PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
एक अकादमिक अनुशासन के रूप में समाज का औपचारिक अध्ययन किस देश में तथा किस शताब्दी में प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर-
एक विषय के रूप में समाज का औपचारिक अध्ययन फ्राँस (यूरोप) में 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ।

प्रश्न 2.
उन तीन कारकों के नाम बताइये जो एक स्वतन्त्र अनुशासन के रूप में समाजशास्त्र के विकास के लिए उत्तरदायी है।
उत्तर-
औद्योगिक क्रान्ति, फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण के विचारों के फैलाव से समाजशास्त्र का विकास एवं स्वतन्त्र विषय के रूप में हुआ।

प्रश्न 3.
नवजागरण से सम्बद्ध दो विचारकों के नाम बताइए।
उत्तर-
चार्ल्स मान्टेस्कयू (Charles Montesquieu) तथा जीन जैक्स रूसो (Jean Jacques Rousseau)।

प्रश्न 4.
फ्रांसीसी क्रान्ति किस वर्ष अस्तित्व में आयी ?
उत्तर-
फ्रॉसीसी क्रान्ति सन् 1789 में हुई थी।

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प्रश्न 5.
प्रत्यक्षवाद शब्द से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यह माना जाता है कि समाज कुछ स्थिर नियमों के अनुसार कार्य करता है, जिन्हें ढूंढा जा सकता है। इसे ही सकारात्मकवाद कहते हैं।

प्रश्न 6.
किसने समाजशास्त्र की दो शाखाओं सामाजिक स्थितिकी तथा सामाजिक गतिकी की चर्चा की ?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने यह नाम दिया।

प्रश्न 7.
अगस्ते कोंत के तीन चरणों के नियम को चार्ट द्वारा प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक 1

प्रश्न 8.
कार्ल मार्क्स का वर्ग का सिद्धांत किस निर्धारणवाद पर आधारित है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स का वर्ग का सिद्धांत उत्पादन के साधनों की मल्कियत पर आधारित है कि एक समूह के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा एक के पास नहीं होते हैं।

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प्रश्न 9.
‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’ पुस्तक किसने लिखी है ?
उत्तर-
पुस्तक ‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’ कार्ल मार्क्स ने लिखी है।

प्रश्न 10.
कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत सामाजिक परिवर्तन के चरण कौन-से हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिर्वतन के चार मुख्य स्तर हैं–आदिम समुदाय समाज, दासमूलक समाज, सामन्ती समाज तथा पूँजीवादी समाज।

प्रश्न 11.
किसने समाज में उपस्थित एकता की प्रकृति के आधार पर समाज को वर्गीकृत है ?
उत्तर-
एमिल दुर्शीम ने समाज में मौजूद एकता की प्रकृति के आधार पर समाज को बाँटा है।

प्रश्न 12.
एमिल दुर्थीम द्वारा प्रस्तुत एकता के दो प्रकार बताइये।
उत्तर-
यान्त्रिक एकता (Mechnical Solidarity) तथा सावयवी एकता (Organic Solidarity)।

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प्रश्न 13.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया के प्रकारों की सूची बताइये।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने चार प्रकार की सामाजिक क्रिया के बारे में बताया है- Zweekrational, Wertnational, Affeective क्रिया तथा Traditional क्रिया।

प्रश्न 14.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता के प्रकार बताइये।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने सत्ता के तीन प्रकार दिए हैं-परंपरागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मई सत्ता।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
नवजागरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-
नवजागरण वह समय था जब काफ़ी अधिक बौद्धिक विकास हुआ तथा दार्शनिक विचारों में बहुत परिवर्तन आए। यह समय 17वीं-18वीं शताब्दी के बीच था। इस समय के मशहूर विचारक मान्टेस्क्यू तथा रूसो थे। यह विचारक विज्ञान की सर्वोच्चता तथा विश्वास के ऊपर तर्क को ऊँचा मानते थे। इन विचारों के कारण ही सामाजिक प्रकटन में वैज्ञानिक विधि के प्रयोग पर बल दिया।

प्रश्न 2.
धर्मशास्त्रीय तथा तत्वशास्त्रीय चरणों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
कोंत के अनुसार आध्यात्मिक पड़ाव में मनुष्य के विचार काल्पनिक थे। वह सभी चीज़ों को परमात्मा के रूप में समझता था। धारणा यह थी कि चाहे सभी चीज़े निर्जीव हैं परन्तु उनमें सर्वशक्ति व्यापक है। अधिभौतिक पड़ाव 14वीं से 16वीं शताब्दी तक चला। इस समय बेरोक निरीक्षण का अधिकार सामने आया जिसकी कोई सीमा नहीं थी। इस कारण आत्मिकता का पतन हुआ जिसका सांसारिक पक्ष पर भी प्रभाव पड़ा।

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प्रश्न 3.
जीववाद (Animism) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जीववाद एक विचारधारा है जिनमें लोग विश्वास करते हैं कि परमात्मा केवल चलने वाली या जीने वाली वस्तुओं में मौजूद है। शब्द Anima का अर्थ है आत्मा (Soul) या चाल (Movement)। लोगों ने जानवरों, पंक्षियों, पृथ्वी तथा हवा की भी पूजा करनी शुरू कर दी।

प्रश्न 4.
कार्ल मार्क्स की वर्ग की परिभाषा दीजिए।
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार, “वर्ग लोगों के ऐसे बड़े-बड़े समूहों को कहते हैं जो सामाजिक उत्पादन की इतिहास की तरफ से निर्धारित किसी पद्धति में, अपने-अपने स्थान की दृष्टि से, उत्पादन के साधनों के साथ अपने संबंध की दृष्टि से, परिश्रम के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका की दृष्टि से तथा परिणामस्वरूप सामाजिक सम्पत्ति के जितने हिस्से के वह मालिक होते हैं, उसके परिणाम तथा उसे प्राप्त करने के तौर-तरीके की दृष्टि से एक-दूसरे से अलग होते हैं।

प्रश्न 5.
वर्ग चेतना से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
प्रत्येक वर्ग अपने सदस्यों, उनकी सामाजिक स्थिति, रुतबें इत्यादि के बारे में चेतन होता है। इस प्रकार की चेतना को ही वर्ग चेतना कहा जाता है। सभी वर्गों के लोग अपने समूह के प्रति चेतन होते हैं जिस कारण वह साधारण तथा अपने वर्ग के सदस्यों के साथ ही संबंध रखना पसंद करते हैं।

प्रश्न 6.
ऐतिहासिक भौतिकवाद को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
ऐतिहासिक भौतिकवाद वह दार्शनिक विद्या है जो एक अखण्ड व्यवस्था के रूप में समाज का तथा उस व्यवस्था के कार्य तथा विकास को शामिल करने वाले मुख्य नियमों का अध्ययन करती है। संक्षेप में ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक विकास का दार्शनिक सिद्धांत है। इस प्रकार यह मार्क्स का सामाजिक तथा ऐसिहासिक सिद्धांत है।

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प्रश्न 7.
सामाजिक तथ्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
दुर्थीम ने सामाजिक तथ्य का सिद्धांत दिया था तथा अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय के अंत में इसकी परिभाषा दी। दुर्थीम के अनुसार, “एक सामाजिक तथ्य क्रिया करने का प्रत्येक स्थायी, अस्थायी तरीका है जो व्यक्ति के ऊपर बाहरी दबाव डालने में समर्थ होता है अथवा दोबारा क्रिया करने का प्रत्येक तरीका है जो किसी समाज में आम रूप से पाया जाता है परन्तु साथ ही व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है।

प्रश्न 8.
सावयवी एकता (Organic Solidarity) पर चर्चा कीजिए।
उत्तर-
सावयवी एकता आधुनिक समाजों में पाई जाती है तथा यह स्तर सदस्यों के बीच मौजूद अंतरों पर आधारित है। यह अधिक जनसंख्या वाले समाजों में पाई जाती है जहाँ पर लोगों के बीच अव्यक्तिगत सामाजिक संबंध पाए जाते हैं। इन समाजों में प्रतिकारी कानून पाए जाते हैं।

प्रश्न 9.
ज्वैकरेशनल क्रिया से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
Zweckrational क्रिया का अर्थ ऐसे सामाजिक व्यवहार से होता है जो उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कई उद्देश्यों की अधिक-से-अधिक प्राप्ति के लिए तार्किक रूप से निर्देशित हो। इसमें साधनों के चुनाव केवल उनकी विशेष कार्यकुशलता की तरफ ही ध्यान नहीं दिया जाता बल्कि मूल्य में की तरफ भी ध्यान जाता है।

प्रश्न 10.
भावनात्मक क्रिया किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह वह क्रियाएं हैं जो मानवीय भावनाओं, संवेगों तथा स्थायी अर्थों के कारण होती हैं। समाज में रहते हुए, प्रेम, नफरत, गुस्सा इत्यादि जैसी भावनाओं का सामना करना पड़ता है। इस कारण ही समाज में शान्ति या अशान्ति की अवस्था उत्पन्न हो जाती है। इन व्यवहारों के कारण परंपरा तथा तर्क का थोड़ा सा भी सहारा नहीं लिया जाता।

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प्रश्न 11.
सत्ता को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
वैबर के अनुसार प्रत्येक संगठित समूह में सत्ता में तत्त्व मूल रूप में मौजूद होते हैं। संगठित समूह में कुछ तो साधारण सदस्य होते हैं तथा कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके पास ज़िम्मेदारी होती है तथा वह अन्य लोगों से वैधानिक तौर पर आदेश देकर अपनी बात मनवाते हैं। इस बात मनवाने की व्यवस्था को ही सत्ता कहते हैं।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
अगस्त कोंत द्वारा प्रतिपादित तीन चरणों के नियम की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
अगस्त कोंत ने समाज के उद्विकास का सिद्धांत दिया तथा कहा कि समाज के विकास के तीन पड़ाव हैं-आध्यात्मिक पड़ाव, अधिभौतिक पड़ाव तथा सकारात्मक पड़ाव। आध्यात्मिक पड़ाव में मनुष्य के सभी विचार काल्पनिक थे तथा वह सभी वस्तुओं को किसी आलौकिक जीव की क्रियाओं के परिणाम के रूप में मानता था। धारणा यह थी कि चाहे सभी वस्तुएं निर्जीव हैं परन्तु उनमें वह शक्ति व्यापक है। दूसरा पड़ाव अधिभौतिकं पडाव था जो 14वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक चला। इस पड़ाव में क्रान्तिक आंदोलन शुरू हुआ तथा प्रोटैस्टैंटवाद सामने आया। 16वीं शताब्दी में नकारात्मक सिद्धांत सामने आया जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन था। इसमें बेरोक निरीक्षण का अधिकार था तथा निरीक्षण की कोई सीमा नहीं थी। सकारात्मक पड़ाव में औद्योगिक समाज शुरू हुआ तथा विज्ञान सामने आया। इसमें सामाजिक व्यवस्था तथा प्रगति में कोई द्वन्द नहीं होता है।

प्रश्न 2.
यान्त्रिक एकता की विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-

  • यान्त्रिक एकता वाले समाज के सदस्यों के व्यवहारों में समरूपता मिलती है तथा उनके व्यवहार एक जैसे होते हैं।
  • समान विश्वास तथा भावनाएं यान्त्रिक एकता के प्रतीक हैं। इस समाज के सदस्यों में सामूहिक चेतना मौजूद होती है।
  • यान्त्रिक समाजों में दमनकारी कानून मिलते हैं जहाँ पर अपराधी को पूर्ण दण्ड देने की व्यवस्था होती है।
  • नैतिकता यान्त्रिक समाजों का मूल आधार होती है जिस कारण समाज में एकता बनी रहती है।
  • धर्म यान्त्रिक समाज में एकता का महत्त्वपूर्ण आधार है तथा धर्म के अनुसार ही आचरण तथा व्यवहार किया जाता है।

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प्रश्न 3.
सावयवी एकता की विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-

  • आंगिक अथवा सावयवी एकता वाले समाजों में विभेदीकरण तथा विशेषीकरण पाया जाता है। समाज में बहत से वर्ग मिलते हैं।
  • इन समाजों में श्रम विभाजन का बोलबाला होता है तथा लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे पर निर्भर होते हैं।
  • इन समाजों में बहुत से संगठन तथा समूह मिलते हैं जिस कारण इनमें प्रतिकारी कानूनों की प्रधानता होती
  • सावयवी समाजों में समझौतों पर आधारित संबंध सामाजिक एकता का स्रोत होते हैं तथा नौकरियों में व्यक्तियों को अनुबंध पर रखा जाता है।
  • सावयवी एकता वाले समाजों में धर्म का प्रभाव काफ़ी कम होता है।
  • इस प्रकार के समाज आधुनिक समाज होते हैं।

प्रश्न 4.
धर्मशास्त्रीय एवं तत्वशास्त्रीय चरणों में अंतर कीजिए।
उत्तर-
1. धर्मशास्त्रीय पड़ाव-यह पड़ाव मानवता के शुरू होने के समय शुरू होता है जब मनुष्य प्राकृतिक शक्तियों से डरता था। वह सभी चीजों को किसी आलौकिक शक्ति की क्रियाओं के परिणाम के रूप में देखता था। वह सोचता था कि चाहे सभी वस्तुएं निर्जीव हैं परन्तु सब में परमात्मा मौजूद है। यह पड़ाव आगे तीन उप-पड़ावों प्रतीक पूजन, बहु-देवतावाद तथा एक-ईश्वरवाद में विभाजित है।

2. तत्वशास्त्रीय पड़ाव-इस पड़ाव को काम्ते आधुनिक समाज का क्रान्तिक समय भी कहता है। यह पड़ाव 5 शताब्दियों तक 14वीं से 19वीं तक चला। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में क्रान्तिक आंदोलन स्वयं ही चल पड़ा तथा क्रान्तिक फिलास्फी 16वीं शताब्दी में प्रोटैस्टैंटवाद में आने से शुरू हुई। दूसरा भाग 16वीं शताब्दी से शुरू हुआ। इसमें नकारात्मक सिद्धांत शुरू हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन था। इसमें बेरोक निरीक्षण का अधिकार था।

प्रश्न 5.
क्या आप सोचते हैं कि निकट भविष्य में साम्यवादी समाजों द्वारा पूँजीवाद को विस्थापित कर दिया जायेगा ?
उत्तर-
जी नहीं, हम नहीं सोचते कि आने वाले भविष्य में पूँजीवादी व्यवस्था को कम्युनिस्ट व्यवस्था बदल देगी। वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था स्वतन्त्र मार्कीट के सिद्धांत पर आधारित है जबकि कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था सरकारी नियन्त्रण के अन्तर्गत होती है तथा आजकल के समय में कोई भी सरकारी नियन्त्रण को पसन्द नहीं करता। 1917 में रूस में राजशाही को कम्युनिस्ट व्यवस्था ने बदल दिया था परन्तु वहां की अर्थव्यवस्था का कुछ ही समय में बुरा हाल हो गया था। इस कारण ही सन् 1990 में U.S.S.R. के टुकड़े हो गए थे तथा वह कई देशों में विभाजित हो गया था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कम्युनिस्ट पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं बदल सकती।

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IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें:

प्रश्न 1.
क्या समाजशास्त्र एक पूर्ण विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है जिसकी कल्पना अगस्ते कोंत ने की थी ?
उत्तर-
शब्द समाजशास्त्र (Sociology) का प्रथम बार प्रयोग अगस्ते काम्ते ने 1839 में किया था। काम्ते ने एक पुस्तक लिखी ‘The Course on Positive Philosophy’ जो कि 6 भागों में छपी थी। इस पुस्तक में उन्होंने कहा था कि समाज में अलग-अलग भागों का अध्ययन अलग-अलग सामाजिक विज्ञान करते हैं, उदाहरण के लिए समाज के राजनीतिक हिस्से का अध्ययन राजनीति विज्ञान करता है, आर्थिक हिस्से का अध्ययन अर्थशास्त्र करता है। उस प्रकार एक ऐसा विज्ञान भी होना चाहिए जो समाज का अध्ययन करे। इस प्रकार उन्होंने समाज, सामाजिक संबंधों के अध्ययन की कल्पना की तथा उनकी कल्पना के अनुसार एक नया विज्ञान सामने आया जिसे समाजशास्त्र का नाम दिया गया।

काम्ते के पश्चात् हरबर्ट स्पैंसर ने भी कई संकल्प दिए जिससे समाजशास्त्र का दायरा बढ़ना शुरू हुआ। इमाईल दुर्थीम प्रथम समाज शास्त्री था जिसने समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने अपने अध्ययनों में वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया तथा कहा कि समाज का वैज्ञानिक विधियों, जैसे कि निरीक्षण की सहायता से अध्ययन किया जा सकता है। उनके द्वारा दिए संकल्पों, जैसे कि सामाजिक तथ्य, आत्महत्या का सिद्धांत, श्रम विभाजन का सिद्धांत, धर्म का सिद्धांत इत्यादि में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग साफ झलकता है। समाजशास्त्र के इतिहास में दुर्थीम पहले प्रोफैसर थे।

समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में स्थापित करने में कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर ने भी बहुत बड़ा योगदान दिया। कार्ल मार्क्स ने संघर्ष का सिद्धांत दिया तथा सम्पूर्ण समाजशास्त्र संघर्ष सिद्धांत में इर्द-गिर्द घूमता है।

मार्क्स ने समाज का आर्थिक पक्ष से अध्ययन किया तथा बताया कि समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। उन्होंने दो प्रकार के वर्गों तथा उनके बीच हमेशा चलने वाले संघर्ष का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद, वर्ग तथा वर्ग संघर्ष का सिद्धांत, अलगाव का सिद्धांत जैसे संकल्प समाजशास्त्र को दिए। मैक्स वैबर ने भी समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया तथा सामाजिक क्रिया का सिद्धांत दिया। उन्होंने समाजशास्त्र की व्याख्या दी, सामाजिक क्रिया का सिद्धांत दिया, सत्ता तथा प्रभुत्ता का सिद्धांत दिया, धर्म की व्याख्या दी तथा कर्मचारीतन्त्र का सिद्धांत दिया।

इन सभी समाजशास्त्र के संस्थापकों के पश्चात् बहुत से समाजशास्त्री हुए तथा समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में स्थापित करने में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। टालक्ट पारसन्ज़, जे० एस० मिल, राबर्ट मर्टन, मैलिनोवस्की, गिलिन व गिलिन, जी० एस० घूर्ये इत्यादि जैसे समाजशास्त्री इनमें से प्रमुख हैं।

अब पिछले कुछ समय से समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग काफ़ी हद तक किया जा रहा है ताकि अध्ययन को अधिक-से-अधिक वस्तुनिष्ठ तथा निष्पक्ष रखा जा सके। इससे एक क्षेत्र में किए अध्ययनों को दूसरे क्षेत्रों में भी लागू किया जा सकेगा। उपकल्पना, निरीक्षण, सैंपल विधि, साक्षात्कार, अनुसूची प्रश्नावली, केस स्टडी, वर्गीकरण, सारणीकरण, आँकड़ों के प्रयोग से समाजशास्त्र निश्चित रूप से एक विज्ञान के रूप में स्थापित हो गया है।

प्रश्न 2.
मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत बताइये।
उत्तर-
मार्क्स की उन्नत ‘वैज्ञानिक प्रस्थापना’ में यह बात भी शामिल है कि उन्होंने अलग सामाजिक समूहों पर सर्वप्रथम वर्गों के अस्तित्व की व्याख्या की थी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मार्क्स ने वर्गों की व्याख्या बहुत अच्छे प्रकार से की है। मार्क्स की विचारक खोज का मुख्य उद्देश्य यह पता करना था कि यह मानव समाज जिसमें हम सभी रहते हैं, और इसका जो रूप या स्वरूप हमें दिखाई देता है वह इस तरह क्यों है ? और इस समाज में परिवर्तन क्यों और किन शक्तियों के द्वारा आते हैं ? इसके साथ ही मार्क्स ने इसकी स्पष्ट व्याख्या और विवेचना की थी और लिखा था कि आने वाले समय में समाज में किस तरह और कैसे परिवर्तन आयेंगे ? अपनी खोजों के द्वारा मार्क्स और उसके निकट सहयोगी ‘ऐंजलस’ इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस समाज में काफ़ी अमानवीय शोषण फैला हुआ है। इसलिये उन्होंने अपनी खोज का दूसरा उद्देश्य उस समाज का निर्माण करना या स्थापना करनी है जो कि शोषण रहित हो बताया है ।

वर्ग किसे कहते हैं (What is Class) मार्क्स के वर्ग संघर्ष को समझने के लिये यह अति आवश्यक है कि पहले यह जाने कि वर्ग क्या है ? कार्ल मार्क्स ने इतिहास का अध्ययन करने के लिये इस बात की विशेष वकालत की कि हमें यह अध्ययन उस दृष्टिकोण से करना चाहिये जिसके साथ हम उन प्राकृतिक नियमों का पता लगा सकें जो पूरे मानव इतिहास का संचालन करते हैं और ऐसा करने के लिए हमें कुछ विशेष व्यक्तियों के कार्यों और आम व्यक्तियों के कार्यों और व्यवहारों की तरफ ध्यान देना चाहिये। प्रत्येक समाज लगभग कई जनसमूहों में बंटे हुए होते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न वर्ग एक विशेष सामाजिक आर्थिक इकाई का निर्माण करते थे। इस इकाई विशेष को हम वर्ग के नाम से जानते हैं।

मार्क्स ने अपने कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो किस्से के पहले अध्याय की शुरुआत भी इन्हीं शब्दों से की है कि अभी तक समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है और इतिहास में वर्णित समाजों में हर समाज में विभिन्न प्रकार की श्रेणियां पाई जाती हैं। सामाजिक श्रेणियों की बहरूपी दर्जाबंदी, प्राचीन रोम में पैट्रोशियन, नाई पलेबियन और दास मिलते थे। मध्यकाल में हमें सामन्तवादी अधीन जागीरदारी, उस्ताद, कारीगर, मज़दूर कारीगर, ज़मीनी दास इत्यादि दिखाई पड़ते हैं और लगभग इन सभी में द्वितीय श्रेणियां या वर्ग पाए जाते हैं।

मार्क्स की वर्ग व्यवस्था के आधार पर ही लेनिन ने वर्गों की व्याख्या और परिभाषा पेश की है। लेनिन ने लिखा है कि, “वर्ग लोगों के ऐसे बडे-बडे समूहों को कहते हैं जो सामाजिक उत्पादन की इतिहास की तरफ से निर्धारित किसी पद्धति में अपनी-अपनी जगह की नज़र से उत्पादन के साधनों के साथ अपने सम्बन्धों जो कि अधिकतर मामलों में कानून के द्वारा निश्चित और निरूपित होते हैं की नज़रों से, मेहनत के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका को नज़र से और फलस्वरूप सामाजिक सम्पत्ति के जितने भाग के वह मालिक होते हैं, उसके परिमाण और उसको प्राप्त करने के तौर-तरीकों की नज़र से एक दूसरे से अलग होते हैं।”

मार्क्स के अनुसार, “इतिहास की भौतिकवादी धारणा में यह कहा गया है कि मानव जीवन के विकास के लिये आवश्यक साधनों का उत्पादन और उत्पादन के उपरान्त बनी वस्तुओं का लेन-देन (Exchange) प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का आधार है। इतिहास में जितनी भी सामाजिक व्यवस्थाएं बनी हैं इसमें जिस तरह धन का बंटवारा हुआ है और समाज का वर्गों और श्रेणियों में बंटवारा हुआ है वह इस बात पर निर्भर है कि इस समाज में क्या उत्पादन हुआ है ? और कैसे हुआ है ? और फिर उपज की Exchange कैसे हुई ? मार्क्स के अनुसार, “किसी भी युग में परिश्रम का बंटवारा और जीवन जीने के साधनों की प्राप्ति के अलग-अलग साधनों के होने के कारण मनुष्य अलग-अलग वर्गों में बंट जाता है और प्रत्येक वर्ग की विशेष वर्ग चेतनता होती है।”

वर्ग से मार्क्स का अर्थ भारत की जातीय व्यवस्था से सम्बन्धित नहीं है बल्कि वर्ग से उनका अर्थ उस जातीय समूह व्यवस्था से है जिसकी परिभाषा उत्पादन की उस प्रक्रिया में उनकी भूमिका के साथ की जा सकती है। आम शब्दों में कहा जाये तो वर्ग लोगों के ऐसे समूहों को कहा जाता है, जो अपनी जीविका केवल एक ही ढंग से कमाते हैं, वर्ग का जन्म उत्पादन के तौर-तरीकों पर आधारित होता है। जैसे किसी उत्पादन व्यवस्था में परिवर्तन आता है, तो पुराने वर्गों के स्थान पर नये स्थान ले लेते हैं।

वर्ग संघर्ष (Class Struggle)-

इस तरह कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो-दो वर्गों की विवेचना की है। मार्क्स की वर्ग की धारणाओं को प्रत्येक समाज में ध्यान से समझने के पश्चात् हम अब इस स्थिति में है कि उसकी वर्ग संघर्ष की धारणा को समझें। मार्क्स ने बताया कि समाज के प्रत्येक वर्ग में दो प्रकार के परस्पर विरोधी वर्ग रहे हैं। एक शोषण करने वाला व दूसरा जो शोषण को सहन करता है। इनमें आपस में संघर्ष होता है। इसे मार्क्स ने ‘वर्ग संघर्ष’ का नाम दिया है। कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र में वह कहते हैं कि समाज के अस्तित्व के साथ-साथ ही वर्ग संघर्ष का भी जन्म हो जाता है। मार्क्स का यह वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त उसके विचारों से और संसार में भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

उनके प्रभाव के कारण ही ‘स्माल थास्टरीन बैवलीन’ और ‘कूले’ इत्यादि ने भी वर्ग संघर्ष को अपने चिन्तन का एक अंग रूप माना है।
मार्क्स के अनुसार, “उत्पादन की प्रक्रियाओं में अलग-अलग वर्गों की अलग-अलग भूमिकाएं होती हैं। अब वर्गों की आवश्यकताओं और हितों पर संघर्ष की स्थिति पैदा होना आवश्यक है। वही संघर्ष विरोधी विचारधारा में एक ‘आधार’ (Base) पैदा करता है। विकासशील उत्पादित शक्तियों और प्रकृतिवादी स्थिर सम्पत्ति के सम्बन्धों में टकराव पैदा होता है। इससे संघर्ष की गति भी तेजी से बढ़ती है। इतिहास की गति वर्गों की भूमिका के द्वारा ही निर्धारित होती है और सामाजिक एवं आर्थिक वर्ग उन सभी समाजों में पाए जाते हैं जहां श्रम विभाजन का आम सिद्धान्त लागू होता है।

मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष एक ऐसी उत्पादित व्यवस्था से जन्म लेता है, जो समाज को भिन्न-भिन्न वर्गों में बांट देती है। इसमें एक वर्ग तो काफ़ी कठोर परिश्रम करके उत्पादन करता है, जैसे दास, अर्द्धदास, किसान और मज़दूर इत्यादि और दूसरा वर्ग ऐसा है जो उत्पादन के लिये कोई परिश्रम किये बिना, बिना कोई काम किये उत्पादन के बड़े-बड़े भाग का उपयोग करता है, जैसे दासों के स्वामी, जागीरदार, ज़मींदार और पूंजीपति इत्यादि। मार्क्स के अनुसार, “इस वर्ग संघर्ष को मनुष्य के उत्पादन की पहली और ऊंची अवस्था तक पहुंचने में मदद करता है। वह मानते हैं कि कोई भी क्रान्ति जब सफल होती है तो उनके साथ नयी आर्थिक सामाजिक व्यवस्था का जन्म होता है।”

इस आधार पर ही मार्क्स ने अब तक के मानवीय इतिहास को चार युगों में विभाजित किया है-

1. पहला युग-इतिहास का पहला युग आदिम साम्यवादी समाज था। इस युग में उत्पादन के साधन अविकसित थे। उत्पादन के साधनों को आवश्यक वस्तुओं को उत्पन्न करने के लिए प्रयोग किया जाता था तथा संयुक्त परिश्रम के साथ इन्हें प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार उत्पादन पर सभी का समान अधिकार होता था। आर्थिक शोषण तथा वर्ग भेद नाम की कोई चीज़ मौजूद नहीं थी।

2. दूसरा युग-दूसरा युग दास मूलक समाज का था। कृषि, पशुपालन तथा धातु के औज़ारों के विकसित होने से उत्पादन व्यवस्था के सम्बन्ध बदल गए तथा दास प्रथा शुरू हो गयी। विकसित उत्पादन के साधनों के कारण व्यक्तिगत संपत्ति का संकल्प सामने आया। इस समय दास स्वामी तथा दासों के अलग-अलग वर्ग बन गए तथा वर्ग संघर्ष शुरू हो गया। मार्क्स का कहना था कि इस समाज से ही वर्ग संघर्ष की शुरुआत हुई क्योंकि मालिकों ने अपने दासों का शोषण करना शुरू कर दिया था।

3. तीसरा युग-सामन्ती समाज तीसरा युग था। इस युग में उत्पादन के साधनों पर कुछ सामन्तों तथा भूपतियों का अधिकार हो गया। इस युग में निजी सम्पत्ति की धारणा और सुद्रढ़ हो गई। कई विकासशील तथा अर्द्ध विकसित देशों में इस युग के अवशेष देखने को मिल जाएंगे। इस युग में सामन्तों तथा किसानों के दो वर्ग बन गए तथा वर्ग संघर्ष और तेज़ हो गया।

4. चौथा युग-चौथा युग पूँजीपति समाज था। 15वीं शताब्दी के अंत में विज्ञान का विकास होना शुरू हुआ। इससे उत्पादन व्यवस्था के सम्बन्धों तथा उत्पादन के नए साधनों में विरोध उत्पन्न हो गए। मशीनों का आविष्कार हुआ। बड़े-बड़े उद्योग स्थापित हुए जिससे पूँजीवादी युग शुरू हो गया तथा यह आज भी चल रहा है। इस व्यवस्था में एक तरफ तो उद्योगों के मालिक थे तथा दूसरी तरफ उन उद्योगों में कार्य करने वाले श्रमिक थे। इस प्रकार दो वर्ग पूँजीपति तथा श्रमिक बन गए। इस युग में विज्ञान की प्रगति से, शिक्षा के बढ़ने, बड़े उद्योगों में श्रमिकों के इकट्ठे रहने के कारण आसानी से संगठित होने से वर्ग चेतना का काफ़ी विकास हो गया है। आज का शोषित वर्ग अब शोषण तथा वर्ग विरोधों को और सहन करने को तैयार नहीं हैं। अब वर्ग संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। मार्क्स का कहना है कि पूँजीवादी युग का खात्मा आवश्यक है। शोषण पर आधारित यह अन्तिम व्यवस्था होगी। आज पूँजीवाद का खात्मा शुरू हो गया है। मनुष्यों का समाज तेज़ी से समाजवाद की तरफ बढ़ रहा है। रूस तथा चीन की समाजवादी सरकारों की स्थापना इसका प्रमाण है।

मार्क्स के अनुसार, “निजी सम्पत्ति ही शोषण की जड़ है। इसी के कारण ही मूल रूप से आर्थिक उत्पादन के क्षेत्र में समाज में दो मुख्य वर्ग हैं। इनमें एक वर्ग के हाथ में आर्थिक उत्पादन के सभी साधन केन्द्रित हो जाते हैं जिसके आधार पर यह वर्ग शोषित और कमजोर वर्ग का शोषण करता है।” इन वर्गों में आपस में समाज की हर युग (केवल आदिमयुग छोड़कर) में आपस में वर्ग संघर्ष चलता आया है। मार्क्स की मान्यता के अनुसार, सभी उत्पादन साधनों पर अधिकार करके शोषक वर्ग बल के साथ अपने सैद्धान्तिक विचारों एवं जीवन प्रणाली को सारे समाज पर थोपता है। मार्क्स के अनुसार, “वह वर्ग जो समाज की शोषक भौतिक शक्ति होता है, साथ ही समाज की शासक भौतिक शक्ति भी होता है। वह वर्ग जिसके पास भौतिक उत्पादन के साधन मौजूद होते हैं वह सामाजिक उत्पादन के साधनों पर भी नियन्त्रण रखता है। इस प्रकार के नियन्त्रण के लिए शोषक वर्ग बल प्रयोग भी करता है। उसके द्वारा समाज के ऊपर थोपे गये धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र और नैतिकता के विचार उसके इस प्रभाव को मज़बूत करने के लिये शोषण वर्ग के दास बन जाते हैं। शोषण की इस स्थिति को बरकरार रखने के लिए नये उभरते हुए शोषित वर्ग को बलपूर्वक दबाना आवश्यक हो जाता है। इसलिये मार्क्स ने कहा है बल नये समाज को अपने गर्भ में धारण करने वाले प्रत्येक पुराने समाज की ‘दाई’ (Midwife) है।

समाज का विकास अलग-अलग अवस्थाओं की देन हैं। किसी भी सामाजिक व्यवस्था अथवा ऐतिहासिक युग का मूल्यांकन हालातों, देश तथा काल के ऊपर निर्भर करता है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था स्थायी नहीं है। सभी प्रक्रियाएँ द्वन्दात्मक होती है। उत्पादन की नई तथा पुरानी प्रक्रिया में जो अन्दरूनी संघर्ष होता है वह ही इसकी प्रेरक शक्ति होती है। पुरानी के स्थान पर नई पद्धति को अपनाना आवश्यक होता है। धीरे-धीरे होने वाले परिमाणात्मक परिवर्तन तेज़ी से अचानक होने वाले गुणात्मक परिवर्तन में बदल जाते है। इसलिए विकास के नियम के अनुसार क्रान्तिकारी परिवर्तन आवश्यक तथा स्वाभाविक होते हैं।

यह परिवर्तन बल (Force) पर आधारित होते हैं। विकास के रास्ते में उभरने वाली असंगतियों के आधार पर विरोधी शक्तियों में टकराव होता है। अंत में वर्ग संघर्ष तेज़ होता है जिसमें शोषित वर्ग अर्थात् मज़दूर वर्ग का अन्तिम रूप में जीतना आवश्यक है। मार्क्स के अनुसार इन विरोधों के कारण पूंजीवाद स्वयं विनाश की तरफ बढ़ता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में दिन प्रतिदिन निर्धनता, बेरोज़गारी, भूखमरी बढ़ जाएगी। सहन करने की एक सीमा के पश्चात श्रमिक वर्ग क्रान्ति शुरू कर देगा। मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद शोषण पर आधारित अन्तिम व्यवस्था होगी। अपने स्वार्थों के साथ घिरे पूंजीवाद संसदीय नियमों के साथ अपने एकाधिकार का कभी भी त्याग नहीं करेंगे। जैसे कि महात्मा गांधी ने अपने ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की व्याख्या में कहा था। शांतिपूर्ण तरीके से शोषण को खत्म नहीं किया जा सकता था। इसके लिये क्रान्ति ज़रूरी है। समाज का एक बहुत बड़ा भाग (सर्वहारा) मजबूर हो जायेगा और यही क्रान्तिकारी हरियाली को दर्शायेगा।”

सर्वहारा (मज़दूर) वर्ग की लीडरशिप में वर्ग संघर्ष के द्वारा राज्य के यन्त्र पर अधिकार हो जाने के बाद समाजवाद के युग का आरम्भ होगा। मार्क्स के अनुसार राज्य शोषक वर्ग के हाथ में होने के कारण दमन की नीति एक बहुत बड़ा हथियार होता है। क्रान्ति के बाद भी सामन्तवाद और पूंजीवाद के दलाल प्रति क्रान्ति की कोशिश करते हैं। इसलिए पूंजीवाद के समाजवाद के बीच जाने के समय मज़दूर की सत्ता की अस्थाई अवस्था होगी। समाजवाद की स्थापना के बाद शोषण का अन्त हो जायेगा। इससे वर्ग समाप्त हो जाएंगे। इससे प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मेहनत का पूर्ण भाग मिल सकेगा। समाजवाद की अधिक उन्नतावस्था में प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता अनुसार मिलेगा। धीरे-धीरे राज्य जो शोषक वर्ग का हथियार रहा है, टूट जायेगा और इसके स्थान पर आपसी सहयोग और सहकारिता के आधार पर बनी संस्थाएं ले लेंगी। वर्गों और वर्ग संघर्ष का अन्त हो जायेगा।

सर्वहारा (मज़दूर) और पूंजीपति के बीच चले वर्ग संघर्ष का अन्त पूंजीवाद के अन्त के साथ ही होगा। उत्पादन के साधनों पर समाज का अधिकार हो जाने के साथ उत्पादन पर लगे प्रतिबन्ध हट जायेंगे। उत्पादन की शक्तियां और समय की बर्बादी भी खत्म हो जायेगी। वर्ग संघर्ष के द्वारा वर्गों का अन्त आज केवल एक दुःस्वप्न मात्र बन कर नहीं रह गया। संसार बड़ी तेज़ी से वर्गहीन समाजवादी समाज की स्थापना की तरफ बढ़ रहा है। ‘ऐंजलस’ ने काफ़ी समय पहले ही कहा था “आज इतिहास में पहली बार यह सम्भावना पैदा हो गई है कि सामाजिक उत्पादन के द्वारा समाज के प्रत्येक सदस्य को ऐसा जीवन मिल सके जो भौतिक दृष्टि से अच्छा हो जाये और दिन प्रतिदिन अधिक सुख सम्पन्न हो जाये, ऐसा नहीं एक ऐसे जीवन का निर्माण हो जिसमें व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का उन्मुख विकास संभावित हो। इस बात की सम्भावना पहली बार बनी है परन्तु बनी ज़रूर है।

श्रमिकों की क्रांति के द्वारा इन विरोधों तथा अन्य विरोधों का हल होगा। श्रमिकों की मुक्ति के इस कार्य को पूर्ण करना आधुनिक श्रमिक वर्ग का ऐतिहासिक फर्ज हैं। इसके बाद मनुष्य स्वयं श्रमिक के रूप में अपने इतिहास का निर्माण करेगा।

मार्क्स की एक दृढ़ विचारधारा है इस अन्तिम वर्ग संघर्ष के बाद होने वाले नये सामाजिक आर्थिक ढांचे में वर्ग संरचना में काफ़ी परिवर्तन की स्थिति होती है। जिन देशों में समाजवाद की विजय होती है वहां पर शोषक वर्ग समाप्त हो जाता है। वहां केवल मेहनतकश वर्ग ही रह जाता है। तब समाज का शासन शोषक वर्ग नहीं चलाता। जैसा कि पिछले सभी सामाजिक वर्गों में हुआ करता था, जिसमें भिन्न-भिन्न वर्ग होते थे बल्कि इसे मज़दूर वर्ग चलाता है। ये वर्ग समाज का नेतृत्व स्वतः अपने हाथों में ले लेता है और नये उत्पादन सम्बन्ध पैदा करता है। मजदूर वर्ग सभी मेहनतकश (उद्यमी) लोगों और मेहनतकश किसानों के साथ मिलकर अपना काम चलाते हैं । भिन्न-भिन्न वर्गों में नफरत भरे सम्बन्धों की जगह मित्रता, दोस्ती और आपसी भाईचारा ले लेता है। अन्ततः अमूल परिवर्तन उसको कहा जाता है जबकि समाज का मज़दूर वर्ग एक सहयोग पूर्ण वर्गहीन संरचना की तरफ बढ़ता है। इस तरह मज़दूर वर्ग की नीति का निशाना होता है वर्तमान सामाजिक समूहों के बीच के अन्तर को कम या समाप्त करना और एक वर्गहीन समाज का निर्माण करना।

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प्रश्न 3.
रूस तथा चीन की साम्यवादी क्रांतियों पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
(i) रूसी क्रान्ति (Russian Revolution)-रूस पर रोमानोव (Romanov) परिवार का राज्य था। प्रथम विश्व युद्ध (1914) के शुरू होने के समय ज़ार निकोलस II का रूस पर राज्य था। मास्को के इर्द-गिर्द के क्षेत्र के अतिरिक्त उस समय के रूसी साम्राज्य में आज के मौजूदा देश फिनलैंड, लाटवीया, लिथुआनिया, ऐसटोनिया, पोलैंड का हिस्सा, यूक्रेन तथा बैलारूस भी शामिल थे। जार्जिया, आर्मीनिया तथा अज़रबाईजान भी इसका हिस्सा थे।

1914 से पहले रूस में राजनीतिक दलों की मनाही थी। 1898 में समाजवादियों ने रूसी लोकतान्त्रिक वर्कज़ पार्टी शुरू की तथा वह कार्ल मार्क्स के विचारों का समर्थन करते थे। परन्तु सरकारी नीतियों के अनुसार, इसे गैरकानूनी ढंग से कार्य शुरू करना पड़ा। इसने अपना अखबार शुरू किया, मज़दूरों को इकट्ठा करना शुरू किया तथा हड़तालें करनी शुरू की।

रूस में तानाशाही शासक था। अन्य यूरोपियन देशों के विपरीत, ज़ार वहाँ की संसद् के प्रति जबावदेह नहीं था। उदारवादियों ने एक आन्दोलन चलाया ताकि इस गलत प्रथा को खत्म किया जा सके। उदारवादियों ने समाजवादी लोकतन्त्रीय तथा सामाजिक क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर किसानों तथा मजदूरों को इकट्ठा किया। 1905 की क्रान्ति के दौरान संविधान की मांग की गई। उनके प्रयासों से प्रभावित होकर रूस के वर्कर चेतन हो गए तथा उन्होंने कार्य के घण्टे कम करने तथा तनख्वाह बढ़ाने की मांग की। जब वह क्रान्ति की तैयारी कर रहे थे, पुलिस ने उन पर हमला कर दिया। 100 से अधिक वर्कर मारे गए तथा 300 से अधिक जख्मी हो गए। क्योंकि यह घटना इतवार को हुई थी, इसलिए इसे Bloody Sunday के नाम से जाना जाता है।

1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तथा ज़ार ने रूस को लड़ाई में धकेल दिया। रूस की स्थिति, जोकि पहले ही खराब चल रही थी, और भी खराब हो गई। रूस लड़ाई में बुरी तरह उलझ गया था। एक तरफ ज़ार संसद् (डुमा) को भंग करने का प्रयास कर रहा था तथा दूसरी तरफ संसद् के सदस्य इस स्थिति से बचने का प्रयास कर रहे थे। इस स्थिति में पेट्रोग्राड में 22 फरवरी, 1917 को एक फैक्ट्री बंद हो गई तथा सभी वर्कर बेरोज़गार हो गए। हमदर्दी के कारण वहां की 50 फैक्ट्रियों के वर्करों ने भी हड़ताल कर दी। इस समय तक कोई भी राजनीतिक दल इस आन्दोलन की अगुवाही नहीं कर रहा था। सरकारी इमारतों को वर्करों ने घेर लिया तथा सरकार ने कयूं लगा दिया। शाम तक वर्कर भाग गए परन्तु 24 व 25 तारीख तक वह फिर इकट्ठे हो गए। सरकार ने सेना को बुला लिया तथा पुलिस को उनकी निगरानी के लिए कहा गया।

25 फरवरी इतवार को सरकार ने संसद् (डुमा) को भंग कर दिया। नेताओं ने इसके विरुद्ध बोलना शुरू कर दिया। प्रदर्शनकारी पूरी शक्ति से 26 तारीख को सड़कों पर वापिस आ गए। 27 तारीख को पुलिस का हैडक्वाटर तबाह कर दिया गया। सड़कों पर लोग बाहर आ गए तथा उन्होंने ब्रैड, तनख्वाह, कार्य में कम घण्टे तथा लोकतन्त्र के नारे लगाने शुरू कर दिए। सरकार ने सेना को वापिस बुला लिया परन्तु सेना ने लोगों पर गोली चलाने से मना कर दिया। जिस अफसर ने गोली चलाने का आदेश दिया था, उसे भी मार दिया गया। सेना के लोग भी आम जनता से मिल गए तथा सोवियत को बनाने के लिए उस इमारत में एकत्र हो गए जहाँ डुमा पिछली बार एकत्र हुई थी।

अगले दिन वर्करों का प्रतिनिधिमण्डल ज़ार को मिलने के लिए गया। सेना के बड़े अधिकारियों ने ज़ार को प्रदर्शनकारियों की बात मानने की सलाह दी। अंत 2 मार्च को ज़ार ने उनकी बात मान ली तथा ज़ार का शासन खत्म हो गया। अक्तूबर में लेनिन (Lenin) ने रूस का शासन संभाल लिया तथा रूसी क्रान्ति पूर्ण हो गई।

(ii) चीनी क्रान्ति (Chinese Revolution)-1 अक्तूबर, 1949 को चीनी कम्यूनिस्ट नेता माओ-त्से-तुंग ने People’s Republic of China को बनाने की घोषणा की। इस घोषणा से चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी तथा राष्ट्रवादी पार्टी के बीच चल रही लड़ाई खत्म हो गई जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद शुरू हुई थी। PRC के बनने के साथ ही चीन में लंबे समय से (1911 की चीनी क्रान्ति) चला आ रहा सरकारी उथल-पुथल का कार्य भी खत्म हो गया। राष्ट्रवादी पार्टी के हारने से अमेरिका ने चीन से सभी राजनीतिक संबंध खत्म कर दिए।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1921 में शंघाई में हुई थी। चीनी कम्यूनिस्टों ने 1926-27 के उत्तरी हमले के समय राष्ट्रवादी पार्टी का समर्थन किया। यह समर्थन 1927 के White Terror तक चला जब राष्ट्रवादियों ने कम्यूनिस्टों को मारना शुरू कर दिया।

1931 में जापान ने मंचुरिया पर कब्जा कर लिया। इस समय Republic of China की सरकार को तीन तरफ से हमले का डर था तथा वह थे जापानी हमला, कम्यूनिस्ट विद्रोह तथा उत्तर वाले लोगों के हमले का डर। चीन की सेना के कुछ उच्चाधिकारी Chiang-Kai-Shek के इस व्यवहार से दुखी हो गए कि वह आन्तरिक खतरों पर अधिक ध्यान दे रहा था न कि जापानी हमले पर। उन्होंने Shek को पकड़ लिया उसे कम्यूनिस्ट सेना से सहयोग करने के लिए कहा। यह राष्ट्रवादी सरकार तथा चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी (CCP) में सहयोग करने की पहली कोशिश थी परन्तु यह कोशिश कम समय के लिए ही थी। राष्ट्रवादियों ने जापान के ऊपर ध्यान करने की बजाए कम्यूनिस्टों को दबाने की तरफ ध्यान दिया जबकि कम्यूनस्टि ग्रामीण क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने में लगे रहे।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कम्यूनिस्टों के लिए समर्थन काफ़ी बढ़ गया। चीन में अमेरिकी अधिकारियों राष्ट्रवादियों के क्षेत्र में लोगों के समर्थन को दबाने के प्रयास किए। इन अलोकतान्त्रिक नातियों तथा युद्ध के दौरान हो रहे भ्रष्टाचार ने चीन की सरकार को कम्यूनिस्टों के विरुद्ध काफ़ी कमज़ोर कर दिया। कम्यूनिस्ट पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार करने शुरू किए जिससे उनका समर्थन बढ़ गया।

1945 में जापान युद्ध हार गया जिससे चीन में गृह युद्ध का खतरा बढ़ गया। Chiang Kai-Shek की सरकार को अमेरिकी समर्थन मिलना जारी रहा क्योंकि कम्यूनिस्टों के बढ़ते खतरे को चीन में केवल वह ही रोक सकता था। 1945 में Chiang-Kai-Shek तथा माओ-त्से-तुंग मिले ताकि लड़ाई के बाद की सरकार के गठन के ऊपर चर्चा की जा सके। दोनों लोकतन्त्र की बहाली, इकट्ठी सेना, चीन के राजनीतिक दलों की स्वतन्त्रता पर हामी भर चुके थे। सन्धि होने वाली थी परन्तु अमेरिका के दखल के कारण वह न हो सकी तथा 1946 में गृह युद्ध शुरू हो गए।

गृह युद्ध में 1947 से 1949 में कम्यूनिस्टों की जीत पक्की लग रही थी क्योंकि उन्हें जनसमर्थन प्राप्त था, उच्च दर्जे की सेना थी तथा मंचुरिया में जापानियों से छीने हुए हथियार भी थे। अक्तूबर 1949 में कई स्थान जीतने के पश्चात् माओ-त्से-तुंग ने People’s Republic of China के गठन की घोषणा की। Chiang-Kai-Shek अपनी सेना के पुनर्गठन के लिए ताईवान भाग गया। इस प्रकार 1949 में चीनी क्रान्ति पूर्ण हो गई।

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प्रश्न 4.
समाजशास्त्र में दुर्थीम का योगदान बताइये।
उत्तर-
प्रसिद्ध समाज शास्त्री और दार्शनिक इमाइल दुर्थीम का जन्म 15 अप्रैल 1858 को उत्तरी-पूर्वी फ्रांस के लॉरेन (Lorraine) क्षेत्र में स्थित एपीनल (Epinal) नामक स्थान में हुआ था। दुर्थीम की आरम्भिक शिक्षा एपीनल की एक संस्था में हुई थी। बचपन से ही दुर्थीम एक मेधावी, प्रतिभाशाली तथा होनहार छात्र के रूप मे जाने जाते थे। दुर्थीम के पूर्वज ‘रेबी शास्त्रकार’ के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। इसीलिए प्रतिभा तो दुर्थीम को विरासत से प्राप्त हुई थी। एपीनल में ही ग्रेजुएट तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए दुर्थीम फ्रांस की राजधानी पैरिस में चले गए।

पैरिस में दुर्थीम की उच्च शिक्षा का आरम्भ हुआ। यहां पर उन्होंने विश्व प्रसिद्ध संस्था इकोल नारमेल अकादमी (Ecol Normale Superieure) में दाखिला लेने की कोशिश की। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इस संस्था में बहुत बढ़िया विद्यार्थियों को ही दाखिला मिलता था। दो असफल प्रयासों के बाद 1879 में दुर्थीम को इस संस्था में दाखिला मिल ही गया। यह संस्था फ्रांसीसी, लातिनी और ग्रीक दर्शन विषयों पर शिक्षा प्रदान करती थी और वहां के पूरे पाठ्यक्रम में यही विषय शामिल थे। लेकिन प्रत्यक्षवादी और वैज्ञानिक प्रवृत्ति वाले दुीम इन विषयों में ज्यादा रुचि न ले सकें क्योंकि वो तो समाज की असली, राजनीतिक, बौद्धिक और सामाजिक इत्यादि दिशाओं के अध्ययन में रुचि रखते थे।

दुर्थीम का यह पूर्ण विश्वास था कि ज्ञान में प्रत्यक्षवाद (Positivism) ज़रूर होना चाहिए। उनका मानना था कि अगर किसी भी ज्ञान अथवा दर्शन का अध्ययन करते समय वर्तमान, बौद्धिक और सामाजिक समस्याओं का अध्ययन नहीं किया जाता तो उस ज्ञान का कोई फायदा नहीं हैं। अपने इन विचारों के कारण दुर्थीम इस विश्व प्रसिद्ध संस्था के वातावरण से इतने असंतुष्ट थे कि वह कभी-कभी तो अपने अध्यापकों के विरुद्ध भी हो जाते थे। लेकिन फिर भी दुर्थीम ने इकोल नारमेल को अपने अंदर इतना बसा लिया कि उन्होंने अपने पुत्र आंद्रे को यहां दाखिल करवाया।

प्रसिद्ध प्रत्यक्षवादी और महान् इतिहासकार प्रोफैसर कुलांज (Prof. Fustel de Coulanges) 1880 में इस संस्था के निदेशक बने। वह दुीम के उन अध्यापकों में से एक थे जिनका दुीम से विशेष प्यार था। कुलांज ने वहां के पाठ्यक्रम में बदलाव किया जिससे दुर्थीम बहुत खुश हुए। दुीम कुलांज का इतना आदर करते थे कि लातिनी भाषा में उन्होंने मान्टेस्क्यू (Montesquieu) नामक किताब लिखी जो उन्होने कुलांज को समर्पित किया। वहां ही दुर्थीम इमाइल बोटरोकस (Emile Boutrocus) को भी मिले। यहीं पर ही दुर्थीम और विश्व प्रसिद्ध विद्वानों को मिले और उन प्रतिभावान विद्यार्थियों को मिले जो बाद में प्रमुख समाजशास्त्री बने। इन प्रसिद्ध विद्वानों के सम्पर्क में आने से दुर्थीम के बौद्धिक और मानसिक चिंतन में काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई।

1882 में वह इकोल नार्मेल को छोड़ कर 5 वर्षों तक पैरिस के पास स्थित हाई स्कूलों सेनस, सेंट क्युटिंन और ट्राईज़ में दर्शन शास्त्र पढ़ाते रहे। साथ ही साथ अपने प्रभाव से इन स्कूलों में समाजशास्त्र का नया पाठ्यक्रम भी शुरू किया। दुर्थीम बहुत बढ़िया अध्यापक के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसके बाद भी दुर्थीम का मन यहां न लगा। 1885-86 में वह उच्च अध्ययन के लिए नौकरी से एक वर्ष की छुट्टी लेकर वर्ष के अंत में जर्मनी चले गए।

जर्मनी में दुर्शीम ने अर्थशास्त्र, लोक मनोविज्ञान, सांस्कृतिक मनोविज्ञान इत्यादि का काफ़ी गहराई से अध्ययन किया । यहाँ दुीम ने काम्ते (Comte) के लेखों का बारीकी से अध्ययन किया और शायद उससे प्रभावित होकर समाजशास्त्रीय प्रत्यक्षवाद (Sociological Positivism) को जन्म दिया।

1887 में दुर्थीम जर्मनी आ गए और बोर्डिक्स विश्वविद्यालय में प्रवेश रूप से सामाजिक शास्त्र का एक नया अलग विभाग स्थापित किया और आप को यहां अध्ययन के लिए बुलाया गया। लगभग 9 वर्षा के निरन्तर अध्ययन के पश्चात् वह 1896 में इसी विभाग के प्रोफेसर बन गए। इस दौरान पैरिस विश्वविद्यालय द्वारा दुर्थीम को 1893 में उनके फ्रांसीसी भाषा में लिखे शोध ग्रंथ Dela Divsion du Travail Social (Division of Labour in Society) पर उनको बहुत डाक्टरेट की उपाधी दी। उनके इस ग्रंथ के छपने के बाद उनको बहुत प्रसिद्धि मिली। 1895 में दुर्शीम ने अपने दूसरे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ Les Regles de ea Methode Sociologique (The rules of Sociological Method) की रचना की। इसकी दो वर्षों के बाद 1897 में दुर्थीम ने तीसरे महान् ग्रंथ Le Suicide : Etude de Sociologie (Suicide A Study of Sociology) की रचना की। इन महान् ग्रंथों की रचना के बाद दुखीम का नाम विश्व के प्रमुख दार्शनिक समाज शास्त्री और महान् लेखक के रूप में जाना जाने लगा।

वर्ष 1898 में दुर्शीम ने ‘L’ Annee Sociologique नाम से समाजशास्त्र सम्बन्धी मैगज़ीन की शुरुआत की और 1910 तक आप इस मैगजीन के सम्पादक रहे। दुर्थीम के इस मैगजीन ने फ्रांस के बौद्धिक वातावरण को बहुत नाम कमाया। इसमें बहुत सारे उच्च कोटि के विचार को जार्जस, डेवी, लेवी स्टार्स, साईमन इत्यादि ने अपने पत्र छपवाए।

इस विश्वविद्यालय में दुर्थीम ने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की और उसके बाद 1902 में पैरिस विश्वविद्यालय में दुर्थीम को शिक्षा शास्त्र के प्रोफैसर पद पर नियुक्त किया गया। यहां एक महत्त्वपूर्ण बात थी कि उस समय तक विश्व में समाज शास्त्र का कोई अलग विभाग नहीं होता था। यह दुर्थीम की कोशिशों का ही नतीजा था कि 1913 में शिक्षा शास्त्र विभाग का नाम बदल कर शिक्षा शास्त्र और समाजशास्त्र रख दिया गया। यहां दुर्थीम ने और विषयों के साथ-साथ विकास और परिवार की शुरुआत, नैतिक शिक्षा, धर्म की उत्पत्ति, काम्ते और सेंट साईमन के सामाजिक दर्शन को बहुत लगन के साथ पढ़ाया। जिन विद्यार्थियों ने दुीम से शिक्षा प्राप्त की वह उनसे बहुत प्रभावित हुए। दुर्शीम ने एक और पुस्तक Les Farmes Elementains delavie Religieuse (Elementary forms of Religious Life) की रचना की।

र्बोडिक्स विश्वविद्यालय में नियुक्त होने के पश्चात् ही उन्होंने विवाह करवा लिए। उनकी पत्नी का नाम लुईस डरेफू (Louise Drefus) था और उनके दो बच्चे थे। उनकी लड़की का नाम मैंरी (Marie) और लड़के का नाम आंद्रे (Andre) था। दुर्शीम की पत्नी सम्पादन के काम से लेकर चैक करना, उसको संशोधित करना, पत्र व्यवहार करने जैसे सभी कार्य को बहुत मेहनत से करके दुर्थीम की सहायता करती थी।

दुर्शीम ने 1914 के पहले विश्व युद्ध में अपने पुत्र आंद्रे को समाज सेवा के लिए पेश किया और स्वयं अपने लेखों और भाषणों से जनता का मनोबल बना रखने के लिए जुट गए। युद्ध ने दुर्शीम जी को मानसिक तौर से काफ़ी कमज़ोर कर दिया क्योंकि वह शांति के समर्थक थे। जब दुर्थीम युद्ध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे तो उनको अपने पुत्र की मौत का समाचार मिला जिसकी मृत्यु लड़ाई के बुरी तरह जख्मी होने के कारण बुलगारीया के अस्पताल में हुई थी। आंद्रे उनका केवल पुत्र ही नहीं बल्कि सबसे अच्छा विद्यार्थी भी था इसी कारण उसकी मृत्यु ने दुर्थीम को अन्दर से तोड़ दिया।

दुर्थीम 1916 के अंत में एकदम बीमार हो गए लेकिन इसके पश्चात् भी वह 1917 में नीतिशास्त्र पर किताब लिखने के लिए फाऊंट नबलियु स्थान पर गए। 15 नवंबर, 1917 को असाधारण प्रतिभा वाले इस समाजशास्त्री की 59 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।

दुर्शीम की रचनाएं (Writings of Durkheim) –
दुर्शीम ने अपने जीवनकाल के समय कई महान् ग्रंथों की रचना की जिनके नाम निम्नलिखित हैं-

1. The Division of Labour in Society – 1893
2. The Rules of Sociological Method – 1895
3. Suicide – 1897
4. Elementary Forms of Religious Life – 1912
5. Education and Sociology (After Death) – 1922
6. Sociology and Philosophy (After Death) – 1924
7. Moral Education (After Death) – 1925
8. Sociology and Saint Simon(After Death) – 1924
9. Pragmatism and Sociology (After Death) – 1925

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प्रश्न 5.
वैबर द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया के प्रकारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
सामाजिक व्यवहार की पूरी व्याख्या करते हुए वैबर ने चार प्रकार के सामाजिक कार्यों की व्याख्या की है।

1. तार्किक उद्देश्यपूर्ण व्यवहार (Zweckrational)-वैबर ने बताया है कि तार्किक उद्देश्यपूर्ण सामाजिक व्यवहार का अर्थ ऐसे सामाजिक व्यवहार से होता है जो उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए अनेक उद्देश्यों की अधिक-से-अधिक प्राप्ति के लिए तार्किक रूप में निर्देशित हो, इसमें साधनों के चुनाव में केवल उनके विशेष प्रकार की कार्यकुशलता की तरफ ध्यान ही नहीं दिया जाता बल्कि भूल पर भी ध्यान दिया जाता है। साध्य और साधनों की अच्छी तरह जांच की जाती है और उसके आधार पर ही क्रिया सम्पादित होती है।

2. मूल्यात्मक व्यवहार (Wertrational)-मूल्यात्मक व्यवहार में किसी विशेष और स्पष्ट मूल को बहुत अधिक प्रभावशाली उपलब्ध साधनों के द्वारा स्थान दिया जाता है। दूसरे मूल्यों की कीमतों पर कुछ ध्यान नहीं दिया जाता है। इसमें तार्किक आधार नहीं हो सकता, बल्कि नैतिकता, धार्मिक या सुन्दरता के आधार पर ही मान ली गई है। नैतिक और धार्मिक मान्यताओं को बनाये रखने के लिए मूल्यात्मक क्रियाएं की जाती हैं। इन क्रियाओं को मानने में किसी भी प्रकार के तर्क की सहायता नहीं ली जाती है। वह इसी तरह ही मान ली जाती है क्योंकि इसके कारण सामाजिक सम्मान भी बढ़ता है और आत्मिक सन्तोष भी बढ़ता है।

3. संवेदात्मक व्यवहार (Assectual Behaviour)-ऐसी क्रियाएं मानवीय भावनाओं, संवेगों और स्थायी भावों के कारण होती हैं। समाज में रहते हुए हमें प्रेम, नफरत, गुस्सा इत्यादि भावनाओं का शिकार होना पड़ता है। इसके कारण ही समाज में शान्ति या अशान्ति की अवस्था पैदा हो जाती है। इन व्यवहारों के कारण परम्परा और तर्क का थोड़ा सा भी सहारा नहीं लिया जाता है।

4. परम्परागत व्यवहार (Traditional Behaviour)-परम्परागत क्रियाएं पहले से निश्चित प्रतिमानों के आधार पर की जाती हैं । सामाजिक जीवन को सरल और शांतमय रखने के लिए परम्परागत क्रियाएं महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। सम्भव है कभी वह स्थिति पैदा हो जाये, कि इन क्रियाओं द्वारा समाज में संघर्ष पैदा हो जाये कि इन क्रियाओं द्वारा तर्क, कार्यकुशलता और किसी और प्रकार का सहारा लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। सामाजिक प्रथाएं ही इन क्रियाओं को संचालित करती हैं ।।

वैबर ने बताया है कि सामाजिक क्रियाएं तीन प्रकार से निर्देशित होती हैं ।

प्रश्न 6.
वैबर किस प्रकार धर्म को आर्थिक क्रियाओं से जोड़ते हैं ?
उत्तर-
पूंजीवाद का सार (Essence of Capitalism)-वैबर का आरम्भिक अध्ययन एक ऐसी प्रवृत्ति पर केन्द्रित है जो आधुनिक समाज में विशेष रूप में दिखाई देती है। आर्थिक व्यवहारों पर धार्मिक प्रभावों को स्पष्ट करने के लिए 1904 से 1905 में जो लेख लिखे हैं उनके आधार पर उसकी सबसे प्रसिद्ध किताब The Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism के नाम से छपी। इस किताब के अधिकतर भाग में वैबर ने इस समस्या पर प्रकाश डाला है कि प्रोटैस्टैंट धर्म के विचारों या नीतियों ने किस प्रकार पूंजीवाद के विकास को प्रभावित किया है। यह विचार मार्क्स के इस सिद्धान्त के लिए एक खुली चुनौती थी कि मानव की सामाजिक व धार्मिक चेतना उसके सामाजिक वर्ग द्वारा निर्धारित होती है।

वैबर के विचारों से आधुनिक औद्योगिक जगत् के मानव की एकता स्पष्ट है कि उसको सख्त मेहनत करनी चाहिए। वैबर के अनुसार, “कठोर काम एक कर्तव्य है व इसका नतीजा इसी के बीच शामिल है।” यह विचार वैबर के दृष्टिकोण से आधुनिक औद्योगिक जगत् के मानव का विशेष गुण है। मानव अपने काम में अच्छी तरह काम इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उसको काम करना पड़ेगा बल्कि इसलिए कि वह ऐसा करना चाहता है। वैबर के अनुसार यह उसकी व्यक्तिक संतुष्टि का आधार है। वैबर ने स्वयं लिखा है कि एक व्यक्ति से अपनी आजीविका के मूल्य के प्रति होने वाले कर्त्तव्य का अनुभव करने की आशा की जाती है व वह ऐसा करता भी है चाहे वह किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो। अमरीका की एक कहावत है कि, “यदि कोई व्यक्ति काम करने के योग्य है तो उसे सबसे बढ़िया ढंग से पूरा करना चाहिए।” यह कहावत वैबर के अनुसार पूंजीवाद का सार भी है क्योंकि इस धारणा का सम्बन्ध किसी आलौकिक उद्देश्य से नहीं बल्कि आर्थिक जीवन में व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सफलता से है। चाहे किसी विशेष समय में यह धारणा धार्मिक नैतिकता से सम्बन्धित रही है। पूंजीवाद के सार को स्पष्ट करने के लिए वैबर ने उसकी तुलना एक अन्य आर्थिक क्रिया से की है जिसका नाम उन्होंने परम्परावाद रखा है। आर्थिक क्रियाओं में परम्परावाद वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अधिक लाभ के बाद भी कम-से-कम काम करना चाहता है।

वह काम के दौरान अधिक-से-अधिक आराम करना पसन्द करता है व काम के नये तरीके से अनुकूलन करने की इच्छा नहीं करते हैं। वह जीवन जीने के लिए साधारण तरीकों से ही खुश हो जाते हैं व एकदम लाभ प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। सिद्धान्तहीन रूप से धन का इकट्ठा करना आर्थिक परम्परावाद का ही एक हिस्सा है तथा ये सारी विशेषताएं पूंजीवाद के सार से पूरी तरह उलट हैं । असल में आधुनिक पूंजीवाद अन्तर्सम्बन्धित संस्थाओं का एक ऐसा बड़ा एकत्र (Complex) है, जिसका आधार आर्थिक कोशिशें हैं न कि स्टोरियों की कोशिशें। पूंजीवाद के अन्तर्गत व्यापारी निगमों का कानूनी रूप, संगठित लेन-देन का केन्द्र, सरकारी कर्जा पत्रों के रूप में सार्वजनिक कर्जा देने की प्रणाली व ऐसे उद्योगों के संगठनों का समूह है जिनका उद्देश्य वस्तुओं के तार्किक आधार पर उत्पादन करना होता है न कि उनका व्यापार करना। वैबर का विचार था कि दक्षिणी यूरोप, रोम अभिजात वर्ग व ओलबी नदी के पूर्व के ज़मींदारों की आर्थिक क्रियाएं अचानक लाभ प्राप्त करने के लिए की गईं जिनमें उन्होंने सारे नैतिक विचारों का त्याग कर दिया। उनकी क्रियाओं में आर्थिक लाभ की तार्किक कोशिशों की कमी थी जिस कारण उन्हें पूंजीवाद के बराबर नहीं रखा जा सकता।

वैबर के अनुसार पूंजीवाद के सार का गुण केवल पश्चिमी समाज का ही गुण नहीं है। अनेकों समाजों में ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपने व्यापार को बढ़िया ढंग से चलाया, जो नौकरों से भी अधिक मेहनत करते हैं, जिनका जीवन सादा था व जो अपनी बचत को भी व्यापार में ही लगा देते थे पर इसके बाद भी इन पंजीवादी विशेषताओं का प्रभाव पश्चिमी समाजों में कहीं ज्यादा मिलता रहा है, इसका कारण यह था कि पश्चिम में यह गुण एक व्यक्तिगत गुण न रहकर जीवन जीने के आम तरीके के रूप में विकसित हुआ। इस तरह लोगों में फैली कठोर मेहनत, व्यापारिक व्यवहार, सार्वजनिक कर्जा व्यवस्था, पूंजी का लगातार व्यापार में लगाते रहना व मेहनत के प्रति इच्छा ही पूंजीवाद का सार है। इसके विपरीत एकदम लाभ पाने की कोशिश, मेहनत को बोझ व श्राप समझकर उसको न करना, धन को इकट्ठा करना व जीवन जीने के साधारण स्तर से ही सन्तुष्ट हो जाना आम आर्थिक आदतें हैं।

प्रोटैस्टैंट नीति (Protestant Ethic) यह स्पष्ट करने के बाद कि उनके अध्ययन का उद्देश्य पूंजीवाद का सार है वैबर ने ऐसे अनेकों कारण बताए हैं जिनके आधार पर सुधार आन्दोलन के धार्मिक विचारों में इसकी उत्पत्ति को ढूंढना है। वैबर ने अपने एक विद्यार्थी बाडेन (Baden) को राज्य में धार्मिक सम्बन्धों व शिक्षा को चयन का अध्ययन करने के लिए कहा। बाडेन ने एक परिणाम यह पेश किया कि कैथोलिक विद्यार्थियों की तुलना में प्रोटैस्टैंट विद्यार्थी उन शिक्षा संस्थाओं में अधिक दाखिला लेते हैं जो औद्योगिक जीवन से सम्बन्धित हैं। एक और कारण यह भी था कि यूरोप में समय-समय पर कम गणना समूहों ने अपनी सामाजिक व राजनीतिक हानि को कठोर आर्थिक मेहनत से पूरा कर लिया जबकि कैथोलिक ऐसा न कर सके। इन हालातों के प्रभाव से वैबर की इस धारणा को बल मिला कि धार्मिक नीति व आर्थिक क्रियाओं में कोई सम्बन्ध ज़रूर है। इसके बाद वैबर ने यह भी देखा कि 16वीं सदी में बहुत सारे अमीर प्रदेशों व शहरों में प्रोटैस्टैंट धर्म स्वीकार कर लिया क्योंकि प्रोटैस्टैंट धर्म अपनी अनेकों नीतियों के कारण आर्थिक लाभ की कोशिशों को आगे बढ़ा रहा है। इसी आधार पर वैबर ने यह पता करने की कोशिश की कि प्रोटैस्टैंट धर्म का प्रचार आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए देशों में हुआ व अंतः पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बाद भी किसी क्षेत्र में कैथोलिक धर्म प्रभावशाली बना रहा।

The Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism लिखने में वैबर का उद्देश्य बहुत कुछ इस विरोध की व्याख्या के कारण आर्थिक जीवन पर धार्मिक नीतियों के प्रभाव को स्पष्ट करना था। वैबर यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि प्रोटैस्टैंट धर्म की नीतियां किस तरह उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गईं जो आर्थिक लाभों को तार्किक दृष्टि से प्राप्त करने के हक में थीं। इस तरह वैबर के अनुसार किसी भी धर्म के साथ सम्बन्धित सिद्धान्तों पर इस नज़र से विचार करना चाहिए कि यह सिद्धान्त अपने शिष्यों को किस तरह के व्यवहारों का प्रोत्साहन देता है। इस प्रश्न को ध्यान में रखते हुए वैबर ने प्रोटैस्टैंट धर्म के शुद्ध विचारवादी पादरियों के लेखों को परखा व उनके द्वारा बनाए कालविनवादी सिद्धान्तों का समुदाय के दैनिक व्यवहार पर प्रभाव स्पष्ट किया।

प्रोटैस्टैंट धर्म के नीति के रूप में सेंट पाल के इस आदेश को व्यापक रूप से ग्रहण किया जाने लगा कि, “जो व्यक्ति काम नहीं करेगा वह रोटी नहीं खाएगा व ग़रीब की तरह अमीर भी भगवान के गौरव को बढ़ाने के लिए किसी न किसी समय पर व्यापार को ज़रूर करे।” इस तरह मेहनती जीवन ही प्रोटैस्टैंट धर्म शुद्ध विचारवादी धार्मिक भक्ति के अनुसार है।

रिचर्ड बैक्सटर (Richard Baxter) ने कहा कि, “केवल धर्म के लिए ही भगवान् हमारी क्रियाओं की रक्षा करता है। मेहनत ही शक्ति का नैतिक व प्राकृतिक उद्देश्य है, केवल मेहनत से ही भगवान् की सबसे ज्यादा सेवा हो सकती है।” एक अन्य सन्त जॉन बयिन ने कहा था कि, “यह नहीं कहा जाएगा कि आप क्यों विश्वास करते थे, केवल ये कहा जाएगा कि आप कुछ मेहनत भी करते थे या केवल बातें ही करते थे।” इस तरह प्रोटैस्टैंट धर्म की नीति में काम करते जीवन को ही खुदा की भक्ति के रूप में मान लिया गया। प्रोटैस्टैंट धर्म में मेहनत की प्रशंसा ने नये नियमों को जन्म दिया। इसके अनुसार समय को व्यर्थ नष्ट करना पाप है। जीवन छोटा व मूल्यवान् है, इसलिए मानव को हर समय भगवान् का गौरव बढ़ाने के लिए अपना समय अपने उपयोगी काम में लगाना चाहिए। व्यर्थ की बातचीत, लोगों को ज्यादा मिलना, ज़रूरत से ज्यादा सोना व दैनिक कार्यों को हानि पहुंचा कर धार्मिक कार्यों में लगे रहना पाप है क्योंकि इनके कारण भगवान् के द्वारा दिए आजीविका काम को भगवान् की इच्छा के अनुसार पूरा नहीं किया जा सकता। इस दृष्टिकोण से प्रोटैस्टैंट धर्म की नीतियां व्यक्तिगत नीति के इस आदर्श के विरुद्ध हैं, “अमीर व्यक्ति कोई काम न करे या यह कि धार्मिक ध्यान सांसारिक कार्यों से ज्यादा मूल्यवान् है। यही प्रोटैस्टैंट नीति है।”

पूंजीवाद व प्रोटैस्टैंट नीति का सम्बन्ध (Relationship of Capitalism and Protestant Ethic)पूंजीवाद के सार व प्रोटैस्टैंट नीतियों के अध्ययन से वैबर को इनके अनेकों आधारों में समानता मिलती है। इन समानताओं ने वैबर को इस तथ्य पर विचार करने से प्रेरणा दी है कि आर्थिक व्यवहारों व धार्मिक नीतियों में समानताएं किन परिस्थितियों के कारण समानताओं का वर्णन परिस्थितियों के परिणाम से है। वैबर ने पहले 16वीं व 17वीं सदी में धर्म संघों व उनकी मान्यताओं में होने वाले परिवर्तनों का मानवीय व्यवहारों पर प्रभावों का अध्ययन किया। शुरू में अनेकों धर्म संघों ने भौतिक चीजों की प्राप्ति व उनके इकट्ठा करने पर जोर दिया व कुछ समय के बाद धन के एकत्र को अधार्मिकता की श्रेणी में रखा जाने लगा जिसमें मेहनत के सामने सारी इच्छाओं को समाप्त कर लेना ठीक था। इस धर्म संघ ने इच्छाओं के दमन करने की निष्पक्षता को खत्म करने के रूप में न लेकर श्रम के रास्ते में आने वाली रुकावट को इच्छा खत्म करने के रूप में स्पष्ट किया। वैबर के अनुसार, “जब इच्छा ख़त्म कर लेने की धारणा धर्म केन्द्रों की सीमा से बाहर निकल कर सांसारिक नैतिकता को प्रभावित करने लगी तो इसने आधुनिक अर्थव्यवस्था (पूंजीवाद) की रचना में ही अपना योगदान शुरू कर दिया।” इस परिवर्तन ने वैबर को अध्ययन की एक दिशा प्रदान की। धर्म की नीतियां ही वे मूल कारण हैं जो व्यक्ति के आर्थिक वे धर्म-निरपेक्ष व्यवहारों को प्रभावित करती हैं।

इस तरह वैबर ने अत्यधिक परिणामों द्वारा यह स्पष्ट किया कि किस तरह प्रोटैस्टैंट धर्म की नीतियां योग के अनेकों देशों में आरम्भिक पूंजीवाद के विकास के लिए ठीक हैं। प्रोटैस्टैंट धर्म के सुधार आन्दोलन के शुरू से ही धार्मिक समारोहों में प्रवेश करने का अधिकार उन लोगों को दिया जिनकी इन धर्म की नीतियों में बहुत ज्यादा श्रद्धा थी। धार्मिक परिषदों के सदस्यों को यह सिद्ध करना पड़ता था कि उनमें अपने धर्म की नीतियों को व्यावहारिक रूप देने की पूरी समर्था है। यह परम्परा वैबर के अनुसार साधनों से सम्बन्ध आजीविका को महत्त्व देकर आधुनिक पूंजीवाद के विकास में बहत ज्यादा सहायक सिद्ध हई। धीरे-धीरे प्रोटैस्टैंट धर्म की नैतिक शिक्षाओं को मानने वालों के जीवन की शैली एक व्यवस्थित शैली में बदल गई। वैबर ने इस स्थिति को एक ऐसी घटना के रूप में स्वीकार किया कि जिससे पश्चिमी जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं में तर्कवाद बढ़ा। यह तर्कवाद पश्चिमी सभ्यता के भिन्नभिन्न रूपों में स्पष्ट हुआ व पूंजीवाद के विकास से इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। इस तरह पूंजीवाद के सार व प्रोटैस्टैंट नीति के सम्बन्ध की व्याख्या के आधार पर धर्म को समझाया है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
मार्क्स के अनुसार समाज में कितने वर्ग होते हैं ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर-
(A) दो।

प्रश्न 2.
इनमें से कौन-सा वर्ग का प्रकार मार्क्स ने दिया था जो हरेक समाज में मौजूद होता है ?
(A) पूंजीपति वर्ग
(B) श्रमिक वर्ग
(C) दोनों (A + B)
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) दोनों (A + B)।

प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स ने समाज में वर्ग संघर्ष का कौन-सा कारण दिया है ?
(A) पूंजीपति वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग का शोषण
(B) श्रमिक वर्ग द्वारा पूंजीपति वर्ग का शोषण
(C) दोनों वर्गों में ऐतिहासिक दुश्मनी
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(A) पूंजीपति वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग का शोषण।

प्रश्न 4.
इनमें से कौन-सा संकल्प मार्क्स ने समाजशास्त्र को दिया था ?
(A) वर्ग संघर्ष
(B) ऐतिहासिक भौतिकवाद
(C) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 5.
दुर्खीम का जन्म कब हुआ था ?
(A) 1870
(B) 1858
(C) 1864
(D) 1868.
उत्तर-
(B) 1858.

प्रश्न 6.
फ्रांस में समाजशास्त्र में काम्ते का उत्तराधिकारी किसे कहा जाता है ?
(A) वैबर
(B) मार्क्स
(C) दुखीम
(D) स्पैंसर।
उत्तर-
(C) दुर्खीम।

प्रश्न 7.
इनमें से कौन-सी पुस्तक दुर्खीम ने लिखी थी ?
(A) Division of Labour in Society
(B) Suicide-A Study of Sociology
(C) The Rules of Sociological Method
(D) All of these.
उत्तर-
(D) All of these.

प्रश्न 8.
इनमें से कौन-सा सिद्धान्त दुर्खीम ने दिया था ?
(A) श्रम विभाजन
(B) सामाजिक तथ्य
(C) आत्महत्या का सिद्धांत
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 9.
दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य के कितने प्रकार दिए हैं ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर-
(B) तीन।

प्रश्न 10.
दुर्खीम ने इनमें से सामाजिक तथ्य का कौन-सा प्रकार दिया था ?
(A) बाध्यता
(B) बाहरीपन
(C) सर्वव्यापकता
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 11.
इनमें से कौन-सा संकल्प वैबर ने समाजशास्त्र को दिया है ?
(A) सत्ता
(B) आदर्श प्रारूप
(C) सामाजिक क्रिया
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. कार्ल मार्क्स …………… दार्शनिक थे।
2. मैक्स वैबर ने सामाजिक …………. का सिद्धांत दिया था।
3. श्रम विभाजन का सिद्धांत …………. ने दिया था।
4. ऐतिहासिक योगदान का संकल्प …………… ने दिया था।
5. कार्ल मार्क्स ने वर्ग ………….. का सिद्धांत दिया था।
6. वैबर अनुसार ………….. धर्म पूँजीवाद को सामने लाने के लिए उत्तरदायी है।
7. आत्महत्या का सिद्धांत ………….. ने दिया था।
उत्तर-

  1. जर्मन,
  2. क्रिया,
  3. दुर्खीम,
  4. कार्ल मार्क्स,
  5. संघर्ष,
  6. प्रोटैस्टैंट,
  7. दुर्खीम।

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III. सही/गलत (True/False) :

1. दुर्खीम फ्रांस में पैदा हुआ था।
2. दुर्खीम ने तीन प्रकार की आत्महत्या के बारे में बताया था।
3. वैबर ने चार प्रकार की सत्ता का वर्णन किया था।
4. मार्क्स के अनुसार समाज में तीन प्रकार के वर्ग होते हैं।’
5. मजदूर वर्ग पूँजीपति वर्ग का शोषण करता है।
6. सामाजिक एकता का सिद्धांत दुर्खीम ने दिया था।
उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. गलत,
  4. गलत,
  5. गलत,
  6. सही।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का जन्मदाता किसे कहा जाता है ?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का जन्मदाता कहा जाता है।

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प्रश्न 2.
समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार कब किया गया था ?
उत्तर-
समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार 1839 में किया गया था।

प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स कब तथा कहाँ पैदा हुए थे ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स 5 मई, 1818 को प्रशिया के राईन प्रांत के ट्रियर शहर में पैदा हुए थे।

प्रश्न 4.
कार्ल मार्क्स को कब तथा कहां डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई थी ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स को 1841 को जेना विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि मिली थी।

प्रश्न 5.
Communist Menifesto कब तथा किसने लिखी थी ?
उत्तर-
Communist Menifesto सन् 1848 को मार्क्स तथा ऐंजल्स ने लिखा था।

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प्रश्न 6.
कार्ल मार्क्स की मृत्यु कब हुई थी ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स की मृत्यु 14 मार्च,1883 को हुई थी।

प्रश्न 7.
मार्क्स के अनुसार समाज में कितने वर्ग होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार समाज में दो प्रमुख वर्ग होते हैं-पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग।

प्रश्न 8.
मार्क्स ने समाजशास्त्र को कौन-से संकल्प दिए हैं ?
उत्तर-
मार्क्स ने समाजशास्त्र को वर्ग संघर्ष, ऐतिहासिक भौतिकवाद, सामाजिक परिवर्तन, अलगाव एवं अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत दिए हैं।

प्रश्न 9.
दुीम को फ्रांस में तथा समाजशास्त्र में किसका उत्तराधिकारी माना जाता है ?
उत्तर-
दुर्खीम को समाजशास्त्र में काम्ते का उत्तराधिकारी माना जाता है।

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प्रश्न 10.
दुखीम किस विश्वविद्यालय में प्रोफैसर नियुक्त हए थे ?
उत्तर-
दुर्खीम पैरिस विश्वविद्यालय में प्रोफैसर नियुक्त हुए थे।

प्रश्न 11.
दुर्जीम ने समाजशास्त्र को कौन-से सिद्धांत दिए थे ?
उत्तर-
दुर्खीम ने समाजशास्त्र को सामाजिक तथ्य, आत्महत्या, धर्म, श्रम विभाजन इत्यादि जैसे सिद्धांत दिए थे।

प्रश्न 12.
वैबर के अनुसार सत्ता के कितने प्रकार हैं ?
उत्तर-
वैबर के अनुसार सत्ता के तीन प्रकार होते हैं-परंपरागत, वैधानिक व करिश्मई।

प्रश्न 13.
वैबर के अनुसार कौन-सा धर्म विकास के लिए उत्तरदायी है ?
उत्तर-
वैबर के अनुसार पूँजीवाद के विकास के लिए प्रोटैस्टैंट धर्म उत्तरदायी है।

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प्रश्न 14.
वैबर ने समाजशास्त्र को क्या योगदान दिया है ?
उत्तर-
वैबर ने सत्ता के प्रकार, आदर्श प्रारूप, सामाजिक क्रिया, पूँजीवाद, प्रोटैस्टैंट धर्म की व्याख्या इत्यादि जैसे संकल्पों का योगदान दिया है।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पूँजीवादी वर्ग क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी वर्ग ऐसा वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के सभी साधन होते हैं तथा वह सभी उत्पादन के साधनों का मालिक होता है जिनकी सहायता से वह अन्य वर्गों का शोषण करता है। अपने साधनों की सहायता से वह पैसे कमाता है तथा आराम का जीवन व्यतीत करता है। मार्क्स ने अनुसार एक दिन मज़दूर वर्ग इस वर्ग की सत्ता उखाड़ फेंकेगा।

प्रश्न 2.
मज़दूर वर्ग क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन के साधनों की मल्कियत नहीं होती। उसके पास कोई पूँजी या पैसा नहीं होता। उसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता। वह हमेशा पूँजपति वर्ग के हाथों शोषित होता रहता है। इस शोषण के कारण वह निर्धन होता जाता है।

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प्रश्न 3.
पूँजीवाद क्या होता है ?
उत्तर-
पूँजीवाद एक आर्थिक व्यवस्था है जिसमें निजी सम्पत्ति की प्रधानता होती है तथा बाजार पर सरकारी नियन्त्रण न के बराबर होता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार कमाने का अधिकार होता है। पूँजीवाद में पूँजीपति अपने पैसे से और पैसा कमाता है तथा मजदूर वर्ग का शोषण करता है।

प्रश्न 4.
सामाजिक एकता क्या है ?
उत्तर-
दुर्खीम के अनुसार प्रत्येक समाज के कुछ मूल्य, आदर्श, विश्वास, व्यवहार के तरीके, संस्थाएं तथा कानून प्रचलित होते हैं जो समाज को बाँध कर रखते हैं। ऐसे तत्त्वों के कारण समाज में एकता बनी रहती है। इनके कारण समाज में संबंध बने रहते हैं तथा यह समाज में एकता उत्पन्न करते हैं जिसे हम सामाजिक एकता कहते हैं।

प्रश्न 5.
श्रम विभाजन क्या है ?
उत्तर-
दुर्खीम के अनुसार श्रम विभाजन का अर्थ अलग-अलग लोगों अथवा वर्गों में उनके सामर्थ्य तथा योग्यता के अनुसार कार्य का विभाजन करना है ताकि कार्य संगठित तरीके से पूर्ण किया जा सके। इसे ही श्रम विभाजन कहा जाता है। यह प्रत्येक समाज में पाया जाता है। इसकी उत्पत्ति नहीं बल्कि विकास होता है।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
आध्यात्मिक पड़ाव।
उत्तर-
काम्ते की सैद्धान्तिक स्कीम में आध्यात्मिक पड़ाव बहुत महत्ता रखता है। उसके अनुसार इस अवस्था में मानव के विचार काल्पनिक थे। मानव सब वस्तुओं को परमात्मा के रूप में या किसी आलौकिक जीव की उस समय की क्रियाओं के परिणामस्वरूप में देवता मानता व समझता था। धारणा यह होती थी कि सभी वस्तुएं चाहे निर्जीव हो व सजीव हैं या कार्यरूप अलौकिक शक्तियां हैं अर्थात् सब वस्तुओं में वही शक्ति व्यापक है। धार्मिक पड़ाव में मानव के बारे चर्चा करते काम्ते कहते हैं कि इस अवस्था में सृष्टि के ज़रूरी स्वभाव की खोज करना या प्राकृतिक घटनाओं के होने के अन्तिम कारणों को जानने के यत्न में मानव का दिमाग यह मान लेता है कि सब घटनाएं अलौकिक प्राणियों की तत्कालीन घटनाओं का प्रमाण है। यह आगे तीन उप पड़ावों-प्रतीक पूजन, बहुदेवतावाद व ऐकेश्वरवाद में बांटा है।

प्रश्न 2.
अधिभौतिक पड़ाव।
उत्तर-
इस पड़ाव को काम्ते आधुनिक समाज का क्रान्तिकाल भी कहते हैं। यह पड़ाव पांच शताब्दियों तक 14वीं से 19वीं तक चला। इसे दो भागों में बाँट सकते हैं। प्रथम भाग में क्रान्तिक आन्दोलन स्वयं ही चल पड़ा। क्रान्तिक फिलासफी 16वीं सदी में प्रोटैस्टैंटवाद के आने से आरम्भ हुई। यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि रोमन कैथोलिक वाद में आत्मिक व दुनियावी ताकतों के बिछड़ने से आध्यात्मिक सवालों के सामाजिक हालतों पर भी विचार करने का हौसला दिलाया। दूसरा भाग 16वीं सदी से आरम्भ हुआ। इस समय में नकारात्मक सिद्धान्त शुरू हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन था। इसमें प्रोटैस्टैन्टवाद हमारे सामने आया। इसमें बेरोक निरीक्षण का अधिकार था और यह विचार दिया कि निरीक्षण की कोई सीमा नहीं है जिस कारण आत्मिकता का पतन हुआ जिसका दुनियावी पक्ष पर भी असर हुआ।

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प्रश्न 3.
सकारात्मक पड़ाव।
उत्तर-
इस पड़ाव को काम्ते औद्योगिक समाज के तौर पर देखता है तथा वे इसकी शुरुआत भी 14वीं सदी से ही मानते हैं। इस पड़ाव में सिद्धान्त व उसके प्रयोग में एक अन्तर पैदा हुआ। बौद्धिक कल्पना तीन अवस्थाओं में बांटी गई। ये है औद्योगिक या असली, एस्थैटिक या शाब्दिक व वैज्ञानिक या फिलास्फीकल। यह तीन अवस्थाएं प्रत्येक विषय के प्रत्येक पक्ष से मेल खाती हैं। औद्योगिक योजना का विशेष गुण राजनीतिक आजादी का होना है व इन्कलाबी पात्र का होना है। काम्ते सबसे ज्यादा महत्ता फिलास्फी व विज्ञान को देता है। उसका विचार है कि सकारात्मक पड़ाव में इन दोनों की बढ़त होती है इस पड़ाव की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सामाजिक व्यवस्था व विकास में कोई द्वन्द नहीं होता है।

प्रश्न 4.
सकारात्मकवाद।
उत्तर-
काम्ते के अनुसार सकारात्मकवाद का अर्थ वैज्ञानिक विधि है वैज्ञानिक विधि वह विधि है, जिसमें किसी विषय वस्तु के समझने व परिभाषित करने के लिए कल्पना या अनुमान का कोई स्थान नहीं होता। यह तो परीक्षण अनुभव वर्गीकरण व तुलना व ऐतिहासिक विधि की एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली होती है। इस तरह परीक्षण, अनुभव, वर्गीकरण तुलना व ऐतिहासिक विधि द्वारा किसी विषय के बारे में सब कुछ समझना व उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना सकारात्मकवाद है। सकारात्मकवाद का सम्बन्ध वास्तविकता से है कल्पना से नहीं। इसका सम्बन्ध उन निश्चित तथ्यों से है न कि अस्पष्ट विचारों से जिनका पूर्व ध्यान सम्भव है। सकारात्मकवाद वह प्रणाली है जो कि सर्वव्यापक रूप में सब को मान्य है।

प्रश्न 5.
सामाजिक स्थैतिकी।
उत्तर-
काम्ते ने समाज शास्त्र की इस शाखा की परिभाषा देकर लिखा है, समाज शास्त्र के स्थैतिकी अध्ययन से मेरा अभिप्राय सामाजिक प्रणाली के विभिन्न भागों में होने वाली क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित नियमों की खोज करने से है। काम्ते अनुसार सामाजिक स्थैतिकी में हम विभिन्न संस्थाओं व उनके बीच सम्बन्धों की चर्चा करते हैं। कृषि समाज को केवल उसकी विभिन्न संस्थाओं के अन्तर्सम्बन्धों की व्यवस्था के रूप में समझा जा सकता है।

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प्रश्न 6.
सामाजिक गतियात्मकता।
उत्तर-
काम्ते के अनुसार समाज शास्त्र की दूसरी शाखा सामाजिक गतिशीलता में समाज की विभिन्न इकाइयों के विकास व उनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। काम्ते के विचार में सामाजिक गति आत्मिकता के नियम केवल बड़े समाज में ही स्पष्ट रूप में देखे जा सकते हैं। इस सम्बन्ध में काम्ते का निश्चित विचार था कि सामाजिक परिवर्तन के कुछ निश्चित पड़ावों में से निकलते हैं व उनमें लगातार प्रगति होती है।

प्रश्न 7.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्ग एक शोषण करने वाला व दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं, जिनमें संघर्ष होता है इसी को मार्क्स वर्ग संघर्ष कहते हैं । शोषण करने वाला वर्ग जिसको वह पूंजीपति वर्ग या Bourgouisses का नाम देता है उसके पास उत्पादन के साधन होते हैं और वह इन उत्पादन के साधनों से अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग जिसके वह मजदूर वर्ग या Proletariats का नाम देता है। उसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते। उसके पास रोजी कमाने के लिए केवल अपनी मेहनत बेचने के अलावा कुछ नहीं होता। वह पूंजीपति वर्ग से हमेशा शोषित होता है। इन दोनों में हमेशा एक संघर्ष चलता रहता है। इसी को मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।

प्रश्न 8.
मार्क्स के अनुसार किस समय वर्ग एवं वर्ग संघर्ष का अन्त हो जाएगा?
उत्तर-
मजदूर वर्ग के नेतृत्व में वर्ग संघर्ष के द्वारा राज्य पर अधिकार हो जाने के पश्चात् समाजवाद के युग का आरम्भ होगा। मार्क्स के अनुसार, राज्य शोषक ‘वर्ग के हाथों’ में दमन का बहुत बड़ा हाथ होता है। क्रान्ति के बाद भी सामन्तवाद व पूंजीवाद के दलाल प्रति क्रान्ति की कोशिश करते हैं। इसलिए पूंजीवाद के समाजवाद में जान कर संक्रमण काल में मजदूर की सत्ता की अस्थायी अवस्था होगी। समाजवाद की स्थापना के बाद शोषण का अन्त हो जाने पर वर्ग खत्म हो जाएगा व प्रत्येक व्यक्ति को अपने श्रम के अनुसार उत्पादन का लाभ मिलेगा। पर साम्यवाद की अधिक उन्नत अवस्था में प्रत्येक को उसकी ज़रूरत के अनुसार ही मिलने लग जाएगा। धीरे-धीरे राज्य जो शोषक वर्ग का हथियार रहा है, बिखर जाएगा व इसकी जगह आपसी सहयोग व सहकारिता के अनुसार पर आधारित संस्थाएं ले लेंगी। वर्गों व वर्ग संघर्ष का अन्त हो जाएगा।

प्रश्न 9.
पूंजीवादी वर्ग।
उत्तर-
मार्क्स ने पूंजीवादी वर्ग की धारणा दी है। उस अनुसार, समाज में एक वर्ग ऐसा होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं वह जो सभी उत्पादन के साधनों का मालिक होता है। वह अपने उत्पादन के साधनों की मदद से और वर्गों का शोषण करता है। इन साधनों की मदद से वे और पैसे कमाते हैं और अमीर हुए जाते हैं। इस पैसे व उत्पादन के साधनों की मलकीयत करके आराम की ज़िन्दगी व्यतीत करता है। यह एक प्रगतिशील वर्ग होता है। जो थोड़े समय में ही शक्तिशाली उत्पादन शक्ति का मालिक हो गया है, वह यहां आकर यदि उन्नति को रोकते हैं व मजदूर वर्ग का शोषण करते हैं एक दिन आएगा जब मज़दूर वर्ग, इस वर्ग की सत्ता उखाड़ फेंकेगे व समाजवादी समाज की स्थापना करेंगे।

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प्रश्न 10.
मज़दूर वर्ग।
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार, समाज में दो वर्ग होते हैं। पूंजीपति वर्ग व मज़दूर वर्ग। इस मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन के साधनों की मलकियत नहीं होती। उसके पास कोई पूंजी (पैसा) नहीं होती। उसके पास अपनी रोजी कमाने के लिए अपनी मेहनत बेचने के अलावा और कोई तरीका नहीं होता। वह हमेशा पूंजीपति वर्ग के हाथों शोषित होता रहता है। पूंजीपति वर्ग हमेशा उनसे अधिक-से-अधिक काम लेता रहता है व कम-से-कम पैसा देता है। उसकी मेहनत ही अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करती है तथा उसको पूंजीपति वर्ग ही रखता है। इस शोषण के कारण ही मज़दूर वर्ग और ग़रीब होता जाता है। एक दिन दोनों में संघर्ष छिड़ जाएगा अन्त में मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग को उखाड़ गिराएगा व समाजवादी समाज की स्थापना करेगा।

प्रश्न 11.
वैधानिक सत्ता।
उत्तर-
जहां कहीं भी नियमों की ऐसी प्रणाली है जो निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार न्यायिक व प्रशासनिक रूप से की जाती है व जो एक नियमित समूह के सभी सदस्यों के लिए सही व मानने योग्य होती है, वहां व्यापक सत्ता है। जो व्यक्ति आदर्श की शक्ति को चलाते हैं वह विशेष रूप से श्रेष्ठ होते हैं। वह कानून द्वारा सारी विधि के अनुसार नियुक्त होते हैं या चुने जाते हैं और वे वैधानिक व्यवस्था को चलाने के लिए आप निर्देशित रहते हैं।

जो व्यक्ति बिना आदेशों के अधीन हैं वह वैधानिक रूप से समान हैं वह विधान का पालन करते हैं न कि उस विधान में काम करने वालों का। यह नियम उस उपकरण के लिए उपयोग किए जाते हैं जो वैधानिक सत्ता की प्रणाली का उपयोग करते हैं। यह संगठन स्वयं अबाध्य होते हैं। इसके अधिकारी उन नियमों के अधीन होते हैं जो इसकी सत्ता की सीमा निर्धारित करते हैं।

प्रश्न 12.
परम्परागत सत्ता।
उत्तर-
इस प्रकार की सत्ता में एक व्यक्ति की वैधानिक नियमों के अन्तर्गत एक पद पर बैठे होने के कारण नहीं बल्कि परम्परा के द्वारा माने हुए पदों पर बैठे होने के कारण प्राप्त होती है। चाहे इस पद को परम्परागत व्यवस्था के अनुसार परिभाषित किया जाता है। इस कारण ऐसे पद पर बैठे होने के कारण व्यक्ति को कुछ विशेष सत्ता मिल जाती है। उस प्रकार की सत्ता परम्परागत विश्वासों पर टिकी होने के कारण परम्परागत सत्ता कहलाती है। जैसे क्षेत्रीय युग में भारतीय गाँवों में मिलने वाली पंचायत में पंचों की सत्ता को ही ले लो। इन पंचों की सत्ता की तुलना भगवान् की सत्ता की तुलना से की जाती थी जैसे कि पंच परमेश्वर की धारणा में दिखाई देता था। उसी प्रकार पितृसत्तात्मक परिवार में पिता को परिवार से सम्बन्धित सभी विषयों में जो अधिकार पर सत्ता प्राप्त होती है उसका भी आधार वैधानिक न होकर परम्परा होता है।

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प्रश्न 13.
चमत्कारी सत्ता।
उत्तर-
व्यक्तिगत सत्ता का स्रोत परम्परा से बिल्कुल भिन्न भी हो सकता है। आदेश की शक्ति एक नेता भी प्रयोग कर सकता है चाहे वह एक पैगम्बर हो, नायक हो, या अवसरवादी नेता हो पर ऐसा व्यक्ति तो ही चमत्कारी नेता हो सकता है जब वह सिद्ध कर दे कि तान्त्रिक शक्तियां देवी शक्तियां नायकत्व या अन्य अभूतपूर्व गुणों के कारण उसके पास चमत्कार है।

इस प्रकार यह सत्ता न तो वैधानिक नियमों पर व न ही परम्परा पर बल्कि कुछ करिश्मा या चमत्कार पर आधारित होती हैं। इस प्रकार की शक्ति केवल उन व्यक्तियों के पास सीमित होती है जिनके पास चमत्कारी शक्तियां होती हैं इस प्रकार की सत्ता प्राप्त करने में व्यक्ति को काफ़ी समय लग जाता है व पर्याप्त यानी पूरे साधनों, कोशिशों के बाद ही लोगों द्वारा यह सत्ता स्वीकार की जाती है। दूसरे शब्दों में एक व्यक्ति के द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास इस प्रकार किया जाता है कि लोग यह समझने लगें कि उसने अपने व्यक्तित्व में कोई चमत्कारी शक्ति का विश्वास कर लिया है। इसके बल पर ही वह और लोगों को अपने सामने झुका लेता है। व्यक्तियों द्वारा सत्ता स्वीकार कर ली जाती है। इस तरह करिश्माई नेता अपने प्रति या अपने लक्ष्य या आदर्श के प्रतिनिष्ठा के नाम पर दूसरों से आज्ञापालन करने की माँग करता है। जादूगर, पीर, पैगम्बर, अवतार, धार्मिक नेता, सैनिक योद्धा, दल के नेता इसी तरह की सत्ता सम्पन्न व्यक्ति होते हैं। लोग इसी कारण ऐसे लोगों की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं।

प्रश्न 14.
सामाजिक क्रिया।
उत्तर-
वैबर अनुसार सामाजिक क्रिया व्यक्तिगत क्रिया से भिन्न है। इसकी परिभाषा देते हुए वैबर ने लिखा है कि, “किसी भी क्रिया को करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा लिए गए Subjective अर्थ के अनुसार उस क्रिया में दूसरे व्यक्तियों के मन के भावों पर क्रियाओं का समावेश हो तथा उसी के अनुसार गतिविधि निर्धारित हो।” वैबर के अनुसार सामाजिक क्रिया और व्यक्तियों के भूत, वर्तमान या होने वाले व्यवहार द्वारा प्रभावित हो सकती है व हर प्रकार की बाहरी क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं हो सकती।

प्रश्न 15.
पूंजीवाद के मुख्य लक्षण बताओ।
उत्तर-

  • पूजीवाद में पूंजीपति का कमाए हुए लाभ पर पूरा अधिकार होता है।
  • पूंजीवाद में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने की कोशिश की जाती है ताकि अधिक-से-अधिक लाभ उठाया जा सके।
  • व्यापार को वैज्ञानिक तरीके से किया या चलाया जाना चाहिए।
  • उत्पादन हमेशा बाज़ार के सामने रखकर या बेचने के लिए किया जाता है।
  • लेखा-जोखा रखने की उन्नत विधि अपनाई जाती है।

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प्रश्न 16.
सामाजिक तथ्य क्या है?
उत्तर-
विभिन्न प्रकार के समाजों में कुछ ऐसे तथ्य होते हैं, जो भौतिक प्राणीशास्त्री व मनोवैज्ञानिक तथ्यों से अलग होते हैं। दुर्खीम इस प्रकार के तथ्यों को सामाजिक तथ्य मानते हैं। दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की कुछ परिभाषा दी है। एक जगह दुर्खीम लिखते हैं, “सामाजिक तथ्य काम करने, सोचने व अनुभव करने के वे तरीके हैं जिस में व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अस्तित्व को बनाए रखने की उल्लेखनीय विशेषता होती है।”

एक अन्य स्थान पर दुर्खीम ने लिखा है, “सामाजिक तथ्यों में काम करने, सोचने, अनुभव करने के तरीके शामिल है, जो व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं व जो अपनी दबाव शक्ति के मध्यम से व्यक्ति को निर्धारित करते अपनी किताब के प्रथम Chapter की आखिरी पंक्तियों में इसकी विस्तार सहित परिभाषा पेश करते हुए लिखा है, “एक सामाजिक तथ्य क्रिया करने का प्रत्येक स्थायी, अस्थायी तरीका है, जो आदमी पर बाहरी दबाव डालने में समर्थ होता है या दोबारा क्रिया करने का प्रत्येक तरीका जो किसी समाज में आम रूप से पाया जाता है पर साथ ही साथ व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र भिन्न अस्तित्व रखता है।”

प्रश्न 17.
बाह्यता।
उत्तर-
बाह्यता (Exteriority)—सामाजिक तत्त्व की सबसे पहली व महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका बाहरीपन है। बाह्यता का अर्थ है सामाजिक तथ्य का निर्माण तो समाज के सदस्यों की ओर से ही होता है परन्तु सामाजिक तथ्य एक बार विकसित होने के पश्चात् फिर किसी व्यक्ति विशेष के नहीं रहते व वह उस अर्थ में कि इसको एक स्वतन्त्र वास्तविक रूप में अनुभव किया जाता है। वैज्ञानिक का उससे कोई आन्तरिक सम्बन्ध नहीं होता और न ही सामाजिक तथ्यों का व्यक्ति विशेष पर कोई प्रभाव पड़ता है।

इस प्रकार बाह्यता का अर्थ है कि सामाजिक तथ्य व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं। वह किसी व्यक्ति विशेष के नहीं होते बल्कि सम्पूर्ण समाज के होते हैं।

प्रश्न 18.
(विवशता) बाध्यता।
उत्तर-
बाध्यता या विवशता (Constraint) सामाजिक तथ्यों की दूसरी प्रमुख व महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी विवशता है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति पर सामाजिक तथ्यों का एक दबाव या विवशता का प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः सामाजिक तथ्यों का निर्माण एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्वारा नहीं होता बल्कि अनेकों व्यक्तियों द्वारा होता है। अतः यह बहुत शक्तिशाली होते हैं व किसी व्यक्ति पर इनकी विवशता के कारण प्रभाव पड़ता है।

दुर्खीम का मानना है कि सामाजिक तथ्य केवल व्यक्ति के व्यवहार को नहीं बल्कि उसके सोचने विचारने आदि के तरीके को प्रभावित करते हैं। दुर्खीम बताते हैं कि हम सामाजिक तथ्यों की यह विशेषता इस रूप में देख सकते हैं कि यह सामाजिक तथ्य आदमी की अभिरुचि के अनुरूप नहीं बल्कि व्यक्ति के व्यवहार उनके अनुरूप होता है।

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प्रश्न 19.
व्यापकता।
उत्तर-
सामाजिक तथ्यों की तीसरी विशेषता यह है कि समाज विशेष में यह तथ्य आदि से अन्त तक फैले होते हैं। यह सब के साझे होते हैं। यह किसी व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत विशेषताएं नहीं होती। लेकिन व्यापकता अनेकों वैयक्तिक तथ्यों की केवल एक मात्र परिणाम ही नहीं होती। यह तो शुद्ध रूप में अपने स्वभाव से ही सामूहिक होती है। व्यक्तियों पर इनका प्रभाव इनकी सामूहिक विशेषता का परिणाम होता है।

प्रश्न 20.
सामाजिक तथ्य के प्रकार।
उत्तर-
दुर्खीम ने दो प्रकार के सामाजिक तथ्यों का वर्णन किया है। साधारण तथ्य (Normal) तथ्य तथा यह वह सामाजिक तथ्य होते हैं, जो पूरी मानव जाति के क्षेत्र में फैले होते हैं, व यदि वह सभी व्यक्तियों में नहीं तो उनमें से अधिकतर में पाए जाते हैं। व्याधिकीय या Pathological सामाजिक तथ्य वह होते हैं जो पूरी मानव जाति में न मिलकर कहीं-कहीं ही फैले होते हैं।

प्रश्न 21.
दमनकारी कानून क्या होते हैं ?
उत्तर-
दमनकारी कानून (Repressive Law)-दमनकारी कानूनों को एक प्रकार से सार्वजनिक कानून (Public Law) कहा जा सकता है। दुर्खीम के अनुसार, यह दो प्रकार के होते हैं –

(i) दण्ड सम्बन्धी कानून (Penal Laws)-जिनका सम्बन्ध कष्ट देने, हानि पहुंचाने, हत्या करने या स्वतन्त्रता न देने के साथ है। इन्हें संगठित दमनकारी कानून (Organized Repressive Law) कहा जा सकता है।

(ii) व्याप्त कानून (Diffused Laws)-कुछ दमनकारी कानून ऐसे होते हैं जो पूरे समूह में नैतिकता के आधार पर फैले होते हैं। इसलिए दुर्खीम इन्हें व्याप्त कानून कहते हैं। दुर्खीम के अनुसार, दमनकारी कानून का सम्बन्ध आपराधिक कार्यों से होता है। यह कानून अपराध व दण्ड की व्याख्या करते हैं। यह कानून समाज की सामूहिक जीवन की मौलिक दशाओं का वर्णन करते हैं। प्रत्येक समाज के अपने मौलिक हालात होते हैं इसलिए भिन्न-भिन्न समाजों में दमनकारी कानून भिन्न-भिन्न होते हैं। इन दमनकारी कानूनों की शक्ति सामूहिक दमन में होती है, व सामूहिक मन समानताओं से शक्ति प्राप्त करता है।

प्रश्न 22.
प्रतिकारी कानून।
उत्तर-
प्रतिकारी कानून (Restitutive Laws) कानून का दूसरा प्रकार प्रतिकारी कानून व्यवस्था है। यह कानून व्यक्तियों के सम्बन्धों में पैदा होने वाले असन्तुलन को साधारण स्थिति प्रदान करते हैं। इस वर्ग के अन्तर्गत व्यापारिक कानून, नागरिक कानून, संवैधानिक कानून, प्रशासनिक कानून इत्यादि आ जाते हैं। इनका सम्बन्ध पूरे समाज के सामूहिक स्वरूप से न होकर व्यक्तियों से होता है। यह कानून समाज के सदस्यों के व्यक्तिगत सम्बन्धों में पैदा होने वाले असन्तुलन को दोबारा सन्तुलित व व्यवस्थित करते हैं। दुर्खीम कहते हैं कि प्रतिकारी कानून व्यक्तियों व समाज को कुछ मध्य संस्थाओं से जोड़ता है।

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प्रश्न 23.
यान्त्रिक एकता क्या होती है?
उत्तर-
यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार, यान्त्रिक एकता समाज की दण्ड संहिता में अर्थात् दमनकारी कानूनों के कारण होती है। समूह के सदस्यों में मिलने वाली समानताएं इस एकता का आधार हैं जिस समाज के सदस्यों में समानताओं से भरपूर जीवन होता है जहां विचारों, विश्वासों, कार्यों व जीवन शैली के साधारण प्रतिमान व आदर्श प्रचलित होते हैं व जो समाज इन समानताओं के परिणामस्वरूप एक सामूहिक इकाई के रूप में सोचता व क्रिया करता है वह यान्त्रिक एकता दिखलाता है। उसके सदस्य मशीन की तरह के भिन्न-भिन्न पुओं की भांति संगठित रहते हैं। दुर्खीम ने आपराधिक कार्यों को दमनकारी कानून व यान्त्रिक एकता की अनुरूपता का माध्यम बताया है।

प्रश्न 24.
आंगिक एकता क्या होती है?
उत्तर-
आंगिक एकता (Organic Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार दूसरी एकता आंगिक एकता है। दमनकारी कानून की शक्ति सामूहिक चेतना में होती है। सामूहिक चेतना समानताओं से शक्ति प्राप्त करती है। आदिम समाज में दमनकारी कानूनों की प्रधानता होती है, क्योंकि उनमें समानताएं सामाजिक जीवन का आधार हैं। दुर्खीम के अनुसार, आधुनिक समाज श्रम विभाजन व विशेषीकरण से प्रभावित है जिसमें समानता की जगह विभिन्नताएं प्रमुख हैं। सामूहिक जीवन की यह विभिन्नता व्यक्तिगत चेतना को प्रमुखता देती है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से समूह से बन्धा नहीं रहता। इस सम्बन्ध में मानवों के आपसी सम्बन्धों का महत्त्व ज्यादा होता है। यही कारण है कि दुर्खीम ने आधुनिक समाजों में दमनकारी कानून की जगह प्रतिकारी कानून की प्रधानता बताई है। विभिन्नता पूर्ण जीवन में मानवों को एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल एक काम में विशेष योग्यता प्राप्त कर सकता है व बाकी सारे कामों के लिए उसको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। समूह के मैम्बरों की यह आपसी निर्भरता उनकी व्यक्तिगत असमानता उन्हें एक-दूसरे के नज़दीक आने के लिए मजबूर करती है। जिसके आधार पर समाज में एकता की स्थापना होती है। इस एकता को दुर्खीम ने आंगिक एकता (Organic Solidarity) कहा है। यह प्रतिकारी कानून व्यवस्था में दिखाई देता है।

प्रश्न 25.
सामाजिक एकता क्या है?
उत्तर-
दुखीम कहते हैं कि प्रत्येक समाज में कुछ मूल आदर्श, विश्वास, व्यवहार के तरीके, संस्थाएं व कानून प्रचलित होते हैं जो कि समाज को एक सूत्र में बांध कर रखते हैं। ऐसे तत्त्वों के कारण समाज में सम्बद्धता बनी रहती है व एकता भी बनी रहती है। यह कारक समाज में सर्वसम्मत्ति पैदा करते हैं व एकता को बढ़ाते हैं। इस प्रकार की एकता को सामाजिक एकता कहते हैं। इन कारणों के नष्ट होने या बिखरने से सामाजिक एकता खतरे में पड़ जाती है। जिस कारण समाज विघटन की ओर जाने लगता है।

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बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
काम्ते के तीन पड़ावों के सिद्धान्त का वर्णन करो।
उत्तर-
समाजशास्त्रीय क्षेत्र में काम्ते का एक महत्त्वपूर्ण योगदान उसके द्वारा पेश किया तीन पड़ावों का नियम है। उसने अपनी प्रसिद्ध किताब पाज़ीटिव फिलोस्फी (Positive Philosophy) में इस सिद्धान्त के बारे में बताया। इस सिद्धान्त का निर्माण काम्ते ने 1822 में किया जब कि उसकी उम्र केवल 24 साल की थी। काम्ते ने इस नियम का विचार कोन्डरसेट (Conderect), टुरर्गेट (Turoget) तथा सेन्ट साईमन (Saint Simon) से प्राप्त किया।

काम्ते का कहना है कि मानव के ज्ञान या चिन्तन प्रक्रियाओं का विकास नहीं हुआ है। वह तो कुछ निश्चित पड़ावों में से ही निकला है काम्ते लिखते हैं, “सारे समाजों में व सारे युगों में मानव के बौद्धिक विकास का अध्ययन करने से उस महान् आधार, मौलिक नियम का पता चलता है जिसके अधीन मानव का चिन्तन आवश्यक रूप से होता है व जिसका ठोस परिणाम संगठन के तथ्यों व हमारे ऐतिहासिक अनुभवों, दोनों में शामिल है। यह नियम इस प्रकार है, हमारा प्रत्येक प्रमुख संकल्प हमारे ज्ञान की प्रत्येक शाखा एक के बाद एक तीन भिन्न-भिन्न सैद्धान्तिक अवस्थाओं (Theoretical Conditions) में से होकर निकलती है तथा वह हैं आध्यात्मिक या काल्पनिक (Theological or fictious) अवस्था, अर्द्धभौतिक या अमूर्त (Metaphysical or abstract) अवस्था व वैज्ञानिक या सकारात्मक (Scientific or positive) अवस्था। सरल शब्दों में उपस्थित नियम का अर्थ है कि मानवीय जीवन के आरम्भ में जब लोगों ने किसी विषय के सम्बन्ध में बोध करना या ज्ञान प्राप्त करना होता था, तो वह आध्यात्मिक आधार पर सोच विचार करते थे। समय व्यतीत होने के साथ लोगों ने आध्यात्मिक आधार की जगह अर्द्धभौतिकी आधार के किसी भी विषय के बारे में ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया पर समय कुछ आगे बढ़ा तो मानव ने उपरोक्त दोनों आधारों की बजाय किसी प्रपंच के सकारात्मक आधार पर समझना आरम्भ किया। प्रथम अवस्था में कल्पना, दूसरी में भावना व तीसरी में तर्क प्रधान रहता है।

काम्ते ने इस नियम को मानवीय स्वभाव के पहलुओं पर आधारित किया। मानवीय स्वभाव के तीन महत्त्वपूर्ण पहलू निम्नलिखित हैं-
1. भावनाएं (Feelings)—मानव की भावनाएं उसे काम करने के लिए उत्साहित करती हैं तथा इन्हीं कामों की सेवा करता रहता है।

2. सोचशक्ति या विचार (Thought)-मानव इन भावनाओं की तृप्ति करने के बारे में सोचता है और विचार बनाता है। यह विचार इन भावनाओं की तृप्ति करने की ज़िम्मेदारी लेते हैं तथा इन्हें संचालित करने में मदद लेते

3. कार्य (Action)-भावनाओं की तृप्ति या उन्हें पूरा करने के लिए मानव कार्य करता है।
काम्ते का कहना था कि व्यक्ति जीवन तो ही जी सकता है, यदि उसके स्वभाव के इन तीन पहलुओं में तालमेल हो। यदि व्यक्ति की भावनाएं कुछ और हों, सोच कुछ व कार्य कुछ और करे तो ऐसा व्यक्ति साधारण जीवन नहीं जी सकता। इसी प्रकार सामाजिक व्यक्तियों के बीच सांझे व संचालित व्यवहारों की प्रणाली का होना व निरन्तरता के लिए संस्थाएं, ज्ञान कीमतें व विश्वासों की किसी प्रणाली का होना ज़रूरी है जो कि सफलतापूर्वक ढंग से समाज के सदस्यों की भावनाएं, विचारों व कार्यों में सम्बन्ध स्थापित करें।

काम्ते ने मानवता के इतिहास का निरीक्षण किया और कहा कि उपरोक्त समस्या के हल के लिए तीन सामाजिक प्रणालियां विकसित हुई हैं जिनमें उपरोक्त तालमेल था। वह इस प्रकार हैं-

  1. आध्यात्मिक पड़ाव (Theological Stage)
  2. अधिभौतिक पड़ाव (Metaphysical Stage)
  3. सकारात्मक पड़ाव (Positive Stage)

1. आध्यात्मिक पड़ाव (Theological Stage)-काम्ते की सैद्धान्तिक योजना में आध्यात्मिक पड़ाव बहुत महत्त्व रखता है। हमारा विचार है कि इसके अनुसार सामाजिक क्रम विकास का आरम्भ समझने के लिए पहले पड़ाव का अच्छी तरह निरीक्षण करना अनिवार्य है। उसके अनुसार आध्यात्मिक पड़ाव में मानव के विचार काल्पनिक थे। मानव सब वस्तुओं को परमात्मा के रूप में या किसी अलौकिक जीव की उस समय की क्रियाओं के परिणाम के रूप में देखता था, मानता व समझता था। धारणा यह होती थी कि सब वस्तुएं चाहे निर्जीव हैं चाहे सजीव का कार्य रूप, अलौकिक शक्तियां हैं। अर्थात् सब वस्तुओं में वही शक्ति व्यापक है। धार्मिक पड़ाव में मानव के विचारों के बारे में चर्चा करते हुए काम्ते लिखते हैं कि आध्यात्मिक अवस्था में सृष्टि के आवश्यक स्वभाव की ख़ोज करने या प्राकृतिक घटनाओं के होने के अन्तिम कारण को जानने के यत्न में मानव का दिमाग यह मान लेता है कि सब घटनाएं आलौकिक प्राणियों को तत्कालीन घटनाओं का सबूत हैं । काम्ते के अनुसार इस स्तर को नीचे तीन उप-स्तरों में बांटा जा सकता है।

(i)  प्रतीक पूजन (Festishism) सामाजिक गतिशीलता में काम्ते अपनी फ़िलास्फी के मल तत्त्व को स्थापित करके उसका मानव इतिहास के विश्लेषण में उपयोग करता है। उसकी धारणा है कि उसका मूल तत्त्व, सामाजिक विज्ञानों को फिर सजीव करेगा। आध्यात्मिक पड़ाव काम्ते के विचार अनुसार प्रतीक पूजन या फैटिशवाद के सिवाय अन्य किसी तरह भी शुरू नहीं हो सकता था। मानवीय सोच में यह विचार बनना प्राकृतिक था कि सभी बाहरी वस्तुओं में उनकी तरह से ही जीवन है। इस स्थिति में बौद्धिक जीवन से जज्बात अधिक हावी थे। प्रतीक पूजन की फिलास्फी का मूल तत्त्व यह विश्वास है कि लोगों के जीवन पर कई किस्म के अनजाने असर कुछ वस्तुओं के कार्यों के कारण सामने आते हैं जिनको वह जीवित समझते हैं। प्रतीक पूजन आध्यात्मिकता का बिगड़ा स्वरूप नहीं बल्कि इसका स्रोत है।

प्रतीक पूजन का सदाचार, भाषा, बोध व समाज से एक विशेष किस्म का सम्बन्ध था। मानव जाति की आरम्भिक अवस्था में भावुकता हावी थी। जिससे सदाचार व नैतिकता पर अधिक दबाव डाला जाता था। भाषा का चिन्तनात्मक आधार नहीं है। काम्ते का विचार है कि मानवीय भाषा का एक रूपीय आकार है। बौद्धिक स्तर पर फैटिशवाद बहुत जबरदस्त प्रणाली थी। इस अवस्था में मानव केवल आध्यात्मिक संकल्प देख व जान सकता है। बहुत ही कम प्राकृतिक प्रघटन होंगे जिनका उसे निजी अनुभव था जिनमें उसका ज्ञान बढ़ा था। परिणामस्वरूप इस उप-पड़ाव की सभ्यता का सार बहुत ही निम्न था। सामाजिक स्तर पर फैटिशवाद ने एक विशेष प्रकार के पादरीवाद को जन्म दिया। इसमें भविष्य बताने वाले व जादू-टोना करने वाले पादरी पैदा हुए क्योंकि प्रतीक पूजन अवस्था में प्रत्येक वस्तु का मानव से सीधा सम्बन्ध था इसलिए पादरीवाद एक संगठित रूप में विकसित नहीं हुआ। फिर आदमी की ज़िन्दगी पर यह फैटिश देवता बहुत प्रभाव नहीं डालते थे। परिणामस्वरूप चिन्तनशील श्रेणी के जन्म का इस उप-पड़ाव में कोई मौका नहीं था।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मानव की प्रकृति पर विजय इस उप-पडाव से आरम्भ होती है। सबसे विशेष पक्ष इस अवस्था में मानव का पशुओं को अपने बस करके पालतू बनाना है। काम्ते का ख्याल है कि बहुदेवतावाद, जोकि अगला उप-पड़ाव है का आरम्भ प्रतीक पूजन में ही ढूंढ़ा जा सकता है। एक प्रकार से वह इस बात को ऐतिहासिक ज़रूरत के स्तर पर ले जाते हैं। आध्यात्मिक पड़ाव के दूसरे उप-पड़ाव पर पहुँचने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बौद्धिक बदलाव मानव के तारों के बारे में विचार बदलने से शुरू हुए। तारों की पूजा फैटिशवाद में भी होती थी पर उनको देवताओं के दर्जे पर पहुँचने में एक अमूर्त स्थिति ने ठोस रूप दे दिया।

(ii) बहु देवतावाद-बहु देवतावाद की अवस्था सबसे अधिक सजीव रही है। इस उप-पड़ाव को समझने के लिए काम्ते सबसे पहले अपनी विश्लेषण विधि के बारे में प्रकाश डालते हैं। उसका कहना है कि हमारी विधि को बहु-देवतावाद के ज़रूरी गुणों का अमूर्त अध्ययन करना चाहिए। उसके बाद बह देवतावाद का उन गुणों के सन्दर्भ में निरीक्षण करना चाहिए। मानवीय बोध के विकास के आरम्भ में बहुत सी घटनाओं से सुमेल रखते देवताओं की आवश्यकता थी। बहु देवतावाद बुनियादी तौर से हर किस्म की वैज्ञानिक व्याख्या के खिलाफ थे, पर विज्ञान का आरम्भ इसी पड़ाव से हुआ। वास्तव में मानवीय बौद्ध का फैटिशवाद से बहु देवतावाद तक पहुँचना एक महान् प्राप्ति है। बहु देवतावाद की सामाजिक सोच दो पक्षों से कही जा सकती है यह है राजनीतिक व नैतिक।

(क) राजनीतिक आकार-राजनीति के बीज शुरू से ही मानव जाति में कई तरीकों से बीजे गए थे। शुरू में सियासत में सैनिक गुण जैसे कि हिम्मत व हौंसला सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व थे। बाद में समझदारी व कूटनीति ताकत का आधार बने। काम्ते के अनुसार बहु-देवतावाद की अवस्था में राजनीतिक आकार के कई पक्ष थे जैसे कि धर्म युद्ध व सैनिक प्रणाली। इसी उप-पड़ाव में धर्म ने सामाजिक महत्ता ग्रहण की। यूनानी सभ्यता में धार्मिक मेले व अन्य कई घटनाएं इस पक्ष को उजागर करते हैं। इसके सिवा इस अवस्था में सेना का विकास एक आवश्यकता थी। इस सैनिक सभ्याचार के विकास का मुख्य कारण यह था कि इस के बिना राजनीतिक आकार व उसकी तरक्की असम्भव थी। बहु-देवतावाद ने सैनिक अनुशासन को न केवल स्थापित ही किया बल्कि पूरी दृढ़ता से कायम भी रखा। राजनीतिक आकार के बहु देवतावाद के इस उप-पड़ाव में दो विशेष गुण हैं। यह हैं गुलाम प्रथा व आत्मिक व दुनियावी ताकत का केन्द्रीयकरण ।

(ख) नैतिकता-ऊपर दिए राजनीतिक आकार पर दिए वर्णन से स्पष्ट है कि नैतिकता की स्थिति बहुत बढ़िया नहीं थी। काम्ते के अनुसार गुलाम प्रथा में निजी पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध बुरी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। इसके सिवा नैतिकता राजनीतिक आकार के मुकाबले निम्न स्थिति में होती है। काम्ते के अनुसार बहु-देवतावाद की तीन अवस्थाएं हैं

(1) प्रथम अवस्था को काम्ते ने मिस्त्री या दैव शासकीय अवस्था का नाम दिया है। मध्य अवस्था के बौद्धिक व सामाजिक तत्त्व केवल पुरोहित पक्षों के हाथों में सम्पूर्ण सत्ता आ जाने से ही विकसित हो सकते हैं। इसका व्यापक स्तर पर क्रियाओं व पद्धतियों के योग बनाना व मानना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। परिणामस्वरूप इस प्रकार की बहु देवतावाद की अवस्था में एक विशेष किस्म की संस्था ने जन्म लिया जिनको जाति कहते हैं। सबसे पहले जाति-प्रथा एशिया के देशों में विकसित हुई। यह जाति-प्रथा चाहे सैनिक सभ्याचार में से निकली थी पर इस ने युद्ध की रुचियों पर काबू पाया व पुरोहितवाद को सत्ता दी। पश्चिमी सभ्यता में जाति-प्रथा विकसित नहीं हुई।

कामते के अनुसार इस सभ्यता में सामाजिक समतावाद मुख्य कीमत रही है। वह मार्क्स से बहुत सहमत लगता है जब वह कहता है कि उपनिवेशवाद इन्हीं एशियाई देशों के लिए बढ़ा है, क्योंकि पश्चिमी देशों के समतावाद ने जाति-प्रथा को तोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर जाति-प्रथा प्राचीन सभ्यता का व्यापक स्तर पर एक आधार है। इसकी व्यापकता इसकी मानवीय ज़रूरतों के लिए क्रियाशील होने का बहुत बड़ा सबूत है। जाति-प्रथा का बौद्धिक विकास में सब से बड़ी भूमिका इसका सिद्धान्त व अमल को भिन्न करना है। राजनीतिक तौर से इस की महत्ता समाज में शांति व व्यवस्था रखने में भी थी। पर इन सब गुणों के बावजूद दैवी शासकीय अवस्था उन्नति विरोधी थी।

(2) दूसरी अवस्था यूनानी या बौद्धिक थी जिसमें पहली बार बौद्धिक व सामाजिक तरक्की में अन्तर उत्पन्न किया गया। इस अवस्था के दौरान एक ऐसी चिन्तनशील कक्षा ने जन्म लिया जो सैद्धान्तिक सृजनों के अलावा कोई धन्धा नहीं करती थी इसलिए वह पुरोहित या पादरी समाज के विकल्प के रूप में उभर कर सामने आई। इसका असर विज्ञान की तरक्की पर पड़ा। इसमें सबसे विशेष रेखा गणित में हुआ क्रांतिकारी विकास है। विज्ञान के विकास को काम्ते बौद्धिक अवस्था में खोज के लिए तर्कशील स्वीकारात्मक को उपयोग से जोड़ते हैं। फिलासफी की प्रगति सबसे पहले विज्ञान के विकास के प्रभाव से शुरू हुई।

(3) तीसरी अवस्था को काम्ते ने रोमन या सैनिक का नाम दिया है। रोम की बहुत बड़ी प्राप्ति इसका अपने आप को दैवीय शासन से आजाद करवाना था जिसकी वजह से यहां राज्य प्रथा की जगह सीनेट का राज्य स्थापित हुआ। रोमन अवस्था का केन्द्रीय गुण इसकी युद्ध नीति थी। युद्ध का मुख्य उद्देश्य उपनिवेश इलाके स्थापित करना था। आदमी की चरित्र का विकास भी इस युद्ध सभ्याचार पर निर्भर था। उसको शुरू से ही सैनिक अनुशासन में पाला जाता था। अपनी जीत को बढ़ाने की लगातार बढ़ाने की नीति में ही रोम के पतन के कारण ढूंढ़े जा सकते हैं।

बहु-देवतावाद की इन तीन अवस्थाओं की एक व्यापक भूमिका है। काम्ते उन्हें मिस्त्र, यूनान व रोम के नमूनों के तौर पर देखता था। उसका मुख्य उद्देश्य तीन प्रकार के बहु देवतावाद को दर्शाना ही है।

(iii) एक ईश्वरवाद (Monotheism)-जब रोम ने सारे सभ्य जगत को इकट्ठा किया तो सामाजिक जीवन को ऊँचा करने के लिए एक ईश्वरवाद को बौद्धिक स्तर पर काम करने का मौका मिला। आध्यात्मिक फ़िलासफी का बौद्धिक पतन भी ज़रूरी होना था। काम्ते एक ईश्वरवाद की अवस्था की व्याख्या करने के लिए रोमन कैथोलिकवाद को उदाहरण के तौर पर पेश करता है। एक ईश्वरवाद मूलतयाः से एक विश्वास प्रणाली है जिसकी स्थापना राजनीतिक प्रणाली से स्वतन्त्र है। धर्म व राजनीतिक शक्ति में भिन्नता आना आधुनिक काल की महान् प्राप्ति है। रोमन कैथोलिकवाद की एक प्राप्ति नैतिकता को अपने अधिकार में लाना था। इससे पहले सदाचार सियासी ज़रूरतों द्वारा नियन्त्रत किया जाता था। इससे उप-पड़ाव में चिन्तनशील कक्षा का एक आज़ाद व प्रभावशाली अस्तित्व स्थापित हुआ। इसके परिणामस्वरूप सिद्धान्त व उसके अमल में पृथक्कता आई। अब सिद्धान्त बनाने के लिए अनुभव पर आधारित सन्दर्भ की आवश्यकता नहीं थी। राजनीति प्रणाली के बीच सुधार लाने के लिए अमूर्त सिद्धान्त बनाए जा सकते थे। इसी तरह समाज की भविष्य की ज़रूरतों के बारे में एक बात की जा सकती थी।

एक ईश्वरीवाद उप-पड़ाव में जागीरदारी प्रणाली को आधुनिक समाज की आधारशिला माना जा सकता है। नैतिक क्षेत्र में रोमन कैथोलिकवाद एक व्यापक नैतिकता कायम रखने में काफ़ी सफल रहा। नैतिकता की राजनीति से आज़ादी ने इसके विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग प्रकारों में पैदा होने में सहायता दी। जैसे निजी नैतिकता, पारिवारिक व सामाजिक नैतिकता परन्तु बौद्धिक गिरावट आई। इसके मुकाबले बहु-देवतावाद बौद्धिक विकास के लिए ज्यादा उचित था।

2. अधिभौतिक पड़ाव (Metaphysical Stage)-इस पड़ाव को काम्ते आधुनिक समाज क्रांति काल भी कहा जाता है। यह पड़ाव पांच सदियों तक चला। यह 14वीं से 19वीं सदी तक चला। इस समय को हम दो भागों में बांट सकते हैं। प्रथम भाग में क्रांतिक आन्दोलन अपने आप व अनजाने में ही शुरू हो गया। दूसरा भाग सोलहवीं सदी से आरम्भ हुआ। इसमें नकारात्मक सिद्धान्त शुरू हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक बदलाव था। क्रांतिक पड़ाव का आरम्भ एक ईश्वरीवाद का आत्मिक व दुनियावी शक्तियों को भिन्न करने के वक्त से ही माना जा सकता है। क्रान्तिक फिलासफी 16वीं सदी में प्रोटैस्टैंटवाद के आने से शुरू हुआ था। यहां ध्यान देने योग्य यह है कि रोमन कैथोलिकवाद में आत्मिक व दुनियावी शक्तियों में विभिन्नता ने आध्यात्मिक सवालों को सामाजिक मामलों पर ही विचार करने की शक्ति दी है। अधिभौतिक पड़ाव के द्वितीय भाग को हम तीन अवस्थाओं में बांट सकते हैं। प्रथम अवस्था में पुरानी प्रणाली का 15वीं सदी के अन्त तक अपने आप अन्त हो गया था। द्वितीय अवस्था में प्रोटैस्टैंट वाद हमारे सामने आया।

इसमें चाहे काफी निरीक्षण का अधिकार था पर यह ईसाई धर्मशास्त्र तक ही सीमित रहा। तृतीय अवस्था में देववाद (Deism) 18वीं सदी में आगे आया। इस ने निरीक्षण की सीमित सीमाओं को तोड़ कर यह विचार दिया कि इसकी कोई सीमा नहीं है। एक तरह से इस पड़ाव में मध्यकालीन दर्शन व कानूनी विशेषताओं का काल आया। इन्हीं दोनों ने कैथोलिक व्यवस्था को आघात दिया। परिणामस्वरूप आत्मिकता का पतन हुआ जिसका दुनियावी पक्ष पर भी सहजता से असर हुआ। जागीरदार समाज व उच्च श्रेणी का भी पतन हुआ। प्रोटैस्टैंट वाद ने व्यापक आज़ादी का रूझान पैदा किया, जिसके परिणाम से लोग पुरानी व्यवस्था के सामाजिक व बौद्धिक तत्त्वों को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। इस पड़ाव में नकारात्मक फिलासफी स्थापित हुई।

3. सकारात्मक पड़ाव (Positivism Stage)-सकारात्मक पड़ाव का आरम्भ समझने के लिए दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात यह कि काम्ते इसको औद्योगिक समाज के तौर पर देखते थे। दूसरी बात यह है कि वह इसका आरम्भ भी 14वीं सदी से ही मानते हैं जिसका अर्थ यह है कि आध्यात्मिक या क्रांतिक पड़ाव के साथसाथ ही सकारात्मक पड़ाव का आरम्भ हुआ, पर यह 19वीं सदी में आकर हावी होना प्रारम्भ हुआ। – सकारात्मक पड़ाव में सिद्धान्त व उसके प्रयोग में एक अन्तर पैदा हुआ। बौद्धिक कल्पना तीन अवस्थाओं में बांटी गई। ये थीं औद्योगिक या अमली, एस्थैटिक या काविक तथा वैज्ञानिक या फिलास्फीकल। यह तीन अवस्थाएं हर विषय के तीन पक्षों से मेल खाती हैं जैसे कि अच्छा या फायदेमन्द, सुन्दर और सच्चा। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण औद्योगिक पक्ष है जिसके आधार पर हम प्राचीन समाज से आधुनिक अवस्था की तुलना कर सकते हैं। औद्योगिक पक्ष में महत्त्वपूर्ण गुण राजनीतिक आज़ादी का पैदा होना है।

अन्त में काम्ते सबसे अधिक महत्ता फिलासफी व विज्ञान को देता है। उसका विचार है कि सकारात्मक पड़ाव में इन दोनों की सब से अधिक प्रभाव होता है। इस पड़ाव की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सामाजिक व्यवस्था व उन्नति में कोई द्वन्द्व नहीं होता।

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प्रश्न 2.
काम्ते के सकारात्मक (Positivism) के सिद्धान्त का वर्णन करो।
उत्तर-
काम्ते ने अपनी पुस्तक ‘पॉजटिव फिलास्फी’ में जिस प्रकार संकल्प ‘सकारात्मक’ का उपयोग किया है, स्पष्ट रूप में विवादात्मक है। इसने सही में इस संकल्प का उपयोग विचारधारक हथियार के तौर से क्रान्ति के साथ-साथ संघर्ष करने के लिए किया।

काम्ते का मुख्य उद्देश्य सामाजिक प्रपंच के समझने के लिए नकारात्मक फिलास्फी के आलोचनात्मक व विनाशकारी सिद्धान्तों को रद्द करना व उनकी जगह सकारात्मक फिलास्फी के रचनात्मक तथा उजागर सिद्धान्तों को स्थापित करना था। दूसरे शब्दों में काम्ते का मुख्य आदर्श सामाजिक अध्ययन व खोज के वैज्ञानिक स्तर पर लाना था। सकारात्मकवाद प्राकृतिक विज्ञानों की विधि को सामाजिक अध्ययन में उपयोग के सामाजिक विज्ञान को भी उन्होंने यथार्थ बनाता है जितना कि भौतिकवाद रासायनिक विज्ञान आदि हैं। उसका विश्वास था कि सकारात्मकवाद द्वारा वास्तविक व सकारात्मक विधि द्वारा ज्ञान प्राप्त होगा व उसकी व्यवहारिक उपयोग द्वारा सामाजिक उन्नति को सम्भव बनाया जा सकेगा। वास्तविक या सकारात्मक ज्ञान सामाजिक पुनर्संगठन की भी ठोस बुनियाद होगी। सकारात्मकवाद का अन्तिम उद्देश्य सामाजिक पुनर्निर्माण या पुनर्संगठन है।

अब प्रश्न उठता है कि संकल्प सकारात्मकवाद से काम्ते का क्या अर्थ था।
संक्षेप शब्दों में सामाजिक प्रपंच का अध्ययन करने के लिए काम्ते द्वारा प्रयोग की गई वैज्ञानिक विधि ही सकारात्मकवाद है। काम्ते ने यह विधि ह्युम, कान्त व गाल से अध्ययन विधि के रूप में ग्रहण की। इसने अपने सिद्धान्तों का निर्माण करते हुए सकारात्मकवाद का उपयोग किया परन्तु अपनी पुस्तकों में सकारात्मकवाद की स्पष्ट व्याख्या नहीं की व न ही इसके नियमों की उचितता को सबित करने का यत्न किया। ऐसा काम्ते ने जानबूझ कर किया क्योंकि उसका विश्वास था कि विद्या की चर्चा उस प्रपंच के अध्ययन से भिन्न करके नहीं की जा सकती, जिसकी इस विद्या द्वारा खोज की जाए।

काम्ते का सकारात्मकवाद से क्या अर्थ था। यह जानने का एक ही तरीका है कि हम उसके इस संक्षेप सम्बन्धी कथनों को एकत्र करें जो उसकी लेखनी में बिखरे हुए हैं।

काम्ते के सकारात्मकवाद के बारे में कथनों के विश्लेषणात्मक अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि काम्ते अनुसार सकारात्मकवाद का अर्थ वैज्ञानिक विधि है। वैज्ञानिक विधि वह विधि है जिस में किसी विषयवस्तु को समझने व प्रभावित करने के लिए कल्पना या अनुमान का कोई स्थान नहीं होता। यह तो (1) परीक्षण (2) तर्जुबा (3) वर्गीकरण, तुलना तथा ऐतिहासिक विधि की एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली होती है। इस तरह परीक्षण, तजुर्बे, वर्गीकरण, तुलना व ऐतिहासिक विधि पर आधारित वैज्ञानिक विधि द्वारा किसी विषय के बारे में सब कुछ समझना और उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना सकारात्मकवाद है।

चैम्बलिन ने काम्ते के सकारात्मकवाद के अर्थों को इन शब्दों में स्पष्ट किया है कि काम्ते ने यह अस्वीकार किया था कि सकारात्मकवाद अनीश्वरवादी है क्योंकि वह किसी भी रूप में पर्याप्त श्रमिकता से सम्बन्ध नहीं है। उसका यह भी दावा था कि सकारात्मकवाद किस्मतवादी नहीं है क्योंकि वह यह स्वीकार करता है कि बाहरी अवस्था में परिवर्तन हो सकता है। वह आशावादी भी नहीं है क्योंकि इसमें आशावाद के आध्यात्मिक आधार का अभाव है। यह भौतिकवादी भी नहीं क्योंकि यह भौतिक शक्तियों को बौद्धिक शक्तियों के अधीन करता है। सकारात्मकवाद का सम्बन्ध वास्तविकता से है कल्पना से नहीं, उपयोगी ज्ञान से है नाकि पूर्ण ज्ञान से, इसका सम्बन्ध उन निश्चित तथ्यों से है जिसका कि पूर्व-ध्यान सम्भव है। इसका सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान से है न कि अस्पष्ट विचारों से आंगिक सच्चाई से है न कि दैवी सच्चाई से, सापेक्ष से है न कि निष्पक्ष से। अन्त में सकारात्मकवाद इस अर्थ में हमदर्दीपूर्ण है कि यह उन सब लोगों को एक भाईचारे में बांध देता है जो कि इसके मूल सिद्धान्तों तथा अध्ययन प्रणालियों पर विश्वास करते हैं। संक्षेप में सकारात्मकवाद विचार की वह प्रणाली है जो कि सर्वव्यापक रूप में सब को मान्य है।

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि सकारात्मकवाद परीक्षण, निरीक्षण वर्णन, वर्गीकरण, तुलना, तजुर्बे व ऐतिहासिक विधि पर आधारित वैज्ञानिक विधि है जिससे किसी भी विषय-सम्बन्धी वास्तविक व सकारात्मक ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

कान्त व ह्यूम के विचारों का अनुसरण करते हुए काम्ते इस बात को स्पष्ट थे कि विज्ञान को क्या प्राप्त करना चाहिए तथा इसको प्राप्त करने के लिए यत्न करना चाहिए। वैज्ञानिक ज्ञान का अध्ययन-क्षेत्र सीमित है। वैज्ञानिक ज्ञान में ऐसे तर्क-वाक्य शामिल हैं जोकि परम्परा में सम्बन्धों के बारे में व जिनकी जांच की जा सकती है। यह तर्कवाद दो किस्मों के हैं-

  1. सहयोग की समानताएं (Uniformities of co-existence) अध्ययन किए जा रहे प्रपंच बीच भागों की अन्तर्निर्भरता के बारे में।
  2. अनुक्रमण की समानताएं (Uniformities of succession)

काम्ते के समय प्रकृति विज्ञान जैसे कि गणित, तारा विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रासायन विज्ञान व जीव विज्ञान विकसित हो चुके थे और इनके विषय-वस्तु का अध्ययन वैज्ञानिक विधि द्वारा किया जाता था। काम्ते अपने समय की प्रचलित तात्विक तथा धार्मिक विधियों द्वारा सामाजिक प्रपंचों की अध्ययन प्रणाली से सन्तुष्ट नहीं थे। इसने तो वैज्ञानिक विधि को सर्वोच्च प्रधानता प्रदान की थी इसलिए यह सामाजिक अध्ययन कार्य को भी परीक्षण, निरीक्षण व वर्गीकरण को वैज्ञानिक कार्य प्रणाली के घेरे में लाने के पक्ष में हैं। काम्ते का कहना था कि अनुभव, निरीक्षण, तजुर्बा वर्गीकरण की व्यवस्थित कार्य प्रणालियों द्वारा न केवल प्राकृतिक प्रपंचों का ही अध्ययन सम्भव है बल्कि समाज का भी क्योंकि समाज भी प्रकृति का अंग है।

जिस प्रकार प्राकृतिक प्रपंच कुछ निश्चित नियमों पर आधारित होते हैं उसी तरह प्रकृति के अंग के रूप में सामाजिक प्रपंच भी कुछ निश्चित नियमों के अनुसार प्रतीत होते हैं। जैसे धरती की गति, सूर्य व चांद का उदय होना व छिपना आदि प्राकृतिक प्रपंच अवास्तविक नहीं हैं उसी तरह सामाजिक प्रपंच भी अवास्तविक नहीं होते, बल्कि पूर्व निश्चित नियमों अनुसार प्रतीत होते हैं। वैसे सामाजिक प्रपंच कैसे प्रतीत होते हैं ? इनकी गति व कर्म क्या हैं ? अर्थात् सामूहिक जीवन उस से सम्बन्धित मौलिक नियमों का अध्ययन यथार्थ रूप में सम्भव है। यह भी सकारात्मकवाद का बुनियादी सिद्धान्त है। स्पष्ट है कि काम्ते का सकारात्मकवाद कल्पना के आधार पर नहीं बल्कि निरीक्षण, परीक्षण, तजुर्बे, तुलना, ऐतिहासिक विधि को व्यवस्थित कार्य प्रणाली के आधार पर सामाजिक प्रपंचों की व्याख्या करता है। पहले कारण ढूंढ़ने की जगह कारण सम्बन्धों की खोज पर अधिक दबाव देता है।

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि काम्ते अनुसार सकारात्मवादी प्रणाली के अन्तर्गत सब से पहले हम अध्ययन विषय को चुनते हैं फिर परीक्षण द्वारा उस विषय से सम्बन्धित प्रकट होने वाले सब तथ्यों को एकत्र करते हैं। उसके किसी भी विषय के बारे, चाहे वह भौतिक है या सामाजिक, तथ्यों या सामग्री एकत्र करने के लिए प्रमुख विधि परीक्षण है। इसके बाद उसका वर्णन किया जाता है। फिर विश्लेषण करके सामान्य विशेषताओं के आधार पर इनका वर्गीकरण किया जाता है। अन्त में उस विषय से सम्बन्धित परिणाम निकाला जाता है फिर उसकी प्रामाणिकता की जांच तथा तुलना ऐतिहासिक विधि के उपयोग से की जाती है।

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प्रश्न 3.
मैक्स वैबर द्वारा दिये गये सत्ता के प्रकारों का वर्णन करो ।
उत्तर-
मनुष्य की क्रियाएं मानवीय संरचना के अनुसार ही होती हैं। प्रत्येक संगठित समूह में सत्ता के तत्त्व मूल रूप में विद्यमान रहते हैं। संगठित संग्रह में कुछ तो आम (साधारण) सदस्य होते हैं और कुछ ऐसे व्यक्ति या सदस्य होते हैं जिनके पास जिम्मेवारी होती है। उन्हीं के पास ही सत्ता भी होती है। कुछ लोग प्रधान प्रशासक के रूप में होते हैं, सत्ता की दृष्टि से समूह की रचना इसी प्रकार की होती है और उसमें सत्ता के तत्त्व मौजूद रहते हैं।

मैक्स वैबर के अनुसार, “समाज में सत्ता विशेष रूप से आर्थिक आधारों पर ही आधारित होती है। यद्यपि आर्थिक कारक सत्ता के निर्माण में एक मात्र कारक नहीं कहा जाता है। आर्थिक जीवन में यह आसानी से स्पष्ट है कि एक तरफ मालिक वर्ग, उत्पादन के साधनों एवं मजदूरों की सेवाओं के ऊपर अधिकार डालने की कोशिश करते हैं और दूसरी तरफ मज़दूर वर्ग अपनी मज़दूरी (सेवाओं) के एवज़ में मजदूरों के लिए अधिक-से-अधिक अधिकार प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। सत्ता का केन्द्र उनके हाथ में रहता है जिनकी सम्पत्ति के ऊपर उत्पादन के साधन केन्द्रित हैं । इसी सत्ता के आधार पर ही मज़दूरों की आजादी खरीद ली जाती है और मालिकों को मजदूरों के ऊपर एक विशेष अधिकार प्राप्त हो जाता है।”

यद्यपि इस प्रकार की सत्ता अब कम होती जा रही है और काफ़ी कम भी हो गयी है। परन्तु फिर भी आर्थिक क्षेत्रों में निजी सम्पत्ति और उत्पादन के साधन किसी भी वर्ग के लिए सत्ता के निर्धारण में कारक सिद्ध होते हैं। संक्षेप में आर्थिक जीवन में एक स्थिर या संस्थागत अर्थव्यवस्था समाज के कुछ विशेष वर्गों को अधिकार या सत्ता प्रदान करती है। यह वर्ग अपनी उस सत्ता के बल पर दूसरे वर्ग के ऊपर काबू (Control) रखते हैं या उनसे ऊंची स्थिति पर विराजमान रहते हैं। संत्ता के संस्थागत होने के विषय में वैबर का विश्लेषण बहुत कुछ इसी दिशा में ही है। फिर भी वैबर ने तीन मुख्य सत्ताओं का वर्णन किया है, ये तीन प्रकार की सत्ता निम्नलिखित हैं-

  1. वैधानिक सत्ता (Legal Authority)
  2. परम्परागत सत्ता (Traditional Authority)
  3. करिश्माई सत्ता (Charismatic Authority)

1. वैधानिक सत्ता (Legal Authority)-जहां कहीं भी नियमों की ऐसी व्यवस्था है जो निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार न्यायिक व प्रशासनिक रूप से प्रयोग की जाती है और जोकि एक निश्चित समूह के सभी सदस्यों के लिए सही व मानने योग्य हो वह वैधानिक सत्ता है। जो व्यक्ति आदर्श रूपी शक्ति को चलाते हैं वह निश्चित रूप से श्रेष्ठ होते हैं। वह व्यक्ति कानून की सभी विधियों के अनुसार ही नियुक्त होते हैं या चुने जाते हैं और वह स्वयं वैधानिक व्यवस्था को चलाने के लिए निर्देशित रहते हैं। जो व्यक्ति इन आदेशों के अधीन हैं वे विधान के रूप में समान होते हैं। वह विधान का पालन करते हैं न कि विधान के काम करने वालों का ये नियम के लिए उनके द्वारा प्रयोग किये जाते हैं जो विधान की सत्ता की व्यवस्था का प्रयोग करते हैं। इस संगठन के अपने नियम होते हैं । इसके अधिकारी उन नियमों के अधीन होते हैं जो इसकी सत्ता की सीमा को निर्धारित करते हैं।

यह नियम सत्ता का कार्य करने वालों के ऊपर प्रतिबन्ध लगाते हैं, अधिकारी के व्यक्तिक रूप को उसके अधिकारी के रूप में करने वाले कार्य के सम्पादन से अलग करते हैं और यह आशा रखते हैं कि सम्पूर्ण कार्यवाही वैध होने के लिए लिखित में होनी चाहिए। इस प्रकार राज्य की ओर से बनाए कुछ साधारण नियमों के अनुसार पैदा अनेकों पद ऐसे हैं जिनके साथ एक विशेष प्रकार की सत्ता जुड़ी होती है। इस कारण जो भी व्यक्ति उन पदों पर बैठ जाता है उनके हाथों में उन पदों से सम्बन्धित सत्ता भी चली जाती है।

इसमें सत्ता का स्रोत किसी व्यक्ति की निजी प्रसिद्धि नहीं होता बल्कि जिन नियमों के अन्तर्गत वह इस विशेष पद पर बैठा है वह उन नियमों की सत्ता के अन्दर रहता है। इसलिए उसका कार्य क्षेत्र वहां तक सीमित है जहां तक विधान से सम्बन्धित नियम उसे विशेष अधिकार प्रदान करते हैं। एक व्यक्ति को विधान के नियमों के अनुसार जितना अधिकार प्राप्त हुआ है वह उससे बाहर जाकर या उसके अधिक सत्ता का प्रयोग नहीं कर सकता। इस तरह व्यक्ति को वैधानिक सत्ता के क्षेत्र और उससे बाहर के क्षेत्र में आधारभूत अन्तर होता है। जैसे जो व्यक्ति किसी अधिकारी पद पर कार्य कर रहा है वह अपने दफ्तर में जिन अधिकारों का अधिकारी है वह उसके घर के क्षेत्र से बिल्कुल भिन्न होता है। घर में वह कोई अधिकारी न होकर बल्कि पिता या पति के रूप में सत्ता में है। एक जटिल समाज में सत्ता प्रत्येक व्यक्ति के हाथों में समान नहीं होती बल्कि इसमें एक ऊंच-नीच का भेदभाव भी होता है अर्थात् वैधानिक अधिकार के समाज में उच्च-निम्न सताएं विराजमान हैं।।

2. परम्परागत सत्ता (Traditional Authority)-परम्परागत सत्ता उस सत्ता की वैधता के विश्वास पर आधारित है, जो हमेशा बनी रहती है। आदेश की शक्ति को पूर्ण करने वाले व्यक्ति आम रूप से प्रभु के समान होते हैं। वह अपनी स्थिति के कारण व्यक्तिगत सत्ता का उपयोग करते हैं और उनके पास स्वतन्त्र रूप से व्यक्तिगत निर्णयों के विशेषाधिकार भी प्राप्त होते हैं। इस प्रथा की नकल और व्यक्तिगत निरंकुशता ही तो ऐसे नियमों की विशेषताएं होती हैं। जो व्यक्ति इस प्रभु के आदेशों के अधीन होते हैं वह शाब्दिक अर्थों में उसके शिष्य होते हैं। वह प्रभु के लिए व्यक्तिगत रूप से शिष्य होने के कारण उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। भूतकाल से बने हुए पद के लिए उनकी पवित्र श्रद्धा होती है। इसलिए वह उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था या प्रथा के लिए दो प्रकार के उदाहरण हैं। पैतृक (Ancestral) शासन में इस उपकर्म में व्यक्तिगत अनुगामी होते हैं।

जैसे कि घर का अधिकारी, सम्बन्धी या कृपा पात्र व्यक्ति। एक सामन्तवादी समाज में इस उपकर्म के अन्तर्गत व्यक्तिगत रूप से शिष्य मित्र होते हैं जिसके अधीन जगीरदार या करदाता सरकार होती है। यह व्यक्तिगत नीचे वाले अधिकारी ही अपने प्रभु सत्ता के निरंकुश आदेशों या परम्परागत आदेशों के अधीन होते हैं तथा उनकी क्रियाओं का क्षेत्र या आदेश की शक्ति एक निम्न स्तर पर उसके प्रभु की Mirror Image होती है। इसके विपरीत एक सामन्तवादी समाज के पदाधिकारी व्यक्तिगत रूप से निर्भर नहीं होते। बल्कि सामाजिक रूप से प्रमुख मित्र होते हैं। जिन्होंने प्रभु भक्ति की कसमें खाई होती हैं और Grant या Contract के आधार पर जिनका स्वतन्त्र रूप से क्षेत्र होता है। सामन्तवादी और पितृनामी शासन का भेद और दोनों व्यवस्थाओं में परम्परात्मक और निरंकुश आदेशों की निकटता सभी प्रकार की परम्परात्मक प्रभुता में छाई रहती है।

इस प्रकार की सत्ता में एक व्यक्ति को विधि के नियमों के अनुसार एक पद पर बैठे होने के कारण नहीं बल्कि परम्परा के कारण बने हुए पदों पर बैठने के कारण प्राप्त होती है। यद्यपि इस पद को परम्परानुसार परिभाषित किया जाता है। इस कारण ऐसे पदों पर बैठे होने के कारण व्यक्ति को कुछ विशेष प्रकार की सत्ता प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार की सत्ता परम्परात्मक विश्वासों पर टिकी होती है। इसलिए यह परम्परात्मक सत्ता कहलाती है। जिस तरह खेती-बाड़ी युग में भारतीय गांवों में मिलने वाली पंचायतों में पंचों की सत्ता को ही ले लीजिए। पहले इन पंचों की सत्ता विधिनुसार नहीं आती थी बल्कि परम्परागत रूप में ही उन्हें सत्ता प्राप्त हो जाती थी। यहां तक कि पंचों की सत्ता को ईश्वरीय सत्ता के समान तक समझा जाता था।

जैसे कि ‘पंच परमेश्वर’ की धारणा में दिखता था। उसी प्रकार पितृसत्तात्मक परिवार में पिता को ही परिवार के साथ सम्बन्धित सभी विषयों में जो अधिकार और सत्ता प्राप्त होती है, उसका भी आधार वैधानिक न होकर परम्परा होती है। पिता के आदेश का पालन हम इसलिए नहीं करते कि उनको कोई वैधानिक सत्ता प्राप्त होती है बल्कि इसलिए करते हैं कि परम्परागत रूप में ऐसा होता रहा है। वैधानिक सत्ता वैधानिक नियमों के अनुसार निश्चित और सीमित होती है क्योंकि वैधानिक नियम निश्चित और स्पष्ट रूप से परिभाषित होते हैं। लेकिन परम्परा और सामाजिक नियमों में इतनी स्पष्टता और निश्चितता नहीं होती। इस कारण परम्परागत सत्ता की वैधानिक सत्ता की तरह कोई निश्चित सीमा नहीं होती है। उदाहरण के लिए किसी अधिकारी की सत्ता कहाँ से शुरू होकर कहां पर खत्म होती है, के बारे में कुछ सीमा तक निश्चित तौर पर कहा जा सकता है लेकिन उस व्यक्ति के घर में पति तथा पिता के रूप में सत्ता की क्या सीमाएँ हैं कहना कठिन है।

3. करिश्माई सत्ता (Charismatic Authority)—व्यक्तिगत सत्ता का स्रोत परम्परा से सर्वथा भिन्न भी हो सकता है। आदेश की शक्ति एक नेता भी प्रयोग कर सकता है। चाहे वह कोई पैगम्बर हो, या नायक हो, या अवसरवादी नेता हो परन्तु ऐसा नेता तभी चमत्कारी नेता हो सकता है, जब वह सिद्ध कर दे कि तान्त्रिक शक्तियां, दैवी शक्तियां या अन्य अभूतपूर्व गुणों के कारण उसके पास चमत्कार है। जो व्यक्ति इस प्रकार के नेता की आज्ञा का पालन करते हैं, वह शिष्य होते हैं। जो निश्चित नियमों या परम्परा से पवित्र पद की गरिमा की जगह उसके अभूतपूर्व गुणों में एक चमत्कारी नेता के अन्तर्गत पदाधिकारियों को उनके चमत्कार एवं व्यक्तिगत निर्भरता के आधार पर विश्वास करते हैं। उन शिष्य पदाधिकारियों को बड़ी मुश्किल से ही एक संगठन के रूप में माना जाता है और उनकी क्रियाओं का क्षेत्र और आदेश की शक्ति एवं दैवी सन्देश नकल करने वाले के आचरण पर निर्भर करती है। पदाधिकारियों का चुनाव इनमें से किसी एक आधार पर हो सकता है। परन्तु इनमें से कोई भी पदाधिकारी न तो नियमों से बंधा हुआ है न ही परम्परा के साथ बल्कि केवल नेता के निर्णय के साथ ही बंधा हुआ है।

इस प्रकार यह सत्ता न तो वैधानिक नियमों पर और न ही परम्परा पर, बल्कि करिश्मा या चमत्कार पर निर्भर करती है। इस प्रकार की शक्ति केवल उन व्यक्तियों तक सीमित होती है (आधारित होती), जिनके पास केवल चमत्कारी शक्तियां होती हैं। इस प्रकार की सत्ता प्राप्त करने में व्यक्ति को काफ़ी समय लग जाता है और पर्याप्त यानि पूरे साधनों के विचार के बाद लोगों द्वारा इस प्रकार की सत्ता स्वीकार की जाती है। दूसरे शब्दों में एक व्यक्ति के द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास इस तरह किया जाता है कि लोग ये समझने लगे कि उसने अपने व्यक्तित्व में कोई चमत्कारी शक्ति का विकास कर लिया है। इसी के बल पर ही वह लोगों को अपनी तरफ झुका लेता है और लोगों द्वारा उसकी सत्ता स्वीकार कर ली जाती है। इस तरह करिश्माई नेता अपने प्रति या अपने लक्ष्य के प्रति या आदर्शों के प्रति दूसरों से आज्ञा का पालन करवाने के लिए मांग करता है। जादूगर, पीर, पैगम्बर, अवतार, धार्मिक नेता, सैनिक, यौद्धा या किसी दल के नेता, इसी प्रकार की सत्ता सम्पन्न व्यक्ति माने जाते हैं।

लोग इस कारण ऐसे लोगों की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि उनमें कुछ चमत्कारी गुण होते हैं जो साधारण व्यक्तियों में देखने को नहीं मिलते। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति के दिल में इन विशेष गुणों के प्रति श्रद्धा स्वाभाविक होती है। इन गुणों को ज्यादातर दैवीय गुणों के समान अथवा उनके अंश के रूप में माना जाता है। इस कारण इस प्रकार की सत्ता से सम्पन्न व्यक्ति की आज्ञा लोग श्रद्धा और भक्ति के साथ पूर्ण करते हैं। इस सत्ता की भी परम्परात्मक सत्ता के जैसी कोई निश्चित सीमा नहीं होती। इस सत्ता की एक विशेषता यह है कि हालात के अनुसार यह सत्ता वैधानिक अथवा परम्परात्मक सत्ता में बदल जाती है।

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प्रश्न 4.
वैबर की सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के बारे आप क्या जानते हैं ? व्याख्या करो।
उत्तर-
मैक्स वैबर की सामाजिक क्रिया (Max Weber’s Social-Action)-सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त की स्थापना में मैक्स वैबर का नाम काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। वैबर ने सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त की बड़ी ही खुली और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी व्याख्या की है। मैक्स वैबर सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त के द्वारा ही समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति को स्पष्ट करता है। अनेक समाजशास्त्री रेमण्ड, इरविंग, जैटलिन, बोगार्डस और रैक्स इत्यादि ने वैबर की आलोचना का काम उसके इस सामाज शास्त्र से ही आरम्भ किया है। इससे पहले कि हम वैबर के सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त को समझने की कोशिश करें हम यह जान लें कि क्रिया और व्यवहार में कोई तकनीकी अन्तर नहीं मानना चाहिए।

समाज के सदस्यों के लिए यह ज़रूरी है कि वह सम्बन्धों के निर्माण के लिए अन्तर क्रिया करे। इन अन्तर क्रियाओं के आधार पर ही सामाजिक सम्बन्धों का जन्म होता है और व्यक्ति का जीवन इन सम्बन्धों के साथ ही बंधा हुआ होता है। व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार की क्रिया के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। इस उद्देश्य पूर्ति हेतु उसे क्रिया करनी पड़ती है। समाजशास्त्रीय रूप में सभी क्रियाएं सामाजिक क्रियाओं के दायरे में नहीं आती हैं बल्कि वही क्रियाएं सामाजिक क्रियाएं कही जाती हैं जिनको कर्ता अर्थात् क्रिया करने वाला कोई न कोई अर्थ देता है। व्यक्तियों की यह क्रिया बाहरी, अन्दरूनी, मानसिक एवं भौतिक हो सकती है। साथ ही काल या समय के नजरिये से क्रिया का सम्बन्ध वर्तमान, भूत, भविष्य तीनों में से किसी के साथ भी हो सकता है अर्थात् इसका सम्बन्ध किसी एक काल के साथ भी हो सकता है।

सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त को पेश करने का सेहरा सबसे पहले ‘अल्फ्रेड मार्शल’ को जाता है। मार्शल ने उपयोगितावादी धारणा की विवेचना करके ‘गतिविधि’ की धारणा को विकसित किया। गतिविधि को मार्शल ने मूल्य की एक विशेष श्रेणी माना है। इसी श्रेणी में दुर्खीम ने ‘सामाजिक तथ्य’ को प्रकट किया।

आधुनिक काल में सामाजिक क्रिया धारणा के प्रमुख प्रवर्तक मैक्स वैबर थे, जिन्होंने अर्थपूर्ण सिद्धान्त को सामने रखा। इस तरह वैबलीन, मैकाइवर, कार्ल मैनहाईम, पारसंस और मर्टन के नाम महत्त्वपूर्ण हैं। हम इसी श्रेणी में विलियम वैट, डेविड काईजमैन और सी० राईट मिल्स को भी रख सकते हैं। मैक्स वैबर ने अपनी ‘सामाजिक क्रिया’ की धारणा को अपनी पुस्तक “The Theory of Social & Economic Organisation” में पेश (प्रस्तुत) किया।

मैक्स वैबर के अनुसार, “सामाजिक क्रिया व्यक्तिक क्रिया से अलग है। वैबर ने इसको परिभाषित करते हुए लिखा है कि किसी भी क्रिया को हम तभी ही सामाजिक क्रिया मान सकते हैं, जब उस क्रिया को करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा लाये गये Subjective अर्थ के अनुसार उस क्रिया में दूसरे व्यक्तियों के सम्मान और भावों पर क्रियाएं इकट्ठी हों और उसी के अनुसार गतिविधि निर्धारित हो।”

मैक्स वैबर ने अपनी सामाजिक क्रिया की धारणा को समझाने के लिए इसको चार भागों में बांट कर समझाया है। वैबर ने लिखा है कि क्रियाओं का यह वर्गीकरण वस्तुओं के साथ सम्बन्धों पर आधारित है। पारसंस ने इसकी अभिमुखता का प्रारूप माना है। गरथ और मिल्स इसको प्रेरणा की दिशा कहते हैं।

वैबर के क्रिया के वर्गीकरण को समझने से पहले हम सामाजिक क्रिया की धारणा को पूरी तरह समझ लें। वैबर के अनुसार किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया मानने से पहले हमें चार बातों का ध्यान रखना चाहिए।

(1) मैक्स वैबर का मानना है कि सामाजिक क्रिया दूसरे या अन्य व्यक्तियों के भूत, वर्तमान या होने वाले व्यवहार द्वारा प्रभावित हो सकती है। यदि हम अपने पहले किये हुए किसी काम के लिए क्रिया करते हैं, तो वह भूतकालीन क्रिया होगी। यदि वर्तमान समय में कोई क्रिया करते हैं तो वह वर्तमान और यदि भविष्य को ध्यान में रखते हुए कोई क्रिया करते हैं तो वह भविष्य वाली क्रिया कहलायेगी।

(2) वैबर का कहना है कि हर प्रकार की बाहरी क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं हो सकती। बाहरी क्रिया असामाजिक है जो पूरी तरह जड़ और बेज़ानदार वस्तुओं द्वारा प्रभावित और उसकी क्रिया स्वरूप की जाती है। उदाहरण के लिए ईश्वर की अराधना, नमाज पढ़ना या अकेले ही समाधि लगाना, सामाजिक क्रिया नहीं है, परन्तु ब्राह्मणों के कहने पर पूजा अर्चना करना, मुल्लाओं के कहने पर नमाज पढ़ना इत्यादि सामाजिक क्रिया है।

(3) मनुष्य के कुछ सम्पर्क उस सीमा तक सामाजिक क्रिया में आते हैं जहां तक वह दूसरों के व्यवहार के साथ अर्थपूर्ण ढंग के साथ सम्बन्धित और प्रभावित होते हैं। हर प्रकार के सम्पर्क सामाजिक नहीं कहे जा सकते।

उदाहरण के लिए अगर सिनेमा की सीढ़ियां उतरते समय दो व्यक्ति आपस में टकरा जाएं तो यह सामाजिक क्रिया नहीं होगी, अगर वह आपस में संघर्ष पर उतर आए अथवा माफी मांगने लगे तो यह सामाजिक क्रिया होगी क्योंकि ऐसा करने से दोनों के व्यवहार आपस में सम्बन्धित और प्रभावित होते हैं।

(4) सामाजिक क्रिया न तो अनेक व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली एक जैसी क्रिया को कहा जाता है और न ही उस क्रिया को कहा जाता है जो कि केवल दूसरे व्यक्तियों द्वारा प्रभावित होती है।

उदाहरण के लिए बारिश होने पर सड़क पर अनेकों व्यक्तियों द्वारा छाता खोल लेने की क्रिया सामाजिक क्रिया नहीं होती क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया का दूसरे अथवा और व्यक्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। वैबर कहते हैं कि दूसरे की क्रिया की नकल करना सामाजिक क्रिया नहीं है, जब तक कि वह और व्यक्ति जिसकी कि नकल की जा रही है, की क्रिया साथ अर्थपूर्ण सम्बन्ध न रखता हो अथवा उसकी क्रिया द्वारा अर्थपूर्ण रूप से प्रभावित न होता हो।

मैक्स वैबर के अनुसार सामाजिक क्रिया को समझने के लिए उसकी अर्थ मूलक व्याख्या की आवश्यकता होती है। इस व्याख्या को दो भागों में विभक्त करके समझाया जा सकता है।

  1. औसत प्रकार की अर्थ मूलक व्याख्या
  2. विशुद्ध प्रकार की अर्थ मूलक व्याख्या

वैबर ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि सामाजिक क्रिया का अध्ययन विशुद्ध अर्थ मूलक की व्याख्या के लिए करना चाहिए परन्तु इनको समझने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण विधियों का भी वर्णन किया गया है जिनके आधार पर समाज की धारणाओं को सही तरह समझा गया है। इसमें वैबर ने तर्कपूर्ण और अर्थपूर्ण व्याख्या पर जोर दिया है।

इस सम्बन्ध में वैबर ने यह बताया है कि सभी सामाजिक क्रियाओं के कुछ निश्चित अर्थ होते हैं और एक प्रेरक शक्ति भी होती है। यह दोनों ही दूसरे व्यक्तियों की प्रेरक शक्तियों और क्रियाओं में बदलते रहते हैं।

यहाँ एक बात बहुत महत्त्व की है कि समाज शास्त्री किसी सामाजिक क्रिया की व्याख्या उसके अर्थ के आधार पर करता है जो कि दूसरे की क्रियाओं द्वारा निर्देशित होता है। इस प्रकार समाज शास्त्र प्राकृतिक विज्ञानों से पूरी तरह अलग हो जाता है।

सामाजिक क्रिया के प्रकार (Types of Social Action)-देखें पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न IV (5)

वैबर ने बताया है कि सामाजिक क्रियाएं तीन प्रकार से निर्देशित होती हैं-

  1. परम्परागत प्रयोग-इसका अर्थ यह है कि जो क्रियाएं परम्परा के आधार पर सम्पादित की जायें। सामाजिक प्रथाएं मनुष्य की क्रियाओं को प्रभावित करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि लोगों की क्रियाएं परम्परा से हटकर बाहर नहीं जाती हैं और सामाजिक मर्यादा पूरी तरह बनी रहती है।
  2. हित-हित का अर्थ उन समरूपताओं से है जिसमें क्रियाओं को विवेकपूर्ण निर्देशन के रूप में समझा जा सके।
  3. न्यायसंगत व्याख्या-इससे सम्बन्धित व्यवहार क्रियाएं, कर्ता के किसी आदर्श के निश्चित होने की नज़र से निर्देशित होती हैं। ये ऐसे आदर्शों से भी निर्देशित होती हैं जोकि किसी विशेष निर्देश को पाने के लिए तार्किक समझे जाये।

सामाजिक क्रिया के सम्बन्ध में वैबर ने बताया कि सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर ही क्रिया निश्चित होती है।

वैबर ने आगे कहा है कि सामाजिक सम्बन्धों की पहली और आवश्यक कसौटी यह है कि उसमें प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया का दूसरे की कोशिश की तरह परस्पर रूप से निर्देशन हो। इसके Contents की प्रकृति चाहे अलगअलग प्रकार की क्यों न हो जैसे कि संघर्ष विरोध, यौन आकर्षण, मित्रता, अनुराग या आर्थिक लेन-देन इत्यादि।

इस सम्बन्ध में अर्थ का बड़ा ही महत्त्व है, अर्थ का मतलब उस अर्थ से है जो किसी विशेष दशा में लिया जाता है। यह अर्थ औसत रूप या सैद्धान्तिक रूप से बनाकर, विशुद्ध रूप में लाया जाता है।

वैबर ने यह भी बताया कि सामाजिक सम्बन्धों में पारम्परिक रूप के साथ निर्देशित बल के Subjective अर्थ एक समान ही है।

“सामाजिक क्रिया को अभिमुखता की प्राकृतिक के आधार पर दोबारा विवेक अभिमुख, अविवेक अभिमुख, सहानुभूति अभिमुख और आपसी अभिमुख क्रिया के रूप में रखा जा सकता है।” मानव के ज्ञान पर ही कुछ व्यवहार आधारित होते हैं तथा यह ज्ञान ही साधन के लक्ष्य का आधार होता है, लेकिन साथ ही कुछ ऐसे व्यवहार भी होते हैं जिसमें ज्ञान की प्रधानता ना होकर सामाजिक मूल्यों को प्रधानता दी जाती है। इन व्यवहारों को विवेकपूर्ण माना जाता है। कुछ व्यवहार उस श्रेणी में आते हैं जहां अपनापन और हमदर्दी को मानव द्वारा महत्त्व दिया जाता है। चाहे वह व्यवहार अविवेकपूर्ण हो और कुछ व्यवहार विवेकपूर्ण इसलिए भी हो जाते हैं क्योंकि मानव परम्परा को महत्त्व दे बैठता है। मानव सम्बन्धी तथ्य प्रत्यक्षवादी परिप्रेक्ष्य से विवेकपूर्ण क्रिया के अन्तर्गत परिभाषित किए जाते हैं।

इस स्थिति में पैरेटो और वैबर के एक-दूसरे के विचारों में भिन्नता आ जाती है कि अविवेकपूर्ण क्रिया, विवेकपूर्ण क्रिया से सही अलग क्रिया है। आपसी क्रिया ऐसी क्रिया है जिसमें परम्परागत तथ्य प्रधानता रखते हैं, औसत श्रेणी में संवेगात्मक अथवा हमदर्दी अभिमुख क्रिया को लेते हैं। मानवीय क्रियाओं की अभिमुखता, प्रचलन रुचि और सही आज्ञा से भी हो सकती है। विद्वानों की राय है कि वैबर की क्रिया के सिद्धान्त को अपनी इच्छा तथा आधारित क्रिया के सिद्धान्त से कुछ हद तक जाना जा सकता है। पारसंस के क्रिया के सिद्धान्त पर वैबर का प्रभाव देखा जा सकता है। विवेक की धारणा को वैबर ने 6 प्रकार से प्रयोग में लिया है।

मैक्स वैबर ने जिस क्रिया के सिद्धान्त को दिया है वह मार्क्स के सिद्धान्त से बिल्कुल अलग है। साधनयुक्त विवेक को वैबर ने अपने विचारों में प्रमुख स्थान दिया है। कर्ता की तरफ से उद्देश्य की प्राप्ति के मूल्य और उद्देश्य दोनों का मूल्यांकन इस प्रकार के व्यवहार में किया जाता है। कर्ता के द्वारा एक उद्देश्य की प्राप्ति से दूसरे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधन के बारे में कल्पना की जाती है। इस तरह की भावना वैबर के विचारों में थी। विवेक शब्द का प्रयोग वैबर ने व्यवहार और विश्वास दोनों के लिए किया है। यानि विवेकपूर्ण व्यवहार वही है जिसमें कर्ता के द्वारा विवेक को स्थान दिया जाता है और उसी के अनुरूप विश्वास के स्तर पर भी विवेक को महत्त्व दिया गया है। सामाजिक व्यवहार के रूप में अनेक विद्वानों ने ऊपरलिखित विवेचनाओं से नतीजा निकाला है कि जिसमें संवेगात्मक और सहानुभूति के तत्त्व मौजूद होते हैं ऐसे व्यवहारों को विवेकपूर्ण व्यवहार कहा गया है।

विवेक वैबर के लिए एक आदर्श रहा है। आपसी सामाजिक रचना के टूटने का एक मुख्य कारण वो बढ़ता हुआ विवेकीकरण है। विशेष तौर पर हम विवेकीकरण की बढ़ती हुई मात्रा को बाज़ार के सम्बन्धों में देख सकते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 5.
दुर्खीम के सामाजिक तथ्य की विवेचना करो।
अथवा
दुर्खीम के सामाजिक तथ्य के बारे में चर्चा करो।
उत्तर-
इमाइल दुर्खीम द्वारा दी गई “सामाजिक तथ्य” की विवेचना बहुत महत्त्वपूर्ण है। दुर्खीम के सामाजिक तथ्यों सम्बन्धी विचार उसकी दूसरी प्रमुख पुस्तक “दि रूलस ऑफ़ सोशोलोजीकल मैथड’ में दिखाई पड़ते हैं। दुर्खीम की 1895 में प्रकाशित ये पुस्तक समाजशास्त्र के शास्त्रीय ग्रन्थ के रूप में पहचानी जाती है।

दुर्खीम ने यह अनुभव किया कि समाज शास्त्र को एक स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में तब तक स्थापित नहीं किया जा सकता जब तक कि उसका अध्ययन वस्तु की विशेषता स्पष्ट न हो और इसकी खोज के लिये एक व्यवस्थित पद्धति शास्त्र का विकास न हो। इन दो उद्देश्यों के लिये दुर्खीम ने The Rules of Sociological Method की रचना की।

दुर्खीम ने काम्ते, स्पैंसर, मिल इत्यादि समाजशास्त्रियों की खामियों का अनुभव किया, और स्पष्ट लिखा है कि, “यह समाजशास्त्री जिनकी चर्चा हमने अभी की है, वह समाजों की प्रवृत्ति और समाजिक जैविकीय क्षेत्रों के मध्य सम्बन्धों के विषय में अस्पष्ट समाजीकरण से बहुत आगे चले गए थे।”

दुर्खीम ने अपने उद्देश्य के अनुरूप इस पुस्तक में दो प्रमुख कठिनाइयों का वर्णन किया।

  1. उन्होंने समाज शास्त्र के अध्ययन के लिये विद्यार्थियों के लिए सारी विषय सामग्री का निर्धारण किया। इस तरह करने के साथ उसने समाज-शास्त्र को मनोवैज्ञानिक और जीव संसार से मुक्त करवा कर उसे एक अलग स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान किया।
  2. प्राकृतिक विज्ञान की प्रत्यक्षयवादी, तथ्यात्मक अध्ययन पद्धति के रूप में देखा और इस पद्धति के सफल प्रयोग के लिये पालने योग्य नियमों का निर्माण किया।

दुर्खीम ने अपनी पुस्तक में सामाजिक तथ्य की विवेचना के लिए 6 मुख्य बातों की विवेचना की जिसको उसने 6 मुख्य (chapters) में पेश किया, जो कि निम्नलिखित हैं-

  1. सामाजिक तथ्य क्या है?
  2. सामाजिक तथ्यों के निरीक्षण और नियम।
  3. Normal और Pathological तथ्यों में भेद करने के नियम
  4. सामाजिक रूपों के वर्गीकरण के नियम
  5. सामाजिक तथ्यों की व्याख्या के नियम
  6. समाज शास्त्रीय प्रमाणों की स्थापना के साथ सम्बन्धित नियम।

सामाजिक तथ्य क्या हैं ?
(What are Social Facts ?)

दुर्खीम ने विषय सामग्री और अध्ययन पद्धति दोनों ही नज़रियों से समाज-शास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है। दुर्खीम ने समाज-शास्त्र की विषय सामग्री के रूप में सामाजिक तथ्यों को पेश किया है। दुर्खीम का स्पष्ट मानना है कि समाज-शास्त्र सभी मानवीय गतिविधियों का अध्ययन नहीं करता बल्कि अपने आपको केवल सामाजिक तथ्यों के अध्ययन तक ही सीमित रखता है।

दुर्खीम ने अपने इस अध्याय में यह बात स्पष्ट करने की कोशिश की है कि वास्तव में किन तथ्यों को सामाजिक तथ्य कहा जायेगा? सामाजिक तथ्यों की क्या विशेषताएं हैं और उनका अध्ययन किस प्रकार किया जायेगा? सामाजिक तथ्यों के अर्थ स्पष्ट करते हुए दुर्खीम कहते हैं कि सामाजिक तथ्यों के बारे में अनेक प्रकार की शंकाएं प्रचलित हैं और यही कारण है कि मनोविज्ञान, प्राणी शास्त्र और समाज शास्त्र के विषय वस्तु के सम्बन्धों में कई प्रकार की भ्रान्तियां भी मन में पड़ जाती हैं। स्वयं दुर्खीम ने लिखा है सामाजिक तथ्यों की पद्धति के बारे में जानने से पूर्व यह जानना ज़रूरी है कि कब तथ्यों को आमतौर पर ‘सामाजिक’ कहा जाता है। यह सूचना और भी अधिक आवश्यक है, क्योंकि ‘सामाजिक’ शब्द का प्रयोग अधिक अनिश्चित रूप में होता है। वर्तमान में इस शब्द का प्रयोग समाज में होने वाली किसी भी घटना के लिए किया जाता है चाहे उसकी सामाजिक रुचि कितनी ही कम क्यों न हो। परन्तु ऐसी कोई भी मानवीय घटना नहीं है जिसको सामाजिक न कहा जा सके। प्रत्येक व्यक्ति सोता है, खाता है, पीता है और विचार करता है और यह सामाजिक हित में होता है कि यह सभी कार्य सही व्यवस्थित ढंग से हों। यदि इन सबको सामाजिक तथ्य मान लिया जाये तो समाज शास्त्र की भिन्न रूप से कोई विषय वस्तु नहीं होगी। इससे समाज-शास्त्र, प्राणी शास्त्र और मनोविज्ञान शास्त्र में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

सामाजिक तथ्य के अर्थ की विवेचना करते हुए दुर्खीम ने सर्वप्रथम यह कहा कि सामाजिक तथ्यों को वस्तुओं के समान समझना चाहिए। यद्यपि दुर्खीम ने वस्तु शब्द का वास्तविक अर्थ कहीं भी स्पष्ट नहीं किया। दुर्खीम ने वस्तु शब्द को चार अलग-अलग अर्थों में प्रयोग किया है। यह हैं-

(1) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसमें कुछ विशेष गुण होते हैं जिसको बाहरी रूप में देखा जा सकता
है।
(2) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसको केवल अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है।
(3) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसका अस्तित्व मनुष्य के ऊपर बिल्कुल निर्भर नहीं।
(4) सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है, जिसको केवल बाहरी तौर पर देखते हुए जाना जा सकता है। परन्तु क्योंकि सामाजिक तथ्य वस्तु के समान है, अतः यह कोई स्थिर धारणाएं नहीं हैं बल्कि गतिशील धारणा के रूप में जानने योग्य है। इस तरह हम देखते हैं कि समाज में कुछ ऐसे तथ्य होते हैं जो कि भौतिक प्राणी शास्त्र और मनोवैज्ञानिक तथ्यों से अलग होते हैं। दुर्खीम इस प्रकार के तथ्यों को सामाजिक तथ्य मानते हैं। दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की कुछ परिभाषाएं पेश की हैं, एक स्थान पर दुर्खीम लिखते हैं, “सामाजिक तथ्य कार्य करने, सोचने और अनुभव करने के वह तरीके हैं, जिसमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर ही अस्तित्व को बनाये रखने की उल्लेखनीय विशेषता होती है।”

एक अन्य स्थान पर दुर्खीम ने लिखा है कि, “सामाजिक तथ्यों में कार्य करने सोचने, अनुभव करने के वह तरीके हैं जिसमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अस्तित्व को बनाये रखने को उल्लेखनीय विशेषता होती है।” अपनी पुस्तक के पहले chapter की अन्तिम पंक्तियों में इसकी विस्तार के साथ परिभाषा पेश करते हुए लिखा है, “एक सामाजिक तथ्य क्रिया करने का हर स्थायी और अस्थायी तरीका है जो व्यक्ति पर बाहरी दबाव डालने में समर्थ होता है या फिर कृपा करने का हर तरीका जो किसी समाज में आम रूप में पाया जाता है परन्तु साथ ही साथ व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र अलग अस्तित्व रखता है।”

दुर्खीम की उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि “क्रिया करने के तरीके” सामाजिक तथ्य हैं। क्रिया करने के तरीकों में मानवीय व्यवहार के सभी पहलू शामिल हैं, जो उसके विचार, अनुभव और क्रिया के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यह सामाजिक वास्तविकता के अंग हैं। ऐसी सामाजिक घटना स्थायी भी हो सकती है, और अस्थायी भी हो सकती है। उदाहरणार्थ किसी समाज में आत्महत्याओं की, विवाहों की, मृत व्यक्तियों की संख्या में बहुत कम अन्तर होता है। अर्थात् इनकी वार्षिक दर आमतौर पर स्थित रहती है। अतः इसको सामाजिक तथ्य कहा जाता है।

इस तरह ‘भगवान्’ को सामाजिक तथ्य नहीं कहा जाता है क्योंकि वह वास्तविक निरीक्षण से दूर है। इस तरह मनही-मन सोचा गया, कोई विचार भी सामाजिक तथ्य की श्रेणी में नहीं आयेगा क्योंकि उनका कोई स्पष्ट रूप नहीं है। परन्तु किसी विद्वान् द्वारा दिया गया कोई भी सिद्धान्त, या नियम या ईश्वरीय सम्बन्धी पूजा, प्रार्थना या आराधना, जिसमें टोटमवाद भी शामिल है, को सामाजिक तथ्य माना जायेगा क्योंकि उनका साफ निरीक्षण सम्भव है। भाषा, लोक कथा, धार्मिक विश्वास, क्रियाएं, Business के नियम, नैतिक नियम इत्यादि सामाजिक तथ्यों की कितनी ही अनुपम उदाहरणे हैं क्योंकि इन सभी का निरीक्षण एवं परीक्षण सम्भव है और यह व्यक्ति के साथ जुड़े होते हैं। यह व्यक्ति के ऊपर दबाव डालने की शक्ति रखते हैं।

इस प्रकार दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की विवेचना दो प्रमुख यथार्थक मापदंडों के माध्यम से बहुत ही स्पष्ट रूप से हमारे सामने पेश की है, वह मापदंड है

  1. वह वैज्ञानिक के दिमाग से बाहर होने चाहिए और
  2. उसका वैज्ञानिक पर ज़रूरी अथवा मजबूरी का प्रभाव होना चाहिए।

सामाजिक तथ्यों की विशेषताएं (Characteristics of Social Facts) –

दुर्खीम की विवेचना के आधार पर हम देखते हैं कि दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों की धारणा को समझने के लिए दो शब्दों बाहरीपन (Exteriority) और बाध्यता (Constraint) का सहारा लिया गया है। इन दोनों को सामाजिक तथ्यों की विशेषता के रूप में पेश किया जा सकता है।

1. बाहरीपन (Exteriority)-सामाजिक तथ्य की सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका बाहरीपन है। बाहरीपन का अर्थ है सामाजिक तत्त्वों का निर्माण लो समाज के सदस्यों के द्वारा ही होता है। परन्तु सामाजिक तथ्य एक बार विकसित होने के बाद फिर किसी व्यक्ति विशेष के नहीं रहते हैं और वह इस अर्थ में कि इसको एक स्वतन्त्र वास्तविकता के रूप में अनुभव किया जा सकता है अर्थात् विज्ञान का उसके साथ अन्दरूनी सम्बन्ध नहीं होता है और न ही सामाजिक तथ्यों का व्यक्ति विशेष पर कोई प्रभाव पड़ता है।

सामाजिक तथ्यों के बाहरीपन को स्पष्ट करने के लिए दुर्खीम ने इसको व्यक्तिगत चेतना,सामूहिक चेतना के अन्तर अथवा भेद के आधार पर स्पष्ट किया है। दुर्खीम ने व्यक्तिगत चेतना के स्वरूप और संगठन के अध्ययन से यह स्पष्ट किया है कि व्यक्तिगत चेतनाओं का मूल आधार भावनाएँ हैं। संवेदनाएं अलग-अलग सैलों की अंतर क्रियाओं का प्रतिफल है लेकिन अलग-अलग सैलों द्वारा पैदा होने वाली संवेदनाओं की अपनी खास विशेषता होती है, जो संगठन अथवा उत्पत्ति से पहले सोलां सैलों में से किसी में भी मौजूद नहीं थी। Synthesis and Suigeneris के इस सिद्धांत में दुर्खीम ने यह बताया है कि इकट्ठा होने से एक नई वस्तु का जन्म होता है। अर्थात् प्रसार और संयोग की क्रिया द्वारा तथ्य का रूप ही बदल जाता है। जैसे व्यक्तिगत विचारों का आधार स्नायुमंडल के अलग है। उसी प्रकार दुर्खीम कहते हैं कि सामाजिक विचारों का मूल आधार समाज के सदस्य होते हैं। सामूहिक चेतना का विकास व्यक्तिगत चेतना में मिलने से संगठन के विकास से होता है। इसी प्रकार दुर्खीम के शब्दों में, “यह व्यक्तिगत चेतना से बाहर रहने वाले विशेष तथ्यों को पेश करता है।”

एक उदाहरण से इसे और भी स्पष्ट किया जा सकता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के एक निश्चित योग के साथ पानी बनता है। पानी की अपनी कुछ विशेषताएं हैं। ये विशेषताएं न ऑक्सीजन की हैं और न ही हाइड्रोजन की हैं। पानी को अलग करके फिर पुनः ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को नहीं बनाया जा सकता। इस तरह व्यक्ति चेतनाओं के योग के साथ सामूहिक चेतना का निर्माण होता है। जो व्यक्तिगत तथ्यों से अलग अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। अतः वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए बाहरी होती है।

2. विवशता (Constraint)-सामाजिक तथ्यों की दूसरी प्रमुख और महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी विवशता है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति के ऊपर सामाजिक तथ्यों का एक दबाव या विवशता का एक प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः सामाजिक तथ्यों का निर्माण एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के द्वारा नहीं होता बल्कि अनेकों व्यक्तियों के द्वारा होता है। अतः ये बहुत शक्तिशाली होते हैं और किसी व्यक्ति के ऊपर इस विवशता के कारण प्रभाव पड़ता है।

दुर्खीम का मानना है कि सामाजिक तथ्य केवल व्यक्ति के व्यवहार को नहीं बल्कि उसके सोचने, विचार करने इत्यादि के तरीकों को भी प्रभावित करते हैं। दुर्खीम बताते हैं कि इन सामाजिक तथ्यों की यह विशेषता इस रूप में देख सकते हैं कि ये सामाजिक तथ्य व्यक्ति की अनुभूति के अनुरूप नहीं, बल्कि व्यक्ति का व्यवहार उनके
अनुरूप होता है।

दुर्खीम सामाजिक तथ्यों की इस विशेषता के विवेचन में अनेक उदाहरण पेश करते हैं। आपके अनुसार समाज में प्रचलित अनेक सामाजिक तथ्य जैसे कि नैतिक नियम, धार्मिक विश्वास, वित्तीय व्यवस्था, आदि सभी मनुष्य के व्यवहार और तरीकों को प्रभावित करते हैं। स्वयं दुर्खीम लिखते हैं कि यदि यह दबाव इन तथ्यों की अन्दरूनी विशेषताएं होती हैं और इसका सबूत यह है कि जब मैं इनका विरोध करने की कोशिश करता हूं तो यह और भी अधिक दबाव डाल देते हैं। वह आगे लिखते हैं” यदि मैं समाज के नियमों को नहीं मानता हूं तो जिस हंसी का पात्र मुझे बनाया जाता है और जिस तरह मुझे समाज से अलग रखा जाता है, और यह असली अर्थों में एक प्रकार के दण्ड या सज़ा की तरह प्रभाव डालने वाला होता है। यद्यपि ये विवशता तथा दबाव अप्रत्यक्ष होते हुए भी प्रभावकारी होते हैं।”

विवशता की एक और उदाहरण में दुर्खीम इसको स्पष्ट करते हैं, “मेरे लिए यह जरूरी नहीं कि मैं अपने देशवासियों से फ्रांसीसी अथवा किसी और भाषा में ही बात करूँ और प्रचलित मुद्रा का प्रयोग करूँ, लेकिन ये सब इससे विपरीत कार्य करना मेरे लिए संभव नहीं होगा। एक उद्योगपति के रूप में मैं बीत गई सदियों की तकनीकी विधियों को अपनाने में पूरी तरह स्वतन्त्र हैं लेकिन ऐसा करने से मैं अपने आपकी बरबादी को बुलावा दूंगा। लेकिन अगर मैं ज़रूरी तथ्यों से बचने की कोशिश करूंगा तो पूरी तरह असफल रह जाऊंगा। अगर मैं इन नियमों से अपने आप को स्वतन्त्र कर लेता हूँ तो सफलता से उनका विरोध करता हूँ तो भी मुझे हमेशा इनसे संघर्ष करने के लिए मज़बूर किया जाता है, और अंत में वह अपने बदले द्वारा अपने दबाव का अनुभव हमें करा देते हैं।”

दुर्खीम कहते हैं कि “कभी-कभी इस विवशता को प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख सकते। वह समाजीकरण की एक उदाहरण दे कर इसको स्पष्ट करते हैं कि जीवन के आरम्भिक काल में हमें बच्चे को खाने, पीने, व सोने के लिए विवश करते हैं। हम उसे सफ़ाई, शान्ति और कहना मानने के लिए भी विवश करते हैं। बाद में हम उसे दूसरों के प्रति उचित भाव, प्रथा, रीति रिवाजों, प्रति सम्मान करना और काम करने की आवश्यकता आदि के बारे में सिखाते हैं। विवशता अनुभव न होने के कारण यह होता है कि धीरे-धीरे यह विवशता आदतों में तबदील हो जाती है।”

सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतना से उत्तम रूप है क्योंकि सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतनाओं के अस्तित्व से विशेषताओं की संगठित (मिली-जुली) हुई चेतना है। दुर्खीम लिखते है, “एक सामाजिक तथ्य ‘विश्व दबाव’ की शक्ति से पहचाना जाता है जो कि व्यक्ति पर प्रयोग किया जाता है अथवा व्यक्ति पर प्रयोग करने योग्य हो।” दुर्खीम के अनुसार सामाजिक तथ्य ‘सामूहिक चेतना’ की श्रेणी में आते है इसीलिए यह चेतनाओं की चेतना है।

3. व्यापकता (Generality)—यह समाज विशेष में सांझे और आदि अंत तक फैले होते हैं। लेकिन यह विलक्षण विशेषता नहीं हो तो और न ही व्यापकता अनेकों व्यक्तिगत तथ्यों के केवल जोड़फल मात्र का परिणाम नहीं होते बल्कि यह तो शुद्ध रूप में अपने स्वभाव से ही सामूहिक होते हैं और व्यक्तियों पर इनका प्रभाव इनकी सामूहिक विशेषता का ही नतीजा है। इसीलिए इसको सामाजिक तथ्यों की तीसरी विशेषता कहा जाता है।
दुर्खीम के ऊपर लिखे सामाजिक तथ्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक तथ्यों की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएं होती हैं।

  1. सामाजिक तथ्य व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र अपना अलग स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। अर्थ यह कि व्यक्ति से अलग होते हैं।
  2. सामाजिक तथ्यों का व्यक्ति पर एक मज़बूरी का प्रभाव पड़ता है अर्थात् यह व्यक्ति पर दबाव डालने की शक्ति से भरे होते हैं।

ऊपर दी गई विवेचना के आधार पर दुर्खीम ने अपने पहले अध्याय की अंतिम लाईनों में सामाजिक तथ्य को पेश करते हुए लिखा है कि, “एक सामाजिक तथ्य काम करने का वह तरीका है, जो चाहे निश्चित हो अथवा नहीं, जो कि व्यक्ति पर बाहरी दबाव डालने की शक्ति रखता है अथवा काम करने का वह हर तरीका जो एक दिए हुए समाज में सभी तरफ सामान्य है और साथ ही व्यक्तिगत विचारों से स्वतन्त्र उसकी अपनी अलग स्थिति बनी रहती संक्षेप में दुर्खीम के अनुसार सामाजिक तथ्य कार्य करने का वह तरीका है, जो व्यक्तियों से बाहर है तथा व्यक्ति पर दबाव डालने की शक्ति रखता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

प्रश्न 6.
दुर्खीम के श्रम विभाजन के सिद्धान्त की व्याख्या करो और इसके उत्तरदायक कारकों का स्पष्टीकरण करो।
अथवा
दुर्खीम के श्रम विभाजन के सिद्धान्त की विवेचना करो।
उत्तर-
दुर्खीम ने 1893 में फ्रैंच भाषा में अपनी पहली किताब De la Division du Trovail social के नाम से प्रकाशित की। चाहे यह दुर्खीम का पहला ग्रन्थ था पर उसकी प्रसिद्धि की यह एक आधार-शिला थी। इसी ग्रन्थ पर दुर्खीम को 1893 में पैरिस विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई थी। इस महान् ग्रन्थ में दुर्खीम ने सामाजिक श्रम विभाजन का प्रत्यक्ष सिद्धान्त पेश किया है। दुर्खीम की यह किताब तीन भागों में बांटी हुई है हर भाग में दुर्खीम ने श्रम विभाजन के भिन्न-भिन्न पक्षों की विवेचना की है। ये तीन खण्ड हैं-

  1. श्रम विभाजन के प्रकार्य (The functions of Division of Labour)
  2. कारण व दशाएं (Causes and Conditions)
  3. श्रम विभाजन के असाधारण स्वरूप (Abnormal forms of Division of Labour)

दुर्खीम ने अपनी किताब के पहले भाग ‘श्रम विभाजन के प्रकार्य’ में श्रम विभाजन को सामाजिक एकता (Social solidarity) का आधार सिद्ध करने की कोशिश की है। साथ ही उसके वैज्ञानिक अध्ययन की नज़र से कानूनों के स्वरूप, एकता के रूप, मानवीय सम्बन्धों के स्वरूप, अपराध, दण्ड, सामाजिक विकास आदि अनेकों मुश्किलों व धारणाओं की व्याख्या पेश की है। दूसरे हिस्से में श्रम विभाजन के कारणों व परिणामों का विस्तृत विश्लेषण पेश किया है। तीसरे खण्ड में दुर्खीम ने श्रम विभाजन के असाधारण स्वरूपों की विवेचना दी है।
अब हम दुर्खीम के पहले दोनों भागों की विवेचना की मदद से सामाजिक श्रम-विभाजन के सिद्धान्त की विवेचना करेंगे।

श्रम विभाजन के प्रकार्य (Functions of Division of Labour) –

दुर्खीम प्रत्येक सामाजिक तथ्य को एक नैतिक तथ्य के रूप में स्वीकार करते हैं। कोई भी सामाजिक प्रतिमान नैतिक आधार पर ही सुरक्षित रहता है। एक कार्यवादी के रूप में सबसे पहले दुीम ने श्रम विभाजन के कार्य की खोज की है। दुर्खीम ने सबसे पहले ‘प्रकार्य’ शब्द का अर्थ स्पष्ट किया है प्रकार्य के उन्होंने दो अर्थ बताए हैं।

(1) प्रकार्य का मतलब गति व्यवस्था से है अर्थात् क्रिया से है।
क्रिया के द्वारा पूरी होने वाली ज़रूरत से है।

दुर्खीम ‘प्रकार्य’ का प्रयोग दूसरे शब्दों में करते हैं इस प्रकार श्रम विभाजन के प्रकार्य से उनका अर्थ यह है कि श्रम विभाजन की प्रक्रिया समाज के अस्तित्व के लिए कौन-सी मौलिक ज़रूरत को पूरा करती है। प्रकार्य तो वह है जिसकी अनावश्यकता में उसके तत्त्वों की मौलिक ज़रूरत की पूर्ति नहीं हो सकती।

आमतौर से यह कहा जाता है कि श्रम विभाजन का प्रकार्य सभ्यता का विकास करना है क्योंकि यह स्पष्ट सच है कि श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ विशेषीकरण के नतीजे के तौर पर समाज में सभ्यता बढ़ती है। श्रम विभाजन के परिणाम के तौर पर उत्पादन शक्ति में बढ़ावा होता है, भौतिक व बौधिक विकास होता है व साधारण जीवन में सुख के उपभोग व ज्ञान का प्रसार होता है इसलिए आमतौर पर श्रम विभाजन को सभ्यता का स्रोत कहा जाता है।

मुश्किलों व धारणाओं की व्याख्या पेश की है। दूसरे हिस्से में श्रम विभाजन के कारणों व परिणामों का विस्तृत विश्लेषण पेश किया है। तीसरे खण्ड में दुर्थीम ने श्रम विभाजन के असाधारण स्वरूपों की विवेचना दी है।
अब हम दुर्थीम के पहले दोनों भागों की विवेचना की मदद से सामाजिक श्रम-विभाजन के सिद्धान्त की विवेचना करेंगे।

श्रम विभाजन के प्रकार्य
(Functions of Division of Labour)
दुर्थीम प्रत्येक सामाजिक तथ्य को एक नैतिक तथ्य के रूप में स्वीकार करते हैं। कोई भी सामाजिक प्रतिमान नैतिक आधार पर ही सुरक्षित रहता है। एक कार्यवादी के रूप में सबसे पहले दुीम ने श्रम विभाजन के कार्य की खोज की है। दुर्थीम ने सबसे पहले ‘प्रकार्य’ शब्द का अर्थ स्पष्ट किया है प्रकार्य के उन्होंने दो अर्थ बताए हैं।

  1. प्रकार्य का मतलब गति व्यवस्था से है अर्थात् क्रिया से है।
  2. प्रकार्य का दूसरा अर्थ इस क्रिया या गति और उसके अनुरूप ज़रूरतों के आपसी सम्बन्धों से है अर्थात् क्रिया के द्वारा पूरी होने वाली ज़रूरत से है।

दुर्थीम ‘प्रकार्य’ का प्रयोग दूसरे शब्दों में करते हैं इस प्रकार श्रम विभाजन के प्रकार्य से उनका अर्थ यह है कि श्रम विभाजन की प्रक्रिया समाज के अस्तित्व के लिए कौन-सी मौलिक ज़रूरत को पूरा करती है। प्रकार्य तो वह है जिसकी अनावश्यकता में उसके तत्त्वों की मौलिक ज़रूरत की पूर्ति नहीं हो सकती।

आमतौर से यह कहा जाता है कि श्रम विभाजन का प्रकार्य सभ्यता का विकास करना है क्योंकि यह स्पष्ट सच है कि श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ विशेषीकरण के नतीजे के तौर पर समाज में सभ्यता बढ़ती है। श्रम विभाजन के परिणाम के तौर पर उत्पादन शक्ति में बढ़ावा होता है, भौतिक व बौधिक विकास होता है व साधारण जीवन में सुख के उपभोग व ज्ञान का प्रसार होता है इसलिए आमतौर पर श्रम विभाजन को सभ्यता का स्रोत कहा जाता है।

दुर्शीम ने विरोध किया है। उसने सभ्यता के विकास को श्रम विभाजन का प्रकार्य नहीं माना है। दुर्थीम के अनुसार स्रोत का काम नहीं है। सुखों में बढ़ोत्तरी या बौद्धिक व भौतिक विकास प्रकार्य विभाजन के परिणाम से उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह इस प्रक्रिया के परिणाम हैं, काम नहीं। काम का अर्थ परिणाम नहीं होता।
सभ्यता के विकास में तीन प्रकार के विकास शामिल हैं और यह तीन प्रकार निम्नलिखित हैं-

  1. औद्योगिक अथवा आर्थिक पक्ष
  2. कलात्मक पक्ष
  3. वैज्ञानिक पक्ष।

दुर्शीम ने सभ्यता के इन तीनों ही पक्षों के विकास को नैतिक तत्त्वों से विहीन बताया है। उसके विचार में औद्योगिक, कलात्मक तथा वैज्ञानिक विकास के साथ-साथ समाजों में अपराध, आत्महत्या इत्यादि अनैतिक घटनाओं में बढ़ोत्तरी होती है। अंत दुर्थीम के श्रम विभाजन का कार्य सभ्यता का विकास नहीं है।

परन्तु दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का प्रकार्य क्या है ? दुर्थीम के अनुसार नये समूहों का निर्माण व उनकी एकता ही श्रम विभाजन के काम हैं। दुर्थीम ने समाज के अस्तित्व से सम्बन्धित किसी नैतिक ज़रूरत को ही श्रम विभाजन के काम के रूप में खोजने की कोशिश की है। उसके विचार अनुसार समाज के सदस्यों की गणना व उनके आपसी सम्बन्धों में अधिकता होने से धीरे-धीरे श्रम विभाजन की प्रक्रिया का विकास हुआ है। इस प्रक्रिया में बहुत सारे नए-नए व्यावसायिक व सामाजिक समूहों का निर्माण हुआ। इन भिन्न-भिन्न समूहों की एकता का प्रश्न समाज के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। इनकी आपसी एकता की अनावश्यकता में सामाजिक व्यवस्था न सन्तुलन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए इन भिन्न-भिन्न समूहों में एकता एक नैतिक ज़रूरत है।

अनुसार स्रोत का काम नहीं है। सुखों में बढ़ोत्तरी या बौद्धिक व भौतिक विकास प्रकार्य विभाजन के परिणाम से उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह इस प्रक्रिया के परिणाम हैं, काम नहीं। काम का अर्थ परिणाम नहीं होता।

सभ्यता के विकास में तीन प्रकार के विकास शामिल हैं और यह तीन प्रकार निम्नलिखित हैं-

  1. औद्योगिक अथवा आर्थिक पक्ष
  2. कलात्मक पक्ष
  3. वैज्ञानिक पक्ष।

दुर्खीम ने सभ्यता के इन तीनों ही पक्षों के विकास को नैतिक तत्त्वों से विहीन बताया है। उसके विचार में औद्योगिक, कलात्मक तथा वैज्ञानिक विकास के साथ-साथ समाजों में अपराध, आत्महत्या इत्यादि अनैतिक घटनाओं में बढ़ोत्तरी होती है। अंत दुर्खीम के श्रम विभाजन का कार्य सभ्यता का विकास नहीं है।

परन्तु दुर्खीम के अनुसार श्रम विभाजन का प्रकार्य क्या है ? दुर्खीम के अनुसार नये समूहों का निर्माण व उनकी एकता ही श्रम विभाजन के काम हैं। दुर्खीम ने समाज के अस्तित्व से सम्बन्धित किसी नैतिक ज़रूरत को ही श्रम विभाजन के काम के रूप में खोजने की कोशिश की है। उसके विचार अनुसार समाज के सदस्यों की गणना व उनके आपसी सम्बन्धों में अधिकता होने से धीरे-धीरे श्रम विभाजन की प्रक्रिया का विकास हुआ है। इस प्रक्रिया में बहुत सारे नए-नए व्यावसायिक व सामाजिक समूहों का निर्माण हुआ। इन भिन्न-भिन्न समूहों की एकता का प्रश्न समाज के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। इनकी आपसी एकता की अनावश्यकता में सामाजिक व्यवस्था न सन्तुलन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए इन भिन्न-भिन्न समूहों में एकता एक नैतिक ज़रूरत है।

दुर्खीम के अनुसार समाज की इसी ज़रूरत की पूर्ति श्रम-विभाजन की ओर से की जाती है। जहां एक ओर श्रम विभाजन से नए सामाजिक समूहों का निर्माण होता है, वहां दूसरी ओर इन समूहों की आपसी एकता व सामूहिकता बनी रहती है।

अन्त दुीम के अनुसार श्रम विभाजन का काम समाज में एकता स्थापित करना है। श्रम-विभाजन मानवों की क्रियाओं की भिन्नता से सम्बन्धित है पर यह भिन्नता भी समाज की एकता का आधार है। इस सामाजिक तथ्य के बारे दुर्खीम ने तथ्यात्मक आधार पर बताया है। उन्होंने कहा कि आपसी आकर्षण के दो विरोधी आधार हो सकते हैं। हम उन व्यक्तियों के प्रति ही नज़दीकी अनुभव करते हैं जो हमारी तरह हैं व उनकी ओर ही खिंचे जा सकते हैं। जो हमसे भिन्न हैं पर पूरी तरह की भिन्नता एक-दूसरे को अपनी ओर नहीं खींचती। ईमानदार बेइमानों को व खर्चीले कंजूसों को पसन्द नहीं करते। केवल यह भिन्नता इन दोनों को एक दूसरे के नज़दीक लाती है जो एक दूसरे की पूरक हैं। एक दोस्त में कोई कमी होती है, व वही चीज़ दूसरे में होती है जिस कारण दोनों के सम्बन्ध बनते हैं व एक दूसरे की ओर खिंचे जाते हैं।

दुर्खीम कहते हैं श्रम-विभाजन का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह नहीं कि यह बांटे हुए काम से उत्पादन में बढ़ोत्तरी करता है बल्कि यह है कि यह उनको संगठित करता है। अतः दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन समूहों का निर्माण करता है व उनमें एकता पैदा करता है।

कानून और एकता (Law and Solidarity) -दुर्खीम ने श्रम-विभाजन का काम समाज में एकता पैदा करना बताया है। सामाजिक एकता एक नैतिक तथ्य है। दुर्खीम श्रम-विभाजन से पैदा सामाजिक एकता को स्पष्ट करने के लिए कानून का वर्गीकरण करते हैं। किसी कानून के वर्गीकरण के अनुरूप उन्होंने सामाजिक एकता के प्रकार निर्धारित करते हैं। दुर्जीम ने दो प्रकारों के कानूनों के बारे में बताया है वे हैं-

(a) दमनकारी कानून (Repressive Law)
(b) प्रतिकारी कानून (Restitutive Law)

(a) दमनकारी कानून (Repressive Law)-दमनकारी कानूनों को एक प्रकार से सार्वजनिक कानून (Public Law) कहा जा सकता है। दुर्खीम के अनुसार यह दो प्रकार के होते हैं

(i) दण्ड सम्बन्धी कानून (Penal Law)-जिनका सम्बन्ध कष्ट देने, हानि पहुंचाने, हत्या करने या स्वतन्त्रता न देने से है। इनको संगठित दमनकारी कानून (Organized Repressive Law) कहा जाता है।

(ii) व्याप्त कानून (Diffused Law)-कुछ दमनकारी कानून ऐसे होते हैं जो पूरे समूह में नैतिकता के आधार पर फैले होते हैं। इसलिए दुर्खीम इनको व्याप्त कानून कहते हैं। दुर्खीम के अनुसार दमनकारी कानून का सम्बन्ध आपराधिक कार्यों से होता है। यह कानून अपराध व दण्ड की व्याख्या करते हैं। यह कानून समाज के सामूहिक जीवन की मौलिक दशाओं का वर्णन करते हैं। प्रत्येक समाज के अपने मौलिक हालात होते हैं। इसलिए भिन्नभिन्न समाजों में दमनकारी कानून भिन्न-भिन्न होते हैं। इन दमनकारी कानूनों की शक्ति सामूहिक दमन में होती है व सामूहिक मन समानताओं से शक्ति प्राप्त करता है।

(b) प्रतिकारी कानून (Restitutive Law) कानून का दूसरा भाग प्रतिकारी कानून व्यवस्था है। यह कानून व्यक्तियों के सम्बन्धों में पैदा होने वाले असन्तुलन को साधारण स्थिति प्रदान करते हैं। इस वर्ग के अन्तर्गत दीवानी (civil) कानून, व्यापारिक कानून, संवैधानिक कानून, प्रशासनिक कानून आदि आ जाते हैं। इनका सम्बन्ध पूरे समाज के सामूहिक स्वरूप से न होकर व्यक्तियों से होता है। यह कानून समाज के सदस्यों के व्यक्तिगत सम्बन्धों से पैदा होने वाले असन्तुलन के द्वारा सन्तुलित व व्यवस्थित होते हैं। दुर्खीम कहते हैं कि प्रतिकारी कानून व्यक्तियों व समाज के कुछ बीच की संस्थाओं से जोड़ते हैं।

कानून के उपरोक्त दो प्रकार के आधार पर दुर्खीम के अनुसार दो भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक एकताओं (Social Solidarity) का निर्माण होता है। यह दो प्रकार समाज की दो भिन्न-भिन्न जीवन-शैलियों के परिणाम हैं। दमनकारी-कानून का सम्बन्ध व्यक्तियों की साधारण प्रवृत्ति से है, समानताओं से है, जबकि प्रतिकारी कानून का सम्बन्ध विभिन्नताओं से या श्रम-विभाजन से है। दमनकारी कानून के द्वारा जिस प्रकार की सामाजिक एकता बनती है उसको दुर्खीम यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity) कहते हैं। प्रतिकारी कानून आंगिक एकता (Organic Solidarity) के प्रतीक है जिसका आधार श्रम-विभाजन है। अतः दुर्खीम के अनुसार समाज में दो प्रकार की सामाजिक एकता मिलती है।

(i) यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार यान्त्रिक एकता समाज की दण्ड संहिता में अर्थात् दमनकारी कानूनों के कारण होती है। समूह के सदस्यों में मिलने वाली समानताएं इस एकता का आधार हैं। जिस समाज के सदस्यों में समानताओं से भरपूर जीवन होता है, जहां विचारों, विश्वासों, कार्यों व जीवन इकाई के रूप में सोचता व क्रिया करता है, वह यान्त्रिक एकता दिखाता है अर्थात् उसके सदस्य मशीन के औज़ार भिन्न पुों की तरह संगठित रहते हैं। दुर्खीम ने अपराधी कार्यों के दमनकारी एकता कानून व यान्त्रिक एकता की अनुरूपता का माध्यम बताया है।

(ii) आंगिक एकता (Organic Solidarity)-दुर्खीम के अनुसार दूसरी एकता आंगिक एकता है। दमनकारी कानून की शक्ति सामूहिक चेतना में होती है। सामूहिक चेतना समानताओं से शक्ति प्राप्त करती है। आदिम समाज में दमनकारी कानूनों की प्रधानता होती है क्योंकि उनमें समानताएं सामाजिक जीवन का आधार हैं। दुर्खीम के अनुसार आधुनिक समाज श्रम-विभाजन व विशेषीकरण से प्रभावित है जिसमें समानता की जगह विभिन्नताएं प्रमुख हैं। सामूहिक जीवन को यह विभिन्नता व्यक्तिगत चेतना को प्रमुखता देती है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से समूह से बंधा नहीं रहता। इस समाज में मानवों के आपसी सम्बन्धों का महत्त्व अधिक होता है। यही कारण है कि दुर्खीम ने आधुनिक समाजों में दमनकारी कानून की जगह प्रतिकारी कानून की प्रधानता बताई है। विभिन्नतापूर्ण जीवन में मानवों को एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल एक काम में विशेष योग्यता प्राप्त कर सकता है व बाकी सभी कामों के लिए उसके अन्य लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। समूह के सदस्यों को यह आपसी निर्भरता, उनकी व्यक्तिगत असमानता, उनके एक-दूसरे के नज़दीक आने के लिए मजबूर करती है जिसके आधार पर समाज में एकता की स्थापना होती है। इस एकता को दुर्खीम ने आंगिक एकता (Organic Solidarity) कहा है। यह प्रतिकारी कानून व्यवस्था में दिखाई देता है।

दुर्खीम के अनुसार यह एकता शारीरिक एकता के समान है। हाथ, पैर, नाक, कान, आँख आदि अपने-अपने विशेष कामों के आधार पर स्वतन्त्र अंगों के रूप में हाजिर रहते हैं पर उनके काम तो ही सम्भव हैं जब तक एकदूसरे से मिले (जुड़े) हुए हैं, हाथ शरीर से भिन्न होकर कोई काम नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में शरीर के भिन्नभिन्न अंगों में एकता तो है पर वह आपसी निर्भरता पर टिकी हुई है।

दुीम के अनुसार जनसंख्या के बढ़ने से समाज की ज़रूरतें भी बढ़ती जाती है। इन बढ़ती हुई ज़रुरतों को पूरा करने के लिए श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण हो जाता है। इसी कारण ही आधुनिक समाजों में आंगिक एकता दिखाई देती है। हम दुर्खीम के कानून, सामूहिक चेतना, एकता तथा समाजों को निम्न बने चित्र में से समझ सकते है। समाज को बनाए रखने के लिए सामाजिक एकता का होना बहुत ज़रूरी है। आदिम समाजों में समूह के सदस्यों में पूरी समानता होती है जिस कारण उनमें सामूहिक चेतना अधिक प्रबल होती है। वह एक-दूसरे पर कार्यात्मक दृष्टि से ही निर्भर नहीं होते बल्कि इतने जुड़े होते हैं कि उनमें हमेशा स्वाभाविक एकता बनी रहती है। यह एकता दुर्खीम के शब्दों में ठीक वैसी ही होती है जैसी कि किसी यन्त्र की एकता होती है। जिस प्रकार यन्त्र के किसी एक भाग को हिलाने से पूरा यन्त्र हरकत में आता है ठीक उसी प्रकार समानताओं पर आधारित इस एकता को दुर्खीम यान्त्रिक एकता कहते हैं।

दूसरी तरफ आधुनिक समाजों में विशेषीकरण बढ़ने से कार्यों का विभाजन हो गया है जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक विभिन्नताएं बढ़ गई है। इस श्रम विभाजन के नतीजे के कारण समूह के सभी एक-दूसरे पर निर्भर हो गए हैं। किसी प्राणी की शारीरिक एकता की तरह, सामाजिक एकता के भिन्न-भिन्न अंगों में कार्यात्मक से उत्पन्न ज़रूरी सहयोग इस पूरी एकता की क्रियाशीलता का आधार है। इसीलिए दुर्खीम श्रम विभाजन से उत्पन्न जो एकता समाज को मिलती है उसे आंगिक एकता कहते हैं।

(iii) संविदात्मक एकता (Contractual Solildarity)-आंगिक व यान्त्रिक एकता के अध्ययन के बाद दुर्खीम ने एक और एकता के बारे में बताया है, जिसको उसने संविदात्मक एकता (Contractual Solidarity) या समझौते वाली एकता कहा है।

दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन की प्रक्रिया समझौते पर आधारित सम्बन्धों को जन्म देती है। समूह के लोग आपसी समझौते के आधार पर एक-दूसरे की सेवाओं को प्राप्त करते हैं व परस्पर सहयोग करते हैं। यह सच है कि आधुनिक समाजों में समझौतों के आधार पर लोगों में सहयोग व एकता स्थापित होती है पर श्रम-विभाजन का काम संविदात्मक एकता की उत्पत्ति करना ही नहीं है। दुर्खीम के विचार से संविदात्मक एकता एक व्यक्तिगत तथ्य है चाहे यह समाज द्वारा ही चलती है।

कारण तथा दशाएं (Causes and Conditions)-दुर्खीम की पुस्तक The division of Labour in Society का दूसरा भाग श्रम विभाजन के कारणों, दशाओं तथा परिणामों से सम्बन्धित है। दुर्खीम श्रम विभाजन के कारणों तथा दिशाओं की व्याख्या पेश करते हुए लिखते हैं कि श्रम विभाजन के विकास के प्रेरक तथा सुख में बढ़ौत्तरी की इच्छा अथवा ‘आनन्द प्राप्ति’ नहीं है क्योंकि सुख में व्यक्तिगत तथ्य मौजूद हैं तथा सुख की इच्छा मनोवैज्ञोनिक का विषय है। समाजशास्त्रीय विवेचना का नहीं चाहे श्रम विभाजन को दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य माना है।

श्रम-विभाजन के कारण (Causes of Division of Labour)-दुीम ने श्रम-विभाजन की व्याख्या समाजशास्त्रीय आधार पर की है। उसने श्रम विभाजन के कारणों की खोज सामाजिक जीवन की दशाओं व उनसे पैदा सामाजिक ज़रूरतों से की है। इस नज़र से उसने श्रम-विभाजन के कारणों को दो भागों में बांटा है। पहला है प्राथमिक कारक व दूसरा है द्वितीय कारक। प्राथमिक कारक के रूप में दुर्खीम ने जनसंख्या में बढ़ोत्तरी व उससे उत्पन्न परिणामों को माना है। जबकिं द्वितीय कारकों को वह दो भागों में रखता है। वह है आम चेतना की बढ़ती हुई अस्पष्टता व पैतृकता का घटता हुआ प्रभाव।

अब हम इनके कारकों की विस्तार से व्याख्या करेंगे-

(i) जनसंख्या के आकार व घनत्व में बढ़ोत्तरी (Increase in Density and size of Population)दुर्खीम के अनुसार जनसंख्या के आकार व घनत्व में बढ़ोत्तरी ही श्रम-विभाजन का केन्द्रीय व प्राथमिक कारक है। दुर्खीम के अनुसार, “श्रम-विभाजन समाज में जटिलता व घनत्व के साथ सीधे अनुपात में रहता है व यदि सामाजिक विकास के दौरान यह लगातार बढ़ता है तो इसका कारण यह है कि समाज लगातार अधिक घनत्व व अधिक जटिल हो जाते हैं।” दुर्खीम के अनुसार जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के दो पक्ष हैं-जनसंख्या के आकार में अधिकता व जनसंख्या के घनत्व में अधिकता। यह दोनों पक्ष श्रम-विभाजन को जन्म देते हैं। जनसंख्या में बढ़ोत्तरी होने से सरल समाज समाप्त हो जाते हैं और मिश्रित समाज बनने लग जाते हैं। जनसंख्या विशेष केन्द्रों पर एकत्र होने लगती है। जनसंख्या के घनत्व को भी दुर्खीम ने दो भागों में बांटा है-

(a) भौतिक घनत्व (Material Density)-शारीरिक नज़र से लोगों का एक ही स्थान पर एकत्र होना घनत्व है।
(b) नैतिक घनत्व (Moral Density)-भौतिक घनत्व के परिणाम से लोगों के आपसी सम्बन्ध बढ़ते हैं जिससे उनकी क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं में बढ़ोत्तरी होती है। इन आपसी सम्बन्धों व अन्तर क्रियाओं में बढ़ोत्तरी से उत्पन्न जटिलता को दुर्खीम ने नैतिक घनत्व कहा है।

(ii) सामूहिक चेतना का कम होना या पतन-दुर्खीम ने श्रम-विभाजन को द्वितीय कारकों के बारे में बताया है। इसमें उसने सामूहिक चेतना के पतन को सबसे पहले रखा है। समानताओं पर आधारित समाज में सामूहिक चेतना प्रबल या ताकतवर होती है जिस कारण समूह के सदस्य व्यक्तिगत भावनाओं से प्रेरित होते हैं। सामूहिक भावना ही उनको रास्ता दिखाती है। दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन तब ही सम्भव है जब सामूहिक दृष्टिकोण की जगह व्यक्तिगत दृष्टिकोण का विकास हो जाए व व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना को नष्ट कर दे। अतः दुर्खीम के अनुसार, “चेतना निश्चित व मज़बूत होगी इसके विपरीत यह उतनी ही अधिक तेज़ होगी, जितना व्यक्ति अपने व्यक्तिगत वातावरण से समझौता करने में असमर्थ होगा।

(iii) पैतृकता व श्रम-विभाजन-दुीम ने द्वितीय कारक के दूसरे प्रकार को पैतृकता के घटते प्रभाव को कारण माना है। चाहे दुर्खीम ने सामाजिक घटनाओं की व्याख्या के लिए सामाजिक कारकों को ही प्राथमिकता दी है पर श्रम-विभाजन के विकास में पैतृकता का प्रभाव जितना अधिक होता है परिवर्तन के मौके उतने ही कम होते हैं।

अन्य शब्दों में श्रम विभाजन के विकास के लिए यह ज़रूरी है कि पैतृक गुणों को महत्त्व न दिया जाए। श्रम विभाजन का विकास तभी सम्भव है जब लोगों में प्रकृति तथा स्वभाव में भिन्नता हो, पैतृकता से प्राप्त योग्यताओं के आधार पर व्यक्तियों का वर्गीकरण करके उनको विशेष जातियों से सम्बन्धित करके, उनके पूर्वजों तथा अतीत से कठोरता से बांध देने की प्रक्रिया के फलस्वरूप यह होता है कि हम अपनी विशेष रुचिओं का विकास नहीं कर सकते तथा परिवर्तन नहीं कर सकते। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पैतृकता के आधार पर कार्यों का विभाजन भी श्रम विभाजन में रुकावट है। दुर्खीम के अनुसार समय की गति तथा सामाजिक विकास के साथ लगातार होने वाले परिवर्तन पैतृकता में लचकीला पन पैदा करते हैं अर्थात् पैतृकता के गुण कमजोर होने लग जाते हैं। परिणामस्वरूप व्यक्तियों की विभिन्नताएं विकसित हो जाती है तथा श्रम विभाजन में बढ़ोत्तरी होती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दुर्खीम ने जनसंख्या में बढ़ोत्तरी, सामूहिक चेतना का पतन तथा पैतृकता के घटते प्रभाव को श्रम विभाजन का कारक माना है।

श्रम-विभाजन के परिणाम (Consequences of Division of Labour)-श्रम-विभाजन के प्राथमिक व द्वितीय कारणों के पश्चात् दुर्खीम इसके विकास के परिणामस्वरूप होने वाले परिणामों पर रोशनी डालते हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘कार्य’ व ‘परिणाम’ दो भिन्न-भिन्न शब्द हैं। ऐसे बहत से तथ्य जो आम आदमी की नज़र से श्रम-विभाजन से कार्य दिखाई देते हैं। वह सच्चाई में उसके परिणाम है। दुर्खीम ने श्रम-विभाजन के बहुत सारे परिणामों की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित किया है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं

1. कार्यात्मक स्वतन्त्रता व विशेषीकरण-दुर्खीम ने शारीरिक श्रम-विभाजन व सामाजिक श्रम-विभाजन में अन्तर बताया है व सामाजिक श्रम-विभाजन के परिणाम बताए हैं। दुीम के अनुसार श्रम-विभाजन का एक परिणाम यह होता है कि जैसे ही काम अधिक बांटा जाता है उसी प्रकार काम करने की स्वतन्त्रता व गतिशीलता में बढ़ोत्तरी होती है। श्रम-विभाजन के कारण मानव अपनी कुछ विशेष योग्यताओं को विशेष काम में लगा देता है। दुीम के अनुसार श्रम-विभाजन के विकास का एक परिणाम यह भी होता है कि व्यक्तियों के काम उनके शारीरिक लक्षणों से स्वतन्त्र हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में मानव की संरचनात्मक विशेषताएं उनकी कार्यात्मक प्रवृत्तियों को अधिक प्रभावित नहीं करतीं।

2. सभ्यता का विकास-दुर्खीम ने शुरू में ही यह स्पष्ट किया है कि सभ्यता का विकास करना श्रम-विभाजन का काम नहीं है क्योंकि श्रम-विभाजन एक नैतिक तथ्य है व सभ्यता के तीन अंग, औद्योगिक या आर्थिक, कलात्मक व वैज्ञानिक विकास नैतिक विकास से सम्बन्ध नहीं रखते।

दुर्खीम ने श्रम-विभाजन के परिणाम के रूप में सभ्यता के विकास की व्याख्या की है। आपका कहना था कि जनसंख्या के आकार व घनता में अधिकता होने के साथ सभ्यता का विकास भी ज़रूरी हो जाता है। श्रम-विभाजन व सभ्यता दोनों साथ-साथ प्रगति करते हैं। परन्तु श्रम-विभाजन का विकास पहले होता है व उसके परिणामस्वरूप सभ्यता विकसित होती है। इसलिए दुर्खीम का मानना है कि सभ्यता न तो श्रम-विभाजन का लक्ष्य है व न ही उसका कार्य है बल्कि एक ज़रूरी परिणाम है।

3. सामाजिक प्रगति-प्रगति परिवर्तन का परिणाम है। श्रम-विभाजन भी परिवर्तन को जन्म देता है। परिवर्तन समाज में एक निरन्तर प्रक्रिया है। इसलिए प्रगति भी समाज में निरन्तर होती रहती है। दुर्खीम के अनुसार इस परिवर्तन का मुख्य कारण श्रम-विभाजन है। श्रम-विभाजन के कारण परिवर्तन होता है व परिवर्तन के कारण प्रगति होती है। इस तरह सामाजिक प्रगति श्रम-विभाजन का एक परिणाम है। दुर्खीम के विचार से प्रगति का प्रमुख कारक समाज है। हम इसलिए बदल जाते हैं क्योंकि समाज बदल जाता है। प्रगति तो रुक ही सकती है जब समाज रुक जाए पर वैज्ञानिक नज़र से यह सम्भव नहीं है। इसलिए दुर्खीम के अनुसार प्रगति भी सामाजिक जीवन का परिणाम है।

4. सामाजिक परिवर्तन व व्यक्तिगत परिवर्तन-दुर्खीम ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या श्रम-विभाजन के आधार पर की है। व्यक्तियों में होने वाले परिवर्तन समाज में होने वाले परिवर्तन का परिणाम हैं। दुर्खीम का मानना है कि समाज में होने वाले परिवर्तन मूल कारक हैं। जनसंख्या के आकार, वितरण व घनत्व में होने वाला परिवर्तन है जो मानवों में श्रम-विभाजन कर देता है व सारे व्यक्तिगत परिवर्तन इसी सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप होते हैं।

5. नवीन समूहों की उत्पत्ति व अन्तर्निर्भरता-दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन का एक परिणाम यह होता है कि विशेष कार्यों में लगे व्यक्तियों के विशेष हितों का विकास हो जाता है। इस प्रकार जितना अधिक श्रमविभाजन होता है उतनी ही अधिक अन्तर्निर्भरता बढ़ती है। अन्तर्निर्भरता सहयोग को जन्म देती है। इसलिए श्रमविभाजन सहयोग की प्रक्रिया को सामाजिक जीवन के लिए ज़रूरी बना देता है।

6. व्यक्तिवादी विचारधारा-दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप व्यक्तिगत चेतना बढ़ती है। सामूहिक चेतना का नियन्त्रण कम हो जाता है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व विशेषता व्यक्तिवादी विचारधारा को जन्म देती है। इस तरह श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप व्यक्तिवादी विचारधारा को बल मिलता है।

7. प्रतिकारी कानून व नैतिक दबाव-दुर्खीम के अनुसार श्रम-विभाजन कानूनी व्यवस्था में ही बदलाव कर देता है। श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप आपसी सम्बन्धों का विस्तार होता है व जटिलता व कार्यात्मक सम्बन्धों के कारण व्यक्तिगत समझौते का महत्त्व कम हो जाता है। मानवों के संविदात्मक या समझौते वाले सम्बन्धों को सन्तुलित करने के लिए प्रतिकारी या सहकारी कानूनों का विकास हो जाता है। श्रम-विभाजन जहां एक ओर व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन देता है, वहां दूसरी ओर यह व्यक्तियों में विशेष आचरण से सम्बन्धित व सामूहिक कल्याण से सम्बन्धित नैतिक जागरूकता का भी निर्माण करता है। दुर्खीम के विचार से व्यक्तिवाद मानवों की इच्छा पर फल नहीं बल्कि श्रम-विभाजन से उत्पन्न सामाजिक परिस्थिति का आवश्यक परिणाम है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 12 पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक

पश्चिमी समाजशास्त्री विचारक PSEB 11th Class Sociology Notes

  • 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के दौरान यूरोप के समाज में बहुत से परिवर्तन आए तथा यह कहा जाता है कि इन परिवर्तनों के अध्ययन के लिए ही समाजशास्त्र का जन्म हुआ।
  • 17वीं, 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में बहुत से विचारकों ने पुस्तकें लिखीं जिन्होंने समाजशास्त्र के उद्भव में काफ़ी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा इनमें मान्टेस्कयू (Montesquieu), रूसो (Rousseau) इत्यादि प्रमुख
  • अगस्ते कोंत, जोकि एक फ्रांसीसी दार्शनिक थे, को समाजशास्त्र का पितामह माना जाता है। उसने अपनी पुस्तक ‘The Course on Postitive Philosophy’ लिखी जिसमें उन्होंने 1839 में पहली बार शब्द Sociology का प्रयोग किया तथा इसे समाजशास्त्र का नाम दिया।
  • कोंत ने सकारात्मकवाद का सिद्धांत दिया तथा कहा कि सामाजिक घटनाओं को भी वैज्ञानिक व्याख्या से समझा जा सकता है तथा सकारात्मकवाद वह विधि है। इस प्रकार सकारात्मकवाद प्रेक्षण, तजुर्बे, तुलना तथा ऐतिहासिक विधि की एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली है जिससे समाज का वैज्ञानिक अध्ययन किया जा सकता है।
  • कोंत ने अलग-अलग समाजों का अध्ययन किया तथा कहा कि वर्तमान अवस्था में पहुँचने के लिए समाज को तीन पड़ावों से गुजरना पड़ता है तथा वह पड़ाव हैं-आध्यात्मिक पड़ाव, अधिभौतिक पड़ाव तथा सकारात्मक पड़ाव। यह ही कोंत का तीन पड़ावों का सिद्धांत है।
  • कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक थे जिन्हें संसार में उनके वर्ग तथा वर्ग संघर्ष पर दिए विचारों के लिए जाना जाता है। समाजवाद तथा साम्यवाद की धारणा भी मार्क्स ने ही दी है।
  • मार्क्स के अनुसार शुरू से लेकर अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। सभी समाजों में दो प्रकार के वर्ग होते हैं। प्रथम है पूँजीपति वर्ग जिसके पास उत्पादन के सभी साधन मौजूद हैं तथा दूसरा है मज़दूर वर्ग जिसके पास अपना श्रम बेचने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। दोनों के बीच अधिक प्राप्त करने के लिए संघर्ष चलता रहता है तथा इसको ही वर्ग संघर्ष कहते हैं।
  • इमाईल दुर्थीम भी समाजशास्त्र के संस्थापकों में से एक है। उन्होंने समाजशास्त्र को एक विज्ञापन के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। वह समाजशास्त्र के प्रथम प्रोफेसर भी थे।
  • वैसे तो समाजशास्त्र को दुर्थीम का काफ़ी योगदान है परन्तु उनके कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं-सामाजिक तथ्य का सिद्धांत, आत्महत्या का सिद्धांत, श्रम विभाजन का सिद्धांत, धर्म का सिद्धांत इत्यादि।
  • दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का सिद्धांत हमारे समाज में प्राचीन समय से ही मौजूद है। श्रम विभाजन के कारण ही समाज की प्रवृत्ति निश्चित होती है तथा इसमें मौजूद कानूनों की प्रकृति भी निश्चित होती है।
  • मैक्स वैबर भी एक प्रमुख समाजशास्त्री थे। मार्क्स की तरह वह भी जर्मनी के दाशनिक थे। उन्होंने भी समाजशास्त्र को बहत से सिद्धांत दिए जिनमें से प्रमुख हैं-सामजिक क्रिया का सिद्धांत, सत्ता तथा उसके प्रकार, प्रोटैस्टैंट एथिक्स तथा पूँजीवाद की आत्मा इत्यादि।
  • वर्ग (Class)–लोगों का समूह जिनके उत्पादन के साधन समान होते हैं।
  • सत्ता (Authority)-शक्ति का वह विशेष रूप जिसे सामाजिक व्यवस्था के नियमों, परिमापों का समर्थन प्राप्त होता है तथा साधारणतया इसे उन सभी की तरफ से वैध माना जाता है जो इसमें भाग लेते हैं।
  • सामाजिक क्रिया (Social Action)—वह क्रिया जिसमें अन्य व्यक्तियों की क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं को सामने रखा जाता है। इसे सामाजिक उस समय कहा जाता है जब क्रिया करने वाला व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों को सामने रखता है।
  • वर्ग चेतना (Class Consciousness)-एक वर्ग के सदस्यों के बीच अपने समूह के साधारण हितों की चेतना की मौजूदगी।
  • वर्ग संघर्ष (Class Struggle)-पूँजीपति तथा मजदूर वर्ग के बीच हमेशा हितों का संघर्ष होता है। यह हितों का संघर्ष दोनों वर्ग के बीच संघर्ष का कारण बनता है। जब लोगों में वर्ग चेतना बढ़ जाती है तो वर्ग संघर्ष भी बढ़ जाता है।
  • सकारात्मवाद (Positivism)-सकारात्मकवाद में माना जाता है कि समाज कुछ नियमों के अनुसार कार्य करता है जिन्हें ढूंढ़ा जा सकता है।
  • यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-समानताओं पर आधारित समाजों के सदस्यों के बीच एकता की एकता को यान्त्रिक एकता कहते हैं।
  • सावयवी एकता (Organic Solidarity)-कई समाजों में लोगों के बीच अंतर होते हैं जिस कारण वह एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। इन समाजों में लोगों के बीच मौजूद एकता को सावयवी एकता कहते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का जनक किसे माना जाता है ?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का जनक माना जाता है।

प्रश्न 2.
एक पृथक समाज विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की स्थापना हेतु उत्तरदायी दो महत्त्वपूर्ण कारकों के नाम बताइये।
उत्तर-
फ्रांसीसी क्रान्ति, प्राकृतिक विज्ञानों के विकास, औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण की प्रक्रिया ने समाजशास्त्र को अलग सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने में सहायता की।

प्रश्न 3.
किन दो शब्दों से ‘समाजशास्त्र’ की अवधारणा बनी तथा किस वर्ष समाजशास्त्र विषय का उद्भव हुआ ?
उत्तर-
समाजशास्त्र (Sociology) शब्द लातिनी शब्द ‘Socios’, जिसका अर्थ है समाज तथा ग्रीक भाषा के शब्द Logos, जिसका अर्थ है अध्ययन, दोनों से मिलकर बना है। सन् 1839 में अगस्ते काम्ते ने पहली बार इस शब्द का प्रयोग किया था।

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में दो सम्प्रदायों के नाम बताएं।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में दो स्कूलों के नाम हैं-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय तथा समन्वयात्मक सम्प्रदाय।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 5.
औद्योगीकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-
औद्योगीकरण का अर्थ है सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन का वह समय जिसने मानवीय समाज को ग्रामीण समाज से औद्योगिक समाज में बदल दिया।

प्रश्न 6.
ऐसे दो विद्वानों के नाम बताइये जिन्होंने भारत में समाजशास्त्र के विकास में योगदान दिया।
उत्तर-
जी० एस० घूर्ये, राधा कमल मुखर्जी, एम० एन० श्रीनिवास, ए० आर० देसाई इत्यादि।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र कहा जाता है। समाजशास्त्र में समूहों, सभाओं, संस्थाओं, संगठन तथा समाज के सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तथा यह अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से होता है। साधारण शब्दों में समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।

प्रश्न 2.
औद्योगिक क्रान्ति द्वारा उत्पन्न दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन बताइये।
उत्तर-

  • औद्योगिक क्रान्ति के कारण चीज़ों का उत्पादन घरों से निकल कर बड़े-बड़े उद्योगों में आ गया तथा उत्पादन भी बढ़ गया।
  • इससे नगरीकरण में बढ़ौतरी हुई तथा नगरों में कई प्रकार की समस्याओं ने जन्म लिया ; जैसे कि अधिक जनसंख्या, प्रदूषण, ट्रैफिक इत्यादि।

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प्रश्न 3.
प्रत्यक्षवाद किसे कहते हैं ?
उत्तर-
प्रत्यक्षवाद (Positivism) का संकल्प अगस्ते कोंत (Auguste Comte) ने दिया था। उनके अनुसार प्रत्यक्षवाद एक वैज्ञानिक विधि है जिसमें किसी विषय वस्तु को समझने तथा परिभाषित करने के लिए कल्पना या अनुमान का कोई स्थान नहीं होता। इसमें परीक्षण, तजुर्बे, वर्गीकरण, तुलना तथा ऐतिहासिक विधि से किसी विषय के बारे में सब कुछ समझा जाता है।

प्रश्न 4.
वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method) ज्ञान प्राप्त करने की वह विधि है जिसकी सहायता से वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाता है। यह विधि एक सामूहिक विधि है जो अलग-अलग क्रियाओं को एकत्र करती है जिनकी सहायता से विज्ञान का निर्माण होता है।

प्रश्न 5.
वस्तुनिष्ठता (Objectivity) को परिभाषित कीजिए ?
उत्तर-
जब कोई समाजशास्त्री अपना अध्ययन बिना किसी पक्षपात के करता है तो उसे वस्तुनिष्ठता कहा जाता है। समाजशास्त्री के लिए निष्पक्षता रखना आवश्यक होता है क्योंकि अगर उसका अध्ययन निष्पक्ष नहीं होगा तो उसके अध्ययन में और उसके विचारों में पक्षपात आ जाएगा तथा अध्ययन निरर्थक हो जाएगा।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र एवं विषयवस्तु की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र संबंधी दो स्कूल प्रचलित हैं। प्रथम सम्प्रदाय है स्वरूपात्मक सम्प्रदाय जिसके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप का अध्ययन करता है जिस कारण यह विशेष विज्ञान है। दूसरा सम्प्रदाय है समन्वयात्मक सम्प्रदाय जिसके अनुसार समाजशास्त्र बाकी सभी सामाजिक विज्ञानों का मिश्रण है इस कारण यह साधारण विज्ञान है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 7.
समाजशास्त्री अपनी विषयवस्तु का अध्ययन करने के लिए किस प्रकार की वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करते हैं?
उत्तर-
समाजशास्त्री अपने विषय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए बहुत-सी वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करते हैं ; जैसे कि सैम्पल विधि, अवलोकन विधि, साक्षात्कार विधि, अनुसूची विधि, प्रश्नावली विधि, केस स्टडी विधि इत्यादि।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
स्वरूपात्मक चिन्तन सम्प्रदाय किस प्रकार समन्वयात्मक चिन्तन सम्प्रदाय से भिन्न है ?
उत्तर-
1. स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School)—स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के विचारकों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है जिसमें सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाता है। इन सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन कोई अन्य सामाजिक विज्ञान नहीं करता है जिस कारण यह कोई साधारण विज्ञान नहीं बल्कि एक विशेष विज्ञान है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक जार्ज सिम्मेल, मैक्स वैबर, स्माल, वीरकांत, वान विज़े इत्यादि हैं।

2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)-इस सम्प्रदाय के विचारकों के अनुसार समाजशास्त्र कोई विशेष विज्ञान नहीं बल्कि एक साधारण विज्ञान है। यह अलग-अलग सामाजिक विज्ञानों से सामग्री उधार लेता है तथा उनका अध्ययन करता है। इस कारण यह साधारण विज्ञान है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक दुर्थीम, हाबहाऊस, सोरोकिन इत्यादि हैं।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र के महत्त्व पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए। ।
उत्तर-

  • समाजशास्त्र समाज के वैज्ञानिक अध्ययन करने में सहायता करता है।
  • समाजशास्त्र समाज के विकास की योजना बनाने में सहायता करता है क्योंकि यह समाज का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करके हमें उसकी पूर्ण संरचना की जानकारी देता है।
  • समाजशास्त्र अलग-अलग सामाजिक संस्थाओं का हमारे जीवन में महत्त्व के बारे में बताता है कि यह किस प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में योगदान देते हैं।
  • समाजशास्त्र अलग-अलग सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करके उनको खत्म करने के तरीकों के
    बारे में बताता है।
  • समाजशास्त्र ने जनता की मनोवृत्ति बदलने में सहायता की है। विशेषतया इसने अपराधियों को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
  • समाजशास्त्र अलग-अलग संस्कृतियों को समझने में सहायता प्रदान करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 3.
किस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति का समाज पर एक व्यापक प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
सन् 1780 में फ्रांसीसी क्रान्ति आई तथा इससे फ्रांस के समाज में अचानक ही बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। देश की राजनीतिक सत्ता परिवर्तित हो गई तथा सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आ गए। क्रान्ति से पहले बहुत-से विचारकों ने परिवर्तन के विचार दिए। इससे समाजशास्त्र के बीज बो दिए गए तथा समाज के अध्ययन की आवश्यकता महसूस होने लगी। अलग-अलग विचारकों के विचारों से इसकी नींव रखी गई तथा इसे सामने लाने का कार्य अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) ने पूर्ण किया जो स्वयं एक फ्रांसीसी नागरिक थे। इस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने समाजशास्त्र के उद्भव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 4.
किस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति का समाज पर एक व्यापक पड़ा ?
उत्तर-
औद्योगिक क्रान्ति से समाज तथा सामाजिक व्यवस्था में बहुत से अच्छे तथा ग़लत प्रभाव सामने आए। उस समय नगर, उद्योग, नगरों की समस्याएं इत्यादि जैसे बहुत से मुद्दे सामने आए तथा इन मुद्दों ने ही समाजशास्त्र की नींव रखी। यह समय था जब अगस्ते काम्ते, इमाइल दुर्थीम, कार्ल मार्क्स, मैक्स वैबर इत्यादि जैसे समाजशास्त्री सामने आए तथा इनके द्वारा दिए सिद्धान्तों के ऊपर ही समाजशास्त्र टिका हुआ है। इन सभी समाजशास्त्रियों के विचारों में किसी-न-किसी ढंग से औद्योगिक क्रान्ति के प्रभाव छुपे हुए हैं। इस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति के प्रभावों से समाज में बहुत से परिवर्तन आए तथा इस कारण समाजशास्त्र के जन्म में औद्योगिक क्रान्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र अपनी विषय वस्तु में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करता है। विवेचना कीजिए। .
उत्तर-
समाजशास्त्र सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के लिए कई वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है। तुलनात्मक विधि, ऐतिहासिक विधि, वरस्टैहन इत्यादि कई प्रकार की विधियों का प्रयोग करके सामाजिक समस्याएं सुलझाता है। यह सब वैज्ञानिक विधियाँ हैं। समाजशास्त्र का ज्ञान व्यवस्थित है। यह वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करके ही ज्ञान प्राप्त करता है। इसमें कई अन्य वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि सैम्पल विधि, निरीक्षण विधि, अनुसूची विधि, साक्षात्कार विधि, प्रश्नावली विधि, केस स्टडी विधि इत्यादि। इन विधियों की सहायता से आंकड़ों को व्यवस्थित ढंग से एकत्र किया जाता है जिस कारण समाजशास्त्र एक विज्ञान बन जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें:

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र से आपका क्या अभिप्राय है ? समाजशस्त्र के विषय क्षेत्र पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
साधारण शब्दों में, समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है जिसमें मनुष्य के आपसी सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र मानव व्यवहार की आपसी क्रियाओं का अध्ययन करता है। यह इस बात को समझने का भी प्रयास करता है कि किस प्रकार अलग-अलग समूह सामने आए, उनका विकास हुआ और किस प्रकार समाप्त हो गए और फिर बन गए। समाज शास्त्र में कार्य-विधियों, रिवाजों, समूहों, परम्पराओं, संस्थाओं इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।

फ्रांसीसी वैज्ञानिक अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) को समाज शास्त्र का पितामह माना जाता है। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक, “पौज़िटिव फिलासफी” (Positive Philosophy) 1830-1842 के दौरान छ: भागों (Volumes) में छपी थी। इस पुस्तक में उन्होंने समाज का अध्ययन करने के लिए जिस विज्ञान का वर्णन किया उसका नाम उन्होंने ‘समाजशास्त्र’ रखा। इस विषय का प्रारम्भ 1839 ई० में किया गया।

यदि समाजशास्त्र के शाब्दिक अर्थों की विवेचना की जाए तो हम कह सकते हैं कि यह दो शब्दों Socio और Logos के योग से बना है। Socio का अर्थ है समाज और Logos का अर्थ है विज्ञान। यह दोनों शब्द लातीनी (Socio) और यूनानी (Logos) भाषाओं से लिए गए हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ हैसमाज का विज्ञान। समाज के सम्बन्धों का अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र कहते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)

  1. गिडिंग्ज़ (Giddings) के अनुसार, “समाजशास्त्र पूर्ण रूप से समाज का क्रमबद्ध वर्णन और व्याख्या
  2. मैकाइवर और पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के बारे में है, सम्बन्धों के जाल को हम समाज कहते हैं।”
  3. दुखीम (Durkheim) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति और विकास का अध्ययन है।”
  4. जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समाजशास्त्र मनुष्य की अंतक्रियाओं और अंतर्सम्बन्धों, उनके कारणों और परिभाषाओं का अध्ययन है।”
  5. मैक्स वैबर (Max Weber) के अनुसार, “समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध करवाने का प्रयास करता है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इसमें व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों अथात् व्यक्तियों के समूहों में पाया गया व्यवहार, उनके आपसी सम्बन्धों और कार्यों इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र यह भी बताता है कि मनुष्य के सभी रीति-रिवाज, जो उन्हें एक-दूसरे के साथ जोड़कर रखते हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य स्वभावों के उद्देश्यों और स्वरूपों को समझने का प्रयास समाजशास्त्र द्वारा ही किया जाता है।

समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र (Scope of Sociology) – समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र को वर्णन करने के लिए दो अलग-अलग विचारधाराओं से सम्बन्ध रखते हुए समाज शास्त्रियों ने अपने विचार दिए हैं। एक विचारधारा के समर्थकों ने समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान के रूप में स्वीकार किया है किन्तु दूसरी विचारधारा के समर्थकों ने समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र सम्बन्धी इसका एक सामान्य विज्ञान के रूप में वर्णन किया है। कहने से तात्पर्य यह है कि इन दोनों विरोधी विचारधाराओं ने अपने ही विचारों के अनुसार इसके विषय-क्षेत्र सम्बन्धी वर्णन किया है जिसका वर्णन निम्नलिखित है
दो अलग-अलग विचारधाराएं इस प्रकार हैं-

I. स्वरूपात्मक विचारधारा-‘समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।’
II. समन्वयात्मक विचारधारा-समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है।

I. स्वरूपात्मक विचारधारा-‘समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।’ (Formalistic School : ‘Sociology as a Special Science.’)-इस विचारधारा के समाज शास्त्रियों ने समाजशास्त्र को शेष सामाजिक विज्ञानों (Social Sciences) की तरह एक विशेष विज्ञान (Special Science) माना है। इस विचारधारा के समर्थक समाजशास्त्र को सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों के अध्ययन करने तक सीमित रखकर इसे विशेष विज्ञान बताते हैं। अन्य कोई भी सामाजिक विज्ञान सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन नहीं करता, केवल समाजशास्त्र ही ऐसा विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है। इस कारण समाजशास्त्र को विशेष विज्ञान कहा जाता है।

इस सम्प्रदाय के विचारधारकों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है क्योंकि यह केवल सामाजिक सम्बन्धों के रूपों का अध्ययन करता है तथा स्वरूप एवं अन्तर-वस्तु अलग-अलग चीजें हैं। समाजशास्त्र अपना विशेष अस्तित्व बनाए रखने के लिए सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है अन्तर-वस्तु का नहीं। इस प्रकार समाज शास्त्र मानवीय सम्बन्धों के स्वरूपों का वैज्ञानिक अध्ययन है। क्योंकि इस संप्रदाय के समर्थक स्वरूप पर बल देते हैं, इसलिए इसे स्वरूपात्मक सम्प्रदाय कहते हैं। अब हम इस सम्प्रदाय के अलग-अलग समर्थकों द्वारा दिए विचारों पर विचार करेंगे।

1. सिमेल (Simmel) के विचार-सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है। उनके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जबकि अन्य सामाजिक विज्ञान इन सम्बन्धों के अन्तर-वस्तु का अध्ययन करते हैं। सिमेल के विचारानुसार समाजशास्त्र का शेष सामाजिक विज्ञानों से अन्तर अलग-अलग दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है। सिमेल के अनुसार किसी भी सामूहिक सामाजिक घटना का अध्ययन किसी भी सामाजिक विज्ञान द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार समाजशास्त्र विशेष विज्ञान कहलाने के लिए उन भागों का अध्ययन करता है जिनका अध्ययन बाकी सामाजिक विज्ञान न करते हों। सिमेल के अनुसार अन्तक्रियाओं के दो रूप पाये जाते हैं तथा वह हैं सूक्ष्म रूप तथा स्थूल रूप।

सामाजिक सम्बन्ध जैसे प्रतियोगिता, संघर्ष, प्रभुत्व, अधीनता, श्रम विभाजन इत्यादि अन्तक्रियाओं का अमूर्त अथवा सूक्ष्म रूप होते हैं। सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र इन सूक्ष्म रूपों का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। कोई अन्य सामाजिक विज्ञान इनका अध्ययन नहीं करते। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र के अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ वे ही सम्बन्ध हैं जो रेखागणित के प्राकृतिक विज्ञानों के साथ पाए जाते हैं अर्थात् रेखागणित भौतिक वस्तुओं के स्थानीय स्वरूपों का अध्ययन करता है तथा प्राकृतिक विज्ञान इन भौतिक वस्तुओं के अन्तर-वस्तुओं का अध्ययन करते हैं। इसी प्रकार जब समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं तो शेष सामाजिक विज्ञान भी प्राकृतिक विज्ञानों की तरह इन अन्तर-वस्तुओं का अध्ययन करते हैं। इस प्रकार मानव के व्यवहार के सूक्ष्म रूपों का अध्ययन केवल समाजशास्त्र ही करता है जिस कारण इसे विशेष विज्ञान होने का सम्मान प्राप्त है।

इस प्रकार सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का और उनके सूक्ष्म रूपों का अध्ययन करता है इसलिए यह बाकी सामाजिक विज्ञानों से अलग है। इसलिए सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।

2. वीरकांत (Vierkandt) के विचार-वीरकांत जैसे समाजशास्त्री ने भी समाजशास्त्र को ज्ञान की उस विशेष शाखा के साथ सम्बन्धित बताया जिसमें उसने उन मानसिक सम्बन्धों के प्रकारों को लिया जो समाज में व्यक्तियों को एक-दूसरे से जोड़ती हैं। आपके अनुसार मनुष्य अपनी कल्पनाओं, इच्छाओं, स्वप्नों, सामूहिक प्रवृत्तियों के बिना समाज में दूसरे व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए प्रतियोगिता की भावना। एक खिलाड़ी की दूसरे खिलाड़ी के प्रति मुकाबले की भावना होती है, एक अध्यापक की दूसरे अध्यापक के साथ। कहने से तात्पर्य यह है कि प्रतियोगियों में पाए गए मानसिक सम्बन्ध एक ही होते हैं, अपितु भावनाएं एक समान नहीं होतीं। आपके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों से मानसिक स्वरूपों को अलग करके अध्ययन करता है। एक और उदाहरण के अनुसार, समाजशास्त्र किसी समाज की उत्पत्ति, विशेषताएं, विकास, प्रगति आदि का अध्ययन न करके उस समाज के मानसिक स्वरूपों का अध्ययन करता है। इस प्रकार समाजशास्त्र, विज्ञान के मूल तत्त्वों का अध्ययन करता है। जैसे प्यार, नफरत, सहयोग, प्रतियोगिता, लालच इत्यादि। वीरकांत इस प्रकार से समाजशास्त्र में सामाजिक स्वरूपों को मानसिक स्वरूपों से अलग करता है। अतः इस आधार पर उसने समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बताया है।

3. वान विजे (Von Weise) के विचार-वान विज़े इस बात पर बल देता है कि समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है। वह कहता है कि सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों को उनकी अन्तर-वस्तु से अलग करके उसका अध्ययन किया जा सकता है। उनके अनुसार “समाजशास्त्र सामाजिक या अन्तर-मानवीय प्रक्रियाओं का अध्ययन है।” इस दृष्टि से समाज शास्त्र का सीमित अध्ययन क्षेत्र है जिस के आधार पर हम समाज शास्त्र को दूसरे समाज शास्त्रों से अलग कर सकते हैं। आपके अनुसार समाजशास्त्र दूसरे समाजशास्त्रों के परिणामों से इस प्रकार एकत्रित नहीं करता अपितु सामाजिक जीवन सम्बन्धी उचित जानकारी प्राप्त करता है तथा अपने विषय-वस्तु में अमूर्त कर लेता है। उसने सामाजिक सम्बन्धों के 600 से अधिक प्रकार बताए और उनके रूपों का वर्गीकरण किया है। उनके द्वारा किए गए वर्गीकरण से इस विचारधारा को समझना काफ़ी सरल होता है। इस प्रकार वान विजे ने भी समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान मानने वाले विचारों का समर्थन किया है।

4. मैक्स वैबर के विचार (Views of Max Weber)-मैक्स वैबर ने भी स्वरूपात्मक विचारधारा के आधार पर समाजशास्त्र के क्षेत्र को सीमित बताया है। मैक्स वैबर ने समाजशास्त्र का अर्थ अर्थपूर्ण अथवा उद्देश्य पूर्ण सामाजिक क्रियाओं के अध्ययन से लिया है। उनके अनुसार प्रत्येक समाज में पायी गई क्रिया को हम सामाजिक क्रिया नहीं मानते। वह क्रिया सामाजिक होती है जिससे समाज के दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार पर प्रभाव पड़ता हो। उदाहरण के लिए यदि दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों की आपस में टक्कर हो जाये तो यह टक्कर होना एक प्राकृतिक प्रकटन है, परन्तु उनके वह प्रयत्न जिनसे वे अलग होते हैं या जो भाषा प्रयोग करके वे एक-दूसरे से अलग होते हैं वह उनका सामाजिक व्यवहार होता है। समाजशास्त्र, मैक्स वैबर के अनुसार, सामाजिक सम्बन्धों के प्रकारों का विश्लेषण और वर्गीकरण करने से सम्बन्धित है। इस प्रकार वैबर के अनुसार समाजशास्त्र का उद्देश्य सामाजिक व्यवहारों का व्याख्यान करना और उन्हें समझना है। इसलिए यह एक विशेष विज्ञान है।

II. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)-समन्वयात्मक सम्प्रदाय के विचारक समाजशास्त्र को साधारण विज्ञान मानते हैं। उनके अनुसार सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र बहुत खुला व विस्तृत है। इसलिए सामाजिक जीवन के अलग-अलग पक्षों जैसे-राजनीतिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, मानव वैज्ञानिक, आर्थिक इत्यादि का विकास हुआ है पर इन विशेष सामाजिक विज्ञानों के अतिरिक्त, जो कि किसी विशेष पक्ष का अध्ययन करते हैं, एक साधारण समाजशास्त्र की आवश्यकता है जोकि दूसरे विशेष विज्ञानों के परिणामों के आधार पर हमें सामाजिक जीवन के आम हालातों और सिद्धान्तों के बारे में बता सके। यह विचारधारा पहले सम्प्रदाय अर्थात् कि स्वरूपात्मक सम्प्रदाय से बिल्कुल विपरीत है क्योंकि यह सामाजिक सम्बन्धों के मूर्त रूप के अध्ययन पर ज़ोर देता है। इनके अनुसार, दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता के बिना हम सामाजिक सम्बन्धों को नहीं समझ सकते। इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्तक सोरोकिन (Sorokin), दुर्थीम (Durkheim) और हॉब हाऊस (Hob House) हैं।

1. सोरोकिन (Sorokin) के विचार-सोरोकिन ने स्वरूपात्मक विचारधारा की आलोचना करके समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान न मानकर एक सामान्य विज्ञान माना है। उसके अनुसार, समाजशास्त्र सामाजिक प्रकटना (Social Phenomenon) के अलग-अलग भागों में पाए गए सम्बन्धों का अध्ययन करता है। दूसरा, यह सामाजिक और असामाजिक सम्बन्धों का भी अध्ययन करता है और तीसरा वह सामाजिक प्रकटन (Social Phenomenon) के साधारण लक्षणों का भी अध्ययन करता है। इस तरह उसके अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक सांस्कृतिक प्रकटन के साधारण स्वरूपों, प्रकारों और दूसरे कई प्रकार के सम्बन्धों का साधारण विज्ञान है।” इस प्रकार समाजशास्त्र समान सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकटनों का सामान्य दृष्टिकोण से ही अध्ययन करता है।

2. हॉब हाऊस के विचार (Views of Hob House)-हॉब हाऊस ने भी सोरोकिन की तरह समाजशास्त्र के कार्यों के बारे में एक जैसे विचारों को स्वीकार किया है। उनके अनुसार यद्यपि समाजशास्त्र कई सामाजिक अध्ययनों का मिश्रण है परन्तु इसका अध्ययन सम्पूर्ण सामाजिक जीवन है। यद्यपि समाजशास्त्र समाज के अलगअलग भागों का अलग-अलग अध्ययन करता है पर वह किसी भी एक भाग को समाज से अलग नहीं कर सकता, और न ही वह दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वास्तव में प्रत्येक सामाजिक विज्ञान किसी-न-किसी तरीके से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। इतिहास का सम्बन्ध मनोवैज्ञानिक, मनोविज्ञान का राजनीति विज्ञान, राजनीति विज्ञान का समाज शास्त्र इत्यादि से है। इस प्रकार समाजशास्त्र इन सबका सामान्य विज्ञान माना जाता है क्योंकि यह मानवीय सामाजिक जीवन का सम्पूर्ण अध्ययन करता है, जिस कारण वह शेष विज्ञानों से सम्बन्धित है।

3. दुर्थीम के विचार (Durkheim’s views)-दुर्थीम के अनुसार, सभी सामाजिक संस्थाएं एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं और इनको एक-दूसरे से अलग करके हम इनका अध्ययन नहीं कर सकते। समाज का अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्र दूसरे सामाजिक विज्ञानों पर निर्भर करता है। उसके अनुसार समाजशास्त्र को हम तीन भागों में बांटते हैं

  • सामाजिक आकृति विज्ञान
  • सामाजिक शरीर रचना विज्ञान
  • सामान्य समाज शास्त्र

पहले हिस्से का सम्बन्ध मनुष्यों से सम्बन्धित भौगोलिक आधार जिसमें जनसंख्या, इसका आकार, वितरण आदि आ जाते हैं।

दूसरे भाग का अध्ययन काफ़ी उलझन भरा है जिस कारण इसे आगे अन्य भागों में बांटा जाता है जैसे धर्म का समाजशास्त्र, आर्थिक समाजशास्त्र, कानून का समाजशास्त्र, राजनीतिक समाजशास्त्र। यह सब विज्ञान सामाजिक जीवन के अलग-अलग अंगों का अध्ययन करते हैं पर इनका दृष्टिकोण सामाजिक होता है। तीसरे भाग में सामाजिक नियमों का निर्माण किया जाता है।

इस प्रकार दुखीम ने अपने ऊपर लिखे विचारों के मुताबिक समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान माना है क्योंकि यह हर प्रकार की संस्थाओं और सामाजिक प्रक्रियाओं के अध्ययन करने से सम्बन्धित है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र से क्या आप समझते हैं ? समाजशास्त्र की प्रकृति की चर्चा करें।
उत्तर-
समाजशास्त्र का अर्थ (Meaning of Sociology)- इसके लिये देखें पुस्तक के प्रश्न IV का प्रश्न 1.

समाजशास्त्र की प्रकृति (Nature of Sociology) –
समाजशास्त्र की प्रकृति पूर्णतया वैज्ञानिक है जोकि निम्नलिखित चर्चा से स्पष्ट हो जाएगा-

1. समाजशास्त्र वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करता है-समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों के अध्ययन करने हेतु वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करते हैं। यह विधियाँ जैसे-Historical Method, Comparative Method, Case Study Method, Experimental Method, Ideal Type, Verstehen हैं। समाजशास्त्र में यह विधियाँ वैज्ञानिक विधियों के आधार पर तैयार की गई हैं। समाजशास्त्र में तथ्य ढूंढ़ने के लिए वैज्ञानिक विधियों के सभी पड़ावों का प्रयोग किया जाता है जैसे दूसरे प्राकृतिक विज्ञान करते हैं। . इन सब विधियों का आधार वैज्ञानिक है और समाजशास्त्र में इन सब विधियों को प्रयोग में लाया जाता है। वर्तमान समय में इन उपरोक्त लिखित विधियों के अतिरिक्त कई और विधियाँ भी प्रयोग में लाई जा रही हैं। इस प्रकार यदि हम वैज्ञानिक विधि का प्रयोग समाजशास्त्र के अध्ययन में कर सकते हैं तो इसे हम एक विज्ञान मान सकते हैं।

2. समाजशास्त्र कार्य-कारणों के सम्बन्धों की व्याख्या करता है-यह केवल तथ्यों को एकत्रित नहीं करता बल्कि उनके बीच कार्य-कारणों के सम्बन्धों का पता करने का प्रयास करता है। यह मात्र ‘क्यों है’ का पता लगाने का प्रयास नहीं करता अपितु यह ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का भी पता लगाने का प्रयास करता है अर्थात् यह किसी तथ्य के कारणों और परिणामों का पता लगाने का भी प्रयास करता है।

समाजशास्त्र के द्वारा किसी भी समस्या सम्बन्धी केवल यह नहीं पता लगाया जाता कि समस्या क्या है ? इसके अतिरिक्त वह समस्या के उत्पन्न होने के कारणों अर्थात् ‘क्यों’ और ‘कैसे’ बारे में पता लगाने सम्बन्धी प्रयास करता है। उदाहरण के लिए यदि समाजशास्त्री बेरोज़गारी जैसी किसी भी समस्या का अध्ययन कर रहा हो तो इस समस्या के प्रति सम्बन्धित विषय सामग्री को एकत्रित करने तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखता अपितु इस समस्या के उत्पन्न होने के कारण का भी पता लगाता है और साथ ही उनके परिणामों का भी जिक्र करने का प्रयास करता है कि यह समस्या कैसे घटी और क्यों घटी। कार्य-कारण सम्बन्धों की व्याख्या करने के आधार पर हम इसे एक विज्ञान मान सकते हैं।

3. समाजशास्त्र क्या है’ का वर्णन करता है क्या होना चाहिए’ के बारे में कुछ नहीं कहता (Explains only what is not what it should be)-समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों तथा घटनाओं को उसी रूप में पेश करता है जिस रूप में उसने उसे देखा है। वह सामाजिक तथ्यों का निष्पक्षता से निरीक्षण करता है और किसी भी तथ्य को बिना तर्क के स्वीकार नहीं करता। यह मात्र विषय को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करता है अर्थात् ‘क्या है’ का वर्णन करता है।

जब समाजशास्त्री को सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करना पड़ता है तो वह सामाजिक तथ्यों को बिना तर्क के स्वीकार नहीं करता। वह केवल वास्तविक सच्चाई को ध्यान रखने तक ही अपने आपको सीमित रखता है। जैसे हम देखते हैं कि भौतिक विज्ञान में भौतिक नियमों और प्रक्रियाओं का ही अध्ययन किया जाता है उसी प्रकार समाजशास्त्र में हम केवल सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करते हैं और उस सामाजिक घटना का बिना किसी प्रभाव के अध्ययन करते हैं और उसका वर्णन करते हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र को एक सकारात्मक विज्ञान भी माना जाता है क्योंकि इसमें हम सामाजिक घटना का माध्यम तथ्यों के आधार पर अध्ययन करते हैं न कि प्रभाव के आधार पर। इसलिए भी हम समाजशास्त्र को एक विज्ञान मान सकते हैं।

4. समाजशास्त्र में पक्षपात रहित ढंग से अध्ययन किया जाता है (Objectivity)-समाजशास्त्र में किसी तथ्य का निरीक्षण बिना किसी पक्षपात के किया जाता है। समाजशास्त्री तथ्यों व प्रपंचों का निष्पक्ष और तार्किक रूप से अध्ययन करने का प्रयास करता है। मनुष्य अपनी प्रकृति के मुताबिक पक्षपाती हो सकता है, उसकी आदतें, भावनाएं इत्यादि अध्ययन में आ सकती हैं। परन्तु समाजशास्त्री प्रत्येक तथ्य का पक्षपात रहित तरीके से अध्ययन करता है और अपनी भावनाओं और पसन्दों को इसमें आने नहीं देता। :

समाजशास्त्र द्वारा किया गया किसी भी समाज का अध्ययन निष्पक्षता वाला होता है, क्योंकि समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों (facts) के आधार पर ही अध्ययन करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए जाति प्रथा की समस्या का यदि वह अध्ययन करता है तो वह इस सम्बन्ध में विषय सामग्री एकत्रित करते समय अपने विश्वास, विचार, भावनाओं इत्यादि को दूर रखकर करता है क्योंकि यदि वह इन्हें शामिल करेगा तो किसी भी समस्या का हल ढूंढ़ना कठिन हो जाए। कहने का अर्थ यह है कि समाजशास्त्री पक्षपात रहित होकर समस्या का निरीक्षण करने का प्रयास करता है। इस आधार पर भी हम समाजशास्त्र को एक विज्ञान मान सकते हैं

5. समाजशास्त्र में सिद्धान्तों और नियमों का प्रयोग भी किया जाता है (Sociology does frame laws)—वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग भी समाजशास्त्रियों द्वारा किया जाता है। समाजशास्त्र के सिद्धान्त सर्वव्यापक (Universal) होते हैं, परन्तु समाज में पाए गए परिवर्तनों के कारण इनमें परिवर्तन आता रहता है। परन्तु कुछ सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो सभी देशों के समय में समान रूप से सिद्ध होते हैं। यदि समाज में परिवर्तन न आए तो यह सिद्धान्त भी प्रत्येक समय लागू हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके हम अलग-अलग समय की परिस्थितियों से सम्बन्धित भी अध्ययन कर सकते हैं जिससे हमें समाज की यथार्थकता का भी पता लगता है। इसलिए भी इसे विज्ञान माना जा सकता है।

6. समाजशास्त्र के द्वारा भविष्यवाणी संभव है (Prediction through Sociology is possible)समाजशास्त्र के द्वारा हम भविष्यवाणी करने में काफ़ी सक्षम होते हैं। जब समाज में कोई समस्या उत्पन्न होती है तो समाजशास्त्र उस समस्या से सम्बन्धित केवल विषय-वस्तु ही नहीं इकट्ठा करता बल्कि उस समस्या का विश्लेषण करके परिणाम निकालता है और उस परिणाम के आधार पर भविष्यवाणी करने के योग्य हो जाता है जिससे वह यह भी बता सकता है कि जो समस्या समाज में पाई गई है, उसका आने वाले समय में क्या प्रभाव पड़ सकेगा और समाज को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

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प्रश्न 3.
समाजशास्त्र में उदभव के लिए कौन-से कारक उत्तरदायी थे ?
उत्तर-
18वीं शताब्दी के दौरन बहुत से मार्ग सामने आए जिन्होंने समाज को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया। उन बहुत से मार्गों में से तीन महत्त्वपूर्ण कारकों का वर्णन निम्नलिखित है-

(i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण आन्दोलन
(ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास
(iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण

इनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण आन्दोलन (French Revolution and Enlightenment Movement)-फ्रांस में सन् 1789 में एक क्रान्ति हुई। यह क्रान्ति अपने आप में पहली ऐसी घटना थी। इसका फ्रांसीसी समाज पर काफ़ी अधिक प्रभाव पड़ा क्योंकि इसने प्राचीन समाज को नए समाज में तथा ज़मींदारी व्यवस्था को पूंजीवादी व्यवस्था में बदल दिया। इसके साथ-साथ नवजागरण आन्दोलन भी चला जिसमें बहुत-से विद्वानों ने अपना योगदान दिया। इन विद्वानों ने बहुत सी पुस्तकें लिखीं तथा साधारण जनता की सोई हुई आत्मा को जगाया। इस समय के मुख्य विचारकों, लेखकों ने चर्च की सत्ता को चुनौती दी जोकि उस समय का सबसे बड़ा धार्मिक संगठन था। इन विचारकों ने लोगों को चर्च की शिक्षाओं तथा उनके फैसलों को अन्धाधुंध मानने से रोका तथा कहा कि वह स्वयं सोचना शुरू कर दें। इससे लोग काफ़ी अधिक उत्साहित हुए तथा उन्होंने अपनी समस्याओं को स्वयं ही तर्कशील ढंगों से सुलझाने के प्रयास करने शुरू किए।

इस प्रकार नवजागरण समय की विचारधारा समाजशास्त्र के उद्भव के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक बन कर सामने आई। इसे आलोचनात्मक विचारधारा का महत्त्वपूर्ण स्रोत माना गया। इसने लोकतन्त्र तथा स्वतन्त्रता के विचारों को आधुनिक समाज का महत्त्वपूर्ण भाग बताया। इसने जागीरदारी व्यवस्था में मौजूद सामाजिक अन्तरों को काफ़ी हद तक कम कर दिया तथा सम्पूर्ण शक्ति चर्च से लेकर जनता द्वारा चुनी सरकार को सौंप दी।

संक्षेप में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति तथा अमेरिका व फ्रांस की लोकतान्त्रिक क्रान्ति ने उस समय की मौजूदा संगठनात्मक सत्ता को खत्म करके नई सत्ता उत्पन्न की।

(ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास (Growth of Natural Sciences)-19वीं शताब्दी के दौरान प्राकृतिक विज्ञानों का काफ़ी अधिक विकास हुआ। प्राकृतिक विज्ञानों को काफ़ी अधिक सफलता प्राप्त हुई तथा इससे प्रभावित होकर बहुत-से सामाजिक विचारकों ने भी उनका ही रास्ता अपना लिया। उस समय यह विश्वास कायम हो गया कि अगर प्राकृतिक विज्ञानों के तरीकों को अपना कर भौतिक तथा प्राकृतिक घटनाओं को समझा जा सकता है तो इन तरीकों को सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए सामाजिक विज्ञानों पर भी लागू किया जा सकता है। बहुत से समाजशास्त्रियों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट, स्पैंसर, इमाइल, दुर्थीम, मैक्स वैबर इत्यादि ने समाज के अध्ययन में वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग की वकालत की। इससे सामाजिक विज्ञानों में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग शुरू हुआ तथा समाजशास्त्र का उद्भव हुआ।

(iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण (Industrial Revolution and Urbanisation)-समाजशास्त्र का उद्भव औद्योगिक क्रान्ति से भी प्रभावित हुआ। औद्योगिक क्रान्ति का आरम्भ सन् 1750 के बाद यूरोप विशेषतया ब्रिटेन में हुआ। इस क्रान्ति ने सम्पूर्ण यूरोप में काफ़ी अधिक परिवर्तन ला दिए। पहले उत्पादन घरों में होता था जो इस क्रान्ति में आरम्भ होने के पश्चात् उद्योगों में बड़े स्तर पर होने लगा। साधारण ग्रामीण जीवन तथा घरेलू उद्योग खत्म हो गए तथा विभेदीकृत नगरीय जीवन के साथ उद्योगों में उत्पादन सामने आ गया। इसने मध्य काल के विश्वासों, विचारों को बदल दिया तथा प्राचीन समाज आधुनिक समाज में परिवर्तित हो गया।

इसके साथ-साथ औद्योगीकरण ने नगरीकरण को जन्म दिया। नगर और बड़े हो गए तथा बहुत-से नए शहर सामने आ गए। नगरों के बढ़ने से बहुत-सी न खत्म होने वाली समस्याओं का जन्म हुआ जैसे कि काफ़ी अधिक भीड, कई प्रकार के प्रदूषण, ट्रैफिक, शोर-शराबा इत्यादि। नगरीकरण के कारण लाखों की तादाद में लोग गांवों से शहरों की तरफ प्रवास कर गए। परिणामस्वरूप लोग अपने ग्रामीण वातावरण से दूर हो गए तथा शहरों में गन्दी बस्तियाँ सामने आ गईं। नगरों में बहुत-से नए वर्ग सामने आए। अमीर अपने पैसे की सहायता से और अमीर हो गए तथा निर्धन अधिक निर्धन हो गए। नगरों में अपराध भी बढ़ गए।

बहुत से विद्वानों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, मैक्स वैबर, दुर्थीम, सिम्मेल इत्यादि ने महसूस किया कि नई बढ़ रही सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए समाज के वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है। इस प्रकार समाजशास्त्र का उद्भव हुआ तथा धीरे-धीरे इसका विकास होना शुरू हो गया।

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास का अध्ययन क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
उत्तर-
(i) समाजशास्त्र एक बहुत ही नया ज्ञान है जोकि अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही है। अगर हम समाजशास्त्र की अन्य सामाजिक विज्ञानों से तुलना करें तो हमें पता चलता है कि अन्य सामाजिक विज्ञान बहुत ही पुराने हैं जबिक समाजशास्त्र का जन्म ही सन् 1839 में हुआ था। यह समय वह समय था जब न केवल सम्पूर्ण यूरोप बल्कि संसार के अन्य देश भी बहुत-से परिवर्तनों में से निकल रहे थे। इन परिवर्तनों के कारण समाज में बहुत सी समस्याएं आ गई थीं। इन सभी परिवर्तनों, समस्याओं की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक था तब ही समाज कल्याण के बारे में सोचा जा सकता था। इस कारण समाजशास्त्र के उद्भव तथा विकास का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।

(ii) आजकल हमारे तथा यूरोपीय समाजों में बहुत सी समस्याएं मौजूद हैं। अगर हम सभी समस्याओं का ध्यान से अध्ययन करें तो पता चलता है कि इन समस्याओं का जन्म औद्योगिक क्रान्ति के कारण यूरोप में हुआ। बाद में यह समस्याएं बाकी संसार के देशों में पहुंच गईं। अगर हमें इन समस्याओं को दूर करना है तो हमें समाजशास्त्र के उद्भव के बारे में भी जानना होगा जोकि उस समय के दौरान ही हुआ था।

(iii) किसी भी विषय में बारे में जानकारी प्राप्त करने से पहले यह आवश्यक है कि हमें उसके उदभव के बारे में पता हो। इस प्रकार समाजशास्त्र का अध्ययन करने से पहले इसके उद्भव के बारे में अवश्य पता होना चाहिए।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र में नवजागरण युग पर एक टिप्पणी लिखिये।।
उत्तर-
नवजागरण युग अथवा आत्मज्ञान के समय का अर्थ यूरोप ने बौद्धिक इतिहास के उस समय से है जो 18वीं शताब्दी के आरम्भ से शुरू हुआ तथा पूर्ण शताब्दी के दौरान चलता रहा। इस समय से सम्बन्धित बहुतसे विचारक, कल्पनाएं, आंदोलन इत्यादि फ्रांस में ही हुए। परन्तु आत्मज्ञान के विचारक अधिकतर यूरोप के देशों विशेषतया स्कॉटलैंड में ही क्रियाशील थे।

नवजागरण युग को इस बात की प्रसिद्धि प्राप्त है कि इसके मनुष्यों तथा समाज के बारे में नए विचारों की नई संरचनाएं प्रदान की। इस आत्मज्ञान के समय के दौरान कई नए विचार सामने आए तथा जो आगे जाकर मनुष्य की गतिविधियों के आधार बनें। उनका मुख्य केन्द्र सामाजिक संसार था जिसने मानवीय संसार, राजनीतिक तथा आर्थिक गतिविधियां तथा सामाजिक अन्तर्कियाओं के बारे में नए प्रश्न खड़े किए। यह सभी प्रश्न एक निश्चित पहचानने योग्य संरचना (Paradigm) के अन्तर्गत ही पूछे गए। Paradigm कुछ एक-दूसरे से सम्बन्धित विचारों, मूल्यों, नियमों तथा तथ्यों का गुच्छा है जिसके बीच ही स्पष्ट सिद्धान्त सामने आते हैं। आत्मज्ञान के Paradigm के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जैसे कि विज्ञान, प्रगति, व्यक्तिवादिता, सहनशक्ति, स्वतन्त्रता, धर्मनिष्पक्षता, अनुभववाद, विश्ववाद इत्यादि।

मनुष्यों तथा उनके सामाजिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक हालातों के बारे में कई विचार प्रचलित थे। उदाहरण के लिए, 17वीं शताब्दी में महत्त्वपूर्ण विचारकों जैसे कि हॉब्स (Hobbes) [1588-1679] तथा लॉक (Locke) [1632-1704] ने सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दों के ऊपर एक धर्मनिष्पक्ष तथा ऐतिहासिक पक्ष से काफ़ी कुछ लिखा। इसलिए उन्होंने मानवीय गतिविधियों को अपने व्यक्तिगत पक्ष से देखा। मानवीय गतिविधियां मनुष्य द्वारा होती हैं तथा इनमें ऐतिहासिक पक्ष काफ़ी महत्त्वपूर्ण होता है तथा इनमें परिवर्तन आना चाहिए। दूसरे शब्दों में जिन परिस्थितियों के कारण गतिविधियां होती हैं उनसे व्यक्ति अपने हालातों में परिवर्तन ला सकता है।

18वीं शताब्दी के दौरान ही लोगों ने सोचना शुरू कर दिया कि किस प्रकार सामाजिक, आर्थिक तथा ऐतिहासिक प्रक्रियाएं जटिल प्रघटनाएं हैं जिनके अपने ही नियम तथा कानून हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में सोचा जाने लगा कि यह जटिल प्रक्रियाओं की उपज हैं जो सामाजिक दुनिया का अचानक निरीक्षण करके सामने नहीं आए। इस प्रकार समाजों का अध्ययन तथा उनका विकास प्राकृतिक संसार के वैज्ञानिक अध्ययन के साथ नज़दीक हो कर जुड़ गए तथा उनकी तरह नए ढंग करने लग गए।

इन विचारों के सामने लाने में दो विचारकों के नाम प्रमुख हैं : वीको (Vico) [1668-1774] तथा मान्टेस्क्यू (Montesquieu) [1689-1775]। उन्होंने New Science (1725) तथा Spirit of the Laws (748) किताबें क्रमवार लिखीं तथा यह व्याख्या करने का प्रयास किया कि किस प्रकार अलग-अलग सामाजिक हालात विशेष सामाजिक तत्त्वों से प्रभावित होते हैं। दूसरे शब्दों में, विशेष समाजों तथा उनकी कार्य प्रणालियों की व्याख्या करते समय जटिल ऐतिहासिक कारणों को भी शामिल किया जाता है।

रूसो (Rousseau) एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारक था जोकि इस प्रकार के विचार सामने लाने के लिए महत्त्वपूर्ण था। उसने एक पुस्तक ‘Social Contract’ लिखी जिसमें उसने कहा कि किसी देश के लोगों को अपना शासक चुनने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। उसने यह भी लिखा कि अगले लोग स्वयं प्रगति करना चाहते हैं तो यह केवल उनके द्वारा चुनी गई सरकार के अन्तर्गत ही हो सकता है।

नवजागरण के लेखकों ने यह विचार नकार दिया कि समाज तथा देश सामाजिक विश्लेषण की मूल इकाइयां हैं। उन्होंने विचार दिया है कि व्यक्ति ही सामाजिक विश्लेषण का आधार है। उनके अनुसार व्यक्ति में ही गुण, योग्यता तथा अधिकार मौजूद होते हैं तथा इन सामाजिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक सम्पर्क से ही समाज बना था। नवजागरण के लेखकों ने मानवीय कारण को महत्त्वपूर्ण बताया जोकि उस व्यवस्था के विरुद्ध था जिसमें प्रश्न पूछने को उत्साहित नहीं किया जाता था तथा पवित्रता अर्थात् धर्म सबसे प्रमुख थे। उन्होंने इस विचार का समर्थन किया कि अध्ययन के प्रत्येक विषय को मान्यता मिलनी चाहिए, कोई ऐसा प्रश्न न हो जिसका उत्तर न हो तथा मानवीय जीवन के प्रत्येक पक्ष का अध्ययन होना चाहिए। उन्होंने अमूर्त तर्कसंगतता की दार्शनिक परम्परा को प्रयोगात्मक परम्परा के साथ जोड़ दिया। इस जोड़ने का परिणाम एक नए रूप में सामने आया। मनुष्य की पता करने की इच्छा की नई व्यवस्था ने प्राचीन व्यवस्था को गहरा आघात पहंचाया तथा इसने वैज्ञानिक पद्धति से विज्ञान को पढ़ने पर बल दिया। इसने मौजूदा संस्थाओं के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा किया तथा कहा कि इन संस्थाओं में परिवर्तन करने चाहिए जो मानवीय प्रकृति के विरुद्ध हैं। सभी सामाजिक रुकावटों को दूर करना चाहिए जो व्यक्तियों के विकास में रुकावट हैं।

यह नया दृष्टिकोण न केवल प्रयोगसिद्ध (Empirical) तथा वैज्ञानिक था बल्कि यह दार्शनिक (Philosophical) भी था। नवजागरण विचारकों का कहना था कि सम्पूर्ण जगत् ही ज्ञान का स्रोत है तथा लोगों को यह समझ पर इसके ऊपर शोध करनी चाहिए। नए सामाजिक कानून बनाए जाने चाहिए तथा समाज को तर्कसंगत शोध (Empirical Inquiry) के आधार पर विकास करना चाहिए। इस प्रकार के विचार को सुधारवादी (Reformist) कहा जा सकता है जो प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं। यह विचारक इस बात के प्रति आश्वस्त थे कि नई सामाजिक व्यवस्था से प्राचीन सामाजिक व्यवस्था को सुधारा जा सकता है।

इस प्रकार नवजागरण के विचारकों के विचारों से नया सामाजिक विचार उभर कर सामने आया तथा इसमें से ही आरम्भिक समाजशास्त्री निकल कर सामने आए। अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) एक फ्रांसीसी विचारक था जिसने सबसे पहले ‘समाजशास्त्र’ शब्द दिया। पहले उन्होंने इसे सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम दिया जो समाज का अध्ययन करता था। बाद वाले समाजशास्त्रियों ने भी वह विचार अपना लिया कि समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है। नवजागरण विचारकों की तरफ से दिए गए नए. विचारों ने समाजशास्त्र के उद्भव तथा विकास में कई प्रकार से सहायता की। बहुत से लोग मानते हैं कि समाजशास्त्र का जन्म नवजागरण के विचारों तथा रूढ़िवादियों के उनके विरोध से उत्पन्न हुए विचारों के कारण हुआ। अगस्ते काम्ते भी उस रूढ़िवादी विरोध का ही एक हिस्सा था। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने नवजागरण के कुछ विचारों को लिया तथा कहा कि कुछ सामाजिक सुधारों की सहायता से पुरानी सामाजिक व्यवस्था को सम्भाल कर रखा जा सकता है। इस कारण एक रूढ़िवादी समाजशास्त्रीय विचारधारा सामने आयी।

अगस्ते काम्ते भी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता था तथा उसके बाद कार्ल मार्क्स ने भी ऐसा ही किया। कार्ल मार्क्स जर्मनी में पला बड़ा हुआ था जहां नवजागरण का महत्त्व काफ़ी कम रहा जैसे कि इसका महत्त्व इंग्लैंड, फ्रांस तथा उत्तरी अमेरिका में था। अगर हम ध्यान से देखें तो हम देख सकते हैं कि मार्क्स ने काफ़ी हद तक विचार नवजागरण के विचारों के कारण ही सामने आए हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) :

प्रश्न 1.
किसके अनुसार समाजशास्त्र सभी विज्ञानों की रानी है ?
(A) काम्ते
(B) दुर्थीम
(C) वैबर
(D) स्पैंसर।
उत्तर-
(A) काम्ते।

प्रश्न 2.
यह शब्द किसके हैं-“समाजशास्त्र दो भाषाओं की अवैध सन्तान है ?”
(A) मैकाइवर
(B) जिन्सबर्ग
(C) बीयरस्टैड
(D) दुर्थीम।
उत्तर-
(C) बीयरस्टैड।

प्रश्न 3.
इनमें से कौन संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय का समर्थक नहीं है ?
(A) दुर्थीम
(B) वैबर
(C) हाबहाऊस
(D) सोरोकिन।
उत्तर-
(B) वैबर।

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प्रश्न 4.
इनमें से कौन-सी समाजशास्त्र की प्रकृति की विशेषता है ?
(A) यह एक व्यावहारिक विज्ञान न होकर एक विशुद्ध विज्ञान है।
(B) यह एक मूर्त विज्ञानं नहीं बल्कि अमूर्त विज्ञान है।
(C) यह एक निष्पक्ष विज्ञान नहीं बल्कि आदर्शात्मक विज्ञान है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र की विषय वस्तु निश्चित क्यों नहीं है ?
(A) क्योंकि यह प्राचीन विज्ञान है
(B) क्योंकि यह अपेक्षाकृत नया विज्ञान है
(C) क्योंकि प्रत्येक समाजशास्त्री की पृष्ठभूमि अलग है
(D) क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते।
उत्तर-
(D) क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते।

प्रश्न 6.
किताब Social Order के लेखक कौन थे ?
(A) मैकाइवर
(B) सिमेल
(C) राबर्ट बीयरस्टैड
(D) मैक्स वैबर।
उत्तर-
(C) राबर्ट बीयरस्टैड।

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प्रश्न 7.
किसने समाजशास्त्र को Social Morphology, Social Physiology तथा General Sociology में बांटा है ?
(A) स्पैंसर
(B) दुर्थीम
(C) काम्ते
(D) वैबर।
उत्तर-
(B) दुर्थीम।

प्रश्न 8.
वैबर के अनुसार इनमें से क्या ठीक है ? ।
(A) साधारण प्रक्रियाओं का भी समाजशास्त्र है।
(B) समाजशास्त्र का स्वरूप साधारण है।
(C) समाजशास्त्र विशेष विज्ञान नहीं है।
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) समाजशास्त्र विशेष विज्ञान नहीं है।

प्रश्न 9.
सबसे पहले किस देश में समाजशास्त्र का स्वतन्त्र रूप में अध्ययन शुरू हुआ था ?
(A) फ्रांस
(B) जर्मनी
(C) अमेरिका
(D) भारत।
उत्तर-
(C) अमेरिका।

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प्रश्न 10.
किसने कहा था कि समाजशास्त्र का नाम ETHOLOGY रखना चाहिए ?
(A) वैबर
(B) स्पैंसर
(C) जे० एस० मिल
(D) काम्ते।
उत्तर-
(C) जे० एस० मिल।

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. …………. ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।
2. समाजशास्त्र में सर्वप्रथम प्रकाशित पुस्तक …….. थी।
3. समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र से संबंधित ……….. सम्प्रदाय हैं।
4. वैबर समाजशास्त्र के ……….. सम्प्रदाय से संबंधित है।
5. दुर्थीम समाजशास्त्र के ………… सम्प्रदाय से संबंधित है।
6. ………… के जाल को समाज कहते हैं।
7. …………. ने समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम दिया था।
उत्तर-

  1. अगस्ते काम्ते,
  2. Principles of Sociology,
  3. दो,
  4. स्वरूपात्मक,
  5. संश्लेषणात्मक,
  6. सामाजिक संबंधों,
  7. काम्ते।

III. सही/गलत (True/False) :

1. मैक्स वैबर को समाजशास्त्र का पिता माना जाता है।
2. सबसे पहले 1839 में समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग किया गया था।
3. किताब Society के लेखक मैकाइवर तथा पेज थे।
4. सिम्मेल स्वरूपात्मक सम्प्रदाय से संबंधित थे।
5. फ्रांसीसी क्रांति का समाजशास्त्र के उद्भव में कोई योगदान नहीं था।
6. पुनः जागरण आंदोलन ने समाजशास्त्र के उद्भव में योगदान दिया।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. सही,
  5. गलत,
  6. सही।

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IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers):

प्रश्न 1.
किताब Sociology किसने लिखी थी ?
उत्तर-
किताब Sociology के लेखक हैरी एम० जॉनसन थे।

प्रश्न 2.
किताब Society के लेखक………….थे।
उत्तर-
किताब Society के लेखक मैकाइवर तथा पेज थे।

प्रश्न 3.
………….ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।

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प्रश्न 4.
किताब Cultural Sociology के लेखक कौन हैं ?
उत्तर-
किताब Cultural Sociology के लेखक गिलिन तथा गिलिन थे।

प्रश्न 5.
काम्ते के अनुसार समाजशास्त्र के मुख्य भाग कौन-से हैं ?
उत्तर-
काम्ते के अनुसार समाजशास्त्र के मुख्य भाग सामाजिक स्थैतिकी एवं सामाजिक गत्यात्मकता है।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र में सर्वप्रथम कौन-सी पुस्तक छपी थी ?
उत्तर-
समाजशास्त्र में सर्वप्रथम छपने वाली पुस्तक Principles of Sociology थी।

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प्रश्न 7.
स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक कौन थे ?
उत्तर-
सिमेल, वीरकांत, वैबर स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक थे।

प्रश्न 8.
संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक कौन थे ?
उत्तर-
दुर्थीम, सोरोकिन, हाबहाऊस इत्यादि संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक थे।

प्रश्न 9.
समाजशास्त्र का पिता किस को माना जाता है?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) को समाजशास्त्र का पिता माना जाता है जिन्होंने इसे सामाजिक भौतिकी का नाम दिया था।

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प्रश्न 10.
काम्ते ने समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार…………में किया था।
उत्तर-
काम्ते ने समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार 1839 में किया था।

प्रश्न 11.
समाजशास्त्र क्या होता है?
उत्तर-
समाज में पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र कहा जाता है।

प्रश्न 12.
समाज क्या होता है?
उत्तर-
मैकाइवर तथा पेज के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों के जाल को समाज कहते हैं।

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प्रश्न 13.
किस समाजशास्त्री ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान का रूप दिया था?
उत्तर-
फ्रांसीसी समाजशास्त्री इमाईल दुीम (Emile Durkheim) ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान का रूप दिया था।

प्रश्न 14.
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में कितने सम्प्रदाय प्रचलित हैं?
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय-स्वरूपात्मक तथा संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय प्रचलित है।

प्रश्न 15.
समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम किसने दिया था?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम दिया था।

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प्रश्न 16.
समाजशास्त्र कौन-से दो शब्दों से बना है?
उत्तर-
समाजशास्त्र लातीनी भाषा के शब्द Socio तथा ग्रीक भाषा के शब्द Logos से मिलकर बना है।

अति लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का अर्थ।
उत्तर-
समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र अथवा समाज विज्ञान कहा जाता है। समाजशास्त्र में समूहों, संस्थाओं, सभाओं, संगठन तथा समाज के सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तथा यह अध्ययन वैज्ञानिक तरीके से होता है ।

प्रश्न 2.
चार प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों के नाम।
उत्तर-

  1. अगस्ते काम्ते – इन्होंने समाजशास्त्र को शुरू किया
  2. इमाइल दुर्थीम – इन्होंने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक रूप दिया
  3. कार्ल मार्क्स – इन्होंने समाजशास्त्र को संघर्ष का सिद्धांत दिया
  4. मैक्स वैबर – इन्होंने समाजशास्त्र को क्रिया का सिद्धांत दिया ।

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प्रश्न 3.
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र में सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक प्रक्रियाएं, सामाजिक संहिताएं, संस्कृति, सभ्यता, सामाजिक संगठन, सामाजिक अंशाति, समाजीकरण, रोल, पद, सामाजिक नियन्त्रण इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 4.
समाज का अर्थ।
उत्तर-
समाजशास्त्र में समाज का अर्थ है कि विशेष प्रकार के सामाजिक संबंधों के संगठन का पाया जाना तथा इसमें संगठन उन लोगों के बीच होता है जो काफ़ी समय से एक ही स्थान पर इकट्ठे रहते हों।

प्रश्न 5.
परिकल्पना।
उत्तर-
परिकल्पना का अर्थ चुने हुए तथ्यों के बीच पाए गए संबंधों के बारे में कल्पना किए हुए शब्दों से होता है जिसके साथ वैज्ञानिक जाँच की जा सकती है परिकल्पना को हम दूसरे शब्दों में सम्भावित उत्तर कह सकते हैं।

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प्रश्न 6.
स्वरूपात्मक विचारधारा।
उत्तर-
इस विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जिस कारण यह विशेष विज्ञान है। कोई अन्य विज्ञान सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन नहीं करता केवल समाजशास्त्र करता है।

प्रश्न 7.
समन्वयात्मक विचारधारा।
उत्तर-
इस विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक साधारण विज्ञान है क्योंकि इसका अध्ययन क्षेत्र काफ़ी बड़ा तथा विस्तृत है। समाजशास्त्र सम्पूर्ण समाज का तथा सामाजिक संबंधों के मूर्त रूप का अध्ययन करता है।

प्रश्न 8.
समाजशास्त्र का महत्त्व।
उत्तर-

  • समाजशास्त्र पूर्ण समाज को एक इकाई मान कर अध्ययन करता है।
  • समाजशास्त्र सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करके उन्हें दूर करने में सहायता करता है।
  • समाजशास्त्र हमें संस्कृति को ठीक ढंग से समझने में सहायता करता है।

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प्रश्न 9.
समाजशास्त्र एक विज्ञान है ।
उत्तर-
जी हां, समाजशास्त्र एक विज्ञान है क्योंकि यह अपने विषय क्षेत्र का वैज्ञानिक विधियों को प्रयोग करके उसका निष्पक्ष ढंग से अध्ययन करता है। इस कारण हम इसे विज्ञान कह सकते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न 

प्रश्न 1.
समाज शास्त्र।
उत्तर-
फ्रांसिसी वैज्ञानिक अगस्ते काम्ते को समाज शास्त्र का पितामह माना गया है। सोशोलोजी शब्द दो शब्दों लातीनी (Latin) शब्द सोशो (Socio) व यूनानी (Greek) शब्द लोगस (Logos) से मिल कर बना है। Socio का अर्थ है समाज व लोगस का अर्थ है विज्ञान, अर्थात् कि समाज का विज्ञान्, अर्थ भरपूर शब्दों के अनुसार समाजशास्त्र का अर्थ समूहों, संस्थाओं, सभाओं, संगठन व समाज के सदस्य के अन्तर सम्बन्धों का वैज्ञानिक अध्ययन. करना व सामाजिक सम्बन्धों में पाए जाने वाले रीति-रिवाज, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि सब का समाजशास्त्र में अध्ययन किया जाता है। इसके अलावा संस्कृति का ही अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ।
उत्तर-
समाजशास्त्र (Sociology) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। Sociology दो शब्दों Socio व Logus से मिल कर बना है। Socio लातीनी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘समाज’ व Logos यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है विज्ञान। इस प्रकार Sociology का अर्थ है समाज का विज्ञान जो मनुष्य के समाज का अध्ययन करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 3.
समाजशास्त्र के जनक किसे माना जाता है व कौन-से सन् में इसको समाजशास्त्र का नाम प्राप्त हुआ ?
उत्तर-
फ्रांसिसी दार्शनिक अगस्ते काम्ते को परम्परागत तौर पर समाजशास्त्र का पितामह माना गया। इसकी प्रसिद्ध पुस्तक “पॉजीटिव फिलासफी” छ: भागों में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में काम्ते ने सन् 1838 में समाज के सम्बन्ध में जटिल अध्ययन करने के लिए जिस विज्ञान की कल्पना की उसका नाम उसने सोशोलोजी रखा।

प्रश्न 4.
वैज्ञानिक विधि।
उत्तर-
वैज्ञानिक विधि में हमें ऐसी समस्या का चुनाव करना चाहिए जो अध्ययन इस विधि के योग्य हो तथा इस समस्या के बारे में जो कोई खोज पहले हो चुकी हो तो हमें जितना भी साहित्य मिले अथवा सर्वेक्षण करना चाहिए। परिकल्पनाओं का निर्माण करना अनिवार्य होता है ताकि बाद में यह खोज का अवसर बन सके। इसके अलावा वैज्ञानिक विधि को अपनाते हुए सामग्री एकत्र करने की खोज को योजनाबद्ध करना पड़ता है ताकि इसका विश्लेषण व अमल किया जा सके। एकत्र की सामग्री का निरीक्षण वैज्ञानिक विधि का प्रमुख आधार होता है। इसमें किसी भी तकनीक को अपनाया जा सकता है व बाद में रिकॉर्डिंग करके सामग्री का विश्लेषण किया जाना चाहिए।

प्रश्न 5.
समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधि का इस्तेमाल कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के लिए कई वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है। तुलनात्मक विधि, ऐतिहासिक विधि, वैरस्टीन विधि आदि (Comparatve method, Historical method and Versten method etc.) कई प्रकार की विधियों का प्रयोग करके सामाजिक समस्याएं सुलझाता है। यह सब विधियों वैज्ञानिक हैं। समाज शास्त्र का ज्ञान व्यवस्थित है। यह वैज्ञानिक विधि का उपयोग करके ही ज्ञान प्राप्त करता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र कैसे एक विज्ञान है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसमें समस्या को केवल “क्या है” के बारे ही नहीं बल्कि “क्यूं” व “कैसे” का भी अध्ययन करते हैं। समाज की यथार्थकता का भी पता हम लगा सकते हैं। समाजशास्त्र में भविष्यवाणी ही सहायी सिद्ध होती है। इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र में वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन भी किया जाता है। इसी कारण इसे हम एक विज्ञान भी स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 7.
समाजशास्त्र में प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग कैसे नहीं कर सकते ?
उत्तर-
समाजशास्त्र का विषय-वस्तु समाज होता है व यह मानवीय व्यवहारों व सम्बन्धों का अध्ययन करता है। मानवीय व्यवहारों में बहुत भिन्नता पाई जाती है। यदि हम बहन-भाई या माता-पिता या माता-पुत्र आदि सम्बन्धों को ले लें तो कोई भी दो बहनें, दो भाई इत्यादि का व्यवहार हमें एक जैसा नहीं मिलेगा। प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) में इस प्रकार की विभिन्नता नहीं पाई जाती बल्कि सर्व-व्यापकता पाई जाती है। इस कारण प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग हम प्राकृतिक विज्ञान में कर सकते हैं व समाज शास्त्र में इस विधि का प्रयोग करने में असमर्थ होते हैं। क्योंकि मानवीय व्यवहार में स्थिरता बहुत कम होती है।

प्रश्न 8.
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में बताएं ।
उत्तर-
समाज, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है व समाजशास्त्र इसका वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इस अध्ययन में समाजशास्त्र सारे ही सामाजिक वर्गों का, सभाओं का, संस्थाओं आदि का अध्ययन करता है। समाज शास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो प्रकार के विचार पाए गए हैं-

  • स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School) के अनुसार यह विशेष विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है। इसके मुख्य समर्थक जार्ज सिमल, मैक्स वैबर, स्माल, वीरकान्त, वान विज़े, रिचर्ड इत्यादि हैं।
  • समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School) के अनुसार यह एक सामान्य विज्ञान है। इसके मुख्य समर्थक इमाइल दुर्थीम, हाब हाऊस व सोरोकिन हैं। .

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 9.
समाजशास्त्र भविष्यवाणी नहीं कर सकता।
उत्तर-
समाजशास्त्र प्राकृतिक विज्ञान की भांति भविष्यवाणी नहीं कर सकता। यह सामाजिक सम्बन्धों व प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है। यह सम्बन्ध व प्रतिक्रियाएं प्रत्येक समाज में अलग-अलग होती हैं व इनमें परिवर्तन आते रहते हैं। समाज शास्त्र की विषय सामग्री की इस प्रकृति की वजह के कारण यह भविष्यवाणी करने में असमर्थ है। जैसे प्राकृतिक विज्ञान में भविष्यवाणी की जाती है। उसी तरह की समाजशास्त्र में भी भविष्यवाणी करनी सम्भव नहीं है। कारण यह है कि समाजशास्त्र का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों या व्यवहारों से होता है व यह अस्थिर होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक समाज अलग-अलग होने के साथ-साथ परिवर्तनशील भी होते हैं। अतः सामाजिक सम्बन्धों की इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखते हुए हम सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन में यथार्थवता नहीं ला सकते।

प्रश्न 10.
अगस्ते काम्ते।
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का पितामह (Father of Sociology) माना जाता है। 1839 में अगस्ते काम्ते ने कहा कि जिस प्रकार प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन अलग-अलग प्राकृतिक विज्ञान करते हैं, उस प्रकार समाज का अध्ययन भी एक विज्ञान करता है जिसे उन्होंने सामाजिक भौतिकी का नाम दिया। बाद में उन्होंने सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम परिवर्तित करके समाजशास्त्र कर दिया। काम्ते ने सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत, विज्ञानों का पदक्रम, सकारात्मकवाद इत्यादि जैसे संकल्प समाजशास्त्र को दिए।

प्रश्न 11.
यूरोप में समाजशास्त्र का विकास।
उत्तर-
महान् फ्रांसीसी विचारक अगस्ते काम्ते ने 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में समाज के विज्ञान को सामाजिक भौतिकी का नाम दिया। 1839 में उन्होंने इसका नाम परिवर्तित करके समाजशास्त्र रख दिया। 1843 में J.S. Mill ने ब्रिटेन में समाजशास्त्र को शुरू किया। हरबर्ट स्पैंसर ने अपनी पुस्तक Principles of Sociology से समाज का वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण किया। सबसे पहले अमेरिका ने 1876 में Yale University में समाजशास्त्र का अध्ययन स्वतन्त्र विषय रूप में हुआ। दुर्शीम ने अपनी पुस्तकों से समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विषय के रूप में विकसित किया। इस प्रकार कार्ल मार्क्स तथा वैबर ने भी इसे कई सिद्धांत दिए तथा इस विषय का विकास किया।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 12.
फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र।
उत्तर-
1789 ई० में फ्रांसीसी क्रान्ति आई तथा फ्रांसीसी समाज में अचानक ही बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। राजनीतिक सत्ता परिवर्तित हो गई तथा सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आए। क्रान्ति से पहले बहुत से विचारकों ने परिवर्तन के विचार दिए। इससे समाजशास्त्र के बीज बो दिए गए तथा समाज के अध्ययन की आवश्यकता महसूस होने लग गयी। अलग-अलग विचारकों के विचारों से इसकी नींव रखी गई तथा इसे सामने लाने का कार्य अगस्ते काम्ते ने पूर्ण किया जो स्वयं एक फ्रांसीसी नागरिक था।

प्रश्न 13.
नवजागरण काल तथा समाजशास्त्र।
उत्तर-
नवजागरण काल ने समाजशास्त्र के उद्भव में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसका समय 18वीं शताब्दी की शुरूआत में शुरू हुआ तथा पूरी शताब्दी चलता रहा। इस समय के विचारकों जैसे कि वीको (Vico), मांटेस्क्यू (Montesquieu), रूसो Rousseou) इत्यादि ने ऐसे विचार दिए जो समाजशास्त्र के जन्म में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन सभी ने घटनाओं का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया तथा कहा कि किसी भी वस्तु को तर्कसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज को तर्कसंगत व्याख्या के आधार पर विकसित करना चाहिए। इस प्रकार इन विचारों से नया सामाजिक विचार उभर कर सामने आया तथा इसमें से ही प्रारंभिक समाजशास्त्री निकले।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न :

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र की उत्पत्ति में अलग-अलग चरणों का वर्णन करें।
उत्तर-
मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। अपने जीवन के प्रारम्भिक स्तर से ही उसमें अपने इर्द-गिर्द के बारे में पता करने की इच्छा होती है। उसने समय-समय पर उत्पन्न हुई समस्याओं को दूर करने के लिए सामूहिक प्रयास किए। व्यक्तियों के बीच हुई अन्तक्रियाओं के साथ सामाजिक सम्बन्ध विकसित हुए जिससे नए-नए समूह हमारे सामने आए। मनुष्य के व्यवहार को अलग-अलग परम्पराओं तथा प्रथाओं की सहायता से नियन्त्रण में रखा जाता रहा है। इस प्रकार मनुष्य अलग-अलग पक्षों को समझने का प्रयास करता रहा है।

समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास के चरण (Stages of Origin and Development of Sociology)—समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया जाता है-

1. प्रथम चरण (First Stage)-समाजशास्त्र के विकास के प्रथम चरण को दो भागों में विभाजित करके बेहतर ढंग से समझा जा सकता है
(i) वैदिक तथा महाकाव्य काल (Vedic And Epic Era)—चाहे समाजशास्त्र के विकास की प्रारम्भिक अवस्था की शुरुआत को साधारणतया यूरोप से माना जाता है। परन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत के ऋषियों-मुनियों ने सम्पूर्ण भारत का विचरण किया तथा यहां के लोगों की समस्याओं अथवा आवश्यकताओं का गहरा अध्ययन तथा उनका मंथन किया। उन्होंने भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था को विकसित किया। इस बात का उल्लेख संसार के सबसे प्राचीन तथा भारत में लिखे महान् ग्रन्थ ऋग्वेद (Rig Veda) में मिलता है। वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत, रामायण, गीता इत्यादि जैसे ग्रन्थों से भारत में समाजशास्त्र की शुरुआत हुई। वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त आश्रम व्यवस्था, चार पुरुषार्थ, ऋणों की धारणा, संयुक्त परिवार इत्यादि भारतीय समाज में विकसित प्राचीन संस्थाओं में से प्रमुख है। इन धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भारत की उस समय की समस्याओं का समाजशास्त्रीय विश्लेषण देखने को मिलता है।

(ii) ग्रीक विचारकों के अध्ययन (Studies of Greek Scholars)-सुकरात के पश्चात् प्लैटो (Plato) (427-347 B.C.) तथा अरस्तु (Aristotle) (384-322 B.C.) ग्रीक विचारक हुए। प्लैटो ने रिपब्लिक तथा अरस्तु ने Ethics and Politics में उस समय के पारिवारिक जीवन, जनरीतियों, परम्पराओं, स्त्रियों की स्थिति इत्यादि का विस्तार से अध्ययन किया है। प्लैटो ने 50 से अधिक तथा अरस्तु ने 150 से अधिक छोटे बड़े राज्यों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व्यवस्थाओं का अध्ययन किया तथा अपने विचार दिए हैं।

2. द्वितीय चरण (Second Stage)-समाजशास्त्र के विकास के द्वितीय चरण में 6वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक का काल माना जाता है। इस काल के प्रारम्भिक चरण में सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए धर्म तथा दर्शन की सहायता ली गई। परन्तु 13वीं शताब्दी में समस्याओं को तार्किक ढंग से समझने का प्रयास किया गया। थॉमस एकन्युस (Thomes Acquines) तथा दांते (Dante) ने सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए कार्य कारण के सम्बन्ध को स्पष्ट किया। इस प्रकार समाजशास्त्र की रूपरेखा बनने लंग गई।

3. तृतीय अवस्था (Third Stage) समाजशास्त्र के विकास के तृतीय चरण को शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई। इस समय में कई ऐसे महान् विचारक हुए जिन्होंने सामाजिक घटनाओं के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया। हाब्स (Hobbes), लॉक (Locke) तथा रूसो (Rouseau) ने सामाजिक समझौते का सिद्धान्त दिया। थॉमस मूर (Thomes Moore) ने अपनी पुस्तक यूटोपिया (Utopia), मान्टेस्क्यू (Montesque) ने अपनी पुस्तक The Spirit of Laws, माल्थस (Malthus) ने अपनी पुस्तक जनसंख्या के सिद्धान्त’ की सहायता स्ने सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करके समाजशास्त्र के विकास में अपना योगदान दिया।

4. चतुर्थ चरण (Fourth Stage)-महान् फ्रांसीसी विचारक अगस्ते काम्ते (Auguste) ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में समाज के विज्ञान को सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम दिया। 1838 में उन्होंने इसका नाम बदल कर समाजशास्त्र (Sociology) रख दिया। उन्हें समाजशास्त्र का पितामह (Father of Sociology) भी कहा जाता है।

1843 में जे० एस० मिल (J.S. Mill) ने इग्लैंड में समाजशास्त्र को शुरू किया। हरबर्ट स्पैंसर ने अपनी पुस्तक Principles of Sociology तथा Theory of Organism से समाज का वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण किया। सबसे पहले अमेरिका की Yalo University में 1876 ई० में समाजशास्त्र का अध्ययन स्वतन्त्र विषय के रूप में हुआ। दुर्थीम ने अपनी पुस्तकों की सहायता से समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में विकसित करने लिए लिए योगदान दिया। मैक्स वैबर तथा अन्य समाजशात्रियों ने भी बहुत से समाजशास्त्रीय सिद्धान्त दिए। वर्तमान समय में संसार के लगभग सभी देशों में यह विषय स्वतन्त्र रूप में नया ज्ञान एकत्र करने का प्रयास कर रहा है।

भारत में समाजशास्त्र का विकास (Development of Sociology in India) भारत में समाजशास्त्र के विकास को निम्नलिखित कई भागों में बांटा जा सकता है-

1. प्राचीन भारत में समाजशास्त्र का विकास (Development of Sociology in Ancient India)भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति प्राचीन काल से ही शुरू हो गई थी। महर्षि वेदव्यास ने चार वेदों का संकल्प किया तथा महाभारत जैसे काव्य की रचना की। रामायण की रचना की गई। इनके अतिरिक्त उपनिषदों, पुराणों तथा स्मृतियों में प्राचीन भारतीय दर्शन की विस्तार से व्याख्या की गई है। इन सभी से पता चलता है कि प्राचीन भारत में विचारधारा उच्च स्तर की थी। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि प्राचीन भारत की समस्याओं, आवश्यकताओं, घटनाओं, तथ्यों, मूल्यों, आदर्शों, विश्वासों इत्यादि का गहरा अध्ययन किया गया है। वर्तमान समय में भारतीय समाज में मिलने वाली कई संस्थाओं की शुरुआत प्राचीन समय में ही हुई थी। इनमें वर्ण, आश्रम, पुरुषार्थ, धर्म, संस्कार, संयुक्त परिवार इत्यादि प्रमुख हैं।

चाणक्य का अर्थशास्त्र, मनुस्मृति तथा शुक्राचार्य का नीति शास्त्र जैसे ग्रन्थ प्राचीन काल की परम्पराओं, प्रथाओं, मूल्यों, आदर्शों, कानूनों इत्यादि पर काफ़ी रोशनी डालते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल से ही भारत में समाजशास्त्र का प्रारम्भ हो गया था।
मध्यकाल में आकर भारत में मुसलमानों तथा मुग़लों का राज्य रहा। उस समय की रचनाओं से भारत की उस समय की विचारधारा, संस्थाओं, सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है।

2. समाजशास्त्र का औपचारिक स्थापना युग (Formal Establishment Era Sociology)-1914 से 1947 तक का समय भारत में समाजशास्त्र की स्थापना का काल माना जाता है। भारत में सबसे पहले बंबई विश्वविद्यालय में 1914 में स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू हुआ। 1919 से अंग्रेज़ समाजशास्त्री पैट्रिक गिड़डस (Patric Geddes) ने यहां एम० ए० (M.A.) स्तर पर समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू किया। जी० एस० घूर्ये (G. S. Ghurya) उनके ही विद्यार्थी थे। प्रो० वृजेन्द्रनाथ शील के प्रयासों से 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू हुआ। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ० राधा कमल मुखर्जी तथा डॉ० डी० एन० मजूमदार उनके ही विद्यार्थी थे। चाहे 1947 तक भारत में समाजशास्त्र के विकास की गति कम थी परन्तु उस समय तक देश के बहुत से विश्वविद्यालियों में इसे पढ़ाने का कार्य शुरू हो गया था।

3. समाजशास्त्र का प्रसार युग (Expension Era of Sociology)-1947 में स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के बहुत से विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। वर्तमान समय में देश के लगभग सभी कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में इस विषय को पढ़ाया जा रहा है। विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त कई संस्थाओं में शोधकार्य चल रहे हैं।

Tata Institute of Social Science, Mumbai, Institute of Social Science, Agra, Institute of Sociology and Social work Lacknow I.I.T. Kanpur and I.I.T. Delhi इत्यादि देश के कुछेक प्रमुख संस्थान हैं जहां समाजशास्त्रीय शोध के कार्य चल रहे हैं। इनसे समाजशास्त्रीय विधियों तथा इसके ज्ञान में लगातार बढ़ौतरी हो रही है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 2.
फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र के विकास की विस्तार से चर्चा करें।
उत्तर-
सामाजिक विचार उतना ही प्राचीन है जितना समाज स्वयं है, चाहे सामाजशास्त्र का जन्म 19वीं शताब्दी के पश्चिमी यूरोप में देखा जाता है। कई बार समाजशास्त्र को ‘क्रान्ति युग का बालक’ भी कहा जाता है। वह क्रान्तिकारी परिवर्तन जो पिछली तीन सदियों में आए हैं, उन्होंने आज के समय में लोगों के जीवन जीने के तरीके सामने लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परिवर्तनों में ही समाजशास्त्र का उद्भव ढूंढ़ा जा सकता है। समाजशास्त्र ने सामाजिक उथल-पुथल (Social Upheavel) के समय में जन्म लिया था। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने जो विचार दिए, उनकी जड़ों में उस समय के यूरोप के सामाजिक हालातों में मौजूद थी।

यूरोप में आधुनिक युग तथा आधुनिकता को अवस्था ने तीन प्रमुख अवस्थाओं को सामने लाया तथा वह
थे प्रकाश युग (The Elightenment Period), फ्रांसीसी क्रान्ति (The French Revolution) तथा औद्योगिक क्रान्ति (The Industrial Revolution)। समाजशास्त्र का जन्म इन तीन अवस्थाओं अथवा प्रक्रियाओं की तरफ से लाए गए परिवर्तनों के कारण हुआ।

फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र का उद्भव (The French Revolution and Emergence of Sociology) —फ्रांसीसी क्रान्ति 1789 ई० में हुई तथा यह स्वतन्त्रता व समानता प्राप्त करने के मानवीय संघर्ष में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड़ (Turning point) साबित हुई। इससे यूरोप के समाज की राजनीतिक संरचना को बदल कर रख दिया। इसने जागीरदारी युग को खत्म कर दिया तथा समाज में एक नई व्यवस्था स्थापित की। इसने जागीरदारी व्यवस्था के स्थान पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को स्थापित किया।

फ्रांसीसी क्रान्ति से पहले फ्रांसीसी समाज तीन भागों में विभाजित था। प्रथम वर्ग पादरी वर्ग (Clergy) था। दूसरा वर्ग कुलीन (Nobility) वर्ग था तथा तीसरा वर्ग साधारण जनता का वर्ग था। प्रथम दो वर्गों की कुल संख्या फ्रांस की जनसंख्या का 2% थी, परन्तु उनके पास असीमित अधिकार थे। वह सरकार को कोई टैक्स नहीं देते थे। परन्तु तीसरा वर्ग को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे तथा उन्हें सभी टैक्सों का भार सहना पड़ता था। इन तीनों वर्गों की व्याख्या निम्नलिखित है-

1. प्रथम वर्ग-पादरी वर्ग (The First Order-Clergy)-यूरोप के सामाजिक जीवन में रोमन कैथोलिक चर्च सबसे प्रभावशाली तथा ताकतवर संस्था थी। अलग-अलग देशों में बहुत-सी भूमि चर्च के नियन्त्रण में थी। इसके अतिरिक्त चर्च को भूमि उत्पादन का 10% हिस्सा (Tithe) भी मिलता था। चर्च का ध्यान पादरी (Clergy) रखते थे तथा यह समाज का प्रथम वर्ग था। पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था तथा वह थे उच्च पादरी वर्ग तथा निम्न पादरी वर्ग (Upper Clergy and Lower Clergy)। उच्च पादरी वर्ग के पादरी कुलीन परिवारों से सम्बन्धित थे तथा चर्च की सम्पत्ति पर वास्तव में इनका अधिकार होता था। टीथे (Tithe) टैक्स का अधिकतर हिस्सा इनकी जेबों में जाता था। उनके पास विशेष अधिकार थे तथा वह सरकार को कोई टैक्स नहीं देते थे। वह काफ़ी अमीर थे तथा ऐश से भरपूर जीवन जीते थे। निम्न वर्ग में पादरी साधारण लोगों के परिवारों से सम्बन्धित थे। वह पूर्ण ज़िम्मेदारी से अपना कार्य करते थे। वह लोगों को धार्मिक शिक्षा देते थे। वह जन्म, विवाह, बपतिस्मा, मृत्यु इत्यादि से सम्बन्धित संस्कार पूर्ण करते थे तथा चर्च के स्कूलों को भी सम्भालते थे।

2. द्वितीय वर्ग-कुलीन वर्ग (Second Order-Nobility)-फ्रैंच समाज का द्वितीय वर्ग कुलीन वर्ग से सम्बन्धित था। वह फ्रांस की 2.5 करोड़ की जनसंख्या का केवल 4 लाख थे अर्थात् कुल जनसंख्या के 2% हिस्से से भी कम थे। शुरू से ही यह तलवार का प्रयोग करते थे तथा साधारण जनता की सुरक्षा के लिए लड़ते थे। इसलिए उन्हें तलवार का कुलीन (Nobles of Sword) भी कहा जाता था। यह भी दो भागों में विभाजित थे-पुराने कुलीन तथा नए कुलीन। पुराने कुलीन देश की कुल भूमि के 1/5 हिस्से के मालिक थे। कुलीन की स्थिति पैतृक थी क्योंकि उन्हें वास्तविक तथा पवित्र कुलीन कहा जाता था। यह सभी जागीरदारी होते थे। कुछ समय के लिए इन्होंने प्रशासक, जजों तथा फौजी नेताओं का भी कार्य किया। यह ऐश भरा जीवन जीते थे। इन्हें कई प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। नए कुलीन वह कुलीन थे जिन्हें राजा ने पैसे लेकर कुलीन का दर्जा दिया था। इस वर्ग ने 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ समय के बाद इसकी स्थिति भी पैतृक हो गई।

3. तृतीय वर्ग-साधारण जनता (Thrid Order-Commoners)-कुल जनसंख्या के केवल 2% प्रथम दो वर्गों से सम्बन्धित थे तथा 98% जनता तृतीय वर्ग से सम्बन्धित थी। यह वर्ग अधिकार रहित वर्ग था जिसमें अमीर उद्योगपति तथा निर्धन भिखारी भी शामिल थे। किसान, मध्यवर्ग, मज़दूर, कारीगर तथा अन्य निर्धन वर्ग इस समूह में शामिल थे। इन लोगों को किसी भी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। इस कारण इस समूह ने पूर्ण दिल से 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति में भाग लिया। उद्योगपति, व्यापारी, शाहूकार, डॉक्टर, वकील, विचारक, अध्यापक, पत्रकार इत्यादि मध्य वर्ग में शामिल थे। मध्य वर्ग ने फ्रांसीसी क्रान्ति की अगुवाई की। मजदूरों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें तो न केवल कम तनखाह मिलती थी बल्कि उन्हें बेगार (Forced Labour) भी करनी पड़ती थी। इन लोगों ने निर्धनता के कारण ढंगों में भाग लिया। यह लोग क्रान्ति के दौरान भीड़ में शामिल हो गए।

क्रान्ति की शुरुआत (Outbreak of Revolution)-लुई XVI फ्रांस का राजा बना तथा फ्रांस में वित्तीय संकट आया हुआ था। इस कारण उसे देश का रोज़ाना कार्य चलाने के लिए पैसे की आवश्यकता थी। वह लोगों पर नए टैक्स लगाना चाहता था। इस कारण उसे ऐस्टेट जनरल (Estate General) की मीटिंग बुलानी पड़ी जोकि एक बहुत पुरानी संस्था थी। पिछले 150 वर्षों में इसकी मीटिंग नहीं हुई थी। 5 मई, 1789 को ऐस्टेट जनरल की मीटिंग हुई तथा तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों ने मांग की कि सम्पूर्ण ऐस्टेट की इकट्ठी मीटिंग हो तथा वह एक सदन की तरह वोट करें। 20 जून, 1789 को देश की मीटिंग हाल पर सरकारी गार्डों ने कब्जा कर लिया। परन्तु तृतीय वर्ग मीटिंग के लिए बेताब था। इसलिए वह टैनिस कोर्ट में ही नया संविधान बनाने में लग गए। यह फ्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत थी।

फ्रांसीसी क्रान्ति की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना 14 जुलाई, 1789 को हुई। जब पैरिस की भीड़ ने बास्तील जेल पर धावा बोल दिया। उन्होंने सभी कैदियों को स्वतन्त्र करवा लिया। फ्रांस में इस दिन को स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। अब लुई XVI केवल नाम का ही राजा था। नैशनल असेंबली को बनाया गया ताकि फ्रांसीसी संविधान बनाया जा सके। इसने नए कानून बनाने शुरू किए। इसने मशहूर (Declaration of the right of man and citizen) बनाया। इस घोषणापत्र से कुछ महत्त्वपूर्ण घोषणाएं की गई जिसमें कानून के सामने समानता, बोलने की स्वतन्त्रता, प्रेस की स्वतन्त्रता तथा सभी नागरिकों की सरकारी दफ्तरों में पात्रता की घोषणा शामिल थी।

1791 में फ्रांस के राजा ने भागने का प्रयास किया परन्तु उसे पकड़ लिया गया तथा वापस लाया गया। उसे जेल में फेंक दिया गया तथा 21 जनवरी, 1793 को उसे जनता के सामने मार दिया गया। इसके साथ ही फ्रांस को गणराज्य (Republic) घोषित कर दिया गया। परन्तु इसके बाद आतंक का दौर शुरू हुआ तथा जिन कुलीनों, पादरियों तथा क्रान्तिकारियों ने सरकार का विरोध किया, उन्हें मार दिया गया। यह आतंक का दौर लगभग तीन वर्ष तक चला।

1795 में फ्रांस में Directorate की स्थापना हुई। Directorate 4 वर्ष तक चली तथा 1799 में नेपोलियन ने इसे हटा दिया। उसने स्वयं को पहले Director तथा बाद में राजा घोषित कर दिया। इस प्रकार नेपोलियन द्वारा Directorate को हटाने के बाद फ्रांसीसी क्रान्ति खत्म हो गई।

फ्रांसीसी क्रान्ति के प्रभाव (Effects of French Revolution)-फ्रांसीसी क्रान्ति के फ्रांस तथा सम्पूर्ण संसार पर कुछ प्रभाव पड़े जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
1. फ्रांसीसी क्रान्ति का प्रमुख प्रभाव यह था कि इससे पुरानी आर्थिक व्यवस्था अर्थात् जागीरदारी व्यवस्था खत्म हो गई तथा नई आर्थिक व्यवस्था सामने आई। यह नई आर्थिक व्यवस्था पूंजीवाद थी।

2. ऊपर वाले वर्गों अर्थात् पादरी वर्ग तथा कुलीन वर्ग के विशेषाधिकार खत्म कर दिए गए तथा सरकार की तरफ से वापस ले लिए गए। चर्च की सम्पूर्ण सम्पत्ति सरकार ने कब्जे में ले ली। सभी पुराने कानून खत्म कर दिए गए तथा नैशनल असेंबली ने सभी कानून बनाए।

3. सभी नागरिकों को स्वतन्त्रता तथा समानता का अधिकार दिया गया। शब्द ‘Nation’ को नया तथा आधुनिक अर्थ दिया गया अर्थात् फ्रांस केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है बल्कि फ्रांसीसी जनता है। यहां सम्प्रभुता (sovereignty) का संकल्प सामने आया अर्थात् देश के कानून तथा सत्ता सर्वोच्च है।।

4. फ्रांसीसी क्रान्ति का सम्पूर्ण संसार पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा। इसने अन्य देशों के क्रान्तिकारियों को अपनेअपने देशों के निरंकुश राजाओं के विरुद्ध कार्य करने के लिए उत्साहित किया। इससे प्राचीन व्यवस्था खत्म हो गई तथा लोकतन्त्र के आने का रास्ता साफ हुआ। इसने ही स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारा का नारा दिया। इस क्रान्ति के पश्चात् अलग-अलग देशों में कई क्रान्तियां हुईं तथा राजतन्त्र को लोकतन्त्र में परिवर्तित कर दिया गया।

फ्रांसीसी क्रान्ति ने मानवीय सभ्यता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने यूरोप के समाज तथा राजनीतिक व्यवस्था को पूर्णतया बदल दिया। प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था सामने आ गई। फ्रांस में कई क्रान्तिकारी परिवर्तन आए तथा बहुत से कुलीनों को मार दिया गया। इस प्रकार फ्रांसीसी समाज में उनकी भूमिका पूर्णतया खत्म हो गई। नैशनल असेंबली के समय कई नए कानून बनाए गए तथा जिससे समाज में बहुत से बुनियादी परिवर्तन आए। चर्च को राज्य की सत्ता के अन्तर्गत लाया गया तथा उसने राजनीतिक तथा प्रशासकीय कार्यों को दूर रखा गया। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ अधिकार दिए गए।

फ्रांसीसी क्रान्ति का अन्य देशों पर काफ़ी अधिक प्रभाव पड़ा। 19वीं शताब्दी के दौरान कई देशों में राजनीतिक क्रान्तियां हुईं। इन देशों की राजनीतिक व्यवस्था पूर्णतया बदल गई। समाजशास्त्र के उद्भव में यह महत्त्वपूर्ण कारण था। इन क्रान्तियों के साथ कई समाजों में अच्छे परिवर्तन आए तथा आरम्भिक समाजशास्त्रियों का यह मुख्य मुद्दा था। कई प्रारम्भिक समाजशास्त्री, जो यह सोचते थे कि क्रान्ति के केवल समाज पर केवल ग़लत प्रभाव होते हैं, अपने विचार परिवर्तित होने को बाध्य हुए। इन समाजशास्त्रियों में काम्ते तथा दुर्थीम प्रमुख हैं तथा इन्होंने इसके अच्छे प्रभावों पर अपने विचार दिए। इस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने समाजशास्त्र के उद्भव (Origin) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 3.
संक्षेप में औद्योगिक क्रान्ति तथा समाजशास्त्र के उद्भव के सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर-
आधुनिक उद्योगों की स्थापना औद्योगिक क्रान्ति के कारण हुई जो इंग्लैंड में 18वीं शताब्दी के अंतिम हिस्से तथा 19वीं शताब्दी के प्रथम हिस्से में शुरू हुई। इसने सबसे पहले ब्रिटेन तथा बाद में यूरोप तथा अन्य देशों के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में बहुत से परिवर्तन लाए। इसके दो महत्त्वपूर्ण पक्ष थे-

1. औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में विज्ञान तथा तकनीक का व्यवस्थित प्रयोग विशेषतया नई मशीनों के आविष्कार के क्षेत्र में। इसने उत्पादन व्यवस्था को प्रोत्साहित किया तथा इसने फैक्टरी व्यवस्था तथा वस्तुओं के अधिक उत्पादन पर बल दिया।

2. पुराने समय से हट कर व्यवस्थित मज़दूरी तथा बाज़ार को ढूंढ़ना। चीज़ों का काफ़ी अधिक उत्पादन करना ताकि सम्पूर्ण विश्व के अलग-अलग बाजारों में भेजा जा सके। इन वस्तुओं के उत्पादन में प्रयोग होने वाला कच्चा माल भी अलग-अलग देशों से ही प्राप्त किया गया।

औद्योगिकरण से उन समाजों में उथल-पुथल मच गई जो सदियों से स्थिर थे। नए उद्योगों तथा तकनीक ने सामाजिक तथा प्राकृतिक वातावरण को बदल दिया। किसान ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर शहरों की तरफ जाने लग गए। इन समझौतों पर आधारित शहरों में बहुत सी सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होनी शुरू हो गईं। परिवर्तन की दिशा का पता नहीं था तथा सामाजिक व्यवस्था के ऊपर बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया।

प्रथम औद्योगिक क्रान्ति 18वीं शताब्दी के दूसरे उत्तरार्द्ध में शुरू हुई परन्तु यह 1850 ई० तक द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति में मिल गई। इस समय तकनीकी तथा आर्थिक प्रगति काफ़ी तेज़ हो गई क्योंकि इस समय भाप से चलने वाली मशीनों तथा बाद में बिजली पर आधारित मशीनें सामने आ गयीं। इतिहासकार यह मानते हैं कि औद्योगिक क्रान्ति मानवीय इतिहास में होने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी।

औद्योगिक क्रान्ति का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। ग्रामीण लोगों ने शहरों की तरफ जाना शुरू कर दिया जहां उन्हें गंदे हालातों में रहना पड़ा। बढ़ी जनसंख्या, बढ़ती मांगें, बढ़ते उत्पादन से नए बाज़ारों की मांग सामने आयी। इस से बड़ी शक्तियों में एशिया तथा अफ्रीका के देशों में क्षेत्र जीतने की होड़ शुरू हुई। पूर्ण संसार की व्यवस्था बदल गई। सम्पूर्ण संसार में अव्यवस्था फैल गई। 1800-1850 ई० के दौरान अलग-अलग वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए हड़तालें करनी शुरू कर दी।

औद्योगिक क्रान्ति के महत्त्वपूर्ण विषय जिनसे प्रारम्भिक समाजशास्त्री सम्बन्धित थे वह थे मज़दूरों के हालात, जायदाद का परिवर्तन, औद्योगिक नगर, तकनीक तथा फैक्टरी व्यवस्था। इस पृष्ठभूमि में कुछ विचारक अपने समाज को नया बनाना चाहते थे। जो इन समस्याओं से सम्बन्धित थे वह प्रारम्भिक समाजशास्त्री थे क्योंकि वह इन समस्याओं का व्यवस्थित ढंग से अध्ययन करना चाहते थे। इन विचारकों में अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, इमाईल दुर्थीम, कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर प्रमुख थे। यह सभी विचारक अलग-अलग विषयों से आए थे।

अगस्ते काम्ते (1798-1857) को समाजशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है। उनके अनुसार जो विधियां भौतिक विज्ञान (Phycis) में प्रयोग की जाती हैं, वह ही समाज के अध्ययन में प्रयोग की जानी चाहिए। इस अध्ययन से उद्विकास (Evolution) के नियम विकसित होंगे तथा समाज के कार्य करने के ढंग सामने आएंगे। जब इस प्रकार का ज्ञान उपलब्ध हो गया तो हम नए समाज की स्थापना कर पाएंगे। इस प्रकार काम्ते ने सामाजिक उद्विकास का सिद्धान्त दिया जिसे हरबर्ट स्पैंसर ने आगे बढ़ाया। स्पैंसर के उद्विकास के विचारों को सामाजिक डार्विनवाद (Social Darwinism) का नाम भी दिया जाता है।

समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र विषय तथा विज्ञान के रूप में स्थापित करने का श्रेय इमाईल दुर्थीम (18581917) को जाता है जो एक फ्रांसीसी समाजशास्त्री थे। दुर्थीम का कहना था कि समाजशास्त्री को सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करना चाहिए जो निष्पक्ष होते हैं। सामाजिक तथ्य व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं परन्तु वह व्यक्तिगत व्यवहार पर दबाव डालने की शक्ति रखते हैं। इस प्रकार सामाजिक तथ्य व्यक्तिगत नहीं होते।

जर्मन समाजशास्त्रियों में कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर प्रमुख हैं। मार्क्स (1818-1883) के विचार समाजशास्त्र में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके अनुसार समाज में हमेशा से ही दो वर्ग रहे हैं जिनके पास है अथवा जिनके पास नहीं है (Have and Have-nots)। उनके अनुसार संघर्ष से ही समाज में परिवर्तन आता है। इस कारण उन्होंने वर्ग तथा वर्ग संघर्ष को सम्बन्ध महत्त्व दिया है। इस प्रकार मैक्स वैबर (1804-1920) की पुस्तकें भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार समाजशास्त्री को सामाजिक कार्य (Social Action) के सम्बन्ध समाज का अध्ययन करना चाहिए।

इस प्रकार समाजशास्त्र के विकास में फ्रांस (काम्ते, दीम), जर्मनी (मार्क्स, वैबर) तथा ब्रिटेन (स्पैंसर) ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन देशों के समाजों में बहुत-से सामाजिक परिवर्तन आए जिस कारण इन समाजों में 19वीं शताब्दी में समाजशास्त्री का उद्भव तथा विकास हुआ।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

प्रश्न 4.
भारत में समाजशास्त्र के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत एक ऐसा देश है जहां अलग-अलग संस्कृतियों, जातियों, धर्मों इत्यादि के लोग इकट्ठे मिलकर रहते हैं। भारत पर अनेकों आक्रमणकारियों ने अलग-अलग कारणों के कारण हमले किए जिस वजह से हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था लम्बे समय से विघटित रही है। अंग्रेजों ने भारत पर लगभग 200 वर्ष तक राज किया परन्तु उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण भारत में सामाजिक विघटन रोकने के कोई प्रयास नहीं किए। इन हालातों के कारण हमारे देश में कई प्रकार की सामाजिक समस्याएं पैदा हो गईं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए सामाजिक हालातों का पूर्ण ज्ञान ज़रूरी है तथा यह समाजशास्त्र ही दे सकता है।

भारत में देश की आज़ादी के पश्चात् कई प्रकार की सामाजिक संस्थाएं शुरू हुईं जिससे यह स्पष्ट हुआ कि हमारे देश की सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए, समाज के लिए योजनाएं बनाने तथा पूर्ण समाज की संरचना को संगठित रखने के लिए समाजशास्त्र महत्त्वपूर्ण ही नहीं बल्कि ज़रूरी भी है। भारत में समाजशास्त्र का महत्त्व इस प्रकार है-

1. सामाजिक समस्याओं के हल में सहायक (Helpful in solving social problems)-हमारे समाज में अनेक प्रकार की समस्याएं प्रचलित हैं जैसे निर्धनता, भ्रष्टाचार, जातिवाद, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, अधिक जनसंख्या इत्यादि। इन समस्याओं का मुख्य कारण सामाजिक हालात ही है। सामाजिक हालातों में परिवर्तन करके ही लोगों के विचारों को परिवर्तित किया जा सकता है जोकि समस्या के हल के लिए ज़रूरी है। समाजशास्त्र इन सामाजिक हालातों के कारकों के बारे में बताता है जिससे इन समस्याओं को समझना आसान हो गया है। इससे इन समस्याओं का हल ढूंढ़ने में आसानी हुई है।

2. ग्रामीण क्षेत्रों के निर्माण में मददगार (Helpful in rural reconstruction)-भारतीय समाज एक ग्रामीण समाज है जहां की ज्यादातर जनसंख्या गांवों में रहती है। हमारे समाज का विकास गांवों के विकास पर निर्भर करता है। हमारे गांवों में अनेक प्रकार की समस्याएं हैं जो न सिर्फ अलग-अलग प्रकृति की हैं बल्कि अपने आप में जटिल भी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जातिवाद, बाल विवाह, जाति प्रथा, वहम इत्यादि समस्याएं प्रचलित हैं। इन समस्याओं का मुख्य कारण सामाजिक परिस्थितियां ही हैं। समाजशास्त्र की मदद से इन समस्याओं से सम्बन्धित ज्ञान इकट्ठा किया जा सकता है तथा बदले हुए हालातों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति को सुधारा जा सकता है।

3. शहरों के नियोजन में मददगार (Helpful in Urban Planning)-शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण ने हमारे समाज में कई प्रकार के परिवर्तन पैदा कर दिए हैं। हज़ारों नए व्यवसाय उत्पन्न हो गए हैं जिस वजह से गांवों की जनसंख्या शहरों में बस रही है। बहुत-से शहरों में जनसंख्या काफ़ी ज्यादा हो गई है जिस वजह से गन्दी बस्तियां बढ़ रही हैं। गन्दी बस्तियों से बहुत-सी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं जैसे अपराध, गरीबी, नशा करना इत्यादि। समाजशास्त्र इन सब के सम्बन्ध में ज्ञान इकट्ठा करता है तथा इन समस्याओं के समाधान के बारे में बताता है। इसके अलावा शहरों में भौतिकता में तो परिवर्तन आ रहे हैं परन्तु लोगों के विचारों में परिवर्तन नहीं आ रहे हैं जिससे कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। समाजशास्त्र उन बदले हुए हालातों के बारे में बताता है जिससे शहरों के लिए योजनाएं बनाना काफ़ी आसान हो गया है।

4. जनजातीय कल्याण में सहायक (Helpful in Tribal Welfare)-हमारे देश में नौ करोड़ के लगभग आदिवासी रहते हैं। समाजशास्त्र से हमें इनके बारे में सामाजिक तथा सांस्कृतिक ज्ञान प्राप्त होता है। अगर यह ज्ञान न हो तो इन समाजों को समझाना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह लोग हमारी संस्कृति से दूर जंगलों, पहाड़ों में रहते हैं। समाजशास्त्र हमें इनके सामाजिक हालातों के बारे में बताता है जिसके आधार पर इनके कल्याण से सम्बन्धित नीतियां बनाई जाती हैं।

5. श्रमिकों के कल्याण में सहायक (Helpful in labour welfare)-हमारे समाजों का स्वरूप धीरेधीरे औद्योगिक हो रहा है जहां उत्पादन तथा श्रमिकों के सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। इन के बीच के सम्बन्धों में तनाव आने से हमारे समाज का आर्थिक विकास ही नहीं बल्कि सामाजिक सम्बन्ध तथा विकास भी प्रभावित होता है। चाहे स्वतन्त्रता के बाद श्रमिकों के कल्याण के लिए कई प्रकार के कानून बनाए गए हैं परन्तु इन का लाभ तभी प्राप्त होगा अगर इनको मानवीय दृष्टिकोण से विकसित किया जाए। यह दृष्टिकोण हमें समाजशास्त्र के ज्ञान से ही प्राप्त होता है।

6. राजनीतिक समस्याओं में मददगार (Helpful in political problems)-हमारे देश में बहुत सारे राजनीतिक दल हैं जिस वजह से राजनीतिक समस्याएं दिन प्रतिदिन बढ़ रही हैं। दल लोगों में झगड़े करवाते हैं। समाजशास्त्र के ज्ञान की मदद से अलग-अलग समुदायों की राजनीतिक, साम्प्रदायिक समस्याओं को कम किया जा सकता है तथा उनका हल निकाला जा सकता है। . इस तरह इस विवरण से यह स्पष्ट है कि हमारे देश के विकास के लिए योजनाएं बनाने में तथा हमारे समाज में फैली समस्याओं को खत्म करने में समाजशास्त्र का ज्ञान काफ़ी महत्त्व रखता है। अगर यह ज्ञान सारी जनसंख्या तक फैला दिया जाए तो हमारा समाज भी प्रगति करेगा तथा इसमें मिलने वाली समस्याएं भी धीरे-धीरे कम हो जाएंगी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव

समाजशास्त्र का उद्भव PSEB 11th Class Sociology Notes

  • समाजशास्त्र का उद्भव एक नई घटना है तथा इसके बारे में निश्चित समय नहीं बताया जा सकता कि यह कब विकसित हुआ। प्राचीन समय में बहुत से विद्वानों जैसे कि हैरोडोटस, प्लेटो, अरस्तु इत्यादि ने काफ़ी कुछ लिखा जो कि आज के समाज से काफ़ी मिलता-जुलता है।
  • एक विषय के रूप में समाजशास्त्र का उद्भव 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद शुरू हुआ जब समाज में बहुत-से परिर्वतन आए। बहुत से विद्वानों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, इमाईल दुर्थीम तथा मैक्स वैबर ने सामाजिक व्यवस्था, संघर्ष, स्थायीपन तथा परिवर्तन के अध्ययन पर बल दिया जिस कारण समाजशास्त्र विकसित हुआ।
  • तीन मुख्य प्रक्रियाओं ने समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र विषय के रूप में स्थापित करने में सहायता की तथा वह थी (i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण का आंदोलन (ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास तथा (iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण।
  • 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति में बहुत से विद्वानों ने योगदान दिया। उन्होंने चर्च की सत्ता को चुनौती दी तथा लोगों को बिना सोचे-समझे चर्च की शिक्षाओं को न मानने के लिए कहा। लोग इस प्रकार अपनी समस्याओं को तर्कपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए उत्साहित हुए।
  • 16वीं से 17वीं शताब्दी के बीच प्राकृतिक विज्ञानों ने काफ़ी प्रगति की। इस प्रगति ने सामाजिक विचारकों को भी प्रेरित किया कि वह भी सामाजिक क्षेत्र में नए आविष्कार करें। यह विश्वास सामने आया कि जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञानों की सहायता से जैविक संसार को समझने में सहायता मिली, क्या उस ढंग को सामाजिक घटनाओं पर भी प्रयोग किया जा सकता है ? काम्ते, स्पैंसर, दुर्थीम जैसे समाजशास्त्रियों ने उस ढंग से सामाजिक घटनाओं को समझने का प्रयास किया तथा वे सफल भी हुए।
  • 18वीं शताब्दी में यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति शुरू हुई जिससे उद्योग तथा नगर बढ़ गए। नगरों में कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो गईं तथा उन्हें समझने तथा दूर करने के लिए किसी विज्ञान की आवश्यकता महसूस की गई। इस प्रश्न का उत्तर समाजशास्त्र के रूप में सामने आया।
  • अगस्ते काम्ते ने 1839 ई० में सबसे पहले समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग किया तथा उन्हें समाजशास्त्र का पितामह कहा जाता है। समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ है समाज का विज्ञान।
  • कई विद्वान् समाजशास्त्र को एक विज्ञान का दर्जा देते हैं क्योंकि उनके अनुसार समाजशास्त्र वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है, यह निष्कर्ष निकालने में सहायता करता है, इसके नियम सर्वव्यापक होते हैं तथा यह भविष्यवाणी कर सकता है।
  • कुछेक विद्वान् समाजशास्त्र को विज्ञान नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार समाजशास्त्र में परीक्षण करने की कमी होती है, इसमें निष्पक्षता नहीं होती, इसमें शब्दावली की कमी होती है, इसमें आँकड़े एकत्र करने में मुश्किल होती है इत्यादि।
  • समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं तथा वह हैं स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School) तथा समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)।
  • स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जो कोई विज्ञान नहीं करता है। जार्ज सिमेल, टोनीज़, वीरकांत तथा वान वीजे इस सम्प्रदाय के समर्थन हैं।
  • समन्वयात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान नहीं है। बल्कि यह अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों का मिश्रण है जो अपनी विषय सामग्री अन्य सामाजिक विज्ञानों से उधार लेता है। दुर्थीम, हाबहाऊस, सोरोकिन इत्यादि इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक हैं।
  • समाजशास्त्र का हमारे लिए काफ़ी महत्त्व है क्योंकि यह अलग-अलग प्रकार की संस्थाओं का अध्ययन करता है, यह समाज के विकास में सहायता करता है, यह सामाजिक समस्याओं को हल करने में सहायता करता है तथा यह आम जनता के कल्याण के कार्यक्रम बनाने में सहायता करता है।
  • व्यक्तिवाद (Individualism)-वह भावना जिसमें व्यक्ति समाज के बारे में सोचने के स्थान पर केवल अपने बारे में सोचता है।
  • पूँजीवाद (Capitalism)-आर्थिकता की वह व्यवस्था जो बाज़ार के लेन-देन पर आधारित है। पूँजी का अर्थ है कोई सम्पत्ति जिसमें पैसा, इमारतें, मशीनें इत्यादि शामिल हैं जो बिक्री के लिए उत्पादन में प्रयोग की जाती हैं अथवा बाज़ार में लाभ कमाने के उद्देश्य से ली या दी जा सकती हैं। यह व्यवस्था उत्पादन के साधनों तथा सम्पत्तियों के व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित है।
  • मूल्य (Value)-व्यक्ति अथवा समूह द्वारा माना जाने वाला विचार कि क्या आवश्यक है, सही है, अच्छा है अथवा गलत है।
  • समष्टि समाजशास्त्र (Macro Sociology)-बड़े समूहों, संगठनों तथा सामाजिक व्यवस्थाओं का अध्ययन।
  • व्यष्टि समाजशास्त्र (Micro Sociology)-आमने-सामने की अन्तक्रियाओं के संदर्भ में मानवीय व्यवहार का अध्ययन।
  • औद्योगीकरण (Industrialisation) सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन का वह समय जिसने मानवीय समूह को ग्रामीण समाज से औद्योगिक समाज में बदल दिया।
  • नगरीकरण (Urbenisation)-वह प्रक्रिया जिसमें अधिक-से-अधिक लोग नगरों में जाकर रहने लग जाते हैं। इसमें नगरों में बढ़ौतरी होती है।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे.

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे

प्रश्न 1.
मौसम संबंधी नक्शे क्या होते हैं ? इनमें प्रयोग किए जाने वाले चिन्हों का वर्णन करें।
उत्तर-
मौसम संबंधी नक्शे-किसी स्थान पर किसी विशेष समय की वायुमंडलीय दशाओं के अध्ययन को मौसम कहते हैं।
जो नक्शे किसी विशेष समय के मौसम के तत्त्वों, जैसे-तापमान, वायु, दबाव, पवनों, बादल और वर्षा आदि को दर्शाते हैं, उन्हें मौसमी नक्शे (Weather Maps) कहते हैं। भारत में ये नक्शे मौसम विज्ञान विभाग की ओर से प्रकाशित किए जाते हैं। इसका प्रमुख कार्यालय पुणे (Pune) शहर में है। ये नक्शे प्रतिदिन प्रातः के 8.30 बजे और संध्या के 5.30 बजे के मौसम को प्रकट करते हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी मौसम संबंधी समाचार और भविष्यवाणी (Forecasting) की जाती है।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे

मौसमी नक्शों का महत्त्व-मौसमी नक्शों का आर्थिक और वैज्ञानिक महत्त्व होता है-

  1. इनके आधार पर मौसम की भविष्यवाणी की जाती है।
  2. ये नक्शे कृषि, व्यापार और ढोने-ढुलाने के क्षेत्र के लिए उपयोगी होते हैं।
  3. ये नक्शे सैनिकों तथा जहाज़-चालकों के लिए लाभदायक होते हैं।
  4. हवाई जहाज़ों की उड़ानों पर इनकी सहायता से कंट्रोल किया जाता है।
  5. इनकी मदद से व्यापारी अपने कृषि-पदार्थों के भाव निश्चित करते हैं।
  6. मौसम के पूर्वानुमान से कई दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
  7. भारत में इनसैट B-1 की मदद से मौसम की भविष्यवाणी की जाती है।

ऋतु चिन्ह-रूढ़ चिन्हों के समान ही मौसमी नक्शों से वायुमंडलीय दशाएँ दर्शाने के लिए कुछ चिन्हों का प्रयोग किया जाता है, जिन्हें ऋतु चिन्ह (Weather Symbols) कहते हैं। इनके अभ्यास से मौसम के अलग-अलग तत्त्वों का ज्ञान हो जाता है।

  1. वायु दबाव (Pressure)—वायु दबाव को दर्शाने के लिए समदाब रेखाओं का प्रयोग किया जाता है।
  2. तापमान (Temperature) तापमान दर्शाने के लिए समताप रेखाओं का प्रयोग किया जाता है।
  3. पवनें (Winds)-पवनों की दिशा और गति तीरों की सहायता से दिखाई जाती है। इसके लिए ब्यूफोर्ट पैमाने का प्रयोग किया जाता है।
  4. बादल (Clouds)—बादलों की मात्रा और प्रकार दिखाने के लिए गोल चक्रों का प्रयोग किया जाता है।
  5. वर्षा (Rainfall)-वर्षा और दूसरे मौसमी तत्त्व दिखाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के चिन्ह प्रयोग किए जाते हैं।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे 1

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 5 मौसम संबंधी नक्शे 2

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules.

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. खिलाड़ियों की संख्या = कुल 14 खिलाड़ी
  2. मैच खेलने वाले खिलाड़ी = 8 खिलाड़ी 6 वैकल्पिक
  3. मैच का समय = 20-20 मिनट की दो मियादें (अवधियाँ)
  4. विश्राम का समय = 5 मिनट
  5. टाइम आऊट = एक हाफ में 2 टाइम आऊट
  6. टाइम आऊट का समय = 30 सेकंड

पंजाब स्टाइल अथवा वृत कबड्डी खेल की संक्षेप रूप-रेखा :
(Brief outline of Punjab Style or Circle Kabaddi Game)

  1. यह खेल दो टीमों के मध्य होती है। प्रत्येक टीम में 10 खिलाड़ी खेलते हैं तथा दो खिलाड़ी स्थानापन्न (Substitutes) होते हैं।
  2. खेल के दौरान किसी भी खिलाड़ी को चोट लग जाने पर उसका स्थान अतिरिक्त खिलाड़ी ग्रहण कर लेता है।
  3. खिलाड़ी केवल नंगे पांव खेल सकता है।
  4. खिलाड़ी कड़ा, अंगूठी आदि पहनकर नहीं खेल सकता।
  5. कोई भी खिलाड़ी निरन्तर दो से अधिक बार आक्रमण नहीं कर सकता।
  6. ऐसा स्पर्श या आक्रमण मना है जिससे खिलाड़ी के जीवन को भय उत्पन्न हो।
  7. मैदान के बाहर से कोचिंग देना मना है।
  8. विपक्षी खिलाड़ी आक्रामक खिलाड़ी के मुंह पर हाथ रख कर कबड्डी बोलने से नहीं रोक सकता।
  9. कोई भी खिलाड़ी तेल मल कर नहीं खेल सकता।
  10. यदि कोई खिलाड़ी दम भरते समय मार्ग में सांस तोड़े तो रैफरी दुबारा दम भरने के लिए कहता है।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

PSEB 11th Class Physical Education Guide सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
कबड्डी तथा सर्कल स्टाइल कबड्डी में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
कबड्डी

  1. कबड्डी के मैदान का आकार पुरुषों के लिये 13 मीटर ! 10 मीटर होता है और स्त्रियों के लिये मैदान का माप 11 मीटर ! 8 मीटर होता है।
  2. इसमें खिलाड़ियों की कुल संख्या 12 होती है।
  3. इसमें लॉबी अथवा बोनस लाइनें होती हैं।

सर्कल स्टाइल कबड्डी—

  1. सर्कल सटाइल कबड्डी में मैदान का आकार वृत्ताकार होता है जिसका अर्द्वव्यास 22 मीटर पुरुषों के लिये तथा 16 मीटर स्त्रियों के लिये होता है।
  2. इसमें खिलाड़ियों की कुल संख्या 14 (8 खिलाड़ी + 6 वैकल्पिक) होती है।
  3. इसमें कोई लॉबी अथवा बोनस लाइनें नहीं होती।

प्रश्न 2.
सर्कल स्टाइल कबड्डी में खिलाड़ियों की संख्या कितनी होती है ?
उत्तर-
कुल 14 खिलाड़ी।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
सर्कल कबड्डी के मैच में विश्राम का समय कितना होता है ?
उत्तर-
5 मिनट।

प्रश्न 4.
सर्कल कबड्डी के मैच में टाइम आऊट का कितना समय होता है ?
उत्तर-
30 सैकिण्ड।

प्रश्न 5.
सर्कल कबड्डी के मैच का समय लिखें।
उत्तर-
20-20 मिनट की दो अवधियां।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 6.
सर्कल कबड्डी के मैच में लाल कार्ड से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लाल कार्ड होने पर खिलाडी को मैच से बाहर निकाल दिया जाता है। यदि एक खिलाड़ी को दो बार लाल कार्ड दिखाया जाता है तो खिलाड़ी को पूरे टूर्नामैंट में से बाहर कर दिया जाता है। खिलाड़ी कोई भी मैच नहीं खेल सकता।

प्रश्न 7.
सर्कल कबड्डी के मैच में चेतावनी कार्ड कौन-कौन से होते हैं ?
उत्तर-
कबड्डी खेल में तीन प्रकार के चेतावनी कार्ड होते हैं—

  1. हरा कार्ड-यह एक चेतावनी कार्ड है। यदि एक खिलाड़ी को दूसरी बार हरा कार्ड दिखाया जाता है तो वह पीले कार्ड में से बदल जाता है।
  2. पीला कार्ड-पीले कार्ड होने पर 2 मिनट के लिए खिलाड़ी को मैच में से बाहर निकाला जाता है। यदि एक मैच में एक खिलाड़ी को दो बार पीला कार्ड दिखाया जाता है तो वह लाल कार्ड में बदल जाता है।
  3. लाल कार्ड-लाल कार्ड होने पर खिलाडी को मैच से बाहर निकाल दिया जाता यदि एक खिलाड़ी को दो बार लाल कार्ड दिखाया जाता है तो खिलाड़ी को पूरे टूर्नामेंट में से बाहर कर दिया जाता है। खिलाड़ी कोई भी मैच नहीं खेल सकता।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

Physical Education Guide for Class 11 PSEB सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
पंजाब स्टाइल कबड्डी के खेल के मैदान, खेल की अवधि, टीमें, अधिकारी और खिलाडियों को पोशाक के विषय में लिखें।
उत्तर-
खेल का मैदान (Play Ground) खेल का मैदान वृत्ताकार (Circular) होता है। वृत्त का अर्द्धव्यास 22 मीटर (लगभग 72 फुट) पुरुषों के लिये तथा 16 मीटर (लगभग 52 फुट) स्त्रियों के लिये होता है। केन्द्रीय रेखा इसे दो बराबर भागों में बांटती है। केन्द्रीय रेखा के मध्य में 20 फुट का गेट होता है। गेट के दोनों सिरों पर मिट्टी की ढेरियां बनाई जाती हैं। इन्हें पाला कहते हैं। प्रत्येक पाले का व्यास 6 इंच होता है। इनकी धरती से ऊंचाई एक फुट तक होती है। मध्य रेखा के दोनों ओर 20 फुट लम्बी रेखा के साथ ही डी-क्षेत्र लगाया जाता है। यह पालों से साइडों की ओर 15 फुट दूर होता है। यह मध्य रेखा को जा स्पर्श करता है तथा पाले इसके मध्य में आ जाते हैं।
खेल की अवधि (Duration of Play) खेल 20-20 मिनट की दो अवधियों में खेला जाता है। पहले 20 मिनट की खेल के पश्चात् 5 मिनट का अवकाश होता है। अवकाश के पश्चात् दोनों टीमें पक्ष बदल लेती हैं।

टीम (Teams)-प्रत्येक टीम में 8 खिलाड़ी होते हैं। इनके अतिरिक्त छ: खिलाड़ी वैकल्पिक होते हैं। मैच के अन्त में एक टीम में 8 खिलाड़ियों की संख्या बनी रहनी चाहिए। यदि कोई टीम 8 खिलाड़ियों से कम खिलाड़ियों से खेल रही है तो विरोधी टीम में उतने ही खिलाड़ी कम किए जाएंगे जितनी कि दूसरे खिलाड़ियों की संख्या 8 से कम है। जो भी टीम कम खिलाड़ियों के साथ खेल रही है उसका कोई खिलाड़ी रैफरी को सूचित करके खेल में सम्मिलित हो सकता है। यदि किसी खिलाड़ी को खेल के दौरान चोट लग जाती है तो उसे रिजर्व खिलाड़ी से बदल लिया जाता है। ‘ निर्णय (Decision) मैच में जो टीम अधिक अंक प्राप्त करती है उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है। मैच बराबर रहने की दशा में 5-5 मिनट का अतिरिक्त समय दिया जाता है।
अधिकारी (Officials) मैच के निम्नलिखित अधिकारी होते हैं—
अम्पायर (1), रैफरी (1), स्कोरर (2), टाइम-कीपर (1)
सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
अपने-अपने अर्द्धकों में दोनों अम्पायर निर्णय देने का काम करते हैं। किसी विवाद की स्थिति में रैफरी का निर्णय अन्तिम माना जाता है।
टॉस (Toss)—दोनों टीमों के कप्तान साइड के चुनाव के लिए या पहले खिलाड़ी भेजने के लिए टॉस करते हैं।
पोशाक (Dress)—खिलाड़ी जांघिए पहन सकते हैं। जांघिए का रंग टीम के अनुसार होता है। खिलाड़ी नंगे पांव या फिर पतले रबड़ के तलों वाले टैनिस शू पहनकर खेल सकते हैं। खिलाड़ी अंगूठी (Rings), कड़े आदि धारण नहीं कर सकते क्योंकि इनसे विरोधी खिलाड़ी को चोट पहुंचने की सम्भावना होती है।

सर्कल स्टाइल कबड्डी (Circle Style Kabaddi) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
पंजाब स्टाइल कबड्डी के नियमों का वर्णन करो।
उत्तर-
खेल के साधारण नियम
(General Rules of Play)
1. खिलाड़ी बारी-बारी से ‘कबड्डी’ शब्द का उच्चारण करते हुए विरोधी पक्ष की ओर जाएगा। ‘कबड्डी’ पालों से शुरू करनी चाहिए तथा सभी को सुनाई देनी चाहिए। रास्ते में सांस न टूटे और वापिस मुड़ते समय पालों तक सांस कायम रहना चाहिए।

2. कोई भी खिलाड़ी दो बार कबड्डी डाल सकता है।

3. ‘कबड्डी’ डालने वाला खिलाड़ी कम-से-कम आवश्यक सीमा को स्पर्श करे। यदि वह ऐसा नहीं करता तो अम्पायर उसे दोबारा कबड्डी डालने के लिए कह सकता है।

4. प्रत्येक खिलाड़ी को कई बार कबड्डी डालनी चाहिए। ऐसा न हो कि खेल पर एक दो प्रमुख खिलाड़ी एकाधिकार जमा लें।

5. जब कोई खिलाड़ी किसी विरोधी खिलाड़ी को स्पर्श करके वापस मुड़ रहा है तो उसका पीछा उस समय तक नहीं किया जा सकता जब तक वह अपने पक्ष की आवश्यक रेखा पार नहीं कर लेता।

6. यदि कबड़ी डालने वाला खिलाड़ी किसी विरोधी खिलाड़ी को छु लेता है तथा फिर अपने कोर्ट में वापिस आ जाता है तो कबड्डी डालने वाली टीम को एक अंक मिल जाता है।

7. कबड्डी डालने वाला तथा विरोधी पक्ष के खिलाड़ी छूने या पकड़ने के समय शेष सभी खिलाड़ी प्वाईंट का फैसला दिए जाने तक अस्थाई रूप में आऊट माने जाते हैं।

8. अस्थाई रूप में खिलाड़ी दूर रहते हैं। रक्षक टीम के खिलाड़ी द्वारा किसी बाधा उत्पन्न करने की दशा में आक्रामक टीम को प्वाईंट मिल जाता है।

9. आक्रमण के समय ‘छू’ या पकड़ हो जाए तथा यदि कबड्डी डालने वाला या विरोधी खिलाड़ी सीमा रेखा से बाहर चला जाए तो विरोधी टीम को 1 अंक मिलेगा। यदि दोनों खिलाड़ी बाहर निकल जाएं तो किसी को कोई प्वाइंट नहीं मिलेगा।

10. कोई भी ऐसी पकड़ या आक्रमण अयोग्य है जिसमें खिलाड़ी के जीवन को खतरा है। ठोकर मारना, दांतों से काटना, जांघिये को पकड़ना वर्जित है।

11. शरीर पर तेल या चिकनाहट वाली वस्तुओं का लेप करना मना है।

12. मैदान के बाहर से कोचिंग वर्जित है, यदि चेतावनी देने के बाद कोचिंग जारी रहती है तो जिस टीम को कोचिंग दी जा रही हो उसका एक अंक काट दिया जाए।

13. कोई भी रेडर 30 सैकिण्ड के अन्दर-अन्दर रेड डाल कर बिना किसी को हाथ लगाए वापिस आ सकता है। यदि तीस सैकिण्ड के समय में किसी विरोधी को हाथ नहीं लगता और वापिस अपने पाले में नहीं आता हो विरोधी टीम को एक अंक मिल जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा दीजिए और इसके तत्त्वों की व्याख्या करें। (Define State. Discuss its elements.)
अथवा
राज्य के मूलभूत तत्त्वों की विवेचना कीजिए। (Discuss the essential elements of a State.)
उत्तर-
राज्य एक प्राकृतिक और सर्वव्यापी, मानवीय संस्था है। व्यक्ति के सामाजिक जीवन को सुखी और सुरक्षित रखने के लिए जो संस्था अस्तित्व में आई, उसे राज्य कहते हैं। मनुष्य के जीवन के विकास के लिए राज्य एक आवश्यक संस्था है। यदि राज्य न हो, तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।

राज्य शब्द की उत्पत्ति (Etymology of the word)-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द से लिया गया है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीन काल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। परन्तु धीरे-धीरे इसका अर्थ बदलता गया। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

राज्य शब्द का गलत प्रयोग (Wrong use of the word ‘State’) अधिकांश तौर पर सामान्य भाषा में ‘राज्य’ शब्द का गलत प्रयोग किया जाता है। जैसे भारत में इसकी इकाइयों जैसे-पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश एवं अमेरिका में अटलांटा, बोस्टन, न्यूयार्क एवं वाशिंगटन जैसी इकाइयों को राज्य कह दिया जाता है, जबकि ये वास्तविक तौर पर राज्य नहीं हैं।

राज्य की परिभाषाएं (Definitions of State)–विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित

1. अरस्तु (Aristotle) के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर तथा समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।” (“The state is a Union of families and villages having for its end a perfect and self-sufficing life by which we mean a happy and honourable life.”) परन्तु यह परिभाषा बहुत पुरानी है और आधुनिक राज्य पर लागू नहीं होती।

2. ब्लंटशली (Bluntschli) का कहना है कि “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।” (“The state is a politically organised people of a definite territory.”)

3. अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Willson) के अनुसार, “एक निश्चित क्षेत्र में कानून की स्थापना के लिए संगठित लोगों का समूह ही राज्य है।” (“The state is a people organised for law within a definite territory.”) परन्तु यह परिभाषा भी ठीक नहीं समझी जाती क्योंकि इसमें राज्य की प्रभुसत्ता का कहीं भी उल्लेख नहीं है।

4. गार्नर (Garner) द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो, बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह से लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।” (“The state, as a concept of political science and public law, is a community of persons, more or less numerous permanently occupying a definite portion of territory, independent or nearly so, of external control and possessing an organised government to which the great body of inhabitants render habitual obedience.”)

5. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता को प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास चारों तत्त्व होंगे, उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चार तत्त्वों का होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

राज्य के आवश्यक तत्त्व (Essential Elements or Attributes of State)-

राज्य के अस्तित्व के लिए चार तत्त्वों का होना आवश्यक है जो कि जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता है। इनमें से किसी एक के भी अभाव में राज्य का निर्माण नहीं हो सकता। जनसंख्या (Population) और भू-भाग (Territory) को राज्य के भौतिक तत्त्व (Physical Element), सरकार (Government) को राज्य का राजनीतिक तत्त्व (Political Element) और प्रभुसत्ता (Sovereignty) को राज्य का आत्मिक तत्त्व (Spiritual Element) माना जाता है। इन तत्त्वों की व्याख्या नीचे की गई है :-

1. जनसंख्या (Population)-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। राज्य पशु-पक्षियों का समूह नहीं है। वह मनुष्यों की राजनीतिक संस्था है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर बल्कि कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस प्रकार बिना पति-पत्नी के परिवार, मिट्टी के बिना घड़ा और सूत के बिना कपड़ा नहीं बन सकता, उसी प्रकार बिना मनुष्यों के समूह के राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य में कितनी जनसंख्या होनी चाहिए, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। परन्तु राज्य के लिए पर्याप्त जनसंख्या होनी चाहिए। दस-बीस मनुष्य राज्य नहीं बना सकते।

राज्य की जनसंख्या कितनी हो, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। प्लेटो (Plato) के मतानुसार, एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 होनी चाहिए। अरस्तु (Aristotle) के मतानुसार, जनसंख्या इतनी कम नहीं होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न इतनी अधिक होनी चाहिए कि भली प्रकार शासित न हो सके। रूसो (Rousseau) प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का समर्थक था, इसलिए उसने छोटे राज्यों का समर्थन किया। उसने एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 10,000 निश्चित की थी।

प्राचीन काल में नगर राज्यों की जनसंख्या बहुत कम हुआ करती थी, परन्तु आज के युग में बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो चुके हैं।
आधुनिक राज्यों की जनसंख्या करोड़ों में है। चीन राज्य की जनसंख्या लगभग 135 करोड़ से अधिक है जबकि भारत की जनसंख्या 130 करोड़ से अधिक है। परन्तु दूसरी ओर कई ऐसे राज्य भी हैं जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। उदाहरणस्वरूप, सान मेरीनो की जनसंख्या 25 हज़ार के लगभग तथा मोनाको की जनसंख्या 32 हज़ार के लगभग है जबकि नारु की जनसंख्या 9500 है। आधुनिक काल में कुछ राज्यों में बड़ी जनसंख्या एक बहुत भारी समस्या बन चुकी है और इन देशों में जनसंख्या को कम करने पर जोर दिया जाता है। उदाहरण के लिए भारत की अधिक जनसंख्या एक भारी समस्या है।

राज्यों की जनसंख्या निश्चित करना अति कठिन है, परन्तु हम अरस्तु के मत से सहमत हैं कि राज्य की जनसंख्या न इतनी कम होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर न बन सके और न ही इतनी अधिक होनी चाहिए कि राज्य के लिए समस्या बन जाए। राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि वहां की जनता सुखी तथा समृद्धिशाली जीवन व्यतीत कर सके। गार्नर के मतानुसार, “राज्य की जनसंख्या इतनी अवश्य होनी चाहिए कि वह राज्य सुदृढ़ रह सके। परन्तु उससे अधिक नहीं होनी चाहिए जिसके लिए भू-खण्ड तथा राज्य साधन पर्याप्त न हों।” प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ (Prof. R.H. Soltau) के अनुसार, “राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए-साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन-स्तर और सुरक्षा उत्पादन की आवश्यकताएं।”

2. निश्चित भू-भाग (Definite Territory)-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है। बिना निश्चित भूमि के राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। खानाबदोश कबीले (Nomadic Tribes) राज्य का निर्माण नहीं कर सकते क्योंकि वे एक स्थान पर नहीं रहते बल्कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। यही कारण है कि 1948 से पहले यहूदी लोग संसार-भर में घूमते रहते थे और उनका कोई राज्य नहीं था। यहूदी लोग (Jews) 1948 में ही स्थायी तौर पर अपना इज़राइल (Israel) नामक राज्य स्थापित कर सके। भू-भाग का निश्चित होना राज्यों की सीमाओं के निर्धारण के लिए भी आवश्यक है वरन् सीमा-सम्बन्धी झगड़े सदा ही अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का कारण बने रहेंगे।

भूमि में पहाड़, नदी, नाले, तालाब आदि भी शामिल होते हैं। भूमि के ऊपर का वायुमण्डल भी राज्य की भूमि का भाग माना जाता है। भूमि के साथ लगा हुआ समुद्र का 3 मील से 12 मील तक का भाग भी राज्य की भूमि में शामिल किया जाता है।

राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए, इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। प्राचीन काल में राज्य का क्षेत्रफल बहुत छोटा होता था, परन्तु आधुनिक राज्यों का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है। पर कई राज्यों का क्षेत्रफल आज भी बहुत छोटा है। रूस का क्षेत्रफल 17,075,000 वर्ग किलोमीटर है जबकि भारत का क्षेत्रफल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर है। पर सेन मेरीनो का क्षेत्रफल 61 वर्ग किलोमीटर है जबकि मोनाको का क्षेत्रफल 1.95 वर्ग किलोमीटर ही है। मालद्वीप राज्य का क्षेत्रफल 298 वर्ग किलोमीटर है। आज राज्य के बड़े क्षेत्र पर जोर दिया जाता है क्योंकि बड़े क्षेत्र में अधिक खनिज पदार्थ और दूसरे प्राकृतिक साधन होते हैं, जिससे देश को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। अमेरिका, रूस, चीन अपने बड़े क्षेत्रों के कारण शक्तिशाली हैं। दूसरी ओर इंग्लैण्ड, स्विट्ज़रलैंड, बैल्जियम इत्यादि देशों का क्षेत्रफल तो कम है परन्तु इन देशों ने भी बहुत उन्नति की है। अतः यह कहना कि देश की उन्नति के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र होना चाहिए, ठीक नहीं है। राज्य के क्षेत्र के सम्बन्ध में अरस्तु का मत ठीक प्रतीत होता है। उसने कहा है कि राज्य का क्षेत्र इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह आत्मनिर्भर हो सके और इतना अधिक विस्तृत नहीं होना चाहिए कि उस पर ठीक प्रकार से शासन न किया जा सके। अतः राज्य का क्षेत्रफल इतना होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और देश की सुरक्षा भी ठीक हो सके।

3. सरकार (Government)-सरकार राज्य का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। जनता का समूह निश्चित भू-भाग पर बस कर तब तक राज्य की स्थापना नहीं कर सकता जब तक उनमें राजनीतिक संगठन न हो। बिना सरकार के जनता का समूह राज्य की स्थापना नहीं कर सकता। सरकार देश में शान्ति की स्थापना करती है, कानूनों का निर्माण करती है तथा कानूनों को लागू करती है और कानून तोड़ने वाले को दण्ड देती है। सरकार लोगों के परस्पर सम्बन्धों को नियमित करती है। सरकार राज्य की एजेन्सी है जिसके द्वारा राज्य के समस्त कार्य किए जाते हैं। बिना सरकार के अराजकता उत्पन्न हो जाएगी तथा समाज में अशान्ति पैदा हो जाएगी। अत: राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।

संसार के सब राज्यों में सरकारें पाई जाती हैं, परन्तु सरकार के विभिन्न रूप हैं। कई देशों में प्रजातन्त्र सरकारें हैं, कई देशों में तानाशाही तथा कई देशों में राजतन्त्र है। उदाहरण के लिए भारत, नेपाल, इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी में प्रजातन्त्रात्मक सरकारें हैं जबकि क्यूबा, उत्तरी कोरिया, चीन आदि में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। कुछ देशों में संसदीय सरकार है और कुछ देशों में अध्यक्षात्मक सरकार है। इसी तरह कुछ देशों में संघात्मक सरकार है और कुछ में एकात्मक सरकार है। सरकार का कोई भी रूप क्यों न हो, उसे इतना शक्तिशाली अवश्य होना चाहिए कि वह देश में शान्ति की स्थापना कर सके और देश को बाहरी आक्रमणों से बचा सके।

4. प्रभुसत्ता (Sovereignty)—प्रभुसत्ता राज्य का चौथा आवश्यक तत्त्व है। प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है। इसके बिना राज्य की स्थापना नहीं की जा सकती। प्रभुसत्ता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति होती है। इस सर्वोच्च शक्ति के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठा सकता। सब मनुष्यों को सर्वोच्च शक्ति के आगे सिर झुकाना पड़ता है। प्रभुसत्ता दो प्रकार की होती है-आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty) तथा बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)।

आन्तरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty)-आन्तरिक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य का अपने देश के अन्दर रहने वाले व्यक्तियों, समुदायों तथा संस्थाओं पर पूर्ण अधिकार होता है। प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक समुदाय को राज्य की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। जो व्यक्ति राज्य के कानून को तोड़ता है, उसे सज़ा दी जाती है। राज्य को पूर्ण अधिकार है कि वह किसी भी संस्था को जब चाहे समाप्त कर सकता है।

बाहरी प्रभुसत्ता (External Sovereignty)-बाहरी प्रभुसत्ता का अर्थ है कि राज्य के बाहर कोई ऐसी संस्था अथवा व्यक्ति नहीं है जो राज्य को किसी कार्य को करने के लिए आदेश दे सके। राज्य पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। यदि किसी देश पर किसी दूसरे देश का नियन्त्रण हो तो वह देश राज्य नहीं कहला सकता। उदाहरण के लिए सन् 1947 से पूर्व भारत पर इंग्लैण्ड का शासन था, अतः उस समय भारत एक राज्य नहीं था। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गए और इसके साथ ही भारत राज्य बन गया।

क्या कोई तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है ? (Is any Element the Most Important One ?)-

राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार, प्रभुसत्ता-अनिवार्य हैं। यह कहना कि इन तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, अति कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना नहीं हो सकती। लोगों के स्थायी रूप से रहने के लिए एक निश्चित भू-भाग की भी आवश्यकता होती है। सरकार के बिना राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता और प्रभुसत्ता के बिना राज्य के तीनों तत्त्व अर्थहीन हो जाते हैं। प्रभुसत्ता एक ऐसा तत्त्व है जो राज्यों को अन्य समुदाओं और संस्थाओं से श्रेष्ठ बनाता है। इसलिए कुछ लोगों का विचार है कि चारों तत्त्वों में से प्रभुसत्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रभुसत्ता राज्य की आत्मा और प्राण है। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। कोई भी तीन तत्त्व मिल कर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते। राज्यों के चारों तत्त्वों के समान महत्त्व पर बल देते हुए गैटेल (Gettell) ने कहा है कि, “राज्य न ही जनसंख्या है, न ही भूमि, न ही सरकार बल्कि इन सबके साथ-साथ राज्य के पास वह इकाई होनी आवश्यक है जो इसे एक विशिष्ट व स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता बनाती है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-
विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”

2. गार्नर के द्वारा दी गई राज्य की परिभाषा आजकल सर्वोत्तम मानी जाती है। उसके अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

3. गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग, एक निश्चित प्रदेश में सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।”
डॉ० गार्नर की परिभाषा सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि इस परिभाषा में राज्य के चारों आवश्यक तत्त्वों का समावेश है-जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। जिस देश या राष्ट्र के पास ये चारों तत्त्व होंगे उसी को राज्य के नाम से पुकारा जा सकता है। राजनीति शास्त्र के अनुसार राज्य में इन चारों तत्त्वों का होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 2.
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम लिखें। किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य के चार अनिवार्य तत्त्वों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. जनसंख्या
  2. निश्चित भू-भाग
  3. सरकार
  4. प्रभुसत्ता।

1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।

2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता। भू-भाग निश्चित होना इसलिए भी आवश्यक है कि सीमा-सम्बन्धी विवाद न उत्पन्न हो। राज्य की भूमि का क्षेत्रफल कितना होना चाहिए इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु राज्य का क्षेत्रफल इतना अवश्य होना चाहिए कि लोग अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और राज्य की सुरक्षा भी ठीक ढंग से हो सके।

प्रश्न 3.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  1. पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  2. पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।
  3. पंजाब की अपनी सरकार तो है परन्तु वह सम्पूर्ण नहीं है। राज्य की कई महत्त्वपूर्ण शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास हैं।
  4. पंजाब के पास न तो आन्तरिक प्रभुसत्ता है और न ही बाहरी प्रभुसत्ता है। इसे दूसरे राज्यों में राजदूत भेजने, उनके साथ युद्ध या सन्धियां करने, अपना संविधान बनाने आदि के अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

प्रश्न 4.
क्या राष्ट्रमण्डल एक राज्य है ?
उत्तर-
राष्ट्रमण्डल में ब्रिटेन के अतिरिक्त वे राष्ट्र सम्मिलित हैं जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने अब स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली है। राष्ट्रमण्डल राज्य नहीं है, क्योंकि उसकी न तो कोई जनसंख्या है, न भू-भाग और न ही कोई सरकार। इस मण्डल के सदस्य प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं। इसलिए राष्ट्रमण्डल के पास प्रभुसत्ता के होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। राष्ट्रमण्डल का सदस्य जब चाहे राष्ट्रमण्डल को छोड़ सकता है। अत: इसे राज्य नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 5.
क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य है ? यदि नहीं तो कारण बताओ।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं

  1. एक राज्य के सदस्य अप्रभुव्यक्ति (Non-sovereign Individuals) होते हैं परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य तो प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य होते हैं।
  2. एक राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है, परन्तु इस संघ की नहीं।
  3. इस संघ के फैसलों को कानून का स्तर नहीं दिया जा सकता। यदि कोई सदस्य राज्य किसी फैसले को अपने हित के प्रतिकूल समझे तो वह उस आदेश की उपेक्षा कर सकता है और व्यावहारिक रूप में ऐसे कई उदाहरण हैं।
  4. इस संघ की न तो अपनी प्रजा है, न ही नागरिक और न ही कोई भू-क्षेत्र। जिस भू-भाग पर इस संघ के भवन और दफ्तर आदि स्थित हैं, वह भी इसका अपना नहीं बल्कि अमेरिका की सम्पत्ति है।
  5. इस संघ को महासभा, सुरक्षा परिषद् और दूसरे अंगों के बराबर कहना सरासर ग़लत और अमान्य है।

प्रश्न 6.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेजी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है और वह शब्द किस भाषा का है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यिावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 7.
राज्य का सबसे आवश्यक तत्त्व कौन-सा है ? वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्व-जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार, प्रभुसत्ता आवश्यक हैं। यह कहना कि चारों तत्त्वों में से कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, कठिन है। जनसंख्या के बिना राज्य की कल्पना तक नहीं हो सकती है। निश्चित भू-भाग के बिना भी राज्य नहीं बन सकता। सरकार के बिना समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। अतः सरकार ही राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति करती है। राज्य का चौथा तत्त्व प्रभुसत्ता बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि राज्य के अन्य तीन तत्त्व तो दूसरे समुदायों में भी मिल जाते हैं लेकिन प्रभुसत्ता केवल राज्य के पास ही होती है और इसे राज्य तथा अन्य समुदायों के बीच बांटा जा सकता है। प्रभुसत्ता ही एक ऐसा तत्त्व है जो राज्य को अन्य समुदायों से अलग रखता है या उसे सर्वश्रेष्ठ बनाता है। इसी कारण कुछ लेखक प्रभुसत्ता को अन्य तत्वों से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। परन्तु वास्तव में चारों तत्त्व महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि इन चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना असम्भव है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य शब्द जिसे अंग्रेज़ी में ‘State’ कहते हैं, की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है ?
उत्तर-
State शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Status’ से हुई है। ‘स्टेट्स’ (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है। प्राचीनकाल में समाज तथा राज्य में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था, इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक स्तर के लिए किया जाता था। मैक्यावली ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया।

प्रश्न 2.
राज्य की परिभाषा करें।
उत्तर-

  • अरस्तु के अनुसार, “राज्य ग्रामों तथा परिवारों का वह समूह है जिसका उद्देश्य एक आत्मनिर्भर और समृद्ध जीवन की प्राप्ति है।”
  • गार्नर के अनुसार, “राजनीति शास्त्र और कानून की धारणा में राज्य थोड़ी या अधिक संख्या वाले लोगों का वह समुदाय है जो स्थायी रूप से किसी निश्चित भू-भाग पर बसा हुआ हो। बाहरी नियन्त्रण से पूरी तरह या लगभग स्वतन्त्र हो तथा जिसकी एक संगठित सरकार हो, जिसके आदेश का पालन अधिकतर जनता स्वाभाविक रूप से करती हो।”

प्रश्न 3.
राज्य के किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-

  1. जनसंख्या-जनसंख्या राज्य का पहला अनिवार्य तत्त्व है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना तो दूर, कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के लिए कितनी जनसंख्या होनी चाहिए इसके विषय में कोई निश्चित नियम नहीं है, परन्तु राज्य की स्थापना के लिए पर्याप्त जनसंख्या का होना आवश्यक है। दस-बीस मनुष्य मिलकर राज्य की स्थापना नहीं कर सकते।
  2. निश्चित भू-भाग-राज्य के लिए दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भू-भाग है। जब तक मनुष्यों का समूह किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता, तब तक राज्य नहीं बन सकता।

प्रश्न 4.
क्या पंजाब एक राज्य है ?
उत्तर-
पंजाब भारत सरकार की 29 इकाइयों में से एक इकाई है। वैसे तो इसे राज्य कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह राज्य नहीं है। इसके राज्य न होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  • पंजाब की जनसंख्या को इसकी अपनी जनसंख्या नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां रहने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के नागरिक हैं।
  • पंजाब की प्रादेशिक सीमा तो निश्चित है परन्तु केन्द्रीय सरकार कभी भी इसमें परिवर्तन कर सकती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्य को अंग्रेजी भाषा में क्या कहा जाता है ?
उत्तर-राज्य को अंग्रेज़ी भाषा में स्टेट (State) कहा जाता है।

प्रश्न 2. स्टेट (State) शब्द किस भाषा से बना है ?
उत्तर-स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के स्टेट्स (Status) शब्द से बना है।

प्रश्न 3. स्टेट्स (Status) शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-स्टेट्स (Status) शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर होता है।

प्रश्न 4. राज्य की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बटलशली के अनुसार, “एक निश्चित भू-भाग में राजनीतिक दृष्टि से संगठित लोगों का समूह राज्य कहलाता है।”

प्रश्न 5. राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा किसने दी है ?
उत्तर-राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा गार्नर ने दी है।

प्रश्न 6. “मनुष्य स्वभाव और आवश्यकताओं के कारण सामाजिक प्राणी है।” किसका कथन है?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

प्रश्न 7. “जो समाज में नहीं रहता, वह या तो पशु है या फिर देवता” किसका कथन है ?
उत्तर-यह कथन अरस्तु का है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 8. प्लेटो ने राज्य की अधिक-से-अधिक जनसंख्या कितनी निश्चित की है?
उत्तर-प्लेटो ने आदर्श राज्य की जनसंख्या 5,040 बताई है।

प्रश्न 9. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, या ऐच्छिक?
उत्तर-राज्य की सदस्यता अनिवार्य है।

प्रश्न 10. किस विद्वान् ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है?
उत्तर-गार्नर ने राज्य की सर्वोत्तम परिभाषा दी है।

प्रश्न 11. रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए?
उत्तर-रूसो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या 10000 होनी चाहिए।

प्रश्न 12. किस विद्वान् की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है?
उत्तर-गार्नर की राज्य की परिभाषा में चार अनिवार्य तत्त्वों का वर्णन मिलता है।

प्रश्न 13. किस राज्य की जनसंख्या सबसे अधिक है?
उत्तर-साम्यवादी चीन की जनसंख्या सबसे अधिक है।

प्रश्न 14. क्या पंजाब राज्य है?
उत्तर-पंजाब राज्य नहीं है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य के ………….. आवश्यक तत्त्व माने जाते हैं।
2. राज्य के चार आवश्यक तत्त्व जनसंख्या, भू-भाग, सरकार तथा ………. है।
3. प्लेटो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………. होनी चाहिए।
4. रूसो के अनुसार एक आदर्श राज्य की जनसंख्या …………… होनी चाहिए।
5. ………….. के अनुसार राज्य की जनसंख्या तीन तत्त्वों पर आधारित होनी चाहिए–साधनों की प्राप्ति, इच्छित जीवन स्तर और ………… उत्पादन की आवश्यकताएं।
उत्तर-

  1. चार
  2. प्रभुसत्ता
  3. 5040
  4. 10000
  5. प्रो० आर० एच० सोल्टाऊ, सुरक्षा।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राज्य का दूसरा अनिवार्य तत्त्व निश्चित भूमि है।
2. निश्चित भूमि के बिना राज्य की स्थापना हो सकती है।
3. राज्य की स्थापना के लिए सरकार का होना आवश्यक है।
4. प्रभुसत्ता राज्य का प्राण है।
5. प्रभुसत्ता चार प्रकार की होती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य के लिए आवश्यक है ?
(क) संसदीय सरकार
(ख) राजतन्त्र
(ग) गणतन्त्रीय सरकार
(घ) कोई भी सरकार।
उत्तर-
(घ) कोई भी सरकार।

प्रश्न 2.
प्रभुसत्ता किसका आवश्यक गुण है ?
(क) राष्ट्र
(ख) राज्य
(ग) समाज
(घ) सरकार।
उत्तर-
(ख) राज्य।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ
(ख) जापान
(ग) दक्षिण कोरिया
(घ) नेपाल।
उत्तर-
(क) संयुक्त राष्ट्र संघ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 राज्य और इसके अनिवार्य तत्त्व

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नहीं है ?
(क) भारत
(ख) नेपाल
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।
उत्तर-
(ग) मध्य प्रदेश।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

PSEB 11th Class Geography Guide प्रमुख भू-आकार Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो शब्दों में दें:

प्रश्न (क)
भारत में अंदरूनी (आंतरिक) पर्वतों का सबसे बड़ा उदाहरण कौन-सा है ?
उत्तर-
हिमालय पर्वत।

प्रश्न (ख)
पूर्व कैंबरीअन काल कितने वर्ष पुराने समय को माना जाता है ?
उत्तर-
4.6 बिलियन (अरब) वर्ष।

प्रश्न (ग)
महाद्वीपों के खिसकने से पहले के सुपर महाद्वीप का नाम क्या था ?
उत्तर-
पैंजीआ।

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प्रश्न (घ)
पृथ्वी की ऊपरी प्लेट के दो भाग कौन-कौन से होते हैं ?
उत्तर-
क्रस्ट और मैंटल।

प्रश्न (ङ)
एशिया का दिल’ किस प्रकार की भू-आकृति को कहते हैं ?
उत्तर-
पठार।

प्रश्न (च)
गुंबद पठार का विश्व प्रसिद्ध उदाहरण कौन-सा है ?
उत्तर-
ओज़ारक पठार।

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प्रश्न (छ)
अफ्रीका की कौन-सी नदी ‘बाड़ के मैदान’ बनाती है ?
उत्तर-
नील नदी।

प्रश्न (ज)
ऑस्ट्रेलिया में नदियों के मैदानों को क्या नाम दिया जाता है ?
उत्तर-
मरे-डार्लिंग मैदान।

प्रश्न (झ)
परेरी, पंपाज़ और कैंटरबरी क्या हैं ?
उत्तर-
घास के मैदान।

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प्रश्न (ब)
पृथ्वी पर ऊँचाई कहाँ से नापी जाती है ?
उत्तर-
समुद्र तल से।

2. प्रश्नों के उत्तर एक-दो वाक्यों में दें

प्रश्न (क)
धरातलीय स्वरूपों को कौन-कौन से भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर-

  1. पहली श्रेणी के स्थल रूप
  2. दूसरी श्रेणी के स्थल रूप
  3. तीसरी श्रेणी के स्थल रूप।

प्रश्न (ख)
आकार के आधार पर पर्वतों को वर्गीकृत करें।
उत्तर-

  1. बलदार पर्वत
  2. ब्लॉक पर्वत
  3. गुंबददार पर्वत
  4. संग्रह पर्वत।

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प्रश्न (ग)
बलदार या वलन पर्वत की परिभाषा दें।
उत्तर-
पर्वत भू-पटल की परतों में बल पड़ने के कारण इन्हें बलदार पर्वत कहा जाता है। तलछट में मोड़ पड़ने के कारण ऊँचे उठे भाग को Anticline और नीचे धंसे भाग को Syncline कहा जाता है।

प्रश्न (घ)
अलफ्रेड वैगनर ने कब और कौन-सी पुस्तक में महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त पेश किया था ?
उत्तर-
अल्फ्रेड वैगनर ने 1915 में अपनी पुस्तक ओरिज़न ऑफ कौन्टीनैंट एंड ओशंस (Origin of Continents and Oceans) में महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धान्त पेश किया था।

प्रश्न (ङ)
लुरेशिया में कौन-सा क्षेत्र सम्मिलित था ?
उत्तर-
उत्तरी अमेरिका, ग्रीनलैंड, यूरोप, रूस और चीन लुरेशिया में शामिल थे। इसे अंगारा लैंड भी कहा जाता है।

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प्रश्न (च)
सीमावर्तीय पठार कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
पुरानी पर्वत श्रेणियों के साथ लगते पठारों को सीमावर्तीय पठार कहते हैं। ये पर्वतों के दामन में स्थित होते हैं।

प्रश्न (छ)
मैदान निर्माण के लिए जानी जाती रूस व चीन की नदियाँ कौन-सी हैं ?
उत्तर-
रूस में उब, येनसी, लीना और बोलगा नदियाँ और चीन में ह्वांग-हो, यांग-सी-कियांग नदियाँ मैदानों का निर्माण करती हैं।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 60 से 80 शब्दों में दें

प्रश्न (क)
ब्लॉक पर्वतों की परिभाषा दें।
उत्तर-
तनाव के कारण धरातल पर दरारें पड़ जाती हैं। कुछ भाग नीचे की ओर धंस जाते हैं और कुछ भाग बीच में ही खड़े रह जाते हैं। इन ऊँचे भागों को ब्लॉक पर्वत कहा जाता है। ये पर्वत खड़ी ढलान वाले होते हैं और ऊपरी तल समतल होता है, जैसे जर्मनी में हारझुट पर्वत, भारत में विंध्याचल पर्वत।

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प्रश्न (ख)
आप अगर कृषि, सिंचाई तथा यातायात की सुविधाओं वाले क्षेत्रों में रह रहे हों, तो भौगोलिक पक्ष से ये कौन-से क्षेत्र होंगे ? विश्व-भर के ऐसे क्षेत्रों के नाम लिखें।
उत्तर-
मैदानों में कृषि की सुविधाएँ होती हैं। यहाँ नदियाँ और नहरें जल सिंचाई प्रदान करती हैं। यहाँ परिवहन के आसान साधन होते हैं। यहाँ सड़कों और रेलों के निर्माण की सुविधा होती है। ये सब क्षेत्र मैदान होते हैं। जैसे-अमेरिका में परेरी, यूरोप में स्टैपे, ऑस्ट्रेलिया में मरे-डार्लिंग, दक्षिण अमेरिका में पंपास, भारत में गंगा-ब्रह्मपुत्र, चीन में ह्वांग-हो और यांग-सी-कियांग।

प्रश्न (ग)
भौगोलिक पक्ष से खनिज पदार्थों की बहुतायत कौन-से धरातलीय क्षेत्रों में होती है ? विश्वभर से उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर-
विश्व में बहुत-से खनिज पठारों से मिलते हैं। पठार आग्नेय चट्टानों से बनते हैं। इनमें बहुमूल्य खनिज मिलते हैं। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में सोना, अफ्रीका के पठार में हीरा, सोना और तांबा, ब्राजील के पठार में लोहा और मैंगनीज़, दक्षिणी भारत में सोना, अभ्रक, मैंगनीज़ और छोटा नागपुर के पठार में लोहा, तांबा, अभ्रक और मैंगनीज़ के भंडार हैं।

प्रश्न (घ)
प्लेट टैक्टौनिक का सिद्धान्त विस्तार से समझाएँ।
उत्तर-
स्थलमंडल भू-प्लेटों में बंटा हुआ है। इसमें 6 मुख्य प्लेटें और 14 छोटे आकार की प्लेटें हैं। ये भू-प्लेटें खिसकती रहती हैं। परिणामस्वरूप महाद्वीप भी खिसकते रहते हैं। संपीड़न क्रिया प्लेटों की गति के कारण होती है। इससे महाद्वीप खिसकते हैं और पर्वत-निर्माण क्रिया होती है।

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प्रश्न (ङ)
ताज़ा झरने, कीमती लकड़ी और घने जंगल पृथ्वी के कौन-से धरातलीय भाग में मिलते हैं ? विश्व-भर से उदाहरण देते हुए संक्षेप में चर्चा करें।
उत्तर-

  1. पर्वत धरती पर नदियों और झरनों के स्रोत हैं। ये पूरा वर्ष जल-सिंचाई प्रदान करते हैं। गंगा का मैदान हिमालय पर्वत का वरदान है।
  2. पर्वत घने जंगलों से ढके रहते हैं। यहाँ स्वास्थ्यवर्धक स्थान भी पाए जाते हैं।
  3. पर्वत बहुमूल्य लकड़ी के भंडार हैं। इन पर कई उद्योग निर्भर करते हैं। कनाडा, स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड आदि देशों का आर्थिक विकास जंगलों के कारण ही है। नॉर्वे, इटली, स्विट्ज़रलैंड में अनेकों जल-झरने मिलते हैं, जो पनबिजली पैदा करते हैं।

प्रश्न (च)
पर्वत-निर्माण शक्तियाँ या ओरोजैनी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धरती पर भू-अभिनीतियों में करोड़ों वर्षों से तलछट जमा हो रहे हैं। इन्हें भू-अभिनीति कहते हैं। तलछट में मोड़ पड़ने पर बलदार पर्वतों का निर्माण हुआ। उदाहरण के लिए हिमालय का निर्माण टेथिस भू-अभिनीति के तलछट में बल पड़ने के कारण हुआ। भू-अभिनीतियों में संपीड़न शक्तियों के कारण बलदार पर्वत बने हैं। इसे ओरोजैनी क्रिया कहते हैं।

4. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 150 से 250 शब्दों में दें-

प्रश्न (क)
पर्वतों के वर्गीकरण के आधार क्या-क्या हो सकते हैं ? उत्पत्ति के आधार पर वर्गीकरण का वर्णन करें।
उत्तर-
पर्वत (Mountains)-पर्वत प्रकृति की रहस्यमयी रचनाओं में से एक हैं। इन्होंने धरती का 12 प्रतिशत भाग घेरा हुआ है। _ ‘पर्वत ऐसे ऊँचे उठे हुए भू-खंड को कहते हैं, जो आस-पास के प्रदेश से कम-से-कम 900 मीटर अधिक ऊँचा हो। उसके तल का आधे से अधिक भाग तीखी ढलान वाला हो।’ __पर्वतों का आधार-क्षेत्र बड़ा होता है, पर ऊँचाई के साथ-साथ विस्तार कम होता जाता है, इसीलिए पर्वतों की चोटियों के क्षेत्र छोटे होते हैं। पर्वत और पहाड़ी में केवल ऊँचाई का अंतर होता है। पहाड़ी की ऊँचाई 900 मीटर से कम होती है।

पर्वत की प्रमुख विशेषताएँ (Main Features of Mountains)-

  1. आस-पास के क्षेत्रों से अधिक ऊँचाई (Highland Area)
  2. शिखर पर कम विस्तार (Small Summit)
  3. तीखी ढलान (Steep Slope)
  4. ऊँची-नीची भूमि (Rugged Land)
  5. आधार-क्षेत्र का बड़ा होना (Large Base)

पर्वतों के प्रकार (Types of Mountains)-धरातल पर पाए जाने वाले पर्वतों में बहुत भिन्नताएँ हैं। “किन्हीं भी दो पर्वतों में पूर्ण समानता नहीं होती है।” (“No two mountains are exactly alike)” ऊँचाई की दृष्टि से पर्वतों में बहुत अंतर होता है। ऊँचाई के अनुसार पर्वतों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

1. ऊँचाई के अनुसार (According to height)

  • छोटे पर्वत (Low Mountains)—जो पर्वत 3000 मीटर तक ऊँचे होते हैं।
  • कम ऊँचाई के पर्वत (Rugged Mountains)—जो पर्वत 3000 मीटर से 6000 मीटर तक ऊँचे होते हैं।
  • ऊँचे पर्वत (High Mountains)—जो पर्वत 6000 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं।

2. रचना के अनुसार (According to Formation)-

  • बलदार पर्वत (Folded Mountains)
  • ब्लॉक या अवरोधी पर्वत (Block Mountains)
  • अवशेषी पर्वत (Residual Mountains)
  • ज्वालामुखी पर्वत (Volcanic Mountains)
  • गुंबददार पर्वत (Dome Mountains)

(i) बलदार पर्वत (Folded Mountain)-बलदार पर्वतों का निर्माण भू-गर्भ के संपीड़न (Contraction) की दबाव (Compression) शक्तियों के कारण धरातल की परतों में बल पड़ने या मोड़ पड़ने के कारण होता है। पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण धरातल में मोड़ (Folds) पड़ जाते हैं। इस हलचल के कारण धरातल का एक भाग ऊपर उठ जाता है और दूसरा भाग नीचे धंस जाता है। ऊपर उठे हुए भाग को Anticline और नीचे धंसे हुए भाग को Syncline कहते हैं। बलदार पर्वत विश्व में सबसे नवीन, सबसे ऊँचे और अधिक विस्तार वाले हैं। सृजन और आयु के आधार पर ये पर्वत दो तरह के हैं-

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 1

(क) नवीन बलदार पर्वत (Young Fold Mountains)—जिस प्रकार भारत में हिमालय, यूरोप में अल्पस (Alps), उत्तरी अमेरिका में रॉकी (Rocky) और दक्षिणी अमेरिका में एंडीज़ (Andes) पर्वत हैं।

(ख) प्राचीन बलदार पर्वत (Old Fold Mountains)-जिस प्रकार उत्तरी अमेरिका में अपैलशियन (Appalachian) पर्वत और नॉर्वे के पर्वत।

(ii) ब्लॉक पर्वत या अवरोधी या भू-खंडीय पर्वत (Block Mountains) ब्लॉक पर्वत आमतौर पर समानांतर दरारों के बीच स्थित होते हैं, जिनका आकार मेज़ के समान होता है। ये पर्वत तनाव की क्रिया (Expansion) से बनते हैं। तनाव के कारण धरातल पर दरारें (Faults) पड़ जाती हैं। दरारों के कारण धरातल का एक बड़ा भाग ब्लॉक (Block) के रूप में ऊपर या नीचे सरक जाता है। इस प्रकार ऊपर उठे हुए भाग को होरस्ट (Horst) कहते हैं और नीचे धंसे भाग को गरैबन्स (Grabens) कहते हैं। इस प्रकार धरती की लंबवर्ती हलचलों (Vertical Movements) के कारण ब्लॉक पर्वत बनते हैं। ब्लॉक पर्वतों का ऊपरी भाग पठार के समान साफ होता है, परंतु चित्र-ब्लॉक पर्वत इसके किनारे तीखी ढलान वाले होते हैं। दरारों के द्वारा निर्माण के कारण इन्हें Fault Mountains भी कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार 2

उदाहरण (Examples)-जर्मनी में वॉसजिज़ (Vosges) और ब्लैक फॉरेस्ट (Black Forest), पाकिस्तान में नमक के पहाड़ (Salt Range) और भारत में विंध्याचल पर्वत।

रिफ्ट घाटी (Rift Valley)—इसी प्रकार जब दो समानांतर दरारों (Faults) के बीच का भाग नीचे की ओर सरक जाता है और आस-पास के हिस्से ऊँचे उठे हुए दिखाई देते हैं, तो नीचे को सरका हुआ भाग रिफ्ट घाटी कहलाता है। उदाहरण (Examples)-यूरोप में राइन घाटी (RhineValley) और अमेरिका (U.S.A.) में कैलीफोर्निया घाटी (California Valley), एशिया में मृत सागर (Dead Sea), भारत में नर्मदा घाटी।

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(iii) अवशेषी पर्वत (Residual Mountains)-ये पर्वत बाहरी साधनों नदी, बर्फ, वायु आदि के खुरचने के कारण बनते हैं। बहुत समय तक लगातार अपरदन होने के कारण पर्वतों की ऊँचाई बहुत कम हो जाती है। ये पर्वत घिस-घिसकर नीची पहाड़ियों के रूप में बदल जाते हैं। इस प्रकार के पर्वत पुराने पर्वतों के बचेखुचे भाग होते हैं। इसलिए इन्हें Relict Mountains भी कहते हैं। कहीं-कहीं कठोर चट्टानों से बने भू-भाग ऊँचे क्षेत्रों के रूप में खड़े रहते हैं। ऐसे ऊँचे क्षेत्रों को अवशेषी पर्वत कहते हैं। अपरदन के साधनों से बने होने के कारण इन्हें अपरदित पर्वत (Mountains of Denudation) भी कहते हैं।

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उदाहरण (Examples) भारत में अरावली पर्वत (Aravali Mountains) और पूर्वी घाट, अमेरिका (U.S.A.) में ओज़ार्क (Ozark) पर्वत।

(iv) ज्वालामुखी पर्वत (Valcanic Moun tains) ज्वालामुखी पर्वत धरती के नीचे से निकलने वाला लावा (Lava) राख (Ash) आदि ठोस पदार्थों के जमाव के कारण बनते हैं। ज्वालामुखी के मुँह से निकला हुआ यह पदार्थ उसके मुख या गर्त के चारों तरफ एक परत के ऊपर दूसरी परत के रूप में लगातार जमता जाता है। इस प्रकार एक शंकु (Cone) का निर्माण हो जाता है। गाढ़े लावे के ऊँचे पर्वत बनते हैं। ऐसे पर्वतों को ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं।

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उदाहरण (Examples)-जापान में फ्यूज़ीयामा (Fujiyama) पर्वत, चिली में ऐकनकेगुआ (Aconcagua),
इटली में वेसुवियस (Vesuvious) पर्वत और अफ्रीका में किलीमंजारो (Kilimanjaro) पर्वत।

(v) गुंबददार पर्वत (Dome Mountains)-भीतरी हलचल के कारण गर्म लावा बाहर आने का यत्न करता है।
नीचे की ओर दबाव के कारण धरातल पर एक उभार पैदा हो जाता है। जब धरातल एक चाप (Arch) के आकार में ऊपर उठ जाता है, तो गुंबद के आकार के पर्वत बनते हैं। गुंबद का ऊपरी भाग गोलाकार होता है। लावा के इस उभार से लोकोलिथ (Loccolith) और बैथोलिथ (Batholith) नाम के पर्वत बनते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • हवाई द्वीप में मोना लोआ (Maunaloa)
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में हैनरी पर्वत (Henry Mountains)

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प्रश्न (ख)
पठारों का वर्गीकरण करें और प्रत्येक किस्म की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर-
पठार (Plateau)—पठार एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक इकाई है। धरती का एक बड़ा भाग (33%) पठारों से घिरा हुआ है। “पठार वह प्रदेश होता है, जो आमतौर पर समुद्र तल से एक समान ऊँचाई वाला हो, इर्द-गिर्द के धरातल से एकदम ऊँचा और तीखी ढलान वाला हो।” (A Plateau is a highland with broad, flat summits.”) पठार आमतौर से समुद्र तल से 300 से 1000 मीटर तक ऊँचे होते हैं, पर पठार की ऊँचाई कुछ भी हो सकती है; जैसे अमेरिका (U.S.A.) में पीडमांट पठार (Piedmont Plateau) केवल 600 मीटर ऊँचा है, पर पामीर का पठार कई ऊँचे पर्वतों से भी ऊँचा है और उसे ‘संसार की छत’ (Roof of the world) कहते हैं।

पठारों की प्रमुख विशेषताएँ (Main Features of Plateau)-

  1. सपाट और विशाल शिखर।
  2. किनारों से तीखी ढलान।
  3. मेज के समान चौकोर ऊपरी सतह।
  4. पास के क्षेत्रों से एकदम ऊँचा होना।
  5. मैदानों की तुलना में अधिक ऊँचाई।

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पठार पठारों की किस्में (Types of Plateaus) –

1. अंतर-पर्वतीय पठार (Intermonteue Plateaus) 2. गिरीपद पठार (Piedmont Plateaus) 3. महाद्वीपीय पठार (Continental Plateaus) 4. ज्वालामुखी पठार (Volcanic Plateaus) 5. अपरदित पठार (Dissected Plateaus) 6. लोएस पठार (Loess Plateaus)

1. अंतर-पर्वतीय पठार (Intermonteue Plateaus) ये पठार चारों तरफ से ऊँचे पर्वतों से घिरे होते हैं।
(Such Plateaus have a mountain rim around them.”) ये पठार आस-पास के पर्वतों के निर्माण के साथ-साथ बनते रहते हैं, पर इन पठारों में मोड़ नहीं पड़ते और ये समतल रह जाते हैं। इन पठारों में नदियाँ किसी झील में गिरती हैं और अंतरवर्ती जल-प्रवाह (Inland Drainage) होता है। संसार के सबसे ऊँचे पठार इसी प्रकार के हैं।

उदाहरण (Examples) –

  • तिब्बत का पठार (Tibet Plateau) हिमाचल और कुनलुन (Kunlun) पर्वतों के बीच में स्थित है, जो कि 3600 मीटर ऊँचा है।
  • दक्षिणी अमेरिका में एंडीज़ (Andes) पर्वतों से घिरा हुआ है-बोलीविया (Bolivia) का पठार।

2. गिरीपद पठार (Piedmont Plateaus)—ये पठार पर्वतों के आधार पर बने होते हैं। इनके एक तरफ ऊँचे पर्वत और दूसरी तरफ मैदान या समुद्र होता है। मैदान की तरफ तीखी ढलान (Escarpment) होती है। इनका क्षेत्रफल बहुत नहीं होता।

उदाहरण (Examples)-

  • दक्षिण अमेरिका में एंडीज़ (Andes) पर्वत और अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) के बीच स्थित पेटेगोनिया (Patagonia) का पठार।
  • अमेरिका (U.S.A.) में एपलेशीयन (Appalachian) पर्वत के निकट पीडमांट पठार।

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3. महाद्वीपीय पठार (Continental Plateaus)—ये पठार ऐसे विशाल पठार हैं, जो किसी महाद्वीप या देश के काफ़ी बड़े क्षेत्र में फैले होते हैं। ये पठार मैदान या समुद्र के निकट एकदम ऊपर उठ जाते हैं। धरातल के सपाट क्षेत्रों में उभार (Uplift) के कारण ये पठार बनते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • सारा अफ्रीका महाद्वीप एक विशाल महाद्वीपीय पठार है।
  • स्पेन, अरब और ग्रीनलैंड के पठार।

4. ज्वालामुखी पठार (Volcanic Plateaus)—ये पठार धरातल पर लावा (Lava) के प्रवाह से बनते हैं। ज्वालामुखी विस्फोट के समय लावा चारों तरफ दूर-दूर तक फैल जाता है। इस प्रकार ये प्रदेश आस-पास के क्षेत्रों से दिखाई देते हैं। इन्हें ज्वालामुखी पठार कहते हैं। उदाहरण (Examples)-भारत का दक्षिणी पठार लगभग 7 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। अमेरिका (U.S.A.) में कोलंबिया पठार।

5. अपरदित पठार (Dissected Plateaus)—ये पठार नदियों के द्वारा अपरदित होते हैं। नदियाँ पठारों को काटकर कई इकाइयों (Platforms) में बाँट देती हैं। नमी वाले प्रदेशों में ढलान वाली ज़मीन पर अधिक कटाव होता है और कई तंग घाटियाँ (Ravines) बन जाती हैं। ऐसे ऊँचे-नीचे धरातल वाले पठार को अपरदित (Dissected) पठार कहते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • भारत में छोटा नागपुर का पठार।
  • स्कॉटलैंड (Scotland) का पठार।

6. लोएस पठार (Loess Plateaus)—वायु द्वारा बने पठार को लोएस पठार (Loess Plateau) कहते हैं। हवा अपने साथ मरुस्थलों से काफी मात्रा में बारीक मिट्टी उड़ाकर लाती है। यह मिट्टी एक परत पर दूसरी परत के रूप में जमा होती रहती है और पठार का रूप धारण कर लेती है।

उदाहरण (Examples)-(i) एशिया (Asia) के गोबी (Gobi) मरुस्थल से आने वाली हवाओं के कारण उत्तर-पश्चिमी चीन में लोएस (Loess) का पठार बन गया है। ये पठार पीली मिट्टी के जमाव के कारण बना है।

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प्रश्न (ग)
मैदानी क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों को पहाड़ों में रहने वाले लोगों के मुकाबले क्या आसानी होती है और क्या परेशानी होती है ? चर्चा करें।
उत्तर-
मैदानों का महत्त्व (Importance of Plains)—मैदानों में कृषि, उद्योग, व्यापार और मानवीय विकास की सभी सुविधाएँ होती हैं।

1. निवास की सुविधाएँ (Settlement of Population)—मैदानों में सपाट ज़मीन पर बस्तियों का विकास – संभव है। मैदानों में संसार की 75% आबादी निवास करती है।
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2. कृषि की सुविधाएँ (Agriculture Facilities)—समतल भूमि और उपजाऊ मिट्टी के कारण, मैदान कृषि योग्य उत्तम क्षेत्र होते हैं।

3. अन्न के भंडार (Storehouse of Grains)-मैदानों में सिंचाई की सुविधाएँ, उपजाऊ मिट्टी और मशीनों के प्रयोग के कारण अन्न का उत्पादन अधिक होता है। संसार की सभी व्यापारिक फसलें गेहूँ, गन्ना, कपास और पटसन आदि मुख्य तौर पर मैदानों में ही होती हैं।

4. सभ्यता (Civilization) संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास मैदानों में ही हुआ है। चीन और मिस्र की सभ्यता ने नदी घाटियों में ही जन्म लिया।

5. आसान परिवहन (Easy Transport)—मैदानों में सपाट भूमि के कारण चौड़ी और लंबी सड़कों (Highways), रेलमार्गों (Railways), जलमार्गों (Waterways) और हवाई अड्डों (Aerodromes) को बनाना आसान होता है। नदियों के द्वारा भी आवाजाही आसान होती है। नदियों की धीमी चाल के कारण इनमें नाव और जहाज़ चलाए जा सकते हैं।

6. उद्योग (Industries)—मैदान आर्थिक जीवन की धुरी होते हैं। सभी सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण, संसार के सभी बड़े उद्योग मैदानों में स्थित होते हैं। इसका कारण यह है कि सबसे पहले, मैदानों में कच्चा माल (Raw Material) आसानी से मिल जाता है। दूसरे, परिवहन और संचार के साधन प्राप्त होने के कारण माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से लाया व ले जाया जा सकता है। तीसरे, जनसंख्या अधिक होने के कारण मज़दूरी सस्ती होती है। व्यापार का विकास होता है।

7. नगर (Towns)-आर्थिक और सामाजिक सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण संसार के प्रमुख नगर मैदानों में ही स्थित हैं।

प्रश्न (घ)
उत्पत्ति के आधार पर मैदानों की भिन्न-भिन्न किस्मों का वर्णन करें।
उत्तर-
मैदान (Plains)-प्रमुख भू-आकारों (Major Landforms) में मैदान सबसे अधिक स्पष्ट और सरल हैं। स्थल के बहुत बड़े भाग (41%) पर इनका विस्तार है। मैदान धरती के निचले और समतल (सपाट) क्षेत्र होते हैं। “मैदान स्थल के वे सपाट भाग हैं, जो समुद्र तल से 150 मीटर से कम ऊँचाई पर हों और उनकी ढलान सपाट, मध्यम और साधारण हो।” (Plains are low lands of low relief and horizontal structure.”) मैदान सागर तल से ऊँचे या नीचे हो सकते हैं, परंतु अपने आस-पास के पठार या पर्वत से कभी भी ऊँचे नहीं हो सकते।

मैदानों के लक्षण (Features of Plains)-

  1. एक तरह की चट्टानें
  2. कम ढलान
  3. नीचा धरातल
  4. सपाट और एक समान सतह।

सभी मैदान समुद्र तल से एक समान ऊँचाई के नहीं होते। कई मैदान समुद्र तल से बहुत ऊँचे होते हैं, जैसे अमेरिका के महान मैदान (Great Plains of U.S.A.) 6000 फुट ऊँचे हैं, पर हॉलैंड (Holland) का तट समुद्र तल से भी नीचा है। धरातल के अनुसार मैदान चार तरह के हैं-

  1. सपाट मैदान (Flat Plains)
  2. ऊँचे-नीचे मैदान (Undulating Plains)
  3. लहरदार मैदान (Rolling Plains)
  4. अपरदित मैदान (Dissected Plains)

मैदान की रचना (Formation of Plains)-
मैदान तीन तरह से बनते हैं-

  1. अपरदन (Erosion) से।
  2. निक्षेप (Deposition) से।
  3. धरती की हलचल (Earth Movements) से।

मैदानों की किस्में (Types of Plains)-
रचना के अनुसार मैदानों की निम्नलिखित किस्में हैं-

  1. जलोढ़ मैदान (Alluvial Plains)
  2. अपरदन के मैदान (Pene Plains)
  3. हिमानी मैदान (Glaciated Plains)
  4. सरोवर से निर्मित मैदान (Lacustrine Plains)
  5. ज्वालामुखी मैदान (Volcanic Plains)
  6. तट के मैदान (Coastal Plains)
  7. चूनेदार मैदान (Karst Plains)
  8. लोएस मैदान (Loess Plains)

1. जलोढ़ मैदान (Alluvial Plains)-नदियों के द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी के जमाव से विशाल जलोढ़ मैदान बनते हैं। नदियों का उद्देश्य थल भाग को काटकर समुद्र तक ले जाना होता है। (Rivers Carry land to sea.) केवल उत्तरी अमेरिका की नदियाँ ही 80 करोड़ टन मिट्टी हर वर्ष समुद्र में जमा करती हैं। पर्वतों से निकलकर नदियाँ भाबर के मैदान (Bhabar Plains) बनाती हैं। निचली घाटी में बाढ़ के समय बारीक मिट्टी के जमाव के कारण बाढ़ के मैदान (Flood Plains) बनते हैं। सागर में गिरने से पहले एक समतल तिकोने आकार का एक मैदान बनता है, जिसे डेल्टा (Delta) कहते हैं। नदियों द्वारा बने मैदान बहुत उपजाऊ होते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • भारत में गंगा-सतलुज का विशाल मैदान।
  • चीन में ह्वांग-हो (Hwang Ho) नदी का मैदान।
  • अमेरिका (U.S.A.) में मिसीसीपी (Missisipi) का मैदान।

2. अपरदन के मैदान (Pene Plains)-‘Pene Plains’ शब्द दो शब्दों ‘Pene’ और ‘Plain’ के जोड़ से बना है। ‘Pene’ शब्द का अर्थ है-‘लगभग’ या आम तौर पर (Almost) और ‘Plain’ का अर्थ है-मैदान। इस प्रकार ‘Pene Plains’ का अर्थ है-लगभग मैदान या आम तौर पर समभूमि। एक लंबे समय तक बाहरी साधन बर्फ, जल, हवा आदि के लगातार कटाव के कारण, पर्वत या पठार घिसकर नीचे हो जाते हैं और मैदान का रूप धारण कर लेते हैं। ये मैदान पूरी तरह से सपाट नहीं होते। इन मैदानों की ढलान अत्यंत हल्की होती है। इनमें कठोर चट्टानों के रूप में ऊँचे टीले मिलते हैं। ऐसे मैदानों में कठोर चट्टानों के टीले नष्ट नहीं होते और बचे रहते हैं। इन्हें मोनैडनॉक (Monadnocks) कहते हैं। संसार में इस तरह के पूर्व सम-मैदान (Perfect Plains) बहुत कम मिलते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • फिनलैंड और साइबेरिया का मैदान।
  • भारत में अरावली प्रदेश।

3. हिमानी मैदान (Glaciated Plains)—ये मैदान हिम नदी या ग्लेशियर के कारण बनते हैं। ग्लेशियर कटाव द्वारा ऊँचे भागों को काट-छाँट कर सपाट मैदान बनाते हैं। इनमें झीलें, झरने, ऊँचे-नीचे और दलदली क्षेत्र मिलते हैं। जब बर्फ पिघलती है, तो अपने साथ बहाकर लाई हुई मिट्टी, बजरी, कंकर आदि निचले स्थानों और खड्डों में भर देती है। इससे सपाट मैदान बन जाता है। इन मैदानों में हिमोढ़ (Moraines) के जमाव से बने मैदान को ड्रिफ्ट मैदान (Drift Plains) भी कहते हैं। हिम नदी के अपरदन से भी मैदान बनते हैं, जिसमें छोटेछोटे टीले इधर-उधर बिखरे होते हैं।

उदाहरण (Examples)-हिम युग (Great Ice age) में उत्तरी अमेरिका और यूरोप बर्फ से ढके हुए थे। बर्फ के पिघलने से वहाँ हिमानी मैदान बन गए।

4. सरोवरी मैदान (Lacustrine Plains)-झीलों के भर जाने या सूख जाने से उन स्थानों पर सरोवरी मैदान बन जाते हैं। झीलों में गिरने वाली नदियाँ अपने साथ लाई हुई मिट्टी आदि झील में जमा करती रहती हैं, जिससे झील का तल (Bed) ऊँचा हो जाता है, गहराई कम हो जाती है और धीरे-धीरे झील पूरी तरह भरकर एक सपाट मैदान बन जाती है। धरती की अंदरूनी हलचल के कारण झील का तल ऊपर उठ जाने से भी ऐसे मैदान बनते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • उत्तरी अमेरिका की परेरीज़ (Prairies) का हरा मैदान प्राचीन काल की अगासीज़ (Agassiz) झील के भर जाने के कारण बना है।
  • कैस्पीयन सागर (Caspian Sea) का उत्तरी भाग सूख जाने के कारण मैदान बन गया है।

5. ज्वालामुखी मैदान (Volcanic Plains)-ज्वालामुखी के मुख से निकला पिघला लावा (Basic Lava) कई
किलोमीटर दूर तक फैल कर जम जाता है। लावा एक पतली चादर के रूप में, परतों में निचले क्षेत्र में जमा हो जाता है। इस प्रकार एक सपाट मैदान बनता है।

उदाहरण (Examples)-

  • इटली में नेपल्स (Naples) नगर के निकट वैसुवियस (Vesuvious) का मैदान।
  • अमेरिका (U.S.A.) के स्नेक (Snake) नदी का क्षेत्र।

6. तट के मैदान (Coastal Plains)-तट के मैदान आम तौर पर समुद्र के किनारे पर स्थित होते हैं। तट के जो भाग, पानी में डूब जाते हैं। वे भाग रेत और मिट्टी बिछ जाने के कारण तट के मैदान बनते हैं। समुद्र के पीछे हटने से भी थल भाग सूखकर मैदान बन जाते हैं। धरती की हलचल के कारण, तट के निकट कम गहरा समुद्र ऊँचा उठ जाता है, जिससे तट के मैदान बनते हैं। आम तौर पर तट के मैदानों की ढलान समुद्र की ओर कम होती है। इनका महत्त्व बंदरगाहों और समुद्री व्यापार के कारण होता है।

उदाहरण (Examples)-

  • अमेरिका (U.S.A.) में खाड़ी के तट का मैदान (Gulf Coast Plain)।
  • भारत के पूर्वी तट का मैदान।।

7. चूनेदार मैदान (Karst Plains)-चूने के क्षेत्रों में भूमिगत पानी के एक विशेष प्रकार के धरातल पर जल प्रवाह नहीं होता। चूने का पत्थर जल में घुल जाता है। सारे प्रदेश में चूने के ढेर और टीले दिखाई देते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • यूगोस्लाविया में कार्ट प्रदेश
  • भारत में जबलपुर क्षेत्र।

8. लोएस का मैदान (Loess Plains)—हवा द्वारा बने मैदानों को रेगिस्तानी या लोएस का मैदान कहते हैं। हवा रेत को उड़ाकर दूर-दूर के स्थानों पर जमा करती है। ऐसे मैदानों में रेत के टीले (Sand Dunes) अधिक होते हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • उत्तर-पश्चिमी चीन में शैंसी और शांसी प्रदेशों में लोएस के मैदान मिलते हैं।
  • पंजाब और हरियाणा की सीमा पर लोएस के मैदान मिलते हैं।

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प्रश्न (ङ)
भारत के छोटे नागपुर क्षेत्र के लोग, केरल व हिमाचल प्रदेश के लोगों से किन मुद्दों पर भिन्न हो सकते हैं ? चर्चा करें।
उत्तर-
छोटा नागपुर का पठार एक अपरदित पठार है। बहता हुआ जल ऊँचे पर्वत को क्षीण कर पठार का आकार देता है। हिमाचल प्रदेश एक मोड़दार पर्वत है और केरल एक तटीय मैदान है। इन प्रदेशों के लोगों का जीवन और क्रियाएँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिमाचल प्रदेश एक पर्वतीय प्रदेश है और यहाँ कृषि की कमी है। पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेती होती है। ठंडी जलवायु के कारण गेहूँ की खेती सीमित होती है। यहाँ फलों की खेती महत्त्वपूर्ण है। हिमाचल के सेबों के बाग विश्व-भर में प्रसिद्ध हैं। यहाँ परिवहन के साधन सीमित हैं।

छोटा नागपुर एक अपरदित पठार है। यहाँ वर्षा की अधिक मात्रा के कारण मिट्टी का कटाव अधिक है। यहाँ खनिज । पदार्थ बहुत मिलते हैं। यहाँ लोहे और कोयले के भंडार हैं। खानें खोदना लोगों का कार्यक्षेत्र है। वनों का घनत्व बहुत अधिक है। आदिवासी लोग जंगलों में रहते हैं और पेड़ काटना भी एक रोज़गार है।

केरल के तटीय मैदानों में वर्षा बहुत अधिक होती है। यहाँ चावल की कृषि होती है। लोगों का मुख्य भोजन चावल है। यहाँ साक्षरता की ऊँची दर है, इसलिए लोग तकनीकी रूप से विकसित हैं। औद्योगिक विकास बहुत अधिक है। जनसंख्या का घनत्व भी अधिक है। मछली पकड़ना लोगों का एक रोज़गार है।

Geography Guide for Class 11 PSEB प्रमुख भू-आकार Important Questions and Answers

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पर्वतों की औसत ऊँचाई कितनी होती है ?
उत्तर-
900 मीटर से अधिक।

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प्रश्न 2.
मोड़दार पर्वतों की रचना में कौन-सी शक्ति काम करती है ?
उत्तर-
संपीड़न क्रिया।

प्रश्न 3.
पर्वत के ऊँचे-ऊँचे भागों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
Anticline.

प्रश्न 4.
पर्वतीय भाग में नीचे धंसे भागों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
Syncline.

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प्रश्न 5.
नवीन मोड़दार पर्वतों का एक उदाहरण बताएँ।
उत्तर-
हिमालय पर्वत।

प्रश्न 6.
ब्लॉक पर्वतों में ऊँचे उठे भाग को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
होरस्ट।

प्रश्न 7.
दो समानांतर दरारों के बीच धंसे भाग को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
रिफ्ट घाटी।

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प्रश्न 8.
रिफ्ट घाटी का एक उदाहरण बताएँ।
उत्तर-
राइन घाटी।

प्रश्न 9.
भारत में बचे-खुचे पर्वतों के उदाहरण दें।
उत्तर-
अरावली पर्वत।

प्रश्न 10.
अंतर-पर्वतीय पठार का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
तिब्बत पठार।

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प्रश्न 11.
मैदानों की औसत ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
150 मीटर।

प्रश्न 12.
लोएस पठार कहाँ स्थित है ?
उत्तर-
उत्तर-पश्चिमी चीन में।

बहुविकल्पीय प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
किसी पर्वत की कम-से-कम ऊँचाई होती है।
(क) 500 मीटर
(ख) 600 मीटर
(ग) 900 मीटर
(घ) 1000 मीटर।
उत्तर-
900 मीटर।

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प्रश्न 2.
नीचे लिखे में से कौन-सा मोड़दार पर्वत है ?
(क) ब्लॉक पर्वत
(ख) हिमालय
(ग) ओज़ारन
(घ) स्कॉटलैंड।
उत्तर-
हिमालय।

प्रश्न 3.
नीचे लिखे में से अंतर-पर्वतीय पठार बताएँ।
(क) पैट्रोलियम
(ख) तिब्बत
(ग) लोएस
(घ) छोटा नागपुर।
उत्तर-
तिब्बत।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न : (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
भू-तल पर प्रमुख भू-आकार बताएँ।
उत्तर-

  1. पर्वत
  2. मैदान
  3. पठार।

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प्रश्न 2.
पर्वत किसे कहते हैं ?
उत्तर-
पर्वत ऐसे ऊँचे उठे हुए भू-खंड को कहते हैं, जो आस-पास के प्रदेश से कम-से-कम 900 मीटर अधिक ऊँचा हो। उसके तल का आधे से अधिक भाग तीखी ढलान वाला हो।

प्रश्न 3.
पर्वत और पहाड़ी में अंतर बताएँ।
उत्तर-
900 मीटर से कम ऊँचे प्रदेश को पहाड़ी कहते हैं, जबकि 900 मीटर से अधिक ऊँचे प्रदेश को पर्वत कहते हैं।

प्रश्न 4.
Anticline और Syncline में क्या अंतर है ? ।
उत्तर-
किसी वलण या बलदार पर्वत (Folded Mountains) के शिखर को Anticline और नीचे से हुए भाग को Syncline कहते हैं।

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प्रश्न 5.
युवा या नवीन बलदार पर्वत किसे कहते हैं ?
उत्तर-
टरशरी युग (5 करोड़ वर्ष) के बाद बनने वाले पर्वतों को युवा पर्वत कहते हैं, जैसे-हिमालय, अल्पस पर्वत।

प्रश्न 6.
प्राचीन बलदार पर्वत किसे कहते हैं ?
उत्तर-
टरशरी युग से पहले बने पर्वतों को प्राचीन बलदार पर्वत कहते हैं, जैसे-युराल पर्वत और अरावली पर्वत. भारत के सबसे प्राचीन बलदार पर्वत हैं।

प्रश्न 7.
होरस्ट से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
दरारों के कारण कुछ भाग नीचे धंस जाते हैं। जो बीच वाला भाग ऊपर उठा होता है, तो उसे होरस्ट कहते हैं।

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प्रश्न 8.
दरार घाटी किसे कहते हैं ?
उत्तर-
दो दरारों के बीच वाले भाग के नीचे फँस जाने से दरार घाटी की रचना होती है।

प्रश्न 9.
दरार घाटी के चार उदाहरण दें।
उत्तर-

  1. राइन घाटी
  2. नर्मदा घाटी
  3. मृत सागर
  4. लाल सागर।

प्रश्न 10.
ज्वालामुखी पर्वतों के तीन उदाहरण दें।
उत्तर-

  1. फ्यूज़ीयामा पर्वत
  2. वैसुवीयस पर्वत
  3. कोटोपैक्सी पर्वत।

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प्रश्न 11.
पठार की परिभाषा दें।
उत्तर-
पठार वह प्रदेश होता है, जो समुद्र तल से एक जैसी ऊँचाई वाला हो और इर्द-गिर्द से एकदम ऊँचा और तीखी ढलान वाला हो।

प्रश्न 12.
अंतर-पर्वतीय पठार क्या होता है ?
उत्तर-
चारों तरफ से ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे प्रदेश को अंतर-पर्वतीय पठार कहते हैं, जैसे-तिब्बत का पठार।

प्रश्न 13.
पीडमांट पठार क्या है ?
उत्तर-
पर्वतों की निचली ढलानों पर स्थित पठार को पीडमांट पठार कहते हैं, जैसे-पैंटागोनिया पठार।

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प्रश्न 14.
संसार के प्राचीन पठारों के उदाहरण दें।
उत्तर-

  1. ब्राज़ील पठार
  2. कनाडा का पठार
  3. गोंडवाना पठार।

प्रश्न 15.
पृथ्वी के तल पर थल और जल का विभाजन क्या है ?
उत्तर-
थल 29.2% और जल 70.8% ।

प्रश्न 16.
क्या महाद्वीप और महासागर स्थायी हैं ?
उत्तर-
नहीं।

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प्रश्न 17.
महाद्वीप विस्थापन सिद्धांत किसने पेश किया ?
उत्तर-
सन् 1915 में अल्फ्रेड वैगनर ने।

प्रश्न 18.
पैंजीया से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आदिकाल में जब सारे महाद्वीप इकट्ठे थे, तो उसे पैंजीया कहते थे।

प्रश्न 19.
पैंजीया के मध्यवर्ती भाग में कौन-सा सागर था ?
उत्तर-
टैथीज़ सागर।

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प्रश्न 20.
गोंडवाना लैंड में कौन-से महाद्वीप शामिल थे ?
उत्तर-
ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका।

प्रश्न 21.
अंगारालैंड की क्या स्थिति थी ?
उत्तर-
टैथीज़ सागर के उत्तर में यूरेशिया महाद्वीप को अंगारालैंड कहते थे।

प्रश्न 22.
वैगनर के अनुसार अमेरिका के पश्चिम की ओर खिसकने का क्या कारण था ?
उत्तर-
ज्वारीय शक्ति।

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प्रश्न 23.
Jig-Saw-Fit से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अंध महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तटों को यदि जोड़ा जाए, तो ये एक आरे के ब्लेडों के समान एकदूसरे में फिट हो जाते हैं जैसे कि ये दोनों कभी इकट्ठे थे।

प्रश्न 24.
प्लेट-टैक्टौनिक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पृथ्वी की पपड़ी और महासागरीय भू-पटल 6 कठोर भू-प्लेटों पर टिका हुआ है। ये प्लेटें खिसकती रहती हैं। इस क्रिया को Plate-Tectonics कहते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न : (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पर्वत क्या होते हैं ? इनकी तीन प्रमुख विशेषताएँ लिखें।
उत्तर-
पर्वत (Mountains)-पर्वत प्रकृति की रहस्यमयी रचनाओं में एक हैं। इन्होंने धरती का 12 प्रतिशत भाग घेरा हुआ है।
“पर्वत ऐसे उठे हुए भू-खंडों को कहते हैं, जो अपने आस-पास के प्रदेश से कम-से-कम 900 मीटर अधिक ऊँचा हो। उसके तल का आधे से अधिक भाग तीखी ढलान वाला हो।”

पर्वतों का आधार-क्षेत्र बड़ा होता है, पर ऊंचाई के साथ-साथ इनका विस्तार कम होता जाता है, इसलिए पर्वतों की चोटियों के क्षेत्र छोटे होते हैं। पर्वत और पहाड़ी में केवल ऊँचाई का अंतर होता है। पहाड़ी की ऊँचाई 900 मीटर से कम होती है।

पर्वतों की प्रमुख विशेषताएँ (Main Features of Mountains)-

  1. आस-पास के क्षेत्रों से अधिक ऊँचाई (High level area)
  2. शिखर का कम विस्तार (Small Summit)
  3. तीखी ढलान (Steep slope)

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प्रश्न 2.
अवशेषी पर्वत कैसे बनते हैं ?
उत्तर-
अवशेषी पर्वत (Residual Mountains)-ये पर्वत बाहरी साधनों नदी, बर्फ, वायु आदि के अपरदन के कारण बनते हैं। बहुत समय तक लगातार अपरदन होने के कारण पर्वतों की ऊँचाई बहुत कम हो जाती है। ये पर्वत घिसघिस कर नीची पहाड़ियों के रूप में बदल जाते हैं। इस तरह के पर्वत पुराने पर्वतों के बचे-खुचे भाग होते हैं, इसलिए इन्हें Relict Mountains भी कहते हैं। कहीं-कहीं कठोर चट्टानों के बने भू-भाग ऊँचे क्षेत्रों के रूप में बंधे खड़े रहते हैं। ऐसे ऊँचे क्षेत्रों को अवशेषी पर्वत कहते हैं। अपरदन के साधनों से बने होने के कारण इन्हें अपरदन के पर्वत (Mountains of Denudation) भी कहते हैं।

उदाहरण (Examples)—भारत में अरावली पर्वत (Aravali Mountains) और पूर्वी घाट, अमेरिका (U.S.A.) में ओज़ारक (Ozark) पर्वत।

प्रश्न 3.
पठार क्या होते हैं ? पठारों की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
पठार (Plateau)—पठार एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक इकाई है। धरती का एक बड़ा भाग (33%) पठारों से घिरा हुआ है। “पठार वह प्रदेश होता है, जो आमतौर पर समुद्र तल से एक समान ऊँचाई वाला हो। इर्द-गिर्द के धरातल से एकदम ऊँची और तीखी ढलान वाला हो।”
(“A Plateau is a highland with broad and flat summits”)

पठार आमतौर पर समुद्र तल से 300 से 1000 मीटर तक ऊँचे होते हैं, पर पठार की ऊँचाई कुछ भी हो सकती है, जैसे अमेरिका (U.S.A.) में पीडमांट पठार (Piedmont Plateau) केवल 600 मीटर ऊँचा है, पर पामीर का पठार कई ऊँचे पर्वतों से ऊँचा है और उसे ‘संसार की छत’ (Roof of the world) कहते हैं।

पठार की प्रमुख विशेषताएँ (Main features of Plateau)-

  1. सपाट और विशाल शिखर
  2. किनारों से तीखी ढलान।
  3. मेज के समान चौकोर ऊपरी सतह।
  4. निकट के क्षेत्रों से एकदम ऊँचा होना।

प्रश्न 4.
मैदान क्या होते हैं ?
उत्तर-
मैदान (Plains)—प्रमुख भू-आकारों (Major Land forms) में मैदान सबसे अधिक स्पष्ट और सरल होते हैं। थल के अधिकांश भाग (41%) पर इनका विस्तार है। मैदान धरती के निचले और समतल (सपाट) क्षेत्र होते हैं। “मैदान थल के वे सपाट भाग होते हैं, जो समुद्र तल से 150 मीटर से कम ऊँचाई पर होते हैं और जिनकी ढलान सपाट, मध्यम और साधारण होती है।” (“Plains are Lowlands of Low relief and horizontal structure”) मैदान सागर-तल से ऊँचे या नीचे हो सकते हैं, परन्तु अपने इर्द-गिर्द के पठार या पर्वत से कभी भी ऊँचे नहीं हो सकते।

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प्रश्न 5.
अपरदन के मैदान कैसे बनते हैं ?
उत्तर-
अपरदन के मैदान (Pene Plains)—’Pene Plains’ शब्द दो शब्दों Pene और Plain के जोड़ से बना है। ‘Pene’ शब्द के अर्थ हैं ‘लगभग’ या आमतौर पर ‘Almost’ और ‘Plain’ का अर्थ है-मैदान। इस प्रकार ‘Pene Plain’ का अर्थ है-लगभग मैदान या आमतौर पर ‘समभूमि। एक लंबे समय तक बाहरी साधनों बर्फ, जल, हवा आदि के लगातार कटाव के कारण पर्वत या पठार घिसकर नीचे हो जाते हैं और मैदान का रूप धारण कर लेते हैं। ये मैदान पूरी तरह से सपाट नहीं होते। इन मैदानों की ढलान अत्यंत हल्की होती है। इनके बीच कठोर चट्टानों के रूप में ऊँचे टीले मिलते हैं। ऐसे मैदानों में कठोर चट्टानों के टीले नष्ट नहीं होते और बचे रहते हैं। इन्हें मोनैडनाक (Monadnaks) कहते हैं। विश्व में इस प्रकार के पूर्ण सम-मैदान (Perfected Pene Plains) बहुत कम मिलते हैं।

उदाहरण (Examples)–

  • फिनलैंड और साइबेरिया के मैदान
  • भारत में अरावली प्रदेश।

प्रश्न 6.
‘पठार खनिज पदार्थों के भंडार होते हैं।’ व्याख्या करें।
उत्तर-
बहुत-से पठारों से लाभदायक खनिज मिलते हैं। कई पठार ज्वालामुखी की प्रक्रिया के कारण खनिज पदार्थों के लिए प्रसिद्ध हैं। भारत के दक्षिणी पठार में कोयला, लोहा, मैंगनीज़ आदि मिलता है। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया और दक्षिणी अफ्रीका के पठार चूने की खानों के लिए प्रसिद्ध हैं। कनाडा के पठारों में तांबा और ब्राज़ील में लोहा मिलता है।

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प्रश्न 7.
मैदानों में संसार की सबसे घनी जनसंख्या होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
विश्व की 80% जनसंख्या मैदानों में निवास करती है। मैदानों की सपाट ज़मीन पर बस्तियों का विकास होता है। सपाट भूमि और उपजाऊ भूमि के कारण ये मैदान कृषि योग्य प्रदेश होते हैं। मैदानों में रेलों, सड़कों और हवाई अड्डों का निर्माण आसान होता है। मैदान आर्थिक पक्ष से भी बड़े लाभदायक होते हैं, इसीलिए विश्व की अधिक जनसंख्या मैदानों में मिलती है।

प्रश्न 8.
मैदानों को विश्व का ‘अन्न भंडार’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
मैदान सपाट और उपजाऊ धरती के क्षेत्र हैं। गहरी मिट्टी और ऊँचे जल-स्तर के कारण यहाँ जल-सिंचाई के साधन मिलते हैं। मशीनों के प्रयोग के कारण अधिक अनाज उत्पन्न होता है। संसार की प्रमुख फसलें-कपास, गेहूँ, गन्ना, चावल आदि मैदानों में ही उगाई जाती हैं, इसीलिए मैदानों को संसार का ‘अन्न भंडार’ कहा जाता है।

प्रश्न 9.
पर्वतों से प्राप्त होने वाली संपत्तियों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
पर्वतों से मनुष्यों को अनेक लाभदायक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं-

  1. पर्वत खनिज संपत्ति के भंडार हैं, जैसे-कोयला, सोना, ताँबा, मैंगनीज आदि।
  2. पर्वतों से इमारती लकड़ी प्राप्त होती है। नर्म लकड़ी के कई उद्योग पर्वतों पर निर्भर करते हैं।
  3. पर्वत पन बिजली के स्रोत हैं।
  4. पर्वतों पर कई किस्म की फसलें उगाई जा सकती हैं; जैसे–चाय।

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प्रश्न 10.
मैदानों पर मनुष्य का अधिकार सबसे पुराना है। क्यों ?
उत्तर-
प्राचीन काल से ही मैदान मानवीय सभ्यता के केन्द्र रहे हैं। आज भी मैदानों में संसार की 75% जनसंख्या निवास करती है।
नदी घाटियों और जलोढ़ मैदानों पर निवास स्थान, कृषि और आवाजाही की सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। इन्हीं सुविधाओं के कारण ही प्राचीन सभ्यताओं का जन्म नदी घाटियों में ही हुआ था। रोम, मिस्र और सिंधु घाटी की सभ्यताओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं। नदी घाटियों को सभ्यताओं का पालना (Cradle of Civilizations) भी कहा जाता है। यही कारण है कि मैदानों पर मनुष्य का अधिकार सबसे पुराना है।

प्रश्न 11.
अंतर-पर्वतीय पठारों और पर्वत-प्रांतीय पठारों में अंतर बताएँ।
उत्तर –
अंतर-पर्वतीय पठार (Piedmont Plateau) –

  1. ये पठार चारों तरफ से ऊँचे पर्वतों से घिरे होते हैं।
  2. इन पठारों में अंदरूनी जल-प्रवाह होता है।
  3. इनका विस्तार अधिक होता है।
  4. तिब्बत का पठार एक अंतर-पर्वतीय पठार है।

पर्वत-प्रांतीय पठार (Intermont Plateau) –

  1. ये पठार पर्वतों के आधार पर बने होते हैं।
  2. इनके एक तरफ समुद्र या मैदान स्थित होते
  3. इनका क्षेत्रफल सीमित होता है।
  4. पैंटोगोनीया का पठार एक पर्वत-प्रांतीय पठार है।

प्रश्न 12.
ब्लॉक पर्वतों और बलदार पर्वतों में अंतर बताएँ।
उत्तर-
ब्लॉक पर्वत (Fold Mountains)-

  1. ये पर्वत धरती की परतों में दरारें पड़ने से बनते हैं।
  2. इनका निर्माण सिकुड़ने और दबाव की शक्तियों से होता है।
  3. इनका शिखर मेज के समान चौकोर और समतल होता है।
  4. ऊँचे उठे हुए पर्वत को होरस्ट (Horst) और नीचे धंसे हुए पर्वत को दरार घाटी कहते हैं।
  5. विंध्याचल और वासजिस इसके उदाहरण हैं।

बलदार पर्वत (Block Mountains)-

  1. ये पर्वत चट्टानों की परतों में बल पड़ने से बनते हैं।
  2. इनका निर्माण तनाव और खिंचाव की शक्तियों से होता है।
  3. इसका शिखर ऊँचा-नीचा होता है।
  4. ऊपर उठे हुए भाग को Anticline और नीचे फँसे हुए भाग को Syncline कहते हैं।
  5. हिमालय और एल्पस पर्वत इसके उदाहरण हैं।

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प्रश्न 13.
ब्लॉक पर्वत और रिफ्ट घाटी में अंतर बताएँ।
उत्तर-
ब्लॉक पर्वत (Block Mountains)-

  1. दो दरारों के बीच ऊपर उठे हुए भू-खंड को ब्लॉक पर्वत कहते हैं।
  2. इसे होरस्ट पर्वत भी कहते हैं।
  3. इसका निर्माण ऊपर उठने की क्रिया से होता है।
  4. विंध्याचल एक ब्लॉक पर्वत है।

रिफ्ट घाटी (Rift Valley)-

  1. दो दरारों के बीच नीचे धंसे हुए भू-भाग को दरार घाटी कहते हैं।
  2. इसे रिफ्ट घाटी भी कहते हैं।
  3. इसका निर्माण नीचे धंसने की क्रिया से होता है।
  4. राइन घाटी एक रिफ्ट घाटी है।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
मैदानों का महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
मैदानों का महत्त्व (Importance of Plains)-मैदानों में कृषि, उद्योग, ढुलाई, व्यापार और मानवीय विकास की सभी सुविधाएँ होती हैं।
1. निवास की सुविधाएँ (Settlement of Population) मैदानों में सपाट ज़मीन पर बस्तियों का विकास संभव है। मैदानों में संसार की 75% जनसंख्या निवास करती है।

2. कृषि की सुविधाएँ (Agriculture facilities)-समतल भूमि, गहरी और उपजाऊ मिट्टी के कारण मैदान कृषि-योग्य उत्तम क्षेत्र होते हैं।

3. अन्न के भंडार (Store house of foodgrains)—मैदानों में सिंचाई की सुविधाएँ, उपजाऊ मिट्टी और मशीनों के प्रयोग के कारण अधिक अनाज उत्पन्न होता है। संसार की सभी व्यापारिक फसलें गेहूँ, गन्ना, कपास और पटसन आदि मुख्य रूप से मैदानों में होती हैं।

4. सभ्यताएँ (Civilizations)—संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं का विकास मैदानों में ही हुआ था। चीन और मिस्र की सभ्यताओं ने नदी घाटियों में ही जन्म लिया था।

5. आसान आवाजाही (Easy Transport)-मैदानों में सपाट भूमि के कारण चौड़ी और लंबी सड़कों (Highways), रेलमार्गों (Railways), जलमार्गों (Waterways) और हवाई अड्डों (Aerodromes) का निर्माण आसान होता है। नदियों द्वारा भी आवाजाही में आसानी होती है। नदियों की धीमी चाल के कारण इनमें नावें और जहाज़ चलाए जा सकते हैं।

6. उद्योग (Industries)-मैदान आर्थिक जीवन की धुरी होते हैं। सभी सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण संसार के सभी बड़े उद्योग मैदानों में स्थित हैं। इसका कारण यह है कि सबसे पहले, मैदानों में कच्चा माल (Raw materials) आसानी से मिल जाता है। दूसरे, आवाजाही और संचार के साधन उपलब्ध होने के कारण माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से लाया व ले जाया जा सकता है। तीसरे, जनसंख्या अधिक होने के कारण मज़दूरी सस्ती होती है। व्यापार का विकास होता है।

7. नगर (Towns/Cities)-आर्थिक और सामाजिक सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण संसार के प्रमुख नगर मैदानों में ही स्थित हैं।

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प्रश्न 2.
पठारों का महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
पठारों का महत्त्व (Importance of Plateaus)-
1. ठंडी जलवायु (Cool Climate)-पठार मैदानों की तुलना में ठंडे होते हैं। यही कारण है कि ऑस्ट्रेलिया और पूर्वी अफ्रीका के पठारों में यूरोप के निवासी जा बसे हैं और जनसंख्या अधिक है।

2. भेड़ें पालना (Sheep rearing)—पठारों में चरागाहों की सुविधा होती है। यहाँ भेड़-बकरियाँ पाली जाती हैं और ऊन प्राप्त होती है।

3. डेयरी फार्मिंग (Dairy Farming)-पठारों में घास के मैदानों में पशु पाले जाते हैं। यही कारण है कि अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में डेयरी फार्मिंग (Dairy Farming) का अधिक विकास हुआ है।

4. खनिज पदार्थों के भंडार (Storehouse of Minerals)-बहुत से पठार लाभदायक धातुओं और खनिज पदार्थों के भंडार हैं, जिनके आधार पर अलग-अलग उद्योगों का विकास हुआ है, जैसे-ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में ताँबा और सोना, अफ्रीका में हीरा, भारत में लोहा और मैंगनीज़।

5. उपजाऊ मिट्टी (Fertile Land) ज्वालामुखी पठार लावे की मिट्टी के कारण लाभदायक होते हैं; जैसे दक्षिण का पठार काली मिट्टी के कारण कपास की खेती के लिए लाभदायक है।

6. पन-बिजली (Water Power)—पठार की नदियाँ झरने बनाती हैं, जिनसे पन-बिजली प्राप्त होती है। अफ्रीका और भारत के दक्षिणी पठार में पन-बिजली की अधिक संभावनाएँ हैं।

दोष (Demerits)-
नीचे लिखे पठार मनुष्यों के निवास के योग्य नहीं होते-

  1. जहाँ जलवायु प्रतिकूल हो।
  2. जहाँ की भूमि उपजाऊ न हो।
  3. जिनमें कटाव आदि अधिक हो।
  4. जो बहुत ऊँचे और ठंडे हों।

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प्रश्न 3.
पर्वतों के क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
पर्वत आर्थिक दृष्टि से सहायक हैं और रुकावट भी। इन प्रदेशों में सपाट भूमि की कमी, कम गहरी मिट्टी और पथरीली बनावट के कारण ज़मीन खेती के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होती है। आवाजाही के साधनों की कमी, प्रतिकूल जलवायु और निवास स्थानों की कमी के कारण जनसंख्या भी बहुत कम होती है। फिर भी पर्वत अनेक प्रकार से लाभदायक हैं1.

1. खनिज संपत्ति के स्त्रोत (Sources of Mineral Wealth)—पर्वत लाभदायक धातुओं और खनिजों के भंडार होते हैं। इन प्रदेशों में खानों के खनन का व्यवसाय विकास कर जाता है। रूस के यूराल पर्वतों में लोहा और मैंगनीज़, दक्षिणी अमेरिका के ऐंडीज़ में सोना, चाँदी, ताँबा, और संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.) के एपलेशियन पर्वत में कोयला मिलता है।

2. जंगलों का घर (Home of Forests)-पर्वत अलग-अलग प्रकार की इमारती लकड़ी से ढके होते हैं, जैसे हिमालय पर्वत पर साल और सागवान के जंगल मिलते हैं। कई तरह के उद्योग जंगलों पर आधारित होते हैं। इन जंगलों से ईंधन, कागज़, रेशम, दियासलाई आदि बनाने के लिए लकड़ी प्राप्त होती है। कई पहाड़ी देशों, जैसे स्वीडन और नॉर्वे की उन्नति इन जंगलों पर ही आधारित है।

3. स्वास्थ्यवर्धक स्थान (Health Resorts)-पर्वत मैदानों में रहने वाले लोगों को सदा अपनी ओर आकर्षित करते हैं। पर्वतों का निम्न तापमान, स्वास्थ्यवर्धक, सुहावनी जलवायु और आकर्षक दृश्य गर्मियों की ऋतु में आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं। जिस प्रकार कश्मीर और स्विट्ज़रलैंड में लाखों पर्यटक मन बहलाने के लिए विदेशों से घूमने-फिरने के लिए आते हैं, जिससे पर्यटन उद्योग (Tourist Industry) की आमदनी बढ़ जाती है। लोग अनेक पहाड़ी ढलानों पर स्कींग (Skiing) आदि खेल भी खेलते हैं।

4. सुरक्षा (Defence) सुरक्षा की दृष्टि से भी पर्वत लाभदायक हैं। भारत की उत्तरी सीमा पर हिमालय पर्वत देश की रक्षा का काम करता है। परंतु आज के वैज्ञानिक युग में पर्वत भी देश को आक्रमण से नहीं बचा सकते, जैसे-1962 में चीन ने हिमालय पर्वत के तिब्बत की ओर से भारत पर आक्रमण किया था।

5. प्राकृतिक सीमाएँ (Natural Boundaries)—ऊँचे पर्वत अलग-अलग देशों के बीच प्राकृतिक और राजनीतिक सीमाएँ बनाते हैं, जिस प्रकार भारत और चीन के बीच हिमालय पर्वत एक प्राकृतिक सीमा है। पर्वतीय स्थिति वाले बहुत-से छोटे-छोटे देश सदा स्वतंत्र रहते हैं, जैसे-नेपाल, स्विट्ज़रलैंड आदि। परंतु पर्वतीय सीमाएँ सही ढंग से निर्धारित नहीं होती हैं।

6. जलवायु (Climate)-पर्वतों की स्थिति और दिशा, वर्षा और तापमान पर प्रभाव डालती हैं। पर्वत नमी से भरपूर पवनों को रोककर वर्षा करते हैं। जैसे हिमालय पर्वत मानसून पवनों को रोककर भारत में काफी वर्षा करते हैं। पर्वत स्थिति के अनुसार गर्म और ठंडी वायु को एक देश से दूसरे देश में प्रवेश करने से रोकते हैं। हिमालय पर्वत मध्य एशिया की ठंडी हवाओं को रोक लेता है, नहीं तो उत्तरी भारत में सर्दियों की ऋतु चीन के समान अत्यंत कठोर होती। यदि हिमालय पर्वत न होता, तो गंगा का मैदान एक मरुस्थल होता।

7. चरागाह (Pastures)-पर्वतीय ढलानों पर चरागाहों की सुविधा होती है, जहाँ भेड़-बकरियाँ चराई जाती हैं पहाड़ी प्रदेशों में मौसमी पशु चारण (Transhumance) भी होता है।

8. नदियों के स्त्रोत (Sources of Rivers)-ऊँचे पर्वतों से अनेक नदियाँ निकलती हैं। ऊँचे बर्फीले पर्वतों से निकलने वाली नदियों से पूरा साल जल प्राप्त होता रहता है और सिंचाई के लिए स्थायी नहरें निकाली जाती हैं। गंगा का मैदान हिमालय पर्वत से निकलने वाली नदियों के कारण ही बना है।

9. पन-बिजली (Water Power)-पर्वतीय प्रदेशों में नदियों के मार्ग में अनेक झरने बनते हैं, जो पन-बिजली के विकास के लिए आदर्श स्थान होते हैं। जापान, इटली और स्वीडन जैसे पहाड़ी प्रदेशों में पन-बिजली के कारण ही औद्योगिक विकास हुआ है।

10. विशेष पैदावार (Special Crops)-पर्वतीय ढलानें कुछ विशेष उपजों के लिए अनुकूल क्षेत्र होती हैं, जैसे-चाय और कहवा/कॉफी आदि। भारत में असम की पहाड़ी ढलानों पर चाय के बाग़ (Tea Estates) मिलते हैं।

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प्रश्न 4.
पर्वत निर्माणकारी परिकल्पना भू-अभिनीति का वर्णन करें।
उत्तर-
पर्वत निर्माणकारी परिकल्पना भ-अभिनीति (Mountain Building Theory-Geosynclines)-
पर्वत पृथ्वी के रहस्यमय भू-आकार हैं। इनकी रचना बहुत जटिल है। पर्वत-निर्माण एक निरंतर क्रिया नहीं है और कुछ युगों तक सीमित है। पर्वतीय सिलसिले बहुत जटिल हैं। इनके अध्ययन से इनकी विशेषताओं का पता चलता है-

1. तलछटी चट्टानें (Sedimentary Rocks) विश्व के सभी पर्वत परतदार चट्टानों से बने हैं। इन चट्टानों का जन्म समुद्र में होता है। पर्वतों के मोड़ों में उपलब्ध जीवाश्म भी प्रकट करते हैं कि पर्वत समुद्री फर्श से ही ऊपर उठे हैं। (Mountains have arisen out of sea.)

2. चाप आकार (Arc Shape)-संसार के बड़े-बड़े पर्वतों की स्थिति समुद्री तटों के समानांतर एक चाप के आकार की है, जैसे रॉकी एंडीज़ और हिमालय पर्वत । इनकी रचना धरातल की समानांतर दिशा पर दबाव पड़ने से हुई है इसीलिए इनका आकार बाहर की ओर चाप के समान है। एक खोज से पता चला है कि पर्वतीय क्षेत्रों की लंबाई अधिक है और चौड़ाई कम है। तलछटी चट्टानों की बहुत अधिक मोटाई का कारण खोजना बहुत कठिन है। इतनी अधिक मोटाई में तलछट के एकत्र होने का कारण भू-अभिनीति (Geosyncline) ही संभव है। भू-अभिनीति धरातल पर एक लंबा, तंग और कम गहरा भाग है, जिसमें नदियों के द्वारा जमा किए गए तलछट इकट्ठे होते हैं और उनके भार के नीचे दबकर वह नीचे को धंसता रहता है। (Geosynclines are long but narrow and shallow depressions in which sedimentation and subsidence take place simultaneously.) 1873 में एक वैज्ञानिक डैना ने इस प्रकार के निर्माण को भू-अभिनीति का नाम दिया। इसके आधार पर पर्वत-निर्माण में तीन चरण ज़रूरी हैं-

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(i) भू-अभिनीति चरण (Geosyncline Stage)-पर्वत निर्माण में यह पहला चरण है, जबकि एक कम गहरे स्थान पर तलछट जमा होते हैं जिससे यह स्थान भर जाते हैं, इन्हें भू-अभिनीति कहते हैं। इस अवस्था में भू-अभिनीति की उत्पत्ति, तलछट का जमाव, तल का नीचे धंसना आदि क्रियाएँ होती हैं। इनके लिए कुछ दशाओं का होना ज़रूरी होता है

(क) भू-अभिनीति का समुद्र से नीचे मौजूद होना।
(ख) यह भू-अभिनीति लंबी, तंग और एक गर्त (Trough) के आकार के समान हो।
(ग) भू-अभिनीति के निकट कोई-न-कोई ऊँचा प्रदेश हो, जहाँ से नदियाँ मलबे को बहाकर ला सकें और भू-अभिनीति धीरे-धीरे मलबे से भर जाए।

(ii) पर्वत निर्माण का चरण (Orogenic Stage)-जब भू-अभिनीति पूरी हो जाती है, तो जमा हुई तलछट की मोटाई हज़ारों फुट तक पहुँच जाती है। तनाव और संपीड़न के कारण वलन क्रिया होती है, जिससे पर्वत बनते हैं। इसलिए भू-अभिनीतियों को पर्वतों का झूला (Cradle of Mountains) कहा जाता है।

प्रश्न 5.
वैगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का वर्णन करें। इसके पक्ष में प्रमाण दें।
उत्तर-
वैगनर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना (Wegner’s Continental Drift Hypothesis). महाद्वीपों के विस्थापन की कल्पना सबसे पहले फ्रांसीसी विद्वान् एंटोनीयो स्नाइडर ने सन् 1858 में की थी। इसके बाद एफ० जी० टेलर (F.G. Taylor) ने भी ऐसा ही विचार पेश किया था। परंतु ये दोनों विद्वान् अपने विचारों को स्पष्ट रूप देने में असमर्थ रहे, इसीलिए उन्हें मान्यता नहीं मिली। सन् 1912 में जर्मन वैज्ञानिक अल्फ्रेड वैगनर (Alfred Wegner) ने कुछ तथ्यों को सामने रखकर महाद्वीपीय विस्थापन की परिकल्पना प्रस्तुत की। सन् 1929 में वैगनर ने इसमें कुछ शोध करके इसे फिर से पेश किया। वैगनर वास्तव में एक मौसम वैज्ञानिक था, जो ऋतु-परिवर्तन (Variation of climate) की समस्याओं का समाधान खोजने में जुटा हुआ था।

थल-मंडल में अनेक क्षेत्रों में उष्ण-कटिबंधीय (Tropical), भू-मध्य-रेखीय (Equatorial) और ध्रुवीय (Polar) जलवायु अपनी वर्तमान स्थिति से दूर के स्थानों में पाई जाती है। इसके दो ही कारण हो सकते हैं-

  1. एक तो यह कि जलवायु में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है।
  2. फिर महाद्वीप खिसककर एक जलवायु खंड से दूसरे जलवायु खंड में आते रहते हैं। वैगनर ने उपरोक्त दूसरे कारण के आधार पर अपनी परिकल्पना पेश की।

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वैगनर के सिद्धांत की रूपरेखा (Outline of Wegner’s Hypothesis)-

1. वैगनर ने सियाल (SIAL) के बने हुए महाद्वीपों को बसाल्ट की सीमा पर तैरते हुए माना। वैगनर के अनुसार आदिकाल पुरातन जीवी महाकल्प (Late Palezoic Period-2700 years ago) में सभी महाद्वीप किसी विशाल महाद्वीप का अंग थे। इस विशाल महाद्वीप को उसने पैंजीया का नाम दिया। पैंजीया चारों तरफ से एक विशाल महासागर से घिरा हुआ था जिसे वैगनर ने पैंथालामा (Panthalamma) कहा है।

2. अंगारालैंड और गोंडवानालैंड-जीया के मध्य में पूर्व-पश्चिम दिशा में एक विस्तृत पर कम गहरा सागर था, जिसे टेथीज़ (Tetheys) का नाम दिया जाता है। टेथीज़ सागर के उत्तर के विस्तृत भाग को लुरेशिया (Laurasia) या अंगारालैंड (Angaraland) और सागर के दक्षिण के विस्तृत महाद्वीप को गोंडवानालैंड का नाम दिया गया है।

3. भूमध्यरेखा की ओर विस्थापन-वैगनर के अनुसार यह पैंजीया टूटकर भूमध्य रेखा और पश्चिम दिशा में स्थित हो गया। भूमध्य रेखा की ओर स्थित होने के कारण गुरुत्वाकर्षण में अंतर था।

4. पश्चिम की ओर विस्थापन-पैंजीया के खंडों का पश्चिम की ओर विस्थापन चंद्रमा की ज्वारीय शक्ति (Tide force) के कारण था। भूमध्य रेखा की ओर विस्थापन से मुख्य रूप में यूरोप और अफ्रीका प्रभावित हुए। पश्चिम की ओर विस्थापन से उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका प्रभावित हुए।

5. इसके बाद अलग-अलग युगों में टरशियरी युग (Tertiary Period-60 Lakh years ago) में अलग-अलग महाद्वीप और महासागर बने।

परिकल्पना के पक्ष में प्रमाण (Evidences in favour of the Hypothesis)-इस परिकल्पना के पक्ष में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं, जो नीचे लिखे हैं-

1. भौगोलिक प्रमाण (Geographical Proofs)-अंध महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तटों में समानता पाई गई है। ये दोनों तट एक आरे के समान तथा एक-दूसरे में फिट होने की स्थिति में होते हैं। पूर्वी ब्राज़ील का . उभार (Bulge) पश्चिमी अफ्रीका और गिनी तट में आसानी से फिट हो जाता है। इसे Jig-saw fit कहते हैं। अंध महासागर की मध्यवर्ती कटक (Mid-Atlantic Ridge) के एक तरफ अमेरिका और दूसरी तरफ अफ्रीका जुड़ जाते हैं। .

2. भू-गर्भीय प्रमाण (Geological Proofs)-अंध महासागर के दोनों तटों पर स्थित पर्वत श्रेणियों की दिशा और चट्टानों की ओर रेखाओं में समानता देखी गई है। अंध महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तट किसो समय एक थे।

3. चट्टानों के प्रमाण (Proofs of Rocks)-अंध महासागर के दोनों तटों पर पाई जाने वाली शैलों में समानता देखी गई है। ब्राज़ील का पठार, दक्षिण अफ्रीका, भारत का प्रायद्वीप पठार और ऑस्ट्रेलिया पठार की चट्टानें लगभग एक जैसी हैं।

4. जैविक प्रमाण (Biological Proofs)-उत्तर-पश्चिमी यूरोप और पूर्वी अमेरिका के भागों में वनस्पति और जीवों के अवशेषों में समानता पाई जाती है।

5. सर्वेक्षण के प्रमाण (Geodesy’s Proofs)—ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रीनलैंड 32 मीटर प्रति वर्ष की गति से उत्तरी अमेरिका की ओर खिसक रहा है। यह तथ्य 1832, 1870, और 1917 के माप पर आधारित है।
इस तथ्य से वैगनर के महाद्वीप खिसकने के विचार की पुष्टि होती है।

6. नवीन और आधुनिक प्रमाण प्लेट टैक्टौनिक का सिद्धांत (Plate Tectonic Theory) आधुनिक सर्वेक्षण में प्लेट टैक्टौनिक के सिद्धांत ने वैगनर के सिद्धांत की पुष्टि की है। जब इन भू-प्लेटों की सीमाओं पर संवहन धाराओं (Convection _Currents) की क्रिया होती है, तब भू-प्लेटें खिसकती हैं और महाद्वीप भी खिसकते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 4 प्रमुख भू-आकार

प्रश्न 6.
भू-प्लेट टैक्टौनिक सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर-
भू-प्लेट टैक्टौनिकस (Plate-tectonics)-आधुनिक परीक्षणों और खोज से पता चलता है कि स्थल मंडल और मैंटल भू-प्लेटों में विभाजित हैं। ये भू-प्लेटें खिसकती रहती हैं। भू-प्लेटों की सीमाओं पर अंदरूनी हलचल होती रहती है। परिणामस्वरूप भू-प्लेटों के साथ-साथ महाद्वीप भी खिसकते रहते हैं और कई क्रियाएँ और भू-आकार जन्म लेते हैं।

भू-प्लेटों के प्रकार (Types of Plates)-स्थल मंडल भू-प्लेटों का समूह है, जिसमें 6 मुख्य भू-प्लेटें और 14 छोटे आकार की प्लेटें हैं। इन भू-प्लेटों की औसत मोटाई 100 कि० मी० है और ये प्लेटें कई हज़ार कि०मी० चौड़ी हैं। भू-प्लेटें मुख्य रूप से दो प्रकार की हैं-

1. महाद्वीपीय भू-प्लेटें (Continental Plates)—इन प्लेटों में अधिक भाग महाद्वीपीय थल मंडल का होता
2. महासागरीय प्लेटें (Oceanic Plates)—इन प्लेटों का विस्तार महासागर के तल पर होता है। सारी पृथ्वी
को 6 मुख्य भू-प्लेटों में बाँटा गया है।

  • प्रशांत महासागरीय प्लेट
  • एशियाई प्लेट
  • अमेरिकी प्लेट
  • भारतीय प्लेट
  • अफ्रीकी प्लेट
  • अंटार्कटिक प्लेट

भू-प्लेटों के खिसकने के कारण-

1. तापीय संवहन-सन् 1928 में आर्थर होमज़ (Arthur Holmes) ने यह सिद्धान्त पेश किया कि मैगमा की संवहन तरंगों (Convection currents) के द्वारा महाद्वीपों का खिसकना होता है। उस समय इस सिद्धान्त को पूरी मान्यता नहीं मिली थी। आधुनिक समय में चुंबकीय सर्वे, रेडियो एक्टिव पदार्थों की खोज, मध्यसागरीय कटकों और सागरीय तल के फैलने (Ocean spreading) की खोज ने सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी के मैटल भाग में मैगमा की संवहन धाराएँ चलती हैं। इस प्रकार यह मैगमा ऊपर उठता है। इसके प्रवाह से भू-प्लेटें खिसकती हैं। परिणामस्वरूप महाद्वीपीय विस्थापन होता है। इस प्रकार पृथ्वी के केंद्रीय भाग में अणु-ऊर्जा के कारण संवहन धाराएं चलती हैं। ये भू-प्लेटें एक-दूसरे से महासागरीय कटकों और ट्रैचों के द्वारा अलग-अलग होती हैं।

2. संचालन क्रिया-गर्म धाराएँ ऊपर की ओर उठती हैं और फ़िर नीचे की ओर जाकर ठंडी हो जाती हैं। ये धाराएँ भू-प्लेटों को गतिशील बना देती हैं।

3. ज्वालामुखी क्रिया-भूतल के नीचे ज्वालामुखी के केंद्र संवहन धाराओं को जन्म देते हैं। इन्हें गर्म स्थल (Hot Spot) कहते हैं। ये भू-प्लेटों को गतिशील करते हैं।

भू-प्लेटों की कार्यविधि-भू-प्लेटों की तीन प्रकार की सीमाएँ बनती हैं-

  • निर्माणकारी प्लेट सीमा निर्माणकारी क्षेत्र वे सीमाएँ हैं, जहाँ प्लेटें एक-दूसरे से अलग होती हैं और मैगमा बाहर आता है। ऐसी सीमाओं पर ज्वालामुखी क्रिया और भूचाल आते हैं।
  • विनाशकारी प्लेट सीमा-ये वे सीमाएँ हैं, जहाँ एक प्लेट का सिरा दूसरी प्लेट के ऊपर चढ़ जाता है।
  • रूपांतर प्लेट सीमा-यहाँ भू-प्लेटें एक-दूसरे की विपरीत दिशा में साथ-साथ खिसकती हैं।

प्रभाव (Effects)-

1. महाद्वीपों का खिसकना (Continental Drift)-भू-प्लेटों के खिसकने का महाद्वीपों पर प्रभाव पड़ता है। महाद्वीप भू-प्लेटों के अंदर स्थापित हैं, इसीलिए वे प्लेटों के साथ गति करते हैं। इस खिसकाव से रिफ्ट घाटी, सागर और महासागर की रचना होती है।

2. पर्वत निर्माणकारी क्रिया (Mountain Building)-भू-प्लेटें अपनी सीमाओं पर सागरीय कटकों के द्वारा अलग-अलग होती हैं। इन सीमाओं पर भू-प्लेटें खिसकती हैं या टकराती हैं। कई स्थानों पर नीचे सरकने से भू-अभिनीति (Geosyncline) की रचना होती है। इसमें करोड़ों वर्षों तक तलछट जमा होते रहते हैं। इनके उठाव (uplift) के कारण मोड़दार पर्वत बनते हैं। गोंडवाना प्लेट के उत्तर की ओर खिसकने के कारण टैथीज़ सागर में हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ है। उत्तरी अमेरिका की भू-प्लेट के पश्चिम की ओर खिसकने से रॉकी और एंडीज़ पर्वतों का निर्माण हुआ है। इस प्रकार इस आधुनिक परिकल्पना ने भू-विज्ञान में एक नई क्रांति पैदा की है। इस सिद्धान्त से वैगनर के विस्थापन सिद्धान्त की पुष्टि होती है।

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PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा सन्देश की चर्चा करें।
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के प्रवर्तक थे। इतिहास में उन्हें महान् स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपने जीवन में भटके लोगों को सत्य का मार्ग दिखाया और धर्मान्धता से पीड़ित समाज को राहत दिलाई। जिस समय श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ, उस समय पंजाब का सामाजिक तथा धार्मिक वातावरण अन्धकार में लिप्त था। लोग अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। हिन्दू और मुसलमानों में बड़ा भेदभाव था। श्री गुरु नानक देव जी ने इन सभी बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने ‘सत्यनाम’ का उपदेश दिया और लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया। उनके जीवन तथा शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :-

जन्म तथा माता-पिता-श्री गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1469 ई० को तलवण्डी (वर्तमान में ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में हुआ। उनके पिता का नाम मेहता कालू जी तथा माता का नाम तृप्ता जी था। आपकी बहन का नाम बेबे नानकी जी था।

बाल्यकाल, शिक्षा तथा व्यावसायिक जीवन-बचपन से ही श्री गुरु नानक देव जी दयावान थे। दीन-दुःखियों को देखकर उनका मन पिघल जाता था। 7 वर्ष की आयु में उन्हें पण्डित गोपाल की पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया। पण्डित जी उन्हें सन्तुष्ट न कर सके। तत्पश्चात् उन्हें पं० बृज नाथ के पास पढ़ने के लिए भेजा गया। वहां गुरु जी ने ‘ओ३म्’ शब्द का वास्तविक अर्थ बता कर पण्डित जी को चकित कर दिया। पढ़ाई में गुरु नानक देव जी की रुचि न देखकर उनके पिता जी ने उन्हें पशु चराने के लिए भेजा। वहां भी गुरु नानक देव जी प्रभु चिन्तन में मग्न रहते और पशु दूसरे किसानों के खेतों में चरते रहते थे। किसानों की शिकायतों से तंग आकर मेहता कालू जी ने श्री गुरु नानक देव जी को व्यापार में लगाने का प्रयास किया। उन्होंने श्री गुरु नानक देव जी को 20 रुपए देकर व्यापार करने भेजा। परन्तु गुरु जी ने ये रुपये भूखे साधुओं को भोजन खिलाने में व्यय कर दिये और इस व्यापार को सच्चा सौदा कहा।

विवाह-अपने पुत्र की सांसारिक विषयों में रुचि न देखकर मेहता कालू जी निराश हो गए। उन्होंने गुरु जी का विवाह बटाला के क्षत्रिय मूलचंद की सुपुत्री सुलक्खणी जी से कर दिया। उस समय गुरु जी की आयु केवल 14 वर्ष की थी। उनके यहां श्री चन्द और लखमी दास नामक दो पुत्र भी पैदा हुए। विवाह के पश्चात् गुरु नानक देव जी सुल्तानपुर लोधी चले गये। वहां उन्हें नवाब दौलत खां के अनाज घर में नौकरी मिल गई। उन्होंने पूरी ईमानदारी से काम किया। फिर भी वहां उनके विरुद्ध नवाब से शिकायत की गई। परन्तु जब जांच-पड़ताल हुई तो हिसाब-किताब बिल्कुल ठीक था। इस प्रकार अपनी ईमानदारी से वहां भी उन्होंने यश प्राप्त किया।

ज्ञान प्राप्ति, उदासियां तथा ज्योति जोत समाना-अपने जीवन के अगले 21 वर्षों में उन्होंने अनेक स्थानों का भ्रमण करके ज्ञान का प्रचार किया। वह लंका, तिब्बत, मक्का, कामरूप तथा भारत के कई नगरों में गए। उनकी यात्राओं को उदासियां कहा जाता है। अपनी यात्राओं के मध्य उन्होंने लोगों को जीवन का सच्चा मार्ग दिखाया। आप ने 1521 ई० में रावी नदी के किनारे करतारपुर साहिब नगर बसाया। यहां ही आप ने अपने जीवन के अंतिम समय धर्म प्रचार किया। अपना अन्त समय निकट आया देखकर गुरु जी ने अपना उत्तराधिकारी चुनना उचित समझा। उन्होंने अपने सेवक भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उनके बाद भाई लहना ने गुरु अंगद देव जी के नाम से गुरु पद संभाला। 1539 ई० में श्री गुरु नानक देव जी ज्योति जोत समा गए।

सन्देश-श्री गुरु नानक देव जी का सन्देश बड़ा आदर्श था। उन्होंने अपनी शिक्षाओं द्वारा पथ-विचलित जनता को जीवन का सच्चा मार्ग दिखाया। उनकी मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. ईश्वर सम्बन्धी विचार-श्री गुरु नानक देव जी ने इस बात का प्रचार किया कि ईश्वर एक है। वह अवतारवाद को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने ईश्वर को निराकार बताया। उनके अनुसार परमात्मा स्वयं-भू है। अतः इसकी मूर्ति बनाकर पूजा नहीं की जानी चाहिए। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है। वह संसार के कण-कण में रहता है। सारा संसार उसी की शक्ति से ही चल रहा है।

2. परमात्मा के नाम का जाप-श्री गुरु नानक देव जी ने परमात्मा के जाप पर बल दिया। उनके अनुसार गुरु सबसे महान् है। उसके बिना ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु रूपी जहाज़ में सवार होकर ही संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। अतः वह मनुष्य बड़ा भाग्यशाली है, जिसे सच्चा गुरु मिल जाता है।

3. अन्य शिक्षाएं-
1. जाति-पाति का खण्डन-श्री गुरु नानक देव जी रंग, धर्म तथा जाति के भेदभावों में विश्वास नहीं रखते थे। उनका कहना था कि हम सभी एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। इसलिए हम सब भाई-भाई हैं।

2. यज्ञ, बलि आदि का विरोध-श्री गुरु नानक देव जी ने यज्ञ, बलि, व्रत आदि कर्मकाण्डों को व्यर्थ बताया।

3. मानव-प्रेम और समाज सेवा-श्री गुरु नानक देव जी के अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर के प्राणियों से प्रेम नहीं करता, उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। उन्होंने अपने अनुयायियों को मानव-प्रेम और समाज-सेवा का उपदेश दिया।

4. उच्च नैतिक जीवन-श्री गुरु नानक देव जी ने लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि सदा सत्य बोलो, नाम जपो, मिल-बाँट कर छको, ईमानदारी की कमाई खाओ और दूसरे की भावनाओं को कभी ठेस मत पहुंचाओ।

5. गृहस्थ जीवन-गुरु नानक देव जी मुक्ति प्राप्त करने के लिए गृहस्थ जीवन को त्यागने के हक में नहीं थे। आप अंजन में निरंजन के समर्थक थे।

गुरु नानक देव जी का सन्देश निःसन्देह बड़ा महान् था। प्रत्येक स्त्री-पुरुष उनके बताए मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उन्होंने अपने समय के शासन में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा जोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी की सिक्ख पंथ के विकास की चर्चा करें।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी-श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के संस्थापक थे। उनके सरल सन्देश से प्रभावित हो कर अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने एक सिक्ख भाई लहना जी को गुरुगद्दी पर नियुक्त किया। इस प्रकार गुरु और सिक्ख की स्थिति परस्पर परिवर्तनशील बन गई। आगे चलकर सिक्ख इतिहास में यह विचार गुरु-पंथ के सिद्धान्त के रूप में विकसित हुआ। भाई लहना गुरु अंगद देव जी कहलाये।

गुरु अंगद देव जी-गुरु अंगद देव जी सिक्खों के दूसरे गुरु थे। उन्होंने अमृतसर जिले में स्थित खडूर साहिब में अपना प्रचार कार्य आरम्भ किया। उन्होंने गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित किया और उसे गुरुमुखी लिपि मे लिखा। यह वाणी बाद में गुरु ग्रन्थ साहिब के संकलन में सहायक सिद्ध हुई। गुरु अंगद देव जी ने स्वयं भी गुरु नानक देव जी के नाम पर वाणी लिखी। इससे गुरु पद की एकता दृढ़ हुई। उन्होंने संगत और लंगर की संस्थाओं को भी दृढ़ बनाया। गुरु नानक देव जी के पदचिन्हों पर चलते हुए 1552 ई० में गुरु अंगद देव जी ने भी अपने एक शिष्य अमरदास जी को गुरुगद्दी सौंप दी और स्वयं ज्योति-जोत समा गए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने गुरु-पद संभाला।

गुरु अमरदास जी-गुरु अमरदास जी ने लगभग 22 वर्ष तक सिक्खों का पथ-प्रदर्शन किया। इस अवधि में उन्होंने सिक्ख पंथ में अनेक नई बातों का समावेश किया। गुरु अंगद देव जी की भान्ति उन्होंने भी गुरु नानक देव जी के नाम पर वाणी की रचना की। उन्होंने खडूर साहिब को छोड़कर गोइन्दवाल साहिब को अपना प्रचार केन्द्र बना लिया। वहां उन्होंने बन रही बावली (बाऊली) का निर्माण कार्य पूरा करवाया। गुरु अमरदास जी ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर पढ़ने के लिये आनन्द साहिब नामक वाणी की रचना की। उनके समय में सिक्खों की संख्या काफ़ी बढ़ गई। इसलिए उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के बाहर भी प्रचार कार्य के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त किये। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या और भी बढ़ने लगी। उन्होंने पाठ-कीर्तन के लिए स्थान-स्थान पर अपनी धर्मशालाएं स्थापित की। उन्होंने लंगर प्रथा का विस्तार भी किया।

गुरु रामदास जी-गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 ई० से 1581 ई० तक गुरु पद पर रहे। उन्होंने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया

  1. उनका सबसे बड़ा योगदान रामदास पुर शहर की नींव डालना था। वह स्वयं भी यहीं रह कर प्रचार कार्य करने लगे।
  2. उन्होंने अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवर खुदवाए।
  3. उन्होंने मसंद प्रथा प्रारम्भ की। मसंद उनके लिए उनके सिक्खों से भेंट एकत्रित करके लाते थे।
  4. उनके समय में सिक्खों तथा उदासियों में समझौता हो गया।
  5.  गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे परन्तु योग्य पुत्र अर्जन देव जी को गुरुपद सौंपा।

गुरु अर्जन देव जी-गुरु अर्जन देव जी सिक्खों के पांचवें गुरु थे। आप 1581 ई० से 1606 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। सिक्ख धर्म के विकास में उन्होंने निम्नलिखित योगदान दिया

1. हरिमंदर साहिब का निर्माण-गुरु रामदास जी ने अमृतसर तथा सन्तोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई का कार्य आरम्भ किया था, परन्तु उनके ज्योति जोत समाने के कारण यह कार्य पूरा न हो सका था। अब यह कार्य गुरु अर्जन देव जी ने अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिक्खों के सहयोग से इन दोनों सरोवरों का निर्माण कार्य पूरा किया। उन्होंने ‘अमृतसर’ सरोवर के बीच हरिमंदर साहिब का निर्माण करवाया। जो कि सिक्खों का पवित्र धार्मिक स्थान बन गया।

2. तरनतारन की स्थापना तथा लाहौर में बावली का निर्माण-गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, सरोवरों का निर्माण करवाया। तरनतारन भी इनमें से एक था। अमृतसर की भान्ति तरनतारन भी सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। गुरु अर्जन देव जी ने अपनी लाहौर यात्रा के मध्य डब्बी बाजार में एक बावली का निर्माण करवाया। इसके निर्माण से बावली के निकटवर्ती प्रदेशों के सिक्खों को एक तीर्थ स्थान की प्राप्ति हुई।

3. हरगोबिन्दपुर तथा छहरटा की स्थापना और करतारपुर की नींव-गुरु जी ने अपने पुत्र हरगोबिन्द के जन्म के उपलक्ष्य में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिन्द नामक नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमृतसर के निकट पानी की कमी को दूर करने के लिए एक कुएं का निर्माण करवाया। इस कुएं पर छ: रहट चलते थे। इसलिए इसको छहरटा के नाम से पुकारा जाने लगा। धीरे-धीरे यहां पर एक नगर बस गया जो आज भी विद्यमान है। गुरु जी ने 1593 ई० में जालन्धर दोआब में एक नगर की स्थापना की जिसका नाम करतारपुर रखा गया।

4. मसन्द प्रथा का विकास-मसन्द प्रथा का आरम्भ गुरु रामदास जी ने किया था। गुरु अर्जन देव जी ने इस प्रथा में सुधार लाने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने सिक्खों को आदेश दिया कि वे अपनी आय का 1/10 भाग आवश्यक रूप से मसन्दों को जमा कराएं। मसन्द वैशाखी के दिन इस राशि को अमृतसर में गुरु जी के केन्द्रीय कोष में जमा करवा देते थे।

राशि को एकत्रित करने के लिए वे अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने लगे। इन्हें ‘संगती’ कहते थे। मसन्द दशांश इकट्ठा करने के अतिरिक्त अपने क्षेत्र में सिक्ख धर्म का प्रचार भी करते थे।

5. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन-गुरु अर्जन देव जी ने ‘आदि ग्रन्थ’ साहिब का संकलन करके सिक्खों को एक धार्मिक ग्रन्थ प्रदान किया। इस पवित्र ग्रन्थ में उन्होंने अपने से पहले चार गुरु साहिबान की वाणी, फिर भक्तों की वाणी तथा उसके पश्चात् भाटों की वाणी का संग्रह किया। इसमें भक्त कबीर, बाबा फरीद, संत रविदास, जयदेव, रामानन्द तथा सूरदास जी की वाणी को भी स्थान दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इस ग्रन्थ साहिब में गुरु तेग बहादुर जी की बाणी शामिल की गई तथा आदि ग्रन्थ को गुरु ग्रन्थ साहिब का दर्जा दिया गया। गुरु अर्जन देव जी ने धर्म पर दृढ़ रहकर अपने जीवन का बलिदान (1606) भी दिया। इस शहीदी से सिक्खों में एक नवीन उत्साह पैदा हुआ।

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प्रश्न 3.
गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिन्द जी, गुरु तेग बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी के सिक्ख पंथ के रूपान्तरण में योगदान की चर्चा करें।
उत्तर-
सिक्ख पंथ के विकास का आधार गुरु नानक देव जी के सरल एवं प्रभावशाली सन्देश थे। एक लम्बे समय तक यह पंथ शान्तिमय रूप धारण किए रहा। परन्तु गुरु अर्जन देव जी के समय में मुग़लों के धार्मिक अत्याचार बढ़ने लगे। उनके अत्याचारों का सामना शान्तिमय ढंग से करना असम्भव हो गया था। अतः सिक्ख पंथ का रूपान्तरण करना आवश्यक हो गया। इस कार्य में गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिन्द जी, गुरु तेग बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपना-अपना योगदान दिया, जिसका वर्णन इस प्रकार है: –

I. गुरु अर्जन देव जी के अधीन-

मुग़ल सम्राट अकबर के गुरु अर्जन देव जी के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। परन्तु अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहांगीर ने सहनशीलता की नीति को छोड़ दिया। ।

जहांगीर की धर्मान्धता चरम सीमा पर पहुंच गई। अत: जहांगीर ने अपने पुत्र को आशीर्वाद देने के जुर्म में गुरु अर्जन देव जी को कठोर शारीरिक कष्ट देने का आदेश जारी कर दिया। सिक्ख परम्पराओं के अनुसार गुरु जी को गर्म लौह पर बिठाया गया और उनके शरीर पर तपती हुई रेत डाली गई। फिर उन्हें उबलते पानी की देश में डाला गया। आप इन तसीहों को परमात्मा का हुक्म समझ कर सहते रहे। आप 30 मई, 1606 ई० को लाहौर में शहीद हो गये।

गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई : (1) गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश दिया, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है, जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अत: मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया। (2) गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को भड़का दिया और उनके मन में मुगल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। (3) इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

II. गुरु हरगोबिन्द जी के अधीन-

गुरु हरगोबिन्द जी सिक्खों के छठे गुरु थे। उनके पिता गुरु अर्जन देव जी को मुग़ल सम्राट जहांगीर ने शहीद करवा दिया था। उनकी शहीदी से सिक्खों के मन में गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अनुभव किया कि यदि उन्हें अपने धर्म की रक्षा करनी है तो उन्हें माला के साथ-साथ शस्त्र भी धारण करने पड़ेंगे। इस उद्देश्य से गुरु हरगोबिन्द जी ने नवीन नीति अपनाई।

नवीन नीति की कार्यवाहियां-
1. गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु हरगोबिन्द जी ने तलवारें धारण की और इस अवसर पर उन्होंने यह घोषणा की कि अब सिक्ख सत्यनाम का जाप करने के साथ-साथ अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए भी सदा तैयार रहेंगे। यह गुरु जी की नवीन नीति का आरम्भ था।

2. नवीन नीति का अनुसरण करते हुए गुरु हरगोबिन्द जी ने ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण की। उन्होंने दो तलवारें, छत्र और कलगी धारण कर ली।

3. गुरु हरगोबिन्द जी अब सिक्खों के आध्यात्मिक नेता होने के साथ-साथ उनके सैनिक नेता भी बन गए। वे सिक्खों के पीर भी थे और मीर भी। इन बातों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पीरी और मीरी नामक दो तलवारें धारण की।

4. गुरु जी सिक्खों को धार्मिक शिक्षा देते थे। परन्तु सांसारिक विषयों में सिक्खों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने हरिमंदर साहिब के सामने एक नया भवन बनवाया जिसका नाम ‘अकाल तख्त’ (ईश्वर की गद्दी) रखा गया।

गुरु हरगोबिन्द जी ने आत्मरक्षा के लिए एक सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक तथा स्वयंसेवक सम्मिलित थे। गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने मसन्दों को सन्देश भेजा कि यदि धन के बजाय घोड़े तथा सैनिक शस्त्र उपहार अथवा भेंट के रूप में भेजें। परिणामस्वरूप काफ़ी मात्रा में सैनिक सामग्री इकट्ठी हो गई। सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृतसर) के चारों ओर एक दीवार भी बनवाई गई। इस नगर में एक दुर्ग का निर्माण भी किया गया, जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्यों से सिक्खों में धार्मिक भावना के साथ-साथ सैनिक गुणों का भी विकास हुआ। फलस्वरूप उन्होंने मुगल अत्याचारों का डटकर सामना किया।

III. गुरु तेग़ बहादुर जी के अधीन-

नौवें सिक्ख गुरु तेग़ बहादुर जी के समय में कई मुसलमानों ने सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया। औरंगज़ेब इस बात को सहन नहीं कर सकता था; इसलिए उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को दण्ड देने का निश्चय कर लिया। इन्हीं दिनों मुग़ल अत्याचारों से तंग आकर कुछ कश्मीरी ब्राह्मण गुरु जी की शरण में आए। उन्होंने गुरु जी को बताया कि उनको ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा है। यह सुनकर गुरु जी ने कहा कि सम्राट् से कहो कि यदि तुम हमारे गुरु साहिब जी को मुसलमान बना लोगे तो वे भी इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। अतः गुरु जी को 1675 ई० मे दिल्ली बुलाया गया और उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश किया गया, परन्तु गुरु जी अपने धर्म पर अटल रहे। क्रोध में आकर औरंगजेब ने 11 नवम्बर, 1675 ई० को उन्हें शहीद करवा दिया। गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी से सिक्खों में एक नवीन जागृति आई।

IV. गुरु गोबिन्द सिंह जी के अधीन-

गुरु तेग़ बहादुर जी के पश्चात् गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के गुरु बने। उन्होंने सिक्ख धर्म की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न किए। उन्होंने मुग़ल अत्याचारों के विरुद्ध तलवार उठाई। वे अपने शिष्यों से भी भेंट के रूप में घोड़े तथा शस्त्र लेने लगे। उन्होंने सिक्खों को स्थायी सैनिक का रूप देने के लिए 1699 में खालसा की स्थापना की। इस प्रकार गुरु गोबिन्द सिंह जी ने एक विशाल सेना तैयार कर ली। गुरु जी ने साधारण व्यक्तियों को वीर सैनिकों में परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार वह राजनीतिक शक्ति में संगठित हुए और उन्होंने समय-समय पर मुग़लों से अनेक युद्ध किए।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
‘सच्चा सौदा’ किस सिक्ख गुरु से सम्बन्धित है ?
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी से।

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प्रश्न 2.
श्री गुरु नानक देव जी का जन्म कहां हुआ था ?
उत्तर-
लाहौर के समीप तलवंडी नामक गांव में।

प्रश्न 3.
श्री गुरु नानक देव जी की माता का क्या नाम था?
उत्तर-
माता तृप्ता जी।

प्रश्न 4.
अमृतसर नगर किसने बसाया?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

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प्रश्न 5.
‘आदि ग्रंथ साहिब’ का संकलन किस गुरु साहिब ने किया?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने।

प्रश्न 6.
कौन-से गुरु ‘बाल गुरु’ के नाम से प्रसिद्ध हैं ?
उत्तर-
श्री गुरु हरकृष्ण जी।

प्रश्न 7.
सिक्खों के नौंवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
श्री गुरु तेग बहादुर जी।

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प्रश्न 8.
शहीदी देने वाले दो सिक्ख गुरुओं के नाम बताओ।
उत्तर-
श्री गुरु अर्जन देव जी तथा श्री गुरु तेग़ बहादुर जी।

प्रश्न 9.
गुरु गोबिन्द राय जी का जन्म कब और कहां हुआ?
(ii) उनके माता-पिता का नाम बताओ।
उत्तर-
(i) 22 दिसम्बर, 1666 ई० को पटना में
(ii) उनकी माता का नाम गुजरी जी और पिता का नाम श्री गुरु तेग़ बहादुर जी था।

प्रश्न 10.
भंगानी की विजय के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने कौन-कौन से किले बनवाए ?
उत्तर-
आनन्दगढ़, केसगढ़, लोहगढ़ तथा फतेहगढ़।

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प्रश्न 11.
पांच प्यारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई मोहकम सिंह, भाई साहब सिंह तथा भाई हिम्मत सिंह।

प्रश्न 12.
खालसा का सृजन कब और कहां किया गया?
उत्तर-
1699 ई० में आनन्दपुर साहिब में।

2. रिक्त स्थान भरें

(i) ……………….. गुरु नानक देव जी की पत्नी थीं।
(ii) गुरु नानक देव जी के पुत्रों के नाम …………………… तथा ……………….
(iii) गुरु नानक देव जी द्वारा रचित चार बाणियां वार मल्हार, वार आसा, ……………… और …………..
(iv) ……………… का पहला नाम भाई लहना था।
(v) ………….. सिक्खों के चौथे गुरु थे।
(vi) ……………. नामक नगर की स्थापना गुरु अंगद देव जी ने की।
(vii) गुरु हरगोबिन्द जी ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्ष …………… में धर्म-प्रचार में व्यतीत किए।
(viii) उदासी’ मत गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र ………………. जी ने स्थापित किया।
(ix) मंजियों की स्थापना श्री गुरु ………………. ने की।
(x) गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को ……….. में हुआ।
(xi) हरमंदिर साहिब का निर्माण कार्य ….. ……. ई० में पूरा हुआ।
उत्तर-
(i) बीबी सुलखनी
(ii) श्रीचंद, लखमी दास
(iii) जपुजी साहिब, बारहमाहा
(iv) गुरु अंगद साहिब
(v) गुरु रामदास जी
(vi) गोइन्दवाल साहिब
(vii) कीरतपुर साहिब
(viii) बाबा श्रीचंद जी
(ix) अमरदास जी
(x) गोइन्दवाल साहिब
(xi) 1601.

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3. सही/गलत कथन

(i) औरंगजेब कश्मीरी पंडितों को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था। — (√)
(ii) गुरु गोबिंद सिंह जी ने काजी पीर मुहम्मद से शिक्षा लेने से इन्कार कर दिया। — (×)
(iii) खालसा की स्थापना श्री गुरु हरगोबिंद जी ने की। — (×)
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘ज़फरनामा’ नामक पत्र मुग़ल सम्राट औरंगजेब को लिखा। — (√)
(v) दिल्ली में गुरु हरराय जी राजा जयसिंह के यहां ठहरे थे। — (×)

4. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
गोइन्दवाल साहिब में बाऊली (जल-स्रोत) का निर्माण किसने करवाया ?
(A) गुरु अर्जन देव जी ने
(B) गुरु नानक देव जी ने ।
(C) गुरु अमरदास जी ने
(D) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(C) गुरु अमरदास जी ने

प्रश्न (ii)
गुरु अर्जन देव जी ने रावी तथा ब्यास के बीच किस नगर की नींव रखी ?
(A) जालंधर
(B) गोइन्दवाल साहिब
(C) अमृतसर
(D) तरनतारन।
उत्तर-
(D) तरनतारन।

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प्रश्न (iii)
जहांगीर के काल में शहीद होने वाले सिक्ख गुरु थे –
(A) गुरु अंगद देव जी
(B) गुरु अमरदास जी
(C) गुरु अर्जन देव जी
(D) गुरु रामदास जी।
उत्तर-
(C) गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न (iv)
गुरु हरकृष्ण जी गुरु गद्दी पर बैठे-
(A) 1661 ई० में
(B) 1670 ई० में
(C) 1666 ई० में
(D) 1538 ई० में।
उत्तर-
(A) 1661 ई० में

प्रश्न (v)
‘बाबा बकाला’ वास्तव में थे
(A) गुरु तेग़ बहादुर जी
(B) गुरु हरकृष्ण जी
(C) गुरु गोबिन्द सिंह जी
(D) गुरु अमरदास जी।
उत्तर-
(A) गुरु तेग़ बहादुर जी

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प्रश्न (vi)
गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म हुआ
(A) कीरतपुर साहिब में
(B) पटना में
(C) दिल्ली में
(D) तरनतारन में।
उत्तर-
(B) पटना में

प्रश्न (vii)
गुरु गद्दी को पैतृक रूप दिया
(A) गुरु अमरदास जी ने
(B) गुरु रामदास जी ने
(C) गुरु गोबिन्द सिंह जी ने
(D) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(A) गुरु अमरदास जी ने

प्रश्न (viii)
हरमंदिर साहिब का पहला मुख्य ग्रन्थी नियुक्त किया गया
(A) भाई पृथिया को
(B) श्री महादेव जी को
(C) बाबा बुड्डा जी को
(D) नत्था मल जी को।
उत्तर-
(C) बाबा बुड्डा जी को

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सिक्ख पंथ के बारे में जानकारी के गुरुमुखी लिपि में चार महत्त्वपूर्ण स्रोत कौन-से हैं ?
उत्तर-
सिक्ख पंथ के बारे में जानकारी के गुरुमुखी लिपि में चार महत्त्वपूर्ण स्रोत गुरु ग्रन्थ साहिब, भाई गुरदास की वारें, जन्मसाखियां तथा गुरसोभा हैं।

प्रश्न 2.
कौन-से दो गुरु साहिबान के हुक्मनामे उपलब्ध हैं ?
उत्तर-
हमें गुरु तेग़ बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी के हुक्मनामे उपलब्ध हैं।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी का जीवन मुख्य रूप से कौन-से तीन भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जीवन मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है-आरम्भिक जीवन तथा सुल्तानपुर लोधी में ज्ञान प्राप्ति, उनकी यात्राएँ अथवा उदासियाँ तथा करतारपुर में एक नये भाईचारे की स्थापना।

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प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवण्डी नामक स्थान पर हुआ।

प्रश्न 5.
सुल्तानपुर लोधी में गुरु नानक देव जी ने किस लोधी अधिकारी के अधीन, किस विभाग में कितने वर्ष काम किया ?
उत्तर-
सुल्तानपुर लोधी में गुरु नानक देव जी ने दौलत खाँ लोधी के अधीन काम किया। उन्होंने मोदीखाने में दस वर्ष . तक कार्य किया।

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी को सत्य की प्राप्ति कहाँ और लगभग किस आयु में हुई ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी में सत्य की प्राप्ति हुई। इस समय उनकी आयु 30 वर्ष की थी।

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प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने एक नये भाईचारे का आरम्भ कहाँ और किन दो संस्थाओं द्वारा किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने एक नये भाईचारे का आरम्भ करतारपुर में संगत तथा लंगर नामक दो संस्थाओं द्वारा किया।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी मनुष्य के किन पांच शत्रुओं की बात करते हैं ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी मनुष्य के पांच शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की बात करते हैं।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के अनुसार सच्चा गुरु कौन है और वह किसके द्वारा शिक्षा देता है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा है। परमात्मा ‘शब्द’ के द्वारा शिक्षा देता है।

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प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी के अनुसार सही आचरण की आधारशिला क्या है तथा उसके लिए क्या करना आवश्यक है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार सही आचरण की आधारशिला दूसरों की सेवा है। उसके लिए मेहनत की कमाई करना आवश्यक है।

प्रश्न 11.
गुरु अंगद देव जी का आरम्भिक नाम क्या था और वे कब से कब तक गुरुगद्दी पर रहे ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का आरम्भिक नाम भाई लहना था। वह 1539 से 1552 तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 12.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र कौन-सा स्थान था तथा उन्होंने कौन-से कस्बे का निर्माण किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र अमृतसर जिले में खडूर साहिब था। उन्होंने गोइन्दवाल साहिब कस्बे का निर्माण किया।

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प्रश्न 13.
गुरु अंगद देव जी ने किस नाम से वाणी रची और उन्होंने गुरुगद्दी के लिए किसको मनोनीत किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने नानक नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने गुरुगद्दी के लिए गुरु अमरदास जी को मनोनीत किया।

प्रश्न 14.
गुरु अमरदास जी ने बावली का निर्माण कहां करवाया तथा इसमें कितनी सीढ़ियां हैं ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने गोइन्दवाल साहिब में बावली का निर्माण कराया, जिसमें 84 सीढ़ियां हैं।

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी ने साधारण जीवन के किन दो अवसरों के लिए सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियां निश्चित की ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने जन्म तथा मरण के मौकों पर सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियाँ निश्चित की।

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प्रश्न 16.
मंजियों की स्थापना किन गुरु साहिब ने की और वे कब-से-कब तक गुरुगद्दी पर रहे ?
उत्तर-
मंजियों की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की। वे 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 17.
अमृतसर की स्थापना करने वाले तथा सरोवर की खुदवाई करवाने वाले दो गुरु साहिबानों के नाम बताएं।
उत्तर-
अमृतसर की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी ने सरोवर की खुदाई कराई थी।

प्रश्न 18.
गुरु अमरदास जी के उत्तराधिकारी कौन थे ? उनका आरम्भिक नाम तथा गुरुआई का समय बताएं।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के उत्तराधिकारी गुरु रामदास जी थे। इनका आरम्भिक नाम भाई जेठा जी था। उनकी गुरुआई का समय 1574 ई० से 1581 ई० तक था।

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प्रश्न 19.
अमृत सरोवर में ‘धर्मशाला’ किन्होंने बनवाई तथा इसे क्या नाम दिया ?
उत्तर-
अमृत सरोवर में गुरु अर्जन देव जी ने धर्मशाला बनवाई थी और इसको हरमंदर साहिब का नाम दिया।

प्रश्न 20.
गुरु अर्जन देव जी ने किन तीन नगरों की नींव रखी और यह कौन-से दो दोआबों में हैं ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने बारी दोआब में तरनतारन तथा श्री हरगोबिन्दपुर और जालन्धर दोआब में करतारपुर की नींव रखी।

प्रश्न 21.
गुरु के प्रतिनिधियों को क्या कहा जाता था और ये संगतों से उनकी आय का कौन-सा भाग एकत्र करते थे ?
उत्तर-
गुरु के प्रतिनिधियों को मसन्द कहा जाता था। ये संगतों से उनकी आय का दसवां भाग एकत्र करते थे।

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प्रश्न 22.
आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन किन्होंने और कब सम्पूर्ण किया ?
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में सम्पूर्ण किया।

प्रश्न 23.
आदि ग्रन्थ साहिब में जिन गुरुओं की वाणी सम्मिलित है, उनके नाम बताएं।
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब में गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी की वाणी सम्मिलित है। बाद में गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई।

प्रश्न 24.
‘मीरी’ और ‘पीरी’ की तलवारें किसने धारण की और ये किसकी प्रतीक थीं ?
उत्तर-
‘मीरी’ और ‘पीरी’ की तलवारें गुरु हरगोबिन्द जी ने धारण की। ‘पीरी’ की तलवार आध्यात्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी और ‘मीरी’ की तलवार सांसारिक नेतृत्व की।

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प्रश्न 25.
गुरु हरगोबिन्द जी की गुरुगद्दी का समय क्या था और उन्होंने अमृतसर में कौन-से दो महत्त्वपूर्ण भवन बनवाए ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी की गुरुगद्दी का समय 1606 ई० से 1645 ई० तक था। उन्होंने अमृतसर में लोहगढ़ का किला बनवाया तथा हरमंदर साहिब के सामने अकाल तख्त बनवाया।

प्रश्न 26.
गुरु हरगोबिन्द जी को किस मुग़ल बादशाह ने कौन-से किले में नजरबन्द करवाया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी को जहांगीर ने ग्वालियर के किले में नजरबन्द करवाया।

प्रश्न 27.
गुरु हरगोबिन्द जी ने लाहौर प्रान्त को छोड़कर किस इलाके में किस स्थान पर रहने का फैसला किया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी ने लाहौर प्रान्त को छोड़कर कीरतपुर साहिब के स्थान पर रहने का फैसला किया।

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प्रश्न 28.
पिरथी चन्द कौन था तथा उसके अनुयायियों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
पिरथी चन्द गुरु हरगोबिन्द जी का चाचा था। उसके अनुयायियों को ‘मीणे’ कहा जाता था।

प्रश्न 29.
मिहरबान का आरम्भिक नाम क्या था तथा वह किसका पुत्र था ?
उत्तर-
मिहरबान का आरम्भिक नाम मनोहर दास था। वह पिरथी चन्द का पुत्र था।

प्रश्न 30.
धीरमल किसका पौत्र था तथा वह किस स्थान पर रहने लगा था ?
उत्तर-
धीरमल गुरु हरगोबिन्द जी का पौत्र था। वह करतारपुर में रहने लगा था।

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प्रश्न 31.
गुरु हर राय जी किनके पौत्र थे और वे गुरुगद्दी पर कब से कब तक रहे ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी गुरु हरगोबिन्द जी के पौत्र थे। वे 1645 ई० से 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 32.
गुरु हर राय जी पर किस मुग़ल बादशाह ने किस शहज़ादे की सहायता करने का आरोप लगाया ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी पर औरंगजेब ने शहज़ादा दारा शिकोह की सहायता करने का आरोप लगाया।

प्रश्न 33.
गुरु हर राय जी के दो बेटों के नाम बताएं तथा उनमें से किन को गुरुगद्दी दी गई ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी के दो बेटों के नाम थे-रामराय जी तथा हरकृष्ण जी। गुरुगद्दी हरकृष्ण जी को दी गई थी।

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प्रश्न 34.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने किस वर्ष में गुरुआई सम्भाली और इस समय वे किस गांव में थे तथा यह किन दो नगरों के मध्य स्थित है ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने 1664 ई० में गुरुआई सम्भाली। इस समय वह बकाला में थे जो अमृतसर तथा जालन्धर के मध्य में है।

प्रश्न 35.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने किस पहाड़ी रियासत के इलाके में किस नये कस्बे की नींव रखी और यह बाद में किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने बिलासपुर रियासत में माखोवाल कस्बे की नींव रखी। यह बाद में आनन्दपुर साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 36.
गुरु तेग बहादुर जी अपनी यात्रा के दौरान किन चार नगरों में गये तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म कौन-से नगर में हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी अपनी यात्रा के दौरान आगरा, बनारस तथा गया में गये। गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म पटना में हुआ।

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प्रश्न 37.
गुरु तेग़ बहादुर जी को किस वर्ष में, किस शहर में, किस स्थान पर शहीद किया गया ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को 1675 ई० में दिल्ली में चांदनी चौक में शहीद किया गया।

प्रश्न 38.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपने पूर्वजों में से किन की नीति अपनाने का निश्चय किया तथा उन्होंने भेंट में किन दो वस्तुओं को प्राप्त करने को अधिक महत्त्व दिया ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने गुरु हरगोबिन्द जी की नीति अपनाने का निश्चय किया। उन्होंने भेंट में शस्त्र तथा घोड़े प्राप्त करने को अधिक महत्त्व दिया।

प्रश्न 39.
गुरु गोबिन्द सिंह जी का पहला युद्ध किस वर्ष में, किस स्थान पर और कहां के राजा के विरुद्ध हुआ ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी का पहला युद्ध श्रीनगर के राजा के साथ 1686 ई० में भंगाणी नामक स्थान पर हुआ।

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प्रश्न 40.
किस पहाड़ी राजा के कहने पर गुरु गोबिन्द सिंह जी ने मुगलों के विरुद्ध कौन-सी लड़ाई लड़ी तथा इसमें किसकी जीत हुई ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने पहाड़ी राजा भीमचन्द के कहने पर मुगलों के विरुद्ध नादौन की लड़ाई लड़ी। इसमें पहाड़ी राजाओं की जीत हुई।

प्रश्न 41.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर की सुरक्षा के लिए किन चार किलों का निर्माण किया था ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर की सुरक्षा के लिए आनन्दगढ़, केसगढ़, लोहगढ़ तथा फतेहगढ़ किलों का निर्माण किया था।

प्रश्न 42.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने कौन-से वर्ष, किस दिन और कहां पर खालसा की साजना की ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 ई० में वैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा की साजना की।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की यात्राओं अथवा उदासियों के बारे में बताएं।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपने सन्देश के प्रसार के लिए कुछ यात्राएं कीं। उनकी इन यात्राओं को उदासियां भी कहा जाता है। इन यात्राओं को तीन या चार हिस्सों अथवा उदासियों में बांटा जाता है। यह समझा जाता है कि इस दौरान गुरु नानक देव जी ने उत्तर में कैलाश पर्वत से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक तथा पश्चिम में पाकपटन से लेकर पूर्व में असम तक की यात्रा की थी। वह सम्भवत: भारत से बाहर लंका, मक्का, मदीना तथा बगदाद भी गये थे। उनके जीवन के लगभग बीस वर्ष ‘उदासियों’ में गुजरे। अपनी सुदूर ‘उदासियों’ में गुरु साहिब विभिन्न धार्मिक विश्वासों वाले अनेक लोगों के सम्पर्क में आये। ये लोग भान्ति-भान्ति की संस्कार विधियों और रस्मों का पालन करते थे। गुरु नानक साहिब ने इन सभी लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया।

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ‘माया’ मुक्ति के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा है। उनका माया का संकल्प वास्तविक है। यह वेदान्त की भान्ति ब्रह्माण्डीय भ्रम डालने वाला नहीं है। उनके अनुसार प्रभु ने ब्रह्माण्ड की रचना स्वयं को रूपवान करने के लिए की है। अतः रचनाकार और रचना में अन्तर जानना आवश्यक है। मनुष्य के मलिन भाव और ऐन्द्रिक सुख मनुष्य को माया से बाँध कर रखते हैं। इसलिए वह परमात्मा से दूर रहता है। इसी सन्दर्भ में ही गुरु नानक देव जी मनुष्य के पांच शत्रुओं की बात करते हैं, जिनके नाम हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। मनुष्य में अहं अथवा ‘हउमै’ की अभिव्यक्ति है। यह परमात्मा और मनुष्य के बीच एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दीवार है। मनुष्य की ‘मनमुखता’ ही उसके लिए यह समझना कठिन कर देती है कि केवल परमात्मा ही एक सर्वशक्तिमान् सत्ता है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खण्डन किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अनेक व्यर्थ के धार्मिक विश्वासों एवं व्यवहारों का खण्डन किया। उन्होंने अनुभव किया कि ब्राह्मण बाहरी कर्मकाण्ड में रत हैं जिनमें सही आत्मिक जिज्ञासा या धार्मिक श्रद्धा-भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा और मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण अवसरों से सम्बन्धित संस्कार-विधियां और रीति-रिवाजों का खंडन किया। गुरु नानक देव जी ने जोगियों की पद्धति को भी अस्वीकार कर दिया। इसके दो मुख्य कारण थे : जोगियों द्वारा परमात्मा के प्रति व्यवहार में श्रद्धा-भक्ति का अभाव और अपने मठवासी जीवन में सामाजिक दायित्व से विमुखता। गुरु नानक देव जी ने वैष्णव भक्ति को भी अस्वीकृत किया और अपनी विचारधारा में अवतारवाद को कोई स्थान न दिया। उन्होंने मुल्ला लोगों के विश्वासों, रस्मों एवं व्यवहारों का खण्डन किया।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ क्या थे ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ बड़े महत्त्वपूर्ण थे। उनका सन्देश सभी के लिए था। प्रत्येक स्त्रीपुरुष उनके बताये मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उनके अनुयायियों में समानता के विचार को वास्तविक रूप संगत और लंगर की संस्थाओं में मिला। इसलिए यह समझना कठिन नहीं है कि गुरु नानक देव जी ने जात-पात पर आधारित भेदभावों का बड़े स्पष्ट शब्दों में खण्डन क्यों किया। उन्होंने अपने आपको जनसाधारण के साथ सम्बन्धित किया। इस स्थिति में उन्होंने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा जोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

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प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खण्डन क्यों किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का जोरदार खण्डन किया। ब्राह्मण दिखावे के कर्मकाण्डों में लिप्त थे। वे लोग वेद, शास्त्रों, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा तथा जन्म-मरण के अवसर पर विभिन्न धार्मिक संस्कारों पर भी बड़ा बल देते हैं। वह स्वयं सच्ची प्रभु भक्ति में विश्वास रखते थे। इसी कारण उन्होंने ब्राह्मणों तथा उनकी धार्मिक पद्धति का कड़ा विरोध किया। इस्लाम धर्म में मुल्ला लोगों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था। वे अपने आपको इस्लाम का रक्षक समझते थे और इसके सिद्धान्तों को बाहरी रूप से अपनाने पर बड़ा बल देते थे। गुरु नानक देव जी को दिखावे का यह जीवन बिल्कुल पसन्द नहीं था। अत: उन्होंने उस समय ब्राह्मणों के साथ-साथ मुल्लाओं के आडंबरों का भी विरोध किया।

प्रश्न 6.
गुरु अमरदास जी पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी सिक्खों के तीसरे गुरु थे। आपका जन्म अमृतसर जिले में हुआ था। आपने गुरु अंगद देव जी की सेवा बहुत श्रद्धा और प्यार से की। इसी के फलस्वरूप आपको गुरुगद्दी प्राप्त हुई। गुरु अमरदास जी गुरुगद्दी पर बीस वर्ष रहे। उन्होंने सिक्ख पंथ के विकास के लिए अनेक कार्य किये।

  • गुरु अंगद देव जी की भान्ति गुरु अमरदास जी ने भी श्री गुरु नानक देव जी के नाम से वाणी की रचना की।
  • उन्होंने गोइन्दवाल साहिब में एक बावली बनवाई, जिसमें उनके सिक्ख (शिष्य) धार्मिक अवसरों पर स्नान करते थे। इस बावली की 84 सीढ़ियां हैं।
  • गुरु अमरदास जी ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर पढ़ने के लिये आनन्द साहिब नामक वाणी की रचना की।
  • उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के बाहर प्रचार कार्य के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या बढ़ने लगी।
  • उन्होंने पाठ-कीर्तन के लिए स्थान-स्थान पर अपनी धर्मशालाएं स्थापित की।

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प्रश्न 7.
गुरु रामदास जी ने सिक्ख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 से 1581 तक गुरु पद पर रहे। उन्होंने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया-

  • उनका सबसे बड़ा योगदान रामदास पुर शहर की नींव डालना था। वह स्वयं भी यहीं कह कर प्रचार कार्य करने लगे।
  • उन्होंने अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवर खुदवाए।
  • उन्होंने मसंद प्रथा प्रारम्भ की। मसंद उनके लिए उनके सिक्खों से भेंट एकत्रित करके लाते थे।
  • उनके समय में सिक्खों तथा उदासियों में समझौता हो गया।

प्रश्न 8.
आदि ग्रन्थ साहिब के संकलन तथा महत्त्व के बारे में बताएं।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन सिक्ख पंथ के विकास में सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव था। इसके लिए तैयारी पहले गुरु साहिबान के समय में आरम्भ हो चुकी थी। गुरु अर्जन देव जी ने गुरु अमरदास जी के बड़े पुत्र से पहले तीन गुरु साहिबान तथा कुछ भक्तों की वाणी की पोथियां प्राप्त की। इसमें उन्होंने गुरु रामदास जी तथा अपनी वाणी के साथ-साथ और कुछ अन्य सन्तों, भक्तों एवं सूफ़ी शेखों की रचनायें शामिल की। यह काम 1604 ई० तक सम्पूर्ण कर लिया गया। आदि ग्रन्थ साहिब की हरिमंदर साहिब में स्थापना की गई और बाबा बुड्डा जी इसके पहले ग्रन्थी नियुक्त हुए। आदि ग्रन्थ साहिब को गुरु ग्रन्थ साहिब का दर्जा दिया गया और यह सिक्ख धर्म का मूल स्रोत बन गया। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय ही आदि ग्रन्थ साहिब में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित कर ली गई। आदि ग्रन्थ साहिब का महत्त्व इस बात से जाना जा सकता है कि इस ग्रन्थ में भक्तों तथा सन्तों के साथ-साथ गुरु साहिबानों की वाणी सामूहिक रूप में प्राप्त हुई जो सिक्ख पंथ का सच्चा मार्गदर्शन करने लगी।

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प्रश्न 9.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी ने सिक्ख पंथ के इतिहास पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख पंथ के इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।
1. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जाओ, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।

2. गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों के मन में मुगल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी।

3. इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए।

प्रश्न 10.
गुरु हरगोबिन्द साहिब की नई नीति तथा गतिविधियों के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द साहिब की नवीन नीति तथा गतिविधियों के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। गुरु साहिब ने आत्मरक्षा के लिए एक सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक तथा स्वयंसेवक सम्मिलित थे। गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने मसन्दों को सन्देश भेजा कि वह धन के बजाय घोड़े तथा शस्त्र उपहार अथवा भेंट के रूप में भेजें। सिक्खों की सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृतसर) के चारों ओर एक दीवार बनवाई गई। इस नगर में एक दुर्ग का निर्माण भी किया गया, जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्यों से सिक्खों में धार्मिक भावना के साथ-साथ सैनिक गुणों का भी विकास हुआ। फलस्वरूप उन्होंने मुग़ल अत्याचारों का डटकर सामना किया।

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प्रश्न 11.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख पंथ में साम्प्रदायिक विभाजन तथा बाहरी खतरे की समस्या को कैसे हल किया?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख धर्म में विद्यमान अनेक सम्प्रदायों की तथा बाहरी खतरों की समस्या को भी बड़ी कुशलता से निपटाया। सर्वप्रथम गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं से अनेक युद्ध किए और उन्हें पराजित किया। उन्होंने अत्याचारी मुग़लों का भी सफल विरोध किया। 1699 ई० में गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ने खालसा की स्थापना करके अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए एक और महत्त्वपूर्ण पग उठाया। खालसा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिक्खों ने शस्त्रधारी का रूप धारण कर लिया। खालसा की स्थापना से गुरु जी को सिक्ख धर्म में विद्यमान् विभिन्न सम्प्रदायों से निपटने का अवसर भी मिला। गुरु जी ने घोषणा की कि सभी सिक्ख ‘खालसा’ का रूप हैं और उनके साथ जुड़े हुए हैं। इस प्रकार मसन्दों का महत्त्व समाप्त हो गया और सिक्ख धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय खालसा में विलीन हो गए।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ईश्वर के बारे में गुरु नानक देव जी के विचारों का वर्णन करते हुए उनकी किन्हीं पांच शिक्षाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएं उतनी ही आदर्श थीं जितना कि उनका जीवन। वह कर्मकाण्ड, जाति-पाति, ऊंच-नीच आदि संकीर्ण विचारों से कोसों दूर थे। उन्हें तो सत्यनाम से प्रेम था और इसी का सन्देश उन्होंने अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक प्राणी को दिया। उनकी मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है :

1. ईश्वर की महिमा-गुरु साहिब ने ईश्वर की महिमा का बखान अपने निम्नलिखित विचारों द्वारा किया है :

  • एक ईश्वर में विश्वास-श्री गुरु नानक देव जी ने इस बात का प्रचार किया कि ईश्वर एक है। वह अवतारवाद को स्वीकार नहीं करते थे।
  • ईश्वर निराकार तथा स्वयं-भू है-श्री गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को निराकार बताया। उनके अनुसार परमात्मा स्वयं-भू है। अत: उसकी मूर्ति बनाकर पूजा नहीं की जानी चाहिए।
  • ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है- श्री गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् बताया। उनके अनुसार ईश्वर संसार के कण-कण में विद्यमान है। सारा संसार उसी की शक्ति पर चल रहा है।
  • ईश्वर दयालु है-श्री गुरु नानक देव जी का कहना था कि ईश्वर दयालु है। वह अपने भक्तों के पास हर पल रहता है। उनके सभी काम आप संवारता है।

2. सतनाम के जाप पर बल–श्री गुरु नानक देव जी ने सतनाम के जाप पर बल दिया। वह कहते थे कि आत्मा की बुरे विचारों रूपी मैल को सतनाम के जाप से ही धोया जा सकता है।

3. गुरु का महत्त्व-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु की बहुत आवश्यकता है। गुरु रूपी जहाज़ में सवार होकर संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। उनका कथन है कि “सच्चे गुरु की सहायता के बिना किसी ने भी ईश्वर को प्राप्त नहीं किया।” गुरु ही मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है।

4. कर्म सिद्धान्त में विश्वास-गुरु नानक देव जी का विश्वास था कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। उनके अनुसार बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है। इसके विपरीत, शुभ कर्म करने वाला व्यक्ति जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है और निर्वाण प्राप्त करता है।

5. आदर्श गृहस्थ जीवन पर बल-गुरु नानक देव जी ने आदर्श गृहस्थ जीवन पर बल दिया है। उन्होंने लोगों को संसार में रहकर अच्छा जीवन व्यतीत करने और पवित्र बनने का सन्देश दिया है। उन्होंने इस धारणा को सर्वथा गलत सिद्ध कर दिखाया कि संसार माया जाल है और उसका त्याग किए बिना व्यक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। उनके शब्दों में, “अंजन माहि निरंजन रहिए” अर्थात् संसार में रहकर भी मनुष्य को पृथक् और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।

6. मनुष्य-मात्र से प्रेम-गुरु नानक देव जी रंग-रूप के भेद-भावों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार एक ईश्वर की सन्तान होने के नाते सभी मनुष्य भाई-भाई हैं। वह कहते थे, “मैं सभी मनुष्यों को महान् समझता हूँ और किसी को भी नीचा नहीं समझता क्योंकि सभी मनुष्यों को बनाने वाला एक ही है।” अतः उन्होंने लोगों को मनुष्य-मात्र से प्रेम करने का सन्देश दिया।

7. जाति-पाति का खण्डन-गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उनकी दृष्टि में न कोई हिन्दू था और न कोई मुसलमान। उनके अनुसार सभी जातियों तथा धर्मों में मौलिक एकता और समानता विद्यमान है।

8. समाज सेवा-गुरु नानक देव जी के अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर प्राणियों से प्रेम नहीं करता, उसे ईश्वर की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। उन्होंने अपने अनुयायियों को निःस्वार्थ भाव से मानव प्रेम और समाज सेवा करने का उपदेश दिया। उनके अनुसार मानवता के प्रति प्रेम, ईश्वर के प्रति प्रेम का ही प्रतीक है।

9. मूर्ति-पूजा का खण्डन-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति-पूजा का कड़े शब्दों में खण्डन किया। उनके अनुसार ईश्वर की मूर्तियां बनाकर पूजा करना व्यर्थ है, क्योंकि ईश्वर अमूर्त तथा निराकार है।

10. यज्ञ, बलि तथा व्यर्थ के कर्मकाण्डों में अविश्वास-गुरु नानक देव जी ने व्यर्थ के कर्मकाण्डों का घोर खण्डन किया और ईश्वर की प्राप्ति के लिए यज्ञों तथा बलि आदि को व्यर्थ बताया। उनके अनुसार बाहरी दिखावे का प्रभु भक्ति में कोई स्थान नहीं है।

11. सर्वोच्च आनन्द (सचखण्ड) की प्राप्ति-गुरु नानक देव जी के अनुसार मनुष्य जीवन का उद्देश्य सर्वोच्च आनन्द (सचखण्ड) की प्राप्ति है। सर्वोच्च आनन्द वह मानसिक स्थिति है जहां मनुष्य सभी चिन्ताओं तथा कष्टों से मुक्त हो जाता है। उसका दुःखी हृदय शान्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है।

12. नैतिक जीवन पर बल-गुरु नानक देव जी ने लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने आदर्श जीवन के लिए कई सिद्धान्त प्रस्तुत किए-

  • सदा सत्य बोलना।
  • नाम जपना।
  • नेक कमाई खाना।
  • दूसरों की भावनाओं को कभी ठेस न पहुंचाना
  • मिल-बाँट कर छकना। ‘किरत करना, वंड खाना तथा नाम जपना’ इस सिद्धान्त का मूल सार है।
    सच तो यह है कि गुरु नानक देव जी एक महान् सन्त और समाज सुधारक थे।

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प्रश्न 2.
गुरु अर्जन देव जी ने सिक्ख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
अथवा
सिख धर्म के प्रसार के लिए श्री गुरु अर्जन देव जी द्वारा किए गए किन्हीं पांच कार्यों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के गुरुगद्दी सम्भालते ही सिक्ख धर्म के इतिहास ने नवीन दौर में प्रवेश किया। उनके प्रयास से हरिमंदर साहिब बना और सिक्खों को अनेक तीर्थ स्थान मिले। यही नहीं उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब का संकलन किया जिसे सिक्ख धर्म में सबसे अधिक पूजनीय स्थान प्राप्त है। संक्षेप में, गुरु अर्जन देव जी के कार्यों तथा सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. हरिमंदर साहिब का निर्माण-गुरु रामदास जी के ज्योति जोत समाने के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर तथा सन्तोखसर नामक सरोवरों का निर्माण कार्य पूरा किया। उन्होंने ‘अमृतसर’ तालाब के बीच हरिमंदर साहिब का निर्माण करवाया। गुरु जी ने इसके चारों ओर एक-एक द्वार रखवाया। ये द्वार इस बात का प्रतीक हैं कि हरिमंदर साहिब सभी जातियों तथा धर्मों के लोगों के लिए खुला है।

2. तरनतारन की स्थापना-गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, सरोवरों तथा स्मारकों का निर्माण करवाया। तरनतारन भी इनमें से एक था। उन्होंने इसका निर्माण प्रदेश के ठीक मध्य में करवाया। अमृतसर की भान्ति तरनतारन भी सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

3. लाहौर में बाऊली का निर्माण-गुरु अर्जन देव जी ने अपनी लाहौर यात्रा के दौरान डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इसके निर्माण से बाऊली के निकटवर्ती प्रदेशों के सिक्खों को एक तीर्थ स्थान की प्राप्ति हुई।

4. हरगोबिन्दपुर तथा छहरटा की स्थापना-गुरु जी ने अपने पुत्र हरगोबिन्द के जन्म की खुशी में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिन्दपुर नामक नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमृतसर के निकट पानी की कमी को दूर करने के लिए एक कुएं का निर्माण करवाया। इस कुएं पर छः रहट चलते थे। इसलिए इसे छहरटा के नाम से पुकारा जाने लगा।

5. करतारपुर की नींव रखना-गुरु जी ने 1539 ई० में जालन्धर दोआब में एक नगर की स्थापना की जिसका नाम करतारपुर रखा गया। यहां उन्होंने एक सरोवर का निर्माण करवाया जो गंगसर के नाम से प्रसिद्ध है।

6. मसन्द प्रथा का विकास-गुरु अर्जन देव जी ने मसन्द प्रथा में सुधार लाने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने सिक्खों को आदेश दिया कि वह अपनी आय का 1/10 भाग आवश्यक रूप से मसन्दों को जमा कराएं। मसन्द वैशाखी के दिन इस राशि को अमृतसर के केन्द्रीय कोष में जमा करवा देते थे। राशि को एकत्रित करने के लिए वे अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने लगे। इन्हे ‘संगती’ कहते थे। दशांश इकट्ठा करने के अतिरिक्त मसन्द उस क्षेत्र में सिक्ख धर्म का प्रचार करते थे।

7. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन करके सिक्खों को एक महान् धार्मिक ग्रन्थ प्रदान किया। गुरु जी ने आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन कार्य रामसर में आरम्भ किया। इस कार्य में भाई गुरदास जी ने गुरु जी को सहयोग दिया। अन्त में 1604 ई० में आदि ग्रन्थ साहिब की रचना का कार्य सम्पन्न हुआ। इस पवित्र ग्रन्थ में उन्होंने अपने से पहले चार गुरु साहिबान की वाणी, फिर भक्तों की वाणी तथा उसके पश्चात् भाटों की वाणी का संग्रह किया।

8. घोड़ों का व्यापार-गुरु जी ने सिक्खों को घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रेरित किया। इससे सिक्खों को निम्नलिखित लाभ हुए :

  • उस समय घोड़ों के व्यापार से बहुत लाभ होता था। परिणामस्वरूप सिक्ख धनी हो गए। अब उनके लिए दसवंद (1/10) देना कठिन न रहा।
  • इस व्यापार से सिक्खों को घोड़ों की अच्छी परख हो गई। यह बात उनके लिए सेना संगठन के कार्य में बड़ी काम आई।

9. धर्म प्रचार कार्य-गुरु अर्जन देव जी ने धर्म-प्रचार द्वारा भी अनेक लोगों को अपना शिष्य बना लिया। उन्होंने अपनी आदर्श शिक्षाओं, सद्व्यवहार, नम्र स्वभाव तथा सहनशीलता से अनेक लोगों को प्रभावित किया। उनके प्रभाव में आकर हज़ारों लोग उनके अनुयायी बन गए। इनमें कुछ मुसलमान भी सम्मिलित थे।

संक्षेप में, इतना कहना ही काफ़ी है कि गुरु अर्जन देव जी के काल में सिक्ख धर्म ने बहुत प्रगति की। आदि ग्रन्थ साहिब की रचना हुई, तरनतारन, करतारपुर तथा छहरटा अस्तित्व में आए तथा हरिमंदर साहिब सिक्ख धर्म की शोभा बन गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 3.
आदि ग्रन्थ साहिब पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब सिक्खों का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। वे इसका ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ कहकर आदर करते हैं। इस ग्रन्थ का संकलन श्री गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
आदि ग्रन्थ साहिब की रचना (संकलन) के कारण-आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन कई कारणों से किया गया-

1. गुरु अर्जन देव जी के पहले के चार गुरु साहिबान की रचनाएं बिखरी पड़ी थीं। गुरु अर्जन देव जी ने इन रचनाओं को सुरक्षित करने के लिए इनका संग्रह आवश्यक समझा।

2. गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथिया ने सिक्ख गुरु साहिबान के नाम पर अनेक गीतों की रचना कर ली थी। अतः एक साधारण सिक्ख के लिए गुरु साहिबान के वास्तविक शबदों को ढूंढ़ना बड़ा कठिन हो गया था। इस बात को ध्यान में रखते हुए गुरु साहिबान की वास्तविक वाणी का संग्रह करना आवश्यक था।

3. गुरु अर्जन देव जी सिक्खों के पथ-प्रदर्शन के लिए कुछ विशेष नियम बनाना चाहते थे। अतः उनके मन में एक नियमपुस्तक तैयार करने का विचार उत्पन्न हुआ।

4. सिक्खों के पास अपनी लिपि तथा भाषा पहले ही थी। अब गुरु अर्जन देव जी ने यह अनुभव किया कि उन्हें उनकी बोलचाल की भाषा में एक धार्मिक ग्रन्थ दिया जाना चाहिए।

आदि ग्रन्थ साहिब की रचना-सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास जी के पुत्र बाबा मोहन गोइन्दवाल साहिब में पहले तीन गुरु साहिबान की रचनाओं को लिपिबद्ध कर रहे थे। यह रचनाएं प्राप्त करने के लिए गुरु अर्जन देव जी स्वयं नंगे पांव चलकर गोइन्दवाल साहिब गए। बाबा मोहन जी गुरु जी की विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सारी वाणी गुरु अर्जन देव जी को सौंप दी। गुरु जी ने अनेक हिन्दू और मुसलमान विद्वानों को भी आदि ग्रन्थ साहिब की रचना में सहायता देने के लिए आमन्त्रित किया।

प्रारम्भिक तैयारी के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर से लगभग पांच मील दक्षिण की ओर एक एकान्त स्थान पर आदि ग्रन्थ साहिब की रचना का कार्य आरम्भ किया। 1604 ई० में यह कार्य मुकम्मल हो गया। इसको अमृतसर के हरिमंदर साहिब में प्रतिष्ठित किया गया। बाबा बुड्डा जी को वहां का पहला मुख्य ग्रन्थी नियुक्त किया गया।

विषय-वस्तु-आदि ग्रन्थ साहिब में पहले पांच सिक्ख गुरु साहिबान की बाणी सम्मिलित है। बाद में गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में गुरु तेग़ बहादुर जी की बाणी भी इसमें शामिल कर ली गई। इसमें कुछ हिन्द्र तथा मुसलमान सन्तों और फ़कीरों तथा प्रसिद्ध भाटों की रचनाएं भी शामिल हैं।

प्रश्न 4.
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान क्यों हुआ ? इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान मुग़ल सम्राट जहांगीर के समय में जून 1606 ई० को हुआ।
कारण-
(1) गुरु साहिब की शहीदी के पीछे मुख्यतः जहांगीर की कट्टर धार्मिक नीति का हाथ था। वह कट्टर मुसलमान था।

(2) गुरु जी द्वारा आदि ग्रन्थ साहिब की रचना ने जहांगीर के सन्देह को और बढ़ा दिया। गुरु जी के शत्रुओं ने जहांगीर को बताया कि आदि ग्रन्थ साहिब में इस्लाम धर्म के विरुद्ध काफ़ी कुछ लिखा गया है। यह सुनकर मुग़ल सम्राट का क्रोध काफ़ी बढ़ गया। उसने श्री गुरु अर्जन देव जी को कठोर शारीरिक कष्ट देने का आदेश जारी कर दिया। बाद में लाहौर के मुसलमान फकीर मियांमीर के प्रयत्नों से इस दण्ड को दो लाख रुपए के जुर्माने में बदल दिया गया। परन्तु गुरु जी ने जुर्माना देना स्वीकार नहीं किया। वह अपने धन का प्रयोग केवल निर्धनों एवं अनाथों की सेवा के लिए ही व्यय करना चाहते थे। अतः मुग़ल सम्राट ने क्रोध में आकर गुरु जी के लिए फिर से मृत्यु दण्ड का आदेश जारी कर दिया। सिक्ख परम्पराओं के अनुसार गुरु जी को क्रूर यातनाएं दी गईं। उनके शरीर पर गर्म रेत डाली गई और उन्हें उबलते पानी में डाला गया। कुछ विद्वानों के अनुसार गुरु जी ने यातनाओं के बीच रावी नदी में स्नान करने की इच्छा प्रकट की और वहां उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

शहीदी की प्रतिक्रिया-गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई :

1. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।

2. गुरु जी की शहीदी से सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहंची और उनके मन में मुस्लिम राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई।

3. इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिये तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

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प्रश्न 5.
गुरु हरगोबिन्द जी की नई नीति का वर्णन करो।
अथवा
श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब की नई नीति की पांच मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के पश्चात् उनके पुत्र हरगोबिन्द जी सिक्खों के छठे गुरु बने। उन्होंने एक नई नीति को जन्म दिया। इस नीति का प्रमुख उद्देश्य सिक्खों को शान्ति-प्रिय होने के साथ निडर तथा साहसी बनाना था। गुरु साहिब द्वारा अपनाई गई नवीन नीति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं:

1. राजसी चिन्ह तथा ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण करना-नवीन नीति का अनुसरण करते हुए गुरु हरगोबिन्द जी ने ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण की तथा अनेक राजसी चिन्ह धारण करने आरम्भ कर दिए। उन्होंने शाही वस्त्र धारण किए और सेली तथा टोपी की जगह दो तलवारें, छत्र और कलगी धारण कर ली। गुरु जी अब अपने अंगरक्षक भी रखने लगे।

2. मीरी तथा पीरी-गुरु हरगोबिन्द जी अब सिक्खों के आध्यात्मिक नेता होने के साथ-साथ उनके सैनिक नेता भी बन गए। वे सिक्खों के पीर भी थे और मीर भी। इन दोनों बातों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पीरी तथा मीरी नामक दो तलवारें धारण की। उन्होंने सिक्खों की शारीरिक उन्नति पर विशेष बल दिया। उन्होंने सिक्खों को व्यायाम करने, कुश्तियां लड़ने, शिकार खेलने तथा घुड़सवारी करने की प्रेरणा दी। इस प्रकार उन्होंने सन्त सिक्खों को सन्त सिपाहियों का रूप भी दे दिया।

3. अकाल तख्त का निर्माण-गुरु जी सिक्खों को आध्यात्मिक शिक्षा देने के अतिरिक्त सांसारिक विषयों में भी उनका पथ-प्रदर्शन करना चाहते थे। हरिमंदर साहिब में वे सिक्खों को धार्मिक शिक्षा देने लगे। परन्तु सांसारिक विषयों में सिक्खों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने हरिमंदर साहिब के सामने एक नया भवन बनाया जिसका नाम अकाल तख्त (ईश्वर की गद्दी) रखा गया। इस प्रकार भवन के अन्दर निर्मित 12 फुट ऊंचे चबूतरे पर बैठकर वे सिक्खों की सैनिक तथा राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने लगे।

4. सेना का संगठन-गुरु हरगोबिन्द जी ने आत्मरक्षा के लिए सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक सम्मिलित थे। माझा के अनेक युद्ध प्रिय लोग गुरु जी की सेना में भर्ती हो गए। मोहसिन फ़ानी के मतानुसार, गुरु जी ने सेना में 800 घोड़े 300,घुड़सवार तथा 60 बन्दूकची थे। उनके पास 500 ऐसे स्वयं सेवक भी थे जो वेतन नहीं लेते थे। इसके अतिरिक्त पैंदे खां नामक पठान के अधीन पठानों की एक पृथक् सेना थी।

5. घोड़ों तथा शस्त्रों का संग्रह-गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन-नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने सिक्खों से आग्रह किया कि जहां तक सम्भव हो वे शस्त्र तथा घोड़े ही भेंट में दे। परिणामस्वरूप गुरु जी के पास काफ़ी मात्रा में सैनिक सामग्री इकट्ठी हो गई।

6. अमृतसर की किलेबन्दी-गुर जी ने सिक्खों की सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृत्सर) के चारों ओर एक दीवार बनवाई । इस नगर में दुर्ग का निर्माण भी किया गया जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस किले में काफ़ी सैनिक सामग्री रखी गई।

7. गुरु जी की दिनचर्या में परिवर्तन-गुरु हरिगोबिन्द जी की नवीन नीति के अनुसार उनकी दिनचर्या में भी कुछ परिवर्तन आए। नई दिनचर्या के अनुसार वे प्रातःकाल स्नान आदि करके हरिमंदर साहिब में धार्मिक उपदेश देने के लिए चले जाते थे और फिर अपने सैनिकों में प्रात:काल का भोजन बांटते थे। इसके पश्चात् वे कुछ समय के लिए विश्राम करके शिकार के लिए निकल पड़ते थे। गुरु जी ने अब्दुल तथा नत्थामल को जोशीले गीत ऊंचे स्वर में गाने के लिए नियुक्त किया। उन्होंने दुर्बल मन को सबल बनाने के लिए अनेक गीत मण्डलियां बनाईं। इस प्रकार गुरु जी ने सिक्खों में नवीन चेतना और नये उत्साह का संचार किया।

8. आत्मरक्षा की भावना-गुरु हरिगोबिन्द जी की नवीन नीति आत्मरक्षा की भावना पर आधारित थी। वह सैनिक बल पर न तो किसी के प्रदेश पर अधिकार करने के पक्ष में थे और न ही किसी पर ज़बरदस्ती आक्रमण करने के पक्ष में थे। यह सच है कि उन्होंने मुग़लों के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े। परन्तु इन युद्धों का उद्देश्य मुग़लों के प्रदेश छीनना नहीं था बल्कि उनसे अपनी रक्षा करना था।

प्रश्न 6.
(क) उन परिस्थितियों का वर्णन करो जो गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी थीं।
(ख) सिक्ख इतिहास में उनकी शहीदी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
(क) परिस्थितियां-गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी निम्नलिखित परिस्थितियों में हुई :

1. सिक्खों और मुग़लों में बढ़ता हुआ विरोध-अकबर के शासनकाल के बाद मुग़लों और सिक्खों के आपसी सम्बन्ध बिगड़ने लगे, परन्तु जहांगीर के समय से मुग़लों और सिक्खों में आपसी शत्रुता शुरू हो गई। जहांगीर ने सिक्ख गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया था। अतः सिक्खों ने भी आत्मरक्षा के लिए शस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिए थे। उनके शस्त्र धारण करते ही मुग़लों तथा सिक्खों में शत्रुता इतनी गहरी हो गई जो आगे चलकर गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का कारण बनी।

2. औरंगजेब की असहनशीलता की नीति-औरंगज़ेब एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने अपनी हिन्दू जनता पर अत्याचार करने शुरु कर दिए और उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने का प्रयास भी किया। औरंगज़ेब द्वारा निर्दोष लोगों पर लगाए जा रहे प्रतिबन्धों ने गुरु तेग़ बहादुर जी के मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे अपनी जान देकर भी इन अत्याचारों से लोगों की रक्षा करेंगे। आखिर उन्होंने यही किया।

3. सिक्ख धर्म का उत्साहपूर्ण प्रचार-गुरु नानक देव जी के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने भी स्थान-स्थान पर भ्रमण करके सिक्ख मत का प्रचार किया। औरंगज़ेब सिक्ख धर्म के इस प्रचार को सहन न कर सका। वह मन ही मन सिक्ख गुरु तेग़ बहादुर जी से ईर्ष्या करने लगा।

4. राम राय की शत्रुता-गुरु हरकृष्ण जी के भाई राम राय ने औरंगजेब से शिकायत की कि गुरु जी का धर्म प्रचार का कार्य राष्ट्र हित के विरुद्ध है। उसकी बातों में आकर औरंगजेब ने गुरु जी को सफ़ाई पेश करने के लिए मुग़ल दरबार में (दिल्ली) बुलाया और जहां गुरु जी ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

5. कश्मीरी ब्राह्मणों की पुकार-कुछ कश्मीरी ब्राह्मण मुग़ल अत्याचारों से तंग आ चुके थे। उन्हें कश्मीर का मुग़ल गवर्नर ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था। उन्होंने गुरु जी से यह प्रार्थना की कि वे उनकी रक्षा करें। ब्राह्मणों की दुःख भरी कहानी सुनकर गुरु जी ने कहा कि इस समय धर्म को बलिदान की आवश्यकता है। अतः उन्होंने ब्राह्मणों से कहा कि वे औरंगजेब से जाकर कहें कि “पहले हमारे गुरु साहिब को मुसलमान बनाओ, फिर हम सब लोग भी आपके धर्म को स्वीकार कर लेंगे।” इस प्रकार आत्म-बलिदान की भावना से प्रेरित होकर गुरु तेग़ बहादुर जी दिल्ली की ओर चल पड़े जहां उन्हें शहीद कर दिया गया।

(ख) शहीदी का महत्त्व-इतिहास में गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के महत्त्व को निम्नलिखित बातों के आधार पर जाना जा सकता है-

1. धर्म के प्रति बलिदान की परम्परा को बनाये रखना-गुरु तेग़ बहादुर जी ने धर्म के प्रति अपने जीवन का बलिदान देकर गुरु साहिबान के बलिदान की परम्परा को बनाए रखा। उनसे पहले गुरु अर्जन देव जी ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था।

2. खालसा की स्थापना- गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान से गुरु गोबिन्द सिंह जी इस परिणाम पर पहुंचे कि जब तक भारत में मुग़ल राज्य रहेगा, तब धार्मिक अत्याचार समाप्त नहीं होंगे। मुग़ल अत्याचारों का सामना करने के लिए उन्होंने 1699 ई में आनन्दपुर साहिब में खालसा की स्थापना की।

3. मुग़लों के विरुद्ध घृणा तथा बदले की भावनाएं-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान से मुग़लों के अत्याचारों के विरुद्ध घृणा तथा बदले की भावनाएं भड़क उठीं।

4. मुग़ल साम्राज्य को धक्का-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने मुग़ल साम्राज्य की नींव हिला दी। गुरु गोबिन्द सिंह जी के वीर खालसा मुग़ल साम्राज्य से निरन्तर जूझते रहे जिससे मुग़लों की शक्ति को भारी धक्का पहुंचा।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 7.
गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन तथा पूर्व खालसा काल में सफलताओं का सक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा
निम्नलिखित पर नोट लिखिए :
(क) भंगानी तथा नादौन के युद्ध
(ख) खालसा की स्थापना।
उत्तर
गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के दसवें तथा अन्तिम गुरु थे। वे अद्भुत प्रतिभा के स्वामी थे। उनमें एक साथ अनेक योग्यताएं विद्यमान् थीं। वह एक महान् आध्यात्मिक नेता जन्मजात सेनानायक, कुशल संगठनकर्ता और प्रतिभाशाली विद्वान् थे। डॉ० इन्दु भूषण बैनर्जी के शब्दों में “गुरु गोबिन्द सिंह जी की गणना सभी युगों के सबसे महान् भारतीयों में की जानी चाहिए। वे नौवें गुरु तेग बहादुर जी के इकलौते पुत्र थे। इनका जन्म 22 दिसम्बर, 1666 ई० को पटना में हुआ। उनके बचपन के 6 वर्ष पटना में व्यतीत हुए।

शिक्षा तथा पिता की शहीदी- 1673 ई० में गुरु तेग बहादुर जी पटना से मक्खोवाल आ गए। वहां गोबिन्द राय जी को घुड़सवारी तथा युद्ध कला की शिक्षा दी गई। इन्होंने अरबी तथा फ़ारसी तथा गुरुमुखी का ज्ञान प्राप्त किया।

गोबिन्द राय अभी 9 वर्ष के ही थे कि इनके पिता गुरु तेग़ बहादुर को हिन्दू धर्म के लिए शहीदी देनी पड़ी। इस शहीदी का गोबिन्द राय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। गुरुगद्दी सम्भालते ही उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए सैनिक तैयारियां आरम्भ कर दी। डॉ० इन्दु भूषण बैनर्जी ने गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन को दो कालों में बांटा है-(क) पूर्व खालसा काल (ख) उत्तर खालसा काल।

(क) पूर्व खालसा काल (1675-1699) –

पूर्व खालसा काल में गुरु जी ने सर्वप्रथम अपनी एक सेना तैयार करनी आरम्भ की और कुछ ही समय में उन्होंने एक शक्तिशाली सेना तैयार कर ली। गुरु जी ने एक नगारा भी बनवाया जिसे रणजीत नगारा के नाम से पुकारा जाता था।

बिलासपुर का राजा भीमचन्द गुरु जी की बढ़ती हुई सैनिक शक्ति से घबरा उठा और वह उनके विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने लगा। श्रीनगर के राजा का ‘बिलासपुर से सम्बन्ध होने से दोनों की शक्ति बढ़ गई। यह बात नाहन के राजा मेदिनी प्रकाश के लिए चिन्ताजनक थी। उसने गुरु जी से सम्बन्ध बढ़ाने चाहे और गुरु जी को अपने यहां आमन्त्रित किया। गुरु जी ने उसके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया। वहां उन्होंने पौण्टा नामक किले का निर्माण करवाया। पौण्टा में गुरु जी ने फिर से सेना का संगठन आरम्भ कर दिया।

भंगानी तथा नादौन के युद्ध-1688 ई० में बिलासपुर के राजा भीमचन्द ने अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिल कर गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। पौण्टा से लगभग 6 मील दूर भंगानी के स्थान पर पहाड़ी राजाओं तथा सिक्खों में घमासान युद्ध हुआ। युद्ध में पठान तथा उदासी सैनिक गुरु जी का साथ छोड़ गए। परन्तु ठीक इसी समय पर सढौरा का पीर बुद्धशाह गुरु जी की सहायता के लिए आ पहुंचा। उनकी सहायता से गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं को बुरी तरह परास्त किया। यह गुरु जी की पहली महत्त्वपूर्ण विजय थी। भंगानी विजय के पश्चात् गुरु जी आनन्दपुर वापस आ गए। उन्होंने आनन्दपुर को अपना कार्य-क्षेत्र बनाया। उन्होंने लोहगढ़, केसगढ़, आनन्दगढ़ तथा फतेहगढ़ नामक चार दुर्गों का निर्माण भी करवाया।

उनकी बढ़ती हुई शक्ति को देखकर भीमचन्द तथा अन्य पहाड़ी राजाओं ने गुरु जी से मित्रता कर लेने में ही अपनी भलाई समझी। अब वे इतने निश्चिन्त हो गए कि उन्होंने मुग़ल सम्राट् को वार्षिक कर देना भी बन्द कर दिया। मुग़ल सम्राट् इसे सहन न कर सका। उसने सरहिन्द के मुग़ल गवर्नर को पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दिया। शीघ्र ही सरहिन्द के मुग़ल-गवर्नर ने अलिफ खां के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं तथा गुरु जी के विरुद्ध एक विशाल सेना भेज दी। कांगड़ा से 20 मील दूर नादौन के स्थान पर घमासान युद्ध हुआ। मुग़ल बुरी तरह पराजित हुए। कुछ समय पश्चात् सरहिन्द के गवर्नर ने गुरु जी के विरुद्ध एक बार फिर सेना भेजी, परन्तु अब भी उसे पराजय ही हाथ लगी। अन्त में औरंगजेब के बेटे राजकुमार मुअज्जम ने मिर्जाबेग के नेतृत्व में एक भारी सेना गुरु जी के विरुद्ध भेजी। गुरु जी ने मिर्जाबेग को भी पराजित कर दिया।

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खालसा की स्थापना-1699 ई० को वैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर साहिब में एक विशाल सभा बुलवाई। इस सभा में लगभग 80 हज़ार लोग शामिल हुए। जब सभी लोग अपने स्थान पर बैठ गए तो गुरु जी ने नंगी तलवार घुमाते हुए कहा-“क्या आप में कोई ऐसा सिक्ख है जो धर्म के लिए अपना सिर दे सके ?” सारी सभा में सन्नाटा छा गया। गुरु जी ने इस वाक्य को तीन बार दोहराया। तब लाहौर निवासी दयाराम ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। गुरु जी उसे शिविर में ले गए और खून से लथपथ तलवार लेकर बाहर आए। एक बार फिर उन्होंने बलिदान की मांग की। इस प्रकार यह मांग बार-बार दोहराई गई। क्रमश: धर्मदास, मोहकम चन्द, साहिब चन्द तथा हिम्मत राय ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। सिक्ख इतिहास में इन पांचों व्यक्तियों को पांच प्यारे’ कह कर पुकारा जाता है। गुरु जी ने दोधारी तलवार (खण्डा) से पाहुल तैयार करके इन पांचों व्यक्तियों को अमृत पान करवाया। इस प्रकार वे ‘खालसा’ कहलाए और सिंह बन गए। गुरु जी ने स्वयं भी उनके हाथों से अमृत पान किया। इस प्रकार वे भी गोबिन्द राय से गोबिन्द सिंह बन गए। गुरु जी द्वारा खालसा की स्थापना के विषय में डॉ० इन्दू बनर्जी ने लिखा है-

“उन्होंने खालसा नामक एक नवीन संगठन को जन्म देकर भारतीय इतिहास में एक सक्रिय शक्ति का समावेश fanelli” (“He brought a new people (Khalsa) into being and released a new dynamic force into the arena of Indian History.”)

प्रश्न 8.
उत्तर खालसा काल में गुरु गोबिन्द सिंह जी की गतिविधियों एवं सफलताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन की 1699 ई० के पश्चात् की अवधि उत्तर खालसा काल के नाम से प्रसिद्ध है। इस काल में गुरु साहिब की गतिविधियों एवं सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

आनन्दपुर साहिब का प्रथम (1701 ई० ) तथा दूसरा युद्ध ( 1703 ई०)-खालसा की स्थापना से पहाड़ी राजा घबरा गए। अतः भीमचन्द ने अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर आनन्दपुर साहिब पर आक्रमण कर दिया। कम सैनिकों के होने पर भी गुरु जी ने उनका डटकर सामना किया। पहाड़ी राजा पराजित हुए। परन्तु कुछ समय पश्चात् पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों से सहायता प्राप्त करके आनन्दपुर साहिब पर एक बार फिर आक्रमण कर दिया। इस बार भी उन्हें कोई सफलता न मिली। विवश होकर उन्हें गुरु जी से सन्धि करनी पड़ी। पहाड़ी राजा सन्धि के बाद भी सैनिक तैयारियां करते रहे। उन्होंने गुजरों को अपने साथ मिला लिया। मुग़ल सम्राट ने भी उनकी, सहायता की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। 1703 ई० में सरहिन्द के गवर्नर वज़ीर खां ने सिक्खों की शक्ति को कुचलने के लिए एक विशाल सेना भेजी। सभी ने मिलकर आनन्दपुर साहिब को घेरा डाल दिया।

गुरु जी ने अपने वीर सिक्खों की सहायता से मुग़लों का डट कर सामना किया। परन्तु अन्त में गुरु जी को आनन्दपुर साहिब छोड़ना पड़ा। मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी का पीछा किया। जब वे सिरसा नदी पार कर रहे थे तो सेना में भगदड़ मच जाने के कारण गुरु जी की माता जी तथा उनके दो छोटे पुत्र जुझार सिंह तथा फतेह सिंह उनसे बिछुड़ गए। गुरु जी के पुराने रसोइए गंगू ने गुरु जी से विश्वासघात किया और गुरु पुत्रों को मुग़लों के हवाले कर दिया। सरहिन्द के सूबेदार वज़ीर खां ने उन्हें मुसलमान बनने को कहा, परन्तु निडर साहिबजादों ने अपना धर्म बदलने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें दीवार में चिनवा दिया गया और वे शहीदी को प्राप्त हुए।

चमकौर साहिब (1704 ई०) तथा खिदराना ( 1705 ई०) के युद्ध-सिरसा नदी को पार करके गुरु जी चमकौर पहुंचे। पहाड़ी राजाओं तथा मुग़ल सेनाओं ने उन्हें यहां भी आ घेरा। उस समय गुरु जी के साथ उनके दो पुत्र अजीत सिंह तथा जोरावर सिंह के अतिरिक्त केवल 40 सिक्ख थे। उन्होंने मुग़लों का डटकर सामना किया। गुरु जी के दोनों पुत्र और 35 सिक्ख सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। सिक्खों के प्रार्थना करने पर गुरु जी अपने 5 साथियों सहित माछीवाड़ा के जंगलों में चले गए। इसके बाद गुरु जी कोटकपूरा पहुंचे। मुग़ल सेना अब भी उनके पीछे थी। इसलिए कोटकपूरा के चौधरी ने गुरु जी को शरण देने से इन्कार कर दिया। गुरु जी वहां से सीधे खिदराना पहुंचे । यहा मुग़लों के साथ उनका अन्तिम युद्ध हुआ। इस युद्ध में वे चालीस सिक्ख भी गुरु जी से आ मिले जो आनन्दपुर साहिब के युद्ध में उनका साथ छोड़ गये थे। इस बार वे बड़ी वीरता से लड़े और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने इन शहीदों को अपनी पिछली भूल के लिए क्षमा कर दिया और उनकी मुक्ति के लिए प्रार्थना भी की । इसलिए खिदराना का नाम ‘श्री मुक्तसर साहिब’ पड़ गया।

ज्योति जोत समाना-गुरु जी ने अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्ष तलवण्डी साबो में व्यतीत किए। 1707 ई० में बहादुरशाह सम्राट् बना। वह गुरु साहिब को अपना मित्र समझता था क्योंकि उत्तराधिकार के युद्ध में गुरु साहिब ने उसकी सहायता की थी। 1708 ई० में गुरु जी बहादुर शाह के साथ दक्षिण की ओर गए। मार्ग में वह कुछ समय के लिए नांदेड नामक स्थान पर ठहरे। यहां एक पठान ने उन पर छुरे से वार कर दिया। अतः 1708 ई० को वे ज्योति जोत समा गए।

इस प्रकार गुरु गोबिन्द सिंह जी का जीवन संघर्ष और बलिदान की एक अनोखी गाथा है। डॉ० हरि राम गुप्ता के शब्दों में, “गुरु साहिब के आदर्श तथा कारनामें उनकी पीढ़ी में ही लोगों के धार्मिक, सैनिक तथा राजनीतिक जीवन में एक परिवर्तन ले आये।”<sup>1</sup>

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प्रश्न 9.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की नींव कैसे रखी ?
अथवा
खालसा पंथ की स्थापना के लिए कौन-सी परिस्थितियां उत्तरदायी थीं ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना 1699 ई० में वैशाखी के दिन की। इसके लिए अनेक परिस्थितियां उत्तरदायी थीं :
(1) गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय में भारत की राजनीतिक दशा बड़ी शोचनीय थी। मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। गुरु जी यह सब देखकर बहुत दु:खी हुए। काफ़ी विचार के पश्चात् वे इस निर्णय पर पहुंचे कि मुग़लों के अत्याचारों से बचने के लिए स्थायी रूप से शस्त्र उठाना आवश्यक है। इसीलिए गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।

(2) भारतीय समाज में अभी बहुत-सी बुराइयां चली आ रही थीं। इनमें से एक बुराई जाति-प्रथा थी। डॉ० गंडा सिंह के मतानुसार जाति-प्रथा राष्ट्रीय एकता के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बन गई थी। कई जातियों के लोगों में काफ़ी अन्तर आ चुका था। इस अन्तर को मिटाने के लिए ही गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।

(3) खालसा की स्थापना से पहले गुरु गोबिन्द सिंह जी पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर अत्याचारी मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते थे। परन्तु शीघ्र ही गुरु जी को यह पता चल गया कि पहाड़ी राजाओं पर विश्वास करना ठीक नहीं है। अनेक अवसरों पर पहाड़ी राजा गुरु जी के विरुद्ध मुग़ल सरकार से जा मिले। ऐसी दशा में औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए अपने सैनिकों का दल होना आवश्यक था। अतः उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की।

(4) खालसा पंथ की स्थापना का एक और कारण सिक्ख धर्म की आन्तरिक दशा भी थी। रामराय और धीरमल के अनुयायी गुरु जी को बहुत तंग कर रहे थे। गुरु तेग़ बहादुर जी भी रामराइयों तथा धीरमल्लियों से तंग आकर आनन्दपुर साहिब चले गए थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी बुरे लोगों से सिक्ख धर्म की रक्षा करना चाहते थे। इसलिए भी उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की।

(5) गुरु अर्जन देव जी के समय में मसन्द भेंट इकट्ठा करने के साथ-साथ प्रचार कार्यों में बड़ी रुचि लेते थे। परन्त धीरे-धीरे मसन्द प्रथा में दोष आ गए। मसन्द भेंट से प्राप्त धन का दुरुपयोग करने लगे थे और अपने आपको स्वतन्त्र समझने लगे थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने यह अनुभव किया कि जब तक इस प्रथा का अन्त नहीं किया जाता तब तक सिक्ख धर्म उन्नति नहीं कर सकता । अतः गुरु जी ने मसन्दों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए नए वर्ग खालसा की स्थापना की।

पांच प्यारों का चुनाव- 1699 ई० में बैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ का निर्माण किया। इस वर्ष उन्होंने बैशाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में सिक्ख धर्म के अनुयायियों की एक महान् सभा बुलाई। इस सभा में विभिन्न प्रदेशों से 80,000 के लगभग लोग इकट्ठे हुए। जब सब लोग सभा में बैठ गए तो गुरु जी सभा में पधारे । उन्होंने तलवार को म्यान से निकाल कर घुमाया और ललकार कर कहा-“कोई ऐसा सिक्ख है जो धर्म के लिए अपना सीस भेंट कर सकता है। यह सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया। अन्त में दयाराम नामक एक क्षत्रिय ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। गुरु जी उसे समीप लगे एक तम्बू में ले गए । तंबू से बाहर आकर उन्होंने एक अन्य बलिदान की मांग की। इस बार दिल्ली निवासी धर्मदास ने अपने आपको भेंट किया। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने यह क्रम तीन बार फिर दोहराया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए क्रमश: मोहकम चन्द, साहिब चन्द तथा हिम्मत राय नामक तीन और व्यक्तियों ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। यहां यह स्पष्ट करना उचित होगा कि गुरु जी ने यह सब कुछ अपने अनुयायियों की परीक्षा लेने के लिए किया था। अन्त में गुरु जी पांचों व्यक्तियों को सभा के सामने लाए और उन्हें पांच प्यारे’ का नाम दिया।

खण्डे का पाहुल-गुरु जी ने पांच प्यारों का चुनाव करने के पश्चात् पांच प्यारों को अमृतपान करवाया जिसे ‘खण्डे का. पाहुल’ कहा जाता है। गुरु जी ने इन्हें आपस में मिलते समय ‘श्री वाहिगुरु जी का खालसा, श्री वाहिगुरु जी की फतेह’ कहने का आदेश दिया। इसी समय गुरु जी ने बारी-बारी पांचों प्यारों की आंखों तथा केशों पर अमृत के छींटे डाले और उन्हें (प्रत्येक प्यारे को) ‘खालसा’ का नाम दिया। सभी प्यारों के नाम के पीछे ‘सिंह’ शब्द जोड़ दिया गया। फिर गुरु जी ने पांच प्यारों के हाथ से स्वयं अमृत ग्रहण किया। इस प्रकार ‘खालसा’ का जन्म हुआ। गुरु जी का कथन था कि उन्होंने यह सब ईश्वर के आदेश से किया है। खालसा की स्थापना के अवसर पर गुरु जी ने ये शब्द कहे-“खालसा गुरु है और गुरु खालसा है। तुम्हारे और मेरे बीच अब कोई अन्तर नहीं है।”

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प्रश्न 10.
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था ?
अथवा
खालसा की स्थापना सिख शक्ति के उत्थान में किस प्रकार सहायक सिद्ध हुई ? किन्हीं पांच तथ्यों के आधार पर इसकी विवेचना कीजिए।
उत्तर-
खालसा की स्थापना सिक्ख इतिहास की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। डॉ० हरिराम गुप्ता के शब्दों में “खालसा की स्थापना देश के धार्मिक तथा राजनीतिक इतिहास की एक युग-प्रवर्तक घटना थी।” (“The creation of the Khalsa was an epoch making event in the religious and political history of the country.”)

इस घटना का महत्त्व निम्नलिखित बातों से जाना जाता है :-
1. गुरु नानक देव जी द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्यों की पूर्ति-गुरु नानक देव जी ने सिक्ख धर्म की नींव रखी थी। उनके सभी उत्तराधिकारियों ने सिक्ख धर्म के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण काम किए। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा का सृजन करके उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्य को सम्पन्न किया।

2. मसन्द प्रथा का अन्त-चौथे गुरु रामदास जी ने मसन्द प्रथा का आरम्भ किया था। कुछ समय तक मसन्दों ने सिक्ख धर्म के प्रचार तथा प्रसार में उल्लेखनीय योगदान दिया। परन्तु गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तक मसन्द लोग स्वार्थी, लोभी तथा भ्रष्टाचारी हो गए। इसलिए गुरु गोबिन्द सिंह जी ने धीरे-धीरे मसन्द प्रथा का अंत कर दिया।

3. खालसा संगतों के महत्त्व में वृद्धि-गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ने खालसा संगत को खण्डे का पाहुल छकाने का अधिकार दिया। उन्हें आपस में मिलकर निर्णय करने का अधिकार भी दिया गया। परिणामस्वरूप खालसा संगतों का महत्त्व बढ़ गया।

4. सिक्खों की संख्या में वृद्धि-गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्खों को अमृत छका कर खालसा बनाया। इसके उपरान्त गुरु साहिब ने यह आदेश दिया कि खालसा के कोई पाँच सिंह अमृत छका कर किसी को भी खालसा में शामिल कर सकते हैं। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होने लगी।

5. सिक्खों में नई शक्ति का संचार-खालसा की स्थापना से सिक्खों में एक नई शक्ति का संचार हुआ। अमृत छकने के बाद वे स्वयं को सिंह कहलाने लगे। सिंह कहलाने के कारण उनमें भय तथा कायरता का कोई अंश न रहा। वे अपना चरित्र भी शुद्ध रखने लगे। इसके अतिरिक्त खालसा जाति-पाति का भेदभाव समाप्त हो जाने से सिंहों में एकता की भावना मज़बूत हुई।

6. मुगलों का सफलतापूर्वक विरोध-गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा का सृजन करके सिक्खों में वीरता तथा साहस की भावनाएं भर दीं। उन्होंने चिड़िया को बाज़ से तथा एक सिक्ख को एक लाख से लड़ना सिखाया। परिणामस्वरूप गुरु जी के सिक्खों ने 1699 ई० से 1708 ई० तक मुग़लों के साथ कई सफलतापूर्वक युद्ध लड़े।

7. गुरु साहिब के पहाड़ी राजाओं से युद्ध-खालसा की स्थापना से पहाड़ी राजा भी घबरा गए। विशेष रूप में बिलासपुर का राजा भीमचन्द गुरु साहिब की सैनिक कार्यवाहियों को देख कर भयभीत हो उठा। उसने कई अन्य पहाड़ी राजाओं से गठजोड़ करके गुरु साहिब की शक्ति को दबाने का प्रयास किया। अतः गुरु साहिब को पहाड़ी राजाओं से कई युद्ध करने पड़े।

8. सिक्ख सम्प्रदाय का पृथक स्वरूप-गुरु गोबिन्द सिंह जी के काल तक सिक्खों के अपने कई तीर्थ-स्थान बन गए थे। उनके लिए पवित्र ग्रन्थ ‘आदि ग्रन्थ’ साहिब का संकलन भी हो चुका था। वे अपने ही ढंग से तीज-त्योहार मनाते थे। अब खालसा की स्थापना से सिक्खों ने पाँच ‘ककारों’ का पालन करना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने बाहरी स्वरूप को भी जन-साधारण से अलग कर लिया।

9. हिन्दू धर्म की रक्षा-औरंगज़ेब हिन्दुओं पर अत्यधिक अत्याचार कर रहा था। खालसा के सिंह इन अत्याचारों का डट कर सामना करने लगे। खालसा से प्रभावित होकर देश के अन्य राज्यों के लोग भी औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म मिटने से बच गया।

10. अन्ध-विश्वासों का अन्त-खालसा हिन्दुओं में प्रचलित अन्ध-विश्वासों को नहीं मानता था। उन्होंने यज्ञ, बलि, व्रत, मूर्ति पूजा तथा अन्य कई अन्ध-विश्वासों से नाता तोड़ लिया। इस प्रकार खालसा की साजना से अंध-विश्वासों तथा अज्ञान का नाश हुआ।

11. सिक्खों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान-खालसा के संगठन से सिक्खों में वीरता, निडरता, हिम्मत तथा आत्म-बलिदान की भावनाएँ जागृत हो उठीं। परिणामस्वरूप उन्होंने गुरु जी के ज्योति जोत समाने के पश्चात् भी मुग़लों से संघर्ष जारी रखा। अंतत: बन्दा बहादुर के नेतृत्व में उन्होंने पंजाब के बहुत-से प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया। बन्दा . बहादुर के बाद सिक्खों को भले ही भयंकर कष्टों और भीषण संकट से गुज़रना पड़ा, तो भी उन्होंने बड़े साहस तथा दृढ़ संकल्प का परिचय दिया। अंतत: पंजाब के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे स्वतन्त्र सिक्ख राज्य (मिसलें) स्थापित हो गए।
सच तो यह है कि खालसा की स्थापना ने ‘सिंहों’ को ऐसा अडिग विश्वास प्रदान किया जिसे कभी भी विचलित नहीं किया जा सकता।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules.

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. टेबल टेनिस खेल की किस्म = दो सिंगल और डबल
  2. टेबल टेनिस मेज़ की लम्बाई और चौड़ाई = 274 × 152.5 सैंटीमीटर
  3. खेलने वाले फर्श की ऊंचाई = 76 सैंटीमीटर
  4. खेलने वाले फर्श से जाल की ऊंचाई = 15.25 सेंटीमीटर
  5. जाल की लम्बाई = 183 सैंटीमीटर
  6. गेंद का वज़न = 2.5 ग्रेन से 2.7 ग्रेन
  7. गेंद किस वस्तु का बना होता है। = सेल्यूलाइड अथवा सफेद प्लास्टिक
  8. गेंद की परिधि = 40 सैंटीमीटर
  9. गेंद का रंग = सफेद
  10. मैच के अधिकारी = 1 रैफ़री, अम्पायर, 1 सहायक, 4 कार्नर जज
  11. गेमों के मध्य अन्तराल = 1 मिनट
  12. मैच के दौरान टाइम आउट = 1 मिनट
  13. रेखाओं की चौड़ाई = 2 सैं०मी०
  14. सतह को विभाजित करने वाली रेखा की चौड़ाई = 3 मि०मी०
  15. मेज़ का आकार = आयताकार
  16. मेज़ का रंग = पक्का हरा

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

टेबल टेनिस खेल की संक्षेप रूप-रेखा (Brief outline of the Table Tennis Game)

  1. टेबल टेनिस के मेज़ की लम्बाई 274 सैंटीमीटर और चौड़ाई 152.5 सैंटीमीटर होती है।
  2. टेबल टेनिस की खेल दो प्रकार की होती है-सिंगल्ज़ तथा डबल्ज़। सिंगल्ज़-इसमें कुल खिलाड़ी दो होते हैं। एक खिलाड़ी खेलता है तथा एक खिलाड़ी अतिरिक्त होता है। डबल्ज़-इसमें चार खिलाड़ी होते हैं, जिनमें से दो खेलते हैं तथा दो खिलाड़ी अतिरिक्त होते हैं।
  3. डबल्ज़ खेल के लिए खेलने की सतह (Playing Surface) को 3 सैंटीमीटर चौड़ी सफ़ेद रेखाओं द्वारा दो भागों में बांटा जाएगा।
  4. टेबल टेनिस की खेल में सिरों तथा सर्विस आदि के चुनाव का फैसला टॉस द्वारा किया जाता है।
  5. टॉस जीतने वाला सर्विस करने का फैसला करता है तथा टॉस हारने वाला सिरे का चुनाव करता है।
  6. सिंगल्ज़ खेल में 2 प्वाइंटों के बाद सर्विस बदल दी जाती है।
  7. मैच की अन्तिम सम्भव गेम में जब कोई खिलाड़ी या जोड़ी पहले 10 प्वाइंट कर ले तो सिरे बदल लिए जाते हैं।
    टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
  8. मैच एक पांच गेमों या सात गेमों में से सर्वोत्तम गेम होता है।
  9. टेनिस के टेबल की लाइनें सफेद होनी चाहिएं।
  10. टैनिस के टेबल का शेष भाग हरा और नीला होना चाहिए।

PSEB 11th Class Physical Education Guide टेबल टेनिस (Table Tennis) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
टेबल टेनिस के मेज़ का आकार कैसा होता है ?
उत्तर-
आयताकार।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
टेबल टेनिस मेज़ की ऊंचाई कितनी होती है ?
उत्तर-
टेबल टेनिस मेज़ की ऊँचाई 76 सेंटीमीटर होती है।

प्रश्न 3.
टेबल टेनिस मेज़ का रंग कैसा होता है ?
उत्तर-
पक्का हरा।

प्रश्न 4.
टेबल टेनिस खेल में कितने अधिकारी होते हैं ?
उत्तर-
रैफरी = 1, अम्पायर = 1, कार्नर जज = 4

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
टेबल टेनिस मैच में टास जीतने वाला खिलाड़ी सर्विस का चयन करता है या साइड का चयन करता
उत्तर-
टास जीतने वाला खिलाड़ी सर्विस या साइड दोनों में से एक का चयन कर सकता है।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB टेबल टेनिस (Table Tennis) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
टेबल टेनिस की खेल के सामान का संक्षेप वर्णन करें।
उत्तर-
मेज़ (Table)-मेज़ आयताकार होता है। इसकी लम्बाई 274 सैंटीमीटर तथा चौड़ाई 152.5 सेंटीमीटर होती है। इसकी ऊपरी सतह फर्श से 76 सैंटीमीटर ऊंची होगी। मेज़ किसी भी पदार्थ से निर्मित हो सकता है, परन्तु उसके धरातल पर 30.5 सेंटीमीटर की ऊंचाई से कोई प्रामाणिक गेंद फैंकने पर एक सार ठप्पा खाएगी जो 22 सैंटीमीटर से कम तथा 25 सैंटीमीटर से अधिक ऊंचा नहीं होना चाहिए। मेज़ के ऊपरी धरातल को क्रीड़ा तल (Playing Surface) कहते हैं। यह गहरे हल्के रंग का होता है। इसके प्रत्येक किनारे 42 सैंटीमीटर चौड़ी श्वेत रेखा होगी, 152.2 सैं० मी० के किनारे वाली रेखाएं अन्त रेखाएं तथा 23.4 सैंटीमीटर किनारे की रेखाएं पार्श्व (साइड) रेखाएं कहलाती हैं। डबल्ज़ खेल में मेज़ की सतह 3 मिलीमीटर चौड़ी सफेद रेखा दो भागों में विभक्त होती है जो साइड रेखा के समान्तर तथा प्रत्येक के समान दूरी पर होती है, इसे केन्द्र रेखा कहते हैं।
Class 11 Physical Education Practical टेबल टेनिस (Table Tennis) 2
जाल (Net) जाल की लम्बाई 183 सैं० मी० होती है। इसका ऊपरी भाग क्रीड़ा तल (Playing Surface) से 15.25 सैं० मी० ऊंचा होता है। यह रस्सी द्वारा 15.25 सैं० मी० ऊंचे सीधे खड़े डण्डों से बांधा होता है। प्रत्येक डण्डे की बाहरी सीमा उसी पार्श्व रेखा अर्थात् 15.25 सैंटीमीटर से बाहर की ओर होती है।

गेंद (Ball)-गेंद गोलाकार होती है। यह सैल्यूलाइड अथवा प्लास्टिक की सफ़ेद पीली परन्तु प्रतिबिम्बहीन होती है। इसका व्यास 37.2 मिलीमीटर से कम तथा 40 मि० मी० से अधिक नहीं होता। इसका भार 2.5 ग्रेन से कम तथा 2.7 ग्रेन से अधिक नहीं होता।
रैकेट (Racket) रैकेट किसी भी आकार या भार का हो सकता है। इसका तल गहरे रंग का होना चाहिए। यह खेल 21 अंक का होता है।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
टेबल टेनिस खेल में निम्नलिखित से आपका क्या भाव है ?
(1) टेबल का कम
(2) बाल खेल में
(3) अच्छी सर्विस
(4) अच्छी वापिसी
(5) लैट।
उत्तर-
खेल का क्रम (Order of Play) एकल (Single) खेल में सर्विस करने वाला (सर्वर) लगातार पांच वार सर्विस करता है, चाहे उसका अंक बने या न बने। उसके पश्चात् सर्विस दूसरे खिलाड़ी को मिलती है। इस तरह उसे भी पांच सर्विस करने का हक मलता है। इस तरह हर पांच सर्विस करने के बाद सर्विस में तबदीली होती है।
Class 11 Physical Education Practical टेबल टेनिस (Table Tennis) 3
दोकल (Double)-खेल में सर्वर सर्विस करता है तथा रिसीवर अच्छी वापसी करेगा। सर्वर का साथी फिर बढ़िया वापसी करेगा और बारी-बारी प्रत्येक खिलाड़ी उसी क्रम से बढ़िया वापसी करेंगे।

उत्कृष्ट (अच्छी) सर्विस (Good Service)-सर्विस में गेंद का सम्पर्क करता हुआ मुक्त हाथ खुला, अंगुलियां जुड़ी हुईं तथा अंगूठा मुक्त रहेगा और क्रीड़ा तल के लेवल के द्वारा सर्वर गेंद को ला कर हवा में इस प्रकार सर्विस शुरू करेगा कि गेंद हर समय निर्णायक को नज़र आए।
गेंद फिर इस प्रकार प्रहारित होगी कि सर्वप्रथम सर्वर का स्पर्श करके सीधे जाल के ऊपर या आस-पास पार करती हुई पुनः प्रहारक के क्षेत्र का स्पर्श कर ले।

दोकल (Double)-खेल में गेंद पहले सर्वर का दायां अर्द्धक या उसके जाल की ओर की केन्द्र रेखा स्पर्श करके जाल के आस-पास या सीधे ऊपर से गुज़र कर प्रहारक के दायें अर्द्धक या उसके जाल की ओर केन्द्र रेखा स्पर्श करे।

उत्कृष्ट (अच्छी) वापसी (A Good Return)-सर्विस या निवर्तन (Return) की हुई गेंद खिलाड़ी द्वारा इस प्रकार प्रहारित की जाएगी कि वह सीधे जाल को पार करके या चारों ओर पार करके विरोधी के क्षेत्र को स्पर्श कर ले।
बाल खेल में (Ball in Play)-सर्विस में हाथ द्वारा आगे को बढ़ाने के क्षण में गेंद खेल में मानी जाएगी जब तक कि—

  1. गेंद एक क्षेत्र में दो बार स्पर्श नहीं कर लेती।
  2. वह किसी खिलाड़ी को या उसके वस्त्र को छू नहीं लेती।
  3. वह किसी खिलाड़ी द्वारा एक से अधिक बार लगातार प्रहारित नहीं हो जाती।
  4. सर्विस को छोड़ कर वह प्रत्येक क्षेत्र को रैकेट तुरन्त प्रहारित किए बिना एकान्तर से स्पर्श नहीं कर लेती।
  5. बिना टप्पा खाए आती है।
  6. वह जाल तथा उसकी टेकों (Supports) को छोड़ कर किसी अन्य वस्तु से छू जाए।
  7. दोकल (Double) खेल की सर्विस में सर्वर या रिसीवर की बाईं कोर्ट को छू ले।
  8. डबल्ज़ खेल में यदि टीम से बाहर के खिलाड़ी ने प्रहार किया हो।

लैट (Let)-विराम लैट होता है—

  1. अच्छी सर्विस होने पर गेंद यदि जाल पार करते समय जाल या उसकी टेकों को छू जाती है।
  2. जब सर्विस प्राप्तकर्ता या उसके साथी के तैयार न होने की अवस्था में सर्विस कर दी जाए।
  3. यदि किसी दुर्घटना के कारण कोई खिलाड़ी अच्छी सर्विस या रिटर्न करने से रुक जाता है।
  4. यदि किसी त्रुटि को दूर करने के लिए खेल रोका जाता है।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
टेबल टेनिस खेल में अंक कैसे मिलते हैं और खिलाड़ी कैसे विजय होता है ?
उत्तर-
अंक (Points)-नियम 9 में दी गई स्थिति को छोड़ कर कोई भी खिलाड़ी अंक खो देगा—

  1. यदि वह अच्छी सर्विस करने में असफल रहता है।
  2. यदि विपक्षियों में से किसी एक द्वारा सर्विस या अच्छी रिटर्न होते पर वह अच्छी रिटर्न में असफल हो जाए।
  3. यदि किसी खिलाड़ी या गेंद के खेल में रहते हुए क्रीड़ा तल को हिला दे।
  4. यदि उसका मुक्त हाथ गेंद के खेल में रहते हुए क्रीड़ा तल का स्पर्श कर ले।
  5. यदि गेंद खेल में आने से पूर्व अन्त रेखा या पार्श्व रेखा पार करती हुई उनकी ओर की मेज़ के क्रीड़ा तल को स्पर्श नहीं कर पाई है।
  6. यदि गेंद बिना टप्पा खाये लौटता है।
  7. दोकल खेल (Double) में यदि वह उचित अनुक्रम के बिना गेंद को प्रहारित नहीं करता।

जब कोई खिलाडी सर्विस करता है या कोई स्ट्रोक मारता है तो उसकी तरफ से खेली गई गेंद विरोधी तरफ से टप्पा खाने की बजाए सीधी उसके रैकेट को लगती है तो उस अवस्था में टेकन होता है जो अंक या स्ट्रोक मारने वाले को मिलता है।

खेल (Game)-खेल उस खिलाड़ी या जोड़े द्वारा जीती हुई मानी जाएगी जो पहले 11 अंक बना लेगा। यदि दोनों खिलाड़ी जोड़े 10 अंक बना लेते हैं तो उस वक्त दोनों खिलाड़ी या जोड़े को क्रमवार एक-एक सर्विस करने के लिए सुचेत किया जाता है जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले दो अंक विरोधी से अधिक बना लेगा वह विजयी कहलाएगा।

मैच (Match)-मैच एक गेम, तीन गेम या पांच गेम का होगा। खेल निरन्तर जारी रहेगा, जब तक कोई खिलाड़ी या युगल विश्राम के लिए नहीं कहता। यह विश्राम पांच खेल वाले में से तीसरी और चौथी खेल के बीच पांच मिनट से अधिक नहीं होगा। अन्तरवर्ती क्षेत्रों में विश्राम एक मिनट से अधिक नहीं होगा।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 4.
टेबल टेनिस में दिशा और सर्विस का चुनाव कैसे होता है ? दिशा परिवर्तन कैसे होता है ? सर्विस और रसीव करने की ग़लतियों पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
दिशा और सर्विस का चुनाव (Selection of side and service)-प्रत्येक मैच में दिशा का चुनाव तथा सर्वर या प्रहारक बनने का अधिकार चुनता है तो विपक्षी को दिशा चुनने का अधिकार होगा। यह रीति विपरीत क्रम में भी रहेगी। टॉस जीतने वाला यदि चाहे तो विपक्षी को प्रथम चयन का अधिकार दे सकता है।

दोकल (Double)-खेल में जिस जोड़े को पहले सर्विस करने का अधिकार होगा वह निश्चित करेगा कि किस साथी को ऐसा करना है। इसी प्रकार मैच के प्रथम खेल में विपक्षी जोड़ा भी यह निश्चित करेगा कि किस साथी खिलाड़ी ने पहले सर्विस प्राप्त करनी है।

दिशा परिवर्तन तथा सर्विस
(Change of Ends and Service)
खेल में एक दिशा से प्रारम्भ करने वाला खिलाड़ी या जोड़ा उससे अगले खेल में दूसरी ओर से प्रारम्भ करेगा। यह क्रम मैच के अन्त तक जारी रहेगा। मैच के अन्तिम खेल में जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले 5 फलांकन बना लेगा वह दिशा परिवर्तन कर सकता है। एकल (Single) खेल में 2 अंक के पश्चात् रिसीवर सर्वर बन जाएगा और सर्वर रिसीवर और यही क्रम मैच के अन्त तक जारी रहेगा (नीचे दी हुई स्थिति को छोड़ कर)।

दोकल खेल में पहली 2 सर्विस उस जोड़े के चुने हुए साथी द्वारा होगी जिन्हें निर्णय का अधिकार या विपक्षी जोड़े के चुने हुए साथी द्वारा प्राप्त की जाएगी। दूसरी 2 सर्विस, प्रथम 2 सर्विस प्राप्त करने वाला प्रहार करेगा तथा पहली 2 सर्विस करने वाला सर्वर उन्हें प्राप्त करेगा। तीसरी 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस करने वाला सर्वर का साथी करेगा तथा प्रथम 2 सर्विस प्राप्त करने वाला प्रहारक का साथी उन्हें प्राप्त करेगा। चौथी 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस करने वाला प्रहारक का साथी करेगा तथा प्रथम 2 सर्विस करने वाला सर्वर उन्हें प्राप्त करेगा। पांचवीं 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस के समान संक्रमिन होगी। खेल इसी क्रम में जारी रहेगा जब तक खेल समाप्त नहीं हो (नीचे दी हुई स्थिति को छोड़ कर) जाता।

फलांकन के 10 अंक होने पर या खेल के एकस्पिडाइट पद्धति के अन्तर्गत खेले जाने पर सर्विस और प्रहार करने का क्रम वही रहेगा, किन्तु खेल के अन्त तक प्रत्येक खिलाड़ी बारी-बारी से केवल एक सर्विस करेगा जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले खेल में सर्विस करेगा वह उससे अगले खेल में सर्विस प्राप्त करेगा।

‘दोकल’ मैच के अन्तिम खेल में 5 फलांकन पर जोड़े दिशा परिवर्तन कर लेंगे। इस तरह सिगल्ज़ में भी अन्तिम गेंद में 10 अंक खेलने के बाद दिशा बदल जाती है।

दिशा में सर्विस अनियमतता (Out of orders of Ends of Service) यदि कोई खिलाड़ी समय पर दिशा परिवर्तन नहीं करते तो वे त्रुटि ज्ञात होते ही दिशाएं बदलेंगे, जब तक कि त्रुटि के बाद खेल समाप्त न हो चुका हो। तब त्रुटि की उपेक्षा कर दी जाएगी। किसी भी परिस्थिति में त्रुटि ज्ञात होने से पूर्व वे सब बनाए हुए अंक माने जाएंगे।

यदि कोई खिलाड़ी अपनी बारी के बिना सर्विस करता है तो त्रुटि ज्ञात होते ही खेल रोक दिया जाएगा और खेल उस खिलाड़ी की सर्विस या प्राप्ति द्वारा पुनः जारी किया जाएगा जिस खेल के प्रारम्भिक क्रम के अनुसार करनी चाहिए थी या फलांकन के 5 पर पहुंचने पर। यदि नियम 14 के अंतर्गत उस क्रम में परिवर्तन हो गया तो उसी क्रम के अनुसार उसे सर्विस करनी या प्राप्त करनी चाहिए। किसी भी परिस्थिति में त्रुटि होने से पूर्व के सब बनाये हुए अंक माने जाएंगे।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में बांटे जाने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के चार रूप हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी व दासता।

प्रश्न 3.
सामाजिक स्तरीकरण के तत्त्वों के नाम लिखो।
उत्तर-
यह सर्वव्यापक है, यह सामाजिक है, इसमें असमानता होती है तथा प्रत्येक समाज में इसका अलग आधार होता है।

प्रश्न 4.
जागीर व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
मध्यकालीन यूरोप की वह व्यवस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीरदार बनाकर उसे लगान एकत्र करने की आज्ञा दी जाती थी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 5.
शब्द ‘जाति’ कहां से लिया गया है ?
उत्तर-
शब्द जाति (Caste) स्पैनिश तथा पुर्तगाली शब्द Caste से निकला है जिसका अर्थ है प्रजाति या वंश।

प्रश्न 6.
वर्ण व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज की वह व्यवस्था जिसमें समाज को पेशे के आधार पर चार भागों में विभाजित कर दिया जाता था।

प्रश्न 7.
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्धता स्थितियों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्राचीन समय के हिन्दू समाज के चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र।

प्रश्न 8.
छुआ-छूत से तुम क्या समझते हो ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था के समय अलग-अलग जातियों को एक-दूसरे को स्पर्श करने की मनाही थी जिसे अस्पृश्यता कहते थे।

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प्रश्न 9.
कुछ सुधारकों के नाम लिखो जिन्होंने छुआ छूत के खिलाफ विरोध प्रकट किया ।
उत्तर-
राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फूले, महात्मा गांधी, डॉ० बी० आर० अंबेदकर इत्यादि।

प्रश्न 10.
वर्ग क्या है ?
उत्तर-
वर्ग लोगों का वह समूह है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है जैसे कि पैसा, पेशा, सम्पत्ति इत्यादि।

प्रश्न 11.
वर्ग व्यवस्था के किस्सों के नाम लिखो।
उत्तर-
मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग पाए जाते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग।

प्रश्न 12.
मार्क्स ने कौन-से वर्गों का वर्णन किया है ?
उत्तर-
पूंजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग।

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II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक असमानता क्या है ?
उत्तर-
जब समाज के सभी व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के मौके प्राप्त न हों, उनमें जाति, जन्म, प्रजाति, रंग, पैसा, पेशे के आधार पर अंतर हो तथा अलग-अलग समूहों में अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता हो तो इसे असमानता का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. जाति-जाति स्तरीकरण का एक रूप है जिसमें अलग-अलग जातियों के बीच स्तरीकरण पाया जाता है।
  2. वर्ग-समाज में बहुत से वर्ग पाए जाते हैं तथा उनमें अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा व्यक्ति योग्यता होते हुए भी इसे बदल नहीं सकता है।
  2. जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था तथा अलग-अलग जातियों के बीच विवाह करवाने की पांबदी थी।

प्रश्न 4.
अन्तर्विवाह क्या है ?
उत्तर-
अन्तर्विवाह विवाह करवाने का ही एक प्रकार है जिसके अनुसार व्यक्ति को अपने समूह अर्थात् जाति या उपजाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस कारण सभी अपने समूह में ही विवाह करवाते थे।

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प्रश्न 5.
प्रदूषण तथा शुद्धता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का क्रम पवित्रता तथा अपवित्रता के संकल्प के साथ जुड़ा हुआ था। इसका अर्थ है कि कुछ जातियों को परंपरागत रूप से शुद्ध समझा जाता था तथा उन्हें समाज में उच्च स्थिति प्राप्त थी। कुछ जातियों को प्रदूषित समझा जाता था तथा उन्हें सामाजिक व्यवस्था में उन्हें निम्न स्थान प्राप्त था।

प्रश्न 6.
औद्योगीकरण तथा नगरीकरण पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
औद्योगीकरण का अर्थ है देश में बड़े-बड़े उद्योगों का बढ़ाना। जब गांवों के लोग नगरों की तरफ जाएं तथा वहां रहने लग जाए तो इस प्रक्रिया को नगरीकरण कहा जाता है। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रक्रिया ने जाति व्यवस्था को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

प्रश्न 7.
वर्ग व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतना होती है कि उसका पद अथवा सम्मान दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है।
  2. इसमे लोग अपनी ही श्रेणी के सदस्यों के साथ गहरे संबंध रखते हैं तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उनके संबंध सीमित होते हैं।

प्रश्न 8.
नई मध्यम वर्ग पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
पिछले कुछ समय से समाज में एक नया मध्य वर्ग सामने आया है। इस वर्ग में डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर, अध्यापक, छोटे-मोटे व्यापारी, नौकरी पेशा लोग होते हैं। उच्च वर्ग इस मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।

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III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  1. स्तरीकरण एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है। कोई भी मानवीय समाज ऐसा नहीं जहां स्तरीकरण की प्रक्रिया न पाई जाती हो।
  2. स्तरीकरण में समाज के प्रत्येक सदस्य की स्थिति समान नहीं होती। किसी की स्थिति उच्च तथा किसी
    की निम्न होती है।
  3. स्तरीकरण में समाज का विभाजन विभिन्न स्तरों में होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती है। वर्गों में उच्चता निम्नता के संबंध होते हैं।
  4. चाहे इसमें अलग-अलग स्तरें होती हैं परन्तु उन स्तरों में आपसी निर्भरता भी पाई जाती है।

प्रश्न 2.
किस प्रकार वर्ग सामाजिक स्तरीकरण से संबंधित है ?
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण से वर्ग हमेशा ही संबंधित रहा है। अलग-अलग समाजों में अलग-अलग वर्ग पाए जाते हैं। चाहे प्राचीन समाज हों या आधुनिक समाज, इनमें अलग-अलग आधारों पर वर्ग पाए जाते हैं। यह आधार पेशा, पैसा, जाति, धर्म, प्रजाति, भूमि इत्यादि होते हैं। इन आधारों पर कई प्रकार के वर्ग मिलते हैं।

प्रश्न 3.
जाति तथा वर्ग व्यवस्था में अंतर बताइए।
उत्तर-

वर्ग- जाति-
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी।
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी।
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं।
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी।
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है।

प्रश्न 4.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के चार कारक लिखो।
उत्तर-

  1. भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
  2. भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
  3. देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
  4. नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 5.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख रूपों के रूप में जाति तथा वर्ग के बीच अंतर बताइए।
उत्तर-

वर्ग- जाति-
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी।
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी।
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं।
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी।
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है।

 

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
स्तरीकरण को परिभाषित करो। सामाजिक स्तरीकरण की क्या विशेषताएं हैं ?
उत्तर-
जिस प्रक्रिया के द्वारा हम व्यक्तियों तथा समूहों को स्थिति पदक्रम के अनुसार स्तरीकृत करते हैं उसको स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। शब्द स्तरीकरण अंग्रेजी भाषा के शब्द Stratification का हिन्दी रूपान्तर है जिसमें strata का अर्थ है स्तरें (Layers) । इस शब्द की उत्पत्ति लातीनी भाषा के शब्द Stratum से हुई है। इस व्यवस्था के द्वारा सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए अलग-अलग स्तरों में बांटा हुआ है। कोई भी दो व्यक्ति, स्वभाव या किसी और पक्ष से, एक समान नहीं होते हैं। इस असमानता की वजह से उनमें कार्य करने की योग्यता का गुण भी अलग होता है। इस वजह से असमान गुणों वाले व्यक्तियों को अलग-अलग वर्गों में बांटने से हमारा समाज व्यवस्थित रूप से कार्य करने लग जाता है। व्यक्ति को विभिन्न स्तरों में बांट कर उनके बीच उच्च या निम्न सम्बन्धों का वर्णन किया जाता है। चाहे उनकी स्थिति के आधार पर सम्बन्ध उच्च या निम्न होते हैं परन्तु फिर भी वह एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इस उच्चता तथा निम्नता की अलग-अलग वर्गों में विभाजन को स्तरीकरण कहा जाता है।

अलग-अलग समाजों में स्तरीकरण भी अलग-अलग पाया जाता है। ज्यादातर व्यक्तियों को पैसे, शक्ति, सत्ता के आधार पर अलग किया जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ अलग-अलग सामाजिक समूहों को अलग-अलग भागों में बांटने से होता है। सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने दी है जिसका वर्णन इस प्रकार है-

1. किंगस्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “सामाजिक असमानता अचेतन रूप से अपनाया गया एक ऐसा तरीका है जिसके द्वारा विभिन्न समाज यह विश्वास दिलाते हैं कि सबसे ज्यादा पदों को चेतन रूप से सबसे ज्यादा योग्य व्यक्तियों को रखा गया है। इसलिए प्रत्येक समाज में आवश्यक रूप से असमानता तथा सामाजिक स्तरीकरण रहना चाहिए।”

2. सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज की जनसंख्या का उच्च तथा निम्न पदक्रमात्मक तौर पर ऊपर आरोपित वर्गों में विभेदीकरण से है। इसको उच्चतम तथा निम्नतम सामाजिक स्तरों के विद्यमान होने के माध्यम से प्रकट किया जाता है। इस सामाजिक स्तरीकरण का सार तथा आधार समाज विशेष के सदस्यों में अधिकार तथा सुविधाएं, कर्तव्यों तथा ज़िम्मेदारियों, सामाजिक कीमतों तथा अभावों, सामाजिक शक्तियों तथा प्रभावों के असमान वितरण से होता है।”

3. पी० गिज़बर्ट (P.Gisbert) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसे स्थायी समूहों या वर्गों में बाँटने की व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सभी समूह उच्चता तथा अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च तथा निम्न अलग-अलग समूहों तथा व्यक्तियों की भूमिकाओं तथा पदों को निर्धारित करता है। इसमें जन्म, जाति, पैसा, लिंग, शक्ति इत्यादि के आधार पर तथा व्यक्तियों में पाए जाने वाले पदक्रम को दर्शाया जाता है। विभिन्न समूहों में उच्चता तथा निम्नता के सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा व्यक्ति की स्थिति का समाज में निश्चित स्थान होता है। इसी के आधार पर व्यक्ति को समाज में सम्मान प्राप्त होता है।

स्तरीकरण की विशेषताएं या लक्षण (Features or Characteristics of Stratification)-

1. स्तरीकरण सामाजिक होता है (Stratification is Social) विभिन्न समाजों में स्तरीकरण के आधार अलग-अलग होते हैं। जब भी हम समाज में पाई जाने वाली चीज़ को दूसरी चीज़ से अलग करते हैं तो जब तक उस अलगपन को समाज के बाकी सदस्य स्वीकार नहीं कर लेते उस समय तक उस विभिन्नता को स्तरीकरण का आधार नहीं माना जाता। कहने का अर्थ है कि जब तक समूह के व्यक्ति स्तरीकरण को निर्धारित न करें उस समय तक स्तरीकरण नहीं पाया जा सकता। हम स्तरीकरण को उस समय मानते हैं जब समाज के सभी सदस्य असमानताओं को मान लेते हैं। इस तरह सभी के मानने के कारण हम कह सकते हैं कि स्तरीकरण सामाजिक होता

2. स्तरीकरण सर्वव्यापक प्रक्रिया है (Stratification is a Universal Process)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया हरेक समाज में पाई जाती है। यदि हम प्राचीन भारतीय कबाइली या किसी और समाज की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि कुछ न कुछ भिन्नता तो उस समय भी पाई जाती थी। लिंग की भिन्नता तो प्राकृतिक है जिसके आधार पर व्यक्तियों को बाँटा जा सकता है। आधुनिक तथा जटिल समाज में तो स्तरीकरण के कई आधार हैं। कहने का अर्थ यह है कि स्तरीकरण के आधार चाहे अलग-अलग समाजों में अलग-अलग रहे हैं, परन्तु स्तरीकरण प्रत्येक समाज में सर्वव्यापक रहा है। .

3. अलग-अलग वर्गों की असमान स्थिति (Inequality of status of different classes)-सामाजिक स्तरीकरण में व्यक्तियों की स्थिति या भूमिका समान नहीं होती है। किसी की सब से उच्च, किसी की उससे कम तथा किसी की बहुत निम्न होती है। व्यक्ति की स्थिति सदैव एक समान नहीं रहती। उसमें परिवर्तन आते रहते हैं। कभी वह उच्च स्थिति पर पहुंच जाता है तथा कभी निम्न स्थिति पर। कहने का अर्थ है कि व्यक्ति की स्थिति में असमानता पाई जाती है। यदि किसी की स्थिति पैसे के आधार पर उच्च है तो किसी की इस आधार पर निम्न होती है।

4. उच्चता तथा निम्नता का सम्बन्ध (Relation of Upper and Lower Class)-स्तरीकरण में समाज को विभिन्न स्तरों में बांटा होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती हैं। मुख्य रूप से समाज को दो भागों में बांटा होता है-उच्चतम तथा निम्नतम । समाज में एक तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति उच्च होती है तथा दूसरी तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति निम्न होती है। इनके बीच भी कई वर्ग स्थापित हो जाते हैं जैसे कि मध्यम उच्च वर्ग, मध्यम निम्न वर्ग। परन्तु इनमें उच्च तथा निम्न का सम्बन्ध ज़रूर होता है।

5. स्तरीकरण अन्तक्रियाओं को सीमित करती है (Stratification restricts interaction)-स्तरीकरण की प्रक्रिया में अन्तक्रियाएं विशेष स्तर तक ही सीमित होती हैं। साधारणतः हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही सम्बन्ध स्थापित करता है। इस वजह से वह अपने दिल की बात उनसे share करता है। व्यक्ति की मित्रता भी उसके अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही होती है। इस प्रकार व्यक्ति की अन्तक्रिया और स्तरों के सदस्यों के साथ नहीं बल्कि अपनी ही स्तर के सदस्यों के होती है। कई बार व्यक्ति दूसरी स्तर के सदस्यों से सम्पर्क रख कर अपने आप को adjust नहीं कर सकता।

6. स्तरीकरण प्रतियोगिता की भावना को विकसित करती है (It develops the feeling of competition)-स्तरीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति में परिश्रम तथा लगन की भावना पैदा करती है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में चेतन होता है। वह हमेशा आगे बढ़ने की कोशिश करनी शुरू कर देता है क्योंकि उसको अपने से उच्च स्थिति वाले व्यक्ति नज़र आते हैं। व्यक्ति अपनी योग्यता का प्रयोग करके प्रतियोगिता में आगे बढ़ना चाहता है। इस प्रकार व्यक्ति की उच्च स्तर के लिए पाई गई चेतनता व्यक्ति में प्रतियोगिता की भावना पैदा करती है। प्रत्येक व्यक्ति में अपने आप को समाज में ऊँचा उठाने की इच्छा होती है तथा वह अपने परिश्रम के साथ अपनी इच्छा पूर्ण कर सकता है। वह परिश्रम करता है तथा और वर्गों के व्यक्तियों के साथ प्रतियोगिता करता है। इस तरह वह अपने आप को ऊँचा उठा सकता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के बारे में विस्तृत रूप में विचार विमर्श करो।
उत्तर-
1. वर्ण स्तरीकरण (Varna Stratification)-वर्ण स्तरीकरण में जातीय भिन्नता तथा व्यक्ति की योग्यता तथा स्वभाव काफ़ी महत्त्वपूर्ण आधार है। शुरू में भारत में आर्य लोगों के आने के बाद भारतीय समाज दो भागों आर्यों तथा दस्यु या original inhabitants में बंट गया था। बाद में आर्य लोग, जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, अपने गुणों तथा स्वभाव के आधार पर चार वर्णों में विभाजित हो गए। इस तरह समाज चार वर्णों या चार हिस्सों में बंट गया था तथा स्तरीकरण का यह स्वरूप हमारे सामने आया। इस पदक्रम में ब्राह्मण की स्थिति सबसे उच्च होती थी। इस व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण का कार्य निश्चित तथा एक-दूसरे से भिन्न थे। वर्ण व्यवस्था का आरम्भिक रूप जन्म पर आधारित नहीं था बल्कि व्यक्ति के गुणों पर आधारित था जिसमें व्यक्ति अपने गुणों तथा आदतों को बदल कर अपना वर्ण परिवर्तित कर सकता था। परन्तु वर्ण बदलना एक कठिन कार्य था जिसे आसानी से नहीं बदला जा सकता था।

2. दासता या गुलामी का स्तरीकरण (Slavery Stratification)-दास एक मनुष्य होता है जो किसी और मनुष्य के पूरी तरह नियन्त्रण में होता है। वह अपने मालिक की दया पर जीता है जिसे कोई अधिकार भी नहीं होता. है। मालिक कुछ एक मामलों में उसकी सुरक्षा करता है जैसे कि उसे किसी और का दास बनने से रोकना। परन्तु वह अधिकारविहीन व्यक्ति होता है जिसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है। वह पूरी तरह अपने मालिक की सम्पत्ति माना जाता है। इस तरह दास प्रथा वाले समाजों में बहुत ज्यादा असमानता पाई जाती है। अमेरिका, अफ्रीका इत्यादि महाद्वीपों में यह प्रथा 19वीं शताब्दी में पाई जाती थी। इसमें दास अपने मालिक के अधीन होता था तथा मालिक उसे किसी और के हाथों बेच भी सकता था। दास एक तरह से मालिक की सम्पत्ति था। दास की इस निम्न स्थिति की वजह से उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे जिस वजह से उसे समाज में कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। क्योंकि वह मालिक के अधीन होता था जिस वजह से मालिक उससे कठोर परिश्रम करवाता था तथा वह करने को मजबूर था। दासों को खरीदा तथा बेचा भी जाता था।

आधुनिक समय आते-आते दास प्रथा का विरोध होने लग गया जिस वजह से यह प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो गई तथा दासों ने किसानों का रूप ले लिया परन्तु इन समाजों में दास तथा मालिक के रूप में स्तरीकरण पाया जाता था।

3. सामन्तवाद (Feudalism)—दास प्रथा के साथ-साथ सामन्तवाद भी सामने आया। सामन्त लोग बहुत सारी ज़मीन के टुकड़े के मालिक होते थे तथा वह अपनी ज़मीन खेती करने के लिए और लोगों को या तो किराए पर दिया करते थे या पैदावार का बंटवारा करते थे। मध्य काल में तो सामन्त प्रथा को यूरोप में कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त थी। प्रत्येक सामन्त की एक विशेष स्थिति, विशेषाधिकार तथा कर्त्तव्य हुआ करते थे। उस समय में ज़मीन पर कृषि करने वाले लोगों के अधिकार काफ़ी कम हुआ करते थे। वह न्याय प्राप्त नहीं कर सकते थे तथा सामन्तों के रहमोकरम पर निर्भर होते थे। इस समय में श्रम विभाजन भी होता था। सामन्त प्रथा में सरदारों तथा पुजारियों के हाथ में सत्ता होती थी। भारत में ज़मींदार तो थे, परन्तु सामन्त प्रथा के लक्षण जाति प्रथा की वजह से नहीं थे। भारत में पाए जाने वाले ज़मींदार यूरोप में पाए जाने वाले सामन्तों से भिन्न थे। भारत के ज़मींदार प्रजा से राजा के लिए कर उगाहने का कार्य करते थे तथा ज़रूरत पड़ने पर राजा को अपनी सेना भी देते थे। जब राजा कमज़ोर हो गए तो बहुत सारे ज़मींदारों तथा सामन्तों ने अपने अलग-अलग राज्य स्थापित कर लिए। इस तरह ज़मींदारी प्रथा या सामन्तवाद के समय भी सामाजिक स्तरीकरण समाज में पाया जाता था।

4. नस्ली स्तरीकरण अथवा प्रजातीय स्तरीकरण (Racial Stratification)-अलग-अलग समाजों में नस्ल के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में बांटा हुआ होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-काकेशियन (सफेद), मंगोलाइड (पीले) तथा नीग्रोआइड (काले) लोग। इन उपरोक्त नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने भेजते हैं। यहां तक कि आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में चाहे इस प्रकार के स्वरूप में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी यह स्तरीकरण का एक स्वरूप है। गोरे काले व्यक्तियों को अपने से निम्न समझते हैं जिस वजह से वह उनसे काफ़ी भेदभाव करते हैं। नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेषाधिकारों में फर्क पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस प्रकार का फर्क देख सकते हैं। पश्चिमी समाजों में इस प्रकार का स्तरीकरण देखने को मिलता है।

5. जातिगत स्तरीकरण (Caste Stratification)-जो स्तरीकरण जन्म के आधार पर होता है उसे जातिगत स्तरीकरण का नाम दिया जाता है क्योंकि बच्चे की जाति जन्म के साथ ही निश्चित हो जाती है। प्राचीन तथा परम्परागत भारतीय समाज में हम जातिगत स्तरीकरण के स्वरूप की उदाहरण देख सकते हैं। इसका भारतीय समाज में ज्यादा प्रभाव था कि भारत में विदेशों से आकर रहने लगे लोगों में भी जातिगत स्तरीकरण शुरू हो गया था। उदाहरणतः मुसलमानों में भी कई प्रकार की जातियां या समूह पाए जाते हैं। समय के साथ-साथ इन जातियों में हज़ारों उप-जातियां पैदा हो गईं तथा इन उप-जातियों में भी स्तरीकरण पाया जाता है। यह स्तरीकरण जन्म पर आधारित होता है इसलिए इसे बन्द स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। स्तरीकरण का यह स्वरूप और स्वरूपों की तुलना में काफ़ी स्थिर तथा निश्चित था क्योंकि व्यक्ति ने जिस जाति में जन्म लिया होता है वह तमाम उम्र अपनी उस जाति को बदल नहीं सकता था। इस प्रकार के स्तरीकरण में अपनी जाति या समूह बदलना मुमकिन नहीं होता। इस तरह जातिगत आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।

6. वर्ग स्तरीकरण (Class Stratification)-इसको सर्वव्यापक स्तरीकरण भी कहते हैं क्योंकि इस प्रकार के स्तरीकरण का स्वरूप प्रत्येक समाज में मिल जाता है। इसको खुला स्तरीकरण भी कहते हैं। वर्ग स्तरीकरण चाहे आधुनिक समाजों में देखने को मिलता है परन्तु प्राचीन समाजों में भी स्तरीकरण का यह स्वरूप मिल जाता था। इस प्रकार का स्तरीकरण जीव वैज्ञानिक आधारों को छोड़कर सामाजिक सांस्कृतिक आधारों जैसे आय, पेशा, सम्पत्ति, सत्ता, धर्म, शिक्षा, कार्य-कुशलता इत्यादि के आधार पर देखने को मिलता है। इसमें व्यक्ति को एक निश्चित स्थान प्राप्त हो जाता है तथा समान स्थिति वाले व्यक्ति इकट्ठे होकर समाज में एक वर्ग या स्तर का निर्माण करते हैं। इस तरह समाज में अलग-अलग प्रकार के वर्ग या स्तर बन जाते हैं तथा उनमें उच्च निम्न के सम्बन्ध सामाजिक स्थिति निश्चित तथा स्पष्ट नहीं होती क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्थिति कभी भी बदल सकती है। व्यक्ति परिश्रम करके पैसा कमा कर उच्च वर्ग में भी जा सकता है तथा पैसा खत्म होने की सूरत में निम्न वर्ग में भी आ सकता है। इस समाज में व्यक्ति के पद की महत्ता होती है। किसी समाज में कोई पद महत्त्वपूर्ण है तो किसी समाज में कोई पद। यह अन्तर प्रत्येक समाज की अलग-अलग संस्कृति, परम्पराओं, मूल्यों इत्यादि की वजह से होता है क्योंकि यह प्रत्येक समाज में अलग-अलग होते हैं। इस वजह से प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के आधार भी अलगअलग होते हैं। इस तरह हमारे समाजों में वर्ग स्तरीकरण पाया जाता है।

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के कौन से कारक हैं ?
उत्तर-
1. सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन (Socio-religious reform movements)-भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के स्थापित होने से पहले भी कुछ धार्मिक लहरों ने जाति प्रथा की आलोचना की थी। बुद्ध धर्म तथा जैन धर्म से लेकर इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने भी जाति प्रथा का खण्डन किया। इनके साथ-साथ इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने तो जाति प्रथा की जम कर आलोचना की। 19वीं शताब्दी में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरों ने भी जाति प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। राजा राम मोहन राय की तरफ से चलाया गया ब्रह्मो समाज, दयानंद सरस्वती की तरफ से चलाया गया आर्य समाज, राम कृष्ण मिशन इत्यादि इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरें थीं। इनके अतिरिक्त ज्योति राव फूले ने 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य समाज में सभी को समानता का दर्जा दिलाना था। जाति प्रथा की विरोधता तो महात्मा गांधी तथा डॉ० बी० आर० अंबेडकर ने भी की थी। महात्मा गांधी ने शोषित जातियों को हरिजन का नाम दिया तथा उन्हें अन्य जातियों की तरह समान अधिकार दिलाने के प्रयास किए। आर्य समाज ने मनुष्य के जन्म के स्थान पर उसके गुणों को अधिक महत्त्व दिया। इन सभी लोगों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो गया कि मनुष्य की पहचान उसके गुणों से होनी चाहिए न कि उसके जन्म से।

2. भारत सरकार के प्रयास (Efforts of Indian Government)-अंग्रेजी राज्य के समय तथा भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् कई महत्त्वपूर्ण कानून पास किए गए जिन्होंने जाति प्रथा को कमज़ोर करने में गहरा प्रभाव डाला। अंग्रेज़ी राज्य से पहले जाति तथा ग्रामीण पंचायतें काफ़ी शक्तिशाली थीं। यह पंचायतें तो अपराधियों को सज़ा तक दे सकती थीं तथा जुर्माने तक लगा सकती थी। अंग्रेजी शासन के दौरान जातीय असमर्थाएं दर करने का कानून (Caste Disabilities Removal Act, 1850) पास किया गया जिसने जाति पंचायतों को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। इस प्रकार विशेष विवाह कानून (Special Marriage Act, 1872) ने अलग-अलग जातियों के बीच विवाह को मान्यता दी जिसने परम्परागत जाति प्रथा को गहरे रूप से प्रभावित किया। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् Untouchability Offence Act, 1955 7811 Hindu Marriage Act, 1955 À 47 Gila gent at TET 3779116 लगाया। Hindu Marriage Validation Act पास हुआ जिससे अलग-अलग धर्मों, जातियों, उपजातियों इत्यादि के व्यक्तियों के बीच होने वाले विवाह को कानूनी घोषित किया गया।

3. अंग्रेज़ों का योगदान (Contribution of Britishers)-जाति प्रथा के विरुद्ध एक खुला संघर्ष ब्रिटिश काल में शुरू हुआ। अंग्रेजों ने भारत में कानून के आगे सभी की समानता का सिद्धान्त लागू किया। जाति पर आधारित पंचायतों से उनके न्याय करने के अधिकार वापिस ले लिए गए। सरकारी नौकरियां प्रत्येक जाति के लिए खोल दी गईं। अंग्रेजों की शिक्षा व्यवस्था धर्म निष्पक्ष थी। अग्रेजों ने भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना करके तथा रेलगाड़ियों, बसों इत्यादि की शुरुआत करके जाति प्रथा को करारा झटका दिया। उद्योगों में सभी मिल कर कार्य करते थे तथा रेलगाड़ियों, बसों के सफर ने अलग-अलग जातियों के बीच सम्पर्क स्थापित किया। अंग्रेज़ों की तरफ से भूमि की खुली खरीद-फरोख्त के अधिकार ने गाँवों में जातीय सन्तुलन को काफ़ी मुश्किल कर दिया।

4. औद्योगीकरण (Industrialization)-औद्योगीकरण ने ऐसी स्थितियां पैदा की जो जाति व्यवस्था के विरुद्ध थी। इस कारण उद्योगों में कई ऐसे नए कार्य उत्पन्न हो गए जो तकनीकी थे। इन्हें करने के लिए विशेष योग्यता तथा ट्रेनिंग की आवश्यकता थी। ऐसे कार्य योग्यता के आधार पर मिलते थे। इसके साथ सामाजिक संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों को ऊपर उठने का मौका प्राप्त हुआ। औद्योगीकरण ने भौतिकता में बढ़ोत्तरी करके पैसे के महत्त्व को बढ़ा दिया। पैसे के आधार पर तीन वर्ग-धनी वर्ग, मध्य वर्ग तथा निर्धन वर्ग पैदा हो गए। प्रत्येक वर्ग में अलग-अलग जातियों के लोग पाए जाते थे। औद्योगीकरण से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे उद्योगों में कार्य करने लग गए, इकट्ठे सफर करने लगे तथा इकट्ठे ही खाना खाने लगे जिससे अस्पृश्यता की भावना खत्म होनी शुरू हो गई। यातायात के साधनों के विकास के कारण अलग-अलग धर्मों तथा जातियों के बीच उदार दृष्टिकोण का विकास हुआ जोकि जाति व्यवस्था के लिए खतरनाक था। औद्योगीकरण ने द्वितीय सम्बन्धों को बढ़ाया तथा व्यक्तिवादिता को जन्म दिया जिससे सामुदायिक नियमों का प्रभाव बिल्कुल ही खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सम्बन्ध कानून के अनुसार खत्म होने लग गए। अब सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के आधार पर होते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को काफ़ी गहरा आघात लगाया।

5. नगरीकरण (Urbanization)–नगरीकरण के कारण ही जाति प्रथा में काफ़ी परिवर्तन आए। अधिक जनसंख्या, व्यक्तिगत भावना, सामाजिक गतिशीलता तथा अधिक पेशों जैसी शहरी विशेषताओं ने जाति प्रथा को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। बड़े-बड़े शहरों में लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर रहना पड़ता है। वह यह नहीं देखते कि उनका पडोसी किस जाति का है। इससे उच्चता निम्नता की भावना खत्म हो गई। नगरीकरण के कारण जब लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आए तो अन्तर्जातीय विवाह होने लग गए। इस प्रकार नगरीकरण ने अस्पृश्यता के अन्तरों को काफ़ी हद तक दूर कर दिया।

6. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)-अंग्रेजों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को लागू किया जिसमें विज्ञान तथा तकनीक पर अधिक बल दिया जाता है। शिक्षा के प्रसार से लोगों में जागति आई तथा इसके साथ परम्परागत कद्रों-कीमतों में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए। जन्म पर आधारित दर्जे के स्थान पर प्रतियोगिता में प्राप्त दर्जे का महत्त्व बढ़ गया। स्कूल, कॉलेज इत्यादि पश्चिमी तरीके से खुल गए जहां सभी जातियों के बच्चे इकट्ठे मिलकर शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसने भी जाति प्रथा को गहरा आघात दिया।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 4.
वर्ग व्यवस्था को परिभाषित कीजिए। इनकी विशेषताओं को लिखो।
उत्तर–
प्रत्येक समाज कई वर्गों में विभाजित होता है व प्रत्येक वर्ग की समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इस स्थिति के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। वर्ग की मुख्य विशेषता वर्ग चेतनता होती है। इस प्रकार समाज में जब विभिन्न व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसको वर्ग व्यवस्था कहते हैं। प्रत्येक वर्ग आर्थिक पक्ष से एक-दूसरे से अलग होता है।

1. मैकाइवर (MacIver) ने वर्ग को सामाजिक आधार पर बताया है। उस के अनुसार, “सामाजिक वर्ग एकत्रता वह हिस्सा होता है जिसको सामाजिक स्थिति के आधार पर बचे हुए हिस्से से अलग कर दिया जाता है।”

2. मोरिस जिन्सबर्ग (Morris Ginsberg) के अनुसार, “वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सांझे वंशक्रम, व्यापार सम्पत्ति के द्वारा एक सा जीवन ढंग, एक से विचारों का स्टाफ, भावनाएं, व्यवहार के रूप में रखते हों व जो इनमें से कुछ या सारे आधार पर एक-दूसरे से समान रूप में अलग-अलग मात्रा में पाई जाती हो।”

3. गिलबर्ट (Gilbert) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग व्यक्तियों की एकत्र विशेष श्रेणी है जिस की समाज में एक विशेष स्थिति होती है, यह विशेष स्थिति ही दूसरे समूहों से उनके सम्बन्ध निर्धारित करती है।”

4. कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के विचार अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी परिभाषित किया जा सकता है।”

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि सामाजिक वर्ग कई व्यक्तियों का वर्ग होता है, जिसको समय विशेष में एक विशेष स्थिति प्राप्त होती है। इसी कारण उनको कुछ विशेष शक्ति, अधिकार व उत्तरदायित्व भी मिलते हैं। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता महत्त्वपूर्ण होती है। इसी कारण हर व्यक्ति परिश्रम करके सामाजिक वर्ग में अपनी स्थिति को ऊँची करना चाहता है। प्रत्येक समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति निश्चित नहीं होती। उसकी स्थिति में गतिशीलता पाई जाती है। इस कारण यह खुला स्तरीकरण भी कहलाया जाता है। व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति को आप निर्धारित करता है। यह जन्म पर आधारित नहीं होता।

वर्ग की विशेषताएं (Characteristics of Class)-

1. श्रेष्ठता व हीनता की भावना (Feeling of superiority and inferiority)—वर्ग व्यवस्था में भी ऊँच व नीच के सम्बन्ध पाए जाते हैं। उदाहरणतः उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से अपने आप को अलग व ऊँचा महसूस करते हैं। ऊँचे वर्ग में अमीर लोग आ जाते हैं व निम्न वर्ग में ग़रीब लोग। अमीर लोगों की समाज में उच्च स्थिति होती है व ग़रीब लोग भिन्न-भिन्न निवास स्थान पर रहते हैं। उन निवास स्थानों को देखकर ही पता लग जाता है कि वह अमीर वर्ग से सम्बन्धित हैं या ग़रीब वर्ग से।

2. सामाजिक गतिशीलता (Social mobility)-वर्ग व्यवस्था किसी भी व्यक्ति के लिए निश्चित नहीं होती। वह बदलती रहती है। व्यक्ति अपनी मेहनत से निम्न से उच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है व अपने गलत कार्यों के परिणामस्वरूप ऊंची से निम्न स्थिति पर भी पहुंच जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी आधार पर समाज में अपनी इज्जत बढ़ाना चाहता है। इसी कारण वर्ग व्यवस्था व्यक्ति को क्रियाशील भी रखती है।

3. खुलापन (Openness)-वर्ग व्यवस्था में खुलापन पाया जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति को पूरी आजादी होती है कि वह कुछ भी कर सके। वह अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी व्यापार को अपना सकता है। किसी भी जाति का व्यक्ति किसी भी वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता के आधार पर बन सकता है। निम्न वर्ग के लोग मेहनत करके उच्च वर्ग में आ सकते हैं। इसमें व्यक्ति के जन्म की कोई महत्ता नहीं होती। व्यक्ति की स्थिति उसकी योग्यता पर निर्भर करती है।

4. सीमित सामाजिक सम्बन्ध (Limited social relations)-वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध सीमित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोग अपने बराबर के वर्ग के लोगों से सम्बन्ध रखना अधिक ठीक समझते हैं। प्रत्येक वर्ग अपने ही लोगों से नज़दीकी रखना चाहते हैं। वह दूसरे वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।

5. उपवर्गों का विकास (Development of Sub-Classes)-आर्थिक दृष्टिकोण से हम वर्ग व्यवस्था को तीन भागों में बाँटते हैं उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। परन्तु आगे हर वर्ग कई और उपवर्गों में बाँटा होता है, जैसे एक अमीर वर्ग में भी भिन्नता नज़र आती है। कुछ लोग बहुत अमीर हैं, कुछ उससे कम व कुछ सबसे है। इस प्रकार वर्ग, उप वर्गों से मिल कर बनता है।

6. विभिन्न आधार (Different basis)-वर्ग के भिन्न-भिन्न आधार हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार को वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है। उसके अनुसार समाज में केवल दो वर्ग पाए गए हैं। एक तो पूंजीपति वर्ग, दूसरा श्रमिक वर्ग। हर्टन व हंट के अनुसार हमें याद रखना चाहिए कि वर्ग मूल में, विशेष जीवन ढंग है। ऑगबर्न व निमकौफ़, मैकाइवर गिलबर्ट ने वर्ग के लिए सामाजिक आधार को मुख्य माना है। जिन्ज़बर्ग, लेपियर जैसे वैज्ञानिकों ने सांस्कृतिक आधार को ही वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है।

7. वर्ग पहचान (Identification of class)—वर्ग व्यवस्था में बाहरी दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण होता है। कई बार हम देख कर यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति उच्च वर्ग का है या निम्न का। हमारे आधुनिक समाज में कोठी, कार, स्कूटर, टी० वी०, वी० सी० आर, फ्रिज आदि व्यक्ति के स्थिति चिन्ह को निर्धारित करते हैं। इस प्रकार बाहरी संकेतों से हमें वर्ग भिन्नता का पता चल जाता है।

8. वर्ग चेतनता (Class Consciousness)—प्रत्येक सदस्य अपनी वर्ग स्थिति के प्रति पूरी तरह चेतन होता है। इसी कारण वर्ग चेतना, वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषता है। वर्ग चेतना व्यक्ति को आगे बढ़ने के मौके प्रदान करती है क्योंकि चेतना के आधार पर ही हम एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार भी इसके द्वारा ही निश्चित होता है।

प्रश्न 5.
भारत में कौन-से नए वर्गों का उद्भव हुआ है ?
उत्तर-
पिछले कुछ समय से देश में जाति व्यवस्था के स्थान पर वर्ग व्यवस्था सामने आ रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास हुए, लोगों ने पढ़ना शुरू किया जिस कारण जाति व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो रही है तथा वर्ग व्यवस्था का दायरा बढ़ रहा है। अब वर्ग व्यवस्था कोई साधारण संकल्प नहीं रहा। आधुनिक समय में अलग-अलग आधारों पर बहुत से वर्ग सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से भूमि सुधार किए गए जिस कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए। हरित क्रान्ति ने इस प्रक्रिया में और योगदान दिया। पुराने किसान, जिनके पास काफ़ी भूमि थी, के साथ एक नया कृषक वर्ग सामने आया जिसके पास कृषि करने की तकनीकों की कला तथा तजुर्बा है। यह वह लोग हैं जो सेना या अन्य प्रशासनिक सेवाओं से सेवानिवृत्त होकर अपना पैसा कृषि के कार्यों में लगा रहे हैं तथा काफ़ी पैसा कमा रहे हैं। यह परंपरागत किसानों का उच्च वर्ग नहीं है, परन्तु इन्हें सैंटलमैन किसान (Gentlemen Farmers) कहा जाता है।

इसके साथ-साथ एक अन्य कृषक वर्ग सामने आ रहा है जिसे ‘पूंजीपति किसान’ कहा जाता है। यह वह किसान हैं जिन्होंने नई तकनीकों, अधिक फसल देने वाले बीजों, नई कृषि की तकनीकों, अच्छी सिंचाई सुविधाओं. बैंकों से उधार लेकर तथा यातायात व संचार के साधनों का लाभ उठाकर अच्छा पैसा कमाया है। परन्तु छोटे किसान इन सबका फायदा नहीं उठा सके हैं तथा निर्धन ही रहे हैं। इस प्रकार भूमि सुधारों तथा नई तकनीकों का लाभ सभी किसान समान रूप से नहीं उठा सके हैं। यह तो मध्यवर्गीय किसान हैं जिन्होंने सरकार की तरफ से उत्साहित करने वाली सुविधाओं का लाभ उठाया है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जातियों के किसानों ने कृषि की आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाया है। – इसके बाद मध्य वर्ग भी सामने आया जिसे उपभोक्तावाद की संस्कृति ने जन्म दिया है। इस मध्य वर्ग को संभावित मार्किट के रूप में देखा गया जिस कारण बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्ग की तरफ आकर्षित हुई। अलग-अलग कंपनियों के विज्ञापनों में उच्च मध्य वर्ग को एक महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है। आजकल यह ऐसा मध्य वर्ग सामने आ रहा है जो अपने स्वाद तथा उपभोग को सबसे अधिक महत्त्व देता है तथा एक सांस्कृतिक आदर्श बन रहा है। इस प्रकार नए मध्य वर्ग के उभार ने देश में आर्थिक उदारवाद के संकल्प को सामने लाया है।

आधुनिक भारत में मौजूद वर्ग व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सभी वर्गों ने एक देश के बीच एक राष्ट्रीय आर्थिकता बनाने में सहायता की है। अब मध्य वर्ग में गांवों के लोग भी शामिल हो रहे हैं। अब गांव में रहने वाले अलग-अलग कार्य करने वाले लोग अलग-अलग नहीं रह गए हैं। अब जाति आधारित प्रतिबंधों का खात्मा हो गया है तथा वर्ग आधारित चेतना सामने आ रही है।

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प्रश्न 6.
भारत में वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
  2. भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
  3. देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
  4. नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।

प्रश्न 7.
मार्क्सवादी तथा वेबर का वर्ग परिप्रेक्षय क्या है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण का संघर्षवाद का सिद्धान्त दिया है और यह सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों के कारण ही आगे आया है। मार्क्स ने केवल सामाजिक कारकों को ही सामाजिक स्तरीकरण एवं भिन्न-भिन्न वर्गों में संघर्ष का सिद्धान्त माना है।

मार्क्स ने यह सिद्धान्त श्रम विभाजन के आधार पर दिया। उसके अनुसार श्रम दो प्रकार का होता है-शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम और यही अन्तर ही सामाजिक वर्गों में संघर्ष का कारण बना।

मार्क्स का कहना है कि समाज में साधारणत: दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता है। इस मलकीयत के आधार पर ही पहला वर्ग उच्च स्थिति में एवं दूसरा वर्ग निम्न स्थिति में होता है। मार्क्स पहले (मालिक) वर्ग को पूंजीपति वर्ग और दूसरे (गैर-मालिक) वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग, मज़दूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है और मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यही स्तरीकरण का परिणाम है।

मार्क्स का कहना है कि स्तरीकरण के आने का कारण ही सम्पत्ति का असमान विभाजन है। स्तरीकरण की प्रकृति उस समाज के वर्गों पर निर्भर करती है और वर्गों की प्रकृति उत्पादन के तरीकों पर उत्पादन का तरीका , तकनीक पर निर्भर करता है। वर्ग एक समूह होता है जिसके सदस्यों के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों के समान होते हैं, इस तरह वह सभी व्यक्ति जो उत्पादन की शक्तियों पर नियन्त्रण रखते हैं। वह पहला वर्ग यानि कि पूंजीपति वर्ग होता है जो उत्पादन की शक्तियों का मालिक होता है। दूसरा वर्ग वह है तो उत्पादन की शक्तियों का मालिक नहीं है बल्कि वह मजदूरी या मेहनत करके अपना समय व्यतीत करता है यानि कि यह मजदूर वर्ग कहलाता है। भिन्न-भिन्न समाजों में इनके भिन्न-भिन्न नाम हैं जिनमें ज़मींदारी समाज में ज़मींदार और खेतीहर मज़दूर और पूंजीपति समाज में पूंजीपति एवं मज़दूर । पूंजीपति वर्ग के पास उत्पादन की शक्ति होती है और मज़दूर वर्ग के पास केवल मजदूरी होती है जिसकी सहायता के साथ वह अपना गुजारा करता है। इस प्रकार उत्पादन के तरीकों एवं सम्पत्ति के समान विभाजन के आधार पर बने वर्गों को मार्क्स ने सामाजिक वर्ग का नाम दिया है।

मार्क्स के अनुसार “आज का समाज चार युगों में से गुजर कर हमारे सामने आया है।”

(a) प्राचीन समाजवादी युग (Primitive Ancient Society or Communism)
(b) प्राचीन समाज (Ancient Society)
(c) सामन्तवादी युग (Feudal Society)
(d) पूंजीवाद युग (Capitalist Society)

मार्क्स के अनुसार पहले प्रकार के समाज में वर्ग अस्तित्व में नहीं आये थे। परन्तु उसके पश्चात् के समाजों में दो प्रमुख वर्ग हमारे सामने आये। प्राचीन समाज में मालिक एवं दास। सामन्तवादी में सामन्त एवं खेतीहारी मजदूर वर्ग। पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी एवं मजदूर वर्ग। प्रायः समाज में मजदूरी का कार्य दूसरे वर्ग के द्वारा ही किया गया। मजदूर वर्ग बहुसंख्यक होता है और पूंजीवादी वर्ग कम संख्या वाला।

मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो प्रकार के वर्गों का अनुभव किया है। परन्तु मार्क्स के फिर भी इस मामले में विचार एक समान नहीं है। मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी समाज में तीन वर्ग होते हैं। मज़दूर, सामन्त एवं ज़मीन के मालिक (land owners) मार्क्स ने इन तीनों में से अन्तर आय के साधनों लाभ एवं जमीन के किराये के आधार पर किया है। परन्तु मार्क्स की तीन पक्षीय व्यवस्था इंग्लैण्ड में सामने कभी नहीं आई।

मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ तीन वर्गीय व्यवस्था दो वर्गीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी एवं मध्यम वर्ग समाप्त हो जायेगा। इस बारे में उसने कम्युनिष्ट घोषणा पत्र में कहा है। मार्क्स ने विशेष समाज के अन्य वर्गों का उल्लेख भी किया है। जैसे बुर्जुआ या पूंजीपति वर्ग को उसने दो उपवर्ग जैसे प्रभावी बुर्जुआ और छोटे बुर्जुआ वर्गों में बांटा है। प्रभावी बुर्जुआ वह होते हैं जो बड़े-बड़े पूंजीपति व उद्योगपति होते हैं और जो हज़ारों की संख्या में मजदूरों को कार्य करने को देते हैं। छोटे बुर्जुआ वह छोटे उद्योगपति या दुकानदार होते हैं जिनके व्यापार छोटे स्तर पर होते हैं और वह बहुत अधिक मज़दूरों को कार्य नहीं दे सकते। वह काफ़ी सीमा तक स्वयं ही कार्य करते हैं। मार्क्स यहां पर फिर कहता है कि पूंजीवाद के विकसित होने के साथ-साथ मध्यम वर्ग व छोटीछोटी बुर्जुआ उप जातियां समाप्त हो जाएंगी या फिर मज़दूर वर्ग में मिल जाएंगे। इस तरह समाज में पूंजीपति व मज़दूर वर्ग रह जाएगा।

वर्गों के बीच सम्बन्ध (Relationship between Classes)—मार्क्स के अनुसार “पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का आर्थिक शोषण करता रहता है और मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करता रहता है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच के सम्बन्ध विरोध वाले होते हैं। यद्यपि कुछ समय के लिये दोनों वर्गों के बीच का विरोध शान्त हो जाता है परन्तु वह विरोध चलता रहता है। वह आवश्यक नहीं कि यह विरोध ऊपरी तौर पर ही दिखाई दे। परन्तु उनको इस विरोध का अहसास तो होता ही रहता है।”

मार्क्स के अनुसार वर्गों के बीच आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता एवं संघर्ष पर आधारित होते हैं। हम उदाहरण ले सकते हैं पूंजीवादी समाज के दो वर्गों का। एक वर्ग पूंजीपति का होता है दूसरा वर्ग मज़दूर का होता है। यह दोनों वर्ग अपने अस्तित्व के लिये एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन की शक्तियां एक मलकीयत नहीं होती हैं। उसके पास रोटी कमाने हेतु अपनी मेहनत के अतिरिक्त और कछ नहीं होता। वह रोटी कमाने के लिये पूंजीपति वर्ग के पास अपनी मेहनत बेचते हैं और उन पर ही निर्भर करते हैं। वह अपनी मज़दूरी पूंजीपतियों के पास बेचते हैं जिसके बदले पूंजीपति उनको मेहनत का किराया देता है। इसी किराये के साथ मज़दूर अपना पेट पालता है। पूंजीपति भी मज़दूरों की मेहनत पर ही निर्भर करता है। क्योंकि मजदूरों के बिना कार्य किये न तो उसका उत्पादन हो सकता है और न ही उसके पास पूंजी एकत्रित हो सकती है।

इस प्रकार दोनों वर्ग एक-दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। परन्तु इस निर्भरता का अर्थ यह नहीं है कि उनमें सम्बन्ध एक समान होते हैं। पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का शोषण करता है। वह कम धन खर्च करके अधिक उत्पादन करना चाहता है ताकि उसका स्वयं का लाभ बढ़ सके। मज़दूर अधिक मज़दूरी मांगता है ताकि वह अपना व परिवार का पेट पाल सके। उधर पूंजीपति मज़दूरों को कम मज़दूरी देकर वस्तुओं को ऊँची कीमत पर बेचने की कोशिश करता है ताकि उसका लाभ बढ़ सके। इस प्रकार दोनों वर्गों के भीतर अपने-अपने हितों के लिये संघर्ष (Conflict of Interest) चलता रहता है। यह संघर्ष अन्ततः समतावादी व्यवस्था (Communism) को जन्म देगा जिसमें न तो विरोध होगा न ही किसी का शोषण होगा, न ही किसी के ऊपर अत्याचार होगा न ही हितों का संघर्ष होगा और यह समाज वर्ग रहित समाज होगा।

मनुष्यों का इतिहास-वर्ग संघर्ष का इतिहास (Human history-History of Class struggle)—मार्क्स का कहना है कि मनुष्यों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। हम किसी भी समाज की उदाहरण ले सकते हैं। प्रत्येक समाज में अलग-अलग वर्गों में किसी-न-किसी रूप में संघर्ष तो चलता ही रहा है।

इस तरह मार्क्स का कहना था कि सभी समाजों में साधारणतः पर दो वर्ग रहे हैं-मजदूर तथा पूंजीपति वर्ग। दोनों में वर्ग संघर्ष चलता ही रहता है। इन में वर्ष संघर्ष के कई कारण होते हैं जैसे कि दोनों वर्गों में बहुत ज्यादा आर्थिक अन्तर होता है जिस कारण वह एक-दूसरे का विरोध करते हैं। पूंजीपति वर्ग बिना परिश्रम किए ही अमीर होता चला जाता है तथा मज़दूर वर्ग सारा दिन परिश्रम करने के बाद भी ग़रीब ही बना रहता है। समय के साथसाथ मज़दूर वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना लेता है तथा यह संगठन पूंजीपतियों से अपने अधिकार लेने के लिए संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष का परिणाम यह होता है कि समय आने पर मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध क्रान्ति कर देता है तथा क्रान्ति के बाद पूंजीपतियों का खात्मा करके अपनी सत्ता स्थापित कर लेते हैं। पूंजीपति अपने पैसे की मदद से प्रति क्रान्ति की कोशिश करेंगे परन्तु उनकी प्रति क्रान्ति को दबा दिया जाएगा तथा मजदूरों की सत्ता स्थापित हो जाएगी। पहले साम्यवाद तथा फिर समाजवाद की स्थिति आएगी जिसमें हरेक को उसकी ज़रूरत तथा योग्यता के अनुसार मिलेगा। समाज में कोई वर्ग नहीं होगा तथा यह वर्गहीन समाज होगा जिसमें सभी को बराबर का हिस्सा मिलेगा। कोई भी उच्च या निम्न नहीं होगा तथा मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित रहेगी। मार्क्स का कहना था कि चाहे यह स्थिति अभी नहीं आयी है परन्तु जल्द ही यह स्थिति आ जाएगी तथा समाज में से स्तरीकरण खत्म हो जाएगा।

मैक्स वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त-वर्ग, स्थिति समूह तथा दल (Max Weber’s Theory of Stratification-Class, Status, grouped and Party) मैक्स वैबर ने स्तरीकरण का सिद्धान्त दिया था जिसमें उसने वर्ग, स्थिति समूह तथा दल की अलग-अलग व्याख्या की थी। वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त तर्कसंगत तथा व्यावहारिक माना जाता है। यही कारण है कि अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त को काफ़ी महत्त्व प्रदान किया है। वैबर ने स्तरीकरण को तीन पक्षों से समझाया है तथा वह है वर्ग, स्थिति तथा दल। इन तीनों ही समूहों को एक प्रकार से हित समूह कहा जा सकता है जो न केवल अपने अंदर लड़ सकते हैं बल्कि यह एक दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं बल्कि यह एक-दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं। यह एक विशेष सत्ता के बारे में बताते हैं तथा आपस में एक-दूसरे से संबंधित भी होते हैं। अब हम इन तीनों का अलग-अलग विस्तार से वर्णन करेंगे।

वर्ग (Class)—मार्ल मार्क्स ने वर्ग की परिभाषा आर्थिक आधार पर दी थी तथा उसी प्रकार वैबर ने भी वर्ग की धारणा आर्थिक आधार पर दी है। वैबर के अनुसार, “वर्ग ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी समाज के आर्थिक मौकों की संरचना में समान स्थिति में होता है तथा जो समान स्थिति में रहते हैं। “यह स्थितियां उनकी आर्थिक शक्ति के रूप तथा मात्रा पर निर्भर करती है।” इस प्रकार वैबर ऐसे वर्ग की बात करता है जिस में लोगों की एक विशेष संख्या के लिए जीवन के मौके एक समान होते हैं। चाहे वैबर की यह धारणा मार्क्स की वर्ग की धारणा से अलग नहीं है परन्तु वैबर ने वर्ग की कल्पना समान आर्थिक स्थितियों में रहने वाले लोगों के रूप में की है आत्म चेतनता समूह के रूप में नहीं। वैबर ने वर्ग के तीन प्रकार बताए हैं जोकि निम्नलिखित हैं :-

  1. सम्पत्ति वर्ग (A property Class)
  2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)
  3. सामाजिक वर्ग (A Social class)

1. सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)-सम्पत्ति वर्ग वह वर्ग होता है जिस की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितनी सम्पत्ति अथवा जायदाद है। यह वर्ग नीचे दो भागों में बांटा गया है-

i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Positively Privileged Property Class)-इस वर्ग के पास काफ़ी सम्पत्ति तथा जायदाद होती है तथा यह इस जायदाद से हुई आय पर अपना गुजारा करता है। यह वर्ग उपभोग करने वाली वस्तुओं के खरीदने या बेचने, जायदाद इकट्ठी करके अथवा शिक्षा लेने के ऊपर अपना एकाधिकार कर सकता है।

ii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Negatively Privileged Property Class)-इस वर्ग के मुख्य सदस्य अनपढ़, निर्धन, सम्पत्तिहीन तथा कर्जे के बोझ नीचे दबे हुए लोग होते हैं। इन दोनों समूहों के साथ एक विशेष अधिकार प्राप्त मध्य वर्ग भी होता है जिसमें ऊपर वाले दोनों वर्गों के लोग शामिल होते हैं। वैबर के अनुसार पूंजीपति अपनी विशेष स्थिति होने के कारण तथा मजदूर अपनी नकारात्मक रूप से विशेष स्थिति होने के कारण इस समूह में शामिल होता है।

2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)—यह उस प्रकार का समूह होता है जिस की स्थिति बाज़ार में मौजूदा सेवाओं का लाभ उठाने के मौकों के साथ निर्धारित होती है। यह समूह आगे तीन प्रकार का होता है-

i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Positively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग का उत्पादक फैक्टरी वालों के प्रबंध पर एकाधिकार होता है। यह फैक्ट्रियों वाले बैंकर, उद्योगपति, फाईनैंसर इत्यादि होते हैं। यह लोग प्रबंधकीय व्यवस्था को नियन्त्रण में रखने के साथ-साथ सरकारी आर्थिक नीतियों पर भीषण प्रभाव डालते हैं।

ii) विशेषाधिकार प्राप्त मध्य अधिग्रहण वर्ग (The Middle Privileged Acquisition Class)—यह वर्ग मध्य वर्ग के लोगों का वर्ग होता है जिसमें छोटे पेशेवर लोग, कारीगर, स्वतन्त्र किसान इत्यादि शामिल होते हैं।

iii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Negatively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग में छोटे वर्गों के लोग विशेषतया कुशल, अर्द्ध कुशल तथा अकुशल मजदूर शामिल होते हैं।

3. सामाजिक वर्ग (Social Class)—इस वर्ग की संख्या काफी अधिक होती है। इसमें अलग-अलग पीढ़ियों की तरक्की के कारण निश्चित रूप से परिवर्तन दिखाई देता है। परन्तु वैबर सामाजिक वर्ग की व्याख्या विशेष अधिकारों के अनुसार नहीं करता। उसके अनुसार मज़दूर वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, सम्पत्ति वाले लोग इत्यादि इसमें शामिल होते हैं।

वैबर के अनुसार किन्हीं विशेष स्थितियों में वर्ग के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं तथा इस कार्य करने की प्रक्रिया को वैबर ने वर्ग क्रिया का नाम दिया है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर ने इस बात पर विश्वास नहीं किया कि वर्ग क्रिया जैसी बात अक्सर हो सकती है। वैबर का कहना था कि वर्ग में वर्ग चेतनता नहीं होती बल्कि उनकी प्रकृति पूर्णतया आर्थिक होती है। उनमें इस बात की भी संभावना नहीं होती कि वह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए इकट्ठे होकर संघर्ष करेंगे। एक वर्ग लोगों का केवल एक समूह होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बाज़ार में एक जैसी होती है। वह उन चीज़ों को इकट्ठे करने में जीवन के ऐसे परिवर्तनों को महसूस करते हैं, जिनकी समाज में कोई इज्जत होती है तथा उनमें किसी विशेष स्थिति में वर्ग चेतना विकसित होने की तथा इकट्ठे होकर क्रिया करने की संभावना होती है। वैबर का कहना था कि अगर ऐसा होता है तो वर्ग एक समुदाय का रूप ले लेता है।

स्थिति समूह (Status Group)-स्थिति समूह को साधारणतया आर्थिक वर्ग स्तरीकरण के विपरीत समझा जाता है। वर्ग केवल आर्थिक मान्यताओं पर आधारित होता है जोकि समान बाज़ारी स्थितियों के कारण समान हितों वाला समूह है। परन्तु दूसरी तरफ स्थिति समूह सांस्कृतिक क्षेत्र में पाया जाता है यह केवल संख्यक श्रेणियों के नहीं होते बल्कि यह असल में वह समूह होते हैं जिनकी समान जीवन शैली होती है, संसार के प्रति समान दृष्टिकोण होता है तथा यह लोग आपस में एकता भी रखते हैं।

वैबर के अनुसार वर्ग तथा स्थिति समूह में अंतर होता है। हरेक का अपना ढंग होता है तथा इनमें लोग असमान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्कूल का अध्यापक। चाहे उसकी आय 8-10 हजार रुपये प्रति माह होगी जोकि आज के समय में कम है परन्तु उसकी स्थिति ऊंची है। परन्तु एक स्मगलर या वेश्या चाहे माह में लाखों कमा रहे हों परन्तु उनका स्थिति समूह निम्न ही रहेगी क्योंकि उनके पेशे को समाज मान्यता नहीं देता। इस प्रकार दोनों के समूहों में अंतर होता है। किसी पेशे समूह को भी स्थिति समूह का नाम दिया जाता है क्योंकि हरेक प्रकार के पेशे में उस पेशे से संबंधित लोगों के लिए पैसा कमाने के समान मौके होते हैं। यही समूह उनकी जीवन शैली को समान भी बनाते हैं। एक पेशा समूह के सदस्य एक-दूसरे के नज़दीक रहते हैं, एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं तथा उनके मूल्य भी एक जैसे ही होते हैं। यही कारण है कि इसके सदस्यों का दायरा विशाल हो जाता है।

दल (Party)-वैबर के अनसार दल वर्ग स्थिति के साथ निर्धारित हितों का प्रतिनिधित्व करता है। यह दल किसी न किसी स्थिति में उन सदस्यों की भर्ती करता है जिनकी विचारधारा दल की विचारधारा से मिलती हो। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए दल स्थिति दल ही बने । वैबर का कहना है कि दल हमेशा इस ताक में रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ में आए अर्थात् राज्य या सरकार की शक्ति उनके हाथों में हो। वैबर का कहना है कि चाहे दल राजनीतिक सत्ता का एक हिस्सा होते हैं परन्तु फिर भी सत्ता कई प्रकार से प्राप्त की जा सकती है जैसे कि पैसा, अधिकार, प्रभाव, दबाव इत्यादि। दल राज्य की सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा राज्य एक संगठन होता है। दल की हरेक प्रकार की क्रिया इस बात की तरफ ध्यान देती है कि सत्ता किस प्रकार प्राप्त की जाए। वैबर ने राज्य का विश्लेषण किया तथा इससे ही उसने नौकरशाही का सिद्धान्त पेश किया। वैबर के अनुसार दल दो प्रकार के होते हैं।

पहला है सरप्रस्ती का दल (Patronage Party) जिनके लिए कोई स्पष्ट नियम, संकल्प इत्यादि नहीं होते। यह किसी विशेष मौके के लिए बनाए जाते हैं तथा हितों की पूर्ति के बाद इन्हें छोड़ दिया जाता है। दूसरी प्रकार का दल है सिद्धान्तों का दल (Party of Pricniples) जिसमें स्पष्ट या मज़बूत नियम या सिद्धान्त होते हैं। यह दल किसी विशेष अवसर के लिए नहीं बनाए जाते। वैबर के अनुसार चाहे इन तीनों वर्ग, स्थिति समूह तथा दल में काफी अन्तर होता है परन्तु फिर भी इनमें आपसी संबंध भी मौजूद होता है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
यह शब्द किसके हैं ? “एक सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग होता है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर दूसरों से भिन्न किया जा सकता है।”
(A) मार्क्स
(B) मैकाइवर
(C) वैबर
(D) आगबर्न।
उत्तर-
(B) मैकाइवर।

प्रश्न 2.
वर्ग व्यवस्था का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ?
(A) जाति प्रथा कमजोर हो रही है
(B) निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुंच रहे हैं।
(C) व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
इनमें से कौन-सी वर्ग की विशेषता नहीं है ?
(A) पूर्णतया अर्जित
(B) खुलापन
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता
(D) समूहों की स्थिति में उतार-चढ़ाव।
उत्तर-
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता।

प्रश्न 4.
वर्ग तथा जाति में क्या अन्तर है ?
(A) जाति जन्म पर तथा वर्ग योग्यता पर आधारित होता है
(B) व्यक्ति वर्ग को बदल सकता है पर जाति को नहीं
(C) जाति में कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं पर वर्ग में नहीं
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 5.
वर्ग की विशेषता क्या है ?
(A) उच्च निम्न की भावना
(B) सामाजिक गतिशीलता
(C) उपवर्गों का विकास
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।।

प्रश्न 6.
उस व्यवस्था को क्या कहते हैं जिसमें समाज में व्यक्तियों को अलग-अलग आधारों पर विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है ?
(A) जाति व्यवस्था
(B) वर्ग व्यवस्था
(C) सामुदायिक व्यवस्था
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) वर्ग व्यवस्था।

प्रश्न 7.
जातियों के स्तरीकरण से क्या अर्थ है ?
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(B) समाज को इकट्ठा करना
(C) समाज को अलग करना
(D) समाज को कभी अलग कभी इकट्ठा करना।
उत्तर-
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन।

प्रश्न 8.
जाति प्रथा से हमारे समाज को क्या हानि हुई है ?
(A) समाज को बांट दिया गया
(B) समाज के विकास में रुकावट
(C) समाज सुधार में बाधक
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 9.
इनमें से जाति व्यवस्था क्या है ?
(A) राज्य
(B) सामाजिक संस्था
(C) सम्पत्ति
(D) सरकार।
उत्तर-
(B) सामाजिक संस्था।

प्रश्न 10.
पुरातन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
(A) चार
(B) पांच
(C) छः
(D) सात।
उत्तर-
(A) चार।

प्रश्न 11.
जाति प्रथा का क्या कार्य है ?
(A) व्यवहार पर नियन्त्रण
(B) कार्य प्रदान करना
(C) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 12.
भारतीय समाज में श्रम विभाजन किस पर आधारित था ?
(A) श्रम
(B) जाति व्यवस्था
(C) व्यक्तिगत योग्यता
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) जाति व्यवस्था।

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II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. समाज को अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया को ………….
2. जाति एक …………… वैवाहिक समूह है।
3. घूर्ये ने जाति के ……….. लक्षण दिए हैं।
4. वर्ण व्यवस्था …………. पर आधारित होती थी।
5. जाति व्यवस्था ………………… पर आधारित होती है।
6. ………….. ने पूँजीपति तथा मज़दूर वर्ग के बारे में बताया था।
7. जाति प्रथा में …………… प्रमुख जातियां होती थीं।
उत्तर-

  1. सामाजिक स्तरीकरण,
  2. अंतः,
  3. छ:,
  4. पेशे,
  5. जन्म,
  6. कार्ल मार्क्स,
  7. चार ।

III. सही/गलत (True/False) :

1. जाति बहिर्वैवाहिक समूह है।।
2. घूर्ये ने जाति की छः विशेषताएं दी थीं।
3. जाति व्यवस्था के कारण अस्पृश्यता की धारणा सामने आई।
4. ज्योतिबा फूले ने जाति व्यवस्था में सुधार लाने का कार्य किया।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. सही।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
……………. व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।

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प्रश्न 2.
शब्द Caste किस भाषा के शब्द से निकला है ?
उत्तर-
शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द से निकला है।

प्रश्न 3.
जाति किस प्रकार का वर्ग है ?
उत्तर-
बन्द वर्ग।

प्रश्न 4.
जाति प्रथा में किसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी ?
उत्तर-
जाति प्रथा में प्रथम वर्ण को अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी।

प्रश्न 5.
जाति प्रथा में किस जाति का शोषण होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में निम्न जातियों का शोषण होता था।

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प्रश्न 6.
अन्तर्विवाह का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता है तो उसे अन्तर्विवाह कहते हैं।

प्रश्न 7.
जाति में व्यक्ति का पेशा किस प्रकार का होता है ?
उत्तर-
जाति में व्यक्ति का पेशा जन्म पर आधारित होता है अर्थात् व्यक्ति को अपने परिवार का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता है।

प्रश्न 8.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 9.
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1976 में पास हुआ था।

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प्रश्न 10.
हिन्दू विवाह अधिनियम ……………… में पास हुआ था।
उत्तर-
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 11.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में किस बात पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था ?
उत्तर-
इस अधिनियम में किसी भी व्यक्ति को अस्पृश्य कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। यह 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 12.
सामाजिक स्तरीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित करने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं।

प्रश्न 13.
जाति किस प्रकार के विवाह को मान्यता देती है ?
उत्तर-
जाति अन्तर्विवाह को मान्यता देती है।

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प्रश्न 14.
प्राचीन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज चार भागों में विभाजित था।

प्रश्न 15.
जाति व्यवस्था का क्या लाभ था ?
उत्तर-
इसने हिन्दू समाज का बचाव किया, समाज को स्थिरता प्रदान की तथा लोगों को एक निश्चित व्यवसाय प्रदान किया था।

प्रश्न 16.
जाति प्रथा में किस प्रकार का परिवर्तन आ रहा है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा खत्म हो रही है, अस्पृश्यता खत्म हो रही है तथा परम्परागत पेशे खत्म हो रहे हैं।

प्रश्न 17.
जाति की मुख्य विशेषता क्या है ?
उत्तर-
जाति को जन्मजात सदस्यता होती है, समाज का खण्डात्मक विभाजन होता है तथा व्यक्ति को परम्परागत पेशा प्राप्त होता है।

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प्रश्न 18.
जाति प्रथा से क्या हानि होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा से निम्न जातियों का शोषण होता है, अस्पृश्यता बढ़ती है तथा व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।

प्रश्न 19.
जाति की सदस्यता का आधार क्या है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता का आधार जन्म है।

प्रश्न 20.
स्तरीकरण का स्थायी रूप क्या है ?
उत्तर-
स्तरीकरण का स्थायी रूप जाति है।

प्रश्न 21.
किस संस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है।

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प्रश्न 22.
जाति शब्द किस भाषा से उत्पन्न हुआ है ?
उत्तर-
जाति शब्द अंग्रेजी भाषा के Caste शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जो कि पुर्तगाली शब्द Casta से बना

प्रश्न 23.
जाति के कौन-से मुख्य आधार हैं ?
उत्तर-
जाति एक बड़ा समूह होता है जिसका आधार जातीय भिन्नता तथा जन्मजात भिन्नता होता है।

प्रश्न 24.
जाति में आपसी सम्बन्ध किस पर आधारित होते हैं ?
उत्तर-
जाति में आपसी सम्बन्ध उच्चता और निम्नता पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 25.
जाति में किसकी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा सबसे ज़्यादा थी तथा ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा था।

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प्रश्न 26.
जाति प्रथा में प्रतिबन्ध क्यों लगाए जाते थे ?
उत्तर-

  1. इसलिए ताकि विभिन्न जातियां एक-दूसरे के सम्पर्क में न आएं।
  2.  इसलिए ताकि जाति श्रेष्ठता तथा निम्नता बनाई रखी जा सके।

प्रश्न 27.
जाति प्रथा में व्यवसाय कैसे निश्चित होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में व्यवसाय परम्परागत होता था अर्थात् परिवार का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था।

प्रश्न 28.
अन्तर्विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
इस नियम के अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था अर्थात् वह . अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं करवा सकता।

प्रश्न 29.
औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को किस प्रकार प्रभावित किया है ?
उत्तर-
उद्योगों में अलग-अलग जातियों के लोग मिलकर कार्य करने लग गए जिससे उच्चता निम्नता के सम्बन्ध खत्म होने शुरू हो गए।

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प्रश्न 30.
क्या वर्ग अन्तर्वैवाहिक है?
उत्तर-
जी हां, वर्ग अन्तर्वैवाहिक भी होता है तथा बर्हिविवाही भी।

प्रश्न 31.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
जाति प्रथा में चार मुख्य जातियां होती थी तथा वह थी-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जाति। यह ही जाति का पदक्रम होता था।

प्रश्न 32.
वर्ग का आधार क्या है?
उत्तर-
वर्ग का आधार पैसा, प्रतिष्ठा, शिक्षा, पेशा इत्यादि होते हैं।

प्रश्न 33.
जाति व्यवस्था का मुख्य आधार क्या है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का मूल आधार कुछ जातियों की उच्चता तथा कुछ जातियों की निम्नता थी।

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प्रश्न 34.
जाति में खाने-पीने तथा सामाजिक संबंधों पर प्रतिबन्ध।
उत्तर-
जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों में खाने-पीने तथा उनमें सामाजिक संबंध रखने की भी मनाही होती

प्रश्न 35.
वर्ग का आधार क्या है ?
उत्तर-
आजकल वर्ग का आधार पैसा, व्यापार, पेशा इत्यादि है।

प्रश्न 36.
अब तक कौन-से वर्ग अस्तित्व में आए हैं ?
उत्तर-
अब तक अलग-अलग आधारों पर हजारों वर्ग अस्तित्व में आए हैं।

प्रश्न 37.
वर्ग की सदस्यता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।

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प्रश्न 38.
आजकल वर्ग अंतर का निर्धारण किस आधार पर होता है ?
उत्तर-
शिक्षा, पैसा, पेशा, रिश्तेदारी इत्यादि के आधार पर।

प्रश्न 39.
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने किया था ?
उत्तर-
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत कार्ल मार्क्स ने दिया था।

प्रश्न 40.
पैसे के आधार पर हम लोगों को कितने वर्गों में विभाजित कर सकते हैं ?
उत्तर-
पैसे के आधार पर हम लोगों को उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग में विभाजित कर सकते हैं।

प्रश्न 41.
वर्ग में किस प्रकार के संबंध पाए जाते हैं ?
उत्तर-
वर्ग में औपचारिक तथा अस्थाई संबंध पाए जाते हैं।

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प्रश्न 42.
स्तरीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 43.
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार आर्थिक अर्थात् पैसा होता है।

प्रश्न 44.
क्या जाति बदल रही है ?
उत्तर-
जी हां, जाति वर्ग में बदल रही है।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
समाज अलग-अलग जातियों में विभाजित हुआ था तथा समाज में इस कारण उच्च-निम्न की एक निश्चित व्यवस्था तथा भावना होती थी। इस निश्चित व्यवस्था को ही जाति में पदक्रम कहते हैं।

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प्रश्न 2.
व्यक्ति की सामाजिक स्थिति कैसे निर्धारित होती है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी जाति पर निर्भर करती है जबकि वर्ग व्यवस्था में उसकी सामाजिक स्थिति उसकी व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर निर्भर करती है।

प्रश्न 3.
जाति सहयोग की भावना विकसित करती है।
उत्तर-
यह सच है कि जाति सहयोग की भावना विकसित करती है। एक ही जाति के सदस्यों का एक ही पेशा होने के कारण वह आपस में मिल-जुल कर कार्य करते हैं तथा सहयोग करते हैं।

प्रश्न 4.
कच्चा भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में पानी का प्रयोग हो उसे कच्चा भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में कई जातियों से कच्चा भोजन कर लिया जाता था तथा कई जातियों से पक्का भोजन।

प्रश्न 5.
पक्का भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में घी अथवा तेल का प्रयोग किया जाता है इसे पक्का भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में किसी विशेष जाति से ही पक्का भोजन ग्रहण किया जाता है।

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प्रश्न 6.
आधुनिक शिक्षा तथा जाति।
उत्तर-
लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं जिस कारण धीरे-धीरे उन्हें जाति व्यवस्था के अवगुणों का पता चल रहा है। इस कारण अब उन्होंने जाति की पाबन्दियों को मानना बंद कर दिया है।

प्रश्न 7.
जाति में सामाजिक सुरक्षा।
उत्तर-
अगर किसी व्यक्ति के सामने कोई समस्या आती है तो जाति के सभी सदस्य इकट्ठे होकर उस समस्या को हल करते हैं। इस प्रकार जाति में व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।

प्रश्न 8.
जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित।
उत्तर-
यह सच है कि व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है क्योंकि व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है। वह योग्यता होने पर भी उसकी सदस्यता को छोड़ नहीं सकता है।

प्रश्न 9.
रक्त की शुद्धता बनाए रखना।
उत्तर-
जब व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करवाता है तो इससे जाति की रक्त की शुद्धता बनी रहती है तथा अन्य जाति में विवाह न करवाने से उनका रक्त अपनी जाति में शामिल नहीं होता।

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प्रश्न 10.
जाति की एक परिभाषा दें।
उत्तर-
राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstd) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक तथा एक से अधिक विषयों के ऊपर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”

प्रश्न 11.
निम्न जाति का शोषण।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का काफ़ी शोषण किया जाता था। उनके साथ काफ़ी बुरा व्यवहार किया जाता था तथा उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं दिए जाते थे।

प्रश्न 12.
जाति व्यवस्था में दो परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. अलग-अलग कानूनों के पास होने से जाति प्रथा में अस्पृश्यता के भेदभाव का खात्मा हो रहा है।
  2. अलग-अलग पेशों के आगे आने के कारण अलग-अलग जातियों के पदक्रम तथा उनकी उच्चता में परिवर्तन आ रहा है।

प्रश्न 13.
जातीय समाज का खण्डात्मक विभाजन।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में समाज चार भागों में विभाजित होता था पहले भाग में ब्राह्मण आते थे, दूसरे भाग में क्षत्रिय, तीसरे भाग में वैश्य तथा चतुर्थ भाग में निम्न जातियों के व्यक्ति आते थे।

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प्रश्न 14.
विवाह संबंधी जाति में परिवर्तन।
उत्तर-
अब लोग इकट्ठे कार्य करते हैं तथा नज़दीक आते हैं। इससे अन्तर्जातीय विवाह बढ़ रहे हैं। लोग अपनी इच्छा से विवाह करवाने लग गए हैं। बाल विवाह खत्म हो रहे हैं, विधवा विवाह बढ़ रहे हैं तथा विवाह संबंधी प्रतिबन्ध खत्म हो गए हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को कितने भागों में बाँटा है ?
उत्तर-
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को चार भागों में बाँटा है-

  1. प्राचीन साम्यवादी युग
  2. प्राचीन समाज
  3. सामन्तवादी समाज
  4. पूंजीवादी समाज।

प्रश्न 2.
मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण का परिणाम क्या है ?
उत्तर-
मार्क्स का कहना है कि समाज में दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता। इस मलकीयत के आधार पर ही मालिक वर्ग की स्थिति उच्च तथा गैर-मालिक वर्ग की स्थिति निम्न होती है। मालिक वर्ग को मार्क्स पूंजीपति वर्ग तथा गैर-मालिक वर्ग को मजदूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है तथा मजदूर वर्ग अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यह ही स्तरीकरण का परिणाम है।

प्रश्न 3.
वर्गों में आपसी सम्बन्ध किस तरह के होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्गों में आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता तथा संघर्ष वाले होते हैं। पूंजीपति तथा मज़दूर दोनों अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। मजदूर वर्ग को रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचना पड़ता है। वह पूंजीपति को अपना परिश्रम बेचते हैं तथा रोटी कमाने के लिए उस पर निर्भर करते हैं। उसकी मज़दूरी के एवज में पूंजीपति उनको मजदूरी का किराया देते हैं। पूंजीपति भी मज़दूरों पर निर्भर करता है, क्योंकि मजदूर के कार्य किए बिना उसका न तो उत्पादन हो सकता है तथा न ही उसके पास पूंजी इकट्ठी हो सकती है। परन्तु निर्भरता के साथ संघर्ष भी चलता रहता है क्योंकि मज़दूर अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उससे संघर्ष करता रहता है।

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प्रश्न 4.
मार्क्स के स्तरीकरण के सिद्धान्त में कौन-सी बातें मख्य हैं ?
उत्तर-

  1. सबसे पहले प्रत्येक प्रकार के समाज में मुख्य तौर पर दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा दूसरे के पास नहीं होते हैं।
  2. मार्क्स के अनुसार समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति उच्च होती है तथा जिस के पास साधन नहीं होते उसकी स्थिति निम्न होती है।
  3. सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप उत्पादन की व्यवस्था पर निर्भर करता है।
  4. मार्क्स के अनुसार मनुष्यों के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। वर्ग संघर्ष किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में मौजूद रहा है।

प्रश्न 5.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार, प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्ग-एक शोषण करने वाला तथा दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं। इनमें संघर्ष होता है जिसे मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है। शोषण करने वाला पूंजीपति वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा वह इन उत्पादन के साधनों के साथ अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग मजदूर वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते हैं। इसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। यह वर्ग पहले वर्ग से हमेशा शोषित होता है जिस कारण दोनों वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष को ही मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।

प्रश्न 6.
जाति का अर्थ।
अथवा
जाति।
उत्तर-
हिन्दू सामाजिक प्रणाली में एक उलझी हुई एवं दिलचस्प संस्था है जिसका नाम ‘जाति प्रणाली’ है। यह शब्द पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘जन्म’। इस प्रकार यह एक अन्तर-वैवाहिक समूह होता है, जिसकी सदस्यता जन्म के ऊपर आधारित है, इसमें कार्य (धन्धा) पैतृक एवं परम्परागत होता है। रहना-सहना, खाना-पीना, सम्बन्धों पर कई प्रकार के नियम (बन्धन) होते हैं। इसमें कई प्रकार की पाबन्दियां भी होती हैं, जिनका पालन उन सदस्यों को करना ज़रूरी होता है।

प्रश्न 7.
जाति व्यवस्था की कोई चार विशेषताएं बतायें।
उत्तर-

  1. जाति की सदस्यता जन्म के आधार द्वारा होती है।
  2. जाति में सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध होते हैं।
  3. जाति में खाने-पीने के बारे में प्रतिबन्ध होते हैं।
  4. जाति में अपना कार्य पैतृक आधार पर मिलता है।
  5. जाति एक अन्तर-वैवाहिक समूह है, विवाह सम्बन्धी बन्दिशें हैं।
  6. जाति में समाज अलग-अलग हिस्सों में विभाजित होता है।
  7. जाति प्रणाली एक निश्चित पदक्रम है।

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प्रश्न 8.
पदक्रम क्या होता है ?
उत्तर-
जाति प्रणाली में एक निश्चित पदक्रम होता था, अभी भी भारत वर्ष में ज्यादातर भागों में ब्राह्मण वर्ण की जातियों को समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था। इसी प्रकार दूसरे क्रम में क्षत्रिय आते थे। वर्ण व्यवस्था के अनुसार तीसरा स्थान ‘वैश्यों’ का था, उसी प्रकार ही समाज में वैसा ही आज माना जाता था। इसी क्रम के अनुसार सबसे बाद वाले क्रम में चौथा स्थान निम्न जातियों का था। समाज में किसी भी व्यक्ति की स्थिति आज भी भारत के ज्यादा भागों में उसी प्रकार से ही निश्चित की जाती थी।

प्रश्न 9.
सदस्यता जन्म पर आधारित।
अथवा
जाति की सदस्यता कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता जन्म के आधार पर मानी जाती थी। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का फैसला अथवा निर्धारण स्वयं नहीं कर सकता। जिस जाति में वह जन्म लेता है उसका सामाजिक दर्जा भी उसी के आधार पर ही निश्चित होता है। इस व्यवस्था में व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, वह अपनी जाति को अपनी मर्जी से बदल नहीं सकता था। जाति की सदस्यता यदि जन्म के आधार पर मानी जाती थी तो उसकी सामाजिक स्थिति उसके जन्म के आधार पर होती थी न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर।

प्रश्न 10.
जाति में खाने-पीने सम्बन्धी किस तरह के प्रतिबन्ध हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में कुछ इस तरह के नियम बताये गये हैं जिनमें यह स्पष्ट होता है कि कौन-कौन सी जातियों अथवा वर्गों में कौन-कौन से खाने-पीने के बारे में बताया गया था। इस तरह खाने-पीने की वस्तुओं को दो भागों में बांटा गया था। सारे भोजन को तो एक कच्चा भोजन माना जाता था और दूसरा पक्का भोजन। इसमें कच्चे भोजन को पानी द्वारा तैयार किया जाता था और पक्के भोजन को घी (Ghee) द्वारा तैयार किया जाता था। आम नियम यह था कि कच्चा भोजन कोई भी व्यक्ति तब तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसी जाति के ही व्यक्ति द्वारा तैयार न किया जाये। परन्तु दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में यदि क्षत्रिय एवं वैश्य भी तैयार करते थे, तो ब्राह्मण उसको ग्रहण कर लेते थे।

प्रश्न 11.
जाति से सम्बन्धित व्यवसाय।
उत्तर-
जाति व्यवस्था के नियमों के आधार पर व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित किया जाता था। उसमें उसे परम्परा के अनुसार अपने पैतृक धन्धे को ही अपनाना पड़ता था। जैसे ब्राह्मणों का काम समाज को शिक्षित करना था और क्षत्रियों के ऊपर सुरक्षा का दायित्व था और कृषि के कार्य वैश्यों में विभाजित थे। इसी प्रकार निम्न जातियों का कार्य बाकी तीनों समुदायों की सेवा करने का कार्य था। इसी प्रकार जिस बच्चे का जन्म जिस जाति विशेष में होता था उसे व्यवसाय के रूप में भी वही काम करना होता था। इस प्रणाली में व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार कोई व्यवसाय नहीं कर सकता था। इस जाति प्रकारों में सभी चारों वर्ग अपने कार्य को अपना धर्म समझ कर करते थे।

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प्रश्न 12.
जाति के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की प्रथा में जाति भिन्न तरह से अपने सदस्यों की सहायता करती है, उसमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. जाति व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण करती है।
  2. व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  3. हर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  4. व्यक्ति एवं जाति के रक्त की शुद्धता बरकरार रखती है।
  5. जाति राजनीतिक स्थिरता प्रदान करती है।
  6. जाति अपने तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखती है!
  7. जाति शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निर्धारण करती है।
  8. जाति विशेष व्यक्ति के कर्त्तव्यों एवं अधिकारों का ध्यान करवाती है।

प्रश्न 13.
जाति एक बन्द समूह है।
उत्तर-
जाति एक बन्द समूह है, जब हम इस बात का अच्छी तरह से विश्लेषण करेंगे तो जवाब ‘हां’ में ही आयेगा। इससे यही अर्थ है कि बन्द समूह की जिस जाति में व्यक्ति का जन्म होता था, उसी के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति तय होती थी। व्यक्ति अपनी जाति को छोड़कर, दूसरी जाति में भी नहीं जा सकता। न ही वह अपनी जाति को बदल सकता है। इस तरह इस व्यवस्था में हम देखते हैं कि चाहे व्यक्ति में अपनी कितनी भी योग्यता हो, वह उसे प्रदर्शित नहीं कर पाता था क्यों जो उसे अपनी जाति समूह के नियमों के अनुसार कार्य करना होता था क्योंकि इसका निर्धारण ही व्यक्ति के जन्म के आधार पर था न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर। इस प्रकार जाति एक बन्द समूह ही था जिससे व्यक्ति अपनी इच्छा के आधार पर बाहर नहीं निकल सकता।

प्रश्न 14.
जाति के गुण बतायें।
उत्तर-

  1. जाति व्यवसाय का विभाजन करती है।
  2. जाति सामाजिक एकता को बनाये रखती है।
  3. जाति रक्त शुद्धता को बनाये रखती है।
  4. जाति शिक्षा के नियमों को बनाती है।
  5. जाति समाज में सहयोग से रहना सिखाती है।
  6. मानसिक एवं सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

प्रश्न 15.
जाति चेतनता।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की यह सबसे बड़ी त्रुटि थी कि उसमें कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के प्रति ज़्यादा सचेत नहीं होता था और यह कमी हर व्यवस्था में भी पाई जाती थी। क्योंकि इस व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति के आधार पर निश्चित होती थी, इसलिए व्यक्तिगत रूप से उतना जागरूक ही नहीं होता था। जब कि उसकी स्थिति एवं पहचान उनके जन्म के अनुसार ही होनी थी, तो उसे पता होता था कि उसे कौन-कौन से कार्य और कैसे करने हैं। यदि कोई व्यक्ति उच्च जाति में जन्म ले लेता था तो उसे पता होता था कि उसके क्या कर्त्तव्य हैं, यदि उसका जन्म निम्न जाति में हो जाता था, तो उसे पता ही होता था कि उसे सारे समाज की सेवा करनी है और इस स्वाभाविक प्रक्रिया में दखल अन्दाजी नहीं करता था और उसी को दैवी कारण मानकर अपना जीवन-यापन करता जाता था।

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प्रश्न 16.
जाति में बदलाव के कारणों के बारे में लिखें।
उत्तर-
19वीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों एवं धार्मिक विद्वानों की कोशिशों ने समाज में काफ़ी बदलाव की कोशिशें की और कई सामाजिक कुरीतियों का जमकर खण्डन किया। इन्हीं कारणों को हम संक्षेप में इस तरह बता सकते हैं-

  1. समाज सुधार आंदोलनों के कारण।
  2. भारत सरकार की कोशिशें एवं कानूनों का बनना।
  3. अंग्रेज़ी साम्राज्य का इसमें योगदान।
  4. औद्योगीकरण के कारणों से आई तबदीली।
  5. शिक्षा के प्रसार के कारण।
  6. यातायात एवं संचार व्यवस्था के कारण।
  7. आपसी मेल-जोल की वजह से।

प्रश्न 17.
जाति के अवगुण।
उत्तर-
स्त्रियों की दशा खराब होती है।

  1. यह प्रथा अस्पृश्यता को बढ़ावा देती है।
  2. यह जातिवाद को बढ़ाती है।
  3. इससे सांस्कृतिक संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
  4. सामाजिक एकता एवं गतिशीलता को रोकती है।
  5. सामाजिक संतुलन को भी खराब करती है।
  6. व्यक्तियों की कार्य-कुशलता में भी कमी आती है।
  7. सामाजिक शोषण के कारण गिरावट आती है।

प्रश्न 18.
जाति एवं वर्ग में क्या अन्तर हैं ?
उत्तर-
जाति धर्म पर आधारित है परन्तु वर्ग पैसे के ऊपर आधारित है।

  1. जाति समुदाय का हित है, वर्ग में व्यक्तिगत हितों की बात है।
  2. जाति को बदला नहीं जा सकता, वर्ग को बदला जा सकता है।
  3. जाति बन्द व्यवस्था है परन्तु वर्ग खुली व्यवस्था का हिस्सा है।
  4. जाति लोकतन्त्र के विरुद्ध है पर वर्ग लोकतान्त्रिक क्रिया है।
  5. जाति में कई तरह के प्रतिबन्ध हैं, वर्ग में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं।
  6. जाति में चेतना की कमी होती है परन्तु वर्ग में व्यक्ति चेतन होता है।

प्रश्न 19.
श्रेणी व्यवस्था या वर्ग व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार श्रेणी के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष कर्त्तव्य, अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। श्रेणी चेतनता ही श्रेणी की मुख्य ज़रूरत होती है। श्रेणी के बीच व्यक्ति अपने आप को कुछ सदस्यों से उच्च तथा कुछ से निम्न समझता है।

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प्रश्न 20.
वर्ग की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  1. वर्ग चेतनता–प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतनता होती है कि उसका पद या आदर दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है। अर्थात् व्यक्ति को उच्च, निम्न या समानता के बारे में पूरी चेतनता होती है।
  2. सीमित सामाजिक सम्बन्ध-वर्ग व्यवस्था में लोग अपने ही वर्ग के सदस्यों से गहरे सम्बन्ध रखता है तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उसके सम्बन्ध सीमित होते हैं।

प्रश्न 21.
धन तथा आय-वर्ग व्यवस्था के निर्धारक।
उत्तर-
समाज के बीच उच्च श्रेणी की स्थिति का सदस्य बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है। परन्तु पैसे के साथ व्यक्ति आप ही उच्च स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता परन्तु उसकी अगली पीढ़ी के लिए उच्च स्थिति निश्चित हो जाती है। आय के साथ भी व्यक्ति को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है क्योंकि ज्यादा आमदनी से ज्यादा पैसा आता है। परन्तु इसके लिए यह देखना ज़रूरी है कि व्यक्ति की आमदनी ईमानदारी की है या काले धन्धे द्वारा प्राप्त है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के अलग-अलग लक्षण होते हैं क्योंकि यह सामाजिक कीमतों तथा प्रमुख विचारधाराओं पर आधारित होती हैं, इसलिए स्तरीकरण के आधार भी अलग-अलग होते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का स्वरूप अलग-अलग समाजों में अलग-अलग पाया जाता है। यह प्रत्येक समाज में पाई जाने वाली सामाजिक कीमतों से सम्बन्धित होता है। इसलिए सामाजिक स्तरीकरण के आधार भी कई होते हैं। परन्तु सभी आधारों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं-

  1. जैविक अथवा प्राणी शास्त्रीय आधार (Biological Basis)
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-Cultural Basis) अब हम स्तरीकरण के इन दोनों प्रमुख आधारों का विस्तार से वर्णन करेंगे।

1. जैविक आधार (Biological Basis)—जैविक आधार पर समाज में व्यक्तियों को उनके जन्म के आधार पर उच्च तथा निम्न स्थान दिए जाते हैं। उनकी व्यक्तिगत योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता है। आम शब्दों में, समाज के अलग-अलग व्यक्तियों तथा समूहों में मिलने वाले उच्च निम्न के सम्बन्ध जैविक आधारों पर निर्धारित हो सकते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण के जैविक आधारों का सम्बन्ध व्यक्ति के जन्म से होता है। व्यक्ति को समाज में कई बार उच्च तथा निम्न स्थिति जन्म के आधार पर प्राप्त होती है। निम्नलिखित कुछ जैविक आधारों का वर्णन इस प्रकार है।

(i) जन्म (Birth)-समाज में व्यक्ति के जन्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। यदि हम प्राचीन भारतीय हिन्दू समाज की सामाजिक व्यवस्था को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि जन्म के आधार पर ही समाज में व्यक्ति को उच्च या निम्न स्थिति प्राप्त होती थी।

जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको उसी जाति से जोड़ दिया जाता था तथा इस जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को स्थिति प्राप्त होती थी। व्यक्ति अपनी योग्यता तथा परिश्रम से भी अपनी जाति बदल नहीं सकता था। इस प्रकार जाति प्रथा में एक पदक्रम बना रहता था। इस विवरण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि व्यक्ति को समाज में स्थिति उसकी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार नहीं प्राप्त होती थी। जाति प्रथा में सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था का मुख्य आधार जन्म होता था। जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को समाज में उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता था।

इसमें व्यक्ति की निजी योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता था। निजी योग्यता न तो जाति बदलने में मददगार थी तथा न ही अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए मददगार थी। ज्यादा से ज्यादा निजी योग्यता व्यक्ति को अपनी ही जाति में ऊँचा कर सकती थी। अपनी जाति में ऊँचा होने के बावजूद भी वह अपने से उच्च जाति से निम्न ही रहेगा। जातीय स्तरीकरण में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी योग्यता के ऊपर निर्धारित नहीं होती थी बल्कि व्यक्ति के जन्म के आधार पर निर्धारित होती थी।

(ii) आयु (Age)-जन्म के बाद आयु के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। कई अन्य समाजशास्त्रियों ने भी आयु के आधार पर व्यक्ति की अलग-अलग अवस्थाएं बताई हैं। किसी भी समाज में छोटे बच्चे की स्थिति उच्च नहीं होती क्योंकि उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ होता। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है उस तरह उसकी बुद्धि का विकास होता है। बुद्धि के विकास के साथ वह परिपक्व हो जाता है। इसलिए उसको प्राथमिकता दी जाती है। भारत सरकार में भी ज्यादा संख्या बड़ी आयु के लोगों की है। राष्ट्रपति बनने के लिए भी सरकार ने आयु निश्चित की होती है। भारत में यह उम्र 35 साल की है। यदि हम प्राचीन भारतीय समाज की पारिवारिक प्रणाली को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि बड़ी आयु के व्यक्तियों का ही परिवार पर नियन्त्रण होता था। भारत में वोट डालने का अधिकार 18 साल के व्यक्ति को ही प्राप्त है।

राजनीति को चलाने के लिए बुजुर्ग व्यक्ति एक स्तम्भ का कार्य करते हैं। यह ही जवान पीढ़ी को तैयार करते हैं। इस प्रकार सरकार ने विवाह की संस्था में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति की आयु निश्चित कर दी है ताकि बाल विवाह की प्रथा को रोका जा सके। संसार के सभी समाजों में बड़ी आयु के लोगों की इज्जत होती है। कई कबीलों में तो बडी आयु के लोगों की कौंसिल बनाई जाती है जिसके द्वारा समाज में महत्त्वपूर्ण फैसले लिए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के कबीलों के बीच प्रशासकीय अधिकार बड़ी आयु के व्यक्तियों को ही स्वीकार किया जाता है।

(iii) लिंग (Sex)-लिंग भी स्तरीकरण का आधार होता है। लिंग के आधार पर भेद आदमी तथा औरत का ही होता है। यदि हम प्राचीन समाजों पर नजर डालें तो उन समाजों में लिंग के आधार पर ही विभाजित होती थी। औरतें घर का कार्य करती थीं तथा आदमी घर से बाहर जा कर खाने-पीने की चीजें इकट्ठी करते थे।

सत्ता के आधार पर परिवार को दो हिस्सों में विभाजित किया गया है –

  1. पितृ सत्तात्मक परिवार (Patriarchal Family)
  2. मातृ सत्तात्मक परिवार (Matriarchal Family)

इन दोनों तरह के परिवारों के प्रकार लिंग के आधार पर पाए जाते हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की सत्ता महत्त्वपूर्ण थी तथा परिवार पिता की सत्ता में रहता था। परन्तु मातृसत्तात्मक परिवार में परिवार के ऊपर नियन्त्रण माता का ही होता था। यदि हम प्राचीन हिन्दू समाज को देखें तो लिंग के आधार पर आदमी की स्थिति समाज में उच्च थी। लिंग के आधार पर आदमी तथा औरतों के कार्यों में भिन्नता पायी जाती थी। लिंग के आधार पर पाई जाने वाली भिन्नता अभी भी आधुनिक समाजों में कुछ हद तक विकसित है। चाहे सरकार ने प्रयत्न करके औरतों को आगे बढ़ाने की कोशिशें भी की हैं। शिक्षा के क्षेत्र में औरतों को कुछ राज्यों में मुफ्त शिक्षा प्राप्त हो रही है। परन्तु आज भी कुछ फ़र्क नज़र आता है। पश्चिमी देशों में चाहे औरत तथा आदमी को प्रत्येक क्षेत्र में बराबर समझा जाता रहा है परन्तु अमेरिका में राष्ट्रपति का पद औरत नहीं सम्भाल सकती। आदमी तथा औरत की कुछ भूमिकाएं तो प्राकृतिक रूप से ही अलग होती हैं जैसे बच्चे को जन्म देने का कार्य औरत का ही होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लिंग भी स्तरीकरण का बहुत ही पुराना आधार रहा है जिसके द्वारा समाज में आदमी तथा औरत की स्थिति को निश्चित किया जाता है।

(iv) नस्ल (Race)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का आधार नस्ल भी रही है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-

(a) काकेशियन (Caucasion)
(b) मंगोलाइड (Mangoloid)
(c) नीग्रोआइड (Negroid)

इन तीनों नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में सबसे उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। यहां तक कि यह आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में विभिन्न नस्लों में पाई जाने वाली भिन्नता में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी नस्ल सामाजिक स्तरीकरण का एक आधार बनी हुई है। नस्ल श्रेष्ठता के आधार पर गोरे कालों से विवाह नहीं करवाते। काले व्यक्तियों के साथ गोरे बहुत भेदभाव करते हैं। कोई काला व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं बन सकता है। इस तरह स्पष्ट है कि नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेष अधिकारों में भेद पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस आधार पर भेद देख सकते हैं। गोरे लोग एशिया के लोगों के साथ इस आधार पर भेद रखते हैं क्योंकि वह अपने आपको पीले तथा काले लोगों से उच्च समझते

2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-cultural basis) केवल जैविक आधार पर ही नहीं बल्कि सामाजिक आधारों पर भी समाज में स्तरीकरण पाया जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक आधार कई तरह के होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) पेशे के आधार पर (Occupational basis)-पेशे के आधार पर समाज को विभिन्न भागों में बाँटा जाता है। कुछ पेशे समाज में ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं तथा कुछ कम। वर्ण व्यवस्था में समाज में स्तरीकरण पेशे के आधार पर ही होता था। व्यक्ति जिस पेशे को अपनाता था उसको उसी पेशे के अनुसार समाज में स्थिति प्राप्त हो जाती थी। जैसे जो व्यक्ति वेदों इत्यादि की शिक्षा प्राप्त करके लोगों को शिक्षित करने का पेशा अपना लेता था तो उसको ब्राह्मण वर्ण में शामिल कर लिया जाता था। पेशा अपनाने की इच्छा व्यक्ति की अपनी होती थी। डेविस के अनुसार विशेष पेशे के लिए योग्य व्यक्तियों की प्राप्ति उस पेशे की स्थिति को प्रभावित करती है। कई समाज वैज्ञानिकों ने पेशे को सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार माना है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति जिस प्रकार की योग्यता रखता है वह उसी तरह का पेशा अपना लेता है। उदाहरण के तौर पर आधुनिक भारतीय समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर इत्यादि के पेशे को क्लर्क, चपड़ासी इत्यादि के पेशे से ज्यादा उत्तम स्थान प्राप्त होता है। जो पेशे समाज के लिए नियन्त्रण रखने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, उन पेशों को भी समाज में उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार विभिन्न पेशों, गुणों, अवगुणों इत्यादि को परख कर समाज में उनको स्थिति प्राप्त होती है।

चाहे पुराने समाजों में पेशे भी जाति पर आधारित होते थे तथा व्यक्ति की स्थिति जाति के अनुसार निर्धारित होती थी परन्तु आधुनिक समाजों में जाति की जगह व्यवसाय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। एक I.A.S. अफसर की स्थिति एक चपड़ासी से निश्चित रूप से उच्च होती है। उसी तरह अफसरों, जजों इत्यादि का पेशा तथा नाम एक होने के बावजूद उनका स्तर समान नहीं है। संक्षेप में अलग-अलग कार्यों तथा पेशों के आधार पर समाज में स्तरीकरण होता है। उदाहरणतः चाहे कोई वेश्या जितना मर्जी चाहे पैसा कमा ले परन्तु उसके कार्य के आधार पर समाज में उसका स्थान हमेशा निम्न ही रहता है।

(ii) राजनीतिक आधार (Political base)-राजनीतिक आधार पर तो प्रत्येक समाज में अलग-अलग स्तरीकरण पाया जाता है। भारतीय समाज में भी राजनीतिक स्तरीकरण का आधार पाया जाता है। भारत में वंश के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था महत्त्वपूर्ण रही है। भारत एक लोकतान्त्रिक समाज है। इसमें राजनीति की मुख्य शक्ति राष्ट्रपति के पास होती है। उपराष्ट्रपति की स्थिति उससे निम्न होती है। प्रत्येक समाज में दो वर्ग पाए जाते हैं तथा वह है शासक वर्ग व शासित वर्ग शासक वर्ग की स्थिति शासित वर्ग से उच्च होती है। प्रशासनिक व्यवस्था में विभिन्न अफसरों को उनकी नौकरी के स्वरूप के अनुसार ही स्थिति प्राप्त होती है। सोरोकिन के अनुसार, “यदि राजनीतिक संगठन में विस्तार होता है तो राजनीतिक स्तरीकरण बढ़ जाता है।”

राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक स्तरीकरण में भी complexity बढ़ती जाती है। यदि किसी क्रान्ति के कारण राजनीतिक व्यवस्था में एक दम परिवर्तन आ जाता है तो राजनीतिक स्तरीकरण भी बदल जाता है। भारत में वैसे तो कई राजनीतिक पार्टियां पाई जाती हैं परन्तु जिस पार्टी की स्थिति उच्च होती है वह ही देश पर राज करती है। प्राचीन कबाइली समाज में प्रत्येक कबीले का एक मुखिया होता था जो अपने कबीले की समस्याएं दूर करता था तथा अपने कबीले के प्रति वफ़ादार होता था। राजाओं महाराजाओं के समय राजा के हाथ में शासन होता था, वह जिस तरह चाहता था उस तरह ही अपने राज्य को चलाता था।

परिवार में राजनीति होती है। पिता की स्थिति सब से उच्च होती है। देश के प्रशासन में सब से उच्च स्थिति राष्ट्रपति की होती है। फिर उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री, उप-मन्त्री इत्यादि की बारी आती है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में कुछ नेता ऊँचे कद के होते हैं तथा कुछ निम्न कद के। कुछ नेता राष्ट्रीय स्तर के होते हैं तथा कुछ प्रादेशिक स्तर के होते हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां भी राष्ट्रीय स्तर की तथा कुछ प्रादेशिक स्तर की होती हैं। उस पार्टी की स्थिति उच्च होगी जिसके हाथ में राजनीतिक सत्ता होती है तथा उस पार्टी की स्थिति निम्न रहेगी जिसके पास सत्ता नहीं होती। उदाहरणतः आज बी० जे० पी० की केन्द्र सरकार होने के कारण उसकी स्थिति उच्च है तथा कांग्रेस की स्थिति निम्न है।

(iii) आर्थिक आधार (Economic basis)-कार्ल मार्क्स के अनुसार आर्थिक आधार ही सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार है। उनके अनुसार समाज में हमेशा दो ही वर्ग पाए जाते हैं
(a) उत्पादन के साधनों के मालिक (Owners of means of production)
(b) उत्पादन के साधनों से दूर (Those who don’t have means of production)

जो व्यक्ति उत्पादन के साधनों के मालिक होते हैं, उनकी स्थिति समाज में उच्च होती है। इनको कार्ल मार्क्स ने पूंजीपति का नाम दिया है। दूसरी तरफ मजदूर वर्ग होता है जो पूंजीपति लोगों के अधीन कार्य करता है। पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग का पूर्ण शोषण करता है। समाज में पैसे के आधार पर समाज को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जाता है-

  1. उच्च वर्ग (Higher Class)
  2. मध्यम वर्ग (Middlwe Class)
  3. निम्न वर्ग (Lower Class)

इस प्रकार इन वर्गों में श्रेष्ठता तथा हीनता वाले सम्बन्ध पाए जाते हैं। सोरोकिन के अनुसार, स्तरीकरण के आधार के रूप में आर्थिक तत्त्वों में उतार-चढ़ाव आता रहता है। मुख्य उतार-चढ़ाव दो तरह का होता है-आर्थिक क्षेत्र में किसी भी समूह की उन्नति तथा गिरावट तथा स्तरीकरण की प्रक्रिया में आर्थिक तत्त्वों की महता का कम या ज्यादा होना। इसके परिणामस्वरूप आर्थिक पिरामिड की ऊँचाई की तरफ बढ़ना तथा एक स्तर पर पहुँच कर चौड़ाई में बढ़ना तथा ऊँचाई की तरफ बढ़ने से रुकना।

संक्षेप में हम आधुनिक समाज को औद्योगिक समाज का नाम देते हैं। इस समाज में व्यक्ति का सम्पत्ति पर अधिकार होना या न होना स्तरीकरण का आधार होता है। इस प्रकार आर्थिक आधार भी स्तरीकरण के आधारों में से मुख्य माना गया है।

(iv) शिक्षा के आधार पर (On the basis of education) शिक्षा के आधार पर भी हम समाज को स्तरीकृत कर सकते हैं। शिक्षा के आधार पर समाज को दो भागों में स्तरीकृत किया जाता है-एक तो है पढ़ा-लिखा वर्ग तथा दूसरा है अनपढ़ वर्ग। इस प्रकार पढ़े-लिखे वर्ग की स्थिति अनपढ़ वर्ग से उच्च होती है। जो व्यक्ति परिश्रम करके उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं तो समाज में उनको ज्यादा इज्जत प्राप्त हो जाती है। आधुनिक समाज में स्तरीकरण का यह आधार भी महत्त्वपूर्ण होता है। समाज में पढ़े-लिखे व्यक्ति की इज्जत अनपढ़ से ज्यादा होती है। अब एक प्रोफैसर की स्थिति, जिसने पी० एच० डी० की है, निश्चित रूप से मौट्रिक पास व्यक्ति से उच्च होगी। एक इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक की स्थिति चपड़ासी से उच्च होगी क्योंकि उन्होंने चपड़ासी से ज्यादा शिक्षा प्राप्त की है। इस तरह शिक्षा के आधार पर भी समाजों में स्तरीकरण होता है।

(v) धार्मिक आधार (Religious basis)-धार्मिक आधार पर भी समाज को स्तरीकृत किया जाता है। प्राचीन हिन्दू भारतीय समाज में धार्मिक व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती थी क्योंकि वह धार्मिक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते थे तथा उस ज्ञान को आगे पहुंचाते थे। भारतीय समाज में कई प्रकार के धर्म पाए जाते हैं। प्रत्येक धर्म को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको दूसरे धार्मिक समूहों से ऊंचा समझने लग जाता है। इस प्रकार धर्म के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। भारत में बहुत सारे धर्म हैं जो अपने आपको और धर्मों से श्रेष्ठ समझते हैं। प्रत्येक धर्म के व्यक्ति यह कहते हैं कि उनका धर्म और धर्मों से अच्छा है। एक धर्म, जिसके सदस्यों की संख्या ज्यादा है, निश्चित रूप से दूसरे धर्मों से उच्च कहलवाया जाएगा। हम भारत में हिन्दू तथा इसाई धर्म की उदाहरण ले सकते हैं। इस तरह धर्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।

(vi) रक्त सम्बन्धी आधार (On the basis of blood relations) व्यक्ति जिस वंश में जन्म लेता है, उसके आधार पर भी समाज में उसको उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता है। जैसे राजा का पुत्र बड़ा होकर राजा के पद पर विराजमान हो जाता था। इस प्रकार व्यक्ति को समाज में कई बार सामाजिक स्थिति परिवार के आधार पर भी प्राप्त होती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण के अलग-अलग महत्त्वपूर्ण आधार हैं। इसके बहुत सारे भेद होते हैं जिनके आधार पर समाज में असमानताएं पाई जाती हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था क्या होती है ? घूर्ये द्वारा दी गई विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
शब्द जाति अंग्रेजी भाषा के शब्द Caste का हिन्दी रूपांतर है। शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द Casta में से निकला है जिसका अर्थ नस्ल अथवा प्रजाति है। शब्द Caste लातिनी भाषा के शब्द Castus से भी सम्बन्धित है जिसका अर्थ शुद्ध नस्ल है। प्राचीन समय में चली आ रही जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित होती थी तथा व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता था वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्राचीन समय में तो व्यक्ति के जन्म से ही उसका कार्य, उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाते थे क्योंकि उसे अपनी जाति का परंपरागत पेशा अपनाना पड़ता था तथा उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार ही उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाती थी। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों के जीवन पर बहुत सी पाबन्दियां लगाती थीं तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन पाबन्दियों को मानना आवश्यक होता था।

इस प्रकार जाति व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति के ऊपर जाति के नियमों के अनुसार कई पाबंदियां थीं। जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है जो अपने सदस्यों के जीवन सम्बन्धों, पेशे इत्यादि के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबंध रखता है। यह व्यवस्था भारतीय समाज के महत्त्वपूर्ण आधारों में से एक थी तथा यह इतनी शक्तिशाली थी कि कोई भी व्यक्ति इसके विरुद्ध कार्य करने का साहस नहीं करता था।

परिभाषाएं (Definitions)-जाति व्यवस्था की कुछ परिभाषाएं प्रमुख समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों द्वारा दी गई हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstdt) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक अथवा अधिक विषयों पर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”

2. रिज़ले (Rislay) के अनुसार, “जाति परिवारों अथवा परिवारों के समूह का संकलन है जिसका एक समान नाम होता है तथा जो काल्पनिक पूर्वज-मनुष्य अथवा दैवीय के वंशज होने का दावा करते हैं, जो समान पैतृक कार्य अपनाते हैं तथा वह विचारक जो इस विषय पर राय देने योग्य हैं, इसे समजातीय समूह मानते हैं।”

3. ब्लंट (Blunt) के अनुसार, “जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह अथवा अन्तर्वैवाहिक समूहों का एकत्र है जिसका एक नाम है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत है, जो अपने सदस्यों पर सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध लगाती है, एक आम परम्परागत पेशे को अपनाती है अथवा एक आम उत्पत्ति की दावा करती है तथा साधारण एक समरूप समुदाय को बनाने वाली समझी जाती है।”

4. मार्टिनडेल तथा मोना चेसी (Martindale and Mona Chesi) के अनुसार, “जाति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसमें किसी व्यक्ति के कर्त्तव्य तथा विशेषाधिकार जन्म से ही निश्चित होते हैं, जिसे संस्कारों तथा धर्म की तरफ से मान्यता तथा स्वीकृति प्राप्त होती है।”

जाति व्यवस्था के कुछ लक्षण जी० एस० घर्ये ने दिए हैं:-

(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(ii) अलग-अलग हिस्सों में पदक्रम
(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां
(iv) भिन्न-भिन्न जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार
(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी
(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दी।

अब हम घूर्ये द्वारा दी विशेषताओं का वर्णन विस्तार से करेंगे-

(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society) जाति व्यवस्था हिन्दू समाज को कई भागों में बांट देती है जिसमें प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर देती है। इस वजह से सदस्यों के बीच किसी विशेष समूह का हिस्सा होने के कारण चेतना होती है तथा इसी वजह से ही वह अपने आप को उस समूह का अटूट अंग समझने लग जाता है। समाज की इस तरह हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों के अन्तर्कार्यों का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता है। यह भी देखने में आया है कि अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के तरीके तथा रस्मों-रिवाज अलग-अलग होते हैं। एक जाति के लोग अधिकतर अपनी जाति के सदस्यों के साथ ही अन्तक्रिया करते हैं। इस प्रकार घूर्ये के अनुसार प्रत्येक जाति अपने आप में पूर्ण सामाजिक जीवन बिताने वाली सामाजिक इकाई होती है।

(ii) पदक्रम (Hierarchy) भारत के अधिकतर भागों में ब्राह्मण वर्ण को सबसे उच्च दर्जा दिया गया था। जाति व्यवस्था में एक निश्चित पदक्रम देखने को मिलता है। इस व्यवस्था में उच्च तथा निम्न जातियों का दर्जा तो लगभग निश्चित ही होता है परन्तु बीच वाली जातियों में कुछ अस्पष्टता है। परन्तु फिर भी दूसरे स्थान पर क्षत्रिय तथा तीसरे स्थान पर वैश्य आते थे।

(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on feeding and social intercourse)-जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट तथा विस्तृत नियम मिलते हैं जो यह बताते हैं कि कोई व्यक्ति किस जाति से सामाजिक मेल-जोल रख सकता है तथा कौन-सी जातियों से खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। सम्पूर्ण भोजन को कच्चे तथा पक्के भोजन की श्रेणी में रखा जाता है। कच्चे भोजन को पकाने के लिए पानी का प्रयोग तथा पक्के भोजन को पकाने के लिए घी का प्रयोग होता है। जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध में प्रतिबन्ध लगे होते हैं।

(iv) अलग-अलग जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार (Civil and religious disabilities and priviledges of various castes)—अलग-अलग जातियों के विशेष नागरिक तथा धार्मिक अधिकार तथा निर्योग्यताएं होती थीं। कुछ जातियों के साथ किसी भी प्रकार के मेल-जोल पर पाबन्दी थी। वह मंदिरों में भी नहीं जा सकते थे तथा कुँओं से पानी भी नहीं भर सकते थे। उन्हें धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। उनके बच्चों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था। परन्तु कुछ जातियां ऐसी भी थीं जिन्हें अन्य जातियों पर कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे।

(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी (Lack of unrestricted choice of occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार कुछ जातियों के विशेष, परम्परागत तथा पैतृक पेशे होते थे। जाति के सदस्यों को परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था चाहे अन्य पेशे कितने भी लाभदायक क्यों न हों। परन्तु कुछ पेशे ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी कर सकता था। इसके साथ बहुत-सी जातियों के पेशे निश्चित होते थे।

(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on Marriage)-भारत के बहुत से हिस्सों में जातियों तथा उपजातियों में विभाजन मिलता है। यह उपजाति समूह अपने सदस्यों को बाहर वाले व्यक्तियों के साथ विवाह करने से रोकते थे। जाति व्यवस्था की विशेषता उसका अन्तर्वैवाहिक होना है। व्यक्ति को अपनी उपजाति से बाहर ही विवाह करवाना पड़ता था। विवाह सम्बन्धी नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को उसकी जाति से बाहर निकाल दिया जाता था।

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प्रश्न 4.
जाति प्रथा की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी (Membership was based on birth)-जाति व्यवस्था की सबसे पहली विशेषता यह थी कि इसकी सदस्यता व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर नहीं बल्कि उसके जन्म पर आधारित होती थी। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का निर्धारण नहीं कर सकता। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसकी स्थिति उसी के अनुसार निश्चित हो जाती थी। व्यक्ति में जितनी चाहे मर्जी योग्यता क्यों न हो वह अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था।

2. सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबंध (Restrictions on Social relations)-प्राचीन समय में समाज को अलग-अलग वर्गों के बीच विभाजित किया गया था तथा धीरे-धीरे इन वर्गों ने जातियों का रूप ले लिया। सामाजिक संस्तरण में किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से अच्छी थी तथा किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से निम्न थी। इस प्रकार सामाजिक संस्तरण के अनुसार उनके बीच सामाजिक सम्बन्ध भी निश्चित हो गए। यही कारण है कि अलग-अलग वर्गों में उच्च निम्न की भावना पाई जाती थी। इन अलग-अलग जातियों के ऊपर एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध रखने के ऊपर प्रतिबन्ध थे तथा वह एक-दूसरे से दूरी बना कर रखते थे। कुछ जातियों को तो पढ़ने-लिखने कुँओं से पानी भरने तथा मन्दिरों में जाने की भी आज्ञा नहीं थी। प्राचीन समय में ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के लिए उपनयान संस्कार पूर्ण करना पड़ता था। कुछेक वर्गों के लिए तो इस संस्कार को पूर्ण करने के लिए आयु निश्चित की गई थी, परन्तु कुछ को तो वह संस्कार पूर्ण करने की आज्ञा ही नहीं थी। इस प्रकार अलग-अलग जातियों के बीच सामाजिक सम्बन्धों को रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।

3. खाने-पीने पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Eatables) जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट नियम मिलते थे जो यह बताते थे कि किस व्यक्ति ने किसके साथ सम्बन्ध रखने थे अथवा नहीं तथा वह किन जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे। सम्पूर्ण भोजन को दो भागों में विभाजित किया गया था तथा वह थे कच्चा भोजन तथा पक्का भोजन। कच्चा भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए पानी का प्रयोग होता था तथा पक्का भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए घी का प्रयोग होता था। साधारण नियम यह था कि कोई व्यक्ति कच्चा भोजन उस समय तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसकी अपनी ही जाति के व्यक्ति की तरफ से तैयार न किया गया हो। इसलिए बहत-सी जातियां ब्राह्मण द्वारा कच्चा भोजन स्वीकार कर लेती थी परन्तु इसके विपरीत ब्राह्मण किसी अन्य जाति के व्यक्ति से कच्चा भोजन स्वीकार नहीं करते थे। पक्के भोजन को भी किसी विशेष जाति के व्यक्ति की तरफ से ही स्वीकार किया जाता था। इस प्रकार जाति व्यवस्था ने अलग-अलग जातियों के बीच खाने-पीने के सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगाए हुए थे तथा सभी के लिए इनकी पालना करनी ज़रूरी थी।

4. मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबंदी (Restriction on Occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार प्रत्येक जाति का कोई न कोई पैतृक तथा परंपरागत पेशा होता था तथा व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसे उसी जाति का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था। व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता था। उसे बचपन से ही अपने परम्परागत पेशे की शिक्षा मिलनी शुरू हो जाती थी तथा जवान होते-होते वह उस कार्य में निपुण हो जाता है। चाहे कुछ कार्य ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी व्यक्ति कर सकता था जैसे कि व्यापार, कृषि, मज़दूरी, सेना में नौकरी इत्यादि। परन्तु फिर भी अधिकतर लोग अपनी ही जाति का पेशा अपनाते. थे। इस समय चार मुख्य वर्ण होते थे। पहले वर्ण का कार्य पढ़ना, पढ़ाना तथा धार्मिक कार्यों को पूर्ण करवाना था। दूसरे वर्ण का कार्य देश की रक्षा करना तथा राज्य चलाना था। तीसरे वर्ण का कार्य व्यापार करना, कृषि करना इत्यादि था। चौथे तथा अन्तिम वर्ण का कार्य ऊपर वाले तीनों वर्गों की सेवा करना था तथा इन्हें अपने परम्परागत कार्य ही करने पड़ते थे।

5. जाति अन्तर्वैवाहिक होती है (Caste is endogamous)-जाति व्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था। जाति व्यवस्था बहुत-सी जातियों तथा उपजातियों में विभाजित होती थी। यह उपजातियां अपने सदस्यों को अपने समूह से बाहर विवाह करने की आज्ञा नहीं देती। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति अथवा उपजाति से बाहर निकाल दिया जाता था। परन्तु अन्तर्विवाह के नियम में कुछ छूट भी मौजूद थी। किसी विशेष स्थिति में अपनी जाति से बाहर विवाह करवाने की आज्ञा थी। परन्तु साधारण नियम यह था कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। इस प्रकार सभी जातियों के लोग अपने समूहों में ही विवाह करवाते थे।

6. समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society)-जाति व्यवस्था द्वारा हिन्दू समाज को कई भागों में विभाजित कर दिया गया था तथा प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर दिये गए थे। इस कारण ही सदस्यों में अपने समूह का एक हिस्सा होने की चेतना उत्पन्न होती थी अर्थात् वह अपने आप को उस समूह का अभिन्न अंग समझने लग जाते थे। समाज के इस प्रकार अलग-अलग हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों की सामाजिक अन्तक्रिया का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता था। जाति के नियमों को न मानने वालों को जाति पंचायत की तरफ से दण्ड दिया जाता था। अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के ढंग तथा रस्मों-रिवाज भी अलग-अलग ही होते थे। प्रत्येक जाति अपने आप में एक सम्पूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत करने वाली सामाजिक इकाई होती थी।

7. पदक्रम (Hierarchy)–जाति व्यवस्था में अलग-अलग जातियों के बीच एक निश्चित पदक्रम मिलता था जिसके अनुसार यह पता चलता था कि किस जाति की सामाजिक स्थिति किस प्रकार की थी तथा उनमें किस प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते थे। चारों जातियों की इस व्यवस्था में एक निश्चित स्थिति होती थी तथा उनके कार्य भी उस संस्तरण तथा स्थिति के अनुसार निश्चित होते थे। कोई भी इस व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह नहीं खड़ा कर सकता था क्योंकि यह व्यवस्था तो सदियों से चली आ रही थी।

प्रश्न 5.
जाति प्रथा के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
अलग-अलग समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों ने भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन किया तथा अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की है। उन्होंने जाति प्रथा के अलग-अलग कार्यों का भी वर्णन किया है। उन सभी के जाति प्रथा के दिए कार्यों के अनुसार जाति प्रथा के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों का वर्णन इस प्रकार हैं-

1. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation) जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पैतृक गुणों वाली निपुणता स्वयं ही उत्पन्न हो जाती थी क्योंकि जिस परिवार में वह पैदा होता है उससे पेशे सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार बिना कोई औपचारिक शिक्षा लिए उसका विशेषीकरण हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह प्रथा समाज में होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती है तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है इस प्रकार जाति प्रथा व्यक्ति के कार्य का निर्धारण करती है।

2. सामाजिक सुरक्षा (Social Security)-जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के अन्य सदस्यों की सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उसे इस बात का पता होता है कि अगर उसके ऊपर किसी प्रकार का आर्थिक या किसी अन्य प्रकार का संकट आएगा तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा दो प्रकार से सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। पहली तो यह सदस्यों की सामाजिक स्थिति को निश्चित करती है तथा दूसरी यह उनकी प्रत्येक प्रकार के संकट से रक्षा करती है। इस प्रकार जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

3. मानसिक सुरक्षा (Mental Security)-जाति व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति तथा भूमिका निर्धारित होती है। उसने कौन-सा पेशा अपनाना है, कैसी शिक्षा लेनी है, कहां पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने हैं तथा किस जाति से किस प्रकार का व्यवहार करना है। यह सब कुछ जाति के नियमों द्वारा ही निश्चित किया जाता है। इससे व्यक्ति को किसी प्रकार की अनिश्चिता का सामना नहीं करना पड़ता। उसके अधिकार तथा कर्त्तव्य अच्छी तरह स्पष्ट होते हैं। जाति ही सभी नियमों का निश्चय करती है। इस प्रकार व्यक्ति के जीवन की जो समस्याएं अथवा मुश्किलें होती हैं उन्हें जाति बहुत ही आसानी से सुलझा लेती है। इससे व्यक्ति को दिमागी तथा मानसिक सुरक्षा प्राप्त हो जाती है।

4. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)-चाहे वैज्ञानिक आधार पर यह मानना मुश्किल है, परन्तु यह कहा जाता है कि जाति रक्त की शुद्धता बना कर रखती है क्योंकि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है। अन्तर्वैवाहिक होने के कारण एक जाति के सदस्य किसी अन्य जाति के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करते तथा उनका रक्त उन्हीं में शुद्ध रह जाता है। अन्य समाजों में भी रक्त की शुद्धता बनाकर रखने के प्रयास किए गए हैं, परन्तु इससे कई प्रकार की मुश्किलें तथा संघर्ष उत्पन्न हो गए हैं। फिर भी भारत में यह नियम पूर्ण सफलता के साथ चला था। जाति में विवाह सम्बन्धी कठोर पाबन्दियां थीं। कोई भी अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं करवा सकता था। यही कारण है कि जाति के विवाह जाति में ही होते थे। इस नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। इससे रक्त की शुद्धता बनी रहती थी।

5. राजनीतिक स्थायित्व (Political Stability)-जाति व्यवस्था हिन्दू राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य आधार थी। राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार तथा कर्त्तव्य उसकी जाति निर्धारित करती थी क्योंकि लोगों का जाति के नियमों पर विश्वास दैवीय शक्तियों से भी अधिक होता था। इस कारण जाति के नियमों को मानना प्रत्येक व्यक्ति का मुख्य कर्त्तव्य था। आजकल तो अलग-अलग जातियों ने अपने-अपने राजनीतिक संगठन बना लिए हैं जो चुनावों के बाद अपने सदस्यों की सहायता करते हैं तथा जीतने के बाद अपनी जाति के लोगों का विशेष ध्यान रखते हैं। इस प्रकार जाति के सदस्यों को लाभ होता है। इस प्रकार यह जाति का राजनीतिक कार्य होता है।

6. शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निश्चय (Fixing rules of education)-जाति व्यवस्था अलग-अलग जातियों के लिए विशेष प्रकार की शिक्षा का निर्धारण करती थी। इस प्रकार की शिक्षा का आधार धर्म था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को पेशे सम्बन्धी जानकारी भी देती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य सम्बन्धी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती है। इस प्रकार जाति व्यवस्था व्यक्ति को सैद्धान्तिक तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती थी। जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा लेने के नियम बनाती थी। जाति ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति का व्यक्ति कितने समय के लिए शिक्षा प्राप्त करेगा तथा कौन-कौन से नियमों की पालना करेगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों के लिए उस जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।

7. तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखना (To preserve technical secrets)-प्रत्येक जाति के कुछ परम्परागत कार्य होते थे। उस परम्परागत कार्य के कुछ तकनीकी रहस्य भी होते थे जो केवल उसे करने वालों को ही पता होते हैं। इस प्रकार जब यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते थे तो यह तकनीकी रहस्य भी अगली पीढ़ी के पास चले जाते थे। क्योंकि यह कार्य केवल उस जाति ने करने होते थे इसलिए यह भेद भी जाति तक ही रहते थे। इनका रहस्य भी नहीं खुलता था। इस प्रकार जाति तकनीकी भेदों को गुप्त रखने का भी कार्य करती थी।

8. सामाजिक एकता (Social Unity) हिन्दू समाज को एकता में बाँधकर रखने में जाति व्यवस्था ने काफ़ी महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में बाँट दिया था तथा प्रत्येक भाग के कार्य भी अलग-अलग ही थे। जैसे श्रम विभाजन में कार्य अलग-अलग होते हैं वैसे ही जाति व्यवस्था ने भी सभी को अलग-अलग कार्य दिए थे। इस प्रकार सभी भाग अलग-अलग कार्य करते हुए एक-दूसरे की सहायता करते तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस कारण ही अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।

9. व्यवहार पर नियन्त्रण (Control on behaviour)-जाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति तथा उसके सदस्यों के लिए नियम बनाए हुए थे कि किस व्यक्ति ने किस प्रकार का व्यवहार करना है। जाति प्रथा के नियमों के कारण ही व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को नियन्त्रण में रखता था तथा उन नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करता था। शिक्षा, विवाह, खाने-पीने, सामाजिक सम्बन्धों इत्यादि जैसे पक्षों के लिए जाति प्रथा के नियम होते थे जिस कारण व्यक्तिगत व्यवहार नियन्त्रण में रहते थे।

10. विवाह सम्बन्धी कार्य (Function of Marriage)-प्रत्येक जाति अन्तर्वैवाहिक होती थी अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति तथा उपजाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति प्रथा का यह सबसे महत्त्वपूर्ण नियम था कि व्यक्ति अपने वंश अथवा परिवार से बाहर विवाह करवाएगा परन्तु वह अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाएगा। यदि कोई अपनी जाति अथवा उपजाति से बाहर विवाह करवाता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस प्रकार जाति विवाह सम्बन्धी कार्य भी पूर्ण करती थी।

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प्रश्न 6.
जाति प्रथा के गुणों तथा अवगुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति अपने आप में एक ऐसा समूह है जिसने हिन्दू समाज तथा भारत में बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। जितना कार्य अकेला जाति व्यवस्था ने किया है उतने कार्य अन्य संस्थाओं ने मिल कर भी नहीं किए होंगे। इससे हम देखते हैं कि जाति व्यवस्था के बहुत से गुण हैं। परन्तु इन गुणों के साथ-साथ कुछ अवगुण भी हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

जाति व्यवस्था के गुण अथवा लाभ (Merits or Advantages of Caste System)-

1. सामाजिक सुरक्षा देना (To give social security)—जाति प्रथा का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के सदस्यों की सहायता करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उन्हें इस बात का पता होता है कि अगर उन्हें किसी प्रकार की समस्या आएगी तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा सदस्यों की सामाजिक स्थिति भी निश्चित करती थी तथा प्रतियोगिता की सम्भावना को भी कम करती थी।

2. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह है कि यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष पेशे अथवा कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पारिवारिक कार्य के प्रति गुण स्वयं ही पैदा हो जाते थे। जिस परिवार में बच्चा पैदा होता था उससे कार्य सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार बिना किसी औपचारिक शिक्षा के विशेषीकरण हो जाता था। इसके साथ ही जाति व्यवस्था समाज में पेशे के लिए होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती थी तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती थी। इस प्रकार जाति व्यवस्था का यह गुण काफ़ी महत्त्वपूर्ण था।

3. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)—जाति प्रथा एक अन्तर्वैवाहिक समूह है। अन्तर्वैवाहिक का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था तथा अगर कोई इस नियम को नहीं मानता था तो उसे जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। ऐसा करने का यह लाभ होता था कि बाहर वाली किसी जाति के साथ रक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं होते थे तथा अपनी जाति के रक्त की शुद्धता बनी रहती थी। इस प्रकार जाति का एक गुण यह भी था कि यह रक्त की शुद्धता बनाए रखने में सहायता करती थी।

4. श्रम विभाजन (Division of Labour)-जाति व्यवस्था का एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण यह था कि यह सभी व्यक्तियों में अपने कर्त्तव्य के प्रति प्रेम तथा निष्ठा की भावना उत्पन्न करती थी। निम्न प्रकार के कार्य भी व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझ कर अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों में यह भावना भर देती थी कि प्रत्येक सदस्य को उसके पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में पेशा मिला है। उसे यह भी विश्वास दिलाया जाता था कि वर्तमान कर्त्तव्यों को पूर्ण करने से ही अगले जन्म में उच्च स्थिति प्राप्त होगी। इसका लाभ यह था कि निराशा खत्म हो गई तथा सभी अपना कार्य अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया हुआ था तथा इन चारों भागों को अपने कार्यों का अच्छी तरह से पता था। यह सभी अपना कार्य अच्छे ढंग से करते थे तथा समय के साथ-साथ अपने पेशे के रहस्य अपनी अगली पीढ़ी को सौंप देते थे। इस प्रकार समाज में पेशे के प्रति स्थिरता बनी रही थी तथा श्रम विभाजन के साथ विशेषीकरण भी हो जाता था।

5. शिक्षा के नियम बनाना (To make rules of education)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने शिक्षा लेने के सम्बन्ध में निश्चित नियम बनाए हुए थे तथा धर्म को शिक्षा का आधार बनाया हुआ था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण, पेशे सम्बन्धी जानकारी तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य संबंधी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी जानकारी भी देती है। जाति व्यवस्था ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति के व्यक्ति ने कितनी शिक्षा लेनी है तथा कौन-से नियमों का पालन करना है। इस प्रकार जाति व्यवस्था ही प्रत्येक सदस्य के लिए उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।

6. सामाजिक एकता को बना कर रखना (To maintain social unity)—जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने हिन्दू समाज को एकता में बाँध कर रखा। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया था तथा प्रत्येक भाग को अलग-अलग कार्य भी दिए थे। जिस प्रकार श्रम विभाजन में प्रत्येक का कार्य अलगअलग होता है उसी प्रकार जाति व्यवस्था ने भी समाज में श्रम विभाजन को पैदा किया था। यह सभी भाग अलगअलग कार्य करते थे तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस प्रकार अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।

जाति व्यवस्था के अवगुण (Demerits of Caste System)-चाहे जाति व्यवस्था के बहुत से गुण थे तथा इसने सामाजिक एकता रखने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, परन्तु फिर भी इस व्यवस्था के कारण समाज में कई बुराइयां भी पैदा हो गई थीं। जाति व्यवस्था के अवगुण निम्नलिखित हैं-

1. स्त्रियों की निम्न स्थिति (Lower Status of Women) जाति व्यवस्था के कारण स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न हो गई थी। जाति व्यवस्था के नियन्त्रणों के कारण हिन्दू स्त्रियों की स्थिति परिवार में नौकरानी से अधिक नहीं थी। जाति अन्तर्वैवाहिक समूह था जिस कारण लोगों ने अपनी जाति में वर ढूंढ़ने के लिए बाल विवाह का समर्थन किया। इससे बहुविवाह तथा बेमेल विवाह को समर्थन मिला। कुलीन विवाह की प्रथा ने भी बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह तथा दहेज प्रथा जैसी समस्याओं को जन्म दिया। स्त्रियां केवल घर पर ही कार्य करती रहती थीं। उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं थे। इस प्रकार स्त्रियों से सम्बन्धित सभी समस्याओं की जड़ ही जाति व्यवस्था थी। जाति व्यवस्था ने ही स्त्रियों की प्रगति पर पाबंदी लगा दी तथा बाल विवाह पर बल दिया। विधवा विवाह को मान्यता न दी। स्त्रियां केवल परिवार की सेवा करने के लिए ही रह गई थीं।

2. अस्पृश्यता (Untouchability)-अस्पृश्यता जैसी समस्या का जन्म भी जाति प्रथा की विभाजन की नीति के कारण ही हुआ था। कुल जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग को अपवित्र मान कर इसलिए अपमानित किया जाता था क्योंकि वह जो कार्य करते थे उसे अपवित्र माना जाता था। उनकी काफ़ी दुर्दशा होती थी तथा उनके ऊपर बहुत से प्रतिबंध लगे हुए थे। वह आर्थिक क्षेत्र में भाग नहीं ले सकते थे। इस प्रकार जाति व्यवस्था के कारण जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग समाज के ऊपर बोझ बन कर रह गया था। इस कारण समाज में निर्धनता आ गई। अलगअलग जातियों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत उत्पन्न हो गई तथा जातिवाद जैसी समस्या हमारे सामने आई।

3. जातिवाद (Casteism)—जाति व्यवस्था के कारण ही लोगों की मनोवृत्ति भी सिकुड़ती चली गई। लोग विवाह सम्बन्धों तथा अन्य प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों के लिए जाति के नियमों पर निर्भर थे जिस कारण जातिवाद की भावना बढ़ गई। उच्च तथा निम्न स्थिति के कारण लोगों में गर्व तथा हीनता की भावना उत्पन्न हो गई। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा ने उनके बीच दूरियां पैदा कर दी। इस कारण देश में जातिवाद की समस्या सामने आई। जातिवाद के कारण लोग अपने देश के बारे में नहीं सोचते तथा इस समस्या को बढ़ाते हैं।

4. सांस्कृतिक संघर्ष (Cultural Conflict)-जाति एक बंद समूह है तथा अलग-अलग जातियों में एकदूसरे के साथ सम्बन्ध रखने पर प्रतिबंध होते थे। इन सभी जातियों के रहने-सहने के ढंग अलग-अलग थे। इस सामाजिक पृथक्ता ने सांस्कृतिक संघर्ष की समस्या को जन्म दिया। अलग-अलग जातियां अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों में विभाजित हो गईं। इन समूहों में कई प्रकार के संघर्ष देखने को मिलते थे। कुछ जातियां अपनी संस्कृति को उच्च मानती थीं जिस कारण वह अन्य समूहों से दूरी बना कर रखती थी। इस कारण उनमें संघर्ष के मौके पैदा होते रहते थे।

5. सामाजिक गतिशीलता को रोकना (To stop social mobility)-जाति व्यवस्था में स्थिति का विभाजन जन्म के आधार पर होता था। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्रत्येक सदस्य को अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में पता होता था कि यह परिवर्तित नहीं हो सकती, इसी तरह ही रहेगी। इस भावना ने आलस्य को बढ़ाया। इस व्यवस्था में वह प्रेरणा नहीं होती, जिसमें व्यक्ति अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित होते थे क्योंकि वह परिश्रम करके भी अपनी सामाजिक स्थिति परिवर्तित नहीं कर सकते थे। यह बात आर्थिक प्रगति में भी रुकावट बनती थी। योग्यता होने के बावजूद भी लोग नया आविष्कार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्हें अपना पैतृक कार्य अपनाना पड़ता था। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा के कारण भारत में कई प्रकार के उद्योग पिछड़े हुए थे क्योंकि जाति व्यवस्था उन्हें ऐसा करने से रोकती थी।

6. कार्य कुशलता में रुकावट (Obstacle in efficiency)—प्राचीन समय में व्यक्तियों में कार्य-कुशलता में कमी होने का प्रमुख कारण जाति व्यवस्था तथा जाति का नियन्त्रण था। सभी जातियों के सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य नहीं करते थे बल्कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे। इसके साथ ही जातियां धार्मिक संस्कारों पर इतना बल देती थी कि लोगों का अधिकतर समय तो इन संस्कारों को पूर्ण करने में ही निकल जाता था। जातियों में पेशा वंश के अनुसार होता था तथा लोगों को अपना परम्परागत पेशा ही अपनाना पड़ता था चाहे उनमें उस कार्य के प्रति योग्यता होती थी अथवा नहीं। इस कारण उनमें कार्य के प्रति उदासीनता आ जाती थी।

7. जाति व्यवस्था तथा प्रजातन्त्र (Caste System and Democracy) —जाति व्यवस्था आधुनिक प्रजातन्त्रीय शासन के विरुद्ध है। समानता, स्वतन्त्रता तथा सामाजिक चेतना प्रजातन्त्र के तीन आधार हैं, परन्तु जाति व्यवस्था इन सिद्धान्तों के विरुद्ध जाकर भाग्य के सहारे रहने वाले समाज का निर्माण करती थी। यह व्यवस्था असमानता पर आधारित थी। जाति व्यक्ति को अपने नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने की आज्ञा देती थी जोकि प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध है। कुछ जातियों पर बहुत से प्रतिबंध लगा दिए गए थे जिस कारण योग्यता होते हुए भी वह समाज में ऊपर उठ नहीं सकते थे। इन लोगों की स्थिति नौकरों जैसी होती थी जोकि प्रजातन्त्र के समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

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प्रश्न 7.
वर्ग के विभाजन के अलग-अलग आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
वर्ग की व्याख्या व विशेषताओं के आधार पर हम वर्ग के विभाजन के कुछ आधारों का जिक्र कर सकते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया गया है
(1) परिवार व रिश्तेदार (2) सम्पत्ति व आय, पैसा (3) व्यापार (4) रहने के स्थान की दिशा (5) शिक्षा (6) शक्ति (7) धर्म (8) नस्ल (9) जाति (10) स्थिति चिन्ह।

1. परिवार व रिश्तेदारी (Family and Kinship)—परिवार व रिश्तेदारी भी वर्ग की स्थिति निर्धारित करने के लिए जिम्मेवार होता है। बीयरस्टेड के अनुसार, “सामाजिक वर्ग की कसौटी के रूप में परिवार व रिश्तेदारी का महत्त्व सारे समाज में बराबर नहीं होता, बल्कि यह तो अनेक आधारों में एक विशेष आधार है जिसका उपयोग सम्पूर्ण व्यवस्था में एक अंग के रूप में किया जा सकता है। परिवार के द्वारा प्राप्त स्थिति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। जैसे टाटा बिरला आदि के परिवार में पैदा हुई सन्तान पूंजीपति ही रहती है क्योंकि उनके बुजुर्गों ने इतना पैसा कमाया होता है कि कई पीढ़ियां यदि न भी मेहनत करें तो भी खा सकती हैं। इस प्रकार अमीर परिवार में पैदा हुए व्यक्ति को भी वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार परिवार व रिश्तेदारी की स्थिति के आधार पर भी व्यक्ति को वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।

2. सम्पत्ति, आय व पैसा (Property, Income and Money) वर्ग के आधार पर सम्पत्ति, पैसे व आय को प्रत्येक समाज में महत्त्वपूर्ण जगह प्राप्त होती है। आधुनिक समाज को इसी कारण पूंजीवादी समाज कहा गया है। पैसा एक ऐसा स्रोत है जो व्यक्ति को समाज में बहुत तेजी से उच्च सामाजिक स्थिति की ओर ले जाता है। मार्टिनडेल व मोनाचेसी (Martindal and Monachesi) के अनुसार, “उत्पादन के साधनों व उत्पादित पदार्थों पर व्यक्ति का काबू जितना अधिक होगा उसको उतनी ही उच्च वर्ग वाली स्थिति प्राप्त होती है।” प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने पैसे को ही वर्ग निर्धारण के लिए मुख्य माना। अधिक पैसा होने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अमीर है। उनकी आय भी अधिक होती है। इस प्रकार धन, सम्पत्ति व आय के आधार पर भी वर्ग निर्धारित होता है।”

3. पेशा (Occupation)-सामाजिक वर्ग का निर्धारक पेशा भी माना जाता है। व्यक्ति समाज में किस तरह का पेशा कर रहा है, यह भी वर्ग व्यवस्था से सम्बन्धित है। क्योंकि हमारी वर्ग व्यवस्था के बीच कुछ पेशा बहुत ही महत्त्वपूर्ण पाए गए हैं व कुछ पेशे कम महत्त्वपूर्ण । इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर आदि की पारिवारिक स्थिति चाहे जैसी भी हो परन्तु पेशे के आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति उच्च ही रहती है। लोग उनका आदर-सम्मान भी पूरा करते हैं। इस प्रकार कम पढ़े-लिखे व्यक्ति का पेशा समाज में निम्न रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पेशा भी वर्ग व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण निर्धारक होता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने के लिए कोई-न-कोई काम करना पड़ता है। इस प्रकार यह काम व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार करता है। वह जिस तरह का पेशा करता है समाज में उसे उसी तरह की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति गलत पेशे को अपनाकर पैसा इकट्ठा कर भी लेता है तो उसकी समाज में कोई इज्जत नहीं होती। आधुनिक समाज में शिक्षा से सम्बन्धित पेशे की अधिक महत्ता पाई जाती है।

4. रहने के स्थान की दिशा (Location of residence)—व्यक्ति किस जगह पर रहता है, यह भी उसकी वर्ग स्थिति को निर्धारित करता है। शहरों में हम आम देखते हैं कि लोग अपनी वर्ग स्थिति को देखते हुए, रहने के स्थान का चुनाव करते हैं। जैसे हम समाज में कुछ स्थानों के लिए (Posh areas) शब्द भी प्रयोग करते हैं। वार्नर के अनुसार जो परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी शहर के काल में पुश्तैनी घर में रहते हैं उनकी स्थिति भी उच्च होती है। कहने से भाव यह है कि कुछ लोग पुराने समय से अपने बड़े-बड़े पुश्तैनी घरों में ही रह जाते हैं। इस कारण भी वर्ग व्यवस्था में उनकी स्थिति उच्च ही बनी रहती है। बड़े-बड़े शहरों में व्यक्तियों के निवास स्थान के लिए भिन्न-भिन्न कालोनियां बनी रहती हैं। मज़दूर वर्ग के लोगों के रहने के स्थान अलग होते हैं। वहां अधिक गन्दगी भी पाई जाती है। अमीर लोग बड़े घरों में व साफ़-सुथरी जगह पर रहते हैं जबकि ग़रीब लोग झोंपड़ियों या गन्दी बस्तियों में रहते हैं।

5. शिक्षा (Education)-आधुनिक समाज शिक्षा के आधार पर दो वर्गों में बँटा हुआ होता है-

  1. शिक्षित वर्ग (Literate Class)
  2. अनपढ़ वर्ग (Illiterate Class)

शिक्षा की महत्ता प्रत्येक वर्ग में पाई जाती है। साधारणतः पर हम देखते हैं कि पढ़े-लिखे व्यक्ति को समाज में इज्जत की नज़र से देखा जाता है। चाहे उनके पास पैसा भी न हो। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान सामाजिक स्थिति अनुसार शिक्षा की प्राप्ति को ज़रूरी समझने लगा है। शिक्षा की प्रकृति भी व्यक्ति की वर्ग स्थिति के निर्धारण के लिए जिम्मेवार होती है। औद्योगीकृत समाज में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति काफ़ी ऊँची होती है।

6. शक्ति (Power)-आजकल औद्योगीकरण के विकास के कारण व लोकतन्त्र के आने से शक्ति भी वर्ग संरचना का आधार बन गई है। अधिक शक्ति का होना या न होना व्यक्ति के वर्ग का निर्धारण करती है। शक्ति से व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति का भी निर्धारण होता है। शक्ति कुछ श्रेष्ठ लोगों के हाथ में होती है व वह श्रेष्ठ लोग नेता, अधिकारी, सैनिक अधिकारी, अमीर लोग होते हैं। हमने उदाहरण ली है आज की भारत सरकार की। नरेंद्र मोदी की स्थिति निश्चय ही सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह से ऊँची होगी क्योंकि उनके पास शक्ति है, सत्ता उनके हाथ में है, परन्तु मनमोहन सिंह के पास नहीं है। इस प्रकार आज भाजपा की स्थिति कांग्रेस से उच्च है क्योंकि केन्द्र में भाजपा पार्टी की सरकार है।

7. धर्म (Religion)-राबर्ट बियरस्टड ने धर्म को भी सामाजिक स्थिति का महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। कई समाज ऐसे हैं जहां परम्परावादी रूढ़िवादी विचारों का अधिक प्रभाव पाया जाता है। उच्च धर्म के आधार पर स्थिति निर्धारित होती है। आधुनिक समय में समाज उन्नति के रास्ते पर चल रहा है जिस कारण धर्म की महत्ता उतनी नहीं जितनी पहले होती थी। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च होती थी परन्तु आजकल नहीं। पाकिस्तान में मुसलमानों की स्थिति निश्चित रूप से व हिन्दुओं व ईसाइयों से बढ़िया है क्योंकि वहां राज्य का धर्म ही इस्लाम है। इस प्रकार कई बार धर्म भी वर्ग स्थिति निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

8. नस्ल (Race)-दुनिया से कई समाज में नस्ल भी वर्ग निर्माण या वर्ग की स्थिति बताने में सहायक होती है। गोरे लोगों को उच्च वर्ग का व काले लोगों को निम्न वर्ग का समझा जाता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में एशिया के देशों के लोगों को बुरी निगाह से देखा जाता है। इन देशों में नस्ली हिंसा आम देखने को मिलती है। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीति काफ़ी चली है।

9. जाति (Caste)—भारत जैसे देश में जहां जाति प्रथा सदियों से भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जाति वर्ग निर्धारण का बहुत महत्त्वपूर्ण आधार थी। जाति जन्म पर आधारित होती है। जिस जाति में व्यक्ति ने जन्म लिया है वह अपनी योग्यता से भी उसको बदल नहीं सकता।

10. स्थिति चिन्ह (Status symbol) स्थिति चिन्ह लगभग हर एक समाज में व्यक्ति की वर्ग व्यवस्था को निर्धारित करता है। आजकल के समय, कोठी, कार, टी० वी०, टैलीफोन, फ्रिज आदि का होना व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति के पास अच्छा जीवन व्यतीत करने वाली कितनी सुविधाएं हैं। यह सब स्थिति चिन्हों में शामिल होती हैं, जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करते हैं।

इस विवरण के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति के वर्ग के निर्धारण में केवल एक कारक ही उत्तरदायी नहीं होता, बल्कि कई कारक उत्तरदायी होते हैं।

प्रश्न 8.
जाति व वर्ग में अन्तर बताओ।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के दो मुख्य आधार जाति व वर्ग हैं। जाति को एक बन्द व्यवस्था व वर्ग को एक खुली व्यवस्था कहा जाता है। पर वर्ग अधिक खुली अवस्था नहीं है क्योंकि किसी भी वर्ग को अन्दर जाने के लिए सख्त मेहनत करनी पड़ती है व उस वर्ग के सदस्य रास्ते में काफ़ी रोड़े अटकाते हैं। कई विद्वान् यह कहते हैं कि जाति व वर्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं है परन्तु दोनों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह पता चलेगा कि दोनों में काफ़ी अन्तर है। इनका वर्णन नीचे लिखा है-

1. जाति जन्म पर आधारित होती है पर वर्ग का आधार कर्म होता है (Caste is based on birth but class is based on action)—जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, वह तमाम आयु उसी से जुड़ा होता है।

वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता शिक्षा, आय, व्यापार योग्यता पर आधारित होती है। व्यक्ति जब चाहे अपनी सदस्यता बदल सकता है। एक ग़रीब वर्ग से सम्बन्धित व्यक्ति मेहनत करके अपनी सदस्यता अमीर वर्ग से ही जोड़ सकता है। वर्ग की सदस्यता योग्यता पर आधारित होती है। यदि व्यक्ति में योग्यता नहीं है व वह कर्म नहीं करता है तो वह उच्च स्थिति से निम्न स्थिति में भी जा सकता है। यदि वह कर्म करता है तो वह निम्न स्थिति से उच्च स्थिति में भी जा सकता है। जिस प्रकार जाति धर्म पर आधारित है पर वर्ग कर्म पर आधारित होता है।

2. जाति का पेशा निश्चित होता है पर वर्ग का नहीं (Occupation of caste is determined but not of Class)-जाति प्रथा में पेशे की व्यवस्था भी व्यक्ति के जन्म पर ही आधारित होती थी अर्थात् विभिन्न जातियों से सम्बन्धित पेशे होते थे। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना होता था। वह सारी उम्र उस पेशे को बदल कर कोई दूसरा कार्य भी नहीं अपना सकता था। इस प्रकार न चाहते हुए भी उसको अपनी जाति के पेशे को ही अपनाना पड़ता था।

वर्ग व्यवस्था में पेशे के चुनाव का क्षेत्र बहुत विशाल है। व्यक्ति की अपनी इच्छा होती है कि वह किसी भी पेशे को अपना ले। विशेष रूप से व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता था कि वह किसी भी पेशे को अपना लेता है। विशेष रूप से पर व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता है वह उसी पेशे को अपनाता है क्योंकि उसका विशेष उद्देश्य लाभ प्राप्ति की ओर होता था व कई बार यदि वह एक पेशे को करते हुए तंग आ जाता है तो वह दूसरे किसी और पेशे को भी अपना सकता है। इस प्रकार पेशे को अपनाना व्यक्ति की योग्यता पर आधारित होता है।

3. जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है पर वर्ग की सदस्यता अर्जित होती है (Membership of Caste is ascribed but membership of class is achieved)-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति से सम्बन्धित होती थी अर्थात् स्थिति वह स्वयं प्राप्त नहीं करता था बल्कि जन्म से ही सम्बन्धित होती थी। इसी कारण व्यक्ति की स्थिति के लिए ‘प्रदत्त’ (ascribed) शब्द का उपयोग किया जाता था। इसी कारण जाति व्यवस्था में स्थिरता बनी रहती थी। व्यक्ति का पद वह ही होता था जो उसके परिवार का हो। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति ‘अर्जित’ (achieved) होती है भाव कि उसको समाज में अपनी स्थिति प्राप्त करनी पड़ती है। इसी कारण व्यक्ति शुरू से ही मेहनत करनी शुरू कर देता है। व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न स्थिति से उच्च स्थिति भी प्राप्त कर लेता है। इसमें व्यक्ति के जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता। व्यक्ति की मेहनत व योग्यता उसके वर्ग व स्थिति के बदलने में महत्त्वपूर्ण होती है।

4. जाति बन्द व्यवस्था है व वर्ग खुली व्यवस्था है (Caste is a closed system but class is an open system)-जाति प्रथा स्तरीकरण का बन्द समूह होता है क्योंकि व्यक्ति को सारी उम्र सीमाओं में बन्ध कर रहना पड़ता है। न तो वह जाति बदल सकता है न ही पेशा। श्रेणी व्यवस्था स्तरीकरण का खुला समूह होता है। इस प्रकार व्यक्ति को हर किस्म की आज़ादी होती है। वह किसी भी क्षेत्र में मेहनत करके आगे बढ़ सकता है। उसको समाज में अपनी निम्न स्थिति से ऊपर की स्थिति की ओर बढ़ने के पूरे मौके भी प्राप्त होते हैं। वर्ग का दरवाज़ा प्रत्येक के लिए खुला होता है। व्यक्ति अपनी योग्यता, सम्पत्ति, मेहनत के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है व वह अपनी सारी उम्र में कई वर्गों का सदस्य बनता है।

5. जाति व्यवस्था में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में कोई नहीं होती (There are many restrictions in caste system but not in any class)-जाति प्रथा द्वारा अपने सदस्यों पर कई पाबन्दियां लगाई जाती थीं।

खान-पान सम्बन्धी, विवाह, सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि सम्बन्धी बहत पाबन्दियां थीं। व्यक्ति की ज़िन्दगी पर जाति का पूरा नियन्त्रण होता था। वह उन पाबिन्दयों को तोड़ भी नहीं सकता था। __ वर्ग व्यवस्था में व्यक्तिगत आज़ादी होती थी। भोजन, विवाह आदि सम्बन्धी किसी किस्म का कोई नियन्त्रण नहीं होता था। किसी भी वर्ग का व्यक्ति दूसरे वर्ग के व्यक्ति से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता था।

6. जाति में चेतनता नहीं होती पर वर्ग में चेतनता होती है (There is no caste consciousness but there is class consciousness)-जाति व्यवस्था में जाति चेतनता नहीं पाई जाती थी। इसका एक कारण तो था कि चाहे निम्न जाति के व्यक्ति को पता था कि उच्च जातियों की स्थिति उच्च है, परन्तु फिर भी वह इस सम्बन्धी कुछ नहीं कर सकता था। इसी कारण वह परिश्रम करना भी बन्द कर देता था। उसको अपनी योग्यता अनुसार समाज में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था।

वर्ग के सदस्यों में वर्ग चेतनता पाई जाती थी। इसी चेतनता के आधार पर तो वर्ग का निर्माण होता था। व्यक्ति इस सम्बन्धी पूरा चेतन होता था कि वह कितना परिश्रम करे ताकि उच्च वर्ग स्थिति को प्राप्त कर सके। इसी प्रकार वह हमेशा अपनी योग्यता को बढ़ाने की ओर ही लगा रहता था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

सामाजिक स्तरीकरण PSEB 11th Class Sociology Notes

  • हमारे समाज में चारों तरफ असमानता व्याप्त है। कोई काला है, कोई गोरा है, कोई अमीर है, कोई निर्धन है, कोई पतला है कोई मोटा है, कोई कम साक्षर है तथा कोई अधिक। ऐसे कितने ही आधार हैं जिनके कारण समाज में प्राचीन समय से ही असमानता चली आ रही है तथा चलती रहेगी।
  • समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है। ऐसा कोई भी समाज नहीं है जहां स्तरीकरण मौजूद न हो। चाहे प्राचीन समाजों जैसे सरल एवं सादे समाज हों या आधुनिक समाजों जैसे जटिल समाज, स्तरीकरण प्रत्येक समाज में मौजूद होता है।
  • स्तरीकरण की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह सर्वव्यापक प्रक्रिया है, इसकी प्रकृति सामाजिक होती है, प्रत्येक समाज में इसी प्रकार अलग होती है, इसमें उच्चता-निम्नता के संबंध होते हैं।
  • सभी समाजों में मुख्य रूप से चार प्रकार के स्तरीकरण के रूप पाए जाते हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी तथा गुलामी। भारतीय समाज को जितना जाति व्यवस्था ने प्रभावित किया है शायद किसी अन्य सामाजिक संस्था ने नहीं किया है।
  • जाति एक अन्तर्वेवाहिक समूह है जिसमें व्यक्तियों के ऊपर अन्य जातियों के साथ मेल-जोल के कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं तथा व्यक्ति के जन्म के अनुसार उसकी जाति तथा स्थिति निश्चित होती है।
  • आधुनिक समाजों में स्तरीकरण का एक नया रूप सामने आया है तथा वह है वर्ग व्यवस्था। वर्ग लोगों का एक समूह होता है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है। उदाहरण के लिए उच्च वर्ग, मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, श्रमिक वर्ग, उद्योगपति वर्ग, डॉक्टर वर्ग इत्यादि।
  • जागीरदारी व्यवस्था मध्यकालीन यूरोप का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रही है। एक व्यक्ति को राजा की तरफ से काफ़ी भूमि दी जाती थी तथा वह व्यक्ति काफ़ी अमीर हो जाता था। उसके बच्चों के पास यह भूमि पैतृक रूप से चली जाती थी।
  • गुलामी भी 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में संसार के अलग-अलग देशों में मौजूद रही है जिसमें गुलाम को उसका मालिक खरीद लेता था तथा उसके ऊपर सम्पूर्ण अधिकार रखता था।
  • जी० एस० घुर्ये एक भारतीय समाजशास्त्री था जिसने जाति व्यवस्था के ऊपर अपने विचार दिए। उनके अनुसार जाति व्यवस्था इतनी जटिल है कि इसकी परिभाषा देना मुमकिन नहीं है। इसलिए उन्होंने जाति व्यवस्था के छ: लक्षण दिए हैं।
  • भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् जाति व्यवस्था में बहुत से कारणों की वजह से बहुत से परिवर्तन आए हैं तथा आ भी रहे हैं। अब धीरे-धीरे जाति व्यवस्था खत्म हो रही है। अब जाति पर आधारित प्रतिबन्ध खत्म हो रहे हैं, जाति के विशेषाधिकार खत्म हो गए हैं, संवैधानिक प्रावधानों ने सभी को समानता प्रदान की है
    तथा जाति प्रथा को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • सभी समाजों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग मिलते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। इन वर्गों में मुख्य रूप से पैसे के आधार पर अंतर पाया जाता है।
  • जाति एक प्रकार का बन्द वर्ग है जिसे परिवर्तित करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है। परन्तु वर्ग एक ऐसा खुला वर्ग है जिसे व्यक्ति अपने परिश्रम तथा योग्यता से किसी भी समय बदल सकता है।
  • कार्ल मार्क्स के अनुसार समाज में अलग-अलग समय में दो प्रकार के वर्ग रहे हैं। पहला है पूंजीपति वर्ग · तथा द्वितीय है श्रमिक वर्ग। दोनों के बीच अधिक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए हमेशा से ही संघर्ष चला आ रहा है तथा दोनों के बीच होने वाले संघर्ष को वर्ग संघर्ष कहा जाता है।
  • वर्ग व्यवस्था में नए रूझान आ रहे हैं। पिछले काफी समय से एक नया वर्ग उभर कर सामने आया है जिसे हम मध्य वर्ग का नाम देते हैं। उच्च वर्ग, मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।
  • वर्ण (Varna)-प्राचीन समय में समाज को पेशे के आधार पर कई भागों में विभाजित किया गया था तथा प्रत्येक भाग को वर्ण कहते थे। चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जातियां।
  • जाति (Caste)—वह अन्तर्वैवाहिक समूह जिसमें अन्य जातियों के साथ संबंध रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।
  • वर्ग (Class)—वह आर्थिक समूह जिसे किसी न किसी आधार पर दूसरे आर्थिक समूह से अलग किया जा सकता है।
  • जागीरदारी व्यवस्था (Feudalism)—मध्यकाल से यूरोपियन समाज में महत्त्वपूर्ण संस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीदार बना दिया जाता था तथा वह भूमि से लगान एकत्र करता था।
  • स्तरीकरण (Stratification)-समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
सामाजिक प्रबन्ध में परिवर्तन के सन्दर्भ में उलेमा लोगों तथा सूफियों के धार्मिक विश्वासों और व्यवहारों की चर्चा करो।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत भारत के लिए एक नवीन अनुभव था। इस्लाम धर्म के आगमन से इस देश के पूरे समाज तथा सामाजिक परम्पराओं में परिवर्तन आ गया। शासक वर्ग में भी नवीन श्रेणियां देखने को मिलीं। इन सबका वर्णन इस प्रकार है

I. सामाजिक प्रबन्ध में परिवर्तन –

मुस्लिम समाज-सल्तनत काल में सामाजिक प्रबन्ध में शासक वर्ग का विशेष महत्त्व था। इस वर्ग में बड़ी संख्या में तुर्क और पठान या अफ़गान थे। उनके अतिरिक्त कई अरब और ईरानी लोग भी उत्तरी भारत में आकर बस गए। इन आवासियों का शासक वर्ग के साथ निकट सम्बन्ध था, परन्तु ये सभी सैनिक या प्रशासक नहीं थे। इनमें व्यापारी, लेखक, मुल्ला तथा सूफ़ी भी सम्मिलित थे। इन विदेशियों में से कइयों ने इस देश की स्त्रियों से विवाह कर लिया। दूसरे, नगरों में शिल्पकारों और गांवों में किसानों के कई समूहों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उत्तरी भारत में इस्लाम धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक हो गई।

गैर-मुस्लिम समाज-इन परिवर्तनों का प्रभाव समाज के देशी तत्त्वों पर भी पड़ा। विजयनगर साम्राज्य और राजस्थान के बाहर अब कहीं-कहीं, छोटे-छोटे इलाकों पर, पुराने शासकों के उत्तराधिकारियों का अधिकार रह गया था। इनमें कुछ शासक स्वतन्त्र थे। अधिकांश शासक सुल्तानों के सामन्त मात्र थे। सल्तनतों के सीधे प्रशासन क्षेत्र में भी देशी लोगों का काफ़ी प्रभाव था। वे प्रायः प्रशासन के निचले स्तरों पर छाए हुए थे। लगान प्रबन्ध का अधिकांश कार्य उनके हाथों में था। फिर भी उनका स्तर गौण था।

ब्राह्मण अब अपना पहले वाला गौरव खो बैठे थे। उनमें से कुछ अब भी स्वतन्त्र शासकों अथवा सामन्तों के पास राजज्योतिषी के रूप में या प्रशासन में विभिन्न पदों पर थे। परन्तु अधिकांश को नये संरक्षण और नये व्यवसायों की खोज करनी पड़ी। फिर भी समाज के धार्मिक कार्यों के कारण उनका महत्त्व बना रहा। ऐसा लगता था कि इस काल में व्यापारिक उन्नति के कारण व्यापारिक जातियां पहले से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली हो गई थीं। वे कस्बों और शहरों के आर्थिक जीवन की रीढ़ की हड्डी बन गईं। अतः इस युग में वैश्य जाति का महत्त्व खूब बढ़ा।

II. उलेमा-

उलेमा अथवा मुल्ला लोग सुन्नी मर्यादा के संरक्षक माने जाते थे। वे कुरान तथा हदीस पर आधारित शतकियों से प्रचलित विश्वासों और रस्मों के बाहरी पालन पर बल देते थे। उनका मूल विश्वास था कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई भगवान् नहीं तथा मुहम्मद उसके पैगम्बर हैं। मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा और नेक जीवन व्यतीत करने के लिए चार स्तम्भ थे। इनमें से एक था-रोज़ नमाज अदा करना। दूसरा रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा अथवा प्रवास का नाम जकात था। इसके अनुसार प्रत्येक मुसलमान के लिए अपनी वार्षिक आय का एक निश्चित भाग गरीब मुसलमानों के कल्याण के लिए देना आवश्यक था। चौथा हज अर्थात् मक्का की यात्रा करना था। इन सभी रस्मों में धार्मिक भावना की अपेक्षा मर्यादा के बाह्य पालन पर अधिक बल दिया गया था।

III. सूफी-

धार्मिक नेताओं की एक और श्रेणी थी। इन्हें सूफी कहा जाता था। सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना के महत्त्व पर बल देते थे। वे शेख पीर के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर और मनुष्य के बीच बुनियादी नाता प्रेम का है। उनका यह भी विश्वास था कि पीर के नेतृत्व में एक विशेष प्रकार का जीवन व्यतीत करके ही ईश्वर में लीन होना सम्भव है। ईश्वर की प्राप्ति की आध्यात्मिक यात्रा के कई पड़ाव थे जिनमें एक ओर भावपूर्ण प्रचण्ड भक्ति थी और दूसरी ओर घोर त्याग तथा ‘कठिन संयम की आवश्यकता थी। मुल्ला लोग सूफियों को पसन्द नहीं करते थे।

सच तो यह है कि मुल्ला लोगों के विरोध के बावजूद, समाज में सूफी लोकप्रिय होते गए। उनका प्रभाव भी बढ़ता गया। उत्तरी भारत में सूफियों की कई परिपाटियां थीं। इनमें दो सबसे महत्त्वपर्ण भी-चिश्ती और सुहरानदी। उन्होंने इस्लाम को शान्तिपूर्ण ढंग से फैलाया। उनका उद्देश्य इस्लाम धर्म फैलाना नहीं था। परन्तु उनके व्यवहार से प्रभावित होकर कई लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। मुसलमान लोगों में भी उनका बड़ा प्रभाव था। स्वयं सुल्तान उन्हें लगान मुक्त भूमि दिया करते थे।
वास्तविकता तो यह है कि इस्लाम के आगमन से पूरे भारतीय समाज का रूप ही बदल गया।

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प्रश्न 2.
सन्त कबीर के विशेष सन्दर्भ में सन्तों तथा वैष्णव भक्तों के विश्वासों एवं व्यवहारों की चर्चा करें।
उत्तर-
मध्यकाल में भारत में एक महान् समाज एवं धर्म सुधार आन्दोलन चला जो भक्ति लहर के नाम से विख्यात है। सन्त लहर तथा वैष्णव भक्ति इसी आन्दोलन की दो शाखाएं थीं। भले ही इन दोनों शाखाओं के प्रचारकों के अनेक सिद्धान्त मेल खाते थे तो भी इनके विश्वासों एवं व्यवहारों में कुछ मूल अन्तर भी थे। इस दृष्टि से सन्तों की विचारधारा वैष्णव भक्ति की अपेक्षा अधिक विकसित थी। सन्त लहर को सबल बनाने वाले मुख्य सन्त कबीर जी थे। उनके सन्दर्भ में सन्तों एवं वैष्णव भक्तों के विश्वासों तथा व्यवहारों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है

I. सन्त कबीर-

जीवन-कबीर जी उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। कहते हैं कि उनका जन्म बनारस में 1398 ई० में हुआ था। उनको नीरू नामक मुसलमान जुलाहे ने पाल-पोस कर बड़ा किया था। कबीर जी भी कपड़ा बुन कर बाज़ार में बेचते थे और अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। अपने समय के कई सन्तों के साथ उनका सम्पर्क था। सन्त कबीर ने हिन्दी में रामायणी, साखी तथा शब्द छन्दों में बहुत सुन्दर भक्ति साहित्य की रचना की। इनकी रचनाओं के एक संकलन को बीजक कहा जाता है। इनके शब्द गुरु ग्रन्थ साहिब में भी सम्मिलित हैं। सन्त कबीर की मृत्यु 1518 ई० में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के मघर नामक स्थान पर हुई। उनके अनुयायी कबीर पन्थी कहलाए। परन्तु सन्त कबीर ने अपने जीवन काल में किसी संगठित पंथ की नींव नहीं रखी थी। इसलिए इनकी मृत्यु के पश्चात् कबीर पंथ कई हिस्सों में बंट गया।

विचारधारा-सन्त कबीर ने उस समय में प्रचलित विश्वासों तथा रीति-रिवाजों की कड़े शब्दों में निन्दा की। उन्होंने मूर्ति पूजा, शुद्धि स्नान, व्रत तथा तीर्थ यात्राएं आदि परम्पराओं का घोर खण्डन किया। उनके विचारानुसार, मुल्ला तथा पण्डित दोनों ही सच्ची धार्मिक जिज्ञासा से भटक चुके थे। उन्होंने वेदों और कुरान दोनों को ही कोई महत्त्व नहीं दिया।

कबीर के अनुसार परमात्मा मनुष्य के मन में बसता है। वह एक ही है; चाहे उसे अल्लाह कहा जाए या हरि। अत: मानव को अपनी अन्तरात्मा की गहराई में झांकना चाहिए। परमात्मा को अपने भीतर ढूंढ़ना ही मुक्ति है। इसी अनुभव के द्वारा ही मानव आत्मा परमात्मा के साथ चिर मिलन प्राप्त करती है। परन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति सरल नहीं है। इसके लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम-भक्ति और समर्पण की आवश्यकता है। इसमें परमात्मा से विरह की पीड़ा भी है और मुक्ति के लिए निरन्तर यत्न की आवश्यकता भी। वास्तव में इसकी प्राप्ति परमात्मा की कृपा पर निर्भर है। कहने का अभिप्राय यह है कि सच्चा गुरु स्वयं परमात्मा है। वह विश्व के बाहर भी है और भीतर भी है। इसलिए वह मानव में भी विद्यमान है। सन्त कबीर के अनुसार मुक्ति का मार्ग सबके लिए खुला है। यद्यपि उस तक कोई विरला ही पहुंचता है। इस प्रकार कबीर भक्ति के विचार सूफियों और जोगियों के विचारों के साथ मिलकर एक मौलिक विचारधारा को जन्म देते हैं।

II. सन्तों के विश्वास एवं व्यवहार सन्त लहर के प्रचारक अवतारवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते थे। वे मूर्ति-पूजा के भी विरुद्ध थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है और वह मनुष्य के मन में निवास करता है। अतः परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराइयों में डूब जाना चाहिए। अन्तरात्मा से परमात्मा को खोज निकालने का नाम ही मुक्ति है। इस अनुभव से मनुष्य की आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन हो जाती है। सन्तों के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा तुल्य है। जिस किसी को भी सच्चा गुरु मिल जाता है, उसके लिए परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं है। संत जाति-प्रथा के भेदभाव के विरुद्ध थे। कुछ प्रमुख सन्तों के नाम इस प्रकार हैं-कबीर, नामदेव, सधना, रविदास, धन्ना तथा सैन जी। श्री गुरु नानक देव जी भी अपने समय के महान् सन्त हुए हैं।

III. वैष्णव भक्तों के विश्वास एवं व्यवहार वैष्णव भक्ति शाखा के प्रचारक सीता-राम तथा राधा-कृष्ण को परमात्मा (विष्णु) का रूप मानते थे और उनकी पूजा पर बल देते थे। इस लहर के प्रचारक विष्णु को नारायण, हरि, गोबिन्द आदि के रूप में भी पूजते थे। इस लहर के प्रमुख प्रचारक रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, रामानन्द और चैतन्य महाप्रभु थे। रामानुज ने भक्ति मार्ग की महानता पर बल दिया। उन्होंने विष्णु को ईश्वर का रूप कहा। निम्बार्क ने कृष्ण तथा राधा की भक्ति का प्रचार किया। वल्लभ ने भी कृष्ण और राधा की भक्ति पर बल दिया। उनके शिष्य कृष्ण की पूजा भिन्न-भिन्न ढंगों से करते थे। रामानन्द 14वीं शताब्दी के महान् प्रचारक थे। भक्ति-मार्ग के लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर भ्रमण किया। उन्होंने अपना प्रचार आम बोल-चाल की भाषा में किया। वह जातिपाति में विश्वास नहीं रखते थे। उनके शिष्यों में अनेक जातियों के लोग शामिल थे। रामानन्द ने राम और सीता की भक्ति पर अधिक बल दिया। चैतन्य महाप्रभु बंगाल के वैष्णव प्रचारक थे। वह काफ़ी समय तक बंगाल तथा उड़ीसा में भक्ति मार्ग का प्रचार करते रहे। उन्होंने कृष्ण तथा राधा का कीर्तन करने और उनकी स्तुति में गीत गाने पर विशेष बल दिया।

सच तो यह है कि सन्त लहर तथा वैष्णव भक्ति ‘भक्ति लहर’ का अंग होते हुए भी दो पृथक् विचारधाराएं हैं। इन दोनों विचारधाराओं में कई मूल अन्तर थे। वैष्णव भक्ति के प्रचारक राम अथवा कृष्ण को विष्णु का अवतार मान कर उनकी पूजा करते थे। परन्तु सन्तों ने वैष्णव भक्ति को स्वीकार न किया। इसके अतिरिक्त वैष्णव भक्ति के कुछ प्रचारक मूर्ति-पूजा में भी विश्वास रखते थे जबकि सन्त इसके घोर विरोधी थे। वास्तव में सन्त लहर की विचारधारा वैष्णव भक्ति की अपेक्षा सूफ़ियों की विचारधारा से अधिक मेल खाती है।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य में

प्रश्न 1.
बनारस से सम्बन्धित दो संतों के नाम बताइए।
उत्तर-
भक्त कबीर तथा संत रविदास।

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प्रश्न 2.
सूफी संत किन दो नामों से प्रसिद्ध थे?
उत्तर-
शेख और पीर।

प्रश्न 3.
चिश्ती सिलसिले की नींव किसने रखी?
उत्तर-
खवाजा मुइनुद्दीन चिश्ती।

प्रश्न 4.
अलवार कौन थे?
उत्तर-
दक्षिण के वैष्णव संत।

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प्रश्न 5.
नयनार कौन थे?
उत्तर-
दक्षिण के शैव संत।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) रामानंद ने अपने प्रचार के लिए………….भाषा का प्रयोग किया।
(ii) कीर्तन की प्रथा…………ने आरम्भ की।
(iii) संत…………..परमात्मा में विश्वास रखते थे।
(iv) निम्बार्क तथा माधव………..भक्ति के प्रतिपादक थे।
(v) रामानंद ने…………..भक्ति का प्रचार किया।
उत्तर-
(i) हिंदी
(ii) चैतन्य
(iii) निर्गुण
(iv) कृष्ण
(v) राम।

3. सही / ग़लत कथन

(i) मुलतान तथा लाहौर सुहरावर्दी (सूफी मत) सिलसिले के केंद्र थे। — (✓)
(ii) गुरु ग्रंथ साहिब में संत कबीर की वाणी शामिल नहीं है। — (✗)
(iii) गीतगोबिन्द की रचना जयदेव ने की थी। — (✓)
(iv) गोरखनाथियों का मूल उद्देश्य शिवास्था को प्राप्त करना था। — (✓)
(v) शेख फ़रीद एक वैष्णव संत थे। — (✗)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध था
(A) शैव भक्ति
(B) वैष्णव भक्ति
(C) सूफी संत
(D) नाथ पंथ।
उत्तर-
(B) वैष्णव भक्ति

प्रश्न (ii)
‘पद्मावत’ का रचयिता था
(A) मलिक मुहम्मद जायसी
(B) जयदेव
(C) कल्हण
(D) सूरदास।
उत्तर-
(A) मलिक मुहम्मद जायसी

प्रश्न (iii)
‘राजतरंगिणी’ का लेखक था
(A) चन्द्रबरदाई
(B) जयदेव
(C) कलहण
(D) रामानुज।
उत्तर-
(C) कलहण

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प्रश्न (iv)
‘उर्दू भाषा का जन्म किन दो भाषाओं के मेल से हुआ?
(A) हिन्दी तथा फ़ारसी
(B) अरबी तथा फ़ारसी
(C) तुर्की तथा फ़ारसी
(D) हिन्दी तथा अरबी।
उत्तर-
(A) हिन्दी तथा फ़ारसी

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में आवासी मुसलमान किन चार श्रेणियों से थे ?
उत्तर-
भारत में आवासी मुसलमान तुर्क, पठान, अरब और ईरानी श्रेणियों से थे।

प्रश्न 2.
नगरों तथा गांवों में इस्लाम स्वीकार करने वाले दो वर्गों के नाम बताएं।
उत्तर-
नगरों में शिल्पकारों और गांवों में किसानों ने इस्लाम स्वीकार किया।

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प्रश्न 3.
सल्तनत के प्रशासन में देशी लोग अधिकतर किस स्तर पर तथा शासन प्रबन्ध के किस क्षेत्र में कार्य करते थे ?
उत्तर-
सल्तनत के प्रशासन में देशी लोग अधिकतर निचले स्तर पर कार्य करते थे। वे लगान प्रबन्ध के क्षेत्र में कार्य करते थे।

प्रश्न 4.
सल्तनत काल में व्यापारिक जातियां कहां के आर्थिक जीवन का स्तम्भ थीं ?
उत्तर-
व्यापारिक जातियां कस्बों और शहरों के आर्थिक जीवन का स्तम्भ थीं।

प्रश्न 5.
भारत में इस्लाम धर्म के तीन सम्प्रदायों के नाम बताएं तथा इनमें से सबसे अधिक संख्या किस सम्प्रदाय की थी ?
उत्तर-
भारत में इस्लाम के मुख्य तीन सम्प्रदाय ‘सुन्नी’, ‘शिया’ तथा ‘इस्माइली’ थे। इनमें से सबसे अधिक संख्या “सुन्नी’ सम्प्रदाय की थी।

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प्रश्न 6.
उलेमा लोग किन दो विषयों के विद्वान् थे ?
उत्तर-
उलेमा लोग इस्लाम के धार्मिक सिद्धान्तों तथा कानून के विद्वान थे।

प्रश्न 7.
उलेमा लोगों के विश्वास किन दो स्रोतों पर आधारित थे ?
उत्तर-
उलेमा लोगों के विश्वास कुरान तथा हदीस पर आधारित थे।

प्रश्न 8.
मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा के चार स्तम्भों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा के चार स्तम्भ हैं-

  • रोज़ नमाज़ अदा करना
  • रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा रखना
  • जकात, जिसके अनुसार प्रत्येक मुसलमान के लिए अपनी वार्षिक आय का निश्चित भाग ग़रीबों को देना आवश्यक है।
  • हज, अर्थात् मक्का की यात्रा करना।

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प्रश्न 9.
सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर किसे अधिक महत्त्व देते थे ?
उत्तर-
सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना को अधिक महत्त्व देते थे।

प्रश्न 10.
सूफी लोग किन दो नामों से प्रसिद्ध थे तथा इनकी विचारधारा के लिए किस शब्द का प्रयोग किया जाता
उत्तर-
सूफी लोग शेख और पीर के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। इनकी विचारधारा के लिए तसव्वुफ़ शब्द का प्रयोग किया जाता था।

प्रश्न 11.
सूफियों में सिलसिले अथवा परिपाटी से क्या भाव था ?
उत्तर-
सिलसिले से तात्पर्य एक सूफी शेख के मुरीदों अथवा उत्तराधिकारियों की परिपाटी से था।

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प्रश्न 12.
दिल्ली सल्तनत के समय में सूफियों की दो सबसे महत्त्वपूर्ण परिपाटियों अथवा सिलसिलों के नाम बताएं।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के समय में सूफियों की दो सबसे महत्त्वपूर्ण परिपाटियां ‘चिश्ती’ तथा ‘सुहरावर्दी’ थीं।

प्रश्न 13.
चिश्ती सिलसिले की नींव किस सूफी शेख ने रखी और वे कहां बस गए ?
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले की नींव अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने रखी थी और वे अजमेर में ही बस गए।

प्रश्न 14.
चिश्ती सिलसिले से सम्बन्धित चार प्रमुख सूफी शेखों के नाम बताएं।
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले से सम्बन्धित सूफी शेखों के नाम हैं-

  • शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी
  • फरीद शकर गंज
  • निज़ामुद्दीन औलिया तथा
  • शेख नसीरूद्दीन।

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प्रश्न 15.
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव किसने तथा कहां रखी ?
उत्तर-
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव मखदूम बहाऊद्दीन जकरिया ने मुल्तान में रखी।

प्रश्न 16.
15वीं सदी में भारत में आरम्भ होने वाली दो सूफी परिपाटियों तथा उनके संस्थापकों के नाम बताएं।
उत्तर-
15वीं सदी में भारत में आरम्भ होने वाली दो सूफी परिपाटियां शत्तारी तथा कादरी थीं। इनके संस्थापक क्रमशः शाह अब्दुल्ला शत्तारी तथा सैय्यद गौस थे।

प्रश्न 17.
चिश्ती सिलसिले के चार केन्द्रों के नाम बताएं।
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले के चार केन्द्र अजमेर, अजौधन, नारनौल तथा नागौर थे।

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प्रश्न 18.
सुहरावर्दी सिलसिले के दो केन्द्र कहां थे ?
उत्तर-
सुहरावर्दी सिलसिले के दो केन्द्र मुल्तान तथा लाहौर थे।

प्रश्न 19.
भारत के किन दो प्रदेशों में सूफियों का सबसे अधिक प्रभाव था ? किस सुल्तान के राज्यकाल में सूफी प्रभाव दक्षिण में भी पहुंचा ?
उत्तर-
भारत में पंजाब और सिन्ध में सूफियों का प्रभाव सबसे अधिक था। मुहम्मद-बिन-तुग़लक के राज्यकाल में यह प्रभाव दक्षिण में भी पहुंचा।

प्रश्न 20.
सूफियों द्वारा शातिपूर्वक ढंग से इस्लाम को फैलाने में कौन-सी दो बातें सहायक सिद्ध हुईं ?
उत्तर-
सूफियों को इन दो बातों ने सहायता पहुंचाई-

  1. उनके द्वारा आम लोगों की बोली बोलना तथा
  2. खानकाह के द्वारा साधारण लोगों के साथ उनका सम्पर्क।

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प्रश्न 21.
जोगियों का आन्दोलन मुख्यतः किन दो बातों के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी ? ।
उत्तर-
जोगियों का आन्दोलन मुख्यतः ब्राह्मणीय संस्कार विधियों तथा जाति-पाति के भेदों के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी।

प्रश्न 22.
जोगियों के दो मुख्य पंथ कौन-कौन से थे और इनमें से उत्तर भारत में कौन-सा पंथ अधिक लोकप्रिय था ?
उत्तर-
जोगियों के दो मुख्य पंथ अधोपंथी और नाथपंथी थे। इनमें से नाथपंथी पंथ उत्तर भारत में अधिक लोकप्रिय था।

प्रश्न 23.
‘कनफटे’ जोगी से क्या प्रभाव था ?
उत्तर-
कनफटा जोगी उस संन्यासी को कहते थे, जिसके कान की पट्टियों में चाकू से सुराख कर दिया जाता था ताकि वह बड़े-बड़े कुण्डल पहन सके। कनफटे जोगियों का स्थान औघड़’ योगियों से ऊंचा समझा जाता था।

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प्रश्न 24.
पंजाब में गोरखनाथियों के कितने मठ थे तथा ये किसके निरीक्षण में संगठित थे ?
उत्तर-
पंजाब में गोरखनाथियों के लगभग 12 मठ थे। ये सभी मठ ज़िला जेहलम में स्थित टिल्ल गोरखनाथ के मठाधीश अथवा ‘नाथ’ के निरीक्षण में संगठित थे।

प्रश्न 25.
मध्यकाल में विष्णु के कौन-से दो अवतारों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ ?
उत्तर-
मध्यकाल में विष्णु के ‘कृष्ण तथा राम अवतारों’ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 26.
कृष्ण भक्ति के दो प्रति-पादकों के नाम बताएं और ये दक्षिण के किन प्रदेशों से थे ?
उत्तर-
कृष्ण भक्ति के दो प्रतिपादक निम्बार्क और माधव थे। निम्बार्क का सम्बन्ध तमिलनाडु से तथा माधव का सम्बन्ध मैसूर प्रदेश से था।

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प्रश्न 27.
राधा-कृष्ण की पूजा विधि किसने तथा कहां प्रचलित की ?
उत्तर-
राधा-कृष्ण की पूजा विधि वल्लभाचार्य ने मथुरा के निकट गोवर्धन में प्रचलित की।

प्रश्न 28.
चैतन्य पर कौन-से दो भक्ति रस के कवियों का प्रभाव था ?
उत्तर-
चैतन्य पर जयदेव तथा चण्डीदास का प्रभाव था।

प्रश्न 29.
कीर्तन की प्रथा किसने आरम्भ की और यह किस प्रकार किया जाता था ?
उत्तर-
कीर्तन की प्रथा चैतन्य ने आरम्भ की। इसमें वाद्य-संगीत और नृत्य के साथ भजनों का गायन किया जाता था।

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प्रश्न 30.
चैतन्य के अनुसार मुक्ति का प्रयोजन क्या था ?
उत्तर-
चैतन्य के अनुसार मुक्ति का प्रयोजन मृत्यु के पश्चात् ‘गोलोक’ में जाना था ताकि वहां राधा और कृष्ण की अनन्तकाल तक सेवा की जा सके।

प्रश्न 31.
चैतन्य की मृत्यु कब हुई और उन्होंने कौन-से मन्दिर में अपने जीवन के अन्तिम वर्ष व्यतीत किए ?
उत्तर-
चैतन्य की मृत्यु 1534 ई० में हुई। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी के प्रसिद्ध मन्दिर में व्यतीत किए।

प्रश्न 32.
राम भक्ति का प्रचार करने वाले कौन-से भक्त थे और ये किस नगर के रहने वाले थे ?
उत्तर-
राम भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त रामानन्द जी थे। वे प्रयाग नगर के रहने वाले थे।

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प्रश् 33.
रामानन्द जी ने कौन-सी भाषा का प्रयोग किया तथा उनके मठों के साथ कौन-सी दो संस्थाएं सम्बन्धित थीं ?
उत्तर-
रामानन्द जी ने हिन्दी भाषा का प्रयोग किया। उनके मठों के साथ सम्बन्धित दो संस्थाएं थीं-पाठशालाएं तथा गौशालाएं।

प्रश्न 34.
गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से किन्हीं चार का नाम बताएं।
उत्तर-
गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से चार के नाम हैं-भक्त कबीर, नामदेव जी, रामानन्द जी तथा धनानन्द जी।

प्रश्न 35.
बनारस से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं।
उत्तर-
बनारस से सम्बन्धित दो सन्त थे-संत कबीर और संत रविदास।

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प्रश्न 36.
भक्तों तथा सन्तों के बीच दो मुख्य अन्तर कौन-से हैं ?
उत्तर-

  1. भक्त अवतारवाद तथा मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे, परन्तु सन्त निर्गुण परमात्मा को मानते थे।
  2. भक्त गुरु को अधिक महत्त्व नहीं देते थे परन्तु सन्तों के अनुसार गुरु को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था।

प्रश्न 37.
महाराष्ट्र से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं।
उत्तर-
नामदेव जी तथा त्रिलोचन जी महाराष्ट्र से सम्बन्धित दो प्रमुख सन्त थे। प्रश्न 38. राजस्थान से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं। उत्तर-राजस्थान से सम्बन्धित दो सन्त थे-धन्ना जी तथा पीपा जी।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
उलेमा लोगों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
उलेमा अथवा मुल्ला लोग सुन्नी मर्यादा के संरक्षक स्वीकार किए जाते थे। वे कुरान तथा हदीस पर आधारित सदियों से प्रचलित विश्वासों और रस्मों के बाहरी पालन पर बल देते थे। उनका मूल विश्वास था कि ‘अल्ला’ के अतिरिक्त कोई भगवान् नहीं और मुहम्मद उसके पैगम्बर हैं। वे ईश्वर की एकता पर बल देते थे। वे इस बात पर भी बल देते थे कि हज़रत मुहम्मद उनके अन्तिम पैगम्बर हैं। मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा और नेक जीवन के चार स्तम्भ थे। प्रतिदिन नमाज़ अदा करना, रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा अथवा उपवास रखना, अपनी वार्षिक आय का एक निश्चित भाग ग़रीब मुसलमानों की भलाई के लिए दान में देना तथा मक्का की यात्रा करना। उलेमा लोग रस्मों के पालन पर बल देते थे।

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प्रश्न 2.
सूफियों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
धार्मिक नेताओं की एक श्रेणी, जिन्हें सूफी कहा जाता था, बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना के महत्त्व पर बल देती थी। वे शेख और पीर के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर और मनुष्य के मध्य बुनियादी रिश्ता प्रेम का है। इसके अतिरिक्त उनका विश्वास था कि पीर की अगुवाई में एक विशेष प्रकार के जीवन को व्यतीत करने से ईश्वर में लीन होना सम्भव था। ईश्वर की प्राप्ति की आध्यात्मिक यात्रा के कई पड़ाव थे, जिसमें एक ओर भावावेग से परिपूर्ण प्रचण्ड भक्ति और दूसरी ओर घोर त्याग, संयम की आवश्यकता थी। मुल्ला लोग सूफियों को पसन्द नहीं करते थे। उनके सोचने के ढंग में आधारभूत अन्तर था।

प्रश्न 3.
व्यावहारिक स्तर पर चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिलों में कौन-से अन्तर थे ?
उत्तर-
उत्तरी भारत में सूफियों के दो सबसे महत्त्वपूर्ण सिलसिले थे-चिश्ती और सुहरावर्दी। चिश्ती परिपाटी की स्थापना अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन ने की थी। पाकपटन (पश्चिमी पाकिस्तान) के शेख फरीद शकरगंज और दिल्ली के शेख निज़ामुद्दीन औलिया का सम्बन्ध भी इसी से था। भारत में सुहरावर्दी परिपाटी की स्थापना मुल्तान के मखदूम बहाऊद्दीन जकरिया ने की। यह दोनों परिपाटियां इस काल में बराबर विकसित होती रहीं। चिश्ती और सुहरावर्दी शेखों ने देश के कई भागों में खानकाहों (सूफ़ी शेखों के इकट्ठे मिलकर रहने के स्थान) की स्थापना की।

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प्रश्न 4.
गोरखनाथी जोगियों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
गोरखनाथियों का मूल उद्देश्य शिवावस्था को प्राप्त करना था। वे इसे ‘सहज’ अथवा ‘चिर आनन्द’ की अवस्था का नाम देते थे। इस अवस्था की प्राप्ति को जोगी जीवन मुक्ति कहते थे। जोगी नौ नाथों और चौरासी सिद्धों पर विश्वास रखते थे। उनका यह भी विश्वास था कि पर्वतों पर रहने वाली तथा हिमालय की चोटी की रक्षक देवात्माएं सिद्ध ही थे।

प्रश्न 5.
गोरखनाथी जोगियों की प्रथाओं और व्यवहारों के बारे में बताएं।
उत्तर-
गोरखनाथियों के मठ में दीक्षा गुरु द्वारा दी जाती थी। दीक्षा के अन्त में जोगी की कर्णपलियों में भैरवी चाकू से सुराख किया जाता था। उसके बाद वह बड़े-बड़े कुण्डल पहन लेता था। इस रस्म के पश्चात् जोगी ‘कनफटा’ कहलाता था। केवल कनफटे जोगी को ही अपने नाम के साथ ‘नाथ’ पद के प्रयोग की आज्ञा थी। जोगी अपने पास ‘सिंगी’ भी रखते थे जिसको वे फूंक कर बजाया करते थे। गोरखनाथियों के मठों में निरन्तर धूनी सुलगती रहती थी। अकेला जोगी भजन के लिए द्वार-द्वार पर जाकर भिक्षा मांग सकता था। किन्तु जो जोगी मठ में रहते थे। वे सांझे भण्डारे में भोजन करते थे।

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प्रश्न 6.
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित वैष्णव भक्ति की पूजा विधि में नित्य नेम क्या था ?
उत्तर-
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित कृष्ण भक्ति की पद्धति का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग राधा-कृष्ण की पूजा की विधि था। पूजा के नित्य कर्म का आरम्भ मन्दिर में प्रभात के समय में घंटियां और शंख बजाकर किया जाता था। इसके बाद इष्ट देव को निद्रा से जगाते थे और उन्हें प्रसाद भेंट करते थे। इसके बाद वे थाल में दीये जलाकर उनकी आरती करते थे। आरती के पश्चात् वे भगवान् को स्नान करवाते थे तथा उन्हें नए वस्त्र पहना कर भोजन अर्पित करते थे। तत्पश्चात् गायों को चराने के लिए बाहर ले जाने की रस्म की जाती थी। इसके बाद भगवान् को दोपहर का भोजन करवा कर आरती की जाती थी। आरती के बाद पर्दा तान दिया जाता था ताकि भगवान् निर्विघ्न आराम कर सकें। भगवान् के रात के विश्राम से पूर्व भी भोजन कराने की रस्म की जाती थी।

प्रश्न 7.
रामानन्दी बैरागियों के विश्वासों तथा व्यवहारों के बारे में बताएं।
उत्तर-
रामानन्दी बैरागी जाति प्रथा में विश्वास नहीं रखते थे। उनके विचार उदार थे। वे एक साथ भोजन करते थे। उन्हें अपने मठों में नित्य कठोर नियम का पालन करना पड़ता था। वे बहुत सवेरे उठते थे और स्नान कर के पूजा-पाठ करते थे। तत्पश्चात् वे धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन एवं मनन करते थे और मठ से सम्बन्धित कार्य करते थे। उनमें से अधिकांश दिन में केवल एक बार दोपहर के समय भोजन करते थे। उनमें से कुछ बैरागी स्थान-स्थान पर घूमते थे। वे विशेष प्रकार की पोशाक पहनते थे और माथे पर विलक्षण प्रकार के तिलक लगाते थे।।

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प्रश्न 8.
सन्त कबीर का बुनियादी धार्मिक दृष्टिकोण तथा बुनियादी विश्वास क्या थे ? (M. Imp.)
उत्तर-
सन्त कबीर के बुनियादी दृष्टिकोण के अनुसार परमात्मा मानव के हृदय में बसता है। उसी को हम अल्लाह या हरि कहते हैं। अतः मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराई में झांकना चाहिए। परमात्मा को अपने भीतर ढूंढ़ना ही मुक्ति है। इस अनुभव के द्वारा मनुष्य की आत्मा परमात्मा के साथ चिर मिलन प्राप्त करती है। किन्तु यह कार्य सरल नहीं है। इसके लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण स्नेह और समर्पण की आवश्यकता है। इसमें परमात्मा से विरह की पीड़ा भी है और मुक्ति के लिए निरन्तर प्रयास की आवश्यकता भी है। वास्तव में इसकी प्राप्ति परमात्मा की कृपा पर निर्भर है। सन्त कबीर के अनुसार मुक्ति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है। फिर भी उस तक कोई विरला ही पहुंचता है।

प्रश्न 9.
सन्त कौन थे ?
उत्तर-
सन्त भक्ति-लहर के प्रचारक थे। उन्होंने 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के मध्य भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भक्ति लहर का प्रचार किया। लगभग सभी भक्ति प्रचारकों के सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक एक समान थे। परन्तु कुछ एक प्रचारकों ने विष्णु अथवा शिव के अवतारों की पूजा को स्वीकार न किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी खण्डन किया। उन्होंने वेद, कुरान, मुल्ला, पण्डित, तीर्थ स्थान आदि में से किसी को भी महत्त्व न दिया। वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि परमात्मा निराकार है। ऐसे सभी प्रचारकों को ही प्रायः सन्त कहा जाता है। वे प्रायः जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों का प्रचार करते थे।

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प्रश्न 10.
क्या सन्त लहर को वैष्णव भक्ति के साथ जोड़ा जा सकता है ?
उत्तर-
सन्त लहर को वैष्णव भक्ति के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। इन दोनों विचारधाराओं में कई मूल अन्तर थे। वैष्णव भक्ति के प्रचारक राम अथवा कृष्ण को विष्णु का अवतार मानकर उसकी पूजा करते थे। परन्तु सन्तों ने वैष्णव भक्ति को स्वीकार न किया। इसके अतिरिक्त वैष्णव भक्ति के कुछ प्रचारक मूर्ति-पूजा में भी विश्वास रखते थे, जबकि सन्त इसके घोर विरोधी थे। वास्तव में सन्त लहर की विचारधारा वैष्णव भक्ति से दूर सूफियों की विचारधारा से अधिक मेल खाती

प्रश्न 11.
भारत में इस्लाम धर्म के कौन-कौन से सम्प्रदाय थे ?
उत्तर-
भारत में इस्लाम धर्म के अनेक सम्प्रदाय थे। इनमें से सुन्नी, शिया, इस्मायली आदि सम्प्रदाय प्रमुख थे। देश के अधिकतर सुल्तान सुन्नी सम्प्रदाय को मानते थे। अतः देश की अधिकतर मुस्लिम जनता का सम्बन्ध भी इसी सम्प्रदाय से था। परन्तु शिया तथा इस्मायली मुसलमानों की संख्या भी कम नहीं थी। इन सम्प्रदायों में आपसी तनाव भी रहता था। इसका कारण यह था कि सुन्नी अपने आपको परम्परागत इस्लाम के वास्तविक प्रतिनिधि समझते थे और अन्य सम्प्रदायों के मुसलमानों को घृणा तथा शत्रुता की दृष्टि से देखते थे। मुस्लिम सम्प्रदायों का यह आपसी तनाव कभी-कभी बहुत गम्भीर रूप धारण कर लेता था, जिसका सामाजिक जीवन तथा राजनीति पर बुरा प्रभाव पड़ता था।

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प्रश्न 12.
आप भारत में सूफ़ी शेखों के बारे में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
मध्य काल में इस्लाम धर्म में एक नई सहनशील धार्मिक श्रेणी का उदय हुआ, जो सूफ़ी के नाम से लोकप्रिय है। इस धर्म श्रेणी के नेता शेख कहलाये। इस श्रेणी का उदय मुल्लाओं द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों के पालन के बाहरी दिखावे के विरुद्ध हुआ था। अतः सूफ़ी शेख बाहरी दिखावे के स्थान पर सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने और मन को शुद्ध करने पर बल देते थे। उनके अनुसार ‘प्रेम’ बहुत बड़ी शक्ति है। यह अल्लाह और मनुष्यों के आपसी सम्बन्ध को दृढ़ करता है। उनका विश्वास था कि किसी धार्मिक नेता के अधीन रहकर एक विशेष प्रकार का धार्मिक जीवन व्यतीत करने से परमात्मा को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। यह केवल प्रेम, त्याग, संयम तथा सच्ची भक्ति द्वारा ही सम्भव है।

प्रश्न 13.
बाबा फ़रीद के जीवन के विषय में बताओ। उन्होंने पंजाब में सूफी मत के लिए क्या कुछ किया ?
उत्तर-
शेख फ़रीद का जन्म ज़िला मुल्तान के एक गांव खोतवाल में हुआ था। वे बचपन से ही पक्के नमाज़ी थे। उनके मन में धार्मिक भावना उत्पन्न करने में उनकी माता जी का बहुत बड़ा हाथ था। वह दिल्ली के ख्वाजा बख्तियार काकी के शिष्य थे। वह हांसी, सिरसा तथा अजमेर में भी रहे। इनके नाम पर ही मोकल नगर का नाम फ़रीदकोट पड़ा। बख्तियार काकी की मृत्यु के पश्चात् वह चिश्ती गद्दी के स्वामी बने। उन्होंने अपनी आयु के अन्तिम दिन अयोधन में व्यतीत किए। दूर-दूर से लोग इनके दर्शनों के लिए यहां आते थे। फ़रीद के प्रयत्नों से चिश्ती सम्प्रदाय ने बड़ी उन्नति की। दिल्ली के चिश्ती गद्दी के सूफ़ी सन्त समय-समय पर पंजाब में भी आते रहे। बाबा फ़रीद ने पंजाब में सूफी मत का दूर-दूर तक प्रचार किया। उन्होंने अनेक श्लोकों की रचना की। उनके कुछ श्लोक गुरु ग्रन्थ साहिब में भी अंकित हैं।

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प्रश्न 14.
वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष को किसने विकसित किया ? इस परिपाटी की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथा कया थी ?
उत्तर-
वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष का सबसे अधिक विकास बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने किया। इस भावपूर्ण परम्परा . का आरम्भ 13वीं शताब्दी में जयदेव की रचना ‘गीत-गोबिन्द’ से हुआ था। चैतन्य ने कविता के इसी संग्रह को अपना आधार बना कर राधा-कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। उसने चण्डीदास के भजनों से भी प्रेरणा ली। चैतन्य जी कृष्ण भक्ति में कभीकभी इतना लीन हो जाते थे कि उन्हें यह भी पता नहीं चलता था कि उनके आस-पास क्या हो रहा है। वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथा कीर्तन थी। इसमें भजनों को बड़ी लय के साथ गाया जाता था और साथ में कुछ वाद्य-यन्त्र भी बजाए जाते थे। कभी-कभी लोग मग्न होकर नृत्य भी करने लगते थे। इस प्रकार भक्तजन भक्ति के प्रति और भी अधिक भावुक हो उठते थे। इस भक्ति का सबसे बड़ा आदर्श मुक्ति प्राप्त करके राधा और कृष्ण के पास पहुंचना था ताकि उनकी सच्ची सेवा की जा सके।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भक्ति आन्दोलन से क्या अभिप्राय है ? इसके उदय के कारणों तथा मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
अथवा
भक्ति आन्दोलन के भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-
12वीं शताब्दी में भारत में मुसलमानों का राज्य स्थापित हो चुका था। मुस्लिम शासक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए उन पर बहुत अत्याचार करते थे। इससे हिन्दुओं और मुसलमानों में द्वेष बढ़ गया था। समाज में अनेक कुरीतियों ने भी घर कर लिया था। ऐसे समय में आपसी द्वेषभाव और सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ धार्मिक सन्त आगे आये। उन्होंने जो प्रचार किया वह भक्ति आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। .
कारण-

1. हिन्दू धर्म में कई आडम्बरों का समावेश हो गया था। लोग अन्धविश्वासी हो चुके थे। वे जादू-टोनों में विश्वास करने लगे थे। इन सभी कुप्रथाओं का अन्त करने के लिए भक्ति-आन्दोलन का जन्म हुआ।

2. हिन्दू-धर्म में जातिपाति के बन्धन कड़े हो गये थे। निम्न जाति के लोगों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। अत: निम्न जातियों के हिन्दू मुसलमान बनने लगे, जिससे हिन्दू धर्म खतरे में पड़ गया। हिन्दू-धर्म को इस खतरे से बचाने के लिए किसी धार्मिक आन्दोलन की आवश्यकता थी।

3. मुसलमानों ने हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाना आरम्भ कर दिया था। अतः उनका आपसी द्वेष बढ़ गया। इस आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए भक्ति आन्दोलन का जन्म हुआ।

4. इसी समय सूफी-धर्म का प्रसार आरम्भ हो गया। इस धर्म ने ईश्वर-प्रेम पर बहुत बल दिया। बाबा फरीद और मुइनुद्दीन चिश्ती जैसे महान् सूफी-सन्तों के उपदेशों ने भक्ति आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएं –

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएं निम्नलिखित थीं-

1. ईश्वर की एकता-भक्ति-आन्दोलन के प्रचारकों ने ईश्वर की एकता का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को अनेक देवीदेवताओं के स्थान पर एक ही ईश्वर की उपासना करने का उपदेश दिया।

2. ईश्वर का महत्त्व-भक्त प्रचारकों के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापक है। वह कण-कण में विद्यमान्

3. जाति-प्रथा में विश्वास-भक्ति मार्ग के लगभग सभी प्रचारक जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर के लिए न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा।

4. गुरु की महिमा-सन्त प्रचारकों ने गुरु का स्थान सर्वोच्च बताया है। उनका कहना था कि सच्चे गुरु के बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

5. मूर्ति-पूजा का विरोध-भक्ति-मार्ग के प्रचारकों ने मूर्ति-पूजा का कड़ा विरोध किया। इस कार्य में कबीर और नामदेव आदि धार्मिक सन्तों ने बहुत योगदान दिया।

6. निरर्थक रीति-रिवाजों में अविश्वास-भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों ने समाज में झूठे रीति-रिवाजों का भी खण्डन किया। उनके अनुसार सच्ची ईश्वर भक्ति के लिए मन को निर्मल बनाना आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
भक्ति आन्दोलन के समाज पर क्या प्रभाव पड़े ? इस आन्दोलन के मुख्य नेताओं के नाम भी लिखो।
उत्तर-
भक्ति आन्दोलन ने मध्यकालीन भारतीय समाज के हर पहलू को प्रभावित किया। समाज का कोई भी क्षेत्र तथा वर्ग इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सका।

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव-
1. हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान-भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दू धर्म में सुधार हुआ। भक्ति-सुधारकों ने धर्म के व्यर्थ के रीति-रिवाजों तथा जाति-पाति का खण्डन किया। इससे हिन्दू धर्म की लोकप्रियता बढ़ गई।

2. इस्लाम के विकास में बाधा-इस्लाम धर्म भ्रातृभाव, समानता और एक ईश्वर के सिद्धान्त के कारण काफी लोकप्रिय हुआ था। कबीर, गुरु नानक देव जी आदि ने भी इन्हीं विचारों का प्रचार किया। इससे इस्लाम का आकर्षण समाप्त होने लगा।

3. बौद्ध धर्म का पतन-भक्ति आन्दोलन के प्रभाव में आकर अनेक बौद्धों ने हिन्दू धर्म को ग्रहण कर लिया। इससे बौद्ध धर्म का तेजी से पतन आरम्भ हो गया।

4. सिक्ख धर्म का जन्म-पंजाब में गुरु नानक देव जी तथा अन्य नौ गुरु साहिबानों के प्रचार ने सिक्ख धर्म का रूप ले लिया।

5. अन्धविश्वासों का अन्त-भक्त प्रचारकों ने झूठे रीति-रिवाजों तथा अन्धविश्वासों का ज़ोरदार खण्डन किया। फलतः अन्धविश्वासों का प्रचलन कम हो गया।

6. हिन्दू-मुस्लिम एकता-भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दुओं और मुसलमान दोनों को एक-दूसरे को समझने का अवसर मिला। फलस्वरूप देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई।

7. साहित्यिक उन्नति-भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप देश में साहित्यिक उन्नति हुई। भक्ति प्रचारकों ने हमें ‘सूरसागर’, ‘रामचरितमानस’ तथा ‘गीतगोविन्द’ जैसे उत्कृष्ट साहित्यिक ग्रन्थ दिए।

मुख्य नेता-भक्ति आन्दोलन के मुख्य नेता शंकराचार्य, रामानन्द, कबीर, गुरु नानक देव जी, चैतन्य महाप्रभु आदि थे।
सच तो यह है कि भक्त प्रचारकों ने भारतीय समाज की अनेक कुरीतियों को दूर करके इसका रूप निखारा। उन्होंने लोगों को सच्चे ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाया और हिन्दू धर्म को नष्ट होने से बचाया। संक्षेप में, “भक्ति आन्दोलन ने भारतीय जन-जीवन के प्रत्येक अंग को प्रभावित किया।”

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प्रश्न 3.
भारत में सूफी मत के प्रसार और मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
भारत में सूफ़ी मत का प्रसार कैसे हुआ ? सूफ़ी मत की किन्हीं पांच शिक्षाओं का वर्णन भी कीजिए।
उत्तर-
भारत में सूफी मत का प्रसार-सूफी मत का उदय सबसे पहले ईरान में हुआ था। भारत में इसका आरम्भ मुसलमानों के आगमन के साथ हुआ। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी के साथ कई एक सूफी सन्त भारत में आए और यहीं रहने लगे। इनमें से ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे 1197 ई० में मुहम्मद गौरी के साथ भारत आए और अजमेर में रहने लगे। उनके उच्च चरित्र तथा सरल उपदेशों के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनका बड़ा आदर करते थे। बाबा फरीद, कुतुबुद्दीन, निजामुद्दीन औलिया, सलीम चिश्ती, शेख नुरुद्दीन आदि सूफी मत के अन्य प्रसिद्ध प्रचारक थे। शिक्षाएं-सूफी मत की शिक्षाएं इस प्रकार थीं

1. ईश्वर की एकता-सूफी सन्तों ने लोगों को बताया कि ईश्वर एक है और आत्मा ईश्वर का ही रूप है। ईश्वर सर्वव्यापी है। वह मनुष्य के मन में भी निवास करता है।

2. ईश्वर भक्ति-उनका विश्वास था कि ईश्वर को सच्ची भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

3. ईश्वर की प्राप्ति-सूफी सन्तों का कहना है कि ईश्वर की प्राप्ति मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य है। उसे पाने के लिए मनुष्य का मन पवित्र होना चाहिए।

4. आत्मसंयम-ईश्वर को पाने के लिए मनुष्य को आत्मसंयम रखना चाहिए। उसका जीवन बहुत ही सादा होना चाहिए। उसे कम खाना चाहिए, कम बोलना चाहिए।

5. प्रेम-ईश्वर को पाने के लिए हमें एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए। प्रेम द्वारा ईश्वर को भी प्राप्त किया जा सकता है।

6. अहंकार का नाश-मनुष्य को चाहिए कि वह अहंकार को मिटा दे। जब तक मनुष्य अहंकार में रहता है, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। .

7. सहनशीलता-मनुष्य को सहनशील होना चाहिए और उसे सभी धर्मों का आदर करना चाहिए। कोई धर्म बुरा नहीं है, क्योंकि सभी का उद्देश्य ईश्वर को प्राप्त करना है।

8. गुरु में विश्वास-सूफी सन्तों का विश्वास था कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु का होना आवश्यक है।

9. जाति-पाति में अविश्वास-सूफी सन्तों ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि सभी मनुष्य समान हैं। कोई भी छोटा-बड़ा नहीं है।

10. हिन्दू-मुस्लिम एकता-सूफी सन्त हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बड़ा बल देते थे। अतः उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों को आपसी भेदभाव मिटाने का उपदेश दिया।