PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 19 भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 19 भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 19 भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र पर एक नोट लिखें। (Write a note on U.N.)
उत्तर-
द्वितीय महायुद्ध की तबाही को देखकर संसार के सभी भागों में यह इच्छा होने लगी थी कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की स्थापना के लिए कोई शक्तिशाली अन्तर्राष्ट्रीय मशीनरी बनाई जाए। अत: 24 अक्तूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। आरम्भ में इसके 51 देश सदस्य थे जबकि आजकल 193 देश इसके सदस्य हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व का सबसे बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है। इसका मुख्यालय न्यूयार्क (अमेरिका) में है।

संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य (Aims of the United Nations)-संयुक्त राष्ट्र की प्रस्तावना में ही इस संगठन के उद्देश्यों का वर्णन किया गया है। प्रस्तावना में कहा गया है, कि “हम संयुक्त राष्ट्र के लोग…..लक्ष्यों की पूर्ति के लिए हमेशा सहयोग करेंगे।”
सानफ्रांसिस्को में आयोजित सम्मेलन में इस संगठन के चार उद्देश्य बताए गए(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा कायम रखना और अन्तर्राष्ट्रीय खतरों का सामूहिक मुकाबला करना।

(2) विभिन्न राष्ट्रों के मध्य समान अधिकार, स्वाभिमान तथा जनता में आत्म-निर्णय के अधिकार के आधार पर सम्बन्धों की स्थापना और विश्व शान्ति को सुदृढ़ करने के उपाय करना। ।

(3) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना।
(4) उपरोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न राज्यों के मध्य सहयोग करने के लिए एक केन्द्र की भूमिका निभाना।

संयुक्त राष्ट्र के अंग (PRINCIPAL ORGANS OF THE UNITED NATIONS)

संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार छह प्रमुख अंग हैं जिनके द्वारा यह अपने बहुमुखी कार्य करता है। इन छह अंगों का वर्णन इस प्रकार है

I. महासभा (The General Assembly)-महासभा को संयुक्त राष्ट्र की संसद् भी कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देश महासभा के भी सदस्य होते हैं। संयुक्त राष्ट्र का प्रत्येक सदस्य देश महासभा में 5 प्रतिनिधि भेज सकता है। महासभा का अधिवेशन प्रतिवर्ष सितम्बर मास के तीसरे मंगलवार को होता है। महासभा हर वर्ष अपना एक अध्यक्ष चुनती है। महासभा में प्रत्येक सदस्य देश को एक मत देने का अधिकार प्राप्त है। महासभा की शक्तियां अथवा कार्य इस प्रकार हैं-

(1) सुरक्षा परिषद् के 10 अस्थायी सदस्यों का 2/3 बहुमत से चुनाव करना।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के 15 न्यायाधीशों का चुनाव करना।
(3) चार्टर के अधीन सारे विषयों पर विचार करना।
(4) संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों व एजेन्सियों पर नियन्त्रण करना।
(5) संयुक्त राष्ट्र का बजट तैयार करना।
(6) संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में संशोधन करना।
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II. सुरक्षा परिषद् (The Security Council)-सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र की कार्यपालिका के समान है। सुरक्षा परिषद् एक छोटा लेकिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग है। इसके कुल 15 सदस्य हैं। इनमें से पाँच स्थायी हैं
ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, रूस और चीन। इसके अलावा दस अस्थायी सदस्य 2 वर्षों के लिए महासभा द्वारा चुने जाते हैं। स्थायी सदस्यों को निषेधाधिकार (veto) प्राप्त है। सुरक्षा परिषद् के मुख्य कार्य तथा शक्तियाँ इस प्रकार हैं
(1) ऐसे मामले पर विचार करना जिससे अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा भंग होने का भय हो।
(2) महासभा अपने अनेक चुनाव सम्बन्धी कार्य सुरक्षा परिषद् की सिफ़ारिश पर ही करती है।
(3) चार्टर में संशोधन सुरक्षा परिषद् की सहमति से ही हो सकता है।

III. आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् (The Economic and Social Council)-विश्व की सामाजिक, आर्थिक व मानवीय समस्याओं के हल के लिए संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक व सामाजिक परिषद् की स्थापना की गई। प्रारम्भ में इस परिषद् के 18 सदस्य थे, लेकिन आजकल इसकी सदस्य संख्या 54 है। ये सदस्य महासभा द्वारा 2/3 बहुमत से तीन वर्ष के लिए चुने जाते हैं और 1/3 सदस्य प्रति वर्ष रिटायर हो जाते हैं। आर्थिक और सामाजिक परिषद् की एक वर्ष में कम-से-कम तीन बैठकें होती हैं। इस परिषद् के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं
(1) सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का हल निकालना।
(3) बिना किसी भेदभाव के मानवाधिकारों को लागू करवाना।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी मामलों का अध्ययन करना और रिपोर्ट तैयार करना।
(5) संयुक्त राष्ट्र की अन्य विशिष्ट एजेन्सियों से रिपोर्ट प्राप्त करना।

IV. ट्रस्टीशिप कौंसिल (The Trusteeship Council)-ट्रस्टीशिप कौंसिल का उद्देश्य पिछड़े हुए देशों को विकसित देशों के नेतृत्व में उन्नति दिलाना है ताकि वे शीघ्रता से स्वशासन के योग्य हो जाएं। ट्रस्टीशिप कौंसिल में सुरक्षा परिषद् के सारे स्थायी सदस्य होते हैं। इनके अलावा सुरक्षित प्रदेशों का प्रबन्ध चलाने वाले देश भी इसके सदस्य होते हैं। इस परिषद् की साल में दो बैठकें होती हैं और इसके निर्णय बहुमत से लिए जाते हैं। ट्रस्टीशिप कौंसिल के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-

(1) प्रबन्धक राज्यों से हर वर्ष वहां की जनता के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विषयों के बारे में रिपोर्ट लेना।
(2) सुरक्षित प्रदेशों की जनता से अपीलें सुनना।
(3) निरीक्षक मण्डलों को न्यास प्रदेशों का दौरा करने के लिए भेजना।

V. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice)-अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के 15 न्यायाधीश होते हैं जिन्हें महासभा तथा सुरक्षा परिषद् अलग-अलग स्वतन्त्र तौर पर चुनती है। न्यायाधीश 9 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। 1/3 न्यायाधीश प्रत्येक पाँच वर्ष पश्चात् रिटायर हो जाते हैं और उनकी जगह नए न्यायाधीश नियुक्त किए जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में स्थित है। इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार इस प्रकार है

1. अनिवार्य क्षेत्राधिकार-सन्धियों की व्याख्या करना अन्तर्राष्ट्रीय कानून से सम्बन्धित विवाद, अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व को भंग करने वाले तथ्यों की स्थिति तथा किसी अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व के उल्लंघन किए जाने पर दी जाने वाली क्षतिपूर्ति की मात्रा और स्वरूप।
2. ऐच्छिक क्षेत्राधिकार- अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय उन विवादों को भी सुनता है तथा निर्णय देता है जो राज्य स्वयं इसके सम्मुख लाते हैं।
3. सलाहकारी कार्य-चार्टर की धारा 96 के अनुसार महासभा और सुरक्षा परिषद् अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से कानून प्रश्नों पर सलाह ले सकती है।

VI. सचिवालय (The Secretariate)-संयुक्त राष्ट्र का प्रबन्धक काम चलाने के लिए चार्टर के अनुसार सचिवालय स्थापित किया गया है, जिसमें संगठन की ज़रूरत के अनुसार कर्मचारी होते हैं। महासचिव सचिवालय का मुखिया होता है। महासचिव की नियुक्ति सुरक्षा परिषद् की सिफ़ारिश पर महासभा 5 वर्ष के लिए करती है। सचिवालय संयुक्त राष्ट्र के सारे अंगों की कार्यवाही लिखता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों को प्रकाशित करता है।
निष्कर्ष (Conclusion)-संयुक्त राष्ट्र ने आगामी पीढ़ियों को अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध की विभीषिका से बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भले ही राजनीतिक क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र की उपलब्धियां कम रही हों, परन्तु सामाजिक व आर्थिक विकास के क्षेत्र में इसने अद्वितीय भूमिका निभाई है। आज बढ़ते हुए आतंकवाद, निर्धनता और आर्थिक समस्याओं के कारण संयुक्त राष्ट्र की गैर-राजनीतिक भूमिका पहले से भी अधिक बढ़ गई है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 19 भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र में भारत की भूमिका का वर्णन करें। (Describe India’s role in United Nations.)
अथवा
भारत ने विश्व शांति की स्थापना में सयुक्त राष्ट्र संघ में क्या भूमिका निभाई है ? (What is India’s role in the United Nations in the maintaining World Peace ?)
अथवा
भारत ने विश्व शान्ति की स्थापना में क्या भूमिका निभाई है? (What role India has played in the establishment of world peace ?)
उत्तर-
द्वितीय महायुद्ध की भयानक तबाही देखकर संसार के सभी भागों में प्रत्येक मनुष्य सोचने लग गया कि यदि एक ऐसा युद्ध और हुआ तो विश्व का तथा मानव जाति का सर्वनाश हो जाएगा। अतः हमारी यह लालसा बढ़ती गई कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति स्थापित करने के लिए कोई अन्तर्राष्ट्रीय मशीनरी स्थापित की जाए। आने वाली पीढ़ियों को युद्ध से बचाने के लिए 24 अक्तूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की गई। संयुक्त राष्ट्र संघ का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा स्थापित करना, राष्ट्रों के बीच जन-समुदाय के लिए समान अधिकारों तथा आत्मनिर्णय के सिद्धान्त पर आश्रित मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का विकास करना, आर्थिक, सामाजिक अथवा मानवतावादी स्वरूप सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना तथा इस सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए राष्ट्रों के कार्यों को समन्वय करने के लिए निमित्त एक केन्द्र का कार्य करना है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आरम्भ में 51 सदस्य थे और वर्तमान सदस्य संख्या 193 है। भारत संयुक्त राष्ट्र का प्रारम्भिक सदस्य है और इसे विश्व शान्ति के लिए एक महत्त्वपूर्ण संस्था मानता है। 1946 में ही पं० जवाहर लाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग करने और इसके चार्टर में पूरी तरह आस्था व्यक्त की। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो भारत को स्वतन्त्र विदेश नीति का निर्माण करने का अवसर मिला। भारत की विदेश नीति के कर्णधार पं० जवाहर लाल नेहरू ने गुट-निरपेक्षता, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतन्त्रता की प्राप्ति तथा रक्षा के लिए लड़ने वाले देशों को नैतिक सहायता देने और विश्व-शान्ति स्थापित करने की नीति को अपनाया। संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भारत के योगदान का वर्णन इस प्रकार से किया जा सकता है

1. भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना-भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के लिए सानफ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया और चार्टर पर हस्ताक्षर करके वह संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रारम्भिक सदस्य बना। सानफ्रांसिस्को सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि श्री ए. रामास्वामी मुदालियर ने इस बात पर जोर दिया कि युद्ध को रोकने के लिए आर्थिक और सामाजिक न्याय का महत्त्व सर्वाधिक होना चाहिए। भारत की सिफ़ारिश पर चार्टर में मानव अधिकारों और मौलिक स्वतन्त्रताओं के बिना किसी भेदभाव के प्रोत्साहित करने का उद्देश्य जोड़ा गया।

2. संयुक्त राष्ट्र में पूर्ण विश्वास (Full Faith in United Nations)-भारत संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों व उद्देश्यों में पूर्ण विश्वास रखता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के प्रथम अधिवेशन में भारत के प्रतिनिधि ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि भारत की संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों और उद्देश्यों में पूर्ण आस्था है तथा भारत संयुक्त राष्ट्र को पूरा सहयोग देता रहेगा। 3 नवम्बर, 1945 को पं० जवाहर लाल नेहरू ने महासभा को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट कहा था,

“इस महासभा को मैं अपने देश के लोगों और अपमी सरकार की ओर से कहूँगा कि हम संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्तों और उद्देश्यों का पूर्णतः पालन करते हैं और उनकी पूर्ति के लिए तथा अपनी योग्यता सहित प्रयत्न करेंगे।

3. संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य तथा भारत की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त एक समान (Objectives of the U.N. at the basic Principle of Indian Foreign Policy are Indentical)—संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य और भारत की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त एक समान हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बनाये रखना, राष्ट्रों के बीच सहयोग को बढ़ाना, अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की प्राप्ति करना तथा मानव अधिकारों के लिए सम्मान विकसित करना आदि है। संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों से मेल खाते हुए सिद्धान्तों का वर्णन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 में नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत विदेश नीति से सम्बन्धित सिद्धान्तों में किया गया है, जो इस प्रकार

(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को बढ़ावा देना।
(2) दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना तथा
(3) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्ति से हल करना इत्यादि।

4. संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता बढ़ाने में भारत की भूमिका-भारत की सदा ही यह नीति रही है कि विश्व शान्ति को बनाए रखने के लिए संसार के सभी देशों को, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्तों एवं उद्देश्यों में विश्वास रखते हैं, सदस्य बनना चाहिए। इसलिए 1950 से लेकर अगले 20 वर्षों तक लगातार जब भी संयुक्त राष्ट्र संघ में साम्यवादी चीन को सदस्य बनाने का प्रश्न आया, भारत ने सदैव इसका समर्थन किया। परन्तु अमेरिका सुरक्षा परिषद् में चीन की सदस्यता के प्रस्ताव पर वीटो का प्रयोग करता रहा। 1972 में अमेरिका का चीन के प्रति दृष्टिकोण बदलने पर ही चीन सयुंक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना। बंगला देश को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनवाने में भारत ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

5. संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंगों में भारत का स्थान-संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंगों और विशेष एजेन्सियों में भारत को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। 1954 में भारत की श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित महासभा (General Assembly) की अध्यक्षा निर्वाचित हुई। 1956 में डॉ० राधाकृष्णन यूनेस्को के प्रधान चुने गए। भारत सात बार सुरक्षा परिषद् का सदस्य रह चुका है। सामाजिक और आर्थिक परिषद् का भारत लंगभग निरन्तर सदस्य चला आ रहा है। भारत के डॉ० नगेन्द्र सिंह को 1973 और 1982 में पुनः अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का न्यायाधीश चुना गया। फरवरी 1985 में उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश चुना गया। 1989 में न्यायमूर्ति आर० एस० पाठक को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त हुआ। फरवरी, 2003 में भारत की प्रथम महिला पुलिस अधिकारी किरण बेदी को संयुक्त राष्ट्र नागरिक पुलिस सलाहकार नियुक्त किया गया। वे इस प्रतिष्ठत पद पर नियुक्त होने वाली न केवल प्रथम भारतीय अपितु विश्व की प्रथम महिला अधिकारी हैं।

6. भारत और संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट एजेन्सियां (India and Specialized Agencies of U.N.)-भारत संयुक्त राष्ट्र की सभी विशिष्ट एजेन्सियों का सदस्य है तथा इसने इन एजेन्सियों के कार्यों व गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत कृषि प्रधान देश है। अत: भारत खाद्य व कृषि संगठन (FAO) का सदस्य है और भारत ने इसके सम्मेलनों में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है तथा खाद्य पदार्थों के उत्पादन की वृद्धि और कृषि के विकास के लिए तकनीकी विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत यूनेस्को का महत्त्वपूर्ण सदस्य है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सहायता से भारत के गांवों में स्वास्थ्य, गांवों की सफ़ाई, पीने के पानी की व्यवस्था, परिवार और बाल कल्याण के अनेक कल्याणकारी कार्य चल रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक ने भारत के विकास के लिए अनेक योजनाओं के लिए व्यापक ऋण दिए हैं।

7. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा की दृष्टि से भारत का योगदान-संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य उद्देश्य विश्व में शान्ति एवं सुरक्षा बनाए रखना है। भारत ने विश्व शान्ति सुरक्षा को बनाये रखने में संयुक्त राष्ट्र संघ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका वर्णन हम इस प्रकार कर सकते हैं-

(i) कोरिया की समस्या-1950 में उत्तरी कोरिया ने दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण कर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने युद्ध को रोकने के लिए 16 राष्ट्रों की सेनाएं उत्तरी कोरिया के प्रतिरोध के लिए भेजीं। भारत के सैनिकों ने भी इस कार्यवाही में भाग लिया। भारत ने इस युद्ध को समाप्त कराने तथा युद्ध बन्दियों के आदान-प्रदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत को तटस्थ राष्ट्र आयोग का अध्यक्ष बनाया गया।

(ii) स्वेज़ नहर की समस्या-जुलाई, 1956 में मिस्र के राष्ट्रपति ने स्वेज़ नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इस पर इंग्लैण्ड, फ्रांस और इज़राइल ने मिलकर मिस्र पर आक्रमण कर दिया। भारत ने इन देशों की निन्दा की और महासभा द्वारा पारित उस प्रस्ताव का समर्थन किया जिसमें यह कहा गया कि युद्ध को तुरन्त बन्द कर दिया जाए। स्वेज़ नहर समस्या को हल करने में भारत ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(ii) कांगो समस्या-स्वतन्त्रता प्राप्त करने पर कांगो में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई। इस परिस्थिति का लाभ उठाते हुए बेल्जियम ने कांगो में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। लुम्बा ने संयुक्त राष्ट्र से सैनिक सहायता की अपील की। संयुक्त राष्ट्र संघ की अपील पर भारत ने अपनी सेना कांगो भेजी। वास्तव में संयुक्त राष्ट्र सेना में सबसे बड़ी एक टुकड़ी भारतीय बटालियन की थी।

(iv) अरब-इजराइल विवाद-1967 में अरब-इज़राइल युद्ध में इज़राइल ने अरब क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। भारत की नीति यह रही है कि इज़राइल को अरब क्षेत्र खाली करने चाहिएं और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित सभी प्रस्तावों को मानना चाहिए।

(v) सोमालिया के लिए भारतीय सहायता- भारत ने सोमालिया में शान्ति स्थापित करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र की अपील पर 2500 सैनिक भेजे। भारत के विदेश राज्य मन्त्री एडुआर्दो फैलोरियो ने स्वयं सोमालिया जाकर स्थिति का जायजा लिया और भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को सोमालिया के लिए नियुक्त विशेष प्रतिनिधि को 2.50 लाख डालर का अंशदान दिया।

(vi) युगांडा में शान्ति अभियान-रुआंडा और युगांडा के राष्ट्रपतियों की एक हवाई दुर्घटना में मृत्यु होने के बाद वहां अराजकता फैल गई। वहां के स्थानीय कबीलों में सत्ता प्राप्ति के लिए खूनी संघर्ष आरम्भ हो गया जिसमें लाखों नागरिक मारे गए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने युगांडा में शान्ति स्थापना के लिए और खूनी संघर्ष को रोकने के लिए एक शान्ति योजना बनाई जिसके अन्तर्गत भारत को अपने सैनिक युगांडा में भेजने का आग्रह किया गया। भारत ने अक्तूबर, 1994 को अपने 2000 सैनिक युगांडा भेजे।
उपर्युक्त समस्याओं के अतिरिक्त भारत ने अन्य समस्याओं को सुलझाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

8. उपनिवेशवाद का विरोधी-भारत उपनिवेशवाद का सदा ही विरोधी रहा है और भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ उपनिवेशवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलन्द की। बंगला देश को स्वतन्त्र करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिन उपनिवेशों को स्वतन्त्रता दिलाने का प्रयत्न किया है, भारत ने उसका समर्थन किया है। भारत ने उपनिवेशवाद के खिलाफ नवीन शक्ति सहित प्रबल संघर्ष छेड़े जाने का आह्वान किया है। सितम्बर, 1986 में भारत के विदेश मन्त्री शिवशंकर ने नामीबिया के संयुक्त राष्ट्र महासभा के विशेष अधिवेशन में नामीबिया को दक्षिणी अफ्रीका से मुक्त करवाने के लिए दस सूत्रीय कार्यवाही योजना का प्रस्ताव रखा। इस अवसर पर श्री शिवशंकर ने प्रधानमन्त्री राजीव गांधी के इस संकल्प को दोहराया कि नामीबिया नागरिकों को आजादी दिलाने की हर सम्भव कोशिश की जाएगी।

9. रंग-भेद के विरुद्ध संघर्ष- भारत ने रंग-भेद की नीति को विश्व शान्ति के लिए खतरा माना है। रंग-भेद पक्षपात की सबसे व्यापक, अभ्यस्त तथा भ्रष्टाचार प्रदर्शित उदाहरण एशिया तथा अफ्रीका के काले वर्गों के प्रति गोरों की धारणा थी। रंग-भेद की नीति में दक्षिणी अफ्रीकी सरकार सबसे आगे है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में कई बार रंग-भेद की नीति के विरुद्ध आवाज़ उठाई और विश्व जनमत तैयार किया जिसके फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनेक प्रस्ताव पारित किए। प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने रंगभेद की नीति को मानवता के नाम पर कलंक बताते हुए कहा है कि दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीति को समाप्त करने के लिए विश्व समुदाय तत्काल व्यापक व समयबद्ध कार्यक्रम प्रारम्भ करे। प्रधानमन्त्री राजीव गांधी के मतानुसार रंग भेद को समाप्त करने का सबसे प्रभावी तरीका दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के खिलाफ़ व्यापक और अनिवार्य आर्थिक प्रतिबन्ध लगाना है। श्री राजीव गांधी ने विश्व समुदाय को आह्वान किया कि प्रिटोरिया शासन का समर्थन करने वाली मात्र आधा दर्जन सरकारों को पीछे धकेल कर दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध कठोर कदम उठाए और उसे मजबूर करे कि वह अश्वेतों से बातचीत करें और रंगभेद की नीति समाप्त करे। भारत के निरन्तर प्रयासों के कारण 27 अप्रैल, 1994 को दक्षिण अफ्रीका में पहली बार बहु-जातीय चुनाव हुए जिसके कारण दक्षिण अफ्रीका से रंगभेद, जातीय भेदभाव आदि को समाप्त कर दिया गया है।

10. निःशस्त्रीकरण के प्रयासों में भारत का सहयोग-संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में महासभा और सुरक्षा परिषद् दोनों के ऊपर यह ज़िम्मेदारी डाली गई है कि वे निःशस्त्रीकरण के लिए कार्य करें। भारत की नीति यही रही है कि निःशस्त्रीकरण के द्वारा ही विश्व शान्ति को बनाए रखा जा सकता है और अणु शक्ति का प्रयोग केवल मानव कल्याण के लिए होना चाहिए। प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कई बार स्पष्ट शब्दों में कहा है कि नि:शस्त्रीकरण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। वे सामूहिक विध्वंस करने वाले परमाणु हथियारों पर पाबन्दी लगाने के पक्ष में है। अक्तूबर, 1987 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यह प्रस्ताव रखा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा परमाणु हथियार वाले सभी देशों को इन हथियारों का प्रसार रोकने के लिए सहमत कराए और साथ ही इन हथियारों का उत्पादन पूरी तरह रोकना चाहिए तथा हथियारों को बनाने के लिए काम आने वाले विस्फोटक पदार्थ के उत्पादन में भी पूरी तरह कटौती करनी चाहिए। जून, 1988 में स्वर्गीय प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने नि:शस्त्रीकरण पर संयुक्त राष्ट्र के तीसरे विशेष सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए आगामी 22 वर्ष के भीतर विश्व के सभी तरह के परमाणु हथियार हटाने के लिए तीन चरणों में समयवद्ध कार्य योजना का सुझाव दिया तथा संयुक्त राष्ट्र से इस योजना को तत्काल एक कार्यक्रम के रूप में आरम्भ करने का आग्रह किया है। 11वें गुट-निरपेक्ष देशों के सम्मेलन (अक्तूबर, 1995) में भारत ने विश्व से पूर्ण परमाणु नि:शस्त्रीकरण के पक्ष में सहयोग देने की बात कही। भारत पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के पक्ष में है।

11. मानव अधिकारों की रक्षा-भारत मानव अधिकारों का महान् समर्थक है और भारत ने सदा यह कोशिश की है कि संयुक्त राष्ट्र संघ मानव अधिकारों की रक्षा के लिए उचित कार्यवाही करे।

12. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन-भारत गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक है और इस आन्दोलन ने शीत युद्ध को कम किया है और संयुक्त राष्ट्र संघ को पूरी तरह से गुटों में विभक्त होने से बचाया है।

13. आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को हल करने में भारत की भूमिका- भारत का सदा से ही यह विचार रहा है कि विश्व-शान्ति की स्थायी स्थापना तभी हो सकती है यदि आर्थिक और सामाजिक अन्याय को समाप्त किया जाए। भारत ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। भारत ने आर्थिक व पिछड़े देशों के विकास पर विशेष बल दिया है और विकसित देशों को अविकसित देशों की अधिक-से-अधिक सहायता करने के लिए कहा है। राष्ट्र संघ औद्योगिक विकास संगठन (UNIDO) का तीसरा अधिवेशन जनवरी, 1980 में नई दिल्ली में हुआ। 24 अक्तूबर, 1985 को महासभा को सम्बोधित करते हुए स्वर्गीय प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का आह्वान किया कि वे शान्ति के प्रति अपने को समर्पित कर दुनिया से भुखमरी दूर करने के लिए संघर्ष करें।

14. भारत संयुक्त राष्ट्र की अन्तरिक्ष समिति में (India on Space Committee of U.N.)–भारत संयुक्त राष्ट्र की अन्तरिक्ष समिति का सदस्य है। भारत ने सदा इस बात पर जोर दिया है कि अन्तरिक्ष का प्रयोग शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष-भारत विश्व-शान्ति व सुरक्षा को बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग देता रहा है और भारत का अटल विश्वास है कि संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व-शान्ति को बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण यन्त्र है। पं० जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था, “हम संयुक्त राष्ट्र संघ के बिना विश्व की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।” भारत संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व-शान्ति की स्थापना का माध्यम मानता है। भारत को आशा है कि जैसे राष्ट्र व्यक्तियों के लिए है, राष्ट्रों के लिए संयुक्त राष्ट्र भी वैसा ही बन जाएगा।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 19 भारत तथा संयुक्त राष्ट्र संघ

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ का क्या अर्थ है ?
अथवा
संयुक्त राष्ट्र संघ क्या है?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है, जिसकी स्थापना 24 अक्तूबर, 1945 को की गई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ का अपना संविधान है जिसे चार्टर (Charter) कहा जाता है और यह चार्टर सान फ्रांसिस्को सम्मेलन में तैयार किया गया था। संयुक्त राष्ट्र का मुख्य कार्यालय अमेरिका के प्रसिद्ध नगर न्यूयार्क में स्थित है। आरम्भ में संयुक्त राष्ट्र के 51 सदस्य थे, परन्तु आजकल इसकी सदस्य संख्या 193 है। भारत इसके आरम्भिक सदस्यों में से है। संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा स्थापित करना, राष्ट्रों के बीच जन समुदाय के लिए समान अधिकारों तथा आत्म निर्णय के सिद्धान्त पर आश्रित मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का विकास करना और इन सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्रों के कार्यों को चलाने के लिए एक केन्द्र का कार्य करना है।

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र के मुख्य उद्देश्य लिखो।
(उत्तर-

  • संयुक्त राष्ट्र का मुख्य उद्देश्य शान्ति एवं सुरक्षा कायम रखना है तथा युद्धों को रोकना और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा हल करना है।
  • भिन्न-भिन्न राज्यों के बीच समान अधिकारों के आधार पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना करना है।
  • अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय समस्याओं के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की प्राप्ति करना।
  •  उपरोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न राज्यों के मध्य सहयोग करने के लिए एक केन्द्र की भूमिका निभाना।

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प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्र के पांच देशों के नाम लिखो, जिन्हें वीटो शक्ति प्राप्त है ?
अथवा
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में वीटो शक्ति मानने वाले 5 महान् देशों के नाम लिखो।
उत्तर-
सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र की कार्यपालिका है। सुरक्षा परिषद् की कुल संख्या 15 है। इनमें 10 अस्थायी सदस्य तथा 5 स्थायी सदस्य हैं। 5 स्थायी सदस्यों को सुरक्षा परिषद् में वीटो का अधिकार दिया गया है। ये देश हैंअमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, रूस तथा साम्यवादी चीन।

प्रश्न 4.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना कब हुई इसके अंगों के नाम लिखो।
अथवा
संयुक्त राष्ट्र के चार अंगों के नाम लिखो।।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 24 अक्तूबर, 1945 को की गई थीं। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार इसके 6 मुख्य अंग हैं जिनके द्वारा यह अपने बहुमुखी कर्त्तव्यों को पूरा करता है-

  • महासभा-महासभा संयुक्त राष्ट्र का सबसे बड़ा अंग है। इसके 193 सदस्य हैं। इसका मुख्य कार्य चार्टर के क्षेत्र में हर विषय पर विचार-विमर्श करना है।
  • सुरक्षा परिषद्-चार्टर के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा करने की जिम्मेवारी सुरक्षा परिषद् की है। इसके कुल 15 सदस्य हैं जिनमें पांच राष्ट्र अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और साम्यवादी चीन स्थायी सदस्य हैं और 10 राष्ट्र अस्थायी सदस्य हैं।
  • आर्थिक तथा सामाजिक परिषद्-संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार इसका मुख्य मनोरथ आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं को सुलझाना तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग लाना है।
  • ट्रस्टीशिप कौंसिल-इसका उद्देश्य पिछड़े हुए देशों को विकसित देशों के नेतृत्व में उन्नति दिलाना है ताकि वे शीघ्रता से स्वशासन के लिए तैयार हो सकें। ट्रस्टीशिप कौंसिल में सुरक्षा परिषद् से सारे स्थायी सदस्य होते हैं।
  • अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय-विभिन्न राष्ट्रों के मध्य विभिन्न विवादों को हल करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की व्यवस्था की गई है। इसके 15 जज होते हैं जिन्हें महासभा तथा सुरक्षा परिषद् अलग-अलग स्वतन्त्र तौर पर चुनती है।
  • सचिवालय-संयुक्त राष्ट्र का प्रबन्ध कार्य चलाने के लिए चार्टर के अनुसार सचिवालय स्थापित किया गया है। सचिवालय का मुखिया महासचिव होता है जिसकी नियुक्ति महासभा सुरक्षा परिषद् की सिफ़ारिश पर करती है। सचिवालय में दुनिया के अनेक देशों के नागरिक काम करते हैं।

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प्रश्न 5.
भारत का संयुक्त राष्ट्र के चार क्षेत्रों में दिए गए योगदान का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत अनेक बार संयुक्त राष्ट्र संघ के भिन्न-भिन्न अंगों का सदस्य रह चुका है, जैसे कि

  • भारत सुरक्षा परिषद् का सात बार अस्थायी सदस्य रह चुका है। भारत ने सुरक्षा परिषद् के सदस्य के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • भारत सामाजिक तथा आर्थिक परिषद् का सदस्य अनेक बार रह चुका है और अब पिछले कुछ वर्षों से भारत इस परिषद् का निरन्तर सदस्य चला आ रहा है।
  • 1956 में भारत की श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित महासभा की अध्यक्षा चुनी गई।
  • भारत ने सदा ही यह कोशिश की है, कि संयुक्त राष्ट्र संघ मानवधिकारों की रक्षा के लिए उचित कार्यवाही करे।

प्रश्न 6.
संयुक्त राष्ट्र में वीटो शक्ति क्या है ? यह शक्ति किन देशों के पास है ? नाम लिखो।
उत्तर-
निषेधाधिकार या वीटो सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की महत्त्वपूर्ण शक्ति है। निषेधाधिकार का अर्थ है स्थायी सदस्यों द्वारा संयुक्त राष्ट्र में किसी प्रस्ताव को पास होने से रोकना। इसका अभिप्राय यह है कि यदि पांच स्थायी सदस्यों में से कोई भी एक सदस्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में रखे गए प्रस्ताव के विरोध में वोट डाल दे तो वह प्रस्ताव पास नहीं होगा। उल्लेखनीय है कि सुरक्षा परिषद् में यदि कोई सदस्य अनुपस्थित रहता है तो उसको निषेधाधिकार का प्रयोग नहीं माना जाएगा। वीटो शक्ति अमेरिका, चीन, इंग्लैण्ड, रूस तथा फ्रांस के पास है।

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प्रश्न 7.
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य कब बना ?
अथवा
यह क्यों कहा जाता है कि भारत संयुक्त राष्ट्र का मौलिक मेम्बर है ?
उत्तर-
यद्यपि 1945 में भारत एक स्वतन्त्र देश नहीं था, परन्तु फिर भी उसने 26 जून, 1945 में हुए सान फ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया और संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर किए। इस सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व ए० आर० मुदालियार, फिरोजखान नून और कृष्माचारी ने किया। इस प्रकार भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रारम्भिक/मौलिक सदस्य बन गया।

प्रश्न 8.
विश्व शान्ति की स्थापना में भारत की संयुक्त राष्ट्र में क्या भूमिका है ?
अथवा
विश्व शान्ति की स्थापना में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में क्या भूमिका निभाई है?
उत्तर-
भारत ने विश्व-शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखने में संयुक्त राष्ट्र संघ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है

  • कोरिया समस्या-1950 में उत्तरी कोरिया ने दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण कर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने युद्ध को रोकने के लिए 16 राष्ट्रों की सेनाएं उत्तरी कोरिया के विरुद्ध भेजीं। भारत के सैनिकों ने भी इस कार्यवाही में भाग लिया।
  • स्वेज़ नहर की समस्या-जुलाई, 1956 में मिस्र के राष्ट्रपति ने स्वेज़ नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इस पर इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा इज़राइल ने मिलकर मिस्र पर आक्रमण कर दिया। भारत ने इन देशों की निन्दा की और महासभा द्वारा पारित उस प्रस्ताव का समर्थन किया जिसमें कहा गया कि युद्ध को तुरन्त बन्द कर दिया जाए।
  • कांगो समस्या-स्वतन्त्रता प्राप्त करने पर कांगो में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई। लुमुम्बा ने संयुक्त राष्ट्र से सैनिक सहायता की अपील की। संयुक्त राष्ट्र संघ की अपील पर भारत ने अपनी सेना कांगो में भेजी।
  • भारत ने सोमालिया में शान्ति स्थापित करने के उद्देश्यों से संयुक्त राष्ट्र की अपील पर 2500 सैनिक भेजे थे।

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प्रश्न 9.
संयुक्त राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्ट एजेन्सियों के नाम लिखो।
अथवा
संयुक्त राष्ट्र की चार विशिष्ट एजेन्सियों के नाम लिखो।
उत्तर-

  • अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ (I.L.O.)
  • संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO)
  • विश्व स्वास्थ्य संघ (W.H.O.)
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.)
  • अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (I.B.R.D.)
  • खाद्य और खेतीबाड़ी संघ (F.A.O.)।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ क्या है ?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 24 अक्तूबर, 1945 को की गई थी। आजकल इसकी सदस्य संख्या 193 है। भारत इसके आरम्भिक सदस्यों में से है। संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा स्थापित करना, राष्ट्रों के बीच जन-समुदाय के लिए समान अधिकारों तथा आत्म-निर्णय के सिद्धान्त पर आश्रित मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का विकास करना और इन सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्रों के कार्यों को चलाने के लिए एक केन्द्र का कार्य करना है।

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प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र के पांच देशों के नाम लिखो, जिन्हें वीटो शक्ति प्राप्त है ?
उत्तर-
सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र की कार्यपालिका है। सुरक्षा परिषद् की कुल सदस्य संख्या 15 है। इनमें 10 अस्थायी सदस्य तथा 5 स्थायी सदस्य हैं। 5 स्थायी सदस्यों को सुरक्षा परिषद् में वीटो का अधिकार दिया गया है। ये देश हैं-अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस तथा साम्यवादी चीन।

प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंगों के नाम लिखो।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र के 6 अंग हैं-(1) महासभा, (2) सुरक्षा परिषद्, (3) आर्थिक एवं सामाजिक परिषद्, (4) न्यास परिषद्, (5) अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय तथा (6) सचिवालय।

प्रश्न 4.
संयुक्त राष्ट्र की चार विशिष्ट एजेन्सियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  • अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ (I.L.O.)
  • संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO)
  • विश्व स्वास्थ्य संघ (W.H.O.)
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.)

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प्रश्न 5.
यह क्यों कहा जाता है कि भारत संयुक्त राष्ट्र का मौलिक मेम्बर है?
अथवा
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना कब हुई तथा इसके कुल कितने मौलिक सदस्य थे ? (P.B. 2017)
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है जिसकी स्थापना 24 अक्तूबर, 1945 को सान फ्रांसिस्को सम्मेलन के परिणामस्वरूप हुई थी। इस सम्मेलन में 51 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इनमें से 50 देशों ने संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किए। इन सभी देशों को संयुक्त राष्ट्र का मौलिक सदस्य कहा जाता है। भारत भी इन देशों में से एक था जिसने संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किए थे। इस प्रकार भारत को संयुक्त राष्ट्र का मौलिक सदस्य कहा जाता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का उद्देश्य बताएं।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना विश्व में युद्धों को रोकने तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के उद्देश्य से की गई थी।

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र का कोई एक मूलभूत सिद्धान्त बताएं।
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र का एक मूलभूत सिद्धान्त यह है कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना सदस्य राष्ट्रों की समानता के आधार पर की गई है।

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प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्र संघ की दो एजेन्सियों के पूरे नाम लिखें।
उत्तर-

  1. विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.)
  2. अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (I.L.O.)

प्रश्न 4.
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना कब की गई थी ?
अथवा
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना कब हुई थी ?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना 24 अक्तूबर, 1945 को की गई।

प्रश्न 5.
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में ‘वीटो’ शक्ति का प्रयोग करने वाले देशों के नाम बताइये।
उत्तर-
5 स्थायी सदस्यों को सुरक्षा परिषद् में वीटो अधिकार प्राप्त है। ये देश हैं-अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस तथा चीन।

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प्रश्न 6.
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की नियुक्ति कैसे की जाती है ?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की नियुक्ति सुरक्षा परिषद् की सिफ़ारिश पर महासभा करती है।

प्रश्न 7.
भारत संयुक्त राष्ट्र का मैम्बर कब बना था ?
उत्तर-
भारत सन् 1945 में ही संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बन गया था।

प्रश्न 8.
संयुक्त राष्ट्र में कार्य कर चुके किसी एक भारतीय का नाम लिखो।
उत्तर-
श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्षा रह चुकी है।

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प्रश्न 9.
संयुक्त राष्ट्र के दो मुख्य अंगों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. महासभा
  2. सुरक्षा परिषद् ।

प्रश्न 10.
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव का क्या नाम है ?
अथवा
संयुक्त राष्ट्र का वर्तमान सेक्रेटरी जनरल कौन है ?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव का नाम श्री एन्टोनियो गुटेरेश है।

प्रश्न 11.
संयुक्त राष्ट्र की एक महत्त्वपूर्ण विशिष्ट एजेन्सी का नाम लिखो।
उत्तर-
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (I.L.O.)।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. एन्टोनियो गुटेरेश संयुक्त राष्ट्र का नौवां ……… है। वह …….. का नागरिक है।
2. संयुक्त राष्ट्र संघ में ………. मूल संस्थापक सदस्य हैं।
3. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ……….. 1945 को हुई।
4. भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का …….. देश है। 5. संयुक्त राष्ट्र संघ के ………. अंग हैं।
उत्तर-

  1. महासचिव, पुर्तगाल
  2. 51
  3. 24 अक्तूबर
  4. संस्थापक
  5. 6।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही या ग़लत का चुनाव करें

1. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुई।
2. संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य प्रभुसत्ता सम्पन्न हैं।
3. वर्तमान समय में संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या 190 है।
4. संयुक्त राष्ट्र संघ के कुल 7 अंग हैं।
5. संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य महासभा के सदस्य हैं।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना कब हुई ?
(क) 24 अक्तूबर, 1945
(ख) 24 अक्तूबर, 1940
(ग) 24 अक्तूबर, 1943
(घ) 24 अक्तूबर, 1944.
उत्तर-
(क) 24 अक्तूबर, 1945

प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में कितने अनुच्छेद हैं ?
(क) 110
(ख) 111
(ग) 120
(घ) 151
उत्तर-
(ख) 111

प्रश्न 3.
निम्न में से कौन-सा देश संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रारंभिक सदस्य है ?
(क) पाकिस्तान
(ख) बंगला देश
(ग) भारत
(घ) नेपाल।
उत्तर-
(ग) भारत

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प्रश्न 4.
संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय स्थित है ?
(क) न्यूयार्क में ।
(ख) लंदन में
(ग) नई दिल्ली में
(घ) पैरिस में।
उत्तर-
(क) न्यूयार्क में ।

प्रश्न 5.
प्रारंभ में संयुक्त राष्ट्र संघ के कितने सदस्य थे ?
(क) 45
(ख) 48
(ग) 51
(घ) 55.
उत्तर-
(ग) 51

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 वर्ग असमानताएं

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 5 वर्ग असमानताएं Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 वर्ग असमानताएं

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘सभी समाजों के अस्तित्व का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है।’ किसका कथन है :
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) वी० आई० लेनिन
(ग) एनटोनियो ग्रामसी
(घ) रोसा लक्समबर्ग।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 2.
‘अपने आप में वर्ग’ और ‘अपने आप के लिए वर्ग’ की अवधारणा किसने दी है ?
(क) मार्क्स
(ख) वैबर
(ग) सोरोकिन
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(क) मार्क्स।

प्रश्न 3.
ऐरिक आलिन राइट द्वारा दिया गया वर्ग सिद्धान्त किनके विचारों का संश्लेषण करते हैं ?
(क) मार्क्स और दुखीम
(ख) मार्क्स और वैबर
(ग) मार्क्स और स्पैंसर
(घ) मार्क्स और एंजेल्स।
उत्तर-
(क) मार्क्स और दुर्थीम।

प्रश्न 4.
सम्पत्तिविहीन सफेदपोश व्यावसायिक वर्ग की एक वर्ग के रूप में चर्चा किसने की है ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) लॉयड वार्नर
(घ) विलफ्रिडो-पेरिटो।
उत्तर-
(ख) मैक्स वैबर।

प्रश्न 5.
जाति व वर्ग में भिन्नता को कौन नहीं दर्शाता :
(क) आरोपित व उपलब्धियां
(ख) बंद व मुक्त गतिशीलता
(ग) पवित्र व धर्म निरपेक्ष
(घ) शासक एवं शासित।
उत्तर-
(घ) शासक एवं शासित।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौन-सा उत्पादन का साधन नहीं है ?
(क) भूमि
(ख) संस्कृति
(ग) श्रम
(घ) पूंजी।
उत्तर-
(ख) संस्कृति।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन जीवन अवसरों व बाजार स्थितियों को वर्ग विश्लेषण के लिए महत्त्व देते हैं ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) एलफ्रेड वेबर
(घ) सी० डब्ल्यू० मिल्स।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 8.
भारत में उत्पादन के संसाधनों के स्वामित्व का निर्णायक कारण कौन-सा है ?
(क) स्थिति समूह
(ख) वर्ग
(ग) जाति
(घ) सामाजिक श्रेणी।
उत्तर-
(ग) जाति।

प्रश्न 9.
कृषिदास (खेतीहर मज़दूर) वर्ग का विरोधी है :
(क) सामंत
(ख) छोटे स्तर के पूंजीपति
(ग) बुर्जुआ
(घ) स्वामी।
उत्तर-
(क) सामंत।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. वर्ग प्रणाली स्वभाव में ……………… है।
2. वर्ग प्रणाली स्तर में ………………..
3. वैबर ने वर्ग के …………………… पद पर विचार किया है।
4. व्यक्ति का वर्ग स्तर …………………… एवं …………………… द्वारा निर्धारित होता है।
उत्तर-

  1. सार्वभौमिक,
  2. मुक्त,
  3. आर्थिक,
  4. शिक्षा, व्यवसाय।

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C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं

1. सामाजिक वर्ग दासता, दर्जा, जागीरदारी तथा जाति की तरह स्तरीकरण का ही एक रूप है।
2. एक सामाजिक वर्ग अनिवार्य रूप से एक स्थिति समूह होता है।
3. वैबर के अनुसार धन, शक्ति तथा स्थिति असमानता के रूप हैं।
4. सामाजिक वर्ग मुक्त समूह हैं।
उत्तर-

  1.  सही
  2. सही
  3. सही
  4. सही।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
सामाजिक वर्ग — बुर्जुआ
पूंजीपति — विशेष वर्ग की जीवन शैली
वर्ग के निर्धारक — मुक्त समूह
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
वर्ग चेतना — व्यवसाय
जीने का ढंग — आत्म जागरुकता
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
सामाजिक वर्ग — मुक्त समूह
पूंजीपति — बुर्जुआ
वर्ग के निर्धारक — व्यवसाय
वर्ग चेतना — आत्म जागरुकता
जीने का ढंग — विशेष वर्ग की जीवन शैली

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. किस सामाजिक समूह में सदस्यों का उत्पादन की शक्तियों के साथ समान सम्बन्ध होता है ?
उत्तर-पूंजीपति वर्ग में।

प्रश्न 2. क्या वर्ग में किसी की उर्ध्वगामी व निम्नगामी गतिशीलता हो सकता है ?
उत्तर-जी हाँ, यह मुमकिन है।

प्रश्न 3. विभिन्न सामाजिक आर्थिक स्थितियों में समूहों के विभाजन को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-वर्ग व्यवस्था।

प्रश्न 4. व्यक्तियों का कौन-सा सामाजिक वर्ग नीले कॉलर अथवा श्रम व्यवसाय की रचना करता है ?
उत्तर-श्रमिक वर्ग या मज़दूर वर्ग।

प्रश्न 5. वर्ग की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को दर्शाइए।
उत्तर-(i) वर्ग व्यवस्था के कई आधार होते हैं। (ii) वर्ग के लोगों में अपने वर्ग के प्रति चेतना होती है।

प्रश्न 6. आप संसाधनों के स्वामित्व से क्या समझते हैं ?
उत्तर- इसका अर्थ है कि साधनों पर किसी-न-किसी का व्यक्तिगत अधिकार होता है तथा वह ही उसका मालिक होता है।

प्रश्न 7. उत्पादन के साधनों को पहचानें।
उत्तर-वह साधन जो किसी न किसी वस्तु के उत्पादन में सहायता करते हैं, उत्पादन के साधन होते हैं जैसे कि मशीनें, उद्योग, औज़ार इत्यादि।

प्रश्न 8. उन दो वर्गों के नाम दें जो दासता के समय पाए गए।
उत्तर-दासता के समय दो वर्ग होते थे तथा वे थे गुलाम तथा स्वामी।

प्रश्न 9. बुर्जुआ कौन है ?
उत्तर-जिसके हाथों में उत्पादन के साधन होते हैं तथा जो उन साधनों की सहायता से अन्य वर्गों का शोषण करता है उसे बुर्जुआ कहते हैं। जैसे कि उद्योगपति।

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III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
वर्ग से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार वर्ग के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष उत्तरादियत्व, अधिकार तथा शक्तियां भी प्राप्त होती हैं।

प्रश्न 2.
जाति व वर्ग में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर-

  • जाति में व्यक्ति की स्थिति प्रदत्त होती है, जबकि वर्ग में यह अर्जित होती है।
  • व्यक्ति अपनी जाति को परिवर्तित नहीं कर सकता जबकि वर्ग को कर सकता है।
  • मुख्यतः चार प्रकार की जातियां होती हैं जबकि वर्ग हज़ारों की संख्या में हो सकते हैं।

प्रश्न 3.
ग्रामीण भारत में पाए जाने वाले वर्गों की पहचान करें।
उत्तर-
बड़े ज़मींदार, गैर-हाज़िर ज़मींदार, पूँजीपति किसान, किसान, ठेका आधारित ठेकेदार, सीमांत किसान, भूमिविहीन कृषक, साहूकार, छोटे व्यापारी, स्वैः नियुक्त व्यक्ति इत्यादि।

प्रश्न 4.
मार्क्स के इस कथन का क्या अभिप्राय है कि ‘सभी मौजूद समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।’
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार आज तक जितने भी समाज हुए हैं उनमें मुख्य रूप से दो समूह हुए हैं-प्रथम वह जिसके पास उत्पादन के साधन हैं तथा द्वितीय वह जिसके पास नहीं है। इस कारण दोनों में संघर्ष चलता रहा है। इस कारण मार्क्स ने कहा था कि सभी मौजूद समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।

प्रश्न 5.
मैक्स वैबर द्वारा वर्णित किए गए वर्गों के नाम लिखें।
उत्तर-

  • पूंजीपति बुर्जुआ वर्ग
  • सम्पत्ति विहीन सफेद पोश कार्यकारी वर्ग
  • मध्यवर्गीय वर्ग
  • औद्योगिक कार्यकारी वर्ग।

IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
ऐरिक ओलिन राइट के वर्ग विषयक विचारों की चर्चा करें।
उत्तर-
ऐरिक ओलिन राइट ने वर्ग का सिद्धांत दिया है तथा यह सिद्धांत मार्क्स वैबर के विचारों का मिश्रण है। राइट के अनुसार पूँजीपति समाज में आर्थिक साधनों पर नियंत्रण के लिए तीन मापदण्ड हैं तथा वह हैं-

  • पैसा या पूँजी पर नियन्त्रण ।
  • ज़मीन, फैक्टरी तथा दफ्तरों पर नियन्त्रण
  • मज़दूरों पर नियन्त्रण।।

यह मापदण्ड ही कई वर्गों का निर्माण करते हैं जैसे कि नीली वर्दी वाले कर्मी, श्वेत कालर कर्मी, व्यावसायिक कर्मचारी व शारीरिक कार्य करने वाले कर्मी इत्यादि। उसके अनुसार मध्य वर्ग के वर्करों (प्रबन्धक व निरीक्षक) का मालिकों से सीधा रिश्ता होता है जबकि मजदूर वर्ग का शोषण होता है।

प्रश्न 2.
जाति व वर्ग में संबंध स्पष्ट करें।
अथवा
जाति तथा वर्ग किस प्रकार परस्पर सम्बन्धित है ? वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • जाति जन्म पर आधारित होती है जबकि वर्ग व्यवसाय तथा व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित होता है।
  • जाति में प्रदत्त स्थिति प्राप्त होती है जबकि वर्ग में स्थिति अर्जित की जाती है।
  • जाति अन्तर्वैवाहिक समूह होती है, जबकि वर्ग बर्हिविवाही समूह होता है।
  • जाति को वैधता हिंदू धार्मिक क्रियाओं से मिलती है परन्तु वर्ग को वैधता उसकी व्यक्तिगत योग्यता तथा पूँजीवादी व्यवस्था से मिलती है।
  • जाति में गतिशीलता नहीं होती है क्योंकि यह एक बंद व्यवस्था है परन्तु वर्ग में गतिशीलता होती है क्योंकि यह एक मुक्त व्यवस्था है।

प्रश्न 3.
ग्रामीण भारत में पाए जाने वाले वर्गों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
बड़े ज़मींदार, गैर-हाज़िर ज़मींदार, पूँजीपति किसान, किसान, ठेका आधारित ठेकेदार, सीमांत किसान, भूमिविहीन कृषक, साहूकार, छोटे व्यापारी, स्वैः नियुक्त व्यक्ति इत्यादि।

प्रश्न 4.
शहरी भारत में पाए जाने वाले वर्गों का संक्षेप में वर्णन करें।
अथवा
नगरीय भारत में पाए जाने वाले वर्गों को लिखिए।
उत्तर-

  • कार्पोरेट पूंजीपति।
  • औद्योगिक पूंजीपति।
  • आर्थिक पूंजीपति।
  • नौकरशाह।
  • सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक अभिजात वर्ग।
  • मध्य वर्ग-मैनेजर, व्यापारी, छोटे दुकानदार, स्वै-कार्यरत व्यक्ति, बैंकर।
  • निम्न वर्ग-सहायक, मिस्त्री, निम्न स्तरीय निरीक्षक।
  • संगठित क्षेत्र में औद्योगिक कार्यरत वर्ग।
  • असंगठित/अर्द्ध संगठित क्षेत्र में कार्यरत वर्ग।
  • दिहाड़ीदार मज़दूर।
  • बेरोज़गार व्यक्ति।

प्रश्न 5.
मध्य वर्ग पर कुछ टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
अमीर तथा निर्धन व्यक्तियों के बीच एक अन्य वर्ग आता है जिसे मध्य वर्ग का नाम दिया जाता है। यह वर्ग साधारणतया तथा नौकरी करने वालों, छोटे दुकानदारों या व्यापारी लोगों का होता है। यह वर्ग या तो उच्च वर्ग के लोगों के पास नौकरी करता है या सरकारी नौकरी करता है। छोटे-बड़े व्यापारी, छोटे-बड़े दुकानदार, क्लर्क, छोटे-बड़े अफसर, छोटे-बड़े किसान, ठेकेदार, जायदाद का कार्य करने वाले लोग, छोटे-मोटे कलाकार इत्यादि सभी इस वर्ग में आते हैं। उच्च वर्ग इस वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग पर अपना अधिकार कायम रखता है।

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V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
मार्क्सवादी के वर्ग सिद्धान्त का वर्णन करें।
अथवा
वर्ग के मार्क्सवादी सिद्धान्त को बताइए।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण का संघर्षवाद का सिद्धान्त दिया है और यह सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों के कारण ही आगे आया है। मार्क्स ने केवल सामाजिक कारकों को ही सामाजिक स्तरीकरण एवं अलग-अलग वर्गों में संघर्ष का सिद्धान्त माना है। ___ मार्क्स ने यह सिद्धान्त श्रम विभाजन के आधार पर दिया। उसके अनुसार श्रम दो प्रकार का होता है-शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम और यही अन्तर ही सामाजिक वर्गों में संघर्ष का कारण बना।

मार्क्स का कहना है कि समाज में साधारणतः दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता है। इस मलकीयत के आधार पर ही पहला वर्ग उच्च स्थिति में एवं दूसरा वर्ग निम्न स्थिति में होता है। मार्क्स पहले (मालिक) वर्ग को पूंजीपति वर्ग और दूसरे (गैर-मालिक) वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है और मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यही स्तरीकरण का परिणाम है।

मार्क्स का कहना है कि स्तरीकरण के आने का कारण ही सम्पत्ति का असमान विभाजन है। स्तरीकरण की प्रकृति उस समाज के वर्गों पर निर्भर करती है और वर्गों की प्रकृति उत्पादन के तरीकों पर उत्पादन का तरीका तकनीक पर निर्भर करता है। वर्ग एक समूह होता है जिसके सदस्यों के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों के समान होते हैं, इस तरह वह सभी व्यक्ति जो उत्पादन की शक्तियों पर नियन्त्रण रखते हैं। वह पहला वर्ग यानि कि पूंजीपति वर्ग होता है जो उत्पादन की शक्तियों का मालिक होता है। दूसरा वर्ग वह है तो उत्पादन की शक्तियों का मालिक नहीं है बल्कि वह मजदूरी या मेहनत करके अपना समय व्यतीत करता है यानि कि यह मजदूर वर्ग कहलाता है। अलग-अलग समाजों में इनके अलगअलग नाम हैं जिनमें ज़मींदारी समाज में ज़मींदार और खेतीहर मज़दूर और पूंजीपति समाज में पूंजीपति एवं मजदूर। पूंजीपति वर्ग के पास उत्पादन की शक्ति होती है और मजदूर वर्ग के पास केवल मज़दूरी होती है जिसकी सहायता के साथ वह अपना गुजारा करता है। इस प्रकार उत्पादन के तरीकों एवं सम्पत्ति के समान विभाजन के आधार पर बने वर्गों को मार्क्स ने सामाजिक वर्ग का नाम दिया है।

मार्क्स के अनुसार “आज का समाज चार युगों में से गुजर कर हमारे सामने आया है।”

(a) प्राचीन समाजवादी युग (Primitive Ancient Society or Communism)
(b) प्राचीन समाज (Ancient Society)
(c) सामन्तवादी युग (Feudal Society)
(d) पूंजीवाद युग (Capitalist Society)।

मार्क्स के अनुसार पहले प्रकार के समाज में वर्ग अस्तित्व में नहीं आये थे। परन्तु उसके पश्चात् के समाजों में दो प्रमुख वर्ग हमारे सामने आये। प्राचीन समाज में मालिक एवं दास। सामन्तवादी में सामन्त एवं खेतीहारी मज़दूर वर्ग। पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी एवं मज़दूर वर्ग। प्रायः समाज में मजदूरी का कार्य दूसरे वर्ग के द्वारा ही किया गया। मजदूर वर्ग बहुसंख्यक होता है और पूंजीवादी वर्ग कम संख्या वाला।

मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो प्रकार के वर्गों का अनुभव किया है। परन्तु मार्क्स के फिर भी इस मामले में विचार एक समान नहीं है। मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी समाज में तीन वर्ग होते हैं। मज़दूर, सामन्त एवं ज़मीन के मालिक (land owners) मार्क्स ने इन तीनों में से अन्तर आय के साधनों, लाभ एवं ज़मीन के किराये के आधार पर किया है। परन्तु मार्क्स की तीन पक्षीय व्यवस्था इंग्लैण्ड में कभी सामने नहीं आई।

मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ तीन वर्गीय व्यवस्था दो वर्गीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी एवं मध्यम वर्ग समाप्त हो जायेगा। इस बारे में उसने कम्युनिष्ट घोषणा पत्र में कहा है। मार्क्स ने विशेष समाज के अन्य वर्गों का उल्लेख भी किया है। जैसे बुर्जुआ या पूंजीपति वर्ग को उसने दो उपवर्ग जैसे प्रभावी बुर्जुआ और छोटे बुर्जुआ वर्गों में बांटा है। प्रभावी बुर्जुआ वे होते हैं जो बड़े-बड़े पूंजीपति व उद्योगपति होते हैं और जो हज़ारों की संख्या में मजदूरों को कार्य करने को देते हैं। छोटे बुर्जुआ वे छोटे उद्योगपति या दुकानदार होते हैं जिनके व्यापार छोटे स्तर पर होते हैं और वे बहुत अधिक मज़दूरों को कार्य नहीं दे सकते। वे काफ़ी सीमा तक स्वयं ही कार्य करते हैं। मार्क्स यहां पर फिर कहता है कि पूंजीवाद के विकसित होने के साथ-साथ मध्यम वर्ग व छोटी-छोटी बुर्जुआ उप-जातियां समाप्त हो जाएंगी या फिर मज़दूर वर्ग में मिल जाएंगी। इस तरह समाज में पूंजीपति व मजदूर वर्ग रह जाएगा।

वर्गों के बीच सम्बन्ध (Relationship between Classes) –

मार्क्स के अनुसार “पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का आर्थिक शोषण करता रहता है और मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करता रहता है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच के सम्बन्ध विरोध वाले होते हैं। यद्यपि कुछ समय के लिये दोनों वर्गों के बीच का विरोध शान्त हो जाता है परन्तु वह विरोध चलता रहता है। यह आवश्यक नहीं कि यह विरोध ऊपरी तौर पर ही दिखाई दे। परन्तु उनको इस विरोध का अहसास तो होता ही रहता है।”

मार्क्स के अनुसार वर्गों के बीच आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता एवं संघर्ष पर आधारित होते हैं। हम उदाहरण ले सकते हैं पूंजीवादी समाज के दो वर्गों का। एक वर्ग पूंजीपति का होता है दूसरा वर्ग मज़दूर का होता है। यह दोनों वर्ग अपने अस्तित्व के लिये एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन की शक्तियां एक मलकीयत नहीं होती हैं। उसके पास रोटी कमाने हेतु अपनी मेहनत के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। वह रोटी कमाने के लिये पूंजीपति वर्ग के पास अपनी मेहनत बेचते हैं और उन पर ही निर्भर करते हैं। वह अपनी मजदूरी पूंजीपतियों के पास बेचते हैं जिसके बदले पूंजीपति उनको मेहनत का किराया देता है। इसी किराये के साथ मज़दूर अपना पेट पालता है। पूंजीपति भी मज़दूरों की मेहनत पर ही निर्भर करता है। क्योंकि मजदूरों के बिना कार्य किये न तो उसका उत्पादन हो सकता है और न ही उसके पास पूंजी एकत्रित हो सकती है। – इस प्रकार दोनों वर्ग एक-दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। परन्तु इस निर्भरता का अर्थ यह नहीं है कि उनमें सम्बन्ध एक समान होते हैं।

पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का शोषण करता है। वह कम धन खर्च करके अधिक उत्पादन करना चाहता है ताकि उसका स्वयं का लाभ बढ़ सके। मज़दूर अधिक मज़दूरी मांगता है ताकि वह अपना व परिवार का पेट पाल सके। उधर पूंजीपति मज़दूरों को कम मजदूरी देकर वस्तुओं को ऊँची कीमत पर बेचने की कोशिश करता है ताकि उसका लाभ बढ़ सके। इस प्रकार दोनों वर्गों के भीतर अपने-अपने हितों के लिये संघर्ष (Conflict of Interest) चलता रहता है। यह संघर्ष अन्ततः समतावादी व्यवस्था (Communism) को जन्म देगा जिसमें न तो विरोध होगा न ही किसी का शोषण होगा, न ही किसी के ऊपर अत्याचार होगा, न ही हितों का संघर्ष होगा और यह समाज वर्ग रहित समाज होगा।

कार्ल मार्क्स ने ऐतिहासिक आधार पर स्तरीकरण के संघर्ष सिद्धान्त की व्याख्या की है। मार्क्स के स्तरीकरण के संघर्ष के सिद्धान्त में निम्नलिखित बातें मुख्य हैं-

1. समाज में दो वर्ग (Two classes in society) मार्क्स का कहना था कि प्रत्येक प्रकार के समाज में साधारणत: दो वर्ग पाए जाते हैं। पहला तो वह जिसके हाथों में उत्पादन के साधन होते हैं तथा जिसे हम आज पूंजीपति के नाम से जानते हैं। दूसरा वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते तथा जो अपना श्रम बेचकर गुज़ारा करता है। इसको मज़दूर वर्ग का नाम दिया जाता है। पहला वर्ग शोषण करता है तथा दूसरा वर्ग शोषित होता है।

2. उत्पादन के साधनों पर अधिकार (Right over means of production)-मार्क्स ने स्तरीकरण की ऐतिहासिक आधार पर व्याख्या करते हुए कहा है कि समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। प्रत्येक समाज में इस आधार पर दो वर्ग पाए जाते हैं। पहला वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता है। दूसरा वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते तथा जो अपना श्रम बेचकर रोज़ी कमाता है।

3. उत्पादन की व्यवस्था (Modes of Production)-उत्पादन की व्यवस्था पर ही सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप निर्भर करता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति अन्य वर्गों से उच्च होती है। इस वर्ग को मार्क्स ने पूंजीपति या बुर्जुआ (Bourgeoisie) का नाम दिया है। दूसरा वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते, जो अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं होता तथा अपनी स्थिति को बदलना चाहता है। इसको मार्क्स ने मज़दूर या प्रोलतारी (Proletariat) का नाम दिया है।

4. मनुष्यों का इतिहास-वर्ग संघर्ष का इतिहास (Human history-History of Class Struggle)-मार्क्स का कहना है कि मनुष्यों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। हम किसी भी समाज की उदाहरण ले सकते हैं। प्रत्येक समाज में अलग-अलग वर्गों में किसी-न-किसी रूप में संघर्ष तो चलता ही रहा है। __ इस तरह मार्क्स का कहना था कि सभी समाजों में साधारणतः पर दो वर्ग रहे हैं-मज़दूर तथा पूंजीपति वर्ग। दोनों में वर्ग संघर्ष चलता ही रहता है। इन में वर्ग संघर्ष के कई कारण होते हैं जैसे कि दोनों वर्गों में बहुत ज्यादा आर्थिक अन्तर होता है जिस कारण वह एक-दूसरे का विरोध करते हैं। पूंजीपति वर्ग बिना परिश्रम किए ही अमीर होता चला जाता है तथा मज़दूर वर्ग सारा दिन परिश्रम करने के बाद भी ग़रीब ही बना रहता है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

समय के साथ-साथ मज़दूर वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना लेता है तथा यह संगठन पूंजीपतियों से अपने अधिकार लेने के लिए संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष का परिणाम यह होता है कि समय आने पर मज़दूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध क्रान्ति कर देता है तथा क्रान्ति के बाद पूंजीपतियों का खात्मा करके अपनी सत्ता स्थापित कर लेते हैं। पूंजीपति अपने पैसे की मदद से प्रति क्रान्ति की कोशिश करेंगे परन्तु उनकी प्रति क्रान्ति को दबा दिया जाएगा तथा मजदूरों की सत्ता स्थापित हो जाएगी। पहले साम्यवाद तथा फिर समाजवाद की स्थिति आएगी जिसमें हरेक को उसकी ज़रूरत तथा योग्यता के अनुसार मिलेगा। समाज में कोई वर्ग नहीं होगा तथा यह वर्गहीन समाज होगा जिसमें सभी को बराबर का हिस्सा मिलेगा। कोई भी उच्च या निम्न नहीं होगा तथा मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित रहेगी। मार्क्स का कहना था कि चाहे यह स्थिति अभी नहीं आयी है परन्तु जल्द ही यह स्थिति आ जाएगी तथा समाज में से स्तरीकरण खत्म हो जाएगा।

प्रश्न 2.
वैबर के वर्ग सिद्धान्त का वर्णन करें।
अथवा
वर्ग के वैबर सिद्धान्त की चर्चा कीजिए।
अथवा
वैबर के वर्ग सिद्धान्त की चर्चा करें।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने वर्ग का सिद्धान्त दिया था जिसमें उसने वर्ग, स्थिति समूह तथा दल की अलग-अलग व्याख्या की थी। वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त तर्कसंगत तथा व्यावहारिक माना जाता है। यही कारण है कि अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त को काफ़ी महत्त्व प्रदान किया है। वैबर ने स्तरीकरण को तीन पक्षों से समझाया है तथा वह है वर्ग, स्थिति तथा दल। इन तीनों ही समूहों को एक प्रकार से हित समूह कहा जा सकता है जो न केवल अपने अंदर लड़ सकते हैं बल्कि यह एक-दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं। यह एक विशेष सत्ता के बारे में बताते हैं तथा आपस में एक-दूसरे से संबंधित भी होते हैं। अब हम इन तीनों का अलग-अलग विस्तार से वर्णन करेंगे।

वर्ग (Class)-मार्ल मार्क्स ने वर्ग की परिभाषा आर्थिक आधार पर दी थी तथा उसी प्रकार वैबर ने भी वर्ग की धारणा आर्थिक आधार पर दी है। वैबर के अनुसार, “वर्ग ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी समाज के आर्थिक मौकों की संरचना में समान स्थिति में होता है तथा जो समान स्थिति में रहते हैं। “यह स्थितियां उनकी आर्थिक शक्ति के रूप तथा मात्रा पर निर्भर करती है।” इस प्रकार वैबर ऐसे वर्ग की बात करता है जिसमें लोगों की एक विशेष संख्या के लिए जीवन के मौके एक समान होते हैं। चाहे वैबर की यह धारणा मार्क्स की वर्ग की धारणा से अलग नहीं है परन्तु वैबर ने वर्ग की कल्पना समान आर्थिक स्थितियों में रहने वाले लोगों के रूप में की है आत्म चेतनता समूह के रूप में नहीं। वैबर ने वर्ग के तीन प्रकार बताए हैं जोकि निम्नलिखित हैं :

(1) सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)
(2) अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)
(3) सामाजिक वर्ग (A Social Class)।

1. सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)-सम्पत्ति वर्ग वह वर्ग होता है जिस की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितनी सम्पत्ति अथवा जायदाद है। यह वर्ग आगे दो भागों में बांटा गया है-

(i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Positively Privileged Property Class)—इस वर्ग के पास काफ़ी सम्पत्ति तथा जायदाद होती है तथा यह इस जायदाद से हुई आय पर अपना गुज़ारा करता है। यह वर्ग उपभोग करने वाली वस्तुओं के खरीदने या बेचने, जायदाद इकट्ठी करके अथवा शिक्षा लेने के ऊपर अपना एकाधिकार कर सकता है।
(ii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Negatively Privileged Property Class)—इस वर्ग के मुख्य सदस्य अनपढ़, निर्धन, सम्पत्तिहीन तथा कर्जे के बोझ नीचे दबे हुए लोग होते हैं। इन दोनों समूहों के साथ एक विशेष अधिकार प्राप्त मध्य वर्ग भी होता है जिसमें ऊपर वाले दोनों वर्गों के लोग शामिल होते हैं। वैबर के अनुसार पूंजीपति अपनी विशेष स्थिति होने के कारण तथा मज़दूर अपनी नकारात्मक रूप से विशेष स्थिति होने के कारण इस समूह में शामिल होता है।

2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)-यह उस प्रकार का समूह होता है जिस की स्थिति बाज़ार में मौजूदा सेवाओं का लाभ उठाने के मौकों के साथ निर्धारित होती है। यह समूह आगे तीन प्रकार का होता है-

  • सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Positively Privileged Acquisition Class) इस वर्ग का उत्पादक फैक्टरी वालों के प्रबंध पर एकाधिकार होता है। यह फैक्ट्रियों वाले बैंकर, उद्योगपति, फाईनेंसर इत्यादि होते हैं। यह लोग प्रबंधकीय व्यवस्था को नियन्त्रण में रखने के साथ-साथ सरकारी आर्थिक नीतियों . पर भीषण प्रभाव डालते हैं।
  • विशेषाधिकार प्राप्त मध्य अधिग्रहण वर्ग (The Middle Privileged Acquisition Class)—यह वर्ग मध्य वर्ग के लोगों का वर्ग होता है जिसमें छोटे पेशेवर लोग, कारीगर, स्वतन्त्र किसान इत्यादि शामिल होते हैं।
  • नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Negatively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग में छोटे वर्गों के लोग विशेषतया कुशल, अर्द्ध-कुशल तथा अकुशल मजदूर शामिल होते हैं।

3. सामाजिक वर्ग (Social Class)—इस वर्ग की संख्या काफी अधिक होती है। इसमें अलग-अलग पीढ़ियों की तरक्की के कारण निश्चित रूप से परिवर्तन दिखाई देता है। परन्तु वैबर सामाजिक वर्ग की व्याख्या विशेष अधिकारों के अनुसार नहीं करता। उसके अनुसार मजदूर वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, सम्पत्ति वाले लोग इत्यादि इसमें शामिल होते हैं।

वैबर के अनुसार किन्हीं विशेष स्थितियों में वर्ग के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं तथा इस कार्य करने की प्रक्रिया को वैबर ने वर्ग क्रिया का नाम दिया है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर ने इस बात पर विश्वास नहीं किया कि वर्ग क्रिया जैसी बात अक्सर हो सकती है। वैबर का कहना था कि वर्ग में वर्ग चेतनता नहीं होती बल्कि उनकी प्रकृति पूर्णतया आर्थिक होती है। उनमें इस बात की भी संभावना नहीं होती कि वह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए इकट्ठे होकर संघर्ष करेंगे। एक वर्ग लोगों का केवल एक समूह होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बाज़ार में एक जैसी होती है। वह उन चीजों को इकट्ठे करने में जीवन के ऐसे परिवर्तनों को महसूस करते हैं, जिनकी समाज में कोई इज्जत होती है तथा उनमें किसी विशेष स्थिति में वर्ग चेतना विकसित होने की तथा इकट्ठे होकर क्रिया करने की संभावना होती है। वैबर का कहना था कि अगर ऐसा होता है तो वर्ग एक समुदाय का रूप ले लेता है।

स्थिति समूह (Status Group)—स्थिति समूह को साधारणतया आर्थिक वर्ग स्तरीकरण के विपरीत समझा जाता है। वर्ग केवल आर्थिक मान्यताओं पर आधारित होता है जोकि समान बाज़ारी स्थितियों के कारण समान हितों वाला समूह है। परन्तु दूसरी तरफ स्थिति समूह सांस्कृतिक क्षेत्र में पाया जाता है यह केवल संख्यक श्रेणियों के नहीं होते बल्कि यह असल में वह समूह होते हैं जिनकी समान जीवन शैली होती है, संसार के प्रति समान दृष्टिकोण होता है तथा ये लोग आपस में एकता भी रखते हैं।

वैबर के अनुसार वर्ग तथा स्थिति समूह में अंतर होता है। हरेक का अपना ढंग होता है तथा इनमें लोग असमान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्कूल का अध्यापक। चाहे उसकी आय 8-10 हज़ार रुपये प्रति माह होगी जोकि आज के समय में कम है परन्तु उसकी स्थिति ऊंची है। परन्तु एक स्मगलर या वेश्या चाहे माह में लाखों कमा रहे हों परन्तु उनका स्थिति समूह निम्न ही रहेगी क्योंकि उनके पेशे को समाज मान्यता नहीं देता। इस प्रकार दोनों के समूहों में अंतर होता है। किसी पेशे समूह को भी स्थिति समूह का नाम दिया जाता है क्योंकि हरेक प्रकार के पेशे में उस पेशे से संबंधित लोगों के लिए पैसा कमाने के समान मौके होते हैं। यही समूह उनकी जीवन शैली को समान भी बनाते हैं। एक पेशा समूह के सदस्य एक-दूसरे के नज़दीक रहते हैं, एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं तथा उनके मूल्य भी एक जैसे ही होते हैं। यही कारण है कि इसके सदस्यों का दायरा विशाल हो जाता है।

दल (Party) वैबर के अनुसार दल वर्ग स्थिति के साथ निर्धारित हितों का प्रतिनिधित्व करता है। यह दल किसी न किसी स्थिति में उन सदस्यों की भर्ती करता है जिनकी विचारधारा दल की विचारधारा से मिलती हो। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए दल स्थिति दल ही बने। वैबर का कहना है कि दल हमेशा इस ताक में रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ में आए अर्थात् राज्य या सरकार की शक्ति उनके हाथों में हो। वैबर का कहना है कि चाहे दल राजनीतिक सत्ता का एक हिस्सा होते हैं परन्तु फिर भी सत्ता कई प्रकार से प्राप्त की जा सकती है जैसे कि पैसा, अधिकार, प्रभाव, दबाव इत्यादि। दल राज्य की सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा राज्य एक संगठन होता है। दल की हरेक प्रकार की क्रिया इस बात की तरफ ध्यान देती है कि सत्ता किस प्रकार प्राप्त की जाए। वैबर ने राज्य का विश्लेषण किया तथा इससे ही उसने नौकरशाही का सिद्धान्त पेश किया।

वैबर के अनुसार दल दो प्रकार के होते हैं। पहला है सरप्रस्ती का दल (Patronage Party) जिनके लिए कोई स्पष्ट नियम, संकल्प इत्यादि नहीं होते। यह किसी विशेष मौके के लिए बनाए जाते हैं तथा हितों की पूर्ति के बाद इन्हें छोड़ दिया जाता है। दूसरी प्रकार का दल है सिद्धान्तों का दल (Party of Principles) जिसमें स्पष्ट या मज़बूत नियम या सिद्धान्त होते हैं। यह दल किसी विशेष अवसर के लिए नहीं बनाए जाते। वैबर के अनुसार चाहे इन तीनों वर्ग, स्थिति समूह तथा दल में काफी अन्तर होता है परन्तु फिर भी इनमें आपसी संबंध भी मौजूद होता है।

प्रश्न 3.
वर्ग, सामाजिक गतिशीलता व सामाजिक स्तरीकरण में पारस्परिक सम्बन्ध क्या है ? वर्णन करें।
उत्तर-
वर्ग, सामाजिक गतिशीलता व सामाजिक स्तरीकरण में काफ़ी गहरा सम्बन्ध है परन्तु इस सम्बन्ध का जानने से पहले हमें इसका अर्थ देखना पड़ेगा।

  • वर्ग-वर्ग ऐसे लोगों का समूह है जो किसी-न-किसी आधार पर अन्य समूहों से अलग होता है। वर्ग के सदस्य अपने वर्ग के प्रति चेतन होते हैं तथा अन्य वर्गों के लोगों को अपने वर्ग में आसानी से नहीं आने देते। वर्ग के कई आधार होते हैं जैसे कि धन, सम्पत्ति, व्यवसाय इत्यादि।
  • सामाजिक गतिशीलता-सम्पूर्ण समाज अलग-अलग वर्गों में विभाजित होता है तथा इन वर्गों के लोगों के अपना वर्ग छोड़ कर दूसरे वर्ग में जाने की प्रक्रिया को सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। लोग अपनी व्यक्तिगत योग्यता से अपना वर्ग परिवर्तित कर लेते हैं तथा इस कारण गतिशीलता की प्रक्रिया चलती रहती है।
  • सामाजिक स्तरीकरण-समाज को अलग-अलग स्तरों अथवा वर्गों में विभाजित करने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं। समाज को अलग-अलग आधारों पर विभाजित किया जाता है जैसे कि आय, जाति, लिंग, आयु, शिक्षा, धन इत्यादि।

अगर हम इन तीन संकल्पों के अर्थ को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि इन तीनों का आपस में काफ़ी गहरा सम्बन्ध है। समाज को अलग-अलग वर्गों अथवा स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहते हैं तथा लोग अपना वर्ग परिवर्तित करते रहते हैं। लोग अपनी व्यक्तिगत योग्यता से अपना वर्ग परिवर्तित कर लेते हैं तथा एक वर्ग से दूसरे वर्ग में जाने की प्रक्रिया को गतिशीलता कहते हैं।

आजकल के समय में लोग शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं तथा अलग-अलग व्यवसाय अपना रहे हैं। शिक्षा लेने के कारण उनकी सामाजिक स्थिति ऊँची हो जाती है तथा वह अच्छी नौकरी करने लग जाते हैं। अच्छी नौकरी के कारण उनके पास पैसा आ जाता है तथा वह सामाजिक स्तरीकरण में उच्च स्तर पर पहुँच जाते हैं। धीरे-धीरे वह तरक्की प्राप्त करने के लिए नौकरी ही बदल लेते हैं तथा अधिक पैसा कमाने लग जाते हैं। इस प्रकार वह समय के साथ अलग-अलग वर्गों के सदस्य बनते हैं जिस कारण समाज में गतिशीलता चलती रहती है।

इस व्याख्या को देखने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि वर्ग, गतिशीलता तथा स्तरीकरण में काफ़ी गहरा सम्बन्ध होता है। इस कारण ही समाज प्रगति की तरफ बढ़ता है तथा लोग प्रगति करते रहते हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
इनमें से कौन-सी वर्ग की विशेषता नहीं है ?
(क) अर्जित स्थिति
(ख) मुक्त व्यवस्था
(ग) जन्म पर आधारित
(घ) समूहों में उच्च निम्न स्थिति।
उत्तर-
(ग) जन्म पर आधारित।

प्रश्न 2.
कौन-सी वर्ग की विशेषता है ?
(क) उच्च निम्न की भावना
(ख) सामाजिक गतिशीलता
(ग) उपवर्गों का विकास
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 3.
उस व्यवस्था को क्या कहते हैं जिसमें समाज के व्यक्तियों को अलग-अलग आधारों पर विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है ?
(क) जाति व्यवस्था
(ख) वर्ग व्यवस्था
(ग) सामुदायिक व्यवस्था
(घ) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(ख) वर्ग व्यवस्था।

प्रश्न 4.
वर्ग व्यवस्था का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(क) जाति व्यवस्था कमजोर हो रही है।
(ख) निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुँच रहे हैं।
(ग) व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है।
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 5.
वर्ग तथा जाति में क्या अंतर है ?
(क) जाति जन्म व वर्ग योग्यता पर आधारित होता है।
(ख) व्यक्ति वर्ग बदल सकता है पर जाति नहीं।
(ग) जाति में कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं पर वर्ग में नहीं।
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 6.
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने दिया था ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) राईट
(घ) वार्नर।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 7.
वर्ग चेतना तथा वर्ग संघर्ष की अवधारणा किसने दी है ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) दुर्थीम
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. वर्ग की सदस्या व्यक्ति की …….. पर निर्भर करती है।
2. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत .. ………………… ने दिया था।
3. मार्क्स के अनुसार संसार में …. …. प्रकार के वर्ग होते हैं।
4. ……………… को बुर्जुआ कहते हैं।
5. ……………….. वर्ग को सर्वहारा कहते हैं।
उत्तर-

  1. योग्यता
  2. कार्ल मार्क्स
  3. दो
  4. पूँजीपति
  5. मज़दूर।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. सभी वर्गों में वर्ग चेतना मौजूद होती है।
2. वर्ग में स्थिति अर्जित की जाती है।
3. आय, व्यवसाय, धन तथा शिक्षा व्यक्ति का वर्ग निर्धारित करते हैं।
4. वैबर के अनुसार धन, सत्ता तथा स्थिति असमानता के आधार हैं।
5. वार्नर ने भारत की वर्ग संरचना का अध्ययन किया था।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. सही
  4. सही
  5. गलत।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. वर्ग की सदस्यता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर-वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 2. आजकल वर्ग का निर्धारण किस आधार पर होता है ?
उत्तर-आजकल वर्ग का निर्धारण शिक्षा, धन, व्यवसाय, नातेदारी इत्यादि के आधार पर होता है।

प्रश्न 3. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने दिया था ?
उत्तर-वर्ग संघर्ष का सिद्धांत कार्ल मार्क्स ने दिया था।

प्रश्न 4. धन के आधार पर हम लोगों को कितने वर्गों में बाँट सकते हैं ?
उत्तर-धन के आधार पर हम लोगों को उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा श्रमिक वर्ग में बाँट सकते हैं।

प्रश्न 5. गाँव में मिलने वाले मुख्य वर्ग बताएँ।
उत्तर- गाँव में हमें ज़मींदार वर्ग, किसान वर्ग व मज़दूर वर्ग मुख्यतः मिल जाते हैं।

प्रश्न 6. वर्ग व्यवस्था क्या होती है ?
उत्तर-जब समाज में अलग-अलग आधारों पर कई प्रकार के समूह बन जाते हैं उसे वर्ग व्यवस्था कहते हैं।

प्रश्न 7. वर्ग किस प्रकार का समूह है ?
उत्तर-वर्ग एक मुक्त समूह होता है जिसकी सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 8. वर्ग में किस प्रकार के संबंध पाए जाते हैं ?
उत्तर-वर्ग में औपचारिक, अस्थाई तथा सीमित संबंध पाए जाते हैं।

प्रश्न 9. मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार क्या होता है ?
उत्तर-मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार आर्थिक अर्थात् धन होता है।

प्रश्न 10. मार्क्स के अनुसार संसार में कितने वर्ग होते हैं ?
उत्तर-मार्क्स के अनुसार संसार में दो वर्ग होते हैं-पूँजीपति तथा मज़दूर।

प्रश्न 11. वैबर के अनुसार असमानता का आधार क्या होता है ?
उत्तर-वैबर के अनुसार धन, सत्ता तथा स्थिति असमानता के आधार होते हैं।

प्रश्न 12. बुर्जुआ क्या होता है ?
उत्तर-जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसे बुर्जुआ कहते हैं।

प्रश्न 13. सर्वहारा क्या होता है ?
उत्तर-वह वर्ग जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते, अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, उसे सर्वहारा कहते हैं।

प्रश्न 14. वर्गहीन समाज कौन-सा होता है ?
उत्तर-वह समाज जहाँ वर्ग नहीं होते, वह वर्गहीन समाज होता है।

प्रश्न 15. जाति व वर्ग में एक अंतर बताएं।
उत्तर-जाति जन्म पर आधारित होती है परन्तु वर्ग योग्यता पर आधारित होता है।

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III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न ।

प्रश्न 1.
वर्ग क्या होता है ?
अथवा
वर्ग से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
समाज में जब अलग-अलग व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसे विशेष सामाजिक स्थिति वाले समूह को वर्ग कहते हैं। मार्क्स के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों तथा सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले संबंधों के संदर्भ में परिभाषित किया जा सकता है।”

प्रश्न 2.
वर्ग की दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  • वर्ग के सभी सदस्यों की समाज में स्थिति लगभग समान ही होती है जैसे अमीर वर्ग के सदस्यों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।
  • वर्गों का निर्माण अलग-अलग आधारों पर होता है जैसे कि शिक्षा, पैसा, व्यवसाय, राजनीति, धर्म इत्यादि।

प्रश्न 3.
वर्ग व्यवस्था के कोई तीन प्रभाव बताएं।
उत्तर-

  • वर्ग व्यवस्था से जाति व्यवस्था कमजोर हो गई है।
  • वर्ग व्यवस्था से निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुंच रहे हैं।
  • वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका प्राप्त होता है।

प्रश्न 4.
नगरों में मुख्य रूप से कौन-से तीन वर्ग देखने को मिल जाते हैं ?
उत्तर-

  • उच्च वर्ग-वह वर्ग जो अमीर व ताकतवर होता है।
  • मध्य वर्ग-डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, नौकरी पेशा लोग, दुकानदार इसमें आते हैं।
  • निम्न वर्ग-इसमें वे मज़दूर आते हैं जो अपना परिश्रम बेच कर गुज़ारा करते हैं।

IV. लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
श्रेणी व्यवस्था या वर्ग व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार श्रेणी के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष कर्त्तव्य, अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। श्रेणी चेतनता ही श्रेणी की मुख्य ज़रूरत होती है। श्रेणी के बीच व्यक्ति अपने आप को कुछ सदस्यों से उच्च तथा कुछ से निम्न समझता है।

प्रश्न 2.
वर्ग की दो विशेषताएं।
अथवा सामाजिक वर्ग की विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • वर्ग चेतनता-प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतनता होती है कि उसका पद या आदर दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है। अर्थात् व्यक्ति को उच्च, निम्न या समानता के बारे में पूरी चेतनता होती है।
  • सीमित सामाजिक सम्बन्ध-वर्ग व्यवस्था में लोग अपने ही वर्ग के सदस्यों से गहरे सम्बन्ध रखता है तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उसके सम्बन्ध सीमित होते हैं।

प्रश्न 3.
मुक्त व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था के बीच व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न या उच्च स्थिति की तरफ परिवर्तन कर सकता है। वह ग़रीब से अमीर तथा अमीर से ग़रीब हो सकता है। खुलेपन से अभिप्राय व्यक्तियों को बराबर अवसर प्राप्त होने से है। वह पूरी तरह अपनी योग्यता का प्रयोग कर सकता है।

प्रश्न 4.
धन तथा आय वर्ग व्यवस्था के निर्धारक।
उत्तर-
समाज के बीच उच्च श्रेणी की स्थिति का सदस्य बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है। परन्तु पैसे के साथ व्यक्ति आप ही उच्च स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता परन्तु उसकी अगली पीढ़ी के लिए उच्च स्थिति निश्चित हो जाती है। आय के साथ भी व्यक्ति को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है क्योंकि ज्यादा आमदनी से ज्यादा पैसा आता है। परन्तु इसके लिए यह देखना ज़रूरी है कि व्यक्ति की आय ईमानदारी की है या काले धन्धे द्वारा प्राप्त है।

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प्रश्न 5.
जाति तथा वर्ग में कोई चार अन्तर।
उत्तर-

  • जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता उसकी योग्यता पर आधारित होती है।
  • जाति व्यवस्था में पेशा जन्म पर ही निश्चित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति अपनी इच्छा से कोई भी पेशा अपना सकता है।
  • जाति बन्द व्यवस्था है पर वर्ग खुली व्यवस्था है।
  • जाति में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में नहीं।

प्रश्न 6.
जाति-बन्द स्तरीकरण का आधार।
उत्तर-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता उसके जन्म से सम्बन्धित होती है। जिस जाति में वह पैदा होता है वह उसके घेरे में बंध जाता है। यहां तक कि वह अपनी योग्यता का सम्पूर्ण इस्तेमाल नहीं कर सकता है। उसको न तो कार्य करने की स्वतन्त्रता होती है तथा न ही वह दूसरी जातियों से सम्पर्क स्थापित कर सकता है। यदि वह जाति के नियमों को तोड़ता है तो उसको जाति से बाहर निकाल दिया जाता है। इस कारण जाति को बन्द स्तरीकरण का आधार माना जाता है।

प्रश्न 7.
मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण का परिणाम क्या है ?
उत्तर-मार्क्स का कहना है, कि समाज में दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता। इस मलकीयत के आधार पर ही मालिक वर्ग की स्थिति उच्च तथा गैर-मालिक वर्ग की स्थिति निम्न होती है। मालिक वर्ग को मार्क्स पूंजीपति वर्ग तथा गैर-मालिक वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है तथा मजदूर वर्ग अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यह ही स्तरीकरण का परिणाम है।

प्रश्न 8.
वर्गों में आपसी सम्बन्ध किस तरह के होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्गों में आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता तथा संघर्ष वाले होते हैं। पूंजीपति तथा मजदूर दोनों अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। मजदूर वर्ग को रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचना पड़ता है। वह पूंजीपति को अपना परिश्रम बेचते हैं तथा रोटी कमाने के लिए उस पर निर्भर करते हैं। उसकी मजदूरी के एवज में पूंजीपति उनको मज़दूरी का किराया देते हैं। पूंजीपति भी मज़दूरों पर निर्भर करता है, क्योंकि मज़दूर के कार्य किए बिना उसका न तो उत्पादन हो सकता है तथा न ही उसके पास पूंजी इकट्ठी हो सकती है। परन्तु निर्भरता के साथ संघर्ष भी चलता रहता है क्योंकि मजदूर अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उससे संघर्ष करता रहता है।

प्रश्न 9.
मार्क्स के वर्ग के सिद्धान्त में कौन-सी बातें मुख्य हैं ?
उत्तर-

  • सबसे पहले प्रत्येक प्रकार के समाज में मुख्य तौर पर दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा दूसरे के पास नहीं होते हैं।
  • मार्क्स के अनुसार समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति उच्च होती है तथा जिस के पास साधन नहीं होते उसकी स्थिति निम्न होती है।
  • सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप उत्पादन की व्यवस्था पर निर्भर करता है।
  • मार्क्स के अनुसार मनुष्यों के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। वर्ग संघर्ष किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में मौजूद रहा है।

प्रश्न 10.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार, प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्गएक शोषण करने वाला तथा दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं। इनमें संघर्ष होता है जिसे मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है। शोषण करने वाला पूंजीपति वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा वह इन उत्पादन के साधनों के साथ अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग मज़दूर वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते हैं। इसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। यह वर्ग पहले वर्ग से हमेशा शोषित होता है जिस कारण दोनों वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष को ही मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।

प्रश्न 11.
उत्पादन के साधन।
उत्तर-
उत्पादन के साधन वे साधन हैं जिसकी सहायता से कार्य करके पैसा कमाया जाता है तथा अच्छा जीवन व्यतीत किया जाता है। मनुष्य उत्पादन के साधनों का प्रयोग करके अपने उत्पादन कौशल के आधार पर ही भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करता है तथा यह सभी तत्व इकट्ठे मिलकर उत्पादन शक्तियों का निर्माण करते हैं। उत्पादन के तरीकों पर पूँजीपति का अधिकार होता है तथा वह इनकी सहायता से अतिरिक्त मूल्य का निर्माण करके मज़दूर वर्ग का शोषण करता है। इन उत्पादन के साधनों की सहायता से वह अधिक अमीर होता जाता है जिसका प्रयोग वह मजदूर वर्ग को दबाने के लिए करता है।

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प्रश्न 12.
सामाजिक गतिशीलता।
उत्तर-
समाज मनुष्यों के बीच सम्बन्धों से बनता है। समाज में प्रत्येक मनुष्य की अपनी एक सामाजिक स्थिति होती है तथा यह स्थिति कुछ आधारों पर निर्भर करती है। कुछ समाजों में यह जन्म तथा कुछ में यह कर्म पर आधारित होती है। समाज में कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। जन्म के आधार पर यह परिवर्तन सम्भव नहीं है क्योंकि जाति जन्म के आधार पर निश्चित होती है जिसमें परिवर्तन सम्भव नहीं है। परन्तु पेशों, कार्य, पैसे इत्यादि के आधार पर वर्ग परिवर्तन मुमकिन है। समाज में किसी भी सदस्य द्वारा अपनी सामाजिक स्थिति के आधार पर परिवर्तन करना ही सामाजिक गतिशीलता है।

प्रश्न 13.
गतिशीलता की दो परिभाषाएं।
उत्तर-
फेयरचाइल्ड के अनुसार, “मनुष्यों द्वारा अपने समूह को परिवर्तित करना ही सामाजिक गतिशीलता है। सामाजिक गतिशीलता का अर्थ व्यक्तियों की एक समूह से दूसरे समूह की तरफ की गति है।”
बोगार्डस के अनुसार, “सामाजिक पदवी में कोई भी परिवर्तन सामाजिक गतिशीलता है।”

प्रश्न 14.
शिक्षा-सामाजिक गतिशीलता का सूचक।
उत्तर-
शिक्षा को सामाजिक गतिशीलता का महत्त्वपूर्ण साधन माना जाता है। यह कहा जाता है कि व्यक्ति जितनी अधिक शिक्षा प्राप्त करेगा उतना ही अधिक जीवन में सफल होगा। शिक्षा व्यक्ति के बजुर्गों द्वारा किए गलत कार्यों को भी ठीक कर देती है। यह माना जाता है कि शिक्षा को नौकरी का साधन नहीं समझा जाना चाहिए, क्योंकि शिक्षा प्रत्यक्ष रूप से ऊपर की तरफ की गतिशीलता की तरफ नहीं लेकर जाती। शिक्षा तो व्यक्ति के लिए उस समय मौजूद मौके अर्जित करने के लिए व्यक्ति की योग्यता को बढ़ाती है। शिक्षा वह तरीके बताती है जो किसी भी पेशे को अपनाने के लिए ज़रूरी होते हैं, परन्तु यह उन तरीकों को प्रयोग करने के मौके प्रदान नहीं करती।

प्रश्न 15.
आय-सामाजिक गतिशीलता का सूचक।
उत्तर-
व्यक्ति की आय गतिशीलता का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। व्यक्ति की आय उसकी सामाजिक स्थिति को उच्च अथवा निम्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिसकी आय अधिक होती है उसका सामाजिक रुतबा भी उच्च होता है तथा जिसकी आय कम होती है उसका सामाजिक रुतबा भी निम्न होता है। आय बढ़ने से लोग अपनी जीवन शैली बढ़िया कर लेते हैं तथा गतिशील होकर वर्ग व्यवस्था में ऊँचे हो जाते हैं। इस तरह आय गतिशीलता का महत्त्वपूर्ण सूचक है।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
वर्ग के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तार से लिखें ।
अथवा
वर्ग क्या होता है ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण का आधार वर्ग होता है। वर्ग में व्यक्ति की स्थिति उसके वर्ग की भूमिका के अनुसार होती है। मानवीय समाज में सभी मनुष्यों की स्थिति बराबर या समान नहीं होती। किसी-न-किसी आधार पर असमानता पाई जाती रही है व इसी असमानता की भावना के कारण ही वर्ग पहचान में आए हैं। विशेषकर पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा प्रणाली, आधुनिकीकरण के कारण समाज भारत में वर्ग व्यवस्था आगे आई है। पश्चिमी देशों में भी स्तरीकरण वर्ग व्यवस्था पर आधारित होता है। भारत में भी बहुत सारे वर्ग पहचान में आए हैं जैसे अध्यापक वर्ग, व्यापार वर्ग, डॉक्टर वर्ग आदि।

वर्ग का अर्थ व परिभाषाएं (Meaning & Definitions of Class):

प्रत्येक समाज कई वर्गों में विभाजित होता है व प्रत्येक वर्ग की समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इस स्थिति के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। वर्ग की मुख्य विशेषता वर्ग चेतनता होती है। इस प्रकार समाज में जब विभिन्न व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसको वर्ग व्यवस्था कहते हैं। प्रत्येक वर्ग आर्थिक पक्ष से एक-दूसरे से अलग होता है।

  • मैकाइवर (Maclver) ने वर्ग को सामाजिक आधार पर बताया है। उस के अनुसार, “सामाजिक वर्ग एकत्रता वह हिस्सा होता है जिसको सामाजिक स्थिति के आधार पर बचे हुए हिस्से से अलग कर दिया जाता है।”
  • मोरिस जिन्सबर्ग (Morris Ginsberg) के अनुसार, “वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सांझे वंशक्रम, व्यापार सम्पत्ति के द्वारा एक सा जीवन ढंग, एक से विचारों का स्टाफ, भावनाएं, व्यवहार के रूप में रखते हों व जो इनमें से कुछ या सारे आधार पर एक-दूसरे से समान रूप में अलग-अलग मात्रा में पाई जाती हो।”
  • गिलबर्ट (Gilbert) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग व्यक्तियों की एकत्र विशेष श्रेणी है जिस की समाज में एक विशेष स्थिति होती है, यह विशेष स्थिति ही दूसरे समूहों से उनके सम्बन्ध निर्धारित करती है।”
  • कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के विचार अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी परिभाषित किया जा सकता है।”
  • आगबन व निमकौफ (Ogburn & Nimkoff) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग की मौलिक विशेषता दुसरे सामाजिक वर्गों की तुलना में उसकी उच्च व निम्न सामाजिक स्थिति होती है।”

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि सामाजिक वर्ग कई व्यक्तियों का वर्ग होता है, जिसको समय विशेष में एक विशेष स्थिति प्राप्त होती है। इसी कारण उनको कुछ विशेष शक्ति, अधिकार व उत्तरदायित्व भी मिलते हैं। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता महत्त्वपूर्ण होती है। इस कारण हर व्यक्ति परिश्रम करके सामाजिक वर्ग में अपनी स्थिति को ऊँची करना चाहता है। प्रत्येक समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति निश्चित नहीं होती। उसकी स्थिति में गतिशीलता पाई जाती है। इस कारण इसे खुला स्तरीकरण भी कहते हैं। व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति स्वयं निर्धारित करता है। यह जन्म पर आधारित नहीं होता।

वर्ग की विशेषताएं (Characteristics of Class):

1. श्रेष्ठता व हीनता की भावना (Feeling of Superiority and Inferiority)—वर्ग व्यवस्था में भी ऊँच व नीच के सम्बन्ध पाए जाते हैं। उदाहरणतः उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से अपने आप को अलग व ऊँचा महसूस करते हैं। ऊँचे वर्ग में अमीर लोग आ जाते हैं व निम्न वर्ग में ग़रीब लोग। अमीर लोगों की समाज में उच्च स्थिति होती है व ग़रीब लोग भिन्न-भिन्न निवास स्थान पर रहते हैं। उन निवास स्थानों को देखकर ही पता लग जाता है कि वह अमीर वर्ग से सम्बन्धित हैं या ग़रीब वर्ग से।

2. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)—वर्ग व्यवस्था किसी भी व्यक्ति के लिए निश्चित नहीं होती। वह बदलती रहती है। व्यक्ति अपनी मेहनत से निम्न से उच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है व अपने गलत कार्यों के परिणामस्वरूप ऊंची से निम्न स्थिति पर भी पहुंच जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी आधार पर समाज में अपनी इज्जत बढ़ाना चाहता है। इसी कारण वर्ग व्यवस्था व्यक्ति को क्रियाशील भी रखती है। उदाहरणतः एक आम दफ़तर में लगा क्लर्क यदि परिश्रम करके I.A.S. इम्तिहान में आगे बढ़ जाता है तो उसकी स्थिति बिल्कुल ही बदल जाती है।

3. खुलापन (Openness)—वर्ग व्यवस्था में खुलापन पाया जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति को पूरी आज़ादी होती है कि वह कुछ भी कर सके। वह अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी व्यापार को अपना सकता है। किसी भी जाति का व्यक्ति किसी भी वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता के आधार पर बन सकता है। निम्न वर्ग के लोग मेहनत करके उच्च वर्ग में आ सकते हैं। इसमें व्यक्ति के जन्म की कोई महत्ता नहीं होती। व्यक्ति की स्थिति उसकी योग्यता पर निर्भर करती है। एक अमीर मां-बाप का लड़का तब तक अमीर बना रहेगा जब तक उसके माता-पिता की सम्पत्ति समाप्त नहीं हो जाती। बाद में हो सकता है कि यदि वह मेहनत न करे तो भूखा भी मर सकता है। यह वर्ग व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को आगे बढ़ने के समान आर्थिक मौके भी प्रदान करती है। इस प्रकार इसमें खुलापन पाया जाता है।

4. सीमित सामाजिक सम्बन्ध (Limited Social Relations) वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध सीमित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोग अपने बराबर के वर्ग के लोगों से सम्बन्ध रखना अधिक ठीक समझते हैं। प्रत्येक वर्ग अपने ही लोगों से नज़दीकी रखना चाहता है। वह दूसरे वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।

5. उपवर्गों का विकास (Development of Sub-Classes)-आर्थिक दृष्टिकोण से हम वर्ग व्यवस्था को तीन भागों में बाँटते हैं

(i) उच्च वर्ग (Upper Class)
(ii) मध्य वर्ग (Middle Class)
(iii) निम्न वर्ग (Lower Class)।

परन्तु आगे हर वर्ग कई और उपवर्गों में बाँटा होता है, जैसे एक अमीर वर्ग में भी भिन्नता नज़र आती है। कुछ लोग बहुत अमीर हैं, कुछ उससे कम व कुछ सबसे कम। इसी प्रकार मध्य वर्ग व निम्न वर्ग में भी उप-वर्ग पाए जाते हैं। हर वर्ग के उप-वर्गों में भी अन्तर पाया जाता है। इस प्रकार वर्ग, उप वर्गों से मिल कर बनता है।

6. विभिन्न आधार (Different Bases)—जैसे हम शुरू में ही विभिन्न समाज वैज्ञानिकों के विचारों से यह परिणाम निकाल चुके हैं कि वर्ग के भिन्न-भिन्न आधार हैं। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार को वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है। उसके अनुसार समाज में केवल दो वर्ग पाए गए हैं। एक तो पूंजीपति वर्ग, दूसरा श्रमिक वर्ग। हर्टन व हंट के अनुसार हमें याद रखना चाहिए कि वर्ग मूल में, विशेष जीवन ढंग है। ऑगबर्न व निमकौफ़, मैकाइवर गिलबर्ट ने वर्ग के लिए सामाजिक आधार को मुख्य माना है। जिन्ज़बर्ग, लेपियर जैसे वैज्ञानिकों ने सांस्कृतिक आधार को ही वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि वर्ग के निर्धारण करने का कोई एक आधार नहीं, बल्कि कई अलग-अलग आधार हैं। जैसे पढ़ा-लिखा वर्ग, अमीर वर्ग, डॉक्टर वर्ग आदि। इस प्रकार वर्ग कई आधारों के परिणामस्वरूप पाया गया है।

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7. वर्ग पहचान (Identification of Class)—वर्ग व्यवस्था में बाहरी दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण होता है। कई बार हम देख कर यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति उच्च वर्ग का है या निम्न का। हमारे आधुनिक समाज में कोठी, कार, स्कूटर, टी० वी०, वी० सी० आर०, फ्रिज आदि व्यक्ति के स्थिति चिन्ह को निर्धारित करते हैं। इस प्रकार बाहरी संकेतों से हमें वर्ग भिन्नता का पता चल जाता है।
प्रत्येक वर्ग के लोगों का जीवन ढंग लगभग एक सा ही होता है। मैक्स वैबर के अनुसार, “हम एक समूह को तो ही वर्ग कह सकते हैं जब उस समूह के लोगों को जीवन के कुछ ख़ास मौके न प्राप्त हों।” इस प्रकार हर वर्ग के सदस्यों की ज़रूरतें भी एक सी ही होती हैं।

8. वर्ग चेतनता (Class Consciousness)-प्रत्येक सदस्य अपनी वर्ग स्थिति के प्रति पूरी तरह चेतन होता है। इसी कारण वर्ग चेतना, वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषता है। वर्ग चेतना व्यक्ति को आगे बढ़ने के मौके प्रदान करती है क्योंकि चेतना के आधार पर ही हम एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार भी इसके द्वारा ही निश्चित होता है।

9. उतार-चढ़ाव का क्रम (Hierarchical Order)-प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति रखने वाले वर्ग पाए जाते हैं। स्थिति का उतार-चढ़ाव चलता रहता है व भिन्न-भिन्न वर्गों का निर्माण होता रहता है। साधारणत: यह देखने में आया है कि समाज में उच्च वर्ग के लोगों की गणना कम होती है व मध्यम व निम्न वर्गों के लोगों की गणना अधिक होती है। प्रत्येक वर्ग के लोग अपनी मेहनत व योग्यता से अपने से उच्च वर्ग में जाने की कोशिश करते रहते हैं।

10. आपसी निर्भरता (Mutual Dependence) समाज के सभी वर्गों में आपसी निर्भरता होती है व वह एकदूसरे पर निर्भर होते हैं। उच्च वर्ग को अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए मध्यम वर्ग की ज़रूरत पड़ती है व इसी तरह मध्यम वर्ग को अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए निम्न वर्ग की ज़रूरत पड़ती है। इसी तरह उल्टा भी होता है। इस प्रकार यह सारे वर्ग अपनी पहचान बनाए रखने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं।

11. वर्ग एक खुली व्यवस्था है (Class is an open system)-वर्ग एक खुली व्यवस्था होती है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक वर्ग के दरवाजे खुले होते हैं। व्यक्ति अपनी मेहनत, योग्यता व कोशिशों से अपना वर्ग बदल भी सकता है व कोशिशें न करके छोटे वर्ग में भी पहुँच सकता है। उसके रास्ते में जाति कोई रुकावट नहीं डालती। उदाहरणत: निम्न जाति का व्यक्ति भी परिश्रम करके उच्च वर्ग में पहुँच सकता है।

12. वर्ग की स्थिति (Status of Class)—प्रत्येक वर्ग की स्थितियों में कुछ समानता होती है। इस समानता के कारण ही प्रत्येक वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति करने के समान मौके प्राप्त होते हैं। व्यक्ति की शिक्षा, उसके रहने का स्थान, अन्य चीजें आदि उसके वर्ग की स्थिति अनुसार होती हैं।

प्रश्न 2.
वर्ग के विभाजन के अलग-अलग आधारों का वर्णन करो।
अथवा वर्ग के सह-संबंधों की व्याख्या करें।
अथवा आय तथा व्यवसाय की वर्ग निर्धारक के रूप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
वर्ग की व्याख्या व विशेषताओं के आधार पर हम वर्ग के विभाजन के कुछ आधारों का जिक्र कर सकते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया गया है
(1) परिवार व रिश्तेदार (2) सम्पत्ति व आय, पैसा (3) व्यापार (4) रहने के स्थान की दिशा (5) शिक्षा (6) शक्ति (7) धर्म (8) प्रजाति (9) जाति (10) स्थिति चिन्ह।

1. परिवार व रिश्तेदारी (Family and Kinship) परिवार व रिश्तेदारी भी वर्ग की स्थिति निर्धारित करने के लिए जिम्मेवार होता है। बीयरस्टेड के अनुसार, “सामाजिक वर्ग की कसौटी के रूप में परिवार व रिश्तेदारी का महत्त्व सारे समाज में बराबर नहीं होता, बल्कि यह तो अनेक आधारों में एक विशेष आधार है जिसका उपयोग सम्पूर्ण व्यवस्था में एक अंग के रूप में किया जा सकता है। परिवार के द्वारा प्राप्त स्थिति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। जैसे टाटा बिरला आदि के परिवार में पैदा हुई सन्तान पूंजीपति ही रहती है क्योंकि उनके बुजुर्गों ने इतना पैसा कमाया होता है कि कई पीढ़ियां यदि न भी मेहनत करें तो भी खा सकती हैं। इस प्रकार अमीर परिवार में पैदा हुए व्यक्ति को भी वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार परिवार व रिश्तेदारी की स्थिति के आधार पर भी व्यक्ति को वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।।

2. सम्पत्ति, आय व पैसा (Property, Income and Money)-वर्ग के आधार पर सम्पत्ति, पैसे व आय को प्रत्येक समाज में महत्त्वपूर्ण जगह प्राप्त होती है। आधुनिक समाज को इसी कारण पूंजीवादी समाज कहा गया है। पैसा एक ऐसा स्रोत है जो व्यक्ति को समाज में बहुत तेज़ी से उच्च सामाजिक स्थिति की ओर ले जाता है। मार्टिनडेल व मोनाचेसी (Martindal and Monachesi) के अनुसार, “उत्पादन के साधनों व उत्पादित पदार्थों पर व्यक्ति का काबू जितना अधिक होगा उसको उतनी ही उच्च वर्ग वाली स्थिति प्राप्त होती है।” प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने पैसे को ही वर्ग निर्धारण के लिए मुख्य माना। अधिक पैसा होने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अमीर है। उनकी आय भी अधिक होती है। इस प्रकार धन, सम्पत्ति व आय के आधार पर भी वर्ग निर्धारित होता है।

3. पेशा (Occupation)—सामाजिक वर्ग को निर्धारक पेशा भी माना जाता है। व्यक्ति समाज में किस तरह का पेशा कर रहा है, यह भी वर्ग व्यवस्था से सम्बन्धित है। क्योंकि हमारी वर्ग व्यवस्था के बीच कुछ पेशे बहुत ही महत्त्वपूर्ण पाए गए हैं व कुछ पेशे कम महत्त्वपूर्ण। इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर आदि की पारिवारिक स्थिति चाहे जैसी भी हो परन्तु पेशे के आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति उच्च ही रहती है। लोग उनका आदर-सम्मान भी पूरा करते हैं। इस प्रकार कम पढ़े-लिखे व्यक्ति का पेशा समाज में निम्न रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पेशा भी वर्ग व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण निर्धारक होता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने के लिए कोई-न-कोई काम करना पड़ता है। इस प्रकार यह काम व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार करता है। वह जिस तरह का पेशा करता है समाज में उसे उसी तरह की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति गलत पेशे को अपनाकर पैसा इकट्ठा कर भी लेता है तो उसकी समाज में कोई इज्ज़त नहीं होती। आधुनिक समाज में शिक्षा से सम्बन्धित पेशे की अधिक महत्ता पाई जाती है।

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4. रहने के स्थान की दिशा (Location of residence)—व्यक्ति किस जगह पर रहता है, यह भी उसकी वर्ग स्थिति को निर्धारित करता है। शहरों में हम आम देखते हैं कि लोग अपनी वर्ग स्थिति को देखते हुए, रहने के स्थान का चुनाव करते हैं। जैसे हम समाज में कुछ स्थानों के लिए (Posh areas) शब्द भी प्रयोग करते हैं। वार्नर के अनुसार जो परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी शहर के काल में पुश्तैनी घर में रहते हैं उनकी स्थिति भी उच्च होती है। कहने से भाव यह है कि कुछ लोग पुराने समय से अपने बड़े-बड़े पुश्तैनी घरों में ही रह जाते हैं। इस कारण भी वर्ग व्यवस्था में उनकी स्थिति उच्च ही बनी रहती है। बड़े-बड़े शहरों में व्यक्तियों के निवास स्थान के लिए भिन्न-भिन्न कालोनियां बनी रहती हैं। मज़दूर वर्ग के लोगों के रहने के स्थान अलग होते हैं। वहां अधिक गन्दगी भी पाई जाती है। अमीर लोग बड़े घरों में व साफ़-सुथरी जगह पर रहते हैं जबकि ग़रीब लोग झोंपड़ियों या गन्दी बस्तियों में रहते हैं।

5. शिक्षा (Education)-आधुनिक समाज शिक्षा के आधार पर दो वर्गों में विभाजित होता है-

(i) शिक्षित वर्ग (Literate Class)
(ii) अनपढ़ वर्ग (Illiterate Class)।

शिक्षा की महत्ता प्रत्येक वर्ग में पाई जाती है। साधारणतः पर हम देखते हैं कि पढ़े-लिखे व्यक्ति को समाज में इज्जत की नज़र से देखा जाता है। चाहे उनके पास पैसा भी न हो। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान सामाजिक स्थिति अनुसार शिक्षा की प्राप्ति को ज़रूरी समझने लगा है। शिक्षा की प्रकृति भी व्यक्ति की वर्ग स्थिति के निर्धारण के लिए जिम्मेवार होती है। औद्योगीकृत समाज में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति काफ़ी ऊँची होती है।

6. शक्ति (Power)—आजकल औद्योगीकरण के विकास के कारण व लोकतन्त्र के आने से शक्ति भी वर्ग संरचना का आधार बन गई है। अधिक शक्ति का होना या न होना व्यक्ति के वर्ग का निर्धारण करती है। शक्ति से व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति का भी निर्धारण होता है। शक्ति कुछ श्रेष्ठ लोगों के हाथ में होती है व वह श्रेष्ठ लोग नेता, अधिकारी, सैनिक अधिकारी, अमीर लोग होते हैं। हमने उदाहरण ली है आज की भारत सरकार की। नरेंद्र मोदी की स्थिति निश्चय ही सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह से ऊँची होगी क्योंकि उनके पास शक्ति है, सत्ता उनके हाथ में है, परन्तु मनमोहन सिंह के पास नहीं है। इस प्रकार आज भाजपा की स्थिति कांग्रेस से उच्च है क्योंकि केन्द्र में भाजपा पार्टी की सरकार है।

7. धर्म (Religion)-राबर्ट बियरस्टड ने धर्म को भी सामाजिक स्थिति का महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। कई समाज ऐसे हैं जहां परम्परावादी रूढ़िवादी विचारों का अधिक प्रभाव पाया जाता है। उच्च धर्म के आधार पर स्थिति निर्धारित होती है। आधुनिक समय में समाज उन्नति के रास्ते पर चल रहा है जिस कारण धर्म की महत्ता उतनी नहीं जितनी पहले होती थी। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च होती थी परन्तु आजकल नहीं। पाकिस्तान में मुसलमानों की स्थिति निश्चित रूप से हिन्दुओं व ईसाइयों से बढ़िया है क्योंकि वहां राज्य का धर्म ही इस्लाम है। इस प्रकार कई बार धर्म भी वर्ग स्थिति का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

8. प्रजाति (Race) दुनिया से कई समाज में प्रजाति भी वर्ग निर्माण या वर्ग की स्थिति बताने में सहायक होती है। गोरे लोगों को उच्च वर्ग का व काले लोगों को निम्न वर्ग का समझा जाता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में एशिया के देशों के लोगों को बुरी निगाह से देखा जाता है। इन देशों में प्रजातीय हिंसा आम देखने को मिलती है। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीति काफ़ी चली है।

9. जाति (Caste)-भारत जैसे देश में जहां जाति प्रथा सदियों से भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जाति वर्ग निर्धारण का बहुत
महत्त्वपूर्ण आधार रही है। जाति जन्म पर आधारित होती है। जिस जाति में व्यक्ति ने जन्म लिया है वह अपनी योग्यता से भी उसे परिवर्तित नहीं सकता।

10. स्थिति चिन्ह (Status Symbol)—स्थिति चिन्ह लगभग हर एक समाज में व्यक्ति की वर्ग व्यवस्था को निर्धारित करता है। आजकल के समय, कोठी, कार, टी० वी०, टैलीफोन, फ्रिज आदि का होना व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति के पास अच्छी ज़िन्दगी को बिताने वाली कितनी सुविधाएं हैं। यह सब स्थिति चिन्हों में शामिल होती हैं, जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करते हैं।
इस विवरण के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति के वर्ग के निर्धारण में केवल एक कारक ही जिम्मेवार नहीं होता, बल्कि कई कारक जिम्मेवार होते हैं।

प्रश्न 3.
जाति व वर्ग में अन्तर बताओ।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के दो मुख्य आधार जाति व वर्ग हैं। जाति को एक बन्द व्यवस्था व वर्ग को एक खुली व्यवस्था कहा जाता है। पर वर्ग अधिक खुली अवस्था नहीं है क्योंकि किसी भी वर्ग को अन्दर जाने के लिए सख्त मेहनत करनी पड़ती है व उस वर्ग के सदस्य रास्ते में काफ़ी रोड़े अटकाते हैं। कई विद्वान् यह कहते हैं कि जाति व वर्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं है परन्तु दोनों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह पता चलेगा कि दोनों में काफ़ी अन्तर है। इनका वर्णन इस प्रकार है-

1. जाति जन्म पर आधारित होती है पर वर्ग का आधार कर्म होता है (Caste is based on birth but class is based on action)-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, वह सारी ही उम्र उसी से जुड़ा होता था।
वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता शिक्षा, आय, व्यापार योग्यता पर आधारित होती है। व्यक्ति जब चाहे अपनी सदस्यता बदल सकता है। एक ग़रीब वर्ग से सम्बन्धित व्यक्ति परिश्रम करके अपनी सदस्यता अमीर वर्ग से ही जोड़ सकता है। वर्ग की सदस्यता योग्यता पर आधारित होती है। यदि व्यक्ति में योग्यता नहीं है व वह कर्म नहीं करता है तो वह उच्च स्थिति से निम्न स्थिति में भी जा सकता है। यदि वह कर्म करता है तो वह निम्न स्थिति से उच्च स्थिति में भी जा सकता है। जिस प्रकार जाति धर्म पर आधारित है पर वर्ग कर्म पर आधारित होता है।

2. जाति का पेशा निश्चित होता है पर वर्ग का नहीं (Occupation of caste is determined but not of class) जाति प्रथा में पेशे की व्यवस्था भी व्यक्ति के जन्म पर ही आधारित होती थी अर्थात् विभिन्न जातियों से सम्बन्धित पेशे होते थे। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना होता था। वह सारी उम्र उस पेशे को बदल कर कोई दूसरा कार्य भी नहीं अपना सकता था। इस प्रकार न चाहते हुए भी उसको अपनी जाति के पेशे को ही अपनाना पड़ता था।

वर्ग व्यवस्था में पेशे के चुनाव का क्षेत्र बहुत विशाल है। व्यक्ति की अपनी इच्छा होती है कि वह किसी भी पेशे को अपना ले। विशेष रूप से व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता था कि वह किसी भी पेशे को अपना लेता है। विशेष रूप से पर व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता है वह उसी पेशे को अपनाता है क्योंकि उसका विशेष उद्देश्य लाभ प्राप्ति की ओर होता था व कई बार यदि वह एक पेशे को करते हुए तंग आ जाता है तो वह दूसरे किसी और पेशे को भी अपना सकता है। इस प्रकार पेशे को अपनाना व्यक्ति की योग्यता पर आधारित होता है।

3. जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है पर वर्ग की सदस्यता अर्जित होती है (Membership of caste is ascribed but membership of class is achieved)-सम्बन्धित होती थी भाव कि स्थिति वह खुद प्राप्त नहीं करता था बल्कि जन्म से ही सम्बन्धित होती थी। इसी कारण व्यक्ति की स्थिति के लिए ‘प्रदत्त’ (ascribed) शब्द का उपयोग किया जाता था। इसी कारण जाति व्यवस्था में स्थिरता बनी रहती थी। व्यक्ति का पद वह ही होता था जो उसके परिवार का हो। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति ‘अर्जित’ (achieved) होती है अर्थात् उसको समाज में अपनी स्थिति प्राप्त करनी पड़ती है। इस कारण व्यक्ति शुरू से ही परिश्रम करनी शुरू कर देता है। व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न स्थिति से उच्च स्थिति भी प्राप्त कर लेता है। इसमें व्यक्ति के जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता। बल्कि परिश्रम व योग्यता उसके वर्ग व स्थिति के बदलने में महत्त्वपूर्ण होती है।

4. जाति बन्द व्यवस्था है व वर्ग खुली व्यवस्था है (Caste is a closed system but class is an open system)-जाति प्रथा स्तरीकरण का बन्द समूह होता है क्योंकि व्यक्ति को सारी उम्र सीमाओं में बन्ध कर रहना पड़ता है। न तो वह जाति बदल सकता है न ही पेशा। श्रेणी व्यवस्था स्तरीकरण का खुला समूह होता है। इस प्रकार व्यक्ति को हर किस्म की आज़ादी होती है। वह किसी भी क्षेत्र में मेहनत करके आगे बढ़ सकता है। उसको समाज में अपनी निम्न स्थिति से ऊपर की स्थिति की ओर बढ़ने के पूरे मौके भी प्राप्त होते हैं। वर्ग का दरवाज़ा प्रत्येक के लिए खुला होता है। व्यक्ति अपनी योग्यता, सम्पत्ति, परिश्रम के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है व वह अपनी सारी उम्र में कई वर्गों का सदस्य बनता है।

5. जाति व्यवस्था में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में कोई नहीं होती (There are many restrictions in caste system but not in any class)-जाति प्रथा द्वारा अपने सदस्यों पर कई पाबन्दियां लगाई जाती थीं। खान-पान सम्बन्धी, विवाह, सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि सम्बन्धी बहुत पाबन्दियां थीं। व्यक्ति की ज़िन्दगी पर जाति का पूरा नियन्त्रण होता था। वह उन पाबन्दियां को तोड़ भी नहीं सकता था। ___ वर्ग व्यवस्था में व्यक्तिगत आज़ादी होती थी। भोजन, विवाह आदि सम्बन्धी किसी प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता था। किसी भी वर्ग का व्यक्ति दूसरे वर्ग के व्यक्ति से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता था।

6. जाति में चेतनता नहीं होती पर वर्ग में चेतनता होती है (There is no caste consciousness but there is class consciousness) —जाति व्यवस्था में जाति चेतनता नहीं पाई जाती थी। इसका एक कारण तो था कि चाहे निम्न जाति के व्यक्ति को पता था कि उच्च जातियों की स्थिति उच्च है, परन्तु फिर भी वह इस सम्बन्धी कुछ नहीं कर सकता था। इसी कारण वह मेहनत करनी भी बन्द कर देता था। उसको अपनी योग्यता अनुसार समाज में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था।

वर्ग के सदस्यों में वर्ग चेतनता पाई जाती थी। इसी चेतनता के आधार पर तो वर्ग का निर्माण होता था। व्यक्ति इस सम्बन्धी पूरा चेतन होता था कि वह कितनी मेहनत करे ताकि उच्च वर्ग स्थिति को प्राप्त कर सके। इसी प्रकार वह हमेशा अपनी योग्यता को बढ़ाने की ओर ही लगा रहता था।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जाति व्यवस्था का केवल एक ही आधार होता है, वह था सांस्कृतिक। परन्तु वर्ग व्यवस्था के कई आधार पाए जाते हैं। हर आधार अनुसार वर्ग विभाजन अलग होता है। आर्थिक कारणों का वर्ग व्यवस्था पर अधिक प्रभाव होता था। व्यक्ति की आर्थिकता में परिवर्तन आने से उसकी सदस्यता बदल जाती है। परन्तु जाति व्यवस्था में आर्थिकता का कोई महत्त्व नहीं होता। यह एक बन्द व्यवस्था थी। भाव कि एक वर्ग व दूसरे वर्ग में जाति प्रथा वाली ही भिन्नता है, लेकिन जाति को व्यक्ति बदल नहीं सकता था जबकि वर्ग व्यवस्था को बदल सकता है।

प्रश्न 4.
सामाजिक वर्ग के अलग-अलग संकेतकों का वर्णन करें।
उत्तर-
एक सूचक वह वस्तु है, जो किसी लक्षण के अतिरिक्त उस बारे में बताता है, कि वह उसके बारे में पूरी तरह बताता है। सामाजिक गतिशीलता के कई सूचक हैं जिनमें से शिक्षा, व्यवसाय एवं आय प्रमुख हैं। इनका वर्णन निम्न प्रकार का है

1. शिक्षा (Education) शिक्षा को सामाजिक वर्ग का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है। यह कहा जाता है कि व्यक्ति जितनी अधिक शिक्षा प्राप्त करेगा, वह उतना ही ज़िन्दगी में सफल होगा। शिक्षा व्यक्ति के बुजुर्गों द्वारा किये गये गलत कार्यों को भी ठीक कर देती है। यह माना जाता है कि शिक्षा को केवल नौकरी का साधन मात्र नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि शिक्षा सीधे तौर पर ऊपर की तरफ गतिशीलता को लेकर जाती है। शिक्षा तो व्यक्ति के लिए उस समय उपस्थित अवसर प्राप्त करने के लिए व्यक्ति की योग्यता को बढ़ाती है। शिक्षा वह रास्ता बताती है, जो किसी भी व्यवसाय को अपनाने के लिए आवश्यक होते हैं, परन्तु यह उन रास्तों को प्रयोग करने के अवसर प्रदान नहीं करती है। शिक्षा गतिशीलता के साधन के रूप में कई कार्य करती है जैसे कि

  • शिक्षा व्यक्ति को मज़दूर से मैनेजर तक का रास्ता दिखाती है। कोई भी मज़दूर शिक्षा प्राप्त करने के बाद मैनेजर की पदवी तक पहुंच सकता है।
  • शिक्षा किसी को भी व्यवसाय प्राप्त करने के बारे में बताती है। व्यक्ति को अच्छी आय वाला रोजगार प्रदान करती है।
  • शिक्षा व्यक्ति की अधिक आय और नौकरी वाली पदवियां अर्जित करने में सहायता करती है। साधारणतः सरकारी नौकरी अच्छी शिक्षा द्वारा प्राप्त की जाती है। इसलिए अधिक तनख्वाह (Salary) के लिए अच्छी शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है।

यह माना जाता है कि व्यक्ति जितना अधिक समय पढ़ाई में लगाता है, उसकी अधिक आय एवं सामाजिक गतिशीलता में ऊपर की तरफ बढ़ने के अधिक अवसर आते हैं। शिक्षा व्यक्ति को कई प्रकार के व्यवसाय प्राप्त करने के अवसर प्रदान करती है। कई प्रकार के अध्ययनों से यह पता चला है कि शिक्षा न केवल व्यक्ति को ऊंची पदवी प्राप्त करने का अवसर देती है, बल्कि इसके साथ व्यक्ति समाज के बीच रहने एवं व्यवहार करने के तरीकों के बारे में बतलाती है। ऐसा सीखने से व्यक्ति के लिए सफलता प्राप्ति के अवसर बढ़ जाते हैं। इस तरह शिक्षा व्यक्ति के लिए सामाजिक गतिशीलता में ऊपर बढ़ने के अवसर प्रदान करती है।

शिक्षा एक विद्यार्थी के जीवन में अवसर प्राप्त करने के अवसरों में वृद्धि प्रदान करती है। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति में धन प्राप्ति हेतु समर्था में वृद्धि होती है। जो बच्चे पढ़ाई की तरफ ध्यान नहीं देते हैं, उनका जीवन काफ़ी कठिनाइयों वाला व संघर्षपूर्ण हो जाता है। परन्तु जो बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं और अपना अधिक समय पढ़ाई में व्यतीत करते हैं वे बड़े होकर अधिक धन की प्राप्ति करते हैं।

बच्चों की पृष्ठभूमि (Background History) भी उनकी वर्तमान प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिन बच्चों के माता-पिता अधिक पढ़े-लिखे होते हैं और ऊंची पदवी पर कार्य कर रहे होते हैं उनको घर में ही शिक्षा का अच्छा वातावरण प्राप्त होता है, उन बच्चों के माता-पिता उन बच्चों के लिए आदर्श बन जाते हैं। माता-पिता बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की महत्ता के बारे में बतला कर उनको शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह पढ़ाई के पश्चात् उनमें सामाजिक पदवी प्राप्त करने की लालसा बढ़ जाती है और वे ऊंची पदवी प्राप्त करके समाज में ऊंचा उठ जाते हैं। इस प्रकार शिक्षा गतिशीलता का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है।

यहां एक बात साफ कर देनी ज़रूरी है कि व्यक्ति जितनी अधिक शिक्षा प्राप्त करता है, उसको जीवन में उन्नति करने के उतने ही मौके बढ़ जाते हैं। जितना अधिक समय तथा पैसा व्यक्ति शिक्षा में निवेश करता है, उतने ही उसको अच्छी नौकरी अथवा व्यापार करने के अधिक मौके प्राप्त होंगे। उदाहरणत: यदि किसी विद्यार्थी ने बी० कॉम (B.Com.) की डिग्री प्राप्त करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी है तो उसको अच्छी नौकरी मिलने के बहुत ही कम मौके प्राप्त होंगे। परन्तु उसने B.Com. के बाद किसी I.I.M. से M.B.A. कर ली है तो उसको बहुत ही अच्छी नौकरी तथा बहुत ही अच्छा वेतन प्राप्त हो सकता है। इस तरह जितना अधिक समय तथा पैसा शिक्षा पर खर्च किया जाएगा, उतने अधिक मौके बढ़िया नौकरी के लिए प्राप्त होंगे।

अन्त में हम कह सकते हैं कि चाहे शिक्षा गतिशीलता का एक सीधा रास्ता नहीं है परन्तु यह व्यक्ति को उसके पेशे को बदलने तथा उससे लाभ उठाने में बहुत ज्यादा मदद करती है। शिक्षा व्यक्ति को गतिशील होने के लिए प्रेरित करती है तथा जीवन में ऊपर उठने के मौके प्रदान करती है।

2. व्यवसाय (Occupation)-गतिशीलता के कारण ही समाज को पता चलता है कि किस पद पर किस व्यक्ति को बिठाया जाए। इस प्रकार समाज प्रत्येक पद पर योग्य व्यक्ति को ही बिठाता है। इस तरह यह व्यक्ति को उसके लक्ष्य प्राप्ति हेतु सहायता करती है। व्यवसाय के आधार पर समाज को हम दो तरह के समाजों में बांट सकते हैं। (1) बन्द समाज एवं खुला समाज। इन समाजों की गतिशीलता में व्यवसाय का महत्त्व इस प्रकार है

(i) बन्द समाज (Closed Society)-भारत पुराने समाज में बन्द समाजों की उदाहरण है। पुराने समाज में चार प्रकार की जातियां थीं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं निम्न जातियां। प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता था।
ब्राह्मणों का कार्य पढ़ाना था, जिस कारण उसकी सामाजिक स्थिति सबसे ऊंची थी। उसके पश्चात् क्षत्रिय आते थे, जिनका कार्य देश की रक्षा करना था और राज्य चलाना था। तीसरे स्थान पर वैश्य थे जिनका कार्य व्यापार एवं कृषि करना था। सबसे निम्न स्थान निम्न जातियों का था, जिनका कार्य उपरोक्त तीनों जातियों की सेवा करना था।

प्रत्येक व्यक्ति का व्यवसाय उसकी जाति एवं जन्म से सम्बन्धित होता था। प्रत्येक जाति के लोग अपने-अपने विशेष कार्य करते थे। जाति अपने सदस्यों को अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए रोकती थी। क्योंकि इसके साथ जाति के आर्थिक एवं धार्मिक बन्धन टूटते थे। यदि कोई जाति के बन्धनों को तोड़ता भी था तो उसे जाति में ही से बाहर निकाल दिया जाता था। इस प्रकार जाति एवं उपजाति अपने-अपने भिन्न-भिन्न कार्यों को करती थी।

हमारे देश में स्वतन्त्रता के पश्चात् आधुनिकीकरण एवं औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। जिस कारण लोगों को अपने व्यवसायों को बदलने के अवसर प्राप्त हुए। लोगों के व्यवसाय से सम्बन्धित बन्धन समाप्त हो गये। उन्होंने अन्य व्यवसाय अपना लिये। इस प्रकार बन्द समाजों में गतिशीलता व्यवसायों के कारण आरम्भ हुई और वह अब भी चल रही है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि बन्द समाजों में पेशा व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर प्राप्त नहीं होता था बल्कि उसको जन्म के आधार पर प्राप्त होता था। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसको उस जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना ही पड़ता था। चाहे कुछ पेशे जैसे कि सेना में नौकरी करना, कृषि करना, व्यापार इत्यादि में कुछ प्रतिबन्ध कम थे, परन्तु फिर भी व्यक्तियों के ऊपर पेशा अपनाने की बन्दिशें थीं। यदि कोई पेशे से सम्बन्धित जाति के नियमों के विरुद्ध जाता था तो उसको जाति में से निकाल दिया जाता था। इस तरह बन्द समाजों में पेशा व्यक्ति की योग्यता पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर प्राप्त होता था। परन्तु हमारे देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् बहुत से कारणों के कारण गतिशीलता की प्रक्रिया शुरू हुई जैसे कि आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, शहरीकरण इत्यादि तथा धीरे-धीरे पेशे से सम्बन्धित गतिशीलता शुरू हो गई है। अब तो भारत जैसे बन्द समाजों में भी पेशे पर आधारित गतिशीलता शुरू हो गई है। लोग अब अपनी मर्जी तथा योग्यता के अनुसार पेशा अपनाने लग गए हैं। पेशे से सम्बन्धित पाबन्दियां बहुत ही कम हो गई हैं।

(ii) खुला समाज (Open Society)-खुले समाज के भीतर समूह कट्टर नहीं होते हैं। व्यक्ति को अपना कोई भी व्यवसाय अपनाने की स्वतन्त्रता होती है। वह कोई भी व्यवसाय स्वः इच्छा से अपना सकता है। ऐसे समाजों में ऊंची पदवी वाले व्यवसायों में श्रम की मांग में वृद्धि होने के कारण गतिशीलता भी बढ़ जाती है। परन्तु ऊंची पदवी केवल योग्य व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है। यद्यपि अब मशीनों के बढ़ने के कारण मजदूरों की मांग कम हो गई है। परन्तु तकनीकी शिक्षा प्राप्त व योग्य कर्मियों (कर्मचारियों) की मांग अब तक भी है। इस प्रकार तकनीकी शिक्षा प्राप्त योग्य व्यक्तियों के लिए रोजगार के अवसर अब बढ़ रहे हैं। लोग अलग-अलग कार्यों को अपना रहे हैं जिस कारण समाजों में गतिशीलता भी बढ़ रही है। इस तरह खुले समाजों में आधुनिकीकरण एवं औद्योगिकीकरण के कारण गतिशीलता भी बढ़ रही है।

खुले समाजों में व्यक्ति की जाति अथवा जन्म नहीं बल्कि उसकी योग्यता की महत्ता होती है। व्यक्ति में जिस प्रकार की योग्यता होती है वह उस प्रकार का पेशा अपनाता है। खुले समाजों में व्यक्ति की जाति का महत्त्व नहीं है कि उसने किस जाति में जन्म लिया है बल्कि महत्त्व इस बात का है कि उसमें किस कार्य को करने की योग्यता है। नाई का पुत्र बड़ा अफ़सर बन सकता है तथा अफसर का पुत्र कोई व्यापार कर सकता है। व्यक्ति अपनी मर्जी का पेशा अपना सकता है, उसके ऊपर किसी प्रकार का कोई बन्धन नहीं होता है कि वह किस प्रकार का पेशा अपनाए। वह अलग-अलग प्रकार की तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके अलग-अलग प्रकार के पेशे अपना सकता है। कोई छोटा सा कोर्स करते ही व्यक्ति के लिए नौकरी प्राप्त करने के मौके बढ़ जाते हैं। लोग अलग-अलग पेशे अपना रहे हैं। कंपनियां अधिक वेतन तथा अच्छी स्थिति का प्रलोभन देती हैं जिस कारण लोग पुरानी नौकरी छोड़कर अधिक वेतन वाली नौकरी कर लेते हैं जिस कारण समाज में गतिशीलता बढ़ रही है। आधुनिकीकरण तथा औद्योगीकरण ने तो गतिशीलता को बहुत ही अधिक बढ़ा दिया है। इस तरह खुले समाजों में पेशे के आधार पर गतिशीलता बहुत अधिक बढ़ रही है।

3. आय (Income)—व्यक्ति की आय गतिशीलता का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। व्यक्ति की आय उसकी सामाजिक स्थिति को ऊंचा व निम्न रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अपनाती है। जिसकी आय अधिक होती है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक होती है। परन्तु जिसकी आय कम होती है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी कम होती है।

आजकल का समाज वर्ग प्रणाली पर आधारित है। इस प्रणाली में धन एवं आय की महत्ता अधिक है। व्यक्ति अपनी योग्यता के कारण सामाजिक स्तरीकरण में ऊंचा स्थान प्राप्त करता है। व्यक्ति अपने आपके साथ, अपनी आर्थिक स्थिति अन्य लोगों के मुकाबले सुधार लेता है और अपनी जीवन शैली भी बदल लेता है। खुले समाजों में अधिक आय वाले को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सामाजिक वर्ग के निर्धारण हेतु आय एक महत्त्वपूर्ण कारक है। आमदनी (आय) के कारण ही व्यक्ति अपनी जीवन शैली बढ़िया कर लेता है। अमीर व्यक्तियों के पास पैसा तो काफ़ी अधिक होता है। परन्तु उनके जीवन शैली भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती है। नये बने अमीरों को अमीरों की जीवन शैली सीखने में काफ़ी समय लग जाता है। चाहे वह व्यक्ति स्वयं अमीरों की जीवन शैली न सीख सके। परन्तु उसके बच्चे अवश्य अमीरों की शैली सीख जाते हैं। इस प्रकार अमीर व्यक्ति के बच्चों का सामाजिक जीवन स्तर काफ़ी ऊंचा उठ जाता है। धन के कारण उसके बच्चे अमीरों की जीवन शैली अपना लेते हैं और उनके बच्चों को यह शैली विरासत में मिल जाती है।

इस प्रकार आमदनी के तरीकों से ही सामाजिक प्रतिष्ठा होती है। एक व्यापारी की कमाई को इज्जत प्राप्त होती है। परन्तु एक वेश्या या स्मगलर के द्वारा कमाये धन को इज्ज़त की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। आय में वृद्धि के साथ व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा, वर्ग, रहने-सहने का तरीका बदल लेता है जिस कारण सामाजिक गतिशीलता भी बढ़ती है।

व्यक्ति की आय बढ़ने से उसकी स्थिति में अपने आप ही परिवर्तन आ जाता है। लोग उसको इज्जत की नज़रों से देखना शुरू कर देते हैं। लोगों की नज़रों में अब वह एक अमीर आदमी बन जाता है तथा उसको समाज में प्रतिष्ठा हासिल हो जाती है। परन्तु एक बात ध्यान रखने वाली है कि आमदनी प्राप्त करने के ढंग समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होने चाहिए, गैर-मान्यता प्राप्त नहीं। पैसा आने से तथा आय बढ़ने से व्यक्ति अपने आराम की चीजें खरीदना शुरू कर देता है-जिससे उसके रुतबे तथा सामाजिक स्थिति में बढ़ोत्तरी होनी शुरू हो जाती है। वह अपना जीवन ऐश से जीना शुरू कर देता है। इस तरह आय बढ़ने से उसकी समाज में स्थिति निम्न से उच्च हो जाती है तथा यह ही गतिशीलता का सूचक है।
इस तरह इस व्याख्या से स्पष्ट है कि शिक्षा, पेशा तथा आय सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख सूचक हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

वर्ग असमानताएं PSEB 12th Class Sociology Notes

  • हमें हमारे समाज में कई सामाजिक समूह मिल जाएंगे जो अन्य समूहों से अधिक अमीर, इज्ज़तदार तथा शक्तिशाली होते हैं। यह अलग-अलग समूह समाज के स्तरीकरण का निर्माण करते हैं।
  • प्रत्येक समाज में बहुत से वर्ग होते हैं जो अलग-अलग आधारों के अनुसार निर्मित होते हैं तथा यह एक-दूसरे से किसी न किसी आधार पर अलग होते हैं।
  • कार्ल मार्क्स ने चाहे वर्ग की परिभाषा कहीं पर भी नहीं दी है परन्तु उसके अनुसार समाज में दो प्रकार के वर्ग होते हैं। पहला जिसके पास सब कुछ होता है (Haves) तथा दूसरा वह जिसके पास कुछ भी नहीं होता (Have nots)
  • वर्ग की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह प्रत्येक स्थान पर पाए जाते हैं, इसमें स्थिति अर्जित की जाती है, यह खुला समूह होता है, आर्थिकता इसका प्रमुख आधार होता है, यह स्थायी होते हैं इत्यादि।
  • कार्ल मार्क्स का कहना था कि वर्गों में चेतनता होती है जिस कारण समाज के अलग-अलग वर्गों में वर्ग संघर्ष चलता रहता है।
  • मार्क्स के अनुसार अलग-अलग समय में अलग-अलग समाजों में दो प्रकार के समूह पाए जाते हैं। प्रथम वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं जिसे पूँजीपति कहते हैं। दूसरा वर्ग वह है जिसके पास अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। उसे मज़दूर वर्ग कहते हैं।
  • मैक्स वैबर के अनुसार पैसा, शक्ति तथा प्रतिष्ठा असमानता के आधार हैं। वर्ग कई चीज़ों से जुड़ा होता है जैसे कि आर्थिकता, समाज में स्थिति तथा राजनीति में सत्ता। वैबर के अनुसार एक वर्ग के व्यक्तियों का जीवन जीने का ढंग एक जैसा ही होता है।
  • वार्नर ने अमेरिका में वर्ग व्यवस्था का अध्ययन किया तथा कहा कि तीन प्रकार के वर्ग होते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। यह तीनों वर्ग आगे जाकर उच्च, मध्य तथा निम्न में विभाजित होते हैं। वार्नर ने वर्ग संरचना की आय तथा धन के आधार पर व्याख्या की है।
  • अगर आजकल के समय में देखें तो वर्ग कई आधारों पर बनते हैं परन्तु शिक्षा, पेशा तथा आय इसके प्रमुख आधार हैं।
  • वर्ग तथा जाति एक-दूसरे से काफ़ी अलग होते हैं जैसे कि वर्ग एक खुली व्यवस्था है परन्तु जाति एक बंद वर्ग है, वर्ग में स्थिति अर्जित की जाती है परन्तु जाति में यह प्रदत्त होती है, वर्ग में गतिशीलता होती है परन्तु जाति में नहीं इत्यादि।
  •  वर्ग संघर्ष (Class Struggle)- यह एक प्रकार का तनाव है जो सामाजिक आर्थिक हितों तथा अलग-अलग समूहों के लोगों के हितों के कारण समाज में मौजूद होता है।
  • बुर्जुआ (Bourgeoisie)-यह एक प्रकार का सामाजिक वर्ग है जो उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा जो अपने साधनों की सहायता से समाज के अन्य समूहों का आर्थिक शोषण करता है।
  • संभ्रांत वर्ग (Elite) यह उच्च विशिष्ट लोग होते हैं जो अपने समूह तथा समाज में नेता की भूमिका तथा रास्ता दिखाने की भूमिका निभाते हैं। उनकी भूमिका या नेतृत्व सामाजिक परिवर्तन को उत्पन्न करता है।
  • सर्वहारा (Proletariat)—पूँजीवादी समाज में इस शब्द को उस वर्ग के लिए प्रयोग किया जाता है जो श्रमिकों व औद्योगिक मजदूरों के लिए प्रयोग किया जाता है। इनके पास अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता।
  • सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)—इस शब्द को व्यक्तियों अथवा समूहों को अलग-अलग सामाजिक आर्थिक पदों पर जाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • दासत्व (Slavery)—यह सामाजिक स्तरीकरण का एक रूप है जिसमें कुछ व्यक्तियों के ऊपर अन्य व्यक्ति अपनी जायदाद की तरह स्वामित्व रखते हैं।
  • छोटे दुकानदार (Petty Bourgeoisie)—यह एक फ्रैंच शब्द है जो एक सामाजिक वर्ग के लिए प्रयोग किया
    जाता है जिसमें छोटे-छोटे पूँजीपतियों जैसे कि दुकानदार तथा वर्कर आ जाते हैं जो उत्पादन, विभाजन तथा वस्तुओं के विनिमय तथा बुर्जुआ मालिकों द्वारा स्वीकृत किए जाते हैं।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 13 दल खालसा का उत्थान और इसकी युद्ध प्रणाली

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 13 दल खालसा का उत्थान और इसकी युद्ध प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 13 दल खालसा का उत्थान और इसकी युद्ध प्रणाली

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

दल खालसा के उत्थान के कारण तथा महत्त्व (Causes and Importance of the Rise of the Dal Khalsa)

प्रश्न 1.
किन परिस्थितियों में दल खालसा का उत्थान हुआ ? इसके संगठन, महत्त्व और युद्ध प्रणाली का परीक्षण कीजिए।
(Describe the circumstances leading to the rise of Dal Khalsa. Examine its organisation, importance and mode of fighting.)
अथवा
दल खालसा के उत्थान के कारण, संगठन, महत्त्व और युद्ध प्रणाली के बारे में बताएँ।
(Discuss about the reasons of the creation, organisation, importance and mode of fighting of Dal Khalsa.)
अथवा
दल खालसा की उत्पत्ति, मुख्य विशेषताएँ और महत्त्व का वर्णन करें।
(Discuss the origin, important, features and importance of the Dal Khalsa.)
अथवा
किन स्थितियों के कारण दल खालसा की स्थापना हुई ? इसका पंजाब के इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(Discuss the circumstances leading to the establishment of Dal Khalsa. What is its significance in the History of Punjab ?)
अथवा
दल खालसा की स्थापना के क्या कारण थे ?
(What were the causes reponsible for the rise of Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा की उत्पत्ति, मुख्य विशेषताएँ तथा महत्त्व के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the organisation, main features and significance of the Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा के उत्थान की परिस्थितियों का वर्णन करें। इसके संगठन, युद्ध प्रणाली तथा महत्त्व की संक्षिप्त जानकारी दें।
(Describe the circumstances leading to the establishment of the Dal Khalsa. Give a brief account of its organisation, mode of fighting and importance.)
अथवा
दल खालसा की स्थापना के कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes of the establishment of Dal Khalsa.)
अथवा
दल खालसा की स्थापना के क्या कारण थे ? इसका पंजाब के इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(What were the reasons of the creation of Dal Khalsa ? What is its importance in the History of Punjab ?)
अथवा
दल खालसा के संगठन का वर्णन कीजिए और इसके महत्त्व का परीक्षण कीजिए।
(Give an account of the organisation of Dal Khalsa and examine its significance.)
अथवा
दल खालसा का पंजाब के इतिहास में क्या महत्त्व है ? (What is the significance of Dal Khalsa in the History of Punjab ?)
अथवा
दल खालसा की सैनिक प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the main features of the military system of Dal Khalsa.)
अथवा
दल खालसा की सैनिक प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of the military system of the Dal Khalsa ?)
उत्तर-
1748 ई० में दल खालसा की स्थापना सिख इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसकी स्थापना ने सिख कौम में नवप्राण फूंके। इसने सिखों को पंजाब के मुग़ल और अफ़गान सूबेदारों के जुल्मों से टक्कर लेने के योग्य बनाया। दल खालसा के यत्नों के कारण ही सिख अंत में पंजाब में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। निस्संदेह दल खालसा की स्थापना तो सिख इतिहास का एक मील पत्थर था।

I. दल खालसा की स्थापना के कारण (Causes of the Establishment of the Dal Khalsa)
1. सिखों पर अत्याचार (Persecution of the Sikhs)-1716 ई० में बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद पंजाब के मुग़ल सूबेदारों अब्दुस समद खाँ और जकरिया खाँ ने सिखों पर कठोर अत्याचार करने शुरू कर दिए। सिखों के सिरों पर इनाम घोषित किए गए। सिखों को गिरफ्तार कर लाहौर में शहीद किया जाने लगा। मजबूर हो कर सिखों को वनों और पहाड़ों में जा कर शरण लेनी पड़ी। यहाँ उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मुग़ल सेनाएँ उनका पीछा करती रहती थीं। ऐसी स्थिति में उनको अपने-आप को जत्थों में संगठित करने की आवश्यकता अनुभव हुई। उन्होंने अपने छोटे-छोटे जत्थे बना लिए जो बाद में दल खालसा की स्थापना में सहायक सिद्ध हुए।

2. बुड्डा दल और तरुणा दल का गठन (Foundation of Buddha Dal and Taruna Dal)-1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सारे छोटे-छोटे दलों को मिला कर दो मुख्य दलों में संगठित कर दिया। इनके नाम बुड्ढा दल तथा तरुणा दल थे। बुड्डा दल में 40 वर्ष की आयु से ऊपर के सिखों को शामिल किया गया था। इस दल का कार्य सिखों के पवित्र धार्मिक स्थानों की देख-भाल करना और सिख धर्म का प्रचार करना था। तरुणा दल में 40 साल से कम आयु के सिखों को शामिल किया गया था। इस दल का मुख्य कार्य दुश्मनों का मुकाबला करना था। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में बाँटा गया था। प्रत्येक जत्थे को एक अलग जत्थेदार के अधीन रखा गया था। इन दलों की स्थापना ने सिखों का संगठन मज़बूत किया।

3. दलों का पुनर्गठन (Reorganisation of the Dals) जकरिया खाँ की मृत्यु के बाद पंजाब में अराजकता का दौर आरंभ हुआ। इस स्थिति का लाभ उठा कर सिखों ने 1745 ई० को दीवाली के अवसर पर अमृतसर में यह गुरमता पास किया कि सौ-सौ सिखों के 25 जत्थे बनाए जाएँ। इन जत्थों ने सरकार का सामना करने के लिए गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाई। इन जत्थों ने बटाला, जालंधर, बजवाड़ा और फगवाड़ा आदि स्थानों पर भारी लूटमार की। धीरे-धीरे इन जत्थों की गिनती 25 से बढ़ कर 65 हो गई।

II. दल खालसा की स्थापना (Establishment of the Dal Khalsa)
29 मार्च, 1748 ई० को बैसाखी के दिन सिख अमृतसर में इकट्ठे हुए। इस अवसर पर नवाब कपूर सिंह ने यह सुझाव दिया कि पंथ को एकता और मज़बूती की ज़रूरत है। इस उद्देश्य को सामने रखते हुए उस दिन दल खालसा की स्थापना की गई। 65 सिख जत्थों को 12 मुख्य जत्थों में संगठित कर दिया गया। प्रत्येक जत्थे का अपना अलग नेता और झंडा था। सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया को दल खालसा का प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया। दल खालसा में शामिल होने वाले सिखों से यह आशा की जाती थी कि वह घुड़सवारी और शस्त्र चलाने में निपुण हो। दल खालसा का प्रत्येक सदस्य किसी भी जत्थे में शामिल होने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। युद्ध के समय 12 जत्थों के सरदारों में से एक को दल खालसा का प्रधान चुन लिया जाता था। ‘सरबत खालसा’ की बैठक हर वर्ष वैसाखी और दीवाली के अवसर पर अमृतसर में बुलाई जाती थी। इस बैठक में महत्त्वपूर्ण मामलों संबंधी गुरमते पास किए जाते थे। इन गुरमतों का सारे सिख पालन करते थे।

III. दल खालसा की सैनिक-प्रणाली की विशेषताएँ
(Features of the Military System of the Dal Khalsa) दल खालसा की महत्त्वपूर्ण सैनिक विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. घुड़सवार सेना (Cavalry)-घुड़सवार सेना दल खालसा की सेना का महत्त्वपूर्ण अंग थी। वास्तव में इस काल में होने वाली लड़ाइयाँ ही ऐसी थीं जिनमें घुड़सवार सेना के बिना जीत प्राप्त करना असंभव था। सिखों के घोड़े बहुत कुशल थे। वे एक दिन में पचास से सौ मील तक का सफर तय करने की समर्था रखते थे।।

2. पैदल सेना (Infantry)-दल खालसा में पैदल सेना का काम केवल पहरा देना था। सिख इस सेना में भर्ती होने को अपना अपमान समझते थे।

3. शस्त्र (Arms)-लड़ाई के समय सिख तलवारों, बरछियों, खंडों, नेजों, तीर कमानों और बंदूकों का प्रयोग करते थे। बारूद की कमी के कारण बंदूकों का कम ही प्रयोग किया जाता था।

4. सेना में भर्ती और अनुशासन (Recruitment and Discipline)-दल खालसा में भर्ती होने के लिए कोई निश्चित नियम नहीं था। कोई भी सिख किसी भी जत्थे में शामिल हो सकता था। वह अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहे जत्थे को छोड़कर दूसरे जत्थे में जा सकता था। सैनिकों के नामों, वेतन का भी कोई लिखित विवरण नहीं रखा जाता था। सैनिकों के प्रशिक्षण इत्यादि की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। दल खालसा के सैनिक सदैव धार्मिक जोश के साथ लड़ते थे। वे अपने नेता की आज्ञा का पालन करना अपना कर्तव्य समझते थे। इस कारण दल खालसा में सदैव अनुशासन की भावना रहती थी।

5. वेतन (Salary)–दल खालसा में सिखों को कोई निश्चित वेतन नहीं मिलता था। उनको केवल लूट में से हिस्सा मिलता था। बाद में उन्हें जीते गए प्रदेश में से भी कुछ हिस्सा दिया जाने लगा।

6. युद्ध प्रणाली (Mode of Fighting)-दल खालसा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुरिल्ला अथवा छापामार युद्ध प्रणाली थी। गुरदास नंगल की लड़ाई से सिखों ने यह पाठ लिया कि मुग़ल सेना से खुले युद्ध में टक्कर लेना हानिकारक सिद्ध हो सकता है। दूसरा, सिखों के साधन मुग़लों की अपेक्षा सीमित थे। गुरिल्ला युद्ध प्रणाली सिखों की शक्ति बढ़ाने में बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई। इस प्रणाली के द्वारा सिख अपने शत्रुओं पर अचानक हमला करके उनको भारी हानि पहुँचाते थे। जितने समय में शत्रु संभलते सिख पुनः जंगलों और पहाड़ों की ओर चले जाते। सिख सैनिकों ने इस युद्ध प्रणाली के कारण मुग़लों और अफ़गानों की नाक में दम कर रखा था।

IV. दल खालसा का महत्त्व (Significance of the Dal Khalsa)
देल खालसा की स्थापना सिख इतिहास में एक मील पत्थर साबित हुई। इसने सिखों की बिखरी हुई शक्ति को एकता के सूत्र में बाँध दिया। इसने उनको धर्म के लिए हर प्रकार की कुर्बानी देने के लिए प्रेरित किया। इसके नेतृत्व में सिखों ने मुग़लों और अफ़गानों का डटकर मुकाबला किया। दल खालसा ने ही पंजाब में सिखों को राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान की। इसके अतिरिक्त दल खालसा के यत्नों से ही सिख पंजाब में स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए। प्रसिद्ध इतिहासकार निहार रंजन रे का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“दल खालसा की स्थापना सिख इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई।” 1

1. “ The organisation of the Dal Khalsa has been rightly characterised as landmark in the history of the Sikhs.” Nihar Ranjan Ray, The Sikh Gurus and the Sikh Society (Patiala : 1970)p: 160.

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प्रश्न 2.
दल खालसा की सैनिक प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of the Military System of the Dal Khalsa ?)
उत्तर-
दल खालसा की सैनिक-प्रणाली की विशेषताएँ
(Features of the Military System of the Dal Khalsa) दल खालसा की महत्त्वपूर्ण सैनिक विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. घुड़सवार सेना (Cavalry)-घुड़सवार सेना दल खालसा की सेना का महत्त्वपूर्ण अंग थी। वास्तव में इस काल में होने वाली लड़ाइयाँ ही ऐसी थीं जिनमें घुड़सवार सेना के बिना जीत प्राप्त करना असंभव था। सिखों के घोड़े बहुत कुशल थे। वे एक दिन में पचास से सौ मील तक का सफर तय करने की समर्था रखते थे।।

2. पैदल सेना (Infantry)-दल खालसा में पैदल सेना का काम केवल पहरा देना था। सिख इस सेना में भर्ती होने को अपना अपमान समझते थे।

3. शस्त्र (Arms)-लड़ाई के समय सिख तलवारों, बरछियों, खंडों, नेजों, तीर कमानों और बंदूकों का प्रयोग करते थे। बारूद की कमी के कारण बंदूकों का कम ही प्रयोग किया जाता था।

4. सेना में भर्ती और अनुशासन (Recruitment and Discipline)-दल खालसा में भर्ती होने के लिए कोई निश्चित नियम नहीं था। कोई भी सिख किसी भी जत्थे में शामिल हो सकता था। वह अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहे जत्थे को छोड़कर दूसरे जत्थे में जा सकता था। सैनिकों के नामों, वेतन का भी कोई लिखित विवरण नहीं रखा जाता था। सैनिकों के प्रशिक्षण इत्यादि की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। दल खालसा के सैनिक सदैव धार्मिक जोश के साथ लड़ते थे। वे अपने नेता की आज्ञा का पालन करना अपना कर्तव्य समझते थे। इस कारण दल खालसा में सदैव अनुशासन की भावना रहती थी।

5. वेतन (Salary)–दल खालसा में सिखों को कोई निश्चित वेतन नहीं मिलता था। उनको केवल लूट में से हिस्सा मिलता था। बाद में उन्हें जीते गए प्रदेश में से भी कुछ हिस्सा दिया जाने लगा।

6. युद्ध प्रणाली (Mode of Fighting)-दल खालसा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुरिल्ला अथवा छापामार युद्ध प्रणाली थी। गुरदास नंगल की लड़ाई से सिखों ने यह पाठ लिया कि मुग़ल सेना से खुले युद्ध में टक्कर लेना हानिकारक सिद्ध हो सकता है। दूसरा, सिखों के साधन मुग़लों की अपेक्षा सीमित थे। गुरिल्ला युद्ध प्रणाली सिखों की शक्ति बढ़ाने में बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई। इस प्रणाली के द्वारा सिख अपने शत्रुओं पर अचानक हमला करके उनको भारी हानि पहुँचाते थे। जितने समय में शत्रु संभलते सिख पुनः जंगलों और पहाड़ों की ओर चले जाते। सिख सैनिकों ने इस युद्ध प्रणाली के कारण मुग़लों और अफ़गानों की नाक में दम कर रखा था।

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
दल खालसा की स्थापना के मुख्य कारण क्या थे ? (What were the main causes of the foundation of Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा की उत्पत्ति के तीन कारणों की व्याख्या कीजिए।
(Discuss the three causes of the foundation of Dal Khalsa.)
उत्तर-
1716 ई० में बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिखों में नेतृत्व का अभाव उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरूप सिख संगठित रूप में न रह सके। मुग़ल सेनाएँ उनका पीछा करती रहती थीं। अतः सिखों ने अपने छोटे-छोटे जत्थे बना लिए। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने बुड्वा दल तथा तरुणा दल की स्थापना की। यह दल खालसा की स्थापना की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम था। नवाब कपूर सिंह ने 29 मार्च, 1748 ई० को अमृतसर में दल खालसा की स्थापना की। इस प्रकार दल खालसा अस्तित्व में आया।

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प्रश्न 2.
दल खालसा के संगठन बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the organisation of Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा के मुख्य सिद्धांत बताएँ।
(What are main principles of Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा की तीन मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
(Write the main three features of the Dal Khalsa.) ।
अथवा
दल खालसा की स्थापना कब हुई ? इसकी मुख्य विशेषताएँ बताएँ।
(When was Dal Khalsa founded ? Describe its main features.)
उत्तर-
नवाब कपूर सिंह ने 29 मार्च, 1748 ई० को अमृतसर में दल खालसा की स्थापना की। दल खालसा का प्रधान सेनापति सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया को नियुक्त किया गया। प्रत्येक सिख जिसका गुरु गोबिंद सिंह जी के नियमों पर विश्वास था, को दल खालसा का सदस्य समझा जाता था। दल खालसा में शामिल होने वाले सिखों से यह आशा की जाती थी कि वे घुड़सवारी और शस्त्र चलाने में निपुण हों। दल खालसा के सैनिक छापामार युद्ध प्रणाली द्वारा युद्ध करते थे।

प्रश्न 3.
दल खालसा की सैनिक प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ लिखें। (Write the chief salient features of military administration of Dal Khalsa.)
उत्तर-

  1. दल खालसा में सिख अपनी इच्छानुसार भर्ती होते थे।
  2. सैनिकों के नामों, वेतन इत्यादि का कोई लिखित विवरण नहीं रखा जाता था।
  3. सैनिकों को प्रशिक्षण देने का भी कोई प्रबंध नहीं था
  4. सिख सैनिक छापामार युद्ध प्रणाली द्वारा युद्ध करते थे। वे अपने शत्रुओं पर अचानक आक्रमण करके उनको भारी हानि पहुँचाते थे।
  5. दल खालसा की सेना में पैदल सेना तथा तोपखाने का अभाव था।

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प्रश्न 4.
सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति पर एक नोट लिखिए।
(Write a note on guerilla mode of fighting of the Sikhs.)
अथवा
दल खालसा की युद्ध प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ संक्षेप में बताएँ।
(Give a brief account of the main features of mode of fighting of Dal Khalsa.)
अथवा
दल खालसा की युद्ध प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Make a brief mention of the main features of the mode of fighting of Dal Khalsa.)
उत्तर-
दल खालसा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता छापामार युद्ध-नीति थी। इसका कारण सिखों के सीमित साधन थे। इस प्रणाली के द्वारा सिख अपने शत्रुओं पर अचानक हमला करके उन्हें भारी हानि पहुँचाते थे। शत्रु के संभलने से पहले ही वे पुनः जंगलों और पहाड़ों की ओर चले जाते। सिख सैनिक इस युद्ध प्रणाली के कारण ही . मुग़लों और अफ़गानों का मुकाबला करने में सफल हुए।

प्रश्न 5.
दल खालसा की कब और कहाँ स्थापना हुई ? सिख इतिहास में दल खालसा के महत्त्व का वर्णन करो।
(When and where was Dal Khalsa’ established ? What is its significance in Sikh History ?)
अथवा
दल खालसा के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
(Describe the importance of Dal Khalsa.)
उत्तर-
दल खालसा की स्थापना 29 मार्च, 1748 ई० में वैसाखी वाले दिन अमृतसर में हुई। इसने सिखों को पंजाब में मुग़ल और अफ़गान अत्याचारों का मुकाबला करने के योग्य बनाया। इसने सिखों को राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान की। फलस्वरूप सिख पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलों की स्थापना करने में सफल हुए। दल खालसा के कारण सिखों में एकता तथा अनुशासन आ गया। दल खालसा की स्थापना के कारण ही सिख एक गौरवमयी युग में प्रवेश कर पाए।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
दल खालसा की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार कोई एक कारण बताएँ।
अथवा
‘दल खालसा की स्थापना का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
सिख अपनी शक्ति को संगठित करना चाहते थे।

प्रश्न 2.
बुड्डा दल तथा तरुणा दल की स्थापना कब हुई ?
उत्तर-
1734 ई०।

प्रश्न 3.
बुड्डा दल में किन सिखों को सम्मिलित किया जाता था ?
उत्तर-
40 वर्ष से अधिक आयु के सिखों को।

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प्रश्न 4.
बुड्डा दल के नेता कौन थे ?
उत्तर-
नवाब कपूर सिंह।

प्रश्न 5.
तरुणा दल में किन सिखों को सम्मिलित किया जाता था ?
उत्तर-
नौजवान सिखों को।

प्रश्न 6.
तरुणा दल का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
शत्रुओं का सामना करना।

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प्रश्न 7.
दल खालसा की स्थापना कब हुई ?
उत्तर-
29 मार्च, 1748 ई०।

प्रश्न 8.
दल खालसा की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर-
नवाब कपूर सिंह।

प्रश्न 9.
दल खालसा की स्थापना कहाँ की गई ?
उत्तर-
अमृतसर।

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प्रश्न 10.
दल खालसा से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
सिखों का सैनिक संगठन।

प्रश्न 11.
दल खालसा के कितने जत्थे थे?
उत्तर-
12.

प्रश्न 12.
दल खालसा के किसी एक मुख्य जत्थे का नाम लिखें।
उत्तर-
शुकरचकिया जत्था।

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प्रश्न 13.
दल खालसा का प्रधान सेनापति कब नियुक्त किया गया ?
उत्तर-
1748 ई०।

प्रश्न 14.
दल खालसा का प्रधान सेनापति किसे नियुक्त किया गया था ?
अथवा
दल खालसा का प्रथम जत्थेदार कौन था ?
उत्तर-
जस्सा सिंह आहलूवालिया।

प्रश्न 15.
दल खालसा का प्रथम मुख्य जत्थेदार कौन था?
उत्तर-
जस्सा सिंह आहलूवालिया।

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प्रश्न 16.
जस्सा सिंह आहलूवालिया को किस उपाधि के साथ सम्मानित किया गया था ?
उत्तर-
सुल्तान-उल-कौम।

प्रश्न 17.
सरबत खालसा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
समूची सिख संगत।

प्रश्न 18.
दल खालसा की युद्ध विधि कैसी थी ?
उत्तर-
छापामार युद्ध।

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प्रश्न 19.
दल खालसा ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली क्यों अपनाई ?
उत्तर-
क्योंकि सिखों के साधन मुगलों की तुलना में बिल्कुल सीमित थे।

प्रश्न 20.
दल खालसा का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
इसने सिखों की बिखरी हुई शक्ति को एकता के सूत्र में बाँधा।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
……..में बुड्ढा दल और तरुणा दल की स्थापना की गई।
उत्तर-
(1734 ई०)

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प्रश्न 2.
तरुणा दल और बुड्डा दल की स्थापना…….ने की थी।
उत्तर-
(नवाब कपूर सिंह)

प्रश्न 3.
दल खालसा की स्थापना……..में की गई थी।
उत्तर-
(1748 ई०)

प्रश्न 4.
दल खालसा की स्थापना……..में की गई थी।
उत्तर-
(अमृतसर)

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प्रश्न 5.
दल खालसा का प्रधान सेनापति ……………. को नियुक्त किया गया था।
उत्तर-
(सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया)

प्रश्न 6.
दल खालसा की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग……..था।
उत्तर-
(घुड़सवार सेना)

प्रश्न 7.
दल खालसा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता……..युद्ध प्रणाली को अपनाना था।
उत्तर-
(छापामार)

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(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
नवाब कपूर सिंह ने बुड्डा दल और तरुणा दल की स्थापना 1738 ई० में की थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
दल खालसा की स्थापना 1749 ई० में की गई थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 3.
दल खालसा की स्थापना श्री आनंदपुर साहिब में की गई थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 4.
दल खालसा का प्रधान सेनापति सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया को नियुक्त किया गया था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 5.
दल खालसा की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग घुड़सवार सेना था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
दल खालसा ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न | (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
दल खालसा की स्थापना क्यों की गई थी ?
(i) सिख अपनी शक्ति को संगठित करना चाहते थे
(ii) नवाब कपूर सिंह पंथ में एकता स्थापित करना चाहते थे
(iii) सिख मुग़ल सरकार को सबक सिखाना चाहते थे
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 2.
दल खालसा की स्थापना कब की गई थी ?
(i) 1733 ई० में
(ii) 1734 ई० में
(iii) 1739 ई० में
(iv) 1748 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 3.
दल खालसा की स्थापना किसने की थी ?
(i) नवाब कपूर सिंह ने
(ii) जस्सा सिंह आहलूवालिया ने
(iii) जस्सा सिंह रामगढ़िया ने
(iv) महाराजा रणजीत सिंह ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
दल खालसा की स्थापना कहाँ की गई थी ?
(i) दिल्ली में
(ii) जालंधर में
(iii) अमृतसर में
(iv) लुधियाना में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 5.
नवाब कपूर सिंह ने दल खालसा की स्थापना कहाँ की थी ?
(i) लाहौर
(ii) अमृतसर
(iii) तरनतारन
(iv) अटारी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 6.
दल खालसा का प्रधान सेनापति कौन था ?
(i) जस्सा सिंह आहलूवालिया
(ii) जस्सा सिंह रामगढ़िया
(iii) नवाब कपूर सिंह
(iv) बाबा आला सिंह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 7.
दल खालसा ने किसको ‘सुल्तान-उल-कौम’ की उपाधि से सम्मानित किया था ?
(i) महाराजा रणजीत सिंह को
(ii) नवाब कपूर सिंह को
(iii) जस्सा सिंह आहलूवालिया को
(iv) जय सिंह को।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 8.
सरबत खालसा की सभाएँ कहाँ बुलाई जाती थीं ?
(i) दिल्ली में
(ii) लाहौर में
(iii) अमृतसर में
(iv) खडूर साहिब में।
उत्तर-
(iii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
दल खालसा की स्थापना के मुख्य कारण क्या थे ? (What were the main causes of the foundation of Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा की उत्पत्ति के मुख्य कारणों की व्याख्या कीजिए। (Discuss the main causes of the foundation of Dal Khalsa.)
उत्तर-
1716 ई० में बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिख संगठित रूप से पंजाब में न रह सके। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर पंजाब के मुगल सूबेदारों अब्दुस समद खाँ तथा जकरिया खाँ ने सिखों पर घोर अत्याचार करने आरंभ कर दिए। सिखों के सिरों के लिए इनाम घोषित किये गये। बाध्य होकर सिखों को पहाड़ों एवं वनों में जाकर शरण लेनी पड़ी। मुग़ल सेनाएँ उनका पीछा करती रहती थीं। जहाँ कहीं वे अकेले नज़र आते शहीद कर दिए जाते। ऐसी स्थिति में सिखों ने अपने आप को जत्थों के रूप में संगठित करने की आवश्यकता अनुभव की। परिणामस्वरूप उन्होंने अपने छोटे-छोटे जत्थे बना लिए। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने एक बहुत प्रशंसनीय निर्णय किया। उसने सिखों को दो दलों-बड़ा दल तथा तरुणा दल-में गठित किया। यह दल खालसा की स्थापना की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम था। 1745 ई० में दीवाली के अवसर पर अमृतसर में 100-100 सिखों के 25 जत्थे बनाए गये। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़कर 65 हो गई। मुग़लों के विरुद्ध अपनी कार्यवाही को तीव्र करने के उद्देश्य से नवाब कपूर सिंह ने 29 मार्च, 1748 ई० को अमृतसर में दल खालसा की स्थापना की।

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प्रश्न 2.
दल खालसा के संगठन के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the organisation of Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा के मुख्य सिद्धांत बताओ। (What are the main principles of Dal Khalsa ?)
अथवा
दल खालसा की मुख्य विशेषताएँ लिखिए। (Write the main features of the Dal Khalsa.)
अथवा
दल खालसा की स्थापना कब हुई ? इसकी मुख्य विशेषताएँ लिखें। (When was Dal Khalsa founded ? Describe its main features.)
उत्तर-
नवाब कपूर सिंह के सुझाव पर सिख पंथ की एकता के लिए 29 मार्च, 1748 ई० को अमृतसर में दल खालसा की स्थापना की गई। सिखों के 65 जत्थों को 12 जत्थों में संगठित किया गया। प्रत्येक जत्थे का अलग नेता और झंडा था। सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया को दल खालसा का प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया। प्रत्येक सिख जिसका गुरु गोबिंद सिंह जी के नियमों पर विश्वास था, को दल खालसा का सदस्य समझा जाता था। प्रत्येक सिख के लिए यह आवश्यक था कि वह पंथ के शत्रुओं का मुकाबला करने हेतु दल खालसा में शामिल हो। दल खालसा में शामिल होने वाले सिखों से यह आशा की जाती थी कि वे घुड़सवारी और शस्त्र चलाने में निपुण हों। दल खालसा का प्रत्येक सदस्य किसी भी जत्थे में शामिल होने के लिए स्वतंत्र था। लड़ाई के समय 12 जत्थों के सरदारों में से किसी एक को दल खालसा का प्रधान चुन लिया जाता था और शेष सरदार उसकी आज्ञा का पालन करते थे। घुड़सवार सेना दल खालसा की सेना का मुख्य अंग था। सिख छापामार युद्धों के द्वारा अपने शत्रुओं का मुकाबला करते थे।

प्रश्न 3.
दल खालसा की सैनिक प्रणाली की छः विशेषताएँ लिखें।
(Write the six features of military administration of Dal Khalsa.)
उत्तर-
दल खालसा की महत्त्वपूर्ण सैनिक विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. घुड़सवार सेना-घुड़सवार सेना दल खालसा की सेना का महत्त्वपूर्ण अंग थी। वास्तव में इस काल में होने वाली लड़ाइयाँ ही ऐसी थीं जिनमें घुड़सवार सेना के बिना जीत प्राप्त करना असंभव था। सिखों के घोड़े बहुत कुशल थे। वे एक दिन में पचास से सौ मील तक का सफर तय करने की समर्था रखते थे।

2. पैदल सेना-दल खालसा में पैदल सेना का काम केवल पहरा देना था। सिख इस सेना में भर्ती होने को अपना अपमान समझते थे।

3. शस्त्र-लड़ाई के समय सिख तलवारों, बरछियों, खंडों, नेजों, तीर-कमानों और बंदूकों का प्रयोग करते थे। बारूद की कमी के कारण बंदूकों का कम ही प्रयोग किया जाता था।

4. सेना में भर्ती और अनुशासन-दल खालसा में भर्ती होने के लिए किसी भी सिख को विवश नहीं किया जाता था। प्रत्येक सिख अपनी इच्छानुसार दल खालसा के किसी भी जत्थे में सम्मिलित हो सकता था, वह जब चाहे उस जत्थे को छोड़कर दूसरे जत्थे में जा सकता था। सैनिकों के नामों, वेतन इत्यादि का कोई लिखित विवरण नहीं रखा जाता था।

5. वेतन–दल खालसा में सिखों को कोई निश्चित वेतन नहीं मिलता था। उनको केवल लूट में से हिस्सा मिलता था। बाद में उन्हें जीते गए प्रदेश में से भी कुछ हिस्सा दिया जाने लगा।

6. युद्ध प्रणाली–दल खालसा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुरिल्ला अथवा छापामार युद्ध प्रणाली थी। गुरिल्ला युद्ध प्रणाली सिखों की शक्ति बढ़ाने में बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई। इस प्रणाली के द्वारा सिख अपने शत्रुओं पर अचानक हमला करके उनको भारी हानि पहुँचाते थे। जितने समय में शत्रु संभलते सिख पुनः जंगलों और पहाड़ों की ओर चले जाते। सिख सैनिकों ने इस युद्ध प्रणाली के कारण मुग़लों और अफ़गानों की नाक में दम कर रखा था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 13 दल खालसा का उत्थान और इसकी युद्ध प्रणाली

प्रश्न 4.
दल खालसा की गुरिल्ला युद्ध नीति पर एक नोट लिखिए। (Write a note on guerilla mode of fighting of the Dal Khalsa.)
अथवा
दल खालसा की युद्ध प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ संक्षेप में बताएँ। . (Give a brief account of the main features of mode of fighting of Dal Khalsa.)
अथवा
दल खालसा की युद्ध प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Make a brief mention of the main features of the mode of fighting of Dal Khalsa.)
उत्तर-
दल खालसा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुरिल्ला अथवा छापामार युद्ध प्रणाली को अपनाना था। अनेक कारणों से सिखों को यह प्रणाली अपनाने के लिए विवश होना पड़ा। पहला, गुरदास नंगल की लड़ाई में बंदा सिंह बहादुर और सैंकड़ों अन्य सिखों को कैदी बना लिया गया था जिन्हें बाद में बड़ी निर्ममता के साथ कत्ल कर दिया गया। इससे सिखों ने यह पाठ सीखा कि मुग़ल सेना से खुले युद्ध में टक्कर लेना उनके लिए कितना हानिकारक सिद्ध हो सकता है। दूसरे, अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ, याहिया खाँ और मीर मन्नू के भारी अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए सिखों के पास कोई अन्य रास्ता नहीं था। इसका कारण यह था कि सिखों के साधन मुग़लों की अपेक्षा बहुत सीमित थे। गुरिल्ला युद्ध प्रणाली सिखों की शक्ति बढ़ाने में बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई। इस प्रणाली के द्वारा सिख अपने शत्रुओं पर अचानक हमला करके उनको भारी हानि पहँचाते थे। जितने समय में शत्र संभलते सिख पुनः जंगलों और पहाड़ों की ओर चले जाते। सिख यह कार्यवाही बड़ी फुर्ती के साथ करते। सिख सैनिक इस युद्ध प्रणाली के कारण ही पहले मुग़लों और बाद में अफ़गानों का मुकाबला करने में सफल हुए।

प्रश्न 5.
दल खालसा की कब और कहाँ स्थापना हुई ? सिख इतिहास में दल खालसा के महत्त्व का वर्णन करो। (When and where was Dal Khalsa established ? What is its significance in Sikh History ?)
अथवा
दल खालसा का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Dal Khalsa ?)
उत्तर-
दल खालसा की स्थापना 29 मार्च, 1748 ई० में वैशाखी वाले दिन अमृतसर में की गई। दल खालसा की स्थापना सिख इतिहास में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसने सिख कौम में एक नए जीवन का संचार किया। इसने सिखों को एकता के सूत्र में बाँधा। इसने सिखों को पंजाब के मुग़ल और अफ़गान सूबेदारों के अत्याचारों का मुकाबला करने के योग्य बनाया। इसने पंजाब में सिखों को राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान की। दल खालसा के प्रयत्नों के फलस्वरूप सिख पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलों की स्थापना करने में सफल हुए। दल खालसा ने लोकतंत्रीय सिद्धांतों का प्रचलन किया। वास्तव में दल खालसा की स्थापना के कारण ही सिख अंधकारपूर्ण युग से एक गौरवमयी युग में दाखिल होने में सफल हुए। निस्संदेह दल खालसा ने सिखों को बहुपक्षीय देन दी।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
जकरिया खाँ के सभी प्रयास जब सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहे तो उसने 1733 ई० में सिंखों से समझौता कर लिया। इस कारण सिखों को अपनी शक्ति संगठित करने का सुनहरी मौका मिल गया। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सारे छोटे-छोटे दलों को मिला कर मुख्य दल में संगठित कर दिया। इनके नाम बुड्डा दल तथा तरुणा दल थे। बुड्डा दल में 40 वर्ष की आयु से ऊपर के सिखों को शामिल किया गया था। इस दल का कार्य सिखों के पवित्र धार्मिक स्थानों की देख-भाल करना और सिख धर्म का प्रचार करना था। तरुणा दल में 40 साल से कम आयु के सिखों को शामिल किया गया था। इस दल का मुख्य कार्य अपनी कौम की रक्षा करना और दुश्मनों का मुकाबला करना था। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में बाँटा गया था और प्रत्येक जत्थे को एक अलग अनुभवी सिख जत्थेदार के अधीन रखा गया था। प्रत्येक दल में 1300 से लेकर 2000 तक नौजवान थे। प्रत्येक जत्थे का अपना झंडा तथा नगाड़ा था। चाहे नवाब कपूर सिंह जी को बुड्डा दल का नेतृत्व सौंपा गया था, पर वह दोनों दलों में साझी कड़ी का कार्य भी करते थे। दो दलों में संगठित हो जाने के कारण सिख मुग़लों के विरुद्ध अपनी गतिविधियाँ तेज़ कर सके।

  1. जकरिया खाँ कौन था ?
  2. बुड्ढा दल तथा तरुणा दल का गठन कब किया गया था ?
  3. बुड्डा दल तथा तरुणा दल का गठन किसने किया था ?
    • बंदा सिंह बहादुर
    • नवाब कपूर सिंह।
    • गुरु गोबिंद सिंह
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।
  4. तरुणा दल में कौन सम्मिलित थे ?
  5. बुड्डा दल का नेतृत्व किसने किया था ?

उत्तर-

  1. जकरिया खाँ लाहौर का सूबेदार था।
  2. बुड्ढा दल तथा तरुणा दल का गठन 1734 ई० में किया गया था।
  3. नवाब कपूर सिंह।
  4. तरुणा दल में 40 साल से कम आयु के नौजवान सम्मिलित थे।
  5. बुड्ढा दल का नेतृत्व नवाब कपूर सिंह ने किया था।

2
29 मार्च, 1748 ई० को बैसाखी के दिन सिख अमृतसर में इकट्ठे हुए। नवाब कपूर सिंह जी ने यह सुझाव दिया कि आने वाले समय को देखते हुए पंथ को एकता और मज़बूती की ज़रूरत है। इस उद्देश्य को सामने रखते हुए उस दिन दल खालसा की स्थापना की गई। 65 सिख जत्थों को 12 मुख्य जत्थों में संगठित कर दिया गया। प्रत्येक जत्थे का अपना अलग नेता और झंडा था। सरदार जस्सा सिंह आहलुवालिया को दल खालसा का प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया। प्रत्येक सिख जिसको गुरु गोबिंद सिंह जी के असूलों पर विश्वास था, को दल खालसा का सदस्य समझा जाता था। प्रत्येक सिख के लिए यह ज़रूरी था कि वह पंथ के शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए दल खालसा में शामिल हो। दल खालसा में शामिल होने वाले सिखों से यह आशा की जाती थी कि वह घुड़सवारी और शस्त्र चलाने में निपुण हों। दल खालसा का प्रत्येक सदस्य किसी भी जत्थे में शामिल होने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र था।

  1. दल खालसा की स्थापना किसने की थी ?
  2. दल खालसा की स्थापना कब की गई थी ?
    • 1733 ई०
    • 1734 ई०
    • 1738 ई०
    • 1748 ई०
  3. सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया कौन था ?
  4. दल खालसा में कौन शामिल हो सकता था ?
  5. दल खालसा की कोई एक विशेषता लिखें।

उत्तर-

  1. दल खालसा की स्थापना नवाब कपूर सिंह जी ने की थी।
  2. 1748 ई०।
  3. सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया दल खालसा के प्रधान सेनापति थे।
  4. दल खालसा में प्रत्येक वह सिख शामिल हो सकता था जो गुरु गोबिंद जी के नियमों में विश्वास रखता था।
  5. घुड़सवार सेना दल खालसा की सेना का मुख्य अंग थी।

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दल खालसा का उत्थान और इसकी युद्ध प्रणाली PSEB 12th Class History Notes

  • दल खालसा के उत्थान के कारण (Causes of the Rise of the Dal Khalsa)-बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद मुग़ल सूबेदारों ने सिखों पर कठोर अत्याचार आरंभ कर दिए थे—सिख शक्ति को संगठित करने के लिए 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने उन्हें बुड्डा दल और तरुणा दल में संगठित कर दिया—पंजाब में फैली अशाँति से लाभ उठाते हुए 1745 ई० में अमृतसर में सौ-सौ सिखों के 25 जत्थों की स्थापना की गई—ये जत्थे दल खालसा की स्थापना का आधार बने।
  • दल खालसा की स्थापना (Establishment of the Dal Khalsa)–दल खालसा की स्थापना 29 मार्च, 1748 ई० को अमृतसर में हुई—इसकी स्थापना नवाब कपूर सिंह जी ने की-सिखों को 12 मुख्य जत्थों में संगठित कर दिया गया—प्रत्येक जत्थे का अपना अलग नेता और झंडा था—सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया को दल खालसा का प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया।
  • दल खालसा की सैनिक विशेषताएँ (Military Features of the Dal Khalsa)-घुड़सवार सेना दल खालसा की सेना का मुख्य अंग थी—सेना में भर्ती होने के लिए किसी भी सिख को विवश नहीं किया जाता था—प्रत्येक सिख जब चाहे एक जत्थे को छोड़कर दूसरे जत्थे में जा सकता थासैनिक प्रशिक्षण और विधिवत् वेतन की कोई व्यवस्था न थी—दल खालसा के सैनिक गुरिल्ला युद्ध प्रणाली से लड़ते थे-लड़ाई के समय तलवारों, बरछियों, खंडों, तीर कमानों और बंदूकों का प्रयोग किया जाता था।
  • दल खालसा का महत्त्व (Significance of the Dal Khalsa)-दल खालसा ने सिखों की बिखरी हुई शक्ति को एकता के सूत्र में बाँध दिया-इसने सिखों को अनुशासन में रहना सिखाया—दल खालसा के प्रयासों से ही सिख पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 5 आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत

Punjab State Board PSEB 12th Class Geography Book Solutions Chapter 5 आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Geography Chapter 5 आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत

PSEB 12th Class Geography Guide आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत Textbook Questions and Answers

प्रश्न I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में दें:

प्रश्न 1.
खनिजों को कौन से दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है ?
उत्तर-
खनिजों को निम्नलिखित दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. धातु खनिज (Metallic Minerals)
  2. अधातु खनिज (Non-Metallic Minerals)

प्रश्न 2.
देश के घरेलू उत्पादन में खनिजों का तथा उद्योगों का फ़ीसद हिस्सा कितना-कितना है ?
उत्तर-
देश के घरेलू उत्पादन में खनिजों का हिस्सा 2.2% से 2.5% है तथा उद्योगों का 10% से 11% तक बनता

प्रश्न 3.
कौन-सी धातु आधुनिक सभ्यता की रीढ़ की हड्डी है ?
उत्तर-
लोहा आधुनिक सभ्यता की रीढ़ की हड्डी है।

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प्रश्न 4.
हल्के भूरे पीले रंग का लोहा, कौन-सी किस्म का हो सकता है ?
उत्तर-
लिमोनाइट किस्म का लोहा हल्के भूरे पीले रंग का होता है।

प्रश्न 5.
मयूरभंज और क्योंझर खाने कौन से राज्य में पड़ती हैं ?
उत्तर-
मयूरभंज और क्योंझर खाने उड़ीसा राज्य में पड़ती हैं।

प्रश्न 6.
प्राचीन मनुष्य किस धातु का अधिक उपयोग करता था ?
उत्तर-
तांबा का उपयोग प्राचीन मनुष्य सबसे अधिक करता था।

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प्रश्न 7.
भारत में तांबे का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य कौन-सा है ?
उत्तर-
भारत में तांबे का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश है।

प्रश्न 8.
एल्यूमीनियम बनाने के लिए किस खनिज का उपयोग किया जाता है ?
उत्तर-
एल्यूमीनियम बनाने के लिए बॉक्साइट खनिज का उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 9.
इस्पात बनाने के लिए कौन-सा खनिज प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
लोहे से इस्पात बनाया जाता है तथा इसके लिए मैंगनीज़ का प्रयोग किया जाता है।

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प्रश्न 10.
‘काला सोना’ कौन से खनिज पदार्थ को कहते हैं ?
उत्तर-
‘काला सोना’ कोयले को कहते हैं।

प्रश्न 11.
भारत में सर्वोत्तम कोयला कौन से क्षेत्र से निकाला जाता है ?
उत्तर-
भारत में सर्वोत्तम कोयला जम्मू कश्मीर से निकाला जाता है।

प्रश्न 12.
डिगबोई तथा अंकलेश्वर में क्या समानता है ?
उत्तर-
डिगबोई तथा अंकलेश्वर दोनों ही भारत के प्रमुख पैट्रोलियम उत्पादक केन्द्र हैं।

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प्रश्न 13.
कोझिकोड़ तथा फिरोजगंज कौन-सी ऊर्जा के उत्पादन के केन्द्र हैं ?
उत्तर-
कोझिकोड़ पवन ऊर्जा का तथा फिरोजगंज बिजली उत्पादन के केन्द्र हैं।

प्रश्न 14.
स्रोतों की संभाल संबंधी 1992 को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन कहां पर हुआ था ?
उत्तर-
ब्राजील के शहर रिओ डी जनेरियो में 1992 को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में स्रोतों की संभाल की सख्ती के साथ वकालत की गई।

प्रश्न 15.
IREDA का पूरा नाम क्या है ?
उत्तर-
Indian Renewable Energy Development Agency भारतीय नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेन्सी।

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प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चार पंक्तियों में दें:

प्रश्न 1.
कोयला, ऊर्जा का दोहरा स्रोत कैसे है ?
उत्तर-
कोयला हमारे देश की आर्थिकता को जितनी मज़बूती देता है उतना ही महत्त्व यह ऊर्जा के क्षेत्र में भी रखता है। भारत में आर्थिकता की वृद्धि दर 8 से 10% प्रति वर्ष है इसके साथ ही ऊर्जा की आवश्यकता भी बढ़ती जा रही है। अब कोयले से बिजली भी पैदा की जा रही है। इसलिए कोयले को ऊर्जा का दोहरा स्रोत कहते हैं।

प्रश्न 2.
बंबे हाई के साथ संक्षिप्त जान पहचान करवाएं।
उत्तर-
बंबे हाई मुंबई शहर से 176 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर पश्चिम की तरफ अरब सागर में स्थित है तथा यहाँ तेल और प्राकृतिक गैस के बड़े भंडार मिलते हैं। जिस कारण इसकी विशेषता में वृद्धि होती जा रही है।

प्रश्न 3.
जैविक और अजैविक खनिजों की दो-दो उदाहरणे दो।
उत्तर-
जैविक और अजैविक खनिजों की उदाहरणे हैंजैविक स्त्रोत-जंगल, फसलें इत्यादि। अजैविक स्त्रोत-भूमि, पानी इत्यादि।

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प्रश्न 4.
कच्चे लोहे की चार किस्मों के नाम लिखो।
उत्तर-
कच्चे लोहे के चार प्रकार निम्नलिखित हैं—

  1. मैग्नेटाइट
  2. हैमेटाइट
  3. लिमोनाइट
  4. साइडेराइट।

प्रश्न 5.
तांबे की तीन विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
तांबे की तीन विशेषताएं निम्नलिखित हैं—

  1. तांबा हल्के गुलाबी भूरे रंग की धातु है यह समूह में मिलती है।
  2. तांबा बिजली और ताप का अच्छा संचालक है।
  3. इससे जंग नहीं लगता।
  4. इसको किसी भी धातु के साथ मिलाकर मिश्रित धातु बनाई जा सकती है।

प्रश्न 6.
बॉक्साइट का उपयोग कौन-कौन से कार्यों में किया जाता है ?
उत्तर-

  1. बॉक्साइट का उपयोग एल्यूमीनियम बनाने में किया जाता है।
  2. इसके अतिरिक्त बॉक्साइट का उपयोग सीमेंट बनाने में, आग रोकने वाली भट्टी बनाने इत्यादि कार्यों के लिए भी किया जाता है।

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प्रश्न 7.
मैंगनीज कैसी धातु है और कहाँ पर मिलती है ?
उत्तर-
मैंगनीज हल्के स्लेटी रंग की धातु है, जो कि साधारणतया कच्चे लोहे के साथ ही खानों के बीच हमें मिलती है। लोहे से इस्पात बनाने के लिए मुख्य रूप में इसका उपयोग किया जाता है। भारत में यह उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश इत्यादि राज्यों से मिलता है।

प्रश्न 8.
वायु ऊर्जा उत्पादन में भारत के मुख्य राज्य हैं ?
उत्तर-
वायु ऊर्जा उत्पादन में भारत के मुख्य राज्य हैं-तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश तथा केरल इत्यादि।

प्रश्न 9.
ज्वारीय ऊर्जा किस तरह उत्पन्न होती है ?
उत्तर-
ज्वारीय ऊर्जा अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की तरह एक भरोसे-योग्य ऊर्जा है। समद्र में ज्वार-भाटा तथा सागरीय धाराओं के साथ चलने वाली टरबाइनें, पानी की पिछली सतह पर लगाई जाती हैं। इस तरह ज्वारीय ऊर्जा पैदा की जाती है। सौभाग्यवश से दक्षिणी भारत तीनों सिरों से समुद्र के साथ घिरा हुआ है। इस तरह यहाँ ज्वारीय शक्ति के साथ बिजली पैदा करने की संभावना तथा योग्यता है।

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प्रश्न III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 10-12 पंक्तियों में दें:

प्रश्न 1.
कच्चे लोहे की किस्मों का वर्णन करो।
उत्तर-
कच्चे लोहे के प्रकार निम्नलिखित हैं—

  1. मैग्नेटाइट-यह सबसे उच्च कोटि का कच्चा लोहा है। इसके बीच 72% शुद्ध लोहे के अंश मिलते हैं। इसके गुण चुंबकीय होने के कारण इसको मैग्नेटाइट कहते हैं।
  2. हैमेटाइट-इस किस्म के कच्चे लोहे में 60 से लेकर 70 प्रतिशत तक शुद्ध लोहे के अंश होते हैं। इसे दूसरे स्तर का हैमेटाइट लोहा भी कहते हैं।
  3. लिमोनाइट-इसका रंग पीला या हल्का भूरा होता है। इसमें 40 से 60 प्रतिशत तक शुद्ध कच्चे लोहे के अंश होते हैं। इससे तीसरे स्तर का लिमोनाइट लोहा कहते हैं।
  4. साइडेराइट- यह खासकर काफी अशुद्धियों से भरा होता है इसमें 40 से 50 प्रतिशत तक ही शुद्ध लोहे के अंश होते हैं। इसकी गिनती चौथे स्तर के कच्चे लोहे के रूप में की जाती है।

प्रश्न 2.
भारत में तांबे के उत्पादन के व्यापार से पहचान करवाओ।
उत्तर-
तांबे का उपयोग मनुष्य प्राचीन काल से ही कर रहा है। तांबे के उत्पादन तथा व्यापार का वर्णन निम्नलिखित है—
भारत में तांबे के भंडार बहुत ही कम हैं। हमारा देश संसार का कुल 2% तांबा पैदा कर रहा है। देश में तांबे के अन्तर्गत कुल 69 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है। इसमें सिर्फ 20 हजार वर्ग किलोमीटर में से ही तांबा निकाला जाता है। तांबे के मुख्य उत्पादक राज्य हैं—

1.मध्य प्रदेश-यह तांबे का भारत में सबसे बड़ा उत्पादक प्रदेश है। मलंजखंड, तारेगऊ, पट्टी, मध्य प्रदेश में तांबे का उत्पादन सबसे अधिक करते हैं। यह पट्टी बालाघाट प्रांत में है, जहाँ 8.33 मिलियन कच्चे तांबे के भंडार में से 1,006 हजार टन धातु मौजूद है।

2. राजस्थान-राजस्थान तांबा उत्पादन करने वाला दूसरा बड़ा राज्य है, जो भारत का 40 प्रतिशत तांबा पैदा करता है। तांबे के भंडार अरावली क्षेत्र में मौजूद हैं। राजस्थान के प्रांत अलवर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, डुगरपुर, जयपुर, झुनझुनु, पाली, सीकर, सिरोही तथा उदयपुर में 6 करोड़ टन कच्चे तांबे के भंडार हैं।

3. झारखंड-झारखंड में सिंहभूमि प्रांत के मोसाबनि, खोडाई रख्खा, पारसनाथ, बरखानाथ इत्यादि प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं।
भारत का तांबे का उत्पादन बहुत कम है। इसलिए हम तांबा विदेशों में से मंगवा रहे हैं। मुख्य तौर पर अमेरिका, कैनेडा, जिम्बाब्बे, जापान तथा मैक्सिको मुख्य तांबा निर्यातकर्ता देश हैं।

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प्रश्न 3.
बॉक्साइट के उपयोग तथा व्यापार के बारे में संक्षिप्त से बताओ।
उत्तर-
मैंगनीज एक हल्के रंग की धातु है जो कि मुख्य रूप में कच्चे लोहे के साथ ही खानों में मिलती है। लोहे से अगर इस्पात बनाया जाता है, तब मैंगनीज का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त ब्लीचिंग पाऊडर, कीटनाशक, रंग तथा टार्च बनाने में भी मैंगनीज का उपयोग किया जाता है। साल 2012-13 में इस खनिज का उत्पादन 23 लाख से 22 हजार टन हो गया है। उत्पादन के लिहाज से उड़ीसा (44%) सबसे बड़ा भारत का उत्पादक देश है, उसके बाद कर्नाटक (22%), मध्य प्रदेश (13%), महाराष्ट्र (8%), आन्ध्रप्रदेश (4%), झारखंड तथा गोआ (3%), राजस्थान, गुजरात तथा पश्चिमी बंगाल मिलकर 3% मैंगनीज का उत्पादन करते हैं।

साल 2012-13 में मैंगनीज़ का निर्यात 72 हजार टन था। भारतीय मैंगनीज का मुख्य खरीददार चीन (99%) ही है। उपयोग योग्य मैंगनीज की पूर्ति कम होने के कारण भारत को मैंगनीज बाहर से मंगवाना पड़ता है। 2012-13 के सालों में 23 लाख 30 हजार टन मैंगनीज़ आयात किया गया।

प्रश्न 4.
कोयले की किस्मों तथा उनके गुणों के बारे में संक्षिप्त में बताओ।
उत्तर-
कोयले की किस्में तथा उनके गुण इस प्रकार हैं—
1. ऐन्थेसाइट- इस प्रकार के कोयले में कार्बन की मात्रा 85 प्रतिशत से अधिक होती है। यह एक बेहतरीन प्रकार का कोयला होता है। यह बहुत सख्त होता है और देर तक जलता है जिसके कारण अधिक ऊर्जा देता है और धुएं की कमी होती है।

2. बिटुमिनस-इस तरह के कोयले में कार्बन की मात्रा 50 से 85 प्रतिशत तक होती है। यह भी सख्त किस्म का कोयला होता है तथा इसमें कार्बन की मात्रा अधिक होती है। ऊर्जा बहुत देता है तथा धुएं की कमी होती है। कोकिंग कोयला तथा स्टीम कोयला इस प्रकार का होता है।

3. लिग्नाइट-इस तरह के कोयले में कार्बन की मात्रा 35 से 50 प्रतिशत तक होती है। इसको भूरे काले रंग वाला कोयला कहते हैं। इस प्रकार के कोयले में धुएं की भी अधिक मात्रा होती है। इसका प्रयोग ताप विद्युत् में किया जाता है।

4. पीट-इस प्रकार के कोयले में कार्बन की मात्रा 35 प्रतिशत से भी कम होती है। यह सबसे घटिया किस्म का कोयला होता है। यह भूरे रंग का कोयला है और जलने के बाद धुएं की बहुत मात्रा निकलती है।

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प्रश्न 5.
भारत में पैट्रोलियम के उत्पादक क्षेत्र कौन से हैं ?
उत्तर-
भारत में पैट्रोलियम के उत्पादक क्षेत्रों का वर्णन इस प्रकार है—

  1. असम-असम भारत के पैट्रोल निकालने वाले क्षेत्रों में सबसे पुराना केन्द्र है। डिगबोई, बप्पायुंग, हंसापुंग, सुरमाघाटी में बदरपुर, मसीमपुर, पथरिया इत्यादि पैट्रोल उत्पादक क्षेत्र हैं।
  2. नहरकटिया क्षेत्र-असम में यह एक नवीन तेल क्षेत्र है जिसमें नहरकटिया, हुगरीजन, मोरान, लकवा इत्यादि मुख्य केन्द्र हैं।
  3. गुजरात में अंकलेश्वर कैम्बे, लयुनेज़, कलोल, डोलका, सनंदा, बेवल बाकल तथा कटान इत्यादि पैट्रोल तथा प्राकृतिक गैस के मुख्य उत्पादक केन्द्र हैं।
  4. बंबे हाई-यह शहर मुंबई शहर से 176 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में अरब सागर में आता है। यहाँ तेल तथा प्राकृतिक गैस के अच्छे भंडार हैं।

प्रश्न 6.
भारत में सौर ऊर्जा के उत्पादन तथा वितरण पर नोट लिखो।
उत्तर-
पृथ्वी पर हर एक ऊर्जा का जन्म सौर ऊर्जा द्वारा हुआ माना जाता है। वस्तुओं को सुखाने, उन्हें गर्म करने, खाना बनाने तथा फोटोवोलटिक पैनलों के द्वारा बिजली बनाने में इसका उपयोग किया जाता है।
भारत में 6 अप्रैल, 1917 तक सौर ऊर्जा का सामर्थ्य 12.28 GW गीगावाट के करीब था। भारत सरकार ने 2022 तक एक लाख मैगावाट सौर ऊर्जा के साथ बिजली तैयार करने का उद्देश्य रखा है।

वितरण-आर्थिक साल 2016-17 में आन्ध्र प्रदेश में 1,294.26 MW मैगावाट उत्पादन का योगदान डाला था। इस नाम में 1000 किलोवाट = 1 मैगावाट, 1 गीगावाट = 1000 मैगावाट। दूसरे नंबर पर कर्नाटक फिर तेलंगाना, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड इत्यादि स्थान शामिल होते हैं। 2017 साल में विश्व बैंक ने सौर ऊर्जा के विकास के लिए एक अरब डालर का कर्ज दिया है जोकि विश्व के बाकी देशों से सबसे अधिक है।

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प्रश्न 7.
स्थायी विकास पर एक नोट लिखो।
उत्तर-
स्थायी विकास उस विकास को कहते हैं जिसमें मौजूदा पीढ़ी की आवश्यकताओं का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है तथा साथ ही आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं तथा मांगों का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। हमारे वर्तमान समाज की यह एक जोरदार मांग भी है ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए स्रोतों की संभाल की जा सके और वे भी इन स्रोतों का पूरा-पूरा लाभ उठा सकें। हालांकि विकसित देशों के द्वारा अपनाये गए विकास मॉडल जिन्होंने उन्हें विकसित बनाया है, इसमें अधिकतर सिर्फ वर्तमान को ध्यान में रखकर बनाये गए हैं। इस तरह ये भविष्य के लिए खतरा भी सिद्ध हुए हैं। इसलिए ज़रूरी है कि अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे के साथ हम अपने ग्रह के प्राकृतिक साधन बचा सकें ताकि गरीबी से छुटकारा पाकर खुशहाल जिन्दगी व्यतीत कर सकें तथा अन्तर्राष्ट्रीय शांति प्राप्त कर सकें।

प्रश्न IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 20 पंक्तियों में दो :

प्रश्न 1.
प्राकृतिक स्रोतों की संभाल के बारे में किए प्रयत्नों की जरूरत से पहचान करवाओ।
उत्तर-
किसी भी देश का विकास उस देश के प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर करता है। क्योंकि सभी उद्योग प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर करते हैं। इस तरह देश के हर पक्ष से विकास के लिए स्रोतों के उपयोग की बहुत ज़रूरत होती है, परन्तु प्रत्येक देश अपने आर्थिक विकास के कारण स्रोतों का अन्धाधुंध उपयोग कर रहे हैं जिसके कारण हमारा पर्यावरण दूषित हो रहा है। महात्मा गांधी जी ने इस लूट का कारण लिखा है कि धरती पर हर व्यक्ति की ज़रूरत के लिए बहुत स्रोत हैं पर किसी के भी लालच के लिए कोई नहीं। ब्राजील के शहर रीओ डी जेनेरियो में 1992 में अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान स्रोतों की संभाल की सख्ती के साथ वकालत की गई।

मनुष्य अपनी ज़रूरतों को पूरी करने के लिए प्राकृतिक स्रोतों को अधिक से अधिक लूट रहे हैं। अगर हम इन प्राकृतिक स्रोतों की इस प्रकार ही लूटते चले गए, तो आने वाले पीढ़ी के लिये कुछ भी साफ सुथरा छोड़ कर नहीं जा सकेंगे इसलिए स्रोतों की संभाल की आवश्यकता है। क्योंकि—
1. स्रोत पारिस्थितिक तंत्र को ठीक रखने के लिए बहुत आवश्यक हैं।

2. प्राकृतिक प्रजातियों को बचाने की योग्यता बनाये रखने के लिए जो प्राकृतिक जीव इत्यादि मिलते हैं उनको नुकसान पहुंचाने पर रोक होनी चाहिए।

3. मौजूदा और आने वाली पीढ़ी के लिए स्रोत बरकरार रखने के लिए स्रोतों का फालतू उपयोग नहीं करना चाहिए। सिर्फ अपनी ज़रूरत के अनुसार उनका उपयोग करना चाहिए, ताकि स्रोतों का अधिक नुकसान न हो तथा आने वाली पीढ़ी के लिए यह स्रोत बचे रहें तथा वे भी इसका लाभ उठा सकें।

4. मनुष्य की रक्षा के लिए स्थायी या निरंतर विकास (Sustainable Development)-स्थाई या निरंतर विकास वह विकास होता है जिसमें मौजूदा पीढ़ी तथा आने वाली पीढ़ी के बारे ध्यान रखा जाता है। मौजूदा समाज को विकास के इस मॉडल की आवश्यकता है, ताकि वर्तमान के साथ-साथ भविष्य का भी ध्यान रखा जा सके। हालांकि विकसित देशों की तरफ अपनाये गए विकास मॉडल जिन्होंने उनको विकसित बनाया है में से अधिकतर सिर्फ वर्तमान को मुख्य रख कर बनाये गये थे। ये भविष्य के लिए खतरा भी सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे के साथ हम अपने ग्रह के प्राकृतिक साधन बचा सकें, ताकि गरीबी से छुटकारा पाकर खुशहाल जिन्दगी व्यतीत कर सकें और राष्ट्रीय शान्ति प्राप्त कर सकें।

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प्रश्न 2.
भारत में नवीकरणीय ऊर्जा पैदा करने की क्या संभावनाएं हैं ? वायु ऊर्जा उत्पादन से पहचान करवाओ।
उत्तर-
विश्व में तेल, कोयला तथा गैस की मांग लगातार बढ़ने के कारण ऊर्जा संकट पैदा हो गया। इसलिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग आवश्यक हो गया। इसमें कोयला, प्राकृतिक गैस, पैट्रोल इत्यादि के प्रयोग को कम करने के लिए सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, जैव ऊर्जा के उपयोग को बढ़ाने की बहुत आवश्यकता है तथा इनकी महत्ता में भी वृद्धि हो रही है। यह स्रोत नवीकरणीय हैं, कोई प्रदूषण नहीं करते, पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते। ऐसी ऊर्जा का उपयोग दूर-दराज के क्षेत्रों में किया जाता है। यह ऊर्जा भविष्य की ज़रूरतों को पूरा करने योग्य है। इस ऊर्जा का महत्त्व समझते हुए भारत सरकार ने 1987 में नवीकरणीय ऊर्जा विकास संबंधी ऐजेंसी IREDA का संगठन किया तथा 1992 में गैर परंपरागत विकास ऊर्जा स्रोत मन्त्रालय का गठन किया। यह मन्त्रालय अब तेजी के साथ इस दिशा में काम कर रहा है।

भारत में 6 अप्रैल, 1917 तक कुल सौर ऊर्जा की योग्यता 12.28 GW गीगावाट थी। भारत सरकार ने 2022 तक 1,00,000 मैगावाट सौर ऊर्जा के साथ बिजली तैयार करने का लक्ष्य रखा है। 2016-17 में आंध्र प्रदेश ने 1,294.26 मैगावाट उत्पादन का योगदान डाला था। (इस नाप में 1000 किलोवाट = 1 मैगावाट, 1 गीगावाट = 1000 मैगावाट।) दूसरे नंबर पर कर्नाटक (888.38 MW) तथा फिर तेलंगाना (759.13 MW) फिर राजस्थान, तमिलनाडु, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड इत्यादि राज्य शामिल हैं विश्व बैंक ने इसके लिए एक अरब डालर का कर्जा दिया है जोकि विश्व के किसी और देश से अधिक है क्योंकि भारत का 1,00,000 मैगावाट का लक्ष्य भी संसार में सबसे अधिक है। स्पष्ट है कि भविष्य की जरूरतों को मुख्य रखकर देश की तरफ से ऊर्जा क्षेत्रों में बड़ी कोशिशें की गई हैं।
देश में नवीकरणीय स्रोतों का विकास निम्नलिखित हैं—

क्षेत्र सामर्थ्य विकास
वायु ऊर्जा 20.000 MW 900 MW
सौर ऊर्जा 20 MW/sq. KM 810 MW
पानी गर्म करके सिस्टम 4,20,000
सोलर कुक्कर 4,57,000
बायोगैस 12 Million 2.5 million
धुएं रहित चुल्हे 120 million 23.7 million

वायु ऊर्जा-वायु ऊर्जा एक परंपरागत ऊर्जा साधन है। वायु वेग के साथ टरबाइन चला कर बिजली पैदा की जाती हैं। वायु ऊर्जा का सफलतापूर्वक प्रयोग सबसे पहले नीदरलैंड्स में किया गया है। कैलिफोर्निया में भी ऊर्जा का विकास किया गया है। इसके लिए महंगी तकनोलॉजी तथा अधिक पूंजी की ज़रूरत होती है क्योंकि वायु साफ होती है और प्रदूषण रहित है। इसलिए इसकी काफी उपलब्धि है। 2016-17 में वायु ऊर्जा 5400 मैगावाट और 2017-18 में 6000 मैगावाट होने के उम्मीद है। देश में अलग-अलग राज्यों के अनुसार वायु ऊर्जा उत्पादन का वितरण इस प्रकार है—
Installed wind capacity by State as of Oct. 2016

State Total capacity (MW)
Tamilnadu 7,684.31
Maharashtra 4,664,08
Gujarat 4,227.31
Rajasthan 4,123.35
Karnataka 3,082.45
Madhya Pradesh 2,288.60
Andhra Pradesh 1,366.35
Telangana 98.70
Kerala 43.50

 

प्रश्न 3.
कोयला उत्पादन में भारत के अलग-अलग राज्यों की स्थिति क्या है ? नोट लिखो।
उत्तर-
कोयले के उपयोग तथा उद्योगों के बीच इसके विशेष महत्त्व के कारण कोयले को काला सोना भी कहते हैं क्योंकि जिस तरह सोना आर्थिकता को मज़बूती देता है, उसी तरह कोयला भी ऊर्जा क्षेत्र में काफी महत्त्व रखता है। कोयला एक तहदार चट्टान है जोकि करोड़ों साल पहले जंगलों के धरती के नीचे दब जाने के कारण बनी थी। जिस पर भार और उच्च तापमान के कारण कोयले में तबदील हो गया। कोयले की मांग तथा ज़रूरतें भी तेजी से बढ़ रही हैं। आजकल तो कोयले से बिजली भी पैदा की जा रही है।
कोयले के प्रकार (Types of coal)—

  1. एंथेसाइट
  2. बिटुमिनस
  3. लिग्नाइट
  4. पीट

भारत में कोयले के उत्पादन के अधीन भारत के अलग-अलग राज्यों की स्थिति इस प्रकार है—
1. झारखंड-भारत के कुल कोयला उत्पादन में झारखंड पहला स्थान रखता है जो कि कुल कोयला उत्पादन में 27.3 प्रतिशत हिस्सा डालता है। झारखंड में कोयला उत्पादन के मुख्य स्थान हैं-दामोदर घाटी में झरिया, बोकारो, कर्णपुर, गिरिडीह, डालटनगंज, जमशेदपुर, आसनसोल, दुर्गपुर तथा बोकारो, राजमहल इत्यादि।

2. उड़ीसा-उड़ीसा भारत के कुल कोयला उत्पादन में 24 प्रतिशत हिस्सा डालता है। इसके प्रमुख स्थान हैं सांबलपुर, तालचेर, गणापुर, हिमगिरि इत्यादि।

3. छत्तीसगढ़-छत्तीसगढ़ भारत के कुल कोयला उत्पादन में 18 प्रतिशत तक का हिस्सा डालता है। इस राज्य में 12 कोयले की खाने हैं और इन खानों में 44 अरब, 48 करोड़, 30 लाख टन कोयला भंडार होने का एक अनुमान है। इसके मुख्य कोयला उत्पादक केंद्र हैं-सिंगरौली, कोरबा, सुहागपुर, रामपुर, पत्थर खेड़ा, सोनहट, सुरगुजा इत्यादि। इस राज्य का कोयला उत्पादन में दूसरा स्थान है।

4. मध्य प्रदेश-मध्य प्रदेश के उमारिया, सुहागपुर, सिंगरौली इत्यादि प्रमुख कोयला उत्पादक स्थान हैं।

5. आन्ध्र प्रदेश-इस क्षेत्र के पश्चिमी गोदावरी नदी घाटी में सिंगरौली, कोठगुडम तथा तंदूर खाने हैं।

6. तेलंगाना-प्रणीहता गोदावरी घाटी अपने पास कोयले के भंडारों के कारण काफी प्रसिद्ध है। अदीनबाद, करीमनगर खम्म, निजामाबाद, वारंगल प्रांत में उत्तरी आसिफाबाद उत्तर तथा दक्षिणी गोदावरी में सिंगरेनी प्रमुख कोयला उत्पादक क्षेत्र हैं। महाराष्ट्र में वर्धा घाटी में चंद्रपुर तथा बल्लारपुर इत्यादि। पश्चिमी बंगाल के रानीगंज आसनसोल इत्यादि स्थानों से कोयला निकाला जाता है।

भारत ने 2015-16 के साल में पहली बार 2 से 3 मिलियन टन कोयला पड़ोसी देश बंगलादेश को निर्यात किया। कोयले का उत्पादन साल 2015-16 में 8.5 प्रतिशत तक बढ़ गया।
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PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 5 आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत

प्रश्न 4.
बीमार प्रांत कौन से हैं ? इनमें से तांबे का उत्पादन कौन से राज्य करते हैं?
उत्तर-
20वीं सदी में भारत के बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश राज्यों के लिए एक कहावत प्रसिद्ध हो गई कि ये बीमार राज्य थे तथा यह नाम काफी प्रचलित रहा। इनको यह नाम देने का कारण यह था कि यहाँ विकास की दर काफी धीमी थी जबकि यहाँ जनसंख्या बहुत अधिक थी। पर आज के समय में यह स्थिति बदलती जा रही है। उस समय झारखंड भी बिहार राज्य का ही एक हिस्सा था और भरपूर स्रोतों के बावजूद विकास का न होना इन राज्यों पर एक धब्बा था।
बीमार प्रान्तों में आजकल हालात बदलते जा रहे हैं। इनमें विकास हो रहा है। इनमें मुख्य तांबा उत्पादक राज्य इस प्रकार हैं—

1. मध्य प्रदेश-मध्य प्रदेश में सबसे अधिक तांबे का उत्पादन होता है तथा 20वीं सदी में यह बीमार सबे की पंक्ति में आता है। मध्य प्रदेश के मालंजखंड, तारोगाऊ पट्टी सब बड़े तांबा उत्पादक क्षेत्र हैं। इनके अतिरिक्त बालाघाट प्रांत में ही 8.33 मिलियन कच्चे तांबे के भंडार हैं जहाँ पर 1,006 हजार टन तांबा प्राप्त किया जाता है।

2. राजस्थान-भारत में राजस्थान तांबे के उत्पादन में दूसरा प्रमुख क्षेत्र है। इस स्थान पर भारत का 40 प्रतिशत तांबा प्राप्त किया जाता है। तांबे के भंडार मुख्य रूप में अरावली पर्वत श्रेणी में मौजूद हैं। अलवर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, जयपुर, झुनझुनु, पाली, सीकर, सिरोही तथा उदयपुर प्रांतों में तांबे के प्रमुख भंडार हैं जो राजस्थान में मौजूद हैं।

3.  झारखंड-झारखंड राज्य के हजारी बाग तथा सिंहभूमि जिलों में से तांबा प्राप्त किया जाता है।

प्रश्न 5.
खनिज पदार्थ के विभाजन के अलग-अलग तरीके क्या हैं ? विस्तार से चर्चा करो और उदाहरण भी दो।
उत्तर-
किसी भी औद्योगिक विकास के लिए खनिज विशेष महत्त्व रखते हैं। इन्हें उद्योगों की रीढ़ की हड्डी कहते हैं। खनिज सामान बनाने, मशीनों, आटोमोबाइल, डिफैंस का सामान बनाने, रेलवे के इंजन, जहाज़ इत्यादि बनाने के लिए प्रयोग किये जाते हैं। खास कर इनके भौतिक तथा रासायनिक गुणों के आधार पर खनिजों को आगे दो भागों में विभाजित किया जाता है—

  1. धातु खनिज (Metallic Minerals)
  2. अधातु खनिज (Non-Metallic Minerals)

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खनिजों को उनके रंग, सख्त, प्राकृतिक तथा भौतिक, रासायनिक गुणों के आधार पर आगे दो भागों धातु और अधातु में विभाजित किया जाता है। इनके अतिरिक्त कुछ खनिजों को ऊर्जा स्रोतों के रूप में भी उपयोग किया जाता है जैसे कि कोयला तथा पैट्रोलियम इत्यादि।

1. धातु खनिज (Metallic Minerals)-इनमें सारे धातु शामिल हैं। इन खनिजों में कुछ नर्म होते हैं और कुछ सख्त होते हैं जैसे कि कच्चा लोहा, बॉक्साइट, इस्पात, सोना इत्यादि।

  • लौह धातु (Ferrous Minerals)-जिन खनिजों में लौह अंश मौजूद होते हैं उन्हें लौह धातु कहते हैं जैसे कि मैंगनीज, कच्चा लोहा इत्यादि।
  • अलौह धातु (Non-Ferrous Minerals)-जिन खनिजों में लोहे के अंश मौजूद नहीं होते हैं वह अलौह धातु कहलाते हैं। इनकी उदाहरण हैं सोना, लैड, जिंक इत्यादि। ये धातुएं, बिजली का सामान बनाने, अभियान्त्रिकी का सामान बनाने तथा रासायनिक उद्योगों के लिए काफी उपयोगी हैं।।

2. अधातु खनिज (Non-Metallic Minerals)-जिन खनिजों में धातु कम होती हैं अधातु खनिज कहते हैं। यह खासकर नर्म तथा चमकीले होते हैं, जैसे कि सल्फर, चूना पत्थर, साल्टपीटर इत्यादि।

3. खनिज पदार्थ (Mineral Fuels)-इनके अन्तर्गत खासकर कोयला, पैट्रोल, प्राकृतिक गैस इत्यादि आ जाते हैं। कोयला जिसको काला सोना कहते हैं ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत है। यह एक तहदार चट्टान है जो कि करोड़ों साल पहला जंगलों की धरती के नीचे दब जाने के बाद भार और उच्च तापमान के कारण कोयले में बदल गया। अब कोयले की सहायता से बिजली पैदा की जा रही है। पैट्रोलियम तहदार चट्टानों में से निकाले खनिज तेल को साफ करके बनाया जाता है। इसमें सबसे अधिक ज्वलनशीलता होती है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक गैस भी ऊर्जा का एक मुख्य स्रोत है।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 5 आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत

Geography Guide for Class 12 PSEB आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत Important Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर (Objective Type Question Answers)

A. बहु-विकल्पी प्रश्न :

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में दक्षिणी अफ्रीका का सबसे अग्रणी पैट्रोलियम उत्पादक राज्य कौन सा है ?
(A) भारत
(B) पेरू
(C) वेनेजुएला
(D) लीबिया।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 2.
भारत के कुल घरेलू उत्पादन में खनिज कितना हिस्सा डालते हैं ?
(A) 5% से 10%
(B) 2.2% से 2.5%
(C) 8% से 10%
(D) 2.5% से 2.9%।
उत्तर-
(B)

प्रश्न 3.
मैग्नेटाइट में शुद्ध कच्चे लोहे के कितने प्रतिशत अंश होते हैं ?
(A) 72%
(B) 70%
(C) 69%
(D) 79%.
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सी लोहे की किस्म नहीं है ?
(A) मैग्नेटाइट
(B) हैमेटाइट
(C) लिमोनाइट
(D) लिगनाइट।
उत्तर-
(B)

प्रश्न 5.
भारत में कच्चे लोहे का उत्पादन सबसे अधिक किस राज्य में होता है ?
(A) कर्नाटक
(B) रांची
(C) बिहार
(D) गोआ।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस धातु का उपयोग मनुष्य द्वारा प्राचीन काल से किया जा रहा है ?
(A) लोहा
(B) कोयला
(C) तांबा
(D) पीतल।
उत्तर-
(C)

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प्रश्न 7.
भारत में तांबे का क्षेत्र कितने वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है ?
(A) 69 हजार
(B) 65 हजार
(C) 70 हजार
(D) 62 हजार।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से भारत किस देश से तांबा आयात करता है ?
(A) अमेरिका
(B) बंगलादेश
(C) पाकिस्तान
(D) अफ्रीका।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 9.
एल्यूमीनियम को किस धातु से बनाया जाता है ?
(A) बॉक्साइट
(B) मैंगनीज़
(C) इस्पात
(D) मीका।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन से स्रोत परंपरागत ऊर्जा के स्रोत नहीं हैं ?
(A) कोयला
(B) खनिज तेल
(C) सौर ऊर्जा
(D) प्राकृतिक गैस।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 11.
निम्नलिखित खनिजों में से किसका झारखंड बड़ा उत्पादक राज्य है ?
(A) बाक्साइट
(B) कच्चा लोहा
(C) इस्पात
(D) तांबा।
उत्तर-
(B)

प्रश्न 12.
सबसे कठोर खनिज कौन सा है ?
(A) डायमंड
(B) ग्रेनाइट
(C) गैबरो
(D) बसाल्ट।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 13.
हैमेटाइट में शुद्ध लौह धातु के कितने अंश होते हैं ?
(A) 60 से 70%
(B) 20 से 30%
(C) 30 से 40%
(D) 40 से 50%.
उत्तर-
(A)

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में महाराष्ट्र के कौन-से जिले में मैंगनीज़ का उत्पादन नहीं होता ?
(A) नागपुर
(B) बंधारा
(C) रत्नागिरी
(D) पूना।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 15.
ऊर्जा के स्रोतों में किसको काला सोना कहते हैं ?
(A) कोयला
(B) तांबा
(C) पैट्रोल
(D) सौर ऊर्जा।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 16.
ब्राजील के शहर रीओ डी जेनेरियो में राष्ट्रीय सम्मेलन कब हुआ ?
(A) 1992
(B) 1993
(C) 1994
(D) 1995.
उत्तर-
(A)

प्रश्न 17.
मध्य प्रदेश में नागदा पहाड़ियों में कितने मैगावाट का पवन ऊर्जा फार्म लगाया गया है ?
(A) 15
(B) 17
(C) 18
(D) 20.
उत्तर-
(A)

प्रश्न 18.
ONGC मैंगलोर शोधनशाला भारत के किस राज्य में है ?
(A) महाराष्ट्र
(B) कर्नाटक
(C) तमिलनाडु
(D) केरल।
उत्तर-
(B)

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प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य 20वीं सदी में बीमार राज्य के तौर पर जाना जाता था ?
(A) बिहार
(B) पंजाब
(C) महाराष्ट्र
(D) गुजरात।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 20.
निम्नलिखित में से कौन सी मैंगनीज की महत्ता नहीं है ?
(A) इस्पात बनाता है |
(B) कीटनाशक बनाती है
(C) ब्लीचिंग पाऊडर बनाता है
(D) कपड़े बनाता है।
उत्तर-
(D)

B. खाली स्थान भरें :

  1. खनिज, लोहा, तांबा, सोना इत्यादि को ………….. तथा ………. धातु में विभाजित किया जाता है।
  2. भारत में बिहार ………… ……….. तथा …………. राज्यों के लिए 20वीं सदी में बीमार राज्य’ नाम प्रसिद्ध हुआ।
  3. मैग्नेटाइट में …….. गुण होने के कारण इसको मैग्नेटाइट कहते हैं।
  4. ……. संसार का पांचवां बड़ा लोहा आयातक देश है।
  5. भारत में बॉक्साइट का सबसे बड़ा उत्पादक ………. राज्य है।
  6. ……….. स्रोत बेजान होते हैं।
  7. पवन ऊर्जा ……….. स्रोतों की उदाहरण है।
  8. ……. सबसे बढ़िया किस्म का कोयला है।

उत्तर-

  1. लौह, अलौह,
  2. मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश,
  3. चुंबकीय,
  4. भारत,
  5. उड़ीसा,
  6. अजैविक,
  7. नवीकरणीय
  8. एंथ्रासाइट

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C. निम्नलिखित कथन सही (V) हैं या गलत (x):

  1. अभ्रक, चूना पत्थर, ग्रेफाइट इत्यादि अजैविक खनिज हैं।
  2. पहले झारखंड भी बिहार राज्य का ही हिस्सा होता था।
  3. पीट सबसे अच्छा किस्म का कोयला है।
  4. साइडेराइट कच्चे लोहे में किसी प्रकार की अशुद्धि नहीं होती।
  5. मैंगनीज हल्के स्लेटी रंग की धातु है।

उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. गलत,
  4. गलत,
  5. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले उत्तर (One Word/Line Question Answers) :

प्रश्न 1.
भौतिक तथा रासायनिक गुणों के आधार पर खनिजों को कौन-से दो हिस्सों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
धातु और अधातु खनिज।

प्रश्न 2.
लौह खनिज के चार प्रकार बताओ।
उत्तर-
मैग्नेटाइट, हैमेटाइट, लिमोनाइट, साइडेराइट।

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प्रश्न 3.
भारत में लौह खनिज के उत्पादक तीन राज्य बताओ।
उत्तर-
झारखंड, उड़ीसा, कर्नाटक।

प्रश्न 4.
तांबा उत्पादक तीन देश बताओ।
उत्तर-
संयुक्त राज्य, चिल्ली, रूस।।

प्रश्न 5.
कोयले के चार प्रमुख प्रकार बताओ।
उत्तर-
पीट, लिगनाइट, बिटुमिनस, एंथ्रासाइट।

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प्रश्न 6.
वित्तीय वर्ष 2015-16 में कोयले का भारत में उत्पादन कितना था ?
उत्तर-
63 करोड़ 92 लाख 34 हजार टन।

प्रश्न 7.
मुंबई हाई कहां स्थित है ?
उत्तर-
यह मुंबई शहर से 176 किलोमीटर उत्तर पश्चिम की ‘फ अरब सागर में है।

प्रश्न 8.
भारत में पैट्रोल का कुल उत्पादन कितना है ?
उत्तर-
3.24 करोड़ टन।

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प्रश्न 9.
भारत में तेल की सबसे बड़ी रिफाइनरी कौन सी है ?
उत्तर-
जमुना नगर (गुजरात)

प्रश्न 10.
भारत में कच्चे लोहे का कुल उत्पादन कितना होता है ?
उत्तर-
7.5 करोड़ टन।

प्रश्न 11.
परंपरागत ऊर्जा के स्रोतों की उदाहरण दो।
उत्तर-
कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस तथा लकड़ी इत्यादि।

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प्रश्न 12.
जैविक स्त्रोत कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
वे स्रोत जिनमें जान होती है जैविक स्रोत कहलाते हैं, जैसे-जंगल।

प्रश्न 13.
भारत में किस राज्य में कोयले का सबसे अधिक उत्पादन होता है ?
उत्तर-
झारखण्ड।

प्रश्न 14.
भारत में कोयले के उत्पादन में वृद्धि के कोई दो कारण बताओ।
उत्तर-
रेलवे तथा दो विश्वयुद्ध।

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प्रश्न 15.
कोई दो अलौह धातुएं के नाम बताओ।
उत्तर-
मैंगनीज तथा निक्कल।

प्रश्न 16.
भारत में कुल कितनी तेल रिफाइनरी हैं ?
उत्तर-
23 तेल रिफाइनरियां।

प्रश्न 17.
भारत में कौन-सा राज्य पवन ऊर्जा पैदा करने में आगे है ?
उत्तर-
तमिलनाडु।

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प्रश्न 18.
केरल के किस जिले पर पवन ऊर्जा फार्म योग्यता है ?
उत्तर-
पालाकोड़ जिले में कोजीकोड़ के स्थान पर योग्यता है।

प्रश्न 19.
उड़ीसा में पवन ऊर्जा योग्यता अधिक क्यों है ?
उत्तर-
क्योंकि उड़ीसा एक तटीय प्रांत है।

प्रश्न 20.
भारत में कितनी ज्वारीय ऊर्जा पैदा करने की योग्यता है ?
उत्तर-
8000 से 9000 मैगावाट।

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प्रश्न 21.
भारत सरकार ने 2022 तक कितनी ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य रखा है ?
उत्तर-
17.5 गीगावाट।

प्रश्न 22.
अधातु खनिजों को आगे कौन से दो भागों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
जैविक तथा अजैविक खनिज।

प्रश्न 23.
तांबे की कोई एक विशेषता बताओ।
उत्तर-
तांबे को जंग नहीं लगता।

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प्रश्न 24.
मैंगनीज़ का कोई एक उपयोग बताओ।
उत्तर-
इससे ब्लीचिंग पाऊडर बनता है।

प्रश्न 25.
गैर-अपारंपरिक स्रोतों की कोई दो उदाहरणे दो।
उत्तर-
कोयला, प्राकृतिक गैस।

प्रश्न 26.
सबसे बेहतरीन प्रकार का कोयला कौन सा है तथा इसमें शुद्ध कोयले का कितने % अंश होते हैं ?
उत्तर-
ऐन्थेसाइट, इसमें शुद्ध कोयले के 85% अंश होते हैं।

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प्रश्न 27.
लिग्नाइट कोयले का कोई एक गुण बताओ।
उत्तर-
यह अधिक धुआं छोड़ता है तथा जलने के बाद राख अधिक बचती है।

प्रश्न 28.
बिटुमिनस किस्म का कोयला कौन-से राज्यों में मिलता है ?
उत्तर-
झारखण्ड, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश।

प्रश्न 29.
भारत में सबसे बढ़िया क्वालिटी के कच्चे लोहे के भंडार कहां पर मिलते हैं ?
उत्तर-
छत्तीसगढ़ में बलाड़िला, कर्नाटक में बेलारी, झारखण्ड तथा उड़ीसा में मिलते हैं।

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प्रश्न 30.
भारत के प्रमुख बॉक्साइट आयातक देश कौन से हैं ?
उत्तर-
चीन, कुवैत तथा कतर।

प्रश्न 31.
सुरक्षित पैट्रोलियम भंडारगृह देश के संकट समय कितने दिन तक सहायता कर सकते हैं ?
उत्तर-
10 दिन तक।

प्रश्न 32.
पवन की तेज़ गति के साथ टरबाइन चला कर बिजली क्यों पैदा की जाती है ?
उत्तर-
क्योंकि पवन साफ, प्रदूषण रहित तथा बड़ी मात्रा में उपलब्ध होती है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
खनिज किसे कहते हैं ?
उत्तर-
खनिज धरती पर प्राकृतिक रूप में मिलने वाला पदार्थ है जिसकी अलग रासायनिक रचना होती है। हम खनिज को चट्टानों से प्राप्त करते हैं। खनिज एक या एक से अधिक तत्वों से मिलकर बनता है तथा इसका निश्चित रासायनिक संगठन होता है।

प्रश्न 2.
खनिज कितने किस्मों के होते हैं ? उदाहरणों के साथ लिखो।
उत्तर-
खनिज को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जाता है—

  1. धातु खनिज (Metallic Minerals)-जिन खनिजों में धातवीय गुण मौजूद होते हैं, उन्हें धातु खनिज कहते हैं। यह नर्म तथा कठोर दोनों तरह के होते हैं। इसमें लोहा, तांबा, एल्यूमीनियम, सोना, चांदी, खनिज पदार्थ शामिल किए जाते हैं जिनसे कई धातुएं तैयार की जाती हैं।
  2. अधातु खनिज (Non-Metallic Minerals) इसमें धातु गुण कम होते हैं, यह नर्म, गैर-चमकीले होते हैं। इसमें नमक, अभ्रक, चूने का पत्थर, ग्रेफाइट, डोलोमाइट, पोटाश, जिप्सम इत्यादि खनिज शामिल हैं। इनसे धातुएं नहीं बनाई जातीं।
  3. ईंधन खनिज पदार्थ (Fuel Minerals)—इसमें कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस शामिल हैं। इन्हें शक्ति के साधन भी कहा जाता है।

प्रश्न 3.
खनन की किस्में बताओ।
उत्तर-
खनन मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है—

  1. Open Cast Mining
  2. Shaft Mining
  3. Off-shore Drilling

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प्रश्न 4.
खनिजों का महत्त्व बताओ।
उत्तर-

  1. खनिज किसी भी देश के औद्योगिक विकास की रीढ़ की हड्डी हैं।
  2. खनिज उपकरण, मशीनें, कृषि उपकरण, बचाव उपकरण, मोटरगाड़ियां, रेल इंजन इत्यादि बनाने के लिए ज़रूरी
  3. खनिज पदार्थ जेवर, सिक्के, बर्तन तथा सजावट का सामान बनाने के लिए आवश्यक हैं।
  4. घर, मकान, पुल इत्यादि बनाने के लिए ज़रूरी हैं।

प्रश्न 5.
क्या भारत खनिज स्रोतों में सबसे समर्थ है ?
उत्तर-
भारत अपनी आवश्यकताओं पूरी करने के लिए अधिकतर खनिज स्रोतों में समर्थ है। भारत में कोयला, कच्चा लोहा, चूना पत्थर, बॉक्साइट तथा मैंगनीज़ में कुछ खनिजों को आयात किया जाता है। भारत में कोयले तथा तेल के भंडार कम हैं, पर नये तेल भंडार को ढूंढ़ने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

प्रश्न 6.
बीमार राज्यों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत में 20वीं सदी के समय बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश को बीमार राज्य कहा जाता हैं क्योंकि यहां जनसंख्या अधिक होने के पश्चात् भी विकास की दर काफी कम थी। इन हालातों में अब काफी हद तक परिवर्तन हो गया है। यहां स्रोतों की मौजूदगी थी पर फिर भी विकास में कमी थी।

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प्रश्न 7.
कच्चे लोहे के मुख्य प्रकारों के बारे में बताओ।
उत्तर-
कच्चे लोहे में धातु के अंश के अनुसार लोहा चार प्रकार का होता है—

  1. मैग्नेटाइट-इस बढ़िया प्रकार के लोहे में 70% से 72% धातु अंश होता है। इसका रंग लाल होता है।
  2. हैमेटाइट-इस किस्म में 60 से 70 प्रतिशत तक धातु अंश होते हैं।
  3. लिमोनाइट-इस पीले रंग के लोहे में 40 से 60 प्रतिशत तक लोहे का अंश होता है।
  4. साइडेराइट-इस घटिया भूरे रंग के लोहे में धातु अंश 20% से 30% होता है।

प्रश्न 8.
तांबे की मुख्य विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
तांबे की मुख्य विशेषताएं हैं—

  1. यह धातु हल्के गुलाबी या भूरे रंग की होती है जो समूह में मिलती है।
  2. प्राचीन काल से मनुष्य इसका प्रयोग कर रहा है।
  3. इसको जंग नहीं लगता।
  4. यह बिजली तथा ताप का अच्छा सुचालक है।
  5. इससे मिश्रित धातु बनाई जा सकती है।

प्रश्न 9.
बॉक्साइट धातु का उपयोग तथा मुख्य उत्पादक राज्यों के नाम लिखो।
उत्तर-
बॉक्साइट धातु की सहायता से एल्यूमीनियम बनाया जाता है। बाक्साइट एल्यूमीनियम ऑक्साइड की चट्टान है। इसका गुलाबी, सफेद या लाल रंग होता है। भारत में बाक्साइट विशेषकर उड़ीसा, गुजरात, झारखण्ड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ तमिलनाडु, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों में मिलता है।

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प्रश्न 10.
मैंगनीज किस तरह की धातु है तथा यह भारत में कहां-कहां मिलती है ?
उत्तर-
मैंगनीज़ हल्के स्लेटी रंग की धातु है जो खास कर कच्चे लोहे के साथ ही खानों में मिलती है। जब लोहे से इस्पात बनाया जाता है तब मैंगनीज़ का प्रयोग किया जाता है। लोहे का भारत में उत्पादन विशेष उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, झारखण्ड, गोआ, राजस्थान, गुजरात तथा पश्चिमी बंगाल इत्यादि में किया जाता है।

प्रश्न 11.
ऊर्जा के स्रोतों तथा किसी देश के विकास का आपस में क्या संबंध है ?
उत्तर-
ऊर्जा के स्रोत किसी भी देश के आर्थिक विकास की आरम्भिक सीढ़ी है। किसी भी देश के लिए विकास करने रहने के लिए आवश्यक है कि वे ऊर्जा के क्षेत्र में विकास करते हैं क्योंकि जनसंख्या की वृद्धि के कारण कृषि से संबंधित मशीनें, औद्योगीकरण तथा यातायात के साधनों में वृद्धि के कारण अब इन उद्योगों को चलाने तथा बनाने के लिए ऊर्जा के साधनों की मांग बढ़ती जा रही है। इसलिए हम कह सकते हैं कि ऊर्जा के स्रोतों तथा किसी देश के विकास के बीच गहरा संबंध है।

प्रश्न 12.
ऊर्जा के स्रोत कितने प्रकार के होते हैं ? बताओ।
उत्तर-
ऊर्जा के स्रोत इस प्रकार हैं—

  1. नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत
  2. गैर-नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत
  3. पारंपरिक स्रोत
  4. गैर-पारंपरिक स्रोत
  5. जैविक स्रोत
  6. अजैविक स्रोत

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प्रश्न 13.
ऐन्थेसाइट कोयले के गुणों पर नोट लिखो।
उत्तर-
ऐन्थेसाइट कोयले के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं—

  1. यह सबसे उच्च कोटि का कोयला है।
  2. यह काफी कठोर होता है।
  3. यह अधिक समय जलता है तथा ऊर्जा अधिक देता है।
  4. जलने के बाद यह राख कम छोड़ता है।

प्रश्न 14.
खनिज पदार्थ के आर्थिक महत्त्व बताओ।
उत्तर-
खनिज पदार्थ भू तल के नीचे मिलने वाली प्राकृतिक सम्पत्ति है। खनिज पदार्थ औद्योगिक विकास की नींव हैं। इसलिए खनिज पदार्थों को उद्योगों के विटामिन भी कहा जाता है। वर्तमान युग में यंत्र, यातायात के साधन, भवन निर्माण, शक्ति के साधन इत्यादि खनिज पदार्थों पर निर्भर करते हैं। भविष्य में अणु शक्ति भी यूरेनियम, थोरियम इत्यादि खनिज पदार्थों पर निर्भर करेगी। इसलिए इसे वर्तमान सभ्यता भी कहा जाता है।

प्रश्न 15.
लोहे के आर्थिक महत्त्व बताओ।
उत्तर-
लोहा सबसे अधिक उपयोगी खनिज है। लोहा किसी देश के औद्योगिक विकास की आधारशिला है। मशीनों, उपकरणों के निर्माण का आधार लोहा है। लोहे से यातायात के साधन, कृषि के उपकरण, भारी मशीनें, पुल, बाँध बनाने वाले औद्योगिक प्लांट बनाए जाते हैं। इसलिए इस युग को लोहा-इस्पात युग भी कहते हैं। लोहे को औद्योगिक विकास की कुंजी भी कहा जाता है।

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प्रश्न 16.
संसार में कोयले का शक्ति के साधन के रूप में क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
आधुनिक युग में कोयले को शक्ति का प्रमुख साधन माना जाता है। कोयले को उद्योग का जन्मदाता भी कहते हैं। कई उद्योगों के लिए कोयला एक कच्चे माल का काम करता है। कोयले को औद्योगिक क्रांति का आधार माना जाता है। संसार के अधिकतर औद्योगिक प्रदेश कोयला क्षेत्रों के नज़दीक स्थित हैं। किसी हद तक आधुनिक सभ्यता कोयले पर निर्भर करती है।

प्रश्न 17.
संसार में अधिकतर औद्योगिक प्रदेश कोयला क्षेत्रों के पास स्थित हैं ? क्यों ?
उत्तर-
कोयला आधुनिक युग में शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। औद्योगिक क्रांति का जन्म कोयले पर आधारित है। संसार के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र कोयला खानों के आस-पास स्थित हैं। भारत में दामोदर घाटी का औद्योगिक क्षेत्र, झरिया तथा रानीगंज कोयला क्षेत्र के आस-पास स्थित हैं।

प्रश्न 18.
एल्यूमीनियम के उपयोग बताओ।
उत्तर-
एल्यूमीनियम एक हल्की धातु है इसके उपयोग निम्नलिखित हैं—

  1. इसका उपयोग हवाई जहाज़, रेलगाड़ियां, मोटरकार, भवन निर्माण इत्यादि में किया जाता है।
  2. इसको जंग नहीं लगता।
  3. इससे पतली चादरें, बर्तन, सिक्के, फर्नीचर, डिब्बे बनाए जाते हैं।
  4. यह बिजली तथा ताप का उत्तम संचालक है।
  5. इसका प्रयोग बिजली के यंत्र, रेडियो, टी.वी. इत्यादि बनाने के लिए किया जाता है।

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प्रश्न 19.
खनिज तेल का महत्त्व बताओ।
उत्तर-
पैट्रोलियम का महत्त्व-तेल का व्यापारिक उपयोग सन् 1859 में शुरू हुआ जबकि संसार में खनिज तेल का पहला कुआँ 22 मीटर तक गहरा यू० एस० ए० में टिटसविले नामक स्थान पर खोदा गया। आधुनिक समय में पैट्रोलियम शक्ति का सबसे बड़ा साधन है। इसका उपयोग मोटर गाड़ियों, हवाई जहाजों, रेल इंजनों, कृषि के उपकरणों में किया जाता है। इससे दैनिक प्रयोग की लगभग 5,000 वस्तुएं तैयार की जाती हैं। इसके साथ ग्रीस, रंग, दवाइयां, नकली रबड़, प्लास्टिक, लाईलोन, खाद इत्यादि का उत्पादन होता है।

प्रश्न 20.
मध्य पूर्व में तेल उत्पादक देशों के नाम बताओ।।
उत्तर-
मध्य पूर्व या दक्षिणी-पश्चिमी एशिया में प्रमुख तेल उत्पादक देश कुवैत, साऊदी अरेबिया, ईरान तथा ईराक हैं। इसके अतिरिक्त आबूधाबी, कतर, बहरीन, ओमान इत्यादि देशों में भी कुछ तेल मिलता है।

प्रश्न 21.
पवन ऊर्जा से क्या भाव है ?
उत्तर-
पवन ऊर्जा एक परंपरागत ऊर्जा साधन है। पवन वेग के साथ टरबाइन चलाकर बिजली पैदा की जाती है। पवन ऊर्जा का सफलतापूर्वक प्रयोग सबसे पहले नीदरलैंड में किया गया है। कैलिफोर्निया में भी पवन ऊर्जा का विकास किया गया है। इसके लिए महंगी तकनीक तथा अधिक पूंजी की जरूरत है।

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प्रश्न 22.
पन बिजली को सफेद कोयला क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
पन बिजली ऊर्जा का एक समाप्त न होने वाला स्रोत है। इसका नवीकरण होता रहता है। इसके महत्त्व के कारण इसकी तुलना कोयला के साथ की जाती है। परन्तु पन-बिजली को आसानी से बिना किसी धुएं के प्रयोग किया जा सकता है। इसलिए इसको सफेद कोयला कहा जाता है।

प्रश्न 23.
लोहा इस्पात का महत्त्व बताओ।
उत्तर-
लोहा इस्पात उद्योग आधुनिक उद्योग का नींव पत्थर है। लोहा कठोर, प्रबल तथा सस्ता होने के कारण दूसरी धातु की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इसके साथ कई तरह की मशीनें, यातायात के साधन, कृषि उपकरण, ऊंचेऊंचे पुल, सैनिक हथियार, टैंक, रॉकेट तथा दैनिक प्रयोग के लिए कई वस्तुएं तैयार की जाती हैं। लौह-इस्पात का उत्पादन ही किसी देश के आर्थिक विकास का मापदंड है। आधुनिक सभ्यता लोहे-इस्पात पर निर्भर करती है। इसलिए वर्तमान युग को इस्पात युग कहते हैं।

प्रश्न 24.
स्त्रोत प्राकृतिक तौर पर हमें मिलते रहते हैं, फिर भी इनकी संभाल की ज़रूरत क्यों है ?
उत्तर-
हम अगर प्राकृतिक स्रोतों का प्रयोग इस तरह करते रहे तो ये स्रोत हमारे आने वाली पीढ़ियों तक खत्म हो जाएंगे, क्योंकि इनको बनने में लाखों साल लग जाते हैं। हमें इनकी संभाल की बहुत ज़रूरत है, ताकि—

  1. स्रोतों के पारिस्थितिक तंत्र को ठीक रखा जा सके।
  2. प्राकृतिक प्रजातियों को बचाया जा सके।
  3. मनुष्य की रक्षा की जा सके।

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प्रश्न 25.
स्थायी या निरंतर विकास क्या है ?
उत्तर-
स्थायी या निरंतर विकास का अर्थ है कि प्राकृतिक स्रोतों को ध्यान के साथ प्रयोग किया जाए तथा इस तरह किया जाए कि स्रोत बेकार में खराब न हों और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए ये स्रोत बच सकें तथा वह भी इसका लाभ उठा सकें। इसलिए हमारे आज के समय की यह एक मुख्य ज़रूरत भी है। इसलिए बहुत सारे देशों ने इसको विकास मॉडल के रूप में अपनाया है तथा इनको विकसित बनाया है। अत: ज़रूरी है कि राष्ट्रीय भाईचारे के साथ हम अपनी धरती के इन प्राकृतिक स्रोतों को बचाएं ताकि गरीबी से छुटकारा पाया जा सके तथा देश को खुशहाल बनाया जा सके।

प्रश्न 26.
सुरक्षित पैट्रोलियम भंडार पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत ने एक नीति के पक्ष से देश में सख्त आवश्यकता के समय के लिए एक तेल भंडार को सुरक्षित रखा है जिसमें 5 मिलीयन तक का तेल भंडारण है, जो कि मंगलौर, विशाखापट्टनम तथा उदपी के पास पादूर में स्थित है। यह तेल के भंडार देश में 10 दिन तक संकट के समय सहायता कर सकते हैं।

प्रश्न 27.
बायोगैस ऊर्जा से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
कृषि के बचे तथा बेकार पदार्थों से ऊर्जा पैदा की जाती है तथा भारत में लगभग 25 लाख बायोगैस प्लांट हैं। इनके विकास से देश में 75 लाख टन ईंधन की बचत होती है। धुआं रहित चूल्हा इस पर निर्भर है। इससे हर साल 360 लाख टन हरी खाद तैयार होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
कच्चे लोहे के प्रकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
कच्चे लोहे की किस्में (Types of Iron Ore) खनिज लोहे में धातु के अंश के अनुसार लोहा मुख्य रूप में चार प्रकार का होता है—

  1. मैग्नेटाइट- यह कच्चे लोहे की सबसे बढ़िया किस्म है। इसका रंग लाल होता है। इसमें 70% से 72% तक धातु अंश होते हैं। इसमें चुंबकीय गुण भी मौजूद होते हैं।
  2. हैमेटाइट-इस काले लाल रंग के कच्चे लोहे में 55% से 69% तक धातु अंश होता है।
  3. लिमोनाइट-यह कच्चा लोहा पीले रंग का होता है। इसमें 30% से 60% तक लौह अंश होते हैं।
  4. साइडेराइट-इस घटिया भूरे रंग के लोहे में धातु अंश 20% से 30% होता है।

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प्रश्न 2.
भारत में प्रमुख कच्चे लोहे के उत्पादन क्षेत्र बताओ।
उत्तर-

  1. कर्नाटक-इस क्षेत्र में भारत के कुल लोहे के उत्पादन का 1/4 हिस्सा आता है। यह भारत का सबसे बड़ा कच्चा लोहा उत्पाद क्षेत्र है। इसमें एक मंगलूर जिले में बाबा बूढ़न की पहाड़ियां, केमानगुंडीखान, संदूर पर होसथेट, चितुरदुर्ग इत्यादि काफी प्रसिद्ध हैं। यहाँ पर मैगनेटाइट तथा हैमेटाइट किस्म का लोहा मिलता है।
  2. उड़ीसा-यह राज्य भारत का 22%, कच्चा लोहा पैदा करता है। इस राज्य में मयूरभंज, क्योंझर तथा बोनाई क्षेत्रों में लोहा मिलता है।
  3. छत्तीसगढ़-यह राज्य भारत का 22% कच्चा लोहा पैदा करता है। यहाँ थाली-राजहारा पहाड़ियां तथा बस्तर क्षेत्र काफी प्रसिद्ध हैं।
  4. गोआ-यह राज्य भारत का 18% कच्चा लोहा पैदा करता है। यहाँ मोरमुगाओ बंदरगाह तथा मांडवी नदी लोहे के लिए प्रसिद्ध हैं।
  5. झारखण्ड-इस राज्य में भारत का 25% कच्चा लोहा पैदा होता है। इस राज्य में सिंहभूमि जिले में नोआमण्डी तथा पनसिरा बुडु की प्रसिद्ध खाने हैं। नोआमण्डी खान एशिया में सबसे बड़ी लोहे की खान है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित वस्तुओं में से हर एक के उपयोग बताओ।
(A) तांबा
(B) एल्यूमीनियम
(C) यूरेनियम,
(D) थोरियम।
उत्तर-
(A) तांबा (Copper) तांबा एक अलौह धातु है। यह धातु बिजली की उत्तम चालक है। इसका उपयोग रेडियो, टेलीफोन, टेलीविज़न, टैलीग्राफ, बिजली की तार, रेल इंजन, हवाई जहाज़, समुद्री जहाज़ इत्यादि में होता है। इस धातु के प्राचीन काल में उपकरण, सिक्के इत्यादि बनाए जाते रहे हैं। यह एक उत्तम मिश्रित धातु है। इसको और धातुओं के साथ मिला कर कांसा, पीतल इत्यादि धातु बनाई जा सकती हैं।

(B) एल्यूमीनियम-एल्यूमीनियम एक हल्की धातु है। इसका प्रयोग हवाई जहाज, रेल-गाड़िया, मोटरकारें, भवन निर्माण में किया जाता है। इसको जंग नहीं लगता। इससे पतली चादरें, बर्तन, सिक्के, फर्नीचर, डिब्बे इत्यादि बनाए जाते हैं। यह बिजली तथा ताप का उत्तम सुचालक है इसलिए इसका प्रयोग बिजली की तार, उपकरण, रेडियो, टी०वी० इत्यादि में किया जाता है।

(C) यूरेनियम- यूरेनियम एक भारी, कठोर, रेडियोधर्मी धातु होती है। इस धातु का परमाणु शक्ति के निर्माण के कारण सैनिक महत्त्व है। यह धातु परमाणु बम बनाने में प्रयोग की जाती है।

(D) थोरियम- यह एक भूरे रंग की धातु है। परमाणु शक्ति के विकास के कारण थोरियम का आर्थिक तथा सैनिक महत्त्व बढ़ गया है। थोरियम का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत मोनोजाइट है। थोरियम को नाभकीय ऊर्जा प्राप्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इससे तार और शीटें बनाई जाती हैं।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 5 आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत

प्रश्न 4.
खनिज किसे कहते हैं ? इसकी मुख्य किस्मों में अन्तर बताओ।
उत्तर-
खनिज एक या एक से अधिक तत्त्वों से मिलकर बनता है तथा इसका निश्चित रासायनिक संगठन होता है। संसार में लगभग 70-80 खनिज मिलते हैं जिनका आर्थिक उपयोग किया जाता है। इन्हें तीन भागों में विभाजित किया जाता है—

  1. धातु खनिज (Metallic Minerals)-इसमें लोहा, तांबा, एल्यूमीनियम, सोना, चाँदी, खनिज पदार्थ शामिल किए जाते हैं जिनसे कई धातुएं तैयार की जाती हैं।
  2. अधातु खनिज (Non-Metallic Minerals)—इसमें नमक, अभ्रक, चूने का पत्थर, ग्रेफाइट, डोलोमाइट, पोटाश, जिप्सम इत्यादि खनिज शामिल हैं। इनसे धातुएं नहीं बनाई जातीं।
  3. ईंधन खनिज पदार्थ (Fuel Minerals)-इसमें कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस शामिल हैं। इन्हें शक्ति के साधन भी कहा जाता है।

प्रश्न 5.
भारत में प्रमुख तांबा क्षेत्र बताओ।
उत्तर-

  1. मध्य प्रदेश–यह राज्य भारत का सबसे बड़ा तांबा उत्पादक है। यहां मालेजखंड, तारेगाऊ, बालाघाट, बारागाँव प्रसिद्ध तांबा उत्पादक जिले हैं।
  2. राजस्थान- इस राज्य में भारत का 40% तांबा मौजूद है। यहाँ अलवर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, जयपुर, झुनझुनु, डूंगरपुर, पाली, सीकर, सिरोही पर, उदयपुर इत्यादि जिले तांबा उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं।
  3. झारखण्ड-झारखण्ड में सिंहभूमि जिले के मोसबनी, चोड़ाई रखा, पारसनाथ, बरखानाथ इत्यादि जिले उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 6.
मैंगनीज के निर्यात तथा आयात पर नोट लिखो।
उत्तर-
निर्यात (Export)-2012-13 के सालों में मैंगनीज़ का 72 हज़ार टन निर्यात किया गया। भारत के मैंगनीज का मुख्य खरीददार देश चीन है। भारत में पैदा किया जाने वाला मैंगनीज़ उच्च दर्जे का होता है।

आयात (Import)-क्योंकि मैंगनीज का उत्पादन पूर्ति से कम होता है। इसलिए भारत को मैंगनीज़ बाहर और देशों से आयात भी करना पड़ता है। 2012-13 के सालों में 20 से लेकर 30 हजार टन मैंगनीज का आयात किया गया है। इसमें 43% हिस्सा दक्षिणी अमेरिका, 32% ऑस्ट्रेलिया, गैबीन से 90% तथा कोटे-डी-आईबोरे से 4% आयात किया गया था।

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प्रश्न 7.
ऊर्जा के स्रोतों पर नोट लिखो।
उत्तर-
किसी भी देश की आर्थिकता उस देश के ऊर्जा के स्रोतों पर निर्भर करती है क्योंकि उद्योगों इत्यादि को चलाने के लिए ऊर्जा के स्रोतों की आवश्यकता होती है। बढ़ रहे उद्योगों के कारण ऊर्जा के स्रोतों की मांग में वृद्धि हो रही है।

  1. परम्परागत ऊर्जा के स्त्रोत-कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस इत्यादि।
  2. गैर परंपरागत ऊर्जा के स्त्रोत-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस, ज्वारीय ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, समुद्री, ताप ऊर्जा इत्यादि।
  3. नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा इत्यादि।
  4. गैर नवीकरणीय ऊर्जा के स्त्रोत-कोयला, प्राकृतिक गैस, खनिज तेल, परमाणु ऊर्जा ।
  5. जैविक स्त्रोत-जंगल, फसलें, जानवर, इन्सान इत्यादि।
  6. अजैविक स्रोत-जैसे भूमि, पानी, खनिज पदार्थ इत्यादि।

प्रश्न 8.
कोयले के मुख्य प्रकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
रचना तथा कोयले की किस्में (Formation and Types of Coal) कार्बन की मात्रा के अनुसार कोयले की निम्नलिखित किस्में हैं—

  1. ऐन्थेसाइट-यह उत्तम प्रकार का कोयला होता है जिसमें 85% तक कार्बन होता है तथा यह सख्त किस्म का होता है तथा जलने के बाद धुएं की कमी होती है।
  2. बिटुमिनस-इस मध्यम श्रेणी के कोयले में 50% से 85% तक कार्बन होता है, कोकिंग कोयला तथा स्टीम कोयला इस प्रकार का होता है।
  3. लिग्नाइट-इस कोयले में 35 से 50% तक कार्बन की मात्रा होती है। इसका प्रयोग ताप बिजली पैदा करने में किया जाता है।
  4. पीट-इस कोयले में 35% से भी कम कार्बन की मात्रा होती है। यह घटिया किस्म का कोयला है। इसका रंग भूरा होता है तथा जलने के बाद धुएं की मात्रा अधिक होती है।

प्रश्न 9.
भारत के प्रमुख कोयला क्षेत्र बताओ।
उत्तर-
भारत में सबसे पहले 1814 में कोयले की खुदाई आरम्भ हुई तथा लगातार क्षेत्रों का विस्तार बढ़ता गया। भारत के कोयला क्षेत्र हैं—

  1. पश्चिमी बंगाल-इस प्रदेश में 1267 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई रानीगंज की प्राचीन खान है। यहाँ से भारत का 30% कोयला मिलता है।
  2. झारखण्ड-यह राज्य भारत का 50% कोयला पैदा करता है। यहां दामोदर घाटी में झरिया, बोकारो, करणपुर, गिरिहीड़ तथा डाल्टनगंज प्रमुख खाने हैं। झरिया का कोयला क्षेत्र सबसे बड़ी खान है। यहां बढ़िया प्रकार का कोक कोयला मिलता है जो इस प्रकार के इस्पात उद्योग में जमशेदपुर, आसन-सोल, दुर्गापुर तथा बोकारो के कारखानों में प्रयोग होता है।
  3. उड़ीसा-यह राज्य भारत का 24% कोयला पैदा करता है। तालाचेर, सावलपुर, राणापुर, हिमगिर मुख्य कोयला क्षेत्र हैं।
  4. छत्तीसगढ़- यहां भारत का 18% कोयला पैदा होता है। 5. मध्य प्रदेश-इस प्रदेश में नदी घाटियों में कई खाने जैसे सोन घाटी में सुहागपुर, कोरबा, उमरिया, रामपुर, तत्तापानी प्रमुख खाने हैं।

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प्रश्न 10.
कोयले के संरक्षण के लिए कौन-सी विधियों को अपनाया जाना चाहिए ?
उत्तर-
कोयले के संरक्षण के लिए जिन विधियों की ज़रूरत है वे इस प्रकार हैं—

  1. कोयले की खुदाई वैज्ञानिक विधियों द्वारा की जाए, ताकि कोयला कम मात्रा में नष्ट हो।
  2. ईंधन के लिए घरों में तथा रेलों में कोयले का उपयोग कम से कम किया जाए।
  3. पन बिजली का प्रयोग करके कोयले के भंडारों को सुरक्षित किया जा सकता है।
  4. कोयले के नए भण्डारों की खोज की जाए।
  5. कोयले का योजनाबद्ध उपयोग किया जाए ताकि इसके भण्डार एक लम्बे समय तक प्रयोग किए जा सकें।

प्रश्न 11.
“पेट्रोलियम के भण्डार अधिक देर तक नहीं चलेंगे।” व्याख्या करो।
उत्तर-
पेट्रोलियम एक समाप्त होने वाला शक्ति का साधन है। पृथ्वी पर पेट्रोलियम के भण्डार सीमित मात्रा में मिलते हैं। जिन क्षेत्रों से एक बार खनिज तेल निकाल लिया जाता है वे भण्डार सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं। आधुनिक युग में पेट्रोलियम की मांग बड़ी तेजी से बढ़ रही है। इस कारण भविष्य में खनिज तेल की काफी कमी हो जाएगी। अधिकतर वैज्ञानिकों का मत है कि पेट्रोलियम के भण्डार कुछ शताब्दियों में ही समाप्त हो जाएंगे। ये भण्डार अधिक समय तक नहीं चल सकेंगे। ये सन् 2050 ई० तक ही पर्याप्त होंगे। इसका मुख्य कारण है कि खनिज तेल अधिक मात्रा में निकाला जा रहा है। नये क्षेत्रों का विकास कम हुआ है। खनिज तेल निकालने तथा साफ करने में बहुत सा तेल नष्ट हो जाता है। तेल की कीमत में लगातार वृद्धि हो रही है। इसलिए प्रत्येक देश अपने भण्डारों की अधिक से अधिक कीमत प्राप्त करने के लिए अधिक मात्रा में तेल का शोषण कर रहा है। खनिज तेल के स्थान पर दूसरे साधनों का प्रयोग भी कम है। इसलिए यह अनुमान ठीक है कि पेट्रोलियम के भण्डार अधिक समय तक नहीं चल सकेंगे।

प्रश्न 12.
पेट्रोलियम के संरक्षण के लिए कौन-कौन सी विधियों को अपनाना आवश्यक है ?
उत्तर-
एक अनुमान के अनुसार ये भण्डार अधिक देर तक नहीं चल सकेंगे। इसलिए इन साधनों का संरक्षण अति आवश्यक है। पेट्रोलियम साधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग आवश्यक है—

  1. पेट्रोलियम का सदुपयोग किया जाए तथा प्रत्येक बूंद को नष्ट होने से बचाया जाए।
  2. खनिज तेल को निकालने तथा साफ करने के लिए वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके नष्ट होने वाले तेल को बचाया जाए।
  3. तेल के स्थान पर दूसरे साधनों का प्रयोग अधिक किया जाए।
  4. तेल के नए क्षेत्रों की खोज की जाए।
  5. तेल युक्त चट्टानों से तेल के अतिरिक्त अन्य वस्तुएं अधिक से अधिक प्राप्त की जाएं।
  6. तेल धीरे-धीरे से निकालने से सभी कुओं में उच्च दबाव रहता है तथा तेल के भण्डार अधिक समय तक चल सकते हैं।

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प्रश्न 13.
भारत के प्रमुख तेल उत्पादक प्रदेश बताओ।
उत्तर-
भारत के मुख्य तेल (Major Oil Fields) क्षेत्र निम्नलिखित हैं—

  1. डिगबोई क्षेत्र (Digboi Oil Field)—यह असम प्रदेश में भारत का सबसे प्राचीन तथा अधिक तेल वाला क्षेत्र है। यहाँ से भारत का 60% खनिज तेल प्राप्त किया जाता है। 21 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तीन तेलकूप हैंडिगबोई, बप्पायुंग तथा हंसायुग।
  2. गुजरात क्षेत्र (Gujarat Oil Field) कैम्बे तथा कच्छ की खाड़ी के निकट अंकलेश्वर, लयुनेज़, कलोल स्थानों पर तेल का उत्पादन आरम्भ हो गया है। इस क्षेत्र में प्रति वर्ष 30 लाख टन तेल प्राप्त होता है।
  3. बॉम्बे हाई क्षेत्र (Bombay High Oil Field) खाड़ी कच्छ के कम गहरे समुद्री भाग में भी तेल मिल गया है। यहाँ बॉम्बे हाई तथा बसीन क्षेत्र हैं।

प्रश्न 14.
किसी स्थान पर जल-बिजली का विकास किन-किन तत्त्वों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-
जल बिजली का विकास निम्नलिखित भौगोलिक तथा आर्थिक तत्त्वों पर निर्भर करता है—

  1. ऊँची-नीची भूमि (Uneven Relief)-जल बिजली के विकास के लिए ऊँची-नीची तथा ढालू भूमि होनी चाहिए। इस दृष्टि से पर्वतीय तथा पठारी प्रदेश जल बिजली के विकास के लिए आदर्श क्षेत्र होते हैं। अधिक ऊँचाई से गिरने वाला जल अधिक मात्रा में जल बिजली उत्पन्न करता है।
  2. अधिक वर्षा (Abundant Rainfall)-जल बिजली के लिए सारा वर्ष निरन्तर जल की मात्रा उपलब्ध होनी चाहिए।
  3. विशाल नदियों तथा जल प्रपातों का होना (Waterfalls & Huge Rivers) नदियों में जल की मात्रा अधिक होनी चाहिए ताकि वर्ष भर समान रूप से जल प्राप्त हो सके। पर्वतीय प्रदेशों में बनने वाले प्राकृतिक जल प्रपात जल बिजली विकास में सहायक होते हैं। जैसे उत्तरी अमेरिका में नियाग्रा जल प्रपात।

प्रश्न 15.
कोयले तथा खनिज तेल के साथ जल-बिजली शक्ति के तुलनात्मक महत्त्व का अध्ययन करो।
उत्तर-
पिछले कुछ सालों से जल बिजली का कोयले तथा खनिज तेल से अधिक महत्त्व है। इसके कई कारण हैं :

  1. स्थायी साधन-कोयला तथा तेल समाप्त हो जाने वाले साधन हैं इनके भण्डार सीमित हैं। धातु जल बिजली एक स्थायी साधन है।
  2. स्वच्छ साधन-कोयला तथा तेल धुएँ इत्यादि के कारण पर्यावरण को दूषित कर देते हैं परन्तु जल बिजली एक स्वच्छ साधन है तथा इसका सुविधापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। इसको सफेद कोयता भी कहते हैं।
  3. कम (खर्च)-जल बिजली एक सस्ता साधन है।
  4. उद्योगों का विकेंद्रीकरण-जल बिजली द्वारा उद्योगों का विकेंद्रीकरण आसानी के साथ किया जा सकता है।

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प्रश्न 16.
धात्विक तथा अधात्विक खनिजों में अन्तर बताओ।
उत्तर-

धात्विक खनिज अधात्विक खनिज
1. इन खनिजों को और नये पदार्थ बनाने के लिए की प्राप्ति नहीं होती। 1. अधात्विक खनिजों को गलाने से भी किसी धातु पिघलाया जा सकता है।
2. उदाहरणे-लोहा, तांबा, बाक्साइट, मैंगनीज धात्विक खनिज हैं। 2. कोयला, अभ्रक, संगमरमर, पोटाश अधात्विक खनिज हैं।
3. ये खनिज प्रायः आग्नेय चट्टानों में पाए जाते हैं। 3. ये खनिज प्रायः तलछटी चट्टानों में पाए जाते हैं।
4. इन्हें दोबारा पिघला कर भी प्रयोग किया जा सकता है। 4. इन्हें पिघलाकर प्रयोग नहीं किया जा सकता।

 

प्रश्न 17.
भारत में सौर ऊर्जा के उपयोग क्या हैं ?
उत्तर-
भारत में सौर ऊर्जा के उपयोग निम्नलिखित हैं—

  1. यह ऊर्जा हर स्थान पर मिलती है। सूर्य ऊर्जा को खाना बनाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
  2. सर्दी में ताप देने के लिए प्रयोग किया जाता है।
  3. इसको गलियों तथा घरों में रोशनी देने के लिए उपयोग किया जाता है।
  4. फसलों को खुश्क करने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 18.
पवन ऊर्जा पर नोट लिखो।
उत्तर-
पवन ऊर्जा एक नवीकरणीय स्रोत है तथा प्रदूषण रहित ऊर्जा है। हवा की गति जो कि एक निरन्तर वेग के साथ चलती है, पवन ऊर्जा पैदा करने में सहायता करती है। पवन चक्कियां ऊर्जा पैदा करने के लिए लगाई जाती हैं। पवन ऊर्जा भोजन पदार्थों को पीसने (Grinding) के लिए भी प्रयोग की जाती हैं। कुआँ इत्यादि में से पानी निकालने के लिए भी पवन चक्की का प्रयोग किया जाता है। टरबाइनों को चलाकर बिजली भी पैदा की जाती है। भारत में तमिलनाडु में सबसे ज्यादा पवन ऊर्जा पैदा की जाती है।

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प्रश्न 19.
ज्वारीय ऊर्जा पर नोट लिखो।
उत्तर-
ज्वारीय ऊर्जा बड़े ज्वार-भाटों से तटीय राज्यों में मिलती है। इस ऊर्जा को सागर के प्रवेशिका पर बाँध बना कर प्राप्त किया जा सकता है। सागर में ज्वारभाटा पर सागरीय धाराओं के साथ चलने वाली टरबाइनें पानी की सतह के नीचे लगाई जाती हैं जिसके साथ बिजली पैदा की जाती है। कैम्बे की खाड़ी, कच्छ की खाड़ी पर गंगा, सुन्दरवन डेल्टा ज्वारीय ऊर्जा पैदा करने के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान हैं।

प्रश्न 20.
गैर परम्परागत ऊर्जा के स्त्रोतों के विकास की ज़रूरत क्यों है ? कारण बताओ।
उत्तर-
गैर परम्परागत ऊर्जा के स्रोतों के विकास की बहुत आवश्यकता है क्योंकि इन ऊर्जा के स्रोतों को दुबारा से बनाया जा सकता है। इन स्रोतों को प्राकृतिक साधनों-सूर्य, हवा, पानी इत्यादि का प्रयोग करके दुबारा बनाया जा सकता है। जब हम जीवाश्म ईंधन का प्रयोग करते हैं, तब उसके साथ हमारी पृथ्वी के ऊपर वाले साधन दूषित हो जाते हैं तथा खराब होते हैं और पर्यावरण दूषित होता है। ईंधन खनिजों जैसे कि कोयला इत्यादि के जलने के बाद पर्यावरण में प्रदूषण भी फैलता है। खनिज तेल की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ने के कारण आने वाले समय के लिए इसके भंडार समाप्त होते नज़र आ रहे हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि गैर परम्परागत ऊर्जा के स्रोत ही एक विकल्प हैं तथा इनके विकास की अब काफ़ी ज़रूरत है। कुछ महत्त्वपूर्ण गैर परम्परागत ऊर्जा के स्रोत हैं-सूर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा, प्राकृतिक गैस, ज्वारीय ऊर्जा इत्यादि।

प्रश्न 21.
खनिज तेल के गुण तथा नुकसान बताओ।
उत्तर-

खनिज तेल के गण (Advantages of Oil) खनिज तेल के नुकसान (Disadvantages of Oil)
1. खनिज तेल सस्ता तथा यातायात के लिए काफी सुविधाजनक है। इसको पाइप लाइन द्वारा आसानी से एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जा सकता है। 1. पैट्रोल के झलकाव के कारण प्रदूषण फैलता है तथा पानी में पैदा होने वाले जीवों का नुकसान होता है।
2. मुख्य रूप में पैट्रो रसायन उद्योगों के लिए धुरे का काम करते हैं। 2. प्रदूषक निकलने के साथ तेज़ाबी वर्षा की घटनाएं बढ़ सकती हैं।
3. खोज निर्माण कौशल काफी महंगा है।
4. यह नवीकरणीय स्रोत नहीं है।

 

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प्रश्न 22.
निरन्तर विकास से आपका क्या अर्थ है ? इसके मुख्य सिद्धान्त बताओ।
उत्तर-
साधनों का विकास बिना पर्यावरण को दूषित किए किया जा सके तथा आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं को मुख्य रूप में रखकर उपयोग किया जाए। इस तरह के विकास को निरन्तर विकास का नाम दिया जाता है। निरन्तर विकास के मुख्य सिद्धान्त हैं—

  1. हर एक की जीवन गुणवत्ता में वृद्धि
  2. पृथ्वी के अलग-अलग स्रोतों की संभाल
  3. प्राकृतिक स्रोतों का रिक्तीकरण कम करना।
  4. पर्यावरण के लिए एक उचित ढंग अपनाना।
  5. समाज को अपने पर्यावरण की संभाल करने में सहायता करना।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
कच्चे लोहे के प्रकारों तथा भारत में लोहे के उत्पादन तथा वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
लोहा किसी देश के औद्योगिक विकास की आधारशिला है। पृथ्वी की कुल चट्टानों के 5% भाग में लोहे की कच्ची धातु मिलती है। संसार में लोहे के अधिकतर भण्डार मध्य अक्षांशों में स्थित देशों तथा अन्य महासागर के तटवर्ती देशों में मिलते हैं। लोहे का उपयोग मनुष्य प्राचीन काल से करता आ रहा है। यह धरती की पपड़ी में एक खनिज है। इसका प्रयोग इस्पात बनाने के लिए भी किया जाता है। इस्पात हमारे इतिहास में निर्माण के लिए सबसे प्रसिद्ध है तथा तीसरी तथा चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से 18वीं सदी तक भारत का लोहा काफी प्रसिद्ध रहा है।
लोहे को हमारे आधुनिक उद्योगों के लिए रीढ़ की हड्डी भी कहते हैं। किसी भी देश के लोगों का जीवन स्तर भी कई प्रकार से इस पर निर्भर करता है। कच्चा लोहा खानों से निकाला जाता है तथा इसकी मुख्य किस्में इस प्रकार हैं—

  1. मैग्नेटाइट (Magnetite)-इस प्रकार के बढ़िया लोहे में 72% धातु अंश होते हैं। चुंबकीय गुणों के कारण इसे मैग्नेटाइट कहा जाता है।
  2. हैमेटाइट (Hematite)-इस लाल रंग के लोहे में 60% से 70% तक धातु अंश होता है। यह रक्त की तरह लाल रंग का होता है।
  3. लिमोनाइट (Limonite)—इस पीले रंग के लोहे में 40% से 50% तक लोहे का अंश होता है।
  4. सिडेराइट (Siderite)—इस भूरे रंग के लोहे में धातु अंश 48% होता है।

इस लोहे में अशुद्धियाँ अधिक होती भारत संसार का 5% लोहा उत्पन्न करता है तथा आठवें स्थान पर है। भारतीय लोहे में कम अशुद्धियाँ हैं तथा इसमें 75% धातु अंश होता है। देश में एक लम्बे समय के प्रयोग के लिए 2300 करोड़ टन लोहे के भंडार हैं। इस प्रकार संसार के 20% भंडार भारत में हैं। भारत में अधिकतर लोहा हैमेटाइट जाति का मिलता है जिसमें 60% से अधिक लौह-अंश मिलता है। भारत में लगभग हर साल ₹1700 करोड़ का लोहा विदेशों को निर्यात किया जाता है। भारत में कच्चे लोहे हैमेटाइट के भंडार 12 अरब 31 करोड़ 73 लाख टन है तथा मैगनेटाइट 5 अरब 39 करोड़ 52 लाख है। सबसे बढ़िया प्रकार के कच्चे लोहे के भंडार छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गोआ, झारखण्ड इत्यादि में मिलते हैं।

लोहा क्षेत्रों का वितरण (Distribution)-भारत में कर्नाटक राज्य सबसे अधिक लोहा का उत्पादन करता है। बिहार तथा उड़ीसा भारत का 75% लोहा उत्पन्न करते हैं। इसे भारत का लोहा क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र में भारत के मुख्य इस्पात कारखाने हैं।
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विभिन्न राज्यों में उत्पादन निम्नलिखित हैं :
1. कर्नाटक-कर्नाटक राज्य में सबसे अधिक लोहे का उत्पादन होता है। यहाँ भारत का 1/4 हिस्सा लोहा पैदा किया जाता है। इस राज्य में मुख्य रूप में बाबा बूढ़न पहाड़ियों में केमनगुंडी तथा चिकमंगलूर में कुद्रेमुख क्षेत्र प्रसिद्ध हैं। यह लोहा भद्रावती इस्पात कारखाने में प्रयोग होता है।

2. उड़ीसा-यह राज्य देश का 13% लोहा उत्पन्न करता है। इस राज्य में मयूरभंज, क्योंझर तथा बनाई जिलों में खानें हैं।

  • मयूरभंज में गुरमहासिनी, सुलेपत, बादाम पहाड़ खाने हैं।
  • क्योंझर में बगियां बुडु खान है।
  • बोनाई में किरिबुरु खान से प्राप्त लोहा जापान को निर्यात होता है तथा राऊरकेला इस्पात कारखाने में प्रयोग किया जाता है।

3. छत्तीसगढ़-यह राज्य भारत का 18% कच्चे लोहे का उत्पादन करता है। इस राज्य में धाली-राजहरा की पहाड़ियां लोहे के प्रसिद्ध क्षेत्र हैं। बस्तर क्षेत्र में बैलाडिला तथा रावघाट के नए क्षेत्रों में लोहे की खाने हैं। यहाँ से लोहा जापान को निर्यात किया जाता है तथा भिलाई कारखाने में प्रयोग होता है।

4. गोआ-गोआ राज्य भारत के कुल लोहा भंडार में 18% हिस्सा डालता है। गोआ में लौह अयस्क के नए भंडारों के पता लगने से उत्पादन में वृद्धि हुई है। उत्तरी गोआ तथा दक्षिणी गोआ में प्रमुख खानें हैं।

5. झारखण्ड-इस राज्य में भारत के 25% लोहे के भण्डार हैं और यह कुल उत्पादन में 14% हिस्सा डालता है। इस राज्य में कोल्हन जगीर में सिंहभूमि क्षेत्र प्रमुख है। यहां पर नोआ मंडी, पनसिरा बुडु, बुडाबुरु प्रसिद्ध लोहे के भण्डार हैं। नोआ मंडी खान एशिया में सबसे बड़ी लोहे की खान है। इस लोहे को जमशेदपुर व दुर्गापुर कारखानों में भेजा जाता है। इसके अतिरिक्त राजस्थान में धनौरा व धन चोली क्षेत्र, हरियाणा में महेंद्रगढ़ क्षेत्र, जम्मू कश्मीर में ऊधमपुर क्षेत्र, महाराष्ट्र में चांदा तथा रत्नागिरी क्षेत्र में लोहारा तथा पीपल गाँव खान क्षेत्र, आंध्र प्रदेश में कुढ़पा तथा करनूल क्षेत्र।

भारत संसार का पांचवा बड़ा लोहा निर्यात देश है। देश का 50 से 60% लोहा जापान, जर्मनी, इटली, कोरिया देशों को निर्यात किया जाता है। जबकि कुल लोहे का तीन चौथाई भाग जापान को निर्यात किया जा रहा है। जापान भारत के लोहे का सबसे बड़ा खरीददार है। भारत से लोहा मारमागांव, विशाखापट्टनम, पाराद्वीप तथा मंगलौर बंदरगाहों से निर्यात किया जाता है।

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प्रश्न 2.
भारत में तांबे के उत्पादन तथा वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
तांबा एक प्राचीन धातु है आधुनिक युग में लोहे के पश्चात् तांबे का दूसरा स्थान है। संसार में लगभग 40 देशों में तांबा मिलता है, परन्तु तांबे के मुख्य भण्डार पांच देशों में मिलते हैं। सोवियत रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, मध्य अफ्रीका, एण्डीज़ पर्वत तथा कनाडा का पठार तांबे के मुख्य देश हैं। तांबे से हम अच्छी तरह से परिचित हैं। यह एक हल्के गुलाबी भूरे रंग की धातु है जो कि हमें चट्टानों के रूप में मिलती है। तांबा लचकीला होता है तथा लचकीलेपन के कारण बिजली तथा ताप का अच्छा सुचालक है। कई बिजली उद्योगों में इसका प्रयोग किया जाता है। इसको जंग नहीं लगता तथा इसके प्रयोग से मिश्रित धातु बनाई जा सकती है। तांबे का प्रयोग मनुष्य ने एक धातु के रूप में लोहे से पहले शुरू किया था। तांबे का प्रयोग बर्तन बनाने तथा सिक्के बनाने में काफी किया जा रहा है। इसके साथ बिजली का सामान, तारें इत्यादि भी बनाई जाती हैं।

भारत में तांबे के भंडार काफी सीमित हैं। तांबे के उत्पादन में भारत काफी भाग्यशाली भी है। हमारा देश संसार का तक़रीबन 2% तांबा पैदा करता है। 1950-51 से 1970-71 तक तांबे का उत्पादन काफी अच्छा है, पर यह वृद्धि धीरेधीरे हुई। 1970-71 से 1990-91 तक तांबे का उत्पादन तेजी से बढ़ा। इस समय में तांबे का उत्पादन 5,255 हजार टन रिकॉर्ड किया गया। इसके बाद 1996-97 में इसके उत्पादन में थोड़ी गिरावट आई यह उत्पादन 3,896 हजार टन तक पहुंच गया। 1997-98 में इसके उत्पादन में काफी कमी आई। यह कम होकर सिर्फ 233 हजार टन रह गया तथा 1997-98 तक उत्पादन कम ही रहा।
Production and Distribution

State

Production (Lakh Tonnes)

Percentage of all India
Madhya Pradesh 87 56.86
Rajasthan 62 40.52
Jharkhand 4 2.62
All India 153 100.00

 

Trends in Production of Copper Ore in India

Year Quantity (Thousand Tonnes) Value (₹ Crore)
1950-51 375 1.94
1960-61 423 2.29
1970-71 666 4.95
1980-81 2109 42.70
1990-91 5255 169.97
1994-95 4767 208.92
1996-97 3896 241.59
1997-98 233 395.97
1998-99 199 337.72
1999 165 310.56
2000-01 164 324.32
2002-03 153 242.96

यह 153 हजार टन 2002-03 तक पहुँच गया। भारत में खास कर तांबा मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा झारखण्ड में मिलता है।
1. मध्य प्रदेश-मध्य प्रदेश तांबे का सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत में इसने कर्नाटक, राजस्थान तथा झारखण्ड को उत्पादन के रिकॉर्ड में पीछे छोड़ दिया है। 2002-03 के सालों में इस राज्य में देश का 56.86% तांबे का उत्पादन किया गया। तारे गाँव जिले में इस राज्य की सबसे बड़ी पट्टी है। इसके अतिरिक्त मलंजखंड, बालाघाट ज़िले भी काफी प्रसिद्ध हैं। इन प्रांतों में 84.83 मिलियन टन तांबा पैदा किया जाता है। इसके अतिरिक्त बेतूल बासगाँव क्षेत्र तांबे के लिए प्रसिद्ध हैं।

2. राजस्थान-राजस्थान ने भी तांबे के उत्पादन में काफी विकास किया है तथा तांबे के उत्पादन के लिए भारत का दूसरा स्थान है। यह भारत का 40% तांबा पैदा करता है। ज्यादातर तांबे का उत्पादन अरावली पर्वत श्रेणी में मौजूद है। इस राज्य में अलवर, अजमेर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, जयपुर, झुनझुनु, पाली सीकर, सिरोही तथा
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उदयपुर तांबे के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं। इन जिलों में एक अनुमान अनुसार 65.08 मिलियन टन तांबे का उत्पादन होता है। राजस्थान के ज़िले खेत सिंहाणा, झुनझुनु में तांबा मिलता है। यह बेल्ट उत्तरी पूर्वी से लेकर दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र तक 80 किलोमीटर के घेरे में फैली है। खेती सिंहाणा में आमतौर पर 1.8 मिलियन टन तक का उत्पादन होता है।

3. झारखण्ड-शुरुआत में झारखण्ड बिहार का ही एक हिस्सा होता है। 1980 तक यह तांबा उत्पादन का एक विशेष क्षेत्र था पर धीरे-धीरे यहाँ उत्पादन कम होने लगा तथा झारखण्ड तांबा उत्पादक में तीसरा स्थान पर आ गया, इसका कारण इसके अपने जिले में उत्पादन का कम होना तथा बाकी ज़िलों में उत्पादन में वृद्धि होने से है। राज्य में तांबे का उत्पादन 62% तक 1977-78 से कम हो गया तथा 2002-03 में हालात अधिक नाजुक हो गए। झारखण्ड के सिंहभूमि जिले के मोसाबनी, खेडाई रखा, धोबानी, पारसनाथ, बरखानाथ इत्यादि प्रमुख तांबा उत्पादक क्षेत्र हैं।
आयात (Import)-भारत में तांबे का उत्पादन हमारी मांग से कम हुआ है। इस कारण भारत को तांबा बाहर से आयात करना पड़ता है। मुख्य रूप में भारत यू०एस०ए०, कैनेडा, जापान तथा मैक्सिको से तांबा आयात करता है। हर साल माँग के हिसाब से आयात किया जाता है। हर साल मांग के हिसाब से आयात की दर बढ़ती-कम होती जाती है।

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प्रश्न 3.
भारत में बाक्साइट के उत्पादन तथा वितरण पर नोट लिखो।
उत्तर-
बाक्साइट एक महत्त्वपूर्ण धातु है जिसका प्रयोग एल्यूमीनियम बनाने के लिए किया जाता है। असल में यह बाक्साइट एल्यूमीनियम आक्साइड की चट्टान ही होती है। यह कोई निश्चित खनिज नहीं पर एक चट्टान का टुकड़ा है। जिसमें हाईड्रेटिड एल्यूमीनियम आक्साइड शामिल होता है। यह गुलाबी, सफेद या लाल रंग का होता है। इसका रंग इसमें मौजूद आयरन पर निर्भर करता है।

उत्पादन तथा वितरण (Production and Distribution)—देश में कुल भंडार 31076 मिलियन टन है। जिसका रिकॉर्ड 1 अप्रैल, 2000 में किया गया। साल 2012-13 में बाक्साइट का उत्पादन 15 हजार 360 टन हो गया था जोकि पिछले साल से 13% अधिक था। ज्यादातर बाक्साइट झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, गुजरात तथा राजस्थान प्रदेश से प्राप्त किया जाता है।
जम्मू कश्मीर, केरल, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में भी बाक्साइट के होने का पता चलता है।

1. उड़ीसा (Orissa)-उड़ीसा सबसे बड़ा बाक्साइट उत्पादक प्रदेश है। उड़ीसा का 95 प्रतिशत बाक्साइट पूर्वी घाट, राज्य के दक्षिणी पश्चिमी भाग के जिला कोरापुट, रायगढ़, कालाहांडी से आता है। मुख्य रूप में इस राज्य के बाक्साइट की बेल्ट कालाहांडी तथा कोरापुट जिलों में है जो आँध्र प्रदेश तक फैली हुई हैं।
Production of Bauxite in India 2002–03
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2. गुजरात-गुजरात भारत का दूसरा महत्त्वपूर्ण बाक्साइट उत्पादक राज्य है। यह देश का 15 प्रतिशत बाक्साइट पैदा करता है। इस स्थान पर कुल बाक्साइट 87.5 मिलियन टन तक मिलता है जो मुख्य रूप में जमुनानगर, जूनागढ़, खेड़ा, कच्छ सांबरकांधा, अमरेली तथा भावनगर में पाया जाता है। प्रमुख तौर पर कच्छ की खाड़ी से अरब सागर किनारे की यह पट्टी मुख्य ज़िलों भावनगर, जूनागढ़ तथा अमरेली ज़िलों में फैली हुई है तथा 48 किलोमीटर लम्बी तथा 3 से लेकर 4.5 किलोमीटर तक चौड़ी है।

3. झारखण्ड-इस राज्य में से 63.5 मिलियन टन बाक्साइट के भंडार मिलते हैं। यह भंडार मुख्य रूप में रांची, लोहारदागां, पलामू तथा गुमला इत्यादि स्थानों से मिलते हैं। हारदागां से बढ़िया किस्म का बाक्साइट मिलता है।

4. महाराष्ट्र-महाराष्ट्र के क्षेत्र में से 10 प्रतिशत के लगभग बाक्साइट मिलता है। कोलापुर के पठारी भाग, उदयगिरि, रांधनगड़ी, इंजरगंज प्रमुख बाक्साइट उत्पादक जिले हैं। ठाणे, रत्नागिरी, सतारा तथा पुणे क्षेत्रों में भी बाक्साइट का उत्पादन किया जाता है। डांगरवाड़ी तथा इंदरगंज जिले एल्यूमीनियम के लिए प्रसिद्ध हैं।

5. छत्तीसगढ़- छत्तीसगढ़ भारत के कुल उत्पादन में 6 प्रतिशत तक का हिस्सा डालते हैं। बिलासपुर के दुर्ग जिलों में मैकाल पर्वत श्रेणी तथा अमरकंटक पठारी भाग्य में सूरगुजा, रायगढ़ तथा बिलासपुर जिले बाक्साइट के उत्पादन के लिए काफी प्रसिद्ध हैं।

6. तमिलनाडु-तमिलनाडु के एक करोड़ 72 लाख टन बाक्साइट भंडार नीलगिरि, सेलम तथा मदुराय में पाए जाते हैं।

7. मध्य प्रदेश-यहां पाइकल पर्वत श्रेणी के शाहडोल, मांडला, बालाघाट तथा जबलपुर जिले के कोटली क्षेत्र बाक्साइट के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं। बाक्साइट का निर्यात 2011-12 में 4 लाख एक हजार टन से अगले साल 2012-13 में 34 लाख 10 हज़ार हो गया था। चीन (91%), कुवैत (3%) तथा कतर (2%) भारत के बाक्साइट के आयातक देश हैं।

प्रश्न 4.
मैंगनीज के भारत में उत्पादन तथा वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
मैंगनीज एक प्राकृतिक धातु नहीं है। यह हमेशा लोहे से इस्पात बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। यह हल्के स्लेटी रंग की धातु है जो कि कच्चे लोहे के साथ ही खानों में मिलती है। यह मुख्य रूप में लौह-इस्पात उद्योग के लिए प्रयोग किया जाता है। एक टन इस्पात बनाने के लिए 6 किलोग्राम मैंगनीज की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त इसका उपयोग ब्लीचिंग पाउडर, कीटनाशक दवाइयां, रंग तथा बैटरियां इत्यादि बनाने में भी किया जाता है।

भारत में मैंगनीज का उत्पादन तथा वितरण (Manganese Ore Distribution in India)-भारत जिम्बाब्वे के बाद मैंगनीज भंडारों में संसार में दूसरा स्थान रखता है तथा 430 मिलियन टन मैंगनीज़ का भंडार करता है।
भारत संसार में उत्पादन के लिहाज़ से पांचवां स्थान रखता है क्रमवार चीन, गैबोन, दक्षिणी अफ्रीका तथा ऑस्ट्रेलिया में मैंगनीज का बढ़िया उत्पादन होता है। भारत में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, आन्ध्रा प्रदेश तथा कर्नाटक मुख्य मैंगनीज उत्पादक राज्य हैं। महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश दोनों ही मैंगनीज का आधा भाग पैदा करते हैं।
(State Wise Reserves of Maganese)
Odisa (44%)
Karnataka (22%)
Madhya Pradesh (13%)
Maharashtra (8%)
Andhra Pradesh (4%)
Jharkhand and Goa (3%)
Rajasthan, Gujarat and
West Bengal (3%).

  1. उड़ीसा-यह भारत का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यह भारत के कुल बाक्साइट उत्पादन में 44% का हिस्सा डालता है। मुख्य उत्पादक जिलों में सुन्दरगढ़ जिले की खान, गंगपुर कालाहांडी, कोरापुट तथा बोनाई क्षेत्र प्रसिद्ध हैं।
  2. कर्नाटक-कर्नाटक भारत की कुल मैंगनीज के 22 प्रतिशत हिस्से का उत्पादन करता है। उत्तर कन्नड़, शिमोगा, बिलारी, चितलदुर्ग तथा टुमकुर ज़िले प्रमुख मैंगनीज उत्पादन केन्द्र हैं।
  3. मध्य प्रदेश-यह प्रदेश देश की पैदावार में 13% तक का योगदान डालता है। यहाँ मैंगनीज बालाघाट, छिंदवाड़ा तथा जबलपुर जिलों में से मिलती है।
  4. महाराष्ट्र-महाराष्ट्र में नागपुर तथा भंडारा क्षेत्र तथा रत्नागिरी ज़िले मैंगनीज के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं।
  5. आन्ध्र प्रदेश-आन्ध्र प्रदेश में मुख्य रूप में मैंगनीज पट्टी श्रीकाकुलम और विशाखापट्टनम जिले में से मिलता है। श्रीकाकुलम सबसे पुरानी मैंगनीज की खान है। इसके अतिरिक्त कुड़प्पा, विजयनगर, गंटूर मैंगनीज के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं।

इसके अतिरिक्त गोआ, पंचमहल, गुजरात, उदयपुर, बनसवांग, राजस्थान मैंगनीज के उत्पादन के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। निर्यात (Export)-2012-13 में मैंगनीज का उत्पादन 72 हजार टन था। मुख्य भारतीय मैंगनीज का खरीददार चीन था। भारतीय मैंगनीज उच्च स्तर का होता है।

आयात (Import)—मैंगनीज की पूर्ति की मांग से कम होने के कारण भारत को मैंगनीज बाहर से मंगवानी पड़ती हैं। 2012-13 के सालों में 23 लाख 30 हजार टन मैंगनीज का आयात किया जाता है। आयात मुख्य रूप में अमेरिका ऑस्ट्रेलिया, गैबीन के स्थानों से किया जाता है।
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PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 5 आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत

प्रश्न 5.
भारत में कोयले के उत्पादन तथा वितरण पर नोट लिखो।
उत्तर-
आधुनिक युग में कोयला शक्ति का प्रमुख साधन है। कोयले को उद्योग की जननी भी कहा जाता है। कई उद्योगों के लिए कोयला एक कच्चे माल का पदार्थ है। कोयले से बचे पदार्थ बैनज़ोल, कोलतार, मैथनोल इत्यादि का प्रयोग कई रासायनिक उद्योगों में किया जाता है। रंग-रोगन, नकली रबड़, प्लास्टिक, रिबन, लेम्प इत्यादि अनेक वस्तुएं कोयले से तैयार की जाती हैं। इस उपयोगिता के कारण कोयले को काला सोना भी कहा जाता है। कोयले को औद्योगिक क्रान्ति का आधार माना जाता है। संसार के अधिकांश औद्योगिक प्रदेश कोयले क्षेत्रों के निकट स्थित हैं, किसी सीमा तक आधुनिक सभ्यता कोयले पर निर्भर करती है। कोयला मुख्य रूप में चार किस्मों में विभाजित किया जाता है।

1. एंथेसाइट-यह उत्तम प्रकार का कोयला होता है जिसमें 85% तक कार्बन होता है। इसमें धुएँ की कमी होती है। इसका रंग काला होता है। इस प्रकार कठोर कोयले के भण्डार कम मिलते हैं।

2. बिटुमिनस-इस मध्यम श्रेणी के कोयले में 85% तक कार्बन होता है। कोकिंग कोयला इस प्रकार का होता है। इसे धातु गलाने तथा जलयानों में प्रयोग किया जाता है।

3. लिगनाइट-इस कोयले में 50% तक कार्बन की मात्रा होती है। इसका प्रयोग ताप विद्युत् में किया जाता है। इसमें से धुआँ बहुत निकलता है।

4. पीट-यह घटिया किस्म का भूरे रंग का कोयला है जिसमें 35% से कम कार्बन होता है। यह कोयला निर्माण की प्रथम अवस्था है। इसकी जलन क्षमता कम होने के कारण इसका प्रयोग कम होता है।

उत्पादन तथा वितरण-भारत में सबसे पहले कोयले का उत्पादन 1774 में पश्चिमी बंगाल में रानीगंज खान से आरंभ हुआ तथा निरंतर कोयले के उत्पादन में वृद्धि होती रही। स्वतन्त्रता के पश्चात् 30 वर्ष में कोयले के उत्पादन में 6 गुना वृद्धि हुई। भारत में कोयला मुख्य रूप में-झारखण्ड, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश इत्यादि क्षेत्रों से प्राप्त किया जाता है। 2015-16 के साल में भारत में कोयले का उत्पादन 63 करोड़ 92 लाख 34 हजार टन था जो कि 2014-15 में 60 करोड़ 91 लाख 79 हजार टन से 3 करोड़ 55 हज़ार टन से अधिक था। भारत में कोयले की मांग के मुख्य क्षेत्र इस्पात उद्योग, शक्ति उत्पादन, रेलवे, घरेलू खपत तथा अन्य उद्योग हैं। सन् 1972 में भारत ने कोयले की खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया है तथा कोल इंडिया लिमिटेड नाम की सरकारी संस्था स्थापित की है। कोयले के उत्पादन में सरकारी तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों का योगदान निम्नलिखित सारणी के अनुसार है—
Production of Raw Coal during the year 2015-16 (CMT)
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भारत में कोयला प्राप्ति के दो प्रकार के क्षेत्र हैं—
I. गोंडवाना कोयला क्षेत्र (Gondwana Coal Fields)—
1. पश्चिमी बंगाल-इस प्रदेश से 1267 वर्ग किलोमीटर में फैली रानीगंज की प्राचीन तथा सबसे गहरी खान है। यहां उच्च कोटि के कोयला भंडार हैं। यहाँ भारत का 30% कोयला मिलता है।

2. झारखण्ड-यह राज्य भारत का 27.3% कोयला उत्पन्न करता है। यहां दामोदर घाटी में झरिया, बोकारो, कर्णपुर, गिरिडीह तथा डाल्टनगंज प्रमुख खाने हैं। झरिया का कोयला क्षेत्र सबसे बड़ी खान है। यहाँ बढ़िया प्रकार का कोक कोयला मिलता है जो इस प्रकार के इस्पात के उद्योग में जमशेदपुर, आसनसोल, दुर्गापुर तथा बोकारो के कारखानों में प्रयोग होता है।

3. उड़ीसा-उड़ीसा भारत के कुल कोयले का 24 प्रतिशत हिस्सा पैदा करता है। तालेचर, संबलपुर तथा रामपुर हिमगिर महत्त्वपूर्ण कोयला क्षेत्र हैं। इकक्ला तलेचर, उड़ीसा का % हिस्सा पैदा करता है।

4. छत्तीसगढ़-छत्तीसगढ़ भारत का 18 प्रतिशत कोयले का उत्पादन करता है। यहां कोयले की 12 खाने हैं। इस राज्य का कोयला नदी घाटियों की खानों से मिलता है। यहां सिंगरौली कोयला क्षेत्र तथा कोरबा क्षेत्र प्रसिद्ध हैं। यहां से ताप बिजली घरों तथा भिलाई इस्पात केंद्र को कोयला भेजा जाता है। इसके अतिरिक्त सुहागपुर, रामपुर, पत्थर खेड़ा, सोनहल अन्य प्रमुख कोयला भंडार हैं।

5. मध्य प्रदेश-यहाँ कई नदी घाटियों में कोयला खाने हैं। बोकारो, उमरिया, रामपुर, तत्तापानी प्रमुख खाने हैं।

6. आन्ध्र प्रदेश-आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी नदी घाटी में सिंगरौली कोठगुडम तथा तंदूर खाने हैं।

7. अन्य क्षेत्र-महाराष्ट्र में बर्धा घाटी में चन्द्रपुर तथा बल्लारपुर पश्चिमी बंगाल में रानीगंज, आन्ध्र प्रदेश में सिंगरौला, कोठगुड़म, महाराष्ट्र में अन्य खाने हैं।

II. टरशरी कोयला क्षेत्र (Tertiary Coal Fields)-इस किस्म का लिग्नाइट कोयला असम में लमीमपुर तथा माकूम क्षेत्र में मिलता है। राजस्थान में बीकानेर जिले में पालना नामक क्षेत्र में लिग्नाइट कोयला मिलता है। मेघालय में गारो, खासी, जयंतिया पहाड़ियों में। तमिलनाडु में दक्षिणी अरकाट में नेवेली में लिग्नाइट कोयला मिलता है। जम्मू कश्मीर में पुंछ, रियासी तथा ऊधमपुर में निम्नकोटि का कोयला मिलता है। भारत में 12000 करोड़ टन कोयले के सुरक्षित भंडार हैं। परन्तु बढ़िया प्रकार का कोयला सिर्फ 100 सालों के लिए काफी है। इसलिए बढ़िया किस्म के कोयले को बचाया जाता है। संसार में कोयले के उत्पादन में भारत का आठवां स्थान है। देश की 800 से अधिक कोयला खानों में से 3000 लाख टन कोयला निकाला गया है। इन कोयला खानों में लगभग 4 लाख मज़दूर काम करते हैं। 1972 में भारत सरकार ने कोयले की खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया है।
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प्रश्न 6.
भारत में पैट्रोलियम के महत्त्व, उत्पादन तथा वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
पैट्रोलियम शब्द दो शब्दों के जोड़ से बना है (Petra = rock, Oleum = oil) इसलिए इसे चट्टानी तेल भी कहते हैं क्योंकि यह चट्टानों से प्राप्त किया जाता है। खनिज तेल कार्बन तथा हाइड्रोजन का मिश्रण है। पृथ्वी के नीचे दबी हुई समुद्री वनस्पति तथा जीव जन्तुओं से लाखों वर्षों के बाद अधिक ताप तथा दबाव के कारण खनिज तेल बन जाता है। तकनीकी तौर पर पैट्रोलियम एक ज्वलनशील तरल पदार्थ है जो कि हाइड्रोकार्बन का बना होता है। इसमें 90 से 95 प्रतिशत पैट्रोलियम के तथा बाकी जैविक पदार्थों तथा कुछ भाग ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, सल्फर इत्यादि होती है।

प्राचीन काल में पैट्रोलियम का प्रयोग दवाइयों, खनिज प्रकाश व लेप इत्यादि कार्यों के लिए किया जाता था। पैट्रोलियम तथा पैट्रोलियम से बने पदार्थों का उपयोग मुख्य रूप में ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जाता है। यह घनी तथा सुविधाजनक तरल ईंधन है। आधुनिक युग में खनिज तेल का व्यापारिक उपयोग सन् 1859 में शुरू हुआ जबकि संसार में खनिज तेल का पहला कुआँ 22 मीटर गहरा यू०एस०ए० में टटिसविले नामक स्थान पर खोदा गया। आधुनिक युग में पैट्रोलियम शक्ति का सबसे बड़ा साधन है। इसे खनिज तेल भी कहते हैं। इससे हर भाग पानी, हवा तथा धरती पर क्रांति आई है। कोई भी सामान आसानी से पैदावार देशों से उपभोक्ता देशों तक पहुँचाया जा सकता है। इसका प्रयोग मोटर-गाड़ियों, वायुयान, जलयान, रेल इंजन, कृषि यंत्रों में किया जाता है। इससे दैनिक प्रयोग की लगभग 5,000 वस्तुएँ तैयार की जाती हैं। इसमें स्नेहक, रंग, दवाइयां, नकली रबड़ व प्लास्टिक, नाइलोन, खाद इत्यादि पदार्थों का उत्पादन होता है।

भारत का बहुत बड़ा हिस्सा तलछटी चट्टानों (Sedimentary Rocks) ने घेरा हुआ है। परन्तु तेल के भंडारों में समानता नहीं है। भारतीय खनिज साल की किताब 1982 के एक अनुमान अनुसार भारत में 468 मिलियन टन जमा तेल है जिनमें 328 मिलियन टन मुम्बई हाई में मिलता है तथा 1984 के जमा आँकड़ों के अनुसार यह 500 मिलियन टन हो गया था।

उत्पादन-आज़ादी के समय भारत पैट्रोलियम के उत्पादन में एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था। मुंबई हाई की जगह से बढ़िया पैट्रोलियम बड़े पैमाने पर पैदा किया जाता था। समुद्रगामी उत्पादन 1970 के शताब्दी तक शुरू नहीं हुआ था तथा सारा उत्पादन तटवर्ती समुद्र के तरफ से मिलता था। 1980-81 के मध्य तक कच्चे तेल का उत्पादन समुद्र से आता था तथा बाकी बचता समुद्रगामी स्थानों से प्राप्त किया जाता है। पर 1990-91 से 2003-04 तक उत्पादन कच्चे तेल समुद्रगामी स्थानों से आना शुरू हो गया।
Production of Petroleum (Crude) in India (Million Tonnes)
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Production of Petroleum (Crude) in India 2002-03 (Million Tonnes)
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भारत में प्रमुख पैट्रोल उत्पादक क्षेत्र—

  1. सबसे पुराने पैट्रोल निकालने के केन्द्र असम में है। डिगबोई, बापापुंग, हुंसापुग, सुरमा घाटी तथा बदरपुर, मसीमपुर अन्य पैट्रोल उत्पादन के केन्द्र हैं।
  2. असम में नाहरकटिया, रुदरसागर, मोरा, हुगरीजन अन्य पैट्रोल उत्पादन के केन्द्र हैं।
  3. गुजरात में कैंबे तथा कच्छ की खाड़ी के निटक अंकलेश्वर, लयुनेज, कलोल नामक स्थान पर तेल का उत्पादन आरंभ हो गया है। इस राज्य में तेल क्षेत्र बड़ौदा, सूरत, मेहसना ज़िलों में फैला हुआ है। इस क्षेत्र में मेहासना, ढोल्का, नवगाम, सानन्द इत्यादि कई स्थानों पर तेल मिला है।
  4. नाहरकटिया असम में यह एक नवीन तेल क्षेत्र है जिसमें नहरकटिया लकवा प्रमुख तेलकूप हैं।
  5. बसीन तेल क्षेत्र-बंबई हाई के दक्षिण में स्थित इस क्षेत्र से तेल निकालना शुरू हो गया है।
  6. सुरमा घाटी में बदरपुर, मसीमपुर, पथरिया नामक कूपों में घटिया प्रकार का तेल थोड़ी मात्रा में मिला है।
  7. बंबई हाई क्षेत्र-खाड़ी कच्छ के कम गहरे समुद्री भाग में तेल मिल गया है। 19 फरवरी, 1974 को ‘सागर सम्राट’ नामक जहाज़ द्वारा की गई खुदाई से Bombay High के क्षेत्र में तेल मिला है। इस क्षेत्र से 21 मई, 1976 से तेल निकलना आरंभ हो गया। यहाँ से प्रतिवर्ष 150 लाख टन तेल निकालने का लक्ष्य है। यह क्षेत्र बंबई से उत्तर-पश्चिमी में 176 कि०मी० दूरी पर स्थित है।

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प्रश्न 7.
“कोयला भूतकाल का ईंधन है, पैट्रोलियम वर्तमान का और बिजली शक्ति भविष्य का ईंधन है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
कोयला, पैट्रोलियम तथा बिजली शक्ति आधुनिक युग में ईंधन के प्रमुख साधन हैं। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ इन शक्ति के साधनों का तुलनात्मक महत्त्व बदलता रहा है। यह कथन ठीक है कि कोयला भूतकाल, पैट्रोलियम वर्तमान तथा बिजली शक्ति भविष्य का ईंधन है।

प्राचीन काल में शक्ति के साधनों तथा ईंधन की कमी थी। लकड़ी को जलाकर ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता था। 18वीं शताब्दी में दो आविष्कारों के कारण कोयले का महत्त्व बढ़ता गया। 1769 में भाप के इंजन की खोज से परिवहन के साधनों में कोयले का उपयोग अधिक हो गया। कोक कोयले का धातु गलाने के उद्योग विशेषकर लोहाइस्पात उद्योगों में प्रयोग होने से विशेष परिवर्तन हुआ। इस प्रकार कोयले का उपयोग कारखानों के लिए चालक शक्ति के रूप में भी बढ़ता गया। कोयले का कच्चे माल के रूप में प्रयोग करके कई रंग रोगन, नकली रबड़, प्लास्टिक, खाद इत्यादि भी तैयार किए जाने लगे। घरेलू जीवन में भी कोयले का प्रयोग मकानों को गर्म करने तथा ईंधन के रूप में किया जाने लगा। इस प्रकार 20वीं शताब्दी के आरम्भ में कोयला समस्त शक्ति का 90% भाग प्रदान करता है। कोयला एक सीमित साधन है। इसलिए कोयले के स्थान पर अन्य साधनों की खोज की गई। पैट्रोल, जल बिजली तथा परमाणु शक्ति का प्रयोग किया जाने लगा। इस प्रकार कोयले का महत्त्व कम होना शुरू हो गया। 1950 में संसार की कुल शक्ति का 60% भाग कोयले से प्राप्त होता था। फिर आधुनिक सभ्यता के विकास के लिए कोयला आवश्यक है। कुछ उद्योगों में कोयले के सिवाय दूसरे ईंधन प्रयोग नहीं किए जा सकते। कोयले के भण्डार सीमित हैं। अधिक प्रयोग से यह कम हो रहे हैं। दूसरे साधनों का प्रयोग कई सुविधाओं के कारण बढ़ता जा रहा है। इसलिए हम कह सकते हैं कि कोयला भूतकाल का ईंधन है।
संसार में शक्ति साधनों का उपयोग (%) में
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ईंधन का दूसरा प्रमुख साधन पैट्रोलियम है। तेल की खोज सन् 1859 में हुई। इससे पहले पैट्रोलियम का उपयोग घरेलू रूप में कई देशों में किया जाता था। परन्तु इसका व्यापारिक उपयोग 20वीं शताब्दी में ही आरम्भ हुआ। पिछले 100 वर्षों में पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस का प्रयोग परिवहन तथा चालक शक्ति के रूप में निरन्तर बढ़ता जा रहा है। कई सुविधाओं के कारण कारखानों तथा परिवहन में कोयले की अपेक्षा पैट्रोलियम शक्ति का प्रमुख स्रोत बन गया है। आधुनिक मशीनी युग पैट्रोलियम पर ही टिका हुआ है जिससे चिकने पदार्थ प्राप्त होते हैं। तेल से अनेक प्रकार की वस्तुएं जैसे ईंधन पदार्थ, दवाइयां, रंग-रोगन, मशीनों के तेल तैयार किए जाते हैं। आजकल सभ्य समाज में विभिन्न घरेलू कार्यों के लिए पैट्रोलियम को ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। आर्थिक महत्त्व के कारण पैट्रोलियम की मांग तथा प्रयोग में निरन्तर वृद्धि हो रही है। आधुनिक सभ्यता की तेल के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए इसे हम वर्तमान का ईंधन कह सकते हैं क्योंकि निकट भविष्य में ही पैट्रोलियम के साधन समाप्त हो जाएंगे।

पिछले कुछ समय से पैट्रोलियम की कीमतों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। इसलिए यह एक महंगा साधन बनता जा रहा है। कोयले के भण्डार भी अधिक देर तक नहीं चलाये जा सकते। इसलिए अनेक देशों में बिजली शक्ति का विकास किया जा रहा है। इटली तथा जापान जैसे देश जल शक्ति के सहारे ही संसार में उन्नति के शिखर पर पहुँचे हैं। जल बिजली एक अक्षय साधन है। इसे सुविधापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। इसलिए इसे श्वेत कोयला (White Coal) भी कहते हैं। संसार के कई प्रदेशों में जल बिजली के विशाल संभाव्य साधन मौजूद हैं, जैसे अफ्रीका में। निकट भविष्य में इन प्रदेशों में कई योजनाओं की सहायता से जल बिजली शक्ति का अधिक मात्रा में विकास किया जाएगा। जिन देशों में कोयला और पैट्रोलियम की कमी है वहाँ औद्योगिक विकास के लिए जल बिजली योजनाएँ बनाई गई हैं। इसी दिशा में अणु शक्ति एक नवीनतम साधन के रूप में उभर रही है परन्तु कई राजनीतिक तथा आर्थिक कठिनाइयों के कारण इसका भविष्य धुंधला है। अतः बिजली शक्ति को ही भविष्य का ईंधन भी कहा जा सकता है।

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आर्थिक भूगोल : खनिज तथा ऊर्जा स्रोत PSEB 12th Class Geography Notes

  • किसी देश की आर्थिक खुशहाली उसके खनिजों की उपलब्धता तथा उद्योगों के विकास पर निर्भर करती है।
  • हमारे देश की GDP में खनिजों का 2.2% से 2.5% और उद्योगों का 10% से 11% तक का हिस्सा है। |
  • खनिजों को मुख्य रूप में धातु तथा अधातु में विभाजित किया जाता है।
  • खनिजों को लौह तथा अलौह धातु में विभाजित किया जाता है। जिस धातु में लोहा होता है उसे लौह और जिसमें नहीं होता, उन्हें अलौह धातु कहते हैं।
  • लोहा प्राचीन काल से ही बहुत प्रसिद्ध है। इसको आधुनिक सभ्यता की नींव कहते हैं। इसको मैग्नेटाइट, हैमेटाइट, लिमोनाइट, साइडेराइट चार प्रकारों में विभाजित किया जाता है।
  • एल्यूमीनियम बाक्साइट धातु से बनता है। भारत में उड़ीसा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है।
  • लोहे से इस्पात बनाने के लिए मैंगनीज मिलाया जाता है। यह हल्के स्लेटी रंग की धातु है। भारत में उड़ीसा मैंगनीज का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। कोयले को काला सोना कहा जाता है। यह मुख्य रूप में ऐन्थेसाइट, बिटुमिनस, लिग्नाइट, पीट इत्यादि चार प्रकार का होता है।
  • ऊर्जा किसी भी देश की आर्थिकता की वृद्धि और विकास की बुनियाद है। ऊर्जा को कई हिस्सों में विभाजित किया जाता है, जैसे कि नवीनीकरण स्रोत, गैर नवीकरणीय स्रोत, परंपरागत स्रोत, गैर पारंपरिक स्रोत, जैविक और अजैविक स्रोत।
  • पैट्रोलियम को तहदार चट्टानों में से निकाले खनिज तेल को साफ करके बनाया जाता है। भारत में पैट्रोल के 27 बेसिन हैं। भारत में प्रमुख पैट्रोल उत्पादक क्षेत्र हैं डिगबोई, बप्यायुंग, सुरमा घाटी में बदरपुर, मसीमपुर, असम और गुजरात इत्यादि।
  • भारत सरकार ने 2022 तक 17.5 गीगावाट ऊर्जा पैदा करने का उद्देश्य रखा है जिसमें 60 GW जलविद्युत् गैस, 100 GW सौर ऊर्जा तथा जैव शक्ति से 10 GW तथा जल शक्ति से 5 GW बिजली पैदा करना है।
  • रिओ डी जेनेरियो में 1992 में अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान स्रोतों की संभाल की सख्ती के साथ वकालत की गई है।
  • खनिज पदार्थ-भारत में बड़ी संख्या में खनिज पदार्थ मिलते हैं। 100 खनिज पदार्थ अनुमानतः भारत में मिलते हैं। मुख्य रूप में खनिज दामोदर घाटी में मिलते हैं। खनिज मुख्य रूप में दो तरह के होते हैं—
    • धातु खनिज
    • अधातु खनिज।
  • बीमार राज्य–बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश को 20 वीं सदी में बीमार राज्य कहते थे क्योंकि यहाँ विकास दर कम थी।
  • लोहे की मुख्य किस्में-लोहे के मुख्य चार प्रकार हैं
    • मैग्नेटाइट-यह सबसे बढ़िया प्रकार 72% शुद्ध लोहा।
    • हैमेटाइट-60% से 70% शुद्ध लोहा
    • लिमोनाइट-40% से 60% शुद्ध लोहा
    • साइडेराइट-40% से 50% लौह अंश
  • खनिज पेटियां-भारत में तीन खनिज पेटियां हैं-उत्तरी पूर्वी पठार, दक्षिण-पश्चिमी पठार, उत्तर पश्चिमी प्रदेश।
  • ऊर्जा संसाधन- भारत में कोयला, खनिज तेल, जलविद्युत् गैस, अणुशक्ति प्रमुख ऊर्जा संसाधन हैं।
  • गैर अपारंपरिक ऊर्जा के स्रोत-कोयला, प्राकृतिक गैस, खनिज तेल, खनिज तथा परमाणु ऊर्जा इत्यादि।
  • जैविक स्त्रोत-वे स्रोत जिनमें जान होती है, जैसे कि जानवर, फसलें, इन्सान इत्यादि।
  • नवीकरणीय तथा गैर नवीकरणीय स्रोत-कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस तथा लकड़ी गैर नवीकरणीय और वायु ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा इत्यादि नवीकरणीय स्रोत हैं।
  • रक्षित पैट्रोलियम भंडार-भारत ने भविष्य की जरूरतों के लिए एक तेल भंडार रक्षित रखा है, जिसमें 50 लाख मीट्रिक टन तेल का भंडार है।
  • निरंतर विकास-जब हम आज की पीढ़ी तथा आने वाली पीढ़ी, दोनों की जरूरतों का ध्यान रखते हैं उसे निरंतर विकास कहते हैं।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

अब्दुस समद स्वाँ 1713-26 ई० (Abdus Samad Khan 1713-26 A.D.)

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिखों की दशा कैसी थी ? अब्दुस समद खाँ ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया ?
(What was the condition of the Sikhs after the martyrdom of Banda Singh Bahadur ? How did Abdus Samad Khan tackle the Sikhs ?)
अथवा
अब्दुस समद खाँ ने 1713-1716 तक सिखों की शक्ति कुचलने के लिए क्या कदम उठाए ?
(What steps were taken by Abdus Samad Khan to crush the powers of the Sikhs during 1713-1726 ?)
अथवा
अब्दुस समद खाँ के सिखों के साथ 1713 से 1726 तक कैसे संबंध थे ? (What were the relations of the Sikhs with Abdus Samad Khan during 1713 to 1726 ?)
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ को 1713 ई० में मुग़ल सम्राट फर्रुखसियर द्वारा लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया गया था। उसे इस उद्देश्य से इस पद पर नियुक्त किया गया था कि वह पंजाब में सिखों की शक्ति का पूर्णत: दमन कर दे। उसने बंदा सिंह बहादुर को बंदी बना लिया और उसे दिल्ली लाकर 1716 ई० में शहीद कर दिया। फर्रुखसियर अब्दुस समद खाँ की इस कार्यवाई से बहुत प्रसन्न हुआ। अब्दुस समद खाँ के सिखों के साथ संबंधों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—
1. फर्रुखसियर का आदेश (Farrukhsiyar Edict)-1716 ई० में मुग़ल सम्राट् फर्रुखसियर ने एक शाही आदेश जारी किया। इसमें मुग़ल अधिकारियों को यह आदेश दिया कि जो भी सिख तम्हारे हाथ लगे, उसकी हत्या कर दो। सिखों को सहायता अथवा शरण देने वालों को भी यही सज़ा दी जाए। यदि कोई व्यक्ति सिखों को बंदी बनाने में सरकार की सहायता करे तो उसे पुरस्कार दिया जाए।

2. अब्दुस समद खाँ द्वारा सिखों के विरुद्ध उठाए गए पग (Steps taken by Abdus Samad Khan against the Sikhs)—शाही आदेश के जारी होने के पश्चात् अब्दुस समद खाँ ने सिखों पर घोर अत्याचार आरंभ कर दिए। सैंकड़ों निर्दोष सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाकर लाहौर लाया जाता। जल्लाद इन सिखों को घोर यातनाएँ देने के पश्चात् शहीद कर देते। अब्दुस समद खाँ की इस कठोर नीति से बचने के लिए बहुत-से सिखों ने लक्खी वन और शिवालिक पर्वत में जाकर शरण ली। इस प्रकार अपने शासनकाल के आरंभिक कुछ वर्षों में अब्दुस समद खाँ की सिखों के विरुद्ध दमनकारी नीति बहुत सफल रही। इससे प्रसन्न होकर फर्रुखसियर ने उसे ‘राज्य की तलवार’ की उपाधि से सम्मानित किया।

3. सिखों में फूट (Split among the Sikhs)—बंदा सिंह बहादुर के बलिदान के पश्चात् सिख परस्पर फूट का शिकार हो गए। वे तत्त खालसा और बंदई खालसा नामक दो मुख्य संप्रदायों में विभाजित हो गए। तत्त खालसा गुरु गोबिंद सिंह जी के धार्मिक सिद्धांतों के दृढ़ समर्थक थे। बंदई खालसा बंदा सिंह बहादुर को अपना नेता मानने लगे थे। तत्त खालसा वाले आपस में मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा वाहिगुरु जी की फतह’ कहते थे जबकि बंदई खालसा ‘फतह धर्म और फतह दर्शन’ शब्दों का प्रयोग करते थे। तत्त खालसा वाले नीले रंग के वस्त्र धारण करते थे जबकि बंदई खालसा वाले लाल रंग के। दोनों संप्रदायों के बीच परस्पर मतभेद दिन प्रतिदिन बढ़ते गए। फलस्वरूप सिख अब्दुस समद खाँ के अत्याचारों का संगठित होकर सामना न कर पाए।

4. परिस्थितियों में परिवर्तन (Change in Circumstances)-1720 ई० के पश्चात् परिस्थितियों में कुछ परिवर्तन आए और सिखों की स्थिति में सुधार होने लगा। शाही दरबार षड्यंत्रों का अड्डा बन कर रह गया था। परिणामस्वरूप केंद्रीय सरकार सिखों की ओर अपना वाँछित ध्यान न दे पाई। पंजाब में अब्दुस समद खाँ भी ईसा खाँ और हुसैन खाँ के विद्रोहों का दमन करने में उलझ गया। भाई मनी सिंह जी ने बैसाखी के अवसर पर 1721 ई० में अमृतसर में तत्त खालसा और बंदई खालसा में परस्पर समझौता करवा दिया । परिणामस्वरूप सिख फिर से एक हो गए।

5. सिखों की कार्यवाहियाँ (Activities of the Sikhs) स्थिति में परिवर्तन आने से सिखों में एक नया जोश पैदा हुआ। उन्होंने सौ-सौ सिखों के जत्थे बना लिए और मुग़ल प्रदेशों में लूटपाट आरंभ कर दी। उन्होंने उन हिंदुओं और मुसलमानों को दंड देना आरंभ कर दिया था जिन्होंने सिखों, उनकी स्त्रियों और बच्चों को मुग़लों के सुपुर्द कर दिया था। अब्दुस समद खाँ ने सिखों को सबक सिखाने के लिए असलम खाँ के अधीन कुछ सेना अमृतसर भेजी। सिखों ने इस सेना पर अचानक आक्रमण करके उसे कड़ी पराजय दी। इस लड़ाई में असलम खाँ को लड़ाई का मैदान छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ा।

6. अब्दुस समद खाँ की असफलता (Failure of Abdus Samad Khan)-अब्दुस समद खाँ अपने सभी प्रयासों के बावजूद सिखों का दमन करने में विफल रहा। इसके कई कारण थे। पहला, अब्दुस समद खाँ अब बूढ़ा होने लगा था। दूसरा, सिखों में परस्पर एकता स्थापित हो गई थी। तीसरा, अब्दुस समद खाँ को मुग़ल अधिकारियों के षड्यंत्रों का शिकार होना पड़ा। चौथा, उसे केंद्र से पर्याप्त सहायता न प्राप्त हुई। 1726 ई० में अब्दुस समद खाँ को पदच्युत कर दिया गया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध 1
MARTYRDOM OF BHAI MANI SINGH JI

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

जकरिया रवाँ 1726-45 ई० (Zakariya Khan 1726-45 A.D.)

प्रश्न 2.
सिखों की शक्ति कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या पग उठाए ? उसके प्रयासों से उसे कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई ?
(What measures were adopted by Zakariya Khan to crush the powers of the Sikhs ? How far did he succeed in his efforts ?)
अथवा
जकरिया खाँ के राज्यकाल में सिखों के कत्लेआम का संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe briefly the persecution of the Sikhs in the reign of Zakariya Khan.)
अथवा
जकरिया खाँ के सिखों के साथ संबंधों की चर्चा करें।
(Discuss the relations of Zakariya Khan with the Sikhs.)
अथवा
जकरिया खाँ के सिखों के साथ निपटने के लिए किस प्रकार के प्रयत्न किए ? (How did Zakariya Khan treat with the Sikhs ?)
अथवा
सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या कदम उठाए ? उसे अपने प्रयत्नों में किस प्रकार सफलता मिली ?
(What measures were adopted by Zakariya Khan to crush the power of the Sikhs ? How far did he succeed in his efforts ?)
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ के बाद उनका पुत्र जकरिया खाँ लाहौर का सूबेदार बना था। वह इस पद पर 1726 ई० से 1745 ई० तक रहा। जकरिया खाँ के शासनकाल तथा उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाइयाँ (Harsh measures against the Sikhs)—जकरिया खाँ ने पद संभालते ही सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए 20,000 सैनिकों को भर्ती किया। गाँवों के मुकद्दमों तथा चौधरियों को यह आदेश दिया गया कि वे सिखों को अपने क्षेत्र में शरणं न दें। जकरिया खाँ ने यह घोषणा की कि किसी सिख के संबंध में सूचना देने वाले को 10 रुपये, बंदी बनवाने वाले को 25 रुपए, बंदी बनाकर सरकार के सुपुर्द करने वाले को 50 रुपए और सिर काटकर सरकार को भेंट करने वाले को 100 रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा। इस प्रकार सिखों पर अत्याचारों का दौर पुनः आरंभ हो गया। सैंकड़ों सिखों को लाहौर के दिल्ली गेट में शहीद किया जाने लगा। इसके कारण इस स्थान का नाम ही ‘शहीद गंज’ पड़ गया।

2. भाई तारा सिंह जी वाँ का बलिदान (Martyrdom of Bhai Tara Singh Ji Van)-भाई तारा सिंह जी अमृतसर जिला के गाँव वाँ का निवासी था। उसने बंदा सिंह बहादुर की लड़ाइयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नौशहरा का चौधरी साहिब राय सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता था। जब सिख इस बात पर आपत्ति उठाते तो वह सिखों का अपमान करता। भाई तारा सिंह जी वाँ के लिए यह बात असहनीय थी। एक दिन उसने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़कर बेच दिया और मिले हुए पैसों को लंगर के लिए दे दिया। इस पर सिखों को सबक सिखाने दे. लिए साहिब राय ने जकरिया खाँ से सहायता की माँग की तो जकरिया खाँ ने 2200 घुड़सवार सिखों के विरुद्ध भेजे। भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके 22 साथी मुग़लों का सामना करते हुए शहीद हो गए। परंतु इससे पूर्व उन्होंने 300 मुगल सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया था। एस० एस० सीतल के शब्दों में,
“उस (तारा सिंह) के बलिदान का सिखों के दिलों पर गहरा प्रभाव पड़ा।”1

3. सिखों की जवाबी.कार्यवाइयाँ (Retaliatory measures of the Sikhs)-भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके साथियों के बलिदान ने सिखों में एक नया जोश पैदा किया। उन्होंने गुरिल्ला युद्धों द्वारा सरकारी कोषों को लूटना आरंभ कर दिया। उन्होंने कई स्थानों पर आक्रमण करके सरकार के पिठुओं को मार डाला। जब जकरिया खाँ इन सिखों के विरुद्ध अपने सैनिकों को भेजता तो वे झट वनों और पहाड़ों में जा छुपते।

4. हैदरी ध्वज की घटना (Incident of Haidri Flag) जकरिया खाँ ने सिखों का अंत करने के लिए विवश होकर जेहाद का नारा लगाया। हजारों की संख्या में मुसलमान इनायत उल्ला खाँ के ध्वज तले एकत्रित हो गए। उन्हें ईद के शुभ दिन एक हैदरी ध्वज दिया गया और यह कहा गया कि इस ध्वज तले लड़ने वालों को अल्ला अवश्य विजय देगा। परंतु एक दिन लगभग 7 हज़ार सिखों ने इन गाज़ियों पर अचानक आक्रमण करके हज़ारों गाज़ियों की हत्या कर दी। इस घटना से सरकार की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा।

5. जकरिया खाँ का सिखों से समझौता (Agreement of Zakariya Khan with the Sikhs) अब ज़करिया खाँ ने सिखों को प्रसन्न करने की नीति अपनाई। उसने 1733 ई० में घोषणा की कि यदि सिख सरकार विरोधी कार्यवाइयों को बंद कर दें तो उन्हें एक लाख रुपए वार्षिक आय वाली एक जागीर व उनके नेता को ‘नवाब’ की उपाधि दी जाएगी। पहले तो सिख इस समझौते के विरुद्ध थे, परंतु बाद में उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। सिखों ने नवाब की उपाधि सरदार कपूर सिंह फैज़लपुरिया को दी।

6. बुड्डा दल एवं तरुणा दल का गठन (Formation of Buddha Dal & Taruna Dal)-मुग़लों से समझौता हो जाने पर नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे पुन: अपने घरों में लौट आएं। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्हें दो जत्थों में संगठित कर दिया। ये जत्थे थेबुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्ष से बड़ी आयु के सिखों को शामिल किया गया तथा तरुणा दल में उससे कम आयु वाले सिखों को। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में विभाजित किया गया था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देख-रेख करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का सामना करता था।

7. मुग़लों और सिखों के बीच पुनः संघर्ष (Renewed Struggle between the Mughals and the. Sikhs)-अपनी शक्ति को संगठित करने के बाद सिखों ने अपनी सैनिक कार्यवाइयों को फिर से आरंभ कर दिया। उन्होंने शाही खजाने को लुटना आरंभ कर दिया था। अतः जकरिया खाँ ने क्रोधित होकर सिखों को दी गई जागीर को 1735 ई० में ज़ब्त कर लिया। सिखों के विरुद्ध पुनः कड़ी सैनिक कार्यवाई के आदेश दिए गए। परिणामस्वरूप. सिख वनों की ओर चले गए। इस अवसर का लाभ उठाकर मुग़लों ने हरिमंदिर साहिब पर अधिकार कर लिया।

8. भाई मनी सिंह जी का बलिदान (Martyrdom of Bhai Mani Singh Ji)-भाई मनी सिंह जी 1721 ई० से हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी चले आ रहे थे। उन्होंने जकरिया खाँ को यह निवेदन किया कि यदि वह सिखों को दीवाली के अवसर पर हरिमंदिर साहिब आने की अनुमति दे तो वे 5,000 रुपए भेंट करेंगे। जकरिया खाँ ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। परंतु सिख अमृतसर में एकत्रित हो ही रहे थे, कि जकरिया खाँ के सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर दिया और कई निर्दोष सिखों को शहीद कर दिया। फलस्वरूप हरिमंदिर साहिब में दीवाली का उत्सव न मनाया जा सका। जकरिया खाँ ने भाई मनी सिंह जी से 5,000 रुपए की माँग की। भाई मनी सिंह जी यह पैसा देने में असमर्थ रहे अतः उन्हें बंदी बनाकर लाहौर भेज दिया गया। भाई साहिब को इस्लाम ग्रहण करने को कहा गया, परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें 1738 ई० में निर्ममतापूर्वक शहीद कर दिया गया। इस घटना से सिखों में रोष की लहर दौड़ गई। प्रसिद्ध इतिहासकार खुशवंत सिंह के विचारानुसार,
“पवित्र एवं पूज्य योग मुख्य पुजारी (भाई मनी सिंह) के बलिदान के कारण सिख भड़क उठे।”2

9. सिखों का नादिरशाह को लूटना (Sikhs robbed Nadir Shah)-1739 ई० में नादिरशाह दिल्ली में भारी लूटपाट करके पंजाब से होता हुआ वापिस ईरान जा रहा था। जब सिखों को यह सूचना मिली तो उन्होंने आक्रमण करके उसका बहुत-सा खज़ाना लूट लिया। नादिरशाह ने जकरिया खाँ को यह चेतावनी दी कि शीघ्र ही सिख पंजाब के शासक होंगे।

10. जकरिया खाँ द्वारा सिखों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाइयाँ (Strong actions against the Sikhs by Zakariya Khan) नादिरशाह की चेतावनी का जकरियाँ खाँ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उसने सिखों के विनाश के लिए अनेक पग उठाए। सिखों का पुनः प्रतिदिन बड़ी निर्दयता से शहीद किया जाने लगा। कुछ प्रमुख शहीदों का वर्णन इस प्रकार है

i) भाई बोता सिंह जी (Bhai Bota Singh Ji)—जकरियाँ खाँ ने असंख्य सिखों को शहीद करने के पश्चात् यह घोषणा की कि उसने सिखों का नामो-निशान मिटा दिया है। सिखों का अस्तित्व दर्शाने के लिए भाई बोता सिंह जी ने सराय नूरदीन में एक चौंकी स्थापित कर ली और वहाँ चुंगीकर लेना आरंभ कर दिया। जकरिया खाँ ने उसे गिरफ्तार करने के लिए कुछ सेना भेजी। भाई बोता सिंह जी शत्रुओं का डटकर सामना करते हुए शहीद हो गए।

ii) भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी (Bhai Mehtab Singh Ji and Bhai Sukha Singh Ji) अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव का चौधरी मस्सा रंघड़ हरिमंदिर साहिब की पवित्रता को भंग कर रहा था। इस कारण सिख उसे एक सबक सिखाना चाहते थे। एक दिन भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सखा सिंह जी कुछ बोरियों में पत्थर भर कर तथा ऊपर कुछ सिक्के रखकर हरिमंदिर साहिब पहुँच गए। सैनिकों द्वारा पूछने पर उन्होंने बताया कि वह लगान उगाह कर लाए हैं । मस्सा रंघड़ सिक्कों से भरी बोरियाँ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। जैसे ही वह ये बोरियाँ लेने नीचे झुका उसी समय भाई मेहताब सिंह जी ने तलवार के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर। बाद में मुग़लों ने भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी को बंदी बनाकर 1740 ई० . में बड़ी निर्दयता से शहीद कर दिया गया।

iii) बाल हकीकत राय जी (Bal Haqiqat Rai Ji)—बाल हकीकत राय जी स्यालकोट का रहने वाला था। एक दिन कुछ मुसलमान लड़कों ने हिंदू देवी-देवताओं के विरुद्ध कुछ अपमानजनक शब्द कहे। बाल हकीकत राय जी यह सहन न कर सके। उसने हज़रत मुहम्मद साहिब के संबंध में कुछ अनुचित शब्द कहे। इस पर बाल .हकीकत राय जी पर मुकद्दमा चलाया गया तथा मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई। यह घटना 1742 ई० की है। इस घटना के कारण लोगों ने ज़ालिम मुग़ल शासन का अंत करने का प्रण लिया।

iv) भाई तारू सिंह जी (Bhai Taru Singh Ji)—भाई तारू सिंह जी माझा क्षेत्र के पूहला गाँव के निवासी थे। वह अपनी आय से अक्सर सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था । जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को लाहौर बुलाकर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वह किसी भी मूल्य पर सतगुरु की दी हुई पवित्र दात केशों को नहीं दे सकते। हाँ वह अपने केश अपनी खोपड़ी सहित उतरवा सकते हैं। इस पर जल्लादों ने भाई तारू सिंह की खोपड़ी उतार दी। यह घटना 1745 ई० की है। जब भाई साहिब जी की खोपड़ी उतारी जा रही थी तो वह जपुजी साहिब का पाठ कर रहे थे। इस अद्वितीय बलिदान ने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न कर दिया।

11. जकरिया खाँ की मृत्यु (Death of Zakariya Khan) जकरिया खाँ ने निस्संदेह अपने शासन काल में सिखों पर घोर अत्याचार किए। वह अपने अथक प्रयत्नों के बावजूद सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। जकरिया खाँ की 1 जुलाई, 1745 ई० को मृत्यु हो गई। पतवंत सिंह का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“किसी ने भी सिखों का इससे अधिक उत्साह के साथ दमन नहीं किया जितना कि जकरिया खाँ ने।”3

1. “The news of his martyrdom, deeply moved the feelings of the Sikhs.” S.S. Seetal, Rise of the Sikh Power in the Punjab (Ludhiana : 1982) p. 166. .
2. “The killing of the pious and venerable head priest caused deep resentment among the Sikhs.” . Khushwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1989) Vol. 1, p. 237.
3. “No one persecuted the Sikhs with greater zeal than Zakariya Khan.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 83.
याहिया रवाँ 1746-47 ई० (Yahiya Khan 1746 – 47 A.D.)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

प्रश्न 3.
संक्षेप में अब्दुस समद खाँ तथा जकरिया खाँ के सिखों के साथ संबंधों की चर्चा करें।
(Briefly describe the relations of Abdus Samad Khan and Zakariya Khan with the Sikhs.)
उत्तर-
1. सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाइयाँ (Harsh measures against the Sikhs)—जकरिया खाँ ने पद संभालते ही सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए 20,000 सैनिकों को भर्ती किया। गाँवों के मुकद्दमों तथा चौधरियों को यह आदेश दिया गया कि वे सिखों को अपने क्षेत्र में शरणं न दें। जकरिया खाँ ने यह घोषणा की कि किसी सिख के संबंध में सूचना देने वाले को 10 रुपये, बंदी बनवाने वाले को 25 रुपए, बंदी बनाकर सरकार के सुपुर्द करने वाले को 50 रुपए और सिर काटकर सरकार को भेंट करने वाले को 100 रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा। इस प्रकार सिखों पर अत्याचारों का दौर पुनः आरंभ हो गया। सैंकड़ों सिखों को लाहौर के दिल्ली गेट में शहीद किया जाने लगा। इसके कारण इस स्थान का नाम ही ‘शहीद गंज’ पड़ गया।

2. भाई तारा सिंह जी वाँ का बलिदान (Martyrdom of Bhai Tara Singh Ji Van)-भाई तारा सिंह जी अमृतसर जिला के गाँव वाँ का निवासी था। उसने बंदा सिंह बहादुर की लड़ाइयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नौशहरा का चौधरी साहिब राय सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता था। जब सिख इस बात पर आपत्ति उठाते तो वह सिखों का अपमान करता। भाई तारा सिंह जी वाँ के लिए यह बात असहनीय थी। एक दिन उसने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़कर बेच दिया और मिले हुए पैसों को लंगर के लिए दे दिया। इस पर सिखों को सबक सिखाने दे. लिए साहिब राय ने जकरिया खाँ से सहायता की माँग की तो जकरिया खाँ ने 2200 घुड़सवार सिखों के विरुद्ध भेजे। भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके 22 साथी मुग़लों का सामना करते हुए शहीद हो गए। परंतु इससे पूर्व उन्होंने 300 मुगल सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया था। एस० एस० सीतल के शब्दों में,
“उस (तारा सिंह) के बलिदान का सिखों के दिलों पर गहरा प्रभाव पड़ा।”1

3. सिखों की जवाबी.कार्यवाइयाँ (Retaliatory measures of the Sikhs)-भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके साथियों के बलिदान ने सिखों में एक नया जोश पैदा किया। उन्होंने गुरिल्ला युद्धों द्वारा सरकारी कोषों को लूटना आरंभ कर दिया। उन्होंने कई स्थानों पर आक्रमण करके सरकार के पिठुओं को मार डाला। जब जकरिया खाँ इन सिखों के विरुद्ध अपने सैनिकों को भेजता तो वे झट वनों और पहाड़ों में जा छुपते।

4. हैदरी ध्वज की घटना (Incident of Haidri Flag) जकरिया खाँ ने सिखों का अंत करने के लिए विवश होकर जेहाद का नारा लगाया। हजारों की संख्या में मुसलमान इनायत उल्ला खाँ के ध्वज तले एकत्रित हो गए। उन्हें ईद के शुभ दिन एक हैदरी ध्वज दिया गया और यह कहा गया कि इस ध्वज तले लड़ने वालों को अल्ला अवश्य विजय देगा। परंतु एक दिन लगभग 7 हज़ार सिखों ने इन गाज़ियों पर अचानक आक्रमण करके हज़ारों गाज़ियों की हत्या कर दी। इस घटना से सरकार की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा।

5. जकरिया खाँ का सिखों से समझौता (Agreement of Zakariya Khan with the Sikhs) अब ज़करिया खाँ ने सिखों को प्रसन्न करने की नीति अपनाई। उसने 1733 ई० में घोषणा की कि यदि सिख सरकार विरोधी कार्यवाइयों को बंद कर दें तो उन्हें एक लाख रुपए वार्षिक आय वाली एक जागीर व उनके नेता को ‘नवाब’ की उपाधि दी जाएगी। पहले तो सिख इस समझौते के विरुद्ध थे, परंतु बाद में उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। सिखों ने नवाब की उपाधि सरदार कपूर सिंह फैज़लपुरिया को दी।

6. बुड्डा दल एवं तरुणा दल का गठन (Formation of Buddha Dal & Taruna Dal)-मुग़लों से समझौता हो जाने पर नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे पुन: अपने घरों में लौट आएं। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्हें दो जत्थों में संगठित कर दिया। ये जत्थे थेबुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्ष से बड़ी आयु के सिखों को शामिल किया गया तथा तरुणा दल में उससे कम आयु वाले सिखों को। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में विभाजित किया गया था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देख-रेख करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का सामना करता था।

7. मुग़लों और सिखों के बीच पुनः संघर्ष (Renewed Struggle between the Mughals and the. Sikhs)-अपनी शक्ति को संगठित करने के बाद सिखों ने अपनी सैनिक कार्यवाइयों को फिर से आरंभ कर दिया। उन्होंने शाही खजाने को लुटना आरंभ कर दिया था। अतः जकरिया खाँ ने क्रोधित होकर सिखों को दी गई जागीर को 1735 ई० में ज़ब्त कर लिया। सिखों के विरुद्ध पुनः कड़ी सैनिक कार्यवाई के आदेश दिए गए। परिणामस्वरूप. सिख वनों की ओर चले गए। इस अवसर का लाभ उठाकर मुग़लों ने हरिमंदिर साहिब पर अधिकार कर लिया।

8. भाई मनी सिंह जी का बलिदान (Martyrdom of Bhai Mani Singh Ji)-भाई मनी सिंह जी 1721 ई० से हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी चले आ रहे थे। उन्होंने जकरिया खाँ को यह निवेदन किया कि यदि वह सिखों को दीवाली के अवसर पर हरिमंदिर साहिब आने की अनुमति दे तो वे 5,000 रुपए भेंट करेंगे। जकरिया खाँ ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। परंतु सिख अमृतसर में एकत्रित हो ही रहे थे, कि जकरिया खाँ के सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर दिया और कई निर्दोष सिखों को शहीद कर दिया। फलस्वरूप हरिमंदिर साहिब में दीवाली का उत्सव न मनाया जा सका। जकरिया खाँ ने भाई मनी सिंह जी से 5,000 रुपए की माँग की। भाई मनी सिंह जी यह पैसा देने में असमर्थ रहे अतः उन्हें बंदी बनाकर लाहौर भेज दिया गया। भाई साहिब को इस्लाम ग्रहण करने को कहा गया, परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें 1738 ई० में निर्ममतापूर्वक शहीद कर दिया गया। इस घटना से सिखों में रोष की लहर दौड़ गई। प्रसिद्ध इतिहासकार खुशवंत सिंह के विचारानुसार,
“पवित्र एवं पूज्य योग मुख्य पुजारी (भाई मनी सिंह) के बलिदान के कारण सिख भड़क उठे।”2

9. सिखों का नादिरशाह को लूटना (Sikhs robbed Nadir Shah)-1739 ई० में नादिरशाह दिल्ली में भारी लूटपाट करके पंजाब से होता हुआ वापिस ईरान जा रहा था। जब सिखों को यह सूचना मिली तो उन्होंने आक्रमण करके उसका बहुत-सा खज़ाना लूट लिया। नादिरशाह ने जकरिया खाँ को यह चेतावनी दी कि शीघ्र ही सिख पंजाब के शासक होंगे।

10. जकरिया खाँ द्वारा सिखों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाइयाँ (Strong actions against the Sikhs by Zakariya Khan) नादिरशाह की चेतावनी का जकरियाँ खाँ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उसने सिखों के विनाश के लिए अनेक पग उठाए। सिखों का पुनः प्रतिदिन बड़ी निर्दयता से शहीद किया जाने लगा। कुछ प्रमुख शहीदों का वर्णन इस प्रकार है

i) भाई बोता सिंह जी (Bhai Bota Singh Ji)—जकरियाँ खाँ ने असंख्य सिखों को शहीद करने के पश्चात् यह घोषणा की कि उसने सिखों का नामो-निशान मिटा दिया है। सिखों का अस्तित्व दर्शाने के लिए भाई बोता सिंह जी ने सराय नूरदीन में एक चौंकी स्थापित कर ली और वहाँ चुंगीकर लेना आरंभ कर दिया। जकरिया खाँ ने उसे गिरफ्तार करने के लिए कुछ सेना भेजी। भाई बोता सिंह जी शत्रुओं का डटकर सामना करते हुए शहीद हो गए।

ii) भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी (Bhai Mehtab Singh Ji and Bhai Sukha Singh Ji) अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव का चौधरी मस्सा रंघड़ हरिमंदिर साहिब की पवित्रता को भंग कर रहा था। इस कारण सिख उसे एक सबक सिखाना चाहते थे। एक दिन भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सखा सिंह जी कुछ बोरियों में पत्थर भर कर तथा ऊपर कुछ सिक्के रखकर हरिमंदिर साहिब पहुँच गए। सैनिकों द्वारा पूछने पर उन्होंने बताया कि वह लगान उगाह कर लाए हैं । मस्सा रंघड़ सिक्कों से भरी बोरियाँ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। जैसे ही वह ये बोरियाँ लेने नीचे झुका उसी समय भाई मेहताब सिंह जी ने तलवार के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर। बाद में मुग़लों ने भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी को बंदी बनाकर 1740 ई० . में बड़ी निर्दयता से शहीद कर दिया गया।

iii) बाल हकीकत राय जी (Bal Haqiqat Rai Ji)—बाल हकीकत राय जी स्यालकोट का रहने वाला था। एक दिन कुछ मुसलमान लड़कों ने हिंदू देवी-देवताओं के विरुद्ध कुछ अपमानजनक शब्द कहे। बाल हकीकत राय जी यह सहन न कर सके। उसने हज़रत मुहम्मद साहिब के संबंध में कुछ अनुचित शब्द कहे। इस पर बाल .हकीकत राय जी पर मुकद्दमा चलाया गया तथा मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई। यह घटना 1742 ई० की है। इस घटना के कारण लोगों ने ज़ालिम मुग़ल शासन का अंत करने का प्रण लिया।

iv) भाई तारू सिंह जी (Bhai Taru Singh Ji)—भाई तारू सिंह जी माझा क्षेत्र के पूहला गाँव के निवासी थे। वह अपनी आय से अक्सर सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था । जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को लाहौर बुलाकर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वह किसी भी मूल्य पर सतगुरु की दी हुई पवित्र दात केशों को नहीं दे सकते। हाँ वह अपने केश अपनी खोपड़ी सहित उतरवा सकते हैं। इस पर जल्लादों ने भाई तारू सिंह की खोपड़ी उतार दी। यह घटना 1745 ई० की है। जब भाई साहिब जी की खोपड़ी उतारी जा रही थी तो वह जपुजी साहिब का पाठ कर रहे थे। इस अद्वितीय बलिदान ने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न कर दिया।

11. जकरिया खाँ की मृत्यु (Death of Zakariya Khan) जकरिया खाँ ने निस्संदेह अपने शासन काल में सिखों पर घोर अत्याचार किए। वह अपने अथक प्रयत्नों के बावजूद सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। जकरिया खाँ की 1 जुलाई, 1745 ई० को मृत्यु हो गई। पतवंत सिंह का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“किसी ने भी सिखों का इससे अधिक उत्साह के साथ दमन नहीं किया जितना कि जकरिया खाँ ने।”3

1. “The news of his martyrdom, deeply moved the feelings of the Sikhs.” S.S. Seetal, Rise of the Sikh Power in the Punjab (Ludhiana : 1982) p. 166. .
2. “The killing of the pious and venerable head priest caused deep resentment among the Sikhs.” . Khushwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1989) Vol. 1, p. 237.
3. “No one persecuted the Sikhs with greater zeal than Zakariya Khan.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 83.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

याहिया रवाँ 1746-47 ई० (Yahiya Khan 1746 – 47 A.D.)

प्रश्न 4.
याहिया खाँ ने सिखों की ताकत को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए ? (What steps were taken by Yahiya Khan to crush the power of the Sikhs ?)
उत्तर-
ज़करिया खाँ की मृत्यु के बाद याहिया खाँ दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन के सहयोग से 1746 ई० में लाहौर का सूबेदार बना। वह 1747 ई० तक इस पद पर रहा। सिखों पर अत्याचार करने के लिए वह अपने पिता ज़करिया खाँ से एक कदम आगे था। उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों की गतिविधियाँ (Activities of the Sikhs)-ज़करिया खाँ की मृत्यु का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को संगठित कर लिया था। उन्होंने पंजाब के कई गाँवों में चौधरियों तथा मुकद्दमों की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के कारण हत्या कर दी थी। इसके अतिरिक्त सिख पंजाब के कई क्षेत्रों में खूब लूटपाट करते थे।

2. जसपत राय की मृत्यु (Death of Jaspat Rai)-1746 ई० में सिखों के एक जत्थे ने गोंदलावाला गाँव से बहुत-सी भेड़-बकरियों को पकड़ लिया। लोगों की शिकायत पर जसपत राय ने सिखों को ये भेड़-बकरियाँ लौटाने का आदेश दिया। सिखों के इंकार करने पर उसने सिखों पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई के दौरान जसपत राय मारा गया। इस कारण मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई।

3. लखपत राय की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही (Actions of Lakhpat Rai against the Sikhs)जसपत राय की मृत्यु का समाचार पाकर उसका भाई दीवान लखपत राय आग-बबूला हो गया। उसने यह प्रण किया कि वह सिखों का नामो-निशान मिटा कर ही दम लेगा। याहिया खाँ ने सिखों को उनके धर्म-ग्रंथों को पढने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गुरु शब्द के प्रयोग पर रोक लगा दी। इस उद्देश्य से उसने गुड़ के स्थान पर लोगों को रोड़ी शब्द का प्रयोग करने के लिए कहा, क्योंकि गुड़ शब्द की आवाज़ गुरु के साथ मिलती-जुलती थी। इसी प्रकार ग्रंथ के स्थान पर पोथी शब्द का प्रयोग करने का आदेश दिया गया। इन आदेशों का उल्लंघन करने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था। उसने बहुत-से सिखों को बंदी बनाया और उनको लाहौर लाकर शहीद कर दिया।

4. पहला घल्लूघारा (First Holocaust)-1746 ई० में याहिया खाँ और लखपत राय के नेतृत्व में मग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को काहनूवान में घेर लिया। सिख बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका पीछा किया। सिख भारी संकट में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 सिखों को बंदी बना लिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से याद किया जाता है। गुरबख्श सिंह का यह कहना पूर्णतः ठीक है,
“1746 के इस विनाशकारी झटके ने सिखों के इस विश्वास को और बल प्रदान किया कि वे अत्याचारियों का सर्वनाश करें।”4

5. याहिया खाँ का पतन (Fall of Yahiya Khan)-नवंबर, 1746 ई० में याहिया खाँ के छोटे भाई शाहनवाज़ खाँ ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह चार मास तक रहा। इस विद्रोह के अंत में शाहनवाज़ खाँ सफल रहा और उसने 17 मार्च, 1747 ई० को याहिया खाँ को कारावास में डाल दिया। इस प्रकार उसके अत्याचारों का अंत हुआ।

4. “This devastating blow to the Sikhs in 1746 made them more determined than ever to put an end to the genocide.” Gurbakhsh Singh, The Sikh Faith : A Universal Message (Amritsar : 1997) p. 93.

प्रश्न 5.
1726-1746 तक जकरिया खाँ तथा याहिया खाँ ने सिखों की ताकत कुचलने के लिए क्या कदम उठाए ?
(What steps were taken by Zakariya Khan and Yahiya Khan from 1726-1746 in order to crush the power of the Sikhs ?)
अथवा
ज़करिया खाँ तथा याहिया खाँ के अधीन सिखों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन करें।
(Describe the persecution of the Sikhs during the rule of Zakariya Khan and Yahiya Khan.)
उत्तर-
ज़करिया खाँ की मृत्यु के बाद याहिया खाँ दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन के सहयोग से 1746 ई० में लाहौर का सूबेदार बना। वह 1747 ई० तक इस पद पर रहा। सिखों पर अत्याचार करने के लिए वह अपने पिता ज़करिया खाँ से एक कदम आगे था। उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों की गतिविधियाँ (Activities of the Sikhs)-ज़करिया खाँ की मृत्यु का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को संगठित कर लिया था। उन्होंने पंजाब के कई गाँवों में चौधरियों तथा मुकद्दमों की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के कारण हत्या कर दी थी। इसके अतिरिक्त सिख पंजाब के कई क्षेत्रों में खूब लूटपाट करते थे।

2. जसपत राय की मृत्यु (Death of Jaspat Rai)-1746 ई० में सिखों के एक जत्थे ने गोंदलावाला गाँव से बहुत-सी भेड़-बकरियों को पकड़ लिया। लोगों की शिकायत पर जसपत राय ने सिखों को ये भेड़-बकरियाँ लौटाने का आदेश दिया। सिखों के इंकार करने पर उसने सिखों पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई के दौरान जसपत राय मारा गया। इस कारण मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई।

3. लखपत राय की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही (Actions of Lakhpat Rai against the Sikhs)जसपत राय की मृत्यु का समाचार पाकर उसका भाई दीवान लखपत राय आग-बबूला हो गया। उसने यह प्रण किया कि वह सिखों का नामो-निशान मिटा कर ही दम लेगा। याहिया खाँ ने सिखों को उनके धर्म-ग्रंथों को पढने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गुरु शब्द के प्रयोग पर रोक लगा दी। इस उद्देश्य से उसने गुड़ के स्थान पर लोगों को रोड़ी शब्द का प्रयोग करने के लिए कहा, क्योंकि गुड़ शब्द की आवाज़ गुरु के साथ मिलती-जुलती थी। इसी प्रकार ग्रंथ के स्थान पर पोथी शब्द का प्रयोग करने का आदेश दिया गया। इन आदेशों का उल्लंघन करने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था। उसने बहुत-से सिखों को बंदी बनाया और उनको लाहौर लाकर शहीद कर दिया।

4. पहला घल्लूघारा (First Holocaust)-1746 ई० में याहिया खाँ और लखपत राय के नेतृत्व में मग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को काहनूवान में घेर लिया। सिख बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका पीछा किया। सिख भारी संकट में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 सिखों को बंदी बना लिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से याद किया जाता है। गुरबख्श सिंह का यह कहना पूर्णतः ठीक है,
“1746 के इस विनाशकारी झटके ने सिखों के इस विश्वास को और बल प्रदान किया कि वे अत्याचारियों का सर्वनाश करें।”4

5. याहिया खाँ का पतन (Fall of Yahiya Khan)-नवंबर, 1746 ई० में याहिया खाँ के छोटे भाई शाहनवाज़ खाँ ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह चार मास तक रहा। इस विद्रोह के अंत में शाहनवाज़ खाँ सफल रहा और उसने 17 मार्च, 1747 ई० को याहिया खाँ को कारावास में डाल दिया। इस प्रकार उसके अत्याचारों का अंत हुआ।

4. “This devastating blow to the Sikhs in 1746 made them more determined than ever to put an end to the genocide.” Gurbakhsh Singh, The Sikh Faith : A Universal Message (Amritsar : 1997) p. 93.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

प्रश्न 6.
1716 ई० से 1747 ई० तक सिखों के कत्लेआम का संक्षिप्त वर्णन करें। (Explain in brief the persecution of the Sikhs during 1716 to 1747 A.D.)
अथवा
1716-1747 के समय दौरान मुग़ल गवर्नरों ने सिखों को कुचलने के लिए क्या प्रयास किया ? मुगल गवर्नर सिखों को कुचलने में क्यों असफल रहे ?
(What steps did the Mughal Governors take to crush the Sikhs between 1716-1747 ? Why did the Mughal Governors fail to suppress the Sikhs ?)
नोट-
उत्तर के लिए विद्यार्थी प्रश्न नं० 1, 2 एवं 4 का उत्तर देखें।

मीर मन्नू 1748-53 ई०. (Mir Mannu 1748-53 A.D.)

प्रश्न 7.
मीर मन्नू के अधीन सिखों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन कीजिए। उसकी विफलता के कारण भी बताएँ।
(Discuss the persecution of the Sikhs under Mir Mannu. Explain the causes of his failure also.)
अथवा
मीर मन्नू के सिखों के साथ कैसे संबंध थे ? वह अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में क्यों विफल रहा ? (Describe Mir Mannu’s relations with the Sikhs. Why did he fail to achieve his objective ?)
अथवा
मीर मन्नू कौन था ? सिखों को कुचलने में उसकी विफलता के क्या कारण थे ? (Who was Mir Mannu ? What were the causes of his failure to crush the Sikhs ?)
अथवा
मीर मन्नू के सिखों के साथ संबंधों की चर्चा कीजिए। (Describe the relations Mir Mannu had with the Sikhs.)
अथवा
मुईन-उल-मुल्क (मीर मन्नू) के जीवन और सफलताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the career and achievements of Muin-Ul-Mulk (Mir Mannu)).
अथवा
मीर मन्नू ने सिखों के साथ निपटने के लिए क्या प्रयत्न किए? (What was the strategy of Mir Mannu to fight against the sikhs ?)
उत्तर-
मीर मन्नू मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला के वज़ीर कमरुद्दीन का पुत्र था। वह मुईन-उल-मुल्क के नाम से भी जाना जाता था। वह एक वीर, अनुशासित तथा योग्य राजनीतिज्ञ था। मीर मन्नू के इन्हीं गुणों के कारण उसे पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया गया था। वह 1748 ई० से 1753 ई० तक पंजाब का सूबेदार रहा। हरबंस सिंह के अनुसार, “मीर मन्नू अपने पूर्व-अधिकारियों से अधिक सिखों का कट्टर शत्रु सिद्ध हुआ।”5
1. मीर मन्न की मश्किलें (Difficulties of Mir Mannu) मीर मन्न जब पंजाब का सूबेदार बना तब उसके सामने पहाड़ सी मुश्किलें थीं। सिंहासन की प्राप्ति के लिए याहिया खाँ और शाहनवाज खाँ के बीच संघर्ष के कारण पंजाब में अराजकता फैल गई थी। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण ने पंजाब की राजनीतिक स्थिति को जटिल बना दिया था। सिखों ने अपनी लूटपाट की कार्यवाइयाँ तेज़ कर दी थीं। राज्यकोष लगभग रिक्त पड़ा था। मीर मन्नू ने इन मुश्किलों पर नियंत्रण करने के लिए विशेष पग उठाने का निर्णय लिया।

2. सिखों के विरुद्ध कार्यवाई (Action against the Sikhs)-मीर मन्नू ने सर्वप्रथम अपना ध्यान सिखों की ओर लगाया। उसने सिखों का विनाश करने के लिए पंजाब के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी सेना भेजी। उसने जालंधर के फ़ौजदार अदीना बेग को सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने के आदेश दिए। सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाया जाने लगा। अदीना बेग और सिखों में हुई एक लड़ाई में 600 सिख शहीद हो गए। फलस्वरूप सिखों ने वनों में शरण ली।

3. रामरौणी दुर्ग का घेरा (Siege of Ramrauni Fort)-सिख अक्तूबर, 1748 ई० में दीवाली के अवसर पर अमृतसर में एकत्रित हुए। जब मीर मन्नू को यह समाचार मिला तो वह एक विशाल सेना के साथ अमृतसर की ओर बढ़ा। सिखों ने रामरौणी दुर्ग में जाकर शरण ली। मीर मन्नू ने रामरौणी दुर्ग को घेर लिया। यह घेरा चार माह तक जारी रहा। ऐसे समय में जस्सा सिंह रामगढ़िया अपने सैनिकों सहित सिखों की सहायता के लिए पहुँचा। इसी समय मीर मन्नू को यह सूचना मिली कि अहमदशाह अब्दाली पंजाब पर आक्रमण करने वाला है। फलस्वरूप मीर मन्नू ने सिखों के साथ समझौता कर लिया और घेरा उठा लिया। समझौते के अनुसार मीर मन्नू ने सिखों को पट्टी में एक जागीर दी ताकि वे शाँति से रहें।

4. अब्दाली का दूसरा आक्रमण (Second Invasion of Abdali)-अहमदशाह अब्दाली ने दिसंबर, 1748 ई० में पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। मीर मन्नू ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए अब्दाली से समझौता कर लिया। इसके अनुसार मीर मन्नू ने सियालकोट, गुजरात, पसरूर और औरंगाबाद का लगान अब्दाली को देना मान लिया। यह लगान 14 लाख रुपए वार्षिक था।

5. नासिर खाँ एवं शाह नवाज़ खाँ के विद्रोह (Revolts of Nasir Khan and Shah Nawaz Khan)दिल्ली के वज़ीर सफदरजंग के भड़काने पर फ़ौजदार नासिर खाँ तथा मुलतान के सूबेदार शाहनवाज़ खाँ ने मीर मन्नू के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शाहनवाज़ खाँ ने सिखों को भी लाहौर में अशांति फैलाने के लिए उकसाया। मीर मन्नू ने कौड़ा मल को शाहनवाज़ खाँ के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। इस लड़ाई में शाहनवाज़ खाँ मारा गया।

6. अब्दाली का तीसरा आक्रमण (Third Invasion of Abdali)-अब्दाली ने 1751 ई० के अंत में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण कर दिया। 6 मार्च, 1752 ई० में अहमदशाह अब्दाली और मीर मन्नू की सेनाओं के बीच लाहौर के निकट बड़ा घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में मीर मन्नू को बंदी बना लिया गया। इस प्रकार अहमदशाह अब्दाली का 1752 ई० में पंजाब पर अधिकार हो गया। अहमदशाह अब्दाली ने मीर मन्नू को ही पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया और उसे सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का आदेश दिया।

7. सिखों पर पुनः अत्याचार (Renewal of Sikh Persecution)—मीर मन्नू ने सिखों का सर्वनाश करने के लिए बड़े जोरदार प्रयास आरंभ कर दिए। सिखों के सिरों के मूल्य निश्चित किए गए। सिखों को शरण देने वालों को कठोर दंड दिए गए। मार्च, 1753 ई० में जब सिख होला मोहल्ला के अवसर पर माखोवाल में एकत्रित हुए थे तो अदीना बेग ने अचानक आक्रमण करके बहुत-से सिखों की हत्या कर दी। सिख स्त्रियों और बच्चों को बंदी बनाकर लाहौर ले जाया गया। इन स्त्रियों और बच्चों पर जो अत्याचार किए गए, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक स्त्री को सवा-सवा मन अनाज प्रतिदिन पीसने के लिए दिया जाता। छोटे बच्चों को उनकी माताओं से छीनकर उनके सामने हत्या की जाती। इन घोर अत्याचारों के बावजूद सिखों की संख्या कम होने की अपेक्षा बढ़ती चली गई। उस समय यह लोकोक्ति बहुत प्रचलित थी
“मन्नू असाडी दातरी, असीं मन्नू दे सोए।
ज्यों-ज्यों मन्नू वड्दा, असीं दून सवाए होए।”

8. मीर मन्नू की मृत्यु (Death of Mir Mannu)-3 नवंबर, 1753 ई० को मीर मन्नू को यह सूचना मिली कि कुछ सिख तिलकपुर में एक गन्ने के खेत में छुपे हुए हैं। वह तुरंत सिखों का अंत करने के लिए अपने घोड़े पर सवार होकर वहाँ पहुँच गया। वहाँ पर सिखों द्वारा चलाई गई गोलियों के कारण उसका घोड़ा घबरा गया। उसने मीर मन्नू को नीचे गिरा दिया, परंतु उसका एक पाँव घोड़े की रकाब में फंस गया। घोड़ा उसी प्रकार मीर मन्नू को घसीटता गया जिसके कारण मीर मन्नू की मृत्यु हो गई। इस प्रकार प्रकृति ने मीर मन्नू से उसके अत्याचारों का प्रतिशोध ले लिया। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एन० के० सिन्हा ने ठीक लिखा है,

“अप्रत्यक्ष रूप में मीर मन्नू सिखों की शक्ति बढ़ाने के लिए उत्तरदायी था।”6
1. दल खालसा का संगठन (Organisation of the Dal Khalsa)-मीर मन्नू की विफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण दल खालसा का संगठन था। सिखों ने मीर मन्नू के अत्याचारों का डटकर सामना करने के लिए स्वयं को 12 जत्थों में संगठित कर लिया था। सिख दल खालसा का अत्यधिक सम्मान करते थे और इसके आदेश पर कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे। परिणामस्वरूप मीर मन्नू के लिए सिखों का दमन करना कठिन हो गया।

2. सिखों के असाधारण गुण (Uncommon qualities of the Sikhs)–सिखों में अपने धर्म के लिए दृढ़ निश्चय, अपार जोश और असीमित बलिदान की भावनाएँ थीं। वे अत्यधिक मुश्किलों की घड़ी में भी अपने धैर्य का त्याग नहीं करते थे। मीर मन्नू ने सिखों पर असीमित अत्याचार किए, परंतु वह सिखों को विचलित करने में असफल रहा। अतः सिखों के इन असाधारण गुणों के कारण भी मीर मन्नू विफल रहा।

3. सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति (Guerilla tactics of the Sikhs)-सिखों ने मुग़ल सेना के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाई अर्थात् सिखों को जब अवसर मिलता, वे मुग़ल सेना पर आक्रमण करते और लूटपाट करने के बाद पुनः वनों में जाकर शरण ले लेते। अतः आमने-सामने की टक्कर के अभाव में मीर मन्नू सिखों की शक्ति का दमन करने में विफल रहा।

4. दीवान कौड़ा मल्ल का सिखों से सहयोग (Cooperation of Diwan Kaura Mal with the Sikhs) दीवान कौड़ा मल्ल मीर मन्न का प्रमुख परामर्शदाता था। सहजधारी सिख होने के कारण वह सिखों से सहानुभूति रखता था। मीर मन्नू उसके परामर्श के बिना सिखों के विरुद्ध कोई कार्यवाई नहीं करता था। जब भी मीर मन्नू ने सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का निर्णय किया तो दीवान कौड़ा मल्ल उसे सिखों से समझौता करने के लिए मना लेता था। अतः दीवान कौड़ा मल्ल का सहयोग भी सिख शक्ति को बचाए रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ।

5. अदीना बेग की दोहरी नीति (Dual Policy of Adina Beg)—अदीना बेग जालंधर दोआब का फ़ौजदार था। वह मीर मन्नू के बाद पंजाब का सूबेदार बनना चाहता था। मीर मन्नू ने जब भी उसे सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का आदेश दिया तो उसने इसका पालन नहीं किया। वह पंजाब में अशांति के माहौल को बनाए रखना चाहता था। अतः अदीना बेग की दोहरी नीति भी मीर मन्नू की विफलता का कारण बनी।

6. मीर मन्नू की समस्याएँ (Problems of Mir Mannu)-अपने शासनकाल के दौरान कई समस्याओं से घिरा रहने के कारण भी मीर मन्नू सिखों का पूर्ण दमन करने में विफल रहा। उसकी पहली बड़ी समस्या अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण थे। इन आक्रमणों के कारण उसे सिखों के विरुद्ध कार्यवाई स्थगित करनी पड़ती थी। दूसरा, दिल्ली का वज़ीर सफदरजंग भी उसे पदच्युत करने के लिए षड्यंत्र रचता रहता था। उसके कहने पर ही नासिर खाँ और शाह नवाज़ खाँ ने मीर मन्नू के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। फलस्वरूप मीर मन्नू इन समस्याओं से जूझने में ही व्यस्त रहा।

5. “Mir Mannu proved a worse foe of the Sikhs than his predecessors.” Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (New Delhi : 1983) p. 134.
6. “Indirectly, Mir Mannu was responsible for the growth of the power of the Sikhs.” Dr. N.K. Sinha, Rise of the Sikh Power (Calcutta : 1973) p. 19.

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मीर मन्न की विफलता के कारण (Causes of the Failure of Mir Mannu)

प्रश्न 8.
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the main reasons of the failure of Mir Mannu against the Sikhs ?)
अथवा
मीर मन्नू सिखों को कुचलने में क्यों असफल रहा ?
(Why did Mir Mannu fail to crush the Sikhs ?)
अथवा
मीर मन्नू की असफलता के कारणों की व्याख्या करें।
(Explain the causes of failure of Mir Mannu.) :
उत्तर-
मीर मन्नू ने सिखों का अंत करने के लिए अथक प्रयास किए, परंतु इसके बावजूद वह सिखों का दमन करने में विफल रहा। उसकी विफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. दल खालसा का संगठन (Organisation of the Dal Khalsa)-मीर मन्नू की विफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण दल खालसा का संगठन था। सिखों ने मीर मन्नू के अत्याचारों का डटकर सामना करने के लिए स्वयं को 12 जत्थों में संगठित कर लिया था। सिख दल खालसा का अत्यधिक सम्मान करते थे और इसके आदेश पर कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे। परिणामस्वरूप मीर मन्नू के लिए सिखों का दमन करना कठिन हो गया।

2. सिखों के असाधारण गुण (Uncommon qualities of the Sikhs)–सिखों में अपने धर्म के लिए दृढ़ निश्चय, अपार जोश और असीमित बलिदान की भावनाएँ थीं। वे अत्यधिक मुश्किलों की घड़ी में भी अपने धैर्य का त्याग नहीं करते थे। मीर मन्नू ने सिखों पर असीमित अत्याचार किए, परंतु वह सिखों को विचलित करने में असफल रहा। अतः सिखों के इन असाधारण गुणों के कारण भी मीर मन्नू विफल रहा।

3. सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति (Guerilla tactics of the Sikhs)-सिखों ने मुग़ल सेना के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाई अर्थात् सिखों को जब अवसर मिलता, वे मुग़ल सेना पर आक्रमण करते और लूटपाट करने के बाद पुनः वनों में जाकर शरण ले लेते। अतः आमने-सामने की टक्कर के अभाव में मीर मन्नू सिखों की शक्ति का दमन करने में विफल रहा।

4. दीवान कौड़ा मल्ल का सिखों से सहयोग (Cooperation of Diwan Kaura Mal with the Sikhs) दीवान कौड़ा मल्ल मीर मन्न का प्रमुख परामर्शदाता था। सहजधारी सिख होने के कारण वह सिखों से सहानुभूति रखता था। मीर मन्नू उसके परामर्श के बिना सिखों के विरुद्ध कोई कार्यवाई नहीं करता था। जब भी मीर मन्नू ने सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का निर्णय किया तो दीवान कौड़ा मल्ल उसे सिखों से समझौता करने के लिए मना लेता था। अतः दीवान कौड़ा मल्ल का सहयोग भी सिख शक्ति को बचाए रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ।

5. अदीना बेग की दोहरी नीति (Dual Policy of Adina Beg)—अदीना बेग जालंधर दोआब का फ़ौजदार था। वह मीर मन्नू के बाद पंजाब का सूबेदार बनना चाहता था। मीर मन्नू ने जब भी उसे सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का आदेश दिया तो उसने इसका पालन नहीं किया। वह पंजाब में अशांति के माहौल को बनाए रखना चाहता था। अतः अदीना बेग की दोहरी नीति भी मीर मन्नू की विफलता का कारण बनी।

6. मीर मन्नू की समस्याएँ (Problems of Mir Mannu)-अपने शासनकाल के दौरान कई समस्याओं से घिरा रहने के कारण भी मीर मन्नू सिखों का पूर्ण दमन करने में विफल रहा। उसकी पहली बड़ी समस्या अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण थे। इन आक्रमणों के कारण उसे सिखों के विरुद्ध कार्यवाई स्थगित करनी पड़ती थी। दूसरा, दिल्ली का वज़ीर सफदरजंग भी उसे पदच्युत करने के लिए षड्यंत्र रचता रहता था। उसके कहने पर ही नासिर खाँ और शाह नवाज़ खाँ ने मीर मन्नू के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। फलस्वरूप मीर मन्नू इन समस्याओं से जूझने में ही व्यस्त रहा।

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on Abdus Samad Khan.)
अथवा
अब्दुस समद खाँ के अधीन सिखों पर किए गए अत्याचारों का संक्षेप में ब्योरा दें।
(Briefly explain the repressions done on the Sikhs by Abdus Samad Khan.)
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ 1713-1726 ई० तक पंजाब का गवर्नर रहा। अब्दुस समद खाँ 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर तथा उसके अन्य साथियों को पकड़ने में सफल हुआ। इसके पश्चात् सिखों पर अत्याचारों का दौर प्रारंभ हो गया। अब्दुस समद खाँ की दमनकारी कार्यवाहियों से प्रसन्न होकर मुग़ल बादशाह फ़र्रुखसियर ने उसको ‘राज्य की तलवार’ का खिताब दिया। अब्दुस समद खाँ अपने पूरे प्रयत्नों के बावजूद सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। परिणामस्वरूप 1726 ई० में उसको उसके पद से हटा दिया गया।

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प्रश्न 2.
बंदई खालसा तथा तत्त खालसा से क्या अभिप्राय है ? उनके बीच मतभेद कैसे समाप्त हुआ ?
(What do you mean by Bandai and Tat Khalsa ? How were their differences resolved ?)
अथवा
बंदई खालसा व तत्त खालसा में मतभेद कैसे समाप्त हुए ?
(How were the differences between Bandai Khalsa and Tat Khalsa finished ?)
अथवा
तत्त खालसा और बंदई खालसा में क्या मतभेद था ? इनके बीच समझौता किसने करवाया ?
(What was the difference between Tat Khalsa and Bandai Khalsa ? Who compromised them ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिखों की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of the Sikhs after the martyrdom of Banda Singh Bahadur?)
उत्तर-
1716 ई० में बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिख बंदई खालसा एवं तत्त खालसा नामक दो दलों में बँट गए। वे सिख जो गुरु गोबिंद सिंह जी के सिद्धांतों को मानते थे तत्त खालसा तथा जो बंदा सिंह बहादुर के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे बंदई खालसा कहलवाए। बंदई खालसा बंदा सिंह बहादुर को अपना गुरु मानते थे जबकि तत्त खालसा वाले गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानते थे। 1721 ई० में हरिमंदिर साहिब के प्रमुख ग्रंथी भाई मनी सिंह जी ने इन दोनों दलों में समझौता करवा दिया। इससे सिख संगठन की शक्ति में वृद्धि हुई।

प्रश्न 3.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ निपटने की किस प्रकार कोशिश की ?
(How did Zakariya Khan try to deal with the Sikhs ?)
अथवा
जकरिया खाँ के अधीन सिखों के दमन का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Discuss briefly the persecution of the Sikhs under Zakariya Khan.)
अथवा
सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या कदम उठाए ? (What measures were atopted by Zakariya Khan to crush the power of the Sikhs ?)
अथवा
सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या कदम उठाए तथा वह अपने प्रयत्नों में कहां तक सफल रहा ?
(What measures were adopted by Zakariya Khan to crush the power of the Sikhs ? How far did he succeeded in his efforts ?)
उत्तर-
ज़करिया खाँ 1726 ई० में पंजाब का गवर्नर नियुक्त हुआ। उसने सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए कठोर नीति अपनाई। बड़ी संख्या में सिखों को पकड़कर मौत के घाट उतार दिया गया। जब वह सिखों को कुचलने में असफल रहा तो उसने 1733 ई० में सिखों के साथ समझौता कर लिया। कुछ समय के पश्चात् सिखों ने मुग़लों पर पुनः आक्रमण करने शुरू कर दिए। इस कारण जकरिया खाँ को सिखों के प्रति अपनी नीति बदलनी पड़ी। उसने सिखों का फिर से कत्लेआम शुरू कर दिया।

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प्रश्न 4.
तारा सिंह वाँ कौन था ? उसकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(Who was Tara Singh Van ? What is the importance of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई तारा सिंह जी वाँ पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on Bhai Tara Singh Ji Van.)
उत्तर-
भाई तारा सिंह जी वाँ अपनी पंथ सेवा और वीरता के कारण सिखों में बहुत लोकप्रिय थे। नौशहरा का चौधरी साहिब राय जानबूझ कर सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता था। एक दिन भाई तारा सिंह वाँ ने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़कर बेच दिया और उन पैसों को लंगर के लिए दे दिया। जब साहिब राय को पता चला तो उसने सिखों को सबक सिखाने के लिए उन पर आक्रमण कर दिया। भाई तारा सिंह वाँ और उसके 22 साथी रात भर मुग़ल सेनाओं से लोहा लेते हुए शहीद हो गए। यह घटना फरवरी, 1726 ई० की है।

प्रश्न 5.
भाई मनी सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या प्रभाव पड़ा ?
(Who was Bhai Mani Singh Ji ? What is the impact of his martyrdom in Sikh History ?).
अथवा
भाई मनी सिंह जी के बलिदान के कारण लिखो। (What were the causes of the martyrdom of Bhai Mani Singh Ji ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी तथा उनकी शहीदी बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Bhai Mani Singh Ji and his martyrdom ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी की शहीदी के कोई तीन कारण बताओ।
(Write any three causes of the martyrdom of Bhai Mani Singh Ji.)
अथवा
भाई मनी सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bhai Mani Singh Ji.)
अथवा
भाई मनी सिंह जी कौन थे ? उनके बलिदान के कारण लिखें। (Who was Bhai Mani Singh Ji ? What were the causes of his martyrdom ?)
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी दरबार साहिब, अमृतसर में मुख्य ग्रंथी थे। जकरिया खाँ ने सिखों पर दरबार साहिब जाने पर रोक लगा दी। भाई मनी सिंह जी ने दीवाली के अवसर पर सिखों को दरबार साहिब में एकत्रित होने की जकरिया खाँ से अनुमति ले ली। इसके बदले उन्होंने 5,000 रुपये जकरिया खाँ को देने का वचन दिया। परंतु दीवाली के एक दिन पूर्व ही जकरिया खाँ ने अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। इस कारण भाई मनी सिंह जी जकरिया खाँ को 5000 रुपए न दे सके। अत: 1738 ई० में उनको लाहौर में बड़ी निर्ममता के साथ शहीद कर दिया गया। इस शहीदी के कारण सिख भड़क उठे।

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प्रश्न 6.
भाई तारू सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(Who was Bhai Taru Singh Ji ? What is the significance of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई तारू सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on Bhai Taru Singh Ji.)
उत्तर-
भाई तारू सिंह जी गाँव पूहला के निवासी थे। वह खेती-बाड़ी का व्यवसाय करते थे और इससे होने वाली आय से सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था। परिणामस्वरूप भाई साहिब को गिरफ्तार कर लिया गया। जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को इस्लाम ग्रहण करने के लिए कहा। भाई साहिब जी ने इन दोनों बातों से इंकार कर दिया। इस कारण भाई साहिब जी की खोपड़ी को उतार कर 1 जुलाई, 1745 ई० को शहीद कर दिया गया।

प्रश्न 7.
नादिर शाह कौन था ? उसने भारत पर कब आक्रमण किया ? उसके इस आक्रमण का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Who was Nadir Shah ? When did he invade India ? What was the effect of his invasion on the Punjab ?)
अथवा
नादिर शाह के पंजाब पर आक्रमण तथा इसके प्रभावों का संक्षिप्त वर्णन करो।
(Give a brief account of Nadir Shah’s invasion on Punjab and its impact.)
उत्तर-
नादिरशाह ईरान का बादशाह था। उसने 1739 ई० में भारत पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान उसने भयंकर लूटमार मचाई। ईरान लौटते समय जब वह पंजाब में से गुजर रहा था तो सिखों ने उसका बहुत सा खजाना लूट लिया। इस घटना से नादिरशाह आश्चर्यचकित रह गया। नादिरशाह ने जकरिया खाँ को चेतावनी दी कि यदि उसने सिखों के विरुद्ध कठोर पग न उठाए तो सिख शीघ्र ही पंजाब पर अपना अधिकार कर लेंगे। परिणामस्वरूप जकरिया खाँ ने सिखों पर अधिक अत्याचार आरंभ कर दिए।

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प्रश्न 8.
बुड्डा दल और तरुणा दल पर एक सक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a brief note on Buddha Dal and Taruna Dal.)
अथवा
बुड्डा दल और तरुणा दल का गठन कब किया गया ? सिख इतिहास में इनका क्या महत्त्व है ?
(When were Buddha Dal and Taruna Dal organised ? What is their importance in Sikh History ?)
अथवा बुड्डा दल तथा तरुणा दल से क्या अभिप्राय है ? संक्षेप में वर्णन करें। (What do you mean by ‘Buddha Dal’ and ‘Taruna Dal’ ? Explain in brief.)
अथवा
तरुणा दल पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a brief note on Taruna Dal.)
उत्तर-
1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति को मजबूत करने के उद्देश्य से उन्हें दो दलों में संगठित कर दिया। ये दल थे बुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्ढा दल में 40 वर्ष से अधिक आयु के सिखों को शामिल किया गया। तरुणा दल में चालीस वर्ष से कम आयु वाले अर्थात् युवा सिखों को भर्ती किया गया। तरुणा दल को आगे पाँच भागों में बाँटा गया था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देखभाल करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का मुकाबला करता था। इस प्रकार नवाब कपूर सिंह ने सिखों को भविष्य में होने वाले संघर्ष के लिए तैयार कर दिया।

प्रश्न 9.
याहिया खाँ कौन था ? उसके शासनकाल के संबंध में संक्षेप जानकारी दें। (Who was Yahiya Khan ? Give a brief information of his rule.)
उत्तर-
याहिया खाँ 1746 ई० से 1747 ई० में पंजाब का नया सूबेदार रहा। उसने सिखों के प्रति दमनकारी नीति जारी रखी। 1746 ई० में सिखों के साथ हुई एक लड़ाई में लाहौर के दीवान लखपत राय का भाई जसपत राय मारा गया था। इसका बदला लेने के लिए लखपत राय ने याहिया खाँ के साथ मिलकर काहनूवान (गुरदासपुर) में सिखों पर अचानक आक्रमण कर दिया। परिणामस्वरूप सात हजार सिख शहीद हुए। सिख इतिहास में इस खूनी घटना को ‘छोटा घल्लूघारा’ के नाम से याद किया जाता है। 1747 ई० में याहिया खाँ का तख्ता पलट दिया गया।

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प्रश्न 10.
प्रथम अथवा छोटे घल्लूघारे (1746 ई०) के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the First Holocaust or the Chhota Ghallughara of 1746 ?)
अथवा
पहले घल्लूघारे के बारे में आप क्या जानते हैं?
(What do you know about First Holocaust ?)
अथवा
‘छोटा घल्लूघारा’ पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on ‘Chhota Ghallughara’.)
अथवा
‘छोटा घल्लूघारा’ के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the ‘Chhota Ghallughara’.).
उत्तर-
याहिया खाँ और लखपत राय ने सिखों को कुचलने के लिए एक विशाल सेना तैयार की। इस सेना ने सिखों को अचानक काहनूवान ने घेर लिया। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 को बंदी बना लिया गया। सिखों को प्रथम बार इतनी भारी प्राण हानि उठानी पड़ी थी। इसके कारण इस घटना को इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा कहा जाता है। यह घल्लूघारा मई, 1746 ई० को हुआ। इस घल्लूघारे के बावजूद सिखों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

प्रश्न 11.
मीर मन्नू द्वारा सिखों के विरुद्ध की गई कार्यवाहियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Describe briefly the sikh persecution under Mir Mannu.)
अथवा
मीर मन्नू द्वारा सिखों के द्रमन का अध्ययन करें।
(Study the persecution of Sikhs by Mir Mannu.)
अथवा
मार मन्नू आर सिखा के संबंधों का वर्णन कीजिए। (Write briefly the relations of Mir Mannu with the Sikhs.)
उत्तर-
मीर मन्नू 1748 ई० से लेकर 1753 ई० तक पंजाब का सूबेदार रहा। उसने सिखों की शक्ति को । कुचलने के लिए हर संभव प्रयास किए। सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाकर लाहौर में शहीद किया जाने लगा। मीर मन्नू के इन अत्याचारों से बचने के लिए सिखों ने जंगलों और पहाड़ों में शरण ली। सिखों के हाथ न आने के कारण मीर मन्नू के सैनिकों ने सिख स्त्रियों और बच्चों को बंदी बनाना आरंभ कर दिया। उन पर अति निर्मम अत्याचार किए गए। इन घोर अत्याचारों के बावजूद मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।

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प्रश्न 12.
मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में क्यों असफल रहा ? (Why did Mir Mannu fail to crush the Sikh power ?)
अथवा
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the failure of Mir Mannu against the Sikhs ?)
उत्तर-

  1. मीर मन्नू की असफलता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि सिख भारी कठिनाइयों के बावजूद कभी साहस नहीं छोड़ते थे।
  2. सिखों की छापामार युद्ध नीति ने मीर मन्नू को असफल बनाने में मुख्य भूमिका निभाई।
  3. मीर मन्नू का दीवान कौड़ा मल सिखों के साथ सहानुभूति रखता था।
  4. जालंधर दोआब के फ़ौजदार अदीना बेग की दुरंगी नीति के कारण भी मीर मन्नू असफल रहा।
  5. मीर मन्नू को अपने शासन काल में बहुतसी समस्याओं का सामना भी करना पड़ा था। परिणामस्वरूप वह सिखों को कुचलने में कामयाब न हो सका।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
1716 ई० से 1752 ई० तक लाहौर के किसी एक मुग़ल सूबेदार का नाम बताएँ।
अथवा
पंजाब के किसी एक सूबेदार का नाम बताएँ जिसने सिखों पर अत्याचार किए।
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ।

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प्रश्न 2.
अब्दुस समद खाँ लाहौर का सूबेदार कब नियुक्त हुआ था ?
उत्तर-
1713 ई०।

प्रश्न 3.
अब्दुस समद खाँ की सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता कौन-सी थी ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर क्रो बंदी बनाना।

प्रश्न 4.
अब्दुस समद खाँ को मुग़ल सम्राट् फ़र्रुखसियर ने कौन-सी उपाधि दी ?
उत्तर-
‘राज्य की तलवार’

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प्रश्न 5.
बंदा सिंह बहादुर की मृत्यु के बाद सिखों के जो दो संप्रदाय बन गए थे, उनके नाम बताओ।
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की मृत्यु के पश्चात् सिख कौन-से दो दलों में बँट गए ?
उत्तर-
बंदई खालसा एवं तत्त खालसा।

प्रश्न 6.
बंदई और तत्त खालसा में क्या अंतर था ?
अथवा
बंदई खालसा से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
तत्त खालसा से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बंदई खालसा बंदा सिंह बहादुर के सिद्धांतों में तथा तत्त खालसा गुरु गोबिंद सिंह जी के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 7.
बंदई खालसा एवं तत्त खालसा के मध्य झगड़ा कब खत्म हुआ ?
उत्तर-
1721 ई०

प्रश्न 8.
बंदई खालसा एवं तत्त खालसा के मध्य मतभेदों को किसने समाप्त करवाए ?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

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प्रश्न 9.
सहजधारी सिख किन्हें कहा जाता था?
उत्तर-
ये वो गैर-सिख थे जो सिख पंथ के सिद्धांतों में तो विश्वास रखते थे, परन्तु इसमें प्रविष्ट नहीं हुए थे।

प्रश्न 10.
जकरिया खाँ कौन था ?
उत्तर-
लाहौर का सूबेदार।

प्रश्न 11.
जकरिया खाँ कब लाहौर का सूबेदार बना ?
उत्तर-
1726 ई०।

प्रश्न 12.
जकरिया खाँ के शासनकाल में शहीद किए जाने वाले किसी एक प्रसिद्ध सिख का नाम बताएँ।
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

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प्रश्न 13.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ समझौता कब किया ?
उत्तर-
1733 ई०।

प्रश्न 14.
सिखों के उस नेता का नाम बताएँ जिसे 1733 ई० के समझौते के अनुसार नवाब की उपाधि से सम्मानित किया गया था ?
उत्तर-
सरदार कपूर सिंह।

प्रश्न 15.
सिखों के दो दलों के नाम बताओ।
उत्तर-
बुड्डा दल और तरुणा दल।

प्रश्न 16.
बुड्डा दल एवं तरुणा दल की स्थापना कब की गई थी ?
उत्तर-
1734 ई०।

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प्रश्न 17.
बुड्डा दल तथा तरुणा दल की स्थापना कहाँ की गई थी ?
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 18.
बुड्डा दल तथा तरुणा दल का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
नवाब कपूर सिंह।

प्रश्न 19.
बुड्डा दल से क्या भाव है ?
उत्तर-
बुड्ढा दल 40 वर्ष से अधिक आयु वाले सिखों का दल था।

प्रश्न 20.
तरुणा दल से क्या भाव है ?
उत्तर-
तरुणा दल सिख नौजवानों का दल था।

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प्रश्न 21.
हैदरी झंडे की घटना किसके शासनकाल में हुई ?
उत्तर-
ज़करिया खाँ।

प्रश्न 22.
भाई तारा सिंह जी वाँ कब शहीद हुए ?
उत्तर-
1726 ई०

प्रश्न 23.
भाई मनी सिंह जी कौन थे ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब, अमृतसर के मुख्य ग्रंथी।

प्रश्न 24.
भाई मनी सिंह जी को कब शहीद किया गया था ?
उत्तर-
1738 ई०।

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प्रश्न 25.
भाई मनी सिंह जी को किसने शहीद करवाया था ?
उत्तर-
ज़करिया खाँ ने।

प्रश्न 26.
नादिर शाह कौन था ?
उत्तर-
ईरान का शासक।

प्रश्न 27.
नादिर शाह ने भारत पर कब आक्रमण किया ?
उत्तर-
1739 ई०।

प्रश्न 28.
नादिर शाह के भारतीय आक्रमण का कोई एक कारण बताओ।
उत्तर-
वह भारत पर विजय प्राप्त कर एक महान् विजेता बनना चाहता था।

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प्रश्न 29.
मस्सा रंगड़ कौन था ?
उत्तर-
अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव का चौधरी।

प्रश्न 30.
बाल हकीकत राय जी को कब शहीद किया गया था ?
उत्तर-
1742 ई०।

प्रश्न 31.
बाल हकीकत राय जी की शहीदी का क्या कारण था ?
उत्तर-
क्योंकि उसने बीबी फातिमा के संबंध में कुछ अपमानजनक शब्द कहे थे।

प्रश्न 32.
जकरिया खाँ की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर-
1745 ई० में।

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प्रश्न 33.
याहिया खाँ लाहौर का सूबेदार कब बना ?
उत्तर-
1746 ई० में।

प्रश्न 34.
छोटा अथवा पहला घल्लूघारा कब हुआ ?
उत्तर-
1746 ई०।

प्रश्न 35.
छोटा घल्लूघारा कहाँ हुआ ?
उत्तर-
काहनूवान।

प्रश्न 36.
मीर मन्नू लाहौर का सूबेदार कब बना ?
उत्तर-
1748 ई० में।

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प्रश्न 37.
पंजाब में मुगल शासन का अंत कब हुआ?
उत्तर-
1752 ई०।

प्रश्न 38.
मुइनुल-मुल्क किस अन्य नाम से विख्यात हुआ ?
उत्तर-
मीर मन्नू।

प्रश्न 39.
पंजाब में मुग़लों का अंतिम सूबेदार कौन था ?
अथवा
पंजाब में अफ़गानों का प्रथम सूबेदार कौन था ?
उत्तर-
मीर मन्नू।

प्रश्न 40.
मीर मन्नू कौन था?
उत्तर-
दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन का पुत्र।

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प्रश्न 41.
मीर मन्नू सिखों का विरोधी क्यों था ?
उत्तर-
क्योंकि वह पंजाब में सिखों का बढ़ता हुआ प्रभाव सहन करने को तैयार नहीं था।

प्रश्न 42.
मुग़लों के विरुद्ध सिखों की सफलता के क्या कारण थे ? कोई एक बताएँ।
उत्तर-
सिखों का गुरिल्ला युद्ध नीति को अपनाना।

प्रश्न 43.
कौड़ा मल कौन था ?
उत्तर-
मीर मन्नू का दीवान।

प्रश्न 44.
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलताओं का कोई एक कारण बताएँ।
अथवा
मीर मन्नू सिखों की ताकत को खत्म करने में क्यों असफल रहा ? कोई एक कारण लिखो।
उत्तर-
सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति।।

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प्रश्न 45.
सिख कौड़ा मल को मिट्ठा मल क्यों कहते थे ?
उत्तर-
क्योंकि वह सिखों से सहानुभूति रखता था

प्रश्न 46.
मीर मन्नू की मृत्यु कब हुई थी ?
उत्तर-
1753 ई०।

प्रश्न 47.
अदीना बेग कौन था ?
उत्तर-
मीर मन्नू के समय जालंधर दोआब का फ़ौजदार।

प्रश्न 48.
मुगलानी बेगम कौन थी?
उत्तर-
पंजाब के सूबेदार मीर मन्नू की विधवा।

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प्रश्न 49.
मीर मन्नू की विधवा का क्या नाम था?
उत्तर-
मुग़लानी बेगम।

प्रश्न 50.
मुग़लानी बेगम पंजाब की सूबेदार कब बनी थी ?
उत्तर-
1753 ई०।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ को………में लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया गया।
उत्तर-
(1713 ई०)

प्रश्न 2.
अब्दुस समद खाँ को सिखों के विरुद्ध दमन की नीति के लिए उसे ……….की उपाधि के साथ सम्मानित किया गया।
उत्तर-
(राज्य की तलवार)

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प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिख……तथा ……..नामक दो संप्रदायों में बंट गए।
उत्तर-
(तत्त खालसा, बंदई खालसा)

प्रश्न 4.
1721 ई० में……ने तत्त खालसा व बंदई खालसा में समझौता करवाया।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

प्रश्न 5.
जकरिया खाँ से पहले पंजाब का सूबेदार …………. था।
उत्तर-
(अब्दुस समद खाँ)

प्रश्न 6.
जकरिया खाँ……..में लाहौर का सूबेदार नियुक्त हुआ।
उत्तर-
(1726 ई०)

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प्रश्न 7.
जकरिया खाँ ने……में सिखों के साथ समझौता किया।
उत्तर-
(1733 ई०)

प्रश्न 8.
1733 ई० के समझौते अनुसार नवाब का खिताब………को दिया गया।
उत्तर-
(सरदार कपूर सिंह)

प्रश्न 9.
बुड्ढा दल और तरुणा दल का गठन ………… ई० में किया गया।
उत्तर-
(1734 ई०)

प्रश्न 10.
भाई मनी सिंह जी को…..में शहीद किया गया।
उत्तर-
(1738 ई०)

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प्रश्न 11.
मस्सा रंगड़ ……………. गाँव का चौधरी था।
उत्तर-
(मंडियाला)

प्रश्न 12.
अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव के चौधरी …….. ने हरिमंदिर साहिब की पवित्रता को भंग कर दिया था।
उत्तर-
(मस्सा रंगड़)

प्रश्न 13.
……….में नादिर शाह ने भारत पर आक्रमण किया।
उत्तर-
(1739 ई०)

प्रश्न 14.
नादिर शाह………..का शासक था।
उत्तर-
(ईरान)

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प्रश्न 15.
पहला या छोटा घल्लूघारा…….में घटित हुआ।
उत्तर-
(1746 ई०)

प्रश्न 16.
पहले घल्लूघारे के समय पंजाब का सूबेदार………था।
उत्तर-
(याहिया खाँ)

प्रश्न 17.
मीर मन्नू को………के नाम से भी जाना जाता है। .
उत्तर-
(मुइन-उल-मुल्क)

प्रश्न 18.
मीर मन्नू पंजाब का सूबेदार………में नियुक्त हुआ।
उत्तर-
(1748 ई०)

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प्रश्न 19.
मीर मन्नू ……..को जालंधर दोआब का फ़ौजदार नियुक्त किया।
उत्तर-
(अदीना बेग)

प्रश्न 20.
मीर मन्नू की मृत्यु. ….में हुई।
उत्तर-
(1753 ई०)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ 1716 ई० में पंजाब का सूबेदार बना।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
अब्दुस समद खाँ को मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 3.
अब्दुस समद खाँ को ‘राज की तलवार’ कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद पंजाब के सिख तत्त खालसा और बंदई खालसा नामक दो संप्रदायों में बँट गए थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
भाई मनी सिंह जी ने तत्त खालसा और बंदई खालसा में आपसी समझौता करवाया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
तत्त खालसा और बंदई खालसा के मध्य समझौता 1721 ई० में हुआ।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 7.
जकरिया खाँ 1720 ई० में लाहौर का सूबेदार नियुक्त हुआ।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
1726 ई० में भाई तारा सिंह जी वाँ को शहीद किया गया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ 1733 ई० में समझौता किया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
बुड्डा दल व तरुणा दल का गठन सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया ने किया।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 11.
बुड्ढा दल और तरुणा दल की स्थापना 1734 ई० में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
जकरिया खाँ ने 1738 ई० में भाई मनी सिंह जी को शहीद किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
नादिर शाह ने 1739 ई० में भारत पर आक्रमण किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 14.
बाल हकीकत राय जी को अब्दुस समद खाँ के समय शहीद किया गया था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 15.
भाई तारू सिंह जी को 1745 ई० में शहीद किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
जकरिया खाँ की मौत 1745 ई० में हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
पहला या छोटा घल्लूघारा 1746 ई० में घटित हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 18.
मीर मन्नू 1748 ई० में पंजाब का नया सूबेदार बना।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 19.
अहमद शाह अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब पर कब्जा कर लिया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
मीर मन्नू की मृत्यु 1754 ई० में हुई।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 21.
मीर मन्नू के समय अदीना बेग जालंधर दुआब का फ़ौजदार था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
1716 ई० में पंजाब का सूबेदार कौन था ?
(i) अब्दुस समद खाँ
(ii) अहमद शाह अब्दाली
(iii) मीर मन्नू
(iv) जकरिया खाँ।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 2.
फर्रुखसियर ने अब्दुस समद खाँ को किस उपाधि से सम्मानित किया ?
(i) खान बहादुर
(ii) राज्य की तलवार
(ii) नासिर खान
(iv) मिट्ठा मल।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
बंदई खालसा और तत्त खालसा में समझौता कब हुआ ?
(i) 1711 ई० में
(ii) 1716 ई० में
(iii) 1721 ई० में
(iv) 1726 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 4.
बंदई खालसा और तत्त खालसा में समझौता किसने करवाया था ?
(i) बाबा दीप सिंह जी ने
(ii) नवाब कपूर सिंह ने
(iii) भाई मनी सिंह जी ने
(iv) भाई तारू सिंह जी ने।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 5.
जकरिया खाँ पंजाब का सूबेदार कब बना ?
(i) 1716 ई० में
(ii) 1717 ई० में
(iii) 1726 ई० में
(iv) 1728 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
हैदरी ध्वज की घटना किसके शासन काल में हुई ?
(i) अब्दुस समद ख़ाँ
(ii) याहिया खाँ
(iii) अहमद शाह अब्दाली
(iv) जकरिया खाँ।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 7.
सिखों और मुग़लों में समझौता कब हुआ ?
(i) 1721 ई० में
(ii) 1724 ई० में
(ii) 1733 ई० में
(iv) 1734 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 8.
बुडा दल एवं तरुणा दल का गठन कब किया गया था ?
(i) 1730 ई० में
(ii)- 1735 ई० में
(iii) 1733 ई० में
(iv) 1734 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 9.
बुडा दल एवं तरुणा दल का गठन किसने किया था ?
(i) नवाब कपूर सिंह ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा दीप सिंह जी ने
(iv) भाई मेहताब सिंह ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
भाई मनी सिंह जी को कब शहीद किया गया था ?
(i) 1721 ई० में
(ii) 1733 ई० में
(iii) 1734 ई० में
(iv) 1738 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 11.
नादिर शाह ने भारत पर कब आक्रमण किया ?
(i) 1736 ई० में
(ii) 1737 ई० में
(iii) 1738 ई० में
(iv) 1739 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 12.
नादिर शाह कहाँ का शासक था ?
(i) अफ़गानिस्तान
(ii) ईराक
(iii) बलोचिस्तान
(iv) ईरान।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 13.
मस्सा रंगड़ कौन था ?
(i) मंडियाला गाँव का चौधरी
(ii) वाँ गाँव का चौधरी
(iii) जालंधर का फ़ौजदार
(iv) सरहिंद का फ़ौजदार।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 14.
बाल हकीकत राय जी को कब शहीद किया गया था ?
(i) 1739 ई० में
(ii) 1740 ई० में
(iii) 1741 ई० में
(iv) 1742 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 15.
जकरिया खाँ की मृत्यु कब हुई ?
(i) 1742 ई० में
(ii) 1743 ई० में
(iii) 1744 ई० में
(iv) 1745 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 16.
पहला घल्लूघारा अथवा छोटा घल्लूघारा कहाँ हुआ था ?
(i) काहनूवान
(ii) कूप
(iii) सरहिंद
(iv) मंडियाला।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 17.
पहला अथवा छोटा घल्लूघारा कब हुआ ?
(i) 1733 ई० में
(ii) 1734 ई० में
(iii) 1739 ई० में
(iv) 1746 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 18.
मीर मन्नू पंजाब का सूबेदार कब बना ?
(i) 1748 ई० में
(ii) 1751 ई० में
(iii) 1752 ई० में
(iv) 1753 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 19.
अदीना बेग कौन था ?
(i) मीर मन्नू का परामर्शदाता
(ii) जकरिया खाँ का दीवान
(iii) जालंधर दोआब का फ़ौजदार
(iv) गाँव मंडियाला का चौधरी।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 20.
मीर मन्नू की मृत्यु कब हुई ?
(i) 1750 ई० में
(ii) 1751 ई० में
(iii) 1752 ई० में
(iv) 1753 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 21.
मीर मन्नू सिखों के विरुद्ध क्यों असफल रहा ?
(i) अदीना बेग़ की दोहरी नीति के कारण
(ii) सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति के कारण
(iii) मीर मन्नू के अत्याचार के कारण
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 22.
मुगलानी बेगम पंजाब की सूबेदार कब बनी ? ”
(i) 1751 ई० में
(ii) 1752 ई० में
(iii) 1753 ई० में
(iv) 1754 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ पर एक नोट लिखो।
(Write a note on Abdus Samad Khan.)
अथवा
1713 से 1726 ई० के दौरान अब्दुस समद खाँ और सिखों के संबंधों की व्याख्या करें।
(Explain Abdus Samad Khan relations with the Sikhs from 1713-1726.)
उत्तर-
पंजाब में सिखों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने के लिए मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने 1713 ई० में अब्दुस समद खाँ को लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दुस समद खाँ 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर तथा उसके अन्य साथियों को पकड़ने में सफल हुआ। इससे अब्दुस समद खाँ के हौंसले बुलंद हो गए और उसने सिखों पर अत्याचारों का दौर प्रारंभ कर दिया। प्रतिदिन सिखों को बंदी बनाकर लाहौर लाया जाता और वहाँ शहीद कर दिया जाता। उसकी यह मनकारी नीति बड़ी सफल रही। उसकी सफलता से प्रसन्न होकर मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने उसको ‘राज्य की तलवार’ का खिताब दिया। उसके अत्याचारों से बचने के लिए बहुत-से सिख जंगलों तथा पहाड़ों की ओर भाग गए थे पर बाद में उन्होंने मुग़लों पर छापामार आक्रमण कर दिया। अब्दुस समद खाँ सिखों के आक्रमण को रोकने में असफल रहा। परिणामस्वरूप 1726 ई० में उसको उसके पद से हटा दिया गया।

प्रश्न 2.
बंदई खालसा तथा तत्त खालसा से क्या अभिप्राय है ? उनके बीच मतभेद कैसे समाप्त हुआ ? (What do you mean by Bandai and Tat Khalsa ? How were their differences resolved ?)
अथवा
तत्त खालसा और बंदई खालसा में क्या मतभेद था? इनके बीच समझौता किसने करवाया ?
(What was the difference between Tat Khalsa and Bandai Khalsa ? Who compromised them ?)
उत्तर-
1. तत्त खालसा-तत् खालसा कट्टर सिखों का एक संप्रदाय था। यह एक सर्वाधिक शक्तिशाली गुट था। तत् खालसा के सदस्य गुरु ग्रंथ साहिब में पूर्ण विश्वास रखते थे तथा उसके नियमों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते थे। वे गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा निर्धारित नीले वस्त्र पहनते थे। वे एक-दूसरे को मिलते समय वाहेगुरु जी का खालसा एवं वाहेगुरु जी की फतेह’ कहकर सम्बोधन करते थे। वे बंदा सिंह बहादुर द्वारा सिख धर्म में किए गए परिवर्तनों को स्वीकार नहीं करते थे। वे किसी भी प्रकार के चमत्कार दिखाने के विरुद्ध थे। वे बंदा सिंह बहादुर को गुरु की पदवी दिए जाने के विरुद्ध थे।

2. बंदई खालसा-बंदई खालसा सिखों का दूसरा महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय था। बंदा सिंह बहादुर के सैनिक अभियानों ने उनके दिलों पर जादुई प्रभाव डाला था। 1716 ई० में बंदा सिंह बहादुर द्वारा दी गई अद्वितीय शहीदी से वे बहुत प्रभावित हुए। इस कारण बंदई खालसा के लोग बंदा सिंह बहादुर को गुरु समझ कर उसकी उपासना करने लगे। अनेक लोगों का यह विश्वास था कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व बंदा बहादुर को गुरुगद्दी सौंप दी थी। वे बंदा सिंह बहादुर द्वारा दिए गए दो नारों ‘फतेह धर्म’ एवं ‘फतेह दर्शन’ में विश्वास रखते थे। वे बंदा सिंह बहादुर द्वारा निर्धारित लाल रंग के वस्त्र पहनते थे।

3. समझौता-1721 ई० में हरिमंदिर साहिब के प्रमुख ग्रंथी भाई मनी सिंह जी ने दोनों दलों के मध्य समझौता करवा दिया। इस समझौते के परिणामस्वरूप बंदई खालसा व तत्त खालसा एक हो गए। यह समझौता सिख धर्म के विकास के लिए एक मील पत्थर सिद्ध हुआ।

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प्रश्न 3.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ निपटने की किस प्रकार कोशिश की ?
(How did Zakariya Khan try to deal with the Sikhs ?)
अथवा
ज़करिया खाँ के अधीन सिखों के दमन का संक्षिप्त वर्णन करें। (Discuss briefly the persecution of the Sikhs under Zakariya Khan.)
उत्तर-
ज़करिया खाँ 1726 ई० में पंजाब का गवर्नर बना। उसने सिखों के प्रति दमन की नीति अपनाई।
1. उसने अपना पद सम्भालते ही सिखों के विरुद्ध दमनकारी कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी। उसने सिखों की शक्ति का पूर्णतः दमन करने के लिए 20,000 सैनिकों को भर्ती किया।

2. उसने गाँवों के मुकद्दमों, चौधरियों और ज़मींदारों को इस बात के लिए चेतावनी दी कि वे सिखों को अपने अधीन क्षेत्र में शरण न लेने दें और यदि कोई सिख कहीं दिखाई दे तो उसकी सूचना तुरंत सरकार को दी जाए। इसके अतिरिक्त जकरिया खाँ ने एक आदेश द्वारा यह घोषणा की कि किसी सिख के संबंध में सूचना देने वाले को, बंदी बनाने वाले को और सिर काटकर सरकार को भेट करने वाले को विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जाएगा।

3. सैंकड़ों सिखों को प्रतिदिन लाहौर के दिल्ली गेट में शहीद किया जाने लगा। इस कारण इस स्थान का नाम ‘शहीद गंज’ पड़ गया।

4. इसके बावजूद जब वह अपने उद्देश्य में असफल रहा तो उसने सिखों को प्रसन्न करने की योजना बनाई। उसने 1733 ई० में सिखों के नेता सरदार कपूर सिंह को नवाब का खिताब और एक बड़ी जागीर प्रदान की।

5. सिखों ने इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी शक्ति को पुनः संगठित करना प्रारंभ कर दिया। जकरिया खाँ इसे सहन करने को तैयार न था। अतः उसने सिखों को पुनः कुचलने का प्रयत्न किया। उसने सिखों को दी गई जागीर वापस ले ली और सिखों को पकड़ कर कत्ल करने के आदेश दिए। परिणामस्वरूप भाई मनी सिंह जी, भाई महताब सिंह जी, भाई तारू सिंह जी और बाल हकीकत राय जी जैसे प्रसिद्ध व्यक्तियों को शहीद कर दिया गया। इसके बावजूद जकरिया खाँ अपने अंत तक सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।

प्रश्न 4.
तारा सिंह वाँ कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? ।
(Who was Tara Singh Van ? What is the importance of his martyrdom in Sikh History ?)
उत्तर-
तारा सिंह अमृतसर जिला के गांव वाँ के निवासी थे। वह अपनी सिख पंथ की सेवा और वीरता के कारण सिखों में बहुत लोकप्रिय थे। उन्होंने बंदा सिंह बहादुर की लड़ाइयों में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। अब वह अपने गाँव में कृषि करने लग पड़े थे। नौशहरा का चौधरी साहिब राय सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता जिसके कारण वे फसलों को नष्ट कर देते। जब सिख इस बात पर आपत्ति उठाते तो वह सिखों का बड़ा अपमान करता। सिख इस अपमान को सहन नहीं कर सकते थे। एक दिन तारा सिंह वाँ ने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़ कर बेच दिया और उन पैसों का राशन खरीदकर लंगर के लिए दे दिया। जब साहिब राय को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने जकरिया खाँ से सहायता की माँग की। जकरिया खाँ ने 2200 घुड़सवार सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भेजे। तारा सिंह वाँ और उनके 22 साथियों ने रात भर मुग़ल सेनाओं के खूब छक्के छुड़ाए तथा अंत में शहीद हो गए। इससे पूर्व उन्होंने 300 मुग़ल सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया था और बहुत-से अन्य को घायल कर दिया था। यह घटना फरवरी, 1726 ई० की है। तारा सिंह वां की शहीदी ने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न किया।

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प्रश्न 5.
भाई मनी सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या प्रभाव पड़ा ? (Who was Bhai Mani Singh Ji ? What is the impact of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी के बलिदान के कारण लिखो। (What were the causes of the martyrdom of Bhai Mani Singh Ji ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी तथा उनकी शहीदी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Bhai Mani Singh Ji and his martyrdom ?)
अथवा भाई मनी सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bhai Mani Singh Ji.).
उत्तर-
ज़करिया खाँ के काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना भाई मनी. सिंह जी की शहीदी थी। भाई मनी सिंह जी दरबार साहिब, अमृतसर में मुख्य ग्रंथी थे। सिख उनका बहुत मान-सम्मान करते थे। जकरिया खाँ ने सिखों पर दरबार साहिब जाने पर रोक लगा दी। भाई मनी सिंह जी ने 5 हज़ार रुपये के बदले दीवाली के अवसर पर सिखों को दरबार साहिब में एकत्रित होने की जकरिया खाँ से अनुमति ले ली। बड़ी संख्या में सिख अमृतसर में एकत्रित होने शुरू हो गए। परंतु दीवाली के एक दिन पूर्व ही जकरिया खाँ ने अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। इस कारण सिखों में भगदड़ मच गई और दीवाली पर सिख एकत्रित न हो सके। जकरिया खाँ ने भाई मनी सिंह जी को बंदी बना लिया और उनसे 5 हज़ार रुपए की माँग की। मेला न हो सकने के कारण वह इतनी बड़ी राशि नहीं दे सकते थे। इसके बदले उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने को कहा गया। भाई मनी सिंह जी के इंकार करने पर 1738 ई० में उनको लाहौर में बड़ी निर्ममता के साथ शहीद कर दिया गया। इस शहीदी के कारण सिख भड़क उठे। उन्होंने मुग़ल साम्राज्य को जड़ से उखाड़ने का निर्णय कर लिया।

प्रश्न 6.
भाई तारू सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(Who was Bhai Taru Singh Ji ? What is the significance of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई तारू सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bhai Taru Singh Ji.)
उत्तर-
भाई तारू सिंह जी गाँव पूहला के निवासी थे। वह खेती-बाड़ी का व्यवसाय करते थे और इससे होने वाली आय से सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था। जंडियाला के हरिभगत नामक व्यक्ति ने भाई साहिब को गिरफ्तार करवा दिया। उनको लाहौर ले जाया गया जहाँ जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा। इसके बदले उनको दुनिया भर की खुशियाँ देने का लालच दिया गया। भाई साहिब ने इन दोनों बातों से इंकार कर दिया। इस कारण जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी की खोपड़ी उतारने के आदेश दिए। आदेश की पालना करते हुए जल्लादों ने भाई साहिब की खोपड़ी उतारनी प्रारंभ कर दी। जब भाई साहिब की खोपड़ी उतारी जा रही थी तब वह जपुजी साहिब का पाठ कर रहे थे। उनका शरीर लहू-लुहान हो गया था पर वह अपने निश्चय पर अटल रहे। वह इसके 22 दिनों बाद 1 जुलाई, 1745 ई० को शहीद हो गए। इस अभूतपूर्व शहीदी ने सिखों में एक नया जोश भर दिया।

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प्रश्न 7.
नादिर शाह कौन था ? उसके आक्रमण का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Who was Nadir Shah ? What was the effect of his invasion on the Punjab ?)
अथवा
नादिर शाह के पंजाब पर आक्रमण तथा इसके प्रभावों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of Nadir Shah’s invasion on Punjab and its impact.)
उत्तर-
नादिर शाह ईरान का बादशाह था। उसने भारत पर 1739 ई० में आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान उसने भारत में भारी लूटमार मचाई। वह इतना क्रूर था कि शत्रु उसका नाम सुनते ही थर-थर काँपने लग जाते थे। वापसी के दौरान जब वह दिल्ली से लूटमार कर पंजाब में से गुजर रहा था तो सिखों ने उस पर अचानक हमला करके उसका बहुत-सा खज़ाना लूट लिया। इस घटना से नादिर शाह आश्चर्यचकित रह गया। उसने इन सिखों के संबंध में पंजाब के सूबेदार जकरिया खाँ से पूछताछ की। उसने जकरिया खाँ को यह चेतावनी दी कि यदि उसने सिखों के विरुद्ध कठोर पग न उठाए तो सिख शीघ्र ही पंजाब पर अपना अधिकार कर लेंगे। परिणामस्वरूप जकरिया खाँ ने सिखों पर अधिक अत्याचार आरंभ कर दिए पर नादिर शाह के आक्रमण के बाद पंजाब में अव्यवस्था फैल गई थी। इस स्थिति का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को अधिक संगठित करना आरंभ कर दिया था। शीघ्र ही पंजाब में उनका प्रभुत्व बढ़ गया।

प्रश्न 8.
बड़ा दल और तरुणा दल पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a brief note on Buddha Dal and Taruna Dal.)
अथवा
बुड्डा दल और तरुणा दल के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Buddha Dal and Taruna Dal ?)
अथवा
बुड्डा दल तथा तरुणा दल से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by ‘Buddha Dal’ and ‘Taruna Dal’ ?)
उत्तर-
1733 ई० में सिखों का मुग़लों से समझौता हो जाने के कारण सिखों को अपनी शक्ति संगठित करने का सुनहरी अवसर मिला। नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे जंगलों और पहाड़ों को छोड़कर पुनः अपने घरों को लौट आएँ। इस प्रकार पिछले दो दशकों से मुग़लों और सिखों में चले आ रहे संघर्ष का अंत हुआ और सिखों को कुछ राहत मिली। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति को मज़बूत करने के उद्देश्य से उन्हें दो दलों में संगठित कर दिया। ये दल थे बुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्षों से अधिक आयु के सिखों को शामिल किया गया और इससे कम आयु के सिखों को तरुणा दल में। तरुणा दल को आगे पाँच भागों में बाँटा गया था। प्रत्येक भाग में 1300 से लेकर 2000 सिख थे और प्रत्येक भाग का अपना एक अलग नेता था। बुड्ढा दल धार्मिक स्थानों की देख-भाल करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का मुकाबला करता था।

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प्रश्न 9.
याहिया खाँ कौन था ? उसके शासन काल के संबंध में संक्षेप जानकारी दें। (Who was Yahiya Khan ? Give a brief information of his rule.)
उत्तर-
ज़करिया खाँ की मृत्यु के बाद याहिया खाँ दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन के सहयोग से 1746 ई० में लाहौर का सूबेदार बना। वह 1747 ई० तक इस पद पर रहा। सिखों पर अत्याचार करने के लिए वह अपने पिता जकरिया खाँ से एक कदम आगे था। उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों की गतिविधियाँ-जकरिया खाँ की मृत्यु का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को संगठित कर लिया था। उन्होंने पंजाब के कई गाँवों में चौधरियों तथा मुकद्दमों की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के कारण हत्या कर दी थी। इसके अतिरिक्त सिख पंजाब के कई क्षेत्रों में खूब लूटपाट करते थे।

2. जसपत राय की मृत्यु-1746 ई० में सिखों के एक जत्थे ने गोंदलावाला गाँव से बहुत-सी भेड़-बकरियों को पकड़ लिया। लोगों की शिकायत पर जसपत राय ने सिखों को ये भेड़-बकरियाँ लौटाने का आदेश दिया। सिखों के इंकार करने पर उसने सिखों पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई के दौरान जसपत राय मारा गया। इस कारण मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई।

3. लखपत राय की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही-जसपत राय की मृत्यु का समाचार पाकर उसके भाई दीवान लखपत राय का खून खौल उठा। उसने यह प्रण किया कि वह सिखों का नामो-निशान मिटा कर ही दम लेगा। याहिया खाँ ने सिखों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए। इन आदेशों का उल्लंघन करने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था। उसने बहुत-से सिखों को बंदी बनाया और उनको लाहौर लाकर शहीद कर दिया।

4. पहला घल्लूघारा-1746 ई० में याहिया खाँ और लखपत राय के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को काहनूवान में घेर लिया। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 सिखों को बंदी बना लिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से याद किया जाता है।

प्रश्न 10.
प्रथम अथवा छोटे घल्लूघारे (1746 ई०) के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the First Holocaust or the Chhota Ghallughara of 1746 ?)
अथवा
‘छोटा घल्लूघारा’ पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on ‘Chhota Ghallughara.’)
उत्तर-
सिखों का सर्वनाश करने के लिए याहिया खाँ और लखपत राय ने एक भारी सेना तैयार की। इस सेना ने लगभग 15,000 सिखों को अचानक काहनूवान में घेर लिया। सिख वहाँ से बचकर बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका बड़ी तेजी से पीछा किया। यहाँ पर सिख बहुत मुश्किल में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे की ओर मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे तथा आगे पहाड़ी राजा और लोग भी उनके कट्टर शत्रु थे। सिखों के पास खाद्य सामग्री बिल्कुल नहीं थी। चारे की कमी के कारण घोड़ों की भी भूख से बुरी दशा थी। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और मुग़लों ने 3,000 सिखों को बंदी बना लिया। इन सिखों को लाहौर में शहीद कर दिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इसके कारण इस घटना को इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से स्मरण किया जाता है। यह घल्लूघारा मई, 1746 ई० को हुआ। इस विनाशकारी घल्लूघारे के बावजूद सिखों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

प्रश्न 11.
मीर मन्नू कौन था ? उसने अपने शासन काल में सिखों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की ? (Who was Mir Mannu ? What steps did he take against the Sikhs during his rule ?)
अथवा
मीर मन्नू द्वारा सिखों के उत्पीड़न का अध्ययन करें। (Study the persecution of Sikhs by Mir Mannu.)
अथवा
मीर मन्नू को और किस नाम से जाना जाता है ? इसका शासन काल सिख शक्ति के उत्थान के लिए कैसे सफल हुआ?
(What was the other name of Mir Mannu ? How did the rule of Mir Mannu help in the rise of Sikh power ?)
अथवा
मीर मन्नू और सिखों के संबंधों का वर्णन कीजिए। (Write briefly the relations of Mir Mannu with the Sikhs.)
उत्तर-
मीर मन्नू को मुइन-उल-मुल्क के नाम से भी जाना जाता था। वह 1748 ई० से लेकर 1752 ई० तक मुगल बादशाह की ओर से तथा 1752 ई० से लेकर 1753 ई० तक अहमदशाह अब्दाली की ओर से पंजाब का सूबेदार रहा। मीर मन्नू सिखों का बहुत कट्टर शत्रु था। अत: मीर मन्नू ने अपना पद संभालने के पश्चात् सर्वप्रथम अपना ध्यान सिखों की ओर लगाया। उन्होंने समूचे पंजाब में बहुत गड़बड़ी फैलाई हुई थी। मीर मन्नू ने सिखों का दमन करने के लिए पंजाब के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी सैन्य-टुकड़ियाँ भेजीं। उसने जालंधर के फ़ौजदार अदीना बेग को सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के आदेश दिए। ऐसे ही आदेश पहाड़ी राजाओं को भी दिए गए। फलस्वरूप सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाया जाने लगा और उन्हें लाहौर में शहीद किया जाने लगा। जून, 1748 ई० में अदीना बेग और सिखों में हुई एक लड़ाई में 600 सिख शहीद हो गए। अतः सिखों ने आत्म-रक्षा के लिए पर्वतों और वनों में जाकर शरण ली। वे अवसर मिलने पर मुग़ल सेनाओं पर आक्रमण करते और लूटपाट करके पुनः लौट जाते। मीर मन्नू ने सिखों का सर्वनाश करने के लिए बड़े जोरदार प्रयास आरंभ कर दिए। सिखों के सिरों के मूल्य निश्चित किए गए। सिखों को शरण देने वालों को कठोर दंड दिए गए। मार्च, 1753 ई० में जब सिख होला मोहल्ला के अवसर पर माखोवाल में एकत्रित हुए थे तो अदीना बेग ने अचानक आक्रमण करके बहुत-से सिखों की हत्या कर दी। सिख स्त्रियों और बच्चों को बंदी बनाकर लाहौर ले जाया गया। इन स्त्रियों और बच्चों पर जो अत्याचार किए गए, उनका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक स्त्री को सवा-सवा मन अनाज प्रतिदिन पीसने के लिए दिया जाता। दूध पीते बच्चों को उनकी माताओं से बलपूर्वक छीनकर उनके सामने हत्या की जाती। इन घोर अत्याचारों के बावजूद सिखों की संख्या कम होने की अपेक्षा बढ़ती चली गई। उस समय यह लोकोक्ति बहुत प्रचलित थी—

“मन्नू असाडी दातरी, असीं मन्नू दे सोए।
ज्यों-ज्यों मन्नू वड्दा, असीं दून सवाए होए।”

प्रश्न 12.
मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में क्यों असफल रहा ? (Why did Mir Mannu fail to crush the Sikh Power ?)
अथवा
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ? कोई छः कारण बतायें।
(What were the causes of the failure of Mir Mannu against the Sikhs ? Write any six Causes.)
अथवा
मीर मन्नू सिखों के विरुद्ध क्यों असफल रहा ?
(Why Mir Mannu was unsuccessful against the Sikhs ?)
उत्तर-
मीर मन्नू ने सिखों का अंत करने के लिए अथक प्रयास किए, परंतु इसके बावजूद वह सिखों का दमन करने में विफल रहा। उसकी विफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. दल खालसा का संगठन—मीर मन्नू की विफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण दल खालसा का संगठन था। सिख दल खालसा का अत्यधिक सम्मान करते थे और इसके आदेश पर कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे। परिणामस्वरूप मीर मन्नू के लिए सिखों का दमन करना कठिन हो गया।

2. सिखों के असाधारण गुण सिखों में अपने धर्म के लिए दृढ़ निश्चय, अपार जोश और असीमित बलिदान की भावनाएँ थीं। वे अत्यधिक मुश्किलों की घड़ी में भी अपने धैर्य का त्याग नहीं करते थे। मीर मन्नू ने सिखों पर असीमित अत्याचार किए, परंतु वह सिखों को विचलित करने में विफल रहा।

3. सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति-सिखों ने मुग़ल सेना के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाई अर्थात् सिखों को जब अवसर मिलता, वे मुग़ल सेना पर आक्रमण करते और लूटपाट करने के बाद पुनः वनों में जाकर शरण ले लेते। अतः आमने-सामने की टक्कर के अभाव में मीर मन्नू सिखों की शक्ति का दमन करने में विफल रहा।

4. दीवान कौड़ा मल्ल का सिखों से सहयोग-दीवान कौड़ा मल्ल मीर मन्नू का प्रमुख परामर्शदाता था। सहजधारी सिख होने के कारण वह सिखों से सहानुभूति रखता था। अतः जब भी मीर मन्नू ने सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का निर्णय किया तो दीवान कौड़ा मल्ल उसे सिखों से समझौता करने के लिए मना लेता था। अतः दीवान कौड़ा मल्ल का सहयोग भी सिख शक्ति को बचाए रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ।।

5. मीर मन्नू की समस्याएँ-मीर मन्नू अपने शासनकाल के दौरान कई समस्याओं से घिरा रहने के कारण भी मीर मन्नू सिखों का पूर्ण दमन करने में विफल रहा। उसकी पहली बड़ी समस्या अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण थे। इन आक्रमणों के कारण उसे सिखों के विरुद्ध कार्यवाई स्थगित करनी पड़ती थी। दूसरा, दिल्ली का वज़ीर सफदरजंग भी उसे पदच्युत करने के लिए षड्यंत्र रचता रहता था। फलस्वरूप मीर मन्नू इन समस्याओं से जूझने में ही व्यस्त रहा।

6. मीर मन्नू के अत्याचार-मीर मन्नू ने सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए निर्दोष लोगों पर भारी अत्याचार किए। इस कारण ये लोग सिखों के साथ मिल गए। इस कारण सिखों की शक्ति बहुत बढ़ गई। परिणामस्वरूप मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
शाही आदेश जारी होने के पश्चात् अब्दुस समद खाँ ने सिखों पर घोर अत्याचार आरंभ कर दिए। सैंकड़ों निर्दोष सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाकर लाहौर लाया जाता। उन्हें इस्लाम धर्म में शामिल होने पर प्राण-दान का लोभ दिया जाता। किंतु गुरु के सिख ऐसे जीवन से शहीद होना अधिक अच्छा समझते थे। जल्लाद इन सिखों को घोर यातनाएँ देने के पश्चात् उनको शहीद कर देते। अब्दुस समद खाँ की इस कठोर नीति से बचने के लिए बहुत-से सिखों ने लक्खी वन और शिवालिक पहाड़ियों में जाकर शरण ली। यहाँ पर उन्हें भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्हें कई-कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता था अथवा वे वृक्षों के पत्ते और छाल खाकर अपनी भूख मिटाते रहे। मुग़ल अधिकारियों ने पीछे रह गई स्त्रियों और बच्चों पर कहर ढाना आरंभ कर दिया। इस प्रकार अपने शासनकाल के आरंभिक कुछ वर्षों तक अब्दुस समद खाँ की सिखों के विरुद्ध दमनकारी नीति बहुत सफल रही। इससे प्रसन्न होकर फर्रुखसियर ने उसे ‘राज्य की तलवार’ की उपाधि से सम्मानित किया।

  1. अब्दुस समद खाँ कौन था ?
  2. शाही आदेश जारी होने के पश्चात् ……….. ने सिखों पर घोर अत्याचार आरंभ कर दिए।
  3. सिखों को कहाँ शहीद किया जाता था ?
  4. अब्दुस समद खाँ के अत्याचारों से बचने के लिए सिखों ने क्या किया ?
  5. फर्रुखसियर ने अब्दुस समद खाँ को किस उपाधि से सम्मानित किया था ?

उत्तर-

  1. अब्दुस समद खाँ लाहौर का सूबेदार था।
  2. अब्दुस समद खाँ।
  3. सिखों को लाहौर में शहीद किया जाता था।
  4. अब्दुस समद खाँ के अत्याचारों से बचने के लिए सिखों ने जंगलों व शिवालिक पहाड़ियों में जाकर शरण ली।
  5. फर्रुखसियर ने अब्दुस समद खाँ को ‘राज्य की तलवार’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

2
ज़करिया खाँ सिखों की दिन-प्रतिदिन बढ़ रही कार्यवाइयों से बहुत परेशान था। उसने सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए जेहाद का नारा लगाया। फलस्वरूप हज़ारों की संख्या में मुसलमान उसके ध्वज तले एकत्रित हो गए। इस सेना का नेतृत्व मीर इनायत उल्ला खाँ को सौंपा गया। उन्हें ईद के शुभ दिन एक हैदरी ध्वज दिया गया और यह घोषणा की गई कि इस ध्वज तले लड़ने वालों को अल्ला अवश्य विजय देगा। जब सिखों को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उन्होंने पुनः वनों और पहाड़ों की शरण ली। एक दिन लगभग 7 हज़ार सिखों ने इन गाज़ियों पर अचानक आक्रमण करके भारी विनाश किया। हज़ारों गाज़ियों की हत्या कर दी गई। इसके अतिरिक्त सिख उनका सामान भी लूटकर ले गए। इस घटना से जहाँ सरकार की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा वहीं इस अद्वितीय सफलता से सिखों का प्रोत्साहन बढ़ गया।

  1. जकरिया खाँ कौन था ?
  2. जेहाद से क्या भाव है ?
  3. हैदरी झंडे की कमान किसे सौंपी गई थी?
  4. हैदरी झंडे की घटना समय पंजाब का सूबेदार कौन था ?
    • अब्दुस समद खाँ
    • मीर मन्नू
    • जकरिया खाँ
    • अहमद शाह अब्दाली।
  5. सिखों ने कहाँ शरण ली थी ?

उत्तर-

  1. जकरिया खाँ लाहौर का सूबेदार था।
  2. जेहाद से भाव है धार्मिक लड़ाई।
  3. हैदरी झंडे की कमान मीर इनायत उल्ला खाँ को सौंपी गई थी।
  4. जकरिया खाँ।
  5. सिखों ने जंगलों तथा पहाड़ों में जाकर शरण ली।

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3
मुग़लों से समझौता हो जाने पर सिखों को अपनी शक्ति को संगठित करने का स्वर्ण अवसर मिला। नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे वनों और पर्वतों को छोड़कर पुन: अपने घरों में लौट आएँ। इस प्रकार गत दो दशक से मुग़लों और सिखों में चले आ रहे संघर्ष का अंत हुआ और सिखों ने सुख की साँस ली। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्हें दो जत्थों में संगठित कर दिया। ये जत्थे थे-बुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्ष से बड़ी आयु के सिखों को सम्मिलित किया गया और इससे कम आयु वाले सिखों को तरुणा दल में। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक जत्थे में 1300 से 2000 सिख थे और प्रत्येक जत्थे का अपना एक अलग नेता तथा झंडा था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देख-रेख करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का सामना करता था। इन दलों ने भविष्य में सिख इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  1. मुग़लों तथा सिखों के मध्य समझौता कब हुआ ?
  2. मुगलों तथा सिखों के मध्य समझौते समय पंजाब का सूबेदार कौन था ?
    • अहमद शाह अब्दाली
    • मीर मन्नू
    • जकरिया खाँ
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।
  3. नवाब कपूर सिंह कौन था ?
  4. बुड्डा दल तथा तरुणा दल का गठन कब किया गया था ?
  5. बुड्डा दल तथा तरुणा दल में कौन-कौन शामिल थे ?

उत्तर-

  1. मुग़लों तथा सिखों के मध्य समझौता 1733 ई० में हुआ था।
  2. जकरिया खाँ।
  3. नवाब कपूर सिंह 18वीं सदी में सिखों का एक प्रसिद्ध नेता था।
  4. बुड्ढा दल तथा तरुणा दल का गठन 1734 ई० में किया गया था।
  5. बुड्डा दल में 40 वर्ष से अधिक आयु के सिख तथा तरुणा दल में नौजवानों को शामिल किया गया था।

4
भाई मनी सिंह जी के बलिदान को सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सिख पंथ की अद्वितीय सेवा के कारण उनका सिखों में बहुत सम्मान था। वे 1721 ई० से हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी चले आ रहे थे। जकरिया खाँ के सैनिकों द्वारा हरिमंदिर साहिब पर अधिकार और वहाँ पर सिखों को न जाने देने के लिए स्थापित की गई सैनिक चौकियों के कारण वे बहत निराश हुए। 1738 ई० में भाई मनी सिंह जी ने जकरिया खाँ को यह निवेदन किया कि यदि वह सिखों को दीवाली के अवसर पर हरिमंदिर साहिब आने की अनुमति दे तो वे 5,000 रुपये भेट करेंगे। जकरिया खाँ ने यह प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया। वास्तव में उसके दिमाग में एक योजना आई। इस योजनानुसार वह अमृतसर में दीवाली के अवसर पर एकत्रित होने वाले सिखों पर अचानक आक्रमण करके उनका सर्वनाश करना चाहता था।

  1. भाई मनी सिंह जी कौन थे ?
  2. भाई मनी सिंह जी ने किसे विनती की कि सिखों को अमृतसर में दीवाली के अवसर पर इकट्ठे होने की आज्ञा दी जाए ?
  3. भाई मनी सिंह जी ने सिखों को अमृतसर आने के लिए जकरिया खाँ को कितने रुपये देने का निवेदन किया ?
    • 2,000 रुपये
    • 3,000 रुपये
    • 4,000 रुपये
    • 5,000 रुपये।
  4. भाई मनी सिंह जी को कब शहीद किया गया था ?
  5. भाई मनी सिंह जी की शहीदी का क्या परिणाम निकला ?

उत्तर-

  1. भाई मनी सिंह जी 1721 ई० में हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी थे।
  2. लाहौर के सूबेदार जकरिया खाँ को।
  3. 5,000 रुपये।
  4. भाई मनी सिंह जी को 1738 ई० में शहीद किया गया था।
  5. इस कारण सिखों में एक नया जोश पैदा हुआ।

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5
सिखों का सर्वनाश करने के लिए याहिया खाँ और लखपत राय ने एक भारी सेना तैयार की। उनके नेतृत्व में मुग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को अचानक काहनूवान में घेर लिया। सिख वहाँ से बचकर बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका बड़ी तेज़ी से पीछा किया। यहाँ पर सिख भारी संकट में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे की ओर मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे तथा आगे पहाड़ी राजा और लोग भी उनके कट्टर शत्रु थे। सिखों के पास खाद्य सामग्री बिल्कुल नहीं थी। चारे की कमी के कारण घोड़ों की भी भूख से बुरी दशा थी। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और मुग़लों ने 3,000 सिखों को बंदी बना लिया। इन सिखों को लाहौर में शहीद कर दिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से स्मरण किया जाता है। यह घल्लूघारा मई, 1746 ई० को हुआ।

  1. पहला घल्लूघारा कब घटित हुआ ?
  2. पहले घल्लूघारे के समय लाहौर का सूबेदार कौन था ?
  3. पहले घल्लूघारे में कितने सिखों ने शहीदी प्राप्त की थी ?
  4. पहले घल्लूघारे में मुगलों ने …………… सिखों को बंदी बना लिया।
  5. पहले घल्लूघारे को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?

उत्तर-

  1. पहला घल्लूघारा मई, 1746 ई० में घटित हुआ।
  2. पहले घल्लूघारे के समय लाहौर का सूबेदार याहिया खाँ था।
  3. पहले घल्लूघारे में 7000 सिखों ने शहीदी प्राप्त की थी।
  4. 3000.
  5. पहले घल्लूघारे को छोटे घल्लूघारा के नाम से भी जाना जाता है।

अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध PSEB 12th Class History Notes

  • अब्दुस समद खाँ (Abdus Samad Khan)-अब्दुस समद खाँ 1713 ई० में लाहौर का सूबेदार बना-उसने सिखों पर घोर अत्याचार किए-इससे प्रसन्न होकर मुगल बादशाह फर्रुखसियर ने उसे ‘राज्य की तलवार’ की उपाधि से सम्मानित किया-मुग़ल अत्याचारों से बचने के लिए सिखों ने स्वयं को जत्थों में संगठित कर लिया-अब्दुस समद खाँ अपने तमाम प्रयासों के बावजूद सिखों का दमन करने में विफल रहा-1726 ई० में उसे पद से हटा दिया गया।
  • जकरिया खाँ (Zakariya Khan)—जकरिया खाँ 1726 ई० में लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया गया-प्रतिदिन लाहौर के दिल्ली गैट पर सैंकड़ों सिखों को शहीद किया जाने लगा था-1726 ई० में भाई तारा सिंह वाँ ने अपने 22 साथियों के साथ जकरिया खाँ के सैनिकों के खूब छक्के छुड़ाए-सिख जत्थों ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली अपनाकर जकरिया खाँ की रातों की नींद हराम की-सिखों को प्रसन्न करने के लिए जकरिया खाँ ने उनके नेता सरदार कपूर सिंह को एक लाख रुपए की जागीर तथा नवाब की उपाधि प्रदान की-संबंधों के पुनः बिगड़ जाने पर जकरिया खाँ ने हरिमंदिर साहिब पर अधिकार कर लिया-1738 ई० में जकरिया खाँ ने हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी भाई मनी सिंह जी को शहीद कर दिया-जकरिया खाँ के काल में ही हुई भाई बोता सिंह जी, भाई मेहताब सिंह जी, भाई सुखा सिंह जी, बाल हकीकत राय जी तथा भाई तारू सिंह जी की शहीदी ने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न कर दिया-परिणामस्वरूप सिखों ने जकरिया खाँ को कभी चैन की साँस न लेने दी-1 जुलाई, 1745 ई० को जकरिया खाँ की मृत्यु हो गई।
  • याहिया खाँ (Yahiya Khan)—याहिया खाँ 1746 ई० में लाहौर का सूबेदार बना-उसने सिखों के विरुद्ध कठोर पग उठाए–याहिया खाँ और दीवान लखपत राय ने मई, 1746 ई० को लगभग 7,000 सिखों को काहनूवान के निकट शहीद कर दिया-इस घटना को छोटा घल्लूघारा के नाम से स्मरण किया जाता है-1747 ई० में याहिया खाँ के छोटे भाई शाहनवाज़ खाँ ने उसे बंदी बना लिया।
  • मीर मन्नू (Mir Mannu)-मीर मन्नू को मुइन-उल-मुल्क के नाम से भी जाना जाता था वह 1748 ई० से 1753 ई० तक पंजाब का सूबेदार रहा-वह अपने पूर्व अधिकारियों से अधिक सिखों का कट्टर शत्रु सिद्ध हुआ-वह 1752 ई० में अब्दाली की ओर से पंजाब का सूबेदार नियुक्त हुआ-मीर मन्नू अपनी समस्त कारवाईयों के बावजूद सिखों की शक्ति का अंत करने में विफल रहा-1753 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।
  • मीर मन्नू की विफलता के कारण (Causes of Failure of Mir Mannu)-सिखों ने दल खालसा का संगठन कर लिया था-सिखों में पंथ के लिए दृढ़ निश्चय, अपार जोश, निडरता और बलिदान की भावनाएँ थीं-सिख गुरिल्ला युद्ध नीति से लड़ते थे-मीर मन्नू का परामर्शदाता दीवान कौड़ा मल सिखों से सहानुभूति रखता था-मीर मन्नू अपने शासन से संबंधित कई समस्याओं से घिरा रहा था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

द्वितीय एंग्लो-सिरव युद्ध के कारण (Causes of the Second Anglo-Sikh War)

प्रश्न 1.
उन परिस्थितियों का वर्णन करो जिनके कारण द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध हुआ। इस युद्ध के लिए अंग्रेज़ कहाँ तक उत्तरदायी थे ?
(Discuss the circumstances leading to the Second Anglo-Sikh War. How far were the British responsible for it ?)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के मुख्य कारण क्या थे ? ।
(What were the main causes of Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के महत्त्वपूर्ण कारणों की व्याख्या करें। (Explain the important causes of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारण लिखें।
(Write the reasons of Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में अंग्रेजों की विजय हई और सिखों को पराजय का सामना करना पड़ा। अंग्रेज़ों द्वारा सिखों के साथ किया गया अपमानजनक व्यवहार और थोपी गई संधियों से सिखों में रोष भड़क उठा। इसका परिणाम द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के रूप में सामने आया। इस युद्ध के मुख्य कारण निम्नलिखित थे—

1. सिखों की अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने की इच्छा (Sikh desire to avenge their defeat in the First Anglo-Sikh War)—यह सही है कि अंग्रेजों के साथ प्रथम युद्ध में सिख पराजित हो गए थे, परंतु इससे उनका साहस किसी प्रकार कम नहीं हुआ था। इस पराजय का मुख्य कारण सिख नेताओं लाल सिंह तथा तेजा सिंह द्वारा की गई गद्दारी थी। सिख सैनिकों को अपनी योग्यता पर पूर्ण विश्वास था। वे अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे। उनकी यह प्रबल इच्छा द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध का एक मुख्य कारण बनी।

2. लाहौर तथा भैरोवाल की संधियों से पंजाबी असंतुष्ट (Punjabis were dissatisfied with the Treaties of Lahore and Bhairowal)-अंग्रेज़ों तथा सिखों के बीच हुए प्रथम युद्ध के पश्चात् अंग्रेज़ों ने लाहौर दरबार के साथ लाहौर तथा भैरोवाल नामक दो संधियाँ कीं। इन संधियों द्वारा जालंधर दोआब जैसे प्रसिद्ध उपजाऊ प्रदेश को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया था। कश्मीर के क्षेत्र को अंग्रेजों ने अपने मित्र गुलाब सिंह के सुपुर्द कर दिया था। पंजाब के लोग महाराजा रणजीत सिंह के अथक प्रयासों से निर्मित साम्राज्य का विघटन होता देख सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए सिखों को अंग्रेजों से एक और युद्ध लड़ना पड़ा।

3. सिख सैनिकों में असंतोष (Resentment among the Sikh Soldiers) लाहौर की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने खालसा सेना की संख्या 20,000 पैदल तथा 12,000 घुड़सवार निश्चित कर दी थी। इस कारण हजारों की संख्या में सिख सैनिकों को नौकरी से हटा दिया गया था। इससे इन सैनिकों के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष उत्पन्न हो गया तथा वे अंग्रेजों के साथ युद्ध की तैयारियाँ करने लगे।

4. महारानी जिंदां से दुर्व्यवहार (Harsh Treatment with Maharani Jindan)-अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह की विधवा महारानी जिंदां से जो अपमानजनक व्यवहार किया, उसने सिखों में अंग्रेजों के प्रति व्याप्त रोष को और भड़का दिया। महारानी जिंदां को अंग्रेज़ों ने लाहौर की संधि द्वारा अवयस्क महाराजा दलीप सिंह की संरक्षक माना था। परंतु अंग्रेजों ने भैरोवाल की संधि के द्वारा महारानी के समस्त अधिकार छीन लिए। 1847 ई० में अंग्रेजों ने महारानी को शेखूपुरा के दुर्ग में नज़रबंद कर दिया। 1848 ई० में महारानी जिंदां को देश निकाला देकर बनारस भेज दिया। महारानी जिंदां के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण समूचे पंजाब में अंग्रेजों के प्रति रोष की लहर दौड़ गई।

5. दीवान मूलराज का विद्रोह (Revolt of Diwan Moolraj)-द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ करने में मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह को विशेष स्थान प्राप्त है। 1844 ई० में मूलराज को मुलतान का नया नाज़िम बनाया गया। परंतु अंग्रेजों की गलत नीतियों के कारण दिसंबर, 1847 ई० को दीवान मूलराज ने अपना त्याग-पत्र दे दिया। 1848 ई० में सरदार काहन सिंह को मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त किया गया। मूलराज से चार्ज लेने के लिए काहन सिंह के साथ दो अंग्रेज़ अधिकारियों वैनस एग्नयू तथा एंड्रसन को भेजा गया। मूलराज ने उनका स्वागत किया किन्तु मूलराज के कुछ सिपाहियों ने 20 अप्रैल, 1848 ई० को आक्रमण करके उनकी हत्या कर दी तथा काहन सिंह को बंदी बना लिया। उनकी हत्या के लिए मूलराज को दोषी ठहराया गया। इस कारण उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का ध्वज उठा लिया। भारत का गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ऐसे ही अवसर की प्रतीक्षा में था। वह चाहता था कि यह विद्रोह अधिक भड़क उठे तथा उसे पंजाब पर अधिकार करने का अवसर मिल जाए। डॉक्टर कृपाल सिंह के अनुसार,
“वह चिंगारी जिसने अग्नि प्रज्वलित की तथा जिसमें पंजाब का स्वतंत्र राज्य जलकर भस्म हो गया, मुलतान से उठी थी।”1

6. चतर सिंह का विद्रोह (Revolt of Chattar Singh)-सरदार चतर सिंह अटारीवाला हज़ारा का नाज़िम था। उसके एक सिपाही ने एक अंग्रेज़ अधिकारी कर्नल कैनोरा की उसके द्वारा चतर सिंह को अपमानित करने के कारण हत्या कर दी। इस पर अंग्रेजों ने सरदार चतर सिंह को पदच्युत कर दिया तथा उसकी जागीर ज़ब्त कर ली। इस कारण चतर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी। परिणामस्वरूप चारों ओर विद्रोह की अग्नि फैल गई।

7. शेर सिंह का विद्रोह (Revolt of Sher Singh)—शेर सिंह सरदार चतर सिंह का पुत्र था। जब शेर सिंह को अपने पिता के विरुद्ध किए गए अंग्रेज़ों के दुर्व्यवहार का पता चला तो उसने भी 14 सितंबर, 1848 ई० को अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी। उसकी अपील पर कई सिख सिपाही उसके ध्वज तले एकत्रित हो गए।

8. लॉर्ड डल्हौज़ी की नीति (Policy of Lord Dalhousie)-जनवरी, 1848 ई० में लॉर्ड डलहौज़ी भारत का नया गवर्नर-जनरल बना था। उसने लैप्स की नीति द्वारा भारत की बहुत-सी रियासतों को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। केवल पंजाब ही एक ऐसा राज्य था, जिसे अभी तक अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया जा सका था। वह किसी स्वर्ण अवसर की तलाश में था। यह अवसर उसे दीवान मूलराज, चतर सिंह तथा शेर सिंह द्वारा किए गए विद्रोहों से मिला।

जब पंजाब में विद्रोह की आग भड़कती दिखाई दी तो लॉर्ड डलहौज़ी ने विद्रोहियों के विरुद्ध कार्यवाई करने का आदेश दिया। अंग्रेज़ कमांडर-इन-चीफ लॉर्ड ह्यूग गफ 16 नवंबर को सेना लेकर शेर सिंह का सामना करने के लिए चनाब नदी की ओर चल पड़ा।

1. “The spark which arose from Multan kindled the conflagration and reduced the sovereign state of the Punjab to ashes” Dr. Kirpal Singh, History and Culture of the Punjab (Patiala : 1978) Vol. 3, p. 80..

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युद्ध की घटनाएं (Events of the War)

प्रश्न 2.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य हुए दूसरे युद्ध की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन करें। . (Discuss in brief the events of the Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों की कुटिल नीतियों ने अंग्रेज़-सिख संबंधों को एक और युद्ध के कगार पर ला के खड़ा कर दिया। मूलराज, चतर सिंह तथा शेर सिंह के विद्रोह को देखते हुए लॉर्ड डलहौज़ी ने लॉर्ड ह्यूग गफ को सिखों का दमन करने के लिए भेजा। परिणामस्वरूप, दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध की मुख्य घटनाएँ निम्नलिखित थीं—

1. रामनगर की लड़ाई (Battle of Ramnagar)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की पहली लड़ाई 22 नवंबर, 1848 ई० को रामनगर के स्थान पर हुई। अंग्रेजी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। उसके अधीन 20,000 सैनिक थे। सिख सेनाओं का नेतृत्व शेर सिंह कर रहा था। उसके साथ 15,000 सैनिक थे। सिंखों के आक्रमण ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। इस लड़ाई से लॉर्ड गफ को पता चला कि सिखों का सामना करना कोई सहज काम नहीं है।

2. चिल्लियाँवाला की लड़ाई (Battle of Chillianwala)—चिल्लियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। यह 13 जनवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। जब लॉर्ड ह्यूग गफ़ को यह सूचना मिली कि चतर सिंह अपने सैनिकों सहित शेर सिंह की सहायता को पहुँच रहा है तो उसने 13 जनवरी को शेर सिंह के सैनिकों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। इस लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना के 695
PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय 1
MAHARAJA DALIP SINGH
सैनिक, जिनमें 132 अफ़सर भी मारे गए। अंग्रेजों की चार तोपें भी सिखों के हाथ लगीं। सीताराम कोहली के अनुसार,
“जब से भारत पर अंग्रेज़ों ने अधिकार किया था, चिल्लियाँवाला की लड़ाई में यह उनकी सबसे कड़ी पराजय थी।”2

3. मुलतान की लड़ाई (Battle of Multan)—मुलतान में दीवान मूलराज के विद्रोह करने के बाद शेर सिंह । उसके साथ जा मिला था। अंग्रेजों ने एक चाल चली। उन्होंने नकली पत्र लिखकर शेर सिंह तथा मूलराज में भाँति उत्पन्न कर दी। परिणामस्वरूप, शेर सिंह ने मूलराज का साथ छोड़ दिया। दिसंबर, 1848 ई० में जनरल विश ने मुलतान के किले को घेरा डाल दिया। अंग्रेज़ों की ओर से फेंका गया एक गोला भीतर रखे बारूद पर जा गिरा। इस कारण बहुत-सा बारूद नष्ट हो गया तथा मूलराज के 500 सैनिक भी मारे गए। इस भारी क्षति के कारण मूलराज के लिए युद्ध जारी रखना बहुत कठिन हो गया। अंततः विवश होकर 22 जनवरी, 1849 ई० को मूलराज ने अंग्रेजों के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया। मुलतान की इस विजय से चिल्लियाँवाला में अंग्रेजों का जो अपमान हुआ था, उसकी काफ़ी सीमा तक पूर्ति हो गई।

4. गुजरात की लड़ाई (Battle of Gujarat)—गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो -सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक लड़ाई थी। इस लड़ाई में चतर सिंह तथा भाई महाराज सिंह शेर सिंह की सहायता के लिए आ गए। अफ़गानिस्तान के बादशाह दोस्त मुहम्मद खाँ ने भी सिखों की सहायता के लिए 3,000 घुडसवार सेना भेजी। सिख सेना की संख्या 40,000 थी। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड गफ ही कर रहा था। अंग्रेज़ों इतिहास में तोपों की लड़ाई के नाम से विख्यात है।

यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को हुई थी। सिखों की तोपों का बारूद शीघ्र ही समाप्त हो गया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने अपनी तोपों से सिख सेनाओं पर भारी आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिख सेना को भारी क्षति पहुँची। उनके 3,000 से 5,000 तक सैनिक इस लड़ाई में मारे गए। इस लड़ाई के पश्चात् सिख सैनिकों में भगदड़ मच गई। 10 मार्च, 1849 ई० को चतर सिंह, शेर सिंह ने रावलपिंडी के निकट जनरल गिल्बर्ट के सम्मुख हथियार डाल दिए। प्रसिद्ध इतिहासकार पतवंत सिंह के अनुसार,
“इस प्रकार द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध का अंत हुआ तथा इसके साथ रणजीत सिंह के गौरवशाली साम्राज्य पर पर्दा पड़ गया।”3

2. “Chillianwala was the worst defeat the British had suffered since their occupation of India.” Sita Ram Kohli, Sunset of the Sikh Empire (Bombay : 1967) p. 175.
3. “Thus ended the Second Sikh War, and with it the curtain came down on Ranjit Singh’s proud empire.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 172.

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युद्ध के परिणाम (Consequences of the War)

प्रश्न 3.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिए। (Discuss the main results of the Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के बड़े दूरगामी परिणाम निकले। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
1. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का अंत (End of the Empire of Maharaja Ranjit Singh)दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का पूर्णतः अंत हो गया। अंतिम सिख महाराजा दलीप सिंह को सिंहासन से उतार दिया गया। उसे पंजाब को छोड़कर देश के किसी भी भाग में रहने की छूट दी गई। लाहौर दरबार की समस्त संपत्ति पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। विख्यात कोहेनूर हीरा दलीप सिंह से लेकर महारानी विक्टोरिया को भेंट किया गया। कुछ समय के पश्चात् महाराजा दलीप सिंह को इंग्लैंड भेज दिया गया। 1893 ई० में उनकी पेरिस में मृत्यु हो गई।

2. सिख सेना भंग कर दी गई (Sikh Army was Disbanded)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के पश्चात् सिख सेना को भी भंग कर दिया गया। अधिकाँश सिख सैनिकों को कृषि व्यवसाय में लगाने का प्रयत्न किया गया। कुछ को ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती कर लिया गया।

3. दीवान मूल राज तथा भाई महाराज सिंह को निष्कासन का दंड (Banishment of Diwan Moolraj and Bhai Maharaj Singh)-दीवान मूलराज को पहले मृत्यु दंड दिया गया था। बाद में इसे काले पानी की सज़ा में बदल दिया गया। परंतु उनकी 11 अगस्त, 1851 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) में मृत्यु हो गई। भाई महाराज सिंह को पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) के बंदीगृह में रखा गया। तत्पश्चात् उसे सिंगापुर जेल भेज दिया गया जहाँ 5 जुलाई, 1856 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।

4. चतर सिंह तथा शेर सिंह को दंड (Punishment to Chattar Singh and Sher Singh)-अंग्रेज़ों ने स० चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह को बंदी बना लिया था। उन्हें पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) की जेलों में रखा गया। 1854 ई० में सरकार ने उन दोनों को मुक्त कर दिया।

5. पंजाब के लिए नया प्रशासन (New Administration for the Punjab)-पंजाब के अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय के पश्चात् अंग्रेजों ने पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की। यह 1849 ई० से 1853 ई० तक बना रहा। अंग्रेज़ों ने पंजाब की प्रशासनिक संरचना में कई परिवर्तन किए। उत्तर-पश्चिमी सीमा को अधिक सुरक्षित बनाया गया। न्याय व्यवस्था को अधिक सुलभ बनाया गया। पंजाब में सड़कों तथा नहरों का जाल बिछा दिया गया। कृषि को प्रोत्साहन दिया गया। जागीरदारी प्रथा समाप्त कर दी गई। व्यापार वृद्धि के प्रयत्न किए गए। पंजाब में पश्चिमी-ढंग की शिक्षा प्रणाली आरंभ की गई। इन सुधारों ने पंजाबियों के दिलों को जीत लिया। परिणामस्वरूप वे 1857 के विद्रोह के समय अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार रहे।

6. पंजाब की रियासतों से मित्रता का व्यवहार (Friendly attitude towards Princely States of the Punjab)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पटियाला, नाभा, जींद, मालेरकोटला, फरीदकोट तथा कपूरथला की रियासतों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। अंग्रेजों ने इनसे मित्रता बनाए रखी तथा इन रियासतों को अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित न किया गया।

प्रश्न 4.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य हुए दूसरे युद्ध के कारणों तथा परिणामों का वर्णन करें।
(Discuss the causes and results of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारण तथा परिणामों का वर्णन करें। (What were the causes and results of the 2nd Anglo-Sikh War ? Explain.)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के बड़े दूरगामी परिणाम निकले। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
1. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का अंत (End of the Empire of Maharaja Ranjit Singh)दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का पूर्णतः अंत हो गया। अंतिम सिख महाराजा दलीप सिंह को सिंहासन से उतार दिया गया। उसे पंजाब को छोड़कर देश के किसी भी भाग में रहने की छूट दी गई। लाहौर दरबार की समस्त संपत्ति पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। विख्यात कोहेनूर हीरा दलीप सिंह से लेकर महारानी विक्टोरिया को भेंट किया गया। कुछ समय के पश्चात् महाराजा दलीप सिंह को इंग्लैंड भेज दिया गया। 1893 ई० में उनकी पेरिस में मृत्यु हो गई।

2. सिख सेना भंग कर दी गई (Sikh Army was Disbanded)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के पश्चात् सिख सेना को भी भंग कर दिया गया। अधिकाँश सिख सैनिकों को कृषि व्यवसाय में लगाने का प्रयत्न किया गया। कुछ को ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती कर लिया गया।

3. दीवान मूल राज तथा भाई महाराज सिंह को निष्कासन का दंड (Banishment of Diwan Moolraj and Bhai Maharaj Singh)-दीवान मूलराज को पहले मृत्यु दंड दिया गया था। बाद में इसे काले पानी की सज़ा में बदल दिया गया। परंतु उनकी 11 अगस्त, 1851 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) में मृत्यु हो गई। भाई महाराज सिंह को पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) के बंदीगृह में रखा गया। तत्पश्चात् उसे सिंगापुर जेल भेज दिया गया जहाँ 5 जुलाई, 1856 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।

4. चतर सिंह तथा शेर सिंह को दंड (Punishment to Chattar Singh and Sher Singh)-अंग्रेज़ों ने स० चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह को बंदी बना लिया था। उन्हें पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) की जेलों में रखा गया। 1854 ई० में सरकार ने उन दोनों को मुक्त कर दिया।

5. पंजाब के लिए नया प्रशासन (New Administration for the Punjab)-पंजाब के अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय के पश्चात् अंग्रेजों ने पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की। यह 1849 ई० से 1853 ई० तक बना रहा। अंग्रेज़ों ने पंजाब की प्रशासनिक संरचना में कई परिवर्तन किए। उत्तर-पश्चिमी सीमा को अधिक सुरक्षित बनाया गया। न्याय व्यवस्था को अधिक सुलभ बनाया गया। पंजाब में सड़कों तथा नहरों का जाल बिछा दिया गया। कृषि को प्रोत्साहन दिया गया। जागीरदारी प्रथा समाप्त कर दी गई। व्यापार वृद्धि के प्रयत्न किए गए। पंजाब में पश्चिमी-ढंग की शिक्षा प्रणाली आरंभ की गई। इन सुधारों ने पंजाबियों के दिलों को जीत लिया। परिणामस्वरूप वे 1857 के विद्रोह के समय अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार रहे।

6. पंजाब की रियासतों से मित्रता का व्यवहार (Friendly attitude towards Princely States of the Punjab)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पटियाला, नाभा, जींद, मालेरकोटला, फरीदकोट तथा कपूरथला की रियासतों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। अंग्रेजों ने इनसे मित्रता बनाए रखी तथा इन रियासतों को अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित न किया गया।

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पंजाब का विलय (Annexation of the Punjab)

प्रश्न 5.
“पंजाब का विलय एक घोर विश्वासघात था।” संक्षिप्त व्याख्या करें।
(“Annexation of the Punjab was a violent breach of trust.” Discuss briefly.)
अथवा
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब विलय का आलोचनात्मक वर्णन करें।
(Explain critically Lord Dalhousie’s annexation of Punjab.)
अथवा
“लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय सिद्धांतहीन तथा अनुचित था।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(“The annexation of Punjab by Lord Dalhousie to the British Empire was unprincipled and unjustified.” Do you agree to this view ? Give arguments in your favour.)
उत्तर-
लॉर्ड डलहौज़ी भारत में 1848 ई० में गवर्नर-जनरल बनकर आया था। वह भारत के गवर्नर-जनरलों में सबसे बड़ा साम्राज्यवादी था। पंजाब को भी उसकी साम्राज्यवादी नीति का शिकार होना पड़ा। 29 मार्च, 1849 ई० को लाहौर को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल करने की घोषणा की गई। इसके पश्चात् लाहौर दुर्ग से सिखों का झंडा उतार दिया गया तथा अंग्रेज़ों का झंडा फहराया गया। इस प्रकार पंजाब के सिख राज्य का अंत हो गया।
I. डलहौज़ी की विलय की नीति के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of Dalhousie’s Policy of Annexation)
डब्ल्यू डब्ल्यू० हंटर, मार्शमेन तथा एस० एम० लतीफ आदि इतिहासकारों ने लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब के अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए हैं—

1. सिखों ने वचन भंग किया (Sikhs had broken their Promises)-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया कि सिखों ने भैरोवाल संधि की शर्ते भंग की। सिख सरदारों ने यह वचन दिया था कि वे अंग्रेज़ रेजीडेंट को पूर्ण सहयोग देंगे। परंतु उन्होंने राज्य में अशाँति तथा विद्रोह भड़काने का प्रयत्न किया। लॉर्ड डलहौज़ी ने दीवान मूलराज के विद्रोह को पूरी सिख जाति का विद्रोह बताया। उसके अनुसार यह विद्रोह सिख राज्य की स्थापना के लिए किया गया था। सरतार चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह ने विद्रोह करके मूलराज का साथ दिया। इस प्रकार बिगड़ रही परिस्थितियों पर नियंत्रण पाने के लिए पंजाब का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय आवश्यक था। इसी कारण लॉर्ड डलहौज़ी ने कहा था,
“निस्संदेह मुझे यह पक्का विश्वास है कि मेरी कार्यवाई समयानुसार, न्यायपूर्ण तथा आवश्यक थी।”4

2. पंजाब अच्छा मध्यवर्ती राज्य न रहा (Punjab remained no more a useful Buffer State)लॉर्ड हार्डिंग का विचार था कि पंजाब एक लाभप्रद मध्यवर्ती राज्य प्रमाणित होगा। इससे ब्रिटिश राज्य को अफ़गानिस्तान की ओर से किसी ख़तरे का सामना नहीं करना पड़ेगा। परंतु उनका यह विचार गलत प्रमाणित हुआ क्योंकि सिखों तथा अफ़गानों में मित्रता स्थापित हो गई। इसीलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

3. ऋण न लौटाना (Non-payment of the Loans)-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया कि भैरोवाल की संधि की शर्तों के अनुसार लाहौर दरबार ने अंग्रेज़ों को 22 लाख रुपए वार्षिक देने थे। परंतु लाहौर दरबार ने एक पाई भी अंग्रेज़ों को न दी। इसलिए पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।

4. पंजाब पर अधिकार करना लाभप्रद था (It was advantageous to annex Punjab)-प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में विजय के पश्चात् अंग्रेज़ों का मत था कि आर्थिक दृष्टि से पंजाब कोई लाभप्रद प्राँत नहीं है। परंतु पंजाब में दो वर्ष तक रह कर उन्हें ज्ञात हो गया कि यह राज्य तो कई दृष्टियों से भी अंग्रेजों के लिए लाभप्रद प्रमाणित हो सकता है। इन कारणों से लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को हड़प करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।

5. पंजाब के लोगों के लिए लाभप्रद (Advantageous for the people of Punjab) लॉर्ड डलहौज़ी . का पंजाब पर अधिकार करना पंजाब के लोगों के लिए एक वरदान सिद्ध हुआ। महाराजा रणजीत सिंह के बाद लाहौर दरबार षड्यंत्रों का अखाड़ा बन चुका था। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर चोरों, डाकुओं तथा ठगों ने अपना धंधा जोरों से शुरू कर दिया था। अंग्रेज़ों ने पंजाब का अपने राज्य में विलय करके वहाँ फिर से शाँति स्थापित की। पुलिस तथा न्याय प्रणाली को अधिक कुशल बनाया गया। कृषि तथा व्यापार को प्रोत्साहन दिया गया। पंजाब में सड़कों तथा नहरों का जाल बिछाया गया। लोगों को पश्चिमी शिक्षा देने की व्यवस्था की गई।

6. पंजाब का अधिकार आवश्यक था (Annexation of the Punjab was Inevitable)-यह कहा जाता है कि यदि पंजाब का विलय न किया जाता तो सिखों ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के विरुद्ध सदैव षड्यंत्र रचते रहना था। इसका प्रभाव भारत के अन्य भागों में भी पड़ सकता था। इसलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

4. “I have an undoubting conviction of the expediency, the justice and necessity of my act.”. Lord Dalhousie.

II. डलहौज़ी की विलय की नीति के विरुद्ध तर्क (Arguments against Dalhousie’s Policy of Annexation)
ईवांज बैल, जगमोहन महाजन, गंडा सिंह और खुशवंत सिंह आदि इतिहासकारों द्वारा लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब के विलय के विरुद्ध निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं—

1. सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया (Sikhs were Provoked to Revolt)—प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद बहुत-सी ऐसी घटनाएँ घटीं जिन्होंने सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया। लाहौर की संधि के अनुसार पंजाब के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्र अंग्रेज़ों ने छीन लिए थे। परिणामस्वरूप उसके कोष पर कुप्रभाव पड़ा। लाहौर दरबार की अधिकाँश सेना को भंग कर दिया गया। अंग्रेज़ों ने महारानी जिंदां से बहुत बुरा व्यवहार किया। उन्होंने दीवान मूलराज तथा सरदार चतर सिंह को विद्रोह के लिए भड़काया। परिणामस्वरूप सिखों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के लिए विवश किया गया।

2. विद्रोह समय पर न दबाया गया (Revolt was not suppressed in Time)-जब मुलतान में विद्रोह की आग भड़की तो उस पर तुरंत नियंत्रण न किया गया। आठ माह तक विद्रोह फैलने देना, एक गहरी राजनीतिक चाल थी। इसी मध्य चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह ने विद्रोह कर दिया था। इस तरह अंग्रेज़ों को पंजाब में सैनिक कार्यवाही करने का बहाना मिल गया तथा पंजाब को हड़प लिया गया।

3. अंग्रेजों ने संधि की शर्ते पूरी न की (British had not fulfilled the terms of the Treaty)अंग्रेज़ों का कहना था कि उन्होंने संधि की शर्ते पूरी की हैं। परंतु अंग्रेज़ों ने संधि की केवल वही शर्ते पूरी की जो उनके लिए लाभप्रद थीं। उदाहरणतया लाहौर की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने यह शर्त मानी थी कि वे दिसंबर, 1846 ई० के पश्चात् लाहौर से अपनी सेनाएँ हटा लेंगे। जब यह समय आया तो उन्होंने भैरोवाल की संधि अनुसार इस अवधि में वृद्धि कर दी। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग्रेज़ों का यह कहना कि उन्होंने संधि की शर्तों को पूरा किया, नितांत झूठ है।

4. लाहौर दरबार ने संधि की शर्ते पूरी करने में पूर्ण सहयोग दिया (Lahore Darbar gave full Cooperation in fulfilling the terms of the Treaty)-लाहौर दरबार ने तो पंजाब पर अंग्रेज़ों का अधिकार होने तक संधि की शर्ते पूरी निष्ठा से पूरी की। लाहौर सरकार पंजाब में रखी गई अंग्रेजी सेना का पूरा खर्च दे रही थी। उसने दीवान मूलराज, चतर सिंह और शेर सिंह द्वारा की गई बगावतों की निंदा की और इनके दमन में अंग्रेज़ी सेना को पूर्ण सहयोग दिया।

5. ऋण के संबंध में वास्तविकता (Facts about Loans) लॉर्ड डलहौज़ी का यह आरोप कि लाहौर दरबार ने ऋण की एक पाई भी वापिस नहीं की, तथ्यों के बिल्कुल विपरीत है। लाहौर में अंग्रेज़ रेजीडेंट फ्रेडरिक करी ने लॉर्ड डलहौजी को एक पत्र लिखा था जिसमें कहा गया था कि लाहौर दरबार ने 13,56,837 रुपए मूल्य का सोना जमा करवा दिया है। यदि लाहौर दरबार ने अपना सारा ऋण नहीं लौटाया तो इसका उत्तरदायित्व अंग्रेज़ रेजीडेंट पर था।

6. पूरी सिख सेना तथा लोगों ने विद्रोह नहीं किया था (The whole Sikh Army and the People did not Revolt)-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया था कि पंजाब की सारी सिख सेना तथा लोगों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। परंतु यह कथन भी सत्य नहीं है। पंजाब के केवल मुलतान तथा हज़ारा प्रांतों में ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हआ था। अधिकाँश सिख सेना तथा लोग अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान् रहे।

7. पंजाब पर अधिकार एक विश्वासघात था (Annexation of Punjab was a breach of Trust)दिसंबर 1846 ई० में हुई भैरोवाल की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने पंजाब का सारा शासन अपने हाथों में ले लिया था। इस प्रकार पंजाब की सत्ता का वास्तविक स्वामी अंग्रेज़ रेजीडेंट फ्रेडरिक करी था। अंग्रेजों ने पंजाब में शाँति व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से लाहौर में अंग्रेज सेना भी रख ली थी। ऐसी स्थिति में मुलतान तथा हज़ारा में हुए विद्रोह के दमन का समस्त दायित्व अंग्रेज़ रेजीडेंट का था। यदि इन विद्रोहों में कोई विफल रहा था तो वह अंग्रेज़ रेजीडेंट था। अपने अपराध के लिए दलीप सिंह को सज़ा देना अन्यायपूर्ण बात थी। यह एक घोर विश्वासघात नहीं तो और क्या था ?

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि पंजाब का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय राजनीतिक तथा नैतिक दृष्टि से बिल्कुल गलत था। अंत में हम मेजर ईवांज़ बैल के इन शब्दों से सहमत हैं,
“यह वास्तव में कोई विजय नहीं, अपितु नितांत विश्वासघात था।”5

5. “It was in fact, no conquest, but a violent breach of trust.”Major Evans Bell, The Annexation of the Punjab and the Maharaja Daleep Singh (Patiala : 1970) p. 6.

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संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के कारणों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Explain in brief the causes of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त ब्योरा दें। (Give a brief description of the main causes of the Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के तीन मुख्य कारण क्या थे ?
(What were the three main causes for the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-

  1. सिख प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में हुई अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे।
  2. अंग्रेज़ों ने महारानी जिंदां से जो अपमानजनक व्यवहार किया, उससे सिख भड़क उठे।
  3. मुलतान के दीवान मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था।
  4. लॉर्ड डलहौज़ी पंजाब को जल्द-से-जल्द अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना चाहता था।
  5. चतर सिंह एवं शेर सिंह के विद्रोह ने अग्नि में घी डालने का काम किया।

प्रश्न 2.
दीवान मूलराज के विद्रोह पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a note on the revolt of Diwan Moolraj.)
अथवा
मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the revolt of Diwan Moolraj of Multan.)
उत्तर-
दीवान मूलराज 1844 ई० में मुलतान का नया गवर्नर बना था। उससे लिया जाने वाला वार्षिक लगान बढ़ा दिया गया। इस कारण दीवान मूलराज ने गवर्नर के पद से त्याग-पत्र दे दिया। काहन सिंह को मुलतान का नया गवर्नर नियुक्त किया गया। दो अंग्रेज़ अधिकारियों एगन्यू और एंडरसन को उसकी सहायता के लिए भेजा गया। अंग्रेज़ों ने इनके कत्ल का झूठा आरोप मूलराज पर लगाया। परिणामस्वरूप वह विद्रोह करने के लिए मजबूर हो गया।

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प्रश्न 3.
हज़ारा के चतर सिंह के विद्रोह के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the revolt of Chattar Singh of Hazara ?)
उत्तर-
सरदार चतर सिंह अटारीवाला हजारा का नाज़िम था। उसके द्वारा भड़काए गए हज़ारा के मुसलमानों ने 6 अगस्त, 1848 ई० को सरदार चतर सिंह के निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया। यह देख कर सरदार चतर सिंह ने कर्नल कैनोरा को विद्रोहियों के विरुद्ध कार्रवाही करने का आदेश दिया। कर्नल कैनोरा ने चतर सिंह के आदेश को मानने से इंकार कर दिया। कैप्टन ऐबट ने सरदार चतर सिंह को. पदच्युत कर दिया। इस कारण चतर सिंह का खून खौल उठा तथा उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी।

प्रश्न 4.
चिलियाँवाला की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a note on the battle of Chillianwala.)
अथवा
चिलियाँवाला की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the battle of Chillianwala ?)
उत्तर-
चिलियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की एक महत्त्वपूर्ण लड़ाई थी। लॉर्ड ह्यग गफ़, जो अंग्रेजी सेनापति था को यह सूचना मिली कि चतर सिंह उसके प्रतिद्वंद्वी शेर सिंह की सहायता के लिए आ रहा है। इसलिए ह्यग गफ़ ने चतर सिंह के पहुंचने से पहले ही 13 जनवरी, 1849 ई० को चिलियाँवाला में शेर सिंह की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस घमासान लड़ाई में सिखों ने अंग्रेजों के खूब छक्के छुड़ाए।

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प्रश्न 5.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के दौरान हुई गुजरात की लड़ाई का क्या महत्त्व था ? (What was the importance of the battle of Gujarat in the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की अंतिम तथा निर्णायक लड़ाई थी। यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 40,000 थी तथा उनका नेतृत्व चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह कर रहे थे। दूसरी ओर अंग्रेज़ सैनिकों की संख्या 68,000 थी और लॉर्ड ह्यूग गफ़ उनका सेनापति था। इस युद्ध में सिखों की हार हुई। परिणामस्वरूप पंजाब को 29 मार्च, 1849 ई० को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।

प्रश्न 6.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या प्रभाव पड़े ?(What were the results of the Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई तीन प्रभाव लिखें। (Explain any three effects of Social Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रभावों का अध्ययन संक्षेप में करें। (Study in brief the results of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के तीन प्रभाव लिखें।
(Explain the three effects of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या परिणाम निकले? (What were the results of the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-

  1. दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि 29 मार्च, 1849 ई० को पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।
  2. पंजाब के अंतिम शासक महाराजा दलीप सिंह को 50,000 पौंड वार्षिक पेंशन देकर सिंहासन से उतार दिया गया।
  3. उससे प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा लेकर महारानी विक्टोरिया को भेंट किया गया।
  4. दीवान मूलराज तथा महाराजा दलीप सिंह को देश निष्कासन का दंड दिया गया
  5. पंजाब का शासन प्रबंध चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की गई।

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प्रश्न 7.
क्या लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब का अंग्रेजी राज्य में विलय उचित था ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was it justified for Lord Dalhousie to annex Punjab to the British empire ? Give arguments in support of your answer.)
अथवा
“पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना एक घोर विश्वासघात था।” व्याख्या करें।
(“Annexation of Punjab was a violent breach of trust.” Explain.)
अथवा
क्या पंजाब का विलय उचित था ? कारण लिखो।
(Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
अथवा
क्या पंजाब का संयोजन न्याय संगत था ? कारण बताओ।
(Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
उत्तर-
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल करना किसी प्रकार भी उचित नहीं था। अंग्रेजों ने सर्वप्रथम लाहौर संधि के अंतर्गत पंजाब के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्र छीन लिए। लाहौर दरबार की अधिकाँश सेना भंग कर दी गई, जिससे सैनिकों में रोष उत्पन्न हो गया। अंग्रेजों ने महारानी जिंदां को राज्य के प्रशासन से अलग कर दिया। मुलतान के गवर्नर दीवान मूलराज तथा हज़ारा के गवर्नर चतर सिंह को पहले विद्रोह के लिए उकसाया गया तथा फिर उनके विद्रोह को फैलने दिया गया ताकि बहाना बनाकर पंजाब को अधिकार में ले सकें।

प्रश्न 8.
डलहौज़ी के इस पक्ष में तर्क दें कि उसके द्वारा पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।
(Give arguments in favour of Dalhousie’s annexation of the Punjab to the British Empire.)
अथवा
डलहौज़ी की पंजाब विलय की नीति के पक्ष में तर्क दीजिए। (Give arguments in favour of Dalhousie’s policy of the annexation of the Punjab.)
अथवा
क्या पंजाब का विलय उचित था ? कारण लिखो। (Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
उत्तर-

  1. सिखों ने भैरोवाल की संधि की शर्तों को भंग किया था।
  2. दीवान मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था।
  3. पंजाब में शांति स्थापित करने के लिए उसको अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाना अनिवार्य था।
  4. पंजाब अंग्रेज़ी साम्राज्य के लिए ख़तरा बन सकता था।
  5. पंजाब पर अधिकार अंग्रेजी साम्राज्य के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता था।

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प्रश्न 9.
महाराजा दलीप सिंह पर नोट लिखें। (Write a note on Maharaja Dalip Singh.)
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह रणजीत सिंह का सबसे छोटा पुत्र था। वह 15 सितंबर, 1843 ई० को पंजाब का नया महाराजा बना था। महाराजा दलीप सिंह ने लाल सिंह को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया जो गद्दार निकला। परिणामस्वरूप पहले तथा दूसरे एंग्लो-सिख युद्धों में सिखों को पराजय का मुख देखना पड़ा। अंग्रेजों ने महाराजा दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया। 22 अक्तूबर, 1893 ई० को महाराजा दलीप सिंह की पेरिस में मृत्यु हो गई।

प्रश्न 10.
महारानी जींद कौर (जिंदां) पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
[Write a brief note on Maharani Jind Kaur (Jindan).] .
अथवा
महारानी जिंदां के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharani Jindan ?)
उत्तर-
महारानी जिंदां, महाराजा रणजीत सिंह की रानी थी। उसे 15 सितंबर, 1843 ई० को पंजाब के नवनियुक्त महाराजा दलीप सिंह की संरक्षिका बनाया गया था । इसीलिए अंग्रेजों ने दिसंबर, 1846 ई० में भैरोवाल की संधि के अंतर्गत महारानी जिंदां के सभी अधिकार छीन लिए तथा उसकी डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। महारानी भेष बदल कर नेपाल पहुँचने में सफल हो गई। यहाँ अंग्रेजों ने दोनों को एक साथ न रहने दिया। 1 अगस्त, 1863 ई० को महारानी जिंदां इंग्लैंड में इस संसार से चल बसीं।

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प्रश्न 11.
भाई महाराज सिंह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Bhai Maharaj Singh.)
उत्तर-
भाई महाराज सिंह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत भाई बीर सिंह के शिष्य थे। वह पंजाब की स्वतंत्रता के पक्ष में थे। अतः उन्होंने मुलतान के दीवान मूलराज, हज़ारा के सरदार. चतर सिंह अटारीवाला तथा उसके पुत्र शेर सिंह को अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सभी लड़ाइयों में भाग लिया। उनको पहले कलकत्ता (कोलकाता) तथा बाद में सिंगापुर की जेल में रखा गया। वहीं पर उनकी 5 जुलाई, 1856 ई० को मृत्यु हो गई।

बहु-विकल्पीय प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
उत्तर-
1848-49 ई०।

प्रश्न 2.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
उत्तर-
लॉर्ड डलहौज़ी।

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प्रश्न 3.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का कोई एक कारण लिखिए।
उत्तर-
सिख प्रथम युद्ध में हुई अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे।

प्रश्न 4.
महारानी जिंदां कौन थी ?
अथवा
महारानी जिंदां (जिंद कौर) कौन थी ?
उत्तर-
वह महाराजा दलीप सिंह की माँ।

प्रश्न 5.
दीवान मूलराज कौन था ?
उत्तर-
मुलतान का नाज़िम (गवर्नर)।

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प्रश्न 6.
दीवान मूलराज द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
अंग्रेजों ने दीवान मूलराज से वसूल किए जाने वाले वार्षिक लगान की राशि में भारी वृद्धि कर दी थी।

प्रश्न 7.
सावन मल कौन था ?
उत्तर-
दीवान मूलराज का पिता व मुलतान का नाज़िम

प्रश्न 8.
चतर सिंह अटारीवाला कौन था ?
उत्तर-
हज़ारा का नाज़िम।

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प्रश्न 9.
शेर सिंह कौन था ?
उत्तर-
चतर सिंह अटारीवाला का पुत्र।

प्रश्न 10.
शेर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा क्यों खड़ा किया था ?
उत्तर-
वह अंग्रेजों द्वारा उसके पिता के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण।

प्रश्न 11.
भाई महाराज सिंह कौन था ?
उत्तर-
वह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत थे।

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प्रश्न 12.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध किसके विद्रोह से शुरू हुआ ?
अथवा
किसके विद्रोह ने द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ किया ?
उत्तर-
दीवान मूलराज।

प्रश्न 13.
रामनगर की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
22 नवंबर, 1848 ई०

प्रश्न 14.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
13 जनवरी, 1849 ई०

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प्रश्न 15.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की अंतिम लड़ाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई।

प्रश्न 16.
गुजरात की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
उत्तर-
21 फरवरी, 1849 ई०।

प्रश्न 17.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के दौरान लड़ी गई उस लड़ाई का नाम बताएँ जो तोपों की लड़ाई के नाम से विख्यात है ?
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई।।

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प्रश्न 18.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।

प्रश्न 19.
पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में कब शामिल किया गया ?
अथवा
पंजाब को अंग्रेजी सामाज्य में कब मिलाया गया?
उत्तर-
29 मार्च, 1849 ई०।

प्रश्न 20.
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल करने के पक्ष में दिए जाने वाला कोई एक तर्क बताएँ।
उत्तर-
पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल करना पंजाब के लोगों के लिए लाभप्रद था।

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प्रश्न 21.
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल करने के विरुद्ध दिए जाने वाला एक तर्क बताएँ।
उत्तर-
अंग्रेजों ने सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया।

प्रश्न 22.
भाई महाराज सिंह कौन था ?
उत्तर-
वह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत भाई बीर सिंह का शिष्य था।

प्रश्न 23.
भाई महाराज सिंह की मौत कब हुई थी ?
उत्तर-
1856 ई०।

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प्रश्न 24.
भाई महाराज सिंह की मौत कहाँ हुई थी ?
उत्तर-
सिंगापुर।

प्रश्न 25.
पंजाब का अंतिम सिख महाराजा कौन था ?
अथवा
पंजाब का आखिरी सिख शासक कौन था ?
अथवा
सिखों का अंतिम सिख महाराजा कौन था?
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह।

प्रश्न 26.
महाराजा दलीप सिंह की मृत्य कहाँ हुई थी ?
उत्तर-
पेरिस में।

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प्रश्न 27.
महाराजा दलीप सिंह की मौत कब हुई थी ?
उत्तर-
1893 ई०

प्रश्न 28.
महारानी जिंदां की मृत्य कब हुई थी ?
उत्तर-
1863 ई०।

प्रश्न 29.
सिख साम्राज्य के पतन का कोई एक मुख्य कारण बताएँ ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी अयोग्य निकले।

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(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
अंग्रेज़ों एवं सिखों के बीच दूसरी लड़ाई ………….. ई० में हुई।
उत्तर-
(1848-49)

प्रश्न 2.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर जनरल……….था।
उत्तर-
(लॉर्ड डलहौज़ी)

प्रश्न 3.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा…………….था।
उत्तर-
(दलीप सिंह)

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प्रश्न 4.
महाराजा दलीप सिंह की माँ का नाम…………..था।
उत्तर-
(महारानी जिंदां)

प्रश्न 5.
1844 ई० में……………मुलतान का नाजिम नियुक्त हुआ।
उत्तर-
(दीवान मूलराज)

प्रश्न 6.
सरदार चतर सिंह अटारीवाला………का नाज़िम था।
उत्तर-
(हज़ारा)

प्रश्न 7.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की पहली लड़ाई का नाम……..था। .
उत्तर-
(रामनगर)

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प्रश्न 8.
रामनगर की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(22 नवंबर, 1848 ई०)

प्रश्न 9.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई……….को हुई।
उत्तर-
(13 जनवरी, 1849 ई०)

प्रश्न 10.
गुजरात की लड़ाई इतिहास में…………..की लड़ाई के नाम से प्रसिद्ध है।
उत्तर-
(तोपों)

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प्रश्न 11.
अंग्रेजों ने पंजाब को अपने साम्राज्य में………….को सम्मिलित किया था।
उत्तर-
(29 मार्च, 1849 ई०)

(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध 1848-49 ई० में लड़ा गया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लॉर्ड डलहौज़ी भारत का गवर्नर जनरल था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 3.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा दलीप सिंह था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
महारानी जिंदां महाराजा दलीप सिंह की माँ थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
दीवान मूलराज 1846 ई० में मुलतान का नाज़िम बना।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 6.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध रामनगर की लड़ाई से आरंभ हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
राम नगर की लड़ाई 12 नवंबर, 1846 ई० को हुई।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई 13 जनवरी, 1849 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 9.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना को एक कड़ी पराजय का सामना करना पड़ा।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध गुजरात की लड़ाई के साथ समाप्त हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
गुजरात की लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 12.
पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में 29 मार्च, 1849 ई० में शामिल किया गया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
महाराजा दलीप सिंह पंजाब का अंतिम सिख महाराजा था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 14.
सिखों का अंतिम महाराजा रणजीत सिंह था।
उत्तर-
गलत

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
(i) 1844-45 ई० में
(ii) 1845-46 ई० में
(iii) 1847-48 ई० में
(iv) 1848-49 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 2.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
(i) लॉर्ड लिटन
(ii) लॉर्ड रिपन
(iii) लॉर्ड डलहौज़ी
(iv) लॉर्ड हार्डिंग।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 3.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा कौन था?
(i) महाराजा शेर सिंह
(ii) महाराजा रणजीत सिंह
(iii) महाराजा दलीप सिंह
(iv) महाराजा खड़क सिंह।
उत्तर-
(iii)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

प्रश्न 4.
महारानी जिंदां कौन थी ?
(i) महाराजा दलीप सिंह की माता
(ii) महाराजा खड़क सिंह की बहन
(iii) महाराजा शेर सिंह की पत्नी
(iv) राजा गुलाब सिंह की पुत्री।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 5.
दीवान मूलराज कौन था ?
(i) गुजरात का नाज़िम
(ii) मुलतान का नाज़िम
(iii) कश्मीर का नाज़िम
(iv) पेशावर का नाज़िम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 6.
दीवान मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कब किया था ?
(i) 1844 ई० में
(ii) 1845 ई० में
(iii) 1846 ई० में
(iv) 1848 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 7.
सरदार चतर सिंह अटारीवाला कहाँ का नाज़िम था ?
(i) हज़ारा
(ii) मुलतान
(iii) कश्मीर
(iv) पेशावर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध किस लड़ाई के साथ आरंभ हुआ ?
(i) मुलतान की लड़ाई
(ii) चिल्लियाँवाला की लड़ाई
(iii) गुजरात की लड़ाई
(iv) रामनगर की लड़ाई।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 9.
रामनगर की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 12 नवंबर, 1846 ई०
(ii) 15 नवंबर, 1847 ई०
(iii) 17 नवंबर, 1848 ई०
(iv) 22 नवबर, 1848 ई०
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 10.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई कब हुई ?
(i) 22 नवंबर, 1848 ई०
(ii) 3 जनवरी, 1848 ई०
(iii) 10 जनवरी, 1849 ई०
(iv) 13 जनवरी, 1849 ई०।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 11.
मुलतान का युद्ध कब समाप्त हुआ ?
(i) 22 जनवरी, 1849 ई०
(ii) 23 जनवरी, 1849 ई०
(iii) 24 जनवरी, 1849 ई०
(iv) 25 जनवरी, 1849 ई०
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध किस लड़ाई के साथ समाप्त हुआ ?
अथवा
उस लड़ाई का नाम लिखें जो इतिहास में ‘तोपों की लड़ाई’ के नाम से प्रसिद्ध है।
(i) मुलतान की लड़ाई
(ii) रामनगर की लड़ाई
(iii) गुजरात की लड़ाई
(iv) चिल्लियाँवाला की लड़ाई।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 13.
गुजरात की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
(i) 22 नवंबर, 1848 ई०
(ii) 13 जनवरी, 1849 ई०
(iii) 22 जनवरी, 1849 ई०
(iv) 21 फरवरी, 1849 ई०।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 14.
पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में कब सम्मिलित किया गया ?
(i) 1849 ई०
(ii) 1850 ई०
(iii) 1848 ई०
(iv) 1947 ई०
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
पंजाब का अंतिम सिख महाराजा कौन था ?
(i) महाराजा दलीप सिंह
(i) महाराजा रणजीत सिंह
(iii) महाराजा खड़क सिंह
(iv) महाराजा शेर सिंह।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 16.
महाराजा दलीप सिंह की मृत्यु कब हुई थी ?
(i) 1857 ई० में
(ii) 1893 ई० में
(iii) 1849 ई० में
(iv) 1892 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 17.
महाराजा दलीप सिंह की मृत्यु कहाँ हुई थी ?
(i) पंजाब
(ii) पेरिस
(iii) नेपाल
(iv) लंदन।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के छः कारणों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Explain in brief the six causes of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के छः मुख्य कारण क्या थे ?
(What were the six main causes for the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के मुख्य कारण निम्नलिखित थे—
1. सिखों की अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने की इच्छा—यह सही है कि अंग्रेज़ों के साथ प्रथम युद्ध में सिख पराजित हो गए थे, परंतु इससे उनका साहस किसी प्रकार कम नहीं हुआ था। इस पराजय का मुख्य कारण सिख नेताओं द्वारा की गई गद्दारी थी। सिख सैनिकों को अपनी योग्यता पर पूर्ण विश्वास था। वे अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे। उनकी यह इच्छा द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध का एक मुख्य कारण बनी।

2. लाहौर तथा भैरोवाल की संधियों से पंजाबी असंतुष्ट-अंग्रेजों तथा सिखों के बीच हुए प्रथम युद्ध के पश्चात् अंग्रेजों ने लाहौर दरबार के साथ लाहौर तथा भैरोवाल नामक दो संधियाँ कीं। पंजाब के लोग महाराजा रणजीत सिंह के अथक प्रयासों से निर्मित साम्राज्य का इन संधियों द्वारा किया जा रहा विघटन होता देख सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए सिखों को अंग्रेजों से एक और युद्ध लड़ना पड़ा।

3. सिख सैनिकों में असंतोष-लाहौर की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने खालसा सेना की संख्या 20,000 पैदल तथा 12,000 घुड़सवार निश्चित कर दी थी। इस कारण हज़ारों की संख्या में सिख सैनिकों को नौकरी से हटा दिया गया था। इससे इन सैनिकों के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष उत्पन्न हो गया तथा वे अंग्रेजों के साथ युद्ध की तैयारियाँ करने लगे।

4. महारानी जिंदां से दुर्व्यवहार अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह की विधवा महारानी जिंदां से जो अपमानजनक व्यवहार किया, उसने सिखों में अंग्रेजों के प्रति व्याप्त रोष को और भड़का दिया। वह इस अपमान का बदला लेने चाहते थे।

5. दीवान मूलराज का विद्रोह-द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ करने में मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह को विशेष स्थान प्राप्त है। 20 अप्रैल, 1848 ई० को मुलतान में दो अंग्रेज़ अधिकारियों वैनस एग्नय तथा एंडरसन के किए गए कत्लों के लिए मूलराज को दोषी ठहराया गया। इस कारण उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का ध्वज उठा लिया।

6. लॉर्ड डलहौज़ी की नीति-1848 ई० में लॉर्ड डलहौज़ी भारत का नया गवर्नर-जनरल बना था। वह बहुत बड़ा साम्राज्यवादी था। वह पंजाब को अपने अधीन करने के लिए किसी स्वर्ण अवसर की तलाश में था। यह अवसर उसे दीवान मूलराज, चतर सिंह तथा शेर सिंह द्वारा किए गए विद्रोहों से मिला।

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प्रश्न 2.
दीवान मूलराज के विद्रोह पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a note on the revolt of Diwan Mulraj.)
अथवा
मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the revolt of Diwan Mulraj of Multan.)
उत्तर-
दीवान मूलराज 1844 ई० में मुलतान का नया गवर्नर बना था। वह लगभग 1372 लाख रुपए वार्षिक लगान लाहौर दरबार को देता था। बाद में यह राशि बढ़ाकर 20 लाख रुपए वार्षिक कर दी गई थी, परंतु इसके साथ ही उसके प्राँत का तीसरा भाग भी उससे ले लिया गया। इस कारण दीवान मूलराज ने गवर्नर के पद से त्यागपत्र दे दिया। मार्च, 1848 ई० में रेजीडेंट फ्रेडरिक करी ने मूलराज का त्याग-पत्र स्वीकार कर लिया। उसने काहन सिंह को मुलतान का नया गवर्नर नियुक्त करने का निर्णय किया। उसकी सहायता के लिए दो अंग्रेज अधिकारियों एग्नयू और एंडरसन को उसके साथ भेजा गया। मूलराज ने बिना किसी विरोध के 19 अप्रैल, 1848 ई० को किले की चाबियाँ काहन सिंह को सौंप दी, परंतु 20 अप्रैल को मूलराज के सिपाहियों ने दोनों अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या कर दी। अंग्रेजों ने इसके लिए मूलराज को दोषी ठहराया। इसलिए मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अंग्रेज़ों ने इस विद्रोह का दमन करने की अपेक्षा इसे फैलने दिया ताकि उन्हें लाहौर दरबार पर आक्रमण करने का अवसर मिल सके।

प्रश्न 3.
हज़ारा के चतर सिंह के विद्रोह के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the revolt of Chattar Singh of Hazara ?)
उत्तर-
सरदार चतर सिंह अटारीवाला हज़ारा का नाज़िम था। उसकी लड़की की सगाई महाराजा दलीप सिंह के साथ हुई थी, परंतु अंग्रेज़ इस रिश्ते के विरुद्ध थे, क्योंकि इससे सिखों की राजनीतिक शक्ति बढ़ जानी थी। यह शक्ति अंग्रेजों की पंजाब को हड़पने की नीति के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर सकती थी। कैप्टन ऐबट जिसे सरदार चतर सिंह का परामर्शदाता नियुक्त किया गया था, सिख राज्य को नष्ट करने की योजना तैयार कर रहा था। उस द्वारा भड़काए गए हज़ारा के मुसलमानों ने 6 अगस्त, 1848 ई० को सरदार चतर सिंह के निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया। यह देख कर सरदार चतर सिंह ने कर्नल कैनोरा को विद्रोहियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दिया। कर्नल कैनोरा जो कैप्टन ऐबट के साथ मिला हुआ था, ने चतर सिंह के आदेश को मानने से इन्कार कर दिया। उसने अपनी पिस्तौल से गोलियाँ चलाकर दो सिख सिपाहियों को मार डाला। उसी समय एक सिख सिपाही ने आगे बढ़कर अपनी तलवार से कैनोरा की जान ले ली। जब इस घटना का समाचार ऐबट ने पाया तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा। उसने सरदार चतर सिंह को पदच्युत कर दिया तथा उसकी जागीर ज़ब्त कर ली। इस कारण चतर सिंह का खून खौल उठा तथा उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी।

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प्रश्न 4.
चिलियाँवाला की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a note on the battle of Chillianwala.)
उत्तर-
चिलियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। लॉर्ड ह्यग गफ, जो अंग्रेजी सेनापति था, शेर सिंह की सेना का मुकाबला करने के लिए और सैनिक सहायता पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहा था। इसी बीच ह्यग गफ को यह सूचना मिली कि चतर सिंह ने अटक के किले पर अधिकार कर लिया है और वह शेर सिंह की सहायता के लिए आ रहा है। ऐसा होने पर अंग्रेजों के लिए घोर संकट पैदा हो सकता था। इसलिए ह्यग गफ ने चतर सिंह के पहुंचने से पहले ही 13 जनवरी, 1849 ई० को चिलियाँवाला में शेर सिंह की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस घमासान लड़ाई में शेर सिंह के सैनिकों ने अंग्रेजों के खूब छक्के छुड़ाए। इस लड़ाई में अंग्रेजों की इतनी अधिक क्षति हुई कि इंग्लैंड में भी हाहाकार मच गई। इस अपमानजनक पराजय के कारण सेनापति लॉर्ड ह्यग गफ के सम्मान को भारी आघात पहुँचा। उसके स्थान पर चार्ल्स नेपियर को अंग्रेज़ी सेना का नया सेनापति नियुक्त करके भारत भेजा गया।

प्रश्न 5.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के दौरान हुई गुजरात की लड़ाई का क्या महत्त्व था ? (What was the importance of the battle of Gujarat in the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो सिख युद्ध की अंतिम तथा निर्णायक लड़ाई थी। यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 40,000 थी तथा उनका नेतृत्व चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह कर रहे थे। दूसरी ओर अंग्रेज़ सैनिकों की संख्या 68,000 थी और लॉर्ड ह्यग गफ उनका सेनापति था। क्योंकि इस लड़ाई में दोनों पक्षों की ओर से तोपों का खूब प्रयोग किया गया इसलिए गुजरात की लड़ाई को तोपों की लड़ाई भी कहा जाता है। सिखों ने अंग्रेजों का बड़ी वीरता से सामना किया, परंतु उनका गोला-बारूद समाप्त हो जाने पर अंततः उन्हें पराजित होना पड़ा। इस लड़ाई में सिखों की भारी क्षति हुई और उनमें भगदड़ मच गई। चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह रावलपिंडी की ओर भाग गए। अंग्रेज़ सैनिकों ने उनका पीछा किया। उन्होंने 10 मार्च को शस्त्र डाल दिए जबकि शेष सैनिकों ने 14 मार्च को अंग्रेजों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। इस लड़ाई में विजय के पश्चात् 29 मार्च, 1849 ई० को पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में : सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह के राज्य का अंत हो गया।

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प्रश्न 6.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या प्रभाव पड़े ? (What were the results of the Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दसरे ऐंग्लो-सिख यद्ध के प्रभावों का अध्ययन संक्षेप में करें। (Study in brief the results of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई छः प्रभाव बताएँ। (Write six effects of Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के बड़े दूरगामी परिणाम निकले। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार—
1. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का अंत-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का पूर्णतः अंत हो गया। अंतिम सिख महाराजा दलीप सिंह को सिंहासन से उतार दिया गया।

2. सिख सेना भंग कर दी गई—दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के पश्चात् सिख सेना को भी भंग कर दिया गया। अधिकाँश सिख सैनिकों को कृषि व्यवसाय में लगाने का प्रयत्न किया गया। कुछ को ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती कर लिया गया।

3. दीवान मूल राज तथा भाई महाराज सिंह को निष्कासन का दंड दीवान मूलराज के मृत्यु दंड को काले पानी की सज़ा में बदल दिया गया। परंतु उनकी 11 अगस्त, 1851 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) में मृत्यु हो गई। भाई महाराज सिंह को सिंगापुर जेल भेज दिया गया जहाँ 5 जुलाई, 1856 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।

4. चतर सिंह तथा शेर सिंह को दंड-अंग्रेजों ने स० चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह को बंदी बना लिया था। उन्हें पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) की जेलों में रखा गया। 1854 ई० में सरकार ने उन दोनों को मुक्त कर दिया।

5. पंजाब के लिए नया प्रशासन —पंजाब के अंग्रेजी साम्राज्य में विलय के पश्चात् अंग्रेज़ों ने पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की। यह 1849 ई० से 1853 ई० तक बना रहा। इन सुधारों ने पंजाबियों के दिलों को जीत लिया। परिणामस्वरूप वे 1857 के विद्रोह के समय अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार रहे।

6. पंजाब की रियासतों में मित्रता का व्यवहार-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पटियाला, नाभा, जींद, मालेरकोटला, फरीदकोट तथा कपूरथला की रियासतों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। इससे अंग्रेज़ों ने इनसे मित्रता बनाए रखीं और इन रियासतों को अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित न किया गया।

प्रश्न 7.
क्या लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब का संयोजन न्याय संगत था ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was the annexation of Punjab by Lord Dalhousie Justified ? Give reasons in your favour.)
अथवा
“पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना एक घोर विश्वासघात था।” व्याख्या करें। (“Annexation of Punjab was a violent breach of trust.” Explain.)
अथवा
क्या पंजाब का विलय उचित था ? कारण लिखो। (Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
अथवा
क्या पंजाब का संयोजन न्याय संगत था ? इसके पक्ष में छः तर्क दें। (P.S.E.B. July 2019) (Was the annexation of Punjab justified ? Give six reasons for it.)
उत्तर-
1. सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया-प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद बहुत-सी ऐसी घटनाएँ घटीं जिन्होंने सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया। लाहौर की संधि के अनुसार पंजाब के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्र अंग्रेज़ों ने छीन लिए थे। अंग्रेज़ों ने महारानी जिंदां से बहुत बुरा व्यवहार किया। उन्होंने दीवान मूलराज तथा सरदार चतर सिंह को विद्रोह के लिए भड़काया। परिणामस्वरूप सिखों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के लिए विवश किया गया।

2. विद्रोह समय पर न दबाया गया-जब मुलतान में विद्रोह की आग भड़की तो उस पर तुरंत नियंत्रण न किया गया। आठ माह तक विद्रोह फैलने देना, एक गहरी राजनीतिक चाल थी। इस तरह अंग्रेज़ों को पंजाब में सैनिक कार्यवाही करने का बहाना मिल गया तथा पंजाब को हड़प लिया गया।

3. अंग्रेजों ने संधि की शर्ते पूरी न की-अंग्रेजों का कहना था कि उन्होंने संधि की शर्ते पूरी की हैं। परंतु अंग्रेज़ों ने संधि की केवल वही शर्ते पूरी की जो उनके लिए लाभप्रद थीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग्रेज़ों का यह कहना कि उन्होंने संधि की शर्तों को पूरा किया, नितांत झूठ है।

4. लाहौर दरबार ने संधि की शर्ते पूरी करने में पूर्ण सहयोग दिया-लाहौर दरबार ने तो पंजाब पर अंग्रेज़ों का अधिकार होने तक संधि की शर्ते पूरी निष्ठा से पूरी की। लाहौर सरकार पंजाब में रखी गई अंग्रेज़ी सेना का पूरा खर्च दे रही थी। उसने दीवान मूलराज, चतर सिंह और शेर सिंह द्वारा की गई बगावतों की निंदा की और इनके दमन में अंग्रेजी सेना को पूर्ण सहयोग दिया।

5. पूरी सिख सेना तथा लोगों ने विद्रोह नहीं किया था-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया था कि पंजाब की सारी सिख सेना तथा लोगों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। परंतु यह कथन भी सत्य नहीं है। पंजाब के केवल मुलतान तथा हज़ारा प्रांतों में ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ था। अधिकाँश सिख सेना तथा लोग अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान् रहे।

6. पंजाब पर अधिकार एक विश्वासघात था-पंजाब पर अंग्रेजों द्वारा अधिकार एक घोर विश्वासघात था। 1846 ई० में हुई भैरोवाल की संधि अनुसार पंजाब में शांति व्यवस्था बनाए रखने की सारी ज़िम्मेदारी अंग्रेज़ों की थी। परन्तु अंग्रेजों ने पंजाब में बिगड़ती हुई परिस्थितियों के लिए महाराजा दलीप सिंह को दोषी माना।

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प्रश्न 8.
डलहौज़ी के इस पक्ष में कोई छः तर्क दें कि उसके द्वारा पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।
(Give any six arguments in favour of Dalhousie’s annexation of the Punjab to the British Empire.)
अथवा
डलहौज़ी की पंजाब विलय की नीति के पक्ष में तर्क दीजिएवं (Give arguments in favour of Dalhousie’s policy of the annexation of Punjab.)
उत्तर-
1. सिखों ने वचन भंग किया-लॉर्ड डलहौजी ने यह आरोप लगाया कि सिखों ने भैरोवाल संधि की शर्ते भंग की। सिख सरदारों ने यह वचन दिया था कि वे अंग्रेज़ रेजीडेंट को पूर्ण सहयोग देंगे। परंतु उन्होंने राज्य में अशांति तथा विद्रोह भड़काने का प्रयत्न किया। लॉर्ड डलहौज़ी ने दीवान मूलराज के विद्रोह को पूरी सिख जाति का विद्रोह बताया। सरतार चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह ने विद्रोह करके मूलराज का साथ दिया। इस प्रकार बिगड़ रही परिस्थितियों पर नियंत्रण पाने के लिए पंजाब का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय आवश्यक था।

2. पंजाब अच्छा मध्यवर्ती राज्य न रहा-लॉर्ड हार्डिंग का विचार था कि पंजाब एक लाभप्रद मध्यवर्ती राज्य प्रमाणित होगा। इससे ब्रिटिश राज्य को अफ़गानिस्तान की ओर से किसी ख़तरे का सामना नहीं करना पड़ेगा। परंतु उनका यह विचार गलत प्रमाणित हुआ क्योंकि सिखों तथा अफ़गानों में मित्रता स्थापित हो गई। इसीलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

3. ऋण न लौटाना-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया कि भैरोवाल की संधि की शर्तों के अनुसार लाहौर दरबार ने अंग्रेजों को 22 लाख रुपए वार्षिक देने थे। परंतु लाहौर दरबार ने एक पाई भी अंग्रेजों को न दी। इसलिए पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।

4. पंजाब पर अधिकार करना लाभप्रद था-प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में विजय के पश्चात् अंग्रेजों का मत था कि आर्थिक दृष्टि से पंजाब कोई लाभप्रद प्राँत नहीं है। परंतु पंजाब में दो वर्ष तक रह कर उन्हें ज्ञात हो गया कि यह राज्य तो कई दृष्टियों से भी अंग्रेजों के लिए लाभप्रद प्रमाणित हो सकता है। इन कारणों से लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को हड़प करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।

5. पंजाब पर अधिकार आवश्यक था-यह कहा जाता है कि यदि पंजाब का विलय न किया जाता तो सिखों ने अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध सदैव षड्यंत्र रचते रहना था। इसका प्रभाव भारत के अन्य भागों में भी पड़ सकता था। इसलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

6. पंजाब के लोगों के लिए लाभप्रद-लॉर्ड डलहौज़ी के पंजाब पर अधिकार करने के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि ऐसा करके उसने पंजाब के लोगों के लिए एक अच्छा कार्य किया। ऐसा करके उन्होंने पंजाब में फैली अराजकता को दूर किया। प्रशासन में महत्त्वपूर्ण सुधारों को लागू किया। इस तरह पंजाब का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय पंजाब के लोगों के लिए वरदान प्रमाणित हुआ।

प्रश्न 9.
महाराजा दलीप सिंह पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Maharaja Dalip Singh.)
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह रणजीत सिंह का सबसे छोटा पुत्र था। वह 15 सितंबर, 1843 ई० को पंजाब का नया महाराजा बना था। उस समय उसकी आयु 5 वर्ष की थी, इसलिए महारानी जिंदां को उसका संरक्षक बनाया गया। महाराजा दलीप सिंह ने राज्य का प्रशासन चलाने के लिए हीरा सिंह को राज्य का नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। यद्यपि वह बहुत समझदार था, परंतु उसने पंडित जल्ला को मुशीर-ए-खास (विशेष परामर्शदाता) नियुक्त करके बहुत-से दरबारियों को रुष्ट कर लिया था। 1844 ई० में हीरा सिंह की हत्या के पश्चात् जवाहर सिंह को नया प्रधानमंत्री बनाया गया, परंतु वह बड़ा हठी तथा अयोग्य था। उसे सितंबर, 1845 ई० में कंवर पिशौरा सिंह की हत्या के कारण सैनिकों ने मृत्यु दंड दे दिया था। उसके पश्चात् लाल सिंह को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया गया। वह पहले से ही अंग्रेजों से मिला हुआ था। परिणामस्वरूप पहले तथा दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्धों में सिखों को पराजय का मुख देखना पड़ा। अंग्रेज़ों ने महाराजा दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया और 29 मार्च, 1849 ई० को पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। 22 अक्तब्रूर, 1893 ई० को महाराजा दलीप सिंह की पेरिस में मृत्यु हो गई।

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प्रश्न 10.
महारानी जींद कौर (जिंदां) पर एक नोट लिखो। [Write a note on Maharani Jind Kaur (Jindan).]
अथवा
महारानी जिंदां के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharani Jindan ?)
उत्तर-
महारानी जिंदां, महाराजा दलीप सिंह की माता तथा महाराजा रणजीत सिंह की रानी थी। जब 15 सितंबर, 1843 ई० को दलीप सिंह पंजाब का नया महाराजा बना तो महारानी जिंदां को उसका संरक्षक बनाया गया। क्योंकि महारानी जिंदां पंजाब को स्वतंत्र रखना चाहती थी इसलिए वह अंग्रेज़ों की आँखों में खटकती थी। इसीलिए अंग्रेज़ों ने दिसंबर, 1846 ई० में लाहौर दरबार से हुई भैरोवाल की संधि के अंतर्गत महारानी जिंदां के सभी अधिकार छीन लिए तथा उसकी डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। अगस्त, 1847 ई० में अंग्रेज़ों ने महारानी को शेखूपुरा के किले में नज़रबंद कर दिया और मई, 1848 को देश निकाला देकर बनारस भेज दिया। जेल में महारानी से क्रूर व्यवहार किया गया। अप्रैल, 1849 ई० में महारानी भेष बदल कर नेपाल पहुँचने में सफल हो गई। 1861 ई० में जब महाराजा दलीप सिंह इंग्लैंड से भारत आया तो महारानी जिंदां उससे मिलने नेपाल से भारत आई। महाराजा दलीप सिंह अपनी माता को इंग्लैंड ले गया। यहाँ अंग्रेजों ने दोनों को एक साथ न रहने दिया। अंततः 1 अगस्त, 1863 ई० को महारानी इस संसार से चल बसीं।

प्रश्न 11.
भाई महाराज सिंह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Bhai Maharaj Singh.)
उत्तर-
भाई महाराज सिंह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत भाई बीर सिंह के शिष्य थे। 1845 ई० में वह भाई बीर सिंह की मृत्यु के पश्चात् गद्दी पर बैठे। वह पंजाब की स्वतंत्रता को बनाए रखने के पक्ष में थे। इस उद्देश्य के साथ उन्होंने गाँव-गाँव जाकर प्रचार करना आरंभ किया। अत: सरकार ने उनकी संपत्ति जब्त कर ली तथा उनको बंदी करवाने वाले को 10,000 रुपए ईनाम देने की घोषणा की। इसके बावजूद भाई महाराज सिंह बिना किसी भय के अपना प्रचार करते रहे। उन्होंने मुलतान के दीवान मूलराज, हज़ारा के सरदार चतर सिंह अटारीवाला तथा उसके पुत्र शेर सिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सभी लड़ाइयों में भाग लिया। वह गुजरात की लड़ाई के पश्चात् सिख सैनिकों द्वारा अंग्रेजों के समक्ष हथियार डालने के विरुद्ध थे। ऐसा किया जाने पर वह जम्मू चले गए। उन्होंने काबुल के शासक के साथ मिलकर 3 जनवरी, 1850 ई० को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई। इस योजना के बारे में अंग्रेजों को पूर्व ही सूचना मिल गई। परिणामस्वरूप भाई महाराज सिंह को 28 दिसंबर, 1849 ई० को बंदी बना लिया गया। उनको पहले कलकत्ता तथा बाद में सिंगापुर की जेल में रखा गया। यहाँ उनकी 5 जुलाई, 1856 ई० को मृत्यु हो गई।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ करने में मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह को विशेष स्थान प्राप्त है। मुलतान सिख राज्य का एक प्राँत था। 1844 ई० में यहाँ के नाज़िम (गवर्नर) सावन मंल की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मूलराज को नया नाज़िम बनाया गया। इस अवसर पर अंग्रेज़ रेज़िडेंट ने मुलतान प्राँत द्वारा लाहौर दरबार को दिया जाने वाला वार्षिक लगान 13,47,000 रुपए से बढ़ाकर 19,71,500 रुपए कर दिया। 1846 ई० में इसमें वृद्धि करके इसे 30 लाख रुपए कर दिया गया। दूसरी ओर अंग्रेजों ने मुलतान में बिकने वाली कुछ आवश्यक वस्तुओं पर से कर हटा लिया और मुलतान का 1/3 भाग भी वापस ले लिया। इन कारणों से दीवान मूलराज सरकार को बढ़ा हुआ लगान नहीं दे सकता था। अतः उसने इस संबंध में ब्रिटिश सरकार के पास अनेक बार प्रार्थना की परंतु इन्हें रद्द कर दिया गया। अतः विवश होकर दिसंबर, 1847 ई० को दीवान मूलराज ने अपना त्यागपत्र दे दिया। मार्च 1848 ई० में नए रेज़िडेंट फ्रेड्रिक करी ने सरदार काहन सिंह को मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त करने का निर्णय किया। मूलराज से चार्ज लेने के लिए काहन सिंह के साथ दो अंग्रेज़ अधिकारियों वैनस एग्नयू तथा एंड्रसन को भेजा गया। मूलराज ने उनका अच्छा स्वागत किया। 19 अप्रैल को मूलराज ने दुर्ग की चाबियाँ काहन सिंह को सौंप दी, परंतु अगले दिन 20 अप्रैल को मूलराज के कुछ सिपाहियों ने आक्रमण करके दोनों अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या कर दी तथा काहन सिंह को बंदी बना लिया। प्रैड्रिक करी ने मुलतान के विद्रोह के लिए मूलराज को दोषी ठहराया।

  1. दीवान मूलराज को कब मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त किया गया था ?
  2. दीवान मूलराज ने किस कारण अपना अस्तीफ़ा दिया था ?
  3. 1848 ई० में रेजिडेंट फ्रेड्रिक करी ने किसे मुलतान का नया नाजिम नियुक्त किया था ?
  4. अंग्रेज़ों ने किन दो अफ़सरों के कत्ल की जिम्मेवारी दीवान मूलराज पर डाली ?
  5. प्रैड्रिक करी ने मुलतान के विद्रोह के लिए …………. को दोषी ठहराया।

उत्तर-

  1. दीवान मूलराज को 1844 ई० में मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त किया गया था।
  2. उसके द्वारा दिए जाने वाले वार्षिक लगान में बहुत अधिक बढ़ौत्तरी कर दी गई थी।
  3. सरदार काहन सिंह को।
  4. वैनस एग्नयू तथा एंड्रसन।
  5. मूलराज।

2
चिल्लियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। यह लड़ाई 13 जनवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ का कहना था कि उसके पास शेर सिंह का सामना करने के लिए शक्तिशाली सेना नहीं है। इसलिए वह और सैन्य शक्ति के पहुंचने की प्रतीक्षा कर रहा है परंतु जब लॉर्ड ह्यूग गफ़ को यह सूचना मिली कि चतर सिंह ने अटक के किले पर अधिकार कर लिया है और वह अपने सैनिकों सहित शेर सिंह की सहायता को पहुँच रहा है तो उसने 13 जनवरी को शेर सिंह के सैनिकों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। इस लड़ाई में शेर सिंह के सैनिकों ने अंग्रेज़ी सेना में खलबली मचा दी। उनके 695 सैनिक, जिनमें 132 अफसर थे, इस लड़ाई में मारे गए तथा अन्य 1651 घायल हो गए। अंग्रेजों की चार तोपें भी सिखों के हाथ लगीं।

  1. दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण लड़ाई कौन-सी थी ?
  2. चिल्लियाँवाला की लड़ाई कब हुई ?
  3. शेर सिंह कौन था ?
  4. चिल्लियाँवाला की लड़ाई में किसकी हार हुई ?
  5. चिल्लियाँवाला की लड़ाई में कितने अंग्रेज़ अफसर मारे गए थे ?
    • 132
    • 142
    • 695
    • 165

उत्तर-

  1. दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण लड़ाई चिल्लियाँवाला की लड़ाई थी।
  2. यह लड़ाई 13 जनवरी, 1849 ई० को हुई।
  3. शेर सिंह हज़ारा के नाज़िम सरदार चतर सिंह का पुत्र था।
  4. चिल्लियाँवाला की लड़ाई में अंग्रेजों की पराजय हुई।
  5. 132

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

3
गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सब से महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक लड़ाई प्रमाणित हुई। इस लड़ाई में चतर सिंह के सैनिक शेर सिंह के सैनिकों से आ मिले थे। उनकी सहायता के लिए भाई महाराज सिंह भी गुजरात पहुँच गया था। इसके अतिरिक्त अफ़गानिस्तान के बादशाह दोस्त मुहम्मद खाँ ने सिखों की सहायता के लिए अपने पुत्र अकरम खाँ के नेतृत्व में 3000 घुड़सवार सेना भेजी। इस लड़ाई में सिख सेना की संख्या 40,000 थी। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व अभी भी लॉर्ड ह्यग गफ़ ही कर रहा था क्योंकि सर चार्ल्स नेपियर अभी भारत नहीं पहुंचा था। अंग्रेजों के पास 68,000 सैनिक थे। इस लड़ाई में दोनों ओर से तोपों का भारी प्रयोग किया गया था जिससे यह लड़ाई इतिहास में तोपों की लड़ाई नाम से विख्यात है। यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को प्रातः 7.30 बजे आरंभ हुई थी। सिखों की तोपों का बारूद शीघ्र ही समाप्त हो गया। जब अंग्रेजों को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपनी तोपों से सिख सेनाओं पर भारी आक्रमण कर दिया। सिख सैनिकों ने अपनी तलवारें निकाल ली परंतु तोपों का मुकाबला वे कब तक कर सकते थे। इस लड़ाई में सिख सेना को भारी क्षति पहुँची।

  1. गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण तथा ……… लड़ाई प्रमाणित हुई।
  2. गुजरात की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
  3. गुजरात की लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व कौन कर रहा था ?
  4. गुजरात की लड़ाई को तोपों की लड़ाई क्यों कहा जाता था ?
  5. गुजरात की लड़ाई में कौन विजयी रहे ?

उत्तर-

  1. निर्णायक।
  2. गुजरात की लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० में लड़ी गई थी।
  3. गुजरात की लड़ाई में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था।
  4. गुजरात की लड़ाई को तोपों की लड़ाई इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें दोनों ओर से भारी तोपों का प्रयोग किया गया था।
  5. गुजरात की लड़ाई में अंग्रेज़ विजयी रहे।

द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय PSEB 12th Class History Notes

  • द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के कारण (Causes of the Second Anglo-Sikh War)-सिख प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में हुई अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे-लाहौर तथा भैरोवाल की संधियों ने सिख राज्य की स्वतंत्रता को लगभग समाप्त कर दिया था-सेना में से हजारों की संख्या में निकाले गए सिख सैनिकों के मन में अंग्रेज़ों के प्रति भारी रोष था-अंग्रेजों द्वारा महारानी जिंदां के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण समूचे पंजाब में रोष की लहर दौड़ गई थी-मुलतान के दीवान मूलराज द्वारा किए गए विद्रोह को अंग्रेजों ने जानबूझ कर फैलने दिया-चतर सिंह और उसके पुत्र शेर सिंह द्वारा किए गए विद्रोह ने ऐंग्लो-सिख युद्ध को और निकट ला दिया-लॉर्ड डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध का तत्कालीन कारण बनी।
  • युद्ध की घटनाएँ (Events of the War)—सिखों तथा अंग्रेज़ों के मध्य हुए द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध की प्रमुख घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है—
    • रामनगर की लड़ाई (Battle of Ramnagar)-रामनगर की लड़ाई 22 नवंबर, 1848 ई० को लड़ी गई थी-इसमें सिख सेना का नेतृत्व शेर सिंह तथा अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था-द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध की इस प्रथम लड़ाई में सिखों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।
    • चिल्लियाँवाला की लड़ाई (Battle of Chillianwala)—चिल्लियाँवाला की लड़ाई 13 जनवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी-इसमें भी सिख सेना का नेतृत्व शेर सिंह तथा अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था-इस लड़ाई में अंग्रेजों को भारी पराजय का सामना करना पड़ा।
    • मुलतान की लड़ाई (Battle of Multan) दिसंबर, 1848 ई० में जनरल विश ने मुलतान के किले को घेर लिया-अंग्रेजों द्वारा फेंके गए एक गोले ने मुलतान के दीवान मूलराज की सेना का बारूद नष्ट कर दिया – परिणामस्वरूप मूलराज ने 22 जनवरी, 1849 ई० को आत्म-समर्पण कर दिया।
    • गुजराते की लड़ाई (Battle of Gujarat)—गुजरात की लड़ाई द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण और निर्णायक लड़ाई थी-इसमें सिखों का नेतृत्व कर रहे शेर सिंह की सहायता के लिए चतर सिंह, भाई महाराज सिंह और दोस्त मुहम्मद खाँ का पुत्र अकरम खाँ आ गए थे-अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड गफ कर रहा था–इस लड़ाई को ‘तोपों की लड़ाई’ भी कहा जाता है-यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को हुई-इस लड़ाई में सिख पराजित हुए और उन्होंने 10 मार्च, 1849 ई० को हथियार डाल दिए।
  • युद्ध के परिणाम (Consequences of the War)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि 29 मार्च, 1849 ई० को पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला दिया गया-सिख सेना को भंग कर दिया गया-दीवान मूलराज और भाई महाराज सिंह को निष्कासन का दंड दिया गया पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए 1849 ई० में प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की गई।
  • पंजाब के विलय के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of Annexation of the Punjab) लॉर्ड डलहौज़ी का आरोप था कि सिखों ने भैरोवाल की संधि की शर्ते भंग की-लाहौर दरबार ने संधि में किए गए वार्षिक 22 लाख रुपए में से एक पाई भी न दी-लॉर्ड डलहौज़ी का आरोप था कि मूलराज तथा चतर सिंह का विद्रोह पुनः सिख राज्य की स्थापना के लिए था अतः पंजाब का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय आवश्यक था।
  • पंजाब के विलय के विरोध में तर्क (Arguments against Annexation of the Punjab) इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेजों ने सिखों को जानबूझ कर विद्रोह के लिए भड़काया-मूलराज के विद्रोह को समय पर न दबाना एक सोची समझी चाल थी-लाहौर दरबार ने संधि की शर्तों का पूरी निष्ठा से पालन किया था-विद्रोह केवल कुछ प्रदेशों में हुआ था इसलिए पूरे पंजाब को दंडित करना पूर्णतः अनुचित था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

महाराजा रणजीत सिंह का चरित्र एवं व्यक्तित्व (Character and Personality of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के चरित्र और शख्सीयत का विस्तारपूर्वक वर्णन करें। (Explain in detail the character and personality of Maharaja Ranjit Singh)
अथवा
रणजीत सिंह का एक मनुष्य के रूप में वर्णन करें। (Describe Ranjit Singh as a man)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। (Give a character estimate of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की एक व्यक्ति, एक सेनानी, एक शासक और एक राजनीतिज्ञ के रूप में चर्चा करें।
(Discuss Maharaja Ranjit Singh as a man, a general, a ruler and a diplomat.)
अथवा
आप रणजीत सिंह को इतिहास में क्या स्थान देंगे ? उसे शेर-ए-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
(What place would you assign to Ranjit Singh in the history ? Why is he called Sher-i-Punjab ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल भारत के अपितु विश्व के महान् व्यक्तियों में की जाती है। वह बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। वह अपने गुणों के कारण पंजाब में एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना करने में सफल हुआ। उसे ठीक ही पंजाब का शेर-ए-पंजाब कहा जाता है। महाराजा रणजीत सिंह के आचरण और व्यक्तित्व का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I. मनुष्य के रूप में
(As a Man)

1. शक्ल सूरत (Appearance)—महाराजा रणजीत सिंह की शक्ल-सूरत अधिक आकर्षक नहीं थी। उसका कद मध्यम तथा शरीर पतला था। बचपन में चेचक हो जाने के कारण उसकी एक आँख भी जाती रही थी। इसके बावजूद महाराजा के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि कोई भी भेंटकर्ता उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। उसके चेहरे से एक विशेष प्रकार की तेजस्विता झलकती थी।

2. परिश्रमी एवं सक्रिय (Hard-working and Active)-महाराजा रणजीत सिंह बहुत परिश्रमी एवं सक्रिय व्यक्ति था। वह इस बात में विश्वास रखता था कि महान् व्यक्तियों को सदैव परिश्रमी एवं सक्रिय रहना चाहिए। महाराजा सुबह से लेकर रात को देर तक राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था। वह राज्य के बड़े-से-बड़े कार्य से लेकर लघु-से-लघु कार्य की ओर व्यक्तिगत ध्यान देता था।

3. साहसी एवं वीर (Courageous and Brave)—महाराजा रणजीत सिंह बहुत ही साहसी एवं वीर व्यक्ति था। उसे बाल्यकाल से ही युद्धों में जाने, शिकार खेलने, तलवार चलाने और घुड़सवारी करने का बहुत शौक था। उसने अल्पायु में ही हशमत खान चट्ठा का सिर काटकर अपनी वीरता का प्रमाण प्रस्तुत किया था। वह भयंकर लड़ाइयों के समय भी बिल्कुल घबराता नहीं था अपितु युद्ध में प्रथम कतार में लड़ता था।

4. अनपढ़ किंतु बुद्धिमान (Illiterate but Intelligent)—महाराजा रणजीत सिंह की पढ़ाई में रुचि नहीं थी। फलस्वरूप वह अशिक्षित ही रहा। अशिक्षित होने पर भी वह बहुत तीक्ष्ण बुद्धि और अद्भुत स्मरण-शक्ति का स्वामी था। उसे अपने राज्य के गाँवों के हज़ारों नाम और उनकी भौगोलिक दशा मौखिक रूप से याद थे। वह जिस व्यक्ति को एक बार देख लेता था उसे वह कई वर्षों के पश्चात् भी पहचान लेता था। उसकी समझ-बूझ इतनी थी कि विदेशों से आए यात्री भी चकित रह जाते थे।

5. दयालु स्वभाव (Kind Hearted)-महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। महाराजा ने कभी भी अपने शत्रुओं के साथ भी अत्याचारपूर्ण व्यवहार नहीं किया। लाहौर के इस शासक ने जिन्हें युद्ध-भूमि में पराजित किया, न केवल गले से लगाया, बल्कि उनकी संतान को भी जागीरें तथा पुरस्कार प्रदान किए। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था। उसकी दया की कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।
प्रसिद्ध लेखक फकीर सैयद वहीदुदीन के अनुसार,
“लोक दिलों में रणजीत सिंह की लोकप्रिय तस्वीर एक विजयी नायक अथवा एक शक्तिशाली सम्राट की अपेक्षा एक दयालु पितामह के लिए अधिक छाई है। उनमें ये तीनों गुण थे, परंतु उनकी दयालुता उनकी आन-शान तथा राज्य शक्ति पीछे छोड़ आई है तथा अभी तक जीवित है।”1.

6. सिख-धर्म का श्रद्धालु अनुयायी (A devoted follower of Sikhism)-महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। वह अपनी इन विजयों के लिए धन्यवाद हेतु दरबार साहिब अमृतसर जाकर भारी चढ़ावा चढ़ाता था। वह स्वयं को गुरुघर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-एखालसा’ और दरबार को ‘दरबार खालसा जी’ कहता था। उसने सिंह साहिब की उपाधि को धारण किया था।. उसके सिक्कों पर ‘नानक सहाय’ तथा ‘गोबिंद सहाय’ शब्द अंकित थे। उसकी शाही मोहर पर ‘अकाल सहाय’ शब्द अंकित थे। महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत-से गुरुद्वारों में नवीन भवनों का निर्माण करवाया। हरिमंदिर साहिब के गुंबद पर सीने का काम करवाया। संक्षेप में कहें तो वह तन-मन से सिख धर्म का अनन्य श्रद्धालु था।

6. सहिष्णु (Tolerant) यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों का सम्मान करता था। वह धार्मिक पक्षपात तथा सांप्रदायिकता से कोसों दूर था। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख, हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उदाहरणतया उसका विदेश मंत्री फकीर अज़ीज-उद्दीन मुसलमान, प्रधानमंत्री ध्यान सिंह डोगरा और सेनापति मिसर दीवान चंद हिंदू थे। उसके राज्य में सभी धर्मों के लोगों को अपने रस्मों-रिवाज की पूरी स्वतंत्रता थी। डॉ० भगत सिंह के अनुसार,

“प्राचीन तथा मध्यकालीन भारतीय इतिहास का कोई भी शासक रणजीत सिंह की सहिष्णुता की नीति की समानता नहीं कर सकता।”2

1. “Ranjit Singh’s popular image is that of a kindly patriarch rather than that of conquering ‘ hero or a mighty monarch. He was all three, but his humanity has outlived his splendour and power.” Fakir Syed Waheeduddin, The Real Ranjit Singh (Patiala : 1981) p. 8.
2. “No ruler of ancient or medieval Indian history could match Ranjit Singh in his cosmopolitan approach.” Dr. Bhagat Singh, Life and Times of Maharaja Ranjit Singh (New Delhi : 1990) p. 337.

II. एक सेनानी तथा विजेता के रूप में
(As a General and Conqueror)
महाराजा रणजीत सिंह की गणना विश्व के महान् सेनानियों में की जाती है। उसने अपने जीवन में जितने भी युद्ध किए किसी में भी पराजय का मुख नहीं देखा। वह बड़ी से बड़ी विपदा आने पर भी नहीं घबराता था। उदाहरणतया 1823 ई० में नौशहरा की लड़ाई में खालसा सेना ने साहस छोड़ दिया था। ऐसे समय महाराजा रणजीत सिंह भाग कर युद्ध क्षेत्र में सबसे आगे पहुँचा तथा सैनिकों में नया जोश भरा।

निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह एक महान् विजेता भी था। 1797 ई० में जब रणजीत सिंह शुकरचकिया मिसल की गद्दी पर विराजमान हुआ तो उसके अधीन बहुत कम क्षेत्र था। उसने अपनी योग्यता तथा वीरता से अपने राज्य को एक साम्राज्य में बदल दिया था। उसके राज्य में लाहौर, अमृतसर, कसूर, स्यालकोट, काँगड़ा, गुजरात, जम्मू, अटक, मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश समिलित थे। महाराजा की विजयों के कारण उसका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक और पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिमी में पेशावर तक फैला था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० गंडा सिंह के अनुसार, “वह (महाराजा रणजीत सिंह) भारत के महान् नायकों में से एक था।”3

III. एक प्रशासक के रूप में
(As an Administrator) : निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह एक उच्चकोटि का प्रशासक था। उसके शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण था। प्रशासन चलाने के लिए महाराजा ने कई योग्य तथा ईमानदार मंत्री नियुक्त किए थे। महाराजा ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभक्त किया हुआ था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मौजा अथवा गाँव थी। गाँव का प्रशासन पंचायत के हाथ होता था। प्रजा की स्थिति जानने के लिए महाराजा प्रायः भेष बदलकर राज्य के विभिन्न भागों का भ्रमण करता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रजा बड़ी समृद्ध थी।

महाराजा रणजीत सिंह यह बात भी भली-भाँति समझता था कि साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली सेना का होना अत्यावश्यक है। वह प्रथम भारतीय शासक था जिसने अपनी सेना को यूरोपीय पद्धति का सैनिक प्रशिक्षण देना आरंभ किया। महाराजा स्वयं सेना का निरीक्षण करता था। सैनिकों का ‘हुलिया’ रखने तथा घोड़ों को ‘दागने’ की प्रथा भी आरंभ की गई। सैनिकों तथा उनके परिवारों का राज्य की ओर से पूरा ध्यान रखा जाता था। डॉ० एच० आर० गुप्ता का यह कहना बिल्कुल ठीक है, “वह भारतीय इतिहास के उत्तम शासकों में से एक था।”4

3. “Rightly he may claim to be one of the greatest heroes of India.” Dr. Ganda Singh, Maharaja Ranjit Singh, Quoted from, the Panjab Past and Present (Patiala : Oct. 1980) Vol. XIV, p. 15.
4. “He was one of the best rulers in Indian history.” Dr. H. R. Gupta, History of the Sikhs (New Delhi : 1991) Vol. 5, p. 596.

IV. एक कूटनीतिज्ञ के रूप में
(As a Diplomat)
महाराजा रणजीत सिंह एक सफल कूटनीतिज्ञ था। अपने राजनीतिक जीवन के शुरू में उसने शक्तिशाली मिसल सरदारों के सहयोग से दुर्बल मिसलों पर अधिकार किया। तत्पश्चात् उसने एक-एक करके इन शक्तिशाली मिसलों को भी अपने अधीन कर लिया। वह जिन शासकों को पराजित करता था उन्हें आजीविका के लिए जागीरें भी प्रदान करता था। इसलिए वे महाराजा का विरोध नहीं करते थे। महाराजा ने अपनी कूटनीति से जहाँदद खाँ से अटक का किला बिना युद्ध किए ही प्राप्त कर लिया था। 1835 ई० में जब अफ़गानिस्तान का शासक दोस्त मुहम्मद खाँ आक्रमण करने आया तो महाराजा ने ऐसी चाल चली कि वह लड़े बिना ही युद्ध क्षेत्र से भाग गया।

1809 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से मित्रता करके अपने राजनीतिक विवेक का प्रमाण दिया। यह उसकी दुर्बलता नहीं अपितु उसके राजनीतिक विवेक तथा दूरदर्शिता का प्रमाण था। उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति के संबंध में भी महाराजा ने राजनीतिक समझदारी का प्रमाण दिया। अफ़गानिस्तान पर आक्रमण न करना महाराजा की बुद्धिमत्ता का एक अन्य प्रमाण था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० भगत सिंह के अनुसार,
“कूटनीति में उसे परास्त करना कोई सहज कार्य नहीं था।”5

5. “It was not easy to beat him in diplomacy.” Dr. Bhagat Singh, op. cit., p. 339.

V. पंजाब के इतिहास में उसका स्थान . (HIs Place in the History of the Punjab)
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल भारत अपितु विश्व के महान् शासकों में की जाती है। विभिन्न इतिहासकार महाराजा रणजीत सिंह की तुलना मुग़ल बादशाह अकबर, मराठा शासक शिवाजी, मिस्र के शासक महमत अली एवं फ्रांस के शासक नेपोलियन आदि से करते हैं। इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ इन शासकों से कहीं अधिक थीं। जिस समय महाराजा रणजीत सिंह सिंहासन पर बैठा तो उसके पास केवल नाममात्र का राज्य था। किंतु महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी योग्यता एवं कुशलता के साथ एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। ऐसा करके उन्होंने सिख साम्राज्य के स्वप्न को साकार किया। महाराजा रणजीत सिंह का शासन प्रबंध भी बहुत उच्चकोटि का था। उनके शासन प्रबंध का मुख्य उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। प्रजा के दुःखों को दूर करने के लिए महाराजा सदैव तैयार रहता था तथा प्रायः राज्य का भ्रमण भी किया करता था। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उनके दरबार में सिख, हिंदू, मुसलमान, यूरोपियन इत्यादि सभी धर्मों के लोग उच्च पदों पर नियुक्त थे। महाराजा रणजीत सिंह ने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाकर उन्हें एक सूत्र में बाँधा। वह एक महान् दानी भी थे। उन्होंने अपने साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए एक शक्तिशाली सेना का भी निर्माण किया। उन्होंने अंग्रेजों के साथ मित्रता स्थापित करके अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का प्रमाण दिया। इन सभी गुणों के कारण आज भी लोग महाराजा रणजीत सिंह को ‘शेरए-पंजाब’ के नाम से स्मरण करते हैं। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह को पंजाब के इतिहास में एक गौरवमयी स्थान प्राप्त है।
अंत में हम डॉ० एच० आर० गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“एक व्यक्ति, योद्धा, जरनैल, विजेता, प्रशासक, शासक तथा राजनीतिवेत्ता के रूप में रणजीत सिंह को . विश्व के महान् शासकों में उच्च स्थान प्राप्त है।”6

6. “As a man, warrior, general, conqueror, administrator, ruler and diplomat, Ranjit Singh occupies a high position among the greatest sovereigns of the world.” Dr. H.R. Gupta, op. cit., p. 596.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह का एक व्यक्ति के रूप में आप कैसे वर्णन करेंगे?
(How do you describe about Maharaja Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की शख्सियत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the personality of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के चरित्र और व्यक्तित्व की तीन विशेषताएँ बताएँ।
(Mention the three characteristics of the character and personality of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह शक्ल-सूरत से अधिक आकर्षक नहीं था, तथापि प्रकृति ने उसे अद्भुत स्मरण शक्ति तथा अदम्य साहस का वरदान देकर इस कमी को पूरा किया। महाराजा रणजीत सिंह का स्वभाव बड़ा दयालु था। वह अपनी प्रजा से बहुत प्यार करता था। उसने अपने शासनकाल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु दंड नहीं दिया था। महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का सच्चा सेवक था। इसके बावजूद उनका अन्य धर्मों के साथ व्यवहार बड़ा सम्मानजनक था।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह एक दयालु शासक था । कैसे ? (Maharaja Ranjit Singh was a kind ruler. How ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। अपने शासनकाल के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने उन शासकों को जिन्हें युद्ध-भूमि में पराजित किया उन्हें जागीरें तथा पुरस्कार प्रदान किए। महाराजा ने अपने शासनकाल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु-दंड नहीं दिया था। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था। उसकी दया की कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का श्रद्धालु अनुयायी था । अपने पक्ष में तर्क दीजिए।
(Maharaja Ranjit Singh was a devoted follower of Sikhism. Give arguments in your favour.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। वह अपनी विजयों को उस परमात्मा की कृपा समझता था। वह स्वयं को गुरु घर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ कहता था। वह स्वयं को ‘महाराजा’ कहलवाने के स्थान पर ‘सिंह साहिब’ कहलवाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत-से नवीन गुरुद्वारों का निर्माण करवाया। वह तन-मन-धन से सिख धर्म का अनन्य श्रद्धालु था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह एक धर्म-निरपेक्ष शासक थे। कैसे ?
(Maharaja Ranjit Singh was a secular ruler. How ?)
उत्तर-
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखता था। वह अपनी सहिष्णुता की नीति से विभिन्न धर्मों के लोगों के दिल जीतने में सफल रहा। उसके राज्य में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख , हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उसके राज्य में सभी धर्मों के लोगों को अपने रस्मों-रिवाजों की पूरी स्वतंत्रता थी।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रशासक के रूप में उल्लेख कीजिए।
(Describe Maharaja Ranjit Singh as an administrator.)
अथवा
एक शासन प्रबंधक के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharaja Ranjit Singh as an administrator ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह सिख पंथ का महान् विजेता था तथा एक उच्चकोटि का शासक प्रबंधक था। उसने प्रशासन को कुशलता से चलाने के उद्देश्य से योग्य व ईमानदार मन्त्रियों को नियुक्त किया गया था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मौजा अथवा गाँव थी। गाँव का प्रशासन पंचायत के हाथ में होता था। प्रजा की स्थिति जानने के लिए महाराजा भेष बदल कर राज्य का भ्रमण भी किया करता था। महाराजा रणजीत सिंह ने इसके साम्राज्य की सुरक्षा व विस्तार के लिए शक्तिशाली सेना का भी गठन किया था।

प्रश्न 6.
“महाराजा रणजीत सिंह एक महान् सेनानी एवं विजेता था।” व्याख्या करें।
(“Maharaja Ranjit Singh was a great general and conqueror.” Explain.)
अथवा
“एक सैनिक और जरनैल के रूप” में महाराजा रणजीत सिंह के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharaja Ranjit Singh as a Soldier and a General ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक महान् सेनापति एवं विजेता था। उसने अपनी योग्यता तथा वीरता से अपने राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। उसके राज्य में लाहौर, अमृतसर, स्यिालकोट, काँगड़ा, गुजरात जम्मू, मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश शामिल थे। महाराजा की विजयों के कारण उसका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक और पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैला हुआ था।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह को शेरे-पंजाब क्यों कहा जाता है ? (Why Maharaja Ranjit Singh is called Sher-i-Punjab ?)
अथवा
आप रणजीत सिंह को इतिहास में क्या स्थान देंगे? उनको शेरे-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
(What place would you assign in History to Ranjit Singh ? Why is he called Sher-iPunjab ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक सफल विजेता होने के साथ-साथ वह एक कुशल प्रबंधक भी सिद्ध हुआ। उसके शासन प्रबंध का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण करना था। महाराजा रणजीत सिंह ने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई थी। उसने सेना का पश्चिमीकरण किया। उसने अंग्रेजों के साथ मित्रता करके पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित होने से बचाए रखा। इन सभी गुणों के कारण रणजीत सिंह को शेर-ए-पंजाब कहा जाता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह की कोई एक विशेषता बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का स्वभाव बड़ा दयालु था।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को किस घोड़े से विशेष लगाव था ?
उत्तर-
लैली।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह सिख-धर्म का श्रद्धालु अनुयायी था। इसके संबंध में कोई एक प्रमाण दीजिए।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को क्या कहते थे ?
उत्तर-
सरकार-ए-खालसा।

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह अपने आप को क्या कह कर बुलाते थे ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह अपने आप को क्या कहा करता था ?
उत्तर-
सिख पंथ का कूकर।

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प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के दरबार को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
दरबार-ए-खालसा।

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के एक गैर-सिख मंत्री का नाम बताएँ।
उत्तर-
फकीर अज़ीज़-उद्दीन।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के दरबारी इतिहासकार का नाम बताएँ।
उत्तर-
सोहन लाल सूरी।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह को एक महान् सेनानायक क्यों माना जाता है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को किसी भी लड़ाई में पराजय का सामना नहीं करना पड़ा था।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह एक सफल कूटनीतिज्ञ था। इसके संबंध में कोई एक प्रमाण दीजिए।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने अफ़गानिस्तान पर अधिकार न करके अपनी सूझ-बूझ का प्रमाण दिया।

प्रश्न 11.
पंजाब के किस शासक को शेर-ए-पंजाब के नाम से याद किया जाता है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को।

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प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह को शेर-ए-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को विशाल सिख साम्राज्य तथा उत्तम शासन व्यवस्था की स्थापना की।

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह को पारस क्यों कहा जाता था ?
उत्तर-
क्योंकि वह अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखता था।

(ii) रिक्त स्थान भरें । (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह की शक्ल सूरत………नहीं थी।
उत्तर-
(आकर्षक)

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को सबसे अधिक……..नामक घोड़े से प्यार था।
उत्तर-
(लैली)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह स्वयं को सिख पंथ का……..समझते थे।
उत्तर-
(कूकर)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को……..कहते थे। .
उत्तर-
(सरकार-ए-खालसा)

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह अपने दरबार को………..कहते थे।
उत्तर-
(दरबार खालसा जी)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह शराब के बहुत………थे।
उत्तर-
(शौकीन)

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह को……….के नाम से याद किया जाता है।
उत्तर-
(शेर-ए-पंजाब)

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(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
महाराजा सिंह बड़ा मेहनती तथा फुर्तीला था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को लैली नामक घोड़े से बहुत प्यार था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह अपने आप को सिख धर्म का कूकर समझते थे।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहते थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह को केवल सिख धर्म के साथ प्रेम था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह शराब के साथ बहुत घृणा करते थे।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह न केवल एक महान् विजेता थे बल्कि एक उच्च कोटि के शासन प्रबंधक भी थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह को आज भी लोग शेर-ए-पंजाब के नाम से याद करते हैं।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह की क्या विशेषता थी ?
(i) वह बहुत परिश्रमी और सक्रिय था
(ii) उसका स्वभाव बहुत दयालु था
(iii) वह अनपढ़ किंतु बुद्धिमान था
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को किस घोड़े से विशेष लगाव था ?
(i) लैली
(ii) सैली
(iii) चेतक
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को क्या कहकर बुलाता था ?
(i) सरकार-ए-आम
(ii) सरकार-ए-खास
(iii) सरकार-ए-खालसा
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के दरबार का सबसे प्रसिद्ध विद्वान् कौन था ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) फ़कीर अज़ीजुद्दीन
(iii) राजा ध्यान सिंह
(iv) दीवान मोहकम चंद।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 5.
पंजाब के कौन-से शासक को शेरे-पंजाब के नाम से याद किया जाता है ?
(i) महाराजा रणजीत सिंह को
(ii) मझराजा दलीप सिंह को
(iii) महाराजा शेर सिंह को
(iv) महाराजा खड़क सिंह को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ‘शाही मोहर’ पर कौन-से शब्द अंकित थे ?
(i) नानक सहाय
(ii) अकाल सहाय
(iii) गोबिंद सहाय
(iv) तेग़ सहाय।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह का एक व्यक्ति के रूप में आप कैसे वर्णन करेंगे ? (How do you describe about Maharaja Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के आचरण एवं व्यक्तित्व का वर्णन करें। (Write about the character and personality of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह चाहे अनपढ़ थे, परंतु वह बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी थे। उनको हज़ारों गाँवों के नाम तथा उनकी भौगोलिक स्थिति मौखिक रूप से स्मरण थी। वह जिस व्यक्ति को एक बार देख लेते उसको कई वर्षों बाद भी पहचान लेते थे। महाराजा रणजीत सिंह का स्वभाव बड़ा दयालु था। वह अपनी प्रजा से बहुत प्यार करते थे। उन्होंने अपने शत्रुओं से कभी भी निर्दयतापूर्वक व्यवहार नहीं किया था। महाराजा ने अपने शासन काल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु दंड नहीं दिया था। महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म के सच्चे सेवक थे। वह अपना प्रतिदिन का कार्य प्रारंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनते तथा अरदास करते थे। वह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहते थे। उन्होंने नानक सहाय और गोबिंद सहाय नाम के सिक्के जारी किए। उन्होंने गुरुद्वारों को भारी दान दिया। इसके बावजूद महाराजा रणजीत सिंह का अन्य धर्मों के साथ व्यवहार रिवाज मनाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। महाराजा अन्य धर्म के लोगों को भी दिल खोल कर दान दिया करते थे।

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प्रश्न 2.
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह की छः विशेषताएँ क्या थी ? (What were the six features of Maharaja Ranjit Singh as a man ?),
उत्तर-
1. शक्ल सूरत-महाराजा रणजीत सिंह की शक्ल-सूरत अधिक आकर्षक नहीं थी। उसका कद मध्यम तथा शरीर पतला था। बचपन में चेचक हो जाने के कारण उसकी एक आँख भी जाती रही थी। परंतु महाराजा के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि कोई भी भेंटकर्ता उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।

2. परिश्रमी एवं सक्रिय—महाराजा रणजीत सिंह बहुत परिश्रमी एवं सक्रिय व्यक्ति था। महाराजा सुबह से लेकर रात को देर तक राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था। वह राज्य के बड़े-से-बड़े कार्य से लेकर लघु-से-लघु कार्य की ओर व्यक्तिगत ध्यान देता था।

3. साहसी एवं वीर-महाराजा रणजीत सिंह बहुत ही साहसी एवं वीर व्यक्ति था। उसे बाल्यकाल से ही युद्धों में जाने, शिकार खेलने, तलवार चलाने और घुड़सवारी करने का बहुत शौक था। वह भयंकर लड़ाइयों के समय भी बिल्कुल घबराता नहीं था अपितु युद्ध में प्रथम कतार में लड़ता था।

4. दयालु स्वभाव-महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। महाराजा ने कभी भी अपने शत्रुओं के साथ भी अत्याचारपूर्ण व्यवहार नहीं किया। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था।

5. सिख-धर्म का श्रद्धालु अनुयायी-महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। वह स्वयं को . गुरुघर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ और दरबार को ‘दरबार खालसा जी’ कहता था।

6. शिक्षा का संरक्षक-महाराजा रणजीत सिंह यद्यपि स्वयं अनपढ़ था। परंतु उसने शिक्षा के प्रसार के लिए अनेक स्कूल खोले। आपने फ़ारसी, उर्दू, हिंदी तथा गुरमुखी पढ़ाने वाली संस्थाओं को अनुदान तथा जागीरें प्रदान की।

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह एक दयालु शासक था। कैसे ? (Maharaja Ranjit Singh was a kind ruler. How ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। अपने शासनकाल के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने सिख मिसलदारों, राजपूत राजाओं, पठान शासकों तथा अफ़गान सम्राटों को एक-एक करके विजित किया। आश्चर्य की बात यह है कि महाराजा ने कभी भी अपने शत्रुओं के साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार नहीं किया। उस समय काबुल तथा दिल्ली के सम्राट् जो सिंहासन के स्वामी बनते रहे, वे न केवल अन्य निकट दशा में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ते रहे। ऐसे समय लाहौर के इस शासक ने जिन्हें युद्ध-भूमि में पराजित किया, न केवल गले से लगाया, बल्कि उनकी संतान को भी जागीरें तथा पुरस्कार प्रदान किए। महाराजा ने अपने शासनकाल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु-दंड नहीं दिया था। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था। उसकी दया की कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का श्रद्धालु अनुयायी था। अपने पक्ष में तर्क दीजिए।
(Maharaja Ranjit Singh was a devoted follower of Sikhism. Give arguments in your favour.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी की एक कलगी अपने तोशेखाने में रखी हुई थी जिसको छूना वह अपने लिए सौभाग्य मानता था। वह अपनी विजयों को उस परमात्मा की कृपा समझता था। इन विजयों के लिए धन्यवाद हेतु वह दरबार साहिब अमृतसर जाकर भारी चढ़ावा चढ़ाता था। वह स्वयं को गुरु घर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ कहता था। वह स्वयं को ‘महाराजा’ कहलवाने के स्थान पर ‘सिंह साहिब’ कहलवाता था। उसके सिक्कों पर ‘नानक सहाय’ तथा ‘गोबिंद सहाय’ के शब्द अंकित थे। उसकी शाही मोहर पर ‘अकाल सहाय’ शब्द अंकित थे। सेना में ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह’ का जय घोष किया जाता था। सरकारी कार्यों के लिए गुरु ग्रंथ साहिब के सम्मुख शपथ दिलाई जाती थी। महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत-से नवीन गुरुद्वारों का निर्माण करवाया तथा उनकी देख-रेख के लिए बड़ी-बड़ी जागीरें दीं। संक्षेप में, कहें तो वह तन-मन-धन से सिख धर्म का अनन्य श्रद्धालु था।

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह एक धर्म-निरपेक्ष शासक थे। कैसे ? (Maharaja Ranjit Singh was a Secular ruler. How ?)
उत्तर-
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखता था। वह धार्मिक पक्षपात तथा साँप्रदायिकता से कोसों दूर था। वह यह बात भली-भाँति जानता था कि एक शक्तिशाली तथा चिरस्थाई साम्राज्य की स्थापना के लिए सभी धर्मों के लोगों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। वह अपनी सहिष्णुता की नीति से विभिन्न धर्मों के लोगों के दिल जीतने में सफल रहा। उसके राज्य में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख, हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उदाहरणतया उसका विदेश मंत्री फकीर अजीज-उद्दीन मुसलमान, प्रधानमंत्री ध्यान सिंह डोगरा, वित्त मंत्री दीवान भवानी दास और सेनापति मिसर दीवान चंद हिंदू थे। इसी तरह जनरल मैतूरा, कोर्ट, गार्डनर इत्यादि यूरोपीय थे। दान देने के विषय में भी महाराजा किसी धर्म से किसी प्रकार का कोई भेद-भाव नहीं करता था। उसने हिंदू मंदिरों, मुस्लिम मस्जिदों तथा मकबरों की देख-रेख के लिए पर्याप्त धन दिया। उसके राज्य में सभी धर्मों के लोगों को अपने रस्मो-रिवाज की पूरी स्वतंत्रता थी।

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प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रशासक के रूप में उल्लेख कीजिए।
(Describe Maharaja Ranjit Singh as an administrator.)
अथवा
एक शासन प्रबंधक के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Ranjit Singh as an administrator ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक उच्च कोटि का शासन प्रबंधक था। उसके शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण था। प्रशासन में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई योग्य तथा ईमानदार मंत्री नियुक्त किए थे। प्रशासन को कुशलता से चलाने के लिए महाराजा ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभक्त किया हुआ था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मौजा अथवा गाँव थी। गाँव का प्रशासन पंचायत के हाथ में होता था। महाराजा पंचायतों के कार्य में कभी हस्तक्षेप नहीं करता था। वह प्रजा हित को कभी दृष्टिविगतं नहीं होने देता था। उसने राज्य के अधिकारियों को भी यह आदेश दिया था कि वे जन हित के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की स्थिति जानने के लिए महाराजा प्रायः भेष बदल कर राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेशों की अवहेलना करने वाले अधिकारियों को दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी गई थीं। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह के समय में प्रजा बड़ी समृद्ध थी।

प्रश्न 7.
“महाराजा रणजीत सिंह एक महान् सेनानी एवं विजेता था।” व्याख्या करें। (“Maharaja Ranjit Singh was a great general and conqueror.” Explain.).
अथवा
“एक सैनिक और जरनैल के रूप” में महाराजा रणजीत सिंह के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Maharaja Ranjit Singh as a Soldier and a General ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपने समय का एक महान् सेनानी था। अपने जीवन में उसने जितने भी युद्ध किए, किसी में भी पराजय का मुख नहीं देखा। वह बड़ी-से-बड़ी विपदा आने पर भी नहीं घबराता था। महाराजा अपने सैनिकों के कल्याण का पूरा ध्यान रखता था। बदले में वे भी महाराजा के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते थे। महान् सेनानी होने के साथ-साथ महाराजा रणजीत सिंह एक महान् विजेता भी था। 1797 ई० में जब रणजीत सिंह शुकरचकिया मिसल की गद्दी पर विराजमान हुआ तो उसके अधीन बहुत कम क्षेत्र था। उसने अपनी योग्यता तथा वीरता से अपने राज्य को एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। उसके राज्य में लाहौर, अमृतसर, कसूर, स्यालकोट, काँगड़ा, गुजरात, जम्मू, अटक, मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश सम्मिलित थे। इन प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित करने के लिए महाराजा रणजीत सिंह को कई भयंकर युद्ध लड़ने पड़े। महाराजा की विजयों के कारण उसका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक और पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैला हुआ था।

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प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह को शेरे पंजाब क्यों कहा जाता है ? (Why is Maharaja Ranjit Singh called Sher-i-Punjab ?)
अथवा
आप रणजीत सिंह को इतिहास में क्या स्थान देंगे ? उनको शेरे-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
(What place would you assign in history to Ranjit Singh ? Why is he called Sher-iPunjab ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल भारत अपितु विश्व के महान् शासकों में की जाती है। विभिन्न इतिहासकार महाराजा रणजीत सिंह की तुलना मुग़ल बादशाह अकबर, मराठा शासक शिवाजी, मिस्र के शासक मेहमत अली एवं फ्राँस के शासक नेपोलियन आदि से करते हैं। इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ इन शासकों से कहीं अधिक थीं। जिस समय महाराजा रणजीत सिंह सिंहासन पर बैठा तो उसके पास केवल नाममात्र का राज्य था। किंतु महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी योग्यता एवं कुशलता के साथ एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। ऐसा करके उन्होंने सिख साम्राज्य के स्वप्न को साकार किया। महाराजा रणजीत सिंह का शासन प्रबंध भी बहुत उच्चकोटि का था। उसके शासन प्रबंध का मुख्य उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। प्रजा के दुःखों को दूर करने के लिए महाराजा सदैव तैयार रहता था तथा प्रायः राज्य का भ्रमण भी किया करता था महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उनके दरबार में सिख, हिंदू, मुसलमान, यूरोपियन इत्यादि सभी धर्मों के लोग उच्च पदों पर नियुक्त थे। महाराजा रणजीत सिंह ने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपना कर उन्हें एक सूत्र में बाँधा। वह एक महान् दानी भी थे। उन्होंने अपने साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए एक शक्तिशाली सेना का भी निर्माण किया। उन्होंने अंग्रेजों के साथ मित्रता स्थापित करके अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का प्रमाण दिया। इन सभी गुणों के कारण आज भी लोग महाराजा रणजीत सिंह को ‘शेर-ए-पंजाब’ के नाम से स्मरण करते हैं। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह को पंजाब के इतिहास में एक गौरवमयी स्थान प्राप्त है।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी की एक कलगी अपने तोशेखाने में रखी हुई थी जिसको छूना वह अपने लिए सौभाग्य मानता था। वह अपनी विजयों को उस अकाल पुरख की कृपा समझता था। इन विजयों के लिए धन्यवाद हेतु वह दरबार साहिब अमृतसर जाकर भारी चढ़ावा चढ़ाता था। वह स्वयं को गुरुघर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ और दरबार को ‘दरबार खालसा जी’ कहता था। वह स्वयं को ‘महाराजा’ कहलवाने के स्थान पर ‘सिंह साहिब’ कहलवाता था। उसके सिक्कों पर ‘नानक सहाय’ तथा ‘गोबिंद सहाय’ शब्द अंकित थे। उसकी शाही मोहर पर ‘अकाल सहाय’ शब्द अंकित थे।

  1. महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था ? कोई एक उदाहरण दें।
  2. कूकर से क्या भाव है ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को क्या कहता था ?
  4. महाराजा रणजीत सिंह की शाही मोहर पर कौन-से शब्द अंकित थे ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के सिक्कों पर ………… तथा ……….. के शब्द अंकित थे।

उत्तर-

  1. वह अपना दैनिक कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ सुनता तथा अरदास करता था।
  2. कूकर से भाव है-दास एवं नौकर।
  3. महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहता था।
  4. महाराजा रणजीत सिंह की शाही मोहर पर अकाल सहाय शब्द अंकित थे।
  5. नानक सहाय, गोबिंद सहाय।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

2
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखता था। वह धार्मिक पक्षपात तथा सांप्रदायिकता से कोसों दूर था। वह यह बात भली-भाँति जानता था कि एक शक्तिशाली तथा चिरस्थाई साम्राज्य की स्थापना के लिए सभी धर्मों के लोगों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। वह अपनी सहिष्णुता की नीति से विभिन्न धर्मों के लोगों के दिल जीतने में सफल रहा। उसके राज्य में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख, हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उदाहरणतया उसका विदेश मंत्री फकीर अज़ीज-उद्दीन मुसलमान, प्रधानमंत्री ध्यान सिंह डोगरा, वित्त मंत्री दीवान भवानी दास और सेनापति मिसर दीवान चंद हिंदू थे। इसी तरह जनरल वेंतूरा, कोर्ट, गार्डनर इत्यादि यूरोपीय थे।

  1. महाराजा रणजीत सिंह एक सहनशील शासक था। कैसे ?
  2. ध्यान सिंह डोगरा कौन था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
  4. दीवान भवानी दास कौन था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह का सेनापति ………… था।

उत्तर-

  1. वह सभी धर्मों का आदर करता था।
  2. ध्यान सिंह डोगरा महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री था।
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री फ़कीर अज़ीजुद्दीन था।
  4. दीवान भवानी दास महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री था।
  5. मिसर दीवान चंद।

महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व PSEB 12th Class History Notes

  • मनुष्य के रूप में (As a Man)-महाराजा रणजीत सिंह की शक्ल सूरत अधिक आकर्षक नहीं थी-परंतु उनके चेहरे पर एक विशेष प्रकार की तेजस्विता झलकती थी-वह बहुत ही परिश्रमी थेउन्हें शिकार खेलने, तलवार चलाने और घुड़सवारी का बहुत शौक था-वह तीक्ष्ण बुद्धि और अद्भुत स्मरण शक्ति के स्वामी थे महाराजा रणजीत सिंह अपनी दयालुता के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे-उन्हें सिख धर्म में अटल विश्वास था-महाराजा रणजीत सिंह पक्षपात तथा सांप्रदायिकता से कोसों दूर थे।
  • एक सेनानी तथा विजेता के रूप में (As a General and Conqueror)-महाराजा रणजीत सिंह की गणना विश्व के महान् सेनानियों में की जाती है-उन्होंने अपने किसी भी युद्ध में पराजय का मुख नहीं देखा था-वे अपने सैनिकों के कल्याण का पूरा ध्यान रखते थें– उन्होंने अपनी वीरता और योग्यता से अपने राज्य को एक साम्राज्य में बदल दिया-उनके राज्य में लाहौर, अमृतसर, काँगड़ा, जम्मू, मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश सम्मिलित थे-उनका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक और पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैला था।
  • एक प्रशासक के रूप में (As an Administrator)-महाराजा रणजीत सिंह एक उच्चकोटि के प्रशासक थे-महाराजा ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभक्त किया हुआ था-प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मौजा अथवा गाँव थी-गाँव का प्रबंध पंचायत के हाथ में था—योग्य तथा ईमानदार व्यक्ति मंत्री के पदों पर नियुक्त किए जाते थे किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ प्राप्त थीं-सैन्य प्रबंधों की ओर भी विशेष ध्यान दिया गया था-महाराजा ने अपनी सेना को यूरोपीय पद्धति का सैनिक प्रशिक्षण दिया–परिणामस्वरूप, सिख सेना शक्तिशाली तथा कुशल बन गई थी।
  • एक कूटनीतिज्ञ के रूप में (As a Diplomat)—हाराजा रणजीत सिंह एक सफल कूटनीतिज्ञ थे-अपनी कूटनीति से ही उन्होंने समस्त मिसलों को अपने अधीन किया था उन्होंने अपनी कूटनीति से अटक का किला बिना युद्ध किए ही प्राप्त किया-यह उनकी कूटनीति का ही परिणाम था कि अफ़गानिस्तान का शासक दोस्त मुहम्मद खाँ बिना युद्ध किए भाग गया-1809 ई० में अंग्रेज़ों के साथ मित्रता उनके राजनीतिक विवेक तथा दूरदर्शिता का अन्य प्रमाण था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रथम ऐंग्लो-सिरव युद्ध के कारण (Causes of the First Anglo-Sikh War)

प्रश्न 1.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारणों का वर्णन करें।
(Describe the causes of the First Anglo-Sikh War between British and Sikhs.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या कारण थे ?
(What were the causes of First Anglo-Sikh War ?)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो सिख युद्ध के कारणों का वर्णन करें।
(Describe the causes of First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने महाराजा रणजीत सिंह के समय ही पंजाब का घेराव आरंभ कर दिया था। उन्होंने जानबूझ कर ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनका अंत प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के रूप में हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति (British Policy of Encircling the Punjab) अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेज़ों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेज़ों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेज़ों ने फिरोजपुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इसी वर्ष अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह को सिंध की ओर बढ़ने से रोक दिया। अतः पंजाब को हड़प करना अब कुछ ही दिनों की बात रह गई थी। इस कारण अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता (Anarchy in the Punjab) जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय (Defeat of the British in the First Afghan War)-अंग्रेज़ों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेजों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुंचा। अंग्रेज़ अपनी अफगानिस्तान में हुई पराजय के अपयश को किसी अन्य विजय से धोना चाहते थे। यह विजय उन्हें पंजाब में ही मिल सकती थी, क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावांडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध विलय (Annexation of Sind by the British)-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अत: 1843 ई० में अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियां (Military Preparations of the Britishers)-1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग ने गवर्नर जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं। उसने कर्नल रिचमंड के स्थान पर लड़ाकू स्वभाव वाले मेजर ब्रॉडफुट को उत्तर-पश्चिमी सीमा का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया। लॉर्ड ग्रफ़ जोकि अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ था, ने अंबाला में अपना हेड क्वार्टर स्थापित कर लिया था। मार्च, 1845 ई० में देश के अन्य भागों से और सेनाएँ फिरोज़पुर, लुधियाना तथा अंबाला में भेजी गईं। इन सैनिक तैयारियों के कारण सिखों एवं अंग्रेजों के बीच परस्पर खाई और बढ़ गई।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति (Appointment of Major Broadfoot)-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। वह यह विचार लेकर पंजाब की सीमा पर आया था कि अंग्रेज़ों ने सिखों के साथ युद्ध करने का निर्णय कर लिया है। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“ब्रॉडफुट की लुधियाना में पोलिटिकल एजेंट के रूप में नियुक्ति एक और सोची-समझी चाल थी जोकि पंजाब में शीघ्र आरंभ होने वाले युद्ध को सामने रखकर की गई थी।”1
ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयां की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

7 लाल सिंह व तेजा सिंह द्वारा लड़ाई के लिए उकसाना (Incitement for War by Lal Singh & Teja Singh)-जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद लाल सिंह को लाहौर सरकार का नया वज़ीर नियुक्त किया गया। उसने अपने भाई तेजा सिंह को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। ये दोनों पहले ही गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिले हुए थे। उस समय सिख सेना की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी। वे चाहते थे कि सिखों की इस शक्तिशाली सेना को अंग्रेजों के साथ लड़वाकर इसे दुर्बल कर दिया जाए। ऐसा करने पर ही वे अपने पदों पर बने रह पाएँगे। इस कारण उन्होंने सिख सेना को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उनके भड़काने पर सिख सेना ने 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार किया। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। अत: 13 दिसंबर, 1845 ई० को गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिख सेना पर यह दोष लगाते हुए युद्ध की घोषणा कर दी कि उसने अंग्रेज़ी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया है।

1. “The appointment of Broadfoot as political agent at Ludhiana was also a calculated move made with an eye on the fast approaching war with the Punjab.” Dr. Fauja Singh, After Ranjit Singh (New Delhi : 1982) p. 136.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

युद्ध की घटनाएँ तथा परिणाम (Events and Results of the War)

प्रश्न 2.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध की मुख्य घटनाएँ क्या थीं ? इस युद्ध के क्या परिणाम निकले ? संक्षेप में वर्णन करें।
(What were the main events of the First Anglo-Sikh War ? Briefly explain the consequences of this War.)
अथवा
पहले आंग्ल-सिख युद्ध की मुख्य घटनाओं और नतीजों का अध्ययन कीजिए। (Study the main events and results of the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेजों की कुटिल नीतियों के कारण विवश होकर सिख सैनिकों को 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार करना पड़ा। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। लॉर्ड हार्डिंग ने सिखों पर आक्रमण का दोष लगाया और 13 दिसंबर, 1845 ई० को युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध के दूरगामी प्रभाव पड़े। प्रथम आंग्लसिख युद्ध की घटनाओं एवं परिणामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
I. युद्ध की घटनाएँ (Events of the War)

1. मुदकी की लड़ाई (Battle of Mudki)—अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 5,500 थी और उनका नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना की संख्या 12,000. थी और उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें अफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह अपने कुछ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। परिणामस्वरूप सिख सेना पराजित हुई। प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम कोहली के अनुसार,
“मुदकी की लड़ाई ने अंग्रेजों के इस बढ़ रहे विश्वास को गलत प्रमाणित कर दिया कि सिखों का सामना करना कोई मुश्किल कार्य नहीं है।”2

2. फिरोजशाह की लड़ाई (Battle of Ferozeshah)-सिखों और अंग्रेजों में दूसरी प्रसिद्ध लड़ाई फिरोज़शाह में 21 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई। इसमें अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व ह्यूग गफ़, जॉन लिटलर तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह एवं तेजा सिंह कर रहे थे। इस लड़ाई में सिखों ने अंग्रेज़ों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि एक बार तो उन्हें नानी याद आ गई। अंग्रेजों ने बिना शर्त शस्त्र फेंकने के संबंध में विचार करना आरंभ किया। ठीक उस समय लाल सिंह और तेजा सिंह ने गद्दारी की तथा अपने सैनिकों को लेकर रणभूमि से भाग गए। इस प्रकार विजित हुई खालसा सेना सेनापतियों की गद्दारी के कारण पराजित हुई। जनरल हैवलाक का कहना था कि,
“इस प्रकार की एक और लड़ाई साम्राज्य को हिला देगी।”3

3. बद्दोवाल की लड़ाई (Battle of Baddowal)-लाहौर दरबार के निर्देश पर रणजोध सिंह, 10,000 सैनिकों को साथ लेकर लुधियाना से 18 मील दूर स्थित बद्दोवाल पहुँचा। 21 जनवरी, 1846 ई० को बद्दोवाल के स्थान पर हुई इस लड़ाई में सिख बहुत वीरता से लड़े। सिखों ने अंग्रेजों के शस्त्र तथा खाद्य सामग्री भी लूट ली। अंग्रेज़ हार कर लुधियाना की ओर भाग गए।

4. अलीवाल की लड़ाई (Battle of Aliwal) रणजोध सिंह अपने सैनिकों को साथ लेकर अलीवाल की ओर चल पड़ा। अलीवाल में सिख अभी अपने मोर्चे लगा रहे थे कि अचानक 28 जनवरी, 1846 ई० के दिन हैरी स्मिथ के अधीन अंग्रेज़ी सेना ने सिखों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। रणजोध सिंह की गद्दारी के कारण इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई।

5. सभराओं की लड़ाई (Battle of Sobraon)—सभराओं की लड़ाई सिखों एवं अंग्रेजों के प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। इस लड़ाई से पूर्व 30,000 सिख सैनिक सभराओं पहुँच चुके थे। लाल सिंह तथा तेजा सिंह सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेजी सेना की कुल संख्या 15,000 थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे। 10 फरवरी, 1846 ई० वाले दिन अंग्रेज़ों ने सिख सेना पर आक्रमण कर दिया। ठीक इसी समय पूर्व निर्मित योजनानुसार लाल सिंह और तेजा सिंह मैदान से भाग गए। फलस्वरूप सिख सेना बिखरने लग पड़ी। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला आगे आए। उनकी बहादुरी और कुशलता देखकर अंग्रेज़ भी हैरान रह गए। शाम सिंह अटारीवाला की शहीदी के कारण सिख सेना का साहस टूट गया। इस प्रकार अंततः इस लड़ाई में अंग्रेज़ विजयी रहे। एच० एस० भटिया एवं एस० आर० बक्शी के अनुसार, “सभराओं की लड़ाई प्रत्येक पक्ष से निर्णायक थी।”4

2. “The battle of Mudki served to dispel a notion that had gained credence with the British that the Sikhs were no great force to be reckoned with.” S.R. Kohli, Sunset of the Sikh Empire (Bombay : 1967) pp. 107-108.
3. “Another such action will shake the Empire.” General Havelock.
4. “The battle of Sobraon was decisive in every respect.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. IV, p. 174.

II. युद्ध के परिणाम । (Results of the War)
अंग्रेज़ों एवं सिखों के मध्य हुए प्रथम युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी- सरकार तथा लाहौर दरबार के मध्य १ मार्च, 1846 ई० को ‘लाहौर की संधि’ हुई।

लाहौर की संधि (Treaty of Lahore)
अंग्रेज़ों एवं सिखों के मध्य हुई लाहौर की संधि की मुख्य शर्ते निम्नलिखित थीं—

  1. अंग्रेज़ी सरकार और महाराजा दलीप सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों में सदैव शाँति तथा मित्रता बनी रहेगी।
  2. लाहौर के महाराजा ने सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  3. महाराजा ने सतलुज और ब्यास नदियों के मध्य सभी मैदानी और पर्वतीय क्षेत्र एवं दुर्ग अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिए।
  4. अंग्रेज़ों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपए की बड़ी राशि की माँग की। इतनी राशि लाहौर सरकार के कोष से नहीं मिल सकती थी। इसलिए एक करोड़ रुपए के बदले कश्मीर और हज़ारा के क्षेत्र अंग्रेजों को दे दिए।
  5. लाहौर राज्य की पैदल सेना की संख्या 20,000 और घुड़सवार सेना की संख्या 12,000 निश्चित कर दी गई।
  6. जब कभी आवश्यकता हो, अंग्रेज़ी सेनाएँ बिना किसी बाधा के लाहौर राज्य में से गुज़र सकेंगी। .
  7. महाराजा ने वचन दिया कि वह अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना किसी अंग्रेज़, यूरोपियन तथा अमेरिकन को नौकर नहीं रखेगा।
  8. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा का संरक्षक तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।
  9. अंग्रेज़ सरकार लाहौर राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी, परंतु जहाँ कहीं आवश्यक होगा, परामर्श देगी।
  10. अंग्रेज़ सरकार की आज्ञा के बिना लाहौर सरकार अपनी सीमाओं में परिवर्तन नहीं करेगी।

पूरक संधि (Supplementary Treaty)
लाहौर की संधि के दो दिन पश्चात् ही अर्थात् 11 मार्च, 1846 ई० को इस संधि में कुछ अतिरिक्त शर्ते सम्मिलित की गईं। इन शर्तों का विवरण निम्नलिखित है—

  1. लाहौर के नागरिकों की समुचित सुरक्षा के लिए 1846 ई० के अंत तक अंग्रेजों की पर्याप्त सेना लाहौर में ही रहेगी।
  2. लाहौर का दुर्ग और शहर पूरी तरह अंग्रेज़ी सेना के अधिकार में होगा। लाहौर. सरकार सैनिकों के आवास की व्यवस्था करेगी तथा उन सैनिकों का सारा खर्च देगी।
  3. दोनों सरकारें अपनी सीमाएँ निर्धारित करने के लिए शीघ्र ही अपने-अपने कमिश्नर नियुक्त करेंगी।

भैरोवाल की संधि (Treaty of Bhairowal)
अंग्रेज़ी सरकार ने लाहौर दरबार के साथ 16 दिसंबर, 1846 ई० को एक नयी संधि की। यह संधि इतिहास में भैरोवाल की संधि के नाम से विख्यात है। इस संधि की मुख्य शर्ते निम्नलिखिप्त थीं—

  1. अंग्रेज़ी सरकार लाहौर सरकार के सभी विभागों की देख-रेख के लिए ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त करेगी।
  2. जब तक महाराजा दलीप सिंह नाबालिग रहेगा, राज्य की शासन-व्यवस्था एक कौंसिल ऑफ़ रीजैंसी द्वारा चलाई जाएगी। इसके 8 सदस्य होंगे।
  3. महारानी जिंदां को शासन-प्रबंध से पृथक् कर दिया गया तथा उसे 12 लाख रुपए वार्षिक पेंशन दी गई।
  4. महाराजा की रक्षा करने तथा देश में शाँति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सेना लाहौर में रहेगी।
  5. यदि गवर्नर जनरल राजधानी की सुरक्षा के लिए आवश्यक समझे तो ब्रिटिश सैनिक लाहौर राज्य के किसी भी दुर्ग अथवा सैनिक छावनी पर अधिकार कर सकेंगे।
  6. ब्रिटिश सेना के खर्च के लिए लाहौर राज्य ब्रिटिश सरकार को 22 लाख रुपए प्रति वर्ष देगा।
  7. इस संधि की शर्ते महाराजा दलीप सिंह के वयस्क होने तक अर्थात् 4 सितंबर, 1854 ई० तक लागू रहेंगी। प्रसिद्ध लेखक डॉ० जी० एस० छाबड़ा का कहना है,

“इस प्रकार भैरोवाल की संधि ने सिख शक्ति की मृत्यु की घंटी बजी दी तथा इस संधि ने अंग्रेज़ों को । पंजाब का वास्तविक शासक बना दिया।”5

5. “The Treaty of Bhairowal thus rang the death knell of the Sikh power and it made the British the real masters of the Punjab.” Dr. G.S. Chhabra, Advanced History of the Punjab (Jalandhar : 1972) Vol. 2, p. 269.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

प्रथम ऐंग्लो-सिरव युद्ध के कारण तथा परिणाम (Causes and Results of the First Anglo-Sikh War)

प्रश्न 3.
अंग्रेजों तथा सिखों के बीच प्रथम युद्ध के कारण एवं परिणाम बताएँ।
(Discuss the causes and results of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के कारणों तथा परिणामों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(Briefly describe the causes and results of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारणों और परिणामों का वर्णन करें।
(Describe the causes and results of the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने महाराजा रणजीत सिंह के समय ही पंजाब का घेराव आरंभ कर दिया था। उन्होंने जानबूझ कर ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनका अंत प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के रूप में हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति (British Policy of Encircling the Punjab) अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेज़ों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेज़ों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेज़ों ने फिरोजपुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इसी वर्ष अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह को सिंध की ओर बढ़ने से रोक दिया। अतः पंजाब को हड़प करना अब कुछ ही दिनों की बात रह गई थी। इस कारण अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता (Anarchy in the Punjab) जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय (Defeat of the British in the First Afghan War)-अंग्रेज़ों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेजों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुंचा। अंग्रेज़ अपनी अफगानिस्तान में हुई पराजय के अपयश को किसी अन्य विजय से धोना चाहते थे। यह विजय उन्हें पंजाब में ही मिल सकती थी, क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावांडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध विलय (Annexation of Sind by the British)-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अत: 1843 ई० में अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियां (Military Preparations of the Britishers)-1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग ने गवर्नर जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं। उसने कर्नल रिचमंड के स्थान पर लड़ाकू स्वभाव वाले मेजर ब्रॉडफुट को उत्तर-पश्चिमी सीमा का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया। लॉर्ड ग्रफ़ जोकि अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ था, ने अंबाला में अपना हेड क्वार्टर स्थापित कर लिया था। मार्च, 1845 ई० में देश के अन्य भागों से और सेनाएँ फिरोज़पुर, लुधियाना तथा अंबाला में भेजी गईं। इन सैनिक तैयारियों के कारण सिखों एवं अंग्रेजों के बीच परस्पर खाई और बढ़ गई।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति (Appointment of Major Broadfoot)-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। वह यह विचार लेकर पंजाब की सीमा पर आया था कि अंग्रेज़ों ने सिखों के साथ युद्ध करने का निर्णय कर लिया है। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“ब्रॉडफुट की लुधियाना में पोलिटिकल एजेंट के रूप में नियुक्ति एक और सोची-समझी चाल थी जोकि पंजाब में शीघ्र आरंभ होने वाले युद्ध को सामने रखकर की गई थी।”1
ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयां की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

7. लाल सिंह व तेजा सिंह द्वारा लड़ाई के लिए उकसाना (Incitement for War by Lal Singh & Teja Singh)-जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद लाल सिंह को लाहौर सरकार का नया वज़ीर नियुक्त किया गया। उसने अपने भाई तेजा सिंह को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। ये दोनों पहले ही गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिले हुए थे। उस समय सिख सेना की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी। वे चाहते थे कि सिखों की इस शक्तिशाली सेना को अंग्रेजों के साथ लड़वाकर इसे दुर्बल कर दिया जाए। ऐसा करने पर ही वे अपने पदों पर बने रह पाएँगे। इस कारण उन्होंने सिख सेना को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उनके भड़काने पर सिख सेना ने 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार किया। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। अत: 13 दिसंबर, 1845 ई० को गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिख सेना पर यह दोष लगाते हुए युद्ध की घोषणा कर दी कि उसने अंग्रेज़ी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया है।

1. “The appointment of Broadfoot as political agent at Ludhiana was also a calculated move made with an eye on the fast approaching war with the Punjab.” Dr. Fauja Singh, After Ranjit Singh (New Delhi : 1982) p. 136.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

प्रश्न 4.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारण, घटनाएँ तथा परिणामों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Discuss in brief the causes, events and results of the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने महाराजा रणजीत सिंह के समय ही पंजाब का घेराव आरंभ कर दिया था। उन्होंने जानबूझ कर ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनका अंत प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के रूप में हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति (British Policy of Encircling the Punjab) अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेज़ों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेज़ों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेज़ों ने फिरोजपुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इसी वर्ष अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह को सिंध की ओर बढ़ने से रोक दिया। अतः पंजाब को हड़प करना अब कुछ ही दिनों की बात रह गई थी। इस कारण अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता (Anarchy in the Punjab) जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय (Defeat of the British in the First Afghan War)-अंग्रेज़ों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेजों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुंचा। अंग्रेज़ अपनी अफगानिस्तान में हुई पराजय के अपयश को किसी अन्य विजय से धोना चाहते थे। यह विजय उन्हें पंजाब में ही मिल सकती थी, क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावांडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध विलय (Annexation of Sind by the British)-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अत: 1843 ई० में अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियां (Military Preparations of the Britishers)-1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग ने गवर्नर जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं। उसने कर्नल रिचमंड के स्थान पर लड़ाकू स्वभाव वाले मेजर ब्रॉडफुट को उत्तर-पश्चिमी सीमा का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया। लॉर्ड ग्रफ़ जोकि अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ था, ने अंबाला में अपना हेड क्वार्टर स्थापित कर लिया था। मार्च, 1845 ई० में देश के अन्य भागों से और सेनाएँ फिरोज़पुर, लुधियाना तथा अंबाला में भेजी गईं। इन सैनिक तैयारियों के कारण सिखों एवं अंग्रेजों के बीच परस्पर खाई और बढ़ गई।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति (Appointment of Major Broadfoot)-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। वह यह विचार लेकर पंजाब की सीमा पर आया था कि अंग्रेज़ों ने सिखों के साथ युद्ध करने का निर्णय कर लिया है। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“ब्रॉडफुट की लुधियाना में पोलिटिकल एजेंट के रूप में नियुक्ति एक और सोची-समझी चाल थी जोकि पंजाब में शीघ्र आरंभ होने वाले युद्ध को सामने रखकर की गई थी।”1
ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयां की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

7. लाल सिंह व तेजा सिंह द्वारा लड़ाई के लिए उकसाना (Incitement for War by Lal Singh & Teja Singh)-जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद लाल सिंह को लाहौर सरकार का नया वज़ीर नियुक्त किया गया। उसने अपने भाई तेजा सिंह को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। ये दोनों पहले ही गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिले हुए थे। उस समय सिख सेना की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी। वे चाहते थे कि सिखों की इस शक्तिशाली सेना को अंग्रेजों के साथ लड़वाकर इसे दुर्बल कर दिया जाए। ऐसा करने पर ही वे अपने पदों पर बने रह पाएँगे। इस कारण उन्होंने सिख सेना को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उनके भड़काने पर सिख सेना ने 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार किया। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। अत: 13 दिसंबर, 1845 ई० को गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिख सेना पर यह दोष लगाते हुए युद्ध की घोषणा कर दी कि उसने अंग्रेज़ी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया है।

1. “The appointment of Broadfoot as political agent at Ludhiana was also a calculated move made with an eye on the fast approaching war with the Punjab.” Dr. Fauja Singh, After Ranjit Singh (New Delhi : 1982) p. 136.

I. युद्ध की घटनाएँ (Events of the War)
1. मुदकी की लड़ाई (Battle of Mudki)—अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 5,500 थी और उनका नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना की संख्या 12,000. थी और उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें अफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह अपने कुछ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। परिणामस्वरूप सिख सेना पराजित हुई। प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम कोहली के अनुसार,
“मुदकी की लड़ाई ने अंग्रेजों के इस बढ़ रहे विश्वास को गलत प्रमाणित कर दिया कि सिखों का सामना करना कोई मुश्किल कार्य नहीं है।”2

2. फिरोजशाह की लड़ाई (Battle of Ferozeshah)-सिखों और अंग्रेजों में दूसरी प्रसिद्ध लड़ाई फिरोज़शाह में 21 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई। इसमें अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व ह्यूग गफ़, जॉन लिटलर तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह एवं तेजा सिंह कर रहे थे। इस लड़ाई में सिखों ने अंग्रेज़ों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि एक बार तो उन्हें नानी याद आ गई। अंग्रेजों ने बिना शर्त शस्त्र फेंकने के संबंध में विचार करना आरंभ किया। ठीक उस समय लाल सिंह और तेजा सिंह ने गद्दारी की तथा अपने सैनिकों को लेकर रणभूमि से भाग गए। इस प्रकार विजित हुई खालसा सेना सेनापतियों की गद्दारी के कारण पराजित हुई। जनरल हैवलाक का कहना था कि,
“इस प्रकार की एक और लड़ाई साम्राज्य को हिला देगी।”3

3. बद्दोवाल की लड़ाई (Battle of Baddowal)-लाहौर दरबार के निर्देश पर रणजोध सिंह, 10,000 सैनिकों को साथ लेकर लुधियाना से 18 मील दूर स्थित बद्दोवाल पहुँचा। 21 जनवरी, 1846 ई० को बद्दोवाल के स्थान पर हुई इस लड़ाई में सिख बहुत वीरता से लड़े। सिखों ने अंग्रेजों के शस्त्र तथा खाद्य सामग्री भी लूट ली। अंग्रेज़ हार कर लुधियाना की ओर भाग गए।

4. अलीवाल की लड़ाई (Battle of Aliwal) रणजोध सिंह अपने सैनिकों को साथ लेकर अलीवाल की ओर चल पड़ा। अलीवाल में सिख अभी अपने मोर्चे लगा रहे थे कि अचानक 28 जनवरी, 1846 ई० के दिन हैरी स्मिथ के अधीन अंग्रेज़ी सेना ने सिखों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। रणजोध सिंह की गद्दारी के कारण इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई।

5. सभराओं की लड़ाई (Battle of Sobraon)—सभराओं की लड़ाई सिखों एवं अंग्रेजों के प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। इस लड़ाई से पूर्व 30,000 सिख सैनिक सभराओं पहुँच चुके थे। लाल सिंह तथा तेजा सिंह सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेजी सेना की कुल संख्या 15,000 थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे। 10 फरवरी, 1846 ई० वाले दिन अंग्रेज़ों ने सिख सेना पर आक्रमण कर दिया। ठीक इसी समय पूर्व निर्मित योजनानुसार लाल सिंह और तेजा सिंह मैदान से भाग गए। फलस्वरूप सिख सेना बिखरने लग पड़ी। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला आगे आए। उनकी बहादुरी और कुशलता देखकर अंग्रेज़ भी हैरान रह गए। शाम सिंह अटारीवाला की शहीदी के कारण सिख सेना का साहस टूट गया। इस प्रकार अंततः इस लड़ाई में अंग्रेज़ विजयी रहे। एच० एस० भटिया एवं एस० आर० बक्शी के अनुसार, “सभराओं की लड़ाई प्रत्येक पक्ष से निर्णायक थी।”4

2. “The battle of Mudki served to dispel a notion that had gained credence with the British that the Sikhs were no great force to be reckoned with.” S.R. Kohli, Sunset of the Sikh Empire (Bombay : 1967) pp. 107-108.
3. “Another such action will shake the Empire.” General Havelock.
4. “The battle of Sobraon was decisive in every respect.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. IV, p. 174.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के मुख्य कारणों का संक्षिप्त ब्योरा दें।
(Give a brief description of the main causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई तीन कारण बताएँ।
(Briefly describe the three main causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के लिए उत्तरदायी किन्हीं तीन कारणों की चर्चा कीजिए। (Describe any three causes responsible for the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-

  1. पंजाब को अपने अधीन करने के लिए अंग्रेजों ने पंजाब को चारों ओर से घेरा डालना आरंभ कर दिया था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता फैल गई थी।
  3. अंग्रेज़ पंजाब पर विजय प्राप्त करके अफ़गानिस्तान में हुई अपनी बदनामी को दूर करना चाहते थे।
  4. सिखों के नेता लाल सिंह और तेजा सिंह खालसा फ़ौज को अंग्रेजों के साथ लड़वा कर इसे कमज़ोर करना चाहते थे।
  5. 1844 ई० में मेजर ब्राडफुट की नियुक्ति ने अग्नि में घी डालने का कार्य किया।

प्रश्न 2.
मुदकी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the battle of Mudki.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों का नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। अंग्रेज़ों का विचार था कि वह सिख सेना को सहजता से हरा देंगे, परंतु सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें हफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह युद्ध क्षेत्र से भाग गया। अतः सिख सेना की पराजय हुई।

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प्रश्न 3.
फिरोज़शाह अथवा फेरूशहर की लड़ाई के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the battle of Ferozshah or Pherushahar ?)
उत्तर-
21 दिसंबर, 1845 ई० को फिरोजशाह अथवा फेरूशहर नामक स्थान पर सिखों तथा अंग्रेजों के मध्य एक ज़बरदस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में अंग्रेजों के सैनिकों का नेतृत्व लॉर्ड हग गफ़, जान लिटलर और लॉर्ड हार्डिंग जैसे अनुभवी सेनापति कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सैनिकों का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह जैसे देशद्रोही तथा विश्वासघाती कर रहे थे। उनके द्वारा की गई गद्दारी के कारण सिख सेना की पराजय हुई।

प्रश्न 4.
सभराओं की लड़ाई के संबंध में एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the battle of Sobraon.)
उत्तर-
सभराओं की लड़ाई सिखों तथा अंग्रेजों के मध्य लड़े जाने वाले प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। यह लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई थी। अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह कर रहे थे। इस लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने अपनी वीरता से अंग्रेज़ों के खूब दाँत खट्टे किए। इस लड़ाई के अंत में सिखों को हार का सामना करना पड़ा।

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प्रश्न 5.
लाहौर की संधि (9 मार्च, 1846 ई०) पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। [Write a brief note on the Treaty of Lahore (9 March, 1846.)] .
अथवा
लाहौर की संधि के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Treaty of Lahore ?)
अथवा
1846 ई० की लाहौर की संधि की कोई पाँच धाराएँ लिखें। (Write any five conditions of the Treaty of Lahore of 1846.)
उत्तर-

  1. अंग्रेज़ी सरकार तथा महाराजा दलीप सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों में सदैव मित्रता बनी रहेगी।
  2. लाहौर के महाराजा ने सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ दिया।
  3. महाराजा ने सतलुज और ब्यास नदियों के मध्य सभी क्षेत्र एवं दुर्ग अंग्रेज़ों को सुपुर्द कर दिए।
  4. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपए की बड़ी राशि की माँग की।
  5. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा का संरक्षक तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 6.
भैरोवाल की संधि के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Treaty of Bhairowal ?) ..
अथवा
भैरोवाल की संधि पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए।
(Write a short note on the Treaty of Bhairowal.)
अथवा
भैरोवाल की संधि की मुख्य शर्ते लिखें। (Write the main clauses of the Treaty of Bhairowal.)
उत्तर-
भैरोवाल की संधि अंग्रेज़ों तथा लाहौर दरबार के मध्य 16 दिसंबर, 1846 ई० को की गई थी। इस संधि के अनुसार लाहौर दरबार का प्रशासन चलाने के लिए एक ब्रिटिश रेज़िडेंट नियुक्त किया गया। रेज़िडेंट की सहायता के लिए आठ सदस्यीय परिषद् बनाई गई। रानी जिंदां को शासन व्यवस्था से अलग कर उसकी वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। महाराजा की सुरक्षा तथा राज्य में शांति के लिए एक ब्रिटिश सेना रखने का निर्णय किया गया। भैरोवाल की संधि द्वारा अंग्रेजों ने पंजाब को काफ़ी शक्तिहीन बना दिया।

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प्रश्न 7.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रभावों का अध्ययन कीजिए। (Study in brief the results of First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के परिणामों का संक्षिप्त विवरण दें।
(Give in brief the results of First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के क्या परिणाम निकले ?
(What were the results of the First Anglo-Sikh War?)
उत्तर-

  1. लाहौर के महाराजा ने सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  2. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपये की माँग की।
  3. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा का संरक्षक तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।
  4. भैरोवाल की संधि के अनुसार यह निर्णय लिया गया कि अंग्रेजी सरकार लाहौर सरकार के सभी विभागों की देख-रेख के लिए ब्रिटिश रेज़िडेंट नियुक्त करेगी।
  5. महारानी जिंदां को शासन प्रबंध से अलग कर दिया गया तथा उसकी 17 लाख रुपए सालाना पैंशन लगा दी गई।

प्रश्न 8.
शाम सिंह अटारीवाला पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Sham Singh Attariwala.)
उत्तर-
शाम सिंह अटारीवाला सिख पंथ के एक महान् योद्धा थे। 18 वर्ष की आयु में शाम सिंह अटारीवाला भी महाराजा रणजीत की सेना में शामिल हो गए। अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य हुई 10 फरवरी, 1846 ई० को सभराओं की लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने भी भाग लिया। लाल सिंह और तेजा सिंह जो सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे। अचानक लड़ाई के मैदान में से भाग गए। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला सत् श्री अकाल के जयकार गुंजाते हुए शत्रु पर टूट पड़े। अंत में वह लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।

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प्रश्न 9.
पहले अंग्रेज़-सिख युद्ध के पीछे अंग्रेजों ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल क्यों नहीं किया ?
(Why the British did not annex the Punjab to their empire after the First Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-

  1. यदि पंजाब को उस समय अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी जाती तो सिख सैनिक अंग्रेजों की सिरदर्दी का बहुत बड़ा कारण बन सकते थे।
  2. अंग्रेज़ चाहते थे कि पंजाब अंग्रेज़ी राज्य तथा अफ़गानिस्तान के मध्य मध्यवर्ती राज्य का काम देता रहे।
  3. पंजाब को नियंत्रण में रखने के लिए अंग्रेज़ों को भारी संख्या में अंग्रेज़ सैनिक पंजाब में रखने पड़ते। इनसे अंग्रेजों के खर्च में काफ़ी वृद्धि हो जाती।
  4. गवर्नरजनरल का मत है कि पंजाब प्रांत आर्थिक रूप से अंग्रेजों के लिए लाभप्रद सिद्ध नहीं हो सकेगा।
  5. पंजाब को शक्ति की अपेक्षा दुर्बलता का स्रोत समझा जाता था।

प्रश्न 10.
प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार के मुख्य कारणों का वर्णन कीजिए।
(Write main reasons of the defeat of the Sikhs in the First Anglo-Sikh War.).
उत्तर-

  1. प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार का सबसे मुख्य कारण लाल सिंह और तेजा सिंह की गद्दारी थी।
  2. सिख सेना में जो यूरोपियन अधिकारी भर्ती किए हुए थे। वे सिख राज्य के सभी भेद अंग्रेज़ों को देते रहे।
  3. उस समय अंग्रेज़ संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के साथ संबंध रखते थे।
  4. अंग्रेज़ों के साधन सिखों की तुलना में बहुत अधिक थे।
  5. अंग्रेजों के सेनापतियों को युद्धों का बहुत अनुभव था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
महाराजा दलीप सिंह किस का पुत्र था ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह ने कब-से-कब तक शासन किया ?
उत्तर-
1843 ई० से 1849 ई० तक।

प्रश्न 3.
प्रथम तथा द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा कौन था ?
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

प्रश्न 4.
लाल सिंह कौन था ?
उत्तर-
लाहौर दरबार का प्रधानमंत्री।

प्रश्न 5.
तेजा सिंह कौन था ?
उत्तर-
खालसा सेना का सेनापति।

प्रश्न 6.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
अथवा
अंग्रेजों एवं सिखों के मध्य प्रथम युद्ध कब हुआ?
अथवा
अंग्रेजों की सिखों के साथ पहली लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
1845-46 ई०।

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प्रश्न 7.
प्रथम ऐंग्लो सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
उत्तर-
लॉर्ड हार्डिंग।

प्रश्न 8.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के लिए उत्तरदायी कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
अंग्रेजों ने पंजाब का चारों ओर से घेराव आरंभ कर दिया था।

प्रश्न 9.
मुदकी की लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
18 दिसंबर, 1845 ई०।

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प्रश्न 10.
फिरोजशाह अथवा फेरूशहर की लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
21 दिसंबर, 1845 ई०

प्रश्न 11.
सभराओं की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
उत्तर-
10 फरवरी, 1846 ई०।

प्रश्न 12.
सभराओं की लड़ाई में बहादुरी से लड़ता हुआ सिखों का कौन-सा सेनापति शहीद हुआ था?
उत्तर-
शाम सिंह अटारीवाला।

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प्रश्न 13.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध किस लड़ाई से समाप्त हुआ था ?
उत्तर-
सभराओं की लड़ाई।

प्रश्न 14.
अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य प्रथम युद्ध में पराजय किसकी हुई थी?
उत्तर-
सिखों की।

प्रश्न 15.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य पहला युद्ध किस संधि के साथ समाप्त हुआ था?
उत्तर-
लाहौर की संधि।

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प्रश्न 16.
लाहौर की संधि कब की गई थी ?
उत्तर-
9 मार्च, 1846 ई०।

प्रश्न 17.
भैरोवाल की संधि कब हुई थी ?
उत्तर-
16 दिसंबर, 1846 ई० को।

प्रश्न 18.
भैरोवाल की संधि की एक मुख्य शर्त क्या थी ?
उत्तर-
लाहौर दरबार के सारे विभागों की देख-रेख एक ब्रिटिश रेजिडेंट करेगा।

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प्रश्न 19.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद अंग्रेजों ने कश्मीर किसे दे दिया ?
उत्तर-
गुलाब सिंह।

प्रश्न 20.
पहले ऐंग्लो-सिख युद्ध में सिखों की पराजय का मुख्य कारण कौन-सा था ?
उत्तर-
उनके नेताओं द्वारा किया गया विश्वासघात।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मौत के पश्चात् पंजाब का महाराजा…………………..बना।
उत्तर-
(खड़क सिंह)

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प्रश्न 2.
अंग्रेजों ने सिंध पर………में कब्जा कर लिया।
उत्तर-
(1843 ई०)

प्रश्न 3.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध………में हुआ।
उत्तर-
(1845-46 ई०)

प्रश्न 4.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा………था।
उत्तर-
(दलीप सिंह)

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प्रश्न 5.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय खालसा और फौज का सेनापति………..था।
उत्तर-
(तेजा सिंह)

प्रश्न 6.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाहौर दरबार का प्रधान मंत्री………था।
उत्तर-
(लाल सिंह)

प्रश्न 7.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय अंग्रेज़ी फौज का सर्वोच्च कमांडर……………था।
उत्तर-
(लार्ड ह्यूग गफ़)

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प्रश्न 8.
मुदकी की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(18 दिसंबर, 1845 ई०)

प्रश्न 9.
फिरोजशाह की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(21 दिसंबर, 1845 ई०)

प्रश्न 10.
सभराओं की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(10 फरवरी, 1846 ई०)

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प्रश्न 11.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध का अंत…………की लड़ाई से हुआ।
उत्तर-
(सभराओं)

प्रश्न 12.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध………….की संधि के साथ समाप्त हुआ।
उत्तर-
(लाहौर)

प्रश्न 13.
भैरोवाल की संधि…………..को हुई।
उत्तर-
(16 दिसंबर, 1846 ई०)

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(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध 1947 ई० में हुआ।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा शेर सिंह था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 3.
लॉर्ड हार्डिंग, ऐलन ब्रो के बाद गवर्नर जनरल बना।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 4.
लार्ड ह्यूग गफ़ प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ़ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाल सिंह खालसा फ़ौज का सेनापति था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 6.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाल सिंह लाहौर दरबार में प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 7.
मुदकी की लड़ाई 21 दिसंबर, 1845 ई० को हुई।।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
फिरोजशाह की लड़ाई 21 दिसंबर, 1845 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
अलीवाल की लड़ाई 21 जनवरी, 1846 ई० को हुई थी।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 10.
अलीवाल की लड़ाई में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व हैरी स्मिथ ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
सभराओं की लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
सभराओं की लड़ाई में सिख विजयी रहे।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 13.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध भैरोवाल की संधि के साथ समाप्त हुआ।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
अंग्रेज़ी सरकार व लाहौर दरबार के मध्य लाहौर की संधि 9 मार्च, 1846. ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
अंग्रेज़ों व सिखों के मध्य भैरोवाल की संधि 16 दिसंबर, 1846 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
प्रथम तथा द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा कौन था ?
(i) महाराजा दलीप सिंह
(ii) महाराजा रणजीत सिंह
(iii) महाराज खड़क सिंह
(iv) महाराजा शेर सिंह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
(i) लॉर्ड डलहौज़ी
(ii) लॉर्ड हार्डिंग
(iii) लॉर्ड रिपन
(iv) लॉर्ड डफरिन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
(i) 1839-40 ई० में
(ii) 1841-42 ई० में ।
(iii) 1843-44 ई० में
(iv) 1845-46 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 4.
लाल सिंह लाहौर दरबार में किस पद पर नियुक्त थे?
(i) विदेश मंत्री
(ii) प्रधानमंत्री
(iii) मुख्य सेनापति
(iv) दीवान।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 5.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाल सिंह कौन था?
(i) सेनापति
(ii) महाराजा
(iii) प्रधानमंत्री
(iv) विदेश मंत्री।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
अंग्रेज़ों ने सिंध पर कब अधिकार कर लिया था ?
(i) 1842 ई० में
(ii) 1843 ई० में
(iii) 1844 ई० में
(iv) 1845 ई० में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 7.
गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिखों के साथ युद्ध की घोषणा कब की ?
(i) 1848 ई०
(ii) 1849 ई०
(iii) 1865 ई०
(iv) 1845 ई०।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 8.
प्रथम तथा द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय अंग्रेजी सेना का कमांडर-इन-चीफ कौन था ?
(i) लॉर्ड ह्यूग मफ़
(ii) लॉर्ड डफरिन
(iii) मेजर ब्रॉडफुट
(iv) रॉबर्ट कस्ट।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
मुदकी की लड़ाई कब लड़ी गई ?
(i) 12 दिसंबर, 1844 ई०
(ii) 12 दिसंबर, 1845 ई०
(iii) 18 दिसंबर, 1845 ई०
(iv) 18 दिसंबर, 1846 ई०
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 10.
फिरोजशाह की लड़ाई कब की गई थी ?
(i) 18 दिसंबर, 1845 ई०
(ii) 19 दिसंबर, 1845 ई०
(iii) 20 दिसंबर, 1845 ई०
(iv) 21 दिसंबर, 1845 ई०
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 11.
सभराओं की लड़ाई कब लड़ी गई ?
(i) 21 दिसंबर, 1845 ई०
(ii) 10 फरवरी, 1846 ई०
(iii) 15 फरवरी, 1846 ई०
(iv) 10 फरवरी, 1847 ई०
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
अंग्रेजों और सिखों में प्रथम युद्ध कौन-सी संधि के साथ समाप्त हुआ ?
(i) लाहौर की संधि
(ii) अमृतसर की संधि
(iii) भैरोवाल की संधि
(iv) त्रिपक्षीय संधि।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 13.
लाहौर की संधि कब हुई थी ?
(i) 10 फरवरी, 1845 ई०
(ii) 10 फरवरी, 1846 ई०
(iii) 7 मार्च, 1846 ई०
(iv) 9 मार्च, 1846 ई०।।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 14.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद अंग्रेजों ने कश्मीर किसको दे दिया?
(i) गुलाब सिंह को
(ii) ध्यान सिंह को
(iii) हीरा सिंह को
(iv) हरी सिंह को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
भैरोवाल की संधि कब हुई थी ?
(i) 9 मार्च, 1846 ई०
(ii) 11 मार्च, 1846 ई०
(iii) 16 दिसंबर, 1846 ई०
(iv) 26 दिसंबर, 1846 ई०।
उत्तर-
(iii)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारणों की व्याख्या कीजिए। (Give a description of the causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
पहले ऐंग्लो-सिख युद्ध के छः मुख्य कारण क्या थे ?
(What were the six main causes of First Anglo-Sikh War ?) :
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई छः कारण बताएँ।
(Briefly describe any six main causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के लिए उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिए। (Discuss the causes responsible for the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति –अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेजों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोज़पुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेजों ने फिरोज़पुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इस कारण अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता-जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय-अंग्रेजों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेज़ों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुँचा। अंग्रेजों ने अपने यश को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से अपना रुख पंजाब की ओर किया । क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावाँडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध पर अधिकार-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अतः 1843 ई० में अंग्रेज़ों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियाँ-लॉर्ड हार्डिंग ने 1844 ई० में गवर्नर-जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी। अंग्रेज़ी सेना ने पंजाब को चारों तरफ से घेराव करना शुरू कर दिया था। इसने स्थिति को और अधिक विस्फोटक बना दिया था।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयाँ की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

प्रश्न 2.
मुदकी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the battle of Mudki.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 5,500 थी और उनका नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज सेना की संख्या 12,000 थी और उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़ कर रहा था। अंग्रेजों का विचार था कि वह सिख सेना को सहजता से हरा देंगे, परंतु सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें अफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह घबरा गया। वह तो सिख सेना को मरवाने आया था, परंतु यहाँ तो इसके विपरीत बात हो रही थी। यह देख कर लाल सिंह अपने कुछ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। सिख सेना फिर भी अंग्रेज़ों का वीरता से सामना करती रही, परंतु सेनापति के बिना और अल्पसंख्या के कारण अंततः उसकी पराजय हुई। यह विजय अंग्रेज़ों को बहुत महँगी पड़ी क्योंकि इस लड़ाई में उनके कई प्रसिद्ध योद्धा मारे गये थे।

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प्रश्न 3.
फिरोजशाह अथवा फेरूशहर की लड़ाई के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the battle of Ferozshah or Pherushahar ?)
उत्तर-
21 दिसंबर, 1845 ई० को फिरोज़शाह अथवा फेरूशहर नामक स्थान पर सिखों तथा अंग्रेजों के मध्य एक ज़बरदस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में अंग्रेजों की सैनिक संख्या 17 हज़ार थी और उनके पास 69 तोपें थीं। उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़, जान लिटलर और लॉर्ड हार्डिंग जैसे अनुभवी सेनापति कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सैनिकों की संख्या 25-30 हज़ार थी और उनके पास 100 तोपें थीं। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह जैसे देश-द्रोही तथा विश्वासघाती कर रहे थे। इस लड़ाई में सिखों ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि उन्हें नानी स्मरण हो आई। वे बिना शर्त सिखों के आगे समर्पण करने के बारे विचार करने लगे, परंतु भाग्य अंग्रेज़ों के साथ था। लाल सिंह और तेजा सिंह की गद्दारी के कारण अंतत: 22 दिसंबर को सिख सेना की पराजय हुई।

प्रश्न 4.
सभराओं की लड़ाई के संबंध में एक नोट लिखें। (Write a note on the battle of Sobraon.)
उत्तर-
सभराओं की लड़ाई सिखों तथा अंग्रेज़ों के मध्य लड़े जाने वाले प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी जो 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई के लिए सिखों तथा अंग्रेजों ने विशाल तैयारियाँ की थीं। अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़, लॉर्ड हार्डिंग तथा कई अन्य अनुभवी सेनापति कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह कर रहे थे। इन दोनों गद्दारों ने लड़ाई से पूर्व ही अंग्रेज़ों को महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ दे दी थीं। इस निर्णायक लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के खूब दाँत खट्टे किए। दूसरी ओर लाल सिंह तथा तेजा सिंह युद्ध क्षेत्र से भाग निकले और जाते-जाते सतलुज नदी पर बनाए किश्तियों के पुल को भी तोड़ गए। इस कारण सिखों की भारी क्षति हुई और आखिर इस लड़ाई में उनकी पराजय हुई।

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प्रश्न 5.
लाहौर की संधि (9 मार्च, 1846 ई०) पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। [Write a brief note on the Treaty of Lahore (9 March, 1846.)]
उत्तर-
अंग्रेज़ों एवं सिखों के मध्य हुए प्रथम युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेजी सरकार तथा लाहौर दरबार के मध्य 9 मार्च, 1846 ई० को एक संधि हुई। यह संधि इतिहास में ‘लाहौर की संधि’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि की मुख्य शर्ते ये थीं—

  1. अंग्रेज़ी सरकार तथा महाराजा दलीप सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों में सदैव शाँति तथा मित्रता बनी रहेगी।
  2. लाहौर के महाराजा ने अपने और अपने उत्तराधिकारी की ओर से सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  3. महाराजा ने सतलुज और ब्यास नदियों के मध्य सभी मैदानी और पर्वती क्षेत्र एवं दुर्ग अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिए।
  4. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपए की बड़ी राशि की माँग की।
  5. लाहौर राज्य की सेना घटा कर पैदल सेना की संख्या 20,000 और घुड़सवार सेना की संख्या 12,000 निश्चित कर दी गई।
  6. जब कभी आवश्यकता हो अंग्रेज़ी सेनाएँ बिना किसी बाधा के लाहौर में से गुज़र सकेंगी।
  7. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा की संरक्षिका तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 6.
भैरोवाल की संधि के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Treaty of Bhairowal ?)
अथवा
भैरोवाल की संधि पर एक नोट लिखिए। (Write a note on the Treaty of Bhairowal.)
उत्तर-
यह संधि अंग्रेजों तथा लाहौर दरबार के मध्य 16 दिसंबर, 1846 ई० को की गई थी। इस संधि के अनुसार लाहौर दरबार का प्रशासन चलाने के लिए एक ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त किया गया। महारानी जिंदां को राज परिवार से अलग करके उनकी डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। रेजीडेंट की सहायता के लिए आठ सदस्यीय परिषद् बनाई गई। महाराजा की सुरक्षा तथा राज्य में शांति बनाए रखने के लिए एक ब्रिटिश सेना रखने का निर्णय किया गया। इस सेना के व्यय के लिए लाहौर दरबार ने अंग्रेजों को 22 लाख रुपए वार्षिक देना मान लिया। इस संधि की शर्ते महाराजा दलीप सिंह के वयस्क होने तक अर्थात् 4 सितंबर, 1854 ई० तक लागू रहनी थीं। भैरोवाल की संधि द्वारा अंग्रेजों ने यद्यपि पंजाब पर अधिकार नहीं किया था, परंतु इसे काफ़ी शक्तिहीन बना दिया था। वास्तव में अंग्रेज़ पंजाब के शासक बन गए थे और सिखों का शासन नाममात्र ही रह गया था।

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प्रश्न 7.
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के क्या परिणाम निकले ?
(What was the results of First Anglo-Sikh War ?)
अथवा
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के क्या प्रभाव पड़े ?
(What were the effects of First Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। यह युद्ध 1846 ई० को लाहौर की संधि के अनुसार समाप्त हुआ। इस संधि के अनुसार—

  1. लाहौर के महाराजा ने अपने और अपने उत्तराधिकारियों की ओर से सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  2. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपये की माँग की।
  3. लाहौर राज्य की सेना घटाकर पैदल सेना. 20,000 और घुड़सवार सेना 12,000 निश्चित कर दी गई।
  4. जब कभी आवश्यकता हो, अंग्रेज़ी सेनाएँ बिना किसी बाधा के लाहौर राज्य में से गुज़र सकेंगी।
  5. अंग्रेज़ों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा की संरक्षिका तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।

16 दिसंबर, 1846 ई० को भैरोवाल की संधि के अनुसार यह निर्णय लिया गया कि

  1. अंग्रेजी सरकार लाहौर सरकार के सभी विभागों की देख-रेख के लिए ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त करेगी।
  2. जब तक महाराजा दलीप सिंह नाबालिग रहेगा (अर्थात् सितंबर, 1854 ई० तक) राज्य की शासन-व्यवस्था आठ सरदारों की एक कौंसिल ऑफ रीजैंसी द्वारा चलाई जाएगी।
  3. महारानी जिंदां को शासन-प्रबंध से पृथक् कर दिया तथा यह निर्णय हुआ कि उसे 17 लाख रुपए वार्षिक पेंशन दी जाएगी।

प्रश्न 8.
शाम सिंह अटारीवाला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Sham Singh Attariwala.)
उत्तर-
शाम सिंह अटारवाला सिख पंथ के एक महान् योद्धा थे। वह अमृतसर के अटारी गाँव के निवासी थे। उनके पिता सरदार निहाल सिंह महाराजा रणजीत सिंह की सेवा में थे। 18 वर्ष की आयु में शाम सिंह अटारीवाला महाराजा की सेना में भर्ती हुए। वह महाराजा रणजीत सिंह के अनेक सैनिक अभियानों में सम्मिलित हुए थे। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में व्याप्त अराजकता के कारण तथा अंग्रेजों द्वारा पंजाब को हड़पने के लिए किए जाने वाले प्रयासों के कारण शाम सिंह के मन को गहरा आघात लगा। वह पंजाब की स्वतंत्रता को कायम रखना चाहते थे। 1845 ई० के अंत में अंग्रेज़ों तथा सिखों में प्रथम युद्ध आरंभ हो गया। 10 फरवरी, 1846 ई० को अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य सभराओं की लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने भी भाग लिया। लाल सिंह एवं तेजा सिंह की गद्दारी के कारण सिख सेना बिखरने लग पड़ी। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला के नेतृत्व में खालसा सेना ने तलवारें निकाल लीं और सत् श्री अकाल के जयकार गुंजाते हुए शत्रु पर टूट पड़े। उन्होंने बहुतसे अंग्रेज़ी सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया। उनकी बहादुरी देखकर अंग्रेज़ भी हैरान रह गए। अंत में वह लड़तेलड़ते शहीद हो गए।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

प्रश्न 9.
पहले आंग्ल-सिख युद्ध के पीछे अंग्रेजों ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल क्यों नहीं किया ?
(Why the British did not annex the Punjab to their empire after the First Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
अंग्रेजों ने यद्यपि सभराओं की लड़ाई में सिखों को हरा दिया था, परंतु अभी भी खालसा सेना के कई हजार सैनिक शस्त्रों सहित पंजाब में कई स्थानों पर विद्यमान थे। यदि पंजाब को उस समय अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी जाती तो ये सैनिक अंग्रेजों की सिरदर्दी का एक बड़ा कारण बन सकते थे। पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित न करने का दूसरा बड़ा कारण यह था कि अंग्रेज़ चाहते थे कि पंजाब अंग्रेजी राज्य तथा अफ़गानिस्तान के मध्य मध्यवर्ती राज्य का काम देता रहे। यदि अंग्रेज़ पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लेते तो उनकी सीमाएँ अफ़गानिस्तान तक बढ़ जातीं। इससे अंग्रेजों के लिए नई समस्याएँ उत्पन्न हो जातीं। अंग्रेज़ इन समस्याओं से निपटने के लिए अभी तैयार नहीं थे। इसके अतिरिक्त पंजाब को नियंत्रण में रखने के लिए अंग्रेजों को भारी संख्या में अंग्रेज़ सैनिक पनाब में रखने पड़ते। इससे अंग्रेजों के खर्च में काफ़ी वृद्धि हो जाती। गवर्नर-जनरल का मत था कि पंजाब प्रांत आर्थिक रूप से अंग्रेजों के लिए लाभप्रद सिद्ध नहीं हो सकता। वह पंजाब को शक्ति की अपेक्षा दुर्बलता का स्रोत समझता था।

प्रश्न 10.
प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार के मुख्य कारणों का वर्णन कीजिए। (Write main reasons of the defeat of the Sikhs is the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
1. प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार का सबसे मुख्य कारण लाल सिंह और तेजा सिंह की गद्दारी थी। लाल सिंह प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त था जबकि तेजा सिंह मुख्य सेनापति के रूप में कार्य कर रहा था। ये दोनों नेता अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अंग्रेजों के साथ जा मिले। कहावत है कि जब जहाज़ का चालक ही अपने जहाज़ को तबाह करने के लिए तैयार हो जाए तो उस जहाज़ का डूबना निश्चित है। कुछ ऐसी ही हालत सिख सेना की हुई। यद्यपि वे इस समूचे युद्ध के दौरान बहुत वीरता और उत्साह से लड़े, परंतु नेताओं की गद्दारी उन्हें ले डूबी।

2. सिख सेना में जो यूरोपियन अधिकारी भर्ती हुए थे, वे गुप्त रूप से अंग्रेजों के साथ मिले हुए थे। वे सिख राज्य के सभी भेद अंग्रेजों को देते रहे।

3. इनके अतिरिक्त उस समय अंग्रेज़ संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के साथ संबंध रखते थे। स्वाभाविक रूप में उनके साधन सिखों की तुलना में बहुत अधिक थे। (iv) अंग्रेज़ों के सेनापतियों को युद्धों का बहुत अनुभव था। वे ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए पूरी ईमानदारी तथा लगन के साथ लड़े। ऐसी स्थिति में सिखों की पराजय अनिवार्य थी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
1842 ई० में लॉर्ड आकलैंड के स्थान पर लॉर्ड एलिनब्रो को भारत का नया गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया। लॉर्ड एलिनब्रो अफ़गानिस्तान की पराजय से हुई अंग्रेजों की बदनामी को दूर करना चाहता था। इसलिए उसने सिंध पर अधिकार करने का निर्णय किया। यह क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। सिंध के अमीर चाहे अंग्रेजों के पक्के वफ़ादार थे, परंतु एलिनब्रो ने उन पर झूठे दोष लगाकर सिंध के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा कर दी। 1843 ई० में अंग्रेज़ों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेज़ों के परस्पर संबंधों में कड़वाहट और बढ़ गई।

  1. लॉर्ड एलिनब्रो कौन था ?
  2. लॉर्ड एलिनब्रो भारत का गवर्नर-जनरल कब बना ?
    • 1812 ई०
    • 1822 ई०
    • 1832 ई०
    • 1842 ई०
  3. अंग्रेज़ सिंध पर अधिकार क्यों करना चाहते थे ?
  4. अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कब कर लिया था ?
  5. अंग्रेजों द्वारा सिंध पर अधिकार का क्या परिणाम निकला ?

उत्तर-

  1. लॉर्ड एलिनब्रो भारत का गवर्नर-जनरल था।
  2. 1842 ई०।
  3. क्योंकि सिंध भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्वपूर्ण था।
  4. अंग्रेजों ने 1843 ई० में सिंध पर अधिकार कर लिया था।
  5. अंग्रेजों के द्वारा सिंध पर अधिकार के कारण अंग्रेजों तथा सिखों के संबंधों में तनाव आ गया था।

2
सिखों और अंग्रेज़ों में दूसरी प्रसिद्ध लड़ाई फिरोज़शाह अथवा फेरूशहर में 21 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई। यह स्थान मुदकी से 10 मील की दूरी पर स्थित है। अंग्रेज़ इस लड़ाई के लिए पूर्ण रूप से तैयार थे। उन्होंने फिरोज़पुर, अंबाला तथा लुधियाना से अपनी सेनाओं को फिरोज़शाह पर आक्रमण करने के लिए बुला लिया था। इस लड़ाई में अंग्रेजों के सैनिकों की संख्या 17,000 थी। अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व सुप्रसिद्ध एवं अनुभवी सेनापति लॉर्ड ह्यूग गफ़, जॉन लिटलर तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। सिख सैनिकों की संख्या 25,000 से 30,000 के लगभग थी। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह एवं तेजा सिंह कर रहे थे। अंग्रेज़ों को यह पूरा विश्वास था कि सिख सेनापतियों की गद्दारी के कारण वे इस लड़ाई को सरलता से विजित कर लेंगे, परंतु सिखों ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि एक बार तो उन्हें भारत में अंग्रेजी साम्राज्य डावाँडोल होता दिखाई दिया।

  1. फिरोजशाह की लड़ाई कब हुई ?
  2. लॉर्ड ह्यूग गफ़ कौन था ?
  3. फिरोजशाह की लड़ाई में सिख सेना का नेतृत्व किसने किया था ?
  4. फिरोजशाह की लड़ाई में अंग्रेजों के सैनिकों की संख्या ………. थी।
  5. फिरोजशाह की लड़ाई में किसकी हार हुई ?

उत्तर-

  1. फिरोजशाह की लड़ाई 21 दिसंबर, 1845 ई० में हुई।
  2. लॉर्ड ह्यूग गफ़ अंग्रेज़ों का प्रधान सेनापति था।
  3. फिरोज़शाह की लड़ाई में सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह ने किया था।
  4. 17000
  5. फिरोजशाह की लड़ाई में सिखों की हार हुई।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

3
सभराओं की लड़ाई सिखों एवं अंग्रेजों के प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। यह लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई से पूर्व 30,000 सिख सैनिक सभराओं पहुँच चुके थे। उन्होंने अंग्रेजों का डटकर सामना करने के लिए मोर्चे तैयार करने आरंभ कर दिए थे। लाल सिंह तथा तेजा सिंह, जोकि सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे, क्षणक्षण के समाचार अंग्रेजों को पहुंचा रहे थे। सिख सेना का सामना करने के लिए अंग्रेजों ने भी खूब तैयारी की थी। इस लड़ाई में अंग्रेजी सेना की कुल संख्या 15,000 थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे। 10 फरवरी, 1846 ई० वाले दिन अंग्रेजों ने सिख सेना पर आक्रमण कर दिया। सिख सेना की जवाबी कार्यवाई के
कारण अंग्रेज़ी सेना को पीछे हटना पड़ा। ठीक इसी समय पूर्व निर्मित योजनानुसार पहले लाल सिंह और फिर तेजा सिंह मैदान से भाग गए। तेजा सिंह ने भागने से पहले बारूद से भरी नावें डुबो दी तथा साथ ही पुल को भी तोड़ दिया।

  1. पहले ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय कौन-सी लड़ाई अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य अंतिम लड़ाई थी ?
  2. सभराओं की लड़ाई कब हई थी ?
  3. सभराओं की लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व ……….. तथा …………. ने किया था।
  4. सभराओं की लड़ाई में किसकी हार हुई ?
  5. सभराओं की लड़ाई में किस सिख नेता ने अपनी बहादुरी के जौहर दिखाए थे ?

उत्तर-

  1. सभराओं की लड़ाई अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य अंतिम लड़ाई थी।
  2. सभराओं की लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को हुई थी।
  3. लॉर्ड ह्यूग गफ़, लॉर्ड हार्डिंग।
  4. सभराओं की लड़ाई में सिखों की हार हुई।
  5. सभराओं की लड़ाई में सरदार शाम सिंह अटारीवाला ने अपनी बहादुरी के जौहर दिखाए।

प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम PSEB 12th Class History Notes

  • प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारण (Causes of the First Anglo-Sikh War)—अंग्रेज़ों ने पंजाब को अपने अधीन करने के लिए उसके इर्द-गिर्द घेरा डालना आरंभ कर दिया था-पंजाब की डावांडोल राजनीतिक स्थिति भी अंग्रेजों को निमंत्रण दे रही थी-1843 ई० में अंग्रेजों के सिंध अधिकार से परस्पर संबंधों में कड़वाहट और बढ़ गई-अंग्रेजों ने जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी थींलुधियाना के नवनियुक्त पोलिटिकल एजेंट मेजर ब्रॉडफुट ने अनेक ऐसी कारवाइयां कीं जिससे सिख भड़क उठे-लाहौर के नये वज़ीर लाल सिंह ने भी सिख सेना को अंग्रेज़ों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया था।
  • युद्ध की घटनाएँ (Events of the War)-सिखों तथा अंग्रेज़ों के मध्य हुए प्रथम युद्ध की प्रमुख घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है—
    • मुदकी की लड़ाई (Battle of Mudki)-यह लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई थीइसमें सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था इस लड़ाई में लाल सिंह की गद्दारी के कारण सिख सेना पराजित हुई।
    • फिरोजशाह की लड़ाई (Battle of Ferozeshah)—यह लड़ाई 21 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई थी-इस लड़ाई में एक स्थिति ऐसी भी आई कि अंग्रेजों ने बिना शर्त शस्त्र फेंकने का विचार कियापरंतु लाल सिंह की गद्दारी के कारण सिखों को पुनः हार का सामना करना पड़ा।
    • बद्दोवाल की लड़ाई (Battle of Baddowal)-बद्दोवाल की लड़ाई रणजोध सिंह के नेतृत्व में 21 जनवरी, 1846 ई० को हुई-इस लड़ाई में अंग्रेज़ों को हार का सामना करना पड़ा।
    • अलीवाल की लड़ाई (Battle of Aliwal)-अलीवाल की लड़ाई 28 जनवरी, 1846 ई० को हुई—इसमें अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व हैरी स्मिथ कर रहा था-रणजोध सिंह की गद्दारी के कारण सिख इस लड़ाई में हार गए।
    • सभराओं की लड़ाई (Battle of Sobraon)-सभराओं की लड़ाई सिखों एवं अंग्रेजों के मध्य प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी-इसमें सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह और अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे-यह लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को हुई-लाल सिंह और तेजा सिंह ने इस लड़ाई में पुनः गद्दारी की इस लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने अपनी बहादुरी के कारनामे दिखाए -अंततः इस लड़ाई में अंग्रेज़ विजयी रहे।
  • युद्ध के परिणाम (Results of the War) इस युद्ध के परिणामस्वरूप लाहौर दरबार और अंग्रेज़ी सरकार के मध्य 9 मार्च, 1846 ई० को ‘लाहौर की संधि’ हुई-इसके अनुसार लाहौर के महाराजा ने सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर हमेशा के लिए अपना अधिकार छोड़ दिया-युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में अंग्रेज़ों ने 1.50 करोड़ रुपए की मांग की-अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को उसका संरक्षक तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री मान लिया -16 दिसंबर, 1846 को हुई ‘भैरोवाल की संधि’ से अंग्रेजों ने राज्य की शासन व्यवस्था कौंसिल ऑफ़ रीजेंसी के हवाले कर दी-महारानी जिंदां को शासन प्रबंध से अलग कर दिया गया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत की विदेश नीति से आप क्या समझते हैं ? भारत की विदेश नीति के निर्धारक तत्वों के बारे में लिखिए।
(What do you understand by Foreign Policy of India ? Discuss about the Determinants of Indian Foreign Policy.)
अथवा
भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने वाले विभिन्न तत्वों की चर्चा कीजिए। (Explain the various determinants of India’s Foreign Policy.)
उत्तर-
विदेश नीति का अर्थ-आधुनिक युग अन्तर्राष्ट्रीयवाद का युग है। विश्व का प्रत्येक राज्य आत्मनिर्भर नहीं है। प्रत्येक राज्य को अपने हितों को पूरा करने के लिए अन्य राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करने पड़ते हैं। इन सम्बन्धों का संचालन विदेश नीति द्वारा किया जाता है। साधारण शब्दों में विदेश नीति उन सिद्धान्तों और साधनों का एक समूह है जिसे राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को परिभाषित करने के लिए, अपने उद्देश्यों को सही बताने के लिए और उनको प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं। विभिन्न राष्ट्र दूसरे के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को अपने व्यवहार के अनुसार बनाने के लिए विदेश नीति का प्रयोग करता है।
डॉ० महेन्द्र कुमार के शब्दों में, “विदेश नीति कार्यों की सोची-समझी क्रिया दिशा है, जिससे राष्ट्रीय हित की विचारधारा के अनुसार विदेशी सम्बन्धों में उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है।”

रुथना स्वामी के शब्दों में, “विदेश नीति ऐसे सिद्धान्तों और व्यवहार का समूह है जिनके द्वारा राज्य के अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों को नियमित किया जाता है।”

1947 में स्वन्तत्र होने के पश्चात् भारत को स्वतन्त्र रूप से अपनी विदेश नीति बनाने का अवसर मिला। भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर अपनी विदेश नीति में परिवर्तन किए। भारतीय विदेश नीति को निर्धारित करने में अनेक तत्त्वों ने सहयोग दिया है। ये तत्त्व अग्रलिखित हैं

1. संवैधानिक आधार (Constitutional Basis) भारत के संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को केवल राज्य की आन्तरिक नीति से सम्बन्धित ही निर्देश नहीं दिए गए, बल्कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए। इस विषय में भी निर्देश दिए गए हैं।
अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित कार्य करने के लिए कहा गया है –

(क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को बढ़ावा देना।
(ख) दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना।
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों तथा कानूनों के लिए सम्मान उत्पन्न करना।
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटाने के लिए मध्यस्थ का रास्ता अपनाना। राज्यनीति के इन निर्देशक सिद्धान्तों ने भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

2. भौगोलिक तत्त्व (Geographical Factors)-भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने में भौगोलिक तत्त्व ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत का समुद्र तट बहुत विशाल है। भारत के समुद्र तट की लम्बाई 3500 मील के लगभग है। हिन्द महासागर पर जिस किसी का भी प्रभुत्व हो वह आसानी से भारत के विदेशी व्यापार को अपने हाथ में ले सकता है और राजनीतिक दृष्टि से भी भारत के लिए खतरा पैदा कर सकता है। अंग्रेज़ों का भारत में शासन स्थापित करने का कारण उनकी समुद्री शक्ति ही थी। भारत की सुरक्षा के लिए नौ-सेना का शक्तिशाली होना अति आवश्यक है और इसलिए भारत अपनी नौ-सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए लगा हुआ है। परन्तु भारत की नौ-सेना को इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा रूस की नौ-सेना के मुकाबले में आने में अभी काफ़ी समय लगेगा। इसलिए भारत ने ब्रिटेन के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखे हैं।

भारत की सीमाएं पाकिस्तान, चीन, नेपाल और बर्मा के साथ लगती हैं। कश्मीर राज्य के कुछ प्रदेश ऐसे भी हैं, जिनकी सीमा अफगानिस्तान और रूस के साथ लगती है। यद्यपि इस समय वे पाकिस्तान के कब्जे में हैं। भारत की उत्तरी सीमा पर चीन है। चीन और भारत के बीच में हिमालय है जो प्राचीन और मध्ययुगों में प्रहरी का काम करता था। इसी कारण भारत पर कभी कोई महत्त्वपूर्ण आक्रमण उत्तर की ओर से नहीं हुआ था। परन्तु अब स्थिति बदल गई है। यह स्थिति वायुयानों के निर्माण के कारण और अन्य शस्त्रों के आविष्कारों से बदली है। 1962 में चीन के आक्रमण ने भारत की आंखें खोल दी हैं। उत्तरी सीमा की सुरक्षा के लिए चीन के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध होने आवश्यक हैं। इसलिए भारत का आरम्भ से ही यह प्रयास रहा है कि आज भी सरकार साम्यवादी चीन से सम्बन्ध सुधारने का प्रयास कर रही है। इसके अतिरिक्त भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया है ताकि चीन से शत्रुता न हो।

विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में साम्यवादी गुट और पश्चिमी गुट में जो विरोध है उसके कारण दोनों ही गुट इस प्रयत्न में रहे हैं कि भारत के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करें। भारत की भौगोलिक स्थिति हिन्द महासागर के मध्य में है। समुद्र मार्ग से उसका सम्बन्ध पश्चिमी एशिया और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के राज्यों के साथ समान रूप से है। उत्तर में स्थित चीन और रूस भी इससे अधिक दूरी पर नहीं हैं और उनकी सीमाएं भी भारत के साथ लगती हैं। इस स्थिति में किसी एक गुट में शामिल होना और उसके साथ सैनिक सन्धियां करना भारत की सुरक्षा के लिए हानिकारक है। भारत की तटस्थता की नीति इन्हीं भौगोलिक तत्त्वों का परिणाम है।

3. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background)-किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति पर उस राष्ट्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रभाव होता है और भारतीय विदेश नीति भी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के प्रभाव से मुक्त नहीं है। 200 वर्ष के दीर्घकाल तक भारत को अंग्रेज़ों की दासता में रहना पड़ा, फलस्वरूप भारत अन्य राष्ट्रों की तुलना में ग्रेट ब्रिटेन के सम्पर्क में अधिक रहा और इसी कारण इंग्लैण्ड की सभ्यता व संस्कृति का भारत पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ा। अंग्रेज़ी भाषा ने भारत में दूसरी भाषा का स्थान प्राप्त कर लिया है और विश्व का ज्ञान वस्तुतः भारतीयों को अंग्रेजों द्वारा ही हुआ। अत: दोनों के विचारों व दृष्टिकोण में समानता होनी स्वाभाविक है। यद्यपि भारतीयों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए निरन्तर कष्ट सहे और अथक संघर्ष किया, परन्तु सशस्त्र क्रान्ति की आवश्यकता नहीं पड़ी और द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् बदलती हुई परिस्थितियों के कारण अंग्रेज़ों ने स्वयं अपने प्रभुत्व का अन्त कर दिया जिस कारण दोनों देशों में इस पृष्ठभूमि के कारण आज भी मित्रता बनी हुई है और भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य भी है।

भारत व पाकिस्तान के सम्बन्धों के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। स्वतन्त्रता संघर्ष में मुसलमानों ने एक पृथक् राष्ट्र की मांग की और भारत दो टुकड़ों में विभाजित हो गया। भारतीय इस विभाजन का कारण मुसलमानों को मानते हैं। भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है इसलिए वह किसी धर्म से मतभेद नहीं करता, पाकिस्तान एक इस्लामी राज्य है और भारत में रहने वाले 18 करोड़ मुसलमानों के प्रति अपनी विशेष ज़िम्मेदारी का अहसास करवाना चाहता है। मध्यकालीन युग में मुसलमानों ने भारत को रौंदा व शासन किया और आज भी पाकिस्तान ऐसा अनुभव करता है कि वह पुनः भारत को जीत सकता है। मध्यकालीन युग की स्मृति आज भी दोनों राष्ट्रों के सम्बन्धों व धारणाओं को प्रभावित करती है। कश्मीर समस्या इसी कारण हल नहीं हो पा रही क्योंकि पाकिस्तान वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों पर अपना अधिकार मानता है जबकि भारत कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानता है। भौगोलिक दृष्टि से इन दोनों राष्ट्रों का हित सहयोग की नीति के अन्तर्गत है, परन्तु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इनके सम्बन्धों को कटु बनाती है।

चिरकाल तक साम्राज्यवाद के कारण शोषित व परतन्त्र रहने के कारण भारत की विदेश नीति पर प्रभाव पड़ा है और अब इसकी विदेश नीति का मुख्य सिद्धान्त साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का विरोध करना है और इसी कारण भारत एशिया व अफ्रीका में होने वाले स्वाधीनता संघर्षों का समर्थन करता रहा है।

4. आर्थिक तत्त्व (Economic Factors)-भारत की विदेश नीति के निर्धारण में आर्थिक तत्त्व ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ उस समय भारत की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। भारत में उस समय अनाज की भारी कमी थी और वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ रही थीं। भारत अनाज और अन्य आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए अमेरिका और ब्रिटेन पर निर्भर करता था। भारत का विदेशी व्यापार मुख्यतः ब्रिटेन व अमेरिका के साथ था। जिन मशीनरियों व खाद्य सामग्रियों को विदेशों में मंगवाना होता है वह भी उसे इन देशों से ही मुख्यतः प्राप्त करनी होती हैं और साथ ही अमेरिका व ब्रिटेन की पर्याप्त पूँजी भारत के अनेक कल-कारखानों में लगी हुई है और इनके साथ में यह स्वाभाविक था कि भारत की विदेश नीति पश्चिमी पूंजीवादी राज्यों के प्रति सद्भावनापूर्ण रही। 1950 के पश्चात् भारत और सोवियत संघ धीरे-धीरे एक-दूसरे के नजदीक आने लगे और भारत सोवियत संघ तथा अन्य समाजवादी देशों से तकनीकी तथा आर्थिक सहायता प्राप्त करने लगा।

दोनों गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई। पिछले कुछ वर्षों में भारत व रूस में भी व्यापारिक सम्बन्धों में वृद्धि हुई है, परन्तु अमेरिका व ब्रिटेन की तुलना में भारत का व्यापार साम्यवादी देशों के साथ अभी बहुत कम है। यदि भारत का सम्बन्ध पूंजीवादी राष्ट्र से मैत्रीपूर्ण न रहे तो इस विदेशी नीति के परिवर्तन से उसकी आर्थिक व्यवस्था को भारी आघात पहुंच सकता है। आजकल भारत अपने विदेशी व्यापार में वृद्धि करने के लिए एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर रहा है। वास्तव में भारत की विदेश नीति और इसके आर्थिक विकास में घनिष्ट सम्बन्ध है।

(क) जनसंख्या (Population) हमारे देश की विदेशी नीति को इसकी जनसंख्या भी प्रभावित करती है। इसी के कारण किसी राष्ट्र का विकास मन्द हो सकता है और एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र की सहायता पर निर्भर होना पड़ता है। जनसंख्या के कारण ही बड़ा राष्ट्र भी थोड़ी जनसंख्या वाले राज्य की तुलना में कमज़ोर प्रतीत होता है। भारत जैसा विशाल देश जनसंख्या के कारण आर्थिक विकास के कार्यों में जापान और अमेरिका की तुलना में कमजोर रह जाता है। इसके अतिरिक्त हमें सैनिक व्यय में भी कटौती करनी पड़ती है। इस जनसंख्या के कारण ही हमें विदेशों पर खाद्य सामग्री के लिए भी आश्रित होना पड़ता है। मोरगैन्थों के अनुसार, भारत ऐसा प्रमुख उदाहरण है, जिसकी विदेश नीति अन्न संकट के कारण कमज़ोर हुई है।

(ख) प्राकृतिक सम्पदा (Natural Sources)-किसी राष्ट्र की विदेशी नीति को निःसन्देह उस देश की प्राकृतिक सम्पदाएं भी पर्याप्त प्रभावित करती हैं। प्राकृतिक सम्पदाएं राष्ट्र के उद्योग व व्यापार के विकास का कारण होती हैं। अमेरिका व रूस के पास प्राकृतिक सम्पदाएं अधिक थीं जिनसे ये राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से आत्म-निर्भर बने और सैनिक शक्ति को प्राप्त करने में सफल हुए। भारत की स्वतन्त्र विदेश नीति में भी इन प्राकृतिक सम्पदाओं का अपना स्थान है।

(ग) प्राविधिकी (Technology)-प्रत्येक राष्ट्र को आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिए प्रारम्भ में विदेशी सहायता व प्राविधिकी पर निर्भर होना पड़ा है। उदाहरणतया अमेरिका प्रारम्भ में विदेशी धन व प्राविधिकी पर निर्भर रहा, जापान को समृद्ध व सशक्त बनने के लिए विदेशी धन पर नहीं बल्कि विदेशी प्राविधिकी पर अधिक आश्रित होना पड़ा, इसी तरह रूस को भी औद्योगिक राष्ट्र बनने के लिए विदेशी धन व प्राविधिकी की सहायता लेनी पड़ी। 1949 के पश्चात् चीनी समृद्धि के लिए रूसी पूंजी व प्राविधिकी उत्तरदायी है।

5. राष्ट्रीय हित (National Interest)-विदेश नीति के निमार्ण में राष्ट्रीय हित ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 4 दिसम्बर, 1947 को संविधान सभा में पण्डित नेहरू ने कहा था कि “आप चाहे कोई भी नीति अपनाएं, विदेश नीति का निर्धारण करने की कला राष्ट्रीय हित के सम्पादन में ही निहित है। हम अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सहयोग और स्वतन्त्रता की चाहे कितनी ही बातें करें और उनका कैसा ही अर्थ लगाएं पर अन्त में एक सरकार अपने राष्ट्र की भलाई के लिए ही कार्य करती है और कोई भी सरकार ऐसा कदम नहीं उठा सकती जो उसके राष्ट्र के लिए अहितकर हो। अतः सरकार का स्वरूप चाहे साम्राज्यवादी हो या साम्यवादी अथवा समाजवादी, उसका विदेश मन्त्री मूलत: राष्ट्रीय हित के लिए ही सोचता है।”

6. विचारधारा का प्रभाव (Impact of Ideology)-विदेश नीति का निर्माण करने से उस देश की विचारधारा का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। राष्ट्रीय आन्दोलन के समय कांग्रेस ने अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तरह-तरह के आदर्श संसार के सामने प्रस्तुत किए थे। कांग्रेस ने सदैव विश्व शान्ति और शान्तिपूर्ण सह-जीवन का समर्थन तथा साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का घोर विरोध किया। सत्तारूढ़ होने पर कांग्रेस को अपनी विदेश नीति का निर्माण इन्हीं आदर्शों पर करना था। कांग्रेस महात्मा गांधी के आदर्शों तथा सिद्धान्तों से भी काफ़ी प्रभावित थी।

अत: भारत की विदेश नीति गांधीवाद से काफ़ी प्रभावित थी। इसलिए भारत की विदेश नीति में विश्व-शान्ति पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। समाजवादी देशों के प्रति भारत की सहानुभूति बहुत कुछ मार्क्सवादी प्रभाव का परिणाम मानी जाती है। पश्चिमी के उदारवाद का भी भारत की विदेश नीति पर काफ़ी प्रभाव है। हमारी विदेश नीति के निर्माता पं० नेहरू पश्चिमी लोकतन्त्रीय परम्पराओं से बहुत प्रभावित थे। वे पश्चिमी लोकतन्त्र और साम्यवाद दोनों की अच्छाइयों को पसन्द करते थे और उनकी बुराइयों से दूर रहना चाहते थे। अतः गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया गया। वर्तमान में साम्यवादी विचारधारा लुप्त होती जा रही है। साम्यवादी देशों ने अपनी विचारधाराओं में परिवर्तन किए हैं। इसलिए अब वह आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण पर बल दे रहे हैं। भारत पर भी इस विचारधारा के स्पष्ट चिन्ह दिखाई दे रहे हैं।

7. अन्तर्राष्ट्रीय तत्त्व (International Factors)—भारत की विदेश नीति के निर्धारण में अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ उस समय रूसी गुट और अमरीकी गुट में शीत युद्ध चल रहा था। संसार के प्रायः सभी देश उस समय दो गुटों में विभाजित थे। पं० जवाहर लाल नेहरू ने किसी एक गुट में शामिल होने के स्थान पर गुटों से अलग रहना देश के हित में समझा। अत: भारत ने गुट-निरपेक्ष नीति का अनुसरण किया। पिछले कुछ वर्षों से अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में परिवर्तन हुआ है। अमेरिका और चीन के सम्बन्धों में सुधार हुआ है और अमेरिका और पाकिस्तान बहुत नज़दीक है। इस अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति के कारण भारत और रूस और समीप आए हैं। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व में अमेरिका ही एकमात्र सुपर शक्ति रह गया है। इसीलिए भारत भी अमेरिका के साथ अपने आर्थिक, सामाजिक सम्बन्धों को मज़बूत बनाने की दिशा में प्रयास कर रहा है।

8. सैनिक तत्त्व (Military Factors)-सैनिक तत्त्व ने भी भारत की विदेश नीति को प्रभावित किया है। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सैनिक दृष्टि से बहुत निर्बल था। इसलिए भारत ने दोनों गुटों से सैनिक सहायता प्राप्त करने के लिए गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई। 1954 में अमेरिका और पाकिस्तान में एक सैनिक सन्धि हुई जिस कारण पाकिस्तान को अमेरिका से बहुत अधिक सैनिक सहायता मिली। भारत ने अमेरिका की इस नीति का विरोध किया और भारत ने सैनिक सहायता सोवियत संघ से प्राप्त करनी शुरू कर दी। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका ने खुलेआम पाकिस्तान का साथ दिया और भारत पर दबाव डालने के लिए अपना सातवां जंगी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा तो भारत को सोवियत संघ से 20 वर्षीय सन्धि करनी पड़ी। आजकल अमेरिका पाकिस्तान को आधुनिकतम हथियार दे रहा है, जिसका भारत ने अमरीका से विरोध किया है पर अमेरिका अपनी नीति पर अटल है। अतः भारत को भी अपनी रक्षा के लिए रूस तथा अन्य देशों से आधुनिकतम हथियार खरीदने पड़ रहे हैं।

9. राष्ट्रीय संघर्ष (National Struggle)—भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन ने विदेश नीति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। (1) राष्ट्रीय आन्दोलन ने भारत में महाशक्तियों के संघर्ष को मोहरा बनने से बचने का संकल्प उत्पन्न किया। (2) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक क्षेत्र में गुट-निरपेक्ष रहते हुए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की भावना जागृत हुई। (3) प्रत्येक तरह के उपनिवेशवाद, जातिवाद व रंग मतभेद का विरोध करने का साहस उत्पन्न हुआ व (4) स्वाधीनता संघर्ष के लिए सहानुभूति उत्पन्न हुई।

10. वैयक्तिक तत्त्व (Personal Factors) भारतीय विदेश नीति पर इस राष्ट्र के महान् नेताओं के वैयक्तिक तत्त्वों का भी प्रभाव पड़ा। पण्डित जवाहर लाल नेहरू के विचारों से हमारी विदेश नीति पर्याप्त प्रभावित हुई। पण्डित नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व फासिस्टवाद के घोर विरोधी थे और वह समस्याओं का समाधान करने के लिए शान्तिपूर्ण मार्ग के समर्थक थे। वह मैत्री-सहयोग व सह-अस्तित्व के पोषक थे। साथ ही अन्याय का विरोध करने के लिए शक्ति प्रयोग के समर्थक भी थे। पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने अपने विचारों द्वारा हमारी विदेश नीति के ढांचे को ढाला।

पण्डित जवाहर लाल नेहरू के अतिरिक्त डॉ० राधाकृष्णन, कृष्णा मेनन, पणिक्कर जैसे महान नेताओं के विचारों ने भी हमारी विदेश नीति को प्रभावित किया। साम्यवादी चीन के प्रति जो प्रारम्भिक वर्षों में नीति अपनाई गई उसमें मुख्य रूप से पणिक्कर के व्यक्तित्व का प्रभाव था और भारत चीन की मैत्री का उचित अनुमान न लगा सका। उस समय पणिक्कर चीन में भारतीय राजदूत थे और पण्डित नेहरू उन्हीं की रिपोर्टों के आधार पर चीन के विषय में गलत अनुमान लगाते रहे। फलस्वरूप हमें चीन के हाथों मुंह की खानी पड़ीं, परन्तु 1962 की घटना ने हमारी विदेश नीति को यथार्थवाद की ओर अग्रसर किया। स्वर्गीय शास्त्री जी व भूतपूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी के काल में हमने अपनी विदेश नीति के मूल तत्त्वों को कायम रखते हुए उसमें व्यावहारिक तत्त्वों का भी प्रयोग किया।

शान्ति-प्रियता, सहिष्णुता, मैत्री, सहयोग एवं सह-अस्तित्व के तत्त्व आज भी हमारी विदेश नीति के आधार पर स्तम्भ हैं, किन्तु इन आधार स्तम्भों का धरातल व्यावहारिकता व यथार्थवाद पर आधारित है। शान्ति के गगनभेदी नारे ही केवल शान्ति स्थापित नहीं कर सकते हैं बल्कि इन नारों को गुन्ज़ाने वाले भारत को सर्वप्रथम सशक्त व समर्थ राष्ट्र बनाना ज़रूरी है। शत्रु राष्ट्रों का मुकाबला करने के लिए भारत को एक शक्तिशाली सैन्य राष्ट्र बनाना अनिवार्य हैं अन्यथा शान्ति व सहयोग का नारा गुन्जायमान होने के स्थान पर कण्ठ में अवरुद्ध होकर रह जाएगा। यद्यपि भारत की किसी प्रकार की आक्रामक व विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा नहीं है किन्तु आत्म-रक्षा के लिए सैनिक दृढ़ता अनिवार्य है तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारी आवाज़ बुलन्द रह सकेगी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

प्रश्न 2.
भारत की विदेश नीति के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Explain the main features of India’s Foreign Policy.)
अथवा
भारत की विदेश नीति के मौलिक सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Describe Basic Principles of the Foreign Policy of India.)
अथवा
भारत की विदेश नीति के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Describe main Basic Principles of Foreign Policy of India.)
अथवा
विदेश नीति क्या होती है ? भारतीय विदेश नीति के अधीन पंचशील तथा गुट-निरपेक्षता का वर्णन करें।
(What do you mean by ‘Foreign Policy’ ? Discuss the Principles of ‘Non-Alignment’ and ‘Panchsheel’ under Indian foreign policy.)
उत्तर-
विदेश नीति का अर्थ-इसके लिए प्रश्न नं. 1 देखें।
भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ। यद्यपि यह सत्य है कि भारत ब्रिटिश शासन के दौरान भी अपनी विदेश नीति का निर्माण करता था और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में भाग लेता था, परन्तु वास्तव में भारत के नेता चाहते थे कि वह एक स्वतन्त्र विदेश नीति का निर्माण करें जोकि ब्रिटिश शासन से मुक्त होकर सम्भव था। अत: 1947 में जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो यह सुनहरा अवसर भारत के नेताओं को प्राप्त हुआ और भारत ने एक नए ढंग से अपनी विदेश नीति का निर्माण करना शुरू किया। परन्तु यह शुभारम्भ बिल्कुल नया नहीं था। मार्च, 1950 में लोकसभा में भाषण देते हुए पं० जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “यह नहीं समझा जाना चाहिए कि हम विदेश नीति के क्षेत्र में एकदम नया शुभारम्भ कर रहे हैं। यह एक ऐसी नीति है जो हमारे अतीत के इतिहास से और हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ी हुई है। इसका विकास उन सिद्धान्तों के अनुसार हुआ है जिनकी घोषणा अतीत के समय-समय पर करते रहे हैं।”

पामर एवं पार्किंस (Palmer and Perkins) के शब्दों में, “भारत की विदेश नीति की जड़ें विगत कई शताब्दियों में विकसित सभ्यताओं के मूल में छिपी हैं और चिन्तन शैलियां, ब्रिटिश नीतियों की विरासत, स्वाधीनता आन्दोलन तथा विदेशी मामलों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहुंच, गांधीवादी दर्शन के प्रभाव, अहिंसा तथा साध्य और साधनों के महत्त्व के गांधीवादी सिद्धान्तों आदि का प्रभावशाली योग रहा है।”

भारत की विदेश नीति की विशेषताएं (FEATURES OF INDIA’S FOREIGN POLICY)-

भारत की विदेश नीति की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएं हैं-

1. गुट-निरपेक्षता की नीति (Non-Alignment) भारत की विदेश नीति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गटनिरपेक्षता है। भारत एक गुट-निरपेक्ष देश है और इसकी विदेश नीति भी गुट-निरपेक्षता पर आधारित है। पं० नेहरू ने कहा था-“जहां तक सम्भव हो, हम इन शक्ति गुटों से अलग रहना चाहते हैं, जिनके कारण पहले भी महायुद्ध हुए हैं और भविष्य में भी हो सकते हैं।” गुट-निरपेक्षता का अर्थ है-अपनी स्वतन्त्र नीति। जब तक भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू रहे तब तक भारत पूर्ण रूप से गुट-निरपेक्षता की नीति पर बल देता रहा। अप्रैल, 1955 में बांडुंग सम्मेलन हुआ जिसमें गुट-निरपेक्षता का नारा दिया गया और उस समय से यह काफ़ी लोकप्रिय है। परन्तु 1962 में जब भारत पर चीन ने आक्रमण किया और भारत की युद्ध में हार हुई तो इसका विश्वास गुट-निरपेक्षता पर धीरे-धीरे कम होने लगा और भारत ने भी अन्य गुटों में शामिल होने वाले देशों की तरह सोवियत संघ की ओर हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया। इन सम्बन्धों को और घनिष्ठ बनाने के लिए भारत ने रूस के साथ 1971 में एक महत्त्वपूर्ण सन्धि की। इस सन्धि के कारण आलोचकों ने भारत की विदेश नीति पर यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि भारत की विदेश नीति गुट-निरपेक्ष नहीं रही है, परन्तु यह आरोप सही नहीं है।

गुट-निरपेक्षता का अर्थ यह नहीं है कि भारत अन्य देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता। भूतपूर्व जनता सरकार ने मार्च, 1977 में सत्ता में आने पर गुट-निरपेक्षता की नीति पर बल दिया। जनता पार्टी ने यह घोषणा की थी कि जिस गुट-निरपेक्षता को श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा महत्त्व दिया गया था अब उसे पूर्ण रूप से लागू किया जाएगा। सातवां गुट-निरपेक्ष सम्मेलन मार्च, 1983 में दिल्ली में हुआ। भारत ने 7 मार्च, 1983 को गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का नेतृत्व सम्भाल लिया जबकि तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालते हुए सभी देशों से विश्व शान्ति, पूर्ण-नि:शस्त्रीकरण और नई आर्थिक व्यवस्था के लिए अभियान और ज्यादा तेज़ करने का आह्वान किया। इन्दिरा गांधी के पश्चात् श्री राजीव गांधी ने, वी० पी० सिंह ने, चन्द्रशेखर, पी० वी० नरसिम्हा राव, एच० डी० देवेगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, डा० मनमोहन सिंह और श्री नरेन्द्र मोदी ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया।

2. विश्व शान्ति और सुरक्षा की नीति (Policy of World Peace and Security)-भारत की विदेश नीति का सिद्धान्त, विश्वशान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना है। भारत अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने के पक्ष में है। इसके लिए भारत आपसी बातचीत द्वारा या मध्यस्थता के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने के पक्ष में है। भारत ने सदैव विश्वशान्ति की स्थापना और सुरक्षा की नीति ही अपनाई है। यद्यपि पाकिस्तान ने भारत पर कई बार आक्रमण किया है तब भी भारत ने आपसी बातचीत के द्वारा पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने की कोशिश की है। 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारत का काफ़ी क्षेत्र अपने अधीन कर लिया तब भी भारत-चीन के साथ सम्बन्ध सुधारने के लिए प्रयास कर रहा है।

3. साम्राज्यवादियों तथा उपनिवेशियों का विरोध (Opposition of Imperialists and Colonialists)भारत स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शिकार रहा है जिस कारण भारत ने सदैव साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध किया है। भारत साम्राज्यवाद को विश्वशान्ति का शत्रु मानता है और साम्राज्यवाद युद्ध को जन्म देता है। इसलिए भारत के नेताओं ने समय-समय पर दूसरे देशों में जाकर व संयुक्त राष्ट्र में भाषण देकर दूसरे देशों की समस्याओं को सुलझाने के साथ-साथ गुलाम देशों को साम्राज्यवाद से मुक्त करवाने का प्रयत्न किया है। भारत ने सभी गुलाम देशों में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थन किया है और जब भी साम्राज्यवाद ने अपने पैर जमाने का प्रयास किया है तभी भारत ने उसका विरोध किया है। उदाहरण के लिए, द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् जब हालैण्ड ने इण्डोनेशिया पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहा तो भारत ने उसका विरोध किया। इसीलिए भारत ने एशिया तथा अफ्रीका के देशों को संगठित किया और संयुक्त राष्ट्र में इण्डोनेशिया की स्वतन्त्रता का प्रश्न उठाया। सच्चाई यह है कि इण्डोनेशिया को स्वतन्त्र करवाने में भारत ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

1956 में जब इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने मिल कर स्वेज नहर पर कब्जा करने के लिए हमला किया तब भारत ने मिस्र (Egypt) का साथ दिया और इंग्लैण्ड तथा फ्रांस को आक्रमणकारी घोषित किया। इसी प्रकार भारत ने मलाया, अल्जीरिया, कांगो, मोराक्को आदि देशों को स्वतन्त्र करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्यूबा (Cuba) पर अपना अधिकार जमाने का प्रयास किया तब भारत ने इसका विरोध किया। भारत की भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कई बार संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को सम्बोधित करते हुए उपनिवेशवाद को पूरी तरह समाप्त करने की अपील की। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने उपनिवेशवाद को पूरी तरह समाप्त करने की अपील की।

भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने उपनिवेशवाद विरोधी नीति को बुलन्द किया है। सितम्बर, 1986 में भारत के विदेश मन्त्री शिवशंकर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में नामीबिया को दक्षिण अफ्रीका से मुक्त कराने के लिए एक दस सूत्रीय कार्यवाही योजना का प्रस्ताव रखा। दिसम्बर, 1989 में भारत ने पनामा में अमरीकी सैनिक हस्तक्षेप की निन्दा करते हुए मांग की कि वहां से अपनी सेनाएं तुरन्त वापस बुलाए।

4. जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध (Opposed to the Policy of Caste, Colour and Discriminations etc.)-भारत की विदेश नीति का एक अन्य मूल सिद्धान्त यह है कि भारत ने जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध सदैव आवाज़ उठाई है। भारत शुरू से ही जाति-पाति के बन्धन को समाप्त करने के पक्ष में रहा है और उसने अपनी विदेश नीति द्वारा समय-समय पर ऐसे प्रयत्न किए हैं जिनसे वह इस नीति को विश्व से समाप्त कर सके। अमेरिका में नीग्रो तथा दक्षिणी अफ्रीका में काले लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जा रहा। भारत ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार का विरोध किया है और इसी तरह रोडेशिया (जिम्बाब्वे) में भारत गोरे लोगों के शासन को समाप्त करवाने के पक्ष में रहा है। राजीव गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और विश्व नेताओं से अपनी बातचीत में दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति की कड़ी आलोचना की है।

राजीव गांधी ने रंगभेद की नीति को मानवता के नाम पर कलंक बताते हुए कहा है कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को समाप्त करने के लिए विश्व समुदाय तत्काल व्यापक व सम्बद्ध कार्यक्रम प्रारम्भ करे। राजीव गांधी के मतानुसार रंगभेद को समाप्त करने का सबसे प्रभावी तरीका दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के खिलाफ व्यापक और अनिवार्य आर्थिक प्रतिबन्ध लगाना है। श्री राजीव गांधी ने विश्व समुदाय का आह्वान किया कि प्रिटोरिया शासन का समर्थन करने वाली एक मात्र आधा दर्जन सरकारों को पीछे धकेल कर दक्षिणी अफ्रीका के विरुद्ध कठोर कदम उठाए और उसे मज़बूर करे कि वह अश्वेतों से बातचीत करें और रंगभेद की नीति समाप्त करें। जाति, रंग व भेदभाव को खत्म करने के लिए 27 अप्रैल, 1994 को दक्षिणी अफ्रीका में बहु-जातीय चुनाव हुए।

5. अन्य देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध (Friendly relations with other States)-भारत की विदेश नीति की एक अन्य विशेषता यह है कि भारत विश्व के अन्य देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए सदैव तैयार रहता है। भारत ने न केवल मित्रतापूर्ण सम्बन्ध एशिया के देशों से ही बढ़ाए हैं बल्कि उसने विश्व के अन्य देशों से भी अपने सम्बन्ध बढ़ाए हैं। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कई बार स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि भारत सभी देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। 11 फरवरी, 1981 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने निर्गुट राष्ट्रों के विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि हमने उपनिवेशवाद से मुक्ति पाई है और अब सभी देशों को मित्र बनाने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। हमें अन्यों की सुरक्षा की छतरी नहीं चाहिए, हम तो सभी देशों को मित्र बनाना चाहते हैं।

श्रीमती गांधी ने कहा जहां मैत्री है हम उसे मज़बूत करना चाहते हैं, जहां उदासीनता है वहां सद्भाव और रुचि पैदा करने का प्रयत्न और जहां शत्रुता है वहां हम उसे कम करने की कोशिश कर रहे हैं। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कई बार स्पष्ट घोषणा की कि भारत सभी देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। वी० पी० सिंह और पी० वी० नरसिम्हा राव की सरकार ने अन्य देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रयास किए। निःसन्देह भारत सरकार ने अपने पड़ोसी देशों के साथ ही बड़ी शक्तियों के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम करने के लिए कुछ भी कसर नहीं उठा रखी है। वर्तमान समय में श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार भी अन्य देशों से मित्रता के सम्बन्ध कायम करने के प्रयत्न कर रही है।

6. एशियाई अफ्रीकी देशों का संगठन (Unity of Afro-Asian Countries)-भारत ने पारस्परिक आर्थिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों को मज़बूत बनाने के लिए एशिया तथा अफ्रीका के देशों को संगठित करने का प्रयास किया है। भारत का विचार है कि ये देश संगठित होकर उपनिवेशवाद का अच्छी तरह से विरोध कर सकेंगे तथा अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों की स्वतन्त्रता के लिए वातावरण उत्पन्न कर सकेंगे। इसके अतिरिक्ति एशिया तथा अफ्रीकी देशों का संगठन होना इसलिए भी आवश्यक है ताकि वे अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकें। साम्राज्यवादी देश अथवा विकसित देश यह समझते हैं कि एशिया तथा अफ्रीका के अविकसित देश आर्थिक तथा तकनीकी सहायता के लिए उन पर निर्भर रहेंगे और वे इस प्रकार उन पर अपना प्रभुत्व जमा सकेंगे।

परन्तु भारत ने अच्छी तरह समझ लिया कि इन देशों के लिए सबसे बड़ा खतरा नव उपनिवेशवाद (NeoColonialism) है। इन देशों की मुख्य समस्या राष्ट्र निर्माण है। राष्ट्र निर्माण के दो पहलू हैं-आर्थिक और राजनीतिक। आर्थिक क्षेत्र में इन देशों को मुख्य शक्तियां सहायता देकर उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता को समाप्त करने के लिए तैयार बैठी थीं। अतः यह डर था कि कहीं से अविकसित देश आर्थिक सहायता के बदले महान् शक्तियों से अपनी स्वतन्त्रता का सौदा न कर बैठें। इस स्थिति के भयंकर परिणाम हो सकते हैं।

अतः भारत ने अपने हितों और अन्य देशों के हितों को देखते हुए एशिया-अफ्रीका के देशों को संगठित किया ताकि ये देश किसी गुट में सम्मिलित न हों और स्वतन्त्रता के मूल्य को समझें। भारत ने इन देशों को गुट-निरपेक्षता का रास्ता दिखाया तथा अनेक देशों ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया और इस प्रकार गुट-निरपेक्ष दोनों का एक गुट बन गया। – इस दिशा में भारत ने 1947 में ही काम करना आरम्भ कर दिया था। 1947 में दिल्ली में एशियाई देशों का सम्मेलन हुआ जिसमें एशिया के देशों के लगभग सभी राष्ट्रवादी नेता सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन में उपनिवेशवाद को एशिया में से समाप्त करने का प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रकार एशिया के देशों का संगठन दिल्ली में आरम्भ हुआ।

18 अप्रैल, 1995 में बांडुंग सम्मेलन हुआ। जिसमें 29 देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में उपनिवेशवाद की निन्दा की गई और पंचशील सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया। भारत के प्रधानमन्त्री पं० नेहरू संयुक्त अरब गणराज्य (United Arab Republic) के कर्नल नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने दिल्ली में एक सम्मेलन किया और एशिया तथा अफ्रीका के देशों को संगठित करने पर विचार किया। इस प्रकार भारत ने एशिया और अफ्रीका के देशों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मई, 1994 को दक्षिणी अफ्रीका गुट निरपेक्ष देशों के समूह में शामिल हो गया।

7. संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों को महत्त्व देना (Importance to Principles of United Nations)-भारत की विदेश नीति में संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों को भी महत्त्व दिया गया है और भारत द्वारा सदा से ही यह प्रयास किया गया है कि वह विश्वशान्ति स्थापित करने के लिए युद्धों को रोके। भारत ने सदैव संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों का पालन किया है और कभी किसी देश पर हमला नहीं किया है।

1947 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया तब भारत ने शीघ्र ही इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया। इसी तरह 1965 और 1977 में भारत-पाकिस्तान युद्ध होने पर भारत ने संयुक्त राष्ट्र की अपील पर तुरन्त युद्ध बन्द कर दिया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया है और संयुक्त राष्ट्र के साथ पूरा सहयोग दिया है। भारत 7 बार सुरक्षा परिषद् का अस्थायी सदस्य रह चुका है। भारत के डॉ० नगेन्द्र सिंह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश तथा मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। 1989 में न्यायमूर्ति आर० एस० पाठक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश बने। भारत संयुक्त राष्ट्र की 18 सदस्यीय निःशस्त्रीकरण समिति का सदस्य है। भारत ने समय-समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शान्ति की स्थापना के लिए की गई कार्यवाहियों का न केवल समर्थन किया है बल्कि सहयोग भी दिया है।

8. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत तटस्थ नहीं है (India is not neutral in International Politics)यद्यपि भारत की विदेश नीति का मुख्य आधार गुट-निरपेक्षता है, परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भारत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बिल्कुल भाग नहीं लेता। भारत किसी गुट में शामिल न होने के कारण ठीक को ठीक तथा गलत को गलत कहने वाली नीति अपनाता है। पं० नेहरू के ये शब्द आज भी सजीव हैं-“जहां स्वतन्त्रता के लिए खतरा उपस्थित हो, आपको धमकी दी जाती हो तथा जहां आक्रमण होता हो, वहां न तो हम तटस्थ रह सकते हैं और न ही तटस्थ रहेंगे।”
भारत न तो रूस का पक्षपात करता है और न ही अमेरिका का। यही कारण है कि जब कोरिया का युद्ध हुआ तो भारत ने अन्य गुट-निरपेक्ष देशों की भान्ति सोवियत संघ को दोषी ठहराया और वियतनाम के युद्ध में अमेरिका को ज़िम्मेदार ठहराया।

9. राष्ट्रमण्डल की सदस्यता (Membership of Commonwealth of Nations)-भारत की विदेश नीति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता राष्ट्रमण्डल की सदस्यता है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब कुछ नेताओं का विचार था कि भारत को राष्ट्रमण्डल का सदस्य नहीं रहना चाहिए क्योंकि इसकी सदस्यता भारत की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध है। परन्तु भारत का राष्ट्रमण्डल का सदस्य बनने में ही हित था और राष्ट्रमण्डल की सदस्यता की भारत की स्वाधीनता में बाधा नहीं है। राष्ट्रमण्डल स्वतन्त्र राष्ट्रों का एक स्वैच्छिक समुदाय है जो आपसी सहयोग तथा सफलता द्वारा अपनी आम समस्याओं को हल करने का प्रयत्न करते हैं। राष्ट्रमण्डल की सदस्यता ने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अधिक प्रभावशाली भूमिका निभाने के योग्य बनाया है। राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुई है।

10. निःशस्त्रीकरण का समर्थन (Support of Disarmament)-भारत की विदेश नीति का महत्त्वपूर्ण पहलू निःशस्त्रीकरण का समर्थन है। भारत ने सदा ही निःशस्त्रीकरण का समर्थन किया। भारत का अटल विश्वास है कि शस्त्रों की होड़ में स्थायी विश्व शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कई बार यह कहा था कि शस्त्रीकरण की होड़ से विश्व शान्ति को खतरा पैदा हो गया है और इस बात पर जोर दिया है कि निःशस्त्रीकरण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में भारत ने सम्पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के लिए कई बार प्रस्ताव पेश किए हैं। अक्तूबर, 1987 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यह प्रस्ताव रखा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा परमाणु हथियार वाले सभी देशों को इन हथियारों का प्रसार रोकने के लिए सहमत कराए और साथ ही इन हथियारों का उत्पादन पूरी तरह रोकना चाहिए तथा हथियारों को बनाने के लिए काम में आने वाले विस्फोटक पदार्थ के उत्पादन में भी पूरी तरह कटौती करनी चाहिए।

11. भारत की परमाणु नीति (Atomic Policy of India)-भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू इसकी परमाणु नीति है। हालांकि स्वतन्त्रता के एक लम्बे समय तक भारत परमाणु सामग्री में अधिक सम्पन्न नहीं था, लेकिन फिर भी उसकी परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट थी। 1974 और 1998 में किए गए परमाणु विस्फोटों ने भारत की परमाणु क्षमता से विश्व को अवगत करा दिया है। अब भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है। इन्दिरा गांधी से लेकर वर्तमान सरकारों तक सभी का भारत की परमाणु नीति के विषय में एक स्पष्ट दृष्टिकोण रहा है। भारत परमाणु शक्ति का शांतिपूर्ण उपायों के प्रयोग करने का समर्थक रहा है। भारत हमेशा निःशस्त्रीकरण का समर्थक रहा है और विश्व में परमाणु अस्त्रों की होड़ की कड़ी आलोचना करता है। इतना ही नहीं भारत सरकार का यह भी कहना है कि वह आक्रमण के समय परमाणु हथियार गिराने की पहल नहीं करेगी।

भारत एक निश्चित समय-सीमा के अन्तर्गत विश्व से सभी परमाणु अस्त्रों की समाप्ति चाहता है। भारत परमाणु शक्ति के विषय में किसी भी भेदभावपूर्ण संधि को स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि उसने 1968 में परमाणु सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए। वर्तमान में भी भारत ने ‘व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि’ (सी० टी० बी० टी०) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं क्योंकि यह सन्धि भी भेदभावपूर्ण है। आज भारत की परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट है कि उसने परमाणु बम बनाने के सभी विकल्प खुले रखे हुए हैं।

12. पंचशील (Panchsheel)-भारत की विदेश नीति का एक और महत्त्वपूर्ण भाग है पंचशील, जो भारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह सिद्धान्त 1954 में बड़ा लोकप्रिय हुआ जब भारत और चीन के बीच तिब्बत प्रश्न पर सन्धि हुई। राज्यों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने के लिए पांच सिद्धान्तों की रचना की गई, जिसे पंचशील के नाम से पुकारा जाता है। भारत द्वारा जब भी कोई निर्णय अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर लिया जाता है तो वह इन पांच सिद्धान्तों को सामने रख कर लेता है। भारत ने सदैव प्रयास किया है कि इन पांच सिद्धान्तों को अन्य देश भी स्वीकार करें। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रों को एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए।
  • किसी राष्ट्र को दूसरे पर आक्रमण नहीं करना चाहिए।
  • कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे।
  • विश्व के सभी देश एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें चाहे वह अमीर हों या गरीब, कम क्षेत्र वाले हों या अधिक क्षेत्र वाले, छोटे हों या बड़े।
  • शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व अर्थात् सभी राष्ट्र एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर शान्तिपूर्वक रहें।

अप्रैल, 1955 में बांडुंग सम्मेलन हुआ जिसमें विश्व के सभी गुट-निरपेक्ष देशों ने भाग लिया और भारत ने भी भाग लिया, जिसके दौरान पंचशील सिद्धान्तों में पांच और सिद्धान्त जोड़ दिए गए

  • मानवीय मौलिक अधिकारों का सम्मान करना।
  • अकेले अथवा सामूहिक ढंग से आत्म-सुरक्षा करना अर्थात् यदि कोई देश भारत पर आक्रमण कर देता है तो वह चुपचाप न बैठ कर आक्रमणकारी का मुकाबला करेगा। परन्तु स्वयं युद्ध के लिए कभी पहल नहीं करेगा। 1962 में चीन आक्रमण, 1965 में पाकिस्तान तथा 1971 में बंगला देश की समस्या को लेकर पाकिस्तान के साथ युद्ध में भारत ने डट कर मुकाबला किया।
  • भारत जितने भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के समझौते या सन्धियां करेगा वह आत्म-निर्भर हो कर करेगा न किसी दबाव में आकर करेगा।
  • विभिन्न देशों के साथ होने वाले झगड़ों को भारत शान्तिपूर्वक निपटाएगा।

13. क्षेत्रीय सहयोग (Regional Co-operation)-भारत का सदा ही क्षेत्रीय सहयोग में विश्वास रहा है। भारत ने क्षेत्रीय सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए 1985 में क्षेत्रीय सहयोग के लिए दक्षिण-एशियाई संघ (South Asian Association of Regional Co-operation) की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसे संक्षेप में ‘सार्क’ (SAARC) कहा जाता है। इस संघ में भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, भूटान, नेपाल, अफगानिस्तान तथा मालद्वीप भी शामिल हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

प्रश्न 3.
परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण में भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति की प्रासंगिकता की व्याख्या करें।
(Discuss the Relevance of India’s Policy of Non-alignment in changing International Scenario.)
उत्तर-
शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् फरवरी, 1992 में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन में मिस्र ने कहा था कि सोवियत संघ के विघटन, सोवियत गुट तथा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। अत: इसे समाप्त कर देना चाहिए। परन्तु न तो यह कहना उचित होगा कि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया और न ही यह कि इसे समाप्त कर देना चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का औचित्य निम्नलिखित रूप से देखा जा सकता है-

  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
  • निशस्त्रीकरण, विश्व शान्ति एवं मानवाधिकारों का सुरक्षा के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आज भी प्रासंगिक
  • नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ को अमेरिका के प्रभुत्व से मुक्त करवाने के लिए भी इसका औचित्य है।
  • उन्नत एवं विकासशील देशों में सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।
  • अशिक्षा बेरोजगारी, आर्थिक समानता जैसी समस्याओं के समूल नाश के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का लोकतांत्रिक स्वरूप इसकी सार्थकता को प्रकट करता है।
  • गुट-निरपेक्ष देशों की एकजुटता ही इन देशों के हितों की रक्षा कर सकती है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में लगातार बढ़ती सदस्य संख्या इसके महत्त्व एवं प्रासंगिकता को दर्शाती है। आज गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या 25 से बढ़कर 120 हो गई है अगर आज इस आन्दोलन का कोई औचित्य नहीं रह गया है या कोई देश इसे समाप्त करने की मांग कर रहा है तो फिर इसकी सदस्य संख्या बढ़ क्यों रही है। इसकी बढ़ रही सदस्य संख्या इसकी सार्थकता, महत्त्व एवं इसकी ज़रूरत को दर्शाती है।
  • गुट-निरपेक्ष देशों का आज भी इस आन्दोलन के सिद्धान्तों में विश्वास एवं इसके प्रति निष्ठा इसके महत्त्व को बनाए गए हैं।
    अत: यह कहना कि वर्तमान एक ध्रुवीय विश्व में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया है, उचित नहीं लगता।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
विदेश नीति से क्या भाव है ?
अथवा
विदेश नीति से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विदेश नीति उन सिद्धान्तों और साधनों का एक समूह है जो राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय हितों को परिभाषित करने, अपने उद्देश्यों को सही बताने और उनको प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं। विभिन्न राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को अपने व्यवहार के अनुसार बनाने के लिए विदेश नीति का प्रयोग करता है।
डॉ० महेन्द्र कुमार के शब्दों में, “विदेश नीति कार्यों की सोची समझी क्रिया दिशा है जिससे राष्ट्रीय हित की विचारधारा के अनुसार विदेशी सम्बन्धों में उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है।”
रुथना स्वामी के शब्दों में, “विदेश नीति ऐसे सिद्धान्तों और व्यवहार का समूह है जिनके द्वारा राज्य के अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों को नियमित,किया जाता है।”

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प्रश्न 2.
गुट-निरपेक्षता का क्या अर्थ है ?
अथवा
भारत की गुट-निरपेक्ष विदेश नीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी शक्ति गुट में शामिल न होना और शक्तिशाली गुटों के सैनिक बन्धनों व अन्य सन्धियों से दूर रहना। पण्डित नेहरू ने कहा था, “जहां तक सम्भव होगा हम उन शक्ति गुटों से अलग रहना चाहते हैं जिनके कारण पहले भी महायुद्ध हुए हैं और भविष्य में भी हो सकते हैं।” गुट-निरपेक्षता का यह भी अर्थ है कि देश अपनी नीति का निर्माण स्वतन्त्रता से करेगा न कि किसी गुट के दबाव में आकर । गुंट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तटस्थता नहीं है बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना है। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि गुट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उदासीनता नहीं है। स्वर्गीय प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी के अनुसार, “गुट-निरपेक्षता में न तो तटस्थता है और न ही समस्याओं के प्रति उदासीनता। इसमें सिद्धान्त के आधार पर सक्रिय और स्वतन्त्र रूप से निर्णय करने की भावना निहित है।” भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति एक सकारात्मक नीति है, केवल नकारात्मक नहीं है।

प्रश्न 3.
भारतीय विदेश नीति की तीन विशेषताएं बताइए।
अथवा
भारत की विदेश नीति के कोई चार मूल सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर-
भारत की विदेश नीति की मुख्य विशेषताएं या सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • गुट-निरपेक्षता–भारत की विदेश नीति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुट-निरपेक्षता है।
  • विश्व शान्ति और सुरक्षा की नीति-भारत की विदेश नीति का आधारभूत सिद्धान्त विश्व शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना है। भारत अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने के पक्ष में है। भारत ने सदैव विश्व शान्ति की स्थापना और सुरक्षा की नीति अपनाई है।
  • साम्राज्यवादियों तथा उपनिवेशों का विरोध-भारत स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शिकार रहा है जिसके कारण भारत ने सदैव साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध किया है। भारत साम्राज्यवाद को विश्व शान्ति का शत्रु मानता है और साम्राज्यवाद युद्ध को जन्म देता है।
  • भारत ने सदैव ही जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध विश्व में आवाज़ उठाई है।

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प्रश्न 4.
पंचशील क्या है ? भारतीय पंचशील के सिद्धान्त बताएं।
अथवा
पंचशील से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
पंचशील भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। पंचशील भारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह सिद्धान्त 1954 में बड़ा लोकप्रिय हुआ जब भारत और चीन के बीच तिब्बत के प्रश्न पर सन्धि हुई। दोनों राज्यों के बीच मैत्री के सम्बन्ध बनाए रखने के लिए पांच सिद्धान्तों की रचना की गई, जिन्हें पंचशील के नाम से पुकारा जाता है। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्र को एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए।
  • किसी राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं करना चाहिए।
  • विश्व के सभी देश एक-दूसरे के समान माने जाएं तथा सहयोग करें चाहे वे अमीर हों या ग़रीब, कम क्षेत्र वाले हों या बड़े क्षेत्र वाले, छोटे हों या बड़े।
  • कोई भी राष्ट्र दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे।
  • शान्तिपूर्ण सह-अस्तुित्व अर्थात् सभी राष्ट्र एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहें।

प्रश्न 5.
भारतीय विदेश नीति के मुख्य निर्धारक तत्त्वों का वर्णन करें।
अथवा
भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने वाले किन्हीं चार तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने में अनेक तत्त्वों ने सहयोग दिया है जिसमें मुख्य निम्नलिखित हैं.

  • संवैधानिक आधार–भारत के संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, बताया गया है। अनुच्छेद 51 के अनुसार भारत सरकार को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को बढ़ावा देना चाहिए तथा दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाने चाहिए।
  • राष्ट्रीय हित-विदेशी नीति के निर्माण में राष्ट्रीय हित ने सर्वाधिक भूमिका निभाई है। भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपने हितों की रक्षा के लिए अपनाई है। भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रमण्डल का सदस्य और संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनना स्वीकार किया है।
  • आर्थिक तत्त्व-भारत की विदेश नीति के निर्धारण में आर्थिक तत्त्व ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • राष्ट्रीय हित-भारतीय विदेश नीति का एक अन्य निर्धारक तत्व राष्ट्रीय हित है।

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प्रश्न 6.
भारत की परमाणु नीति क्या है ?
अथवा
भारत की परमाणु नीति का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र है और वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी विदेश नीति का संचालन करता है। भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उसकी परमाणु नीति (Atomic Policy) है। हालांकि स्वतन्त्रता के एक लम्बे समय तक भारत परमाणु सामग्री में अधिक सम्पन्न नहीं था लेकिन फिर भी उसकी परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट थी। 1974 और 1998 में किए गए परमाणु विस्फोटों ने भारत की परमाणु क्षमता से विश्व को अवगत करा दिया है। अब भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है। इन्दिरा गान्धी से लेकर वर्तमान सरकारों तक सभी का भारत की परमाणु नीति के विषय में एक स्पष्ट दृष्टिकोण रहा है। भारत परमाणु शक्ति का शान्तिपूर्ण उपायों के लिए प्रयोग करने का समर्थक रहा है। भारत हमेशा निःशस्त्रीकरण का समर्थक रहा है और विश्व में परमाणु अस्त्रों की होड़ की कड़ी आलोचना करता है। इतना ही नहीं भारत सरकार का यह भी कहना है कि वह आक्रमण के समय परमाणु बम गिराने की पहल नहीं करेगी।

प्रश्न 7.
भारत की अपने पड़ोसी देशों के प्रति क्या नीति है ?
उत्तर-
भारत सदैव ही पड़ोसी देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध चाहता है। भारत का मानना है कि बिना मित्रतापूर्ण सम्बन्ध के कोई भी देश सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विकास नहीं कर सकता। इसलिए भारत ने पाकिस्तान, चीन, बंग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल एवं भूटान आदि पड़ोसी देशों से सम्बन्ध मधुर बनाये रखने के लिए समय-समय पर कई कदम उठाये हैं। उन्हीं महत्त्वपूर्ण कदमों में एक कदम सार्क की स्थापना है। इससे न केवल भारत के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध ही मधुर होंगे, बल्कि दक्षिण एशिया और अधिक विकास कर सकेगा। भारत की नीति यह है कि पड़ोसी देशों के साथ जो भी मतभेद हैं, उन्हें युद्ध से नहीं, बल्कि बातचीत द्वारा हल किया जाना चाहिए।

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प्रश्न 8.
इसका क्या भाव है कि भारत उपनिवेशवाद और नस्लवाद का विरोधी है ?
अथवा
भारत की नस्लवाद के प्रति क्या नीति है?
उत्तर-
भारत ने सदैव ही उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद का विरोध किया है। भारत स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शिकार रहा है जिस कारण भारत ने सदैव साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध किया है। भारत उपनिवेशवाद को विश्व-शान्ति का शत्रु मानता है इसलिए भारत के नेताओं ने समय-समय पर दूसरे देशों में जाकर व संयुक्त राष्ट्र में भाषण देकर दूसरे देशों की समस्याओं को सुलझाने के साथ-साथ गुलाम देशों को उपनिवेशवाद से मुक्त करवाने का प्रयत्न किया है।

भारत की विदेश नीति का एक अन्य मूल सिद्धान्त यह है कि भारत ने जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध सदैव आवाज़ उठाई है। भारत शुरू से ही जाति-पाति के बन्धन को समाप्त करने के पक्ष में रहा है और उसने अपनी विदेश नीति द्वारा समय-समय पर ऐसे प्रयत्न किए हैं जिनसे वह इस नीति को विश्व से समाप्त कर सके। अमेरिका में नीग्रो तथा दक्षिणी अफ्रीका में काले लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जा रहा। भारत ने दक्षिणी अफ्रीका की सरकार का विरोध किया और इसी तरह रोडेशिया (जिम्बाब्बे) में भारत गोरे लोगों के शासन को समाप्त करवाने के पक्ष में रहा।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
गुट-निरपेक्षता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी शक्ति गुट में शामिल न होना और शक्तिशाली गुटों के सैनिक बन्धनों व अन्य सन्धियों से दूर रहना। गुट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तटस्थता नहीं है बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना है। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि गुटनिरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उदासीनता नहीं है।

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प्रश्न 2.
भारत की विदेश नीति की दो विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • गुट-निरपेक्षता–भारत की विदेश नीति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुट-निरपेक्षता है। गुटनिरपेक्षता का अर्थ है किसी गुट में शामिल न होना और स्वतन्त्र नीति का अनुसरण करना। भारत सरकार ने सदा ही गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया है।
  • विश्व-शान्ति और सुरक्षा की नीति-भारत की विदेश नीति का आधारभूत सिद्धान्त विश्व-शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना है। ..

प्रश्न 3.
पंचशील से आपका क्या भाव है?
उत्तर-
पंचशील भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। पंचशील भारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह सिद्धान्त 1954 में बड़ा लोकप्रिय हुआ जब भारत और चीन के बीच तिब्बत के प्रश्न पर सन्धि हुई। दोनों राज्यों के बीच मैत्री के सम्बन्ध बनाए रखने के लिए पांच सिद्धान्तों की रचना की गई, जिन्हें पंचशील के नाम से पुकारा जाता है।

प्रश्न 4.
पंचशील के कोई दो सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  1. राष्ट्र को एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए।
  2. किसी राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं करना चाहिए।

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प्रश्न 5.
भारतीय विदेश नीति के मुख्य निर्धारक तत्त्वों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. संवैधानिक आधार-भारत के संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, बताया गया है।
  2. राष्ट्रीय हित-विदेश नीति के निर्माण में राष्ट्रीय हित ने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपने हितों की रक्षा के लिए अपनाई है।

प्रश्न 6.
विदेश नीति से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विदेश नीति उन सिद्धान्तों और साधनों का एक समूह है जो राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को परिभाषित करे, अपने उद्देश्यों को सही बताए और उनको प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं। विभिन्न राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को अपने व्यवहार के अनुसार बनाने के लिए विदेश नीति का प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 7.
भारत की परमाणु नीति क्या है?
उत्तर-
भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उसकी परमाणु नीति (Atomic Policy) है। हालांकि स्वतन्त्रता के एक लम्बे समय तक भारत परमाण सामग्री में अधिक सम्पन्न नहीं था, लेकिन फिर भी उसकी परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट थी 1974 और 1998 में किए गए परमाणु विस्फोटों ने भारत की परमाणु क्षमता से विश्व को अवगत करा दिया है। भारत परमाणु शक्ति का शान्तिपूर्ण उपायों के लिए प्रयोग करने का समर्थक रहा है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
विदेश नीति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
विदेश नीति उन नियमों और सिद्धान्तों का समूह है जिनके माध्यम से एक देश दूसरे देश के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है।

प्रश्न 2.
भारत की विदेश नीति का निर्माता किसे माना जाता है ?
उत्तर-
पण्डित जवाहर लाल नेहरू।

प्रश्न 3.
भारत की विदेश नीति के कोई दो आधारभूत सिद्धान्त लिखो। .
उत्तर-

  1. गुट-निरपेक्षता
  2. पंचशील।

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प्रश्न 4.
भारतीय विदेश नीति के कोई दो निर्धारक तत्त्व बताओ।
उत्तर-

  1. भारत की भौगोलिक स्थिति
  2. भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास।

प्रश्न 5.
पंचशील से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
पंचशील उन पांच सिद्धान्तों का समूह है जिनका वर्णन 1954 में भारत और चीन के बीच हुए एक समझौते की प्रस्तावना में किया गया था।

प्रश्न 6.
पंचशील के दो मुख्य सिद्धान्त क्या हैं ?
उत्तर-

  1. एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता और प्रभुसत्ता का परस्पर सम्मान।
  2. किसी राष्ट्र को दूसरे पर आक्रमण नही करना चाहिए।

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प्रश्न 7.
भारत की अपने पड़ोसी देशों के प्रति क्या नीति है ?
उत्तर-
भारत ने अपने पड़ोसियों के प्रति मित्रता एवं सहयोग की नीति अपनाई है।

प्रश्न 8.
भारत के विश्व के देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का कोई एक सिद्धान्त बताइए।
उत्तर-
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा।

प्रश्न 9.
क्या भारत पंचशील के सिद्धान्तों में विश्वास रखता है ?
उत्तर-
हाँ, भारत पंचशील के सिद्धान्तों में विश्वास रखता है।

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प्रश्न 10.
किस भारतीय प्रधानमन्त्री को पंचशील सिद्धान्तों का प्रतिपादक माना जाता है ?
उत्तर-
पं० जवाहर लाल नेहरू को।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत को …………… को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई।
2. भारतीय …………… की महत्त्वपूर्ण विशेषता गुट-निरपेक्षता है।
3. भारतीय विदेश नीति के निर्माता …………… हैं।
4. बाडुंग सम्मेलन सन् ………… में हुआ।
5. भारत ने सदैव ही रंगभेद एवं साम्राज्यवाद का ………….. किया है।
उत्तर-

  1. 15 अगस्त, 1947
  2. विदेश नीति
  3. पं० जवाहर लाल नेहरू
  4. 1955
  5. विरोध।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही या ग़लत का चुनाव करें

1. भारत एक शांतिप्रिय देश है।
2. भारत एक साम्राज्यवादी देश है।
3. भारत एक उपनिवेशवादी देश है।
4. आर्थिक तत्त्व भारतीय विदेश नीति को प्रभावित करते हैं।
5. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भारतीय विदेश नीति को प्रभावित नहीं करती।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा भारतीय विदेश नीति का आंतरिक निर्धारक तत्त्व है ?
(क) संवैधानिक आधार
(ख) भौगोलिक तत्त्व
(ग) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा भारतीय विदेश नीति का बाहरी निर्धारक तत्त्व है?
(क) राष्ट्रीय हित
(ख) अंतर्राष्ट्रीय संगठन
(ग) आर्थिक तत्त्व
(घ) संवैधानिक आधार।
उत्तर-
(ख) अंतर्राष्ट्रीय संगठन

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सी भारतीय विदेश नीति की विशेषता है ?
(क) गुट-निरपेक्षता
(ख) साम्राज्यवादियों का विरोध
(ग) उपनिवेशवादियों का विरोध
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 4.
पंचशील के सिद्धान्तों का प्रतिपादन कब किया गया ?
(क) 1954
(ख) 1956
(ग) 1958
(घ) 1960
उत्तर-
(क) 1954

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा पंचशील का सिद्धान्त है ?
(क) राष्ट्रों को एक-दूसरे की प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए
(ख) एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं करेगा।
(ग) एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के आंतरिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण की परिभाषा लिखो। इसके रास्ते में आने वाली समस्याओं का वर्णन करो।
(Define National Integration. Explain the difficulties faced in the way of National Integration.)
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली तीन रुकावटों का वर्णन करें तथा भारत में एकता बनाए रखने के लिए तीन सुझाव भी दें।
(Explain three obstacles in the way of National Integration and also give any three suggestions to maintain National Integration in India.)
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण की परिभाषा लिखो। भारत में इसकी समस्याओं को हल करने के लिए सुझाव लिखो।
(Define National Integration. Write suggestions to solve the Problems of National Integration in India.)
उत्तर-
किसी भी राज्य की राष्ट्रीय अखण्डता तथा एकता उसके लिए सर्वोपरि होती है। कोई भी राज्य यह सहन नहीं कर सकता है कि उसकी राष्ट्रीय अखण्डता का विनाश हो। राष्ट्रीय अखण्डता राष्ट्रीय एकीकरण पर निर्भर करती है। राष्ट्रीय एकीकरण राज्य की प्रथम आवश्यकता है। राज्य के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के अन्दर रहने वाले विभिन्न लोगों में एकता की भावना हो और यही भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। राष्ट्रीय का सम्बन्ध अनेकता में एकता स्थापित करना है। राष्ट्रीय एकीकरण की भावना द्वारा विभिन्न धर्मों, जातियों व भाषाओं के लोगों में परस्पर मेल-जोल बढ़ा कर एकता का विकास किया जाना है।

भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० एस० राधाकृष्णन (Dr. S Radhakrishnan) के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक घर नहीं है जो चूने और ईंटों से बनाया जा सकता है। यह एक औद्योगिक योजना भी नहीं है जिस पर विशेषज्ञों द्वारा विचार किया जा सकता है और रचनात्मक रूप दिया जा सकता है। इसके विपरीत एकीकरण एक ऐसा विचार है जिसका विकास लोगों के दिलों में होता है। यह एक चेतना है जिससे जनसाधारण को जागृत करना है।” (‘National integration is not a house which could be built by mortar and bricks. It is not an industrial plan. which could be discussed and implemented by experts. Integration, on the contrary, is a thought which must go into the heart of the people. It is the consciousness which must awaken the people at large.”’)

प्रो० माइरन वीनर (Myron Weiner) के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण का अभिप्राय उन विघटनकारी आन्दोलनों पर निगरानी रखना है जो राष्ट्र को खण्डित कर सकते हों और सम्पूर्ण समाज में ऐसी अभिवृत्तियों का होना है जो संकीर्ण हितों की अपेक्षा राष्ट्रीय और सार्वजनिक हितों को प्राथमिकता देती है।”

एच० ए० गन्नी (H.A. Gani) के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक ऐसी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों के दिलों में एकता, दृढ़ता और सम्बद्धता की भावना विकसित होती हो और उनमें सामान्य नागरिकता की भावना अथवा राष्ट्र के प्रति वफ़ादारी की भावना का विकास होता है।” (“National integration is a socio-psychological and educational process through which a feeling of unity, solidarity and cohesion develops in the hearts of people and a sense of common citizenship or feeling of loyality to the nation is fostered among them.”)

भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधाएं (OBSTACLES IN THE WAY OF NATIONAL INTEGRATION IN INDIA)-

जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है कि भारत में अनेक विभिन्नताएं हैं, ये सभी विभिन्नताएं वास्तव में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधाएं बनती हैं। इसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है

1. भाषा (Language)-भारत एक बहुभाषी राज्य है तथा सदैव से ही रहा है, भाषा की समस्या राष्ट्रीय अखण्डता के लिए खतरा बन चुकी है। भाषा को लेकर विभिन्न क्षेत्रों के लोगों में तनाव बढ़ता है। यूं तो हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाया गया है पर अहिन्दी भाषी प्रान्तों में हिन्दी विरोधी आन्दोलनों को जन्म दिया। यही कारण है कि आज भी राजकाज की भाषा अंग्रेज़ी ही चली आ रही है। यद्यपि सरकार ने इसके समाधान के लिए कुछ कदम उठाए हैं जैसा कि त्रि-भाषायी फार्मूला, पर इसको कोई अधिक सफलता नहीं मिल पाई है।

2. क्षेत्रवाद (Regionalism) क्षेत्रवाद या प्रादेशिकता का अर्थ है कि सारे की अपेक्षा किसी एक विशेष क्षेत्र के प्रति निष्ठा रखना। भारत में प्रादेशिकता की यह समस्या अत्यन्त गम्भीर है तथा एक देशव्यापी सिद्धान्त बन गया है। यह राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बन गया है। इसके विकास के तीन प्रमुख कारण हैं। सर्वप्रथम इसका कारण ऐसा औद्योगिक या आर्थिक विकास जिसके कारण साधारण व्यक्ति को बहुत कम लाभ हुआ है। लोगों को बताया गया था कि उनके कष्टों का कारण ब्रिटिश शासन है तथा स्वतन्त्रता के बाद एक खुशहाल तथा सम्पन्न युग का प्रारम्भ होगा, पर ये सभी वायदे झूठे निकले तथा लोगों को सिवाए निराशा, कठिनाइयों व शोषण के कुछ नहीं मिला। दूसरा कारण था कि पिछड़े हुए क्षेत्रों के लोगों ने यह अनुभव करना आरम्भ कर दिया कि कारखाने या उद्योग लगाने में, रोज़गार की सुविधाएं उपलब्ध करवाने में, बांधों-पुलों इत्यादि के निर्माण में तथा केन्द्रीय अनुदान प्रदान करने में उनको अनदेखा किया जा रहा है। तीसरा इसका कारण यह भी रहा कि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं ने शक्ति के लिए नंगा नाच करना प्रारम्भ कर दिया। इसमें वे कभी-कभी क्षेत्रवाद का प्रचार करने से भी न चूकते थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में क्षेत्रीयवाद का काफ़ी बोलबाला है। यह राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा तो है ही साथ-ही-साथ राष्ट्रीयता अखण्डता के लिए सीधा खतरा भी है।

3. साम्प्रदायिकतावाद (Communalism)-अंग्रेजी शासन से पहले भारत में साम्प्रदायिकता देखने को नहीं मिलती थी यद्यपि युद्ध होते थे पर वे राजाओं के बीच थे। जनता में कटुता की भावना न थी। अकबर जैसा सम्राट तो हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थक था। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत में साम्प्रदायिकता फैलाने का कार्य अंग्रेज़ों ने किया उनके द्वारा यहा फूट डालो राज्य करो की नीति अपनाई गई। क्योंकि उन्होंने सत्ता मुसलमानों से छीनी थी इसलिए प्रारम्भ में उन्होंने मुसलमान विरोधी तथा हिन्दू समर्थक नीति को अपनाथा। बाद में जब उन्हें मुसलमानों से कोई डर न रहा तो उनकी नीति मुसलमान समर्थक तथा हिन्दू विरोधी हो गई। उन्होंने साम्प्रदायिकता चुनाव प्रणाली को प्रारम्भ किया। यही साम्प्रदायिकता की आग धीरे-धीरे इतनी बढ़ी कि सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा एक लेखक शायर इकबाल भी पाकिस्तान के नारे लगाने लगा। जिन्नाह ने द्वि-राष्ट्रीय सिद्धान्त को अपनाया। इस प्रकार इसका अन्त अत्यधिक खून-खराबे के बाद भारत विभाजन तथा पाकिस्तान के निर्माण के रूप में हुआ। स्वतन्त्रता के पश्चात् भी यह आग ठण्डी न हुई। जो मुसलमान भारत में रह गए वे अल्प मत में होने के कारण अपने प्रति दुर्व्यवहार की शिकायत करते हैं। हिन्दू-मुसलमानों में तनाव यदा-कदा बढ़ता रहता है तो साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। जिनमें न जाने कितनी जानें चली जाती हैं। कभी कानपुर, कभी मुरादाबाद, कभी मेरठ तो कभी दिल्ली में ये दंगे होते ही रहते हैं। महाराष्ट्र में भी हिन्दू-मुस्लिम फसाद होते रहते हैं। भारत में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के कारण साम्प्रदायिक दंगे-फसाद में वृद्धि हुई जोकि राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद को कार सेवकों ने गिरा दिया जिसके बाद देश के अनेक भागों में भीषण साम्प्रदायिक दंगे फसाद हुए। 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हुए।

4. जातिवाद (Casteism) जातिवाद की समस्या ने भी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पहुंचाई है। इस समस्या के सम्बन्ध में प्रथम राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन में भाषण करते हुए तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने कहा था, “यद्यपि जाति का एक सामाजिक बुराई के रूप में अन्त हो रहा है, तथापि अब उसने एक राजनीतिक और प्रशासकीय बुराई का रूप धारण कर लिया है। हम जाति के प्रति निष्ठाओं को चुनाव जीतने के लिए नौकरियों में अधिक लोगों को रखने के लिए प्रयोग कर रहे हैं।”

श्री जयप्रकाश नारायण ने एक बार कहा था, “भारत में जाति सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल है।” जातीय संगठनों ने भारत की राजनीति में वही हिस्सा लिया है जो पश्चिमी देशों में विभिन्न हितों व वर्गों ने लिया है। चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर किया जाता है और चुनाव प्रचार में जाति पर वोटें मांगी जाती हैं। प्रशासन में भी जातीयता का समावेश हो गया है।

5. ग़रीबी (Poverty)—ग़रीबी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में महत्त्वपूर्ण बाधा है। भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ग़रीबी है। ग़रीब व्यक्ति अपने आपको और अपने परिवार को जीवित रखने के लिए संघर्ष में जुटा रहता है। जब एक ग़रीब व्यक्ति या ग़रीब वर्ग किसी दूसरे व्यक्ति या वर्ग को खुशहाल पाता है तो उसमें निराशा और घृणा की भावना उत्पन्न होती है और राजनीतिज्ञ ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर आन्दोलन करवाते हैं। जो क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं वह आर्थिक विकास के लिए आन्दोलन करते हैं और कई बार अलग राज्य की मांग भी करते हैं।

6. सभी राजनीतिक दल संविधान के मूल मूल्यों पर सहमत नहीं (An the Political Parties do not accept the basic values of Constitution)-सभी राजनीतिक दल संविधान में निहित मूल मूल्यों (Basic Values) पर सहमत नहीं है। विशेषकर साम्यवादी और साम्प्रदायिकतावादी दल संविधान के मूल मूल्यों में विश्वास नहीं रखते। साम्यवादियों ने जब पश्चिमी बंगाल और केरल में सरकारें बनाईं तो उन्होंने सार्वजनिक रूप में घोषणा की थी कि उन्होंने संविधान को तोड़ने के उद्देश्य से सरकारें बनाई हैं। साम्प्रदायिक दल धर्म-निरपेक्षता में विश्वास नहीं रखते जो कि संविधान का आधारभूत सिद्धान्त है।

7. अनपढ़ता (Illiteracy)-भारत की अधिकांश जनता अशिक्षित है, जिसके स्वार्थी नेता अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए आम जनता को आसानी से मनचाहे रास्ते पर ले जाते हैं और अनपढ़ जनता स्वार्थी नेताओं की बातों में आकर आन्दोलन के पथ पर चल पड़ती है। कई बार आन्दोलनकारियों को यह भी पता होता कि उनके आन्दोलन का लक्ष्य क्या है और वे किस ओर जा रहे हैं ? स्वार्थी नेता धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर सीधे-सीधे लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं।

8. समाजवाद की असफलता (Failure of Socialism) प्रो० गोविंदराम वर्मा के मतानुसार समाजवाद की असफलता ने भी राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को पैदा किया है। यदि समाजवाद सफल हो जाता तो आर्थिक विकास का फल सभी को चखने को मिलता। परन्तु अब बेरोज़गारी, पिछड़ापन, गरीबी, आर्थिक असमानता आदि ऐसे ही विघटनकारी आर्थिक तत्त्व हैं जो देश में भावनात्मक एकता पैदा नहीं करने देते, जिससे गम्भीर राजनीतिक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं और देश की राजनीतिक व्यवस्था को भी खतरा पहुंचता है।

9. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली (Defective Educational System) भारत की शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों में चरित्र का निर्माण और अनुशासन कायम करने में सफल नहीं हुई। नैतिक और राष्ट्रीय मूल्यों का विकास नहीं हो रहा। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि अधिकांश शिक्षा संस्थाएं व्यक्तिगत व्यक्तियों तथा संस्थाओं के हाथ में है। भारतीय शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय एकीकरण की भावना विकसित करने में सफल नहीं रही।

10. असन्तुलित क्षेत्रीय विकास (Unbalanced Regional Development)-भारत के सभी क्षेत्रों का एकजैसा विकास नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्रों का बहुत अधिक विकास हुआ है जबकि कुछ क्षेत्र आज भी पिछड़े हुए हैं। पिछड़े हुए क्षेत्रों के लोगों में यह भावना विकसित हो गई है कि सरकार उनके साथ भेदभाव कर रही है और यदि ये अलग हो जाएं तो अपना विकास कर सकेंगे। अतः असन्तुलित क्षेत्रीय विकास राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा है।

11. आन्दोलनों और हिंसा की राजनीति (Politics of Agitations and Violence)-पिछले कुछ वर्षों से भारत की राजनीति में आन्दोलन और हिंसा में वृद्धि हुई है। संविधान शान्तिपूर्वक साधनों द्वारा विरोध प्रकट करने का अधिकार देता है, पर राजनीति में हिंसा की घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। राजनीतिक हत्याओं में बहुत वृद्धि हुई है। चुनावों में कई स्थानों पर मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने के लिए बमों, बन्दूकों, छुरों-भालों आदि का खुलेआम प्रयोग किया जाता है। अतः आन्दोलनों और हिंसा की राजनीति राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक गम्भीर खतरा है।

12. भ्रष्टाचार (Corruption)-भारतीय प्रशासन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता भ्रष्टाचार है और इसने भी राष्ट्रीय एकीकरण में बाधा पहुंचाई है। प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और चारों तरफ भाई-भतीजावाद चल रहा है, जिस कारण जनता का विश्वास प्रशासन के प्रति नहीं रहा। इसके फलस्वरूप दंगे-फसाद होते हैं जो राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधक हैं। हिंसा और अराजकतावाद के वातावरण ने राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को और अधिक गम्भीर बनाया है।

13. सरकार की नीति (Government’s Policy) सरकार की नीति भी राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या के मार्ग में बाधा बनी हुई है। सरकार राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधक तत्त्वों को नष्ट करने में सफल नहीं हुई। यद्यपि कांग्रेसी नेता जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, साम्प्रदायिकता आदि के विरुद्ध आवाज़ उठाते रहते हैं परन्तु व्यवहार में कांग्रेस ने जातिवाद और क्षेत्रीयवाद को बढ़ावा ही दिया है। यह भी कहा जाता है कि सरकार सख्ती से कार्यवाही नहीं करती क्योंकि उसे उन लोगों के मत भी प्राप्त करने होते हैं। कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों के प्रतिसदैव ढीली नीति अपनाई है क्योंकि साधारणत: मुस्लिम वोट कांग्रेस के ही समझे जाते हैं।

14. क्षेत्रीय दल (Regional Parties) क्षेत्रीय दलों में वृद्धि राष्ट्रीय एकीकरण के लिए समस्या है। भारत में राष्ट्रीय दलों के मुकाबले में क्षेत्रीय दलों की संख्या बहुत अधिक है। 2016 में चुनाव आयोग ने 53 राजनीतिक दलों को राज्य स्तर के दलों के रूप में मान्यता प्रदान की। वर्तमान समय में क्षेत्रीय दलों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय हित को महत्त्व न देकर क्षेत्रीय हितों पर जोर देते हैं। क्षेत्रीय दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काते हैं। आजकल कई राज्यों में क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं। क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय हित को हानि पहुंचाते हैं।

15. विदेशी ताकतें (Foreign Powers)-विदेशी ताकतें कुछ वर्षों से भारत में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर रही हैं। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कई बार कहा कि विदेशी ताकतों से भारत की एकता व अखण्डता को खतरा है। पाकिस्तान खुले रूप में पंजाब और जम्मू-कश्मीर के आतंकवादियों को आधुनिक हथियार और वित्तीय सहायता दे रहा है।

16. आतंकवाद (Terrorism)—आतंकवाद पिछले कुछ वर्षों से भारत की एकता व अखण्डता के लिए खतरा बना हुआ है।
राष्ट्रीय एकीकरण की समस्याओं को दूर करने के उपाय-इसके लिए प्रश्न नं० 2 देखें।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

प्रश्न 2.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने के सुझाव दीजिए।
(Give suggestions to remove hindrances which come in the way of National Integration in India.)
उत्तर-
भारत की एकता व अखण्डता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकीकरण अति आवश्यक है। बिना राष्ट्रीय एकीकरण के राष्ट्रीय अखण्डता को कायम नहीं रखा जा सकता। अतः राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए उन बाधाओं को दूर करना आवश्यक है जो राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में रोड़ा अटकाए हुए हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय हैं-

1. आर्थिक विकास (Economic Development)-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए देश का आर्थिक विकास करना अति आवश्यक है। बेरोजगारी को दूर करके, आर्थिक विषमता को कम करके, गरीबी को दूर करके तथा आर्थिक लाभों को न्यायपूर्ण ढंग से वितरित करके ही राष्ट्रीय एकीकरण की सम्भावना को बढ़ाया जा सकता है।

2. राजनीतिक वातावरण में सुधार (Reforms in Political Atmosphere)-राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए देश के राजनीतिक वातावरण में सुधार करने भी ज़रूरी है। आज देश के विभिन्न सम्प्रदायों, जाति क्षेत्र के लोगों में एक-दूसरे के प्रति वांछित विश्वास का अभाव है। इस अविश्वास की स्थिति में राष्ट्रीय एकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः राष्ट्रीय एकीकरण के लिए विभिन्न जातियों सम्प्रदायों एवं क्षेत्रों में विश्वास की भावना उत्पन्न करने के लिए राजनीतिक वातावरण में सुधार होना चाहिए।

3. समुचित शिक्षा व्यवस्था (Proper Education System)-समुचित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है। शिक्षा प्रणाली देश की आवश्यकताओं के अनुकूल होनी चाहिए। शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे साम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद आदि की समस्याओं को हल किया जा सके। विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम ‘ऐसे होने चाहिए जिससे विद्यार्थियों में यह चेतना पैदा हो कि वे पहले भारतीय हैं और बाद में पंजाबी, बंगाली एवं मराठी हैं। पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो विद्यार्थियों में धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक हो।

4. भाषायी समस्या का समाधान (Solution of Linguistic Problem)-राष्ट्रीय एकीकरण को बनाए रखने के लिए भाषायी समस्या का समाधान करना अति आवश्यक है। राज्यों के पुनर्गठन पर पुनः विचार किया जाना चाहिए और जिन लोगों की भाषा के आधार पर मांग उचित है उस राज्य की स्थापना की जानी चाहिए। यह ठीक है कि हिन्दी को हिन्दी विरोधी लोगों पर नहीं थोपना चाहिए। यह राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए राष्ट्र भाषा का विकसित होना अति आवश्यक है। त्रि-भाषायी फार्मूले को सही ढंग से लागू किया जाना चाहिए।

5. सन्तुलित आर्थिक विकास (Balanced Economic Development)-राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए यह आवश्यक है कि देश के सभी क्षेत्रों का योजनाबद्ध आर्थिक विकास किया जाए। पिछड़े हुए क्षेत्रों का विकास बड़ी तेज़ी से किया जाना चाहिए।

6. धर्म निरपेक्षता को वास्तविक बनाना (Secularism should be real) यद्यपि संविधान द्वारा भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, परन्तु इसे व्यावहारिक रूप देना अति आवश्यक है। लोगों में एक-दूसरे के धर्म के प्रति सहिष्णुता विकसित करना ज़रूरी है। यदि सरकारी कर्मचारी किसी धर्म विशेष के अनुयायियों के साथ पक्षपात करते पाए जाएं तो उनको कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।

7. भ्रष्टाचार को दूर करना (To remove Corruption) राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए प्रशासन में भ्रष्टाचार समाप्त करना आवश्यक है। भाई-भतीजावाद बन्द होना चाहिए।

8. सांस्कृतिक आदान-प्रदान-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए विभिन्न भाषायी समुदायों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान अधिक-से-अधिक होना चाहिए। ऐसी संस्कृति का विकास होना चाहिए जो हमारे आधुनिक समाज के अनुरूप हो।

9. राजनीतिक दलों का योगदान (Contribution of Political Parties)-राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों का सहयोग अनिवार्य है। राजनीतिक दलों को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए, धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय भावनाओं को नहीं भड़काना चाहिए। राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक स्वस्थ जनमत का निर्माण करना चाहिए।

10. सरकार की नीतियों में परिवर्तन (Change in the Policies of Government)-राष्ट्रीय एकीकरण के लिए केन्द्रीय सरकार को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना होगा। सरकार को भेदभाव की नीति का त्याग करना होगा। कोई भी निर्णय लेते समय सरकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि अमुक राज्य उसी के दल द्वारा शासित है अथवा नहीं। सरकार को लोगों की उचित मागों को तुरन्त स्वीकार कर लेना चाहिए ताकि जनता को आन्दोलन करने का अवसर न मिले। जब सरकार आन्दोलन के बाद मांगों को मानती है तो उससे लोगों में यह धारणा बन जाती है कि सरकार शक्ति की भाषा ही समझती है।

11. साम्प्रदायिक संगठनों पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Communal Organisation)-राष्ट्रीय अखण्डता व एकता को बनाए रखने के लिए साम्प्रदायिक संगठनों एवं दलों पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने चाहिए। परन्तु इसके साथसाथ ही आवश्यक है कि आम जनता को इस प्रकार के प्रतिबन्धों के औचित्य के सम्बन्धों में प्रशिक्षित किया जाए।

12. राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान (Respect for National Symbols)-राष्ट्रीय एकता अखण्डता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि सभी भारतीय राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करें। राष्ट्रीय झण्डे और राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना सभी का कर्त्तव्य है।

13. सिद्धान्तों पर आधारित राजनीति (Value Based Politics)-राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक सिद्धान्तों व मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए। राजनीतिज्ञों को धर्म, जाति, भाषा, अल्पसंख्या आदि की राजनीति से मुक्त होना पड़ेगा। पिछले कुछ वर्षों से कुछ नेताओं ने मूल्यों पर आधारित राजनीति की बात कह है पर आवश्यकता इसको अपनाने की है।

14. भावनात्मक एकीकरण (Emotional Integration) राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए भावनात्मक एकीकरण का होना आवश्यक है। भावनात्मक एकीकरण को देखा नहीं जा सकता और न ही खरीदा जा सकता है। यह भावना तो लोगों के दिलों में पाई जाती है और इसका विकास भी लोगों के मन और दिलों में होना चाहिए। लोगों के सामने देश प्रेम, त्याग, बलिदान आदि के आदर्श रखे जाने चाहिए ताकि सभी लोगों में भातृभाव व प्रेम की भावना विकसित हो।

15. अमीरी एवं ग़रीबी का अन्तर कम करना (To Narrow the gap between Rich and Poor) भारत में राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के लिए आवश्यक है, कि अमीरी एवं ग़रीबी के अन्तर को कम किया जाए।

16. सस्ता एवं सरल न्याय (Cheap and efficient Justice)-भारत में न्यायिक प्रक्रिया महंगी एवं जटिल होने से कारण गरीब लोगों को न्याय नहीं मिल पाता, जिससे उनका राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास उठने लगता है। अत: सरकार को चाहिए कि लोगों को सस्ता एवं सरल न्याय उपलब्ध करवाएं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

प्रश्न 3.
भारत के राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या के बारे में आप क्या जानते हैं ? भारत के द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण करने के लिए आज तक क्या कदम उठाए गए हैं ?
(What do you know by the problem of Indian National Integration ? What steps have been taken towards Indian National Integration ?).
अथवा
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के लिए क्या कदम उठाए गए हैं ? (What steps have been taken towards Indian National Integration ?)
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ-इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखिए।

राष्ट्रीय एकीकरण के लिए किए गए प्रयत्न (EFFORTS TOWARDS NATIONAL INTEGRATION)-

राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए किए गए प्रयत्नों को हम तीन भागों में बांट सकते हैं-

(1) सरकार द्वारा बनाए गए कानून।
(2) सरकारी तथा औपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य।
(3) अनौपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य।

1. सरकार द्वारा बनाए गए कानून-1961 में साम्प्रदायिक प्रचार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो कानून पास किए। एक कानून द्वारा ऐसे किसी भी कार्य को कानून द्वारा दण्डनीय बना दिया गया जिससे विभिन्न धार्मिक मूल वंश पर आधारित अथवा भाषायी समुदायों अथवा जातियों के बीच शत्रुता और घृणा फैलती हो। दूसरे कानून द्वारा चुनाव में, धर्म मूल वंश, सम्प्रदाय, जाति अथवा भाषायी भावनाओं को उभारना दण्डनीय अपराध बना दिया गया। इन कानूनों में यह भी व्यवस्था की गई है कि जिस व्यक्ति को इस कानून के अन्तर्गत दण्ड मिलेगा। वह न तो चुनाव में मतदान कर सकता है और न ही चुनाव लड़ सकता है। 1963 में 16वां संशोधन किया गया। इस संशोधन का उद्देश्य भारत की अखण्डता और प्रभुसत्ता को सुरक्षित रखने से है। इस संशोधन द्वारा यह निश्चित किया गया कि राज्य विधानमण्डल या संसद् का चुनाव लड़ने से पहले तथा चुने जाने के बाद प्रत्येक उम्मीदवार को यह शपथ लेनी पड़ती है कि मैं भारतीय संविधान के प्रति वफ़ादार रहूंगा और भारत की अखण्डता व प्रभुसत्ता को बनाए रखूगा। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता (Integrity) शब्द जोड़ा गया है।

2. सरकारी या औपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य-सरकार ने राष्ट्रीय एकीकरण का विकास करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए हैं
राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन 1961 (National Integration Conference 1961)-नई दिल्ली में 28 सितम्बर से 1 अक्तूबर, 1961 तक राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, प्रमुख शिक्षा शास्त्रियों, लेखकों और वैज्ञानिकों को आमन्त्रित किया गया। इस सम्मेलन का मत था कि राजनीतिक दलों ने सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद आदि को बढ़ावा देने में प्रोत्साहन दिया है। इसलिए सम्मेलन ने राजनीतिक दलों के लिए एक आचार संहिता पर बल दिया। इस संहिता में निम्नलिखित बातें कही गईं-

  • किसी भी दल को कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे विभिन्न धर्मों एवं भाषायी समुदायों में घृणा पैदा हो या उनके बीच तनाव उत्पन्न हो।
  • राजनीतिक दलों को साम्प्रदायिक, जातिगत, क्षेत्रीय अथवा भाषायी समस्याओं पर कोई ऐसा आन्दोलन शुरू नहीं करना चाहिए जिससे शान्ति के लिए कोई खतरा पैदा होता हो।
  • राजनीतिक दलों को अन्य दलों द्वारा आयोजित सभाओं, प्रदर्शनों आदि को तोड़ने के कोई काम नहीं करने चाहिए।
  • सरकार को नागरिक स्वतन्त्रताओं पर कोई अनुचित प्रतिबन्ध नहीं लगाने चाहिए और न ही उसे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे राजनीतिक दलों की सामान्य गतिविधियों में बाधाएं उत्पन्न होती हों।
  • दलगत हितों की प्राप्ति के लिए राजनीतिक सत्ता को प्रयोग में नहीं लाया जाना चाहिए। सम्मेलन ने यह सुझाव दिया कि शिक्षा को समवर्ती सूची में स्थान दिया जाए ताकि शिक्षा में एकरूपता लायी जा सके।

राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् (National Integration Council)-राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन, 1961 में ही राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् की भी रचना की गई जिसमें प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, राजनीतिक दलों के सात नेता, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष, दो शिक्षा शास्त्री, अनुसूचित जातियों और जन-जातियों का आयुक्त तथा प्रधानमन्त्री द्वारा मनोनीत सात व्यक्तियों को स्थान दिया गया। इस परिषद् को सामान्य जनता, प्रेस तथा विद्यार्थियों के लिए आचार-संहिता बनाने का काम दिया गया। इस परिषद् का कार्य अल्पसंख्यकों की शिकायतों पर विचार करना भी था। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् को राष्ट्रीय एकीकरण के सभी पहलुओं पर विचार करने और उसके बारे में अपनी सिफ़ारिशें पेश करने का निर्देश दिया था।

राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का पुनर्गठन-राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का समय-समय पर पुनर्गठन किया गया। 12 अप्रैल, 2010 को राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का पुनर्गठन किया गया। 147 सदस्यीय परिषद् में 14 प्रमुख केन्द्रीय मंत्रियों सहित विपक्षी दल के नेता भी शामिल किए गए।
राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक-सितम्बर, 2013 को राष्ट्रीय एकता परिषद् की महत्त्वपूर्ण बैठक नई दिल्ली में हुई। इस बैठक में मुजफ्फरनगर दंगों के साम्प्रदायिक हिंसा का मुद्दा छाया रहा। प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने राज्यों को साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए कठोर कार्यवाही करने को कहा।

3. अनौपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य-अनौपचारिक संगठनों में दो संगठन महत्त्वपूर्ण(1) इन्सानी बिरादरी तथा (2) अखिल भारतीय साम्प्रदायिकता विरोधी समिति। इन्सानी बिरादरी की स्थापना अगस्त, 1970 में की गई। श्री जय प्रकाश नारायण को इस संगठन का अध्यक्ष और शेख अब्दुल्ला को इसका उपाध्यक्ष बनाया गया, परन्तु इन संगठनों को साम्प्रदायिक संगठन कहा गया। अखिल भारतीय साम्प्रदायिकता विरोध समिति की नेता श्रीमती सुभद्रा जोशी थी। इस संगठन का विश्वास है कि देश में साम्प्रदायिक दंगों के लिए साम्प्रदायिकतावाद की संगठित शक्तियां उत्तरदायी हैं और इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सबसे अधिक प्रमुख है। इस समिति का छठा सम्मेलन 1974 में दिल्ली में हुआ। इस सम्मेलन में साम्प्रदायिक संगठनों पर कानून प्रतिबन्धों के लगाने की बात कही गई। इस समिति में कहा है कि जनसंघ जैसे साम्प्रदायिक संगठनों के प्रतिबन्धों को राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् में स्थान नहीं दिया जाना चाहिए तथा शिक्षा प्रणाली को धर्म-निरपेक्ष बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष (Conclusion)-संक्षेप में, राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं, जिनसे राष्ट्रीय अखण्डता व एकता को खतरा पैदा हो गया है। आज देश को कमजोर करने वाली पृथक्कतावादी तथा साम्प्रदायिक ताकतों का कड़ाई से मुकाबला करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के विभिन्न पहलुओं का विस्तार सहित वर्णन करो। (Write different aspects of National Integration in India in detail.)
उत्तर-
आज भारतीय राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या राष्ट्रीय एकीकरण की है। भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के विभिन्न पक्ष इस प्रकार हैं

1. राष्ट्रीय एकीकरण का राजनीतिक पहल-राष्ट्रीय एकीकरण की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की राजनीतिक मांगों की ओर उचित ध्यान दिया जाए। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ऐसी सत्ता की स्थापना होनी चाहिए जिसके प्रति लोग वफ़ादार हों। भारतीय संघ के राज्यों का पुनर्गठन इसलिए भाषा के आधार पर किया गया है और आज भारत में 29 राज्य हैं। केन्द्र और राज्यों में जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें हैं और उनमें जनता की निष्ठा हैं, परन्तु भारतीय जनता राजनीतिक दृष्टि से पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हैं। आज भी विभिन्न भागों में अलग राज्य की स्थापना की मांग चली आ रही है।

2. राष्ट्रीय एकीकरण का सामाजिक पहलू-राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पहलू का अर्थ यह है कि देश में सभी भागों का विकास हो और लोगों में बहुत अधिक आर्थिक असमानताएं नहीं होनी चाहिएं। देश के पिछड़े क्षेत्र का विकास करना अति आवश्यक है। राष्ट्र के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। भारत में यद्यपि संविधान के अन्तर्गत छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है, परन्तु इसके बावजूद आज भी देश के कई भागों में जाति-पाति के भेदभाव को दूर करना आवश्यक है।

3. राष्ट्रीय एकीकरण का सांस्कृतिक पक्ष-भारत में विभिन्न संस्कृतियों के लोग रहते हैं। संविधान ने सभी अल्प-संख्यकों को अपनी संस्कृति, अपनी भाषा तथा लिपि को कायम रखने तथा विकसित करने की स्वतन्त्रता दी है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद भारत में रहने वाले अल्प-संख्यकों को यह सन्देह है कि भारत के बहु-संख्यक उनको संस्कृति को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील हैं। भारत के सांस्कृतिक अल्प-संख्यकों को यह सन्देह है कि भारत के बहु-संख्यक उनको अपनी ही संस्कृति में शामिल करने के इच्छुक हैं। अल्प-संख्यकों का ऐसा सन्देह राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में एक बाधा है तथा इस क्षेत्र को ही राष्ट्रीय एकीकरण का सांस्कृतिक पक्ष माना जाता है।

4. राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष-राष्ट्रीय एकीकरण कोई ऐसा भवन नहीं है जिसका निर्माण अच्छे भवन निर्माताओं द्वारा ईंटों तथा गारे से किया जा सकता है। राष्ट्रीय एकीकरण वास्तव में एक धारणा अथवा विचार है जिसका निवास लोगों के हृदयों में होना अनिवार्य है। यह एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की चेतना तथा भावना है। परन्तु भारत में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषायी, आतंकवाद तथा प्रान्तवाद के तत्त्व भारतीयों के हृदयों में ऐसी चेतना अथवा भावना विकसित नहीं होने देते हैं। ऐसी चेतना अथवा भावना के विकास की आवश्यकता को ही भारत में राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष माना जाता है।

5. राष्ट्रीय एकीकरण का आर्थिक पक्ष-राष्ट्रीय एकीकरण का आर्थिक पहलू इस बात की मांग करता है कि देश के सभी भागों का विकास हो और लोगों में बहुत अधिक आर्थिक असमानताएं नहीं होनी चाहिए। देश के पिछड़े क्षेत्रों का विकास करना अति आवश्यक है। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ग़रीबी और बेकारी को दूर करना आवश्यक है क्योंकि ग़रीब और बेरोज़गार व्यक्ति के लिए एकीकरण का कोई महत्त्व नहीं है। यदि अधिकांश जनता ग़रीब है और देश के अनेक क्षेत्र बहुत पिछड़े हैं तो राष्ट्रीय एकीकरण का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ लिखो।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का साधारण अर्थ यह है कि एक देश में रहने वाले विभिन्न धर्मों, वर्गों, नस्लों तथा भाषाओं के लोगों में एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की भावना हो और वे अपने को एक अनुभव करते हों। राज्य के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के अन्दर रहने वाले लोगों में एकता की भावना हो और यही भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। राष्ट्रीय एकीकरण का सम्बन्ध अनेकताओं में एकता स्थापित करना है। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० एस० राधाकृष्णन के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक घर नहीं जो चूने और ईंटों से बनाया जा सके। यह एक औद्योगिक योजना भी नहीं है जिस पर विशेषज्ञों द्वारा विचार किया जा सके। इसके विपरीत एकीकरण का ऐसा विचार है जिसका विकास लोगों के दिलों में होता है। यह एक चेतना है जिसने जनसाधारण को जागृत करना है।” एच० ए० गन्नी के मतानुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक ऐसी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों के दिलों में एकता, दृढ़ता और सम्बद्धता की भावना विकसित होती है और उनमें सामान्य नागरिकता की भावना अथवा राष्ट्र के प्रति वफ़ादारी की भावना का विकास होता है।”

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प्रश्न 2.
भारत के लिए राष्ट्रीय एकीकरण की विशेष आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण राज्य की पहली आवश्यकता है। राज्य के विकास के लिए यह ज़रूरी है कि राज्य के अन्दर रहने वाले विभिन्न लोगों के मध्य एकता की भावना हो और यह भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी भारत में राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या पूरी तरह मौजूद है और यह भारत की राष्ट्रीय अखण्डता के लिए खतरा पैदा कर रही है। बहुत सारे राज्यों में पाई जाने वाली अलगाववादी प्रवृत्तियां, भाषायी भेदभाव, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार, क्षेत्रीयवाद, आन्दोलन व हिंसा, असन्तुलित क्षेत्रीय विकास आदि समस्याओं ने भारतीय एकीकरण को बहुत प्रभावित किया है। ये सभी बातें इसका सबूत है कि भारत की राष्ट्रीय एकीकरण की समस्याओं का स्वरूप गम्भीर है। इसका एक बड़ा कारण भारत का विशाल क्षेत्रफल है जिसमें जाति, भाषा, धर्म, सभ्याचारिक, रीति-रिवाज आदि अनेक भिन्नताएं मिलती हैं। कुछ स्वार्थी लोग या राजनीतिक दल इन समस्याओं के द्वारा जनता की भावनाओं को जनाधार प्राप्त करने के लिए भड़काते हैं और इस तरह राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को गम्भीर बनाकर देश की अखण्डता के वास्ते खतरा पैदा कर देते हैं। राष्ट्रीय एकीकरण के अभाव में ही हिन्दुस्तान का बंटवारा हुआ था और पाकिस्तान की स्थापना हुई थी जिसका मुख्य आधार धार्मिक था। अत: भारत को अपनी राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकीकरण की सख्त ज़रूरत है ताकि भारत इन समस्याओं का दृढ़तापूर्ण सामना कर सके।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली किन्हीं चार बाधाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में चार रूकावटें लिखें।
उत्तर-
भारत में अनेक विभिन्नताएं हैं। ये सभी भिन्नताएं वास्तव में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधाएं हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है-

  • भाषा-भाषा की समस्या राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन चुकी है। भाषा को लेकर विभिन्न क्षेत्रों के लोगों में तनाव बढ़ता है।
  • क्षेत्रवाद–क्षेत्रवाद या प्रादेशिकता का अर्थ है कि सारे देश की अपेक्षा किसी एक विशेष क्षेत्र के प्रति निष्ठा रखना। भारत में प्रादेशिकता की यह समस्या अत्यन्त गम्भीर है।
  • सम्प्रदायवाद-सम्प्रदायवाद राष्ट्रीय एकीकरण में बहुत बड़ी बाधा है।
  • जातिवाद ने भी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पैदा की है।

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प्रश्न 4.
साम्प्रदायिकता का राष्ट्रीय एकीकरण पर क्या प्रभाव है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए साम्प्रदायिकता बाधा कैसे है?
उत्तर-
आजकल भारत की महत्त्वपूर्ण समस्या साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता ने राष्ट्रीय एकीकरण को बहुत अधिक प्रभावित किया है। साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा है। साम्प्रदायिकता की भावना बढ़ने से लोगों की सोच साम्प्रदायिक रंग में रंगती जा रही है जिस कारण लोग राष्ट्र की अपेक्षा अपने-अपने सम्प्रदाय के प्रति अधिक वफ़ादार होते जा रहे हैं। साम्प्रदायिकता का तेजी से विकास होने के कारण राष्ट्रीय एकीकरण की गति धीमी हो गई है। साम्प्रदायिकता के प्रभाव के कारण लोग राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर होते जा रहे हैं। साम्प्रदायिकता की समस्या को हल किए बिना राष्ट्रीय एकीकरण का ध्येय पूरा नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 5.
इंसानी बिरादरी का निर्माण क्यों किया गया था ?
अथवा
इन्सानी बिरादरी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इन्सानी बिरादरी एक गैर-सरकारी संगठन है, जिसकी स्थापना 1970 में प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खां (सरहदी गान्धी) की प्रेरणा से हुई। श्री जय प्रकाश नारायण को इस संगठन का अध्यक्ष तथा श्री शेख अब्दुला को उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य साम्प्रदायिक शक्तियों को नष्ट करके राष्ट्रीय भावना को विकसित करना था। सहनशीलता, आपसी समझ और सराहना (Toleration, Mutual Understanding and Appreciation) इस संगठन के तीन मूल तन्त्र थे परन्तु यह संगठन प्रभावी सिद्ध नहीं हुआ क्योंकि यह संगठन यह भी निश्चित नहीं कर पाया है कि देश में किन संगठनों को साम्प्रदायिक संगठन कहा जाए।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रीय एकीकरण के राजनीतिक और सामाजिक पहलू का वर्णन करें।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के राजनीतिक पक्ष का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
1. राष्ट्रीय एकीकरण का राजनीतिक पहलू-राष्ट्रीय एकीकरण की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की राजनीतिक मांगों की ओर उचित ध्यान दिया जाए। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ऐसी सत्ता की स्थापना होनी चाहिए जिसके प्रति लोग वफ़ादार हो। भारतीय संघ के राज्यों का पुनर्गठन इसलिए भाषा के आधार पर किया गया है और आज भारत में 29 राज्य हैं। केन्द्र और राज्यों में जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें हैं और उनमें जनता की निष्ठा है, परन्तु भारतीय जनता राजनीतिक दृष्टि से पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं है। आज भी विभिन्न भागों में अलग राज्य की स्थापना की मांग चली आ रही है।

2. राष्ट्रीय एकीकरण का सामाजिक पहलू-राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पहलू का अर्थ यह है कि देश में सभी भागों का विकास हो और लोगों में बहुत अधिक आर्थिक असमानताएं नहीं होनी चाहिएं। देश के पिछड़े क्षेत्रों का विकास करना अति आवश्यक है। राष्ट्र से सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार होना चाहिएं। समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। भारत में यद्यपि संविधान के अन्तर्गत छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है, परन्तु इसके बावजूद आज भी देश के कई भागों में जाति-पाति के भेदभाव को दूर करना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मनौवज्ञानिक पक्ष से आपका क्या भाव है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष क्या है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण कोई ऐसा भवन नहीं है जिसका निर्माण अच्छे भवन निर्माताओं द्वारा ईंटों तथा गारे से किया जा सकता है। राष्ट्रीय एकीकरण वास्तव में एक धारणा अथवा विचार है जिसका निवास लोगों के हृदयों में होना अनिवार्य है। यह एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की चेतना तथा भावना है। परन्तु भारत में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषायी आतंकवाद तथा प्रान्तवाद के तत्त्व भारतीयों के हृदयों में ऐसी चेतना अथवा भावना विकसित नहीं होने देते हैं। ऐसी चेतना अथवा भावना के विकास की आवश्यकता को ही भारत में राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष माना जाता है।

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प्रश्न 8.
राष्ट्रीय एकीकरणा के विकास में ‘शिक्षा’ क्या भूमिका निभा सकती है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण साधन है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति में राजनीतिक चेतना पैदा होती है और शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे साम्राज्यवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद आदि की समस्याओं को हल किया जा सके। शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में धर्म-निरपेक्ष-दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है। शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में यह भावना विकसित की जा सकती है कि वे पहले भारतीय और बाद में पंजाबी, बंगाली, मराठी आदि है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए चार सुझाव दीजिए।
उत्तर-
राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए उन बाधाओं को दूर करना आवश्यक है जो राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधक हैं। इन बाधाओं को दूर करने के निम्नलिखित उपाय हैं-

  • आर्थिक विकास-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए देश का आर्थिक विकास करना अति आवश्यक है। बेरोज़गारी को दूर करके, आर्थिक विषमता को कम करके, ग़रीबी को दूर करके तथा आर्थिक लाभों को न्यायपूर्ण ढंग से वितरित करके ही राष्ट्रीय एकीकरण की सम्भावना को बढ़ाया जा सकता है।
  • राजनीतिक वातावरण में सुधार- राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए देश के राजनीतिक वातावरण में सुधार करना भी ज़रूरी है। अतः राष्ट्रीय एकीकरण के लिए विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों एवं क्षेत्रों के विकास की भावना उत्पन्न करने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक वातावरण में सुधार होना चाहिए।
  • समुचित शिक्षा व्यवस्था-समुचित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है।
  • भाषायी समस्या का समाधान-राष्ट्रीय एकीकरण को बनाए रखने के लिए भाषायी समस्या का समाधान करना अति आवश्यक है।

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प्रश्न 10.
भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण के लिए उठाए गए मुख्य कदमों का वर्णन कीजिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए सरकार द्वारा उठाए गए किन्हीं चार उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • 1961 में साम्प्रदायिक प्रचार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो कानून पास किए गए। कानून द्वारा चुनाव में धर्म, मूल, वंश, सम्प्रदाय, जाति अथवा भाषायी भावनाओं को उभारना दण्डनीय अपराध बना दिया गया।
  • 1963 में संविधान में 16वां संशोधन किया गया। इस संशोधन का उद्देश्य भारत की अखण्डता और प्रभुसत्ता
    को सुरक्षित रखने से है।
  • 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता (Integrity) शब्द जोड़ा गया है।
  • सरकार ने 1961 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय एकीकरण को प्रोत्साहन देने के लिए राजनीतिक दलों के लिए एक आचार संहिता पर बल दिया गया।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् क्या है ?
उत्तर-
सितम्बर-अक्तूबर, 1961 में प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा पर नई दिल्ली में एक राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय गृह मन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, शिक्षा शास्त्री, प्रसिद्ध पत्रकार, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों से जुड़े प्रसिद्ध व्यक्तियों ने भाग लिया। सम्मेलन में एक राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् (National Integration Council) का निर्माण किया गया। इस परिषद् में प्रधानमन्त्री के अलावा केन्द्रीय गृह मन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, राजनीतिक दलों के सात नेता, दो शिक्षा शास्त्री, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अध्यक्ष, अनुसूचित जातियों तथा जन-जातियों के कमिश्नर तथा प्रधानमन्त्री द्वारा नियुक्त सात अन्य लोगों को नियुक्त किया गया। इस परिषद् की समय-समय पर प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में बैठकें होती रहती हैं जिसमें राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए मार्ग खोजे जाते हैं।

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प्रश्न 12.
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए जातिवाद किस प्रकार रुकावट बनता है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए जातिवाद बाधा कैसे है?
उत्तर-
जातिवाद की समस्या ने राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बहुत बाधा पहुंचाई है। इस समस्या के सम्बन्ध में प्रथम राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन में भाषण करते हुए तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने कहा था, “यद्यपि जाति का एक सामाजिक बुराई के रूप में अन्त हो रहा है, तथापि अब उसने एक राजनीतिक और प्रशासकीय बुराई का रूप धारण कर लिया है। हम जाति के प्रति निष्ठाओं को चुनाव जीतने के लिए अथवा नौकरियों में अधिक लोगों को रखने के लिए प्रयोग कर रहे हैं।”

श्री जय प्रकाश नारायण ने एक बार कहा था, “भारत में जाति सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल है।” जातीय संगठनों ने भारत की राजनीति में वही हिस्सा लिया है जो पश्चिमी देशों में विभिन्न हितों व वर्गों ने लिया है। चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर किया जाता है और चुनाव प्रचार में जाति पर वोटें मांगी जाती हैं। प्रशासन में भी जातीयता का समावेश हो गया है। राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा जातीय हितों को प्राथमिकता दी जा रही है।

प्रश्न 13.
ग़रीबी राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में कैसे रुकावट है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ग़रीबी बाधा कैसे है?
उत्तर-
ग़रीबी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में महत्त्वपूर्ण बाधा है। भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ग़रीबी है। ग़रीब व्यक्ति अपने आपको और अपने परिवार को जीवित रखने के लिए संघर्ष में जुटा रहता है। जब एक ग़रीब व्यक्ति या ग़रीब वर्ग किसी दूसरे व्यक्ति या वर्ग को खुशहाल पाता है तो उसमें निराशा और घृणा की भावना उत्पन्न होती है और राजनीतिज्ञ ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर आन्दोलन करवाते हैं। जो क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं वह आर्थिक विकास के लिए आन्दोलन करते हैं और कई बार अलग राज्य की मांग भी करते हैं।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का साधारण अर्थ यह है कि एक देश में रहने वाले विभिन्न धर्मों, वर्गों, नस्लों तथा भाषाओं के लोगों में एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की भावना हो और वे अपने को एक अनुभव करते हों। राज्य के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के अन्दर रहने वाले लोगों में एकता की भावना हो और यही भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। राष्ट्रीय एकीकरण का सम्बन्ध अनेकताओं में एकता स्थापित करना है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय एकीकरण की कोई एक प्रसिद्ध परिभाषा बताएं।
उत्तर-
डॉ० एस० राधाकृष्णन के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक घर नहीं जो चूने और ईंटों से बनाया जा सके। यह एक औद्योगिक योजना भी नहीं है जिस पर विशेषज्ञों द्वारा विचार किया जा सके। इसके विपरीत एकीकरण का ऐसा विचार है जिसका विकास लोगों के दिलों में होता है। यह चेतना है, जिसने जनसाधारण जो जागृत किया है।”

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली किन्हीं दो बाधाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. भाषा-भारत एक बहुभाषी राज्य है और सदैव से ही रहा है। भाषा की समस्या राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन चुकी है।
  2. क्षेत्रवाद-क्षेत्रवाद या प्रादेशिकता का अर्थ है कि सारे देश की अपेक्षा किसी एक विशेष क्षेत्र के प्रति निष्ठा रखना।

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प्रश्न 4.
राष्ट्रीय एकीकरण के मनोवैज्ञानिक पक्ष से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण कोई ऐसा भवन नहीं है जिसका निर्माण अच्छे भवन निर्माताओं द्वारा ईंटों तथा गारे से किया जा सकता है। राष्ट्रीय एकीकरण वास्तव में एक धारणा अथवा विचार है जिसका निवास लोगों के हृदयों में होना अनिवार्य है। यह एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की चेतना तथा भावना है। परन्तु भारत में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषायी झगड़े, आतंकवाद तथा प्रान्तवाद के तत्त्व भारतीयों के हृदयों में ऐसी चेतना अथवा भावना विकसित नहीं होने देते हैं। ऐसी चेतना अथवा भावना के विकास की आवश्यकता को ही भारत में राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष माना जाता है।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने के कोई दो उपाय लिखिए।
उत्तर-

  1. आर्थिक विकास-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए देश का आर्थिक विकास करना अति आवश्यक
  2. राजनीतिक वातावरण में सुधार-राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए देश के राजनीतिक वातावरण में सुधार करना भी ज़रूरी है।

प्रश्न 6.
राष्ट्रीय एकीकरण कौन्सिल क्या है?
उत्तर-
सितम्बर-अक्तूबर, 1961 में प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा पर नई दिल्ली में एक राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय गृह मन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, शिक्षा शास्त्री, प्रसिद्ध पत्रकार, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों से जुड़े प्रसिद्ध व्यक्तियों ने भाग लिया। सम्मेलन में एक राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् (National Integration Council) का निर्माण किया गया।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
एक ही देश में रहने वाले विभिन्न संस्कृतियों के लोगों में एक ही राष्ट्र से सम्बन्ध होने की भावना विकसित करना राष्ट्रीय एकीकरण का वास्तविक अर्थ है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय एकीकरण की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
माईरन बीनर के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण की धारणा का अभिप्राय क्षेत्रीय राष्ट्रीयता की ऐसी भावना विकसित करना है, जो अन्य वर्गीय निष्ठाओं को समाप्त करती है, या उन छोटी निष्ठाओं से श्रेष्ठ होती है।”

प्रश्न 3.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के दो पक्षों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. राजनीतिक पक्ष
  2. माजिक पक्ष।

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प्रश्न 4.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के किसी एक पहलू के बारे में लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का राजनीतिक पक्ष देश के क्षेत्रीय संगठन से सम्बन्धित है।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का निर्माण कब हुआ ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का निर्माण सन् 1961 में किया गया।

प्रश्न 6.
‘इंसानी बिरादरी’ नाम की संस्था का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
‘इंसानी बिरादरी’ नाम की संस्था के संस्थापक खान अब्दुल गफ्फार खान थे।

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प्रश्न 7.
राष्ट्रीय एकीकरण के आर्थिक पक्ष का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण के आर्थिक पक्ष का अर्थ यह है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों का असन्तुलित आर्थिक विकास न हो, बल्कि सभी क्षेत्रों का उचित तथा सन्तुलित विकास हो।

प्रश्न 8.
राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पक्ष का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पक्ष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध भारतीय समाज में शताब्दियों से चली आ रही जाति प्रथा से है, जब जाति के आधार पर मनुष्य के साथ पक्षपात किया जाए, तो ऐसी स्थिति राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पक्ष का प्रतीक होती है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली दो रुकावटों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. साम्प्रदायिकता
  2. जातिवाद।

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प्रश्न 10.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए कोई एक सुझाव लिखें।
उत्तर-
गरीबी और बेरोज़गारी दूर करना।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए जातिवाद किस प्रकार रुकावट बनता है ?
उत्तर-
निम्न जातियों के साथ दुर्व्यवहार तथा जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था, राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा बनती है।

प्रश्न 12.
धरती के बेटों के सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धरती के बेटों के सिद्धान्त का अभिप्राय अपने ही राज्य के लोगों को रोज़गार इत्यादि के अवसरों में प्राथमिकता देना है।

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प्रश्न 13.
माओवादी हिंसा ने राष्ट्रीय एकीकरण को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-
माओवादी हिंसा देश की एकता और अखंडता को कमज़ोर कर रही है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राष्ट्रीय अखण्डता …………….. पर निर्भर करती है।
2. राष्ट्रीय एकीकरण का सम्बन्ध अनेकता में ……….. स्थापित करना है।
3. भारत में जाति, भाषा, धर्म एवं संस्कृति की अनेक …………. पाई जाती हैं।
4. भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में ………. भाषाओं का वर्णन किया गया है।
5. सन् ………. में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया।
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय एकीकरण
  2. एकता
  3. विभिन्नताएं
  4. 22
  5. 1956.

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही या ग़लत का चुनाव करें-

1. जातिवाद की समस्या ने राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पहुंचाई है।
2. गरीबी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा नहीं होती।
3. अनपढ़ता राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देती है।
4. राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने में शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
5. भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पहुंचाई है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है, “कि भारत के सामने यह खतरा है, कि वह अनेक छोटे-छोटे सर्वसत्तावादी राष्ट्रों में बंट जायेगा।”
(क) डॉ० एस० राधाकृष्णन
(ख) प्रो० सुनीता कुमार चैटर्जी
(ग) प्रो० आर० भास्करण
(घ) रजनी कोठारी।
उत्तर-
(ख) प्रो० सुनीता कुमार चैटर्जी

प्रश्न 2.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा है
(क) क्षेत्रवाद
(ख) साम्प्रदायिकता
(ग) जातिवाद
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 3.
“समाजवाद की असफलता ने भी राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को पैदा किया है।” यह कथन किसका
(क) पं० नेहरू
(ख) श्री लाल बहादुर शास्त्री
(ग) प्रो० गोविन्द राम वर्मा
(घ) श्री अटल बिहारी वाजपेयी।
उत्तर-
(ग) प्रो० गोविन्द राम वर्मा

प्रश्न 4.
राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए ?
(क) आर्थिक विकास
(ख) राजनीतिक वातावरण में सुधार
(ग) समुचित शिक्षा व्यवस्था
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 5.
निम्न में से एक राष्ट्रीय एकीकरण का पक्ष माना जाता है-
(क) राजनीतिक पक्ष
(ख) सामाजिक पक्ष
(ग) सांस्कृतिक पक्ष
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।