Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव Textbook Exercise Questions and Answers.
PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 1 समाजशास्त्र का उद्भव
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का जनक किसे माना जाता है ?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का जनक माना जाता है।
प्रश्न 2.
एक पृथक समाज विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की स्थापना हेतु उत्तरदायी दो महत्त्वपूर्ण कारकों के नाम बताइये।
उत्तर-
फ्रांसीसी क्रान्ति, प्राकृतिक विज्ञानों के विकास, औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण की प्रक्रिया ने समाजशास्त्र को अलग सामाजिक विज्ञान के रूप में स्थापित करने में सहायता की।
प्रश्न 3.
किन दो शब्दों से ‘समाजशास्त्र’ की अवधारणा बनी तथा किस वर्ष समाजशास्त्र विषय का उद्भव हुआ ?
उत्तर-
समाजशास्त्र (Sociology) शब्द लातिनी शब्द ‘Socios’, जिसका अर्थ है समाज तथा ग्रीक भाषा के शब्द Logos, जिसका अर्थ है अध्ययन, दोनों से मिलकर बना है। सन् 1839 में अगस्ते काम्ते ने पहली बार इस शब्द का प्रयोग किया था।
प्रश्न 4.
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में दो सम्प्रदायों के नाम बताएं।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में दो स्कूलों के नाम हैं-स्वरूपात्मक सम्प्रदाय तथा समन्वयात्मक सम्प्रदाय।
प्रश्न 5.
औद्योगीकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-
औद्योगीकरण का अर्थ है सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन का वह समय जिसने मानवीय समाज को ग्रामीण समाज से औद्योगिक समाज में बदल दिया।
प्रश्न 6.
ऐसे दो विद्वानों के नाम बताइये जिन्होंने भारत में समाजशास्त्र के विकास में योगदान दिया।
उत्तर-
जी० एस० घूर्ये, राधा कमल मुखर्जी, एम० एन० श्रीनिवास, ए० आर० देसाई इत्यादि।
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र कहा जाता है। समाजशास्त्र में समूहों, सभाओं, संस्थाओं, संगठन तथा समाज के सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तथा यह अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से होता है। साधारण शब्दों में समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।
प्रश्न 2.
औद्योगिक क्रान्ति द्वारा उत्पन्न दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन बताइये।
उत्तर-
- औद्योगिक क्रान्ति के कारण चीज़ों का उत्पादन घरों से निकल कर बड़े-बड़े उद्योगों में आ गया तथा उत्पादन भी बढ़ गया।
- इससे नगरीकरण में बढ़ौतरी हुई तथा नगरों में कई प्रकार की समस्याओं ने जन्म लिया ; जैसे कि अधिक जनसंख्या, प्रदूषण, ट्रैफिक इत्यादि।
प्रश्न 3.
प्रत्यक्षवाद किसे कहते हैं ?
उत्तर-
प्रत्यक्षवाद (Positivism) का संकल्प अगस्ते कोंत (Auguste Comte) ने दिया था। उनके अनुसार प्रत्यक्षवाद एक वैज्ञानिक विधि है जिसमें किसी विषय वस्तु को समझने तथा परिभाषित करने के लिए कल्पना या अनुमान का कोई स्थान नहीं होता। इसमें परीक्षण, तजुर्बे, वर्गीकरण, तुलना तथा ऐतिहासिक विधि से किसी विषय के बारे में सब कुछ समझा जाता है।
प्रश्न 4.
वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method) ज्ञान प्राप्त करने की वह विधि है जिसकी सहायता से वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाता है। यह विधि एक सामूहिक विधि है जो अलग-अलग क्रियाओं को एकत्र करती है जिनकी सहायता से विज्ञान का निर्माण होता है।
प्रश्न 5.
वस्तुनिष्ठता (Objectivity) को परिभाषित कीजिए ?
उत्तर-
जब कोई समाजशास्त्री अपना अध्ययन बिना किसी पक्षपात के करता है तो उसे वस्तुनिष्ठता कहा जाता है। समाजशास्त्री के लिए निष्पक्षता रखना आवश्यक होता है क्योंकि अगर उसका अध्ययन निष्पक्ष नहीं होगा तो उसके अध्ययन में और उसके विचारों में पक्षपात आ जाएगा तथा अध्ययन निरर्थक हो जाएगा।
प्रश्न 6.
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र एवं विषयवस्तु की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र संबंधी दो स्कूल प्रचलित हैं। प्रथम सम्प्रदाय है स्वरूपात्मक सम्प्रदाय जिसके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप का अध्ययन करता है जिस कारण यह विशेष विज्ञान है। दूसरा सम्प्रदाय है समन्वयात्मक सम्प्रदाय जिसके अनुसार समाजशास्त्र बाकी सभी सामाजिक विज्ञानों का मिश्रण है इस कारण यह साधारण विज्ञान है।
प्रश्न 7.
समाजशास्त्री अपनी विषयवस्तु का अध्ययन करने के लिए किस प्रकार की वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करते हैं?
उत्तर-
समाजशास्त्री अपने विषय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए बहुत-सी वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करते हैं ; जैसे कि सैम्पल विधि, अवलोकन विधि, साक्षात्कार विधि, अनुसूची विधि, प्रश्नावली विधि, केस स्टडी विधि इत्यादि।
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
स्वरूपात्मक चिन्तन सम्प्रदाय किस प्रकार समन्वयात्मक चिन्तन सम्प्रदाय से भिन्न है ?
उत्तर-
1. स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School)—स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के विचारकों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है जिसमें सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन किया जाता है। इन सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन कोई अन्य सामाजिक विज्ञान नहीं करता है जिस कारण यह कोई साधारण विज्ञान नहीं बल्कि एक विशेष विज्ञान है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक जार्ज सिम्मेल, मैक्स वैबर, स्माल, वीरकांत, वान विज़े इत्यादि हैं।
2. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)-इस सम्प्रदाय के विचारकों के अनुसार समाजशास्त्र कोई विशेष विज्ञान नहीं बल्कि एक साधारण विज्ञान है। यह अलग-अलग सामाजिक विज्ञानों से सामग्री उधार लेता है तथा उनका अध्ययन करता है। इस कारण यह साधारण विज्ञान है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक दुर्थीम, हाबहाऊस, सोरोकिन इत्यादि हैं।
प्रश्न 2.
समाजशास्त्र के महत्त्व पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए। ।
उत्तर-
- समाजशास्त्र समाज के वैज्ञानिक अध्ययन करने में सहायता करता है।
- समाजशास्त्र समाज के विकास की योजना बनाने में सहायता करता है क्योंकि यह समाज का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करके हमें उसकी पूर्ण संरचना की जानकारी देता है।
- समाजशास्त्र अलग-अलग सामाजिक संस्थाओं का हमारे जीवन में महत्त्व के बारे में बताता है कि यह किस प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में योगदान देते हैं।
- समाजशास्त्र अलग-अलग सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करके उनको खत्म करने के तरीकों के
बारे में बताता है। - समाजशास्त्र ने जनता की मनोवृत्ति बदलने में सहायता की है। विशेषतया इसने अपराधियों को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
- समाजशास्त्र अलग-अलग संस्कृतियों को समझने में सहायता प्रदान करता है।
प्रश्न 3.
किस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति का समाज पर एक व्यापक प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
सन् 1780 में फ्रांसीसी क्रान्ति आई तथा इससे फ्रांस के समाज में अचानक ही बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। देश की राजनीतिक सत्ता परिवर्तित हो गई तथा सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आ गए। क्रान्ति से पहले बहुत-से विचारकों ने परिवर्तन के विचार दिए। इससे समाजशास्त्र के बीज बो दिए गए तथा समाज के अध्ययन की आवश्यकता महसूस होने लगी। अलग-अलग विचारकों के विचारों से इसकी नींव रखी गई तथा इसे सामने लाने का कार्य अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) ने पूर्ण किया जो स्वयं एक फ्रांसीसी नागरिक थे। इस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने समाजशास्त्र के उद्भव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 4.
किस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति का समाज पर एक व्यापक पड़ा ?
उत्तर-
औद्योगिक क्रान्ति से समाज तथा सामाजिक व्यवस्था में बहुत से अच्छे तथा ग़लत प्रभाव सामने आए। उस समय नगर, उद्योग, नगरों की समस्याएं इत्यादि जैसे बहुत से मुद्दे सामने आए तथा इन मुद्दों ने ही समाजशास्त्र की नींव रखी। यह समय था जब अगस्ते काम्ते, इमाइल दुर्थीम, कार्ल मार्क्स, मैक्स वैबर इत्यादि जैसे समाजशास्त्री सामने आए तथा इनके द्वारा दिए सिद्धान्तों के ऊपर ही समाजशास्त्र टिका हुआ है। इन सभी समाजशास्त्रियों के विचारों में किसी-न-किसी ढंग से औद्योगिक क्रान्ति के प्रभाव छुपे हुए हैं। इस प्रकार औद्योगिक क्रान्ति के प्रभावों से समाज में बहुत से परिवर्तन आए तथा इस कारण समाजशास्त्र के जन्म में औद्योगिक क्रान्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 5.
समाजशास्त्र अपनी विषय वस्तु में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करता है। विवेचना कीजिए। .
उत्तर-
समाजशास्त्र सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के लिए कई वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है। तुलनात्मक विधि, ऐतिहासिक विधि, वरस्टैहन इत्यादि कई प्रकार की विधियों का प्रयोग करके सामाजिक समस्याएं सुलझाता है। यह सब वैज्ञानिक विधियाँ हैं। समाजशास्त्र का ज्ञान व्यवस्थित है। यह वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करके ही ज्ञान प्राप्त करता है। इसमें कई अन्य वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि सैम्पल विधि, निरीक्षण विधि, अनुसूची विधि, साक्षात्कार विधि, प्रश्नावली विधि, केस स्टडी विधि इत्यादि। इन विधियों की सहायता से आंकड़ों को व्यवस्थित ढंग से एकत्र किया जाता है जिस कारण समाजशास्त्र एक विज्ञान बन जाता है।
IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें:
प्रश्न 1.
समाजशास्त्र से आपका क्या अभिप्राय है ? समाजशस्त्र के विषय क्षेत्र पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
साधारण शब्दों में, समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है जिसमें मनुष्य के आपसी सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र मानव व्यवहार की आपसी क्रियाओं का अध्ययन करता है। यह इस बात को समझने का भी प्रयास करता है कि किस प्रकार अलग-अलग समूह सामने आए, उनका विकास हुआ और किस प्रकार समाप्त हो गए और फिर बन गए। समाज शास्त्र में कार्य-विधियों, रिवाजों, समूहों, परम्पराओं, संस्थाओं इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।
फ्रांसीसी वैज्ञानिक अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) को समाज शास्त्र का पितामह माना जाता है। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक, “पौज़िटिव फिलासफी” (Positive Philosophy) 1830-1842 के दौरान छ: भागों (Volumes) में छपी थी। इस पुस्तक में उन्होंने समाज का अध्ययन करने के लिए जिस विज्ञान का वर्णन किया उसका नाम उन्होंने ‘समाजशास्त्र’ रखा। इस विषय का प्रारम्भ 1839 ई० में किया गया।
यदि समाजशास्त्र के शाब्दिक अर्थों की विवेचना की जाए तो हम कह सकते हैं कि यह दो शब्दों Socio और Logos के योग से बना है। Socio का अर्थ है समाज और Logos का अर्थ है विज्ञान। यह दोनों शब्द लातीनी (Socio) और यूनानी (Logos) भाषाओं से लिए गए हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ हैसमाज का विज्ञान। समाज के सम्बन्धों का अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र कहते हैं।
परिभाषाएं (Definitions)
- गिडिंग्ज़ (Giddings) के अनुसार, “समाजशास्त्र पूर्ण रूप से समाज का क्रमबद्ध वर्णन और व्याख्या
- मैकाइवर और पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के बारे में है, सम्बन्धों के जाल को हम समाज कहते हैं।”
- दुखीम (Durkheim) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति और विकास का अध्ययन है।”
- जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समाजशास्त्र मनुष्य की अंतक्रियाओं और अंतर्सम्बन्धों, उनके कारणों और परिभाषाओं का अध्ययन है।”
- मैक्स वैबर (Max Weber) के अनुसार, “समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध करवाने का प्रयास करता है।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इसमें व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों अथात् व्यक्तियों के समूहों में पाया गया व्यवहार, उनके आपसी सम्बन्धों और कार्यों इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र यह भी बताता है कि मनुष्य के सभी रीति-रिवाज, जो उन्हें एक-दूसरे के साथ जोड़कर रखते हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य स्वभावों के उद्देश्यों और स्वरूपों को समझने का प्रयास समाजशास्त्र द्वारा ही किया जाता है।
समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र (Scope of Sociology) – समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र को वर्णन करने के लिए दो अलग-अलग विचारधाराओं से सम्बन्ध रखते हुए समाज शास्त्रियों ने अपने विचार दिए हैं। एक विचारधारा के समर्थकों ने समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान के रूप में स्वीकार किया है किन्तु दूसरी विचारधारा के समर्थकों ने समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र सम्बन्धी इसका एक सामान्य विज्ञान के रूप में वर्णन किया है। कहने से तात्पर्य यह है कि इन दोनों विरोधी विचारधाराओं ने अपने ही विचारों के अनुसार इसके विषय-क्षेत्र सम्बन्धी वर्णन किया है जिसका वर्णन निम्नलिखित है
दो अलग-अलग विचारधाराएं इस प्रकार हैं-
I. स्वरूपात्मक विचारधारा-‘समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।’
II. समन्वयात्मक विचारधारा-समाजशास्त्र एक सामान्य विज्ञान है।
I. स्वरूपात्मक विचारधारा-‘समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।’ (Formalistic School : ‘Sociology as a Special Science.’)-इस विचारधारा के समाज शास्त्रियों ने समाजशास्त्र को शेष सामाजिक विज्ञानों (Social Sciences) की तरह एक विशेष विज्ञान (Special Science) माना है। इस विचारधारा के समर्थक समाजशास्त्र को सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों के अध्ययन करने तक सीमित रखकर इसे विशेष विज्ञान बताते हैं। अन्य कोई भी सामाजिक विज्ञान सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन नहीं करता, केवल समाजशास्त्र ही ऐसा विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है। इस कारण समाजशास्त्र को विशेष विज्ञान कहा जाता है।
इस सम्प्रदाय के विचारधारकों के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है क्योंकि यह केवल सामाजिक सम्बन्धों के रूपों का अध्ययन करता है तथा स्वरूप एवं अन्तर-वस्तु अलग-अलग चीजें हैं। समाजशास्त्र अपना विशेष अस्तित्व बनाए रखने के लिए सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है अन्तर-वस्तु का नहीं। इस प्रकार समाज शास्त्र मानवीय सम्बन्धों के स्वरूपों का वैज्ञानिक अध्ययन है। क्योंकि इस संप्रदाय के समर्थक स्वरूप पर बल देते हैं, इसलिए इसे स्वरूपात्मक सम्प्रदाय कहते हैं। अब हम इस सम्प्रदाय के अलग-अलग समर्थकों द्वारा दिए विचारों पर विचार करेंगे।
1. सिमेल (Simmel) के विचार-सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है। उनके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जबकि अन्य सामाजिक विज्ञान इन सम्बन्धों के अन्तर-वस्तु का अध्ययन करते हैं। सिमेल के विचारानुसार समाजशास्त्र का शेष सामाजिक विज्ञानों से अन्तर अलग-अलग दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है। सिमेल के अनुसार किसी भी सामूहिक सामाजिक घटना का अध्ययन किसी भी सामाजिक विज्ञान द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार समाजशास्त्र विशेष विज्ञान कहलाने के लिए उन भागों का अध्ययन करता है जिनका अध्ययन बाकी सामाजिक विज्ञान न करते हों। सिमेल के अनुसार अन्तक्रियाओं के दो रूप पाये जाते हैं तथा वह हैं सूक्ष्म रूप तथा स्थूल रूप।
सामाजिक सम्बन्ध जैसे प्रतियोगिता, संघर्ष, प्रभुत्व, अधीनता, श्रम विभाजन इत्यादि अन्तक्रियाओं का अमूर्त अथवा सूक्ष्म रूप होते हैं। सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र इन सूक्ष्म रूपों का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। कोई अन्य सामाजिक विज्ञान इनका अध्ययन नहीं करते। इसके अतिरिक्त समाजशास्त्र के अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ वे ही सम्बन्ध हैं जो रेखागणित के प्राकृतिक विज्ञानों के साथ पाए जाते हैं अर्थात् रेखागणित भौतिक वस्तुओं के स्थानीय स्वरूपों का अध्ययन करता है तथा प्राकृतिक विज्ञान इन भौतिक वस्तुओं के अन्तर-वस्तुओं का अध्ययन करते हैं। इसी प्रकार जब समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं तो शेष सामाजिक विज्ञान भी प्राकृतिक विज्ञानों की तरह इन अन्तर-वस्तुओं का अध्ययन करते हैं। इस प्रकार मानव के व्यवहार के सूक्ष्म रूपों का अध्ययन केवल समाजशास्त्र ही करता है जिस कारण इसे विशेष विज्ञान होने का सम्मान प्राप्त है।
इस प्रकार सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का और उनके सूक्ष्म रूपों का अध्ययन करता है इसलिए यह बाकी सामाजिक विज्ञानों से अलग है। इसलिए सिमेल के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है।
2. वीरकांत (Vierkandt) के विचार-वीरकांत जैसे समाजशास्त्री ने भी समाजशास्त्र को ज्ञान की उस विशेष शाखा के साथ सम्बन्धित बताया जिसमें उसने उन मानसिक सम्बन्धों के प्रकारों को लिया जो समाज में व्यक्तियों को एक-दूसरे से जोड़ती हैं। आपके अनुसार मनुष्य अपनी कल्पनाओं, इच्छाओं, स्वप्नों, सामूहिक प्रवृत्तियों के बिना समाज में दूसरे व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए प्रतियोगिता की भावना। एक खिलाड़ी की दूसरे खिलाड़ी के प्रति मुकाबले की भावना होती है, एक अध्यापक की दूसरे अध्यापक के साथ। कहने से तात्पर्य यह है कि प्रतियोगियों में पाए गए मानसिक सम्बन्ध एक ही होते हैं, अपितु भावनाएं एक समान नहीं होतीं। आपके अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों से मानसिक स्वरूपों को अलग करके अध्ययन करता है। एक और उदाहरण के अनुसार, समाजशास्त्र किसी समाज की उत्पत्ति, विशेषताएं, विकास, प्रगति आदि का अध्ययन न करके उस समाज के मानसिक स्वरूपों का अध्ययन करता है। इस प्रकार समाजशास्त्र, विज्ञान के मूल तत्त्वों का अध्ययन करता है। जैसे प्यार, नफरत, सहयोग, प्रतियोगिता, लालच इत्यादि। वीरकांत इस प्रकार से समाजशास्त्र में सामाजिक स्वरूपों को मानसिक स्वरूपों से अलग करता है। अतः इस आधार पर उसने समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान बताया है।
3. वान विजे (Von Weise) के विचार-वान विज़े इस बात पर बल देता है कि समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है। वह कहता है कि सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों को उनकी अन्तर-वस्तु से अलग करके उसका अध्ययन किया जा सकता है। उनके अनुसार “समाजशास्त्र सामाजिक या अन्तर-मानवीय प्रक्रियाओं का अध्ययन है।” इस दृष्टि से समाज शास्त्र का सीमित अध्ययन क्षेत्र है जिस के आधार पर हम समाज शास्त्र को दूसरे समाज शास्त्रों से अलग कर सकते हैं। आपके अनुसार समाजशास्त्र दूसरे समाजशास्त्रों के परिणामों से इस प्रकार एकत्रित नहीं करता अपितु सामाजिक जीवन सम्बन्धी उचित जानकारी प्राप्त करता है तथा अपने विषय-वस्तु में अमूर्त कर लेता है। उसने सामाजिक सम्बन्धों के 600 से अधिक प्रकार बताए और उनके रूपों का वर्गीकरण किया है। उनके द्वारा किए गए वर्गीकरण से इस विचारधारा को समझना काफ़ी सरल होता है। इस प्रकार वान विजे ने भी समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान मानने वाले विचारों का समर्थन किया है।
4. मैक्स वैबर के विचार (Views of Max Weber)-मैक्स वैबर ने भी स्वरूपात्मक विचारधारा के आधार पर समाजशास्त्र के क्षेत्र को सीमित बताया है। मैक्स वैबर ने समाजशास्त्र का अर्थ अर्थपूर्ण अथवा उद्देश्य पूर्ण सामाजिक क्रियाओं के अध्ययन से लिया है। उनके अनुसार प्रत्येक समाज में पायी गई क्रिया को हम सामाजिक क्रिया नहीं मानते। वह क्रिया सामाजिक होती है जिससे समाज के दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार पर प्रभाव पड़ता हो। उदाहरण के लिए यदि दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों की आपस में टक्कर हो जाये तो यह टक्कर होना एक प्राकृतिक प्रकटन है, परन्तु उनके वह प्रयत्न जिनसे वे अलग होते हैं या जो भाषा प्रयोग करके वे एक-दूसरे से अलग होते हैं वह उनका सामाजिक व्यवहार होता है। समाजशास्त्र, मैक्स वैबर के अनुसार, सामाजिक सम्बन्धों के प्रकारों का विश्लेषण और वर्गीकरण करने से सम्बन्धित है। इस प्रकार वैबर के अनुसार समाजशास्त्र का उद्देश्य सामाजिक व्यवहारों का व्याख्यान करना और उन्हें समझना है। इसलिए यह एक विशेष विज्ञान है।
II. समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)-समन्वयात्मक सम्प्रदाय के विचारक समाजशास्त्र को साधारण विज्ञान मानते हैं। उनके अनुसार सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र बहुत खुला व विस्तृत है। इसलिए सामाजिक जीवन के अलग-अलग पक्षों जैसे-राजनीतिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, मानव वैज्ञानिक, आर्थिक इत्यादि का विकास हुआ है पर इन विशेष सामाजिक विज्ञानों के अतिरिक्त, जो कि किसी विशेष पक्ष का अध्ययन करते हैं, एक साधारण समाजशास्त्र की आवश्यकता है जोकि दूसरे विशेष विज्ञानों के परिणामों के आधार पर हमें सामाजिक जीवन के आम हालातों और सिद्धान्तों के बारे में बता सके। यह विचारधारा पहले सम्प्रदाय अर्थात् कि स्वरूपात्मक सम्प्रदाय से बिल्कुल विपरीत है क्योंकि यह सामाजिक सम्बन्धों के मूर्त रूप के अध्ययन पर ज़ोर देता है। इनके अनुसार, दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता के बिना हम सामाजिक सम्बन्धों को नहीं समझ सकते। इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्तक सोरोकिन (Sorokin), दुर्थीम (Durkheim) और हॉब हाऊस (Hob House) हैं।
1. सोरोकिन (Sorokin) के विचार-सोरोकिन ने स्वरूपात्मक विचारधारा की आलोचना करके समाजशास्त्र को एक विशेष विज्ञान न मानकर एक सामान्य विज्ञान माना है। उसके अनुसार, समाजशास्त्र सामाजिक प्रकटना (Social Phenomenon) के अलग-अलग भागों में पाए गए सम्बन्धों का अध्ययन करता है। दूसरा, यह सामाजिक और असामाजिक सम्बन्धों का भी अध्ययन करता है और तीसरा वह सामाजिक प्रकटन (Social Phenomenon) के साधारण लक्षणों का भी अध्ययन करता है। इस तरह उसके अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक सांस्कृतिक प्रकटन के साधारण स्वरूपों, प्रकारों और दूसरे कई प्रकार के सम्बन्धों का साधारण विज्ञान है।” इस प्रकार समाजशास्त्र समान सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकटनों का सामान्य दृष्टिकोण से ही अध्ययन करता है।
2. हॉब हाऊस के विचार (Views of Hob House)-हॉब हाऊस ने भी सोरोकिन की तरह समाजशास्त्र के कार्यों के बारे में एक जैसे विचारों को स्वीकार किया है। उनके अनुसार यद्यपि समाजशास्त्र कई सामाजिक अध्ययनों का मिश्रण है परन्तु इसका अध्ययन सम्पूर्ण सामाजिक जीवन है। यद्यपि समाजशास्त्र समाज के अलगअलग भागों का अलग-अलग अध्ययन करता है पर वह किसी भी एक भाग को समाज से अलग नहीं कर सकता, और न ही वह दूसरे सामाजिक विज्ञानों की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वास्तव में प्रत्येक सामाजिक विज्ञान किसी-न-किसी तरीके से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। इतिहास का सम्बन्ध मनोवैज्ञानिक, मनोविज्ञान का राजनीति विज्ञान, राजनीति विज्ञान का समाज शास्त्र इत्यादि से है। इस प्रकार समाजशास्त्र इन सबका सामान्य विज्ञान माना जाता है क्योंकि यह मानवीय सामाजिक जीवन का सम्पूर्ण अध्ययन करता है, जिस कारण वह शेष विज्ञानों से सम्बन्धित है।
3. दुर्थीम के विचार (Durkheim’s views)-दुर्थीम के अनुसार, सभी सामाजिक संस्थाएं एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं और इनको एक-दूसरे से अलग करके हम इनका अध्ययन नहीं कर सकते। समाज का अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्र दूसरे सामाजिक विज्ञानों पर निर्भर करता है। उसके अनुसार समाजशास्त्र को हम तीन भागों में बांटते हैं
- सामाजिक आकृति विज्ञान
- सामाजिक शरीर रचना विज्ञान
- सामान्य समाज शास्त्र
पहले हिस्से का सम्बन्ध मनुष्यों से सम्बन्धित भौगोलिक आधार जिसमें जनसंख्या, इसका आकार, वितरण आदि आ जाते हैं।
दूसरे भाग का अध्ययन काफ़ी उलझन भरा है जिस कारण इसे आगे अन्य भागों में बांटा जाता है जैसे धर्म का समाजशास्त्र, आर्थिक समाजशास्त्र, कानून का समाजशास्त्र, राजनीतिक समाजशास्त्र। यह सब विज्ञान सामाजिक जीवन के अलग-अलग अंगों का अध्ययन करते हैं पर इनका दृष्टिकोण सामाजिक होता है। तीसरे भाग में सामाजिक नियमों का निर्माण किया जाता है।
इस प्रकार दुखीम ने अपने ऊपर लिखे विचारों के मुताबिक समाजशास्त्र को एक सामान्य विज्ञान माना है क्योंकि यह हर प्रकार की संस्थाओं और सामाजिक प्रक्रियाओं के अध्ययन करने से सम्बन्धित है।
प्रश्न 2.
समाजशास्त्र से क्या आप समझते हैं ? समाजशास्त्र की प्रकृति की चर्चा करें।
उत्तर-
समाजशास्त्र का अर्थ (Meaning of Sociology)- इसके लिये देखें पुस्तक के प्रश्न IV का प्रश्न 1.
समाजशास्त्र की प्रकृति (Nature of Sociology) –
समाजशास्त्र की प्रकृति पूर्णतया वैज्ञानिक है जोकि निम्नलिखित चर्चा से स्पष्ट हो जाएगा-
1. समाजशास्त्र वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करता है-समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों के अध्ययन करने हेतु वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करते हैं। यह विधियाँ जैसे-Historical Method, Comparative Method, Case Study Method, Experimental Method, Ideal Type, Verstehen हैं। समाजशास्त्र में यह विधियाँ वैज्ञानिक विधियों के आधार पर तैयार की गई हैं। समाजशास्त्र में तथ्य ढूंढ़ने के लिए वैज्ञानिक विधियों के सभी पड़ावों का प्रयोग किया जाता है जैसे दूसरे प्राकृतिक विज्ञान करते हैं। . इन सब विधियों का आधार वैज्ञानिक है और समाजशास्त्र में इन सब विधियों को प्रयोग में लाया जाता है। वर्तमान समय में इन उपरोक्त लिखित विधियों के अतिरिक्त कई और विधियाँ भी प्रयोग में लाई जा रही हैं। इस प्रकार यदि हम वैज्ञानिक विधि का प्रयोग समाजशास्त्र के अध्ययन में कर सकते हैं तो इसे हम एक विज्ञान मान सकते हैं।
2. समाजशास्त्र कार्य-कारणों के सम्बन्धों की व्याख्या करता है-यह केवल तथ्यों को एकत्रित नहीं करता बल्कि उनके बीच कार्य-कारणों के सम्बन्धों का पता करने का प्रयास करता है। यह मात्र ‘क्यों है’ का पता लगाने का प्रयास नहीं करता अपितु यह ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का भी पता लगाने का प्रयास करता है अर्थात् यह किसी तथ्य के कारणों और परिणामों का पता लगाने का भी प्रयास करता है।
समाजशास्त्र के द्वारा किसी भी समस्या सम्बन्धी केवल यह नहीं पता लगाया जाता कि समस्या क्या है ? इसके अतिरिक्त वह समस्या के उत्पन्न होने के कारणों अर्थात् ‘क्यों’ और ‘कैसे’ बारे में पता लगाने सम्बन्धी प्रयास करता है। उदाहरण के लिए यदि समाजशास्त्री बेरोज़गारी जैसी किसी भी समस्या का अध्ययन कर रहा हो तो इस समस्या के प्रति सम्बन्धित विषय सामग्री को एकत्रित करने तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखता अपितु इस समस्या के उत्पन्न होने के कारण का भी पता लगाता है और साथ ही उनके परिणामों का भी जिक्र करने का प्रयास करता है कि यह समस्या कैसे घटी और क्यों घटी। कार्य-कारण सम्बन्धों की व्याख्या करने के आधार पर हम इसे एक विज्ञान मान सकते हैं।
3. समाजशास्त्र क्या है’ का वर्णन करता है क्या होना चाहिए’ के बारे में कुछ नहीं कहता (Explains only what is not what it should be)-समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों तथा घटनाओं को उसी रूप में पेश करता है जिस रूप में उसने उसे देखा है। वह सामाजिक तथ्यों का निष्पक्षता से निरीक्षण करता है और किसी भी तथ्य को बिना तर्क के स्वीकार नहीं करता। यह मात्र विषय को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करता है अर्थात् ‘क्या है’ का वर्णन करता है।
जब समाजशास्त्री को सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करना पड़ता है तो वह सामाजिक तथ्यों को बिना तर्क के स्वीकार नहीं करता। वह केवल वास्तविक सच्चाई को ध्यान रखने तक ही अपने आपको सीमित रखता है। जैसे हम देखते हैं कि भौतिक विज्ञान में भौतिक नियमों और प्रक्रियाओं का ही अध्ययन किया जाता है उसी प्रकार समाजशास्त्र में हम केवल सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करते हैं और उस सामाजिक घटना का बिना किसी प्रभाव के अध्ययन करते हैं और उसका वर्णन करते हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र को एक सकारात्मक विज्ञान भी माना जाता है क्योंकि इसमें हम सामाजिक घटना का माध्यम तथ्यों के आधार पर अध्ययन करते हैं न कि प्रभाव के आधार पर। इसलिए भी हम समाजशास्त्र को एक विज्ञान मान सकते हैं।
4. समाजशास्त्र में पक्षपात रहित ढंग से अध्ययन किया जाता है (Objectivity)-समाजशास्त्र में किसी तथ्य का निरीक्षण बिना किसी पक्षपात के किया जाता है। समाजशास्त्री तथ्यों व प्रपंचों का निष्पक्ष और तार्किक रूप से अध्ययन करने का प्रयास करता है। मनुष्य अपनी प्रकृति के मुताबिक पक्षपाती हो सकता है, उसकी आदतें, भावनाएं इत्यादि अध्ययन में आ सकती हैं। परन्तु समाजशास्त्री प्रत्येक तथ्य का पक्षपात रहित तरीके से अध्ययन करता है और अपनी भावनाओं और पसन्दों को इसमें आने नहीं देता। :
समाजशास्त्र द्वारा किया गया किसी भी समाज का अध्ययन निष्पक्षता वाला होता है, क्योंकि समाजशास्त्री सामाजिक तथ्यों (facts) के आधार पर ही अध्ययन करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए जाति प्रथा की समस्या का यदि वह अध्ययन करता है तो वह इस सम्बन्ध में विषय सामग्री एकत्रित करते समय अपने विश्वास, विचार, भावनाओं इत्यादि को दूर रखकर करता है क्योंकि यदि वह इन्हें शामिल करेगा तो किसी भी समस्या का हल ढूंढ़ना कठिन हो जाए। कहने का अर्थ यह है कि समाजशास्त्री पक्षपात रहित होकर समस्या का निरीक्षण करने का प्रयास करता है। इस आधार पर भी हम समाजशास्त्र को एक विज्ञान मान सकते हैं
5. समाजशास्त्र में सिद्धान्तों और नियमों का प्रयोग भी किया जाता है (Sociology does frame laws)—वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग भी समाजशास्त्रियों द्वारा किया जाता है। समाजशास्त्र के सिद्धान्त सर्वव्यापक (Universal) होते हैं, परन्तु समाज में पाए गए परिवर्तनों के कारण इनमें परिवर्तन आता रहता है। परन्तु कुछ सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो सभी देशों के समय में समान रूप से सिद्ध होते हैं। यदि समाज में परिवर्तन न आए तो यह सिद्धान्त भी प्रत्येक समय लागू हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके हम अलग-अलग समय की परिस्थितियों से सम्बन्धित भी अध्ययन कर सकते हैं जिससे हमें समाज की यथार्थकता का भी पता लगता है। इसलिए भी इसे विज्ञान माना जा सकता है।
6. समाजशास्त्र के द्वारा भविष्यवाणी संभव है (Prediction through Sociology is possible)समाजशास्त्र के द्वारा हम भविष्यवाणी करने में काफ़ी सक्षम होते हैं। जब समाज में कोई समस्या उत्पन्न होती है तो समाजशास्त्र उस समस्या से सम्बन्धित केवल विषय-वस्तु ही नहीं इकट्ठा करता बल्कि उस समस्या का विश्लेषण करके परिणाम निकालता है और उस परिणाम के आधार पर भविष्यवाणी करने के योग्य हो जाता है जिससे वह यह भी बता सकता है कि जो समस्या समाज में पाई गई है, उसका आने वाले समय में क्या प्रभाव पड़ सकेगा और समाज को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।
प्रश्न 3.
समाजशास्त्र में उदभव के लिए कौन-से कारक उत्तरदायी थे ?
उत्तर-
18वीं शताब्दी के दौरन बहुत से मार्ग सामने आए जिन्होंने समाज को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया। उन बहुत से मार्गों में से तीन महत्त्वपूर्ण कारकों का वर्णन निम्नलिखित है-
(i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण आन्दोलन
(ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास
(iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण
इनका वर्णन इस प्रकार है-
(i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण आन्दोलन (French Revolution and Enlightenment Movement)-फ्रांस में सन् 1789 में एक क्रान्ति हुई। यह क्रान्ति अपने आप में पहली ऐसी घटना थी। इसका फ्रांसीसी समाज पर काफ़ी अधिक प्रभाव पड़ा क्योंकि इसने प्राचीन समाज को नए समाज में तथा ज़मींदारी व्यवस्था को पूंजीवादी व्यवस्था में बदल दिया। इसके साथ-साथ नवजागरण आन्दोलन भी चला जिसमें बहुत-से विद्वानों ने अपना योगदान दिया। इन विद्वानों ने बहुत सी पुस्तकें लिखीं तथा साधारण जनता की सोई हुई आत्मा को जगाया। इस समय के मुख्य विचारकों, लेखकों ने चर्च की सत्ता को चुनौती दी जोकि उस समय का सबसे बड़ा धार्मिक संगठन था। इन विचारकों ने लोगों को चर्च की शिक्षाओं तथा उनके फैसलों को अन्धाधुंध मानने से रोका तथा कहा कि वह स्वयं सोचना शुरू कर दें। इससे लोग काफ़ी अधिक उत्साहित हुए तथा उन्होंने अपनी समस्याओं को स्वयं ही तर्कशील ढंगों से सुलझाने के प्रयास करने शुरू किए।
इस प्रकार नवजागरण समय की विचारधारा समाजशास्त्र के उद्भव के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक बन कर सामने आई। इसे आलोचनात्मक विचारधारा का महत्त्वपूर्ण स्रोत माना गया। इसने लोकतन्त्र तथा स्वतन्त्रता के विचारों को आधुनिक समाज का महत्त्वपूर्ण भाग बताया। इसने जागीरदारी व्यवस्था में मौजूद सामाजिक अन्तरों को काफ़ी हद तक कम कर दिया तथा सम्पूर्ण शक्ति चर्च से लेकर जनता द्वारा चुनी सरकार को सौंप दी।
संक्षेप में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति तथा अमेरिका व फ्रांस की लोकतान्त्रिक क्रान्ति ने उस समय की मौजूदा संगठनात्मक सत्ता को खत्म करके नई सत्ता उत्पन्न की।
(ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास (Growth of Natural Sciences)-19वीं शताब्दी के दौरान प्राकृतिक विज्ञानों का काफ़ी अधिक विकास हुआ। प्राकृतिक विज्ञानों को काफ़ी अधिक सफलता प्राप्त हुई तथा इससे प्रभावित होकर बहुत-से सामाजिक विचारकों ने भी उनका ही रास्ता अपना लिया। उस समय यह विश्वास कायम हो गया कि अगर प्राकृतिक विज्ञानों के तरीकों को अपना कर भौतिक तथा प्राकृतिक घटनाओं को समझा जा सकता है तो इन तरीकों को सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए सामाजिक विज्ञानों पर भी लागू किया जा सकता है। बहुत से समाजशास्त्रियों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट, स्पैंसर, इमाइल, दुर्थीम, मैक्स वैबर इत्यादि ने समाज के अध्ययन में वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग की वकालत की। इससे सामाजिक विज्ञानों में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग शुरू हुआ तथा समाजशास्त्र का उद्भव हुआ।
(iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण (Industrial Revolution and Urbanisation)-समाजशास्त्र का उद्भव औद्योगिक क्रान्ति से भी प्रभावित हुआ। औद्योगिक क्रान्ति का आरम्भ सन् 1750 के बाद यूरोप विशेषतया ब्रिटेन में हुआ। इस क्रान्ति ने सम्पूर्ण यूरोप में काफ़ी अधिक परिवर्तन ला दिए। पहले उत्पादन घरों में होता था जो इस क्रान्ति में आरम्भ होने के पश्चात् उद्योगों में बड़े स्तर पर होने लगा। साधारण ग्रामीण जीवन तथा घरेलू उद्योग खत्म हो गए तथा विभेदीकृत नगरीय जीवन के साथ उद्योगों में उत्पादन सामने आ गया। इसने मध्य काल के विश्वासों, विचारों को बदल दिया तथा प्राचीन समाज आधुनिक समाज में परिवर्तित हो गया।
इसके साथ-साथ औद्योगीकरण ने नगरीकरण को जन्म दिया। नगर और बड़े हो गए तथा बहुत-से नए शहर सामने आ गए। नगरों के बढ़ने से बहुत-सी न खत्म होने वाली समस्याओं का जन्म हुआ जैसे कि काफ़ी अधिक भीड, कई प्रकार के प्रदूषण, ट्रैफिक, शोर-शराबा इत्यादि। नगरीकरण के कारण लाखों की तादाद में लोग गांवों से शहरों की तरफ प्रवास कर गए। परिणामस्वरूप लोग अपने ग्रामीण वातावरण से दूर हो गए तथा शहरों में गन्दी बस्तियाँ सामने आ गईं। नगरों में बहुत-से नए वर्ग सामने आए। अमीर अपने पैसे की सहायता से और अमीर हो गए तथा निर्धन अधिक निर्धन हो गए। नगरों में अपराध भी बढ़ गए।
बहुत से विद्वानों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, मैक्स वैबर, दुर्थीम, सिम्मेल इत्यादि ने महसूस किया कि नई बढ़ रही सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए समाज के वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है। इस प्रकार समाजशास्त्र का उद्भव हुआ तथा धीरे-धीरे इसका विकास होना शुरू हो गया।
प्रश्न 4.
समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास का अध्ययन क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
उत्तर-
(i) समाजशास्त्र एक बहुत ही नया ज्ञान है जोकि अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही है। अगर हम समाजशास्त्र की अन्य सामाजिक विज्ञानों से तुलना करें तो हमें पता चलता है कि अन्य सामाजिक विज्ञान बहुत ही पुराने हैं जबिक समाजशास्त्र का जन्म ही सन् 1839 में हुआ था। यह समय वह समय था जब न केवल सम्पूर्ण यूरोप बल्कि संसार के अन्य देश भी बहुत-से परिवर्तनों में से निकल रहे थे। इन परिवर्तनों के कारण समाज में बहुत सी समस्याएं आ गई थीं। इन सभी परिवर्तनों, समस्याओं की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक था तब ही समाज कल्याण के बारे में सोचा जा सकता था। इस कारण समाजशास्त्र के उद्भव तथा विकास का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।
(ii) आजकल हमारे तथा यूरोपीय समाजों में बहुत सी समस्याएं मौजूद हैं। अगर हम सभी समस्याओं का ध्यान से अध्ययन करें तो पता चलता है कि इन समस्याओं का जन्म औद्योगिक क्रान्ति के कारण यूरोप में हुआ। बाद में यह समस्याएं बाकी संसार के देशों में पहुंच गईं। अगर हमें इन समस्याओं को दूर करना है तो हमें समाजशास्त्र के उद्भव के बारे में भी जानना होगा जोकि उस समय के दौरान ही हुआ था।
(iii) किसी भी विषय में बारे में जानकारी प्राप्त करने से पहले यह आवश्यक है कि हमें उसके उदभव के बारे में पता हो। इस प्रकार समाजशास्त्र का अध्ययन करने से पहले इसके उद्भव के बारे में अवश्य पता होना चाहिए।
प्रश्न 5.
समाजशास्त्र में नवजागरण युग पर एक टिप्पणी लिखिये।।
उत्तर-
नवजागरण युग अथवा आत्मज्ञान के समय का अर्थ यूरोप ने बौद्धिक इतिहास के उस समय से है जो 18वीं शताब्दी के आरम्भ से शुरू हुआ तथा पूर्ण शताब्दी के दौरान चलता रहा। इस समय से सम्बन्धित बहुतसे विचारक, कल्पनाएं, आंदोलन इत्यादि फ्रांस में ही हुए। परन्तु आत्मज्ञान के विचारक अधिकतर यूरोप के देशों विशेषतया स्कॉटलैंड में ही क्रियाशील थे।
नवजागरण युग को इस बात की प्रसिद्धि प्राप्त है कि इसके मनुष्यों तथा समाज के बारे में नए विचारों की नई संरचनाएं प्रदान की। इस आत्मज्ञान के समय के दौरान कई नए विचार सामने आए तथा जो आगे जाकर मनुष्य की गतिविधियों के आधार बनें। उनका मुख्य केन्द्र सामाजिक संसार था जिसने मानवीय संसार, राजनीतिक तथा आर्थिक गतिविधियां तथा सामाजिक अन्तर्कियाओं के बारे में नए प्रश्न खड़े किए। यह सभी प्रश्न एक निश्चित पहचानने योग्य संरचना (Paradigm) के अन्तर्गत ही पूछे गए। Paradigm कुछ एक-दूसरे से सम्बन्धित विचारों, मूल्यों, नियमों तथा तथ्यों का गुच्छा है जिसके बीच ही स्पष्ट सिद्धान्त सामने आते हैं। आत्मज्ञान के Paradigm के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जैसे कि विज्ञान, प्रगति, व्यक्तिवादिता, सहनशक्ति, स्वतन्त्रता, धर्मनिष्पक्षता, अनुभववाद, विश्ववाद इत्यादि।
मनुष्यों तथा उनके सामाजिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक हालातों के बारे में कई विचार प्रचलित थे। उदाहरण के लिए, 17वीं शताब्दी में महत्त्वपूर्ण विचारकों जैसे कि हॉब्स (Hobbes) [1588-1679] तथा लॉक (Locke) [1632-1704] ने सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दों के ऊपर एक धर्मनिष्पक्ष तथा ऐतिहासिक पक्ष से काफ़ी कुछ लिखा। इसलिए उन्होंने मानवीय गतिविधियों को अपने व्यक्तिगत पक्ष से देखा। मानवीय गतिविधियां मनुष्य द्वारा होती हैं तथा इनमें ऐतिहासिक पक्ष काफ़ी महत्त्वपूर्ण होता है तथा इनमें परिवर्तन आना चाहिए। दूसरे शब्दों में जिन परिस्थितियों के कारण गतिविधियां होती हैं उनसे व्यक्ति अपने हालातों में परिवर्तन ला सकता है।
18वीं शताब्दी के दौरान ही लोगों ने सोचना शुरू कर दिया कि किस प्रकार सामाजिक, आर्थिक तथा ऐतिहासिक प्रक्रियाएं जटिल प्रघटनाएं हैं जिनके अपने ही नियम तथा कानून हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में सोचा जाने लगा कि यह जटिल प्रक्रियाओं की उपज हैं जो सामाजिक दुनिया का अचानक निरीक्षण करके सामने नहीं आए। इस प्रकार समाजों का अध्ययन तथा उनका विकास प्राकृतिक संसार के वैज्ञानिक अध्ययन के साथ नज़दीक हो कर जुड़ गए तथा उनकी तरह नए ढंग करने लग गए।
इन विचारों के सामने लाने में दो विचारकों के नाम प्रमुख हैं : वीको (Vico) [1668-1774] तथा मान्टेस्क्यू (Montesquieu) [1689-1775]। उन्होंने New Science (1725) तथा Spirit of the Laws (748) किताबें क्रमवार लिखीं तथा यह व्याख्या करने का प्रयास किया कि किस प्रकार अलग-अलग सामाजिक हालात विशेष सामाजिक तत्त्वों से प्रभावित होते हैं। दूसरे शब्दों में, विशेष समाजों तथा उनकी कार्य प्रणालियों की व्याख्या करते समय जटिल ऐतिहासिक कारणों को भी शामिल किया जाता है।
रूसो (Rousseau) एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारक था जोकि इस प्रकार के विचार सामने लाने के लिए महत्त्वपूर्ण था। उसने एक पुस्तक ‘Social Contract’ लिखी जिसमें उसने कहा कि किसी देश के लोगों को अपना शासक चुनने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। उसने यह भी लिखा कि अगले लोग स्वयं प्रगति करना चाहते हैं तो यह केवल उनके द्वारा चुनी गई सरकार के अन्तर्गत ही हो सकता है।
नवजागरण के लेखकों ने यह विचार नकार दिया कि समाज तथा देश सामाजिक विश्लेषण की मूल इकाइयां हैं। उन्होंने विचार दिया है कि व्यक्ति ही सामाजिक विश्लेषण का आधार है। उनके अनुसार व्यक्ति में ही गुण, योग्यता तथा अधिकार मौजूद होते हैं तथा इन सामाजिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक सम्पर्क से ही समाज बना था। नवजागरण के लेखकों ने मानवीय कारण को महत्त्वपूर्ण बताया जोकि उस व्यवस्था के विरुद्ध था जिसमें प्रश्न पूछने को उत्साहित नहीं किया जाता था तथा पवित्रता अर्थात् धर्म सबसे प्रमुख थे। उन्होंने इस विचार का समर्थन किया कि अध्ययन के प्रत्येक विषय को मान्यता मिलनी चाहिए, कोई ऐसा प्रश्न न हो जिसका उत्तर न हो तथा मानवीय जीवन के प्रत्येक पक्ष का अध्ययन होना चाहिए। उन्होंने अमूर्त तर्कसंगतता की दार्शनिक परम्परा को प्रयोगात्मक परम्परा के साथ जोड़ दिया। इस जोड़ने का परिणाम एक नए रूप में सामने आया। मनुष्य की पता करने की इच्छा की नई व्यवस्था ने प्राचीन व्यवस्था को गहरा आघात पहंचाया तथा इसने वैज्ञानिक पद्धति से विज्ञान को पढ़ने पर बल दिया। इसने मौजूदा संस्थाओं के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा किया तथा कहा कि इन संस्थाओं में परिवर्तन करने चाहिए जो मानवीय प्रकृति के विरुद्ध हैं। सभी सामाजिक रुकावटों को दूर करना चाहिए जो व्यक्तियों के विकास में रुकावट हैं।
यह नया दृष्टिकोण न केवल प्रयोगसिद्ध (Empirical) तथा वैज्ञानिक था बल्कि यह दार्शनिक (Philosophical) भी था। नवजागरण विचारकों का कहना था कि सम्पूर्ण जगत् ही ज्ञान का स्रोत है तथा लोगों को यह समझ पर इसके ऊपर शोध करनी चाहिए। नए सामाजिक कानून बनाए जाने चाहिए तथा समाज को तर्कसंगत शोध (Empirical Inquiry) के आधार पर विकास करना चाहिए। इस प्रकार के विचार को सुधारवादी (Reformist) कहा जा सकता है जो प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं। यह विचारक इस बात के प्रति आश्वस्त थे कि नई सामाजिक व्यवस्था से प्राचीन सामाजिक व्यवस्था को सुधारा जा सकता है।
इस प्रकार नवजागरण के विचारकों के विचारों से नया सामाजिक विचार उभर कर सामने आया तथा इसमें से ही आरम्भिक समाजशास्त्री निकल कर सामने आए। अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) एक फ्रांसीसी विचारक था जिसने सबसे पहले ‘समाजशास्त्र’ शब्द दिया। पहले उन्होंने इसे सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम दिया जो समाज का अध्ययन करता था। बाद वाले समाजशास्त्रियों ने भी वह विचार अपना लिया कि समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है। नवजागरण विचारकों की तरफ से दिए गए नए. विचारों ने समाजशास्त्र के उद्भव तथा विकास में कई प्रकार से सहायता की। बहुत से लोग मानते हैं कि समाजशास्त्र का जन्म नवजागरण के विचारों तथा रूढ़िवादियों के उनके विरोध से उत्पन्न हुए विचारों के कारण हुआ। अगस्ते काम्ते भी उस रूढ़िवादी विरोध का ही एक हिस्सा था। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने नवजागरण के कुछ विचारों को लिया तथा कहा कि कुछ सामाजिक सुधारों की सहायता से पुरानी सामाजिक व्यवस्था को सम्भाल कर रखा जा सकता है। इस कारण एक रूढ़िवादी समाजशास्त्रीय विचारधारा सामने आयी।
अगस्ते काम्ते भी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता था तथा उसके बाद कार्ल मार्क्स ने भी ऐसा ही किया। कार्ल मार्क्स जर्मनी में पला बड़ा हुआ था जहां नवजागरण का महत्त्व काफ़ी कम रहा जैसे कि इसका महत्त्व इंग्लैंड, फ्रांस तथा उत्तरी अमेरिका में था। अगर हम ध्यान से देखें तो हम देख सकते हैं कि मार्क्स ने काफ़ी हद तक विचार नवजागरण के विचारों के कारण ही सामने आए हैं।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) :
प्रश्न 1.
किसके अनुसार समाजशास्त्र सभी विज्ञानों की रानी है ?
(A) काम्ते
(B) दुर्थीम
(C) वैबर
(D) स्पैंसर।
उत्तर-
(A) काम्ते।
प्रश्न 2.
यह शब्द किसके हैं-“समाजशास्त्र दो भाषाओं की अवैध सन्तान है ?”
(A) मैकाइवर
(B) जिन्सबर्ग
(C) बीयरस्टैड
(D) दुर्थीम।
उत्तर-
(C) बीयरस्टैड।
प्रश्न 3.
इनमें से कौन संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय का समर्थक नहीं है ?
(A) दुर्थीम
(B) वैबर
(C) हाबहाऊस
(D) सोरोकिन।
उत्तर-
(B) वैबर।
प्रश्न 4.
इनमें से कौन-सी समाजशास्त्र की प्रकृति की विशेषता है ?
(A) यह एक व्यावहारिक विज्ञान न होकर एक विशुद्ध विज्ञान है।
(B) यह एक मूर्त विज्ञानं नहीं बल्कि अमूर्त विज्ञान है।
(C) यह एक निष्पक्ष विज्ञान नहीं बल्कि आदर्शात्मक विज्ञान है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।
प्रश्न 5.
समाजशास्त्र की विषय वस्तु निश्चित क्यों नहीं है ?
(A) क्योंकि यह प्राचीन विज्ञान है
(B) क्योंकि यह अपेक्षाकृत नया विज्ञान है
(C) क्योंकि प्रत्येक समाजशास्त्री की पृष्ठभूमि अलग है
(D) क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते।
उत्तर-
(D) क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध निश्चित नहीं होते।
प्रश्न 6.
किताब Social Order के लेखक कौन थे ?
(A) मैकाइवर
(B) सिमेल
(C) राबर्ट बीयरस्टैड
(D) मैक्स वैबर।
उत्तर-
(C) राबर्ट बीयरस्टैड।
प्रश्न 7.
किसने समाजशास्त्र को Social Morphology, Social Physiology तथा General Sociology में बांटा है ?
(A) स्पैंसर
(B) दुर्थीम
(C) काम्ते
(D) वैबर।
उत्तर-
(B) दुर्थीम।
प्रश्न 8.
वैबर के अनुसार इनमें से क्या ठीक है ? ।
(A) साधारण प्रक्रियाओं का भी समाजशास्त्र है।
(B) समाजशास्त्र का स्वरूप साधारण है।
(C) समाजशास्त्र विशेष विज्ञान नहीं है।
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) समाजशास्त्र विशेष विज्ञान नहीं है।
प्रश्न 9.
सबसे पहले किस देश में समाजशास्त्र का स्वतन्त्र रूप में अध्ययन शुरू हुआ था ?
(A) फ्रांस
(B) जर्मनी
(C) अमेरिका
(D) भारत।
उत्तर-
(C) अमेरिका।
प्रश्न 10.
किसने कहा था कि समाजशास्त्र का नाम ETHOLOGY रखना चाहिए ?
(A) वैबर
(B) स्पैंसर
(C) जे० एस० मिल
(D) काम्ते।
उत्तर-
(C) जे० एस० मिल।
II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :
1. …………. ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।
2. समाजशास्त्र में सर्वप्रथम प्रकाशित पुस्तक …….. थी।
3. समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र से संबंधित ……….. सम्प्रदाय हैं।
4. वैबर समाजशास्त्र के ……….. सम्प्रदाय से संबंधित है।
5. दुर्थीम समाजशास्त्र के ………… सम्प्रदाय से संबंधित है।
6. ………… के जाल को समाज कहते हैं।
7. …………. ने समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम दिया था।
उत्तर-
- अगस्ते काम्ते,
- Principles of Sociology,
- दो,
- स्वरूपात्मक,
- संश्लेषणात्मक,
- सामाजिक संबंधों,
- काम्ते।
III. सही/गलत (True/False) :
1. मैक्स वैबर को समाजशास्त्र का पिता माना जाता है।
2. सबसे पहले 1839 में समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग किया गया था।
3. किताब Society के लेखक मैकाइवर तथा पेज थे।
4. सिम्मेल स्वरूपात्मक सम्प्रदाय से संबंधित थे।
5. फ्रांसीसी क्रांति का समाजशास्त्र के उद्भव में कोई योगदान नहीं था।
6. पुनः जागरण आंदोलन ने समाजशास्त्र के उद्भव में योगदान दिया।
उत्तर-
- गलत,
- सही,
- सही,
- सही,
- गलत,
- सही।
IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers):
प्रश्न 1.
किताब Sociology किसने लिखी थी ?
उत्तर-
किताब Sociology के लेखक हैरी एम० जॉनसन थे।
प्रश्न 2.
किताब Society के लेखक………….थे।
उत्तर-
किताब Society के लेखक मैकाइवर तथा पेज थे।
प्रश्न 3.
………….ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने समाजशास्त्र को इसका नाम दिया था।
प्रश्न 4.
किताब Cultural Sociology के लेखक कौन हैं ?
उत्तर-
किताब Cultural Sociology के लेखक गिलिन तथा गिलिन थे।
प्रश्न 5.
काम्ते के अनुसार समाजशास्त्र के मुख्य भाग कौन-से हैं ?
उत्तर-
काम्ते के अनुसार समाजशास्त्र के मुख्य भाग सामाजिक स्थैतिकी एवं सामाजिक गत्यात्मकता है।
प्रश्न 6.
समाजशास्त्र में सर्वप्रथम कौन-सी पुस्तक छपी थी ?
उत्तर-
समाजशास्त्र में सर्वप्रथम छपने वाली पुस्तक Principles of Sociology थी।
प्रश्न 7.
स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक कौन थे ?
उत्तर-
सिमेल, वीरकांत, वैबर स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक थे।
प्रश्न 8.
संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक कौन थे ?
उत्तर-
दुर्थीम, सोरोकिन, हाबहाऊस इत्यादि संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक थे।
प्रश्न 9.
समाजशास्त्र का पिता किस को माना जाता है?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते (Auguste Comte) को समाजशास्त्र का पिता माना जाता है जिन्होंने इसे सामाजिक भौतिकी का नाम दिया था।
प्रश्न 10.
काम्ते ने समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार…………में किया था।
उत्तर-
काम्ते ने समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग पहली बार 1839 में किया था।
प्रश्न 11.
समाजशास्त्र क्या होता है?
उत्तर-
समाज में पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र कहा जाता है।
प्रश्न 12.
समाज क्या होता है?
उत्तर-
मैकाइवर तथा पेज के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों के जाल को समाज कहते हैं।
प्रश्न 13.
किस समाजशास्त्री ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान का रूप दिया था?
उत्तर-
फ्रांसीसी समाजशास्त्री इमाईल दुीम (Emile Durkheim) ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान का रूप दिया था।
प्रश्न 14.
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में कितने सम्प्रदाय प्रचलित हैं?
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय-स्वरूपात्मक तथा संश्लेषणात्मक सम्प्रदाय प्रचलित है।
प्रश्न 15.
समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम किसने दिया था?
उत्तर-
अगस्ते काम्ते ने समाजशास्त्र को Pure Sociology का नाम दिया था।
प्रश्न 16.
समाजशास्त्र कौन-से दो शब्दों से बना है?
उत्तर-
समाजशास्त्र लातीनी भाषा के शब्द Socio तथा ग्रीक भाषा के शब्द Logos से मिलकर बना है।
अति लघु उतरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
समाजशास्त्र का अर्थ।
उत्तर-
समाज के विज्ञान को समाजशास्त्र अथवा समाज विज्ञान कहा जाता है। समाजशास्त्र में समूहों, संस्थाओं, सभाओं, संगठन तथा समाज के सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है तथा यह अध्ययन वैज्ञानिक तरीके से होता है ।
प्रश्न 2.
चार प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों के नाम।
उत्तर-
- अगस्ते काम्ते – इन्होंने समाजशास्त्र को शुरू किया
- इमाइल दुर्थीम – इन्होंने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक रूप दिया
- कार्ल मार्क्स – इन्होंने समाजशास्त्र को संघर्ष का सिद्धांत दिया
- मैक्स वैबर – इन्होंने समाजशास्त्र को क्रिया का सिद्धांत दिया ।
प्रश्न 3.
समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र।
उत्तर-
समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र में सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक प्रक्रियाएं, सामाजिक संहिताएं, संस्कृति, सभ्यता, सामाजिक संगठन, सामाजिक अंशाति, समाजीकरण, रोल, पद, सामाजिक नियन्त्रण इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 4.
समाज का अर्थ।
उत्तर-
समाजशास्त्र में समाज का अर्थ है कि विशेष प्रकार के सामाजिक संबंधों के संगठन का पाया जाना तथा इसमें संगठन उन लोगों के बीच होता है जो काफ़ी समय से एक ही स्थान पर इकट्ठे रहते हों।
प्रश्न 5.
परिकल्पना।
उत्तर-
परिकल्पना का अर्थ चुने हुए तथ्यों के बीच पाए गए संबंधों के बारे में कल्पना किए हुए शब्दों से होता है जिसके साथ वैज्ञानिक जाँच की जा सकती है परिकल्पना को हम दूसरे शब्दों में सम्भावित उत्तर कह सकते हैं।
प्रश्न 6.
स्वरूपात्मक विचारधारा।
उत्तर-
इस विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र केवल सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जिस कारण यह विशेष विज्ञान है। कोई अन्य विज्ञान सामाजिक संबंधों के स्वरूपों का अध्ययन नहीं करता केवल समाजशास्त्र करता है।
प्रश्न 7.
समन्वयात्मक विचारधारा।
उत्तर-
इस विचारधारा के अनुसार समाजशास्त्र एक साधारण विज्ञान है क्योंकि इसका अध्ययन क्षेत्र काफ़ी बड़ा तथा विस्तृत है। समाजशास्त्र सम्पूर्ण समाज का तथा सामाजिक संबंधों के मूर्त रूप का अध्ययन करता है।
प्रश्न 8.
समाजशास्त्र का महत्त्व।
उत्तर-
- समाजशास्त्र पूर्ण समाज को एक इकाई मान कर अध्ययन करता है।
- समाजशास्त्र सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करके उन्हें दूर करने में सहायता करता है।
- समाजशास्त्र हमें संस्कृति को ठीक ढंग से समझने में सहायता करता है।
प्रश्न 9.
समाजशास्त्र एक विज्ञान है ।
उत्तर-
जी हां, समाजशास्त्र एक विज्ञान है क्योंकि यह अपने विषय क्षेत्र का वैज्ञानिक विधियों को प्रयोग करके उसका निष्पक्ष ढंग से अध्ययन करता है। इस कारण हम इसे विज्ञान कह सकते हैं।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
समाज शास्त्र।
उत्तर-
फ्रांसिसी वैज्ञानिक अगस्ते काम्ते को समाज शास्त्र का पितामह माना गया है। सोशोलोजी शब्द दो शब्दों लातीनी (Latin) शब्द सोशो (Socio) व यूनानी (Greek) शब्द लोगस (Logos) से मिल कर बना है। Socio का अर्थ है समाज व लोगस का अर्थ है विज्ञान, अर्थात् कि समाज का विज्ञान्, अर्थ भरपूर शब्दों के अनुसार समाजशास्त्र का अर्थ समूहों, संस्थाओं, सभाओं, संगठन व समाज के सदस्य के अन्तर सम्बन्धों का वैज्ञानिक अध्ययन. करना व सामाजिक सम्बन्धों में पाए जाने वाले रीति-रिवाज, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि सब का समाजशास्त्र में अध्ययन किया जाता है। इसके अलावा संस्कृति का ही अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 2.
समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ।
उत्तर-
समाजशास्त्र (Sociology) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। Sociology दो शब्दों Socio व Logus से मिल कर बना है। Socio लातीनी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘समाज’ व Logos यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है विज्ञान। इस प्रकार Sociology का अर्थ है समाज का विज्ञान जो मनुष्य के समाज का अध्ययन करता है।
प्रश्न 3.
समाजशास्त्र के जनक किसे माना जाता है व कौन-से सन् में इसको समाजशास्त्र का नाम प्राप्त हुआ ?
उत्तर-
फ्रांसिसी दार्शनिक अगस्ते काम्ते को परम्परागत तौर पर समाजशास्त्र का पितामह माना गया। इसकी प्रसिद्ध पुस्तक “पॉजीटिव फिलासफी” छ: भागों में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में काम्ते ने सन् 1838 में समाज के सम्बन्ध में जटिल अध्ययन करने के लिए जिस विज्ञान की कल्पना की उसका नाम उसने सोशोलोजी रखा।
प्रश्न 4.
वैज्ञानिक विधि।
उत्तर-
वैज्ञानिक विधि में हमें ऐसी समस्या का चुनाव करना चाहिए जो अध्ययन इस विधि के योग्य हो तथा इस समस्या के बारे में जो कोई खोज पहले हो चुकी हो तो हमें जितना भी साहित्य मिले अथवा सर्वेक्षण करना चाहिए। परिकल्पनाओं का निर्माण करना अनिवार्य होता है ताकि बाद में यह खोज का अवसर बन सके। इसके अलावा वैज्ञानिक विधि को अपनाते हुए सामग्री एकत्र करने की खोज को योजनाबद्ध करना पड़ता है ताकि इसका विश्लेषण व अमल किया जा सके। एकत्र की सामग्री का निरीक्षण वैज्ञानिक विधि का प्रमुख आधार होता है। इसमें किसी भी तकनीक को अपनाया जा सकता है व बाद में रिकॉर्डिंग करके सामग्री का विश्लेषण किया जाना चाहिए।
प्रश्न 5.
समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधि का इस्तेमाल कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के लिए कई वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है। तुलनात्मक विधि, ऐतिहासिक विधि, वैरस्टीन विधि आदि (Comparatve method, Historical method and Versten method etc.) कई प्रकार की विधियों का प्रयोग करके सामाजिक समस्याएं सुलझाता है। यह सब विधियों वैज्ञानिक हैं। समाज शास्त्र का ज्ञान व्यवस्थित है। यह वैज्ञानिक विधि का उपयोग करके ही ज्ञान प्राप्त करता है।
प्रश्न 6.
समाजशास्त्र कैसे एक विज्ञान है ?
उत्तर-
समाजशास्त्र में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसमें समस्या को केवल “क्या है” के बारे ही नहीं बल्कि “क्यूं” व “कैसे” का भी अध्ययन करते हैं। समाज की यथार्थकता का भी पता हम लगा सकते हैं। समाजशास्त्र में भविष्यवाणी ही सहायी सिद्ध होती है। इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र में वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन भी किया जाता है। इसी कारण इसे हम एक विज्ञान भी स्वीकार करते हैं।
प्रश्न 7.
समाजशास्त्र में प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग कैसे नहीं कर सकते ?
उत्तर-
समाजशास्त्र का विषय-वस्तु समाज होता है व यह मानवीय व्यवहारों व सम्बन्धों का अध्ययन करता है। मानवीय व्यवहारों में बहुत भिन्नता पाई जाती है। यदि हम बहन-भाई या माता-पिता या माता-पुत्र आदि सम्बन्धों को ले लें तो कोई भी दो बहनें, दो भाई इत्यादि का व्यवहार हमें एक जैसा नहीं मिलेगा। प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) में इस प्रकार की विभिन्नता नहीं पाई जाती बल्कि सर्व-व्यापकता पाई जाती है। इस कारण प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग हम प्राकृतिक विज्ञान में कर सकते हैं व समाज शास्त्र में इस विधि का प्रयोग करने में असमर्थ होते हैं। क्योंकि मानवीय व्यवहार में स्थिरता बहुत कम होती है।
प्रश्न 8.
समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में बताएं ।
उत्तर-
समाज, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है व समाजशास्त्र इसका वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इस अध्ययन में समाजशास्त्र सारे ही सामाजिक वर्गों का, सभाओं का, संस्थाओं आदि का अध्ययन करता है। समाज शास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो प्रकार के विचार पाए गए हैं-
- स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School) के अनुसार यह विशेष विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है। इसके मुख्य समर्थक जार्ज सिमल, मैक्स वैबर, स्माल, वीरकान्त, वान विज़े, रिचर्ड इत्यादि हैं।
- समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School) के अनुसार यह एक सामान्य विज्ञान है। इसके मुख्य समर्थक इमाइल दुर्थीम, हाब हाऊस व सोरोकिन हैं। .
प्रश्न 9.
समाजशास्त्र भविष्यवाणी नहीं कर सकता।
उत्तर-
समाजशास्त्र प्राकृतिक विज्ञान की भांति भविष्यवाणी नहीं कर सकता। यह सामाजिक सम्बन्धों व प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है। यह सम्बन्ध व प्रतिक्रियाएं प्रत्येक समाज में अलग-अलग होती हैं व इनमें परिवर्तन आते रहते हैं। समाज शास्त्र की विषय सामग्री की इस प्रकृति की वजह के कारण यह भविष्यवाणी करने में असमर्थ है। जैसे प्राकृतिक विज्ञान में भविष्यवाणी की जाती है। उसी तरह की समाजशास्त्र में भी भविष्यवाणी करनी सम्भव नहीं है। कारण यह है कि समाजशास्त्र का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों या व्यवहारों से होता है व यह अस्थिर होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक समाज अलग-अलग होने के साथ-साथ परिवर्तनशील भी होते हैं। अतः सामाजिक सम्बन्धों की इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखते हुए हम सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन में यथार्थवता नहीं ला सकते।
प्रश्न 10.
अगस्ते काम्ते।
उत्तर-
अगस्ते काम्ते को समाजशास्त्र का पितामह (Father of Sociology) माना जाता है। 1839 में अगस्ते काम्ते ने कहा कि जिस प्रकार प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन अलग-अलग प्राकृतिक विज्ञान करते हैं, उस प्रकार समाज का अध्ययन भी एक विज्ञान करता है जिसे उन्होंने सामाजिक भौतिकी का नाम दिया। बाद में उन्होंने सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम परिवर्तित करके समाजशास्त्र कर दिया। काम्ते ने सामाजिक उद्विकास का सिद्धांत, विज्ञानों का पदक्रम, सकारात्मकवाद इत्यादि जैसे संकल्प समाजशास्त्र को दिए।
प्रश्न 11.
यूरोप में समाजशास्त्र का विकास।
उत्तर-
महान् फ्रांसीसी विचारक अगस्ते काम्ते ने 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में समाज के विज्ञान को सामाजिक भौतिकी का नाम दिया। 1839 में उन्होंने इसका नाम परिवर्तित करके समाजशास्त्र रख दिया। 1843 में J.S. Mill ने ब्रिटेन में समाजशास्त्र को शुरू किया। हरबर्ट स्पैंसर ने अपनी पुस्तक Principles of Sociology से समाज का वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण किया। सबसे पहले अमेरिका ने 1876 में Yale University में समाजशास्त्र का अध्ययन स्वतन्त्र विषय रूप में हुआ। दुर्शीम ने अपनी पुस्तकों से समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विषय के रूप में विकसित किया। इस प्रकार कार्ल मार्क्स तथा वैबर ने भी इसे कई सिद्धांत दिए तथा इस विषय का विकास किया।
प्रश्न 12.
फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र।
उत्तर-
1789 ई० में फ्रांसीसी क्रान्ति आई तथा फ्रांसीसी समाज में अचानक ही बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया। राजनीतिक सत्ता परिवर्तित हो गई तथा सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आए। क्रान्ति से पहले बहुत से विचारकों ने परिवर्तन के विचार दिए। इससे समाजशास्त्र के बीज बो दिए गए तथा समाज के अध्ययन की आवश्यकता महसूस होने लग गयी। अलग-अलग विचारकों के विचारों से इसकी नींव रखी गई तथा इसे सामने लाने का कार्य अगस्ते काम्ते ने पूर्ण किया जो स्वयं एक फ्रांसीसी नागरिक था।
प्रश्न 13.
नवजागरण काल तथा समाजशास्त्र।
उत्तर-
नवजागरण काल ने समाजशास्त्र के उद्भव में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसका समय 18वीं शताब्दी की शुरूआत में शुरू हुआ तथा पूरी शताब्दी चलता रहा। इस समय के विचारकों जैसे कि वीको (Vico), मांटेस्क्यू (Montesquieu), रूसो Rousseou) इत्यादि ने ऐसे विचार दिए जो समाजशास्त्र के जन्म में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन सभी ने घटनाओं का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया तथा कहा कि किसी भी वस्तु को तर्कसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज को तर्कसंगत व्याख्या के आधार पर विकसित करना चाहिए। इस प्रकार इन विचारों से नया सामाजिक विचार उभर कर सामने आया तथा इसमें से ही प्रारंभिक समाजशास्त्री निकले।
V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न :
प्रश्न 1.
समाजशास्त्र की उत्पत्ति में अलग-अलग चरणों का वर्णन करें।
उत्तर-
मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। अपने जीवन के प्रारम्भिक स्तर से ही उसमें अपने इर्द-गिर्द के बारे में पता करने की इच्छा होती है। उसने समय-समय पर उत्पन्न हुई समस्याओं को दूर करने के लिए सामूहिक प्रयास किए। व्यक्तियों के बीच हुई अन्तक्रियाओं के साथ सामाजिक सम्बन्ध विकसित हुए जिससे नए-नए समूह हमारे सामने आए। मनुष्य के व्यवहार को अलग-अलग परम्पराओं तथा प्रथाओं की सहायता से नियन्त्रण में रखा जाता रहा है। इस प्रकार मनुष्य अलग-अलग पक्षों को समझने का प्रयास करता रहा है।
समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास के चरण (Stages of Origin and Development of Sociology)—समाजशास्त्र की उत्पत्ति तथा विकास को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित किया जाता है-
1. प्रथम चरण (First Stage)-समाजशास्त्र के विकास के प्रथम चरण को दो भागों में विभाजित करके बेहतर ढंग से समझा जा सकता है
(i) वैदिक तथा महाकाव्य काल (Vedic And Epic Era)—चाहे समाजशास्त्र के विकास की प्रारम्भिक अवस्था की शुरुआत को साधारणतया यूरोप से माना जाता है। परन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत के ऋषियों-मुनियों ने सम्पूर्ण भारत का विचरण किया तथा यहां के लोगों की समस्याओं अथवा आवश्यकताओं का गहरा अध्ययन तथा उनका मंथन किया। उन्होंने भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था को विकसित किया। इस बात का उल्लेख संसार के सबसे प्राचीन तथा भारत में लिखे महान् ग्रन्थ ऋग्वेद (Rig Veda) में मिलता है। वेद, उपनिषद, पुराण, महाभारत, रामायण, गीता इत्यादि जैसे ग्रन्थों से भारत में समाजशास्त्र की शुरुआत हुई। वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त आश्रम व्यवस्था, चार पुरुषार्थ, ऋणों की धारणा, संयुक्त परिवार इत्यादि भारतीय समाज में विकसित प्राचीन संस्थाओं में से प्रमुख है। इन धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भारत की उस समय की समस्याओं का समाजशास्त्रीय विश्लेषण देखने को मिलता है।
(ii) ग्रीक विचारकों के अध्ययन (Studies of Greek Scholars)-सुकरात के पश्चात् प्लैटो (Plato) (427-347 B.C.) तथा अरस्तु (Aristotle) (384-322 B.C.) ग्रीक विचारक हुए। प्लैटो ने रिपब्लिक तथा अरस्तु ने Ethics and Politics में उस समय के पारिवारिक जीवन, जनरीतियों, परम्पराओं, स्त्रियों की स्थिति इत्यादि का विस्तार से अध्ययन किया है। प्लैटो ने 50 से अधिक तथा अरस्तु ने 150 से अधिक छोटे बड़े राज्यों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व्यवस्थाओं का अध्ययन किया तथा अपने विचार दिए हैं।
2. द्वितीय चरण (Second Stage)-समाजशास्त्र के विकास के द्वितीय चरण में 6वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक का काल माना जाता है। इस काल के प्रारम्भिक चरण में सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए धर्म तथा दर्शन की सहायता ली गई। परन्तु 13वीं शताब्दी में समस्याओं को तार्किक ढंग से समझने का प्रयास किया गया। थॉमस एकन्युस (Thomes Acquines) तथा दांते (Dante) ने सामाजिक घटनाओं को समझने के लिए कार्य कारण के सम्बन्ध को स्पष्ट किया। इस प्रकार समाजशास्त्र की रूपरेखा बनने लंग गई।
3. तृतीय अवस्था (Third Stage) समाजशास्त्र के विकास के तृतीय चरण को शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई। इस समय में कई ऐसे महान् विचारक हुए जिन्होंने सामाजिक घटनाओं के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया। हाब्स (Hobbes), लॉक (Locke) तथा रूसो (Rouseau) ने सामाजिक समझौते का सिद्धान्त दिया। थॉमस मूर (Thomes Moore) ने अपनी पुस्तक यूटोपिया (Utopia), मान्टेस्क्यू (Montesque) ने अपनी पुस्तक The Spirit of Laws, माल्थस (Malthus) ने अपनी पुस्तक जनसंख्या के सिद्धान्त’ की सहायता स्ने सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करके समाजशास्त्र के विकास में अपना योगदान दिया।
4. चतुर्थ चरण (Fourth Stage)-महान् फ्रांसीसी विचारक अगस्ते काम्ते (Auguste) ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में समाज के विज्ञान को सामाजिक भौतिकी (Social Physics) का नाम दिया। 1838 में उन्होंने इसका नाम बदल कर समाजशास्त्र (Sociology) रख दिया। उन्हें समाजशास्त्र का पितामह (Father of Sociology) भी कहा जाता है।
1843 में जे० एस० मिल (J.S. Mill) ने इग्लैंड में समाजशास्त्र को शुरू किया। हरबर्ट स्पैंसर ने अपनी पुस्तक Principles of Sociology तथा Theory of Organism से समाज का वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण किया। सबसे पहले अमेरिका की Yalo University में 1876 ई० में समाजशास्त्र का अध्ययन स्वतन्त्र विषय के रूप में हुआ। दुर्थीम ने अपनी पुस्तकों की सहायता से समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में विकसित करने लिए लिए योगदान दिया। मैक्स वैबर तथा अन्य समाजशात्रियों ने भी बहुत से समाजशास्त्रीय सिद्धान्त दिए। वर्तमान समय में संसार के लगभग सभी देशों में यह विषय स्वतन्त्र रूप में नया ज्ञान एकत्र करने का प्रयास कर रहा है।
भारत में समाजशास्त्र का विकास (Development of Sociology in India) भारत में समाजशास्त्र के विकास को निम्नलिखित कई भागों में बांटा जा सकता है-
1. प्राचीन भारत में समाजशास्त्र का विकास (Development of Sociology in Ancient India)भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति प्राचीन काल से ही शुरू हो गई थी। महर्षि वेदव्यास ने चार वेदों का संकल्प किया तथा महाभारत जैसे काव्य की रचना की। रामायण की रचना की गई। इनके अतिरिक्त उपनिषदों, पुराणों तथा स्मृतियों में प्राचीन भारतीय दर्शन की विस्तार से व्याख्या की गई है। इन सभी से पता चलता है कि प्राचीन भारत में विचारधारा उच्च स्तर की थी। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि प्राचीन भारत की समस्याओं, आवश्यकताओं, घटनाओं, तथ्यों, मूल्यों, आदर्शों, विश्वासों इत्यादि का गहरा अध्ययन किया गया है। वर्तमान समय में भारतीय समाज में मिलने वाली कई संस्थाओं की शुरुआत प्राचीन समय में ही हुई थी। इनमें वर्ण, आश्रम, पुरुषार्थ, धर्म, संस्कार, संयुक्त परिवार इत्यादि प्रमुख हैं।
चाणक्य का अर्थशास्त्र, मनुस्मृति तथा शुक्राचार्य का नीति शास्त्र जैसे ग्रन्थ प्राचीन काल की परम्पराओं, प्रथाओं, मूल्यों, आदर्शों, कानूनों इत्यादि पर काफ़ी रोशनी डालते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल से ही भारत में समाजशास्त्र का प्रारम्भ हो गया था।
मध्यकाल में आकर भारत में मुसलमानों तथा मुग़लों का राज्य रहा। उस समय की रचनाओं से भारत की उस समय की विचारधारा, संस्थाओं, सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है।
2. समाजशास्त्र का औपचारिक स्थापना युग (Formal Establishment Era Sociology)-1914 से 1947 तक का समय भारत में समाजशास्त्र की स्थापना का काल माना जाता है। भारत में सबसे पहले बंबई विश्वविद्यालय में 1914 में स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू हुआ। 1919 से अंग्रेज़ समाजशास्त्री पैट्रिक गिड़डस (Patric Geddes) ने यहां एम० ए० (M.A.) स्तर पर समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू किया। जी० एस० घूर्ये (G. S. Ghurya) उनके ही विद्यार्थी थे। प्रो० वृजेन्द्रनाथ शील के प्रयासों से 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने का कार्य शुरू हुआ। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ० राधा कमल मुखर्जी तथा डॉ० डी० एन० मजूमदार उनके ही विद्यार्थी थे। चाहे 1947 तक भारत में समाजशास्त्र के विकास की गति कम थी परन्तु उस समय तक देश के बहुत से विश्वविद्यालियों में इसे पढ़ाने का कार्य शुरू हो गया था।
3. समाजशास्त्र का प्रसार युग (Expension Era of Sociology)-1947 में स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के बहुत से विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र को स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। वर्तमान समय में देश के लगभग सभी कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में इस विषय को पढ़ाया जा रहा है। विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त कई संस्थाओं में शोधकार्य चल रहे हैं।
Tata Institute of Social Science, Mumbai, Institute of Social Science, Agra, Institute of Sociology and Social work Lacknow I.I.T. Kanpur and I.I.T. Delhi इत्यादि देश के कुछेक प्रमुख संस्थान हैं जहां समाजशास्त्रीय शोध के कार्य चल रहे हैं। इनसे समाजशास्त्रीय विधियों तथा इसके ज्ञान में लगातार बढ़ौतरी हो रही है।
प्रश्न 2.
फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र के विकास की विस्तार से चर्चा करें।
उत्तर-
सामाजिक विचार उतना ही प्राचीन है जितना समाज स्वयं है, चाहे सामाजशास्त्र का जन्म 19वीं शताब्दी के पश्चिमी यूरोप में देखा जाता है। कई बार समाजशास्त्र को ‘क्रान्ति युग का बालक’ भी कहा जाता है। वह क्रान्तिकारी परिवर्तन जो पिछली तीन सदियों में आए हैं, उन्होंने आज के समय में लोगों के जीवन जीने के तरीके सामने लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परिवर्तनों में ही समाजशास्त्र का उद्भव ढूंढ़ा जा सकता है। समाजशास्त्र ने सामाजिक उथल-पुथल (Social Upheavel) के समय में जन्म लिया था। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने जो विचार दिए, उनकी जड़ों में उस समय के यूरोप के सामाजिक हालातों में मौजूद थी।
यूरोप में आधुनिक युग तथा आधुनिकता को अवस्था ने तीन प्रमुख अवस्थाओं को सामने लाया तथा वह
थे प्रकाश युग (The Elightenment Period), फ्रांसीसी क्रान्ति (The French Revolution) तथा औद्योगिक क्रान्ति (The Industrial Revolution)। समाजशास्त्र का जन्म इन तीन अवस्थाओं अथवा प्रक्रियाओं की तरफ से लाए गए परिवर्तनों के कारण हुआ।
फ्रांसीसी क्रान्ति तथा समाजशास्त्र का उद्भव (The French Revolution and Emergence of Sociology) —फ्रांसीसी क्रान्ति 1789 ई० में हुई तथा यह स्वतन्त्रता व समानता प्राप्त करने के मानवीय संघर्ष में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड़ (Turning point) साबित हुई। इससे यूरोप के समाज की राजनीतिक संरचना को बदल कर रख दिया। इसने जागीरदारी युग को खत्म कर दिया तथा समाज में एक नई व्यवस्था स्थापित की। इसने जागीरदारी व्यवस्था के स्थान पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को स्थापित किया।
फ्रांसीसी क्रान्ति से पहले फ्रांसीसी समाज तीन भागों में विभाजित था। प्रथम वर्ग पादरी वर्ग (Clergy) था। दूसरा वर्ग कुलीन (Nobility) वर्ग था तथा तीसरा वर्ग साधारण जनता का वर्ग था। प्रथम दो वर्गों की कुल संख्या फ्रांस की जनसंख्या का 2% थी, परन्तु उनके पास असीमित अधिकार थे। वह सरकार को कोई टैक्स नहीं देते थे। परन्तु तीसरा वर्ग को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे तथा उन्हें सभी टैक्सों का भार सहना पड़ता था। इन तीनों वर्गों की व्याख्या निम्नलिखित है-
1. प्रथम वर्ग-पादरी वर्ग (The First Order-Clergy)-यूरोप के सामाजिक जीवन में रोमन कैथोलिक चर्च सबसे प्रभावशाली तथा ताकतवर संस्था थी। अलग-अलग देशों में बहुत-सी भूमि चर्च के नियन्त्रण में थी। इसके अतिरिक्त चर्च को भूमि उत्पादन का 10% हिस्सा (Tithe) भी मिलता था। चर्च का ध्यान पादरी (Clergy) रखते थे तथा यह समाज का प्रथम वर्ग था। पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था तथा वह थे उच्च पादरी वर्ग तथा निम्न पादरी वर्ग (Upper Clergy and Lower Clergy)। उच्च पादरी वर्ग के पादरी कुलीन परिवारों से सम्बन्धित थे तथा चर्च की सम्पत्ति पर वास्तव में इनका अधिकार होता था। टीथे (Tithe) टैक्स का अधिकतर हिस्सा इनकी जेबों में जाता था। उनके पास विशेष अधिकार थे तथा वह सरकार को कोई टैक्स नहीं देते थे। वह काफ़ी अमीर थे तथा ऐश से भरपूर जीवन जीते थे। निम्न वर्ग में पादरी साधारण लोगों के परिवारों से सम्बन्धित थे। वह पूर्ण ज़िम्मेदारी से अपना कार्य करते थे। वह लोगों को धार्मिक शिक्षा देते थे। वह जन्म, विवाह, बपतिस्मा, मृत्यु इत्यादि से सम्बन्धित संस्कार पूर्ण करते थे तथा चर्च के स्कूलों को भी सम्भालते थे।
2. द्वितीय वर्ग-कुलीन वर्ग (Second Order-Nobility)-फ्रैंच समाज का द्वितीय वर्ग कुलीन वर्ग से सम्बन्धित था। वह फ्रांस की 2.5 करोड़ की जनसंख्या का केवल 4 लाख थे अर्थात् कुल जनसंख्या के 2% हिस्से से भी कम थे। शुरू से ही यह तलवार का प्रयोग करते थे तथा साधारण जनता की सुरक्षा के लिए लड़ते थे। इसलिए उन्हें तलवार का कुलीन (Nobles of Sword) भी कहा जाता था। यह भी दो भागों में विभाजित थे-पुराने कुलीन तथा नए कुलीन। पुराने कुलीन देश की कुल भूमि के 1/5 हिस्से के मालिक थे। कुलीन की स्थिति पैतृक थी क्योंकि उन्हें वास्तविक तथा पवित्र कुलीन कहा जाता था। यह सभी जागीरदारी होते थे। कुछ समय के लिए इन्होंने प्रशासक, जजों तथा फौजी नेताओं का भी कार्य किया। यह ऐश भरा जीवन जीते थे। इन्हें कई प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। नए कुलीन वह कुलीन थे जिन्हें राजा ने पैसे लेकर कुलीन का दर्जा दिया था। इस वर्ग ने 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ समय के बाद इसकी स्थिति भी पैतृक हो गई।
3. तृतीय वर्ग-साधारण जनता (Thrid Order-Commoners)-कुल जनसंख्या के केवल 2% प्रथम दो वर्गों से सम्बन्धित थे तथा 98% जनता तृतीय वर्ग से सम्बन्धित थी। यह वर्ग अधिकार रहित वर्ग था जिसमें अमीर उद्योगपति तथा निर्धन भिखारी भी शामिल थे। किसान, मध्यवर्ग, मज़दूर, कारीगर तथा अन्य निर्धन वर्ग इस समूह में शामिल थे। इन लोगों को किसी भी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। इस कारण इस समूह ने पूर्ण दिल से 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति में भाग लिया। उद्योगपति, व्यापारी, शाहूकार, डॉक्टर, वकील, विचारक, अध्यापक, पत्रकार इत्यादि मध्य वर्ग में शामिल थे। मध्य वर्ग ने फ्रांसीसी क्रान्ति की अगुवाई की। मजदूरों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें तो न केवल कम तनखाह मिलती थी बल्कि उन्हें बेगार (Forced Labour) भी करनी पड़ती थी। इन लोगों ने निर्धनता के कारण ढंगों में भाग लिया। यह लोग क्रान्ति के दौरान भीड़ में शामिल हो गए।
क्रान्ति की शुरुआत (Outbreak of Revolution)-लुई XVI फ्रांस का राजा बना तथा फ्रांस में वित्तीय संकट आया हुआ था। इस कारण उसे देश का रोज़ाना कार्य चलाने के लिए पैसे की आवश्यकता थी। वह लोगों पर नए टैक्स लगाना चाहता था। इस कारण उसे ऐस्टेट जनरल (Estate General) की मीटिंग बुलानी पड़ी जोकि एक बहुत पुरानी संस्था थी। पिछले 150 वर्षों में इसकी मीटिंग नहीं हुई थी। 5 मई, 1789 को ऐस्टेट जनरल की मीटिंग हुई तथा तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों ने मांग की कि सम्पूर्ण ऐस्टेट की इकट्ठी मीटिंग हो तथा वह एक सदन की तरह वोट करें। 20 जून, 1789 को देश की मीटिंग हाल पर सरकारी गार्डों ने कब्जा कर लिया। परन्तु तृतीय वर्ग मीटिंग के लिए बेताब था। इसलिए वह टैनिस कोर्ट में ही नया संविधान बनाने में लग गए। यह फ्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत थी।
फ्रांसीसी क्रान्ति की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना 14 जुलाई, 1789 को हुई। जब पैरिस की भीड़ ने बास्तील जेल पर धावा बोल दिया। उन्होंने सभी कैदियों को स्वतन्त्र करवा लिया। फ्रांस में इस दिन को स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। अब लुई XVI केवल नाम का ही राजा था। नैशनल असेंबली को बनाया गया ताकि फ्रांसीसी संविधान बनाया जा सके। इसने नए कानून बनाने शुरू किए। इसने मशहूर (Declaration of the right of man and citizen) बनाया। इस घोषणापत्र से कुछ महत्त्वपूर्ण घोषणाएं की गई जिसमें कानून के सामने समानता, बोलने की स्वतन्त्रता, प्रेस की स्वतन्त्रता तथा सभी नागरिकों की सरकारी दफ्तरों में पात्रता की घोषणा शामिल थी।
1791 में फ्रांस के राजा ने भागने का प्रयास किया परन्तु उसे पकड़ लिया गया तथा वापस लाया गया। उसे जेल में फेंक दिया गया तथा 21 जनवरी, 1793 को उसे जनता के सामने मार दिया गया। इसके साथ ही फ्रांस को गणराज्य (Republic) घोषित कर दिया गया। परन्तु इसके बाद आतंक का दौर शुरू हुआ तथा जिन कुलीनों, पादरियों तथा क्रान्तिकारियों ने सरकार का विरोध किया, उन्हें मार दिया गया। यह आतंक का दौर लगभग तीन वर्ष तक चला।
1795 में फ्रांस में Directorate की स्थापना हुई। Directorate 4 वर्ष तक चली तथा 1799 में नेपोलियन ने इसे हटा दिया। उसने स्वयं को पहले Director तथा बाद में राजा घोषित कर दिया। इस प्रकार नेपोलियन द्वारा Directorate को हटाने के बाद फ्रांसीसी क्रान्ति खत्म हो गई।
फ्रांसीसी क्रान्ति के प्रभाव (Effects of French Revolution)-फ्रांसीसी क्रान्ति के फ्रांस तथा सम्पूर्ण संसार पर कुछ प्रभाव पड़े जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
1. फ्रांसीसी क्रान्ति का प्रमुख प्रभाव यह था कि इससे पुरानी आर्थिक व्यवस्था अर्थात् जागीरदारी व्यवस्था खत्म हो गई तथा नई आर्थिक व्यवस्था सामने आई। यह नई आर्थिक व्यवस्था पूंजीवाद थी।
2. ऊपर वाले वर्गों अर्थात् पादरी वर्ग तथा कुलीन वर्ग के विशेषाधिकार खत्म कर दिए गए तथा सरकार की तरफ से वापस ले लिए गए। चर्च की सम्पूर्ण सम्पत्ति सरकार ने कब्जे में ले ली। सभी पुराने कानून खत्म कर दिए गए तथा नैशनल असेंबली ने सभी कानून बनाए।
3. सभी नागरिकों को स्वतन्त्रता तथा समानता का अधिकार दिया गया। शब्द ‘Nation’ को नया तथा आधुनिक अर्थ दिया गया अर्थात् फ्रांस केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है बल्कि फ्रांसीसी जनता है। यहां सम्प्रभुता (sovereignty) का संकल्प सामने आया अर्थात् देश के कानून तथा सत्ता सर्वोच्च है।।
4. फ्रांसीसी क्रान्ति का सम्पूर्ण संसार पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा। इसने अन्य देशों के क्रान्तिकारियों को अपनेअपने देशों के निरंकुश राजाओं के विरुद्ध कार्य करने के लिए उत्साहित किया। इससे प्राचीन व्यवस्था खत्म हो गई तथा लोकतन्त्र के आने का रास्ता साफ हुआ। इसने ही स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारा का नारा दिया। इस क्रान्ति के पश्चात् अलग-अलग देशों में कई क्रान्तियां हुईं तथा राजतन्त्र को लोकतन्त्र में परिवर्तित कर दिया गया।
फ्रांसीसी क्रान्ति ने मानवीय सभ्यता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने यूरोप के समाज तथा राजनीतिक व्यवस्था को पूर्णतया बदल दिया। प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था सामने आ गई। फ्रांस में कई क्रान्तिकारी परिवर्तन आए तथा बहुत से कुलीनों को मार दिया गया। इस प्रकार फ्रांसीसी समाज में उनकी भूमिका पूर्णतया खत्म हो गई। नैशनल असेंबली के समय कई नए कानून बनाए गए तथा जिससे समाज में बहुत से बुनियादी परिवर्तन आए। चर्च को राज्य की सत्ता के अन्तर्गत लाया गया तथा उसने राजनीतिक तथा प्रशासकीय कार्यों को दूर रखा गया। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ अधिकार दिए गए।
फ्रांसीसी क्रान्ति का अन्य देशों पर काफ़ी अधिक प्रभाव पड़ा। 19वीं शताब्दी के दौरान कई देशों में राजनीतिक क्रान्तियां हुईं। इन देशों की राजनीतिक व्यवस्था पूर्णतया बदल गई। समाजशास्त्र के उद्भव में यह महत्त्वपूर्ण कारण था। इन क्रान्तियों के साथ कई समाजों में अच्छे परिवर्तन आए तथा आरम्भिक समाजशास्त्रियों का यह मुख्य मुद्दा था। कई प्रारम्भिक समाजशास्त्री, जो यह सोचते थे कि क्रान्ति के केवल समाज पर केवल ग़लत प्रभाव होते हैं, अपने विचार परिवर्तित होने को बाध्य हुए। इन समाजशास्त्रियों में काम्ते तथा दुर्थीम प्रमुख हैं तथा इन्होंने इसके अच्छे प्रभावों पर अपने विचार दिए। इस प्रकार फ्रांसीसी क्रान्ति ने समाजशास्त्र के उद्भव (Origin) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 3.
संक्षेप में औद्योगिक क्रान्ति तथा समाजशास्त्र के उद्भव के सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर-
आधुनिक उद्योगों की स्थापना औद्योगिक क्रान्ति के कारण हुई जो इंग्लैंड में 18वीं शताब्दी के अंतिम हिस्से तथा 19वीं शताब्दी के प्रथम हिस्से में शुरू हुई। इसने सबसे पहले ब्रिटेन तथा बाद में यूरोप तथा अन्य देशों के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में बहुत से परिवर्तन लाए। इसके दो महत्त्वपूर्ण पक्ष थे-
1. औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में विज्ञान तथा तकनीक का व्यवस्थित प्रयोग विशेषतया नई मशीनों के आविष्कार के क्षेत्र में। इसने उत्पादन व्यवस्था को प्रोत्साहित किया तथा इसने फैक्टरी व्यवस्था तथा वस्तुओं के अधिक उत्पादन पर बल दिया।
2. पुराने समय से हट कर व्यवस्थित मज़दूरी तथा बाज़ार को ढूंढ़ना। चीज़ों का काफ़ी अधिक उत्पादन करना ताकि सम्पूर्ण विश्व के अलग-अलग बाजारों में भेजा जा सके। इन वस्तुओं के उत्पादन में प्रयोग होने वाला कच्चा माल भी अलग-अलग देशों से ही प्राप्त किया गया।
औद्योगिकरण से उन समाजों में उथल-पुथल मच गई जो सदियों से स्थिर थे। नए उद्योगों तथा तकनीक ने सामाजिक तथा प्राकृतिक वातावरण को बदल दिया। किसान ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर शहरों की तरफ जाने लग गए। इन समझौतों पर आधारित शहरों में बहुत सी सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होनी शुरू हो गईं। परिवर्तन की दिशा का पता नहीं था तथा सामाजिक व्यवस्था के ऊपर बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया।
प्रथम औद्योगिक क्रान्ति 18वीं शताब्दी के दूसरे उत्तरार्द्ध में शुरू हुई परन्तु यह 1850 ई० तक द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति में मिल गई। इस समय तकनीकी तथा आर्थिक प्रगति काफ़ी तेज़ हो गई क्योंकि इस समय भाप से चलने वाली मशीनों तथा बाद में बिजली पर आधारित मशीनें सामने आ गयीं। इतिहासकार यह मानते हैं कि औद्योगिक क्रान्ति मानवीय इतिहास में होने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी।
औद्योगिक क्रान्ति का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। ग्रामीण लोगों ने शहरों की तरफ जाना शुरू कर दिया जहां उन्हें गंदे हालातों में रहना पड़ा। बढ़ी जनसंख्या, बढ़ती मांगें, बढ़ते उत्पादन से नए बाज़ारों की मांग सामने आयी। इस से बड़ी शक्तियों में एशिया तथा अफ्रीका के देशों में क्षेत्र जीतने की होड़ शुरू हुई। पूर्ण संसार की व्यवस्था बदल गई। सम्पूर्ण संसार में अव्यवस्था फैल गई। 1800-1850 ई० के दौरान अलग-अलग वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए हड़तालें करनी शुरू कर दी।
औद्योगिक क्रान्ति के महत्त्वपूर्ण विषय जिनसे प्रारम्भिक समाजशास्त्री सम्बन्धित थे वह थे मज़दूरों के हालात, जायदाद का परिवर्तन, औद्योगिक नगर, तकनीक तथा फैक्टरी व्यवस्था। इस पृष्ठभूमि में कुछ विचारक अपने समाज को नया बनाना चाहते थे। जो इन समस्याओं से सम्बन्धित थे वह प्रारम्भिक समाजशास्त्री थे क्योंकि वह इन समस्याओं का व्यवस्थित ढंग से अध्ययन करना चाहते थे। इन विचारकों में अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, इमाईल दुर्थीम, कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर प्रमुख थे। यह सभी विचारक अलग-अलग विषयों से आए थे।
अगस्ते काम्ते (1798-1857) को समाजशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है। उनके अनुसार जो विधियां भौतिक विज्ञान (Phycis) में प्रयोग की जाती हैं, वह ही समाज के अध्ययन में प्रयोग की जानी चाहिए। इस अध्ययन से उद्विकास (Evolution) के नियम विकसित होंगे तथा समाज के कार्य करने के ढंग सामने आएंगे। जब इस प्रकार का ज्ञान उपलब्ध हो गया तो हम नए समाज की स्थापना कर पाएंगे। इस प्रकार काम्ते ने सामाजिक उद्विकास का सिद्धान्त दिया जिसे हरबर्ट स्पैंसर ने आगे बढ़ाया। स्पैंसर के उद्विकास के विचारों को सामाजिक डार्विनवाद (Social Darwinism) का नाम भी दिया जाता है।
समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र विषय तथा विज्ञान के रूप में स्थापित करने का श्रेय इमाईल दुर्थीम (18581917) को जाता है जो एक फ्रांसीसी समाजशास्त्री थे। दुर्थीम का कहना था कि समाजशास्त्री को सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करना चाहिए जो निष्पक्ष होते हैं। सामाजिक तथ्य व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं परन्तु वह व्यक्तिगत व्यवहार पर दबाव डालने की शक्ति रखते हैं। इस प्रकार सामाजिक तथ्य व्यक्तिगत नहीं होते।
जर्मन समाजशास्त्रियों में कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वैबर प्रमुख हैं। मार्क्स (1818-1883) के विचार समाजशास्त्र में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके अनुसार समाज में हमेशा से ही दो वर्ग रहे हैं जिनके पास है अथवा जिनके पास नहीं है (Have and Have-nots)। उनके अनुसार संघर्ष से ही समाज में परिवर्तन आता है। इस कारण उन्होंने वर्ग तथा वर्ग संघर्ष को सम्बन्ध महत्त्व दिया है। इस प्रकार मैक्स वैबर (1804-1920) की पुस्तकें भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार समाजशास्त्री को सामाजिक कार्य (Social Action) के सम्बन्ध समाज का अध्ययन करना चाहिए।
इस प्रकार समाजशास्त्र के विकास में फ्रांस (काम्ते, दीम), जर्मनी (मार्क्स, वैबर) तथा ब्रिटेन (स्पैंसर) ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन देशों के समाजों में बहुत-से सामाजिक परिवर्तन आए जिस कारण इन समाजों में 19वीं शताब्दी में समाजशास्त्री का उद्भव तथा विकास हुआ।
प्रश्न 4.
भारत में समाजशास्त्र के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत एक ऐसा देश है जहां अलग-अलग संस्कृतियों, जातियों, धर्मों इत्यादि के लोग इकट्ठे मिलकर रहते हैं। भारत पर अनेकों आक्रमणकारियों ने अलग-अलग कारणों के कारण हमले किए जिस वजह से हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था लम्बे समय से विघटित रही है। अंग्रेजों ने भारत पर लगभग 200 वर्ष तक राज किया परन्तु उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण भारत में सामाजिक विघटन रोकने के कोई प्रयास नहीं किए। इन हालातों के कारण हमारे देश में कई प्रकार की सामाजिक समस्याएं पैदा हो गईं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए सामाजिक हालातों का पूर्ण ज्ञान ज़रूरी है तथा यह समाजशास्त्र ही दे सकता है।
भारत में देश की आज़ादी के पश्चात् कई प्रकार की सामाजिक संस्थाएं शुरू हुईं जिससे यह स्पष्ट हुआ कि हमारे देश की सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए, समाज के लिए योजनाएं बनाने तथा पूर्ण समाज की संरचना को संगठित रखने के लिए समाजशास्त्र महत्त्वपूर्ण ही नहीं बल्कि ज़रूरी भी है। भारत में समाजशास्त्र का महत्त्व इस प्रकार है-
1. सामाजिक समस्याओं के हल में सहायक (Helpful in solving social problems)-हमारे समाज में अनेक प्रकार की समस्याएं प्रचलित हैं जैसे निर्धनता, भ्रष्टाचार, जातिवाद, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, अधिक जनसंख्या इत्यादि। इन समस्याओं का मुख्य कारण सामाजिक हालात ही है। सामाजिक हालातों में परिवर्तन करके ही लोगों के विचारों को परिवर्तित किया जा सकता है जोकि समस्या के हल के लिए ज़रूरी है। समाजशास्त्र इन सामाजिक हालातों के कारकों के बारे में बताता है जिससे इन समस्याओं को समझना आसान हो गया है। इससे इन समस्याओं का हल ढूंढ़ने में आसानी हुई है।
2. ग्रामीण क्षेत्रों के निर्माण में मददगार (Helpful in rural reconstruction)-भारतीय समाज एक ग्रामीण समाज है जहां की ज्यादातर जनसंख्या गांवों में रहती है। हमारे समाज का विकास गांवों के विकास पर निर्भर करता है। हमारे गांवों में अनेक प्रकार की समस्याएं हैं जो न सिर्फ अलग-अलग प्रकृति की हैं बल्कि अपने आप में जटिल भी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जातिवाद, बाल विवाह, जाति प्रथा, वहम इत्यादि समस्याएं प्रचलित हैं। इन समस्याओं का मुख्य कारण सामाजिक परिस्थितियां ही हैं। समाजशास्त्र की मदद से इन समस्याओं से सम्बन्धित ज्ञान इकट्ठा किया जा सकता है तथा बदले हुए हालातों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति को सुधारा जा सकता है।
3. शहरों के नियोजन में मददगार (Helpful in Urban Planning)-शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण ने हमारे समाज में कई प्रकार के परिवर्तन पैदा कर दिए हैं। हज़ारों नए व्यवसाय उत्पन्न हो गए हैं जिस वजह से गांवों की जनसंख्या शहरों में बस रही है। बहुत-से शहरों में जनसंख्या काफ़ी ज्यादा हो गई है जिस वजह से गन्दी बस्तियां बढ़ रही हैं। गन्दी बस्तियों से बहुत-सी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं जैसे अपराध, गरीबी, नशा करना इत्यादि। समाजशास्त्र इन सब के सम्बन्ध में ज्ञान इकट्ठा करता है तथा इन समस्याओं के समाधान के बारे में बताता है। इसके अलावा शहरों में भौतिकता में तो परिवर्तन आ रहे हैं परन्तु लोगों के विचारों में परिवर्तन नहीं आ रहे हैं जिससे कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। समाजशास्त्र उन बदले हुए हालातों के बारे में बताता है जिससे शहरों के लिए योजनाएं बनाना काफ़ी आसान हो गया है।
4. जनजातीय कल्याण में सहायक (Helpful in Tribal Welfare)-हमारे देश में नौ करोड़ के लगभग आदिवासी रहते हैं। समाजशास्त्र से हमें इनके बारे में सामाजिक तथा सांस्कृतिक ज्ञान प्राप्त होता है। अगर यह ज्ञान न हो तो इन समाजों को समझाना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह लोग हमारी संस्कृति से दूर जंगलों, पहाड़ों में रहते हैं। समाजशास्त्र हमें इनके सामाजिक हालातों के बारे में बताता है जिसके आधार पर इनके कल्याण से सम्बन्धित नीतियां बनाई जाती हैं।
5. श्रमिकों के कल्याण में सहायक (Helpful in labour welfare)-हमारे समाजों का स्वरूप धीरेधीरे औद्योगिक हो रहा है जहां उत्पादन तथा श्रमिकों के सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। इन के बीच के सम्बन्धों में तनाव आने से हमारे समाज का आर्थिक विकास ही नहीं बल्कि सामाजिक सम्बन्ध तथा विकास भी प्रभावित होता है। चाहे स्वतन्त्रता के बाद श्रमिकों के कल्याण के लिए कई प्रकार के कानून बनाए गए हैं परन्तु इन का लाभ तभी प्राप्त होगा अगर इनको मानवीय दृष्टिकोण से विकसित किया जाए। यह दृष्टिकोण हमें समाजशास्त्र के ज्ञान से ही प्राप्त होता है।
6. राजनीतिक समस्याओं में मददगार (Helpful in political problems)-हमारे देश में बहुत सारे राजनीतिक दल हैं जिस वजह से राजनीतिक समस्याएं दिन प्रतिदिन बढ़ रही हैं। दल लोगों में झगड़े करवाते हैं। समाजशास्त्र के ज्ञान की मदद से अलग-अलग समुदायों की राजनीतिक, साम्प्रदायिक समस्याओं को कम किया जा सकता है तथा उनका हल निकाला जा सकता है। . इस तरह इस विवरण से यह स्पष्ट है कि हमारे देश के विकास के लिए योजनाएं बनाने में तथा हमारे समाज में फैली समस्याओं को खत्म करने में समाजशास्त्र का ज्ञान काफ़ी महत्त्व रखता है। अगर यह ज्ञान सारी जनसंख्या तक फैला दिया जाए तो हमारा समाज भी प्रगति करेगा तथा इसमें मिलने वाली समस्याएं भी धीरे-धीरे कम हो जाएंगी।
समाजशास्त्र का उद्भव PSEB 11th Class Sociology Notes
- समाजशास्त्र का उद्भव एक नई घटना है तथा इसके बारे में निश्चित समय नहीं बताया जा सकता कि यह कब विकसित हुआ। प्राचीन समय में बहुत से विद्वानों जैसे कि हैरोडोटस, प्लेटो, अरस्तु इत्यादि ने काफ़ी कुछ लिखा जो कि आज के समाज से काफ़ी मिलता-जुलता है।
- एक विषय के रूप में समाजशास्त्र का उद्भव 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद शुरू हुआ जब समाज में बहुत-से परिर्वतन आए। बहुत से विद्वानों जैसे कि अगस्ते काम्ते, हरबर्ट स्पैंसर, इमाईल दुर्थीम तथा मैक्स वैबर ने सामाजिक व्यवस्था, संघर्ष, स्थायीपन तथा परिवर्तन के अध्ययन पर बल दिया जिस कारण समाजशास्त्र विकसित हुआ।
- तीन मुख्य प्रक्रियाओं ने समाजशास्त्र को एक स्वतन्त्र विषय के रूप में स्थापित करने में सहायता की तथा वह थी (i) फ्रांसीसी क्रान्ति तथा नवजागरण का आंदोलन (ii) प्राकृतिक विज्ञानों का विकास तथा (iii) औद्योगिक क्रान्ति तथा नगरीकरण।
- 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति में बहुत से विद्वानों ने योगदान दिया। उन्होंने चर्च की सत्ता को चुनौती दी तथा लोगों को बिना सोचे-समझे चर्च की शिक्षाओं को न मानने के लिए कहा। लोग इस प्रकार अपनी समस्याओं को तर्कपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए उत्साहित हुए।
- 16वीं से 17वीं शताब्दी के बीच प्राकृतिक विज्ञानों ने काफ़ी प्रगति की। इस प्रगति ने सामाजिक विचारकों को भी प्रेरित किया कि वह भी सामाजिक क्षेत्र में नए आविष्कार करें। यह विश्वास सामने आया कि जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञानों की सहायता से जैविक संसार को समझने में सहायता मिली, क्या उस ढंग को सामाजिक घटनाओं पर भी प्रयोग किया जा सकता है ? काम्ते, स्पैंसर, दुर्थीम जैसे समाजशास्त्रियों ने उस ढंग से सामाजिक घटनाओं को समझने का प्रयास किया तथा वे सफल भी हुए।
- 18वीं शताब्दी में यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति शुरू हुई जिससे उद्योग तथा नगर बढ़ गए। नगरों में कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो गईं तथा उन्हें समझने तथा दूर करने के लिए किसी विज्ञान की आवश्यकता महसूस की गई। इस प्रश्न का उत्तर समाजशास्त्र के रूप में सामने आया।
- अगस्ते काम्ते ने 1839 ई० में सबसे पहले समाजशास्त्र शब्द का प्रयोग किया तथा उन्हें समाजशास्त्र का पितामह कहा जाता है। समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ है समाज का विज्ञान।
- कई विद्वान् समाजशास्त्र को एक विज्ञान का दर्जा देते हैं क्योंकि उनके अनुसार समाजशास्त्र वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है, यह निष्कर्ष निकालने में सहायता करता है, इसके नियम सर्वव्यापक होते हैं तथा यह भविष्यवाणी कर सकता है।
- कुछेक विद्वान् समाजशास्त्र को विज्ञान नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार समाजशास्त्र में परीक्षण करने की कमी होती है, इसमें निष्पक्षता नहीं होती, इसमें शब्दावली की कमी होती है, इसमें आँकड़े एकत्र करने में मुश्किल होती है इत्यादि।
- समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं तथा वह हैं स्वरूपात्मक सम्प्रदाय (Formalistic School) तथा समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)।
- स्वरूपात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान है जो सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करता है जो कोई विज्ञान नहीं करता है। जार्ज सिमेल, टोनीज़, वीरकांत तथा वान वीजे इस सम्प्रदाय के समर्थन हैं।
- समन्वयात्मक सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक स्वतन्त्र विज्ञान नहीं है। बल्कि यह अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों का मिश्रण है जो अपनी विषय सामग्री अन्य सामाजिक विज्ञानों से उधार लेता है। दुर्थीम, हाबहाऊस, सोरोकिन इत्यादि इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक हैं।
- समाजशास्त्र का हमारे लिए काफ़ी महत्त्व है क्योंकि यह अलग-अलग प्रकार की संस्थाओं का अध्ययन करता है, यह समाज के विकास में सहायता करता है, यह सामाजिक समस्याओं को हल करने में सहायता करता है तथा यह आम जनता के कल्याण के कार्यक्रम बनाने में सहायता करता है।
- व्यक्तिवाद (Individualism)-वह भावना जिसमें व्यक्ति समाज के बारे में सोचने के स्थान पर केवल अपने बारे में सोचता है।
- पूँजीवाद (Capitalism)-आर्थिकता की वह व्यवस्था जो बाज़ार के लेन-देन पर आधारित है। पूँजी का अर्थ है कोई सम्पत्ति जिसमें पैसा, इमारतें, मशीनें इत्यादि शामिल हैं जो बिक्री के लिए उत्पादन में प्रयोग की जाती हैं अथवा बाज़ार में लाभ कमाने के उद्देश्य से ली या दी जा सकती हैं। यह व्यवस्था उत्पादन के साधनों तथा सम्पत्तियों के व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित है।
- मूल्य (Value)-व्यक्ति अथवा समूह द्वारा माना जाने वाला विचार कि क्या आवश्यक है, सही है, अच्छा है अथवा गलत है।
- समष्टि समाजशास्त्र (Macro Sociology)-बड़े समूहों, संगठनों तथा सामाजिक व्यवस्थाओं का अध्ययन।
- व्यष्टि समाजशास्त्र (Micro Sociology)-आमने-सामने की अन्तक्रियाओं के संदर्भ में मानवीय व्यवहार का अध्ययन।
- औद्योगीकरण (Industrialisation) सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन का वह समय जिसने मानवीय समूह को ग्रामीण समाज से औद्योगिक समाज में बदल दिया।
- नगरीकरण (Urbenisation)-वह प्रक्रिया जिसमें अधिक-से-अधिक लोग नगरों में जाकर रहने लग जाते हैं। इसमें नगरों में बढ़ौतरी होती है।