

वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष के समाज स्थान व अधिकार पाने के लिए कई आंदोलनों के माध्यम से एक लंबा रास्ता तय करके ही पहुँच पाई है। समय-समय पर राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा महिला संगठनों के प्रयासों के आधार पर ही वर्तमान महिला जागृत हो पाई है। इन सब प्रथाओं के परिणामस्वरूप ही 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया गया। इसके साथ ही विभिन्न राज्यों में महिला विकास निगम (Women Development Council (WDC) का निर्माण किया गया है जिसका उद्देश्य महिलाओं को तकनीकी सलाह देना तथा बैंक या अन्य संस्थाओं से ऋण इत्यादि दिलवाना है। वर्तमान समय में अनेक महिलाएं सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्रों में कार्यरत हैं। आज स्त्री सभी वह कार्य कर रही है जो कि एक पुरुष करता है। महिलाओं के अध्ययन के आधार पर भी वह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान समय में महिला की परिस्थिति, परिवार में भूमिका, शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, राजनीतिक एवं कानूनी भागीदारी में काफ़ी परिवर्तन आया है।

आज महिला स्वतंत्र रूप से किसी भी आंदोलन, संस्था एवं संगठन से अपने आप को जोड़ सकती है। महिलाओं की विचारधारा में इस प्रकार के परिवर्तन अनेक महिला स्थिति सुधारक आंदोलनों के परिणामस्वरूप ही संभव हो पाए हैं। आज महिला पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित की जाती हैं तथा इसके साथ ही महिला सभाओं एवं गोष्ठियों का भी संचालन किया जा रहा है जिसका प्रभाव महिला की स्थिति पर पूर्ण रूप से सकारात्मक पड़ रहा है।
विभिन्न महिला आंदोलनों ने न केवल महिलाओं की स्थिति सुधार में ही भूमिका निभाई है, बल्कि इन आंदोलनों के आधार पर समाज में अनेक परिवर्तन भी आए हैं, अतः महिला आंदोलन परिवर्तन का भी एक उपागम रहा है।

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प्रश्न 2.
कामगारों के आंदोलन का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
कामगारों का आंदोलनों तथा कृषक आंदोलन वर्ग पर आधारित दो महत्त्वपूर्ण आंदोलन रहे हैं। भारतवर्ष में कारखानों के आधार पर उत्पादन सन् 1860 से प्रारंभ हुआ था। औपनिवेशिक शासन काल में यह व्यापार का एक सामान्य तरीका था जिसमें कच्चे माल का उत्पादन भारतवर्ष में किया जाता था। कच्चे माल से वस्तुएं निर्मित की जाती थीं तथा उन्हें उपनिवेश में बेचा जाता था। प्रारंभिक काल में इन कारखानों को बंदरहगाह वाले शहरों जैसे बंबई एवं कलकत्ता में स्थापित किया गया तथा उसके पश्चात् धीरे-धीरे यह कारखाने मद्रास इत्यादि बड़े शहरों में भी स्थापित कर दिए गए।

औपनिवेशक काल के प्रारंभ में सरकार ने मजदूरों के कार्यों एवं वेतन को लेकर किसी भी प्रकार की कोई योजना नहीं बनाई थी जिसके फलस्वरूप उस काल में मज़दूरी बहुत सस्ती थी। लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ कामगारों ने अपने शोषण को देखते हुए सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया था अर्थात् मज़दूर संघ भी विकसित हुए लेकिन विरोध पहले से ही प्रारंभ हो चुका था। देश में कुछ एक राष्ट्रवादी नेताओं ने उपनिवेश विरोधी आंदोलनों में मजदूरों को भी शामिल करना प्रारंभ कर दिया था। देश में युद्ध के समय उद्योगों का बड़े स्तर पर विकास तो हुआ लेकिन इसके साथ ही साथ वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो गई जिससे लोगों को खाने की भी कमी हो गई। परिणामस्वरूप हड़तालें होने लगीं तथा बड़े-बड़े उद्योग एवं मिलें बंद हो गईं जैसे बंबई की कपड़ा मिल, कलकत्ता में पटसन कामगारों ने भी अपना काम बंद कर दिया। इसी तरह अहमदाबाद की कपड़ा मिल के कामगारों ने भी 50% वेतन वृद्धि की माँग को लेकर अपना काम बंद कर दिया।

कामगारों के इस विरोध को देखते हुए अनेक मज़दूर संघ स्थापित हुए। देश में पहला मज़दूर संघ सन् 1918 में बी० पी० वाडिया के प्रयास से स्थापित हुआ। उसी वर्ष महात्मा गांधी ने भी टेक्साइल लेबर एसोसिएशन (टी० एल० ए०) की भी स्थापना की। इसी तर्ज पर सन् 1920 में बंबई में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (All India Trade Union Congress), (ए० आई० ई० टी० सी०, एटक) की स्थापना भी की गई । एटक संगटन के साथ विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग संबंधित हुए जिसमें साम्यवादी विचारधारा मुख्य थी और इन विचारधारओं के समर्थक राष्ट्रवादी नेता जैसे लाला लाजपत राय तथा पं० जवाहर लाल नेहरू जैसे लोग भी शामिल थे।

एटक एक ऐसा संगठन उभर कर सामने आया जिसने औपनिवेशिक सरकार को मज़दूरों के प्रति व्यवहार को लेकर जागरूक कर दिया तथा फलस्वरूप कुछ रियासतों के आधार पर मजदूरों ने पनपे असंतोष को कम करने का प्रयास किया। इसके साथ ही सरकार ने सन् 1922 में चौथा कारखाना अधिनियम पारित किया जिसके अंतर्गत मज़दूरों की कार्य अवधि को घटाकर दस घंटे तक निर्धारित कर दिया। सन् 1926 में मज़दूर संघ अधिनियम के तहत मज़दूर संघों के पंजीकरण का भी प्रावधान किया गया। ब्रिटिश शासन काल के अंत तक कई संघों की स्थापना हो चुकी थी तथा साम्यवादियों ने एटक पर काफ़ी नियंत्रण भी पा लिया था।

राष्ट्रीय स्तर पर कामगार वर्ग के आंदोलन के फलस्वरूप स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् क्षेत्रीय दलों ने भी अपने स्वयं के कई संघों का निर्माण करना प्रारंभ कर दिया। सन् 1966-67 जो कि अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर था, में उत्पादन एवं रोज़गार दोनों में कमी आई जिसके परिणामस्वरूप सभी ओर असंतोष ही असंतोष था। इसके कई उदाहरण सामने थे जैसे 1974 में रेल कर्मचारियों की बहुत बड़ी हड़ताल, 1975-77 में आपात्काल के दौरान सरकार ने मज़दूर संघों की गतिविधियों पर रोक लगा दी। धीरे-धीरे भूमंडलीकरण के प्रभाव के परिणामस्वरूप कामगारों को स्थिति में काफ़ी परिवर्तन हो रहे हैं जोकि कामगारों की स्थिति में सुधारात्मक परिवर्तन हैं। इन सुधारात्मक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप ही देश की अर्थव्यवस्था को एक मज़बूत आधार मिल सकता है।

सामाजिक आन्दोलन PSEB 12th Class Sociology Notes

  • अगर हम सभी समाजों को ध्यान से देखें तो हमें बहुत सी समस्याएं मिल जाएंगी। इन सामाजिक समस्याओं को सामने लाने तथा खत्म करने में सामाजिक आंदोलन काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • समाज में बहुत सी अनावश्यक स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जिनसे समाज के हालात खराब हो जाते हैं। इन
    अनावश्यक स्थितियों को दूर करने के लिए कुछ संगठित यत्नों की आवश्यकता होती है जिन्हें सामाजिक आंदोलन कहा जाता है।
  • सामाजिक आंदोलन की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि इसमें सामूहिक चेतना होती है, इसमें संगठित प्रयास होते हैं, इनमें एक पक्की विचाराधारा होती है, ये परिवर्तन लाने के पक्ष में होते हैं, इनसे नई सामाजिक व्यवस्था सामने आती है, यह हिंसात्मक व अहिंसात्मक हो सकते हैं इत्यादि।
  • सामाजिक आंदोलनों के कई प्रकार होते हैं जैसे कि सुधारवादी, क्रान्तिकारी, रुत्थानवादी आंदोलन। सुधारवादी
    आंदोलन पूर्ण समाज को बदले बिना कुछ परिवर्तन लाना चाहते हैं। क्रान्तिकारी आंदोलन सम्पूर्ण समाज को परिवर्तित करने के लिए चलाए जाते हैं। रुत्थानवादी आंदोलन प्राचीन मूल्यों को दोबारा स्थापित करने के लिए चलाए जाते हैं।
  • हमारे समाज में समय-समय पर कई आंदोलन चले। जाति आधारित आंदोलन उन आंदोलनों में से एक था।
    जाति आधारित आंदोलन निम्न जातियों के संघर्ष को सामने लाने की कहानी है। ज्योतिबा फूले, श्री नारायण गुरु, पैरियार रामास्वामी, डॉ० बी० आर० अम्बेडकर ने निम्न जातियों के उत्थान के लिए देश के अलग-अलग भागों में कई आंदोलन चलाए थे।
  • वर्ग आंदोलन में कार्य करने वाले श्रमिकों व किसानों को शामिल किया जाता है। श्रमिक तथा किसान दोनों ही शोषण से छुटकारा चाहते थे जिस कारण इनके लिए आंदोलन चले थे। समय-समय पर श्रमिक संघ आंदोलन भी चले जिनका मुख्य उद्देश्य उद्योगों में कार्य करते श्रमिकों के लिए अच्छे हालातों तथा अच्छे वेतन की मांग करना था।
  • स्त्रियों को भी सदियों से दबाया जा रहा था। उनकी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए समय-समय पर कई आंदोलन चलाए गए। उन्नीसवीं शताब्दी में राजा राम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, डी० के० कार्वे इत्यादि ने कई स्त्री आंदोलन चलाए जिनसे उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार होने लगा।
  • देश में कई पर्यावरण आंदोलन भी चले जिनका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण को बचाना था। चिपको आंदोलन, ऐपिको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन पर्यावरण आंदोलन के ही प्रकार हैं।
  • सुधारवादी आन्दोलन (Reformist Movements)—वे आन्दोलन जो परम्परागत मान्यताओं में सुधार लाने के लिए चलाए गए थे।
  • क्रान्तिकारी आन्दोलन (Revolutionary Movements)—वह आन्दोलन जो समाज में अचानक परिवर्तन लाए जिससे समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाए।
  • विचारधारा (Ideology)-विचारधारा एक समूह की तरफ से रखे गए विचारों का एकत्र है।
  • औपचारिक संगठन (Formal Organisations)—वे संगठित समूह जिनके नियम, उद्देश्य औपचारिक रूप से बनाए जाते हैं तथा उनके सदस्यों को निश्चित भूमिकाएं दी जाती हैं।
  • पुनरुत्थानवादी आन्दोलन (Revivalist Movements)—वे आन्दोलन जो प्राचीन मूल्यों को दोबारा स्थापित करने के लिए चलाए जाते हैं।

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