Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य Textbook Exercise Questions and Answers.
PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 2 भारतीय आर्य
अध्याय का विस्तृत अध्ययन ।
(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)
प्रश्न 1.
कृषि तथा नगरों के विकास के सन्दर्भ में भारत में आर्यों के प्रसार की चर्चा करें।
उत्तर-
भारतीय आर्य सम्भवतः मध्य एशिया से भारत में आये थे। आरम्भ में ये सप्त सिन्धु प्रदेश में आकर बसे और लगभग 500 वर्षों तक यहीं टिके रहे। ये मूलतः पशु-पालक थे और विशाल चरागाहों को अधिक महत्त्व देते थे। परन्तु धीरेधीरे वे कृषि के महत्त्व को समझने लगे। अधिक कृषि उत्पादन की खपत के लिए नगरों का विकास भी होने लगा। फलस्वरूप आर्य लोग एक विशाल क्षेत्र में फैलते गए। इस प्रकार कृषि तथा नगरों के विकास ने आर्यों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ अन्य तत्त्वों ने भी उनके प्रसार में सहायता पहुंचाई। इन सब बातों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है :-
आर्यों के प्रसार की तीव्र गति के कारण- भारत में आर्यों का अधिकतर विस्तार 9वीं सदी ई० पू० से हुआ। इसके कई कारण थे-
(1) अब तक सिन्धु घाटी के अनेक लोग दास बना लिए गए थे। इनसे कृषि के लिए जंगल साफ करने का काम लिया जा सकता था।
(2) आर्यों ने लोहे का प्रयोग भी सीख लिया। लोहे से बने औजार पत्थर, तांबे या कांसे की कुल्हाड़ी से कहीं अधिक बेहतर थे। लोहे के प्रयोग द्वारा ही आर्य गंगा के मैदान के घने जंगलों को काटने में सफल हुए।
(3) सिन्धु घाटी सभ्यता की सीमा से बाहर बड़े पैमाने पर कोई अन्य संगठित समाज नहीं था। इसीलिए आर्यों को किसी लम्बे या शक्तिशाली विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। 600 ई० पू० से पहले ही आधुनिक उत्तर प्रदेश का क्षेत्र आर्य सभ्यता का केन्द्र बन चुका था। बिहार और पश्चिम बंगाल में भी इन्होंने बस्तियां स्थापित कर ली थीं। ब्राहाण ग्रन्थों में दो समुद्रों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त विंध्य पर्वत तथा हिमालय का भी उल्लेख हुआ है। इससे स्पष्ट है कि आर्य लोग 600 ई० पू० तक सारे उत्तर भारत से परिचित हो गए थे। अतः यह कहा जा सकता है कि 900 ई० पू० से 600 ई० पू० तक की तीन सदियों में आर्य बस्तियों का विस्तार बड़े पैमाने पर हुआ।
कृषि का विकास तथा आर्यों का प्रसार-आर्यों का उत्तरी भारत में प्रसार वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसके । फलस्वरूप एक नई सभ्यता अस्तित्व में आई। आरम्भ में आर्यों ने अपने पशुओं के लिए खुले चरागाह पाने के लिए उन बांधों को नष्ट किया जो सिन्धु घाटी के लोगों ने बाढ़ द्वारा सिंचाई करने के उद्देश्य से बनाए थे। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति इसीलिए की गई है कि उसने उन नदियों को स्वतन्त्र किया जो ‘कृत्रिम’ रुकावटों द्वारा ‘स्थिर’ कर दी गई थीं। नदियों के स्वतन्त्र हो जाने पर पंजाब की धरती पर विशाल चरागाह बन गई जिसमें नगरों के स्थान पर गांव थे। परन्तु समय पाकर आर्य लोग कृषि के उपयोग तथा महत्त्व को समझने लगे। कृषि के विस्तार के लिए ऋग्वेद में एक प्रार्थना भी मिलती है। इसमें कहा गया है कि गेहूं, जौ, चावल, तिल, मोठ, मसूर, बाजरे आदि की फसलें बढ़ें और कृषि का विस्तार एवं विकास हो। गंगा के मैदान में वे शीघ्र ही लोहे का हल तथा सिंचाई और खाद के प्रयोग से परिचित हो गए। इसके फलस्वरूप पहले से कहीं अधिक विस्तृत प्रदेश कृषि के अधीन हो गया।
नगरों का विकास तथा आर्यों का प्रसार-कृषि से प्राप्त अधिक अन्न की खपत के लिए नगरों के विकास की सम्भावना उत्पन्न हुई। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के पतन के पश्चात् एक बार फिर भारत में हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, कौशाम्भी और काशी जैसे नगर अस्तित्व में आए। समय पाकर नगरों की संख्या बढ़ती गई। उनकी संख्या में वृद्धि के साथ-साथ व्यापार की सम्भावनाएं भी बढ़ीं। ऋग्वैदिक आर्यों के समाज में रथ बनाने वाले से लेकर साधारण बढ़ई तथा धातु और चमड़े के कारीगर भी थे। आरम्भ में वे जिन धातुओं का प्रयोग करते थे, उनमें सोना, तांबा और कांसा मुख्य थे। परन्तु ऋग्वेद के बाद के काल में रांगे (कली), सीसे और लोहे का प्रयोग भी किया जाने लगा।
ऋग्वेद के बाद की रचनाओं में व्यापार के साथ-साथ कहीं अधिक संख्या में दूसरे धन्धों का उल्लेख मिलता है, जैसेशिकारी, मछुआरे, पशु-सेवक, जेवर बनाने वाले, लोहा पिघलाने वाले, टोकरियां बुनने वाले, धोबी, रंगरेज़, रथ बनाने वाले, जुलाहे, कसाई, सुनार, रसोइये, कमान बनाने वाले, सूखी मछलियां बेचने वाले, लकड़ियां इकट्ठी करने वाले, द्वारपाल, प्यादे, सन्देशवाहक, मांस को काटने और मसालेदार भोजन बनाने वाले, कुम्हार, धातु का काम करने वाले, रस्से बनाने वाले, नाविक, बाजीगर, ढोल और बांसुरी वादक आदि। इनके अतिरिक्त व्यापारी तथा ब्याज लेने वाले साहूकार भी थे। नगरों के उदय तथा उद्योग-धन्धों में वृद्धि के कारण आर्यों के प्रसार की गति और भी तीव्र हो गई।
राज्यों (जनपद) की स्थापना-उत्तरी भारत में पूर्ण रूप से फैल जाने के पश्चात् आर्यों ने कुछ बड़े-बड़े राज्य स्थापित किए। लगभग 600 ई० पू० तक उत्तरी भारत में कई राज्य स्थापित हो चुके थे। इनकी संख्या सोलह बताई जाती है। कम्बोज और गान्धार राज्य उत्तर-पश्चिम में स्थित थे। सतलुज और यमुना के मध्य कुरू का राज्य विस्तृत था। यमुना और चम्बल के मध्य शूरसेन राज्य था। शूरसेन के नीचे मत्स्य और मध्य भारत में चेदि राज्य था। नर्मदा नदी के ऊपरी भाग में अवन्ति और महाराष्ट्र में गोदावरी के ऊपरी घेरे में अशमक था। इसी प्रकार गंगा में मैदान में भी कई राज्य थे जिनमें पांचाल, कोशल, मल्ल, वत्स, काशी, वज्जि, मगध और अंग का नाम लिया जा सकता है। इस प्रकार आधे से अधिक मुख्य राज्य गंगा के मैदान में ही स्थित थे। 800 ई० पू० के पश्चात् आर्यों के प्रभाव अधीन क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ। परन्तु पुराने प्रदेशों की तुलना में नए प्रदेशों में आर्यों की जनसंख्या बहुत कम थी।
ऊपर दिए गये विवरण से स्पष्ट है कि आर्यों ने कुछ ही समय में पूरे उत्तरी भारत में अपना विस्तार कर लिया। कृषि नगरों तथा विभिन्न उद्योग-धन्धों के विस्तार ने उनके प्रसार की गति को तीव्र किया और उनकी शक्ति में वृद्धि की। यह उनके प्रसार का ही परिणाम था कि वे भारत में 16 बड़े-बड़े राज्य (जनपद) स्थापित करने में सफल रहे। उनके द्वारा स्थापित यही जनपद आगे चल कर विशाल साम्राज्य की स्थापना का आधार बने।
प्रश्न 2.
आर्यों की सामाजिक संस्थाओं तथा धर्म पर लेख लिखें।
उत्तर-
आर्यों ने भारतीय समाज एवं धर्म को नया रूप प्रदान किया। उन्होंने परिवार, जाति, वर्ण आदि सामाजिक संस्थाओं का गठन किया और उन्हें स्थायी रूप प्रदान किया। धर्म के क्षेत्र में भी वे अत्यन्त विकसित विचारधारा लिए हुए थे। प्राकृतिक शक्तियों की उपासना के साथ-साथ उन्होंने धर्म में आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त जैसे अत्यन्त गहन विचारों का समावेश किया। उनकी आदर्श सामाजिक संस्थाओं तथा धर्म के विभिन्न पक्षों का वर्णन इस प्रकार है :
I. सामाजिक संस्थाएं
1. वर्ण-व्यवस्था-वर्ण व्यवस्था आर्यों की महत्त्वपूर्ण संस्था थी। आर्यों का पूरा समाज इससे प्रभावित था। इस संस्था का विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ। आरम्भ में आर्यों का समाज तीन वर्गों में बंटा हुआ था। युद्ध लड़ने वाले योद्धा ‘क्षत्रिय’ कहलाते थे तथा कबीले के साधारण लोगों को ‘वैश्य’ कहा जाता था। उस समय पुरोहित भी थे, परन्तु अभी पुरोहित वर्ग अस्तित्व में नहीं आया था। आरम्भ में इस सामाजिक विभाजन का उद्देश्य केवल सामाजिक तथा आर्थिक संगठन को सुदृढ़ बनाना था। यहां एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि समाज के इन वर्गों को अभी तक कोई ठोस रूप नहीं दिया गया था।
समय बीतने पर आर्य लोगों ने कुछ दासों (युद्ध बन्दियों) को अपने अधीन कर लिया। फलस्वरूप उन्हें समाज में कोई स्थान देने की समस्या उत्पन्न हो गई। यह समस्या उन्हें समाज में सबसे निम्न स्थान देकर सुलझाई गई। इसके अतिरिक्त वैदिक संस्कारों का महत्त्व भी बढ़ने लगा। इन संस्कारों को सम्पन्न करने का कार्य पुरोहितों ने सम्भाल लिया। धीरे-धीरे उन्होंने एक पृथक् वर्ग का रूप धारण कर लिया। धीरे-धीरे आर्यों का समाज चार वर्गों में बंट गया। इन चार वर्गों में योद्धा वर्ग ‘क्षत्रिय’ तथा पुरोहित वर्ग ‘ब्राह्मण’ कहलाया। समृद्ध ज़मींदार तथा व्यापारी वैश्य तथा साधारण किसान ‘शूद्र’ कहलाने लगे। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था ने स्पष्ट रूप धारण कर लिया।
समय के साथ-साथ वर्ण-व्यवस्था जटिल होने लगी। यदि एक वर्ग के लोग अपना व्यवसाय बदल भी लेते थे, तो उन्हें नए वर्ग का अंग नहीं माना जाता था। दूसरे वर्ण-व्यवस्था में मुख्य रूप से आर्य लोग ही शामिल थे। शूद्रों को जोकि प्रायः आर्य नहीं थे, वैदिक संस्कार करने की आज्ञा नहीं थी। वे अपने ही देवी-देवताओं की पूजा करते थे और उनके धार्मिक संस्कार आर्यों से अलग थे। बाद में ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक ढांचे में ढाल दिया। वर्ण-व्यवस्था के इस नए संगठन में ब्राह्मणों को पहला, क्षत्रियों को दूसरा, वैश्यों को तीसरा और शूद्रों को चौथा स्थान प्राप्त था। यह बात ऋग्वेद के मन्त्र ‘पुरुष सूक्त’ से स्पष्ट हो जाती है। उसमें कहा गया है कि एक बलि-संस्कार में पुरुष के मुंह से ब्राह्मण, बाजुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शद्रों की उत्पत्ति हई थी। वर्ण-व्यवस्था काफ़ी समय तक अपने इस रूप में संगठित रही।
2. जाति-1000 ई० पू० के पश्चात् कस्बों तथा उद्योग-धन्धों की संख्या बढ़ जाने के कारण वर्ण-व्यवस्था में विविधता आने लगी और इसके स्थान पर ‘जाति’ व्यवस्था का महत्त्व बढ़ने लगा। ‘जाति’ एक ही व्यवसाय से सम्बन्धित लोगों के समूह को कहा जाता था। धीरे-धीरे चार वर्णों की तरह नवीन जातियों का स्थान भी समाज में निश्चित कर दिया गया। सभी जातियों के लोग अपना पैतृक व्यवसाय अपनाते थे। उनके विवाह-सम्बन्धी नियम भी बड़े जटिल थे। एक जाति के लोगों को दूसरी जाति के लोगों के साथ मिलकर खाने-पीने की मनाही थी। एक जाति के लोग अपना व्यवसाय बदल कर समाज में ऊंचा दर्जा प्राप्त कर सकते थे। परन्तु जब केवल एक ही व्यक्ति अपना व्यवसाय बदलता था, उसे समाज में तब तक ऊंचा स्थान नहीं मिलता था जब तक कि वह किसी ऐसे धार्मिक समूह का अंग न बन जाता जिसका वर्ण-व्यवस्था में कोई विश्वास न हो।
3. परिवार-परिवार भी आर्यों के सामाजिक जीवन की एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी। परिवार पितृ प्रधान होते थे। पिता अर्थात् परिवार में सबसे अधिक आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। पिता अपनी सन्तान से दया तथा प्रेम का व्यवहार करता था। पिता के अधिकार काफ़ी अधिक थे और वह परिवार में अनुशासन को बड़ा महत्त्व देता था। पुत्र तथा पुत्री के विवाह में पिता का पूरा हाथ होता था। पिता परिवार की सम्पत्ति का भी स्वामी होता था। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र उस सम्पत्ति का स्वामी होता था। उन दिनों पुत्र गोद लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। परिवार में स्त्री का सम्मान होता था। परन्तु सम्पत्ति में उसे हिस्सा नहीं दिया जाता था।
II. धर्म
ऋग्वैदिक आर्यों के देवी-देवता-ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। वे उन सभी प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करते थे जो उनके लिए वरदान अथवा अभिशाप थीं। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी और तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है।
आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। ऋग्वेद में इन्द्र का वर्णन यूं किया गया है-“हे पुरुषो ! इन्द्र वह है जिसको आकाश और पृथ्वी नमस्कार करते हैं, जिसकी श्वास से पर्वत भयभीत हो जाते हैं।” युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की उपासना की जाती थी। आर्यों का एक अन्य देवता रुद्र था। उसकी पूजा प्रायः विपत्तियों के निवारण के लिए की जाती थी। आर्यों में अग्नि देवता की भी पूजा प्रचलित थी। उसे मनुष्य तथा देवताओं के बीच दूत माना जाता था। इन देवताओं के साथ-साथ आर्य लोग पृथ्वी, वायु, सोम आदि अनेक देवी-देवताओं की उपासना भी करते थे।
यज्ञों का उद्देश्य और महत्त्व-आर्यों के धर्म में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ भी होते थे जिनमें सारा गांव या कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों के रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे। इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि इन्द्र देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान तथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा हुई मानी गई थी।
उत्तर वैदिक धर्म-ऋग्वेद के बाद भारतीय आर्यों (उत्तर वैदिक आर्यों) के धर्म का रूप निखरने लगा। अब रुद्र और विष्णु जैसे नए देवता आर्यों में अधिक प्रिय हो गए। ऋग्वैदिक काल में विष्णु को सूर्य का एक रूप समझा जाता था। परन्तु अब उसकी पूजा एक स्वतन्त्र देवता के रूप में की जाने लगी। अब अनेक प्रकार के यज्ञ होने लगे। सूत्र यज्ञ’ कई-कई वर्षों तक चलते रहते थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में पूरी शताब्दी तक चलने वाले यज्ञों का उल्लेख भी मिलता है। इन यज्ञों को लोग स्वयं नहीं कर सकते थे अपितु उन्हें ब्राह्मणों को बुलाना पड़ता था। फलस्वरूप ब्राह्मण वर्ग समाज पर पूरी तरह छा गया था। अब लोग कर्म सिद्धान्त में विश्वास रखने लगे थे। उनके अनुसार जो मनुष्य अपने जीवन काल में ईश्वर को प्राप्त कर लेता था वह मोक्ष प्राप्त करता था। मोक्ष से आत्मा मरती नहीं अपितु अमर हो जाती है। जो व्यक्ति नेक कार्य तो करता है, परन्तु ईश्वर को प्राप्त नहीं कर पाता, वह सीधा चन्द्र लोक में जाता है। कुछ समय पश्चात् वह मनुष्य के रूप में पुनः जन्म लेता है। प्रत्येक मनुष्य का भाग्य अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार निश्चित होता है।
सच तो यह है कि ऋग्वैदिक समाज बड़ा उच्च तथा सभ्य समाज था। सफल पारिवारिक जीवन, नारी का गौरवमय स्थान, अध्यात्मवाद का प्रचार आदि सभी बातें एक उन्नत समाज का संकेत देती हैं। हमें एक ऐसे विकसित समाज के दर्शन होते हैं जहां पाप-पुण्य में भेद समझा जाता था और जहां लोगों को बुरे-भले की पहचान थी।
महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न
I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक
प्रश्न 1.
आर्यों का मुख्य व्यवसाय क्या था ?
उत्तर-
आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशु-पालन तथा कृषि करना था।
प्रश्न 2.
आर्य भारत में कब आकर बसे ?
उत्तर-
आर्य भारत में लगभग 1500 ई० पूर्व में आकर बसे।
प्रश्न 3.
भारतीय आर्यों ने किस प्रदेश को सबसे पहले अपना निवास-स्थान बनाया ?
उत्तर-
उत्तर-पश्चिमी प्रदेश सप्त सिन्धु को।
प्रश्न 4.
आर्यों के किन्हीं चार देवी-देवताओं के नाम बताओ।
उत्तर-
सूर्य, इन्द्र, वायु और ऊषा आर्यों के मुख्य देवी-देवता थे।
प्रश्न 5.
सांख्य दर्शन की रचना किसने की थी ?
उत्तर-
सांख्य दर्शन की रचना कपिल ने की थी।
प्रश्न 6.
योग दर्शन का लेखक कौन था ?
उत्तर-
योग दर्शन का लेखक पातंजलि था।
प्रश्न 7.
ऋग्वैदिक काल की दो विदुषियों के नाम बताओ।
उत्तर-
गार्गी और विश्वारा।
प्रश्न 8.
आर्य लोग किस पशु को पवित्र मानते थे ?
उत्तर-
आर्य लोग गाय को पवित्र मानते थे।
प्रश्न 9.
ऋग्वैदिक काल के राजा की शक्तियों पर रोक लगाने वाली दो संस्थाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
‘सभा और समिति’।
प्रश्न 10.
श्रीकृष्ण ने किस स्थान पर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया ?
उत्तर-
श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।
प्रश्न 11.
“भगवद्गीता” का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर-
“भगवद्गीता” का शाब्दिक अर्थ भगवान का गीत है।
2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-
(i) वैदिक आर्यों की मूल भाषा ……… थी।
(ii) आर्यों के मूल स्थान के विषय में सर्वमान्य सिद्धान्त ……… का सिद्धान्त है।
(iii) आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रंथ ……… है।
(iv) ऋग्वैदिक काल में पंजाब को ………… प्रदेश कहा जाता था।
(v) वैदिक काल में ………… शासन प्रणाली थी। .
उत्तर-
(i) संस्कृत
(ii) मध्य एशिया
(iii) ऋग्वेद
(iv) सप्तसिंधु
(v) राजतंत्रीय।
3. सही/ग़लत कथन-
(i) इन्द्र आर्यों का वर्षा का देवता था।– (√)
(ii) वैदिक समाज में स्त्री को निम्न स्थान प्राप्त था।– (×)
(iii) मुख्य वेद संख्या में 6 हैं।– (×)
(iv) वरुण आर्यों का एक देवता था।– (√)
(v) आयुर्वेद एक चिकित्सा शास्त्र है।– (√)
4. बहु-विकल्पीय प्रश्न
प्रश्न (i)
वैदिक समाज कितने वर्षों में बंटा हुआ था ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) छः।
उत्तर-
(C) चार
प्रश्न (ii)
दस्यु कौन थे ?
(A) आर्यों से पहले समाज में रहने वाले लोग
(B) आर्यों को हराने वाले लोग।
(C) आर्यों के समाज में सबसे उच्च स्थान रखने वाले लोग
(D) व्यापारी तथा दस्तकार के रूप में काम करने वाले लोग।
उत्तर-
(A) आर्यों से पहले समाज में रहने वाले लोग
प्रश्न (iii)
आर्यों के समाज में सर्वोच्च स्थान पर थे-
(A) क्षत्रिय
(B) ब्राह्मण
(C) वैश्य
(D) शूद्र।
उत्तर-
(D) उपनिषदों में।
प्रश्न (iv)
आर्य विचारकों के दार्शनिक विचार मिलते हैं-
(A) वेदांगों में
(B) उपवेदों में
(C) श्रुतियों में
(D) उपनिषदों में।
उत्तर-
(D) उपनिषदों में।
प्रश्न (v)
निम्न में से कौन-सा आर्यों का देवता नहीं था ?
(A) मातंग
(B) सूर्य.
(C) वायु
(D) वरूण।
उत्तर-
(A) मातंग
II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में कौन-से क्षेत्र बताए जाते हैं ?
उत्तर-
भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में मुख्य रूप से मध्य एशिया अथवा सप्त सिन्धु प्रदेश, उत्तरी ध्रुव तथा मध्य एशिया के क्षेत्र बताए जाते हैं। मध्य प्रदेश तथा सप्त सिन्धु प्रदेश का सम्बन्ध प्राचीन भारत से है।
प्रश्न 2.
आर्यों की मूल भाषा में से कौन-सी दो यूरोपीय भाषायें निकली ?
उत्तर-
आर्यों की मूल भाषा में से निकलने वाली दो यूरोपीय भाषाएं थीं-यूनानी तथा लातीनी।
प्रश्न 3.
आरम्भ में आर्यों का मुख्य धन्धा तथा उनकी सम्पत्ति का माप क्या था ?
उत्तर-
आरम्भ में आर्यों का मुख्य धन्धा पशु चराना था। पशु ही उनकी सम्पत्ति का माप थे।
प्रश्न 4.
आर्यों का मुख्य वाहन कौन-सा पशु था और यह किस प्रकार के रथों में जोता जाता था ?
उत्तर-
आर्यों का मुख्य वाहन पशु घोड़ा था। इसे हल्के रथों में जोता जाता था।
प्रश्न 5.
चार वेदों के क्या नाम हैं ?
उत्तर-
चार वेदों के नाम हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद।
प्रश्न 6.
600 ई० पू० के लगभग कौन-से दो धार्मिक ग्रन्थों की रचना हुई थी ?
उत्तर-
600 ई० पू० के लगभग ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों की रचना हुई।
प्रश्न 7.
1000 से 700 ई० पू० की घटनाएं कौन-से दो महाकाव्यों में बताई गई हैं ?
उत्तर-
1000 से 700 ई० पू० तक की घटनाएं महाभारत तथा रामायण नामक दो महाकाव्यों में बताई गई हैं।
प्रश्न 8.
ऋग्वेद में दी गई किन्हीं चार नदियों के नाम बताओ।
उत्तर-
ऋग्वेद में दी गई चार नदियों के नाम हैं-काबुल, स्वात, कुर्रम और गोमल।
प्रश्न 9.
‘पणि’ शब्द से क्या भाव था ?
उत्तर-
‘पणि’ शब्द से भाव सम्भवतः सिन्धु घाटी के व्यापारी वर्ग से था। ऋग्वेद में इन लोगों को पशु चोर बताया गया है और आर्य लोग इन्हें अपना शत्रु समझते थे।
प्रश्न 10.
ऋग्वेद में दिए गए दस राजाओं के युद्ध का सामाजिक महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
दस राजाओं का युद्ध इस बात का प्रतीक है कि ऋग्वैदिक काल में सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी।
प्रश्न 11.
राजा सुदास कौन-से कबीले से था और इसकी चर्चा किस सन्दर्भ में आती है ?
उत्तर-
राजा सुदास का सम्बन्ध ‘भरत’ कबीले से था। उसकी चर्चा दस राजाओं के संघ को हराने के सन्दर्भ में आती है।
प्रश्न 12.
राजसूय यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
राजसूय यज्ञ राज्य में दैवी शक्ति का संचार करने के लिए किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि राजपद को दैवी देन माना जाने लगा था।
प्रश्न 13.
ब्राह्मण ग्रन्थों में किन दो पर्वतों का उल्लेख मिलता है ?
उत्तर-
ब्राह्मण ग्रन्थों में विन्ध्य पर्वत तथा हिमालय का उल्लेख मिलता है।
प्रश्न 14.
सबसे अधिक गौरव का स्थान किस यज्ञ को प्राप्त था और इसमें किस पशु की बलि दी जाती थी ?
उत्तर-
सबसे अधिक गौरव अश्वमेध यज्ञ को प्राप्त था। इस यज्ञ में घोड़े (अश्व) की बलि दी जाती थी।
प्रश्न 15.
600 ई० पू० के लगभग उत्तर-पश्चिम में तथा सतलुज एवं यमुना नदियों के मध्य में कौन-से तीन राज्य थे ?
उत्तर-
इस काल में देश के उत्तर-पश्चिम में कम्बोज तथा गान्धार राज्य स्थित थे। सतलुज और यमुना नदियों के मध्य कुरू राज्य था।
प्रश्न 16.
700 ई० पू० के लगभग कोई चार गणराज्यों के नाम बतायें।
उत्तर-
700 ई० पू० के लगभग चार गणराज्य थे-शाक्य, मल्ल, वज्जि तथा यादव।
प्रश्न 17.
भारत में विकसित होने वाले चार आरम्भिक नगरों के नाम बताएं।
उत्तर-
भारत में विकसित होने वाले चार आरम्भिक नगरों के नाम थे-हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, कौशाम्भी और काशी।
प्रश्न 18.
‘वर्ण’ का शाब्दिक अर्थ बताएं। इस शब्द का आरम्भ में व्यवहार किस परिस्थिति में हुआ ?
उत्तर-
वर्ण का शाब्दिक अर्थ है-रंग। आरम्भ में इस शब्द का व्यवहार उस समय हुआ जब आर्य स्वयं को पराजित दासों से भिन्न रखने के लिए रंग भेद को महत्त्व देने लगे थे।
प्रश्न 19.
वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत चार वर्णों के नाम बताएं।
उत्तर-
वर्ण-व्यवस्था के अनुसार चार वर्णों के नाम थे-क्षत्रिय (योद्धा वर्ग), ब्राह्मण (पुरोहित लोग), वैश्य (धनी व्यापारी एवं ज़मींदार) और शूद्र (साधारण किसान आदि)।
प्रश्न 20.
आर्यों के समय परिवार का प्रधान कौन-सा सदस्य होता था ? तब सम्बन्धित परिवारों के समूह को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
परिवार का प्रधान परिवार में सबसे बड़ी आयु वाला सदस्य होता था। सम्बन्धित परिवारों के समूह को ‘ग्राम’ कहा जाता था।
प्रश्न 21.
ऋग्वेद में कौन-सी चार देवियों का उल्लेख आता है ? .
उत्तर-
ऋग्वेद में प्रात:काल की देवी उषा, रात की देवी रात्रि, वन की देवी अरण्यी तथा धरती की देवी पृथ्वी का उल्लेख आता है।
प्रश्न 22.
आर्यों के समय किन दो संस्कारों में अग्नि देवता का सम्बन्ध था ?
उत्तर-
अग्नि देवता का सम्बन्ध मुख्यतः ‘विवाह संस्कार’ तथा ‘दाह संस्कार’ के साथ था।
प्रश्न 23.
आर्यों में इन्द्र किन चीज़ों का देवता होता था ?
उत्तर-
आर्यों में इन्द्र युद्ध तथा वर्षा का देवता होता था।
प्रश्न 24.
साधारण जीवन के चार आश्रम कौन-से थे ?
उत्तर-
साधारण जीवन के चार आश्रम थे-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास।
प्रश्न 25.
‘द्विज’ से क्या भाव था और कौन-से तीन वर्गों को यह स्थान प्राप्त था ?
उत्तर-
‘द्विज’ से भाव था-‘दूसरा जन्म’। यह स्थान क्षत्रियों, ब्राह्मणों तथा वैश्यों को प्राप्त था।
II. छोटे उत्तर वाले प्रश्न
प्रश्न 1.
आर्य लोग भारत में कब और कैसे आये ?
उत्तर-
आर्यों का भारत-आगमन एक उलझा हुआ प्रश्न है। इस विषय में प्रत्येक विद्वान् अपना पृथक् दृष्टिकोण रखता है। तिलक और जैकोबी ने आर्यों के भारत में आने का समय 6000 ई० पू० से 4000 ई० पू० बताया है। प्रो० मैक्समूलर के विचार में आर्य लोगों ने 1200 से 1000 ई० पू० के मध्य में भारत में प्रवेश किया। डॉ० आर० के० मुखर्जी के अनुसार आर्य लोग सबसे पहले 2500 ई० पू० में भारत में आए तथा लगभग 1900 ई० पू० तक वे लगातार आते रहे। आज यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आर्य लोग भारत में एक साथ नहीं आए। वे धीरे-धीरे यहां आते रहे और बसते रहे। अतः डॉ० आर० के० मुखर्जी का मत अधिक मान्य जान पड़ता है।
प्रश्न 2.
ऋग्वैदिक काल में आर्य लोगों की बस्तियां मुख्य रूप से कहां केन्द्रित थी ?
उत्तर-
ऋग्वैदिक काल से अभिप्राय उस काल से है जिस काल में आर्य लोगों ने ऋग्वेद की रचना की। ये लोग अफगानिस्तान के मार्ग से भारत आए थे और यहां आकर बस गए थे। आरम्भ में ये 500 वर्षों तक उसी क्षेत्र में बसे जिसमें सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग रहते थे। इस प्रदेश में मुख्यत: सिन्धु नदी तथा प्राचीन पंजाब की पांच नदियों (सिन्धु नदी की सहायक नदियों) का प्रदेश सम्मिलित था। बाद में वे पूर्व दिशा में आगे की ओर बढ़े। धीरे-धीरे उन्होंने सतलुज तथा यमुना नदियों के बीच के प्रदेश और दिल्ली के आस-पास के प्रदेशों में अपनी बस्तियां बसा लीं। आर्यों के ये सभी क्षेत्र सामूहिक रूप से सप्त सिन्धु प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध हैं। अतः हम यूं भी कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक काल में आर्यों की बस्तियां मुख्य रूप से सप्त सिन्धु प्रदेश में ही केन्द्रित थीं।
प्रश्न 3.
आर्य लोग यमुना नदी की पूर्वी दिशा में कब बढ़े ? उनके इस दिशा में विस्तार के क्या कारण थे ?
उत्तर-
आर्य लोग लगभग 500 वर्ष तक सप्त सिन्धु प्रदेश में रहने के पश्चात् यमुना नदी के पूर्व की ओर बढ़े। इस दिशा में उनके विस्तार के मुख्य कारण ये थे :-
1. इस समय तक आर्यों ने सप्त सिन्धु के अनेक लोगों को दास बना लिया था। इन दासों से वे जंगलों को साफ करने का काम लेते थे। जहां कहीं जंगल साफ हो जाते, वहां वे खेती करने लगते थे।
2. इसी समय आर्य लोहे के प्रयोग से भी परिचित हो गए। लोहे से बने औज़ार तांबे अथवा कांसे के औज़ारों की अपेक्षा अधिक मजबूत और तेज़ थे। इन औजारों की सहायता से वनों को बड़ी तेजी से साफ किया जाता था।
3. आर्यों के तीव्र विस्तार का एक अन्य कारण यह था कि सिन्धु घाटी की सभ्यता की सीमाओं के पार कोई शक्तिशाली संगठन अथवा कबीला नहीं था। परिणामस्वरूप आर्यों को किसी विरोधी का सामना न करना पड़ा और वे बिना किसी बाधा के आगे बढ़ते गए।
प्रश्न 4.
जाति-प्रथा के क्या लाभ हुए ?
उत्तर-
- जाति-प्रथा के कारण भारतीयों ने विदेशियों से अधिक मेल-जोल न बढ़ाया। परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति विदेशी प्रभाव से सुरक्षित रही।
- जाति-प्रथा के कारण लोग केवल अपनी ही जाति में विवाह करते थे। इस प्रकार रक्त की पवित्रता बनी रही।
- जाति-प्रथा के कारण लोग बचपन से ही अपने पिता के व्यवसाय में जुट जाते थे। फलस्वरूप बड़े होकर वे निपुण कारीगर सिद्ध होते थे।
- जाति-प्रथा के कारण प्रत्येक जाति के लोगों को अपनी जाति का व्यवसाय अपनाना पड़ता था। अतः लोगों को रोज़ी का कोई अन्य साधन ढूंढ़ने की चिन्ता नहीं रहती थी।
- जाति-प्रथा के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा देना था। वे निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते थे।
- शुद्धि द्वारा अन्य जातियों के लोग हिन्दू बन सकते थे। अतः शक, हूण, यूनानी आदि भारत पर आक्रमण करने वाली अनेक जातियां हिन्दू समाज का अंग बन गईं।
प्रश्न 5.
जाति-प्रथा से भारतीय समाज को क्या हानि पहुंची ?
उत्तर-
- जाति-प्रथा के कारण राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात पहुंचा। लोग राष्ट्रीय हितों को भूलकर केवल अपनी जाति के बारे में सोचने लगे।
- जाति-प्रथा के कारण केवल क्षत्रिय ही सैनिक शिक्षा प्राप्त करते थे। फलस्वरूप देश में सैनिक शिक्षा सीमित रही।
- जाति-प्रथा के कारण लोगों के लिए पैतृक धन्धा बदलना बड़ा कठिन होता था। फलस्वरूप लोगों का व्यक्तिगत विकास रुक गया।
- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जाति के लोग शूद्रों को अपने से नीचा समझते थे और उनसे घृणा करते थे। परिणामस्वरूप समाज में छुआछूत की भावना बढ़ी।
- ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए अनेक प्रथाएं प्रचलित की जिनसे उन्हें अधिक-से-अधिक लाभ पहुंचे। इस प्रकार अनेक सामाजिक कुरीतियां प्रचलित हुईं।
प्रश्न 6.
ऋग्वेद से दासों की स्थिति के बारे में क्या पता चलता है ?
उत्तर-
ऋग्वेद में ‘आर्यों के दासों’ के साथ हुए सशस्त्र संघर्षों का बार-बार उल्लेख मिलता है। दास काले वर्ण के, मोटे होठों एवं चपटी नाक वाले थे। वास्तव में यहां ‘दास’ से भाव सिन्धु घाटी के कृषक समाज से है। ये लोग भूमि पर अच्छी तरह बसे हुए थे जबकि आर्य लोग अभी भी अधिकांशत: पशु-पालन अवस्था में थे। अन्ततः आर्यों ने दासों को अपने अधीन कर लिया। इस तथ्य की जानकारी संस्कृत के ‘दास’ शब्द से होती है। यह शब्द जो अब अधीनस्थ अथवा ‘गुलाम’ का अर्थ देने लगा था। ‘गुलाम स्त्रियों’ के लिए संस्कृत शब्द ‘दासी’ प्रचलित हो गया। कुछ दासों की स्थिति बड़ी उन्नत थी। ऋग्वेद में एक दास मुखिया का उल्लेख मिलता है। सच तो यह है कि दास वर्ग धीरे-धीरे आर्यों के साथ मिलकर रहने लगा था।
प्रश्न 7.
आर्यों के समय में कृषि व्यवस्था की विशेषताएं क्या थी ?
उत्तर-
आर्य लोग मूल रूप से पशु-पालक थे। परन्तु समय पाकर वे कृषि के उपयोग तथा महत्त्व को समझने लगे। उन्होंने जंगलों को साफ किया और कृषि आरम्भ कर दी। लोहे के औज़ारों के कारण जहां उनके लिए जंगल साफ करने सरल हो गए थे, वहां कृषि की दशा भी उन्नत हो गई। लोहे के हल के अतिरिक्त उन्होंने सिंचाई व्यवस्था को भी उत्तम बनाया। वे खाद का प्रयोग भी करने लगे। वे मुख्य रूप से गेहूं, जौ, चावल, तिल, मोठ, मसूर, बाजरा आदि की कृषि करते थे।
प्रश्न 8.
प्रमुख गणराज्य कौन-से थे तथा उनकी राज्य व्यवस्था किस प्रकार की थी ?
उत्तर-
आर्यों द्वारा स्थापित सभी जनपदों में राजतन्त्रीय प्रशासन नहीं था। इनमें से कुछ गणराज्य भी थे जो विशेषकर पंजाब में और गंगा नदी तथा हिमालय के बीच के क्षेत्र में विस्तृत थे। कुछ गणराज्य अकेले कबीलों ने स्थापित किए, जैसे-शाक्य, कौशल और मल्ल। अन्य गणराज्य एक से अधिक कबीलों के संघ थे। वज्जि और यादव इसी प्रकार के गणराज्य थे। इन गणराज्यों में कबीलों की परम्परा के कई अंशों के अनुसार शासन होता था। शासन का कार्यभार एक समिति के पास था। इस समिति की अध्यक्षता सरदारों में से एक प्रतिनिधि करता था। वह राजा कहलाता था। अतः स्पष्ट है कि राजा का पद निर्वाचित होता था। यह पद वंशागत नहीं था। समिति में राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण मामलों पर विचार-विमर्श होता था। सदस्यों को अपना मत देने का अधिकार था। प्रशासन में राजा की सहायता सेनानी और कोषाध्यक्ष करते थे।
प्रश्न 9.
आर्यों की परिवार की संस्था की विशेषताएं क्या थीं ?
उत्तर-
‘परिवार’ आर्यों की एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था थी। परिवार पितृ-प्रधान था अर्थात् परिवार का मुखिया पिता (या सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति) होता था। पिता की मृत्यु के पश्चात् परिवार का सबसे बड़ी आयु का पुरुष उसका स्थान लेता था। परिवार का गठन प्रायः तीन पीढ़ियों पर आधारित था। परिवार में सम्पत्ति के अधिकारी केवल पुरुष सदस्य ही होते थे। इसलिए पुत्र का पैदा होना शुभ माना जाता था। कई धार्मिक अनुष्ठान भी ऐसे थे जिन्हें पुत्र ही कर सकता था। कई रीतियों में भी उसकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी। भले ही आर्य बहु-विवाह की प्रथा से परिचति थे फिर भी मान्यता केवल एक विवाह पद्धति को ही प्राप्त थी। बाद की कुछ रचनाओं में बहुपति प्रथा का भी उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, महाभारत की द्रौपदी पांच पाण्डवों की पत्नी थी। विधवा स्त्री का विवाह प्रायः उसके मृत पति के भाई से कर दिया जाता था। सती-प्रथा प्रचलित नहीं थी। स्त्रियों के साथ प्रायः अच्छा व्यवहार होता था।
प्रश्न 10.
आर्यों के मुख्य देवताओं के बारे में बताएं।
उत्तर-
ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी, तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य लोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है। आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की ही उपासना की जाती थी। इन्द्र के अतिरिक्त वे रुद्र, अग्नि, पृथ्वी, वायु, सोम आदि देवताओं की उपासना भी करते थे।
प्रश्न 11.
आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त से क्या भाव है ?
उत्तर-
आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं। आवागमन के अनुसार आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में निरन्तर चक्कर लगाती रहती है। यह चक्कर अनन्तकाल तक जारी रहता है और कभी समाप्त नहीं होता। कर्म-सिद्धान्त से भाव मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार उनके जन्म के निर्धारण से है। ऋग्वेद में कहा गया है कि मरने के पश्चात् मनुष्य का परलोक में स्थान निश्चित हो जाता है। बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को दण्ड के रूप में ‘मिट्टी के घर’ में रहना पड़ता है जबकि अच्छे कर्मों वाले मनुष्य को पुरस्कार के रूप में ‘पुरखों की दुनिया में स्थान दिया जाता है। परन्तु उपनिषदों में ऐसा कुछ नहीं कहा गया जिसका अर्थ यह है कि मानव आत्मायें अपने पूर्वजन्म के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुरूप सुख या दुःख भोगने के लिए पुनर्जन्म लेती हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म व कर्म-सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं।
प्रश्न 12.
आर्यों की सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
आर्यों की सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ होते थे जिनमें सारा गांव या सारा कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों की रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे और इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान प्रथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा ही मानी गई थी।
प्रश्न 13.
आर्यों की भारतीय सभ्यता को क्या देन थी ?
उत्तर-
आर्यों ने भारतीय सभ्यता को काफ़ी समृद्ध बनाया। उन्होंने वैदिक साहित्य की रचना की और संस्कृत भाषा का प्रचलन किया। उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान सामाजिक संस्थाओं एवं धर्म के क्षेत्र में था। भारत में जाति भेद पर आधारित समाज की परम्परा दो हजार वर्षों से अधिक समय तक चलती रही है। आर्यों द्वारा रचित उपनिषदों का आध्यात्मिक चिन्तन बाद में कई दर्शनों का आधार बना। आर्य लोगों ने जंगलों को साफ करके देश के विशाल क्षेत्र को कृषि अधीन किया। यह भी कोई कम प्रभावशाली कार्य नहीं था। कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की प्रगति के कारण ही उत्तरी भारत में शक्तिशाली राज्य विकसित हुए जो कई शताब्दियों तक बने रहे। वर्ण-व्यवस्था एवं बलि संस्कारों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप जैन तथा बौद्ध धर्म सहित कुछ शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन उभरे। इन्हें भी भारतीय आर्यों की एक महत्त्वपूर्ण देन कहा जा सकता
प्रश्न 14.
वैदिक तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता की चार असमानताएं बताओ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता-
- यह सभ्यता आज से लगभग 5,000 वर्ष पुरानी है।
- इस सभ्यता की जानकारी हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो| आदि की खुदाई से मिली है।
- यह एक नागरिक सभ्यता थी। यहां के अधिकतर निवासी नगरों में रहते थे।
- सिन्धु घाटी के लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास रखते थे। वे लिंग, योनि तथा पीपल की पूजा करते थे।
वैदिक सभ्यता-
- यह सभ्यता लगभग 3,000 वर्ष पुरानी है।
- इस सभ्यता की जानकारी हमें वेदों से मिली है।
- यह सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता थी। यहां के अधिकतर निवासी गाँवों में रहते थे।
- आर्य लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। वे अपने देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करते थे।
प्रश्न 15.
वैदिक तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता की चार समानताएं बताओ।
उत्तर-
वैदिक तथा सिन्धु घाटी सभ्यता की चार मुख्य समानताओं का वर्णन इस प्रकार है :
- भोजन में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों का भोजन पौष्टिक था। गेहूं, दूध, चावल, फल आदि उनके भोजन के मुख्य अंग थे।
- व्यवसायों में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना था। वैदिक काल में तो स्वयं राजा लोग भी हल चलाया करते थे। इन दोनों सभ्यताओं के लोग पशुओं के महत्त्व को समझते थे। इसलिए वे पशु पालते थे। गाय, बैल, भेड़-बकरी आदि उनके मुख्य पालतू पशु थे।
- मनोरंजन के साधनों में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों के मनोरंजन के कुछ साधन समान थे। वे प्रायः नाचगानों द्वारा तथा शिकार खेल कर अपना मन बहलाते थे।
- धार्मिक समानता-दोनों सभ्यताओं के लोग धार्मिक प्रवृत्ति के थे। आर्यों का धर्म भले ही सिन्धु घाटी के लोगों के धर्म से अधिक विकसित था, तो भी अग्नि की पूजा दोनों ही सभ्यताओं में प्रचलित थी।
प्रश्न 16.
उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धर्म का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक विचारों में काफ़ी परिवर्तन आया। ऋग्वैदिक काल के कई देवताओं की पूजा अब भी की जाती थी, परन्तु उनका महत्त्व पहले से काफ़ी कम हो गया। इस काल में इन्द्र, वरुण तथा सूर्य की बजाय शिव-विष्णु की पूजा पर अधिक बल दिया जाने लगा। आत्मा-परमात्मा तथा जन्म-मृत्यु के विषय में अनेक नए सिद्धान्त धर्म में शामिल हो गए। यज्ञ तो अब भी होते थे, परन्तु अब उनमें काफ़ी धन खर्च करना पड़ता था। यज्ञों के लिए ब्राह्मणों की आवश्यकता होती थी। कर्म, मोक्ष तथा माया सम्बन्धी सिद्धान्तों ने धर्म को और भी अधिक जटिल बना दिया। इस काल में लोग अनेक प्रकार के जादू-टोनों में भी विश्वास रखने लगे थे।
प्रश्न 17.
ऋग्वैदिक काल तधा उतर वैदिक काल में अन्तर स्पष्ट करने तथ्यों का वर्णन करो
उत्तर-
- ऋग्वैदिक काल में राजा की शक्तियां सीमित थीं। उसे प्रचलित प्रथाओं के नियम के अनुसार शासन चलाना पड़ता था, परन्तु उत्तर वैदिक काल में राजा की शक्तियां बहुत बढ़ गईं।
- ऋग्वैदिक काल में कबीले न तो अधिक विशाल थे और न ही अधिक शक्तिशाली, परन्तु उत्तर वैदिक काल में बड़े बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ।
- ऋग्वैदिक काल में नारी का बड़ा आदर था। वह प्रत्येक धार्मिक कार्यों में भाग लेती थी। उसे शासन कार्यों में भी भाग लेने का अधिकार था। इसके विपरीत उत्तर वैदिक काल में नारी का सम्मान कम हो गया।
- ऋग्वैदिक काल में धर्म बड़ा सरल था। यज्ञों पर अधिक व्यय नहीं होता था, परन्तु उत्तर वैदिक काल में धर्म जटिल हो गया। धर्म में अनेक व्यर्थ के कर्म-काण्ड शामिल हो गए। यज्ञ इतने महंगे हो गए कि साधारण लोगों के लिए यज्ञ करना असम्भव हो गया।
प्रश्न 18.
सभा और समिति का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पूर्व वैदिक युग में सभा तथा समिति ने लोक संस्थाओं का रूप धारण कर लिया था। सभा का आकार समिति से छोटा होता था। यह केवल वृद्धों की संस्था थी। इसका मुख्य कार्य न्याय करना था। सभा और समिति शासन के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों पर अपने विचार प्रकट करती थी जिसे राजा को मानना पड़ता था। कुछ समय के पश्चात् सभा गुरु सभा में बदल गई तथा समिति ने राज्य की केन्द्रीय संस्था का रूप ले लिया जिसका अध्यक्ष राजा होता था। इसका कार्य क्षेत्र नीति का निर्णय तथा कानून का निर्माण करना था।
IV. निबन्धात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
ऋग्वैदिक काल के आर्यों की सभ्यता की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक तथा आर्थिक दशा की जानकारी दीजिए।
अथवा
ऋग्वेद में वर्णित आर्यों की सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
ऋग्वैदिक काल की सभ्यता के विषय में जानकारी का एकमात्र स्रोत ऋग्वेद है। यह आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। ऋग्वेद के अध्ययन से आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक दशा के बारे में हमें निम्नलिखित बातों का पता चलता है :
1. राजनीतिक अवस्था-आर्यों ने एक आदर्श शासन प्रणाली की नींव रखी। शासन की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। कुछ परिवारों के मेल से एक गांव बनता था। कुछ गाँवों के समूह को ‘विश’ कहते थे। विशों का समूह ‘जन’ कहलाता था। प्रत्येक ‘जन’ एक राजा के अधीन था। राजा का मुख्य कार्य जन के लोगों की भलाई करना तथा युद्ध के समय उनका नेतृत्व करना था। राजा की शक्तियों पर रोक लगाने के लिए सभा समिति नामक दो संस्थाएं थीं। राजा की सहायता के लिए पुरोहित, सेनानी, दूत आदि अनेक अधिकारी होते थे।
2. आर्थिक अवस्था अथवा भौतिक जीवन-ऋग्वैदिक काल में लोगों की आर्थिक दशा काफ़ी अच्छी थी। वे मुख्य रूप से पशु-पालक थे। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भेड़, बकरी आदि प्रमुख थे। वे लकड़ी के फालों के साथ खेती करते थे। उन्हें खेती सम्बन्धी कई बातों, जैसे-कटाई, बुआई आदि की काफ़ी जानकारी थी। कुछ अन्य लोग छोटे-छोटे उद्योगधन्धों में भी लगे हुए थे। इनमें से बढ़ई, कुम्हार, लुहार, बुनकर, चर्मकार आदि मुख्य थे।
3. सामाजिक अवस्था-ऋग्वैदिक काल के सामाजिक जीवन का आधार परिवार था जो पितृ-प्रधान था। परिवार में सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। अन्य सभी सदस्यों को उनकी आज्ञा का पालन करना पड़ता था। इस काल में समाज चार वर्गों-योद्धा, पुरोहित, जनसाधारण तथा शूद्रों में बंटा हुआ था। शूद्र वे लोग थे जिन्हें युद्ध में पराजित करके दास बनाया जाता था। काम के आधार पर भी समाज का बंटवारा शुरू हो गया था, परन्तु यह बंटवारा अभी पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं था। समाज में नारी का बड़ा आदर था। उसे पुरुष की अर्धांगिनी समझा जाता था। वह पुरुष के साथ यज्ञों में भाग लेती थी। उसे शासन कार्यों में भाग लेने का भी अधिकार था। लोगों का मुख्य गेहूं, जौ, घी और दूध था। विशेष अवसरों पर लोग सोमरस भी पीते थे। लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन रथ-दौड़, शिकार करना तथा जुआ खेलना थे।
4. धार्मिक अवस्था-ऋग्वैदिक आर्य सन्तान, पशु, अन्न, धन, स्वास्थ्य आदि की प्राप्ति के लिए अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। उनके देवताओं में सोम, अग्नि, वायु, इन्द्र, द्यौस, ऊषा, वरुण तथा सूर्य प्रमुख थे। इन्द्र उनका सबसे बड़ा देवता था। युद्ध से पहले विजय पाने के लिए प्रायः इन्द्र की पूजा की जाती थी। उनकी मुख्य देवी उषा थी। आर्य लोगों के धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते हुए भी एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते थे।
प्रश्न 2.
उत्तर वैदिक कालीन आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक अवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
1000 ई० पू० में ऋग्वैदिक काल की समाप्ति हो गई। इस समय से लेकर लगभग 600 ई० पू० के काल को इतिहासकार उत्तर वैदिक काल का नाम देते हैं। इन दिनों आर्य लोग गंगा की घाटी में आ बसे थे। यहां उन्होंने सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की। इन्हीं ग्रन्थों के अध्ययन से ही हमें उत्तर वैदिक आर्यों की सभ्यता का पता चलता है। इस सभ्यता की मुख्य विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :-
1. राजनीतिक जीवन-उत्तर वैदिक काल में बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित हो गए। राजा की शक्तियां बढ़ गईं। शासन कार्यों में राजा की सहायता के लिए सेनानी, पुरोहित, संगृहित्री आदि अनेक अधिकारी थे। परन्तु राजा के लिए उनके निर्णय को मानना आवश्यक नहीं था शासन कार्यों के व्यय के लिए वह प्रजा से कर और दक्षिणा लेता था।
2. सामाजिक जीवन-उत्तर वैदिक काल में समाज चार जातियों में बंटा हुआ था। वे जातियां थीं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य .. तथा शूद्र। ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। इस काल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता आश्रम व्यवस्था थी। जीवन को 100 वर्ष मान कर इसे चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास में बांट दिया गया।
3. आर्थिक अथवा भौतिक जीवन-इस काल के आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना था, परन्तु अब वे लोग बड़ेबड़े हलों का प्रयोग करने लगे थे। राजा और राजकुमार स्वयं भी हल चलाते थे। इस काल में कौशाम्बी, विदेह, काशी आदि बड़े-बड़े नगरों का उदय हुआ। ये नगर व्यापार और उद्योग-धन्धों के प्रमुख केन्द्र बने। उस समय विदेशी व्यापार भी होता था।
4. धार्मिक अवस्था-उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाज तथा धार्मिक विचारों में काफ़ी परिवर्तन आया। इस काल में इन्द्र, वरुण तथा सूर्य की बजाय शिव-विष्णु की पूजा पर अधिक बल दिया जाने लगा। आत्मा, परमात्मा तथा जन्म-मृत्यु के विषय में अनेक नये सिद्धान्त धर्म में शामिल हो गए। कर्म, मोक्ष तथा माया सम्बन्धी सिद्धान्तों ने धर्म को और भी अधिक जटिल बना दिया। इस काल में लोग अनेक प्रकार के जादू-टोनों में भी विश्वास रखने लगे थे।
सच तो यह है कि उत्तर वैदिक काल में आर्यों के राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन में अनेक परिवर्तन आए।
प्रश्न 3.
जाति-प्रथा के विषय में आप क्या जानते हैं ? इसके (क) लाभ तथा (ख) हानियों का वर्णन करो।
उत्तर-
जाति-प्रथा से अभिप्राय उन श्रेणियों से हैं जिनमें हमारा प्राचीन समाज बंटा हुआ था। हर जाति की अपनी अलग प्रथाएँ थीं। जाति के प्रत्येक सदस्य को उनका पालन करना पड़ता था। आरम्भ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक चार जातियां थीं, परन्तु धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। आजकल भारत में लगभग तीन हज़ार जातियां हैं।
(क) जाति-प्रथा के लाभ-
- जाति-प्रथा के कारण भारतीय संस्कृति विदेशी प्रभाव से सुरक्षित रही।
- जाति-प्रथा के कारण रक्त की पवित्रता बनी रही।
- जाति-प्रथा के कारण लोग बचपन से ही अपने पिता के व्यवसाय में जुट जाते थे। फलस्वरूप बड़े होकर वे निपुण कारीगर सिद्ध होते थे।
- जाति-प्रथा के अनुसार बुरा काम करने वाले लोगों को जाति से निकाल दिया जाता था। इस भय से लोग कोई बुरा काम नहीं करते थे।
- प्रत्येक जाति के लोग अपनी जाति के निर्धन तथा रोगी व्यक्तियों की सेवा तथा सहायता करते थे। इस प्रकार लोगों के मन में समाज-सेवा और त्याग की भावना बढी।
- जाति-प्रथा के कारण प्रत्येक जाति के लोगों को अपनी जाति का व्यवसाय अपनाना पड़ता था। अतः लोगों को रोज़ी का कोई अन्य साधन ढूंढ़ने की चिन्ता नहीं रहती थी।
- जाति-प्रथा के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा देना था। वह निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते थे।
- शुद्धि तथा अन्य जातियों के लोग हिन्दू बन जाते थे। अतः शक, हूण, यूनानी आदि भारत पर आक्रमण करने वाली अनेक जातियां हिन्दू समाज का अंग बन गईं। .
(ख) जाति-प्रथा की हानियां –
- जाति-प्रथा के कारण राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात पहुंचा।
- जाति-प्रथा के कारण देश में सैनिक शिक्षा सीमित रही।
- जाति-प्रथा के कारण लोगों के लिए पैतृक धन्धा बदलना बड़ा कठिन होता था। फलस्वरूप लोगों का व्यक्तिगत विकास रुक गया।
- इस प्रथा के कारण समाज में छुआछूत की भावना बढ़ी।
- ब्राह्मण तथा क्षत्रिय स्वयं को सभी जातियों से श्रेष्ठ समझते थे। इस प्रकार जातियों में आपसी द्वेष उत्पन्न हो गया।
- ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए अनेक ऐसी कुप्रथाएं चलाईं जिससे उन्हें अधिक से अधिक लाभ पहुंचे। इस प्रकार अनेक सामाजिक कुरीतियां प्रचलित हुईं। सच तो यह है कि जाति-प्रथा से भारत को आरम्भ में अवश्य कुछ लाभ पहुंचे, परन्तु धीरे-धीरे यह प्रथा भारत के लिए अभिशाप बन गई। वास्तव में यह एक कुप्रथा है जो हिन्दू समाज को अन्दर से खोखला करती रही है।